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سُورَةُ يُونُسَ

  1.  यूनुस

(मक्‍का में उतरी – आयतें 109)

परि‍चय

नाम

इस सूरा का नाम नियमानुसार केवल प्रतीक के रूप में आयत 98 से लिया गया है, जिसमें संकेत रूप में हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है। सूरा की वार्ता का विषय हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़िस्सा नहीं है।

उतरने का स्थान

रिवायतों से मालूम होता है और विषयवस्तु से इसका समर्थन होता है कि यह पूरी सूरा मक्के में उतरी है।

उतरने का समय

उतरने के समय के बारे में कोई रिवायत हमें नहीं मिली। लेकिन विषय से ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह सूरा मक्का-निवास के अन्तिम काल में उतरी होगी, जब इस्लामी संदेश के विरोधी पूरी तीव्रता से अवरोध उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन इस सूरा में हिजरत (घर-बार छोड़ने) की ओर भी कोई संकेत नहीं पाया जाता, इसलिए इसका समय उन सूरतों से पहले का समझना चाहिए जिनमें कोई न कोई सूक्ष्म या असूक्ष्म संकेत हमें हिजरत के बारे में मिलता है --- समय के इस निर्धारण के बाद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उल्लेख की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि इस काल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सूरा-6 (अनआम) और सूरा-7 (आराफ़) की प्रस्तावनाओं में वर्णन किया जा चुका है।

विषय

व्याख्यान का विषय दावत (आह्वान), उपदेश और चेतावनी है । बात इस तरह शुरू होती है लोग एक इंसान के नबी होने का सन्देश प्रस्तुत करने पर चकित हैं और इसे ख़ाहमख़ाह जादूगरी का इलज़ाम दे रहे हैं, हालाँकि जो बात वह पेश कर रहा है उसमें कोई चीज़ भी न तो विचित्र ही है और न ही जादू और ज्योतिष से ताल्लुक़ रखती है। वह तो दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों से तुम्हें अवगत करा रहा है। [एक तो एकेश्वरवाद, दूसरा क़ियामत और बदला दिए जाने के दिन का आना।] ये दोनों तथ्य जो वह तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, अपने आपमें सही हैं, चाहे तुम मानो या न मानो। इन्हें अगर मान लोगे तो तुम्हारा अपना ही अंजाम अच्छा होगा वरना स्वयं ही बुरा नतीजा देखोगे।

वार्ताएँ

इस भूमिका के बाद निम्‍न वार्ताएँ एक विशेष क्रम के साथ सामने आती हैं-

(1) वे प्रमाण जो रब के एक होने और मरने के बाद की ज़िन्दगी के सिलसिले में ऐसे लोगों की बुद्धि और अन्तरात्मा को सन्तुष्ट कर सकते हैं जो अज्ञानता पूर्ण विद्वेष में ग्रस्त न हों।

(2) उन ग़लतफहमियों को दूर किया गया और उन ग़फ़लतों (भुलावों) पर चेतावनी दी गई जो लोगों को तौहीद और आख़िरत का विश्वास मानने से रोक बन रही थीं (और हमेशा ऐसा हुआ करता है)।

(3) उन सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर जो मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने और आपके लाए हुए सन्देश के बारे में की जाती थीं।

(4) दूसरे जीवन में जो कुछ सामने आनेवाला है, उसकी अग्रिम सूचना ।

(5) इस बात पर चेतावनी कि इस जगत का वर्तमान जीवन वास्तव में परीक्षा का जीवन है। इस जीवन की मोहलत को अगर तुमने नष्ट कर दिया और नबी का मार्गदर्शन स्वीकार करके परीक्षा की सफलता का सामान न किया, तो फिर कोई दूसरा अवसर तुम्हें मिलना नहीं है।

(6) उन खुली-खुली अज्ञानताओं और गुमराहियों की ओर संकेत जो लोगों के जीवन में केवल इस कारण पाई जा रही थीं कि वे अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना जी रहे थे।

इस सिलसिले में नूह (अलैहि०) का क़िस्सा संक्षेप में और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा तनिक विस्तार के साथ बयान किया गया है जिससे चार बातें मन में बिठानी हैं-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ जो मामला तुम लोग कर रहे हो, वह इससे मिलता-जुलता है जो नूह और मूसा (अलैहि०) के साथ तुम्हारे पहले के लोग कर चुके हैं और विश्वास करो कि इस नीति का जो परिणाम वे देख चुके हैं, वही तुम्हें भी देखना पड़ेगा।

दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों को आज कमज़ोर और बेबस देखकर यह न समझ लेना कि स्थिति सदैव यही रहेगी। तुम्हें खबर नहीं कि इन लोगों के पीछे वही अल्लाह है जो मूसा और हारून के पीछे था और वह ऐसे तरीक़े से स्थिति में परिवर्तन ला देता है जिस तक किसी की दृष्टि नहीं पहुँच सकती।

तीसरे यह कि संभलने की मोहलत समाप्त हो जाने के बाद (बिलकुल) अन्तिम क्षण में तौबा की तो क्षमा नहीं किए जाओगे।

चौथे यह कि ईमानवाले, विरोधी वातावरण की तीव्रता देखकर निराश न हों और उन्हें मालूम हो कि इन परिस्थितियों में उनको किस तरह काम करना चाहिए। साथ ही वे इस बात पर भी सचेत हो जाएँ कि जब अल्लाह अपनी कृपा से उनको इस सिथति से निकाल दे तो कहीं वे इस नीति पर न चल पड़ें जो बनी-इसराईल ने मिस्र से मुक्ति पाने पर अपनाई।

