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سُورَةُ المُدَّثِّرِ

74. अल-मुद्दस्सिर

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुद्दस्सिर' (ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।

उतरने का समय

इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली वह्य' (प्रकाशना) जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई वह "पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया” से लेकर “जिसे वह न जानता था” (सूरा-96 अल-अलक़) तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल०) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। [इस] फ़तरतुल वह्य (वह्य के बन्द रहने की अवधि) का उल्लेख करते हुए [अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वयं कहा है कि] “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रिश्ता जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर बैठा हुआ है । मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।' अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की, 'ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले...।' फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरित होनी प्रारम्भ हो गई" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नदे-अहमद, इब्ने-जरीर)। सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम-खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।

विषय और वार्ता

पहली वह्य (प्रकाशना) में जो सूरा-96 (अलक़) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी, आप (सल्ल०) को यह नहीं बताया गया था कि आप (सल्ल०) किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आप (सल्ल०) को करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आप (सल्ल.) को कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्राप्त करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुन: वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आप (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया कि आप उठें और ईश्वर के पैदा किए हुए लोगों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिसपर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अब जो कार्य आप (सल्ल०) को करना है उसे यह अपेक्षित है कि आप (सल्ल०) का जीवन हर दृष्टि से [अत्यन्त पवित्र, पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।] इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आ गया। क़ुरैश के सरदारों ने [इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ] एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद-बिन-मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कहीं तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें। [इसपर किसी ने आप (सल्ल०) को काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी, किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस] ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम! उस वाणी में बड़ा माधुर्य है; उसकी जड़ बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ फलदार हैं। [अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं] सोचकर बोला, "सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि तुम अरब के लोगों से कहो कि यह व्यक्ति जादूगर है, यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई, पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से जुदा कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। [और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।] किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, (सीरत इब्ने-हिशाम, प्रथम भाग, पृ० 288-289) । यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है—

आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को [उनके बुरे परिणाम से] सावधान किया गया है। आयत 11 से 26 तक वलीद-बिन-मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थीं और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे इनाम दिया जाए, जबकि अब यह इनाम का नहीं बल्कि नरक का भागी हो चुका है। इसके बाद आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं। फिर आयत 49 से 53 में इस्लाम-विरोधियों के रोष की अस्ल जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं । अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। क़ुरआन सामान्य जन के लिए एक उपदेश है जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले।

