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سُورَةُ الأَعۡرَافِ

7. अल-आराफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 206)

नाम

इस सूरा का नाम आराफ़ इसलिए रखा गया है कि इसकी मूल अरबी की आयत 46 में एक स्थान पर 'आराफ़' शब्द आया है, मानो इसे 'सूरा आराफ़' कहने का अर्थ यह है कि “वह सूरा जिसमें ‘आराफ़' (बुलन्दियो) का उल्लेख हुआ है।"

अवतरणकाल

इसके विषयों पर विचार करने से स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि इसका अवतरणकाल लगभग वहीं है जो छठवीं सूरा अनआम का है। इसलिए इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को  समझने के लिए उस भूमिका पर एक दृष्टि डाल लेना पर्याप्त होगा जो हमने पिछली सूरा अनआम पर लिखी है।

वार्ताएँ

इस सूरा के व्याख्यान का केन्द्रीय विषय रसूल की पैरवी की ओर बुलाना है। समस्त वार्ता का उद्देश्य यह है कि सम्बोधित लोगों को अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर की पैरवी करने पर तैयार किया जाए, लेकिन इस दावत में डरावे और चेतावनी का रंग अधिक स्पष्ट मिलता है, क्योंकि जिन लोगों को सम्बोधित किया है (अर्थात मक्कावाले) उन्हें समझाते-समझाते एक लंबा समय बीत चुका है और उनका न सुनना हठधर्मी और विरोधात्मक दुराग्रह इस सीमा को पहुँच चुका है कि बहुत जल्द पैग़म्बर को उनसे सम्बोधन बन्द करके दूसरों लोगों को संबोधित करने का आदेश मिलनेवाला है, इसलिए समझाने के अन्दाज़ में रसूल की पैरवी क़ुबूल करने की दावत देने के साथ उनको यह भी बताया जा रहा है कि जो नीति तुमने अपने पैग़म्बर के मुक़ाबले में अपना रखी है, ऐसी ही नीति तुमसे पहले की क़ौमें अपने पैग़म्बरों के मुकाबले में अपनाकर बहुत बुरा परिणाम देख चुकी हैं। फिर चूँकि उनपर बात सप्रमाण पूरी होने के क़रीब आ गई है, इसलिए व्याख्यान के अन्तिम भाग में आह्वान की दिशा उनसे हटकर किताबवालों [अर्थात यहूदी, ईसाई आदि] की ओर फिर गई है और एक जगह तमाम दुनिया के लोगों से सामान्य सम्बोधन भी किया गया है, जो इसकी निशानी है कि अब हिजरत क़रीब है और वह दौर जिसमें नबी का सम्बोधन पूर्णत: अपने निकटवर्ती लोगों से हुआ करता है, समाप्ति पर आ लगा है।

अभिभाषण के बीच में चूँकि सम्बोधन यहूदियों की ओर भी फिर गया है, इसलिए साथ-साथ रसूल की पैरवी की ओर बुलाने के इस पहलू को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि पैग़म्बर पर ईमान लाने के बाद उसके साथ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियो) जैसी नीति अपनाने और सुनने और उसपर अमल करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करने के बाद उसे तोड़ देने और सत्य-असत्य के अन्तर को जान लेने के बाद असत्यवाद में डूबे रहने का परिणाम क्या है।

सूरा के अन्त में नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (सहाबा) को प्रचार-नीति के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए गए हैं और मुख्य रूप से उन्हें नसीहत की गई है कि विरोधियों की भड़कानेवाली बातों और उनके जुल्मो-सितम के मुकाबले में सब्र और धैर्य से काम लें और भावनाओं के प्रवाह में आकर कोई ऐसा क़दम न उठाएँ जो मूल उद्देश्य को क्षति पहुँचानेवाला हो।

 

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سُورَةُ الأَعۡرَافِ
सूरा 7. अल-आराफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓمٓصٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम-साद ।
كِتَٰبٌ أُنزِلَ إِلَيۡكَ فَلَا يَكُن فِي صَدۡرِكَ حَرَجٞ مِّنۡهُ لِتُنذِرَ بِهِۦ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) यह एक किताब है जो तुम्हारी ओर उतारी गई है,1 अत: ऐ नबी ! तुम्हारे दिल में इससे कोई झिझक न हो2 इसके अवतरित करने का उद्देश्य यह है कि तुम इसके ज़रिये से (इन्कारियों को) डराओ और ईमान लानेवालों को नसीहत हो ।3
1. किताब से अभिप्रेत यही सूरा आराफ़ है।
2. अर्थात बिना किसी झिझक और डर के इसे लोगों तक पहुँचा दो और इस बात की कुछ परवाह न करो कि विरोधी इसका कैसा स्वागत करेंगे-जिस अर्थ के लिए हमने शब्द झिझक का प्रयोग किया है, मूल अरबी में इसके लिए शब्द 'ह-र-जुन' इस्तेमाल हुआ है। शब्दकोष में ‘ह-र-जुन' उस घनी झाड़ी को कहते हैं जिसमें से गुज़रना कठिन हो । दिल में 'हरज' होने का अर्थ यह हुआ कि विरोधों और अवरोधों के बीच अपना रास्ता साफ़ न पाकर आदमी का दिल आगे बढ़ने से रुके। इसी विषय को कुरआन की पंद्रहवीं सूरा 'अल-हिज्र' की आयत 97 और ग्यारहवीं सूरा 'हूद' की आयत 12 आदि में 'ज़ीके सद्र' शब्द द्वारा भी बयान किया गया है।
ٱتَّبِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ وَلَا تَتَّبِعُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۗ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 2
(3) लोगो ! जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुमपर उतारा गया है उसका अनुसरण करो और अपने रब को छोड़कर दूसरे संरक्षकों का अनुसरण न करो4, परन्तु तुम नसीहत कम ही मानते हो।
4. यह इस सूरा का केन्द्रीय विषय है। इस व्याख्यान में मूल रूप से जिस ओर आह्वान किया गया है, वह यही है कि इंसान को दुनिया में [सही, तथ्य के अनुसार और भला और सफल जीवन बिताने के लिए जिस आदेश और मार्गदर्शन की आवश्यकता है, उसके लिए उसे केवल 'अल्लाह' को जो सर्व जगत् का पालनहार और रब है, अपना मार्गदर्शक मान लेना चाहिए और केवल उसी हिदायत की पैरवी अपनानी चाहिए जो अल्लाह ने अपने रसूलों के ज़रिये से भेजी है। अल्लाह को छोड़कर किसी दूसरे मार्गदर्शक की ओर हिदायत के लिए रुजू करना और अपने आपको उसकी रहनुमाई के हवाले कर देना इंसान के लिए मौलिक रूप से एक ग़लत कार्य-नीति है जिसका नतीजा सदैव तबाही के रूप में निकला है और हमेशा तबाही के रूप ही में निकलेगा। यहाँ मूल अरबी आयत में 'औलिया' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका यहाँ हिन्दी अनुवाद “संरक्षक” किया गया है। यहाँ इस शब्द का यह भाव है कि इंसान जिसके मार्गदर्शन पर चलता है उसे वास्तव में अपना 'वली' और 'सरपरस्त' (संरक्षक) बनाता है चाहे मुख से वह उसके संरक्षण को स्वीकार करता हो या सख़्ती से इंकार करे।
وَكَم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا فَجَآءَهَا بَأۡسُنَا بَيَٰتًا أَوۡ هُمۡ قَآئِلُونَ ۝ 3
(4) कितनी ही बस्तियाँ हैं जिन्हें हमने नष्ट कर दिया। उनपर हमारा अज़ाब अचानक रात के वक़्त टूट पड़ा या दिन दहाड़े ऐसे समय आया जबकि वे आराम कर रहे थे।
فَمَا كَانَ دَعۡوَىٰهُمۡ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَآ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 4
(5) और जब हमारा अज़ाब उनपर आ गया तो उनकी ज़बान पर इसके सिवा कोई आवाज़ न थी कि वास्तव में हम अत्याचारी थे।5
5. अर्थात तुम्हारी शिक्षा के लिए उन कौमों के उदाहरण मौजूद हैं जो अल्लाह की हिदायत से विमुख होकर इंसानों और शैतानों को रहनुमाई पर चली और अन्ततः इतना बिगड़ी कि धरती पर उनका अस्तित्व एक असहनीय अभिशाप बन गया और अल्लाह के अज़ाब ने आकर उनकी गन्दगी से दुनिया को पाक कर दिया।
فَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلَّذِينَ أُرۡسِلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 5
(6) अत: यह ज़रूर होकर रहना है कि हम उन लोगों से पूछगछ करें 6 जिनकी ओर हमने पैग़म्बर भेजे हैं और पैग़म्बरों से भी पूछे (कि उन्होंने सन्देश पहुँचाने का दायित्व कहाँ तक पूरा किया और उने इसका क्या उत्तर मिला) 7,
6. पूछगछ से अभिप्रेत क़ियामत के दिन की पूछगछ है। दुराचारी लोगों और क़ौमों पर दुनिया में जो अज़ाब आता है वह वास्तव में उनके कर्मों की पूछगछ नहीं है और न वह उनके अपराधों की पूरी सज़ा है, बल्कि उसकी हैसियत तो बिल्कुल ऐसी है जैसे कोई अपराधी जो छूटा फिर रहा था, अचानक बन्दी बना लिया जाए। मानव-इतिहास इस प्रकार की गिरफ़्तारियों के अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है और ये उदाहरण इस बात का एक खुला सुबूत हैं कि ऊपर कोई ताक़त है जो एक विशेष सीमा तक इंसान को ढील देती है । चेतावनी पर चेतावनी भेजती है कि अपने उद्दण्ड आचरण छोड़ दो और जब वह किसी तरह नहीं छोड़ता तो उसे अचानक पकड़ लेती है, फिर [ये इस बात के भी सुबूत हैं कि एक दिन ऐसा ज़रूर आना चाहिए जब] सारे अपराधियों पर अदालत कायम होगी और उनसे उनके कामों की पूछगछ की जाएगी। यही कारण है कि ऊपर की आयत को, जिसमें सांसारिक यातना (अज़ाब) का उल्लेख किया गया है, अगली आयत के साथ शब्द अत: के साथ जोड़ दिया गया है, मानो इस सांसारिक यातना का बार-बार आना आखिरत की पूछगछ की अनिवार्यता का एक प्रमाण है।
7. इससे मालूम हुआ कि आख़िरत की पूछगछ पूरी तरह रिसालत (ईशदूतत्व) ही के आधार पर होगी। एक और पैग़म्बरों से पूछा जाएगा कि तुमने मानवजाति तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाने के लिए क्या कुछ किया। दूसरी ओर जिन लोगों तक रसूलों का पैग़ाम पहुँचा, उनसे सवाल किया जाएगा कि इस पैग़ाम के साथ तुमने क्या सुलूक किया ?
فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيۡهِم بِعِلۡمٖۖ وَمَا كُنَّا غَآئِبِينَ ۝ 6
(7) फिर हम स्वयं पूरे ज्ञान के साथ सारा वृतांत उनके आगे पेश कर देंगे, आख़िर हम कहीं ग़ायब तो नहीं थे।
وَٱلۡوَزۡنُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّۚ فَمَن ثَقُلَتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 7
(8) और वज़न उस दिन बिल्कुल ‘हक़' (सत्य) होगा।8 जिनके पलड़े भारी होंगे, वही सफलता पानेवाले होंगे
8. इसका अर्थ यह है कि उस दिन अल्लाह की न्याय-तुला में हक (सत्य) के सिवा कोई चीज़ भारी न होगी और भार के सिवा कोई चीज़ हक न होगी। बातिल (असत्य) की पूरी ज़िन्दगी, चाहे दुनिया में कितनी ही लम्बी-चौड़ी रही हो और प्रत्यक्ष में कितने ही शानदार कारनामे उसके पीछे हों, उस तुला (तराजू) में पूर्णत: भारहीन होगी। [जैसा कि अठारहवीं सूरा कह्फ़ की अंतिम आयतों में स्पष्ट रूप से बताया गया है]
وَمَنۡ خَفَّتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُم بِمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَظۡلِمُونَ ۝ 8
(9) और जिनके पलड़े हलके रहेंगे, वही अपने आपको घाटे में डालनेवाले होंगे9, क्योंकि वे हमारी आयतों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करते रहे थे।
9. इस विषय को इस प्रकार समझिए कि इंसान की ज़िन्दगी का कारनामा दो पक्षों में बंटेगा। एक सकारात्मक पथ और दूसरा नकारात्मक पक्ष । सकारात्मक पक्ष में केवल सत्य को जानना और मानना और सत्य के पालन में सत्य ही के लिए काम करना सम्मिलत होगा और आख़िरत में अगर कोई चीज़ वज़नी और क़ीमती होगी तो वह बस यही होगी, इसके विपरीत सत्य से विमुख होकर इंसान जो कुछ भी करता है, वह सब नकारात्मक पक्ष में जगह पाएगा और सिर्फ़ यही नहीं कि यह नकारात्मक पक्ष अपने आपमें मूल्यहीन होगा, बल्कि यह आदमी के सकारात्मक पक्षों का मूल्य भी घटा देगा।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَۗ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 9
(10) हमने तुम्हें धरती में अधिकारों के साथ बसाया और तुम्हारे लिए यहाँ जीवन-सामग्री जुटाई, मगर तुम लोग कम ही कृतज्ञ होते हो।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَٰكُمۡ ثُمَّ صَوَّرۡنَٰكُمۡ ثُمَّ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ لَمۡ يَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 10
(11) हमने तुम्हारी सरंचना की शुरुआत की, फिर तुम्हारा रूप बनाया, फिर फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो।10 इस आदेश पर सबने सजदा किया, मगर इबलीस सजदा करनेवालों में शामिल न हुआ | 10अ
10. तुलना के लिए देखिए क़ुरआन 2: 30-30 | वहाँ अर्थात् (2: 30-39 में) सजदा के आदेश का उल्लेख जिन शब्दों में आया है उनसे सन्देह हो सकता था कि फ़रिश्तों को सजदा करने का आदेश सिर्फ़ आदम (अलैहि.) के व्यक्तित्व के लिए दिया गया था, मगर यहाँ यह सन्देह दूर हो जाता है। यहाँ जो वर्णन-शैली अपनाई गई है उससे स्पष्ट मालूम होता है कि आदम (अलैहि.) को जो सजदा कराया गया था, वह आदम होने की हैसियत से नहीं, बल्कि मानवजाति का प्रतिनिधि व्यक्ति होने की हैसियत से था। और यह जो फ़रमाया कि “हमने तुम्हारी संरचना की शुरुआत की, फिर तुम्हारा रूप बनाया, फिर फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो", तो इसका अर्थ यह है कि हमने पहले तुम्हारी संरचना की योजना बनाई, और तुम्हारे जीवनतत्व का सृजन किया, फिर उस तत्त्व को मानव रूप दिया, फिर जब एक जीवित अस्तित्व की हैसियत से इंसान वुजूद में आ गया तो उसे सजदा करने के लिए फ़रिश्तों को आदेश दिया। इस आयत की यह व्याख्या स्वयं क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर की गई है। (देखिए क़ुरआन, 38 : 71-72, 15: 28-29) मानव की संरचना की इस शुरुआत को विस्तृत रूप में समझना हमारे लिए कठिन है। हम इस तथ्य को पूरी तरह नहीं समझ सकते कि धरती के सत्त्व से इंसान किस तरह बनाया गया, फिर उसका रूप कैसे ढला, उसे सुडौल कैसे किया गया और उसके अंदर रूह (प्राण) फूँकने की शक्ल क्या थी? लेकिन बहरहाल, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कुरआन मजीद मानवता के आरंभ की परिस्थिति को उन दृष्टिकोण के विरुद्ध बताता है जो आधुनिक युग में डारविन के अनुयायी विज्ञान के नाम से प्रस्तुत करते हैं। इन दृष्टिकोणों के अनुसार मानव अमानवीय और अर्थ मानवीय स्थिति की विभिन्न दशाओं से प्रगति करता हुआ मानवीय श्रेणी तक पहुँचा है और इस क्रमानुगत विकास की लम्बी रेखा में कोई विशिष्ट बिन्दु ऐसा नहीं हो सकता जहाँ से अमानवीय स्थिति को समाप्त समझकर 'मानवजाति' की शुरुआत मानी जाए। इसके विपरीत कुरआन हमें बताता है कि मानवता की शुरुआत विशुद्ध मानवता ही से हुई है। उसका इतिहास किसी अमानवीय दशा से निश्चित रूप से कोई रिश्ता नहीं रखती, वह पहले दिन से इंसान ही बनाया गया था और अल्लाह ने पूरी मानवीय चेतना के साथ पूरी रौशनी में उसके धरतीय जीवन का आरंभ किया था। मानव इतिहास के संबंध में ये दो विभिन्न दृष्टिकोण हैं और इनसे मानवता की दो बिल्कुल भिन्न धारणाएँ उत्पन्न होती हैं। एक धारणा अपनाइए तो आपको मानव मूलतः पशु की एक शाखा वंश दिखाई देगा। उसकी ज़िन्दगी के तमाम कानून, यहाँ तक कि नैतिक कानून के लिए भी आप आधारभूत नियम उन क़ानूनों में खोजेंगे जिनके अन्तर्गत पशु-जीवन चल रहा है। उसके लिए पाशविक आचरण आपको बिल्कुल एक स्वाभाविक आचरण मालूम होगा। अधिक से अधिक जो अंतर मानवीय आचरण और पाशविक आचरण में आप देखना चाहेंगे, वह बस इतना ही होगा कि पशु जो कुछ यंत्रों, उयोगों और सांस्कृतिक साज सज्जा और सामाजिक सजावटों के बिना करते हैं इसान वही सब कुछ इन चीजों के साथ करे। उसके विपरीत दूसरी धारणा अपनाते हो आप इंसान को पशु के बजाय 'इंसान' होने की हैसियत से देखेंगे। आपको दृष्टि में वह 'बोलनेवाला जानवर' या 'सामाजिक प्राणी' (Social Animal) नहीं होगा, बल्कि घरती पर अल्लाह का खलीफा (प्रतिनिधि) होगा। आपके नज़दीक वह चीज़ जो उसे दूसरे प्राणियों से अलग करती है, उसकी वाणी या उसकी नागरिकता न होगी, बल्कि उसके नैतिक दायित्व और अधिकारों की वह धरोहर होगी जिसे अल्लाह ने उसके सुपुर्द किया है और जिसके कारण वह अल्लाह के सामने उत्तरदायी है। इस तरह मानवता और उसकी समस्त संबंधित बातों पर आपकी नज़र प्रथम दृष्टिकोण से बिलकुल भिन्न हो जाएगी। आप इंसान के लिए एक दूसरा ही जीवन-दर्शन और एक दूसरी ही नैतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था और विधान की मांग करने लगेंगे और इस दर्शन और इस व्यवस्था के सिद्धांत और आधार खोजने के लिए आपकी निगाह अपने आप निचली दुनिया के बजाय ऊपरी दुनिया की ओर उठने लगेगी।
10.अ इसका यह अर्थ नहीं है कि इबलीस फ़रिश्तों में से था। वास्तव में जब धरती की व्यवस्था करनेवा फरिश्तों को आदम के आगे सजदा करने का आदेश दिया गया तो इसका अर्थ यह था कि वह समस्‍त सृष्टि भी आदम के अधीन हो जाए जो फरिश्तों के प्रबन्ध में थी। उस सृष्टि (संरचना) में से केवल इबलीस ने आगे बढ़कर यह एलान किया कि वह आदम के आगे सजदा न करेगा।
قَالَ مَا مَنَعَكَ أَلَّا تَسۡجُدَ إِذۡ أَمَرۡتُكَۖ قَالَ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡهُ خَلَقۡتَنِي مِن نَّارٖ وَخَلَقۡتَهُۥ مِن طِينٖ ۝ 11
(12) पूछ तुझे किस चीज़ ने सजदा करने से रोका, जबकि मैंने तुझको आदेश दिया था?" भोला मैं उससे बेहतर हूँ। तूने मुझे आग से पैदा किया है और उसे मिट्टी से।
قَالَ فَٱهۡبِطۡ مِنۡهَا فَمَا يَكُونُ لَكَ أَن تَتَكَبَّرَ فِيهَا فَٱخۡرُجۡ إِنَّكَ مِنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 12
(13) फ़रमाया, अच्छा तू यहाँ से नीचे उतर । तुझे अधिकार नहीं है कि यहाँ बड़ाई का घमंड करे। निकल जा कि वास्तव में तू उन लोगों में से है जो स्वयं अपना अपमान चाहते हैं।11
11. मूल अरबी आयत में 'सागिरीन' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह 'सागिर' शब्द का बहुवचन है। साग़िर से अभिप्रेत वह व्यक्ति है जो अपमान, छोटेपन और छोटो हैसियत को स्वयं अपनाए। अत: अल्लाह के इर्शाद का मतलब यह था कि बन्दा और सृष्ट होने के बावजूद तेरा अपनी बड़ाई के घमंड में पड़ना और अपने रब के आदेश के प्रति इस आधर पर उद्दण्डता अपनाना वस्तुतः यह अर्थ रखता है कि तू स्वयं अपमानित होना चाहता है। बड़ाई का झूठा घमंड तुझे बड़ा और सम्मानवाला नहीं बना सकता, बल्कि यह तुझे छोटा, पतित और नीच ही बनाएगा और अपनी इस अपमान और नीचता का कारण तू स्वयं ही होगा।
قَالَ أَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 13
(14) बोला, “मुझे उस दिन तक मोहलत दे, जबकि ये सब दोबारा उठाए जाएँगे।
قَالَ إِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 14
(15) फरमाया, "तुझे मोहलत है।"
قَالَ فَبِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأَقۡعُدَنَّ لَهُمۡ صِرَٰطَكَ ٱلۡمُسۡتَقِيمَ ۝ 15
(16) बोला, अच्छा तो जिस तरह तूने मुझे गुमराही में डाला है, मैं भी अब तेरी सीधी राह पर इन इसानों को घात में लगा रहूँगा,
ثُمَّ لَأٓتِيَنَّهُم مِّنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ وَعَنۡ أَيۡمَٰنِهِمۡ وَعَن شَمَآئِلِهِمۡۖ وَلَا تَجِدُ أَكۡثَرَهُمۡ شَٰكِرِينَ ۝ 16
(17) आगे और पीछे, दाएँ और बाएँ, हर ओर से इनको घेरूँगा और तू इनमें से अधिकतर को कृतज्ञ न पाएगा।12
12. यह वह चुनौती थी जो इबलीस ने अल्लाह को दी। उसके कहने का मतलब यह था कि यह मोहलत जो आपने मुझे कियामत तक के लिए दी है, इससे लाभ उठाकर मैं यह सिद्ध करने के लिए पूरा ज़ोर लगा दूँगा। कि इंसान इस प्रतिष्ठा का पात्र नहीं है जो आपने मेरे मुक़ाबले में उसे दी है । मैं आपको दिखा दूंगा कि यह कैसा नाशुक्रा,कैसा नमकहराम और कितना कृतघ्न है। इस मोहलत से तात्पर्य केवल समय ही नहीं है, बल्कि उस काम का मौक़ा देना भी है जो वह करना चाहता था, अर्थात उसकी माँग यह थी कि मुझे इंसान को बहकाने और उसकी कमजोरियों का लाभ उठाकर उसकी अयोग्यता सिद्ध करने का अवसर दिया जाए और यह अवसर, जैसा कि दूसरी जगहों पर स्पष्ट किया गया है, अल्लाह ने उसे इस शर्त के साथ दे दिया कि “मेरे बन्दों पर तेरा कोई प्रभुत्त्व न होगा।" (क़ुरआन 17 : 65) अर्थात तेरे वश में बस इतना ही होगा कि उनको ग़लतफहमियों और भर्मो में डाले, झूठी उम्मीदें दिलाए, बुराई और गुमराही को उनके सामने आकर्षक बनाकर पेश करे, मगर यह शक्ति तुझे नहीं दी जाएगी कि उन्हें हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती अपने रास्ते पर खींच ले जाए और अगर वे स्वयं सीधे रास्ते पर चलना चाहें तो उन्हें न चलने दे। यही बात क़ुरआन 12 : 22 में फ़रमाई गई है कि क़ियामत में अल्लाह की अदालत से फैसला हो जाने के बाद शैतान अपने माननेवाले इंसानों से कहेगा कि “मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं कि मैंने अपनी पैरवी पर तुम्हें मजबूर किया हो। मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि तुम्हें अपनी राह पर बुलाया और तुमने मेरी पुकार सुन ली, इसलिए अब मेरी भर्त्सना न करो, बल्कि अपने आपकी भर्त्सना करो।" शैतान की इस शिकायत का कि “तूने मुझे गुमराही में डाला दिया’’ अभिप्राय यह है कि आदम के आगे सजदा करने का आदेश देकर तूने मुझे फ़ितने में डाला और मेरे मन के अहंकार को ठेस लगाकर मुझे इस हालत में फंसा दिया कि मैंने तेरी अवज्ञा की, मानो उस मूर्ख की इच्छा यह थी कि उसके मन की चोरी पकड़ी न जाती, बल्कि अनुचित दंभ और जिस उदंडता को उसने अपने भीतर छिपा रखा था, उसपर परदा ही पड़ा रहने दिया जाता। यह एक स्पष्ट मूर्खतापूर्ण बात थी जिसका जवाब देने की ज़रूरत न थी, इसलिए अल्लाह ने सिरे से इसका कोई नोटिस ही नहीं लिया।
قَالَ ٱخۡرُجۡ مِنۡهَا مَذۡءُومٗا مَّدۡحُورٗاۖ لَّمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 17
(18) फ़रमाया, “निकल यहाँ से अपमानित और ठुकराया हुआ। विश्वास रख कि इनमें से जो तेरा अनुसरण करेंगे, तुझ समेत इन सबसे जहन्नम को भर दूंगा।
وَيَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ فَكُلَا مِنۡ حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 18
(19) और ऐ आदम ! तू और तेरी पत्नी, दोनों इस जन्नत में रहो, जहाँ जिस चीज़ को तुम्हारा जी चाहे खाओ, मगर इस पेड़ के पास न फटकना वरना ज़ालिमों में से हो जाओगे।"
فَوَسۡوَسَ لَهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ لِيُبۡدِيَ لَهُمَا مَا وُۥرِيَ عَنۡهُمَا مِن سَوۡءَٰتِهِمَا وَقَالَ مَا نَهَىٰكُمَا رَبُّكُمَا عَنۡ هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةِ إِلَّآ أَن تَكُونَا مَلَكَيۡنِ أَوۡ تَكُونَا مِنَ ٱلۡخَٰلِدِينَ ۝ 19
(20) फिर शैतान ने उनको बहकाया ताकि उनके गुप्तांग जो एक-दूसरे से छिपाए गए थे, उनके सामने खोल दे। उसने उनसे कहा, “तुम्हारे रब ने तुम्हें जो इस पेड़ से रोका है, उसकी वजह इसके सिवा कुछ नहीं है कि कहीं तुम फ़रिश्ते न बन जाओ, या तुम्हें शाश्वत जीवन न प्राप्त हो जाए।"
وَقَاسَمَهُمَآ إِنِّي لَكُمَا لَمِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 20
(21) और उसने क़सम खाकर उनसे कहा कि मैं तुम्हारा सच्चा हितैषी हूँ।
فَدَلَّىٰهُمَا بِغُرُورٖۚ فَلَمَّا ذَاقَا ٱلشَّجَرَةَ بَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَنَادَىٰهُمَا رَبُّهُمَآ أَلَمۡ أَنۡهَكُمَا عَن تِلۡكُمَا ٱلشَّجَرَةِ وَأَقُل لَّكُمَآ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لَكُمَا عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 21
(22) इस तरह धोखा देकर वह उन दोनों को धीरे-धीरे अपने ढब पर ले आया। अन्तत: जब उन्होंने उस पेड़ का मज़ा चखा तो उनके गुप्तांग एक-दूसरे के सामने खुल गए और वे अपने जिस्मों को जन्नत के पत्तों से ढाँकने लगे। तब उनके रब ने उन्हें पुकारा, "क्या मैंने तुम्हें इस पेड़ से न रोका था और न कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला दुश्मन है ?"
قَالَا رَبَّنَا ظَلَمۡنَآ أَنفُسَنَا وَإِن لَّمۡ تَغۡفِرۡ لَنَا وَتَرۡحَمۡنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 22
(23) दोनों बोल उठे. “ऐ रब ! हमने अपने ऊपर ज़ुल्म किया। अब अगर तूने क्षमा न किया और दया न की तो निश्चित ही हम नष्ट हो जाएँगे।"13
13. इस वृतांत से कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर रौशनी पड़ती है- (i) इंसान के अन्दर शर्म और लज्जा की भावना एक स्वाभाविक भावना है और इसकी पहली निशानी वह शर्म है, जो अपने शरीर के प्रमुख अंगों को दूसरों के सामने खोलने में आदमी को स्वाभाविक रूप से महसूस होती है। कुरआन हमें बताता है कि यह शर्म इंसान के अन्दर सभ्यता के विकास के साथ कृत्रिम (बनावटी) रूप से पैदा नहीं हुई है और न यह ऐसी चीज़ है जिसे मेहनत और कोशिश से प्राप्त किया जा सके जैसा कि शैतान के कुछ चेलों ने अनुमान लगाया है, बल्कि वास्तव में यह वह स्वाभाविक चीज़ है जो पहले दिन से इंसान में मौजूद थी। (ii) शैतान की पहली चाल, जो उसने इंसान को मानवीय प्रकृति की सीधी राह से हटाने के लिए चली, यह थी कि उसकी शर्म और लज्जा की इस भावना पर चोट लगाए और नग्नता के रास्ते से उसके लिए अश्लीलता का द्वार खोले, और उसको यौन संबंधी मामलों में गलत रास्ते पर डाल दे। शैतान और उसके चेलों की यह नीति आज तक ज्यों की त्यों बाकी है। 'प्रगति और विकास' का कोई काम उनके यहाँ शुरू नहीं हो सकता, जब तक कि औरत को बेपरदा करके वे बाज़ार में न ला खड़ा करें। (iii) यह भी इंसान का मूल स्वभाव है कि वह बुराई की ओर स्पष्ट अहवान को कम ही स्वीकार करता है। आम तौर पर उसे जाल में फाँसने के लिए बुराई की ओर हर बुलानेवाले को हितैषी के भेष ही में आना पड़ता है। (iv) इंसान के भीतर ऊंचाई पर पहुँचने की एक स्वाभाविक प्यास मौजूद है और शैतान को उसे धोखा देने में पहली सफलता इसी साधन से हुई कि उसने इंसान की इस इच्छा से अपील की। शैतान का सबसे अधिक चलता हुआ हथियार यह है कि वह आदमी को ऊंचाई पर ले जाने और वर्तमान परिस्थिति से और अधिक अच्छी स्थिति पर पहुंचा देने की आशा दिलाता है और फिर उसके लिए वह रास्ता पेश करता है जो उसे उलटा पतन की ओर ले जाए। (v) वास्तविक तथ्य यह नहीं है कि शैतान ने पहले हज़रत हव्वा को जाल में फँसाया, और फिर उन्हें हज़रत आदम को फाँसने के लिए माध्यम बनाया बल्कि वास्तविकता यह है कि शैतान ने दोनों को धोखा दिया और दोनों उससे धोखा खा गए। देखने में तो यह एक छोटी-सी बात मालूम होती है, लेकिन जिन लोगों को मालूम है कि हजरत हव्वा के बारे में इस मशहूर रिवायत ने दुनिया में औरत के नैतिक, क़ानूनी और सामाजिक मर्तबे को गिराने में कितना ज़बरदस्त हिस्सा लिया है, वही कुरआन के इस बयान के वास्तविक महत्त्व और मूल्य को समझ सकते हैं। (vi) मना किए गए पेड़ का मज़ा चखते ही आदम व हव्वा के गुप्तांगों का खुल जाना वास्तव में अल्लाह की अवज्ञा का फल था, न कि उस पेड़ की अपनी किसी विशेषता का । अल्लाह ने पहले उनका गुप्तांग अपने व्यवस्था से ढाँका था। जब उन्होंने आदेश के विरुद्ध काम किया तो अल्लाह की रक्षा उनसे हटा ली गई, उनका परदा खोल दिया गया और उन्हें स्वयं उनके मन के हवाले कर दिया गया कि अपनी परदापोशी का प्रबंध स्वयं करें अगर उसकी ज़रूरत समझते हैं, और अगर ज़रूरत न समझें या उसके लिए कोशिश न करें, तो अल्लाह को इसकी कुछ परवाह नहीं कि वे किस हाल में फिरते हैं। यह मानो सदा के लिए इस सच्चाई का प्रदर्शन था कि इंसान जब अल्लाह की नाफरमानी करेगा तो देर या सवेर उसका परदा खुलकर रहेगा और यह कि इंसान के साथ अल्लाह की सहायता व समर्थन उसी समय तक रहेगा, जब तक वह अल्लाह के आदेश का पालन करनेवाला रहेगा। (vii) शैतान यह सिद्ध करना चाहता था कि इंसान उस बड़ाई का अधिकारी नहीं है जो उसके मुक़ाबले में इंसान को दी गई है। लेकिन पहले ही मोर्चे में उसे हार का मुंह देखना पड़ा और यह निश्चित रूप से सिद्ध हो गया कि इंसान (अपनी कुछ स्वाभाविक कमजोरियों के बाद भी) अपनी नैतिक उच्चता में एक सर्वश्रेष्ठ संरचना है। (viii) बन्दगी (आज्ञापालन) से मुँह मोड़ना अल्लाह के मुकाबले में उदंडता अपनाना और [दूसरों को भी अल्लाह से दूर करने की कोशिश करना विशुद्ध शैतानी रास्ता है और आज्ञापालन और बन्दगी, शैतानी चालों पर रोक और तौबा और अल्लाह की ओर रुजू करना इंसानी राह है ।] यही आख़िरी बात वह मूल शिक्षा है जो अल्लाह इस क़िस्से में यहाँ देना चाहता है। मन में यह बिठाना अभिप्रेत है कि जिस रास्ते पर तुम लोग जा रहे हो, वह शैतान का रास्ता है, तुम अपने प्राचीनतम दुश्मन के जाल में गिरफ्तार हो गए हो, इसका अंजाम भी वही है जिससे शैतान स्वयं दो-चार होनेवाला है, अगर तुम वास्तव में स्वयं अपने दुश्मन नहीं हो गए हो तो सँभलो और वह रास्ता अपनाओ जो अन्ततः तुम्हारे बाप और तुम्हारी माँ आदम व हव्वा (अलै०) ने अपनाया था।
قَالَ ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 23
(24) कहा, "उतर जाओ14, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो और तुम्हारे लिए एक विशेष अवधि तक धरती ही में ठहरने की जगह और ज़िन्दगी गुज़ारने का सामान है।"
14. यह सन्देह न किया जाए कि हज़रत आदम और हव्वा (अलै०) को जन्नत से उतर जाने का यह आदेश दंड के रूप में दिया गया था। कुरआन में विभिन्न स्थानों पर इसे स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह ने उनकी तौबा क़बूल कर ली और उन्हें माफ़ कर दिया। अतः इस आदेश में सज़ा का कोई भाव नहीं है, बल्कि यह उस उद्देश्य को पूरा करना है जिसके लिए इंसान पैदा किया गया था। (व्याख्या के लिए देखिए कुरआन की सूरा-2 बक़रा टिप्पणी 48 व 53)
قَالَ فِيهَا تَحۡيَوۡنَ وَفِيهَا تَمُوتُونَ وَمِنۡهَا تُخۡرَجُونَ ۝ 24
(25) और फ़रमाया, “वहीं तुमको जीना और वहीं मरना है और उसी में से तुमको अन्तत: निकाला जाएगा।"
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ قَدۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمۡ لِبَاسٗا يُوَٰرِي سَوۡءَٰتِكُمۡ وَرِيشٗاۖ وَلِبَاسُ ٱلتَّقۡوَىٰ ذَٰلِكَ خَيۡرٞۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 25
(26) ऐ आदम की सन्तान !15 हमने तुमपर लिबास उतारा है कि तुम्हारे शरीर के लज्जास्पद अंगों को ढाँके और तुम्हारे लिए शारीरिक रक्षा और शोभा का साधन भी हो, और बेहतरीन लिबास तक़वा का लिबास है। यह अल्लाह की निशानियों में से एक निशानी है, शायद कि लोग इससे शिक्षा लें।
15. अब आदम व हव्वा के क़िस्से के एक विशेष पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करके अरब-वासियों के सामने स्वयं उनकी अपनी ज़िन्दगी के अन्दर शैतानी चाल के सबसे ज़्यादा उभरे हुए एक प्रभाव (असर) की निशानदेही की जाती है। उन लोगों के निकट शरीर के लज्जास्पद भागों की परदापोशी कोई महत्त्व न रखती थी। इससे भी बढ़कर यह कि उनमें से बहुत-से लोग हज के मौके पर काबा के चारों ओर नंगे तवाफ़ (परिक्रमा) करते थे और इस मामले में उनकी औरतें उनके मर्दो से भी कुछ अधिक निर्लज्ज और बेशर्म थीं। उनकी दृष्टि में यह एक धार्मिक कृत्य था और भला काम समझकर वे उसे करते थे। फिर चूँकि यही हाल दुनिया की | और भी बहुत-सी क़ौमों का रहा है| और आज तक है, इसलिए सम्बोधन अरबवालों के लिए विशिष्ट नहीं है, बल्कि सार्वजनिक है और आदम की पूरी सन्तान को चेताया जा रहा है कि देखो, यह शैतानी चाल की एक खुली हुई निशानी तुम्हारी ज़िन्दगी में मौजूद है । तुमने अपने रब की रहनुमाई से बेपरवाह होकर और उसके रसूलों के सन्देश से मुँह मोड़कर अपने आपको शैतान के हवाले कर दिया और उसने तुम्हें मानव प्रकृति के रास्ते से हटाकर उसी निर्लज्जता में डाल दिया जिसमें यह तुम्हारे पहले बाप और माँ को जालना चाहता था। इसपर विचार करो तो यह वास्तविकता तुमपर खुल जाए कि रसूलों की रहनुमाई के बिना तुम अपनी प्रकृति की आरंभिक माँगों तक को न समझ सकते हो और न पूरा कर सकते हो।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ لَا يَفۡتِنَنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ كَمَآ أَخۡرَجَ أَبَوَيۡكُم مِّنَ ٱلۡجَنَّةِ يَنزِعُ عَنۡهُمَا لِبَاسَهُمَا لِيُرِيَهُمَا سَوۡءَٰتِهِمَآۚ إِنَّهُۥ يَرَىٰكُمۡ هُوَ وَقَبِيلُهُۥ مِنۡ حَيۡثُ لَا تَرَوۡنَهُمۡۗ إِنَّا جَعَلۡنَا ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 26
(27) ऐ आदम की सन्तान ! ऐसा न हो कि शैतान तुम्हें फिर उसी तरह फ़ितने में डाल दे जिस तरह उसने तुम्हारे माँ बाप को जगत से निकलवाया था और उनके लिबास उनपर से उतरवा दिए थे, ताकि उसके गुप्तांग एक दूसरे के सामने खोले । वह और उसके साथी तुम्हें, ऐसी जगह से देखते हैं जहाँ से तुम उन्हें नहीं देख सकते। इन शैतानों को हमने उन लोगों का संरक्षक बना दिया है जो ईमान नहीं लाते।16
16. इन आयतों में जो कुछ कहा गया है उससे कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निखरकर सामने आ जाते हैं- एक यह कि वस इंसान के लिए एक कृत्रिम वस्तु नहीं है, बल्कि मानवीय स्वभाव की एक महत्त्वपूर्ण अपेक्षा है। अल्लाह ने इंसान के शरीर पर पशुओं की तरह कोई लिबास पैदाइशी तौर पर नहीं रखा, बल्कि लज्जा और शर्म का तत्त्व उसकी प्रकृति में डाल दिया। उसने इंसान के लिए जननेन्द्रियों को मात्र जननेन्द्रियाँ ही नहीं बनाया, बल्कि 'सौआत' भी बनाया, जिसका अर्थ अरबी भाषा में ऐसी चीज़ है जिसके प्रदर्शन को आदमी बुरा समझे। फिर इस स्वाभाविक लज्जा की अपेक्षा को पूरा करने के लिए उसने कोई बना-बनाया लिबास इंसान को नहीं दे दिया, बल्कि उसकी प्रकृति में लिबास का विचार डाल दिया। (और हमने तुमपर लिबास उतारा-क़ुरआन 7 : 26), ताकि वह अपनी बुद्धि से काम लेकर अपनी प्रकृति की इस माँग को समझे और फिर अल्लाह की पैदा की हुई सामग्री से काम लेकर अपने लिए लिबास जुटाए। दूसरे यह कि इस नैसर्गिक इलहाम (ईश-प्रेरणा) के अनुसार मनुष्य के लिए लिबास की नैतिक आवश्यकता को प्राथमिकता प्राप्त है, अर्थात यह कि वह अपनी 'सौआत' को ढाँके। और उसकी स्वाभाविक आवश्यकता बाद में है, अर्थात यह कि उसका लिबास उसके लिए 'रीश' (शारीरिक सजावट और मौसम के प्रभाव से शरीर की रक्षा का साधन) हो। इस बारे में भी स्वभावतः इनसान का मामला पशुओं के विपरीत है। उनके लिए लिबास का मूल उद्देश्य केवल उसका 'रीश' होना है। रहा उसका गुप्तांग का ढाँकनेवाला होना, तो उनके लैंगिक अंग सिरे से सौआत ही नहीं हैं कि उन्हें छिपाने के लिए पशुओं की प्रकृति में कोई इच्छा मौजूद होती और उसकी माँग पूरी करने के लिए उनके शरीरों पर कोई पहनावा पैदा किया जाता, लेकिन जब इंसानों ने शैतान की रहनुमाई स्वीकार की तो मामला फिर उलट गया,उसने अपने इन चेलों को इस भ्रम में डाल दिया कि तुम्हारे लिए लिबास की ज़रूरत ठीक वही है जो पशुओं के लिए 'रीश' की ज़रूरत है। रहा इसका 'सौ आत' को छिपानेवाली चीज़ होना, तो यह बिल्कुल ही कोई महत्त्व नहीं रखता, बल्कि जिस तरह पशुओं के अंग ‘सौआत' नहीं हैं, उसी तरह तुम्हारे ये अंग भी 'सौआत' नहीं, मात्र लैंगिक अंग हैं। तीसरे यह कि इंसान के लिए लिबास का गुप्तांगों के ढाँकने का साधन और साज-सज्जा व रक्षा का साधन होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि वास्तव में इस मामले में जिस भलाई तक इंसान को पहुँचना चाहिए वह यह है कि उसका लिबास (ईश-भय और संयम) का लिबास हो, अर्थात पूरी तरह गुप्तांगों को ढाँकनेवाला भी हो, साज-सज्जा में भी हद से बढ़ा हुआ या व्यक्ति की हैसियत से गिरा हुआ न हो, गर्व और घमंड और अहंकार व आडंबर को शान लिए हुए भी न हो और फिर उन मानसिक रोगों का प्रदर्शन भी न करता हो जिनके आधार पर मर्द ज़नानापन अपनाते हैं, औरतें मरदानापन की नुमाइश करने लगती हैं और एक क़ौम दूसरी क़ौम जैसी बनने की कोशिश करके स्वयं अपने अपमान का खुला इश्तेहार बन जाती है । लिबास के मामले में इस अभीष्ट गुण को पहुंचना तो किसी तरह उन लोगों के बस में है ही नहीं जिन्होंने नबियों पर ईमान लाकर अपने आपको बिल्कुल अल्लाह की रहनुमाई के हवाले नहीं कर दिया है। जब वे अल्लाह की रहनुमाई स्वीकार करने से इंकार कर देते हैं तो शैतान उनके संरक्षक बना दिए जाते हैं, फिर ये शैतान उनको किसी-न-किसी ग़लती में फंसाकर ही छोड़ते हैं। चौथे यह कि लिबास का मामला भी अल्लाह की उन अनगिनत निशानियों में से एक है जो दुनिया में चारों ओर फैली हुई हैं और वास्तविकता तक पहुंचने में इंसान की मदद करती हैं, बशर्ते कि इंसान स्वयं उनसे शिक्षा लेना चाहे । ऊपर जिन तथ्यों की ओर हमने इशारा किया है उनपर अगर सोच-विचार किया जाए तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि लिबास किस हैसियत से अल्लाह को एक महत्त्वपूर्ण निशानी है।
وَإِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةٗ قَالُواْ وَجَدۡنَا عَلَيۡهَآ ءَابَآءَنَا وَٱللَّهُ أَمَرَنَا بِهَاۗ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 27
(28) ये लोग जब कोई शर्मनाक काम करते हैं तो कहते हैं : हमने अपने बाप-दादा को इसी तरोने पर पाया है और अल्लाह ही ने हमें ऐसा करने का आदेश दिया है।17 इनसे कहो, अल्लाह निर्लज्जता का आदेश कभी नहीं दिया करता।18 क्या तुम अल्लाह का नाम लेकर वे बातें कहते हो जिनके बारे में तुम्हें ज्ञान नहीं है कि वे अल्लाह की ओर से है?
