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سُورَةُ الحِجۡرِ

  1. अल-हिज्र

(मक्का में उतरी-आयतें 99)

परिचय

नाम

आयत नम्बर 80 में हिज्र शब्द आया है, उसी को इस सूरा का नाम दे दिया गया है।

उतरने का समय

विषय और वर्णन-शैली से साफ़ पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय सूरा-14 (इबराहीम) के समय से मिला हुआ है। इसकी पृष्ठभूमि में दो चीज़े बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) को सन्देश पहुँचाते हुए एक समय बीत चुका है और सम्बोधित क़ौम को निरन्तर हठधर्मी, उपहास, अवरोध और अत्याचार अपनी सीमा पार कर चुका है, जिसके बाद अब समझाने-बुझाने का अवसर कम और चेतावनी और धमकी का अवसर अधिक है। दूसरे यह कि अपनी क़ौम के इंकार, हठधर्मी और अवरोध के पहाड़ तोड़ते-तोड़ते नबी (सल्ल०) थके जा रहे हैं और दिल टूटने की दशा बार-बार आप पर छा रही है, जिसे देखकर अल्लाह आपको तसल्ली दे रहा है और आपकी हिम्मत बंधा रहा है।

वार्ताएँ और केन्द्रीय विषय

यही दो विषय इस सूरा में वर्णित हुए हैं। एक यह कि चेतावनी उन लोगों को दी गई जो नबी (सल्ल०) की दावत का इंकार कर रहे थे और आपका उपहास करते और आपके काम में तरह-तरह की रुकावटें पैदा करते थे और दूसरा यह कि नबी (सल्ल०) को तसल्ली और प्रोत्साहन दिया गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यह सूरा समझाने और उपदेश देने से ख़ाली है। क़ुरआन में कहीं भी अल्लाह ने केवल चेतावनी या मात्र डॉट-फटकार से काम नहीं लिया है, कड़ी से कड़ी धमकियों और निन्दाओं के बीच भी वह समझाने-बुझाने और उपदेश देने में कमी नहीं करता। अत: इस सूरा में भी एक ओर तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों की ओर संक्षिप्त संकेत किए गए हैं और दूसरी ओर आदम और इबलोस का क़िस्सा सुनाकर नसीहत की गई है ।

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سُورَةُ الحِجۡرِ
15. सूरा अल-हिज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ وَقُرۡءَانٖ مُّبِينٖ
(1) अलिफ लाम० रा०। ये आयतें है ईश्वरीय ग्रन्थ और स्पष्ट क़ुरआन की1।
1. क़ुरआन के लिए यहाँ “मुबीन” शब्द विशेषण के रूप में इस्तेमाल हुआ है। इसका अर्थ यह है कि ये आयतें उस क़ुरआन की है जो अपना अभिप्राय स्पष्ट रूप में व्यक्त करता है।
رُّبَمَا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ كَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 1
(2) दूर नहीं कि एक समय वह आ जाए जब वही लोग जिन्होंने आज (इस्लाम का निमंत्रण स्वीकार करने से) इनकार कर दिया है, पछता-पछताकर कहेंगे कि क्या अच्छा होता कि हम आज्ञाकारी हो गए होते।
ذَرۡهُمۡ يَأۡكُلُواْ وَيَتَمَتَّعُواْ وَيُلۡهِهِمُ ٱلۡأَمَلُۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) छोड़ो इन्हें, खाएँ-पिएँ, मज़े करें, और भुलावे में डाले रखे इनको झूठी उम्मीद। जल्द ही इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا وَلَهَا كِتَابٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 3
(4) हमने इससे पहले जिस बस्ती को भी तबाह किया है उसके लिए कर्म की एक विशेष मुहलत लिखी जा चुकी थी।
مَّا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 4
(5) कोई क़ौम न अपने निश्चित समय से पहले तबाह हो सकती है, न उसके बाद छूट सकती है।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِي نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ إِنَّكَ لَمَجۡنُونٞ ۝ 5
(6) ये लोग कहते हैं, “ऐ वह व्यक्ति, जिसपर यह ज़िक्र2 उतरा है3, तू निश्चय ही दीवाना है।
2. यहाँ “ज़िक्र शब्द इस्तेमाल हुआ है। यह शब्द क़ुरआन में परिभाषा के रूप में ईश्वरीय वाणी के लिए इस्तेमाल हुआ है जो सर्वथा उपदेश बनकर आती है। पहले जितनी किताबें नबियों पर उतरी थीं वे सब भी “ज़िक्र” थीं और यह क़ुरआन भी ज़िक्र है। “ज़िक्र” का मूल अर्थ है “याद दिलाना” “होशियार करना” और “नसीहत करना”।
3. यह वाक्य वे लोग व्यंग्य के रूप में कहते थे। उनको तो यह स्वीकार ही नहीं था कि यह अनुस्मारक (ज़िक्र) नबी (सल्ल०) पर उतरा है, न इसे स्वीकार करने के बाद वे आपको दीवाना कह सकते थे। वास्तव में उनके कहने का अर्थ यह था कि “ऐ वह व्यक्ति, जिसका दावा यह है कि मुझपर यह अनुस्मारक उत्तरा है।"
لَّوۡمَا تَأۡتِينَا بِٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 6
(7) अगर तू सच्चा है तो हमारे सामने फ़रिश्तों को ले क्यों नहीं आता?"
