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سُورَةُ المُنَافِقُونَ

63. अल-मुनाफ़िक़ून

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

पहली आयत के वाक्यांश "इज़ा जा-अ कल-मुनाफ़िकून" अर्थात् "ऐ नबी, जब ये 'मुनाफ़िक़' तुम्हारे पास आते हैं" से लिया गया है। यह इस सूरा का नाम भी है और इसके विषय का शीर्षक भी, क्योंकि इसमें मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) ही की नीति की समीक्षा की गई है।

उतरने का समय

यह सूरा बनी अल-मुस्तलिक़ के अभियान [जो सन् 06 हि० में घटित हुआ था] से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की वापसी पर या तो यात्रा के बीच में उतरी है या नबी (सल्ल०) के मदीना तय्यिबा पहुँचने के बाद तुरन्त ही उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस विशेष घटना के बारे में यह सूरा उतरी है, उसका उल्लेख करने से पहले यह ज़रूरी है कि मदीना के मुनाफ़िक़ों के इतिहास पर एक दृष्टि डाल ली जाए, क्योंकि जो घटना उस समय घटित हुई थी, वह मात्र आकस्मिक घटना न थी, बल्कि उसके पीछे एक पूरा घटना-क्रम था जो अन्तत: इस परिणाम तक पहुँची। मदीना तय्यिबा में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के आने से पहले औस और ख़ज़रज के क़बीले आपस के घरेलू युद्धों से थककर [ख़ज़रज क़बीले के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई-बिन-सलूल के नेतृत्व और श्रेष्ठता पर लगभग सहमत हो चुके थे] और इस बात की तैयारियाँ कर रहे थे कि उसको अपना बादशाह बनाकर विधिवत रूप से उसकी ताजपोशी का उत्सव मनाएँ, यहाँ तक कि इसके लिए ताज भी बना लिया गया था। ऐसी स्थिति में इस्लाम की चर्चा मदीना पहुंँची और उन दोनों क़बीलों के प्रभावशाली व्यक्ति मुसलमान होने शुरू हो गए। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुंँचे तो अंसार के हर घराने में इस्लाम इतना फैल चुका था कि अब्दुल्लाह बिन उबई बेबस हो गया और उसको अपनी सरदारी बचाने का इसके सिवा कोई उपाय दिखाई न दिया कि वह स्वयं भी मुसलमान हो जाए। हालाँकि उसको इस बात का बड़ा दुख था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसकी बादशाही छीन ली है। कई वर्षों तक उसका यह कपटपूर्ण ईमान और अपनी सत्ता छिन जाने का यह दुख तरह-तरह के रंग दिखाता रहा। बद्र की लड़ाई के बाद जब बनू-क़ैनुक़ाअ के यहूदियों के स्पष्टतः प्रतिज्ञा-भंग करने और बिना किसी उत्तेजना के सरकशी करने पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनपर चढ़ाई की तो यह व्यक्ति उनकी मदद के लिए उठ खड़ा हुआ। (इब्‍ने-हिशाम, भाग-3, पृ० 51-52)

उहुद के युद्ध के अवसर पर इस व्यक्ति ने खुला विद्रोह किया और ठीक समय पर अपने तीन सौ साथियों को लेकर लड़ाई के मैदान से उलटा वापस आ गया। जिस नाज़ुक घड़ी में उसने यह हरकत की थी, उसकी गंभीरता का अन्दाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि क़ुरैश के लोग तीन हज़ार की सेना लेकर मदीना पर चढ़ आए थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उनके मुक़ाबले में केवल एक हज़ार आदमी साथ लेकर प्रतिरक्षा के लिए निकले थे। इन एक हज़ार में से भी यह मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) तीन सौ आदमी तोड़ लाया और नबी (सल्ल०) को सिर्फ़ सात सौ के जत्थे के साथ तीन हज़ार शत्रुओं का मुक़ाबला करना पड़ा। फिर 4 हि० में बनी नज़ीर के अभियान का अवसर आया और इस अवसर पर इस व्यक्ति ने और इसके साथियों ने और भी अधिक खुलकर इस्लाम के विरुद्ध इस्लाम के दुश्मनों की मदद की। [यह थी वह पृष्ठभूमि जिसके साथ वह और उसके मुनाफ़िक़ साथी बनू-मुस्तलिक़ के अभियान में शरीक हुए थे। इस अवसर पर उन्होंने एक साथ दो ऐसे बड़े उपद्रव खड़े कर दिए जो मुसलमानों की एकता को बिल्कुल टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे, किन्तु पवित्र क़ुरआन की शिक्षा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की संगति से ईमानवालों को जो उत्कृष्ट प्रशिक्षण प्राप्त था उसके कारण वे दोनों उपद्रव ठीक समय पर समाप्त हो गए और ये मुनाफ़िक़ स्वयं अपमानित होकर रह गए।

