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سُورَةُ النَّجۡمِ

53. अन-नज्म

(मक्का में उतरी, आयतें 62)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वन-नज्म' (क़सम है तारे की) से लिया गया है और केवल प्रतीक के रूप में इसे इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हजरत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि "पहली सूरा, जिसमें सजदे की आयत उतरी, अन-नज्म है।" साथ ही यह कि यह क़ुरआन मजीद की वह पहली सूरा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़ुरैश के एक जन-समूह में (और इब्‍ने-मर्दूया की रिवायत के अनुसार काबा में) सुनाया था। जन-समूह में काफ़िर और मोमिन सब मौजूद थे। आख़िर में जब आपने सजदे की आयत पढ़कर सजदा किया तो तमाम उपस्थित लोग आप (सल्ल०) के साथ सजदे में गिर गए और बहुदेववादियों के वे बड़े-बड़े सरदार तक, जो विरोध में आगे-आगे थे, सजदा किए बिना न रह सके। इब्‍ने-सअद का बयान है कि इससे पहले रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम की एक छोटी-सी जमाअत हबशा की ओर हिजरत कर चुकी थी। फिर जब उसी साल रमज़ान में यह घटना घटित हुई तो हबशा के मुहाजिरों तक यह क़िस्सा इस रूप में पहुँचा कि मक्का के इस्लाम-विरोधी मुसलमान हो गए हैं। इस ख़बर को सुनकर उनमें से कुछ लोग शव्वाल सन् 05 नबवी में मक्का वापस आ गए, मगर यहाँ आकर मालूम हुआ कि ज़ुल्म की चक्की उसी तरह चल रही है जिस तरह पहले चल रही थी। अन्ततः हबशा को दूसरी हिजरत घटित हुई जिसमें पहली हिजरत से भी अधिक लोग मक्का छोड़कर चले गए। इस तरह यह बात लगभग निश्चित रूप से मालूम हो जाती है कि यह सूरा रमज़ान 05 नबवी में उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उतरने के समय के इस विवरण से मालूम हो जाता है कि वे परिस्थितियाँ क्या थीं जिनमें यह सूरा उतरी। [मक्का के इस्लाम-विरोधियों की बराबर यह कोशिश रहती थी कि] ईश्वरीय वाणी को न ख़ुद सुनें, न किसी को सुनने दें और उसके विरुद्ध तरह-तरह की भ्रामक बातें फैलाकर सिर्फ़ अपने झूठे प्रोपगंडे के बल पर आप (सल्ल०) की दावत (आह्‍वान) को दबा दें। इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन पवित्र हरम (काबा) में जब यह घटना घटी कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से इस सूरा नज्म को सुनकर आप (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के इस्लाम विरोधी भी सजदे में गिर गए, तो बाद में उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि यह हमसे क्या कमज़ोरी ज़ाहिर हुई। और लोगों ने भी इसके कारण उनपर चोटें करनी शुरू कर दी कि दूसरों को तो इस वाणी को सुनने से मना करते थे, आज ख़ुद उसे न सिर्फ़ यह कि कान लगाकर सुना, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सजदे में भी गिर गए। अन्तत: उन्होंने यह बात बनाकर अपना पीछा छुड़ाया कि साहब! हमारे कानों ने तो "अब तनिक बताओ तुमने कभी इस 'लात' और 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?" के बाद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से ये शब्द सुने थे, "ये ऊच्च कोटी की देवियाँ हैं और इनकी सिफ़ारिश की अवश्य आशा की जा सकती है।" इसलिए हमने समझा कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे तरीक़े पर वापस आ गए हैं, हालाँकि कोई पागल आदमी ही यह सोच सकता था कि इस पूरी सूरा के संदर्भ में उन वाक्यों की भी कोई जगह हो सकती है जो उनका दावा था कि उनके कानों ने सुने हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखें, सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 96-101)

