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سُورَةُ البَقَرَةِ

2.सूरा अल-बक़रा

(मदीना में उतरी, आयतें 286)

परिचय

नाम और नाम रखने का कारण

इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।

उतरने का समय

इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।

उतरने का कारण

इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-

1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।

2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।

3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।

4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।

सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।

 

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سُورَةُ البَقَرَةِ
2. सूरा अल-बक़रा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ लाम० मीम०1
1. ये 'हुरूफ़ मुक़त्तआत' (विभक्त अक्षर) क़ुरआन मजीद को कुछ सूरतों के आरंभ में पाए जाते हैं। टीकाकारों ने इनके विभिन्न अर्थ लिए हैं, किन्तु इनके किसी अर्थ पर सहमत नहीं हो सके हैं और इनके अर्थ का जानना इसलिए आवश्यक नहीं है कि इन्हें यदि आदमी न जाने तो क़ुरआन से मार्गदर्शन प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती।
ذَٰلِكَ ٱلۡكِتَٰبُ لَا رَيۡبَۛ فِيهِۛ هُدٗى لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 1
(2) यह अल्लाह की किताब है, इसमें कोई संदेह नहीं। मार्गदर्शन है उन डरनेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 2
(3) जो ग़ैब2 पर ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं,3 जो रोज़ी हमने उनको दी है, उसमें से ख़र्च करते हैं,
2. ग़ैब से मुराद वे तथ्य और वास्तविकताएँ है जो मानवीय ज्ञानेन्द्रियों से छिपी हुई है और कभी प्रत्यक्षतः आम लोगों के अनुभव और निरीक्षण में नहीं आतीं। जैसे ख़ुदा की हस्ती और उसके गुण, फ़रिश्ते, वह्य (प्रकाशना Revelation), स्वर्ग, नरक आदि।
3. नमाज़ क़ायम करने का अर्थ केवल यहीं नहीं है कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करें, बल्कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक रूप से नमाज़ की व्यवस्था नियमित रीति से हो। यदि किसी बस्ती में एक-एक व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से नमाज़ का पाबन्द हो, लेकिन सामूहिक रूप से (जमाअत के साथ) इस फ़र्ज़ को पूरा करने की व्यवस्था न हो, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ नमाज़ क़ायम की जा रही है।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ وَبِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 3
(4) जो किताब तुमपर उतारी गई है (अर्थात् क़ुरआन) और जो किताबें तुमसे पहले उतारी गई थी उन सबपर ईमान लाते हैं, और परलोक (आख़िरत) में विश्वास रखते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَىٰ هُدٗى مِّن رَّبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 4
(5) ऐसे लोग अपने रब की ओर से सीधे मार्ग पर हैं और वही सफलता प्राप्त करनेवाले है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) जिन लोगों ने (इन बातों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, उनके लिए बराबर है, चाहे तुम उन्हें ख़बरदार करो या न करो, वे तो किसी भी दशा में माननेवाले नहीं है।
خَتَمَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَعَلَىٰ سَمۡعِهِمۡۖ وَعَلَىٰٓ أَبۡصَٰرِهِمۡ غِشَٰوَةٞۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 6
(7) अल्लाह ने उनके दिलों और उनके कानों पर मुहर लगा दी है4 और उनकी आँखों पर परदा पड़ गया है। वे सख़्त सज़ा के हक़दार है।
4. इसका अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह ने मुहर लगा दी थी इसलिए उन्होंने मानने से इनकार किया, बल्कि मतलब यह है कि जब उन्होंने उन बुनियादी बातों को ठुकरा दिया जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है, और अपने लिए क़ुरआन के पेश किए हुए रास्ते के ख़िलाफ़ दूसरा रास्ता पसन्द कर लिया, तो अल्लाह ने उनके दिलों और कानों पर मुहर लगा दी।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَمَا هُم بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाए है, हालाँकि वास्तव में वे ईमानवाले नहीं है।
يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَمَا يَخۡدَعُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 8
(9) वे अल्लाह और ईमान लानेवालों के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, मगर वास्तव में वे ख़ुद अपने ही को धोखे में डाल रहे हैं और उन्हें इसकी समझ नहीं है।
فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَهُمُ ٱللَّهُ مَرَضٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 9
(10) उनके दिलों में एक रोग है जिसे अल्लाह ने और अधिक बढ़ा दिया5, और जो झूठ वे बोलते हैं, उसके फलस्वरूप उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
5. रोग से मुराद मुनाफ़क़त की बीमारी है और अल्लाह के इस बीमारी में अभिवृद्धि करने का अर्थ यह है कि मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) को अल्लाह फौरन सज़ा नहीं देता, बल्कि उसे ढील देता चला जाता है और मुनाफ़िक़ और ज़्यादा मुनाफ़िक़ बनता चला जाता है!
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ لَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ قَالُوٓاْ إِنَّمَا نَحۡنُ مُصۡلِحُونَ ۝ 10
(11) जब कभी उनसे कहा गया कि ज़मीन में बिगाड़ पैदा न करो, तो उन्होंने यही कहा कि “हम तो सुधार करनेवाले है”
أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡمُفۡسِدُونَ وَلَٰكِن لَّا يَشۡعُرُونَ ۝ 11
(12) — सावधान, वास्तव में यही लोग बिगाड़ पैदा करते हैं मगर इन्हें समझ नहीं है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ كَمَآ ءَامَنَ ٱلنَّاسُ قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ كَمَآ ءَامَنَ ٱلسُّفَهَآءُۗ أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلسُّفَهَآءُ وَلَٰكِن لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 12
(13) और जब उनसे कहा गया कि जिस तरह दूसरे लोग ईमान लाए हैं उसी तरह तुम भी ईमान लाओ तो उन्होंने यही उत्तर दिया कि “क्या हम मूर्खो की तरह ईमान लाएँ?” – ख़बरदार, वास्तव में तो ये ख़ुद मूर्ख हैं, मगर ये जानते नहीं हैं।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ إِلَىٰ شَيَٰطِينِهِمۡ قَالُوٓاْ إِنَّا مَعَكُمۡ إِنَّمَا نَحۡنُ مُسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 13
(14) जब ये ईमानवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए हैं, और जब एकान्त में अपने शैतानों से मिलते हैं तो कहते हैं कि वास्तव में तो हम तुम्हारे साथ हैं और इन लोगों से केवल मज़ाक कर रहे हैं
ٱللَّهُ يَسۡتَهۡزِئُ بِهِمۡ وَيَمُدُّهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 14
(15) — अल्लाह इनसे मज़ाक़ कर रहा है, वह इन्हें ढील दे रहा है और ये अपनी सरकशी में अन्धों की तरह भटकते चले जाते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ فَمَا رَبِحَت تِّجَٰرَتُهُمۡ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 15
(16) ये वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले गुमराही ख़रीद ली है, किन्तु यह सौदा इनके लिए लाभदायक नहीं है और ये हरगिज़ सही रास्ते पर नहीं हैं।
مَثَلُهُمۡ كَمَثَلِ ٱلَّذِي ٱسۡتَوۡقَدَ نَارٗا فَلَمَّآ أَضَآءَتۡ مَا حَوۡلَهُۥ ذَهَبَ ٱللَّهُ بِنُورِهِمۡ وَتَرَكَهُمۡ فِي ظُلُمَٰتٖ لَّا يُبۡصِرُونَ ۝ 16
(17) इनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक आदमी ने आग जलाई और जब उसने सारे माहौल को रौशन कर दिया तो अल्लाह ने इनकी आँखों की रौशनी छीन ली और इन्हें इस हाल में छोड़ दिया कि अंधियारियों में इन्हें कुछ सूझता नहीं6।
6. मतलब यह है कि जब एक अल्लाह के बन्दे ने रौशनी फैलाई और सत्य को असत्य से छाँटकर बिलकुल स्पष्ट कर दिया, तो जिन लोगों के पास देखनेवाली आँखें थीं, उनपर तो सारी सच्चाइयाँ खुल गईं, मगर ये मुनाफ़िक़, जो अपनी तुच्छ इच्छाओं और वासनाओं के पीछे अन्धे हो रहे थे, इनको इस रौशनी में कुछ दिखाई न दिया।
صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 17
(18) ये बहरे हैं, गूंगे हैं, अन्धे हैं, ये अब न पलटेंगे।
أَوۡ كَصَيِّبٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فِيهِ ظُلُمَٰتٞ وَرَعۡدٞ وَبَرۡقٞ يَجۡعَلُونَ أَصَٰبِعَهُمۡ فِيٓ ءَاذَانِهِم مِّنَ ٱلصَّوَٰعِقِ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِۚ وَٱللَّهُ مُحِيطُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 18
(19) या फिर इनकी मिसाल यों समझो कि आकाश से तेज़ वर्षा हो रही है और उसके साथ अँधेरी घटा और कड़क और चमक भी है, ये बिजली के कड़ाके सुनकर अपनी मौत के डर से कानों में उँगलियाँ ठूँसे लेते हैं और अल्लाह सत्य के इन इनकार करनेवालों को हर ओर से घेरे में लिए हुए है।
يَكَادُ ٱلۡبَرۡقُ يَخۡطَفُ أَبۡصَٰرَهُمۡۖ كُلَّمَآ أَضَآءَ لَهُم مَّشَوۡاْ فِيهِ وَإِذَآ أَظۡلَمَ عَلَيۡهِمۡ قَامُواْۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَذَهَبَ بِسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 19
(20) चमक से इनकी दशा यह हो रही है कि मानो शीघ्र ही बिजली इनकी आँखों की रौशनी उचक ले जाएगी। जब तनिक कुछ रौशनी इन्हें महसूस होती है तो उसमें कुछ दूर चल लेते हैं, और जब इनपर अँधेरा छा जाता है तो खड़े हो जाते हैं7— अल्लाह चाहता तो इनकी सुनने और देखने की शक्ति बिलकुल ही छीन लेता, निस्सन्देह उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
7. पहली मिसाल उन मुनाफ़िक़ों की थी जो दिल से तो बिलकुल इनकार कर रहे थे और किसी स्वार्थ और उद्देश्य से मुसलमान बन गए थे। और यह दूसरी मिसाल उनकी है जो सन्देह, दुविधा और ईमान को कमज़ोरी के शिकार थे, कुछ सच्चाई को स्वीकार भी करते थे, मगर ऐसी सत्यवादिता को वे नहीं मानते थे कि उसके लिए तकलीफ़ों और मुसीबतों को भी सहन कर सकें।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 20
(21) लोगो, बन्दगी इख़्तियार करो अपने उस रब की जो तुम्हारा और तुमसे पहले जो लोग हुए हैं उन सबका पैदा करनेवाला है, तुम्हारे बचने की आशा8 इसी प्रकार हो सकती हैं।
8. अर्थात् दुनिया में ग़लत देखने और ग़लत काम करने और आख़िरत में अल्लाह की यातना (अज़ाब) से बचने (की आशा।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ فِرَٰشٗا وَٱلسَّمَآءَ بِنَآءٗ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ فَلَا تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ أَندَادٗا وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 21
(22) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती का बिछौना बिछाया, आकाश की छत बनाई, ऊपर से पानी बरसाया और उसके द्वारा हर प्रकार की पैदावार निकालकर तुम्हारे लिए रोज़ी जुटाई। अतः जब तुम यह जानते हो तो दूसरों को अल्लाह का प्रतिद्वन्द्वी (समकक्ष) न ठहराओ9।
9. दूसरों को अल्लाह का प्रतिद्वन्द्वी ठहराने से मुराद यह है कि विभिन्न प्रकार की बन्दगी और इबादत में से किसी प्रकार की बन्दगी और इबादत अल्लाह के सिवा दूसरों की की जाए।
وَإِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّمَّا نَزَّلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّن مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ شُهَدَآءَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 22
(23) और अगर तुम्हें इस बात में सन्देह है कि यह किताब जो हमने अपने बन्दे पर उतारी है,यह हमारी है या नहीं, तो इस जैसी एक ही सूरा बना लाओ, अपने मत के सारे ही लोगों को बुला लो, एक अल्लाह को छोड़कर बाक़ी जिस-जिसकी चाहो सहायता ले लो, अगर तुम सच्चे हो तो यह काम करके दिखाओ।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ وَلَن تَفۡعَلُواْ فَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي وَقُودُهَا ٱلنَّاسُ وَٱلۡحِجَارَةُۖ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 23
(24) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, और निश्चय ही कभी नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से, जिसका ईंधन बनेंगे इनसान और पत्थर10 जो जुटाई गई है इनकार करनेवालों के लिए।
10. अर्थात् वहाँ केवल तुम ही नरक का ईंधन न बनोगे, बल्कि तुम्हारे वे बुत भी वहाँ तुम्हारे साथ ही मौजूद होंगे जिन्हें तुमने अपना उपास्य बना रखा है और जिनके आगे तुम दंडवत् करते रहते हो।
وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ كُلَّمَا رُزِقُواْ مِنۡهَا مِن ثَمَرَةٖ رِّزۡقٗا قَالُواْ هَٰذَا ٱلَّذِي رُزِقۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَأُتُواْ بِهِۦ مُتَشَٰبِهٗاۖ وَلَهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَهُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 24
(25) और ऐ पैग़म्बर, जो लोग इस किताब पर ईमान ले आएँ और (इसके अनुसार) अपने कर्म ठीक कर लें, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ है जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उन बाग़ों के फल रूप में दुनिया के फलों से मिलते-जुलते होंगे। जब कोई फल उन्हें खाने को दिया जाएगा तो वे कहेंगे कि ऐसे ही फल इससे पहले दुनिया में हमको दिए जाते थे। उनके लिए वहाँ पाकीज़ा पत्नियाँ होंगी, और वे वहाँ सदैव ही रहेंगे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَسۡتَحۡيِۦٓ أَن يَضۡرِبَ مَثَلٗا مَّا بَعُوضَةٗ فَمَا فَوۡقَهَاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۘ يُضِلُّ بِهِۦ كَثِيرٗا وَيَهۡدِي بِهِۦ كَثِيرٗاۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِۦٓ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) हाँ, अल्लाह इससे बिलकुल नहीं शर्माता कि मच्छर या उससे भी तुच्छ किसी चीज़़ की मिसालें दे11। जो लोग सत्य को स्वीकार करनेवाले हैं, वे इन्हीं मिसालों को देखकर जान लेते हैं। कि यह सत्य है जो उनके रब ही की ओर से आया है, और जो माननेवाले नहीं हैं, वे इन्हें सुनकर कहने लगते हैं कि ऐसी मिसालों से अल्लाह का क्या सम्बन्ध? इस प्रकार अल्लाह एक ही बात से बहुतों को गुमराही में डाल देता है और बहुतों को सीधा मार्ग दिखा देता है। और उससे गुमराही में वह उन्हीं को डालता है जो फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी)12 है,
11. यहाँ एक एतिराज़ का उल्लेख किए बिना उसका उत्तर दिया गया है। क़ुरआन में विभिन्न स्थानों पर आशय स्पष्ट करने के लिए मकड़ी, मक्खी, मच्छर आदि की जो मिसालें दी गई हैं, उनपर विरोधियों को आपत्ति थी कि यह कैसी ईश वाणी है जिसमें ऐसी तुच्छ चीज़़ों की मिसालें दी गई हैं।
12. 'फ़ासिक़' का अर्थ है अवज्ञाकारी, आज्ञापालन की सीमा से निकल जानेवाला।
ٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 26
(27) अल्लाह की प्रतिज्ञा को मज़बूत बाँध लेने के बाद तोड़ देते हैं।13 अल्लाह ने जिसे जोड़ने का आदेश दिया है, उसे काटते है14, और धरती में बिगाड़ पैदा करते हैं। वास्तव में यहीं लोग घाटे में हैं।
13. बादशाह अपने सेवकों और प्रजा के नाम जो हुक्म (आदेश) जारी करता है, उनको अरबी भाषा में 'अहद' (प्रतिज्ञा) की संज्ञा दी जाती है। अल्लाह की प्रतिज्ञा से मुराद उसका वह स्थायी आदेश है जिसकी दृष्टि से सम्पूर्ण मानव-जाति केवल उसी की बन्दगी, आज्ञापालन और उपासना करने को निर्दिष्ट है। “मजबूत बांध लेने के बाद” से संकेत इस ओर है कि आदम के पैदा किए जाने के समय सम्पूर्ण मानव जाति से इस आदेश के पालन करने का प्रण लिया गया था जैसा कि सूरा 7 आराफ़, आयत 172 में इसका उल्लेख मिलता है।
14. अर्थात् जिन पारस्परिक सम्पर्कों की स्थापना और सुदृढ़ता पर मानव का सामाजिक और वैयक्तिक कल्याण निर्भर करता है, और जिन्हें ठीक रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, उनपर ये लोग कुल्हाड़ी चलाते हैं।
كَيۡفَ تَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَكُنتُمۡ أَمۡوَٰتٗا فَأَحۡيَٰكُمۡۖ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 27
(28) तुम अल्लाह के साथ इनकार की नीति कैसे अपनाते हो, जबकि तुम निर्जीव थे, उसने तुम्हें जीवन प्रदान किया, फिर वही तुम्हारे प्राण ले लेगा, फिर वही तुम्हें पुनः जीवन प्रदान करेगा, फिर उसी की ओर तुम्हें पलटकर जाना है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ فَسَوَّىٰهُنَّ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 28
(29) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती की सारी चीज़़ें पैदा कीं, फिर ऊपर की ओर रुख़ किया और सात आसमान15 ठीक तौर पर बनाए और वह हर चीज़़ का ज्ञान रखनेवाला है।
15. सात आसमानों की वास्तविकता क्या है, इसका निर्धारण कठिन है। इनसान हर युग में आकाश, या दूसरे शब्दों में ऊपरी लोक के सम्बन्ध में अपने निरीक्षण या कल्पनाओं के अनुसार विभिन्न धारणाएँ बनाता रहा है, जो बराबर बदलती रही हैं। बस संक्षेप में इतना समझ लेना काफ़ी हैं। या तो इससे मुराद यह है कि धरती के अतिरिक्त जितना जगत है, उसे अल्लाह ने सात सुदृढ़ क्षेत्रों में विभक्त कर रखा है, या यह कि धरती इस ब्रह्माण्ड के जिस भाग में स्थित है, वह सात खण्डों पर आधारित है।
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي جَاعِلٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ خَلِيفَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَجۡعَلُ فِيهَا مَن يُفۡسِدُ فِيهَا وَيَسۡفِكُ ٱلدِّمَآءَ وَنَحۡنُ نُسَبِّحُ بِحَمۡدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَۖ قَالَ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 29
(30) फिर तनिक उस समय की कल्पना करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा था कि “मैं धरती में एक ख़लीफ़ा16 (स्थानापन्न) बनानेवाला हूँ।” उन्होंने निवेदन किया:"क्या आप धरती में किसी ऐसे को नियुक्त करनेवाले हैं जो उसकी व्यवस्था को बिगाड़ देगा और रक्तपात करेगा? आपकी तारीफ़ और प्रशंसा के साथ तसबीह और आपकी पवित्रता का वर्णन तो हम कर ही रहे हैं।” कहा: “मैं जानता हूँ जो कुछ तुम नहीं जानते।”
16. 'ख़लीफ़ा' वह जो किसी की मिलकियत में उसके दिए हुए अधिकारों को उसके प्रतिनिधि के रूप में प्रयोग करे।
وَعَلَّمَ ءَادَمَ ٱلۡأَسۡمَآءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمۡ عَلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ فَقَالَ أَنۢبِـُٔونِي بِأَسۡمَآءِ هَٰٓؤُلَآءِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 30
(31) इसके बाद अल्लाह ने आदम को सारी चीज़़ों के नाम सिखाए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, “यदि तुम्हारा विचार सही है (कि किसी ख़लीफ़ा की नियुक्ति से व्यवस्था बिगड़ जाएगी, तो तनिक इन चीज़़ों के नाम बताओ।”
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ لَا عِلۡمَ لَنَآ إِلَّا مَا عَلَّمۡتَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 31
(32) उन्होंने कहा, “ऐबों से पाक तो आप ही की हस्ती है, हमें तो बस उतना ही ज्ञान है, जितना आपने हमको दे दिया है। वास्तव में सब कुछ जाननेवाला और समझनेवाला आपके सिवा कोई नहीं।”
قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ أَنۢبِئۡهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡۖ فَلَمَّآ أَنۢبَأَهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَأَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 32
(33) फिर अल्लाह ने आदम से कहा: “तुम इन्हें इनके नाम बताओ।” जब उसने उनको इन सबके नाम बता दिए, तो अल्लाह ने कहा: “मैंने तुमसे कहा न था कि मैं आकाशों और धरती के वे सारे तथ्य जानता हूँ जो तुमसे छिपे हैं, जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो, वह भी मुझे मालूम है और जो कुछ तुम छिपाते हो, उसे भी मैं जानता हूँ।"
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ وَٱسۡتَكۡبَرَ وَكَانَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 33
(34) फिर जब हमने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के आगे झुक जाओ, तो सब झुक गए, मगर इबलीस ने इनकार किया। वह अपनी बड़ाई के घमण्ड में पड़ गया और अवज्ञाकारियों में शामिल हो गया।
وَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ وَكُلَا مِنۡهَا رَغَدًا حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 34
(35) फिर हमने आदम से कहा “तुम और तुम्हारी पत्नी, दोनों जन्नत (स्वर्ग) में रहो और यहाँ जी भरकर जो चाहो खाओ, किन्तु इस पेड़ के निकट न जाना, नहीं तो ज़ालिमों में गिने जाओगे।”
فَأَزَلَّهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ عَنۡهَا فَأَخۡرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِۖ وَقُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 35
(36) अन्ततः शैतान ने उन दोनों को उस पेड़ की ओर प्रेरित करके हमारे आदेश के अनुपालन से हटा दिया और उन्हें उस हालत से निकलवाकर छोड़ा जिसमें वे थे। हमने हुक्म दिया कि “अब तुम सब यहाँ से उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो और तुम्हें एक विशेष समय तक धरती में ठहरना और वहीं गुज़र-बसर करना है।”
فَتَلَقَّىٰٓ ءَادَمُ مِن رَّبِّهِۦ كَلِمَٰتٖ فَتَابَ عَلَيۡهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 36
(37) उस समय आदम ने अपने रब से कुछ शब्द तौबा (क्षमायाचना) की, जिसको उसके रब ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि वह बड़ा क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
قُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ مِنۡهَا جَمِيعٗاۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَن تَبِعَ هُدَايَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 37
(38) हमने कहा कि “तुम सब यहाँ से उतर जाओ। फिर मेरी ओर से जो मार्गदर्शन तुम्हारे पास पहुँचे, तो जो लोग मेरे उस बताए मार्गदर्शन पर चलेंगे, उनके लिए किसी भय और दुख का मौक़ा न होगा,
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 38
(39) और जो उसे स्वीकार करने से इनकार करेंगे और हमारी आयतों को झुठलाएँगे, वे आग (नरक) में जानेवाले हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे।"
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِيٓ أُوفِ بِعَهۡدِكُمۡ وَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 39
(40) ऐ इसराईल की सन्तान17, तनिक याद करो मेरी उस नेमत को जो मेरी ओर से तुमपर हुई। मेरे साथ तुम्हारी जो प्रतिज्ञा थी उसे तुम पूरा करो तो मेरी जो प्रतिज्ञा तुम्हारे साथ थी उसे मैं पूरा करूँ, और मुझ ही से तुम डरो।
17. मदीना को पवित्र नगरी और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में चूँकि यहूदी बड़ी संख्या में आबाद थे इसलिए यहाँ से आगे कई 'रुकूओं (अनुच्छेदों) तक उनको सम्बोधित करके उन्हें सच्चे धर्म का आमंत्रण दिया गया है।
وَءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلۡتُ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُمۡ وَلَا تَكُونُوٓاْ أَوَّلَ كَافِرِۭ بِهِۦۖ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗا وَإِيَّٰيَ فَٱتَّقُونِ ۝ 40
(41) और मैंने जो किताब भेजी है, उसपर ईमान लाओ। यह उस किताब की पुष्टि में है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी, अतः सबसे पहले तुम ही उसके इनकार करनेवाले न बनो। थोड़े मूल्य पर मेरी आयतों को न बेच डालो18 और मेरे प्रकोप से बचो
18. थोड़े मूल्य से मुराद सांसारिक लाभ हैं जिनके लिए ये लोग अल्लाह के आदेशों और उसके हुक्मों को मानने से इनकार कर रहे थे। सत्य के बदले में चाहे इनसान दुनिया-भर की दौलत ले ले, बहरहाल वह थोड़ा ही मूल्य कहा जाएगा; क्योंकि सत्य निस्सन्देह उससे कहीं बहुमूल्य चीज़ है।
وَلَا تَلۡبِسُواْ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُواْ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 41
(42) असत्य का रंग चढ़ाकर सत्य को संदिग्ध न बनाओ और न जानते-बूझते सत्य को छिपाने का प्रयास करो।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱرۡكَعُواْ مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 42
(43) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात (दान) दो, और जो लोग मेरे आगे झुक रहे हैं उनके साथ तुम भी झुक जाओ।
۞أَتَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبِرِّ وَتَنسَوۡنَ أَنفُسَكُمۡ وَأَنتُمۡ تَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 43
(44) तुम दूसरों को तो नेकी का रास्ता अपनाने के लिए कहते हो, मगर अपने आपको भूल जाते हो? हालाँकि तुम किताब का पाठ करते हो। क्या तुम बुद्धि से बिलकुल ही काम नहीं लेते?
وَٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى ٱلۡخَٰشِعِينَ ۝ 44
(45) सब्र (धैर्य) और नमाज़ से मदद लो, बेशक नमाज़ एक बड़ा ही मुश्किल काम है, किन्तु उन आज्ञाकारी बन्दों के लिए मुश्किल नहीं है
ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَأَنَّهُمۡ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 45
(46) जो समझते हैं कि आख़िरकार उन्हें अपने रब से मिलना और उसी की ओर पलटकर जाना है।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 46
(47) ऐ इसराईल की संतान, याद करो मेरी उस नेमत (अनुग्रह) को जो मेरी ओर से तुमपर हुई थी और इस बात को कि मैंने तुम्हें संसार की सारी जातियों पर श्रेष्ठता प्रदान की थी19।
19. इसका यह अर्थ नहीं है कि हमेशा के लिए तुम्हें संसार की समस्त जातियों के मुक़ाबले में श्रेष्ठता दी थी, बल्कि मतलब यह है कि एक समय था जब संसार की जातियों (क़ौमों) में तुम ही वह एक जाति थे जिसके पास अल्लाह का दिया हुआ सच्चा ज्ञान था और जिसे संसार की जातियों का पेशवा और पथ-प्रदर्शक बनाया गया था, ताकि वह रब की बन्दगी के मार्ग पर सब जातियों को बुलाए और चलाए।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا يُؤۡخَذُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 47
