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سُورَةُ الطُّورِ

52. अत-तूर

(मक्का में उतरी, आयतें 49)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वत-तूर' (क़सम है तूर की) से लिया गया है। यहाँ 'तूर’ शब्‍द एक पर्वत विशेष के लिए आया है जिसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी दी गई थी।

उतरने का समय

विषय-वस्तुओं के आन्तरिक प्रमाणों से अनुमान होता है कि यह भी मक्का मुअज्‍़ज़मा के उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-51 अज़-ज़ारियात उतरी थी।

विषय और वार्ता

आयत 1 से लेकर आयत 28 तक का विषय आख़िरत (परलोक) है। सूरा-51 अज़-ज़ारियाल में इसकी सम्भावना, अनिवार्यता और इसके घटित होने के प्रमाण दिए जा चुके हैं, इसलिए यहाँ इनको दोहराया नहीं गया है, अलबत्ता आख़िरत की गवाही देनेवाले कुछ तथ्यों और लक्षणों की क़सम खाकर पूरे जोर के साथ कहा गया है कि वह निश्चय ही घटित होकर रहेगी। फिर यह बताया गया कि जब वह सामने आ पड़ेगी तो उसके झुठलानेवालों का परिणाम क्या होगा और इसे मानकर ईशपरायणता (तक़वा) की नीति अपनानेवाले किस प्रकार अल्लाह के अनुग्रह और उसकी कृपाओं से सम्मानित होंगे। इसके बाद आयत 29 से सूरा के अन्त तक में क़ुरैश के सरदारों की उस नीति की आलोचना की गई है जो वे अल्लाह के रसूल (सल्ल.)के आह्वान के मुक़ाबले में अपनाए हुए थे। वे आपको कभी काहिन (ज्योतिषी), कभी मजनून (उन्मादग्रस्त) और कभी कवि घोषित करते थे। वे आपपर इलज़ाम लगाते थे कि यह क़ुरआन आप स्वयं गढ़-गढ़कर ख़ुदा के नाम से पेश कर रहे हैं। वे बार-बार व्यंग्य करते थे कि ख़ुदा की पैग़म्बरी के लिए मिले भी तो बस यही साहब मिले। वे आपके आहवान और प्रचार-प्रसार पर अत्यन्त अप्रसन्नता और खिन्नता व्यक्त करते थे। वे आपस में बैठ-बैठकर सोचते थे कि आपके विरुद्ध क्या चाल ऐसी चली जाए जिससे आपकी यह दावत (आहवान) समाप्त हो जाए। अल्लाह ने उनकी इसी नीति की आलोचना करते हुए निरन्तर एक के बाद एक कुछ प्रश्न किए हैं जिनमें से हर प्रश्न या तो उनके किसी आक्षेप का उत्तर है या उनकी किसी अज्ञानता की समीक्षा। फिर कहा है कि इन हठधर्म लोगों को आपकी पैग़म्बरी स्वीकार करने के लिए कोई चमत्कार दिखाना बिलकुल व्यर्थ है। आयत 28 के बाद कुछ आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया है कि इन विरोधियों और शत्रुओं के आरोपों और आक्षेपों की परवाह किए बिना अपने आह्वान और लोगों को सचेत करने का काम निरन्तर जारी रखें, और अन्त में भी आपको ताकीद की गई कि धैर्य के साथ इन रुकावटों का मुक़ाबला किए चले जाएँ, यहाँ तक कि अल्लाह का फ़ैसला आ जाए। इसके साथ आपको तसल्ली दी गई है कि आपके रब (प्रभु-पालनहार) ने आपको सत्य के शत्रुओं के मुक़ाबले में खड़ा करके अपने हाल पर छोड़ नहीं दिया है, बल्कि वह निरन्तर आपकी देख-रेख कर रहा है। जब तक उसके फ़ैसले की घड़ी आए, आप सब कुछ सहन करते रहें और अपने प्रभु की स्तुति और उसके महिमा-गान से वह शक्ति प्राप्त करते रहें जो ऐसी परिस्थितियों में अल्लाह का काम करने के लिए अपेक्षित होती है।

