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سُورَةُ المَائـِدَةِ

  1. अल-माइदा

(मदीना में उतरी, आयतें 120)

परिचय

नाम:

इस सूरा का नाम पंद्रहवें रुकूअ की आयत-112 'हल यस्ततीउ रब्बु-क अंय्युनज़्ज़ि-ल अलैना माइदतम मिनस्समाइ' (क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान (थाल) उतार सकता है?) के शब्द ‘माइदा' से लिया गया है।

उतरने का समय

सूरा के विषयों से स्पष्ट होता है और रिवायतों से इसकी पुष्टि होती है कि यह “हुदैबिया की संधि” के बाद सन् 06 हि० के आख़िर या सन् 07 हि० के शुरू में उतरी है। ज़ी-कादा सन् 06 हि० की घटना है कि नबी (सल्ल.) चौदह सौ मुसलमानों के साथ उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए। परन्तु सत्य के विरोधी कुरैशियों ने दुश्मनी के जोश में अरब की प्राचीनतम धार्मिक परम्पराओं के विपरीत आपको उमरा न करने दिया और बड़े वाद-विवाद के बाद यह बात स्वीकार की कि अगले साल आप (सल्ल.) ज़ियारत (दर्शन) के लिए आ सकते हैं। इस अवसर पर ज़रूरत आ पड़ी कि मुसलमानों को एक ओर तो काबा की ज़ियारत के लिए सफ़र के आदाब (नियम) बताए जाएँ और दूसरी ओर उन्हें ताकीद की जाए कि विधर्मो दुश्मनों ने उन्हें उमरा से रोककर जो अन्याय किया है, उसके उत्तर में वे स्वयं कोई उत्पीड़न का पथ न अपनाएँ, इसलिए कि बहुत-से विरोधी क़बीलों के हज का मार्ग इस्लामी इलाक़ों से होकर जाता था और मुसलमानों के लिए यह संभव था कि जिस तरह इन्हें काबे की ज़ियारत से रोका गया है, उसी तरह वे भी उनको रोक दें।

उतरने का कारण

सूरा आले इमरान और सूरा निसा के उतरने के समय से इस सूरा के उतरने तक पहुँचते-पहुँचते परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका था। या तो वह समय था कि उहुद की लड़ाई के सदमे ने मुसलमानों के लिए मदीना के क़रीबी माहौल को भी ख़तरनाक बना दिया था या अब यह समय आ गया कि अरब में इस्लाम एक अजेय शक्ति दिखाई पड़ने लगा और इस्लामी राज्य एक ओर नज्द तक, दूसरी ओर शाम (सीरिया) की सीमाओं तक, तीसरी ओर लाल सागर के तट पर और चौथी ओर मक्का के क़रीब तक फैल गया। अब इस्लाम मात्र एक अक़ीदा और दृष्टिकोण ही न था जिसका शासन सिर्फ़ दिलों और दिमाग़ों तक सीमित हो, बल्कि वह एक स्टेट भी था जिसकी हुक्मरानी व्यावहारिक रूप से अपनी सीमाओं में रहनेवाले तमाम लोगों के जीवन पर छाई हुई थी।

फिर इन कुछ वर्षों में इस्लामी सिद्धान्तों एवं धारणाओं के अनुसार मुसलमानों की अपनी एक स्थायी सभ्यता बन चुकी थी जो जीवन के तमाम क्षेत्रों में दूसरों से अलग अपना एक विशिष्ट गौरव रखती थी। नैतिकता, रहन-सहन, संस्कृति, हर चीज़ में अब मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बिल्‍कुल अलग पहचाने जाते थे। इस्‍लामी जीवन का ऐसा पूर्ण स्‍वरूप बन जाने के बाद ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इस ओर से पूरे तौर पर निराश हो चुकी थी कि ये लोग, जिनकी अपनी एक अलग संस्कृति बन चुकी है, फिर कभी उनमें आ मिलेंगे। हुदैबिया में समझौते से पहले तक मुसलमानों के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह थी कि वे करैशी विरोधियों के साथ एक लगातार संघर्ष में उलझे हुए थे और उन्हें अपने आह्वान का क्षेत्र विस्तृत करने की छूट न मिलती थी। इस रुकावट को हुदैबिया की बाह्य किन्तु वास्तविक जीत ने दूर कर दिया। इससे उनको न केवल यह कि अपने राज्य की सीमाओं में शान्ति मिल गई, बल्कि इतनी मोहलत भी मिल गई कि आस-पास के क्षेत्रों में इस्लाम की दावत को लेकर फैल जाएँ।

वार्ताएँ

ये परिस्थितियाँ थीं जब सूरा माइदा उतरी। यह सूरा नीचे लिखे तीन बड़े-बड़े विषयों पर सम्मिलित है-

  1. मुसलमानों के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन के बारे में और अधिक आदेश और मार्गदर्शन- इस संबंध में हज के सफ़र के तरीक़े तय किए गए। अल्लाह की निशानियों के सम्मान का और काबे की ज़ियारत करनेवालों को न छेड़ने का आदेश दिया गया, खाने-पीने की चीज़ों में हराम और हलाल की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित की गईं और अज्ञानकाल के मनगढ़ंत बन्धनों को तोड़ दिया गया, अहले-किताब (किताबवालों) के साथ खाने-पीने और उनकी औरतों से निकाह करने की इजाज़त दी गई, वुज़ू और तयम्मुम और ग़ुस्ल (स्‍नान) की विधियाँ निश्चित की गई, विद्रोह करने, बिगाड़ पैदा करने और चोरी करने की सज़ाएँ तय की गईं, शराब और जुए को पूर्ण रूप से हराम कर दिया गया, क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) मुक़र्रर किया गया और गवाही के क़ानून में कुछ और धाराओं को बढ़ाया गया।
  2. मुसलमानों को नसीहत : अब चूँकि मुसलमान एक शासक समुदाय बन चुके थे, इसलिए उनको सम्बोधित करते हुए बार-बार नसीहत की गई कि न्याय पर जमे रहें, अपने से पूर्व गुज़रे हुए किताबबालों के आचरण से बचें। अल्लाह के आज्ञापालन और उसके आदेशों की पैरवी का जो वचन उन्होंने दिया उसपर अटल रहें।
  3. यहूदियों और ईसाइयों को ताकीद : यहूदियों का ज़ोर अब टूट चुका था और उत्तरी अरब की लगभग समस्त यहूदी बस्तियाँ मुसलमानों के अधीन हो गई थीं। इस अवसर पर उनको एक बार फिर उनकी ग़लत नीति पर सचेत किया गया और सीधे रास्ते पर आने का आह्वान किया गया। साथ ही चूँकि हुदैबिया के समझौते के कारण अरब और पड़ोसी देशों की क़ौमों में इस्लाम के प्रचार-प्रसार का सुअवसर निकल आया था, इसलिए ईसाइयों को भी सविस्तार सम्बोधित करके उनके अक़ीदों (विश्वासों) की ग़लतियाँ बताई गई हैं और उन्हें अरबी नबी पर ईमान लाने का आह्वान किया गया है।

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سُورَةُ المَائـِدَةِ
5. सूरा अल-माइदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَوۡفُواْ بِٱلۡعُقُودِۚ أُحِلَّتۡ لَكُم بَهِيمَةُ ٱلۡأَنۡعَٰمِ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ غَيۡرَ مُحِلِّي ٱلصَّيۡدِ وَأَنتُمۡ حُرُمٌۗ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ مَا يُرِيدُ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, प्रतिबन्धनों का पूर्ण रूप से पालन करो।1 तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के सब जानवर हलाल (वैध) किए गए,2 सिवाय उनके जो आगे चलकर तुम्हें बताए जाएँगे। लेकिन इहराम की हालत में शिकार को अपने लिए हलाल (वैध) न कर लो, बेशक अल्लाह जो चाहता है हुक्म देता है।
1. अर्थात् उन सीमाओं और प्रतिबन्धनों का पालन करो जो तुम्हारे लिए अनिवार्य किए गए हैं।
2. “अनआम” (चौपाए) शब्द अरबी भाषा में ऊँट, गाय, भेड़, बकरी के लिए बोला जाता है। और “बहीमा” प्रत्येक चरनेवाले चौपाए को कहते हैं। “चौपायों की जाति के चरनेवाले चौपाए तुम्हारे लिए हलाल (वैध) किए गए” का अर्थ यह है कि वे सब चरनेवाले जानवर हलाल हैं जो मवेशी (चौपाए) के वर्ग के हों अर्थात् जिनके नोकदार दाँत न हों। पाशविक आहार के बजाए शाकाहार ग्रहण करते हों, और दूसरी पाशविक विशेषताओं में मवेशियों से मिलते-जुलते हों। इसका स्पष्टीकरण नबी (सल्ल०) ने अपने उन आदेशों से कर दिया है जिनमें आपने हिंसक जानवरों और शिकारी पक्षियों और मुर्दाख़ोर जानवरों को हराम घोषित कर दिया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحِلُّواْ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ وَلَا ٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَلَا ٱلۡهَدۡيَ وَلَا ٱلۡقَلَٰٓئِدَ وَلَآ ءَآمِّينَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّهِمۡ وَرِضۡوَٰنٗاۚ وَإِذَا حَلَلۡتُمۡ فَٱصۡطَادُواْۚ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ أَن صَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ أَن تَعۡتَدُواْۘ وَتَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَلَا تَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ख़ुदापरस्ती की निशानियों का निरादर न करो3 — हराम महीनों में से किसी को हलाल न कर लो, क़ुरबानी के जानवरों पर हाथ न डालो, न उन जानवरों पर हाथ हालो जिनकी गरदनों में ख़ुदा के लिए नज़्र कर देने की निशानी के तौर पर पट्टे पड़े हुए हों, न उन लोगों को छेड़ो जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की तलाश में प्रतिष्ठित घर (काबा) की ओर जा रहे हों। हाँ, जब इहराम की हालत समाप्त हो जाए तो शिकार कर सकते हो — और देखो, एक गिरोह ने जो तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित मसजिद (मसजिदे-हराम) का रास्ता बन्द कर दिया है तो इसपर तुम्हारा ग़ुस्सा तुम्हें इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम भी उनके मुक़ाबले में अनुचित ज़्यादतियाँ करने लगो4 नहीं, जो काम नेकी और ईश-भक्ति के है उनमें सबको सहयोग दो और जो गुनाह और ज़्यादती के काम हैं उनमें किसी को सहयोग न दो। अल्लाह से डरो, उसकी सज़ा बहुत सख़्त है।
3. हर वह चीज़ जो किसी पंथ या धारणा या विचार एवं कर्म-प्रणाली या किसी जीवन-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती हो वह उसका 'शिआर' (भक्ति को निशानियाँ) कहलाएगी, क्योंकि वह उसके लिए चिह्न और लक्षण का काम देती है। सरकारी झण्डे, सेना और पुलिस आदि के यूनीफ़ार्म, सिक्के, नोट और स्टैम्प हुकूमतों के शिआर (चिह्न) हैं। गिरजा और क़ुरबानगाह और सलीब ईसाइयत के चिह्न हैं। चोटी और जनेऊ और मंदिर ब्राह्मणत्व के चिह्न हैं। केश और कड़ा और कृपाण आदि सिख मत के सांकेतिक चिह्न हैं। हथौड़ा और दराँती साम्यवाद का चिह्न हैं। ये सब मत अपने-अपने अनुयायियों से अपने इन चिह्नों एवं संकेतों के आदर की अपेक्षा करते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी प्रणाली या राज्य-व्यवस्था के संकेतों एवं चिह्नों में से किसी चिह्न का निरादर करता है तो यह इस बात की निशानी है कि वह वास्तव में उस राज्य व्यवस्था के विरुद्ध दुश्मनी रखता है, और अगर वह अपमान करनेवाला ख़ुद उसी व्यवस्था से सम्बन्ध रखता है तो उसके इस काम का अर्थ यह होता है कि वह उस व्यवस्था से फिर गया है और वह उसका विद्रोही है। “अल्लाह के शआइर” (अल्लाह के चिह्नों) से मुराद वे सभी लक्षण और निशानियाँ हैं, जो शिर्क (बहुदेववाद), अधर्म और नास्तिकता के विपरीत विशुद्ध ईश-भक्ति के पन्थ का प्रतिनिधित्व करती हों।
4. चूँकि अधर्मियों ने उस समय मुसलमानों को 'काबा' की ज़ियारत से रोक दिया था और हज तक से मुसलमान वंचित कर दिए गए थे, इसलिए मुसलमानों में यह खयाल पैदा हुआ कि जिन अधर्मी क़बीलों के रास्ते इस्लामी अधिक्षेत्रों के निकट से गुज़रते हैं, उनको हम भी हज से रोक दें और हज के समय में उनके क़ाफ़िलों पर छापे मारने शुरू कर दें, मगर अल्लाह ने यह आयत उतारकर उन्हें इस ख़याल से बाज़ रखा।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةُ وَٱلدَّمُ وَلَحۡمُ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦ وَٱلۡمُنۡخَنِقَةُ وَٱلۡمَوۡقُوذَةُ وَٱلۡمُتَرَدِّيَةُ وَٱلنَّطِيحَةُ وَمَآ أَكَلَ ٱلسَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيۡتُمۡ وَمَا ذُبِحَ عَلَى ٱلنُّصُبِ وَأَن تَسۡتَقۡسِمُواْ بِٱلۡأَزۡلَٰمِۚ ذَٰلِكُمۡ فِسۡقٌۗ ٱلۡيَوۡمَ يَئِسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن دِينِكُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِۚ ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَٰمَ دِينٗاۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ فِي مَخۡمَصَةٍ غَيۡرَ مُتَجَانِفٖ لِّإِثۡمٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 2
(3) तुमपर हराम किया गया मुर्दार, ख़ून, सूअर का मांस, वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़बह किया गया हो, वह जो गला घुंटकर, या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर, या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी हिंसक जानवर ने फाड़ा हो — सिवाय उसके जिसे तुमने जीवित पाकर ज़बह कर लिया और वह जो किसी थान पर ज़बह किया गया हो।5 और यह भी तुम्हारे लिए नाजायज़ है कि पाँसों के द्वारा अपना भाग्य मालूम करो। ये सारे काम आदेशोल्लंघन के हैं। आज अधर्मियों को तुम्हारे धर्म की ओर से पूरी मायूसी हो चुकी है तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।6 आज मैने तुम्हारे दीन (धर्म) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया है7 (अतः हराम और हलाल की जो पाबन्दियाँ तुमपर लगाई गई हैं उनका पालन करो)। अलबत्ता जो व्यक्ति भूख से विवश होकर उनमें से कोई चीज़़ खा ले बिना इसके कि गुनाह की ओर उसका रुझान हो, तो निस्संदेह अल्लाह माफ़ करनेवाला8 और दया करनेवाला है।
5. मूल ग्रन्थ में “नुसुब” शब्द प्रयुक्त हुआ है। इससे मुराद वे सब स्थान है जिनको ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों को भेंट और चढ़ावे की चीज़़ें चढ़ाने के लिए लोगों ने ख़ास कर रखा हो, भले ही वहाँ कोई पत्थर या लकड़ी की मूर्ति हो या न हो। हमारी भाषा में इसका पर्यायवाची शब्द आस्ताना या स्थान (थान, देवस्थान) है जो किसी महापुरुष या देवता से या किसी विशिष्ट मुशरिक (बहुदेववादी) धारणा से सम्बद्ध हो। ऐसे किसी थान पर ज़बह किया हुआ जानवर भी हराम है।
6."आज” से मुराद कोई विशेष दिन और तिथि नहीं है बल्कि वह समय या काल मुराद है जिसमें ये आयतें उतरी थीं। हमारी भाषा में भी “आज” का शब्द वर्तमान समय के लिए साधारणतया बोला जाता है। “अधर्मियों को तुम्हारे धर्म को ओर से निराशा हो चुकी है,” अर्थात् अब तुम्हारा धर्म स्थायी रूप से एक राज्य व्यवस्था बन चुका है और ख़ुद अपनी शासन-शक्ति के बल पर क्रियाशील एवं स्थापित है। अधर्मी इस ओर से निराश हो चुके हैं कि वे उसे मिटा सकेंगे और तुम्हें फिर पिछले अज्ञान की ओर वापस ले जा सकेंगे। “अतः तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो” अर्थात् इस धर्म के क़ानून और इसके आदेशों का पालन करने में किसी अधर्मी शक्ति के प्रभाव एवं प्रभुत्व और हस्तक्षेप और प्रतिरोध का ख़तरा तुम्हारे लिए बाक़ी नहीं रहा है। अब तुम्हें अल्लाह से डरना चाहिए कि उसके आदेशों के पालन करने में अगर कोई कोताही तुमने की तो तुम्हारे पास विवशता की कोई ऐसी बात न होगी जिसके कारण तुम्हारे साथ कुछ भी नरमी की जाए।
