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سُورَةُ الأَنفَالِ

    1. अल-अनफ़ाल

    (मदीना में उतरी – आयतें 75)

    परिचय

    उतरने का समय

    यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।

    नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-

    एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।

    बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।

    मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।

    इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्‍न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।

    17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"

    वार्ताएँ

    यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।

    इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों  में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।

    फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।

    फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।

    फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।

    फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।

    फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।

    फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।

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سُورَةُ الأَنفَالِ
8. सूरा अल-अनफ़ाल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَنفَالِۖ قُلِ ٱلۡأَنفَالُ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَصۡلِحُواْ ذَاتَ بَيۡنِكُمۡۖ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ
(1) तुमसे लड़ाई में हासिल माल (अनफ़ाल) के बारे में पूछते हैं1। कहो, “लड़ाई में प्राप्त होनेवाले ये माल तो अल्लाह और उसके रसूल के हैं, अत: तुम लोग अल्लाह से डरो और अपने आपस के सम्बन्ध ठीक करो और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा मानो अगर तुम ईमानवाले हो2"
1. यहाँ 'अनफ़ाल' शब्द इस्तेमाल हुआ है। अनफ़ाल बहुवचन है नफ़्ल का अरबी में नफ़्ल उस चीज़ को कहते हैं जो देय (वाजिब) या अधिकार से ज़्यादा हो। जब यह अधीन की ओर से हो तो इससे मुराद स्वेच्छापूर्वक सेवा होती है जो एक सेवक अपने स्वामी के लिए कर्त्तव्य से बढ़कर अपनी इच्छा से करता है, जैसे नफ़्ल नमाज़ और जब यह उसकी ओर से हो जिसके अधीन कोई हो तो इससे मुराद वह प्रदान और इनाम होता है जो स्वामी अपने सेवक को उसके हक़ से बढ़कर दे देता है। यहाँ अनफ़ाल का शब्द उन ग़नीमत के मालों के लिए इस्तेमाल हुआ है जो बद्र की लड़ाई में मुसलमानों के हाथ आए थे और उनके अनफ़ाल घोषित करने का अर्थ यह बात मुसलमानों के दिल में बिठाना है कि यह तुम्हारी कमाई नहीं है, बल्कि अल्लाह का अनुग्रह और इनाम है, जो उसने तुम्हें प्रदान किया है।
2. यह बात इसलिए कही गई कि इस माल के बँटवारे के बारे में कोई आदेश आने से पहले मुसलमानों में से विभिन्न गिरोह अपने-अपने हिस्से के लिए दावे पेश करने लगे थे।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَإِذَا تُلِيَتۡ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُهُۥ زَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 1
(2) सच्चे ईमानवाले तो वे लोग हैं जिनके दिल अल्लाह का ज़िक्र सुनकर काँप जाते है और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाती हैं तो उनका ईमान बढ़ जाता है, और वे अपने रब पर भरोसा रखते हैं
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 2
(3) जो नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से (हमारे मार्ग में) ख़र्च करते हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَمَغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 3
(4) ऐसे ही लोग वास्तविक ईमानवाले हैं। उनके लिए उनके रब के पास बड़े दर्जे हैं, ग़लतियों की माफ़ी है और उत्तम रोज़ी है।
كَمَآ أَخۡرَجَكَ رَبُّكَ مِنۢ بَيۡتِكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لَكَٰرِهُونَ ۝ 4
(5) (इस लड़ाई में हासिल माल के मामले में भी वैसी ही स्थिति सामने आ रही है जैसी उस समय सामने आई थी जबकि) तेरा रब तुझे हक़ के साथ तेरे घर से निकाल लाया था और ईमानवालों में से एक गिरोह को यह अप्रिय था।
يُجَٰدِلُونَكَ فِي ٱلۡحَقِّ بَعۡدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى ٱلۡمَوۡتِ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 5
(6) वे उस हक़ के विषय में तुझसे झगड़ रहे थे हालाँकि वह साफ़-साफ़ स्पष्ट हो चुका था। उनका हाल यह था कि वे मानो आँखों देखते मौत की ओर हाँके जा रहे हैं।
وَإِذۡ يَعِدُكُمُ ٱللَّهُ إِحۡدَى ٱلطَّآئِفَتَيۡنِ أَنَّهَا لَكُمۡ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيۡرَ ذَاتِ ٱلشَّوۡكَةِ تَكُونُ لَكُمۡ وَيُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُحِقَّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَيَقۡطَعَ دَابِرَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 6
(7) याद करो वह मौक़ा जबकि अल्लाह तुमसे वादा कर रहा था कि दोनों गिरोहों में से एक तुम्हें मिल जाएगा।3 तुम चाहते थे कि कमज़ोर गिरोह तुम्हें मिले। मगर अल्लाह का इरादा यह था कि अपने वचनों से सत्य को सत्य कर दिखाए और अधर्मियों की जड़ काट दे,
3. अर्थात् क़ुरैश का सौदागरी क़ाफ़िला जो सीरिया की ओर से आ रहा था, या क़ुरैश की सेना जो मक्का से आ रही थी।
لِيُحِقَّ ٱلۡحَقَّ وَيُبۡطِلَ ٱلۡبَٰطِلَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 7
(8) ताकि सत्य, सत्य होकर रहे और असत्य, असत्य होकर रह जाए, चाहे अपराधियों को यह कितना ही अप्रिय हो।
إِذۡ تَسۡتَغِيثُونَ رَبَّكُمۡ فَٱسۡتَجَابَ لَكُمۡ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلۡفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُرۡدِفِينَ ۝ 8
