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سُورَةُ يسٓ

36. या-सीन

(मक्का में उतरी, आयतें 83)

 

परिचय

नाम

शुरू ही के दोनों अक्षरों को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णन-शैली पर विचार करने से महसूस होता है कि इस सूरा के उतरने का समय या तो मक्का के मध्यकाल का अंतिम समय है, या फिर यह [नबी (सल्ल.) के] मक्का निवासकाल के अन्तिम समय की सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों को मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत पर ईमान न लाने और अत्याचार और उपहास से उसका मुक़ाबला करने के अंजाम से डराना है। इसमें डरावे का पहलू बढ़ा हुआ और स्पष्ट है, किन्तु बार-बार डराने के साथ दलीलों से समझाया भी गया है। दलीलें तीन बातों की दी गई हैं-

तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों और सामान्य बुद्धि से, आख़िरत पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों, सामान्य बुद्धि और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्व से, और मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की सत्यता पर इस बात से कि आप संदेश पहुँचाने में यह सारी मशक्कत केवल नि:स्वार्थ भाव से सहन कर रहे थे, और इस बात से कि जिन बातों की ओर आप लोगों को बुला रहे थे, वे सर्वथा उचित थीं। इन दलीलों के बल पर डाँट-फटकार, निन्दा और चेतावनी की वार्ताएँ बड़े ज़ोरदार तरीक़े से बार-बार प्रस्तुत हुई हैं, ताकि दिलों के ताले टूटें और जिनके भीतर सत्य स्वीकार करने की थोड़ी-सी क्षमता भी हो, वे प्रभावित हुए बिना न रह सकें। इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसाई, इब्ने-माजा और तबरानी (रह०) आदि ने माक़िल-बिन-यसार (रजि०) से रिवायत किया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि यह सूरा क़ुरआन का दिल है। यह उसी तरह की मिसाल है जिस तरह सूरा फ़ातिहा को 'उम्मुल-क़ुरआन' फ़रमाया गया है। फ़ातिहा को उम्मुल-क़ुरआन क़रार देने की वजह यह है कि उसमें क़ुरआन मजीद की सम्पूर्ण शिक्षा का सार आ गया है। सूरा या-सीन को कुरआन का धड़कता हुआ दिल इसलिए फ़रमाया गया है कि यह क़ुरआन की दावत को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से पेश करती है, जिससे ठहराव टूटता और रूह में हरकत पैदा होती है। इन्हीं हज़रत माक़िल-बिन-यसार (रज़ि०) से इमाम अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा (रह०) ने यह रिवायत भी नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अपने मरनेवालों पर सूरा या-सीन पढ़ा करो।" इसका कारण यह है कि मरते समय मुसलमान के मन में न सिर्फ़ यह कि तमाम इस्लामी अक़ीदे ताज़ा हो जाएँ, बल्कि मुख्य रूप से उसके सामने आख़िरत का पूरा चित्र भी आ जाए और वह जान ले कि दुनिया की ज़िन्दगी से गुज़रकर अब आगे किन मंज़िलों से उसको वास्ता पेश आनेवाला है। इस निहितार्थ को पूरा करने के लिए उचित यह मालूम होता है कि अरबी न जाननेवाले आदमी को सूरा या-सीन सुनाने के साथ उसका अनुवाद भी सुना दिया जाए, ताकि याद दिलाने का हक़ पूरी तरह अदा हो जाए।

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سُورَةُ يسٓ
36. या० सीन०
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يسٓ
(1) या० सीन०।
وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) क़सम है हिकमतवाले क़ुरआन की
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 2
(3) कि तुम यक़ीनन रसूलों में से हो,
عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 3
(4) सीधे मार्ग पर हो
تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 4
(5) (और यह क़ुरआन) प्रभुत्वशाली और दयामय हस्ती का उतारा हुआ है
لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 5
(6) ताकि तुम सावधान करो एक ऐसी क़ौम को जिसके बाप-दादा सावधान न किए गए थे और इस कारण से वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।
لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 6
(7) उनमें से ज़्यादातर लोग अज़ाब के फ़ैसले के भागी हो चुके हैं, इसी लिए वे ईमान नहीं लाते।1
1. यह उन लोगों का उल्लेख है जो नबी (सल्ल०) के निमंत्रण के मुक़ाबले में ज़िद और हठधर्मी से काम ले रहे थे। और जिन्होंने निश्चय कर लिया था कि आपकी बात किसी हाल में मानना नहीं है। उनके सम्बन्ध में कहा गया है कि “ये लोग अज़ाब के फ़ैसले के भागी हो चुके हैं इसलिए ये ईमान नहीं लाते।"
إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ ۝ 7
(8) हमने उनकी गर्दनों में तौक़ डाल दिए है जिनसे वे ठोड़ियों तक जकड़े गए हैं, इसलिए वे सिर उठाए खड़े हैं।2
2. तौक़ से मुराद उनकी अपनी हठधर्मी है जो उनके लिए सत्य को स्वीकार करने में रोक बन रही थी। “ठोड़ियों तक जकड़े जाने” और “सिर उठाए खड़े होने” से मुराद वह गर्दन की अकड़ है जो अहंकार और दंभ का परिणाम होती है।
وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 8
(9) हमने एक दीवार उनके आगे खड़ी कर दी है और एक दीवार उनके पीछे हमने उन्हें ढाँक दिया है उन्हें अब कुछ नहीं सूझता।3
3. एक दीवार आगे और एक पीछे खड़ी कर देने से मुराद यह है कि इसी हठधर्मी और अहंकार का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि ये लोग न पिछले इतिहास से कोई शिक्षा लेते हैं, और न भविष्य के परिणाम पर कभी विचार करते हैं। इनके पक्षपातों ने इनको हर तरफ़ से इस तरह ढाँक लिया है और इनको भ्रान्तियों ने इनकी आँखों पर ऐसे परदे डाल दिए हैं कि इन्हें वे प्रत्यक्ष तथ्य दिखाई नहीं देते जो हर शुद्ध प्रकृति और पक्षपात रहित इनसान को दिखाई दे रहे हैं।
وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 9
(10) इनके लिए बराबर है, तुम इन्हें सावधान करो या न करो, ये न मानेंगे।
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ ۝ 10
(11) तुम तो उसी व्यक्ति को सावधान कर सकते हो जो नसीहत का अनुसरण करे और बिना देखे करुणामय ईश्वर से डरे उसे माफ़ी और उदारतापूर्ण एवं प्रतिष्ठित प्रतिदान की ख़ुशख़बरी दे दो।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 11
(12) हम यक़ीनन एक दिन मुर्दों को ज़िन्दा करनेवाले हैं। जो कुछ कर्म उन्होंने किए हैं वे सब हम लिखते जा रहे हैं और जो कुछ चिह्न उन्होंने पीछे छोड़े है वे भी हम अंकित कर रहे हैं। हर चीज़ को हमने एक खुली किताब में दर्ज कर रखा है।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 12
(13) इन्हें मिसाल के रूप में उस बस्तीवालों का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसमें रसूल आए थे।
إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ ۝ 13
(14) हमने उनकी ओर दो रसूल भेजे और उन्होंने दोनों को झुठला दिया। फिर हमने तीसरा मदद के लिए भेजा और उन सबने कहा, “हम तुम्हारी ओर रसूल की हैसियत से भेजे गए हैं।”
قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ ۝ 14
(15) बस्तीवालों ने कहा, “तुम कुछ नहीं हो मगर हम जैसे कुछ इनसान, और करुणामय ईश्वर ने हरगिज़ कोई चीज़ अवतरित नहीं की है, तुम सिर्फ़ झूठ बोलते हो।"
قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ ۝ 15
(16) रसूलों ने कहा, “हमारा रब जानता है कि हम ज़रूर तुम्हारी ओर रसूल बनाकर भेजे गए है,
وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 16
(17) और हमपर स्पष्टतः सन्देश पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।”
قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 17
(18) बस्तीवाले कहने लगे, “हम तो तुम्हें अपने लिए अपशकुन समझते हैं। अगर तुम बाज़ न आए तो हम तुमको पथराव करके मार डालेंगे और हमसे तुम बड़ी दर्दनाक सज़ा पाओगे।”
قَالُواْ طَٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 18
(19) रसूलों ने जवाब दिया, “तुम्हारा अपशकुन तो तुम्हारे अपने साथ लगा हुआ है। क्या ये बातें तुम इसलिए करते हो कि तुम्हें नसीहत की गई? असल बात यह है कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो।”
وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 19
(30) इतने में शहर के दूरवर्ती सिरे से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और बोला, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, रसूलों का अनुसरण स्वीकार कर लो।
ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 20
(21) अनुसरण करो उन लोगों का जो तुमसे कोई बदला नहीं चाहते और ठीक मार्ग पर हैं।
وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 21
(22) आख़िर क्यों न मैं उस हस्ती की बन्दगी करूँ जिसने मुझे पैदा किया है और जिसकी तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है?
ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ ۝ 22
(23) क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे उपास्य बना लूँ? हालाँकि अगर करुणामय ईश्वर मुझे कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे तो उनकी न सिफ़ारिश मेरे किसी काम आ सकती है और न वे मुझे छुड़ा हो सकते है।
إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 23
(24) अगर मैं ऐसा करूँ तो मैं खुली गुमराही में पड़ जाऊँगा।
إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ ۝ 24
(25) मैं तो तुम्हारे रब पर ईमान ले आया, तुम भी मेरी बात मान लो।"
قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ ۝ 25
(26) (आख़िरकार उन लोगों ने उसको क़त्ल कर दिया और) उस व्यक्ति से कह दिया गया कि “प्रवेश कर जन्नत में।” उसने कहा, “काश मेरी क़ौम जानती
بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 26
(27) कि मेरे रब ने किस चीज़ की बदौलत मुझे माफ़ कर दिया और मुझे प्रतिष्ठित लोगों में सम्मिलित किया।”
۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ ۝ 27
(28) उसके बाद उसकी क़ौम पर हमने आसमान से कोई सेना नहीं उतारी। हमें सेना भेजने की कोई ज़रूरत न थी।
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ ۝ 28
(29) बस एक धमाका हुआ और अचानक वे सब बुझकर रह गए।
يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 29
(30) अफ़सोस बन्दों के हाल पर जो रसूल भी उनके पास आया उसकी वे हँसी ही उड़ाते रहे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 30
(31) क्या उन्होंने देखा नहीं कि उनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम तबाह कर चुके हैं और उसके बाद वे फिर कभी उनकी तरफ़ पलटकर न आए?
وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 31
(32) उन सबको एक दिन हमारे सामने उपस्थित किया जाना है।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ ۝ 32
(33) इन लोगों के लिए बेजान ज़मीन एक निशानी है। हमने उसको ज़िन्दगी दी और उससे अनाज निकाला जिसे वे खाते हैं।
وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ ۝ 33
(34) हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग़ पैदा किए और उसके अन्दर से स्रोत फोड़ निकाले,
لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 34
(35) ताकि वे उसके फल खाएँ। ये सब कुछ इनके अपने हाथों का पैदा किया हुआ नहीं है। फिर क्या ये कृतज्ञता नहीं दिखाते?
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 35
(36) पवित्र है वह सत्ता जिसने सब प्रकार के जोड़े पैदा किए चाहे वे ज़मीन की वनस्पतियों में से हों या ख़ुद उनकी अपनी जाति (अर्थात् मानव जाति) में से या उन चीज़़ों में से जिनको ये जानते तक नहीं हैं।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ ۝ 36
(37) इनके लिए एक और निशानी रात है, हम उसके ऊपर से दिन हटा देते हैं तो इनपर अँधेरा छा जाता है।
وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 37
(38) और सूरज, वह अपने ठिकाने की ओर चला जा रहा है। वह प्रभुत्वशाली सर्वज्ञ सत्ता का बाँधा हुआ हिसाब है।
وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 38
(39) और चाँद, उसके लिए हमने मंज़िलें नियत कर दी हैं यहाँ तक कि उनसे गुज़रता हुआ वह फिर ख़जूर की सूखी शाखा के सदृश रह जाता है।
لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 39
(40) न सूरज के बस में यह है कि वह चाँद को जा पकड़े और न रात दिन से आगे बढ़ सकती है। सब एक-एक कक्षा में तैर रहे हैं।
وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 40
(41) इनके लिए यह भी एक निशानी है कि हमने इनकी नस्ल को भरी हुई नौका4 में सवार कर दिया
4. नौका से मुराद नूह (अलैहि०) की नौका है।
وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ ۝ 41
(42) और फिर इनके लिए वैसी ही नौकाएँ और पैदा कीं जिनपर ये सवार होते हैं।
وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ ۝ 42
(43) हम चाहें तो इन्हें डुबो दें कोई इनकी फ़रियाद सुननेवाला न हो और किसी तरह ये न बचाए जा सकें।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 43
(44) बस हमारी दयालुता ही है जो इन्हें पार लगाती और एक ख़ास समय तक ज़िन्दगी से लाभांवित होने का अवसर देती है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 44
(45) इन लोगों से जब कहा जाता है कि बचो उस अंजाम से जो तुम्हारे आगे आ रहा है और तुम्हारे पीछे गुज़र चुका है, शायद कि तुमपर दया की जाए (तो ये सुनी-अनसुनी कर जाते हैं)।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 45
(46) इनके सामने इनके रब की 'आयतों' में से जो 'आयत' भी आती है ये उसकी और ध्यान नहीं देते।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 46
(47) और जब इनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो रोज़ी तुम्हें दी है उसमें से कुछ अल्लाह के मार्ग में भी ख़र्च करो तो ये लोग जिन्होंने इनकार किया है ईमान लानेवालों को जवाब देते हैं, “क्या हम उनको खिलाएँ जिन्हें अगर अल्लाह चाहता तो ख़ुद खिला देता? तुम तो बिलकुल ही बहक गए हो।”
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 47
(48) ये लोग कहते हैं कि “क़ियामत की धमकी आख़िर कब पूरी होगी? बताओ अगर तुम सच्चे हो।”
مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ ۝ 48
(49) वास्तव में ये जिस चीज़़ की राह तक रहे हैं वह बस एक धमाका है जो सहसा इन्हें इस हालत में घर लेगा जब ये (अपनी दुनिया के मामलों में झगड़ रहे होंगे,
فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 49
(50) और उस समय ये वसीयत तक न कर सकेंगे, न अपने घरों को पलट सकेंगे।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ ۝ 50
(51) फिर एक सूर फूँका जाएगा और यकायक ये अपने रब की सेवा में पेश होने के लिए अपनी-अपनी क़ब्रों से निकल पड़ेंगे।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 51
(52) घबराकर कहेंगे, “अरे, यह किसने हमें हमारी सोने की जगह से उठा खड़ा किया?” — “यह वही चीज़ है जिसका करुणामय ईश्वर ने वादा किया था और रसूलों की बात सच्ची थी।”5
5. हो सकता है कि यह जवाब उनको ईमानवाले दें। हो सकता है कि वे लोग कुछ देर के बाद ख़ुद समझ लें कि यह तो वही दिन आ गया जिसकी सूचना रसूल हमें देते थे और यह भी हो सकता है कि फ़रिश्ते उनको यह जवाब दें, या 'क़ियामत' का सारा वातावरण उन्हें यह बात बताए।
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 52
(53) एक ही ज़ोर की आवाज़ होगी और सब के सब हमारे सामने हाज़िर कर दिए जाएँगे।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 53
(54) आज किसी पर कण-भर भी ज़ुल्म न किया जाएगा और तुम्हें वैसा ही बदला दिया जाएगा जैसे तुम कर्म करते रहे थे
إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ ۝ 54
(55) — आज जन्नती लोग मज़े करने में व्यस्त है।
هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ ۝ 55
(56) वे और उनकी पत्नियाँ घने सायों में हैं, मसनदों पर तकिए लगाए हुए,
لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ ۝ 56
(57) हर तरह की स्वादिष्ट चीज़़ें खाने-पीने को उनके लिए वहाँ मौजूद हैं, जो कुछ वे माँगें उनके लिए हाज़िर है,
سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ ۝ 57
(58) दयावान् रब की ओर से उनको सलाम कहा गया है
وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 58
(59) — और ऐ अपराधियो, आज तुम छँटकर अलग हो जाओ।
۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 59
(60) आदम के बच्चो, क्या मैंने तुमको ताकीद न की थी कि शैतान की बन्दगी न करो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है,
وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 60
(61) और मेरी ही बन्दगी करो, यह सीधा मार्ग है?
وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ ۝ 61
(62) मगर इसके बावजूद उसने तुममें से एक बड़े गिरोह को पथभ्रष्ट कर दिया। क्या तुम बुद्धि नहीं रखते थे?
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 62
(63) यह वही जहन्नम है जिससे तुम्हें डराया जाता रहा था।
ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 63
(64) जो इनकार तुम दुनिया में करते रहे हो उसके बदले में अब इसका ईंधन बनो।
ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 64
(65) आज हम इनके मुँह बन्द किए देते हैं, इनके हाथ हमसे बोलेंगे और इनके पाँव गवाही देंगे कि ये दुनिया में क्या कमाई करते रहे हैं।
وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ ۝ 65
(66) हम चाहें तो इनकी आँखें मूंद दें, फिर ये रास्ते की ओर लपककर देखें, कहाँ से इन्हें रास्ता सुझाई देगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ ۝ 66
(67) हम चाहें तो इन्हें इनकी जगह ही पर इस तरह विकृत करके रख दें कि ये न आगे चल सकें न पीछे पलट सकें।
وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 67
(68) जिस व्यक्ति को हम लम्बी उम्र देते हैं उसकी संरचना को हम उलट ही देते हैं, क्या (ये दशाएँ देखकर) इन्हें अक़्ल नहीं आती?
وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ ۝ 68
(69) हमने इस (नबी) को काव्य नहीं सिखाया है और न काव्य इसे शोभा ही देता है। यह तो एक नसीहत है और साफ़ पढ़ी जानेवाली किताब,
لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 69
(70) ताकि वह हर उस व्यक्ति को सावधान कर दे जो ज़िन्दा हो और इनकार करनेवालों पर हुज्जत (तर्क-प्रस्तुति) क़ायम हो जाए।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ ۝ 70
(71) क्या ये लोग देखते नहीं है कि हमने अपने हाथों की बनाई हुई चीज़़ों में से इनके लिए चौपाए पैदा किए हैं और अब ये उनके मालिक हैं।
وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ ۝ 71
(72) हमने उन्हें इस तरह इनके बस में कर दिया है कि उनमें से किसी पर ये सवार होते हैं, किसी का ये गोश्त खाते हैं,
وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 72
(73) और उनके अन्दर इनके लिए तरह-तरह के लाभ और पीने की चीज़़ें हैं। फिर क्या ये कृतज्ञ नहीं होते?
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 73
(74) यह सब कुछ होते हुए इन्होंने अल्लाह के सिवा दूसरे ईश्वर बना लिए हैं और यह उम्मीद रखते हैं कि इनकी सहायता की जाएगी।
لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ ۝ 74
(75) वे इनकी कोई सहायता नहीं कर सकते, बल्कि ये लोग उलटे उनके लिए उपस्थित रहनेवाली सेना बने हुए हैं।
فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 75
(76) अच्छा, जो बातें ये बना रहे है वे तुझे दुखी न करें, इनकी छिपी और खुली सब बातों को हम जानते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 76
(77) क्या इनसान देखता नहीं है कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया और फिर वह प्रत्यक्ष झगड़ालू बनकर खड़ा हो गया?
وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ۝ 77
(78) अब वह हमपर मिसालें चस्पा करता है और अपनी पैदाइश को भूल जाता है। कहता है, “कौन इन हड्डियों को ज़िन्दा करेगा जबकि ये जीर्ण हो चुकी हों?”
قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ ۝ 78
(79) उससे कहो, इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिसने पहले इन्हें पैदा किया था, और वह पैदा करने का हर काम जानता है,
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ ۝ 79
(80) वही जिसने तुम्हारे लिए हरे-भरे पेड़ से आग पैदा कर दी और तुम उससे अपने चूल्हे रौशन करते हो।
أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 80
(81) क्या वह जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया इसकी सामर्थ्य नहीं रखता है कि इन जैसों को पैदा कर सके? क्यों नहीं, जबकि वह कुशल महास्रष्टा है।
إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 81
(82) वह तो जब किसी चीज़ का इरादा करता है तो उसका काम बस यह है कि उसे हुक्म दे कि हो जा और वह हो जाती है।
فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 82
(83) पाक है वह जिसके हाथ में हर चीज़़ का पूर्ण अधिकार है, और उसी की ओर तुम पलटाए जानेवाले हो।