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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن

55. अर-रहमान

(मक्का में उतरी, आयतें 78)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।

उतरने का समय

विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्‍वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।

आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।

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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن
55. अर-रहमान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
ٱلرَّحۡمَٰنُ ۝ 1
रहमान ने॥1॥
عَلَّمَ ٱلۡقُرۡءَانَ ۝ 2
क़ुरआन सिखाया;॥2॥
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ ۝ 3
उसी ने मनुष्य को पैदा किया; ॥3॥
عَلَّمَهُ ٱلۡبَيَانَ ۝ 4
उसे बोलना सिखाया;॥4॥
ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ بِحُسۡبَانٖ ۝ 5
सूर्य और चन्द्रमा एक हिसाब के पाबन्द हैं;॥5॥
وَٱلنَّجۡمُ وَٱلشَّجَرُ يَسۡجُدَانِ ۝ 6
और तारे और वृक्ष सजदा करते हैं;॥6॥
وَٱلسَّمَآءَ رَفَعَهَا وَوَضَعَ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 7
उसने आकाश को ऊँचा किया और संतुलन स्थापित किया —॥7॥
أَلَّا تَطۡغَوۡاْ فِي ٱلۡمِيزَانِ ۝ 8
कि तुम भी तुला में सीमा का उल्लंघन न करो।॥8॥
وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 9
न्याय के साथ ठीक-ठीक तौलो और तौल में कमी न करो। — ॥9॥
وَٱلۡأَرۡضَ وَضَعَهَا لِلۡأَنَامِ ۝ 10
और धरती को उसने सृष्ट प्राणियों के लिए बनाया;॥10॥
فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَٱلنَّخۡلُ ذَاتُ ٱلۡأَكۡمَامِ ۝ 11
उसमें स्वादिष्ट फल हैं और खजूर के वृक्ष हैं, जिनके फल आवरणों में लिपटे हुए हैं, ॥11॥
وَٱلۡحَبُّ ذُو ٱلۡعَصۡفِ وَٱلرَّيۡحَانُ ۝ 12
और भुसवाले अनाज भी और सुगंधित बेल-बूटे भी।॥12॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 13
तो तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥13॥
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ كَٱلۡفَخَّارِ ۝ 14
उसने मनुष्य को ठीकरी जैसी खनखनाती हुए मिट्टी से पैदा किया;॥14॥
وَخَلَقَ ٱلۡجَآنَّ مِن مَّارِجٖ مِّن نَّارٖ ۝ 15
और जिन्‍न को उसने आग की लपट से पैदा किया।॥15॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 16
फिर तुम और अपने रब की सामर्थ्यों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥16॥
رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ وَرَبُّ ٱلۡمَغۡرِبَيۡنِ ۝ 17
वह दो पूर्व का रब है और दो पश्चिम का रब भी।1॥17॥ ——————— 1. अभिप्राय है उत्तरायण और दक्षिमायण में सूर्य के उदय एवं अस्त होने के स्थल।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 18
अत: तुम और तुम अपने रब की महानताओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥18॥
مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ يَلۡتَقِيَانِ ۝ 19
उसने दो समुद्रों को प्रवाहित कर दिया जो आपस में मिल रहे होते हैं। ॥19॥
بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٞ لَّا يَبۡغِيَانِ ۝ 20
उन दोनों के बीच एक परदा बाधक होता है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं करते।॥20॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 21
तो तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥21॥
يَخۡرُجُ مِنۡهُمَا ٱللُّؤۡلُؤُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 22
उन (समुद्रों) से मोती और मूँगा निकलता है। ॥22॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 23
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥23॥
وَلَهُ ٱلۡجَوَارِ ٱلۡمُنشَـَٔاتُ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 24
उसी के बस में है समुद्र में पहाड़ों की तरह उठे हुए जहाज़।॥24॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 25
तो तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओग? ॥25॥
