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سُورَةُ طه

20. ता० हा०

(मक्‍का में उतरी-आयतें 135)

परिचय

उतरने का समय

इस सूरा के उतरने का समय सूरा-19 मरयम के समय के निकट ही का है। संभव है कि यह हबशा की ओर हिजरत के समय में या उसके बाद उतरी हो। बहरहाल यह बात निश्चित है कि हज़रत उमर (रजि०) के इस्लाम स्वीकार करने से पहले यह उतर चुकी थी। [क्योकि अपनी बहन फ़तिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) के घर पर यही सूरा ता० हा० पढ़कर वे मुसलमान हुए थे] और यह हबशा की हिजरत से थोड़े समय के बाद ही की घटना है।

विषय और वार्ता

सूरा का आरंभ इस तरह होता है कि ऐ मुहम्मद ! यह क़ुरआन तुमपर कुछ इसलिए नहीं उतारा गया है कि यों ही बैठे-बिठाए तुमको एक मुसीबत में डाल दिया जाए। तुमसे यह माँग नहीं है कि हठधर्म लोगों के दिलों में ईमान पैदा करके दिखाओ। यह तो बस एक नसीहत और याददिहानी है, ताकि जिसके मन में अल्लाह का डर हो वह सुनकर सीधा हो जाए।

इस भूमिका के बाद यकायक हज़रत मूसा (अलैहि०) का किस्सा छेड़ दिया गया है। जिस वातावरण में यह किस्सा सुनाया गया है, उसके हालात से मिल-जुलकर यह मक्कावालों से कुछ और बातें करता नज़र आता है जो उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके सार-संदर्भ से प्रकट हो रही हैं। इन बातों की व्याख्या से पहले यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि अरब में भारी तादाद में यहूदियों की उपस्थिति और अरबवालों पर यहूदियों की ज्ञानात्मक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण, साथ ही रूम और हब्शा और ईसाई राज्यों के प्रभाव से भी, अरबों में सामान्य रूप से हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी माना जाता था। इस वास्तविकता को नज़र में रखने के बाद अब देखिए कि वे बातें क्या हैं जो इस किस्से के संदर्भ से मक्कावालों को जताई गई हैं:

  1. अल्लाह किसी को नुबूवत (किसी सामान्य घोषणा के साथ प्रदान नहीं किया करता। नुबूवत तो जिसको भी दी गई है, कुछ इसी तरह रहस्य में रखकर दी गई है, जैसे हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। अब तुम्हें क्यों इस बात पर अचंभा है कि मुहम्मद (सल्ल०) यकायक नबी बनकर तुम्हारे सामने आ गए।
  2. जो बात आज मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं (यानी तौहीद और आख़िरत) ठीक वही बात नुबूवत के पद पर आसीन करते समय अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) को सिखाई थी।
  3. फिर जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) को बिना किसी सरो-सामान और सेना के अकेले क़ुरैश के मुक़ाबले में सत्य की दावत का ध्वजावाहक बनाकर खड़ा कर दिया गया है, ठीक उसी तरह मूसा (अलैहि०) भी यकायक इतने बड़े काम पर लगा दिए गए थे कि जाकर फ़िरऔन जैसे सरकश बादशाह को सरकशी से रुक जाने को कहें। कोई फ़ौज उनके साथ नहीं भेजी गई थी।
  4. जो आपत्ति, सन्देह और आरोप, धोखाधड़ी और अत्याचार के हथकंडे मक्कावाले आज मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनसे बढ़-चढ़कर वही सब हथियार फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल किए थे। फिर देख लो कि किस तरह वह अपनी तमाम चालों में विफल हुआ और अन्तत: कौन प्रभावी होकर रहा । इस सिलसिले में स्वयं मुसलमानों को भी एक निश्शब्द तसल्ली दी गई है कि अपनी बेसरो-सामानी के बावजूद तुम ही प्रभावी रहोगे। इसी के साथ मुसलमानों के सामने मिस्र के जादूगरों का नमूना भी पेश किया गया है कि जब सत्य उनपर खुल गया तो वे बे-धड़क उसपर ईमान ले आए, और फिर फ़िरऔन के प्रतिशोध का डर उन्हें बाल-बराबर भी ईमान के रास्ते से न हटा सका।
  5. अन्त में बनी-इसराईल के इतिहास से एक गवाही पेश करते हुए यह भी बताया गया है कि देवताओं और उपास्यों के गढ़े जाने का आरंभ किस हास्यास्पद ढंग से हुआ करता है और यह कि अल्लाह के नबी इस घिनौनी चीज़ का नामो-निशान तक बाक़ी रखने के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं। अत: आज इस शिर्क और बुतपरस्ती का जो विरोध मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं, वह नुबूवत के इतिहास में कोई पहली घटना नहीं है।

इस तरह मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा सुनाकर उन तमाम बातों पर रौशनी डाली गई है जो उस समय उनकी और नबी (सल्ल.) के आपसी संघर्ष से ताल्लुक रखती थीं। इसके बाद एक संक्षिप्त उपदेश दिया गया है कि बहरहाल यह क़ुरआन एक उपदेश और याददिहानी है, इसपर कान धरोगे तो अपना ही भला करोगे, न मानोगे तो स्वयं बुरा अंजाम देखोगे।

फिर आदम (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करके यह बात समझाई गई है कि जिस नीति पर तुम लोग जा रहे हो, यह वास्तव में शैतान की पैरवी है। ग़लती और उसपर हठ अपने पाँवों पर आप कुल्हाड़ी मारना है, जिसका नुक़सान आदमी को ख़ुद ही भुगतना पड़ेगा, किसी दूसरे का कुछ न बिगड़ेगा।

अन्त में नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को समझया गया है कि अल्लाह किसी क़ौम को उसके कुफ़्र और इंकार पर तुरन्त नहीं पकड़ता, बल्कि संभलने के लिए काफ़ी मोहलत देता है। इसलिए घबराओ नहीं, सब के साथ इन लोगों की ज़्यादतियों को सहन करते चले जाओ और उपदेश का हक़ अदा करते रहो।

इसी सिलसिले में नमाज़ की ताक़ीद की गई है ताकि ईमानवालों में धैर्य, सहनशीलता, अल्लाह पर भरोसा, उसके फ़ैसले पर इत्मीनान और अपना जाइज़ा लेने के लिए वे गुण पैदा हों जो कि सत्य की ओर आह्वान का काम करने के लिए अपेक्षित हैं।

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سُورَةُ طه
20. ता० हा०
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
طه
(1) ता० हा०,
مَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لِتَشۡقَىٰٓ ۝ 1
(2) हमने यह क़ुरआन तुमपर इसलिए अवतरित नहीं किया है कि तुम मुसीबत में पड़ जाओ।
إِلَّا تَذۡكِرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰ ۝ 2
(3) यह तो एक याददिहानी है हर उस व्यक्ति के लिए जो डरे।1
1. अर्थात् ऐ नबी, इस क़ुरआन को उतारकर हम कोई अनहोना काम तुमसे नहीं लेना चाहते। तुम्हें यह सेवा नहीं सौंपी गई है कि जो लोग नहीं मानना चाहते उनको मनवाकर छोड़ो और जिनके दिल ईमान के लिए बन्द हो चुके हैं उनके भीतर ईमान उतारकर ही रहो। यह तो बस एक अनुस्मारक और याददिहानी है और इसलिए भेजी गई है कि जिसके दिल में ईश्वर का डर हो वह इसे सुनकर होश में आ जाए।
تَنزِيلٗا مِّمَّنۡ خَلَقَ ٱلۡأَرۡضَ وَٱلسَّمَٰوَٰتِ ٱلۡعُلَى ۝ 3
(4) उतारा गया है उस सत्ता की ओर से जिसने पैदा किया है ज़मीन को और बुलन्द आसमानों को।
ٱلرَّحۡمَٰنُ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ ٱسۡتَوَىٰ ۝ 4
(5) वह करुणामय स्वामी (जगत् के) राज्य सिंहासन पर विराजमान है।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَمَا تَحۡتَ ٱلثَّرَىٰ ۝ 5
(6) मालिक है उन सब चीज़़ों का जो आसमानों और ज़मीन में है और जो ज़मीन और आसमान के बीच हैं और जो मिट्टी के नीचे हैं।
وَإِن تَجۡهَرۡ بِٱلۡقَوۡلِ فَإِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ وَأَخۡفَى ۝ 6
(7) तुम चाहे अपनी बात पुकारकर कहो, वह तो चुपके से कही हुई बात, बल्कि उससे बढ़कर छिपी बात भी जानता है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ ۝ 7
(3) वह अल्लाह है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, उसके लिए सर्वोत्तम नाम हैं।
وَهَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ مُوسَىٰٓ ۝ 8
(9) और तुम्हें कुछ मूसा की ख़बर भी पहुँची है?