(48) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के तनिक काम न आएगा और न किसी की ओर से सिफ़ारिश क़ुबूल होगी, न किसी को फ़िदया (जुर्माना) लेकर छोड़ा जाएगा, और न अपराधियों को कहीं से सहायता मिल सकेगी।
وَإِذۡ نَجَّيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 48
(49) याद करो वह समय, जब हमने तुमको फ़िरऔनियों20” की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाया— उन्होंने तुम्हें सख़्त अज़ाब में डाल रखा था, तुम्हारे लड़कों को मार डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को जीवित रहने देते थे और इस स्थिति में तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।
20. “आले-फ़िरऔन” का अनुवाद हमने इस शब्द से किया है। इसमें फ़िरऔन का घराना और मिस्र का शासकवर्ग दोनों सम्मिलित हैं।
وَإِذۡ فَرَقۡنَا بِكُمُ ٱلۡبَحۡرَ فَأَنجَيۡنَٰكُمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 49
(50) याद करो वह समय, जब हमने समुद्र फाड़कर तुम्हारे लिए रास्ता बनाया, फिर उसमें से तुम्हें सकुशल पार करा दिया, फिर वहीं तुम्हारी आँखों के सामने फ़िरऔनियों को डुबो दिया।
وَإِذۡ وَٰعَدۡنَا مُوسَىٰٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 50
(51) याद करो, जब हमने मूसा को चालीस दिन-रात के प्रस्ताव (वादे) पर बुलाया21, तो उसके पीछे तुम बछड़े को अपना पूज्य बना बैठे। उस समय तुमने बड़ी ज़्यादती की थी,
21. अर्थात् मिस्र से छुटकारा पाने के बाद जब इसराईल की सन्तति के लोग प्रायद्वीप सीना में पहुँच गए तो हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह ने चालीस दिन-रात के लिए तूर पर्वत पर बुलवाया ताकि वहाँ इस क़ौम के लिए, जो अब स्वतन्त्र हो चुकी थी, धर्म-विधान और व्यावहारिक जीवन के लिए आदेश प्रदान किए जाएँ।
ثُمَّ عَفَوۡنَا عَنكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 51
(52) मगर इसपर भी हमने तुम्हें क्षमा कर दिया कि शायद अब तुम कृतज्ञता दिखलाओ।
وَإِذۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡفُرۡقَانَ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 52
(53) याद करो कि (ठीक उस समय जब तुम यह ज़ुल्म कर रहे थे) हमने मूसा को किताब और कसौटी22 प्रदान की ताकि तुम उसके द्वारा सीधी राह पा सको
22. कसौटी (फ़ुरक़ान) से मुराद है वह चीज़़ जिसके द्वारा सत्य और असत्य का अन्तर स्पष्ट हो अर्थात् धर्म का वह ज्ञान और समझ जिससे मनुष्य सत्य और असत्य में अन्तर करता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِنَّكُمۡ ظَلَمۡتُمۡ أَنفُسَكُم بِٱتِّخَاذِكُمُ ٱلۡعِجۡلَ فَتُوبُوٓاْ إِلَىٰ بَارِئِكُمۡ فَٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ عِندَ بَارِئِكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 53
(54) याद करो जब मूसा (यह नेमत लिए हुए पलटा, तो उस) ने अपनी जातिवालों से कहा कि “लोगो, तुमने बछड़े को पूज्य बनाकर अपने साथ बड़ा अन्याय किया है, अत: तुम लोग अपने पैदा करनेवाले के आगे तौबा (क्षमा की प्रार्थना) करो और अपनों को मारो23, इसी में तुम्हारे पैदा करनेवाले की दृष्टि में तुम्हारी भलाई है।” उस समय तुम्हारे स्रष्टा ने तुम्हारी क्षमायाचना (तौबा) स्वीकार कर ली कि वह बड़ा क्षमाशील और दयावान् है।
23. अर्थात् अपने उन आदमियों को क़त्ल करो जिन्होंने बछड़े को पूज्य बनाया और उसकी पूजा की।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡكُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 54
(55) याद करो जब तुमने मूसा से कहा था कि हम तुम्हारे कहने का हरगिज़ विश्वास न करेंगे, जब तक कि अपनी आँखों से खुले तौर पर अल्लाह को (तुमसे बातें करते न देख लें। उस समय तुम्हारे देखते-देखते एक ज़बरदस्त कड़के ने तुमको आ लिया।
ثُمَّ بَعَثۡنَٰكُم مِّنۢ بَعۡدِ مَوۡتِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 55
(56) तुम बेजान होकर गिर चुके थे, मगर फिर हमने तुमको जिला उठाया, शायद कि इस उपकार के बाद तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ।
وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡغَمَامَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 56
(57) हमने तुमपर बादल की छाँव की, 'मन्न' और 'सलवा' का भोजन तुम्हारे लिए जुटाया और तुमसे कहा कि जो स्वच्छ चीज़़ें हमने तुम्हें प्रदान की हैं, उन्हें खाओ (मगर तुम्हारे पूर्वजों ने जो कुछ किया) वह हमपर उनका ज़ुल्म न था, बल्कि उन्होंने आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म किया।
وَإِذۡ قُلۡنَا ٱدۡخُلُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ فَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ رَغَدٗا وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُولُواْ حِطَّةٞ نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطَٰيَٰكُمۡۚ وَسَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 57
(58) फिर याद करो जब हमने कहा था कि “यह बस्ती (जो तुम्हारे सामने है) इसमें प्रवेश करो, इसकी पैदावार, जिस प्रकार चाहो, मज़े से खाओ, मगर बस्ती के दरवाज़े में सजदा करते (सिर झुकाए) हुए प्रवेश करना और कहते जाना “हित्ततुन हित्ततुन"24, हम तुम्हारी ख़ताओं को माफ़ करेंगे और सुकर्मियों (मुहसिनीन) पर और अधिक अनुग्रह करेंगे।”
24. 'हित्ततुन' के दो अर्थ हो सकते हैं एक यह कि अल्लाह से अपनी ख़ताओं की माफ़ी माँगते हुए जाना, दूसरे यह कि लूट-मार और क़त्लेआम के बदले बस्ती के निवासियों में नरमी और आम माफ़ी की घोषणा करते जाना।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَنزَلۡنَا عَلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 58
(59) मगर जो बात उनसे कही गई थी, इन ज़ालिमों ने उसे बदलकर कुछ और कर दिया। अन्त में हमने ज़ुल्म करनेवालों पर आकाश से अज़ाब उतारा। यह सज़ा थी उन नाफ़रमानियों को, जो वे कर रहे थे।
۞وَإِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ فَقُلۡنَا ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنفَجَرَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۖ كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ مِن رِّزۡقِ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 59
(60) याद करो, जब मूसा ने अपनी जातिवालों के लिए पानी की प्रार्थना की तो हमने कहा कि अमुक चट्टान पर अपनी लाठी (असा) मारो। अतएव उससे बारह स्रोत फूट निकले और हर क़बीले ने जान लिया कि कौन-सी जगह उसके पानी लेने की है।25 (उस समय यह आदेश दे दिया गया था कि) अल्लाह की दी हुई रोज़ी खाओ पियो, और धरती में बिगाड़ न फैलाते फिरो।
25. इसराईल वंशज के 12 क़बीले थे। अल्लाह ने प्रत्येक क़बीले के लिए अलग स्रोत निकाल दिया ताकि उनके बीच पानी पर झगड़ा न हो।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نَّصۡبِرَ عَلَىٰ طَعَامٖ وَٰحِدٖ فَٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُخۡرِجۡ لَنَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۢ بَقۡلِهَا وَقِثَّآئِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَاۖ قَالَ أَتَسۡتَبۡدِلُونَ ٱلَّذِي هُوَ أَدۡنَىٰ بِٱلَّذِي هُوَ خَيۡرٌۚ ٱهۡبِطُواْ مِصۡرٗا فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلۡتُمۡۗ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ وَٱلۡمَسۡكَنَةُ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 60
(61) याद करो, जब तुमने कहा था कि “ऐ मूसा, हम एक ही प्रकार के खाने पर सन्तोष नहीं कर सकते। अपने रब से प्रार्थना करो कि हमारे लिए धरती की पैदावार, साग, तरकारी, गेहूँ, लहसुन, प्याज़, दाल आदि पैदा करे।” तो मूसा ने कहा “क्या एक उत्तम चीज़़ को छोड़कर तुम घटिया दर्जे की चीज़़ें लेना चाहते हो? अच्छा, किसी शहरी आबादी में जा रहो। जो कुछ तुम माँगते हो, वहाँ मिल जाएगा।” आख़िरकार इस दशा को पहुँच गए कि अपमान एवं अपयश और गिरावट एवं बदहाली उनपर थोप दी गई और वे अल्लाह के अज़ाब में घिर गए। यह नतीजा था इसका कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करने लगे थे और पैग़म्बरों की अकारण हत्या करने लगे थे। यह नतीजा था उनको नाफ़रमानियों का और इस बात का कि वे धार्मिक मर्यादाओं से निकल-निकल जाते थे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 61
(62) विश्वास रखो कि अरबी नबी को माननेवाले हों या यहूदी, ईसाई हों या साबी, जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाएगा और अच्छा कर्म करेगा, उसका बदला उसके रब के पास है और उसके लिए किसी डर और रंज का मौक़ा नहीं है।26
26. सन्दर्भ को देखने से यह बात स्वयं स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ ईमान और अच्छे कर्मों का विवरण प्रस्तुत करना अभीष्ट नहीं है कि किन-किन बातों को आदमी माने और क्या-क्या कर्म करे तो ख़ुदा के यहाँ वह पुरस्कार पाने का अधिकारी होगा। यहाँ तो यहूदियों के इस ग़लत दावे का खण्डन अभीष्ट है कि वे केवल यहूदियों को मुक्ति का पात्र समझते थे और इस भ्रम में पड़े हुए थे कि जो उनके गिरोह से सम्बन्ध रखता है वह चाहे कर्म और आस्थाओं की दृष्टि से कैसा ही हो उसकी तो मुक्ति होनी ही है, और शेष सारे लोग जो उनके गिरोह से बाहर हैं वे केवल नरक का ईंधन बनने के लिए पैदा हुए हैं। इस भ्रम को दूर करने के लिए कहा जा रहा है। कि अल्लाह के यहाँ मूल चीज़़ तुम्हारी ये गिरोहबन्दियाँ नहीं है बल्कि वहाँ जो कुछ एतिबार (विश्वस्त) है, वह ईमान और अच्छे कर्म का है। जो मनुष्य भी यह चीज़़ लेकर पहुँचेगा वह अपने रब से अपना इनाम पाएगा। ख़ुदा के यहाँ निर्णय आदमी के गुणों के आधार पर होगा, न कि तुम्हारे जनगणना के रजिस्ट्रों के अनुसार।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 62
(63) याद करो वह समय, जब हमने तूर को तुमपर उठाकर तुमसे पक्का वचन लिया था और कहा था कि “जो ग्रन्थ हम तुम्हें दे रहे हैं उसे मज़बूती के साथ थामना और जो आदेश और निर्देश उसमें लिखे हैं उन्हें याद रखना। इसी माध्यम से आशा की जा सकती है कि तुम तक़वा (धर्मपरायणता) की नीति पर चल सकोगे।”
ثُمَّ تَوَلَّيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۖ فَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَكُنتُم مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 63
(64) मगर इसके बाद तुम अपने वचन से फिर गए। इसपर भी अल्लाह की कृपा और उसकी दयालुता ने तुम्हारा साथ न छोड़ा, वरना तुम कभी के तबाह हो चुके होते।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلَّذِينَ ٱعۡتَدَوۡاْ مِنكُمۡ فِي ٱلسَّبۡتِ فَقُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 64
(65) फिर तुम्हें अपनी जाति के उन लोगों का क़िस्सा तो मालूम ही है जिन्होंने सब्त27 का नियम तोड़ा था। हमने उन्हें कह दिया कि बन्दर बन जाओ और इस दशा में रहो कि हर ओर से तुमपर धुतकार-फिटकार पड़े।
27. 'सब्त' अर्थात् शनिवार (हफ़्ते) का दिन। इसराईल के वंशजों के लिए यह नियम निर्धारित किया गया था कि वे शनिवार का दिन आराम और उपासना के लिए रखें। उस दिन किसी प्रकार का सांसारिक काम, यहाँ तक कि खाने-पकाने का काम भी न ख़ुद करें और न ही अपने सेवकों से यह काम लें।
فَجَعَلۡنَٰهَا نَكَٰلٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهَا وَمَا خَلۡفَهَا وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 65
(66) इस तरह हमने उनके अंजाम को उस ज़माने के लोगों और बाद की आनेवाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा सामग्री और (अल्लाह से) डरनेवालों के लिए नसीहत बनाकर छोड़ा।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦٓ إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تَذۡبَحُواْ بَقَرَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَتَّخِذُنَا هُزُوٗاۖ قَالَ أَعُوذُ بِٱللَّهِ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 66
(67) फिर वह घटना याद करो, जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि अल्लाह तुम्हें एक गाय ज़बह करने का हुक्म देता है। कहने लगे: क्या तुम हमसे मज़ाक़ करते हो? मूसा ने कहा: मैं इससे अल्लाह की पनाह माँगता हूँ कि अज्ञानियों जैसी बातें करूँ।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا فَارِضٞ وَلَا بِكۡرٌ عَوَانُۢ بَيۡنَ ذَٰلِكَۖ فَٱفۡعَلُواْ مَا تُؤۡمَرُونَ ۝ 67
(68) बोले: अच्छा, अपने रब से प्रार्थना करो कि वह हमें उस गाय के बारे में कुछ विस्तार से बताए। मूसा ने कहा: अल्लाह कहता है कि वह गाय ऐसी होनी चाहिए जो न बूढ़ी हो न बछिया, बल्कि मध्य आयु की हो। अतः जो हुक्म दिया जाता है उसका पालन करो।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا لَوۡنُهَاۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ صَفۡرَآءُ فَاقِعٞ لَّوۡنُهَا تَسُرُّ ٱلنَّٰظِرِينَ ۝ 68
(69) फिर कहने लगे कि अपने रब से यह और पूछ दो कि उसका रंग कैसा हो। मूसा ने कहा वह कहता है कि पीले रंग की गाय होनी चाहिए जिसका रंग ऐसा चटकीला हो कि देखनेवालों का मन प्रसन्न हो जाए।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ إِنَّ ٱلۡبَقَرَ تَشَٰبَهَ عَلَيۡنَا وَإِنَّآ إِن شَآءَ ٱللَّهُ لَمُهۡتَدُونَ ۝ 69
(70) फिर बोले अपने रब से साफ़-साफ़ पूछकर बताओ कैसी गाय चाहिए, हमें उसके निर्धारण में सन्देह हो गया है। अल्लाह ने चाहा तो हम उसका पता पा लेंगे।
قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا ذَلُولٞ تُثِيرُ ٱلۡأَرۡضَ وَلَا تَسۡقِي ٱلۡحَرۡثَ مُسَلَّمَةٞ لَّا شِيَةَ فِيهَاۚ قَالُواْ ٱلۡـَٰٔنَ جِئۡتَ بِٱلۡحَقِّۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 70
(71) मूसा ने जवाब दिया: “अल्लाह कहता है कि वह ऐसी गाय है जिससे सेवा कार्य नहीं लिया जाता, न ज़मीन जोतती है न पानी खींचती है, भली-चंगी और बेदाग़ है। इसपर वे पुकार उठे कि हाँ, अब तुमने ठीक पता बताया है। फिर उन्होंने उसे ज़बह किया, वरना वे ऐसा करते मालूम न होते थे।28
28. चूँकि इसराईल के वंशजों को मिस्र-निवासियों और अपनी पड़ोसी क़ौमों से गाय की महानता, पवित्रता और गौ-पूजा के रोग की छूत लग गई थी और इसी कारण उन्होंने मिस्र से निकलते ही बछड़े को पूज्य बना लिया था, इसलिए उन्हें आदेश दिया गया कि गाय ज़बह करें। उन्होंने टालने की कोशिश की और विवरण पूछने लगे। मगर जितना जितना विस्तार में जाते गए उतने ही घिरते चले गए, यहाँ तक कि अन्त में उसी विशेष प्रकार की सुनहरी गाय पर, जिसे उस समय पूजा के लिए ख़ास किया जाता था, मानो उँगली रखकर बता दिया गया कि इसे ज़बह करो।
وَإِذۡ قَتَلۡتُمۡ نَفۡسٗا فَٱدَّٰرَٰٔتُمۡ فِيهَاۖ وَٱللَّهُ مُخۡرِجٞ مَّا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 71
(72) और तुम्हें याद है वह घटना जब तुमने एक व्यक्ति की जान ली थी, फिर उसके बारे में झगड़ने लगे और एक-दूसरे पर क़त्ल का इलज़ाम थोपने लगे थे और अल्लाह ने फ़ैसला कर लिया था कि जो कुछ तुम छिपाते हो, उसे खोलकर रख देगा।
فَقُلۡنَا ٱضۡرِبُوهُ بِبَعۡضِهَاۚ كَذَٰلِكَ يُحۡيِ ٱللَّهُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 72
(73) उस समय हमने हुक्म दिया कि मारे गए व्यक्ति की लाश को उसके एक भाग से चोट करो। देखो, इस प्रकार अल्लाह मुर्दों को जीवन दान देता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझो
ثُمَّ قَسَتۡ قُلُوبُكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَهِيَ كَٱلۡحِجَارَةِ أَوۡ أَشَدُّ قَسۡوَةٗۚ وَإِنَّ مِنَ ٱلۡحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنۡهُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخۡرُجُ مِنۡهُ ٱلۡمَآءُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَهۡبِطُ مِنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 73
(74) — किन्तु ऐसी निशानियाँ देख लेने के बाद भी अन्ततः तुम्हारे दिल सख़्त हो गए, पत्थरों की तरह सख़्त, बल्कि सख़्ती में कुछ उनसे भी बढ़े हुए, क्योंकि पत्थरों में से तो कोई ऐसा भी होता है जिसमें से स्रोत फूट बहते हैं, कोई फटता है और उसमें से पानी निकल आता है, और कोई अल्लाह के डर से काँपकर गिर भी पड़ता है। अल्लाह तुम्हारी करतूतों से बेख़बर नहीं है।
۞أَفَتَطۡمَعُونَ أَن يُؤۡمِنُواْ لَكُمۡ وَقَدۡ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَسۡمَعُونَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُۥ مِنۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 74
(75) ऐ मुसलमानो, अब क्या इन लोगों से तुम वह उम्मीद रखते हो कि वे तुम्हारे आमंत्रण (दावत) को मान लेंगे29? जबकि इनमें से एक गिरोह की नीति यह रही है कि उसने अल्लाह की वाणी सुनी और फिर ख़ूब समझ-बूझकर, जानते हुए उसमें रद्दोबदल किया।
29. यह सम्बोधन मदीना के उन नए मुसलमानों से है जो निकट समय ही में अरबी नबी (सल्ल०) के अनुयायी हुए थे। इन लोगों के कान में पहले से नुबूवत (पैग़म्बरी), किताब, फ़रिश्तों, आख़िरत (परलोक), शरीअत (धर्म-विधान) आदि की जो बातें पड़ी हुई थीं, वे सब इन्होंने अपने पड़ोसी यहूदियों ही से सुनी थीं। इसलिए अब उन्हें यह आशा थी कि जो लोग पहले ही से नबियों और आसमानी किताबों के माननेवाले हैं और जिनकी दी हुई ख़बरों के कारण ही हमको ईमान की नेमत प्राप्त हुई है, वे अवश्य ही हमारा साथ देंगे, बल्कि इस रास्ते में आगे-आगे रहेंगे।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَا بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ قَالُوٓاْ أَتُحَدِّثُونَهُم بِمَا فَتَحَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ لِيُحَآجُّوكُم بِهِۦ عِندَ رَبِّكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 75
(76) ये (अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल० पर) ईमान लानेवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम भी उन्हें मानते हैं, और जब आपस में एक-दूसरे से एकान्त में बातचीत होती है तो कहते हैं कि मूर्ख हो गए हो? इन लोगों को वे बातें बताते हो जो अल्लाह ने तुमपर खोली हैं ताकि तुम्हारे रब के पास तुम्हारे मुक़ाबले में उन्हें प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करें?
أَوَلَا يَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 76
(77) ― और क्या ये जानते नहीं है कि जो कुछ ये छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है?
وَمِنۡهُمۡ أُمِّيُّونَ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّآ أَمَانِيَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَظُنُّونَ ۝ 77
(78) — इनमें एक दूसरा गिरोह उम्मियों का है जिनको (अल्लाह की) किताब का तो ज्ञान नहीं, बस अपनी निराधार आशाओं और कामनाओं को लिए बैठे हैं और केवल अटकल पर चले जा रहे हैं।
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ يَكۡتُبُونَ ٱلۡكِتَٰبَ بِأَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ يَقُولُونَ هَٰذَا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ لِيَشۡتَرُواْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا كَتَبَتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا يَكۡسِبُونَ ۝ 78
(79) तो विनाश और तबाही है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से धर्म-विधान सम्बन्धी लेख्य लिखते हैं। फिर लोगों से कहते हैं कि यह अल्लाह के पास से आया हुआ है ताकि इसके बदले में थोड़ा-सा लाभ उठा लें। उनके हाथों का यह लिखा भी उनके लिए तबाही का सामान है और उनकी यह कमाई भी उनके लिए विनाश का कारण।
وَقَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَةٗۚ قُلۡ أَتَّخَذۡتُمۡ عِندَ ٱللَّهِ عَهۡدٗا فَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ عَهۡدَهُۥٓۖ أَمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 79
(80) वे कहते हैं कि नरक की आग हमें हरगिज़ छूनेवाली नहीं सिवाय इसके कि कुछ थोड़े दिनों की सज़ा मिल जाए तो मिल जाए। उनसे पूछो, क्या तुमने अल्लाह से कोई वचन ले लिया है जिसके विरुद्ध वह नहीं कर सकता? या बात यह है कि तुम अल्लाह से लगाकर ऐसी बातें कह देते हो जिनके सम्बन्ध में तुम्हें ज्ञान नहीं है कि उसने उनका ज़िम्मा लिया है?
بَلَىٰۚ مَن كَسَبَ سَيِّئَةٗ وَأَحَٰطَتۡ بِهِۦ خَطِيٓـَٔتُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 80
(81) आख़िर तुम्हे नरक की आग क्यों न छुएगी? जो भी बुराई कमाएगा और अपनी ग़लतकारी के चक्कर में पड़ा रहेगा, वह जहन्नमी (नरक में जानेवाला) है और नरक ही में वह हमेशा रहेगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 81
(82) और जो लोग ईमान लाएँगे और अच्छे कर्म करेंगे वही जन्नती (स्वर्गवाले) हैं और जन्नत में वे हमेशा रहेंगे।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ لَا تَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَانٗا وَذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَقُولُواْ لِلنَّاسِ حُسۡنٗا وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ ثُمَّ تَوَلَّيۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنكُمۡ وَأَنتُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 82
(83) याद करो, इसराईल की संतान से हमने पक्का वचन लिया था कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करना, माँ-बाप के साथ, नातेदारों के साथ, अनाथों और दीन-दुखियों के साथ अच्छा व्यवहार करना, लोगों से भली बात कहना, नमाज़ क़ायम करना और ज़कात देना, मगर थोड़े लोगों के सिवा तुम सब इस वचन से फिर गए और अब तक फिरे हुए हो।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ لَا تَسۡفِكُونَ دِمَآءَكُمۡ وَلَا تُخۡرِجُونَ أَنفُسَكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ ثُمَّ أَقۡرَرۡتُمۡ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 83
(84) फिर तनिक याद करो, हमने तुमसे पक्का वचन लिया था कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून न बहाना और न एक-दूसरे को घर से बेघर करना। तुमने इसको स्वीकार किया था, तुम ख़ुद इसपर गवाह हो।
ثُمَّ أَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تَقۡتُلُونَ أَنفُسَكُمۡ وَتُخۡرِجُونَ فَرِيقٗا مِّنكُم مِّن دِيَٰرِهِمۡ تَظَٰهَرُونَ عَلَيۡهِم بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَإِن يَأۡتُوكُمۡ أُسَٰرَىٰ تُفَٰدُوهُمۡ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيۡكُمۡ إِخۡرَاجُهُمۡۚ أَفَتُؤۡمِنُونَ بِبَعۡضِ ٱلۡكِتَٰبِ وَتَكۡفُرُونَ بِبَعۡضٖۚ فَمَا جَزَآءُ مَن يَفۡعَلُ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ إِلَّا خِزۡيٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُرَدُّونَ إِلَىٰٓ أَشَدِّ ٱلۡعَذَابِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 84
(85) मगर आज वही तुम हो कि अपने भाई-बन्धुओं की हत्या करते हो, अपनी बिरादरी के कुछ लोगों को बेघर-बार कर देते हो, ज़ुल्म और ज़्यादती के साथ उनके विरुद्ध जत्थेबन्दियाँ करते हो, और जब वे लड़ाई में पकड़े हुए तुम्हारे पास आते हैं, तो उनकी रिहाई के लिए फ़िदये का लेन-देन करते हो, जबकि उन्हें उनके घरों से निकालना ही सिरे से तुमपर हराम था। तो क्या तुम किताब के एक हिस्से पर ईमान लाते हो, और दूसरे हिस्से का इनकार करते हो? फिर तुममें से जो लोग ऐसा करें, उनकी सज़ा इसके सिवा और क्या है कि सांसारिक जीवन में भी अपमानित और तिरस्कृत होकर रहें और आख़िरत (परलोक) में कठोरतम यातना की ओर फेर दिए जाएँ? अल्लाह उन कामों से बेख़बर नहीं है जो तुम कर रहे हो
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۖ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 85
(86) – ये वे लोग हैं, जिन्होंने आख़िरत बेचकर सांसारिक जीवन ख़रीद लिया है, अतः न इनकी सज़ा में कोई कमी होगी और न इन्हें कोई सहायता पहुँच सकेगी।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَقَفَّيۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ بِٱلرُّسُلِۖ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ أَفَكُلَّمَا جَآءَكُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُكُمُ ٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ فَفَرِيقٗا كَذَّبۡتُمۡ وَفَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ ۝ 86
(87) हमने मूसा को किताब दी, उसके बाद लगातार रसूल भेजे, अन्त में मरयम के बेटे ईसा को स्पष्ट निशानियाँ देकर भेजा और पवित्र आत्मा30 से उसकी सहायता की। फिर यह तुम्हारा क्या ढंग है कि जब भी कोई रसूल (पैग़म्बर) तुम्हारी अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़ कोई चीज़़ लेकर तुम्हारे पास आया, तो तुमने उसके मुक़ाबले में सरकशी ही की, किसी को झुठलाया और किसी की हत्या कर डाली!
30. “पवित्र आत्मा” से मुराद वह्य (प्रकाशना) का ज्ञान भी है, और जिबरील नामक फ़रिश्ते भी जो प्रकाशना (revelation) का ज्ञान लाते थे। और ख़ुद हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) की अपनी पवित्र आत्मा भी, जिसको अल्लाह ने पवित्र गुणों से सुशोभित किया था।
وَقَالُواْ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَل لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَقَلِيلٗا مَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(88) — वे कहते हैं, हमारे दिल सुरक्षित हैं। नहीं, सच बात यह है कि उनके इनकार के कारण उनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी है, इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ كِتَٰبٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ وَكَانُواْ مِن قَبۡلُ يَسۡتَفۡتِحُونَ عَلَى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَمَّا جَآءَهُم مَّا عَرَفُواْ كَفَرُواْ بِهِۦۚ فَلَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 88
(89) — और अब जो एक किताब अल्लाह की ओर से उनके पास आई है, उसके साथ उनका क्या व्यवहार है? इसके बावजूद कि वह उस किताब की पुष्टि करती है जो उनके पास पहले से मौजूद थी, इसके बावजूद कि उसके आने से पहले वे ख़ुद इनकार करनेवालों के मुक़ाबले में विजय और सहायता की प्रार्थनाएँ किया करते थे,31 परन्तु जब वह चीज़़ आ गई, जिसे वे पहचान भी गए, तो उन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया। अल्लाह की लानत इन इनकार करनेवालों पर,
31. हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के आने से पहले यहूदी बड़ी बेचैनी के साथ उस नबी का इन्तिज़ार कर रहे थे जिसके आने की पूर्वसूचना उनके नबियों ने दी थी और प्रार्थनाएँ किया करते थे कि जल्दी से वह आए तो इनकार करनेवालों का प्रभुत्व समाप्त हो और हमारे उत्थान के युग का शुभारंभ हो।
بِئۡسَمَا ٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡ أَن يَكۡفُرُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بَغۡيًا أَن يُنَزِّلَ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ فَبَآءُو بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 89
(90) कैसा बुरा साधन है जिससे ये अपने जी की तसल्ली हासिल करते हैं32 कि जो आदेश अल्लाह ने भेजा है उसे स्वीकार करने से केवल इस हठ के कारण इनकार कर रहे हैं कि अल्लाह ने अपने उदार दान (प्रकाशना और पैग़म्बरी) से अपने जिस बन्दे को ख़ुद चाहा, नवाज़ दिया।33 अतः अब ये प्रकोप पर प्रकोप के अधिकारी हो गए हैं और ऐसे इनकार करनेवालों के लिए घोर अपमानजनक सज़ा निश्चित है।
32. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “कैसी बुरी चीज़़ है, जिसके लिए इन्होंने अपनी जानों को बेच डाला।" अर्थात् अपनी भलाई व कल्याण और अपनी मुक्ति को भेंट चढ़ा दिया।
33. ये लोग चाहते थे कि आनेवाला नबी इनकी अपनी क़ौम में पैदा हो। मगर जब वह एक दूसरी क़ौम में पैदा हुआ, जिसे वे अपने मुक़ाबले में नीचा समझते थे, तो वे उसके इनकार पर उतर आए। मानो उनका मतलब यह था कि अल्लाह उनसे पूछकर नबी भेजता।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ نُؤۡمِنُ بِمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَيَكۡفُرُونَ بِمَا وَرَآءَهُۥ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَهُمۡۗ قُلۡ فَلِمَ تَقۡتُلُونَ أَنۢبِيَآءَ ٱللَّهِ مِن قَبۡلُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 90
(91) जब उनसे कहा जाता है कि जो कुछ अल्लाह ने उतारा है उसपर ईमान लाओ, तो वे कहते है, “हम तो केवल उस चीज़़ पर ईमान लाते हैं, जो हमारे यहाँ (अर्थात् इसराईल के वंशज में) उतरी है।” इस परिधि से बाहर जो कुछ आया है, उसे मानने से वे इनकार करते हैं, जबकि वह सत्य है और उस शिक्षा की पुष्टि और समर्थन कर रहा है जो उनके यहाँ पहले से मौजूद थी। अच्छा, इनसे कहो: यदि तुम उस शिक्षा ही के माननेवाले हो जो तुम्हारे यहाँ आई थी, तो इससे पहले अल्लाह के उन पैग़म्बरों की (जो ख़ुद इसराईल के वंशज में पैदा हुए थे) क्यों हत्या करते रहे?
۞وَلَقَدۡ جَآءَكُم مُّوسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 91
(92) तुम्हारे पास मूसा कैसी-कैसी स्पष्ट निशानियों के साथ आया। फिर भी तुम ऐसे ज़ालिम थे कि उसके पीठ मोड़ते ही बछड़े को पूज्य बना बैठे
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱسۡمَعُواْۖ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَأُشۡرِبُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡعِجۡلَ بِكُفۡرِهِمۡۚ قُلۡ بِئۡسَمَا يَأۡمُرُكُم بِهِۦٓ إِيمَٰنُكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 92
(93) फिर तनिक उस वचन को याद करो, जो तूर को तुम्हारे ऊपर उठाकर हमने तुमसे लिया था। हमने ताकीद की थी कि जो आदेश हम दे रहे है, उनका मज़बूती के साथ पालन करो और कान लगाकर सुनो। तुम्हारे पूर्वजों ने कहा कि हमने सुन लिया, मगर मानेंगे नहीं। और उनकी असत्यप्रियता का हाल यह था कि दिलों में उनके बछड़ा ही बसा हुआ था। कहो: यदि तुम ईमानवाले हो, तो यह अनोखा ईमान है जो ऐसी बुरी बातों के लिए तुम्हें हुक्म देता है।
قُلۡ إِن كَانَتۡ لَكُمُ ٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ ٱللَّهِ خَالِصَةٗ مِّن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 93
(94) इनसे कहो कि यदि वास्तव में अल्लाह के निकट परलोक का घर सारे मनुष्यों को छोड़कर केवल तुम्हारे ही लिए ख़ास है तब तो तुम्हें चाहिए कि मौत की तमन्ना करो, यदि तुम अपने इस विचार में सच्चे हो
وَلَن يَتَمَنَّوۡهُ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 94
(95) — विश्वास रखो कि ये कभी इसकी तमन्ना न करेंगे, इसलिए कि अपने हाथों जो कुछ कमाकर इन्होंने वहाँ भेजा है, उसकी यही अपेक्षा है (कि ये वहाँ जाने की तमन्ना न करें), अल्लाह इन ज़ालिमों को ख़ूब जानता है।
وَلَتَجِدَنَّهُمۡ أَحۡرَصَ ٱلنَّاسِ عَلَىٰ حَيَوٰةٖ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۚ يَوَدُّ أَحَدُهُمۡ لَوۡ يُعَمَّرُ أَلۡفَ سَنَةٖ وَمَا هُوَ بِمُزَحۡزِحِهِۦ مِنَ ٱلۡعَذَابِ أَن يُعَمَّرَۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 95
(96) तुम इन्हें सबसे बढ़कर जीने का लोभी पाओगे यहाँ तक कि ये इस सम्बन्ध में मुशरिकों (बहुदेववादियों) से भी बढ़े हुए हैं। इनमें से एक-एक आदमी यह चाहता है कि किसी तरह हज़ार वर्ष जिए, हालाँकि लम्बी उम्र किसी हालत में भी उसे अज़ाब से तो नहीं बचा सकती। जैसे कुछ कर्म ये कर रहे हैं, अल्लाह तो उन्हें देख ही रहा है।
قُلۡ مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّـجِبۡرِيلَ فَإِنَّهُۥ نَزَّلَهُۥ عَلَىٰ قَلۡبِكَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 96
(97) इनसे कहो कि जो कोई जिबरील से दुश्मनी रखता हो34, उसे मालूम होना चाहिए कि जिबरील ने अल्लाह ही के हुक्म से यह क़ुरआन तुम्हारे दिल पर उतारा है, जो पहले आई हुई किताबों की पुष्टि और समर्थन करता है और ईमान लानेवालों के लिए मार्गदर्शन और सफलता की ख़ुशख़बरी बनकर आया है।
34. यहूदी केवल नबी (सल्ल०) को और आपके माननेवालों ही को बुरा न कहते थे, बल्कि ख़ुदा के पसंदीदा फ़रिश्ते जिबरील को भी गालियाँ देते थे और कहते थे कि वह हमारा दुश्मन है। वह दया का नहीं, अज़ाब का फ़रिश्ता है।
مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّلَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَجِبۡرِيلَ وَمِيكَىٰلَ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَدُوّٞ لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 97
(98) (यदि जिबरील से इनकी दुश्मनी का कारण यही है, तो कह दो कि) जो अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील और मीकाईल के दुश्मन हैं, अल्लाह उन इनकार करनेवालों का दुश्मन है।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ وَمَا يَكۡفُرُ بِهَآ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 98
(99) हमने तुम्हारी ओर ऐसी आयतें उतारी हैं जो साफ़-साफ़ सत्य को ज़ाहिर करनेवाली हैं। और उनके अनुपालन से केवल वही लोग इनकार करते हैं जो उल्लंघनकारी हैं।
أَوَكُلَّمَا عَٰهَدُواْ عَهۡدٗا نَّبَذَهُۥ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 99
(100) क्या सदैव ऐसा ही नहीं होता रहा है कि जब इन्होंने कोई वचन दिया, तो इनमें से एक-न-एक गिरोह ने उसे अवश्य ही पीठ पीछे डाल दिया? बल्कि उनमें से बहुतेरे ऐसे ही हैं जो सच्चे दिल से ईमान नहीं लाते।
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ نَبَذَ فَرِيقٞ مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ كِتَٰبَ ٱللَّهِ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ كَأَنَّهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 100
(101) और जब उनके पास अल्लाह की ओर से कोई रसूल उस किताब की पुष्टि और समर्थन करता हुआ आया जो इनके यहाँ पहले से मौजूद थी, तो इन किताबवालों में से एक गिरोह ने अल्लाह की किताब को इस तरह पीठ पीछे डाल दिया मानो वे कुछ जानते ही नहीं।
وَٱتَّبَعُواْ مَا تَتۡلُواْ ٱلشَّيَٰطِينُ عَلَىٰ مُلۡكِ سُلَيۡمَٰنَۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيۡمَٰنُ وَلَٰكِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ ٱلنَّاسَ ٱلسِّحۡرَ وَمَآ أُنزِلَ عَلَى ٱلۡمَلَكَيۡنِ بِبَابِلَ هَٰرُوتَ وَمَٰرُوتَۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنۡ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَآ إِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَةٞ فَلَا تَكۡفُرۡۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنۡهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِۦ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَزَوۡجِهِۦۚ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِۦ مِنۡ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡۚ وَلَقَدۡ عَلِمُواْ لَمَنِ ٱشۡتَرَىٰهُ مَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖۚ وَلَبِئۡسَ مَا شَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 101
(102) और लगे उन चीज़़ों का अनुसरण करने जो शैतान, सुलैमान के राज्य का नाम लेकर पेश किया करते थे, हालाँकि सुलैमान ने कभी 'कुफ़्र' नहीं किया, कुफ़्र में तो वे शैतान पड़े थे जो लोगों को जादूगरी की शिक्षा देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत और मारूत पर उतारी गई थी, हालाँकि वे (फ़रिश्ते) जब भी किसी को उसकी शिक्षा देते थे, तो पहले स्पष्ट रूप से सावधान कर दिया करते थे कि “देख, हम केवल एक आज़माइश हैं, तू कुफ़्र में न पड़।35 फिर भी ये लोग उनसे वही चीज़़ सीखते थे जिससे पति और पत्नी में जुदाई डाल दें। यह खुली हुई बात थी कि अल्लाह की इजाज़त के बिना वे इसके द्वारा किसी को भी नुकसान नहीं पहुँचा सकते थे, किन्तु फिर भी वे ऐसी चीज़़ सीखते थे जो ख़ुद उनके लिए लाभकारी नहीं, बल्कि हानिकारक थी और वे ख़ूब जानते थे कि जो इस चीज़़ का खरीदार बना उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। कितना बुरा उपभोग्य था जिसका उन्होंने अपनी जानों के बदले सौदा किया, क्या ही अच्छा होता यदि वे जानते होते!
35. इस आयत की व्याख्या में कई बातें कही जाती हैं, मगर जो कुछ मैंने समझा है वह यह है कि जिस ज़माने में इसराईली वंशज की पूरी क़ौम बाबिल में बन्दी और दास बनी हुई थी, अल्लाह ने दो फ़रिश्तों को इनसानों शक्ल में उनकी आज़माइश के लिए भेजा होगा। जिस तरह लूत (अलैहि०) की क़ौमवालों के पास फ़रिश्ते सुन्दर लड़कों के रूप में गए थे, उसी तरह इन इसराईलियों के पास वे पीरों और सन्तों के रूप में गए होंगे। वहाँ एक ओर उन्होंने जादूगरी के बाज़ार में अपनी दुकान लगाई होगी और दूसरी ओर वे हर एक को सावधान भी कर देते रहे होंगे कि वे कल कोई इलज़ाम न दे सकें। फ़रिश्ते कहते रहे होंगे कि हम तुम्हारे लिए आज़माइश हैं, तुम अपना पारलौकिक जीवन न बिगाड़ो। मगर इसके बावजूद लोग उनके द्वारा प्रस्तुत की हुई तांत्रिक उपकृतियों और जन्त्रों और तावीज़ों पर टूटे पड़ते होंगे।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَمَثُوبَةٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ خَيۡرٞۚ لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 102
(103) यदि वे ईमान और तक़वा (परहेज़गारी) को अपनाते, तो अल्लाह के यहाँ इसका जो बदला मिलता, वह उनके लिए अधिक अच्छा था। क्या ही अच्छा होता कि उन्हें इसकी ख़बर होती!
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقُولُواْ رَٰعِنَا وَقُولُواْ ٱنظُرۡنَا وَٱسۡمَعُواْۗ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 103
(104) ऐ ईमान लानेवालो! “राइना” न कहा करो, बल्कि “उनज़ुरना” कहो और ध्यान से बात को सुनो,36 ये इनकार करनेवाले तो दुखदायी अज़ाब के हक़दार हैं।
36. यहूदी जब नबी (सल्ल०) की मजलिस में आते तो अपने सलाम और बातचीत में हर संभव उपाय से अपने दिल का बुख़ार निकालने की कोशिश करते थे। जब नबी (सल्ल०) की बातचीत के बीच में यहूदियों को कभी यह कहने की ज़रूरत होती कि ठहरिए, तनिक हमें यह बात समझ लेने दीजिए, तो वे 'राइना' कहते थे। इस शब्द का खुला अर्थ तो यह था कि ज़रा हमारी रिआयत कीजिए या हमारी बात सुन लीजिए, मगर इसमें कई पहलुओं से बुरे अर्थ भी निकलते थे। इसलिए मुसलमानों को आदेश दिया गया कि तुम इस शब्द को प्रयोग में लाने से बचो और इसके बदले में 'उनज़ुरना' कहा करो। अर्थात् हमारी ओर ध्यान दीजिए या तनिक हमें समझ लेने दीजिए।
مَّا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ وَلَا ٱلۡمُشۡرِكِينَ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ خَيۡرٖ مِّن رَّبِّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 104
(105) ये लोग जिन्होंने सत्य सन्देश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, चाहे किताबवालों में से हों या मुशरिक (बहुदेववादी) हों, हरगिज़ ये नहीं चाहते कि तुम्हारे रब की ओर से तुमपर कोई भलाई उतरे, मगर अल्लाह जिसको चाहता है, अपनी कृपा के लिए चुन लेता है और वह बड़ा उदार दानकर्त्ता है।
۞مَا نَنسَخۡ مِنۡ ءَايَةٍ أَوۡ نُنسِهَا نَأۡتِ بِخَيۡرٖ مِّنۡهَآ أَوۡ مِثۡلِهَآۗ أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 105
(106) हम अपनी जिस आयत को मनसूख़ (निरस्त) कर देते हैं या भुला देते हैं, उसकी जगह उससे बेहतर लाते हैं या कम से कम वैसी ही।37 क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है?
37. यह एक विशेष सन्देह का उत्तर है जो यहूदी मुसलमानों के दिलों में डालने की कोशिश करते थे। उनकी आपत्ति यह थी कि अगर पिछली किताबें भी ईश्वर की ओर से आई थीं और यह क़ुरआन भी ईश्वर की ओर से है, तो उनके कुछ आदेशों की जगह इसमें दूसरे आदेश क्यों दिए गए हैं?
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 106
(107) क्या तुम्हें पता नहीं कि धरती और आकाशों का शासन अल्लाह ही के लिए है और उसके सिवा कोई तुम्हारा संरक्षक और तुम्हारा मददगार नहीं है?
أَمۡ تُرِيدُونَ أَن تَسۡـَٔلُواْ رَسُولَكُمۡ كَمَا سُئِلَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۗ وَمَن يَتَبَدَّلِ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 107
(108) फिर क्या तुम अपने रसूल से उसी प्रकार के प्रश्न करना और माँग करना चाहते हो जैसा कि इससे पहले मूसा से किए जा चुके हैं?38 हालाँकि जिस आदमी ने ईमान की रीति को कुफ़्र की रीति से बदल लिया, वह सीधे रास्ते से भटक गया।
38. यहूदी बाल की खाल निकालकर तरह-तरह के प्रश्न मुसलमानों के सामने रखते थे और उन्हें उकसाते थे कि अपने नबी से यह पूछो और यह पूछो और यह पूछो। इसपर अल्लाह मुसलमानों को सावधान कर रहा है कि इस मामले में यहूदियों की नीति अपनाने से बच्चो।
وَدَّ كَثِيرٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يَرُدُّونَكُم مِّنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِكُمۡ كُفَّارًا حَسَدٗا مِّنۡ عِندِ أَنفُسِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَٱعۡفُواْ وَٱصۡفَحُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 108
(109) किताबवालों में बहुतेरे लोग यह चाहते हैं कि किसी तरह तुम्हें ईमान से फेरकर फिर कुफ़्र की ओर पलटा ले जाएँ। हालाँकि सत्य उनपर प्रकट हो चुका है, किन्तु अपने जी की ईर्ष्या के कारण तुम्हारे लिए उनकी यह इच्छा है। इसके बदले में तुम माफ़ी और दरगुज़र से काम लो यहाँ तक कि अल्लाह ख़ुद ही अपना फ़ैसला लागू कर दे। इत्मीनान रखो कि अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَۚ وَمَا تُقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُم مِّنۡ خَيۡرٖ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 109
(110) नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो। तुम अपने पारलौकिक (आख़िरत के) जीवन के लिए जो भलाई कमाकर आगे भेजोगे, अल्लाह के यहाँ उसे मौजूद पाओगे। जो कुछ तुम करते हो, वह सब अल्लाह की नज़र में है।
وَقَالُواْ لَن يَدۡخُلَ ٱلۡجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ تِلۡكَ أَمَانِيُّهُمۡۗ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 110
(111) उनका कहना है कि कोई आदमी जन्नत में न जाएगा जब तक वह यहूदी न हो या (ईसाइयों के विचार के अनुसार) ईसाई न हो। ये उनकी तमन्नाएँ हैं। उनसे कहो, अपना सुबूत पेश करो, यदि तुम अपने दावे में सच्चे हो।
بَلَىٰۚ مَنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ فَلَهُۥٓ أَجۡرُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 111
(112) (वास्तव में न तुम्हारी कुछ विशेषता है, न किसी और की) सत्य यह है कि जो भी अपने आपको अल्लाह के आज्ञापालन में समर्पित कर दे और व्यवहारतः नेकी की राह अपनाए, उसके लिए उसके रब के पास उसका बदला है और ऐसे लोगों के लिए किसी भय या शोक का कोई अवसर नहीं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ لَيۡسَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ لَيۡسَتِ ٱلۡيَهُودُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُمۡ يَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ مِثۡلَ قَوۡلِهِمۡۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 112
(113) यहूदी कहते हैं: ईसाइयों के पास कुछ नहीं। ईसाई कहते हैं: यहूदियों के पास कुछ नहीं— हालाँकि दोनों ही किताब पढ़ते हैं—और इसी प्रकार के दावे उन लोगों के भी हैं जिनके पास किताब का ज्ञान नहीं है। ये मतभेद जिनमें ये लोग पड़े हुए हैं, इनका फ़ैसला अल्लाह क़ियामत के दिन कर देगा।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن مَّنَعَ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ أَن يُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ وَسَعَىٰ فِي خَرَابِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ مَا كَانَ لَهُمۡ أَن يَدۡخُلُوهَآ إِلَّا خَآئِفِينَۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 113
(114) और उस व्यक्ति से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की इबादत की जगहों में उसके नाम की याद से रोके और उन्हें उजाड़ने पर उतारू हो? ऐसे लोग इस योग्य है कि इन इबादतघरों में क़दम न रखें और यदि वहाँ जाएँ भी तो डरते हुए जाएँ। उनके लिए संसार में रुसवाई (अपमान) है और आख़िरत में बड़ी यातना।
وَلِلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ فَأَيۡنَمَا تُوَلُّواْ فَثَمَّ وَجۡهُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 114
(115) पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। जिस ओर भी तुम रुख़ करोगे, उसी ओर अल्लाह का रुख़ है। अल्लाह सर्वव्यापी और सब कुछ जाननेवाला है।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ بَل لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 115
(116) उनका कहना है कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। अल्लाह पाक है इन बातों से। वास्तविक तथ्य यह है कि धरती और आकाशों में पाई जानेवाली सभी चीज़़ों का वह मालिक है, सब के सब उसके आज्ञाकारी हैं,
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 116
(117) वह आकाशों और धरती का ईजाद करनेवाला है, और जिस बात का वह फ़ैसला करता है, उसके लिए बस वह आदेश देता है कि “हो जा” और वह हो जाती है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ لَوۡلَا يُكَلِّمُنَا ٱللَّهُ أَوۡ تَأۡتِينَآ ءَايَةٞۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّثۡلَ قَوۡلِهِمۡۘ تَشَٰبَهَتۡ قُلُوبُهُمۡۗ قَدۡ بَيَّنَّا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 117
(118) जिन्हें ज्ञान नहीं वे कहते हैं कि अल्लाह ख़ुद हमसे बात क्यों नहीं करता या कोई निशानी हमारे पास क्यों नहीं आती? ऐसी ही बातें इनसे पहले लोग भी किया करते थे। इन सब (अगले-पिछले गुमराहों) की मनोवृत्तियाँ एक जैसी हैं। विश्वास करनेवालों के लिए तो हम निशानियाँ साफ़-साफ़ स्पष्ट कर चुके हैं।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗاۖ وَلَا تُسۡـَٔلُ عَنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 118
(119) (इससे बढ़कर निशानी क्या होगी कि) हमने तुमको सत्य-ज्ञान के साथ ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला बनाकर भेजा।39 अब जो लोग नरक से सम्बन्ध जोड़ चुके हैं, उनकी ओर से तुम उत्तरदायी नहीं हो।
39. अर्थात् दूसरी निशानियों का क्या ज़िक्र अत्यन्त स्पष्ट निशानी तो मुहम्मद (सल्ल०) का अपना व्यक्तित्व है। नबी होने से पहले के आपके वृतान्त, और उस जाति और देश की स्थिति जिसमें आपका जन्म हुआ, और वे परिस्थितियाँ जिनमें आप पले-बढ़े और 40 वर्ष जीवन व्यतीत किया, और फिर वह महान् कार्य जो नबी होने के बाद आपने किया ये सब कुछ एक ऐसी खुली हुई निशानी है जिसके बाद किसी और निशानी की ज़रूरत नहीं रहती।
وَلَن تَرۡضَىٰ عَنكَ ٱلۡيَهُودُ وَلَا ٱلنَّصَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمۡۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۗ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم بَعۡدَ ٱلَّذِي جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 119
(120) यहूदी और ईसाई तुमसे हरगिज़ राज़ी न होंगे जब तक तुम उनके तरीक़े पर न चलने लगो। साफ़ कह दो कि मार्ग बस वही है जो अल्लाह ने बताया है। वरना यदि उस ज्ञान के बाद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, तुमने उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, तो अल्लाह की पकड़ से बचानेवाला कोई दोस्त और मददगार तुम्हारे लिए नहीं है।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَتۡلُونَهُۥ حَقَّ تِلَاوَتِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 120
(121) जिन लोगों को हमने किताब दी हैं, वे उसे उस तरह पढ़ते है जैसा कि पढ़ने का हक़ है। वे इस (क़ुरआन) पर सच्चे दिल से ईमान ले आते हैं।40 और जो इसके साथ इनकार की नीति अपनाएँ, वही वास्तव नुक़सान उठानेवाले में हैं।
40. यह किताबवालों के अच्छे लोगों की ओर संकेत है कि ये लोग इस कारण से कि सत्य-निष्ठा और सच्चाई के साथ ख़ुदा की उस किताब को पढ़ते हैं जो उनके पास पहले से मौजूद थी, इसलिए वे इस क़ुरआन को सुनकर या पढ़कर इसपर ईमान ले आते हैं।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 121
(122) ऐ इसराईल की संतान, याद करो मेरी वह नेमत, जो मैंने तुम्हें दी थी और यह कि मैंने तुम्हें संसार की समस्त जातियों पर श्रेष्ठता प्रदान की थी।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا تَنفَعُهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 122
(123) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के तनिक भी काम न आएगा, न किसी से कोई अर्थदण्ड (जुर्माना) स्वीकार किया जाएगा, न कोई सिफ़ारिश ही आदमी को फ़ायदा पहुँचा सकेगी, और न अपराधियों को कहीं से कोई सहायता पहुँच सकेगी।
۞وَإِذِ ٱبۡتَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ رَبُّهُۥ بِكَلِمَٰتٖ فَأَتَمَّهُنَّۖ قَالَ إِنِّي جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ إِمَامٗاۖ قَالَ وَمِن ذُرِّيَّتِيۖ قَالَ لَا يَنَالُ عَهۡدِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 123
(124) याद करो कि जब इबराहीम को उसके रब ने कुछ बातों में आज़माया और वह उन सब में पूरा उतर गया, तो उसने कहा: “मैं तुझे सब लोगों का पेशवा बनानेवाला हूँ।” इबराहीम ने निवेदन किया: “और क्या मेरी सन्तान से भी यही वादा है?” उसने उत्तर दिया: “मेरा वादा ज़ालिमों के बारे में नहीं है।41
41. अर्थात् यह वादा तुम्हारी सन्तान के केवल उन लोगों से सम्बन्ध रखता है जो अच्छे हैं। उनमें से जो ज़ालिम होंगे, उनके लिए यह वादा नहीं है। यहाँ ज़ालिम से मुराद केवल इनसानों पर ही अत्याचार करनेवाला नहीं है, बल्कि सत्य और सच्चाई पर ज़ुल्म करनेवाला भी है।
وَإِذۡ جَعَلۡنَا ٱلۡبَيۡتَ مَثَابَةٗ لِّلنَّاسِ وَأَمۡنٗا وَٱتَّخِذُواْ مِن مَّقَامِ إِبۡرَٰهِـۧمَ مُصَلّٗىۖ وَعَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ أَن طَهِّرَا بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡعَٰكِفِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 124
(125) और यह कि हमने इस घर (काबा) को लोगों के लिए केन्द्र और शांति की जगह ठहराया था और लोगों को आदेश दिया था कि इबराहीम जहाँ इबादत के लिए खड़ा होता है उस जगह को स्थायी रूप से नमाज़ की जगह बना लो, और इबराहीम और इसमाईल को ताकीद की थी कि मेरे इस घर को तवाफ़ (परिक्रमा) और एतिकाफ़ करनेवालों और झुकनेवालों और सजदा करनेवालों के लिए शुद्ध (पाक) रखो।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ ٱجۡعَلۡ هَٰذَا بَلَدًا ءَامِنٗا وَٱرۡزُقۡ أَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ مَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُم بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ قَالَ وَمَن كَفَرَ فَأُمَتِّعُهُۥ قَلِيلٗا ثُمَّ أَضۡطَرُّهُۥٓ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلنَّارِۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 125
(126) और यह कि इबराहीम ने प्रार्थना की: “ऐ मेरे रब, इस नगर को शान्तिमय नगर बना दे, और इसके निवासियों में से जो अल्लाह और आख़िरत को मानें, उन्हें हर प्रकार के फलों की रोज़ी दे।” जवाब में उसके रब ने कहा: “और जो न मानेगा, अल्प सांसारिक जीवन की सामग्री तो मैं उसे भी दूँगा, किन्तु अन्त में उसे जहन्नम के अज़ाब की ओर घसीटूँगा, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।"
وَإِذۡ يَرۡفَعُ إِبۡرَٰهِـۧمُ ٱلۡقَوَاعِدَ مِنَ ٱلۡبَيۡتِ وَإِسۡمَٰعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلۡ مِنَّآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 126
(127) और याद करो, इबराहीम और इसमाईल जब इस घर की दीवारें उठा रहे थे, तो दुआ करते जाते थे: “ऐ हमारे रब, हमसे यह सेवा स्वीकार कर ले, तू सबकी सुनने और सब कुछ जाननेवाला है।
رَبَّنَا وَٱجۡعَلۡنَا مُسۡلِمَيۡنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَآ أُمَّةٗ مُّسۡلِمَةٗ لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 127
(128) ऐ रब, हम दोनों को अपना मुस्लिम (आज्ञाकारी) बना, हमारी सन्तति से एक ऐसी क़ौम उठा, जो तेरी मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो, हमें अपनी उपासना के तरीक़े बता, और हमारी कोताहियों को माफ़ कर, तू बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान है।