इनमें से एक उपद्रव तो वह था जिसका उल्लेख सूरा-24 नूर में गुज़र चुका है और दूसरा उपद्रव यह है जिसका इस सूरा में उल्लेख किया गया है। इस घटना का [संक्षिप्त विवरण यह है कि] बनू-मुस्तलिक़ को पराजित करने के बाद अभी इस्लामी सेना उस बस्ती में ठहरी हुई थी जो मुरैसीअ नामक कुएँ पर आबाद थी कि अचानक पानी पर दो व्यक्तियों का झगड़ा हो गया। उनमें से एक का नाम जहजाह-बिन-मसऊद ग़िफ़ारी था जो हज़रत उमर (रज़ि०) के सेवक थे और उनका घोड़ा संभालने का काम करते थे और दूसरे व्यक्ति सिनान-बिन-दबर अल-जुहनी थे जिनका क़बीला खज़रज के एक क़बीले का प्रतिज्ञाबद्ध मित्र था। मौखिक कटुवचन से आगे बढ़कर नौबत हाथापाई तक पहुँची और जहजाह ने सिनान के एक लात मार दी, जिसे अपनी पुरानी यमनी परम्पराओं की वजह से अंसार अपना बड़ा अपमान समझते थे। इसपर सिनान ने अंसार को मदद के लिए पुकारा और जहजाह ने मुहाजिरों को आवाज़ दी। इब्‍ने-उबई ने इस झगड़े की खबर सुनते ही औस और खज़रज के लोगों को भड़काना और चीख़ना शुरू कर दिया कि दौड़ो और अपने मित्र क़बीले की मदद करो। उधर से कुछ मुहाजिर भी निकल आए। क़रीब था कि बात बढ़ जाती और उसी जगह अंसार और मुहाजिर आपस में लड़ पड़ते, जहाँ अभी-अभी वे मिलकर एक दुश्मन क़बीले से लड़े थे और उसे परास्त करके अभी उसी के क्षेत्र में ठहरे हुए थे। लेकिन यह शोर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) निकल आए और आपने फ़रमाया, "यह अज्ञानकाल की पुकार कैसी? तुम लोग कहाँ और यह अज्ञान की पुकार कहाँ? इसे छोड़ दो यह बड़ी गन्दी चीज़ है।'' इसपर दोनों ओर के भले लोगों ने आगे बढ़कर मामला ख़त्म करा दिया और सिनान ने जहजाह को माफ़ करके समझौता कर लिया। इसके बाद हर वह व्यक्ति जिसके मन में निफ़ाक़ (कपट) था, अब्दुल्लाह-बिन-उबई के पास पहुँचा और इन लोगों ने जमा होकर उससे कहा कि "अब तक तो तुमसे आशाएँ थी और तुम प्रतिरक्षा कर रहे थे, मगर अब मालूम होता है कि तुम हमारे मुक़ाबले में इन कंगलों के सहायक बन गए हो।" इब्‍ने-उबई पहले ही खौल रहा था, इन बातों से वह और भी अधिक भड़क उठा। कहने लगा, "यह सब कुछ तुम्हारा ही किया-धरा है, तुमने इन लोगों को अपने देश में जगह दी, इनपर अपने माल बाँटे, यहाँ तक कि अब ये फल-फूलकर स्वयं हमारे ही प्रतिद्वन्द्वी बन