إِذۡ رَءَا نَارٗا فَقَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِقَبَسٍ أَوۡ أَجِدُ عَلَى ٱلنَّارِ هُدٗى ۝ 9
(10) जबकि उसने एक आग देखी2 और अपने घरवालों से कहा कि “तनिक ठहरो, मैंने एक आग देखी है। शायद कि तुम्हारे लिए एक-आध अंगारा ले आऊँ, या उस आग पर मुझे (मार्ग से संबंधित) कोई रहनुमाई मिल जाए"।3
2. यह उस समय का क़िस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) कुछ वर्ष मदयन में प्रवास की ज़िन्दगी बिताने के बाद अपनी बीवी को (जिनसे मदयन ही में शादी हुई थी) लेकर मिस्र की ओर वापस जा रहे थे।
3. ऐसा लगता है कि यह रात का समय और जाड़े का ज़माना था। हज़रत मूसा (अलैहि०) प्रायद्वीप सीना के दक्षिणी इलाक़े से गुज़र रहे थे। दूर से एक आग देखकर उन्होंने समझा कि या तो वहाँ से थोड़ी-सी आग मिल जाएगी ताकि बाल-बच्चों को रात भर गर्म रखने की व्यवस्था हो जाए, या कम से कम वहाँ से यह पता चल जाएगा कि आगे रास्ता किधर है। सोचा था दुनिया का रास्ता मिलने का, और वहाँ मिल गया परलोक का रास्ता।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ يَٰمُوسَىٰٓ ۝ 10
(11) वहाँ पहुँचा तो पुकारा गया, “ऐ मूसा!
إِنِّيٓ أَنَا۠ رَبُّكَ فَٱخۡلَعۡ نَعۡلَيۡكَ إِنَّكَ بِٱلۡوَادِ ٱلۡمُقَدَّسِ طُوٗى ۝ 11
(12) मैं ही तेरा रब हूँ, जूतियाँ उतार दे। तू पवित्र घाटी 'तुवा' में है।
وَأَنَا ٱخۡتَرۡتُكَ فَٱسۡتَمِعۡ لِمَا يُوحَىٰٓ ۝ 12
(13) और मैंने तुझको चुन लिया है, सुन जो कुछ प्रकाशना (वह्य) को जाती है।
إِنَّنِيٓ أَنَا ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدۡنِي وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِذِكۡرِيٓ ۝ 13
(14) मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है, अतः तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर।
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٌ أَكَادُ أُخۡفِيهَا لِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا تَسۡعَىٰ ۝ 14
(15) क़ियामत की घड़ी ज़रूर आनेवाली है। मैं उसका समय छिपाए रखना चाहता हूँ, ताकि हर जीव अपने प्रयास के अनुसार बदला पाए।
فَلَا يَصُدَّنَّكَ عَنۡهَا مَن لَّا يُؤۡمِنُ بِهَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ فَتَرۡدَىٰ ۝ 15
(16) अत: कोई ऐसा व्यक्ति जो उसपर ईमान नहीं लाता और अपने मन की इच्छाओं का ग़ुलाम बन गया है तुझको उस घड़ी की चिन्ता से न रोक दे नहीं तो तू तबाही में पड़ जाएगा
وَمَا تِلۡكَ بِيَمِينِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 16
(17) और ऐ मूसा! यह तेरे हाथ में क्या है?"
قَالَ هِيَ عَصَايَ أَتَوَكَّؤُاْ عَلَيۡهَا وَأَهُشُّ بِهَا عَلَىٰ غَنَمِي وَلِيَ فِيهَا مَـَٔارِبُ أُخۡرَىٰ ۝ 17
(18) मूसा ने जवाब दिया, “यह मेरी लाठी है, इसपर टेक लगाकर चलता हूँ, इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाड़ता हूँ और भी बहुत-से काम हैं जो इससे लेता हूँ।”
قَالَ أَلۡقِهَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 18
(19) कहा, “फेंक दे इसको मूसा।”
فَأَلۡقَىٰهَا فَإِذَا هِيَ حَيَّةٞ تَسۡعَىٰ ۝ 19
(20) उसने फेंक दिया और यकायक वह एक साँप थी, जो दौड़ रहा था।
قَالَ خُذۡهَا وَلَا تَخَفۡۖ سَنُعِيدُهَا سِيرَتَهَا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 20
(21) कहा, “पकड़ ले इसको और डर नहीं, हम इसे फिर वैसा ही कर देंगे जैसी यह थी।
وَٱضۡمُمۡ يَدَكَ إِلَىٰ جَنَاحِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٍ ءَايَةً أُخۡرَىٰ ۝ 21
(22) और ज़रा अपना हाथ अपनी बग़ल में दबा, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी तकलीफ़ के।4 यह दूसरी निशानी है
4. अर्थात् रौशन ऐसा होगा जैसे सूरज, मगर तुम्हें उससे कोई तकलीफ़ न होगी।
لِنُرِيَكَ مِنۡ ءَايَٰتِنَا ٱلۡكُبۡرَى ۝ 22
(23) इसलिए कि हम तुझे अपनी बड़ी निशानियाँ दिखानेवाले हैं।
ٱذۡهَبۡ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 23
(24) अब तू फ़िरऔन के पास जा, वह सरकश हो गया है।”
قَالَ رَبِّ ٱشۡرَحۡ لِي صَدۡرِي ۝ 24
(25) मूसा ने निवेदन किया, “पालनहार, मेरा सीना खोल दे,
وَيَسِّرۡ لِيٓ أَمۡرِي ۝ 25
(26) और मेरे काम को मेरे लिए आसान कर दे,
وَٱحۡلُلۡ عُقۡدَةٗ مِّن لِّسَانِي ۝ 26
(27) और मेरी ज़बान की गिरह सुलझा दे
يَفۡقَهُواْ قَوۡلِي ۝ 27
(28) ताकि लोग मेरी बात समझ सकें,
وَٱجۡعَل لِّي وَزِيرٗا مِّنۡ أَهۡلِي ۝ 28
(29) और मेरे लिए मेरे अपने कुटुम्ब से एक वज़ीर नियुक्त कर दे।
هَٰرُونَ أَخِي ۝ 29
(30) हारून, जो मेरा भाई है
ٱشۡدُدۡ بِهِۦٓ أَزۡرِي ۝ 30
(31) उसके द्वारा मेरा हाथ मज़बूत कर
وَأَشۡرِكۡهُ فِيٓ أَمۡرِي ۝ 31
(32) और उसको मेरे काम में शरीक कर दे,
كَيۡ نُسَبِّحَكَ كَثِيرٗا ۝ 32
(33) ताकि हम अच्छी तरह तेरी पवित्रता का वर्णन करें
وَنَذۡكُرَكَ كَثِيرًا ۝ 33
(34) और अच्छी तरह तेरी चर्चा करें।
إِنَّكَ كُنتَ بِنَا بَصِيرٗا ۝ 34
(35) तू हमेशा हमारी निगहबानी करता रहा है।”
قَالَ قَدۡ أُوتِيتَ سُؤۡلَكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 35
(36) कहा, “दिया गया जो तूने माँगा ऐ मूसा,
وَلَقَدۡ مَنَنَّا عَلَيۡكَ مَرَّةً أُخۡرَىٰٓ ۝ 36
(37) हमने फिर एक बार तुझपर उपकार किया।
إِذۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّكَ مَا يُوحَىٰٓ ۝ 37
(38) याद कर वह समय जबकि हमने तेरी माँ को इशारा किया,
أَنِ ٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلتَّابُوتِ فَٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ فَلۡيُلۡقِهِ ٱلۡيَمُّ بِٱلسَّاحِلِ يَأۡخُذۡهُ عَدُوّٞ لِّي وَعَدُوّٞ لَّهُۥۚ وَأَلۡقَيۡتُ عَلَيۡكَ مَحَبَّةٗ مِّنِّي وَلِتُصۡنَعَ عَلَىٰ عَيۡنِيٓ ۝ 38
(39) ऐसा इशारा जो प्रकाशना (वह्य) के द्वारा ही किया जाता है कि इस बच्चे को सन्दूक़ में रख दे और सन्दूक़ को दरिया में छोड़ दे। दरिया उसे तट पर फेंक देगा और उसे मेरा दुश्मन और इस बच्चे का दुश्मन उठा लेगा।” “मैंने अपनी ओर से तुझपर प्रेम डाल दिया और ऐसा प्रबन्ध किया कि तू मेरी देख-रेख में पाला जाए।
إِذۡ تَمۡشِيٓ أُخۡتُكَ فَتَقُولُ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ مَن يَكۡفُلُهُۥۖ فَرَجَعۡنَٰكَ إِلَىٰٓ أُمِّكَ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَۚ وَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا فَنَجَّيۡنَٰكَ مِنَ ٱلۡغَمِّ وَفَتَنَّٰكَ فُتُونٗاۚ فَلَبِثۡتَ سِنِينَ فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ ثُمَّ جِئۡتَ عَلَىٰ قَدَرٖ يَٰمُوسَىٰ ۝ 39
