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سُورَةُ الجِنِّ

72. अल-जिन्न

(मक्का में उतरी, आयतें 28)

परिचय

नाम

'अल-जिन्न' सूरा का नाम भी है और विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक भी, क्योंकि इसमें जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनकर जाने और अपनी जाति में इस्लाम के प्रचार करने की घटना का सविस्तार वर्णन किया गया है।

उतरने का समय

बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रजि०) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने कुछ सहाबा (साथियों) के साथ उकाज़ के बाज़ार जा रहे थे। रास्ते में नख़ला के स्थान पर आप (सल्ल०) ने फ़ज्र (प्रातः) की नमाज़ पढ़ाई। उस समय जिन्नों का एक गरोह उधर से गुज़र रहा था। क़ुरआन-पाठ की आवाज़ सुनकर वह ठहर गया और ध्यानपूर्वक क़ुरआन सुनता रहा। इसी घटना का उल्लेख इस सूरा में किया गया है। अधिकतर टीकाकारों ने इस उल्लेख के आधार पर यह समझा है कि यह नबी (सल्ल०) के ताइफ़ की यात्रा की प्रसिद्ध घटना है। किन्तु यह अनुमान कई कारणों से सही नहीं है। ताइफ़ की उस यात्रा में जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनने की जो घटना घटी थी उसका क़िस्सा सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत 29 से 32 में बयान किया गया है। उन आयतों पर एक दृष्टि डालने से ही मालूम हो जाता है कि उस अवसर पर जो जिन्न क़ुरआन मजीद सुनकर ईमान लाए थे, वे पहले से ही हज़रत मूसा (अलैहि०) और पूर्व की आसमानी किताबों पर ईमान रखते थे। इसके विपरीत इस सूरा की आयत 2-7 से प्रत्यक्षतः स्पष्ट होता है कि इस अवसर पर क़ुरआन सुननेवाले जिन्न बहुदेववादियों और परलोक एवं ईशदूतत्व (पैग़म्बरी) का इनकार करनेवालों में से थे। इसलिए सही बात यह है कि सूरा-46 (अहक़ाफ़) और सूरा-72 (जिन्न) में एक ही घटना का उल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि ये दो अलग-अलग घटनाएँ हैं। सूरा-46 (अहक़ाफ़) में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह सन् 10 नबवी की ताइफ़ की यात्रा में घटित हुई थी और इस सूरा की आयतों 8-10 पर विचार करने से महसूस होता है कि यह [दूसरी घटना] नुबूवत के आरम्भिक कालखण्ड की ही हो सकती है।

जिन्न की असलियत

जहाँ तक क़ुरआन का [सम्बन्ध है, उस] में एक जगह नहीं, अधिकतर स्थानों पर जिन्न और मनुष्य का उल्लेख इस हैसियत से किया गया है कि ये दो विभिन्न प्रकार के सृष्ट जीव (मख़लूक़) हैं। उदाहरणार्थ देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 38; सूरा-11 हूद, आयत 119; सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा, आयत 25 और 29; सूरा-46 अल-अहक़ाफ़, आयत 17; सूरा-51 अज़-ज़ारियात, आयत 56: सूरा-114 अन-नास, आयत 6 और पूरी सूरा-55 रहमान; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 12 और सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 26-27 में साफ़-साफ़ बताया गया है कि की इंसान की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह मिट्टी है और जिन्नों की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह है अग्नि। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 27 में स्पष्ट किया गया है कि जिन्न मनुष्य से पहले पैदा किए गए थे। सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 27 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिन्न मनुष्यों को देखते हैं, किन्तु मनुष्य उनको नहीं देखते। