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سُورَةُ الحَجِّ

  1. अल-हज

(मक्का में उतरी-आयतें 78)

परिचय

नाम

इस सूरा की सत्ताइसवीं आयत "व अज़्ज़िनु फ़िन्‍नासि बिल हज्जि” अर्थात् "लोगों में हज के लिए सामान्य घोषणा कर दो" से लिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा में मक्की और मदनी सूरतों की विशेषताएँ मिली-जुली पाई जाती हैं। इसी कारण टीकाकारों में इस बात पर मतभेद हो गया है कि यह मक्की है या मदनी, लेकिन हमारे नज़दीक इसके विषय और वर्णन-शैली का यह रंग इस कारण है कि इसका एक भाग मक्की काल के अन्त में और दूसरा भाग मदनी काल के आरंभ में उतरा है। इसलिए दोनों कालों की विशेषताएँ इसमें इकट्ठा हो गई हैं।

आरंभिक भाग का विषय और वर्णन-शैली स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह मक्का में उतरा है और अधिक संभावना यह है कि मक्की ज़िन्दगी के अन्तिम चरण में हिजरत से कुछ पहले उतरा हो। यह भाग आयत 24 "व हुदू इलत्तय्यिबि मिनल कौलि व हुदू इला सिरातिल हमीद” अर्थात् "उनको पाक बात स्वीकार करने की हिदायत दी गई और उन्हें प्रशंसनीय गुणों से विभूषित ईश्वर का मार्ग दिखाया गया" पर समाप्त होता है।

इसके बाद “इन्नल्लज़ी-न क-फ़-रू व यसुद्दू-न अन सबील्लिाहि" अर्थात् “जिन लोगों ने कुफ़्र (इंकार) किया और जो (आज) अल्लाह के मार्ग से रोक रहे हैं" से यकायक विषय का रंग बदल जाता है और साफ़ महसूस होता है कि यहाँ से आख़िर तक का भाग मदीना तैयबा में उतरा है। असंभव नहीं कि यह हिजरत के बाद पहले ही साल ज़िल-हिज्जा में उतरा हो, क्योंकि आयत 25 से 41 तक का विषय इसी बात का पता देता है और आयत 39-40 के उतरने का कारण भी इसकी पुष्टि करता है। उस समय मुहाजिरीन अभी ताज़ा-ताज़ा ही अपने घर-बार छोड़कर मदीने में आए थे। हज के ज़माने में उनको अपना शहर और हज का इज्तिमाअ (सम्मेलन) याद आ रहा होगा और यह बात बुरी तरह खल रही होगी कि क़ुरैश के मुशरिकों ने उनपर मस्जिदे-हराम का रास्ता तक बन्द कर दिया है। उस समय वे इस बात का भी इन्तिज़ार कर रहे होंगे कि जिन ज़ालिमों ने उनको घरों से निकाला, मस्जिदे-हराम की ज़ियारत (दर्शन) से वंचित किया और अल्लाह का रास्ता अपनाने पर उनका जीना तक दूभर कर दिया, उनके विरुद्ध जंग लड़ने की अनुमति मिल जाए। यह ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर था इन आयतों के उतरने का। इनमें पहले तो हज का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि यह मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद अर्थात् काबा) इसलिए बनाई गई थी और यह हज का तरीक़ा इसलिए शुरू किया गया था कि दुनिया में एक अल्लाह की बन्दगी की जाए, मगर आज वहाँ शिर्क हो रहा है और एक अल्लाह की बन्दगी करनेवालों के लिए उसके रास्ते बन्द कर दिए गए हैं। इसके बाद मुसलमानों को अनुमति दे दी गई है कि वे इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ें और उन्हें बे-दख़ल करके देश में वह कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करें जिसमें बुराइयाँ दबें और नेकियाँ फैलें। इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, उर्वह-बिन-ज़ुबैर, ज़ैद-बिन-असलम, मुक़ातिल-बिन-हय्यान, क़तादा और दूसरे बड़े टीकाकारों का बयान है कि यह पहली आयत है जिसमें मुसलमानों को युद्ध की अनुमति दी गई और हदीस और सीरत की रिवायतों से प्रमाणित है कि इस अनुमति के बाद तुरन्त ही क़ुरैश के विरुद्ध व्यावहारिक गतिविधियाँ शुरू कर दी गईं और पहली मुहिम सफ़र 02 हि० में लाल सागर के तट की ओर रवाना हुई जो वद्दान की लड़ाई या अबवा की लड़ाई के नाम से मशहूर है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में तीन गिरोहों को संबोधित किया गया है-मक्का के मुशरिक, दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान और सच्चे ईमानवाले लोग। मुशरिकों से सम्बोधन मक्का के आरंभ में किया गया और मदीना में उसका क्रम पूर्ण हुआ। इस सम्बोधन में उनको पूरा बल देकर सचेत किया गया है कि तुमने ज़िद और हठधर्मी के साथ अपने निराधार अज्ञानतापूर्ण विचारों पर आग्रह किया, अल्लाह को छोड़कर उन उपास्यों पर भरोसा किया जिनके पास कोई शक्ति नहीं और अल्लाह के रसूल को झुठला दिया। अब तुम्हारा अंजाम वही कुछ होकर रहेगा जो तुमसे पहले इस नीति पर चलनेवालों का हो चुका है। नबी को झुठलाकर और अपनी क़ौम के सबसे अच्छे तत्त्वों को अत्याचार का निशाना बनाकर तुमने अपना ही कुछ बिगाड़ा है। इसके नतीजे में अल्लाह का जो प्रकोप तुमपर उतरेगा, उससे तुम्हारे बनावटी उपास्य तुम्हें न बचा सकेंगे। इस चेतावनी और डरावे के साथ समझाने-बुझाने का पहलू बिल्कुल खाली नहीं छोड़ दिया गया है। पूरी सूरा में जगह-जगह याददिहानी और उपदेश भी है और शिर्क के विरुद्ध और तौहीद और आखिरत के पक्ष में प्रभावी तर्क भी प्रस्तुत किए गए है। दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान, जो अल्लाह की बन्दगी तो क़ुबूल कर चुके थे मगर इस राह में कोई ख़तरा उठाने को तैयार नहीं थे, उनको सम्बोधित करते हुए कड़ी डाँट-फटकार की गई है। उनसे कहा गया कि यह आखिर कैसा ईमान है कि राहत, ख़ुशी, ऐश मिले तो अल्लाह तुम्हारा प्रभु और तुम उसके बन्दे, मगर जहाँ अल्लाह की राह में विपदा आई और कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ीं, फिर न अल्लाह तुम्हारा प्रभु रहा और न तुम उसके बन्दे रहे, हालाँकि तुम अपनी इस नीति से किसी ऐसी विपत्ति और हानि और कष्ट को नहीं टाल सकते जो अल्लाह ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया हो। ईमानवालों से सम्बोधन दो तरीक़ों से किया गया है। एक सम्बोधन ऐसा है जिसमें वे स्वयं भी सम्बोधित हैं और अरब के आम लोग भी, दूसरे सम्बोधन में ईमानवाले सम्बोधित हैं।