17. संकेत है अरबवालों के निर्वस्त्र होकर काबे की उस परिक्रमा (तवाफ़) की ओर जिसका हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं। वे लोग इसको एक धार्मिक कृत्य समझकर करते थे और उनका विचार था कि अल्लाह ने यह आदेश दिया है।
18. देखने में तो यह एक बहुत ही छोटा-सा वाक्य है, मगर वास्तव में इसमें क़ुरआन मजीद ने उन लोगों की अज्ञानतापूर्ण धारणाओं के विरुद्ध एक बहुत ही बड़ा तर्क प्रस्तुत किया है। इस तार्किक शैली को समझने के लिए दो बातें भूमिका के रूप में समझ लेनी चाहिए – एक यह कि अरबवाले यद्यपि अपनी कुछ धार्मिक कृत्यों में नग्नता अपनाया करते थे और उसे एक पवित्र धार्मिक कार्य समझते थे, लेकिन नग्नता का स्वतः एक लज्जाप्रद काम होना स्वयं उनके निकट भी मान्य था, अत: कोई सज्जन और इज्जतदार अरबवासी इस बात को पसन्द न करता था कि किसी सुसभ्य सभा में या बाज़ार में या अपने रिश्तेदारों या निकट संबंधियों के बीच नंगा हो। दूसरे यह कि वे लोग नग्नता को शर्मनाक जानने के बावजूद एक धार्मिक रस्म की हैसियत से अपनी इबादत के मौके पर अपनाया करते थे और चूँकि अपने धर्म को अल्लाह की ओर से समझते थे, इसलिए उनका दावा था कि यह रस्म भी अल्लाह ही की ओर से निर्धारित की हुई है। इसपर क़ुरआन मजीद यह तर्क देता है कि जो काम अश्लील है और जिसे तुम स्वयं भी जानते और मानते हो कि अश्लील है, उसके बारे में तुम यह कैसे समझ लेते हो कि अल्लाह ने इसका आदेश दिया होगा। किसी अश्लील कर्म का आदेश अल्लाह की ओर से कदापि नहीं हो सकता और आर तुम्हारे धर्म में ऐसा आदेश पाया जाता है तो यह इस बात की खुली निशानी है कि तुम्हारा धर्म अल्लाह की ओर से नहीं है।
قُلۡ أَمَرَ رَبِّي بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَقِيمُواْ وُجُوهَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَٱدۡعُوهُ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَۚ كَمَا بَدَأَكُمۡ تَعُودُونَ ۝ 28
(29) ऐ नबी ! इनसे कहो, मेरे रब ने तो सच्चाई और इंसाफ़ का हुक्म दिया है और उसका आदेश तो यह है कि हर इबादत में अपनी दिशा ठीक रखो और उसी को पुकारो अपने दीन (धर्म) को उसके लिए ख़ालिस (विशुद्ध) रखकर। जिस तरह उसने तुम्हें अब पैदा किया है उसी तरह तुम फिर पैदा किए जाओगे।19
19. अर्थ यह है कि अल्लाह के दीन (धर्म) को तुम्हारी इन अशिष्ट रस्मों से क्या ताल्लुक़ । उसने जिस दीन की शिक्षा दी है, उसके आधारभूत सिद्धांत तो ये हैं कि- 1. इंसान अपनी ज़िन्दगी को न्याय और सच्चाई के आधार पर स्थापित करे, 2. इबादत में अपनी दिशा ठीक रखे, अर्थात अल्लाह के सिवा किसी और के आज्ञापालन का लेशमात्र भी उसकी इबादत में न हो, वास्तविक उपास्य के सिवा किसी दूसरे की ओर आज्ञापालन व दासता और विनम्रता की दिशा तनिक न फिरने पाए, 3. मार्गदर्शन, समर्थन, सहायता, निगहबानी और सुरक्षा के लिए अल्लाह ही से दुआ माँगे, मगर शर्त यह है कि उस चीज़ की दुआ मांगनेवाला आदमी पहले अपने दीन को अल्लाह के लिए विशुद्ध कर चुका हो। यह न हो कि जीवन की सारी व्यवस्था तो कुफ्त (विधर्मिकता), शिर्क (बहुदेववाद), अवज्ञाकारिता और दूसरों के आज्ञापालन पर चलाई जा रही हो और सहायता अल्लाह से मांगी जाए कि ऐ अल्लाह ! यह विद्रोह जो हम तुझसे कर रहे हैं, इसमें हमारी सहायता कर। 4. और इस बात में विश्वास रखे कि जिस तरह इस दुनिया में वह पैदा हुआ है, उसी तरह एक दूसरी दुनिया में भी उसको पैदा किया जाएगा और उसे अपने कर्मों का हिसाब अल्लाह को देना होगा।
فَرِيقًا هَدَىٰ وَفَرِيقًا حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلضَّلَٰلَةُۚ إِنَّهُمُ ٱتَّخَذُواْ ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 29
(30) एक गिरोह को तो उसने सीधा रास्ता दिखा दिया है, मगर दूसरे गिरोह से गुमराही चिपककर रह गई है, क्योंकि उन्होंने अल्लाह के बजाय शैतानों को अपना संरक्षक बना लिया है और वे समझ रहे हैं कि हम सीधे मार्ग पर हैं।
۞يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ خُذُواْ زِينَتَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 30
(31) ऐ आदम की संतान ! हर इबादत (उपासना) के मौके पर अपनी साज-सज्जा से सुशोभित रहो 20 और खाओ-पियो और सीमा से आगे न बढ़ो। अल्लाह सीमा से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता। 21
20. यहाँ साज-सज्जा से अभिप्रेत पूरा लिबास है। अल्लाह की इबादत में खड़े होने के लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं है कि आदमी केवल अपनी शर्मगाह छिपाए, बल्कि उसके साथ यह भी ज़रूरी है कि अपनी हैसियत के मुताबिक़ वह अपना पूरा लिबास पहने जिसमें शर्मगाह का ढकना भी हो और साज-सज्जा भी। यह आदेश उस ग़लत नीति के खंडन के लिए है जिसपर अज्ञानी लोग अपनी इबादतों में अमल करते रहे हैं और आज तक रहे हैं। वे समझते हैं कि नग्न या अर्ध-नग्न होकर और अपनी शक्लों को बिगाड़कर अल्लाह की इबादत करनी चाहिए। इसके विपरीत अल्लाह कहता है कि अपनी साज-सज्जा से पूरी तरह सुशोभित होकर ऐसी दशा में इबादत करनी चाहिए जिसके भीतर नग्नता तो क्या अशिष्टता का लेशमात्र भी न हो।
21. अर्थात अल्लाह को तुम्हारी बदहाली, उपवास और पाक रोज़ी से महरूमी प्यारी नहीं है कि उसका आज्ञापालन करने के लिए यह किसी श्रेणी में भी अभीष्ट हो, बल्कि उसकी प्रसन्नता तो इसमें है कि तुम उसके दिए हुए अच्छे लिबास पहनो और पाक रोज़ी का आनन्द लो। उसकी शरीअत में असली गुनाह यह है कि आदमी उसकी असल निर्धारित की हुई सीमाओं को पार करे, भले ही वह पार करना हलाल को हराम कर लेने की शक्ल में हो या हराम को हलाल कर लेने की शक्ल में।
قُلۡ مَنۡ حَرَّمَ زِينَةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَ لِعِبَادِهِۦ وَٱلطَّيِّبَٰتِ مِنَ ٱلرِّزۡقِۚ قُلۡ هِيَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا خَالِصَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 31
(32) ऐ नबी ! इनसे कहो, किसने अल्लाह की उस साज-सज्जा को हराम कर दिया जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए उत्पन्न किया था और किसने अल्लाह की दी हुई पाक चीजें निषिद्ध कर दी?22 कहो, ये सारी चीजें दुनिया की ज़िन्दगी में भी ईमान लानेवालों के लिए हैं और क़ियामत के दिन तो ख़ास तौर से उन्हीं के लिए होंगी।23 इस तरह हम अपनी बातें साफ़-साफ़ बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखनेवाले हैं।
22. अर्थ यह है कि अल्लाह ने तो दुनिया की सारी साज-सज्जा और पाक चीजें बन्दों ही के लिए पैदा की हैं, इसलिए अल्लाह की इच्छा तो बहरहाल यह नहीं हो सकती कि उन्हें बन्दों के लिए हराम कर दे। अब अगर कोई धर्म या चरित्र और रहन-सहन की कोई व्यवस्था ऐसी है जो उन्हें हराम या घृणा करने के योग्य या आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में रुकावट समझती है तो उसका यह कर्म स्वयं ही इस बात का खुला प्रमाण है कि वह अल्लाह की ओर से नहीं है। यह भी उन तकों में से एक महत्त्वपूर्ण तर्क है जो क़ुरआन ने असत्यपूर्ण धर्मों के खंडन में प्रस्तुत किए हैं और इसको समझ लेना कुरआन की तर्क-शैली को समझने के लिए ज़रूरी है।
23. अर्थात वास्तविकता की दृष्टि से तो अल्लाह की पैदा की हुई तमाम चीजें दुनिया की ज़िन्दगी में भी ईमानवालों के लिए ही हैं, क्योंकि वे ही अल्लाह की वफ़ादार प्रजा हैं और नमक का हक़ सिर्फ़ नमक हलालों ही को पहुँचता है, लेकिन संसार की वर्तमान व्यवस्था, चूँकि आज़माइश और मोहलत के सिद्धाँत पर स्थापित की गई है इसलिए यहाँ प्रायः अल्लाह की नेमतें नमक हरामों में भी बँटती रहती हैं और कभी-कभी नमक हलालों से बढ़कर उन्हें नेमतें दे दी जाती हैं। हाँ, आखिरत (परलोक) में (जहाँ का सारा प्रबंध विशुद्धतः सत्य के आधार पर होगी) जीवन की सजावटें और पाक-साफ़ रोज़ी सब की सब सिर्फ़ नमक हलालों के लिए विशिष्ट होंगी और वे नमक हराम उनमें से कुछ न पा सकेंगे जिन्होंने अपने रब की रोज़ी पर पलने के बाद अपने पालनहार ही के विरुद्ध उदंडता दिखाई।
قُلۡ إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَ وَٱلۡإِثۡمَ وَٱلۡبَغۡيَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَأَن تُشۡرِكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 32
33) ऐ नबी ! इनसे कहो कि मेरे रब ने जो चीजें हराम की हैं वे तो ये हैं–निर्लज्जता के काम-चाहे खुले हों या छिपे24 -और गुनाह25 और सत्य के विरुद्ध ज़्यादती26 और यह कि अल्लाह के साथ तुम किसी को शरीक करो, जिसके लिए उसने कोई प्रमाण नहीं उतारा और यह कि अल्लाह के नाम पर कोई ऐसी बात कहो जिसके संबंध में तुम्हें ज्ञान न हो (कि वह वास्तव में उसी ने कही है)।
24. व्याख्या के लिए देखिए छठी सूरा अनआम की टिप्पणियाँ 128, 1311
25. मूल अरबी शब्द 'इस्म' प्रयुक्त हुआ है जिसका वास्तविक अर्थ 'कोताही' है। 'आसिमा' उस ऊँटनी को कहते हैं जो तेज़ चल सकती हो, मगर जान-बूझकर सुस्त चले । इसी से इस शब्द में गुनाह का अर्थ पैदा हुआ है अर्थात इंसान का अपने रब के आज्ञापालन में शक्ति और सामर्थ्य के बावजूद कोताही करना और उसकी प्रसन्नता को प्राप्त करने में जान-बूझकर कोताही दिखाना।
وَلِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٞۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَأۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 33
(34) हर क़ौम के लिए मोहलत की एक मुदत निश्चित है, फिर जब किसी क़ौम की मुद्दत आ पूरी होती है, तो एक घड़ी भर न पीछे होती है और न आगे27
27. मोहलत की मुद्दत निश्चित किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि हर कौम के लिए वर्षों और महीनों और दिनों के हिसाब से एक उम्र निश्चित की जाती हो और इस उम्र के पूरा होते ही उस कौम को अनिवार्यतः समाप्त कर दिया जाता हो, बल्कि इसका अर्थ यह है कि हर कौम को दुनिया में काम करने का जो मौक़ा दिया जाता है, उसकी एक नैतिक सीमा निश्चित कर दी जाती है, इस अर्थ में कि उसके कर्मों में भलाई और बुराई का कम-से-कम कितना अनुपात सहन किया जा सकता है। जब तक एक कौम के बुरे गुण उसके अच्छे गुणों के मुक़ाबले में अनुपात की उस अन्तिम सीमा से नीचे रहती हैं, उस समय तक उसे उसकी तमाम बुराइयों के बावजूद मोहलत दी जाती रहती है और जब वह इस सीमा से आगे निकल जाती है, तो फिर उस दुराचारी और दुर्गुणोंवाली कौम को और कोई मोहलत नहीं दी जाती।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ إِمَّا يَأۡتِيَنَّكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي فَمَنِ ٱتَّقَىٰ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 34
(35) (और यह बात अल्लाह ने पैदाइश के आरंभ ही में स्पष्ट रूप से कह दी थी कि ऐ आदम की संतान ! याद रखो, अगर तुम्हारे पास स्वयं तुम ही में से ऐसे रसूल आएँ, जो तुम्हें मेरी आयतें सुना रहे हो, तो जो कोई नाफरमानी से बचेगा और अपनी नीति को सुधार लेगा, उसके लिए किसी डर और रंज का अवसर नहीं है,
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 35
(36) और जो लोग हमारी आयतों को झुठलाएंगे और उनके प्रति उदंडता (सरकशी) अपनाएंगे, वही दोजखबाले होंगे जहाँ वे हमेशा रहेंगे।28
28. यह बात क़ुरआन मजीद में हर जगह उस अवसर पर कही गई है जहाँ आदम और हव्वा (अलैहि०) के जन्नत से उतारे जाने का उल्लेख हुआ है (दखिर क़ुरआन 2:13-124, 20 : 38-391 अत: यहाँ भी इसकी उसी अवसर से संबंधित समझा जाएगा, अर्थात मानवजाति के जीवन का आरंभ जब हो रहा था उसी समय यह बात स्पष्ट रूप से समझा दी गई थी। (दखिए क़ुरआन की तीसरी सूरा आले इमरान, टिप्पणी 69)
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ يَنَالُهُمۡ نَصِيبُهُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوۡنَهُمۡ قَالُوٓاْ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالُواْ ضَلُّواْ عَنَّا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 36
(37) आखिर उससे बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो बिल्कुल झूठी बातें गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की सच्ची आयतों को झुठलाए? ऐसे लोग अपने भाग्य के लिखे के अनुसार अपना हिस्सा पाते रहेंगे29, यहाँ तक कि वह घड़ी आ जाएगी जब हमारे भेजे हुए फ़रिश्ते उनके प्राण ग्रस्त करने के लिए पहुंचेंगे। उस समय वे उनसे पूछेगे कि “बताओ, अब कहाँ हैं तुम्हारे वे उपास्य जिनको तुम अल्लाह के बजाय पुकारते थे?" वे कहेंगे कि “सब हमसे गुम हो गए।" और वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि हम वास्तव में सत्य के इंकारी थे।
29. अर्थात् दुनिया में जितने दिन मोहलत के तय हे यहाँ रहेंगे और जिस प्रकार का प्रत्यक्षत: अच्छा या बुरा जीवन बिताना उनके भाग्य में है, गुज़ार लेंगे।
قَالَ ٱدۡخُلُواْ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ فِي ٱلنَّارِۖ كُلَّمَا دَخَلَتۡ أُمَّةٞ لَّعَنَتۡ أُخۡتَهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا ٱدَّارَكُواْ فِيهَا جَمِيعٗا قَالَتۡ أُخۡرَىٰهُمۡ لِأُولَىٰهُمۡ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ أَضَلُّونَا فَـَٔاتِهِمۡ عَذَابٗا ضِعۡفٗا مِّنَ ٱلنَّارِۖ قَالَ لِكُلّٖ ضِعۡفٞ وَلَٰكِن لَّا تَعۡلَمُونَ ۝ 37
(38) अल्लाह फ़रमाएगा : जाओ, तुम भी उसी जहन्नम में चले जाओ जिसमें तुमसे पहले गुज़रे हुए जिन और इंसानों के गिरोह जा चुके हैं। हर गिरोह जब जहन्नम में दाखिल होगा तो अपने अगले गिरोह पर लानत करता हुआ दाखिल होगा, यहाँ तक कि जब सब वहाँ जमा हो जाएँगे तो हर बादवाला गिरोह पहले गिरोह के पक्ष में कहेगा कि ऐ रब ! ये लोग थे जिन्होंने हमें पथभ्रष्ट किया, इसलिए इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे। जवाब में कहा जाएगा : हर एक के लिए दोहरा अज़ाब ही है पर तुम जानते नहीं हो।30
30. अर्थात बहरहाल तुममें से प्रत्येक समुदाय किसी के पीछे था तो किसी के आगे भी था। अगर किसी गिरोह के अगलों ने उसके लिए विरासत स्वरूप भ्रष्ट चिंतन और दूषित कर्म और कर्म छोड़ा था तो स्वयं वह भी अपने पिछलों के लिए वैसी ही मीरास छोड़कर दुनिया से विदा हुआ। अगर एक गिरोह के गुमराह होने की कुछ ज़िम्मेदारी उसके पहलों पर आती है तो उसके पिछलों को गुमराही का बहुत कुछ बोझ स्वयं उसपर भी आता है। इसी कारण कहा कि हर एक के लिए दोहरा अज़ाब है। एक अज़ाब स्वयं गुमराही अपनाने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह (पथभष्ट) करने का । एक सज़ा अपने अपराधों की और दूसरी सज़ा दूसरों के लिए अपराध अपनाने की मीरास छोड़ आने की। हदीस में इसी विषय की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि “जिसने किसी नई गुमराही की शुरुआत की, जो अल्लाह और उसके रसूल के निकट अप्रिय हो, तो उसपर उन सब लोगों के गुनाह की ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी जिन्होंने उसके निकाले हुए तरीके का अनुसरण किया, बिना इसके कि स्वयं इन कर्म करनेवालों की ज़िम्मेदारी में कोई कमी हो।” दूसरी हदीस में है, "दुनिया में जो इंसान भी अन्याय के साथ क़त्ल किया जाता है उसकी अन्यायपूर्ण हत्या का एक हिस्सा आदम के उस पहले बेटे को पहुँचता है जिसने अपने भाई की हत्या की थी, क्योंकि इंसान की हत्या का रास्ता सबसे पहले उसी ने खोला था।” इससे मालूम हुआ कि जो व्यक्ति या गिरोह किसी ग़लत विचार या ग़लत रवैये की बुनियाद डालता है, वह केवल अपनी ही ग़लती का ज़िम्मेदार नहीं होता, बल्कि दुनिया में जितने इंसान उससे प्रभावित होते हैं उन सबके गुनाह की ज़िम्मेदारी का भी एक हिस्सा उसके हिसाब में लिखा जाता रहता है और जब तक उसकी इस ग़लती का प्रभाव चलता रहता है, उसके हिसाब में दर्ज किया जाता रहता है। साथ ही इससे यह भी मालूम हुआ कि हर व्यक्ति अपनी नेकी या बदी का केवल अपने व्यक्तित्व की सीमा तक ही ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि इस बात का भी जवाबदेह है कि उसकी नेकी या बदी का क्या प्रभाव दूसरों की ज़िन्दगी पर पड़ा। उदाहरण के रूप में एक व्यभिचारी को लीजिए। जिन लोगों की शिक्षा-दीक्षा से, जिनकी संगति के प्रभाव से, जिनके बुरे उदाहरणों के देखने से और जिनके प्रलोभनों से उस व्यक्ति के भीतर व्यभिचार की बुराई पली-बढ़ी, वे सब उसके व्यभिचारी बनने में भागीदार हैं और स्वयं उन लोगों ने ऊपर जहाँ-जहाँ से इस कुदृष्टि व बुरी चाह और दुष्कर्म की मीरास पाई है वहाँ तक उसकी ज़िम्मेदारी पहुँचती है, यहाँ तक कि यह सिलसिला उस पहले इंसान पर जाकर समाप्त होता है जिसने सबसे पहले मानवजाति को मनोकामना पूरा करने का यह ग़लत रास्ता दिखाया। यह उस व्यभिचारी के हिसाब का दूसरा हिस्सा है जो उसके समकालिकों और उसके पूर्वजों से ताल्लुक़ रखता है। फिर वह स्वयं भी अपने व्यभिचार का ज़िम्मेदार है। उसको भले और बुरे की जो पहचान दी गई थी, उसमें अन्तरात्मा की जो शक्ति रखी गई थी, उसके भीतर आत्मसंयम की जो क्षमता दी गई थी, उसको नेक लोगों से भलाई और बुराई का जो ज्ञान प्राप्त हुआ था, उसके सामने भले लोगों के जो उदाहरण मौजूद थे, उसको यौन-दुराचरण के दुष्परिणामों की जो जानकारी थी, उनमें से किसी चीज़ से भी उसने लाभ न उठाया और अपने आपको मन की उस अंधी कामना के सुपुर्द कर दिया जो केवल अपनी तुष्टि चाहती थी, चाहे वह किसी तरीके से हो। यह उसके हिसाब का वह हिस्सा है जो उसके अपने व्यक्तित्व से संबंध रखता है। फिर यह व्यक्ति उस बुराई को, जिसे उसने कमाया और जिसे स्वयं अपनी कोशिश से वह पालता-पोसता रहा, दूसरों में फैलाना शुरू करता है, किसी गन्दे रोग की छूत कहीं से लगाता है और उसे अपनी नस्ल में और न जाने किन-किन नस्लों में फैलाकर न जाने कितनी ज़िन्दगियों को खराब कर देता है, कहीं अपना वीर्य छोड़ आता है और जिस बच्चे को पालने-पोसने का बोझ उसे स्वयं उठाना चाहिए था, उसे किसी और की कमाई का अवैध भागीदार, उसके बच्चों के अधिकारों में जबरदस्ती का शरीक, उसकी मीरास में नाहक का हक़दार बना देता है और अधिकारों के इस हनन का सिलसिला न जाने कितनी नस्लों तक चलता रहता है। किसी युवती को फुसलाकर दुराचार के रास्ते पर डालता है और उसके अन्दर उन बुरे गुणों को उभार देता है जो उससे फैलकर न जाने कितने परिवारों और कितनी नस्लों तक पहुंचते हैं और कितने घर बिगाड़ देते हैं। अपनी सन्तान, अपने रिश्तेदार, अपने दोस्तों और अपने समाज के दूसरे लोगों के सामने अपने चरित्र की एक बुरी मिसाल पेश करता है और न जाने कितने व्यक्तियों के चाल-चलन खराब करने का कारण बन जाता है जिसके प्रभाव बाद की नस्लों में लम्बी. मुद्दत तक चलते रहते हैं। यह सारा बिगाड़ जो उस आदमी ने समाज में फैलाया, न्याय की अपेक्षा है कि यह भी उसके हिसाब में लिखा जाए और उस समय तक लिखा जाता रहे जब तक उसकी फैलाई हुई खराबियों का सिलसिला दुनिया में चलता रहे। इसी प्रकार नेकी के प्रति भी सोचना और समझना चाहिए । जो नेक मीरास अपने पूर्वजों से हमको मिली है, उसका बदला और सवाब उन सब लोगों को पहुँचना चाहिए जो आरंभिककाल से लेकर हमारे समय तक उसको आगे बढ़ाने में हिस्सा लेते रहे हैं । फिर इस मीरास को लेकर उसे संभालने और विकसित करने में जो सेवा हम करेंगे, उसका बदला हमें भी मिलना चाहिए। फिर अपनी भली कोशिश के जो प्रभाव हम दुनिया में छोड़ जाएंगे, उन्हें भी हमारी भलाइयों के हिसाब में उस समय तक निरंतर अंकित होते रहना र चाहिए, जब तक ये प्रभाव बाकी रहें और उनके प्रभावों का सिलसिला मानवजाति में चलता रहे और उनके लाभों से दुनिया फ़ायदा उठाती रहे। बदले और प्रतिफल की यह शक्ल जो कुरआन प्रस्तुत कर रहा है, प्रत्येक बुद्धि रखनेवाला स्वीकार करेगा कि सही और पूरा न्याय यदि हो सकता है तो इसी तरह हो सकता है। इस वास्तविकता को आगर अच्छी तरह समझ लिया जाए तो इससे उन लोगों की प्रान्तियाँ भी दूर हो सकती हैं जिन्होंने प्रतिफल के लिए वर्तमान के इसी सांसारिक जीवन को पर्याप्त समझ लिया है, और उन लोगों का भ्रम भी जो यह विचार रखते हैं कि इंसान को उसके कर्मों का पूरा बदला आवागमन के रूप में मिल सकता है। वास्तव में इन दोनों गिरोहों ने न तो इंसानी काम और उसके प्रभावों और परिणामों की व्यापकता को समझा है और न न्यायोचित प्रतिफल और उसकी अपेक्षाओं को। एक इंसान आज अपने पचास-साठ साल के जीवन में जो अच्छे या बुरे कर्म करता है, उनकी ज़िम्मेदारी में न जाने कितनी पीढ़ियाँ सम्मलित हैं जो गुज़र चुकी और आज यह संभव नहीं कि उन्हें इसका इनाम या सज़ा पहुँच सके। फिर उस व्यक्ति के ये अच्छे या बुरे कर्म जिन्हें वह आज कर रहा है उसकी मौत के साथ समाप्त नहीं हो जाएँगे, बल्कि उनके प्रभावों का सिलसिला आगे सदियों तक चलता रहेगा। हज़ारों, लाखों बल्कि करोड़ों इंसानों तक फैलेगा और उसके हिसाब का खाता उस समय तक खुला रहेगा जब तक ये प्रभाव चल रहे हैं और फैल रहे हैं। किस तरह संभव है कि आज ही इस दुनिया की ज़िन्दगी में उस व्यक्ति को उसकी कमाई (किए) का पूरा बदला मिल जाए, जबकि अभी उसकी कमाई (किए) के प्रभावों का लाखवाँ हिस्सा भी प्रकट नहीं हुआ है। फिर इस दुनिया का सीमित जीवन और उसकी सीमित संभावनाएँ सिरे से इतनी गुंजाइश ही नहीं रखतीं कि यहाँ किसी को उसकी कमाई का पूरा बदला मिल सके। आप किसी ऐसे व्यक्ति के अपराध के बारे में सोचिए जो उदाहरणतः दुनिया में एक महायुद्ध की आग भड़काता है और उसकी इस हरकत के अनगिनत बुरे नतीजे हज़ारों वर्ष तक अरबों इंसानों तक फैलते हैं। क्या कोई बड़ी-से-बडी शारीरिक, नैतिक, आध्यात्मिक या भौतिक सज़ा भी, जो इस दुनिया में दी जानी संभव है, उसके इस अपराध की पूरी तरह न्यायपूर्ण सज़ा हो सकती है ? इसी तरह क्या दुनिया का कोई बड़े से बड़ा पुरस्कार भी, जिसकी कल्पना आप कर सकते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति के लिए काफी हो सकता है जो उम्र-भर मानवजाति की भलाई के लिए काम करता रहा हो और हज़ारों साल तक अनगिनत इंसान जिसकी कोशिशों के फल से लाभ उठाए चले जा रहे हों। कर्म और प्रतिफल के मामले को इस पहलू से जो व्यक्ति देखेगा, उसे विश्वास हो जाएगा कि कर्म-प्रतिफल के लिए एक दूसरी ही दुनिया अपेक्षित है, जहाँ तमाम अगली और पिछली नस्लें जमा हों, तमाम इंसानों के खाते बन्द हो चुके हों, हिसाब करने के लिए एक जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला ख़ुदा न्याय की कुर्सी पर बैठा हो और कर्म का पूरा बदला पाने के लिए इंसान के पास असीम जीवन और उसके चारों ओर इनाम व सज़ा की असीम संभावनाएँ मौजूद हों। फिर इसी पहलू पर विचार करने से आवागमनवालों की एक और बुनियादी ग़लती को भी दूर किया जा सकता है, जिसमें पड़कर उन्होंने आवागमन का चक्कर प्रस्तावित किया है। वे इस सच्चाई को नहीं समझे कि केवल एक ही छोटे-से पचास वर्षीय जीवन के कारनामे का फल पाने के लिए उससे हज़ारों गुना ज़्यादा लम्बा जीवन आपेक्षित है, कहाँ यह कि उस पचास वर्षीय जीवन के समाप्त होते ही हमारा एक दूसरा और फिर तीसरा दायित्त्वपूर्ण जीवन इसी दुनिया में शुरू हो जाए और इन जीवनों में भी हम और अधिक ऐसे काम करते चले जाएँ जिनका अच्छा या बुरा फल हमें मिलना ज़रूरी हो। इस तरह तो हिसाब चुकता होने के बजाय और ज्यादा बढ़ता ही चला जाएगा और उसके चुकता होने की नौबत कभी आ ही न सकेगी।
وَقَالَتۡ أُولَىٰهُمۡ لِأُخۡرَىٰهُمۡ فَمَا كَانَ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلٖ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 38
(39) और पहला गिरोह दूसरे गिरोह से कहेगा कि (अगर हम अभियोज्य थे) तो तुम्ही को हम पर कौन-सी श्रेष्ठता प्राप्त थी, अब अपनी कमाई के नतीजे में अज़ाब का मज़ा चखो।31
31. दोज़ख़़वालों के इस पारस्परिक वाद-प्रतिवाद का क़ुरआन मजीद में कई जगह उल्लेख हुआ है। जैसे चौतीसवीं सूरा सबा की आयत 31 और 33 में कहा गया है कि काश ! तुम देख सको उस मौके को जब ये ज़ालिम अपने रब के समक्ष खड़े होंगे और एक-दूसरे पर बातें बना रहे होंगे। जो लोग दुनिया में कमज़ोर बनाकर रखे गए थे वे उन लोगों से, जो बड़े बनकर रहे थे, कहेंगे कि अगर तुम न होते तो हम मोमिम (ईमानवाले) होते। वे बड़े बननेवाले इन कमज़ोर बनाए लोगों को जवाब देंगे, क्या हमने तुमको हिदायत से रोक दिया था, जबकि वह तुम्हारे पास आई थी ? नहीं, बल्कि तुम स्वयं दोषी थे।" अर्थ यह है कि तुम स्वयं कब हिदायत (मार्गदर्शन) के इच्छुक थे? अगर हमने तुम्हें भौतिकवाद और जातिवाद और सांसारिकता और ऐसी ही दूसरी गुमराहियों और दुष्कर्मों में डाल दिया तो तुम स्वयं अल्लाह से विमुख और दुनिया के पुजारी थे, तभी तो तुम ख़ुदापरस्ती (ईश्वरवाद) की ओर बुलानेवालों को छोड़कर हमारी पुकार की ओर लपके। अत: ज़िम्मेदारी अकेले हमारे ही ऊपर नहीं है, तुम भी बराबर के ज़िम्मेदार हो। हम अगर गुमराही जुटानेवाले थे, तो तुम उसके खरीदार थे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمۡ أَبۡوَٰبُ ٱلسَّمَآءِ وَلَا يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ حَتَّىٰ يَلِجَ ٱلۡجَمَلُ فِي سَمِّ ٱلۡخِيَاطِۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 39
(40) विश्वास करो, जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया है और उनके प्रति उदंडता (सरकशी) की है, उनके लिए आसमान के दरवाजे कदापि न खोले जाएंगे। उनका जन्नत में जाना उतना ही असंभव है जितना सूई के नाके से ऊँट का गुज़रना। अपराधियों को हमारे यहाँ ऐसा ही बदला मिला करता है।
لَهُم مِّن جَهَنَّمَ مِهَادٞ وَمِن فَوۡقِهِمۡ غَوَاشٖۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 40
(41) उनके लिए तो जहन्नम का बिछौना होगा और जहन्नम ही का ओढ़ना। यह है वह बदला जो हम ज़ालिमों को दिया करते हैं ।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 41
(42) इसके विपरीत जिन लोगों ने हमारी आयतों को मान लिया है और अच्छे कर्म किए हैं और इस विषय में हम हर एक को उसकी सामर्थ्य के अनुसार ही उत्तरदायी ठहराते हैं वे जन्नतवाले हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلّٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي هَدَىٰنَا لِهَٰذَا وَمَا كُنَّا لِنَهۡتَدِيَ لَوۡلَآ أَنۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُۖ لَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّۖ وَنُودُوٓاْ أَن تِلۡكُمُ ٱلۡجَنَّةُ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 42
(43) उनके दिलों में एक-दूसरे के विरुद्ध जो कुछ मलिनता होगी, उसे हम निकाल देंगे।32 उनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे कहेंगे कि “प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जिसने हमें यह रास्ता दिखाया, हम स्वयं राह न पा सकते थे अगर अल्लाह हमारा मार्गदर्शन न करता। हमारे रब के भेजे हुए रसूल वास्तव में सत्य ही लेकर आए थे।” उस समय आवाज़ आएगी कि “यह जन्नत, जिसके तुम वारिस बनाए गए हो, तुम्हें उन कामों के बदले में मिली है जो तुम करते रहे थे।33
32. अर्थात दुनिया की ज़िन्दगी में इन नेक लोगों के बीच अगर कुछ रंजिशें, कडुवाहटें और आपस की ग़लतफ़हमियाँ रही हों तो आख़िरत में वे सब दूर कर दी जाएंगी। उनके दिल एक-दूसरे से साफ़ हो जाएंगे। वे निष्ठावान मित्रों के रूप में जन्नत में दाखिल होंगे। उनमें से किसी को यह देखकर कष्ट न होगा कि अमुक जो मेरा विरोधी था और अमुक जो मुझसे लड़ा था और अमुक जिसने मेरी आलोचना की थी, आज वह भी इस मेहमानी में मेरे साथ शरीक है। इसी आयत को पढ़कर हज़रत अली (रज़ि.) ने फ़रमाया था कि मुझे आशा है कि अल्लाह मेरे और उस्मान और तलहा और जुबैर (रज़ि.) के बीच भी सफ़ाई करा देगा। इस आयत को अगर हम अधिक व्यापक दृष्टि से देखें तो यह नतीजा निकाल सकते हैं कि नेक लोगों के दामन पर इस दुनिया की ज़िन्दगी में जो दाग़-धब्बे लग जाते हैं, अल्लाह उन दागों समेत उन्हें जन्नत में न ले जाएगा, बल्कि वहाँ दाखिल करने से पहले अपनी मेहरबानी से उन्हें बिल्कुल पाक-साफ़ (पवित्र) कर देगा और वे बेदाग़ ज़िन्दगी लिए हुए वहाँ जाएँगे।
33. यह एक अत्यंत सूक्ष्म मामला है जो वहाँ पेश आएगा। जन्नतवाले इस बात पर न फूलेंगे कि हमने काम ही ऐसे किए थे जिनपर हमें जन्नत मिलनी चाहिए थी, बल्कि अल्लाह के गुण-गान और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने और उपकार प्रकट करने में उनकी ज़बानें स्तुति व प्रशंसा में पूरी तरह डूबी होंगी और वे कहेंगे कि यह सब हमारे पालनहार का अनुग्रह है, वरना हम किस योग्य थे। दूसरी ओर अल्लाह उनपर अपने उपकारों का बखान न करेगा, बल्कि उत्तर में कहेगा कि तुमने यह दर्जा अपनी सेवाओं के बदले में पाया है। यह तुम्हारी अपनी मेहनत की कमाई है जो तुम्हें दी जा रही है। ये भीख के टुकड़े नहीं हैं, बल्कि तुम्हारी कोशिशों का बदला है, तुम्हारे काम की मज़दूरी है और वह इज़्ज़तदार रोज़ी है जिसका अधिकार तुमने अपने बाहुबल से अपने लिए प्राप्त किया है। फिर यह विषय इस ढंग से और भी सूक्ष्म हो जाता है कि अल्लाह अपने उत्तर का उल्लेख इस स्पष्टीकरण के साथ नहीं करता कि हम इस प्रकार कहेंगे, बल्कि अत्यंत दयालुता के साथ कहता है कि उत्तर में यह आवाज़ आएगी। वस्तुतः यही मामला दुनिया में भी अल्लाह और उसके नेक बन्दों के बीच है। ज़ालिमों को जो नेमत दुनिया में मिलती है, वे उसपर इतराते हैं, कहते हैं कि यह हमारी योग्यता और परिश्रम का फल है और इसी कारण वे हर नेमत की प्राप्ति पर और अधिक घमंडी और उपद्रवी बनते चले जाते हैं। इसके विपरीत भले लोगों को जो नेमत भी मिलती है, वे उसे अल्लाह का अनुग्रह समझते हैं, कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। जितने नवाज़े जाते हैं उतने ही अधिक नम्र, दयालु, स्नेही और उदार होते चले जाते हैं। फिर आखिरत के बारे में भी वे अपने भले कामों पर इतराते नहीं कि हम तो निश्चत रूप से बख्शे हो जाएँगे, बल्कि अपनी त्रुटियों और भूलों पर क्षमा माँगते हैं, अपने कर्म के बजाय अल्लाह की कृपा और दया से आशाएँ बाँधे रखते हैं और हमेशा डरते ही रहते हैं कि कहीं हमारे हिसाब में लेने के बजाय कुछ देना ही न निकल आए । (हदीस की किताबों) बुख़ारी व मुस्लिम दोनों में यह रिवायत मौजूद है कि प्यारे नबी (सल्ल.) ने फरमाया, "ख़ूब जान लो कि तुम केवल अपने कर्मों के बलबूते पर जन्नत में न पहुंच जाओगे।” लोगों ने अर्ज़ किया,“ऐ । अल्लाह के रसूल ! क्या आप भी ?” फ़रमाया, "हाँ, मैं भी। अलावा इसके कि अल्लाह मुझे अपनी दया और अपने अनुग्रह से ढाँक ले।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ أَن قَدۡ وَجَدۡنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقّٗا فَهَلۡ وَجَدتُّم مَّا وَعَدَ رَبُّكُمۡ حَقّٗاۖ قَالُواْ نَعَمۡۚ فَأَذَّنَ مُؤَذِّنُۢ بَيۡنَهُمۡ أَن لَّعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 43
(44) फिर ये जन्नत के लोग दोज़ख़वालों से पुकारकर कहेंगे, "हमने उन समस्त वादों को ठीक पा लिया जो हमारे रब ने हमसे किए थे, क्या तुमने भी उन वादों को ठीक पाया जो तुम्हारे रब ने किए थे?" वे जवाब देंगे, “हाँ !" तब एक पुकारनेवाला उनके बीच पुकारेगा कि “अल्लाह की धिक्कार उन ज़ालिमों पर,
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ كَٰفِرُونَ ۝ 44
(45) जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकते और उसे टेढ़ा करना चाहते थे, और आखिरत का इनकार करनेवाले थे।"
وَبَيۡنَهُمَا حِجَابٞۚ وَعَلَى ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٞ يَعۡرِفُونَ كُلَّۢا بِسِيمَىٰهُمۡۚ وَنَادَوۡاْ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَن سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۚ لَمۡ يَدۡخُلُوهَا وَهُمۡ يَطۡمَعُونَ ۝ 45
(46) उन दोनों गिरोहों के बीच एक ओट होगी जिसकी ऊँचाइयों (आराफ़) पर कुछ अन्य लोग होंगे। ये हर एक को उसके लक्षणों से पहचानेंगे, और जन्नतवालों से पुकारकर कहेंगे कि "सलामती (शान्ति) हो तुमपर।" ये लोग जन्नत में दाखिल तो नहीं हुए, मगर उसके उम्मीदवार होंगे।34
34. अर्थात ये "आराफ़वाले" वे लोग होंगे जिनके जीवन का न तो सकारात्मक पहलू ही इतना दृढ़ होगा कि जन्नत में दाखिल हो सकें और न नकारात्मक पहलू ही इतना खराब होगा कि दोज़ख में झोंक दिए जाएँ। इसलिए वे जन्नत और दोज़ख़ के बीच एक सीमा पर रहेंगे [और अल्लाह की कृपा से यह आशा लगाए होंगे कि उन्हें जन्नत प्राप्त हो जाए।]
۞وَإِذَا صُرِفَتۡ أَبۡصَٰرُهُمۡ تِلۡقَآءَ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِ قَالُواْ رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 46
(47) और जब उनकी निगाहें दोज़ख़वालों की ओर फिरेंगी तो कहेंगे, “ऐ रब ! हमें इन ज़ालिम लोगों में शामिल न कीजियो।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٗا يَعۡرِفُونَهُم بِسِيمَىٰهُمۡ قَالُواْ مَآ أَغۡنَىٰ عَنكُمۡ جَمۡعُكُمۡ وَمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 47
(48) फिर ये ऊँचाइयोंवाले लोग दोज़ख के कुछ बड़े-बड़े लोगों को उनके लक्षणों से पहचानकर पुकारेंगे कि "देख लिया तुमने, आज न तुम्हारे जत्थे तुम्हारे किसी काम आए और न वे साज-सामान जिनको तुम बड़ी चीज़ समझते थे।
أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمۡتُمۡ لَا يَنَالُهُمُ ٱللَّهُ بِرَحۡمَةٍۚ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 48
(49) और क्या ये जन्नतवाले वही लोग नहीं हैं जिनके बारे में तुम क़समें खा-खाकर कहते थे कि इनको तो अल्लाह अपनी दयालुता में से कुछ भी न देगा? आज उन्हीं से कहा गया कि दाखिल हो जाओ जन्नत में, तुम्हारे लिए न डर है, न शोक ।"
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَنۡ أَفِيضُواْ عَلَيۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ أَوۡ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُۚ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَهُمَا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 49
(50) और दोज़ख के लोग जन्नतवालों को पुकारेगे कि कुछ थोड़ा-सा पानी हमपर डाल दो या जो रोज़ी अल्लाह ने तुम्हें दी है, उसी में से कुछ फेंक दो। वे उत्तर देंगे कि “अल्लाह ने ये दोनों चीजें सत्य के उन इंकारियों पर हराम कर दी हैं
ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَهۡوٗا وَلَعِبٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ فَٱلۡيَوۡمَ نَنسَىٰهُمۡ كَمَا نَسُواْ لِقَآءَ يَوۡمِهِمۡ هَٰذَا وَمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 50
(51) जिन्होंने अपने दीन (धर्म) को खेल और तमाशा बना लिया था और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोखे में डाल रखा था। अल्लाह फ़रमाता है कि आज हम भी उन्हें उसी तरह भुला देंगे जिस तरह वे इस दिन की मुलाक़ात को भूले रहे और हमारी आयतों का इनकार करते रहे।‘’35
35. जन्नतवालों, दोज़़ख़़वालों और आराफ़वालों की इस बातचीत से किसी सीमा तक अनुमान लगाया जा सकता है कि आख़िरत में इंसान की शक्तियों का पैमाना कितना वृहद् हो जाएगा। वहाँ आँखों की रौशनी इतने बड़े पैमाने पर होगी कि जन्नत और दोज़ख़ और आराफ़ के लोग जब चाहेंगे एक-दूसरे को देख सकेंगे। वहाँ आवाज़ और सुनने की शक्ति भी इतने बड़े पैमाने पर होगी कि इन विभिन्न दुनियाओं के लोग एक-दूसरे से आसानी के साथ बातचीत कर सकेंगे। ये और ऐसे ही दूसरे बयान जो आखिरत के बारे में हमें क़ुरआन में मिलते हैं, इस बात की संकल्पना हेतु पर्याप्त हैं कि वहाँ जीवन के नियम हमारे वर्तमान जीवन के प्राकृतिक नियमों से बिल्कुल भिन्न होंगे, यद्यपि हमारे व्यक्तित्त्व यही रहेंगे जो यहाँ हैं। जिन लोगों के मस्तिष्क इस वर्तमान जगत की सीमाओं में इतने बंधे हैं कि वर्तमान जीवन और उसके संक्षिप्त पैमानों से विस्तृत किसी चीज़ की धारणा उनमें समा नहीं सकती, वे कुरआन और हदीस के इन बयानों को बड़े अचंभे की निगाह से देखते हैं, और कभी-कभी उनकी हँसी उड़ाकर अपनी अल्पबुद्धि का और अधिक सबूत भी देने लगते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि इन बेचारों का मस्तिष्क जितना संकीर्ण है, जीवन की संभावनाएँ उतनी संकीर्ण नहीं हैं।
وَلَقَدۡ جِئۡنَٰهُم بِكِتَٰبٖ فَصَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ عِلۡمٍ هُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 51
(52) हम इन लोगों के पास एक ऐसी किताब ले आए हैं जिसे हमने ज्ञान के आधार पर विस्तृत बनाया है36 और जो ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और रहमत है।37
36. अर्थात इसमें सविस्तार बता दिया गया है कि वास्तविकता क्या है और इंसान के लिए दुनिया की ज़िन्दगी में कौन-सी नीति उचित है और सही जीवन-शैली के आधारभूत सिद्धांत क्या हैं। फिर ये विवरण भी अनुमान या पूर्वाग्रह या भ्रम के आधार पर नहीं, बल्कि विशुद्धतः ज्ञान के आधार पर हैं।
