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سُورَةُ الأَنفَالِ

    1. अल-अनफ़ाल

    (मदीना में उतरी – आयतें 75)

    परिचय

    उतरने का समय

    यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।

    नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-

    एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।

    बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।

    मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।

    इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्‍न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।

    17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"

    वार्ताएँ

    यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।

    इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों  में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।

    फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।

    फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।

    फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।

    फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।

    फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।

    फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।

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سُورَةُ الأَنفَالِ
8. अल-अनफ़ाल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَنفَالِۖ قُلِ ٱلۡأَنفَالُ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَصۡلِحُواْ ذَاتَ بَيۡنِكُمۡۖ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ
(1) तुमसे अनफ़ाल (लड़ाई में प्राप्त माल) के बारे में पूछते हैं ? कहो, “ये अनफ़ाल तो अल्लाह उसके रसूल के हैं, तुम लोग अल्लाह से डरो और अपने आपस के ताल्लुक़ात ठीक-ठाक रखो और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो, अगर तुम ईमानवाले हो।1''
1. यह लड़ाई की उस समीक्षा की अनोखी प्रस्तावना है। बद्र की लड़ाई में जो माल कुरैश की सेना से प्राप्त किया गया था, उसके बँटवारे पर मुसलमानों में विवाद खड़ा हो गया। चूंकि इस्लाम अपनाने के बाद उन लोगों को पहली बार इस्लामी झंडे के तहत लड़ने का संयोग प्राप्त हुआ था, इसलिए उनको मालूम न था कि इस व्यवस्था में लड़ाई और उससे पैदाशुदा समस्याओं के बारे में क्या नियम हैं, इसलिए बद्र की लड़ाई में शत्रुओं की पराजय के बाद जिन लोगों ने जो-जो कुछ माल प्राप्त किया था, वे अरब के पुराने तरीक़े के अनुसार अपने आपको उसका मालिक समझ बैठे थे। [बाक़ी लोगों में एक गिरोह उन लोगों का था जिन्होंने] ग़नीमत के माल की ओर ध्यान देने के बजाय शत्रुओं का पीछा किया था, [और दूसरा गिरोह उन लोगों का था जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रक्षा कर रहा था। उन दोनों गिरोहों ने भी अपना-अपना दावा पेश किया, और इस तर्क के साथ पेश किया कि अगर उसने वह सेवा न की होती, जो की है, तो न लड़ाई में यह विजय मिलती और न लड़ाई का माल हाथ आया होता।] परन्तु माल, व्यावहारिक रूप से जिस फरीक के कब्जे में था, उसकी मिल्कियत के लिए मानो किसी प्रमाण की ज़रूरत न थी और वह दूसरों का कोई तर्क मानने के लिए तैयार न था। अन्ततः इस विवाद ने कटुता का रूप धारण कर लिया और ज़बानों से दिलों तक कड़वाहट फैलने लगी। यह थी वह मनोवैज्ञानिक स्थिति जिसे अल्लाह तआला ने सूरा अनफाल अवतरित करने के लिए चुन लिया और लड़ाई पर अपनी समीक्षा का आरंभ इसी समस्या से किया, और इस समीक्षा का पहला ही बाक्य यह था, तुमसे अनफाल (लड़ाई में प्राप्त माल) के बारे में पूछते हैं ?" यह उन गनीमत के मालों को, जो बद्र की लड़ाई में मुसलमानों के हाथ आए थे, ग़नायम (ग़नीमत) के बजाय ' अनफाल ' शब्द से व्यक्त करना अपने आपमें समस्या का हल अपने भीतर रखता था। अनफाल बहुवचन है नफ्ल का । अरबी भाषा में नफ़्ल उसे कहते हैं जो वाजिब से या अधिकार से अधिक हो । जब यह अधीन की ओर से हो तो इससे तात्पर्य वह स्वयंसेवा है जो एक दास अपने स्वामी के लिए कर्तव्य से भी बढ़कर करता है, जैसे नफ़्ल नमाज़। और जब यह स्वामी की ओर से हो तो इससे तात्पर्य वह उपहार और पुरस्कार होता है जो स्वामी अपने दास को उसके हक़' से अधिक देता है। अतः कहने का अर्थ यह हुआ कि यह सारा विवाद क्या अल्लाह के प्रदान किए हुए पुरस्कारों के बारे में हो रहा है ? अगर यह बात है तो तुम लोग इनके मालिक और अधिकारी कहाँ बने जा रहे हो कि स्वयं उनके बँटवारे का निर्णय करो। माल जिसका दिया हुआ है वही निर्णय करेगा कि किसे दिया जाए और किसे नहीं। और जिसको भी दिया जाए उसे कितना दिया जाए । यहाँ 'अनफ़ाल' के विवाद को केवल इतनी बात कहकर समाप्त कर दिया है कि ये अल्लाह और उसके रसूल के हैं। बँटवारे को समस्या को यहाँ नहीं छेड़ा गया, ताकि पहले समर्पण और आज्ञा-पालन पूर्ण हो जाए। फिर कुछ आयतों के बाद बताया गया कि उन मालों को कैसे बाँटा जाए। इसी लिए यहाँ उन्हें 'अनफाल' कहा गया है और आयत 41 में जब बाँटने का आदेश देने का अवसर आया, तो इन्हीं मालों को 'ग़नीमतों' के शब्द से व्यक्त किया गया।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَإِذَا تُلِيَتۡ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُهُۥ زَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 1
(2) सच्चे ईमानवाले तो वे लोग हैं जिनके दिल अल्लाह का ज़िक्र सुनकर काँप उठते हैं और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाती है तो उनका ईमान बढ़ जाता है 2 और वे अपने रब पर भरोसा रखते हैं,
2. अर्थात हर ऐसे अवसर पर जब कि अल्लाह का कोई आदेश मनुष्य के सामने आए और वह उसे सच्चा समझकर उसका पालन करे, आदमी के ईमान में बढ़ोत्तरी होती है। इसके विपरीत अगर ऐसा करने में आदमी कोताही करे तो उसके ईमान की जान निकलनी शुरू हो जाती है। इस तरह मालूम हुआ कि ईमान और इंकार दोनों में अवनति और उन्नति की क्षमता मौजूद है। हर इंकार की स्थिति घट भी सकती है और बढ़ भी सकती है, और इसी तरह हर स्वीकरण और पुष्टि में उनति भी हो सकती है और अवनति भी। अलबत्ता धर्मशास्त्रों (फ़िक़्ह) की दृष्टि से संस्कृति-व्यवस्था में अधिकारों और पदों का निर्धारण जब भी किया जाएगा तो मानने, न मानने दोनों को बस एक ही स्थिति का एतिबार किया जाएगा। (उनकी विभिन्न परिस्थितियों और मनोदशाओं का कोई लिहाज न किया जाएगा।]
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 2
(3) जो नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से (हमारे रास्ते में) ख़र्च करते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَمَغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 3
(4) ऐसे ही लोग सच्चे ईमानवाले हैं। उनके लिए उनके रब के पास बड़े दजें हैं, ग़लतियों से माफ़ी है3 और उत्तम रोज़ी है।
3. ग़लतियाँ बड़े से बड़े और अच्छे से अच्छे ईमानवालों से भी हो सकती हैं और हुई हैं और जब तक इंसान इंसान है, यह असंभव है कि उसका कर्म-पत्र पूरी तरह उत्कृष्ट कार्यों ही पर सम्मिलित हो और ग़लती, कोताही, त्रुटि से बिलकुल खाली रहे । मगर अल्लाह की रहमतों में से यह भी एक बड़ी रहमत हैं कि जब इंसान बन्दगी की अनिवार्य शर्ते पूरी कर देता है तो अल्लाह उसकी ग़लतियों को अनदेखा कर देता है और कर उसकी सेवाएं जिस बदले की हक़दार होती हैं, उससे कुछ अधिक बदला अपनी कृपा से प्रदान करता है।
كَمَآ أَخۡرَجَكَ رَبُّكَ مِنۢ بَيۡتِكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لَكَٰرِهُونَ ۝ 4
(5) (लड़ाई में प्राप्त इस माल के मामले में भी वैसी ही स्थिति सामने आ रही है जैसी उस समय सामने आई थी, जबकि) तेरा रब तुझे हक़ के साथ तेरे घर से निकाल लाया था और ईमानवालों में से एक गिरोह को यह सख्‍़त नागवार था।
يُجَٰدِلُونَكَ فِي ٱلۡحَقِّ بَعۡدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى ٱلۡمَوۡتِ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 5
(6) वे उस हक़ के मामले में तुझसे झगड़ रहे थे, हालाँकि वह खुलकर स्पष्ट हो चुका था। उनका हाल यह था कि मानो वे आँखों देखते मौत की ओर हाँके जा रहे हैं।4
4. अर्थात जिस तरह उस समय ये लोग ख़तरे का सामना करने से घबरा रहे थे, हालाँकि हक़ की माँग उस समय यही थी कि ख़तरे के मुँह में चले जाएँ, उसी तरह आज इन्हें ग़नीमत का माल हाथ से छोड़ना नागवार हो रहा है, हालाँकि हक़ की माँग यही है कि वे उसे छोड़ें और आदेश की प्रतिक्षा करें। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अगर अल्लाह का आज्ञापालन करोगे और अपने मन की इच्छा के बजाय रसूल का कहा मानोगे, तो वैसा ही अच्छा परिणाम देखोगे जैसा अभी बद्र की लड़ाई के मौके पर देख चुके हो कि तुम्हें कुरैश की सेना के मुक़ाबले पर जाना अति अप्रिय था और उसे तुम विनाश-सन्देश समझ रहे थे, गा। लेकिन जब तुमने अल्लाह और उसके रसूल के आदेश का पालन किया तो यही भयानक कार्य तुम्हारे लिए जीवन का संदेश प्रमाणित हुआ । क़ुरआन के इस कथन से गौणतः उन रिवायतों का भी खडंन हो रहा है जो बद्र की लड़ाई के सिलसिले में सामान्यतः नबी की जीवनी और आपके युद्धों से संबंधित पुस्तकों में बयान की जाती हैं, अर्थात यह कि आरंभ में नबी (सल्ल०) और ईमानवाले काफिले को लूटने के लिए मदीना से चल पड़े थे, फिर कुछ दूर आगे चलकर जब मालूम हुआ कि कुरैश की सेना क़ाफ़िले की रक्षा के लिए आ रही है तब यह सलाह-मश्विरा किया गया कि काफिले पर हमला किया जाए या फ़ौज का मुक़ाबला? इसके विपरीत कुरआन यह बता रहा है कि जिस समय नबी (सल्ल.) अपने घर से निकले थे, उसी समय यह मूलोद्देश्य आपके सामने था कि कुरैश की सेना से निर्णायक मुक़ाबला किया जाए और यह सलाह-मश्विरा भी उसी समय हुआ था कि काफिले और सेना में से किसको हमले के लिए चुना जाए और इसके बावजूद कि ईमानवालों पर यह वास्तविकता स्पष्ट हो चुकी थी कि सेना ही से निपटना ज़रूरी है, फिर भी उनमें से एक गिरोह इससे बचने के लिए तर्क वितर्क करता रहा और अन्ततः जब अन्तिम राय यह बन गई कि सेना ही की ओर चलना चाहिए तो यह गिरोह मदीना से यह विचार करता हुआ चला कि हम सीधे मौत के मुँह में हाँके जा रहे हैं।
وَإِذۡ يَعِدُكُمُ ٱللَّهُ إِحۡدَى ٱلطَّآئِفَتَيۡنِ أَنَّهَا لَكُمۡ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيۡرَ ذَاتِ ٱلشَّوۡكَةِ تَكُونُ لَكُمۡ وَيُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُحِقَّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَيَقۡطَعَ دَابِرَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 6
(7, 8) याद करो वह अवसर जबकि अल्लाह तुमसे वादा कर रहा था कि दोनों गिरोहों में से एक तुम्हें मिल जाएगा।5 तुम चाहते थे कि कमज़ोर गिरोह तुम्हें मिले6, मगर अल्लाह का इरादा यह था कि अपने कथनों से सत्य को सत्य कर दिखाए और काफिरों (विरोधियों) की जड़ काट दे, ताकि सत्य सत्य होकर रहे और असत्य असत्य होकर रह जाए भले ही अपराधियों को यह कितना ही अप्रिय हो।7
5. अर्थात क़ुरैश का व्यापारिक काफ़िला जो शाम (सीरिया) की ओर से आ रहा था या कुरैश की सेना जो मक्का से आ रही थी।
6. अर्थात काफिला जिसके साथ केवल 30-40 रक्षक थे।
لِيُحِقَّ ٱلۡحَقَّ وَيُبۡطِلَ ٱلۡبَٰطِلَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 7