पहले सम्बोधन में मक्का के मुशरिकों की इस नीति पर पकड़ की गई है कि उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदे-हराम (अर्थात काबा) का रास्ता बन्द कर दिया है, हालाँकि मस्जिदे-हराम (अर्थात् काबा) उनकी निजी सम्पत्ति नहीं है और वे किसी को हज से रोकने का अधिकार नहीं रखते। यह आपत्ति न केवल यह कि अपने आपमें सही थी, बल्कि राजनैतिक दृष्टि से यह क़ुरैश के विरुद्ध एक बहुत बड़ा हथियार भी था। इससे अरब के तमाम दूसरे क़बीलों के मन में यह प्रश्न पैदा कर दिया गया कि कुरैश हरम के मुजाविर हैं या मालिक? अगर आज अपनी निजी दुश्मनी के आधार पर वे गिरोह को हज से रोक देते और उसको सहन कर लिया जाता है, तो असंभव नहीं कि कल जिससे भी उनके सम्बन्ध बिगड़ें, उसको वे हरम की सीमाओं में प्रवेश करने से रोक दें और उसका उमरा और हज बन्द कर दें। इस सिलसिले में मस्जिदे-हराम का इतिहास बताते हुए एक ओर यह कहा गया है कि इबाहीम (अलैहि०) ने जब अल्लाह के आदेश से उसका निर्माण किया था तो सब लोगों का हज के लिए आम आह्वान किया था और वहाँ पहले दिन से स्थानीय निवासियों और बाहर से आनेवालों के अधिकार समान मान लिए गए थे। दूसरी ओर यह बताया गया कि यह घर शिर्क के लिए नहीं, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी के लिए बनाया गया था। अब यह क्या ग़ज़ब है कि वहाँ एक खुदा की बन्दगी पर तो रोक हो और बुतों की पूजा के लिए हो पूरी आज़ादी।

दूसरे सम्बोधन में मुसलमानों को कुरैश के ज़ुल्म का उत्तर ताक़त से देने की अनुमति दी गई है और साथ-साथ उनको यह भी बताया गया है कि जब तुम्हें सत्ता मिले तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए और अपने राज्य में तुमको किस उद्देश्य के लिए काम करना चाहिए। यह विषय सूरा के मध्य में भी है और अन्त में भी। अन्त में ईमानवालों के गिरोह के लिए "मुस्लिम” (आज्ञाकारी) के नाम विधिवत घोषणा करते हुए यह कहा गया है कि इब्राहीम के वास्तविक उत्तराधिकारी तो तुम लोग हो, तुम्हें इस सेवा के लिए चुन लिया गया है कि दुनिया में लोगों के सम्मुख सत्य की गवाही देने के पथ पर खड़े हो जाओ। अब तुम्हें नमाज़ क़ायम करके, ज़कात और ख़ैरात अदा करके अपने जीवन को श्रेष्ठ आदर्श जीवन बनाना चाहिए और अल्लाह के भरोसे पर अल्लाह के कलिमे को उच्च रखने के लिए 'जिहाद' करना चाहिए।

इस अवसर पर सूरा 2 (अल-बक़रा) और सूरा 8 (अल-अनफ़ाल) की भूमिकाओं पर भी दृष्टि डाल ली जाए तो समझने में अधिक आसानी होगी।

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سُورَةُ الحَجِّ
22. अल-हज
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡۚ إِنَّ زَلۡزَلَةَ ٱلسَّاعَةِ شَيۡءٌ عَظِيمٞ
(1) लोगो, अपने रब के ग़ज़ब (प्रकोप) से बचो, वास्तविकता यह है कि क़ियामत का भूकम्प बड़ी (भयंकर) चीज़़ है।
يَوۡمَ تَرَوۡنَهَا تَذۡهَلُ كُلُّ مُرۡضِعَةٍ عَمَّآ أَرۡضَعَتۡ وَتَضَعُ كُلُّ ذَاتِ حَمۡلٍ حَمۡلَهَا وَتَرَى ٱلنَّاسَ سُكَٰرَىٰ وَمَا هُم بِسُكَٰرَىٰ وَلَٰكِنَّ عَذَابَ ٱللَّهِ شَدِيدٞ ۝ 1
(2) जिस दिन तुम उसे देखोगे, हाल यह होगा कि हर दूध पिलानेवाली अपने दूध पीते बच्चे को भूल जाएगी हर गर्भवती का गर्भ गिर जाएगा, और लोग तुम्हें मदहोश दिखेंगे, हालाँकि वे नशे में न होंगे, बल्कि अल्लाह का अज़ाब ही कुछ ऐसा कठोर होगा।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَيَتَّبِعُ كُلَّ شَيۡطَٰنٖ مَّرِيدٖ ۝ 2
(3) कुछ लोग ऐसे हैं जो ज्ञान के बिना अल्लाह के बारे में विवाद करते हैं और हर सरकश शैतान का अनुसरण करने लगते हैं,
كُتِبَ عَلَيۡهِ أَنَّهُۥ مَن تَوَلَّاهُ فَأَنَّهُۥ يُضِلُّهُۥ وَيَهۡدِيهِ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 3
(4) हालाँकि उसके तो भाग्य ही में यह लिखा है कि जो उसको मित्र बनाएगा उसे वह गुमराह करके छोड़ेगा और जहन्नम के अज़ाब का मार्ग दिखाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّنَ ٱلۡبَعۡثِ فَإِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ مِن مُّضۡغَةٖ مُّخَلَّقَةٖ وَغَيۡرِ مُخَلَّقَةٖ لِّنُبَيِّنَ لَكُمۡۚ وَنُقِرُّ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ مَا نَشَآءُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ نُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡۖ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡلَا يَعۡلَمَ مِنۢ بَعۡدِ عِلۡمٖ شَيۡـٔٗاۚ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ هَامِدَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡ وَأَنۢبَتَتۡ مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ ۝ 4
(5) लोगो, अगर तुम्हें मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में कुछ शक है तो तुम्हें मालूम हो कि हमने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है, फिर वीर्य से, फिर ख़ून के लोथड़े से, फिर मांस की बोटी से जो शक्लवाली भी होती है और बेशक्ल भी। (यह हम इसलिए बता रहे हैं) ताकि तुमपर सच्चाई स्पष्ट करें। हम जिस (वीर्य) को चाहते हैं एक नियत समय तक गर्भाशयों में ठहराए रखते हैं, फिर तुमको एक बच्चे के रूप में निकाल लाते हैं (फिर तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं) ताकि तुम अपनी जवानी (युवावस्था) को पहुँचो और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है और कोई निकृष्टतम आयु की ओर फेर दिया जाता है ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने। और तुम देखते हो कि ज़मीन सूखी पड़ी है, फिर जहाँ हमने उसपर पानी बरसाया कि यकायक वह फबक उठी और फूल गई और उसने हर तरह की सुदृश्य वनस्पतियाँ उगलनी शुरू कर दीं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّهُۥ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَأَنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 5
(6) यह सब कुछ इसलिए है कि अल्लाह ही सत्य है, और वह मुरदों को ज़िन्दा करता है, और उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है,
وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡعَثُ مَن فِي ٱلۡقُبُورِ ۝ 6
(7) और यह (इस बात का प्रमाण है) कि क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं, और अल्लाह ज़रूर उन लोगों को उठाएगा जो क़ब्रों में जा चुके है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَلَا هُدٗى وَلَا كِتَٰبٖ مُّنِيرٖ ۝ 7
(8) कुछ और लोग ऐसे हैं जो किसी ज्ञान और मार्गदर्शन और प्रकाश प्रदान करनेवाली किताब के बिना गरदन अकड़ाए हुए, अल्लाह के बारे में झगड़ते हैं
ثَانِيَ عِطۡفِهِۦ لِيُضِلَّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۖ لَهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَنُذِيقُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 8