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سُورَةُ الطُّورِ
52. अत-तूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
وَٱلطُّورِ
(1) क़सम है तूर की,
وَكِتَٰبٖ مَّسۡطُورٖ ۝ 1
(2) और एक ऐसी स्पष्ट किताब की
فِي رَقّٖ مَّنشُورٖ ۝ 2
(2) जो पतली खाल में लिखी हुई है,
وَٱلۡبَيۡتِ ٱلۡمَعۡمُورِ ۝ 3
(4) और बसे हुए घर की,
وَٱلسَّقۡفِ ٱلۡمَرۡفُوعِ ۝ 4
(5) और ऊँची छत की
وَٱلۡبَحۡرِ ٱلۡمَسۡجُورِ ۝ 5
(6) और तरंगित समुद्र की,
إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ لَوَٰقِعٞ ۝ 6
(7) कि तेरे रब का अज़ाब ज़रूर घटित होनेवाला है
مَّا لَهُۥ مِن دَافِعٖ ۝ 7
(8) जिसे कोई हटानेवाला नहीं।1
1. रब के अज़ाब से मुराद आख़िरत है, क्योंकि इनकार करनेवालों के लिए उसका आना अज़ाब ही है। उसके आने पर पाँच चीज़़ों की क़सम खाई गई है, जिनसे उसका आना सिद्ध होता है: (1) तूर जहाँ एक पीड़ित क़ौम को उठाने और एक ज़ालिम क़ौम को गिराने का फ़ैसला किया गया। यह फ़ैसला इस बात को सिद्ध करता है कि ईश्वर की यह दुनिया अंधेर नगरी नहीं है। (2) पवित्र ग्रन्थ का संग्रह प्राचीन समय में एक पतली खाल पर लिखा जाता था, और वह इसपर गवाह है कि प्रत्येक युग में ख़ुदा की ओर से आनेवाले पैगम्बरों ने आख़िरत के आने की सूचना दी है। (3) बसा हुआ घर अर्थात् काबा जो एक निर्जन भूमि में बनाया गया और फिर अल्लाह ने उसे ऐसी आबादी प्रदान की जो दुनिया में किसी घर को नहीं प्रदान की गई। यह इस बात की खुली निशानी है कि अल्लाह के पैग़म्बर हवाई बातें नहीं किया करते। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब उसको सुनसान पहाड़ों के बीच निर्मित करके हज के लिए पुकारा था उस समय कोई अनुमान भी नहीं कर सकता था कि हज़ारों वर्ष तक दुनिया उसकी ओर खिंची चली आएगी। (4) ऊँची छत अर्थात् आकाश और (5) तरंगित समुद्र। ये अल्लाह के चमत्कार की स्पष्ट निशानियाँ हैं और गवाही दे रही हैं कि इनका बनानेवाला आख़िरत घटित करने में असमर्थ नहीं हो सकता।
يَوۡمَ تَمُورُ ٱلسَّمَآءُ مَوۡرٗا ۝ 8
(9) वह उस दिन घटित होगा जब आसमान बुरी तरह डगमगाएगा
وَتَسِيرُ ٱلۡجِبَالُ سَيۡرٗا ۝ 9
(10) और पहाड़ उड़े उड़े फिरेंगे।
فَوَيۡلٞ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 10
(11) तबाही है उस दिन उन झुठलानेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي خَوۡضٖ يَلۡعَبُونَ ۝ 11
(12) जो आज खेल के रूप में अपनी हुज्जत बाज़ियों में लगे हुए हैं।
يَوۡمَ يُدَعُّونَ إِلَىٰ نَارِ جَهَنَّمَ دَعًّا ۝ 12
(13) जिस दिन उन्हें धक्के मार-मारकर जहन्नम की आग की ओर ले चला जाएगा
هَٰذِهِ ٱلنَّارُ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 13
(14) उस समय उनसे कहा जाएगा कि “यह वही आग है जिसे तुम झुठलाया करते थे।
أَفَسِحۡرٌ هَٰذَآ أَمۡ أَنتُمۡ لَا تُبۡصِرُونَ ۝ 14
(15) अब बताओ, यह जादू है या तुम्हें सूझ नहीं रहा है?