رَبَّنَا وَٱبۡعَثۡ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُزَكِّيهِمۡۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 128
(129) और ऐ हमारे रब, इन लोगों में ख़ुद इन्हीं की क़ौम से एक रसूल उठाना जो इन्हें तेरी आयते सुनाए, इनको किताब और समझ की शिक्षा दे और इनके जीवन सँवारे तू बड़ा प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।'
وَمَن يَرۡغَبُ عَن مِّلَّةِ إِبۡرَٰهِـۧمَ إِلَّا مَن سَفِهَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَقَدِ ٱصۡطَفَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 129
(130) अब कौन है जो इबराहीम के तरीक़े से नफ़रत करे? जिसने ख़ुद अपने-आपको मूर्खता और अज्ञान में ग्रस्त कर लिया हो उसके सिवा कौन यह हरकत कर सकता है? इबराहीम तो वह व्यक्ति है जिसको हमने संसार में अपने कार्य के लिए चुन लिया था और परलोक में उसकी गिनती अच्छों में होगी।
إِذۡ قَالَ لَهُۥ رَبُّهُۥٓ أَسۡلِمۡۖ قَالَ أَسۡلَمۡتُ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 130
(131) उसका हाल यह था कि जब उसके रब ने उससे कहा: “मुस्लिम (आज्ञाकारी)42 हो जा", तो उसने तुरन्त कहा: “मैं जगत के स्वामी का 'मुस्लिम' (आज्ञाकारी) हो गया”
42. 'मुस्लिम': वह जो अल्लाह के आदेशानुपालन में अपने को समर्पित कर दे, अल्लाह ही को अपना मालिक, स्वामी, शासक और पूज्य मान ले जो अपने आपको पूर्ण रूप से अल्लाह को सौंप दे और उस आदेश के अनुसार संसार में जीवन व्यतीत करे जो अल्लाह की ओर से आया हो। इस धारणा और इस नीति का नाम “इस्लाम” है और यही सब नबियों का धर्म था जो सृष्टि के आरंभ से संसार के विभिन्न देशों और क़ौमों में आए।
وَوَصَّىٰ بِهَآ إِبۡرَٰهِـۧمُ بَنِيهِ وَيَعۡقُوبُ يَٰبَنِيَّ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰ لَكُمُ ٱلدِّينَ فَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 131
(132) इसी तरीक़े पर चलने की ताकीद उसने अपनी औलाद को की थी और इसी को वसीयत याक़ूब अपनी सन्तान को कर गया था। उसने कहा था कि “मेरे बच्चो, अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही धर्म पसन्द किया है। अतः मरते समय तक मुस्लिम (आज्ञाकारी) ही रहना।”
أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ حَضَرَ يَعۡقُوبَ ٱلۡمَوۡتُ إِذۡ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعۡبُدُونَ مِنۢ بَعۡدِيۖ قَالُواْ نَعۡبُدُ إِلَٰهَكَ وَإِلَٰهَ ءَابَآئِكَ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗا وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 132
(133) फिर क्या तुम उस समय मौजूद थे जब याक़ूब इस संसार से विदा हो रहा था? उसने मरते समय अपने बेटों से पूछा “बच्चो, मेरे पीछे तुम किसकी बन्दगी करोगे?” उन सबने उत्तर दिया: “हम उसी एक ख़ुदा की बन्दगी करेंगे जिसे आपने और आपके पूर्वज इबराहीम, इसमाईल और इसहाक़ ने ख़ुदा माना है और हम उसी के मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।"
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 133
(134) वे कुछ लोग थे, जो जा चुके। जो कुछ उन्होंने कमाया, वह उनके लिए है और जो कुछ तुम कमाओगे, वह तुम्हारे लिए है। तुमसे यह न पूछा जाएगा कि वे क्या करते थे।
وَقَالُواْ كُونُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰ تَهۡتَدُواْۗ قُلۡ بَلۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِـۧمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 134
(135) यहूदी कहते हैं यहूदी हो तो सीधा मार्ग पाओगे ईसाई कहते हैं ईसाई हो, तो सीधा मार्ग मिलेगा। उनसे कहो, “नहीं, बल्कि सबको छोड़कर इबराहीम का पन्थ और इबराहीम बहुदेववादियों में से न था।”
قُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَمَآ أُوتِيَ ٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 135
(136) मुसलमानो! कहो कि “हम ईमान लाए अल्लाह और उस मार्गदर्शन पर जो हमारी ओर उतरा है और जो इबराहीम इसमाईल इसहाक़ याक़ूब, और याक़ूब की सन्तान की ओर उतरा था और जो मूसा और ईसा और दूसरे सभी पैग़म्बरों को उनके रब (प्रभु) की ओर से दिया गया था। हम उनके बीच कोई अन्तर नहीं करते और हम अल्लाह के मुस्लिम (आज्ञाकारी) है।"
فَإِنۡ ءَامَنُواْ بِمِثۡلِ مَآ ءَامَنتُم بِهِۦ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا هُمۡ فِي شِقَاقٖۖ فَسَيَكۡفِيكَهُمُ ٱللَّهُۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 136
(137) फिर यदि वे उसी तरह ईमान लाएँ, जिस तरह तुम ईमान लाए हो, तो सीधे मार्ग पर हैं, और अगर इससे मुँह फेरें, तो खुली बात है कि वे हठधर्मी में पड़ गए हैं। अतः विश्वास रखो कि उनके मुक़ाबले में अल्लाह तुम्हारी सहायता के लिए काफ़ी है। वह सब कुछ सुनता और जानता है।
صِبۡغَةَ ٱللَّهِ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ صِبۡغَةٗۖ وَنَحۡنُ لَهُۥ عَٰبِدُونَ ۝ 137
(138) कहो, अल्लाह का रंग इख़्तियार करो उसके रंग से अच्छा और किसका रंग होगा? और हम उसी की बन्दगी करनेवाले लोग है।
قُلۡ أَتُحَآجُّونَنَا فِي ٱللَّهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡ وَلَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُخۡلِصُونَ ۝ 138
(139) ऐ नबी, इनसे कहो “क्या तुम अल्लाह के बारे में हमसे झगड़ते हो? हालाँकि वही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी हमारे कर्म हमारे लिए हैं, तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए, और हम अल्लाह ही के लिए अपनी बन्दगी ख़ालिस कर चुके हैं।
أَمۡ تَقُولُونَ إِنَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطَ كَانُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ قُلۡ ءَأَنتُمۡ أَعۡلَمُ أَمِ ٱللَّهُۗ وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَتَمَ شَهَٰدَةً عِندَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 139
(140) या फिर तुम्हारा कहना यह है कि इबराहीम इस्माईल इसहाक़ याक़ूब और याक़ूब की औलाद सब के सब बहूदी थे या ईसाई थे? कहो: “तुम ज़्यादा जानते हो या अल्लाह? उस व्यक्ति से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा, जिसके ज़िम्मे अल्लाह की ओर से एक गवाही हो और वह उसे छुपाए? तुम्हारी करतूतों से अल्लाह बेख़बर तो नहीं है
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 140
(141) – वे कुछ लोग थे जो जा चुके। उनकी कमाई उनके लिए थी और तुम्हारी कमाई तुम्हारे लिए तुमसे उनके कर्मों के बारे में पूछा नहीं जाएगा।"
۞سَيَقُولُ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَ ٱلنَّاسِ مَا وَلَّىٰهُمۡ عَن قِبۡلَتِهِمُ ٱلَّتِي كَانُواْ عَلَيۡهَاۚ قُل لِّلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 141
(142) नादान लोग ज़रूर कहेंगे: इन्हें क्या हुआ कि पहले ये जिस क़िबले की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उससे अचानक फिर गए?43 ऐ नबी, इनसे कहो पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। अल्लाह जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दिखा देता है।”
43. नबी (सल्ल०) मक्का से हिजरत करने के बाद मदीना में सोलह या सत्तरह महीने तक बैतुल मक़दिस की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ते रहे। फिर काबा की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म आया।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَٰنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 142
(143) और इसी तरह तो हमने तुम मुसलमानों को एक “उत्तम समुदाय”44 बनाया है ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।45 पहले जिस ओर तुम रुख़ करते थे, उसको तो हमने सिर्फ़ यह देखने के लिए क़िबला ठहराया था कि कौन रसूल का अनुसरण करता है और कौन उलटा फिर जाता है। यह मामला था तो बड़ा भारी, मगर उन लोगों के लिए कुछ भी भारी सिद्ध न हुआ जिन्हें अल्लाह का मार्गदर्शन प्राप्त था। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान (आस्था) को हरगिज़ अकारथ न करेगा, यक़ीन जानो कि वह लोगों के लिए अत्यन्त करुणामय और दयावान् है।
44. यहाँ “उम्मते-वसत” शब्द प्रयुक्त हुआ है। इससे मुराद एक ऐसा उच्च और उत्तम गिरोह है जो न्याय और इनसाफ़ और उचित एवं मध्यमार्ग का अनुगामी हो, जिसे संसार की जातियों के बीच प्रधानता प्राप्त हो, जिसका सम्बन्ध सबके साथ समान सच्चाई और सत्यता का हो और अनुचित और ग़लत सम्बन्ध किसी से न हो।
45. इससे मुराद यह है कि आख़िरत में जब पूरी मानवता का इकट्ठा हिसाब लिया जाएगा, उस समय अल्लाह के उत्तरदायी प्रतिनिधि के रूप में रसूल तुमपर गवाही देगा कि सत्य धारणा और अच्छे कर्म और न्याय प्रणाली की जो शिक्षा हमने उसे दी थी, वह उसने तुमको बिना किसी कमी-बेशी के पूरी की पूरी पहुँचा दी और व्यवहारतः उसके अनुसार काम करके दिखा दिया। इसके बाद रसूल के क़ायम मुक़ाम होने की हैसियत से तुम्हें जन-सामान्य पर गवाह बनकर उठना होगा और यह गवाही देनी होगी कि रसूल ने जो कुछ तुम्हें पहुँचाया था, वह तुमने उन्हें पहुँचाने में, और जो कुछ रसूल ने तुम्हें काम करके दिखाया था तुमने वह काम करके दिखाने में अपनी हद तक कोई कोताही नहीं की।
قَدۡ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجۡهِكَ فِي ٱلسَّمَآءِۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبۡلَةٗ تَرۡضَىٰهَاۚ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 143
(144) ऐ नबी, यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की ओर उठना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िबले की ओर तुम्हें फेरे देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) की ओर रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं तुम हो, उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।46 ये लोग जिन्हें किताब दी गई थी ख़ूब जानते हैं कि (क़िबला बदलने का) यह आदेश उनके रब ही की ओर से है और सत्य पर आधारित है, मगर इसके बावजूद ये जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है
46. यह है वह मूल आदेश, जो क़िबला बदलने के बारे में दिया गया था। यह हुक्म रजब या शाबान सन् 2 हिजरी में अवतरित हुआ। नबी (सल्ल०) एक सहाबी के यहाँ दावत पर गए हुए थे। वहाँ ज़ुह्‍र की नमाज़ का समय आ गया और आप लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए। दो 'रकअतें' पढ़ा चुके थे कि तौसरी 'रकअत' में सहसा प्रकाशना के द्वारा यह आयत उत्तरी और उसी समय आप और आपके अनुसरण में जमाअत के सभी लोग 'बैतुल-मक़दिस' से काबे की दिशा की ओर फिर गए। इसके बाद मदीना और मदीना के चारों तरफ़ सामान्य रूप से इसकी घोषणा करा दी गई। और यह जो कहा कि “हम तुम्हारे मुँह का बार-बार आकाश की ओर उठना देख रहे हैं” और यह कि “हम उस दिशा की ओर तुम्हें फेरे देते हैं, जिसे तुम पसन्द करते हो", इससे साफ़ मालूम होता है कि क़िबला बदलने का आदेश आने से पहले नबी (सल्ल०) इसके इन्तिज़ार में थे।
وَلَئِنۡ أَتَيۡتَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ بِكُلِّ ءَايَةٖ مَّا تَبِعُواْ قِبۡلَتَكَۚ وَمَآ أَنتَ بِتَابِعٖ قِبۡلَتَهُمۡۚ وَمَا بَعۡضُهُم بِتَابِعٖ قِبۡلَةَ بَعۡضٖۚ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ إِنَّكَ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 144
(145) तुम इन किताबवालों के पास चाहे कोई निशानी ले आओ, संभव नहीं कि ये तुम्हारे क़िबले का अनुसरण करने लगें, और न तुम्हारे लिए यह संभव है कि इनके क़िबले का अनुसरण करो, और इनमें से कोई गिरोह भी दूसरे के क़िबले के अनुसरण के लिए तैयार नहीं है, और अगर तुमने उस ज्ञान के बाद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, तो निश्चय ही तुम्हारी गिनती अत्याचारियों में होगी।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمۡۖ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنۡهُمۡ لَيَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 145
(146) जिन लोगों को हमने किताब दी है वे इस जगह को (जिसे क़िबला बनाया गया है) ऐसा पहचानते हैं, जैसा अपनी सन्तान को पहचानते हैं47, मगर उनमें से एक गिरोह जानते-बूझते सत्य को छिपा रहा है।
47. यह अरब का मुहावरा है। जिस चीज़ को आदमी निश्चित रूप से जानता हो उसे यों कहते हैं कि वह उस चीज़़ को ऐसा पहचानता है, जैसा अपनी संतान को पहचानता है। यहूदियों और ईसाइयों के विद्वान वास्तव में यह बात अच्छी तरह जानते थे कि 'काबा' का निर्माण हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने किया था और इसके विपरीत 'बैदुल-मक़दिस' इसके 13 सौ वर्ष के बाद हज़रत सुलैमान के हाथों निर्मित हुआ। यह बात किसी से भी छुपी हुई न थी।
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 146
(147) यह निश्चय ही एक सच्ची चीज़ है तुम्हारे रब की ओर से, अतः इसके प्रति तुम हरगिज़ किसी शक में न पड़ो।
وَلِكُلّٖ وِجۡهَةٌ هُوَ مُوَلِّيهَاۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ أَيۡنَ مَا تَكُونُواْ يَأۡتِ بِكُمُ ٱللَّهُ جَمِيعًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 147
(148) हर एक के लिए एक रुख़ है जिसकी ओर वह मुड़ता है। अत: तुम भलाइयों की ओर बढ़ने में अग्रसरता दिखाओ। जहाँ भी तुम होगे, अल्लाह तुम्हें पा लेगा। उसकी क़ुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ وَإِنَّهُۥ لَلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 148
(149) तुम जिस जगह से भी होकर जाओ, वहीं से अपना रुख़ (नमाज़ के समय) प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) की ओर फेर दो, क्योंकि यह तुम्हारे रब का बिलकुल सत्य पर आधारित फ़ैसला है और अल्लाह तुम लोगों के कर्मों से बेख़बर नहीं है।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيۡكُمۡ حُجَّةٌ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِي وَلِأُتِمَّ نِعۡمَتِي عَلَيۡكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 149
(150) और जहाँ से भी होकर जाओ, अपना रुख़ प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) ही की ओर फेरा करो, और जहाँ भी तुम हो, उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ झगड़ने की कोई दलील न मिले48 – हाँ, जो उनमें से ज़ालिम हैं, वे तो कभी चुप न होंगे। तो उनसे तुम न डरो, बल्कि मुझसे डरो,और49 इसलिए कि मेरी नेमत तुमपर पूरी हो और इस आशा में कि मेरे इस आदेश के अनुपालन से तुम उसी तरह कामयाबी का मार्ग पाओगे,
48. अर्थात् किसी को यह कहने का अवसर न मिले कि ये अच्छे ईमानवाले हैं जो अपने ख़ुदा के स्पष्ट आदेश का उल्लंघन करते हैं।
49. इस वाक्य का सम्बन्ध इस वर्णन से है कि “उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ो, ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ झगड़ने की कोई दलील न मिले।"
كَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِيكُمۡ رَسُولٗا مِّنكُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِنَا وَيُزَكِّيكُمۡ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُعَلِّمُكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 150
(151) जिस तरह (तुम्हारा इस चीज़़ से कल्याण हुआ कि) हमने तुम्हारे बीच ख़ुद तुममें से एक रसूल भेजा, जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाता है, तुम्हारे जीवन को संवारता है, तुम्हें किताब और तत्त्वदर्शिता की शिक्षा देता है और तुम्हें ये बातें सिखाता है जो तुम न जानते थे।
فَٱذۡكُرُونِيٓ أَذۡكُرۡكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِي وَلَا تَكۡفُرُونِ ۝ 151
(152) अत: तुम मुझे याद रखो, मैं तुम्हें याद रखूँगा, और मेरा शुक्र अदा करो नाशुक्री न करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 152
(153) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, सब्र और नमाज़ से मदद लो। अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَن يُقۡتَلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتُۢۚ بَلۡ أَحۡيَآءٞ وَلَٰكِن لَّا تَشۡعُرُونَ ۝ 153
(154) और जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाएँ, उन्हें मुर्दा न कहो, ऐसे लोग तो वास्तव में ज़िन्दा है, लेकिन उनकी ज़िन्दगी को तुम जान नहीं पाते।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُم بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلۡخَوۡفِ وَٱلۡجُوعِ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَنفُسِ وَٱلثَّمَرَٰتِۗ وَبَشِّرِ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 154
(155) और हम ज़रूर तुम्हें डर भूख, जान-माल की हानियों और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आजमाइश करेंगे। हालात में जो लोग सब्र से काम लें
ٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةٞ قَالُوٓاْ إِنَّا لِلَّهِ وَإِنَّآ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 155
(156) और जब कोई मुसीबत पड़े, तो कहें कि “हम अल्लाह ही के है और अल्लाह ही की ओर हमें पलटकर जाना है", उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ صَلَوَٰتٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَرَحۡمَةٞۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُهۡتَدُونَ ۝ 156
(157) उनपर उनके रब की ओर से बड़ी कृपाएँ होंगी, उसकी दयालुता उनपर साया करेगी और ऐसे ही लोग सीधे मार्ग पर चलनेवाले है।
۞إِنَّ ٱلصَّفَا وَٱلۡمَرۡوَةَ مِن شَعَآئِرِ ٱللَّهِۖ فَمَنۡ حَجَّ ٱلۡبَيۡتَ أَوِ ٱعۡتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَاۚ وَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَإِنَّ ٱللَّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ ۝ 157
(158) यक़ीनन सफ़ा और मरवा अल्लाह की निशानियों में से है। अतः जो व्यक्ति अल्लाह के घर का हज या उमरा (दर्शन) करे50 उसके लिए इसमें कोई हरज नहीं कि वह इन दोनों पहाड़ियों के बीच तेज़ी से फेरा लगाए और जो व्यक्ति स्वेच्छा से कोई भलाई का कार्य करेगा, अल्लाह को उसका ज्ञान है और वह उसकी क़द्र करनेवाला है।
50. ज़िलहिज्जा महीने की निश्चित तिथियों में काबा की जो ज़ियारत (दर्शन) की जाती है उसका नाम हज है और उन तिथियों के अलावा दूसरे किसी समय में जो दर्शन किए जाएँ, वह 'उमरा' है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلۡنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلۡهُدَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا بَيَّنَّٰهُ لِلنَّاسِ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أُوْلَٰٓئِكَ يَلۡعَنُهُمُ ٱللَّهُ وَيَلۡعَنُهُمُ ٱللَّٰعِنُونَ ۝ 158
(159) जो लोग हमारी उतारी हुई खुली शिक्षाओं और आदेशों को छिपाते है, हालाँकि हम उन्हें सारे इनसानों के मार्गदर्शन के लिए अपनी किताब में बयान कर चुके हैं यक़ीन जानो कि अल्लाह की भी उनपर फिटकार है और सभी फिटकारनेवाले भी उन्हें फिटकारते हैं।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَبَيَّنُواْ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَتُوبُ عَلَيۡهِمۡ وَأَنَا ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 159
(160) अलबत्ता जो इस रवैये को छोड़ दें और अपने व्यवहार सुधार लें और जो कुछ छिपाते थे, उसे बयान करने लगे, उनको मैं माफ़ कर दूँगा और मैं बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान हूँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٌ أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةُ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 160
(161) जिन लोगों ने कुफ़्र (न मानने) की नीति51 अपनाई और कुफ़्र ही की हालत में मेरे, उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे इनसानों की फटकार है
51. यहाँ 'कुफ़्र' शब्द प्रयुक्त हुआ है। “कुफ़्र” शब्द ईमान के मुक़ाबले में बोला जाता है। ईमान का अर्थ है मानना, क़ुबूल करना, स्वीकार करना। इसके विपरीत 'कुफ़्र' का अर्थ ह— न मानना, रद्द कर देना, इनकार करना। क़ुरआन की दृष्टि में कुफ़्र की नीति के विभिन्न रूप हैं : एक यह कि इनसान सिरे से अल्लाह ही को न माने, या उसके सम्प्रभुत्व को स्वीकार न करे और उसको अपना और सारे जगत् का स्वामी और पूज्य मानने से इनकार कर दे, या उसे अकेला मालिक और पूज्य न माने। दूसरे यह कि अल्लाह को तो माने मगर उसके आदेश और उसके निर्देश को ज्ञान और क़ानून का एकमात्र स्रोत स्वीकार करने से इनकार कर दे। तीसरे यह कि सैद्धान्तिक रूप से इस बात को भी माने कि उसे अल्लाह के आदेश पर चलना चाहिए, मगर अल्लाह अपने आदेश और निर्देश के लिए जिन पैग़म्बरों को माध्यम बनाता है, उन्हें स्वीकार न करे। चौथे यह कि पैग़म्बरों के बीच अन्तर करे और अपनी पसन्द या अपने पक्षपात के कारण उनमें से किसी को माने और किसी को न माने। पाँचवें यह कि पैग़म्बरों ने अल्लाह की ओर से धारणा, नैतिक व्यवहार और जीवन के क़ानून के लिए जो शिक्षाएँ प्रस्तुत की हैं उनको, या उनमें से किसी चीज़ को मानने से इनकार कर दे। छठे यह कि धारणात्मक रूप से तो इन सब चीज़़ों को मान से लेकिन व्यवहारतः ईश्वरीय आदेशों की जानते-बूझते अवहेलना करता रहे और इस अवहेलना पर आग्रह करे और सांसारिक जीवन में अपनी नीति की नींव, फ़रमाँबरदारी पर नहीं बल्कि नाफ़रमानी ही पर रखे।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱلۡفُلۡكِ ٱلَّتِي تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِمَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن مَّآءٖ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٖ وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَٰحِ وَٱلسَّحَابِ ٱلۡمُسَخَّرِ بَيۡنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 161
(164) (इस सत्य को पहचानने के लिए अगर कोई निशानी और लक्षण अपेक्षित है तो) जो लोग अक़्ल से काम लेते हैं उनके लिए आसमानों और ज़मीन की संरचना में, रात और दिन के निरन्तर एक-दूसरे के बाद आने में, उन नौकाओं में जो इनसान के लाभ की चीज़़ें लिए हुए नदियों और समुद्रों में चलती-फिरती हैं, बारिश के उस पानी में जिसे अल्लाह ऊपर से बरसाता है फिर उसके द्वारा मुर्दा ज़मीन को जीवन प्रदान करता है, और (अपनी इसी व्यवस्था के कारण) धरती में हर तरह के जीवधारियों को फैलाता है, हवाओं की गर्दिश में, और उन बादलों में जो आसमान और ज़मीन के बीच आज्ञा के वशीभूत बनाकर रखे गए है, अनगिनत निशानियाँ हैं।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَندَادٗا يُحِبُّونَهُمۡ كَحُبِّ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَشَدُّ حُبّٗا لِّلَّهِۗ وَلَوۡ يَرَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِذۡ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ أَنَّ ٱلۡقُوَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا وَأَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعَذَابِ ۝ 162
(165) (किन्तु एकेश्वरवाद को प्रमाणित करनेवाले इन खुले खुले लक्षणों के होते हुए भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका समकक्ष और प्रतिद्वन्द्वी बनाते हैं और उनके प्रति ऐसे आसक्त हैं जैसी अल्लाह के साथ आसक्ति होनी चाहिए— हालाँकि ईमान रखनेवाले लोगों को सबसे बढ़कर अल्लाह प्रिय होता है— क्या ही अच्छा होता, जो कुछ अज़ाब को सामने देखकर उन्हें सूझनेवाला है वह आज ही इन ज़ालिमों को सूझ जाए कि सारी शक्तियाँ और सारे अधिकार अल्लाह ही के हाथ में हैं और यह कि अल्लाह सज़ा देने में भी बहुत सख़्त है।
إِذۡ تَبَرَّأَ ٱلَّذِينَ ٱتُّبِعُواْ مِنَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ وَرَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ وَتَقَطَّعَتۡ بِهِمُ ٱلۡأَسۡبَابُ ۝ 163
(166) जब वह सज़ा देगा उस समय हालत यह होगी कि वही पेशवा और नेता, जिनका संसार में अनुपालन किया गया था, अपने अनुयायियों से विरक्त हो जाएँगे, लेकिन सज़ा पाकर रहेंगे और उनके सारे उपक्रमों और साधनों का सिलसिला कट जाएगा।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ لَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَتَبَرَّأَ مِنۡهُمۡ كَمَا تَبَرَّءُواْ مِنَّاۗ كَذَٰلِكَ يُرِيهِمُ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡ حَسَرَٰتٍ عَلَيۡهِمۡۖ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنَ ٱلنَّارِ ۝ 164
(167) और वे लोग जो संसार में उनके पीछे चलते थे, कहेंगे कि क्या अच्छा होता, हमको फिर एक अवसर दिया जाता तो जिस तरह आज ये हमसे विरक्त हो रहे है, हम भी इनसे विरक्त होकर दिखा देते। इस तरह अल्लाह इन लोगों के वे कर्म, जो ये दुनिया में कर रहे हैं, इनके सामने इस तरह लाएगा कि ये पश्चात्तापों और ग्लानियों के साथ हाथ मलते रहेंगे मगर आग से निकलने का कोई मार्ग न पाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ كُلُواْ مِمَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٌ ۝ 165
(168) लोगो धरती में जो हलाल (वैध) और अच्छी-सुथरी चीज़़ें हैं उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो। वह तुम्हारा खुला दुश्मन है,
إِنَّمَا يَأۡمُرُكُم بِٱلسُّوٓءِ وَٱلۡفَحۡشَآءِ وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 166
(169) तुम्हें बुराई और अश्लील बात को कहता है और यह सिखाता है कि तुम अल्लाह के नाम पर वे बातें कहो जिनके सम्बन्ध में तुम नहीं जानते हो (कि वे अल्लाह की कही हुई हैं)।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّبِعُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ بَلۡ نَتَّبِعُ مَآ أَلۡفَيۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 167
(170) उनसे जब कहा जाता है कि अल्लाह ने जो आदेश उतारे है उनपर चलो तो उसके उत्तर में कहते हैं कि हम तो उसी रास्ते पर चलेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। अच्छा अगर इनके बाप-दादा ने बुद्धि से कुछ भी काम न लिया हो और सीधा मार्ग न पाया हो तो क्या फिर भी ये उन्हीं का अनुसरण किए चले जाएँगे?
