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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

36. या-सीन

(मक्का में उतरी, आयतें 83)

 

परिचय

नाम

शुरू ही के दोनों अक्षरों को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णन-शैली पर विचार करने से महसूस होता है कि इस सूरा के उतरने का समय या तो मक्का के मध्यकाल का अंतिम समय है, या फिर यह [नबी (सल्ल.) के] मक्का निवासकाल के अन्तिम समय की सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों को मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत पर ईमान न लाने और अत्याचार और उपहास से उसका मुक़ाबला करने के अंजाम से डराना है। इसमें डरावे का पहलू बढ़ा हुआ और स्पष्ट है, किन्तु बार-बार डराने के साथ दलीलों से समझाया भी गया है। दलीलें तीन बातों की दी गई हैं-

तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों और सामान्य बुद्धि से, आख़िरत पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों, सामान्य बुद्धि और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्व से, और मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की सत्यता पर इस बात से कि आप संदेश पहुँचाने में यह सारी मशक्कत केवल नि:स्वार्थ भाव से सहन कर रहे थे, और इस बात से कि जिन बातों की ओर आप लोगों को बुला रहे थे, वे सर्वथा उचित थीं। इन दलीलों के बल पर डाँट-फटकार, निन्दा और चेतावनी की वार्ताएँ बड़े ज़ोरदार तरीक़े से बार-बार प्रस्तुत हुई हैं, ताकि दिलों के ताले टूटें और जिनके भीतर सत्य स्वीकार करने की थोड़ी-सी क्षमता भी हो, वे प्रभावित हुए बिना न रह सकें। इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसाई, इब्ने-माजा और तबरानी (रह०) आदि ने माक़िल-बिन-यसार (रजि०) से रिवायत किया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि यह सूरा क़ुरआन का दिल है। यह उसी तरह की मिसाल है जिस तरह सूरा फ़ातिहा को 'उम्मुल-क़ुरआन' फ़रमाया गया है। फ़ातिहा को उम्मुल-क़ुरआन क़रार देने की वजह यह है कि उसमें क़ुरआन मजीद की सम्पूर्ण शिक्षा का सार आ गया है। सूरा या-सीन को कुरआन का धड़कता हुआ दिल इसलिए फ़रमाया गया है कि यह क़ुरआन की दावत को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से पेश करती है, जिससे ठहराव टूटता और रूह में हरकत पैदा होती है। इन्हीं हज़रत माक़िल-बिन-यसार (रज़ि०) से इमाम अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा (रह०) ने यह रिवायत भी नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अपने मरनेवालों पर सूरा या-सीन पढ़ा करो।" इसका कारण यह है कि मरते समय मुसलमान के मन में न सिर्फ़ यह कि तमाम इस्लामी अक़ीदे ताज़ा हो जाएँ, बल्कि मुख्य रूप से उसके सामने आख़िरत का पूरा चित्र भी आ जाए और वह जान ले कि दुनिया की ज़िन्दगी से गुज़रकर अब आगे किन मंज़िलों से उसको वास्ता पेश आनेवाला है। इस निहितार्थ को पूरा करने के लिए उचित यह मालूम होता है कि अरबी न जाननेवाले आदमी को सूरा या-सीन सुनाने के साथ उसका अनुवाद भी सुना दिया जाए, ताकि याद दिलाने का हक़ पूरी तरह अदा हो जाए।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
36. या-सीन
سُورَةُ يسٓ
36. या-सीन
يسٓ ۝ 1
या-सीन ॥1॥
وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 2
गवाह है हिकमतभरा क़ुरआन॥2॥
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 3
कि तुम निश्‍चय ही रसूलों में से हो, ॥3॥
عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 4
एक सीधे मार्ग पर। ॥4॥
تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 5
क्या ही ख़ूब है प्रभुत्वशाली, अत्यन्त दयावान का इसको अवतरित करना! ॥5॥
لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 6