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سُورَةُ يُونُسَ
10. यूनुस
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) अलिफ़-लाम-रा, ये उस किताब की आयतें हैं जो ज्ञान और तत्त्वदर्शिता से परिपूर्ण हैं।1
1. नासमझ लोग यह समझ रहे थे कि पैग़म्बर क़ुरआन के नाम से जो वाणी उनको सुना रहा है, वह केवल भाषा की जादूगरी है, काव्य-कल्पना की उड़ान है और कुछ काहिनों (ज्योतिष, परोक्ष की बातें बतानेवाले) की तरह ऊपरी दुनिया की बातें हैं। इसपर उन्हें चेतावनी दी जा रही है कि जो कुछ तुम गुमान कर रहे हो, यह वह चीज़ नहीं है। यह तो तत्त्वदर्शी ग्रन्थ की आयतें हैं। इनकी ओर ध्यान न दोगे तो तत्त्वदर्शिता और ज्ञान से वंचित रह जाओगे।
أَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا أَنۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ رَجُلٖ مِّنۡهُمۡ أَنۡ أَنذِرِ ٱلنَّاسَ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنَّ لَهُمۡ قَدَمَ صِدۡقٍ عِندَ رَبِّهِمۡۗ قَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٞ مُّبِينٌ ۝ 1
(2) क्या लोगों के लिए यह एक विचित्र बात हो गई कि हमने स्वयं उन्हीं में से एक आदमी पर वह्य भेजी कि (ग़फ़लत में पड़े हुए) लोगों को चौका दे और जो मान लें, उनको शुभ-सूचना दे कि उनके लिए उनके रब के पास सच्चा मान सम्मान है?2 (इसपर) इंकारियों ने कहा कि यह आदमी तो खुला जादूगर है।3
2. अर्थात् आख़िर इसमें विचित्र बात क्या है? इंसानों को सचेत करने के लिए इंसान न नियुक्त किया जाता तो क्या फ़रिश्ता या जिन्न या पशु नियुक्त किए जाते ? विचित्र बात तो यह है कि (वास्तविकता से ग़ाफ़िल इंसानों को उनका पैदा करनेवाला और पालनेवाला उनके हाल पर छोड़ दे या यह कि वह उनके मार्गदर्शन और रहनुमाई के लिए कोई व्यवस्था करे? और अगर अल्लाह की ओर से कोई मार्गदर्शन आए तो मान-सम्मान और सफलता उनके लिए होनी चाहिए जो उसे मान लें या उनके लिए जो उसे रद्द कर दें?
3. नबी (सल्ल०) को जादूगर वे इस अर्थ में कहते थे कि जो आदमी भी कुरआन सुनकर और आपके प्रचार से प्रभावित होकर ईमान लाता था, वह जान पर खेल जाने और दुनिया भर से कट जाने और हर विपदा झेल जाने के लिए तैयार हो जाता था। जादूगर की फब्ती तो उन्होंने आपपर कस दी, मगर यह न सोचा कि वह फिट भी होती है या नहीं? केवल यह बात कि कोई व्यक्ति उच्च श्रेणी के वक्तव्य से काम लेकर मन और मस्तिष्क को वश में कर रहा है, उसपर यह आरोप लगा देने के लिए तो पर्याप्त नहीं हो सकता कि वह जादूगरी कर रहा है। देखना यह है कि इस वक्तव्य में वह बात क्या कहता है, किस उद्देश्य के लिए भाषण-शक्ति का उपयोग कर रहा है और जो प्रभाव उसके भाषण से ईमान लानेवालों के जीवन पर पड़ रहे हैं, वे किस प्रकार के हैं। तुम देख रहे हो कि पैग़म्बर जो वाणी प्रस्तुत कर रहा है, उसमें बुद्धिमत्ता है, सोच-विचार को एक सन्तुलित व्यवस्था है, उच्च श्रेणी का सन्तुलन और सत्य और सच्चाई की भरपूर अनिवार्यता है, उसके भाषण में तुम ईश्वरीय सृष्टि में सुधार लाने के सिवा किसी दूसरे उद्देश्य की निशानदेही नहीं कर सकते । वह केवल यह चाहता है कि लोग ग़लत रवैय को छोड़कर उस रास्ते पर आ जाएँ जिसमें उनका अपना भला है। फिर उसके भाषण का जिसने भी प्रभाव ग्रहण किया है, उसका जीवन सँवर गया है। अब तुम स्वयं ही सोच लो, क्या जादूगर ऐसी ही बातें करते हैं और उनका जादू ऐसे ही नतीजे दिखाया करता है?
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۖ مَا مِن شَفِيعٍ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ إِذۡنِهِۦۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 2
(3) वास्तविकता तो यह है कि तुम्हारा रब वही अल्लाह है जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिनों में पैदा किया, फिर राजसिंहासन पर आसीन होकर सृष्टि की व्यवस्था चला रहा है।4 कोई शफ़ाअत (सिफ़ारिश) करनेवाला नहीं है अलावा इसके कि उसकी इजाज़त के बाद शफ़ाअत करे।5 यही अल्लाह तुम्हारा रब है, इसलिए तुम उसी की इबादत करो।6 फिर क्या तुम होश में न आओगे?7
4. अर्थात् पैदा करके वह निष्क्रिय नहीं हो गया, बल्कि अपनी पैदा की हुई सृष्टि के राजसिंहासन पर वह स्वयं आसीन हुआ और अब सारी दुनिया का प्रबन्ध व्यावहारिक रूप से उसी के हाथ में है। (देखिए सूरा-7 आराफ़, टिप्पणी 40-41)
5. अर्थात् दुनिया के प्रबंध और व्यवस्था में किसी दूसरे का दखल देना तो दूर की बात, कोई इतना अधिकार भी नहीं रखता कि अल्लाह से सिफ़ारिश करके उसका कोई फ़ैसला बदलवा दे या किसी का भाग्य बनवा दे या बिगड़वा दे। अधिक से अधिक कोई जो कुछ कर सकता है वह बस इतना है कि अल्लाह से दुआ करे, मगर उसकी दुआ का क़बूल होना या न होना बिल्कुल अल्लाह की मर्ज़ी पर निर्भर है ।
إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقًّاۚ إِنَّهُۥ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 3
(4) उसी की ओर तुम सबको पलटकर जाना है।8 यह अल्लाह का पक्का वादा है। निस्सन्देह पैदाइश की शुरुआत वही करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा9, ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कार्य किए उनको न्यायपूर्वक बदला दे और जिन्होंने इंकार का तरीक़ा अपनाया, वे खौलता हुए पानी पिएँ और दर्दनाक सजा भुगतें सत्य के उस इंकार के बदले में जो वे करते रहे।10
8. यह नबी की शिक्षा का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त है। पहला सिद्धान्त यह कि तुम्हारा रब केवल अल्लाह है, इसलिए उसी की इबादत करो। और दूसरा सिद्धान्त यह कि तुम्हें इस दुनिया से वापस जाकर अपने रब को हिसाब देना है।
9. यह वाक्य दावे और प्रमाण दोनों का योग है। दावा यह है कि अल्लाह दोबारा इंसान को पैदा करेगा और उसपर प्रमाण यह दिया गया है कि उसी ने पहली बार इंसान को पैदा किया। जो आदमी यह स्वीकार करता हो कि अल्लाह ने दुनिया की शुरुआत की है, वह इस बात को असंभव या समझ से परे नहीं कह सकता कि वही अल्लाह इस सृष्टि की पुनरावृत्ति करेगा।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلشَّمۡسَ ضِيَآءٗ وَٱلۡقَمَرَ نُورٗا وَقَدَّرَهُۥ مَنَازِلَ لِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ يُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 4
(5) वही है जिसने सूरज को उजियाला बनाया और चाँद को चमक दी और चाँद के घटने-बढ़ने को मंज़िलें ठीक-ठीक निश्चित कर दी ताकि तुम उससे वर्षों और तारीखों के हिसाब मालूम करो। अल्लाह ने यह सब कुछ सत्यानुकूल ही पैदा किया है। वह अपनी निशानियों को खोल-खोलकर पेश कर रहा है उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखते हैं।
إِنَّ فِي ٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَّقُونَ ۝ 5
(6) निश्चय ही रात और दिन के उलट-फेर में और हर उस चीज़ में जो अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों में पैदा की है निशनियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (ग़लत देखने और ग़लत कार्य करने से) बचना चाहते हैं।11
11. यह आख़िरत के अक़ीदे (विश्वास) का तीसरा प्रमाण है । सृष्टि में अल्लाह के जो काम हर ओर दिखाई दे रहे हैं, जिनके बड़े-बड़े चिहन सूरज और चाँद और रात व दिन के आने-जाने की शक्ल में हर आदमी के सामने मौजूद हैं, उनसे इस बात का अत्यंत स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि इस महान सृष्टि का पैदा करनेवाला कोई बच्चा नहीं है जिसने केवल खेलने के लिए यह सब कुछ बनाया हो, और फिर दिल भर लेने के बाद यूँ ही उस घरौंद को तोड़-फोड़ डाले। स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि उसके हर काम में नज़्म (व्यवस्था) है, हिक्मत (तत्त्वदर्शिता) है, मस्लहत है और कण-कण की पैदाइश में एक बड़ा उद्देश्य पाया जाता है, अतएव जब वह तत्त्वदर्शिता और उसके (निहित उद्देश्य) की चिह्न और निशानियाँ तुम्हारे सामने खुल्लम-खुल्ला मौजूद हैं तो इससे तुम कैसे यह आशा रखते हो कि वह इंसान को बुद्धि और नैतिक चेतना और स्वतंत्र दायित्त्व और उपयोग के अधिकार प्रदान करने के बाद उसके जीवन कार्यों का हिसाब कभी न लेगा और बुद्धिपरक और नैतिक दायित्त्वों के आधार पर बदला और सज़ा का जो हक़ अनिवार्य रूप से पैदा होता है, उसे यूँ ही व्यर्थ जाने देगा। इस सिलसिले में एक और महत्त्वपूर्ण विषय भी बयान फ़रमा दिया गया है जो गहरी तवज्जोह चाहता है। फ़रमाया कि 'अल्लाह अपनी निशानियों को खोल-खोलकर पेश कर रहा है उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखते हैं और अल्लाह की पैदा की हुई हर चीज़ में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ग़लत सोच और गलत रवैये से बचना चाहते हैं।' इसका अर्थ यह है कि अल्लाह ने बड़े विवेकपूर्ण ढंग से जीवन की प्रत्यक्ष वस्तुओं में हर ओर से निशान फैला रखे हैं जो इन प्रत्यक्ष वस्तुओं के पीछे छिपे हुए तथ्यों का साफ़-साफ़ पता दे रहे हैं, लेकिन इन निशानों से तथ्यों तक केवल वही लोग पहुँच सकते हैं जिनके भीतर ये दो गुण पाए जाते हों- एक यह कि वे अज्ञानतापूर्ण संकीर्णताओं (तास्सुबात) से पाक होकर ज्ञान प्राप्त करने के उन साधनों को अपनाएँ जो अल्लाह ने इंसान को दिए हैं, दूसरे यह कि उनके भीतर स्वयं यह इच्छा मौजूद हो कि ग़लती से बचें और सही रास्ता अपनाएँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا وَرَضُواْ بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَٱطۡمَأَنُّواْ بِهَا وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِنَا غَٰفِلُونَ ۝ 6
(7) सच तो यह है कि जो लोग हमसे मिलने की आशा नहीं रखते और दुनिया की ज़िन्दगी ही पर राज़ी और सन्तुष्ट हो गए हैं और जो लोग हमारी निशानियों से ग़ाफ़िल हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 7
(8) उनका अन्तिम ठिकाना जहन्नम होगा उन बुराइयों के बदले में जिन्हें वे (अपने इस ग़लत विश्वास और गलत रवैय के कारण) करते रहे।12
12. यहाँ फिर दावे के साथ-साथ उसकी दलील भी संकेत में बता दी गई। दावा यह है कि आख़िरत के विश्वास के इंकार का अनिवार्य और निश्चित परिणाम जहन्नम है, और दलील यह है कि इस विश्वास का इंकार करनेवाले या इसपर अपना कोई विचार न रखनेवाला इंसान उन बुराइयों को करता है जिनकी सज़ा जहन्नम के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। आखिरत के इस विश्वास पर यह एक और प्रकार की दलील है। पहली तीन दलीलें बौद्धिक दलीलों जैसी थीं और यह अनुभवों पर आधारित दलील है। यहाँ इसका सिर्फ़ संकेत में उल्लेख किया गया है, मगर क़ुरआन में अलग-अलग अवसरों पर हमें इसका विस्तृत विवरण मिलता है। इस दलील का सार यह है कि इंसान का निजी रवैया और इंसानी गिरोहों का सामूहिक रवैया कभी उस समय तक सही नहीं हो सकता, जब तक यह चेतना और यह विश्वास इंसानी आचरण में गड़ा हुआ न हो कि हमें अल्लाह के सामने अपने-अपने कर्मों का जवाब देना है। अब सोचने की बात यह है कि आख़िर ऐसा क्यों है? क्या कारण है कि इस चेतना और विश्वास के ग़ायब या कमज़ोर होते ही इंसानी चरित्र व आचरण की गाड़ी बुराई की राह पर चल पड़ती है। अगर आख़िरत का विश्वास वास्तविकता के मुताबिक न होता, और उसका इंकार सच्चाई के विरुद्ध होता तो संभव न था कि इस मानने और न मानने के ये नतीजे एक अनिवार्य शान के साथ बराबर हमारे अनुभव में आते । एक ही चीज़ से बराबर सही नतीजों का निकलना और उसके न होने पर चीज़ों का हमेशा ग़लत हो जाना इस बात का पक्का प्रमाण है कि वह चीज़ अपने आप में सही है। [कहा जा सकता है कि अल्लाह और आखिरत के बहुत-से इंकारी भी अच्छा चरित्र रखते और सदाचारी होते हैं, लेकिन यह विचार या यह आपत्ति ऊपर-ऊपर देखने का नतीजा होगी।] फिर भी अगर अल्लाह और आख़िरत का इंकारी सच में दुनिया में ऐसा मौजूद है जो स्थायी रूप से कुछ नेकियों का पाबन्द और कुछ बुराइयों से बचा हुआ है तो वास्तव में उसकी यह नेकी और परहेज़गारी उसके जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम नहीं है, बल्कि उन धर्म-प्रभावों का फल है जो अनजाने तौर पर उनके मन में मौजूद है। उसकी नैतिक पूँजी धर्म से चुराई हुई है और उसको वह अनुचित ढंग से अधार्मिकता में प्रयोग कर रहा है, क्योंकि वह अपनी अधार्मिक और भौतिकवाद के ख़ज़ाने में इस पूँजी के स्रोत की निशानदेही कदापि नहीं कर सकता।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ يَهۡدِيهِمۡ رَبُّهُم بِإِيمَٰنِهِمۡۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 8
(9) और यह भी सत्य है कि जो लोग ईमान लाए (अर्थात् जिन्होंने उन सच्चाइयों को मान लिया जो इस किताब में प्रस्तुत की गई है) और भले अमल करते रहे, उन्हें उनका रब उनके ईमान की वजह से सीधी राह चलाएगा, नेमत भरी जन्नतों में उनके नीचे नहरें बहेंगी।13
13. इस वाक्य के विषय का क्रम अत्यधिक ध्यान चाहता है : (1) इन लोगों को आखिरत की ज़िन्दगी में जन्नत क्यों मिलेगी?- इसलिए कि ये दुनिया की ज़िन्दगी में सीधी राह पर चले। हर काम में इन्होंने सत्यपूर्ण रीति अपनाई और असत्य रीतियों को त्याग दिया। (2) यह हर-हर कदम पर सत्य और असत्य, सही और गलत का अन्तर कैसे मालूम हुआ? और फिर इस अन्तर के अनुसार सही रास्ते पर जमने और टेढ़े रास्ते से बचने की शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? - उनके रब की ओर से, क्योंकि वही ज्ञानात्मक मार्गदर्शन और व्यावहारिक सम्मति का स्रोत है। उनका रब उन्हें यह मार्गदर्शन और यह सम्मति क्यों देता रहा रहा है? -उनके ईमान की वजह से। ये नतीजे जो ऊपर बयान हुए हैं किस ईमान के नतीजे हैं? -उस ईमान के नहीं जो मात्र मान लेने के अर्थ में हो, बल्कि उस ईमान के जो दिल की गहराइयों में उतर जाए, जो चरित्र व आचरण की आत्मा बन जाए और जिसकी शक्ति से चरित्र व व्यवहार में भलाई प्रकट होने लगे।
دَعۡوَىٰهُمۡ فِيهَا سُبۡحَٰنَكَ ٱللَّهُمَّ وَتَحِيَّتُهُمۡ فِيهَا سَلَٰمٞۚ وَءَاخِرُ دَعۡوَىٰهُمۡ أَنِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 9
(10) वहाँ उनकी आवाज़ यह होगी कि 'पाक है तू ऐ अल्लाह !' उनकी दुआ यह होगी कि 'सलामती हो' और उनकी हर बात का अन्त इसपर होगा कि 'सारी प्रशंसा अल्लाह रब्बुल आलमीन ही के लिए है।‘14
14. यहाँ एक सूक्ष्म शैली में यह बताया गया है कि नेमत भरी जन्नतों में पहुंच जाने के बाद यह नहीं होगा कि ये लोग बस वहाँ पहुँचते ही सुख-वैभव की सामग्रियों पर टूट पड़ेंगे, जैसा कि जन्नत का नाम सुनते ही कुछ टेढ़ी समझवाले लोगों के मन में इसका चित्र घूमने लगता है, बल्कि वास्ताव में सदाचारी ईमानवाले दुनिया में उच्च विचार और अच्छे चरित्र अपना करके, अपनी भावनाओं को सँवारकर और अपने आचरण और चरित्र को पवित्र बनाकर जिस प्रकार के श्रेष्ठतम व्यक्तित्त्व अपने भीतर जुटा पाएँगे, वही दुनिया के वातावरण से भिन्न, जन्नत के पवित्रतम वातावरण में और अधिक निखरकर उभर आएँगे और उनके वही गुण, जो दुनिया में उन्होंने परवान चढ़ाए थे, वहाँ अपनी पूरी शान के साथ उनके चरित्र में दिखाई देंगे। उनका सर्वप्रिय कार्य वही अल्लाह का गुणगान और उसकी पावनता का बयान करना होगा जिससे दुनिया में उन्हें लगाव था, और उनकी सोसाइटी में वही एक-दूसरे की सलामती चाहने की भावना काम कर रही होगी जिसे दुनिया में उन्होंने अपने सामूहिक रीति-नीति का उद्देश्य बनाया था।
۞وَلَوۡ يُعَجِّلُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ ٱلشَّرَّ ٱسۡتِعۡجَالَهُم بِٱلۡخَيۡرِ لَقُضِيَ إِلَيۡهِمۡ أَجَلُهُمۡۖ فَنَذَرُ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 10
(11) अगर कहीं15 अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वे दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते हैं, तो उनके काम की मोहलत कभी की समाप्त कर दी गई होती । (मगर हमारा यह तरीका नहीं है, इसलिए हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, उनकी उदंडता में भटकने के लिए छूट दे देते हैं ।
15. ऊपर के आरंभिक वाक्यों के बाद अब उपदेश और समझाने-बुझाने का व्याख्यान शुरू होता है। इस व्याख्यान को पढ़ने से पहले इसकी पृष्ठभूमि के बारे में दो बातें सामने रहनी चाहिएँ- एक यह कि इस व्याख्यान से थोड़े समय पहले वह जबरदस्त (भीषण अकाल) समाप्त हुआ था जिसकी विपदा से मक्कावाले चिल्ला उठे थे। इस अकाल के समय में क़ुरैश के घमंडियों की अकड़ी हुई गरदनें बहुत झुक गई थीं। दुआएँ करते और रोते थे, बुतपरस्ती में कमी आ गई थी। एक अल्लाह की ओर रुजू बढ़ गया था और नौबत यह आ गई थी कि अन्ततः अबू सुफ़ियान ने आकर नबी (सल्ल०) से विनती की कि आप अल्लाह से इस विपदा को टालने के लिए दुआ करें। मगर जब अकाल दूर हो गया, वर्षा होने लगी और खुशहाली का समय आया तो इन लोगों की वही उदंडताएँ और दुष्कर्म और सत्य धर्म के विरुद्ध वही गतिविधियाँ फिर शुरू हो गई और जो दिल अल्लाह की ओर रुजू करने लगे थे, वे फिर अपनी पिछली ग़फलतों में डूब गए। दूसरे यह कि नबी (सल्ल०) जब भी इन लोगों को सत्य के इंकार की सज़ा से डराते थे तो ये लोग उत्तर में कहते थे कि तुम अल्लाह के जिस अज़ाब की धमकियाँ देते हो, वह आखिर क्यों नहीं आ जाता? उसके आने में देर क्यों लग रही है? इसी पर फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह लोगों पर दया व कृपा करने में जितनी जल्दी करता है, उनको सज़ा देने और उनके पापों पर पकड़ लेने में उतनी जल्दी नहीं करता। तुम चाहते हो कि जिस तरह उसने तुम्हारी दुआएँ सुनकर अकाल विपदा जल्दी से दूर कर दी, उसी तरह वह तुम्हारी चुनौतियाँ सुनकर और 'तुम्हारी उइंडताएँ देखकर अज़ाब भी तुरन्त भेज दे, लेकिन अल्लाह का तरीका यह नहीं है। लोग चाहे कितनी ही उदंडताएँ किए चले जाएँ, वह उनको पकड़ने से पहले संभलने का पर्याप्त अवसर देता है, जब रियायत की अति हो जाती है तब कर्म के बदले का नियम लागू किया जाता है।
وَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ٱلضُّرُّ دَعَانَا لِجَنۢبِهِۦٓ أَوۡ قَاعِدًا أَوۡ قَآئِمٗا فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُ ضُرَّهُۥ مَرَّ كَأَن لَّمۡ يَدۡعُنَآ إِلَىٰ ضُرّٖ مَّسَّهُۥۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡمُسۡرِفِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 11
(12) मनुष्य का हाल यह है कि जब उसपर कोई कठिन समय आता है तो खड़े और बैठे और लेटे हमको पुकारता है, मगर जब हम उसकी विपदा टाल देते हैं तो ऐसा चल निकलता है कि मानो उसने कभी अपने किसी बुरे समय पर हमको पुकारा ही न था। इस तरह सीमा पार कर जानेवालों के लिए उनके करतूत सुन्दर बना दिए गए हैं ।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 12
(13) लोगो ! तुमसे पहले की क़ौमों को16 हमने नष्ट कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म की17 रीति अपनाई और उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए और उन्होंने ईमान लाकर ही न दिया। इस तरह हम अपराधियों को उनके अपराधों का बदला दिया करते हैं।
16. मूल अरबी में शब्द 'कर्न' प्रयुक्त हुआ है जिससे तात्पर्य सामान्य रूप से अरबी भाषा में तो एक युग के लोग होते हैं, लेकिन क़ुरआन मजीद में जिस ढंग से अलग-अलग अवसरों पर इस शब्द का प्रयोग हुआ है उससे ऐसा लगता है कि ‘क़र्न’ से तात्पर्य वह क़ौम है जो अपने युग में पूर्ण विकसित हो और उसने कुछ या पूरे तौर पर दुनिया का नेतृत्त्व किया हो। ऐसी क़ौम का विनाश अनिवार्य रूप से यही अर्थ नहीं रखता कि उसको नस्ल को बिल्कुल ही नष्ट कर दिया जाए, बल्कि उसका विकास और नेतृत्त्व के पद से गिरा दिया जाना, उसकी संस्कृति व सभ्यता का नष्ट हो जाना, उसकी पहचान का मिट जाना और उसके अंशों का टुकड़े-टुकड़े होकर दूसरी क़ौमों में गुम हो जाना, यह भी विनाश ही का एक रूप है।
17. यह जुल्म' शब्द उन सीमित अर्थों में नहीं है जो सामान्य रूप से इससे समझे जाते हैं, बल्कि यह उन तमाम पापों पर छाया हुआ है जो इंसान बन्दगी की सीमा का उल्लंघन करके करता है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 49)
ثُمَّ جَعَلۡنَٰكُمۡ خَلَٰٓئِفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لِنَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) अब उनके बाद हमने तुमको धरती में उनकी जगह दी है, ताकि देखें कि तुम कैसे कार्य करते हो।18