(9) ताकि लोगों को अल्लाह के मार्ग से भटका दें। ऐसे व्यक्ति के लिए दुनिया में रुसवाई है और क़ियामत के दिन उसको हम आग के अज़ाब का मज़ा चखाएँगे
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ يَدَاكَ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 9
(10) — यह है तेरा वह भविष्य जो तेरे अपने हाथों ने तेरे लिए तैयार किया है वरना अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَعۡبُدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ حَرۡفٖۖ فَإِنۡ أَصَابَهُۥ خَيۡرٌ ٱطۡمَأَنَّ بِهِۦۖ وَإِنۡ أَصَابَتۡهُ فِتۡنَةٌ ٱنقَلَبَ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ خَسِرَ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 10
(11) और लोगों में कोई ऐसा है जो किनारे पर रहकर अल्लाह की बन्दगी करता है,1 अगर फ़ायदा हुआ तो सन्तुष्ट हो गया और जो कोई मुसीबत आ गई तो उलटा फिर गया। उसकी दुनिया भी गई और आख़िरत भी। यह है खुला घाटा।
1. अर्थात् कुफ़्र (इनकार) और इस्लाम की सीमा पर खड़ा होकर बन्दगी करता है जैसे एक अस्थिर आदमी किसी सेना के किनारे पर खड़ा हो, अगर विजय होती देखे तो साथ आ मिले और पराजय होती देखे तो चुपके से सटक जाए।
يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُۥ وَمَا لَا يَنفَعُهُۥۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلضَّلَٰلُ ٱلۡبَعِيدُ ۝ 11
(12) फिर वह अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारता है जो न उसको नुक़सान पहुँचा सकते हैं न फ़ायदा यह है पथभ्रष्टता की चरम सीमा।
يَدۡعُواْ لَمَن ضَرُّهُۥٓ أَقۡرَبُ مِن نَّفۡعِهِۦۚ لَبِئۡسَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَلَبِئۡسَ ٱلۡعَشِيرُ ۝ 12
(13) वह उनको पुकारता है जिनका नुक़सान उनके फ़ायदे से ज़्यादा क़रीब है, अत्यन्त बुरा है उसका संरक्षक और अत्यन्त बुरा है उसका साथी।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 13
(14) (इसके विपरीत) अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए, यक़ीनन ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।
مَن كَانَ يَظُنُّ أَن لَّن يَنصُرَهُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ بِسَبَبٍ إِلَى ٱلسَّمَآءِ ثُمَّ لۡيَقۡطَعۡ فَلۡيَنظُرۡ هَلۡ يُذۡهِبَنَّ كَيۡدُهُۥ مَا يَغِيظُ ۝ 14
(15) जो व्यक्ति यह गुमान रखता हो कि अल्लाह दुनिया और आख़िरत में उसकी कोई मदद न करेगा, उसे चाहिए कि एक रस्सी के द्वारा आसमान तक पहुँचकर छेद करे फिर देख ले कि क्या उसका उपाय किसी ऐसी चीज़़ को रद्द कर सकता है जो उसको अप्रिय है।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يُرِيدُ ۝ 15
(16) ऐसी ही खुली-खुली बातों के साथ हमने इस क़ुरआन को उतारा है, और मार्ग अल्लाह जिसे चाहता है दिखाता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلۡمَجُوسَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 16
(17) जो लोग ईमान लाए, और जो यहूदी हुए, और साबिई, और ईसाई, और मजूस, जिन लोगों ने (अल्लाह का) साझी ठहराया, इन सबके बीच अल्लाह क़ियामत के दिन फ़ैसला कर देगा, हर चीज़़ अल्लाह की नज़र में है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَسۡجُدُۤ لَهُۥۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ وَٱلنُّجُومُ وَٱلۡجِبَالُ وَٱلشَّجَرُ وَٱلدَّوَآبُّ وَكَثِيرٞ مِّنَ ٱلنَّاسِۖ وَكَثِيرٌ حَقَّ عَلَيۡهِ ٱلۡعَذَابُۗ وَمَن يُهِنِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّكۡرِمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ۩ ۝ 17
(18) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे और में हैं वे सब जो आसमानों में हैं और जो धरती में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत-से इनसान और बहुत-से वे लोग भी जो अज़ाब के अधिकारी हो चुके हैं? और जिसे अल्लाह तुच्छ और रुसवा कर दे उसे फिर कोई इज़्ज़त देनेवाला नहीं है, अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।
۞هَٰذَانِ خَصۡمَانِ ٱخۡتَصَمُواْ فِي رَبِّهِمۡۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قُطِّعَتۡ لَهُمۡ ثِيَابٞ مِّن نَّارٖ يُصَبُّ مِن فَوۡقِ رُءُوسِهِمُ ٱلۡحَمِيمُ ۝ 18
(19) ये दो फरीक़ (विवादी) हैं जिनके बीच अपने रब के विषय में झगड़ा है2। इनमें से वे लोग जिन्होंने कुफ़्र (इनकार किया उनके लिए आग के वस्त्र काटे जा चुके हैं, उनके सिरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा
2. यहाँ ईश्वर के बारे में झगड़ा करनेवाले समस्त गिरोहों को उनकी अधिकता के बावजूद दो प्रतिवादियों में विभक्त कर दिया गया है। एक दल वह जो नबियों की बात मानकर अल्लाह की ठीक रूप में बन्दगी करता है। दूसरा वह जो उनकी बात नहीं मानता और अधर्म की राह अपनाता है, चाहे उसके यहाँ आपस में कितने ही अन्तर और विभेद हों और उसके अधर्म और इनकार ने कितने ही विभिन्न रूप धारण कर लिए हो।
يُصۡهَرُ بِهِۦ مَا فِي بُطُونِهِمۡ وَٱلۡجُلُودُ ۝ 19
(20) जिससे उनकी खालें ही नहीं पेट के भीतर के भाग तक गल जाएँगे,
وَلَهُم مَّقَٰمِعُ مِنۡ حَدِيدٖ ۝ 20
(21) और उनकी ख़बर लेने के लिए लोहे के गुर्ज़ (गदाएँ) होंगे।
كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا مِنۡ غَمٍّ أُعِيدُواْ فِيهَا وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 21
(22) जब कभी वे घबराकर जहन्नम से निकलने की कोशिश करेंगे फिर उसी में ढकेल दिए जाएँगे कि देखो अब जलने की सज़ा का मज़ा
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَلُؤۡلُؤٗاۖ وَلِبَاسُهُمۡ فِيهَا حَرِيرٞ ۝ 22
(23) (दूसरी ओर) जो लोग ईमानवाले हुए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए उनको अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वहाँ वे सोने के कंगनों और मोतियों से आभूषित किए जाएँगे और उनके वस्त्र रेशम के होंगे।
وَهُدُوٓاْ إِلَى ٱلطَّيِّبِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَهُدُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 23
