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سُورَةُ يُوسُفَ

  1. यूसुफ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

उतरने का समय और कारण

इस सूरा के विषय से स्पष्ट होता है कि यह भी मक्का निवास के अन्तिम समय में उतरी होगी, जबकि क़ुरैश के लोग इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर दें या देश निकाला दे दें या क़ैद कर दें। उस समय मक्का के कुछ विधर्मियों ने (शायद यहूदियों के संकेत पर) नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए आपसे प्रश्न किया कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क्या कारण हुआ? अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि तुरन्त उसी समय यूसुफ़ (अलैहि०) का यह पूरा क़िस्सा आपकी ज़ुबान पर जारी कर दिया, बल्कि यह भी किया कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस व्यवहार पर चस्पाँ भी कर दिया जो वे यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों की तरह प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ कर रहे थे।

उतरने के उद्देश्य

इस तरह यह क़िस्सा दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए उतारा गया था-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का प्रमाण और वह भी विरोधियों का अपना मुँह माँगा प्रमाण जुटाया जाए।

दूसरे यह कि कुरैश के सरदारों को यह बताया जाए कि आज तुम अपने भाई के साथ वही कुछ कर रहे हो जो यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने उनके साथ किया था, मगर जिस तरह वे अल्लाह की इच्छा से लड़ने में सफल न हुए और अन्तत: उसी भाई के क़दमों में आ रहे जिसको उन्होंने कभी बड़ी निर्दयता के साथ कुएंँ में फेंका था, उसी तरह तुम्हारी कोशिशें भी अल्लाह की तदबीरों के मुकाबले में सफल न हो सकेंगी और एक दिन तुम्हें भी अपने इसी भाई से दया एवं कृपा की भीख मांँगनी पड़ेगी जिसे आज तुम मिटा देने पर तुले हुए हो।

सच तो यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से को मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरैश के मामले पर चस्पाँ करके क़ुरआन मजीद ने मानो एक खुली भविष्यवाणी कर दी थी जिसे आगे दस साल की घटनाओं ने एक-एक करके सही सिद्ध करके दिखा दिया।

वार्ताएँ एवं समस्याएँ

ये दो पहलू तो इस सूरा में उद्देश्य की हैसियत रखते हैं। इनके अतिरिक्त क़ुरआन मजीद इस पूरे किस्से में यह बात भी स्पष्ट करके दिखाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दावत भी वही थी जो आज मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं।

फिर वह एक ओर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के चरित्र और दूसरी ओर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों, व्यापारियों के काफ़िले, मिस्र के शासक, उसकी बीवी, मिस्र की बेगमों और मिस्र के अधिकारियों के चरित्र एक दूसरे के मुक़ाबले में रख देता है [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह की बन्दगी और आख़िरत के हिसाब के विश्वास से [पैदा होनेवाले चरित्र कैसे होते हैंऔर दुनियापरस्ती और ईश्वर और परलोक के प्रति बेपरवाही के साँचों में ढलकर तैयार [होनेवाले चरित्रों का क्या हाल हुआ करता है ?] फिर इस क़िस्से से क़ुरआने-हकीम एक और गहरी सच्चाई भी इंसान के मन में बिठाता है, और वह यह है कि अल्लाह जिसे उठाना चाहता है, सारी दुनिया मिलकर भी उसे नहीं गिरा सकती, बल्कि दुनिया जिस उपाय को उसके गिराने का बड़ा कारगर और निश्चित उपाय समझकर अपनाती है, अल्लाह उसी उपाय में से उसके उठने की शक्लें निकाल देता है।

ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ

इस क़िस्से को समझने के लिए आवश्यक है कि संक्षेप में उसके बारे में कुछ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारियाँ भी पाठकों के सामने रहें।

बाइबल के वर्णन के अनुसार हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारह बेटे चार पत्नियों से थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके छोटे भाई बिन-यमीन एक पत्नी से और शेष दस दूसरी पलियों से । फ़िलस्तीन में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का निवास स्थान हिबरून की घाटी में था। इसके अलावा उनकी कुछ ज़मीन सेकिम (वर्तमान नाबुलुस) में भी थी। बाइबल के विद्वानों की खोज अगर सही मान ली जाए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैदाइश 1906 ई०पू० के लगभग ज़माने में हुई। सपना देखने और फिर कुएँ में फेंके जाने [की घटना उनकी सत्तरह वर्ष की उम्र में घटी]। जिस कुएँ में वे फेंके गए वह बाइबल और तलमूद की रिवायतों के अनुसार सेकिम के उत्तर में दूतन (वर्तमान दुसान) के क़रीब स्थित था और जिस क़ाफ़िले ने उन्हें कुएँ से निकाला वह जलआद (पूर्वी जार्डन) से आ रहा था और मिस्र की ओर जा रहा था। -मिस्र पर उस समय पन्द्रहवें वंश का शासन था जो मिस्री इतिहास में चरवाहे बादशाहों (Hyksos Kings) के नाम से याद किया जाता है। ये लोग अरबी नस्ल के थे और फ़िलस्तीन और शाम (Syria) से मिस्र (Egypt) जाकर दो हज़ार वर्ष ई०पू० के लगभग ज़माने में मिस्री राज्य पर क़ाबिज़ हो गए थे। यही कारण हुआ कि इनके शासन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और फिर बनी-इसराईल वहाँ हाथों-हाथ लिए गए, क्योंकि वे उन विदेशी शासकों के वंश के थे। पन्द्रहवीं सदी ई०पू० के अन्त तक ये लोग मिस्र पर आधिक्य जमाए रहे और उनके ज़माने में देश की सम्पूर्ण सत्ता व्यावहारिक रूप में बनी-इसराईल के हाथ में रही। उसी दौर की ओर सूरा-5 (माइदा) आयत 20 में इशारा किया गया है कि “जब उसने तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया।” इसके बाद हिक्सूस सत्ता का तख़्ता उलटकर एक अति क्रूर क़िब्ती नस्ल का परिवार सत्ता में आ गया और उसने बनी-इसराईल पर उन अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया जिनका उल्लेख हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से में हुआ है। इन चरवाहे बादशाहों ने मिस्री देवताओं को स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि क़ुरआन मजीद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समकालीन बादशाह को फ़िरऔन' के नाम से याद नहीं करता, क्योंकि फ़िरऔन मिस्र का धार्मिक पारिभाषिक शब्द था, और ये लोग मिस्री धर्म के माननेवाले न थे।-

हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) 30 साल की उम्र में देश के शासक हुए और 90 साल तक बिना किसी को साझी बनाए पूरे मिस्र पर शासन करते रहे। अपने शासन के नवें या दसवें साल उन्होंने हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने पूरे परिवार के साथ फ़िलस्तीन से मिस्र बुला लिया और उस क्षेत्र में आबाद किया जो दिमयात और क़ाहिरा के बीच स्थित है। बाइबल में इस क्षेत्र का नाम जुशन या गोशन बताया गया है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के समय तक ये लोग उसी क्षेत्र में आबाद रहे। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) का देहावसान एक सौ दस साल की उम्र में हुआ और देहावसान के समय बनी-इसराईल को वसीयत की कि जब तुम इस देश से निकलो तो मेरी हड्डियाँ अपने साथ लेकर जाना।