مَا نُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَمَا كَانُوٓاْ إِذٗا مُّنظَرِينَ ۝ 7
(8) — हम फ़रिश्तों को यों ही नहीं उतार दिया करते। वे जब उतरते हैं तो हक़ के साथ उतरते हैं, फिर लोगों को मुहल नहीं दी जाती।4
4. अर्थात् फ़रिश्ते सिर्फ़ तमाशा दिखाने के लिए नहीं उतारे जाते कि जब किसी क़ौम ने कहा कि बुलाओ फ़रिश्तों को और वे तुरन्त आ उपस्थित हों। फ़रिश्तों को भेजने का समय तो वह अन्तिम समय होता है जब किसी क़ौम का फ़ैसला चुका देने का निश्चय कर लिया जाता है। “हक़ के साथ उतरते हैं” का अर्थ “हक़ लेकर उतरना” है। अर्थात् वे अल्लाह का न्यायानुकूल निर्णय लेकर आते हैं और उसे लागू करके छोड़ते हैं।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا ٱلذِّكۡرَ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 8
(9) रहा यह ज़िक्र, तो इसको हमने उतारा है और हम ख़ुद इसके रक्षक हैं।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي شِيَعِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 9
(10) ऐ नबी, हम तुमसे पहले बहुत-सी गुज़री हुई क़ौमों में रसूल भेज चुके हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 10
(11) कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनके पास कोई रसूल आया हो और उन्होंने उसकी हँसी न उड़ाई हो।
كَذَٰلِكَ نَسۡلُكُهُۥ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 11
(12) अपराधियों के दिलों में तो हम इस ज़िक्र को इसी तरह (सलाख़ की भाँति) गुज़ारते है।5
5. मूल में “नसलुकुहू” शब्द इस्तेमाल हुआ है। 'सलक' का अर्थ अरबी भाषा में किसी चीज़ को दूसरी चीज़़ में चलाना, गुज़ारना और पिरोना होता है, जैसे तागे को सुई के नाके में गुज़ारना। अतः आयत का अर्थ यह है कि ईमानवालों के अन्दर तो यह अनुस्मारक हृदय की ठंडक और आत्मा का आहार बनकर उतरता है, मगर अपराधियों के दिलों में यह फ़लीता बनकर लगता है और उनके अन्दर उसे सुनकर ऐसी आग भड़क उठती है, मानो एक गर्म सलाख़ थी जो छाती के पार हो गई।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَقَدۡ خَلَتۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 12
(13) वे इसपर ईमान नहीं लाया करते। प्राचीन काल से इस आचार के लोगों की यही रीति चली आ रही है।
وَلَوۡ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَظَلُّواْ فِيهِ يَعۡرُجُونَ ۝ 13
(14) अगर हम उनपर आसमान का कोई दरवाज़ा खोल देते और वे दिन-दहाड़े उसमें चढ़ने भी लगते
لَقَالُوٓاْ إِنَّمَا سُكِّرَتۡ أَبۡصَٰرُنَا بَلۡ نَحۡنُ قَوۡمٞ مَّسۡحُورُونَ ۝ 14
(15) तब भी वे यही कहते कि हमारी आँखों को धोखा हो रहा है, बल्कि हमपर जादू कर दिया गया है।
وَلَقَدۡ جَعَلۡنَا فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَزَيَّنَّٰهَا لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 15
(16) यह हमारी कार्य-कुशलता है कि आसमान में हमने बहुत-से मज़बूत क़िले6 बनाए,
6. मूल ग्रन्थ में 'बुरूज' शब्द इस्तेमाल हुआ है। बुर्ज अरबी भाषा में क़िले, महल और मज़बूत इमारत को कहते हैं। आगे जो कुछ कहा गया है उसपर विचार करने से ख़याल होता है कि शायद इससे मुराद ऊपरी लोक के वे क्षेत्र हैं जिनमें से हर क्षेत्र को अत्यन्त सुदृढ़ सीमाओं ने दूसरे क्षेत्र से अलग कर रखा है। इस अर्थ के अनुसार हम बुरूज को सुरक्षित क्षेत्रों के अर्थ में लेना ज़्यादा सही समझते हैं।