37. तात्पर्य यह कि एक तो इस किताब के विषय और इसकी शिक्षाएँ ही अपने आपमें इतनी स्पष्ट हैं कि आदमी आगर उनपर विचार करे तो उसके सामने सत्य का रास्ता स्पष्ट हो सकता है। फिर इसपर तद्धिक यह कि जो लोग इस किताब को मानते हैं उनके जीवन में भी व्यवहारतः इस वास्तविकता का अवलोकन किया जा सकता है कि यह इंसान का कैसा सही मार्गदर्शन करती है और कितनी बड़ी रहमत है कि इसका प्रभाव ग्रहण करते ही इंसान की मनोवृत्ति, उसके चरित्र और उसके आचरण में श्रेष्ठतम क्रान्ति आने लगती है। यह संकेत है उन चमत्कारी प्रभावों की ओर जो इस किताब पर ईमान लाने से सहाबा किराम (रज़ि.) की जीवनियों में प्रकट हो रहे थे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا تَأۡوِيلَهُۥۚ يَوۡمَ يَأۡتِي تَأۡوِيلُهُۥ يَقُولُ ٱلَّذِينَ نَسُوهُ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّ فَهَل لَّنَا مِن شُفَعَآءَ فَيَشۡفَعُواْ لَنَآ أَوۡ نُرَدُّ فَنَعۡمَلَ غَيۡرَ ٱلَّذِي كُنَّا نَعۡمَلُۚ قَدۡ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 52
(53) अब क्या ये लोग इसके सिवा किसी और बात के इन्तिज़ार में हैं कि वह अंजाम सामने आ जाए जिसकी यह किताब सूचना दे रही है?38 जिस दिन वह अंजाम सामने आ गया तो वही लोग, जिन्होंने पहले इसे नज़रअंदाज़ कर दिया था, कहेंगे कि “वास्तव में हमारे रब के संदेशवाहक (रसूल) सत्य लेकर आए थे, फिर क्या अब हमें कुछ सिफ़ारिशी मिलेंगे जो हमारे पक्ष में सिफ़ारिश करें? या हमें दोबारा वापस ही भेज दिया जाए, ताकि जो कुछ हम पहले करते थे उसके बजाय अब दूसरे तरीक़े पर काम करके दिखाएँ ?39 उन्होंने अपने आपको घाटे में डाल दिया और वे सारे झूठ जो उन्होंने रच रखे थे, आज उनसे गुम हो गए।
38. दूसरे शब्दों में इस विषय को यूँ समझिए कि जिस आदमी को सही और ग़लत का अन्तर अत्यंत उचित ढंग से साफ़-साफ़ बताया जाता है किन्तु वह नहीं मानता, फिर उसके सामने कुछ लोग सही रास्ते पर चलकर दिखा भी देते हैं कि ग़लत नीति अपनाने के समय में वे जैसे कुछ थे उसकी तुलना में सीधा और सही रास्ता अपना करके उनका जीवन अब कितना अच्छा हो गया है, किन्तु इससे भी वह कोई शिक्षा नहीं लेता तो इसका अर्थ यह है कि अब वह केवल अपनी ग़लत नीति की सजा पाकर ही मानेगा कि यह ग़लत नीति थी।
39. अर्थात वे दोबारा इस दुनिया में वापस आने की इच्छा करेंगे और कहेंगे कि जिस सच्चाई की हमें ख़बर दी गई थी और उस समय हमने न माना था, अब देख लेने के बाद हम उसे जान गए हैं, इसलिए अगर हमें दुनिया में फिर भेज दिया जाए तो हमारी कार्य-नीति वह न होगी जो पहले थी।
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُغۡشِي ٱلَّيۡلَ ٱلنَّهَارَ يَطۡلُبُهُۥ حَثِيثٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ وَٱلنُّجُومَ مُسَخَّرَٰتِۭ بِأَمۡرِهِۦٓۗ أَلَا لَهُ ٱلۡخَلۡقُ وَٱلۡأَمۡرُۗ تَبَارَكَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 53
(54) वास्तव में तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिनों में पैदा किया 40, फिर अपने राजसिंहासन पर आसीन हुआ 41 जो रात को दिन पर ढाँक देता है और फिर दिन रात के पीछे दौड़ा चला आता है, जिसने सूरज और चाँद और तारे पैदा किए। सब उसके आदेश के अधीन है। ख़बरदार रहो ! उसी की सृष्टि है और उसी का आदेश है। 42 बड़ी बरकतवाला है अल्लाह 43, सारे जहानों का स्वामी और पालनहार ।
40. यहाँ दिन का शब्द या तो इसी चौबीस घंटे के दिन का समानार्थी है जिसे दुनिया के लोग दिन कहते हैं या फिर यह शब्द युग (Period) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जैसा कि कुरान की सूरा 22 (हज) आयत 47 में फरमाया गया है कि “तेरे रब के यहाँ एक दिन हज़ार साल के बराबर है उस हिसाब से जो तुम लोग लगाते हो" और सूरा 12 (मआरिज) आयत 15 में कहा गया है कि “फरिश्ते और जिबरील उसकी ओर एक दिन में चढ़ते हैं जिसकी मिक्दार (मुदत) पचास हज़ार साल की है।" इसका सही अर्थ अल्लाह ही बेहतर जानता है।
41. अल्लाह के राजसिंहासन पर विराजमान होने के विस्तृत स्वरूप को समझना हमारे लिए संभव नहीं है। यह 'मुतशाबहात' में से है जिसका अर्थ निश्चित नहीं किया जा सकता। बहुत संभव है कि अल्लाह ने सृष्टि के पैदा करने के बाद किसी जगह को अपने इस अपार साम्राज्यद का केन्द्र बनाकर अपनी आभाओं (तजल्लियों) को वहाँ केन्द्रित (Centralised) कर दिया हो और इसी का नाम 'अर्श' (राजसिंहासन) हो, जहाँ से सम्पूर्ण जगत् को अस्तित्त्व और शक्ति से उपकृत भी किया जा रहा है और प्रबन्धन आदेश भी दिए जा रहे हैं और यह भी संभव है कि अर्श से अभिप्रेत राज्य सत्ता हो और उसपर विराजमान हो जाने से अभिप्रेत यह हो कि अल्लाह ने सृष्टि को उत्पन्न करके उसकी लगाम अपने हाथ में ली। बहरहाल राजसिंहासन पर विराजमान होने का विस्तृत भाव चाहे कुछ भी हो, कुरआन में उसके उल्लेख का मूल उद्देश्य यह मस्तिष्क में बिठाना है कि अल्लाह केवल सृष्टि का पैदा करनेवाला ही नहीं है, बल्कि सृष्टि का प्रबंधक भी है। वह दुनिया को अस्तित्त्व में लाने के बाद उससे संबंध तोड़कर कहीं बैठ नहीं गया है, बल्कि व्यावहारिक रूप से सम्पूर्ण जगत् के अवयव और सर्वता पर शासन कर रहा है यहाँ एक बात और ध्यान देने की है। क़ुरआन मजीद में अल्लाह और सृष्टि के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए इंसानी भाषा में से अधिकतर उन शब्दों,परिभाषाओं, रूपकों और वर्णन-शैलियों को चुना गया है जो शासन और बादशाही से ताल्लुक रखते हैं। यह वर्णन-शैली क़ुरआन में इतनी उभरी हुई है कि कोई व्यक्ति जो समझकर क़ुरआन पढ़ता हो इसे महसूस किए बिना नहीं रह सकता। कुछ कम-समझ आलोचकों के उलटे दिमागों ने इससे यह निष्कर्ष निकाला है कि यह किताब जिस युग की 'लिखी' हुई है उस युग में इंसान के मन व मस्तिष्क पर राजसी-व्यवस्था छाई हुई थी, इसलिए लिखनेवाले ने (जिससे अभिप्रेत उन ज़ालिमों के नज़दीक मुहम्मद सल्ल. है) अल्लाह को बादशाह के रंग में पेश किया, हालांकि वास्तव में कुरआन जिस शाश्वत सत्य को प्रस्तुत कर रहा है, वह इसके बिल्कुल विपरीत है। वह सत्य यह है कि ज़मीन और आसमानों में बादशाही केवल एक हस्ती की है और सम्प्रभुत्त्व (Sovereignty) जिस चीज़ का नाम है, वह उसी हस्ती के लिए विशिष्ट है और सृष्टि की यह व्यवस्था एक पूर्ण केन्द्रीय व्यवस्था है जिसमें तमाम अधिकारों को वही एक हस्ती इस्तेमाल कर रही है इसलिए इस व्यवस्था में जो व्यक्ति या गिरोह अपने या किसी और के आंशिक या पूर्ण सम्प्रभुत्व का दावेदार है, वह केवल घोखे में पड़ा हुआ है। साथ ही यह कि इस व्यवस्था में रहते हुए इंसान के लिए इसके सिवा कोई दूसरी नीति सही नहीं हो सकती कि उसी एक हस्ती को धार्मिक अर्थ में एकमात्र उपास्य भी माने और राजनीतिक और सांस्कृतिक अर्थ में एक मात्र सम्प्रभु (Sovereign) भी माने।
ٱدۡعُواْ رَبَّكُمۡ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةًۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 54
(55) अपने रब को पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके निश्चय ही वह सीमा लाँघनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَا وَٱدۡعُوهُ خَوۡفٗا وَطَمَعًاۚ إِنَّ رَحۡمَتَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 55
(56) ज़मीन में बिगाड़ न फैलाओ जबकि उसका सुधार हो चुका है44 और अल्लाह ही को पुकारो भय के साथ और लोभ के साथ,45 निश्चय ही अल्लाह की रहमत सुचरित्रवानों से क़रीब है।
44. अर्थात सैकड़ों और हजारों वर्ष में अल्लाह के पैग़म्बरों और मानवजाति के सुधारकों की कोशिशों से मानव-चरित्र और रहन-सहन में जो सुधार हुए हैं उनमें अपने कुकृत्यों से खराबी पैदा न करो और ज़मीन की व्यवस्था को खराब न करो। इंसान का अल्लाह के आज्ञापालन से निकलकर और उसके मार्गदर्शन को छोड़कर अपने मन का या दूसरों का आज्ञापालन और मार्गदर्शन अपनाना ही यह वह मूल बिगाड़ है जिससे ज़मीन के प्रबन्ध में खराबी की अनगिनत शक्लें पैदा होती हैं और इसी बिगाड़ को रोकना क़ुरआन को अभीष्ट है। फिर इसके साथ कुरआन इस सत्य पर भी सचेत करता है कि यहाँ इंसानी जिन्दगी की शुरुआत वास्तव में नेकी और भलाई से हुई है और बाद में इस ठीक व्यवस्था को गलत करनेवाले इंसान अपनी मूर्खताओं और दुष्टाचारों से खराब करते रहे हैं । इसी बिगाड़ को मिटाने के लिए अल्लाह समय-समय पर अपने पैग़म्बर भेजता रहा है। विस्तार के लिए देखिए सूरा-2 बकरा की टिप्पणी 230)
45. इस वाक्य से स्पष्ट हो गया कि ऊपर के वाक्य में जिस चीज़ को बिगाड़ कहा गया है वह वस्तुतः में यही है कि इंसान अल्लाह के बजाय किसी और को अपना संरक्षक, अभिभावक और कार्य बनानेवाला और कार्य-साधक मानकर सहायता के लिए पुकारे। और सुधार इसके सिवा किसी दूसरी चीज़ का नाम नहीं है कि इंसान केवल अल्लाह ही से माँगे और सहायता के लिए केवल उसे ही पुकारे। "भय और लोभ के साथ पुकारने का अर्थ यह है कि अल्लाह को पुकारो तो इस एहसास के साथ पुकारो कि तुम्हारा भाग्य पूरे तौर पर उसकी कृपादृष्टि पर आश्रित है, सफलता को पहुँच सकते हो तो केवल उसकी सहायता और मार्गदर्शन से, वरना जहाँ तुम उसकी कृपा से महरूम हुए, फिर तुम्हारे लिए तबाही व नामुरादी के सिवा कोई दूसरा अंजाम नहीं है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَقَلَّتۡ سَحَابٗا ثِقَالٗا سُقۡنَٰهُ لِبَلَدٖ مَّيِّتٖ فَأَنزَلۡنَا بِهِ ٱلۡمَآءَ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ كَذَٰلِكَ نُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 56
(57) और वह अल्लाह ही है जो हवाओं को अपनी रहमत के आगे-आगे शुभ-सूचना लिए हुए भेजता है, फिर जब वे पानी से लदे हुए बादल उठा लेती हैं तो उन्हें किसी मुर्दा ज़मीन की ओर चला देता है और वहाँ पानी बरसाकर (उसी मरी हुई ज़मीन से) तरह-तरह के फल निकाल लाता है। देखो, इस तरह हम मुदों को मौत की हालत से निकालते हैं, शायद कि तुम इस निरीक्षण से शिक्षा लो।
وَٱلۡبَلَدُ ٱلطَّيِّبُ يَخۡرُجُ نَبَاتُهُۥ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَٱلَّذِي خَبُثَ لَا يَخۡرُجُ إِلَّا نَكِدٗاۚ كَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَشۡكُرُونَ ۝ 57
(58) जो ज़मीन अच्छी होती है, वह अपने रख के आदेश से खूब फल-फूल लाती है और जो जमीन खराब होती है, उससे खराब पैदावार के सिवा कुछ नहीं निकलता।46 इसी तरह हम निशानियों को बार-बार प्रस्तुत करते हैं, उन लोगों के लिए जो आभार माननेवाले हैं।
46. यहाँ रसूल के आने और अल्लाह को शिक्षा और मार्गदर्शन के उतरने को बारिश के बरसने की उपमा दी गई है। फिर वर्षा द्वारा मुरदा पड़ी हुई जमीन के यकायक जी उठने और उसके गर्भ से ज़िन्दगी के ख़ज़ाने उबल पड़ने को उस हालत के लिए उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो नबी की शिक्षा-दीक्षा और मार्गदर्शन से मुर्दा पड़ी मानवता के यकायक जाग उठने और उसके सीने से पलाइयों के ख़जाने उबल पड़ने की शक्ल में प्रकट होती है। फिर यह बताया गया है कि जिस तरह बारिश के होने से ये सारी बरकतें केवल उसी ज़मीन को प्राप्त होती हैं जो वास्तव में उपजाऊ होती है, उसी तरह रिसालत (पैग़म्बरी) की इन बरकतों से भी सिर्फ़ वही इंसान फ़ायदा उठाते हैं जो वास्तव में नेक (सज्जन) होते हैं। रहे दुष्ट और धूर्त इंसान, तो जिस तरह ऊसर जमीन रहमत (कृपा) को वर्षा से कोई फायदा नहीं उठाती, बल्कि पानी पड़ते ही अपने गर्भ के छिपे हुए विष को काँटों और झाड़ियों के रूप में उगल देती है, उसी तरह रिसालत (पैग़म्बरी) के जाहिर होने से उन्हें भी कोई नफा नहीं पहुँचता, बल्कि इसके विपरीत उनके अन्दर दबी हुई तमाम दुष्टताएं उभरकर पूरी तरह काम करने लगती है। बाद की कई आयतों में लगातार इसी वास्तविकता की ऐतिहासिक गवाहियाँ प्रस्तुत की गई हैं।
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 58
(59) हमने नूह को उसकी कौम की ओर भेजा47। उसने कहा, "ऐ मेरी कौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई खुदा नहीं है।48 मैं तुम्हारे लिए एक भयानक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।"
47. इस ऐतिहासिक उल्लेख का आरंभ हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम से किया गया है, क्योंकि क़ुरआन के अनुसार ज़िन्दगी की जिस भली व्यवस्था पर हज़रत आदम (अलैहि०) अपनी सन्तान को छोड़ गए थे, उसमें सबसे पहला बिगाड़ हज़रत नूह (अलैहि०) के काल में प्रकट हुआ और उसके सुधार के लिए अल्लाह ने उनको नियुक्त किया। क़ुरआन के संकेतों और बाइबल के विवरणों से यह बात प्रमाणित हो जाती है कि हज़रत नूह (अलैहि०) की क़ौम उस क्षेत्र में रहती थी जिसको आज हम इराक़ के नाम से जानते हैं । बाबिल के खंडहरों में बाइबल से भी पुराने जो आलेख मिले हैं, उनसे भी इसकी पुष्टि होती है। उनमें लगभग इसी प्रकार का एक किस्सा उल्लिखित है जिसका उल्लेख क़ुरआन और तौरात में हुआ है और उसकी घटना-स्थली मोसल (Mosul) के आस-पास बताई गई है। हज़रत नूह (अलैहि०) के इस किस्से से मिलती-जुलती रिवायतें यूनान, मिश्र, हिन्दुस्तान और चीन के पुराने साहित्य में भी मिलती हैं और इसके अलावा बर्मा, मलाया, ईस्ट इंडीज़, आस्ट्रेलिया, न्यू गीनिया, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न भागों में भी ऐसी ही रिवायतें पुराने समय से चली आ रही हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह किस्सा उस युग से संबंध रखता है जबकि आदम की पूरी नस्ल किसी एक ही भू-भाग में रहती थी और फिर वहाँ से निकलकर दुनिया के विभिन्न भागों में फैली। इसी कारण तमाम क़ौमें अपने आदिकालीन इतिहास में एक सर्वव्यापी तूफ़ान का उल्लेख करती हैं।
48. इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि यह क़ौम अल्लाह के अस्तित्व की इंकारी नहीं थी, बल्कि वास्तविक गुमराही, जिसमें वह पड़ी हुई थी, शिर्क (बहुदेववाद) को गुमराही थी। फिर इस मौलिक गुमराही से अनगिनत ख़राबियाँ उस क़ौम में पैदा हो गईं। (विस्तार के लिए देखिए क़ुरआन, 11:25-48; 26 : 105-122; 71 : 1-28)
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 59
(60) उसकी क़ौम के सरदारों ने उत्तर दिया, “हमें तो यह दिखाई देता है कि तुम खुली गुमराही में पड़े हो।”
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي ضَلَٰلَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 60
(61) नूह ने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! मैं किसी गुमराही में नहीं पड़ा हूँ, बल्कि मैं सारे जहानों के रब का रसूल हूँ।
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنصَحُ لَكُمۡ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 61
(62) तुम्हें अपने रब के सन्देश पहुँचाता हूँ, तुम्हारा हितैषी हूँ और मुझे अल्लाह की ओर से वह कुछ मालूम है जो तुम्हें मालूम नही है ।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡ وَلِتَتَّقُواْ وَلَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 62
(63) क्या तुम्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ कि तुम्हारे पास स्वयं तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के द्वारा तुम्हारे रब की याद दिहानी आई, ताकि तुम्हें ख़बरदार करे और तुम ग़लत नीति से बच जाओ और तुमपर दया की जाए ?",
فَكَذَّبُوهُ فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمًا عَمِينَ ۝ 63
(64) मगर उन्होंने उसको झुठला दिया।49 अन्तत: हमने उसे और उसके साथियों को एक नौका में नजात दी और उन लोगों को दुबो दिया जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया था 50, निश्चय ही वे अंधे लोग थे।
49. यह मामला जो हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी कौम के बीच पेश आया था, ठीक ऐसा ही मामला मक्का में हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आपकी क़ौम के बीच पेश आ रहा था। आगे चलकर दूसरे नबियों और उनकी कौमों के जो किस्से निरंतर बयान हो रहे हैं, उनमें भी यही दिखाया गया है कि हर नबी की क़ौम की नीति मक्कावालों के नीति से और हर नबी का व्याख्यान मुहम्मद (सल्ल०) के व्याख्यान से बिल्कुल मिलता-जुलता है। इससे कुरआन अपने सम्बोधितों को यह समझाना चाहता है कि इंसान की गुमराही हर ज़माने में मूल रूप से एक ही प्रकार की रही है, [ठीक इसी तरह अल्लाह की ओर से आनेवाले मार्गदर्शन भी एक जैसे रहे हैं और इन मार्गदर्शनों के इंकार करनेवालों का परिणाम भी एक ही जैसा होता रहा है।]
50. जो लोग क़ुरआन की वर्णन-शैली को अच्छी तरह नहीं जानते-समझते, वे कभी-कभी इस सन्देह में पड़ जाते हैं कि शायद यह सारा मामला बस एक-दो मुलाकातों और प्रसंगों में समाप्त हो गया होगा, हालाँकि वास्तव में जिन बातों का उल्लेख यहाँ समेटकर कुछ पंक्तियों में कर दिया गया है, वह एक बड़ी लम्बी अवधि में हुई थीं। कुरआन क़िस्से का उल्लेख सिर्फ किस्सा सुनाने के लिए नहीं करता, बल्कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए करता है। इसलिए हर जगह ऐतिहासिक घटनाओं के उल्लेख में वह किस्से के केवल उन महत्त्वपूर्ण अंशों को प्रस्तुत करता है जो उसके उद्देश्य और मंशा से संबंध रखते हैं, शेष पूरे विवेचन को नज़रअंदाज़ कर देता है। फिर अगर किसी किस्से को अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए बयान जा करता है, तो हर जगह उद्देश्य की अनुकूलता के आधार पर विवरण भी विविध रूप से प्रस्तुत करता है। उदाहरणत: नूह के इसी किस्से को लीजिए। यहाँ इसके उल्लेख का उद्देश्य यह बताना है कि पैग़म्बर की दावत (आहवान) को झुठलाने का क्या अंजाम होता है, इसलिए इस स्थान पर [किस्‍से के इसी अंश का ठल्लेख कर लेने पर संतोष कर लिया गया। यहाँ पर गुमराह कौमों के अंजाम के बारे में एक सैद्धान्तिक तथ्य का समझ लेना जरूरी है और वह यह कि] नैतिक और वैधानिक दृष्टि से उस क़ौम का मामला, जिसे किसी नबी ने सीधे-सीधे सम्बोधित किया हो, दूसरी तमाम कौमों के मामले से बिल्कुल भिन्न होता है। जिस कौम में नबी पैदा हुआ हो और बिना मध्यस्थ के वह प्रत्यक्षतः उसको स्वयं उसी की भाषा में अल्लाह का सन्देश पहुँचाए और अपने व्यक्तित्व के भीतर अपने सच्चे होने का ज़िन्दा नमूना उसके सामने पेश कर दे, उसपर अल्लाह की युक्ति पूरी हो जाती है, उसके लिए बहाना करने की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रहती और अल्लाह के भेजे हुए (पैग़म्बर) को प्रत्यक्षतः झुठला देने के बाद वह इसकी अधिकारी हो जाती है कि उसका फ़ैसला मौक़े ही पर कर दिया जाए। मामले की यह शक्ल उन कोमों के मामले से मूल रूप से भिन्न है जिनके पास अल्लाह का पैग़ाम सीधे-सीधे न आया हो, बल्कि विभिन्न माध्यमों से पहुँचा हो। मुहम्मद (सल्ल०) के बाद चूँकि नुबूवत का सिलसिला बन्द हो चुका है |इसलिए अब किसी गुमराह क़ौम पर वैसा अज़ाब भी नहीं आता और न आना चाहिए। जैसा नबियों को प्रत्यक्षतः झुठलानेवालों पर आता था। मगर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अब उन कौमों पर अज़ाब आने बन्द हो गए हैं, जो अल्लाह से फिरे हुए और चिन्तनात्मक और नैतिक गुमराहियों में भटक रहे हैं। वास्तविकता यह है कि अब भी ऐसी तमाम क़ौमों पर अज़ाब आते रहते हैं। छोटे-छोटे सचेत करनेवाले अज़ाब भी और बड़े-बड़े निर्णायक अज़ाब भी। लेकिन कोई नहीं जो नबियों और आसमानी किताबों की तरह उन अज़ाबों के नैतिक अर्थों की ओर इंसान का ध्यान आकृष्ट करे, बल्कि इसके विपरीत बाह्यद्रष्टा वैज्ञानिकों और सत्य से अनभिज्ञ इतिहासकारों और दार्शनिकों का एक भारी गिरोह मानव-जाति पर छाया हुआ है जो इस प्रकार की तमाम घटनाओं का विश्लेषण प्राकृतिक नियों या ऐतिहासिक कारणों के आधार पर उसको [मूल वास्तविकता को ओर से] भुलावे में डालता रहता है।
۞وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 64
(65) और आद51 की ओर हमने उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई खुदा नहीं है। फिर क्या तुम ग़लत नीति से बचोगे नहीं?"
51. यह अरब की सबसे पुरानी क़ौम थी जिसकी कहानियाँ अरबवालों में हर एक की ज़बान पर थीं। बच्चा-बच्चा उनके नाम से परिचित था। उनका दबदबा और शान व शौक़त एक कहावत बन गई थी। फिर दुनिया से उनका नाम व निशान तक मिट जाना भी कहावत बनकर रह गया था। इसी ख्याति की वजह से अरबी भाषा में हर पुरानी चीज़ के लिए 'आदी' का शब्द बोला जाता है। प्राचीन अरब काव्य में हमको इस क़ौम का अत्यधिक वर्णन मिलता है। -क़ुरआन के अनुसार इस क़ौम का मूल निवास स्थान अस्काफ़ का क्षेत्र था जो हिजाज़, यमन और यमामा के बीच ‘अरबिउलखाली' के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यहीं से फैलकर उन लोगों ने यमन के पश्चिमी तटों पर और उमान और हज़रमौत से इराक़ तक अपनी शक्ति का सिक्का जमा दिया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इस क्रीम के निशान दुनिया से लगभग समाप्त हो चुके हैं, लेकिन दक्षिणी अरब में कहीं कहीं कुछ पुराने खंडहर मौजूद हैं जिनका संबंध आद कौम से जोड़ा जाता है। हज़रमौत में एक स्थान पर हज़रत हूद (अलैहि०) की कब्र भी मशहूर है। 1837 ई. में एक अंग्रेज़ी नौसेना अधिकारी James R. wellested को हिस्ने गुराब में एक पुराना आलेख मिला था जिसमें हज़रत हूद (अलैहि०) का उल्लेख मौजूद है और विषयवस्तु से यह भी स्पष्ट होता है कि यह उन लोगों का लेख है जो हूद (अलैहि०) की शरीअत (धर्मविधान) का अनुपालन करनेवाले थे।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي سَفَاهَةٖ وَإِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 65
(66) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इंकार कर रहे थे, उत्तर में कहा, "हम तो तुम्हें बुद्धिहीनता में ग्रस्त समझते हैं और हमें गुमान है कि तुम झूठे हो।"
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي سَفَاهَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 66
(67) उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम भाइयो ! मैं बुद्धिहीनता में ग्रस्त नहीं हूँ, बल्कि मैं समस्त जगत् के पालनहार का रसूल (सन्देशवाहक) हूँ,
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنَا۠ لَكُمۡ نَاصِحٌ أَمِينٌ ۝ 67
(68) तुमको अपने पालनहार के सन्देश पहुँचाता हूँ और तुम्हारा ऐसा हितैषी हूँ जिसपर भरोसा किया जा सकता है।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ قَوۡمِ نُوحٖ وَزَادَكُمۡ فِي ٱلۡخَلۡقِ بَصۜۡطَةٗۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 68
(69) क्या तुम्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ कि तुम्हारे पास स्वयं तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के द्वारा तुम्हारे रब की वाददेहानी आई, ताकि वह तुम्हें सचेत करे? भूल न जाओ कि तुम्हारे रब ने नूह की क़ौम के बाद तुमको इसका उत्तराधिकारी बनाया और तुम्हें खूब हृष्ट-पुष्ट किया, तो अल्लाह की क़ुदरत के करिश्मों को याद रखो,52 आशा है कि सफलता पाओगे।"
52. अर्थात इसे दोनों हैसियतों से वाद रखो, इस हैसियत से भी कि उसने नूह (अलैहि०) की कौम को मिटाने के बाद तुम्हें इसकी जगह श्रेष्ठता प्रदान की और इस हैसियत से भी कि वह कल तुम्हें मिटाकर किसी और कौन को तुम्हारा उत्तराधिकारी बना सकता है।
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِنَعۡبُدَ ٱللَّهَ وَحۡدَهُۥ وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 69
(70) उन्होंने उत्तर दिया, "क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हम अकेले अल्लाह ही की इबादत (बन्दगी) करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते आए हैं? 53 अच्छा तो ले आ वह अजाब (यातना) जिसकी तू हमें धमकी देता है, अगर तू सच्चा है,"
53. यहाँ यह बात फिर नोट करने योग्य है कि यह कौम भी अल्लाह की ईकारी या उससे अपरिचित न थी और न उसे अल्लाह की इबादत से इंकार था। वास्तव में वह हज़रत हूद (अलैहि०) की जिस बात को मानने से इंकार करती थी, वह केवल यह थी कि अकेले अल्लाह की बन्दगी की जाए, किसी दूसरे की बन्दगी उसके साथ शामिल न की जाए।
قَالَ قَدۡ وَقَعَ عَلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ رِجۡسٞ وَغَضَبٌۖ أَتُجَٰدِلُونَنِي فِيٓ أَسۡمَآءٖ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّا نَزَّلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٖۚ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 70
(71) उसने कहा, “तुम्हारे रब की फिटकार तुमपर पड़ गई और उसका प्रकोप टूट पड़ा। क्या तुम मुझसे उन नामों पर झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं54, जिनके लिए अल्लाह ने कोई प्रमाण नहीं उतारा है?55 अच्छा तो तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।"
54. अर्थात तुम किसी को वर्षा का और किसी को वायु का और किसी को धन का और किसी को बीमारी का रब (देवता) कहते हो, हालाँकि इनमें से कोई भी वास्तव में किसी चीज़ का रब नहीं है। इसके उदाहरण वर्तमान युग में भी हमें मिलते हैं। किसी व्यक्ति को लोग ‘मुश्किलकुशा' (परेशानियों को टालने और दूर करनेवाला) कहते हैं, हालाँकि मुश्किलकुशाई की कोई शक्ति उसके पास नहीं है। किसी को गंजबख़्श (खज़ाने देनेवाला) के नाम से पुकारते हैं, हालाँकि उसके पास कोई गंज (खज़ाना) नहीं कि किसी को दे, किसी के लिए दाता का शब्द बोलते हैं, हालाँकि वह किसी वस्तु का मालिक ही नहीं कि दाता बन सके। किसी को 'ग़रीबनवाज़' (निर्धनों की सहायता करनेवाला) के नाम से याद किया जाने लगा है, हालाँकि वह ग़रीब (बेचारा) उस सत्ता में कोई भागीदारी नहीं रखता है जिसके आधार पर वह किसी गरीब को कुछ दे सके। किसी को ग़ौस (फ़रियाद सुननेवाला) कहा जाता है, हालाँकि वह कोई ज़ोर नहीं रखता कि किसी की फ़रियाद को पहुँच सके। अत: वास्तव में ऐसे सब नाम केवल नाम ही हैं जिनके पीछे उस गुण का कोई वैसा गुणधारी व्यक्तित्व नहीं है जो उनके लिए झगड़ता है, वह वास्तव में कुछ नामों के लिए झगड़ता है, न कि किसी सच्चाई के लिए।
55. अर्थात अल्लाह; जिसको तुम स्वयं भी सबसे बड़ा रब कहते हो, उसने कोई प्रमाण तुम्हारे इन बनावटी 'ख़ुदाओं के पूज्य और पालनहार होने के पक्ष में प्रदान नहीं किया है। उसने कहीं यह नहीं फ़रमाया कि मैंने फ्ला-फ़्ला की ओर अपनी खुदाई (ईश्वरत्व) का इतना हिस्सा दे दिया है। कोई परवाना (अनुमति-पत्र) उसने किसी को 'मुश्किलकुशाई' या 'गंजबख्शी' का नहीं दिया। तुमने आप ही अपने अटकल और अंधविश्वासों से उसकी 'ख़ुदाई का जितना हिस्सा जिसको चाहा है, दे डाला है।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَقَطَعۡنَا دَابِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ وَمَا كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 71
(72) अन्तत: हमने अपनी मेहरबानी से हूद और उसके साथियों को बचा लिया और उन लोगों की जड़ काट दी जो हमारी आयतों को झुठला चुके थे और ईमान लानेवाले न थे।56
56. 'जड़ काट दी' अर्थात उनका उन्मूलन कर दिया और उनका नाम व निशान तक दुनिया में शेष न छोड़ा। यह बात स्वयं अरब की ऐतिहासिक परम्पराओं से भी प्रमाणित है और आधुनिक खोजें भी इसकी गवाही देती हैं कि 'पहले आद' बिल्कुल नष्ट हो गए और उनकी यादगारे तक दुनिया से मिट गई। चुनाँचे अरब के इतिहासकार उन्हें अरब की उममे बाइदा (लुप्त क़ौमों) में गिनते हैं। फिर यह बात भी अरब की ऐतिहासिक मान्यताओं में से है कि आद का केवल वह भाग शेष रहा जो हज़रत हूद (अलैहि०) का अनुपालन करनेवाला था। आद के इन्हीं बाक़ी लोगों का नाम इतिहास में 'आद द्वितीय हैं और हिस्ने ग़ुराब का वह आलेख, जिसका हम अभी-अभी उल्लेख कर चुके हैं, इन्हीं की यादगारों में से है। इस आलेख में (जिसे लगभग 18 सौ वर्ष पूर्व मसीह का लेख समझा जाता है) पुरातत्त्व विशेषज्ञों ने जो अंश पढ़े हैं, उसके कुछ वाक्य ये हैं- "हमने एक लंबी मुद्दत इस किले में इस शान से बिताई है कि हमारा जीवन तंगी और बदहाली से दूर था, हमारी नहरें नदी के पानी से भरी रहती थी... और हमारे शासक ऐसे बादशाह थे जो बुरे विचारों से मुक्त और दुष्ट दुर्जन और उपद्रवियों पर कठोर थे, वे हम शरीअत के अनुसार शासन करते थे, और अच्छे फैसले एक किताब में लिख लिए जाते थे और हम मोजज़ों (चमत्कारों) और मौत के बाद दोबारा उठाए जाने पर ईमान रखते थे।" ये वाक्य आज भी क़ुरआन के इस बयान की पुष्टि कर रहे है कि आद की पुरानी शान व शौकत और समृद्धि के उत्तराधिकारी अन्ततः वही लोग हुए जो हज़रत हूद (अलैहि०) पर ईमान लाए थे।
وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 72
(73) और समूद57 की ओर हमने उनके भाई सालेह को भेजा। उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के भाइयो ! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई खुदा नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे रब का खुला प्रमाण आ गया है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी के रूप में है58 इसलिए इसे छोड़ दो कि अल्लाह की धरती में चरती फिरे। इसको किसी बुरे इरादे से हाथ न लगाना, वरना एक दर्दनाक अज़ाब तुम्हें आ लेगा।
57. यह अरब की प्राचीनतम क़ौमों में से दूसरी क़ौम है जो आद के बाद सर्वाधिक प्रसिद्ध और सुविख्यात है। कुरआन के उतरने से पहले इसके किस्से अरबवासियों में आम तौर से जाने जाते थे। अज्ञानता काल की कविताओं और उस युग के भाषणों में इसका उल्लेख अत्यधिक मिलता है। असीरिया के आलेख और यूनान, स्कन्दरिया (Alenanderia) और रूम के पुराने इतिहासकार और भू-विशेषज्ञ भी इसका उल्लेख करते हैं। मसीह (अलैहि०) के जन्म से कुछ दिनों पहले तक इस क़ौम के कुछ अवशेष मिलते थे। अतः रूमी इतिहासकारों का बयान है कि ये लोग रूमी सेनाओं में भर्ती हुए और नब्तियो के विरुद्ध लड़े, जिनसे उनको शत्रुता थी इस कौम का निवास-स्थल उत्तरी पश्चिमी अरब का वह क्षेत्र था जो आज भी 'अल- हिज़्र' के नाम से जाना जाता है। वर्तमान युग में मदीना और तबूक के बीच हिजाज़ रेलवे पर एक स्टेशन पड़ता है जिसे 'मदाइने सालेह' कहते हैं। यही समूद का हेड क्वार्टर (मुख्यालय) था और प्राचीन समय में हिज्र कहलाता था। अब तक वहाँ हज़ारों एकड़ के क्षेत्र में वे पत्थर की इमारतें मौजूद हैं जिनको समूद के लोगों ने पहाड़ों में काट-छाँटकर बनाया था और इस 'मौन नगर’ को देखकर अनुमान किया जाता है कि किसी समय इस नगर की जनसंख्या चार-पाँच लाख से कम न होगी । क़ुरआन के उतरने के समय में हिजाज़ के कारोबारी काफ़िले इन पुरावशेषों के बीच से गुज़रा करते थे। नबी (सल्ल०) तबूक को लड़ाई के इधर से गुज़रे तो आपने मुसलमानों को ये शिक्षाप्रद निशानियाँ दिखाई और वह शिक्षा दी जो पुरावशेषों से हर सूझ-बूझवाले व्यक्ति को प्राप्त करना चाहिए। एक जगह आपने एक कुएँ की निशानदेही करके बताया कि यही वह कुवाँ है, जिससे हज़रत सालेह को ऊँटनी पानी पीती थी और मुसलमानों को आदेश दिया कि केवल इसी कुएँ से पानी लेना, शेष कुवों का पानी न पीना। एक पहाड़ी दरे को दिखाकर आपने बताया कि इसी दरें से वह ऊँटनी पानी पीने के लिए आती थी। चुनाँचे वह जगह आज भी ‘फ़ज़्ज़ुनाक:' के नाम से प्रसिद्ध है। इनके खंडहरों में जो मुसलमान सैर करते फिर रहे थे उनको आपने जमा किया और उनके सामने एक भाषण दिया, जिसमें समूद के अंजाम पर शिक्षा लेने को कहा और फ़रमाया कि यह उस क़ौम का क्षेत्र है जिसपर अल्लाह का अज़ाब आया था, इसलिए यहाँ से जल्दी गुज़र जाओ, यह सैर करने की जगह नहीं है, बल्कि रोने की जगह है।
58. लेख के वाहय अवलोकन से तो महसूस होता है कि पहले वाक्य में अल्लाह की जिस खुली दलील का उल्लेख किया गया है, उससे अभिप्रेत यही ऊँटनी है जिसे इस दूसरे वाक्य में 'निशानी' शब्द से याद किया गया है। क़ुरआन 26 : 154-158 में स्पष्ट कर दिया गया है कि समूदवालों ने स्वयं एक ऐसी निशानी की हज़रत सालेह (अलैहि०) से मांग की थी जो उनके अल्लाह की ओर से भेजे जाने का खुला दलील हो और उसी के उत्तर में हज़रत सालेह (अलैहि०) ने ऊँटनी को प्रस्तुत किया था। इससे यह बात तो निश्चित रूप से सिद्ध हो जाती है कि ऊँटनी का प्रकट होना चमत्कार के रूप में हुआ था और यह उसी प्रकार के चमत्कारों में से एक था जो कुछ नबियों ने अपने नबी होने के प्रमाण में इंकार करनेवालों की माँग पर प्रस्तुत किया है। यह बात भी उस ऊँटनी के चमत्कारिक रूप से जन्म लेने का प्रमाण है कि हज़रत सालेह (अलैहि०) ने उसे प्रस्तुत करके इंकार करनेवालों को धमकी दी कि बस इस ऊँटनी की जान के साथ तुम्हारा जीवन अवलम्बित है। यह स्वतंत्रापूर्वक तुम्हारी ज़मीनों में चरती फिरेगी। एक दिन यह अकेली पानी पिएगी और दूसरे दिन पूरी क़ौम के जानवर पिएँगे और अगर तुमने इसे हाथ लगाया तो यकायक तुमपर अल्लाह का अज़ाब टूट पड़ेगा। स्पष्ट है कि इस शान के साथ वही वस्तु प्रस्तुत की जा सकती थी जिसका असाधारण होना लोगों ने अपनी आँखों से देख लिया हो। फिर यह बात कि एक लम्बे समय तक ये लोग उसके स्वतंत्रतापूर्वक चरते-फिरने को और इस बात को कि एक दिन अकेले वह पानी पिए और दूसरे दिन उन सबके जानवर पिएँ, न चाहते हुए भी सहन करते रहे और अन्त में बड़े मश्विरों और षड्यंत्रों के बाद उन्होंने उसे क़त्ल किया, जबकि हज़रत सालेह (अलैहि०) के पास कोई ताक़त न थी जिसका उन्हें कोई डर होता। इस वास्तविकता पर एक और दलील है कि वे लोग इस ऊंटनी से डरे हुए थे और जानते थे कि इसके पीछे ज़रूर कोई ज़ोर है जिसके बल वह हमारे बीच दनदनाती फिरती है। मगर कुरआन इस बात की कोई व्याख्या नहीं करता कि यह ऊँटनी कैसी थी और किस तरह अस्तित्त्व में आई। किसी सही हदीस में भी इसके चमत्कारिक रूप से पैदा किए जाने की स्थिति नहीं बताई गई है। इसलिए उन रिवायतों को मानना कुछ ज़रूरी नहीं जो टीकाकारों ने इसके पैदा होने की दशा के बारे में लिखी है, परन्तु यह बात कि वह किसी-न-किसी रूप में चमत्कार की हैसियत रखती थी, क़ुरआन से सिद्ध है।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ عَادٖ وَبَوَّأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَتَّخِذُونَ مِن سُهُولِهَا قُصُورٗا وَتَنۡحِتُونَ ٱلۡجِبَالَ بُيُوتٗاۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 73
(74) याद करो वह समय जब अल्लाह ने आद की क़ौम के बाद तुम्हें उसका उत्तराधिकारी बनाया और तुमको धरती में यह दरजा दिया कि आज तुम उसके समतल मैदानों में भव्य महल बनाते और उसके पहाड़ों को मकानों के रूप में काट-छाँटते हो।59 अतः उसकी क़ुदरत के करिश्मों से ग़ाफ़िल न हो जाओ और धरती में बिगाड़ न पैदा करो।‘’60
59. समूद की यह कला वैसी ही थी जैसी भारत में एलोरा, अजन्ना और अन्य दूसरे स्थानों पर पाई जाती है, अर्थात वे पहाड़ों को काट-छाँट करके उनके भीतर बड़ी-बड़ी भव्य इमारतें बनाते थे, जैसा कि ऊपर कहा गया। मदाइने सालेह में अब तक उनकी कुछ इमारतें ज्यों की त्यों मौजूद हैं और उनको देखकर अनुमान किया जा सकता है कि इस कौम ने इंजीनियरी में कितनी आश्चर्यजनक प्रगति की थी।
60. अर्थात आद के परिणाम से शिक्षा ग्रहण की। जिस अल्लाह की क़ुदरत ने इस दुष्ट क़ौम को नष्ट करके उठाया, वही अल्लाह तुम्हें नष्ट करके दूसरों को तुम्हारा उत्तराधिकारी बना सकता है अगर तुम भी आद की तरह दुष्ट बन जाओ।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِمَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُمۡ أَتَعۡلَمُونَ أَنَّ صَٰلِحٗا مُّرۡسَلٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلَ بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 74
(75) उसकी क़ौम के सरदारों ने जो बड़े बने हुए थे कमजोर वर्ग के उन लोगों से जो ईमान ने आए थे, कहा, "क्या तुम वास्तव में यह जानते हो कि सालेह अपने रब का पैगम्बर है?" उन्होंने उत्तर दिया, “निस्संदेह जिस सन्देश के साथ वह भेजा गया है, उसे हम मानते हैं।'
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا بِٱلَّذِيٓ ءَامَنتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 75
(76) उन बड़ाई के दावेदारों ने कहा, "जिस चीज़ को तुमने माना है, हम उसके इंकारी है।
فَعَقَرُواْ ٱلنَّاقَةَ وَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ وَقَالُواْ يَٰصَٰلِحُ ٱئۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 76
(77) फिर उन्होंने उस ऊँटनी को मार डाला61 और पूरी ढिठाई के साथ अपने रब के आदेश का उल्लंघन कर डाला और सालेह से कह दिया कि “ले आ वह अज़ाब जिसकी तू हमें धमकी देता है अगर तू वास्तव में पैग़म्बरों में से है।"
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 77
(78) अन्तत: एक दहला देनेवाली विपदा 62 ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े के पड़े रह गए।
62. इस विपदा को यहाँ 'रजफ़ा' (भंयकर हिला मारनेवाली) कहा गया है और दूसरे स्थानों पर इसी के लिए 'सैहा' (चीख़) 'साइक़: (कड़ाका) और 'तागियः (बड़े ज़ोर की आवाज़) के शब्द प्रयोग किए गए हैं।
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَالَةَ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُحِبُّونَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 78
(79) और सालेह यह कहता हुआ उनकी बस्तियों से निकल गया कि “ऐ मेरी क़ौम ! मैंने अपने रब का सन्देश तुझे पहुँचा दिया और मैंने तेरा बहुत हित चाहा, मगर मैं क्या करूँ कि तुझे अपना हितैषी पसन्द ही नहीं है।"
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 79
(80) और लूत को हमने पैग़म्बर बनाकर भेजा। फिर याद करो जब उसने अपनी क़ौम 63 से कहा, “क्या तुम ऐसे निर्लज्ज हो गए हो कि वह अश्लील काम करते हो जो तुमसे पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया?
