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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ

60. अल-मुम्तहिना

(मदीना में उतरी, आयतें 13)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 10 में आदेश दिया गया है कि ‘जो औरतें हिजरत करके आएँ और मुसलमान होने का दावा करें उनकी परीक्षा ली जाए।’ इसी संदर्भ में इसका नाम 'अल-मुस्तहिना' रखा गया है। इसका उच्चारण मुम्तहना भी किया जाता है और मुम्तहिना भी। पहले उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "वह औरत जिसकी परीक्षा ली जाए" और दूसरे उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "परीक्षा लेनेवाली सूरा।"

उतरने का समय

इसमें दो ऐसे मामलों पर वार्ता की गई है जिनका समय ऐतिहासिक रूप से मालूम है। पहला मामला हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तअह (रज़ि०) का है और दूसरा मामला उन मुसलमान औरतों का है जो हुदैबिया के समझौते के बाद मक्का से हिजरत करके मदीना आने लगी थीं। इन दो मामलों के उल्लेख से [जिनका विस्तृत विवरण आगे आ रहा है] यह बात बिलकुल निश्चित हो जाती है कि यह सूरा हुदैबिया के समझौते और मक्का-विजय के मध्य उतरी है।

विषय और वार्ता

इस सूरा के तीन भाग हैं : पहला भाग सूरा के आरंभ से आयत 9 तक चलता है और सूरा के अन्त पर आयत 13 भी इसी से ताल्लुक रखती है। इसमें हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) के इस कर्म पर कड़ी पकड़ की गई है कि उन्होंने केवल अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एक अति महत्त्वपूर्ण युद्ध-सम्बन्धी रहस्य से शत्रुओं को अवगत कराने की कोशिश की थी, जिसे अगर समय रहते विफल नहीं कर दिया गया होता तो मक्का-विजय के अवसर पर बड़ा ख़ून-ख़राबा होता और वे तमाम फ़ायदे भी हासिल न हो सकते जो मक्का पर शान्तिमय ढंग से विजय प्राप्त करने के रूप में प्राप्त हो सकते थे। [हज़रत हातिब (रज़ि०) की] इस भयानक ग़लती पर सचेत करते हुए अल्लाह ने तमाम ईमानवालों को यह शिक्षा दी है कि किसी ईमानवाले को किसी हाल में और किसी उद्देश्य के लिए भी इस्लाम के दुश्मन के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध न रखना चाहिए और कोई ऐसा काम न करना चाहिए जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष में शत्रुओं के लिए लाभप्रद हो। अलबत्ता जो काफ़िर इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से शत्रुता और पीड़ा पहुँचाने का काम न कर रहे हों, उनके साथ सद्व्यवहार की नीति अपनाने में कोई दोष नहीं है। दूसरा भाग आयत 10-11 पर आधारित है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान किया गया है जो उस समय बड़ी पेचीदगी पैदा कर रही थी। मक्का में बहुत-सी मुसलमान औरतें ऐसी थीं, जिनके पति अधर्मी थे और वे किसी न किसी प्रकार हिजरत करके मदीना पहुँच जाती थीं। इसी तरह मदीना में बहुत-से मुसलमान मर्द ऐसे थे जिनकी पत्‍नियाँ अधर्मी थीं और वे मक्का ही में रह गई थीं। उनके बारे में यह प्रश्न पैदा होता था कि उनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध बाक़ी है या नहीं। अल्लाह ने इसका हमेशा के लिए यह निर्णय कर दिया कि मुसलमान औरत के लिए अधर्मी पति हलाल (वैध) नहीं है और मुसलमान मर्द के लिए यह वैध नहीं कि वह मुशरिक (बहुदाववादी) पत्‍नी के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध बनाए रखे। तीसरा भाग आयत 12 पर आधारित है, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि जो औरतें इस्लाम अपना लें, उनसे आप बड़ी-बड़ी बुराइयों से बचने का और भलाई के तमाम तरीक़ों के अनुसरण का [वचन लें।]

