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سُورَةُ العَنكَبُوتِ

29. अल-अन‌्कबूत 

(मवका में उतरी-आयातें 69)

परिचय

नाम

आयत 41 में आए शब्द 'जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिए है उनकी मिसाल मकड़ी (अन‌्कबूत) जैसी है' से लिया गया है। अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अन‌्कबूत' आया है।

उतरने का समय

आयत 56 से 60 तक साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा हबशा की हिजरत से कुछ पहले उतरी थी। शेष विषयों की आन्तरिक गवाही भी इसी की पुष्टि करती है, क्योंकि पृष्ठभूमि में उसी समय के हालात झलकते नज़र आते हैं।

विषय और वार्ताएँ

सूरा को पढ़ते हुए महसूस होता है कि इसके उतरने का समय मक्का मुअज़्ज़मा में मुसलमानों पर बड़ी मुसीबतों और परेशानियों का समय था। [उस समय] अल्लाह ने यह सूरा एक ओर सच्चे ईमानवाले लोगों में संकल्प, हौसला और धैर्य पैदा करने के लिए और दूसरी ओर कमज़ोर ईमानवाले लोगों को शर्म दिलाने के लिए उतारी। इसके साथ मक्का के विधर्मियों को भी इसमें (सत्य-विरोध के अंजाम के बारे में) कठोर धमकी दी गई है। इस सिलसिले में उन सवालों का जवाब भी दिया गया है जिनका कुछ मुस्लिम नौजवानों को उस समय सामना करना पड़ रहा था। जैसे उनके माँ-बाप उनपर ज़ोर डालते थे कि हमारे दीन पर क़ायम रहो। जिस क़ुरआन पर तुम ईमान लाए हो, उसमें भी तो यही लिखा है कि माँ-बाप का हक़ सबसे ज़्यादा है, तो जो कुछ हम कहते हैं उसे मानो, वरना स्वयं अपने ही ईमान के विरुद्ध काम करोगे। इसका उत्तर आयत 8 में दिया गया है। इसी तरह कुछ नव-मुस्लिमों से उनके क़बीले के लोग कहते थे कि अज़ाब-सवाब हमारी गर्दन पर, तुम हमारा कहना मानो और इस आदमी से अलग हो जाओ। [अल्लाह के यहाँ इसके उत्तरदायी हम होंगे।] इसका जवाब आयत 12-13 में दिया गया है। जो क़िस्से इस सूरा में बयान किए गए हैं उनमें भी अधिकतर यही पहलू उभरा हुआ है कि पिछले नबियों को देखो, कैसी-कैसी सख़्तियाँ उनपर गुज़रीं और कितनी-कितनी मुद्दत वे सताए गए। फिर अन्तत: अल्लाह की ओर से उनकी मदद हुई, इसलिए घबराओ नहीं, अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी, मगर आज़माइश का एक दौर गुज़रना बहुत ज़रूरी है। फिर मुसलमानों को निर्देश दिया गया कि अगर ज़ुल्मो-सितम तुम्हारे लिए असह्य हो जाए, तो ईमान छोड़ने के बजाय घर-बार छोड़कर निकल जाओ। अल्लाह की ज़मीन बहुत बड़ी है। जहाँ अल्लाह की बन्दगी कर सको, वहाँ चले जाओ। इन सब बातों के साथ विधर्मियों को समझाने का पहलू भी छूटने नहीं पाया है, बल्कि तौहीद और आख़िरत दोनों सच्चाइयों को प्रमाणों के साथ उनके मन में बिठाने की कोशिश की गई है।

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سُورَةُ العَنكَبُوتِ
29. अल-अन्‌कबूत
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम०।
أَحَسِبَ ٱلنَّاسُ أَن يُتۡرَكُوٓاْ أَن يَقُولُوٓاْ ءَامَنَّا وَهُمۡ لَا يُفۡتَنُونَ ۝ 1
(2) क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि वे बस इतना कहने पर छोड़ दिए जाएँगे कि “हम ईमान लाए” और उनको आज़माया न जाएगा?