ताकि तुम ऐसे लोगों को सावधान करो जिनके बाप-दादा को सावधान नहीं किया गया; इस कारण वे गफ़लत में पड़े हुए हैं।॥6॥
لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 7
उनमें से अधिकतर लोगों पर बात सत्यापित हो चुकी है। अतः वे ईमान नहीं लाएँगे। ॥7॥
إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ ۝ 8
हमने उनकी गर्दनों में तौक़ डाल दिए हैं जो उनकी ठोड़ियों से लगे हैं। अतः उनके सिर ऊपर को उचके हुए हैं।॥8॥
وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 9
और हमने उनके आगे एक दीवार खड़ी कर दी है और एक दीवार उनके पीछे भी। इस तरह हमने उन्हें ढाँक दिया है। अतः उन्हें कुछ सुझाई नहीं देता।॥9॥
وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 10
उनके लिए बराबर रहा तुमने उन्‍हें सचेत किया या उन्हें सचेत नहीं किया, वे ईमान नहीं ला रहे हैं।॥10॥
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ ۝ 11
तुम तो बस सावधान कर रहे हो। जो कोई याददिहानी का अनुसरण करे और परोक्ष में रहते हुए रहमान (दयावान प्रभु) से डरे, तो उसे क्षमा और प्रतिष्ठित बदले की शुभ सूचना दे दो।॥11॥
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 12
निस्सन्‍देह हम मुर्दों को जीवित करेंगे और हम लिखेंगे (कि उसका क्‍या बदला दिया जाए) जो कुछ उन्होंने आगे के लिए भेजा और जो चिह्न उन्‍होंने अपने पिछे छोड़े ।प्रत्‍येक चीज़ हमने एक स्पष्ट किताब में गिन रखी है।॥12॥
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 13
उनके लिए बस्तीवालों की एक मिसाल पेश करो जबकि वहाँ भेजे हुए दूत आए।॥13॥
إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ ۝ 14
जबकि हमने उनकी ओर दो दूत भेजे तो उन्होंने उनको झुठला दिया। तब हमने एक तीसरे के द्वारा शक्ति पहुँचाई तो उन्होंने कहा, "हम तुम्हारी ओर भेजे गए हैं।"॥14॥
قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ ۝ 15
वे बोले, "तुम तो बस हमारे ही जैसे मनुष्य हो। रहमान (दयावान प्रभु) ने तो कोई भी चीज़ अवतरित नहीं की है। तुम केवल झूठ बोलते हो।"॥15॥
قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ ۝ 16
उन्होंने कहा, "हमारा रब जानता है कि हम निश्‍चय ही तुम्हारी ओर भेजे गए हैं॥16॥
وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 17
औऱ हमारी ज़िम्मेदारी तो केवल स्पष्ट रूप से सन्‍देश पहुँचा देने की है।"॥17॥
قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 18
वे बोले, "हम तो तुम्हें अपशकुन समझते हैं, यदि तुम बाज़ न आए तो हम तुम्हें पथराव करके मार डालेंगे और तुम्हें अवश्य हमारी ओर से दुखद यातना पहुँचेगी।"॥18॥
قَالُواْ طَٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 19
उन्होंने कहा, "तुम्हारा अपशकुन तो तुम्हारे अपने ही साथ है। क्या यदि तुम्हें याददिहानी कराई जाए (तो यह कोई क्रुद्ध होने की बात है)? नहीं, बल्कि तुम मर्यादाहीन लोग हो।"॥19॥
وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 20
इतने में नगर के दूरवर्ती सिरे से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! उनका अनुसरण करो जो भेजे गए हैं।॥20॥
ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 21
उनका अनुसरण करो जो तुमसे कोई बदला नहीं माँगते और वे सीधे मार्ग पर हैं।॥21॥
وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 22
"और मुझे क्या हुआ है कि मैं उसकी बन्दगी न करूँ जिसने मुझे पैदा किया और उसी की ओर तुम्हें लौटकर जाना है?॥22॥
ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ ۝ 23
"क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे उपास्य बना लूँ? यदि रहमान (दयावान प्रभु) मुझे कोई तकलीफ़ पहुँचाना चाहे तो उनकी सिफ़ारिश मेरे कुछ काम नहीं आ सकती और न वे मुझे छुड़ा ही सकते हैं।॥23॥
إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 24
