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سُورَةُ النِّسَاءِ

(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)

परिचय

उतरने का समय और विषय

इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।

जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'

पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)

उतरने के कारण और वार्ताएँ

इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।

नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।

इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।

सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्‍नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।

यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।

मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।

ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्‍चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।

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سُورَةُ النِّسَاءِ
4. सूरा अन-निसा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَخَلَقَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَبَثَّ مِنۡهُمَا رِجَالٗا كَثِيرٗا وَنِسَآءٗۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِي تَسَآءَلُونَ بِهِۦ وَٱلۡأَرۡحَامَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَيۡكُمۡ رَقِيبٗا
(1) लोगो, अपने रब से डरो जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत मर्द और औरत दुनिया में फैला दिए। उस अल्लाह से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और नाते-रिश्तों के सम्बन्धों को बिगाड़ने से बचो। यक़ीन जानो कि अल्लाह तुमपर निगरानी कर रहा है।
وَءَاتُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰٓ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَتَبَدَّلُواْ ٱلۡخَبِيثَ بِٱلطَّيِّبِۖ وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَهُمۡ إِلَىٰٓ أَمۡوَٰلِكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حُوبٗا كَبِيرٗا ۝ 1
(2) यतीमों के माल उनको वापस दो, अच्छे माल को बुरे माल से न बदल लो, और उनके माल अपने माल के साथ मिलाकर न खा जाओ, यह बहुत बड़ा गुनाह है।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ ۝ 2
(3) और अगर तुमको अंदेशा हो कि यतीमों के साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हें पसन्द आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो।1 लेकिन अगर तुम्हें अन्देशा हो कि उनके साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो फिर एक ही पत्नी रखो2 या उन औरतों को अपने दाम्पत्य-जीवन में लाओ जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आई हैं,3 बेइनसाफ़ी से बचने के लिए यह ज़्यादा अच्छा है।
1. ध्यान रहे कि यह आयत एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने की इजाज़त देने के लिए नहीं आई थी क्योंकि इसके नाज़िल होने से पहले ही यह अमल जाइज़ था और ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक से ज़्यादा बीवियाँ उस समय मौजूद थीं। असल में यह आयत इसलिए उतरी थी कि लड़ाइयों में शहीद होनेवालों के जो बच्चे यतीम रह गए थे उनकी समस्या हल करने के लिए कहा गया कि अगर उन यतीमों के हक़ तुम वैसे अदा नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
2. इस बात पर मुस्लिम समुदाय के धर्मशास्त्री (फ़क़ीह) एकमत हैं कि इस आयत के ज़रिए से बहुविवाह को सीमित कर दिया गया है और एक समय में चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को वर्जित कर दिया गया है। इसके साथ यह आयत बहुविवाह को इनसाफ़ की शर्त के साथ जाइज़ करती है। जो आदमी इनसाफ़ की शर्त पूरी नहीं करता मगर एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने की इजाज़त से फ़ायदा उठाता है वह अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी करता है। इस्लामी हुकूमत की अदालतों को अधिकार प्राप्त है कि जिस बीवी या जिन बीवियों के साथ वह इनसाफ़ न कर रहा हो उनको इनसाफ़ दिलाएँ। कुछ लोग पश्चिमी देशवालों की धारणाओं से प्रभावित होकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का असल मक़सद बहुविवाह की प्रथा को (जो पश्चिमी दृष्टिकोण से वास्तव में बुरी प्रथा है) मिटा देना था। लेकिन इस तरह की बातें वास्तव में ज़ेहनी ग़ुलामी का नतीजा हैं। बहुविवाह का अपने में एक बुराई होना अमान्य है, क्योंकि कुछ परिस्थितियों में यह चीज़़ एक सांस्कृतिक और नैतिक ज़रूरत बन जाती है। क़ुरआन ने स्पष्ट शब्दों में इसको जाइज़ ठहराया है और सांकेतिक रूप में भी इसकी निन्दा में कोई ऐसा शब्द इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि वास्तव में वह इसे रोकना चाहता था।
3. इससे मुराद लौंडियाँ (दासियाँ हैं, अर्थात् वे औरतें जो युद्ध में बन्दी होकर आई हों और युद्ध-बन्दियों का तबादला और अन्तरण न होने की स्थिति में हुकूमत की ओर से लोगों में बाँट दी गई हो।
وَءَاتُواْ ٱلنِّسَآءَ صَدُقَٰتِهِنَّ نِحۡلَةٗۚ فَإِن طِبۡنَ لَكُمۡ عَن شَيۡءٖ مِّنۡهُ نَفۡسٗا فَكُلُوهُ هَنِيٓـٔٗا مَّرِيٓـٔٗا ۝ 3
(4) और औरतों के मह्‍र ख़ुशी से (अनिवार्य जानते हुए) अदा करो। हाँ, अगर वे ख़ुद अपनी ख़ुशी से मह्‍र का कोई हिस्सा तुम्हें माफ़ कर दें तो उसे तुम मज़े से खा सकते हो।
وَلَا تُؤۡتُواْ ٱلسُّفَهَآءَ أَمۡوَٰلَكُمُ ٱلَّتِي جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ قِيَٰمٗا وَٱرۡزُقُوهُمۡ فِيهَا وَٱكۡسُوهُمۡ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 4
(5) और अपने वे माल जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे लिए ज़िन्दगी क़ायम रखने का साधन बनाया है, नादान लोगों को न सौंपो, अलबत्ता उन्हें खाने और पहनने के लिए दो और उन्हें नेक सुझाव दो।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا ۝ 5
(6) और यतीमों की आज़माइश करते रहो यहाँ तक कि वे निकाह की उम्र को पहुँच जाएँ।4 फिर अगर तुम उनमें योग्यता पाओ तो उनके माल उनको सौंप दो। ऐसा कभी न करना कि न्याय की सीमा का उल्लंघन करके इस भय से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने हक़ की माँग करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त मालदार हो वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो वह सामान्य रीति के अनुसार खाए।5 फिर जब उनके माल उन्हें सौंपने लगो तो लोगो को इसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
4. अर्थात् जब वे प्रौढ़ावस्था के निकट पहुँच रहे हों तो देखते रहो कि उनका बौद्धिक विकास कैसा है और उनमें अपने मामलों को ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी में चलाने की योग्यता कहाँ तक पैदा हो रही है।
5. अर्थात् अपना पारिश्रमिक बस उतना ले कि हर निष्पक्ष भला व्यक्ति उसे उचित माने। इसके साथ यह कि जो कुछ भी पारिश्रमिक वह ले चोरी-छिपे न ले, बल्कि खुल्लम-खुल्ला निश्चित करके ले और उसका हिसाब रखे।
لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنۡهُ أَوۡ كَثُرَۚ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 6
(7) मर्दों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी नातेदारों ने छोड़ा हो, और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी नातेदारों ने छोड़ा हो, चाहे थोड़ा हो या बहुत6, और यह हिस्सा (अल्लाह की ओर से) निश्चित है।
6. इस आयत में स्पष्ट रूप से पाँच क़ानूनी आदेश दिए गए हैं। एक यह कि मीरास में सिर्फ़ मर्दो ही का हिस्सा नहीं है, बल्कि औरतें भी उसकी हक़दार हैं। दूसरे यह कि मीरास हर हाल में तक़सीम होनी चाहिए चाहे वह कितनी ही कम हो। तीसरे इस आयत में मरनेवाले के छोड़े हुए पूरे माल को तक़सीम के लायक़ ठहराया गया है और इसमें चल और अचल सम्पत्ति, कृषि योग्य या कृषि रहित और पैतृक और अपैतृक का कोई भेद और अन्तर नहीं किया गया है। चौथे इससे मालूम होता है कि जिसकी मीरास का बँटवारा है उसके जीवन में कोई मीरास का हक़ पैदा नहीं होता, बल्कि मीरास का हक़ उस समय पैदा होता है जब मरनेवाला कोई माल छोड़कर मरा हो। पाँचवें इससे यह नियम भी निकलता है कि निकटतम नातेदार की मौजूदगी में बहुत दूर का नातेदार मीरास न पाएगा। आगे इस नियम का स्पष्टीकरण आयत 11 के अन्त और आयत 33 में किया गया है।
وَإِذَا حَضَرَ ٱلۡقِسۡمَةَ أُوْلُواْ ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينُ فَٱرۡزُقُوهُم مِّنۡهُ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 7
(8) और जब बाँटने के अवसर पर कुटुम्ब के लोग और यतीम और मुहताज आएँ तो उस माल में से उनको भी कुछ दो और उनके साथ भले मानुसों की-सी बात करो।
وَلۡيَخۡشَ ٱلَّذِينَ لَوۡ تَرَكُواْ مِنۡ خَلۡفِهِمۡ ذُرِّيَّةٗ ضِعَٰفًا خَافُواْ عَلَيۡهِمۡ فَلۡيَتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡيَقُولُواْ قَوۡلٗا سَدِيدًا ۝ 8
(9) लोगों को इस बात का खयाल करके डरना चाहिए कि अगर वे ख़ुद अपने पीछे बेबस बच्चे छोड़ते तो मरते समय उन्हें अपने बच्चों के लिए कैसी कुछ आशंकाएँ घेरतीं। इसलिए चाहिए कि वे अल्लाह से डरें और ठीक बात करें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلۡيَتَٰمَىٰ ظُلۡمًا إِنَّمَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ نَارٗاۖ وَسَيَصۡلَوۡنَ سَعِيرٗا ۝ 9
(10) जो लोग ज़ुल्म के साथ यतीमों के माल खाते हैं। वास्तव में वे अपने पेट आग से भरते हैं और वे ज़रूर जहन्नम की भड़कती हुई आग में झोंके जाएँगे।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 10
(11) तुम्हारी सन्तान के बारे में अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि: मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।7 अगर (मरनेवाले को उत्तराधिकारी) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके (छोड़ी हुई सम्पत्ति) का दो तिहाई दिया जाए।8 और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो आधा तरका उसका है। अगर मरनेवाले के औलाद हो तो उसके माँ-बाप में से हर एक को तरके का छठा हिस्सा मिलना चाहिए।9 और अगर वह निस्सन्तान हो और माँ-बाप ही उसके वारिस हो तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए।10 और अगर मरनेवाले के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से की हक़दार11 होगी। (ये सब हिस्से उस समय निकाले जाएँगे) जबकि वसीयत जो मरनेवाले ने की हो, पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उसपर हो चुका दिया जाए।12 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी सन्तान में से कौन लाभ की दृष्टि से तुमसे ज़्यादा क़रीब है। ये हिस्से अल्लाह ने निश्चित कर दिए हैं, और अल्लाह यक़ीनन ही सब हक़ीक़तों से वाक़िफ़ और सब मसलहतों का जाननेवाला है।
7. चूँकि 'शरीअत' (धर्म-विधान) ने पारिवारिक जीवन में मर्द पर ज़्यादा आर्थिक ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है। और औरत को बहुत-सी आर्थिक ज़िम्मेदारियों के बोझ से मुक्त रखा है, अतः इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द के मुक़ाबले कम रखा जाता।
8. यही आदेश दो लड़कियों का भी है। मतलब यह है कि अगर किसी आदमी का कोई लड़का न हो बल्कि सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों तो चाहे लड़कियाँ दो हों या दो से ज़्यादा, हर हाल में उसके पूरे तरके का 2/3 भाग उन लड़कियों में तक़सीम होगा, और बाक़ी 1/3 दूसरे वारिसों में। लेकिन अगर मरनेवाले का सिर्फ़ एक लड़का हो तो इसपर सब सहमत हैं कि दूसरे वारिसों के न होने पर वह सारे माल का वारिस होगा, और अगर दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाक़ी सब माल उसे मिलेगा।
9. अर्थात् मरनेवाले के औलाद होने की स्थिति में हर हालत में उसके माँ-बाप में से हर एक 1/6 का हक़दार होगा चाहे मरनेवाले की वारिस सिर्फ़ बेटियाँ हो, या सिर्फ़ बेटे हों, या बेटे और बेटियाँ हों, या एक बेटा या एक बेटी रहे बाक़ी 2/3 तो उनमें दूसरे वारिस शरीक होंगे।
10. माँ-बाप के सिवा कोई वारिस न हो तो बाक़ी 2/3 बाप को मिलेगा। वरना 2/3 में बाप और दूसरे वारिस शरीक होंगे।
11. भाई-बहन होने पर माँ का हिस्सा 1/3 के बदले 1/6 कर दिया गया है। इस प्रकार माँ के हिस्से में से जो 1/6: लिया गया है वह बाप के हिस्से में डाला जाएगा क्योंकि इस स्थिति में बाप के दायित्व बढ़ जाते हैं। यह स्पष्ट रहे कि मरनेवाले के माँ-बाप अगर ज़िन्दा हों तो उसके बहन-भाइयों को हिस्सा नहीं पहुँचता।
12. वसीयत का उल्लेख यद्यपि क़र्ज़ से पहले किया गया है लेकिन मुस्लिम समुदाय इसमें एकमत है कि क़र्ज़ का नम्बर वसीयत से पहले है। अर्थात् अगर मरनेवाले के जिम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मरनेवाले के तरके में से वह चुकाया जाएगा, फिर वसीयत पूरी की जाएगी, और इसके बाद विरासत तकसीम होगी।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर वे निस्सन्तान हों, वरना सन्तान होने की स्थिति में तरके का एक चौथाई हिस्सा तुम्हारा है जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो चुका दिया जाए। और वे तुम्हारे तरके में से चौथाई की हक़दार होंगी अगर तुम निस्सन्तान हो, वरना तुम्हारे सन्तानवाले होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ होगा13, इसके बाद कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह चुका दिया जाए। और अगर वह मर्द या औरत (जिसका तरका बाँटना है) निस्सन्तान भी हो और उसके माँ-बाप भी ज़िन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से ज़्यादा हों तो सारे तरके के एक तिहाई में वे सब शरीक14 होंगे, जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो मरनेवाले ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, शर्त यह है कि वह नुक़सान पहुँचानेवाला न हो।15 यह आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह जानता देखता और सहनशील है।
13. अर्थात् चाहे एक बीवी हो या कई बीवियाँ, औलाद होने की हालत में वह 1/8 की और औलाद न होने की हालत में 1/4 की हिस्सेदार होंगी और यह 1/4 या 1/8 सब बीवियों में बराबरी के साथ बाँट दिया जाएगा।
14. इस आयत के सम्बन्ध में टीकाकार एकमत हैं कि इसमें भाई और बहनों से मुराद ऐसे भाई और बहन हैं जो मरनेवाले के साथ सिर्फ़ माँ की ओर से नाता रखते हों और बाप उनका दूसरा हो। रहे सगे भाई-बहन, और वे सौतेले भाई-बहन जो बाप की ओर से मरनेवाले के साथ नाता रखते हों, तो उनके बारे में आदेश इसी सूरा के अन्त में दिया गया है।
15. वसीयत में नुक़सान पहुँचाने का अर्थ यह है कि इस तरह से वसीयत की जाए जिससे हक़दार नातेदारों के हक़ मारे जाते हों। और क़र्ज़ में नुक़सान पहुँचाने का मतलब यह है कि सिर्फ़ हक़दारों को उनके हक़ से वंचित करने के लिए आदमी यों हो अपने ऊपर ऐसे क़र्ज़ स्वीकार करे जो उसने वास्तव में न लिए हों, या और कोई ऐसी चाल चले जिसका मक़सद यह हो कि हक़दार मीरास से वंचित हो जाएँ।
تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۚ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 12
(13) ये अल्लाह की निश्चित की हुई सीमाएँ हैं। जो अल्लाह और उसके रसूल का कहा मानेगा उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और उन बाग़ों में वह हमेशा रहेगा और यही बड़ी सफलता है।
وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَتَعَدَّ حُدُودَهُۥ يُدۡخِلۡهُ نَارًا خَٰلِدٗا فِيهَا وَلَهُۥ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 13
(14) और जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करेगा और उसकी निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन कर जाएगा उसे अल्लाह आग में डालेगा जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसके लिए अपमानजनक सज़ा है।
وَٱلَّٰتِي يَأۡتِينَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مِن نِّسَآئِكُمۡ فَٱسۡتَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِنَّ أَرۡبَعَةٗ مِّنكُمۡۖ فَإِن شَهِدُواْ فَأَمۡسِكُوهُنَّ فِي ٱلۡبُيُوتِ حَتَّىٰ يَتَوَفَّىٰهُنَّ ٱلۡمَوۡتُ أَوۡ يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لَهُنَّ سَبِيلٗا ۝ 14
(15) तुम्हारी औरतों में जो बदकारी (व्यभिचार) कर बैठे उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, और अगर चार आदमी गवाही दे दें तो उनको घरों में बन्द रखो यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे।
وَٱلَّذَانِ يَأۡتِيَٰنِهَا مِنكُمۡ فَـَٔاذُوهُمَاۖ فَإِن تَابَا وَأَصۡلَحَا فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ تَوَّابٗا رَّحِيمًا ۝ 15
(16) और तुममें से जो यह काम कर बैठें उन दोनों को तकलीफ़ दो, फिर अगर वे तौबा करें और अपने को सुधार लें तो उन्हें छोड़ दो कि अल्लाह बहुत तौबा क़ुबूल करनेवाला और रहम करनेवाला है।16
16. यह ज़िना (व्यभिचार) के सम्बन्ध में आरंभिक आदेश था। आगे चलकर सूरा नूर की वह आयत उतरी जिसमें मर्द और औरत दोनों के लिए एक ही आदेश दिया गया कि उन्हें सौ-सौ कोड़े लगाए जाएँ।
إِنَّمَا ٱلتَّوۡبَةُ عَلَى ٱللَّهِ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ يَتُوبُونَ مِن قَرِيبٖ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 16
(17) हाँ, यह जान लो कि अल्लाह पर तौबा क़ुबूल करने का हक़ उन्हीं लोगों के लिए है जो नादानी की वजह से कोई बुरा काम कर बैठते हैं और उसके बाद जल्दी ही तौबा कर लेते हैं। ऐसे लोगों की ओर अल्लाह अपनी मेहरबानी की निगाह से फिर ध्यान देता है और अल्लाह सारी बातों की ख़बर रखनेवाला और गहरी समझ रखनेवाला पूरा जानकार है।
