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يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٖ فَتَبَيَّنُوٓاْ أَن تُصِيبُواْ قَوۡمَۢا بِجَهَٰلَةٖ فَتُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَا فَعَلۡتُمۡ نَٰدِمِينَ

49. अल-हुजुरात

(मदीना में उतरी, आयतें 18)

परिचय

नाम

आयत 4 के वाक्यांश "इन्नल्लज़ी-न युनादू-न-क मिंव-वरा-इल हुजुरात" (जो लोग तुम्हें कमरों अर्थात् हुजरों के बाहर से पुकारते हैं) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द हुजुरात आया है।

उतरने का समय

यह बात उल्लेखों से भी मालूम होती है और सूरा की विषय-वस्तु से भी इसकी पुष्टि होती है कि यह सूरा अलग-अलग मौक़ों पर उतरे आदेशों और निर्देशों का संग्रह है जिन्हें विषय की अनुकूलता के कारण जमा कर दिया गया है। इसके अलावा उल्लेखों से यह भी मालूम होता है कि इनमें से अधिकतर आदेश मदीना तय्यिबा के अन्तिम समय में उतरे हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय मुसलमानों को उन शिष्ट नियमों की शिक्षा देना है जो ईमानवालों के गौरव के अनुकूल है। आरंभ की पाँच आयतों में उनको वह नियम सिखाया गया है जिसका उन्हें अल्लाह और उसके रसूल के मामले में ध्यान रखना चाहिए। फिर यह आदेश दिया गया है कि अगर किसी आदमी या गिरोह या क़ौम के विरुद्ध कोई ख़बर मिले तो ध्यान से देखना चाहिए कि ख़बर मिलने का माध्यम भरोसे का है या नहीं। भरोसे का न हो तो उसपर कार्रवाई करने से पहले जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि ख़बर सही है या नहीं। इसके बाद यह बताया गया है कि अगर किसी समय मुसलमानों के दो गिरोह आपस में लड़ पड़ें तो इस स्थिति में दूसरे मुसलमानों को क्या नीति अपनानी चाहिए।

फिर मुसलमानों को उन बुराइयों से बचने की ताकीद की गई है जो सामाजिक जीवन में बिगाड़ पैदा करती हैं और जिनकी वजह से आपस के सम्बन्ध ख़राब होते हैं। इसके बाद उन क़ौमी (जातीय) और नस्ली (वंशगत) भेद-भाव पर चोट की गई है जो दुनिया में व्यापक बिगाड़ का कारण बनते हैं। [इस सिलसिले में] सर्वोच्च अल्लाह ने यह कहकर इस बुराई की जड़ काट दी है कि तमाम इंसान एक ही मूल (अस्ल) से पैदा हुए हैं और क़ौमों और क़बीलो में उनका बँट जाना परिचय के लिए है, न कि आपस में गर्व के लिए। और एक इंसान पर दूसरे इंसान की श्रेष्ठता के लिए नैतिक श्रेष्ठता के सिवा और कोई वैध आधार नहीं है। अन्त में लोगों को बताया गया है कि मौलिक चीज़ ईमान का मौखिक दावा नहीं है, बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह और उसके रसूल को मानना, व्यावहारिक रूप से आज्ञापालक बनकर रहना और निष्ठा के साथ अल्लाह की राह में अपनी जान और माल खपा देना है।

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يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٖ فَتَبَيَّنُوٓاْ أَن تُصِيبُواْ قَوۡمَۢا بِجَهَٰلَةٖ فَتُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَا فَعَلۡتُمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 1
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर कोई अवज्ञाकारी तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो छानबीन कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी गिरोह को बेख़बरी में हानि पहुँचा बैठो और फिर अपने किए पर तुम्हें पछतावा हो।4
4. इस आयत में मुसलमानों को यह सैद्धान्तिक आदेश दिया गया है कि जब कोई महत्वपूर्ण ख़बर, जो किसी बड़े परिणाम का कारण बननेवाली हो, तुम्हें मिले तो उसे स्वीकार करने से पहले यह देख लो कि ख़बर लानेवाला कैसा आदमी है। अगर वह कोई उल्लंघनकारी व्यक्ति हो, अर्थात् जिसकी प्रकट स्थिति यह बता रही हो कि उसकी बात भरोसे के लायक़ नहीं है, तो उसकी दी हुई ख़बर पर कुछ करने से पहले छान-बीन कर लो कि सही बात क्या है।