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إِذۡ تَسۡتَغِيثُونَ رَبَّكُمۡ فَٱسۡتَجَابَ لَكُمۡ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلۡفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُرۡدِفِينَ ۝ 8
(9) और वह अवसर जबकि तुम अपने रब से फ़रियाद कर रहे थे। उत्तर में उसने फ़रमाया कि मैं तुम्हारी सहायता के लिए एक हज़ार फ़रिश्ते एक के बाद एक भेज रहा हूँ।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ وَلِتَطۡمَئِنَّ بِهِۦ قُلُوبُكُمۡۚ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) यह बात अल्लाह ने तुम्हें केवल इसलिए बता दी कि तुम्हें शुभ-सूचना हो और तुम्हारे दिल इससे सन्तुष्ट हो जाएँ, वरना मदद तो जब भी होती है, अल्लाह ही की ओर से होती है। निस्संदेह अल्लाह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
إِذۡ يُغَشِّيكُمُ ٱلنُّعَاسَ أَمَنَةٗ مِّنۡهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ لِّيُطَهِّرَكُم بِهِۦ وَيُذۡهِبَ عَنكُمۡ رِجۡزَ ٱلشَّيۡطَٰنِ وَلِيَرۡبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمۡ وَيُثَبِّتَ بِهِ ٱلۡأَقۡدَامَ ۝ 10
(11) और वह समय जबकि अल्लाह अपनी ओर से ऊँघ के रूप में तुमपर सन्तोष और निर्भयता की दशा तारी कर रहा था8 और आसमान से तुम्हारे ऊपर पानी बरसा रहा था, ताकि तुम्हें पाक करे और तुमसे शैतान की डाली हुई गन्दगी दूर करे और तुम्हारी हिम्मत बँधाए और इसके द्वारा तुम्हारे कदम जमा दे।9
8. यही अनुभव मुसलमानों को उहुद की लड़ाई में भी हुआ था, जैसा कि । (क़ुरआन की सूरा-3), आले इमरान आयत 154 में गुज़र चुका है, और दोनों अवसरों पर कारण वही एक था कि जो अवसर तीव्र भय और घबराहट का था उस समय अल्लाह ने मुसलमानों के दिलों को ऐसे संताप से भर दिया कि उनपर ऊँघ छाने लगी।
9. यह उस रात की घटना है जिसकी सुबह को बद्र की लड़ाई हुई। उस वर्षा के तीन लाभ हुए एक यह कि कि मुसलमानों को पानी पर्याप्त मात्रा में मिल गया और उन्होंने तुरन्त हौज़ बना-बनाकर वर्षा का पानी रोक लिया। दूसरे यह कि मुसलमान चूंकि घाटी के ऊपरी भाग पर थे, इसलिए वर्षा की वजह से रेत जम गई और ज़मीन इतनी मज़बूत हो गई कि क़दम अच्छी तरह जम सकें और चलत-फिरत सुविधापूर्वक हो सके। तीसरे यह कि दुश्मनों की सेना नीचे की ओर थी, इसलिए वहाँ इस वर्षा के कारण कीचड़ हो गई और पाँव धँसने लगे। 'शैतान को डाली हुई गन्दगी' से तात्पर्य वह भय और घबराहट की स्थिति थी जिसके शुरू-शुरू में मुसलमान शिकार हो गए थे।
إِذۡ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَنِّي مَعَكُمۡ فَثَبِّتُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ سَأُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ فَٱضۡرِبُواْ فَوۡقَ ٱلۡأَعۡنَاقِ وَٱضۡرِبُواْ مِنۡهُمۡ كُلَّ بَنَانٖ ۝ 11
(12) और वह समय जबकि तुम्हारा रब फ़रिश्तों को इशारा कर रहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम ईमानवालों को जमाए रखो, मैं अभी इन काफ़िरों (विरोधियों) के दिलों में रौब डाले देता हूँ, तो तुम उनकी गरदनों पर मारो और जोड़-जोड़ पर चोट लगाओ।"10
10. जो सैद्धान्तिक बातें हमें क़ुरआन से मालूम हुई हैं, उनके आधार पर हम यह समझते हैं कि फरिश्तों से युद्ध में यह काम नहीं लिया गया होगा कि वे स्वयं लड़ने-मारने का काम करें, बल्कि शायद उसकी शक्ल यह होगी कि दुश्मनों पर जो चोट मुसलमान लगाएँ, वह फ़रिश्तों की सहायता से निशाने पर ठीक बैठे और गहरी लगे। (अल्लाह ही बेहतर जानता है।)
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَمَن يُشَاقِقِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 12
(13) यह इसलिए कि उन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करे, अल्लाह उसके लिए बड़ी कड़ी पकड़ करनेवाला है 11
11. यहाँ तक बद्र की लड़ाई की जिन घटनाओं को एक-एक करके याद दिलाया गया है, इसका उद्देश्य वास्तव में शब्द 'अनफाल' की सार्थकता स्पष्ट करना है। आरंभ में कहा गया था कि गनीमत के इस माल को अपनी वीरता का फल समझकर उसके मालिक व मुख्तार कहाँ बने जाते हो। यह तो वास्तव में अल्लाह की देन है और दाता स्वयं ही अपने माल का स्वामी है। अब इसके प्रमाण में ये घटनाएँ गिनाई गई हैं कि इस विजय में तुम स्वयं ही हिसाब लगाकर देख लो कि तुम्हारी अपनी मेहनत, वीरता और साहस का कितना भाग था और अल्लाह की कृपा का कितना भाग। इसलिए इसका निर्णय करना कि यह कैसे बाँटा जाए, तुम्हारा नहीं बल्कि अल्लाह का काम है।
ذَٰلِكُمۡ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 13
(14) यह है12 तुम लोगों की सज़ा, अब इसका मज़ा चखो और तुम्हें मालूम हो कि सत्य का इन्कार करनेवालों के लिए जहन्नम का अज़ाब है।
12. इस वाक्य में कुरैश के शत्रुओं को सम्बोधित किया गया है जिनकी बद्र में पराजय हुई थी और जिनके सज़ा का पात्र होने का उल्लेख ऊपर के वाक्य में हुआ था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ زَحۡفٗا فَلَا تُوَلُّوهُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ۝ 14
(15) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! जब तुम्हारा एक सेना के रूप में काफ़िरों (शत्रुओं) से मुक़ाबला हो तो उनके मुक़ाबले में पीठ न फेरो।
وَمَن يُوَلِّهِمۡ يَوۡمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ إِلَّا مُتَحَرِّفٗا لِّقِتَالٍ أَوۡ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٖ فَقَدۡ بَآءَ بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 15
(16) जिसने ऐसे अवसर पर पीठ फेरी—अलावा इसके कि युद्ध चाल के रूप में ऐसा करे या किसी दूसरी सेना से जा मिलने के लिए तो वह अल्लाह के प्रकोप में घिर जाएगा। उसका ठिकाना जहन्नम होगा और वह पलटने की बहुत बुरी जगह है।13
13. शत्रु के ज़बरदस्त दबाव पर व्यवस्थित रूप से पीछे हटना (Orderly retreat) अवैध नहीं है, जबकि इसका उद्देश्य अपने पीछेवाले केन्द्र की ओर पलटना या अपनी ही सेना के किसी दूसरे भाग से जा मिलना हो । अलबत्ता जो चीज़ हराम की गई है वह भगदड़ (Rout) है जो किसी सामरिक उद्देश्य के लिए नहीं, बल्कि मात्र भीरुता और पराजित भावना के कारण होती है और इसलिए हुआ करती है कि भगोड़े आदमी को अपने उद्देश्य की अपेक्षा जान अधिक प्यारी होती है। इस भागने को महापापों में सम्मलित किया गया है। चुनांचे नबी (सल्ल.) फरमाते हैं कि तीन पाप ऐसे हैं कि उनके साथ कोई नेको फायदा नहीं देती। एक शिर्क (अनेकेश्वरवाद), दूसरे माँ-बाप के हक़ मारना, तीसरे अल्लाह के रास्ते में किए जा रहे युद्ध के क्षेत्र से भागना। इसी तरह एक और हदीस में आपने सात बड़े पापों का उल्लेख किया है जो इंसान के लिए विनाशक और आख़िरत में उसके अंजाम के लिए तबाही लानेवाले हैं। उनमें से एक यह पाप भी
فَلَمۡ تَقۡتُلُوهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ قَتَلَهُمۡۚ وَمَا رَمَيۡتَ إِذۡ رَمَيۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ رَمَىٰ وَلِيُبۡلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡهُ بَلَآءً حَسَنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 16
(17) अत: सच तो यह है कि तुमने उन्हें क़त्ल नहीं किया, बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया, और ऐ नबी ! तूने नहीं फेंका, बल्कि अल्लाह ने फेंका।14 (और ईमानवालों के हाथ जो इस काम में जो इस्तेमाल किए गए) तो यह इसलिए था कि अल्लाह ईमानवालों को एक उत्तम परीक्षा से सफलतापूर्वक गुज़ार दे, निश्चिय ही अल्लाह सुनने और जाननेवाला है ।
14. बद्र की लड़ाई में जब मुसलमानों और इस्लाम-शत्रुओं की सेनाएँ आमने-सामने आ गई और लड़ाई छिड़ जाने का समय आ गया तो हुजूर (सल्ल०) ने मुट्ठी-भर रेत हाथ में लेकर 'शाहतिल वजूह' अर्थात् उनके चेहरे झुलस जाएँ कहते हुए शत्रुओं की ओर फेंकी और इसके साथ ही आपके इशारे से मुसलमान एक साथ शत्रुओं पर हमलावर हुए। इसी घटना की ओर संकेत है। अर्थ यह है कि हाथ तो रसूल का था, मगर चोट अल्लाह की ओर से थी।
ذَٰلِكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُوهِنُ كَيۡدِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 17
(18) यह मामला तो तुम्हारे साथ है और काफ़िरों के साथ मामला यह है कि अल्लाह उनकी चालों को कमज़ोर करनेवाला है।
إِن تَسۡتَفۡتِحُواْ فَقَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡفَتۡحُۖ وَإِن تَنتَهُواْ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَعُودُواْ نَعُدۡ وَلَن تُغۡنِيَ عَنكُمۡ فِئَتُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَوۡ كَثُرَتۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 18
(19) (इन काफ़िरों से कह दो,) “अगर तुम निर्णय चाहते थे तो लो, निर्णय तुम्हारे सामने आ गया।15 अब बाज़ आ जाओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है, वरना फिर पलटकर उसी मूर्खता को दोहराओगे तो हम भी उसी सज़ा को दोहराएँगे और तुम्हारा जत्था, भले ही वह कितना बड़ा हो, तुम्हारे कुछ काम न आ सकेगा। अल्लाह ईमानवालों के साथ है।"
15. मक्का से चलते समय मुशरिकों ने काबे का परदा पकड़कर दुआ माँगी थी कि ऐ अल्लाह ! दोनों गिरोहों में से जो बेहतर है उसको विजय प्रदान कर और अबू जस्ल ने मुख्य रूप से कहा था कि ऐ अल्लाह ! हममें से जो सत्य पर हो उसे विजय प्रदान कर और जो असत्य पर हो उसे रुसवा कर दे। चुनाँचे अल्लाह ने उनकी मुँह माँगी दुआएँ शब्दशः पूरी कर दी और निर्णय करके बता दिया कि दोनों में से कौन अच्छा और सत्य पर है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَأَنتُمۡ تَسۡمَعُونَ ۝ 19
(20) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो और आदेश सुनने के बाद उससे मुँह न फेरो।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 20
(21) उन लोगों की तरह न हो जाओ जिन्होंने कहा कि हमने सुना, हालाँकि वे नहीं सुनते ।16
16. यहाँ सुनने से तात्पर्य वह सुनना है जो मानने और स्वीकार करने के अर्थ में होता है । संकेत उन मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) की ओर है जो ईमान को स्वीकार तो करते थे, परन्तु आदेशों के पालन से मुँह मोड़ जाते थे।
۞إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلصُّمُّ ٱلۡبُكۡمُ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 21
(22) निश्चय ही अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरे क़िस्म के जानवर वे बहरे-गूंगे लोग हैं17 जो बुद्धि से काम नहीं लेते।
17. अर्थात जो न सत्य सुनते हैं, न सत्य बोलते हैं। जिनके कान और जिनके मुँह सत्य के लिए बहरे और गूँगे हैं।
وَلَوۡ عَلِمَ ٱللَّهُ فِيهِمۡ خَيۡرٗا لَّأَسۡمَعَهُمۡۖ وَلَوۡ أَسۡمَعَهُمۡ لَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) अगर अल्लाह को मालूम होता कि इनमें कुछ भी भलाई है तो वह अवश्य ही उन्हें सुनने का सौभाग्य प्रदान करता। (लेकिन भलाई के बिना) अगर वह उनको सुनवाता तो वे कतराते हुए मुँह फेर जाते।18
18. अर्थात जब इन लोगों में स्वयं सत्यवादिता और सत्य के लिए काम करने की भावना नहीं है तो इन्हें अगर आदेश के पालन में लड़ाई के लिए निकल आने का सौभाग्य प्रदान भी कर दिया जाता तो ये संकट का अवसर देखते ही नि:संकोच भाग निकलते और इनका साथ तुम्हारे लिए लाभप्रद होने के बजाय उलटा हानिप्रद बन जाता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيكُمۡۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَحُولُ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَقَلۡبِهِۦ وَأَنَّهُۥٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 23