7. धर्म को पूर्ण कर देने से मुराद उसको स्थायी रूप से एक विचार एवं कर्म-प्रणाली और सभ्यता एवं संस्कृति की एक ऐसी पूर्ण प्रणाली बना देना है जिसमें जीवन सम्बधी सारी समस्याओं का हल सिद्धान्ततः अथवा सविस्तार मौजूद हो और हिदायत और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए किसी हाल में उससे बाहर जाने की ज़रूरत न पड़े। नेमत पूरी करने से मुराद मार्गदर्शन सम्बन्धी नेमत को पूरा कर देना है। और इस्लाम को धर्म के रूप में स्वीकार कर लेने का अर्थ यह है कि तुमने मेरी बन्दगी और आज्ञापालन करने का जो इक़रार किया था, उसको चूँकि तुम अपने प्रयास और कर्म से सच्चा और निष्ठापूर्ण इक़रार सिद्ध कर चुके हो, इसलिए मैंने उसे अपनी ओर से स्वीकृत कर लिया है और तुम्हें व्यवहारतः इस स्थिति को पहुँचा दिया है कि अब वास्तव में मेरे सिवा किसी के आज्ञापालन और बन्दगी का जुआ तुम्हारी गर्दनों पर बाक़ी नहीं रहा। अब जिस तरह आस्था-विश्वास में तुम मेरे आज्ञाकारी (मुस्लिम) हो, उसी तरह व्यावहारिक जीवन में भी मेरे सिवा किसी और के आज्ञाकारी बनकर रहने के लिए किसी विवशता में तुम ग्रस्त नहीं रहे हो।
8. व्याख्या के लिए देखिए सूरा 2, (अल-बक़रा) फुटनोट 52।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَآ أُحِلَّ لَهُمۡۖ قُلۡ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُ وَمَا عَلَّمۡتُم مِّنَ ٱلۡجَوَارِحِ مُكَلِّبِينَ تُعَلِّمُونَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ ٱللَّهُۖ فَكُلُواْ مِمَّآ أَمۡسَكۡنَ عَلَيۡكُمۡ وَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 3
(4) लोग पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल (वैध) किया गया है, कहो तुम्हारे लिए सारी अच्छी, स्वच्छ चीज़़ें हलाल कर दी गई हैं।9 और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधाया हो — जिनको अल्लाह के दिए हुए ज्ञान के आधार पर तुम शिकार की शिक्षा दिया करते हो — वे जिस जानवर को तुम्हारे लिए पकड़ रखें उसको भी तुम खा सकते हो10 अलबत्ता उसपर अल्लाह का नाम ले लो11 और अल्लाह का क़ानून तोड़ने से डरो, अल्लाह को हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
9. पूछनेवालों का मक़सद यह था कि उनके सामने सारी हलाल चीज़़ों का ब्यौरा रखा जाए ताकि उनके सिवा हर चीज़ को वे हराम (अवैध) समझें। जवाब में क़ुरआन ने हराम चीज़़ों का ब्यौरा पेश कर दिया और उसके बाद सामान्य रूप में यह आदेश देकर छोड़ दिया कि सारी पाक चीज़़ें हलाल हैं। इस तरह प्राचीन धार्मिक धारणा बिलकुल उलट गई। प्राचीन धारणा यह थी कि सब कुछ वर्जित और हराम है सिवाय उसके जिसे हलाल ठहराया जाए। क़ुरआन ने इसके विपरीत यह सिद्धान्त मुक़र्रर किया कि सब कुछ हलाल है सिवाय उसके जिसकी अवैधता स्पष्टतः बयान कर दी जाए। हलाल के लिए “पाक” की क़ैद इसलिए लगाई कि नापाक चीज़ों को हलाल ठहराने की कोशिश न की जाए। रहा यह सवाल कि चीज़़ों के “पाक” होने का निर्धारण किस तरह होगा तो इसका जवाब यह है कि जो चीज़़ें धर्म-विधान के सिद्धान्त में से किसी नियम के अन्तर्गत नापाक ठहरें, या जिन चीज़़ों से एक सामान्य रुचि घृणा करे, या जिन्हें सभ्य इनसान ने सामान्यतः पवित्रता एवं स्वच्छता की अपनी स्वाभाविक चेतना के प्रतिकूल पाया हो, इनके अतिरिक्त सब कुछ पाक है।
10. शिकारी जानवरों से मुराद कुत्ते, चीते, बाज़, शिकरे और वे सभी हिंसक पशु और पक्षी हैं जिनसे इनसान शिकार का काम लेता है। सधाए हुए जानवर की विशेषता यह होती है कि वह जिसका शिकार करता है उसे सामान्य हिंसक पशु की तरह फाड़ नहीं खाता बल्कि अपने मालिक के लिए पकड़ रखता है। इसी कारण साधारण हिंसक पशुओं का फाडा हुआ जानवर हराम (वर्जित) है और सधाए हुए हिंसक पशुओं का शिकार हलाल।
11. अर्थात् शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते समय बिसमिल्लाह (अल्लाह के नाम से) कहो। इस आयत से यह बात मालूम हुई कि शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते हुए अल्लाह का नाम लेना आवश्यक है। इसके बाद अगर शिकार ज़िन्दा मिले तो फिर अल्लाह का नाम लेकर उसे ज़बह कर लेना चाहिए और अगर ज़िन्दा न मिले तो इसके बिना ही वह हलाल (वैध) होगा। क्योंकि आरम्भ में शिकारी जानवर को उसपर छोड़ते हुए अल्लाह का नाम लिया जा चुका था। यही आदेश तीर का भी है।
ٱلۡيَوۡمَ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُۖ وَطَعَامُ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حِلّٞ لَّكُمۡ وَطَعَامُكُمۡ حِلّٞ لَّهُمۡۖ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِيٓ أَخۡدَانٖۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ حَبِطَ عَمَلُهُۥ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 4
(5) आज तुम्हारे लिए सारी अच्छी, स्वच्छ चीज़़ें हलाल कर दी गई हैं। किताबवालों का भोजन तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए।12 और सुरक्षित औरते भी तुम्हारे लिए हलाल है चाहे वे ईमानवाले गिरोह से हों या उन क़ौमों (गिराहों) में से जिनको तुमसे पहले किताब दी गई थी,13 शर्त यह है कि तुम उनका मह्‍र अदा करके निकाह में उनके रक्षक बनो, न यह कि स्वच्छन्द काम-तृप्ति करने लगो या चोरी-छिपे दोस्तियाँ करो और अगर किसी ने ईमान की नीति पर चलने से इनकार किया तो ज़िन्दगी में उसका सारा किया-धरा अकारथ हो जाएगा और वह आख़िरत में दिवालिया होगा।
12. किताबवालों के खाने में उनका ज़बह किया हुआ जानवर भी शामिल हैं। हमारे लिए उनका और उनके लिए हमारा खाना हलाल होने का अर्थ यह है कि हमारे और उनके बीच खाने-पीने में कोई रुकावट और कोई छूत-छात नहीं है। हम उनके साथ खा सकते हैं और वे हमारे साथ। लेकिन यह सामान्य अनुमति देने से पहले इस वाक्य को दोहराया गया है कि “तुम्हारे लिए पाक चीज़़ें वैध कर दी गई है।” इससे मालूम हुआ कि किताबवाले अगर पाकी और पवित्रता के उन क़ानूनों का पालन न करें जो 'शरीअत' के दृष्टिकोण से ज़रूरी हैं, या अगर उनके खाने में हराम और अवैध चीज़़ें शामिल हैं तो उनसे बचना चाहिए। उदाहरणार्थं अगर वे अल्लाह का नाम लिए बिना किसी जानवर को ज़बह करें, या उसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लें, तो उसे खाना हमारे लिए जाइज़ नहीं।
13. इससे मुराद यहूदी और ईसाई हैं। निकाह की इजाज़त सिर्फ़ उन्हीं की औरतों से दी गई है और इसके साथ शर्त यह लगा दी गई है कि वे 'मुहसनात' (सुरक्षित औरतें) हों अर्थात् आवारा न हों। और बाद के वाक्य में यह चेतावानी भी दे दी गई है कि यहूदी या ईसाई पत्नी के लिए ईमान न खो बैठना।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَكُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ وَإِن كُنتُمۡ جُنُبٗا فَٱطَّهَّرُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُم مِّنۡهُۚ مَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيَجۡعَلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ حَرَجٖ وَلَٰكِن يُرِيدُ لِيُطَهِّرَكُمۡ وَلِيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो चाहिए कि अपने मुँह और हाथ कुहनियों तक धो लो सिरों पर हाथ फेर लो और पाँव टख़नों तक धो लिया करो।14 अगर नहाना अनिवार्य हो तो नहाकर पाक हो जाओ। अगर बीमार हो या सफ़र की हालत में हो या तुममें से कोई शौच करके आए या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो, और पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो, बस उसपर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर फेर लिया करो।15 अल्लाह तुमपर ज़िन्दगी को तंग नहीं करना चाहता, मगर वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दे, शायद कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
14. नबी (सल्ल०) ने इस आदेश की जो व्याख्या की है उससे मालूम होता है कि मुँह धोने में कुल्ली करना और नाक साफ़ करना भी शामिल है, इसके बिना मुँह का धोना पूरा नहीं होता। और कान चूँकि सिर का एक हिस्सा है इसलिए सिर के 'मस्ह' में कानों के भीतरी और बाहरी हिस्सों का 'मस्ह' भी शामिल है। इसके अलावा “वुज़ू' शुरू करने से पहले हाथ धो लेने चाहिए ताकि जिन हाथों से आदमी वुज़ू कर रहा हो वे ख़ुद पहले पाक हो जाएँ।
15. व्याख्या के लिए देखें सूरा 4 (निसा), फ़ुटनोट, 41, 43।
وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمِيثَٰقَهُ ٱلَّذِي وَاثَقَكُم بِهِۦٓ إِذۡ قُلۡتُمۡ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 6
(7) अल्लाह ने तुमको जो नेमत प्रदान की है उसका ध्यान रखो और उस दृढ़ प्रतिज्ञा को न भूलो जो उसने तुमसे कराई है, अर्थात् तुम्हारा यह कथन कि “हमने सुना और आज्ञापालन स्वीकार किया।” अल्लाह से डरो, अल्लाह दिलों के भेद तक जानता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ لِلَّهِ شُهَدَآءَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ عَلَىٰٓ أَلَّا تَعۡدِلُواْۚ ٱعۡدِلُواْ هُوَ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के लिए औचित्य पर क़ायम रहनेवाले और इनसाफ़ की गवाही देनेवाले बनो। किसी गिरोह की दुश्मनी तुमको इतना उत्तेजित न कर दे कि इनसाफ़ से फिर जाओ। इनसाफ़ करो, यह ईशभक्ति और विनम्रता के अधिक अनुकूल है। अल्लाह से डरकर काम करते रहो, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे पूरी तरह जानता है।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 8
(9) जो लोग ईमान लाएँ और अच्छा काम करें, अल्लाह ने उनसे वादा किया है कि उनकी ख़ताओं को माफ़ कर दिया जाएगा और उन्हें बड़ा बदला मिलेगा।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 9
(10) रहे वे लोग जो इनकार करें, और अल्लाह की आयतों को झुठलाएँ, तो वे नरक में जानेवाले है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ هَمَّ قَوۡمٌ أَن يَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ فَكَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के उस उपकार को याद करो जो उसने (अभी वर्तमान समय में) तुमपर किया है, जबकि एक गिरोह ने तुमपर हाथ डालने का इरादा कर लिया था मगर अल्लाह ने उनके हाथ तुमपर उठने से रोक दिए।16 अल्लाह से डरकर काम करते रहो, ईमान रखनेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
16. संकेत है उस घटना की ओर जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने रिवायत किया है कि यहूदियों में से एक गिरोह ने नबी (सल्ल०) और आपके ख़ास-ख़ास सहाबा को खाने की दावत पर बुलाया था और गुप्त रूप से यह साज़िश रची थी कि अचानक उनपर टूट पड़ेंगे और इस तरह इस्लाम की जान निकाल देंगे। लेकिन ठीक समय पर अल्लाह की कृपा से नबी (सल्ल०) को इस साज़िश का हाल मालूम हो गया और आप दावत पर नहीं गए।
۞وَلَقَدۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَبَعَثۡنَا مِنۡهُمُ ٱثۡنَيۡ عَشَرَ نَقِيبٗاۖ وَقَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مَعَكُمۡۖ لَئِنۡ أَقَمۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَيۡتُمُ ٱلزَّكَوٰةَ وَءَامَنتُم بِرُسُلِي وَعَزَّرۡتُمُوهُمۡ وَأَقۡرَضۡتُمُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا لَّأُكَفِّرَنَّ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ فَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 11
(12) अल्लाह ने इसराईल की सन्तान से दृढ प्रतिज्ञा कराई थी और उनमें बारह सरदार17 मुक़र्रर किए थे और उनसे कहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, अगर तुमने नमाज़ क़ायम रखी और ज़कात दी और मेरे रसूलों को माना और उनकी मदद की और अपने अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ देते रहे तो यक़ीन रखो कि मैं तुम्हारी बुराइयाँ तुमसे दूर कर दूँगा और तुमको ऐसे बाग़ों में प्रवेश करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, मगर इसके बाद जिसने तुममें से इनकार की नीति अपनाई तो हक़ीक़त में उसने समतल व सरल मार्18” को गुम कर दिया।”
17. यहाँ “नक़ीब” शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'नक़ीब” का अर्थ है निगरानी और जाँच-पड़ताल करनेवाला। इसराईलियों के बारह क़बीले थे और अल्लाह ने उनमें से हर क़बीले पर एक-एक “नक़ीब” ख़ुद उसी क़बीले से नियुक्त करने का आदेश दिया था ताकि वह उनकी हालतों पर निगाह रखे और उन्हें अधर्म और अनैतिकता से बचाने को कोशिश करता रहे।
18. 'सवाउस्सबील' (समतल व सरल मार्ग) उस शाहराह (राजपथ) को कहते हैं जो गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए विधिवत रूप से बना दी गई हो। उसे गुम कर देने का अर्थ यह है कि आदमी शाहराह से हटकर पगडंडियों में भटक जाए।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ لَعَنَّٰهُمۡ وَجَعَلۡنَا قُلُوبَهُمۡ قَٰسِيَةٗۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلَىٰ خَآئِنَةٖ مِّنۡهُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱصۡفَحۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 12
(13) फिर यह उनका अपनी प्रतिज्ञा को भंग करना था जिसके कारण हमने उनको अपनी दयालुता से दूर फेंक दिया और उनके दिल कठोर कर दिए। अब उनका हाल यह है कि शब्दों का उलट-फेर करके बात को कहीं से कहीं ले जाते हैं, जो शिक्षा उन्हें दी गई थी उसका बड़ा भाग भूल चुके हैं, और बराबर तुम्हें उनके किसी न किसी विश्वासघात का पता चलता रहता है। उनमें से बहुत कम लोग इस बुराई से बचे हुए हैं। (अत: जब ये इस दशा को पहुँच चुके हैं तो जो दुष्टता भी ये करें इनसे उसी की आशा की जा सकती है) अत: उन्हें माफ़ करो और उनकी बुराइयों से निगाह बचाते रहो, अल्लाह को वे लोग पसन्द हैं जो अच्छे से अच्छा कार्य करते हैं।
وَمِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰٓ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَهُمۡ فَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَأَغۡرَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَاوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَسَوۡفَ يُنَبِّئُهُمُ ٱللَّهُ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 13
(14) इसी तरह हमने उन लोगों से भी दृढ प्रतिज्ञा कराई थी जिन्होंने कहा था कि हम “नसारा” हैं, मगर उनको भी जो सबक़ याद कराया गया था उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने भुला दिया, आख़िरकार हमने उनके बीच क़ियामत तक के लिए दुश्मनी और पारम्परिक द्वेष का बीज बो दिया, और ज़रूर एक समय आएगा जब अल्लाह उन्हें बताएगा कि वे दुनिया में क्या बनाते रहे हैं।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ كَثِيرٗا مِّمَّا كُنتُمۡ تُخۡفُونَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖۚ قَدۡ جَآءَكُم مِّنَ ٱللَّهِ نُورٞ وَكِتَٰبٞ مُّبِينٞ ۝ 14
