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سُورَةُ مُحَمَّدٍ

47. मुहम्मद

(मदीना में उतरी, आयतें 38)

परिचय

नाम

आयत 2 के वाक्यांश ‘व आमिनू बिमा नुज़्ज़ि-ल अला मुहम्मदिन' (उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें  मुहम्मद (सल्ल०) का शुभ नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक और मशहूर नाम क़िताल' (युद्ध) भी है जो आयत 20 के वाक्यांश ‘व जुकि-र फ़ीहल क़िताल' (जिसमें युद्ध का उल्लेख था) से लिया गया है।

इसकी विषय-वस्तुएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह हिजरत के बाद मदीना में उस समय उतरी थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था। इसका विस्तृत प्रमाण आगे टिप्पणी 8 में मिलेगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस कालखंड में यह सूरा उतरी है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज़्ज़मा में विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्य रूप से हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उनका जीना दूभर कर दिया गया था। मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तय्यिबा के शान्ति-गृह में इकट्ठा हो गए थे, मगर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर ओर से शत्रुओं के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे। मुसलमानों के लिए ऐसी स्थिति में दो ही रास्ते शेष बचे थे। या तो वे सत्य-धर्म की ओर बुलावे और उसके प्रचार-प्रसार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक से हाथ खींचकर अज्ञानता के आगे हथियार डाल दें। या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फ़ैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को। अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस का रास्ता दिखाया जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है। उसने पहले सूरा-22 हज (आयत 39) में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी, फिर सूरा-2 बक़रा (आयत 190) में इसका आदेश दे दिया। मगर उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है। मदीना में ईमानवालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह था, जो पूरे एक हज़ार सैनिक भी जुटा पाने की क्षमता न रखता था, और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए। फिर युद्ध के लिए जिन साधनों की जरूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल से वह जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बे-घर-बार के मुहाजिर (हिजरत करनेवाले) अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरबवालों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।

विषय और वार्ता

इसका विषय ईमानवालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सम्बन्ध में आरंभिक आदेश देना है। इसी पहलू से इसका नाम सूरा क़िताल (युद्ध) भी रखा गया है। इसमें क्रमश: नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :

आरंभ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के बीच मुक़ाबला आ पड़ा है। एक गिरोह [सत्य के इंकारियों और अल्लाह के दुश्मनों का है। दूसरा गिरोह सत्य के माननेवालों का है।] अब अल्लाह का दो-टूक फ़ैसला यह है कि पहले गिरोह की तमाम कोशिशों और क्रिया-कलापों को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं। इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया गया है। उनको अल्लाह की राह में क़ुर्बानियाँ करने पर बेहतरीन बदला पाने की आशा दिलाई गई है। फिर इस्लाम के शत्रुओं के बारे में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनकी कोई चाल ईमानवालों के मुक़ाबले में सफल न होगी और वे इस दुनिया में भी और आख़िरत (परलोक) में भी बहुत बुरा अंजाम देखेंगे। इसके बाद वार्ता का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की ओर फिर जाता है जो लड़ाई का हुक्म आने से पहले तो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, मगर यह हुक्म आ जाने के बाद अपनी कुशल-क्षेम की चिन्ता में इस्लाम विरोधियों से सांँठ-गाँठ करने लगे थे। उनको साफ़-साफ़ सचेत किया गया है कि अल्लाह और उसके दीन के मामले में निफ़ाक़ (कपट) अपनानेवालों का कोई कर्म भी अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्प संख्या और साधनहीनता और इस्लाम-विरोधियों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर साहस न छोड़ें, उनके आगे समझौते की पेशकश करके कमज़ोरी प्रकट न करें जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुक़ाबले में और अधिक बढ़ जाएँ। बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ़्र (अधर्म) के उस पहाड़ से टकरा जाएँ। अल्लाह मुसलमानों के साथ है। अन्त में मुसलमानों को अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने की दावत (आमंत्रण) दी गई है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी किन्तु सामने समस्या यह खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को ज़िन्दा रहना है या नहीं। इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा, वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल लेगा।