(24) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अल्लाह और उसके रसूल की पुकार को स्वीकार करो जबकि रसूल तुम्हें उस चीज़ की ओर बुलाए जो तुम्हें जीवन प्रदान करनेवाली है, और जान रखो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के बीच आड़ बन जाता है और उसी की ओर तुम समेटे जाओगे19
19. कपटाचार (निफ़ाक़) की रीति से इंसान को बचाने के लिए अगर कोई सर्वाधिक प्रभावी उपाय है तो वह केवल यह है कि दो विश्वास (अक़ीदे) मानव मन में बैठ जाएँ । एक यह कि मामला उस अल्लाह के साथ है जो दिलों का हाल तक जानता है और ऐसा भेद जाननेवाला है कि आदमी अपने मन में जो नीयतें, जो इच्छाएँ, जो स्वार्थ, जो उद्देश्य और जो विचार छिपाकर रखता है वह भी उसे मालूम है । दूसरे यह कि जाना बहरहाल अल्लाह के सामने है। उससे बचकर कहीं भाग नहीं सकते। ये दो विश्वास जितना अधिक सुदृढ़ होंगे, उतना ही मनुष्य कपटाचार से दूर रहेगा। इसी लिए कपटाचार के विरुद्ध उपदेश के सिलसिले में क़ुरआन इन दो विश्वासों का उल्लेख बार-बार करता है।
وَٱتَّقُواْ فِتۡنَةٗ لَّا تُصِيبَنَّ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنكُمۡ خَآصَّةٗۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 24
(25) और बचो उस फ़िल्ले से जिसकी शामत, मुख्य रूप से केवल उन्हीं लोगों तक सीमित न रहेगी जिन्होंने तुममें से पाप किया हो20, और जान रखो कि अल्लाह कड़ी सज़ा देनेवाला है।
20. इससे तात्पर्य वे सामूहिक बिगाड़ (फ़िल्ले) हैं जो महामारियों की तरह ऐसी शामत लाते हैं जिसमें केवल पापी ही गिरफ्तार नहीं होते, बल्कि वे लोग भी मारे जाते हैं जो पापी समाज में रहना गवारा करते रहे हों। उदाहरणस्वरूप इसको यूं समझिए कि जब तक किसी नगर में गन्दगियाँ कहीं-कहीं पृथक रूप से कुछ जगहों पर रहती हैं, उनका प्रभाव सीमित रहता है और उनसे वे खास लोग ही प्रभावित होते हैं जिन्होंने अपने शरीर और अपने घर को गन्दगी से भर रखा हो। लेकिन जब वहाँ गन्दगी आम हो जाती है और कोई गिरोह भी समूचे नगर में ऐसा नहीं होता जो इस ख़राबी को रोकने और सफाई का प्रबन्ध करने का यत्न करे तो फिर वायु, धरती, जल, हर वस्तु में विष फैल जाता है और इसके नतीजे में जो महामारी आती है, उसकी लपेट में गन्दगी फैलानेवाले और गन्दा रहनेवाले और गन्दे वातावरण में जीवन व्यतीत करनेवाले सभी आ जाते हैं। इसी तरह नैतिक गन्दगियों का हाल भी है कि अगर वे व्यक्तिगत रूप से कुछ लोगों में मौजूद रहें और भले समाज के रौब से दबी रहें तो उनकी हानियाँ सीमित रहती हैं, लेकिन जब समाज की सामूहिक अन्तरात्मा दुर्बल हो जाती है, जब नैतिक दोषों को दबाकर रखने की क्षमता उसमें नहीं रहती, जब उसके बीच बुरे, निर्लज्ज और दुराचारी लोग अपने मन की गन्दगियों को खुल्लम-खुल्ला उछालने और फैलाने लगते हैं और जब अच्छे लोग नकारात्मक दृष्टिकोण (Passive Attitude) अपनाकर अपनी व्यक्तिगत अच्छाई को सब कुछ समझ लेते हैं और सामूहिक बुराइयों पर चुप्पी साध लेते हैं, तो कुल मिलाकर पूरे समाज की शामत आ जाती है और वह आम बिगाड़ फैल जाता है जिसमें चने के साथ घुन भी पिस जाता है। अतएव अल्लाह के कथन का मंशा यह है कि रसूल जिस सुधार और हिदायत के काम के लिए उठा है और तुम्हें जिस सेवा में हाथ बटाने के लिए बुला रहा है, उसी में वास्तव में व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों हैसियतों से तुम्हारे लिए जीवन है। अगर इसमें सच्चे दिल से निष्ठापूर्ण भाग न लोगे और उन बुराइयों को जो समाज में फैली हुई हैं सहन करते रहोगे तो वह आम फ़ित्मा पैदा होगा जिसकी आफ़त सबको लपेट में ले लेगी, भले ही बहुत-से लोग तुम्हारे बीच ऐसे मौजूद हों जो व्यावहारिक रूप से बुराई करने और बुराई फैलाने के ज़िम्मेदार न हों, बल्कि अपने निजी जीवन में भलाई ही लिए हुए हों। यह वही बात है जिसका क़ुरआन की सूरा-7, (आराफ़), आयत 163-166 में सनीचरवालों का ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वर्णन किया जा चुका है, और यही वह दृष्टिकोण है जिसे इस्लाम की सुधारात्मक लड़ाई का मूल सिद्धान्त कहा जा सकता है।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ أَنتُمۡ قَلِيلٞ مُّسۡتَضۡعَفُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ ٱلنَّاسُ فَـَٔاوَىٰكُمۡ وَأَيَّدَكُم بِنَصۡرِهِۦ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 25
(26) याद करो वह समय जबकि तुम थोड़े थे, धरती में तुमको बलहीन समझा जाता था, तुम डरते रहते थे कि कहीं लोग तुम्हें मिटा न दें। फिर अल्लाह ने तुम्हें शरण लेने का स्थान जुटाया, अपनी मदद से तुम्हारे हाथ मज़बूत किए और तुम्हें अच्छी रोजी पहुँचाई, शायद कि तुम कृतज्ञ बनो।21
21. यहाँ 'कृतज्ञ बनो' शब्द ध्यान देने योग्य है । ऊपर के व्याख्यान-क्रम को दृष्टि में रखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि इस अवसर पर 'कृतज्ञ बनो' का तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि लोग अल्लाह के इस उपकार को माने कि उसने इस कमज़ोरी की हालत से उन्हें निकाला और मक्का के संकटमय जीवन से बचाकर शान्ति की जगह ले आया जहाँ पाक रोज़ी मिल रही है, बल्कि इसके साथ यह बात भी इसी कृतज्ञता के अर्थ में सम्मिलित है कि मुसलमान उस अल्लाह का और उसके रसूल का आज्ञापालन करें जिसने ये उपकार उनपर किए हैं और रसूल के मिशन में निष्ठा और प्राणोत्सर्जन के साथ काम करें और इस काम में जो ख़तरे, प्राणघातक स्थितियाँ और विपदाएँ सामने आएँ उनका वीरतापूर्ण मुक़ाबला उसी अल्लाह के भरोसे पर करते चले जाएँ जिसने इससे पहले उनको संकटों से कुशलतापूर्वक निकाला, और विश्वास रखें कि जब वे अल्लाह का काम निष्ठा के साथ करेंगे तो अल्लाह ज़रूर उनका सहायक और संरक्षक होगा। अतः कृतज्ञता स्वीकारोक्ति की हद तक ही अपेक्षित नहीं है, बल्कि व्यावहारिक रूप में भी अभीष्ट है। उपकार को स्वीकार करने के बाद भी उपकारी की प्रसन्नता के लिए यल न करना और उसकी सेवा में निष्ठा न दिखाना और उसके बारे में यह सन्देह रखना कि न जाने वह आगे भी उपकार करेगा या नहीं, कदापि कृतज्ञता नहीं है, बल्कि उलटी कृतघ्नता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَخُونُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ وَتَخُونُوٓاْ أَمَٰنَٰتِكُمۡ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 26
(27, 28) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ खियानत (विश्वासघात) न करो, अपनी अमानतों में22 गद्दारी के दोषी न बनो और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी संतान वास्तव में परीक्षा-सामग्री है23 और अल्लाह के पास अज्र (बदला) देने के लिए बहुत कुछ है।
22. 'अपनी अमानतों' से तात्पर्य वे तमाम ज़िम्मेदारियाँ हैं जो किसी पर भरोसा करके उसके सुपुर्द की जाएँ, भले ही वे वफ़ादारी के पालन की ज़िम्मेदारियाँ हों या सामूहिक समझौतों की, या संगठन [और संस्था] के रहस्यों की, या व्यक्तिगत व सामूहिक मालों की या किसी ऐसे पद को जो किसी व्यक्ति पर भरोसा करते हुए संगठन उसके सुपुर्द करे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए कुरआन की सूरा -4, (निसा), टिप्पणी 88)
23. मनुष्य की ईमानी-निष्ठा में जो चीज़ सामान्य रूप से बाधा पैदा करती है और जिस कारण मनुष्य प्रायः कपटाचार, विद्रोह और खियानती विश्वासघात में लिप्त होता है, वह अपने आर्थिक स्वार्थ और अपनी सन्तान के हित से उसकी अपार दिचलस्पी होती है। इसी लिए कहा कि यह माल और औलाद, जिनकी मुहब्बत में गिरफ्तार होकर तुम प्रायः सत्य से हट जाते हो, वास्तव में यह दुनिया की परीक्षा-स्थली में तुम्हारे लिए परीक्षा-सामग्री हैं। जिसे तुम बेटा या बेटी कहते हो, वास्तविकता को भाषा में वह परीक्षा का एक परचा है और जिसे तुम जायदाद या कारोबार कहते हो, वह भी वास्तव में एक दूसरी परीक्षा का परचा है। ये चीजें तुम्हारे सुपुर्द की ही इसलिए गई हैं कि इनके द्वारा तुम्हें जाँचकर देखा जाए कि तुम कहाँ तक मर्यादाओं और सीमाओं को ध्यान में रखते हो । कहाँ तक ज़िम्मेदारियों का बोझ लादे हुए भावनाओं के आकर्षण के बाद भी सीधे रास्ते पर चलते हो और कहाँ तक अपने मन को जो दुनिया की इन चीज़ों की मुहब्बत में गिरफ्तार होता है, इस तरह वश में रखते हो कि पूरी तरह सत्य के दास भी बने रहो और उन चीज़ों के हक़ भी उस हद तक अदा करते रहो, जिस हद तक अल्लाह ने स्वयं उनका हक़ निश्चित किया है।
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 27
0
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَتَّقُواْ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّكُمۡ فُرۡقَانٗا وَيُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अगर तुम ईशपरायणता अपनाओगे तो अल्लाह तुम्हारे लिए कसौटी जुटा देगा24 और तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर करेगा और तुम्हारे क़सूर माफ़ करेगा। अल्लाह बड़ा अनुग्रह करनेवाला है ।
24. कसौटी उस चीज़ को कहते हैं जो खरे और खोटे के अन्तर को स्पष्ट करती है। यही तात्पर्य 'फुरक़ान' का भी है। इसलिए हमने 'फुरकान' का अनुवाद इस शब्द (अर्थात कसौटी) से किया है । अल्लाह के कथन का मंशा यह है कि अगर तुम दुनिया में अल्लाह से डरते हुए काम करोगे और तुम्हारी हार्दिक इच्छा यह हो कि तुम कोई ऐसी हरकत न कर बैठो जो अल्लाह की प्रसन्नता के विरुद्ध हो, तो अल्लाह तुम्हारे भीतर वह परख-शक्ति पैदा कर देगा जिससे क़दम-क़दम पर तुम्हें स्वयं यह मालूम होता रहेगा कि कौन-सा रवैया सही है और कौन-सा ग़लत, किस रवैये में अल्लाह को प्रसन्नता है और किसमें उसका रोष । जीवन के हर मोड़, हर दोराहे, हर ऊँच-नीच में तुम्हारा भीतरी विवेक तुम्हें बताने लगेगा कि किधर क़दम उठाना चाहिए और किधर न उठाना चाहिए, कौन-सा रास्ता सत्य पर आधारित है और अल्लाह की ओर जाता है और कौन-सा रास्ता असत्य पर आधारित है और शैतान से मिलाता है।
وَإِذۡ يَمۡكُرُ بِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيُثۡبِتُوكَ أَوۡ يَقۡتُلُوكَ أَوۡ يُخۡرِجُوكَۚ وَيَمۡكُرُونَ وَيَمۡكُرُ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 29
(30) वह समय भी याद करने योग्य है जबकि सत्य का इंकार करनेवाले तेरे विरुद्ध उपाय सोच रहे थे कि तुझे कैद कर दें या क़त्ल कर डालें या देश निकाला दे दें।25 वे अपनी चालें चल रहे थे और अल्लाह अपनी चाल चल रहा था, और अल्लाह सबसे बेहतर चाल चलनेवाला है।