(15) ऐ किताबवालो, हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है जो ईश्वरीय ग्रन्थ की बहुत-सी उन बातों को तुम्हारे सामने खोल रहा है जिनपर तुम परदा डाला करते थे, और बहुत-सी बातों को जाने भी देता है।19 तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश आ गया है और एक ऐसी स्पष्ट किताब
19. अर्थात् तुम्हारी कुछ चोरियाँ और ख़ियानतें खोल देता है जिनका खोलना सत्य-धर्म को स्थापित करने के लिए अनिवार्य है और कुछ ख़ियानतों से आँखे बचा जाता है जिनके खोलने की कोई वास्तविक आवश्यकता नहीं है।
يَهۡدِي بِهِ ٱللَّهُ مَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَهُۥ سُبُلَ ٱلسَّلَٰمِ وَيُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِهِۦ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 15
(16) जिसके द्वारा अल्लाह उन लोगों को जो उसकी प्रसन्नता के इच्छुक हैं सलामती की राहे बताता हैं और अपनी अनुमति से उनको अँधेरों से निकालकर उजाले की ओर लाता है और सीधे मार्ग की तरफ़ उनका पथ-प्रदर्शन करता है।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ أَن يُهۡلِكَ ٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗاۗ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि मरयम का बेटा मसीह ही अल्लाह है। ऐ नबी, उनसे कहो कि अगर अल्लाह मरयम के बेटे मसीह को और उसकी माँ और पूरी धरतीवालों को विनष्ट कर देना चाहे तो किसकी शक्ति है कि उसको इस इरादे से रोक सके? अल्लाह तो ज़मीन और आसमानों का और उन सब चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमानों के बीच पाई जाती हैं, जो कुछ चाहता है पैदा करता है20 और उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
20. अर्थात् केवल मसीह (अलैहि०) के बिन बाप पैदा होने के कारण तुम लोगों ने उनको ईश्वर बना डाला हालाँकि अल्लाह जिसको जिस तरह चाहता है पैदा करता है। कोई बन्दा इस कारण ईश्वर नहीं बन जाता कि अल्लाह ने उसे असाधारण रोति से पैदा किया है।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ وَٱلنَّصَٰرَىٰ نَحۡنُ أَبۡنَٰٓؤُاْ ٱللَّهِ وَأَحِبَّٰٓؤُهُۥۚ قُلۡ فَلِمَ يُعَذِّبُكُم بِذُنُوبِكُمۖ بَلۡ أَنتُم بَشَرٞ مِّمَّنۡ خَلَقَۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 17
(18) यहूदी और ईसाई कहते है कि हम अल्लाह के बेटे और उसके चहेते हैं। उनसे पूछो फिर वह तुम्हारे गुनाहों पर तुम्हें सज़ा क्यों देता है? वास्तव में तुम भी वैसे ही इनसान हो जैसे और इनसान ईश्वर ने पैदा किए हैं। वह जिसे चाहता है माफ़ करता है और जिसे चाहता है सज़ा देता है। ज़मीन और आसमान और उनमें पाई जानेवाली सारी चीज़़ों का वही मालिक है, और उसी की ओर सबको जाना है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ عَلَىٰ فَتۡرَةٖ مِّنَ ٱلرُّسُلِ أَن تَقُولُواْ مَا جَآءَنَا مِنۢ بَشِيرٖ وَلَا نَذِيرٖۖ فَقَدۡ جَآءَكُم بَشِيرٞ وَنَذِيرٞۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 18
(19) ऐ किताबवालो, हमारा यह रसूल ऐसे समय में तुम्हारे पास आया है और धर्म की स्पष्ट शिक्षा तुम्हें दे रहा है जबकि रसूलों के आने का सिलसिला एक मुद्दत से बन्द था, ताकि तुम यह न कह सको कि हमारे पास कोई शुभसमाचार देनेवाला और डरानेवाला नहीं आया। तो देखो अब वह शुभसमाचार देनेवाला और डरानेवाला आ गया—और अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।21
21. अर्थात् अगर तुमने इस शुभसूचना देनेवाले और डरानेवाले को बात न मानी तो याद रखो कि अल्लाह सर्वशक्तिमान और बलशाली है, हर सज़ा जो वह तुम्हें देना चाहे बिना प्रतिरोध दे सकता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَعَلَ فِيكُمۡ أَنۢبِيَآءَ وَجَعَلَكُم مُّلُوكٗا وَءَاتَىٰكُم مَّا لَمۡ يُؤۡتِ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 19
(20) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, अल्लाह की उस नेमत को याद करो जो उसने तुम्हें प्रदान की थी। उसने तुममें नबी पैदा किए, तुमको शासक बनाया, और तुमको वह कुछ दिया जो दुनिया में किसी को न दिया था।
يَٰقَوۡمِ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡأَرۡضَ ٱلۡمُقَدَّسَةَ ٱلَّتِي كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَارِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 20
(21) ऐ मेरी क़ौम के भाइयो, इस पवित्र भूमि में प्रवेश करो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है,22 पीछे न हटो वरना नाकाम होकर पलटोगे।”
22. मुराद है फ़िलस्तीन का भू-भाग जो उस समय बड़े ही सख़्त मुशरिक (बहुदेववादियों) और बुरे कर्म में लिप्त जातियों से आबाद था। इसराईल की संतति जब मिस्र से निकल आई तो इसी भू-भाग को अल्लाह ने उनके लिए नामांकित कर दिया और हुक्म दिया कि जाकर उसपर अधिकार कर लो।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ فِيهَا قَوۡمٗا جَبَّارِينَ وَإِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَا حَتَّىٰ يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِنَّا دَٰخِلُونَ ۝ 21
(22) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ मूसा, वहाँ तो बड़े ज़बरदस्त लोग रहते हैं, हम वहाँ हरगिज़ नहीं जाएँगे जब तक वे वहाँ से निकल न जाएँ। हाँ, अगर वे वहाँ से निकल गए हो हम प्रवेश करने के लिए तैयार है।"
قَالَ رَجُلَانِ مِنَ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمَا ٱدۡخُلُواْ عَلَيۡهِمُ ٱلۡبَابَ فَإِذَا دَخَلۡتُمُوهُ فَإِنَّكُمۡ غَٰلِبُونَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَتَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 22
(23) “उन हरनेवालों में दो व्यक्ति ऐसे भी वे जिनको अल्लाह ने अपनी नेमत से नवाज़ा था।23 उन्होंने कहा कि इन प्रचण्ड लोगों के मुक़ाबले में दरवाज़े के भीतर घुस जाओ, जब तुम भीतर पहुँच जाओगे तो तुम ही ग़ालिब (प्रभावी) रहोगे, अल्लाह पर भरोसा रखो। अगर तुम ईमानवाले हो।”
23. उन दोनों महापुरुषों में से एक हज़रत यूशअ-बिन-नून थे जो हज़रत मूसा के बाद उनके ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) हुए। दूसरे हज़रत कालिब थे जो हज़रत यूशअ के दाहिने हाथ (सहयोगी) बने। चालीस वर्ष तक भटकने के बाद जब इसराईली फ़िलस्तीन में दाख़िल हुए उस समय हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथियों में से सिर्फ़ यही दो महापुरुष ज़िन्दा थे।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَآ أَبَدٗا مَّا دَامُواْ فِيهَا فَٱذۡهَبۡ أَنتَ وَرَبُّكَ فَقَٰتِلَآ إِنَّا هَٰهُنَا قَٰعِدُونَ ۝ 23
(24) लेकिन उन्होंने फिर यही कहा कि “ऐ मूसा, हम तो यहाँ कभी न जाएँगे जब तक वे वहाँ मौजूद हैं बस तुम और तुम्हारा रब दोनों जाओ और लड़ो, हम यहाँ बैठे हैं।"
قَالَ رَبِّ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ إِلَّا نَفۡسِي وَأَخِيۖ فَٱفۡرُقۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 24
(25) इसपर मूसा ने कहा, “ऐ मेरे रब, मेरे अधिकार में कोई नहीं, मगर निजी रूप में मैं या मेरा भाई, अतः तू हमें इन अवज्ञाकारी लोगों से अलग कर दे।”
قَالَ فَإِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيۡهِمۡۛ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗۛ يَتِيهُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) अल्लाह ने जवाब दिया, “अच्छा तो वह देश चालीस साल तक इनके लिए वर्जित है, ये ज़मीन में मारे-मारे फिरेंगे, इन अवज्ञाकारियों के हाल पर हरगिज़ तरस न खाओ।"24
24. यहाँ इस घटना के उद्धृत करने का मक़सद वास्तव में इसराईल की संतति को स्पष्टतः यह बताना है कि मूसा (अलैहि०) के समय में नाफ़रमानी और विमुखता और साहसहीनता से काम लेकर जो सज़ा तुमने पाई थी, अब उससे बहुत ज़्यादा सख़्त सज़ा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में विद्रोह की नीति अपना कर पाओगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱبۡنَيۡ ءَادَمَ بِٱلۡحَقِّ إِذۡ قَرَّبَا قُرۡبَانٗا فَتُقُبِّلَ مِنۡ أَحَدِهِمَا وَلَمۡ يُتَقَبَّلۡ مِنَ ٱلۡأٓخَرِ قَالَ لَأَقۡتُلَنَّكَۖ قَالَ إِنَّمَا يَتَقَبَّلُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 26
(27) और तनिक उन्हें आदम के दो बेटों का क़िस्सा भी बिना कमी-बेशी के सुना दो जब उन दोनों ने क़ुरबानी की तो उनमें से एक की क़ुरबानी क़ुबूल की गई और दूसरे की न की गई। उसने कहा “मैं तुझे मार डालूँगा।” उसने जवाब दिया, “अल्लाह परहेज़गार लोगों की ही नज़्रें क़ुबूल करता है।
لَئِنۢ بَسَطتَ إِلَيَّ يَدَكَ لِتَقۡتُلَنِي مَآ أَنَا۠ بِبَاسِطٖ يَدِيَ إِلَيۡكَ لِأَقۡتُلَكَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 27
(28) अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए हाथ उठाएगा तो मैं तुझे क़त्ल करने के लिए हाथ न उठाऊँगा,25 मैं, अल्लाह, सारे संसार के रब से डरता हूँ।
25. इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए आएगा तो मैं हाथ बाँधकर तेरे सामने क़त्ल होने के लिए बैठ जाऊँगा, बल्कि इसका अर्थ यह है कि तू क़त्ल करने के पीछे पड़ता है तो पड़, मैं तेरे क़त्ल के पीछे नहीं पडूँगा।
إِنِّيٓ أُرِيدُ أَن تَبُوٓأَ بِإِثۡمِي وَإِثۡمِكَ فَتَكُونَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 28
(29) मैं चाहता हूँ कि मेरा और अपना गुनाह तू ही समेट ले और दोज़ख़ी बनकर रहे। ज़ालिमों के ज़ुल्म का यही ठीक बदला है।”
فَطَوَّعَتۡ لَهُۥ نَفۡسُهُۥ قَتۡلَ أَخِيهِ فَقَتَلَهُۥ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 29
(30) आख़िरकार उसके जी ने अपने भाई का क़त्ल उसके लिए आसान कर दिया और वह उसे मारकर उन लोगों में शामिल हो गया जो घाटा उठानेवाले हैं।
فَبَعَثَ ٱللَّهُ غُرَابٗا يَبۡحَثُ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُرِيَهُۥ كَيۡفَ يُوَٰرِي سَوۡءَةَ أَخِيهِۚ قَالَ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ أَعَجَزۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِثۡلَ هَٰذَا ٱلۡغُرَابِ فَأُوَٰرِيَ سَوۡءَةَ أَخِيۖ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلنَّٰدِمِينَ ۝ 30
(31) फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा जो ज़मीन खोदने लगा ताकि उसे बता दे कि अपने भाई की लाश कैसे छिपाए। यह देखकर वह बोला, “अफ़सोस मुझपर, मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई की लाश छिपाने का उपाय निकाल लेता। इसके बाद वह अपने किए पर बहुत पछताया।26
26. यहाँ इस घटना के उल्लेख करने का उद्देश्य यहूदियों की उनकी इस साज़िश के कारण निंदा करना है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) और आपके प्रतापी सहाबा को क़त्ल करने के लिए की थी। दोनों घटनाओं में एकरूपता बिलकुल स्पष्ट है। ये लोग भी ईर्ष्या और जलन के कारण नबी (सल्ल०) को क़त्ल करना चाहते थे, और आदम (अलैहि०) के उस बेटे ने भी ईर्ष्या के कारण ही अपने भाई को क़त्ल किया था।
مِنۡ أَجۡلِ ذَٰلِكَ كَتَبۡنَا عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنَّهُۥ مَن قَتَلَ نَفۡسَۢا بِغَيۡرِ نَفۡسٍ أَوۡ فَسَادٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ ٱلنَّاسَ جَمِيعٗا وَمَنۡ أَحۡيَاهَا فَكَأَنَّمَآ أَحۡيَا ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡأَرۡضِ لَمُسۡرِفُونَ ۝ 31
(32) इसी कारण इसराईल की सन्तान के लिए हमने यह आदेश लिख दिया था कि “जिसने किसी इनसान को क़त्ल के बदले या ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल कर डाला उसने मानो सारे ही इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो सारे इनसानों को जीवन-दान किया। मगर उनका हाल यह है कि हमारे रसूल निरन्तर उनके पास खुले-खुले निर्देश लेकर आए फिर भी उनमें अधिकतर लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले हैं।
إِنَّمَا جَزَٰٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ ذَٰلِكَ لَهُمۡ خِزۡيٞ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 32
(33) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और ज़मीन में इसलिए दौड़-धूप करते फिरते हैं कि बिगाड़ पैदा करें27 उनकी सज़ा यह है कि उनका क़त्ल किया जाए, या वे सूली पर चढ़ाए जाएँ, या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं से काट डाले जाएँ, या उन्हें देश निकाला दे दिया जाए। यह अपमान और तिरस्कार तो उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए इससे बड़ी सज़ा है।
27. ज़मीन से मुराद यहाँ वह देश या वह इलाक़ा है जिसमें शान्ति और प्रबन्ध की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी इस्लामी हुकूमत ने ले रखी हो। और अल्लाह और रसूल से लड़ने का अर्थ उस स्वस्थ प्रणाली के विरुद्ध युद्ध करना है जो इस्लाम की हुकूमत ने देश में स्थापित कर रखी हो। इस्लामी धर्मविधि के विशेषज्ञों की दृष्टि में इससे मुराद वे लोग हैं जो हथियारबन्द होकर और जत्थाबन्दी करके डाका डालें और लूट-मार करें।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِن قَبۡلِ أَن تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهِمۡۖ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 33
(34) मगर जो लोग पलट आएँ इससे पहले कि तुम उनपर क़ाबू पाओ — तुझे मालूम होना चाहिए कि अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।28
28. अर्थात् अगर वे बिगाड़ फैलाने की कोशिश से बाज़ आ गए हों, और स्वस्थ व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने या उलटने की कोशिश छोड़ चुके हों, और उनकी बाद की कर्मनीति सिद्ध कर रही हो कि वे शान्ति प्रिय, क़ानून के अधीन और नेक चलन इनसान बन चुके हैं, और इसके बाद उनके पहले के अपराधों का पता चले, तो उन सज़ाओं में से कोई सज़ा उनको न दी जाएगी जो ऊपर बयान हुई हैं, हाँ आदमियों के हक़ और अधिकारों पर अगर उन्होंने किसी प्रकार से हाथ डाला था तो इसकी ज़िम्मेदारी उनपर से न हटेगी। उदाहरणार्थ अगर किसी इनसान को उन्होंने क़त्ल किया था या किसी का माल लिया था या कोई और अपराध इनसानी जान और माल के विरुद्ध किया था तो उसी अपराध के विषय में फ़ौजदारी मुक़द्दमा उनपर क़ायम किया जाएगा लेकिन विद्रोह और अल्लाह और रसूल के विरुद्ध युद्ध का कोई मुक़द्दमा न चलाया जाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱبۡتَغُوٓاْ إِلَيۡهِ ٱلۡوَسِيلَةَ وَجَٰهِدُواْ فِي سَبِيلِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 34