وَلَيۡسَتِ ٱلتَّوۡبَةُ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ حَتَّىٰٓ إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ إِنِّي تُبۡتُ ٱلۡـَٰٔنَ وَلَا ٱلَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمۡ كُفَّارٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 17
(18) मगर तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे काम किए चले जाते हैं यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का समय आ जाता है उस समय वह कहता है कि अब मैंने तौबा की। और इसी तरह तौबा उनके लिए भी नहीं है जो मरते दम तक अधर्मी रहे। ऐसे लोगों के लिए तो हमने दर्दनाक सज़ा तैयार कर रखी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَرِثُواْ ٱلنِّسَآءَ كَرۡهٗاۖ وَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ لِتَذۡهَبُواْ بِبَعۡضِ مَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِن كَرِهۡتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَيَجۡعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيۡرٗا كَثِيرٗا ۝ 18
(19) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए यह हलाल नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो17 और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मह्‍र का कुछ हिस्सा उड़ा लेने की कोशिश करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ अगर वे किसी खुली बदचलनी का काम कर बैठें (तो ज़रूर तुम्हें तंग करने का अधिकार है18)। उनके साथ भले ढंग से रहो-सहो। अगर वे तुम्हें पसन्द न हों तो हो सकता है कि एक चीज़़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।
17. इससे मुराद यह है कि पति के मरने के बाद उसके ख़ानदान के लोग उसकी विधवा को मरनेवाले को मीरास समझकर उसके वली वारिस न बन बैठें। औरत का पति जब मर गया तो वह आज़ाद है। 'इद्दत' गुज़ारकर जहाँ चाहे जाए और जिससे चाहे निकाह कर ले।
18. माल उड़ाने के लिए नहीं बल्कि बदचलनी की सज़ा देने के लिए।
وَإِنۡ أَرَدتُّمُ ٱسۡتِبۡدَالَ زَوۡجٖ مَّكَانَ زَوۡجٖ وَءَاتَيۡتُمۡ إِحۡدَىٰهُنَّ قِنطَارٗا فَلَا تَأۡخُذُواْ مِنۡهُ شَيۡـًٔاۚ أَتَأۡخُذُونَهُۥ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 19
(20) और अगर तुमने एक बीवी की जगह दूसरी बीवी ले आने की ठान ही लो तो चाहे तुमने उसे ढेर-सा माल ही क्यों न दिया हो, उसमें से कुछ वापस न लेना। क्या तुम उसे झूठा कलंक लगाकर और खुला ज़ुल्म करके वापस लोगे?
وَكَيۡفَ تَأۡخُذُونَهُۥ وَقَدۡ أَفۡضَىٰ بَعۡضُكُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ وَأَخَذۡنَ مِنكُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 20
(21) और आख़िर तुम उसे किस तरह लोगे जबकि तुम एक दूसरे से आनन्द ले चुके हो और वे तुमसे दृढ़ प्रतिज्ञा करा चुकी हैं?
وَلَا تَنكِحُواْ مَا نَكَحَ ءَابَآؤُكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۚ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَمَقۡتٗا وَسَآءَ سَبِيلًا ۝ 21
(22) और जिन औरतों से तुम्हारे बाप निकाह कर चुके हों उनसे हरगिज़ निकाह न करो, मगर जो पहले हो चुका सो हो चुका।19 वास्तव में यह एक अश्लील कर्म है, अप्रिय है और बुरा चलन20 है।
19. इसका यह मतलब नहीं है कि अज्ञान-काल में जिसने सौतेली माँ से निकाह कर लिया था वह इस आदेश के आने के बाद भी उसे बीवी के रूप में रख सकता है, बल्कि मतलब यह है कि पहले जो इस तरह के निकाह किए थे उनसे पैदा होनेवाली सन्तान अब यह आदेश आने के बाद हरामी नहीं ठहरेगी और न अपने बाप के माल में अपने विरासत के हक़ से वंचित होगी।
20. इस्लामी क़ानून में यह कर्म फ़ौजदारी अपराध और पुलिस के हस्तक्षेप के योग्य है।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 22
(23) तुम्हारे लिए हराम की गई हैं तुम्हारी माएँ21, बेटियाँ22, बहनें23, फूफियाँ, मौसियाँ, भतीजियाँ, भानजियाँ24 और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो, और तुम्हारी दूध में सम्मिलित बहनें25, और तुम्हारी बीवियों की माएँ और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिनका तुम्हारी गोद में पालन-पोषण हुआ है26 — उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे तुम्हारा सहवास हो चुका हो, वरना अगर (सिर्फ़ विवाह हुआ हो और) सहवास न हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है — और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारे वीर्य से हों।27 और यह भी तुम्हारे लिए हराम है कि एक साथ इकट्ठा दो बहनों को निकाह में रखो28, मगर जो पहले हो गया सो हो गया, अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला है।29
21. माँ के अर्थ में सगी और सौतेली दोनों प्रकार की माएँ सम्मिलित हैं, इसलिए दोनों हराम हैं। इसी के साथ इस आदेश के अन्दर बाप की माँ और माँ की माँ भी आती हैं।
22. बेटी के आदेश में पोती और नवासी भी शामिल हैं।
23. सगी बहन और माँ शरीक बहन और बाप शरीक बहन तीनों इस आदेश में समान हैं।
24, इन सब रिश्तों में भी सगे और सौतले के बीच कोई अन्तर नहीं।
25. इस बात में पूरा मुस्लिम समुदाय (उम्मत) एकमत है कि एक लड़के या लड़की ने जिस औरत का दूध पिया हो उसके लिए वह स्त्री माँ के आदेश के तहत आती है और उसका पति बाप के आदेश के तहत आता है, और वे सभी रिश्ते जो सगी माँ और बाप के सम्बन्ध से हराम होते हैं, दूध सम्बन्धित माँ और बाप के सम्बन्ध से भी हराम हो जाते हैं। इस बच्चे के लिए दूध सम्बन्धित माँ का सिर्फ़ वही बच्चा हराम या वर्जित नहीं है जिसके साथ उसने दूध पिया हो, बल्कि उसकी सारी औलाद उसके सगे भाई-बहन की तरह है और उनके बच्चे उसके लिए सगे भांजों और भतीजों की तरह हैं।
26. ऐसी लड़की का हराम या वर्जित होना इस शर्त पर निर्भर नहीं करता कि उसका सौतेले बाप के घर में पालन-पोषण हुआ हो। मुस्लिम समुदाय के धर्मशास्त्री इस बात में लगभग एकमत हैं कि सौतेली बेटी आदमी के लिए हर हाल में हराम है चाहे उसका सौतेले बाप के घर में पालन-पोषण हुआ हो या न हुआ हो।
27. बेटे ही की तरह पोते और नवासे की बीवी भी दादा और नाना के लिए हराम है।
28. नबी (सल्ल०) का आदेश है कि ख़ाला (मौसी) और भानजी और फूफी और भतीजी से भी एक साथ निकाह करना हराम है। इस सम्बन्ध में यह सिद्धान्त समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों से एक साथ निकाह करना हर हाल में हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से वर्जित या हराम होता।
29. अर्थात् इस पर पकड़ न होगी, मगर जिस आदमी ने इस्लाम अपनाने से पहले दो बहनों को एक साथ निकाह में रखा हो उसे इस्लाम क़ुबूल करने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ देना होगा।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 23
(24) और वे औरतें भी तुम्हारे लिए हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात), अलबत्ता ऐसी औरतों की बात और है जो (युद्ध में) तुम्हारे हाथ आएँ।30 यह अल्लाह का क़ानून है जिसका पालन तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इनके अलावा जितनी औरतें हैं उन्हें अपने मालों के द्वारा हासिल करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, शर्त यह है कि निकाह के घेरे में लेकर उन्हें सुरक्षित करो, न कि स्वच्छन्द कामतृप्ति करने लगो। फिर जो दाम्पत्य जीवन का आनन्द तुम उनसे लो उसके बदले में उनके मह्‍र अनिवार्य समझते हुए अदा करो, अलबत्ता मह्‍र निश्चित हो जाने के बाद आपस की रजामन्दी से तुम्हारे बीच अगर कोई समझौता हो जाए तो इसमें कोई हरज नहीं, अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्त्वदर्शी है।
30. अर्थात् जो औरतें युद्ध में पकड़ी हुई आएँ और उनके ग़ैर-मुस्लिम पति 'दारुल-हरब' (शत्रु के देश) में मौजूद हों वे हराम नहीं है, क्योंकि 'दारुल-हरब' से 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य क्षेत्र) में आने के बाद उनके निकाह टूट गए।
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 24
(25) और जो आदमी तुममें से इतनी सामर्थ्य न रखता हो कि कुलीन मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके उसे चाहिए कि तुम्हारी उन लौडियों (दासियों) में से किसी के साथ विवाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और ईमानवाली हों। अल्लाह तुम्हारे ईमान को अच्छी तरह जानता है, तुम सब एक ही गिरोह के लोग हो, अत: उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो और सामान्य नियम के अनुसार उनके मह्‍र अदा कर दो, ताकि वे निकाह की परिधि में सुरक्षित (मुहसनात) होकर रहें स्वछन्द कामतृप्ति न करती फिरें और न चोरी-छिपे नाजाइज़ सम्बन्ध बनाएँ। फिर जब वे विवाह की परिधि में सुरक्षित हो जाएँ और उसके बाद कोई अश्लील कर्म कर बैठे तो उनपर उस सज़ा के मुक़ाबले में आधी सज़ा है जो ख़ानदानी औरतों के लिए निर्धारित है।31 यह सुविधा तुममें से उन लोगों के लिए रखी गई है जिनको निकाह न करने से संयम के भंग हो जाने का भय हो। लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे लिए अच्छा है, और अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
31. जिस शब्द का अनुवाद कुलीन या सुरक्षित किया है उसके लिए क़ुरआन के इस रुकू (प्रकरण में 'मुहसनात' शब्द दो विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल हुआ है। एक “विवाहिता स्त्रियाँ” जिनको पति का संरक्षण प्राप्त हो। दूसरे “ख़ानदानी औरतें” जिनको ख़ानदान (अथवा कुल) का संरक्षण हासिल हो, यद्यपि वे विवाहिता न हों। आयत 24 में “मुहसनात” शब्द दासी या लौंडी के मुक़ाबले में अविवाहित ख़ानदानी औरतों के लिए इस्तेमाल हुआ है जैसा कि आयत के विषय से स्पष्ट है। इसके विपरीत लौंडियों के लिए “मुहसनात” शब्द पहले अर्थ में इस्तेमाल हुआ है और स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जब उन्हें विवाह का संरक्षण प्राप्त हो जाए (फ-इज़ा उहसिन्न') तब उनके लिए व्यभिचार करने पर उस सज़ा की आधी सज़ा है जो “मुहसनात” (अविवाहित ख़ानदानी औरतों) के लिए है।
يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمۡ وَيَهۡدِيَكُمۡ سُنَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَيَتُوبَ عَلَيۡكُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 25
(26) अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए उन रीतियों को स्पष्ट करे और उन्हीं रीतियों पर तुम्हें चलाए जिनका पालन तुमसे पहले के अच्छे लोग करते थे। वह अपनी दयालुता के साथ तुम्हारी ओर पलटना चाहता है, और वह सब कुछ जानता और गहरी समझ रखता है।
وَٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡكُمۡ وَيُرِيدُ ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلشَّهَوَٰتِ أَن تَمِيلُواْ مَيۡلًا عَظِيمٗا ۝ 26
(27) हाँ, अल्लाह तो तुम्हारी ओर दयालुता के साथ पलटना चाहता है मगर जो लोग ख़ुद अपनी वासनाओं के पीछे चल रहे है वे चाहते है कि तुम सीधे रास्ते से हटकर दूर निकल जाओ।
يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُخَفِّفَ عَنكُمۡۚ وَخُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ ضَعِيفٗا ۝ 27
(28) अल्लाह तुमपर से पाबन्दियों को हलका करना चाहता है क्योंकि इनसान कमज़ोर पैदा किया गया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामन्दी से32। और ख़ुद अपनी हत्या न करो।33 विश्वास करो कि अल्लाह तुमपर दया रखता है।
32. “ग़लत ढंग” से मुराद वे सभी तरीक़े हैं जो हक़ के विरुद्ध हो और धर्म-विधान और नैतिकता की दृष्टि से नाजाइज हो। “आपस की रजामन्दी” से मुराद स्वेच्छापूर्ण और जानी-बूझी रजामन्दी है। किसी दबाव या धोखा धड़ी पर आधारित रज़ामन्दी का नाम रज़ामन्दी नहीं है।
33. यह वाक्य पिछले वाक्य का अनुपूरक भी हो सकता है और ख़ुद एक स्वतन्त्र वाक्य भी। अगर पिछले वाक्य का अनुपूरक समझा जाए तो इसका अर्थ यह है कि दूसरों का माल नाजाइज़ तरीक़े से खाना अपने-आपको विनाश के गड्ढे में डालना है। और अगर इसे स्वतन्त्र वाक्य समझा जाए तो इसके दो अर्थ हैं: एक यह कि दूसरे की हत्या न करो। दूसरे यह कि आत्महत्या न करो।
وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ عُدۡوَٰنٗا وَظُلۡمٗا فَسَوۡفَ نُصۡلِيهِ نَارٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرًا ۝ 29
(30) जो व्यक्ति ज़ुल्म और ज्यादती के साथ ऐसा करेगा उसको हम ज़रूर ही आग में झोकेगे और यह अल्लाह के लिए कोई कठिन काम नहीं है।
إِن تَجۡتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنۡهَوۡنَ عَنۡهُ نُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَنُدۡخِلۡكُم مُّدۡخَلٗا كَرِيمٗا ۝ 30
(31) अगर तुम उन बड़े-बड़े गुनाहों से बचते रहो जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है तो तुम्हारी छोटी-मोटी बुराइयों को हम तुम्हारे हिसाब से हटा देंगे और तुमको इज़्ज़त की जगह में दाख़िल करेंगे।
وَلَا تَتَمَنَّوۡاْ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِۦ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبُواْۖ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبۡنَۚ وَسۡـَٔلُواْ ٱللَّهَ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 31
(32) और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना न करो। जो कुछ मर्दों ने कमाया है उसके अनुसार उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतो नें कमाया है उसके अनुसार उनका हिस्सा। हाँ, अल्लाह से उसके अनुग्रह की दुआ करते रहो, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़़ का ज्ञान रखता है।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا ۝ 32
(34) मर्द औरतों के मामलों के ज़िम्मेदार है35, इस आधार पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे के मुक़ाबले में आगे रखा है और इस आधार पर कि पुरुष अपने माल ख़र्च करते हैं। अतः जो भली औरतें हैं वे आज्ञाकारी होती है और मर्दों के पीछे अल्लाह की रक्षा और संरक्षण में उनके अधिकारों की रक्षा करती हैं। और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का भय हो उन्हें समझाओ, सोने की जगह (ख़्वाबगाहों) में उनसे अलग रहो और मारो36, फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगें तो अकारण उनपर हाथ चलाने के लिए बहाने तलाश न करो, यक़ीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और सर्वोच्च है।
35. यहाँ 'क़ौवाम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'क़ौवाम' उस व्यक्ति को कहते हैं जो किसी व्यक्ति या संस्था या व्यवस्था के मामलों को ठीक हालत में चलाने और उसको रक्षा और निगहबानी करने और उसको आवश्यकताओं को पूरा करने का ज़िम्मेदार हो।
36. यह अर्थ नहीं है कि तीनों काम एक साथ कर डाले जाएँ, बल्कि अर्थ यह है कि सरकशी की हालत में इन दोनों उपायों को अपनाया जा सकता है। अब रहा इनका व्यवहार में लाना, तो हर हाल में इसमें अपराध और सज़ा के बीच अनुकूलता होनी चाहिए, और जहाँ हलके उपाय से बात बन सकती हो वहाँ कड़े उपाय से काम न लेना चाहिए। नबी (सल्ल०) ने पत्नियों को मारने की जब कभी इजाज़त दी है तो नहीं चाहते हुए दी है और फिर भी इसे नापसन्द ही किया है।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِهِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَٰحٗا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرٗا ۝ 33
(35) और अगर तुम लोगों को कहीं पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगड़ जाने का अंदेशा हो तो एक फ़ैसला करनेवाला मर्द के नातेदारों में से और एक औरत के नातेदारों में से मुक़र्रर करो। ये दोनों37 सुधार करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच मेल का रास्ता निकाल देगा, अल्लाह सब कुछ जानता और ख़बर रखता है।
37. दोनों से मुराद मध्यस्थ व्यक्ति भी है और पति-पत्नी भी। हर झगड़े में सुलह होने की संभावना है शर्त यह है कि दोनों पक्ष के लोग सुलह को पसन्द करते हों और बीचवाले भी चाहते हों कि दोनों पक्षों में किसी तरह सुलह-सफ़ाई हो जाए।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا ۝ 34
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को साझी न बनाओ, माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, नातेदारों और यतीमों और मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करो, और पड़ोसी नातेदार से, अपरिचित पड़ोसी से पहलू के साथी38 और मुसाफ़िर से, और उन दास-दासियों से जो तुम्हारे अधिकार में हों, एहसान का मामला रखो, यक़ीन जानो अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता जो डींगें मारनेवाला हो और अपनी बड़ाई पर गर्व करे।
38. इससे मुराद पास बैठने वाला दोस्त भी है और ऐसा व्यक्ति भी जिसे कहीं किसी समय आदमी का साथ हो जाए। उदाहरणस्वरूप आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई व्यक्ति आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा ख़रीद रहे हों और कोई दूसरा ख़रीददार भी आपके पास बैठा हो, या सफ़र में कोई व्यक्ति आपका सहयात्री हो। इस अस्थायी निकटता के कारण भी हर सभ्य और सज्जन व्यक्ति पर एक हक़ आता है जिसका तक़ाज़ा यह है कि वह जितना हो सके उसके साथ अच्छा व्यवहार करे और उसे तकलीफ़ देने से बचे।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِ وَيَكۡتُمُونَ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 35