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 16-17; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 6-10 और सूरा-67 अल-मुल्क, आयत 5 में बताया गया है कि जिन्न यद्यपि उपरिलोक की ओर उड्डयन (परवाज़) कर सकते हैं, किन्तु एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 50 से मालूम होता है कि धरती की ख़िलाफ़त (शासनाधिकार) अल्लाह ने मनुष्य को प्रदान की है और मनुष्य जिन्नों से श्रेष्ठ प्राणी है। क़ुरआन यह भी बताता है कि जिन्न मनुष्य की तरह स्वतंत्र अधिकार प्राप्त सृष्ट जीव (मख़लूक़) है और जिन्नों को आज्ञापालन और अवज्ञा तथा कुफ़्र (ईश्वर का इनकार) और ईमान का वैसा ही अधिकार दिया गया है, जैसा मनुष्य को दिया गया है। [क़ुरआन मजीद में इसी तरह की और भी बहुत-सी बातें जिन्नों के विषय में बयान की गई हैं। उनके इन सभी बयानों] से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि जिन्न का अपना एक स्थायी बाह्य अस्तित्व होता है और वे मनुष्य से अलग एक दूसरी ही जाति के अदृश्य सृष्ट प्राणी हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पहली आयत से लेकर आयत 15 तक यह बताया गया है कि जिन्न के गरोह पर क़ुरआन मजीद सुनकर क्या प्रभाव पड़ा और फिर वापस जाकर अपनी जाति के दूसरे जिन्नों से क्या-क्या बातें कहीं। इस सिलसिले में अल्लाह ने उनकी सारी बातचीत उद्धृत नहीं की है, बल्कि केवल उन ख़ास-ख़ास बातों को उद्धृत किया है जो उल्लेखनीय थीं। इसके बाद आयत 16 से 18 तक लोगों को हितोपदेश दिया गया है कि वे बहुदेववाद को त्याग दें और सीधे मार्ग पर दृढ़ता के साथ चलें तो उनपर नेमतों की वर्षा होगी, अन्यथा अल्लाह की भेजी हुई नसीहत से मुँह मोड़ने का परिणाम यह होगा कि उन्हें कठोर यातना का सामना करना पड़ेगा। फिर आयत 19 से 23 तक मक्का के इस्लाम-विरोधियों की इस बात पर निन्दा की गई है कि जब अल्लाह का रसूल अल्लाह की ओर आमंत्रित करने के लिए आवाज़ बुलन्द करता है तो वे उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर आयत 24 से 25 में इस्लाम-विरोधियों को चेतावनी दी गई है कि आज वे रसूल को असहाय देखकर उसे दबा लेने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु एक समय आएगा जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि वास्तव में असहाय कौन है।

अन्त में लोगों को बताया गया है कि परोक्ष का ज्ञाता केवल अल्लाह है। रसूल (सल्ल०) को केवल वह ज्ञान प्राप्त होता है जो अल्लाह उसे देना चाहता है।

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سُورَةُ الجِنِّ
72. अल-जिन्न
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
قُلۡ أُوحِيَ إِلَيَّ أَنَّهُ ٱسۡتَمَعَ نَفَرٞ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَقَالُوٓاْ إِنَّا سَمِعۡنَا قُرۡءَانًا عَجَبٗا
(1) ऐ नबी! कहो, मेरी ओर वह्य (प्रकाशना) भेजी गई है कि जिन्नों के एक गरोह ने ध्यानपूर्वक सुना1, फिर (जाकर अपनी क़ौम के लोगों से) कहा, "हमने एक बड़ा अजीब क़ुरआन सुना है।2
1. इससे मालूम होता है कि जिन्न उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नज़र नहीं आ रहे थे और आप (सल्ल०) को यह मालूम न था कि वे क़ुरआन सुन रहे हैं, बल्कि बाद में वह्य के ज़रीए से अल्लाह ने आप (सल्ल०) को इस घटना की सूचना दी। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) भी इस क़िस्से को बयान करते हुए स्पष्ट करते हैं कि "अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिन्नों के सामने क़ुरआन नहीं पढ़ा था, न आप (सल्ल०) ने उनको देखा था।" (हदीस : मुस्लिम, तिर्मिज़ी, मुस्नद अहमद, इब्ने-जरीर)
