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سُورَةُ الذَّارِيَاتِ

51. अज़-ज़ारियात

(मक्‍का में उतरी, आयतें 60)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वज़-ज़ारियात' (क़सम है उन हवाओं को जो धूल उड़ानेवाली हैं) से लिया गया है। आशय यह है कि वह सूरा जिसका आरम्भ 'अज़ ज़ारियात' शब्द से होता है।

उतरने का समय

विषय वस्तुओं और वर्णन-शैली से मालूम होता है कि यह सूरा [भी उसी] कालखंड में उतरी थी, जिसमें सूरा-50, ‘क़ाफ़’ उतरी है।

विषय और वार्ता

इसका बड़ा भाग आख़िरत (परलोक) के विषय पर है और अन्त में तौहीद (एकेश्वरवाद) की ओर बुलाया गया है। इसके साथ लोगों को इस बात पर भी सचेत किया गया है कि नबियों (अलैहि०) की बात न मानना और अपनी अज्ञानतापूर्ण धारणाओं पर आग्रह करना स्वयं उन्हीं क़ौमों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ है जिन्होंने यह नीति अपनाई है। आख़िरत के बारे में जो बात इस सूरा के छोटे-छोटे, मगर अत्यंत अर्थपूर्ण वाक्यों में बयान की गई है, वह यह है कि मानव-जीवन के परिणामों के बारे में लोगों की विभिन्न और परस्पर विरोधी धारणाएँ स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि इनमें से कोई धारणा भी ज्ञान पर आधारित नहीं है, बल्कि हर एक ने अटकलें दौड़ाकर अपनी जगह जो दृष्टिकोण बना लिया, उसी को वह अपनी धारणा बनाकर बैठ गया। इतनी बड़ी और महत्त्वपूर्ण मौलिक समस्या पर, जिसके बारे में आदमी की राय का ग़लत हो जाना उसकी पूरी ज़िन्दगी को ग़लत करके रख देता है, ज्ञान के बिना केवल अटकलों के आधार पर कोई धारणा बना लेना एक विनाशकारी मूर्खता है। ऐसी समस्या के बारे में सही राय क़ायम करने का बस एक ही रास्ता है और वह यह है कि इंसान को आख़िरत के बारे में जो ज्ञान अल्लाह की ओर से उसका नबो (ईशदूत) दे रहा है, उसपर वह गम्भीरतापूर्वक विचार करे और ज़मीन तथा आसमान की व्यवस्था और स्वयं अपने अस्तित्व पर दृष्टि डालकर खुली आँखों से देखे कि क्या उस ज्ञान के सही होने की गवाही हर ओर मौजूद नहीं है? इसके बाद बड़े संक्षिप्त शब्दों में एकेश्वरवाद की ओर बुलाते हुए कहा गया है कि तुम्हारे पैदा करनेवाले ने तुमको दूसरों को बन्दगी (भक्ति और आज्ञापालन) के लिए नहीं, बल्कि अपनी बन्दगी के लिए पैदा किया है। वह तुम्हारे बनावटी उपास्यों की तरह नहीं है जो तुमसे रोज़ी (आजीविका) लेते हैं और तुम्हारी सहायता के बिना जिनकी प्रभुता नहीं चल सकती। वह ऐसा उपास्य है जो सबको रोज़ी देता है, किसी से रोज़ी लेने का मुहताज नहीं, और जिसका प्रभुत्व स्वयं उसके अपने बल-बूते पर चल रहा है। इसी सिलसिले में यह भी बताया गया कि नबियों (अलैहि०) का मुक़ाबला जब भी किया गया है, बुद्धिसंगत आधार पर नहीं, बल्कि उसो दुराग्रह, हठधर्मी और अज्ञानतापूर्ण अहंकार के आधार पर किया गया है जो आज मुहम्मद (सल्ल०) के साथ बरता जा रहा है। फिर मुहम्मद (सल्ल०) को निर्देश दिया गया है कि इन सरकशों की ओर ध्यान न दें और अपने आमंत्रण और याद दिलाने का काम करते रहें, क्योंकि वह इन लोगों के लिए चाहे लाभप्रद न हो, किन्तु ईमानवालों के लिए लाभप्रद है।