وَحَفِظۡنَٰهَا مِن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ رَّجِيمٍ ۝ 16
(17) उनको देखनेवालों के लिए (तारों से) सुसज्जित किया, और हर फिटकारे हुए शैतान से उनको सुरक्षित कर दिया।
إِلَّا مَنِ ٱسۡتَرَقَ ٱلسَّمۡعَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ مُّبِينٞ ۝ 17
(18) कोई शैतान उनमें राह नहीं पा सकता, यह और बात है कि कुछ सुन-गुन ले ले।7 और जब वह सुन-गुन लेने की कोशिश करता है तो एक प्रदीप्त अग्निशिखा उसका पीछा करती है।8
7. अर्थात् वे शैतान जो अपने मित्रों को ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरें लाकर देने की कोशिश करते हैं उनके पास वास्तव में परोक्ष के ज्ञान के साधन बिलकुल नहीं हैं। ब्रह्माण्ड उनके लिए खुला नहीं पड़ा है कि जहाँ चाहें जाएँ और अल्लाह के रहस्य मालूम करें। वे सुन-गुन लेने की कोशिश ज़रूर करते हैं, लेकिन वास्तव में उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता।
8. यहाँ “शिहाबुम-मुबीन” शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थ है प्रकाशमान ज्वाला। दूसरे स्थान पर क़ुरआन मजीद में इसके लिए 'शिहाबे-साक़िब' का शब्द इस्तेमाल हुआ है, अर्थात् 'अन्धकार को भेदनेवाली अग्निशिखा'। इससे मुराद ज़रूरी नहीं कि वह टूटनेवाला तारा ही हो जिसे हमारी भाषा में पारिभाषिक रूप में 'शिहाबे-साक़िब' (उल्का, तारा टूटना) कहा जाता है। संभव है कि ये दूसरी किसी क़िस्म की किरणें हों, उदाहरणार्थं ब्रह्माण्ड किरणें (cosmic rays) या उनसे भी ज़्यादा तेज़ कोई और तरह की चीज़़ जिसका अभी हमें ज्ञान न हुआ हो। फिर यह भी संभव है कि इससे मुराद यही टूटते तारे हों जिन्हें कभी-कभी हमारी आँखें ज़मीन की ओर गिरते हुए देखती है और यही ऊपरी लोक की ओर शैतानों की उड़ान में बाधक सिद्ध होते हो।
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡزُونٖ ۝ 18
(19) हमने ज़मीन को फैलाया, उसमें पहाड़ जमाए, उसमें हर तरह की वनस्पति ठीक-ठीक नपी-तुली मात्रा के साथ उगाई,
وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَ وَمَن لَّسۡتُمۡ لَهُۥ بِرَٰزِقِينَ ۝ 19
(20) और उसमें आजीविका के साधन जुटाए, तुम्हारे लिए भी और सृष्टि के उन बहुत-से प्राणियों के लिए भी जिनके आहारदाता तुम नहीं हो।
وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا عِندَنَا خَزَآئِنُهُۥ وَمَا نُنَزِّلُهُۥٓ إِلَّا بِقَدَرٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 20
(21) कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसके ख़जाने हमारे पास न हों, और जिस चीज़ को भी हम उतारते हैं एक निश्चित मात्रा में उतारते हैं।
وَأَرۡسَلۡنَا ٱلرِّيَٰحَ لَوَٰقِحَ فَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَسۡقَيۡنَٰكُمُوهُ وَمَآ أَنتُمۡ لَهُۥ بِخَٰزِنِينَ ۝ 21
(22) फलदायक हवाओं को हम ही भेजते हैं, फिर आसमान से पानी बरसाते हैं, और उस पानी से तुम्हें सिंचित करते हैं। इस दौलत के ख़ज़ाने के अधिकारी तुम नहीं हो।9
