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سُورَةُ الوَاقِعَةِ

56. अल-वाक़िआ

(मक्का में उतरी, आयतें 96)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्‍ने-हिशाम ने इब्‍ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्‍नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।

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سُورَةُ الوَاقِعَةِ
56. अल-वाक़िया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
إِذَا وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ ۝ 1
जब घटित होनेवाली (घड़ी) घटित हो जाएगी;॥1॥
لَيۡسَ لِوَقۡعَتِهَا كَاذِبَةٌ ۝ 2
उसके घटित होने में कुछ भी झूठ नहीं;॥2॥
خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ ۝ 3
पस्त करनेवाली होगी, ऊँचा करनेवाली भी;॥3॥
إِذَا رُجَّتِ ٱلۡأَرۡضُ رَجّٗا ۝ 4
जब धरती थरथराकर काँप उठेगी;॥4॥
وَبُسَّتِ ٱلۡجِبَالُ بَسّٗا ۝ 5
और पहाड़ टूटकर चूर्ण-विचूर्ण हो जाएँगे॥5॥
فَكَانَتۡ هَبَآءٗ مُّنۢبَثّٗا ۝ 6
कि वे बिखरे हुए धूल होकर रह जाएँगे॥6॥
وَكُنتُمۡ أَزۡوَٰجٗا ثَلَٰثَةٗ ۝ 7
और तुम लोग तीन प्रकार के हो जाओगे —॥7॥
فَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 8
तो सौभाग्यशाली लोग, कैसे होंगे सौभाग्यशाली लोग!॥8॥
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 9
और दुर्भाग्यग्रस्‍त लोग, कैसे होंगे दुर्भाग्यग्रस्‍त लोग!॥9॥
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلسَّٰبِقُونَ ۝ 10
और अग्रसर रहनेवाले तो अग्रसर रहनेवाले ही हैं।॥10॥
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡمُقَرَّبُونَ ۝ 11
वही (अल्लाह के) निकटवर्ती हैं;॥11॥
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 12
नेमत भरी जन्‍नतों में होंगे;॥12॥
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 13
अगलों में से तो बहुत-से होंगे, ॥13॥
وَقَلِيلٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 14
किन्तु पिछलों में से कम ही।॥14॥
عَلَىٰ سُرُرٖ مَّوۡضُونَةٖ ۝ 15
जड़ित तख़्तों पर;॥15॥
مُّتَّكِـِٔينَ عَلَيۡهَا مُتَقَٰبِلِينَ ۝ 16
तकिया लगाए आमने-सामने होंगे;॥16॥
يَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ ۝ 17
उनके पास किशोर होंगे जो सदैव किशोरावस्था ही में रहेंगे, ॥17॥
بِأَكۡوَابٖ وَأَبَارِيقَ وَكَأۡسٖ مِّن مَّعِينٖ ۝ 18
प्याले और आफ़ताबे (जग) और विशुद्ध पेय से भरा हुआ पात्र लिए फिर रहे होंगे॥18॥
لَّا يُصَدَّعُونَ عَنۡهَا وَلَا يُنزِفُونَ ۝ 19
जिस (के पीने) से न तो उन्हें सिर दर्द होगा और न उनकी बुद्धि में विकार आएगा।॥19॥
وَفَٰكِهَةٖ مِّمَّا يَتَخَيَّرُونَ ۝ 20
और स्वादिष्ट फल जो वे पसन्द करें;॥20॥
وَلَحۡمِ طَيۡرٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 21
और पक्षी का मांस जो वे चाहें;॥21॥
وَحُورٌ عِينٞ ۝ 22
और बड़ी आँखोंवाली हूरें, ॥22॥
كَأَمۡثَٰلِ ٱللُّؤۡلُوِٕ ٱلۡمَكۡنُونِ ۝ 23
मानो छिपाए हुए मोती हों॥23॥
جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 24
यह सब उसके बदले में उन्हें प्राप्‍त होगा जो कुछ वे करते रहे।॥24॥
لَا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا تَأۡثِيمًا ۝ 25
