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سُورَةُ الجُمُعَةِ

62. अल-जुमुआ

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

आयत 9 के वाक्यांश ‘इज़ा नूदि-य लिस्सलाति मिंय्यौमिल जुमुअति' अर्थात् 'जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुआ (जुमा) के दिन' से लिया गया है। यद्यपि इस सूरा में जुमा की नमाज़ के नियम-सम्बन्धी आदेश दिए गए हैं, लेकिन समग्र रूप से जुमा इसकी वार्ताओं का शीर्षक नहीं है, बल्कि दूसरी सूरतों के नामों की तरह यह नाम भी चिह्न ही के रूप में है।

उतरने का समय

आयत एक से आठ तक के उतरने का समय सन् 07 हिजरी है और शायद ये ख़ैबर की विजय के अवसर पर या उसके बाद के क़रीबी समय में उतरी हैं। आयत दस से सूरा के अन्त तक की आयतें हिजरत के बाद क़रीबी समय ही में उतरी है, क्योंकि नबी (सल्ल.) ने मदीना तय्यिबा पहुँचते ही पाँचवें दिन जुमा क़ायम कर दिया था और सूरा की आख़िरी आयत में जिस घटना की ओर संकेत किया गया है, वह साफ़ बता रहा है कि वह जुमा क़ायम होने का सिलसिला शुरू होने के बाद अनिवार्य रूप से किसी ऐसे ही समय में घटी होगी, जब लोगों को दीनी इज्तिमाआत (धार्मिक सभाओं) के आदाब (शिष्टाचार) की पूरी ट्रेनिंग अभी नहीं मिली थी।

विषय और वार्ता

जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं, इस सूरा के दो भाग अलग-अलग समयों में उतरे हैं, इसी लिए दोनों के विषय अलग हैं और जिनसे सम्बोधन है वे भी अलग हैं। पहला भाग उस समय उतरा जब यहूदियों के समस्त प्रयास विफल हो चुके थे जो इस्लाम के पैग़ाम का रास्ता रोकने के लिए पिछले सालों में उन्होंने किए थे। इन आयतों के उतरने के समय [उनका सबसे बड़ा गढ़ ख़ैबर] भी बिना किसी असाधारण अवरोध के विजित हो गया। इस अन्तिम पराजय के बाद अरब में यहूदी ताक़त का बिल्कुल ख़ातिमा हो गया। वादियुल क़ुरा, फ़दक, तैमा, तबूक सब एक-एक करके हथियार डालते चले गए, यहाँ तक कि अरब के सभी यहूदी इस्लामी राज्य की प्रजा बनकर रह गए। यह अवसर था जब अल्लाह ने इस सूरा में एक बार फिर उनको सम्बोधित किया और शायद यह अन्तिम सम्बोधन था जो क़ुरआन मजीद में उनसे किया गया। इसमें उन्हें सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं-