63. हज़रत लूत (अलैहि०) हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के भतीजे थे और यह क़ौम, जिसके मार्गदर्शन के लिए वे भेजे गए थे, उस क्षेत्र में रहती थी जिसे आजकल ट्रांस जोर्डन (Trans Jordan) कहा जाता है और इराक़ व फलस्तीन के बीच स्थित है। बाइबल में इस क़ौम के मुख्यालय का नाम 'सदूम' बताया गया है जो या तो मृत सागर (Dead Sea) के निकट किसी जगह स्थित था या अब मृत सागर में डूब चुका है। हज़रत लूत (अलैहि०) अपने चचा के साथ इराक़ से निकले और कुछ समय तक शाम (सीरिया) और फ़लस्तीन व मित्र में गश्त लगाकर धर्म-प्रचार का अनुभव प्राप्त करते रहे, फिर स्थाई रूप से पैग़म्बरी के पद पर आसीन होकर उस बिगड़ी हुई क़ौम के सुधार पर लगाए गए। सदूमवालों को उनकी क़ौम इसलिए कहा गया है कि शायद उनका रिश्तेदारी का सम्बन्ध उस क़ौम से होगा-यहूदियों की परिवर्धित बाइबल में हज़रत लूत (अलैहि०) के आचरण पर जहाँ और बहुत-से लांछन लगाए गए हैं, वहाँ एक लांछन यह भी है कि वह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से लड़कर सदूम के क्षेत्र में चले गए थे। (उत्पति,13, :1-12) परन्तु क़ुरआन इन ग़लत बातों का खंडन करता है । उसका बयान यह है कि अल्लाह ने उन्हें रसूल बनाकर उस क़ौम की ओर भेजा था।
إِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ شَهۡوَةٗ مِّن دُونِ ٱلنِّسَآءِۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 80
(81) तुम औरतों को छोड़कर मर्दो से अपनी काम-वासना पूरी करते हो। 64 वास्तविकता तो यह है कि तुम बिल्कुल ही हद से गुज़र जानेवाले लोग हो।‘’
64. दूसरे स्थानों पर इस क़ौम के कुछ और नैतिक अपराधों का भी उल्लेख हुआ है, परन्तु यहाँ उसके सबसे बड़े अपराध के वर्णन को पर्याप्त समझा गया है जिसके कारण अल्लाह का अज़ाब उसपर आया। यह घृणा करने योग्य काम जिसके कारण इस क़ौम ने सदा-सर्वदा के लिए ख्याति प्राप्त की है, इस कुकृत्य से तो दुष्चरित्र लोग कभी नहीं रुके, परन्तु यह गर्व मात्र यूनान को प्राप्त है कि उसके दार्शनिकों ने इस घिनौने अपराध को नैतिक गुण बताने की कोशिश की और इसके बाद जो कमी बाक़ी रह गई थी उसे वर्तमान यूरोप ने पूरा कर दिया है। समलैंगिक संभोग निश्चित रूप से प्राकृतिक तौर-तरीकों के विरुद्ध है। अल्लाह ने तमाम जानदारों में नर मादा का अन्तर केवल नस्ल को आगे बढ़ाने और नस्ल को बाक़ी रखने के लिए रखा है और इन्सानों के अन्दर इसका एक उद्देश्य यह भी है कि दोनों जातियों (नर-मादा) के लोग मिलकर एक परिवार वुजूद में लाएँ और इससे सभ्यता की नींव पड़े। इसी उद्देश्य के लिए मर्द और औरत की दो अलग जातियाँ बनाई गई हैं, उनमें एक-दूसरे के लिए जातीय आकर्षण रखा गया है। इनकी शारीरिक बनावट और मानसिक संरचना एक दूसरे के जवाब में दाम्पत्य-उद्देश्यों को सामने रखकर सर्वथा उचित बनाई गई है और उनके एक-दूसरे के प्रति परस्पर मिलाप और समरस होने में वह आनन्द रखा गया है जो प्रकृति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक ही समय में सान्निध्य करनेवाला और प्रेरित करनेवाला भी है और उस सेवा का बदला भी। मगर जो व्यक्ति प्रकृति को इस योजना के विपरीत कार्य करके समलैंगिक संभोग करता है, वह एक ही समय में बहुत से अपराधों का करनेवाला होता है- एक तो वह अपनी और उस व्यक्ति की जिसके साथ व संभोग करता है, प्राकृतिक रचना और मानसिक सरंचना से संघर्ष करता है और उसमें बड़ा विघ्न पैदा कर देता है जिससे दोनों के शरीर, मन और चरित्र पर अत्यंत दुष्प्रभाव पड़ते हैं। दूसरे वह प्रकृति के प्रति द्रोह और खियानत का अपराध करता है, क्योंकि प्रकृति ने जिस आनन्द को जाति और संस्कृति की सेवा का बदला बनाया था और जिसके प्राप्त करने को कर्त्तव्य, दायित्त्व और हक़ के साथ जोड़ा था, वह उसे किसी सेवा के करने और किसी कर्त्तव्य और हक़ को अदा करने और किसी दायित्त्व को निभाने का काम किए बिना ही चुरा लेता है। तीसरे यह कि वह मानव-समूह के साथ खुली बद-दयानती करता है कि मानव समूह की स्थापित की हुई सामाजिक संस्थाओं से लाभ तो प्राप्त कर लेता है, परन्तु जब उसकी अपनी बारी आती है तो हक़, कर्तव्य और दायित्वों का बोझ उठाने के बजाय अपनी ताक़तों को पूरे स्वार्थ के साथ ऐसे तरीक़े पर इस्तेमाल करता है जो सामूहिक संस्कृति व चरित्र के लिए केवल अलाभप्रद ही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे हानिप्रद है, कि वह अपने आपको नस्ल और परिवार की सेवा के लिए अयोग्य बना देता है, अपने साथ कम-से-कम एक मर्द को अप्राकृतिक ज़नानेपन में फँसा देता है और कम-से-कम दो औरत के लिए भी जातीय गुमराही और नैतिक पतन का दरवाज़ा खोल देता है।
وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَخۡرِجُوهُم مِّن قَرۡيَتِكُمۡۖ إِنَّهُمۡ أُنَاسٞ يَتَطَهَّرُونَ ۝ 81
(82) मगर उसकी क़ौम का उत्तर इसके सिवा कुछ न था कि “निकालो इन लोगों को अपनी बस्तियों से, बड़े पवित्र बनते हैं ये।65
65. इससे मालूम हुआ कि ये लोग नैतिक पतन की इस सीमा तक गिर गए और बुराई में यहाँ तक डूब चुके थे कि सुधार की आवाज़ को भी सहन न कर सकते थे और पवित्रता के उस थोड़े से तत्त्व को भी निकाल देना चाहते थे जो उनके घिनौने वातावरण में शेष रह गया था। इसी सीमा को पहुँचने के बाद अल्लाह की ओर से उनके उन्मूलन का निर्णय हुआ, क्योंकि जिस क़ौम के सामूहिक जीवन में पवित्रता का थोड़ा भी अंश शेष न रह सके, फिर उसे धरती पर जीवित रखने का कोई कारण नहीं रहता।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 82
(83) अन्तत: हमने लूत और उसके घरवालों को- उसकी पत्नी को छोड़कर, जो पीछे रह जानेवालों में थीं 66-बचाकर निकाल दिया
66. दूसरी जगहों पर बताया गया है कि हज़रत लूत (अलैहि०) की यह पत्नी, जो शायद उसी कौम की बेटी थी, अपने काफ़िर (इन्कार करनेवाले) रिश्तेदारों की समर्थक रही और अन्तिम समय तक उसने उनका साथ न छोड़ा, इसलिए अज़ाब से पहले जब अल्‍लाह ने हज़रत लूत (अलैहि०) और उनके ईमानदार साथियों को हिजरत कर जाने का आदेश दिया तो निर्देश दिया कि उस औरत को साथ न लिया जाए।
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 83
(84) और उस क़ौम पर बरसाई एक वर्षा 67, फिर देखो कि उन अपराधियों का क्या अंजाम हुआ। 68
67. वर्षा से अभिप्रेत यहाँ पानी की बारिश नहीं, बल्कि पत्थरों की बारिश है, जैसा कि दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में उल्लिखित है तथा यह भी कि कुरआन मजीद में कहा गया है कि उनकी बस्तियाँ उलट दी गई और उन्हें तलपट कर दिया गया।
68. यहाँ और दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में केवल यह बताया गया है कि लूत की क़ौम का कुकर्म एक अति निकृष्ट पाप है जिसपर एक क़ौम अल्लाह के प्रकोप में गिरफ्तार हुई। इसके बाद यह बात हमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रहनुमाई से मालूम हुई कि यह एक ऐसा अपराध है जिससे समाज को पाक रखने की कोशिश करना इस्लामी राज्य के दायित्वों में से है और यह कि इस अपराध के करनेवालों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए। हदीस में विभिन्न रिवायतें जो नबी (सल्ल०) से उद्घृत हैं, उनमें से किसी में हमें ये शब्द मिलते हैं कि “भोगी और भोग्य को क़त्ल कर दो।" किसी में इस आदेश पर इतना और बढ़ा हुआ है कि “विवाहित हों या अविवाहित” और किसी में है कि “ऊपर और नीचेवाला, दोनों संगसार (पत्थर मार-मारकर हलाक) किए जाएँ।” लेकिन चूँकि नबी (सल्ल०) के समय में ऐसा कोई मुक़द्दमा पेश नहीं हुआ, इसलिए पूर्ण रूप से यह बात पूर्ण न हो सकी कि इसकी सज़ा किस तरह दी जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) में से हज़रत अली (रज़ि०) की राय यह है कि अपराधी तलवार से कत्ल किया जाए और दफ़न करने के बजाय उसकी लाश जलाई जाए। इसी राय से हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने सहमति व्यक्त की। हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत उसमान (रज़ि०) की राय यह है कि किसी पुरानी इमारत के नीचे खड़ा करके वह इमारत उनपर ढा दी जाए। हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ि०) का फतवा यह है कि बस्ती की सबसे ऊँची इमारत पर से उनको सर के बल फेंक दिया जाए और ऊपर से पत्थर बरसाए जाएँ। फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में से इमाम शाफ़ई (रह०) कहते हैं कि भोगी और भोग्य दोनों को कत्ल कर देना अनिवार्य है, चाहे विवाहित हों या अविवाहित । शाबी, जोसी, मालिक और अहमद (सब पर अल्लाह की रहमतें हो) कहते हैं कि उनकी सज़ा रज्म (पत्थर मार-मारकर हलाक करना) है । सईद बिन मुसय्यिब, अता, हसन बसरी, इबराहीम, नखई, सुफ़ियान सौरी और औज़ाई (रह०) की राय में इस अपराध पर वही सज़ा दी जाएगी जो ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा है, अर्थात अविवाहित को सौ कोड़े मारे जाएंगे और देश से निकाल दिया जाएगा और विवाहित को रज्म किया जाएगा। इमाम अबू हनीफ़ा की राय में इस सिलसिले में कोई दंड निश्चित नहीं है, बल्कि यह कृत्य दण्डनीय है, जैसी परिस्थितियाँ और आवश्यकताएँ हों, उनके हिसाब से कोई शिक्षाप्रद दंड इसपर दिया जा सकता है। एक कथन इमाम शाफ़ई का भी इसी के समर्थन में उद्धृत है। ज्ञात रहे कि आदमी के लिए यह बात क़तई हराम है कि वह स्वयं अपनी पत्नी के साथ क़ौमे लूत जैसा कुकर्म करे। हदीस के एक संग्रह अबू दाऊद में नबी (सल्ल०) का यह कथन मिलता है कि “जो औरत के साथ ऐसा कर्म करे उसपर लानत है।" इब्ने माजा और मुस्नद अहमद में नबी (सल्ल.) के ये शब्द नक़ल किए गए हैं कि “अल्लाह उस मर्द की ओर कदापि दया-दृष्टि से न देखेगा जो औरत से ऐसा कुकर्म करे।" तिर्मिज़ी में आपका यह आदेश है कि जिसने हैज़ (माहवारी) वाली औरत से संभोग किया या औरत के साथ क़ौम लूत जैसा कुकर्म किया या काहिन (भविष्य की बातें बतानेवाला) के पास गया और उसकी भविष्यवाणियों की पुष्टि की, उसने उस शिक्षा का इंकार (कुफ़्र) किया जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरी है।"
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ فَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 84
(85) और मदयनवालों69 की ओर हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, “ऐ कौम के भाइयो ! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई खुदा नहीं है, तुम्हारे पास तुम्हारे रब का स्पष्ट मार्गदर्शन आ गया है, इसलिए नाप और तौल पूरे करो, लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दो,70 और धरती में बिगाड़ न पैदा करो जबकि उसका सुधार हो चुका है।71 इसी में तुम्हारी भलाई है अगर तुम वास्तव में ईमानवाले हो।72
69. मदयन का मूल क्षेत्र हिजाज़ के उत्तर-पश्चिम और फ़लस्तीन के दक्षिण में लाल सागर और अक़बा खाड़ी के किनारे पर स्थित था। मगर सीना प्रायद्वीप के पूर्वी किनारे पर भी इसका कुछ सिलसिला फैला हुआ था। यह एक बड़ी व्यापारी क़ौम थी। पुराने समय में जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के किनारे-किनारे यमन से मक्का और यम्बूअ होता हुआ शाम तक जाता था और एक दूसरा व्यापारिक राजमार्ग जो इराक़ से मिस्र की ओर जाता था, उसके ठीक चौराहे पर इस क़ौम की आबादियाँ पाई जाती थीं। इसी के आधार पर अरब का बच्चा-बच्चा मदयन की जानकारी रखता था और उसके मिट जाने के बाद भी अरब में उसकी ख्याति शेष रही क्योंकि अरबों के कारोबारी क़ाफ़िले मिस्र और शाम की ओर जाते हुए रात-दिन उसके खंडहरों के बीच से गुज़रते थे। मदयनवालों के बारे में एक और ज़रूरी बात, जिसको अच्छी तरह मन में बिठा लेना चाहिए, यह है कि ये लोग वास्तव में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सुपुत्र मिदयान से संबद्ध हैं, जो उनकी तीसरी बीवी क़ुतूरा के पेट से थे। पुराने समय के चलन के अनुसार जो लोग किसी बड़े आदमी से जुड़ जाते थे, वे धीरे-धीरे उसी के ख़ानदान में जुड़कर 'बनी फ़्लाँ' कहलाने लगते थे। इसी परम्परा के अनुसार अरब की आबादी का बड़ा हिस्सा बनी इसमाईल कहलाया और याक़ूब की सन्तान के हाथ पर इस्लाम अपनानेवाले लोग सब के सब बनी इसराईल के व्यापक नाम के साथ जुड़ गए। इसी तरह मदयन के क्षेत्र की सारी आबादी भी जो मिदयान बिन इबराहीम के प्रभावाधीन आई, बनी मिदयान कहलाई और उनके देश का नाम ही मदयन या मिदयान मशहूर हो गया। इस ऐतिहासिक तथ्य को जान लेने के बाद यह अनुमान करने का कोई कारण बाकी नहीं रहता कि इस क़ौम को सत्य-धर्म की आवाज़ पहली बार हज़रत शुऐब के माध्यम से पहुँची थी। वास्तव में बनी इसराईल की तरह शुरू में वे भी मुसलमान ही थे और शुऐब (अलैहि०) के प्रादुर्भाव होने के समय उनकी हालत एक बिगड़ी हुई मुसलमान कौम की-सी थी जैसी मूसा (अलैहि.) के प्रादुर्भाव होने के समय बनी इसराईल की हालत थी। हज़रत इबराहीम (अलैहित) के बाद छः सात सौ वर्ष तक मुशरिक (बहुदेववादी) और दुष्चरित्र कौमों के बीच रहते-रहते ये लोग शिर्क भी सीख गए थे और दुष्चरित्रता के भी शिकार हो गए थे, परन्तु इसके बाद भी ईमान का दावा और उसपर गर्व बाक़ी था।
70. इससे मालूम हुआ कि इस क़ौम में दो बड़े दोष पाए जाते थे। एक शिर्क, दूसरे कारोबारी मामलों में बेईमानी, और इन्हीं दोनों चीज़ों में सुधार लाने के लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) पैग़म्बर बनाकर भेजे गए थे।
وَلَا تَقۡعُدُواْ بِكُلِّ صِرَٰطٖ تُوعِدُونَ وَتَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَتَبۡغُونَهَا عِوَجٗاۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ كُنتُمۡ قَلِيلٗا فَكَثَّرَكُمۡۖ وَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 85
(86) और (जीवन के) हर मार्ग पर बटमार बनकर न बैठ जाओ कि लोगों को भयभीत करने और ईमान लानेवालों को अल्लाह के रास्ते से रोकने लगो और सीधी राह को टेढ़ा करने पर उतर आओ। याद करो वह समय जबकि तुम थोड़े थे, फिर अल्लाह ने तुम्हें बहुत कर दिया, और आँखें खोलकर देखो कि दुनिया में बिगाड़ पैदा करनेवालों का क्या अंजाम हुआ है।
وَإِن كَانَ طَآئِفَةٞ مِّنكُمۡ ءَامَنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَطَآئِفَةٞ لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ فَٱصۡبِرُواْ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ بَيۡنَنَاۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 86
(87) अगर तुममें से एक गिरोह उस शिक्षा पर, जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ, ईमान लाता है और दूसरा ईमान नहीं लाता, तो धैर्य (सब्र) के साथ देखते रहो यहाँ तक कि अल्लाह हमारे बीच फैसला कर दे, और वही सबसे बेहतर फैसला करनेवाला है।"
۞قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَنُخۡرِجَنَّكَ يَٰشُعَيۡبُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَكَ مِن قَرۡيَتِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِي مِلَّتِنَاۚ قَالَ أَوَلَوۡ كُنَّا كَٰرِهِينَ ۝ 87
(88) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो अपनी बड़ाई के घमंड में पड़े हुए थे, उससे कहा कि “ऐ शुऐब ! हम तुझे और उन लोगों को जो तेरे साथ ईमान लाए हैं, अपनी बस्ती से निकाल देंगे, वरना तुम लोगों को हमारे पंथ में वापस आना होगा।” शुऐब ने उत्तर दिया, “क्या ज़बरदस्ती हमें फेरा जाएगा भले ही हम राज़ी न हों?
قَدِ ٱفۡتَرَيۡنَا عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا إِنۡ عُدۡنَا فِي مِلَّتِكُم بَعۡدَ إِذۡ نَجَّىٰنَا ٱللَّهُ مِنۡهَاۚ وَمَا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّعُودَ فِيهَآ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ رَبُّنَاۚ وَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَاۚ رَبَّنَا ٱفۡتَحۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ قَوۡمِنَا بِٱلۡحَقِّ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰتِحِينَ ۝ 88
(89) हम अल्लाह पर झूठ गढ़नेवाले होंगे अगर तुम्हारे पंथ में पलट आएँ, जबकि अल्लाह हमें उससे मुक्ति दे चुका है। हमारे लिए तो उसकी ओर पलटना अब किसी तरह भी संभव नहीं, अलावा इसके कि अल्लाह, हमारा रब, ही ऐसा चाहे।73 हमारे रब, का ज्ञान हर चीज़ पर हावी है। उसी पर हमने भरोसा कर लिया। ऐ रख ! हमारे और हमारी क़ौम के बीच ठीक-ठीक फैसला कर दे और तू सबसे अच्छा फैसला करनेवाला है।"
73. यह वाक्य उसी अर्थ में है जिसमें 'इनशाअल्लाह' (अगर अल्लाह ने चाहा) का शब्द बोला जाता है और जिसके बारे में सूरा 18 (कह्फ़) आयतें 23-24 में कहा गया है कि “किसी चीज़ के बारे में दावे के साथ यह न कह दिया करो कि मैं ऐसा करूंगा” बल्कि इस तरह कहा करो कि अगर अल्लाह चाहेगा तो ऐसा करूँगा, इसलिए कि मोमिन (ईमानवाला) जो अल्लाह के सुल्तान और बादशाह होने का और अपने बन्दे और अधीन होने का ठीक-ठीक एहसास रखता है, कभी अपने बलबूते पर यह दावा नहीं कर सकता कि मैं अमुक बात करके रहूँगा या अमुक काम कदापि न करूँगा, बल्कि जब वह कहेगा तो यूँ कहेगा कि मेरा इरादा ऐसा करने या न करने का है, लेकिन मेरे इस इरादे का पूरा होना मेरे मालिक के चाहने पर निर्भर है। यह सौभाग्य प्रदान करेगा तो उसमें सफल हो जाऊँगा, वरना असफल रह जाऊँगा।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَئِنِ ٱتَّبَعۡتُمۡ شُعَيۡبًا إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 89
(90) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इंकार कर चुके थे, आपस में कहा, "अगर तुमने शव की पैरवी स्वीकार कर ली तो बर्बाद हो जाओगे।"74
74. इस छोटे से वाक्य से सरसरी तौर पर न गुज़र जाइए। यह ठहरकर बहुत सोचने का स्थान है। मदयन के सरदार और नेता वास्तव में यह कह रहे थे और इसी बात पर अपनी क़ौम को विश्वास दिला रहे थे कि शुऐब जिस ईमानदारी और सच्चाई की ओर बुला रहा है और चरित्र और आचरण के जिन स्थायी सिद्धांतों की पावन्दी कराना चाहता है, अगर उनको मान लिया जाए तो हम तबाह हो जाएंगे। हमारा व्यापार कैसे चल सकता है अगर हम बिल्कुल ही सच्चाई के पाबन्द हो जाएँ और खरे-खरे सौदे करने लगें? और हम जो दुनिया के सबसे बड़े राजमागों के चौराहे पर बसते हैं और मिन व इराक के सुसभ्य भव्य राज्यों की सीमागों पर आबाद हैं, अगर हम काफिलों को छेड़ना बन्द कर दें और सीधे-सादे शान्तिप्रिय लोग ही बनकर रह जाएँ तो जो आर्थिक और राजनीतिक लाभ हमें अपनी वर्तमान भौगोलिक स्थिति से मिल रहे हैं, ये सब समाप्त हो जाएंगे और पास-पड़ोस की कौमों पर हमारी जो धौंस बनी हुई है, वह बाक़ी न रहेगी यह बात केवल शुऐब की कौम के सरदारों तक ही सीमित नहीं है। हर युग में बिगड़े हुए लोगों ने सत्य, सच्चाई और ईमानदारी की नीति अपनाने में ऐसे ही खतरे महसूस किए हैं। हर युग में बिगाड़ पैदा करनेवालों का यही विचार रहा है कि व्यापार और राजनीति और दुनिया के दूसरे मामले, झूठ, बेईमानी और अनैतिकता के बिना नहीं चल सकते । तर जगह सत्य सन्देश के मुकाबले में जो जोरदार विवशताएँ पेश की गई हैं, उनमें से एक यह भी रहा है कि अगर दुनिया की चलती हुई राहों से हटकर उस सन्देश का पालन किया जाएगा तो क़ौम नष्ट हो जाएगी।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 90
(91) मगर हुआ यह कि एक दहला देने वाली विपदा ने उनको आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े के पड़े रह गए।
ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَاۚ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَانُواْ هُمُ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 91
(92) जिन लोगों में शुऐब को झुठलाया, वे ऐसे मिटे कि मानो कभी उन घरों में बसे ही न थे। शुऐब के झुठलानेवाले ही अन्ततः बर्बाद होकर रहे।75
75. मदयन का यह विनाश एक लम्बे समय तक पास-पड़ोस की क़ौमों में कहावत बनी रही है। अतः हज़रत दाऊद के (ग्रंथ) ज़बूर में एक स्थान पर आता है कि "ऐ अल्लाह अमुक-अमुक क़ौमों ने तेरे विरुद्ध प्रण कर लिया है, इसलिए तू उनके साथ वही कर जो तूने मदयान के साथ किया।" (83 : 9-15) और यशायाह नबी एक स्थान पर बनी इसराईल को तसल्ली देते हुए कहते हैं कि आशूरवालों से न डरो, यद्यपि वे तुम्हारे लिए मिसियों की तरह अत्याचार बने जा रहे है, मगर कुछ देर में गुजरेगी कि सेनाओं का प्रभु उनपर अपना कोड़ा बरसाएगा और उनका यही अंजाम होगा जो मिद्यान (मदयान) का हुआ। (यशायात। 10:21-26)
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡۖ فَكَيۡفَ ءَاسَىٰ عَلَىٰ قَوۡمٖ كَٰفِرِينَ ۝ 92
(93) और शुऐब यह कहकर उनकी बस्तियों से निकल गया कि "ऐ मेरे क़ौम के भाइयो । मैंने अपने रब का सन्देश तुम्हें पहुँचा दिए और तुम्हारे प्रति हितचिन्तन का उत्तरदायित्व पूरी तरह निभा दिया। अब मैं उस कौम पर कैसे खेद व्‍यक्त का जो सत्य को स्वीकार करने से इन्कार करती है।‘’76
76. इन जिसने क़िस्सों का यहाँ उल्लेख किया गया है, उन सबमें "के माध्यम से अपने प्रिय के रहस्य का उल्लेख" की शैली अपनाई गई है। हर किस्सा उस मामले पर पूरा पूरा फिर बैठता है जो उस समय मुहम्मद (सल्ल०) और आपकी कौम के बीच पेश आ रहा था। हर किस्से में एक फरीक नबी है जिसकी शिक्षा, जिसका सन्देश, जिसका उपदेश और हिनैपिता, जिसका भला चाहना और जिसकी सारी बातें ठीक ठीक वही हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की थी और दूसरा फरोक सत्य से मुंह मोडनेवाली कौम है जिसकी धारणा-संबंधी गुमराहियाँ, जिसके नैतिक दोष, जिसकी अज्ञानतापूर्ण हतपर्मियाँ, जिसके सरदारों का अहं, जिसके इंकारियों का अपनी पथभषाता पर आपर, तात्पर्य यह कि सब कुछ पी है जो कुरैश में पाया जाता था, फिर हर किस्से में इंकारी कौम का जो अंजाम प्रस्तुत किया गया है, उससे वास्तव में कुरैश को शिक्षा दिलाई गई है कि अगर तुमने अल्लाह के भेजे हुए पैराम्बर की बात न मानी और अपनी हालत के सुधारने का जो अवसर तुम्हें दिया जा रहा है, उसे अंधे हठ में पड़कर खो दिया, तो अन्ततः तुम्हें भी उसी नाश-विनाश से दोचार होना पड़ेगा जो सदा से पथपष्टता और बिगाड़ पर आग्रह करनेवाली क़ौमों के हिस्से में आती रही है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّبِيٍّ إِلَّآ أَخَذۡنَآ أَهۡلَهَا بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَضَّرَّعُونَ ۝ 93
(94) कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने किसी बस्ती में बनी भेजा हो और उस बस्ती के लोगों को पहले संगी और कतिलाई में न डाला हो, इस विचार से कि शायद ने विमता पर उतर आएँ ।
ثُمَّ بَدَّلۡنَا مَكَانَ ٱلسَّيِّئَةِ ٱلۡحَسَنَةَ حَتَّىٰ عَفَواْ وَّقَالُواْ قَدۡ مَسَّ ءَابَآءَنَا ٱلضَّرَّآءُ وَٱلسَّرَّآءُ فَأَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 94
(95) फिर हमने उनकी बदहाली को खुशहाली में बदल दिया, यहाँ तक कि वे खूब फाले-फूले और कहने लगे कि हमारे पूर्वजों पर भी अपने और बुरे दिन आते ही रहे हैं। अन्ततः हमने उन्हें अचानक पकड़ लिया और उन्हें खबर तक न हुई।77
77. एक-एक नबी और एक एक कौम के मामले का अलग-अलग उल्लेख करने के बाद अब वह व्यापक नियम बताया जा रहा है जो हर युग में अल्लाह ने नबियों के भेजे जाने पर अपनाया है, और वह यह है कि जब किसी कौम में कोई नबी पेजा गया तो पहले उस कौम के बाह्य वातावरण को सन्देश स्वीकार करने के लिए पूरी तरह अनुकूल बनाया गया, अर्थात उसको कठिनाइयों और विपदाओं में डाला गया। अकाल, महामारी, कारोबारी घारे, लड़ाई में हार या इसी तरह की तकलीफें उसपर डाली गई, ताकि उसका दिल नर्म पड़े, उसको शेखी और अहं से अकड़ी हुई गरदन ढीली हो, ताकत का उसका घमंड और धन-दौलत का उसका नशा चूर हो जाए, अपने संसाधनों, अपनी शक्तियों और अपनी योग्यताओं पर उसका विश्वास डोल जाए, उसे महसूस हो कि ऊपर कोई और शक्ति भी है जिसके हाथ में उसके भाग्य की बागें हैं और इस तरह उसके कान उपदेश के लिए खुल जाएं और वह अपने अल्लाह के सामने विनम्रतापूर्वक झुक जाने पर तत्पर हो जाए, फिर जब इस अनुकूल वातावरण में भी उसका दिल सत्य स्वीकारने पर तैयार नहीं होता तो उसको समृद्धि की परीक्षा में डाल दिया जाता है और यहाँ से उसके विनाश की शुरुआत होने लगती है। जब वह नेमतों से मालामाल होने लगती है तो अपने बुरे दिन भूल जाती है और उसके कम समझ मार्गदर्शक उसके मन में इतिहास का यह मूर्खतापूर्ण विचार बिठाते हैं कि परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव और भाग्य का बनाव-बिगाड़ किसी तत्त्वदर्शी के प्रबन्ध में नैतिक आधारों पर नहीं हो रहा है, बल्कि एक अंधी तबीयत बिल्कुल अनैतिक कारणों से कभी अच्छे और कभी बुरे दिन लाती ही रहती है, इसलिए कठिनाइयों और विपदाओं के आने से कोई नैतिक शिक्षा लेना और किसी उपदेश करनेवाले का उपदेश अपनाकर अल्लाह के आगे रोने और गिड़गिड़ाने लगना एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता के अलावा और कुछ नहीं है। यही वह मूर्खतापूर्ण मनोवृत्ति है जिसका नक्शा नबी (सल्ल०) ने इस हदीस में खींचा है, "विपत्ति ईमानवाले को तो सुधारती चली जाती है, यहाँ तक कि जब वह इस भट्ठी से निकलता है तो सारी खोट से साफ़ होकर निकलता है, लेकिन कपटाचारी की दशा बिल्कुल गधे की-सी होती है जो कुछ नहीं समझता कि उसके स्वामी ने क्यों उसे बाँधा था और क्यों उसे छोड़ दिया?" तो जब किसी क़ौम का हाल यह होता है कि न कठिनाइयों से उसका दिल अल्लाह के आगे झुकता है, न नेमतों पर वह कृतज्ञ होती है और न किसी हाल में सुधार की ओर बढ़ती है, तो फिर उसका विनाश इस तरह उसके सिर पर मंडराने लगता है, जैसे पूरे दिन की गर्भवती कि कुछ नहीं कहा जा सकता कि वह कब बच्चा जन दे। यहाँ यह बात और जान लेनी चाहिए कि इन आयतों में अल्लाह ने अपने जिस नियम का उल्लेख किया है, ठीक वही नियम नबी (सल्ल०) के नबी बनाए जाने के अवसर पर भी अपनाया गया और दुर्भाग्य की मारी कौमों के जिस कार्य-नीति की ओर संकेत किया गया है, ठीक वही कार्य-नीति सूरा 7 (आराफ़) के उतरने के समय में कुरैशवालों से प्रकट हो रही थी। हदीस में अब्दुल्लाह बिन मसऊद और अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) दोनों की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) के नबी बनाए जाने के बाद जब कुरैश के लोगों ने आपके सन्देश के विरुद्ध सख्त रवैया अपनाना शुरू किया तो नबी (सल्ल०) ने दुआ की कि “ऐ अल्लाह ! यूसुफ़ के समय में जैसा सात वर्षीय अकाल पड़ा था, वैसे ही अकाल द्वारा इन लोगों के मुकाबले में मेरी सहायता कर।" अतएव अल्लाह ने उन्हें भारी अकाल में ग्रस्त कर दिया और दशा यहाँ तक पहुँच गई कि लोग मुरदार खाने लगे, चमड़े और हड्डियाँ और ऊन तक खा गए। अन्तत: मक्का के लोगों ने, जिनमें अबू सुफ़ियान सबसे आगे था, नबी (सल्ल०) से निवेदन किया कि हमारे लिए अल्लाह से दुआ कीजिए, मगर जब आपकी दुआ से अल्लाह ने वह बुरा समय टाल दिया और भले दिन आ गए तो उन लोगों की गरदने पहले से भी ज़्यादा अकड़ गई और जिनके हृदय थोड़े-बहुत पसीज गए थे उनको भी क़ौम के दुष्ट लोगों ने यह कह-कहकर ईमान से रोकना शुरू कर दिया कि अरे ! यह तो समय का उतार-चढ़ाव है। पहले भी आख़िर अकाल पड़ते ही रहे हैं, कोई नई बात तो नहीं है कि इस बार एक लम्बा अकाल पड़ गया । इसलिए इन चीज़ों से धोखा खाकर मुहम्मद (सल्ल०) के फंदे में न फंस जाना । ये भाषण उस समय में हो रहा था जब यह सूरा आराफ़ अवतरित हुई है। इसलिए क़ुरआन मजीद की ये आयतें ठीक अपने समय पर फिट बैठती हैं और इसी पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने से इनकी सार्थकता पूरी तरह समझ में आ सकती है।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡقُرَىٰٓ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَفَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَرَكَٰتٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن كَذَّبُواْ فَأَخَذۡنَٰهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 95
(96) अगर बस्तियों के लोग ईमान लाते और सकवा (ईशपरायणता) को नीति अपनाते तो हम उनपर आसमान और जमीन से बरकतों के दरवाज़े खोल देते, मगर उन्होंने तो झुठलाया, इसलिए हमने उस बुरी कमाई के हिसाब में उन्हें पकड़ लिया जो वे समेट रहे थे।
أَفَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا بَيَٰتٗا وَهُمۡ نَآئِمُونَ ۝ 96
(97) फिर क्या बस्तियों के लोग अब उससे निर्भय हो गए हैं कि हमारी पकड़ कभी अचानक उनपर रात के समय न आ जाएगी, जबकि वे सोए पड़े हो? या
أَوَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا ضُحٗى وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 97
(98) वे निश्चिन्त हो गए हैं कि हमारा मजबूत हाथ कभी यकायक उनपर दिन के समय न पड़ेगा, जबकि वे खेल रहे हों?