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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ
60. अल-मुम्तहिना
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمۡ أَوۡلِيَآءَ تُلۡقُونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَقَدۡ كَفَرُواْ بِمَا جَآءَكُم مِّنَ ٱلۡحَقِّ يُخۡرِجُونَ ٱلرَّسُولَ وَإِيَّاكُمۡ أَن تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ رَبِّكُمۡ إِن كُنتُمۡ خَرَجۡتُمۡ جِهَٰدٗا فِي سَبِيلِي وَٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِيۚ تُسِرُّونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَأَنَا۠ أَعۡلَمُ بِمَآ أَخۡفَيۡتُمۡ وَمَآ أَعۡلَنتُمۡۚ وَمَن يَفۡعَلۡهُ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ
(1 ) ऐ1 लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम मेरी राह में जान तोड़ संघर्ष (जिहाद) करने के लिए और मेरी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए (वतन छोड़कर घरों से) निकले हो तो मेरे और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ। तुम उनके साथ दोस्ती की बुनियाद डालते हो, हालाँकि जो सत्य तुम्हारे पास आया है उसको मानने से वे इंकार कर चुके हैं, और उनका व्यवहार यह है कि रसूल को और स्वयं तुमको सिर्फ़ इस अपराध में वतन से निकालते हैं कि तुम अपने रब, अल्लाह, पर ईमान लाए हो। तुम छिपाकर उनको मैत्री-सन्देश भेजते हो, हालाँकि जो कुछ तुम छिपाकर करते हो और जो एलानिया करते हो, हर चीज़ को मैं खूब जानता हूँ। जो व्यक्ति भी तुममें से ऐसा करे, वह निश्चय ही सीधे रास्ते से भटक गया।
1. टीकाकार इस बात पर सहमत हैं कि ये आयतें उस समय उतरी थीं जब मक्का के मुशरिकों के नाम हज़रत हातिब बिन अबी बल्तआ (रजि०) का ख़त पकड़ा गया था। क़िस्सा यह है कि जब क़ुरैश के लोगों ने हुदैबिया-समझौते को भंग कर दिया तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मक्का मुअज्ज़मा पर चढ़ाई की तैयारियां शुरू कर दीं, मगर कुछ ख़ास सहाबा के सिवा किसी को यह न बताया कि आप किस मुहिम पर जाना चाहते हैं। संयोगवश उसी समय में मक्का से एक औरत आई। जब वह मक्का वापस जाने लगी तो हज़रत हातिब बिन अबी बल्तआ (रजि०) उससे मिले और उसको चुपके से एक ख़त, मक्का के कुछ सरदारों के नाम दिया और दस दीनार दिए ताकि वह भेद न खोले और छिपाकर यह ख़त उन लोगों तक पहुँचा दे। अभी वह मदीना से रवाना ही हुई थी कि अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को इसकी खबर दे दी। आप (सल्ल०) ने तत्काल हज़रत अली (रजि०), हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत मिक़दाद बिन अस्वद (रजि०) को उसके पीछे भेजा और हुक्म दिया कि तेज़ी से जाओ। रौज़ए-ख़ाख़ के स्थान पर (मदीना से 12 मील मक्का की तरफ़) तुमको एक औरत मिलेगी, जिसके पास मुशरिकों के नाम हातिब का एक ख़त है। जिस तरह भी हो उससे वह ख़त ले लो। ये लोग जब