9. अर्थात् तुम्हारे बाद हम ही बाक़ी रहनेवाले हैं। तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है सिर्फ़ अस्थायी उपभोग के लिए मिला हुआ है। आख़िरकार हमारी दी हुई हर चीज़़ को यों ही छोड़कर तुम ख़ाली हाथ चले जाओगे और ये सब चीज़़ें ज्यों की त्यों हमारे ख़जाने में रह जाएँगी।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَنَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 22
(23) ज़िन्दगी और मौत हम देते हैं, और हम ही सबके उत्तराधिकारी होनेवाले हैं।”
وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَقۡدِمِينَ مِنكُمۡ وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَـٔۡخِرِينَ ۝ 23
(24) पहले जो लोग तुममें से हो गुज़रे है उनको भी हमने देख रखा है, और बाद के आनेवाले भी हमारी निगाह में हैं।
وَإِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحۡشُرُهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 24
(25) यक़ीनन तुम्हारा रब इन सबको इकट्ठा करेगा, वह तत्वदर्शी भी है और सर्वज्ञ भी।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 25
(26) हमने इनसान को सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से बनाया।10
10. यहाँ क़ुरआन इस बात को स्पष्ट करता है कि इनसान पाशविक जानवरों की स्थितियों से उन्नति करता हुआ इनसानियत के दायरे में नहीं आया है, जैसा कि नवीन युग के डारविनवाद से प्रभावित क़ुरआन के टीकाकार सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि उसकी सृष्टि का आरंभ सीधे पार्थिव पदार्थों से हुआ है जिनकी स्थिति को अल्लाह ने “सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे” के शब्दों में स्पष्ट किया है। ये शब्द स्पष्टतः बताते हैं कि ख़मीर उठी हुई मिट्टी का एक पुतला बनाया गया था जो बनने के बाद सूखा और फिर उसके अन्दर रूह (आत्मा) फूँकी गई।
وَٱلۡجَآنَّ خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ مِن نَّارِ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) और उससे पहले जिन्नों को हम आग की लपट से पैदा कर चुके थे।11
11. यहाँ “समूम” शब्द इस्तेमाल हुआ है। 'समूम' गर्म हवा को कहते हैं और आग को 'समूम' से सम्बद्ध करने की स्थिति में इसका अर्थ आग के बजाय उच्च ताप के हो जाता है। इससे उन स्थलों की व्याख्या हो जाती है, जहाँ क़ुरआन मजीद में यह कहा गया है कि जिन्न आग से पैदा किए गए हैं।
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 27
(28) फिर याद करो उस अवसर को जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि “मैं सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से एक इनसान पैदा कर रहा हूँ।
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 28
(29) जब मैं उसे पूरा बना चुकूँ और उसमें अपनी रूह (आत्मा) से कुछ फूँक दूँ तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर जाना।”
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 29
(30) अतएव सब फ़रिश्तों ने सजदा किया,
إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰٓ أَن يَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 30
(31) सिवाय इबलीस के कि उसने सजदा करनेवालों का साथ देने से इनकार कर दिया।
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا لَكَ أَلَّا تَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 31
(32) रब ने पूछा, “ऐ इबलीस, तुझे क्या हुआ कि तूने सजदा करनेवालों का साथ न दिया?”