विषय और वार्ता

व्याख्यान का विषय मक्का के इस्लाम-विरोधियों को उस नीति की ग़लती पर सावधान करना है जो वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के सिलसिले में अपनाए हुए थे। वार्ता इस तरह आरंभ हुई है कि मुहम्मद (सल्ल०) बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं, जैसा कि तुम उनके बारे में प्रचार करते फिर रहे हो और न इस्लाम की यह शिक्षा और आमंत्रण उन्होंने स्वयं अपने दिल से घड़ा है, जैसा कि तुम अपनी दृष्टि में समझे बैठे हो, बल्कि जो कुछ वे पेश कर रहे हैं, वह विशुद्ध वह्य (प्रकाशना) है जो उनपर अवतरित की जाती है। जिन सच्चाइयों को वे तुम्हारे सामने बयान करते हैं, वे उनकी अपनी कल्पना और अन्दाज़े की उपज नहीं हैं, बल्कि उनकी आँखों देखी सच्चाइयाँ हैं। इसके बाद क्रमश: तीन विषय लिए गए हैं—

एक, यह कि सुननेवालों को समझाया गया है कि जिस दीन (धर्म) का तुम अनुसरण कर रहे हो, उसका आधार केवल अटकल और मनमानी कल्पनाओं पर स्थिर है। तुमने जो अक़ीदे (धारणाएँ) अपना रखे हैं, उनमें से कोई अक़ीदा भी किसी ज्ञान और प्रमाण पर आधारित नहीं है, बल्कि कुछ इच्छाएँ हैं जिनके लिए तुम कुछ कतिपय अंधविश्वासों को सच्चाई समझ बैठे हो। यह एक बहुत बड़ी बुनियादी ग़लती है जिसमें तुम लोग पड़े हुए हो। इस ग़लती में तुम्हारे पड़ने का मूल कारण यह है कि तुम्हें आख़िरत की कोई चिन्ता नहीं है, बस दुनिया ही तुम्हारी अभीष्ट बनी हुई है, इसलिए तुम्हें सत्य के ज्ञान की कोई चाह नहीं है।

दूसरा, यह कि लोगों को यह बताया गया है कि अल्लाह ही सम्पूर्ण जगत् का मालिक एवं सर्वाधिकारी है। सीधे रास्ते पर वह है जो उसके रास्ते पर हो और गुमराह वह जो उसकी राह से हटा हुआ हो।हर एक के कर्म को वह जानता है और उसके यहाँ अनिवार्य रूप से बुराई का बदला बुरा और भलाई का बदला भला मिलकर रहना है।

तीसरा, यह कि सत्य धर्म के उन कुछ आधारभूत तथ्यों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है जो क़ुरआन मजीद के अवतरण से सैकड़ों वर्ष पहले हज़रत इबराहीम और हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित धर्म-ग्रंथों में बयान हो चुके थे, ताकि उनको मालूम हो जाए कि ये वे आधारभूत तथ्य हैं जो हमेशा से अल्लाह के नबी बयान करते चले आए हैं।

इन वार्ताओं के बाद अभिभाषण को इस बात पर समाप्त किया गया है कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब आ लगी है जिसे कोई टालनेवाला नहीं है। उस घड़ी के आने से पहले मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरआन मजीद के द्वारा तुम लोगों को उसी तरह सचेत किया जा रहा है, जिस तरह पहले लोगों को सचेत किया गया था। अब क्या यही वह बात है जो तुम्हें अनोखी लगी है, जिसकी तुम हँसी उड़ाते हो?