2. मूल अरबी शब्द हैं 'क़ुरआनन अ-ज-बा'। क़ुरआन का अर्थ है 'पढ़ी जानेवाली चीज़', और यह शब्द शायद जिन्नों में इसी अर्थ में इस्तेमाल किया होगा, क्योंकि वे पहली बार इस वाणी से परिचित हुए थे। 'अजब' अरबी भाषा में अति आश्चर्यजनक चीज़ के लिए बोला जाता है। अत: जिन्नों के कथन का मतलब यह है कि हम एक ऐसी वाणी सुनकर आए हैं जो अपनी भाषा और अपने विषयों की दृष्टि से अनुपम है। इससे यह भी मालूम हुआ कि जिन्न न केवल यह कि इंसानों की बातें सुनते हैं, बल्कि उनकी भाषा अच्छी तरह समझते भी हैं।
يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلرُّشۡدِ فَـَٔامَنَّا بِهِۦۖ وَلَن نُّشۡرِكَ بِرَبِّنَآ أَحَدٗا ۝ 1
(2) जो सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करता है, इसलिए हम उसपर ईमान ले आए हैं और अब हम कदापि अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे।3"
3. इससे कई बातें मालूम हुई- एक यह कि जिन्न अल्लाह के वुजूद और उसके रब होने के इंकारी नहीं हैं। दूसरी यह कि इनमें भी मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) पाए जाते हैं, अत: जिन्नों की यह क़ौम, जिसके लोग क़ुरआन सुनकर गए थे, मुशरिक ही थी। तीसरी यह कि नुबूवत (पैग़म्बरी) और आसमानी किताबों के उतरने का सिलसिला जिन्नों के यहाँ जारी नहीं हुआ है, बल्कि इनमें जो जिन्न भी ईमान लाते हैं वे इंसानों में आनेवाले नबियों और उनकी लाई हुई किताबों पर ही ईमान लाते हैं। यही बात सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत 29-31 से भी मालूम होती है और सूरा-55 रहमान से भी इसी बात का प्रमाण मिलता है।
وَأَنَّهُۥ تَعَٰلَىٰ جَدُّ رَبِّنَا مَا ٱتَّخَذَ صَٰحِبَةٗ وَلَا وَلَدٗا ۝ 2
(3) और यह कि "हमारे रब का गौरव बहुत उच्च और श्रेष्ठ है, उसने किसी को बीवी या बेटा नहीं बनाया है।"4
4. इससे दो बातें मालूम हुईं- एक यह कि ये जिन्न या तो ईसाई जिन्नों में से थे या उनका कोई और धर्म था जिसमें अल्लाह को बीवी-बच्चोंवाला समझा जाता था। दूसरी यह कि उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) नमाज़ में पवित्र क़ुरआन का कोई ऐसा हिस्सा पढ़ रहे थे जिसे सुनकर उनको अपने अक़ीदे (धारणा) की ग़लती मालूम हो गई और उन्होंने यह जान लिया कि अल्लाह को उच्च व श्रेष्ठ हस्ती से बीवी-बच्चों को जोड़ देना बड़ी अज्ञानता और गुस्ताखी है।
وَأَنَّهُۥ كَانَ يَقُولُ سَفِيهُنَا عَلَى ٱللَّهِ شَطَطٗا ۝ 3
(4) और यह कि "हमारे नादान लोग5 अल्लाह के बारे में अत्यन्त सत्य-विरोधी बातें कहते रहे हैं।"
5. मूल अरबी में सफ़ीहुना' शब्द इस्तेमाल किया गया है जो एक व्यक्ति के लिए भी बोला जा सकता है और एक गरोह के लिए भी। अगर इसे एक नादान व्यक्ति के अर्थ में लिया जाए तो मुराद इबलीस (शैतान) होगा, और अगर एक गरोह के अर्थ में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि जिन्नों में बहुत-से मूर्ख और नासमझ ऐसी बातें कहते थे।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن تَقُولَ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 4
(5) और यह कि “हमने समझा था कि इंसान और जिन्न कभी ख़ुदा के बारे में झूठ नहीं बोल सकते।''6