(9) और वह अवसर जबकि तुम अपने रब से फ़रियाद कर रहे थे। जवाब में उसने कहा कि मैं तुम्हारी सहायता के लिए लगातार एक हज़ार फ़रिश्ते भेज रहा हूँ।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ وَلِتَطۡمَئِنَّ بِهِۦ قُلُوبُكُمۡۚ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) यह बात अल्लाह ने तुम्हें सिर्फ़ इसलिए बता दी कि तुम्हारे लिए शुभ-सूचना हो और तुम्हारे दिल इससे सन्तुष्ट हो जाएँ, वरना मदद तो जब भी होती है अल्लाह ही की ओर से होती है। यक़ीनन अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
إِذۡ يُغَشِّيكُمُ ٱلنُّعَاسَ أَمَنَةٗ مِّنۡهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ لِّيُطَهِّرَكُم بِهِۦ وَيُذۡهِبَ عَنكُمۡ رِجۡزَ ٱلشَّيۡطَٰنِ وَلِيَرۡبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمۡ وَيُثَبِّتَ بِهِ ٱلۡأَقۡدَامَ ۝ 10
(11) और वह समय जबकि अल्लाह अपनी ओर से ऊँघ के रूप में तुम्हें निश्चिन्तता और निर्भयता के मनोभाव से ढक रहा था4, और आसमान से तुम्हारे ऊपर पानी बरसा रहा था ताकि तुम्हें पाक करे और तुमसे शैतान की डाली हुई गन्दगी दूर करे और तुम्हारी हिम्मत बँधाए और इसके द्वारा तुम्हारे क़दम जमा दे।
4. यही अनुभव मुसलमानों को उहुद को लड़ाई में हुआ था जैसा कि सूरा-3 (आले-इमरान) आयत 154 में बयान हो चुका है।
إِذۡ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَنِّي مَعَكُمۡ فَثَبِّتُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ سَأُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ فَٱضۡرِبُواْ فَوۡقَ ٱلۡأَعۡنَاقِ وَٱضۡرِبُواْ مِنۡهُمۡ كُلَّ بَنَانٖ ۝ 11
(12) और वह समय जबकि तुम्हारा रब फ़रिश्तों को इशारा कर रहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम ईमानवालों को जमाए रखो, मैं अभी इन अधर्मियों के दिलों में रोब डाले देता हूँ, अत: तुम उनकी गरदनों पर आघात और जोड़-जोड़ पर चोट लगाओ।"5
5. यहाँ तक बद्र की लड़ाई की जिन घटनाओं को एक-एक करके याद दिलाया गया है उसका उद्देश्य वास्तव में “अनफ़ाल” शब्द का सार्थक होना व्यक्त करना है। शुरू में कहा गया था कि ग़नीमत के इस माल को अपनी मेहनत का फल समझकर उसके मालिक और स्वामी कहाँ बने जाते हो, यह तो वास्तव में ईश्वरीय देन है और दाता ख़ुद ही अपने माल के बारे में अधिकार रखता है। अब इसके प्रमाणस्वरूप ये घटनाएँ गिनवाई गई हैं कि इस विजय में ख़ुद ही हिसाब लगाकर देखो कि तुम्हारी अपनी मेहनत, साहस और वीरता का कितना हिस्सा था और अल्लाह की कृपा का कितना हिस्सा। इसलिए इसका फ़ैसला करना कि इसका किस तरह बंटवारा हो तुम्हारा नहीं, बल्कि अल्लाह का काम है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَمَن يُشَاقِقِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 12
(13) यह इसलिए कि उन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया और जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करे अल्लाह उसके लिए अत्यन्त कड़ी पकड़ करनेवाला है6 —
6. इस वाक्य में सम्बोधित क़ुरैश के अधर्मी लोग हैं, जो बद्र में पराजित हुए थे।
ذَٰلِكُمۡ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 13
(14) यह है तुम लोगों की सज़ा, अब इसका मज़ा चखो, और तुम्हें मालूम हो कि सत्य का इनकार करनेवालों के लिए दोजख़ का अज़ाब है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ زَحۡفٗا فَلَا تُوَلُّوهُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ۝ 14
(15) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम्हारा एक सेना के रूप में अधर्मियों से मुक़ाबला हो तो उनके मुक़ाबले में पीठ न फेरो,
وَمَن يُوَلِّهِمۡ يَوۡمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ إِلَّا مُتَحَرِّفٗا لِّقِتَالٍ أَوۡ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٖ فَقَدۡ بَآءَ بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 15
(16) जिसने ऐसे अवसर पर पीठ फेरी यह और बात है कि युद्ध-चाल के रूप में ऐसा करे या किसी दूसरी सेना से जा मिलने के लिए — तो वह अल्लाह के ग़ज़ब में घिर जाएगा। उसका ठिकाना जहन्नम होगा और वह पलटने की बहुत बुरी जगह है।
فَلَمۡ تَقۡتُلُوهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ قَتَلَهُمۡۚ وَمَا رَمَيۡتَ إِذۡ رَمَيۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ رَمَىٰ وَلِيُبۡلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡهُ بَلَآءً حَسَنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 16
(17) अत: तथ्य यह है कि तुमने उनको क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ने उनको क़त्ल किया और ऐ नबी, तूने नहीं फेंका बल्कि अल्लाह ने फेंका7 (और ईमानवालों के हाथ जो इस कार्य में इस्तेमाल किए गए) तो यह इसलिए था कि अल्लाह ईमानवालों को एक उत्तम परीक्षा से सफलतापूर्वक गुज़ार दे, यक़ीनन अल्लाह सुनने और जाननेवाला है।
7. बद्र की लड़ाई में जब मुसलमानों और अधर्मियों की सेनाएँ एक-दूसरे के मुक़ाबिल हुईं और सामान्यतः मार-काट का अवसर आया तो नबी (सल्ल०) ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर “शाहतिल-वुजूह” (चेहरे बिगड़ जाएँ) कहते हुए अधर्मियों की ओर फेंकी और इसके साथ ही आपके इशारे से मुसलमानों ने एक साथ अधर्मियों पर हमला कर दिया। इसी घटना की ओर इशारा है। मतलब यह है कि हाथ तो रसूल का था मगर चोट अल्लाह की ओर से थी।
ذَٰلِكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُوهِنُ كَيۡدِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 17
(18) यह मामला तो तुम्हारे साथ है और अधर्मियों के साथ मामला यह है कि अल्लाह उनकी चालों को कमज़ोर करनेवाला है।
إِن تَسۡتَفۡتِحُواْ فَقَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡفَتۡحُۖ وَإِن تَنتَهُواْ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَعُودُواْ نَعُدۡ وَلَن تُغۡنِيَ عَنكُمۡ فِئَتُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَوۡ كَثُرَتۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 18