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سُورَةُ يُوسُفَ
12. सूरा यूसुफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ
(1) अलिफ लाम० रा०। ये उस किताब की आयतें हैं जो अपना अभिप्राय स्पष्ट रूप से बयान करती हैं।
إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 1
(2) हमने इसे उतारा है क़ुरआन1 बनाकर अरबी भाषा में ताकि तुम (अरबवाले) इसको अच्छी तरह समझ सको।
1. क़ुरआन का शाब्दिक अर्थ है पढ़ना और किताब को यह नाम देने का अर्थ यह है कि यह साधारण और असाधारण सभी लोगों के पढ़ने के लिए है और बहुत ज़्यादा पढ़ी जानेवाली चीज़ है।
نَحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ أَحۡسَنَ ٱلۡقَصَصِ بِمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ وَإِن كُنتَ مِن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 2
(3) ऐ नबी, हम इस क़ुरआन को तुम्हारी ओर प्रकाशना करके उत्तम शैली में घटनाएँ और तथ्य तुमसे बयान करते हैं वरना इससे पहले तो (इन चीज़़ों से) तुम बिलकुल ही बेख़बर थे।
إِذۡ قَالَ يُوسُفُ لِأَبِيهِ يَٰٓأَبَتِ إِنِّي رَأَيۡتُ أَحَدَ عَشَرَ كَوۡكَبٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ رَأَيۡتُهُمۡ لِي سَٰجِدِينَ ۝ 3
(4) यह उस समय की बात है जब यूसुफ़ ने अपने बाप से कहा, “अब्बा जान, मैंने ख़ाब देखा है कि ग्यारह सितारे हैं और सूरज और चाँद है और वे मुझे सजदा कर रहे हैं।”
قَالَ يَٰبُنَيَّ لَا تَقۡصُصۡ رُءۡيَاكَ عَلَىٰٓ إِخۡوَتِكَ فَيَكِيدُواْ لَكَ كَيۡدًاۖ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 4
(5) जवाब में उसके बाप ने कहा, “बेटा अपना यह ख़ाब अपने भाइयों को न सुनाना नहीं तो वे तुझे तकलीफ़ पहुँचाने पर उतारू हो जाएँगे,2 वास्तविकता यह है कि शैतान आदमी का खुला दुश्मन है।
2. हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के दस भाई दूसरी माँओं से थे और एक उनसे छोटा और उनका सगा भाई था। हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को मालूम था कि सौतेले भाई यूसुफ़ (अलैहि०) से ईर्ष्या करते हैं और नैतिक दृष्टि से भी ऐसे भले नहीं हैं कि अपना मतलब निकालने के लिए कोई अनुचित कार्रवाई करने में उन्हें कोई संकोच हो, इसलिए उन्होंने अपने नेक बेटे को सावधान किया कि उनसे होशियार रहना ख़ाब का साफ़ मतलब यह था कि सूरज से मुराद हज़रत याक़ूब (अलैहि०) चाँद से मुराद उनकी पत्नी (हज़रत यूसुफ़ [अलैहि०] को सौतेली माँ) और ग्यारह सितारों से मुराद ग्यारह भाई हैं।
وَكَذَٰلِكَ يَجۡتَبِيكَ رَبُّكَ وَيُعَلِّمُكَ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِ وَيُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ ءَالِ يَعۡقُوبَ كَمَآ أَتَمَّهَا عَلَىٰٓ أَبَوَيۡكَ مِن قَبۡلُ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَۚ إِنَّ رَبَّكَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 5
(6) और ऐसा ही होगा (जैसा तूने ख़ाब में देखा है कि) तेरा पालनहार तुझे (अपने काम के लिए) चुनेगा और तुझे बातों की तह तक पहुँचना सिखाएगा3 और तेरे ऊपर और याक़ूब के लोगों पर अपनी नेमत उसी तरह पूरी करेगा जिस तरह इससे पहले वह तेरे बुज़ुर्गों, इबराहीम और इसहाक़ पर कर चुका है। यक़ीनन तेरा रब सर्वज्ञ और तत्वदर्शी है।"
3. मूल ग्रन्थ में “तावीलुल-अहादीस” के शब्द इस्तेमाल हुए हैं जिनका अर्थ सिर्फ़ ख़ाब का ज्ञान नहीं है जैसा कि समझा गया है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि अल्लाह तुझे मामले की समझ और सत्य तक पहुँचने की शिक्षा देगा और वह सूझ-बूझ तुझको प्रदान करेगा जिससे तू हर मामले की गहराई में उतरने और उसको तह तक पहुँचने के क़ाबिल हो जाएगा।
۞لَّقَدۡ كَانَ فِي يُوسُفَ وَإِخۡوَتِهِۦٓ ءَايَٰتٞ لِّلسَّآئِلِينَ ۝ 6
(7) वास्तविकता यह है कि यूसुफ़ और उसके भाइयों की कथा में इन पूछनेवालों के लिए बड़ी निशानियाँ हैं।
إِذۡ قَالُواْ لَيُوسُفُ وَأَخُوهُ أَحَبُّ إِلَىٰٓ أَبِينَا مِنَّا وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّ أَبَانَا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 7
(8) यह क़िस्सा इस तरह शुरू होता है कि उसके भाइयों ने आपस में कहा, “यह यूसुफ़ और इसका भाई4, दोनों हमारे बाप को हम सबसे ज़्यादा प्रिय है, हालाँकि हम एक पूरा जत्था हैं, सच्ची बात यह है कि हमारे अब्बा जान बिलकुल ही बहक गए हैं।
4. इससे मुराद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सगे भाई बिन-यमीन हैं जो उनसे कई साल छोटे थे।
ٱقۡتُلُواْ يُوسُفَ أَوِ ٱطۡرَحُوهُ أَرۡضٗا يَخۡلُ لَكُمۡ وَجۡهُ أَبِيكُمۡ وَتَكُونُواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ قَوۡمٗا صَٰلِحِينَ ۝ 8
(9) चलो यूसुफ़ को मार डालो या उसे कहीं फेंक दो ताकि तुम्हारे बाप का ध्यान केवल तुम्हारी ही ओर हो जाए। यह काम कर लेने के बाद फिर नेक बन रहना।”
قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ لَا تَقۡتُلُواْ يُوسُفَ وَأَلۡقُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّ يَلۡتَقِطۡهُ بَعۡضُ ٱلسَّيَّارَةِ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 9
(10) इसपर उनमें से एक बोला, “यूसुफ़ का क़त्ल न करो, अगर कुछ करना है तो उसे किसी अन्धे कुएँ में डाल दो, कोई आता-जाता क़ाफ़िला उसे निकाल ले जाएगा।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا لَكَ لَا تَأۡمَ۬نَّا عَلَىٰ يُوسُفَ وَإِنَّا لَهُۥ لَنَٰصِحُونَ ۝ 10
(11) इस प्रस्ताव पर उन्होंने जाकर अपने बाप से कहा, “अब्बा जान, क्या बात है कि आप यूसुफ़ के बारे में हमपर भरोसा नहीं करते हालाँकि हम उसके सच्चे हितैषी हैं?
أَرۡسِلۡهُ مَعَنَا غَدٗا يَرۡتَعۡ وَيَلۡعَبۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 11
(12) कल उसे हमारे साथ भेज दीजिए, कुछ चर-चुग लेगा5 और खेल-कूद से भी दिल बहलाएगा। हम उसकी रक्षा को मौजूद हैं।”
5. हमारे मुहावरे में बच्चा अगर जंगल में चल-फिरकर कुछ फल तोड़ता और खाता फिरे, तो उसके लिए प्यार के अंदाज़ में ये शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं।
قَالَ إِنِّي لَيَحۡزُنُنِيٓ أَن تَذۡهَبُواْ بِهِۦ وَأَخَافُ أَن يَأۡكُلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَأَنتُمۡ عَنۡهُ غَٰفِلُونَ ۝ 12
(13) बाप ने कहा, “तुम्हारा उसे ले जाना मेरे लिए दुख की बात होती है और मुझे डर है कि कहीं उसे भेड़िया न फाड़ खाए जबकि तुम उससे ग़ाफ़िल हो।”
قَالُواْ لَئِنۡ أَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّآ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 13
(14) उन्होंने जवाब दिया, “अगर हमारे होते उसे भेड़िए ने खा लिया, जबकि हम एक जत्था हैं, तब तो हम बड़े ही निकम्मे होंगे।”
فَلَمَّا ذَهَبُواْ بِهِۦ وَأَجۡمَعُوٓاْ أَن يَجۡعَلُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ لَتُنَبِّئَنَّهُم بِأَمۡرِهِمۡ هَٰذَا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 14
(15) इस तरह ज़िद करके जब वे उसे ले गए और उन्होंने तय कर लिया कि उसे एक अन्धे कुएँ में छोड़ दें, तो हमने यूसुफ़ की ओर प्रकाशना की कि “एक समय आएगा जब तू इन लोगों को इनकी यह हरकत जताएगा, ये अपने कर्म के परिणामों से बेख़बर हैं।”
وَجَآءُوٓ أَبَاهُمۡ عِشَآءٗ يَبۡكُونَ ۝ 15
(16) शाम को वे रोते-पीटते अपने बाप के पास आए
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّا ذَهَبۡنَا نَسۡتَبِقُ وَتَرَكۡنَا يُوسُفَ عِندَ مَتَٰعِنَا فَأَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُۖ وَمَآ أَنتَ بِمُؤۡمِنٖ لَّنَا وَلَوۡ كُنَّا صَٰدِقِينَ ۝ 16
(17) और कहा, “अब्बा जान, हम दौड़ का मुक़ाबला करने में लग गए थे और यूसुफ़ को हमने अपने सामान के पास छोड़ दिया था कि इतने में भेड़िया आकर उसे खा गया। आप हमारी बात का विश्वास न करेंगे चाहे हम सच्चे ही हों।”
وَجَآءُو عَلَىٰ قَمِيصِهِۦ بِدَمٖ كَذِبٖۚ قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٞۖ وَٱللَّهُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 17
(18) और वे यूसुफ़ की कमीज़ पर झूठ-मूठ का ख़ून लगाकर ले आए थे। यह सुनकर उनके बाप ने कहा, “बल्कि तुम्हारे जी ने तुम्हारे लिए एक बड़े काम को आसान बना दिया। अच्छा, सब्र करूँगा और ख़ूब अच्छी तरह सब्र करूँगा, जो बात तुम बना रहे हो उसपर अल्लाह ही से मदद माँगी जा सकती है।"
وَجَآءَتۡ سَيَّارَةٞ فَأَرۡسَلُواْ وَارِدَهُمۡ فَأَدۡلَىٰ دَلۡوَهُۥۖ قَالَ يَٰبُشۡرَىٰ هَٰذَا غُلَٰمٞۚ وَأَسَرُّوهُ بِضَٰعَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) उधर एक क़ाफ़िला आया और उसने अपने पानी भरनेवाले (सक़्क़े) को पानी लाने के लिए भेजा। पानी भरनेवाले ने जो कुएँ में डोल डाला तो (यूसुफ़ को देखकर) पुकार उठा, “मुबारक हो, यहाँ तो एक लड़का है।” उन लोगों ने उसको सौदागरी का माल समझकर छिपा लिया, हालाँकि जो कुछ वे कर रहे थे अल्लाह को उसका पूरा ज्ञान था।