उसमें वे न कोई व्यर्थ बात सुनेंगे और न गुनाह की बात; ॥25॥
إِلَّا قِيلٗا سَلَٰمٗا سَلَٰمٗا ۝ 26
सिवाय इस बात के कि "सलाम हो, सलाम हो!"॥26॥
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ ۝ 27
रहे सौभाग्यशाली लोग, तो सौभाग्यशालियों का क्या कहना!॥27॥
فِي سِدۡرٖ مَّخۡضُودٖ ۝ 28
वे वहाँ होंगे जहाँ बिन काँटों के बेर होंगे; ॥28॥
وَطَلۡحٖ مَّنضُودٖ ۝ 29
और गुच्छेदार केले;॥29॥
وَظِلّٖ مَّمۡدُودٖ ۝ 30
दूर तक फैली हुई छाँव;॥30॥
وَمَآءٖ مَّسۡكُوبٖ ۝ 31
बहता हुआ पानी;॥31॥
وَفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ ۝ 32
बहुत-से स्वादिष्ट; फल, ॥32॥
لَّا مَقۡطُوعَةٖ وَلَا مَمۡنُوعَةٖ ۝ 33
जिसका सिलसिला टूटनेवाला न होगा और न उसपर कोई रोक-टोक होगी।॥33॥
وَفُرُشٖ مَّرۡفُوعَةٍ ۝ 34
उच्‍चकोटि के बिछौने होंगे;॥34॥
إِنَّآ أَنشَأۡنَٰهُنَّ إِنشَآءٗ ۝ 35
(और वहाँ उनकी पत्नियों को) निश्‍चय ही हमने उन्‍हें एक विशेष उठान पर उठाया।॥35॥
فَجَعَلۡنَٰهُنَّ أَبۡكَارًا ۝ 36
और हमने उन्हे कुँवारियाँ बनाया;॥36॥
عُرُبًا أَتۡرَابٗا ۝ 37
प्रेम दर्शानेवाली और समान अवस्‍थावाली;॥37॥
لِّأَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 38
सौभाग्यशाली लोगों के लिए;॥38॥
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 39
वे अगलों में से भी अधिक होंगे॥39॥
وَثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 40
और पिछलों में से भी अधिक होंगे।॥40॥
وَأَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ ۝ 41
रहे दुर्भाग्यशाली लोग, तो कैसे होंगे दुर्भाग्यशाली लोग!॥41॥
فِي سَمُومٖ وَحَمِيمٖ ۝ 42
गर्म हवा और खौलते हुए पानी में होंगे;॥42॥
وَظِلّٖ مِّن يَحۡمُومٖ ۝ 43
और काले धुएँ की छाँव में, ॥43॥
لَّا بَارِدٖ وَلَا كَرِيمٍ ۝ 44
जो न ठंडी होगी और न उत्तम और लाभप्रद।॥44॥
إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُتۡرَفِينَ ۝ 45
वे इससे पहले सुख-सम्पन्‍न थे;॥45॥
وَكَانُواْ يُصِرُّونَ عَلَى ٱلۡحِنثِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 46
और बड़े गुनाह पर अड़े रहते थे।॥46॥
وَكَانُواْ يَقُولُونَ أَئِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 47
कहते थे, "क्या जब हम मर जाएँगे और मिट्टी और हड्डियाँ होकर रह जाएँगे, तो क्या हम वास्तव में उठाए जाएँगे?॥47॥
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 48
"और क्या हमारे पहले के बाप-दादा भी?"॥48॥
قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَوَّلِينَ وَٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 49
कह दो, "निश्‍चय ही अगले और पिछले भी।॥49॥
لَمَجۡمُوعُونَ إِلَىٰ مِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 50
एक नियत समय पर इकट्ठे कर दिए जाएँगे जिसका दिन ज्ञात और नियत है।॥50॥
ثُمَّ إِنَّكُمۡ أَيُّهَا ٱلضَّآلُّونَ ٱلۡمُكَذِّبُونَ ۝ 51
"फिर तुम ऐ गुमराहो, झुठलानेवालो! ॥51॥
لَأٓكِلُونَ مِن شَجَرٖ مِّن زَقُّومٖ ۝ 52
ज़क्‍़क़ूम (थूहड़) के वृक्ष में से खाओगे;॥52॥
فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 53
और उसी से पेट भरोगे;॥53॥