25. यह उस अवसर का उल्लेख है जबकि कुरैश को यह आशंका विश्वास की सीमा को पहुँच चुका था कि अब मुहम्मद (सल्ल०) भी मदीना चले जाएंगे। उस समय वे आपस में कहने लगे कि अगर यह व्यक्ति मक्का से निकल गया तो फिर खतरा हमारे काबू से बाहर हो जाएगा। चुनांचे उन्होंने आपके मामले में एक अन्तिम निर्णय करने के लिए 'दारुन्नदवा' (सलाह केन्द्र) में क़ौम के तमाम सरदारों को एक मीटिंग की और इस मामले में आपस में सलाह व मशविरा किया कि इस संकट का मुक़ाबला और रोकथाम किस तरह किया जाए। एक फरीक़ की राय यह थी कि उस व्यक्ति को बेड़ियाँ पहनाकर एक जगह कैद कर दिया जाए और जीते-जी रिहा न किया जाए। लेकिन यह मशविरा न माना गया, क्योंकि कहनेवालों ने कहा कि अगर हमने उसे कैद कर दिया तो उसके जो साथी कैदखाने के बाहर होंगे, वे बराबर अपना काम करते रहेंगे और जब थोड़ी-सी भी शक्ति पैदा कर लेंगे तो उसे छुड़ाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने में कमी न करेंगे। दूसरे फ़रीक़ की राय यह थी कि उसे अपने यहाँ से निकाल दो। फिर जब वह हमारे बीच न रहे तो हमें इससे कुछ बहस नहीं कि कहाँ रहता है और क्या करता है ? बहरहाल उसके अस्तित्व से हमारी जीवन-व्यवस्था में बाधा पड़नी तो बन्द हो जाएगी, लेकिन इसे भी यह कहकर रद्द कर दिया गया कि यह व्यक्ति अपनी बातों में जादू जैसा प्रभाव रखता है और दिलों को मोहने में उसे बड़ी निपुणता प्राप्त है। आगर यह यहाँ से निकल गया तो न जाने अरब के किन-किन क़बीलों को अपना अनुपालक बना लेगा और फिर कितनी शक्ति प्राप्त करके मध्य अरब के क़बीलों को अपनी सत्ता के आधीन लाने के लिए तुमपर धावा बोल देगा। अन्ततः अबू जल ने यह राय दी कि हम अपने तमाम कबीलों में से एक-एक उच्च वंशीय मुस्तैद जवान चुन लें और ये सब मिलकर एक साथ मुहम्मद पर टूट पड़ें और उसे क़त्ल कर डालें। इस प्रकार मुहम्मद का ख़ून तमाम कबीलों में बँट जाएगा और बनू अब्दे मुनाफ़ के लिए संभव न होगा कि सबसे लड़ सकें, इसलिए विवश होकर ख़ूनबहा (ख़ून का मुआवज़ा) पर फैसला करने के लिए तैयार हो जाएँगे। इस राय को सबने पसन्द किया। क़त्ल के लिए आदमी भी नामजद हो गए और क़त्ल का समय भी तय कर दिया गया, यहाँ तक कि जो रात इस काम के लिए निश्चित की गई थी, उसमें ठीक समय पर कत्ल करनेवालों का गिरोह अपनी ड्युटी पर पहुंच भी गया, लेकिन उनका हाथ पड़ने से पहले नबी (सल्ल०) उनकी आँखों में धूल झोंककर निकल गए और उनकी बनी बनाई चाल ठीक समय पर विफल होकर रह गई।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا قَالُواْ قَدۡ سَمِعۡنَا لَوۡ نَشَآءُ لَقُلۡنَا مِثۡلَ هَٰذَآ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 30
(31) जब उनको हमारी आयतें सुनाई जाती थी तो कहते थे कि "हाँ सुन लिया हमने, हम चाहें तो ऐसी ही बातें हम भी बना सकते हैं, ये तो वही पुरानी कहानियाँ हैं जो पहले से लोग कहते चले आ रहे हैं।"
وَإِذۡ قَالُواْ ٱللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ ٱلۡحَقَّ مِنۡ عِندِكَ فَأَمۡطِرۡ عَلَيۡنَا حِجَارَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ أَوِ ٱئۡتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 31
(32) और वह बात भी याद है जो उन्होंने कही थी कि “ऐ अल्लाह ! अगर यह वास्तव में सत्य है और तेरी ओर से है तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या कोई दर्दनाक अज़ाब हमपर ले आ’’26
26. यह बात वे दुआ के रूप में नहीं कहते थे, बल्कि चुनौती के रूप में कहते थे। अर्थात उनका अर्थ यह था कि अगर वास्तव में यह सत्य होता और अल्लाह की ओर से होता तो उसके झुठलाने का फल यह होना चाहिए था कि हमपर आसमान से पत्थर बरसते और दर्दनाक अज़ाब हमारे ऊपर टूट पड़ता। परन्तु जब ऐसा नहीं होता तो इसका अर्थ यह है कि यह न सत्य है,न अल्लाह की ओर से है।
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمۡ وَأَنتَ فِيهِمۡۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ مُعَذِّبَهُمۡ وَهُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 32
(33) उस समय तो अल्लाह उनपर अज़ाब उतारनेवाला न था जबकि तू उनके बीच मौजूद था और न अल्लाह का यह नियम है कि लोग तौबा कर रहे हों और वह उनको अज़ाब दे दे।27
27. यह उनके उस प्रश्न का उत्तर है जो उनकी ऊपरवाली प्रत्यक्ष दुआ में निहित था। इस उत्तर में बताया गया है कि अल्लाह ने मक्की काल में क्यों अज़ाब नहीं भेजा। इसका पहला कारण यह था कि जब तक नबी किसी आबादी में मौजूद हो और सत्य का आह्वान कर रहा हो, उस समय तक आबादी के लोगों को मोहलत दी जाती है और अज़ाब भेजकर समय से पहले उनसे सुधार लाने का दिया हुआ अवसर छीन नहीं लिया जाता। इसका दूसरा कारण यह है कि जब तक आबादी में से ऐसे लोग बराबर निकले चले आ रहे हों, जो अपनी पिछली कोताहियों और ग़लत आचरण पर सतर्क होकर अल्लाह से क्षमा याचना करते हों और आगे के लिए अपने रवैये में सुधार ले आते हों, उस समय तक इसका कोई उचित कारण नहीं है कि अल्लाह ख़ामखाह उस आबादी को नष्ट करके रख दे। अलबत्ता अज़ाब का असली वक्त वह होता है जब नबी इस आबादी पर हुज्जत (युक्ति) पूरी करने के बाद निराश होकर वहाँ से निकल जाए या निकाल दिया जाए या क़त्ल कर डाला जाए और वह आबादी अपनी रीति-नीति से सिद्ध कर दे कि वह किसी सत्य प्रिय तत्त्व को अपने बीच सहन करने के लिए तैयार नहीं है।
وَمَا لَهُمۡ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ ٱللَّهُ وَهُمۡ يَصُدُّونَ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَمَا كَانُوٓاْ أَوۡلِيَآءَهُۥٓۚ إِنۡ أَوۡلِيَآؤُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 33
(34 ) लेकिन अब क्यों न वह उनपर अज़ाब ले आए जबकि वे मस्जिदे हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद) का रास्ता रोक रहे हैं, हालाँकि वे उस मस्जिद के जाइज़ मुतवल्ली (वैध व्यवस्थापक) नहीं हैं। इसके जाइज़ मुतवल्ली तो सिर्फ़ परहेज़गार ही हो सकते हैं, मगर अधिकतर लोग इस बात को नहीं जानते ।
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمۡ عِندَ ٱلۡبَيۡتِ إِلَّا مُكَآءٗ وَتَصۡدِيَةٗۚ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 34
(35) अल्लाह के घर के पास उन लोगों की नमाज़ क्या होती है? बस सीटियाँ बजाते और तालियाँ पीटते हैं।28 इसलिए अब लो, इस अज़ाब का मज़ा चखो अपने उस सत्य के इंकार के बदले में जो तुम करते रहे हो।29
28. यह संकेत उस भ्रम को दूर करता है जो लोगों के मन में पाया जाता था और जिससे सामान्य रूप से अरब के लोग धोखा खा रहे थे। वे समझते थे कि कुरैश चूँकि अल्लाह के घर के मुजाविर और मुतवल्ली मक (प्रबन्धक और देखभाल करनेवाले) हैं और वहाँ पूजा-पाठ करते हैं इसलिए उनपर अल्लाह की मेहरबानी या है। इसके खंडन में कहा गया कि मात्र वरासत में मुजाविर और मुतवल्ली हो जाने से कोई व्यक्ति या गिरोह किसी इबादतगाह का जाइज़ मुजाविर और मुतवल्ली नहीं हो सकता। जाइज़ मुजाविर और मुतवल्ली तो केवल खुदा से डरकर और जीवन गुज़ानेवाले (परहेज़गार) लोग ही हो सकते हैं। और इन लोगों का हाल यह है कि एक गिरोह को, जो अल्लाह की विशुद्ध इबादत करनेवाला है, उस इबादतगाह में आने से रोकते हैं जो विशुद्ध रूप से अल्लाह की इबादत ही के लिए वक्फ की गई थी। इस तरह ये मुतवल्ली और सेवक बनकर रहने के बजाय इस इबादतगाह के मालिक बन बैठे हैं और अपने आपको इस बात का अधिकारी समझने लगे हैं कि जिससे ये रुष्ट हों,उसे इबादतगाह में न आने दें। यह हरकत इस बात की खुली दलील है कि न तो वे ख़ुदा से डरते है और न ही परहेज़गार हैं। रही उनकी इबादत जो वे अल्लाह के घर में करते हैं, तो न उसके भीतर एकग्रता है न विनम्रता, न अल्लाह की ओर ध्यान है और न अल्लाह का स्मरण । बस एक निरर्थक शोर-हंगामा और खेल-तमाशा है जिसका नाम उन्होंने इबादत रख म छोड़ा है। अल्लाह के घर की ऐसी तथा कथित सेवा और ऐसी झूठी इबादत पर आखिर ये अल्लाह की कृपा के अधिकारी कैसे हो गए और यह चीज़ उन्हें अल्लाह के अज़ाब से कैसे सुरक्षित रख सकती है?
29. वे समझते थे कि अल्लाह का अज़ाब सिर्फ आसमान से पत्थरों की शक्ल में या किसी और तरह की प्रकृति-शक्ति के उफान के रूप में आया करता है, मगर यहाँ उन्हें बताया गया है कि बद्र की लड़ाई में उनकी निर्णायक पराजय, जिसकी वजह से इस्लाम के लिए जीवन का और प्राचीन अज्ञानी व्यवस्था के लिए मृत्यु का निर्णय हुआ है, वास्तव में उनके लिए अल्लाह का अज़ाब ही है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ لِيَصُدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيۡهِمۡ حَسۡرَةٗ ثُمَّ يُغۡلَبُونَۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحۡشَرُونَ ۝ 35
(36) जिन लोगों ने सत्य को मानने से इंकार किया है वे अपने माल अल्लाह के रास्ते से रोकने के लिए खर्च कर रहे हैं और अभी और खर्च करते रहेंगे, परन्तु अन्तत: यही प्रयास उनके लिए पछतावे का कारण बनेगा। फिर वे पराजित होंगे, फिर ये काफ़िर (इस्लाम विरोधी) जहन्नम की ओर घेर लाए जाएँगे,
لِيَمِيزَ ٱللَّهُ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِ وَيَجۡعَلَ ٱلۡخَبِيثَ بَعۡضَهُۥ عَلَىٰ بَعۡضٖ فَيَرۡكُمَهُۥ جَمِيعٗا فَيَجۡعَلَهُۥ فِي جَهَنَّمَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 36
(37) ताकि अल्लाह गन्दगी को पाकी से छाँटकर अलग करे और हर प्रकार की गन्दगी को मिलाकर इकट्ठा करे, फिर उस पुलिन्दे को जहन्नम में झोंक दे। यही लोग असली दीवालिए हैं।30
30. इससे बढ़कर दीवालियापन और क्या हो सकता है कि इंसान जिस राह में अपना पूरा समय, सारे परिश्रम, तमाम योग्यताएँ और सम्पूर्ण जीवन-पूँजी खपा दे, उसकी चरमसीमा पर पहुँचकर उसे मालूम हो कि वह उसे सीधे विनाश की ओर ले आई है और इस मार्ग में जो कुछ उसने खपाया है उसपर कोई ब्याज या लाभ प्राप्त करने के बजाय, उसे उलटा जुर्माना भुगतना पड़ेगा।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَنتَهُواْ يُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ وَإِن يَعُودُواْ فَقَدۡ مَضَتۡ سُنَّتُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 37
(38) ऐ नबी ! इनकार करनेवालों से कहो कि अगर अब भी बाज़ आ जाएँ तो जो कुछ पहले हो चुका है उसे माफ़ कर दिया जाएगा, लेकिन अगर ये उसी पिछले रवैये को दोहराएँगे तो पिछली क़ौमों के साथ जो कुछ हो चुका है, वह सबको मालूम है।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ كُلُّهُۥ لِلَّهِۚ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 38
(39, 40) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! इन अधर्मियों से युद्ध करो, यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन (आज्ञापालन) पूरे का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए।31 फिर अगर वे फ़ित्ने से रुक जाएँ तो उनके कर्मों का देखनेवाला अल्लाह है और अगर वे न मानें तो जान रखो कि अल्लाह तुम्हारा संरक्षक है, और वह सबसे अच्छा समर्थक और सहायक है।
31. यहाँ फिर मुसलमानों की लड़ाई के उसी एक उद्देश्य को दोहराया गया है जिसका इससे पहले क़ुरआन की सूरा-2 (बक़रा), आयत 193 में वर्णन किया गया है। इस उद्देश्य का नकारात्मक अंश यह है कि फ़ित्‍ना (बिगाड़) बाक़ी न रहे और सकारात्मक अंश यह है कि दीन (आज्ञापालन) बिलकुल अल्लाह के लिए हो जाए। बस यही एक नैतिक उद्देश्य ऐसा है जिसके लिए लड़ना ईमानवालों के लिए वैध आज्ञापालन बल्कि अनिवार्य (फ़र्ज) है। इसके सिवा किसी दूसरे उद्देश्य से लड़ाई वैध नहीं है और न ईमानवालों को शोभा देता है कि उसमें किसी तरह हिस्सा लें। (व्याख्या के लिए देखिए क़ुआन की सूरा-2,(बक़रा), टिप्पणी 204-205)
وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَىٰكُمۡۚ نِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 39
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۞وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا غَنِمۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُۥ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا يَوۡمَ ٱلۡفُرۡقَانِ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 40