وَشَرَوۡهُ بِثَمَنِۭ بَخۡسٖ دَرَٰهِمَ مَعۡدُودَةٖ وَكَانُواْ فِيهِ مِنَ ٱلزَّٰهِدِينَ ۝ 19
(20) आख़िरकार उन्होंने थोड़े-से मूल्य पर कुछ दिरहमों के बदले उसे बेच डाला और उसकी क़ीमत के मामले में वे कुछ ज़्यादा की उम्मीद न रखते थे।"
وَقَالَ ٱلَّذِي ٱشۡتَرَىٰهُ مِن مِّصۡرَ لِٱمۡرَأَتِهِۦٓ أَكۡرِمِي مَثۡوَىٰهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗاۚ وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلِنُعَلِّمَهُۥ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ وَٱللَّهُ غَالِبٌ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِۦ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 20
(21) मिस्र के जिस व्यक्ति ने उसे ख़रीदा उसने अपने बीवी (पत्नी) से कहा, “इसको अच्छी तरह रखना, असंभव नहीं कि यह हमारे लिए लाभदायक सिद्ध हो या हम इसे बेटा बना लें। इस तरह हमने यूसुफ़ के लिए उस भू-भाग में क़दम जमाने की राह निकाली और उसे मामले की समझ की शिक्षा देने का प्रबन्ध किया। अल्लाह अपना काम करके रहता है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُۥٓ ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 21
(22) और जब वह अपनी पूरी जवानी को पहुँचा तो हमने उसे निर्णय-शक्ति और ज्ञान प्रदान किया इस तरह हम नेक लोगों को बदला देते है।
وَرَٰوَدَتۡهُ ٱلَّتِي هُوَ فِي بَيۡتِهَا عَن نَّفۡسِهِۦ وَغَلَّقَتِ ٱلۡأَبۡوَٰبَ وَقَالَتۡ هَيۡتَ لَكَۚ قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ رَبِّيٓ أَحۡسَنَ مَثۡوَايَۖ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 22
(23) जिस औरत के घर में वह था वह उसपर डोरे डालने लगी और एक दिन दरवाज़े को बन्द करके बोली, “आजा।” यूसुफ़ ने कहा, “अल्लाह की पनाह, मेरे रब6 ने तो मुझे अच्छा दर्जा प्रदान किया और मैं यह काम करूँ. ऐसे ज़ालिम कभी सफल नहीं हुआ करते।”
6. साधारणतया टीकाकारों और अनुवादकों ने यह समझा है कि यहाँ “मेरे रब” का शब्द यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया है जिसकी सेवा में वे उस समय थे और उनके इस जवाब का अर्थ यह था कि मेरे स्वामी ने तो मुझे ऐसी अच्छी तरह रखा है, फिर मैं यह नमक हरामी कैसे कर सकता हूँ कि उसकी बीवी के साथ व्यभिचार करूँ लेकिन यह बात एक नबी की शान से बहुत गिरी हुई है कि वह एक गुनाह से बाज़ रहने में अल्लाह के बजाय किसी बन्दे का लिहाज़ करे। और क़ुरआन में इसकी कोई मिसाल भी नहीं पाई जाती है कि किसी नबी ने कभी अल्लाह के सिवा किसी और को अपना 'रब' (स्वामी) कहा हो।
وَلَقَدۡ هَمَّتۡ بِهِۦۖ وَهَمَّ بِهَا لَوۡلَآ أَن رَّءَا بُرۡهَٰنَ رَبِّهِۦۚ كَذَٰلِكَ لِنَصۡرِفَ عَنۡهُ ٱلسُّوٓءَ وَٱلۡفَحۡشَآءَۚ إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 23
(24) वह उसकी ओर बढ़ी और यूसुफ़ भी उसकी ओर बढ़ता अगर अपने रब का प्रमाण (बुरहान) न देख लेता।7 ऐसा हुआ, ताकि हम उससे बुराई और बेहयाई को दूर कर दें, वास्तव में वह हमारे चुने हुए बन्दों में से था।
7. यहाँ 'बुरहान' शब्द आया है। 'बुरहान' का अर्थ है प्रमाण और तर्क रब की 'बुरहान' से मुराद अल्लाह की सुझाई हुई वह दलील है जिसके आधार पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की अन्तरात्मा ने उनके मन को यह बात स्वीकार कराई कि इस औरत का विलास-आमंत्रण स्वीकार करना तेरे लिए उचित नहीं है, और वह दलील (प्रमाण) पिछले वाक्य में आ चुकी है कि “मेरे रब ने तो मुझे यह दर्जा प्रदान किया और मैं ऐसा बुरा कर्म करूँ। ऐसे ज़ालिमों को कभी सफलता प्राप्त नहीं हुआ करती।"
وَٱسۡتَبَقَا ٱلۡبَابَ وَقَدَّتۡ قَمِيصَهُۥ مِن دُبُرٖ وَأَلۡفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا ٱلۡبَابِۚ قَالَتۡ مَا جَزَآءُ مَنۡ أَرَادَ بِأَهۡلِكَ سُوٓءًا إِلَّآ أَن يُسۡجَنَ أَوۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 24
(25) आख़िरकार यूसुफ़ और वह आगे-पीछे दरवाज़े की और भागे और उसने पीछे से यूसुफ़ की क़मीज़ (खींचकर फाड़ दी। दरवाज़े पर दोनों ने उसके शौहर (पति) को मौजूद पाया। उसे देखते ही औरत कहने लगी, “क्या सज़ा है उस व्यक्ति की जो तेरी घरवाली पर नीयत ख़राब करे? इसके सिवा और क्या सज़ा हो सकती है कि वह क़ैद किया जाए या उसे सख़्त यातना दी जाए? ”
قَالَ هِيَ رَٰوَدَتۡنِي عَن نَّفۡسِيۚ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن قُبُلٖ فَصَدَقَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 25
(26) यूसुफ़ ने कहा, “यही मुझे फाँसने की कोशिश कर रही थी।” उस औरत के अपने घराने में से एक व्यक्ति ने (अनुमान की) गवाही पेश की कि “अगर यूसुफ़ की क़मीज़ आगे से फटी हो तो औरत सच्ची है और यह झूठा,
وَإِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ فَكَذَبَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 26
(27) और अगर उसकी क़मीज़ पीछे से फटी हो तो औरत झूठी है और यह सच्चा।"8
8. मतलब यह है कि यूसुफ़ की क़मीज़ सामने से फटी हो तो यह इस बात की खुली निशानी है कि पहल यूसुफ़ (अलैहि०) की ओर से थी और औरत अपने आपको बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन अगर यूसुफ़ की कमीज़ पीछे से फटी है तो इससे साफ़ साबित होता है कि औरत उसके पीछे पड़ी हुई थी और यूसुफ़ उससे बचकर निकल जाना चाहता था। इसके अलावा अनुमान की एक और गवाही भी इस गवाही में छिपी हुई थी। वह यह कि उस गवाह ने ध्यान सिर्फ़ हज़रत यूसुफ़ (अले०) की कमीज़ की ओर दिलाया। इससे साफ़ खुल गया कि औरत के जिस्म या उसके लिबास पर ज़ुल्म और ज़्यादटती का कोई चिह्न सिरे से पाया ही न जाता था। हालाँकि अगर यह मामला बलात्कार के इरादे का होता तो औरत पर उसके स्पष्ट चिह्न पाए जाते।
فَلَمَّا رَءَا قَمِيصَهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ قَالَ إِنَّهُۥ مِن كَيۡدِكُنَّۖ إِنَّ كَيۡدَكُنَّ عَظِيمٞ ۝ 27
(28) जब पति ने देखा कि यूसुफ़ की क़मीज़ पीछे से फटी है तो उसने कहा “ये तुम औरतों की चालाकियाँ है, वास्तव में बड़े ग़ज़ब की होती हैं तुम्हारी चालें।
يُوسُفُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَاۚ وَٱسۡتَغۡفِرِي لِذَنۢبِكِۖ إِنَّكِ كُنتِ مِنَ ٱلۡخَاطِـِٔينَ ۝ 28
(29) यूसुफ़ इस मामले को जाने दे और ऐ औरत, तू अपने क़ुसूर की माफ़ी माँग, तू ही वास्तव में ख़ताकार थी।”
۞وَقَالَ نِسۡوَةٞ فِي ٱلۡمَدِينَةِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ تُرَٰوِدُ فَتَىٰهَا عَن نَّفۡسِهِۦۖ قَدۡ شَغَفَهَا حُبًّاۖ إِنَّا لَنَرَىٰهَا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 29
(30) शहर की औरतें आपस में चर्चा करने लगीं कि “प्रमुख अधिकारी9 (अज़ीज़) की पत्नी अपने नवयुवक ग़ुलाम के पीछे पड़ी हुई है, मुहब्बत ने उसको बेक़ाबू कर रखा है, हमारी दृष्टि तो वह खुली ग़लती कर रही है।"
9. यहाँ 'अज़ीज़' शब्द इस्तेमाल हुआ है। 'अज़ीज़' उस व्यक्ति का नाम न था, बल्कि मिस्र के किसी बड़े प्रभुत्वशाली व्यक्ति के लिए पारिभाषिक रूप में इस उपाधि का इस्तेमाल होता था।
فَلَمَّا سَمِعَتۡ بِمَكۡرِهِنَّ أَرۡسَلَتۡ إِلَيۡهِنَّ وَأَعۡتَدَتۡ لَهُنَّ مُتَّكَـٔٗا وَءَاتَتۡ كُلَّ وَٰحِدَةٖ مِّنۡهُنَّ سِكِّينٗا وَقَالَتِ ٱخۡرُجۡ عَلَيۡهِنَّۖ فَلَمَّا رَأَيۡنَهُۥٓ أَكۡبَرۡنَهُۥ وَقَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّ وَقُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا هَٰذَا بَشَرًا إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا مَلَكٞ كَرِيمٞ ۝ 30
(31) उसने जो उनकी यह मक्कारी की बातें सुनीं तो बुलावा भेज दिया और उनके लिए तकियादार मजलिस सजाई और सत्कार में हर एक के आगे एक-एक छुरी रख दी, (फिर ठीक उस समय जबकि वे फल काट-काटकर खा रही थीं) उसने यूसुफ़ को इशारा किया कि उनके सामने निकल आ। जब उन औरतों की निगाह उसपर पड़ी तो वे दंग रह गईं और अपने हाथ काट बैठी और सहसा पुकार उठीं, “अल्लाह की पनाह, यह व्यक्ति इनसान नहीं है, यह तो कोई बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है।”
قَالَتۡ فَذَٰلِكُنَّ ٱلَّذِي لُمۡتُنَّنِي فِيهِۖ وَلَقَدۡ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ فَٱسۡتَعۡصَمَۖ وَلَئِن لَّمۡ يَفۡعَلۡ مَآ ءَامُرُهُۥ لَيُسۡجَنَنَّ وَلَيَكُونٗا مِّنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 31
(32) प्रमुख अधिकारी की बीवी ने कहा, “देख लिया, यह है वह व्यक्ति जिसके मामले में तुम मुझपर बातें बनाती थीं। बेशक मैंने इसे रिझाने की कोशिश की थी मगर यह बच निकला, अगर यह मेरा कहना न मानेगा तो क़ैद किया जाएगा और बहुत रुसवा और अपमानित होगा।”
قَالَ رَبِّ ٱلسِّجۡنُ أَحَبُّ إِلَيَّ مِمَّا يَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِۖ وَإِلَّا تَصۡرِفۡ عَنِّي كَيۡدَهُنَّ أَصۡبُ إِلَيۡهِنَّ وَأَكُن مِّنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 32
(33) यूसुफ़ ने कहा, “ऐ मेरे रब! क़ैद मुझे पसन्द है इसकी अपेक्षा कि मैं वह काम करूँ जो ये लोग मुझसे चाहते हैं। और अगर तूने इनकी चालों को मुझसे न टाला तो मैं इनके जाल में फँस जाऊँगा और जाहिलों में शामिल होकर रहूँगा”