قَالَ لَمۡ أَكُن لِّأَسۡجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقۡتَهُۥ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 32
(33) उसने कहा, “मेरा यह काम नहीं है कि मैं उस इनसान को सजदा करूँ जिसे तूने सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से पैदा किया है।”
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 33
(34) रब ने कहा, “अच्छा तो निकल जा यहाँ से क्योंकि तू फिटकारा हुआ (मरदूद) है,
وَإِنَّ عَلَيۡكَ ٱللَّعۡنَةَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 34
(35) और अब बदले के दिन तक तुझपर फिटकार है।”
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 35
(36) उसने कहा, “मेरे रब, यह बात है तो फिर मुझे उस दिन तक के लिए मुहलत दे जबकि सारे इनसान दोबारा उठाए जाएँगे।”
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 36
(37) कहा, “अच्छा, तुझे मुहलत है
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 37
(38) उस दिन तक जिसका समय हमें मालूम है।”
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأُزَيِّنَنَّ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 38
(39) वह बोला, “मेरे रब, जैसा तूने मुझे बहकाया, उसी तरह अब मैं ज़मीन में उनके लिए मनमोहकता पैदा करके उन सबको बहका दूँगा,
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 39
(40) सिवाय तेरे उन बन्दों के जिन्हें तूने उनमें से ख़ालिस कर लिया हो।”
قَالَ هَٰذَا صِرَٰطٌ عَلَيَّ مُسۡتَقِيمٌ ۝ 40
(41) कहा, “यह मार्ग है जो सोधा मुझ तक पहुँचता है।12
12. यहाँ 'हाज़ा सिरातुन-अलैया मुस्तक़ीम' के शब्द आए हैं। इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ वह जो हमने अनुवाद में बयान किया है और दूसरा अर्थ यह है कि यह बात ठीक है मैं भी इसका पाबन्द रहूँगा।
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٌ إِلَّا مَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 41
(42) बेशक जो मेरे वास्तविक बन्दे हैं उनपर तेरा बस न चलेगा। तेरा बस तो सिर्फ़ उन बहके हुए लोगों ही पर चलेगा जो तेरा अनुसरण करें,13
13. इस वाक्य का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि मेरे बन्दों (अर्थात् सामान्य लोगों) पर तुझे कोई प्रभुत्व प्राप्त न होगा कि तू उन्हें ज़बरदस्ती अवज्ञाकारी बना दे, हाँ जो ख़ुद ही बहके हुए हों और ख़ुद ही तेरे पीछे चलना चाहें उन्हें तेरी राह पर जाने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उन्हें हम ज़बरदस्ती इससे रोकने की कोशिश न करेंगे।
وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوۡعِدُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 42
(43) और उन सबके लिए जहन्नम की धमकी है।"
لَهَا سَبۡعَةُ أَبۡوَٰبٖ لِّكُلِّ بَابٖ مِّنۡهُمۡ جُزۡءٞ مَّقۡسُومٌ ۝ 43
(44) यह जहन्नम (जिससे इबलीस के अनुयायियों को डराया गया है) उसके सात दरवाज़े हैं, हर दरवाज़े के लिए उनमें से एक हिस्सा निश्चित कर दिया गया है।14
14. जहन्नम के ये दरवाज़े संभवतः उन गुमराहियों और गुनाहों के लिहाज़ से होंगे जिनको अपनाकर आदमी अपने लिए दोज़ख़ की राह खोलता है। उदाहरणार्थ: कोई नास्तिकता के रास्ते से दोज़ख़ की ओर जाता है, कोई अनेकेश्वरवाद के रास्ते से कोई कपटाचार के रास्ते से कोई इच्छाओं की दासताओं और अवज्ञा एवं दुस्साहस के रास्ते से, कोई अन्याय एवं अत्याचार और लोगों को सताने के रास्ते से कोई मार्ग भ्रष्टता के प्रचार और अधर्म की स्थापना के रास्ते से और कोई अश्लीलता और बुराई के प्रचार के मार्ग से। जिस व्यक्ति का जो अवगुण ज़्यादा उभरा हुआ होगा, उसी के अनुसार जहन्नम की ओर जाने के लिए उसका मार्ग निश्चित होगा।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 44
(45) इसके विपरीत डर रखनेवाले लोग बाग़ों और झरनों में होंगे
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٍ ءَامِنِينَ ۝ 45
(46) और उनसे कहा जाएगा कि दाख़िल हो जाओ इनमें सलामती के साथ निर्भयतापूर्वक।
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلٍّ إِخۡوَٰنًا عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 46
(47) उनके दिलों में जो थोड़ी-बहुत खोट-कपट होगी उसे हम निकाल देंगे, वे आपस में भाई-भाई बनकर आमने-सामने तख़्तों पर बैठेंगे।
لَا يَمَسُّهُمۡ فِيهَا نَصَبٞ وَمَا هُم مِّنۡهَا بِمُخۡرَجِينَ ۝ 47
(48) उन्हें न वहाँ किसी कष्ट से पाला पड़ेगा और न वे वहाँ से निकाले जाएँगे।
۞نَبِّئۡ عِبَادِيٓ أَنِّيٓ أَنَا ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 48