(19) (उन अधर्मियों से कह दो) 'अगर तुम फ़ैसला चाहते थे तो लो, फ़ैसला तुम्हारे सामने आ गया।8 अब बाज़ आ जाओ, तुम्हारे ही लिए अच्छा है, वरना फिर पलटकर इसी मूर्खता को दोहराओगे तो हम भी यही सज़ा दोबारा देंगे और तुम्हारा जत्था, चाहे वह कितना ही ज़्यादा हो, तुम्हारे कुछ काम न आ सकेगा। अल्लाह ईमानवालों के साथ है।”
8. मक्का से रवाना होते समय मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने 'काबा' के परदे पकड़कर दुआ माँगी थी कि “ऐ अल्लाह! दोनों गिरोहों में से जो अच्छा है उसे विजय प्रदान कर।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَأَنتُمۡ تَسۡمَعُونَ ۝ 19
(20) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो और आदेश सुनने के बाद उससे मुँह न फेरो।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 20
(21) उन लोगों की तरह न हो जाओ जिन्होंने कहा कि हमने सुना हालाँकि वे नहीं सुनते।
۞إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلصُّمُّ ٱلۡبُكۡمُ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 21
(22) यक़ीनन अल्लाह की दृष्टि में अत्यन्त बुरे क़िस्म के जानवर वे बहरे गूँगे लोग हैं जो बुद्धि से काम नहीं लेते।
وَلَوۡ عَلِمَ ٱللَّهُ فِيهِمۡ خَيۡرٗا لَّأَسۡمَعَهُمۡۖ وَلَوۡ أَسۡمَعَهُمۡ لَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) अगर अल्लाह को मालूम होता कि उनमें कुछ भी भलाई है तो वह अवश्य उन्हें सुनने का सौभाग्य प्रदान करता (लेकिन भलाई के बिना) अगर वह उनको सुनवाता तो वे कतराते हुए मुँह फेर जाते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيكُمۡۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَحُولُ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَقَلۡبِهِۦ وَأَنَّهُۥٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 23
(24) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल की पुकार को आगे बढ़कर स्वीकार करो, जबकि रसूल तुम्हें उस चीज़़ की ओर बुलाए जो तुम्हें ज़िन्दगी प्रदान करनेवाली है, और जान रखो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के बीच आड़ है और उसी की ओर तुम समेटे जाओगे।
وَٱتَّقُواْ فِتۡنَةٗ لَّا تُصِيبَنَّ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنكُمۡ خَآصَّةٗۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 24
(25) और बचो उस फ़ितने से जिसकी शामत विशिष्ट रूप से सिर्फ़ उन्हीं लोगों तक सीमित न रहेगी जिन्होंने तुममें से पाप किया हो।9 और जान रखो कि अल्लाह कड़ी सज़ा देनेवाला है।
9. इससे मुराद वे सामुदायिक फ़ितने हैं जो आम संक्रामक रोग की तरह ऐसी शामत लाते हैं जिसमें सिर्फ़ गुनाह करनेवाले ही नहीं ग्रस्त होते बल्कि वे लोग भी मारे जाते हैं जो गुनाहगार और पापी समाज में रहना गवारा करते रहे हों।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ أَنتُمۡ قَلِيلٞ مُّسۡتَضۡعَفُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ ٱلنَّاسُ فَـَٔاوَىٰكُمۡ وَأَيَّدَكُم بِنَصۡرِهِۦ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 25
(26) याद करो वह समय जबकि तुम थोड़े थे, धरती में तुमको कमज़ोर समझा जाता था, तुम डरते रहते थे कि कहीं लोग तुम्हें मिटा न दें। फिर अल्लाह ने तुम्हें पनाह लेने का स्थान जुटाया, अपनी मदद से तुम्हारे हाथ मज़बूत किए और तुम्हें अच्छी रोज़ी पहुँचाई, शायद कि तुम कृतज्ञ बनो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَخُونُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ وَتَخُونُوٓاْ أَمَٰنَٰتِكُمۡ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 26
(27) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो, अपनी अमानतों10 में ग़द्दारी के दोषी न बनो
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 27
(28) और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद वास्तव में परीक्षा सामग्री हैं और अल्लाह के पास बदला देने के लिए बहुत कुछ है।
10. “अपनी अमानतों” से मुराद वे सभी दायित्व हैं जो किसी पर विश्वास करके उसे सौंपे जाएँ, चाहे वे वादे और वफ़ादारों की ज़िम्मेदारियाँ हों, या सामुदायिक समझौतों की या पार्टी (जमाअत) के रहस्यों की या व्यक्तिगत और दल के धनों की या किसी पद की जो किसी व्यक्ति पर भरोसा करते हुए पार्टी उसे समर्पित करे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَتَّقُواْ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّكُمۡ فُرۡقَانٗا وَيُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम अल्लाह से डरने की नीति अपनाओगे तो अल्लाह तुम्हारे लिए कसौटी जुटा देगा11 और तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर करेगा और तुम्हारी ग़लतियाँ माफ़ करेगा। अल्लाह बड़ा अनुग्राहक है।
11. कसौटी उस चीज़ को कहते हैं जो खरे और खोटे के अन्तर को स्पष्ट करती है। यही अर्थ 'फ़ुरक़ान' का भी है. इसलिए हमने 'फ़ुरक़ान' का अनुवाद कसौटी किया है। ईश्वरीय कथन का आशय यह है कि अगर तुम दुनिया में अल्लाह से डरते हुए काम करोगे तो अल्लाह तुम्हारे भीतर वह परख और विवेक की शक्ति पैदा कर देगा जिससे क़दम-क़दम पर तुम्हें ख़ुद मालूम होता रहेगा कि कौन-सी नीति ठीक है और कौन-सी ग़लत, कौन-सी राह ठीक है और अल्लाह की ओर जाती है और कौन-सी राह ग़लत है और शैतान से मिलाती है।
وَإِذۡ يَمۡكُرُ بِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيُثۡبِتُوكَ أَوۡ يَقۡتُلُوكَ أَوۡ يُخۡرِجُوكَۚ وَيَمۡكُرُونَ وَيَمۡكُرُ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 29
(30) वह समय भी याद करने के योग्य है जबकि सत्य का इनकार करनेवाले तेरे विरुद्ध उपाय सोच रहे थे कि तुझे बन्दी बना लें या क़त्ल कर डालें या देश निकाला दे दें12। वे अपनी चालें चल रहे थे और अल्लाह अपनी चाल चल रहा था, और अल्लाह सबसे अच्छी चाल चलनेवाला है।
12. यह उस अवसर का उल्लेख है जबकि क़ुरैश की यह आशंका विश्वास बन चुकी थी कि अब मुहम्मद (सल्ल०) भी मदीना चले जाएँगे। उस समय वे आपस में कहने लगे कि अगर यह व्यक्ति मक्का से निकल गया तो फिर ख़तरा हमारे क़ाबू से बाहर हो जाएगा। अतएव उन्होंने आपके मामले में एक अंतिम निर्णय करने के लिए एक सभा की और इस बात पर आपस में मंत्रणा की कि इस ख़तरे को कैसे रोका जाए।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا قَالُواْ قَدۡ سَمِعۡنَا لَوۡ نَشَآءُ لَقُلۡنَا مِثۡلَ هَٰذَآ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 30