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سُورَةُ مُحَمَّدٍ
47. मुहम्मद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ أَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ
(1) जिन लोगों ने इनकार किया और अल्लाह के रास्ते से रोका, अल्लाह ने उनके कर्मों को अकारथ कर दिया।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَءَامَنُواْ بِمَا نُزِّلَ عَلَىٰ مُحَمَّدٖ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡ كَفَّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَأَصۡلَحَ بَالَهُمۡ ۝ 1
(2) और जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए और उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर अवतरित हुई है—और है वह सर्वथा सत्य उनके रब की ओर से—अल्लाह ने उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दीं और उनका हाल ठीक कर दिया।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡبَٰطِلَ وَأَنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡحَقَّ مِن رَّبِّهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ أَمۡثَٰلَهُمۡ ۝ 2
(3) यह इसलिए कि इनकार करनेवालों ने असत्य का अनुसरण किया और ईमान लानेवालों ने उस सत्य का अनुसरण किया जो उनके रब की ओर से आया है। इस तरह अल्लाह लोगों को उनकी ठीक-ठीक हैसियत बताए देता है।
فَإِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَضَرۡبَ ٱلرِّقَابِ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَثۡخَنتُمُوهُمۡ فَشُدُّواْ ٱلۡوَثَاقَ فَإِمَّا مَنَّۢا بَعۡدُ وَإِمَّا فِدَآءً حَتَّىٰ تَضَعَ ٱلۡحَرۡبُ أَوۡزَارَهَاۚ ذَٰلِكَۖ وَلَوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَٱنتَصَرَ مِنۡهُمۡ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَاْ بَعۡضَكُم بِبَعۡضٖۗ وَٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَلَن يُضِلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 3
(4) अतः जब इन काफ़िरों (इनकार करनेवालों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो, इसके बाद (तुम्हें अधिकार है) एहसान करो या अर्थदण्ड (फ़िदया) का मामला कर लो, यहाँ तक कि लड़ाई अपने हथियार डाल दे।1 यह है तुम्हारे करने का काम। अल्लाह चाहता तो ख़ुद ही उनसे निपट लेता, मगर (यह तरीक़ा उसने इसलिए अपनाया है) ताकि तुम लोगों को एक-दूसरे के द्वारा आज़माए।2 और जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाएँगे अल्लाह उनके कर्मों को हरगिज़ अकारथ न करेगा।
1. इस आयत के शब्दों से भी और जिस संदर्भ में यह आई है उससे भी यह बात साफ़ मालूम होती है कि यह लड़ाई का आदेश आ जाने के बाद और लड़ाई शुरू होने से पहले उतरी है। “जब इनकार करनेवालों से तुम्हारी मुठभेड़ हो” के शब्द इसे प्रमाणित करते हैं कि अभी मुठभेड़ हुई नहीं है और उसके होने से पहले यह आदेश दिया जा रहा है कि जब वह हो तो मुसलमानों को सबसे पहले अपना ध्यान दुश्मन की युद्ध-शक्ति अच्छी तरह तोड़ देने पर लगाना चाहिए। इसके बाद जिन लोगों को पकड़ा जाए उनके मामले में मुसलमानों को यह भी अधिकार है कि अर्थदण्ड लेकर या अपने क़ैदियों के बदले में उन्हें छोड़ दें और यह अधिकार भी है कि क़ैद में रखकर उनसे एहसान का व्यवहार करें, या उचित हो तो एहसान के रूप में उन्हें रिहा कर दें।
2. अर्थात् अल्लाह को अगर सिर्फ़ असत्य के पुजारियों को कुचल देना ही होता तो वह इस कार्य के लिए तुम्हारा मुहताज न था। यह कार्य तो उसका एक भूकम्प या एक तूफ़ान क्षण-भर में कर सकता था। मगर उसके सामने तो यह है कि इनसानों में से जो सत्यप्रिय हों वे असत्य के पुजारियों से टकराएँ और उनके मुक़ाबले में संघर्ष (जिहाद) करें ताकि जिसके अन्दर जो कुछ गुण हैं वे इस परीक्षा से निखरकर पूरी तरह प्रकट हो जाएँ और हर एक अपने चरित्र के अनुसार जिस स्थान और पद के योग्य हो वह उसको दिया जाए।
سَيَهۡدِيهِمۡ وَيُصۡلِحُ بَالَهُمۡ ۝ 4
(5) वह उनको मार्ग दिखाएगा3, उनका हाल ठीक कर देगा
3. अर्थात् जन्नत की ओर राह दिखाएगा।
وَيُدۡخِلُهُمُ ٱلۡجَنَّةَ عَرَّفَهَا لَهُمۡ ۝ 5
(6) और उनको उस जन्नत में दाख़िल करेगा जिससे वह उनको परिचित करा चुका है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَنصُرُواْ ٱللَّهَ يَنصُرۡكُمۡ وَيُثَبِّتۡ أَقۡدَامَكُمۡ ۝ 6