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سُورَةُ الذَّارِيَاتِ
51. अज़-ज़ारियात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान हैं।
وَٱلذَّٰرِيَٰتِ ذَرۡوٗا ۝ 1
गवाह हैं (हवाएँ) जो गर्द-ग़ुबार उड़ाती फिरती हैं;॥1॥
فَٱلۡحَٰمِلَٰتِ وِقۡرٗا ۝ 2
फिर बोझ उठाती हैं;॥2॥
فَٱلۡجَٰرِيَٰتِ يُسۡرٗا ۝ 3
फिर नरमी से चलती हैं;॥3॥
فَٱلۡمُقَسِّمَٰتِ أَمۡرًا ۝ 4
फिर मामले को अलग-अलग करती हैं;1॥4॥ ———————— 1. यहाँ हवाओं को एक बहुत बड़ी आवश्यकता अर्थात् आख़िरत पर गवाह ठहराया गया है।
إِنَّمَا تُوعَدُونَ لَصَادِقٞ ۝ 5
निश्‍चय ही तुमसे जिस चीज़ का वादा किया जाता है, वह सत्य है;॥5॥
وَإِنَّ ٱلدِّينَ لَوَٰقِعٞ ۝ 6
और (कर्मों का) बदला अवश्य सामने आकर रहेगा।॥6॥
وَٱلسَّمَآءِ ذَاتِ ٱلۡحُبُكِ ۝ 7
गवाह है धारियोंवाला आकाश।॥7॥
إِنَّكُمۡ لَفِي قَوۡلٖ مُّخۡتَلِفٖ ۝ 8
निश्‍चय ही तुम परस्‍पर विपरीत बातों में पड़े हुए हो जो बुद्धि और विवेक के विपरित हैं।॥8॥
يُؤۡفَكُ عَنۡهُ مَنۡ أُفِكَ ۝ 9
इससे कोई सरफिरा ही विमुख होता है।॥9॥
قُتِلَ ٱلۡخَرَّٰصُونَ ۝ 10
मारे जाएँ अटकल दौड़ानेवाले; ॥10॥
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي غَمۡرَةٖ سَاهُونَ ۝ 11
जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं, भूले हुए।॥11॥
يَسۡـَٔلُونَ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلدِّينِ ۝ 12
पूछते हैं, "बदले का दिन कब आएगा?"॥12॥
يَوۡمَ هُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ يُفۡتَنُونَ ۝ 13
जिस दिन वे आग पर तपाए जाएँगे, ॥13॥
ذُوقُواْ فِتۡنَتَكُمۡ هَٰذَا ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 14
"चखो मज़ा, अपने फ़ितने (उपद्रव) का! यही है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे।"॥14॥
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 15
निश्‍चय ही डर रखनेवाले बाग़ों और स्रोतों में होंगे।॥15॥
ءَاخِذِينَ مَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُحۡسِنِينَ ۝ 16
जो कुछ उनके रब ने उन्हें दिया, वे उसे ले रहे होंगे। निस्सन्देह वे इससे पहले उत्तमकारों में से थे।॥16॥
كَانُواْ قَلِيلٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مَا يَهۡجَعُونَ ۝ 17
रातों को थोड़ा ही सोते थे,॥17॥
وَبِٱلۡأَسۡحَارِ هُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 18
और वही प्रातः की घड़ियों में क्षमा की प्रार्थना करते थे।॥18॥
وَفِيٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ حَقّٞ لِّلسَّآئِلِ وَٱلۡمَحۡرُومِ ۝ 19
और उनके मालों में माँगनेवाले और धनहीन का हक़ था।॥19॥
وَفِي ٱلۡأَرۡضِ ءَايَٰتٞ لِّلۡمُوقِنِينَ ۝ 20
और धरती में विश्‍वास करनेवालों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं,॥20॥
وَفِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 21
और स्वयं तुम्हारे अपने आप में भी। तो क्या तुम देखते नहीं?॥21॥
وَفِي ٱلسَّمَآءِ رِزۡقُكُمۡ وَمَا تُوعَدُونَ ۝ 22
और आकाश में ही तुम्हारी रोज़ी है और वह चीज़ भी जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है।॥22॥
فَوَرَبِّ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ إِنَّهُۥ لَحَقّٞ مِّثۡلَ مَآ أَنَّكُمۡ تَنطِقُونَ ۝ 23
अतः सौगन्ध है आकाश और धरती के रब की। निश्‍चय ही वह सत्य बात है ऐसे ही जैसे तुम बोलते हो।॥23॥
هَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 24
क्या इबराहीम के प्रतिष्ठित अतिथियों का क़िस्‍सा तुम तक पहँचा?॥24॥
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 25