ٱصۡلَوۡهَا فَٱصۡبِرُوٓاْ أَوۡ لَا تَصۡبِرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡۖ إِنَّمَا تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) जाओ अब झुलसो इसके अन्दर, तुम चाहे सब्र करो या न करो, तुम्हारे लिए बराबर है, तुम्हें वैसा ही बदला दिया जा रहा है जैसे तुम कर्म कर रहे थे।”
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَنَعِيمٖ ۝ 16
(17) डर रखनेवाले लोग वहाँ बाग़ों और नेमतों में होंगे,
فَٰكِهِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ وَوَقَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 17
(18) आनन्द ले रहे होंगे उन चीज़़ों से जो उनका रब उन्हें देगा, और उनका रब उन्हें दोजख़ के अज़ाब से बचा लेगा।
كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ هَنِيٓـَٔۢا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) (उनसे कहा जाएगा) खाओ और पियो मज़े से अपने उन कर्मों के बदले में जो तुम करते रहे हो।
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ سُرُرٖ مَّصۡفُوفَةٖۖ وَزَوَّجۡنَٰهُم بِحُورٍ عِينٖ ۝ 19
(20) वे आमने-सामने बिछे हुए तख़्तों पर तकिए लगाए बैठे होंगे और हम सुन्दर आँखोंवाली हूरों (परम रूपवती औरतों) से उनका विवाह कर देंगे।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱتَّبَعَتۡهُمۡ ذُرِّيَّتُهُم بِإِيمَٰنٍ أَلۡحَقۡنَا بِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَمَآ أَلَتۡنَٰهُم مِّنۡ عَمَلِهِم مِّن شَيۡءٖۚ كُلُّ ٱمۡرِيِٕۭ بِمَا كَسَبَ رَهِينٞ ۝ 20
(21) जो लोग ईमान लाए हैं और उनकी सन्तान भी ईमान के किसी दरजे में उनके पदचिह्नों पर चली है, उनकी उस सन्तान को भी हम (जन्नत में) उनके साथ मिला देंगे और उनके कर्म में कोई घाटा उनको न देंगे। हर व्यक्ति अपनी कमाई के बदले रेहन है।2
2. अर्थात् जिस तरह कोई व्यक्ति क़र्ज़ चुकाए बिना रेहन नहीं छुड़ा सकता, उसी तरह कोई व्यक्ति कर्तव्य पूरा किए बिना अपने आपको अल्लाह की पकड़ से नहीं बचा सकता। सन्तान अगर ख़ुद नेक नहीं है तो बाप-दादा की नेकी उसका रेहन नहीं छुड़ा सकती।
وَأَمۡدَدۡنَٰهُم بِفَٰكِهَةٖ وَلَحۡمٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 21
(22) हम उनको हर तरह के फल और मांस, जिस चीज़ को भी उनका जी चाहेगा, ख़ूब दिए चले जाएँगे।
يَتَنَٰزَعُونَ فِيهَا كَأۡسٗا لَّا لَغۡوٞ فِيهَا وَلَا تَأۡثِيمٞ ۝ 22
(23) वे एक दूसरे से मदिरा पात्र लपक लपककर ले रहे होंगे, जिसमें न बकवास होगी न दुश्चरित्रता।3
3. अर्थात् वह मदिरा नशा पैदा करनेवाली न होगी कि उसे पीकर वे बदमस्त हों और बेहूदा बकवास करने लगें, या गाली-गलौज और धौल धप्पे पर उतर आएँ, या उसी तरह के अश्लील कार्य करने लगें जैसे दुनिया की शराब पीनेवाले करते हैं।
۞وَيَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ غِلۡمَانٞ لَّهُمۡ كَأَنَّهُمۡ لُؤۡلُؤٞ مَّكۡنُونٞ ۝ 23
(24) और उनकी सेवा में वे लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे जो उन्हीं (की सेवा) के लिए ख़ास होंगे, ऐसे सुन्दर जैसे छुपाकर रखे हुए मोती।
وَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 24
(25) ये लोग आपस में एक दूसरे से (दुनिया में गुज़रे हुए) हालात पूछेंगे।
قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا قَبۡلُ فِيٓ أَهۡلِنَا مُشۡفِقِينَ ۝ 25
(26) ये कहेंगे कि हम पहले अपने घरवालों में दुआएँ डरते हुए जीवन-यापन करते थे4,