(40) याद कर जबकि तेरी बहन चल रही थी, फिर जाकर कहती है: मैं तुम्हें उसका पता दूँ जो इस बच्चे का पालन-पोषण अच्छी तरह करे?5 इस तरह हमने तुझे फिर तेरी माँ के पास पहुँचा दिया ताकि उसकी आँख ठण्डी रहे और वह ग़मगीन न हो। और (यह भी याद कर कि) तूने एक व्यक्ति को क़त्ल कर दिया था, हमने तुझे उस फन्दे से निकाला और तुझे विभिन्न आज़माइशों से गुज़ारा और तू मदयन के लोगों में कई वर्ष ठहरा रहा। फिर अब ठीक अपने समय पर तू आ गया है ऐ मूसा।
5. अर्थात् दरिया के किनारे टोकरी के साथ चल रही थी। फिर जब फ़िरऔन के घरवालों ने बच्चे को उठा लिया और वहाँ उसके लिए अन्ना की तलाश हुई तो हज़रत मूसा (अलैहि०) की बहन ने जाकर उनसे यह बात कही।
وَٱصۡطَنَعۡتُكَ لِنَفۡسِي ۝ 40
(41) मैंने तुझको अपने काम का बना लिया है।
ٱذۡهَبۡ أَنتَ وَأَخُوكَ بِـَٔايَٰتِي وَلَا تَنِيَا فِي ذِكۡرِي ۝ 41
(42) जा, तू और तेरा भाई मेरी निशानियों के साथ और देखो, तुम मेरी याद में कोताही न करना।
ٱذۡهَبَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 42
(43) जाओ, तुम दोनों फ़िरऔन के पास कि वह सरकश हो गया है।
فَقُولَا لَهُۥ قَوۡلٗا لَّيِّنٗا لَّعَلَّهُۥ يَتَذَكَّرُ أَوۡ يَخۡشَىٰ ۝ 43
(44) उससे नर्मी के साथ बात करना, शायद कि वह नसीहत क़ुबूल करे या डर जाए।"
قَالَا رَبَّنَآ إِنَّنَا نَخَافُ أَن يَفۡرُطَ عَلَيۡنَآ أَوۡ أَن يَطۡغَىٰ ۝ 44
(45) दोनों ने निवेदन किया6, “पालनहार हमें अन्देशा है कि वह हमपर ज़्यादती करेगा या पिल पड़ेगा।”
6. यह उस समय की बात है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र पहुँच गए और हज़रत हारून व्यावहारिक रूप से काम में उनके साथी हो गए। उस समय फ़िरऔन के पास जाने से पहले दोनों ने अल्लाह की सेवा में यह निवेदन किया होगा।
قَالَ لَا تَخَافَآۖ إِنَّنِي مَعَكُمَآ أَسۡمَعُ وَأَرَىٰ ۝ 45
(46) कहा, “डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ, सब कुछ सुन रहा हूँ और देख रहा हूँ।
فَأۡتِيَاهُ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولَا رَبِّكَ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَا تُعَذِّبۡهُمۡۖ قَدۡ جِئۡنَٰكَ بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكَۖ وَٱلسَّلَٰمُ عَلَىٰ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 46
(47) जाओ उसके पास और कहो कि हम तेरे रब के भेजे हुए हैं, बनी-इसराईल को हमारे साथ जाने के लिए छोड़ दे और उनको तकलीफ़ न दे। हम तेरे पास तेरे रब की निशानी लेकर आए है और सलामती है उसके लिए जो सीधे मार्ग का अनुसरण करे।
إِنَّا قَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡنَآ أَنَّ ٱلۡعَذَابَ عَلَىٰ مَن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 47
(48) हमको प्रकाशन (वह्य) से बताया गया है कि अज़ाब है उसके लिए जो झुठलाए और मुँह मोड़े।"
قَالَ فَمَن رَّبُّكُمَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 48
(49) फ़िरऔन ने कहा,7 “अच्छा, तो फिर तुम दोनों का रब कौन है ऐ मूसा?”
7. अब उस समय का क़िस्सा शुरू होता है जब दोनों भाई फ़िरऔन के यहाँ पहुँचे।
قَالَ رَبُّنَا ٱلَّذِيٓ أَعۡطَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ خَلۡقَهُۥ ثُمَّ هَدَىٰ ۝ 49
(50) मूसा ने जवाब दिया, “हमारा रब वह है जिसने हर चीज़़ को उसकी आकृति प्रदान की, फिर उसको रास्ता बताया।”8
8. अर्थात् दुनिया की हर चीज़ जैसी कुछ भी बनी हुई है, उसी के बनाने से बनी है। फिर उसने ऐसा नहीं किया कि हर चीज़ को उसकी विशिष्ट बनावट देकर वैसे ही छोड़ दिया हो। बल्कि इसके बाद वही इन सब चीज़़ों का पथ-प्रदर्शन भी करता है। दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिसे अपनी बनावट से काम लेने और अपने बनाए जाने के उद्देश्य को पूरा करने का ढंग उसने न सिखाया हो। कान को सुनना और आंख को देखना, मछली को तैरना और पक्षी को उड़ना उसी ने सिखाया है। वह हर चीज़ का सिर्फ़ स्रष्टा ही नहीं, मार्गदर्शक और शिक्षक भी है।
قَالَ فَمَا بَالُ ٱلۡقُرُونِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 50
(51) फ़िरऔन बोला, “और पहले जो नस्लें गुज़र चुकी हैं उनकी फिर क्या हालत थी?”9
9. अर्थात् अगर बात यही है कि रब सिर्फ़ वही एक अल्लाह है तो यह हम सबके बाप-दादा जो सैकड़ों वर्ष से पीढ़ियों की पीढ़ियाँ दूसरे बहुत-से देवों की उपासना और बन्दगी करते चले आ रहे हैं, उनकी तुम्हारी दृष्टि में क्या स्थिति है? क्या वे सब अज़ाब के योग्य थे? क्या उन सबकी मति मारी गई थी?
قَالَ عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّي فِي كِتَٰبٖۖ لَّا يَضِلُّ رَبِّي وَلَا يَنسَى ۝ 51
(52) मूसा ने कहा, “उसका ज्ञान मेरे रब के पास एक लेख्य में सुरक्षित है। मेरा रब न चूकता है न भूलता है।”10
10. फ़िरऔन के सवाल का मक़सद, श्रोताओं के, और उनके माध्यम से पूरी क़ौम के दिलों में पक्षपात की आग भड़काना था। हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस जवाब ने उसके सभी विषैले दाँत तोड़ दिए कि वे लोग जैसे कुछ भी थे, अपना काम करके ईश्वर के यहाँ जा चुके हैं। उनकी एक-एक हरकत और उसके प्रेरकों को ईश्वर जानता है। उनसे जो कुछ भी मामला ईश्वर को करना है उसको वही जानता है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَسَلَكَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّن نَّبَاتٖ شَتَّىٰ ۝ 52
(53) — वही11 जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का बिछौना बिछाया, और उसमें तुम्हारे चलने को रास्ते बनाए, और ऊपर से पानी बरसाया, फिर उसके द्वारा विभिन्न प्रकार की उपज निकाली।
11. वर्णन-शैली से साफ़ महसूस होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का जवाब “न भूलता है” पर समाप्त हो गया, और यहाँ से आयत 55 तक की पूरी इबारत (लेख) व्याख्या और नसीहत के रूप में अल्लाह की ओर से है।
كُلُواْ وَٱرۡعَوۡاْ أَنۡعَٰمَكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 53
(54) खाओ और अपने जानवरों को भी चराओ। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं बुद्धि रखनेवालों के लिए।
۞مِنۡهَا خَلَقۡنَٰكُمۡ وَفِيهَا نُعِيدُكُمۡ وَمِنۡهَا نُخۡرِجُكُمۡ تَارَةً أُخۡرَىٰ ۝ 54
(55) इसी ज़मीन से हमने तुमको पैदा किया है, इसी में हम तुम्हें वापस ले जाएँगे और इसी से तुमको दोबारा निकालेंगे।
وَلَقَدۡ أَرَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا كُلَّهَا فَكَذَّبَ وَأَبَىٰ ۝ 55
(56) हमने फ़िरऔन को अपनी सभी निशानियाँ दिखाईं, मगर वह झुठलाए चला गया और न माना।
قَالَ أَجِئۡتَنَا لِتُخۡرِجَنَا مِنۡ أَرۡضِنَا بِسِحۡرِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 56
(57) कहने लगा, “ऐ मूसा, क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि अपने जादू के बल से हमको हमारे देश से निकाल बाहर करे?