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ كَمَثَلِ ٱلَّذِي يَنۡعِقُ بِمَا لَا يَسۡمَعُ إِلَّا دُعَآءٗ وَنِدَآءٗۚ صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 168
(171) ये लोग जिन्होंने अल्लाह के बताए हुए, तरीक़े पर चलने से इनकार कर दिया है इनकी दशा बिलकुल ऐसी है जैसे चरवाहा पशुओं को पुकारता है और वे हाँक-पुकार की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं सुनते। ये बहरे हैं, गूँगे हैं, अन्धे हैं, इसलिए कोई बात इनको समझ में नहीं आती।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِلَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 169
(172) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम वास्तव में अल्लाह ही की बन्दगी करनेवाले हो तो जो स्वच्छ अच्छी चीज़़ें हमने तुम्हें प्रदान की हैं उन्हें बेझिझक खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ بِهِۦ لِغَيۡرِ ٱللَّهِۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 170
(173) अल्लाह की ओर से अगर कोई पाबन्दी तुमपर है तो वह यह है कि मुर्दार न खाओ ख़ून से और सुअर के मांस से बचो और कोई ऐसी चीज़़ न खाओ जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। हाँ, जो व्यक्ति मजबूरी की हालत में हो और वह इनमें से कोई चीज़़ खा ले बिना इसके कि वह नियमोल्लंघन करना चाहता हो या आवश्यकता की सीमा से आगे बढ़े, तो उसपर कुछ गुनाह नहीं, अल्लाह क्षमाशील और दयावान है।52
52. इस आयत में हराम (अवैध) चीज़़ के प्रयोग की अनुमति तीन शर्तों के साथ दी गई है। एक यह कि वास्तव में मजबूरी की हालत हो। मिसाल के तौर पर भूख या प्यास से जान पर बन गई हो, या बीमारी के कारण जान का ख़तरा हो और इस हालत में हराम या अवैध चीज़़ के सिवा और कोई चीज़़ उपलब्ध न हो। दूसरे यह कि अल्लाह के क़ानून को तोड़ने की इच्छा दिल में न पाई जाती हो। तीसरे यह कि आवश्यकता की सीमा से आगे न बढ़ा जाए, मिसाल के तौर पर हराम चीज़़ के कुछ लुक़मे या कुछ बूँदें या कुछ घूँट से अगर जान बच सकती हो तो उनसे ज़्यादा उस चीज़ का इस्तेमाल न होने पाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَشۡتَرُونَ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ مَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ إِلَّا ٱلنَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 171
(174) सत्य यह है कि जो लोग उन आदेशों को छिपाते हैं जो अल्लाह ने अपनी किताब में अवतरित किए हैं, और थोड़े से सांसारिक लाभों पर उन्हें भेंट चढ़ाते हैं, वे वास्तव में अपने पेट आग से भर रहे हैं। क़ियामत के दिन अल्लाह हरगिज़ उनसे बात न करेगा, न उन्हें पाकीज़ा ठहराएगा, और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡعَذَابَ بِٱلۡمَغۡفِرَةِۚ فَمَآ أَصۡبَرَهُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ ۝ 172
(175) ये वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले पथभ्रष्टता मोल ली और मग़फ़िरत के बदले अज़ाब मोल ले लिया। कैसा अजीब है इनका हौसला कि जहन्नम का अज़ाब सहन करने के लिए तैयार हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 173
(176) ये सब कुछ इसलिए हुआ कि अल्लाह ने तो ठीक-ठीक सत्य के अनुसार किताब उतारी थी मगर जिन लोगों ने किताब में विभेद पैदा किए वे अपने झगड़ों में सत्य से बहुत दूर निकल गए।
۞لَّيۡسَ ٱلۡبِرَّ أَن تُوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ قِبَلَ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلۡكِتَٰبِ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ وَءَاتَى ٱلۡمَالَ عَلَىٰ حُبِّهِۦ ذَوِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَٱلسَّآئِلِينَ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُوفُونَ بِعَهۡدِهِمۡ إِذَا عَٰهَدُواْۖ وَٱلصَّٰبِرِينَ فِي ٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَحِينَ ٱلۡبَأۡسِۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُتَّقُونَ ۝ 174
(177) नेकी यह नहीं है कि तुमने अपने चेहरे पूरब की ओर कर लिए या पच्छिम की ओर बल्कि नेकी यह है कि आदमी अल्लाह को और अन्तिम दिन को और फ़रिश्तों को और अल्लाह की उतारी हुई किताब और उसके पैग़म्बरों को दिल से माने और अल्लाह के प्रेम में अपना दिलपसन्द माल नातेदारों और अनाथों पर, निर्धनों और मुसाफ़िरों पर मदद के लिए हाथ फैलानेवालों पर और ग़ुलामों की रिहाई पर ख़र्च करे, नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे। और नेक वे लोग हैं कि जब वचन दें तो उसे पूरा करें, और तंगी और विपत्ति के समय में और सत्य और असत्य के युद्ध में धैर्य दिखाएँ ये है सच्चे लोग और वही लोग परहेज़गार हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِصَاصُ فِي ٱلۡقَتۡلَىۖ ٱلۡحُرُّ بِٱلۡحُرِّ وَٱلۡعَبۡدُ بِٱلۡعَبۡدِ وَٱلۡأُنثَىٰ بِٱلۡأُنثَىٰۚ فَمَنۡ عُفِيَ لَهُۥ مِنۡ أَخِيهِ شَيۡءٞ فَٱتِّبَاعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَأَدَآءٌ إِلَيۡهِ بِإِحۡسَٰنٖۗ ذَٰلِكَ تَخۡفِيفٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَرَحۡمَةٞۗ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 175
(178) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए क़त्ल के मुक़द्दमों में क़िसास का आदेश लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया तो उस आज़ाद आदमी से ही बदला लिया जाए, ग़ुलाम क़ातिल हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए, और औरत ने यह अपराध किया हो तो उस औरत ही से क़िसास लिया जाए। हाँ, अगर किसी क़ातिल के साथ उसका भाई कुछ नरमी करने के लिए तैयार हो, तो सामान्य नियम के अनुसार ख़ून के माली बदले का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए आवश्यक है कि भले तरीक़े से ख़ूनबहा चुका दे।53 यह तुम्हारे रब की ओर से छूट और दयालुता है। इसपर भी जो ज़्यादती करे,54 उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
53. इससे मालूम हुआ कि इस्लामी दण्ड विधान में क़त्ल का मामला राज़ीनामे के योग्य है। क़त्ल किए गए व्यक्ति के वारिसों को यह अधिकार प्राप्त है कि क़ातिल का मृत्युदण्ड क्षमा कर दें और इस रूप में न्यायालय के लिए वैध नहीं कि हत्यारे की जान ही लेने पर आग्रह करे। अलबत्ता क्षमा की हालत में क़ातिल को ख़ूनबहा देना होगा।
54. मिसाल के तौर पर यह कि क़त्ल किए गए व्यक्ति का वारिस ख़ूनबहा प्राप्त करने के बाद फिर बदला लेने की कोशिश करे, या क़ातिल ख़ूनबहा देने में टालमटोल करे और क़त्ल किए गए व्यक्ति के वारिस ने जो उपकार उसपर किया है, उसका बदला अकृतज्ञता के रूप में दे।
وَلَكُمۡ فِي ٱلۡقِصَاصِ حَيَوٰةٞ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 176
(179) – अक़्ल और समझवालो तुम्हारे लिए क़िसास में ज़िन्दगी है। उम्मीद है कि तुम इस क़ानून के उल्लंघन से बचोगे।
كُتِبَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ إِن تَرَكَ خَيۡرًا ٱلۡوَصِيَّةُ لِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 177
(180) तुम्हारे लिए अनिवार्य किया गया है कि जब तुममें से किसी की मौत का समय आए और वह अपने पीछे माल छोड़ रहा हो, तो माँ-बाप और नातेदारों के लिए सामान्य नियम के अनुसार वसीयत करे।55 यह हक़ है (अल्लाह का) डर रखनेवालों पर।
55. यह आदेश उस समय दिया गया था जब कि विरासत के विभाजन के लिए अभी कोई क़ानून निश्चित नहीं हुआ था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर दिया गया कि वह अपने वारिसों या उत्तराधिकारियों के हिस्से वसीयत के द्वारा निश्चित कर जाए ताकि उसके मरने के बाद न तो कुटुम्ब में झगड़े हों और न किसी हक़दार का हक़ मारा जा सके। आगे चलकर जब विरासत के विभाजन के लिए अल्लाह ने ख़ुद एक क़ानून बना दिया (जो आगे सूरा निसा में आनेवाला है), तो नबी (सल्ल०) ने यह नियम तय कर दिया कि वारिसों के जो हिस्से अल्लाह ने निर्धारित कर दिए हैं उनमें वसीयत से कमी-बेशी नहीं की जा सकती। और ग़ैर-वारिस के लिए सम्पूर्ण सम्पत्ति के एक तिहाई से अधिक की वसीयत न करनी चाहिए। और मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम एक-दूसरे के वारिस नहीं हो सकते।
فَمَنۢ بَدَّلَهُۥ بَعۡدَ مَا سَمِعَهُۥ فَإِنَّمَآ إِثۡمُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يُبَدِّلُونَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 178
(181) फिर जिन्होंने वसीयत सुनी और बाद में उसे बदल डाला, तो उसका गुनाह उन बदलनेवालों पर होगा। अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है
فَمَنۡ خَافَ مِن مُّوصٖ جَنَفًا أَوۡ إِثۡمٗا فَأَصۡلَحَ بَيۡنَهُمۡ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 179
(182) अलबत्ता जिसको यह अंदेशा हो कि वसीयत करनेवाले ने अनजाने में या जान-बूझकर हक़ मारा है, और फिर मामले से सम्बन्ध रखनेवालों के बीच यह सुधार करे, तो उसपर कुछ गुनाह नहीं है, अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 180
(183) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए रोज़े अनिवार्य कर दिए गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के अनुयायियों के लिए अनिवार्य किए गए थे। इससे उम्मीद है कि तुममें परहेज़गारी का गुण पैदा होगा।
أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۚ وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُۥ فِدۡيَةٞ طَعَامُ مِسۡكِينٖۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥۚ وَأَن تَصُومُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 181
(184) कुछ निश्चित दिनों के रोज़े हैं। अगर तुममें से कोई बीमार हो, या सफ़र पर हो तो दूसरे दिनों में इतनी ही गिनती पूरी कर से और जिन लोगों को रोज़े रखने की सामर्थ्य प्राप्त हो (फिर न रखें) तो वे फ़िदया दें। एक रोज़े का प्रतिदान एक मुहताज को खाना खिलाना है, और जो अपनी ख़ुशी से कुछ ज़्यादा भलाई करे, तो यह उसी के लिए अच्छा है। लेकिन अगर तुम समझो, तो तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि रोज़ा रखो।56
56. इस्लाम के अधिकतर आदेशों को तरह रोज़े की अनिवार्यता भी क्रमशः लागू की गई है। नबी (सल्ल०) ने आरंभ में मुसलमानों को हर महीने तीन दिन के रोज़े रखने का आदेश दिया था, मगर ये रोज़े अनिवार्य न थे। फिर सन् 2 हिजरी में रमजान के रोज़े का यह आदेश क़ुरआन में उतरा, मगर इसमें भी इतनी छूट रखी गई कि जिन लोगों को रोज़ों को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो और फिर भी रोज़ा न रखें वे हर एक रोज़ा के बदले एक मुहताज को खाना खिला दिया करें। आगे चलकर दूसरा आदेश उतरा जो आगे आ रहा है।
شَهۡرُ رَمَضَانَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ فِيهِ ٱلۡقُرۡءَانُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَٰتٖ مِّنَ ٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡفُرۡقَانِۚ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ ٱلشَّهۡرَ فَلۡيَصُمۡهُۖ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۗ يُرِيدُ ٱللَّهُ بِكُمُ ٱلۡيُسۡرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ ٱلۡعُسۡرَ وَلِتُكۡمِلُواْ ٱلۡعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 182
(185) रमज़ान वह महीना है, जिसमें क़ुरआन उतारा गया जो इनसानों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन है और ऐसी स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है, जो सीधा मार्ग दिखानेवाली और सत्य और असत्य का अन्तर खोलकर रख देनेवाली हैं। अतः अब से जो व्यक्ति इस महीने को पाए, उसके लिए अनिवार्य है कि इस पूरे महीने के रोज़े रखे और जो कोई बीमार हो या सफ़र पर हो, तो वह दूसरे दिनों में रोज़ों की गिनती पूरी करे। अल्लाह तुम्हारे साथ नरमी करना चाहता है, सख़्ती करना नहीं चाहता। इसलिए यह तरीक़ा तुम्हें बताया जा रहा है ताकि तुम रोज़ों की गिनती पूरी कर सको और जिस सीधे मार्ग पर अल्लाह ने तुम्हें लगाया है, उसपर अल्लाह की बड़ाई का इज़हार करो और मानो और शुक्रगुज़ार बनो।
وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌۖ أُجِيبُ دَعۡوَةَ ٱلدَّاعِ إِذَا دَعَانِۖ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لِي وَلۡيُؤۡمِنُواْ بِي لَعَلَّهُمۡ يَرۡشُدُونَ ۝ 183
(186) और ऐ नबी, मेरे बन्दे अगर तुमसे मेरे सम्बन्ध में पूछें, तो उन्हें बता दो कि मैं उनसे क़रीब ही हूँ। पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता और जवाब देता हूँ। अतः उन्हें चाहिए कि मेरी पुकार पर कहें कि हम हाज़िर हैं और मुझपर ईमान लाएँ। (यह बात तुम उन्हें सुना दो) शायद कि वे सीधा मार्ग पा लें।
أُحِلَّ لَكُمۡ لَيۡلَةَ ٱلصِّيَامِ ٱلرَّفَثُ إِلَىٰ نِسَآئِكُمۡۚ هُنَّ لِبَاسٞ لَّكُمۡ وَأَنتُمۡ لِبَاسٞ لَّهُنَّۗ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَخۡتَانُونَ أَنفُسَكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡ وَعَفَا عَنكُمۡۖ فَٱلۡـَٰٔنَ بَٰشِرُوهُنَّ وَٱبۡتَغُواْ مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ ٱلۡخَيۡطُ ٱلۡأَبۡيَضُ مِنَ ٱلۡخَيۡطِ ٱلۡأَسۡوَدِ مِنَ ٱلۡفَجۡرِۖ ثُمَّ أَتِمُّواْ ٱلصِّيَامَ إِلَى ٱلَّيۡلِۚ وَلَا تُبَٰشِرُوهُنَّ وَأَنتُمۡ عَٰكِفُونَ فِي ٱلۡمَسَٰجِدِۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَقۡرَبُوهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 184
(187) तुम्हारे लिए रोज़ों के ज़माने में रातों को अपनी पत्नियों के पास जाना जाइज़ कर दिया गया है। वे तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो। अल्लाह को मालूम हो गया कि तुम लोग चुपके-चुपके अपने आपसे ख़ियानत (चोरी) कर रहे थे, मगर उसने तुम्हारा क़ुसूर माफ़ कर दिया और तुम्हें छोड़ दिया। अब तुम अपनी पत्नियों के साथ रात काटो और जो आनन्द अल्लाह ने तुम्हारे लिए जाइज़ कर दिया है, उसे हासिल करो। और रातों को खाओ-पियो यहाँ तक कि रात की कालिमा की धारी से प्रातः बेला की सफ़ेद धारी स्पष्ट दिखाई दे जाए। तब ये सब काम छोड़कर रात तक अपना रोज़ा पूरा करो। और जब तुम मसजिदों में एतिकाफ़ में हो, तो पत्नियों से संभोग न करो। ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं, इनके निकट न फटकना। इस तरह अल्लाह अपने आदेश लोगों के लिए स्पष्ट रूप से बयान करता है, उम्मीद है कि वे ग़लत रवैये से बचेंगे।
وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ وَتُدۡلُواْ بِهَآ إِلَى ٱلۡحُكَّامِ لِتَأۡكُلُواْ فَرِيقٗا مِّنۡ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ بِٱلۡإِثۡمِ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 185
(188) और तुम लोग न तो आपस में एक दूसरे के माल अवैध रूप से खाओ और न अधिकारी व्यक्तियों के आगे उनको इस ग़रज़ से पेश करो कि तुम्हें दूसरों के माल का कोई हिस्सा जान-बूझकर अन्यायपूर्ण तरीक़े से खाने का अवसर मिल जाए।57
57. इस आयत का एक अर्थ तो यह है कि हाकिमों को रिश्वत देकर अनुचित लाभ उठाने की कोशिश न करो। है और दूसरा अर्थ यह है कि जब तुम ख़ुद जानते हो कि माल दूसरे व्यक्ति का है, तो सिर्फ़ इसलिए कि उसके पास अपनी मिल्कियत का कोई सबूत नहीं है या इस कारण कि किसी ऐंच-पेंच से तुम उसको खा सकते हो, उसका मुक़द्दमा अदालत में न ले जाओ। हो सकता है कि न्यायाधीश मुक़द्दमे के विवरण के अनुसार वह माल तुमको दिलवा दे। मगर वह तुम्हारा जाइज़ माल न होगा।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَهِلَّةِۖ قُلۡ هِيَ مَوَٰقِيتُ لِلنَّاسِ وَٱلۡحَجِّۗ وَلَيۡسَ ٱلۡبِرُّ بِأَن تَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَا وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِنۡ أَبۡوَٰبِهَاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 186
(189) ऐ नबी, लोग तुमसे चाँद के घटते-बढ़ते रूपों के बारे में पूछते हैं। कहो ये लोगों के लिए तिथियों के निर्धारण के और हज के लक्षण हैं। उनसे यह भी कहो यह कोई नेकी का काम नहीं है कि तुम अपने घरों में पीछे की ओर से प्रवेश करते हो। नेकी तो वास्तव में यह है कि आदमी अल्लाह की अप्रसन्नता से बचे। अतः तुम अपने घरों में दरवाज़े ही से आया करो। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो। शायद कि तुम्हें सफलता प्राप्त हो जाए।58
58. अरबों में प्रचलित अंधविश्वास युक्त रीति-रिवाजों में एक यह भी था कि जब हज के लिए 'इहराम' बाँध लेते तो अपने घरों में दरवाज़े से प्रवेश न करते थे, बल्कि पीछे से दीवार कूदकर या दीवार में खिड़की-सी बनाकर प्रवेश करते थे। इसी प्रकार यात्रा से लौटकर भी घरों में पीछे से दाख़िल हुआ करते थे। इस आयत में न केवल इस रीति का निषेध किया गया है, बल्कि इन सभी अंधविश्वासों का यह कहकर खण्डन किया गया कि नेकी इन रीति-रिवाजों में नहीं है बल्कि वास्तविक नेकी अल्लाह से डरना और उसके आदेशों के उल्लंघन से बचना है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 187
(190) और तुम अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो, जो तुमसे लड़ते हैं, लेकिन ज़्यादती न करो कि अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡ وَأَخۡرِجُوهُم مِّنۡ حَيۡثُ أَخۡرَجُوكُمۡۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَشَدُّ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۚ وَلَا تُقَٰتِلُوهُمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِيهِۖ فَإِن قَٰتَلُوكُمۡ فَٱقۡتُلُوهُمۡۗ كَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 188
(191) उनसे लड़ो जहाँ भी तुम्हारी उनसे मुठभेड़ हो जाए और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुमको निकाला है, इसलिए कि क़त्ल यद्यपि बुरा है, मगर उपद्रव इससे भी अधिक बुरा है।59 और प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) के निकट जब तक वे तुमसे न लड़ें, तुम भी न लड़ो, मगर जब वे वहाँ लड़ने से न चूकें, तो तुम निस्संकोच उन्हें मारो कि ऐसे अधर्मियों की यही सज़ा है।
59. यहाँ उपद्रव (फ़ितना) से मुराद है किसी गिरोह या व्यक्ति पर सिर्फ़ इसलिए ज़ुल्म और अत्याचार करना कि उसने असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार कर लिया है।
فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 189
(192) फिर अगर वे बाज़ आ जाएँ, तो जान लो अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ لِلَّهِۖ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَلَا عُدۡوَٰنَ إِلَّا عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 190
(193) तुम उनसे लड़ते रहो यहाँ तक कि उपद्रव बाक़ी न रहे और धर्म (दीन) अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे बाज़ आ जाएँ, तो समझ लो कि अत्याचारियों के अलावा और किसी भी पर हाथ नहीं उठाया जा सकता।
ٱلشَّهۡرُ ٱلۡحَرَامُ بِٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡحُرُمَٰتُ قِصَاصٞۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَٱعۡتَدُواْ عَلَيۡهِ بِمِثۡلِ مَا ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 191
(194) प्रतिष्ठित (हराम) महीने का बदला प्रतिष्ठित महीना ही है और समस्त प्रतिष्ठाओं का लिहाज़ बराबरी के साथ होगा।60 अतः जो तुमपर हाथ उठाए, तुम भी उसी तरह उसपर हाथ उठाओ। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो और यह जान रखो कि अल्लाह उन्हीं लोगों के साथ है, जो उसकी सीमाओं को तोड़ने से बचते हैं।
60. अरबों में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के समय से यह नियम चला आ रहा था कि ज़ीक़ादा, जिलहिज्जा और मुहर्रम के तीन महीने हज के लिए ख़ास थे और रजब का महीना 'उमरा' के लिए ख़ास किया गया था, और इन चार महीनों में युद्ध और हत्या और ग़ारतगरी वर्जित थी ताकि काबा की ज़ियारत करनेवाले निश्चिन्त और सुरक्षित होकर अल्लाह के घर तक जाएँ और अपने घरों को लौट सकें। इसी लिए इन महीनों को हराम महीने (प्रतिष्ठित मास) कहा जाता था।
وَأَنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا تُلۡقُواْ بِأَيۡدِيكُمۡ إِلَى ٱلتَّهۡلُكَةِ وَأَحۡسِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 192
(195) अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करो और अपने हाथों अपने आपको तबाही में न डालो। अच्छे से अच्छा तरीक़ा अपनाओ कि अल्लाह अच्छे से अच्छा तरीक़ा अपनाने वालों को पसन्द करता है।
وَأَتِمُّواْ ٱلۡحَجَّ وَٱلۡعُمۡرَةَ لِلَّهِۚ فَإِنۡ أُحۡصِرۡتُمۡ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۖ وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡيُ مَحِلَّهُۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦٓ أَذٗى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٞ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٖۚ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَمَن تَمَتَّعَ بِٱلۡعُمۡرَةِ إِلَى ٱلۡحَجِّ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۚ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖ فِي ٱلۡحَجِّ وَسَبۡعَةٍ إِذَا رَجَعۡتُمۡۗ تِلۡكَ عَشَرَةٞ كَامِلَةٞۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمۡ يَكُنۡ أَهۡلُهُۥ حَاضِرِي ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 193
(196) अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जब 'हज' और 'उमरा' का निश्चय करो, तो उसे पूरा करो, और अगर कहीं घिर जाओ तो जो क़ुरबानी उपलब्ध हो, अल्लाह की सेवा में भेंट करो61 और अपने सिर न मूँडो जब तक कि क़ुरबानी अपने स्थान पर न पहुँच जाए। मगर जो व्यक्ति बीमार हो या जिसके सिर में कोई तकलीफ़ हो और इस कारण अपना सिर मुंडवा ले, तो उसे चाहिए कि प्रतिदान (सदक़ा) के रूप में रोज़े रखे या दान करे या क़ुरबानी करे।62 फिर अगर तुम्हें अम्न नसीब हो जाए63 (और तुम हज से पहले मक्का पहुँच जाओ), तो जो व्यक्ति तुममें से हज का समय आने तक उमरा से फ़ायदा उठाए, वह सामर्थ्य के अनुसार क़ुरबानी दे और अगर क़ुरबानी उपलब्ध न हो, तो तीन रोज़े हज के समय में और सात घर पहुँचकर, इस तरह पूरे दस रोज़े रख ले। यह छूट उन लोगों के लिए है जिनके घरबार प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) के निकट न हो। अल्लाह के इन आदेशों के उल्लंघन से बचो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
61. अर्थात् अगर रास्ते में कोई ऐसा कारण सामने आ जाए, जिसकी वजह से आगे जाना असंभव हो और विवश होकर रुक जाना पड़े, तो ऊँट, गाय, बकरी में से जो जानवर भी उपलब्ध हो, अल्लाह के लिए क़ुरबान कर दो।
62. 'हदीस' से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने इस स्थिति में तीन दिन के रोज़े रखने या छः मुहताजों को खाना खिलाने या कम से कम एक बकरी ज़बह करने का आदेश दिया है।
63. अर्थात् वह कारण बाक़ी न रहे, जिसकी वजह से विवश होकर तुम्हें रास्ते में रुक जाना पड़ा था।
ٱلۡحَجُّ أَشۡهُرٞ مَّعۡلُومَٰتٞۚ فَمَن فَرَضَ فِيهِنَّ ٱلۡحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوقَ وَلَا جِدَالَ فِي ٱلۡحَجِّۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَتَزَوَّدُواْ فَإِنَّ خَيۡرَ ٱلزَّادِ ٱلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُونِ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 194
(197) हज के महीने सबको मालूम हैं। जो व्यक्ति उन निश्चित महीनों में हज का इरादा करे, उसे सावधान रहना चाहिए कि हज के बीच में उससे कोई काम-वासना का कार्य, कोई बुरा काम, कोई लड़ाई-झगड़े की बात न होने पाए और जो अच्छे कर्म तुम करोगे, उसे अल्लाह जानता होगा। हज के सफ़र के लिए पाथेय (ज़ादे-राह) साथ ले जाओ, और सबसे अच्छा पाथेय परहेज़गारी है। अतः ऐ अक़्लवालो, मेरी नाफ़रमानी से बचो।
لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡۚ فَإِذَآ أَفَضۡتُم مِّنۡ عَرَفَٰتٖ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ عِندَ ٱلۡمَشۡعَرِ ٱلۡحَرَامِۖ وَٱذۡكُرُوهُ كَمَا هَدَىٰكُمۡ وَإِن كُنتُم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 195
(198) और यदि हज के साथ-साथ तुम अपने रब का अनुग्रह भी खोजते जाओ, तो इसमें कोई दोष नहीं64 फिर जब अरफ़ात से चलो, तो 'मशअरे-हराम' (मुज़दलफ़ा) के पास ठहरकर अल्लाह को याद करो और उसी तरह याद करो जिसकी सीख उसने तुम्हें दी है, वरना इससे पहले तो तुम लोग भटके हुए थे।
64. रब के अनुग्रह की खोज से मुराद है हज यात्रा के बीच अपनी रोज़ी कमाने के लिए कोई कार्य करना।
ثُمَّ أَفِيضُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَفَاضَ ٱلنَّاسُ وَٱسۡتَغۡفِرُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 196
(199) फिर जहाँ से और सब लोग पलटते हैं वहीं से तुम भी पलटो और अल्लाह से माफ़ी चाहो,65 निश्चय ही वह क्षमाशील और दयावान है।
65. हज़रत इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) के ज़माने से अरब का जाना-पहचाना हज का तरीक़ा यह था कि 9 ज़िलहिज्जा को मिना से अरफ़ात जाते थे और रात को वहाँ से पलटकर मुज़दलफ़ा में ठहरते थे। लेकिन उसके बाद के समय में जब धीरे-धीरे क़ुरैश क़बीले का ब्राह्मणत्व स्थापित हो गया, तो उन्होंने कहा: हम हरम (काबा) वाले हैं, हमारे पद से यह बात नीचे की है कि साधारण अरबवालों के साथ अरफ़ात तक जाएँ। अतएव उन्होंने अपने लिए यह विशिष्टता का ढंग अपनाया कि मुज़दलफ़ा तक जाकर ही पलट आते और आम लोगों को अरफ़ात तक जाने के लिए छोड़ देते थे। इसी गर्व और दंभ का बुत इस आयत में तोड़ा गया है।
فَإِذَا قَضَيۡتُم مَّنَٰسِكَكُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَذِكۡرِكُمۡ ءَابَآءَكُمۡ أَوۡ أَشَدَّ ذِكۡرٗاۗ فَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖ ۝ 197
(200) फिर जब हज सम्बन्धी अरकान को पूरा कर चुको, तो जिस तरह पहले अपने पूर्वजों की चर्चा करते थे, उसी तरह अब अल्लाह का ज़िक्र करो, बल्कि उससे भी बढ़कर (मगर अल्लाह को याद करनेवालों में भी बहुत अन्तर है) उनमें से कोई तो ऐसा है, जो कहता है कि ऐ हमारे रब हमें दुनिया ही में सब कुछ दे दे। ऐसे व्यक्ति के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ حَسَنَةٗ وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 198