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ فِيكُمۡ رَسُولَ ٱللَّهِۚ لَوۡ يُطِيعُكُمۡ فِي كَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِ لَعَنِتُّمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ حَبَّبَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡإِيمَٰنَ وَزَيَّنَهُۥ فِي قُلُوبِكُمۡ وَكَرَّهَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكُفۡرَ وَٱلۡفُسُوقَ وَٱلۡعِصۡيَانَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلرَّٰشِدُونَ ۝ 2
(7) ख़ूब जान रखो कि तुम्हारे बीच अल्लाह का रसूल मौजूद है। अगर वह बहुत-से मामलों में तुम्हारी बात मान लिया करे तो तुम ख़ुद ही कठिनाइयों में ग्रस्त हो जाओ। मगर अल्लाह ने तुमको ईमान का प्रेम दिया और उसको तुम्हारे लिए प्रिय बना दिया। और कुछ (इनकार) और उल्लंघन और अवज्ञा से तुमको विमुख कर दिया।
فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَنِعۡمَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 3
(8) ऐसे ही लोग अल्लाह के अनुग्रह और उपकार से सन्मार्ग पर हैं और अल्लाह सर्वज्ञ और तत्वदर्शी हैं।
وَإِن طَآئِفَتَانِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱقۡتَتَلُواْ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَاۖ فَإِنۢ بَغَتۡ إِحۡدَىٰهُمَا عَلَى ٱلۡأُخۡرَىٰ فَقَٰتِلُواْ ٱلَّتِي تَبۡغِي حَتَّىٰ تَفِيٓءَ إِلَىٰٓ أَمۡرِ ٱللَّهِۚ فَإِن فَآءَتۡ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَا بِٱلۡعَدۡلِ وَأَقۡسِطُوٓاْۖ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 4
(9) और अगर ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ जाएँ5 तो उनके बीच सुलह कराओ। फिर अगर उनमें से एक गिरोह दूसरे गिरोह पर ज़्यादती करे तो ज़्यादती करनेवाले से लड़ो यहाँ तक कि वह अल्लाह के आदेश की ओर पलट आए। फिर अगर वह पलट आए तो उनके बीच इनसाफ़ के साथ सुलह करा दो। और इनसाफ़ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।
5. यह नहीं कहा कि “जब ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ें", बल्कि कहा है कि “अगर ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ जाएँ।” इन शब्दों से यह बात अपने आप निकलती है कि आपस में लड़ना मुसलमानों की रीति नहीं है और न होनी चाहिए। न उनसे इस बात की आशा होनी चाहिए कि वे मोमिन होते हुए आपस में लड़ा करेंगे। अलबत्ता अगर कभी ऐसा हो जाए तो ऐसी हालत में वह तरीक़ा अपनाना चाहिए जो आगे बयान किया जा रहा है।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِخۡوَةٞ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَ أَخَوَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 5
(10) ईमानवाले तो एक दूसरे के भाई है, अत: अपने भाइयों के बीच सम्बन्धों को ठीक करो और अल्लाह से डरो, आशा है कि तुमपर दया की जाएगी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَسۡخَرۡ قَوۡمٞ مِّن قَوۡمٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُونُواْ خَيۡرٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا نِسَآءٞ مِّن نِّسَآءٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهُنَّۖ وَلَا تَلۡمِزُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ وَلَا تَنَابَزُواْ بِٱلۡأَلۡقَٰبِۖ بِئۡسَ ٱلِٱسۡمُ ٱلۡفُسُوقُ بَعۡدَ ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن لَّمۡ يَتُبۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 6