(41) और तुम्हें मालूम हो कि जो कुछ ग़नीमत का माल तुमने प्राप्त किया है, उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह और उसके रसूल और नातेदारों और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है32, अगर तुम ईमान लाए हो अल्लाह पर और उस चीज़ पर जो निर्णय के दिन, अर्थात दोनों सेनाओं की मुठभेड़ के दिन, हमने अपने बन्दे पर उतारी थी 33 (तो यह हिस्सा सहर्ष अदा करो)। अल्लाह हर चीज़ पर समर्थ है।
32. यहाँ युद्ध में प्राप्त उस माल के बंटवारे का क़ानून बताया है जिसके बारे में व्यख्यान के आरंभ में कहा गया था कि यह अल्लाह का इनाम है जिसके बारे में निर्णय करने का अधिकार अल्लाह और उसके रसूल ही को कि प्राप्त है। अब वह निर्णय बयान कर दिया गया है, और वह यह है कि लड़ाई के बाद तमाम सिपाही हर प्रकार की ग़नीमत का माल लाकर सेनापती या शासक के सामने रख दें और कोई चीज़ छिपाकर न रखें। फिर इस माल में से पाँचवाँ भाग उन उद्देश्यों के लिए निकाल लिया जाए जिनका आयत में उल्लेख हुआ है और शेष चार भाग उन सब लोगों में बाँट दिए जाएँ जिन्होंने लड़ाई में हिस्सा लिया हो। चुनाँचे इस आयत के अनुसार नबी (सल्ल०) सदैव लड़ाई के बाद एलान किया करते थे कि "ये ग़नीमत के माल तुम्हारे ही लिए हैं। मेरे अपने निज का इनमें कोई भाग नहीं है, अलावा पाँचवें हिस्से के, और वह पाँचवाँ हिस्सा भी तुम्हारे ही सामूहिक हितों में लगा दिया जाता है, इसलिए एक एक सूई और एक-एक धागा तक लाकर रख दो। कोई छोटी या बड़ी चीज़ छिपाकर न रखो कि ऐसा करना लज्जास्पद है और इसका परिणाम जहन्नम है। इस बंटवारे में अल्लाह और रसूल का भाग एक ही है और इससे तात्पर्य यह है कि पाँचवें भाग का एक भाग 'अल्लाह का बोलबाला करने' और 'सत्य धर्म की स्थापना के काम में लगाया जाए। नातेदारों से तात्पर्य नबी (सल्ल०) के जीवन में तो हुजूर (सल्ल०) ही के नातेदार थे, क्योंकि जब आप अपना जाय सारा समय दीन (धर्म) के काम में लगाते थे और अपनी रोज़ी के लिए कोई काम करना आपके लिए संभव जारामन रहा था, तो निश्चित रूप से इसका प्रबंध होना चाहिए था कि आपकी और आपके बीवी-बच्चों और उन दूसरे नातेदारों को जिनका खर्च आपके ज़िम्मे था, ज़रूरतें पूरी हों । इसलिए 'ख़ुम्स' में आपके नातेदारों का हिस्सा रखा गया। लेकिन इस मामले में मतभेद है कि हुजूर (सल्ल०) के देहावसान के बाद नातेदारों का यह हिस्सा किसे पहुँचता है। एक गिरोह का मत यह है कि नबी (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा निरस्त हो गया। दूसरे गिरोह का मत है कि हुजूर (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा उस व्यक्ति के नातेदारों को पहुँचेगा जो हुज़ूर (सल्ल०) की जगह शासनाध्यक्ष का उत्तरदायित्व निभाए। तीसरे गिरोह के नज़दीक यह हिस्सा नबी (सल्ल०) के परिवार के निर्धनों में बाँटा जाता रहेगा। जहाँ तक मेरा शोध है, खुलफ़ा-ए-राशिदीन (शुरू के चार ख़लीफ़ों) के समय में इसी तीसरी राय पर अमल होता था।
33. अर्थात् वह समर्थन व सहायता जिसके कारण तुम विजयी हुए और जिसके कारण ही तुम्हें ग़नीमत का यह माल प्राप्त हुआ।
إِذۡ أَنتُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلۡقُصۡوَىٰ وَٱلرَّكۡبُ أَسۡفَلَ مِنكُمۡۚ وَلَوۡ تَوَاعَدتُّمۡ لَٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡمِيعَٰدِ وَلَٰكِن لِّيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗا لِّيَهۡلِكَ مَنۡ هَلَكَ عَنۢ بَيِّنَةٖ وَيَحۡيَىٰ مَنۡ حَيَّ عَنۢ بَيِّنَةٖۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 41
(42) याद करो वह समय जबकि तुम घाटी के इस ओर थे और वे दूसरी ओर पड़ाव डाले हुए थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे (तट) की ओर था। अगर कहीं पहले से तुम्हारे और उनके बीच मुक़ाबले का निश्चय हो चुका होता तो तुम अवश्य इस अवसर पर पहलू बचा जाते, लेकिन जो कुछ सामने आया, वह इसलिए था कि जिस बात का निर्णय अल्लाह कर चुका था उसे प्रकाश में ले आए, ताकि जिसे नष्ट होना है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ नष्ट हो और जिसे जीवित रहना है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ जीवित रहे ।34 निश्चय ही अल्लाह सुनने और जाननेवाला है।35
34. अर्थात् सिद्ध हो जाए कि जो ज़िंदा रहा, उसे जिंदा ही रहना चाहिए था और जो नष्ट हुआ, उसे नष्ट ही होना चाहिए था । यहाँ ज़िंदा रहनेवाले और नष्ट होनेवाले से तात्पर्य व्यक्ति नहीं है, बल्कि इस्लाम और अज्ञानता हैं।
35. अर्थात् ख़ुदा अंधा, बहरा, बेख़बर नहीं है, बल्कि जाननेवाला और देखनेवाला है। उसके साम्राज्य में अंधाधुंध काम नहीं हो रहा है।
إِذۡ يُرِيكَهُمُ ٱللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلٗاۖ وَلَوۡ أَرَىٰكَهُمۡ كَثِيرٗا لَّفَشِلۡتُمۡ وَلَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ سَلَّمَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 42
(43) और याद करो वह समय जबकि ऐ नबी ! अल्लाह उनको तुम्हारे सपने में थोड़ा दिखा रहा था।36 अगर कहीं वह तुम्हें उनकी संख्या अधिक दिखा देता तो अवश्य तुम लोग हिम्मत हार जाते और लड़ाई के मामले में झगड़ा शुरू कर देते, लेकिन अल्लाह ही ने इससे तुम्हें बचाया, निश्चय ही वह सीनों का हाल तक जानता है।
36. यह उस समय की बात है जब नबी (सल्ल०) मुसलमानों को लेकर मदीना से निकल रहे थे या रास्ते में किसी मंज़िल पर थे और इसकी जाँच न हो सकी थी कि दुश्मनों की फ़ौज वास्तव में कितनी है। उस समय हुज़ूर (सल्ल०) ने सपने में उस सेना को देखा और जो दृश्य आपके सामने प्रस्तुत किया गया, उससे आपने अनुमान लगाया कि दुश्मनों की संख्या कुछ बहुत अधिक नहीं है। यही सपना आपने मुसलमानों को सुना दिया और उससे हौसला पाकर मुसलमान आगे बढ़ते चले गए।
وَإِذۡ يُرِيكُمُوهُمۡ إِذِ ٱلۡتَقَيۡتُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِكُمۡ قَلِيلٗا وَيُقَلِّلُكُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِهِمۡ لِيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗاۗ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 43
(44) और याद करो जबकि मुक़ाबले के समय अल्लाह ने तुम लोगों की निगाहों में दुश्मनों को थोड़ा दिखाया और उनकी निगाहों में तुम्हें कम करके पेश किया, ताकि जो बात होनी थी उसे अल्लाह प्रकाश में ले आए, और अन्तत: सारे मामले अल्लाह ही की ओर पलटते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمۡ فِئَةٗ فَٱثۡبُتُواْ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 44
(45) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! जब किसी गिरोह से तुम्हारा मुकाबला हो जमे रहो और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो, आशा है कि तुम्हें सफलता मिलेगी।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَنَٰزَعُواْ فَتَفۡشَلُواْ وَتَذۡهَبَ رِيحُكُمۡۖ وَٱصۡبِرُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 45
(46) और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो और आपस में झगड़ो नहीं, वरना तुम्हारे भीतर कमज़ोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। सब्र (धैर्य) से काम लो37, निस्संदेह अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है
37. अर्थात् अपनी भावनाओं और इच्छाओं को वश में रखो। जल्दबाज़ी, घबराहट, भय, लोभ और अनुचित उत्तेजना से बचो, ठंडे दिल और जंची-तुली निर्णय-शक्ति के साथ काम करो। संकट और कठिनाइयाँ सामने हों तो तुम्हारे क़दम डगमगाने न पाएँ । उत्तेजनापूर्ण अवसर हो तो क्रोध-उन्माद तुमसे कोई अनुचित कार्य न कराने पाए। विपदाएँ सामने हों और स्थिति बिगड़ती दिखाई दे तो घबराकर तुम विचलित न हो जाओ। उद्देश्य प्राप्ति के शौक़ में बेक़रार होकर या कोई कच्चे-पक्के उपाय को सरसरी नज़र में प्रभावकारी देखकर तुम्हारे इरादे जल्दबाज़ी का शिकार न हो जाएँ और अगर कभी सांसारिक लाभ, मनेच्छा के प्रलोभन तुम्हें अपनी ओर लुभा रहो हों तो उनके मुक़ाबले में भी तुम्हारा मन इतना ज़्यादा कमज़ोर न हो कि अनचाहे उनकी ओर खिंच जाओ। ये समस्त अर्थ केवल एक शब्द 'सब्र' (धैर्य) में पाए जाते हैं, और अल्लाह फ़रमाता है कि जो लोग इन तमाम पहलुओं से सब्र करनेवाले (धैर्यवान) हैं, मेरा समर्थन उन्हों को प्राप्त है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بَطَرٗا وَرِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 46
(47) और उन लोगों के से रंग-ढंग न अपनाओ जो अपने घरों से इतराते और लोगों को अपनी शान दिखाते हुए निकले और जिनका रवैया यह है कि अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं।38 जो कुछ वे कर रहे हैं, वह अल्लाह की पकड़ से बाहर नहीं है।
38. संकेत है क़ुरैशी शत्रुओं की ओर जिनकी सेना मक्का से इस शान से निकली थी कि गाने-बजानेवाली लौंडियाँ साथ थीं, जगह-जगह ठहरकर नाच-गाने और मदिरापान की सभाएँ आयोजित करते जा रहे थे, जो-जो क़बीले और गाँव रास्ते में मिलते थे, उनपर अपनी शक्ति, वैभव अपनी भारी संख्या और युद्ध-सामग्री का रौब जमाते थे और डींगे मारते थे कि भला हमारे मुकाबले में कौन सर उठा सकता है। यह तो थी उनकी नैतिक दशा और इसपर और अधिक अभिशाप यह था कि उनके निकलने का उद्देश्य उनके चरित्र से भी अधिक अपवित्र था। वे इसलिए जान व माल की बाज़ी लगाने नहीं निकले थे कि सत्य और न्याय का झंडा ऊंचा हो, बल्कि इसलिए निकले थे कि ऐसा न होने पाए। और वह अकेला गिरोह भी जो दुनिया में इस सत्य उद्देश्य के लिए उठा है, समाप्त कर दिया जाए, ताकि उस झंडे को उठानेवाला समूचे संसार में कोई न रहे। इसपर मुसलमानों को सचेत किया जा रहा है कि तुम कहीं ऐसे न बन जाना। तुम्हें अल्लाह ने ईमान और सत्यवादिता की जो नेमत प्रदान की है, उसका तकाज़ा यह है कि तुम्हारे चरित्र भी पवित्र हों और तुम्हारा युद्ध-उद्देश्य भी पवित्र हो । यह आदेश उसी समय के लिए न था, आज के लिए भी है और सदा के लिए है। शत्रुओं की सेनाओं का जो हाल उस समय था, वही आज भी है। वेश्यालय और निर्लज्जता के अड्डे और शराब के पीपे उनके साथ अटूट अंग की तरह लगे रहते हैं। ख़ुफ़िया तौर पर नहीं, बल्कि खुल्लम खुल्ला अति निर्लज्जता के साथ वे औरतों और शराब का अधिक से अधिक राशन माँगते हैं और उनके सैनिकों को स्वयं अपनी क़ौम ही से यह मांग करने में संकोच नहीं होता कि वे अपनी बेटियों को बड़ी से बड़ी संख्या में उनकी वासना का खिलौना बनने के लिए प्रस्तुत करें। फिर भला कोई दूसरी क़ौम इनसे क्या आशा कर सकती है कि ये उसको अपनी नैतिक गन्दगी की संडास बनाने में कोई कमी छोड़ेंगे। रहा उनका घमंड और उनकी शेख़ी, तो उनके हर सैनिक और हर अधिकारी की चाल-ढाल और बात-चीत के तरीके में इसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है और उनमें से हर क़ौम के राजनीतिज्ञों के वक्तव्यों में 'आज तुमपर कोई विजय नहीं पा गुणा सकता' और 'हमारी शक्ति के मुकाबले में कौन है ?' की डींगें सुनी जा सकती हैं। इन नैतिक गन्दगियों से म अधिक गन्दे उनके युद्ध-उद्देश्य हैं। उनमें से हर एक अति मक्कारी के साथ संसार को विश्वास दिलाता है नियो कि उसकी दृष्टि में मानवता के हित व कल्याण के सिवा और कुछ नहीं है, मगर वास्तव में उनके सामने एक मानवता का हित ही नहीं है, बाकी सब कुछ है। उनकी लड़ाई का मूल उद्देश्य यह होता है कि अल्लाह ने अपनी जमीन में जो कुछ सारे इंसानों के लिए पैदा किया है, उसका अकेले उनकी क़ौम उपयोग करे और दूसरे उसके चाकर और मुहताज बनकर रहें । अत: ईमानवालों को कुरआन की सदा-सर्वदा के लिए हिदायत कि है कि उन अवज्ञाकारियों और इस्लाम शत्रुओं के तौर-तरीकों से भी बचें और उन नापाक उद्देश्यों में भी माह अपनी जान व माल खपाने से परहेज़ करें जिनके लिए ये लोग लड़ते हैं।