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سُورَةُ النَّجۡمِ
53. अन-नज्म
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
وَٱلنَّجۡمِ إِذَا هَوَىٰ
(1) क़सम है तारे की जबकि वह डूबा,1
1. अर्थात् जब आख़िरी तारा डूबकर सुबह का उजाला प्रकट हुआ।
مَا ضَلَّ صَاحِبُكُمۡ وَمَا غَوَىٰ ۝ 1
(2) तुम्हारा साथी न भटका है, न बहका है।2
2. साथी से मुराद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं क्योंकि आप मक्का के इनकारियों के लिए कोई अजनबी न थे, बल्कि उन्हीं के बीच पैदा हुए और बच्चे से जवान हुए और जवानों से अधेड़ उम्र को पहुँचे। मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) तुम्हारे जाने-पहचाने आदमी हैं। यह बात सुबह के उजाले की तरह स्पष्ट है कि वे बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं।
وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ۝ 2
(3) यह अपने मन की इच्छा से नहीं बोलता
إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡيٞ يُوحَىٰ ۝ 3
(4) यह तो एक प्रकाशना है जो उसपर उतारी जाती है।
عَلَّمَهُۥ شَدِيدُ ٱلۡقُوَىٰ ۝ 4
(5) उसे बड़ी शक्तिवाले ने शिक्षा दी है
ذُو مِرَّةٖ فَٱسۡتَوَىٰ ۝ 5
(6) जो बड़ा हिकमतवाला है।3
3. इससे मुराद अल्लाह नहीं है, बल्कि जिबरील (अलैहि०) हैं जैसा कि आगे के बयान से अपने-आप स्पष्ट हो रहा है।
وَهُوَ بِٱلۡأُفُقِ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 6
(7) वह सामने आ खड़ा हुआ जब कि वह ऊपरी क्षितिज पर था4,
4. क्षितिज से मुराद है आसमान का वह पूरब का किनारा जहाँ से सूरज उदय होता है और दिन का प्रकाश फैलता है। मुराद यह है कि पहली बार जिबरील (अलैहि०) जब नबी (सल्ल०) को दिखाई दिए उस समय वे आसमान के पूरबी किनारे से प्रकट हुए थे।
ثُمَّ دَنَا فَتَدَلَّىٰ ۝ 7
(8) फिर क़रीब आया और ऊपर रुक गया,
فَكَانَ قَابَ قَوۡسَيۡنِ أَوۡ أَدۡنَىٰ ۝ 8
(9) यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम दूरी रह गई।5
5. अर्थात् आसमान के ऊपरी पूरबी किनारे से प्रकट होने के बाद जिबरील (अलैहि०) ने नबी (सल्ल०) की ओर आगे बढ़ना शुरू किया यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते वे आपके ऊपर आकर वायुमण्डल में थम गए, फिर वे आपकी ओर झुके और इतना क़रीब हो गए कि आपके और उनके बीच सिर्फ़ दो कमानों के बराबर, या कुछ कम दूरी रह गई। चूँकि सारी कमानें एक समान नहीं होतीं, इसलिए दूरी का अन्दाज़ा बताने के लिए कहा कि दो कमानों के बराबर या कुछ कम दूरी रह गई।
فَأَوۡحَىٰٓ إِلَىٰ عَبۡدِهِۦ مَآ أَوۡحَىٰ ۝ 9
(10) तब उसने अल्लाह के बन्दे को प्रकाशना (वह्य) पहुँचाई जो प्रकाशना भी उसे पहुँचानी थी।
مَا كَذَبَ ٱلۡفُؤَادُ مَا رَأَىٰٓ ۝ 10
(11) निगाह ने जो कुछ देखा, दिल ने उसमें झूठ न मिलाया।6
6. अर्थात् यह अवलोकन जो दिन के प्रकाश में और पूरी तरह जागने की हालत में खुली आँखों से मुहम्मद (सल्ल०) को हुआ इसपर उनके दिल ने यह नहीं कहा कि यह नज़र का धोखा है, या यह कोई जिन्न या शैतान है जो मुझे दिखाई दे रहा है, या मेरे सामने कोई ख़याली रूप आ गया है और मैं जागते में कोई ख़ाब देख रहा हूँ, बल्कि उनके दिल ने ठीक-ठीक वही कुछ समझा जो उनकी आँखें देख रही थीं। उन्हें इस बारे में कोई शक नहीं हुआ कि वास्तव में ये जिबरील (अलैहि०) हैं और जो सन्देश ये पहुँचा रहे हैं वह वास्तव में अल्लाह की ओर से 'वह्य' (प्रकाशना) है।
أَفَتُمَٰرُونَهُۥ عَلَىٰ مَا يَرَىٰ ۝ 11
(12) अब क्या तुम उस चीज़ पर उससे झगड़ते हो जिसे वह आँखों से देखता है?