तब तो मैं अवश्य स्पष्ट गुमराही में पड़ जाऊँगा।॥24॥
إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ ۝ 25
मैं तो तुम्हारे रब पर ईमान ले आया, अतः मेरी सुनो!"॥25॥
قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ ۝ 26
कहा गया, "प्रवेश करो जन्‍नत में!" उसने कहा, "ऐ काश! मेरी क़ौम के लोग जानते॥26॥
بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 27
कि मेरे रब ने मुझे क्षमा कर दिया और मुझे इज्‍़ज्‍़तवाले लोगों में सम्मिलित कर दिया।"॥27॥
۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ ۝ 28
उसके बाद उसकी क़ौम पर हमने आकाश से कोई सेना नहीं उतारी, और हम इस तरह उतारा नहीं करते।॥28॥
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ ۝ 29
वह तो केवल एक प्रचण्‍ड चीत्कार थी। तो सहसा क्या देखते हैं कि वे बुझकर रह गए।॥29॥
يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 30
ऐ अफ़सोस बन्दो पर! जो रसूल भी उनके पास आया, वे उसका मज़ाक़ ही उडाते रहे।॥30॥
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 31
क्या उन्होंने नहीं देखा कि उनसे पहले कितनी ही नस्लों को हमने विनष्ट किया कि वे उनकी ओर पलटकर नहीं आएँगे?॥31॥
وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 32
और जितने भी हैं, सबके सब हमारे ही सामने उपस्थित किए जाएँगे।॥32॥
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ ۝ 33
और एक निशानी उनके लिए मृत भूमि है। हमने उसे जीवित किया और उससे अनाज निकाला, तो वे खाते हैं।॥33॥
وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ ۝ 34
और हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग़ लगाए और उसमें स्रोत प्रवाहित किए; ॥34॥
لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 35
ताकि वे उसके फल खाएँ — हालाँकि यह सब कुछ उनके हाथों का बनाया हुआ नहीं है। — तो क्या वे आभार नहीं प्रकट करते?॥35॥
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 36
महिमावान है वह जिसने सबके जोड़े पैदा किए, धरती जो चीज़ें उगाती है उनमें से भी और स्वयं उनकी अपनी जाति में से भी, और उन चीज़ों में से भी जिनको वे नहीं जानते।॥36॥
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ ۝ 37
और एक निशानी उनके लिए रात है। हम उसपर से दिन को खींच लेते हैं। फिर क्या देखते हैं कि वे अँधेरे में रह गए।॥37॥
وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 38
और सूर्य अपने नियत ठिकाने के लिए चला जा रहा है। यह बाँधा हुआ हिसाब है प्रभुत्वशाली, ज्ञानवान का।॥38॥
وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 39
और रहा चन्द्रमा, तो हमने उसके लिए मंज़िलें नियत कर दी है, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पुरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है।॥39॥
لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 40
न सूर्य ही से हो सकता है कि चाँद को जा पकड़े और न रात दिन से आगे बढ़ सकती है। प्रत्‍येक एक-एक कक्षा में तैर रहे हैं।॥40॥
وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 41
और एक निशानी उनके लिए यह है कि हमने उनके अनुवर्तियों को भरी हुई नौका में सवार किया॥41॥
وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ ۝ 42
और उनके लिए उसी के सदृश और भी ऐसी चीज़ें पैदा कीं जिनपर वे सवार होते हैं।॥42॥
وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ ۝ 43
और यदि हम चाहें तो उन्हें डुबो दें। फिर न तो उनकी कोई चीख़-पुकार हो और न उन्हें बचाया जा सके।॥43॥
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 44
यह तो बस हमारी दयालुता और एक नियत समय तक की सुख-सामग्री है।॥44॥
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 45
