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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ

60. अल-मुम्तहिना

(मदीना में उतरी, आयतें 13)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 10 में आदेश दिया गया है कि ‘जो औरतें हिजरत करके आएँ और मुसलमान होने का दावा करें उनकी परीक्षा ली जाए।’ इसी संदर्भ में इसका नाम 'अल-मुस्तहिना' रखा गया है। इसका उच्चारण मुम्तहना भी किया जाता है और मुम्तहिना भी। पहले उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "वह औरत जिसकी परीक्षा ली जाए" और दूसरे उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "परीक्षा लेनेवाली सूरा।"

उतरने का समय

इसमें दो ऐसे मामलों पर वार्ता की गई है जिनका समय ऐतिहासिक रूप से मालूम है। पहला मामला हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तअह (रज़ि०) का है और दूसरा मामला उन मुसलमान औरतों का है जो हुदैबिया के समझौते के बाद मक्का से हिजरत करके मदीना आने लगी थीं। इन दो मामलों के उल्लेख से [जिनका विस्तृत विवरण आगे आ रहा है] यह बात बिलकुल निश्चित हो जाती है कि यह सूरा हुदैबिया के समझौते और मक्का-विजय के मध्य उतरी है।

विषय और वार्ता

इस सूरा के तीन भाग हैं : पहला भाग सूरा के आरंभ से आयत 9 तक चलता है और सूरा के अन्त पर आयत 13 भी इसी से ताल्लुक रखती है। इसमें हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) के इस कर्म पर कड़ी पकड़ की गई है कि उन्होंने केवल अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एक अति महत्त्वपूर्ण युद्ध-सम्बन्धी रहस्य से शत्रुओं को अवगत कराने की कोशिश की थी, जिसे अगर समय रहते विफल नहीं कर दिया गया होता तो मक्का-विजय के अवसर पर बड़ा ख़ून-ख़राबा होता और वे तमाम फ़ायदे भी हासिल न हो सकते जो मक्का पर शान्तिमय ढंग से विजय प्राप्त करने के रूप में प्राप्त हो सकते थे। [हज़रत हातिब (रज़ि०) की] इस भयानक ग़लती पर सचेत करते हुए अल्लाह ने तमाम ईमानवालों को यह शिक्षा दी है कि किसी ईमानवाले को किसी हाल में और किसी उद्देश्य के लिए भी इस्लाम के दुश्मन के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध न रखना चाहिए और कोई ऐसा काम न करना चाहिए जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष में शत्रुओं के लिए लाभप्रद हो। अलबत्ता जो काफ़िर इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से शत्रुता और पीड़ा पहुँचाने का काम न कर रहे हों, उनके साथ सद्व्यवहार की नीति अपनाने में कोई दोष नहीं है। दूसरा भाग आयत 10-11 पर आधारित है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान किया गया है जो उस समय बड़ी पेचीदगी पैदा कर रही थी। मक्का में बहुत-सी मुसलमान औरतें ऐसी थीं, जिनके पति अधर्मी थे और वे किसी न किसी प्रकार हिजरत करके मदीना पहुँच जाती थीं। इसी तरह मदीना में बहुत-से मुसलमान मर्द ऐसे थे जिनकी पत्‍नियाँ अधर्मी थीं और वे मक्का ही में रह गई थीं। उनके बारे में यह प्रश्न पैदा होता था कि उनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध बाक़ी है या नहीं। अल्लाह ने इसका हमेशा के लिए यह निर्णय कर दिया कि मुसलमान औरत के लिए अधर्मी पति हलाल (वैध) नहीं है और मुसलमान मर्द के लिए यह वैध नहीं कि वह मुशरिक (बहुदाववादी) पत्‍नी के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध बनाए रखे। तीसरा भाग आयत 12 पर आधारित है, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि जो औरतें इस्लाम अपना लें, उनसे आप बड़ी-बड़ी बुराइयों से बचने का और भलाई के तमाम तरीक़ों के अनुसरण का [वचन लें।]

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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ
60. अल-मुम्तहना