(35) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो और उसका सामीप्य प्राप्त करने का साधन तलाश29 करो और उसके मार्ग में जान-तोड़ संघर्ष करो, शायद कि तुम्हें सफलता मिल जाए।
29. अर्थात् हर उस साधन की तलाश और खोज में रहो जिससे तुम अल्लाह का सामीप्य प्राप्त कर सको और उसकी ख़ुशी पा सको।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لِيَفۡتَدُواْ بِهِۦ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنۡهُمۡۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 35
(36) अच्छी तरह जान लो कि जिन लोगों ने अधर्म की नीति अपनाई है, अगर उनके अधिकार में सारी ज़मीन की दौलत हो और उतना ही और उसके साथ, और वे चाहें कि उसे बदले में देकर क़ियामत के दिन की यातना से बच जाएँ, तब भी वह उनसे स्वीकार न किया जाएगा और उसे दर्दनाक सज़ा मिलकर रहेगी
يُرِيدُونَ أَن يَخۡرُجُواْ مِنَ ٱلنَّارِ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنۡهَاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 36
(37) वे चाहेंगे कि दोज़ख़ की आग से निकल भागें मगर न निकल सकेंगे और उन्हें क़ायम रहनेवाला अज़ाब दिया जाएगा।
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 37
(40) क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह ज़मीन और आसमानों के राज्य का अधिकारी है? जिसे चाहे सज़ा दे और जिसे चाहे माफ़ कर दे, उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ لَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِ مِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَلَمۡ تُؤۡمِن قُلُوبُهُمۡۛ وَمِنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْۛ سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ سَمَّٰعُونَ لِقَوۡمٍ ءَاخَرِينَ لَمۡ يَأۡتُوكَۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ مِنۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِهِۦۖ يَقُولُونَ إِنۡ أُوتِيتُمۡ هَٰذَا فَخُذُوهُ وَإِن لَّمۡ تُؤۡتَوۡهُ فَٱحۡذَرُواْۚ وَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ فِتۡنَتَهُۥ فَلَن تَمۡلِكَ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يُطَهِّرَ قُلُوبَهُمۡۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 38
(41) ऐ पैग़म्बर, तुम्हारे लिए रंज व तकलीफ़ का कारण न हों वे लोग जो कुफ़्र (इनकार) के मार्ग में बड़ी तेज़ चाल दिखा रहे हैं। भले ही वे उनमें से हों जो मुँह से कहते हैं हम ईमान लाए मगर दिल उनके ईमान नहीं लाए, या उनमें से हों जो यहूदी बन गए हैं, जिनका हाल यह है कि झूठ के लिए कान लगाते हैं, और दूसरे लोगों के लिए, जो तुम्हारे पास कभी नहीं आए, सुनगुन लेते फिरते हैं, और अल्लाह की किताब के शब्दों को उनका ठीक स्थान निश्चित होने के बावजूद वास्तविक अर्थ से फेरते हैं और लोगों से कहते हैं कि अगर तुम्हें यह आदेश दिया जाए तो मानो नहीं तो न मानो।32 जिसे अल्लाह ही ने आपदा में डालने का इरादा कर लिया हो उसको अल्लाह की पकड़ से बचाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते33, ये वे लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना न चाहा, उनके लिए दुनिया में भी अपमान है और आख़िरत में सख़्त सज़ा।
32. अर्थात् अनभिज्ञ जनसाधारण से कहते हैं कि जो हुक्म हम बता रहे हैं, अगर मुहम्मद (सल्ल०) भी यही हुक्म तुम्हें बताएँ तो उसे क़ुबूल करना वरना रद्द कर देना।
33. अल्लाह की ओर से किसी के आपदा या फ़ितने में डालने का अर्थ यह है कि जिस व्यक्ति के भीतर अल्लाह किसी तरह की बुरी चाहत पनपते और बढ़ते देखता है उसके सामने लगातार ऐसे अवसर लाता है जिनमें उसकी कड़ी परीक्षा होती है। अगर वह व्यक्ति अभी बुराई की ओर पूरी तरह नहीं झुका है तो इन परीक्षाओं से संभल जाता है और उसके भीतर बुराई का मुक़ाबला करने के लिए नेकी की जो शक्तियाँ मौजूद होती हैं वे उभर आती हैं। लेकिन अगर वह बुराई की ओर पूरी तरह झुक चुका होता है और उसकी नेकी उसकी बुराई से भीतर ही भीतर परास्त हो चुकी होती है तो हर ऐसी परीक्षा के अवसर पर वह और अधिक बुराई के फंदे में फँसता चला जाता है। यही अल्लाह का वह फ़ितना है जिससे किसी बिगड़ते हुए इनसान को बचा लेना उसके किसी भला चाहनेवाले के बस में नहीं होता।
سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ أَكَّٰلُونَ لِلسُّحۡتِۚ فَإِن جَآءُوكَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُمۡ أَوۡ أَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡۖ وَإِن تُعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ فَلَن يَضُرُّوكَ شَيۡـٔٗاۖ وَإِنۡ حَكَمۡتَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 39
(42) ये झूठ सुननेवाले और हराम के माल खानेवाले हैं, अतः अगर ये तुम्हारे पास (अपने मुक़द्दमे लेकर आएँ तो तुम्हें अधिकार दिया जाता है कि चाहो तो इनका फ़ैसला करो वरना इनकार कर दो। इनकार कर दो तो ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, और फ़ैसला करो तो फिर ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।34
34. यहूदी उस समय तक इस्लामी राज्य की विधिवत् रूप से प्रजा नहीं बने थे, बल्कि इस्लामी हुकूमत के साथ उनके सम्बन्ध सन्धि और समझौते पर आधारित थे। इसी लिए उनका नबी (सल्ल०) की अदालत में आना अनिवार्य न था। लेकिन जिन मामलों में वे ख़ुद अपने धार्मिक क़ानून के अनुसार फ़ैसला करना न चाहते थे उनका फ़ैसला कराने के लिए नबी (सल्ल०) के पास इस उम्मीद पर आ जाते थे कि शायद आपकी शरीअत (धर्मविधान) में उनके लिए कोई दूसरा आदेश हो और इस तरह वे अपने धार्मिक क़ानून के अनुपालन और पकड़ से बच जाएँ।
وَكَيۡفَ يُحَكِّمُونَكَ وَعِندَهُمُ ٱلتَّوۡرَىٰةُ فِيهَا حُكۡمُ ٱللَّهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوۡنَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 40
(43) और ये तुम्हे कैसे निर्णायक बनाते हैं जबकि इनके पास तौरात मौजूद है जिसमें अल्लाह का आदेश लिखा हुआ है और फिर ये उससे मुँह मोड़ रहे हैं? वास्तविकता यह है कि ये लोग ईमान ही नहीं रखते।
إِنَّآ أَنزَلۡنَا ٱلتَّوۡرَىٰةَ فِيهَا هُدٗى وَنُورٞۚ يَحۡكُمُ بِهَا ٱلنَّبِيُّونَ ٱلَّذِينَ أَسۡلَمُواْ لِلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ بِمَا ٱسۡتُحۡفِظُواْ مِن كِتَٰبِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ عَلَيۡهِ شُهَدَآءَۚ فَلَا تَخۡشَوُاْ ٱلنَّاسَ وَٱخۡشَوۡنِ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗاۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 41
(44) हमने तौरात उतारी जिसमें हिदायत और रौशनी थी। सारे नबी जो मुस्लिम (आज्ञाकारी) थे उसी के अनुसार इन यहूदियों के मामलों का फ़ैसला करते थे, और इसी तरह धर्माधिकारी और शास्त्रवेत्ता35 भी (इसी को फ़ैसले का आधार बनाते थे) क्योंकि उन्हें अल्लाह की किताब की हिफ़ाज़त का ज़िम्मेदार बनाया गया था और वे उसपर गवाह थे। अतः (ऐ यहूदी गिरोह) तुम लोगों से न डरो बल्कि मुझसे डरो और मेरी आयतों को थोड़े-थोड़े से मुआवज़े लेकर बेचना छोड़ दो। जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें वही अधर्मी हैं।
35. यहाँ 'रब्बानी' और 'अहबार' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। “रब्बानी” से मुराद उलमा, विद्वान और 'अहबार से मुराद विधान के विचारक (फुक़हा) हैं।
وَكَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيهَآ أَنَّ ٱلنَّفۡسَ بِٱلنَّفۡسِ وَٱلۡعَيۡنَ بِٱلۡعَيۡنِ وَٱلۡأَنفَ بِٱلۡأَنفِ وَٱلۡأُذُنَ بِٱلۡأُذُنِ وَٱلسِّنَّ بِٱلسِّنِّ وَٱلۡجُرُوحَ قِصَاصٞۚ فَمَن تَصَدَّقَ بِهِۦ فَهُوَ كَفَّارَةٞ لَّهُۥۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 42
(45) तौरात में हमने यहूदियों पर यह हुक्म लिख दिया था कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत, और सब ज़ख्मों के लिए बराबर का बदला। फिर जो बदले (क़िसास) को दान कर दे तो वह उसके लिए कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) होगा। और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें वही ज़ालिम हैं।
وَقَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَ فِيهِ هُدٗى وَنُورٞ وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 43
(46) फिर हमने इन पैग़म्बरों के बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा। तौरात में से जो कुछ उसके सामने मौजूद था वह उसकी पुष्टि करनेवाला था। और हमने उसे इंजील प्रदान की जिसमें रहनुमाई और रौशनी थी और वह भी तौरात में से जो कुछ उस समय मौजूद था उसकी पुष्टि करनेवाली थी और अल्लाह से डरनेवाले लोगों के लिए सर्वथा मार्ग-दर्शन और नसीहत थी।
وَلۡيَحۡكُمۡ أَهۡلُ ٱلۡإِنجِيلِ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فِيهِۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 44
(47) हमारा आदेश था कि इंजीलवाले उस क़ानून के अनुसार फ़ैसला करें जो अल्लाह ने उसमें उतारा है और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें वही पाबन्दी तोड़नेवाले (फ़ासिक़) हैं।36
36. यहाँ अल्लाह ने उन लोगों के हक़ में जो अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें तीन हुक्म साबित किए हैं : एक यह कि वे काफ़िर (अधर्मी) हैं। दूसरे यह कि वे ज़ालिम हैं। तीसरे यह कि वे 'फ़ासिक़' अर्थात् अवज्ञाकारी है। जो व्यक्ति ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध इस कारण फ़ैसला करता है कि वह ईश्वरीय आदेश को ग़लत और अपने या किसी दूसरे मनुष्य के आदेश को ठीक समझता है वह पूर्ण रूप से काफ़िर है और ज़ालिम और 'फ़ासिक़' है, और जो वैचारिक दृष्टि से ईश्वरीय आदेश को सत्य समझता है मगर व्यवहारतः उसके विरुद्ध फ़ैसला करता है वह यद्यपि समुदाय से बाहर तो नहीं है लेकिन अपने ईमान को कुफ़्र, है अन्याय और अवज्ञा से मिला रहा है। इसी तरह जो सभी मामलों में ईश्वरीय आदेश से विमुख है वह सभी मामलों में काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी) है और जो कुछ मामलों में आज्ञाकारी और कुछ में विमुख है उसके जीवन में ईमान और इस्लाम और कुछ और ज़ुल्म और अवज्ञा का मिश्रण ठीक उसी अनुपात से है जिस अनुपात से उसने आज्ञापालन और अवज्ञा को मिला रखा है।
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ لِكُلّٖ جَعَلۡنَا مِنكُمۡ شِرۡعَةٗ وَمِنۡهَاجٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 45
(48) फिर ऐ नबी, हमने तुम्हारी ओर यह किताब भेजी जो हक़ (सत्य) लेकर आई है और मूल किताब में से जो कुछ उसके आगे मौजूद है उसकी पुष्टि करनेवाली और उसकी संरक्षक है।37 अत: तुम अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार लोगों के मामलों का फ़ैसला करो और जो हक़ (सत्य) तुम्हारे पास आया है उससे मुँह मोड़कर उनकी इच्छाओं का पालन न करो। हमने तुम (इनसानों) में से हर एक के लिए एक धर्म-विधान और कार्य-प्रणाली निर्धारित की। यद्यपि अगर तुम्हारा अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक उम्मत (समुदाय) भी बना सकता था, लेकिन उसने यह इसलिए किया कि जो कुछ उसने तुम लोगों को दिया है उसमें तुम्हारी आज़माइश करे। अतः भलाइयों में एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करो। आख़िरकार तुम सबको अल्लाह की और पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें असल हक़ीक़त बता देगा जिसमें तुम मतभेद करते रहे हो—
37. यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है। यद्यपि इस विषय को इस तरह भी बयान किया जा सकता था कि “पिछली किताबों” में से जो कुछ अपने असली और ठीक रूप में बाक़ी है, क़ुरआन उसकी पुष्टि करता है लेकिन अल्लाह ने “पिछली किताबों” के बदले “अल-किताब” (मूल किताब) शब्द इस्तेमाल किया। इससे इस रहस्य का उद्घाटन होता है कि क़ुरआन और वे सभी किताबें जो विभिन्न समयों और विभिन्न भाषाओं में अल्लाह की ओर से उतारी गईं, सब की सब वास्तव में एक ही किताब हैं। एक ही उनका रचयिता है, एक ही उनका आशय और उद्देश्य है, एक ही उनकी शिक्षा है और एक ही ज्ञान है जो उनके ज़रिए से पूरी इनसानी बिरादरी को प्रदान किया गया। अन्तर अगर है तो वर्णनों का है जो एक ही उद्देश्य के लिए विभिन्न श्रोताओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न ढंग से अपनाए गए। क़ुरआन को अल-किताब (मूल किताब) का संरक्षक कहने का अर्थ यह है कि इसने सम्पूर्ण सत्य-शिक्षाओं को जो पिछली आसमानी किताबों में दी गई थीं अपने भीतर लेकर सुरक्षित कर दिया है। अब उनकी सच्ची शिक्षाओं का कोई हिस्सा बरबाद न होने पाएगा।
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَهُم بِبَعۡضِ ذُنُوبِهِمۡۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَٰسِقُونَ ۝ 46
(49) अत: ऐ नबी, तुम अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के अनुसार इन लोगों के मामलों का फ़ैसला करो और इनकी इच्छाओं का पालन न करो। सावधान रहो कि ये लोग तुम्हें फरेब (फ़ितने) में डालकर उस मार्गदर्शन से तनिक भी फेरने न पाएँ जो अल्लाह ने तुम्हारी ओर अवतरित किया है। फिर अगर ये उससे मुँह मोड़ें तो जान लो कि अल्लाह ने इनके कुछ गुनाहों के बदले में इनको मुसीबत में डालने का इरादा ही कर लिया है, और यह हक़ीक़त है कि इन लोगों में से अधिकतर उल्लंघनकारी है।
أَفَحُكۡمَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ يَبۡغُونَۚ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ حُكۡمٗا لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 47
(50) (अगर ये अल्लाह के क़ानून से मुँह मोड़ते हैं) तो क्या फिर अज्ञान38 का फ़ैसला चाहते है? हालाँकि जो लोग अल्लाह को मानते हैं उनके नज़दीक अल्लाह से अच्छा फ़ैसला करनेवाला और कौन हो सकता है?
