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سُورَةُ الحَشۡرِ

59. अल-हश्र

(मक्का में उतरी, आयतें 24)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्‌फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—

भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—

''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्‍ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्‍ने-साद, इब्‍ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्‍यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—

  1. पहली चार आयतों में दुनिया को उस अंजाम से शिक्षा दिलाई गई है जो अभी-अभी बनी-नज़ीर ने देखा था। अल्लाह ने बताया है कि [बनी नज़ीर का यह देश निकाला स्वीकार कर लेना] मुसलमानों को शक्ति का चमत्कार नहीं था, बल्कि इस बात का परिणाम था कि वे अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से लड़ गए थे, और जो लोग अल्लाह की ताक़त से टकराने की दुस्साहस करें, वे ऐसे ही परिणामों से दोचार होते हैं।
  2. आयत 5 में युद्ध के क़ानून का यह नियम बताया गया है कि युद्ध-सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए दुश्मन के क्षेत्रों में जो ध्वंसात्मक कार्रवाई की जाए उसे धरती में फ़साद फैलाने का नाम नहीं दिया जाता।
  3. आयत 6 से 10 तक यह बताया गया है कि उन देशों की ज़मीनों और जायदादों का बन्दोबस्त किस तरह किया जाए जो लड़ाई या समझौते के नतीजे में इस्लामी राज्य के अधीन हो जाएँ।
  4. आयत 11 से 17 तक मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये की समीक्षा की गई है जो उन्होंने बनी-नज़ीर की लड़ाई के मौक़े पर अपनाई थी।
  5. आयत 18 से सूरा के अन्त तक पूरे का पूरा एक उपदेश है जिसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में सम्मिलित हो गए हों, मगर ईमान के वास्तविक भाव से वंचित रहें। इसमें उनको बताया गया है कि वास्तव में ईमान का तक़ाज़ा क्या है।

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سُورَةُ الحَشۡرِ
59. अल-हश्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह ही की तसबीह की है हर उस चीज़़ ने जो आसमानों और ज़मीन में है, और वही प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 1
(2) वही है जिसने किताबवाले क़ाफ़िरों को पहले ही हल्ले में उनके घरों से निकाल बाहर किया।1 तुम्हें हरगिज़ यह गुमान न था कि वे निकल जाएँगे, और वे भी यह समझे बैठे थे कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी। मगर अल्लाह ऐसे रुख़ से उनपर आया जिधर उनका ख़याल भी न गया था।2 उसने उनके दिलों में रोब डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि वे ख़ुद अपने हाथों से भी अपने घरों को बरबाद कर रहे थे और ईमानवालों के हाथों भी बरबाद करवा रहे थे। अतः शिक्षा ग्रहण करो ऐ देखनेवाली आँख रखनेवालो!
1. किताब वाले काफ़िरों से मुराद यहाँ बनी नज़ीर का यहूदी क़बीला है जो मदीना के एक भाग में रहता था। इस क़बीले से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सन्धि थी, लेकिन इसने बार-बार प्रतिज्ञा भंग की। आख़िरकार रबीउल-अव्वल सन् 4 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने उन लोगों को नोटिस दे दिया कि या तो मदीना से निकल जाओ, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। उन्होंने निकलने से इनकार किया तो आपने मुसलमानों की सेना लेकर उनपर चढ़ाई की और अभी लड़ाई की नौबत भी न आई थी कि वे देश निकाला स्वीकार करने पर तैयार हो गए, हालाँकि उनकी गढ़ियाँ बहुत मज़बूत थीं, उनकी संख्या भी मुसलमानों से कम न थी और लड़ाई का सामान भी उनके पास बहुत था।