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سُورَةُ المُدَّثِّرِ
74. अल-मुदस्सिर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُدَّثِّرُ
(1) ऐ1 ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले,
1. इस सूरा की आरंभिक सात आयतें वे हैं जिनमें सबसे पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को इस्लाम के प्रचार का आदेश दिया गया। यह “इक़रा बिस्मि रब्बिकल-लज़ी ख़लक़” (पढ़ो, अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया) के बाद दूसरी वह्य है जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई।
قُمۡ فَأَنذِرۡ ۝ 1
(2) उठो और ख़बरदार करो।
وَرَبَّكَ فَكَبِّرۡ ۝ 2
(3) और अपने रब की बड़ाई का एलान करो।
وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ ۝ 3
(4) और अपने कपड़े स्वच्छ रखो।
وَٱلرُّجۡزَ فَٱهۡجُرۡ ۝ 4
(5) और गन्दगी से दूर रहो।
وَلَا تَمۡنُن تَسۡتَكۡثِرُ ۝ 5
(6) और एहसान न करो अधिक प्राप्त करने के लिए।
وَلِرَبِّكَ فَٱصۡبِرۡ ۝ 6
(7) और अपने रब के लिए सब (धैर्य) करो।
فَإِذَا نُقِرَ فِي ٱلنَّاقُورِ ۝ 7
(8) अच्छा, जब2 नरसिंघा में फूँक मारी जाएगी,
2. यह अंश आरंभिक आयतों के कुछ महीनों के पश्चात् उस समय अवतरित हुआ था जब नबी (सल्ल०) की ओर से खुल्लम-खुल्ला इस्लाम का प्रचार आरंभ हो जाने के बाद पहली बार हज का समय आया और क़ुरैश के सरदारों ने एक सम्मेलन करके यह तय किया कि बाहर से आनेवाले हाजियों को क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) से बदगुमान करने के लिए प्रोपगंडे का एक भारी अभियान चलाया जाए।
فَذَٰلِكَ يَوۡمَئِذٖ يَوۡمٌ عَسِيرٌ ۝ 8
(9) वह दिन बड़ा ही कठिन होगा,
عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ غَيۡرُ يَسِيرٖ ۝ 9
(10) इनकार करनेवालों के लिए हलका न होगा।
ذَرۡنِي وَمَنۡ خَلَقۡتُ وَحِيدٗا ۝ 10
(11) छोड़ दो मुझे और उस व्यक्ति को जिसे मैंने अकेला पैदा किया3,
3. इससे अभिप्रेत वलीद-बिन-मुग़ीरह है जो दिल में क़ुरआन के ईश्वरीय वाणी होने को स्वीकार कर चुका था, मगर मक्का में अपनी सरदारी क़ायम रखने के लिए उसने उपर्युक्त सम्मेलन में काफ़िरों को यह मशवरा दिया कि नबी (सल्ल०) को जादूगर और क़ुरआन को जादू मशहूर किया जाए।
وَجَعَلۡتُ لَهُۥ مَالٗا مَّمۡدُودٗا ۝ 11
(12) बहुत-सा धन उसको दिया
وَبَنِينَ شُهُودٗا ۝ 12
(13) उसके साथ उपस्थित रहनेवाले बेटे दिए,
وَمَهَّدتُّ لَهُۥ تَمۡهِيدٗا ۝ 13
(14) और उसके लिए रियासत का मार्ग प्रशस्त किया,
ثُمَّ يَطۡمَعُ أَنۡ أَزِيدَ ۝ 14
(15) फिर वह लोभ रखता है कि मैं उसे और अधिक दूँ।
كَلَّآۖ إِنَّهُۥ كَانَ لِأٓيَٰتِنَا عَنِيدٗا ۝ 15
(16) कदापि नहीं, वह हमारी आयतों से बैर रखता है।
سَأُرۡهِقُهُۥ صَعُودًا ۝ 16
(17) मैं तो उसे शीघ्र एक कठिन चढ़ाई चढ़वाऊँगा।
إِنَّهُۥ فَكَّرَ وَقَدَّرَ ۝ 17
(18) उसने सोचा और कुछ बात बनाने की कोशिश की।
فَقُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 18
(19) तो अल्लाह की मार उसपर कैसी बात बनाने की कोशिश की।
ثُمَّ قُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 19
(20) हाँ, अल्लाह की मार उसपर, कैसी बात बनाने की कोशिश की।
ثُمَّ نَظَرَ ۝ 20
(21) फिर (लोगों की ओर देखा।
ثُمَّ عَبَسَ وَبَسَرَ ۝ 21
(22) फिर पेशानी सिकोड़ी और मुँह बनाया।
ثُمَّ أَدۡبَرَ وَٱسۡتَكۡبَرَ ۝ 22
(23) फिर पलटा और घमंड में पड़ गया।
فَقَالَ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ يُؤۡثَرُ ۝ 23
(24) अन्ततः बोला कि यह कुछ नहीं मगर एक जादू जो पहले से चला आ रहा है,