فَلَنَأۡتِيَنَّكَ بِسِحۡرٖ مِّثۡلِهِۦ فَٱجۡعَلۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكَ مَوۡعِدٗا لَّا نُخۡلِفُهُۥ نَحۡنُ وَلَآ أَنتَ مَكَانٗا سُوٗى ۝ 57
(58) अच्छा, हम भी तेरे मुक़ाबले में वैसा ही जादू लाते हैं। तय कर ले कब और कहाँ मुक़ाबला करना है। न हम इस प्रस्ताव से फिरेंगे न तू फिरना, खुले मैदान में सामने आ जा।”
قَالَ مَوۡعِدُكُمۡ يَوۡمُ ٱلزِّينَةِ وَأَن يُحۡشَرَ ٱلنَّاسُ ضُحٗى ۝ 58
(59) मूसा ने कहा, “उत्सव का दिन तय हुआ, और दिन चढ़े लोग इकट्ठे हों।”12
12. फ़िरऔन का आशय यह था कि एक बार जादूगरों से लाठियों और रस्सियों के साँप बनवाकर दिखा दूँ तो मूसा (अलैहि०) के चमत्कार का जो प्रभाव लोगों के दिलों पर हुआ है वह दूर हो जाएगा। यह हज़रत मूसा (अलैहि०) की मुँह माँगी मुराद थी। उन्होंने कहा कि अलग कोई दिन और जगह नियत करने की क्या ज़रूरत है, उत्सव का दिन क़रीब है, जिसमें देश भर के सभी लोग राजधानी में खिंचकर आ जाते हैं। वहाँ मेले के मैदान में मुक़ाबला हो जाए ताकि सारी क़ौम के लोग देख लें। और समय भी दिन के पूरे प्रकाश का होना चाहिए। ताकि सन्देह के लिए कोई गुंजाइश न रहे।
فَتَوَلَّىٰ فِرۡعَوۡنُ فَجَمَعَ كَيۡدَهُۥ ثُمَّ أَتَىٰ ۝ 59
(60) फ़िरऔन ने पलटकर अपने सारे हथकण्डे जुटाए और मुक़ाबले में आ गया।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰ وَيۡلَكُمۡ لَا تَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا فَيُسۡحِتَكُم بِعَذَابٖۖ وَقَدۡ خَابَ مَنِ ٱفۡتَرَىٰ ۝ 60
(61) मूसा ने (ठीक अवसर पर मुक़ाबिल गिरोह को सम्बोधित करके) कहा, “शामत के मारो झूठी तोहमतें न बाँधों अल्लाह पर13 नहीं तो वह एक कठोर अज़ाब से तुम्हारा सत्यानाश कर देगा। झूठ जिसने भी गढ़ा वह असफल हुआ।"
13. अर्थात् इस चमत्कार को जादू और इसके दिखानेवाले पैग़म्बर को झूठा जादूगर न ठहराओ।
فَتَنَٰزَعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَىٰ ۝ 61
(62) यह सुनकर उनके बीच मतभेद हो गया और वे चुपके-चुपके आपस में मशवरा करने लगे।”14
14. इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने दिलों में अपनी कमज़ोरी को ख़ुद महसूस कर रहे थे। उनको मालूम था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन के दरबार में जो कुछ दिखाया था वह जादू नहीं था। वे पहले ही से इस मुक़ाबले में डरते और हिचकिचाते हुए आए थे, और जब ठीक समय पर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनको ललकारकर सावधान किया तो उनका संकल्प अचानक डाँवाडोल हो गया। उनका मतभेद इस विषय में हुआ होगा कि क्या इस बड़े त्योहार के अवसर पर, जबकि पूरे देश से आए हुए आदमी इकट्ठे हैं, खुले मैदान और दिन के पूरे प्रकाश में यह मुक़ाबला करना ठीक है या नहीं। अगर यहाँ हम हार गए और सबके सामने जादू और चमत्कार का अन्तर स्पष्ट हो गया तो फिर बात संभाले न संभल सकेगी।
قَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَٰنِ لَسَٰحِرَٰنِ يُرِيدَانِ أَن يُخۡرِجَاكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِمَا وَيَذۡهَبَا بِطَرِيقَتِكُمُ ٱلۡمُثۡلَىٰ ۝ 62
(63) आख़िरकार कुछ लोगों ने कहा कि “ये दोनों तो सिर्फ़ जादूगर हैं। इनका उद्देश्य यह है कि अपने जादू के बल से तुमको तुम्हारी ज़मीन से बेदख़ल कर दें और तुम्हारी आदर्श जीवन-प्रणाली का अन्त कर दें।
فَأَجۡمِعُواْ كَيۡدَكُمۡ ثُمَّ ٱئۡتُواْ صَفّٗاۚ وَقَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡيَوۡمَ مَنِ ٱسۡتَعۡلَىٰ ۝ 63
(64) तो अपने सारे उपाय आज जुटा लो और एकजुट होकर मैदान में आओ। बस यह समझ लो कि आज जो प्रभावी रहा वही जीत गया।”
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَلۡقَىٰ ۝ 64
(65) जादूगर बोले, “मूसा, तुम फेंकते हो या पहले हम फेंकें?”
قَالَ بَلۡ أَلۡقُواْۖ فَإِذَا حِبَالُهُمۡ وَعِصِيُّهُمۡ يُخَيَّلُ إِلَيۡهِ مِن سِحۡرِهِمۡ أَنَّهَا تَسۡعَىٰ ۝ 65
(66) मूसा ने कहा, “नहीं, तुम ही फेंको।” अचानक उनकी रस्सियों और उनकी लाठियाँ उनके जादू के ज़ोर से मूसा को दौड़ती हुई महसूस होने लगीं,
فَأَوۡجَسَ فِي نَفۡسِهِۦ خِيفَةٗ مُّوسَىٰ ۝ 66
(67) और मूसा अपने दिल में डर गया।15
15. अर्थात् जैसे ही हज़रत मूसा (अलैहि०) के मुँह से “फेंको” शब्द निकला, जादूगरों ने तुरन्त अपनी लाठियाँ और रस्सियाँ उनकी ओर फेंक दीं और अचानक उनको यह दिखाई दिया कि सैकड़ों साँप दौड़ते हुए उनकी ओर चले आ रहे हैं। इस दृश्य से फ़ौरी तौर पर अगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने एक दहशत अपने अन्दर महसूस की तो यह कोई अजीब बात नहीं है। इनसान तो इनसान ही होता है, चाहे पैग़म्बर ही क्यों न हो, इनसानियत के गुण-स्वभाव उससे अलग नहीं हो सकते। इस जगह यह बात उल्लेखनीय है कि क़ुरआन यहाँ इस बात की पुष्टि कर रहा है कि सामान्य इनसानों की तरह पैग़म्बर भी जादू से प्रभावित हो सकता है। अगरचे जादू उसकी पैग़म्बरी के काम में बाधा नहीं डाल सकता, मगर उसकी इनसानी क्षमताओं पर प्रभाव ज़रूर डाल सकता है। इससे उन लोगों के विचार की ग़लती खुल जाती है जो हदीसों में नबी (सल्ल०) पर जादू का प्रभाव होने के उल्लेख पढ़कर न सिर्फ़ उन हदीसों को झुठलाते हैं बल्कि इससे आगे बढ़कर सभी हदीसों को अविश्वसनीय ठहराने लगते हैं।
قُلۡنَا لَا تَخَفۡ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 67
(88) हमने कहा, “मत डर, तू ही प्रभावी रहेगा।
وَأَلۡقِ مَا فِي يَمِينِكَ تَلۡقَفۡ مَا صَنَعُوٓاْۖ إِنَّمَا صَنَعُواْ كَيۡدُ سَٰحِرٖۖ وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّاحِرُ حَيۡثُ أَتَىٰ ۝ 68
(69) फेंक जो कुछ तेरे हाथ में है, अभी इनकी सारी बनावटी चीज़़ों को निगले जाता है। ये जो कुछ बनाकर लाए हैं यह तो जादूगर का फ़रेब है, और जादूगर कभी सफल नहीं हो सकता, चाहे किसी शान से वह आए।”
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سُجَّدٗا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ هَٰرُونَ وَمُوسَىٰ ۝ 69
(70) अन्त में यही हुआ कि सारे जादूगर सजदे में गिरा दिए गए16 और पुकार उठे, “मान लिया हमने हारून और मूसा के रब को।”
16. अर्थात् जब उन्होंने मूसा की लाठी का कारनामा देखा तो उन्हें तुरंत विश्वास हो गया कि यह यक़ीनन चमत्कार है, उनकी कला (फ़न) की चीज़़ हरगिज़ नहीं है, इसलिए वे इस तरह अचानक और बेधड़क सजदे में गिरे जैसे किसी ने उठा-उठाकर उनको गिरा दिया हो।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَۖ فَلَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ فِي جُذُوعِ ٱلنَّخۡلِ وَلَتَعۡلَمُنَّ أَيُّنَآ أَشَدُّ عَذَابٗا وَأَبۡقَىٰ ۝ 70
(71) फ़िरऔन ने कहा, “तुमने उसे मान लिया इससे पहले कि मैं तुम्हें इसकी इजाज़त देता? मालूम हो गया कि यह तुम्हारा गुरु है जिसने तुम्हें जादूगरी सिखाई थी। अच्छा, अब मैं तुम्हारे हाथ-पैर विपरीत दिशाओं से कटवाता हूँ और खजूर के तनों पर तुमको सूली देता हूँ। फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि हम दोनों में से किसका अज़ाब ज़्यादा कठोर और ज़्यादा स्थायी है। (अर्थात् मैं तुम्हें ज़्यादा सख़्त सज़ा दे सकता हूँ या मूसा)।”
قَالُواْ لَن نُّؤۡثِرَكَ عَلَىٰ مَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلَّذِي فَطَرَنَاۖ فَٱقۡضِ مَآ أَنتَ قَاضٍۖ إِنَّمَا تَقۡضِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَآ ۝ 71
(72) जादूगरों ने जवाब दिया, “क़सम है उस सत्ता की जिसने हमें पैदा किया है, यह हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम प्रत्यक्ष निशानियाँ सामने आ जाने के बाद भी (सत्य की अपेक्षा) तुझे प्राथमिकता दें। तू जो कुछ करना चाहे कर ले। तू ज़्यादा से ज़्यादा बस इसी दुनिया की ज़िन्दगी का फ़ैसला कर सकता है।
إِنَّآ ءَامَنَّا بِرَبِّنَا لِيَغۡفِرَ لَنَا خَطَٰيَٰنَا وَمَآ أَكۡرَهۡتَنَا عَلَيۡهِ مِنَ ٱلسِّحۡرِۗ وَٱللَّهُ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 72