(37) और ऐसे लोग भी अल्लाह को पसंद नहीं हैं जो कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी पर उभारते हैं और जो कुछ अल्लाह ने अपने अनुग्रह से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं। ऐसे नाशुक्रे लोगों के लिए हमने रुसवा कर देनेवाला अज़ाब तैयार कर रखा है।
وَٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ وَمَن يَكُنِ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَهُۥ قَرِينٗا فَسَآءَ قَرِينٗا ۝ 36
(38) और वे लोग भी अल्लाह को पसन्द नहीं हैं जो अपने माल सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते हैं और हक़ीक़त में न अल्लाह पर ईमान रखते है और न आख़िरत के दिन पर। सच यह है कि शैतान जिसका साथी हुआ उसे बहुत ही बुरा साथ प्राप्त हुआ।
وَمَاذَا عَلَيۡهِمۡ لَوۡ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِهِمۡ عَلِيمًا ۝ 37
(39) आख़िर इन लोगों पर क्या आफ़त आ जाती अगर ये अल्लाह और आख़िरत के दिन को मानते और जो कुछ अल्लाह ने दिया है उसमें से ख़र्च करते। अगर ये ऐसा करते तो अल्लाह से इनकी नेकी का हाल छिपा न रह जाता।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖۖ وَإِن تَكُ حَسَنَةٗ يُضَٰعِفۡهَا وَيُؤۡتِ مِن لَّدُنۡهُ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 38
(40) अल्लाह किसी पर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं करता। अगर कोई एक नेकी करे तो अल्लाह उसे दो गुना करता है और फिर अपनी ओर से बड़ा बदला देता है।
فَكَيۡفَ إِذَا جِئۡنَا مِن كُلِّ أُمَّةِۭ بِشَهِيدٖ وَجِئۡنَا بِكَ عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ شَهِيدٗا ۝ 39
(41) फिर सोचो कि उस समय ये क्या करेंगे जब हम हर समुदाय (उम्मत) में से एक गवाह लाएँगे और इन लोगों पर तुम्हें (अर्थात् मुहम्मद सल्ल० को) गवाह की हैसियत से खड़ा करेंगे।
يَوۡمَئِذٖ يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَعَصَوُاْ ٱلرَّسُولَ لَوۡ تُسَوَّىٰ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضُ وَلَا يَكۡتُمُونَ ٱللَّهَ حَدِيثٗا ۝ 40
(42) उस समय वे सब लोग जिन्होंने रसूल की बात न मानी और उसकी नाफ़रमानी करते रहे, तमन्ना करेंगे कि क्या ही अच्छा होता कि धरती फट जाए और वे उसमें समा जाएँ। वहाँ ये अपनी कोई बात अल्लाह से न छिपा सकेंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا ۝ 41
(43) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब न जाओ।39 नमाज़ उस समय पढ़नी चहिए जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो।40 और इसी तरह नापाकी की हालत41 में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि नहा-धो न लो, यह और बात है कि रास्ते से गुज़रते42 हो। और अगर कभी ऐसा हो कि तुम बीमार हो, या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शौच करके आए, या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो43, और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो (हाथ फेर लो)44, बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और बख़्शनेवाला है।
39. यह शराब के सम्बन्ध में दूसरा आदेश है। पहला आदेश वह था जो सूरा बक़रा (आयत 219) में गुज़र चुका है।
40 अर्थात् नमाज़ में आदमी को इतना होश रहे कि वह यह जाने कि वह क्या चीज़़ अपने मुख से कह रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा तो हो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल
41. नापाकी (जनाबत) से मुराद वह नापाकी है जो संभोग से या स्वप्न में वीर्यपात से हो जाती है।
42. धर्मशास्त्रियों और टीकाकारों में से एक गिरोह ने इस आयत का मतलब यह समझा है कि नापाकी की हालत में मसजिद में न जाना चाहिए यह और बात है कि किसी काम के लिए मसजिद में से गुज़रना हो। दूसरे गिरोह की दृष्टि में इससे मुराद सफ़र है। अर्थात् अगर आदमी सफ़र की हालत में हो और नापाक हो जाए तो 'तयम्मुम' किया जा सकता है।
43. इस मामले में मतभेद है कि 'लम्स' अर्थात् छूने से मुराद क्या है। अनेक इमामों का मत है कि इससे मुराद संभोग है और इसी मत को इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके साथियों ने ग्रहण किया है। इसके ख़िलाफ़ कुछ दूसरे धर्मशास्त्रियों की दृष्टि में इससे मुराद छूना या हाथ लगाना है और इसी मत को इमाम शाफ़िई (रह०) ने अपनाया है। इमाम मालिक (रह०) का मत है कि अगर औरत या मर्द एक दूसरे को कामवासना के साथ हाथ लगाएँ तो उनका 'वुज़ू' टूट जाएगा, लेकिन अगर बिना कामवासना के एक का शरीर दूसरे से छू जाए तो इसमें कोई हरज नहीं।
44. आदेश का विस्तृत रूप यह है कि अगर आदमी बेवुज़ू है या उसे नहाने की आवश्यकता है और पानी नहीं मिलता तो 'तयम्मुम' करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर बीमार है और नहाने या 'वुज़ू' करने से उसे नुक़सान का अंदेशा है तो पानी मौजूद होते हुए भी 'तयम्मुम' की इजाज़त से फ़ायदा उठा सकता है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يَشۡتَرُونَ ٱلضَّلَٰلَةَ وَيُرِيدُونَ أَن تَضِلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 42
(44) तुमने उन लोगों को भी देखा जिन्हें किताब के इल्म का कुछ भाग दिया गया है? वे ख़ुद गुमराही के ख़रीदार बने हुए हैं और चाहते हैं कि तुम भी गुमराह हो जाओ।
وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِأَعۡدَآئِكُمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَلِيّٗا وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ نَصِيرٗا ۝ 43
(45) अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों को ख़ूब जानता है और तुम्हारी सहायता और समर्थन के लिए अल्लाह ही काफ़ी है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 44
(46) जो लोग यहूदी बन गए हैं उनमें कुछ लोग हैं जो शब्दों को उनके स्थान से फेर देते हैं,45 और सत्य-धर्म के ख़िलाफ़ चोट करने के लिए अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़कर कहते हैं, “हमने सुना मगर स्वीकार नहीं किया”46 और “सुनिए, आप ऐसे नहीं कि कोई सुनाए”47 और “हमारी रिआयत करें।”48 हालाँकि अगर वे कहते, “हमने सुना और हमने माना” और “सुनिए” और “हमारी ओर ध्यान दें” तो यह उन्हीं के लिए अच्छा था और ज़्यादा सच्चाई का तरीक़ा था। मगर उनपर तो उनकी असत्यवादिता के कारण अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
45. इसके तीन अर्थ हैं: एक यह कि अल्लाह की किताब के शब्दों में परिवर्तन करते हैं। दूसरे यह कि अपने हेर-फेर से किताब की आयतों के अर्थ कुछ से कुछ बना देते हैं। तीसरे यह कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आपके अनुयायियों के पास आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने ग़लत ढंग से बयान करते हैं, बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी दुष्टता से कुछ का कुछ बनाकर लोगों में प्रसिद्ध कर देते हैं।
46. अर्थात् जब उन्हें अल्लाह के आदेश सुनाए जाते हैं तो ज़ोर से कहते हैं 'समेअना' (हमने सुन लिया) और धीरे से कहते हैं 'असैना' (हमने स्वीकार नहीं किया) या 'अताना' (हमने स्वीकार किया) का उच्चारण इस ढंग से ज़बान को लचका देकर करते हैं कि 'असैना' (हमने स्वीकार नहीं किया) बन जाता है।
47. अर्थात् बातचीत के बीच जब वे कोई बात मुहम्मद (सल्ल०) से कहना चाहते हैं तो कहते हैं 'इस्मअ' (सुनिए) और फिर साथ ही 'ग़ै-र मुस्मइन' भी कहते हैं जिसके कई अर्थ होते हैं। इसका एक अर्थ यह है कि आप ऐसे आदरणीय है कि आपको कोई बात मरज़ी के ख़िलाफ़ नहीं सुनाई जा सकती। दूसरा अर्थ यह है तुम इस योग्य नहीं हो कि तुम्हें कोई कुछ सुनाए। एक और अर्थ यह है कि ख़ुदा ऐसा करे कि तुम बहरे हो जाओ।
48. इसकी व्याख्या सूरा 2 (अल-बक़रा) फ़ुट नोट नं० 36 में हो चुकी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ ءَامِنُواْ بِمَا نَزَّلۡنَا مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُم مِّن قَبۡلِ أَن نَّطۡمِسَ وُجُوهٗا فَنَرُدَّهَا عَلَىٰٓ أَدۡبَارِهَآ أَوۡ نَلۡعَنَهُمۡ كَمَا لَعَنَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلسَّبۡتِۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولًا ۝ 45
(47) ऐ वे लोगो जिन्हें किताब दी गई थी, मान लो उस किताब को जो हमने अब उतारी है, और जो उस किताब की पुष्टि और समर्थन करती है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी। इसपर ईमान लाओ इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें या उनको उसी तरह फिटकारा हुआ कर दें जिस तरह 'सब्तवालों' के साथ हमने किया था, और याद रखो कि अल्लाह का आदेश लागू होकर रहता है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفۡتَرَىٰٓ إِثۡمًا عَظِيمًا ۝ 46
(48) अल्लाह बस शिर्क (साझीदार बनाने) ही को माफ़ नहीं करता, इसके सिवा दूसरे जितने गुनाह हैं वह जिसके लिए चाहता है माफ़ कर देता है। अल्लाह के साथ जिसने किसी और को साझी ठहराया उसने तो बहुत ही बड़ा झूठ रचा और बड़े सख़्त गुनाह की बात की।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنفُسَهُمۚ بَلِ ٱللَّهُ يُزَكِّي مَن يَشَآءُ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 47
(49) तुमने उन लोगों को भी देखा जो अपने पवित्रात्मा होने का बहुत दम भरते हैं? हालाँकि पवित्रता तो अल्लाह ही जिसे चाहता है प्रदान करता है, और इन्हें जो पवित्रता नहीं मिलती तो वास्तव में) इनपर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं किया जाता।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَكَفَىٰ بِهِۦٓ إِثۡمٗا مُّبِينًا ۝ 48
(50) देखो तो सही, ये अल्लाह पर भी झूठा इलज़ाम गढ़ने से नहीं चूकते और इनके खुले गुनहगार होने के लिए यही एक गुनाह बहुत है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا ۝ 49
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया। हैं, और उनका हाल यह है कि निराधार चीज़ों49 और ताग़ूत (फ़सादी) को मानते हैं और अधर्मियों के बारे में कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं51
49. यहाँ 'जिब्त' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'जिब्त' के मूल अर्थ हैं तथ्यहीन, निराधार और व्यर्थ चीज़़। इस्लाम की भाषा में जादू ज्योतिष, शकुन विचार टोने-टोटके और मुहूर्त और सभी अन्धविश्वासपूर्ण और काल्पनिक बातों को 'जिब्त' की संज्ञा दी गई है।
50. व्याख्या के लिए देखें सूरा 2 (अल-बक़रा) फ़ुट नोट नं० 89-90
51. यहाँ अधर्मियों (काफ़िरों) से मुराद अरब के मुशरिक (बहुदेववादी) हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَمَن يَلۡعَنِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ نَصِيرًا ۝ 50
(52) ऐसे ही लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की है और जिसपर अल्लाह लानत कर दे फिर तुम उसका कोई सहायक न पाओगे।
أَمۡ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُلۡكِ فَإِذٗا لَّا يُؤۡتُونَ ٱلنَّاسَ نَقِيرًا ۝ 51
(53) क्या हुकूमत में उनका कोई हिस्सा है? अगर ऐसा होता तो ये दूसरों को एक फूटी कौड़ी तक न देते।
أَمۡ يَحۡسُدُونَ ٱلنَّاسَ عَلَىٰ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۖ فَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ ءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَءَاتَيۡنَٰهُم مُّلۡكًا عَظِيمٗا ۝ 52
(54) फिर क्या ये दूसरों से इसलिए ईर्ष्या करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपने अनुग्रह से नवाज़ दिया? अगर यह बात है तो उन्हें मालूम हो कि हमने तो इबराहीम की सन्तान को किताब और गहरी समझ दी और महान् राज्य प्रदान कर दिया,
فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن صَدَّ عَنۡهُۚ وَكَفَىٰ بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا ۝ 53
(55) मगर उनमें से किसी ने माना और कोई उससे मुँह मोड़ गया और मुँह मोड़नेवालों के लिए तो बस जहन्नम की भड़कती हुई आग ही काफ़ी है।52
52. याद रहे कि यहाँ जवाब इसराईलियों की ईर्ष्यापूर्ण बातों का दिया जा रहा है। इस जवाब का मतलब यह है कि तुम लोग आख़िर जलते किस बात पर हो? तुम भी इबराहीम की औलाद हो और ये इसमाईल के वंशज भी इबराहीम ही की औलाद हैं। इबराहीम से संसार के नेतृत्व का जो वादा हमने किया था वह इबराहीम के लोगों में से सिर्फ़ उन लोगों के लिए था जो हमारी भेजी हुई किताब और हिकमत (गहरी समझ) का अनुसरण करें। यह किताब और हिकमत पहले हमने तुम्हारे पास भेजी थी किन्तु तुम्हारी अपनी नालायक़ी और अयोग्यता थी कि तुम इससे मुँह मोड़ गए। अब वही चीज़़ हमने इसमाईल के वंशज को दी है और यह उनका सौभाग्य है कि उन्होंने उसे मान लिया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَوۡفَ نُصۡلِيهِمۡ نَارٗا كُلَّمَا نَضِجَتۡ جُلُودُهُم بَدَّلۡنَٰهُمۡ جُلُودًا غَيۡرَهَا لِيَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 54
(56) जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इनकार कर दिया है उन्हें ज़रूर ही हम आग में झोकेंगे और जब उनके बदन की खाल गल जाएगी, तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे ताकि वे अच्छी तरह अज़ाब का मज़ा चखे। अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और अपने फ़ैसलों को व्यवहार में लाने की हिकमत को ख़ूब जानता है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ لَّهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَنُدۡخِلُهُمۡ ظِلّٗا ظَلِيلًا ۝ 55
(57) और जिन लोगों ने हमारी आयतों को मान लिया और अच्छे कर्म किए उनको हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, जहाँ वे हमेशा-हमेशा रहेंगे और उनको पाकीज़ा पत्नियाँ मिलेंगी और उन्हें हम घनी छाँव में रखेंगे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 56
(58) मुसलमानो, अल्लाह तुम्हे आदेश देता है कि अमानतों को अमानतवालों को सौंपो और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो तो इनसाफ़ के साथ करो53, अल्लाह तुमको निहायत अच्छी नसीहत करता है और यक़ीनन अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
53. अर्थात् तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें इसराईली पड़ गए हैं। इसराईलियों की बुनियादी ग़लतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने अवनतिकाल में अमानतें, अर्थात् दायित्व के पद और धार्मिक नेतृत्व और समुदाय की सरदारी के पद ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो अयोग्य, अनुदार, दुराचारी, विश्वासघाती और दुष्कर्मी थे। नतीजा यह हुआ कि बुरे लोगों के नेतृत्व में पूरा समुदाय बिगड़ता चला गया। मुसलमानों को समझाया जा रहा है कि तुम ऐसा न करना। इसराईलियों की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे न्याय की चेतना से वंचित हो गए थे। वे निजी और क़ौमी उद्देश्यों के लिए निस्संकोच ईमान से हट जाते थे। खुली हठधर्मी बरत जाते थे। इनसाफ़ के गले पर छुरी फेरने में उन्हें तनिक भी संकोच न होता था। अल्लाह तआला मुसलमानों को ताकीद करता है कि तुम कहीं बेइनसाफ़ न बन जाना। चाहे किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, हर हालत में बात जब कहो इनसाफ़ की कहो और फ़ैसला जब करो न्यायपूर्वक करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا ۝ 57
(59) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बात मानो अल्लाह की और बात मानो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से आदेश देने के अधिकारी हों, फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा खड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो54 अगर तुम वास्तव में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। यही एक सही कार्य प्रणाली है और परिणाम की दृष्टि से भी अच्छा है।
54. यह आयत इस्लाम की पूरी धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्था का आधार और इस्लामी राज्य के संविधान की सर्वप्रथम धारा है। इसमें निम्नलिखित चार सिद्धान्त स्थायी रूप में क़ायम कर दिए गए हैं: (1) इस्लामी व्यवस्था में आदेश देने का असल अधिकारी अल्लाह है। एक मुसलमान सबसे पहले अल्लाह का बन्दा और दास है, बाक़ी जो कुछ भी है उसके बाद है। (2) इस्लामी व्यवस्था का दूसरा आधार रसूल (पैग़म्बर) का आज्ञापालन है। (3) उपर्युक्त दोनों आज्ञापालनों के बाद और उनके अधीन तीसरा आज्ञापालन उन आदेश देनेवाले अधिकारियों (ऊलुल-अम्र) का है जो ख़ुद मुसलमानों में से हों। “ऊलुल-अम्र” के अर्थ में ये सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के सामूहिक मामलों के कार्यकारी अध्यक्ष हो, चाहे वे धर्मज्ञाता विद्वान (उलमा) हों, या राजनीतिक मार्गदर्शक नेता हों या देश के व्यवस्थापक अधिकारी, या अदालती फ़ैसले करनेवाले जज, या सांस्कृतिक और सामाजिक मामलों में क़बीलों और बस्तियों और मुहल्लों की अध्यक्षता करनेवाले बड़े बुजुर्ग और सरदार। (4) अल्लाह का आदेश और रसूल का तरीक़ा बुनियादी क़ानून और आख़िरी सनद (अंतिम प्रमाण) है। मुसलमानों के बीच या हुकूमत और प्रजा के बीच जिस मामले में भी झगड़ा या विवाद उत्पन्न होगा उसमें फ़ैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत (रसूल के तरीक़े) की तरफ़ रुजू किया जाएगा और जो फ़ैसला वहाँ से हासिल होगा उसके सामने सब स्वीकार के लिए सिर झुका देंगे।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يَزۡعُمُونَ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُوٓاْ إِلَى ٱلطَّٰغُوتِ وَقَدۡ أُمِرُوٓاْ أَن يَكۡفُرُواْ بِهِۦۖ وَيُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُضِلَّهُمۡ ضَلَٰلَۢا بَعِيدٗا ۝ 58