और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ का डर रखो जो तुम्हारे आगे है और जो तुम्हारे पीछे है, ताकि तुमपर दया कि जाए! (तो चुप्पी साध लेते हैं)।॥45॥
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 46
उनके पास उनके रब की आयतों में से जो आयत भी आती है वे उससे कतराते ही हैं।॥46॥
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 47
और जब उनसे कहा जाता है कि "अल्लाह ने जो कुछ रोज़ी तुम्हें दी है उसमें से ख़र्च करो।" तो जिन लोगों ने इनकार किया है वे उन लोगों से, जो ईमान लाए है, कहते हैं, "क्या हम उसको खाना खिलाएँ जिसे यदि अल्लाह चाहता तो स्वयं खिला देता? तुम तो बस खुली गुमराही में पड़े हो।"॥47॥
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 48
और वे कहते हैं कि "यह वादा कब पूरा होगा यदि तुम सच्‍चे हो?"॥48॥
مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ ۝ 49
वे तो बस एक प्रचण्‍ड चीत्कार की प्रतीक्षा में हैं जो उन्हें आ पकड़ेगी, जबकि वे झगड़ते होंगे।॥49॥
فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 50
फिर न तो वे कोई वसीयत कर पाएँगे और न अपने घरवालों की ओर लौट ही सकेंगे।॥50॥
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ ۝ 51
और नरसिंघा में फूँक मारी जाएगी। फिर क्या देखेंगे कि वे क़ब्रों से निकलकर अपने रब की ओर चल पड़े हैं।॥51॥
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 52
कहेंगे, "ऐ अफ़सोस हम पर! किसने हमें सोते से जगा दिया? यह वही चीज़ है जिसका रहमान (दयावान प्रभु) ने वादा किया था और रसूलों ने सच कहा था।"॥52॥
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 53
बस एक ज़ोर की चिंघाड़ होगी। फिर क्या देखेंगे कि वे सबके-सब हमारे सामने उपस्थित कर दिए गए।॥53॥
فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 54
अब आज किसी जीव पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा और तुम्हें बदले में वही मिलेगा जो कुछ तुम करते रहे हो।॥54॥
إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ ۝ 55
निश्‍चय ही जन्‍नतवाले आज किसी न किसी काम नें व्यस्त आनन्द ले रहे हैं।॥55॥
هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ ۝ 56
वे और उनकी पत्नियाँ छायों में मसहरियों पर तकिया लगाए हुए हैं,॥56॥
لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ ۝ 57
उनके लिए वहाँ मेवे हैं। और उनके लिए वह सब कुछ मौजूद है जिसकी वे माँग करें।॥57॥
سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ ۝ 58
(उनपर) सलाम है दयामय रब का उच्‍चारित किया हुआ।॥58॥
وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 59
"और ऐ अपराधियो! आज तुम छँटकर अलग हो जाओ।॥59॥
۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 60
क्या मैंने तुम्हें ताकीद नहीं की थी ऐ आदम के बेटो! कि शैतान की बन्दगी न करो, वास्तव में वह तुम्हारा खुला शत्रु है।॥60॥
وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 61
और यह कि मेरी बन्दगी करो? यही सीधा मार्ग है।॥61॥
وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ ۝ 62
उसने तो तुममें से बहुत-से गिरोहों को पथभ्रष्ट कर दिया। तो क्या तुम बुद्धि नहीं रखते थे?॥62॥
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 63
यह वही जहन्‍नम है जिसकी तुम्हें धमकी दी जाती रही है।॥63॥
ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 64
जो इनकार तुम करते रहे हो उसके बदले में आज इसमें दाखिल हो जाओ।"॥64॥
ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 65
आज हम उनके मुँह पर मुहर लगा देंगे और उनके हाथ हमसे बोलेंगे और जो कुछ वे कमाते रहे हैं, उनके पाँव उसकी गवाही देंगे।॥65॥
وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ ۝ 66