  1. तुमने इस रसूल को इसलिए मानने से इंकार कर दिया कि यह उस क़ौम में भेजा गया था जिसे तुम तुच्छ समझकर 'उम्मी' कहते हो। तुम्हारा निष्कृष्ट भ्रम यह था कि रसूल अनिवार्यतः तुम्हारी अपनी क़ौम ही का होना चाहिए और [यह कि] 'उम्मियों' में कभी कोई रसूल नहीं आ सकता। लेकिन अल्लाह ने इन्हीं उम्मियों में से एक रसूल उठाया है जो तुम्हारी आँखों के सामने उसकी किताब सुना रहा है, आत्माओं को विकसित कर रहा है और उन लोगों को सत्यमार्ग दिखा रहा है जिनकी पथभ्रष्टता का हाल तुम स्वयं भी जानते हो। यह अल्लाह की उदार कृपा है जिसे चाहे प्रदान करे।
  2. तुमको तौरात का वाहक बनाया था, मगर तुमने उसकी ज़िम्मेदारी को न समझा, न अदा की [यहाँ तक कि तुम] जान-बूझकर अल्लाह की आयतों को झुठलाने से भी बाज़ नहीं रहते, और इस पर भी तुम्हारा दावा यह है कि तुम अल्लाह के चहेते हो और रिसालत (पैग़म्बरी) की नेमत सदा के लिए तुम्हारे नाम लिख दी गई है।
  3. तुम अगर वाक़ई अल्लाह के चहेते होते और तुम्हें अगर विश्वास होता कि उसके यहाँ तुम्हारे लिए बड़े आदर और सम्मान एवं प्रतिष्ठा का स्थान सुरक्षित है तो तुम्हें मौत का ऐसा भय न होता कि अपमानजनक जीवन स्वीकार्य है, मगर मौत किसी तरह भी स्वीकार्य नहीं । तुम्हारी यह दशा आप ही इस बात का प्रमाण है कि अपनी करतूतों को तुम स्वयं जानते हो और तुम्हारी अन्तरात्मा ख़ूब जानती है कि इन करतूतों के साथ मरोगे तो अल्लाह के यहाँ इससे अधिक अपमानित होगे, जितने दुनिया में हो रहे हो।

दूसरा भाग इस सूरा में लाकर इसलिए सम्मिलित किया गया है कि अल्लाह ने यहूदियों के सब्त के मुक़ाबले में मुसलमानों को जुमुआ (जुमा) प्रदान किया है और अल्लाह मुसलमानों को सचेत करना चाहता है कि वे अपने जुमा के साथ वह मामला न करें जो यहूदियों ने सब्त के साथ किया था। यह भाग उस समय उतरा था जब मदीना में एक दिन ठीक जुमा की नमाज़ के वक़्त एक तिजारती क़ाफ़िला आया और उसके ढोल-ताशों की आवाज़ सुनकर 12 आदमियों के सिवा मस्जिदे-नबवी में तमाम मौजूद लोग क़ाफ़िले की ओर दौड़ गए। हालाँकि उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ख़ुतबा दे रहे थे। इसपर यह आदेश दिया गया कि जुमुआ की अज़ान होने के बाद हर प्रकार के क्रय-विक्रय और हर दूसरी व्यस्तता अवैध (हराम) है।