وَإِذۡ زَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَإِنِّي جَارٞ لَّكُمۡۖ فَلَمَّا تَرَآءَتِ ٱلۡفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكُمۡ إِنِّيٓ أَرَىٰ مَا لَا تَرَوۡنَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَۚ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 47
(48) तनिक ध्यान करो उस समय का जबकि शैतान ने उन लोगों की करतूतें उनकी दृष्टि में प्रिय बनाकर दिखाई थी और उनसे कहा था कि आज कोई तुमपर विजयी नहीं हो सकता और यह कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। मगर जब दोनों गिरोहों का आमना-सामना हुआ तो वह उलटे पाँव फिर गया और कहने लगा कि मेरा-तुम्हारा साथ नहीं है। मैं वह कुछ देख रहा हूँ जो तुम लोग नहीं देखते। मुझे अल्लाह से डर लगता है, और अल्लाह बड़ी कड़ी सज़ा देनेवाला है।
إِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰٓؤُلَآءِ دِينُهُمۡۗ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 48
(49) जबकि मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और वे सब लोग जिनके दिलों को रोग लगा हुआ है, कह रहे थे कि इन लोगों को तो इनके दीन (धर्म) ने सनक में डाल रखा है39, हालाँकि अगर कोई अल्लाह पर भरोसा करे तो निश्चय ही अल्लाह बड़ा ज़बरदस्त और तत्त्वदों है।
39. अर्थात मदीना के मुनाफ़िक (कपटाचारी) और वे सब लोग जो दुनियापरस्ती और अल्लाह से ग़फ़लत के रोग के शिकार थे, यह देखकर कि मुसलमानों का मुट्ठी-भर निहत्था समुदाय क़ुरैश जैसी प्रबल शक्ति से टकराने के लिए जा रहा है, आपस में कहते थे कि ये लोग अपने धार्मिक उन्माद में दीवाने हो गए हैं, इस लड़ाई में उनका विनाश निश्चित है, मगर इस नबी ने कुछ ऐसा जादू उनपर कर रखा है कि उनकी बुद्धि मारी गई है और आँखों देखे ये मौत के मुँह में चले जा रहे हैं।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ يَتَوَفَّى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 49
(50, 51) काश, तुम उस हालत को देख सकते जबकि फ़रिश्ते इनकार करनेवाले मक़तूलों (वधितों) के प्राण निकाल रहे थे। वे उनके चेहरों और उनके कूल्हों पर चोटें लगाते जाते थे, और कहते जाते थे, "लो, अब जलने को सज़ा भुगतो। यह वह बदला है जिसका सामान तुम्हारे अपने हाथों ने पेशगी जुटा रखा था, वरना अल्लाह तो अपने बन्दों पर अत्याचार करनेवाला नहीं है।"
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 50
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كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 51
(52) यह मामला उनके साथ उसी तरह पेश आया जिस तरह फ़िरऔनियों और उनसे पहले के दूसरे लोगों के साथ पेश आता रहा है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को मानने से इन्कार किया और अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया। अल्लाह शक्तिवान और कठोर दंड देनेवाला है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ لَمۡ يَكُ مُغَيِّرٗا نِّعۡمَةً أَنۡعَمَهَا عَلَىٰ قَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 52
(53) यह अल्लाह के उस नियम के अनुसार हुआ कि वह किसी नेमत को, जो उसने किसी कौम को प्रदान की हो, उस समय तक नहीं बदलता जब तक कि वह क़ौम स्वयं अपनी रीति-नीति को नहीं बदल देती।40 अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
40. अर्थात् जब तक कोई कौम अपने आपको पूरी तरह अल्लाह की नेमत के अपात्र नहीं बना लेती, अल्लाह उससे अपनी नेमत नहीं छीना करता।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَۚ وَكُلّٞ كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 53
(54) फ़िरऔनियों और उनसे पहले की क़ौमों के साथ जो कुछ पेश आया, वह इसी नियम के अनुसार था। उन्होंने अपने रब की आयतों को झुठलाया, तब हमने उनके गुनाहों के बदले में उन्हें हलाक किया और फ़िरऔनियों को डुबा दिया। ये सब ज़ालिम लोग थे।
إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 54
(55) निश्चय ही अल्लाह के नज़दीक धरती पर चलनेवाले प्राणियों में सबसे बुरे वे लोग हैं जिन्होंने सत्य को मानने से इंकार कर दिया, फिर किसी तरह वे उसे स्वीकार करने पर तैयार नहीं हैं ।
ٱلَّذِينَ عَٰهَدتَّ مِنۡهُمۡ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهۡدَهُمۡ فِي كُلِّ مَرَّةٖ وَهُمۡ لَا يَتَّقُونَ ۝ 55
(56) (मुख्य रूप से) उनमें से वे लोग जिनके साथ तूने समझौता किया, फिर वे हर मौक़े पर उसको तोड़ते हैं और तनिक भी अल्लाह से नहीं डरते ।41
41. यहाँ मुख्य रूप से संकेत है यहूदियों की ओर । नबी (सल्ल.) ने मदीना तैयिबा में तशरीफ़ लाने के बाद सबसे पहले उन्हीं के साथ अच्छे पड़ोसी जैसा व्यवहार और आपसी सहयोग व सहायता का समझौता किया था और अपनी हद तक पूरी कोशिश की थी कि उनसे मधुर संबंध स्थापित किए जाएँ। साथ ही धार्मिक रूप से भी आप यहूदियों को मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों) की अपेक्षा अपने से अधिक क़रीब समझते थे और हर मामले में मुशरिकों के मुकाबले में अस्ले किताब (किताबवालों) के तरीक़े को प्रमुखता देते थे। लेकिन उनके उलमा और बुजुर्गों को विशुद्ध तौहीद (एकेश्वरवाद) और सच्चरित्र का वह प्रचार और विश्वास व व्यवहार की पथभ्रष्टताओं पर वह आलोचना और दीन (धर्म) की स्थापना की वह कोशिश, जो नबी (सल्ल०) कर रहे थे, एक क्षण के लिए भी पसन्द न थी और उनकी बराबर कोशिश यह थी कि यह नया आन्दोलन किसी प्रकार भी सफल न होने पाए। इसी उद्देश्य के लिए वे मदीना के कपटाचारी मुसलमानों से साँठ-गाँठ करते थे, इसी के लिए वे औस और खज़रज के लोगों में उन पुरानी दुश्मनियों को भड़काते थे जो इस्लाम से पहले उनके बीच खूनी टकराव का कारण बन जाती थीं। इसी के लिए क़ुरैश और दूसरे इस्लाम विरोधी क़बीलों से उनकी ख़ुफ़िया साज़िशें चल रही थीं और ये सब हरकतें उस मैत्री समझौते के बावजूद हो रही थीं जो नबी (सल्ल०) और उनके बीच लिखा जा चुका था। जब बद्र की लड़ाई छिड़ी तो आरंभ में उनको आशा थी कि क़ुरैश की पहली ही चोट इस आन्दोलन का अन्त कर देगी, लेकिन जब परिणाम उनकी आशाओं के विपरीत निकला तो उनके सीनों में द्वेष की आग और ज्यादा भड़क उठी। उन्होंने इस भय से कि बद्र की जीत कहीं इस्लाम की शक्ति को एक स्थायी 'खतरा' न बना दे, अपने विरोधी प्रयासों को और तेज़ कर दिया, यहाँ तक कि उनका एक लीडर काब बिन अशरफ़ (जो क़ुरैश की पराजय की खबर सुनते ही चीख उठा था कि आज धरती का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से बेहतर है) स्वयं मक्का गया और वहाँ उसने उत्तेजनापूर्ण शोक-गीत सुना-सुनाकर कुरैश में प्रतिशोध की भावना भर दी। इसपर भी उन लोगों ने बस न किया। यहूदियों के क़बीला बनी कैनुकाअ ने अच्छे पड़ोसीवाले समझौते के ख़िलाफ़ उन मुसलमान औरतों को छेड़ना शुरू किया जो उनकी आबादी में किसी काम से जाती थीं और का जब नबी (सल्ल०) ने उनकी इस हरकत पर निन्दा की तो उन्होंने उत्तर में धमकी दी कि “ये क़ुरैश नहीं हैं, हम लड़ने-मरनेवाले लोग हैं और लड़ना जानते हैं। हमारे मुक़ाबले में आओगे तब तुम्हें पता चलेगा कि मर्द कैसे होते हैं ।‘’
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 56
(57) इसलिए अगर ये लोग तुम्हें लड़ाई में मिल जाएँ तो उनकी ऐसी खबर लो कि उनके बाद दूसरे जो लोग ऐसा रवैया अपनानेवाले हों, उनके होश उड़ जाएँ।42 आशा है कि वचन भंग करनेवालों के इस परिणाम से वे शिक्षा ग्रहण करेगे।
42. इसका अर्थ यह है कि अगर किसी क़ौम से हमारा समझौता हो और फिर वह अपने समझौतेवाले दायित्वों को पीठ पीछे डालकर हमारे विरुद्ध किसी लड़ाई में भाग ले, तो हम भी समझौते के नैतिक दायित्वों से मुक्त हो जाएँगे और हमें यह अधिकार प्राप्त होगा कि उससे युद्ध करें, साथ ही अगर किसी क़ौम से हमारी लड़ाई हो रही हो और हम देखें कि शत्रु के साथ एक ऐसी कौम के लोग भी लड़ रहे हैं जिससे हमारा समझौता है तो हम उनको क़त्ल करने और उनसे शत्रु जैसा मामला करने में कदापि कोई संकोच न करेंगे, क्योंकि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत हैसियत में अपनी क़ौम के समझौते का उल्लंघन करके अपने आपको इसका अधिकारी नहीं रहने दिया है कि उनकी जान व माल के मामलों में उस समझौते के मार्यादा को ध्यान में रखा जाए जो हमारे और उनकी क़ौम के बीच है।
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ خِيَانَةٗ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 57
(58) और अगर कभी तुम्हें किसी क़ौम से खियानत (विश्वासघात) का भय हो तो उसके समझौते को खुल्लम-खुल्ला उसके आगे फेंक दो।43 निश्चय ही अल्लाह खियानत करनेवालों को प्रिय नहीं रखता।
43. इस आयत के अनुसार हमारे लिए यह किसी तरह भी उचित नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति या गिरोह या देश से हमारा समझौता हो और हमें उसकी रीति-नीति से यह शिकायत पैदा हो जाए कि वह वचन के पालन में कोताही कर रहा है या यह आशंका पैदा हो जाए कि वह अवसर पाते ही हमारे साथ विद्रोह कर बैठेगा, तो हम अपनी जगह स्वयं निर्णय ले लें कि हमारे और उसके बीच समझौता नहीं रहा और अचानक उसके साथ वह नीति अपनाना शुरू कर दें जो समझौता न होने के रूप में अपनाई जा सकती हो। इसके विपरीत हमें इस बात का पाबन्द किया गया है कि जब ऐसी स्थिति सामने आए तो हम कोई विरोधपूर्ण कार्रवाई करने से पहले दूसरे फरीक़ को साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दें कि हमारे और तुम्हारे बीच अब समझौता बाक़ी नहीं है, क्योंकि तुम वचन भंग कर रहे हो। हाँ, अगर दूसरा फ़रीक़ खुल्लम-खुल्ला समझौता भंग कर चुका हो और उसने स्पष्ट रूप से हमारे विरुद्ध द्वेषपूर्ण कार्रवाई की हो तो ऐसी स्थिति में यह ज़रूरी नहीं रहता कि हम उस उपरोक्त आयत के अनुसार समझौता भंग होने का नोटिस दें, बल्कि हमें उसके विरुद्ध बिना सूचना सामरिक कार्रवाई करने का अधिकार मिल जाता है । इस्लामी धर्मशास्त्रियों ने यह अपवाद नबी (सल्ल०) के उस कार्य से निकाला है कि क़ुरैश ने जब बनी खुज़ाआ के मामले में हुदैबिया की संधि को खुल्लम-खुल्ला भंग कर दिया तो आपने फिर उन्हें समझौता भंग का नोटिस देने की कोई ज़रूस्त न समझी, बल्कि बिना सूचना मक्का पर चढ़ाई कर दी।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَبَقُوٓاْۚ إِنَّهُمۡ لَا يُعۡجِزُونَ ۝ 58
(59) सत्य के इंकारी इस भ्रम में न रहे कि वे बाज़ी ले गए, निश्चय ही वे हमको हरा नहीं सकते।
وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٖ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّكُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 59
(60) और तुम लोग, जहाँ तक तुम्हारा बस चले, अधिक से अधिक शक्ति और तैयार बंधे रहनेवाले घोड़े उनके मुकाबले के लिए जुटाए रखो44, ताकि उसके द्वारा अल्लाह के और अपने शत्रुओं को और उन दूसरे दुश्मनों को भयभीत कर दो जिन्हें तुम नहीं जानते, मगर अल्लाह जानता है। अल्लाह की राह में जो कुछ तुम ख़र्च करोगे उसका पूरा-पूरा बदला तुम्हारी और पलटाया जाएगा और तुम्हारे साथ कदापि ज़ुल्म न होगा।