وَلَقَدۡ فَتَنَّا ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ فَلَيَعۡلَمَنَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْ وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 2
(3) हालाँकि हम उन सब लोगों की आज़माइश कर चुके हैं जो इनसे पहले गुज़रे हैं। अल्लाह को तो ज़रूर यह देखना है कि सच्चे कौन है और झूठे कौन।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَسۡبِقُونَاۚ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 3
(4) और क्या वे लोग जो बुरी हरकतें कर रहे है1 यह समझे बैठे हैं कि वे हमसे बाज़ी ले जाएँगे? बड़ा ग़लत हुक्म है जो वे लगा रहे हैं।
1. वर्णन-शैली से स्पष्ट है कि इन लोगों से मुराद वे ज़ालिम हैं जो ईमान लानेवालों पर ज़ुल्म कर रहे थे और इस्लाम को नीचा दिखाने के लिए बुरे से बुरे हथकण्डे अपना रहे थे।
مَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ ٱللَّهِ فَإِنَّ أَجَلَ ٱللَّهِ لَأٓتٖۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 4
(5) जो कोई अल्लाह से मिलने की आशा रखता हो (उसे मालूम होना चाहिए कि) अल्लाह का नियत किया हुआ समय आने ही वाला है, और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَمَن جَٰهَدَ فَإِنَّمَا يُجَٰهِدُ لِنَفۡسِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 5
(6) जो व्यक्ति भी जान तोड़ कोशिश करेगा अपने ही भले के लिए करेगा।2 अल्लाह यक़ीनन दुनिया-जहानवालों से बेनियाज़ (निस्पृह) है?3
2. जान तोड़ कोशिश से मुराद है अधर्मियों के मुक़ाबले में सत्य धर्म की ध्वजा को ऊँचा करने और ऊँचा रखने के लिए जान लड़ाना।
3. अर्थात् अल्लाह जान लड़ाने की यह माँग तुमसे इसलिए नहीं कर रहा है कि उसकी अपनी कोई ज़रूरत (अल्लाह पनाह में रखे) इससे अटकी हुई है, बल्कि यह तुम्हारी अपनी नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति का साधन है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَحۡسَنَ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 6
(7) और जो लोग ईमान लाएँगे और अच्छे कर्म करेंगे उनकी बुराइयों हम उनसे दूर कर देंगे और उन्हें उनके उत्तम कर्मों का बदला देंगे।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ حُسۡنٗاۖ وَإِن جَٰهَدَاكَ لِتُشۡرِكَ بِي مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٞ فَلَا تُطِعۡهُمَآۚ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) हमने इनसान को ताकीद की कि अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करे। लेकिन अगर वे तुझपर ज़ोर डालें कि तू मेरे साथ किसी ऐसे (उपास्य) को भागीदार ठहराए जिसे तू (मेरे भागीदार के रूप में) नहीं जानता तो उनका कहना न मान4। मेरी ही ओर तुम सबको पलटकर आना है, फिर में तुमको बता दूँगा कि तुम क्या करते रहे हो।
4. जो नौजवान मक्का में ईमान लाए थे, उनके माँ-बाप उनपर दबाव डाल रहे थे कि वे ईमान से बाज़ आ जाएँ। इसपर कहा गया कि माँ-बाप के जो हक़ हैं वे अपनी जगह पर, मगर उनको यह हक़ नहीं है कि अल्लाह के मार्ग से औलाद को रोकें।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُدۡخِلَنَّهُمۡ فِي ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 8
(9) और जो लोग ईमान लाए होंगे और जिन्होंने अच्छे कर्म किए होंगे उनको हम ज़रूर अच्छों में सम्मिलित करेंगे।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ فَإِذَآ أُوذِيَ فِي ٱللَّهِ جَعَلَ فِتۡنَةَ ٱلنَّاسِ كَعَذَابِ ٱللَّهِۖ وَلَئِن جَآءَ نَصۡرٞ مِّن رَّبِّكَ لَيَقُولُنَّ إِنَّا كُنَّا مَعَكُمۡۚ أَوَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَعۡلَمَ بِمَا فِي صُدُورِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 9
(10) लोगों में से कोई ऐसा है जो कहता है कि हम ईमान लाए अल्लाह पर। मगर जब वह अल्लाह के मामले में सताया गया तो उसने लोगों की डाली हुई आज़माइश को अल्लाह के अज्ञान की तरह समझ लिया। अब अगर तेरे रब की ओर से विजय और मदद आ गई तो यही व्यक्ति कहेगा कि “हम तो तुम्हारे साथ थे।” क्या दुनियावालों के दिलों के हाल से अल्लाह अच्छी तरह परिचित नहीं है?