38. अज्ञान का शब्द इस्लाम के मुक़ाबले में प्रयोग किया जाता है। इस्लाम का तरीक़ा ज्ञान है क्योंकि उसकी ओर मार्गदर्शन अल्लाह ने किया है जो सभी हक़ाक़तों से परिचित है। और इसके विपरीत हर वह तरीक़ा जो इस्लाम से भिन्न है, अज्ञान का तरीक़ा है। अरब के इस्लाम से पहले के समय को अज्ञान-काल इन्हीं अर्थों में कहा गया है कि उस ज़माने में ज्ञान के बिना मात्र भ्रम, अन्धविश्वास, अटकल या इच्छाओं के आधार पर इनसानों ने अपने लिए ज़िन्दगी के तरीक़े निर्धारित कर लिए थे, यह नीति जहाँ, जिस युग में भी अपनाई जाए उसे हर हाल में अज्ञान ही की नीति कहा जाएगा।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلنَّصَٰرَىٰٓ أَوۡلِيَآءَۘ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَإِنَّهُۥ مِنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 48
(51) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, यहूदियों और ईसाइयों को अपना साथी और मित्र न बनाओ, ये आपस ही में एक दूसरे के मित्र हैं। और अगर तुममें से कोई उनको अपना मित्र बनाता है तो उसकी गिनती भी फिर उन्हीं लोगों में से है, यक़ीनन अल्लाह ज़ालिमों को सीधे रास्ते से मह्‍रूम कर देता है।
فَتَرَى ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يُسَٰرِعُونَ فِيهِمۡ يَقُولُونَ نَخۡشَىٰٓ أَن تُصِيبَنَا دَآئِرَةٞۚ فَعَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَ بِٱلۡفَتۡحِ أَوۡ أَمۡرٖ مِّنۡ عِندِهِۦ فَيُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَآ أَسَرُّواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 49
(52) तुम देखते हो कि जिनके दिलों में कपटाचार का रोग है वे उन्हीं में दौड़-धूप करते फिरते हैं। कहते हैं, “हमें डर लगता है कि कहीं हम किसी मुसीबत के चक्कर में न फँस जाएँ।” मगर असंभव नहीं कि अल्लाह जब तुम्हें निर्णायक विजय प्रदान करेगा या अपनी ओर से कोई और बात सामने लाएगा तो ये लोग अपने उस कपटाचार पर, जिसे ये मन में छुपाए हुए हैं, लज्जित होंगे।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ إِنَّهُمۡ لَمَعَكُمۡۚ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَأَصۡبَحُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 50
(53) और उस समय ईमानवाले कहेंगे : “क्या ये वही लोग हैं जो अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर विश्वास दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ है?” इनका सारा किया-धरा अकारथ गया और आख़िरकार ये असफल होकर रहे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَن يَرۡتَدَّ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَسَوۡفَ يَأۡتِي ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ يُحِبُّهُمۡ وَيُحِبُّونَهُۥٓ أَذِلَّةٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَعِزَّةٍ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ يُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَخَافُونَ لَوۡمَةَ لَآئِمٖۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 51
(54) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुममें से कोई अपने धर्म से फिरता है (तो फिर जाए) अल्लाह और बहुत-से लोग ऐसे पैदा कर देगा जो अल्लाह को प्रिय होंगे और अल्लाह उनको प्रिय होगा, जो ईमानवालों पर नर्म और अधर्मियों के लिए कठोर39 होंगे, जो अल्लाह के मार्ग में जान-तोड़ कोशिश करेंगे और किसी भर्त्सना करनेवाले की निन्दा से न डरेंगे। अल्लाह का यह अनुग्रह है, जिसे चाहता है प्रदान करता है। अल्लाह विस्तृत साधनों का मालिक है और सब कुछ जानता है।
39. “ईमानवालों पर नर्म” होने का अर्थ यह है कि एक व्यक्ति ईमानवालों के मुक़ाबले में अपने बल का प्रयोग कभी न करे। उसकी बौद्धिक शक्ति, उसकी समझदारी, उसकी कुशलता और योग्यता, उसकी पहुँच और प्रभाव, उसका धन, उसका शारीरिक बल, कोई चीज़़ भी मुसलमानों को दबाने और सताने और पहुँचाने के लिए न हो। मुसलमान अपने बीच उसको हमेशा एक मृदुल स्वभाव, रहमदिल, सहायक और सहनशील मनुष्य ही पाएँ। “अधर्मियों के लिए कठोर” होने का अर्थ यह है कि एक ईमानवाला आदमी अपने ईमान को मज़बूती, धर्म-निष्ठा सिद्धान्त को मज़बूती चरित्र-बल और ईमान की प्रतिभा एवं विवेक के कारण इस्लाम-विरोधियों के मुक़ाबले में पत्थर की चट्टान की तरह हो, किसी प्रकार अपनी जगह से हटाया न जा सके। वे उसे कभी मोम की नाक और नर्म चारा न पाएँ। उन्हें जब भी उससे मुक़ाबला पड़े उनपर यह सिद्ध हो जाए कि यह अल्लाह का बन्दा मर सकता है मगर किसी क़ीमत पर बिक नहीं सकता और किसी दबाव से दब नहीं सकता।
إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُمۡ رَٰكِعُونَ ۝ 52
(55) तुम्हारे मित्र तो वास्तव में सिर्फ़ अल्लाह और अल्लाह का रसूल और वे ईमानवाले है जो नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात (दान) देते हैं और अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं।
وَمَن يَتَوَلَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَإِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 53
(56) और जो अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों को अपना मित्र बना ले उसे मालूम हो कि अल्लाह की जमाअत ही प्रभावी होकर रहनेवाली है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَكُمۡ هُزُوٗا وَلَعِبٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَٱلۡكُفَّارَ أَوۡلِيَآءَۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 54
(57) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुमसे पहले के किताबवालों में से जिन लोगों ने तुम्हारे धर्म को हँसी और मनोरंजन का सामान बना लिया है, उन्हें और दूसरे अधर्मियों को अपना दोस्त और साथी न बनाओ। अल्लाह से डरो अगर तुम ईमानवाले हो।
وَإِذَا نَادَيۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ ٱتَّخَذُوهَا هُزُوٗا وَلَعِبٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 55
(58) जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो तो वे उसका मज़ाक़ उड़ाते और उससे खेलते हैं।40 इसका कारण यह है कि वे बुद्धिहीन हैं।
40. अर्थात् अज़ान की आवाज़ सुनकर उसकी नक़लें उतारते हैं, उपहास के लिए उसके शब्द बदलते और बिगाड़ते हैं और उसपर फबतियाँ (आवाज़ें) कसते हैं।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ هَلۡ تَنقِمُونَ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلُ وَأَنَّ أَكۡثَرَكُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 56
(59) इनसे कहो, “ऐ किताबवालो, तुम जिस बात पर हमसे बिगड़े हो वह इसके सिवा और क्या है। कि हम अल्लाह पर और धर्म की उस शिक्षा पर ईमान लाए हैं जो हमारी ओर अवतरित हुई है और हमसे पहले भी अवतरित हुई थी, और तुममें से अकसर लोग फ़ासिक़ (उल्लंघनकारी) हैं।”
قُلۡ هَلۡ أُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكَ مَثُوبَةً عِندَ ٱللَّهِۚ مَن لَّعَنَهُ ٱللَّهُ وَغَضِبَ عَلَيۡهِ وَجَعَلَ مِنۡهُمُ ٱلۡقِرَدَةَ وَٱلۡخَنَازِيرَ وَعَبَدَ ٱلطَّٰغُوتَۚ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 57
(60) फिर कहो, “क्या मैं उन लोगों को बताऊँ जिनका परिणाम अल्लाह के यहाँ फ़ासिक़ों (उल्लंघनकारियों) से भी बुरा है? वे जिनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी, जिनपर उसका प्रकोप हुआ, जिनमें से बन्दर और सुअर बनाए गए, जिन्होंने बढ़े हुए फ़सादी (ताग़ूत) की बन्दगी की। उनका दर्जा और भी ज़्यादा बुरा है और वे सीधे समतल मार्ग से बहुत ज़्यादा भटके हुए हैं।"
وَإِذَا جَآءُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَقَد دَّخَلُواْ بِٱلۡكُفۡرِ وَهُمۡ قَدۡ خَرَجُواْ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا كَانُواْ يَكۡتُمُونَ ۝ 58
(61) जब ये तुम लोगों के पास आते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि वे इनकार लिए हुए आए थे और इनकार ही लिए हुए वापस गए और अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ ये दिलों में छिपाए हुए हैं।
وَتَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 59
(62) तुम देखते हो कि इनमें से बहुतेरे लोग गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती के कामों में दौड़-धूप करते फिरते हैं और हराम के माल खाते हैं। बहुत बुरे कर्म हैं जो ये कर रहे हैं।
لَوۡلَا يَنۡهَىٰهُمُ ٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ عَن قَوۡلِهِمُ ٱلۡإِثۡمَ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 60
(63) क्यों इनके धर्मज्ञाता और बड़े लोग इन्हें गुनाह पर ज़बान खोलने और हराम खाने से नहीं रोकते? यक़ीनन बहुत ही बुरी कृति है जो वे तैयार कर रहे हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ يَدُ ٱللَّهِ مَغۡلُولَةٌۚ غُلَّتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَلُعِنُواْ بِمَا قَالُواْۘ بَلۡ يَدَاهُ مَبۡسُوطَتَانِ يُنفِقُ كَيۡفَ يَشَآءُۚ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۚ وَأَلۡقَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ كُلَّمَآ أَوۡقَدُواْ نَارٗا لِّلۡحَرۡبِ أَطۡفَأَهَا ٱللَّهُۚ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗاۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 61
(64) यहूदी कहते हैं अल्लाह के हाथ बंधे हुए हैं41 — बाँधे गए इनके हाथ42, और फिटकार पड़ी इनपर उस बकवास के कारण जो ये करते हैं — अल्लाह के हाथ तो खुले हुए हैं, जिस तरह चाहता है ख़र्च करता है। हक़ीक़त यह है कि जो कलाम (वाणी) तुम्हारे रब की ओर से तुमपर अवतरित हुआ है वह उनमें से बहुतेरे लोगों की सरकशी और अधर्म में उलटे बढ़ाने का कारण बन गया है, और (उसके बदले में) हमने इनके बीच क़ियामत तक के लिए दुश्मनी और नफ़रत डाल दी। जब कभी वे युद्ध की आग भड़काते है अल्लाह उसे ठण्डा कर देता है ये ज़मीन में बिगाड़ फैलाने का जतन कर रहे हैं परन्तु अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
41. अरबी मुहावरे के अनुसार किसी के हाथ बंधे हुए होने का अर्थ यह है कि वह कंजूस है, दान और दक्षिणा से उसका हाथ रुका हुआ है।
42. अर्थात् कंजूसी में ये ख़ुद पड़े हुए हैं। संसार में अपनी कंजूसी और अपनी तंगदिली के लिए लोकोक्ति बन चुके हैं।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَكَفَّرۡنَا عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 62
(65) अगर (इस सरकशी के बदले) ये किताबवाले ईमान ले आते और ईशभक्ति व विनम्रता की नीति अपनाते तो हम इनकी बुराइयाँ इनसे दूर कर देते और इनको नेमत भरी जन्नतों में पहुँचाते।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ أَقَامُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِم مِّن رَّبِّهِمۡ لَأَكَلُواْ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۚ مِّنۡهُمۡ أُمَّةٞ مُّقۡتَصِدَةٞۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ سَآءَ مَا يَعۡمَلُونَ ۝ 63
(66) क्या ही अच्छा होता कि इन्होंने तौरात और इंजील और दूसरी किताबों को क़ायम किया होता जो इनके रब की ओर से इनके पास भेजी गई थीं। ऐसा करते तो इनके लिए ऊपर से रोज़ी बरसती और नीचे से उबलती। यद्यपि इनमें कुछ लोग ठीक चल रहे हैं लेकिन इनमें अधिकतर बड़े ही दुष्कर्मी हैं।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ وَإِن لَّمۡ تَفۡعَلۡ فَمَا بَلَّغۡتَ رِسَالَتَهُۥۚ وَٱللَّهُ يَعۡصِمُكَ مِنَ ٱلنَّاسِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 64
(67) ऐ पैग़म्बर, जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुमपर अवतरित हुआ है वह लोगों तक पहुँचा दो। अगर तुमने ऐसा न किया तो उसकी पैग़म्बरी का हक़ अदा न किया। अल्लाह तुमको लोगों की बुराई से बचानेवाला है। यक़ीन रखो कि वह अधर्मियों को (तुम्हारे मुक़ाबले में) कामयाबी की राह हरगिज़ न दिखाएगा।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَسۡتُمۡ عَلَىٰ شَيۡءٍ حَتَّىٰ تُقِيمُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡۗ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۖ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 65
(68) साफ़ कह दो कि “ऐ किताबवालों, तुम हरगिज़ किसी आधार (असल) पर नहीं हो जब तक कि तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम न करो जो तुम्हारी ओर तुम्हारे रब की तरफ़ से उतारी गई हैं।” ज़रूर ही यह आदेश तुमपर तुम्हारे रब की ओर से उतारा गया है इनमें से बहुतों की सरकशी और इनकार को और बढ़ा देगा। मगर इनकार करनेवालों के हाल पर बिलकुल दुखी न हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـُٔونَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 66
(69) (विश्वास करो कि यहाँ ठेकेदारी किसी की भी नहीं है) मुसलमान हों या यहूदी, साबी हों या ईसाई, जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन को मानेगा और अच्छे कर्म करेगा बेशक उसके लिए न किसी ख़ौफ़ का मक़ाम है न रंज का।43
43. व्याख्या के लिए देखिए सूरा 2 (अल-बक़रा) आयत 62, फ़ुटनोट 26।
لَقَدۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ رُسُلٗاۖ كُلَّمَا جَآءَهُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُهُمۡ فَرِيقٗا كَذَّبُواْ وَفَرِيقٗا يَقۡتُلُونَ ۝ 67