(24) उनको निर्मल (पाक) बात स्वीकार करने का निर्देश प्रदान किया गया और उन्हें प्रशंसनीय गुणों से विभूषित ईश्वर का मार्ग दिखाया गया।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ ٱلَّذِي جَعَلۡنَٰهُ لِلنَّاسِ سَوَآءً ٱلۡعَٰكِفُ فِيهِ وَٱلۡبَادِۚ وَمَن يُرِدۡ فِيهِ بِإِلۡحَادِۭ بِظُلۡمٖ نُّذِقۡهُ مِنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 24
(25) जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया और जो (आज) अल्लाह के मार्ग से रोक रहे हैं और उस प्रतिष्ठित मसजिद (मसजिदे-हराम) के दर्शन में बाधक हैं जिसे हमने सब लोगों के लिए बनाया है,3 जिसमें स्थानीय निवासियों और बाहर से आनेवालों के अधिकार बराबर हैं (उनकी नीति यक़ीनन सज़ा के योग्य हैं)। उस (प्रतिष्ठित मसजिद) में जो भी सच्चाई से हटकर ज़ुल्म की नीति अपनाएगा उसे हम दुखद यातना का मज़ा चखाएँगे।
3. अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) और आपके अनुयायियों को हज और उमरा नहीं करने देते।
وَإِذۡ بَوَّأۡنَا لِإِبۡرَٰهِيمَ مَكَانَ ٱلۡبَيۡتِ أَن لَّا تُشۡرِكۡ بِي شَيۡـٔٗا وَطَهِّرۡ بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡقَآئِمِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 25
(26) याद करो वह समय जबकि हमने इबराहीम के लिए इस घर (काबा) की जगह मुक़्क़र्र की थी (इस आदेश के साथ) कि मेरे साथ किसी चीज़ को साझी न ठहराओ, और मेरे घर को परिक्रमा (तवाफ़) करनेवालों और खड़े होने (क़याम) और झुकने (रुकू) और सजदे करनेवालों के लिए पाक रखो,
وَأَذِّن فِي ٱلنَّاسِ بِٱلۡحَجِّ يَأۡتُوكَ رِجَالٗا وَعَلَىٰ كُلِّ ضَامِرٖ يَأۡتِينَ مِن كُلِّ فَجٍّ عَمِيقٖ ۝ 26
(27) और लोगों को हज के लिए सामान्य रूप में घोषणा कर दो कि वे तुम्हारे पास हर दूरवर्ती स्थान से पैदल और ऊँटों पर सवार आएँ,
لِّيَشۡهَدُواْ مَنَٰفِعَ لَهُمۡ وَيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡلُومَٰتٍ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۖ فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡبَآئِسَ ٱلۡفَقِيرَ ۝ 27
(28) ताकि वे लाभ देखें जो यहाँ उनके लिए रखे गए हैं, और कुछ निश्चित दिनों में उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उन्हें प्रदान किए है, ख़ुद भी खाएँ और तंगदस्त मुहताज को भी दें,
ثُمَّ لۡيَقۡضُواْ تَفَثَهُمۡ وَلۡيُوفُواْ نُذُورَهُمۡ وَلۡيَطَّوَّفُواْ بِٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 28
(29) फिर अपना मैल-कुचैल दूर करें और अपनी मन्नतें पूरी करें, और इस प्राचीन घर की परिक्रमा करें।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ حُرُمَٰتِ ٱللَّهِ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥ عِندَ رَبِّهِۦۗ وَأُحِلَّتۡ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَٰنِ وَٱجۡتَنِبُواْ قَوۡلَ ٱلزُّورِ ۝ 29
(30) यह था (काबा के निर्माण का उद्देश्य) और जो कोई अल्लाह की निर्धारित पाबन्दियों का आदर करे तो यह उसके रब की दृष्टि में ख़ुद उसी के लिए अच्छा है। और तुम्हारे लिए चौपाए हलाल (वैध) किए गए,4 सिवाय उन चीज़़ों के जो तुम्हें बताई जा चुकी हैं। अत: मूर्तियों की गन्दगी से बचो, झूठी बातों से परहेज़ करो,
4. इस अवसर पर चौपायों की वैधता का उल्लेख करने का मक़सद दो भ्रान्तियों को दूर करना है। प्रथम यह कि क़ुरैश और अरब के मुशरिक 'बहीरा', 'सायबा', 'वसीला और 'हाम' की गणना भी अल्लाह के निर्धारित वर्जनों में करते थे। इसलिए कहा गया कि ये उसके निर्धारित किए हुए वर्जन नहीं हैं, बल्कि उसने सभी चौपाए हलाल किए हैं। दूसरे यह है कि इहराम की हालत में जिस तरह शिकार का निषेध है उसी तरह कहीं यह न समझ लिया जाए कि इस हालत में चौपायों को ज़बह करना और उनको खाना भी हराम है। इसलिए बताया गया है कि ये अल्लाह के निर्धारित वर्जनों में से नहीं हैं।
حُنَفَآءَ لِلَّهِ غَيۡرَ مُشۡرِكِينَ بِهِۦۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَكَأَنَّمَا خَرَّ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَتَخۡطَفُهُ ٱلطَّيۡرُ أَوۡ تَهۡوِي بِهِ ٱلرِّيحُ فِي مَكَانٖ سَحِيقٖ ۝ 30
(31) एकाग्रचित होकर अल्लाह के बन्दे बनो, उसके साथ किसी को साझी न ठहराओ। और जो कोई अल्लाह के साथ साझी ठहराए तो मानो वह आसमान से गिर गया, अब या तो उसे पक्षी उचक ले जाएँगे या हवा उसको ऐसे स्थान पर ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चीथड़े उड़ जाएँगे।5
5. इस मिसाल में आसमान से मुराद इनसान की सहज एवं स्वभाविक हालत है जिसमें वह एक ईश्वर के सिवा किसी का बन्दा नहीं होता और एकेश्वरवाद के सिवा उसकी प्रकृति किसी अन्य धर्म को नहीं जानती। अगर इनसान नबियों के मार्गदर्शन को स्वीकार कर ले तो वह उसी सहज एवं स्वाभाविक हालत पर ज्ञान और सूझबूझ के साथ क़ायम हो जाता है, और आगे उसकी उड़ान और ज़्यादा ऊँचाइयों ही की ओर होती है न कि पस्तियों की ओर। लेकिन बहुदेववाद (और सिर्फ़ बहुदेववाद ही नहीं बल्कि नास्तिकता और अधर्म भी) अंगीकार करते ही वह अपने सहज प्रकृति के आसमान से अचानक गिर पड़ता है और फिर उसको दो विकल्पों में कोई एक विकल्प अवश्य भुगतना पड़ता है। एक यह कि शैतान और गुमराह करनेवाले इनसान उसकी ओर झपटते हैं और हर एक उसे उचक ले जाने की कोशिश करता है। दूसरे यह कि उसकी अपने मन की इच्छाएँ और उसकी अपनी भावनाएँ और कल्पनाएँ उसे उड़ाए-उड़ाए लिए फिरती हैं और आख़िरकार उसको किसी गहरे खड्ड में ले जाकर फेंक देती हैं।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ فَإِنَّهَا مِن تَقۡوَى ٱلۡقُلُوبِ ۝ 31
(32) यह है असल मामला (इसे समझ लो), और जो अल्लाह के निश्चित किए हुए निशानों का आदर करे तो यह दिलों की धर्मपरायणता (तक़वा) में से है।6
6. अर्थात् यह आदर दिल के तक़वा या धर्मपरायणता के कारण है और इस बात की पहचान है कि आदमी के दिल में कुछ न कुछ अल्लाह का डर है इसी कारण तो वह अल्लाह के नाम से जुड़ी चीज़़ों का आदर कर रहा है।
لَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ مَحِلُّهَآ إِلَى ٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 32
(33) तुम्हें एक निश्चित समय तक उन (क़ुरबानी के जानवरों) से लाभ उठाने का हक़ है,7 फिर उन (के क़ुरबान करने) का स्थान उसी प्राचीन घर के पास है।