44. अर्थ यह है कि तुम्हारे पास युद्ध-सामग्री और एक स्थायी सेना हर समय तैयार रहनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर तत्काल सामरिक कार्रवाई कर सको। यह न हो कि ख़तरा सर पर आने के बाद घबराहट में जमिन जल्दी-जल्दी स्वयंसेवक, अस्त्र और रसद-सामग्री इकट्ठा करने का यत्न किया जाए और इस बीच कि यह तैयारी पूर्ण हो, शत्रु अपना काम कर जाए।
۞وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 60
(61) और ऐ नबी ! अगर दुश्मन सुलह और सलामती की ओर झुकें तो तुम भी उसके लिए तैयार हो जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो । निश्चय ही वहीं सब कुछ सुनने और जाननेवाला है
وَإِن يُرِيدُوٓاْ أَن يَخۡدَعُوكَ فَإِنَّ حَسۡبَكَ ٱللَّهُۚ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَيَّدَكَ بِنَصۡرِهِۦ وَبِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 61
(62, 63) और अगर वे धोखे की नीयत रखते हों तो तुम्हारे लिए अल्लाह काफ़ी है। 45 वहीं तो है जिसने अपनी सहायता से और ईमानवालों के द्वारा तुम्हारी हिमायत की और ईमानवालों के दिल एक-दूसरे के साथ जोड़ दिए। तुम धरती का सारा धन भी खर्च कर डालते तो इन लोगों के दिल न जोड़ सकते थे, मगर वह अल्लाह है जिसने इन लोगों के दिल जोड़े 46, निश्चय ही वह बड़ा ज़बरदस्त और तत्त्वदर्शी है।
45. अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तुम्हारी नीति भीरुतापूर्ण नहीं होनी चाहिए, बल्कि अल्लाह के भरोसे पर वीरतापूर्ण और साहसपूर्ण होनी चाहिए। शत्रु जब संधि-वार्ता की इच्छा व्यक्त करे तो निस्संकोच उसके लिए तैयार हो जाओ और संधि के लिए हाथ बढ़ाने से इस कारण इंकार न करो कि वह अच्छे इरादे से संधि नहीं करना चाहता, बल्कि विद्रोह का इरादा रखता है। किसी की नीयत बहरहाल निश्चित रूप से मालूम नहीं हो सकती। अगर वह वास्तव में संधि ही का इरादा रखता है तो तुम ख़ामख़ाह उसकी नीयत के प्रति संदेह करके खून-खराबे को क्यों आगे बढ़ाओ और अगर वह विद्रोह का इरादा रखता हो तो तुम्हें अल्लाह के भरोसे पर वीर होना चाहिए। संधि के लिए बढ़नेवाले हाथ के जवाब में हाथ बढ़ाओ, ताकि तुम्हारी नैतिक श्रेष्ठता प्रमाणित हो और लड़ाई के लिए उठनेवाले हाथ को अपने बाहुबल से तोड़कर फेंक दो, ताकि कभी कोई कौम का ग़द्दार तुम्हें नर्म चारा समझने का साहस न करे।
46. संकेत है उस भाईचारे और प्रेम व लगाव की ओर जो अल्लाह ने ईमान लानेवाले अरबों में पैदा करके निगा उनको एक मज़बूत जत्था बना दिया था, हालाँकि उस जत्थे के लोग उन विभिन्न कबीलों से निकले हुए थे जिनके बीच सदियों से दुश्मनियाँ चली आ रही थीं। मुख्य रूप से अल्लाह की यह मेहरबानी औस व ख़ज़रज के मामले में तो सबसे ज़्यादा उभरी हुई थी। ये दोनों क़बीले दो ही वर्ष पहले तक एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे थे और बुआस की प्रसिद्ध लड़ाई को कुछ ज्यादा दिन नहीं बीते थे जिसमें औस ने ख़ज़रज के और ख़ज़रज ने औस के अस्तित्व को ही मानो समाप्त करने का निश्चय कर लिया था। ऐसी तीव्र शत्रुताओं को दो-तीन साल के भीतर गहरी दोस्ती और भाईचारे में बदल देना और इन विरोधी तत्वों को जोड़कर एक सीसा पिलाई दीवार बना देना जैसा कि नबी (सल्ल.) के समय में इस्लामी जमाअत (गिरोह) थी, निश्चित रूप से इंसान की शक्ति से परे था और सांसारिक साधनों की सहायता से यह महान कारनामा अंजाम नहीं पा सकता था। अतः अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब हमारे समर्थन और सहायता ने यह कुछ कर दिखाया है तो आगे भी तुम्हारी नज़र सांसारिक साधनों पर नहीं, बल्कि अल्लाह के समर्थन व सहायता पर होनी चाहिए कि जो कुछ काम बनेगा उसी से बनेगा।
وَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡۚ لَوۡ أَنفَقۡتَ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مَّآ أَلَّفۡتَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ أَلَّفَ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّهُۥ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 62
0
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَسۡبُكَ ٱللَّهُ وَمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 63
(64) ऐ नबी ! तुम्हारे लिए और तुम्हारे अनुयायी ईमानवालों के लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 64
(65) ऐ नबी ! ईमानवालों को लड़ाई पर उभारो, अगर तुममें से बीस आदमी धैर्यवान हों तो वे दो सौ पर विजयी होंगे और अगर सौ आदमी ऐसे हों तो सत्य के इंकारियों में से हज़ार आदमियों पर विजयी होंगे, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते।47
47. आजकल की परिभाषा में जिस चीज़ को 'मनोबल' या 'नैतिक शक्ति' (Morals) कहते हैं, अल्लाह ने इसी को प्रज्ञा, विवेक और समझ-बूझ (Understanding) की संज्ञा दी है और यह शब्द इस अर्थ के लिए नई परिभाषा से अधिक वैज्ञानिक है। जो व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति सचेत हो और ठंडे मन से ख़ूब सोच-समझकर इसलिए लड़ रहा हो कि जिस चीज़ के लिए वह जान की बाज़ी लगाने आया है, वह उसके व्यक्तिगत जीवन से अधिक मूल्यवान है और उसके नष्ट हो जाने के बाद जीना मूल्यरहित है, वह अचेतावस्था से लड़नेवाले व्यक्ति से कई गुना अधिक शक्ति रखता है यद्यपि शारीरिक शक्ति में दोनों के बीच कोई अन्तर न हो। फिर जिस व्यक्ति को वास्तविकता का बोध प्राप्त हो, जो अपनी हस्ती और अल्लाह की हस्ती और अल्लाह के साथ अपने ताल्लुक और सांसारिक जीवन की हैसियत और मौत की वास्तविकता और मरने के बाद के जीवन की वास्तविकता को अच्छी तरह जानता हो और जिसे सत्य और असत्य के अन्तर और असत्य के प्रभावी होने के परिणामों का भी सही बोध हो, उसकी शक्ति को तो वे लोग भी नहीं पहुँच सकते जो राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद या वर्गीय विवाद का विचार लिए हुए मैदान में आएँ । इसी लिए कहा गया है कि एक समझ-बूझ रखनेवाले मोमिन (ईमानवाले) और एक काफ़िर (इंकार करनेवाले, विरोधी) के बीच वास्तविकता के विवेक और अविवेक की वजह से स्वभावतः एक और दस का अनुपात है। लेकिन यह अनुपात केवल समझ-बूझ से स्थापित नहीं होता, बल्कि इसके साथ धैर्य (सब्र) का गुण भी एक अनिवार्य शर्त है।
ٱلۡـَٰٔنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفٗاۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ صَابِرَةٞ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمۡ أَلۡفٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفَيۡنِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 65
(66) अच्छा, अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का किया और उसे मालूम हुआ कि अभी तुममें कमज़ोरी है, तो अगर तुममें से सौ आदमी धैर्यवान हों तो वे दो सौ पर और हज़ार आदमी ऐसे हों तो दो हज़ार पर अल्लाह के हुक्म से प्रभावी होंगे48, और अल्लाह उन लोगों के साथ है जो धैर्यवान हैं।
48. इसका यह अर्थ नहीं है कि पहले एक और दस का अनुपात था, और अब चूँकि तुममें कमज़ोरी आ गई है इसलिए एक और दो का अनुपात निश्चित कर दिया गया है, बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से भी और आदर्श रूप में भी ईमानवालों और कुफ़ करनेवालों के बीच एक और दस ही का अनुपात है, लेकिन चूंकि अभी तुम लोगों का नैतिक प्रशिक्षण पूर्ण नहीं हुआ है और अभी तक तुम्हारी चेतना और समझ-बूझ का माप प्रौढ़ता की सीमा को नहीं पहुंचा है, इसलिए इस समय यह अनुपात घटाकर तुमसे यह माँग की जाती है कि अपने से दो गुनी शक्ति से टकराने में तो तुम्हें कोई संकोच न होना चाहिए। ध्यान रहे कि यह कथन सन् 02 हि. का है जबकि मुसलमानों में बहुत-से लोग अभी ताज़ा-ताज़ा ही इस्लाम में दाख़िल हुए थे और उनका प्रशिक्षण प्रारंभिक स्थिति में था। बाद में जब नबी (सल्ल०) के मार्गदर्शन में ये लोग प्रौढ़ता को पहुँच गए तो वास्तव में उनके और इनकार करनेवाले (शत्रुओं) के बीच एक और दस ही का अनुपात निश्चित हो गया, चुनाँचे नबी (सल्ल.) के अन्तिम समय और खुलफ़ा-ए-राशिदीन (आदर्श इस्लामी शासकों) के समय की लड़ाइयों में बार-बार इसका तजुर्बा हुआ है।
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُۥٓ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ ٱلدُّنۡيَا وَٱللَّهُ يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 66
(67) किसी नबी के लिए यह उचित नहीं है कि उसके पास कैदी हों जब तक कि वह धरती में दुश्मनों को अच्छी तरह न कुचल दे । तुम लोग दुनिया के लाभ चाहते हो, हालाँकि अल्लाह के सामने आख़िरत है, और अल्लाह प्रभुत्त्वशाली और तत्वदर्शी है।
لَّوۡلَا كِتَٰبٞ مِّنَ ٱللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمۡ فِيمَآ أَخَذۡتُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 67
(68) अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसके बदले में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती ।
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمۡتُمۡ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 68
(69) तो जो कुछ तुमने माल हासिल किया है, उसे खाओ कि वह हलाल (वैध) और पाक है और अल्लाह से डरते रहो।49 निश्चय ही अल्लाह क्षमावान और दयावान है।
49. इस आयत की व्याख्या में टीकाकारों ने जो रिवायतें बयान की हैं वे ये हैं कि बद्र की लड़ाई में क़ुरैशी सेना के जो लोग गिरफ्तार हुए थे, उनके बारे में बाद में मशविरा हुआ कि उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने राय दी थी कि फिदया (प्रतिदान) लेकर छोड़ दिया जाए, हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा कि मृत्यु दण्ड दिया जाए। नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) की राय मान ली और फ़िदया का मामला तय कर लिया। इसपर अल्लाह ने ये आयतें रोष व्यक्त करने के लिए उतारी । मगर टीकाकार आयत के इस वाक्य का कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं कर सके हैं कि “अगर अल्लाह का लिखा पहले न लिखा जा चुका होता।" वे कहते हैं कि इससे तात्पर्य अल्लाह की बनाई तक़दीर (भाग्य) है, या यह कि अल्लाह पहले ही यह इरादा कर चुका था कि मुसलमानों के लिए ग़नीमतों को हलाल कर देगा। लेकिन यह स्पष्ट है कि जब तक वैधानिक रूप से वह्य द्वारा किसी चीज़ की इजाज़त न दी गई हो, उसका लेना जाइज़ नहीं हो सकता। तो नबी (सल्ल.) सहित पूरी इस्लामी जमाअत (गिरोह) इस व्याख्या की रौशनी में गुनहगार ठहरती है और कुछ रावियों द्वारा उल्लिखित रिवायतों (अखबारे आहाद) पर भरोसा करके ऐसी व्याख्या को स्वीकार कर लेना एक बड़ी भारी बात है। मेरे नज़दीक इस स्थान की सही व्याख्या यह है कि बद्र लड़ाई से पहले कुरआन की सूरा-47 (मुहम्मद) में युद्ध संबंधित जो आरंभिक हिदायतें दी गई थीं, उनमें यह संकेत दिया गया था कि- "अतः जब इन इन्कार करनेवालों (दुश्मनों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो, तब कैदियों को मज़बूत बाँधो, इसके बाद (तुम्हें अधिकार है) एहसान करो या अर्थदंड (फ़िदया) का मामला करो, यहाँ तक कि युद्ध अपने हथियार डाल दे।” (सूरा मुहम्मद आयत 4) इस आयत