(60) ऐ नबी, तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हमने मान लिया है उस किताब को जो तुम्हारी ओर उतारी गई है और उन किताबों को जो तुमसे पहले उतारी गई थीं, मगर चाहते यह हैं कि अपने मामलों का फ़ैसला कराने के लिए बढ़े हुए फ़सादी की ओर जाएँ, जबकि उन्हें फ़सादी से इनकार करने का आदेश दिया गया था55 – शैतान उन्हें भटका कर सीधे मार्ग से बहुत दूर ले जाना चाहता है।
55. यहाँ स्पष्ट रूप से “ताग़ूत” (बढ़े हुए फ़सादी) से मुराद वह हाकिम है जो अल्लाह के क़ानून के सिवा किसी दूसरे क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करता हो, और वह न्याय व्यवस्था है जो न तो अल्लाह की सम्प्रभुता की आज्ञाकारी हो और न अल्लाह की किताब को आख़िरी सनद मानती हो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ رَأَيۡتَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودٗا ۝ 59
(61) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की और जो अल्लाह ने उतारी है और आओ रसूल की ओर तो इन मुनाफ़िक़ों (पाखण्डियों) को तुम देखते हो कि ये तुम्हारी ओर आने से कतराते हैं।
فَكَيۡفَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ جَآءُوكَ يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّآ إِحۡسَٰنٗا وَتَوۡفِيقًا ۝ 60
(62) फिर उस समय क्या होता है जब इनके अपने हाथों की लाई हुई मुसीबत इनपर आ पड़ती है? उस समय ये तुम्हारे पास क़समें खाते हुए आते हैं और कहते हैं कि अल्लाह की क़सम हम तो सिर्फ़ भलाई चाहते थे और हमारी नीयत तो यह थी कि दोनों गिरोहों में किसी तरह की संगति बैठ जाए
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَعِظۡهُمۡ وَقُل لَّهُمۡ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَوۡلَۢا بَلِيغٗا ۝ 61
(63) — अल्लाह जानता है जो कुछ इनके दिलों में है, इनसे किनारा मत करो इन्हें समझाओं और ऐसी नसीहत करो जो इनके दिलों में उत्तर जाए।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ إِذ ظَّلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ جَآءُوكَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡتَغۡفَرَ لَهُمُ ٱلرَّسُولُ لَوَجَدُواْ ٱللَّهَ تَوَّابٗا رَّحِيمٗا ۝ 62
(64) (इन्हें बताओ कि हमने जो भी रसूल भेजा है इसी लिए भेजा है कि अल्लाह की अनुमति से उसकी आज्ञा का पालन किया जाए। अगर उन्होंने यह नीति अपनाई होती कि जब ये अपने आप पर ज़ुल्म कर बैठे थे तो तुम्हारे पास आ जाते और अल्लाह से माफ़ी माँगते, और रसूल भी इनके लिए माफ़ी की प्रार्थना करते, तो यक़ीनन अल्लाह को माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला पाते।
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَرَجٗا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمٗا ۝ 63
(65) नहीं, ऐ नबी, तुम्हारे रब की क़सम! ये कभी ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के मतभेदों में ये तुमको फ़ैसला करनेवाला न मान लें, फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उसपर अपने दिलों में भी कोई तंगी न पाएँ, बल्कि स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लें।
وَلَوۡ أَنَّا كَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَنِ ٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ أَوِ ٱخۡرُجُواْ مِن دِيَٰرِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلَّا قَلِيلٞ مِّنۡهُمۡۖ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ فَعَلُواْ مَا يُوعَظُونَ بِهِۦ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَشَدَّ تَثۡبِيتٗا ۝ 64
(66) अगर हमने इन्हें आदेश दिया होता कि अपने आप को मारो या अपने घरों से निकल जाओ तो इनमें से थोड़े ही आदमी ऐसा करते, हालाँकि जो नसीहत इन्हें की जाती है अगर ये उसे व्यवहार में लाते तो यह इनके लिए ज़्यादा अच्छाई और ज़्यादा जमाव का कारण सिद्ध होता।
وَإِذٗا لَّأٓتَيۡنَٰهُم مِّن لَّدُنَّآ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 65
(67) और जब ये ऐसा करते तो हम इन्हें अपनी ओर से बहुत बड़ा बदला देते
وَلَهَدَيۡنَٰهُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 66
(68) और इन्हें सीधा रास्ता दिखा देते!
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلصِّدِّيقِينَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَٱلصَّٰلِحِينَۚ وَحَسُنَ أُوْلَٰٓئِكَ رَفِيقٗا ۝ 67
(69) जो लोग अल्लाह और रसूल की आज्ञा का पालन करेंगे वह उन लोगों के साथ होंगे जिनपर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया है अर्थात् नबी, सच्चे लोग और शहीद और अच्छे लोग।56 कैसे अच्छे हैं ये साथी जो किसी को प्राप्त हों!
56. इसका अर्थ यह है कि परलोक (आख़िरत) में वे इन लोगों के साथ होंगे। यह अर्थ नहीं कि इनमें से कोई अपने इस कर्म के द्वारा नबी भी बन जाएगा।
ذَٰلِكَ ٱلۡفَضۡلُ مِنَ ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ عَلِيمٗا ۝ 68
(70) यह वास्तविक अनुग्रह है जो अल्लाह की ओर से होता है और हक़ीक़त जानने के लिए बस अल्लाह ही का इल्म काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ خُذُواْ حِذۡرَكُمۡ فَٱنفِرُواْ ثُبَاتٍ أَوِ ٱنفِرُواْ جَمِيعٗا ۝ 69
(71) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, मुक़ाबले के लिए हर समय तैयार रहो, फिर जैसा अवसर हो अलग-अलग टुकड़ियों के रूप में निकलो या इकट्ठे होकर।57
57. स्पष्ट रहे कि यह आदेश उस ज़माने में उतरा था जब उहुद की पराजय के कारण निकटवर्ती क्षेत्रों के क़बीलों का साहस बढ़ गया था और मुसलमान हर तरफ़ से ख़तरों में घिर गए थे।
وَإِنَّ مِنكُمۡ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنۡ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَالَ قَدۡ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيَّ إِذۡ لَمۡ أَكُن مَّعَهُمۡ شَهِيدٗا ۝ 70
(72) हाँ, तुममें कोई-कोई आदमी ऐसा भी है जो लड़ाई से जी चुराता है, अगर तुमपर कोई मुसीबत आए तो कहता है कि अल्लाह ने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया कि मैं इन लोगों के साथ न गया,
وَلَئِنۡ أَصَٰبَكُمۡ فَضۡلٞ مِّنَ ٱللَّهِ لَيَقُولَنَّ كَأَن لَّمۡ تَكُنۢ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُۥ مَوَدَّةٞ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ مَعَهُمۡ فَأَفُوزَ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 71
(73) और अगर अल्लाह की ओर से तुमपर अनुग्रह हो तो कहता है — और इस तरह कहता है मानो तुम्हारे और उसके बीच प्रेम का कोई सम्बन्ध था ही नहीं — कि क्या ही अच्छा होता कि मैं भी इनके साथ होता तो बड़ा काम बन जाता।
۞فَلۡيُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يَشۡرُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَن يُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيُقۡتَلۡ أَوۡ يَغۡلِبۡ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 72
(74) (ऐसे लोगों को मालूम हो कि अल्लाह के मार्ग में लड़ना चाहिए उन लोगों को जो आख़िरत (परलोक) के बदले दुनियावी ज़िन्दगी को बेच दें, फिर जो अल्लाह के मार्ग में लड़ेगा और मारा जाएगा या विजयी रहेगा उसे ज़रूर हम बड़ी मज़दूरी प्रदान करेंगे।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا مِنۡ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلظَّالِمِ أَهۡلُهَا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيّٗا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا ۝ 73
(75) आख़िर क्या कारण है कि तुम अल्लाह के मार्ग में उन बेबस मर्दों, औरतों और बच्चों के लिए न लड़ो जो कमज़ोर पाकर दबा लिए गए हैं और फ़रियाद कर रहे हैं कि ऐ हमारे रब, हमको इस बस्ती से निकाल जिसके निवासी ज़ालिम है, और अपनी ओर से हमारा कोई समर्थक और सहायक पैदा कर दे।58
58. इशारा है उन सताए गए बच्चों, औरतों और मर्दों की ओर जो मक्का में और अरब के दूसरे क़बीलों में इस्लाम क़ुबूल कर चुके थे मगर न उन्हें हिजरत (घर-बार छोड़कर निकल जाने) की क़ुदरत हासिल थी और न अपने आपको ज़ुल्म से बचा सकते थे। इन ग़रीब दुखियों को तरह-तरह से ज़ुल्म व सितम का निशाना बनाया जा रहा था। और ये दुआएँ माँगते थे कि कोई इन्हें इस ज़ुल्म से बचाए।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱلطَّٰغُوتِ فَقَٰتِلُوٓاْ أَوۡلِيَآءَ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّ كَيۡدَ ٱلشَّيۡطَٰنِ كَانَ ضَعِيفًا ۝ 74
(76) जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है, वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं और जिन्होंने अधर्म का मार्ग अपनाया है, वे बढ़े हुए फ़सादी की राह में लड़ते हैं, अतः शैतान के साथियों से लड़ो और यक़ीन जानो कि शैतान की चालें वास्तव में बहुत ही कमज़ोर हैं।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمۡ كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَخۡشَوۡنَ ٱلنَّاسَ كَخَشۡيَةِ ٱللَّهِ أَوۡ أَشَدَّ خَشۡيَةٗۚ وَقَالُواْ رَبَّنَا لِمَ كَتَبۡتَ عَلَيۡنَا ٱلۡقِتَالَ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖۗ قُلۡ مَتَٰعُ ٱلدُّنۡيَا قَلِيلٞ وَٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّمَنِ ٱتَّقَىٰ وَلَا تُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 75
(77) तुमने उन लोगों को भी देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का आदेश दिया गया तो उनमें एक गिरोह का हाल यह है कि लोगों से ऐसा डर रहे हैं जैसा अल्लाह से डरना चाहिए या कुछ इससे भी बढ़कर कहते हैं, ऐ हमारे रब यह हम पर लड़ाई का आदेश क्यों लिख दिया? क्यों न हमें अभी कुछ और मोहलत दी? इनसे कहो, सांसारिक जीवन-पूँजी थोड़ी है, और आख़िरत (परलोक) एक अल्लाह से डरनेवाले इनसान के लिए ज़्यादा बेहतर है, और तुमपर ज़ुल्म एक ज़र्रा बराबर भी न किया जाएगा।59
59. अर्थात् अगर तुम अल्लाह के दीन (धर्म) की सेवा करोगे और उसके मार्ग में जानतोड़ कोशिश करोगे तो यह संभव नहीं है कि अल्लाह के यहाँ तुम्हारी मज़दूरी मारी जाए।
أَيۡنَمَا تَكُونُواْ يُدۡرِككُّمُ ٱلۡمَوۡتُ وَلَوۡ كُنتُمۡ فِي بُرُوجٖ مُّشَيَّدَةٖۗ وَإِن تُصِبۡهُمۡ حَسَنَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِكَۚ قُلۡ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ فَمَالِ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلۡقَوۡمِ لَا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ حَدِيثٗا ۝ 76
(78) रही मौत तो जहाँ भी तुम हो वह हर हाल में तुम्हें आकर रहेगी चाहे तुम कैसी ही मज़बूत इमारतों में हो। अगर उन्हें कोई लाभ पहुँचता है तो कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है, और अगर कोई नुक़सान पहुँचता है तो कहते हैं कि ऐ नबी, यह आपके कारण है। कहो, सब कुछ अल्लाह ही की ओर से है। आख़िर उन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात उनकी समझ में नहीं आती।
مَّآ أَصَابَكَ مِنۡ حَسَنَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ وَمَآ أَصَابَكَ مِن سَيِّئَةٖ فَمِن نَّفۡسِكَۚ وَأَرۡسَلۡنَٰكَ لِلنَّاسِ رَسُولٗاۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 77
(79) ऐ इनसान, तुझे जो भी भलाई हासिल होती है अल्लाह की कृपा से होती है, और जो मुसीबत तुझपर आती है वह तेरी अपनी कमाई और करतूत के कारण है। ऐ मुहम्मद, हमने तुमको लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और इसपर अल्लाह की गवाही काफ़ी है।
مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدۡ أَطَاعَ ٱللَّهَۖ وَمَن تَوَلَّىٰ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗا ۝ 78
(80) जिसने रसूल की आज्ञा मानी उसने वास्तव में अल्लाह की आज्ञा का पालन किया। और जो मुँह मोड़ गया, तो बहरहाल हमने तुम्हें उन लोगों पर चौकीदार बनाकर तो नहीं भेजा है।
وَيَقُولُونَ طَاعَةٞ فَإِذَا بَرَزُواْ مِنۡ عِندِكَ بَيَّتَ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ غَيۡرَ ٱلَّذِي تَقُولُۖ وَٱللَّهُ يَكۡتُبُ مَا يُبَيِّتُونَۖ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 79
(81) वे मुँह पर कहते हैं कि हम आज्ञाकारी हैं। मगर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उनमें से एक गिरोह रातों को इकट्ठा होकर तुम्हारी बातों के ख़िलाफ़ मशवरे करता है। अल्लाह उनकी ये सारी काना-फूसियाँ लिख रहा है। तुम उनकी परवाह न करो और अल्लाह पर भरोसा रखो, वही भरोसे के लिए काफ़ी है।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَۚ وَلَوۡ كَانَ مِنۡ عِندِ غَيۡرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ ٱخۡتِلَٰفٗا كَثِيرٗا ۝ 80
(82) क्या ये लोग क़ुरआन पर विचार नहीं करते? अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की ओर से होता तो इसमें बहुत कुछ बेमेल बयान पाया जाता।60
60. यह कलाम तो ख़ुद गवाही दे रहा है कि यह ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे का कलाम नहीं हो सकता। किसी इनसान को यह सामर्थ्य प्राप्त नहीं कि वह वर्षों विभिन्न स्थितियों में, विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न विषयों पर भाषण करता रहे और आरम्भ से अन्त तक उसके सारे भाषण ऐसा अनुकूल, समरस और सन्तुलित संग्रह बन जाएँ जिसका कोई भाग दूसरे भाग के विरोध में न जाए, जिसमें मत परिवर्तन का कहीं निशान तक न मिले, जिसमें भाषणकर्त्ता के मन के भाव अनुभाव अपने विभिन्न रंग न दिखाएँ और जिसपर पुनरीक्षण तक की कभी आवश्यकता न पड़ी हो।
وَإِذَا جَآءَهُمۡ أَمۡرٞ مِّنَ ٱلۡأَمۡنِ أَوِ ٱلۡخَوۡفِ أَذَاعُواْ بِهِۦۖ وَلَوۡ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنۡهُمۡ لَعَلِمَهُ ٱلَّذِينَ يَسۡتَنۢبِطُونَهُۥ مِنۡهُمۡۗ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَٱتَّبَعۡتُمُ ٱلشَّيۡطَٰنَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 81
(83) ये लोग जहाँ कोई निश्चिन्तता या भय की ख़बर सुन पाते हैं उसे लेकर फैला देते हैं, हालाँकि अगर ये उसे रसूल और अपने समुदाय के ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाएँ तो उससे ऐसे लोग बाख़बर हो जाएँ जो इनके बीच इस बात की योग्यता रखते हैं कि उससे सही नतीजा निकाल सकें।61 तुम लोगों पर अल्लाह का अनुग्रह और दयालुता न होती तो (तुम्हारी कमज़ोरियाँ ऐसी थीं कि) गिने-चुने थोड़े लोगों के सिवा तुम सब शैतान के पीछे लग गए होते।
61. वह चूँकि हंगामे का समय था इसलिए हर तरफ़ अफवाहें उड़ रही थीं। कभी ख़तरे की निराधार अतिशयोक्तिपूर्ण सूचनाएँ मिलतीं और उनसे अचानक मदीना और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में परेशानी फैल जाती। कभी कोई चालाक दुश्मन किसी वास्तविक ख़तरे को छिपाने के लिए निश्चिन्त कर देनेवाले समाचार भेज देता और लोग उन्हें सुनकर असावधानी में पड़ जाते। जनसाधारण इसका अन्दाज़ा नहीं कर सकते थे कि इस तरह की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना अफ़वाहें फैलाने के परिणाम कितने और कहाँ तक घातक होते हैं। उनके कान में जहाँ कोई भनक पड़ जाती उसे लेकर जगह-जगह फूँकते फिरते थे। उन्हीं लोगों की इस आयत में भर्त्सना की गई है और उन्हें कड़ाई के साथ सावधान किया गया है कि अफ़वाहें फैलाने से बाज़ रहें और हर ख़बर को जो उन तक पहुँचे उसे ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाकर चुप हो जाएँ।
فَقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا تُكَلَّفُ إِلَّا نَفۡسَكَۚ وَحَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَكُفَّ بَأۡسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَٱللَّهُ أَشَدُّ بَأۡسٗا وَأَشَدُّ تَنكِيلٗا ۝ 82
(84) अत: ऐ नबी, तुम अल्लाह की राह में लड़ो, तुम अपने-आप के सिवा किसी और के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो। अलबत्ता ईमानवालों को लड़ने के लिए उकसाओ, असंभव नहीं कि अल्लाह अधर्मियों का ज़ोर तोड़ दे, अल्लाह का ज़ोर सबसे अधिक प्रबल और उसकी सज़ा सबसे ज़्यादा सख़्त है।
مَّن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةً حَسَنَةٗ يَكُن لَّهُۥ نَصِيبٞ مِّنۡهَاۖ وَمَن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةٗ سَيِّئَةٗ يَكُن لَّهُۥ كِفۡلٞ مِّنۡهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقِيتٗا ۝ 83
(85) जो भलाई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा और जो बुराई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा, और अल्लाह हर चीज़ पर निगाह रखनेवाला है।
وَإِذَا حُيِّيتُم بِتَحِيَّةٖ فَحَيُّواْ بِأَحۡسَنَ مِنۡهَآ أَوۡ رُدُّوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَسِيبًا ۝ 84
(86) और जब कोई आदर के साथ तुम्हें सलाम करे तो उसको उससे ज़्यादा अच्छे ढंग से जवाब दो या कम से कम उसी तरह, अल्लाह हर चीज़़ का हिसाब लेनेवाला है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۗ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ حَدِيثٗا ۝ 85
(87) अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई ईश (ख़ुदा) नहीं है, वह तुम सबको उस क़ियामत के दिन इकट्ठा करेगा जिसके आने में कोई सन्देह नहीं, और अल्लाह की बात से बढ़कर सच्ची बात और किसकी हो सकती है।