7. पहली आयत में अल्लाह के (भक्ति सम्बन्धी) निशानों के आदर का सामान्य आदेश देने के बाद यह वाक्य एक भ्रान्ति को दूर करने के लिए कहा गया है। अल्लाह के निशान में क़ुरबानी के जानवर भी सम्मिलित हैं। अरब के लोग यह समझते थे कि उन जानवरों को अल्लाह के घर (काबा) की ओर ले जाते हुए उनपर सवार न होना चाहिए, न उनपर सामान लादना चाहिए और न उनका दूध पीना चाहिए। इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए कहा गया कि उनसे जो काम लेने की ज़रूरत हो वह लिया जा सकता है।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكٗا لِّيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۗ فَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَلَهُۥٓ أَسۡلِمُواْۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُخۡبِتِينَ ۝ 33
(34) हर समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का एक तरीक़ा निर्धारित कर दिया है ताकि (उस समुदाय के लोग उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उनको प्रदान किए हैं।8 (इन विभिन्न तरीकों के पीछे उद्देश्य एक ही है) अत: तुम्हारा पूज्य प्रभु एक ही पूज्य-प्रभु है और उसी के तुम आज्ञाकारी बनो और ऐ नबी, ख़ुशख़बरी दे-दो विनम्रता की नीति अपनानेवालों को।
8. इस आयत से दो बातें मालूम हुईं। एक यह कि क़ुरबानी सभी ईश्वरीय धर्म-विधानों की उपासना प्रणाली का एक अनिवार्य अंग रही है। दूसरी यह कि मुख्य चीज़़ अल्लाह के नाम पर क़ुरबानी है जो सब 'शरीअतों' (धर्म- विधानों) में समान है। बाक़ी रहा उसका समय और अवसर और अन्य विवरण तो इनसे सम्बन्धित विभिन्न युगों की शरीअत के आदेश भिन्न रहे है।
ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ عَلَىٰ مَآ أَصَابَهُمۡ وَٱلۡمُقِيمِي ٱلصَّلَوٰةِ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 34
(35) जिनका हाल यह है कि अल्लाह की चर्चा सुनते हैं तो उनके दिल काँप उठते हैं, जो मुसीबत भी उनपर आती है उसपर सब्र से काम लेते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, और जो कुछ रोज़ी हमने उनको दी है उसमें से ख़र्च करते हैं।
وَٱلۡبُدۡنَ جَعَلۡنَٰهَا لَكُم مِّن شَعَٰٓئِرِ ٱللَّهِ لَكُمۡ فِيهَا خَيۡرٞۖ فَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا صَوَآفَّۖ فَإِذَا وَجَبَتۡ جُنُوبُهَا فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡقَانِعَ وَٱلۡمُعۡتَرَّۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرۡنَٰهَا لَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 35
(36) और (क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों (शआइर) में शामिल किया है, तुम्हारे लिए उनमें भलाई है, अतः उन्हें खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो,9 और जब (क़ुरबानी के बाद) उनकी पीठें ज़मीन पर टिक जाएँ10 तो उनमें से ख़ुद भी खाओ और उनको भी खिलाओ जो सन्तोष किए बैठे हैं और उनको भी जो अपनी ज़रूरत पेश करें। इन जानवरों को हमने इस तरह तुम्हारे लिए वशीभूत किया है ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ।
9. उनपर अल्लाह का नाम लेने का अर्थ है उनको ज़बह करते हुए अल्लाह का नाम लेना। ऊँट को पहले खड़ा करके उसके कंठ में भाला मारा जाता है। इसको नह्‍र करना कहते हैं।
10. पीठ के ज़मीन पर टिकने का अर्थ सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि वे ज़मीन पर गिर जाएँ, बल्कि यह भी है कि वे गिरकर ठहर जाएँ, अर्थात् तड़पना बन्द कर दें और जान पूरी तरह निकल जाए।
لَن يَنَالَ ٱللَّهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَآؤُهَا وَلَٰكِن يَنَالُهُ ٱلتَّقۡوَىٰ مِنكُمۡۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرَهَا لَكُمۡ لِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 36
(37) न उनके मांस अल्लाह को पहुँचते हैं न ख़ून मगर उसे तुम्हारी धर्मनिष्ठा पहुँचती है। उसने उनको तुम्हारे लिए इस तरह वशीभूत किया है ताकि उसके प्रदान किए हुए पथ-प्रदर्शन पर तुम उसकी बड़ाई व्यक्त करो।11 और ऐ नबी, ख़ुशख़बरी दे दो अच्छे से अच्छा कर्म करनेवालों को।
11. अर्थात् दिल से उसकी बड़ाई और उच्चता मानो और व्यवहार से उसकी घोषणा एवं प्रदर्शन करो। यह आदेश फिर क़ुरबानी के उद्देश्य और कारण की ओर इशारा है। क़ुरबानी सिर्फ़ इसलिए वाजिब नहीं की गई है कि यह जानवरों के वशीभूत किए जाने की कृपा पर अल्लाह के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शन है, बल्कि इसलिए भी वाजिब की गई है कि जिसके ये जानवर हैं, और जिसने इन्हें हमारे लिए वशीभूत किया है, उसके स्वामित्व सम्बन्धी अधिकारों को हम दिल से भी और व्यवहार से भी स्वीकार करें, ताकि हमसे कभी यह भूल न हो कि यह सब कुछ हमारा माल है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يُدَٰفِعُ عَنِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ كُلَّ خَوَّانٖ كَفُورٍ ۝ 37
(38) यक़ीनन अल्लाह प्रतिरक्षा करता है उन लोगों की ओर से जो ईमान लाए हैं। निश्चय ही अल्लाह किसी विश्वासघाती कृतघ्न को पसन्द नहीं करता।
أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَٰتَلُونَ بِأَنَّهُمۡ ظُلِمُواْۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌ ۝ 38
(39) अनुमति दी गई उन लोगों को जिनके विरुद्ध युद्ध किया जा रहा है, क्योंकि वे उत्पीड़ित है,12 और अल्लाह को यक़ीनन उनकी सहायता की सामर्थ्य प्राप्त है।
12. यह ईश्वरीय मार्ग में युद्ध करने के सम्बन्ध में पहली आयत है जो उतरी है। इस आयत में सिर्फ़ अनुमति दी गई थी। आगे चलकर सूरा 2 (बक़रा) की आयतें 190 से लेकर 193 तक और 216 और 224 उतरीं, जिनमें युद्ध का आदेश दिया गया। इन आदेशों में सिर्फ़ कुछ ही महीनों का अन्तर है। अनुमति हमारी खोज के अनुसार ज़िलहिज्जा सन् 1 हिजरी में उतरी और आदेश बद्र की लड़ाई से कुछ पहले रजब या शाबान सन् 2 हिजरी में उतरा।
ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بِغَيۡرِ حَقٍّ إِلَّآ أَن يَقُولُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّهُدِّمَتۡ صَوَٰمِعُ وَبِيَعٞ وَصَلَوَٰتٞ وَمَسَٰجِدُ يُذۡكَرُ فِيهَا ٱسۡمُ ٱللَّهِ كَثِيرٗاۗ وَلَيَنصُرَنَّ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 39