(31) जब उनको हमारी आयतें सुनाई जाती थीं तो कहते थे कि “हाँ सुन लिया हमने, हम चाहें जो ऐसी ही बातें हम भी बना सकते हैं, ये तो वही पुरानी कहानियाँ हैं जो पहले से लोग कहते चले आ रहे हैं।”
وَإِذۡ قَالُواْ ٱللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ ٱلۡحَقَّ مِنۡ عِندِكَ فَأَمۡطِرۡ عَلَيۡنَا حِجَارَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ أَوِ ٱئۡتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 31
(32) और वह बात भी याद है जो उन्होंने कही थी कि “ऐ अल्लाह अगर यह वास्तव में सत्य है तेरी ओर से तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या कोई दर्दनाक अज़ाब हमपर ले आ।”
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمۡ وَأَنتَ فِيهِمۡۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ مُعَذِّبَهُمۡ وَهُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 32
(33) उस समय तो अल्लाह उनपर अज़ाब उतारनेवाला न था जबकि तू उनके बीच मौजूद था और न अल्लाह का यह नियम है कि लोग क्षमा-याचना कर रहे हों और वह उनको अज़ाब दे दे।
وَمَا لَهُمۡ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ ٱللَّهُ وَهُمۡ يَصُدُّونَ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَمَا كَانُوٓاْ أَوۡلِيَآءَهُۥٓۚ إِنۡ أَوۡلِيَآؤُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 33
(34) लेकिन अब क्यों न वह उनपर अज़ाब उतारे जबकि वे प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) का रास्ता रोक रहे हैं, हालाँकि वे उस मसजिद के उचित व्यवस्थापक नहीं हैं। उसके उचित व्यवस्थापक तो सिर्फ़ डर रखनेवाले लोग ही हो सकते हैं, मगर ज़्यादातर लोग इस बात को नहीं जानते।
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمۡ عِندَ ٱلۡبَيۡتِ إِلَّا مُكَآءٗ وَتَصۡدِيَةٗۚ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 34
(35) अल्लाह के घर के पास उन लोगों की नमाज़ क्या होती है? बस सीटियाँ बजाते और तालियाँ पीटते हैं। अतः अब लो, उस अज़ाब का मज़ा चखो, अपने उस सत्य के इनकार के बदले में जो तुम करते रहे हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ لِيَصُدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيۡهِمۡ حَسۡرَةٗ ثُمَّ يُغۡلَبُونَۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحۡشَرُونَ ۝ 35
(36) जिन लोगों ने सत्य को मानने से इनकार किया है वे अपने माल अल्लाह के मार्ग से रोकने के लिए ख़र्च कर रहे हैं और अभी और ख़र्च करते रहेंगे, मगर आख़िरकार यही प्रयास उनके लिए पछतावे का कारण सिद्ध होंगे, फिर वे पराजित होगे, फिर ये अधर्मी जहन्नम की ओर घेर लाए जाएँगे,
لِيَمِيزَ ٱللَّهُ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِ وَيَجۡعَلَ ٱلۡخَبِيثَ بَعۡضَهُۥ عَلَىٰ بَعۡضٖ فَيَرۡكُمَهُۥ جَمِيعٗا فَيَجۡعَلَهُۥ فِي جَهَنَّمَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 36
(37) ताकि अल्लाह गन्दगी को पवित्रता से छाँटकर अलग करे और हर प्रकार की गन्दगी को मिलाकर इकट्ठा करे, फिर उस पुलिन्दे को जहन्नम में झोक दे। यही लोग असली दिवालिए हैं।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَنَٰزَعُواْ فَتَفۡشَلُواْ وَتَذۡهَبَ رِيحُكُمۡۖ وَٱصۡبِرُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 37
(46) और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा मानो और आपस में झगड़ो नहीं, नहीं तो तुम्हारे अन्दर कमज़ोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। सब्र16 से काम लो, यक़ीनन अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।
16. अर्थात् अपने मनोभावों और इच्छाओं को नियंत्रित रखो। जल्दबाज़ी, घबराहट, निराशा, लोभ और अनुचित जोश से बचो। ठण्डे दिल और जँची-तुली निर्णय-शक्ति के साथ काम करो ख़तरे और कठिनाइयाँ सामने हों तो तुम्हारे पाँव लड़खड़ाने न पाएँ। उत्तेजनाजनक अवसर सामने आएँ तो क्रोध के आवेग में तुमसे कोई अनुचित काम न हो जाए। मुसीबतों का हमला हो और स्थिति बिगड़ती दीख पड़ रही हो तो विफलता के कारण तुम्हारी चेतना अस्त-व्यस्त न हो जाए। उद्देश्य की प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से विकल होकर या किसी अर्ध परिपक्व उपाय को सरसरी नज़र में प्रभावकारी देखकर तुम्हारे इरादे शीघ्र ही पराजित न हों। और अगर कभी सांसारिक लाभ और मन के आस्वादन के प्रलोभन तुम्हें अपनी ओर लुभा रहे हों तो उनके मुक़ाबले में भी तुम्हारा मन इतना कमज़ोर न हो कि आप से आप उसकी ओर खिंच जाओ। ये सभी अर्थ सिर्फ़ एक शब्द “सब” (धैर्य) में निहित हैं, और अल्लाह कहता है कि जो लोग इन सभी हैसियतों से धैर्यवान हों तो मेरा समर्थन उन्हीं को प्राप्त है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بَطَرٗا وَرِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 38
(47) और उन लोगों के से रंग-ढंग न अपनाओ जो अपने घरों से इतराते और लोगों को अपनी शान दिखाते हुए निकलें और जिनकी नीति यह है कि अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं, जो कुछ वे कर रहे हैं वह अल्लाह की पकड़ से बाहर नहीं है।
وَإِذۡ زَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَإِنِّي جَارٞ لَّكُمۡۖ فَلَمَّا تَرَآءَتِ ٱلۡفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكُمۡ إِنِّيٓ أَرَىٰ مَا لَا تَرَوۡنَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَۚ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 39
(48) तनिक ध्यान करो उस समय का जबकि शैतान ने उन लोगों की करतूतें उनकी दृष्टि में प्रिय बनाकर दिखाई थीं और उनसे कहा था कि आज कोई तुमपर विजयी नहीं हो सकता और यह कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। मगर जब दोनों गिरोहों का आमना-सामना हुआ तो वह उलटे पाँव फिर गया और कहने लगा कि मेरा तुम्हारा साथ नहीं है, मैं वह कुछ देख रहा हूँ जो तुम लोग नहीं देखते। मुझे ईश्वर से डर लगता है और ईश्वर बड़ी कड़ी सज़ा देनेवाला है।
إِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰٓؤُلَآءِ دِينُهُمۡۗ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 40
(49) जबकि कपटाचारी और वे सब लोग जिनके दिलों को रोग लगा हुआ है, कह रहे थे कि इन लोगों को तो इनके धर्म ने सनक में डाल रखा है।17 हालाँकि अगर कोई अल्लाह पर भरोसा करे तो यक़ीनन अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
17. अर्थात् मदीना के कपटाचारी और वे सब लोग जो दुनिया परस्ती और अल्लाह से बेख़बरी के रोग में ग्रस्त थे, यह देखकर कि मुसलमानों को मुट्ठी भर साधनों से वंचित जमाअत क़ुरैश जैसी भारी ताक़त से टकराने के लिए जा रही है, आपस में कहते थे कि ये लोग अपने धार्मिक जोश में दीवाने हो गए हैं। इस लड़ाई में इनका विनाश निश्चित है, मगर इस नबी ने कुछ ऐसा जादू इनपर फूँक रखा है कि इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है और आँखों देखे ये मौत के मुँह में चले जा रहे हैं।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ يَتَوَفَّى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 41
(50) क्या ही अच्छा होता कि तुम उस स्थिति को देख सकते जबकि फ़रिश्ते क़त्ल होनेवाले अधर्मियों की आत्माओं को ग्रस्त कर रहे थे। वे उनके चेहरों और उनके कूल्हों पर चोटें लगाते जाते थे और कहते जाते थे, “लो अब जलने की सज़ा भुगतो,
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 42
(51) यह वह बदला है जिसका सामान तुम्हारे अपने हाथों ने पहले से ही जुटा रखा था, वरना अल्लाह तो अपने बन्दों पर अत्याचार करनेवाला नहीं है।”
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 43
(52) यह मामला उनके साथ उसी तरह पेश आया जिस तरह फ़िरऔन के लोगों और उनसे पहले के दूसरे लोगों के साथ पेश आता रहा है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को मानने से इनकार किया और अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया। अल्लाह शक्तिवान और कठोर सज़ा देनेवाला है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ لَمۡ يَكُ مُغَيِّرٗا نِّعۡمَةً أَنۡعَمَهَا عَلَىٰ قَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 44
(53) यह अल्लाह के इस नियम के अनुसार हुआ कि वह किसी नेमत को जो उसने किसी क़ौम को प्रदान की हो उस समय तक नहीं बदलता जब तक कि वह क़ौम ख़ुद अपनी नीति को नहीं बदल देती। अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَۚ وَكُلّٞ كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 45
(54) फ़िरऔनियों और उनसे पहले की क़ौमों के साथ जो कुछ हुआ वह इसी नियम के अनुसार था। उन्होंने अपने रब की आयतों (निशानियों) को झुठलाया तब हमने उन लोगों के पापों के बदल में उन्हें तबाह किया और फ़िरऔनियों को डुबो दिया। ये सब ज़ालिम लोग थे।
إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 46
(55) यक़ीनन अल्लाह की दृष्टि में ज़मीन पर चलनेवाले प्राणियों में सबसे बुरे वे लोग हैं। जिन्होंने सत्य को मानने से इनकार कर दिया। फिर किसी तरह वे इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
ٱلَّذِينَ عَٰهَدتَّ مِنۡهُمۡ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهۡدَهُمۡ فِي كُلِّ مَرَّةٖ وَهُمۡ لَا يَتَّقُونَ ۝ 47
(56) (विशेषतः) उनमें से वे लोग जिनके साथ तूने सन्धि की फिर वे हर अवसर पर उसे भंग करते हैं और तनिक भी अल्लाह से नहीं डरते।18
18. यहाँ विशेष रूप से इशारा है यहूदियों की ओर जिनसे नबी (सल्ल०) की संधि और समझौता था और उसके बावजूद वे आपके और मुसलमानों के विरोध में तत्पर थे। बद्र की लड़ाई के तुरन्त बाद ही उन्होंने क़ुरैश को बदले के लिए भड़काना शुरू कर दिया था।
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 48
(57) अतः अगर ये लोग तुम्हें लड़ाई में मिल जाएँ तो इनकी ऐसी ख़बर लो कि इनके बाद दूसरे जो लोग ऐसी नीति अपनानेवाले हों वे विक्षिप्त हो जाएँ।19 आशा है कि वचन भंग करनेवालों के इस परिणाम से वे शिक्षा ग्रहण करेंगे।
19. इसका अर्थ यह है कि अगर किसी क़ौम से हमारी संधि हो और फिर वह सन्धि सम्बन्धी दायित्वों को पीठ-पीछे डालकर हमारे विरुद्ध किसी लड़ाई में हिस्सा ले, तो हमें भी संधि के नैतिक दायित्वों से छुट्टी मिल जाएगी और हमें अधिकार होगा कि उससे लड़ें। और अगर किसी क़ौम से हमारी लड़ाई हो रही हो और हम देखें कि दुश्मन के साथ एक ऐसी क़ौम के व्यक्ति भी लड़ाई में शरीक हैं जिससे हमारी संधि है तो हम उनको क़त्ल करने और उनसे दुश्मन का-सा मामला करने में हरगिज़ किसी तरह से नहीं झिझकेंगे।
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ خِيَانَةٗ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 49
(58) और अगर कभी तुम्हें किसी क़ौम से विश्वासघात की आशंका हो तो उसकी संधि को खुल्लम-खुल्ला उसके आगे फेंक दो20, यक़ीनन ही अल्लाह विश्वासघातियों को पसन्द नहीं करता।
20 अर्थात् उसे साफ़-साफ़ सूचित कर दो कि हमारी तुम्हारी कोई सन्धि बाक़ी नहीं है, क्योंकि तुम प्रतिज्ञा को अवहेलना कर रहे हो।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَبَقُوٓاْۚ إِنَّهُمۡ لَا يُعۡجِزُونَ ۝ 50
(59) सत्य का इनकार करनेवाले इस भ्रम में न रहें कि वे बाज़ी ले गए, यक़ीनन ही वे हमें हरा नहीं सकते।
وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٖ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّكُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 51
(60) और तुम लोग, जहाँ तक तुम्हारा बस चले, ज़्यादा से ज़्यादा शक्ति और तैयार बँधे रहनेवाले घोड़े उनके मुक़ाबले के लिए जुटाए रखो21 ताकि उसके द्वारा अल्लाह के और अपने दुश्मनों को और उन दूसरे दुश्मनों को भयभीत कर दो जिन्हें तुम नहीं जानते, मगर अल्लाह जानता है। अल्लाह के मार्ग में जो कुछ तुम ख़र्च करोगे उसका पूरा-पूरा बदला तुम्हारी ओर पलटाया जाएगा और तुम्हारे साथ हरगिज़ ज़ुल्म न होगा।