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّبِعُواْ سَبِيلَنَا وَلۡنَحۡمِلۡ خَطَٰيَٰكُمۡ وَمَا هُم بِحَٰمِلِينَ مِنۡ خَطَٰيَٰهُم مِّن شَيۡءٍۖ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 10
(12) वे इनकार करनेवाले लोग ईमान लानेवालों से कहते हैं कि तुम हमारे मार्ग पर चलो और तुम्हारी ख़ताओं को हम अपने ऊपर ले लेंगे। हालाँकि उनकी ख़ताओं में से कुछ भी वे अपने ऊपर लेनेवाले नहीं हैं, वे बिलकुल झूठ कहते हैं।
وَلَيَحۡمِلُنَّ أَثۡقَالَهُمۡ وَأَثۡقَالٗا مَّعَ أَثۡقَالِهِمۡۖ وَلَيُسۡـَٔلُنَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَمَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 11
(13) हाँ, ज़रूर वे अपने बोझ भी उठाएँगे और अपने बोझों के साथ दूसरे बहुत-से बोझ भी5 और क़ियामत के दिन यक़ीनन उनसे उन मिथ्यारोपणों के बारे में पूछा जाएगा जो वे लगाते रहे हैं।
5. अर्थात् एक बोझ ख़ुद गुमराह होने का और दूसरे बोझ दूसरों को गुमराह करने या गुमराही पर बाध्य करने के।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَلَبِثَ فِيهِمۡ أَلۡفَ سَنَةٍ إِلَّا خَمۡسِينَ عَامٗا فَأَخَذَهُمُ ٱلطُّوفَانُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 12
(14) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा और वह पचास कम एक हज़ार वर्ष उनके बीच रहा। आख़िरकार उन लोगों को तूफ़ान ने आ घेरा इस हाल में कि वे ज़ालिम थे।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَصۡحَٰبَ ٱلسَّفِينَةِ وَجَعَلۡنَٰهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 13
(15) फिर नूह को और नाववालों को हमने बचा लिया और उसे दुनियावालों के लिए शिक्षा का एक चिह्न बनाकर रख दिया।6
6. अर्थात् उस नाव को या नूह (अलैहि०) की क़ौम पर अज़ाब की इस घटना को शिक्षा का चिह्न बना दिया।
وَإِبۡرَٰهِيمَ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱتَّقُوهُۖ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 14
(16) और इबराहीम को भेजा जबकि उसने अपनी क़ौमवालों से कहा “अल्लाह की बन्दगी करो और उससे डरो। यह तुम्हारे लिए अच्छा है अगर तुम जानो।
إِنَّمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا وَتَخۡلُقُونَ إِفۡكًاۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ لَكُمۡ رِزۡقٗا فَٱبۡتَغُواْ عِندَ ٱللَّهِ ٱلرِّزۡقَ وَٱعۡبُدُوهُ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥٓۖ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 15
(17) तुम अल्लाह को छोड़कर जिन्हें पूज रहे हो वे तो सिर्फ़ मूर्तियाँ हैं और तुम एक झूठ गढ़ रहे हो। वास्तव में अल्लाह के सिवा जिनकी तुम पूजा करते हो वे तुम्हें कोई रोज़ी भी देने का अधिकार नहीं रखते। अल्लाह से रोज़ी माँगो और उसी की बन्दगी करो और उसके आगे कृतज्ञता दिखाओ, उसी की ओर तुम पलटाए जानेवाले हो।
وَإِن تُكَذِّبُواْ فَقَدۡ كَذَّبَ أُمَمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡۖ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 16
(18) और अगर तुम झुठलाते हो तो तुमसे पहले बहुत-सी क़ौमें झुला चुकी है। और रसूल पर साफ़-साफ़ सन्देश पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।"
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ كَيۡفَ يُبۡدِئُ ٱللَّهُ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥٓۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 17
(19) क्या इन लोगों ने कभी देखा ही नहीं है कि किस तरह अल्लाह पैदाइश का आरंभ करता है, फिर उसकी पुनरावृत्ति करता है? यक़ीनन यह (पुनरावृत्ति तो) अल्लाह के लिए बहुत आसान है।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ بَدَأَ ٱلۡخَلۡقَۚ ثُمَّ ٱللَّهُ يُنشِئُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأٓخِرَةَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 18
(20) इनसे कहो कि ज़मीन में चलो फिरो और देखो कि उसने किस तरह पैदाइश का आरंभ किया है, फिर अल्लाह दूसरी बार भी ज़िन्दगी प्रदान करेगा। यक़ीनन अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَرۡحَمُ مَن يَشَآءُۖ وَإِلَيۡهِ تُقۡلَبُونَ ۝ 19
(21) जिसे चाहे सज़ा दे और जिसपर चाहे दया करे, उसी की ओर तुम फेरे जानेवाले हो।
وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 20
(22) तुम न ज़मीन में विवश करनेवाले हो न आसमान में, और अल्लाह से बचानेवाला कोई संरक्षक और सहायक तुम्हारे लिए नहीं है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَلِقَآئِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يَئِسُواْ مِن رَّحۡمَتِي وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 21