أَفَأَمِنُواْ مَكۡرَ ٱللَّهِۚ فَلَا يَأۡمَنُ مَكۡرَ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 98
(99) क्या ये लोग अल्लाह की चाल से78 निडर हैं? हालाँकि अल्लाह की चाल से वही क़ौम निडर होती है जो तबाह होनेवाली हो।
78. असल में शब्द 'मक्र' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ अरबी भाषा में 'गुप्त उपाय के हैं, अर्थात किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी चाल चलना कि जब तक उसपर निर्णायक चोट न पड़ जाए, उस समय तक उसे ख़बर न हो कि उसकी शामत आनेवाली है, बल्कि प्रत्यक्ष परिस्थिति को देखते हुए वह यही समझता रहे कि सब ठीक-ठाक है।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لِلَّذِينَ يَرِثُونَ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ أَهۡلِهَآ أَن لَّوۡ نَشَآءُ أَصَبۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡۚ وَنَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 99
(100) और क्या उन लोगों को, जो पिछले धरतीवालों के बाद धरती के वारिस होते हैं, इस तथ्य ने कुछ शिक्षा नहीं दी कि अगर हम चाहें तो उनके गुनाहों पर उनको पकड़ सकते हैं?79 (मगर वे शिक्षाप्रद वास्तविकताओं से ग़फ़लत बरतते हैं) और हम उनके दिलों पर मुहर लगा देते हैं, फिर वे कुछ नहीं सुनते।80
79. अर्थात एक गिरनेवाली क़ौम की जगह जो दूसरी क़ौम उठती है, उसके लिए अपने से पहले की क़ौम के पतन में पर्याप्त मार्गदर्शन मौजूद होता है। वह अगर बुद्धि से काम ले तो समझ सकती है कि कुछ समय पहले जो लोग इसी जगह ठाठ कर रहे थे और जिनकी 'महानता' का झंडा यहाँ लहरा रहा था, उन्हें सोच-विचार और कर्म की किन ग़लतियों ने बर्बाद किया और यह भी महसूस कर सकती है कि जिस उच्चतम सत्ता ने कल उन्हें उनकी ग़लतियों पर पकड़ा था और उनसे यह जगह खाली करा ली थी, वह आज कहीं चला नहीं गया है, न उससे किसी ने यह शक्ति छीन ली है कि इस जगह के आज के रहनेवाले अगर वही ग़लतियाँ करें जो पिछले रहनेवाले कर रहे थे, तो वह उनसे भी उसी तरह जगह ख़ाली करा सकेगा जिस तरह उसने उनसे ख़ाली कराई थी।
80. अर्थात जब वे इतिहास से और शिक्षाप्रद निशानियों के देखने के बाद भी शिक्षा नहीं लेते और अपने आपको स्वयं भुलावे में डालते हैं तो फिर अल्लाह की ओर से भी उन्हें सोचने-समझने और किसी उपदेश देनेवाले की बात सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। अल्लाह का प्राकृतिक नियम यही है कि जो अपनी आँखें बन्द कर लेता है, उसकी दृष्टि तक चमकते सूरज की कोई किरण नहीं पहुंच सकती और जो स्वयं नहीं सुनना चाहता, उसे फिर कोई कुछ नहीं सुना सकता।
تِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآئِهَاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 100
(101) ये क़ौमे जिनके क़िस्से हम तुम्हें सुना रहे हैं (तुम्हारे सामने उदाहरण के रूप में मौजूद है) उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को वे एक बार झुठला चुके थे, फिर उसे वे माननेवाले न थे। देखो, इस तरह हम सत्य के इंकारियों के दिलों पर मुहर लगा देते हैं।81
81. पिछली आयत में जो कहा गया था कि “हम उनके दिलों पर मुहर लगा देते हैं, फिर वे कुछ नहीं सुनते’’, इसकी व्याख्या अल्लाह ने इस आयत में स्वयं कर दी है। इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दिलों पर मुहर लगाने से तात्पर्य मानव मानसिकता का उस मनोवैज्ञानिक नियम की पकड़ में आ जाना है जिसके अनुसार एक बार अज्ञानतापूर्ण दुराग्रह और मनोकामनाओं के आधार पर सत्य से मुँह मोड़ लेने के बाद फिर इंसान अपनी ज़िद और हठधर्मी के उलझाव में उलझता ही चला जाता है और किसी तर्क, किसी निरीक्षण और किसी अनुभव से उसके दिल के दरवाजे सत्य स्वीकार करने के लिए नहीं खुलते।
وَمَا وَجَدۡنَا لِأَكۡثَرِهِم مِّنۡ عَهۡدٖۖ وَإِن وَجَدۡنَآ أَكۡثَرَهُمۡ لَفَٰسِقِينَ ۝ 101
(102) हमने उनमें से अधिकतर में प्रतिज्ञा का कोई निर्वाह न पाया, बल्कि अधिकतर को अवज्ञाकारी ही पाया।82
82. "प्रतिज्ञा का कोई निर्वाह न पाया" अर्थात किसी प्रकार की प्रतिज्ञा का निर्वाह न पाया, न उस प्राकृतिक प्रतिज्ञा का निर्वाह जिसमें पैदाइशी तौर पर मनुष्य अल्लाह का बन्दा और पोषित होने की हैसियत से बँधा हुआ है, न उस सामूहिक प्रतिज्ञा का निर्वाह जिसमें हर मनुष्य मानव समाज का एक सदस्य होने की हैसियत से बंधा हुआ है और न उस वैयक्तिक प्रतिज्ञा का निर्वाह जो व्यक्ति अपनी मुसीबत और परेशानी के समय या किसी सदभावना के अवसर पर अल्लाह से अपने आप बांधा करता है। इन्हीं तीनों प्रतिज्ञाओं को भंग करने को यहाँ फ़िस्‍क़ (अवज्ञा) कहा गया है।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَظَلَمُواْ بِهَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 102
(103) फिर उन क़ौमों के बाद (जिनका उल्लेख ऊपर किया गया) हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों के पास भेजा 83, मगर उन्होंने भी हमारी निशानियों के साथ अन्याय किया 84, तो देखो कि उन बिगाड़ पैदा करनेवालों का क्या अंजाम हुआ।
83. ऊपर जिन क़िस्सों का उल्लेख हुआ है उनसे अभिप्रेत यह बात मन में बिठानी थी कि जो क़ौम अल्लाह का सन्देश पाने के बाद उसे रद्द कर देती है, उसे फिर नष्ट किए बिना नहीं छोड़ा जाता। इसके बाद अब मूसा व फ़िरऔन और बनी इसराईल का किस्सा कई आयतों तक बराबर चलता है जिसमें इस विषय के अलावा कुछ और महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ भी विधर्मी कुरैशियों, यहूदियों और ईमान लानेवाले गिरोह को दी गई हैं। विधर्मी क़ुरैशियों को इस किस्से से यह समझाने की कोशिश की गई है कि सत्य सन्देश पहुँचाने के आरंभिक चरणों में सत्य और असत्य को शक्तियों का जो अनुपात देखने में नज़र आता है, उससे धोखा न खाना चाहिए। सत्य का तो पूरा इतिहास ही इस बात पर गवाह है कि वह एक प्रति क़ौम, बल्कि एक प्रति दुनिया की अल्प संख्या से शुरू होता है और बिना किसी साधन के उस असत्य के विरुद्ध लड़ाई छेड़ देता है जिसकी पीठ पर बड़ी-बड़ी क़ौमों और राज्यों की शक्ति होती है, फिर भी अन्ततः वही विजयी होकर रहता है। साथ ही इस क़िस्से में उनको यह भी बताया गया है कि सत्य का सन्देश पहुँचानेवाले के मुकाबले में जो चालें चली जाती हैं और जिन उपायों से उसके सन्देश को दबाने की कोशिश की जाती है, वे किस प्रकार उलटी पड़ती हैं और यह कि अल्लाह सत्य के इंकारियों के विनाश का अन्तिम निर्णय करने से पहले उनको कितनी-कितनी लम्बी अवधि तक संभलने और ठीक हो जाने के अवसर देता चला आता है और जब किसी चेतावनी, किसी शिक्षाप्रद घटना और किसी खुली निशानी से भी वे प्रभाव ग्रहण नहीं करते, तो फिर वे उन्हें कैसी शिक्षाप्रद सज़ा देता है। जो लोग नबी (सल्ल०) पर ईमान ले आए थे उनको इस क़िस्से में दोहरी शिक्षा दी गई है। पहली शिक्षा इस बात की कि अपनी अल्प संख्या और कमज़ोरी को और सत्य के विरोधियों की भारी संख्या और दबदबे को देखकर उनकी हिम्मत न टूटे और अल्लाह की मदद आने में देर होते देखकर वे हताश न हों। दूसरी शिक्षा इस बात की कि ईमान लाने के बाद जो गिरोह यहूदियों की-सी नीति अपनाता है, वह फिर यहूदियों ही की तरह अल्लाह की लानत (फिटकार) का शिकार भी होता है। बनी इसराईल के सामने उनका अपना शिक्षापूर्ण इतिहास प्रस्तुत करके उन्हें असत्यवाद के दुष्परिणामों पर सचेत किया गया है और उस पैग़म्बर पर ईमान लाने की दावत दी गई है जो पिछले पैग़म्बरों के लाए हुए दोन (धर्म) को तमाम मिलावटों से पाक करके फिर उसको मूल रूप में पेश कर रहा है।
84. निशानियों के साथ अन्याय किया, अर्थात उनको न माना और उन्हें जादूगरी कहकर टालने की कोशिश की। जिस तरह किसी ऐसी कविता को जो काव्य का भरपूर नमूना हो, तुकबन्दी कहना और उसकी खिल्ली उड़ाना न केवल उस कविता के साथ, बल्कि स्वयं काव्य और काव्य-रुचि के प्रति भी अन्याय है, इसी तरह वे निशानियाँ जो स्वयं अल्लाह की ओर से होने पर खुली गवाही दे रही हों और जिनके बारे में कोई बुद्धिवाला व्यक्ति यह सोच तक न सकता हो कि जादू के बल पर भी ऐसी निशानियाँ प्रकट हो सकती हैं, बल्कि जिनके बारे में स्वयं जादू-कला के विशेषज्ञों ने गवाही दे दी हो कि वे उनको कला की पहुँच से बाहर हैं, उनको जादू कह देना न केवल उन निशानियों के प्रति, बल्कि सद्बुद्धि और सत्यता के प्रति भी घोर अन्याय है।
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰفِرۡعَوۡنُ إِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 103
(104) मूसा ने कहा, "ऐ फ़िरऔन !85 मैं सृष्टि के स्वामी की ओर से भेजा हुआ आया हूँ,
85. फ़िरऔन शब्द का अर्थ है, सूर्य देवता की सन्तान' (अर्थात् सूर्यवंशी)। मिस्र के प्राचीन निवासी सूरज को, जो उनका महादेव या रब्बे आला' था, 'रअ' कहते थे और फ़िरऔन उसी से अपने को जोड़ता था मिश्रियों के विश्वास के अनुसार किसी शासक के सम्प्रभुत्व के लिए इसके सिवा कोई आधार नहीं हो सकता था कि वह 'रअ' का शारीरिक प्रतीक और उसका ज़मीनी प्रतिनिधि हो, इसी लिए हर शासक-वंश, जो मिस में सत्ता में होता था, अपने आपको सूर्यवंशी बनाकर प्रस्तुत करता और हर शासक जो सिंहासन पर बैठता "फ़िरऔन को उपाधि अपनाकर देशवासियों को विश्वास दिलाता कि तुम्हारा 'रब्बे आला' या 'महादेव' मैं हुँ। यहाँ यह बात और जान लेनी चाहिए कि कुरआन मजीद में हज़रत मूसा (अलैहि०) के किस्से के सिलसिले में दो फ़िरऔनों का उल्लेख आता है- एक वह जिसके समय में आप पैदा हुए और जिसके घर में आप पले-बढ़े, दूसरा वह जिसके पास आप इस्लाम का सन्देश और बनी इसराईल की रिहाई की मांग लेकर पहुँचे और जो अन्ततः डूबा। वर्तमान समय के अन्वेषकों का आम रुझान इस ओर है कि पहला फ़िरऔन रामसेस द्वितीय था, जिसका शासन काल 1292 से 1225 ई. पू. तक रहा और दूसरा फ़िरऔन, जिसका यहाँ इन आयतों में उल्लेख हो रहा है, मिनिफ़ता या मिनिफ़ताह था जो अपने बाप रामसेस द्वितीय के जीवन ही में शासन का भागीदार बन चुका था और उसके मरने के बाद राज्य का मालिक बना। यह अनुमान प्रत्यक्ष में इस दृष्टि से संदिग्ध लगता है कि इसराईली इतिहास के अनुसार हज़रत मूसा (अलैहि०) की मृत्यु का वर्ष 1272 ई.पू. है, लेकिन बहरहाल ये सब ऐतिहासिक अनुमान ही हैं और मिस्त्री, ईसवी और इसराईली जन्तरियों को मिलाकर बिल्कुल सही तिथियों का सही हिसाब लगाना कठिन है।
حَقِيقٌ عَلَىٰٓ أَن لَّآ أَقُولَ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ قَدۡ جِئۡتُكُم بِبَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَرۡسِلۡ مَعِيَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 104
105) मेरा रुतबा (पद) यही है कि अल्लाह का नाम लेकर कोई बात सत्य के सिवा न कहूँ, मैं लोगों के पास तुम्हारे रब की ओर से खुला नियुक्ति-प्रमाण लेकर आया हूँ, इसलिए तू बनी इसराईल को मेरे साथ भेज दे।’’86
86. हज़रत मूसा (अलैहि०) दो चीज़ों का सन्देश लेकर फ़िरऔन के पास भेजे गए थे-एक यह कि वह अल्लाह की बन्दगी (इस्लाम) स्वीकार करे, दूसरे यह कि बनी इसराईल की क़ौम को, जो पहले से मुसलमान थी, अपने अत्याचारी पंजे से स्वतंत्र कर दे । क़ुरआन में इन दोनों सन्देशों का कहीं एक साथ उल्लेख हुआ है और कहीं परिस्थिति के अनुसार केवल एक ही के उल्लेख को पर्याप्त समझा गया है।
قَالَ إِن كُنتَ جِئۡتَ بِـَٔايَةٖ فَأۡتِ بِهَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 105
(106) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तू कोई निशानी लाया है और अपने दावे में सच्चा है तो उसे पेश कर ।”
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 106
(107) मूसा ने अपनी लाठी फेंकी और यकायक वह एक जीता-जागता अजगर था।
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 107
(108) उसने अपनी जेब से हाथ निकाला और सब देखनेवालों के सामने वह चमक रहा था।87
87. ये दो निशानियाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को इस बात के प्रमाण में दी गई थीं कि वे उस अल्लाह के प्रतिनिधि हैं जो सृष्टि का पैदा करनेवाला और शासक है। जैसाकि इससे पहले भी हम संकेत कर चुके हैं कि पैग़म्बरों ने जब कभी अपने आपको सारे जहानों के रब के पैग़म्बर की हैसियत से प्रस्तुत किया तो लोगों ने उनसे यही माँग की कि अगर तुम वास्तव में सारे जहानों के रब के प्रतिनिधि हो तो तुम्हारे हाथों से कोई ऐसी घटना सामने आनी चाहिए जो प्राकृतिक नियमों के सामान्य तरीके से हटी हुई हो और जिससे सष्ट प्रकट हो रहा हो कि सारे जहानों के रब ने तुम्हारी सच्चाई सिद्ध करने के लिए अपने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से इस घटना को निशानी के रूप में प्रकट किया है। इसी माँग के उत्तर में नबियों ने वे निशानियाँ दिखाई हैं जिनको कुरआन की परिभाषा में 'आयतें' और इस्लामी मीमांसा ज्ञाताओं की परिभाषा में 'मोजज़े’ (चमत्कार) कहा जाता है। ऐसी निशानियों या मोजज़ों को, जो लोग प्रकृति के नियमों के तहत घटित होनेवाली सामान्य घटना बताने की कोशिश करते हैं, वे वास्तव में अल्लाह की किताब को मानने और न मानने के बीच एक ऐसी नीति अपनाते हैं जिसे किसी तरह उचित नहीं समझा जा सकता। इसलिए कि क़ुरआन जिस जगह स्पष्ट रूप से अप्रकृतिक घटना का उल्लेख कर रहा हो, वहाँ प्रसंग और संदर्भ के बिल्कुल विपरीत एक अनैसर्गिक घटना बनाने का प्रयास मात्र एक भौंडा राग है जिसकी ज़रूरत सिर्फ़ उन लोगों को पड़ती है जो एक ओर तो किसी ऐसी किताब पर ईमान नहीं लाना चाहते जो अप्राकृतिक घटनाओं का उल्लेख करती हो और दूसरी ओर पैतृक धर्म पर जन्मजात श्रद्धालु होने के कारण उस किताब का इंकार भी नहीं करना चाहते जो वास्तव में अप्राकृतिक घटनाओं का उल्लेख करती है। मोजज़ों (चमत्कारों) के सिलसिले में मूल निर्णायक प्रश्न केवल यह है कि क्या अल्लाह सृष्टि-व्यवस्था को एक नियम पर चला देने के बाद मुअत्तल (निष्क्रिय) हो चुका है और अब इस चलती हुई व्यवस्था में कभी किसी अवसर पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता? या वह व्यावहारिक रूप से अपने राज्य के प्रबन्ध व व्यवस्था की बागडोर अपने हाथ में रखता है और हर क्षण उसके आदेश इस राज्य में लागू हो रहे हैं और उसको हर समय अधिकार प्राप्त है कि वस्तुओं के रूपों और घटनाओं की नैसर्गिक गति में आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से जैसा चाहे और जब चाहे परिवर्तन कर दे ? जो लोग इस प्रश्न के उत्तर में पहली बात के समर्थक हैं उनके लिए मोजज़ों का मानना असंभव है, क्योंकि मोजज़ा न उनकी ईश्वरीय धारणा से मेल खाता है और न सृष्टि से संबंधित उनकी कल्पना से । लेकिन ऐसे लोगों के लिए उचित यही है कि वे क़ुरआन की टीका व व्याख्या करने के बजाय उसका साफ़-साफ़ इंकार कर दें,क्योंकि क़ुरआन ने तो अपनी वर्णन-शक्ति ही अल्लाह के बारे में अपनाई गई पहली धारणा के खण्डन और बाद में उल्लेख किए गए कल्पना को सिद्ध करने पर लगा दी है। इसके विपरीत जो व्यक्ति क़ुरआन के तर्कों और प्रमाणों से सन्तुष्ट होकर दूसरी धारणाओं और कल्पनाओं को स्वीकार करे, उसके लिए मोजज़े को समझना और मानना कुछ कठिन नहीं रहता। स्पष्ट है जब आपका विश्वास ही यह होगा कि अजगर जिस तरह पैदा हुआ करते हैं, उसी तरह वे पैदा हो सकते हैं, उसके सिवा किसी दूसरे ढंग पर कोई अजगर पैदा कर देना अल्लाह की सामर्थ्य से बाहर है, तो आप मजबूर हैं कि ऐसे व्यक्ति की बात को बिलकुल ही झुठला दें जो आपको खबर दे रहा हो कि एक लाठी अजगर में बदल गई और फिर अजगर से लाठी बन गई। मगर इसके विपरीत अगर आपका विश्वास यह हो कि बेजान पदार्थ में अल्लाह के आदेश से ज़िन्दगी पैदा होती है, और अल्लाह जिस पदार्थ को जैसा चाहे ज़िन्दगी दे सकता है, तो आपके लिए अल्लाह के आदेश से लाठी का अजगर बन जाना उतनी ही अविचित्र घटना है जितनी उसी अल्लाह के आदेश से अंडे के भीतर भरे हुए कुछ बेजान पदार्थों का अजगर बन जाना अविचित्र है। केवल यह अन्तर कि एक घटना सदा घटित होती रहती है और दूसरी घटना केवल तीन बार घटी, एक को अविचित्र और दूसरे के विचित्र बना देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 108
(109) इसपर फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों ने आपस में कहा कि "निश्चय ही यह आदमी बड़ा माहिर जादूगर है,
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُمۡۖ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 109
(110) तुम्हें तुम्हारी ज़मीन से बेदखल करना चाहता है 88, अब कहो, क्या कहते हो?”
88. [यद्यपि हज़रत मूसा] ने केवल नबी होने का दावा और बनी इसराईल की रिहाई की माँग ही पेश की थी और किसी प्रकार का राजनीतिक विषय सिरे से छेड़ा ही न था, इसके बाद भी फ़िरऔन के दरबारियों को राजनीतिक क्रान्ति का ख़तरा महसूस हुआ, इसका कारण यह है कि मूसा (अलैहि.) का नबी होने का दावा अपने भीतर स्वयं ही यह अर्थ रखता था कि वह वास्तव में जीवन की पूरी व्यवस्था को पूरे तौर पर बदलना चाहते हैं जिसमें अनिवार्य रूप से देश की राजनीतिक व्यवस्था भी शामिल है। किसी व्यक्ति का अपने आपको 'जगत-स्वामी' के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना अनिवार्य रूप से यह अर्थ रखता है कि वह इंसानों से अपने पूर्ण आज्ञापालन की माँग करता है, क्योंकि जगत-स्वामी का प्रतिनिधि कभी आज्ञापालक और प्रजा बनकर रहने के लिए नहीं आता, बल्कि अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए और नायक बनने के लिए ही आया करता है और किसी विधर्मी के शासनाधिकार को स्वीकार कर लेना रसूल होने की उसकी पैग़म्बराना हैसियत के बिल्कुल विपरीत है। यही कारण है कि हज़रत मूसा की ज़बान से रसूल होने का दावा सुनते ही फिरऔन और उसके दरबारियों के सामने राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एवं सामाजिक क्रान्ति का खतरा उभर आया और उन्होंने समझ लिया कि अगर इस आदमी की बात चली तो सत्ता हमारे हाथ से निकल जाएगी।
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَأَرۡسِلۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 110
(111) फिर उन सबने फ़िरऔन को सलाह दी कि इसे और इसके भाई को इन्तिज़ार में रखिए और तमाम शहरों में हरकारे भेज दीजिए
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 111
(112) कि हर दक्ष माहिर जादूगर को आपके पास ले आएँ ।89
89. फ़िरऔनी दरबारियों के इस कथन से स्पष्ट झात होता है कि उनके मस्तिष्क में अल्लाह की निशानी (मोजज़ा, चमत्कार) और जादू में मूल अन्तर की धारणा बिलकुल स्पष्ट रूप से मौजूद थी। वे जानते थे कि अल्लाह की निशानी से वास्तविक मूल होता है और जादू मात्र नज़र और चित्त को प्रभावित करके वस्तुओं में एक विशेष प्रकार के परिवर्तन की अनुभूति कराता है। इसी आधार पर उन्होंने हज़रत मूसा (अलैहि०) की पैग़म्बरी के दावे को रद्द करने के लिए कहा कि यह आदमी जादूगर है, अर्थात लाठी वास्तव में साँप नहीं बन गई कि उसे अल्लाह का चमत्कार माना जाए, बल्कि केवल हमें ऐसा नज़र आया कि वह मानो साँप था, जैसा कि हर जादूगर कर लेता है। फिर उन्होंने सलाह दी कि तमाम देश के माहिर जादूगरों को बुलाया जाए और उनके ज़रिये से लाठियों और रस्सियों को सांपों में परिवर्तित करके लोगों को दिखा दिया जाए, ताकि आम इंसानों के दिलों में पैग़म्बरी के इस मोजज़े से जो भय छा गया है, वह अगर पूरी तरह दूर न हो तो कम-से-कम सन्देह ही में बदल जाए।
وَجَآءَ ٱلسَّحَرَةُ فِرۡعَوۡنَ قَالُوٓاْ إِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 112
(113) चुनाँचे जादूगर फ़िरऔन के पास आ गए। उन्होंने कहा, "अगर हम विजयी रहे तो हमें इसका इनाम तो ज़रूर मिलेगा?"
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ لَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 113
(114) फ़िरऔन ने उत्तर दिया, ''हाँ, और तुम राज दरबार में पार्श्ववर्ती होगे।"
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ نَحۡنُ ٱلۡمُلۡقِينَ ۝ 114
(115) फिर उन्होंने मूसा से कहा, "तुम फेंकते हो या हम फेंकें"
قَالَ أَلۡقُواْۖ فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ سَحَرُوٓاْ أَعۡيُنَ ٱلنَّاسِ وَٱسۡتَرۡهَبُوهُمۡ وَجَآءُو بِسِحۡرٍ عَظِيمٖ ۝ 115
(116) मूसा ने उत्तर दिया, “तुम ही फेंको।" उन्होंने जो अपने अंछर फेंके तो निगाहों पर जादू और दिलों में भय पैदा कर दिया और बड़ा ही ज़बरदस्त जादू बना लाए।
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَلۡقِ عَصَاكَۖ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 116
(117) हमने मूसा को इशारा किया कि फेंक अपनी लाठी। उसका फेंकना था कि देखते ही देखते वह उनके उस झूठे तिलिस्म (जादू) को निगलता चला गया।90
90. यह सोचना सही नहीं है कि 'लाठी' उन लाठियों और रस्सियों को निगल गई जो जादूगरों ने फेंकी थी और सांप और अजगर बनी नज़र आ रही थीं। क़ुरआन जो कुछ कह रहा है, वह यह है कि लाठी ने साँप बनकर उनके धोखे भरे जादू को निगलना शुरू कर दिया जो उन्होंने तैयार किया था। इसका खुला अर्थ यह ज्ञात होता है कि यह साँप जिधर-जिधर गया, वहाँ से जादू का वह प्रभाव समाप्त होता चला गया जिसके कारण लाठियाँ और रस्सियाँ साँपों की तरह लहराती नज़र आती थीं और उसके एक ही बार घूमने से जादूगरों की हर लाठी लाठी और हर रस्सी रस्सी बनकर रह गई।
فَوَقَعَ ٱلۡحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 117
(118) इस तरह जो सत्य था, वह सत्य सिद्ध हुआ और जो कुछ उन्होंने बना रखा था, वह असत्य होकर रह गया ।
فَغُلِبُواْ هُنَالِكَ وَٱنقَلَبُواْ صَٰغِرِينَ ۝ 118
(119) फ़िरऔन और उसके साथी मुकाबले के मैदान में पराजित हुए और (विजयी होने के बजाय) उलटे अपमानित हो गए
وَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 119
(120) और जादूगरों का हाल यह हुआ कि मानो किसी चीज़ ने भीतर से उन्हें सजदे में गिरा दिया।
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 120
(121) कहने लगे, “हमने मान लिया रब्बुल आलमीन को,
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 121
(122) उस रब को जिसे मूसा और हारून मानते हैं ।91
91. इस तरह अल्लाह ने फ़िरऔनियों की चाल को उलटा उन्हीं पर पलट दिया। उन्होंने तमाम देश के जादूगरों को बुलाकर आम लोगों के बीच इसलिए प्रदर्शन कराया था कि जनता को हज़रत मूसा (अलैहि.) के जादूगर होने का विश्वास दिलाएँ या कम-से-कम सन्देह में डाल दें। लेकिन इस मुक़ाबले में पराजित होने के बाद स्वयं उनके अपने बुलाए हुए जादू की कला के माहिरों ने एक राय होकर निर्णय कर दिया कि हज़रत मूसा जो चीज़ पेश कर रहे हैं वह कदापि जादू नहीं है, बल्कि निश्चित रूप से जगत-स्वामी की ताक़त का करिश्मा है जिसके आगे किसी जादू का ज़ोर नहीं चल सकता। स्पष्ट है कि जादू को स्वयं जादूगरों से बढ़कर और कौन जान सकता था? तो जब उन्होंने व्यावहारिक अनुभव और परीक्षण के बाद गवाही दे दी कि यह चीज़ जादू नहीं है तो फिर फ़िरऔन और उसके दरबारियों के लिए देशवासियों को यह विश्वास दिलाना बिल्कुल असंभव हो गया कि मूसा मात्र एक जादूगर है।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ ءَامَنتُم بِهِۦ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّ هَٰذَا لَمَكۡرٞ مَّكَرۡتُمُوهُ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لِتُخۡرِجُواْ مِنۡهَآ أَهۡلَهَاۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 122
(123) फ़िरऔन ने कहा, "तुम उसपर ईमान ले आए, इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाज़त दूँ ? निश्चित रूप से यह कोई गुप्त षड्यंत्र था जो तुम लोगों ने इस राजधानी में किया, ताकि इसके मालिकों को सत्ता से बेदखल दो। अच्छा, तो इसका परिणाम अब तुम्हें मालूम हुआ जाता है।
لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ ثُمَّ لَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 123
(124) मैं तुम्हारे हाथ-पाँव उलटी ओर से कटवा दूंगा और इसके बाद तुम सबको सूली पर चढ़ाऊँगा।"
قَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 124
(125) उन्होंने उत्तर दिया, “बहरहाल हमें पलटना अपने रब ही की ओर है।
وَمَا تَنقِمُ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَآءَتۡنَاۚ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَتَوَفَّنَا مُسۡلِمِينَ ۝ 125
(126) तू जिस बात पर हमसे बदला लेना चाहता है, वह इसके सिवा कुछ नहीं कि हमारे रब की निशानियाँ जब हमारे सामने आ गईं तो हमने उन्हें मान लिया। ऐ रब ! हमें धैर्य प्रदान कर और हमें दुनिया से उठा तो इस हाल में कि हम तेरे आज्ञाकारी हो।‘’92
92. फ़िरऔन ने पांसा पलटता देखकर आख़िरी चाल यह चली थी कि इस सारे मामले को मूसा और जादूगरों का षड्यंत्र बना दे और फिर जादूगरों को शारीरिक यातना और क़त्ल की धमकी देकर उनसे अपने इस आरोप को मनवा लें। लेकिन यह चाल भी उलटी पड़ी। जादूगरों ने अपने आपको हर सज़ा के लिए प्रस्तुत करके सिद्ध कर दिया कि उनका मूसा (अलैहि.) की सच्चाई पर ईमान लाना किसी षड्यंत्र का नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों से सत्य स्वीकारने का परिणाम था। इस जगह यह बात भी देखने के योग्य है कि कुछ क्षणों के भीतर ईमान ने इन जादूगरों के आचरण में कितनी बड़ी क्रान्ति पैदा कर दी। अभी थोड़ी देर पहले इन्हीं जादूगरों की गिरावट का यह हाल था कि अपने पैतृक धर्म की सहायता और समर्थन के लिए घरों से चलकर आए थे और फ़िरऔन से पूछ रहे थे कि अगर हमने अपने धर्म को मूसा के आक्रमण से बचा लिया तो सरकार से हमें इनाम तो मिलेगा ना? या अब जो ईमान की नेमत मिल गई तो उन्हीं की सत्यवादिता और साहस इस सीमा को पहुँच गया कि थोड़ी देर पहले जिस बादशाह के आगे लालच के मारे बिछे जा रहे थे, अब उसकी सत्ताशक्ति और उसकी महानता को ठोकर मार रहे हैं और उन भयावह सज़ाओं को भुगतने के लिए तैयार हैं जिनकी धमकी वह दे रहा है, परन्तु उस सत्य को छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं हैं जिसकी सच्चाई उनपर खुल चुकी है।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ أَتَذَرُ مُوسَىٰ وَقَوۡمَهُۥ لِيُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَيَذَرَكَ وَءَالِهَتَكَۚ قَالَ سَنُقَتِّلُ أَبۡنَآءَهُمۡ وَنَسۡتَحۡيِۦ نِسَآءَهُمۡ وَإِنَّا فَوۡقَهُمۡ قَٰهِرُونَ ۝ 126
(127) फ़िरऔन से उसकी क़ौम के सरदारों ने कहा, “क्या तू मूसा और उसकी क़ौम को यूँ ही छोड़ देगा कि देश में बिगाड़ फैलाएँ और वह तेरी और तेरे उपास्यों की उपासना छोड़ बैठे? फ़िरऔन ने उत्तर दिया, “मैं उनके बेटों को क़त्ल कराऊँगा और उनकी औरतों को जीता रहने दूँगा,93 हमारी सत्ता की पकड़ उनपर मज़बूत है।"
93. स्पष्ट रहे कि अत्याचार का एक समय वह था जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के जन्म से पहले रअ-मसीस द्वितीय के समय में आरम्भ हुआ था और अत्याचार का दूसरा चरण यह है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के पैग़म्बर बनाए जाने के बाद शुरू हुआ। दोनों चरणों में यह बात पाई जाती है कि बनी इसराईल के बेटों को कल कराया गया और उनकी बेटियों को जीवित छोड़ दिया गया, ताकि धीरे-धीरे उनकी नस्ल का अन्त हो जाए और यह कौम दूसरी क़ौमों में गुम होकर रह जाए। शायद इसी दौर का है वह आलेख जो 1896 ई० में प्राचीन मिस्री खंडहरों की खुदाई के दौरान में मिला था और जिसमें यही फ़िरऔन मिनिफ़ताह अपने कारनामों और विजयों का उल्लेख करने के बाद लिखता है कि "और इसराईल को मिटा दिया गया, उसका बीज तक बाक़ी नहीं।" (विस्तृत विवरण के लिए देखिए क़ुरआन 40 : 25)
قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱللَّهِ وَٱصۡبِرُوٓاْۖ إِنَّ ٱلۡأَرۡضَ لِلَّهِ يُورِثُهَا مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 127
(128) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, “अल्लाह से मदद माँगो और धैर्य से काम लो, ज़मीन अल्लाह की है, अपने बन्दों में से जिसको चाहता है उसका उत्तराधिकारी बना देता है93अ और अन्तिम सफलता उन्हीं के लिए है जो उससे डरते हुए काम करें।"
इस ज़माने में कुछ लोग इस आयत से यह वाक्य कि 'जमीन अल्लाह की है' निकाल लेते हैं और बाद का वाक्य छोड़ देते हैं कि 'जिसको वह चाहता है उसका उत्तराधिकारी बना देता है।'
قَالُوٓاْ أُوذِينَا مِن قَبۡلِ أَن تَأۡتِيَنَا وَمِنۢ بَعۡدِ مَا جِئۡتَنَاۚ قَالَ عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يُهۡلِكَ عَدُوَّكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 128
(129) उसकी क़ौम के लोगों ने कहा, "तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे और अब तेरे आने पर भी सताए जा रहे हैं।" उसने उत्तर दिया, “करीब है वह समय कि तुम्हारा रब तुम्हारे दुश्मन को नष्ट कर दे और तुमको ज़मीन में 'खलीफ़ा' बनाए, फिर देखे कि तुम कैसे कर्म करते हो?"