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا قَوۡلُ ٱلۡبَشَرِ ۝ 24
(25) यह तो एक मानवीय वाणी है।
سَأُصۡلِيهِ سَقَرَ ۝ 25
(26) शीघ्र ही मैं उसे नरक में झोंक दूँगा।
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا سَقَرُ ۝ 26
(27) और तुम क्या जानो कि क्या है वह नरक?
لَا تُبۡقِي وَلَا تَذَرُ ۝ 27
(28) न बाक़ी रखे न छोड़े।4
4. अर्थात् वह यातना के योग्य लोगों में से किसी को बाक़ी न रहने देगा जो उसको पकड़ में आए बिना रह जाए, और जो भी उसकी पकड़ में आएगा उसे यातना दिए बिना न छोड़ेगा।
لَوَّاحَةٞ لِّلۡبَشَرِ ۝ 28
(29) खाल झुलस देनेवाला।
عَلَيۡهَا تِسۡعَةَ عَشَرَ ۝ 29
(30) उन्नीस कार्यकर्ता उसपर नियुक्त है—
وَمَا جَعَلۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ إِلَّا مَلَٰٓئِكَةٗۖ وَمَا جَعَلۡنَا عِدَّتَهُمۡ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيَسۡتَيۡقِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَيَزۡدَادَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِيمَٰنٗا وَلَا يَرۡتَابَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَلِيَقُولَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡكَٰفِرُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَمَا يَعۡلَمُ جُنُودَ رَبِّكَ إِلَّا هُوَۚ وَمَا هِيَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡبَشَرِ ۝ 30
(31) हमने5 नरक के ये कार्यकर्त्ता फ़रिश्ते बनाए हैं, और उनकी संख्या को इनकार करनेवालों के लिए आज़माइश बना दिया है, ताकि किताबवालों को यक़ीन हो जाए और ईमानवालों का ईमान बढ़े, और किताबवाले और ईमानवाले किसी सन्देह में न रहें6 और दिल के बीमार और इनकार करनेवाले यह कहें कि भला अल्लाह का इस अद्भुत बात से क्या मतलब हो सकता है। इस प्रकार अल्लाह जिसे चाहता है पथभ्रष्ट कर देता है और जिसे चाहता है मार्ग दिखा देता है। और तेरे रब की सेनाओं को स्वयं उसके सिवा कोई नहीं जानता और इस नरक का उल्लेख इसके सिवा किसी उद्देश्य से नहीं किया गया कि लोगों को इससे नसीहत हो।
5. यहाँ से लेकर “तेरे रब की सेनाओं को स्वयं उसके सिवा कोई नहीं जानता” तक का पूरा वार्तांश एक संविष्ट वाक्य है जो वार्ता के बीच में वाणी के क्रम को तोड़कर उन आपत्ति करनेवालों के उत्तर में कहा गया है, जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुख से यह सुनकर कि नरक के कार्यकर्ताओं की संख्या केवल 19 होगी, इसकी हँसी उड़ानी शुरू कर दी थी। उनको यह बात विचित्र मालूम हुई कि एक ओर तो हमसे यह कहा जा रहा है कि आदम (अलैहि०) के समय से लेकर क़ियामत तक संसार में जितने मनुष्यों ने भी कुफ़्र (इनकार) और बड़े गुनाह किए हैं वे जहन्नम में डाले जाएँगे, और दूसरी ओर हमें यह सूचना दी जा रही है कि इतने बड़े जहन्नम में इतने बेशुमार मनुष्यों को यातना देने के लिए केवल 19 कार्यकर्ता नियुक्त होंगे।
6. चूँकि किताब वाले और ईमानवाले फ़रिश्तों को असाधारण शक्तियों से परिचित हैं इसलिए उन्हें इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि 19 फ़रिश्ते नरक का प्रबन्ध करने के लिए काफ़ी हैं।
كَلَّا وَٱلۡقَمَرِ ۝ 31
(32) कदापि नहीं7, क़सम है चाँद की,
وَٱلَّيۡلِ إِذۡ أَدۡبَرَ ۝ 32
(33) और रात को जबकि वह पलटती है,
وَٱلصُّبۡحِ إِذَآ أَسۡفَرَ ۝ 33
(34) और सुबह की जबकि यह रौशन होती है,
إِنَّهَا لَإِحۡدَى ٱلۡكُبَرِ ۝ 34
(35) यह जहन्नम (नरक) भी बड़ी चीज़़ों में से एक है,8
8.अर्थात् यह कोई हवाई बात नहीं है जिसकी इस प्रकार हँसी उड़ाई जाए। अर्थात् जिस प्रकार चाँद और रात और दिन अल्लाह की सामर्थ्य के महान चिह्न हैं उसी प्रकार जहन्नम (नरक) भी महान सामर्थ्य में से एक चीज़ है।