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمۡ أَوۡلِيَآءَ تُلۡقُونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَقَدۡ كَفَرُواْ بِمَا جَآءَكُم مِّنَ ٱلۡحَقِّ يُخۡرِجُونَ ٱلرَّسُولَ وَإِيَّاكُمۡ أَن تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ رَبِّكُمۡ إِن كُنتُمۡ خَرَجۡتُمۡ جِهَٰدٗا فِي سَبِيلِي وَٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِيۚ تُسِرُّونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَأَنَا۠ أَعۡلَمُ بِمَآ أَخۡفَيۡتُمۡ وَمَآ أَعۡلَنتُمۡۚ وَمَن يَفۡعَلۡهُ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ
(1) ऐ1 लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम मेरे मार्ग में जानतोड़ संघर्ष करने के लिए और मेरी ख़ुशी की तलब में (वतन छोड़कर घरों से) निकले हो तो मेरे और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ। तुम उनके साथ दोस्ती की बुनियाद डालते हो, हालाँकि जो सत्य तुम्हारे पास आया है, उसको मानने से वे इनकार कर चुके हैं, और उनका व्यवहार यह है कि रसूल को और ख़ुद तुमको सिर्फ़ इस अपराध में वतन से निकालते हैं कि तुम अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए हो। तुम छिपाकर उनको मैत्रीपूर्ण सन्देश भेजते हो, हालाँकि जो कुछ तुम छिपाकर करते हो और जो खुल्लम-खुल्ला करते हो, हर चीज़़ को मैं ख़ूब जानता हूँ। जो व्यक्ति भी तुममें से ऐसा करे वह यक़ीनन सन्मार्ग से भटक गया।
1. कुरआन के टीकाकार इस बात पर सहमत हैं कि इन आयतों का अवतरण उस समय हुआ था जब मक्का के मुशरिकों (बहुदेववादियों) के नाम हज़रत हातिब-बिन-अबी बल्तआ का पत्र पकड़ा गया था जिसमें उन्होंने समय से पहले ही दुश्मनों को सूचित कर दिया था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मक्का पर चढ़ाई करनेवाले हैं।
إِن يَثۡقَفُوكُمۡ يَكُونُواْ لَكُمۡ أَعۡدَآءٗ وَيَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ وَأَلۡسِنَتَهُم بِٱلسُّوٓءِ وَوَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 1
(2) उनकी रीति तो यह है कि अगर तुमपर काबू पा जाएँ तो तुम्हारे साथ दुश्मनी करें और हाथ और ज़बान से तुम्हें दुख दें। वे तो यह चाहते हैं कि तुम किसी तरह इनकार करनेवाले हो जाओ।
لَن تَنفَعَكُمۡ أَرۡحَامُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡۚ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَفۡصِلُ بَيۡنَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 2
(3) क़ियामत के दिन न तुम्हारी नातेदारियाँ किसी काम आएँगी न तुम्हारी संतान।2 उस दिन अल्लाह तुम्हारे बीच जुदाई डाल देगा3, और वही तुम्हारे कर्मों का देखनेवाला है।
2. चूँकि हज़रत हातिब (रज़ि०) ने यह काम इसलिए किया था कि मक्का में उनके जो बाल-बच्चे हैं वे युद्ध के अवसर पर सुरक्षित रहें, इसलिए कहा कि जिन बाल-बच्चों के लिए तुमने यह काम किया है वे आख़िरत में काम आनेवाले नहीं हैं।
3. अर्थात् दुनिया के सारे नाते, सम्बन्ध और सम्पर्क वहाँ तोड़ दिए जाएँगे। हर व्यक्ति अपनी निजी हैसियत में पेश होगा और हर एक को अपना ही हिसाब देना पड़ेगा। इसलिए दुनिया में किसी व्यक्ति को भी किसी नातेदारी या दोस्ती या जत्थाबन्दी के लिए कोई नाजाइज़ काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने किए की सज़ा उसको ख़ुद ही भुगतनी होगी, उसकी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शरीक न होगा।
قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 3
(4) तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौमवालों से साफ़ कह दिया, “हम तुमसे और तुम्हारे उन उपास्यों से जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो बिलकुल बेज़ार हैं, हमने तुमसे कुफ़्र किया4 और हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए दुश्मनी हो गई और वैर पड़ गया जब तक तुम इससे अलग अकेले अल्लाह पर ईमान न लाओ।” मगर इबराहीम का अपने बाप से यह कहना (इससे अलग है) कि “मैं आपके लिए माफ़ी की प्रार्थना ज़रूर करूँगा, और अल्लाह से आपके लिए कुछ प्राप्त कर लेना मेरे बस में नहीं है।"5 (और इबराहीम और इबराहीम के साथियों की दुआ यह भी कि) “ऐ हमारे रब तेरे ही ऊपर हमने भरोसा किया और तेरी ही ओर हमने रुजू कर लिया और तेरे ही पास हमें पलटना है।