فَٱسۡتَجَابَ لَهُۥ رَبُّهُۥ فَصَرَفَ عَنۡهُ كَيۡدَهُنَّۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 33
(34)- उसके रब ने उसकी दुआ स्वीकार की और उन औरतों की चालें उससे दूर कर दीं, बेशक वही है जो सबकी सुनता और सब कुछ जानता है।
ثُمَّ بَدَا لَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا رَأَوُاْ ٱلۡأٓيَٰتِ لَيَسۡجُنُنَّهُۥ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 34
(35) फिर उन लोगों को यह सूझी कि एक मुद्दत के लिए उसे क़ैद कर दें हालाँकि वे (उसकी पाकदामनी और ख़ुद अपनी औरतों के बुरे आचार-व्यवहार की) खुली निशानियाँ देख चुके थे।10
10. इससे मालूम हुआ कि किसी व्यक्ति को न्याय की शर्तों के अनुसार न्यायालय में अपराधी सिद्ध किए बिना, बस यों ही पकड़कर जेल भेज देना, बेईमान शासकों को पुरानी रीति है। इस मामले में भी आज के शैतान चार हज़ार वर्ष पहले के दुष्टों से कुछ बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं हैं।
وَدَخَلَ مَعَهُ ٱلسِّجۡنَ فَتَيَانِۖ قَالَ أَحَدُهُمَآ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَعۡصِرُ خَمۡرٗاۖ وَقَالَ ٱلۡأٓخَرُ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَحۡمِلُ فَوۡقَ رَأۡسِي خُبۡزٗا تَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِنۡهُۖ نَبِّئۡنَا بِتَأۡوِيلِهِۦٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 35
(36) जेल में दो ग़ुलाम और भी उसके साथ दाख़िल हुए। एक दिन उनमें से एक ने कहा, ” मैंने ख़ाब देखा है कि मैं शराब निचोड़ रहा हूँ।” दूसरे ने कहा, “मैंने देखा कि मेरे सिर पर रोटियाँ रखी हैं और पक्षी उनको खा रहे हैं।” दोनों ने कहा, “हमें इसकी ताबीर (स्वप्नफल) बता दीजिए, हम देखते हैं कि आप एक नेक आदमी हैं।”
قَالَ لَا يَأۡتِيكُمَا طَعَامٞ تُرۡزَقَانِهِۦٓ إِلَّا نَبَّأۡتُكُمَا بِتَأۡوِيلِهِۦ قَبۡلَ أَن يَأۡتِيَكُمَاۚ ذَٰلِكُمَا مِمَّا عَلَّمَنِي رَبِّيٓۚ إِنِّي تَرَكۡتُ مِلَّةَ قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 36
(37) यूसुफ़ ने कहा, “यहाँ जो खाना तुम्हें मिला करता है, उसके आने से पहले मैं तुम्हें इन ख़ाबों की ताबीर बता दूँगा। यह उन ज्ञान की चीज़ों में से है जो मेरे रब ने मुझे प्रदान की हैं। वास्तविकता यह है कि मैंने उन लोगों का तरीक़ा छोड़कर जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और आख़िरत का इनकार करते हैं,
وَٱتَّبَعۡتُ مِلَّةَ ءَابَآءِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ مَا كَانَ لَنَآ أَن نُّشۡرِكَ بِٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ ذَٰلِكَ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ عَلَيۡنَا وَعَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 37
(38) अपने पूर्वजों, इबराहीम, इसहाक़ और याक़ूब का तरीक़ा अपनाया है। हमारा यह काम नहीं है कि अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराएँ। वास्तव में यह अल्लाह का उदार अनुग्रह है हमपर और सारे इनसानों पर (कि उसने अपने सिवा किसी का बन्दा हमें नहीं बनाया) मगर ज़्यादातर लोग कृतज्ञता नहीं दिखाते।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ ءَأَرۡبَابٞ مُّتَفَرِّقُونَ خَيۡرٌ أَمِ ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 38
(39) ऐ कारागार के साथियो, तुम ख़ुद ही सोचो कि बहुत-से विभिन्न रब अच्छे हैं, या वह एक अल्लाह जिसे सबपर प्रभुत्व प्राप्त है?
مَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ أَسۡمَآءٗ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِ أَمَرَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 39
(40) उसे छोड़कर तुम जिनकी बन्दगी कर रहे हो वे इसके सिवा कुछ नहीं हैं कि बस कुछ नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए है, अल्लाह ने उनके लिए कोई सनद नहीं उतारी। शासन की सत्ता अल्लाह के सिवा किसी के लिए नहीं है। उसका आदेश है कि ख़ुद उसके सिवा तुम किसी की बन्दगी न करो। यही ठेठ सीधी जीवन-प्रणाली है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ أَمَّآ أَحَدُكُمَا فَيَسۡقِي رَبَّهُۥ خَمۡرٗاۖ وَأَمَّا ٱلۡأٓخَرُ فَيُصۡلَبُ فَتَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِن رَّأۡسِهِۦۚ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ٱلَّذِي فِيهِ تَسۡتَفۡتِيَانِ ۝ 40
(41) ऐ कारागार के साथियो, तुम्हारे ख़ाब की ताबीर यह है कि तुममें से एक तो अपने रब (मिस्र के सम्राट)11 को शराब पिलाएगा। रहा दूसरा तो उसे सूली पर चढ़ाया जाएगा और पक्षी उसका सिर नोच-नोचकर खाएँगे। फ़ैसला हो गया उस बात का जो तुम पूछ रहे थे।"
11. आयत 23 के साथ इस आयत को मिलाकर पढ़ा जाए तो मालूम हो जाता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जब मेरा 'रब' (स्वामी) कहा तो उससे मुराद अल्लाह की ज़ात थी और जब मिस्र के बादशाह के ग़ुलाम से कहा कि तू अपने रब (स्वामी) को शराब पिलाएगा तो इससे मुराद मिस्र का बादशाह था, क्योंकि वह मिस्र के बादशाह ही को अपना रब समझता था।
وَقَالَ لِلَّذِي ظَنَّ أَنَّهُۥ نَاجٖ مِّنۡهُمَا ٱذۡكُرۡنِي عِندَ رَبِّكَ فَأَنسَىٰهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ ذِكۡرَ رَبِّهِۦ فَلَبِثَ فِي ٱلسِّجۡنِ بِضۡعَ سِنِينَ ۝ 41
(42) फिर उनमें से जिसके सम्बन्ध में ख़याल था कि वह रिहा हो जाएगा, उससे यूसुफ़ ने कहा कि “अपने रब (मिस्र के सम्राट) से मेरी चर्चा करना।” मगर शैतान ने उसे ग़फ़लत में ऐसा डाला कि वह अपने रब (मिस्र के बादशाह) से उसकी चर्चा करनी भूल गया और यूसुफ़ कई वर्ष जेल में पड़ा रहा।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ إِنِّيٓ أَرَىٰ سَبۡعَ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعَ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖۖ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ أَفۡتُونِي فِي رُءۡيَٰيَ إِن كُنتُمۡ لِلرُّءۡيَا تَعۡبُرُونَ ۝ 42
(43) एक दिन12 बादशाह ने कहा, “मैंने ख़ाब में देखा है कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं, और अनाज की सात बालें हरी हैं और दूसरी सात सूखी। ऐ दरबारियो, मुझे इस ख़ाब की ताबीर बताओ अगर तुम ख़ाबों का अर्थ समझते हो।”
12. बीच में कई वर्ष की क़ैद की मुद्दत का हाल छोड़कर अब बयान की कड़ी उस जगह से जोड़ी जाती है जहाँ से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दुनिया में मिलनेवाली उन्नति का दौर शुरू हुआ।
قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمٖۖ وَمَا نَحۡنُ بِتَأۡوِيلِ ٱلۡأَحۡلَٰمِ بِعَٰلِمِينَ ۝ 43
(44) लोगों ने कहा, “ये तो उलझन भरे ख़ाब की बातें हैं और हम इस तरह के ख़ाबों का अर्थ नहीं जानते।”
وَقَالَ ٱلَّذِي نَجَا مِنۡهُمَا وَٱدَّكَرَ بَعۡدَ أُمَّةٍ أَنَا۠ أُنَبِّئُكُم بِتَأۡوِيلِهِۦ فَأَرۡسِلُونِ ۝ 44
(45) उन दो क़ैदियों में से जो व्यक्ति बच गया था और उसे एक लम्बे समय के बाद अब बात याद आई, उसने कहा, “मैं आप सब लोगों को इसकी तफ़सील बताता हूँ, मुझे तनिक (जेल में यूसुफ़ के पास) भेज दीजिए।"
يُوسُفُ أَيُّهَا ٱلصِّدِّيقُ أَفۡتِنَا فِي سَبۡعِ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعِ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖ لَّعَلِّيٓ أَرۡجِعُ إِلَى ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 45
(46) उसने जाकर कहा, “यूसुफ़ ऐ सच्चाई के पुतले13, मुझे इस ख़ाब का अर्थ बता कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही है और सात बालें हरी है और सात सूखी, शायद कि मैं उन लोगों के पास वापस जाऊँ, और शायद कि वे जान लें।"14
13. मूल ग्रन्थ में “सिद्दीक़” शब्द इस्तेमाल हुआ है जो अरबी में सच्चाई और सत्यप्रियता को पराकाष्ठा के लिए इस्तेमाल होता है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि कारागार में ठहरने की अवधि में उस व्यक्ति ने यूसुफ (अलैहि०) के पवित्र जीवन से कैसा गहरा प्रभाव ग्रहण किया था और यह प्रभाव एक लम्बी मुद्दत बीत जाने के बाद भी कितना मज़बूत था।
14. अर्थात् आपके गुण और प्रतिष्ठिता को जान लें और उनको एहसास हो कि किस दर्जे के आदमी को उन्होंने कहाँ बन्द कर रखा है और इस तरह मुझे अपना वह वादा पूरा करने का मौक़ा मिल जाए जो मैंने आपसे क़ैद के समय में किया था।
قَالَ تَزۡرَعُونَ سَبۡعَ سِنِينَ دَأَبٗا فَمَا حَصَدتُّمۡ فَذَرُوهُ فِي سُنۢبُلِهِۦٓ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تَأۡكُلُونَ ۝ 46
(47) यूसुफ ने कहा, “सात साल तक लगातार तुम खेती-बाड़ी करते रहोगे। इस बीच जो फ़सलें तुम काटो उनमें से बस थोड़ा-सा हिस्सा, जो तुम्हारी ख़ुराक के काम आए, निकालो और बाक़ी को उसकी बालों ही में रहने दो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ سَبۡعٞ شِدَادٞ يَأۡكُلۡنَ مَا قَدَّمۡتُمۡ لَهُنَّ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تُحۡصِنُونَ ۝ 47