وَلَقَدۡ أَخَذۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ بِٱلسِّنِينَ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 129
(130) हमने फ़िरऔन के लोगों को कई वर्ष तक अकाल और पैदावार की कमी में डाले रखा कि शायद उनको होश आए,
فَإِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡحَسَنَةُ قَالُواْ لَنَا هَٰذِهِۦۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَطَّيَّرُواْ بِمُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓۗ أَلَآ إِنَّمَا طَٰٓئِرُهُمۡ عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 130
(131) मगर उनका हाल यह था कि जब अच्छा समय आता तो कहते कि हम इसी के अधिकारी हैं, और जब बुरा समय आता तो मूसा और उसके साथियों को अपने लिए अपशकुन ठहराते, हालाँकि वास्तव में उनका अपशकुन तो अल्लाह के पास था, मगर उनमें से अधिकतर नहीं जानते थे ।
وَقَالُواْ مَهۡمَا تَأۡتِنَا بِهِۦ مِنۡ ءَايَةٖ لِّتَسۡحَرَنَا بِهَا فَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 131
(132) उन्होंने मूसा से कहा कि “तू हमपर जादू चलाने के लिए भले ही कोई निशानी ले आए, हम तो तेरी बात माननेवाले नहीं हैं।‘’94
94. यह अत्यन्त हठधर्मी और शब्दों का खेल था कि फ़िरऔन के दरबारी उस चीज़ को भी जादू कह रहे थे जिसके बारे में वे स्वयं भी पूरे विश्वास के साथ जानते थे कि वह जादू का परिणाम नहीं हो सकती। शायद कोई मूर्ख व्यक्ति भी ऐसा न सोचेगा कि एक पूरे देश में अकाल पड़ जाना और धरती की उपज में बराबर कमी होते रहना किसी जादू का करिश्मा हो सकता है। इसी आधार पर क़ुरआन मजीद कहता है कि “जब हमारी निशानियाँ खुल्लम खुल्ला उनकी निगाहों के सामने आई तो उन्होंने कहा, 'यह तो खुला जादू है, हालाँकि उनके दिल अन्दर से मान चुके थे, परन्तु उन्होंने मात्र अत्याचार और उदंडता के मार्ग से उनका इंकार किया।‘’ (क़ुरआन, 27 : 13-14)
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلطُّوفَانَ وَٱلۡجَرَادَ وَٱلۡقُمَّلَ وَٱلضَّفَادِعَ وَٱلدَّمَ ءَايَٰتٖ مُّفَصَّلَٰتٖ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 132
(133) अन्तत: हमने उनपर तूफ़ान भेजा 95, टिड्डी दल छोड़े, सुरसुरियाँ फैलाई 96, मेंढक निकाले और खून बरसाया। ये सब निशानियाँ अलग-अलग करके दिखाई, मगर वे उदंडता दिखाते चले गए और वे बड़े ही अपराधी लोग थे
95. संभवत: बारिश का तूफ़ान अभिप्रेत है जिसमें ओले भी बरसे थे। यद्यपि तूफ़ान दूसरी चीज़ों का भी हो सकता है, लेकिन बाइबल में ओलाबारी के तूफ़ान का ही उल्लेख है, इसलिए हम इस अर्थ को प्राथमिकता देते हैं।
96. वास्तव में अरबी शब्द 'कुम्मल' प्रयुक्त हुआ है जिसके कई अर्थ हैं - जूं, छोटी मक्खी, छोटी टिड्डी, मच्छर, सुरसुरी आदि । शायद यह व्यापक शब्द इसलिए प्रयुक्त किया गया है कि एक ही समय में जुओं और मच्छरों ने आदमियों पर और सुरसुरियों (घुन के कीड़ों) ने अन्न के भंडारों पर हमला किया होगा। (तुलना के लिए देखिए बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय 7-12)
وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيۡهِمُ ٱلرِّجۡزُ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَۖ لَئِن كَشَفۡتَ عَنَّا ٱلرِّجۡزَ لَنُؤۡمِنَنَّ لَكَ وَلَنُرۡسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 133
(134) जब कभी उनपर विपदा आ पड़ती तो कहते, “ऐ मूसा ! तुझे अपने रब की ओर से जो पद प्राप्त है उसके आधार पर हमारे लिए दुआ कर। अगर अब के तू हमपर से यह विपदा टलवा दे तो हम तेरी बात मान लेंगे और बनी इसराईल को तेरे साथ भेज देंगे।"
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلرِّجۡزَ إِلَىٰٓ أَجَلٍ هُم بَٰلِغُوهُ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 134
(135) मगर जब हम उनपर से अपना अज़ाब, एक निश्चित समय के लिए जिसको वे बहरहाल पहुँचनेवाले थे, हटा लेते तो वे यकायक अपनी प्रतिज्ञा से फिर जाते ।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 135
(136) तब हमने उनसे बदला लिया और उन्हें समुद्र में डुबो दिया, क्योंकि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था और उनसे बेपरवाह हो गए थे।
وَأَوۡرَثۡنَا ٱلۡقَوۡمَ ٱلَّذِينَ كَانُواْ يُسۡتَضۡعَفُونَ مَشَٰرِقَ ٱلۡأَرۡضِ وَمَغَٰرِبَهَا ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۖ وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ ٱلۡحُسۡنَىٰ عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ بِمَا صَبَرُواْۖ وَدَمَّرۡنَا مَا كَانَ يَصۡنَعُ فِرۡعَوۡنُ وَقَوۡمُهُۥ وَمَا كَانُواْ يَعۡرِشُونَ ۝ 136
(137) और उनकी जगह हमने उन लोगों को जो कमज़ोर बनाकर रखे गए थे, उस धरती के पूरब व पश्चिम का उत्तराधिकारी बना दिया जिसे हमने बरकतों से मालामाल किया था।97 इस तरह बनी इसराईल के प्रति तेरे रब का भलाई का वादा पूरा हुआ, क्योंकि उन्होंने धैर्य से काम लिया था और हमने फ़िरऔन और उसकी क़ौम का वह सब कुछ नष्ट कर दिया जो वे बनाते और चढ़ाते थे।
97. अर्थात बनी इसराईल को फ़लस्तीन की धरती का उत्तराधिकारी बना दिया। कुछ लोगों ने इसका अर्थ यह लिया है कि बनी इसराईल स्वयं मिस्र की धरती के स्वामी बना दिए गए, लेकिन [यह विचार सही नहीं है] । क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर फ़लस्तीन व शाम ही के भू-भाग के लिए ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं कि हमने इस धरती में बरकतें रखी हैं।
وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتَوۡاْ عَلَىٰ قَوۡمٖ يَعۡكُفُونَ عَلَىٰٓ أَصۡنَامٖ لَّهُمۡۚ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱجۡعَل لَّنَآ إِلَٰهٗا كَمَا لَهُمۡ ءَالِهَةٞۚ قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ تَجۡهَلُونَ ۝ 137
(138) बनी इसराईल को हमने समुद्र से गुज़ार दिया, फिर वे चले और रास्ते में एक ऐसी क़ौम पर उनका गुज़र हुआ जो अपनी कुछ मूर्तियों पर ही मोहित हो रही थी। कहने लगे, “ऐ मूसा ! हमारे लिए भी कोई ऐसा उपास्य (माबूद) बना दे जैसे इन लोगों के माबूद हैं।‘’98 मूसा ने कहा, “तुम लोग बड़ी नासमझी की बात करते हो।
98. बनी इसराईल ने जिस जगह से लाल सागर को पार किया, वह शायद वर्तमान स्वेज़ और इसमाईलिया के बीच कोई जगह थी। यहाँ से गुज़रकर ये लोग सीना प्रायद्वीप के दक्षिणी क्षेत्र की ओर तट के किनारे-किनारे रवाना हुए। उस से में सीना प्रायद्वीप का पश्चिमी और उत्तरी भाग मिस्र के राज्य में सम्मिलित था। दक्षिण के क्षेत्र में वर्तमान नगर तूर और अबू ज़नीमा के बीच ताँबे और पत्थर की खानें थीं जिनसे मिस्रवाले पूरा लाभ प्राप्त करते थे और इन खानों की रक्षा के लिए मिस्त्रियों ने कुछ जगहों पर छावनियाँ बना रखी थीं। उन्हीं छावनियों में से एक छावनी मफ़्का नामक स्थान पर थी, जहाँ मिस्त्रियों का एक बहुत बड़ा मूर्तिगृह (बुतख़ाना) था जिसके अवशेष अब भी प्रायद्वीप के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र में पाए जाते हैं। इसके निकट एक और स्थान भी था जहाँ प्राचीन काल से सामी क़ौमों की चाँद देवी का बुतख़ाना था। शायद इन्हीं स्थानों में से किसी के पास से गुज़रते हुए बनी इसराईल को, जिनपर मिस्रियों की दासता ने मिस्रीपने का अच्छा खासा गहरा ठप्पा लगा रखा था, एक बनावटी उपास्य की ज़रूरत महसूस हुई होगी। बनी इसराईल की मनोवृत्ति को मिस्रवालों की दासता ने जैसा कुछ बिगाड़ दिया था, उसका अनुमान इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि मिस्र से निकल आने के सत्तर वर्ष बाद हज़रत मूसा के पहले ख़लीफ़ा हज़रत यूशअ बिन नून अपने अन्तिम भाषण में बनी इसराईल की जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं- "तुम प्रभु का डर रखो और नेक-नीयती और सच्चाई के साथ उसकी उपासना करो और उन देवताओं को दूर कर दो जिनकी पूजा तुम्हारे बाप-दादा बड़ी नदी के पार और मिस्र में करते थे और प्रभु की उपासना करो, और अगर खुदावन्द की उपासना तुमको बुरी मालूम होती हो तो आज ही तुम उसे, जिसकी पूजा करोगे, चुन लो... अब रही मेरी और मेरे घराने की बात, तो हम तो प्रभु ही की उपासना करेंगे।" (यशायाह 24 : 14-15) इससे अनुमान होता है कि 40 साल तक हज़रत मूसा (अलैहि०) के और 28 साल तक हज़रत यूशअ (अलैहि०) के प्रशिक्षण और मार्गदर्शन में जीवन कर लेने के बाद भी यह क़ौम अपने भीतर से उन प्रभावों को न निकाल सकी जो मिस्र के फ़िरऔनों की दासता के युग में उसकी नस-नस के भीतर उतर गए थे, फिर भला कैसे संभव था कि मिस्र से निकलने के बाद तुरन्त ही मूर्तिगृह (बुतखाना) सामने आ गया था, उसको देखकर इन बिगड़े हुए मुसलमानों में से बहुतों के माथे उस चौखट पर सजदा करने के लिए बेचैन न हो जाते जिसपर वे अपने पिछले स्वामियों को माथा रगड़ते हुए देख चुके थे।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ مُتَبَّرٞ مَّا هُمۡ فِيهِ وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 138
(139) ये लोग जिस तरीक़े की पैरवी कर रहे हैं, वह तो नष्ट होनेवाला है और जो कर्म वे कर रहे हैं, वह पूर्णत: असत्य है ।"
قَالَ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِيكُمۡ إِلَٰهٗا وَهُوَ فَضَّلَكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 139
(140) फिर मूसा ने कहा, "क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और उपास्य तुम्हारे लिए खोलूँ ? हालाँकि वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें दुनिया भर की कौमों पर श्रेष्ठता प्रदान की है।
وَإِذۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُقَتِّلُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 140
(141) और (अल्लाह फ़रमाता है, वह समय याद करो जब हमने फ़िरऔनवालों से तुम्हें निजात दी, जिनका हाल यह था कि तुम्हें कड़े अज़ाब में डाले रखते थे, तुम्हारे बेटों को क़त्ल करते और तुम्हारी औरतों को ज़िन्दा रहने देते थे, और इसमें तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी बड़ी परीक्षा थी।"
۞وَوَٰعَدۡنَا مُوسَىٰ ثَلَٰثِينَ لَيۡلَةٗ وَأَتۡمَمۡنَٰهَا بِعَشۡرٖ فَتَمَّ مِيقَٰتُ رَبِّهِۦٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗۚ وَقَالَ مُوسَىٰ لِأَخِيهِ هَٰرُونَ ٱخۡلُفۡنِي فِي قَوۡمِي وَأَصۡلِحۡ وَلَا تَتَّبِعۡ سَبِيلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 141
(142) हमने मूसा को तीस रात व दिन के लिए (सीना पर्वत पर) तलब किया और बाद में दस दिन और बढ़ा दिए। इस तरह उसके रब की निश्चित की हुई अवधि पूरे चालीस दिन हो गई।99 मूसा ने चलते हुए अपने भाई हारून से कहा कि “मेरे पीछे तुम मेरी क़ौम में मेरी जगह रहना और ठीक काम करते रहना और बिगाड़ पैदा करनेवालों के तरीके पर न चलना।100
99. मिस्र से निकलने के बाद जब बनी इसराईल के दासतापूर्ण बन्धन समाप्त हो गए और उन्हें एक स्वतंत्र क़ौम को हैसियत मिल गई तो अल्लाह के आदेश के अन्तर्गत हज़रत मूसा सीना पर्वत पर तलब किए गए, ताकि उन्हें बनी इसराईल के लिए शरीअत (धर्मविधान) प्रदान की जाए। चुनाँचे यह तलबी, जिसका यहाँ उल्लेख हो रहा है, इस सिलसिले की पहली तलबी थी और इसके लिए चालीस दिन की अवधि इसलिए निश्चित की गई थी कि हज़रत मूसा पूरे चालीस दिन पर्वत पर बिताएँ और रोज़े रखकर, रात-दिन उपासना और चिन्तन-मनन करके और मन-मस्तिष्क को एकाग्र करके उस भारी कथन को अपनाने की अपने भीतर क्षमता पैदा करें जो उनपर उतारा जानेवाला था। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इस आदेशानुसार सीना पर्वत पर जाते समय बनी इसराईल को उस जगह छोड़ा था जो आज के मानचित्र में बनी सालेह और सीना पर्वत के बीच में शैख़ घाटी के नाम से प्रसिद्ध है। इस घाटी का वह भाग जहाँ बनी इसराईल ने पड़ाव किया था आजकल मैदानुर्राहा कहलाता है। घाटी के एक सिरे पर वह पहाड़ी स्थित है जहाँ स्थानीय उल्लेख के अनुसार हज़रत सालेह (अलैहि०) समूद के इलाके को छोड़कर आ गए थे। आज वहाँ उनकी यादगार में एक मस्जिद बनी हुई है। दूसरी ओर एक और पहाड़ी जबले हारून नामी है जहाँ कहा जाता है कि हज़रत हारून (अलैहि०) बनी इसराईल की गोशाला-परस्ती से रुष्ट होकर जा बैठे थे। तीसरी ओर सीना का ऊँचा पर्वत है जिसका ऊपरी भाग प्राय: बादलों से ढका रहता है और जिसकी ऊँचाई 7359 फुट है। इस पर्वत की चोटी पर आज तक वह खोह दर्शन-स्थली बनी हुई है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने चालीस दिन बिताए थे। इसके करीब मुसलमानों की एक मस्जिद और ईसाइयों का एक गिरजा मौजूद है और पहाड़ के दामन में रूमी कैसर जस्टेन के समय की एक खानकाह (मठ) आज तक मौजूद है।
100. हज़रत हारून (अलैहि०) यद्यपि हज़रत मूसा (अलैहि०) से तीन वर्ष बड़े थे, लेकिन नबी के दायित्वों में हज़रत मूसा (अलैहि०) के अधीन और सहायक थे। उनकी पैग़म्बरी स्थायी न थी, बल्कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अल्लाह 'से निवेदन करके उनको अपने वज़ीर (मंत्री) के रूप में माँगा था, जैसा कि आगे चलकर कुरआन मजीद में सविस्तार उल्लिखित हुआ है।
وَلَمَّا جَآءَ مُوسَىٰ لِمِيقَٰتِنَا وَكَلَّمَهُۥ رَبُّهُۥ قَالَ رَبِّ أَرِنِيٓ أَنظُرۡ إِلَيۡكَۚ قَالَ لَن تَرَىٰنِي وَلَٰكِنِ ٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡجَبَلِ فَإِنِ ٱسۡتَقَرَّ مَكَانَهُۥ فَسَوۡفَ تَرَىٰنِيۚ فَلَمَّا تَجَلَّىٰ رَبُّهُۥ لِلۡجَبَلِ جَعَلَهُۥ دَكّٗا وَخَرَّ مُوسَىٰ صَعِقٗاۚ فَلَمَّآ أَفَاقَ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 142
(143) जब वह हमारे निर्धारित समय पर पहुँचा और उसके रब ने उससे बात की तो उसने निवेदन किया कि “ऐ रब ! मुझे देखने की शक्ति दे कि मैं तुझे देखू ।” फरमाया, “तू मुझे नहीं देख सकता। हाँ, तनिक सामने के पहाड़ की ओर देख, अगर वह अपनी जगह स्थिर रह जाए तो अवश्य तू मुझे देख सकेगा।” चुनाँचे जब उसका रब पहाड़ पर आलोकित हुआ तो उसे चकनाचूर कर दिया और मूसा मूर्च्छित होगा गिर पड़ा। जब होश आया तो बोला, “पाक है तेरी ज़ात (सत्ता), मैं तेरे समक्ष तौबा करता हूँ और सबसे पहला ईमान लानेवाला मैं हूँ।”
قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّي ٱصۡطَفَيۡتُكَ عَلَى ٱلنَّاسِ بِرِسَٰلَٰتِي وَبِكَلَٰمِي فَخُذۡ مَآ ءَاتَيۡتُكَ وَكُن مِّنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 143
(144) फ़रमाया, “ऐ मूसा ! मैंने तमाम लोगों पर प्राथमिकता देकर चुना कि मेरी पैग़म्बरी करे और मुझसे हमकलाम हो (अर्थात बातचीत करे)। तो जो कुछ मैं तुझे ढूँ, उसे ले और कृतज्ञता दिखा।"
وَكَتَبۡنَا لَهُۥ فِي ٱلۡأَلۡوَاحِ مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡعِظَةٗ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ فَخُذۡهَا بِقُوَّةٖ وَأۡمُرۡ قَوۡمَكَ يَأۡخُذُواْ بِأَحۡسَنِهَاۚ سَأُوْرِيكُمۡ دَارَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 144
(145) इसके बाद हमने मूसा को जीवन के हर भाग के बारे में नसीहत और हर पहलू के बारे में स्पष्ट आदेश तख्तियों पर लिखकर दे दिया101 और उससे कहा, “इन आदेशों को मज़बूत हाथों से सँभाल और अपनी क़ौम को हुक्म दे कि इनके उत्तम आशय का पालन करें।102 बहुत जल्द मैं तुम्हें अवज्ञाकारियों के घर दिखाऊँगा।103
101. बाइबल में आया है कि ये दोनों तख्तियाँ पत्थर की सिलें थीं और इन तख्तियों पर लिखने का काम बाइबल और कुरआन दोनों में अल्लाह से संबद्ध किया गया है। हमारे पास कोई साधन ऐसा नहीं है जिससे हम यह बात सुनिश्चित कर सकें कि क्या इन तज्जियों पर लिखने का काम स्वयं अल्लाह ने अपनी कुदरत से किया था या फरिश्ते से यह सेवा ली थी या स्वयं हज़रत मूसा का हाथ इस्तेमाल फ़रमाया था। (तुलना के लिए देखिए बाइबल,किताब निर्गमन 31 : 18, 32 : 15-16 तथा व्यवस्था विवरण 5: 6-22)
102. अर्थात अल्लाह के आदेशों का वह स्पष्ट और सीधा अर्थ लें जो सामान्य बुद्धि से हर वह व्यक्ति समझ लेगा जिसकी नीयत में बिगाड़ या जिसके दिल में टेढ़ न हो। यह पाबन्दी इसलिए लगाई गई कि जो लोग आदेशों के सीधे-सादे शब्दों में से कानूनी ऐच पेंच और हीले बहानों , रास्ते और फ़ितनों की गुंजाइशें निकालते हैं, कहीं उनके बाल की खाल निकालने को अल्लाह की किताब का अनुपालन न समझ लिया जाए।
سَأَصۡرِفُ عَنۡ ءَايَٰتِيَ ٱلَّذِينَ يَتَكَبَّرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلرُّشۡدِ لَا يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلۡغَيِّ يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 145
(146) मैं अपनी निशानियों से उन लोगों की निगाहें फेर दूँगा जो नाहक धरती में बड़े बनते हैं 104, वे भले ही कोई निशानी देख लें, कभी उसपर ईमान न लाएँगे। अगर सीधा रास्ता उनके सामने आए, तो उसे न अपनाएँगे और अगर टेढ़ा रास्ता दिखाई दे तो उसपर चल पड़ेंगे, इसलिए कि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया और उनसे बेपरवाई करते रहे।
104. अर्थात प्रकृति का मेरा नियम यही है कि ऐसे लोग किसी शिक्षाप्रद वस्तु से शिक्षा और किसी नसीहत वाली चीज़ से नसीहत नहीं हासिल कर सकते। 'बड़ा बनना' या 'घमण्ड करना' क़ुरआन मजीद इस अर्थ में प्रयुक्त करता है कि बन्दा अपने आपको बन्दगी के स्थान से उच्च समझने लगे और अल्लाह के आदेशों की कुछ परवाह न करे और ऐसा तरीक़ा अपनाए मानो वह न अल्लाह का बन्दा है और न अल्लाह उसका रब है। इस उदंडता की कोई वास्तविकता एक ग़लत अहंकार के सिवा नहीं है, क्योंकि अल्लाह की धरती में रहते हुए एक बन्दे को किसी तरह यह अधिकार होता ही नहीं कि ौर का बन्दा बनकर रहे । इसी लिए फ़रमाया कि “वे नाहक धरती में बड़े बनते हैं।‘’
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡۚ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 146
(147) हमारी निशानियों को जिस किसी ने झुठलाया और आखिरत की पेशी का इंकार किया, उसके सारे कर्म अकारथ गए।105 क्या लोग इसके सिवा कुछ और बदला पा सकते हैं
105. अकारथ हो गए अर्थात फले-फूले नहीं, अलाभप्रद और निष्फल निकले, इसलिए कि अल्लाह के यहाँ इंसानी कामों और कोशिशों के फलने-फूलने का आश्रय बिल्कुल दो बातों पर है-एक यह कि वह कोशिश और काम अल्लाह के शरई कानून की पाबन्दी में हो, दूसरे यह कि इस कोशिश और काम में दुनिया के बजाय आख़िरत की सफलता नज़रों के सामने हो । ये दो शर्ते जहाँ पूरी न होंगी, वहाँ अनिवार्य रूप से कर्म अकारथ हो जाएंगे। जिसने अल्लाह से मार्गदर्शन लिए बिना, बल्कि उससे मुँह मोड़कर द्रोहपूर्ण ढंग से दुनिया में काम किया, स्पष्ट है कि वह अल्लाह से किसी बदले की आशा रखने का किसी कि जैसा करें वैसा भरें?"
وَٱتَّخَذَ قَوۡمُ مُوسَىٰ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِنۡ حُلِيِّهِمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٌۚ أَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّهُۥ لَا يُكَلِّمُهُمۡ وَلَا يَهۡدِيهِمۡ سَبِيلًاۘ ٱتَّخَذُوهُ وَكَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 147
(148) मूसा के पीछे106 उसकी क़ौम के लोगों ने अपने गहनों से एक बछड़े का पुतला बनाया जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। क्या उन्हें नज़र न आता था कि वह न उनसे बोलता है न किसी मामले में उनका मार्गदर्शन करता है? मगर फिर भी उन्होंने उसे उपास्य बना लिया और वे बड़े ज़ालिम थे।107
106. अर्थात उन चालीस दिनों की अवधि में जबकि हज़रत मूसा (अलैहि०) अल्लाह की तलबी पर सीना पर्वत गए हुए थे और यह क़ौम पहाड़ के नीचे मैदानुर्राहा में ठहरी हुई थी।
107. यह मिस्रीपने का दूसरा प्रदर्शन था जिसे लिए हुए बनी इसराईल मिस्र से निकले थे। मिस्र में गाय की पूजा और उसकी पवित्रता मानने का जो चलन था उससे यह क़ौम इतनी प्रभावित हो चुकी थी कि क़ुरआन कहता है कि उनके दिलों में बछड़ा बसकर रह गया था। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि अभी मिस्र से निकले हुए उनको केवल तीन महीने ही हुए थे, समुद्र का फटना, फ़िरऔन का डूबना, इन लोगों का सकुशल दासता के उस बन्धन से निकल आना जिसके टूटने की कोई आशा न थी और इस सिलसिले को दूसरी घटनाएँ अभी बिल्कुल ताज़ा थीं और उन्हें खूब मालूम था कि यह जो कुछ हुआ केवल अल्लाह की सामर्थ्य से हुआ है, किसी दूसरे की शक्ति और सामर्थ्य का इसमें कोई हाथ न था, परन्तु इसपर भी इन्होंने पहले तो पैग़म्बर से एक बनावटी ख़ुदा तलब किया और फिर पैग़म्बर के पीठ मोड़ते ही उपासना के लिए एक बनावटी बछड़ा बना डाला। यही वह हरकत है जिसपर बनी इसराईल के कुछ नबियों ने अपनी कौम की मिसाल उस बदकार औरत से दी है जो अपने पति के सिवा हर दूसरे मर्द से दिल लगाती हो और जो पहली रात में भी बेवफाई से न चूकी हो ।
وَلَمَّا سُقِطَ فِيٓ أَيۡدِيهِمۡ وَرَأَوۡاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ ضَلُّواْ قَالُواْ لَئِن لَّمۡ يَرۡحَمۡنَا رَبُّنَا وَيَغۡفِرۡ لَنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 148
(149) फिर जब उनके धोखा खाने का भ्रम टूट गया और उन्होंने देख लिया कि वास्तव वे में गुमराह हो गए हैं, तो कहने लगे कि अगर हमारे रब ने हम पर दया न की और हमें क्षमा न किया तो हम नष्ट हो जाएँगे।"
وَلَمَّا رَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗا قَالَ بِئۡسَمَا خَلَفۡتُمُونِي مِنۢ بَعۡدِيٓۖ أَعَجِلۡتُمۡ أَمۡرَ رَبِّكُمۡۖ وَأَلۡقَى ٱلۡأَلۡوَاحَ وَأَخَذَ بِرَأۡسِ أَخِيهِ يَجُرُّهُۥٓ إِلَيۡهِۚ قَالَ ٱبۡنَ أُمَّ إِنَّ ٱلۡقَوۡمَ ٱسۡتَضۡعَفُونِي وَكَادُواْ يَقۡتُلُونَنِي فَلَا تُشۡمِتۡ بِيَ ٱلۡأَعۡدَآءَ وَلَا تَجۡعَلۡنِي مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 149
(150) उधर से मूसा गुस्से और रंज में भरा हुआ अपनी क़ौम की ओर पलटा। आते ही उसने कहा, “बहुत बुरी जानशीनी की तुम लोगों ने मेरे बाद ! क्या तुमसे इतना सब न हो सका कि अपने रब के आदेश का इंतिज़ार कर लेते?" और तख्तियाँ फेंक दी और अपने भाई (हारून) के सर के बाल पकड़कर उसे खींचा। हारून ने कहा, "ऐ मेरी माँ के बेटे ! इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते, तो तू शत्रुओं को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस अत्याचारी गिरोह के साथ मुझे शामिल न कर।‘’108
108. यहाँ क़ुरआन मजीद ने एक बहुत बड़े आरोप से हज़रत हारून (अलैहि०) को निर्दोष साबित किया है जो यहूदियों ने ज़बरदस्ती उनपर लगा रखा था। बाइबल में बछड़े की पूजा की घटना का इस तरह उल्लेख किया गया है कि जब हज़रत मूसा (अलैहिo) को पहाड़ से उतरने में देर लगी तो बनी इसराईल ने अधीर होकर हज़रत हारून (अलैहि०) से कहा कि हमारे लिए एक उपास्य बना दो और हज़रत हारून ने उनकी फ़रमाइश के अनुसार सोने का एक बछड़ा बना दिया जिसे देखते ही बनी इसराईल पुकार उठे कि ऐ इसराईल ! यही तेरा वह ख़ुदा है जो तुझे मित्र देश से निकालकर लाया है, फिर हज़रत हारून (अलैहि०) ने उसके लिए एक कुर्बानगाह (बलिस्थली) बनाई और घोषणा करके दूसरे दिन तमाम बनी इसराईल को जमा किया और उसके आगे कुरबानियाँ चढ़ाई (निर्गम 32 : 1-6)। कुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर स्पष्टतः इस ग़लत बात का खंडन किया गया है और बस्तुस्थिति यह बताई गई है कि इस बड़े अपराध का करनेवाला अल्लाह का नबी हारून नहीं, बल्कि खुदा का विद्रोही सामरी था। प्रत्यक्ष में यह बात बड़ी आश्चर्यजनक दिखाई पड़ती है कि बनी इसराईल जिन लोगों को अल्लाह का पैगम्बर मानते हैं उनमें से किसी के आचरण को भी उन्होंने कलंकित किए बिना नहीं छोड़ा है और कलंक भी ऐसे घोर लगाए हैं जो नैतिकता और शरीअत की दृष्टि में अति जघन्य अपराध समझे जाते हैं। जैसे शिर्क (बहुदेववाद), जादूगरी, ज़िना (व्यभिचार), झूठ, धोखादेही और ऐसे ही दूसरे अति जघन्य अपराध जिनमें लिप्त होना पैग़म्बर तो बड़ी बात, एक साधारण ईमानवाले और सज्जन पुरुष के लिए भी अति लज्जास्पद है। यह बात अपने आपमें बड़ी विचित्र है। परन्तु बनी इसराईल के नैतिक इतिहास पर विचार करने से मालूम हो जाता है कि वास्तव में इस क़ौम के मामले में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह क़ौम जब नैतिक और धार्मिक गिरावट की शिकार हुई और सामान्य लोगों से गुज़रकर उनके विशेष लोगों तक को, यहाँ तक कि महापुरुषों और विद्वानों और धार्मिक पदाधिकारियों को भी, पथभ्रष्टता और अनैतिकता की बाढ़ बहा ले गई तो उनकी अपराधी अन्तरात्मा ने अपनी इस दशा के लिए बहाने गढ़ने शुरू किए और इसी सिलसिले में उन्होंने वे तमाम अपराध, जो ये स्वयं करते थे, नबियों से जोड़ डाले, ताकि यह कहा जा सके कि जब नबी तक इन चीज़ों से न बच सके तो भला और कौन बच सकता है? इस मामले में यहूदियों का हाल हमारे देश के गैर-मुस्लिमों से मिलता-जुलता है। उनमें जब नैतिक गिरावट अपनी सीमा पार कर गई तो वह साहित्य तैयार हुआ जिसमें देवताओं की ऋषियों, मुनियों और अवतारों की, तात्पर्य यह कि जो सबसे ऊँचे आदर्श क़ौम के सामने हो सकते थे उन सबकी ज़िन्दगियाँ अनैतिकता के तारकोल से काली कर डाली गईं, ताकि यह कहा जा सके कि जब ऐसी-ऐसी महान् हस्तियाँ इन बुराइयों की शिकार हो सकती हैं तो भला हम मामूली मिटनेवाले इंसान इनमें पड़े बिना कैसे रह सकते हैं। और फिर जब ये कर्म इतने उच्च श्रेणी के यहाँ भी लज्जास्पद नहीं है तो हमारे लिए क्यों हों?
قَالَ رَبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَلِأَخِي وَأَدۡخِلۡنَا فِي رَحۡمَتِكَۖ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 150
(151) तब मूसा ने कहा, ऐ रब ! मुझे और मेरे भाई को क्षमा कर और हमें अपनी रहमत में दाखिल कर, तू सबसे बढ़कर दया करनेवाला है।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ سَيَنَالُهُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَذِلَّةٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُفۡتَرِينَ ۝ 151
(152) (उत्तर में कहा गया कि जिन लोगों ने बछड़े को उपास्य बनाया, वे अवश्य ही अपने रब के प्रकोप के शिकार होकर रहेंगे और दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवा होंगे। झूठ गढ़नेवालों को हम ऐसी ही सज़ा देते हैं।
وَٱلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِهَا وَءَامَنُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 152
(153) और जो लोग बुरे कर्म करें, फिर तौबा कर लें और ईमान ले आएँ, तो निश्चय ही इस तौबा और ईमान के बाद तेरा रब क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।‘’
وَلَمَّا سَكَتَ عَن مُّوسَى ٱلۡغَضَبُ أَخَذَ ٱلۡأَلۡوَاحَۖ وَفِي نُسۡخَتِهَا هُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ هُمۡ لِرَبِّهِمۡ يَرۡهَبُونَ ۝ 153
(154) फिर जब मूसा का गुस्सा ठंडा हुआ तो उसने वे तख्तियाँ उठा ली जिनके लेख में मार्गदर्शन और दयालुता थी उन लोगों के लिए जो अपने रब से डरते हैं,
وَٱخۡتَارَ مُوسَىٰ قَوۡمَهُۥ سَبۡعِينَ رَجُلٗا لِّمِيقَٰتِنَاۖ فَلَمَّآ أَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ قَالَ رَبِّ لَوۡ شِئۡتَ أَهۡلَكۡتَهُم مِّن قَبۡلُ وَإِيَّٰيَۖ أَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَّآۖ إِنۡ هِيَ إِلَّا فِتۡنَتُكَ تُضِلُّ بِهَا مَن تَشَآءُ وَتَهۡدِي مَن تَشَآءُۖ أَنتَ وَلِيُّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَاۖ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡغَٰفِرِينَ ۝ 154
(155) और उसने अपनी क़ौम के सत्तर आदमियों को चुना, ताकि वे (उसके साथ) हमारे निर्धारित समय पर उपस्थित हों।109 जब उन लोगों को एक भारी भूकम्प ने आ पकड़ा तो मूसा ने कहा, “ऐ मेरे सरकार ! आप चाहते तो पहले ही इनको और मुझे नष्ट कर सकते थे। क्या आप उस अपराध में, जो हममें से कुछ नासमझों ने किया था, हम सबको नष्ट कर देंगे? यह तो आप की डाली हुई एक परीक्षा थी जिसके द्वारो आप जिसे चाहते हैं पथभ्रष्टता में डाल देते हैं और जिसे चाहते हैं मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।110 हमारे सरपरस्त तो आप ही हैं, अत: हमें क्षमा कर दीजिए और हम पर दया कीजिए, आप सबसे बढ़कर क्षमा करनेवाले हैं।
109. यह तलबी इस उद्देश्य के लिए हुई थी कि क़ौम के सत्तर प्रतिनिधि सीना पर्वत पर प्रभु को पेशी में उपस्थित होकर क़ौम की ओर से गोशाला-परस्ती (बछड़े की पूजा) के अपराध की माफ़ी माँगें और नए सिरे से आज्ञापालन का वचन दें और उसे दृढ़ करें। बाइबल और तलमूद में इस बात का उल्लेख नहीं है। हाँ, यह उल्लेख है कि जो तख्तियाँ (शिलाएँ) हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फेंककर तोड़ दी थीं, उनके बदले दूसरी तख्तियाँ प्रदान करने के लिए आपको सीना पर बुलाया गया था। (निर्गम, अध्याय 34)
110. अर्थ यह है कि हर परीक्षा का अवसर इंसानों के बीच निर्णायक होता है। वह छाज की तरह एक मिश्रित गिरोह में से काम के आदमियों और नाकारा आदमियों को फटककर अलग कर देता है। यह अल्लाह की तत्त्वदर्शिता का खुला तकाजा है कि ऐसे अवसर समय-समय पर आते रहें। इन अवसरों पर जो सफलता का मार्ग पाता है, वह अल्लाह ही के दिए सौभाग्य और मार्गदर्शन से पाता है और जो विफल होता है, वह उसके दिए सौभाग्य और मार्गदर्शन के अभाव के कारण ही विफल होता है। यद्यपि अल्लाह की ओर से सौभाग्य और मार्गदर्शन मिलने और न मिलने के लिए भी एक नियम है जो पूरी तरह तत्त्वदर्शिता और न्याय पर आधारित है, लेकिन बहरहाल यह वास्तविकता अपनी जगह पर तयशुदा है कि मनुष्य का परीक्षा के अवसरों पर सफलता का मार्ग पाना या न पाना अल्लाह के दिए हुए सौभाग्य और मार्गदर्शन पर आधारित है।
۞وَٱكۡتُبۡ لَنَا فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِنَّا هُدۡنَآ إِلَيۡكَۚ قَالَ عَذَابِيٓ أُصِيبُ بِهِۦ مَنۡ أَشَآءُۖ وَرَحۡمَتِي وَسِعَتۡ كُلَّ شَيۡءٖۚ فَسَأَكۡتُبُهَا لِلَّذِينَ يَتَّقُونَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلَّذِينَ هُم بِـَٔايَٰتِنَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 155
(156) और हमारे लिए इस दुनिया की भलाई भी लिख दीजिए और आखिरत की भी। हम आपकी ओर पलट आए।" उत्तर में कहा गया, “सज़ा तो मैं जिसे चाहता हूँ देता हूँ, मगर मेरी रहमत हर चीज़ पर छाई हुई है।111 और उसे मैं उन लोगों के हक़ में लिखूँगा जो अवज्ञा से बचेंगे, ज़कात देंगे और मेरी आयतों पर ईमान लाएँगे।"
111. अर्थात ख़ुदा जिस तरीक़े पर 'ख़ुदाई' कर रहा है उसमें वास्तविक वस्तु प्रकोप नहीं है, जिसमें कभी-कभी दया और कृपा की झलक सामने आ जाती हो, बल्कि असल चीज़ दया है जिसपर जगत को सम्पूर्ण व्यवस्था स्थित है और इसमें प्रकोप केवल उस समय प्रकट होता है जब बन्दों की उदंडता सीमा पार कर जाती है।
ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلرَّسُولَ ٱلنَّبِيَّ ٱلۡأُمِّيَّ ٱلَّذِي يَجِدُونَهُۥ مَكۡتُوبًا عِندَهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ يَأۡمُرُهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَىٰهُمۡ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَيُحَرِّمُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَ وَيَضَعُ عَنۡهُمۡ إِصۡرَهُمۡ وَٱلۡأَغۡلَٰلَ ٱلَّتِي كَانَتۡ عَلَيۡهِمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِهِۦ وَعَزَّرُوهُ وَنَصَرُوهُ وَٱتَّبَعُواْ ٱلنُّورَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ مَعَهُۥٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 156
(157) (तो आज यह रहमत उन लोगों का हिस्सा है) जो इस पैग़म्बर उम्मी नबी का अनुसरण करे112 जिसका उल्लेख उन्हें अपने यहाँ तौरात और इंजील में लिखा हुआ मिलता है।113 वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बदी से रोकता उनके लिए पाक चीजें हलाल और नापाक चीजें हराम करता है114 और उनपर से वह बोझ उतारता है जो उनपर लदे हुए थे और उन बन्धनों को खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे115, इसलिए जो लोग उसपर ईमान ले आएँ और उसका समर्थन और सहायता करें और उस रौशनी का पालन करें जो उसके साथ उतारी गई है, वही सफलता पानेवाले हैं।
112. हज़रत मूसा (अलैहि०) की दुआ का जवाब ऊपर के वाक्य पर समाप्त हो गया था। इसके बाद अब अवसर को देखते हुए तुरन्त बनी इसराईल से मुहम्मद (सल्ल०) के अनुसरण का आह्वान किया गया है। भाषण का अभिप्राय यह है कि तुमपर अल्लाह की रहमत के उतरने के लिए जो शर्ते मूसा (अलैहि०) के समय में लगाई गई थीं, वही आज तक बाक़ी हैं और वास्तव में यह उन्हीं शर्तों का तकाज़ा है कि तुम इस पैग़म्बर पर ईमान ले आओ। तुमसे कहा गया था कि अल्लाह की रहमत उन लोगों का हिस्सा है जो अवज्ञा से बचें । तो आज सबसे बड़ी मूल अवज्ञा यह है कि जिस पैग़म्बर को अल्लाह ने नियुक्त किया है उसका मार्गदर्शन स्वीकार करने से इंकार किया जाए। इसलिए जब तक इस नाफरमानी से बचोगे नहीं, तक़वा (अल्लाह का डर और संयम) की जड़ ही सिरे से स्थापित न होगी, भले ही दूसरी छोटी-छोटी और मामूली गौण बातों में तुम कितना ही 'तक़वा' दिखाते रहो। तुमसे कहा गया था कि अल्लाह की रहमत से हिस्सा पाने के लिए ज़कात (दान) भी एक शर्त है। तो आज माल के किसी भी ख़र्च को उस वक़्त तक ज़कात नहीं कहा जा सकता जब तक कि सत्य-धर्म को स्थापित करने के उस प्रयत्न का साथ न दिया जो इस पैग़म्बर के नेतृत्व में हो रहा है। इसलिए जब तक इस राह में माल न ख़र्च करोगे, ज़कात को बुनियाद ही मज़बूत और दुरुस्त न होगी, चाहे तुम कितनी ही खैरात और नन-नियाज़ (भेंट-चढ़ावे) करते रहो। तुमसे कहा गया था कि अल्लाह ने अपनी रहमत सिर्फ उन लोगों के लिए लिखी है जो अल्लाह की आयतों पर ईमान लाएँ। तो आज तो आयतें इस पैग़म्बर पर उतर रही हैं उनका इंकार करके तुम किसी तरह भी अल्लाह की आयतों के माननेवाले नहीं कहे जा सकते । इसलिए जब तक उनपर ईमान न लाओगे, यह अन्तिम शर्त भी पूरी न होगी, भले ही तौरात पर ईमान रखने का तुम कितना ही दावा करते रहो। यहाँ नबी (सल्ल०) के लिए 'उम्मी' का शब्द बहुत अर्थपूर्ण प्रयुक्त हुआ है। बनी इसराईल अपने सिवा दूसरी कौमों को 'उम्मी' (Gentiles) कहते थे और उनका क़ौमी अहंकार किसी 'उम्मी' का नेतृत्व मानना तो दूर रहा, इसपर भी तैयार न था कि उम्मियों के लिए अपने बराबर मानवीय अधिकार ही मान लें। अत: क़ुरआन ही में आता है कि वे कहते थे कि उम्मियों के माल मार खाने में हमारी कोई पकड़ नहीं है, (क़ुरआन 3:75) तो अल्लाह उन्हीं की पारिभाषा प्रयुक्त करके फ़रमाता है कि अब तो इसी उम्मी के साथ तुम्हारा भाग्य जुड़ा हुआ है, इसका अनुसरण करोगे तो मेरी रहमत से हिस्सा पाओगे, वरना वही प्रकोप तुम्हारे भाग्य में है जिसमें सदियों से गिरफ्तार चले आ रहे हो।
113. उदाहरणस्वरूप तौरात और इंजील के निम्नलिखित स्थलों को देखें जहाँ मुहम्मद (सल्ल०) के आने के बारे में स्पष्ट संकेत मौजूद हैं। (व्यवस्था विवरण 18 : 15-19, मत्ती 21 : 33-46, यूहन्ना 1 : 19-21; 14 : 15-17, 25-30, 15 : 25-26, 16: 7-15)
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُمۡ جَمِيعًا ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِ ٱلنَّبِيِّ ٱلۡأُمِّيِّ ٱلَّذِي يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَكَلِمَٰتِهِۦ وَٱتَّبِعُوهُ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 157