4. अर्थात् हम तुम्हारे काफ़िर (इनकार करनेवाले) हैं, न तुम्हें सत्य पर मानते हैं न तुम्हारे धर्म को।
5. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह बात तो अनुकरणीय है कि उन्होंने अपनी क़ाफ़िर और मुशरिक क़ौम से स्पष्ट रूप से बेज़ारी और सम्बन्ध-विच्छेद की घोषणा कर दी, मगर उनकी यह बात अनुकरणीय नहीं है कि उन्होंने अपने मुशरिक (बहुदेववादी) बाप के लिए माफ़ी की दुआ करने का वादा किया और व्यवहारतः उसके लिए दुआ की।
لَّا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَلَمۡ يُخۡرِجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ أَن تَبَرُّوهُمۡ وَتُقۡسِطُوٓاْ إِلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 4
(8) अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ नेकी और इनसाफ़ का बरताव करो, जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध नहीं किया है और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला है। अल्लाह इनसाफ़ करने वालों को पसन्द करता है।8
8. मतलब यह है कि जो व्यक्ति तुम्हारे साथ दुश्मनी नहीं करता, इनसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि तुम भी उसके साथ दुश्मनी न रखो। दुश्मन और ग़ैर दुश्मन को एक दरजे में रखना और दोनों में एक ही जैसा व्यवहार करना इनसाफ़ नहीं है। तुम्हें उन लोगों के साथ कड़ी नीति अपनाने का अधिकार है जिन्होंने ईमान लाने के बदले में तुमपर अत्याचार किए, और तुमको वतन से निकल जाने पर मज़बूर किया, और निकालने के बाद भी तुम्हारा पीछा न छोड़ा। मगर जिन लोगों ने इस ज़ुल्म में कोई हिस्सा नहीं लिया, इनसाफ़ यह है कि तुम उनके साथ अच्छा बरताव करो और रिश्ते और बिरादरी की दृष्टि से उनके जो हक़ तुमपर होते हैं उन्हें अदा करने में कमी न करो।
إِنَّمَا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ قَٰتَلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَأَخۡرَجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ وَظَٰهَرُواْ عَلَىٰٓ إِخۡرَاجِكُمۡ أَن تَوَلَّوۡهُمۡۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 5
(9) वह तुम्हें जिस बात से रोकता है वह तो यह है कि तुम उन लोगों से दोस्ती करो जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध किया है और तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है और तुम्हें निकालने में एक दूसरे की सहायता की है। उनसे जो लोग दोस्ती करें वही ज़ालिम है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا جَآءَكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ مُهَٰجِرَٰتٖ فَٱمۡتَحِنُوهُنَّۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِهِنَّۖ فَإِنۡ عَلِمۡتُمُوهُنَّ مُؤۡمِنَٰتٖ فَلَا تَرۡجِعُوهُنَّ إِلَى ٱلۡكُفَّارِۖ لَا هُنَّ حِلّٞ لَّهُمۡ وَلَا هُمۡ يَحِلُّونَ لَهُنَّۖ وَءَاتُوهُم مَّآ أَنفَقُواْۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۚ وَلَا تُمۡسِكُواْ بِعِصَمِ ٱلۡكَوَافِرِ وَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقۡتُمۡ وَلۡيَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقُواْۚ ذَٰلِكُمۡ حُكۡمُ ٱللَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡۖ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 6
(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब ईमानवाली औरतें घर-बार छोड़कर तुम्हारे पास आएँ तो (उनके ईमानवाली होने की जाँच-पड़ताल कर लो, और उनके ईमान की वास्तविकता तो अल्लाह ही भली-भाँति जानता है। फिर जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे ईमानवाली हैं तो उन्हें काफ़िरों की ओर वापस न करो।9 न वे काफ़िरों के लिए हलाल हैं और न काफ़िर उनके लिए हलाल। उनके काफ़िर शौहरों ने जो मह्‍र उनको दिए थे वे उन्हें फेर दो और उनसे निकाह कर लेने में तुमपर कोई गुनाह नहीं, जबकि तुम उनके मह्‍र उनको अदा कर दो।10 और तुम ख़ुद भी काफ़िर औरतों को अपने निकाह में न रोके रहो। जो मह्‍र तुमने अपनी काफ़िर औरतों को दिए थे वे तुम वापस माँग लो और जो मह्‍र काफ़िरों ने अपनी मुस्लिम बीवियों को दिए थे उन्हें वे वापस माँग लें। यह अल्लाह का आदेश है, वह तुम्हारे बीच फ़ैसला करता है और वह बड़ा जाननेवाला और तत्वदर्शी है।