(23) जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का और उससे मिलने का इनकार किया है वे मेरी दयालुता से निराश हो चुके हैं7 और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
7. अर्थात् उनका कोई हिस्सा मेरी दयालुता में नहीं है। उनके लिए कोई गुंजाइश इस बात की नहीं है कि वे मेरो दयालुता में से हिस्सा पाने की उम्मीद रख सकें। और जब उन्होंने आख़िरत ही का इनकार कर दिया और यह स्वीकार ही न किया कि उन्हें कभी अल्लाह के आगे पेश होना है तो इसका अर्थ यह है कि उन्होंने अल्लाह के इनाम और माफ़ी के साथ उम्मीद का कोई नाता सिरे से रखा ही नहीं है।
فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱقۡتُلُوهُ أَوۡ حَرِّقُوهُ فَأَنجَىٰهُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلنَّارِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 22
(24) फिर इबराहीम की क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, “मार डालो इसे या जला डालो इसको।” आख़िरकार अल्लाह ने उसे आग से बचा लिया, यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लानेवाले हैं।
وَقَالَ إِنَّمَا ٱتَّخَذۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا مَّوَدَّةَ بَيۡنِكُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكۡفُرُ بَعۡضُكُم بِبَعۡضٖ وَيَلۡعَنُ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا وَمَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 23
(25) और उसने कहा, “तुमने दुनिया की ज़िन्दगी में तो अल्लाह को छोड़कर मूर्तियों को अपने बीच प्रेम का साधन बना लिया है8 मगर क़ियामत के दिन तुम एक-दूसरे का इनकार और एक-दूसरे पर लानत करोगे और आग तुम्हारा ठिकाना होगी और कोई तुम्हारा सहायक न होगा।”
8. अर्थात् तुमने ईश-भक्ति के बदले मूर्तिपूजा के आधार पर अपने सामाजिक जीवन का निर्माण कर लिया है जो दुनिया की ज़िन्दगी को सीमा तक तुम्हारा जातीय संगठन कर सकता है। इसलिए कि यहाँ किसी आस्था पर भी लोग इकट्ठा हो सकते हैं चाहे सत्य हो या असत्य। और एकता और संघटन, चाहे वह कैसी ही ग़लत आस्था एवं धारणा पर हो, पारस्परिक मित्रताओं, नातेदारियों, बन्धुत्वों और दूसरे सभी धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक और आर्थिक एवं राजनैतिक सम्बन्धों के स्थापन का साधन बन सकता है।
۞فَـَٔامَنَ لَهُۥ لُوطٞۘ وَقَالَ إِنِّي مُهَاجِرٌ إِلَىٰ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 24
(26) उस समय लूत ने उसको माना और इबराहीम ने कहा मैं अपने रब की ओर 'हिजरत' करता हूँ, वह प्रभुत्वशाली है और तत्वदर्शी है।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَجَعَلۡنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلۡكِتَٰبَ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَجۡرَهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 25
(27) और हमने उसे इसहाक़ और याक़ूब (जैसी औलाद) प्रदान की और उसकी नस्ल में पैग़म्बरी और किताब रख दी, और उसे दुनिया में उसका बदला प्रदान किया और आख़िरत में वह यक़ीनन अच्छों में से होगा।
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ إِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 26
(28) और हमने लूत को भेजा जबकि उसने अपनी क़ौम से कहा, “तुम तो वे अश्लील कर्म करते हो जो तुमसे पहले दुनियावालों में से किसी ने नहीं किया है।
أَئِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ وَتَقۡطَعُونَ ٱلسَّبِيلَ وَتَأۡتُونَ فِي نَادِيكُمُ ٱلۡمُنكَرَۖ فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱئۡتِنَا بِعَذَابِ ٱللَّهِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 27
(29) क्या तुम्हारा हाल यह है कि मर्दों के पास जाते हो, और बटमारी करते हो और अपनी मजलिसों में बुरे कर्म करते हो?” फिर कोई जवाब उसकी क़ौमवालों के पास इसके सिवा न था कि उन्होंने कहा, “ले आ अल्लाह का अज़ाब अगर तू सच्चा है।”
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 28
(30) लूत ने कहा, “ऐ मेरे रब, इन बिगाड़ पैदा करनेवालों के मुक़ाबले में मेरी सहायता कर।"
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُوٓاْ إِنَّا مُهۡلِكُوٓاْ أَهۡلِ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِۖ إِنَّ أَهۡلَهَا كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 29
(31) और जब हमारे दूत इबराहीम के पास ख़ुशख़बरी लेकर पहुँचे तो उन्होंने उससे कहा, “हम इस बस्ती के लोगों को तबाह करनेवाले9 हैं, इसके लोग सख़्त ज़ालिम हो चुके हैं।”