(7) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम अल्लाह की सहायता करोगे तो वह तुम्हारी सहायता करेगा4 और तुम्हारे क़दम मज़बूत जमा देगा।
4. अल्लाह की सहायता करने से मुराद अल्लाह का बोल-बाला करने और सत्य को प्रतिष्ठित एवं ऊँचा करने के कार्य में हिस्सा लेना है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَتَعۡسٗا لَّهُمۡ وَأَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 7
(8) रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया है, तो उनके लिए तबाही है और अल्लाह ने उनके कर्मों को भटका दिया है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَرِهُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 8
(9) क्योंकि उन्होंने उस चीज़ को नापसन्द किया जिसे अल्लाह ने उतारा है, अतः अल्लाह ने उनके कर्म अकारथ कर दिए।
۞أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ دَمَّرَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۖ وَلِلۡكَٰفِرِينَ أَمۡثَٰلُهَا ۝ 9
(10) क्या वे ज़मीन में चले-फिरे न थे कि उन लोगों का अंजाम देखते जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं? अल्लाह ने उनका सब कुछ उनपर उलट दिया, और ऐसे ही परिणाम इन इनकार करनेवालों के लिए नियत हैं।5
5. इसके दो अर्थ हैं। एक यह कि जिस तबाही का उन इनकार करनेवालों को सामना करना पड़ा वैसी ही तबाही अब इन इनकार करनेवालों के लिए निश्चित है जो मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़ाम को नहीं मान रहे हैं। दूसरा अर्थ यह है कि उन लोगों की तबाही सिर्फ़ दुनिया के अज़ाब पर समाप्त नहीं हो गई है, बल्कि यही तबाही उनके लिए आख़िरत में भी निश्चित है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَأَنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ لَا مَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 10
(11) यह इसलिए कि ईमान लानेवालों का संरक्षक और सहायक अल्लाह है और इनकार करनेवालों का संरक्षक और सहायक कोई नहीं।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَتَمَتَّعُونَ وَيَأۡكُلُونَ كَمَا تَأۡكُلُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ وَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡ ۝ 11
(12) ईमान लानेवालों और अच्छे कर्म करनेवालों को अल्लाह उन जन्नतों में प्रवेश करेगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं, और इनकार करनेवाले बस दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी के मज़े लूट रहे हैं, जानवरों की तरह खा पी रहे हैं, और उनका अन्तिम ठिकाना जहन्नम है।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ هِيَ أَشَدُّ قُوَّةٗ مِّن قَرۡيَتِكَ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَتۡكَ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ فَلَا نَاصِرَ لَهُمۡ ۝ 12
(13) ऐ नबी, कितनी ही बस्तियाँ ऐसी गुज़र चुकी है जो तुम्हारी उस बस्ती से बहुत ज़्यादा बलशाली थीं जिसने तुम्हें निकाल दिया है।6 उन्हें हमने इस तरह तबाह कर दिया कि कोई उनका बचानेवाला न था।
16. अर्थात् मक्का जहाँ से क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) को निकल जाने पर मज़बूर कर दिया था।
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ كَمَن زُيِّنَ لَهُۥ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم ۝ 13
(14) भला कहीं ऐसा हो सकता है कि जो अपने रब की ओर से एक स्पष्ट और प्रत्यक्ष मार्ग पर हो, वह उन लोगों की तरह हो जाए जिनके लिए उनका बुरा कर्म सुहाना बना दिया गया है और वे अपनी इच्छाओं के अनुगामी बन गए हैं।
مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ فِيهَآ أَنۡهَٰرٞ مِّن مَّآءٍ غَيۡرِ ءَاسِنٖ وَأَنۡهَٰرٞ مِّن لَّبَنٖ لَّمۡ يَتَغَيَّرۡ طَعۡمُهُۥ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ خَمۡرٖ لَّذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ عَسَلٖ مُّصَفّٗىۖ وَلَهُمۡ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَمَغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡۖ كَمَنۡ هُوَ خَٰلِدٞ فِي ٱلنَّارِ وَسُقُواْ مَآءً حَمِيمٗا فَقَطَّعَ أَمۡعَآءَهُمۡ ۝ 14
(15) परहेज़गार लोगों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की, नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मज़े में तनिक फ़र्क़ न आया होगा, नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए स्वादिष्ट होंगी, नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की।7 उसमें उनके लिए हर तरह फल होंगे और उनके रब की ओर से बख़शिश। (क्या वह व्यक्ति जिसके हिस्से में यह जन्नत आनेवाली है) उन लोगों की तरह हो सकता जो जहन्नम में हमेशा रहेंगे और जिन्हें ऐसा गर्म पानी पिलाया जाएगा जो उनकी आंतें तक काट देगा?