(73) हम तो अपने रब पर ईमान ले आए, ताकि वह हमारी ख़ताओं को माफ़ कर दे और इस जादूगरी से, जिसपर तूने हमें मजबूर किया था, माफ़ कर दे। अल्लाह ही अच्छा है और वही बाक़ी रहनेवाला है।”
إِنَّهُۥ مَن يَأۡتِ رَبَّهُۥ مُجۡرِمٗا فَإِنَّ لَهُۥ جَهَنَّمَ لَا يَمُوتُ فِيهَا وَلَا يَحۡيَىٰ ۝ 73
(74) — वास्तविकता17 यह है कि जो अपराधी बनकर अपने रब के सामने हाज़िर होगा उसके लिए जहन्नम है जिसमें न वह जिएगा न मरेगा।
17. ये जादूगरों के कथन के साथ अल्लाह ने अपने शब्द जोड़े हैं। वर्णनशैली ख़ुद बता रही है कि यह अंश जादूगरों के कथन का हिस्सा नहीं है।
وَمَن يَأۡتِهِۦ مُؤۡمِنٗا قَدۡ عَمِلَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلدَّرَجَٰتُ ٱلۡعُلَىٰ ۝ 74
(75) और जो उसके सामने ईमानवाले (मोमिन) के रूप में हाज़िर होगा जिसने अच्छे काम किए होंगे, ऐसे सब लोगों के लिए ऊँजे दर्जे हैं,
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ مَن تَزَكَّىٰ ۝ 75
(76) सदाबहार बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह बदला है उस व्यक्ति का जो पवित्रता अपनाए।
وَلَقَدۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِي فَٱضۡرِبۡ لَهُمۡ طَرِيقٗا فِي ٱلۡبَحۡرِ يَبَسٗا لَّا تَخَٰفُ دَرَكٗا وَلَا تَخۡشَىٰ ۝ 76
(77) हमने18 मूसा पर प्रकाशना (वह्य) की कि अब रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर चल पड़ और उनके लिए समुद्र में से सूखी सड़क बना ले, तुझे किसी के पीछा करने का तनिक भय न हो और न (समुद्र के बीच से गुज़रते हुए) डर लगे।
18. बीच में उन हालात का विवरण छोड़ दिया गया है जो इसके बाद मिस्र में ठहरने की दीर्घ अवधि में पेश आए। अब उस समय का उल्लेख शुरू होता है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को आदेश हुआ कि बनी-इसराईल (इसराईल की संतान) को लेकर मिस्र से निकल खड़े हों।
فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ بِجُنُودِهِۦ فَغَشِيَهُم مِّنَ ٱلۡيَمِّ مَا غَشِيَهُمۡ ۝ 77
(78) पीछे से फ़िरऔन अपनी सेना लेकर पहुँचा और फिर समुद्र उनपर छा गया जैसा कि छा जाने का हक़ था।
وَأَضَلَّ فِرۡعَوۡنُ قَوۡمَهُۥ وَمَا هَدَىٰ ۝ 78
(79) फ़िरऔन ने अपनी क़ौमवालों को पथभ्रष्ट ही किया था, कोई ठीक मार्ग नहीं दिखाया था।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ قَدۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ عَدُوِّكُمۡ وَوَٰعَدۡنَٰكُمۡ جَانِبَ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنَ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰ ۝ 79
(80) ऐ इसराईल की सन्तान,19 हमने तुमको तुम्हारे दुश्मन से छुटकारा दिया और तूर की दाहिनी ओर तुम्हारी हाज़िरी के लिए समय नियत किया और तुमपर 'मन्न' और 'सलवा' उतारा
19. समुद्र को पार करने से लेकर सीना पर्वत के दामन में पहुँचने तक का क़िस्सा बीच में छोड़ दिया गया है। इसका विवरण सूरा 7 (आराफ़) आयत 130 से 147 में गुज़र चुका है।
كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَلَا تَطۡغَوۡاْ فِيهِ فَيَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبِيۖ وَمَن يَحۡلِلۡ عَلَيۡهِ غَضَبِي فَقَدۡ هَوَىٰ ۝ 80
(81) — खाओ हमारी दी हुई पाक रोज़ी और उसे खाकर सरकशी न करो, नहीं तो तुमपर मेरा ग़ज़ब (प्रकोप) टूट पड़ेगा। और जिसपर मेरा ग़ज़ब टूटा वह फिर गिरकर ही रहा।
وَإِنِّي لَغَفَّارٞ لِّمَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا ثُمَّ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 81
(82) अलबत्ता जो तौबा कर ले और ईमान लाए और अच्छे कर्म करे, फिर सीधा चलता रहे उसके लिए मैं बहुत माफ़ करनेवाला हूँ।
۞وَمَآ أَعۡجَلَكَ عَن قَوۡمِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 82
(83) और क्या चीज़़ तुम्हे अपनी क़ौमवालों से पहले ले आई, मूसा?20
20. अब उस अवसर का उल्लेख शुरू होता है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) तूर के दामन में बनी-इसराईल को छोड़कर शरीअत के आदेश लेने के लिए तूर पर्वत पर पधारे थे। अल्लाह के इस कथन से मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी कौम वालों को मार्ग ही में छोड़कर अपने रब की मुलाक़ात के शौक में आगे चले गए थे।
قَالَ هُمۡ أُوْلَآءِ عَلَىٰٓ أَثَرِي وَعَجِلۡتُ إِلَيۡكَ رَبِّ لِتَرۡضَىٰ ۝ 83
(84) उसने निवेदन किया, “वे बस मेरे पीछे आ ही रहे हैं। मैं जल्दी करके तेरी सेवा में आ गया हूँ, ऐ मेरे रब, ताकि तू मुझसे ख़ुश हो जाए।”
قَالَ فَإِنَّا قَدۡ فَتَنَّا قَوۡمَكَ مِنۢ بَعۡدِكَ وَأَضَلَّهُمُ ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 84
(85) कहा, “अच्छा तो सुनो, हमने तुम्हारे पीछे तुम्हारी क़ौम को आज़माइश में डाल दिया और सामिरी ने उन्हें पथभ्रष्ट कर डाला।”21
21. अर्थात् सोने का बछड़ा बनाकर उन्हें उसकी पूजा में लगा दिया।
فَرَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَمۡ يَعِدۡكُمۡ رَبُّكُمۡ وَعۡدًا حَسَنًاۚ أَفَطَالَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡعَهۡدُ أَمۡ أَرَدتُّمۡ أَن يَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُم مَّوۡعِدِي ۝ 85
(86) मूसा बहुत ही ग़ुस्से और दुख की दशा में अपनी क़ौम की ओर पलटा। जाकर उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, क्या तुम्हारे रब ने तुमसे अच्छे वादे नहीं किए थे? 22 क्या तुम्हें दिन लग गए हैं? या तुम अपने रब का ग़ज़ब (प्रकोप) ही अपने ऊपर लाना चाहते थे कि तुमने मुझसे वादाख़िलाफ़ी की?”
22. अर्थात् आज तक तुम्हारे रब ने तुम्हारे साथ जितनी भलाइयों का वादा भी किया है वे सब तुम्हें हासिल होती रही है। तुम्हें मिस्र से सकुशल निकाला, ग़ुलामी से मुक्त किया, तुम्हारे दुश्मन को तहस-नहस कर दिया, तुम्हारे लिए इन मरुस्थलों और पहाड़ी इलाक़ों में छाया और खाने का प्रबन्ध किया। क्या ये सारे अच्छे वादे पूरे नहीं हुए? उसने अब तुम्हें शरीअत (धर्म-विधान) और हिदायतनामा (आदेश पत्र) प्रदान करने का जो वादा किया था, क्या तुम्हारी दृष्टि में वह किसी कल्याण और भलाई का वादा न था?
قَالُواْ مَآ أَخۡلَفۡنَا مَوۡعِدَكَ بِمَلۡكِنَا وَلَٰكِنَّا حُمِّلۡنَآ أَوۡزَارٗا مِّن زِينَةِ ٱلۡقَوۡمِ فَقَذَفۡنَٰهَا فَكَذَٰلِكَ أَلۡقَى ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 86
(87) उन्होंने उत्तर दिया, “हमने आपसे वादाख़िलाफ़ी कुछ अपने अधिकार से नहीं की, मामला यह हुआ कि लोगों के ज़ेवरों के बोझ से हम लद गए थे, और हमने बस उनको फेंक दिया था।”23
23. यह उन लोगों की विवशता थी जो सामिरी के फ़ितने में पड़ गए थे। उनका कहना यह था कि हमने ज़ेवर-गहने फेंक दिए थे। न हमारा कोई इरादा बछड़ा बनाने का था, न हमें मालूम था कि क्या बननेवाला है। इसके बाद जो मामला पेश आया वह था ही कुछ ऐसा कि उसे देखकर हम सहज ही शिर्क (बहुदेववाद) में ग्रस्त हो गए।
فَأَخۡرَجَ لَهُمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٞ فَقَالُواْ هَٰذَآ إِلَٰهُكُمۡ وَإِلَٰهُ مُوسَىٰ فَنَسِيَ ۝ 87
(88) फिर24 इसी तरह सामिरी ने भी कुछ डाला और उनके लिए एक बछड़े की मूर्ति बनाकर निकाल लाया जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। लोग पुकार उठे, “यही है तुम्हारा पूज्य और मूसा का इष्ट पूज्य, मूसा इसे भूल गया।”
24. यहाँ से आयत 91 के अन्त तक के शब्दों पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि क़ौम का जवाब “फेंक दिया था” पर ख़त्म हो गया है और इसके आगे की बात अल्लाह ख़ुद बता रहा है।
أَفَلَا يَرَوۡنَ أَلَّا يَرۡجِعُ إِلَيۡهِمۡ قَوۡلٗا وَلَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا ۝ 88
(89) क्या वे देखते न थे कि न वह उनकी बात का जवाब देता हैं और न उनके लाभ और उनकी हानि का कुछ अधिकार रखता है?