وَلَقَدۡ رَءَاهُ نَزۡلَةً أُخۡرَىٰ ۝ 12
عِندَ سِدۡرَةِ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 13
(13, 14) और एक बार फिर उसने 'सिद्रतुल मुन्तहा7 (परली सीमा पर बेर) के पास उसको उतरते देखा
7. 'सिदरह' अरबी भाषा में बेरी या बेर के पेड़ को कहते हैं और 'मुन्तहा' का अर्थ है अन्तिम सिरा। “सिद्रतुल-मुन्तहा” का शाब्दिक अर्थ है “वह बेरी का पेड़ जो अन्तिम या आत्यान्तिक सिरे पर स्थित है।” हमारे लिए यह जानना कठिन है कि इस भौतिक जगत की आख़िरी सरहद पर वह बेरी का पेड़ कैसा है और उसका वास्तविक आकार-प्रकार और हाल क्या है। ये ईश्वरीय जगत् के वे गूढ़ रहस्य हैं जिन तक हमारी बुद्धि को पहुँच नहीं है। बहरहाल वह कोई ऐसी ही चीज़ है जिसके लिए इनसानी भाषा के शब्दों में “सिदरह” से ज़्यादा उपयुक्त शब्द अल्लाह के नज़दीक और कोई न था।
عِندَهَا جَنَّةُ ٱلۡمَأۡوَىٰٓ ۝ 14
(15) जहाँ पास ही जन्नतुल-मावा (ठिकानेवाली जन्नत) है।
إِذۡ يَغۡشَى ٱلسِّدۡرَةَ مَا يَغۡشَىٰ ۝ 15
(16) उस समय उस बेर पर छा रहा था जो कुछ छा रहा था।
مَا زَاغَ ٱلۡبَصَرُ وَمَا طَغَىٰ ۝ 16
(17) निगाह न चुंधियाई न सीमा का अतिक्रमण किया,
لَقَدۡ رَأَىٰ مِنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ ۝ 17
(18) और उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं।8
8. यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि नबी (सल्ल०) ने अल्लाह को नहीं, बल्कि उसकी बड़ी शानवाली निशानियों को देखा था। और चूँकि संदर्भ की दृष्टि से यह दूसरी भेंट भी उसी हस्ती से हुई थी जिससे पहली भेंट हुई, इसलिए अनिवार्य रूप से यह मानना पड़ेगा कि ऊपरी क्षितिज पर जिसको आपने पहली बार देखा था वह भी अल्लाह न था, और दूसरी बार “सिद्रतुल-मुन्तहा” के पास जिसको देखा वह भी अल्लाह न था। अगर आपने इन स्थितियों में से किसी स्थिति में परम तेजमय अल्लाह को देखा होता तो यह इतनी बड़ी बात थी कि यहाँ ज़रूर उसे स्पष्ट कर दिया जाता।
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱللَّٰتَ وَٱلۡعُزَّىٰ ۝ 18
وَمَنَوٰةَ ٱلثَّالِثَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ ۝ 19
(19, 20) अब तनिक बताओ, तुमने कभी इस 'लात' और इस 'उज़्ज़ा', और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?9
9. मतलब यह है कि जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं उसको तो तुम लोग गुमराही और पथभ्रष्टता ठहराते हो, हालाँकि यह ज्ञान उनको अल्लाह की ओर से दिया जा रहा है और अल्लाह उनको आँखों से वे वास्तविकताएँ दिखा चुका है जिनकी गवाही वे तुम्हारे सामने दे रहे हैं। अब तनिक तुम ख़ुद देखो कि जिन धारणाओं के अनुपालन पर तुम आग्रह किए जा रहे हो वे कितनी बुद्धि के प्रतिकूल हैं, और उनके मुक़ाबले में जो व्यक्ति तुम्हें सीधा मार्ग बता रहा है उसका विरोध करके आख़िर तुम किसको हानि पहुँचा रहे हो।
أَلَكُمُ ٱلذَّكَرُ وَلَهُ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 20
(21) क्या बेटे तुम्हारे लिए हैं और बेटियाँ अल्लाह के लिए?10
10. अर्थात् इन देवियों को तुमने सारे जहान के रब अल्लाह की बेटियाँ ठहरा लिया और यह अशिष्ट धारणा ईजाद करते हुए तुमने यह भी न सोचा कि अपने लिए तो तुम बेटी के पैदा होने को अपमान समझते हो और चाहते हो कि तुम्हें बेटा मिले, मगर अल्लाह के लिए तुम औलाद भी ठहराते हो तो बेटियाँ।
تِلۡكَ إِذٗا قِسۡمَةٞ ضِيزَىٰٓ ۝ 21
(22) यह तो फिर बड़ी घाँधली का बँटवारा हुआ।
إِنۡ هِيَ إِلَّآ أَسۡمَآءٞ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَمَا تَهۡوَى ٱلۡأَنفُسُۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مِّن رَّبِّهِمُ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 22
(23) वास्तव में ये कुछ नहीं हैं मगर बस कुछ नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नहीं उतारी। वास्तविकता यह है कि लोग सिर्फ़ अटकल के पीछे चल रहे हैं और मन को इच्छाओं के भक्त बने हुए है। हालाँकि उनके रब की ओर से उनके पास मार्गदर्शन आ चुका है।
أَمۡ لِلۡإِنسَٰنِ مَا تَمَنَّىٰ ۝ 23
(24) क्या इनसान जो कुछ चाहे उसके लिए वही हक़ है?11
11. इस आयत का दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि क्या इनसान को यह अधिकार है कि जिसको चाहे पूज्य बना ले? और एक तीसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि क्या इनसान इन पूज्यों से अपनी मुरादें पा लेने की जो कामना करता है वह कभी पूरी हो सकती है?