(70) हमने इसराईल को सन्तान से दृढ प्रतिज्ञा कराई और उनकी तरफ़ बहुत-से पैगम्बर भेजे। मगर जब कभी उनके पास कोई रसूल उनकी इच्छाओं के ख़िलाफ़ कुछ लेकर आया है किसी को उन्होंने झुठलाया और किसी को क़त्ल कर दिया,
وَحَسِبُوٓاْ أَلَّا تَكُونَ فِتۡنَةٞ فَعَمُواْ وَصَمُّواْ ثُمَّ تَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ ثُمَّ عَمُواْ وَصَمُّواْ كَثِيرٞ مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 68
(71) और अपने नज़दीक यह समझे कि कोई विपत्ति न आएगी, इसलिए अन्धे और बहरे बन गए। फिर अल्लाह ने उन्हें माफ़ किया तो उनमें से अधिकतर लोग और अधिक अन्धे और बहरे बनते चले गए। अल्लाह उनकी ये सब करतूतें देखता रहा है।
لَقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ وَقَالَ ٱلۡمَسِيحُ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۖ إِنَّهُۥ مَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ حَرَّمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ ٱلۡجَنَّةَ وَمَأۡوَىٰهُ ٱلنَّارُۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 69
(72) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह मरयम का बेटा मसीह है। हालाँकि मसीह ने कहा था कि 'ऐ इसराईलियो, अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी और उसका ठिकाना जहन्नम है, और ऐसे ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ ثَالِثُ ثَلَٰثَةٖۘ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّآ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ وَإِن لَّمۡ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 70
(73) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन में का एक है, हालाँकि एक अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं है। अगर ये लोग अपनी इन बातों से बाज़ न आए तो इनमें से जिस-जिसने कुफ़्र किया उसको दर्दनाक सज़ा दी जाएगी।
أَفَلَا يَتُوبُونَ إِلَى ٱللَّهِ وَيَسۡتَغۡفِرُونَهُۥۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 71
(74) फिर क्या ये अल्लाह से तौबा नहीं करेंगे और उससे माफ़ी न माँगेंगे? अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
مَّا ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُ وَأُمُّهُۥ صِدِّيقَةٞۖ كَانَا يَأۡكُلَانِ ٱلطَّعَامَۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ ٱنظُرۡ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 72
(75) मरयम का बेटा मसीह इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल था, उससे पहले और भी बहुत-से रसूल हो चुके थे, उसकी माँ एक सत्यवती औरत थी, और ये दोनों खाना खाते थे। देखो हम किस तरह उनके सामने यथार्थ की निशानियाँ स्पष्ट करते हैं, फिर देखो ये किधर उलटे फिरे जाते है।44
44. इन थोड़े शब्दों में ईसाइयों की मसीह सम्बन्धी ईश्वरत्व की धारणा का ऐसा स्पष्ट खण्डन किया गया है कि इससे ज़्यादा स्पष्टता संभव नहीं है। मसीह के बारे में अगर कोई यह मालूम करना चाहे कि वास्तव में वह क्या था तो इन लक्षणों से बिलकुल असंदिग्ध रूप में मालूम कर सकता है कि वह सिर्फ़ एक इनसान था। ज़ाहिर है कि जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, जिसकी वंशावली तक मौजूद है, जो इनसानी जिस्म रखता था, जो उन सभी सीमाओं से सीमित और उन सभी रुकावटों से घिरा हुआ और वे सभी विशेषताएँ रखता था जो इनसान के लिए ख़ास है, जो सोता था, खाता था, गरमी और सर्दी महसूस करता था, यहाँ तक कि जिसे ईसाइयों के अपने कथानुसार शैतान के ज़रिए आज़माइश में भी डाला गया, उसके सम्बन्ध में कौन बुद्धिमान व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि वह ख़ुद ईश्वर है या ईश्वरत्व में ईश्वर का साझीदार और शरीक है।
قُلۡ أَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗاۚ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 73
(76) इनसे कहो, क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उसकी इबादत करते हो जो न तुम्हारे नुक़सान का अधिकार रखता है न नफ़े का? हालाँकि सबकी सुनने और सब कुछ जाननेवाला तो अल्लाह ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوٓاْ أَهۡوَآءَ قَوۡمٖ قَدۡ ضَلُّواْ مِن قَبۡلُ وَأَضَلُّواْ كَثِيرٗا وَضَلُّواْ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 74
(77) कहो, “ऐ किताबवालो, अपने धर्म में नाहक़ सीमा से आगे न बढ़ो और उन लोगों की कल्पनाओं और विचारों का अनुसरण न करो जो तुमसे पहले ख़ुद गुमराह हुए और बहुतों को गुमराह किया और सीधे समतल मार्ग से भटक गए।"
لُعِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ لِسَانِ دَاوُۥدَ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 75
(78) इसराईल की सन्तान में से जिन लोगों ने इनकार की नीति अपनाई उनपर दाऊद और मरयम के बेटे ईसा की ज़बान से लानत की गई क्योंकि वे सरकश व उद्दंड हो गए थे और ज़्यादतियाँ करने लगे थे,
كَانُواْ لَا يَتَنَاهَوۡنَ عَن مُّنكَرٖ فَعَلُوهُۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 76
(79) उन्होंने एक दूसरे को बुरे कर्मों के करने से रोकना छोड़ दिया था45, बुरी कार्य-प्रणाली थी जो उन्होंने अपनाई।
45. हर क़ौम का बिगाड़ आरंभ में कुछ थोड़े लोगों से शुरू होता है। अगर क़ौम की सामूहिक चेतना ज़िन्दा होती है तो जनमत उन बिगड़े हुए व्यक्तियों को दबाए रखता है और क़ौम सामूहिक रूप से बिगड़ने नहीं पाती। लेकिन अगर क़ौम उन व्यक्तियों के मामले में असावधानी से काम लेना शुरू कर देती है और भ्रष्ट लोगों को बुरा-भला कहने के बदले उन्हें समाज में बुराई के लिए आज़ाद छोड़ देती हैं, तो फिर धीरे-धीरे वही ख़राबी जो पहले कुछ थोड़े व्यक्तियों हो तक सीमित थी, पूरी क़ौम में फैलकर रहती है। यही चीज़़ थी जो आख़िरकार इसराईलियों के बिगाड़ का कारण सिद्ध हुई।
تَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يَتَوَلَّوۡنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ لَبِئۡسَ مَا قَدَّمَتۡ لَهُمۡ أَنفُسُهُمۡ أَن سَخِطَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَفِي ٱلۡعَذَابِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 77
(80) आज तुम उनमें बहुतेरे ऐसे लोग देखते हो जो (ईमानवालों के मुक़ाबले में) अधर्मियों का साथ देते और उनसे मित्रता का सम्बन्ध जोड़ते है। यक़ीनन बहुत बुरा अंजाम है जिसकी तैयारी उनके जी (नफ़्सों) ने उनके लिए की है, अल्लाह उनपर क्रुद्ध हो गया है और वे हमेशा के अज़ाब में पड़नेवाले हैं।
وَلَوۡ كَانُواْ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلنَّبِيِّ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَا ٱتَّخَذُوهُمۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 78
(81) अगर वास्तव में ये लोग अल्लाह और पैग़म्बर और उस चीज़़ के माननेवाले होते जो पैग़म्बर पर उतरी थी तो कभी (ईमानवालों के मुक़ाबले में) अधर्मियों को अपना साथी न बनाते। मगर उनमें से तो बहुत-से लोग अल्लाह के आज्ञापालन से निकल चुके हैं।
۞لَتَجِدَنَّ أَشَدَّ ٱلنَّاسِ عَدَٰوَةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۖ وَلَتَجِدَنَّ أَقۡرَبَهُم مَّوَدَّةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّ مِنۡهُمۡ قِسِّيسِينَ وَرُهۡبَانٗا وَأَنَّهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 79
(82) तुम ईमानवालों की दुश्मनी में सबसे ज़्यादा सख़्त यहूदियों और मुशरिकों (बहुदेववादियों) को पाओगे, और ईमान लानेवालों के लिए दोस्ती में सबसे क़रीब उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा था कि हम 'नसारा' हैं। यह इस कारण कि उनमें इबादत करनेवाले आलिम और दुनिया छोड़नेवाले साधु व फ़क़ीर पाए जाते हैं और उनमें अहंकार नहीं है।
وَإِذَا سَمِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَى ٱلرَّسُولِ تَرَىٰٓ أَعۡيُنَهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ مِمَّا عَرَفُواْ مِنَ ٱلۡحَقِّۖ يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 80
(83) जब वे इस वाणी को सुनते हैं जो रसूल पर उतरी है तो तुम देखते हो कि सत्य की पहचान के प्रभाव से उनकी आँखें आँसुओं से भीग जाती हैं। वे बोल उठते हैं कि “पालनहार, हम ईमान लाए, हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।”
وَمَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡحَقِّ وَنَطۡمَعُ أَن يُدۡخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 81
(84) और वे कहते हैं कि “आख़िर क्यों न हम अल्लाह पर ईमान लाएँ और जो सत्य हमारे पास आया है उसे क्यों न मान लें जबकि हम इस बात की इच्छा रखते हैं कि हमारा रब हमें अच्छे भले लोगों में शामिल करे?”
فَأَثَٰبَهُمُ ٱللَّهُ بِمَا قَالُواْ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 82
(85) उनके यह कहने के कारण अल्लाह ने उनको ऐसे बाग़ प्रदान किए जिनके नीचे नहरें बहती हैं और वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह बदला है अच्छी नीति अपनानेवालों के लिए,
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 83
(86) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को मानने से इनकार किया और उन्हें झुठलाया, तो वे जहन्नम के अधिकारी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحَرِّمُواْ طَيِّبَٰتِ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 84
(87) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो पाक चीज़़ें अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल (वैध) की हैं उन्हें हराम (अवैध) न कर लो46 और सीमा का उल्लंघन न करो, अल्लाह को ज़्यादती करनेवाले सख़्त नापसंद हैं।
46. इस आयत में दो बातें कही गई हैं—एक यह कि ख़ुद हलाल और हराम में स्वतंत्र न बन जाओ। हलाल वही है जो अल्लाह ने हलाल किया है और हराम वही है जो अल्लाह ने हराम किया। अपने आप किसी हलाल को हराम घोषित करोगे तो ईश्वरीय क़ानून की जगह अपने मन के क़ानून के अनुयायी ठहरोगे। दूसरी बात यह कि ईसाई राहिबों (संन्यासियों), हिन्दू योगियों, बौद्ध धर्म के भिक्षुओं और पूरबी सूफ़ियों की तरह संन्यास और लज़्ज़तों को छोड़ देने का तरीक़ा न अपनाओ।
وَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 85
(88) जो कुछ हलाल और अच्छी रोज़ी अल्लाह ने तुम्हें दी है उसे खाओ-पियो और उस अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते रहो, जिसपर तुम ईमान लाए हो।
لَا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا عَقَّدتُّمُ ٱلۡأَيۡمَٰنَۖ فَكَفَّٰرَتُهُۥٓ إِطۡعَامُ عَشَرَةِ مَسَٰكِينَ مِنۡ أَوۡسَطِ مَا تُطۡعِمُونَ أَهۡلِيكُمۡ أَوۡ كِسۡوَتُهُمۡ أَوۡ تَحۡرِيرُ رَقَبَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖۚ ذَٰلِكَ كَفَّٰرَةُ أَيۡمَٰنِكُمۡ إِذَا حَلَفۡتُمۡۚ وَٱحۡفَظُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 86
(89) तुम लोग जो निरर्थक क़समें खा लेते हो उनपर अल्लाह नहीं पकड़ता, मगर जो क़समें तुम जान-बूझकर खाते हो उनपर वह ज़रूर तुम्हें पकड़ेगा। (ऐसी क़सम तोड़ने का) कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) यह है कि दस मुहताजों को औसत दर्जे का वह खाना खिलाओ जो खाना तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो, या उन्हें कपड़े पहनाओ, या एक ग़ुलाम को आज़ाद करो, और जिसे इसकी सामर्थ्य न हो वह तीन दिन के रोज़े रखे यह तुम्हारी क़समों का कफ़्फ़ारा है जबकि तुम क़सम खाकर तोड़ दो। अपनी क़समों की रक्षा किया करो। इस तरह अल्लाह अपने आदेश तुम्हारे लिए स्पष्ट करता है शायद कि तुम कृतज्ञता दिखाओ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡخَمۡرُ وَٱلۡمَيۡسِرُ وَٱلۡأَنصَابُ وَٱلۡأَزۡلَٰمُ رِجۡسٞ مِّنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَٱجۡتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 87
(90) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ये शराब और जुआ और ये देव-स्थान और पाँसे, वे सब गन्दे शैतानी काम हैं, इनसे बचो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।47
47. शराब के हराम होने के सिलसिले में इससे पहले दो हुक्म आ चुके थे, जो सूरा 2 (बक़रा) आयत 219 और सूरा 4 (निसा) आयत 43 में गुज़र चुके हैं। अब इस आख़िरी हुक्म आने से पहले नबी (सल्ल०) ने एक भाषण में लोगों को सावधान कर दिया कि अल्लाह को शराब बहुत ही नापसन्द है, बहुत संभव है कि उसके बिलकुल हराम होने का आदेश आ जाए, अतः जिन-जिन लोगों के पास शराब मौजूद हो वे उसे बेच दें। इसके कुछ समय के बाद यह आयत उतरी और आपने एलान कराया कि अब जिनके पास शराब है वे न उसे पी सकते हैं, न बेच सकते हैं, बल्कि वे उसे नष्ट कर दें। अतएव उसी समय मदीना की गलियों में शराब बहा दी गई।
إِنَّمَا يُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُوقِعَ بَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ فِي ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِ وَيَصُدَّكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَعَنِ ٱلصَّلَوٰةِۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّنتَهُونَ ۝ 88
(91) शैतान तो वह चाहता है कि शराब और जुए के द्वारा तुम्हारे बीच दुश्मनी और नफ़रत व द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद से और नमाज़ से रोक दे। फिर क्या तुम इन चीज़़ों से बाज़ रहोगे?