(201) और कोई कहता है कि ऐ हमारे रब हमें दुनिया में भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई और आग के अज़ाब से हमें बचा।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّمَّا كَسَبُواْۚ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 199
(202) ऐसे लोग अपनी कमाई के अनुसार (दोनों जगह) हिस्सा पाएँगे और अल्लाह को हिसाब चुकाते कुछ देर नहीं लगती।
۞وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن تَعَجَّلَ فِي يَوۡمَيۡنِ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِ وَمَن تَأَخَّرَ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۖ لِمَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 200
(203) ये गिनती के कुछ दिन हैं, जो तुम्हें अल्लाह की याद में बसर करने चाहिएँ। फिर जो कोई जल्दी करके दो ही दिन में लौट पड़ा तो कोई हरज नहीं, और जो कुछ देर ज़्यादा ठहरकर पलटा तो भी कोई हरज नहीं।66 शर्त यह है कि ये दिन उसने परहेज़गारी के साथ बसर किए हों—अल्लाह की नाफ़रमानी से बचो और ख़ूब जान रखो कि एक दिन उसके सामने तुम्हारी पेशी होनेवाली है।
66. अर्थात् तशरीक़ के दिनों (ईदुल अज़हा के बाद तीन दिनों) में मिना से मक्का की तरफ़ वापसी चाहे 12 ज़िलहिज्जा को हो या तेरहवीं तिथि को दोनों हालतों में कोई हरज नहीं।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُعۡجِبُكَ قَوۡلُهُۥ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَيُشۡهِدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا فِي قَلۡبِهِۦ وَهُوَ أَلَدُّ ٱلۡخِصَامِ ۝ 201
(204) इनसानों में कोई तो ऐसा है, जिसकी बातें दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हें बहुत भली लगती हैं, और अपनी नेक-नीयती पर वह बार-बार अल्लाह को गवाह ठहराता है, मगर वास्तव में वह सत्य का बदतरीन दुश्मन होता है।
وَإِذَا تَوَلَّىٰ سَعَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُفۡسِدَ فِيهَا وَيُهۡلِكَ ٱلۡحَرۡثَ وَٱلنَّسۡلَۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَسَادَ ۝ 202
(205) जब उसे सत्ता मिल जाती है?67 तो धरती में उसकी सारी दौड़-धूप इसलिए होती है कि बिगाड़ फैलाए, खेतों को नष्ट करें और इनसानी नस्ल को तबाह करे—हालाँकि अल्लाह (जिसे वह गवाह बना रहा था) बिगाड़ को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
67. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “जब वह पलटता है।” मतलब यह है कि ये बातें बनाकर जब वह पलटता है तो व्यवहारतः यह कुछ करता है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُ ٱتَّقِ ٱللَّهَ أَخَذَتۡهُ ٱلۡعِزَّةُ بِٱلۡإِثۡمِۚ فَحَسۡبُهُۥ جَهَنَّمُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 203
(206) — और जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर, तो अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान उसको गुनाह पर जमा देता है। ऐसे व्यक्ति के लिए तो बस जहन्नम ही काफ़ी है और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَشۡرِي نَفۡسَهُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 204
(207) दूसरी ओर इनसानों ही में कोई ऐसा भी है, जो अल्लाह की प्रसन्नता की चाह में अपनी जान खपा देता है, और ऐसे बन्दों के प्रति अल्लाह बहुत मेहरबान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱدۡخُلُواْ فِي ٱلسِّلۡمِ كَآفَّةٗ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 205
(208) ऐ ईमान लानेवालो, तुम पूरे के पूरे इस्लाम (आज्ञापालन) में आ जाओ68 और शैतान का अनुपालन न करो कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
68. अर्थात् किसी अपवाद और विशेषाधिकार के बिना अपने पूरे जीवन को इस्लाम के अन्तर्गत ले आओ। ऐसा न हो कि तुम अपने जीवन को विभिन्न भागों में बाँटकर कुछ भागों में इस्लाम का अनुपालन करो और कुछ हिस्सों को उसके अनुसरण से अलग कर लो।
فَإِن زَلَلۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡكُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 206
(209) जो साफ़-साफ़ आदेश तुम्हारे पास आ चुके हैं, अगर उनको पा लेने के बाद फिर तुम बहके, तो ख़ूब जान रखो कि अल्लाह का प्रभुत्व सर्वत्र है और वह तत्वदर्शी और ज्ञाता है।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن يَأۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ فِي ظُلَلٖ مِّنَ ٱلۡغَمَامِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 207
(210) (इन सारे उपदेशों और आदेशों के बाद भी लोग सीधे न हों तो) क्या अब वे इसका इन्तिज़ार कर रहे हैं कि अल्लाह बादलों का छत्र लगाए, फ़रिश्तों का परा का परा साथ लिए ख़ुद सामने आ मौजूद हो और फ़ैसला ही कर डाला जाए? – आख़िरकार सारे मामले पेश तो अल्लाह ही के सामने होनेवाले हैं।
سَلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ كَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّنۡ ءَايَةِۭ بَيِّنَةٖۗ وَمَن يُبَدِّلۡ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 208
(211) इसराईल की संतान से पूछो, कैसी खुली-खुली निशानियाँ हमने उन्हें दिखाई हैं (और फिर ये भी उन्हीं से पूछ लो कि) अल्लाह की नेमत पाने के बाद जो क़ौम उसको दुर्भाग्य से बदलती है उसे अल्लाह कैसी सख़्त सज़ा देता है।
زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَيَسۡخَرُونَ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۘ وَٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ فَوۡقَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 209
(212) जिन लोगों ने इनकार का रास्ता अपनाया है, उनके लिए सांसारिक जीवन बड़ा प्रिय और दिलपसन्द बना दिया गया है। ऐसे लोग ईमानवालों की हँसी उड़ाते हैं, मगर क़ियामत के दिन परहेज़गार लोग ही उनके मुक़ाबले में उच्च स्थान पर होंगे। रही दुनिया की रोज़ी, तो अल्लाह को अधिकार है, जिसे चाहे बेहिसाब प्रदान करे।
كَانَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَبَعَثَ ٱللَّهُ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ وَأَنزَلَ مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ فِيمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَمَا ٱخۡتَلَفَ فِيهِ إِلَّا ٱلَّذِينَ أُوتُوهُ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۖ فَهَدَى ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ مِنَ ٱلۡحَقِّ بِإِذۡنِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٍ ۝ 210
(213) शुरू में सब लोग एक ही तरीक़े पर थे। (फिर यह हालत बाक़ी न रही और विभेद प्रकट हुए) तब अल्लाह ने नबी भेजे जो सीधे मार्ग पर चलने पर ख़ुशख़बरी देनेवाले और टेढ़ी चाल के परिणामों से डरानेवाले थे, और उनके साथ सत्य पर आधारित पुस्तक उतारी ताकि सत्य के विषय में लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका फ़ैसला करे —(और इन विभेदों के प्रकट होने का कारण यह न था कि शुरू में लोगों को सत्य का ज्ञान कराया ही नहीं गया था। नहीं) विभेद उन लोगों ने किया, जिन्हें सत्य का ज्ञान दिया जा चुका था। उन्होंने स्पष्ट आदेश पा लेने के बाद केवल इसलिए सत्य को छोड़कर विभिन्न रास्ते निकाले कि वे परस्पर ज़्यादती करना चाहते थे अतः जिन लोगों ने पैग़म्बरों को माना, उन्हें अल्लाह ने अपनी अनुमति से उस सत्य का रास्ता दिखा दिया जिसमें लोगों ने विभेद किया था अल्लाह जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दिखा देता है!
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَأۡتِكُم مَّثَلُ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۖ مَّسَّتۡهُمُ ٱلۡبَأۡسَآءُ وَٱلضَّرَّآءُ وَزُلۡزِلُواْ حَتَّىٰ يَقُولَ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ مَتَىٰ نَصۡرُ ٱللَّهِۗ أَلَآ إِنَّ نَصۡرَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ ۝ 211
(214) फिर क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यों ही जन्नत में दाख़िला तुम्हें मिल जाएगा, हालाँकि अभी तुमपर वह सब कुछ नहीं बीता है, जो तुमसे पहले ईमानवालों पर बीत चुका है?69 उन लोगों पर कठिनाइयाँ आईं, मुसीबतें आईं, हिला मारे गए, यहाँ तक कि समय का रसूल और उसके साथी ईमानवाले चिल्ला उठे कि अल्लाह की सहायता कब आएगी? – (उस समय उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।
69. अर्थात् नबी तो दुनिया में जब भी आए हैं उन्हें और उनपर ईमान लानेवालों को अल्लाह के विद्रोही और सरकश बन्दों से कठिन मुक़ाबला करना पड़ा है और उन्होंने अपनी जानें जोखिम में डालकर असत्य प्रणालियों के मुक़ाबले में सत्य धर्म को स्थापित करने का प्रयास किया है, तब कहीं वे जन्नत (स्वर्ग) के अधिकारी हुए। अल्लाह की जन्नत इतनी सस्ती नहीं है कि तुम अल्लाह और उसके धर्म के लिए कोई तकलीफ़ न उठाओ और वह तुम्हें मिल जाए।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلۡ مَآ أَنفَقۡتُم مِّنۡ خَيۡرٖ فَلِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 212
(215) लोग तुमसे पूछते हैं हम क्या ख़र्च करें? जवाब दो कि जो माल भी तुम ख़र्च करो अपने माँ-बाप पर, नातेदारों पर यतीमों और निर्धनों और मुसाफिरों पर ख़र्च करो और जो भलाई भी तुम करोगे, अल्लाह उसे जानता होगा।
كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ وَهُوَ كُرۡهٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تُحِبُّواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ شَرّٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 213
(216) तुम्हें लड़ाई का आदेश दिया गया है और वह तुम्हें नापसन्द है—हो सकता है कि एक चीज़़ तुम्हें नापसन्द हो और वही तुम्हारे लिए अच्छी हो। और हो सकता है कि एक चीज़़ तुम्हें पसन्द हो और वही तुम्हारे लिए बुरी हो। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ قِتَالٖ فِيهِۖ قُلۡ قِتَالٞ فِيهِ كَبِيرٞۚ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَكُفۡرُۢ بِهِۦ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَإِخۡرَاجُ أَهۡلِهِۦ مِنۡهُ أَكۡبَرُ عِندَ ٱللَّهِۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَكۡبَرُ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمۡ عَن دِينِكُمۡ إِنِ ٱسۡتَطَٰعُواْۚ وَمَن يَرۡتَدِدۡ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَيَمُتۡ وَهُوَ كَافِرٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 214
(217) लोग पूछते हैं प्रतिष्ठित महीने में लड़ना कैसा है? कहो, इसमें लड़ना बहुत बुरा है, मगर अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकना और अल्लाह से कुफ़्र करना और मसजिदे-हराम (काबा) का रास्ता ख़ुदापरस्तों पर बन्द करना और हरम के रहनवालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे भी ज़्यादा बुरा है और फ़ितना (धर्म से विचलाना) रक्तपात से भी भारी बात है।70 वे तो तुमसे लड़े ही जाएँगे यहाँ तक कि अगर उनका बस चले, तो तुम्हारे दीन से तुमको फेर ले जाएँ (और यह अच्छी तरह समझ लो कि तुममें से जो कोई अपने दीन से फिरेगा और इनकार की हालत में मरेगा, उसके कर्म दुनिया और आख़िरत दोनों में अकारथ जाएँगे। ऐसे सब लोग जहन्नमी हैं और हमेशा जहन्नम ही में रहेंगे।
70. इस बात का सम्बन्ध एक घटना से है। रजब सन् 2 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने 8 आदमियों की एक टुकड़ी नख़ला की ओर भेजी थी (जो मक्का और तायफ़ के बीच एक स्थान है) और उसको आदेश दिया था कि क़ुरैश की गतिविधि और उनके आगे के इरादों के सम्बन्ध में जानकारी हासिल करे। लड़ाई की कोई अनुमति आपने नहीं दी थी। किन्तु इन लोगों को रास्ते में क़ुरैश का एक छोटा-सा तिजारती क़ाफ़िला मिला और उसपर इन्होंने आक्रमण करके एक व्यक्ति को मार डाला और बाक़ी लोगों को उनके माल सहित पकड़कर मदीना ले आए। यह कार्रवाई ऐसे समय में हुई जबकि रजब ख़त्म और शाबान शुरू हो रहा था और यह बात संदिग्ध थी कि क्या आक्रमण रजब (अर्थात् प्रतिष्ठित मास) में हुआ है या शाबान में। लेकिन क़ुरैश ने और गुप्त रूप में उनसे मिले हुए मदीना के यहूदियों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रोपगण्डा करने के लिए इस घटना को बहुत ही प्रसिद्ध किया और कड़ी आपत्तियाँ करनी शुरू कर दीं कि ये लोग चले हैं बड़े अल्लाहवाले बनकर और हाल यह है कि प्रतिष्ठित मास तक में रक्तपात करने से नहीं चूकते। इन्हीं आपत्तियों का जवाब इस आयत में दिया गया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ يَرۡجُونَ رَحۡمَتَ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 215
(218) इसके विपरीत जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने अल्लाह की राह में अपना घरबार छोड़ा और जिहाद किया है71, वे ईश्वरीय दयालुता के उचित अधिकारी हैं और अल्लाह उनकी भूल-चूक को माफ़ करनेवाला और अपनी रहमत से उन्हें नवाज़नेवाला है।
71. जिहाद का अर्थ है किसी मक़सद को हासिल करने के लिए अपनी आख़िरी कोशिश और जान तोड़ संघर्ष कर गुज़रना। यह सिर्फ़ युद्ध का समानार्थक नहीं है। युद्ध के लिए तो 'क़िताल' शब्द इस्तेमाल होता है। 'जिहाद' में इससे कहीं व्यापक अर्थ पाया जाता है और इसमें युद्ध सहित हर प्रकार का प्रयास शामिल है।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِۖ قُلۡ فِيهِمَآ إِثۡمٞ كَبِيرٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَإِثۡمُهُمَآ أَكۡبَرُ مِن نَّفۡعِهِمَاۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلِ ٱلۡعَفۡوَۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 216
(219) पूछते हैं: शराब और जुए के बारे में क्या हुक्म है? कहो इन दोनों चीज़़ों में बड़ी ख़राबी है। यद्यपि इनमें लोगों के लिए कुछ लाभ भी हैं, मगर इनका गुनाह उनके फ़ायदे से बहुत ज़्यादा है।72 पूछते हैं: हम अल्लाह के रास्ते में क्या ख़र्च करें? कहो: जो कुछ तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा हो। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए साफ़-साफ़ आदेश बयान करता है, शायद कि तुम दुनिया और आख़िरत दोनों की चिन्ता करो।
72. यह शराब और जुए के सम्बन्ध में पहला हुक्म है, जिसमें सिर्फ़ इनके नापसन्द होने की बात कहकर छोड़ दिया गया है, आगे सूरा 4 निसा, आयत 43 और सूरा 5 माइदा, आयत 90 में बाद के आदेश आ रहे हैं।
73. इस आयत से आजकल अजीब-अजीब अर्थ निकाले जा रहे हैं। हालाँकि आयत के शब्दों से साफ़ ज़ाहिर है कि लोग अपने माल के मालिक थे। प्रश्न कर रहे थे कि हम ईश्वर की प्रसन्नता के लिए क्या ख़र्च करें? कहा गया कि पहले उससे अपनी ज़रूरतें पूरी करो। फिर जो अधिक बचे उसे अल्लाह की राह में ख़र्च करो। यह अपनी मरज़ी से किया गया ख़र्च है जो बन्दा अपने रब के मार्ग में अपनी ख़ुशी से करता है।
فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡيَتَٰمَىٰۖ قُلۡ إِصۡلَاحٞ لَّهُمۡ خَيۡرٞۖ وَإِن تُخَالِطُوهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ ٱلۡمُفۡسِدَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَعۡنَتَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 217
(220) पूछते हैं: यतीमों (अनाथों) के साथ क्या मामला किया जाए? कहो: जिस व्यवहार-नीति में उनके लिए भलाई हो, वही ग्रहण करना सबसे अच्छा है। अगर तुम अपना और उनका ख़र्च और रहना-सहना एक साथ रखो, तो इसमें कोई हरज नहीं। आख़िर वे तुम्हारे भाई-बन्धु ही तो हैं। बुराई करनेवाले और भलाई करनेवाले, दोनों का हाल अल्लाह पर ज़ाहिर है। अल्लाह चाहता तो इस मामले में तुमपर सख़्ती करता, मगर वह प्रभुत्वशाली होने के साथ तत्त्वदर्शी भी है।
وَلَا تَنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكَٰتِ حَتَّىٰ يُؤۡمِنَّۚ وَلَأَمَةٞ مُّؤۡمِنَةٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكَةٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡۗ وَلَا تُنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤۡمِنُواْۚ وَلَعَبۡدٞ مُّؤۡمِنٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكُمۡۗ أُوْلَٰٓئِكَ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلنَّارِۖ وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلۡجَنَّةِ وَٱلۡمَغۡفِرَةِ بِإِذۡنِهِۦۖ وَيُبَيِّنُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 218
(221) तुम मुशरिक (बहुदेववादी) औरतों से हरगिज़ निकाह न करना, जब तक कि वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन दासी मुशरिक शरीफ़ औरत से बेहतर है यद्यपि वह तुम्हें बहुत पसंद हो। और अपनी औरतों के निकाह मुशरिक मर्दों से कभी न करना, जब तक वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन ग़ुलाम, मुशरिक शरीफ़ आदमी से बेहतर है, यद्यपि वह तुम्हें बहुत पसंद हो। ये लोग तुम्हें आग की ओर बुलाते हैं और अल्लाह अपनी अनुमति से तुमको जन्नत और मग़फ़िरत की ओर बुलाता है, और वह अपने आदेश स्पष्ट रूप से लोगों के सामने बयान करता है, आशा है कि वे शिक्षा लेंगे और जो समझाया जा रहा है उसे स्वीकार करेंगे।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡمَحِيضِۖ قُلۡ هُوَ أَذٗى فَٱعۡتَزِلُواْ ٱلنِّسَآءَ فِي ٱلۡمَحِيضِ وَلَا تَقۡرَبُوهُنَّ حَتَّىٰ يَطۡهُرۡنَۖ فَإِذَا تَطَهَّرۡنَ فَأۡتُوهُنَّ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَكُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلتَّوَّٰبِينَ وَيُحِبُّ ٱلۡمُتَطَهِّرِينَ ۝ 219
(222) पूछते हैं: हैज़ (मासिक धर्म) के बारे में क्या हुक्म है? कहो वह एक गन्दगी की हालत हैं। उसमें स्त्रियों से अलग रहो और उनके पास न जाओ74, जब तक कि वे पाक-साफ़ न हो जाएँ। फिर जब वे पाक हो जाएँ, तो उनके पास जाओ उस तरह जैसा कि अल्लाह ने तुम्हें आदेश दिया है। अल्लाह को वे लोग पसंद हैं, जो बुराई से बाज़ रहें और पाकी अपनाएँ।
74. मतलब यह है कि इस हालत में उनसे संभोग न करो।
نِسَآؤُكُمۡ حَرۡثٞ لَّكُمۡ فَأۡتُواْ حَرۡثَكُمۡ أَنَّىٰ شِئۡتُمۡۖ وَقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُم مُّلَٰقُوهُۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 220
(223) तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तुम्हे अधिकार है, जिस तरह चाहो, अपनी खेती में जाओ, मगर अपने भविष्य की चिन्ता करो और अल्लाह की अप्रसन्नता से बचो।75 ख़ूब जान लो कि तुम्हें एक दिन उससे मिलना है। और ऐ नबी, जो तुम्हारे आदेशों को माने लें उन्हें (सफलता और सौभाग्य की) ख़ुशख़बरी सुना दो।
75. ये सारगर्भित शब्द हैं, जिनसे दो अर्थ निकलते हैं और दोनों का समान रूप से महत्त्व है। एक यह कि अपनी नस्ल को बाक़ी रखने की कोशिश करो ताकि तुम्हारे संसार छोड़ने से पहले तुम्हारी जगह दूसरे कार्य करनेवाले पैदा हों। दूसरे यह कि जिस आनेवाली नस्ल को तुम अपनी जगह छोड़नेवाले हो, उसको धर्म (दीन), नैतिकता और मानवता के गुणों से सुसज्जित करने का प्रयास करो।
وَلَا تَجۡعَلُواْ ٱللَّهَ عُرۡضَةٗ لِّأَيۡمَٰنِكُمۡ أَن تَبَرُّواْ وَتَتَّقُواْ وَتُصۡلِحُواْ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 221
(224) अल्लाह के नाम को ऐसे शपथ ग्रहण के लिए प्रयोग न करो, जिनका मक़सद नेकी और धर्म-परायणता और लोगों की भलाई के कामों से रुक जाना हो। अल्लाह तुम्हारी सारी बातें सुन रहा है और सब कुछ जानता है।
لَّا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا كَسَبَتۡ قُلُوبُكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 222
(225) जो निरर्थक क़समें तुम बिना इरादे के खा लिया करते हो, उनपर अल्लाह नहीं पकड़ता, मगर जो क़समें तुम सच्चे दिल से खाते हो, उनके बारे में वह ज़रूर पूछेगा। अल्लाह बहुत क्षमा करनेवाला और सहनशील है।
لِّلَّذِينَ يُؤۡلُونَ مِن نِّسَآئِهِمۡ تَرَبُّصُ أَرۡبَعَةِ أَشۡهُرٖۖ فَإِن فَآءُو فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 223
(226) जो लोग अपनी औरतों से सम्बन्ध न रखने की क़सम खा बैठते हैं, उनके लिए चार महीने की मुहलत है।76 अगर वे पलट आएँ तो अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।
76. धर्म-विधान (शरीअत) की परिभाषा में इसको 'ईला' कहते हैं। पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध हमेशा सुखद तो नहीं रह सकते। बिगाड़ के कारण पैदा होते ही रहते हैं। लेकिन ऐसे बिगाड़ को ईश्वरीय धर्म-विधान पसन्द नहीं करता कि दोनों एक दूसरे के साथ क़ानूनी रूप से दम्पति के सम्बन्ध में तो बँधे रहें, मगर व्यवहारतः एक दूसरे से इस तरह अलग रहें कि मानो वे पति और पत्नी नहीं हैं। ऐसे बिगाड़ के लिए अल्लाह ने चार महीने की मुद्दत निश्चित कर दी कि या तो इस बीच में अपने सम्बन्ध ठीक कर लो, नहीं तो दम्पति का नाता तोड़ दो ताकि दोनों एक दूसरे से आज़ाद होकर जिसके साथ निर्वाह कर सकें, उसके साथ निकाह कर लें।
وَٱلۡمُطَلَّقَٰتُ يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ ثَلَٰثَةَ قُرُوٓءٖۚ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ أَن يَكۡتُمۡنَ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِيٓ أَرۡحَامِهِنَّ إِن كُنَّ يُؤۡمِنَّ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَبُعُولَتُهُنَّ أَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِي ذَٰلِكَ إِنۡ أَرَادُوٓاْ إِصۡلَٰحٗاۚ وَلَهُنَّ مِثۡلُ ٱلَّذِي عَلَيۡهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ وَلِلرِّجَالِ عَلَيۡهِنَّ دَرَجَةٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 224
(228) जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वे तीन बार मासिक धर्म होने तक अपने आपको रोके रखें, और उनके लिए यह जायज़ नहीं कि अल्लाह ने उनके गर्भाशय में जो सृजन किया हो, उसे छिपाएँ। उन्हें हरगिज़ ऐसा न करना चाहिए, अगर वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखती हैं। उनके पति सम्बन्धों को ठीक रखने के लिए तैयार हों, तो वे इस इद्दत की अवधि में उन्हें फिर पत्नी के रूप में वापस ले लेने के अधिकारी हैं।78 औरतों के लिए भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार है, जैसे मर्दों के अधिकार उनपर हैं। अलबत्ता मर्दों को उनपर एक दर्जा प्राप्त है। और सबपर अल्लाह प्रभावकारी प्रभुत्व रखनेवाला और तत्त्वदर्शी और ज्ञाता मौजूद है।
78. यह हुक्म सिर्फ़ उस हालत में है जब कि पति ने औरत को एक या दो तलाक़ें दी हों। इस हालत में 'तलाक़ रजई' होती है और 'इद्दत' के बीच पति रुजू कर सकता है। अर्थात् उसे अपने दाम्पत्य जीवन में वापस ले सकता है।
ٱلطَّلَٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَٰنٖۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 225
(229) तलाक़ दो बार है। फिर या तो सीधी तरह औरत को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको विदा कर दिया जाए।79 और विदा करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो। अलबत्ता यह अपवाद है कि पति-पत्नी को अल्लाह की निर्धारित सीमाओं पर क़ायम न रह सकने की आशंका हो। ऐसी दशा में अगर तुम्हें यह भय हो कि वे दोनों अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के बीच यह मामला हो जाने में कोई हरज नहीं कि पत्नी अपने पति को कुछ मुआवज़ा देकर जुदाई हासिल कर ले।80 ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं, इनका उल्लंघन न करो और जो लोग अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करें, वही ज़ालिम है।
79. इस आयत के अनुसार एक मर्द निकाह के एक रिश्ते में अपनी पत्नी पर ज़्यादा से ज़्यादा दो ही बार 'तलाक़ रजई' का हक़ इस्तेमाल कर सकता है। जो व्यक्ति अपनी पत्नी को दो बार तलाक़ देकर उससे रुजू कर चुका हो, वह अपने जीवन में जब कभी उसको तीसरी बार तलाक़ देगा, औरत उससे हमेशा के लिए जुदा हो जाएगी।
80. धर्म-संहिता (शरीअत) की शब्दवाली में इसे “ख़ुल-अ” कहते हैं, अर्थात् एक स्त्री का अपने पति को कुछ दे-दिलाकर उससे तलाक़ हासिल करना। इस स्थिति में पुरुष के लिए जायज़ होगा कि अपना दिया हुआ माल या उसका कोई हिस्सा, जिसपर भी परस्पर समझौता हुआ हो, औरत से वापस ले ले। लेकिन अगर मर्द ने ख़ुद ही औरत को तलाक़ दी हो तो वह उससे अपना दिया हुआ कोई माल वापस नहीं ले सकता।
فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُۥۗ فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يَتَرَاجَعَآ إِن ظَنَّآ أَن يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۗ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 226
(230) फिर अगर (दो बार तलाक़ देने के बाद पति ने पत्नी को तीसरी बार) तलाक़ दे दी, तो वह औरत फिर उसके लिए हलाल न होगी, सिवाय इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे व्यक्ति से हो और वह उसे तलाक़ दे दे।81 तब अगर पहला पति और यह औरत दोनों यह समझें कि ईश्वरीय सीमाओं पर क़ायम रहेंगे, तो उनके लिए एक-दूसरे की ओर पलटने में कोई हरज नहीं। ये अल्लाह को निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं जिन्हें वह उन लोगों के मार्गदर्शन के लिए स्पष्ट कर रहा है, जो (उसकी सीमाओं को तोड़ने का परिणाम) जानते हैं।
81. अर्थात् किसी समय ख़ुद अपनी इच्छा से तलाक़ दे दे। इससे साज़िशी निकाह और तलाक़ का जाइज़ होना सिद्ध नहीं होता जो सिर्फ़ पहले पति के लिए औरत के हलाल करने के लिए किया गया हो।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ سَرِّحُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٖۚ وَلَا تُمۡسِكُوهُنَّ ضِرَارٗا لِّتَعۡتَدُواْۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ هُزُوٗاۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمَآ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَٱلۡحِكۡمَةِ يَعِظُكُم بِهِۦۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 227