9. हुदैबिया की सन्धि के बाद शुरू-शुरू में तो मुसलमान मर्द मक्का से भाग-भागकर मदीना आते रहे और उन्हें सन्धि की शर्तों के अनुसार वापस किया जाता रहा। फिर मुसलमान औरतों के आने का सिलसिला शुरू हो गया और काफ़िरों ने सन्धि का हवाला देकर उनकी वापसी की भी माँग की। इसपर यह सवाल उठा कि क्या हुदैबिया की सन्धि औरतों पर भी लागू होती है? अल्लाह ने इसी सवाल का यहाँ जवाब दिया है कि अगर वे मुसलमान हों और यह इतमीनान कर लिया जाए कि वास्तव में वे ईमान ही के लिए घर-बार छोड़कर आई हैं, कोई और चीज़़ उन्हें नहीं लाई है, तो उन्हें वापस न किया जाए। यह आदेश इस आधार पर दिया गया कि सन्धि की जो शर्तें लिखी गई थीं उनमें 'रजुलुन' (मर्द) का शब्द लिखा गया था जैसा कि बुख़ारी की रिवायत में आया है।
10. मतलब यह है कि उनके काफ़िर शौहरों को उनके जो मह्‍र वापस किए जाएँगे वही इन औरतों के मह्‍र न माने जाएँगे, बल्कि अब जो मुसलमान भी उनमें से किसी औरत से निकाह करना चाहे वह उसका मह्‍र अदा करे और उससे निकाह कर ले।
وَإِن فَاتَكُمۡ شَيۡءٞ مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ إِلَى ٱلۡكُفَّارِ فَعَاقَبۡتُمۡ فَـَٔاتُواْ ٱلَّذِينَ ذَهَبَتۡ أَزۡوَٰجُهُم مِّثۡلَ مَآ أَنفَقُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 7
(11) और अगर तुम्हारी काफ़िर बीवियों के मह्‍रों में से कुछ तुम्हें क़ाफ़िरों से वापस न मिले और फिर तुम्हारी नौबत आए तो जिन लोगों की बीवियाँ उधर रह गई है उनको उतनी रक़म अदा कर दो जो उनके दिए गए मह्‍रों के बराबर हो। और उस अल्लाह से डरते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَٰنٖ يَفۡتَرِينَهُۥ بَيۡنَ أَيۡدِيهِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِي مَعۡرُوفٖ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 8
(12) ऐ नबी, जब तुम्हारे पास ईमानवाली औरतें 'बैअत' करने के लिए आएँ11 और इस बात की प्रतिज्ञा करें कि वे अल्लाह के साथ किसी चीज़़ को शरीक न करेंगी, चोरी न करेंगी, व्यभिचार न करेगी, अपनी औलाद को क़त्ल न करेंगी, अपने हाथ-पाँव के आगे कोई आरोप गढ़कर न लाएँगी12, और किसी भले काम में तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन न करेंगी13, तो उनसे 'बैअत' ले तो और उनके लिए माफ़ी की दुआ करो, यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान् है।
11. यह आयत मक्का की विजय से कुछ पहले उतरी थी। इसके बाद जब मक्का की विजय हुई तो क़ुरैश के लोग गिरोह के गिरोह नबी (सल्ल०) से 'बैअत' करने के लिए हाज़िर होने लगे। आप (सल्ल०) ने मर्दों से सफ़ा पहाड़ पर ख़ुद 'बैअत' ली और हज़रत उमर (रज़ि०) को अपनी ओर से नियुक्त किया कि वे औरतों से “बैअत' लें और उन बातों का इक़रार कराएँ जो इस आयत में बयान हुई हैं। फिर मदीना में वापस लौटकर आपने एक मकान में अनसार की औरतों को इकट्टा करने का आदेश दिया और हज़रत उमर (रज़ि०) को उनसे 'बैअत' लेने के लिए भेजा।
12. इससे मुराद दो तरह के आरोप हैं। एक यह कि कोई औरत दूसरी औरतों पर पराए मर्दों से सम्बन्ध रखने के आरोप लगाए और इस तरह के क़िस्से लोगों में फैलाए। दूसरा यह कि एक औरत बच्चा तो किसी का जने और शौहर को विश्वास दिलाए कि यह तेरा ही है।