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سُورَةُ الجُمُعَةِ
62. अल-जुमुआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡمَلِكِ ٱلۡقُدُّوسِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) अल्लाह की तसबीह कर रही है हर वह चीज़़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़़ जो ज़मीन में है— सम्राट है अत्यन्त पवित्र, प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी।
هُوَ ٱلَّذِي بَعَثَ فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 1
(2) वही है जिसने उम्मियों1 के अन्दर एक रसूल ख़ुद उन्हीं में से उठाया, जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है, उनकी ज़िन्दगी सँवारता है और उनको किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है, हालाँकि इससे पहले वे खुली गुमराही में पड़े हुए थे।
1. यहाँ उम्मी का शब्द यहूदी पारिभाषिक शब्द के रूप में आया है और इसमें एक सूक्ष्म व्यंग्य निहित है। इसका अर्थ यह है कि जिन अरबों को यहूदी उपेक्षा के साथ उम्मी कहते हैं और अपने मुक़ाबले में हीन समझते हैं, उन्हीं में प्रभुत्वशाली एवं सर्वज्ञ अल्लाह ने एक रसूल उठाया है। वह ख़ुद नहीं उठ खड़ा हुआ है, बल्कि है उसका उठानेवाला वह है जो जगत् का सम्राट है, प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है, जिसकी शक्ति से लड़कर ये लोग अपना ही कुछ बिगाड़ेंगे, उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
وَءَاخَرِينَ مِنۡهُمۡ لَمَّا يَلۡحَقُواْ بِهِمۡۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(3) और (इस रसूल का भेजा जाना) उन दूसरे लोगों के लिए भी है जो अभी उनसे नहीं मिले हैं।2 अल्लाह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।3
2. अर्थात् हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) केवल अरब क़ौम तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया-भर की उन दूसरी क़ौमों और नस्लों के लिए भी है जो अभी आकर ईमानवालों में सम्मिलित नहीं हुई हैं, मगर आगे क़ियामत तक आनेवाली हैं।
3. अर्थात् यह उसकी सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता का चमत्कार है कि ऐसी अनघड़ उम्मी कौम में उसने ऐसा महान नबी पैदा किया जिसको शिक्षा और मार्गदर्शन इतना क्रान्तिकारी है, और फिर ऐसे विश्वव्यापी शाश्वत सिद्धान्तों से युक्त है जिनपर सम्पूर्ण मानव जाति मिलकर एक उम्मत (समुदाय) बन सकती है और सदा-सर्वदा उन सिद्धान्तों से मार्ग प्राप्त कर सकती है।
ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 3
(4) यह उसका फ़ज़्ल है, जिसे चाहता है देता है, और वह बड़ा फ़ज़्ल करनेवाला है।
مَثَلُ ٱلَّذِينَ حُمِّلُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ ثُمَّ لَمۡ يَحۡمِلُوهَا كَمَثَلِ ٱلۡحِمَارِ يَحۡمِلُ أَسۡفَارَۢاۚ بِئۡسَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 4
(5) जिन लोगों को तौरात का वाहक बनाया गया था, मगर उन्होंने उसका भार न उठाया, उनकी मिसाल उस गधे की-सी है जिसपर किताबें लदी हुई हों। इससे भी ज़्यादा बुरी मिसाल है उन लोगों की जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया है।4 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह मार्ग नहीं दिखाया करता।