فَلِلَّهِ ٱلۡأٓخِرَةُ وَٱلۡأُولَىٰ ۝ 24
(25) दुनिया और आख़िरत का मालिक तो अल्लाह ही है।
۞وَكَم مِّن مَّلَكٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ لَا تُغۡنِي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـًٔا إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ أَن يَأۡذَنَ ٱللَّهُ لِمَن يَشَآءُ وَيَرۡضَىٰٓ ۝ 25
(26) आसमानों में कितने ही फ़रिश्ते मौजूद हैं, उनकी सिफ़ारिश कुछ भी काम नहीं आ सकती जब तक कि अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति के हक़ में उसकी अनुमति न दे जिसके लिए वह कोई निवेदन सुनना चाहे और उसको पसन्द करे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ لَيُسَمُّونَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ تَسۡمِيَةَ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 26
(27) मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे फ़रिश्तों को देवियों की संज्ञा देते हैं,
وَمَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّۖ وَإِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـٔٗا ۝ 27
(28) हालाँकि इस मामले का कोई ज्ञान उन्हें प्राप्त नहीं है, वे सिर्फ़ अटकल के पीछे चल रहे हैं, और अटकल सत्य की जगह कुछ भी काम नहीं दे सकती।
فَأَعۡرِضۡ عَن مَّن تَوَلَّىٰ عَن ذِكۡرِنَا وَلَمۡ يُرِدۡ إِلَّا ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 28
(29) अत: ऐ नबी, जो व्यक्ति हमारे ज़िक्र से मुँह फेरता है, और दुनिया की ज़िन्दगी के सिवा जिसे कुछ अभीष्ट नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ दो,12
12. यह संविष्ट वाक्य है, जो वार्त्ता-क्रम को बीच में तोड़कर पिछली बात के स्पष्टीकरण के रूप में वर्णन किया गया है।
ذَٰلِكَ مَبۡلَغُهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 29
(30) इन लोगों के ज्ञान की पहुँच बस यहीं तक है, यह बात तेरा रब ही ज़्यादा जानता है कि उसके मार्ग से कौन भटक गया है और कौन सीधे मार्ग पर है,
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ بِمَا عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ بِٱلۡحُسۡنَى ۝ 30
(31) और ज़मीन और आसमानों की हर चीज़़ का मालिक अल्लाह ही ताकि13 अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके कर्म का बदला दे और उन लोगों को अच्छा प्रतिदान प्रदान करे जिन्होंने अच्छी नीति अपनाई है,
13. यहाँ से फिर वही वार्ता क्रम शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था मानो संविष्ट वाक्य को छोड़कर वार्ता-क्रम यों है: “उसे उसके हाल पर छोड़ दो, ताकि अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके कर्म का बदला दे।"
ٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ إِلَّا ٱللَّمَمَۚ إِنَّ رَبَّكَ وَٰسِعُ ٱلۡمَغۡفِرَةِۚ هُوَ أَعۡلَمُ بِكُمۡ إِذۡ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَإِذۡ أَنتُمۡ أَجِنَّةٞ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡۖ فَلَا تُزَكُّوٓاْ أَنفُسَكُمۡۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱتَّقَىٰٓ ۝ 31
(32) जो बड़े-बड़े गुनाहों और खुले-खुले अश्लील कर्मों से बचते हैं, यह और बात है कि कुछ क़ुसूर उनसे हो जाए। बेशक तेरे रब की माफ़ी का दामन बहुत विस्तृत है। वह तुम्हें उस समय से ख़ूब जानता है जब उसने ज़मीन से तुम्हें पैदा किया और जब तुम अपनी माओं के पेटों में अभी भ्रूण अवस्था ही में थे। अतः अपने मन की पवित्रता के दावे न करो, वही अच्छी तरह जानता है कि वास्तव में डर रखनेवाला कौन है।
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي تَوَلَّىٰ ۝ 32
(33) फिर ऐ नबी, तुमने उस व्यक्ति को भी देखा जो अल्लाह के मार्ग से फिर गया
وَأَعۡطَىٰ قَلِيلٗا وَأَكۡدَىٰٓ ۝ 33
(34) और थोड़ा-सा देकर रुक गया?14
14. इशारा है वलीद-बिन-मुग़ीरह की ओर जो क़ुरैश के बड़े सरदारों में से एक था। यह व्यक्ति पहले नबी (सल्ल०) का आमंत्रण स्वीकार करने पर तैयार हो गया था, मगर जब उसके एक मुशरिक (बहुदेववादी) दोस्त को मालूम हुआ कि वह मुसलमान होने का इरादा कर रहा है तो उसने कहा कि तुम पैतृक धर्म को न छोड़ो, अगर तुम्हें आख़िरत के अज़ाब का खतरा है तो मुझे इतना धन दे दो, मैं ज़िम्मा लेता हूँ कि तुम्हारे बदले वहाँ का अज़ाब मैं भुगत लूँगा। वलीद ने यह बात मान ली और अल्लाह के मार्ग पर आते-आते उससे फिर गया, मगर जो धन उसने अपने मुशरिक दोस्त को देना तय किया था वह भी बस थोड़ा-सा दिया और बाक़ी रोक लिया।
أَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡغَيۡبِ فَهُوَ يَرَىٰٓ ۝ 34
(35) क्या उसके पास परोक्ष का ज्ञान है कि वह वास्तविकता को देख रहा है?
أَمۡ لَمۡ يُنَبَّأۡ بِمَا فِي صُحُفِ مُوسَىٰ ۝ 35
(36) क्या उसे उन बातों की कोई ख़बर नहीं पहुँची जो मूसा की पुस्तिकाओं और उस इबराहीम की पुस्तिकाओं में बयान हुई है
وَإِبۡرَٰهِيمَ ٱلَّذِي وَفَّىٰٓ ۝ 36
(37) जिसने वफ़ा का हक़ अदा कर दिया?15
15. आगे उन शिक्षाओं का सारांश बयान किया जा रहा है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की किताबों में अवतरित हुई थीं।
أَلَّا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰ ۝ 37
(38) “यह कि कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा,16
16. अर्थात् हर व्यक्ति ख़ुद अपने कर्म का ज़िम्मेदार है। एक व्यक्ति को ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती। कोई व्यक्ति अगर चाहे भी तो किसी दूसरे व्यक्ति के कर्म की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले सकता, न वास्तविक अपराधी को इस आधार पर छोड़ा जा सकता है कि उसकी जगह सज़ा भुगतने के लिए कोई और आदमी अपने आप को पेश कर रहा है।
وَأَن لَّيۡسَ لِلۡإِنسَٰنِ إِلَّا مَا سَعَىٰ ۝ 38
(39) और यह कि इनसान के लिए कुछ नहीं है मगर वह जिसके लिए उसने प्रयास किया है,17
17. अर्थात् हर व्यक्ति जो कुछ भी पाएगा अपने कर्म का फल पाएगा। एक व्यक्ति के कर्म का फल दूसरे को नहीं मिल सकता। और कोई व्यक्ति प्रयास एवं कर्म के बिना कुछ नहीं पा सकता।
وَأَنَّ سَعۡيَهُۥ سَوۡفَ يُرَىٰ ۝ 39
(40) और यह कि उसका प्रयास जल्द ही देखा जाएगा
ثُمَّ يُجۡزَىٰهُ ٱلۡجَزَآءَ ٱلۡأَوۡفَىٰ ۝ 40
(41 ) फिर उसका पूरा बदला उसे दे दिया जाएगा
وَأَنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 41
(42) और यह कि आख़िरकार पहुँचना तेरे रब ही के पास है
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَضۡحَكَ وَأَبۡكَىٰ ۝ 42