13. इस छोटे-से वाक्य में दो बड़े महत्त्वपूर्ण क़ानूनी सूत्र बयान किए गए हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) के आज्ञापालन पर भी भलाई में आज्ञापालन की शर्त लगाई गई है, हालाँकि नबी (सल्ल०) के बारे में इस बात के किसी मामूली सन्देह की गुंजाइश भी न थी कि आप कभी बुराई का आदेश भी दे सकते हैं। इससे ख़ुद यह बात स्पष्ट हो गई कि दुनिया में किसी प्राणों का आज्ञापालन अल्लाह के क़ानून को सीमाओं से बाहर जाकर नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का आज्ञापालन भलाई की शर्त से आबद्ध है तो फिर किसी दूसरे का यह पद कहाँ हो सकता है कि उसे बिना किसी शर्त के आज्ञापालन का अधिकार प्राप्त हो और उसके किसी ऐसे आदेश या क़ानून या व्यवस्था या रीति का पालन किया जाए जो अल्लाह के कानून के विरुद्ध हो। दूसरी बात जो क़ानून की हैसियत से बहुत महत्त्व रखती है यह है कि इस आयत में पाँच नकारात्मक आदेश देने के बाद स्वीकारात्मक आदेश सिर्फ़ एक ही दिया गया है और वह यह कि सभी नेक कामों में नबी (सल्ल०) के आदेशों का पालन किया जाएगा। जहाँ तक बुराइयों का सम्बन्ध है, वे बड़ी-बड़ी बुराइयाँ गिना दी गईं जिनमें अज्ञानकाल की औरतें ग्रस्त थीं और उनसे रुके रहने का वचन ले लिया गया, मगर जहाँ तक भलाइयों का सम्बन्ध है उनकी कोई सूची देकर वचन नहीं लिया गया कि तुम ये ये कार्य करोगी, बल्कि सिर्फ़ यह वचन लिया गया कि जिस नेक काम का भी नबी (सल्ल०) आदेश देंगे उसका पालन तुम्हें करना होगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ قَدۡ يَئِسُواْ مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِ كَمَا يَئِسَ ٱلۡكُفَّارُ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡقُبُورِ ۝ 9
(13) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनपर अल्लाह का प्रकोप हैं, जो आख़िरत (परलोक) से उसी तरह निराश है जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए काफ़िर निराश हैं।
رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ وَٱغۡفِرۡ لَنَا رَبَّنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 10
(5) ऐ हमारे रब हमें इनकार करनेवालों के लिए फ़ितना न बना दे।6 और ऐ हमारे रब, हमारी ग़लतियों को माफ़ कर दे, बेशक तू ही प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।"
6. काफ़िरों (अधर्मियों) के लिए ईमानवालों के फ़ितना बनने की बहुत-सी सूरतें हो सकती हैं। उदाहरणार्थ क़ाफ़िरों को उनपर आधिपत्य प्राप्त हो जाए और अपने आधिपत्य को वे इस बात का प्रमाण ठहरा लें कि हम सत्य पर हैं और ईमानवाले असत्य पर या यह कि ईमानवालों पर काफ़िरों का जुल्म और अत्याचार उनकी सहन शक्ति से बढ़ जाए और आख़िरकार वे उनसे दबकर अपने धर्म और नैतिकता का सौदा करने पर उतर आएँ। या यह कि सत्य धर्म के प्रतिनिधित्व के उच्च पद पर आसीन होने के बावजूद ईमानवाले उस नैतिक श्रेष्ठता से वंचित हों जो इस पद के अनुकूल है, और दुनिया को उनके चरित्र और आचरण में भी वही दोष दिखाई दें जो अज्ञान के समाज में सामान्य रूप से फैले हुए हों। इससे क़ाफ़िरों को यह कहने का अवसर मिलेगा कि इस धर्म में आख़िर वह क्या ख़ूबी है कि जो इसे हमारे कुफ़्र (अधर्म) के मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान करती हो।
لَقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِيهِمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 11
(6) उन्हीं लोगों के काम करने के तरीक़े में तुम्हारे लिए और हर उस व्यक्ति के लिए अच्छा नमूना है जो अल्लाह और अन्तिम दिन का उम्मीदवार हो। इससे कोई मुँह फेरे तो अल्लाह निस्स्पृह और अपने आप में ख़ुद प्रशंसनीय है।
۞عَسَى ٱللَّهُ أَن يَجۡعَلَ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ عَادَيۡتُم مِّنۡهُم مَّوَدَّةٗۚ وَٱللَّهُ قَدِيرٞۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 12
(7) असंभव नहीं कि अल्लाह कभी तुम्हारे और उन लोगों के बीच प्रेम डाल दे जिनसे आज तुमने दुश्मनी मोल ली है।7 अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और वह बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान् है।
7. ऊपर की आयतों में मुसलमानों को अपने क़ाफ़िर रिश्तेदारों से सम्बन्ध-विच्छेद पर प्रेरित करने के बाद यह आशा भी दिलाई गई है कि ऐसा समय भी आ सकता है जब तुम्हारे यही रिश्तेदार मुसलमान हो जाएँ और आज की दुश्मनी कल फिर दोस्ती में बदल जाए।