فَشَٰرِبُونَ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 54
और उसके ऊपर से खौलता हुआ पानी पीओगे;॥54॥
فَشَٰرِبُونَ شُرۡبَ ٱلۡهِيمِ ۝ 55
और तौंस लगे ऊँट1 की तरह पीओगे।"॥55॥ ———————— 1. अर्थात् प्यास के रोगी ऊँट।
هَٰذَا نُزُلُهُمۡ يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 56
यह बदला दिए जाने के दिन उनका पहला सत्कार होगा।॥56॥
نَحۡنُ خَلَقۡنَٰكُمۡ فَلَوۡلَا تُصَدِّقُونَ ۝ 57
हमने तुम्हें पैदा किया; फिर तुम सच क्यों नहीं मानते?॥57॥
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تُمۡنُونَ ۝ 58
तो क्या तुमने विचार किया जो चीज़ तुम टपकाते हो?॥58॥
ءَأَنتُمۡ تَخۡلُقُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 59
क्या तुम उसे आकार देते हो या हम हैं आकार देनेवाले?॥59॥
نَحۡنُ قَدَّرۡنَا بَيۡنَكُمُ ٱلۡمَوۡتَ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 60
हमने तुम्हारे बीच मृत्यु को नियत किया है और हमारे बस से यह बाहर नहीं है।॥60॥
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمۡثَٰلَكُمۡ وَنُنشِئَكُمۡ فِي مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 61
कि हम तुम्हारे जैसों को बदल दें और तुम्हें ऐसी हालत में उठा खड़ा करें जिसे तुम जानते नहीं।॥61॥
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُولَىٰ فَلَوۡلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 62
तुम तो पहली पैदाइश को जान चुके हो, फिर तुम ध्यान क्यों नहीं देते?॥62॥
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَحۡرُثُونَ ۝ 63
फिर क्या तुमने देखा जो कुछ तुम खेती करते हो?॥63॥
ءَأَنتُمۡ تَزۡرَعُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلزَّٰرِعُونَ ۝ 64
क्या उसे तुम उगाते हो या हम उसे उगाते हैं?॥64॥
لَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَٰهُ حُطَٰمٗا فَظَلۡتُمۡ تَفَكَّهُونَ ۝ 65
यदि हम चाहें तो उसे भुस बनाकर रख दें। फिर तुम बातें बनाते रह जाओ।॥65॥
إِنَّا لَمُغۡرَمُونَ ۝ 66
कि "हमपर उलटा डाँड़ (दंड) पड़ गया, ॥66॥
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 67
बल्कि हम वंचित होकर रह गए!"॥67॥
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلۡمَآءَ ٱلَّذِي تَشۡرَبُونَ ۝ 68
फिर क्या तुमने उस पानी को देखा जिसे तुम पीते हो?॥68॥
ءَأَنتُمۡ أَنزَلۡتُمُوهُ مِنَ ٱلۡمُزۡنِ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنزِلُونَ ۝ 69
क्या उसे बादलों से तुमने बरसाया या बरसानेवाले हम हैं?॥69॥
لَوۡ نَشَآءُ جَعَلۡنَٰهُ أُجَاجٗا فَلَوۡلَا تَشۡكُرُونَ ۝ 70
यदि हम चाहें तो उसे अत्यन्त खारा बनाकर रख दें। फिर तुम कृतज्ञता क्यों नहीं दिखाते?॥70॥
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي تُورُونَ ۝ 71
फिर क्या तुमने उस आग को देखा जिसे तुम सुलगाते हो?॥71॥
ءَأَنتُمۡ أَنشَأۡتُمۡ شَجَرَتَهَآ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنشِـُٔونَ ۝ 72
क्या तुमने उसके वृक्ष को पैदा किया है या पैदा करनेवाले हम हैं?॥72॥
نَحۡنُ جَعَلۡنَٰهَا تَذۡكِرَةٗ وَمَتَٰعٗا لِّلۡمُقۡوِينَ ۝ 73