(43) और यह कि उसी ने हँसाया और उसी ने रुलाया18,
18. अर्थात् ख़ुशी और ग़म दोनों के उपक्रम उसी की ओर से हैं। अच्छे और बुरे भाग्य की डोर उसी के हाथ में है। कोई दूसरी सत्ता इस विश्व में ऐसी नहीं है जिसका तक़दीर के बनाने और बिगाड़ने में किसी तरह का हाथ हो
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَمَاتَ وَأَحۡيَا ۝ 43
(44) यह कि उसी ने मौत दी और उसी ने ज़िन्दगी प्रदान की,
وَأَنَّهُۥ خَلَقَ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰ ۝ 44
(45) और यह कि उसी ने नर और मादा का जोड़ा पैदा किया,
مِن نُّطۡفَةٍ إِذَا تُمۡنَىٰ ۝ 45
(46) एक बूँद से जब वह टपकाई जाती है,
وَأَنَّ عَلَيۡهِ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰ ۝ 46
(47) और यह कि दूसरी ज़िन्दगी प्रदान करना भी उसी के ज़िम्मे है
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَغۡنَىٰ وَأَقۡنَىٰ ۝ 47
(48) और यह कि उसी ने धनी किया और संपत्ति प्रदान की,
وَأَنَّهُۥ هُوَ رَبُّ ٱلشِّعۡرَىٰ ۝ 48
(49) और यह कि वही शिअरा (नामक तारे) का रब है19,
19. 'शिअरा' आसमान का अत्यन्त प्रकाशमान तारा है। मिस्र और अरब के लोगों की यह धारणा थी कि इस तारे का इनसानों के भाग्य पर प्रभाव पड़ता है। इसी कारण यह उनके उपास्यों में सम्मिलित था।
وَأَنَّهُۥٓ أَهۡلَكَ عَادًا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 49
(50) और यह कि उसी ने प्राचीन आद को तबाह किया,
وَثَمُودَاْ فَمَآ أَبۡقَىٰ ۝ 50
(51) और समूद को ऐसा मिटाया कि उनमें से किसी को बाक़ी न छोड़ा,
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ هُمۡ أَظۡلَمَ وَأَطۡغَىٰ ۝ 51
(52) और उनसे पहले नूह की क़ौम को तबाह किया, क्योंकि वे थे ही बड़े ज़ालिम और उद्दण्ड लोग,
وَٱلۡمُؤۡتَفِكَةَ أَهۡوَىٰ ۝ 52
(53) और औंधी गिरनेवाली बस्तियों को उठा फेंका,
فَغَشَّىٰهَا مَا غَشَّىٰ ۝ 53
(54) फिर छा दिया उनपर वह कुछ जो (तुम जानते ही हो कि) क्या छा दिया।20
20. औंधी गिरनेवाली बस्तियों से मुराद लूत की क़ौम की बस्तियाँ हैं। और “छा दिया उनपर जो कुछ छा दिया” से मुराद संभवतः मृत सागर (Dead Sea) का पानी है जो उनकी बस्तियों के ज़मीन में फँस जाने के बाद उनपर फैल गया था और आज तक वह इस इलाक़े पर छाया हुआ है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكَ تَتَمَارَىٰ ۝ 54
(55) अत: ऐ इनसान, अपने रब की किन-किन नेमतों में तू शक करेगा?"
هَٰذَا نَذِيرٞ مِّنَ ٱلنُّذُرِ ٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 55
(56) यह एक चेतावनी है पहले आई हुई चेतावनियों में से।
أَزِفَتِ ٱلۡأٓزِفَةُ ۝ 56
(57) आनेवाली घड़ी क़रीब आ लगी है,
لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ كَاشِفَةٌ ۝ 57
(58) अल्लाह के सिवा कोई उसको हटानेवाला नहीं।
أَفَمِنۡ هَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ تَعۡجَبُونَ ۝ 58
(59) अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम आश्चर्य प्रकट करते हो?
وَتَضۡحَكُونَ وَلَا تَبۡكُونَ ۝ 59
(60) हँसते हो और रोते नहीं हो?
وَأَنتُمۡ سَٰمِدُونَ ۝ 60
(61) और गा-बजाकर उन्हें टालते हो?
فَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ وَٱعۡبُدُواْ۩ ۝ 61
(62) झुक जाओ अल्लाह के आगे और बन्दगी करो।