21. मतलब यह है कि तुम्हारे पास युद्ध का सामान और स्थायी रूप से एक सेना हर समय तैयार रहनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर तुरन्त युद्ध की कार्रवाई कर सको। यह न हो कि ख़तरा सिर पर आ जाने के बाद घबराहट में जल्दी-जल्दी स्वयं सेवियों और हथियार व रसद का सामान जुटाने की कोशिश करो और इस बीच में कि यह तैयारी मुकम्मल हो, दुश्मन अपना काम कर जाए।
۞وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 52
(61) और ऐ नबी! अगर दुश्मन सुलह और सलामती की ओर झुके तो तुम भी इसके लिए तैयार हो जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो, यक़ीनन वही सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
وَإِن يُرِيدُوٓاْ أَن يَخۡدَعُوكَ فَإِنَّ حَسۡبَكَ ٱللَّهُۚ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَيَّدَكَ بِنَصۡرِهِۦ وَبِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 53
(62) और अगर वे धोखे की नीयत रखते हों तो तुम्हारे लिए अल्लाह काफ़ी है। वही तो है जिसने अपनी सहायता से और ईमानवालों के द्वारा तुम्हारी हिमायत की
وَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡۚ لَوۡ أَنفَقۡتَ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مَّآ أَلَّفۡتَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ أَلَّفَ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّهُۥ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 54
(63) और ईमान वालों के दिल एक-दूसरे के साथ जोड़ दिए। तुम सारी ज़मीन का सारा धन भी ख़र्च कर डालते तो इन लोगों के दिल न जोड़ सकते थे; मगर वह अल्लाह है जिसने इन लोगों के दिल जोड़े; यक़ीनन वह बड़ा प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَسۡبُكَ ٱللَّهُ وَمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 55
(64) ऐ नबी, तुम्हारे लिए और तुम्हारे अनुयायी ईमानवालों के लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 56
(65) ऐ नबी, ईमानवालों को जंग पर उभारो। अगर तुममें से बीस आदमी सब्र करनेवाले हों तो वे दो सौ पर विजयी होंगे और अगर सौ आदमी ऐसे हों तो सत्य का इनकार करनेवालों में से हज़ार आदमियों पर भारी रहेंगे, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते22।
22. आजकल की परिभाषा में जिस चीज़़ को आंतरिक शक्ति या नैतिक शक्ति कहते हैं, अल्लाह ने इसी को ज्ञान, विवेक और समझ-बूझ से अभिव्यंजित किया है। जिस व्यक्ति को अपने मक़सद का सही ज्ञान हो और ठण्डे दिल से ख़ूब सोच-समझकर इसलिए लड़ रहा हो कि जिस चीज़़ के लिए वह जान की बाज़ी लगाने आया है। वह उसके व्यक्तिगत जीवन से ज़्यादा मूल्यवान है और उसके बरबाद हो जाने के बाद जीना बेक़ीमत है, वह अविवेक से लड़नेवाले आदमी से कई गुनी ज़्यादा शक्ति रखता है यद्यपि शारीरिक शक्ति में दोनों के बीच कोई अन्तर न हो।
ٱلۡـَٰٔنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفٗاۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ صَابِرَةٞ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمۡ أَلۡفٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفَيۡنِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 57
(66) अच्छा, अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हलका किया और उसे मालूम हुआ कि अभी तुममें कमज़ोरी है, अतः अगर तुममें से सौ आदमी सब्र करनेवाले हों तो वे दो सौ पर और हज़ार आदमी ऐसे हों तो दो हज़ार पर अल्लाह के हुक्म से विजयी होंगे23, और अल्लाह उन लोगों के साथ है जो सब्र से काम लेनेवाले हैं।
23. इसका यह अर्थ नहीं है कि पहले एक और दस का अनुपात था और अब चूँकि तुममें कमज़ोरी आ गई है, इसलिए एक और दो का अनुपात निर्धारित कर दिया गया है। बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि सैद्धान्तिक और आदर्श रूप में तो ईमानवाले और अधर्मियों के बीच एक और दस ही का अनुपात है, लेकिन चूँकि अभी तुम लोगों का नैतिक प्रशिक्षण पूर्ण नहीं हुआ है और अभी तक तुम्हारी चेतना और तुम्हारी समझ-बूझ का पैमाना प्रौढ़ता की सीमा तक नहीं पहुँचा है इसलिए इस समय घटाकर तुमसे यह अपेक्षा की जाती है कि अपने से दो गुनी शक्ति से टकराने में तो तुम्हें कोई संकोच न होना चाहिए। ध्यान रहे यह कथन सन् 02 हि० का है जबकि मुस्लिमों में बहुत-से लोग अभी ताजा-ताज़ा ही इस्लाम में दाख़िल हुए थे और उनका प्रशिक्षण प्रारंभिक स्थिति में था।
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُۥٓ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ ٱلدُّنۡيَا وَٱللَّهُ يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 58
(67) किसी नबी के लिए यह उचित नहीं है कि उसके पास क़ैदी हों जब तक कि वह ज़मीन में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल न दे। तुम लोग दुनिया के लाभ चाहते हो, हालाँकि अल्लाह के सामने आख़िरत है, और अल्लाह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
لَّوۡلَا كِتَٰبٞ مِّنَ ٱللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمۡ فِيمَآ أَخَذۡتُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 59
(68) अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता, तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसके बदले में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती।
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمۡتُمۡ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 60
(69) अतः जो कुछ तुमने माल हासिल किया है उसे खाओ कि वह हलाल (वैध) और पाक है और अल्लाह से डरते रहो।24 यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।