(40) ये वे लोग हैं जो अपने घरों से नाहक़ निकाल दिए गए सिर्फ़ इस क़ुसूर पर कि वे कहते थे, “हमारा रब अल्लाह है।” अगर अल्लाह लोगों को एक दूसरे के द्वारा हटाता न रहे तो खानक़ाहें और गिरजा और उपासना-गृह और मसजिदें जिनमें अल्लाह का अधिकता से नाम लिया जाता है, सब ढा दी जाएँ। अल्लाह ज़रूर उन लोगों की सहायता करेगा जो उसकी सहायता करेंगे।13 अल्लाह बड़ा बलवान् और प्रभुत्वशाली है।
13. इस विषय का उल्लेख क़ुरआन मजीद में विभिन्न स्थानों पर हुआ है कि जो लोगों को एकेश्वरवाद की ओर बुलाने और सत्य धर्म को स्थापित करने और बुराई की जगह भलाई की उन्नति एवं विकास के लिए अनथक कोशिश और संघर्ष करते हैं वे अल्लाह के सहायक हैं, क्योंकि यह अल्लाह का काम है जिसे पूरा करने में वे उसका साथ देते हैं।
ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ وَلِلَّهِ عَٰقِبَةُ ٱلۡأُمُورِ ۝ 40
(41) ये वे लोग हैं जिन्हें अगर हम ज़मीन में सत्ता प्रदान करें तो वे नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे, नेकी का आदेश देंगे और बुराई से रोकेंगे और सब मामलों का परिणाम अल्लाह के हाथ में है।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَثَمُودُ ۝ 41
(42) ऐ नबी, अगर वे (इनकार करनेवाले) तुम्हें झुठलाते हैं तो उनसे पहले नूह की क़ौम और आद और समूद
وَقَوۡمُ إِبۡرَٰهِيمَ وَقَوۡمُ لُوطٖ ۝ 42
(43) और इबराहीम की क़ौम और लूत की क़ौम
وَأَصۡحَٰبُ مَدۡيَنَۖ وَكُذِّبَ مُوسَىٰۖ فَأَمۡلَيۡتُ لِلۡكَٰفِرِينَ ثُمَّ أَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 43
(44) और मदयनवाले भी झुठला चुके हैं और मूसा भी झुठलाए जा चुके हैं। इन सब सत्य के इनकार करनेवालों को मैंने पहले मुहलत दी फिर पकड़ लिया। अब देख लो कि मेरी सज़ा कैसी थी।
فَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ فَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَبِئۡرٖ مُّعَطَّلَةٖ وَقَصۡرٖ مَّشِيدٍ ۝ 44
(45) कितनी ही अपराधी बस्तियाँ हैं जिनको हमने तबाह किया है और आज वे अपनी छतों पर उलटी पड़ी हैं, कितने हो कुएँ बेकार और कितने ही महल खंडहर बने हुए हैं।
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَتَكُونَ لَهُمۡ قُلُوبٞ يَعۡقِلُونَ بِهَآ أَوۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۖ فَإِنَّهَا لَا تَعۡمَى ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَلَٰكِن تَعۡمَى ٱلۡقُلُوبُ ٱلَّتِي فِي ٱلصُّدُورِ ۝ 45
(46) क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इनके दिल समझनेवाले या इनके कान सुननेवाले होते? वास्तविकता यह है कि आँखें अन्धी नहीं होतीं मगर वे दिल अन्धे हो जाते हैं जो सीनों में हैं।
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥۚ وَإِنَّ يَوۡمًا عِندَ رَبِّكَ كَأَلۡفِ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 46
(47) ये लोग अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं। अल्लाह हरगिज़ अपने वादे के खिलाफ नहीं करेगा, मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम्हारी गणना के हज़ार वर्ष के बराबर हुआ करता है।14
14. अर्थात् मानव इतिहास में अल्लाह के फ़ैसले तुम्हारी घड़ियों और जंतरियों के अनुसार नहीं होते कि आज एक सही या ग़लत नीति अपनाई और कल उसके अच्छे या बुरे परिणाम सामने आ गए। किसी क़ौम से अगर यह कहा जाए कि अमुक कार्यप्रणाली अपनाने का परिणाम तुम्हारे विनाश के रूप में सामने आएगा तो वह बड़ी ही मूर्ख होगी अगर जवाब में यह तर्क प्रस्तुत करे कि श्रीमान् इस कार्यप्रणाली को अपनाए हमें दस बीस या पचास वर्ष हो चुके हैं, अभी तक तो हमारा कुछ बिगड़ा नहीं। ऐतिहासिक परिणामों के लिए दिन और महीने और साल तो अलग शताब्दियाँ भी कोई बड़ी चीज़़ नहीं हैं।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَمۡلَيۡتُ لَهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ ثُمَّ أَخَذۡتُهَا وَإِلَيَّ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 47
(48) कितनी ही बस्तियाँ है जो ज़ालिम थीं, मैंने उनको पहले मुहलत दी, फिर पकड़ लिया, और सबको वापस तो मेरे ही पास आना है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَآ أَنَا۠ لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 48
(49) ऐ नबी, कह दो कि “लोगो, मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ़ वह व्यक्ति हूँ जो (बुरा समय आने से पहले) साफ़-साफ़ सावधान करनेवाला हो।”
فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 49
(50) फिर जो ईमान लाएँगे और अच्छे कर्म करेंगे उनके लिए माफ़ी है और सम्मानपूर्ण आजीविका।
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡاْ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 50
(51) और जो हमारी आयतों को नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे वे दोज़ख़ के यार है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٖ وَلَا نَبِيٍّ إِلَّآ إِذَا تَمَنَّىٰٓ أَلۡقَى ٱلشَّيۡطَٰنُ فِيٓ أُمۡنِيَّتِهِۦ فَيَنسَخُ ٱللَّهُ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ ثُمَّ يُحۡكِمُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 51
(52) और ऐ नबी, तुमसे पहले हमने न कोई रसूल ऐसा भेजा है न नबी (जिसके साथ यह मामला न पेश आया हो कि) जब उसने कामना की, शैतान ने उसकी कामना में रुकावट खड़ी की। इस तरह जो कुछ भी शैतान रुकावट डालता है, अल्लाह उनको मिटा देता है और अपनी आयतों को पुख़्ता कर देता है, अल्लाह सर्वज्ञ है और तत्वदर्शी।
لِّيَجۡعَلَ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡقَاسِيَةِ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 52
(53) (वह इसलिए ऐसा होने देता है) ताकि शैतान की डाली हुई ख़राबी को आज़माइश बना दे उन लोगों के लिए जिनके दिलों को (मुनाफ़क़त का) रोग लगा हुआ है और जिनके दिल खोटे हैं— वास्तविकता यह है कि ये ज़ालिम लोग दुश्मनी में बहुत दूर निकल गए हैं
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَيُؤۡمِنُواْ بِهِۦ فَتُخۡبِتَ لَهُۥ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 53