(48) फिर सात साल बहुत कठिन आएँगे। उस अवधि में वह सब ग़ल्ला (अनाज) खा लिया जाएगा जो तुम उस समय के लिए इकट्ठा करोगे। अगर कुछ बचेगा तो बस वही जो तुमने सुरक्षित कर रखा हो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَامٞ فِيهِ يُغَاثُ ٱلنَّاسُ وَفِيهِ يَعۡصِرُونَ ۝ 48
(49) इसके बाद फिर एक वर्ष ऐसा आएगा जिसमें रहमत की बारिश से लोगों की फ़रियाद सुन ली जाएगी और वे रस निचोड़ेंगे।"
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦۖ فَلَمَّا جَآءَهُ ٱلرَّسُولُ قَالَ ٱرۡجِعۡ إِلَىٰ رَبِّكَ فَسۡـَٔلۡهُ مَا بَالُ ٱلنِّسۡوَةِ ٱلَّٰتِي قَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّۚ إِنَّ رَبِّي بِكَيۡدِهِنَّ عَلِيمٞ ۝ 49
(50) बादशाह ने कहा, उसे मेरे पास ले आओ। मगर जब बादशाह का भेजा हुआ दूत यूसुफ़ के पास पहुँचा तो उसने कहा, “अपने रब के पास वापस जा और उससे पूछ कि उन औरतों का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? मेरा रब तो उनकी मक्कारी से परिचित ही है।”
قَالَ مَا خَطۡبُكُنَّ إِذۡ رَٰوَدتُّنَّ يُوسُفَ عَن نَّفۡسِهِۦۚ قُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا عَلِمۡنَا عَلَيۡهِ مِن سُوٓءٖۚ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡـَٰٔنَ حَصۡحَصَ ٱلۡحَقُّ أَنَا۠ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 50
(51) इसपर बादशाह ने उन औरतों से पूछा, “तुम्हारा क्या अनुभव है उस समय का जब तुमने यूसुफ़ को रिझाने की कोशिश की थी?” सबने एक ज़बान होकर कहा, “अल्लाह की पनाह, हमने तो उसमें बुराई की झलक तक न पाई।” प्रमुख अधिकारी की बीवी बोल उठी, “अब सत्य खुल चुका है, वह मैं ही थी जिसने उसको फुसलाने की कोशिश की थी, बेशक वह बिलकुल सच है।”
ذَٰلِكَ لِيَعۡلَمَ أَنِّي لَمۡ أَخُنۡهُ بِٱلۡغَيۡبِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي كَيۡدَ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 51
(52) (यूसुफ़ ने कहा) “इससे मेरा उद्देश्य यह था कि (प्रमुख अधिकारी) यह जान ले कि छिपकर उसके साथ विश्वासघात नहीं किया था, और यह कि जो विश्वासघात करते हैं उनकी चालों को अल्लाह सफलता की राह पर नहीं लगाता।
۞وَمَآ أُبَرِّئُ نَفۡسِيٓۚ إِنَّ ٱلنَّفۡسَ لَأَمَّارَةُۢ بِٱلسُّوٓءِ إِلَّا مَا رَحِمَ رَبِّيٓۚ إِنَّ رَبِّي غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 52
(53) मैं कुछ अपने जी (नफ़्स) को बरी नहीं ठहरा रहा हूँ, जी तो बुराई पर उकसाता ही है यह और बात है कि किसी पर मेरे रब की दयालुता हो, बेशक मेरा रब बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦٓ أَسۡتَخۡلِصۡهُ لِنَفۡسِيۖ فَلَمَّا كَلَّمَهُۥ قَالَ إِنَّكَ ٱلۡيَوۡمَ لَدَيۡنَا مَكِينٌ أَمِينٞ ۝ 53
(54) बादशाह ने कहा “उन्हें मेरे पास लाओ ताकि मैं उनको अपने लिए ख़ास कर लूँ।” जब यूसुफ़ ने उससे बातचीत की तो उसने कहा, “अब आप हमारे यहाँ प्रतिष्ठित और ऊँचा दर्जा रखते हैं और आपकी अमानत पर पूरा भरोसा है।”
قَالَ ٱجۡعَلۡنِي عَلَىٰ خَزَآئِنِ ٱلۡأَرۡضِۖ إِنِّي حَفِيظٌ عَلِيمٞ ۝ 54
(55) यूसुफ़ ने कहा, “देश के ख़ज़ाने मुझे सौप दीजिए, मैं रक्षा करनेवाला भी हूँ और मुझे ज्ञान भी प्राप्त है।"
وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَتَبَوَّأُ مِنۡهَا حَيۡثُ يَشَآءُۚ نُصِيبُ بِرَحۡمَتِنَا مَن نَّشَآءُۖ وَلَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 55
(56) इस तरह हमने उस भू-भाग में यूसुफ़ के लिए सत्ताधिकार की राह प्रशस्त की। उसे अधिकार प्राप्त था कि उसमें जहाँ चाहे अपनी जगह बनाए।15 हम अपनी दयालुता जिसे चाहते हैं। प्रदान करते हैं, नेक लोगों का बदला हमारे यहाँ मारा नहीं जाता,
15. अर्थात् अब मिस्र का सारा भूखण्ड उसका था। उसकी हर जगह को वह अपनी जगह कह सकता था। वहाँ कोई कोना भी ऐसा न रहा था जो उससे रोका जा सकता हो। यह मानो उस पूर्ण प्रभुत्व और व्यापक सत्ताधिकार का उल्लेख है, जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उस देश पर प्राप्त था। प्राचीन टीकाकार भी इस आयत की यही व्याख्या करते हैं, जैसा कि इब्ने-जैद इसका अर्थ बताते हैं कि “हमने यूसुफ़ (अलैहि०) को उन सब चीज़़ों का मालिक बना दिया जो मिस्र में थीं, दुनिया के उस भाग में वह जहाँ जो कुछ चाहता, कर सकता था। वह ज़मीन उसे सौंप दी गई थी, यहाँ तक कि अगर वह चाहता कि फ़िरऔन को अपने अधीन कर ले और ख़ुद उससे उच्च हो जाए तो यह भी कर सकता था।” मुजाहिद का ख़याल है कि मिस्र के बादशाह ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हाथ पर इस्लाम क़ुबूल कर लिया था।
وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 56
(57) और आख़िरत का बदला उन लोगों के लिए ज़्यादा बेहतर है जो ईमान ले आए और ख़ुदा से डरते हुए काम करते रहे।
وَجَآءَ إِخۡوَةُ يُوسُفَ فَدَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَعَرَفَهُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 57
(58) यूसुफ़ के भाई मिस्र आए और उसके यहाँ हाज़िर हुए16, उसने उन्हें पहचान लिया मगर वे उससे अपरिचित थे।
16. यहाँ फिर सात-आठ वर्ष की घटनाओं को बीच में छोड़कर बयान की कड़ी को उस जगह से जोड़ दिया गया है जहाँ से इसराईलियों के मिस्र स्थानान्तरित होने का आरंभ हुआ।
وَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ قَالَ ٱئۡتُونِي بِأَخٖ لَّكُم مِّنۡ أَبِيكُمۡۚ أَلَا تَرَوۡنَ أَنِّيٓ أُوفِي ٱلۡكَيۡلَ وَأَنَا۠ خَيۡرُ ٱلۡمُنزِلِينَ ۝ 58
(59) फिर जब उसने उनका सामान तैयार करवा दिया तो चलते समय उनसे कहा, “अपने सौतेले भाई को मेरे पास लाना। देखते नहीं हो कि मैं किस तरह पैमाना भरकर देता हूँ और कैसा अच्छा अतिथि सत्कार करनेवाला हूँ।
فَإِن لَّمۡ تَأۡتُونِي بِهِۦ فَلَا كَيۡلَ لَكُمۡ عِندِي وَلَا تَقۡرَبُونِ ۝ 59
(60) अगर तुम उसे न लाओगे तो मेरे पास तुम्हारे लिए कोई ग़ल्ला नहीं है बल्कि तुम मेरे क़रीब भी न फटकना।”17
17. यह बात हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने इसलिए कही होगी कि अकाल के कारण मिस्र में ग़ल्ले पर नियंत्रण था। ग़ल्ला लेने के लिए ये दस भाई आए थे, मगर अपने बाप और अपने ग्यारहवें भाई का हिस्सा भी माँगते होंगे। इसपर यूसुफ़ (अलैहि०) ने कहा होगा कि तुम्हारे बाप के ख़ुद न आने के लिए तो यह उज़्र बुद्धिसंगत हो सकता है कि वे बहुत बूढ़े हैं और उन्हें आँखों से सुझाई भी नहीं देता, मगर भाई के न आने का क्या उचित कारण हो सकता है? अच्छा, इस समय तो हम तुम्हारी बात का विश्वास करके तुमको पूरा अनाज दिए देते हैं, मगर आगे अगर तुम उसको साथ न लाए तो तुमपर से विश्वास जाता रहेगा और तुम्हें यहाँ से कोई ग़ल्ला न मिलेगा।
قَالُواْ سَنُرَٰوِدُ عَنۡهُ أَبَاهُ وَإِنَّا لَفَٰعِلُونَ ۝ 60
(61) उन्होंने कहा, “हम कोशिश करेंगे कि अब्बा जान उसे भेजने पर राज़ी हो जाएँ, और हम ऐसा ज़रूर करेंगे।”
وَقَالَ لِفِتۡيَٰنِهِ ٱجۡعَلُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ فِي رِحَالِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَعۡرِفُونَهَآ إِذَا ٱنقَلَبُوٓاْ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 61
(62) यूसुफ़ ने अपने ग़ुलामों को संकेत किया कि “इन लोगों ने ग़ल्ले के बदले जो माल दिया है वह चुपके से इनके सामान ही में रख दो।” यह यूसुफ़ ने इस उम्मीद पर किया कि घर पहुँचकर वे अपना वापस पाया हुआ माल पहचान जाएँगे (या इस दानशीलता पर आभारी होंगे) और आश्चर्य नहीं कि फिर पलटें।
فَلَمَّا رَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيهِمۡ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مُنِعَ مِنَّا ٱلۡكَيۡلُ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَآ أَخَانَا نَكۡتَلۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 62
(63) जब वे अपने बाप के पास गए तो कहा, “अब्बा जान, आइन्दा हमको ग़ल्ला देने से इनकार कर दिया गया है, अतः आप हमारे भाई को हमारे साथ भेज दीजिए, ताकि हम ग़ल्ला लेकर आएँ। और उसकी रक्षा के हम ज़िम्मेदार हैं।”
قَالَ هَلۡ ءَامَنُكُمۡ عَلَيۡهِ إِلَّا كَمَآ أَمِنتُكُمۡ عَلَىٰٓ أَخِيهِ مِن قَبۡلُ فَٱللَّهُ خَيۡرٌ حَٰفِظٗاۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 63
(64) बाप ने जवाब दिया, “क्या मैं उसके मामले मैं तुमपर वैसा ही भरोसा करूँ जैसा इससे पहले उसके भाई के मामले में कर चुका हूँ? अल्लाह ही सबसे अच्छा रक्षक है और वह सबसे बढ़कर दयावान है।"
وَلَمَّا فَتَحُواْ مَتَٰعَهُمۡ وَجَدُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ رُدَّتۡ إِلَيۡهِمۡۖ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا نَبۡغِيۖ هَٰذِهِۦ بِضَٰعَتُنَا رُدَّتۡ إِلَيۡنَاۖ وَنَمِيرُ أَهۡلَنَا وَنَحۡفَظُ أَخَانَا وَنَزۡدَادُ كَيۡلَ بَعِيرٖۖ ذَٰلِكَ كَيۡلٞ يَسِيرٞ ۝ 64