18. सम्बोधन अरबों से है और उनसे कहा यह जा रहा है कि पिछली क़ौमों को अपने-अपने समय में काम करने का अवसर दिया गया था, पर उन्होंने [अपने पैग़म्बरों की बात न मानी और अत्याचार व विद्रोह की रीति अपनाई और इस तरह] हमारी परीक्षा में विफल हो गई और मैदान से हटा दी गई। अब ऐ अरबवालो ! तुम्हारी बारी आई है। अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा अंजाम भी वही हो जो उनका हुआ तो इस अवसर से, जो तुम्हें दिया जा रहा है, सही फायदा उठाओ, पिछली क़ौमों के इतिहास से शिक्षा लो और उन ग़लतियों को न दोहराओ जो उनकी विनाश का कारण बनीं।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَاتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا ٱئۡتِ بِقُرۡءَانٍ غَيۡرِ هَٰذَآ أَوۡ بَدِّلۡهُۚ قُلۡ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أُبَدِّلَهُۥ مِن تِلۡقَآيِٕ نَفۡسِيٓۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۖ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 14
(15) जब उन्हें हमारी साफ़-साफ़ बातें सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, कहते हैं कि "इसके बजाय कोई और कुरआन लाओ या इसमें कुछ संशोधन करो19।" ऐ नबी ! उनसे कहो, “मेरा यह काम नहीं है कि अपनी ओर से इसमें कोई तब्दीली कर लूँ। मैं तो बस उस वह्य का पालन करनेवाला हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब की बात न मानें तो मुझे एक बड़े भयानक दिन के अज़ाब का डर है।20
19. उनका यह कथन एक तो इस कल्पना पर आधारित था कि मुहम्मद (सल्ल०) जो कुछ प्रस्तुत कर रहे हैं वह अल्लाह की ओर से नहीं है, बल्कि उनके अपने दिमाग़ की उपज है। दूसरे उनका अर्थ यह था कि यह तुमने तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत और नैतिक पाबंदियों का विवाद क्या छेड़ दिया, अगर मार्गदर्शन के लिए उठे हो तो कोई ऐसी चीज़ प्रस्तुत करो जिससे क़ौम का भला हो और उसकी दुनिया बनती दिखाई दे। फिर भी अगर तुम अपने इस सन्देश को बिल्कुल नहीं बदलना चाहते तो कम-से-कम इसमें इतनी लचक ही पैदा करो कि हमारे और तुम्हारे बीच कम व बेश पर समझौता हो सके। कुछ हम तुम्हारी मानें, कुछ तुम हमारी मान लो।
20. यह ऊपर को दोनों बातों का उत्तर है। इसमें यह भी कह दिया गया कि मैं इस किताब का रचयिता नहीं हूँ, बल्कि यह वह्य के द्वारा मेरे पास आई है जिसमें किसी परिवर्तन का मुझे अधिकार नहीं, और यह भी कि इस मामले में समझौते को बिलकुल कोई संभावना नहीं है, क़बूल करना हो तो इस पूरे दीन को ज्यों-का-त्यों क़बूल कर लो, वरना पूरे को रद्द कर दो।
قُل لَّوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا تَلَوۡتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَدۡرَىٰكُم بِهِۦۖ فَقَدۡ لَبِثۡتُ فِيكُمۡ عُمُرٗا مِّن قَبۡلِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 15
(16) और कहो, “अगर अल्लाह की इच्छा यही होती तो मैं यह कुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आखिर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे बीच बिता चुका हूँ, क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?21
21. यह एक प्रबल प्रमाण है उनके इस विचार के खंडन में कि मुहम्मद (सल्ल.) कुरआन को स्वयं अपने मन से गढ़कर अल्लाह से जोड़ रहे हैं और मुहम्मद (सल्ल.) के इस दावे के समर्थन में कि वह स्वयं उसके रचयिता नहीं हैं, बल्कि यह अल्लाह की ओर से वह्य के द्वारा उनपर उतर रहा है। दूसरे तमाम प्रमाण तो फिर किसी हद तक दूर की चीज़ें थीं, मगर मुहम्मद (सल्ल०) का जीवन तो उन लोगों के सामने की चीज़ थी। आपने नुबूवत से पहले पूरे चालीस साल उनके बीच बिताए थे। उनके नगर में पैदा हुए, उनकी आँखों के सामने बचपन गुज़ारा, जवान हुए, अधेड़ उम्र को पहुंचे। रहना-सहना, मिलना-जुलना, लेन-देन, शादी-ब्याह, तात्पर्य यह कि हर प्रकार का सामाजिक संबंध उन्ही के साथ था और आपके जीवन का कोई पहलू उनसे छिपा हुआ न था। ऐसी जानी-बूझी और देखी-भाली चीज़ से बड़ी खुली गवाही और क्या हो सकती थी? आपकी इस ज़िन्दगी में दो बातें बिल्कुल साफ़ थीं, जिन्हें मक्का के लोगों में से एक-एक व्यक्ति जानता था- एक यह कि नुबूवत से पहले के पूरे चालीस वर्षीय जीवन में आपने कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा और संगति नहीं पाई जिससे आपको वे जानकारियाँ मिलतीं जिनके स्रोत यकायक नुबूवत के दावे के साथ ही आपके मुख से फूटने शुरू हो गए, न कभी किसी ने आपकी बातों और आपके हाव-भाव में कोई ऐसी चीज़ महसूस की जिसे उस महान संदेश की भूमिका कहा जा सकता हो जो आपने अचानक चालीसवीं साल को पहुँचकर देनी शुरू कर दी। यह इस बात का खुला प्रमाण था कि कुरआन आपके अपने मस्तिष्क की उपज नहीं है. बल्कि बाहर से आपके भीतर आई हुई चीज़ है । इसलिए कि मानव-मस्तिष्क अपनी उम्र के किसी मरहले में भी ऐसी कोई चीज़ प्रस्तुत नहीं कर सकता जिसके विकास और प्रगति की खुली निशानियाँ उससे पहले के मरहलों में न पाई जाती हों। दूसरी बात जो आपके पिछले जीवन में बिल्कुल स्पष्ट और पूरे समाज में प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त थी, वह आपकी सच्चाई और अमानतदारी है। आपको नबी बनाने से [कुछ ही वर्ष पहले, हजरे अस्वद (काला पत्थर) को लगाने के मामले के समय] अल्लाह तआला पूरे क़ुरैश कबीले से भरी सभा में आपके ‘अमीन’ (अमानतदार) होने की गवाही ले चुका था। अब यह गुमान करने की क्या गुंजाइश थी कि जिस आदमी ने पूरी उम्र कभी अपने जीवन के किसी छोटे-से-छोटे मामले में भी झूठ, छल और धोखे से काम न लिया था, वह यकायकी इतना बड़ा झूठ और ऐसे जोरदार छल और धोखे से काम लेकर उठ खड़ा हुआ कि अपने मन से कुछ बातें गढ़ीं और उनको पूरे बल और शक्ति के साथ अल्लाह से जोड़ने लगा।
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 16
(17) फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की आयतों को झूठा क़रार दे ।22 निश्चित रूप से अपराधी कभी सफलता नहीं प्राप्त कर सकते।23
22. अर्थात् अगर ये आयतें अल्लाह की नहीं हैं और मैं उन्हें स्वयं रचकर अल्लाह की आयतों की हैसियत से पेश कर रहा हूँ तो मुझसे बड़ा अत्याचारी कोई नहीं, और अगर यह सच में अल्लाह की आयतें हैं और तुम इनको झुठला रहे हो तो फिर तुमसे बड़ा भी कोई ज़ालिम नहीं।
23. यह बात कि “ अपराधी सफलता नहीं प्राप्त कर सकते" यहाँ इस अर्थ में कही गई है कि “मैं पूरे विश्वास के साथ जानता हूँ कि अपराधियों को सफलता नहीं प्राप्त हो सकती, इसलिए मैं स्वयं तो यह अपराध नहीं कर सकता कि नुबूवत का झूठा दावा करूँ, अलबत्ता तुम्हारे बारे में मुझे विश्वास है कि तुम सच्चे नबी की झुठलाने का अपराध कर रहे हो, इसलिए तुम्हें सफलता प्राप्त नहीं होगी।” 'फ़लाह' (सफलता) एक क़ुरआनी शब्द है और इससे तात्पर्य वह सुदृढ़ सफलता है जिसमें किसी प्रकार के घाटे की संभावना न हो, इससे हटकर कि दुनिया की जिन्दगी के इस आरंभिक मरहले में उसके भीतर सफलता का कोई पहलू हो या न हो। हो सकता है कि एक गुमराही का बुलावा देनेवाला दुनिया में खूब फले-फूले और उसकी गुमराही को बड़ी तरक्की मिले, मगर यह कुरआन के शब्दों में फलाह' नहीं, मात्र घाटा है। और यह भी हो सकता है कि सत्य की ओर बुलानेवाला एक व्यक्ति दुनिया में भारी विपदाओं का शिकार हो, कष्टों की तीव्रता से निढाल होकर या जालिमों के ज़ल्म का शिकार होकर दुनिया से जल्दी विदा हो जाए और कोई उसे मानकर न दे,मगर यह क़ुरआन की भाषा में घाटा नहीं, साक्षात सफलता है।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡ وَيَقُولُونَ هَٰٓؤُلَآءِ شُفَعَٰٓؤُنَا عِندَ ٱللَّهِۚ قُلۡ أَتُنَبِّـُٔونَ ٱللَّهَ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 17
(18) ये लोग अल्लाह के सिवा उनकी उपासना कर रहे हैं जो उनको न हानि पहुँचा सकते हैं, न लाभ, और कहते यह हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी हैं। ऐ नबी ! इनसे कहो, “क्या तुम अल्लाह को उस बात की खबर देते हो जिसे वह न आसमानों में जानता है, न ज़मीन में?24 पाक है वह और उच्च है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
24. किसी चीज़ का अल्लाह के ज्ञान में न होना यह अर्थ रखता है कि वह सिरे से मौजूद ही नहीं है। इसलिए कि सब कुछ जो मौजूद है, अल्लाह के ज्ञान में है, अतएव सिफारिशियों का न होना सिद्ध करने के लिए यह एक सूक्ष्म वर्णन-शैली है कि अल्लाह तो जानता नहीं कि ज़मीन या आसमान में कोई उसके समक्ष तुम्हारी सिफ़ारिश करनेवाला है, फिर यह तुम किन सिफारिशियों की उसको खबर दे रहे हो?
وَمَا كَانَ ٱلنَّاسُ إِلَّآ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَٱخۡتَلَفُواْۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡ فِيمَا فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 18
(19) आरंभ में सारे इंसान एक ही उम्मत (समुदाय) थे, बाद में उन्होंने अलग-अलग विश्वास और पंथ बना लिए,25 और अगर तेरे रब की ओर से पहले ही एक बात तय न कर ली गई होती तो जिस चीज़ में वे आपस में मतभेद कर रहे हैं, उसका निर्णय कर लिया जाता।26
25. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (बक़रा), टिप्पणी 230
26. अर्थात् अगर अल्लाह ने पहले ही यह निर्णय न कर लिया होता कि वास्तविकता को मानव-इन्द्रियों से छिपाकर उनकी बुद्धि व समझ और अन्तरात्मा व विवेक को परीक्षा में डाला जाएगा, और जो इस परीक्षा में विफल होकर ग़लत राह पर जाना चाहेंगे उन्हें उस राह पर जाने और चलने का मौक़ा दिया जाएगा और निर्णय क़ियामत के दिन होगा तो वास्तविकता को आज ही बेनकाब करके सारे मतभेदों का निर्णय कर दिया जाता। यहाँ यह बात एक बड़ी ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए कही गई है। सामान्य रूप से आज भी लोग इस उलझन में है और क़ुरआन उतरते समय भी थे कि दुनिया में बहुत से धर्म पाए जाते हैं और हर धर्मवाला अपने ही धर्म को सत्य समझता है। ऐसी स्थिति में आख़िर इस निर्णय की शक्ल क्या है कि कौन सत्य पर है और कौन नहीं ? इसके बारे में कहा जा रहा है कि यह धर्मों का मतभेद वास्तव में बाद की पैदावार है। शुरू में सम्पूर्ण मानव-जाति का धर्म एक था और वही धर्म सत्य था। फिर इस सत्य में मतभेद करके लोग अलग-अलग धारणाएँ और धर्म बनाते चले गए। अब अगर धर्मों के इस मतभेद का निर्णय तुम्हारे नज़दीक बुद्धि व विवेक के सही इस्तेमाल के बजाय केवल इसी तरह हो सकता है कि अल्लाह स्वयं सत्य को बेनक़ाब करके सामने ले आए, तो यह वर्तमान सांसारिक जीवन में नहीं होगा। यह सांसारिक जीवन तो है ही परीक्षा के लिए और यहाँ सारी परीक्षा इसी बात की है कि तुम सत्य को देखे बिना बुद्धि व विवेक से पहचानते हो या नहीं।
وَيَقُولُونَ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۖ فَقُلۡ إِنَّمَا ٱلۡغَيۡبُ لِلَّهِ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 19
(20) और यह जो वे कहते हैं कि इस नबी पर उसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों न उतारी गई,27 तो इनसे कहो, " ग़ैब " (परोक्ष) का स्वामी व अधिकारी तो अल्लाह ही है, अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।"28
27. अर्थात् इस बात की निशानी कि वास्तव में यह नबी सत्य पर है और जो कुछ प्रस्तुत कर रहा है, वह बिल्कुल ठीक है। इस सिलसिले में यह बात दृष्टि में रहे कि निशानी के लिए उनकी यह माँग कुछ इस कारण न थी कि वे सच्चे दिल से सत्य-सन्देश को ग्रहण करने और उसके तकाज़ों के अनुसार अपने चरित्र को, आदतों को, रहन-सहन और सभ्यता की व्यवस्था को, तात्पर्य यह कि अपने पूरे जीवन को ढाल लेने के लिए तैयार थे और बस इस वजह से ठहरे हुए थे कि नबी के समर्थन में कोई निशानी अभी उन्होंने ऐसी नहीं देखी थी जिससे उन्हें उसके नबी होने का विश्वास हो जाए। असल बात यह थी कि निशानी की यह माँग केवल ईमान न लाने के लिए एक बहाने के रूप पेश की जाती थी। जो कुछ भी उनको दिखा दिया जाता, इसके बाद वे यही कहते कि कोई निशानी तो हमें दिखाई ही नहीं गई, इसलिए कि वे ईमान नहीं लाना चाहते थे। सांसारिक जीवन के प्रत्यक्ष पहलू को अपनाने में जो स्वतंत्रता उनको प्राप्त थी कि मनोकामनाओं और चाहतों के अनुसार जिस तरह चाहें काम करें और जिस चीज़ में मज़ा या लाभ महसूस करें उसके पीछे लग जाएँ, उसको छोड़कर वे ऐसे परोक्ष तथ्यों (तौहीद व आख़िरत) को मानने के लिए तैयार न थे जिनें मान लेने के बाद उनको अपनी पूरी जीवन व्यवस्था स्थायी नैतिक नियमों के बंधन में बाँधनी पड़ जाती।
28. अर्थात् जो कुछ अल्लाह ने उतारा है वह तो मैंने पेश कर दिया और जो उसने नहीं उतारा वह मेरे और तुम्हारे लिए 'ग़ैब' है, जिसपर सिवाय अल्लाह के किसी का अधिकार नहीं, वह चाहे तो उतारे और चाहे तो न उतारे। अब अगर तुम्हारा ईमान लाना इसी पर आश्रित है कि जो कुछ अल्लाह ने नहीं उतारा है, वह उतरे तो उसके इन्तिजार में बैठे रहो । मैं भी देखूँगा कि तुम्हारा यह दुराग्रह पूरा किया जाता है या नहीं।
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ مِّنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُمۡ إِذَا لَهُم مَّكۡرٞ فِيٓ ءَايَاتِنَاۚ قُلِ ٱللَّهُ أَسۡرَعُ مَكۡرًاۚ إِنَّ رُسُلَنَا يَكۡتُبُونَ مَا تَمۡكُرُونَ ۝ 20
(21) लोगों का हाल यह है कि मुसीबत के बाद जब हम उनको रहमत का मज़ा चखाते हैं तो तुरंत ही वे हमारी निशानियों के मामले में चालबाजियाँ शुरू कर देते हैं।29 इनसे कहो, "अल्लाह अपनी चाल में तुमसे ज्यादा तेज है। उसके फरिश्ते तुम्हारी सब मक्कारियों को लिख रहे हैं।30
29. यह फिर उसी अकाल की ओर संकेत है जिसका उल्लेख आयत 11-12 में हो चुका है। अर्थ यह है कि तुम निशानी आख़िर किस मुँह से माँगते हो। अभी जो अकाल तुमपर गुज़रा है, उसमें तुम अपने उन माबूदों (उपास्यों) से निराश हो गए थे जिन्हें तुमने अल्लाह के यहाँ अपना सिफ़ारिशी ठहरा रखा था और जिनके बारे में कहा करते थे कि अमुक आस्ताने की नियाज़ तो अचूक वाण है और अमुक दरगाह पर चढ़ावा चढ़ाने की देर है कि मुराद पूरी होती है। तुमने देख लिया कि इन तथाकथित उपायों के हाथ में कुछ नहीं है और सारे अधिकारों का स्वामी केवल अल्लाह है। इसी कारण तो अन्तत: तुम अल्लाह ही से दुआएँ माँगने लगे थे। क्या यह पर्याप्त निशानी न थी कि तुम्हें उस शिक्षा के सत्य पर होने का विश्वास हो जाता जो मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं ? मगर इस निशानी को देखकर तुमने क्या किया? ज्यों ही कि अकाल दूर हुआ और रहमत की वर्षा ने तुम्हारी विपदा का अन्त कर दिया, तुमने उस बला के आने और फिर उसके दूर होने के बारे में हज़ार क़िस्म की बातें बनानी करनी शुरू कर दी ताकि तौहीद के मानने से बच सको और अपने शिर्क पर जमे रह सको। अब जिन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा को इस स्तर पर ख़राब कर लिया हो, उन्हें आख़िर कौन-सी निशानी दिखाई जाए? और उसके दिखाने का लाभ क्या है?
30. अल्लाह की चाल से तात्पर्य यह है कि अगर तुम सच्चाई को नहीं मानते और उसके अनुसार अपना रवैया ठीक नहीं करते तो वह तुम्हें इस विद्रोहपूर्ण रवैये पर चलते रहने की छूट दे देगा। तुम्हें जीते जी अपनी रोज़ी और अपनी नेमत देता रहेगा जिससे तुम्हारा जीवन-मद यूँ ही तुम्हें मस्त किए रखेगा और इस मस्ती के दौरान में जो कुछ तुम करोगे, वह सब अल्लाह के फ़रिश्ते ख़ामोशी के साथ बैठे लिखते रहेंगे, यहाँ तक कि अचानक मौत का पैग़ाम आ जाएगा और तुम अपने करतूतों का हिसाब देने के लिए धर लिए जाओगे।
هُوَ ٱلَّذِي يُسَيِّرُكُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا كُنتُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَرَيۡنَ بِهِم بِرِيحٖ طَيِّبَةٖ وَفَرِحُواْ بِهَا جَآءَتۡهَا رِيحٌ عَاصِفٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡمَوۡجُ مِن كُلِّ مَكَانٖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ أُحِيطَ بِهِمۡ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ لَئِنۡ أَنجَيۡتَنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 21
(22) वह अल्लाह ही है जो तुम्हें खुश्की और तरी (थल जल) में चलाता है। चुनांचे जब तुम नावों में सवार होकर अनुकूल वायु पर हर्ष कर रहे होते हो और फिर यकायक प्रतिकूल वायु का ज़ोर होता है और हर ओर से मौजों के थपेड़े लगते है और यात्री समझ लेते हैं कि तूफ़ान में घिर गए, उस समय सब अपने दीन को अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करके उससे दुआएँ माँगते हैं कि "अगर तूने हमें इस बला से नजात दे दी तो हम कृतज्ञ दास बनेंगे।31
31. यह तौहीद के सत्य पर होने की निशानी हर मनुष्य के मन (नफ़्स) में मौजूद है। जब तक परिस्थितियाँ संसाधन अनुकूल रहते हैं, इंसान अल्लाह को भूला और दुनिया की ज़िन्दगी पर फूला रहता है। जहाँ संसाधनों ने छोड़ा और वे सब सहारे, जिनके बल पर वह जी रहा था, टूट गए, फिर कट्टर-से-कट्टर मुशरिक और घोर नास्तिक के दिल से भी यह गवाही उबलनी शुरू हो जाती है कि इस समस्त कारण-जगत् पर किसी ईश्वर का कन्ट्रोल है और वह है एक ही गालिब और शक्तिशाली अल्लाह । (देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 29)
فَلَمَّآ أَنجَىٰهُمۡ إِذَا هُمۡ يَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۗ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَا بَغۡيُكُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۖ مَّتَٰعَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُكُمۡ فَنُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 22
(23) मगर जब वह उनको बचा लेता है तो फिर वही लोग सत्य से विमुख होकर धरती में विद्रोह करने लगते हैं। लोगो! तुम्हारा यह विद्रोह तुम्हारे ही विरुद्ध पड़ रहा है ।
إِنَّمَا مَثَلُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ مِمَّا يَأۡكُلُ ٱلنَّاسُ وَٱلۡأَنۡعَٰمُ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذَتِ ٱلۡأَرۡضُ زُخۡرُفَهَا وَٱزَّيَّنَتۡ وَظَنَّ أَهۡلُهَآ أَنَّهُمۡ قَٰدِرُونَ عَلَيۡهَآ أَتَىٰهَآ أَمۡرُنَا لَيۡلًا أَوۡ نَهَارٗا فَجَعَلۡنَٰهَا حَصِيدٗا كَأَن لَّمۡ تَغۡنَ بِٱلۡأَمۡسِۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 23
(24) दुनिया की ज़िन्दगी के कुछ दिनों के मज़े हैं (लूट लो), फिर हमारी ओर तुम्हें पलटकर आना है, उस समय हम तुम्हें बता देंगे कि तुम क्या कुछ करते रहे हो। दुनिया की यह ज़िन्दगी (जिसके नशे में मस्त होकर तुम हमारी निशानियों से ग़फ़लत बरत रहे हो) उसका उदाहरण ऐसा है जैसे आकाश से हमने पानी बरसाया तो धरती की पैदावार, जिसे आदमी और जानवर सब खाते हैं, ख़ूब घनी हो गई, फिर ठीक उस समय जबकि धरती अपनी बहार पर थी और खेतियाँ बनी-सँवरी खड़ी थीं और उनके मालिक समझ रहे थे कि अब हम उनसे लाभ उठाने पर समर्थ हैं, यकायक रात को या दिन को हमारा आदेश आ गया और हमने उसे ऐसा नष्ट करके रख दिया कि मानो कल वहाँ कुछ था ही नहीं। इस तरह हम निशानियाँ खोल-खोलकर प्रस्तुत करते हैं उन लोगों के लिए जो सोचने-समझने वाले हैं।
وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَىٰ دَارِ ٱلسَّلَٰمِ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 24
(25) (तुम इस मिट जानेवाली जिन्दगी के छल के शिकार हो रहे हो) और अल्लाह तुम्हें 'दारुस्सलाम' (सलामती का घर) की ओर बुला रहा है।32 (मार्ग दर्शन उसके अधिकार में है) जिसे वह चाहता है, सीधा रास्ता दिखा देता है ।
32. अर्थात् दुनिया में ज़िन्दगी बसर करने के उस तरीके की ओर बुला रहा है जो आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम्हें 'दारुस्सलाम' का अधिकारी बनाए। दारुस्सलाम से तात्पर्य है जन्नत, और उसका अर्थ है 'सलामती का घर', वह जगह जहाँ कोई विपदा, कोई हानि, कोई दुख और कोई कष्ट न हो।
۞لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ ٱلۡحُسۡنَىٰ وَزِيَادَةٞۖ وَلَا يَرۡهَقُ وُجُوهَهُمۡ قَتَرٞ وَلَا ذِلَّةٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 25
(26) जिन लोगों ने भलाई का तरीका अपनाया, उनके लिए भलाई है और अतिरिक्त कृपा 33, उनके चेहरों पर कालिख और रुसवाई न छाएगी। वे जन्नत के हक़दार हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे ।