(54) — और ज्ञान जिन्हें मिला है वे लोग जान लें कि यह सत्य है तेरे रब की ओर से और वे इसपर ईमान ले आएँ और उनके दिल इसके आगे झुक जाएँ, यक़ीनन अल्लाह ईमान लानेवालों को हमेशा सीधा मार्ग दिखा देता है।15
15. मतलब यह है कि शैतान के इन उपद्रवों को अल्लाह ने लोगों की परीक्षा और खरे को खोटे से अलग करने का एक साधन बना दिया है। बिगड़ी हुई मनोवृत्ति के लोग इन्हीं चीज़़ों से ग़लत नतीजे निकालते हैं और ये उनके लिए गुमराही का साधन बन जाती हैं। साफ़ ज़ेहनवाले लोगों को यही बातें नबी और ईश्वरीय ग्रन्थ के सत्य होने का विश्वास दिलाती हैं और वे महसूस कर लेते हैं कि ये सब शैतान की शरारतें हैं और यह चीज़ उन्हें सन्तुष्ट कर देती है कि यह आमंत्रण यक़ीनन भलाई और सत्यता का आमंत्रण है, वरना शैतान इसपर इतना न तिलमिलाता। नबी (सल्ल०) का आमंत्रण उस समय जिस चरण में था, उसको देखकर बाह्य स्थिति को देखनेवाली सारी निगाहें यह धोखा खा रही थीं कि आप अपने उद्देश्य में असफल हो गए हैं। देखनेवाले जो देख रहे थे वह तो यही था कि एक व्यक्ति जिसकी कामना और अभिलाषा यह थी कि उसको क़ौम उसपर ईमान लाए, उसे आख़िरकार घरबार छोड़ना पड़ा और मक्के के अधर्मी सफल रहे। इस परिस्थिति में जब लोग आपके इस बयान को देखते थे कि मैं अल्लाह का नबी हूँ और उसका समर्थन मेरे साथ है और क़ुरआन की इन घोषणाओं को देखते थे कि नबी को झुठलानेवाली कौम पर अज़ाब आ जाता है तो उन्हें आपको और क़ुरआन की सत्यता संदिग्ध दिखाई देने लगती थी, और आपके विरोधी इसपर बढ़-चढ़कर बातें बनाते थे कि कहाँ गया अल्लाह का वह समर्थन, और क्या हुईं वे अज़ाब की धमकियाँ, अब क्यों नहीं आ जाता वह अज़ाब जिसके हमको डरावे दिए जाते थे। इन्हीं बातों का जवाब इन आयतों में दिया गया है।
وَلَا يَزَالُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُ حَتَّىٰ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةً أَوۡ يَأۡتِيَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَقِيمٍ ۝ 54
(55) इनकार करनेवाले तो इसकी ओर से शक ही में पड़े रहेंगे यहाँ तक कि या तो उनपर क़ियामत की घड़ी अचानक आ जाए, या एक अशुभ दिन का अज़ाब अवतरित हो जाए।
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٖ لِّلَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 55
(56) उस दिन बादशाही अल्लाह की होगी, और वह उनके बीच निर्णय कर देगा जो ईमान रखनेवाले अच्छे कर्म करनेवाले होंगे वे नेमत भरी जन्नतों में जाएँगे,
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 56
(57) और जिन्होंने इनकार किया होगा और हमारी आयतों को झुठलाया होगा उनके लिए अपमानजनक अज़ाब होगा।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ قُتِلُوٓاْ أَوۡ مَاتُواْ لَيَرۡزُقَنَّهُمُ ٱللَّهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 57
(58) और जिन लोगों ने अल्लाह के मार्ग में घर-बार छोड़ा, फिर मारे गए या मर गए, अल्लाह उन्हें अच्छी रोज़ी देगा। और यक़ीनन अल्लाह ही उत्तम दाता है।
لَيُدۡخِلَنَّهُم مُّدۡخَلٗا يَرۡضَوۡنَهُۥۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَعَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 58
(59) वह उन्हें ऐसी जगह पहुँचाएगा जिससे वे ख़ुश हो जाए। बेशक अल्लाह सर्वज्ञ और सहनशील है।
۞ذَٰلِكَۖ وَمَنۡ عَاقَبَ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبَ بِهِۦ ثُمَّ بُغِيَ عَلَيۡهِ لَيَنصُرَنَّهُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ ۝ 59
(60) यह तो है उनका परिणाम, और जो कोई बदला ले वैसा ही जैसा उसके साथ किया गया और फिर उसपर ज़्यादती भी की गई हो, तो अल्लाह उसकी मदद ज़रूर करेगा। अल्लाह माफ़ करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला (छोड़ देनेवाला) है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 60
(61) यह इसलिए कि रात से दिन और दिन से रात निकालनेवाला अल्लाह ही है और वह सुनता और देखता है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ هُوَ ٱلۡبَٰطِلُ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 61
(62) यह इसलिए कि अल्लाह ही सत्य है और वे सब असत्य हैं जिन्हें अल्लाह को छोड़कर ये लोग पुकारते हैं और अल्लाह ही उच्च और महान है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَتُصۡبِحُ ٱلۡأَرۡضُ مُخۡضَرَّةًۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٞ ۝ 62
(63) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और उसके द्वारा ज़मीन में हरियाली हो जाती है? वास्तविकता यह है कि वह सूक्ष्मदर्शी और ख़बर रखनेवाला है।16
16. अर्थात् अधर्म और ज़ुल्म की नीति अपनानेवालों पर अज़ाब उतारना, ईमानवालों और अच्छे बन्दों को इनाम देना, सच्चाई को अपनानेवाले उत्पीड़ित लोगों की फ़रियाद सुनना और ताक़त से ज़ुल्म का मुक़ाबला करनेवाले सत्यवादियों की मदद करना, यह सब कुछ इसलिए है कि अल्लाह के गुण ये और ये हैं।
لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 63
(64) उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, बेशक वही निरपेक्ष और प्रशंसा के योग्य है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ سَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡفُلۡكَ تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦ وَيُمۡسِكُ ٱلسَّمَآءَ أَن تَقَعَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 64
(65) क्या तुम देखते नहीं हो कि उसने वह सब कुछ तुम्हारे लिए वशीभूत कर रखा है जो ज़मीन में है, और उसी ने नौका को नियम का पाबन्द बनाया है कि वह उसके आदेश से समुद्र में चलती है, और वही आसमान को इस तरह थामे हुए है कि उसकी अनुमति के बिना वह ज़मीन पर नहीं गिर सकता? वस्तुस्थिति यह है कि अल्लाह लोगों के हक़ में बड़ा करुणामय और दयावान है।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَحۡيَاكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ ۝ 65
(66) वही है जिसने तुम्हें ज़िन्दगी प्रदान की है, वही तुमको मौत देता है और वही फिर तुमको ज़िन्दा करेगा। सच यह है कि इनसान बड़ा ही सत्य से मुँह फेरनेवाला है।17