(65) फिर जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनका माल भी उन्हें वापस कर दिया गया है। यह देखकर वे पुकार उठे “अब्बा जान, और हमें क्या चाहिए, देखिए यह हमारा माल भी हमें वापस दे दिया गया है। बस अब हम जाएँगे और अपने घरवालों के लिए रसद लेकर आएँगे, अपने भाई की रक्षा भी और एक ऊँट का बोझ और ज़्यादा भी लाएँगे, इतने ग़ल्ले का इज़ाफ़ा आसानी के साथ हो जाएगा।"
قَالَ لَنۡ أُرۡسِلَهُۥ مَعَكُمۡ حَتَّىٰ تُؤۡتُونِ مَوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ لَتَأۡتُنَّنِي بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يُحَاطَ بِكُمۡۖ فَلَمَّآ ءَاتَوۡهُ مَوۡثِقَهُمۡ قَالَ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَا نَقُولُ وَكِيلٞ ۝ 65
(66) उनके बाप ने कहा, “मैं इसको हरगिज़ तुम्हारे साथ न भेजूँगा जब तक कि तुम अल्लाह के नाम से मुझे पक्का वचन न दो कि उसे मेरे पास ज़रूर वापस लेकर आओगे यह और बात है कि तुम घेर ही लिए जाओ।” जब उन्होंने उसको अपने-अपने वचन दे दिए तो उसने कहा “देखो, हम यह जो कुछ कह रहे है उसका अल्लाह निरीक्षक है।”
وَقَالَ يَٰبَنِيَّ لَا تَدۡخُلُواْ مِنۢ بَابٖ وَٰحِدٖ وَٱدۡخُلُواْ مِنۡ أَبۡوَٰبٖ مُّتَفَرِّقَةٖۖ وَمَآ أُغۡنِي عَنكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍۖ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَعَلَيۡهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 66
(67) फिर उसने कहा, “मेरे बच्चो, मिस्र की राजधानी में एक दरवाज़े से दाख़िल न होना18 बल्कि विभिन्न दरवाज़ों से जाना। मगर मैं अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध तुमको नहीं बचा सकता, आदेश उसके सिवा किसी का भी नहीं चलता, उसी पर मैंने भरोसा किया, और जिसको भी भरोसा करना हो उसी पर करे।”
18. संभवत: हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अंदेशा हुआ होगा कि इस अकाल के समय में अगर ये लोग एक जत्था बने हुए मिस्र में दाख़िल होंगे तो शायद इन्हें सन्देह की निगाह से देखा जाए और यह समझा जाए कि पह लूट-मार करने के उद्देश्य से आए हैं।
وَلَمَّا دَخَلُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَهُمۡ أَبُوهُم مَّا كَانَ يُغۡنِي عَنۡهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍ إِلَّا حَاجَةٗ فِي نَفۡسِ يَعۡقُوبَ قَضَىٰهَاۚ وَإِنَّهُۥ لَذُو عِلۡمٖ لِّمَا عَلَّمۡنَٰهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 67
(68) और हुआ भी यही कि जब वे अपने बाप के आदेश के अनुसार शहर में (विभिन्न दरवाजों से) दाख़िल हुए तो उसका यह सावधानी का उपाय अल्लाह की इच्छा के मुक़ाबले में कुछ भी काम न आ सका। हाँ, बस याक़ूब के दिल में जो एक खटक थी उसे दूर करने के लिए उसने अपनी-सी कोशिश कर ली। बेशक वह हमारी दी हुई शिक्षा से ज्ञानवान था, मगर ज़्यादातर लोग मामले की वास्तविकता को जानते नहीं है।
وَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَخَاهُۖ قَالَ إِنِّيٓ أَنَا۠ أَخُوكَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 68
(69) ये लोग यूसुफ़ के पास पहुँचे तो उसने अपने भाई को अपने पास अलग बुला लिया और उसे बता दिया कि “मैं तेरा वही भाई हूँ (जो खोया गया था), अब तू उन बातों का रंज न कर जो ये लोग करते रहे हैं।”19
19. संभवत: इस मुलाक़ात में बिन-यमीन ने सुनाया होगा कि उनके पीछे सौतेले भाइयों ने उसके साथ क्या-क्या दुर्व्यवहार किए और यूसुफ़ (अलैहि०) ने भाई को तसल्ली दी होगी कि अब मेरे पास ही तुम रहोगे, उन ज़ालिमों के पंजे में तुमको दोबारा नहीं जाने दूँगा। असंभव नहीं कि इसी अवसर पर दोनों भाइयों में यह भी तय हो गया हो कि बिन यमीन को मिस्र में रोक रखने के लिए क्या उपाय किया जाएगा, जिससे वह परदा भी पड़ा रहे जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) किसी वजह से अभी डाले रखना चाहते थे।
فَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ جَعَلَ ٱلسِّقَايَةَ فِي رَحۡلِ أَخِيهِ ثُمَّ أَذَّنَ مُؤَذِّنٌ أَيَّتُهَا ٱلۡعِيرُ إِنَّكُمۡ لَسَٰرِقُونَ ۝ 69
(70) जब यूसुफ़ उन भाइयों का सामान लदवाने लगा तो उसने अपने भाई के सामान में अपना प्याला रख दिया। फिर एक पुकारनेवाले ने पुकारकर कहा, “ऐ क़ाफ़िलेवालो, तुम लोग चोर हो।”
قَالُواْ وَأَقۡبَلُواْ عَلَيۡهِم مَّاذَا تَفۡقِدُونَ ۝ 70
(71) उन्होंने पलटकर पूछा, “तुम्हारी क्या चीज़ खो गई?”
قَالُواْ نَفۡقِدُ صُوَاعَ ٱلۡمَلِكِ وَلِمَن جَآءَ بِهِۦ حِمۡلُ بَعِيرٖ وَأَنَا۠ بِهِۦ زَعِيمٞ ۝ 71
(72) सरकारी कर्मचारियों ने कहा, “बादशाह का पैमाना हमको नहीं मिलता।” (और उनके जमादार ने कहा) “जो व्यक्ति लाकर देगा उसके लिए एक ऊँट का बोझ इनाम है, इसका मैं ज़िम्मा लेता हूँ।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ عَلِمۡتُم مَّا جِئۡنَا لِنُفۡسِدَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كُنَّا سَٰرِقِينَ ۝ 72
(73) उन भाइयों ने कहा, “अल्लाह की क़सम, तुम लोग ख़ूब जानते हो कि हम इस देश में बिगाड़ पैदा करने नहीं आए हैं। और हम चोरियाँ करनेवाले लोग नहीं है।”
قَالُواْ فَمَا جَزَٰٓؤُهُۥٓ إِن كُنتُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 73
(74) उन्होंने कहा, “अच्छा अगर तुम्हारी बात झूठी निकली तो चोर की क्या सज़ा है?”
قَالُواْ جَزَٰٓؤُهُۥ مَن وُجِدَ فِي رَحۡلِهِۦ فَهُوَ جَزَٰٓؤُهُۥۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 74
(75) उन्होंने कहा, “उसकी सज़ा? जिसके सामान में से चीज़़ निकले वह ख़ुद ही अपनी सज़ा में रख लिया जाए, हमारे यहाँ तो ऐसे ज़ालिमों को सज़ा देने की यही रीति है।”
فَبَدَأَ بِأَوۡعِيَتِهِمۡ قَبۡلَ وِعَآءِ أَخِيهِ ثُمَّ ٱسۡتَخۡرَجَهَا مِن وِعَآءِ أَخِيهِۚ كَذَٰلِكَ كِدۡنَا لِيُوسُفَۖ مَا كَانَ لِيَأۡخُذَ أَخَاهُ فِي دِينِ ٱلۡمَلِكِ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ وَفَوۡقَ كُلِّ ذِي عِلۡمٍ عَلِيمٞ ۝ 75
(76) तब यूसुफ़ ने अपने भाई से पहले इनकी ख़ुरजियों की तलाशी लेनी शुरू की, फिर अपने भाई की ख़ुरजी से खोई हुई चीज़़ निकाल ली इस तरह हमने यूसुफ़ की सहायता अपने उपाय से की। उसका यह काम न था कि बादशाह के दीन (अर्थात् मिस्र के शाही क़ानून) में अपने भाई को पकड़ता यह और बात है कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।20 हम जिसके दर्जे चाहते हैं ऊँचे कर देते हैं, और एक ज्ञानवान ऐसा है जो हर ज्ञानवाले से उच्च है।
20. साधारणतया इस आयत का अनुवाद यह किया जाता है कि “यूसुफ़ बादशाह के क़ानून के अन्तर्गत अपने भाई को न पकड़ सकता था” लेकिन अगर इसका अर्थ यह लिया जाए तो बात बिलकुल निरर्थक हो जाती है। बादशाह के क़ानून में चोर को न पकड़ सकने का आख़िर क्या कारण हो सकता है? क्या दुनिया में कभी कोई राज्य ऐसा भी रहा है जिसका क़ानून चोर को गिरफ़्तार करने की अनुमति न देता हो? अतः सही बात यह है कि अल्लाह के नबी हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का यह काम न था कि बादशाह के क़ानून के अनुसार काम करें। इसी लिए हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने भाइयों से उनके यहाँ का क़ानून पूछा और इबराहीम (अलैहि०) के धर्मविधान के अनुसार अपने भाई को पकड़ा।
۞قَالُوٓاْ إِن يَسۡرِقۡ فَقَدۡ سَرَقَ أَخٞ لَّهُۥ مِن قَبۡلُۚ فَأَسَرَّهَا يُوسُفُ فِي نَفۡسِهِۦ وَلَمۡ يُبۡدِهَا لَهُمۡۚ قَالَ أَنتُمۡ شَرّٞ مَّكَانٗاۖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَصِفُونَ ۝ 76
(77) उन भाइयों ने कहा, “यह चोरी करे तो कुछ आश्चर्य की बात भी नहीं, इससे पहले इसका भाई (यूसुफ़) भी चोरी कर चुका है।” यूसुफ़ उनकी यह बात सुनकर पी गया, सत्य का उद्घाटन उनपर न किया, बस (होंठों ही में) इतना कहकर रह गया कि “बड़े ही बुरे हो तुम लोग (मेरे मुँह पर ही) जो इलज़ाम तुम लगा रहे हो उसकी वास्तविकता अल्लाह ख़ूब जानता है।”
قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ إِنَّ لَهُۥٓ أَبٗا شَيۡخٗا كَبِيرٗا فَخُذۡ أَحَدَنَا مَكَانَهُۥٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 77
(78) उन्होंने कहा, “ऐ प्रमुख सत्ताधारी सरदार (अज़ीज़)21 और इसका बाप बहुत बूढ़ा आदमी है, इसकी जगह आप हममें से किसी को रख लीजिए, हम आपको बड़ा ही पुण्यात्मा व्यक्ति पाते हैं।
21. यहाँ यह शब्द “अज़ीज़” हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के लिए जो इस्तेमाल हुआ है सिर्फ़ इस कारण टीकाकारों ने अनुमान लगाया कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) उसी पद पर नियुक्त हुए थे जिसपर इससे पहले ज़ुलेख़ा का पति नियुक्त था। लेकिन हम टिप्पणी नं० 9 में स्पष्ट कर चुके हैं कि यह मिस्र में किसी विशेष पद का नाम न था, बल्कि सिर्फ़ “अधिकारी” के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता था।
قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِ أَن نَّأۡخُذَ إِلَّا مَن وَجَدۡنَا مَتَٰعَنَا عِندَهُۥٓ إِنَّآ إِذٗا لَّظَٰلِمُونَ ۝ 78