4. अर्थात हम वहाँ आनन्द में लीन और अपनी दुनिया में मग्न होकर ग़फ़लत की ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रहे थे, बल्कि हर समय हमें यह धड़का लगा रहता था कि कहीं हमसे कोई ऐसा काम न हो जाए जिसपर अल्लाह के यहाँ हमारी पकड़ हो। यहाँ विशेष रूप से अपने घरवालों के बीच डरते हुए ज़िन्दगी बसर करने का उल्लेख इसलिए किया गया है कि आदमी सबसे ज़्यादा जिस वजह से गुनाहों में पड़ता है वह अपने बाल-बच्चों को सुख का भोग कराने और उनकी दुनिया बनाने की चिन्ता होती है।
فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَوَقَىٰنَا عَذَابَ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) आख़िरकार अल्लाह ने हमपर अनुग्रह किया और हमें झुलसा देनेवाली हवा के अज़ाब से बचा लिया।
إِنَّا كُنَّا مِن قَبۡلُ نَدۡعُوهُۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡبَرُّ ٱلرَّحِيمُ ۝ 27
(28) हम पिछली ज़िन्दगी में उसी से माँगते थे, वह वास्तव में बड़ा ही उपकारी और दयावान है।
فَذَكِّرۡ فَمَآ أَنتَ بِنِعۡمَتِ رَبِّكَ بِكَاهِنٖ وَلَا مَجۡنُونٍ ۝ 28
(29) अतः ऐ नबी, तुम नसीहत किए जाओ, अपने रब के अनुग्रह से न तुम 'काहिन' हो और न दीवाने।5
5. आख़िरत (परलोक) का चित्र प्रस्तुत करने के बाद अब भाषण का रुख़ मक्का के अधर्मियों की उन हठधर्मियों की ओर फिर रहा है जिनसे वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आह्वान का मुक़ाबला कर रहे थे। इस आयत में सम्बोधन देखने में तो नबी (सल्ल०) की ओर है मगर वास्तव में आपके माध्यम से यह बात मक्का के अधर्मियों को सुनाना है।
أَمۡ يَقُولُونَ شَاعِرٞ نَّتَرَبَّصُ بِهِۦ رَيۡبَ ٱلۡمَنُونِ ۝ 29
(30) क्या ये लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति शायर है जिसके लिए हम समय पलटने का इन्तिज़ार कर रहे हैं?
قُلۡ تَرَبَّصُواْ فَإِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُتَرَبِّصِينَ ۝ 30
(31) इनसे कहो अच्छा, इनतिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।
أَمۡ تَأۡمُرُهُمۡ أَحۡلَٰمُهُم بِهَٰذَآۚ أَمۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 31
(32) क्या इनकी बुद्धियाँ इन्हें ऐसी ही बातें करने के लिए कहती हैं? या वास्तव में ये दुश्मनी में सीमा से आगे बढ़े हुए लोग हैं?6
6. इन संक्षिप्त वाक्यों में विरोधियों के सारे प्रोपगंडे की हवा निकाल दी गई है। तर्क का सारांश यह है कि यह क़ुरैश के सरदार और बड़े-बूढ़े बहुत बुद्धिमान बने फिरते हैं, मगर क्या इनकी बुद्धि यह कहती है कि जो व्यक्ति शायर नहीं है उसे शायर कहो, जिसे सारी क़ौम एक बुद्धिमान आदमी के रूप में जानती है उसे दीवाना कहो, और जिस व्यक्ति का काहिनों के कामों से कोई दूर का सम्बन्ध भी नहीं है उसे ज़बरदस्ती 'काहिन' कह दो। फिर अगर बुद्धि ही के आधार पर ये लोग फ़ैसला करते तो कोई एक फ़ैसला करते, बहुत-से परस्पर विरोधी फ़ैसले तो एक साथ घोषित नहीं कर सकते थे। एक व्यक्ति आख़िर एक ही समय में शायर, दीवाना और काहिन कैसे हो सकता है।
أَمۡ يَقُولُونَ تَقَوَّلَهُۥۚ بَل لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 32
(33) क्या ये कहते हैं कि इस व्यक्ति ने यह क़ुरआन ख़ुद गढ़ लिया है? वास्तविक बात यह है कि ये ईमान नहीं लाना चाहते।
فَلۡيَأۡتُواْ بِحَدِيثٖ مِّثۡلِهِۦٓ إِن كَانُواْ صَٰدِقِينَ ۝ 33
(34) अगर ये अपने इस कथन में सच्चे हैं तो इसी शान का एक कलाम (वाणी) बना लाएँ।
أَمۡ خُلِقُواْ مِنۡ غَيۡرِ شَيۡءٍ أَمۡ هُمُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 34
(35) क्या ये किसी स्रष्टा के बिना ख़ुद पैदा हो गए हैं? या ये ख़ुद अपने स्रष्टा है?
أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ ۝ 35
(36) या ज़मीन और आसमानों को इन्होंने पैदा किया है? वास्तविक बात यह है कि ये विश्वास नहीं रखते।7
7. अर्थात् ज़बान से स्वीकार करते हैं कि इनका और सारी दुनिया का स्रष्टा अल्लाह है, मगर जब कहा जाता है कि फिर बन्दगी भी उसी अल्लाह की करो तो लड़ने को तैयार हो जाते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि इन्हें अल्लाह पर विश्वास नहीं है।
أَمۡ عِندَهُمۡ خَزَآئِنُ رَبِّكَ أَمۡ هُمُ ٱلۡمُصَۜيۡطِرُونَ ۝ 36
(37) क्या तेरे रब के ख़ज़ाने इनके क़बज़े में हैं? या उनपर इन्हीं का हुक्म चलता है?8
8. यह मक्का के अधर्मियों की उस आपत्ति का जवाब है कि आख़िर अब्दुल्लाह के बेटे मुहम्मद (सल्ल०) ही क्यों रसूल बनाए गए। इस जवाब का अर्थ यह है कि इन लोगों को गुमराही से निकालने के लिए बहरहाल किसी न किसी को तो रसूल नियुक्त किया जाना ही था। अब सवाल यह है कि यह फ़ैसला करना किसका काम है कि अल्लाह अपना रसूल किसको बनाए और किसको न बनाए? अगर ये लोग ख़ुदा के बनाए हुए रसूल को मानने से इनकार करते हैं तो इसके अर्थ ये हैं कि या तो ख़ुदा की ख़ुदाई का मालिक ये अपने आपको समझ बैठे हैं, या फिर इनकी भावना यह है कि अपनी ख़ुदाई का मालिक तो अल्लाह ही हो, मगर उसमें आदेश इनका चले।
أَمۡ لَهُمۡ سُلَّمٞ يَسۡتَمِعُونَ فِيهِۖ فَلۡيَأۡتِ مُسۡتَمِعُهُم بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 37
(38) क्या इनके पास कोई सीढ़ी है जिसपर चढ़कर ये ऊपरी लोक की सुनगुन लेते हैं? इनमें से जिसने सुनगुन ली हो वह लाए कोई स्पष्ट प्रमाण।
أَمۡ لَهُ ٱلۡبَنَٰتُ وَلَكُمُ ٱلۡبَنُونَ ۝ 38
(39) क्या अल्लाह के लिए तो हैं बेटियाँ और तुम लोगों के लिए हैं बेटे?9
9. अर्थात् अगर तुम्हें रसूल की बात मानने से इनकार है तो तुम्हारे पास ख़ुद सत्य को जानने का आख़िर साधन क्या है? क्या तुममें से कोई व्यक्ति ऊपरी लोक में पहुँचा है और अल्लाह और उसके फ़रिश्तों से उसने प्रत्यक्ष यह मालूम कर लिया है कि वे धारणाएँ बिलकुल सत्यानुकूल हैं जिनपर तुम लोग अपने धर्म की आधारशिला रखे हुए हो? यह दावा अगर तुम नहीं रखते तो फिर ख़ुद ही विचार करो कि इससे ज़्यादा उपहासजनक धारणा और क्या हो सकती है कि तुम विश्व के पालनकर्ता अल्लाह के लिए औलाद ठहराते हो, और औलाद भी लड़कियों जिन्हें तुम ख़ुद अपने लिए लज्जाजनक समझते हो।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ أَجۡرٗا فَهُم مِّن مَّغۡرَمٖ مُّثۡقَلُونَ ۝ 39
(40) क्या तुम इनसे कोई बदला माँगते हो कि ये ज़बरदस्ती पड़े हुए तावान के बोझ तले दबे जाते हैं?