उस जगह पहुँचे तो औरत वहाँ मौजूद थी। उन्होंने उससे ख़त [ले लिया और उसे नबी (सल्ल०) की सेवा में ले आए। खोलकर पढ़ा गया तो उसमें कुरैश के लोगों को यह सूचना दी गई थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तुमपर चढ़ाई की तैयारी कर रहे हैं। नबी (सल्ल०) ने हज़रत हातिब से पूछा, "यह क्या हरकत है?" उन्होंने कहा, "आप मेरे मामले में जल्दी न फ़रमाएँ। असल बात यह है कि मेरे नातेदार मक्का में रह रहे हैं, मैंने यह ख़त यह सोचकर भेजा था कि कुरैशवालों पर मेरा एक उपकार रहे जिसकी वजह से वे मेरे बाल-बच्चों को न छेड़ें।" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हातिब (रज़ि०) की यह बात सुनकर मौजूद लोगों से फ़रमाया, "हातिब ने तुमसे सच्ची बात कही।" अर्थात् इनके इस कार्य का वास्तविक प्रेरक यही था। इस्लाम से विमुखता और कुफ़्र के समर्थन की भावना इसकी प्रेरक न थी । हज़रत उमर (रजि०) ने उठकर अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल.)! मुझे इजाज़त दीजिए कि मैं इस मुनाफ़िक़ की गर्दन मार दूं। इसने अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों से ख़ियानत (छल-कपट) किया है।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "इस व्यक्ति ने बद्र की लड़ाई में हिस्सा लिया हैं, तुम्हें क्या ख़बर, हो सकता है कि अल्लाह ने बद्रवालों को देखकर कह दिया हो कि तुम चाहे जो भी करो, मैंने तुमको माफ़ किया।" यह बात सुनकर हज़रत उमर (रज़ि०) रो दिए और उन्होंने कहा कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ही सबसे ज़्यादा जानते हैं।
إِن يَثۡقَفُوكُمۡ يَكُونُواْ لَكُمۡ أَعۡدَآءٗ وَيَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ وَأَلۡسِنَتَهُم بِٱلسُّوٓءِ وَوَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 1
(2) उनकी रीति तो यह है कि अगर तुमपर क़ाबू पा जाएँ तो तुम्हारे साथ दुश्मनी करें और हाथ और ज़बान से तुम्हें दुख दें। वे तो यह चाहते हैं कि तुम किसी तरह इंकार करनेवाले हो जाओ।2
2. यहाँ तक जो कुछ कहा गया है, और आगे इसी सिलसिले में जो कुछ आ रहा है, यद्यपि उसके उतरने का मौक़ा हज़रत हातिब (रजि०) ही की घटना थी, लेकिन अल्लाह ने सिर्फ उन्हीं के मुक़द्दमे पर वार्ता करने के बजाय तमाम ईमानवालों को हमेशा-हमेशा के लिए यह शिक्षा दी है कि कुफ़्र व इस्लाम का जहाँ मुक़ाबला हो, वहाँ किसी व्यक्ति का किसी हित या मस्लहत से भी कोई ऐसा काम करना जिससे इस्लाम के हित को नुक़सान पहुँचता हो और कुफ़्र और कुफ़्फ़ार के हित की सेवा होती हो, ईमान के विरुद्ध हरकत है।
لَن تَنفَعَكُمۡ أَرۡحَامُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡۚ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَفۡصِلُ بَيۡنَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 2
(3) क़ियामत के दिन न तुम्हारी रिश्तेदारियाँ किसी काम आएँगी, न तुम्हारी सन्तान3। उस दिन अल्लाह तुम्हारे बीच जुदाई डाल देगा,4 और वही तुम्हारे कामों का देखनेवाला है।5