9. “इस बस्ती का इशारा लूत को क़ौमवालों के इलाक़े की ओर था। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उस समय फ़िलस्तीन के शहर हबरून (वर्तमान अल-खलील) में रहते थे। इस शहर के दक्षिण-पूर्व में कुछ ही मील की दूरी पर मृत सागर का वह भाग स्थित है जहाँ पहले लूत की क़ौम बसती थी और अब जिसपर सागर का पानी फैला हुआ है। यह इलाक़ा ढलान में स्थित है और हबरून की ऊँची पहाड़ियों पर से साफ़ दिखाई देता है। इसी लिए फ़रिश्तों ने उसकी ओर इशारा करके हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से कहा कि “हम इस बस्ती को तबाह करनेवाले हैं।"
قَالَ إِنَّ فِيهَا لُوطٗاۚ قَالُواْ نَحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَن فِيهَاۖ لَنُنَجِّيَنَّهُۥ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 30
(32) इबराहीम ने कहा “वहाँ तो लूत मोजूद है।” उन्होंने कहा, “हम ख़ूब जानते हैं कि वहाँ कौन-कौन है। हम उसे और उसकी पत्नी के सिवा उसके बाक़ी सब घरवालों को बचा लेंगे।” उसकी पत्नी पीछे रह जानेवालों में से थी।
وَلَمَّآ أَن جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗاۖ وَقَالُواْ لَا تَخَفۡ وَلَا تَحۡزَنۡ إِنَّا مُنَجُّوكَ وَأَهۡلَكَ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 31
(33) फिर जब हमारे दूत लूत के पास पहुँचे तो उनके आगमन पर वह बहुत परेशान और दिल तंग हुआ। उन्होंने कहा, “न डरो और न ग़म करो हम तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को बचा लेंगे, सिवाय तुम्हारी पत्नी के जो पीछे रह जानेवालों में से है।
إِنَّا مُنزِلُونَ عَلَىٰٓ أَهۡلِ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 32
(34) हम इस बस्ती के लोगों पर आसमान से अज़ाब उतारनेवाले हैं उस अवज्ञा के कारण जो ये करते रहे हैं।”
وَلَقَد تَّرَكۡنَا مِنۡهَآ ءَايَةَۢ بَيِّنَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 33
(35) और हमने उस बस्ती की एक खुली निशानी छोड़ दी है10 उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
10. इस खुली निशानी से मुराद है मृत सागर जिसे लूत सागर भी कहा जाता है। क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर मक्का के अधर्मियों को सम्बोधित करके कहा गया है कि इस ज़ालिम क़ौम पर इसकी करतूतों के कारण जो अज़ाब आया था उसकी एक निशानी आज भी आम रास्ते पर मौजूद है जिसे तुम शाम (सीरिया) की ओर अपनी व्यापारिक यात्राओं में जाते हुए दिन-रात देखते हो।
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗا فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱرۡجُواْ ٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 34
(36) और मदयन की ओर हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, अल्लाह की बन्दगी करो और अन्तिम दिन की उम्मीद रखो और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करनेवाले बनकर ज़्यादतियाँ न करते फिरो।”
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 35
(37) मगर उन्होंने उसे झुठला दिया। आख़िरकार एक प्रचण्ड भूकम्प ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में पड़े के पड़े रह गए।
وَعَادٗا وَثَمُودَاْ وَقَد تَّبَيَّنَ لَكُم مِّن مَّسَٰكِنِهِمۡۖ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَصَدَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ وَكَانُواْ مُسۡتَبۡصِرِينَ ۝ 36
(38) और आद और समूद को हमने तबाह किया, तुम वे स्थान देख चुके हो जहाँ वे रहते थे। उनके कर्मों को शैतान ने उनके लिए ख़ुशनुमा बना दिया और उन्हें सन्मार्ग से फेर दिया हालाँकि वे सूझ-बूझ रखते थे।
وَقَٰرُونَ وَفِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مُّوسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كَانُواْ سَٰبِقِينَ ۝ 37
(39) और क़ारून और फ़िरऔन और हामान को हमने तबाह किया। मूसा उनके पास प्रत्यक्ष प्रमाण लेकर आया, मगर उन्होंने ज़मीन में अपनी बड़ाई का घमंड किया, हालाँकि वे बाज़ी ले जानेवाले न थे।
فَكُلًّا أَخَذۡنَا بِذَنۢبِهِۦۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِ حَاصِبٗا وَمِنۡهُم مَّنۡ أَخَذَتۡهُ ٱلصَّيۡحَةُ وَمِنۡهُم مَّنۡ خَسَفۡنَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ وَمِنۡهُم مَّنۡ أَغۡرَقۡنَاۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 38
(40) आख़िरकार हर एक को हमने उसके गुनाह में पकड़ा। फिर उनमें से किसी पर हमने पथराव करनेवाली हवा भेजी, और किसी को एक ज़बरदस्त धमाके ने आ लिया, और किसी को हमने ज़मीन में धँसा दिया, और किसी को डुबो दिया। अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
مَثَلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡلِيَآءَ كَمَثَلِ ٱلۡعَنكَبُوتِ ٱتَّخَذَتۡ بَيۡتٗاۖ وَإِنَّ أَوۡهَنَ ٱلۡبُيُوتِ لَبَيۡتُ ٱلۡعَنكَبُوتِۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 39