(49) ऐ नबी, मेरे बन्दों को सूचित कर दो कि मैं बहुत माफ़ करनेवाला और दयावान हूँ।
وَأَنَّ عَذَابِي هُوَ ٱلۡعَذَابُ ٱلۡأَلِيمُ ۝ 49
(50) मगर इसके साथ मेरा अज़ाब भी बहुत ही दर्दनाक अज़ाब है।
وَنَبِّئۡهُمۡ عَن ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 50
(51) और इन्हें तनिक इबराहीम के मेहमानों का क़िस्सा सुनाओ।
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗا قَالَ إِنَّا مِنكُمۡ وَجِلُونَ ۝ 51
(52) जब वे आए उसके यहाँ और कहा, “सलाम हो तुमपर” तो उसने कहा, “हमें तुमसे डर लगता है।”
قَالُواْ لَا تَوۡجَلۡ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 52
(53) उन्होंने जवाब दिया, “डरो नहीं, हम तुम्हें एक ज्ञानी लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं।15
15. अर्थात् हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के जन्म की ख़ुशख़बरी जैसा कि सूरा 11 (हूद) में स्पष्टतः बयान हुआ है।
قَالَ أَبَشَّرۡتُمُونِي عَلَىٰٓ أَن مَّسَّنِيَ ٱلۡكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُونَ ۝ 53
(54) इबराहीम ने कहा, “क्या तुम इस बुढ़ापे में मुझे सन्तान की ख़ुशख़बरी देते हो? तनिक सोचो तो सही कि यह कैसी ख़ुशख़बरी तुम मुझे दे रहे हो?”
قَالُواْ بَشَّرۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡقَٰنِطِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने जवाब दिया, “हम तुम्हें सच्ची ख़ुशख़बरी दे रहे हैं, तुम निराश न हो।”
قَالَ وَمَن يَقۡنَطُ مِن رَّحۡمَةِ رَبِّهِۦٓ إِلَّا ٱلضَّآلُّونَ ۝ 55
(56) इबराहीम ने कहा, “अपने रब की दयालुता से निराश तो पथभ्रष्ट लोग ही हुआ करते हैं।”
قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 56
(57) फिर इबराहीम ने पूछा, “ऐ अल्लाह के भेजे हुए, वह मुहिम क्या है जिसपर आप लोग पधारे हैं?”
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 57
(58) वे बोले, “हम एक अपराधी क़ौम की ओर भेजे गए हैं।
إِلَّآ ءَالَ لُوطٍ إِنَّا لَمُنَجُّوهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 58
(59) सिर्फ़ लूत के घरवाले इससे अलग हैं, उन सबको हम बचा लेंगे,
إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَآ إِنَّهَا لَمِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 59
(60) सिवाय उसकी बीवी के जिसके लिए (अल्लाह कहता है कि) हमने नियत कर दिया है कि वह पीछे रह जानेवालों में सम्मिलित रहेगी।"
فَلَمَّا جَآءَ ءَالَ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 60
(61) फिर जब ये दूत लूत के यहाँ पहुँचे
قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 61
(62) तो उसने कहा, “आप लोग अजनबी मालूम होते हैं।”
قَالُواْ بَلۡ جِئۡنَٰكَ بِمَا كَانُواْ فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 62
(63) उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि हम वही चीज़़ लेकर आए हैं जिसके आने में ये लोग सन्देह कर रहे थे।
وَأَتَيۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 63
(64) हम तुमसे सच कहते हैं कि हम हक़ के साथ तुम्हारे पास आए हैं।
فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَٱتَّبِعۡ أَدۡبَٰرَهُمۡ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٞ وَٱمۡضُواْ حَيۡثُ تُؤۡمَرُونَ ۝ 64
(65) अतः अब तुम कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जाओ और ख़ुद उनके पीछे-पीछे चलो। तुममें से कोई पलटकर न देखे।
وَقَضَيۡنَآ إِلَيۡهِ ذَٰلِكَ ٱلۡأَمۡرَ أَنَّ دَابِرَ هَٰٓؤُلَآءِ مَقۡطُوعٞ مُّصۡبِحِينَ ۝ 65
(66) बस सीधे चले जाओ जिधर जाने का तुम्हे हुक्म दिया जा रहा है।” और उसे हमने अपना यह फ़ैसला पहुँचा दिया कि प्रातःकाल होते-होते उन लोगों की जड़ काट दी जाएगी।
وَجَآءَ أَهۡلُ ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 66
(67) इतने में नगर के लोग ख़ुशी के मारे विकल होकर लूत के घर चढ़ आए।
قَالَ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ ضَيۡفِي فَلَا تَفۡضَحُونِ ۝ 67
(68) लूत ने कहा “भाइयो, ये मेरे मेहमान हैं, मेरी फ़ज़ीहत न करो,
وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ ۝ 68
(69) अल्लाह से डरो, मुझे अपमानित न करो।”
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ نَنۡهَكَ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 69
(70) वे बोले, “क्या हम बार-बार तुम्हें मना नहीं कर चुके हैं कि दुनिया भर के ठीकेदार न बनो?”