2. अल्लाह का उनपर आना इस अर्थ में नहीं है कि अल्लाह किसी और जगह था और फिर वहाँ से उनपर हमलावर हुआ। बल्कि यह उपलक्षणात्मक वर्णन-शैली है। असल मक़सद यह ध्यान दिलाना है कि मुसलमानों के हमले से पहले वे इस ख़याल में थे कि बाहर से कोई हमला होगा तो हम अपनी क़िलाबंदियों से उसको रोक लेंगे। लेकिन अल्लाह ने ऐसे मार्ग से उनपर हमला किया जिधर से किसी आफ़त के आने की वे कोई उम्मीद न रखते थे। और वह मार्ग यह था कि उसने अन्दर से उनके साहस और मुक़ाबले की शक्ति को खोखला कर दिया जिसके बाद न उनके हथियार किसी काम आ सकते थे, न उनके मज़बूत गढ़।
وَلَوۡلَآ أَن كَتَبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡجَلَآءَ لَعَذَّبَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابُ ٱلنَّارِ ۝ 2
(3) यदि अल्लाह ने उनके लिए देशनिकाला न लिख दिया होता तो दुनिया ही में वह उन्हें अज़ाब दे डालता,3 और आख़िरत में तो उनके लिए दोज़ख़ का अज़ाब है ही।
3. दुनिया के अज़ाब से मुराद है उनका नाम और निशान मिटा देना। अगर वे सुलह करके अपने प्राण बचाने के बजाय लड़ते तो उनका पूर्णतः विध्वंस एवं उन्मूलन हो जाता।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۖ وَمَن يُشَآقِّ ٱللَّهَ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 3
(4) यह सब कुछ इसलिए हुआ कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो भी अल्लाह का मुक़ाबला करे अल्लाह उसको सज़ा देने में बहुत कठोर है।
مَا قَطَعۡتُم مِّن لِّينَةٍ أَوۡ تَرَكۡتُمُوهَا قَآئِمَةً عَلَىٰٓ أُصُولِهَا فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيُخۡزِيَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 4
(5) तुम लोगों ने खजूरों के जो पेड़ काटे या जिनको अपनी जड़ों पर खड़ा रहने दिया, यह सब अल्लाह ही की अनुज्ञा से था।4 और (अल्लाह ने यह अनुमति इसलिए दी) ताकि उल्लंघनकारियों को अपमानित और रुसवा करे।5
4. यह इशारा है इस मामले की ओर कि बनी-नज़ीर की बस्ती के किनारों पर जो खजूरों के बाग़ थे उनके बहुत-से पेड़ों को मुसलमानों ने घेरा डालने के आरम्भ में काट डाला या जला दिया, ताकि घेरा आसानी से डाला जा सके, और जो पेड़ सैनिक गतिविधि में रुकावट नहीं बनते थे उनको खड़ा रहने दिया। इसपर मदीना के मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और यहूदियों ने शोर मचा दिया कि मुहम्मद (सल्ल०) तो ज़मीन में बिगाड़ पैदा करने से रोकते हैं, मगर यह देख लो, हरे-भरे फलदार पेड़ काटे जा रहे हैं। यह आख़िर ज़मीन में बिगाड़ पैदा करना नहीं तो क्या है। इसपर अल्लाह ने यह हुक्म अवतरित किया कि तुम लोगों ने जो पेड़ काटे और जिनको खड़ा रहने दिया, उनमें से कोई काम भी नाजाइज़ नहीं है, बल्कि दोनों को अल्लाह की अनुमति प्राप्त है।
5. अर्थात् अल्लाह का इरादा यह था कि इन पेड़ों को काटने से भी उनका अपमान और तिरस्कार हो और न काटने से भी काटने में उनके अपमान और ख़राबी का यह पहलू था कि जो बाग़ उन्होंने अपने हाथों से लगाए थे और जिन बाग़ों के वे दीर्घ समय से मालिक चले आ रहे थे, उनके पेड़ उनकी आँखों के सामने काटे जा रहे थे और वे काटनेवालों को किसी तरह न रोक सकते थे। रहा पेड़ों को न काटने में अपमान का पहलू तो वह यह था कि जब वे मदीना से निकले तो उनकी आँखें यह देख रही थीं कि कल तक जिन हरे-भरे बाग़ों के ये मालिक थे वे आज मुसलमानों के अधिकार में जा रहे हैं। उनका बस चलता तो वे उनको पूरी तरह उजाड़कर जाते और एक सुरक्षित पेड़ भी मुसलमानों के अधिकार में न जाने देते। मगर विवशता के साथ वे सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़कर सन्ताप एवं निराशा के साथ निकल गए।
وَمَآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡهُمۡ فَمَآ أَوۡجَفۡتُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ خَيۡلٖ وَلَا رِكَابٖ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُۥ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 5
(6) और6 जो माल अल्लाह ने उनके क़ब्ज़े से निकालकर अपने रसूल की ओर पलटा दिए7, वे ऐसे माल नहीं हैं जिनके लिए तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों, बल्कि अल्लाह अपने रसूलों को जिसपर चाहता है प्रभुत्व प्रदान कर देता है, और अल्लाह को हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है।8
6. अब उन सम्पत्तियों और मालों का उल्लेख हो रहा है जिनके मालिक पहले बनी-नज़ीर थे और जो उनके देश निकाला के बाद इस्लामी हुकूमत के क़ब्ज़े में आए। उनके सम्बन्ध में यहाँ से आयत 10 तक अल्लाह ने बताया है कि उनका प्रबन्ध किस तरह किया जाए।
7. इन शब्दों से अपने आप यह अर्थ निकलता है कि यह ज़मीन और वे सारी चीज़़ें जो यहाँ पाई जाती हैं, वास्तव में उन लोगों का हक़ नहीं हैं जो अल्लाह प्रतापवान के बाग़ी हैं। इसलिए जो माल भी एक वैध और सत्य पर आधारित युद्ध के परिणामस्वरूप काफ़िरों के क़ब्ज़े से निकलकर ईमानवालों के क़ब्ज़े में आएँ, उनकी वास्तविक हैसियत यह है कि उनका मालिक उन्हें अपने ख़ियानत करनेवाले और विश्वासघाती सेवकों के अधिकार से निकालकर अपने आज्ञाकारी सेवकों की ओर पलटा लाया है। इसी लिए उन मालों को इस्लामी क़ानून की परिभाषा में “फै” (पलटाकर लाए हुए माल) घोषित किया गया है।
8. अर्थात् इन मालों और सम्पत्तियों का मुसलमानों के क़ब्ज़े में आना प्रत्यक्ष लड़नेवाली सेना के बाहुबल का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस सामूहिक शक्ति का परिणाम है जो अल्लाह ने अपने रसूल और उसके समुदाय (उम्मत) और उसकी स्थापित की हुई व्यवस्था को प्रदान की है। इसलिए इन मालों को 'ग़नीमत' के माल से बिलकुल भिन्न हैसियत प्राप्त है और लड़नेवाली सेना का यह हक़ नहीं है कि 'गनीमत' की तरह इनको भी उसमें बाँट दिया जाए। इस तरह शरीअत में 'ग़नीमत' और 'फ़ै' का आदेश अलग-अलग कर दिया गया है। 'गनीमत' वे चल सम्पत्तियाँ हैं जो युद्ध की कार्यवाहियों के बीच दुश्मन की सेनाओं से प्राप्त हों। उनके अलावा दुश्मन देश की ज़मीनें, घर और दूसरी चल और अचल सम्पत्तियाँ 'ग़नीमत' की परिभाषा से बाहर और 'फ़ै' में सम्मिलित हैं।
مَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ كَيۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ وَمَآ ءَاتَىٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 6
(7) जो कुछ भी अल्लाह बस्तियों के लोगों से अपने रसूल की ओर पलटा दे वह अल्लाह और रसूल और नातेदारों9 और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है ताकि वह तुम्हारे मालदारों ही के बीच चक्कर न खाता रहे।10 जो कुछ रसूल तुम्हें दे वह ले लो और जिस चीज़़ से वह तुमको रोक दे उससे रुक जाओ। अल्लाह से डरो, अल्लाह कठोर सज़ा देनेवाला है।11
9. नातेदारों से मुराद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नातेदार हैं, अर्थात् बनी-हाशिम और बनी-अल-मुत्तलिब यह हिस्सा इसलिए निश्चित किया गया था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने और अपने घरवालों के हक़ अदा करने के साथ अपने उन नातेदारों के हक़ भी अदा कर सकें जिन्हें आपकी सहायता की ज़रूरत हो, या आप जिनकी सहायता करने की ज़रूरत महसूस करें। नबी (सल्ल०) के स्वर्गवास के बाद यह एक अलग स्थायी हिस्से के रूप में बाक़ी नहीं रहा, बल्कि मुसलमानों के दूसरे मुहताज, अनाथ और मुसाफ़िरों के साथ बनी-हाशिम और बनी-अल-मुत्तलिब के मुहताज लोगों के हक़ भी बैतुलमाल (सरकारी ख़ज़ाना) के ज़िम्मे हो गए, अलबत्ता इस कारण उनका हक़ दूसरों की अपेक्षा प्रमुख समझा गया कि 'ज़कात' (दान) में उनका हिस्सा नहीं है।
