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سُورَةُ الفَلَقِ

मुअव्विज़तैन

113. अल-फ़लक़

114. अन-नास

परिचय

नाम

यद्यपि क़ुरआन मजीद की ये अन्तिम दोनों सूरतें अपने आप में अलग-अलग हैं और क़ुरआन में अलग नामों से लिखी हुई हैं, लेकिन उनके बीच आपस में इतना गहरा सम्बन्ध है और उनके विषय एक-दूसरे से इतनी गहरी अनुकूलता रखते हैं कि उनका एक (संयुक्त) नाम 'मुअव्विज़तैन' (पनाह माँगनेवाली दो सूरतें) रखा गया है। इमाम बैहक़ी ने 'दलाइले-नुबूवत' में लिखा है कि ये उतरी भी एक साथ ही हैं। इसी कारण दोनों का संयुक्त नाम 'मुअव्विजतैन' रख दिया गया है। हम यहाँ दोनों की भूमिका लिख रहे हैं, क्योंकि इनसे सम्बन्धित विषय और वार्ताएं बिलकुल समान हैं। अलबत्ता आगे इनका अनुवाद और व्याख्या अलग-अलग की जाएगी।

उतरने का समय

हज़रत हसन बसरी, इक्रिमा, अता और जाबिर-बिन-जैद (रह०) कहते हैं कि ये सूरतें मक्की हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) और [क़तादा (रह०) कहते हैं कि ये मदनी हैं लेकिन] इनका विषय साफ़ बता रहा है कि यह शुरू में मक्का में उस वक़्त उतरी होंगी जब वहाँ नबी (सल्ल०) का विरोध ख़ूब ज़ोर पकड़ चुका था।

विषय और वार्ता

मक्का में ये दोनों सूरतें जिन परिस्थितियों में उतरी थीं वे ये थीं कि इस्लाम की दावत शुरू होते ही ऐसा महसूस होने लगा था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने मानो भिड़ों के छत्ते में हाथ डाल दिया है। ज्यों-ज्यों आपकी दावत फैलती गई, क़ुरैश के इस्लाम विरोधियों का विरोध भी तेज़ होता गया। जब तक उन्हें यह उम्मीद रही कि शायद वे किसी तरह की सौदेबाज़ी करके, या बहला-फुसलाकर आपको इस काम से रोक देंगे, उस वक़्त तक तो फिर भी दुश्मनी की तेज़ी में कुछ कमी रही, लेकिन जब नबी (सल्ल०) ने उनको इस ओर से बिलकुल निराश कर दिया तो दुश्मनों की दुश्मनी अपनी हद को पहुँच गई, ख़ास तौर पर जिन ख़ानदानों के लोगों (मर्दों या औरतों, लड़कों या लड़कियों) ने इस्लाम अपना लिया था, उन ख़ानदानों के दिलों में तो नबी (सल्ल॰) के ख़िलाफ़ हर वक़्त ग़ुस्से की भट्ठियाँ सुलगती रहती थीं, घर-घर आपको कोसा जा रहा था, खुफ़िया मश्‍वरे किए जा रहे थे कि किसी वक़्त रात को छिपकर आपको क़त्ल कर दिया जाए। आपके ख़िलाफ़ जादू-टोने किए जा रहे थे, ताकि आपका या तो देहांत हो जाए या आप सख़्त बीमार पड़ जाएँ या मानसिक रोगी हो जाएँ। जिन्न और इंसान दोनों तरह के शैतान हर ओर फैल गए थे, ताकि आम लोगों के दिलों में आपके ख़िलाफ़ और आपके लाए हुए धर्म और क़ुरआन के ख़िलाफ़ कोई न कोई वस्वसा (भ्रम, सन्देह) डाल दें जिससे लोग बदगुमान होकर आपसे दूर भागने लगें। बहुत से लोगों के दिलों में द्वेष की आग भी जल रही थी, क्योंकि वे अपने सिवा या अपने क़बीले के किसी आदमी के सिवा दूसरे किसी आदमी का चिराग़ जलते न देख सकते थे। इन परिस्थितियों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को [अल्लाह की पनाह माँगने का निर्देश दिया गया है जो इन दोनों सूरतों में उल्लिखित है।] यह उसी तरह की बात है जैसी हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उस वक़्त कही थी जब फ़िरऔन ने भरे दरबार में उनके क़त्ल का इरादा ज़ाहिर किया था कि–