33. अर्थात् उन्हें केवल उनकी नेकी के अनुसार ही बदला नहीं मिलेगा, बल्कि अल्लाह अपनी कृपा से उन्हें और अधिक पुरस्कार भी प्रदान करेगा।
وَٱلَّذِينَ كَسَبُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ جَزَآءُ سَيِّئَةِۭ بِمِثۡلِهَا وَتَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۖ مَّا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِنۡ عَاصِمٖۖ كَأَنَّمَآ أُغۡشِيَتۡ وُجُوهُهُمۡ قِطَعٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مُظۡلِمًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 26
। (27) और जिन लोगों ने बुराइयाँ कमाईं, उनकी बुराई जैसी है वैसा ही वे बदला पाएँगे।34 रुसवाई उनपर छा जाएगी, कोई अल्लाह से उनको बचानेवाला न होगा, उनके चेहरों पर ऐसा अंधेरा छाया हुआ होगा35 जैसे रात के काले परदे उनपर पड़े हुए हों। वे दोज़ख़ के हक़दार है जहाँ वे सदैव रहेंगे।
34. अर्थात् सदाचारियों के विपरीत दुरुचारियों के साथ मामला यह होगा कि जितनी बदी है उतनी ही सज़ा दे दी जाएगी। ऐसा न होगा कि अपराध से तनिक भर भी अधिक सजा दी जाए।
35. वह अंधेरा जो अपराधियों के चेहरे पर पकड़े जाने और बचाव से निराश हो जाने के बाद छा जाता है।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ مَكَانَكُمۡ أَنتُمۡ وَشُرَكَآؤُكُمۡۚ فَزَيَّلۡنَا بَيۡنَهُمۡۖ وَقَالَ شُرَكَآؤُهُم مَّا كُنتُمۡ إِيَّانَا تَعۡبُدُونَ ۝ 27
(28) जिस दिन हम उन सबको एक साथ (अपनी अदालत में) इकट्ठा करेंगे, फिर उन लोगों से जिन्होंने शिर्क किया है, कहेंगे कि ठहर जाओ तुम भी और तुम्हारे बनाए हुए शरीक भी, फिर हम उनके बीच से अजनबियात का परदा हटा देंगे36 और उनके शरीक कहेंगे कि “तुम हमारी बन्दगी तो नहीं करते थे।
36. मूल अरबी में 'फ़-ज़य्यलना बैनहुम' वाक्य प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ कुछ टीकाकारों ने यह लिया है कि हम इनका आपसी संबंध व संपर्क तोड़ देंगे, ताकि किसी संबंध के आधार पर वे एक-दूसरे का ध्यान न करें। लेकिन यह अर्थ अरबी मुहावरे के अनुसार नहीं है । अरब के मुहावरे के अनुसार इसका सही अर्थ यह है कि हम उनके बीच अन्तर पैदा कर देंगे या उनको एक-दूसरे से अलग पहचनवाएंगे। इसी अर्थ को बताने के लिए हमने यह शैली अपनाई है कि "इनके बीच से परायेपन का परदा हटा देंगे।" अर्थात् मुशरिक और उनके उपास्य आमने-सामने खड़े होंगे और दोनों गिरोहों की पहचान वाली हैसियत एक-दूसरे पर खुल जाएगी, मुशरिक जान लेंगे कि ये हैं वे जिन्हें हम दुनिया में उपास्य बनाए हुए थे और उनके उपास्य जान लेंगे कि कि ये हैं वे जिन्होंने हमें अपना उपास्य बना रखा था।
فَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ إِن كُنَّا عَنۡ عِبَادَتِكُمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 28
(29) हमारे और तुम्हारे बीच अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि (तुम अगर हमारी बन्दगी करते भी थे तो) हम तुम्हारी उस बन्दगी से बिल्कुल बेख़बर थे।"37
37. अर्थात् वे तमाम फ़रिश्ते जिनको दुनिया में देवी और देवता बनाकर पूजा गया और वे तमाम जिन्न, रूहें, पुरखे, बाप-दादा, नबी, वली, शहीद आदि जिन्हें ईश्वरीय गुणों में शरीक ठहराकर वे अधिकार उन्हें दिए गए जो वास्तव में अल्लाह के अधिकार थे, वहाँ अपने पुजारियों से साफ़ कह देंगे कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमारी बन्दगी कर रहे हो। तुम्हारी कोई दुआ, कोई विनती, कोई पुकार और फ़रियाद, कोई नज़्र व नियाज़, कोई चढ़ावे की चीज़, कोई प्रशंसा और हमारे नाम की जाप और तुम्हारा हमें सजदा करना, हमारे आस्ताने को चूमना और दरगाहों का चक्कर लगाना हम तक नहीं पहुँचा।
هُنَالِكَ تَبۡلُواْ كُلُّ نَفۡسٖ مَّآ أَسۡلَفَتۡۚ وَرُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 29
(30) उस समय हर व्यक्ति अपने किए का मज़ा चख लेगा, सब अपने सच्चे मालिक की ओर फेर दिए जाएँगे और वे सारे झूठ जो उन्होंने गढ़ रखे थे, गुम हो जाएँगे।
قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أَمَّن يَمۡلِكُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَمَن يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَمَن يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۚ فَسَيَقُولُونَ ٱللَّهُۚ فَقُلۡ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 30
(31) इनसे पूछो, कौन तुम्हें आसमान और जमीन से रोज़ी देता है ? यह सुनने और देखने की शक्तियाँ किसके वश में हैं ? कौन बेजान में से जानदार को और जानदार में से बेजान को निकालता है ? कौन इस जगत की व्यवस्था का उपाय कर रहा है ? वे ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ! कहो, फिर तुम (वास्तविकता के विरुद्ध चलने से) परहेज नहीं करते?
فَذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَاذَا بَعۡدَ ٱلۡحَقِّ إِلَّا ٱلضَّلَٰلُۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ ۝ 31
(32) तब तो यही अल्लाह तुम्हारा वास्तविक रब है।38 फिर सत्य के बाद गुमराही के सिवा और क्या बाकी रह गया? आख़िर यह तुम किधर फिराये जा रहे हो?39 (33) (ऐ नबी ! देखो) इस तरह अवज्ञा करनेवालों पर
38. अर्थात् अगर ये सारे काम अल्लाह के हैं, जैसा कि तुम स्वयं मानते हो, तब तो तुम्हारा वास्तविक पालनहार, स्वामी, आका और तुम्हारी बन्दगी और इबादत का हक़दार अल्लाह ही हुआ। ये दूसरे जिनका इन कामों में कोई हिस्सा नहीं, आख़िर पालनहारी में कहाँ से शरीक हो गए?
39. ध्यान रहे कि सम्बोधन सामान्य लोगों से है और उनसे प्रश्न यह नहीं किया जा रहा है कि 'तुम किधर फिरे जाते हो ? बल्कि यह है कि 'तुम किधर फिराए जा रहे हो ?"इससे स्पष्ट है कि कोई ऐसा गुमराह करनेवाला आदमी या गिरोह मौजूद है जो लोगों को सही दिशा से हटाकर ग़लत दिशा पर फेर रहा है। इसी कारण लोगों से अपील यह की जा रही है कि तुम अंधे बनकर ग़लत रास्ता दिखानेवालों के पीछे क्यों चले जा रहे हो, अपनी गांठ की बुद्धि से काम लेकर सोचते क्यों नहीं कि जब वास्तविकता यह है तो आखिर यह तुम्हें किधर चलाया जा रहा है। प्रश्न करने की यह शैली जगह-जगह ऐसे अवसरों पर कुरआन में अपनाई गई है और हर जगह गुमराह करनेवालों का नाम लेने के बजाय उनको 'कर्म वाच्य शैली' के परदे में छिपा दिया गया है, ताकि उनसे श्रद्धा रखनेवाले ठंडे दिल से अपने मामले पर विचार कर सकें और किसी को यह कहकर उन्हें उत्तेजित करने और उनका मानसिक सन्तुलन बिगाड़ देने का मौक़ा न मिले कि देखो, ये तुम्हारे बुजुर्गों और पेशवाओं पर चोटें की जा रही हैं। इसमें प्रचार-विधि का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु छिपा हुआ है जिससे ग़ाफ़िल न रहना चाहिए।
كَذَٰلِكَ حَقَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَى ٱلَّذِينَ فَسَقُوٓاْ أَنَّهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 32
(33) (ऐ नबी ! देखो) इस तरह अवज्ञा करनेवालों पर तुम्हारे रब की बात सच्ची हो गई कि वे हरगिज़ न मानेंगे।40
40. अर्थात् ऐसी खुली-खुली और सबकी समझ में आनेवाले प्रमाणों से बात समझाई जाती है, लेकिन जिन्होंने न मानने का निर्णय कर लिया है, वे अपने दुराग्रह से किसी तरह मानकर नहीं देते।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۚ قُلِ ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 33
(34) इनसे पूछा, “तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई है जो सृष्टि का आरंभ भी करता हो और फिर उसे दोहराए भी?" कहो, “वह केवल अल्लाह है जो सृष्टि का आरंभ भी करता है और उसे दोहराता भी?"41 फिर तुम यह किस उलटी राह पर चलाए जा रहे हो?42
41. जन्म के आरंभ के बारे में तो मुशिरक मानते ही थे कि यह केवल अल्लाह का काम है, उनके शरीकों में से किसी को इस काम में कोई भागीदारी नहीं । रहा दोबारा पैदा करना, तो स्पष्ट है कि जो आरंभ में पैदा करनेवाला है वही जन्म के इस कार्य को दोहरा भी सकता है। मगर जो आरंभ ही में पैदा करने में समर्थन हो, वह किस तरह जन्म के दोहराने में समर्थ हो सकता है । यह बात यद्यपि स्पष्ट रूप से बुद्धि में आनेवाली बात है और स्वयं मुशिकों के दिल भी भीतर से इसकी गवाही देते थे कि बात बिल्कुल ठिकाने की है, लेकिन उन्हें इसको स्वीकार करने में इस कारण संकोच था कि उसे मान लेने के बाद आख़िरत का इंकार कठिन हो जाता है। यही कारण है कि ऊपर के प्रश्नों पर तो अल्लाह ने फ़रमाया कि वे स्वयं कहेंगे कि ये काम अल्लाह के हैं, मगर यहाँ इसके बजाय नबी (सल्ल०) से इर्शाद होता है कि तुम डंके की चोट पर कहो कि जन्म को आरंभ करने और उसे दोहराने का काम भी अल्लाह ही का है।
42. अर्थात् जब तुम्हारे आरंभ का सिरा भी अल्लाह के हाथ में है और अन्त का सिरा भी उसी के हाथ में, तो स्वयं अपना हितैषी बनकर तनिक सोचो कि आखिर तुम्हें यह क्या समझाया जा रहा है कि इन दोनों सिरों के बीच में अल्लाह के सिवा किसी और को तुम्हारी बन्दगियों और नियाज़मंदियों का अधिकार पहुँच गया है।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّۚ قُلِ ٱللَّهُ يَهۡدِي لِلۡحَقِّۗ أَفَمَن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّيٓ إِلَّآ أَن يُهۡدَىٰۖ فَمَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 34
(35) इनसे पूछो तुम्हारे ठहराए हुए शरोकों में कोई ऐसा भी है जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता हो?43 - कहो, वह केवल अल्लाह है जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है। फिर भला बताओ, जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है वह इसका अधिक हक़दार है कि उसका पालन किया जाए या वह जो स्वयं राह नहीं पाता, अलावा इसके कि उसको रास्ता दिखाया जाए? आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, कैसे उलटे-उलटे फैसले करते हो?
43. यह एक बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि जिसको तनिक विस्तार में जाकर समझ लेना चाहिए। दुनिया में इंसान की ज़रूरतों का क्षेत्र केवल उसी सीमा तक सीमित नहीं है कि उसको खाने-पीने, पहनने और जीवन बिताने का सामान मुहैया हो और विपदाओं, मुसीबतों और हानियों से बह बचा रहे, बल्कि उसकी एक ज़रूरत (और वास्तव में सबसे बड़ी ज़रूरत) यह भी है कि उसे दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने का सही तरीका मालूम हो और वह जाने कि अपने आप के साथ, अपनी शक्तियों और योग्यताओं के साथ उस सामग्री के साथ जो धरती पर उसके इस्तेमाल में है, उन अनगिनत इंसानों के साथ जिनको अलग-अलग हैसियतों में उसे सामना करना पड़ता है और कुल मिलाकर सृष्टि की उस व्यवस्था के साथ जिसके अधीन रहकर ही बहरहाल उसे काम करना है, वह क्या और किस तरह मामला करे जिससे उसकी ज़िन्दगी कुल मिलाकर सफल हो और उसकी कोशिशें और मेहनतें ग़लत राहों में लगकर तबाही व बर्बादी के रूप में सामने न आएँ। इसी सही तरीके का नाम 'सत्य' है और जो मार्गदर्शक इस तरीके को ओर इंसान को ले जाए वही 'सत्यवान मार्गदर्शक' है। अब कुरआन तमाम मुश्रिकों से और उन सब लोगों से जो पैग़म्बर की शिक्षा को मानने से इंकार करते हैं, यह पूछता है कि तुम अल्लाह के सिवा जिन-जिनकी बन्दगी करते हो, उनमें कोई है जो तुम्हारे लिए 'सत्य का मार्गदर्शन प्राप्त करने का साधन बनता हो या बन सकता हो?-स्पष्ट है कि इसका उत्तर न के सिवा और कुछ नहीं है, इसलिए कि इंसान अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करता है, वे दो प्रकार के हैं- एक वे देवियाँ, देवता और जिंदा या मुर्दा इंसान जिनकी पूजा की जाती है, सो उनकी ओर तो इंसान का रुजू सिर्फ़ इस उद्देश्य के लिए होता है कि पराप्राकृतिक तरीक़े से वे उसकी ज़रूरतें पूरी करें और उसको विपदाओं से बचाएँ। रहा सत्य का मार्गदर्शन, तो वह न कभी उनकी ओर से आया, और न कभी किसी मुश्रिक ने उसके लिए उनकी ओर रुजू किया और न कोई मुश्कि यह कहता है कि उसके ये उपास्य उसे चरित्र, आचरण, संस्कृति, सभ्यता, अर्थ, राजनीति, कानून, न्याय आदि के नियम सिखाते हैं। दूसरे वे इंसान जिनके बनाए हुए सिद्धान्तों और क़ानूनों की पैरवी और आज्ञापालन किया जाता है, सो वे मार्गदर्शक तो ज़रूर है, मगर सवाल यह है कि क्या सच में वे सत्य के मार्गदर्शक' भी हैं या हो सकते हैं? क्या उनमें से किसी का ज्ञान भी उन तमाम तथ्यों तक व्याप्त है जिनको जानना इंसानी ज़िन्दगी के सही नियम बनाने के लिए ज़रूरी है ? क्या इनमें से किसी की नज़र भी इस पूरे क्षेत्र पर फैलती है जिसमें मानव-जीवन से ताल्लुक रखनेवाली समस्याएँ फैली हुई हैं ? क्या इनमें से कोई भी उन कमज़ोरियों से, उन पक्षपातों से, उन निजी या गिरोही रुचियों से, उन स्वार्थों और कामनाओं से और उन रुझानों और झुकावों से उच्च है जो इंसानी समाज के लिए न्यायपूर्ण कानूनों के बनाने में रुकावट बनते हैं। अगर उत्तर नहीं में है, और स्पष्ट है कि कोई सही दिमाग़वाला आदमी इन प्रश्नों का उत्तर हाँ में नहीं दे सकता, तो आख़िर ये लोग 'सत्य-मार्गदर्शन' का स्रोत कैसे हो सकते हैं? इसी कारण क़ुरआन यह प्रश्न करता है कि लोगो ! तुम्हारे इन धार्मिक उपास्यों और सांस्कृतिक उपास्यों में कोई ऐसा भी है जो सीधे रास्ते की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करनेवाला हो ? ऊपर के प्रश्नों के साथ मिलकर यह अन्तिम प्रश्न दीन व मज़हब (धर्म) के पूरे मसले का फैसला कर देता है। इंसान की सारी ज़रूरतें दो ही प्रकार की हैं- एक प्रकार की ज़रूरतें ये हैं कि कोई उसका पालनहार हो, कोई शरण देनेवाला हो, कोई दुआओं का सुननेवाला और ज़रूरतों का पूरा करनेवाला हो जिसका स्थायी सहारा इस कारण-जगत् के कमज़ोर सहारों के बीच रहते हुए वह थाम सके। अतएव ऊपर के प्रश्नों ने फैसला कर दिया कि इस ज़रूरत को पूरा करनेवाला अल्लाह के सिवा कोई नहीं है। दूसरे प्रकार को ज़रूरतें ये हैं कि कोई ऐसा रास्ता दिखानेवाला हो जो दुनिया में ज़िन्दगी बिताने के सही सिद्धान्त बताए और ज़िन्दगी के लिए जिसके दिए हुए नियमों का पालन पूरे भरोसे और सन्तोष के साथ किया जा सके। सो इस अन्तिम प्रश्न ने उसका निर्णय भी कर दिया कि वह भी केवल अल्लाह ही है। इसके बाद दुराग्रह और हठधर्मों के सिवा कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह जाती जिसके कारण इंसान शिर्क पर आधारित धर्मों और धर्मविहीन सांस्कृतिक, नैतिक चरित्र व राजनीतिक सिद्धांतों से चिपटा रहे।
وَمَا يَتَّبِعُ أَكۡثَرُهُمۡ إِلَّا ظَنًّاۚ إِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 35
(36) सच तो यह है कि इनमें से अधिकतर लोग केवल अटकल और गुमान के पीछे चले जा रहे है।44, हालाँकि अटकल सत्य की ज़रूरत को कुछ भी पूरा नहीं करता। जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।
44. अर्थात् जिन्होंने धर्म गढ़े, जिन्होंने दर्शन बनाए और जिन्होंने ज़िन्दगी के नियम प्रस्तावित किए, उन्होंने भी यह सब कुछ ज्ञान के आधार पर नहीं, बल्कि गुमान और अनुमान के आधार पर किया और जिन्होंने इन धर्म-गुरुओं और सांसारिक नेताओं का पालन किया, उन्होंने भी जानकर और समझकर नहीं, बल्कि केवल इस गुमान पर उनका पालन किया कि ऐसे बड़े-बड़े लोग जब यह कहते हैं और बाप-दादा उनको मानते चले आ रहे हैं और एक दुनिया उनके पीछे चल रही है तो वे ज़रूर ही ठीक कहते होंगे।
وَمَا كَانَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ أَن يُفۡتَرَىٰ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 36
(37) और यह क़ुरआन वह चीज़ नहीं है जो अल्लाह की वह्य और शिक्षा के बिना गढ़ लिया जाए, बल्कि यह तो जो कुछ पहले आ चुका था उसकी पुष्टि और 'विशिष्ट-किताब' का विस्तार है।45 इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह सृष्टि के शासक की ओर से है।
45. "जो कुछ पहले आ चुका था उसकी पुष्टि है", अर्थात् आरंभ से जो आधारभूत शिक्षाएँ नबियों के माध्यम से इंसान को भेजी जाती रही हैं, यह कुरआन उनसे हटकर कोई नई चीज़ नहीं प्रस्तुत कर रहा है, बल्कि उन्हीं की पुष्टि और समर्थन कर रहा है। अगर यह किसी नये धर्म की नींव रखनेवाले की मानसिक उपज का परिणाम होता तो इसमें ज़रूर यह कोशिश पाई जाती कि पुरानी सच्चाइयों के साथ कुछ अपना निराला रंग भी मिलाकर अपनी अलग पहचान बना ली जाए। 'अल-किताब का विस्तृत विवेचन है' अर्थात् उन आधारभूत शिक्षाओं को, जो तमाम आसमानी किताबों का सार (अल-किताब) है, इसमें फैलाकर प्रमाणों और गवाहियों के साथ, उद्देश्य और समझने के साथ, पूरी व्याख्या के साथ और व्यावहारिक परिस्थितियों पर चरितार्थ करते हुए बयान किया गया है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 37
(38) क्या ये लोग कहते हैं कि पैग़म्बर ने इसे स्वयं रच लिया है ? कहो, “अगर तुम अपने इस आरोप में सच्चे हो तो एक सूरा इस जैसी रच लाओ और एक अल्लाह को छोड़कर सकते हो, सहायता के लिए बुला लो।"46
46. सामान्य रूप से लोग समझते हैं कि यह चुनौती सिर्फ़ क़ुरआन की सशक्त भाषा और शैली और उसके साहित्यिक गुणों की दृष्टि से था। क़ुरआन के मोजज़ा (चमत्कार) होने पर जिस ढंग से वार्ताएँ की गई हैं, उससे इस भ्रम का पैदा होना कुछ असंभव भी नहीं है, लेकिन क़ुरआन का स्थान इससे उच्च है कि वह अपने अनुपम और अपूर्ण गुणों के दावे की नींव केवल अपने शाब्दिक गुणों पर रखे। निस्सन्देह क़ुरआन अपनी भाषा की दृष्टि से भी अनुपम है, मगर वह वास्तविक वस्तु जिसके आधार पर यह कहा गया है कि इंसानी दिमाग़ ऐसी किताब नहीं लिख सकता, इसके विषय और इसकी शिक्षाओं में चमत्कार के जो-जो पहलू हैं और जिन कारणों से इनका अल्लाह की ओर से होना निश्चित और इंसान का ऐसी रचना पर समर्थ होना असंभव है, उनको स्वयं कुरआन में अलग-अलग मौक़ों पर बयान कर दिया गया है और हम ऐसी तमाम जगहों की व्याख्या पहले भी करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। इसलिए यहाँ वार्ता के लम्बे होने के डर से इसे यहीं समाप्त किया जाता है।
بَلۡ كَذَّبُواْ بِمَا لَمۡ يُحِيطُواْ بِعِلۡمِهِۦ وَلَمَّا يَأۡتِهِمۡ تَأۡوِيلُهُۥۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 38
(39) सच तो यह है कि जो चीज़ इनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आई और जिसका नतीजा भी इनके सामने नहीं आया, उसको इन्होंने (खामख़ाह । अटकल-पच्चू) झुठला दिया।47 इसी तरह तो इनसे पहले के लोग भी झुठला चुके हैं, फिर देख लो उन ज़ालियों का क्या परिणाम हुआ।
47. झुठलाना या तो इस आधार पर हो सकता था कि इन लोगों को इस किताब का एक जाली किताब होना खोज के आधार पर मालूम होता या फिर इस आधार पर वह उचित हो सकता था कि जो सच्चाइयाँ इसमें बयान की गई हैं और जो ख़बरें इसमें दी गई हैं, वे ग़लत सिद्ध हो जाएँ, लेकिन झुठलाने के इन दोनों कारणों में से कोई कारण भी यहाँ मौजूद नहीं है । न कोई आदमी यह कह सकता है कि वह ज्ञान की दृष्टि से जानता है कि यह किताब गढ़कर अल्लाह से जोड़ दी गई है, न किसी ने ग़ैब (अप्रत्यक्ष) के परदे के पीछे झाँककर यह देख लिया है कि सच में बहुत-से ख़ुदा मौजूद हैं और यह किताब ख़ामख़ाह एक अल्लाह की ख़बर सुना रही है या वास्तव में अल्लाह और रिश्तों और वय आदि की कोई वास्तविकता नहीं है और इस किताब में ख़ामख़ा‍ह यह कहानी गढ़ ली गई है। न किसी ने मरकर यह देख लिया है कि दूसरा जीवन और उसके हिसाब-किताब और बदले-सज़ा की सारी ख़बरें, जो इस किताब में दी गई हैं, ग़लत हैं, लेकिन इसके बाद भी निरे सन्देश और अटकल के आधार पर इस शान से उसे झुठलाया जा रहा है कि मानो ज्ञान-स्‍तर पर उसके जाली और ग़लत होने की जाँच कर ली गई है।
وَمِنۡهُم مَّن يُؤۡمِنُ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن لَّا يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 39
(40) इनमें से कुछ लोग ईमान लाएँगे और कुछ नहीं लाएँगे, और तेरा रब उन बिगाड़ पैदा करनेवालों को ख़ूब जानता है।48