6. अर्थात् उनकी ग़लत बातों से हमारे गुमराह होने का कारण यह था कि हम कभी यह सोच ही नहीं सकते थे कि इंसान या जिन्न अल्लाह के बारे में झूठ गढ़ने का दुस्साहस भी कर सकते हैं, लेकिन अब यह क़ुरआन सुनकर हमें मालूम हो गया कि वास्तव में वे झूठे थे।
وَأَنَّهُۥ كَانَ رِجَالٞ مِّنَ ٱلۡإِنسِ يَعُوذُونَ بِرِجَالٖ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَزَادُوهُمۡ رَهَقٗا ۝ 5
(6) और यह कि "इंसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे। इस तरह उन्होंने जिन्नों का घमंड और अधिक बढ़ा दिया।"7
7. इब्ने-अब्बास (रजि०) कहते हैं कि अज्ञानता-काल में अरबवासी जब किसी सुनसान घाटी में रात गुज़ारते थे तो पुकारकर कहते, "हम इस घाटी के स्वामी जिन्न की पनाह माँगते हैं।" अज्ञानता काल की दूसरी रिवायतों में भी बहुत ज़्यादा इसका उल्लेख मिलता है। उन लोगों का विश्वास यह था कि हर ग़ैर-आबाद जगह किसी न किसी जिन्न के कब्जे में है और उसकी पनाह माँगे बिना वहाँ कोई ठहर जाए तो वह जिन्न या तो स्वयं सताता है या दूसरे जिन्नों को सताने देता है। इसी बात की ओर ये ईमान लानेवाले जिन्न संकेत कर रहे हैं। उनका मतलब यह है कि जब ज़मीन के ख़लीफ़ा इंसान ने उलटा हम से डरना शुरू कर दिया और ख़ुदा को छोड़कर वह हमसे पनाह माँगने लगा तो हमारी क़ौम के लोगों का दिमाग और अधिक ख़राब हो गया और उनका घमंड व अहंकार और कुफ़्र व ज़ुल्म और अधिक बढ़ गया।
وَأَنَّهُمۡ ظَنُّواْ كَمَا ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ أَحَدٗا ۝ 6
(7) और यह कि "इंसानों ने भी वही गुमान किया जैसा तुम्हारा गुमान था कि अल्लाह किसी को रसूल बनाकर न भेजेगा।"8
8. [दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है ] कि "अल्लाह किसी को मरने के बाद दोबारा न उठाएगा।" चूँकि शब्द व्यापक हैं इसलिए इनका यह अर्थ लिया जा सकता है कि इंसानों की तरह जिन्नों में भी रिसालत (पैग़म्बरी) और आख़िरत दोनों का इंकार पाया जाता था। लेकिन आगे के विषय को देखते हुए पहला अनुवाद और अर्थ ही अधिक प्राथमिकता देने योग्य है, क्योंकि उसमें ईमान लानेवाले जिन्न अपनी क़ौम के लोगों को बताते हैं कि तुम्हारा यह विचार ग़लत निकला कि अल्लाह किसी रसूल को भेजनेवाला नहीं है, आसमान के दरवाज़े हमपर इसी कारण बन्द किए गए हैं कि अल्लाह ने एक रसूल भेज दिया है।
وَأَنَّا لَمَسۡنَا ٱلسَّمَآءَ فَوَجَدۡنَٰهَا مُلِئَتۡ حَرَسٗا شَدِيدٗا وَشُهُبٗا ۝ 7
(8) और यह कि “हमने आसमान को टटोला तो देखा कि वह पहरेदारों से पटा पड़ा है और शिहाबों (उल्काओं) की वर्षा हो रही है",
وَأَنَّا كُنَّا نَقۡعُدُ مِنۡهَا مَقَٰعِدَ لِلسَّمۡعِۖ فَمَن يَسۡتَمِعِ ٱلۡأٓنَ يَجِدۡ لَهُۥ شِهَابٗا رَّصَدٗا ۝ 8
(9) और यह कि "पहले हम सुन-गुन लेने के लिए आसमान में बैठने की जगह पा लेते थे, मगर अब जो चोरी-छिपे सुनने की कोशिश करता है, वह अपने लिए घात में एक 'शिहाबे-साक़िब' (उल्का) लगा हुआ पाता है।''9
9. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न आसमान की यह हालत देखकर इस तलाश में निकले थे कि आख़िर ज़मीन पर ऐसा क्या मामला पेश आया है या आनेवाला है जिसकी ख़बरों को सुरक्षित रखने के लिए इतने सख्‍़त प्रबन्ध किए गए हैं कि अब हम उपरिलोक में सुन-गुन लेने का कोई मौका नहीं पाते, और जिधर भी जाते हैं, मार भगाए जाते हैं।
وَأَنَّا لَا نَدۡرِيٓ أَشَرٌّ أُرِيدَ بِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ أَرَادَ بِهِمۡ رَبُّهُمۡ رَشَدٗا ۝ 9