قَالَ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِيٓ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 70
(71) लूत ने (विवश होकर) कहा, “अगर तुम्हें कुछ करना ही है तो ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं!”16
16. व्याख्या के लिए देखें सूरा 11 (हूद), टिप्पणी 26, 27।
لَعَمۡرُكَ إِنَّهُمۡ لَفِي سَكۡرَتِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 71
(72) तेरी जान की क़सम ऐ नबी, उस समय उनपर एक नशा-सा चढ़ा हुआ था जिसमें वे आपे से बाहर हुए जाते थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُشۡرِقِينَ ۝ 72
(73) आख़िरकार पौ फटते ही उनको एक प्रचण्ड धमाके ने आ लिया
فَجَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٍ ۝ 73
(74) और हमने उस बस्ती को तलपट करके रख दिया और उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थरों की वर्षा कर दी
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُتَوَسِّمِينَ ۝ 74
(75) इस घटना में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धिमान हैं।
وَإِنَّهَا لَبِسَبِيلٖ مُّقِيمٍ ۝ 75
(76) और वह भू-भाग (जहाँ यह घटना घटित हुई थी) सार्वजनिक मार्ग पर स्थित है17,
17. अर्थात् हिजाज़ से सीरिया और इराक़ से मिस्र जाते हुए वह तबाह हुआ इलाक़ा रास्ते में पड़ता है और साधारणतया क़ाफ़िलों के लोग तबाही के उन लक्षणों को देखते हैं जो इस पूरे क्षेत्र में आज तक स्पष्टतः पाए जाते हैं।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 76
(77) इसमें शिक्षा सामग्री है उन लोगों के लिए जो ईमानवाले हैं।
وَإِن كَانَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ لَظَٰلِمِينَ ۝ 77
(78) और ऐकावाले18 ज़ालिम थे,
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ وَإِنَّهُمَا لَبِإِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 78
(79) तो देख लो कि हमने भी उनसे बदला लिया, और इन दोनों क़ौमों के उजड़े हुए क्षेत्र खुले रास्ते पर स्थित हैं19।
18. अर्थात् हज़रत शुऐब की क़ौम के लोग, ऐका 'तबूक' का प्राचीन नाम था।
19. मदयन और ऐकावालों का क्षेत्र भी हिजाज़ से फ़िलस्तीन और सीरिया जाते हुए रास्ते में पड़ता है।
وَلَقَدۡ كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡحِجۡرِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 79
(80) हिज्र के लोग भी रसूलों को झुठला चुके हैं।
وَءَاتَيۡنَٰهُمۡ ءَايَٰتِنَا فَكَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 80
(81) हमने अपनी आयतें उनके पास भेजीं, अपनी निशानियाँ उनको दिखाईं मगर वे सबकी उपेक्षा ही करते रहे।
وَكَانُواْ يَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتًا ءَامِنِينَ ۝ 81
(82) वे पहाड़ों को काट-छाँटकर मकान बनाते थे और अपनी जगह बिलकुल निर्भय और निश्चिन्त थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُصۡبِحِينَ ۝ 82
(83) आख़िरकार एक ज़बरदस्त धमाके ने उनको सुबह होते आ लिया
فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 83
(84) और उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞۖ فَٱصۡفَحِ ٱلصَّفۡحَ ٱلۡجَمِيلَ ۝ 84