7. हदीस में इसे इस तरह स्पष्ट किया है कि वह दूध जानवरों के थनों से निकला हुआ न होगा, वह शराब फलों को सड़ाकर निचोड़ी न होगी, वह शहद मक्खियों के पेट से निकला हुआ न होगा, बल्कि सारी चीज़़ें प्राकृतिक स्रोतों रूप में प्रवाहित होंगी।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَ حَتَّىٰٓ إِذَا خَرَجُواْ مِنۡ عِندِكَ قَالُواْ لِلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مَاذَا قَالَ ءَانِفًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُمۡ ۝ 15
(16) उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते और फिर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उन लोगों से जिन्हें ज्ञान की नेमत प्रदान की गई पूछते हैं कि अभी-अभी इन्होंने क्या कहा था?8 ये वे लोग हैं जिनके दिलों पर अल्लाह ने ठप्पा लगा दिया है और ये अपनी इच्छाओं के पीछे चल रहे हैं।
8. यह उन क़ाफ़िरों, मुनाफ़िक़ों और किताबवालों के इनकार करनेवालों का उल्लेख जो नबी (सल्ल०) की मजलिस में आकर बैठते और आपकी बातें या क़ुरआन की आयतें सुनते, मगर चूँकि उनका दिल उन विषयों से दूर था जो आपके पावन मुख से व्यक्त होते, इसलिए सब कुछ सुनकर वे कुछ न सुनते थे, और बाहर निकलकर मुसलमानों से पूछते कि अभी-अभी आप क्या कह रहे थे।
وَٱلَّذِينَ ٱهۡتَدَوۡاْ زَادَهُمۡ هُدٗى وَءَاتَىٰهُمۡ تَقۡوَىٰهُمۡ ۝ 16
(17) वे लोग जिन्होंने मार्ग पाया अल्लाह उनका और ज़्यादा पथप्रदर्शन करता है और उन्हें उनके हिस्से की परहेज़गारी देता है।
فَهَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗۖ فَقَدۡ جَآءَ أَشۡرَاطُهَاۚ فَأَنَّىٰ لَهُمۡ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ ذِكۡرَىٰهُمۡ ۝ 17
(18) अब क्या लोग बस 'क़ियामत' के इन्तिज़ार हैं कि वह अचानक इनपर आ जाए? उसके लक्षण तो आ चुके हैं। जब वह ख़ुद आ जाएगी तो उनके लिए नसीहत क़ुबूल करने का कौन-सा अवसर बाक़ी रह जाएगा?