وَلَقَدۡ قَالَ لَهُمۡ هَٰرُونُ مِن قَبۡلُ يَٰقَوۡمِ إِنَّمَا فُتِنتُم بِهِۦۖ وَإِنَّ رَبَّكُمُ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَٱتَّبِعُونِي وَأَطِيعُوٓاْ أَمۡرِي ۝ 89
(90) हारून (मूसा के आने से) पहले ही उनसे कह चुका था कि “लोगो, तुम इसके कारण आज़माइश में पड़ गए हो, तुम्हारा रब तो रहमान है, अत: तुम मेरा अनुसरण करो और मेरी बात मानो।”
قَالُواْ لَن نَّبۡرَحَ عَلَيۡهِ عَٰكِفِينَ حَتَّىٰ يَرۡجِعَ إِلَيۡنَا مُوسَىٰ ۝ 90
(91) मगर उन्होंने उससे कह दिया कि “हम तो इसी की उपासना करते रहेंगे जब तक कि मूसा हमारे पास वापस न आ जाए।"
قَالَ يَٰهَٰرُونُ مَا مَنَعَكَ إِذۡ رَأَيۡتَهُمۡ ضَلُّوٓاْ ۝ 91
(92) मूसा (क़ौम के लोगों को डाँटने के बाद हारून की ओर पलटा और) बोला, “हारून, तुमने जब देखा था कि ये गुमराह हो रहे हैं तो किस चीज़़ ने तुम्हारा हाथ पकड़ा था
أَلَّا تَتَّبِعَنِۖ أَفَعَصَيۡتَ أَمۡرِي ۝ 92
(93) कि मेरे तरीक़े पर अमल न करो? क्या तुमने मेरे आदेश की अवहेलना की?” 25
25. आदेश से मुराद वह आदेश है जो पहाड़ पर जाते समय, और अपनी जगह हज़रत हारून (अलैहि०) को इसराईलियों को सरदारी सौंपते समय हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिया था। सूरा 7 (आराफ़), आयत 142 में यह बात गुज़र चुकी है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जाते हुए अपने भाई हारून (अलैहि०) से कहा कि तुम मेरी क़ौमवालों में मेरा प्रतिनिधित्व करो और देखो, सुधार करना, बिगाड़ पैदा करनेवालों के तरीक़े पर न चलना।
قَالَ يَبۡنَؤُمَّ لَا تَأۡخُذۡ بِلِحۡيَتِي وَلَا بِرَأۡسِيٓۖ إِنِّي خَشِيتُ أَن تَقُولَ فَرَّقۡتَ بَيۡنَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَمۡ تَرۡقُبۡ قَوۡلِي ۝ 93
(94) हारून ने जवाब दिया, “ऐ मेरी माँ के बेटे, मेरी दाढ़ी न पकड़, न मेरे सिर के बाल खींच, मुझे इस बात का डर था कि तू आकर कहेगा कि तुमने बनी-इसराईल में फूट डाल दी और मेरी बात का लिहाज़ न किया।”26
26. हज़रत हारून (अलैहि०) के इस जवाब का यह अर्थ हरगिज़ नहीं है कि क़ौम का इकट्ठा रहना उनके सीधे मार्ग पर रहने से ज़्यादा महत्त्व रखता है, और एकता चाहे वह शिर्क (बहुदेववाद) ही पर क्यों न हो, बिखराब से अच्छी है। इस आयत का यह अर्थ अगर कोई व्यक्ति लेगा तो क़ुरआन से पथ-प्रदर्शन के बदले गुमराही ग्रहण करेगा। हज़रत हारून (अलैहि०) की पूरी बात समझने के लिए इस आयत को सूरा 7 (आराफ़) की आयत 150 के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए, जहाँ हज़रत हारून (अलैहि०) कहते हैं कि “मेरी माँ के बेटे, इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते। अतः तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस ज़ालिम गिरोह में मुझे सम्मिलित न कर।” अब इससे वास्तविक स्थिति का यह चित्र सामने आता है कि हज़रत हारून (अलैहि०) ने लोगों को इस गुमराही से रोकने की पूरी कोशिश की, मगर उन्होंने उनके विरुद्ध उपद्रव खड़ा कर दिया और उन्हें मार डालने पर तुल गए। विवश होकर वे इस अंदेशे से चुप हो गए कि कहीं हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने से पहले यहाँ गृहयुद्ध न छिड़ जाए और वे बाद में आकर शिकायत करें कि तुम स्थिति से निपट नहीं सकते थे तो तुमने स्थिति को इस सीमा तक क्यों बिगड़ जाने दिया? मेरे आने का इन्तिज़ार क्यों न किया?
قَالَ فَمَا خَطۡبُكَ يَٰسَٰمِرِيُّ ۝ 94
(95) मूसा ने कहा, “और सामिरी, तेरा क्या मामला है?”
قَالَ بَصُرۡتُ بِمَا لَمۡ يَبۡصُرُواْ بِهِۦ فَقَبَضۡتُ قَبۡضَةٗ مِّنۡ أَثَرِ ٱلرَّسُولِ فَنَبَذۡتُهَا وَكَذَٰلِكَ سَوَّلَتۡ لِي نَفۡسِي ۝ 95
(96) उसने जवाब दिया, “मैंने वह चीज़ देखी जो इन लोगों को दिखाई न दी, अतः मैंने रसूल के पदचिह्नों से एक मुट्ठी उठा ली और उसको डाल दिया। मेरे मन ने मुझे कुछ ऐसा ही सुझाया।”27
27. रसूल से मुराद संभवतः यहाँ ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) है। सामिरी एक मक्कार व्यक्ति था, उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को भी अपनी मक्कारी के जाल में फाँसना चाहा और उनसे कहा कि हज़रत यह आप ही के चरणों की धूल की बरकत है कि मैंने जब उसे पिघले हुए सोने में डाला तो इस शान का बछड़ा उससे प्रकट हुआ।
قَالَ فَٱذۡهَبۡ فَإِنَّ لَكَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ أَن تَقُولَ لَا مِسَاسَۖ وَإِنَّ لَكَ مَوۡعِدٗا لَّن تُخۡلَفَهُۥۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ إِلَٰهِكَ ٱلَّذِي ظَلۡتَ عَلَيۡهِ عَاكِفٗاۖ لَّنُحَرِّقَنَّهُۥ ثُمَّ لَنَنسِفَنَّهُۥ فِي ٱلۡيَمِّ نَسۡفًا ۝ 96
(97) मूसा ने कहा, “अच्छा तो जा अब ज़िन्दगी भर तुझे यही पुकारते रहना है कि मुझे न छूना।28 और तेरे लिए जवाब-तलबी का एक समय निश्चित है जो तुझसे हरगिज़ न टलेगा। और देख अपने इस पूज्य को जिसपर तू रीझा हुआ था, अब हम इसे जला डालेंगे और चूर्ण-विचूर्ण करके दरिया में बहा देंगे।
28. अर्थात् सिर्फ़ यही नहीं कि ज़िन्दगी-भर के लिए समाज से उसके सम्बन्ध तोड़ दिए गए और उसे अछूत बनाकर रख दिया गया, बल्कि यह ज़िम्मेदारी भी उसी पर डाली गई कि हर व्यक्ति को वह ख़ुद अपना अछूतपन बताए और दूर हो से लोगों को सूचित करता रहे कि 'मैं अछूत हूँ, मुझे हाथ न लगाना।'
إِنَّمَآ إِلَٰهُكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ وَسِعَ كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمٗا ۝ 97
(98) लोगो, तुम्हारा पूज्य तो बस एक अल्लाह ही है, जिसके सिवा कोई और पूज्य नहीं है, हर चीज़ पर उसका ज्ञान हावी है।"
كَذَٰلِكَ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ مَا قَدۡ سَبَقَۚ وَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ مِن لَّدُنَّا ذِكۡرٗا ۝ 98
(99) ऐ नबी, इस तरह हम पिछले बीते हुए हालात के समाचार तुमको सुनाते हैं, और हमने विशेष रूप से अपने यहाँ से तुमको एक “ज़िक्र” (उपदेश का पाठ) प्रदान किया है।
مَّنۡ أَعۡرَضَ عَنۡهُ فَإِنَّهُۥ يَحۡمِلُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وِزۡرًا ۝ 99
(100) जो कोई उससे मुँह मोड़ेगा वह क़ियामत के दिन पाप का कठिन बोझ उठाएगा,
خَٰلِدِينَ فِيهِۖ وَسَآءَ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ حِمۡلٗا ۝ 100
(101) और ऐसे सब लोग हमेशा के लिए उसके वबाल में गिरफ्तार रहेंगे, और क़ियामत के दिन उनके लिए (इस अपराध के दायित्व का बोझ) बड़ा दुखद बोझ होगा।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ وَنَحۡشُرُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ زُرۡقٗا ۝ 101