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, न मर्द दूसरे मर्दों की हँसी उड़ाएँ, हो सकता है कि वे उनसे अच्छे हो, और न औरतें दूसरी औरतों की हँसी उड़ाएँ हो सकता है कि वे उनसे अच्छी हों।6 आपस में एक दूसरे पर व्यंग्य न करो7 और न एक दूसरे को बुरी उपाधि से याद करो8। ईमान लाने के बाद दुराचार में नाम पैदा करना बहुत बुरी बात है। जो लोग इस नीति से बाज़ न आएँ वे ज़ालिम है।
6. हँसी उड़ाने से मुराद सिर्फ़ ज़बान ही से हँसी उड़ानी नहीं है, बल्कि किसी की नक़ल उतारना, उसकी ओर इशारे करना, उसकी बात पर या उसके काम या उसके रूप या उसके वस्त्र पर हँसना या उसकी किसी कमी या ऐब की ओर लोगों का इस तरह ध्यान दिलाना कि दूसरे उसपर हँसें, ये सब भी हँसी उड़ाने में सम्मिलित हैं।
7. इसके अर्थ में चोटें करना, फब्तियाँ कसना, इलज़ाम धरना, आक्षेप करना, ऐब निकालना और खुल्लम-खुल्ला या छिपे इशारों से किसी की भर्त्सना का लक्ष्य बनाना, ये सब काम सम्मिलित हैं।
8. इस आदेश का उद्देश्य यह है कि किसी व्यक्ति को ऐसे नाम से न पुकारा जाए या ऐसी उपाधि न दी जाए जिससे उसका अपमान होता हो। उदाहरणार्थ किसी को फ़ासिक़ (दुराचारी) या मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) कहना। किसी को लंगड़ा या अन्धा या काना कहना। किसी को उसके अपने या उसकी माँ या बाप या ख़ानदान के किसी दोष या खोट से उपाधित करना। किसी को मुसलमान हो जाने के बाद उसके पहले धर्म के कारण यहूदी या ईसाई कहना, किसी व्यक्ति या ख़ानदान या बिरादरी या गिरोह का ऐसा नाम रख देना जिसमें उसके निन्दित और अपमानित होने का पहलू पाया जाता हो। इस आदेश से सिर्फ़ वे उपाधियाँ अपवाद हैं जो अपने बाह्य रूप की दृष्टि से कुरूप हैं मगर उनसे निन्दा का उद्देश्य नहीं होता, बल्कि वे उन लोगों की पहचान का माध्यम बन जाती हैं जिनको इन उपाधियों से याद किया जाता है। उदाहरणार्थ: हकीम नाबीना (नेत्रहीन वैद्य) कि इससे मतलब सिर्फ़ पहचान है, बुराई मक़सद नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱجۡتَنِبُواْ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلظَّنِّ إِنَّ بَعۡضَ ٱلظَّنِّ إِثۡمٞۖ وَلَا تَجَسَّسُواْ وَلَا يَغۡتَب بَّعۡضُكُم بَعۡضًاۚ أَيُحِبُّ أَحَدُكُمۡ أَن يَأۡكُلَ لَحۡمَ أَخِيهِ مَيۡتٗا فَكَرِهۡتُمُوهُۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٞ رَّحِيمٞ ۝ 7
(12) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बहुत गुमान करने से बचो कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं।9 टोह में मत पड़ो।10 और तुममें से कोई किसी की पीठ पीछे निन्दा (गीबत) न करे।11 क्या तुममें कोई ऐसा है जो अपने मरे हुए भाई का मांस खाना पसन्द करेगा?12 देखो, तुम ख़ुद इससे घिन खाते हो। अल्लाह से डरो, अल्लाह बड़ा तौबा क़ुबूल करनेवाला और दयावान् है।
9. सर्वथा गुमान करने से नहीं रोका गया है, बल्कि बहुत ज़्यादा गुमान से काम लेने और हर तरह के गुमान की पैरवी करने से रोका गया है और इसका कारण यह बताया गया है कि कुछ गुमान (अटकल) गुनाह होते हैं। वास्तव में जो गुमान गुनाह है वह यह है कि आदमी किसी व्यक्ति से अकारण बदगुमानी करे, या दूसरों के प्रति मत निर्धारित करने में हमेशा बदगुमानी ही से शुरुआत किया करे, या ऐसे लोगों के मामले में बदगुमानी से काम से जिनका ज़ाहिरी हाल यह बता रहा हो कि वे नेक और सज्जन हैं। इसी तरह यह बात भी गुनाह है कि एक व्यक्ति के किसी कथन या कर्म में बुराई और भलाई की समान रूप से संभावना हो और हम सिर्फ़ बदगुमानी से काम लेकर उसे बुराई ही पर आरोपित करें।
10. अर्थात् लोगों के रहस्य न टटोलो। एक दूसरे के ऐब न तलाश करो। दूसरों के हालात और मामलों की टोह न लगाते फिरो। लोगों के निजी पत्र पढ़ना, दो आदमियों की बातें कान लगाकर सुनना, पड़ोसियों के घर में झाँकना और विभिन्न ढंग से दूसरों की घरेलू ज़िन्दगी या उनके व्यक्तिगत मामलों की टटोल करना ये सब उस टोह के अन्तर्गत आते हैं जिससे रोका गया है।
11. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा गया कि ग़ीबत की परिभाषा क्या है। आपने कहा, “ग़ीबत यह है कि तू अपने भाई की चर्चा इस तरह करे जो उसे नापसन्द हो।” कहा गया कि अगर मेरे भाई में वह बात पाई जाती हो जो मैं कह रहा हूँ तो इस स्थिति में आपका क्या विचार है? कहा, “अगर उसमें वह बात पाई जाती हो तो तूने उसको ग़ीबत की, और अगर उसमें वह मौजूद न हो तो तूने उसपर मिथ्यारोपण किया।” इस वर्जन का अपवाद सिर्फ़ वे स्थितियाँ हैं जिनमें किसी व्यक्ति के पीठ-पीछे या उसके मरने के बाद उसकी बुराई बयान करने की कोई ऐसी ज़रूरत आ पड़े जो 'शरीअत’ की दृष्टि में एक सही ज़रूरत हो, और वह ज़रूरत ग़ीबत के बिना पूरी न हो सकती हो, और उसके लिए अगर ग़ीबत न की जाए तो ग़ीबत की अपेक्षा ज़्यादा बड़ी बुराई अवश्यम्भावी हो जाती हो। नबी (सल्ल॰) ने इस अपवाद को सिद्धान्ततः यों बयान किया है कि “निकृष्टतम ज़्यादती किसी मुसलमान की इज़्ज़त पर नाहक़ हमला करना है।” इस कथन में नाहक़ की शर्त यह बताती है कि “हक़” के कारण ऐसा करना जाइज़ है। उदाहरणत: ज़ालिम के विरुद्ध मज़लूम की शिकायत पर उस व्यक्ति के सामने जिससे वह आशा रखता हो कि वह ज़ुल्म को दूर करने के लिए कुछ कर सकता है। सुधार के इरादे से किसी व्यक्ति या गिरोह की बुराइयों का ज़िक्र ऐसे लोगों के सामने करना जिनसे यह आशा हो कि वे उन बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ कर सकेंगे। शरीअत का फ़तवा (फ़ैसला) प्राप्त करने के उद्देश्य से किसी मुफ़्ती के सामने सही स्थिति रखना जिसमें किसी व्यक्ति के किसी ग़लत काम का ज़िक्र आ जाए। लोगों को किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की बुराई से सावधान करना, ताकि वे उनकी हानि से बच सकें। ऐसे लोगों के विरुद्ध खुल्लम-खुल्ला आवाज़ उठाना और उनकी बुराइयों पर आलोचना करना जो धर्म-विरुद्ध चीज़़ों और अनाचार को फैला रहे हों, या धर्म के विपरीत नई बातों और गुमराहियों का प्रचार कर रहे हों, या लोगों को अधर्म और ज़ुल्म व अत्याचार की ख़राबियों में डाल रहे हों।
12. गीबत की उपमा मरे हुए भाई का मांस खाने से इसलिए दो गई है कि जिसकी ग़ीबत की जा रही है वह बेचारा बिलकुल बेख़बर होता है कि कहाँ, कौन उसकी इज़्ज़त पर हमला कर रहा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن ذَكَرٖ وَأُنثَىٰ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ شُعُوبٗا وَقَبَآئِلَ لِتَعَارَفُوٓاْۚ إِنَّ أَكۡرَمَكُمۡ عِندَ ٱللَّهِ أَتۡقَىٰكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٞ ۝ 8
(13) लोगो, हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और बिरादरियाँ बना दीं ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।13 यक़ीनन अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।
13. पिछली आयतों में ईमानवालों को सम्बोधित करके वे आदेश दिए गए थे जो मुस्लिम समाज को बिगाड़ से सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी हैं। अब इस आयत में पूरी इनसानी बिरादरी को सम्बोधित करके उस सबसे बड़ी गुमराही का सुधार किया गया है जो दुनिया में हमेशा सार्वभौमिक बिगाड़ का कारण बनी रही है, अर्थात् नस्ल, रंग, भाषा, देश और जातीयता (क़ौमियत) सम्बन्धित पक्षपात इस संक्षिप्त-सी आयत में अल्लाह ने सारे इनसानों को सम्बोधित करके तीन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मौलिक तथ्यों का उल्लेख किया है। एक यह कि तुम सबका मूल एक ही है, एक ही मर्द और एक ही औरत से तुम्हारी पूरी जाति का आविर्भाव हुआ है और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं वे