۞فَمَا لَكُمۡ فِي ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِئَتَيۡنِ وَٱللَّهُ أَرۡكَسَهُم بِمَا كَسَبُوٓاْۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَهۡدُواْ مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 86
(88) फिर यह तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के बारे में तुम्हारे बीच दो मत पाए जाते हैं, हालाँकि जो बुराइयाँ उन्होंने कमाई हैं उनके कारण अल्लाह उन्हें उलटा फेर चुका है। क्या तुम चाहते हो कि जिसे अल्लाह ने सीधे रास्ते पर नहीं लगाया उसे तुम रास्ते से लगा दो? हालाँकि जिसको अल्लाह ने रास्ते से भटका दिया उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।
وَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ كَمَا كَفَرُواْ فَتَكُونُونَ سَوَآءٗۖ فَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ أَوۡلِيَآءَ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡۖ وَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرًا ۝ 87
(89) वे तो यह चाहते हैं कि जिस तरह वे ख़ुद अधर्मी हैं उसी तरह तुम भी अधर्मी हो जाओ ताकि तुम और वे सब समान हो जाएँ। अतः उनमें से किसी को अपना मित्र न बनाओ जब तक कि वे अल्लाह के रास्ते में घरबार छोड़कर न आ जाएँ, और अगर वे घरबार छोड़ने (हिजरत) से बाज़ रहे तो जहाँ पाओ उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो62 और उनमें से किसी को अपना दोस्त और मददगार न बनाओ।
62. यह आदेश उन मुनाफ़िक़ मुसलमानों के लिए है जो युद्धरत अधर्मी गिरोह से सम्बन्ध रखते हों और इस्लामी हुकूमत के ख़िलाफ़ वैमनस्यपूर्ण कार्रवाइयों में शामिल होकर काम करें।
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٌ أَوۡ جَآءُوكُمۡ حَصِرَتۡ صُدُورُهُمۡ أَن يُقَٰتِلُوكُمۡ أَوۡ يُقَٰتِلُواْ قَوۡمَهُمۡۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمۡ عَلَيۡكُمۡ فَلَقَٰتَلُوكُمۡۚ فَإِنِ ٱعۡتَزَلُوكُمۡ فَلَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ وَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سَبِيلٗا ۝ 88
(90) हाँ, उन मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) से इस आदेश का सम्बन्ध नहीं जो किसी ऐसी क़ौम से जा मिले जिसके साथ तुम्हारा समझौता है।63 इसी प्रकार उन मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का मामला भी इससे अलग है जो तुम्हारे पास आते हैं और लड़ाई से उनका मन खिन्न हो चुका है, न तुमसे लड़ना चाहते हैं और न अपनी क़ौम से। अल्लाह चाहता तो ऐसा करता कि वे तुमपर छा जाते और वे भी तुमसे लड़ते। अतः अगर वे तुमसे किनारा खींच लें और लड़ने से बाज़ रहे और तुम्हारी ओर सुलह और शान्ति का हाथ बढ़ाएँ तो अल्लाह ने तुम्हारे लिए उनपर हाथ बढ़ाने की कोई राह नहीं रखी है।
63. इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसे मुनाफ़िक़ों को दोस्त और सहायक बनाया जा सकता है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि उनको पकड़ा और मारा नहीं जा सकता क्योंकि वे ऐसे गिरोह से जा मिले हैं जिससे इस्लामी हुकूमत से अनुबन्ध या कोई समझौता है।
سَتَجِدُونَ ءَاخَرِينَ يُرِيدُونَ أَن يَأۡمَنُوكُمۡ وَيَأۡمَنُواْ قَوۡمَهُمۡ كُلَّ مَا رُدُّوٓاْ إِلَى ٱلۡفِتۡنَةِ أُرۡكِسُواْ فِيهَاۚ فَإِن لَّمۡ يَعۡتَزِلُوكُمۡ وَيُلۡقُوٓاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ وَيَكُفُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكُمۡ جَعَلۡنَا لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 89
(91) एक और तरह के मुनाफ़िक़ तुम्हें ऐसे मिलेंगे जो चाहते है कि तुमसे भी निर्भय होकर रहें और अपनी क़ौम से भी, मगर जब कभी उपद्रव का अवसर पाएँगे उसमें कूद पड़ेंगे। ऐसे लोग अगर तुम्हारे मुक़ाबले से बाज़ न रहें और सुलह और शान्ति तुम्हारे सामने न रखें और अपने हाथ न रोकें तो जहाँ वे मिलें उन्हें पकड़ो और मारो, उनपर हाथ उठाने के लिए हमने तुम्हें खुली सनद दे दी है।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 90
(92) किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमानवाले को क़त्ल करे, यह और बात है कि उससे चूक हो जाए। और जो आदमी किसी ईमानवाले को ग़लती से क़त्ल कर दे तो इसके गुनाह का कफ़्फ़ारा यह है कि एक ईमानवाले आदमी को ग़ुलामी से आज़ाद करें64 और जो क़त्ल हुआ उसके वारिसों को इसका ‘ख़ूनबहा’दे65, यह और बात है कि वे ख़ूनबहा को छोड़ दें। लेकिन अगर वह मुसलमान क़त्ल होनेवाला किसी ऐसी क़ौम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो तो इसका कफ़्फ़ारा एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद करना है। और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का आदमी था जिससे तुम्हारा समझौता हो तो उसके वारिसों को ख़ूनबहा दिया जाएगा और एक ईमानवाला ग़ुलाम आज़ाद करना होगा।66 फिर जो ग़ुलाम न पाए वह लगातार दो मास के रोज़े रखे।67 यह इस गुनाह से तौबा करने का तरीक़ा है68 और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी समझवाला है।
64. चूँकि मारा जानेवाला आदमी ईमानवाला था इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद कर देना ठहराया गया।
65. नबी (सल्ल०) ने 'ख़ून बहा' की मात्रा सौ ऊँट, या दो सौ गायें, या दो हज़ार बकरियाँ नियत की है। अगर दूसरे किसी रूप में कोई आदमी ख़ूनबहा देना चाहे तो उसकी मात्रा इन्हीं चीज़़ों के बाज़ार भाव के लिहाज़ से निश्चित की जाएगी। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) के ज़माने में नक़द ख़ूनबहा देनेवालों के लिए 8 सौ दीनार या 8 हजार दिरहम नियत थे। जब हज़रत उमर (रज़ि०) का समय आया तो उन्होंने कहा कि ऊँट का मूल्य अब चढ़ गया है, अतः अब सोने के सिक्के में एक हज़ार दीनार या चाँदी के सिक्के में 12 हज़ार दिरहम ख़ूनबहा दिलवाया जाएगा। मगर स्पष्ट रहे कि ख़ूनबहा की यह मात्रा जो निर्धारित की गई है जान बूझकर क़त्ल करने की स्थिति के लिए नहीं है, बल्कि भूल से क़त्ल हो जाने की स्थिति में है।
66. इस आयत के आदेशों का सारांश यह है: अगर मारा जानेवाला 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) का रहनेवाला है तो उसके क़ातिल को ख़ूनबहा भी देना होगा और अल्लाह से अपनी ग़लती की माफ़ी माँगने के लिए एक ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा। अगर वह 'दारूल-हरब' अर्थात् युद्धक्षेत्र और दुश्मन के राज्य का निवासी है। तो क़त्ल करनेवाले को सिर्फ़ ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। उसका ख़ूनबहा कुछ नहीं है। अगर वह किसी ऐसे 'दारुल-कुफ़्र' अर्थात् ग़ैर-इस्लामी राज्य का निवासी है जिससे इस्लामी हुकूमत का अनुबन्ध या समझौता है तो क़त्ल करनेवाले को एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा और इसके अलावा ख़ूनबहा भी देना होगा, लेकिन ख़ूनबहा की मात्रा वही होगी जितनी अनुबन्ध करनेवाले राष्ट्र के किसी ग़ैर-मुस्लिम आदमी को क़त्ल कर देने की स्थिति में अनुबन्ध और समझौते के अन्तर्गत देनी चाहिए।
67. अर्थात् रोज़े लगातार रखे जाएँ, बीच में कोई नाग़ा या व्यवधान न हो। अगर कोई आदमी शरीअत में मान्य लाचारी के बिना एक रोज़ा भी बीच में छोड़ दे तो नए सिरे से रोज़ों का सिलसिला शुरू करना पड़ेगा।
68. अर्थात् यह जुर्माना” या दण्ड नहीं बल्कि “तौबा' (ईश्वर की ओर लौट आना) और “कफ़्फ़ारा” (प्रायश्चित) है। 'जुर्माने' में पश्चाताप एवं लज्जा और आत्म-शुद्धि का भाव नहीं होता, बल्कि प्रायः वह अनमने मन से विवशतापूर्वक चुकाया जाता है और क्रोध एवं घृणा और कटुता अपने पीछे छोड़ जाता है। इसके विपरीत अल्लाह चाहता है कि जिस बन्दे से भूलकर ख़ता हुई है वह इबादत और भले कर्म और हक़ की अदायगी के ज़रिये से उसका बुरा प्रभाव अपनी आत्मा पर से धो दे और शरमिन्दगी और पश्चाताप के साथ अल्लाह की ओर रुजू करे, ताकि सिर्फ़ यहाँ नहीं कि यह गुनाह (पाप) माफ़ हो बल्कि भविष्य के लिए उसका मन ऐसी ग़लतियों को दोहराने से बचा रहे।
وَمَن يَقۡتُلۡ مُؤۡمِنٗا مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآؤُهُۥ جَهَنَّمُ خَٰلِدٗا فِيهَا وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَلَعَنَهُۥ وَأَعَدَّ لَهُۥ عَذَابًا عَظِيمٗا ۝ 91
(93) रहा वह आदमी जो किसी ईमानवाले का जान-बूझकर क़त्ल करे तो उसकी सज़ा जहन्नम है जिसमें वह हमेशा रहेगा। उसपर अल्लाह का ग़ज़ब और उसकी लानत है और अल्लाह ने उसके लिए कठोर अज़ाब तैयार कर रखा है।
لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡقَٰعِدُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ غَيۡرُ أُوْلِي ٱلضَّرَرِ وَٱلۡمُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ فَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ دَرَجَةٗۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَفَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 92
(95) मुसलमानों में से वे लोग जो बिना किसी कारण के घर बैठे रहते हैं और वे जो अल्लाह के मार्ग में जान और माल से जानतोड़ कोशिश करते हैं, दोनों की हैसियत समान नहीं है। अल्लाह ने बैठनेवालों की अपेक्षा जान और माल से जिहाद करनेवालों का दर्जा बड़ा रखा है। यद्यपि हर एक के लिए अल्लाह ने भलाई ही का वादा फ़रमाया है, मगर उसके यहाँ जानतोड़ कोशिश करनेवालों की सेवाओं का बदला बैठनेवालों से बहुत ज़्यादा है,
دَرَجَٰتٖ مِّنۡهُ وَمَغۡفِرَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا ۝ 93
(96) उनके लिए अल्लाह की ओर से बड़े दर्जे हैं और क्षमादान और दयालुता है, और अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمۡۖ قَالُواْ كُنَّا مُسۡتَضۡعَفِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ قَالُوٓاْ أَلَمۡ تَكُنۡ أَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٗ فَتُهَاجِرُواْ فِيهَاۚ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 94
(97) जो लोग अपने-आप पर ज़ुल्म कर रहे थे70 उनकी आत्माओं को जब फ़रिश्तों ने खींचा। पूछा कि यह तुम किस हाल में पड़ गए थे? उन्होंने जवाब दिया कि हम धरती में कमज़ोर और बेबस थे। फ़रिश्तों ने कहा, क्या अल्लाह की धरती विस्तृत न थी कि तुम उसमें घरबार छोड़कर कहीं चले जाते? ये वे लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है। और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
70. इससे मुराद वे लोग हैं जो इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी बिना किसी मज़बूरी और लाचारी के अपने अधर्मी क़ौम ही के बीच रह रहे थे और आधा इस्लामी और आधा ग़ैर-इस्लामी जीवन बसर करने पर राज़ी थे, जबकि एक 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) उपलब्ध हो चुका था जिसकी ओर हिजरत करके अपने धर्म और धारणा के मुताबिक़ पूरी इस्लामी ज़िन्दगी बसर करना उनके लिए संभव हो गया था और 'दारुल-इस्लाम' की ओर से उनको यह आमंत्रण भी दिया जा चुका था कि अपने ईमान को बचाने के लिए वे उसकी ओर हिजरत कर आएँ।
إِلَّا ٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ حِيلَةٗ وَلَا يَهۡتَدُونَ سَبِيلٗا ۝ 95
(98) हाँ, जो मर्द औरतें और बच्चे वास्तव में बेबस है और निकलने का कोई मार्ग और साधन नही पाते,
فَأُوْلَٰٓئِكَ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَعۡفُوَ عَنۡهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَفُوًّا غَفُورٗا ۝ 96
(99) बहुत संभव है कि अल्लाह उन्हें माफ़ कर दे, अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और छोड़ देनेवाला है।
۞وَمَن يُهَاجِرۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يَجِدۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُرَٰغَمٗا كَثِيرٗا وَسَعَةٗۚ وَمَن يَخۡرُجۡ مِنۢ بَيۡتِهِۦ مُهَاجِرًا إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ يُدۡرِكۡهُ ٱلۡمَوۡتُ فَقَدۡ وَقَعَ أَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 97
(100) जो कोई अल्लाह के मार्ग में घरबार छोड़कर निकलेगा वह धरती में पनाह लेने की बहुत जगह और गुज़र-बसर के लिए बड़ी गुंजाइश पाएगा, और जो अपने घर से सब कुछ छोड़कर अल्लाह और रसूल की ओर निकले, फिर रास्ते ही में उसकी मौत हो जाए उसका बदला अल्लाह के ज़िम्मे अनिवार्य हो गया, अल्लाह बहुत क्षमाशील और दयावान71 है।
71. यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि जिस व्यक्ति ने ईश्वरीय धर्म को मान लिया हो उसके लिए अधार्मिक प्रणाली के तहत ज़िन्दगी बसर करना सिर्फ़ दो ही स्थितियों में जाइज़ हो सकता है। एक यह कि वह इस्लाम को उस भू-भाग में प्रभुत्वशाली और अधिकार सम्पन्न कर देने और अधार्मिक प्रणाली को इस्लामी व्यवस्था में परिवर्तित करने का संघर्ष करता रहे जिस तरह सारे नबी और उनके आरम्भिक अनुयायी करते रहे हैं। दूसरे यह कि वह वास्तव में वहाँ से निकलने की कोई राह न पाता हो और बड़ी घृणा और विरक्ति के साथ वहाँ विवशतापूर्वक रह रहा हो।
وَإِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَقۡصُرُواْ مِنَ ٱلصَّلَوٰةِ إِنۡ خِفۡتُمۡ أَن يَفۡتِنَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْۚ إِنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ كَانُواْ لَكُمۡ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 98
(101) और जब तुम लोग सफ़र के लिए निकलो तो इसमें कोई हरज नहीं अगर नमाज़ को संक्षिप्त कर दो72 (विशेषत:) जबकि तुम्हें भय हो कि अधर्मी तुम्हें सताएँगे क्योंकि वे खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी दुश्मनी पर तुले हुए हैं।
72. शान्ति के समय के सफ़र में संक्षिप्त नमाज़ (क़स्र) यह है कि जिन समयों की नमाज़ में चार ‘रकअतें' फ़र्ज़ हैं उनमें दो 'रकअते' पढ़ी जाएँ। और लड़ाई की स्थिति में संक्षिप्त नमाज़ (क़स्र) के लिए कोई सीमा निश्चित नहीं है। लड़ाई की स्थितियों में जिस तरह संभव हो, नमाज़ पढ़ी जाए।
وَإِذَا كُنتَ فِيهِمۡ فَأَقَمۡتَ لَهُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَلۡتَقُمۡ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُم مَّعَكَ وَلۡيَأۡخُذُوٓاْ أَسۡلِحَتَهُمۡۖ فَإِذَا سَجَدُواْ فَلۡيَكُونُواْ مِن وَرَآئِكُمۡ وَلۡتَأۡتِ طَآئِفَةٌ أُخۡرَىٰ لَمۡ يُصَلُّواْ فَلۡيُصَلُّواْ مَعَكَ وَلۡيَأۡخُذُواْ حِذۡرَهُمۡ وَأَسۡلِحَتَهُمۡۗ وَدَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ تَغۡفُلُونَ عَنۡ أَسۡلِحَتِكُمۡ وَأَمۡتِعَتِكُمۡ فَيَمِيلُونَ عَلَيۡكُم مَّيۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن كَانَ بِكُمۡ أَذٗى مِّن مَّطَرٍ أَوۡ كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَن تَضَعُوٓاْ أَسۡلِحَتَكُمۡۖ وَخُذُواْ حِذۡرَكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 99
(102) और ऐ नबी, जब तुम मुसलमानों के बीच हो और (लड़ाई की हालत में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े हो तो चाहिए कि उनमें से एक गिरोह तुम्हारे साथ खड़ा हो और अपने हथियार लिए रहे, फिर जब वह सजदा कर ले तो पीछे चला जाए और दूसरा गिरोह जिसने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी है आकर तुम्हारे साथ पढ़े और वह भी चौकन्ना रहे और अपने हथियार लिए रहे73, क्योंकि अधर्मी इस ताक में हैं कि तुम अपने हथियारों और अपने सामानों की ओर से तनिक असावधान हो तो वे तुमपर एक साथ टूट पड़ें। अलबत्ता अगर वर्षा के कारण तकलीफ़ होती हो या बीमार हो तो हथियार रख देने में कोई हरज नहीं, मगर फिर भी चौकन्ने रहो। यक़ीन रखो कि अल्लाह ने अधर्मियों के लिए अपमानजनक यातना (अज़ाब) तैयार कर रखी है।
73, भय की दशा में नमाज़ पढ़ने का यह आदेश उस स्थिति के लिए है जबकि दुश्मन के आक्रमण की आशंका तो हो मगर व्यावहारिक रूप से लड़ाई छिड़ी न हो।
فَإِذَا قَضَيۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِكُمۡۚ فَإِذَا ٱطۡمَأۡنَنتُمۡ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۚ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ كَانَتۡ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ كِتَٰبٗا مَّوۡقُوتٗا ۝ 100
(103) फिर जब नमाज़ से फ़ारिग हो जाओ तो खड़े और बैठे और लेटे हर हाल में अल्लाह को याद करते रहो और जब ख़तरा टल जाए तो पूरी नमाज़ पढ़ो। नमाज़ वास्तव में ऐसा फ़र्ज़ है जो समय की पाबन्दी के साथ ईमान वालो के लिए अनिवार्य किया गया है।
وَلَا تَهِنُواْ فِي ٱبۡتِغَآءِ ٱلۡقَوۡمِۖ إِن تَكُونُواْ تَأۡلَمُونَ فَإِنَّهُمۡ يَأۡلَمُونَ كَمَا تَأۡلَمُونَۖ وَتَرۡجُونَ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا يَرۡجُونَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا ۝ 101
(104) इस गिरोह का पीछा करने में कमज़ोरी न दिखाओ अगर तुम तकलीफ़ उठा रहे हो तो तुम्हारी तरह वे भी तकलीफ़ उठा रहे हैं। और तुम अल्लाह से उस चीज़ की उम्मीद रखते हो जिसकी वे उम्मीद नहीं रखते। अल्लाह सब कुछ जानता है और वह गहरी समझवाला है।
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِتَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِمَآ أَرَىٰكَ ٱللَّهُۚ وَلَا تَكُن لِّلۡخَآئِنِينَ خَصِيمٗا ۝ 102
(105) ऐ नबी, हमने यह किताब हक़ के साथ तुम्हारी ओर उतारी है ताकि जो सीधा रास्ता अल्लाह ने तुम्हें दिखाया है उसके अनुसार लोगों के बीच फ़ैसला करो। तुम विश्वासघाती लोगों की ओर से झगडनेवाले न बनो,
وَٱسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 103
(106) और अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करो, वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।
وَلَا تُجَٰدِلۡ عَنِ ٱلَّذِينَ يَخۡتَانُونَ أَنفُسَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ خَوَّانًا أَثِيمٗا ۝ 104
(107) जो लोग ख़ुद अपने साथ विश्वासघात करते हैं74 तुम उनका पक्ष न लो। अल्लाह को ऐसा आदमी पसंद नहीं है जो विश्वासघाती और पापी हो।
74. जो आदमी दूसरे के साथ विश्वासघात करता है वह वास्तव में सबसे पहले ख़ुद अपने आपके साथ विश्वासघात करता है।
يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَلَا يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱللَّهِ وَهُوَ مَعَهُمۡ إِذۡ يُبَيِّتُونَ مَا لَا يَرۡضَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطًا ۝ 105
(108) ये लोग इनसानों से अपनी करतूतों को छिपा सकते हैं मगर अल्लाह से नहीं छिपा सकते। वह तो उस समय भी इनके साथ होता है जब ये रातों को छिपकर उसकी इच्छा के विरुद्ध मशवरे करते हैं। इनके सारे कर्मों को वह अपनी परिधि में लिए हुए है।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ جَٰدَلۡتُمۡ عَنۡهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَمَن يُجَٰدِلُ ٱللَّهَ عَنۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَم مَّن يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 106
(109) हाँ! तुम लोगों ने इन अपराधियों की ओर से सांसारिक जीवन में तो झगड़ा कर लिया, पर क़ियामत के दिन इनके लिए अल्लाह से कौन झगड़ा करेगा? आख़िर वहाँ कौन इनका वकील होगा?
وَمَن يَعۡمَلۡ سُوٓءًا أَوۡ يَظۡلِمۡ نَفۡسَهُۥ ثُمَّ يَسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَ يَجِدِ ٱللَّهَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 107
(110) अगर कोई आदमी बुरा काम कर बैठे या ख़ुद अपने पर ज़ुल्म कर जाए और इसके बाद अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करे तो अल्लाह को क्षमाशील और दयावान पाएगा।
وَمَن يَكۡسِبۡ إِثۡمٗا فَإِنَّمَا يَكۡسِبُهُۥ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 108
(111 ) मगर जो बुराई कमा ले तो उसकी यह कमाई उसी के लिए वबाल होगी, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है और वह गहरी समझवाला है और सर्वज्ञ है।
وَمَن يَكۡسِبۡ خَطِيٓـَٔةً أَوۡ إِثۡمٗا ثُمَّ يَرۡمِ بِهِۦ بَرِيٓـٔٗا فَقَدِ ٱحۡتَمَلَ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 109
(112) फिर जिसने कोई ख़ता या गुनाह करके उसका इलज़ाम किसी निरपराध पर थोप दिया उसने तो बड़े लांछन और खुले गुनाह का बोझ समेट लिया।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ وَرَحۡمَتُهُۥ لَهَمَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ أَن يُضِلُّوكَ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡۖ وَمَا يَضُرُّونَكَ مِن شَيۡءٖۚ وَأَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمۡ تَكُن تَعۡلَمُۚ وَكَانَ فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ عَظِيمٗا ۝ 110
(113) ऐ नबी, अगर अल्लाह का अनुग्रह तुमपर न होता और उसकी दयालुता तुम्हारे साथ न होती तो उनमें से एक गिरोह ने तो तुम्हें भ्रम में डाल देने का फ़ैसला कर ही लिया था, हालाँकि वास्तव में वे ख़ुद अपने सिवा किसी को भ्रम में डाल नहीं रहे थे और तुम्हारा कोई नुक़सान न कर सकते थे।75 अल्लाह ने तुमपर किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) उतारी है और तुमको वह कुछ बताया है जो तुम जानते न थे, और उसका अनुग्रह तुमपर बहुत है।
75. अर्थात् अगर वे झूठे वृत्तान्त और गवाहियाँ प्रस्तुत करके तुम्हें भ्रम में डालने में सफल भी हो जाते और अपने हक़ में इनसाफ़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला हासिल कर लेते तो हानि उन्हीं की थी, तुम्हारा कुछ भी न बिगड़ता, क्योंकि अल्लाह की दृष्टि में अपराधी वे होते न कि तुम जो आदमी हाकिम को धोखा देकर अपने हक़ में ग़लत फ़ैसला हासिल करता है वह वास्तव में ख़ुद अपने आपको इस भ्रम में डालता है कि इन उपायों से हक़ उसके साथ हो गया, हालाँकि हक़ीक़त में अल्लाह की नज़र में हक़ जिसका है उसी का रहता है और अदालत व हाकिम की किसी ग़लतफ़हमी के कारण फ़ैसला कर देने से हक़ीक़त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
۞لَّا خَيۡرَ فِي كَثِيرٖ مِّن نَّجۡوَىٰهُمۡ إِلَّا مَنۡ أَمَرَ بِصَدَقَةٍ أَوۡ مَعۡرُوفٍ أَوۡ إِصۡلَٰحِۭ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 111
(114) लोगों की ख़ुफ़िया कानाफूसियों में बहुधा कोई भलाई नहीं होती। हाँ अगर कोई छिपे रूप से दान या किसी भले काम के लिए उकसाए या लोगों के मामलों में सुधार के लिए किसी से कुछ कहे तो यह अलबत्ता भली बात है, और जो कोई अल्लाह की ख़ुशी चाहने के लिए ऐसा करेगा उसे हम बड़ा बदला देंगे।
وَمَن يُشَاقِقِ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَتَّبِعۡ غَيۡرَ سَبِيلِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ نُوَلِّهِۦ مَا تَوَلَّىٰ وَنُصۡلِهِۦ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 112
(115) मगर जो आदमी रसूल के विरोध पर कटिबद्ध हो और ईमान वालों के रास्ते के सिवा किसी और राह पर चले, जबकि उसपर सीधा मार्ग स्पष्ट हो चुका हो, तो उसको हम उसी ओर चलाएँगे जिधर वह ख़ुद फिर गया और उसे जहन्नम में झोंकेंगे जो सबसे बुरा ठिकाना है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 113
(116) अल्लाह के यहाँ बस 'शिर्क' (अनेकेश्वरवाद) ही की माफ़ी नहीं है, इसके सिवा और सब कुछ माफ़ हो सकता है जिसे वह माफ़ करना चाहे। जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया वह तो गुमराही में बहुत दूर निकल गया।
إِن يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ إِنَٰثٗا وَإِن يَدۡعُونَ إِلَّا شَيۡطَٰنٗا مَّرِيدٗا ۝ 114
(117) वे अल्लाह को छोड़कर देवियों को माबूद (उपास्य) बनाते हैं। वे उस विद्रोही शैतान को माबूद बनाते है76
76. शैतान को इस अर्थ में तो कोई भी पूज्य नहीं बनाता कि उसे पूजता और उसकी आराधना करता हो और उसे ईश्वरत्व का दर्जा देता हो। अलबत्ता उसे पूज्य इस रूप में बनाया जाता है कि आदमी अपनी इच्छा (नफ़्स) की बागडोर शैतान के हाथ में दे देता है और जिधर-जिधर वह चलाता है उधर चलता है, मानो यह उसका दास है और वह इसका ईश्वर। इससे मालूम हुआ कि बिना किसी आपत्ति और संकोच के आज्ञापालन करने और अन्धी पैरवी करने का नाम भी ‘इबादत’ (बन्दगी) है, और जो आदमी इस प्रकार का आज्ञापालन करता है वह वास्तव में उस आदमी की बन्दगी और इबादत करता है जिसे अल्लाह को छोड़कर उसने अपना प्रभु और आज्ञा देनेवाला बनाया हो।
لَّعَنَهُ ٱللَّهُۘ وَقَالَ لَأَتَّخِذَنَّ مِنۡ عِبَادِكَ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 115
(118) जिसपर अल्लाह की फिटकार पड़ी है। (वे उस शैतान का कहा मान रहे हैं) जिसने अल्लाह से कहा था कि “मैं तेरे बन्दों से एक निश्चित हिस्सा लेकर रहूँगा77,
77. अर्थात् उनके समय में, उनको मेहनतों और कोशिशों में, उनकी शक्तियों और योग्यताओं में, उनके माल और उनकी औलाद में अपना हिस्सा लगाऊँगा और उनको धोखा देकर ऐसा परचाऊँगा कि वे इन सारी चीज़़ों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा मेरी राह में ख़र्च करेंगे।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا ۝ 116
(119) मैं उन्हें बहकाउँगा, मैं उन्हें कामनाओं में उलझाऊँगा मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे78 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ईश्वरीय संरचना में परिवर्तन करेंगे।”79 उस शैतान को जिसने अल्लाह के बदले अपना दोस्त और सरपरस्त बना लिया वह खुले घाटे में पड़ गया।
78. अरबवालों को अन्धविश्वासपूर्ण रीतियों में से एक की ओर इशारा है। उनके यहाँ नियम था कि जब ऊँटनी के पाँच या दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम पर छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊँट के वीर्य से दस बच्चे हो जाते उसे भी देवता के नाम पर पुण्य कर दिया जाता था और कान चीरना इस बात का चिह्न था कि यह पुण्य किया हुआ जानवर है।
79. ईश्वरीय संरचना में परिवर्तन करने का अर्थ चीज़़ों की जन्मजात बनावट में परिवर्तन करना नहीं, बल्कि वास्तव में इस जगह जिस परिवर्तन को शैतानी काम कहा गया है वह यह है कि इनसान किसी चीज़़ से वह काम ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा नहीं किया है, और किसी चीज़़ से वह काम न ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा किया है। दूसरे शब्दों में वे सभी कर्म जो इनसान अपनी और चीज़़ों की प्रकृति के विरुद्ध करता है, और वे सभी तरीक़े जो वह प्रकृति के उद्देश्य से फेरने के लिए अपनाता है, इस आयत के मुताबिक़ शैतान को पथभ्रष्ट करनेवाली प्रेरणाओं के परिणाम हैं। जैसे गुदा मैथुन (क़ौमे-लूत का अमल), बच्चे पैदा करने पर रोक, संन्यास, ब्रह्मचर्य, मर्दों और औरतों को बाँझ बनाना, मर्दों को हिजड़ा बनाना, औरतों को उन सेवाओं से हटाना जो प्रकृति ने उन्हें सौंपी हैं और उन्हें संस्कृति के उन क्षेत्रों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किया गया है।
يَعِدُهُمۡ وَيُمَنِّيهِمۡۖ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 117
(120) वह इन लोगों से वादे करता है और इन्हें आशाएँ दिलाता है, मगर शैतान के सारे वादे धोखे के सिवा और कुछ नहीं है।
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ وَلَا يَجِدُونَ عَنۡهَا مَحِيصٗا ۝ 118
(121) इन लोगों का ठिकाना जहन्नम है जिससे छुटकारे का कोई उपाय ये न पाएँगे।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٗاۚ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ قِيلٗا ۝ 119
(122) रहे वे लोग जो ईमान ले आएँ और अच्छे काम करें, तो उन्हें हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे वहाँ हमेशा-हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का सच्चा वादा है और अल्लाह से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा।
لَّيۡسَ بِأَمَانِيِّكُمۡ وَلَآ أَمَانِيِّ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِۗ مَن يَعۡمَلۡ سُوٓءٗا يُجۡزَ بِهِۦ وَلَا يَجِدۡ لَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 120
(123) परिणाम न तुम्हारी कामनाओं पर निर्भर करता है न किताबवालों की कामनाओं पर, जो भी बुराई करेगा उसका फल पाएगा और अल्लाह के मुक़ाबले में अपने लिए कोई समर्थक और सहायक न पा सकेगा।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ وَلَا يُظۡلَمُونَ نَقِيرٗا ۝ 121
(124) और जो नेक काम करेगा, चाहे मर्द हो या औरत, शर्त यह है कि हो वह ईमानवाला, तो ऐसे ही लोग जन्नत में दाख़िल होंगे और उनका तनिक भी हक़ न मारा जाएगा।
وَمَنۡ أَحۡسَنُ دِينٗا مِّمَّنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ وَٱتَّبَعَ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۗ وَٱتَّخَذَ ٱللَّهُ إِبۡرَٰهِيمَ خَلِيلٗا ۝ 122
(125) उस आदमी से बेहतर और किसकी जीवन-प्रणाली हो सकती है जिसने अल्लाह के आगे सिर झुका दिया और अच्छी से अच्छी नीति अपनाई और एकचित्त होकर इबराहीम के तरीक़े का अनुसरण किया, उस इबराहीम के तरीक़े का जिसे अल्लाह ने अपना मित्र बना लिया था।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطٗا ۝ 123
(126) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है और अल्लाह हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا ۝ 124
(127) लोग तुमसे औरतों के विषय में फ़तवा (धर्मादेश) पूछते हैं।80 कहो, अल्लाह तुम्हें उनके मामले में आज्ञा देता है, और साथ ही वे आदेश भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे है। अर्थात् वे आदेश जो उन यतीम लड़कियों के सम्बन्ध में हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते और जिनके निकाह करने से तुम बाज़ रहते हो (या लालच के कारण तुम ख़ुद उनसे निकाह कर लेना चाहते हो)81 और वे आदेश भी जो उन बच्चों के सम्बन्ध में हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते। अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि यतीमों के साथ इनसाफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह के ज्ञान से छिपी न रह जाएगी।
80. यह स्पष्ट नहीं किया कि वे क्या धर्मादेश (फ़तवा) मालूम करना चाहते थे। लेकिन आयत 128 से 130 तक में जो फ़तवा दिया गया है उससे समझ में आ जाता है कि सवाल किस तरह का था।
81. कुरआन के शब्द “तर्ग़बू-न अन तनकिहू-हुन्न” का अर्थ यह भी हो सकता है कि “तुम्हें उनसे विवाह करने की रुचि है” और यह भी हो सकता है कि “तुम उनसे निकाह करना पसन्द नहीं करते।”
وَإِنِ ٱمۡرَأَةٌ خَافَتۡ مِنۢ بَعۡلِهَا نُشُوزًا أَوۡ إِعۡرَاضٗا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يُصۡلِحَا بَيۡنَهُمَا صُلۡحٗاۚ وَٱلصُّلۡحُ خَيۡرٞۗ وَأُحۡضِرَتِ ٱلۡأَنفُسُ ٱلشُّحَّۚ وَإِن تُحۡسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 125
(128) अगर किसी औरत को अपने पति से दुर्व्यवहार या बेरुख़ी का ख़तरा हो तो कोई हरज नहीं कि पति और पत्नी (कुछ हक़ की कमी-बेशी पर) आपस में समझौता कर लें।83 समझौता हर हाल में अच्छा है। मन (नफ़्स) तंगदिली की ओर जल्दी झुक जाते हैं, लेकिन अगर तुम लोग एहसान की नीति अपनाओ और ईशभय से काम लो तो यक़ीन रखो कि अल्लाह तुम्हारी इस व्यवहार-नीति से बेख़बर न होगा।
82. यहाँ से लोगों के सवाल का जवाब शुरू होता है। सवाल यह था कि एक से ज़्यादा पत्नियाँ होने की स्थिति में न्याय का जो आदेश दिया गया है उसे व्यवहार में कैसे लाया जाए जबकि एक पत्नी आजीवन रोगी है या संभोग के योग्य नहीं रही है। क्या इस स्थिति में भी उसके लिए अनिवार्य है कि दोनों के साथ समान रूप से लगाव रखे? प्रेम में समता बनाए रहे? शारीरिक सम्बन्ध में भी समता का व्यवहार करे? और अगर वह ऐसा न करे तो क्या न्याय को शर्त का तक़ाज़ा यह है कि वह दूसरा विवाह करने के लिए पहली पत्नी को छोड़ दे? फिर इसके साथ यह कि अगर पहली पत्नी ख़ुद अलग न होना चाहे तो क्या पति-पत्नी में इस तरह का मामला हो सकता है कि जो पत्नी आसक्ति से परे हो चुकी है वह ख़ुद अपने कुछ हक़ और अधिकारों को छोड़कर पति को तलाक़ से बाज़ रहने पर राज़ी कर ले? क्या ऐसा करना न्याय की शर्त के विरुद्ध तो न होगा?
83. अर्थात् तलाक़ और जुदाई से अच्छा यह है कि इस तरह आपस में समझौता करके एक औरत उसी पति के साथ रहे जिसके साथ वह जीवन का एक भाग बिता चुकी है।
وَلَن تَسۡتَطِيعُوٓاْ أَن تَعۡدِلُواْ بَيۡنَ ٱلنِّسَآءِ وَلَوۡ حَرَصۡتُمۡۖ فَلَا تَمِيلُواْ كُلَّ ٱلۡمَيۡلِ فَتَذَرُوهَا كَٱلۡمُعَلَّقَةِۚ وَإِن تُصۡلِحُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 126
(129) पत्नियों के बीच पूरा-पूरा न्याय करना तुम्हारे बस में नहीं है। तुम चाहो भी तो तुम्हें इसकी सामर्थ्य नहीं हो सकती। अतः (ईश्वरीय विधान का मंशा पूरा करने के लिए यह काफ़ी है कि) एक पत्नी की ओर इस तरह न झुक जाओ कि दूसरी को अधर में लटकता छोड़ दो।84 अगर तुम अपनी व्यवहार-नीति ठीक रखो और अल्लाह से डरते रहो तो अल्लाह क्षमाशील और दया करनेवाला है।
84. इस आयत से कुछ लोग यह नतीजा निकाल बैठे हैं कि क़ुरआन एक ओर न्याय की शर्त के साथ बहुविवाह की इजाज़त देता है और दूसरी ओर न्याय करने को असंभव ठहराकर इस अनुमति को व्यवहारतः निरस्त कर देता है। लेकिन वास्तव में ऐसा नतीजा निकालने के लिए इस आयत में कोई गुंजाइश नहीं है। अगर सिर्फ़ इतना ही कहकर छोड़ दिया गया होता कि “तुम औरतों के बीच न्याय नहीं कर सकते” तो यह नतीजा निकाला जा सकता था, मगर इसके बाद ही यह जो कहा गया कि “अतः एक पत्नी की ओर बिलकुल न झुक पड़ो” इस वाक्य ने कोई अवसर उस अर्थ के लिए बाकी नहीं छोड़ा जो मसीही यूरोप का अनुसरण करनेवाले लोग इससे निकालना चाहते हैं।
وَإِن يَتَفَرَّقَا يُغۡنِ ٱللَّهُ كُلّٗا مِّن سَعَتِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ وَٰسِعًا حَكِيمٗا ۝ 127
(130) लेकिन अगर पति-पत्नी एक-दूसरे से अलग ही हो जाएँ तो अल्लाह अपनी समाई से हर एक को दूसरे की मुहताजी से बेपरवाह कर देगा। अल्लाह बड़ी समाईवाला है और वह तत्त्वदर्शी है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ وَصَّيۡنَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَإِيَّاكُمۡ أَنِ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَنِيًّا حَمِيدٗا ۝ 128
(131) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह ही का है। तुमसे पहले जिनको हमने किताब दी थी उन्हें भी यही आदेश दिया था और अब तुमको भी यही आदेश देते हैं कि अल्लाह से डरते हुए काम करो। लेकिन अगर तुम नहीं मानते तो न मानो, आसमान और ज़मीन की सारी चीज़़ों का मालिक अल्लाह ही है और वह निस्पृह (बेनियाज़) है, हर प्रशंसा का अधिकारी।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 129
(132) हाँ, अल्लाह ही मालिक है उन सब चीज़़ों का जो आसमानो में हैं और जो ज़मीन में हैं, और काम बनाने के लिए बस वही बहुत है।
إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ أَيُّهَا ٱلنَّاسُ وَيَأۡتِ بِـَٔاخَرِينَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ ذَٰلِكَ قَدِيرٗا ۝ 130