4. अर्थात् इनकी हालत गधे से भी बुरी है। वह तो समझ बूझ नहीं रखता, इसलिए विवश है। मगर ये समझबूझ रखते हैं। तौरात को पढ़ते-पढ़ाते हैं। उसके अर्थ से अनभिज्ञ नहीं हैं। फिर भी ये उसके आदेशों से जानते हुए मुँह फेर रहे हैं, और उस नबी को मानने से जान-बूझकर इनकार कर रहे हैं जो तौरात के अनुसार बिलकुल सत्य पर हैं। ये न जानने के दोषी नहीं हैं बल्कि जान-बूझकर अल्लाह की आयतों को झुठलाने के अपराधी हैं।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ هَادُوٓاْ إِن زَعَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ أَوۡلِيَآءُ لِلَّهِ مِن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 5
(6) इनसे कहो, “ऐ लोगो जो यहूदी बन गए हो5, अगर तुम्हें यह घमण्ड है कि बाक़ी सब लोगों को छोड़कर बस तुम ही अल्लाह के चहेते हो तो मौत की कामना करो अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो।”6
5. यह नुकता भी ध्यान देने योग्य है। “ऐ यहूदियो” नहीं कहा, बल्कि “ऐ वे लोगो जो यहूदी बन गए हो”, या “जिन्होंने यहूदियत अपना ली है” कहा है। इसका कारण यह है कि मूल धर्म जो हज़रत मूसा (अलैहि०) और उनसे पहले और बाद के नबी लाए थे वह तो इस्लाम ही था। उन नबियों में से कोई भी यहूदी न था और न उनके समय में यहूदियत पैदा हुई थी। यह धर्म इस नाम के साथ बहुत बाद की पैदावार है।
6. अरब के यहूदी अपनी संख्या और शक्ति में मुसलमानों से किसी तरह कम न थे और साधनों की दृष्टि से बहुत बढ़-चढ़कर थे। लेकिन जिस चीज़़ ने इस असमानुपातिक मुक़ाबले में मुसलमानों को विजयी और यहूदियों को पराजित किया वह यह थी कि मुसलमान अल्लाह के मार्ग में मरने से डरना तो दूर, अपने दिल को गहराई से उनके अभिलाषी थे और सिर हथेली पर लिए हुए युद्ध क्षेत्र में उतरते थे। इसके विपरीत यहूदियों का हाल यह था कि वे किसी मार्ग में प्राण देने के लिए तैयार न थे, न अल्लाह के मार्ग में, न क़ौम के मार्ग में, न ख़ुद अपने प्राण और धन और प्रतिष्ठा के मार्ग में उन्हें सिर्फ़ जीवन अभीष्ट था. चाहे वह कैसा ही जीवन हो। इसी चीज़ ने उनको कायर बना दिया था।
وَلَا يَتَمَنَّوۡنَهُۥٓ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(7) लेकिन ये हरगिज़ उसकी कामना न करेंगे अपनी उन करतूतों के कारण जो ये कर चुके हैं, और अल्लाह इन ज़ालिमों को ख़ूब जानता है।
قُلۡ إِنَّ ٱلۡمَوۡتَ ٱلَّذِي تَفِرُّونَ مِنۡهُ فَإِنَّهُۥ مُلَٰقِيكُمۡۖ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) इनसे कहो, “जिस मौत से तुम भाग रहे हो वह तो तुम्हें आकर रहेगी। फिर तुम उसके सामने पेश किए जाओगे जो छिपे और खुले का जाननेवाला है, और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نُودِيَ لِلصَّلَوٰةِ مِن يَوۡمِ ٱلۡجُمُعَةِ فَٱسۡعَوۡاْ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَذَرُواْ ٱلۡبَيۡعَۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुमुआ के दिन तो अल्लाह के ज़िक्र की ओर दौड़ों और क्रय-विक्रय छोड़ दो7, यह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा है अगर तुम जानो।
7. इस आदेश में ज़िक्र से मुराद 'ख़ुतबा' (नमाज़ से पहले का भाषण) है, क्योंकि अज़ान के बाद पहला कर्म जो नबी (सल्ल०) करते थे वह नमाज़ नहीं, बल्कि खुतबा था, और नमाज़ आप हमेशा ख़ुतबे के बाद अदा करते थे। “अल्लाह के ज़िक्र की ओर दौड़ो” का अर्थ यह नहीं है कि भागते हुए आओ, बल्कि इसका अर्थ यह है कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचने की कोशिश करो। “क्रय-विक्रय छोड़ दो” का अर्थ सिर्फ़ क्रय-विक्रय हो छोड़ना नहीं है, बल्कि नमाज़ के लिए जाने की चिन्ता और आयोजन के सिवा हर अन्य व्यस्तता छोड़ देनी है। इस्लाम के फ़क़ीह इसपर एकमत है कि जुमुआ की अज़ान के बाद क्रय-विक्रय और हर तरह का कारोबार अवैध है। अलबत्ता हदीस के अनुसार बच्चों, औरतों, ग़ुलामों, बीमारों और मुसाफ़िरों पर जुमुआ अनिवार्य नहीं किया गया है।