10. यह क़ुरआन मजीद के महत्त्वपूर्ण मौलिक आदेशों में से है जिसमें इस्लामी समाज और राज्य की आर्थिक नीति का यह आधारभूत नियम बयान किया गया है कि दौलत की गर्दिश पूरे समाज में आम होनी चाहिए, ऐसा न हो कि माल सिर्फ़ मालदारों ही में घूमता रहे, या धनी निरन्तर और ज़्यादा धनवान और निर्धन निरन्तर और ज़्यादा निर्धन होते चले जाएँ।
11. यद्यपि यह आदेश बनी-नज़ीर के माल के विभाजन के सम्बन्ध में अवतरित हुआ था मगर आदेश के शब्द आम हैं, इसलिए इसका अभिप्राय यह है कि सारे मामलों में मुसलमान अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की आज्ञाओं का पालन करें। इस अभिप्राय को यह बात और ज़्यादा स्पष्ट कर देती है कि “जो कुछ रसूल तुम्हें दे” के मुक़ाबले में “जो कुछ न दे” के शब्द इस्तेमाल नहीं किए गए हैं, बल्कि कहा यह गया है कि “जिस चीज़ से वह तुम्हें रोक दे (या मना कर दे)” उससे रुक जाओ।
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأَمۡوَٰلِهِمۡ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗا وَيَنصُرُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 7
(8) (और वह माल) उन ग़रीब घरबार छोड़नेवालों (मुहाजिरीन) के लिए है जो अपने घरों और सम्पत्तियों से निकाल बाहर किए गए हैं। ये लोग अल्लाह का अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता चाहते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की सहायता पर कटिबद्ध रहते हैं। यही सत्यवादी लोग हैं।
كَمَثَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ إِذۡ قَالَ لِلۡإِنسَٰنِ ٱكۡفُرۡ فَلَمَّا كَفَرَ قَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 8
(16) इनकी मिसाल शैतान जैसी है कि पहले वह इनसान से कहता है कि कुछ कर और जब इनसान कुछ कर बैठता है तो वह कहता है कि मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी से बरी हूँ, मुझे तो सारे जहान के रब अल्लाह से डर लगता है।
فَكَانَ عَٰقِبَتَهُمَآ أَنَّهُمَا فِي ٱلنَّارِ خَٰلِدَيۡنِ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 9
(17) फिर दोनों का परिणाम यह होना है कि हमेशा के लिए नरक में जाएँ और ज़ालिमों का यही बदला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡتَنظُرۡ نَفۡسٞ مَّا قَدَّمَتۡ لِغَدٖۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 10
(18) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो, और प्रत्येक व्यक्ति यह देखे कि उसने कल के लिए क्या सामान किया है।18 अल्लाह से डरते रहो, अल्लाह को यक़ीनन तुम्हारे उन सब कर्मों की ख़बर है जो तुम करते हो।
18. कल से मुराद आख़िरत है। मानो दुनिया की यह पूरी ज़िन्दगी “आज” और “कल” वह क़ियामत का दिन हैं जो इस आज के बाद आनेवाला है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ نَسُواْ ٱللَّهَ فَأَنسَىٰهُمۡ أَنفُسَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 11
(19) उन लोगों की तरह न हो जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें ख़ुद उनकी अपनी आत्मा (नफ़्स) भुला दी19, यही लोग उल्लंघनकारी हैं।
19. अर्थात् अल्लाह को भुला देने का अनिवार्य परिणाम ख़ुद अपने को भूल जाना है। जब आदमी यह भूल जाता है कि वह किसी का बन्दा है तो अनिवार्यतः वह दुनिया में अपनी एक ग़लत हैसियत निश्चित कर बैठता है। और उसकी सारी ज़िन्दगी इसी मौलिक भ्रान्ति के कारण ग़लत होकर रह जाती है। इसी तरह जब वह यह भूल जाता है कि वह एक अल्लाह के सिवा किसी का बन्दा नहीं है तो वह उस एक की बन्दगी तो नहीं करता जिसका वह वास्तव में बन्दा है, और उन बहुतों की बन्दगी करता रहता है जिनका वह वास्तव में बन्दा नहीं है।