(79) यूसुफ़ ने कहा, “अल्लाह की पनाह, दूसरे किसी व्यक्ति को हम कैसे रख सकते हैं? जिसके पास हमने अपना माल पाया है22 उसको छोड़कर दूसरे को रखेंगे तो हम ज़ालिम होंगे।"
22. सावधानी देखिए कि “चोर” नहीं कहते, बल्कि कहते यह हैं कि “जिसके पास हमने अपना माल पाया है।” इसी को शरीअत की परिभाषा में “तौरिया” कहते हैं, अर्थात् “वास्तविकता पर परदा डालना” या “वास्तविक बात को छिपाना"। जब किसी सताए हुए व्यक्ति को ज़ालिम से बचाने या किसी बड़े अत्याचार को दूर करने का कोई उपाय इसके सिवा न हो कि कुछ वास्तविकता के विरुद्ध बात कही जाए या कोई वास्तविकता के विरुद्ध हीला बहाना किया जाए तो ऐसी हालत में एक परहेज़गार आदमी स्पष्ट झूठ बोलने से बचते हुए ऐसी बात कहने या ऐसा उपाय करने की कोशिश करेगा, जिससे वास्तविकता को छिपाकर बुराई को दूर किया जा सके। अब देखिए कि इस सारे मामले में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने किस तरह जाइज़ 'तौरिया' की शर्तें पूरी की हैं। भाई की रज़ामन्दी से उसके सामान में प्याला रख दिया। मगर सेवकों से यह नहीं कहा कि उसपर चोरी का दोष लगाओ। फिर जब सरकारी कर्मचारी चोरी के आरोप में उन लोगों को पकड़कर लाए तो ख़ामोशी के साथ उठकर तलाशी ले ली। फिर अब जो उन भाइयों ने कहा कि बिन-यमीन की जगह हममें से किसी को रख लीजिए तो इसके जवाब में भी उन्हीं की बात उनपर उलट दी कि तुम्हारा अपना फ़तवा (धर्मादेश) यह था कि जिसके सामान में से माल निकला है उसी को रख लिया जाए, अतः अब तुम्हारे सामने बिन-यमीन के सामान में से हमारा माल निकला है और उसी को हम रख लेते हैं, दूसरे को उसकी जगह कैसे रख सकते हैं?
فَلَمَّا ٱسۡتَيۡـَٔسُواْ مِنۡهُ خَلَصُواْ نَجِيّٗاۖ قَالَ كَبِيرُهُمۡ أَلَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ أَبَاكُمۡ قَدۡ أَخَذَ عَلَيۡكُم مَّوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَمِن قَبۡلُ مَا فَرَّطتُمۡ فِي يُوسُفَۖ فَلَنۡ أَبۡرَحَ ٱلۡأَرۡضَ حَتَّىٰ يَأۡذَنَ لِيٓ أَبِيٓ أَوۡ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ لِيۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 79
(80) जब वे यूसुफ़ से निराश हो गए तो एक कोने में जाकर आपस में मशवरा करने लगे। उनमें जो सबसे बड़ा था वह बोला, “तुम जानते नहीं हो कि तुम्हारे अब्बा तुमसे अल्लाह के नाम पर पक्का वचन ले चुके हैं? और इससे पहले यूसुफ़ के मामले में जो तुम कर चुके हो वह भी तुमको मालूम है। अब मैं तो यहाँ से हरगिज़ न जाऊँगा जब तक कि मेरे अब्बा जान की मुझे अनुज्ञा न मिले, या फिर अल्लाह ही मेरे हक़ में कोई फ़ैसला कर दे कि वह सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।
ٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيكُمۡ فَقُولُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّ ٱبۡنَكَ سَرَقَ وَمَا شَهِدۡنَآ إِلَّا بِمَا عَلِمۡنَا وَمَا كُنَّا لِلۡغَيۡبِ حَٰفِظِينَ ۝ 80
(81) तुम जाकर अपने अब्बा जान से कहो कि अब्बा जान, आपके बेटे ने चोरी की है। हमने उसे चोरी करते हुए नहीं देखा, जो कुछ हमें मालूम हुआ है बस वही हम बयान कर रहे हैं, और ग़ैब (परोक्ष) तो हमारी दृष्टि में था नहीं।
وَسۡـَٔلِ ٱلۡقَرۡيَةَ ٱلَّتِي كُنَّا فِيهَا وَٱلۡعِيرَ ٱلَّتِيٓ أَقۡبَلۡنَا فِيهَاۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 81
(82) आप उस बस्ती के लोगों से पूछ लीजिए जहाँ हम थे। उस क़ाफ़िले से पूछ लीजिए जिसके साथ हम आए हैं। हम अपने बयान में बिलकुल सच्चे है।"
قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٌۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَنِي بِهِمۡ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 82
(83) बाप ने यह वृत्तांत सुनकर कहा, “वास्तव में तुम्हारे जी (नफ़्स) ने तुम्हारे लिए एक और बड़ी बात को आसान बना दिया।23 अच्छा इसपर भी सब्र करूँगा और ख़ूबी के साथ करूँगा। कुछ मुश्किल नहीं कि अल्लाह उन सबको मुझसे ला मिलाए, वह सब कुछ जानता है और उसके सारे काम तत्त्वदर्शिता पर आधारित हैं।"
23. अर्थात् तुम्हारी दृष्टि में यह मान लेना बहुत आसान है कि मेरा बेटा जिसकी सच्चरित्रता से मैं ख़ूब वाक़िफ़ हूँ, एक प्याले की चोरी का अपराध कर सकता है। पहले तुम्हारे लिए अपने एक भाई को जान-बूझकर गुम कर देना और उसको क़मीज़ पर झूठा ख़ून लगाकर ले आना बहुत आसान काम हो गया था। अब एक दूसरे भाई को वास्तव में चोर मान लेना और मुझे आकर उसकी ख़बर देना भी वैसा ही आसान हो गया।
قَالَ لَا تَثۡرِيبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَۖ يَغۡفِرُ ٱللَّهُ لَكُمۡۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 83
(92) उसने जवाब दिया, “आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं, अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, वह सबसे बढ़कर दयावान है।
ٱذۡهَبُواْ بِقَمِيصِي هَٰذَا فَأَلۡقُوهُ عَلَىٰ وَجۡهِ أَبِي يَأۡتِ بَصِيرٗا وَأۡتُونِي بِأَهۡلِكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 84
(93) जाओ मेरी यह क़मीज़ ले जाओ और मेरे अब्बा जान के मुँह पर डाल दो, उनकी आँखों की रौशनी पलट आएगी, और अपने सब घरवालों को मेरे पास ले आओ।"
وَلَمَّا فَصَلَتِ ٱلۡعِيرُ قَالَ أَبُوهُمۡ إِنِّي لَأَجِدُ رِيحَ يُوسُفَۖ لَوۡلَآ أَن تُفَنِّدُونِ ۝ 85
(94) जब यह क़ाफ़िला (मिस्र से) रवाना हुआ तो उनके बाप ने (कनआन में) कहा, “मैं यूसुफ़ की महक महसूस कर रहा हूँ, तुम लोग कहीं यह न कहने लगों कि मैं बुढ़ापे में सठिया गया हूँ।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ إِنَّكَ لَفِي ضَلَٰلِكَ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 86
(95) घर के लोग बोले, “अल्लाह की क़सम, आप अभी तक अपनी उसी पुरानी भ्रान्ति में पड़े हुए हैं।”
فَلَمَّآ أَن جَآءَ ٱلۡبَشِيرُ أَلۡقَىٰهُ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ فَٱرۡتَدَّ بَصِيرٗاۖ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 87
(96) फिर जब ख़ुशख़बरी लानेवाला आया तो उसने यूसुफ़ की क़मीज़ याक़ूब के मुँह पर डाल दी और अचानक उसकी आँखों की रौशनी पलट आई। तब उसने कहा, “मैं तुमसे कहता न था? मैं अल्लाह की ओर से वह कुछ जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا ٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَآ إِنَّا كُنَّا خَٰطِـِٔينَ ۝ 88
(97) सब बोल उठे, “अब्बा जान, आप हमारे गुनाहों की बख़शिश के लिए दुआ करें, वास्तव में हम ख़ताकार थे।”
قَالَ سَوۡفَ أَسۡتَغۡفِرُ لَكُمۡ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 89
(98) उसने कहा, “मैं अपने रब से तुम्हारे लिए माफ़ी की दरख़ास्त करूँगा, वह बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान है।”
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَبَوَيۡهِ وَقَالَ ٱدۡخُلُواْ مِصۡرَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ ۝ 90
(99) फिर जब ये लोग यूसुफ़ के पास पहुँचे तो उसने अपने माँ-बाप को अपने साथ बिठा लिया और (अपने सब कुटुम्बवालों से) कहा, “चलो, अब शहर में चलो, अल्लाह ने चाहा तो अम्न-चैन से रहोगे।
وَرَفَعَ أَبَوَيۡهِ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ وَخَرُّواْ لَهُۥ سُجَّدٗاۖ وَقَالَ يَٰٓأَبَتِ هَٰذَا تَأۡوِيلُ رُءۡيَٰيَ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَعَلَهَا رَبِّي حَقّٗاۖ وَقَدۡ أَحۡسَنَ بِيٓ إِذۡ أَخۡرَجَنِي مِنَ ٱلسِّجۡنِ وَجَآءَ بِكُم مِّنَ ٱلۡبَدۡوِ مِنۢ بَعۡدِ أَن نَّزَغَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بَيۡنِي وَبَيۡنَ إِخۡوَتِيٓۚ إِنَّ رَبِّي لَطِيفٞ لِّمَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 91
(100) (शहर में दाख़िल होने के बाद) उसने अपने माँ-बाप को उठाकर अपने पास सिंहासन पर बिठाया और सब उसके आगे यकायक सजदे में झुक गए।24 यूसुफ़ ने कहा, “अब्बा जान, यह अर्थ है मेरे उस ख़ाब का जो मैंने पहले देखा था, मेरे रब ने उसे सत्य बना दिया। उसका एहसान है कि उसने मुझे जेल से निकाला, और आप लोगों को उजाड़ स्थान (सहरा) से लाकर मुझसे मिलाया, हालाँकि शैतान मेरे और मेरे भाइयों के बीच फ़साद डाल चुका था। सच यह है कि मेरा रब सूक्ष्म उपायों से अपनी इच्छा पूरी करता है, बेशक वह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
24 इस शब्द “सजदा” से बहुत से लोगों को भ्रम हुआ है। यहाँ तक कि एक गिरोह ने तो इसी को प्रमाण मानकर बादशाहों और पीरों के लिए अभिवादन के सजदे और आदर के सजदे का जाइज़ होना सिद्ध कर लिया। दूसरे लोगों को इस कठिनाई से बचने के लिए इस संबंध में यह स्पष्टीकरण करना पड़ा कि अगली शरीअतों में सिर्फ़ बन्दगी और उपासना का सजदा अल्लाह के सिवा दूसरों के लिए हराम था, बाक़ी रहा वह सजदा जो उपासना के भाव से ख़ाली हो तो वह अल्लाह के सिवा दूसरों को भी किया जा सकता है, अलबत्ता हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में हर प्रकार का सजदा अल्लाह के सिवा दूसरों के लिए हराम कर दिया गया। लेकिन ये सारे भ्रम वास्तव में इस कारण पैदा हुए हैं कि “सजदा” शब्द को वर्तमान इस्लामी परिभाषा का पर्यायवाची समझ लिया गया, अर्थात् हाथ, घुटने और माथा ज़मीन पर टिकाना। हालाँकि सजदे का मूल अर्थ सिर्फ़ झुकना है और यहाँ यह शब्द इसी अर्थ में इस्तेमाल हुआ है।