فَإِذَا قُضِيَتِ ٱلصَّلَوٰةُ فَٱنتَشِرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 9
(10) फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ और अल्लाह का फ़ज़्ल तलाश करो।8 और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो, शायद कि तुम्हें सफलता प्राप्त हो जाए।9
8. इसका अर्थ यह नहीं है कि जुमुआ की नमाज़ के बाद ज़मीन में फैल जाना और रोज़ी की तलाश में लग जाना आवश्यक है। बल्कि यह कथन इजाज़त (अनुमति) के अर्थ में है। चूँकि जुमुआ की अज़ान सुनकर सब कारोबार छोड़ देने का आदेश दिया गया था, इसलिए कहा गया कि नमाज़ समाप्त होने के बाद तुम्हें इजाज़त है कि फैल जाओ और अपने जो कारोबार भी करना चाहो, करो। यह ऐसा ही है जैसे 'इहराम' की हालत में शिकार को वर्जित करने के बाद कहा जब तुम इहराम खोल दो तो शिकार करो (सूरा 5 माइदा, आयत 2) । इसका यह अर्थ नहीं है कि ज़रूर शिकार करो, बल्कि यह है कि इसके बाद तुम शिकार कर सकते हो। अतः जो लोग इस आयत से यह सिद्ध करते हैं कि क़ुरआन के अनुसार इस्लाम में जुमुआ की छुट्टी नहीं है वे ग़लत कहते हैं। सप्ताह में एक दिन छुट्टी करनी हो तो मुसलमान को जुमुआ के दिन करनी चाहिए जिस तरह यहूदी शनिवार को और ईसाई रविवार को करते हैं।
9. इसी तरह के अवसरों पर कदाचित् (शायद) का शब्द प्रयोग करने का अर्थ यह नहीं होता कि अल्लाह को (अल्लाह पनाह में रखे) कोई सन्देह हो रहा है, बल्कि यह वास्तव में बयान का शाहाना (राजसी) अन्दाज़ है। यह ऐसा ही है जैसे कोई दयालु स्वामी अपने सेवक से कहे कि तुम अमुक सेवा कार्य कर दो, शायद कि तुम्हें उन्नति मिल जाए। इसमें एक सूक्ष्म वादा निहित होता है जिसकी आशा में सेवक दिल लगाकर शौक के साथ वह कार्य पूरा करता है।
وَإِذَا رَأَوۡاْ تِجَٰرَةً أَوۡ لَهۡوًا ٱنفَضُّوٓاْ إِلَيۡهَا وَتَرَكُوكَ قَآئِمٗاۚ قُلۡ مَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ مِّنَ ٱللَّهۡوِ وَمِنَ ٱلتِّجَٰرَةِۚ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 10
(11) और जब उन्होंने व्यापार और खेल-तमाशा होते देखा तो उसकी ओर लपक गए और तुम्हें खड़ा छोड़ दिया।10 इनसे कहो, जो कुछ अल्लाह के पास है वह खेल-तमाशे और समाचार से अच्छा है।11 और अल्लाह सबसे अच्छी रोज़ी देनेवाला है।12
10. यह मदीने के आरम्भिक काल की घटना है। सीरिया से एक तिजारती क़ाफ़िला ठीक जुमुआ की नमाज़ के वक्त आया और उसने ढोल-ताशे बजाने शुरू किए ताकि बस्ती के लोगों को उसके आने की सूचना मिल जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल) उस समय 'ख़ुत्बा' दे रहे थे। ढोल-ताशों को आवाजें सुनकर लोग विकल हो गए और 12 आदमियों के सिवा बाक़ी क़ाफ़िले की ओर दौड़ गए।
11. यह वाक्य बता रहा है कि 'सहाबा' (रज़ि०) से जो ग़लती हुई थी वह किस प्रकार की थी। यदि (अल्लाह अपनी पनाह में रखे) उसका कारण ईमान की कमी और आख़िरत की अपेक्षा जानते बूझते दुनिया को प्राथमिकता देनी होती हो अल्लाह के प्रकोप और ताड़ना का ढंग कुछ और होता, लेकिन चूँकि ऐसी कोई ख़राबी वहाँ न थी, बल्कि जो कुछ हुआ था प्रशिक्षण की कमी के कारण हुआ था, इसलिए पहले शिक्षण रूप से जुमुआ के नियम बताए गए, फिर उस ग़लती पर पकड़ करके प्रतिपालक के ढंग से समझाया कि जुमुआ का खुतबा सुनने और उसकी नमाज़ अदा करने पर जो कुछ तुम्हें अल्लाह के यहाँ मिलेगा वह इस दुनिया की तिजारत और खेल-तमाशों से अच्छा है।
12. अर्थात् इस दुनिया में उपलक्ष्य रूप में जो भी रोज़ी पहुँचाने का माध्यम बनते हैं उन सबसे अच्छा रोज़ी देनेवाला अल्लाह है।