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَٱحۡذَرُواْۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 89
(92) अल्लाह और उसके रसूल की बात मानो और बाज़ आ जाओ, लेकिन अगर तुम ने अवहेलना की तो जान लो कि हमारे रसूल पर बस साफ़-साफ़ आदेश पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी।
لَيۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ إِذَا مَا ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّأَحۡسَنُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 90
(93) जो लोग ईमान ले आए और अच्छे काम करने लगे उन्होंने पहले जो कुछ खाया-पिया था उसपर कोई पकड़ न होगी शर्त यह है कि वे आगे उन चीज़़ों से बचे रहें जो हराम ठहराई गई हैं और ईमान पर जमे रहें और अच्छे काम करें, फिर जिस-जिस चीज़़ से रोका जाए उससे रुकें और जो ईश्वरीय आदेश हो उसे मानें, फिर अल्लाह से डरते हुए अच्छी नीति अपनाएँ। अल्लाह अच्छे चरित्रवालों को पसन्द करता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَيَبۡلُوَنَّكُمُ ٱللَّهُ بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلصَّيۡدِ تَنَالُهُۥٓ أَيۡدِيكُمۡ وَرِمَاحُكُمۡ لِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَخَافُهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 91
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह तुम्हें उस शिकार के द्वारा कड़ी परीक्षा में डालेगा जो बिलकुल तुम्हारे हाथों और भालों की पहुँच में होगा, यह देखने के लिए कि तुममें कौन उससे बिन देखे डरता है, फिर जिसने इस चेतावनी के बाद अल्लाह की निश्चित की हुई सीमाओं का उल्लंघन किया उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡتُلُواْ ٱلصَّيۡدَ وَأَنتُمۡ حُرُمٞۚ وَمَن قَتَلَهُۥ مِنكُم مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآءٞ مِّثۡلُ مَا قَتَلَ مِنَ ٱلنَّعَمِ يَحۡكُمُ بِهِۦ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ هَدۡيَۢا بَٰلِغَ ٱلۡكَعۡبَةِ أَوۡ كَفَّٰرَةٞ طَعَامُ مَسَٰكِينَ أَوۡ عَدۡلُ ذَٰلِكَ صِيَامٗا لِّيَذُوقَ وَبَالَ أَمۡرِهِۦۗ عَفَا ٱللَّهُ عَمَّا سَلَفَۚ وَمَنۡ عَادَ فَيَنتَقِمُ ٱللَّهُ مِنۡهُۚ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 92
(95) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, 'इहराम' की हालत में शिकार न मारो48, अगर तुममें से कोई जान-बूझकर ऐसा कर जाए तो जो जानवर उसने मारा हो उसी जैसा एक जानवर उसे चौपायों में से भेंट करना होगा जिसका फ़ैसला तुममें से दो इनसाफ़ करनेवाले आदमी करेंगे, और यह भेंट काबा पहुँचायी जाएगी, या नहीं तो इस गुनाह के कफ़्फ़ारे में कुछ मुहताजों को खाना खिलाना होगा या उसके बराबर रोज़े रखने होंगे, ताकि वह अपने किए का मज़ा चखे। पहले जो हो चुका उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, लेकिन अब अगर किसी ने ऐसा फिर किया तो उससे अल्लाह बदला लेगा, अल्लाह प्रभुत्वशाली और बदला लेने की सामर्थ्य रखता है।
48. शिकार चाहे आदमी ख़ुद करे, या किसी दूसरे को शिकार में किसी रूप में मदद दे, दोनों बातें 'इहराम' की हालत में मना हैं, इसके अलावा अगर इहराम बाँधनेवाले के लिए शिकार मारा गया हो तब भी उसका खाना इहराम बाँधनेवाले व्यक्ति के लिए जाइज़ नहीं है। हाँ, अगर किसी व्यक्ति ने अपने लिए ख़ुद शिकार किया हो और फिर वह उसमें से इहराम बाँधे हुए व्यक्ति को भी भेंट के रूप में कुछ दे दे तो उसके खाने में कोई हरज नहीं। इस सामान्य आदेश से हिंसक जानवर का मामला अलग है। साँप, बिच्छू, पागल कुत्ता और ऐसे दूसरे जानवर जो इनसान को नुक़सान पहुँचानेवाले हैं, इहराम की हालत में मारे जा सकते हैं।
أُحِلَّ لَكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَحۡرِ وَطَعَامُهُۥ مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِلسَّيَّارَةِۖ وَحُرِّمَ عَلَيۡكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَرِّ مَا دُمۡتُمۡ حُرُمٗاۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 93
(96) तुम्हारे लिए समुद्र का शिकार और उसका खाना हलाल कर दिया गया, जहाँ तुम ठहरो वहाँ भी उसे खा सकते हो और क़ाफ़िले के लिए राह-ख़र्च भी बना सकते हो। अलबत्ता स्थल का शिकार, जब तक तुम 'इहराम' की हालत में हो, तुमपर हराम किया गया है। अतः बचो उस अल्लाह की नाफ़रमानी से जिसके सामने तुम सबको घेरकर हाज़िर किया जाएगा।
۞جَعَلَ ٱللَّهُ ٱلۡكَعۡبَةَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ قِيَٰمٗا لِّلنَّاسِ وَٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَٱلۡهَدۡيَ وَٱلۡقَلَٰٓئِدَۚ ذَٰلِكَ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَأَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 94
(97) अल्लाह ने आदरणीय घर, काबा को लोगों के लिए (सामूहिक जीवन की) स्थापना का साधन बनाया और आदरणीय महीनों और कुरबानी के जानवरों और क़लादों (वे चीज़़ें जो जानवरों की गर्दन में लटकाई जाती है) को भी (इस कार्य में सहायक बना दिया) ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह आसमानों और ज़मीन के सब हाल को जानता है और उसे हर चीज़़ का ज्ञान है।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ وَأَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 95
(98) सावधान हो जाओ! अल्लाह सज़ा देने में भी कठोर है और इसके साथ बहुत क्षमाशील और दयावान भी है
مَّا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 96
(99) रसूल की ज़िम्मेदारी तो सिर्फ़ सन्देश पहुँचा देने की है, आगे तुम्हारी खुली और छिपी हालतों का जाननेवाला अल्लाह है।
قُل لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡخَبِيثُ وَٱلطَّيِّبُ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ كَثۡرَةُ ٱلۡخَبِيثِۚ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 97
(100) ऐ पैग़म्बर इनसे कह दो कि पाक और नापाक किसी हाल में समान नहीं हैं चाहे नापाक की बहुतायत तुम्हें कितनी ही रिझानेवाली हो,49 अतः ऐ लोगो जो बुद्धिमान हो, अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते रहो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।
49. यह आयत मूल्याँकन और महत्त्व का एक दूसरा ही आदर्श पेश करती है जो बाह्यदर्शी इनसान के आदर्श और मानदंड से बिलकुल भिन्न है। बाह्यदर्शी व्यक्ति की नज़र में सौ रुपये पाँच रुपये की अपेक्षा अनिवार्यतः अधिक क़ीमती हैं क्योंकि वे सौ है और ये पाँच। लेकिन यह आयत कहती है कि सौ रुपये अगर अल्लाह की नाफ़रमानी करके प्राप्त किए गए हों तो वे नापाक हैं, और पाँच रुपये अगर अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करते हुए कमाए गए हों तो वे पाक हैं, और नापाक चाहे मात्रा में कितना ही ज़्यादा हो, किसी हाल में भी वह पाक के बराबर किसी तरह नहीं हो सकता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَسۡـَٔلُواْ عَنۡ أَشۡيَآءَ إِن تُبۡدَ لَكُمۡ تَسُؤۡكُمۡ وَإِن تَسۡـَٔلُواْ عَنۡهَا حِينَ يُنَزَّلُ ٱلۡقُرۡءَانُ تُبۡدَ لَكُمۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهَاۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 98
(101) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ऐसी बातें न पूछा करो जो तुमपर खोल दी जाएँ तो तुम्हें नागवार लगे,50 लेकिन अगर तुम उन्हें ऐसे समय पूछोगे जबकि क़ुरआन अवतरित हो रहा हो तो वे तुमपर खोल दी जाएँगी। अब तक जो कुछ तुमने किया उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, वह माफ़ करनेवाला और सहनशील है।
50. नबी (सल्ल०) से कुछ लोग अजीब-अजीब ढंग से बेकार सवाल किया करते थे जिनकी न धर्म के किसी मामले में ज़रूरत होती थी और न दुनिया ही के किसी मामले में, इसपर यह चेतावनी दी गई है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَيۡكُمۡ أَنفُسَكُمۡۖ لَا يَضُرُّكُم مَّن ضَلَّ إِذَا ٱهۡتَدَيۡتُمۡۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 99
(105) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपनी चिन्ता करो, किसी दूसरे की गुमराही से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता यदि तुम ख़ुद सीधे मार्ग52 पर हो, अल्लाह की ओर तुम सबको पलटकर जाना है फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
52. अर्थात् इसके बजाय कि मनुष्य हर समय यह देखता रहे कि अमुक व्यक्ति क्या कर रहा है और अमुक व्यक्ति की धारणा में क्या ख़राबी है और अमुक व्यक्ति के कर्मों में क्या बुराई है, उसे यह देखना चाहिए कि वह ख़ुद क्या कर रहा है। लेकिन इस आयत का मंशा यह हरगिज़ नहीं है कि आदमी बस अपनी मुक्ति की चिन्ता को, दूसरों के सुधार की चिन्ता न करे। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) इस ग़लतफहमी को दूर करते हुए अपने एक भाषण में कहते हैं: “लोगो, तुम इस आयत को पढ़ते हो, और इसका ग़लत अर्थ निकालते हो। मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह कहते सुना है कि जब लोगों का हाल यह हो जाए कि वे बुराई को देखें और उसे बदलने की कोशिश न करें, ज़ालिम को ज़ुल्म करते हुए पाएँ और उसका हाथ न पकड़ें, तो बहुत संभव है कि अल्लाह अपने अज़ाब में सबको लपेट ले। अल्लाह की क़सम, तुम्हारे लिए अनिवार्य है कि भलाई का हुक्म दो और बुराई से रोको, वरना अल्लाह तुमपर ऐसे लोगों को थोप देगा जो तुममें सबसे बुरे होंगे और वे तुम्हें बड़ी तकलीफ़ें पहुँचाएँगे फिर तुम्हारे नेक लोग अल्लाह से दुआएँ माँगेंगे मगर वे क़ुबूल न होंगी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيۡنِكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ حِينَ ٱلۡوَصِيَّةِ ٱثۡنَانِ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ أَوۡ ءَاخَرَانِ مِنۡ غَيۡرِكُمۡ إِنۡ أَنتُمۡ ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةُ ٱلۡمَوۡتِۚ تَحۡبِسُونَهُمَا مِنۢ بَعۡدِ ٱلصَّلَوٰةِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ لَا نَشۡتَرِي بِهِۦ ثَمَنٗا وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰ وَلَا نَكۡتُمُ شَهَٰدَةَ ٱللَّهِ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡأٓثِمِينَ ۝ 100
(106) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुममें से किसी की मौत का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो इसके लिए गवाही की प्रक्रिया यह है कि तुम्हारे गिरोह में से दो न्यायप्रिय” आदमी गवाह बनाए जाएँ, या अगर तुम सफ़र की हालत में हो और वहाँ मौत की मुसीबत आ जाए तो ग़ैर लोगों ही में से दो गवाह ले लिए जाएँ। फिर अगर कोई सन्देह उत्पन हो जाए तो नमाज़ के बाद दोनों गवाहों को (मसजिद में) रोक लिया जाए और वे अल्लाह की क़सम खाकर कहें कि “हम किसी व्यक्तिगत लाभ के बदले गवाही बेचनेवाले नहीं हैं, और चाहे कोई हमारा नातेदार ही क्यों न हो (हम उसकी रिआयत करनेवाले नहीं), और न अल्लाह के वास्ते ही गवाही को हम छिपानेवाले हैं, अगर हमने ऐसा किया तो गुनाहगारों में हमारी गिनती होगी।"
53. अर्थात धार्मिक, सत्यप्रिय और भरोसे के लायक़ मुसलमान।
فَإِنۡ عُثِرَ عَلَىٰٓ أَنَّهُمَا ٱسۡتَحَقَّآ إِثۡمٗا فَـَٔاخَرَانِ يَقُومَانِ مَقَامَهُمَا مِنَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَوۡلَيَٰنِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ لَشَهَٰدَتُنَآ أَحَقُّ مِن شَهَٰدَتِهِمَا وَمَا ٱعۡتَدَيۡنَآ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 101
(107) लेकिन अगर पता चल जाए कि उन दोनों ने अपने आपको गुनाह में डाल लिया है तो फिर उनकी जगह दो और व्यक्ति जो उनकी अपेक्षा गवाही देने के ज़्यादा योग्य हों उन लोगों में से खड़े हों जिनका हक़ मारा गया हो, और वे अल्लाह की क़सम खाकर कहें कि “हमारी गवाही उनकी गवाही से ज़्यादा ठीक है और हमने अपनी गवाही में कोई ज़्यादती नहीं की है, अगर हम ऐसा करें तो ज़ालिमों में से होंगे।"
ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِٱلشَّهَٰدَةِ عَلَىٰ وَجۡهِهَآ أَوۡ يَخَافُوٓاْ أَن تُرَدَّ أَيۡمَٰنُۢ بَعۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡمَعُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 102
(108) इस तरीक़े से ज़्यादा उम्मीद रहती है कि लोग ठीक-ठीक गवाही देंगे, या कम से कम इस बात से डरेंगे कि उनकी क़समों के बाद दूसरी क़समों से कहीं उनका खण्डन न हो जाए। अल्लाह से डरो और सुनो, अल्लाह नाफ़रमानी करनेवालों को अपनी रहनुमाई से वंचित कर देता है।
۞يَوۡمَ يَجۡمَعُ ٱللَّهُ ٱلرُّسُلَ فَيَقُولُ مَاذَآ أُجِبۡتُمۡۖ قَالُواْ لَا عِلۡمَ لَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 103
(109) जिस दिन अल्लाह सब रसूलों को इकट्ठा करके पूछेगा कि तुम्हें क्या जवाब54 दिया गया, तो वे कहेंगे कि हमें कुछ ज्ञान नहीं, आप ही सब छिपी हक़ीक़तों को जानते हैं।
54. अर्थात् क़ियामत के दिन रसूलों से पूछा जाएगा कि इस्लाम की ओर जो दावत (आह्वान) तुमने दुनिया को दी थी उसका क्या जवाब दुनिया ने तुम्हें दिया?