(158) ऐ नबी ! कहो कि "ऐ इंसानो ! मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का पैग़म्बर हूँ जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, उसके सिवा कोई खुदा नहीं है, वही जीवन प्रदान करता है और वही मौत देता है, तो ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके भेजे हुए उम्मी नबी पर जो अल्लाह और उसके आदेशों को मानता है और अनुसरण करो उसका, आशा है कि तुम सीधा रास्ता पा लोगे।"
وَمِن قَوۡمِ مُوسَىٰٓ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 158
(159) मूसा की क़ौम116 में एक गिरोह ऐसा भी था जो सत्य के अनुसार मार्गदर्शन करता और सत्य ही के अनुसार न्याय करता था।117
116. वार्ताक्रम तो वास्तव में बनी इसराईल के बारे में चल रहा था। बीच में अवसर के अनुरूप हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी पर ईमान लाने का आह्वान संदर्भ से हटकर आ गया। अब फिर व्याख्यान उसी विषय पर आ रहा है जो पिछली कई आयतों से चल रहा है।
117. अधिकतर अनुवादकों ने इस आयत का अनुवाद इस प्रकार किया है कि मूसा की क़ौम में एक गिरोह ऐसा है जो सत्य के अनुसार मार्गदर्शन और न्याय करता है, अर्थात उनके निकट इस आयत में बनी इसराईल की उस नैतिक और मानसिक स्थिति का उल्लेख किया गया है जो कुरआन अवतरण के समय थी। परन्तु [ संदर्भ को देखते हुए हम इस बात को प्राथमिकता देते हैं कि इस आयत में बनी इसराईल की उस दशा का उल्लेख हुआ है जो हज़रत मूसा के समय में थी और इसका उद्देश्य यह बताना है कि जब इस क़ौम में गोशाला परस्ती (बछड़ा-पूजन) का अपराध किया गया और अल्लाह की ओर से उसकी पकड़ हुई तो उस शार समय सारी क़ौम बिगड़ी हुई न थी, बल्कि उसमें एक अच्छा-खासा सत्यवादी गिरोह मौजूद था।
وَقَطَّعۡنَٰهُمُ ٱثۡنَتَيۡ عَشۡرَةَ أَسۡبَاطًا أُمَمٗاۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ إِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰهُ قَوۡمُهُۥٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنۢبَجَسَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۚ وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡغَمَٰمَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 159
(160) और हमने उस क़ौम को बारह घरानों में बाँटकर उन्हें स्थायी गिरोहों का रूप दे दिया था।118 और जब मूसा से उसकी क़ौम ने पानी माँगा तो हमने उसको इशारा किया कि अमुक चट्टान पर अपनी लाठी मारो, चुनाँचे उस चट्टान से यकायक बारह सोते फूट निकले और हर गिरोह ने अपने पानी लेने की जगह निश्चित कर ली। हमने उनपर बादल का साया किया और उनपर मन्न व सलवा उतारा119 -खाओ वे पवित्र चीजें जो हमने तुमको प्रदान की हैं, मगर इसके बाद उन्होंने जो कुछ किया, तो हम पर ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि आप अपने ऊपर ज़ुल्म करते रहे ।
118. संकेत है बनी इसराईल के उस संगठन की ओर जिसका उल्लेख कुरआन की सूरा-5 (माइदा) आयत 12 में हुआ है, जिसका पूर्ण विवरण बाइबल की किताब गिनती में मिलता है। इससे मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अल्लाह के आदेश से सीना पर्वत के वीरानों में बनी इसराईल की जनगणना कराई, फिर उनके बारह घरानों को, जो हज़रत याकूब (अलैहि०) के दस बेटों और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के दो बेटों गाय की नस्ल से थे, अलग-अलग गिरोहों के रूप में संगठित किया और हर गिरोह पर एक-एक सरदार नियुक्त किया, ताकि वह उनके भीतर नैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक व सैनिक दृष्टि से अनुशासन बनाए रखे और शरीअत के आदेशों को लागू करता रहे तथा हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारहवें बेटे लावी की सन्तान को, जिसकी नस्ल से हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत हारून (अलैहि०) थे, एक अलग गिरोह के रूप में संगठित किया ताकि वे इन सब कबीलों के बीच सत्य का दीप जलाए रखने की सेवा करता रहे।
119. ऊपर जिस संगठन का उल्लेख किया गया है, वह उन उपकारों में से था जो अल्लाह ने बनी इसराईल पर किए। इसके बाद अब और तीन उपकारों का उल्लेख किया जा रहा है। एक यह कि सीना प्रायद्वीप के निर्जन क्षेत्र में उनके लिए पानी पहुंचाने का असाधारण प्रबन्ध किया गया। दूसरे यह कि उनको धूप की तपन से बचाने के लिए आसमान पर बादल छा दिया गया। तीसरे यह कि उनके लिए भोजन जुटाने का असाधारण प्रबन्ध 'मन्न-सलवा' को अवतरण के रूप में किया गया। स्पष्ट है कि यदि जीवन की इन तीन महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की व्यवस्था न की जाती तो यह क़ौम, जिसको संख्या कई लाख तक पहुँची हुई थी, इस क्षेत्र में भूखी-प्यासी रहकर बिल्कुल नष्ट हो जाती । आज भी कोई व्यक्ति वहाँ जाए तो यह देखकर चकित रह जाएगा कि अगर यहाँ पन्द्रह-बीस लाख आदमियों का एक विशाल काफ़िला अचानक आ ठहरे तो उसके लिए पानी, भोजन और साए का आख़िर क्या प्रबन्ध हो सकता है। वर्तमान समय में पूरे प्रायद्वीप की आबादी कुछ हज़ार से अधिक नहीं है और आज इस बीसवीं सदी में भी अगर कोई राज्य वहाँ पाँच-छ: लाख सेना ले जाना चाहे तो उसके प्रबन्धकों को रसद के प्रबन्ध की चिन्ता से सर दर्द हो जाए। यही कारण है कि वर्तमान समय के बहुत-से शोधकर्ताओं ने, जो न किताब (ईश्वरीयग्रन्थ) को मानते हैं और न मोजज़ों (ईश्वरीय चमत्कारों) को मानते हैं, यह मानने से इंकार कर दिया है कि बनी इसराईल सीना प्रायद्वीप के उस भाग से गुज़रे होंगे जिसका उल्लेख बाइबल और कुरआन में हुआ है। उनका अनुमान है कि शायद ये घटनाएँ फ़लस्तीन के दक्षिणी और अरब के उत्तरी भाग में घटित हुई होंगी। सीना प्रायद्वीप के प्राकृतिक और आर्थिक भूगोल को देखते हुए वे इस बात को बिल्कुल काल्पनिक समझते हैं कि इतनी बड़ी क़ौम यहाँ वर्षों एक-एक जगह पड़ाव करती हुई गुज़र सकी थी, मुख्य रूप से जबकि मिस्र की ओर से उसकी रसद का रास्ता भी कटा हुआ था और दूसरी ओर स्वयं उस प्रायद्वीप के पूरब और उत्तर में अमालिका के क़बीले उसमें अवरोध पैदा करने पर उतारू थे। इन बातों को सामने रखने से सही तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है कि इन कुछ छोटी-सी आयतों में अल्लाह ने बनी इसराईल पर अपने जिन उपकारों का उल्लेख किया है, वे वास्तव में कितने बड़े उपकार थे और इसके बाद यह कितनी बड़ी कृतघ्नता थी कि अल्लाह की दया व कृपा की ऐसी खुली निशानियाँ देख लेने पर भी यह क़ौम बरावर उन अवज्ञाओं, नाफ़रमानियों और विद्रोहों की दोषी होती रही जिससे उसका इतिहास भरा पड़ा है। (तुलना के लिए देखिए क़ुरआन की सूरा-2 (बक़रा), टिप्पणी 72, 73,76)
وَإِذۡ قِيلَ لَهُمُ ٱسۡكُنُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ وَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ وَقُولُواْ حِطَّةٞ وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطِيٓـَٰٔتِكُمۡۚ سَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 160
(161) याद करो120 वह समय जब उनसे कहा गया था कि “इस बस्ती में जाकर बस जाओ और इसकी पैदावार से अपनी इच्छानुसार रोज़ी हासिल करो और 'हित्ततुन-हित्ततुन' कहते जाओ और नगर के द्वार में सजदा करते हुए प्रवेश करो, हम तुम्हारी ग़लतियाँ क्षमा करेंगे और नेक रवैया रखनेवालों पर और ज़्यादा मेहरबानी करेंगे।”
120. अब बनी इसराईल के इतिहास की उन घटनाओं की ओर संकेत किया जा रहा है जिनसे स्पष्ट होता है कि अल्लाह के उपरोक्त उपकारों का उत्तर ये लोग कैसी-कैसी अपराधपूर्ण धृष्टताओं के साथ देते रहे और फिर किस तरह निरंतर विनाश के गढ़े में गिरते चले गए।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 161
(162) मगर जो लोग उनमें से अत्याचारी थे, उन्होंने उस बात को जो उनसे कही गई थी, बदल डाला और नतीजा यह निकला कि हमने उनके अत्याचार के बदले में उनपर आसमान से अज़ाब भेज दिया।121
121. व्याख्या के लिए देखिए, क़ुरआन की सूरा-2 (बक़रा), टिप्पणी 74,751
وَسۡـَٔلۡهُمۡ عَنِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَتۡ حَاضِرَةَ ٱلۡبَحۡرِ إِذۡ يَعۡدُونَ فِي ٱلسَّبۡتِ إِذۡ تَأۡتِيهِمۡ حِيتَانُهُمۡ يَوۡمَ سَبۡتِهِمۡ شُرَّعٗا وَيَوۡمَ لَا يَسۡبِتُونَ لَا تَأۡتِيهِمۡۚ كَذَٰلِكَ نَبۡلُوهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 162
(163) और तनिक इनसे उस बस्ती का हाल भी पूछो जो समुद्र के किनारे स्थित थी।122 इन्हें याद दिलाओ वह घटना कि वहाँ के लोग सब्त (शनिवार) के दिन अल्लाह के आदेश के विरुद्ध काम करते थे और यह कि मछलियाँ सब्त ही के दिन उभर-उभरकर सतह पर उनके सामने आती थी123 और सब्त के सिवा बाक़ी दिनों में नहीं आती थीं। यह इसलिए होता था कि हम उनकी अवज्ञा के कारण उनको परीक्षा में डाल रहे थे।124
122. अन्वेषकों का ज़्यादा रुझान इस ओर है कि यह स्थान ऐला या ऐलात या ऐलूत था, जहाँ अब इसराईल के यहूदी राज्य ने इसी नाम की एक बन्दरगाह बनाई है, और जिसके क़रीब ही जार्डन की मशहूर बन्दरगाह अक्बा स्थित है। यह लाल सागर की उस शाखा के दूसरे सिरे पर स्थित है जो सौना प्रायद्वीप के पूर्वी और अरब के पश्चिमी तट के बीच एक लम्बी खाड़ी के रूप में दिखाई देती है। बनी इसराईल की उन्नति काल में यह बड़ा महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक केन्द्र था। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपने लाल सागर के सामरिक और व्यावसायिक बेड़े का हेड क्वार्टर (केन्द्रीय स्थल) इसी नगर को बनाया था। जिस घटना की ओर यहाँ संकेत किया गया है उसके बारे में यहूदियों के पवित्र ग्रंथों में हमें कोई उल्लेख नहीं मिलता और इनका इतिहास भी इस बारे में चुप है, परन्तु क़ुरआन मजीद में जिस ढंग से इस घटना का यहाँ और सूरा-2 (बक़रा) में उल्लेख किया गया है, उससे साफ़ स्पष्ट होता है कि क़ुरआन अवतरण के समय में बनी इसराईल आम तौर पर इस घटना को अच्छी तरह जानते थे और यह सत्य है कि मदीना के यहूदियों ने, जो नबी (सल्ल०) के विरोध का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे, क़ुरआन के इस उल्लेख पर बिल्कुल कोई आपत्ति नहीं की।
123. 'सब्ज' शनिवार को कहते हैं। यह दिन बनी इसराईल के लिए पवित्र घोषित किया गया था और अल्लाह ने इसे अपने और इसराईल की सन्तान के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमेशा के संकल्प का निशान बताते हुए ताकीद की थी कि इस दिन दुनिया का कोई काम न किया जाए, घरों में आग तक न जलाई जाए, जानवरों और लौंडी-गुलामों तक से कोई सेवा न ली जाए और यह कि जो व्यक्ति इस नियम का उल्लंघन करे, उसे क़त्ल कर दिया जाए। लेकिन बनी इसराईल ने आगे चलकर इस निर्णय का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन शुरू कर दिया। यर्मियाह नबी के समय में (जो सन् 628 और 586 ई० पू० के बीच गुज़रे हैं) ख़ास यरूशलम के फाटकों से लोग सब्त के दिन माल-अस्बाब ले-लेकर गुज़रते थे। इसपर उन नबी ने अल्लाह की ओर से यहूदियों को धमकी दी कि अगर तुम लोग शरीअत के इस खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन से न रुके तो यरूशलम को जलाकर भस्म कर दिया जाएगा, (यर्मियाह 17 : 21-27) । इसी की शिकायत हज़की-एल नबी भी करते हैं जिनका काल 596 और 536 ई० पू० के बीच हुआ है, चुनांचे उनकी किताब में सब्त के निरादर को यहूदियों के राष्ट्रीय अपराधों में से एक बड़ा अपराध कहा गया है, (हजक़ी-एल 20 : 12, 24)। इन उद्धरणों से यह अनुमान किया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद यहाँ जिस घटना का उल्लेख कर रहा है वह भी शायद इसी युग की घटना होगी।
وَإِذۡ قَالَتۡ أُمَّةٞ مِّنۡهُمۡ لِمَ تَعِظُونَ قَوۡمًا ٱللَّهُ مُهۡلِكُهُمۡ أَوۡ مُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗاۖ قَالُواْ مَعۡذِرَةً إِلَىٰ رَبِّكُمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 163
(164) और इन्हें यह भी याद दिलाओ कि जब उनमें से एक गिरोह ने दूसरे गिरोह से कहा था कि “तुम ऐसे लोगों को क्यों उपदेश देते हो जिन्हें अल्लाह नष्ट करनेवाला या कड़ी सज़ा देनेवाला है" तो उन्होंने उत्तर दिया था कि “हम यह सब कुछ तुम्हारे रब के सामने अपने को बेकसूर साबित करने लिए करते हैं और इस आशा पर करते हैं कि शायद ये लोग उसकी अवज्ञा से बचने लगें।"
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦٓ أَنجَيۡنَا ٱلَّذِينَ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلسُّوٓءِ وَأَخَذۡنَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ بِعَذَابِۭ بَـِٔيسِۭ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 164
(165) अन्तत: वे उन आदेशों को बिल्कुल ही भुला बैठे, जो उन्हें याद कराए गए थे, तो हमने उन लोगों को बचा लिया जो बुराई से रोकते थे और बाक़ी सब लोगों को, जो अत्याचारी थे, उनकी अवज्ञाओं पर कठोर यातना में पकड़ लिया।125
125. इस वर्णन से मालूम हुआ कि उस बस्ती में तीन प्रकार के लोग मौजूद थे- एक वे जो धड़ल्ले से अल्लाह के आदेशों का उल्लंघन कर रहे थे, दूसरे वे जो स्वयं तो उल्लंघन नहीं करते थे, परन्तु इस उल्लंघन को ख़ामोशी के साथ बैठे देख रहे थे और उपदेश देनेवालों से कहते थे कि इन अभागों को उपदेश देने का क्या लाभ। तीसरे वे जिनका ईमानी स्वाभिमान अल्लाह की मर्यादाओं के इस खुल्लम-खुल्ला निरादर को सहन न कर सकता था और वे इस विचार से नेकी का हुक्म करने और बदी से रोकने में सक्रिय थे कि शायद वे अपराधी लोग उनके उपदेश से सीधे रास्ते पर आ जाएँ, और अगर वे सीधा रास्ता न अपनाएँ तब भी हम अपनी हद तक तो अपना कर्त्तव्य निभाकर अल्लाह के सामने अपने बरी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर ही दें। ऐसी स्थिति में जब उस बस्ती पर अल्लाह का अज़ाब आया तो क़ुरआन मजीद कहता है कि इन तीनों गिरोहों में से केवल तीसरा गिरोह ही इससे बचाया गया, क्योंकि उसी ने अल्लाह के समक्ष अपनी मजबूरी रखने की चिन्ता की थी और वही था जिसने अपने बरी होने का प्रमाण जुटा रखा था। बाकी दोनों गिरोहों की गिनती अत्याचारियों में हुई और वे अपने अपराध की हद तक अज़ाब के शिकार हुए। अलबत्ता बन्दर केवल वे लोग बनाए गए जो पूरी उदंडता के साथ आदेश की अवहेलना करते चले गए थे। कुछ टीकाकारों ने यह विचार व्यक्त किया है कि अल्लाह ने पहले गिरोह के अज़ाब के शिकार होने को और तीसरे गिरोह के बरी होने को स्पष्ट किया है, लेकिन दूसरे गिरोह के बारे में ख़ामोशी अपनाई है। इसलिए उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह बरी होनेवालों में से था या अज़ाब का शिकार होनेवालों में से, लेकिन कुरआन के वर्णन से इस विचार की पुष्टि नहीं होती। स्पष्ट है कि किसी बस्ती पर अल्लाह का अज़ाब आने की शक्ल में पूरी बस्ती दो ही गिरोहों में बँट सकती है, एक वह जिसपर अज़ाब आए, और दूसरा वह जो बचा लिया जाए। अब अगर क़ुरआन के बयान के अनुसार बचनेवाला गिरोह केवल तीसरा था तो निश्चित रूप से पहले और दूसरे दोनों गिरोह न बचनेवालों में शामिल होंगे। इसी का समर्थन 'माज़िरतन इला रब्बिकुम' (तुम्हारे रब के सामने अपने को बेकसूर साबित करने के लिए) के वाक्य से भी होता है जिसकी पुष्टि बाद के वाक्य में स्वयं अल्लाह ने कर दी है। क़ुरआन और हदीस के दूसरे कथनों से भी हमें ऐसा ही मालूम होता है कि सामूहिक अपराधों के बारे में अल्लाह का कानून यही है । अतः क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि "डरो उस फ़ितने से जिसके वबाल में मुख्य रूप से केवल वही लोग गिरफ़्तार नहीं होंगे जिन्होंने तुममें से अत्याचार किया हो" और इसकी व्याख्या में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि “अल्लाह सर्वोच्च और प्रतापी लोगों के जा अपराधों पर जनसमान्य को सज़ा नहीं देता जब तक जनसमान्य की यह हालत न हो जाए कि वे अपनी आँखों के सामने बुरे काम होते देखें और उन कामों के विरुद्ध रोष व्यक्त करने का सामर्थ्य रखते हों और फिर भी कोई रोष व्यक्त न करें। अत: जब लोगों का यह हाल हो जाता है तो अल्लाह सामान्य व असामान्य सबको अज़ाब में डाल देता है। इसके अतिरिक्त जो आयतें इस समय हमारे सामने हैं उनसे यह भी मालूम होता है कि इस बस्ती पर अल्लाह का अज़ाब दो किस्तों में आया था। पहली किस्त वह जिसे अज़ाबे बईस (कठोर यातना) कहा सा गया है और दूसरी किस्त वह जिसमें अवज्ञा पर अडिग रहनेवालों को बन्दर बना दिया गया। हम ऐसा समझते हैं कि पहली क़िस्त के अज़ाब में पहले दोनों गिरोह शामिल थे और दूसरी किस्त का अज़ाब सिर्फ़ पहले गिरोह को दिया गया था। “सही ज्ञान अल्लाह ही को है, अगर हमने सही लिखा है तो यह अल्लाह की तौफ़ीक़ से है और अगर ग़लती की है तो वह हमारी ग़लती है, और अल्लाह बड़ा माफ करनेवाला मेहरबान है।"
فَلَمَّا عَتَوۡاْ عَن مَّا نُهُواْ عَنۡهُ قُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 165
(166) फिर जब वे पूरी उदंडता के साथ वही काम किए चले गए जिससे उन्हें रोका गया था तो हमने कहा, “बन्दर हो जाओ अपमानित और तिरस्कृत ।"126
126. व्याख्या के लिए देखिए सूरा बक़रा, टिप्पणी 83
وَإِذۡ تَأَذَّنَ رَبُّكَ لَيَبۡعَثَنَّ عَلَيۡهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَن يَسُومُهُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِۗ إِنَّ رَبَّكَ لَسَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 166
(167) और याद करो जबकि तुम्हारे रब ने एलान कर दिया कि127 “वह क़ियामत तक बराबर ऐसे लोग बनी इसराईल पर मुसल्लत करता रहेगा जो उनको सबसे बुरी यातना देंगे।‘’128 निश्चित रूप से तुम्हारा रब सज़ा देने में तीव्र है और निश्चय ही वह क्षमा और दया से भी काम लेनेवाला है।
127. मूल शब्द 'त-अज़्ज़-न' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ लगभग वही है जो नोटिस देने या सचेत कर देने का है।‘’
128. यह चेतावनी बनी इसराईल को लगभग आठवीं सदी ईसा पूर्व से बराबर दी जा रही थी। अतएव यहूदियों के पवित्र ग्रंथों के संग्रह में यशायाह और यर्मियाह और इनके बाद आनेवाले नबियों के तमाम ग्रन्थ इसी चेतावनी पर सम्मिलित हैं। फिर यही चेतावनी मसीह (अलैहि.) ने उन्हें दी, जैसा कि इंजीलों में उनके कई व्याख्यानों से स्पष्ट है । अन्त में कुरआन ने इसकी पुष्टि की। अब यह बात कुरआन और उससे पहले के ग्रन्थों की सच्चाई पर एक खुली गवाही है कि उस समय से लेकर आज तक इतिहास में कोई युग ऐसा नहीं है जिसमें यहूदी क़ौम दुनिया में कहीं-न-कहीं रौंदी और अपमानित न की जाती रही हो।
وَقَطَّعۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أُمَمٗاۖ مِّنۡهُمُ ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنۡهُمۡ دُونَ ذَٰلِكَۖ وَبَلَوۡنَٰهُم بِٱلۡحَسَنَٰتِ وَٱلسَّيِّـَٔاتِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 167
(168) हमने उनको धरती में टुकड़े-टुकड़े करके बहुत-सी क़ौमों में बाँट दिया। कुछ लोग उनमें नेक थे और कुछ उससे भिन्न, और हम उनको अच्छी और बुरी परिस्थितियों से परीक्षा में डालते रहे कि शायद ये पलट आएँ ।
فَخَلَفَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ خَلۡفٞ وَرِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَأۡخُذُونَ عَرَضَ هَٰذَا ٱلۡأَدۡنَىٰ وَيَقُولُونَ سَيُغۡفَرُ لَنَا وَإِن يَأۡتِهِمۡ عَرَضٞ مِّثۡلُهُۥ يَأۡخُذُوهُۚ أَلَمۡ يُؤۡخَذۡ عَلَيۡهِم مِّيثَٰقُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن لَّا يَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّ وَدَرَسُواْ مَا فِيهِۗ وَٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 168
(169) फिर अगली नस्लों के बाद ऐसे अयोग्य लोगों ने उनका स्थान लिया जो अल्लाह की किताब के उत्तराधिकारी होकर इसी अधमी संसार के लाभ समेटते हैं और कह देते हैं कि आशा है हमें क्षमा कर दिया जाएगा, और अगर दुनिया की वही पूँजी सामने आती है तो फिर लपककर उसे ले लेते हैं।129 क्या इनसे किताब की प्रतिज्ञा नहीं ली जा चुकी है कि अल्लाह के नाम पर वही बात कहे जो सत्य हो? और ये स्वयं पढ़ चुके हैं जो किताब में लिखा है।130 आख़िरत का निवास स्थान तो अल्लाह से डरनेवालों के लिए ही उत्तम है।131 क्या तुम इतनी-सी बात नहीं समझते?
129. अर्थात पाप करते हैं और जानते हैं कि पाप है, परन्तु इस भरोसे पर उसे करते हैं कि हमें तो किसी-न-किसी रूप में क्षमा कर ही दिया जाएगा, क्योंकि हम अल्लाह के चहेते हैं और चाहे हम कुछ भी करें, बहरहाल हमारी माफ़ी होनी ज़रूरी है । इसी भ्रम का परिणाम है कि पाप करने के बाद वे न लज्जित होते हैं, न तौबा करते हैं, बल्कि जब फिर वैसे ही पाप का अवसर सामने आता है तो फिर उसमें लिप्त हो जाते हैं। अभागे लोग उस ग्रंथ के उत्तराधिकारी हुए जो उनको दुनिया का इमाम (नायक) बनानेवाली थी, परन्तु उनकी संकीर्ण हृदयता और उनके तुच्छ विचारों ने इस कीमती नुस्खे को लेकर दुनिया की तुच्छ पूँजी कमाने से अधिक उच्च किसी चीज़ का साहस न किया और बजाय इसके कि दुनिया में न्याय और सन्मार्ग के ध्वजावाहक और भलाई और कल्याण-मार्गदर्शक बनते, सिर्फ़ दुनिया के कुत्ते बनकर रह गए।
130. अर्थात ये स्वयं जानते हैं कि तौरात में कहीं भी बनी इसराईल के लिए मुक्ति का परवाना बिना शर्त मिल जाने का उल्लेख नहीं है, न अल्लाह ने कभी उनसे यह कहा और न उनके पैग़म्बरों ने कभी उनको यह भरोसा दिलाया कि तुम जो चाहो करते फिरो, हर स्थिति में तुम्हारी मुक्ति अवश्य होगी। फिर आख़िर उन्हें क्या अधिकार है कि अल्लाह से वह बात जोड़ दें जो स्वयं अल्लाह ने कभी नहीं कही, हालांकि उनसे यह वचन लिया गया था कि अल्लाह के नाम से कोई बात सत्य के विपरीत नं कहेंगे।
وَٱلَّذِينَ يُمَسِّكُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ ۝ 169
(170) जो लोग किताब की पाबन्दी करते हैं और जिन्होंने नमाज़ स्थापित कर रखी है, निश्चित रूप से ऐसे सच्चरित्र लोगों का बदला हम बर्बाद नहीं करेंगे।
۞وَإِذۡ نَتَقۡنَا ٱلۡجَبَلَ فَوۡقَهُمۡ كَأَنَّهُۥ ظُلَّةٞ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُۥ وَاقِعُۢ بِهِمۡ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 170
(171) इन्हें वह समय भी कुछ याद है जबकि हमने पहाड़ को हिलाकर उनपर इस तरह छा दिया था कि मानो वह छतरी है और यह समझ रहे थे कि वह उनपर आ पड़ेगा और उस समय हमने उनसे कहा था कि जो किताब हम तुम्हें दे रहे हैं उसे मज़बूती के साथ थामो और जो कुछ उसमें लिखा है, उसे याद रखो। आशा है कि तुम ग़लत राह पर चलने से बचे रहोगे।132
132. संकेत है उस घटना की ओर जो मूसा (अलैहि.) को शहादतनामा (प्रमाण-पत्र) की संगीन शिलाएँ प्रदान किए जाने के मौके पर सीना पर्वत के दामन में पेश आई थी। बाइबल में इस घटना का इन शब्दों में उल्लेख किया गया है- ‘’और मूसा लोगों को खेमागाह से बाहर लाया कि ख़ुदा से मिलाए और वे पहाड़ के नीचे आ खड़े हुए और सीना पहाड़ ऊपर से नीचे तक धुएँ से भर गया, क्यों प्रभु शोले में होकर इसपर उतरा और धुआँ तन्नूर के धुएँ की तरह ऊपर को उठ रहा था और वह सारा पहाड़ ज़ोर से हिल रहा था।” (निर्गमन 19 : 17-18) इस तरह अल्लाह ने बनी इसराईल से किताब की पाबन्दी का वचन लिया और वचन लेते हुए वाह्यत: से उनपर ऐसा वातावरण आच्छादित कर दिया जिससे उन्हें अल्लाह के प्रताप और उसकी महानता और उसकी श्रेष्ठता और उस वचन की महत्ता का पूरा-पूरा एहसास हो और वे जगत् के उस सम्राट के साथ प्रतिज्ञा सुदृढ़ करने को कोई साधारण-सी बात न समझें।
وَإِذۡ أَخَذَ رَبُّكَ مِنۢ بَنِيٓ ءَادَمَ مِن ظُهُورِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَأَشۡهَدَهُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَلَسۡتُ بِرَبِّكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ شَهِدۡنَآۚ أَن تَقُولُواْ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ إِنَّا كُنَّا عَنۡ هَٰذَا غَٰفِلِينَ ۝ 171
(172) और ऐ नबी !133 लोगों को याद दिलाओ वह समय जबकि तुम्हारे रब ने बनी आदम की पीठों से उनकी नस्ल को निकाला था और उन्हें स्वयं उनपर गवाह बनाते हुए पूछा था, “क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?" उन्होंने कहा, “ज़रूर आप ही हमारे रब हैं, हम इसपर गवाही देते हैं।"134 यह हमने इसलिए किया कि कहीं तुम क़ियामत के दिन यह न कह दो कि "हम तो इस बात से बेख़बर थे।”
133. ऊपर का वर्णन-क्रम इस बात पर समाप्त हुआ था कि अल्लाह ने बनी इसराईल से बन्दगी और आज्ञापालन का वचन लिया था। अब आम इंसानों को सम्बोधित करके उन्हें बताया जा रहा है कि बनी इसराईल ही की कोई विशेषता नहीं है, वास्तव में तुम सब अपने पैदा करनेवाले के साथ एक प्रतिज्ञा में बंधे हुए हो और तुम्हें एक दिन जवाबदेही करनी है कि तुमने उस प्रतिज्ञा की कहाँ तक पाबंदी की।
134. जैसा कि बहुत-सी हदीसों से मालूम होता है, यह मामला आदम की संरचना के अवसर पर सामने आया था। उस समय जिस तरह फ़रिश्तों को जमा करके पहले इंसान को सज्दा कराया गया था और धरती पर इंसान की 'खिलाफ़त' (प्रतिनिधित्व) का एलान किया गया था, उसी तरह आदम की पूरी नस्ल को भी, जो कियामत तक पैदा होनेवाली थी, अल्लाह ने एक ही साथ अस्तित्व और चेतना प्रदान करके अपने सामने हाज़िर किया था और उनसे अपने रब होने की गवाही ली थी। इस मामले को कुछ लोग केवल उपमामयी वर्णनशैली पर आधारित बताते हैं। उनका विचार है कि वास्तव में यहाँ क़ुरआन मजीद केवल यह बात मन में बिठाना चाहता है कि अल्लाह के रब होने का इकरार इंसानी प्रकृति में पूरी तरह समाविष्ट है और इस बात का यहाँ ऐसे ढंग से उल्लेख किया गया है कि मानो यह एक घटना थी जो बात्य-जगत में घटी, लेकिन हम इस अर्थ को सही नहीं समझते । क़ुरआन और हदीस दोनों में इसे एक स्पष्ट घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया है और केवल घटना वर्णन कर देने को ही पर्याप्त नहीं समझा गया, बल्कि यह भी कहा गया है कि कियामत के दिन आदम की सन्तान पर हुज्जत (युक्ति) स्थापित करते हुए इस आदिकालीन प्रतिज्ञा और इक़रार को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा इसलिए कोई कारण नहीं कि हम इसे केवल एक उपमामयी वर्णशैली समझें । [आदिकाल में पूरी इंसानी नस्ल के] इस एकत्र समूह को अगर कोई व्यक्ति संभावना से परे समझता है तो यह केवल उसकी सोच की परिधि की तंगी का परिणाम है, वरना वास्तव में तो इंसानी नस्ल वर्तमान क्रमागत जन्म की संभावना से जितना क़रीब है, उतना ही आदिकाल में उनका सामूहिक प्रादुर्भाव और आख़िरत में उनका सामूहिक रूप से उठाया जाना भी संभावना से निकट है। फिर यह बात अत्यंत बुद्धिसंगत मालूम होती है कि इंसान जैसी बुद्धि व चेतनावाले और उपभोग और अधिकारवाले प्राणी को धरती पर खलीफा के रूप में नियुक्त करते समय अल्लाह उसे वास्तविकता से अवगत कराए और उससे अपनी वफ़ादारी का इक़रार (Oath of allegiance) ले।
أَوۡ تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أَشۡرَكَ ءَابَآؤُنَا مِن قَبۡلُ وَكُنَّا ذُرِّيَّةٗ مِّنۢ بَعۡدِهِمۡۖ أَفَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 172
(173) या-यह न कहने लगो कि “शिर्क की शुरूआत तो हमारे बाप-दादा ने हमसे पहले की थी और हम बाद को उनकी नस्ल से पैदा हुए । क्या आप हमें उस ग़लती में पकड़ते हैं, जो ग़लत काम करनेवालों ने किया था? "135
135. इस आयत में वह उद्देश्य बताया गया है जिसके लिए आदिकाल में आदम की पूरी नस्ल से इक़रार लिया गया था और वह यह है कि इंसानों में से जो लोग अपने अल्लाह से विद्रोह करें, वे अपने इस अपराध के पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराए जाएँ। उन्हें अपनी सफ़ाई में न तो न जानने का बहाना बनाने का मौक़ा मिले और न वे पिछली नस्लों पर अपनी गुमराही की ज़िम्मेदारी डालकर स्वयं ज़िम्मेदारी से बरी हो सकें। मानो दूसरे शब्दों में अल्लाह इस आदिकालिक प्रतिज्ञा व वचन को इस बात पर दलील करार देता है कि मानवजाति में से हर व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से अल्लाह के अकेला इलाह (पूज्य) होने और अकेला रब होने की गवाही अपने भीतर लिए हुए है और इस आधार पर यह कहना ग़लत है कि कोई व्यक्ति पूरी बेख़बरी के कारण या एक गुमराह वातावरण में पलने-बढ़ने के कारण अपनी गुमराही की ज़िम्मेदारी से पूरी तरह बरी हो सकता है। अब प्रश्न पैदा होता है कि अगर यह आदिकालिक प्रतिज्ञा व वचन वास्तव में व्यवहार में आया भी था तो क्या उसकी याद हमारी चेतना और स्मृति में सुरक्षित है? अगर नहीं तो फिर उस इकरार को, जिसकी याद हमारी चेतना और स्मृति से मिट चुकी है, हमारे विरुद्ध प्रमाण कैसे समझा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि अगर इस प्रतिज्ञा और बचन का चिह्न इंसान की चेतना और स्मृति में ताज़ा रहने दिया जाता, तो इंसान का दुनिया के वर्तमान परीक्षास्थल में भेजा जाना सिरे से बेकार हो जाता, क्योंकि इसके बाद फिर इस परीक्षा का कोई अर्थ ही बाकी न रह जाता। इसलिए इस चिह्न को चेतना और स्मृति में तो ताज़ा नहीं रखा गया, लेकिन वह अन्तः चेतना (Sub-Conscious Mind) और अन्तर्बोध (Intuition) में निश्चित रूप से मौजूद है। इसका हाल वही है जो हमारे तमाम दूसरे अन्तः चेतना और अन्तर्बोध संबंधी ज्ञानों का हाल है। संस्कृति व सभ्यता और चरित्र व आचरण के तमाम विभागों में इंसान से आज तक जो कुछ भी प्रकट हुआ है, वह सब वास्तव में इंसान के भीतर संभावना एवं क्षमता स्वरूप (Potentially) विद्यमान थी। बाह्य और अन्तः प्रेरकों ने मिल-जुलकर अगर कुछ किया है तो केवल इतना कि जो कुछ क्षमता स्वरूप मौजूद था उसे व्यवहारतः कर दिया। यह एक सच्चाई है कि कोई शिक्षा, कोई दीक्षा, कोई वातावरणीय प्रभाव और कोई आन्तरिक उत्प्रेरक इंसान के भीतर कोई चीज़ भी, जो उसमें क्षमता के रूप में मौजूद न हो,कदापि पैदा नहीं कर सकती और इसी तरह ये सब प्रभाव डालनेवाली चीजें आगर अपना तमाम ज़ोर लगा भी दें तो उनमें यह शक्ति नहीं है कि उन चीज़ों में से, जो इंसान के भीतर क्षमता स्वरूप मौजूद हैं, किसी चीज़ को बिल्कुल मिटा दें। ज़्यादा-से-ज्यादा जो कुछ वे कर सकते हैं वह केवल यह है कि उसे मूल प्रकृति से विमुख (Pervert) कर दें। लेकिन वह चीज़ तमाम परिवर्तनों और विकारों के बावजूद अन्दर मौजूद रहेगी, प्रकट होने के लिए ज़ोर लगाती रहेगी और बाह्य अपील का जवाब देने के लिए तत्पर रहेगी। यह मामला जैसा कि हमने अभी बयान किया, हमारी तमाम अवचेतना और पराचेतना से संबंधित ज्ञानों के साथ सामान्य रूप से पाया जाता है। वे सब हमारे भीतर क्षमता के के रूप में मौजूद हैं और उनके मौजूद होने का निश्चित प्रमाण उन चीज़ों से हमें मिलता है जो व्यवहारतः हमसे प्रकट होती हैं। इन सबके प्रकट होने में बाहरी याददिहानी.शिक्षा-दीक्षा और गठन की ज़रूरत होती है और जो कुछ हमसे प्रकट होता है, वह मानो वास्तव में बाहरी अपील का वह जवाब है जो हमारे भीतर की क्षमता के रूप में मौजूद चीज़ों की ओर से मिलता है। इन सबको भीतर की ग़लत इच्छाओं और बाहर के ग़लत प्रभाव दबाकर, परदा डालकर विमुख और विकृत करके निरस्तकर सकते हैं, परन्तु बिल्कुल समाप्त नहीं कर सकते, और इसी लिए आन्तरिक अनुभूति और बाह्य प्रयत्न दोनों से सुधार और परिवर्तन (Conversion) संभव होता है। ठीक ठीक यही स्थिति उस अन्तर्ज्ञान की भी है जो हमें सृष्टि में अपनी वास्तविक दशा और सृष्टि के पैदा करनेवाले के साथ अपने संबंध के बारे में प्राप्त है। उसके मौजूद होने का प्रमाण यह है कि वह मानव-जीवन के प्रत्येक काल में, धरती के प्रत्येक भाग में, हर बस्ती, हर पुश्त और हर नस्ल में उभरता रहा है और कभी दुनिया की कोई शक्ति उसे मिटा देने में सफल नहीं हो सकी है। उसके वास्तविकता के अनुरूप होने का प्रमाण यह है कि जब कभी वह उभरकर व्यावहारिक रूप से हमारे जीवन में कार्यरत हुआ है, उसने अच्छे और लाभकारी परिणाम ही दिए हैं। उसको उभरने और प्रकट होने और व्यावहारिक रूप अपनाने के लिए एक बाहरी अपील को सदा ज़रूरत रही है, चुनाचे तमाम नबी (अलैहि०) और आसमानी किताबें और उनकी पैरवी करनेवाले सत्य के आवाहक, सब के सब यही सेवा करते रहे हैं। इसी लिए उनको कुरआन में 'मुज़क्किर' (याद दिलानेवाले), ज़िक्र (याद), तज़्किरा (स्मृति) और उनके काम को तज़्कीर (याददिहानी) के शब्दों से व्यक्त किया गया है, जिसके अर्थ ये हैं कि नबी और किताबें और सत्य का आह्वान करनेवाले, इंसान के भीतर कोई नई चीज़ नहीं पैदा करते, बल्कि उसी चीज़ को उभारते और ताज़ा करते हैं जो उनके भीतर पहले से मौजूद थी। मानवीय अन्तः करण की ओर से हर काल में इस याददेहानी का जवाब इस प्रकार कि 'लब्बैक' (मैं हाज़िर हूँ), मिलना इस बात का एक और प्रमाण है कि अन्दर सचमुच कोई ज्ञान छिपा हुआ था जो अपने पुकारनेवाले की आवाज़ पहचानकर उत्तर देने के लिए उभर आया। फिर इसे अशिक्षा, अज्ञान, मनोकामनाएँ, पूर्वाग्रहों, जिन्न और इंसान शैतानों को गुमराह कर देनेवाली शिक्षाओं और प्रलोभनों ने हमेशा दबाने, छिपाने, राह से बेराह करने और बिगाड़ने की कोशिश की है, जिसके फलस्वरूप बहुदेववाद, नास्तिकता, अनीश्वरवाद, विधर्मिता और नैतिक व व्यावहारिक बिगाड़ पैदा होता रहा है, लेकिन गुमराही की इन सारी शक्तियों के संयुक्त कार्य के बावजूद इस ज्ञान का जन्मजात निशान इंसान के दिल पर किसी न किसी हद तक अंकित रहा है और इसी लिए याददेहानी और नवीनीकरण के प्रयास उसे उभारने में सफल होते रहे हैं। निस्संदेह दुनिया के वर्तमान जीवन में जो लोग सत्य और वास्तविकता के इंकार पर अडिग आग्रह कर रहे हैं, वे अपने कुतर्को से इस जन्मजात निशान के अस्तित्व का इंकार कर सकते हैं या कम-से-कम इसे संदिग्ध सिद्ध कर सकते हैं। लेकिन जब हिसाब का दिन आ जाएगा उस दिन उनका पैदा करनेवाला उनकी चेतना और स्मृति में उस आदिकालिक एकत्र समूह की याद ताज़ा करेगा, जबकि उन्होंने उसको अपना एक मात्र उपास्य और अकेला रब मान लिया था। फिर वह इस बात का प्रमाण भी उनके अपने नफ़्स ही से जुटा देगा कि इस प्रतिज्ञा का चिह्न उनके मन में बराबर मौजूद रहा, और यह भी वह उनके अपने जीवन ही के रिकार्ड से खुली आँखों दिखा देगा कि उन्होंने किस-किस तरह इस निशान को दबाया, कब-कब और किन-किन अवसरों पर उनके दिल से पुष्टि की आवाजें उठीं, अपनी और अपने आस-पास की गुमराहियों पर उनके अन्तर्बोध ने कहाँ-कहाँ और किस-किस वक़्त इंकार की आवाज़ उठाई, सत्य का आह्वान करनेवालों के आह्वान का उत्तर देने के लिए उनके भीतर का छिपा हुआ ज्ञान कितनी-कितनी बार और किस-किस जगह उभरने पर तैयार हुआ और फिर वे अपने पूर्वाग्रहों और अपनी मनेच्छाओं के आधार पर कैसे-कैसे हीलों और बहानों से उसको फरेब देते और ख़ामोश कर देते रहे । वह समय जबकि ये सारे भेद खुलेंगे, हुज्जतबाजियों का नहीं होगा, बल्कि साफ़-साफ़ अपराध के स्वीकार कर लेने का होगा। इसी लिए क़ुरआन मजीद कहता है कि उस समय अपराधी यह नहीं कहेंगे कि हम अज्ञानी थे या अचेत थे, बल्कि यह कहने पर विवश होंगे कि हम 'काफ़िर' थे, अर्थात हमने जान-बूझकर सत्य का इंकार किया। "और वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि वे सत्य के इनकारी थे।” (क़ुरआन)।
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 173
(174) देखो इस तरह हम निशानियाँ स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करते हैं 136और इसलिए प्रस्तुत करते हैं कि ये लोग पलट आएँ ।137
136. अर्थात सत्य-बोध के जो निशान इंसान के अपने अन्त: करण में विद्यमान हैं और सच्चाई की ओर मार्गदर्शन करते हैं।
137. अर्थात विद्रोह और विमुखता की रीति छोड़कर बन्दगी और आज्ञापालन की नीति की ओर वापस हों।
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱلَّذِيٓ ءَاتَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا فَٱنسَلَخَ مِنۡهَا فَأَتۡبَعَهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 174