(10) और यह कि "हमारी समझ में न आता था कि क्या धरतीवालों के साथ कोई बुरा मामला करने का इरादा किया गया है या उनका रब उन्हें सीधा रास्ता दिखाना चाहता है?''10
10. इससे मालूम हुआ कि ऊपरी लोक में इस प्रकार के असामान्य प्रबन्ध दो ही हालतों में किए जाते हैं- एक यह कि अल्लाह ने धरतीवालों पर कोई अज़ाब उतारने का फैसला किया हो और अल्लाह यह चाहता हो कि उसके आने से पहले जिन्न उसकी भनक पाकर अपने दोस्त इंसानों को सूचित न कर दें। दूसरी यह कि अल्लाह ने धरती में किसी रसूल को भेजा हो और रक्षा के इन प्रबन्धों का मक़सद यह हो कि रसूल की ओर जो सन्देश भेजे जा रहे हैं उनमें शैतान किसी प्रकार बाधा न डाल सकें। अत: जिन्नों के इस कथन का अर्थ यह है कि जब हमने आसमान में ये चौकी-पहरे देखे और शिहाबों (उल्का) की इस वर्षा का निरीक्षण किया तो हमें यह मालूम करने की चिन्ता हुई कि इन दोनों स्थितियों में से कौन-सी स्थिति सामने है। इसी खोज में हम निकले थे कि हमने वह आश्चर्यजनक वाणी सुनी जो सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करती है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-15 अल-हिज्र, टिप्पणी 8-12; सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात, टिप्पणी 7; सूरा-67 अल-मुल्क, टिप्पणी 11)
وَأَنَّا مِنَّا ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنَّا دُونَ ذَٰلِكَۖ كُنَّا طَرَآئِقَ قِدَدٗا ۝ 10
(11) और यह कि "हममें से कुछ लोग भले हैं और कुछ इससे कमतर हैं, हम विभिन्न तरीकों में बटे हुए हैं।''11
11. अर्थात् नैतिक दृष्टि से भी हममें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के जिन्न पाए जाते हैं और आस्थाओं और धारणाओं में भी हमारा कोई एक धर्म नहीं है, बल्कि हम अलग-अलग गरोहों में बंटे हुए हैं। यह बात कहकर ये ईमान लानेवाले जिन्न अपनी क़ौम के जिन्नों को यह समझाना चाहते हैं कि हम सीधा रास्ता मालूम करने के निश्चित रूप से मुहताज हैं, इससे हम बेनियाज़ नहीं हो सकते।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن نُّعۡجِزَ ٱللَّهَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَن نُّعۡجِزَهُۥ هَرَبٗا ۝ 11
(12) और यह कि "हम समझते थे किन धरती में हम अल्लाह को विवश कर सकते हैं और न भागकर उसे हरा सकते हैं।''12
12. अर्थ यह है कि हमारे इसी विचार ने हमें मुक्ति-मार्ग दिखा दिया। हम चूँकि अल्लाह से निर्भय न थे और हमें विश्वास था कि अगर हमने उसकी अवज्ञा की तो उसकी पकड़ से किसी तरह बच न सकेंगे, इसलिए जब वह वाणी हमने सुनी जो अल्लाह की ओर से सीधा रास्ता बताने आई थी तो हम यह दुस्साहस न कर सके कि सत्य मालूम हो जाने के बाद भी उन्हीं धारणाओं पर जमे रहते जो हमारे नासमझ लोगों ने हममें फैला रखी थीं।
وَأَنَّا لَمَّا سَمِعۡنَا ٱلۡهُدَىٰٓ ءَامَنَّا بِهِۦۖ فَمَن يُؤۡمِنۢ بِرَبِّهِۦ فَلَا يَخَافُ بَخۡسٗا وَلَا رَهَقٗا ۝ 12
(13) और यह कि "हमने जब मार्गदर्शन की बात सुनी तो हम उसपर ईमान ले आए। अब जो कोई भी अपने रब पर ईमान ले लाएगा उसे किसी तरह के हक़ मारे जाने या अत्याचार का डर न होगा।''13
13. हक़ मारने से मुराद यह है कि अपनी नेकी (भलाई) पर वह जितने अज (बदले) का हक़दार हो उससे कम दिया जाए और जुल्म (अत्याचार) यह है कि उसे नेकी का कोई बदला न दिया जाए और जो कुसूर उससे हो जाए उसकी ज्यादा सज़ा दे डाली जाए या बे-कुसूर ही किसी को अजाब दे दिया जाए। किसी ईमान लानेवाले के लिए अल्लाह के यहाँ इस प्रकार के किसी अन्याय का भय नहीं है।