48. ईमान न लानेवालों के बारे फ़रमाया जा रहा कि ‘’अल्लाह इन बिगाड़ पैदा करनेवालों को भली-भाँति जानता है।‘’ अर्थात् वे दुनिया का मुँह तो ये बाते बनाकर बन्‍द कर सकते है कि साहब। हमारी समझ में यह बात नहीं आती, इसलिए हम नेक नीयती के साथ उसे नहीं मानते, लेकिन अल्लाह जो मन और अंतरात्मा के छिपे हुए भेदों तक को जानता है, वह इसमें से एक-एक व्‍यक्ति के बारे में जानता है कि किस-किस तरह उसने अपने दिल व दिमाग़ पर ताले चढ़ाए, अपने आपको ग़फ़लतों में गुम किया, अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबाया, अपने दिल में सत्य की गवाही को उभरने से रोका, अपने मन से सत्य स्वीकार करने की क्षमता को मिटाया, सुनकर न सुना, समझते हुए न समझने की कोशिश की और सत्य के मुक़ाबले में अपने पक्षपातों को, अपने सांसारिक स्वार्थ को, असत्य से उलझे हुए अपने स्वार्थो को और अपने मन की इच्छाओ और रूचि को प्राथमिकता दी। इसी कारण वे ‘निर्दोष पथ- भ्र्स्ट ‘ नहीं हैं, बल्कि वास्तव में उपद्रवी हैं।
وَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل لِّي عَمَلِي وَلَكُمۡ عَمَلُكُمۡۖ أَنتُم بَرِيٓـُٔونَ مِمَّآ أَعۡمَلُ وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 40
(41) अगर ये तुझे झुठलाते है तो कह दे कि "मेरा कर्म मेरे लिए हैं और तुम्हारा कर्म तुम्हारे लिए, जो कुछ मैं करता हूँ उसकी ज़िम्मेदारी से तुम बरी हो और कुछ तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।49
49. अर्थात् अकारण झगड़े और कठहुज्‍जतियाँ करने की कोई आवश्‍यकता नहीं। अगर मैं झूठी बातें गढ़ रहा हूँ तो अपने कार्य का मैं स्वय ज़िम्मेदार हूँ, तुमपर कोई ज़िम्‍मेदारी इसकी नहीं, और अगर तुम सच्ची बात को झुठला रहे हो तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ते, अपना ही कुछ बिगाड़ रहे हो।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 41
(42) इनमें बहुत-से लोग हैं जो तेरी बातें सुनते हैं, परन्तु क्या तू बहरों को सुनाएगा चाहे वे कुछ न समझते हो?50
50. एक सुनना तो इस प्रकार का होता है जैसे जानवर भी आवाज़ सुन लेते हैं। दूसरा सुनना वह होता है जिसमें अर्थ की ओर ध्यान हो और यह तत्परता पाई जाती हो कि बात अगर उचित होगी तो उसे मान लिया जाएगा। जो लोग किसी विद्वेष में पड़े हों और जिन्होंने पहले से फैसला कर लिया हो कि अपने पैतृक विश्वासों और कार्य-प्रणालियों के विरुद्ध और अपने मन की चाहतों और रुचियों के विरुद्ध कोई बात, चाहे वह कैसी ही उचित हो, मानकर न देंगे, वे सब कुछ सुनकर भी कुछ नहीं सुनते । इसी तरह वे लोग भी कुछ सुनकर नहीं देते जो दुनिया में जानवरों की तरह ग़फ़लत की ज़िन्दगी बसर करते हैं और चरने-चुगने के सिवा किसी चीज़ से कोई दिलचस्पी नहीं रखते या मन की कामनाओं और इच्छाओं के पीछे ऐसे मस्त होते हैं कि उन्हें इस बात की कोई चिन्ता ही नहीं होती कि हम यह जो कुछ कर रहे हैं यह सही भी है या नहीं। ऐसे सब लोग कानों के तो बहरे नहीं होते, पर दिल के बहरे होते हैं।
وَمِنۡهُم مَّن يَنظُرُ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 42
(43) इनमें बहुत-से लोग हैं जो तुझे देखते हैं, मगर क्या तू अंधों को राह बताएगा चाहे उन्हें कुछ न सूझता हो?51
51. यहाँ भी वही बात कही गई है जो ऊपर के वाक्य में है। सिर की आँखें खुली होने से कोई लाभ नहीं। उनसे तो जानवर भी आख़िर देखता ही है। वास्तविक चीज़ दिल की आँखों का खुला होना है। यह चीज़ अगर किसी आदमी को प्राप्त न हो तो वह सब कुछ देखकर भी कुछ नहीं देखता। इन दोनों आयतों में सम्बोधन तो नबी (सल्ल०) से है, पर निन्दा उनकी की जा रही है जिनका सुधार आप चाहते थे और इस निन्दा का उद्देश्य भी केवल निन्दा करना नहीं है, बल्कि व्यंग्य का वाण इसलिए चुभोया जा रहा है कि उनकी सोई हुई मानवता उसकी चुभन से कुछ जागे और उनके कान और आँख से उनके दिल तक जानेवाला रास्ता खुले, ताकि सर्वथा उचित और मन को छूनेवाली बात वहाँ तक पहुँच सके। यह वर्णन-शैली कुछ इस प्रकार की है जैसे कोई भला आदमी बिगड़े हुए लोगों के बीच श्रेष्ठतम नैतिक आचरण के साथ रहता हो और अति निष्ठा और सहानुभूति के साथ उनको उसकी उस गिरी हुई दशा का एहसास दिला रहा हो जिसमें वे पड़े हुए हैं और बड़ी यथार्थता और गंभीरता के साथ उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा हो कि उनकी जीवन शैली में क्या दोष है और जीवन की सही शैली क्या है। मगर कोई न तो उसके पवित्र जीवन से शिक्षा लेता हो, न उसकी इन सहानुभूतिपूर्ण बातों की ओर ध्यान देता हो। इस हालत में ठीक उस समय जबकि वह उन लोगों को समझाने में लगा हो और वे उसकी बातों को सुनी-अनसुनी किए जा रहे हों, उसका कोई मित्र आकर उससे कहे कि भाई ! यह तुम किन बहरों को सुना रहे हो और किन अंधों को रास्ता दिखाना चाहते हो, उनके तो दिल के कान बन्द हैं और उनके हृदय की आँखें फूटी हुई हैं। यह बात कहने से उस मित्र का उद्देश्य यह नहीं होगा कि वह भला मर्द अपनी सुधारात्मक कोशिशों से बाज़ आ जाए। बल्कि वास्तव में उसका उद्देश्य यह होगा कि शायद इस व्यंग्‍य और निन्दा ही से उन नींद के मतवालों को कुछ होश आ जाए।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ ٱلنَّاسَ شَيۡـٔٗا وَلَٰكِنَّ ٱلنَّاسَ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 43
(44) सच तो यह है कि अल्लाह लोगों पर ज़ुल्म नहीं करता, लोग स्वयं ही अपने ऊपर जुल्म करते हैं।52
52. अर्थात् अल्लाह ने तो उन्हें कान भी दिए हैं और आँखें भी और दिल भी। उसने अपनी ओर से कोई ऐसी चीज़ उनको देने में कंजूसी नहीं की है जो सत्य और असत्य का अन्तर देखने और समझने के लिए ज़रूरी थी, मगर लोगों ने इच्छाओं की बन्दगी और दुनिया के मोह में पड़कर आप ही अपनी-अपनी आँखें फोड़ ली हैं, अपने कान बहरे कर लिए हैं और अपने दिलों को इतना बिगाड़ लिया है कि उनमें भले बुरे की पहचान, सही व ग़लत की समझ और अन्तरात्मा के जीवन का कोई प्रभाव बाक़ी न रहा।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ كَأَن لَّمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّنَ ٱلنَّهَارِ يَتَعَارَفُونَ بَيۡنَهُمۡۚ قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 44
45) (आज ये दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त है) और जिस दिन अल्लाह इनको इकट्ठा करेगा तो (यही दुनिया की जिन्दगी इन्हें ऐसी महसूस होगी) मानो यह केवल एक घड़ी भर अपास में जान-पहचान करने को ठहरे थे।53 (उस समय सिद्ध हो जाएगा कि) वास्तव में भारी घाटे में रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया54 और कदापि वे सीधे रास्ते पर न थे।
53. अर्थात् जब एक ओर आख़िरत का शाश्वत जीवन उनके सामने होगा और दूसरी ओर ये पलटकर अपनी दुनिया की ज़िन्दगी पर नज़र डालेंगे तो उन्हें भविष्य के मुकाबले में अपना यह अतीत अति तुच्छ लगेगा। उस समय इनको अन्दाज़ा होगा कि इन्होंने अपनी पिछली ज़िन्दगी में थोड़े-से स्वाद और स्वार्थ के लिए अपने इस शाश्वत भविष्य को नष्ट करके कितनी बड़ी मूर्खता की है।
54. अर्थात् इस बात को कि एक दिन अल्लाह के सामने उपस्थित होना है।
وَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ ٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا يَفۡعَلُونَ ۝ 45
(46) जिन बुरे नतीजों से हम इन्हें डरा रहे हैं, उनका कोई हिस्सा हम तेरे जीते जी दिखा दें या इससे पहले ही तुझे उठा लें, बहरहाल इन्हें आना हमारी ओर ही है, और जो कुछ ये कर रहे हैं उसपर अल्लाह गवाह है।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولٞۖ فَإِذَا جَآءَ رَسُولُهُمۡ قُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 46
(47) हर उम्मत (समुदाय) के लिए एक रसूल है55, फिर जब किसी उम्मत के पास उसका रसूल आ जाता है तो उसका फ़ैसला पूरे न्याय के साथ चुका दिया जाता है और उसपर कण-भर भी ज़ुल्म नहीं किया जाता।56
55. 'उम्मत' (समुदाय) का शब्द यहाँ सिर्फ़ क़ौम के अर्थ में नहीं है, बल्कि एक रसूल के आने के बाद उसका सन्देश जिन-जिन लोगों तक पहुँचे, वे सब उसकी 'उम्मत' हैं। साथ ही इसके लिए यह भी ज़रूरी नहीं है कि रसूल उनके बीच ज़िन्दा मौजूद हो, बल्कि रसूल के बाद भी जब तक उसकी शिक्षा मौजूद रहे और हर आदमी के लिए यह मालूम करना संभव हो कि वह वास्तव में किस चीज़ की शिक्षा देता था, उस समय तक दुनिया के सब लोग उसकी 'उम्मत' ही समझे जाएंगे और उनपर वह आदेश लागू होगा जिसका आगे उल्लेख किया जा रहा है। इस दृष्टि से मुहम्मद (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद तमाम दुनिया के इंसान आपकी ‘उम्मत’ हैं और उस समय तक रहेंगे जब तक क़ुरआन अपने विशुद्ध रूप में मौजूद है। इसी कारण आयत मैं यह नहीं कहा गया है कि ‘हर काम में एक रसूल हैं’, बल्कि कहा यह गया है कि ‘हर उम्मत के लिए एक रसूल है।
56. अर्थ यह है कि रसूल के सन्देश का किसी इंसानी गिरोह तक पहुँचना मानो उस गिरोह पर अल्लाह की युक्ति का पूरा हो जाना है। इसके बाद केवल निर्णय ही शेष रह जाता है, युक्ति के लिए कुछ और मोहलत की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, और यह निर्णय भरपूर न्याय के साथ किया जाता है। जो लोग रसूल की बात मान लें और अपना रवैया ठीक कर लें, अल्लाह की रहमत के हक़दार समझे जाते हैं और जो उसकी बात न मानें, वे अज़ाब के हक़दार हो जाते हैं, चाहे वह अज़ाब दुनिया और आ‍ख़िरत दोनों में दिया जाए या सिर्फ़ आख़िरत में।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 47
(48) कहते हैं, अगर तुम्हारी यह धमकी सच्ची है तो आख़िर यह कब पूरी होगी ?
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي ضَرّٗا وَلَا نَفۡعًا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۗ لِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌۚ إِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَلَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 48
(49) कहों, "मेरे अधिकार में तो स्वयं अपना लाभ व हानि भी नहीं, सब कुछ अल्लाह की इच्छा पर आश्रित है।57 हर उम्मत के लिए मोहलत की एक मुद्दत है। जब यह मुद्दत पूरी हो जाती है तो घड़ी भर के लिए भी आगे-पीछे नहीं होती।‘’58
57. अर्थात मैंने यह कब कहा था कि यह फ़ैसला मैं चुकाऊँगा और न माननेवालों को मैं अज़ाब दूँगा। इसलिए मुझसे क्‍या पूछते हो कि फ़ैसला चुकाए जाने की धमकी कब पूरी होगी। धमकी तो अल्लाह ने दी है, वही फ़ैसला चुकाएगा और उसी के अधिकार में है कि फ़ैसला कब करे और किस शक्‍ल में उसको तुम्‍हारे सामने लाए।
58. अर्थ यह है कि अल्लाह जल्दबाज़ नहीं है। उसका यह तरीक़ा नहीं है कि जिस समय रसूल का सन्देश किसी आदमी या गिरोह को पहुँचा, उसी समय जो ईमान ले आया बस वह तो रहमत का हक़दार क़रार पाया और जिस किसी ने मानने से इंकार किया या मानने से संकोच किया उसपर तुरन्‍त अज़ाब का फ़ैसला लागू कर दिया गया। नहीं, अल्लाह का नियम यह है कि अपना सन्देश पहुँचाने के बाद वह हर आदमी को उसकी वैयक्तिक हैसियत के अनुसार और हर गिरोह और क़ौम को उसकी सामूहिक हैसियत के अनुसार सोचने-समझने सँभलने के लिए पर्याप्त समय देता है। यह मोहलत का ज़माना कभी-कभी सदियों तक लम्‍बा होता है और इस बात को अल्‍लाह ही बेहतर जानता है कि किसको कितनी मोहलत मिलनी चाहिए। फिर जब वह मोहलत जो भरपूर न्याय के साथ उसके लिए रखी गई थी, पूरी हो जाती है और वह आदमी या गिराह अपने द्रोहपूर्ण रवैये से बाज़ नहीं आता, तब अल्लाह उसपर अपना निर्णय लागू करता है। यह निर्णय का समय अल्लाह की निश्चित की हुई अवधि से न एक घड़ी पहले आ सकता है और न समय आ जाने के बाद एक क्षण के लिए टल सकता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُهُۥ بَيَٰتًا أَوۡ نَهَارٗا مَّاذَا يَسۡتَعۡجِلُ مِنۡهُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 49
(50) इनसे कहो, “कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर अल्लाह का अज़ाब अचानक रात को या दिन को आ जाए (तो तुम क्या कर सकते हो?), आख़िर यह ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसके लिए अपराधी जल्दी मचाएँ ?
أَثُمَّ إِذَا مَا وَقَعَ ءَامَنتُم بِهِۦٓۚ ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 50
(51) क्या जब वह तुमपर आ पड़े उसी समय तुम उसे मानोगे?-अब बचना चाहते हो? हालाँकि तुम स्वयं ही उसके जल्दी आने की मांग कर रहे थे !
ثُمَّ قِيلَ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ هَلۡ تُجۡزَوۡنَ إِلَّا بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 51
(52) फिर ज़ालिमों से कहा जाएगा कि अब सदा के अज़ाब का मज़ा चखो, जो कुछ तुम कमाते रहे हो, उसके बदले के सिवा और क्या बदला तुमको दिया जा सकता है ?
۞وَيَسۡتَنۢبِـُٔونَكَ أَحَقٌّ هُوَۖ قُلۡ إِي وَرَبِّيٓ إِنَّهُۥ لَحَقّٞۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 52
(53) फिर पूछते हैं, क्या वास्तव में यह सच है जो तुम कह रहे हो? कहो, “मेरे रब की कसम ! यह बिल्कुल सच है और तुम इतना बलबूता नहीं रखते कि उसे प्रकट होने से रोक दो?"
وَلَوۡ أَنَّ لِكُلِّ نَفۡسٖ ظَلَمَتۡ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لَٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۖ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 53
(54) अगर हर उस आदमी के पास, जिसने जुल्म किया है, धरती की दौलत भी हो तो उस अज़ाब से बचने के लिए वह उसे फ़िदया (अर्थदंड) में देने पर तैयार हो जाएगा। जब ये लोग उस अज़ाब को देख लेंगे तो दिल ही दिल में पछताएँगे59, परन्तु उनके बीच भरपूर न्याय के साथ निर्णय किया जाएगा, कोई अत्याचार उनपर न होगा ।
59. जिस चीज़ को उम्र भर झुठलाते रहे, जिसे झूठ समझकर सारी ज़िन्दगी ग़लत कामों में खपा गए और जिसकी ख़बर देनेवाले पैग़म्बरों पर तरह-तरह के आरोप लगाते रहे, वही चीज़ जब उनकी आशाओं के बिल्कुल विपरीत अचानक सामने आ खड़ी होगी तो उनके पाँव तले से ज़मीन निकल जाएगी। उनकी अन्तरात्मा उन्हें स्वयं बता देगी कि जब वास्तविकता यह थी तो जो कुछ वे दुनिया में करके आए हैं, उसका अंजाम अब क्या होना है। अपना इलाज खुद नहीं होगा। ज़बानें बन्द होंगी और लज्जा और संताप से हृदय अंदर ही अंदर बैठे जा रहे होंगे। जिस आदमी ने अटकल-गुमान के सौदे पर अपनी सारी पूँजी लगा दी हो और किसी हितैषी की बात न मानकर दी हो, वह दीवालिया निकलने के बाद स्वयं अपने सिवा और किसकी शिकायत कर सकता है?
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 54
(55) सुनो ! आसमानों और जमीन में जो कुछ है, अल्लाह का है। सुन रखो ! अल्लाह का वादा सच्चा है, परन्तु अधिकतर मनुष्य जानते नहीं हैं।
هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 55
(56) वही जीवन प्रदान करता है और वही मौत देता है और उसी की ओर तुम सबको पलटना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَتۡكُم مَّوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَشِفَآءٞ لِّمَا فِي ٱلصُّدُورِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 56
(57) लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से उपदेश आ गया है। यह वह चीज़ है जो दिलों के रोगों का उपचार है और जो उसे अपना लें, उनके लिए मार्गदर्शन और रहमत है।
قُلۡ بِفَضۡلِ ٱللَّهِ وَبِرَحۡمَتِهِۦ فَبِذَٰلِكَ فَلۡيَفۡرَحُواْ هُوَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 57
(58) ऐ नबी ! कहो कि 'यह अल्लाह की कृपा और उसकी मेहरबानी है कि यह चीज़ उसने भेजी, इसपर तो लोगों को खुशी मनानी चाहिए, यह उन सब चीज़ों से बेहतर है जिन्हें लोग समेट रहे हैं।"
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ لَكُم مِّن رِّزۡقٖ فَجَعَلۡتُم مِّنۡهُ حَرَامٗا وَحَلَٰلٗا قُلۡ ءَآللَّهُ أَذِنَ لَكُمۡۖ أَمۡ عَلَى ٱللَّهِ تَفۡتَرُونَ ۝ 58
(59) ऐ नबी ! इनसे कहो, “तुम लोगों ने कभी यह भी सोचा है कि जो रोज़ी 60 अल्लाह ने तुम्हारे लिए उतारी थी उसमें से तुमने स्वयं ही किसी को हराम और किसी को हलाल ठहरा लिया!’’61 इनसे पूछो, “अल्लाह ने तुम्हें इसकी अनुमति दी थी? या तुम अल्लाह पर झूठ गढ़ रहे हो??’’62
60. हिन्दी उर्दू भाषा में रिज़्क़ केवल 'खाने-पीने की चीज़ों' ही के लिए बोला जाता है। इसी कारण लोग समझते हैं कि यहाँ पकड़ केवल उस विधान की की गई है जो दस्तरख्वान (वह कपड़ा जिसपर खाना खाते हैं) की छोटी-सी दुनिया में धार्मिक संस्कारों या रस्म व रिवाज के आधार पर लोगों ने बना डाला है। इस भ्रम में अज्ञानी और सामान्य लोग ही नहीं, विद्वान तक हैं, हालाँकि अरबी भाषा में 'रिज़्क़' (रोज़ी) केवल भोजन और खाने-पीने ही की चीज़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि दान-प्रदान और भाग्य के अर्थ में सामान्य रूप से प्रयुक्त होता है। अल्लाह ने जो कुछ भी दुनिया में इंसान को दिया है, वह सब उसका ‘रिज़्क़’ (रोज़ी) है, यहाँ तक कि औलाद भी रिज्क है। अस्माउरि‍जाल (रिवायत करनेवालों से संबंधित ज्ञान) की किताबों में अधिकतर रिवायत करनेवालों के नाम 'रिज़्क' और 'रुज़ैक़' और 'रिज़्कुल्लाह' मिलते हैं, जिसका अर्थ लगभग वही है जो हिन्दी-उर्दू में 'अल्लाह' दिए का अर्थ है । मशहूर दुआ है- अल्लाहुम-म अरिनल हक़-क़-हक़्क़ँव-वरज़ुक़-ना इत्तिबा-अहू' अर्थात हमपर सत्य खोल और हमें उसके पालन का सौभाग्य प्रदान कर। मुहावरे में बोला जाता है 'रुज़ि-क़-इल्मन' (अमुक व्यक्ति को ज्ञान दिया गया है)। हदीस में है कि अल्लाह हर गर्भवती के पेट में एक फ़रिश्ता भेजता है और वह पैदा होनेवाले का 'रिज़्क' और उसकी उम्र को मुद्दत और उसका काम लिख देता है। स्पष्ट है कि यहाँ रिज्‍़क से तात्पर्य केवल वह भोजन ही नहीं है जो उस बच्चे को आगे मिलनेवाला है, बल्कि वह सब कुछ है जो उसे दुनिया में दिया जाएगा। स्वयं क़ुरआन में है 'व मिम्मा-र-ज़क-नाहुम युनफ़िकून' जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। अत: रोज़ी को सिर्फ़ दस्तरख़्वान की सीमाओं तक सीमित समझना और यह विचार रखना कि अल्लाह को सिर्फ़ उन पाबन्दियों और आज़ादियों पर आपत्ति है जो खाने-पीने की चीज़ों के मामले में लोगों ने अपने आप अपना ली हैं, भारी ग़लती है और यह कोई साधारण ग़लती नहीं है। इसकी वजह से अल्लाह के दीन की एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक शिक्षा लोगों की निगाहों से ओझल हो गई है। यह उसी ग़लती का तो नतीजा है कि खाने-पीने की चीज़ों में हलाल व हराम और जाइज़ व नाजाइज़ का मामला तो एक दीनी मामला समझा जाता है, लेकिन सभ्यता के फैले हुए मामलों में अगर यह तय कर लिया जाए कि इंसान स्वयं अपने लिए सीमाएँ निर्धारित करने का अधिकार रखता है और इसी आधार पर अल्लाह और उसकी किताब से उदासीन होकर विधान बनाया जाने लगे, तो सामान्य लोग तो बड़ी बात, दीनी आलिमों, शरीयत के आधार पर फतवा देने वालों, क़ुरआन के टीकाकारों और हदीस के विशेषज्ञों तक को यह एहसास नहीं होता कि यह चीज़ भी दीन से उसी तरह टकराती है जिस तरह खाने-पीने की चीज़ों में अल्लाह की शरीअत से आजाद होकर जाइज़ व नाजाइज़ की सीमाएं अपने आप निश्चित कर लेना।
61. अर्थात् तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह कितना बड़ा द्रोहपूर्ण अपराध है जो तुम कर रहे हो। रोज़ी अल्लाह की है और तुम स्वयं अल्लाह के हो, फिर यह अधिकार आख़िर तुम्हें कहाँ से मिल गया कि अल्लाह की मिल्कियत में अपने इस्तेमाल और फायदे के लिए स्वयं हदबन्दियाँ निश्चित करो । मामूली नौकर अगर यह दावा करे कि स्वामी के माल में अपने इस्तेमाल और अधिकार की सीमाएँ उसे स्वयं निश्चित कर लेने का अधिकार है और इस मामले में स्वामी के कुछ बोलने की सिरे से कोई ज़रूरत ही नहीं है, तो इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है ? तुम्हारा अपना नौकर अगर तुम्हारे घर में और तुम्हारे घर की सब चीज़ों में अपने कार्य और इस्तेमाल के लिए इस स्वतंत्रता और स्वाधिकार का दावा करे तो तुम उसके साथ क्या मामला करोगे? -उस नौकर का मामला तो दूसरा ही है जो सिरे से यही नहीं मानता कि वह किसी का नौकर है और कोई उसका स्वामी भी है और यह किसी और का माल है जो उसके इस्तेमाल में है। उस बदमाश लुटेरे की स्थिति पर यहाँ वार्ता नहीं हो रही है। यहाँ प्रश्न उस नौकर की स्थिति का है जो स्वयं मान रहा है कि वह किसी का नौकर है और यह भी मानता है कि माल उसी का है जिसका वह नौकर है और फिर कहता है कि इस माल में अपने प्रयोग की सीमाएँ निश्चित कर लेने का अधिकार मुझे आप ही प्राप्त है और स्वामी से कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं है।
وَمَا ظَنُّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 59