3. यह संकेत है हज़रत हातिब (रज़ि०) की ओर। उन्होंने बाल बच्चों को लड़ाई के मौके पर शत्रुओं के उत्पीड़न से बचाने के लिए यह काम किया था। इस पर फ़रमाया जा रहा है कि तुमने जिनके लिए इतना बड़ा अपराध कर डाला, वे क़ियामत के दिन तुम्हें बचाने के लिए नहीं आएँगे। उस समय हर एक को अपनी ही पड़ी होगी। अपने कर्मों ही की सज़ा से बचने का सवाल हर व्यक्ति की जान के लिए मुसीबत बन रहा होगा, कहाँ यह कि कोई दूसरे के हिस्से की सज़ा अपने ऊपर लेने के लिए तैयार हो। यही बात है जो कुरआन मजीद में अनेक स्थानों पर अधिक स्पष्ट शब्दों में फ़रमाई गई है। [जैसे सूरा-70 अल-मआरिज, आयतें 11-14 और सूरा-80 अ-ब-स, आयतें 34-37]
4. अर्थात् दुनिया के तमाम रिश्ते, सम्बन्ध और संपर्क वहाँ तोड़ दिए जाएंगे। हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत रूप में पेश होगा और हर एक को अपना ही हिसाब देना पड़ेगा। इसलिए दुनिया में किसी व्यक्ति को भी किसी रिश्तेदारी, दोस्ती या जत्थाबंदी की ख़ातिर कोई नाजायज़ काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने किए की सज़ा उसको ख़ुद ही भुगतनी होगी। उसकी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शरीक न होगा।
قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 3
(4) तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौमवालों से साफ़ कह दिया, "हम तुमसे और तुम्हारे उन उपास्यों से जिनको तुम ख़ुदा को छोड़कर पूजते हो, बिलकुल बेज़ार हैं, हमने तुमसे कुफ़्र किया6 और हमारे और तुम्हारे बीच सदा के लिए शत्रुता हो गई और वैर पड़ गया जब तक तुम अकेले अल्लाह पर ईमान न लाओ।" मगर इबराहीम का अपने बाप से यह कहना (इससे अलग है) कि "मैं आपके लिए माफ़ी की प्रार्थना ज़रूर करूँगा, और अल्लाह से आपके लिए कुछ प्राप्त कर लेना मेरे बस में नहीं है।"7 (और इबराहीम और इबराहीम के साथियों की दुआ यह थी कि) “ऐ हमारे रब ! तेरे ही ऊपर हमने भरोसा किया और तेरी ही तरफ़ हमने रुजू कर लिया और तेरे ही पास हमें पलटना है।
6. अर्थात् हम तुम्हारे इंकारी हैं, न तुम्हें सत्य पर मानते हैं, न तुम्हारे दीन को। अल्लाह पर ईमान का अनिवार्य तक़ाज़ा 'तागूत' (सरकश, उदंड) से कुफ्र (इंकार) है। (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 256)
7. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह बात तो अनुकरणीय है कि उन्होंने अपनी काफ़िर और मुशरिक क़ौम से स्पष्ट शब्दों में बेज़ारी (विमुखता) और संबंध तोड़ने का एलान कर दिया था, मगर उनकी यह बात अनुकरणीय नहीं है कि उन्होंने अपने मुशरिक बाप के लिए मरिफ़रत (माफ़ी) की दुआ करने का वादा किया और व्यावहारतः उसके हक़ में दुआ की। इसलिए कि शत्रुओं के साथ प्रेम और सहानुभूति का इतना सम्बन्ध भी ईमानवालों को न रखना चाहिए, [जैसा कि] सूरा-9 तौबा, आयत 113 [में स्पष्ट रूप से फ़रमा दिया गया है।] रहा यह प्रश्न कि स्वयं हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने यह काम कैसे किया? और क्या वे इस पर क़ायम भी रहे? इसका उत्तर क़ुरआन मजीद में हमें पूरे विस्तार के साथ मिलता है। उनके बाप ने जब उनको घर से निकाल दिया तो चलते वक़्त उन्होंने कहा था, "आपको सलाम है, मैं अपने रब से आपके लिए मरिफ़रत की दुआ करूँगा" (सूरा-19 मरयम, आयत 147) । इसी वादे के कारण उन्होंने दो बार उसके हक़ में दुआ की। एक दुआ का उल्लेख सूरा-14 इबराहीम (आयत 41) में है और दूसरी दुआ सूरा-26 शुअरा (आयत 86) में है। लेकिन बाद में जब उनको यह एहसास हो गया कि अपने जिस बाप को मरिफ़रत (माफ़ी) के