(41) जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिए हैं उनकी मिसाल मकड़ी जैसी है जो अपना एक घर बनाती है और सब घरों से ज़्यादा कमज़ोर घर मकड़ी का घर ही होता है। काश! ये लोग ज्ञान रखते।
إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 40
(42) ये लोग अल्लाह को छोड़कर जिस चीज़ को भी पुरकाते हैं अल्लाह उसे ख़ूब जानता है और वही प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِۖ وَمَا يَعۡقِلُهَآ إِلَّا ٱلۡعَٰلِمُونَ ۝ 41
(43) ये मिसालें हम लोगों को समझाने के लिए देते हैं, मगर इनको वही लोग समझते हैं जो ज्ञान रखनेवाले हैं।
خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 42
(44) अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है, वास्तव में इसमें एक निशानी है ईमानवालों के लिए।
ٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَۖ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ تَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۗ وَلَذِكۡرُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تَصۡنَعُونَ ۝ 43
(45) (ऐ नबी) तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी ओर वह्य के द्वारा भेजी गई है और नमाज़ क़ायम करो, यक़ीनन नमाज़ अश्लील और बुरे कामों से रोकती है और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ है।11 अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो।
11. मतलब यह है कि अश्लील कर्मों से रोकना तो एक छोटी चीज़़ है, अल्लाह के ज़िक्र, अर्थात् नमाज़ की बरकतें उससे बहुत बढ़कर है।
۞وَلَا تُجَٰدِلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡۖ وَقُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَأُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَإِلَٰهُنَا وَإِلَٰهُكُمۡ وَٰحِدٞ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 44
(46) और किताबवालों से वाद-विवाद न करो मगर उत्तम ढंग से — सिवाय उन लोगों के जो उनमें से ज़ालिम हों12 —और उनसे कहो कि “हम ईमान लाए है उस चीज़़ पर भी, जो हमारी ओर भेजी गई है और उस चीज़़ पर भी जो तुम्हारी ओर भेजी गई थी, हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य एक ही है और हम उसी के मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।”
12. अर्थात् जो लोग ज़ुल्म की नीति अपनाएँ उनके साथ उनके ज़ुल्म को देखते हुए कि वह किस तरह का है विभिन्न नीति भी अपनाई जा सकती है। मतलब यह है कि हर समय हर हाल में और हर तरह के लोगों के मुक़ाबले में नर्म और मधुर ही न बने रहना चाहिए कि दुनिया सत्य के आवाहक की सज्जनता को कमज़ोरी और दीनता समझ बैठे। इस्लाम अपने अनुयायियों को सभ्यता, सज्जनता और औचित्य तो ज़रूर सिखाता है मगर विवशता और दीनता नहीं सिखाता कि वे हर ज़ालिम के लिए नर्म चारा बनकर रहें।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَۚ فَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَمِنۡ هَٰٓؤُلَآءِ مَن يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 45
(47) (ऐ नबी) हमने इसी तरह तुम्हारी ओर किताब अवतरित की है,13 इसलिए वे लोग जिनको हमने पहले किताब दी थी वे इसपर ईमान लाते हैं,14 और इन लोगों में से भी बहुत-से इसपर ईमान ला रहे हैं,15 और हमारी आयतों का इनकार सिर्फ़ अधर्मी ही करते हैं।
13. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि जिस तरह पहले नबियों पर हमने किताबें अवतरित की थीं उसी तरह अब यह किताब तुमपर अवतरित की है। दूसरा यह कि हमने इसी शिक्षा के साथ यह किताब अवतरित की है कि हमारी पिछली किताबों का इनकार करके नहीं, बल्कि उन सबको स्वीकार करते हुए इसे माना जाए।
14. प्रसंग एवं सन्दर्भ ख़ुद बता रहा है कि इससे मुराद सभी किताब वाले नहीं है बल्कि वे कितवाले है जिनको ईश्वरीय ग्रन्थों का सच्चा ज्ञान और बोध प्राप्त हुआ था, जो वास्तविक अर्थों में किताबवाले थे।
15. “इन लोगों” का इशारा अरबवालों की ओर है। मतलब यह है कि सत्यप्रिय लोग हर जगह इसपर ईमान ला रहे हैं चाहे वे किताब वालों में से हों या ग़ैर-किताबबालों में से।
وَمَا كُنتَ تَتۡلُواْ مِن قَبۡلِهِۦ مِن كِتَٰبٖ وَلَا تَخُطُّهُۥ بِيَمِينِكَۖ إِذٗا لَّٱرۡتَابَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 46
(48) (ऐ नबी) तुम इससे पहले कोई किताब नहीं पढ़ते थे और न अपने हाथ से लिखते दे अगर ऐसा होता तो असत्यवादी लोग शक में पड़ सकते थे।
بَلۡ هُوَ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ فِي صُدُورِ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 47
(49) वास्तव में ये स्पष्ट निशानियाँ है उन लोगों के दिलों में जिन्हें ज्ञान प्रदान किया गया है,16 और हमारी आयतों का इनकार नहीं करते, मगर वे जो ज़ालिम हैं।