वास्तव में आरंभिक नस्ल की शाखाएँ हैं जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई थीं। दूसरे यह कि अपने मूल की दृष्टि से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में विभक्त हो जाना एक स्वाभाविक बात थी। मगर इस स्वाभाविक अन्तर और विभेद का यह हरगिज़ तक़ाज़ा न था कि इसके आधार पर ऊँच-नीच, भद्र और अभद्र, श्रेष्ठ और क्षुद्र की सीमाएँ खींची जाएँ, एक नस्ल अपने को दूसरी नस्ल से बढ़कर बताए, एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को तुच्छ और हीन जानें और एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी श्रेष्ठता जताए। स्रष्टा ने जिस कारण इनसानी गिरोहों को क़ौमों और क़बीलों का रूप दिया था वह सिर्फ़ यह था कि उनके बीच पारस्परिक सहयोग और परिचय का स्वाभाविक रूप यही था। तीसरे यह कि इनसान और इनसान के बीच श्रेष्ठता और उच्चता का आधार अगर कोई है और हो सकता है तो वह केवल नैतिक श्रेष्ठता है।
۞قَالَتِ ٱلۡأَعۡرَابُ ءَامَنَّاۖ قُل لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ وَلَٰكِن قُولُوٓاْ أَسۡلَمۡنَا وَلَمَّا يَدۡخُلِ ٱلۡإِيمَٰنُ فِي قُلُوبِكُمۡۖ وَإِن تُطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ لَا يَلِتۡكُم مِّنۡ أَعۡمَٰلِكُمۡ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 9
(14) ये बद्दू कहते हैं कि “हम ईमान लाए।"14 इनसे कहो, तुम ईमान नहीं लाए, बल्कि यों कहो कि “हम आज्ञाकारी हो गए।” ईमान अभी तुम्हारे दिलों में दाख़िल नहीं हुआ है। अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी हो जाओ तो वह तुम्हारे कर्मों के बदले में कोई कमी न करेगा, यक़ीनन अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान् है।
14. इससे मुराद सभी बद्दू नहीं हैं, बल्कि यहाँ उल्लेख कुछ विशेष बद्दू गिरोहों का हो रहा है जो इस्लाम की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर सिर्फ़ इस विचार से मुसलमान हो गए थे कि वे मुसलमानों की मार से सुरक्षित भी रहेंगे और इस्लामी विजय और सफलताओं से लाभ भी उठाएँगे। ये लोग वास्तव में सच्चे दिल से ईमान नहीं लाए थे, सिर्फ़ ज़बान से ईमान का इक़रार करके उन्होंने अपने हितों के लिए अपनी गिनती मुसलमानों में करा ली थी।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ لَمۡ يَرۡتَابُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 10
(15) वास्तव में तो ईमानवाले वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए फिर उन्होंने कोई शक न किया और अपनी जानों और मालों से अल्लाह के मार्ग में 'जिहाद' (जान तोड़ प्रयास) किया। वही सच्चे लोग हैं।
قُلۡ أَتُعَلِّمُونَ ٱللَّهَ بِدِينِكُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 11
(16) ऐ नबी, इन (ईमान के दावेदारों) से कहो, क्या तुम अल्लाह को अपने दीन की सूचना दे रहे हो? हालाँकि अल्लाह ज़मीन और आसमानों की प्रत्येक चीज़ को जानता है और हर चीज़़ का ज्ञान रखता है।
يَمُنُّونَ عَلَيۡكَ أَنۡ أَسۡلَمُواْۖ قُل لَّا تَمُنُّواْ عَلَيَّ إِسۡلَٰمَكُمۖ بَلِ ٱللَّهُ يَمُنُّ عَلَيۡكُمۡ أَنۡ هَدَىٰكُمۡ لِلۡإِيمَٰنِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 12
(17) ये लोग तुमपर एहसान जताते हैं कि इन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इनसे कहो, अपने इस्लाम का एहसान मुझपर न रखो, बल्कि अल्लाह तुमपर अपना एहसान रखता है कि उसने तुम्हें ईमान की राह दिखा दी। अगर तुम वास्तव में (अपने ईमान के दावे में) सच्चे हो।
إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(18) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की हर छिपी चीज़़ का ज्ञान रखता है और जो कुछ तुम करते हो वह सब उसकी दृष्टि में है।