(60) जो लोग अल्लाह पर यह झूठ गढ़ते हैं उनका क्या गुमान है कि क़ियामत के दिन उनसे क्या मामला होगा? अल्लाह तो लोगों पर दया दृष्टि रखता है, मगर अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कृतज्ञता नहीं दिखाता।63
63. अर्थात् यह तो स्वामी की बहुत बड़ी कृपा है कि वह नौकर को स्वयं बताता है कि मेरे घर में और मेरे माल में और स्वयं अपने बारे में तू कौन-सी कार्य प्रणाली अपनाएगा तो मेरी प्रसन्नता और पुरस्कार और उन्नति से सम्पन्न होगा और किस प्रणाली के अपनाने से मेरे प्रकोप और दंड और पतन का कारण बनेगा, मगर बहुत-से मूर्ख नौकर ऐसे हैं जो कृपा पर आभार व्यक्त नहीं करते, मानो उनके नज़दीक होना यह चाहिए था कि स्वामी उनको अपने घर में लाकर छोड़ देता और सब माल उनके अधिकार में दे देने के बाद छिपकर देखता रहता कि कौन-सा नौकर क्या करता है, फिर जो भी उसकी मर्जी के विरुद्ध, जिसका किसी नौकर को ज्ञान नहीं, कोई काम करता तो उसे वह सज़ा दे डालता, हालाँकि आगर स्वामी ने अपने नौकरों को इतनी कड़ी परीक्षा में डाला होता तो उनमें से किसी का भी सज़ा से बच जाना संभव न था।
وَمَا تَكُونُ فِي شَأۡنٖ وَمَا تَتۡلُواْ مِنۡهُ مِن قُرۡءَانٖ وَلَا تَعۡمَلُونَ مِنۡ عَمَلٍ إِلَّا كُنَّا عَلَيۡكُمۡ شُهُودًا إِذۡ تُفِيضُونَ فِيهِۚ وَمَا يَعۡزُبُ عَن رَّبِّكَ مِن مِّثۡقَالِ ذَرَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَآ أَصۡغَرَ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرَ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ ۝ 60
(61) ऐ नबी ! तुम जिस हाल में भी होते हो और क़ुरआन में से जो कुछ भी सुनाते हो, और लोगो, तुम भी जो कुछ करते हो, उस सबके दौरान में हम तुमको देखते रहते हैं। कोई कण-भर चीज़ आसमान और जमीन में ऐसी नहीं है, न छोटी, न बड़ी, जो तेरे रब की नज़र से छिपी हो और एक साफ़ दफ्तर में अंकित न हो।64
64. यहाँ इस बात का उल्लेख करने से अभिप्रेत नबी को तसल्ली देना और नबी के विरोधियों को सचेत करना है। एक ओर नबी से कहा जा रहा है कि सत्य के सन्देश का प्रचार और अल्लाह के बन्दों के सुधार में जिस तन्मयता और दृढ़ता और जिस धैर्य और सहनशीलता से तुम काम कर रहे हो, वह हमारी दृष्टि में है । ऐसा नहीं है कि इस ख़तरा भरे काम पर लगाकर हमने तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया हो, जो कुछ तुम कर रहे हो वह भी हम देख रहे हैं और जो कुछ तुम्हारे साथ हो रहा है उससे भी हम बेखबर नहीं हैं। दूसरी ओर नबी के विरोधियों को सचेत किया जा रहा है कि सत्य के एक आवाहक और इन्सानों के हितैषी के सुधार प्रयत्नो में रोड़े अटकाकर तुम कहीं यह न समझ लेना कि कोई तुम्हारी इन हरकतों को देखनेवाला नहीं है और कभी तुम्हारे इन करतूतों की पूछ-गछ न होगी। ख़बरदार रहो, वह सब कुछ जो तुम कर रहे हो, अल्लाह के दफ्तर में लिखा जा रहा है।
أَلَآ إِنَّ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 61
(62,63) सुनो ! जो अल्लाह के मित्र हैं, जो ईमान लाए और जिन्होने तक़्वा (संयम और भय) की नीति अपनाई, उनके लिए किसी भय और दुख का मौक़ा नहीं है।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 62
0
لَهُمُ ٱلۡبُشۡرَىٰ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ لَا تَبۡدِيلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 63
(64) दुनिया और आख़िरत दोनों ज़िन्दगियों में उनके लिए शुभ-सूचना ही शुभ-सूचना है। अल्लाह की बातें बदल नहीं सकतीं। यही बड़ी सफलता है।
وَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعًاۚ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 64
(65) ऐ नबी ! जो बातें ये लोग तुझपर बनाते हैं वे तुझे दुखी न करें, सम्मान सारे का सारा अल्लाह के अधिकार में है और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا يَتَّبِعُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ شُرَكَآءَۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 65
(66) जान लो ! आसमान के बसनेवाले हों या ज़मीन के, सब के सब अल्लाह के आधीन हैं, और जो लोग अल्लाह के सिवा कुछ (अपने स्वयं के गढ़े हुए) शरीकों को पुकार रहे हैं, वे निरे भ्रम और गुमान के पीछे चलनेवाले हैं और केवल अटकल से काम लेते हैं ।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 66
(67) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई कि उसमें शान्ति प्राप्त करो और दिन को रौशन बनाया। इसमें निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो (खुले कानों से पैग़म्बर के संदेश) को सुनते हैं।65
65. यह एक ऐसा विषय है जो व्याख्या चाहता है। जिसे बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में वर्णन किया गया है। दार्शनिक जिज्ञासा, जिसका उद्देश्य यह पता चलाना है कि इस सृष्टि में प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ हम देखते और अनुभव करते हैं उसके पीछे कोई वास्तविकता है या नहीं और है तो वह क्या है, दुनिया में उन सब लोगों के लिए जो 'वह्य' (प्रकाशना) व 'इल्हाम' से सीधा सत्य ज्ञान नहीं पाते, धर्म के बारे में राय बनाने का एकमात्र साधन है। कोई व्यक्ति भी, चाहे वह अनीश्वरवाद अपनाए या शिर्क या ईश्वरवाद, बहरहाल एक न एक प्रकार के दार्शनिक जिज्ञासा को रखे बिना धर्म के बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकता और पैग़म्बरों ने जो धर्म प्रस्तुत किया है, उसकी जाँच भी अगर हो सकती है, तो इसी तरह हो सकती है कि आदमी अपनी शक्ति भर, दार्शनिक चिन्तन-मनन करके, सन्तोष प्राप्त करने का यत्न करे कि पैग़म्बर हमें सृष्टि की प्रत्यक्ष चीज़ों के पीछे जिस वास्तविकता के छिपे होने का पता दे रहे हैं, वह दिल को लगती है या नहीं । इस जिज्ञासा को सही या गलत होना, पूरे का पूरा जिज्ञासा-विधि पर आश्रित है । इसके ग़लत होने से गलत राय और सही होने से सही राय बनती है। अब तनिक समीक्षा करके देखिए कि दुनिया में अलग-अलग गिरोहों ने इस जिज्ञासा के लिए कौन-कौन से तरीके अपनाए हैं- मुश्किों ने पूर्णतः अंधविश्वास के आधार पर अपनी खोज की बुनियाद रखी है। इशराक़ियों और योगियों ने यद्यपि मुराक़बा (ध्यान-मान) का ढोंग रचाया है और दावा किया है कि हम प्रत्यक्ष के पीछे झाँककर परोक्ष का अवलोकन कर लेते हैं, लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने अपनी इस खोज को नींव अटकल पर रखी है। वह 'मुराक़बा' वास्तव में अपने अटकल का करते हैं और जो कुछ वे कहते हैं कि हमें दिखाई देता है। उसकी वास्तविकता इसके सिवा कुछ नहीं है कि अटकल से जो विचार उन्होंने बना लिया है, उसी पर ध्यान को जमा देने और फिर उसपर मन का दबाव डालने से उनको वही विचार चलता-फिरता दिखाई पड़ने लगता है। पारिभाषिक दर्शनिकों ने कियास को शोध का आधार बनाया है जो वास्तव में तो गुमान (अटकल) ही है, लेकिन इस गुमान के लंगड़ेपन को महसूस करके उन्होंने तार्किक प्रमाण और कृत्रिम बौद्धिकता की बैसाखियों पर उसे चलाने का यत्न किया है और इसका नाम 'क़ियास' रख दिया है। वैज्ञानिकों ने यद्यपि विज्ञान के क्षेत्र में शोध के लिए ज्ञानात्मक विधि अपनाई मगर पराप्राकृतिक सीमाओं में क़दम रखते ही वे भी ज्ञानात्मक विधियों को छोड़कर अटकल गुमान और अनुमान और तार्किक प्रमाण के पीछे चल पड़े। फिर इन सब गिरोहों के अंधविश्वास और अटकलों को किसी न किसी तरह पक्षपात का रोग भी लग गया जिसने उन्हें दूसरे की बात न सुनने और अपने ही प्रिय मार्ग पर मुड़ने और मुड़ जाने के बाद मुड़े रहने पर विवश कर दिया। क़ुरआन जिज्ञासा की इस विधि को मूल रूप से ग़लत क़रार देता है। वह कहता है कि तुम लोगों को गुमराही का मूल कारण यही है कि तुम सत्य की खोज का आधार गुमान और अटकल पर रखते हो और फिर पक्षपात की वजह से किसी की समुचित बात सुनने के लिए भी तैयार नहीं होते। इसी दोहरी ग़लती का परिणाम यह है कि तुम्हारे लिए स्वयं सच्चाई को पा लेना तो असंभव था ही, नबियों के लाए हुए दीन को जाँचकर सही राय पर पहुँचना भी असंभव हो गया। इसके मुकाबले में कुरआन दार्शनिक शोध के लिए सही ज्ञानात्मक और बुद्धिपरक तरीक़ा यह बताता है कि पहले तुम वास्तविकता के बारे में उन लोगों का वर्णन खुले कानों से, बिना पक्षपात के, सुनो जो दावा करते हैं कि हम अटकल या 'मुराक़बा' के आधार पर नहीं, बल्कि 'ज्ञान' के आधार पर तुम्हें बता रहे हैं कि वास्तविकता यह है। फिर सृष्टि में जो 'निशानियाँ, तुम्हारे देखने और अनुभव में आती हैं, उनपर विचार करो, उनको गवाहियों को एक क्रम लगाकर देखो और खोजते चले जाओ कि इस प्रत्यक्ष के पीछे जिस वास्तविकता की निशानदेही ये लोग कर रहे हैं, उसकी ओर संकेत करनेवाली निशानियाँ तुम्हें इस प्रत्यक्ष में मिलती हैं या नहीं। अगर ऐसी निशानियाँ नज़र आएँ और उनके संकेत भी स्पष्ट हों, तो फिर कोई कारण नहीं कि तुम खामखाह उन लोगों को झुठलाओ जिनका बयान अवशेष चिों की गवाहियों के अनुसार पाया जा रहा है-यही विधि इस्लामी दर्शन का आधार है, जिसे छोड़कर अफसोस है कि मुसलमान दार्शनिक अफ़लातून व अरस्तू के पदचिह्नों पर चल पड़े। क़ुरआन में जगह-जगह न केवल इस विचार पद्धति पर उभारा गया है, बल्कि स्वयं सृष्टि की निशानियों को प्रस्तुत करके उनसे परिणाम निकालने और वास्तविकता तक पहुँचने की मानो विधिवत ट्रेनिंग दी गई है, ताकि सोचने और खोजने की यह विधि मन में बैठ जाए। चुनांचे इस आयत में भी उदाहरण के रूप में केवल दो निशानियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया गया है, अर्थात रात और दिन । रात और दिन का यह बारी-बारी आना-जाना वास्तव में सूर्य और धरती के संबंधों में अत्यंत विधिवत परिवर्तन के कारण होता है। यह एक विश्वव्यापी व्यवस्थापक और सारी सृष्टि पर आच्छादित सत्ताधारी शासक के अस्तित्व की खुली निशानी है। इसमें खुली तत्त्वदर्शिता और स्पष्ट उद्देश्य भी दिखाई पड़ता है, क्योंकि पृथ्वी पर मौजूद तमाम चीज़ों के हित इसी रात और दिन के आने-जाने के साथ जुड़े हुए हैं। इसमें खुली हुई पालनहारी, रहमत और परवरदिगारी की निशानियाँ भी पाई जाती हैं, क्योंकि इससे यह प्रमाण मिलता है कि जिसने धरती पर ये मौजूद चीजें पैदा की हैं, वह स्वयं ही इनके अस्तित्व की ज़रूरतें भी पूरी करता है। इससे यह भी मालूम होता है कि वह विश्वव्यापी व्यवस्थापक एक है और यह भी कि वह खिलंडरा नहीं, बल्कि तत्त्वदर्शी है और सोद्देश्य काम करता है, और यह भी कि वही उपकारी और प्रशिक्षक होने की हैसियत से बन्दगी (आज्ञापालन) का अधिकारी है और यह भी कि रात व दिन के आने-जाने के तहत जो कोई भी है, वह रब (पालनहार) नहीं, बल्कि मरबूब (पालित) है स्वामी नहीं, दास है । इन पक्की गवाहियों के मुक़ाबले में मुसिकों ने अटकल से जो धर्म गढ़ रखे हैं, वे आखिर किस तरह सही हो सकते हैं।
قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱلۡغَنِيُّۖ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنۡ عِندَكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭ بِهَٰذَآۚ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 67
(68) लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। 66 सुबहानल्लाह ! 67 वह तो निमूह है, आसमानों और धरती में जो कुछ है सब उसकी मिल्कियत है। 68 तुम्हारे पास इस बात के लिए आख़िर प्रमाण क्या है? क्या तुम अल्लाह के बारे में वे बात कहते हो जो तुम्हारे ज्ञान में नही है ?
66. ऊपर की आयतों में लोगों की उस अज्ञानता पर टोका गया था कि अपने धर्म की नींव ज्ञान के बजाय अटकल-गुमान पर रखते हैं और फिर किसी वैज्ञानिक ढंग से यह जाँचने का भी यत्न नहीं करते कि हम जिस धर्म पर चले जा रहे हैं, उसका कोई प्रमाण भी है या नहीं। अब इसी सिलसिले में ईसाइयों और कुछ दूसरे धर्मवालों की इस नासमझी पर टोका गया है कि उन्होंने केवल अटकल से किसी को अल्लाह का बेटा ठहरा लिया।
67. 'सुब्हानल्लाह' का वाक्य आश्चर्य के रूप में और कभी विस्मय व्यक्त करने के लिए भी बोला जाता है और कभी इससे तात्पर्य इसका वास्तविक अर्थ होता है, अर्थात् यह कि 'अल्लाह हर ऐब से पाक है।' यहाँ यह वाक्य दोनों अर्थ दे रहा है। लोगों के इस कथन पर विस्मय व्यक्त करना भी अभीष्ट है और उनकी बात के जवाब में यह कहना भी अभिप्रेत है कि अल्लाह तो बे-ऐब (त्रुटिहीन) है, उसके प्रति आत्मजीय संबंध व्यक्त करना किस तरह सही हो सकता है।
قُلۡ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 68
(69) ऐ नबी । कर दो कि जो लोग अल्लाह पर झूठ बाँधते हैं, वे कदापि सफलता नहीं पा सकते ।
مَتَٰعٞ فِي ٱلدُّنۡيَا ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ نُذِيقُهُمُ ٱلۡعَذَابَ ٱلشَّدِيدَ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 69
(70) दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी में मज़े कर लें, फिर हमारी ओर उनको पलटना है, फिर हम इस कुफ़्र (इंकार) के बदले, जिसे वे कर रहे हैं, उनको कड़े अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ نُوحٍ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكُم مَّقَامِي وَتَذۡكِيرِي بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَعَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡتُ فَأَجۡمِعُوٓاْ أَمۡرَكُمۡ وَشُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُنۡ أَمۡرُكُمۡ عَلَيۡكُمۡ غُمَّةٗ ثُمَّ ٱقۡضُوٓاْ إِلَيَّ وَلَا تُنظِرُونِ ۝ 70
(71) इन्‍हें नूह69 का क़िस्सा सुनाओ, उस समय का क़िस्सा जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि ‘’ऐ क़ौम के भाइयो ! अगर मेरा तुम्हारे बीच रहना और अल्लाह की आयतों को सुना-सुनाकर तुम्हें ग़फ़लत से जगाना तुम्हारे लिए असह्य हो गया है तो मेरा भरोसा अल्लाह पर है, तुम अपने उहराए हुए शरीकों को साथ लेकर एक सर्वमान्य निर्णय कर लो और जो योजना तुम्हारी दृष्टि में हो उसको ख़ूब सोच-समझ लो, ताकि उसका कोई पहलू तुम्हारी निगाह से छिपा न रहे, फिर मेरे विरुद्ध उसको व्यवहार में ले आओ और मुझे कदापि मोहलत न दो।70
69. यहाँ तक तो इन लोगों को समुचित प्रमाणों और दिल को लगनेवाले उपदेशों के साथ समझाया गया था कि उनके विश्वासों, विचारों और तरीकों में ग़लती क्या है और वह क्यों ग़लत है और उसके मुक़ाबले में सही रास्ता क्या है और वह क्यों सही है। अब उनकी उस कार्यशैली की ओर ध्यान जाता है जो वे इसे सीधे-सीधे और साफ़-साफ़ समझाने और बताने के उत्तर में अपना रहे थे। दस-ग्यारह साल से उनका रवैया यह था कि वे बजाय इसके कि इस समुचित आलोचना और सही मार्गदर्शन पर विचार करके अपनी गुमराहियों पर पुनर्दष्टि डालकर उसमें सुधार करते, उलटे उस आदमी की जान के दुश्मन हो गए थे जो इन बातों को अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि उन्हीं के भले के लिए प्रस्तुत कर रहा था। वे तों का जवाब पत्थरों से और उपदेशों का जवाब गालियों से दे रहे थे। अपनी आबादी में ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व उनके लिए अत्यंत अप्रिय बल्कि असहय हो गया था जो ग़लत को ग़लत कहनेवाला हो और सही बात बताने की कोशिश करता हो। उनकी मांग यह थी कि हम अंधों के बीच जो आँखोंवाला पाया जाता है, वह हमारी आँखें खोलने के बजाय अपनी आँखें भी बन्द कर ले. वरना हम ज़बरदस्ती उसकी आंखें फोड़ देंगे, ताकि देखने जैसी चीज़ हमारी धरती पर न पाई जाए। यह तरीका जो उन्होंने अपना रखा था उसपर कुछ और कहने के बजाय अल्लाह अपने नबी को आदेश देता है कि उन्हें नूह का किस्सा सुना हो। उसी किरसे में वह अपने और तुम्हारे मामले का उत्तर भी पा लेंगे।
70. यह चुनौती थी कि मैं अपने काम से बाज़ न आऊँगा, तुम मेरे विरुद्ध जो कुछ करना चाहते हो, कर गुज़रो, मेरा भरोसा अल्लाह पर है । (तुलना के लिए देखिए सूरा-11 (हूद) आयत 55)
فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَمَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 71
(72) तुमने मेरी नसीहत से मुँह मोड़ा (तो मेरा क्या नुक़सान किया), मैं तुमसे किसी बदले का तलबगार न था, मेरा बदला तो अल्लाह के जिम्मे है और मुझे आदेश दिया गया है कि (चाहे कोई माने या न माने) मैं स्वयं मुस्लिम (ईश्वर का आज्ञाकारी) बनकर रहूँ ।”
فَكَذَّبُوهُ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ خَلَٰٓئِفَ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 72
” (73) - उन्होंने उसे झुठलाया और परिणाम यह निकला कि हमने उसे और उन लोगों को, जो उसके साथ नाव में थे, बचा लिया और उन्हीं को धरती में उत्तराधिकारी बनाया और उन सब लोगों को डुबो दिया जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया था। अत: देख लो कि जिन्हें सचेत किया गया था (और फिर भी उन्होंने मानकर के दिया) उनका क्या अंजाम हुआ।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ نَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 73
(74) फिर नूह के बाद हमने विभिन्न पैग़म्बरों को उनकी क़ौमों की ओर भेजा और वे उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को उन्होंने पहले झुठला दिया था उसे फिर मानकर न दिया, इस तरह हम सीमा का उल्लंघन करनेवालों के दिलों पर ठप्पा लगा देते हैं।71
71. सीमा का उल्लंघन करनेवाले लोग वे हैं जो एक बार ग़लती कर जाने के बाद फिर अपनी बात की पक्षपात, दुराग्रह और हठधर्मों के कारण अपनी उसी ग़लती पर अड़े रहते हैं और जिस बात को मानने से एक बार इंकार कर चुके हैं, उसे फिर किसी समझाने-बुझाने और किसी समुचित तर्क और प्रमाण से भी नहीं मानते। ऐसे लोगों पर अन्ततः अल्लाह की ऐसी फिटकार पड़ती है कि उन्हें फिर कभी सीधे रास्ते पर आने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ وَهَٰرُونَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ بِـَٔايَٰتِنَا فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 74
(75) फिर उन72 के बाद हमने मूसा और हारून को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों की ओर भेजा, मगर उन्होंने अपनी बड़ाई का घमंड किया73, और वे अपराधी लोग थे।
72. इस अवसर पर उन टिप्पणियों को दृष्टि में रखा जाए जो हमने सूरा-7 आराफ़, (आयत 100 से 171 तक) में मूसा और फ़िरऔन के क़िस्से पर लिखी हैं। जिन बातों की व्याख्या वहाँ की जा चुकी है, उन्हें यहाँ न दोहराया जाएगा।
73. अर्थात् उन्होंने अपने धन और सत्ता और सुख-वैभव के नशे में चूर होकर अपने आपको बन्दगी की जगह से उच्च समझ लिया और आज्ञापालन में सिर झुकाने के बजाय अकड़ दिखाई ।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُوٓاْ إِنَّ هَٰذَا لَسِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 75
(76) अत: जब हमारे पास से सत्य उनके सामने आया तो उन्होंने कह दिया कि यह तो खुला जादू है।74