गए। हमारी और इन कुरैश के कंगलों (या मुहम्मद के साथियों) की दशा पर यह कहावत चरितार्थ होती है कि अपने कुत्ते को खिला-पिलाकर मोटा कर ताकि तुझी को फाड़ खाए। तुम लोग इनसे हाथ रोक लो तो ये चलते-फिरते नज़र आएँ। ख़ुदा की क़सम! मदीना वापस पहुँचकर हममें से जो प्रतिष्ठित है, वह हीन को निकाल देगा।" [नबी (सल्ल०) को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो] आपने तुरन्त ही कूच का आदेश दे दिया, हालाँकि नबी (सल्ल०) के सामान्य नियम के अनुसार वह कूच का समय न था। लगातार तीस घंटे चलते रहे, यहाँ तक कि लोग थककर चूर हो गए। फिर आपने एक जगह पड़ाव किया और थके हुए लोग धरती पर कमर टिकाते ही सो गए। यह आपने इसलिए किया कि जो मुरैसीअ के कुएँ पर घटित हुआ था, उसका प्रभाव लोगों के मन से मिट जाए [लेकिन] धीरे-धीरे यह बात तमाम अंसार में फैल गई और उनमें इब्‍ने-उबई के विरुद्ध अत्यन्त रोष उत्पन्न हो गया। लोगों ने इब्‍ने-उबई से कहा कि जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से माफ़ी माँगो। मगर उसने बिगड़कर उत्तर दिया, "तुमने कहा कि उनपर ईमान लाओ, मैं ईमान ले आया; तुमने कहा कि अपने माल की ज़कात दो, मैंने ज़कात भी दे दी। अब बस यही कसर रह गई है कि मैं मुहम्मद को सजदा करूँ।" इन बातों से उसके विरुद्ध अंसारी मुसलमानों का क्रोध और अधिक बढ़ गया और हर ओर से उसपर फिटकार पड़ने लगी। जब यह क़ाफ़िला मदीना तय्यिबा में दाखिल होने लगा तो अब्दुल्लाह-बिन-उबई के बेटे जिनका नाम भी अब्दुल्लाह ही था, तलवार खींचकर बाप के आगे खड़े हो गए और बोले, "आपने कहा था कि मदीना वापस पहुँचकर प्रतिष्ठित हीन को निकाल देगा। अब आपको मालूम हो जाएगा कि इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) आप की है या अल्लाह और उसके रसूल की। ख़ुदा की क़सम ! आप मदीना में दाखिल नहीं हो सकते जब तक अल्लाह के रसूल (सल्ल.) आपको अनुमति न दें।" इसपर इब्‍ने-उबई, चीख उठा, "खज़रज के लोगो! तनिक देखो, मेरा बेटा ही मुझे मदीना में दाख़िल होने से रोक रहा है। लोगों ने यह ख़बर नबी (सल्ल.) तक पहुँचाई और आपने फ़रमाया “अब्दुल्लाह से कहो कि अपने बाप को घर आने दे।" अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने कहा, "उनका हुक्म है तो अब आप दाख़िल हो सकते हैं।"