۞رَبِّ قَدۡ ءَاتَيۡتَنِي مِنَ ٱلۡمُلۡكِ وَعَلَّمۡتَنِي مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَنتَ وَلِيِّۦ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ تَوَفَّنِي مُسۡلِمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 92
(101) ऐ मेरे रब, तूने मुझे राज्य प्रदान किया और मुझे बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। ज़मीन और आसमान के बनानेवाले, तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा संरक्षक है, मेरा अंत इस्लाम पर कर और अंतिम परिणाम के तौर पर मुझे अच्छों के साथ मिला।"
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۖ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ أَجۡمَعُوٓاْ أَمۡرَهُمۡ وَهُمۡ يَمۡكُرُونَ ۝ 93
(102) ऐ नबी, यह क़िस्सा ग़ैब (परोक्ष) के समाचारों में से है जिसकी प्रकाशना हम तुमपर कर रहे हैं, वरना तुम उस समय मौजूद न थे जब यूसुफ़ के भाइयों ने आपस में एकमत होकर साज़िश की थी।
وَمَآ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ وَلَوۡ حَرَصۡتَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 94
(103) मगर तुम चाहे कितना ही चाहो, इनमें से ज़्यादातर लोग माननेवाले नहीं हैं।
وَمَا تَسۡـَٔلُهُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 95
(104) हालाँकि तुम इस सेवा कार्य पर इनसे कोई बदला भी नहीं माँगते हो। यह तो एक उपदेश है जो दुनियावालों के लिए आम है।
وَكَأَيِّن مِّنۡ ءَايَةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يَمُرُّونَ عَلَيۡهَا وَهُمۡ عَنۡهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 96
(105) ज़मीन और आसमानों में कितनी ही निशानियाँ हैं जिनपर से ये लोग गुज़रते रहते हैं और तनिक ध्यान नहीं देते।
وَمَا يُؤۡمِنُ أَكۡثَرُهُم بِٱللَّهِ إِلَّا وَهُم مُّشۡرِكُونَ ۝ 97
(106) इनमें से ज़्यादातर अल्लाह को मानते हैं मगर इस तरह कि उसके बीच दूसरों को साझी ठहराते हैं।
أَفَأَمِنُوٓاْ أَن تَأۡتِيَهُمۡ غَٰشِيَةٞ مِّنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ أَوۡ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 98
(107) क्या ये निश्चिन्त हैं कि अल्लाह के अज़ाब की कोई बला उन्हें दबोच न लेगी या बेख़बरी में क़ियामत की घड़ी अचानक इनपर न आ जाएगी?
قُلۡ هَٰذِهِۦ سَبِيلِيٓ أَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۚ عَلَىٰ بَصِيرَةٍ أَنَا۠ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِيۖ وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 99
(108) तुम इनसे साफ़ कह दो कि “मेरा रास्ता तो यह है कि मैं अल्लाह की ओर बुलाता हूँ, मैं ख़ुद भी पूरे प्रकाश में अपना रास्ता देख रहा हूँ और मेरे साथी भी, और अल्लाह पाक है और साझी ठहरानेवालों से मेरा कोई नाता नहीं।"
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰٓۗ أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۗ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 100
(109) ऐ नबी, तुमसे पहले हमने जो पैग़म्बर भेजे थे वे सब भी इनसान ही थे और इन्हीं बस्तियों के रहनेवालों में से थे, और उन्हीं की ओर हम प्रकाशना भेजते रहे है। फिर क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि उन क़ौमों का परिणाम इन्हें दिखाई न दिया जो इनसे पहले गुज़र चुकी हैं? यक़ीनन आख़िरत का घर उन लोगों के लिए और ज़्यादा अच्छा है जिन्होंने (पैग़म्बरों की बात मानकर) परहेज़गारी की नीति अपनाई। क्या अब भी तुम लोग न समझोगे? (पहले पैग़म्बरों के साथ भी यही होता रहा है कि वे मुद्दतों समझाते रहे और लोगों ने माना नहीं)
حَتَّىٰٓ إِذَا ٱسۡتَيۡـَٔسَ ٱلرُّسُلُ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ كُذِبُواْ جَآءَهُمۡ نَصۡرُنَا فَنُجِّيَ مَن نَّشَآءُۖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُنَا عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 101
(110) यहाँ तक कि जब पैग़म्बर लोगों से मायूस हो गए और लोगों ने भी समझ लिया कि उनसे झूठ बोला गया था, तो अचानक हमारी मदद पैग़म्बरों को पहुँच गई। फिर जब ऐसा अवसर आ जाता है तो हमारा नियम यह है कि जिसे हम चाहते हैं बचा लेते हैं और अपराधियों पर से हमारा अज़ाब टाला ही नहीं जा सकता।
لَقَدۡ كَانَ فِي قَصَصِهِمۡ عِبۡرَةٞ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِۗ مَا كَانَ حَدِيثٗا يُفۡتَرَىٰ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 102
(111) पहले के लोगों के इन क़िस्सों में बुद्धि और चेतनावालों के लिए शिक्षाप्रद सामग्री है। यह जो कुछ क़ुरआन में बयान किया जा रहा है ये बनावटी बातें नहीं हैं, बल्कि जो किताबें इससे पहले आई हुई हैं उन्हीं की पुष्टि है और हर चीज़़ का विस्तृत वर्णन25 और ईमान लानेवालों के लिए मार्गदर्शन और दयालुता।
25. अर्थात् हर उस चीज़़ का विस्तृत वर्णन जो इनसान के मार्गदर्शन व रहनुमाई के लिए ज़रूरी है। कुछ लोग हर चीज़ के विस्तृत वर्णन से मुराद ज़बरदस्ती दुनिया भर की चीज़़ों की तफ़सील (विस्तृत वर्णन) ले लेते हैं और फिर उन्हें इस कठिनाई का सामना करना पड़ता है कि क़ुरआन में वनों और चिकित्सा और गणित और दूसरी शिक्षा और कला के सम्बन्ध में कोई विस्तृत वर्णन नहीं मिलता और कुछ दूसरे लोग ज़बरदस्ती हर विज्ञान और कला का वर्णन क़ुरआन से निकालने लगते हैं।
وَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰٓأَسَفَىٰ عَلَىٰ يُوسُفَ وَٱبۡيَضَّتۡ عَيۡنَاهُ مِنَ ٱلۡحُزۡنِ فَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 103
(84) फिर वह उनकी ओर से मुँह फेरकर बैठ गया और कहने लगा कि “हाय यूसुफ़!” — वह दिल ही दिल में ग़म से घुटा जा रहा था और उसकी आँखें सफ़ेद पड़ गई थीं
قَالُواْ تَٱللَّهِ تَفۡتَؤُاْ تَذۡكُرُ يُوسُفَ حَتَّىٰ تَكُونَ حَرَضًا أَوۡ تَكُونَ مِنَ ٱلۡهَٰلِكِينَ ۝ 104
(85) — बेटों ने कहा, “अल्लाह की क़सम! आप तो बस यूसुफ़ ही को याद किए जाते हैं। नौबत यह आ गई है कि उसके ग़म में अपने आपको घुला देंगे या अपनी जान दे देंगे।"
قَالَ إِنَّمَآ أَشۡكُواْ بَثِّي وَحُزۡنِيٓ إِلَى ٱللَّهِ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 105
(86) उसने कहा, “मैं अपनी परेशानी और अपने ग़म की शिकायत अल्लाह के सिवा किसी से नहीं करता और अल्लाह से जैसा मैं परिचित हूँ, तुम नहीं हो।
يَٰبَنِيَّ ٱذۡهَبُواْ فَتَحَسَّسُواْ مِن يُوسُفَ وَأَخِيهِ وَلَا تَاْيۡـَٔسُواْ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ لَا يَاْيۡـَٔسُ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 106
(87) मेरे बच्चो, जाकर यूसुफ़ और उसके भाई की कुछ टोह लगाओ, अल्लाह की रहमत से मायूस न हो, उसकी रहमत से तो बस अधर्मी ही मायूस हुआ करते हैं।"
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَيۡهِ قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ مَسَّنَا وَأَهۡلَنَا ٱلضُّرُّ وَجِئۡنَا بِبِضَٰعَةٖ مُّزۡجَىٰةٖ فَأَوۡفِ لَنَا ٱلۡكَيۡلَ وَتَصَدَّقۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَجۡزِي ٱلۡمُتَصَدِّقِينَ ۝ 107
(88) जब ये लोग मिस्र जाकर यूसुफ़ की पेशी में दाख़िल हुए तो उन्होंने कहा, “ऐ सत्ताधिकारी सरदार, हम और हमारे घरवाले बड़ी मुसीबत में पड़े हुए हैं और हम कुछ मामूली सी पूँजी लेकर आए हैं, आप हमें भरपूर ग़ल्ला प्रदान करें और हमको दान दें, अल्लाह दान देनेवालों को बदला देता है।
قَالَ هَلۡ عَلِمۡتُم مَّا فَعَلۡتُم بِيُوسُفَ وَأَخِيهِ إِذۡ أَنتُمۡ جَٰهِلُونَ ۝ 108
(89) (यह सुनकर यूसुफ़ से न रहा गया) उसने कहा, “तुम्हें कुछ यह भी मालूम हैं कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया था जबकि तुम नादान थे? ”
قَالُوٓاْ أَءِنَّكَ لَأَنتَ يُوسُفُۖ قَالَ أَنَا۠ يُوسُفُ وَهَٰذَآ أَخِيۖ قَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَآۖ إِنَّهُۥ مَن يَتَّقِ وَيَصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 109
(90) वे चौंककर बोले, “अरे! क्या तुम यूसुफ़ हो?” उसने कहा, “हाँ, मैं यूसुफ़ हूँ और यह मेरा भाई है। अल्लाह ने हमारे साथ उपकार किया। सत्य यह है कि अगर कोई डरकर रहे और सब्र से काम ले तो अल्लाह के यहाँ ऐसे नेक लोगों का बदला मारा नहीं जाता।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ ءَاثَرَكَ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَإِن كُنَّا لَخَٰطِـِٔينَ ۝ 110
(91) उन्होंने कहा, “अल्लाह की क़सम कि तुमको अल्लाह ने हमारे मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान की और वास्तव में हम ख़ताकार (अपराधी) थे।”