لَا يَسۡتَوِيٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۚ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 12
(20) दोज़ख़ में जानेवाले और जन्नत (स्वर्ग) में जानेवाले कभी समान नहीं हो सकते। जन्नत में जानेवाले ही वास्तव में सफल है।
لَوۡ أَنزَلۡنَا هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ عَلَىٰ جَبَلٖ لَّرَأَيۡتَهُۥ خَٰشِعٗا مُّتَصَدِّعٗا مِّنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 13
(21) अगर हमने यह क़ुरआन किसी पहाड़ पर भी उतार दिया होता तो तुम देखते कि वह अल्लाह के डर से दबा जा रहा है और फटा पड़ता है।20 ये मिसालें हम लोगों के सामने इसलिए बयान करते हैं कि वे (अपनी हालत पर) विचार करें।
20. इस मिसाल का अर्थ यह है कि क़ुरआन जिस तरह अल्लाह की बड़ाई और उसके सामने बन्दे की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही को स्पष्ट रूप से बयान कर रहा है उसकी समझ अगर पहाड़ जैसी महान सृष्टि को भी प्राप्त होती और उसे मालूम हो जाता कि उसको किसी सर्वशक्तिमान रब के सामने अपने कामों की जवाबदेही करनी है तो वह भी डर से काँप उठता।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۖ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 14
(22) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई पूज्य21 नहीं, अदृश्य और प्रकट हर चीज़ का जाननेवाला यही सर्वोच्च करुणामय और दयावान् है।
21. अर्थात् जिसके सिवा किसी की यह हैसियत, स्थान और पद नहीं है कि उसकी बन्दगी और उपासना की जाए। जिसके सिवा कोई ईश्वरीय गुण और अधिकार रखता ही नहीं कि उसे पूज्य होने का हक़ पहुँचता हो।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡقُدُّوسُ ٱلسَّلَٰمُ ٱلۡمُؤۡمِنُ ٱلۡمُهَيۡمِنُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡجَبَّارُ ٱلۡمُتَكَبِّرُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 15
(23) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह सम्राट है बड़ा ही पवित्र22, सर्वथा सलामती23, निश्चिन्तता प्रदान करनेवाला24, निगहबान25 सबपर प्रभुत्व रखनेवाला अपना आदेश बलपूर्वक लागू करनेवाला और बड़ा ही होकर रहनेवाला। पाक है अल्लाह उस 'शिर्क' (बहुदेववाद के कर्म) से जो लोग कर रहे हैं।
22 अर्थात् वह इससे बहुत ही उच्च और महान है कि उसकी सत्ता में कोई दोष, या कमी, या कोई अवगुण पाया जाए, बल्कि वह एक पवित्रतम सत्ता है जिसके विषय में किसी बुराई की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
23. अर्थात् उसकी सत्ता इससे उच्च है कि कोई आफ़त या कोई कमज़ोरी या कमी उसमें आ सके, या कभी उसके कमाल को क्षति पहुँच सके।
24 अर्थात् उसके पैदा किए हुए लोगों को इसका कोई डर न होना चाहिए कि वह कभी उसपर ज़ुल्म करेगा, या उनका हक़ मारेगा, या उनका बदला नहीं देगा, या उनके साथ अपने किए हुए वादे के विरुद्ध जाएगा।
25. मूल शब्द 'अल-मुहैमिन' इस्तेमाल हुआ है जिसके तीन अर्थ हैं। एक निगहबानी और रक्षा करनेवाला। दूसरा साक्षी, जो देख रहा है कि कौन क्या करता है। तीसरा वह सत्ता जिसने लोगों की आवश्यकताएँ और ज़रूरतें पूरी करने का ज़िम्मा ले रखा हो।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡخَٰلِقُ ٱلۡبَارِئُ ٱلۡمُصَوِّرُۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 16