(231) और जब तुम औरतों को तलाक़ दे दो और उनकी 'इद्दत' (निश्चित अवधि) पूरी होने को आ जाए तो या भले तरीक़े से उन्हें रोक लो या भले तरीक़े से विदा कर दो। सिर्फ़ सताने के लिए उन्हें न रोके रखना कि यह ज़्यादती होगी और जो ऐसा करेगा, वह वास्तव में आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म करेगा। अल्लाह की 'आयतों' का खेल न बनाओ। भूल न जाओ कि अल्लाह ने किस बड़ी नेमत से तुम्हें नवाज़ा है। वह तुम्हें नसीहत करता है कि जो किताब और तत्त्वदर्शिता (हिकमत) उसने तुमपर नाज़िल की है, उसके आदर का ध्यान रखो। अल्लाह से डरो और अच्छी तरह जान लो कि अल्लाह को हर बात की ख़बर है।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ أَن يَنكِحۡنَ أَزۡوَٰجَهُنَّ إِذَا تَرَٰضَوۡاْ بَيۡنَهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ ذَٰلِكَ يُوعَظُ بِهِۦ مَن كَانَ مِنكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ ذَٰلِكُمۡ أَزۡكَىٰ لَكُمۡ وَأَطۡهَرُۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 228
(232) जब तुम अपनी औरतों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी अवधि ('इद्दत) पूरी कर लें, तो फिर इसमें रुकावट न खड़ी करो कि वे अपने मनपसंद पतियों से निकाह कर लें, जब कि वे सामान्य रीति से आपस में निकाह करने पर राज़ी हों। तुम्हें नसीहत की जाती है कि ऐसी हरकत हरगिज़ न करना, अगर तुम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लानेवाले हो। तुम्हारे लिए शिष्ट और सुथरा तरीक़ा यही है कि इससे बाज़ रहो। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
۞وَٱلۡوَٰلِدَٰتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ لَا تُكَلَّفُ نَفۡسٌ إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَا تُضَآرَّ وَٰلِدَةُۢ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوۡلُودٞ لَّهُۥ بِوَلَدِهِۦۚ وَعَلَى ٱلۡوَارِثِ مِثۡلُ ذَٰلِكَۗ فَإِنۡ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٖ مِّنۡهُمَا وَتَشَاوُرٖ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَاۗ وَإِنۡ أَرَدتُّمۡ أَن تَسۡتَرۡضِعُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا سَلَّمۡتُم مَّآ ءَاتَيۡتُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 229
(233) जो बाप चाहते हों कि उनके बच्चे दूध पीने की पूरी अवधि तक दूध पिएँ, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ।82 इस स्थिति में बच्चे के बाप को सामान्य रीति से उन्हें खाना कपड़ा देना होगा। मगर किसी पर उसकी समाई से बढ़कर बोझ न डालना चाहिए। न तो माँ को इस कारण से तकलीफ़ में डाला जाए कि बच्चा उसका है, और न बाप ही को इस कारण से तंग किया जाए कि बच्चा उसका है—दूध पिलानेवाली का यह अधिकार जैसा बच्चे के बाप पर है, वैसा ही उसके वारिस पर भी है—लेकिन अगर दोनों पक्षवाले आपस के समझौते और मशवरे से दूध छुड़ाना चाहें, तो ऐसा करने में कोई हरज नहीं। और यदि तुम्हारा विचार अपने बच्चों को किसी दूसरी औरत से दूध पिलवाने का हो, तो इसमें भी कोई हरज नहीं, शर्त यह है कि इसका जो कुछ मुआवज़ा तय करो, वह सामान्य रीति से चुका दो। अल्लाह से डरो और जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
82. यह आदेश उस स्थिति के लिए है जबकि पति-पत्नी एक-दूसरे से अलग हो चुके हों, चाहे तलाक़ के ख़ुल'अ या फ़स्ख़ (निकाह तोड़ देने) और जुदाई डाल देने के द्वारा, और औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَعَشۡرٗاۖ فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 230
(234) तुममें से जो लोग मर जाएँ, उनके पीछे अगर उनकी पत्नियाँ ज़िन्दा हों, तो वे अपने आपको चार महीने, दस दिन रोके रखें।83 फिर जब उनकी अवधि (इद्दत) पूरी हो जाए, तो उन्हें अधिकार है, अपने विषय में सामान्य रीति से जो चाहें, करें। तुमपर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तुम सबके आमाल की ख़बर रखता है।
83. यह मौत के बाद की 'इद्दत' उन औरतों के लिए भी है जिनसे उनके पतियों ने संभोग न किया हो। अलबत्ता गर्भवती का मामला इससे अलग है। उसकी मौत के बाद की 'इद्दत' बच्चा पैदा होने तक है, चाहे बच्चा पति के देहान्त के बाद ही हो जाए या इसमें कई महीने लगें। “अपने आपको रोके रखें” से मुराद सिर्फ़ दूसरा निकाह करने से रुकना ही नहीं है, बल्कि इससे मुराद अपने आपको बनाव-सिंगार से रोके रखना भी है।
وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا عَرَّضۡتُم بِهِۦ مِنۡ خِطۡبَةِ ٱلنِّسَآءِ أَوۡ أَكۡنَنتُمۡ فِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ سَتَذۡكُرُونَهُنَّ وَلَٰكِن لَّا تُوَاعِدُوهُنَّ سِرًّا إِلَّآ أَن تَقُولُواْ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗاۚ وَلَا تَعۡزِمُواْ عُقۡدَةَ ٱلنِّكَاحِ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡكِتَٰبُ أَجَلَهُۥۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 231
(235) निश्चित अवधि काल (इद्दत की मुद्दत) में चाहे तुम उन विधवा औरतों के साथ मंगनी का विचार संकेत रूप में ज़ाहिर कर दो, चाहे मन में छिपाए रखो, दोनों हालतों में कोई हरज नहीं। अल्लाह जानता है कि उनका ख़याल तो तुम्हारे दिल में आएगा ही। मगर देखो, गुप्त रूप से समझौता न करना। अगर कोई बात करनी है, तो सामान्य रीति से करो। और निकाह का नाता जोड़ने का फ़ैसला उस समय तक न करो, जब तक कि अवधि (इद्दत) पूरी न हो जाए। ख़ूब समझ लो कि अल्लाह तुम्हारे दिलों का हाल तक जानता है। इसलिए उससे डरो और यह भी जान लो कि अल्लाह सहनशील है, (छोटी-छोटी बातों को) माफ़ कर देता है।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ مَا لَمۡ تَمَسُّوهُنَّ أَوۡ تَفۡرِضُواْ لَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَمَتِّعُوهُنَّ عَلَى ٱلۡمُوسِعِ قَدَرُهُۥ وَعَلَى ٱلۡمُقۡتِرِ قَدَرُهُۥ مَتَٰعَۢا بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 232
(236) तुमपर कुछ गुनाह नहीं, अगर अपनी औरतों को तलाक़ दे दो इससे पहले कि हाथ लगाने की नौबत आए और मह्‍र मुक़र्रर हो। इस स्थिति में उन्हें कुछ न कुछ देना ज़रूर चाहिए। ख़ुशहाल आदमी अपनी सामर्थ्य के अनुसार और ग़रीब अपनी सामर्थ्य के अनुसार सामान्य रीति से दे। यह हक़ है नेक आदमियों पर।
وَإِن طَلَّقۡتُمُوهُنَّ مِن قَبۡلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ وَقَدۡ فَرَضۡتُمۡ لَهُنَّ فَرِيضَةٗ فَنِصۡفُ مَا فَرَضۡتُمۡ إِلَّآ أَن يَعۡفُونَ أَوۡ يَعۡفُوَاْ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ عُقۡدَةُ ٱلنِّكَاحِۚ وَأَن تَعۡفُوٓاْ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۚ وَلَا تَنسَوُاْ ٱلۡفَضۡلَ بَيۡنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 233
(237) और अगर तुमने हाथ लगाने से पहले तलाक़ दी हो, लेकिन मह्‍र मुक़र्रर किया जा चुका हो, तो इस हालत में मह्‍र का आधा देना होगा। यह और बात है कि औरत नरमी बरते (और मह्‍र न ले) या वह मर्द, जिसके हाथ में विवाह के नाते का अधिकार है, नरमी से काम ले (और पूरा मह्‍र दे दे), और तुम (अर्थात् मर्द) नरमी से काम लो, तो यह धर्मपरायणता (तक़वा) के अधिक अनुकूल है। आपस के मामलों में उदारता एवं दानशीलता को न भूलो तुम्हारे कर्मों को अल्लाह देख रहा है।
حَٰفِظُواْ عَلَى ٱلصَّلَوَٰتِ وَٱلصَّلَوٰةِ ٱلۡوُسۡطَىٰ وَقُومُواْ لِلَّهِ قَٰنِتِينَ ۝ 234
(238) अपनी नमाज़ों की निगरानी करो, विशेष रूप से ऐसी नमाज़ की जो अपने में उपासना-गुणों को समाहित किए हुए हो।84 अल्लाह के आगे इस तरह खड़े हो, जैसे आज्ञाकारी ग़ुलाम खड़े होते हैं।
84. यहाँ “सलातुल-वुस्ता” शब्द प्रयुक्त हुआ है। वुस्ता का अर्थ बीचवाली चीज़ का भी है और ऐसी चीज़़ का भी जो उच्च और श्रेष्ठ हो। 'सलातुल-वुस्ता' से मुराद बीच की नमाज़ भी हो सकती है और ऐसी नमाज़ भी जो ठीक समय पर पूरी विनम्रता के साथ और अल्लाह की ओर ध्यान लगाकर पढ़ी जाए, और जिसमें नमाज़ के सभी अपेक्षित गुण पाए जाते हों। जिन टीकाकारों ने इस शब्द को बीच की नमाज़ के अर्थ में लिया है वे साधारणतः इससे मुराद 'अस्र' की नमाज़ लेते हैं।
فَإِنۡ خِفۡتُمۡ فَرِجَالًا أَوۡ رُكۡبَانٗاۖ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَمَا عَلَّمَكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 235
(239) अशांति की स्थिति हो, तो चाहे पैदल हो, चाहे सवार, जिस तरह संभव हो, नमाज़ पढ़ो। और जब शांति प्राप्त हो, तो अल्लाह को उस तरीक़े से याद करो, जो उसने तुम्हें सिखा दिया है जिससे तुम पहले बेख़बर थे।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا وَصِيَّةٗ لِّأَزۡوَٰجِهِم مَّتَٰعًا إِلَى ٱلۡحَوۡلِ غَيۡرَ إِخۡرَاجٖۚ فَإِنۡ خَرَجۡنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِي مَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ مِن مَّعۡرُوفٖۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 236
(240) तुममें से जिन लोगों की मौत हो और वे अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ रहे हों, उनको चाहिए कि अपनी पत्नियों के हक़ में यह वसीयत कर जाएँ कि एक वर्ष तक उनको खाना कपड़ा दिया जाए और वे घर से न निकाली जाएँ। फिर अगर वे ख़ुद निकल जाएँ, तो अपने मामले में सामान्य रीति से वे जो कुछ भी करें, उसकी कोई ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है, अल्लाह को सबपर प्रभावकारी प्रभुत्व प्राप्त है और वह तत्त्वदर्शी और जाननेवाला है।
وَلِلۡمُطَلَّقَٰتِ مَتَٰعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 237
(241) इसी तरह जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, उन्हें भी उचित रूप से कुछ न कुछ देकर विदा किया जाए। यह हक़ है परहेज़गार लोगों पर।
كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 238
(242) इस तरह अल्लाह अपने आदेश तुम्हें साफ़-साफ़ बताता है। उम्मीद है कि तुम समझ- बूझकर काम करोगे।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَهُمۡ أُلُوفٌ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِ فَقَالَ لَهُمُ ٱللَّهُ مُوتُواْ ثُمَّ أَحۡيَٰهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 239
(243) तुमने उन लोगों के हाल पर भी कुछ विचार किया, जो मौत के डर से अपने घरबार छोड़कर निकले थे और हज़ारों की तादाद में थे? अल्लाह ने उनसे कहा मर जाओ। फिर उसने उनको दोबारा जीवन प्रदान किया।85 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह इनसान पर बड़ी दया करनेवाला है, मगर अधिकतर लोग शुक्र अदा नहीं करते।
85. यह इशारा इसराइलियों की निर्गमन घटना की ओर है। सूरा माइदा के चौथे रुकू (आयत 20-26) में अल्लाह ने इसका विवरण प्रस्तुत किया है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 240
(244 ) — मुसलमानो, अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो और ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥٓ أَضۡعَافٗا كَثِيرَةٗۚ وَٱللَّهُ يَقۡبِضُ وَيَبۡصُۜطُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 241
(245) तुममें कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर लौटाए?86 घटाना भी अल्लाह के अधिकार में है और बढ़ाना भी, और उसी की ओर तुम्हें पलटकर जाना है।
86. “अच्छा क़र्ज़ से मुराद ख़ालिस नेकी और पुण्य की भावना और निःस्वार्थ भाव से अल्लाह की राह में माल ख़र्च करना है। उसे अल्लाह अपने ज़िम्मे क़र्ज़ करार देता है और वादा करता है कि मैं न सिर्फ़ मूलधन चुका दूँगा, बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा दूँगा।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلۡمَلَإِ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰٓ إِذۡ قَالُواْ لِنَبِيّٖ لَّهُمُ ٱبۡعَثۡ لَنَا مَلِكٗا نُّقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ قَالَ هَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ أَلَّا تُقَٰتِلُواْۖ قَالُواْ وَمَا لَنَآ أَلَّا نُقَٰتِلَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَدۡ أُخۡرِجۡنَا مِن دِيَٰرِنَا وَأَبۡنَآئِنَاۖ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ تَوَلَّوۡاْ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 242
(246) फिर तुमने उस मामले पर भी विचार किया, जो मूसा के बाद बनी-इसराईल के सरदारों को पेश आया था? उन्होंने अपने नबी से कहा: हमारे लिए एक बादशाह मुक़र्रर कर दो ताकि हम अल्लाह के मार्ग में युद्ध करें। नबी ने पूछा: कहीं ऐसा तो न होगा कि तुमको लड़ाई का हुक्म दिया जाए और फिर तुम न लड़ो। वे कहने लगे: भला यह कैसे हो सकता है कि हम अल्लाह के मार्ग में न लड़ें, जबकि हमें अपने घरों से निकाल दिया गया है और हमारे बाल-बच्चे हमसे अलग कर दिए गए हैं। मगर जब उनको युद्ध का हुक्म दिया गया, तो एक छोटी तादाद के सिवा सब पीठ फेर गए, और अल्लाह उनमें से एक-एक ज़ालिम को जानता है।
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَدۡ بَعَثَ لَكُمۡ طَالُوتَ مَلِكٗاۚ قَالُوٓاْ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ عَلَيۡنَا وَنَحۡنُ أَحَقُّ بِٱلۡمُلۡكِ مِنۡهُ وَلَمۡ يُؤۡتَ سَعَةٗ مِّنَ ٱلۡمَالِۚ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰهُ عَلَيۡكُمۡ وَزَادَهُۥ بَسۡطَةٗ فِي ٱلۡعِلۡمِ وَٱلۡجِسۡمِۖ وَٱللَّهُ يُؤۡتِي مُلۡكَهُۥ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 243
(247) उनके नबी ने उनसे कहा कि अल्लाह ने तालूत को तुम्हारे लिए बादशाह मुक़र्रर किया है। यह सुनकर वे बोले: “हम पर बादशाह बनने का वह कैसे हक़दार हो गया? उसके मुक़ाबले में बादशाही के हम ज़्यादा हक़दार है। यह तो कोई बड़ा मालदार आदमी भी नहीं है।” नबी ने जवाब दिया: “अल्लाह ने तुम्हारे मुक़ाबले में उसी को चुना है और उसको दिमाग़ी और जिस्मानी दोनों प्रकार की भरपूर योग्यताएँ प्रदान की हैं और अल्लाह को अधिकार है कि अपना राज्य जिसे चाहे दे, अल्लाह बड़ी समाईवाला है और वह सब कुछ जानता है।”
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ءَايَةَ مُلۡكِهِۦٓ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلتَّابُوتُ فِيهِ سَكِينَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَبَقِيَّةٞ مِّمَّا تَرَكَ ءَالُ مُوسَىٰ وَءَالُ هَٰرُونَ تَحۡمِلُهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 244
(248) इसके साथ उनके नबी ने उनको यह भी बताया कि “अल्लाह की ओर से उसके बादशाह मुक़र्रर होने का लक्षण यह है कि उसके समय में वह सन्दूक तुम्हें वापस मिल जाएगा, जिसमें तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे लिए दिल के इत्मीनान का सामान है, जिसमें मूसा के लोगों और हारून के लोगों की छोड़ी हुई बरकतवाली वस्तुएँ हैं, और जिसको इस समय फ़रिश्ते सँभाले हुए हैं। अगर तुम ईमानवाले हो, तो यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी निशानी है।"
فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوتُ بِٱلۡجُنُودِ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ مُبۡتَلِيكُم بِنَهَرٖ فَمَن شَرِبَ مِنۡهُ فَلَيۡسَ مِنِّي وَمَن لَّمۡ يَطۡعَمۡهُ فَإِنَّهُۥ مِنِّيٓ إِلَّا مَنِ ٱغۡتَرَفَ غُرۡفَةَۢ بِيَدِهِۦۚ فَشَرِبُواْ مِنۡهُ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ فَلَمَّا جَاوَزَهُۥ هُوَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ قَالُواْ لَا طَاقَةَ لَنَا ٱلۡيَوۡمَ بِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦۚ قَالَ ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ ٱللَّهِ كَم مِّن فِئَةٖ قَلِيلَةٍ غَلَبَتۡ فِئَةٗ كَثِيرَةَۢ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 245
(249) फिर जब तालूत सेना लेकर चला, तो उसने कहा: “एक दरिया पर अल्लाह की ओर से तुम्हारी परीक्षा होनेवाली है जो उसका पानी पिएगा, वह मेरा साथी नहीं, मेरा साथी सिर्फ़ वह है जो उससे प्यास न बुझाए। हाँ, एक-आध चुल्लू कोई पी ले, तो पी ले।” मगर एक छोटे गिरोह के सिवा उन सबने दरिया से ख़ूब पानी पिया। फिर जब तालूत और उसके साथी मुसलमान दरिया पार करके आगे बढ़े, तो उन्होंने तालूत से कह दिया कि आज हममें जालूत और उसकी सेनाओं का मुक़ाबला करने की ताक़त नहीं है।87 लेकिन जो लोग यह समझते थे कि उन्हें एक दिन अल्लाह से मिलना है, उन्होंने कहा “कितनी बार ऐसा हुआ है कि एक छोटी टुकड़ी अल्लाह की अनुज्ञा से एक बड़े गिरोह पर छा गई है। अल्लाह सब्र करनेवालों का साथी है।”
87. संभवतः यह कहनेवाले वही लोग होंगे जो दरिया पर पहले ही अपनी बे-सब्री दिखा चुके थे।
وَلَمَّا بَرَزُواْ لِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦ قَالُواْ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 246
(250) और जब वे जालूत और उसकी सेनाओं के मुक़ाबले पर निकले, तो उन्होंने दुआ की: “ऐ हमारे रब, हमें अधिक से अधिक धैर्य प्रदान कर हमारे क़दम जमा दे और इस काफ़िर गिरोह पर हमें विजय दे”
فَهَزَمُوهُم بِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَقَتَلَ دَاوُۥدُ جَالُوتَ وَءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَهُۥ مِمَّا يَشَآءُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّفَسَدَتِ ٱلۡأَرۡضُ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 247
(251) अन्ततः अल्लाह की अनुज्ञा से उन्होंने काफ़िरों को मार भगाया और दाऊद ने जालूत का वध कर दिया, और अल्लाह ने उसे सलतनत और हिकमत प्रदान की और जिन-जिन चीज़़ों का चाहा, उसको इल्म दिया — अगर इस तरह अल्लाह इनसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता, तो धरती की व्यवस्था बिगड जाती, लेकिन दुनिया के लोगों पर अल्लाह की बड़ी उदार कृपा है (कि वह इस तरह बिगाड़ दूर करने का प्रबन्ध करता रहता है।)
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۚ وَإِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 248
(252) ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम ठीक-ठीक तुमको सुना रहे हैं और ऐ मुहम्मद, निश्चय ही तुम उन लोगों में से हो, जो सन्देशवाहक (रसूल) बनाकर भेजे गए हैं।
۞تِلۡكَ ٱلرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۘ مِّنۡهُم مَّن كَلَّمَ ٱللَّهُۖ وَرَفَعَ بَعۡضَهُمۡ دَرَجَٰتٖۚ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلَ ٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ وَلَٰكِنِ ٱخۡتَلَفُواْ فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ وَمِنۡهُم مَّن كَفَرَۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلُواْ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 249
(253) ये रसूल (जो हमारी ओर से इनसानों को रास्ता दिखाने के लिए नियुक्त हुए) हमने इनको एक दूसरे से बढ़-चढ़कर पद प्रदान किए। इनमें कोई ऐसा था जिससे अल्लाह ने ख़ुद बातें की, किसी को उसने दूसरी हैसियतों से ऊँचे दर्जे दिए, और अन्त में मरयम के बेटे ईसा को रौशन निशानियाँ प्रदान कीं और पवित्र आत्मा से उसकी सहायता की। अगर अल्लाह चाहता तो संभव न था कि इन रसूलों के बाद जो लोग रौशन निशानियाँ देख चुके थे, वे आपस में लड़ते। मगर (अल्लाह यह न चाहता था कि वह लोगों को बलपूर्वक विभेद करने से रोके इस कारण) उन्होंने परस्पर विभेद किया, फिर किसी ने माना और किसी ने इनकार की नीति अपनाई। हाँ, अल्लाह चाहता, तो वे हरगिज़ न लड़ते, मगर अल्लाह जो चाहता है करता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا بَيۡعٞ فِيهِ وَلَا خُلَّةٞ وَلَا شَفَٰعَةٞۗ وَٱلۡكَٰفِرُونَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 250
(254) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो कुछ धन-सामग्री हमने तुमको प्रदान की है, उसमें से ख़र्च करो इससे पहले कि वह दिन आए, जिसमें न ख़रीद-बिक्री होगी, न दोस्ती काम आएगी और न सिफ़ारिश चलेगी और ज़ालिम वास्तव में वही है, जो कुफ़्र की नीति अपनाते हैं।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُۚ لَا تَأۡخُذُهُۥ سِنَةٞ وَلَا نَوۡمٞۚ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ مَن ذَا ٱلَّذِي يَشۡفَعُ عِندَهُۥٓ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيۡءٖ مِّنۡ عِلۡمِهِۦٓ إِلَّا بِمَا شَآءَۚ وَسِعَ كُرۡسِيُّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۖ وَلَا يَـُٔودُهُۥ حِفۡظُهُمَاۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 251
(255) अल्लाह वह जीवन्त शाश्वत सत्ता जो सम्पूर्ण जगत् को संभाले हुए है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। यह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है ज़मीन और आसमानों में जो कुछ हैं, उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है और उसके ज्ञान में से कोई चीज़़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती यह और बात है कि किसी चीज़़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य88 आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।
88. मूल में “कुर्सी” शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसे साधारणतया शासन एवं राज्य सत्ता के अर्थों में लाक्षणिक रूप से बोला जाता है। उर्दू (तथा हिन्दी) भाषा में भी अकसर कुर्सी शब्द बोलने का मतलब शासनाधिकार होता है। इसी शब्द के कारण यह आयत “आयतुल-कुर्सी” के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी पहचान करा दी गई है, जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। इसी लिए 'हदीस' में इसको क़ुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत कहा गया है।
لَآ إِكۡرَاهَ فِي ٱلدِّينِۖ قَد تَّبَيَّنَ ٱلرُّشۡدُ مِنَ ٱلۡغَيِّۚ فَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلطَّٰغُوتِ وَيُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱسۡتَمۡسَكَ بِٱلۡعُرۡوَةِ ٱلۡوُثۡقَىٰ لَا ٱنفِصَامَ لَهَاۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 252
(256) दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है।89 सही बात ग़लत विचारों से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जिस किसी ने बढ़े हुए फ़सादी90 का इनकार करके अल्लाह को माना, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा धाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं, और अल्लाह (जिसका सहारा उसने लिया है) सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
89. अर्थात् किसी को ईमान लाने पर मज़बूर नहीं किया जा सकता।
90. यहाँ ताग़ूत शब्द प्रयुक्त हुआ है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से हर उस व्यक्ति को ताग़ूत कहा जाएगा जो अपनी जायज़ सीमा से आगे बढ़ गया हो। क़ुरआन की परिभाषा में ताग़ूत से मुराद वह बन्दा है, जो बन्दगी की सीमा से आगे बढ़कर ख़ुद अपनी प्रभुता और ख़ुदाई का दम भरे और अल्लाह के बन्दों से अपनी बन्दगी कराए।
ٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡلِيَآؤُهُمُ ٱلطَّٰغُوتُ يُخۡرِجُونَهُم مِّنَ ٱلنُّورِ إِلَى ٱلظُّلُمَٰتِۗ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 253
(257) जो लोग ईमान लाते हैं, उनका हिमायती और मददगार अल्लाह है और वह उनको अंधकारों से प्रकाश में निकाल लाता है। और जो लोग इनकार की नीति अपनाते हैं, उनके हिमायती और मददगार बढ़े हुए फ़सादी हैं।91 और वे उन्हें प्रकाश से अंधकारों की ओर खींच ले जाते हैं। ये आग में जानेवाले लोग हैं, जहाँ ये हमेशा रहेंगे।
91. “ताग़ूत” यहाँ तवाग़ीत (ताग़ूत का बहुवचन) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् अल्लाह से मुँह मोड़कर इनसान एक ही ताग़ूत के चंगुल में नहीं फँसता, बल्कि बहुत-से ताग़ूत उसपर हावी हो जाते हैं।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِي حَآجَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ فِي رَبِّهِۦٓ أَنۡ ءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ إِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّيَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ قَالَ أَنَا۠ أُحۡيِۦ وَأُمِيتُۖ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَأۡتِي بِٱلشَّمۡسِ مِنَ ٱلۡمَشۡرِقِ فَأۡتِ بِهَا مِنَ ٱلۡمَغۡرِبِ فَبُهِتَ ٱلَّذِي كَفَرَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 254
(258) क्या तुमने उस आदमी के हाल पर विचार नहीं किया, जिसने इबराहीम से झगड़ा किया था?92 झगड़ा इस बात पर कि इबराहीम का रब कौन है, और इस कारण कि उस व्यक्ति को अल्लाह ने हुकूमत दे रखी थी। जब इबराहीम ने कहा कि “मेरा रब वह है, जिसके अधिकार में ज़िन्दगी और मौत है", तो उसने जवाब दिया: “जिन्दगी और मौत मेरे अधिकार में है।” इबराहीम: ने कहा: “अच्छा, अल्लाह सूरज को पूरब से निकालता है, तू तनिक उसे पच्छिम से निकाल ला।” यह सुनकर वह सत्य-विरोधी चकित रह गया, मगर अल्लाह ज़ालिमों को सीधा रास्ता नहीं दिखाया करता।
92. उस आदमी से मुराद नमरूद है, जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के वतन (इराक़) का बादशाह था।
أَوۡ كَٱلَّذِي مَرَّ عَلَىٰ قَرۡيَةٖ وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا قَالَ أَنَّىٰ يُحۡيِۦ هَٰذِهِ ٱللَّهُ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۖ فَأَمَاتَهُ ٱللَّهُ مِاْئَةَ عَامٖ ثُمَّ بَعَثَهُۥۖ قَالَ كَمۡ لَبِثۡتَۖ قَالَ لَبِثۡتُ يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۖ قَالَ بَل لَّبِثۡتَ مِاْئَةَ عَامٖ فَٱنظُرۡ إِلَىٰ طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمۡ يَتَسَنَّهۡۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰ حِمَارِكَ وَلِنَجۡعَلَكَ ءَايَةٗ لِّلنَّاسِۖ وَٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡعِظَامِ كَيۡفَ نُنشِزُهَا ثُمَّ نَكۡسُوهَا لَحۡمٗاۚ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥ قَالَ أَعۡلَمُ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 255