74. अर्थात् हज़रत मूसा (अलै०) का सन्देश सुनकर वही कुछ कहा जो मक्का के काफ़िरों ने मुहम्मद (सल्ल०) का सन्देश सुनकर कहा था कि "यह व्यक्ति तो खुला जादूगर है।" (देखिए इसी सूरा यूनुस की दूसरी आयत) यहाँ पूरे क्रम को दष्टि में रखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून (अलैहि०) भी वास्तव में उसी सेवा पर नियुक्त किए गए थे जिसपर हजरत नूह (अलैहि०) और उनके बाद के तमाम नबी, हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) तक नियुक्त किए जाते रहे हैं । इस सूरा में आरंभ ही से एक विषय चला आ रहा है और यह यह कि सिर्फ़ अल्लाह रब्बुल आलमीन को अपना रब और उपास्य मानो और यह स्वीकार करो कि तुमको इस जिन्दगी के बाद दूसरी जिन्दगी में अल्लाह के सामने हाज़िर होना और अपने कर्म का हिसाब देना है। फिर जो लोग पैग़म्बर की इस दावत (पुकार) को मानने से इंकार कर रहे हैं उन्हें समझाया जा रहा है कि न केवल तुम्हारी सफलता का बल्कि तमाम इंसानों की सफलता का आश्रय इसी हिदायत (सन्मार्ग) के ग्रहण करने पर रहा है। यही इस सूरा का केन्द्रीय विषय है। और इस संदर्भ में जब ऐतिहासिक नज़ीरों के रूप में दूसरे नबियों का उल्लेख हुआ है तो अनिवार्य रूप से इसका अर्थ यही है कि जो सन्देश इस सूरा में प्रस्तुत किया गया है, वही उन तमाम नबियों का सन्देश था और उसी को लेकर हज़रत मूसा हारून (अलैहि०) भी फ़िरऔन और उसके क़ौम के सरदारों के पास गए थे। अगर घटना वह होती जो कुछ लोगों ने गुमान किया है कि हज़रत मूसा व हजरत हारून (अलैहि०) का मिशन एक विशेष क़ौम को दूसरी क़ौम की गुलामी से रिहा कराना था तो इस संदर्भ में इस घटना को ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना बिल्कुल बेजोड़ होता। इसमें सन्देह नहीं कि इन दोनों नबियों के मिशन का एक हिस्सा यह भी था कि बनी इसराईल (एक मुसलमान क़ौम) को एक काफ़िर क़ौम के क़ब्जे से (अगर वह अपने कुफ़्र पर जमे रहे) नजात दिलाएँ । लेकिन यह एक गौण उद्देश्य था, न कि भेजे जाने का मूल उद्देश्य । मूल उद्देश्य तो वही था जो क़ुरआन के अनुसार तमाम नबियों के भेजे जाने का उद्देश्य रहा है और सूरा-79 (नाज़िआत) में जिसका स्पष्ट रूप से उल्लेख भी कर दिया गया है कि ‘’फ़िरऔन के पास जा, क्योंकि वह बन्दगी की सीमा पार कर गया है और उससे कहा क्या तू इसके लिए तैयार है कि सुधर जाए और मैं तेरे रब की ओर तेरा मार्गदर्शन करूँ तो तू उससे डरे?" मगर चूँकि फ़िरऔन और उसके दरबारियों ने उस सन्देश को ग्रहण नहीं किया और अन्ततः हज़रत मूसा (अलैहि०) को यही करना पड़ा कि अपनी मुसलमान क़ौम को उसके कब्जे से निकाल ले जाएँ, इसलिए उनके मिशन का यही हिस्सा इतिहास में उभर आया और क़ुरआन में भी उसको वैसा ही उभारकर प्रस्तुत किया गया जैसा कि वह इतिहास में सच में है। जो व्यक्ति क़ुरआन की विस्तृत विवेचन को उसके 'कुल' से अलग करके देखने की ग़लती न करता हो, बल्कि उन्हें कुल के तहत करके ही देखता और समझता हो, वह कभी इस प्रम में नहीं पड़ सकता कि एक क़ौम की रिहाई किसी नबी के भेजे जाने का मूल उद्देश्य और सत्य धर्म का आह्वान केवल उसका एक गौण उद्देश्य हो सकता है।
قَالَ مُوسَىٰٓ أَتَقُولُونَ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَكُمۡۖ أَسِحۡرٌ هَٰذَا وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّٰحِرُونَ ۝ 76
(77) मूसा ने कहा, “तुम सत्य को यह कहते हो जबकि वह तुम्हारे सामने आ गया? क्या यह जादू है? हालाँकि जादूगर सफलता नहीं पाया करते।"75
75. अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष में जादू और मोजज़े (चमत्कार) के बीच जो एकरूपता होती है उसके आधार पर तुम लोगों ने उसे निःसंकोच जादू क़रार दे दिया, मगर नासमझो । तुमने यह न देखा कि जादूगर किस चरित्र व आचरण के लोग होते हैं और किन उद्देश्यों के लिए जादूगरी किया करते हैं। क्या किसी जादूगर का यही काम होता है कि नि:स्वार्थ और बेधड़क एक तानाशाह शासक के दरबार में आए और उसे उसकी पथभ्रष्टता पर डाटे डपटे और ख़ुदापरस्ती और मन की पाकी अपनाने का आह्वान करे ? तुम्हारे यहाँ कोई जादूगर आया होता तो [न जाने कितनी सलामियाँ देता, कितनी खुशामदें और प्रशस्ति-गान पढ़ता और फिर अपने तमाशे दिखा लेने के बाद मांगने के लिए हाथ फैला देता]- इस पूरे विषय को केवल एक वाक्य में समेट दिया है कि जादूगर सफलता पानेवाले इंसान नहीं हुआ करते ।
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِتَلۡفِتَنَا عَمَّا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَا وَتَكُونَ لَكُمَا ٱلۡكِبۡرِيَآءُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا نَحۡنُ لَكُمَا بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 77
(78) उन्होंने उत्तर में कहा, "क्या तू इसलिए आया है कि हमें उस तरीके से फेर दे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है और धरती में बड़ाई तुम दोनों की क़ायम हो जाए?76 तुम्हारी बात तो हम माननेवाले नहीं है।
76. स्पष्ट है अगर हज़रत मूसा और हारून (अलैहि०) की असल माँग बनी इसराईल की रिहाई की होती तो फ़िरऔन और उसके दरबारियों को यह आशंका व्यक्त करने की कोई ज़रूरत न थी कि इन दोनों बुजुर्गों के सन्देश फैलने से मित्र की धरती का धर्म बदल जाएगा और देश में हमारे बजाय इनकी बड़ाई क़ायम हो जाएगी। उनके इस आशंका का कारण तो वही था कि हज़रत मूसा मिस्रवालों को अल्लाह की बन्दगी को ओर आह्वान कर रहे थे और इससे वह शिर्क-भरी व्यवस्था ख़तरे में थी जिसपर फ़िरऔन की बादशाही और उसके सरदारों की सरदारी और धर्मगुरुओं को गुरुवाई स्थापित थी। (देखिए सूरा-7 (अल-आराफ़) टिप्पणी 88, सूरा-40, (अल-मोमिन), टिप्पणी 43)
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ٱئۡتُونِي بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 78
(79) और फ़िरऔन ने (अपने आदमियों से) कहा कि “हर कला-विशेषज्ञ को मेरे पास ला उपस्थित करो।"
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 79
(80) जब जादूगर आ गए तो मूसा ने उनसे कहा, “जो कुछ तुम्हें फेंकना है, फेंको।‘’
فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ قَالَ مُوسَىٰ مَا جِئۡتُم بِهِ ٱلسِّحۡرُۖ إِنَّ ٱللَّهَ سَيُبۡطِلُهُۥٓ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُصۡلِحُ عَمَلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 80
(81) फिर जब उन्होंने अपने अंछर फेंक दिए तो मूसा कहा, “यह जो कुछ तुमने फेंका है, यह जादू है।77 अल्लाह अभी इसे व्यर्थ किए देता है। बिगाड़ पैदा करनेवालों के काम को अल्लाह सुधरने नहीं देता
77. अर्थात् जादू वह न था जो मैंने दिखाया था, जादू यह है जो तुम दिखा रहे हो।
وَيُحِقُّ ٱللَّهُ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 81
(82) और अल्लाह अपने फ़रमानों से सत्य को सत्य कर दिखाता है, चाहे वह अपराधियों को कितना ही अप्रिय हो।"
فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٞ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٖ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 82
(83) (फिर देखो कि) मूसा को उसकी क़ौम में से कुछ नौजवानों78 के सिवा किसी ने न माना79, फ़िरऔन के डर से और स्‍वयं अपनी क़ौम के बड़े लोगों के डर से (जिन्‍हें डर था कि) फ़िरऔन उनको यातना में ग्रस्‍त करेगा और सच तो यह है कि फ़िरऔन धरती में प्रभुत्व रखता था और वह उन लोगों में से था जो किसी सीमा पर रुकते नहीं हैं।80
78. मूल अरबी में शब्द 'ज़ुर्रीयह' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ सन्तान है। हमने इसका अनुवाद 'नौजवान’ किया है। वास्तव में इस विशेष शब्द के प्रयोग से जो बात क़ुरआन मजीद बयान करना चाहता है वह यह है कि उस ख़तरे भरे समय में सत्य का साथ देने और सत्य के ध्वजावाहक को अपना मार्गदर्शक मान लेने की जुर्रत कुछ लड़कों और लड़कियों ने तो की, मगर माओं और बापों और क़ौम के प्रौढ़ता प्राप्त लोगों को इसका सौभाग्य प्राप्त न हुआ। उनपर अपना हित, स्वार्थ और सांसरिक लाभ कुछ इस तरह छाया रहा कि वे ऐसे सत्य का साथ देने पर तैयार न हुए, जिसका रास्ता उन्हें संकटों से भरा नज़र आ रहा था, बल्कि वे उलटे नौजवानों ही को रोकते रहे कि मूसा के करीब न जाओ, वरना तुम स्वयं भी फ़िरऔन के प्रकोप के शिकार होगे और हमपर भी आफ़त लाओगे। यह बात मुख्य रूप से कुरआन ने उभारकर इसलिए प्रस्तुत किया है कि मक्का की आबादी में से भी मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए शुरू में जो लोग आगे बढ़े थे, वे कौम के बड़े-बूढ़े और प्रौढ़ता प्राप्त लोग न थे, बल्कि कुछ साहसी युवक ही थे। अली बिन अबी तालिब (रजि०), जाफ़र तैयार (रजि०), ज़ुबैर (रजि०), तलहा (रजि०), साद बिन अबी वक्कास (रजि०), मुस्अब बिन उमैर (रजि०), अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०) जैसे लोग इस्लाम क़बूल करते समय 20 साल से कम उम्र के थे। अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रजि०), बिलाल (रजि०) और सुहैब (रजि०) की उम्रें 50 और 30 के बीच थीं। अबू उबैदा बिन जर्राह (रजि०), जैद बिन हारिसा (रजि०), उसमान बिन अफ़्फ़ान (रजि०) और उमर फ़ारूक़ (रजि०) 30 और 35 साल के बीच की उम्र के थे। इनसे अधिक उम्र हज़रत अबू बक्र (रजि०) की थी और उनकी उम्र भी ईमान लाने के समय 38 साल से अधिक न थी। आरंभिक मुसलमानों में केवल एक सहाबी का नाम हमें मिलता है जिनकी उम्र नबी (सल्ल०) से अधिक थी, अर्थात् हज़रत उबैदा बिन हारिस मुत्तलबी। और संभवतः पूरे गिरोह में एक ही सहाबी हुजूर (सल्ल०) की उम्र के थे अर्थात् अम्मार बिन यासिर (रजि०)।
79. मूल अरबी में फ़-मा आ-म-न लिमूसा' के शब्द हैं। इससे कुछ लोगों को सन्देह हुआ कि शायद बनी इसराईल सबके सब काफ़िर (इंकारी) थे और आरंभ में उनमें से केवल कुछ लोग ईमान लाए। लेकिन अरबी व्याकरण में ईमान के साथ जब अरबी भाषा का वर्ण “लाम” संबंधवाचक (सिला) के रूप में प्रयुक्त होता है तो वह सामान्य रूप से आज्ञापालन और समर्पण का अर्थ देता है, अर्थात् किसी की बात मानना और उसके कहे पर चलना। वास्तव में इन शब्दों का अर्थ यह है कि कुछ नौजवानों को छोड़कर बनी इसराईल की पूरी क़ौम में से कोई भी इस बात पर तैयार न हुआ कि हज़रत मूसा (अलै०) को अपना मार्गदर्शक व पेशवा मानकर उनकी पैरवी अपना लेता। फिर बाद के वाक्य ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि उनके इस रवैये का मूल कारण यह न था कि उन्हें हज़रत मूसा के सच्चे और उनके सन्देश के सत्य होने में कोई सन्देह था, बल्कि इसका कारण केवल यह था कि वे और मुख्य रूप से उनके बड़े, हज़रत मूसा (अलैहि०) का साथ देकर अपने आपको फ़िरऔन की क्रूरता के खतरे में डालने के लिए तैयार न थे। [इसी बात की ओर सूरा-7 (आराफ़) की आयत 129 'ऊज़ीना मिन क़ब्लिअन ताति-य-ना- [अर्थात् तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे-] में भी संकेत किया गया है और इसका विवरण बाइबिल की किताब निर्गमन (16 : 20-21) में, में देखा जा सकता है।
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰقَوۡمِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ فَعَلَيۡهِ تَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّسۡلِمِينَ ۝ 83
(84) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि "लोगो ! अगर तुम सही मानो में अल्लाह पर ईमान रखते हो तो उसपर भरोसा करो अगर मुसलमान हो।81
81. स्पष्ट है कि ये शब्द किसी क़ाफिर (इंकारी) को सम्बोधित करके नहीं कहे जा सकते थे। हज़रत मूसा (अलैहि०) का यह कथन साफ़ बता रहा है कि बनी इसराईल की पूरी क़ौम उस समय मुसलमान थी और हज़रत मूसा (अलैहि०) उनको यह उपदेश दे रहे थे कि अगर तुम वास्तव में मुसलमान हो, जैसा कि तुम्हारा दावा है,तो फ़िरऔन की शक्ति से भय न खाओ, बल्कि अल्लाह की शक्ति पर भरोसा करो।
فَقَالُواْ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَا رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 84
(85) उन्होंने उत्तर दिया82, “हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया, ऐ हमारे रब ! हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ित्ना83 न बना
82. यह उत्तर उन नौजवानों का था जो मूसा (अलैहि०) का साथ देने पर तैयार हुए थे। यहाँ 'कालू' (उन्होंने उत्तर दिया) से मुराद क़ौम नहीं, बल्कि जुर्रियत (कुछ नौजवान) हैं जैसा कि प्रसंग बता रहा है।
83. उन सच्चे ईमानवाले नौजवानों की यह दुआ कि 'हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़िल्ला न बना' बड़ा व्यापक अर्थ रखती है। पथभ्रष्टता के सामान्य रूप से छा जाने की स्थिति में जब कुछ लोग सत्य की स्थापना के लिए उठते हैं तो उन्हें विभिन्न प्रकार के ज़ालिमों का सामना करना पड़ता है और उन सत्य का आह्वान करनेवालों की हर विफलता, हर मुसीबत, हर ग़लती, हर कमज़ोरी और हर कमी उन विभिन्न गिरोहों के लिए विविध रूप में फ़िला बन जाती है। [और वे उसे उनके असत्य पर होने की दलील ठहराने लगते हैं। अतः यह बड़ी ही व्यापक दुआ थी जो मूसा (अलैहि०) के इन साथियों ने मांगी थी कि ऐ अल्लाह । हमपर ऐसी कृपा कर कि हम ज़ालिमों के लिए 'फ़िला' (आज़माइश) बनकर न रह जाएँ, अर्थात् हमें ग़लतियों से, कमज़ोरियों से, कर्मियों से बचा और हमारी कोशिश को दुनिया में परवान चढ़ा, ताकि हमारा अस्तित्त्व तेरे बन्दों के लिए भलाई का कारण बने, न कि ज़ालिमों के लिए दुष्टता का साधन ।
وَنَجِّنَا بِرَحۡمَتِكَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 85
(86) और अपनी रहमत से हमको अधर्मियों से छुटकारा दिला।"
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰ وَأَخِيهِ أَن تَبَوَّءَا لِقَوۡمِكُمَا بِمِصۡرَ بُيُوتٗا وَٱجۡعَلُواْ بُيُوتَكُمۡ قِبۡلَةٗ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 86
(87) और हमने मूसा और उसके भाई को इशारा किया कि “मिस्र में कुछ मकान अपनी क़ौम के लिए प्राप्त कर लो और अपने उन मकानों को किल्ला ठहरा लो और नमाज़ क़ायम करो 84 और ईमानवालों को शुभ-सूचना दे दो।‘’85
84. इस आयत के अर्थ में टीकाकारों के बीच मतभेद है। उसके शब्दों पर और उस वातावरण पर, जिसमें ये शब्द कहे गए थे, विचार करने से मैं यह समझा हूँ कि शायद मिस्र में सत्ता पक्ष ने हिंसा करके और स्वयं बनी इसराईल की अपनी ईमानी कमज़ोरी की वजह से इसराईली और मिस्री मुसलमानों के यहाँ जमाअत से नमाज़ की व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी, और यह उनके एका के बिखरने और उनकी धार्मिक आत्मा पर मौत छा जाने का एक बहुत बड़ा कारण थी। इसलिए हज़रत मूसा (अलै०) को आदेश दिया गया कि इस व्यवस्था को नए सिरे से स्थापित करें और मिस्र में कुछ मकान इस उद्देश्य के लिए प्राप्त कर लें या बना लें कि वहाँ सामूहिक रूप से नमाज़ अदा कर ली जाया करे। क्योंकि एक बिगड़ी हुई और बिखरी हुई मुसलमान क़ौम में धार्मिक आत्मा को फिर से जीवित करने और उसकी बिखरी शक्ति को नए सिरे से बहाल करने के लिए इस्लामी ढंग से जो कोशिश भी की जाएगी उसका पहला कदम अनिवार्य रूप से यही होगा कि उसमें जमाअत के साथ नमाज़ की व्यवस्था स्थापित की जाए । इन मकानों को क़िब्ला ठहराने का अर्थ मेरे नज़दीक यह है कि इन मकानों को सारी कौम के लिए केन्द्र और रक्षा-स्थल ठहराया जाए, और उसके बाद ही 'नमाज़ स्थापित करो' कहने का अर्थ यह है कि अलग-अलग अपनी-अपनी जगह नमाज़ पढ़ लेने के बजाय लोग उन निर्धारित स्थानों पर जमा होकर नमाज़ पढ़ा करें, क्योंकि क़ुरआन की पारिभाषिक शब्दावली में 'नमाज़ स्थापित करना' जिस चीज़ का नाम है उसके अर्थ में अनिवार्य रूप से जमाअत से नमाज़ भी शामिल है।
85. अर्थात् ईमानवालों पर निराशा सत्ता पक्ष का आतंक और खिन्नता की जो मनोदशा इस समय छाई हुई है उसे दूर करो, उन्हें आशावान बनाओ, उनकी हिम्मत बँधाओ और उनका मनोबल ऊंचा करो, 'शुभ-सूचना' देने के शब्द में ये सभी अर्थ समाहित हैं।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبَّنَآ إِنَّكَ ءَاتَيۡتَ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَأَهُۥ زِينَةٗ وَأَمۡوَٰلٗا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا رَبَّنَا لِيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِكَۖ رَبَّنَا ٱطۡمِسۡ عَلَىٰٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ وَٱشۡدُدۡ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُواْ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 87
(88) मूसा ने 86 दुआ की, “ऐ हमारे रब ! तूने फ़िरऔन और उसके सरदारों को दुनिया की ज़िन्दगी में ज़ीनत 87 और माल 88 दे रखे हैं। ऐ रब ! क्या यह इसलिए है कि वे लोगों को तेरी राह से भटकाएँ? ऐ रब! इनके माल ग़ारत कर दे और इनके दिलों पर ऐसी मुहर कर दे कि ईमान। लाएँ जब तक दर्द भरा अज़ाब न देख लें।89
86. ऊपर की आयतें हज़रत मूसा (अलै०) के आह्वान के आरंभिक युग से संबंध रखती हैं और यह दुआ मिस्र में निवास के बिल्कुल अन्तिम समय की है । बीच में कई वर्ष की लम्बी दूरी है जिसके विस्तृत विवरण को यहाँ छोड़ दिया गया है। दूसरे स्थानों पर कुरआन मजीद में इस बीच के युग का भी विस्तृत विवेचन पाया जाता है।
87. अर्थात् ठाठ, शान व शौकत और संस्कृति व सभ्यता की वह छवि जिसकी वजह से दुनिया उनपर और उनके तौर-तरीकों पर रीझती है और हर व्यक्ति का दिल चाहता है कि वैसा ही बन जाए, जैसे वे हैं।
قَالَ قَدۡ أُجِيبَت دَّعۡوَتُكُمَا فَٱسۡتَقِيمَا وَلَا تَتَّبِعَآنِّ سَبِيلَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 88
(89) अल्लाह ने जवाब में फरमाया, "तुम दोनों की दुआ क़ुब़ूल को गई। जमे रहो और उन लोगों के तरीक़े को कदापि पैरवी न करो जो ज्ञान नहीं रखते।‘’90
90. जो लोग वास्तविकता को नहीं जानते और अल्लाह के मस्लहतों को नहीं समझते वे असत्य के मुक़ाबले में सत्य की कमजोरी और सत्य स्थापित करने के लिए कोशिश करनेवालों को बराबर विफलताएँ और असत्य के पेशवाओं के ठाठ और उनकी सांसारिक उन्नति देखकर यह विचार करने लगते हैं कि शायद अल्लाह को यही मंजूर है कि उसके द्रोही दुनिया पर छाए रहें और शायद सर्वथा सत्य अल्लाह स्वयं ही असत्य के मुक़ाबले में सत्य का समर्थन करना नहीं चाहा। फिर वे नासमझ लोग अन्ततः अपनी बदगुमानियों के आधार पर यह नतीजा निकाल बैठते हैं कि सत्य स्थापित करने की कोशिश बेकार है और अब उचित यही है कि उस थोड़ी-सी धार्मिकता पर राजी होकर बैठ रहा जाए जिसकी अनुमति कुफ़्र और फ़िस्क़ की बादशाही में मिल रही हो। इस आयत में अल्लाह ने हजरत मूसा (अलैहि०) को और उनकी पैरवी करनेवालों को इसी गलती से बचने की ताकीद फरमाई है। अल्लाह के इर्शाद का मंशा यह है कि पैर्य के साथ इन्हीं प्रतिकूल परिस्थितियों में काम किए जाओ, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें भी वही भ्रम हो जाए, जो ऐसी परिस्थितियों में अज्ञानियों और नासमझों को आम तौर से हो जाया करता है।
۞وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ وَجُنُودُهُۥ بَغۡيٗا وَعَدۡوًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَدۡرَكَهُ ٱلۡغَرَقُ قَالَ ءَامَنتُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱلَّذِيٓ ءَامَنَتۡ بِهِۦ بَنُوٓاْ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 89
(90) और हम बनी इसराईल को समुद्र से गुज़ार ले गए। फिर फिरऔन और उसकी सेना ज़ुल्म और ज्यादती के उद्देश्य से उनके पीछे चली–यहाँ तक कि जब फ़िरऔन डूबने लगा तो बोल उठा, "मैंने मान लिया कि वास्तविक ईश्वर उसके सिवा कोई नहीं है जिसपर बनी इसराईल ईमान लाए, और मैं भी आज्ञाकारियों में से हूँ।"91
91. बाइबल में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु तलमूद में स्पष्ट शब्दों में लिखा हुआ है कि डूबते समय फ़िरऔन ने कहा, मैं तुझपर ईमान लाता हूँ, ऐ खुदावंद ! तेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं।"
ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ عَصَيۡتَ قَبۡلُ وَكُنتَ مِنَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 90
(91) (उत्तर दिया गया) “अब ईमान लाता है! हालाँकि इससे पहले तक तू अवज्ञा करता रहा और बिगाड़ पैदा करनेवालों में से था।
فَٱلۡيَوۡمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُونَ لِمَنۡ خَلۡفَكَ ءَايَةٗۚ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ عَنۡ ءَايَٰتِنَا لَغَٰفِلُونَ ۝ 91
(92) अब तो हम केवल तेरी लाश ही को बचाएँगे, ताकि तू बाद की नस्लों के लिए शिक्षाप्रद निशानी बने।92 यद्यपि बहुत-से इंसान ऐसे हैं जो हमारी निशानियों से ग़फ़लत बरतते हैं।"93
92. आज तक वह स्थान सीना प्रायद्वीप के पच्छिमी तटों पर मौजूद है, जहाँ फ़िरऔन की लाश समुद्र में तैरती हुई पाई गई थी। इसको वर्तमान में 'जबले फ़िरऔन' कहते हैं और इसी के करीब एक गर्म स्रोत है जिसको स्थानीय आबादी ने 'फ़िरऔन का हम्माम' का नाम दे रखा है। वह स्थल अबू जैनमा से कुछ मील ऊपर उत्तर की ओर स्थित है और क्षेत्र के निवासी उसी की निशानदेही करते हैं कि फ़िरऔन की लाश यहीं पड़ी हुई मिली थी। अगर यह डूबनेवाला वहीं फ़िरऔन मन्फ़ता है जिसको आज की खोज ने मूसा का फ़िरऔन बताया है तो उसकी लाश आज तक क़ाहिरा के संग्रहालय में मौजूद है। 1907 ई० में सर ग्राफ़टन इलियट स्मिथ ने उसकी मम्मी पर से जब पट्टियाँ खोली थीं तो उसकी लाश पर नमक की एक तह जमी हुई पाई गई थी जो खारे पानी में उसके डूबने की एक खुली निशानी थी।
93. अर्थात् हम तो शिक्षाप्रद निशानियाँ दिखाए ही जाएँगे, यद्यपि अधिकतर इंसानों का हाल यह है कि किसी बड़ी-से-बड़ी शिक्षाप्रद निशानी को देखकर भी उनकी आँखें नहीं खुलतीं।