24. बद्र की लड़ाई से पहले सूरा-47 (मुहम्मद) में लड़ाई के विषय में जो प्रारंभिक आदेश दिए गए थे उनमें लड़ाई में हाथ आनेवाले क़ैदियों से अर्थदण्ड (फ़िदया) लेने को अनुमति तो दे दी गई थी, लेकिन इसके साथ शर्त यह लगाई गई थी कि पहले दुश्मन की ताक़त को अच्छी तरह कुचल दिया जाए फिर क़ैदी पकड़ने की चिन्ता की जाए। इस आदेश की दृष्टि से मुसलमानों ने बद्र में जो क़ैदी पकड़े और उसके बाद उनसे जो फ़िदया वसूल किया, वह था तो अनुमति के अनुसार, मगर ग़लती यह हुई कि “दुश्मन की ताक़त को कुचल देने की जो शर्त पहले रखी गई थी उसे पूरा करने से पहले ही मुसलमान दुश्मनों को क़ैद करने और दुश्मन का छोड़ा हुआ माल एकत्र करने में लग गए। इसी बात को अल्लाह ने नापसन्द किया। क्योंकि अगर ऐसा न किया जाता और मुसलमान अधर्मियों का पीछा करते तो इस अवसर पर क़ुरैश की ताक़त तोड़ दी जाती।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّمَن فِيٓ أَيۡدِيكُم مِّنَ ٱلۡأَسۡرَىٰٓ إِن يَعۡلَمِ ٱللَّهُ فِي قُلُوبِكُمۡ خَيۡرٗا يُؤۡتِكُمۡ خَيۡرٗا مِّمَّآ أُخِذَ مِنكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 61
(70) ऐ नबी, तुम लोगों के क़ब्ज़े में जो क़ैदी हैं उनसे कहो कि अगर अल्लाह को मालूम हुआ कि तुम्हारे दिलों में कुछ भलाई है तो वह तुम्हें उससे बढ़-चढ़कर देगा जो तुमसे लिया गया है और तुम्हारी ख़ताएँ माफ़ करेगा, अल्लाह क्षमाशील और दयावान है।
وَإِن يُرِيدُواْ خِيَانَتَكَ فَقَدۡ خَانُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ فَأَمۡكَنَ مِنۡهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 62
(71) लेकिन अगर वे तेरे साथ विश्वासघात का इरादा रखते हैं तो इससे पहले वे अल्लाह के साथ विश्वासघात कर चुके हैं, अतएव उसी की सज़ा अल्लाह ने उन्हें दी कि वे तेरे क़ाबू में आ गए अल्लाह सब कुछ जानता और गहरी समझवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يُهَاجِرُواْ مَا لَكُم مِّن وَلَٰيَتِهِم مِّن شَيۡءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْۚ وَإِنِ ٱسۡتَنصَرُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ فَعَلَيۡكُمُ ٱلنَّصۡرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 63
(72) जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और घर-बार छोड़ा और अल्लाह के मार्ग में अपनी जानें लड़ाईं और अपने माल खपाए और जिन लोगों ने घरबार छोड़नेवालों को जगह दी और उनकी मदद की, वही वास्तव में एक-दूसरे के संरक्षक मित्र हैं। रहे वे लोग जिन्होंने ईमान क़ुबूल किया मगर घर-बार छोड़कर (इस्लामी राज्य में) आ नहीं गए तो उनसे तुम्हारा संरक्षण का कोई सम्बन्ध नहीं है, जब तक कि वे घर-बार छोड़कर न आ जाएँ।25 हाँ, अगर वे धर्म (दीन) के मामले में तुमसे सहायता माँगें तो उनकी सहायता करनी तुमपर अनिवार्य है, लेकिन किसी ऐसी क़ौम के ख़िलाफ़ नहीं जिससे तुम्हारा समझौता हो।26 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देखता है।
25. यहाँ “विलायत” शब्द आया है, जो अरबी भाषा में हिमायत, मदद, पृष्ठपोषण, मित्रता, सम्बन्ध, नाता, संरक्षण, सरपरस्ती और इससे मिलते-जुलते अर्थों के लिए बोला जाता है। इस आयत के संदर्भ में स्पष्टतः इससे मुराद वह नाता है जो एक राज्य का अपने नागरिकों से और नागरिकों का अपने राज्य से और नागरिकों के बीच आपस में होता है। अतः यह आयत वैधानिक एवं राजनैतिक 'विलायत' को इस्लामी राज्य की भौमिक सीमाओं तक सीमित कर देती है, और उन सीमाओं से बाहर के मुसलमानों को इस विशिष्ट सम्बन्ध से वंचित ठहराती है। इस विलायत से वंचित होने के क़ानूनी परिणाम अत्यन्त व्यापक हैं जिनको विस्तृत रूप से पेश करने का यहाँ मौक़ा नहीं है।
26. ऊपर के वाक्य में इस्लामी राज्य के बाहर के मुसलमानों को “राजनीतिक विलायत” (संरक्षण) के संबंध से वंचित ठहराया गया था। अब यह आयत इस चीज़़ को स्पष्ट करती है कि इस सम्बन्ध से वंचित होने के बावजूद वे, “धार्मिक बन्धुत्व” के सम्बन्ध से वंचित नहीं है। अगर कहीं उनपर ज़ुल्म हो रहा हो और वे इस्लामी भ्रातृत्व (बिरादरी के सम्बन्ध के आधार पर इस्लामी अधिक्षेत्र की हुकूमत और उसके निवासियों से सहायता माँगें तो उनका कर्त्तव्य है कि अपने पीड़ित भाइयों की मदद करें। लेकिन इसके बाद और भी स्पष्ट करते हुए कहा गया कि उन धर्म सम्बन्धी भाइयों की सहायता का कर्तव्य अन्धाधुन्ध न निभाया जाएगा। बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों और नैतिक मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए ही निभाया जा सकेगा। अगर ज़ुल्म करनेवाली क़ौम से इस्लामी राज्य के सन्धि एवं समझौते के सम्बन्ध हों तो इस दशा में पीड़ित मुसलमानों की कोई ऐसी सहायता नहीं की जा सकेगी जो समझौतों एवं संविदाओं के नैतिक दायित्वों के विरुद्ध पड़ती हो।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٍۚ إِلَّا تَفۡعَلُوهُ تَكُن فِتۡنَةٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَفَسَادٞ كَبِيرٞ ۝ 64
(73) जिन लोगों को सत्य से इनकार है वे एक दूसरे की हिमायत करते हैं। अगर तुम यह न करोगे तो ज़मीन में फ़ितना (उपद्रव) और बड़ा बिगाड़ पैदा होगा।27
27. अर्थात् अगर इस्लामी अधिक्षेत्र के मुसलमान एक-दूसरे के “वली” (संरक्षक) न बनें, और अगर घरबार छोड़कर इस्लामी अधिक्षेत्र में न आनेवाले और अधर्म-क्षेत्र में रहने और निवास करनेवाले मुसलमानों को इस्लामी अधिक्षेत्र के मुसलमान अपने राजनीतिक विलायत से ख़ारिज न समझें, और अगर बाहर के पीड़ित मुसलमानों के मदद माँगने पर उनकी सहायता न की जाए, और अगर इसके साथ इस नियम की पाबन्दी भी न की जाए कि जिस क़ौम से इस्लामी हुकूमत का समझौता हो उसके विरुद्ध मुसलमानों की मदद न की जाएगी, और अगर मुसलमान अधर्मियों से दोस्ती का सम्बन्ध समाप्त न करें, तो ज़मीन में उपद्रव और बड़ा बिगाड़ पैदा होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 65
(74) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अल्लाह के मार्ग में घर-बार छोड़े और संघर्ष किया और जिन्होंने पनाह दी और सहायता की वहीं सच्चे ईमानवाले हैं। उनके लिए ख़ताओं की माफ़ी है और उत्तम रोज़ी है,
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ مَعَكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ مِنكُمۡۚ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 66