نَذِيرٗا لِّلۡبَشَرِ ۝ 35
(36) इनसानों के लिए डरावा,
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَتَقَدَّمَ أَوۡ يَتَأَخَّرَ ۝ 36
(37) तुममें से हर उस व्यक्ति के लिए डरावा जो आगे बढ़ना चाहे या पीछे रह जाना चाहे।
كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ رَهِينَةٌ ۝ 37
(38) हर व्यक्ति अपनी कमाई के बदले रेहन है,
إِلَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡيَمِينِ ۝ 38
(39) दाएँ बाजूवालों के सिवा,
فِي جَنَّٰتٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 39
عَنِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 40
(40-41) जो जन्नतों में होंगे। वे अपराधियों से पूछेंगे,9
9. अर्थात् जन्नत में बैठे-बैठे वे जहन्नम के लोगों से बात करेंगे और यह प्रश्न करेंगे।
مَا سَلَكَكُمۡ فِي سَقَرَ ۝ 41
(42) “तुम्हें क्या चीज़ नरक में ले गई?”
قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 42
(43) वे कहेंगे: “हम नमाज़ पढ़नेवालों में से न थे,
وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِينَ ۝ 43
(44) और मुहताज को खाना नहीं खिलाते थे,
وَكُنَّا نَخُوضُ مَعَ ٱلۡخَآئِضِينَ ۝ 44
(45) और सत्य के विरुद्ध बातें बनानेवालों के साथ मिलकर हम भी बातें बनाने लगते थे,
وَكُنَّا نُكَذِّبُ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 45
(46) और बदला दिए जाने के दिन को झूठ ठहराते थे,
حَتَّىٰٓ أَتَىٰنَا ٱلۡيَقِينُ ۝ 46
(47) यहाँ तक कि हमें उस विश्वसनीय चीज़़ से मामला आ पड़ा।”
فَمَا تَنفَعُهُمۡ شَفَٰعَةُ ٱلشَّٰفِعِينَ ۝ 47
(48) उस समय सिफ़ारिश करनेवालों की कोई सिफ़ारिश उनके किसी काम न आएगी।
فَمَا لَهُمۡ عَنِ ٱلتَّذۡكِرَةِ مُعۡرِضِينَ ۝ 48
(49) आख़िर इन लोगो को क्या हो गया है कि ये इस नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं,
كَأَنَّهُمۡ حُمُرٞ مُّسۡتَنفِرَةٞ ۝ 49
فَرَّتۡ مِن قَسۡوَرَةِۭ ۝ 50
(50-51) मानो ये जंगली गधे है जो शेर से डरकर भाग पड़े हैं।10
10. यह एक अरबी मुहावरा है। जंगली गधो की यह विशेषता होती है कि खतरा भाँपते ही वे इतना बदहवास होकर भागते है कि कोई दूसरा जानवर इस तरह नहीं भागता।
بَلۡ يُرِيدُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُؤۡتَىٰ صُحُفٗا مُّنَشَّرَةٗ ۝ 51
(52) बल्कि इनमें से तो हर एक यह चाहता है कि उसके नाम खुले पत्र भेजे जाएँ।11
11. अर्थात् ये चाहते हैं कि अल्लाह ने यदि वास्तव में मुहम्मद (सल्ल०) को नबी नियुक्त किया है तो वह मक्का के एक-एक सरदार और एक-एक शैख़ के नाम एक पत्र लिखकर भेजे कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे नबी हैं, तुम उनका अनुसरण स्वीकार करो।
كَلَّاۖ بَل لَّا يَخَافُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 52
(53) कदापि नहीं, असल बात यह है कि ये आख़िरत (परलोक) का डर नहीं रखते,
كَلَّآ إِنَّهُۥ تَذۡكِرَةٞ ۝ 53
(54) कदापि नहीं12 यह तो एक नसीहत है,
12. यानी उनका ऐसा कोई मुतालबा हरगिज पूरा न किया जाएगा।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 54
(55) अब जिसका जी चाहे इससे शिक्षा प्राप्त कर ले,
وَمَا يَذۡكُرُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ هُوَ أَهۡلُ ٱلتَّقۡوَىٰ وَأَهۡلُ ٱلۡمَغۡفِرَةِ ۝ 55
(56) और ये कोई शिक्षा प्राप्त न करेंगे यह और बात है कि अल्लाह ही ऐसा चाहे। वह इसका हक़दार है कि उसका डर रखा जाए और वह इस योग्य है कि (डर रखनेवालों को) क्षमा कर दे।