ये थीं वे परिस्थितियाँ जिनमें यह सूरा, प्रबल सम्भावना यह है कि नबी (सल्ल०) के मदीना पहुँचने के बाद, उतरी।

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سُورَةُ المُنَافِقُونَ
63. अल-मुनाफ़िक़ून
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ قَالُواْ نَشۡهَدُ إِنَّكَ لَرَسُولُ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّكَ لَرَسُولُهُۥ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَكَٰذِبُونَ ۝ 1
जब मुनाफ़िक (कपटाचारी) तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं, "हम गवाही देते हैं कि निश्‍चय ही आप अल्लाह के रसूल हैं।" अल्लाह जानता है कि निस्संदेह तुम उसके रसूल हो, किेन्तु अल्लाह गवाही देता है कि ये मुनाफ़िक बिलकुल झूठे हैं।॥1॥
ٱتَّخَذُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ جُنَّةٗ فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 2
उन्होंने अपनी क़समों को ढाल बना रखा है, इस प्रकार वे अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं। निश्‍चय ही बुरा है जो वे कर रहे हैं।॥2॥
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ فَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 3
यह इस कारण कि वे ईमान लाए, फिर इनकार किया, अतः उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई, अब वे कुछ नहीं समझते।॥3॥
۞وَإِذَا رَأَيۡتَهُمۡ تُعۡجِبُكَ أَجۡسَامُهُمۡۖ وَإِن يَقُولُواْ تَسۡمَعۡ لِقَوۡلِهِمۡۖ كَأَنَّهُمۡ خُشُبٞ مُّسَنَّدَةٞۖ يَحۡسَبُونَ كُلَّ صَيۡحَةٍ عَلَيۡهِمۡۚ هُمُ ٱلۡعَدُوُّ فَٱحۡذَرۡهُمۡۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 4
तुम उन्हें देखते हो तो उनके शरीर (बाह्य रूप से) तुम्हें अच्छे लगते हैं, और यदि वे बात करें तो उनकी बात तुम सुनते रह जाओ। किन्तु यह ऐसा ही है मानो वे लकड़ी के कुंदे हैं जिन्हें (दीवार के सहारे) खड़ा कर दिया गया हो। हर ज़ोर की आवाज़ को वे अपने ही विरुद्ध समझते हैं। वही वास्तविक शत्रु हैं, अतः उनसे बचकर रहो। अल्लाह की मार उनपर। वे कहाँ उल्टे फिरे जा रहे हैं!॥4॥
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ يَسۡتَغۡفِرۡ لَكُمۡ رَسُولُ ٱللَّهِ لَوَّوۡاْ رُءُوسَهُمۡ وَرَأَيۡتَهُمۡ يَصُدُّونَ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 5
और जब उनसे कहा जाता है, "आओ, अल्लाह का रसूल तुम्हारे लिए क्षमा की प्रार्थना करे।" तो वे अपने सिर मटकाते हैं और तुम देखते हो कि घमण्ड के साथ खिंचे रहते हैं।॥5॥
سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ أَسۡتَغۡفَرۡتَ لَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ لَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 6
उनके लिए बराबर है चाहे तुमने उनके लिए क्षमा की प्रार्थना की हो या उनके लिए क्षमा की प्रार्थना न की हो। अल्लाह उन्हें कदापि क्षमा न करेगा। निश्‍चय ही अल्लाह अवज्ञाकारियों को सीधा मार्ग नहीं दिखाया करता।॥6॥
هُمُ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ لَا تُنفِقُواْ عَلَىٰ مَنۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ حَتَّىٰ يَنفَضُّواْۗ وَلِلَّهِ خَزَآئِنُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 7
वे वहीं लोग हैं जो कहते हैं, "उन लोगों पर ख़र्च न करो जो अल्लाह के रसूल के पास रहनेवाले हैं, ताकि वे तितर-बितर हो जाएँ।" हालाँकि आकाशों और धरती के ख़ज़ाने अल्लाह ही के हैं, किन्तु ये मुनाफ़िक़ समझते नहीं।॥7॥
يَقُولُونَ لَئِن رَّجَعۡنَآ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ لَيُخۡرِجَنَّ ٱلۡأَعَزُّ مِنۡهَا ٱلۡأَذَلَّۚ وَلِلَّهِ ٱلۡعِزَّةُ وَلِرَسُولِهِۦ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 8
वे कहते हैं, "यदि हम मदीना लौटकर गए तो जो अधिक शक्तिवाला है वह हीनतर (व्यक्तियों) को वहाँ से निकाल बाहर करेगा।" हालाँकि शक्ति अल्लाह और उसके रसूल और मोमिनों के लिए है, किन्तु वे मुनाफ़िक़ जानते नहीं।॥8॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُلۡهِكُمۡ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 9
ऐ ईमान लानेवालो! तुम्हारे माल तुम्हें अल्लाह की याद से ग़ाफ़िल न कर दें और न तुम्हारी सन्तान ही। जो कोई ऐसा करे तो ऐसे ही लोग घाटे में रहनेवाले हैं।॥9॥
وَأَنفِقُواْ مِن مَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ فَيَقُولَ رَبِّ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنِيٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ فَأَصَّدَّقَ وَأَكُن مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 10
हमने तुम्हें जो कुछ दिया है उसमें से ख़र्च करो इससे पहले कि तुममें से किसी की मृत्यु आ जाए और उस समय वह करने लगे, "ऐ मेरे रब! तूने मुझे कुछ थोड़े समय तक और मुहलत क्यों न दी कि मैं सदक़ा (दान) करता (मुझे मुहलत दे कि मैं सदक़ा करूँ) और अच्छे लोगों में सम्मिलित हो जाऊँ।"॥10॥
وَلَن يُؤَخِّرَ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِذَا جَآءَ أَجَلُهَاۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 11
किन्तु अल्लाह किसी व्यक्ति को, जब उसका नियत समय आ जाता है, कदापि मुहलत नहीं देता। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है।॥11॥