كُلُّ مَنۡ عَلَيۡهَا فَانٖ ۝ 26
प्रत्येक जो भी इस (धरती) पर है, नाशवान है।॥26॥
وَيَبۡقَىٰ وَجۡهُ رَبِّكَ ذُو ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 27
किन्तु तुम्हारे रब का प्रतापवान और उदार स्वरूप शेष रहनेवाला है।॥27॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 28
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥28॥
يَسۡـَٔلُهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ كُلَّ يَوۡمٍ هُوَ فِي شَأۡنٖ ۝ 29
आकाशों और धरती में जो भी है उसी से माँगता है। उसकी नित्य नई शान है।॥29॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 30
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥30॥
سَنَفۡرُغُ لَكُمۡ أَيُّهَ ٱلثَّقَلَانِ ۝ 31
ऐ दोनों बोझो! शीघ्र ही हम तुम्हारे लिए निवृत हुए जाते हैं।॥31॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 32
तो तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥32॥
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ إِنِ ٱسۡتَطَعۡتُمۡ أَن تَنفُذُواْ مِنۡ أَقۡطَارِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ فَٱنفُذُواْۚ لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلۡطَٰنٖ ۝ 33
ऐ जिन्‍नों और मनुष्यों के गिरोह! यदि तुमसे हो सके कि आकाशों और धरती की सीमाओं को पार कर सको, तो पार कर जाओ; तुम कदापि पार नहीं कर सकते बिना अधिकार-शक्ति के।॥33॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 34
अतः तुम और तुम अपने रब की सामर्थ्यों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥34॥
يُرۡسَلُ عَلَيۡكُمَا شُوَاظٞ مِّن نَّارٖ وَنُحَاسٞ فَلَا تَنتَصِرَانِ ۝ 35
अतः तुम दोनों पर अग्नि-ज्वाला और धुएँवाला अंगारा (पिघला ताँबा) छोड़ दिया जाएगा, फिर तुम मुक़ाबला न कर सकोगे।॥35॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 36
अतः तुम और तुम अपने रब की सामर्थ्यों में से किस-किस को झुठलाओगे? ॥36॥
فَإِذَا ٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ وَرۡدَةٗ كَٱلدِّهَانِ ۝ 37
फिर जब आकाश फट जाएगा और लाल चमड़े की तरह लाल हो जाएगा। —॥37॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 38
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥38॥
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُسۡـَٔلُ عَن ذَنۢبِهِۦٓ إِنسٞ وَلَا جَآنّٞ ۝ 39
फिर उस दिन न किसी मनुष्य से उसके गुनाह के विषय में पूछा जाएगा न किसी जिन्‍न से।॥39॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 40
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥40॥
يُعۡرَفُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ بِسِيمَٰهُمۡ فَيُؤۡخَذُ بِٱلنَّوَٰصِي وَٱلۡأَقۡدَامِ ۝ 41
अपराधी अपने चहरों से पहचान लिए जाएँगे और उनके माथे के बालों और टाँगों द्वारा उन्‍हें पकड़ लिया जाएगा।॥41॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 42
अतः तुम और तुम अपने रब की सामर्थ्यों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥42॥
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي يُكَذِّبُ بِهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 43
यही वह जहन्‍नम है जिसे अपराधी लोग झूठ ठहराते रहे हैं।॥43॥
يَطُوفُونَ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَ حَمِيمٍ ءَانٖ ۝ 44
वे उसके और खौलते हुए पानी के बीच चक्‍कर लगा रहें होंगे।॥44॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 45
फिर तुम और तुम अपने रब के सामर्थ्यों में से किस-किस को झुठलाओगे? ॥45॥
وَلِمَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ جَنَّتَانِ ۝ 46
किन्तु जो अपने रब के सामने खड़े होने का डर रखता होगा उसके लिए दो बाग़ हैं। — ॥46॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 47
तो तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥47॥
ذَوَاتَآ أَفۡنَانٖ ۝ 48
घनी डालियोंवाले;॥48॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 49