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱذۡكُرۡ نِعۡمَتِي عَلَيۡكَ وَعَلَىٰ وَٰلِدَتِكَ إِذۡ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِ تُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗاۖ وَإِذۡ عَلَّمۡتُكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَۖ وَإِذۡ تَخۡلُقُ مِنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ بِإِذۡنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِيۖ وَتُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ تُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ كَفَفۡتُ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَنكَ إِذۡ جِئۡتَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 104
(110 ) फिर कल्पना करो उस अवसर की जब अल्लाह कहेगा कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा, याद कर मेरी उस नेमत को जो मैंने तुझे और तेरी माँ को प्रदान की थी। मैंने पवित्र आत्मा से तेरी सहायता की, तू पालने में भी लोगों से बातचीत करता था और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी, मैंने तुझको किताब और गहरी समझ और तौरात और इंजील की तालीम दी, तू मेरी अनुमति से मिट्टी का पुतला पक्षी के रूप का बनाता और उसमें फूँकता था और वह मेरी अनुमति से पक्षी बन जाता था, तू पैदाइशी अंधे और कोढ़ी को मेरी अनुमति से अच्छा करता था, तू मुर्दों को मेरी अनुमति से निकालता था”55 फिर जब तू बनी-इसराईल के पास खुली निशानियों लेकर पहुँचा और जिन लोगों को सत्य से इनकार था उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादूगरी के सिवा और कुछ नहीं हैं तो मैंने ही तुझे उनसे बचाया,
55. अर्थात् मौत की हालत से निकालकर जीवन की स्थिति में लाता था।
وَإِذۡ أَوۡحَيۡتُ إِلَى ٱلۡحَوَارِيِّـۧنَ أَنۡ ءَامِنُواْ بِي وَبِرَسُولِي قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّنَا مُسۡلِمُونَ ۝ 105
(111) और जब मैंने 'हवारियों' (मसीह के साथवालों) को इशारा किया कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ तब उन्होंने कहा कि “हम ईमान लाए और गवाह रहो कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं”—
إِذۡ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ هَلۡ يَسۡتَطِيعُ رَبُّكَ أَن يُنَزِّلَ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِۖ قَالَ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 106
(112) (हवारियों56 के सम्बन्ध में) यह घटना भी याद रहे कि जब हवारियों ने कहा, “ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने से भरा थाल उतार सकता है?” तो ईसा ने कहा, “अल्लाह से डरो अगर तुम ईमानवाले हो।”
56. चूँकि हवारियों की बात आ गई थी इसलिए वार्ताक्रम को तोड़कर सन्निविष्ट वाक्य के रूप में यहाँ हवारियों ही के सम्बन्ध में एक और घटना की ओर इशारा कर दिया गया जिससे यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि मसीह से प्रत्यक्ष रूप से जिन शिष्यों ने शिक्षा पाई थी वे मसीह को एक इनसान और केवल एक बन्दा समझते थे और उनकी कल्पना में भी अपने गुरु के ईश्वर या ईश्वर का साझीदार या ईश्वर का पुत्र होने की धारणा न थी। इसके अलावा यह भी कि मसीह ने स्वयं भी अपने आपको उनके सामने एक अधिकारहीन और बेबस बन्दे की हैसियत से पेश किया था।
قَالُواْ نُرِيدُ أَن نَّأۡكُلَ مِنۡهَا وَتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُنَا وَنَعۡلَمَ أَن قَدۡ صَدَقۡتَنَا وَنَكُونَ عَلَيۡهَا مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 107
(113) उन्होंने कहा, “हम बस यह चाहते हैं कि उस थाल से खाना खाएँ और हमारे दिल सन्तुष्ट हों और हमें मालूम हो जाए कि आपने जो कुछ हमसे कहा है वह सच है और हम उसपर गवाह हों।”
قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ ٱللَّهُمَّ رَبَّنَآ أَنزِلۡ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ تَكُونُ لَنَا عِيدٗا لِّأَوَّلِنَا وَءَاخِرِنَا وَءَايَةٗ مِّنكَۖ وَٱرۡزُقۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 108
(114) इसपर मरयम के बेटे ईसा ने दुआ की, “ऐ अल्लाह, हमारे रब, हमपर आसमान से एक थाल उतार जो हमारे लिए और हमारे अगलों-पिछलों के लिए ख़ुशी का अवसर ठहरे और तेरी ओर से एक निशानी हो, हमें रोज़ी दे और तू बेहतरीन रोज़ी देनेवाला है।”
قَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مُنَزِّلُهَا عَلَيۡكُمۡۖ فَمَن يَكۡفُرۡ بَعۡدُ مِنكُمۡ فَإِنِّيٓ أُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا لَّآ أُعَذِّبُهُۥٓ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 109
(115) अल्लाह ने जवाब दिया, “मैं उसको तुमपर उतारनेवाला हूँ, मगर इसके बाद जो तुममें इनकार की नीति अपनाएगा उसे मैं ऐसी सज़ा दूँगा जो मैंने किसी को न दी होगी।”
وَإِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ءَأَنتَ قُلۡتَ لِلنَّاسِ ٱتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيۡنِ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أَقُولَ مَا لَيۡسَ لِي بِحَقٍّۚ إِن كُنتُ قُلۡتُهُۥ فَقَدۡ عَلِمۡتَهُۥۚ تَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِي وَلَآ أَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِكَۚ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 110
(116) — सारांश यह कि जब (यह एहसान याद दिलाकर) अल्लाह कहेगा कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या तूने लोगों से कहा था कि अल्लाह के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी ईश्वर बना लो?”57 तो वह जवाब में कहेगा कि “पाक है अल्लाह, मेरा यह काम न था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे अधिकार न था, अगर मैंने ऐसी बात कही होती तो आपको ज़रूर मालूम होता, आप जानते है जो कुछ मेरे दिल में है और मैं नहीं जानता जो कुछ आपके दिल में है, आप तो सारी छिपी हक़ीक़तों के ज्ञाता हैं।
57. ईसाइयों ने अल्लाह के साथ सिर्फ़ मसीह और पवित्र आत्मा ही को ईश्वर बनाने पर बस नहीं किया, बल्कि मसीह की माँ हज़रत मरयम को भी स्थायी रूप से एक माबूद बना डाला। मसीह के बाद आरंभिक तीन सौ वर्ष तक ईसाई जगत् इस धारणा एवं विचार से बिलकुल अनभिज्ञ था। ईसा की तीसरी शताब्दी के अन्तिम चरण में अलेक्जेंड्रिया के कुछ आध्यात्मिक विद्वानों ने पहली बार हज़रत मरयम के लिए “उम्मुल्लाह” या “मादरे-ख़ुदा (ईश-माता)” के शब्द इस्तेमाल किए और इसके बाद धीरे-धीरे मरयम की पूजा चर्च में फैलती चली गई।
مَا قُلۡتُ لَهُمۡ إِلَّا مَآ أَمَرۡتَنِي بِهِۦٓ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۚ وَكُنتُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا مَّا دُمۡتُ فِيهِمۡۖ فَلَمَّا تَوَفَّيۡتَنِي كُنتَ أَنتَ ٱلرَّقِيبَ عَلَيۡهِمۡۚ وَأَنتَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 111
(117) मैने उनसे उसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने आदेश दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी मैं उसी समय तक उनका निगराँ था जब तक मैं उनके बीच था। जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर निगराँ थे और आप तो सारी ही चीज़़ों पर निगराँ है।
إِن تُعَذِّبۡهُمۡ فَإِنَّهُمۡ عِبَادُكَۖ وَإِن تَغۡفِرۡ لَهُمۡ فَإِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 112
(118) अब अगर आप उन्हें सज़ा दें तो वे आपके बन्दे हैं और अगर माफ़ कर दें तो आप प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी हैं।”
قَالَ ٱللَّهُ هَٰذَا يَوۡمُ يَنفَعُ ٱلصَّٰدِقِينَ صِدۡقُهُمۡۚ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 113
(119) तब अल्लाह कहेगा, “यह वह दिन है जिसमें सच्चों को उनकी सच्चाई फ़ायदा पहुँचाती है, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, यहाँ वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से, यही बड़ी सफलता है।
لِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا فِيهِنَّۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرُۢ ۝ 114
(120) ज़मीन और आसमानों और जो कुछ उनमें है सबकी बादशाही अल्लाह ही के लिए है। और वह हर चीज़़ की क़ुदरत रखता है।
وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا نَكَٰلٗا مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 115
(38) और चोर, चाहे औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो।30 यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद सज़ा। अल्लाह की सामर्थ्य सबपर प्रभावी है और वह जानता और देखता है।
30. दोनों हाथ नहीं बल्कि एक हाथ। पहली चोरी पर सीधा हाथ काटा जाएगा। चोरी केवल इस कर्म को कहेंगे कि आदमी किसी के माल को उसकी रक्षा से निकालकर अपने अधिकार में ले ले। एक ढाल के मूल्य से कम से कम की चोरी में हाथ न काटा जाएगा। और विश्वस्त रिवायतों के अनुसार नबी (सल्ल०) के समय में ढाल का मूल्य दस दिरहम होता था और उस समय के दिरहम में 3 माशा 1 ½ रत्ती चाँदी हुआ करती थी। बहुत-सी चीज़़ें ऐसी हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सज़ा न दी जाएगी। जैसे फल और तरकारी की चोरी, खाने की चोरी, तुच्छ चीज़़ों की चोरी, पक्षी की चोरी, बैतुलमाल (इस्लामी कोषागार) की चोरी। मतलब यह है कि इस प्रकार की चोरियों में हाथ न काटा जाएगा। यह मतलब नहीं है कि ये सब चोरियाँ क्षम्य (माफ़) हैं।
فَمَن تَابَ مِنۢ بَعۡدِ ظُلۡمِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَتُوبُ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 116
(39) फिर जो ज़ुल्म करने के बाद तौबा करे और अपने को सुधार ले तो अल्लाह की कृपा-दृष्टि फिर उसकी ओर लौट जाएगी31, अल्लाह बहुत क्षमाशील और दयावान है।
31. इसका मतलब यह नहीं कि ऐसे चोर का हाथ न काटा जाए। बल्कि मतलब यह है कि हाथ कटने के बाद जो व्यक्ति तौबा कर ले और अपने मन को चोरी से मुक्त करके अल्लाह का अच्छा बन्दा बन जाए वह अल्लाह के ग़ज़ब से बच जाएगा। और अल्लाह उसके दामन से इस दाग़ को धो देगा। लेकिन अगर किसी व्यक्ति ने हाथ कटवाने के बाद भी अपने आपको बुरे इरादे से पाक न किया और वही गन्दी भावनाएँ अपने भीतर पालता रहे जिनके कारण उसने चोरी की और उसका हाथ काटा गया, तो इसका अर्थ यह है कि हाथ तो उसके शरीर से अलग हो गया मगर चोरी उसके मन में पहले की तरह मौजूद रही। इसलिए वह अल्लाह के ग़ज़ब का अधिकारी उसी तरह रहेगा जिस तरह हाथ कटने से पहले था। इसी लिए क़ुरआन मजीद चोर को आदेश देता है कि वह अल्लाह से माफ़ी माँगे और अपने आपको सुधारे क्योंकि मन की पाकी अदालती सज़ा से नहीं, सिर्फ़ तौबा और अल्लाह की ओर पलटने से प्राप्त होती है।
قَدۡ سَأَلَهَا قَوۡمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡ ثُمَّ أَصۡبَحُواْ بِهَا كَٰفِرِينَ ۝ 117
(102) तुमसे पहले एक गिरोह ने इसी प्रकार के सवाल किए थे फिर वे लोग उन्हीं बातों के कारण अधर्म में जा पड़े।
مَا جَعَلَ ٱللَّهُ مِنۢ بَحِيرَةٖ وَلَا سَآئِبَةٖ وَلَا وَصِيلَةٖ وَلَا حَامٖ وَلَٰكِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَأَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 118
(103) अल्लाह ने न कोई 'बहीरा' ठहराया है न 'साइबा' और न 'वसीला' और न 'हाम'।51 मगर ये अधर्मी अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं और उनमें से बहुतेरे बुद्धिहीन है (कि ऐसे अंधविश्वास में पड़े है)।
51. यह अरबवासियों के अन्धविश्वासों का उल्लेख है। 'बहीरा' उस ऊँटनी को कहते थे जो पाँच बार बच्चा दे चुकी हो और आख़िरी बार उसके यहाँ नर बच्चा हुआ हो। अज्ञान-काल में अरब के लोग उसका कान चीरकर उसे आज़ाद छोड़ देते थे। फिर न कोई उसपर सवार होता, न उसका दूध पिया जाता, न उसका ऊन उतारा जाता। उसे अधिकार था कि वह जिस खेत और जिस चरागाह में चाहे चरे और जिस घाट से चाहे पानी पिए। 'साइबा' उस ऊँट या उस ऊँटनी को कहते थे जिसे किसी मन्नत के पूरे होने या किसी बीमारी से मुक्त होने या किसी ख़तरे से बच जाने पर कृतज्ञता प्रदर्शन के रूप में पुण्य कर दिया हो। इसके अलावा जिस ऊँटनी ने दस बार बच्चे दिए हों और हर बार मादा बच्चा ही दिया हो उसे भी आज़ाद छोड़ दिया जाता था। 'वसीला', अगर बकरी का पहला बच्चा नर होता तो वह देवी-देवताओं के नाम पर ज़बह कर दिया जाता, और अगर वह पहली बार मादा जनती तो उसे रख लिया जाता था, लेकिन अगर नर और मादा एक साथ पैदा होते तो नर को ज़बह न करके यों ही देवताओं के नाम पर छोड़ दिया जाता था और उसका नाम 'वसीला' था। 'हाम', अगर किसी ऊँट का पोता सवारी के योग्य हो जाता तो उस बूढ़े ऊँट को आज़ाद छोड़ दिया जाता था, और अगर किसी ऊँट के वीर्य से दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसे भी आज़ादी मिल जाती।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ قَالُواْ حَسۡبُنَا مَا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 119
(104) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस क़ानून की ओर जो अल्लाह ने उतारा है और आओ पैग़म्बर की ओर तो वे जवाब देते हैं कि हमारे लिए तो बस वही तरीक़ा काफ़ी है जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या ये बाप-दादा ही का अनुसरण किए चले जाएँगे चाहे वे कुछ न जानते हों और ठीक मार्ग का उन्हें पता ही न हो?