(85) हमने ज़मीन और आसमानों को और उनमें सब मौजूद चीज़़ों को सत्य के सिवा किसी अन्य आधार पर पैदा नहीं किया है, और फ़ैसले की घड़ी यक़ीनन आनेवाली है, अतः ऐ नबी, तुम (इन लोगों की अशिष्टताओं पर) शिष्टतानुकूल क्षमा से काम लो।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 85
(86) यक़ीनन तुम्हारा रब सबका स्रष्टा है और सब कुछ जानता है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ سَبۡعٗا مِّنَ ٱلۡمَثَانِي وَٱلۡقُرۡءَانَ ٱلۡعَظِيمَ ۝ 86
(87) हमने तुमको सात ऐसी आयतें दे रखी हैं जो बार-बार दोहराई जाने के योग्य हैं20 और तुम्हें महान क़ुरआन प्रदान किया है।
20 अर्थात् सूरा 1 (फ़ातिहा) की आयतें पहले के विद्वानों का यही मत है, बल्कि इमाम बुखारी ने दो “मरफ़ू"अ” रिवायतें भी इस बात के प्रमाण में प्रस्तुत की हैं कि स्वयं नबी (सल्ल०) ने 'सबउम-मिनल-मसानी' (सात दोहराई जानेवाली) से मुराद सूरा फ़ातिहा बताई है।
لَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 87
(88) तुम उस सांसारिक सामग्री की ओर आँख उठाकर न देखो जो हमने इनमें से विभिन्न तरह के लोगों को दे रखी है, और न इनकी हालत पर अपना दिल कुढ़ाओ। इन्हें छोड़कर ईमान लानेवालों की ओर झुको और
وَقُلۡ إِنِّيٓ أَنَا ٱلنَّذِيرُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 88
(89) (न माननेवालों से) कह दो कि “मैं तो साफ़-साफ़ चेतावनी देनेवाला हूँ।”
كَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَى ٱلۡمُقۡتَسِمِينَ ۝ 89
(90) यह उसी तरह की चेतावनी है जैसी हमने उन विच्छेद करनेवालों की ओर भेजी थी
ٱلَّذِينَ جَعَلُواْ ٱلۡقُرۡءَانَ عِضِينَ ۝ 90
(91) जिन्होंने अपने क़ुरआन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है।21
21. अर्थात् उस किताब को जो क़ुरआन की तरह उन्हें दी गई थी टुकड़े-टुकड़े कर डाला, उसके किसी भाग का पालन किया और किसी भाग को पीठ-पीछे डाल दिया।
فَوَرَبِّكَ لَنَسۡـَٔلَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 91
(92) तो क़सम है तेरे रब की, हम ज़रूर उन सबसे पूछेंगे
عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 92
(93) कि तुम क्या करते रहे हो।
فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 93
(94) अत: ऐ नबी, जिस चीज़ का तुम्हें आदेश दिया जा रहा है उसे हाँक-पुकारकर कह दो और मुशरिकों (बहुदेववादियों) की तनिक भी चिन्ता न करो।
إِنَّا كَفَيۡنَٰكَ ٱلۡمُسۡتَهۡزِءِينَ ۝ 94
(95) तुम्हारी ओर से हम उन हँसी उड़ानेवालों की ख़बर लेने के लिए काफ़ी हैं
ٱلَّذِينَ يَجۡعَلُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 95
(96) जो अल्लाह के साथ किसी और को भी रब ठहराते हैं। जल्द ही उन्हें मालूम हो जाएगा।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّكَ يَضِيقُ صَدۡرُكَ بِمَا يَقُولُونَ ۝ 96
(97) हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग तुमपर बनाते हैं उनसे तुम्हारे दिल को बड़ी कुढ़न होती है।
فَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ وَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 97
(98) (इसका इलाज यह है कि) अपने रब की हम्द (स्तुति) के साथ उसकी तसबीह करो, उसकी सेवा में सजदा करो,
وَٱعۡبُدۡ رَبَّكَ حَتَّىٰ يَأۡتِيَكَ ٱلۡيَقِينُ ۝ 98
(99) और उस अन्तिम घड़ी तक अपने रब की बन्दगी करते रहो, जिसका आना यक़ीनी है।