अतः तुम और तुम अपने रब के उपकारों में से किस-किस को झुठलाओगे? ॥49॥
فِيهِمَا عَيۡنَانِ تَجۡرِيَانِ ۝ 50
उन दोनों (बाग़ो) में दो प्रवाहित स्रोत हैं।॥50॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 51
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे? ॥51॥
فِيهِمَا مِن كُلِّ فَٰكِهَةٖ زَوۡجَانِ ۝ 52
उन दोनों (बाग़ो) मे हर स्वादिष्ट फल की दो-दो किस्में हैं; ॥52॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 53
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥53॥
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ فُرُشِۭ بَطَآئِنُهَا مِنۡ إِسۡتَبۡرَقٖۚ وَجَنَى ٱلۡجَنَّتَيۡنِ دَانٖ ۝ 54
वे ऐसे बिछौनों पर तकिया लगाए हुए होंगे जिनके अस्तर गाढ़े रेशम के होंगे और दोनों बाग़ों के फल झुके हुए निकट ही होंगे।॥54॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 55
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥55॥
فِيهِنَّ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 56
उन (अनुकम्पाओं) में निगाह बचाए रखनेवाली (सुन्दर) स्त्रियाँ होंगी, जिन्हें उनसे पहले न किसी मनुष्य ने हाथ लगाया और न किसी जिन्‍न ने।॥56॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 57
फिर तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥57॥
كَأَنَّهُنَّ ٱلۡيَاقُوتُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 58
मानो वे लाल (याक़ूत) और प्रवाल (मूँगा) हैं।॥58॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 59
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥59॥
هَلۡ جَزَآءُ ٱلۡإِحۡسَٰنِ إِلَّا ٱلۡإِحۡسَٰنُ ۝ 60
अच्छाई का बदला अच्छाई के सिवा और क्या हो सकता है?॥60॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 61
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥61॥
وَمِن دُونِهِمَا جَنَّتَانِ ۝ 62
उन दोनों से हटकर दो और बाग़ हैं।॥62॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 63
फिर तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥63॥
مُدۡهَآمَّتَانِ ۝ 64
गहरे हरित; ॥64॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 65
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥65॥
فِيهِمَا عَيۡنَانِ نَضَّاخَتَانِ ۝ 66
उन दोनों (बाग़ो) में दो स्रोत हैं जोश मारते हुए।॥66॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 67
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥67॥
فِيهِمَا فَٰكِهَةٞ وَنَخۡلٞ وَرُمَّانٞ ۝ 68
उनमें हैं स्वादिष्ट फल और खजूर और अनार;॥68॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 69
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥69॥
فِيهِنَّ خَيۡرَٰتٌ حِسَانٞ ۝ 70
उनमें भली और सुन्दर स्त्रियाँ होंगी।॥70॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 71
तो तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥71॥
حُورٞ مَّقۡصُورَٰتٞ فِي ٱلۡخِيَامِ ۝ 72
हूरें (परम रूपवती स्त्रियाँ) ख़ेमों में रहनेवाली; ॥72॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 73
अतः तुम और तुम अपने रब के चमत्कारों में से किस-किस को झुठलाओगे?॥73॥
لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 74
जिन्हें उनसे पहले न किसी मनुष्य ने हाथ लगाया होगा और न किसी जिन्‍न ने।॥74॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 75
अतः फिर तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥75॥
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ رَفۡرَفٍ خُضۡرٖ وَعَبۡقَرِيٍّ حِسَانٖ ۝ 76
वे हरे रेशमी गद्दों और उत्कृष्ट और असाधारण क़ालीनों पर तकिया लगाए होंगे; ॥76॥
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 77
अतः तुम और तुम अपने रब की अनुकम्पाओं में से किस-किस को झुठलाओगे?॥77॥
تَبَٰرَكَ ٱسۡمُ رَبِّكَ ذِي ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 78
बड़ा ही बरकतवाला नाम है तुम्हारे प्रतापवान और उदार रब का।॥78॥