(75) और जो लोग बाद में ईमान लाए और घर-बार छोड़कर आ गए और तुम्हारे साथ मिलकर संघर्ष एवं प्रयास करने लगे वे भी तुम ही में शामिल हैं। मगर अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं28, यकीनन अल्लाह हर चीज़़ को जानता है।
28. अर्थात् विरासत इस्लामी बन्धुत्व के आधार पर नहीं, बल्कि नातेदारी के आधार पर बंटेगी। और इस आदेश की व्याख्या नबी (सल्ल०) के इस आदेश से होती है कि सिर्फ़ मुसलमान नातेदार ही एक-दूसरे के वारिस होंगे। मुसलमान किसी अधर्मी या अधर्मी किसी मुसलमान का वारिस न होगा।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَنتَهُواْ يُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ وَإِن يَعُودُواْ فَقَدۡ مَضَتۡ سُنَّتُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 67
(38) ऐ नबी, इन अधर्मियों से कहो कि अगर अब भी बाज़ आ जाएँ तो जो कुछ पहले हो चुका है उसे क्षमा कर दिया जाएगा, लेकिन अगर ये पुनः उसी पिछली नीति को अपनाएँगे तो विगत क़ौमों के साथ जो कुछ हो चुका है वह सबको मालूम है।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ كُلُّهُۥ لِلَّهِۚ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 68
(39) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इन अधर्मियों से युद्ध करो यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और धर्म पूरा का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे फ़ितने से रुक जाएँ तो उनके कर्मों का देखनेवाला अल्लाह है,
وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَىٰكُمۡۚ نِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 69
(40) और अगर वे न मानें तो जान रखो कि अल्लाह तुम्हारा संरक्षक हैं और वह सबसे अच्छा संरक्षक और सहायक है।
۞وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا غَنِمۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُۥ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا يَوۡمَ ٱلۡفُرۡقَانِ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 70
(41) और तुम्हें मालूम हो कि जो कुछ ग़नीमत (शत्रु-धन) के रूप में माल तुमने प्राप्त किया है13 उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह और उसके रसूल और नातेदारों और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है। अगर तुम ईमान लाए हो अल्लाह पर और उस चीज़़ पर जो फ़ैसले के दिन, अर्थात् दोनों सेनाओं की मुठभेड़ के दिन हमने अपने बन्दे पर उतारी थी14, (तो यह हिस्सा सहर्ष अदा करो)। अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
13. यहाँ उस ग़नीमत के माल के बँटवारे का क़ानून बताया है जिसके सम्बन्ध में वार्ता के शुरू में कहा गया था कि यह अल्लाह का इनाम है जिसके बारे में फ़ैसला करने का अधिकार अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ही को प्राप्त है। अब वह फ़ैसला बयान कर दिया गया है।
14. अर्थात् वह समर्थन और सहायता जिसके कारण तुम्हें विजय प्राप्त हुई और जिसके कारण ही तुम्हें यह ग़नीमत का माल हासिल हुआ।
إِذۡ أَنتُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلۡقُصۡوَىٰ وَٱلرَّكۡبُ أَسۡفَلَ مِنكُمۡۚ وَلَوۡ تَوَاعَدتُّمۡ لَٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡمِيعَٰدِ وَلَٰكِن لِّيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗا لِّيَهۡلِكَ مَنۡ هَلَكَ عَنۢ بَيِّنَةٖ وَيَحۡيَىٰ مَنۡ حَيَّ عَنۢ بَيِّنَةٖۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 71
(42) याद करो वह समय जबकि तुम घाटी के इस ओर थे और वे दूसरी ओर पड़ाव डाले हुए थे और काफ़िला तुमसे नीचे (तट) की ओर था। अगर कहीं पहले से तुम्हारे और उनके बीच मुक़ाबले का निश्चय हो चुका होता तो तुम ज़रूर ही इस अवसर पर पहलू बचा जाते, लेकिन जो कुछ सामने आया वह इसलिए था कि जिस बात का फ़ैसला अल्लाह कर चुका था उसे प्रकाश में ले आए, ताकि जिसे तबाह होना है वह प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ तबाह हो और जिसे ज़िन्दा रहना है वह प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ ज़िन्दा रहे, यक़ीनन अल्लाह सुनने और जाननेवाला हैं।
إِذۡ يُرِيكَهُمُ ٱللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلٗاۖ وَلَوۡ أَرَىٰكَهُمۡ كَثِيرٗا لَّفَشِلۡتُمۡ وَلَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ سَلَّمَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 72
(43) और याद करो वह समय जबकि ऐ नबी, अल्लाह उनको तुम्हारे ख़ाब (सपने) में थोड़ा दिखा रहा था।15 अगर कहीं वह तुम्हें उनकी संख्या ज़्यादा दिखा देता तो ज़रूर तुम लोग साहस छोड़ बैठते और लड़ाई के मामले में झगड़ा शुरू कर देते, लेकिन अल्लाह ही ने इससे तुम्हें बचाया। यक़ीनन वह सीनों का हाल तक जानता है।
15. यह उस समय की बात है जब नबी (सल्ल०) मुसलमानों को लेकर मदीना से निकल रहे थे या रास्ते में किसी पड़ाव पर थे और यह प्रमाणित न हुआ था कि अधर्मियों की सेना वास्तव में कितनी है। उस समय नबी ((सल्ल०) ने ख़ाब में उस सेना को देखा और जो दृश्य आपके सामने लाया गया उससे आपने अनुमान लगाया कि दुश्मनों की संख्या कुछ बहुत ज़्यादा नहीं है।
وَإِذۡ يُرِيكُمُوهُمۡ إِذِ ٱلۡتَقَيۡتُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِكُمۡ قَلِيلٗا وَيُقَلِّلُكُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِهِمۡ لِيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗاۗ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 73
(44) और याद करो जबकि मुक़ाबले के समय अल्लाह ने तुम लोगों की निगाहों में दुश्मनों को थोड़ा दिखाया और उनकी निगाहों में तुम्हें कम करके पेश किया ताकि जो बात होनी थी उसे अल्लाह प्रकाश में ले आए, और आख़िरकार सारे मामले अल्लाह की ही ओर पलटते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمۡ فِئَةٗ فَٱثۡبُتُواْ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 74
(45) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब किसी गिरोह से तुम्हारा मुक़ाबला हो तो जमे रहो और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।