وَلَقَدۡ بَوَّأۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مُبَوَّأَ صِدۡقٖ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ فَمَا ٱخۡتَلَفُواْ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 92
(93) हमने बनी इसराईल को बहुत अच्छा ठिकाना दिया94 और जीवन के बड़े साधन उन्हें दिए। फिर उन्होंने आपस में मतभेद नहीं किया, मगर उस समय जबकि ज्ञान उनके पास आ चुका था।95 निश्चित रूप से तेरा रब कियामत के दिन उनके बीच उस चीज़ का निर्णय कर देगा जिसमें वे मतभेद करते रहे हैं।
94. अर्थात् मिस्र से निकलने के बाद फ़िलस्तीन की धरती।
95. अर्थ यह है कि बाद में उन्होंने अपने धर्म में जो विभेद पैदा किए और नए-नए धर्म निकाले उसका कारण यह नहीं था कि उनको वास्तविकता का ज्ञान नहीं दिया गया था और न जानने के कारण उन्होंने विवश होकर ऐसा किया, बल्कि वास्तव में यह सब कुछ उनके अपने मन की दुष्टता का परिणाम था। अल्लाह की ओर से तो उन्हें खुलकर बता दिया गया था कि सत्य धर्म यह है, ये उसके नियम हैं, ये उसके तकाज़े और माँगें हैं, ये कुफ़्र और इस्लाम के अन्तर को स्पष्ट करनेवाली सीमाएँ हैं, आज्ञापालन इसको कहते हैं, अवज्ञा इसका नाम है, इन चीज़ों की पूछताछ अल्लाह के यहाँ होनी है, और ये वे नियम हैं, जिनपर दुनिया में तुम्हारी ज़िन्दगी स्थापित होनी चाहिए। मगर इन स्पष्ट निर्देशों के बाद भी उन्होंने एक धर्म के बीसियों धर्म बना डाले और अल्लाह की दी हुई बुनियादों को छोड़कर कुछ दूसरी ही बुनियादों पर अपने धर्म-सम्प्रदायों की इमारतें खड़ी कर ली।
فَإِن كُنتَ فِي شَكّٖ مِّمَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ فَسۡـَٔلِ ٱلَّذِينَ يَقۡرَءُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكَۚ لَقَدۡ جَآءَكَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 93
(94) अब अगर तुझे उस मार्गदर्शन की ओर से कुछ भी सन्देह हो, जो हमने तुझपर उतारा है, तो उन लोगों से पूछ ले जो पहले से किताब पढ़ रहे हैं । वास्तव में यह तेरे पास सत्य ही आया है तेरे रब की ओर से, इसलिए तू सन्देह करनेवालों में से न हो
وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 94
(95) और उन लोगों में न शामिल हो जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया है, वरना तू हानि उठानेवालों में से होगा।96
96. यह सम्बोधन ज़ाहिर में नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में बात उन लोगों को सुनानी अभिष्ट है जो आपके सन्देश में सन्देह कर रहे थे, और किताबवालों का हवाला इसलिए दिया गया है कि अरब के आम लोग तो आसमानी किताबों के ज्ञान से अनभिज्ञ थे, उनके लिए यह आवाज़ एक नयी आवाज़ थी, मगर किताबवालों (अहले किताब) के उलमा में से जो लोग दीनदार (धार्मिक) और न्यायप्रिय थे, वे इस बात की पुष्टि कर सकते थे कि जिस चीज की ओर क़ुरआन बुला रहा है, यह वही चीज़ है जिसकी ओर तमाम पिछले नबी बुलाते रहे हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ حَقَّتۡ عَلَيۡهِمۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 95
(96,97) सच तो यह है कि जिन लोगों पर तेरे रब का वचन सिद्ध हो गया है 97, उनके सामने चाहे जो निशानी आ जाए, वे कभी ईमान लाकर नहीं देते जब तक कि दर्दनाक अज़ाब सामने आता न देख लें ।
97. अर्थात् यह वचन कि जो लोग स्वयं सत्य के तलबगार नहीं होते और जो अपने दिलों पर दुराग्रह, हठ और हठधर्मी के ताले चढ़ाए रखते हैं, और जो दुनिया की मोह में मस्त और अंजाम से निश्चिन्त होते हैं, उन्हें ईमान का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
وَلَوۡ جَآءَتۡهُمۡ كُلُّ ءَايَةٍ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 96
0
فَلَوۡلَا كَانَتۡ قَرۡيَةٌ ءَامَنَتۡ فَنَفَعَهَآ إِيمَٰنُهَآ إِلَّا قَوۡمَ يُونُسَ لَمَّآ ءَامَنُواْ كَشَفۡنَا عَنۡهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 97
(98) फिर क्या ऐसा कोई उदाहरण है कि एक बस्ती अज़ाब देखकर ईमान लाई हो और उसका ईमान उसके लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ हो ? यूनुस की क़ौम के सिवा 98 (इसकी कोई उपमा नहीं), वह क़ौम जब ईमान ले आई थी तो अलबत्ता हमने उसपर से दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई का अज़ाब टाल दिया था 99 और उसको एक समय तक ज़िन्दगी से लाभान्वित होने का अवसर दे दिया था।100
98. यूनुस अलैहिस्सलाम (जिनका नाम बाइबल में यूनाह है और जिनका समय 860-784 ई० पू० के बीच बताया जाता है) यद्यपि इसराईली नबी थे, मगर उनको अशूर (असीरिया) वालों के मार्गदर्शन के लिए इराक़ भेजा गया था और इसी आधार पर अशरियों को यहाँ यूनुस की क़ौम' कहा गया है। इस क़ौम का केन्द्र उस समय में नैनवा का प्रसिद्ध नगर था जिसके फैले हुए खंडहर आज तक दजला नदी के पूर्वी किनारे पर वर्तमान नगर मूसल के ठीक सामने पाए जाते हैं और इसी क्षेत्र में 'यूनुस नबी' के नाम से एक स्थान भी मौजूद है। इस क़ौम के उत्थान का अनुमान इनसे हो सकता है कि इसकी राजधानी नैनवा लगभग साठ मील की दूरी में फैला हुआ था।
99. क़ुरआन में इस किस्से की और तीन जगह केवल संकेत किए गए हैं, कोई विस्तृत विवरण नहीं दिया गया (देखिए सूरा-21 अंबिया, आयत 87-88; सूरा-37 अस्साफ़्फात, आयत 139-148; सूरा-68, अल-क़लम, आयत 48-50)। इसलिए विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह क़ौम किन प्रमुख कारणों के आधार पर अल्लाह के इस नियम से मुक्त रखी गई कि अज़ाब का निर्णय हो जाने के बाद किसी का ईमान उसके लिए लाभप्रद नहीं होता। फिर भी कुरआन के संकेत और यूनुस के सहीफ़ा (ग्रन्थ) के विस्तृत विवेचनों पर विचार करने से वही बात सही मालूम होती है जो क़ुरआन के टीकाकारों ने वर्णन किया है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) चूँकि अज़ाब की सूचना देने के बाद अल्लाह की इजाज़त के बिना अपनी जगह छोड़कर चले गए थे, इसलिए जब अज़ाब की निशानियाँ देखकर आशूरियों ने तौबा व इस्तिग़फ़ार की तो अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया। कुरआन मजीद में अल्लाह के विधान के जो नियम वर्णन किए गए हैं, उनमें से एक स्थाई धारा यह भी है कि अल्लाह किसी कौम को उस समय तक अज़ाब नहीं देता जब तक उसपर अपनो युक्ति पूरी नहीं कर लेता। अतः जब नबी ने उस कौम की मोहलत के अन्तिम क्षणों तक रसूल होने की ज़िम्मेदारी पूरी न की और अल्लाह के निर्धारित समय से पहले स्वयं ही अपनी जगह से हट गया, तो अल्लाह के न्याय ने उसकी क़ौम को अज़ाब देना गवारा न किया, क्योंकि युक्ति पूरी करने की कानूनी शर्ते पूरी न हुई थीं। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-37 अस्साफ्फात की टिप्पणी 85)
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَأٓمَنَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ كُلُّهُمۡ جَمِيعًاۚ أَفَأَنتَ تُكۡرِهُ ٱلنَّاسَ حَتَّىٰ يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 98
(99) अगर तेरे रब की इच्छा यह होती (कि ज़मीन में सब ईमानवाले और आज्ञाकारी ही हों) तो सारे ज़मीनवाले ईमान ले आए होते।101 फिर क्या तू लोगों को विवश करेगा कि वे ईमानवाले हो जाएँ ?102
101. अर्थात् अगर अल्लाह की इच्छा यह होती कि ठसकी जमीन में इंकार और अवज्ञा का सिरे से कोई अस्तित्व ही न हो तो उसके लिए प्रकृति-बल से काम लेकर ऐसा कर डालना कुछ कठिन न था, परन्तु इंसानों के पैदा करने में जो विवेकपूर्ण उद्देश्य उसके सामने है, वह इस प्रकृति-बल के इस्तेमाल से समाप्त हो जाता है। इसलिए अल्लाह स्वयं ही इंसानों को ईमान लाने या न लाने और आज्ञापालन करने या न करने में आज़ाद रखना चाहता है।
102. इसका अर्थ यह नहीं है कि नबी (सल्ल०) लोगों को जबरदस्ती ईमानवाला बनाना चाहते थे और अल्लाह आप (सल्ल०) को ऐसा करने से रोक रहा था। यहाँ सम्बोधन प्रत्यक्षतः आप ही से है, लेकिन सम्बोधन-दिशा वास्तव में 'दावत' के इंकारियों की ओर है और कहने का अभिप्राय यह है कि लोगो। युक्ति और तर्क से मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता का अन्तर खोलकर रख देने और सीधा रास्ता साफ़-साफ़ दिखा देने का जो हक़ था वह तो हमारे नबी ने पूरा-पूरा अदा कर दिया है। अब अगर तुम स्वयं सीधे रास्तेवाला बनना नहीं चाहते और तुम्हारा सीधे रास्ते पर आना केवल इसी पर आश्रित है कि कोई तुम्हें ज़बरदस्ती सीधे रास्ते पर लाए, तो तुम्हें मालूम होना चाहिए कि नबी के सुपुर्द यह काम नहीं किया गया है, न अल्लाह को ऐसा जबरदस्ती ईमान अभिप्रेत है।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تُؤۡمِنَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَجۡعَلُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 99
(100) कोई जीव अल्लाह की अनुमति के बिना ईमान नहीं ला सकता।103 और अल्लाह का तरीक़ा यह है कि जो लोग बुद्धि से काम नहीं लेते वह उनपर गन्दगी डाल देता है।104
103. अर्थात् दुनिया की तमाम दूसरी नेमतों की तरह ईमान की नेमत का प्राप्त करना भी अल्लाह की अनुमति पर आश्रित है। कोई आदमी न इस नेमत को अल्लाह की अनुमति के बिना स्वयं पा सकता है और न किसी इंसान के वश में यह है कि जिसको चाहे यह नेमत अता कर दे। अत: नबी अगर सच्चे दिल से यह चाहे भी कि लोगों को ईमानवाला बना दे तो नहीं बना सकता। इसके लिए अल्लाह की अनुमति और उसका सौभाग्य प्रदान करना अपेक्षित है।
104. यहाँ स्पष्टतः बता दिया गया कि अल्लाह की अनुमति और उसका सौभाग्य कोई अंधी बॉट नहीं है कि बिना किसी विवेक और बिना किसी उचित नियम के यूँ ही जिसको चाहा ईमान की नेमत पाने का अवसर दिया और जिसे चाहा इस अवसर से वंचित कर दिया। बल्कि इसका एक बड़ा विवेकपूर्ण नियम है, और वह यह है कि जो आदमी वास्तविकता की खोज में बे-लाग तरीके से अपनी बुद्धि को ठीक-ठीक इस्तेमाल करता है उसके लिए तो अल्लाह की ओर से वास्तविकता तक पहुँचने के साधन उसकी कोशिश और तलब के अनुपात से जुटा दिए जाते हैं और उसी को सही ज्ञान पाने और ईमान लाने का सौभाग्य प्रदान किया जाता है। रहे वे लोग जो सत्य की तलब ही नहीं रखते और जो अपनी बुद्धि को दुराग्रहों के फँदै से फाँसे रखते हैं, या सिरे से सत्य की खोज में उसका उपयोग ही नहीं करते, तो उनके लिए अल्लाह के भाग्य-कोष में अज्ञानता और पथभ्रष्टता और ग़लत देखने और ग़लत करने की गन्दगियों के सिवा और कुछ नहीं है। वे अपने आपको उन्हीं गन्दगियों का पात्र बनाते हैं और यही उनके भाग्य में लिखा जाता है।
قُلِ ٱنظُرُواْ مَاذَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَا تُغۡنِي ٱلۡأٓيَٰتُ وَٱلنُّذُرُ عَن قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 100
(101) इनसे कहो, "जमीन और आसमानों में जो कुछ है उसे आँखें खोलकर देखो।" और जो लोग ईमान लाना ही नहीं चाहते उनके लिए निशानियाँ और चेतावनियाँ आख़िर क्या लाभप्रद हो सकती हैं ?105
105. यह उनकी उस माँग का अन्तिम और अटल उत्तर है जो वे ईमान लाने के लिए शर्त के तौर पर पेश करते थे कि हमें कोई निशानी दिखाई जाए जिससे हमें विश्वास हो जाए कि तुम्हारी नुबूवत सच्ची है। इसके उत्तर में फ़रमाया जा रहा है कि अगर तुम्हारे भीतर सत्य की चाह और सत्य अपनाने की तत्परता हो तो वह अगणित निशानियाँ जो ज़मीन व आसमान में हर ओर फैली हुई हैं, तुन्हें मुहम्मद (सल्ल०) के सन्देश की सच्चाई पर सन्तुष्ट करने के लिए काफ़ी से ज़्यादा है। सिर्फ़ आँखें खोलकर इन्हें देखने की ज़रूरत है लेकिन अगर यह चाह और यह तत्परता तुम्हारे भीतर मौजूद नहीं है। तो फिर कोई निशानी भी, भले ही वह कैसी विचित्र और अनोखी हो, तुम्हें ईमान की नेमत से मालामाल नहीं कर सकती। हर मोजज़े (चमत्कार) को देखकर तुम फिरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों की तरह कहोगे कि यह तो जादूगरी है। इस रोग में जो लोग संलिप्त होते हैं उनकी आँखें सिर्फ उस समय खुला करती हैं जब अल्लाह का प्रकोप अपनी भयानक पकड़ के साथ उनपर टूट पड़ता है, जिस तरह फ़िरऔन की आँखें डूबते समय खुली थीं। मगर ठीक गिरफ़्तारी के मौके पर जो तौबा की जाए, उसका कोई मूल्य नहीं।
فَهَلۡ يَنتَظِرُونَ إِلَّا مِثۡلَ أَيَّامِ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِهِمۡۚ قُلۡ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 101
(102) अब ये लोग इसके सिवा और किस चीज़ की प्रतीक्षा में हैं कि वही बुरे दिन देखें जो इनसे पहले गुज़रे हुए लोग देख चुके हैं ? इनसे कहो, “अच्छा प्रतीक्षा करो, मैं भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करता हूँ।”
ثُمَّ نُنَجِّي رُسُلَنَا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ كَذَٰلِكَ حَقًّا عَلَيۡنَا نُنجِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 102
(103) फिर (जब ऐसा समय आता है तो) हम अपने रसूलों को और उन लोगों को बचा लिया करते हैं जो ईमान लाए हों। हमारा यही तरीका है। हमपर यह हक़ है कि ईमानवालों को बचा लें।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي شَكّٖ مِّن دِينِي فَلَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِنۡ أَعۡبُدُ ٱللَّهَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُمۡۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 103
(104) ऐ नबी ! कह दो कि106 "लोगो, अगर तुम अभी तक मेरे दीन के बारे में किसी सन्देह में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करते हो, मैं उनकी बन्दगी नहीं करता,बल्कि केवल उसी अल्लाह की बन्दगी करता हूँ जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी मौत है।107 मुझे आदेश दिया गया है कि मैं ईमान लानेवालों में से हूँ
106. जिस विषय से भाषण का आरंभ किया गया था उसी पर अब भाषण को समाप्त किया जा रहा है। तुलना के लिए आरंभिक आयतों में वर्णित विषय पर पुन: एक दृष्टि डाल ली जाए।
107. मूल अरबी में शब्द 'य-त-वफ़्फ़ाकुम' है जिसका शाब्दिक अर्थ- है, “जो तुम्हें मौत देता है।" लेकिन इस शाब्दिक अनुवाद से मूल भाव स्पष्ट नहीं होता। इस कथन का मूल भाव यह है कि "वह जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी जान है, जो तुमपर ऐसी पूर्ण साधिकारिक सत्ता रखता है कि उसी की मर्जी पर तुम्हारी ज़िन्दगी भी पूरी तरह आश्रित है और तुम्हारी मौत भी। मैं केवल उसकी उपासना और उसी की बन्दगी व ग़ुलामी और उसी के आज्ञापालन का क़ायल हूँ।” यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि मक्का के मुशिक भी इस वास्तविकता को मानते थे कि मौत केवल सर्वजगत् के पालनहार अल्लाह के अधिकार में है। अतः अभिप्राय व्यक्त करने के लिए अल्लाह के अगणित गुणों में से यह प्रमुख गुण कि “वह जो तुम्हें मौत देता है' यहाँ इसलिए चुना गया है कि अपना मत व्यक्त करने के साथ-साथ उसके सही होने का तर्क भी दे दिया जाए। फिर अंलकृत भाषा व सुन्दरता यह भी है कि “वह जो मुझे मौत देनेवाला है" कहने के बजाय 'वह जो तुम्हें मौत देता है' फ़रमाया, जिससे यह अर्थ निकला कि मुझे ही नहीं, तुम्हें भी उसी की बन्दगी करनी चाहिए और तुम यह ग़लती कर रहे हो कि उसके सिवा दूसरों की बन्दगी किए जाते हो] इस तरह एक ही शब्द में अभिप्राय का व्यक्त करना.उसका प्रमाण देना और उसकी ओर बुलाना-तीनों भाव जमा कर दिए गए हैं।
وَأَنۡ أَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗا وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 104
(105) और मुझसे फ़रमाया गया है कि तू एकाग्र होकर अपने आपको ठीक-ठीक इस दीन पर क़ायम कर दे।108 और कदापि-कदापि मुशरिकों में से न हो।109
108. इस माँग की तीव्रता ध्यान देने योग्य है। इसके मूल शब्द हैं “अक़िम वज-ह-क लिद्दीनि हनीफ़ा।" "अक़िम वज-ह-क' का शाब्दिक अर्थ है “अपना चेहरा जमा दे।” अर्थात् तेरा चेहरा एक ही ओर स्थिर हो। डगमगाता और हिलता-डुलता न हो । कभी पीछे और कभी आगे और कभी दाएँ और कभी बाएँ न मुड़ता रहे। बिल्कुल नाक की सीध में उसी रास्ते पर नज़रें जमाए हुए चल जो तुझे दिखा दिया गया है। यह बन्धन अपने आपमें बहुत चुस्त था, मगर इसपर भी बस न किया गया। इसपर एक और क़ैद 'हनीफ़ा’ की बढ़ा दी गई। 'हनीफ़' उसे कहते हैं जो सब ओर से मुड़कर एक ओर हो रहा हो । अतः माँग यह है कि इस दीन को, अल्लाह की बन्दगी के इस तरीक़े को, ज़िन्दगी के इस रवैये को इबादत, बन्दगी, ग़ुलामी, आज्ञापालन, फ़रमाँबरदारी, सब कुछ सिर्फ़ अल्लाह रब्बुल आलमीन ही की की जाए, ऐसी एकाग्रता अपनाकर कि किसी दूसरे तरीक़े की ओर तनिक भर भी रुझान व झुकाव न हो।
109. अर्थात् उन लोगों में कदापि सम्मिलित न हो जो अल्लाह की ज़ात में, उसके गुणों में, उसके हकों में और उसके अधिकारों में किसी तौर पर ग़ैर-अल्लाह को शरीक करते हैं। अत: माँग केवल इस स्वीकारात्मक तरीक़े ही में नहीं है कि विशुद्ध तौहीद का रास्ता पूरे जमाव के साथ अपनाओ, बल्कि इस निषेधात्मक रूप में भी है कि उन लोगों से अलग हो जा जो किसी शक्ल और किसी ढंग का शिर्क करते हों । विश्वास ही में नहीं, व्यवहार में भी, व्यक्तिगत जीवन के तरीके ही में नहीं, सामूहिक जीवन-व्यवस्था में भी, इबादतगाहों और पूजाघरों ही में नहीं, स्कूलों और मदरसों में भी, अदालतों में भी, विधायिका की सभाओं में भी, राजनीति के सदनों में भी, अर्थ के बाज़ारों में भी। तात्पर्य यह कि हर जगह उन लोगों के तरीक़े से अपना तरीक़ा अलग कर ले जिन्होंने अपने चिन्तन व व्यवहार की पूरी जीवन-व्यवस्था ख़ुदापरस्ती और बे-ख़ुदापरस्ती की मिलावट पर स्थापित कर रखी है-फिर माँग खुले शिर्क ही से बचने की नहीं है, बल्कि छिपे शिर्क से भी पूरी तरह कठोरता के साथ बचने का है। बल्कि छिपा शिर्क अधिक भयानक है और उससे होशियार रहने की और भी अधिक ज़रूरत है। कुछ नासमझ लोग 'छिपे शिर्क' को 'हलका शिर्क' समझते हैं और इनका विचार यह है कि इसका मामला इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितने खुले शिर्क का है। हालाँकि 'छिपे' का अर्थ हलका' नहीं, बल्कि छिपा हुआ है। [और हर व्यक्ति जानता है कि गुप्त बीमारियाँ उन बीमारियों से अधिक घातक सिद्ध होती हैं जिनके चिह्न बिल्कुल स्पष्ट हों। जिस शिर्क को हर आदमी एक ही नज़र में देखकर कह दे कि यह शिर्क है, उससे तो एकेश्वरवादी (तौहीद) धर्म का टकराव बिल्कुल स्पष्ट है, मगर जिस शिर्क को समझने के लिए गहरी निगाह और तौहीद के तक़ाज़ों की गहरी समझ चाहिए, वह अपनी अदृश्य जड़ें दीन की व्यवस्था में इस तरह फैलाता है कि आम एकेश्वरवादियों को उनकी ख़बर तक नहीं होती और धीरे-धीरे ऐसे गैर-महसूस तरीक़े से दीन की आत्मा को खा जाता है कि कहीं ख़तरे का एलार्म बजने की नौबत ही नहीं आती।
وَلَا تَدۡعُ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكَ وَلَا يَضُرُّكَۖ فَإِن فَعَلۡتَ فَإِنَّكَ إِذٗا مِّنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 105
(106) और अल्लाह को छोड़कर किसी ऐसी हस्ती को न पुकार जो तुझे न लाभ पहुँचा सकती है, न हानि। अगर तू ऐसा करेगा तो ज़ालिमों में से होगा।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يُرِدۡكَ بِخَيۡرٖ فَلَا رَآدَّ لِفَضۡلِهِۦۚ يُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 106
(107) अगर अल्लाह तुझे किसी विपत्ति में डाले तो स्वयं उसके सिवा कोई नहीं जो इस विपत्ति को टाल दे और अगर वह तेरे पक्ष में किसी भलाई का इरादा करे, तो उसकी कृपा को फेरनेवाला भी कोई नहीं है। वह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है अपनी कृपा प्रदान करता है और वह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।‘’
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۖ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 107
(108) ऐ नबी ! कह दो कि “लोगो ! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से सत्य आ चुका है। अब जो सीधी राह अपनाए, उसका सीधे रास्ते पर चलना उसी के लिए लाभदायक है और जो गुमराह रहे उसकी गुमराही उसी के लिए तबाह करनेवाली है, और मैं तुम्हारे ऊपर कोई हवालेदार नहीं हूँ।
وَٱتَّبِعۡ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَٱصۡبِرۡ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 108
(109) और ऐ नबी ! तुम इस हिदायत की पैरवी किए चले जाओ जो तुम्हारी ओर वह्य के ज़रिये भेजी जा रही है और सब्र करो यहाँ तक कि अल्लाह निर्णय कर दे, और वही सबसे अच्छा निर्णय करनेवाला है।