فَٱعۡلَمۡ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مُتَقَلَّبَكُمۡ وَمَثۡوَىٰكُمۡ ۝ 18
(19) अतः नबी, ख़ूब जान लो कि अल्लाह के सिवा कोई उपासना का पात्र नहीं है, और माफ़ी माँगो अपने क़ुसूर के लिए भी और ईमानवाले मर्दों और औरतों के लिए भी।9 अल्लाह तुम्हारी सरगर्मियों को भी जानता है और तुम्हारे ठिकाने से भी परिचित है।
9. इस्लाम ने जो नैतिक शिक्षाएँ मानव को सिखाई हैं, उनमें एक यह है कि बन्दा अपने रब की बन्दगी और उपासना करने और उसके के लिए जान लड़ाने में, चाहे अपने सामर्थ्य तक कितनी कोशिश करता हो, उसको कभी इस गुमान में न पड़ना चाहिए जो कुछ मुझे करना चाहिए था वह मैंने कर दिया है, बल्कि उसे हमेशा यही समझते रहना चाहिए कि मेरे मालिक का मुझपर जो हक़ था वह में अदा नहीं कर सका हूँ और हर समय अपने क़ुसूर को स्वीकार करके अल्लाह से यही दुआ करते रहना चाहिए कि तेरी सेवा में जो कुछ भी कोताही मुझसे हुई है उसे माफ़ कर। यही वास्तविक भाव है अल्लाह के इस कथन का कि “ऐ नबी, अपने क़ुसूर के लिए माफ़ी माँगो।"
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡلَا نُزِّلَتۡ سُورَةٞۖ فَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ مُّحۡكَمَةٞ وَذُكِرَ فِيهَا ٱلۡقِتَالُ رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ نَظَرَ ٱلۡمَغۡشِيِّ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَأَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 19
(20) जो लोग ईमान लाए हैं10 वे कह रहे थे कि कोई सूरा क्यों नहीं उतारी जाती (जिसमें युद्ध का आदेश दिया जाए) मगर जब एक पक्की सूरा उतार दी गई जिसमें युद्ध का उल्लेख था तो तुमने देखा कि जिनके दिलों में रोग था वे तुम्हारी ओर इस तरह देख रहे हैं जैसे किसी पर मौत छा गई हो। अफ़सोस उनके हाल पर।
10. अर्थात् जो लोग सच्चे मुसलमान थे वे तो लड़ाई (जिहाद) के आदेश के लिए विकल थे, लेकिन जो लोग ईमान के बिना मुसलमानों के गिरोह में सम्मिलित हो गए थे, लड़ाई का आदेश आते ही उनकी जान पर बन गई।
طَاعَةٞ وَقَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞۚ فَإِذَا عَزَمَ ٱلۡأَمۡرُ فَلَوۡ صَدَقُواْ ٱللَّهَ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ ۝ 20
(21) (उनकी ज़बान पर है) आज्ञापालन की स्वीकारोक्ति और अच्छी-अच्छी बातें। मगर जब दो टूक आदेश दे दिया गया, उस समय वे अल्लाह से अपनी प्रतिज्ञा में सच्चे निकलते तो उन्हीं के लिए अच्छा था।
فَهَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن تَوَلَّيۡتُمۡ أَن تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَتُقَطِّعُوٓاْ أَرۡحَامَكُمۡ ۝ 21
(22) अब क्या तुम लोगों से इसके सिवा कुछ और आशा की जा सकती है कि अगर तुम उलटे मुँह फिर गए तो ज़मीन में फिर बिगाड़ पैदा करोगे और आपस में एक-दूसरे के गले काटोगे?11
11. यह कहने का अर्थ यह है कि अगर इस समय तुम इस्लाम की प्रतिरक्षा से जी चुराते हो और उस महान सुधारात्मक क्रान्ति के लिए जान और माल की बाज़ी लगाने से मुँह मोड़ते हो जिसकी कोशिश मुहम्मद (सल्ल०) और ईमानवाले कर रहे हैं, तो इसका परिणाम भला इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि तुम फिर उसी अज्ञान प्रणाली की ओर पलट जाओ जिसमें तुम लोग शताब्दियों से एक-दूसरे के गले काटते रहे हो, अपनी औलाद तक को ज़िन्दा गाड़ते रहे हो, और अल्लाह की ज़मीन को ज़ुल्म और बिगाड़ से भरते रहे हो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ فَأَصَمَّهُمۡ وَأَعۡمَىٰٓ أَبۡصَٰرَهُمۡ ۝ 22
(23) ये वे लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की और उनको अन्धा और बहरा बना दिया।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ أَمۡ عَلَىٰ قُلُوبٍ أَقۡفَالُهَآ ۝ 23
(24) क्या उन लोगों ने क़ुरआन पर विचार नहीं किया, या दिलों पर उनके ताले चढ़े हुए हैं?