हमने उसे एक याददिहानी और मरुभूमि के मुसाफ़िरों और ज़रूरतमन्दों के लिए लाभप्रद बनाया।॥73॥
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 74
अतः तुम अपने महान रब के नाम की तसबीह (महिमागान) करो।॥74॥
۞فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ ۝ 75
अतः सुनो ! मैं क़सम खाता हूँ सितारों की स्थितियों की —॥75॥
وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٞ لَّوۡ تَعۡلَمُونَ عَظِيمٌ ۝ 76
और यह बहुत बड़ी गवाही है यदि तुम जानो —॥76॥
إِنَّهُۥ لَقُرۡءَانٞ كَرِيمٞ ۝ 77
निश्‍चय ही यह प्रतिष्ठित क़ुरआन है।॥77॥
فِي كِتَٰبٖ مَّكۡنُونٖ ۝ 78
एक सुरक्षित किताब में अंकित है।॥78॥
لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُطَهَّرُونَ ۝ 79
उसे केवल पाक-साफ़ व्यक्ति ही हाथ लगाते हैं।॥79॥
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 80
उसका अवतरण सारे संसार के रब की ओर से है।॥80॥
أَفَبِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَنتُم مُّدۡهِنُونَ ۝ 81
फिर क्या तुम उस वाणी के प्रति उपेक्षा दर्शाते हो? ॥81॥
وَتَجۡعَلُونَ رِزۡقَكُمۡ أَنَّكُمۡ تُكَذِّبُونَ ۝ 82
और तुम इसको अपनी वृत्ति बना रहे हो कि झुठलाते हो?॥82॥
فَلَوۡلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلۡحُلۡقُومَ ۝ 83
फिर ऐसा क्यों नहीं होता, जबकि प्राण कण्ठ को आ लगते हैं॥83॥
وَأَنتُمۡ حِينَئِذٖ تَنظُرُونَ ۝ 84
और उस समय तुम देख रहे होते हो —॥84॥
وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُبۡصِرُونَ ۝ 85
और हम तुम्हारी अपेक्षा उससे अधिक निकट होते हैं। किन्तु तुम देखते नहीं —॥85॥
فَلَوۡلَآ إِن كُنتُمۡ غَيۡرَ مَدِينِينَ ۝ 86
फिर ऐसा क्यों नहीं होता कि यदि तुम अधीन2 नहीं हो॥86॥ —————— 2. अर्थात् यदि तुम स्वतंत्र हो और तुम्हारा आख़िरत में कोई हिसाब-किताब होनेवाला नहीं है तो प्राण को क्यों जाने देते हो? उसे रोक रखो।
تَرۡجِعُونَهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 87
तो उसे (प्राण को) लौटा लो यदि तुम सच्‍चे हो।॥87॥
فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 88
फिर यदि वह अल्लाह के निकटवर्तियों में से है;॥88॥
فَرَوۡحٞ وَرَيۡحَانٞ وَجَنَّتُ نَعِيمٖ ۝ 89
तो (उसके लिए) आराम, सुख-सामग्री और सुगंध है, और नेमतवाला बाग़ है।॥89॥
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 90
और यदि वह भाग्यशालियों में से है॥90॥
فَسَلَٰمٞ لَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 91
तो "सलाम है तुम्हें कि तुम सौभाग्यशाली में से हो।"॥91॥
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 92
किन्तु यदि वह झुठलानेवालों, गुमराहों में से है;॥92॥
فَنُزُلٞ مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 93
तो उसका पहला सत्कार खौलते हुए पानी से होगा।॥93॥
وَتَصۡلِيَةُ جَحِيمٍ ۝ 94
फिर भड़कती हुई आग में उन्हें झोंका जाना है।॥94॥
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ حَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 95
निस्संदेह यही विश्‍वसनीय सत्य है।॥95॥
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 96
अतः तुम अपने महान रब की तसबीह (महिमागान) करो।॥96॥