وَأَنَّا مِنَّا ٱلۡمُسۡلِمُونَ وَمِنَّا ٱلۡقَٰسِطُونَۖ فَمَنۡ أَسۡلَمَ فَأُوْلَٰٓئِكَ تَحَرَّوۡاْ رَشَدٗا ۝ 13
(14) और यह कि "हममें से कुछ मुस्लिम (अल्लाह के आज्ञापालक) हैं और कुछ सत्य से हटे हुए। अत: जिन्होंने इस्लाम (आज्ञापालन का रास्ता) अपना लिया, उन्होंने मुक्ति का मार्ग ढूँढ लिया।
وَأَمَّا ٱلۡقَٰسِطُونَ فَكَانُواْ لِجَهَنَّمَ حَطَبٗا ۝ 14
(15) और जो सत्य से हटे हुए हैं वे जहन्नम का ईंधन बननेवाले हैं।"14
15. ऊपर जिन्नों की बात समाप्त हो गई। अब यहाँ से अल्लाह के अपने इर्शाद (कथन) शुरू होते हैं।
وَأَلَّوِ ٱسۡتَقَٰمُواْ عَلَى ٱلطَّرِيقَةِ لَأَسۡقَيۡنَٰهُم مَّآءً غَدَقٗا ۝ 15
(16) और15 (ऐ नबी कहो, मुझपर यह वह्य भी की गई है कि) लोग अगर सीधे रास्ते पर मज़बूती के साथ चलते तो हम उन्हें ख़ूब सिंचित करते16,
16. यह वही बात है जो सूरा-71 नूह में फ़रमाई गई है कि अल्लाह से क्षमा मांगो तो वह तुमपर आसमान से ख़ूब बारिशें बरसाएगा, (व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-71 नूह, टिप्पणी 12)। पानी की अधिकता को नेमतों की अधिकता के लिए संकेतात्मक रूप में इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पानी ही पर आबादी निर्भर है।
لِّنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَمَن يُعۡرِضۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِۦ يَسۡلُكۡهُ عَذَابٗا صَعَدٗا ۝ 16
(17) ताकि इस नेमत से उनकी परीक्षा लें।17 और जो अपने रब के ज़िक्र (याद) से मुँह मोड़ेगा18, उसका रब उसे सख़्त अज़ाब में डाल देगा,
17. अर्थात् यह देखें कि वे नेमत पाकर भी कृतज्ञ (शुक्रगुज़ार) रहते हैं या नहीं, और हमारी दी हुई नेमत का सही इस्तेमाल करते हैं या ग़लत।
18. ज़़िक्र से मुंह मोड़ने का मतलब यह भी है कि आदमी अल्लाह के भेजे हुए उपदेश को स्वीकार न करे और यह भी कि वह अल्लाह का ज़िक्र सुनना ही गवारा न करे और अल्लाह की इबादत से मुंह फेरे।
وَأَنَّ ٱلۡمَسَٰجِدَ لِلَّهِ فَلَا تَدۡعُواْ مَعَ ٱللَّهِ أَحَدٗا ۝ 17
(18) और यह कि मस्जिदें अल्लाह के लिए हैं, इसलिए उनमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो19,
19. टीकाकारों ने आमतौर से 'मस्जिदों' को इबादतगाहों के अर्थ में लिया है और इस अर्थ की दृष्टि से आयत का मतलब यह है कि इबादतगाहों में अल्लाह के साथ किसी और की इबादत न करो, किसी और से दुआ न माँगो, किसी और को मदद के लिए न पुकारो। हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि [रसूल (सल्ल०) के कथनानुसार] ज़मीन पूरी की पूरी इबादतगाह है और आयत का मक़सद यह है कि अल्लाह की ज़मीन पर कहीं भी शिर्क न किया जाए। हज़रत सईद बिन जुबैर (रज़ि०) ने मस्जिदों से मुराद वे अंग लिए हैं जिनपर आदमी सजदा करता है, अर्थात् हाथ, घुटने, क़दम और माथा। इस व्याख्या के अनुसार आयत का मतलब यह है कि ये अंग अल्लाह के बनाए हुए हैं। इनपर अल्लाह के सिवा किसी और के लिए सजदा न किया जाए।
وَأَنَّهُۥ لَمَّا قَامَ عَبۡدُ ٱللَّهِ يَدۡعُوهُ كَادُواْ يَكُونُونَ عَلَيۡهِ لِبَدٗا ۝ 18
(19) और यह कि जब अल्लाह का बन्दा20 उसको पुकारने के लिए खड़ा हुआ तो लोग उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो गए।
20. अल्लाह के बन्दे से मुराद यहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَدۡعُواْ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 19