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَى ٱلشَّيۡطَٰنُ سَوَّلَ لَهُمۡ وَأَمۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 24
(25) वास्तविकता यह है कि जो लोग सन्मार्ग स्पष्ट हो जाने के बाद उससे फिर गए उनके लिए शैतान ने इस नीति को सरल बना दिया है और झूठी आशाओं का सिलसिला उनके लिए लम्बा कर रखा है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لِلَّذِينَ كَرِهُواْ مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ سَنُطِيعُكُمۡ فِي بَعۡضِ ٱلۡأَمۡرِۖ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِسۡرَارَهُمۡ ۝ 25
(26) इसी लिए उन्होंने अल्लाह के उतारे हुए धर्म को नापसन्द करनेवालों से कह दिया कि कुछ मामलों में हम तुम्हारी मानेंगे।12 अल्लाह उनकी ये गुप्त बातें ख़ूब जानता है।
12. अर्थात् ईमान को स्वीकार करने और मुसलमानों के गिरोह में सम्मिलित हो जाने के बावजूद वे अन्दर ही अन्दर इस्लाम के दुश्मनों से साँठ-गाँठ करते रहे और उनसे वादे करते रहे कि कुछ मामलों में हम तुम्हारा साथ देंगे।
فَكَيۡفَ إِذَا تَوَفَّتۡهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ ۝ 26
(27) फिर उस समय क्या हाल होगा जब फ़रिश्ते इनके प्राण निकालेंगे और इनके मुँह और पीठों पर मारते हुए इन्हें ले जाएँगे?
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱتَّبَعُواْ مَآ أَسۡخَطَ ٱللَّهَ وَكَرِهُواْ رِضۡوَٰنَهُۥ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 27
(28) यह इसी लिए तो होगा कि इन्होंने उस पद्धति का अनुपालन किया जो अल्लाह को नाराज करनेवाली है और उसकी प्रसन्नता का मार्ग ग्रहण करना पसन्द न किया। इसी कारण उसने इनके सब कर्म अकारथ कर दिए।13
13. कर्म से मुराद वे सभी कर्म हैं जो मुसलमान बनकर वे करते रहे। उनकी नमाज़ें, उनके रोज़े, उनकी ज़कात, सारांश यह कि वे सारी इबादतें और वे सारी नेकियाँ जो अपने बाह्य रूप की दृष्टि से भले कामों में गिनी जाती हैं, इस कारण बरबाद हो गईं कि उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अल्लाह और उसके धर्म और इस्लामी समुदाय के साथ निष्ठा और वफ़ादारी की नीति न अपनाई, बल्कि सिर्फ़ अपने लौकिक हितों के लिए धर्म के दुश्मनों के साथ साँठ-गाँठ करते रहे और अल्लाह के मार्ग में 'जिहाद' का अवसर आते ही अपने आपको ख़तरों से बचाने को चिन्ता में लग गए।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَن لَّن يُخۡرِجَ ٱللَّهُ أَضۡغَٰنَهُمۡ ۝ 28
(29) क्या वे लोग जिनके दिलों में रोग है यह समझे बैठे हैं कि अल्लाह उनके दिलों के खोट प्रकट न करेगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَأَرَيۡنَٰكَهُمۡ فَلَعَرَفۡتَهُم بِسِيمَٰهُمۡۚ وَلَتَعۡرِفَنَّهُمۡ فِي لَحۡنِ ٱلۡقَوۡلِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 29
(30) हम चाहें तो उन्हें तुमको आँखों से दिखा दें और उनके चेहरों से तुम उनको पहचान लो। मगर उनकी बातचीत के ढब से तो तुम उनको जान ही लोगे। अल्लाह तुम सबके कर्मों से ख़ूब परिचित है।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُمۡ حَتَّىٰ نَعۡلَمَ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَنَبۡلُوَاْ أَخۡبَارَكُمۡ ۝ 30
(31) हम ज़रूर तुम लोगों को परीक्षा में डालेंगे ताकि तुम्हारी हालतों की जाँच करें और देख लें कि तुममें 'मुजाहिद' (जान तोड़ प्रयास करनेवाले) और मज़बूती से जमे रहनेवाले कौन हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَشَآقُّواْ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗا وَسَيُحۡبِطُ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 31