أَمۡ عِندَهُمُ ٱلۡغَيۡبُ فَهُمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 40
(41) क्या इनके पास ग़ैब (परोक्ष) की वास्तविकताओं का ज्ञान है कि उसके आधार पर ये लिख रहे हों? 10
10. अर्थात् क्या ये लोग यह लिखकर दे सकते हैं कि परोक्ष (ग़ैब) की वास्तविकताओं के सम्बन्ध में रसूल के बयानों को ये इस आधार पर झुठला रहे हैं कि परोक्ष के परदे के पीछे झाँककर इन्होंने देख लिया है कि सत्य वह नहीं है जो रसूल बयान कर रहा है?
أَمۡ يُرِيدُونَ كَيۡدٗاۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هُمُ ٱلۡمَكِيدُونَ ۝ 41
(42) क्या ये कोई चाल चलना चाहते हैं? अगर यह बात है तो इनकार करनेवालों पर उनकी चाल उलटी ही पड़ेगी।
أَمۡ لَهُمۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 42
(43) क्या अल्लाह के सिवा ये कोई और पूज्य रखते हैं? अल्लाह पाक है उस 'शिर्क' से जो ये लोग कर रहे हैं।
وَإِن يَرَوۡاْ كِسۡفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ سَاقِطٗا يَقُولُواْ سَحَابٞ مَّرۡكُومٞ ۝ 43
(44) ये लोग आसमान के टुकड़े भी गिरते हुए देख लें तो कहेंगे ये बादल हैं जो उमड़े चले आ रहे हैं।
فَذَرۡهُمۡ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي فِيهِ يُصۡعَقُونَ ۝ 44
(45) अतः ऐ नबी इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो यहाँ तक कि ये अपने उस दिन को पहुँच जाएँ जिसमें ये मार गिराए जाएँगे,
يَوۡمَ لَا يُغۡنِي عَنۡهُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 45
(46) जिस दिन न इनकी अपनी कोई चाल इनके किसी काम आएगी न कोई इनकी सहायता को आएगा।
وَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ عَذَابٗا دُونَ ذَٰلِكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 46
(47) और उस समय के आने से पहले भी ज़ालिमों के लिए एक अज़ाब है, मगर उनमें से ज़्यादातर जानते नहीं हैं।
وَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ فَإِنَّكَ بِأَعۡيُنِنَاۖ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 47
(48) ऐ नबी, अपने रब का फ़ैसला आने तक सब्र करो, तुम हमारी निगाह में हो। तुम जब उठो तो अपने रब की प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह करो, 11
11. अर्थात् जब तुम नमाज़ के लिए खड़े हो तो अल्लाह की स्तुति और तसबीह से उसका शुभारंभ करो। इसी आदेश के अनुपालन में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह हुक्म दिया कि नमाज़ का आरंभ 'तकबीरे-तहरीमा' (अल्लाहु अकबर) के बाद इन शब्दों से किया जाए: सुबहा न क अल्लाहुम-म व बिहम्दि-क व तबा-र-कस्मु-क व तआला जद्दु-क व ला इला-ह ग़ैरुक।'
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡهُ وَإِدۡبَٰرَ ٱلنُّجُومِ ۝ 48
(49) रात को भी उसकी तसबीह किया करो और सितारे जब पलटते हैं उस समय भी।12
12. इसका तात्पर्य फज़्र की नमाज़ का समय है।