16. अर्थात् एक उम्मी (निरक्षर) का क़ुरआन जैसी किताब पेश करना और अचानक उन असाधारण कुशलताओं का प्रदर्शन करना जिनके लिए किसी पूर्व तैयारी के लक्षण कभी किसी के देखने में नहीं आए, यही सूझ-बूझ रखनेवालों की दृष्टि में उसकी पैग़म्बरी को सिद्ध करनेवाली बहुत ही स्पष्ट निशानियाँ हैं।
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَٰتٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡأٓيَٰتُ عِندَ ٱللَّهِ وَإِنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 48
(50) ये लोग कहते हैं कि “क्यों न उतारी गई इस व्यक्ति पर निशानियाँ इसके रब की ओर से?” कहो, “निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और मैं सिर्फ़ सावधान करनेवाला हूँ खोल-खोलकर।”
أَوَلَمۡ يَكۡفِهِمۡ أَنَّآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَرَحۡمَةٗ وَذِكۡرَىٰ لِقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 49
(51) और क्या इन लोगों के लिए यह (निशानी) काफ़ी नहीं है कि हमने तुमपर किताब अवतरित की जो इन्हें पढ़कर सुनाई जाती है? वास्तव में इसमें दयालुता है। और उपदेश उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡ شَهِيدٗاۖ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ وَكَفَرُواْ بِٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 50
(52) (ऐ नबी) कहो कि “मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाही के लिए काफ़ी है। वह आसमानों और ज़मीन में सब कुछ जानता है। जो लोग असत्य को मानते हैं और अल्लाह के साथ इनकार की नीति अपनाते हैं वही घाटे में रहनेवाले हैं।"
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَوۡلَآ أَجَلٞ مُّسَمّٗى لَّجَآءَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ وَلَيَأۡتِيَنَّهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 51
(53) ये लोग तुमसे अज़ाब जल्दी लाने की माँग करते हैं। अगर एक समय नियत न कर दिया गया होता तो इनपर अज़ाब आ चुका होता। और यक़ीनन (अपने समय पर) वह आकर रहेगा अचानक, इस हाल में कि इन्हें ख़बर भी न होगी।
يَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 52
(54) ये तुमसे अज़ाब जल्दी लाने की माँग करते हैं, हालाँकि जहन्नम इन अधर्मियों को घेरे में ले चुकी है
يَوۡمَ يَغۡشَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۡ وَيَقُولُ ذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 53
(55) (और इन्हें पता चलेगा) उस दिन जब कि अज़ाब इन्हें ऊपर से भी ढॉक लेगा और पाँव के नीचे से भी और कहेगा कि अब चखो मज़ा उन करतूतों का जो तुम करते थे।
يَٰعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ أَرۡضِي وَٰسِعَةٞ فَإِيَّٰيَ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 54
(56) ऐ मेरे बन्दो जो ईमान लाए हो, मेरी ज़मीन विशाल है, अत: तुम मेरी ही बन्दगी बजा लाओ।17
17. यह इशारा है 'हिजरत' की ओर। अर्थ यह है कि अगर मक्का में ख़ुदा की बन्दगी करनी कठिन हो रही है तो देश छोड़कर निकल जाओ, अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है। जहाँ भी तुम अल्लाह के बन्दे बनकर रह सकते हो वहाँ चले जाओ।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۖ ثُمَّ إِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 55
(57) हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, फिर तुम सब हमारी ओर ही पलटाकर लाए जाओगे।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُبَوِّئَنَّهُم مِّنَ ٱلۡجَنَّةِ غُرَفٗا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ نِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 56
(58) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म किए हैं उनको हम जन्नत (स्वर्ग) के उच्च भवनों में रखेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वहाँ वे हमेशा रहेंगे, क्या ही अच्छा बदला है कर्म करनेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 57
(59) — उन लोगों के लिए जिन्होंने सब्र किया है और जो अपने रब पर भरोसा करते हैं।
وَكَأَيِّن مِّن دَآبَّةٖ لَّا تَحۡمِلُ رِزۡقَهَا ٱللَّهُ يَرۡزُقُهَا وَإِيَّاكُمۡۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 58
(60) कितने ही जानवर हैं जो अपनी रोज़ी उठाए नहीं फिरते, अल्लाह उनको रोज़ी देता है और तुम्हें रोज़ी देनेवाला भी वही है। वह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 59
(61) अगर तुम18 इन लोगों से पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है और चाँद और सूरज को किसने वशीभूत कर रखा है तो ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने, फिर ये किधर से धोखा खा रहे हैं?