“मैंने अपने और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है हर उस घमंडी के मुक़ाबले में जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता।” (सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 27)

“और मैंने अपने और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है इस बात से कि तुम मुझ पर हमलावर हो।” (सूरा-44 अद-दुख़ान, आयत 20) दोनों मौक़ों पर अल्लाह के इन महान पैग़म्बरों का मुक़ाबला बड़ी बे-सरो-सामानी की हालत में बड़े सरो-सामान और साधनों के मालिक और ताक़त और शान रखनेवालों से था। दोनों मौक़ों पर वे ताक़तवर दुश्मनों के आगे अपनी सत्य की दावत पर डट गए। उन्होंने दुश्मनों की धमकियों और ख़तरनाक उपायों और दुश्मनी की चालों को यह कहकर नज़र-अंदाज़ कर दिया कि तुम्हारे मुक़ाबले में हमने सृष्टि के रब की पनाह ले ली है।

सूरा फ़ातिहा और इन सूरतों की अनुकूलता

आख़िरी चीज़ जो इन दो सूरतों के बारे में विचार करने की है वह क़ुरआन के आरंभ और अंत की अनुकूलता है। क़ुरआन का आरम्भ सूरा फ़ातिहा से होता है और अंत मुअव्विज़तैन (पनाह माँगनेवाली दो सूरतों) पर। अब ज़रा दोनों पर एक दृष्टि डालिए। आरम्भ में अल्लाह की जो अखिल जगत् का प्रभु है, अत्यंत करुणामय, दयावान और बदला दिए जाने के दिन का मालिक है, प्रशंसा और स्तुति करके बन्दा प्रार्थना करता है कि आप ही की मैं बन्दगी करता हूँ और आप ही से मदद चाहता हूँ, और सबसे बड़ी मदद मुझे जो चाहिए वह यह है कि मुझे सीधा रास्ता बताइए। उत्तर में अल्लाह की ओर से सीधा रास्ता दिखाने के लिए उसे पूरा क़ुरआन दिया जाता है और उसका अन्त इस बात पर किया जाता है कि बन्दा अल्लाह तआला से, जो सुबह का रब, लोगों का रब, लोगों का बादशाह और लोगों का उपास्य है, प्रार्थना करता है कि मैं हर मख़लूक़ (सृष्ट प्राणी) के हर फ़ितने और बुराई से बचे रहने के लिए आप ही की शरण लेता हूँ, और मुख्य रूप से शैतानों के वस्वसों (बुरे विचारों) से चाहे वे जिन्न हों या इनसान, आपकी शरण लेता हूँ, क्योंकि सीधे रास्ते की पैरवी में वही सबसे अधिक रुकावट बनते हैं। उस आरंभ के साथ यह अन्त जो अनुकूलता रखता है वह किसी दृष्टिवान से छिपी नहीं रह सकती।

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سُورَةُ الفَلَقِ
113. अल-फ़लक़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
قُلۡ أَعُوذُ بِرَبِّ ٱلۡفَلَقِ ۝ 1
कहो, "मैं शरण लेता हूँ प्रकट करनेवाले रब1 की,॥1॥ ——————— 1. अर्थात् उस रब की जो रात के परदे को फाड़कर सुबह को प्रकट करता है, गुठली से पौधा और दाने से अंकुर निकालता है, इत्यादि।
مِن شَرِّ مَا خَلَقَ ۝ 2
जो कुछ भी उसने पैदा किया उसकी बुराई से, ॥2॥
وَمِن شَرِّ غَاسِقٍ إِذَا وَقَبَ ۝ 3
और अँधेरे की बुराई से जबकि वह छा जाए,॥3॥
وَمِن شَرِّ ٱلنَّفَّٰثَٰتِ فِي ٱلۡعُقَدِ ۝ 4
और गाँठों में फूँक मारनेवालों (या फूँक मारनेवालियों) की बुराई से,॥4॥
وَمِن شَرِّ حَاسِدٍ إِذَا حَسَدَ ۝ 5
और ईर्ष्यालु की बुराई से, जब वह ईर्ष्या करे।" ॥5॥