(32) जिन लोगों ने इनकार किया और अल्लाह के मार्ग से रोका और रसूल से झगड़ा किया जबकि उनपर सन्मार्ग स्पष्ट हो चुका था, वास्तव में वे अल्लाह का कोई नुक़सान भी नहीं कर सकते, बल्कि अल्लाह ही उनका सब किया-कराया बरबाद कर देगा।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَلَا تُبۡطِلُوٓاْ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 32
(33) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम अल्लाह की आज्ञा मानो और रसूल की आज्ञा मानो और अपने कर्मों को बरबाद न कर लो।14
14. दूसरे शब्दों में कर्मों का लाभदायक और फलदायक होना पूर्ण रूप से अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करने पर निर्भर करता है। आज्ञापालन से विमुख हो जाने के बाद कोई कर्म भी भला कर्म नहीं रहता कि आदमी उसपर कोई बदला पाने का अधिकारी हो सके।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ مَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡ ۝ 33
(34) इनकार करनेवालों और अल्लाह के मार्ग से रोकनेवालों और मरते समय तक इनकार (कुफ़्र) पर जमे रहनेवालों को तो अल्लाह हरगिज माफ़ न करेगा।
فَلَا تَهِنُواْ وَتَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلسَّلۡمِ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ وَٱللَّهُ مَعَكُمۡ وَلَن يَتِرَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 34
(35) अत: तुम बोदे न बनो और सुलह के लिए निवेदन न करो।15 तुम ही प्रभावी रहनेवाले हो अल्लाह तुम्हारे साथ है और तुम्हारे कर्मों को वह हरगिज़ नष्ट न करेगा।
15. यहाँ यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि यह बात उस समय कही गई है जब सिर्फ़ मदीना की छोटी-सी बस्ती मैं कुछ सौ 'मुहाजिर' और 'अनसार' का एक मुट्ठी भर गिरोह इस्लाम का झण्डा उठाने का काम कर रहा था और उसका मुक़ाबला सिर्फ़ क़ुरैश के शक्तिशाली क़बीले ही से नहीं, बल्कि पूरे अरब के क़ाफ़िरों और बहुदेववादियों से था। इस हालत में कहा जा रहा है कि साहस छोड़कर इन दुश्मनों से सुलह की याचना न करने लगो, बल्कि जान की बाज़ी लगा देने के लिए तैयार हो जाओ।
إِنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ يُؤۡتِكُمۡ أُجُورَكُمۡ وَلَا يَسۡـَٔلۡكُمۡ أَمۡوَٰلَكُمۡ ۝ 35
(36) यह दुनिया की ज़िन्दगी तो एक खेल और तमाशा है। अगर तुम ईमान रखो और 'तक़वा' (धर्मपरायण की नीति पर चलते रहो तो अल्लाह तुम्हारे कर्मों का बदला तुमको देगा और वह तुम्हारे माल तुमसे न माँगेगा।16
16. अर्थात वह धनी है, उसको अपने निज के लिए तुमसे लेने की कुछ ज़रूरत नहीं है। अगर वह अपने मार्ग में तुमसे कुछ ख़र्च करने को कहता है तो वह अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता है।
إِن يَسۡـَٔلۡكُمُوهَا فَيُحۡفِكُمۡ تَبۡخَلُواْ وَيُخۡرِجۡ أَضۡغَٰنَكُمۡ ۝ 36
(37) अगर कहीं वह तुम्हारे माल तुमसे माँग ले और सब के सब तुमसे तलब कर ले तो तुम कंजूसी करोगे और वह तुम्हारे खोट उभार लाएगा।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تُدۡعَوۡنَ لِتُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَمِنكُم مَّن يَبۡخَلُۖ وَمَن يَبۡخَلۡ فَإِنَّمَا يَبۡخَلُ عَن نَّفۡسِهِۦۚ وَٱللَّهُ ٱلۡغَنِيُّ وَأَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُۚ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ يَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُونُوٓاْ أَمۡثَٰلَكُم ۝ 37
(38) देखो, तुम लोगों को आमंत्रण दिया जा रहा है कि अल्लाह के मार्ग में माल ख़र्च करो। इसपर तुममें से कुछ लोग हैं जो कंजूसी कर रहे हैं, हालाँकि जो कंजूसी करता है वह वास्तव में अपने आप ही से कंजूसी कर रहा है। अल्लाह तो धनी है, तुम ही उसके मुहताज हो अगर तुम मुँह मोड़ोगे तो अल्लाह तुम्हारी जगह किसी दूसरी क़ौम को ले आएगा और वे तुम जैसे न होंगे।