(102) उस दिन जबकि सूर (नरसिंघा) फूँका जाएगा और हम अपराधियों को इस हाल में घेर लाएँगे कि उनकी आँखें (डर के मारे) पथराई हुई होंगी,
يَتَخَٰفَتُونَ بَيۡنَهُمۡ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا عَشۡرٗا ۝ 102
(103) आपस में चुपके-चुपके कहेंगे कि “दुनिया में मुश्किल ही से तुमने कोई दस दिन गुज़ारे होंगे।”
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَ إِذۡ يَقُولُ أَمۡثَلُهُمۡ طَرِيقَةً إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا يَوۡمٗا ۝ 103
(104) — हमें ख़ूब मालूम है कि वे क्या बातें कर रहे होंगे। (हम यह भी जानते हैं कि) उस समय उनमें से जो ज़्यादा से ज़्यादा सावधानी से अनुमान करनेवाला होगा वह कहेगा कि नहीं, तुम्हारी दुनिया बस एक दिन की ज़िन्दगी थी।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡجِبَالِ فَقُلۡ يَنسِفُهَا رَبِّي نَسۡفٗا ۝ 104
(105) — ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आख़िर उस दिन ये पहाड़ कहाँ चले जाएँगे? कहो कि मेरा रब इनको धूल बनाकर उड़ा देगा
فَيَذَرُهَا قَاعٗا صَفۡصَفٗا ۝ 105
(106) और ज़मीन को ऐसा समतल चटियल मैदान बना देगा
لَّا تَرَىٰ فِيهَا عِوَجٗا وَلَآ أَمۡتٗا ۝ 106
(107) कि उसमें तुम कोई बल और सलवट न देखोगे।
يَوۡمَئِذٖ يَتَّبِعُونَ ٱلدَّاعِيَ لَا عِوَجَ لَهُۥۖ وَخَشَعَتِ ٱلۡأَصۡوَاتُ لِلرَّحۡمَٰنِ فَلَا تَسۡمَعُ إِلَّا هَمۡسٗا ۝ 107
(108) उस दिन सब लोग पुकारनेवाले की पुकार पर सीधे चले आएँगे, कोई तनिक अकड़ न दिखा सकेगा। और आवाज़ें रहमान (करुणामय ईश्वर) के आगे दब जाएँगी, एक सरसराहट के सिवा तुम कुछ न सुनोगे।
يَوۡمَئِذٖ لَّا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَرَضِيَ لَهُۥ قَوۡلٗا ۝ 108
(109) उस दिन सिफ़ारिश कारगर न होगी, सिवाय इसके कि किसी को रहमान (करुणामय ईश्वर) इसकी इजाज़त दे और उसकी बात सुनना पसन्द करे।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يُحِيطُونَ بِهِۦ عِلۡمٗا ۝ 109
(110) — वह लोगों का अगला पिछला सब हाल जानता है और दूसरों को उसका पूरा ज्ञान नहीं है।
۞وَعَنَتِ ٱلۡوُجُوهُ لِلۡحَيِّ ٱلۡقَيُّومِۖ وَقَدۡ خَابَ مَنۡ حَمَلَ ظُلۡمٗا ۝ 110
(111) — लोगों के सिर उस जीवन्त और क़ायम रहनेवाले के आगे झुक जाएँगे। असफल होगा जो उस समय किसी ज़ुल्म का पाप-भार उठाए हुए हो।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا يَخَافُ ظُلۡمٗا وَلَا هَضۡمٗا ۝ 111
(112) और किसी ज़ुल्म और हक़ मारे जाने का ख़तरा न होगा उस व्यक्ति को जो अच्छे कर्म करे और इसके साथ वह ईमानवाला भी हो।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا وَصَرَّفۡنَا فِيهِ مِنَ ٱلۡوَعِيدِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ أَوۡ يُحۡدِثُ لَهُمۡ ذِكۡرٗا ۝ 112
(113) और ऐ नबी, इसी तरह हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा है29 और इसमें तरह-तरह से चेतावनियाँ दी हैं शायद कि ये लोग ग़लत नीति अपनाने से बचें या इनमें कुछ होश के लक्षण इसके कारण पैदा हों।
29. अर्थात् ऐसे ही विषयों और शिक्षाओं और उपदेशों से परिपूर्ण इसका इशारा उन सभी विषयों को ओर है जो क़ुरआन में बयान हुए हैं।
إِنَّ لَكَ أَلَّا تَجُوعَ فِيهَا وَلَا تَعۡرَىٰ ۝ 113
(118) यहाँ से तुम्हें ये सुख-सुविधाएँ प्राप्त है कि न भूखे नंगे रहते हो,
وَأَنَّكَ لَا تَظۡمَؤُاْ فِيهَا وَلَا تَضۡحَىٰ ۝ 114
(119) न प्यास और धूप तुम्हें सताती है।"
فَوَسۡوَسَ إِلَيۡهِ ٱلشَّيۡطَٰنُ قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ هَلۡ أَدُلُّكَ عَلَىٰ شَجَرَةِ ٱلۡخُلۡدِ وَمُلۡكٖ لَّا يَبۡلَىٰ ۝ 115
(120) लेकिन शैतान ने उसको फुसलाया, कहने लगा, “आदम बताऊँ तुम्हें वह पेड़ जिससे हमेशा की ज़िन्दगी और अपतनशील राज्य प्राप्त होता है?”
فَأَكَلَا مِنۡهَا فَبَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۚ وَعَصَىٰٓ ءَادَمُ رَبَّهُۥ فَغَوَىٰ ۝ 116
(121) आख़िरकार दोनों (पति-पत्नी) उस पेड़ का फल खा गए। नतीजा यह हुआ कि तुरन्त ही उनके गुप्तांग एक-दूसरे के आगे खुल गए और लगे दोनों अपने आपको जन्नत के पत्तों से ढाँकने।33 आदम ने अपने रब की नाफ़रमानी की और सीधे रास्ते से भटक गया।
33. दूसरे शब्दों में नाफ़रमानी के बाद तुरन्त ही वे सुविधाएँ और सुख उनसे छीन लिए गए जो सरकारी प्रबन्ध के द्वारा उनके लिए जुटाए जाते थे, और सर्वप्रथम यह सरकारी वस्त्र छिन जाने के रूप में सामने आया। खाना पानी और घर से वंचित होने की नौबत तो बाद को ही आनी थी।
ثُمَّ ٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَتَابَ عَلَيۡهِ وَهَدَىٰ ۝ 117
(122) फिर उसके रब ने उसे चुन लिया और उसकी तौबा क़ुबूल कर ली और उसे मार्ग दिखाया34
34. अर्थात् शैतान की तरह तिरस्कृत न कर दिया, बल्कि जब उसने लज्जित होकर तौबा कर ली तो अल्लाह ने उसके साथ यह दया का व्यवहार किया।
قَالَ ٱهۡبِطَا مِنۡهَا جَمِيعَۢاۖ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَنِ ٱتَّبَعَ هُدَايَ فَلَا يَضِلُّ وَلَا يَشۡقَىٰ ۝ 118
(123) और कहा, “तुम दोनों (फ़रीक़ अर्थात् इनसान और शैतान) यहाँ से उतर जाओ। तुम एक-दूसरे के दुश्मन रहोगे। अब अगर मेरी ओर से तुम्हें कोई मार्गदर्शन पहुँचे तो जो कोई मेरे उस मार्गदर्शन का अनुपालन करेगा, वह न भटकेगा, न दुर्भाग्यग्रस्त होगा।
وَمَنۡ أَعۡرَضَ عَن ذِكۡرِي فَإِنَّ لَهُۥ مَعِيشَةٗ ضَنكٗا وَنَحۡشُرُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَعۡمَىٰ ۝ 119
(124) और जो मेरे “ज़िक्र” (उपदेश-पाठ) से मुँह मोड़ेगा उसके लिए दुनिया में संकीर्ण ज़िन्दगी होगी35 और क़ियामत के दिन हम उसे अन्धा उठाएँगे।”
35. दुनिया में संकीर्ण जिन्दगी होने का अर्थ यह नहीं है कि वह निर्धन हो जाएगा, बल्कि इसका अर्थ यह है कि यहाँ उसे चैन नसीब न होगा। करोड़पति भी होगा तो बेचैन रहेगा। सात भूखण्डों का राजा भी होगा तो विकलता और असन्तोष से छुटकारा न पाएगा। उसको दुनिया की सफलताएँ हज़ारों क़िस्म के अवैध उपायों का परिणाम होंगी जिनके कारण अपनी अन्तरात्मा से लेकर चारों तरफ़ के सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण तक हर चीज़़ के साथ उसका निरन्तर संघर्ष चलता रहेगा जो उसे कभी निश्चिन्तता एवं परितोष और सच्चे आनन्द से लाभान्वित न होने देगा।
قَالَ رَبِّ لِمَ حَشَرۡتَنِيٓ أَعۡمَىٰ وَقَدۡ كُنتُ بَصِيرٗا ۝ 120
(125) — वह कहेगा, “पालनहार, दुनिया में तो मैं आँखोंवाला था, यहाँ मुझे अन्धा क्यों उठाया?”