سُورَةُ الحُجُرَاتِ
49. अल-हुजुरात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيِ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल से आगे न बढ़ो1 और अल्लाह से डरो अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
1. अर्थात् अल्लाह और रसूल से आगे बढ़कर न चलो, पीछे चलो। अगुवा न बनो, अनुयायी बनकर रहो। अपने मामलों में आगे बढ़कर ख़ुद अपने तौर पर फ़ैसले न करने लगो, बल्कि पहले यह देखो कि अल्लाह की किताब और उसके रसूल के तरीक़े में उनके सम्बन्ध में क्या आदेश मिलते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَرۡفَعُوٓاْ أَصۡوَٰتَكُمۡ فَوۡقَ صَوۡتِ ٱلنَّبِيِّ وَلَا تَجۡهَرُواْ لَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ كَجَهۡرِ بَعۡضِكُمۡ لِبَعۡضٍ أَن تَحۡبَطَ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تَشۡعُرُونَ ۝ 14
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपनी आवाज़ नबी की आवाज़ से ऊँची न करो, और न नबी के साथ ऊँची आवाज़ से बात करो जिस तरह तुम आपस में एक दूसरे से करते हो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा किया-कराया सब नष्ट हो जाए और तुम्हें ख़बर भी न हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَغُضُّونَ أَصۡوَٰتَهُمۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱمۡتَحَنَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُمۡ لِلتَّقۡوَىٰۚ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 15
(3) जो लोग अल्लाह के रसूल के सामने बात करते हुए अपनी आवाज़ दबी रखते हैं वे वास्तव में वही लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने परहेज़गारी के लिए जाँच लिया है,2 उनके लिए माफ़ी है और बड़ा बदला।
2. अर्थात् जो लोग अल्लाह की परीक्षाओं में पूरे उतरे हैं और उन परीक्षाओं से गुज़रकर जिन्होंने सिद्ध कर दिया है कि उनके दिलों में वस्तुतः परहेज़गारी (ईशपरायणता) मौजूद है वही लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आदर और प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं। इस कथन से ख़ुद ही यह बात निकलती है कि जो दिल रसूल (सल्ल०) के आदर से ख़ाली है वह वास्तव में परहेज़गारी (तक़वा) से ख़ाली है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِن وَرَآءِ ٱلۡحُجُرَٰتِ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 16
(4) ऐ नबी, जो लोग तुम्हें कमरों के बाहर से पुकारते हैं उनमें से ज़्यादातर बुद्धिहीन है।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ صَبَرُواْ حَتَّىٰ تَخۡرُجَ إِلَيۡهِمۡ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 17
(5) यदि वे तुम्हारे बाहर निकलने तक सब्र करते तो उन्हीं के लिए अच्छा था3, अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।
3. अरब के आस-पास से आनेवालों में कुछ ऐसे असभ्य लोग भी होते थे जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मिलने के लिए आते तो किसी सेवक से अन्दर सूचित कराने का कष्ट भी न उठाते थे, बल्कि नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों के कमरों का चक्कर काटकर बाहर ही से आप (सल्ल०) को पुकारते फिरते थे। नबी (सल्ल०) को उन लोगों की इन हरकतों से बड़ी तकलीफ़ होती थी, मगर अपनी स्वाभाविक सहनशीलता के कारण आप उन्हें सहन किए जा रहे थे। आख़िरकार अल्लाह ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और इस असभ्य नीति की भर्त्सना करते हुए लोगों को यह ताक़ीद की कि जब वे आपसे मिलने के लिए आएँ और आपको मौजूद न पाएँ तो पुकार-पुकारकर आपको बुलाने की जगह सब्र के साथ बैठकर उस समय का इन्तिज़ार करें जब आप ख़ुद बाहर पधारें।