जब वे उसके पास आए तो कहा, "सलाम है तुमपर!" उसने भी कहा, "सलाम है आप लोगों पर भी!" (और जी में कहा), "ये तो अपरिचित लोग हैं।"॥25॥
فَرَاغَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ فَجَآءَ بِعِجۡلٖ سَمِينٖ ۝ 26
फिर वह चुपके से अपने घरवालों के पास गया और एक मोटा-ताज़ा बछड़ा (का भूना हुआ मांस) ले आया॥26॥
فَقَرَّبَهُۥٓ إِلَيۡهِمۡ قَالَ أَلَا تَأۡكُلُونَ ۝ 27
और उसे उनके सामने पेश किया। कहा, "क्या आप खाते नहीं?"॥27॥
فَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۖ قَالُواْ لَا تَخَفۡۖ وَبَشَّرُوهُ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 28
फिर उसने दिल में उनसे डर महसूस किया। उन्होंने कहा, "डरिए नहीं।" और उन्होंने उसे एक ज्ञानवान लड़के की मंगल-सूचना दी।॥28॥
فَأَقۡبَلَتِ ٱمۡرَأَتُهُۥ فِي صَرَّةٖ فَصَكَّتۡ وَجۡهَهَا وَقَالَتۡ عَجُوزٌ عَقِيمٞ ۝ 29
इसपर उसकी स्त्री (चकित होकर) आगे बढ़ी और उसने अपना मुँह पीट लिया और कहने लगी, "एक बूढ़ी बाँझ (के यहाँ बच्‍चा पैदा होगा)!"॥29॥
قَالُواْ كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 30
उन्होंने कहा, "ऐसा ही तेरे रब ने कहा है। निश्‍चय ही वह बड़ा तत्वदर्शी, ज्ञानवान है।"॥30॥
۞قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 31
उसने कहा, "ऐ (अल्लाह के) भेजे हुए दूतो, तुम्हारे सामने क्या मुहिम है?"॥31॥
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 32
उन्होंने कहा, "हम एक अपराधी क़ौम की ओर भेजे गए हैं;॥32॥
لِنُرۡسِلَ عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن طِينٖ ۝ 33
ताकि उनके ऊपर मिट्टी के पत्थर (कंकड़) बरसाएँ, ॥33॥
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 34
जो आपके रब के यहाँ सीमा का अतिक्रमण करनेवालों के लिए चिन्हित हैं।"॥34॥
فَأَخۡرَجۡنَا مَن كَانَ فِيهَا مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 35
फिर वहाँ जो ईमानवाले थे उन्हें हमने निकाल लिया;॥35॥
فَمَا وَجَدۡنَا فِيهَا غَيۡرَ بَيۡتٖ مِّنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 36
किन्तु हमने वहाँ एक घर के अतिरिक्त मुस्लिमों (आज्ञाकारियों) का और कोई घर न पाया।॥36॥
وَتَرَكۡنَا فِيهَآ ءَايَةٗ لِّلَّذِينَ يَخَافُونَ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 37
इसके बाद हमने वहाँ उन लोगों के लिए एक निशानी छोड़ दी जो दुखद यातना से डरते हैं।॥37॥
وَفِي مُوسَىٰٓ إِذۡ أَرۡسَلۡنَٰهُ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 38
और मूसा के क़िस्‍से में भी (निशानी है) जब हमने उसे फ़िरऔन के पास एक स्पष्ट प्रमाण के साथ भेजा,॥38॥
فَتَوَلَّىٰ بِرُكۡنِهِۦ وَقَالَ سَٰحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٞ ۝ 39
किन्तु उसने अपनी शक्ति के कारण मुँह फेर लिया और कहा, "जादूगर है या दीवाना।"॥39॥
فَأَخَذۡنَٰهُ وَجُنُودَهُۥ فَنَبَذۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ وَهُوَ مُلِيمٞ ۝ 40
अन्ततः हमने उसे और उसकी सेनाओं को पकड़ लिया और उन्हें गहरे पानी में फेंक दिया, इस दशा में कि वह निन्दनीय था।॥40॥
وَفِي عَادٍ إِذۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلرِّيحَ ٱلۡعَقِيمَ ۝ 41
और आद में भी (तुम्हारे लिए निशानी है) जबकि हमने उनपर अशुभ वायु चला दी।॥41॥
مَا تَذَرُ مِن شَيۡءٍ أَتَتۡ عَلَيۡهِ إِلَّا جَعَلَتۡهُ كَٱلرَّمِيمِ ۝ 42
वह जिस चीज़ पर से भी गुज़री उसे उसने तहस-नहस करके रख दिया।॥42॥
وَفِي ثَمُودَ إِذۡ قِيلَ لَهُمۡ تَمَتَّعُواْ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 43