قَالَ كَذَٰلِكَ أَتَتۡكَ ءَايَٰتُنَا فَنَسِيتَهَاۖ وَكَذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمَ تُنسَىٰ ۝ 121
(126) अल्लाह कहेगा, “हाँ, इसी तरह तो हमारी आयतों को, जबकि वे तेरे पास आई थीं, तूने भुला दिया था। उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है।”
وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي مَنۡ أَسۡرَفَ وَلَمۡ يُؤۡمِنۢ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦۚ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَشَدُّ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 122
(127) — इस तरह हम सीमा से आगे निकलनेवाले और अपने रब की आयतों को न माननेवाले को (दुनिया में) बदला देते हैं, और आख़िरत का अज़ाब तो ज़्यादा कठोर और ज़्यादा स्थायी है।
أَفَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 123
(128) फिर क्या इन लोगों को (इतिहास की इस शिक्षा से) कोई मार्ग न मिला कि इनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम तबाह कर चुके हैं जिनकी (बर्बाद) बस्तियों में आज ये चलते-फिरते है? वास्तव में इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ठीक समझ रखनेवाले हैं।
وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَكَانَ لِزَامٗا وَأَجَلٞ مُّسَمّٗى ۝ 124
(129) अगर तेरे रब की ओर से एक बात पहले निश्चित न कर दी गई होती और मुहलत की एक अवधि नियत न की जा चुकी होती तो ज़रूर इनका भी फ़ैसला चुका दिया जाता।
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ غُرُوبِهَاۖ وَمِنۡ ءَانَآيِٕ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡ وَأَطۡرَافَ ٱلنَّهَارِ لَعَلَّكَ تَرۡضَىٰ ۝ 125
(130) अत: ऐ नबी, जो बातें ये लोग बनाते हैं उनपर सब्र करो, और अपने रब के गुणगान एवं प्रशंसा के साथ उसकी बड़ाई बयान करो, सूरज निकलने से पहले और सूरज डूबने से पहले, और रात की घड़ियों में भी तसबीह करो और दिन के किनारों पर भी,36 शायद कि तुम राज़ी हो जाओ37
36. रब के गुणगान एवं प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह” (गुणगान) करने से मुराद नमाज़ है। उसके नियत समय की ओर यहाँ भी स्पष्ट इशारा कर दिया गया है। सूरज निकलने से पहले फ़ज्र की नमाज़, सूरज डूबने से पहले अस्त्र की नमाज़ और रात के समय में इशा और तहज्जुद की नमाज़ रहे दिन के किनारे, तो वे तीन ही हो सकते हैं। एक किनारा सुबह है, दूसरा किनारा सूरज का ढलना, और तीसरा किनारा शाम। अतः दिन के किनारों से मुराद फ़ज्र, ज़ुहर और मग़रिब की नमाज़ ही हो सकती है।
37. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि तुम अपनी वर्तमान हालत पर राज़ी हो जाओ जिसमें अपने मिशन के लिए तुम्हें तरह-तरह की अप्रिय बातें सहन करनी पड़ रही हैं। दूसरा अर्थ यह है कि तुम तनिक यह काम करके तो देखो, इसका परिणाम वह कुछ सामने आएगा जिससे तुम्हारा दिल ख़ुश हो जाएगा।
وَلَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ زَهۡرَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا لِنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَرِزۡقُ رَبِّكَ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ ۝ 126
(231) और निगाह उठाकर भी न देखो दुनिया की ज़िन्दगी की उस शान-शौकत को जो हमने इनमें से विभिन्न तरह के लोगों को दे रखी है। वह तो हमने उन्हें आजमाइश में डालने के लिए दी है, और तेरे रब की दो हुई हलाल रोज़ी38 ही ज़्यादा अच्छी और ज़्यादा स्थायी है।
38. रोज़ी का अनुवाद हमने “हलाल रोज़ी” किया है, क्योंकि अल्लाह ने कहीं भी हराम रोज़ी को “रिज़के रब (रब की दी हुई रोज़ी) की संज्ञा नहीं दी है।
وَأۡمُرۡ أَهۡلَكَ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱصۡطَبِرۡ عَلَيۡهَاۖ لَا نَسۡـَٔلُكَ رِزۡقٗاۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكَۗ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلتَّقۡوَىٰ ۝ 127
(132) अपने घरवालों को नमाज़ के लिए कहो और ख़ुद भी उसके पाबन्द रहो। हम तुमसे कोई रोज़ी नहीं चाहते, रोज़ी तो हम ही तुम्हें दे रहे हैं। और परिणाम की भलाई धर्मपरायणता (तक़वा) ही के लिए है।
وَقَالُواْ لَوۡلَا يَأۡتِينَا بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّهِۦٓۚ أَوَلَمۡ تَأۡتِهِم بَيِّنَةُ مَا فِي ٱلصُّحُفِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 128
(133) वे कहते हैं कि यह व्यक्ति अपने रब की ओर से कोई निशानी (चमत्कार) क्यों नहीं लाता? और क्या उनके पास अगली पुस्तकों (सहीफ़ों) की समस्त शिक्षाओं का स्पष्ट बयान नहीं आ गया।39
39. अर्थात् क्या यह कोई कम चमत्कार है कि इन्हीं में से एक “उम्मी” (अनपढ़ व्यक्ति ने यह किताब प्रस्तुत को है जिसमें शुरू से अब तक की समस्त आसमानी किताबों की बातों और शिक्षाओं का सार निकालकर रख दिया गया है। इनसान के मार्गदर्शन और निर्देशन के लिए उन किताबों में जो कुछ था, वह सब सिर्फ़ यही नहीं कि इसमें जुटा दिया गया, बल्कि उसको ऐसा खोलकर स्पष्ट भी कर दिया गया कि मरुस्थल निवासी बद्दू तक इसको समझकर उससे लाभ उठा सकते हैं।
وَلَوۡ أَنَّآ أَهۡلَكۡنَٰهُم بِعَذَابٖ مِّن قَبۡلِهِۦ لَقَالُواْ رَبَّنَا لَوۡلَآ أَرۡسَلۡتَ إِلَيۡنَا رَسُولٗا فَنَتَّبِعَ ءَايَٰتِكَ مِن قَبۡلِ أَن نَّذِلَّ وَنَخۡزَىٰ ۝ 129
(134) अगर हम उसके आने से पहले इनको किसी अज़ाब से तबाह कर देते तो फिर यही लोग कहते कि ऐ हमारे रब, तूने हमारे पास कोई रसूल क्यों न भेजा कि अपमानित और तिरस्कृत होने से पहले ही हम तेरी आयतों का अनुपालन कर लेते?
قُلۡ كُلّٞ مُّتَرَبِّصٞ فَتَرَبَّصُواْۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ أَصۡحَٰبُ ٱلصِّرَٰطِ ٱلسَّوِيِّ وَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 130
(135) ऐ नबी, उनसे कहो, हर एक अंजाम के इन्तिज़ार में है, अतः अब इन्तिज़ार करो, जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि कौन सीधे मार्ग पर चलनेवाले हैं और कौन मार्ग पाए हुए हैं।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۗ وَلَا تَعۡجَلۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مِن قَبۡلِ أَن يُقۡضَىٰٓ إِلَيۡكَ وَحۡيُهُۥۖ وَقُل رَّبِّ زِدۡنِي عِلۡمٗا ۝ 131
(114) अत: उच्च है अल्लाह, वास्तविक सम्राट।30 और देखो, क़ुरआन पढ़ने में जल्दी न किया करो जब तक कि तुम्हारी ओर उसकी प्रकाशना (वह्य) पूर्णता को प्राप्त न हो, और दुआ करो कि ऐ पालनहार! मुझे और अधिक ज्ञान प्रदान कर।31
30. इस तरह के वाक्य क़ुरआन में साधारणतया एक भाषण को समाप्त करते हुए कहे जाते हैं, और उद्देश्य यह होता है कि वार्ता की समाप्ति अल्लाह की स्तुति और गुणगान पर हो। वर्णनशैली और इबारत के अगले पिछले भाग पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यहाँ एक भाषण समाप्त हो गया और 'व लक़द अहिदना इला आ-द-म' (हमने इससे पहले आदम को एक आदेश दिया था) से दूसरा भाषण शुरू होता है।
31. इन शब्दों से साफ़ महसूस हो रहा है कि नबी (सल्ल०) प्रकाशना (वह्य) का सन्देश प्राप्त करने के बीच में उसे याद करने और ज़बान से दोहराने की चेष्टा कर रहे होंगे जिसके कारण सन्देश के सुनने पर ध्यान पूर्ण रूप से केन्द्रित न हो रहा होगा। इस स्थिति को देखकर आपको आदेश दिया गया कि आप प्रकाशना अवतरित होने के समय उसे याद करने की कोशिश न किया करें।
وَلَقَدۡ عَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ ءَادَمَ مِن قَبۡلُ فَنَسِيَ وَلَمۡ نَجِدۡ لَهُۥ عَزۡمٗا ۝ 132
(115) हमने इससे पहले आदम को एक आदेश दिया था, मगर वह भूल गया और हमने उसमें दृढ़ संकल्प न पाया।32
32. मालूम हुआ कि बाद में आदम (अलैहि०) से इस आदेश की जो अवहेलना हुई वह जानते-बूझते सरकशी के कारण नहीं, बल्कि ग़फ़लत और भूल में पड़ जाने और संकल्प और इरादे को कमज़ोरी में ग्रस्त हो जाने के कारण से थी।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ ۝ 133
(116) याद करो वह समय जबकि हमने फ़रिश्तों से कहा था कि आदम को सजदा करो। वे सब तो सजदा कर गए, मगर एक इबलीस था कि इनकार कर बैठा।
فَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ إِنَّ هَٰذَا عَدُوّٞ لَّكَ وَلِزَوۡجِكَ فَلَا يُخۡرِجَنَّكُمَا مِنَ ٱلۡجَنَّةِ فَتَشۡقَىٰٓ ۝ 134
(117) इसपर हमने आदम से कहा कि “देखो, यह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुश्मन है। ऐसा न हो कि यह तुम्हें जन्नत से निकलवा दे और तुम मुसीबत में पड़ जाओ।