(24) वह अल्लाह ही है जो सृष्टि की योजना बनानेवाला और उसको लागू करनेवाला और उसके अनुसार रूप बनानेवाला है। उसके लिए उत्तम नाम है। हर चीज़़ जो आसमानों और ज़मीन में है उसकी तसबीह (गुणगान) कर रही है26, और वह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।
26. अर्थात् बोलनेवाली ज़बान या हाल की ज़बान से यह बयान कर रही है कि उसका स्रष्टा हर दोष, कमी और दुर्बलता और ग़लती से पाक है।
وَٱلَّذِينَ تَبَوَّءُو ٱلدَّارَ وَٱلۡإِيمَٰنَ مِن قَبۡلِهِمۡ يُحِبُّونَ مَنۡ هَاجَرَ إِلَيۡهِمۡ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمۡ حَاجَةٗ مِّمَّآ أُوتُواْ وَيُؤۡثِرُونَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ وَلَوۡ كَانَ بِهِمۡ خَصَاصَةٞۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 17
(9) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन घर-बार छोड़कर आनेवालों से पहले ही ईमान लाकर, घर-बार त्याग करके आ बसनेवाले आवास (दारुल-हिजरत) में बसे हुए थे।12 ये उन लोगों से प्रेम करते हैं जो घरबार छोड़ करके उनके पास आए हैं और जो कुछ भी उनको दे दिया जाए उसकी कोई अपेक्षा तक ये अपने दिलों में महसूस नहीं करते और अपने मुक़ाबले में दूसरों को प्राथमिकता देते हैं चाहे अपनी जगह ख़ुद मुहताज हों। वास्तविकता यह है कि जो लोग अपने दिल की तंगी से बचा लिए गए वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।
12. तात्पर्य 'अनसार' से है, अर्थात् 'फ़ै' में सिर्फ़ 'मुहाजिरों' (घर बार छोड़कर आनेवालों, हिजरत करनेवालों) ही का हक़ नहीं है, बल्कि पहले से जो मुसलमान दारुल इस्लाम (इस्लामी राज्य) में आबाद हैं वे भी इसमें हिस्सा पाने के हक़दार हैं।
وَٱلَّذِينَ جَآءُو مِنۢ بَعۡدِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا وَلِإِخۡوَٰنِنَا ٱلَّذِينَ سَبَقُونَا بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَا تَجۡعَلۡ فِي قُلُوبِنَا غِلّٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ رَبَّنَآ إِنَّكَ رَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 18
(10) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन अगलों के बाद आए हैं13, जो कहते हैं कि “ऐ हमारे रब हमें और हमारे उन सब भाइयों को माफ़ कर दे जो हमसे पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई विद्वेष न रख। ऐ हमारे रब, तू अत्यन्त करुणामय और दयावान् है।"14
13. अर्थात् 'फ़ै' के मालों में सिर्फ़ वर्तमान नस्लों ही का हक़ नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों का हक़ भी हैं।
14. इस आयत में मुसलमानों को यह महत्त्वपूर्ण नैतिक शिक्षा दी गई है कि वे किसी मुसलमान के लिए अपने दिल में द्वेष भावना न रखें और अपने से पहले गुज़रे हुए मुसलमानों के हक़ में माफ़ी की दुआ करते रहें, न यह कि उनपर लानत भेजें और तबर्रा (विरक्ति एवं घृणा प्रकट) करें।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نَافَقُواْ يَقُولُونَ لِإِخۡوَٰنِهِمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَئِنۡ أُخۡرِجۡتُمۡ لَنَخۡرُجَنَّ مَعَكُمۡ وَلَا نُطِيعُ فِيكُمۡ أَحَدًا أَبَدٗا وَإِن قُوتِلۡتُمۡ لَنَنصُرَنَّكُمۡ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 19
(11) तुमने15 देखा नहीं उन लोगों को जिन्होंने मिथ्याचार (मुनाफ़क़त) की नीति अपनाई है? ये अपने कुफ़्र में ग्रस्त किताबवाले भाइयों से कहते हैं, “अगर तुम्हें निकाला गया तो हम तुम्हारे साथ निकलेंगे, और तुम्हारे मामले में हम किसी की बात हरगिज़ न मानेंगे, और अगर तुमसे युद्ध किया गया तो हम तुम्हारी सहायता करेंगे।” मगर अल्लाह गवाह है कि ये लोग बिलकुल झूठे हैं।