(20) ऐ नबी! कहो कि “मैं तो अपने रब को पुकारता हूँ और उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।"21
21. अर्थात् ख़ुदा को पुकारना तो कोई आपत्तिजनक काम नहीं है जिसपर लोगों को इतना गुस्सा आए, अलबत्ता बुरी बात अगर है तो यह कि कोई आदमी खुदा के साथ किसी और को ख़ुदाई (ईश्वरत्त्व) में शरीक ठहराए और यह काम मैं नहीं करता, बल्कि वे लोग करते हैं जो ख़ुदा का नाम सुनकर मुझपर टूटे पड़ रहे हैं।
قُلۡ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا رَشَدٗا ۝ 20
(21) कहो, “मैं तुम लोगों के लिए न किसी हानि का अधिकार रखता हूँ, न किसी भलाई का।"
قُلۡ إِنِّي لَن يُجِيرَنِي مِنَ ٱللَّهِ أَحَدٞ وَلَنۡ أَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدًا ۝ 21
(22) कहो, “मुझे अल्लाह की पकड़ से कोई बचा नहीं सकता और न मैं उसके दामन के सिवा कोई शरण लेने की जगह पा सकता हूँ।
إِلَّا بَلَٰغٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِسَٰلَٰتِهِۦۚ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًا ۝ 22
(23) मेरा काम इसके सिवा कुछ नहीं कि अल्लाह की बात और उसके पैग़ाम पहुँचा दूँ।22 अब जो भी अल्लाह और उसके रसूल की बात न मानेगा उसके लिए जहन्नम की आग है, और ऐसे लोग उसमें सदैव रहेंगे।''23
22. अर्थात् मेरा यही दावा हरगिज़ नहीं है कि ख़ुदा की ख़ुदाई (ईश्वरत्व) में मेरा कोई दख़ल है या लोगों के भाग्य बनाने और बिगाड़ने का कोई अधिकार मुझे प्राप्त है । मैं तो सिर्फ़ एक रसूल हूँ और जो सेवा मेरे सुपुर्द की गई है वह इससे अधिक कुछ नहीं है कि अल्लाह के सन्देश तुम्हें पहुँचा दूँ। किसी दूसरे को लाभ या हानि पहुँचाना तो दूर, मुझे तो अपने लाभ व हानि का भी अधिकार प्राप्त नहीं। अल्लाह की अवज्ञा करूँतो उसकी पकड़ से बचकर कहीं शरण नहीं ले सकता, (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-26 अश-शूरा, टिप्पणी 7)।
23. इसका यह मतलब नहीं है कि हर गुनाह और बुराई की सज़ा सदैव की जहन्नम है, बल्कि जिस वार्ता-क्रम में यह बात कही गई है उसकी दृष्टि से आयत का मतलब यह है कि अल्लाह और उसके रसूल की ओर से तौहीद (एकेश्वरवाद) की जो दावत दी गई है, उसको जो आदमी न माने और शिर्क से बाज न आए उसके लिए सदैव की जहन्नम की सज़ा है।
حَتَّىٰٓ إِذَا رَأَوۡاْ مَا يُوعَدُونَ فَسَيَعۡلَمُونَ مَنۡ أَضۡعَفُ نَاصِرٗا وَأَقَلُّ عَدَدٗا ۝ 23
(24) (ये लोग अपनी इस नीति से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब उस चीज़ को देख लेंगे जिसका इनसे वादा किया जा रहा है तो इन्हें मालूम हो जाएगा कि किसके सहायक कमज़ोर हैं और किसका जत्था तादाद में कम है।24
24. इस आयत की पृष्ठभूमि यह है कि उस जमाने में कुरैश के जो लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का अल्लाह की ओर बुलावा सुनते ही आपपर टूटे पड़ते थे वे इस भ्रम में पड़े हुए थे कि उनका जत्था बड़ा ज़बरदस्त है और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ कुछ मुट्ठी भर आदमी हैं, इसलिए वे आसानी से आपको दबा लेंगे। इसपर कहा जा रहा है कि आज ये लोग रसूल को बे-यार व मददगार और अपने आपको भारी संख्या में देखकर सत्य की आवाज़ को दबाने के लिए बड़े दिलेर हो रहे हैं, मगर जब वह बुरा समय आ जाएगा, जिससे उनको डराया जा रहा है, तो इनको पता चल जाएगा कि बे-यार व मददगार वास्तव में कौन हैं।
قُلۡ إِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٞ مَّا تُوعَدُونَ أَمۡ يَجۡعَلُ لَهُۥ رَبِّيٓ أَمَدًا ۝ 24