(133) अगर वह चाहे तो तुम लोगों को हटाकर तुम्हारी जगह दूसरों को ले आए, और उसे इसकी पूरी सामर्थ्य प्राप्त है।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ ثَوَابُ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 131
(134) जो आदमी सिर्फ़ दुनिया के सवाब (भलाई) का इच्छुक हो उसे मालूम होना चाहिए कि अल्लाह के पास दुनिया का सवाब भी है और आख़िरत का सवाब (भलाई) भी, और अल्लाह सुनता और देखता है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ بِٱلۡقِسۡطِ شُهَدَآءَ لِلَّهِ وَلَوۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَوِ ٱلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَۚ إِن يَكُنۡ غَنِيًّا أَوۡ فَقِيرٗا فَٱللَّهُ أَوۡلَىٰ بِهِمَاۖ فَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلۡهَوَىٰٓ أَن تَعۡدِلُواْۚ وَإِن تَلۡوُۥٓاْ أَوۡ تُعۡرِضُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 132
(135) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इनसाफ़ के ध्वजावाहक और अल्लाह के लिए गवाह बनो यद्यपि तुम्हारा इनसाफ़ और तुम्हारी गवाही ख़ुद तुम्हारे अपने या तुम्हारे माँ-बाप और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यों न पड़ती हो। मामले से सम्बन्ध रखनेवाला पक्ष चाहे मालदार हो या ग़रीब, अल्लाह तुमसे अधिक उनका हितैषी है। अतः अपनी इच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो। और अगर तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से पहलू बचाया तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 133
(136) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह उतार चुका है।85 जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आख़िरत के दिन का इनकार किया86 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
85. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ, ज़ाहिर में विचित्र मालूम होता है। लेकिन वास्तव में यहाँ 'ईमान' शब्द दो विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ईमान लाने का एक अर्थ यह है कि आदमी इनकार के बदले स्वीकार की नीति अपनाए, न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए। और इसका दूसरा अर्थ यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने उसे सच्चे दिल से माने, पूरी गंभीरता और निष्ठा के साथ माने। आयत में सम्बोधन उन सभी मुसलमानों से है जो पहले अर्थ के अनुसार “माननेवालों” में गिने जाते हैं। और उनसे माँग यह की गई है कि दूसरे अर्थ के अनुसार सच्चे ईमानवाले बनें।
86. इनकार (कुफ़्र) करने के भी दो अर्थ हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इनकार कर दे। दूसरे यह कि ज़बान से तो माने मगर दिल से न माने, या अपने रवैये से साबित कर दे कि वह जिस चीज़़ को मानने का दावा कर रहा है वास्तव में उसे नहीं मानता।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ سَبِيلَۢا ۝ 134
(137) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इनकार किया, फिर ईमान लाए, फिर इनकार किया, फिर अपने इनकार में बढ़ते चले गए, तो अल्लाह हरगिज़ उनको माफ़ न करेगा और न कभी उनको सीधा मार्ग दिखाएगा।
بَشِّرِ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ بِأَنَّ لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 135
(138) और जो मुनाफ़िक़ (पाखण्डी) ईमानवालों को छोड़कर अधर्मियों को अपना साथी बनाते हैं
ٱلَّذِينَ يَتَّخِذُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَيَبۡتَغُونَ عِندَهُمُ ٱلۡعِزَّةَ فَإِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا ۝ 136
(139) उन्हें यह मंगल-समाचार सुना दो कि उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है। क्या ये लोग इज़्ज़त की चाह में उनके पास जाते हैं? हालाँकि इज़्ज़त तो सारी की सारी अल्लाह ही के लिए है।
وَقَدۡ نَزَّلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أَنۡ إِذَا سَمِعۡتُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ يُكۡفَرُ بِهَا وَيُسۡتَهۡزَأُ بِهَا فَلَا تَقۡعُدُواْ مَعَهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦٓ إِنَّكُمۡ إِذٗا مِّثۡلُهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ جَامِعُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡكَٰفِرِينَ فِي جَهَنَّمَ جَمِيعًا ۝ 137
(140) अल्लाह इस किताब में तुमको पहले ही आदेश दे चुका है कि जहाँ तुम सुनो कि अल्लाह की आयतों के ख़िलाफ़ अधर्म बका जा रहा है और उनकी हँसी उड़ाई जा रही है वहाँ न बैठो जब तक कि लोग किसी दूसरी बात में न लग जाएँ। अब अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम भी उन्हीं की तरह हो विश्वास करो कि अल्लाह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और अधर्मियों को जहन्नम में एक जगह जमा करनेवाला है।
ٱلَّذِينَ يَتَرَبَّصُونَ بِكُمۡ فَإِن كَانَ لَكُمۡ فَتۡحٞ مِّنَ ٱللَّهِ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡ وَإِن كَانَ لِلۡكَٰفِرِينَ نَصِيبٞ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَسۡتَحۡوِذۡ عَلَيۡكُمۡ وَنَمۡنَعۡكُم مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلًا ۝ 138
(141) ये मुनाफ़िक़ तुम्हारे मामले में इन्तिज़ार कर रहे हैं (कि ऊँट किस करवट बैठता है)। अगर अल्लाह की ओर से विजय तुम्हारी हुई तो आकर कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे? अगर अधर्मियों का पल्ला भारी रहा तो उनसे कहेंगे कि क्या हमें तुम्हारे विरुद्ध लड़ने की सामर्थ्य प्राप्त न थी और फिर भी हमने तुमको मुसलमानों से बचाया? बस अल्लाह ही तुम्हारे और उनके मामले का फ़ैसला क़ियामत के दिन करेगा और (इस फ़ैसले में) अल्लाह ने अधर्मियों के लिए मुसलमानों पर प्रभुत्व पाने की हरगिज़ कोई राह नहीं रखी है।
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَهُوَ خَٰدِعُهُمۡ وَإِذَا قَامُوٓاْ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ قَامُواْ كُسَالَىٰ يُرَآءُونَ ٱلنَّاسَ وَلَا يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 139
(142) ये मुनाफ़िक़ अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं हालाँकि वास्तव में अल्लाह ही ने इन्हें धोखे में डाल रखा है। जब ये नमाज़ के लिए उठते है तो कसमसाते हुए सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए उठते हैं और अल्लाह को याद थोड़े ही करते हैं।
مُّذَبۡذَبِينَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ لَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ وَلَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 140
(143) इनकार और ईमान के बीच डॉवाँडोल है। न पूरे इस ओर हैं न पूरे उस ओर। जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।87
87. अर्थात् जिसे ईश वाणी और उसके रसूल को जीवनी से सीधा मार्ग न मिला हो, जिसको सच्चाई से विमुख और असत्य-प्रियता की ओर झुका देखकर अल्लाह ने भी उसी ओर फेर दिया हो जिस ओर वह ख़ुद फिरना चाहता था, और जिसको पथभ्रष्टता के इच्छुक होने के कारण अल्लाह ने उसपर मार्गदर्शन के दरवाज़े बन्द कर दिए हों और सिर्फ़ पथभ्रष्टता ही के रास्ते खोल दिए हों, ऐसे व्यक्ति को सीधी राह दिखाना वास्तव में किसी इनसान के बस का काम नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينًا ۝ 141
(144) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमानवालों को छोड़कर अधर्मियों को अपना साथी न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह को अपने विरुद्ध स्पष्ट तर्क दे दो?
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِي ٱلدَّرۡكِ ٱلۡأَسۡفَلِ مِنَ ٱلنَّارِ وَلَن تَجِدَ لَهُمۡ نَصِيرًا ۝ 142
(145) विश्वास करो कि मुनाफ़िक़ जहन्नम के सबसे नीचे खण्ड में जाएँगे और तुम किसी को उनका सहायक न पाओगे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَٱعۡتَصَمُواْ بِٱللَّهِ وَأَخۡلَصُواْ دِينَهُمۡ لِلَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَسَوۡفَ يُؤۡتِ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 143
(146) अलबत्ता जो उनमें से तौबा कर लें और अपनी नीति को सुधार लें और अल्लाह का दामन थाम लें और अपने दीन (धर्म) को निष्ठापूर्वक अल्लाह ही के लिए कर दें, ऐसे लोग ईमानवालों के साथ हैं और अल्लाह ईमानवालों को ज़रूर बड़ा बदला प्रदान करेगा।
مَّا يَفۡعَلُ ٱللَّهُ بِعَذَابِكُمۡ إِن شَكَرۡتُمۡ وَءَامَنتُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ شَاكِرًا عَلِيمٗا ۝ 144
(147) आख़िर अल्लाह को क्या पड़ी है कि तुम्हें अकारण सज़ा दे अगर तुम शुक्रगुज़ार बन्दे बने रहो और ईमान की नीति पर चलो। अल्लाह बड़ा गुणग्राहक88 और सबके हाल से परिचित है।
88. शुक्र जब बन्दे की ओर से हो तो उपकार मानने या एहसानमन्दी के अर्थ में होता है और जब अल्लाह की ओर से हो तो गुणग्राहकता या क़द्रदानी के अर्थ में।
۞لَّا يُحِبُّ ٱللَّهُ ٱلۡجَهۡرَ بِٱلسُّوٓءِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ إِلَّا مَن ظُلِمَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعًا عَلِيمًا ۝ 145
(148) अल्लाह इसको पसन्द नहीं करता कि आदमी अपशब्द के साथ ज़बान खोले, यह और बात है कि किसी पर ज़ुल्म किया गया हो,89 और अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
89. अर्थात् उत्पीड़ित व्यक्ति (मज़लूम) को हक़ पहुँचता है कि ज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए।
إِن تُبۡدُواْ خَيۡرًا أَوۡ تُخۡفُوهُ أَوۡ تَعۡفُواْ عَن سُوٓءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوّٗا قَدِيرًا ۝ 146
(149) (अगर तुमपर ज़ुल्म हुआ है तो यद्यपि तुम्हें हक़ है कि बुराई बगान करो लेकिन अगर तुम खुले और छिपे में भलाई ही किए जाओ, या कम से कम बुराई को माफ़ कर दो, तो अल्लाह (का गुण भी यही है कि वह) बड़ा माफ़ करनेवाला है (हालाँकि सज़ा देने की) पूरी सामर्थ्य उसे प्राप्त है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيُرِيدُونَ أَن يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ ٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيَقُولُونَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٖ وَنَكۡفُرُ بِبَعۡضٖ وَيُرِيدُونَ أَن يَتَّخِذُواْ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلًا ۝ 147
(150) जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों के साथ इनकार की नीति अपनाते हैं, और चाहते है कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अन्तर करें, और कहते है कि हम किसी को मानेंगे और किसी को न मानेंगे, और इनकार और ईमान के बीच में एक राह निकालना चाहते हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ حَقّٗاۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 148
(151) वे सब पक्के अधर्मी है और ऐसे अधर्मियों के लिए हमने यह सज़ा तैयार कर रखी है जो उन्हें अपमानित कर देनेवाली होगी-
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَلَمۡ يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ أُوْلَٰٓئِكَ سَوۡفَ يُؤۡتِيهِمۡ أُجُورَهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 149
(152) इसके विपरीत जो लोग अल्लाह और उसके सभी रसूलों को मानें, और उनके बीच अन्तर न करें, उनको हम ज़रूर उनका बदला देंगे, और अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
يَسۡـَٔلُكَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيۡهِمۡ كِتَٰبٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ فَقَدۡ سَأَلُواْ مُوسَىٰٓ أَكۡبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوٓاْ أَرِنَا ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ بِظُلۡمِهِمۡۚ ثُمَّ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَعَفَوۡنَا عَن ذَٰلِكَۚ وَءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 150
(153) ऐ नबी, ये किताबवाले अगर आज तुमसे माँग कर रहे हैं कि तुम आसमान से कोई लेख उनपर अवतरित कराओ तो इससे बढ़-चढ़कर अपराधजनक माँगें ये पहले मूसा से कर चुके हैं। उससे तो इन्होंने कहा था कि हमें अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला दिखा दो और इसी सरकशी के कारण अचानक इनपर बिजली टूट पड़ी थी। फिर इन्होंने बछड़े को अपना माबूद (उपास्य) बना लिया, हालाँकि ये खुली-खुली निशानियाँ देख चुके थे। इसपर भी हमने इन्हें माफ़ किया। हमने मूसा को स्पष्ट आदेश प्रदान किया था
وَرَفَعۡنَا فَوۡقَهُمُ ٱلطُّورَ بِمِيثَٰقِهِمۡ وَقُلۡنَا لَهُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُلۡنَا لَهُمۡ لَا تَعۡدُواْ فِي ٱلسَّبۡتِ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 151
(154) और इन लोगों पर तूर (पर्वत) को उठाकर इनसे (उस आदेश के अनुपालन का) पक्का वादा लिया था। हमने इनको आदेश दिया कि दरवाज़े में सजदा करते हुए दाख़िल हो।90 हमने इनसे कहा कि सब्त का क़ानून न तोड़ो और इसपर इनसे पक्का वादा लिया।
90. इसका उल्लेख सूरा 2 (अल-बक़रा) आयत 58-59 में हो चुका है।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ وَكُفۡرِهِم بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَقَتۡلِهِمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَقَوۡلِهِمۡ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَلۡ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَيۡهَا بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 152
(155) आख़िरकार इनके प्रतिज्ञा भंग करने के कारण, और इस कारण कि इन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया, और अनेक पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल किया, और यहाँ तक कहा कि हमारे दिल आवरणों में सुरक्षित हैं91 – हालाँकि वास्तव में इनके अधर्म के कारण अल्लाह ने इनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया है और इसी कारण ये बहुत कम ईमान लाते हैं
91. अर्थात् तुम चाहे कुछ कहो, हमारे दिलों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।
وَبِكُفۡرِهِمۡ وَقَوۡلِهِمۡ عَلَىٰ مَرۡيَمَ بُهۡتَٰنًا عَظِيمٗا ۝ 153
(156) — फिर अपने इनकार में ये इतने बढ़े कि मरयम पर बड़ा लांछन लगाया,
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا ۝ 154
(157) और ख़ुद कहा कि हमने मसीह ईसा, मरयम के बेटे, अल्लाह के रसूल का क़त्ल कर दिया है92 — हालाँकि वास्तव में इन्होंने न उसकी हत्या की, न सूली पर चढ़ाया बल्कि मामला इनके लिए संदिग्ध कर दिया गया।93 और जिन लोगों ने इसके विषय में मतभेद किया है वे भी वास्तव में शक में पड़े हुए हैं, उनके पास इस मामले में कोई ज्ञान नहीं है, सिर्फ़ अटकल पर चल रहे हैं। उन्होंने मसीह को, यक़ीनन क़त्ल नहीं किया
92. अर्थात् अपराधवृत्ति का दुस्साहस इतना बढ़ा हुआ था कि रसूल को रसूल जानते थे और फिर उसकी हत्या कर डाली और गर्व से कहा कि हमने अल्लाह के रसूल की हत्या की है। इस अवसर पर अगर सूरा 19 (मरयम) आयत 16-40 को हमारे फ़ुटनोट के साथ पढ़ लिया जाए तो मालूम हो जाएगा कि इसराईली हज़रत ईसा (अलैहि०) को वास्तव में रसूल जानते थे और इसके बावजूद उन्होंने अपने जानते उन्हें सूली पर चढ़ा दिया।
93. यह आयत स्पष्ट करती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) सूली पर चढ़ाए जाने से पहले ही उठा लिए गए वे और यह कि ईसाइयों और यहूदियों, दोनों का यह विचार था कि मसीह ने सलीब (सूली) पर जान दी, सिर्फ़ भ्रम और ग़लतफ़हमी पर आधारित है। इससे पहले कि यहूदी आपको सूली पर चढ़ाते अल्लाह ने किसी समय उन्हें उठा लिया और बाद में यहूदियों ने जिस व्यक्ति को सूली पर चढ़ाया वह कोई और व्यक्ति था जिसको न जाने किस कारण से इन लोगों ने मरयम का बेटा ईसा समझ लिया।
بَل رَّفَعَهُ ٱللَّهُ إِلَيۡهِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 155
(158) बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी ओर उठा लिया, अल्लाह ज़बरदस्त ताक़त रखनेवाला और तत्वदर्शी है।
وَإِن مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا لَيُؤۡمِنَنَّ بِهِۦ قَبۡلَ مَوۡتِهِۦۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا ۝ 156
(159) और किताब वालों में से कोई ऐसा न होगा जो उसकी मौत से पहले उसको मान न लेगा94 और क़ियामत के दिन वह उसपर गवाही देगा,
94. इस वाक्य के दो अर्थ लिए गए हैं और शब्दों में दोनों की समान रूप से संभावना है। एक अर्थ वह जो हमने अनुवाद में लिया है। दूसरा यह कि “किताबबालों में से कोई ऐसा नहीं जो अपनी मौत से पहले मसीह (अलैहि०) पर ईमान न ले आए।"
فَبِظُلۡمٖ مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ طَيِّبَٰتٍ أُحِلَّتۡ لَهُمۡ وَبِصَدِّهِمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ كَثِيرٗا ۝ 157
(160) सारांश यह कि इन यहूदियों को इसी अत्याचारपूर्ण नीति के कारण, और इस कारण कि ये बहुधा अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं,
وَأَخۡذِهِمُ ٱلرِّبَوٰاْ وَقَدۡ نُهُواْ عَنۡهُ وَأَكۡلِهِمۡ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 158
(161) और ब्याज लेते हैं जिससे इन्हें रोका गया था, और लोगों के माल नाजाइज़ तरीक़ों से खाते हैं, हमने बहुत-सी वे अच्छी-पाक चीज़़ें इनके लिए हराम (अवैध) कर दी, जो पहले इनके लिए हलाल (वैध) थीं95 और जो लोग इनमें से इनकार करनेवाले है उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।