और समूद में भी (तुम्हारे लिए निशानी है) जबकि उनसे कहा गया, "एक समय तक मज़े कर लो!"॥43॥
فَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 44
किन्तु उन्होंने अपने रब के आदेश की अवहेलना की; फिर कड़क ने उन्हें आ लिया और वे देखते रहे।॥44॥
فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مِن قِيَامٖ وَمَا كَانُواْ مُنتَصِرِينَ ۝ 45
फिर वे न खड़े ही हो सके और न अपना बचाव ही कर सके।॥45॥
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 46
और इससे पहले नूह की क़ौम को भी पकड़ा। निश्‍चय ही वे अवज्ञाकारी लोग थे।॥46॥
وَٱلسَّمَآءَ بَنَيۡنَٰهَا بِأَيۡيْدٖ وَإِنَّا لَمُوسِعُونَ ۝ 47
आकाश को हमने अपने हाथ के बल से बनाया और हम बड़ी समाई रखनेवाले हैं।॥47॥
وَٱلۡأَرۡضَ فَرَشۡنَٰهَا فَنِعۡمَ ٱلۡمَٰهِدُونَ ۝ 48
और धरती को हमने बिछाया, तो हम क्या ही ख़ूब बिछानेवाले हैं।॥48॥
وَمِن كُلِّ شَيۡءٍ خَلَقۡنَا زَوۡجَيۡنِ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 49
और हमने हर चीज़ के जोड़े बनाए, ताकि तुम ध्यान दो।॥49॥
فَفِرُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 50
अतः अल्लाह की ओर दौड़ो। मैं उसकी ओर से तुम्हारे लिए एक प्रत्यक्ष सावधान करनेवाला हूँ।॥50॥
وَلَا تَجۡعَلُواْ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 51
और अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य-प्रभु न ठहराओ। मैं उसकी ओर से तुम्हारे लिए एक प्रत्यक्ष सावधान करनेवाला हूँ।॥51॥
كَذَٰلِكَ مَآ أَتَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا قَالُواْ سَاحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٌ ۝ 52
इसी तरह उन लोगों के पास भी, जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं, जो भी रसूल आया तो उन्होंने बस यही कहा, "जादूगर है या दीवाना!"॥52॥
أَتَوَاصَوۡاْ بِهِۦۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 53
क्या उन्होंने एक-दूसरे को इसकी वसीयत कर रखी है? नहीं, बल्कि वे हैं ही सरकश लोग।॥53॥
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ فَمَآ أَنتَ بِمَلُومٖ ۝ 54
अतः उनसे मुँह फेर लो, अब तुमपर कोई मलामत नहीं॥54॥
وَذَكِّرۡ فَإِنَّ ٱلذِّكۡرَىٰ تَنفَعُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 55
और याद दिलाते रहो, क्योंकि याद दिलाना ईमानवालों को लाभ पहुँचाता है।॥55॥
وَمَا خَلَقۡتُ ٱلۡجِنَّ وَٱلۡإِنسَ إِلَّا لِيَعۡبُدُونِ ۝ 56
मैंने तो जिन्‍नों और मनुष्यों को केवल इसलिए पैदा किया है कि वे मेरी बन्दगी करें।॥56॥
مَآ أُرِيدُ مِنۡهُم مِّن رِّزۡقٖ وَمَآ أُرِيدُ أَن يُطۡعِمُونِ ۝ 57
मैं उनसे कोई रोज़ी नहीं चाहता और न यह चाहता हूँ कि वे मुझे खिलाएँ।॥57॥
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلرَّزَّاقُ ذُو ٱلۡقُوَّةِ ٱلۡمَتِينُ ۝ 58
निश्‍चय ही अल्लाह ही है रोज़ी देनेवाला, शक्तिशाली, दृढ़।॥58॥
فَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذَنُوبٗا مِّثۡلَ ذَنُوبِ أَصۡحَٰبِهِمۡ فَلَا يَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 59
अतः जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है उनके लिए एक नियत पैमाना है; जैसा उनके साथियों का नियत पैमाना2 था। अतः वे मुझसे जल्दी न मचाएँ!॥59॥ ——————— 2. अर्थात् जीवन की सीमा अवधि।
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن يَوۡمِهِمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 60
अतः इनकार करनेवालों के लिए बड़ी ख़राबी है उनके उस दिन के कारण जिसकी उन्हें धमकी दी जा रही है।॥60॥