15. इस पूरे रुकू में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को नीति पर विचार प्रकट किया गया है। जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बनी नज़ीर को मदीना से निकल जाने के लिए दस दिन का नोटिस दिया था और उनका घेराव शुरू होने में अभी कई दिन बाक़ी थे तो मदीने के मुनाफ़िक़ लीडरों ने उनको यह कहला भेजा कि हम दो हज़ार आदमियों के साथ तुम्हारी सहायता को आएँगे और बनी-कुरैज़ा और बनी-ग़तफ़ान भी तुम्हारी सहायता में उठ खड़े होंगे। अतः तुम मुसलमानों के मुक़ाबले में डट जाओ और हरगिज़ उनके आगे हथियार न डालो। ये तुमसे लड़ेंगे तो हम तुम्हारे साथ लड़ेंगे, और तुम यहाँ से निकाले गए तो हम भी निकल जाएँगे।
لَئِنۡ أُخۡرِجُواْ لَا يَخۡرُجُونَ مَعَهُمۡ وَلَئِن قُوتِلُواْ لَا يَنصُرُونَهُمۡ وَلَئِن نَّصَرُوهُمۡ لَيُوَلُّنَّ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 20
(12) अगर वे निकाले गए तो ये उनके साथ हरगिज़ न निकलेंगे, और अगर उनसे युद्ध किया गया तो ये उनकी हरगिज़ सहायता न करेंगे, और अगर ये उनकी सहायता करें भी तो पीठ फेर जाएँगे और फिर कहीं से कोई सहायता न पाएँगे।
لَأَنتُمۡ أَشَدُّ رَهۡبَةٗ فِي صُدُورِهِم مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 21
(13) इनके दिलों में अल्लाह से बढ़कर तुम्हारा डर है, इसलिए कि ये ऐसे लोग हैं जो समझ-बूझ नहीं रखते।16
16. इस छोटे-से वाक्य में एक बड़ा तथ्य बयान किया गया है। जो व्यक्ति समझ-बूझ रखता हो वह तो यह जानता है कि वास्तव में डरने के योग्य अल्लाह की शक्ति है न कि इनसानों की शक्ति। इसलिए वह हर ऐसे काम से बचेगा जिसपर उसे अल्लाह की पकड़ का ख़तरा हो, चाहे कोई इनसानी ताक़त पकड़नेवाली हो या न हो, और हर वह कर्तव्य पूरा करने के लिए उठ खड़ा होगा, जिसको अल्लाह ने उसके लिए ज़रूरी ठहरा दिया हो, चाहे सारी दुनिया की शक्तियाँ इसमें रुकावट बन रही हों। लेकिन एक नासमझ आदमी सभी मामलों में अपनी नीति का निर्धारण अल्लाह के बजाय इनसानी ताक़तों के अनुसार करता है। किसी चीज़़ से बचेगा तो इसलिए नहीं कि अल्लाह के यहाँ उसको पकड़ होनेवाली है, बल्कि इसलिए कि सामने कोई इनसानी ताक़त उसकी ख़बर लेने के लिए मौजूद है। और किसी काम को करेगा तो वह भी इसलिए नहीं कि अल्लाह ने उसका आदेश दिया है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि कोई इनसानी ताक़त उसका आदेश देनेवाली या उसको पसन्द करनेवाली है। यही समझ और नासमझी का अन्तर वास्तव में ईमानवाले और ईमान से ख़ाली व्यक्ति के चरित्र को एक दूसरे से अलग करता है।
لَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ جَمِيعًا إِلَّا فِي قُرٗى مُّحَصَّنَةٍ أَوۡ مِن وَرَآءِ جُدُرِۭۚ بَأۡسُهُم بَيۡنَهُمۡ شَدِيدٞۚ تَحۡسَبُهُمۡ جَمِيعٗا وَقُلُوبُهُمۡ شَتَّىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 22
(14) ये कभी इकट्ठे होकर (खुले मैदान में) तुम्हारा मुक़ाबला न करेंगे, लड़ेंगे भी तो क़िलाबन्द बस्तियों में बैठकर या दीवारों के पीछे छुपकर। ये आपस के विरोध में बड़े कठोर हैं। तुम इन्हें इकट्ठा समझते हो मगर इनके दिल एक दूसरे से फटे हुए है। इनकी यह दशा इसलिए है कि ये बुद्धिहीन लोग हैं।
كَمَثَلِ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَرِيبٗاۖ ذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 23
(15) ये उन्हीं लोगों के सदृश हैं जो इनसे थोड़े ही समय पहले अपने किए का मज़ा चख चुके हैं17 और इनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।
17. इशारा है क़ुरैश के काफ़िरों और बनी-क़ैनुक़ा के यहूदियों को और जो अपनी बहुसंख्या और अपने सारे ज़रूरी उपकरणों और साज-सामान के बावजूद इन्हीं कमज़ोरियों के कारण मुसलमानों की मुट्ठी भर बिना साज-सामानवाली जमाअत से परास्त हो चुके थे।