यदि हम चाहें तो उनकी आँखें मेट दें1 क्योंकि वे (अपने रूढ़) मार्ग की और लपके हुए हैं। फिर उन्हें सुझाई कहाँ से देगा?॥66॥ ——————— 1. अर्थात् अंधा कर दें।
وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ ۝ 67
यदि हम चाहें तो उनकी जगह पर ही उनके रूप बिगाड़कर रख दें, क्योंकि वे सत्य की ओर न चल सके और वे (गुमराही से) बाज़ नहीं आते।॥67॥
وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 68
जिसको हम दीर्घायु देते हैं उसको उसकी संरचना में उल्टा फेर देते हैं। तो क्या वे बुद्धि से काम नहीं लेते?॥68॥
وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ ۝ 69
हमने उस (नबी) को कविता नहीं सिखाई और न वह उसके लिए शोभनीय है। वह तो केवल याददिहानी और स्पष्ट क़ुरआन है;॥69॥
لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 70
ताकि वह उसे सचेत कर दे जो जीवन्त हो और इनकार करनेवालों पर (यातना की) बात सत्‍यापित हो जाए।॥70॥
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ ۝ 71
क्या उन्होंने देखा नहीं कि हमने उनके लिए अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ों में से चौपाए पैदा किए और अब वे उनके मालिक हैं?॥71॥
وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ ۝ 72
और उन्हें उनके बस में कर दिया। उनमें से कुछ तो उनकी सवारियाँ हैं और उनमें से कुछ को वे खाते भी हैं।॥72॥
وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 73
और उनके लिए उनमें कितने ही लाभ हैं और पेय भी हैं। तो क्या वे कृतज्ञता नहीं दिखलाते?॥73॥
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 74
उन्होंने अल्लाह से हटकर कितने ही उपास्य बना लिए हैं कि शायद उन्हें मदद पहुँचे।॥74॥
لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ ۝ 75
वे उनकी सहायता करने की सामर्थ्य नहीं रखते, हालाँकि वे (बहुदेव-वादियों की अपनी दृष्टि में) उनके लिए उपस्थित सेनाएँ हैं।2॥75॥ ——————— 2. अर्थात् जिन उपास्यों को बहुदेववादी अपनी सहायक सेना समझते हैं और यह विचार करते हैं कि संकट में वे सब हमारी मदद करेंगे, सर्वथा भ्रम है। ये उपास्य न संसार में उनके कुछ काम आएँगे और न परलोक में उनका कोई संकट दूर कर सकेंगे।
فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 76
अतः उनकी बात तुम्हें शोकाकुल न करे। हम जानते हैं जो कुछ वे छिपाते और जो कुछ व्यक्‍त करते हैं।॥76॥
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 77
क्या (इनकार करनेवाले) मनुष्य ने देखा नहीं कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया? फिर क्या देखते हैं कि वह प्रत्क्षय विरोधी झगड़ालू बन गया।॥77॥
وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ۝ 78
और उसने हमपर फब्‍ती कसी और अपनी पैदाइश को भूल गया। कहता है, "कौन हड्डियों में जान डालेगा, जबकि वे जीर्ण-शीर्ण हो चुकी होंगी?"॥78॥
قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ ۝ 79
कह दो, "उनमें वही जान डालेगा जिसने उनको पहली बार पैदा किया। वह तो प्रत्येक संसृति को भली-भाँति जानता है।॥79॥
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ ۝ 80
वही है जिसने तुम्हारे लिए हरे-भरे वृक्ष से आग पैदा कर दी, तो लगे तुम उससे जलाने।"॥80॥
أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 81
क्या जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया उसे इसकी सामर्थ्य नहीं कि उन जैसों को पैदा कर दे? क्यों नहीं, जबकि वह महान स्रष्टा , अत्यन्त ज्ञानवान है।॥81॥
إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 82
उसका मामला तो बस यह है कि जब वह किसी चीज़ (के पैदा करने) का इरादा करता है तो उससे कहता है, "हो जा!" और वह हो जाती है।॥82॥
فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 83
अतः महिमा है उसकी, जिसके हाथ में हर चीज़ का पूरा अधिकार है। और उसी की ओर तुम लौटकर जाओगे।॥83॥