में सामरिक बन्दियों से फ़िदया वुसूल करने की इजाज़त तो दे दी गई थी लेकिन उसके साथ शर्त यह लगाई गई थी कि पहले शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह कुचल दिया जाए, फिर क़ैदी पकड़ने की चिन्ता की जाए। इस आदेश के अनुसार मुसलमानों ने जो क़ैदी बद्र के युद्ध में गिरफ़्तार किए और उसके बाद उनसे जो फ़िदया वुसूल किया, वह था तो इजाज़त के अनुसार, मगर ग़लती यह हुई कि 'शत्रु की शक्ति को कुचल देने' की जिस शर्त को प्रमुखता दी गई थी, उसे पूरा करने में कोताही को गई। लड़ाई में जब क़ुरैश की सेना भाग निकली तो मुसलमानों का एक बड़ा गिरोह ग़नीमत लूटने और दुश्मन के आदमियों को पकड़-पकड़कर बाँधने में लग गया और बहुत कम आदमियों ने शत्रुओं का कुछ दूर तक पीछा किया, हालांकि अगर मुसलमान पूरी शक्ति से उनका पीछा करते तो क़ुरैश की शक्ति का उसी दिन अन्त हो गया होता। इसी पर अल्लाह रुष्ट हो रहा है और यह रोष नबी (सल्ल०) पर नहीं है, बल्कि मुसलमानों पर है। ईश-आदेश का मंशा यह है कि “तुम लोग अभी नबी के मिशन को अच्छी तरह नहीं समझे हो । नबी का मूल कार्य यह नहीं है कि फ़िदये और ग़नीमतें बुसूल करके खजाने भरें, बल्कि उसके लक्ष्य से जो चीज़ प्रत्यक्ष संबंध रखती है, वह केवल यह है कि कुफ़्र की शक्ति टूट जाए। मगर तुम लोगों पर बार-बार संसार का लोभ छा जाता है। पहले शत्रु की असल ताकत पर हमला करने के बजाय क़ाफ़िले पर हमला करना चाहा, फिर शत्रु का सर कुचलने के बजाय, गनीमत लूटने और क़ैदी पकड़ने में लग गए, फिर ग़नीमत पर झगड़ने लगे। अगर हम पहले फ़िदया वुसूल करने की अनुमति न दे चुके होते तो इसपर तुम्हें कड़ी सज़ा देते। खैर, अब जो कुछ तुमने लिया है, वह खा लो, मगर आगे ऐसे रवैये से बचते रहो जो अल्लाह के नज़दीक अप्रिय है।" मैं इस राय पर पहुँच चुका था कि इमाम जस्सास की पुस्तक 'अहकामुल कुरआन' में यह देखकर मुझे और अधिक सन्तोष हुआ कि इमाम जस्सास भी इस अर्थ को कम से कम स्वीकारणीय कहते हैं। फिर पुस्तक 'सौरत इब्ने हिशाम' पुस्तक में यह रिवायत नज़र से गुज़री कि जिस समय इस्लाम के मुजाहिदीन गनीमत का माल लूटने और शत्रु के आदमियों को पकड़-पकड़कर बाँधने में लगे हुए थे, नबी (सल्ल०) ने देखा कि साद बिन मुआज़ के चेहरे पर कुछ नागवारी झलक रही है। नबी (सल्ल०) ने उनसे मालूम किया कि “ऐ साद ! लगता है कि लोगों को यह कार्रवाई तुम्हें पसन्द नहीं आ रही है।" उन्होंने कहा, “जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) यह पहली लड़ाई है जिसमें अल्लाह ने शिर्कवालों को पराजय का मुँह दिखाया है, इस अवसर पर उन्हें कैदी बनाकर उनकी जानें बचा लेने से कहीं बेहतर यह था कि उनको कुचल डाला जाता।" (भाग 2, पृ० 280-81)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّمَن فِيٓ أَيۡدِيكُم مِّنَ ٱلۡأَسۡرَىٰٓ إِن يَعۡلَمِ ٱللَّهُ فِي قُلُوبِكُمۡ خَيۡرٗا يُؤۡتِكُمۡ خَيۡرٗا مِّمَّآ أُخِذَ مِنكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 69
(70) ऐ नबी ! तुम लोगों के क़ब्जे में जो कैदी हैं उनसे कहो अगर अल्लाह को मालूम हुआ कि तुम्हारे दिलों में कुछ भलाई है तो वह तुम्हें उससे बढ़-चढ़कर देगा जो तुमसे लिया गया है, और तुम्हारी ग़लतियाँ माफ़ करेगा। अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।
وَإِن يُرِيدُواْ خِيَانَتَكَ فَقَدۡ خَانُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ فَأَمۡكَنَ مِنۡهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 70
(71) लेकिन अगर वे तेरे साथ खियानत का इरादा रखते हैं तो इससे पहले वे अल्लाह के साथ खियानत कर चुके हैं, अतएव उसी की सज़ा अल्लाह ने उन्हें दी कि वे तेरे काबू में आ गए। अल्लाह सब कुछ जानता और गहरी समझवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يُهَاجِرُواْ مَا لَكُم مِّن وَلَٰيَتِهِم مِّن شَيۡءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْۚ وَإِنِ ٱسۡتَنصَرُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ فَعَلَيۡكُمُ ٱلنَّصۡرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 71
(72) जिन लोगों ने ईमान अपनाया और हिजरत की (घर-बार छोड़ा) और अल्लाह की राह में अपनी जाने लड़ाई और अपने माल खपाए, और जिन लोगों ने हिजरत करनेवालों को जगह दी और उनकी मदद की, वही वास्तव में एक-दूसरे के संरक्षक-मित्र हैं। रहे वे लोग जो ईमान तो ले आए मगर हिजरत करके (दारुल इस्लाम अर्थात इस्लामी राज्य में) आ नहीं गए तो उनसे तुम्हारा 'विलायत' (संरक्षण) का कोई सम्बन्ध नहीं है जब तक कि वे हिजरत करके न आ जाएँ। 50 हाँ, अगर वे धर्म के मामले में तुमसे मदद माँगें तो उनकी मदद करना तुमपर अनिवार्य है, लेकिन किसी ऐसी कौम के विरुद्ध नहीं जिससे तुम्हारा समझौता हो।51 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देखता है।
50. यह आयत इस्लाम के संवैधानिक नियम की एक महत्त्वपूर्ण धारा है। इसमें यह नियम बताया गया है कि 'विलायत' (संरक्षक-मित्र) का संबंध केवल उन मुसलमानों के बीच होगा जो या तो इस्लामी राज्य के निवासी हों या अगर बाहर से आएँ तो हिजरत करके आ जाएँ । बाक़ी रहे वे मुसलमान जो इस्लामी राज्य के की भौगोलिक सीमाओं से बाहर हों तो उनके साथ धार्मिक भाईचारा तो अवश्य स्थापित होगा, लेकिन 'विलायत' का सम्बन्ध न होगा और इसी तरह उन मुसलमानों से भी विलायत का यह संबंध न रहेगा जो हिजरत करके न आएँ, बल्कि 'दारुल कुफ्र ' (कुफ्र का राज्य) का नागरिक होने की हैसियत से दारुल इस्लाम में आएँ। 'विलायत' का शब्द अरबी भाषा में समर्थन, सहायता, मददगारी, पृष्ठपोषण, मित्रता, नातेदारी, संरक्षण और इससे मिलते-जुलते अर्थों के लिए बोला जाता है, और इस आयत के संदर्भ में स्पष्ट रूप से इससे तात्पर्य वह नाता है जो एक राज्य का अपनी नागरिकों से, और नागरिकों का अपने राज्य से, और नागरिकों के बीच आपस में होता है। अतएव यह आयत 'संवैधानिक और राजनीतिक विलायत' को राज्य की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित कर देती है और इन सीमाओं के बाहर के मुसलमानों को इस विशेष नाते से अलग कर देती है। इस विलायत्त के न होने के क़ानूनी नतीजे बड़े व्यापक हैं जिनका विवरण देने का यहाँ अवसर नहीं है। उदाहरण में इतना संकेत पर्याप्त होगा कि किसी विलायत के न होने की वजह से 'दारुल कुफ़्र' और 'दारुल इस्लाम के मुसलमान एक-दूसरे के वारिस नहीं हो सकते, एक-दूसरे के क़ानूनी वली (Guardian) नहीं बन सकते, आपस में शादी-ब्याह नहीं कर सकते और इस्लामी राज्य किसी ऐसे मुसलमान को अपने यहाँ दायित्व का पद नहीं दे सकता जिसने दारुल कुफ़ से नागरिकता का संबंध न तोड़ा हो। इसके अतिरिक्त यह आयत इस्लामी राज्य की विदेश राजनीति पर भी बड़ा प्रभाव डालती है। इसके अनुसार इस्लामी राज्य का दायित्व उन मुसलमानों तक सीमित है जो उसकी सीमाओं के भीतर रहते हैं। बाहर के मुसलमानों के लिए किसी दायित्व का बोझ उसके सर नहीं है। इस तरह इस्लामी क़ानून ने उस झगड़े की जड़ काट दी है जो प्राय: अन्तर्राष्ट्रीय पेचीदगियों का कारण बनता है, क्योंकि जब कोई सरकार अपनी सीमा से बाहर रहनेवाले कुछ अल्पसंख्यकों का जिम्मा अपने सर ले लेती है तो उसकी वजह से ऐसी उलझनें पड़ जाती हैं जिनको बार-बार की लड़ाइयाँ भी नहीं सुलझा सकतीं।
51. ऊपर की आयत में दारुल इस्लाम से बाहर रहनेवाले मुसलमानों को 'राजनीतिक और विलायत' के नाते से अलग कर दिया गया था। अब यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि इस नाते से अलग होने के बावजूद वे 'धार्मिक भाईचारा' के नाते से अलग नहीं हैं। अगर कहीं उनपर जुल्म हो रहा हो और वे इस्लामी बिरादरी के ताल्लुक़ की बुनियाद पर दारुल इस्लाम की सरकार और उसके निवासियों से सहायता माँगे तो उनका कर्तव्य है कि अपने उन पीड़ित भाइयों की सहायता । लेकिन इसके बाद और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया कि उन धार्मिक भाइयों को सहायता का कर्तव्य अंधाधुंध नहीं निभाया जाएगा, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों और नैतिक मर्यादाओं को ध्यान में रखकर ही निभाया जा सकेगा। अगर ज़ुल्म करनेवाली क़ौम से दारुल इस्लाम के संधिपूर्ण सम्बन्ध हों तो इस स्थिति में मज़लूम मुसलमानों की कोई ऐसी सहायता नहीं की जा सकेगी जो उन संबंधों के नैतिक दायित्वों के विरुद्ध पड़ती हो। 'ऐसी क़ौम के विरुद्ध नहीं जिससे तुम्हारा समझौता हो' शब्दों में स्पष्ट रूप से मालूम होता है कि दारुल इस्लाम की सरकार ने जो मैत्रीपूर्ण संबंध किसी गैर-मुस्लिम राज्य से स्थापित किए हों वे सिर्फ़ दो राज्यों के संबंध ही नहीं हैं, बल्कि दो क़ौमों के संबंध भी हैं और उनके नैतिक दायित्वों में मुसलमान सरकार के साथ मुसलमान क़ौम और उसके लोग भी सम्मिलित हैं।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٍۚ إِلَّا تَفۡعَلُوهُ تَكُن فِتۡنَةٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَفَسَادٞ كَبِيرٞ ۝ 72
(73) जो लोग सत्य के इंकारी हैं, वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं। अगर तुम यह न करोगे तो धरती में फ़ितना (उपद्रव) और बड़ा बिगाड़ पैदा होगा।51अ’’
51 अ. अर्थात अगर दारुल इस्लाम के मुसलमान एक-दूसरे के वली न बनें और अगर घर-बार छोड़कर इस्लाम में न आनेवाले और दारुल कुफ्र में निवास करनेवाले मुसलमानों को दारुल इस्लाम के मुसलमान अपनी राजनीतिक विलायत से अलग न समझें और अगर बाहर के पीड़ित मुसलमानों की सहायता माँगने पर उनकी सहायता न की जाए और अगर इसके साथ-साथ उस नियम की पाबन्दी भी न की जाए कि जिस क़ौम से इस्लामी राज्य का समझौता हो उसके विरुद्ध मुसलमानों की सहायता नहीं की जाएगी और अगर मुसलमान काफ़िरों से विलायत का संबंध समाप्त न करें तो धरती में उपद्रव और बड़ा बिगाड़ पैदा होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 73
(74, 75) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अल्लाह की राह में घर-बार छोड़े और संघर्ष किया और जिन्होंने पनाह दी और सहायता की, वही सच्चे ईमानवाले हैं। उनके लिए ग़लतियों की माफ़ी है और उत्तम रोज़ी है और जो लोग बाद में ईमान लाए और घर-बार छोड़कर आ गए और तुम्हारे साथ मिलकर संघर्ष एवं प्रयास करने लगे, वे भी तुम ही में शामिल हैं, मगर अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं।52 निश्चय ही अल्लाह हर चीज़ को जानता है।
52. तात्पर्य यह है कि इस्लामी बिरादरी के आधार पर विरासत न बॅटेगी और न वे हक़ जो वंश और ससुराली रिश्ते के आधार पर कायम होते हैं, धार्मिक भाइयों को एक-दूसरे के मामले में प्राप्त होंगे। इन मामलों में इस्लामी संबंध के बजाय नातेदारी का संबंध ही कानूनी अधिकारों की बुनियाद रहेगा। यह बात इसलिए कही गई है कि हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) ने मुहाजिरों और अंसार के बीच जो भाईचारा कराया था उसकी वजह से कुछ लोग ऐसा सोच रहे थे कि ये धार्मिक भाई एक-दूसरे के वारिस भी होंगे। नबी (सल्ल०) (की व्याख्या के अनुसार) सिर्फ़ मुसलमान नातेदार ही एक-दूसरे के वारिस होंगे। मुसलमान किसी ग़ैर-मुस्लिम का या ग़ैर-मुस्लिम किसी मुस्लिम का वारिस न होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ مَعَكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ مِنكُمۡۚ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 74
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