18. यहाँ से फिर वार्ता की दिशा मक्का के अधर्मियों की ओर मुड़ती है।
ٱللَّهُ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُ لَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 60
(62) अल्लाह ही है जो अपने बन्दों में से जिसकी चाहता है रोज़ी कुशादा करता है और जिसकी चाहता है तंग करता है, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़़ का जाननेवाला है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّن نَّزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ مَوۡتِهَا لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 61
(63) और अगर तुम इनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी बरसाया और उसके द्वारा मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया तो वे ज़रूर कहेंगे अल्लाह ने। कहो, प्रशंसा अल्लाह के लिए है, 19 मगर इनमें से ज़्यादातर लोग समझते नहीं है।
19. इस स्थान पर 'अलहम्दु लिल्लाह' (प्रशंसा अल्लाह के लिए है) का शब्द दो अर्थ दे रहा है। एक यह कि जब ये सारे कार्य अल्लाह के हैं तो प्रशंसा का अधिकारी भी सिर्फ़ वही है, दूसरों को प्रशंसा का हक़ कहाँ से पहुँच गया? दूसरे यह कि अल्लाह का शुक्र है, इस बात को तुम ख़ुद भी स्वीकार करते हो।
وَمَا هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا لَهۡوٞ وَلَعِبٞۚ وَإِنَّ ٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَ لَهِيَ ٱلۡحَيَوَانُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 62
(64) और यह दुनिया की ज़िन्दगी कुछ नहीं है मगर एक खेल और दिल का बहलावा। वास्तविक ज़िन्दगी का घर तो आख़िरत का घर है, काश! ये लोग जानते।
فَإِذَا رَكِبُواْ فِي ٱلۡفُلۡكِ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ فَلَمَّا نَجَّىٰهُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ إِذَا هُمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 63
(65) जब ये लोग नाव में सवार होते हैं तो अपने दीन (धर्म) को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उससे दुआ माँगते हैं, फिर जब वह इन्हें बचाकर ख़ुश्की (थल) पर ले आता है तो सहसा ये शिर्क करने लगते हैं।
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ وَلِيَتَمَتَّعُواْۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 64
(66) ताकि अल्लाह की दी हुई मुक्ति पर उसके प्रति कृतघ्नता दिखाएँ और (दुनिया की ज़िन्दगी के) मज़े लूटें। अच्छा, जल्दी ही इन्हें मालूम हो जाएगा।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا جَعَلۡنَا حَرَمًا ءَامِنٗا وَيُتَخَطَّفُ ٱلنَّاسُ مِنۡ حَوۡلِهِمۡۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَكۡفُرُونَ ۝ 65
(67) क्या ये देखते नहीं हैं कि हमने एक शान्तिपूर्ण 'हरम' (प्रतिष्ठित स्थान) बना दिया है हालाँकि इनके आसपास ही लोग उचक लिए जाते है?20 क्या फिर भी ये लोग असत्य को मानते हैं और अल्लाह की अनुकम्पा के प्रति कृतघ्नता दिखाते हैं?
20. अर्थात् क्या इनके शहर मक्का को, जिसके दामन में इन्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त हैं, किसी लात या हुबल ने प्रतिष्ठित स्थान बनाया है? क्या किसी देवता या देवी की यह सामर्थ्य थी कि ढाई हज़ार वर्ष से अरब के अत्यन्त अशान्तिपूर्ण वातावरण में इस स्थान को सभी उपद्रवों और फ़सादों से सुरक्षित रखती? उसकी प्रतिष्ठा को बनाए रखनेवाले हम न थे तो और कौन था?
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُۥٓۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 66
(68) उस व्यक्ति से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ बाँधे या सत्य को झुठलाए जबकि वह उसके सामने आ चुका हो? क्या ऐसे अधर्मियों का ठिकाना जहन्नम ही नहीं है?
وَٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ فِينَا لَنَهۡدِيَنَّهُمۡ سُبُلَنَاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَمَعَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 67
(69) जो लोग हमारे लिए कोशिश करेंगे उन्हें हम अपने मार्ग दिखाएँगे21, और यक़ीनन अल्लाह अच्छे कार्य करनेवालों ही के साथ है।
21. मतलब यह है कि जो लोग अल्लाह के मार्ग में निष्ठापूर्वक दुनिया भर से संघर्ष का ख़तरा मोल ले लेते हैं उन्हें अल्लाह तआला उनके हाल पर नहीं छोड़ देता, बल्कि वह उनका सहायक होता और मार्ग दिखाता है और अपनी ओर आने की राहें उनके लिए खोल देता है। वह पग-पग पर उन्हें बताता है कि हमारी प्रसन्नता तुम किस तरह हासिल कर सकते हो। हर-हर मोड़ पर उन्हें प्रकाश दिखाता है कि सन्मार्ग किधर है और ग़लत रास्ते कौन-से हैं। जितनी नेक-नीयती और भलाई की चाह उनमें होती है उतनी ही अल्लाह की सहायता और सुयोग और मार्गदर्शन भी उनके साथ रहता है।
وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ ۝ 68
(11) और अल्लाह को तो ज़रूर यह देखना ही है कि ईमान लानेवाले कौन हैं। और मुनाफ़िक़ कौन।