(259) या फिर उदाहरण के रूप में उस आदमी को देखो, जिसका एक ऐसी बस्ती पर से जाना हुआ, जो अपनी छतों पर औंधी गिरी पड़ी थी। उसने कहा: “यह आबादी जो तबाह हो चुकी है, इसे अल्लाह किस तरह दोबारा जीवन प्रदान करेगा?” इसपर अल्लाह ने उसके प्राण ग्रस्त कर लिए और सौ वर्ष तक वह मुर्दा पड़ा रहा। फिर अल्लाह ने उसे दोबारा जीवन दान दिया और उससे पूछा “बताओ, कितने समय तक पड़े रहे हो?” उसने कहा: “एक दिन या कुछ घण्टे रहा हूँगा।” कहा: “तुमपर सौ वर्ष इसी हालत में बीत चुके हैं। अब ज़रा अपने खाने और पानी को देखो कि उसमें ज़रा परिवर्तन नहीं आया है। दूसरी ओर ज़रा अपने गधे को भी देखो (कि उसका पंजर तक जीर्ण हो रहा है) और यह हमने इसलिए किया है कि हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी बना देना चाहते हैं। फिर देखो कि हड्डियों के इस पंजर को हम किस तरह उठाकर मांस और चर्म उसपर चढ़ाते हैं।” इस तरह जब वास्तविकता उसके सामने बिलकुल स्पष्ट हो गई तो उसने कहा: “मैं जानता हूँ कि अल्लाह हर चीज़़ पर क़ुदरत रखता है।"
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ أَرِنِي كَيۡفَ تُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ قَالَ أَوَلَمۡ تُؤۡمِنۖ قَالَ بَلَىٰ وَلَٰكِن لِّيَطۡمَئِنَّ قَلۡبِيۖ قَالَ فَخُذۡ أَرۡبَعَةٗ مِّنَ ٱلطَّيۡرِ فَصُرۡهُنَّ إِلَيۡكَ ثُمَّ ٱجۡعَلۡ عَلَىٰ كُلِّ جَبَلٖ مِّنۡهُنَّ جُزۡءٗا ثُمَّ ٱدۡعُهُنَّ يَأۡتِينَكَ سَعۡيٗاۚ وَٱعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 256
(260) और वह घटना भी सामने रहे, जब इबराहीम ने कहा था कि “मेरे मालिक, मुझे दिखा दे, तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करता है।” कहा: “क्या तू ईमान नहीं रखता?” उसने निवेदन किया, “ईमान तो रखता हूँ, मगर दिल का इतमीनान चाहता हूँ।”93 कहा: “अच्छा, तो चार पक्षी ले और उनको अपने से हिला मिला ले। फिर उनका एक-एक भाग एक-एक पहाड़ पर रख दे। फिर उनको पुकार, वे तेरे पास दौड़े चले आएँगे ख़ूब जान ले कि अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।"
93. यानी वह इतमीनान जो आँखों से देखकर हासिल होता है।
مَّثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنۢبَتَتۡ سَبۡعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنۢبُلَةٖ مِّاْئَةُ حَبَّةٖۗ وَٱللَّهُ يُضَٰعِفُ لِمَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 257
(261) जो लोग अपने माल अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे एक दाना बोया जाए और उससे सात बालें निकले और हर बाल में सौ दाने हों। इसी तरह अल्लाह जिसके कर्म को चाहता है, बढ़ोत्तरी प्रदान करता है। वह समाईवाला भी है और सर्वज्ञ भी।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ لَا يُتۡبِعُونَ مَآ أَنفَقُواْ مَنّٗا وَلَآ أَذٗى لَّهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 258
(262) जो लोग अपने माल अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते हैं और ख़र्च करके फिर एहसान नहीं जताते, न दुख देते हैं, उनका बदला उनके रब के पास है और उनके लिए किसी रंज और ख़ौफ़ का मौक़ा नहीं।
۞قَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞ وَمَغۡفِرَةٌ خَيۡرٞ مِّن صَدَقَةٖ يَتۡبَعُهَآ أَذٗىۗ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَلِيمٞ ۝ 259
(263) एक मीठा बोल और किसी अप्रिय बात पर तनिक आँख बचा जाना उस दान से अच्छा है, जिसके पीछे दुख हो। अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है और सहनशीलता उसका गुण है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُبۡطِلُواْ صَدَقَٰتِكُم بِٱلۡمَنِّ وَٱلۡأَذَىٰ كَٱلَّذِي يُنفِقُ مَالَهُۥ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ صَفۡوَانٍ عَلَيۡهِ تُرَابٞ فَأَصَابَهُۥ وَابِلٞ فَتَرَكَهُۥ صَلۡدٗاۖ لَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّمَّا كَسَبُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 260
(264) ऐ ईमान लानेवालो, अपने दान को एहसान जताकर और दुख देकर उस आदमी की तरह मिट्टी में न मिला दो, जो अपना माल सिर्फ़ लोगों के दिखाने को ख़र्च करता है और न अल्लाह को मानता है, न आख़िरत को। उसके ख़र्च की मिसाल ऐसी है, जैसे एक चट्टान थी, जिसपर मिट्टी की तह जमी हुई थी उसपर जब ज़ोर की बारिश हुई तो सारी मिट्टी बह गई और साफ़ चट्टान की चट्टान रह गई। ऐसे लोग अपनी दृष्टि में दान करके जो नेकी कमाते हैं, उससे कुछ भी उनके हाथ नहीं आता, और काफ़िरों को सीधा मार्ग दिखाना अल्लाह का नियम नहीं है।94
94. यहाँ काफ़िर शब्द कृतघ्न और उपकार न माननेवाले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ وَتَثۡبِيتٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ كَمَثَلِ جَنَّةِۭ بِرَبۡوَةٍ أَصَابَهَا وَابِلٞ فَـَٔاتَتۡ أُكُلَهَا ضِعۡفَيۡنِ فَإِن لَّمۡ يُصِبۡهَا وَابِلٞ فَطَلّٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 261
(265) इसके विपरीत जो लोग अपने माल सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी की चाहत में हृदय की पूरी स्थिरता के साथ ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे कि उच्च सतह पर एक बाग़ हो। अगर ज़ोर की बारिश हो जाए तो दो गुना फल लाए और अगर ज़ोर की बारिश न भी हो तो एक हलकी फुहार ही उसके लिए काफ़ी हो जाए। तुम जो कुछ करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
أَيَوَدُّ أَحَدُكُمۡ أَن تَكُونَ لَهُۥ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَابٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ لَهُۥ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَأَصَابَهُ ٱلۡكِبَرُ وَلَهُۥ ذُرِّيَّةٞ ضُعَفَآءُ فَأَصَابَهَآ إِعۡصَارٞ فِيهِ نَارٞ فَٱحۡتَرَقَتۡۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 262
(266) क्या तुममें से कोई यह पसंद करता है कि उसके पास एक हरा-भरा बाग़ हो, नहरों से सिंचित खजूरो और अंगूरों और हर क़िस्म के फलों से लदा हो, और वह ठीक उस समय एक तेज़ बगूले के आघात में आकर झुलस जाए, जबकि वह ख़ुद बूढ़ा हो और उसके छोटे बच्चे अभी किसी योग्य न हों?95 इस तरह अल्लाह अपनी बातें तुम्हारे सामने बयान करता है, शायद कि तुम सोच-विचार करो।
95. अर्थात् अगर तुम यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारी जीवन भर की कमाई एक ऐसे नाज़ुक मौक़े पर तबाह हो जाए जब कि तुम उससे लाभ उठाने के सबसे ज़्यादा ज़रूरतमन्द हो और नए सिरे से कमाई करने का अवसर भी बाक़ी न रहा हो, तो यह बात तुम कैसे पसन्द कर रहे हो कि दुनिया में जीवन भर कार्य करने के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम इस तरह क़दम रखो कि वहाँ पहुँचकर अचानक तुम्हें मालूम हो कि जीवन के तुम्हारे सारे किए-धरे का यहाँ कोई मूल्य नहीं, जो कुछ तुमने दुनिया के लिए कमाया था, वह दुनिया ही में रह गया, आख़िरत के लिए कुछ कमाकर लाए ही नहीं कि यहाँ उसके फल खा सको।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا كَسَبۡتُمۡ وَمِمَّآ أَخۡرَجۡنَا لَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِۖ وَلَا تَيَمَّمُواْ ٱلۡخَبِيثَ مِنۡهُ تُنفِقُونَ وَلَسۡتُم بِـَٔاخِذِيهِ إِلَّآ أَن تُغۡمِضُواْ فِيهِۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ حَمِيدٌ ۝ 263
(267) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो माल तुमने कमाए हैं और जो कुछ हमने धरती से तुम्हारे लिए निकाला है, उसमें से अच्छा हिस्सा अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करो। ऐसा न हो कि उसके मार्ग में देने के लिए बुरी से बुरी चीज़़ छाँटने की कोशिश करने लगो, हालाँकि वही चीज़़ अगर कोई तुम्हें दे, तो तुम हरगिज़ उसे लेना न चाहोगे, यह और बात है कि उसको स्वीकार करने में तुम देखी-अनदेखी कर जाओ। तुम्हें जान लेना चाहिए कि अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) है और अच्छे गुणों से विभूषित है।
ٱلشَّيۡطَٰنُ يَعِدُكُمُ ٱلۡفَقۡرَ وَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ وَٱللَّهُ يَعِدُكُم مَّغۡفِرَةٗ مِّنۡهُ وَفَضۡلٗاۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 264
(268) शैतान तुम्हें निर्धनता से डराता है और शर्मनाक नीति अपनाने के लिए उकसाता है, मगर अल्लाह तुम्हें अपनी बख़शिश और उदार कृपा की उम्मीद दिलाता है। अल्लाह बड़ी समाईवाला और सर्वज्ञ है।
يُؤۡتِي ٱلۡحِكۡمَةَ مَن يَشَآءُۚ وَمَن يُؤۡتَ ٱلۡحِكۡمَةَ فَقَدۡ أُوتِيَ خَيۡرٗا كَثِيرٗاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 265
(269) जिसको चाहता है हिकमत (तत्त्वदर्शिता) प्रदान करता है, और जिसे हिकमत (तत्वज्ञान) मिली, उसे वास्तव में बड़ी दौलत मिल गई। इन बातों से सिर्फ़ वही लोग शिक्षा ग्रहण करते हैं जो बुद्धिमान है।
وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن نَّفَقَةٍ أَوۡ نَذَرۡتُم مِّن نَّذۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُهُۥۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٍ ۝ 266
(270) तुमने जो कुछ भी ख़र्च किया हो और जो मन्नत96 भी मानी हो, अल्लाह उसे जानता है और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
96. मन्नत या नज़्र यह है कि आदमी अपनी किसी मुराद के पूरे होने पर कोई ऐसा नेक काम करने की प्रतिज्ञा करे जो उसके लिए अनिवार्य न हो। अगर यह मुराद किसी हलाल और जायज़ चीज़ की हो, और अल्लाह से माँगी गई हो, और उसके पूरे होने पर जो काम करने को प्रतिज्ञा आदमी ने की है वह अल्लाह ही के लिए हो, तो ऐसी नज़्र अल्लाह के आज्ञापालन के दायरे में है और इसे पूरा करने का बदला (पुण्य) ज़रूर मिलेगा। अगर यह बात न हो तो ऐसी नज़्र का मानना गुनाह है और उसका पूरा करना अज़ाब और यातना का कारण बनेगा।
إِن تُبۡدُواْ ٱلصَّدَقَٰتِ فَنِعِمَّا هِيَۖ وَإِن تُخۡفُوهَا وَتُؤۡتُوهَا ٱلۡفُقَرَآءَ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ وَيُكَفِّرُ عَنكُم مِّن سَيِّـَٔاتِكُمۡۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 267
(271) अगर अपने दान खुले रूप में दो, तो यह भी अच्छा है, लेकिन अगर छिपाकर मुहताजों को दो, तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा है। तुम्हारी बहुत-सी बुराइयाँ इस नीति से मिट जाती हैं। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को हर हाल में उसकी ख़बर है।
۞لَّيۡسَ عَلَيۡكَ هُدَىٰهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يَشَآءُۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلِأَنفُسِكُمۡۚ وَمَا تُنفِقُونَ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ ٱللَّهِۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 268
(272) ऐ नबी, लोगों को रास्ते पर ला देने की ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। रास्ते पर तो अल्लाह ही जिसे चाहता है चलाता है। और भलाई के रास्ते में जो माल तुम ख़र्च करते हो वह तुम्हारे अपने लिए भला है। आख़िर तुम इसी लिए तो ख़र्च करते हो कि अल्लाह की ख़ुशी प्राप्त हो। तो जो कुछ माल तुम भलाई के रास्ते में ख़र्च करोगे, उसका पूरा-पूरा बदला तुम्हें दिया जाएगा। और तुम्हारा हक़ हरगिज़ मारा न जाएगा।
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلَّذِينَ أُحۡصِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ ضَرۡبٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ يَحۡسَبُهُمُ ٱلۡجَاهِلُ أَغۡنِيَآءَ مِنَ ٱلتَّعَفُّفِ تَعۡرِفُهُم بِسِيمَٰهُمۡ لَا يَسۡـَٔلُونَ ٱلنَّاسَ إِلۡحَافٗاۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٌ ۝ 269
(273) विशेष रूप से सहायता के हक़दार वे निर्धन लोग हैं जो अल्लाह के कार्य में ऐसे घिर गए हैं कि अपने व्यक्तिगत जीविकोपार्जन के लिए धरती में कोई दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनका स्वाभिमान (ख़ुद्दारी) देखकर अनजान आदमी समझता है कि ये सम्पन्न हैं। तुम उनके चेहरों से उनकी भीतरी हालत पहचान सकते हो, मगर वे ऐसे लोग नहीं है कि लोगों के पीछे पड़कर कुछ माँगें। उनकी सहायता में जो माल तुम ख़र्च करोगे वह अल्लाह से छिपा न रहेगा।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 270
(274) जो लोग अपने माल रात-दिन खुले और छिपे ख़र्च करते हैं उनका बदला उनके रब के पास है और उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज की बात नहीं।
ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 271
(275) मगर जो लोग ब्याज (सूद) खाते हैं, उनका हाल उस आदमी जैसा होता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।97 और इस हालत में उनके फँस जाने का कारण यह है कि वे कहते हैं: “व्यापार भी तो आख़िर ब्याज ही जैसी चीज़़ है"98, जबकि अल्लाह ने व्यापार को हलाल किया है और ब्याज को हराम अतः जिस आदमी को उसके रब की ओर से यह नसीहत पहुँचे और आगे के लिए वह ब्याज खाने से बाज़ आ जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है99। और जो इस आदेश के बाद फिर इस कर्म को दोबारा करे, वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
97. अरब के लोग दीवाने आदमी को “मजनून” (अर्थात् प्रेतग्रस्त) की संज्ञा देते थे, और किसी आदमी के बारे में यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यों कहते कि उसे जिन्न लग गया है। इसी मुहावरे का प्रयोग करते हुए क़ुरआन ब्याज खानेवाले को उस आदमी के जैसा क़रार देता है जो विक्षिप्त हो गया हो।
98. अर्थात् उनकी धारणा की ख़राबी यह है कि वे व्यापार में मूल लागत पर जो लाभ लिया जाता है उसे और ब्याज को एक ही तरह की चीज़़ समझते हैं, और उनमें कोई अन्तर नहीं करते और तर्क और दलील यों प्रस्तुत करते हैं कि जब व्यापार में लगे रुपये का लाभ लेना जायज़ है, तो क़र्ज़ के तौर पर दिए गए रुपये का लाभ क्यों नाजायज़ होगा।
99. यह नहीं कहा कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि कहा यह जा रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस वाक्य से मालूम होता है कि “जो खा चुका सो खा चुका” कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे मुराद सिर्फ़ क़ानूनी छूट है। अर्थात् जो ब्याज पहले खाया जा चुका है उसे वापस लेने को क़ानूनी तौर पर माँग नहीं की जाएगी।
يَمۡحَقُ ٱللَّهُ ٱلرِّبَوٰاْ وَيُرۡبِي ٱلصَّدَقَٰتِۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ ۝ 272
(276) अल्लाह ब्याज का मठ मार देता है और ख़ैरात (दान) को बढ़ाता है। और अल्लाह किसी नाशुक्रे बुरे अमलवाले इनसान को पसंद नहीं करता।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 273
(277) हाँ, जो लोग ईमान ले आएँ और अच्छे कर्म करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात (दान) दें, उनका बदला बेशक उनके रब के पास है और उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَذَرُواْ مَا بَقِيَ مِنَ ٱلرِّبَوٰٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 274
(278) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो और जो कुछ तुम्हारा ब्याज लोगों पर बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो, अगर वास्तव में तुम ईमान लाए हो।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ فَأۡذَنُواْ بِحَرۡبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَإِن تُبۡتُمۡ فَلَكُمۡ رُءُوسُ أَمۡوَٰلِكُمۡ لَا تَظۡلِمُونَ وَلَا تُظۡلَمُونَ ۝ 275
(279) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, तो सावधान हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल (सन्देशवाहक) की ओर से तुम्हारे ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा है।100 अब भी तौबा कर लो (और ब्याज छोड़ दो) तो अपना मूलधन लेने के तुम अधिकारी हो। न तुम अन्याय करो, न तुम्हारे साथ ज़ुल्म किया जाए।
100. यह आयत मक्का की विजय के बाद उतरी थी जबकि अरब इस्लामी राज्य के अधीन हो चुका था। इससे पहले यद्यपि ब्याज एक नापसंदीदा चीज़़ समझा जाता था मगर क़ानूनी तौर पर उसे बन्द नहीं किया गया था। इस आयत के उतरने के बाद इस्लामी राज्य की सीमा में ब्याज का कारोबार एक फ़ौजदारी अपराध बन गया। आयत के अन्तिम शब्दों के आधार पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी (रह०), इब्ने-सीरीन (रह०) और रबीअ-बिन-अनस (रह०) का मत यह है कि जो आदमी 'दारुल इस्लाम' में ब्याज खाए उसे 'तौबा' करने के लिए मज़बूर किया जाए और अगर न रुके तो उसे क़त्ल की सज़ा दी जाए। दूसरे फ़क़ीहों (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) की राय में ऐसे आदमी को क़ैद कर देना काफ़ी है। जब तक वह वचन न दे कि ब्याज न खाएगा उसे छोड़ा न जाए।
وَإِن كَانَ ذُو عُسۡرَةٖ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيۡسَرَةٖۚ وَأَن تَصَدَّقُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 276
(280) तुम्हारा क़र्ज़दार तंगी में हो, तो हाथ खुलने तक उसे मुहलत दो, और अगर दान कर दो, तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है अगर तुम समझो101।
101. इसी आयत से यह हुक्म निकाला गया है कि जो आदमी क़र्ज़ चुकाने में असमर्थ हो गया हो, इस्लामी अदालत उसके क़र्ज़ देनेवालों को मज़बूर करेगी कि उसे मोहलत दे, और कुछ परिस्थितियों में उसे अधिकार होगा कि वह पूरा क़र्ज़ या क़र्ज़ का एक हिस्सा माफ़ भी करा दे। फ़क़ीहों ने स्पष्ट किया है कि किसी के रहने का मकान, खाने के बरतन, पहनने के कपड़े और वे औज़ार और उपकरण जिनसे वह अपनी रोज़ी कमाता हो, किसी हालत में भी कुर्क नहीं किए जा सकते।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا تُرۡجَعُونَ فِيهِ إِلَى ٱللَّهِۖ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 277
(281) उस दिन के अपमान और मुसीबत से बचो, जबकि तुम अल्लाह की ओर वापस होगे, वहाँ हर आदमी को अपनी कमाई हुई नेकी या बुराई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा और किसी के साथ हरगिज़ ज़ुल्म न होगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيۡنٍ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى فَٱكۡتُبُوهُۚ وَلۡيَكۡتُب بَّيۡنَكُمۡ كَاتِبُۢ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَلَا يَأۡبَ كَاتِبٌ أَن يَكۡتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ ٱللَّهُۚ فَلۡيَكۡتُبۡ وَلۡيُمۡلِلِ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥ وَلَا يَبۡخَسۡ مِنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ فَإِن كَانَ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ سَفِيهًا أَوۡ ضَعِيفًا أَوۡ لَا يَسۡتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلۡيُمۡلِلۡ وَلِيُّهُۥ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَٱسۡتَشۡهِدُواْ شَهِيدَيۡنِ مِن رِّجَالِكُمۡۖ فَإِن لَّمۡ يَكُونَا رَجُلَيۡنِ فَرَجُلٞ وَٱمۡرَأَتَانِ مِمَّن تَرۡضَوۡنَ مِنَ ٱلشُّهَدَآءِ أَن تَضِلَّ إِحۡدَىٰهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحۡدَىٰهُمَا ٱلۡأُخۡرَىٰۚ وَلَا يَأۡبَ ٱلشُّهَدَآءُ إِذَا مَا دُعُواْۚ وَلَا تَسۡـَٔمُوٓاْ أَن تَكۡتُبُوهُ صَغِيرًا أَوۡ كَبِيرًا إِلَىٰٓ أَجَلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِ وَأَقۡوَمُ لِلشَّهَٰدَةِ وَأَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَرۡتَابُوٓاْ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً حَاضِرَةٗ تُدِيرُونَهَا بَيۡنَكُمۡ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَلَّا تَكۡتُبُوهَاۗ وَأَشۡهِدُوٓاْ إِذَا تَبَايَعۡتُمۡۚ وَلَا يُضَآرَّ كَاتِبٞ وَلَا شَهِيدٞۚ وَإِن تَفۡعَلُواْ فَإِنَّهُۥ فُسُوقُۢ بِكُمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱللَّهُۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 278
(282) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब किसी निर्धारित समय के लिए तुम आपस में क़र्ज़ का लेन-देन करो102, तो उसे लिख लिया करो। दोनों पक्षों के बीच इनसाफ़ के साथ एक आदमी दस्तावेज़ लिखे। जिसे अल्लाह ने लिखने-पढ़ने की क़ाबिलियत दी हो, उसे लिखने से इनकार नहीं करना चाहिए। वह लिखे और बोलकर वह आदमी लिखाए जिसपर हक़ आता है (अर्थात् क़र्ज़ लेनेवाला), और उसे अल्लाह, अपने रब से डरना चाहिए कि जो मामला तय पाया हो उसमें कोई कभी-बेशी न करे। लेकिन अगर क़र्ज़ लेनेवाला ख़ुद नादान या कमज़ोर हो, या बोलकर लिखा न सकता हो, तो उसका सरपरस्त इनसाफ़ के साथ बोलकर लिखाए। फिर अपने मर्दों में से दो आदमियों की इसपर गवाही करा लो और अगर दो मर्द न हो तो एक मर्द और दो औरतें हो ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। ये गवाह ऐसे लोगों में से होने चाहिएँ, जिनकी गवाही तुम्हारे बीच स्वीकार की जाती हो। गवाहों को जब गवाह बनने के लिए कहा जाए, तो उन्हें इनकार न करना चाहिए। मामला चाहे छोटा हो या बड़ा, अवधि के निर्धारण के साथ उसकी दस्तावेज लिखवा लेने में सुस्ती न करो। अल्लाह के नज़दीक यह तरीक़ा तुम्हारे लिए ज़्यादा न्यायसंगत है इससे गवाही क़ायम होने में ज़्यादा आसानी होती है, और सन्देहों में तुम्हारे पड़ने की संभावना कम रह जाती है, हाँ जो व्यापारिक लेन-देन हाथ के हाथ तुम लोग आपस में करते हो, उसको न लिखा जाए तो कोई हरज नहीं, मगर व्यापारिक मामले तय करते समय गवाह कर लिया करो। लिखनेवाले और गवाह को सताया न जाए। ऐसा करोगे, तो गुनाह का काम करोगे। अल्लाह के ग़ज़ब से बचो। वह तुम्हें सही कार्य-नीति की तालीम देता है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है।
102. इससे यह हुक्म निकलता है कि क़र्ज़ के मामले में अवधि या मुद्दत का निर्धारण होना चाहिए।
۞وَإِن كُنتُمۡ عَلَىٰ سَفَرٖ وَلَمۡ تَجِدُواْ كَاتِبٗا فَرِهَٰنٞ مَّقۡبُوضَةٞۖ فَإِنۡ أَمِنَ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا فَلۡيُؤَدِّ ٱلَّذِي ٱؤۡتُمِنَ أَمَٰنَتَهُۥ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥۗ وَلَا تَكۡتُمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَۚ وَمَن يَكۡتُمۡهَا فَإِنَّهُۥٓ ءَاثِمٞ قَلۡبُهُۥۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 279
(283) अगर तुम किसी सफ़र में हो और दस्तावेज़ लिखने के लिए कोई लिखनेवाला न मिले, तो गिरवी (बन्धक) रखकर मामला करो।103 अगर तुममे से कोई आदमी दूसरे पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे, तो जिसपर भरोसा किया गया है, उसे चाहिए कि अमानत अदा करे और अल्लाह, अपने रब से डरे। और गवाही हरगिज़ न छिपाओ। जो गवाही छिपाता है, उसका दिल गुनाह में लथपथ है। और अल्लाह तुम्हारे कामों से बेख़बर नहीं है।
103. गिरवी या बन्धक हाथ में रखने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि क़र्ज़ देनेवाले को अपने क़र्ज़ की वापसी का इतमीनान हो जाए। मगर उसे अपने दिए हुए माल के बदले में गिरवी (रेहन) रखी हुई चीज़़ से लाभ उठाने का हक़ नहीं है, क्योंकि यह ब्याज है। हाँ, अगर कोई जानवर रेहन लिया गया हो तो उसका दूध इस्तेमाल किया जा सकता है, और उससे सवारी और बोझ ढोने का काम लिया जा सकता है, क्योंकि वास्तव में यह उस चारे का बदला है जो बन्धक लेनेवाला उस जानवर को खिलाता है।
لِّلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَإِن تُبۡدُواْ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ أَوۡ تُخۡفُوهُ يُحَاسِبۡكُم بِهِ ٱللَّهُۖ فَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 280
(284) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह का है। तुम अपने दिल की बातें चाहे खोल दो, या छिपाओ अल्लाह हर हाल में उनका हिसाब तुमसे ले लेगा। फिर उसे अधिकार है जिसे चाहे माफ़ कर दे और जिसे चाहे सज़ा दे उसे हर चीज़ पर क़ुदरत हासिल है।
ءَامَنَ ٱلرَّسُولُ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مِن رَّبِّهِۦ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۚ كُلٌّ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّن رُّسُلِهِۦۚ وَقَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ غُفۡرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 281
(285) रसूल (ईश्वरीय सन्देशवाहक) ने उस मार्गदर्शन को माना जो उसके रब की ओर से उसपर उतरा है। और जो लोग इस रसूल के माननेवाले हैं, उन्होंने भी उस मार्गदर्शन को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और इनका कहना यह है कि “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते, हमने हुक्म सुना और आज्ञाकारी हुए। मालिक हम तुझसे माफ़ी चाहते हैं और हमें तेरी ही ओर पलटना है।”
لَا يُكَلِّفُ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَعَلَيۡهَا مَا ٱكۡتَسَبَتۡۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذۡنَآ إِن نَّسِينَآ أَوۡ أَخۡطَأۡنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تَحۡمِلۡ عَلَيۡنَآ إِصۡرٗا كَمَا حَمَلۡتَهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلۡنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهِۦۖ وَٱعۡفُ عَنَّا وَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَآۚ أَنتَ مَوۡلَىٰنَا فَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 282
(286) अल्लाह किसी जान पर उसकी सहन-शक्ति से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता। हर आदमी ने जो कमाई की है, उसका फल उसी के लिए है और जो बुराई समेटी है, उसका वबाल उसी पर है। (ईमान लानेवालो, तुम इस तरह दुआ किया करो) ऐ हमारे रब, हमसे भूलचूक में जो ख़ताएँ हो जाएँ, उनपर पकड़ न कर, मालिक हमपर वह बोझ न डाल जो तूने हमसे पहले लोगों पर डाले थे। रब, जिस बोझ को उठाने की ताक़त हममें नहीं है, वह हमपर न रख। हमारे साथ नरमी कर, हमें माफ़ कर दे, हमपर दया कर, तू हमारा स्वामी है, इनकार करनेवालों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।
وَإِنۡ عَزَمُواْ ٱلطَّلَٰقَ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 283
(227) और अगर उन्होंने तलाक़ ही की ठान ली हो तो जाने रहें कि अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।77
77. अर्थात् अगर तुमने पत्नी को अनुचित बात पर छोड़ा है, तो अल्लाह से निर्भय न रहो, वह तुम्हारी ज़्यादती से बेख़बर नहीं है।
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 284
(162) इसी तिरस्कार की हालत में वे हमेशा रहेंगे, न उनकी सज़ा में कमी होगी और न उन्हें फिर कोई दूसरी मुहलत दी जाएगी।
وَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 285
(163) तुम्हारा पूज्य प्रभु एक ही पूज्य-प्रभु है, उस करुणामय और दयावान के सिवा कोई और पूज्य प्रभु नहीं है।