(25) कहो, "मैं नहीं जानता कि जिस चीज़ का वादा तुमसे किया जा रहा है, वह करीब है या मेरा रब इसके लिए कोई लंबी अवधि निश्चित करता है।25
25. शायद ऊपर की बात सुनकर विरोधियों ने व्यंग्य और मज़ाक के तौर पर सवाल किया होगा कि वह समय जिसका डरावा आप दे रहे हैं, आख़िर कब आएगा? इसके उत्तर में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि इन लोगों से कहो, उस समय का आना तो निश्चित है मगर उसके आने की तारीश्य अल्लाह ही को मालूम है।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ فَلَا يُظۡهِرُ عَلَىٰ غَيۡبِهِۦٓ أَحَدًا ۝ 25
(26) वह परोक्ष का जाननेवाला है, अपने परोक्ष को किसी पर प्रकट नहीं करता26,
26. अर्थात् परोक्ष का पूरा ज्ञान अल्लाह के लिए ख़ास है और यह पूर्ण परोक्ष-ज्ञान वह किसी को भी नहीं देता।
إِلَّا مَنِ ٱرۡتَضَىٰ مِن رَّسُولٖ فَإِنَّهُۥ يَسۡلُكُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦ رَصَدٗا ۝ 26
(27) सिवाए उस रसूल के जिसे उसने (परोक्ष का ज्ञान देने के लिए) पसंद कर लिया हो,27 तो उसके आगे और पीछे वह रक्षक लगा देता है,28
27. अर्थात् रसूल अपने आप में परोक्ष-ज्ञाता नहीं होता, बल्कि अल्लाह जब उनको रिसालत की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए चुन लेता है तो परोक्ष के तथ्यों में से जिन चीज़ों का ज्ञान वह चाहता है, उसे प्रदान कर देता है।
28. रक्षकों से मुराद फ़रिश्ते हैं। मतलब यह है कि जब अल्लाह वह्य के जरीए से परोक्ष के तथ्यों का ज्ञान रसूल के पास भेजता है तो उसकी रक्षा करने के लिए हर ओर फ़रिश्ते नियुक्त कर देता है, ताकि वह ज्ञान अत्यन्त सुरक्षित ढंग से रसूल तक पहुँच जाए और उसमें किसी प्रकार की मिलावट न होने पाए।
لِّيَعۡلَمَ أَن قَدۡ أَبۡلَغُواْ رِسَٰلَٰتِ رَبِّهِمۡ وَأَحَاطَ بِمَا لَدَيۡهِمۡ وَأَحۡصَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ عَدَدَۢا ۝ 27
(28) ताकि वह जान ले कि उन्होंने अपने रब के सन्देश पहुँचा दिए29, और वह उनके पूरे वातावरण (माहौल) को घेरे में लिए हुए है और एक-एक चीज़ को उसने गिन रखा है।''30
29. इसके तीन अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि रसूल यह जान ले कि फ़रिश्तों ने उसको अल्लाह के सन्देश ठीक-ठीक पहुँचा दिए हैं। दूसरा यह कि अल्लाह यह जान ले कि फ़रिश्तों ने अपने रब के सन्देश उसके रसूल तक सही-सही पहुँचा दिए हैं। तीसरा यह कि अल्लाह यह जान ले कि रसूलों ने उसके बन्दों तक अपने रब के सन्देश ठीक-ठीक पहुँचा दिए। आयत के शब्दों में ये तीनों अर्थ शामिल हैं। इसके अलावा यह आयत दो और बातों की भी दलील है- पहली बात यह कि रसूल को परोक्ष का वह ज्ञान दिया जाता है जो रिसालत की ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिए उसको देना जरूरी होता है। दूसरी बात यह कि जो फ़रिश्ते निगहबानी के लिए नियुक्त किए जाते हैं वे इस बात की भी निगहबानी करते हैं कि रसूल तक यह ज्ञान सही रूप में पहुँच जाए और इस बात की भी कि रसूल अपने रब के सन्देश उसके बन्दों तक ठीक-ठीक पहुँचा दे।
30. अर्थात् रसूल पर भी और फ़रिश्तों पर भी अल्लाह की शक्ति और सामर्थ्य इस तरह व्याप्त है कि अगर बाल बराबर भी वे उसकी मर्जी के विपरीत हरकत करें तो तुरन्त पकड़ में आ जाएँ। और जो सन्देश अल्लाह भेजता है उसका अक्षर-अक्षर गिना हुआ है, रसूलों और फ़रिश्तों की यह मजाल नहीं है कि उनमें एक अक्षर की कमी-बेशी भी कर सकें।