(175) और ऐ नबी ! इनके सामने उस व्यक्ति का हाल बयान करो जिसको हमने अपनी आयतों का ज्ञान प्रदान किया था138, मगर वह उनकी पाबन्दीयों से निकल भागा। अन्ततः शैतान उसके पीछे पड़ गया, यहाँ तक कि वह भटकनेवालों में शामिल होकर रहा ।
138. इन शब्दों से ऐसा लगा है कि वह ज़रूर कोई निश्चित व्यक्ति होगा जिसकी ओर संकेत किया गया है। लेकिन अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की यह अत्यन्त नैतिक उच्चता है कि वे जब कभी किसी की बुराई को उदाहरण में प्रस्तुत करते हैं तो आम तौर से उसके नाम को स्पष्ट नहीं करते, बल्कि उसके व्यक्तित्व पर परदा डालकर केवल उसके बुरे उदाहरण का उल्लेख कर देते हैं, ताकि उसकी रुसवाई किए बिना वास्तविक उद्देश्य प्राप्त हो जाए। इसी लिए न कुरआन में बताया गया है और न किसी सही हदीस में कि वह व्यक्ति, जिसका यहाँ उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, कौन था। टीकाकारों ने रसूल (सल्ल०) के काल के और उससे पहले के इतिहास के विभिन्न व्यक्तियों पर इस उदाहरण को चस्पा किया है। कोई बलअम बिन बाऊरा का नाम लेता है, कोई उमैया बिन अबिस्सल्त का और कोई सैफ़ी बिन अर-राहिब का । लेकिन सच तो यह है कि वह विशेष व्यक्ति तो परदे में है जो इस उदाहरण में सामने था। हाँ, यह उदाहरण हर उस व्यक्ति पर चस्पाँ होता है, जिसमें यह विशेषता पाई जाती हो।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَرَفَعۡنَٰهُ بِهَا وَلَٰكِنَّهُۥٓ أَخۡلَدَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُۚ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ ٱلۡكَلۡبِ إِن تَحۡمِلۡ عَلَيۡهِ يَلۡهَثۡ أَوۡ تَتۡرُكۡهُ يَلۡهَثۚ ذَّٰلِكَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۚ فَٱقۡصُصِ ٱلۡقَصَصَ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 175
(176) अगर हम चाहते तो उसे उन आयतों के ज़रिये से श्रेष्ठता प्रदान करते, मगर वह तो धरती ही की ओर झुककर रह गया और अपनी मनोकामनाओं ही के पीछे पड़ा रहा, जीभ लटकाए रहे।139 यही उदाहरण है उन लोगों का जो हमारी आयतों को झुठलाते हैं। तुम ये किस्से इनको सुनाते रहो, शायद कि ये कुछ सोच-विचार करें।
139. इन दो संक्षिप्त वाक्यों में बड़े महत्त्वपूर्ण विषय का वर्णन हुआ है जिसे कुछ विस्तृत रूप में समझ लेना चाहिए। वह व्यक्ति, जिसका उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है, अल्लाह की आयतों का ज्ञान रखता था, अर्थात वास्तविकता को जानता था। इस ज्ञान का फल यह निकलना चाहिए था कि वह उस रीति से बचता जिसको वह ग़लत जानता था और वह कार्यनीति अपनाता जो उसे मालूम था कि सही है । ज्ञान के अनुरूप इसी काम की बदौलत अल्लाह उसको मानवता के श्रेष्ठ पदों पर आसीन करता। लेकिन वह दुनिया के लाभों, स्वादों और साज-सज्जाओं की ओर झुक पड़ा और उन तमाम सीमाओं को तोड़कर निकल भागा जिनकी निगरानी का तकाज़ा स्वयं उसका ज्ञान कर रहा था। [इस तरह उसने मानवीय श्रेष्ठता के द्वार अपने ऊपर स्वयं बन्द कर लिए। फिर जब वह केवल अपनी नैतिक कमज़ोरी की बुनियाद पर जानते-बूझते सत्य से मुँह मोड़कर भागा तो शैतान उसके पीछे लग गया और बराबर उसे एक पस्ती से दूसरी पस्ती की ओर ले जाता रहा। इसके बाद अल्लाह उस आदमी की हालत को कुत्ते का उदाहरण देकर समझाता है, जिसकी हर समय लटकी हुई जीभ और टपकती हुई राल एक न बुझनेवाले लोभ की आग और कभी न तृप्त होनेवाली नीयत का पता देती है। उदाहरण देने का आधार वही है जिसके कारण हम अपनी भाषा में ऐसे व्यक्ति को जो दुनिया के लोभ में अंधा हो रहा हो, दुनिया का कुत्ता कहते हैं । कुत्ते की प्रकृति क्या है? साक्षात लोभ व लालच (पेट की भूख और वासना की भूख] अतः उदाहरण देने का तात्पर्य यह है कि दुनियापरस्त आदमी जब ज्ञान और ईमान की रस्सी तुड़ाकर भागता है और मन की अंधी कामनाओं के हाथ में अपनी लगाम दे देता है तो फिर कुत्ते की हालत को पहुंचे बिना नहीं रहता, साक्षात पेट और साक्षात गुप्तांग (वासना)।
سَآءَ مَثَلًا ٱلۡقَوۡمُ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَأَنفُسَهُمۡ كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 176
(177) बड़ा ही बुरा उदाहरण है ऐसे लोगों का जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और वे आप अपने ही ऊपर अत्याचार करते रहे हैं।
مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِيۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 177
(178) जिसे अल्लाह रास्ता दिखाए, बस वही सीधा रास्ता पाता है और जिसको अल्लाह अपने मार्गदर्शन से वंचित कर दे, वही असफल होकर रहता है ।
وَلَقَدۡ ذَرَأۡنَا لِجَهَنَّمَ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ لَهُمۡ قُلُوبٞ لَّا يَفۡقَهُونَ بِهَا وَلَهُمۡ أَعۡيُنٞ لَّا يُبۡصِرُونَ بِهَا وَلَهُمۡ ءَاذَانٞ لَّا يَسۡمَعُونَ بِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 178
(179) और यह सत्य है कि बहुत-से जिन्न और इंसान ऐसे हैं जिनको हमने जहन्नम ही के लिए पैदा किया है ।140
140. इसका यह अर्थ नहीं है कि हमने उनको पैदा ही इस उद्देश्य के लिए किया था कि [उन्हें जहन्नम में डालना है] बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि हमने तो उनको पैदा किया था मन, मस्तिष्क, आँखें और कान देकर, मगर ज़ालिमों ने उनसे कोई काम न लिया और अपने ग़लत कामों की बदौलत अन्ततः जहन्नम के योग्य बनकर रहे। इस विषय को व्यक्त करने के लिए वह वर्णनशैली अपनाई गई है जो मानवीय भाषा में अत्यंत दुख और क्षोभ के समय पर अपनाई जाती है। उदाहरणस्वरूप अगर किसी माँ के बहुत-से जवान-जवान बेटे लड़ाई में जाकर मौत के मुँह में चले गए हों तो वह लोगों से कहती है कि मैंने उन्हें इसलिए पाल-पोसकर बड़ा किया था कि लोहे और आग के खेल में समाप्त हो जाएँ ! इस बात के कहने से उसका ध्येय यह नहीं होता कि सच में उसके पालने-पोसने का उद्देश्य यही था, बल्कि इस दुख भरी शैली में वास्तव में वह कहना यह चाहती है कि मैंने तो इतनी मेहनतों से अपने जिगर का ख़ून पिला-पिलाकर इन बच्चों को पाला था, मगर अल्लाह इन लड़नेवाले दंगाइयों से समझे कि मेरी मेहनत और क़ुरबानी के फल यूँ मिट्टी में मिलकर रहे।
وَلِلَّهِ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ فَٱدۡعُوهُ بِهَاۖ وَذَرُواْ ٱلَّذِينَ يُلۡحِدُونَ فِيٓ أَسۡمَٰٓئِهِۦۚ سَيُجۡزَوۡنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 179
(180) अल्लाह अच्छे141 नामों का पात्र (अधिकारी) है। उसको अच्छे ही नामों से पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो जो उसके नाम रखने में सन्मार्ग से हट जाते हैं। जो कुछ वे करते रहे हैं उसका बदला वे पाकर रहेंगे।142
141. अब व्याख्यान अपने अन्त को पहुंच रहा है इसलिए वार्ता के अन्त में उपदेश और निन्दा की मिली-जुली शैली में लोगों को उनकी कुछ अति स्पष्ट गुमराहियों पर सचेत किया जा रहा है और साथ ही पैग़म्बर के गि आह्वान के मुकाबले में इंकार और उपहास करने का जो रवैया उन्होंने अपना रखा था, उसकी ग़लती समझाते हुए उसके बुरे अंजाम से उन्हें ख़बरदार किया जा रहा है।
142. इंसान अपनी भाषा में वस्तुओं के जो नाम रखता है, वे वास्तव में उस कल्पना पर आधारित होते हैं जो उसके मन में इन वस्तुओं के बारे में हुआ करती है। कल्पना की त्रुटि नाम की त्रुटि के रूप में प्रकट होती है और नाम की त्रुटि विचारों की त्रुटि का पता देती है। फिर वस्तुओं के साथ इंसान का संबंध और मामला भी अनिवार्य रूप से उस कल्पना ही पर आधारित हुआ करता है जो वह अपने मन में उनके बारे में रखता है। विचारों का दोष सम्बन्ध के दोष में प्रकट होता है और विचारों का स्वस्थ और सही होना सम्बन्ध के स्वस्थ और सही होने में प्रकट होकर रहता है। यह वास्तविकता जिस तरह दुनिया की तमाम चीज़ों के मामलों में सही है, उसी तरह अल्लाह के मामले में भी सही है। अल्लाह के लिए नाम (चाहे वे व्यक्तिवाचक नाम हों या गुणवाचक) प्रस्तावित करने में इंसान जो ग़लती भी करता है,वह वास्तव में अल्लाह की ज़ात और गुणों के बारे में उसकी धारणा को त्रुटि का परिणाम होती है। फिर अल्लाह के बारे में अपनी संकल्पना और धारणा में इंसान जितनी और जैसी ग़लतो करता है, उतनी ही और वैसी ही ग़लती उससे अपने जीवन की पूरे नैतिक व्यवहारों के गठन में भी होती है, क्योंकि इंसान के नैतिक व्यवहार का गठन उस विचार पर निर्भर करता है जो उसने अल्लाह के बारे में और अल्लाह के साथ अपने और सृष्टि के बारे में किया हो। इसी लिए कहा कि अल्लाह के नाम रखने में ग़लती करने से बचो, अल्लाह के लिए अच्छे नाम ही सही और उचित हैं और उसे उन्हीं नामों से याद करना चाहिए। उसका नाम प्रस्तावित करने में नास्तिकता का अंजाम बहुत बुरा है। ‘’अच्छे नामों" से तात्पर्य वे नाम हैं जिनसे अल्लाह की श्रेष्ठता और महानता, उसकी पावनता और पवित्रता और उसके पूर्णतम गुण प्रकट होते हों । अल्लाह के नाम रखने में सच्चाई से विमुखता यह है कि अल्लाह को ऐसे नाम दिए जाएँ जो उसके पद से गिरे हुए हों, जो उसके सम्मान के प्रतिकूल हों, जिनसे दोष और कमजोरियाँ उससे जुड़ती हों या जिनसे उसकी पावनतम और महानतम हस्ती के बारे में कोई गलत धारणा सामने आती हो। और यह भी विमुखता ही है कि सृष्टि और ईश-संरचनाओं में से किसी के लिए ऐसा नाम रखा जाए जो केवल अल्लाह ही के लिए सही हो फिर यह जो फ़रमाया कि अल्लाह के नाम रखने में जो लोग टेढ़ी नीति अपनाते हैं उनको छोड़ दो, तो इसका अर्थ यह है कि अगर ये लोग सीधी तरह समझाने से नहीं समझते तो उनकी कठ हुज्जतियों में से तुम्हें उलझने की कोई आवश्यकता नहीं, अपनी गुमराही का अंजाम वे स्वयं देख लेंगे।
وَمِمَّنۡ خَلَقۡنَآ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 180
(181) हमारे पैदा किए हुओं में एक गिरोह ऐसा भी है जो ठीक-ठीक सत्य के अनुसार मार्ग दिखाता और सत्य के अनुसार न्याय करता है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَنَسۡتَدۡرِجُهُم مِّنۡ حَيۡثُ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 181
(182) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, तो उन्हें हम धीरे-धीरे ऐसे तरीक़े से तबाही की ओर ले जाएँगे कि उन्हें खबर तक न होगी।
وَأُمۡلِي لَهُمۡۚ إِنَّ كَيۡدِي مَتِينٌ ۝ 182
(183) मैं उनको ढील दे रहा हूँ, मेरी चाल का कोई तोड़ नहीं है।
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْۗ مَا بِصَاحِبِهِم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 183
(184) और क्या उन लोगों ने कभी सोचा नहीं? इनके साथी पर जुनून (उन्माद) का कोई प्रभाव नहीं है। वह तो एक सचेत करनेवाला है जो (बुरा अंजाम सामने आने से पहले) साफ़-साफ़ चेतावनी दे रहा है।
أَوَلَمۡ يَنظُرُواْ فِي مَلَكُوتِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ وَأَنۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَدِ ٱقۡتَرَبَ أَجَلُهُمۡۖ فَبِأَيِّ حَدِيثِۭ بَعۡدَهُۥ يُؤۡمِنُونَ ۝ 184
(185) क्या इन लोगों ने आकाशों और धरती के प्रबन्ध पर कभी ध्यान नहीं दिया और किसी चीज़ को भी जो अल्लाह ने पैदा की है, आँखें खोलकर नहीं देखा?143 और क्या यह भी उन्होंने नहीं सोचा कि शायद इनकी ज़िन्दगी की मोहलत पूरी होने का समय क़रीब आ लगा हो?144 फिर आखिर पैग़म्बर की इस चेतावनी के बाद और कौन-सी बात ऐसी हो सकती है जिसपर ये ईमान लाएँ?
143. साथी से तात्पर्य मुहम्मद (सल्ल०) हैं। आपको मक्कावालों का साथी इसलिए कहा गया है कि आप उनके लिए अजनबी न थे, उन्हीं लोगों में पैदा हुए, उन्हीं के बीच रहे-बसे । बच्चे से जवान और जवान से बूढ़े हुए। नबी होने से पहले सारी क़ौम आपको एक अत्यन्त सुशील और अति सद्बुद्धिवाला व्यक्ति की हैसियत से जानती थी। नबी होने के बाद जब आपने अल्लाह का सन्देश पहुँचाना शुरू किया तो अचानक आपको मजनूँ (उन्मादी) कहने लगी। स्पष्ट है कि जुनूनी (उन्मादी) उन बातों पर न कहते थे जो आप नबी होने से पहले करते थे, बल्कि केवल उन्हीं बातों पर कहा जा रहा था जिनका आपने नबी होने के बाद प्रचार शुरू किया। इसी वजह से कहा जा रहा है कि इन लोगों ने कभी सोचा भी है कि आखिर इन बातों में से कौन-सी बात जुनून (उन्माद) की है ? कौन-सी बात बेतुकी, निराधार और अनुचित है ? अगर ये आकाश व धरती की व्यवस्था पर विचार करते या अल्लाह की बनाई हुई किसी वस्तु को भी ठहरकर देख लेते तो उन्हें स्वयं मालूम हो जाता कि बहुदेववाद का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) की पृष्टि, रब की बन्दगी का आह्वान और इंसान की ज़िम्मेदारी व जवाबदेही के बारे में जो कुछ उनका भाई उनको समझा रहा है, उसकी सच्चाई पर सृष्टि की यह पूरी व्यवस्था और अल्लाह की सृष्टि का कण-कण गवाही दे रहा है।
144. अर्थात नादान इतना भी नहीं सोचते कि मौत का समय किसी को मालूम नहीं, कुछ खबर नहीं कि कब किसकी मोहलत पूरी हो जाए। फिर अगर इनमें से किसी का अन्तिम समय आ गया और अपने रवैये के सुधार के लिए जो मोहलत उसे मिली हुई है, वह इन्हीं गुमराहियों और दुष्कर्मों में नष्ट हो गई, तो आख़िर उसका अंजाम क्या होगा?
مَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَا هَادِيَ لَهُۥۚ وَيَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 185
(186)—जिसको अल्लाह रास्ता दिखाने से महरूम कर दे उसके लिए फिर कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं है, और अल्लाह उन्हें उनकी उदंडता ही में भटकता हुआ छोड़ देता है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلسَّاعَةِ أَيَّانَ مُرۡسَىٰهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّيۖ لَا يُجَلِّيهَا لِوَقۡتِهَآ إِلَّا هُوَۚ ثَقُلَتۡ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا تَأۡتِيكُمۡ إِلَّا بَغۡتَةٗۗ يَسۡـَٔلُونَكَ كَأَنَّكَ حَفِيٌّ عَنۡهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 186
(187) ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आखिर वह क़ियामत की घड़ी कब आएगी? कहो, “इसका ज्ञान मेरे रब ही के पास है। उसे अपने समय पर वही प्रकट करेगा। आसमानों और ज़मीन में वह बड़ा कठिन समय होगा, वह तुमपर अचानक आ जाएगा।" ये लोग उसके बारे में तुमसे इस तरह पूछते हैं मानो कि तुम उसकी खोज में लगे हुए हो । कहो, “इसका ज्ञान तो केवल अल्लाह को है, मगर अधिकतर लोग इस वास्तविकता को नहीं जानते ।"
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي نَفۡعٗا وَلَا ضَرًّا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ وَلَوۡ كُنتُ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ لَٱسۡتَكۡثَرۡتُ مِنَ ٱلۡخَيۡرِ وَمَا مَسَّنِيَ ٱلسُّوٓءُۚ إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 187
(188) ऐ नबी! इनसे कहो कि "मैं अपने आप के लिए किसी लाभ और हानि का अधिकार नहीं रखता। अल्लाह ही जो कुछ चाहता है वह होता है और अगर मुझे ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञान होता तो मैं बहुत-से लाभ अपने लिए प्राप्त कर लेता और मुझे कभी कोई हानि न पहुँचती।145 मैं तो मात्र एक ख़बरदार करनेवाला और शुभसूचना देनेवाला हूँ उन लोगों के लिए जो मेरी बात माने।”
145. अर्थ यह है कि कियामत की ठीक तारीख वही बता सकता है जिसे रौब (परोक्ष) का ज्ञान हो, और मेरा हाल यह है कि मैं कल के बारे में भी नहीं जानता कि मेरे साथ या मेरे बाल-बच्चों के साथ क्या-कुछ पेश आनेवाला है। तुम स्वयं समझ सकते हो कि अगर यह ज्ञान मुझे प्राप्त होता तो मैं कितनी हानियों से समय से पहले आगाह होकर बच जाता और कितने लाभ केवल अग्रिम ज्ञान की बदौलत के लिए समेट लेता। फिर यह तुम्हारी कितनी बड़ी नादानी है कि तुम मुझसे पूछते हो कि क़ियामत कब आएगी।
۞هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَجَعَلَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا لِيَسۡكُنَ إِلَيۡهَاۖ فَلَمَّا تَغَشَّىٰهَا حَمَلَتۡ حَمۡلًا خَفِيفٗا فَمَرَّتۡ بِهِۦۖ فَلَمَّآ أَثۡقَلَت دَّعَوَا ٱللَّهَ رَبَّهُمَا لَئِنۡ ءَاتَيۡتَنَا صَٰلِحٗا لَّنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 188
(189) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी की जाति से उसका जोड़ा बनाया, ताकि उसके पास शान्ति प्राप्त करे। फिर जब मर्द ने औरत को ढाँक लिया तो उसे एक हल्का-सा गर्भ ठहर गया जिसे लिये-लिये वह चलती-फिरती रही। फिर जब वह बोझल हो गई तो दोनों ने मिलकर अल्लाह, अपने रब, से दुआ की कि अगर तूने हमको अच्छा-सा बच्चा दिया तो हम तेरे कृतज्ञ होंगे।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُمَا صَٰلِحٗا جَعَلَا لَهُۥ شُرَكَآءَ فِيمَآ ءَاتَىٰهُمَاۚ فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 189
(190) मगर जब अल्लाह ने उनको एक भला-चंगा बच्चा दे दिया तो वे उसकी देन में दूसरों को उसका भागीदार ठहराने लगे। अल्लाह बहुत उच्च व श्रेष्ठ है उन शिर्क (बहुदेववाद) की बातों से जो ये लोग करते हैं।146
146. यहाँ मुशरिकों (बहुदेववादियों) की अज्ञानतापूर्ण पथभ्रष्टताओं को आलोचना की गई है। भाषण का उद्देश्य यह है कि मानवजाति को सर्वप्रथम अस्तित्व प्रदान करनेवाल सर्वोच्च अल्लाह है जिससे स्वयं मुशरिकों को भी इंकार नहीं। फिर हर इंसान को अस्तित्व प्रदान करनेवाला सर्वोच्च अल्लाह ही है और इस बात को भी मुशरिक जानते हैं। औरत के गर्भाशय में वीर्य को ठहराना, फिर उस ज़रा से गर्भ को पाल-पोसकर एक ज़िन्दा बच्चे का रूप देना, फिर उस बच्चे के अन्दर नाना प्रकार की शक्तियाँ और क्षमताओं को भर देना और उसको भला-चंगा इंसान बनाकर पैदा कर देना, यह सब कुछ अल्लाह के अधिकार में है। अगर अल्लाह औरत के पेट में बन्दर या साँप या कोई और विचित्र जीव पैदा कर दे या बच्चे को पेट ही में अंधा, बहरा, लंगड़ा-लूला बना दे या उसकी शारीरिक, मानसिक और इच्छा शक्तियों में कोई कमी रख दे तो किसी में यह शक्ति नहीं है कि अल्लाह की इस रचना को बदल डाले। इस सच्चाई को मुशरिक भी उसी तरह जानते हैं जिस तरह एकेश्वरवादी लोग । अतः यही कारण है कि गर्भ के दिनों में सारी आशाएँ अल्लाह ही से लगी होती हैं कि वही भला-चंगा बच्चा पैदा करेगा, लेकिन इसपर भी अज्ञान और नादानी के तूफ़ान का यह हाल है कि जब आशा पूरी हो जाती है और चाँद-सा बच्चा प्राप्त हो जाता है तो कृतज्ञता के लिए नज्जे-नियाजें और चढ़ावे किसी देवी, किसी अवतार, किसी वली और किसी हज़रत के नाम पर चढ़ाए जाते हैं और बच्चे को ऐसे नाम दिए जाते हैं कि मानो वह ख़ुदा के सिवा किसी और की कृपा का फल है। इस भाषण के समझने में एक बड़ा भ्रम पैदा हुआ है जिसे कमज़ोर रिवायतों ने और अधिक बल दे दिया। चूँकि आरंभ में मानवजाति के पैदाइश का एक जान से होने का उल्लेख हुआ है, जिससे तात्पर्य हज़रत आदम (अलैहि०) हैं, और फिर तुरन्त ही एक मर्द और औरत का उल्लेख शुरू हो गया है जिन्होंने पहले तो अल्लाह से भले-चंगे बच्चे के जन्म के लिए दुआ की और जब बच्चा पैदा हो गया तो अल्लाह के देन में दूसरों को साझीदार ठहरा लिया, इसलिए लोगों ने यह समझा कि यह शिर्क करनेवाले मियां-बीवी अवश्य ही हज़रत आदम व हव्वा (अलैहि०) ही होंगे। इस भ्रम पर रिवायत का एक खोल चढ़ गया और एक पूरा काही क़िस्सा गढ़ दिया गया। लेकिन वास्तव में [न ये रिवायतें सही हैं, न क़ुरआनी बयान का यह मंशा है] क़ुरआन जो कुछ कह रहा है वह केवल यह है कि मानवजाति का पहला जोड़ा जिससे नस्ल की शुरुआत हुई, उसे पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही था। इस संरचना कार्य में कोई दूसरा शरीक न था और फिर हर मर्द और औरत के मिलाप से जो सन्तान पैदा होती है उसका पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है, जिसे तुम सब लोगों के दिलों ने स्वीकारा है। अत: इसी इकरार के कारण आशा-निराशा की दशा में जब दुआ माँगते हो तो अल्लाह ही से माँगते हो, लेकिन बाद में जब आशाएँ पूरी हो जाती हैं तो तुम्हें शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की सूझती है। इस वर्णन में किसी विशेष मर्द और किसी विशेष औरत का उल्लेख नहीं है, बल्कि मुशरिकों में से हर मर्द और हर औरत का हाल बयान किया गया है।
أَيُشۡرِكُونَ مَا لَا يَخۡلُقُ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 190
(191) कैसे नासमझ हैं ये लोग कि उनको अल्लाह का शरीक ठहराते हैं जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि स्वयं पैदा किए जाते हैं,
وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ لَهُمۡ نَصۡرٗا وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 191
(192) जो न उनकी सहायता कर सकते हैं और न आप अपनी मदद ही में समर्थ हैं ।
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَتَّبِعُوكُمۡۚ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡ أَدَعَوۡتُمُوهُمۡ أَمۡ أَنتُمۡ صَٰمِتُونَ ۝ 192
(193) अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने का आह्वान करो तो वे तुम्हारे पीछे न आएँ। तुम चाहे उन्हें पुकारो या चुप रहो, दोनों शक्लों में तुम्हारे लिए बराबर ही रहे।147
147. अर्थात् इन मुशरिकों के झूठे उपास्यों का हाल यह है कि सीधी राह दिखाना और अपने पुजारियों का मार्गदर्शन करना तो दूर की बात, वे बेचारे तो किसी मार्गदर्शक की पैरवी करने के योग्य भी नहीं, यहाँ तक कि किसी पुकारनेवाले की पुकार का उत्तर तक नहीं दे सकते।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ عِبَادٌ أَمۡثَالُكُمۡۖ فَٱدۡعُوهُمۡ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 193
(194) तुम लोग अल्लाह को छोड़कर जिन्हें पुकारते हो वे तो केवल बन्दे हैं, जैसे तुम बन्दे हो। इनसे दुआएँ माँग देखो, ये तुम्हारी दुआओं का जवाब दें अगर इनके बारे में तुम्हारे विचार सही हैं।
أَلَهُمۡ أَرۡجُلٞ يَمۡشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَيۡدٖ يَبۡطِشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَعۡيُنٞ يُبۡصِرُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۗ قُلِ ٱدۡعُواْ شُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ كِيدُونِ فَلَا تُنظِرُونِ ۝ 194
(195) क्या ये पाँव रखते हैं कि उनसे चलें? क्या ये हाथ रखते हैं कि उनसे पकड़ें? क्या ये आँखें रखते हैं कि उनसे देखें? क्या ये कान रखते हैं कि उनसे सुनें?148 ऐ नबी ! इनसे कहो कि "बुला लो अपने ठहराए हुए साझीदारों को, फिर तुम सब मिलकर मेरे विरुद्ध तदबीरें करो और मुझे कदापि मोहलत न दो,
148. यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए, शिर्कवाले धर्मों में तीन चीजें अलग-अलग पाई जाती हैं- एक तो वे बुत, चित्र या प्रतीक (Object of Worship) जिनकी पूजा होती है। दूसरे वे लोग या आत्माएँ या प्रतीक जो वास्तव में उपास्य समझे जाते हैं और जिनका प्रतिनिधित्व मूर्तियों और चित्रों आदि के रूप में किया जाता है। तीसरे वे अक़ीदे और आस्थाएँ जो इन शिर्क भरी उपासनाओं और कर्मों की तह में काम कर रही होती हैं। क़ुरआन अनेक तरीकों से इन तीनों पर चोट लगाता है । यहाँ आलोचना पहली चीज़ को है, अर्थात उन बुतों पर आपत्ति की जा रही है जिनके सामने मुशरिक अपनी उपासना की रस्में अदा करते और अपने चढ़ावे चढ़ाते थे और प्रार्थनाएँ करते थे।
إِنَّ وَلِـِّۧيَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَۖ وَهُوَ يَتَوَلَّى ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 195
(196) मेरा समर्थन करनेवाला और मेरी सहायता करनेवाला वह अल्लाह है जिसने यह किताब उतारी है, और वह नेक आदमियों का समर्थन करता है।149
149. यह उत्तर है मुशरिकों की उन धमकियों का जो वे नबी (सल्ल.) को देते थे। वे कहते थे कि अगर तुम हमारे इन उपास्यों का विरोध करने से न रुके और उनके प्रति लोगों की आस्थाओं को इसी तरह ख़राब करते रहे तो तुमपर उनका प्रकोप टूट पड़ेगा और वे तुम्हें उलटकर रख देंगे।
وَٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَكُمۡ وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 196
(197) इसके विपरीत तुम जिन्‍हें अल्‍लाह को छोड़कर पुकारते हो, वे न तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और न स्वयं अपनी सहायता ही करने में समर्थ हैं,
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَسۡمَعُواْۖ وَتَرَىٰهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ وَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 197
(198) बल्कि अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने के लिए कहो तो वे तुम्हारी बात सुन भी नहीं सकते । देखने में तुमको ऐसा नज़र आता है कि वे तुम्हारी ओर देख रहे हैं, मगर वास्तव में वे कुछ भी नहीं देखते।"
خُذِ ٱلۡعَفۡوَ وَأۡمُرۡ بِٱلۡعُرۡفِ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 198
(199) ऐ नबी ! नर्मी और क्षमा का तरीक़ा अपनाओं, भलाई के लिए कहते जाओ और अज्ञानियों से न उलझो।
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ نَزۡغٞ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 199
(200) अगर कभी शैतान तुम्हें उकसाए तो अल्लाह की शरण माँगो, वह सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ إِذَا مَسَّهُمۡ طَٰٓئِفٞ مِّنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ تَذَكَّرُواْ فَإِذَا هُم مُّبۡصِرُونَ ۝ 200
201) वास्‍तव मे जो लोग (अल्लाह से) डरनेवाले हैं, उनका हाल तो यह होता है कि कभी शैतान के प्रभाव से कोई बुरा विचार अगर उन्हें छू भी जाता है तो तुरन्त चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आने लगता है कि उनके लिए काम का सही तरीका क्या है।
وَإِخۡوَٰنُهُمۡ يَمُدُّونَهُمۡ فِي ٱلۡغَيِّ ثُمَّ لَا يُقۡصِرُونَ ۝ 201
(202) रहे उनके (अर्थात शैतानों के) भाई-बन्द, तो वे उन्हें उनके टेढ़पन में खींचे लिए चले जाते हैं और उन्हें भटकाने में कोई कमी नहीं करते ।150
150. इन आयतों में प्रचार-प्रसार और मार्गदर्शन और सुधार के फायदों के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें बताई गई हैं- 1. सत्य का आह्वान करनेवाले को नर्म स्वभाव, सहनशील और उदार हृदय होना चाहिए। उसको अपने साथियों के लिए स्नेही, लोगों के लिए दयालु और अपने विरोधियों के लिए सहनशील होना चाहिए। उसे दीव-से-तीव्र उत्तेजनापूर्ण अवसर पर भी अपने स्वभाव को ठंडा रखना चाहिए। अति अप्रिय बातों को भी उदारहृदयता के साथ टाल देना चाहिए। 2. सत्य के आह्वान की सफलता का गुर यह है कि आदमी फ़लसफा बघारने और बारीकियों में पड़ने के बजाय लोगों को मारूफ़ अर्थात उन सीधी और साफ़ भलाइयों का उपदेश दे जिन्हें आम तौर से सारे ही इंसान भला जानते हैं या जिनकी भलाई को समझने के लिए वह सामान्य बुद्धि (Common Sense) पर्याप्त होती है, जो हर इंसान को प्राप्त है। ऐसी भली पुकार के विरुद्ध जो लोग बवाल खड़ा करते हैं, वे स्वयं अपनी विफलता और इस दावत की सफलता का सामान जुटाते हैं । 3. इस आह्वान (दावत) के काम में जहाँ यह आवश्यक है कि भलाई की तलब रखनेवालों को भलाई का उपदेश दिया जाए, वहाँ यह बात भी उतनी ही आवश्यक है कि [कठहुज्जती और झगड़ालू,] अज्ञानियों से न उलझा जाए, चाहे वे उलझने और उलझाने की कितनी ही कोशिश करें, इसलिए कि इनके झगड़े में उलझने का लाभ कुछ नहीं है और हानि यह है कि आह्वान करनेवाले की जिस शक्ति को दावत (सन्देश) के प्रचार और लोगों के सुधार में लगना चाहिए, वह इस व्यर्थ-कार्य में नष्ट हो जाती है। 4. न. 3 में जो निर्देश दिया गया है उसी के सिलसिले में आगे का आदेश यह है कि जब कभी सत्य का आह्वान करनेवाला विरोधियों के अत्याचार और उनकी शरारतों और उनकी अज्ञानतापूर्ण आपत्तियों और आरोपों पर अपने भीतर उत्तेजना का अनुभव करे, तो उसे तुरन्त समझ लेना चाहिए कि यह शैतानी उकसाहट है और उसी समय अल्लाह से पनाह माँगनी चाहिए कि अपने बन्दे को इस उन्माद में बह निकलने से बचाए और ऐसा बेकाबू न होने दे कि उससे सत्य के आह्वान को क्षति पहुँचानेवाली कोई हरकत हो जाए। सत्य के आह्वान का काम बहरहाल ठंडे दिल ही से हो सकता है और वही क़दम सही उठ सकता है जो भावनाओं के दबाव में आकर नहीं, बल्कि स्थिति और अवसर को देखकर, ख़ूब सोच-समझकर उठाया जाए लेकिन शैतान, जो इस काम को पनपते कभी नहीं देख सकता, सदा इस कोशिश में लगा रहता है कि अपने भाई-बन्दों से सत्य का आह्वान करनेवाले पर तरह-तरह के हमले कराए, और फिर हर हमले पर सत्य का आह्वान करनेवाले को उकसाए कि इस हमले का जवाब तो अवश्य होना चाहिए। यह अपील जो शैतान सत्य के आवाहक के नफ़्स से करता है, प्रायः बड़ी-बड़ी फ़रेबभरी तावीलों और धार्मिक शब्दावलियों के परदे में लिपटा हुआ होता है, लेकिन इसकी तह में तुच्छ इच्छाओं के अतिरिक्त कोई चीज़ नहीं होती। इसी लिए अन्तिम दो आयतों में फरमाया कि जो लोग परहेज़गार (अल्लाह से डरनेवाले और बुराई से बचने के इच्छुक) हैं वे तो अपने मन में किसी शैतानी उकसावे का प्रभाव और किसी बुरे विचार की खटक महसूस करते ही तुरंत चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आ जाता है कि इस मौके पर दीन के आह्वान का हित कौन-सा तरीका अपनाने में है और सत्यवादिता का तक़ाज़ा क्या है । रहे वे लोग जिनके काम में वासना की लाग लगी हुई है और इस वजह से जिनका शैतानों के साथ भाईचारे का संबंध है, तो वे शैतानी प्रेरणा के मुकाबले में नहीं ठहर सकते और उसके दबाव में आकर ग़लत रास्ते पर चल निकलते हैं। इस कथन का एक सामान्य मौक़ा भी है, और वह यह है कि अल्लाह से डरनेवालों का तरीक़ा आम तौर से अपनी ज़िन्दगी में अल्लाह से न डरनेवालों से भिन्न होता है। उनका हाल यह होता है कि बुरे विचार का लेश मात्र भी अगर उनके दिल को छू जाता है तो उन्हें वैसी ही खटक का अनुभव होने लगता है, जैसी खटक उँगली में फाँस चुभ जाने से महसूस होती है और फिर उनकी अन्तरात्मा जागकर बुराई के इस धूल को अपने ऊपर से झाड़ देने में लग जाती है। इसके विपरीत जो लोग न अल्लाह से डरते हैं, न बदी से बचना चाहते हैं और जिनका शैतान से रिश्ता है, उनके मन में बुरे विचार, बुरे इरादे, बुरे उद्देश्य पकते रहते हैं और वे उन गन्दी चीज़ों से कोई बेचैनी अपने भीतर महसूस नहीं करते।
وَإِذَا لَمۡ تَأۡتِهِم بِـَٔايَةٖ قَالُواْ لَوۡلَا ٱجۡتَبَيۡتَهَاۚ قُلۡ إِنَّمَآ أَتَّبِعُ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ مِن رَّبِّيۚ هَٰذَا بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 202
(203) ऐ नबी ! जब तुम इन लोगों के सामने कोई निशानी (अर्थात मोजज़ा) प्रस्तुत नहीं करते तो ये कहते हैं कि तुमने अपने लिए कोई निशानी क्यों न चुन ली?151 इनसे कहो, “मैं तो केवल उस वह्य का पालन करता हूँ जो मेरे रब ने मेरी ओर भेजी है। ये विवेक की रौशनियाँ हैं तुम्हारे रब की ओर से और मार्गदर्शन और दयालुता है उन लोगों के लिए जो इसे अपनाएँ।152
151. इंकार करनेवालों के इस प्रश्न में एक खुली व्यंग्य-शैली पाई जाती थी, अर्थात उनके कहने का तात्पर्य यह मित था कि जिस तरह तुम नबी बन बैठे हो, उसी तरह कोई मोजज़ा (ईश-चमत्कार) भी छाँटकर अपने लिए बना लाए होते।
152. अर्थात मेरा पद यह नहीं है कि जिस चीज़ की माँग हो या जिसकी मैं स्वयं आवश्यकता समझू उसे स्वयं गढ़कर प्रस्तुत कर दूँ। मैं तो एक रसूल हूँ और मेरा पद केवल यह है कि जिसने मुझे भेजा है, उसके आदेश का पालन करूँ। मोजज़े के बजाय मेरे भेजनेवाले ने जो चीज़ मेरे पास भेजी है, वह यह क़ुरआन है। इसके भीतर विवेकपूर्ण रौशनियाँ मौजूद हैं और इसकी सबसे उभरी हुई विशेषता यह है कि जो लोग इसको मान लेते हैं, उनको जीवन का सीधा रास्ता मिल जाता है और उनके सुचरित्र में अल्लाह की रहमत की निशानियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती है।
وَإِذَا قُرِئَ ٱلۡقُرۡءَانُ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥ وَأَنصِتُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 203
(204) जब कुरआन तुम्हारे सामने पढ़ा जाए तो उसे ध्यान से सुनो और चुप रहो, शायद कि तुमपर भी रहमत हो जाए।153
153. अर्थात यह जो तास्सुम्ब और दुराग्रह की वजह से तुम लोग कुरआन की आवाज़ सुनते ही कानों में उँगलियाँ दूंस लेते हो और शोर-गुल मचाते हो, ताकि न स्वयं सुनो और न कोई दूसरा सुन सके, इस रवैये को छोड़ दो और ध्यान से सुनो तो सही कि इसमें शिक्षा क्या दी गई है। हो सकता है कि इसकी शिक्षा को जान लेने के बाद तुम स्वयं भी उसी रहमत के हिस्सेदार बन जाओ जो ईमान लानेवालों को प्राप्त हो चुकी है। इस आयत से एक यह आदेश भी निकलता है कि जब अल्लाह का कलाम पढ़ा जा रहा हो तो लोगों को शिष्टतापूर्वक चुप हो जाना चाहिए और ध्यान से उसे सुनना चाहिए।
وَٱذۡكُر رَّبَّكَ فِي نَفۡسِكَ تَضَرُّعٗا وَخِيفَةٗ وَدُونَ ٱلۡجَهۡرِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ وَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 204
(205) ऐ नबी ! अपने रब को सुबह व शाम याद किया करो मन ही मन में गिड़गिड़ाते और डरते हुए और ज़बान से भी हल्की आवाज़ के साथ । तुम उन लोगों में से न हो जाओ जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं ।154
154. याद करने से तात्पर्य नमाज़ भी है और दूसरे प्रकार की याद भी, चाहे वह ज़बान से हो या ख़्याल से। सुबह व शाम से तात्पर्य यही दोनों समय भी हैं और इन समयों में अल्लाह की याद से तात्पर्य नमाज़ है और सुबह व शाम का शब्द 'सदा-सर्वदा' के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है और इससे अभिप्राय सदा अल्लाह की याद में लगा रहना है। यह अन्तिम उपदेश है जो व्याख्यान के अंत में दिया गया है और इसका तात्पर्य यह बताया गया है कि तुम्हारा हाल कहीं ग़ाफ़िलों जैसा न हो जाए। दुनिया में जो कुछ गुमराही और अवज्ञा फैली है [वह पूरे तौर पर अल्लाह से ग़फ़लत और आखिरत को भुला देने का नतीजा है] । अतः जो आदमी सीधे रास्ते पर चलना और दुनिया को उसपर चलाना चाहता हो, उसको अत्यंत सावधान रहना चाहिए कि वह इस ग़फ़लत और भूल का कहीं स्वयं शिकार न हो जाए। इसी लिए नमाज़ और अल्लाह की याद और अल्लाह की ओर सदा उन्मुख रहने की बार-बार ताकीद की गई है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيُسَبِّحُونَهُۥ وَلَهُۥ يَسۡجُدُونَۤ۩ ۝ 205
(206) जिन फ़रिश्तों को तुम्हारे रब के यहाँ सान्निध्य का स्थान प्राप्त है वे कभी अपनी बड़ाई के घमंड में आकर उसकी इबादत से मुँह नहीं मोड़ते155 और उसकी तस्बीह (महिमागान) करते हैं156 और उसके आगे झुके रहते हैं।157
155. अर्थ यह है कि बड़ाई का घमंड और बन्दगी से मुंह मोड़ना शैतानों का काम है और इसका नतीजा पस्ती मत और गिरावट है। इसके विपरीत अल्लाह के आगे झुकना और बन्दगी में कदम जमाए रखना फ़रिश्तों जैसा काम है और इसका नतीजा उन्नति और उच्चता और अल्लाह का सामीप्य है। अगर तुम यह उन्नति चाहते हो तो अपनी कार्यनीति को शैतानों के बजाय फ़रिश्तों की कार्यनीति के अनुकूल बनाओ।
156. तस्बीह (महिमागान) करते हैं, अर्थात वे अल्लाह का अवगुण रहित, दोष रहित और त्रुटि रहित हर प्रकार की कमज़ोरियों से उसका पाक होना और उसका ऐसी हस्ती होना जिसका न कोई शरीक हो, न कोई उस जैसा हो, न कोई समान हो इसे दिल से मानते हैं, इसका इक़रार हैं, इसको स्वीकारते हैं और हमेशा इसके प्रदर्शन और एलान करने में लगे रहते हैं।