95. सम्भवतः यह उसी विषय की ओर संकेत है जो आगे सूरा 6 (अनआम) आयत 146 में आनेवाला है। अर्थात् इसराईलियों के लिए वे सभी जानवर हराम (वर्जित) कर दिए गए जिनके नाख़ुन होते हैं, और उनपर गाय और बकरी की चरबी भी हराम कर दी गई। इसके अलावा सम्भव है कि संकेत उन दूसरे प्रतिबन्धनों और सख़्तियों की ओर भी हो जो यहूदी धर्मशास्त्र में पाई जाती हैं। किसी गिरोह के लिए ज़िन्दगी व दायरे को तंग कर दिया जाना वस्तुतः उसके हक़ में एक तरह की सज़ा ही है।
لَّٰكِنِ ٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ مِنۡهُمۡ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَۚ وَٱلۡمُقِيمِينَ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَٱلۡمُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أُوْلَٰٓئِكَ سَنُؤۡتِيهِمۡ أَجۡرًا عَظِيمًا ۝ 159
(162) मगर उनमें जो लोग ज्ञान में पक्के हैं और ईमानदार है वे सब उस शिक्षा पर ईमान लाते हैं जो ऐ नबी, तुम्हारी ओर उतारी गई है और जो तुमसे पहले उतारी गई थी। इस तरह के ईमान लानेवाले और नमाज़ और ज़कात की पाबन्दी करनेवाले और अल्लाह और आख़िरत के दिन पर सच्चा ईमान रखनेवाले लोगों को हम ज़रूर ही बड़ा बदला देंगे।
۞إِنَّآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ كَمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ نُوحٖ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَٰرُونَ وَسُلَيۡمَٰنَۚ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 160
(163) ऐ नबी हमने तुम्हारी ओर उसी तरह 'वहय' (प्रकाशना) भेजी है जिस तरह नूह और उसके बाद के पैग़म्बरो की ओर भेजी थी। हमने इबराहीम इसमाईल इसहाक़ याक़ूब और याक़ूब की सन्तान, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की ओर प्रकाशना भेजी। हमने दाऊद को ज़बूर दी।
وَرُسُلٗا قَدۡ قَصَصۡنَٰهُمۡ عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُ وَرُسُلٗا لَّمۡ نَقۡصُصۡهُمۡ عَلَيۡكَۚ وَكَلَّمَ ٱللَّهُ مُوسَىٰ تَكۡلِيمٗا ۝ 161
(164) हमने उन रसूलों पर भी प्रकाशना भेजी जिनकी चर्चा हम इससे पहले तुमसे कर चुके हैं और उन रसूलों पर भी जिनकी चर्चा तुमसे नहीं की। हमने मूसा से इस तरह बातचीत की जिस तरह बातचीत की जाती है।
رُّسُلٗا مُّبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى ٱللَّهِ حُجَّةُۢ بَعۡدَ ٱلرُّسُلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 162
(165) ये सारे रसूल ख़ुशख़बरी देनेवाले और डरानेवाले बनाकर भेजे गए थे ताकि उनको भेज देने के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में कोई तर्क न रहे96 और अल्लाह हर हाल में प्रभावशाली और तत्त्वदर्शी है।
96. अर्थात् इन तमाम पैग़म्बरों के भेजने का एक ही उद्देश्य था, वह यह था कि अल्लाह मानव जाति पर तर्क-पूर्ति करना चाहता था ताकि अन्तिम न्याय के अवसर पर कोई गुमराह अपराधी उसके सामने यह विवशता प्रस्तुत न कर सके कि हम नहीं जानते थे और आपने इस हालत की हक़ीक़त से आगाह करने का कोई प्रबन्ध नहीं किया था।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 163
(171) ऐ किताबवालो, अपने दीन (धर्म) में हद से आगे न बढ़ो98 और अल्लाह से लगाकर सत्य के सिवा कोई बात न कहो। मसीह मरयम का बेटा ईसा इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था और एक आदेश था जो अल्लाह ने मरयम की ओर भेजा99 और एक आत्मा थी अल्लाह की ओर से100 (जिसने मरयम के गर्भ में बच्चे का रूप धारण किया)। अत: तुम अल्लाह और उसके रसूलों को मानो और न कहो कि “तीन” हैं।101 बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ईश्वर है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो।102 ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़़ों का वही मालिक है, और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और उनकी ख़बर रखने के लिए बस वही काफ़ी है।
98. यहाँ किताबवालों से मुराद ईसाई हैं और अत्युक्ति (ग़ूलू) का अर्थ है किसी चीज़़ के समर्थन में सीमा से आगे बढ़ जाना। यहूदियों का अपराध तो यह था कि वे मसीह के इनकार और विरोध में हद से आगे बढ़ गए और ईसाइयों का अपराध यह है कि वे मसीह के प्रति श्रद्धा और प्रेम में सीमा पार कर गए और उनको ईश्वर का पुत्र बल्कि प्रत्यक्षतः ईश्वर ठहरा लिया।
99. मूल ग्रन्थ में “कलिमा” शब्द प्रयुक्त हुआ है, मरयम की ओर कलिमा भेजने का अर्थ यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के गर्भाशय पर यह आदेश अवतरित किया कि किसी मर्द के वीर्य से सिंचित हुए बिना गर्भ धारण कर ले। ईसाइयों ने पहले शब्द कलिमा को “कलाम” (वाणी) या वाक्शक्ति का पर्याय समझ लिया फिर इस वाणी और वाक्शक्ति का अभिप्राय अल्लाह का निजी वाक्-गुण ठहरा लिया, फिर अनुमान से यह धारणा बनाई कि अल्लाह के इस निजी गुण ने मरयम (अलैहि०) के गर्भ में प्रवेश करके वह शारीरिक रूप धारण किया जो मसीह के रूप में प्रकट हुआ। इस तरह ईसाइयों में मसीह (अलैहि०) के ईश्वरत्व की ग़लत धारणा ने जन्म लिया और इस असत्य कल्पना ने जड़ पकड़ ली कि ईश्वर ने ख़ुद अपने आपको या अपने शाश्वत गुणों में से वाक्‌शक्ति और वाणी के गुण को मसीह के रूप में प्रकट किया है।
100. यहाँ ख़ुद मसीह को “रूहुम-मिनहु” (अल्लाह की ओर से एक आत्मा) कहा गया है, और सूरा बक़रा आयत 87 में इस बात को इस तरह पेश किया गया है कि “हमने पवित्र आत्मा से मसीह की सहायता की"। दोनों वर्णनों का अर्थ यह है कि अल्लाह ने मसीह (अलैहि०) को वह पवित्र आत्मा प्रदान की थी जो बुराई से अपरिचित थी, सर्वथा सत्यता और सत्यप्रियता थी, और सिर से पैर तक नैतिक श्रेष्ठता का स्वरूप थी। ईसाइयों ने इसमें भी अत्युक्ति से काम लिया 'रूहुम-मिनल्लाह' (अल्लाह की ओर से एक आत्मा) को ख़ुद अल्लाह की आत्मा ठहरा लिया, और 'रूहुल-क़ुदुस' (पवित्र आत्मा) का अर्थ यह लिया कि अल्लाह की अपनी पवित्र आत्मा थी जो मसीह के भीतर प्रविष्ट होकर आत्मसात हो गई थी। इस तरह अल्लाह और मसीह के साथ एक तीसरा ईश्वर “रूहुल-क़ुदुस” (पवित्र आत्मा) को बना डाला गया।
101 अर्थात् तीन ईश्वर होने की धारणा को छोड़ दो चाहे वह किसी रूप में तुम्हारे अन्दर पाई जाती हो। वास्तविकता यह है कि ईसाई एक साथ एकेश्वरवाद को भी मानते हैं और त्रीश्वरवाद को भी। मसीह (अलैहि०) के जो स्पष्ट शब्द इंजीलों में मिलते हैं उनके आधार पर कोई ईसाई इससे इनकार नहीं कर सकता कि ईश्वर बस एक ही ईश्वर है और उसके सिवा कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। उनके लिए यह स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं है कि एकेश्वरवाद मूल धर्म है। मगर इसके बावजूद मसीह के व्यक्तित्व में अत्युक्ति के कारण वे त्रीश्वरवाद को भी मानते हैं और आज तक यह फ़ैसला न कर सके कि इन दो परस्पर विरोधी धारणाओं को एक साथ कैसे निबाहे।
102. यह ईसाइयों की चौथी अत्युक्ति का खण्डन है। ईसाई पुरातन कथन अगर सत्य भी हों तो उनसे (विशेषतः पहली तीन इंजीलों से) ज़्यादा से ज़्यादा बस इतना ही साबित होता है कि मसीह (अलैहि०) ने अल्लाह और बन्दों के सम्बन्ध को बाप और औलाद के सम्बन्ध की उपमा दी थी और 'बाप' शब्द ईश्वर के लिए वे केवल उपलक्ष्य और व्यंजना और शब्दालंकार के रूप में प्रयोग करते थे। यह अकेले मसीह हो की कोई विशेषता नहीं है। बहुत प्राचीन काल से इसराईली ख़ुदा के लिए बाप का शब्द बोलते चले आ रहे थे और इसकी बहुत ज़्यादा मिसालें बाइबल के पुराने धर्मनियम में मौजूद हैं। मसीह ने यह शब्द अपनी जातिवालों के मुहावरों के अनुसार ही प्रयोग किया था और वे ईश्वर को केवल अपना ही नहीं बल्कि सब इनसानों का बाप कहते थे। लेकिन ईसाइयों ने यहाँ फिर अत्युक्ति से काम लिया और मसीह को ईश्वर का इकलौता बेटा घोषित कर दिया।
لَّن يَسۡتَنكِفَ ٱلۡمَسِيحُ أَن يَكُونَ عَبۡدٗا لِّلَّهِ وَلَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ٱلۡمُقَرَّبُونَۚ وَمَن يَسۡتَنكِفۡ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيَسۡتَكۡبِرۡ فَسَيَحۡشُرُهُمۡ إِلَيۡهِ جَمِيعٗا ۝ 164
(172) मसीह ने कभी इस बात को अपने लिए बुरा नहीं समझा कि वह अल्लाह का बन्दा हो, और न निकटवर्ती फ़रिश्ते इसको अपने लिए बुरा समझते हैं। अगर कोई अल्लाह की बन्दगी को अपने लिए बुरा समझता है और घमंड करता है तो एक समय आएगा जब अल्लाह सबको घेरकर अपने सामने हाज़िर करेगा।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡتَنكَفُواْ وَٱسۡتَكۡبَرُواْ فَيُعَذِّبُهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 165
(173) उस समय वे लोग जिन्होंने ईमान लाकर अच्छे काम किए हैं, अपनी मज़दूरियाँ पूरी-पूरी पाएँगे और अल्लाह अपने अनुग्रह से उन्हें और अधिक मज़दूरी देगा और जिन लोगों ने बन्दगी को बुरा समझा और घमंड किया है उनको अल्लाह दर्दनाक सज़ा देगा और अल्लाह के सिवा जिन-जिन की सरपरस्ती और सहायता पर वे भरोसा रखते हैं उनमें से किसी को भी वे वहाँ न पाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُم بُرۡهَٰنٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ نُورٗا مُّبِينٗا ۝ 166
(174) लोगो, तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास खुला प्रमाण आ गया है। और हमने तुम्हारी ओर ऐसा प्रकाश भेज दिया है जो तुम्हें साफ़-साफ़ रास्ता दिखानेवाला है।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱعۡتَصَمُواْ بِهِۦ فَسَيُدۡخِلُهُمۡ فِي رَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَفَضۡلٖ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَيۡهِ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 167
(175) अब जो लोग अल्लाह की बात मान लेंगे और उसकी पनाह ढूँढ़ेंगे उनको अल्लाह अपनी रहमत और अपने अनुग्रह व अनुदान के दामन में ले लेगा और अपनी ओर आने का सीधा मार्ग उनको दिखा देगा।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 168
(176) ऐ नबी, लोग तुमसे उनके बारे में आदेश मालूम करना चाहते हैं जिनके प्रत्यक्ष वारिस न हों।103 कहो अल्लाह तुम्हें आदेश देता है। अगर कोई आदमी बिना औलाद मर जाए और उसकी एक बहन हो104 तो वह उसके छोड़े हुए माल में से आधा पाएगी, और अगर बहन बिना औलाद मरे तो भाई उसका वारिस होगा।105 अगर मरनेवाले की वारिस दो बहनें हों तो वे तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी106, और अगर कई भाई-बहनें हों तो औरतों का एकहरा और मर्दों का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए आदेशों को स्पष्ट करता है ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह को हर चीज़़ का ज्ञान है।
103. यहाँ मूल ग्रन्थ में 'कलाला' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'कलाला' के अर्थ में मतभेद है। कुछ लोगों के मतानुसार ‘कलाला' वह व्यक्ति है जो निस्सन्तान भी हो और जिसके बाप और दादा भी ज़िन्दा न हों। और कुछ लोगों के विचार में सिर्फ़ निस्सन्तान मरनेवाले को 'कलाला' कहा जाता है। किन्तु आम धर्मविधान व उलमा ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के इस मत को स्वीकार कर लिया है कि यह पहले रूप के ही अर्थ में है। और ख़ुद क़ुरआन से भी इसकी पुष्टि होती है क्योंकि यहाँ 'कलाला' की बहन को आधे तरके का वारिस ठहराया गया है, हालाँकि अगर 'कलाला' का बाप ज़िन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुँचता ही नहीं।
104 यहाँ उन भाई-बहनों की मीरास का उल्लेख किया जा रहा है जो मरनेवाले के साथ माँ-बाप दोनों ओर से संगे हो या सिर्फ़ बाप सगा हो। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने एक बार एक भाषण में यही अर्थ बयान किया था और सहाबा में से किसी ने इसके बारे में अपना मतभेद प्रकट नहीं किया, इसलिए यह बात ऐसी है जिसपर सब एकमत हैं।
105. अर्थात् भाई उसके पूरे माल का वारिस होगा अगर कोई और हिस्सेदार न हो। और अगर कोई हिस्सेदार मौजूद हो, जैसे पति, तो उसका हिस्सा अदा करने के बाद बाक़ी तमाम तरका भाई को मिलेगा।
106. यही आदेश दो से ज़्यादा बहनों का भी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 169
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम अल्लाह के रास्ते में लड़ने के लिए निकलो तो दोस्त और दुश्मन में अन्तर करो और जो तुम्हें सलाम करे उसे तुरन्त न कह दो कि तुम ईमान नहीं रखते। अगर तुम सांसारिक लाभ चाहते हो तो अल्लाह के पास तुम्हारे लिए बहुत-से हाथ आनेवाले माल हैं। आख़िर इसी हालत में तुम ख़ुद भी तो इससे पहले रह चुके हो, फिर अल्लाह ने तुमपर एहसान किया, अतः जाँच-परख से काम लो69, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
69. इस्लाम के आरम्भिक समय में “अस-सलामु अलैकुम” (तुमपर सलामती हो) के शब्द की हैसियत मुसलमानों के लिए रीति और लक्षण की थी और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देखकर यह शब्द इस अर्थ में प्रयोग करता था कि मैं तुम्हारे ही गिरोह का आदमी हूँ, मित्र और हितैषी हूँ, दुश्मन नहीं हूँ। विशेष रूप से उस समय में इस रीति का महत्त्व इस कारण से और भी अधिक था कि उस वक्त अरब के नए मुसलमानों और अधर्मियों के बीच वस्त्र, भाषा और किसी दूसरी चीज़ में कोई स्पष्ट अन्तर न था जिसके कारण एक मुसलमान सरसरी निगाह में दूसरे मुसलमान को पहचान सकता हो। लेकिन लड़ाइयों के अवसर पर एक कठिनाई यह पेश आती थी कि मुसलमान जब किसी दुश्मन गिरोह पर आक्रमण करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वह आक्रमण करनेवाले मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका सहधर्मी भाई है “अस-सलामु अलैकुम” या “ला इला-ह इल्लल्लाह” (अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं) पुकारता था, मगर मुसलमानों को इसपर यह सन्देह होता था कि यह कोई अधर्मी है जो सिर्फ़ जान बचाने के लिए छल कर रहा है, इसलिए प्रायः वे उसे क़त्ल कर बैठते थे। आयत का मंशा यह है कि जो व्यक्ति अपने आपको मुसलमान के रूप में प्रस्तुत कर रहा है उसके सम्बन्ध में तुम्हें सरसरी तौर पर यह फ़ैसला कर देने का हक़ नहीं है कि वह सिर्फ़ जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। वास्तविकता तो जाँच ही से मालूम हो सकती है। जाँच-पड़ताल के बिना छोड़ देने में अगर यह संभावना है कि एक अधर्मी झूठ बोलकर जान बचा ले जाए, तो क़त्ल कर देने में इसकी संभावना भी है कि एक ईमानवाला बेगुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जाए।
وَلِكُلّٖ جَعَلۡنَا مَوَٰلِيَ مِمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَۚ وَٱلَّذِينَ عَقَدَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَـَٔاتُوهُمۡ نَصِيبَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا ۝ 170
(33) और हमने हर उस तरके के हक़दार मुक़र्रर कर दिए है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनके साथ तुम प्रतिज्ञाबद्ध हो तो उनका हिस्सा उन्हें दो, यक़ीनन हर चीज़़ अल्लाह की निगाह में है।34
34. अरबवालों का नियम था कि जिन लोगों के बीच मित्रता और भाईचारे के समझौते हो जाते थे वे एक-दूसरे की मीरास के हक़दार बन जाते थे। इसी तरह जिसे बेटा बना लिया जाता था वह भी मुँह बोले बाप का वारिस ठहरता था। इस आयत में जाहिलियत के इस तरीक़े को निरस्त करते हुए कहा गया है कि विरासत तो उसी नियम के अनुसार रिश्तेदारों में विभाजित होनी चाहिए जो हमने मुक़र्रर कर दिया है, अलबत्ता जिन लोगों में तुम्हारे समझौते या वचनबद्धता हो उनको अपनी ज़िन्दगी में तुम जो चाहो दे सकते हो।
لَّٰكِنِ ٱللَّهُ يَشۡهَدُ بِمَآ أَنزَلَ إِلَيۡكَۖ أَنزَلَهُۥ بِعِلۡمِهِۦۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَشۡهَدُونَۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدًا ۝ 171
(166) (लोग नहीं मानते तो न मानें) मगर अल्लाह गवाही देता है कि ऐ नबी, जो कुछ उसने तुमपर उतारा है अपने ज्ञान से उतारा है और इसपर फ़रिश्ते भी गवाह हैं, यद्यपि अल्लाह का गवाह होना बिलकुल काफ़ी है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ قَدۡ ضَلُّواْ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 172
(167) जो लोग इसको मानने से ख़ुद इनकार करते हैं और दूसरों को अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं वे यक़ीनन गुमराही में हक़ से बहुत दूर निकल गए हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَظَلَمُواْ لَمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ طَرِيقًا ۝ 173
(168) इस तरह जिन लोगों ने इनकार और विद्रोह की नीति अपनाई और अन्याय और अत्याचार पर उतर आए अल्लाह उनको हरगिज़ माफ़ न करेगा
إِلَّا طَرِيقَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 174
(169) और उन्हें कोई मार्ग जहन्नम के मार्ग के सिवा न दिखाएगा जिसमें वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह के लिए यह कोई कठिन काम नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلرَّسُولُ بِٱلۡحَقِّ مِن رَّبِّكُمۡ فَـَٔامِنُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 175
(170) लोगो, यह रसूल तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से सत्य लेकर आ गया है, ईमान ले आओ तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और अगर इनकार करते हो तो जान लो कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह का है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला भी है और गहरी समझवाला भी।97
97. अर्थात् तुम्हारा ख़ुदा न तो बेख़बर है कि उसके राज्य में रहते हुए तुम शरारतें करो और उसे मालूम न हो, और न वह नादान है कि उसे अपने आदेशों का उल्लंघन करनेवालों से निपटने का तरीक़ा न आता हो।