17. अर्थात् यह सब कुछ देखते हुए भी उस सत्य का इनकार किए जाता है जिसे नबियों ने पेश किया है।
لِّكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكًا هُمۡ نَاسِكُوهُۖ فَلَا يُنَٰزِعُنَّكَ فِي ٱلۡأَمۡرِۚ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ إِنَّكَ لَعَلَىٰ هُدٗى مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 66
(67) हर उम्मत के लिए हमने बन्दगी की एक रीति निर्धारित की है जिसका वह पालन करती हैं, अत: ऐ नबी, वे इस मामले में तुमसे झगड़ा न करें।18 तुम अपने रब की ओर बुलाओ। यक़ीनन तुम सीधे मार्ग पर हो
18. अर्थात् जिस तरह पहले के नबी अपने-अपने युग के समुदायों के लिए बन्दगी और उपासना की प्रणाली लाए थे, उसी तरह इस युग के समुदाय के लिए तुम बन्दगी की एक प्रणाली लाए हो। अब किसी को तुमसे झगड़ा करने का हक़ हासिल नहीं है, क्योंकि वर्तमान युग के लिए सच्ची बन्दगी की प्रणाली यही हैं।
وَإِن جَٰدَلُوكَ فَقُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 67
(68) और अगर वे तुमसे झगड़ें तो कह दो कि “जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह को ख़ूब मालूम है,
ٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 68
(69) अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमें तुम विभेद करते रहे हो।”
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّ ذَٰلِكَ فِي كِتَٰبٍۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 69
(70) क्या तुम जानते नहीं कि आसमान और ज़मीन की हर चीज़़ अल्लाह के ज्ञान में है? सब कुछ एक किताब में अंकित है। अल्लाह के लिए यह कुछ भी कठिन नहीं है।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَمَا لَيۡسَ لَهُم بِهِۦ عِلۡمٞۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٖ ۝ 70
(71) ये लोग अल्लाह को छोड़कर उनकी बन्दगी कर रहे हैं जिनके लिए न तो उसने कोई प्रमाण उतारा है और न ये ख़ुद उनके बारे में कोई ज्ञान रखते है इन जातियों के लिए कोई मददगार नहीं है।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ تَعۡرِفُ فِي وُجُوهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمُنكَرَۖ يَكَادُونَ يَسۡطُونَ بِٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۗ قُلۡ أَفَأُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكُمُۚ ٱلنَّارُ وَعَدَهَا ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 71
(72) और जब इनको हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं तो तुम देखते हो कि सत्य को अस्वीकार करनवाले लोगों के चेहरे बिगड़ने लगते हैं, और ऐसा लगता है कि अभी ये उन लोगों पर टूट पड़ेंगे जो इन्हें हमारी आयतें सुनाते हैं। इनसे कहो “मैं बताऊँ तुम्हें कि इससे बुरी चीज़़ क्या है? आग, अल्लाह ने उसी का वादा उन लोगों के हक़ में कर रखा है जो सत्य को स्वीकार करने से इनकार करें, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।"
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ضُرِبَ مَثَلٞ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَن يَخۡلُقُواْ ذُبَابٗا وَلَوِ ٱجۡتَمَعُواْ لَهُۥۖ وَإِن يَسۡلُبۡهُمُ ٱلذُّبَابُ شَيۡـٔٗا لَّا يَسۡتَنقِذُوهُ مِنۡهُۚ ضَعُفَ ٱلطَّالِبُ وَٱلۡمَطۡلُوبُ ۝ 72
(73) लोगो, एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो। जिन पूज्यों को तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते। बल्कि अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहनेवाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वे भी कमज़ोर।
مَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 73
(74) इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही नहीं पहचानी जैसा कि उसके पहचाने का हक़ है। वस्तुस्थिति यह है कि बलवान और इज़्ज़तवाला तो अल्लाह ही है।
ٱللَّهُ يَصۡطَفِي مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ رُسُلٗا وَمِنَ ٱلنَّاسِۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 74
(75) वास्तविकता यह है कि अल्लाह (अपने आदेशों को भेजने के लिए) फ़रिश्तों में से भी सन्देशवाहक चुनता है और इनसानों में से भी वह सुनता और देखता है,
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 75
(70) जो कुछ लोगों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह परिचित है, और सभी मामले उसी की तरफ़ रुजू होते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱرۡكَعُواْ وَٱسۡجُدُواْۤ وَٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمۡ وَٱفۡعَلُواْ ٱلۡخَيۡرَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ۩ ۝ 76
(77) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, (अल्लाह के आगे) झुको और सजदा करो, और अपने रब की बन्दगी करो, और अच्छा कर्म करो, इसी से उम्मीद की जा सकती है कि तुमको सफलता प्राप्त हो।
وَجَٰهِدُواْ فِي ٱللَّهِ حَقَّ جِهَادِهِۦۚ هُوَ ٱجۡتَبَىٰكُمۡ وَمَا جَعَلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلدِّينِ مِنۡ حَرَجٖۚ مِّلَّةَ أَبِيكُمۡ إِبۡرَٰهِيمَۚ هُوَ سَمَّىٰكُمُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ مِن قَبۡلُ وَفِي هَٰذَا لِيَكُونَ ٱلرَّسُولُ شَهِيدًا عَلَيۡكُمۡ وَتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِۚ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱعۡتَصِمُواْ بِٱللَّهِ هُوَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ فَنِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 77
(78) अल्लाह के मार्ग में जान-तोड़ कोशिश करो जैसा कि कोशिश करने का हक़ है। उसने तुम्हें अपने काम के लिए चुन लिया है और धर्म में तुमपर कोई तंगी नहीं रखी। क़ायम हो जाओ अपने बाप इबराहीम के पन्थ पर। अल्लाह ने पहले भी तुम्हारा नाम “मुस्लिम” रखा था और इस (क़ुरआन) में भी (तुम्हारा यही नाम है) ताकि रसूल तुम पर गवाह हो और तुम लोगों पर गवाह। अतः नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो, और अल्लाह से जुड़ जाओ। वह है तुम्हारा संरक्षक बहुत ही अच्छा है, वह संरक्षक और बहुत ही अच्छा है वह सहायक।