लिए वे दुआ कर रहे हैं वह तो अल्लाह का दुश्मन था, तो उन्होंने उससे अलग होने का एलान किया और उसके साथ सहानुभूति और प्रेम का यह नाता भी तोड़ दिया [(देखिए सूरा-9 तौबा, आयत 114)] । इन आयतों पर विचार करने से यह सैद्धान्तिक तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि नबियों का केवल वही कर्म अनुकरणीय है जिसपर वे अन्तिम समय तक कायम रहे हों। रहे उनके वे कर्म जिनको उन्होंने बाद में ख़ुद छोड़ दिया हो, या जिनपर अल्लाह ने उन्हें क़ायम न रहने दिया हो, या जिनका निषेध अल्लाह की शरीअत में आ चुका हो, वे अनुकरणीय नहीं हैं।
رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ وَٱغۡفِرۡ لَنَا رَبَّنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 4
(5) ऐ हमारे रब! हमें इंकार करनेवालों के लिए फ़ितना न बना दे।8 और ऐ हमारे रब! हमारी ग़लतियों को माफ़ कर दे, निस्सन्देह तू ही प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी है।"
8. इंकारियों के लिए ईमानवालों के फ़ितना बनने की बहुत-सी सूरतें हो सकती हैं। उदाहरण स्वरूप उसको एक सूरत यह हो सकती है कि इंकारी उनपर वर्चस्व प्राप्त कर लें और अपने वर्चस्व (ग़लबे) को इस बात का प्रमाण ठहराएँ कि हम सत्य पर हैं और ईमानवाले असत्य पर हैं। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि ईमानवालों पर इंकारियों का जुल्म व सितम उनकी सहन-शक्ति से बढ़ जाए और अन्तत: वे उनसे दबकर अपने धर्म और नैतिकता का सौदा करने पर उतर आएँ। तीसरी सूरत यह हो सकती है कि सत्य धर्म के प्रतिनिधित्व के उच्च पद पर आसीन होने के बावजूद ईमानवाले उस नैतिक श्रेष्ठता से वंचित रहें जो इस पद के अनुकूल है और दुनिया को उनके चरित्र व आचरण में भी वही दोष नज़र आए जो अज्ञान के समाज में आम तौर पर फैले हुए हों। इससे इंकारियों को यह कहने का अवसर मिलेगा कि इस धर्म में आख़िर वह क्या गुण है जो इसे हमारे कुफ़्र (अधर्म) के मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान करता हो? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 83)
لَقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِيهِمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 5
(6) उन्हीं लोगों के काम करने के तरीक़े में तुम्हारे लिए और हर उस व्यक्ति के लिए अच्छा नमूना है जो अल्लाह और अन्तिम दिन का उम्मीदवार हो।9 इससे कोई मुँह फेरे तो अल्लाह निस्पृह और अपने आप में ख़ुद प्रशंसनीय है।10
9. अर्थात जो इस बात की आशा रखता हो कि एक दिन अल्लाह के सामने हाज़िर होना है और इस चीज़ का उम्मीदवार हो कि अल्लाह उसे अपनी कृपा प्रदान करें और आखिरत के दिन उसे कामयाबी प्राप्त हो।
10. अर्थात् अल्लाह को ऐसे ईमान लानेवालों की कोई जरूरत नहीं है जो उसके दीन को मानने का दावा भी करें और फिर उसके शत्रुओं से मित्रता भी रखें। वह बेनियाज़ (निस्पृह) है। उसकी ख़ुदाई इसकी मुहताज नहीं कि ये लोग उसे ख़ुदा माने, और वह अपने में ख़ुद प्रशंसनीय है। उसका प्रशंसनीय होना इस बात पर निर्भर नहीं है कि ये उसकी प्रशंसा करें।
۞عَسَى ٱللَّهُ أَن يَجۡعَلَ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ عَادَيۡتُم مِّنۡهُم مَّوَدَّةٗۚ وَٱللَّهُ قَدِيرٞۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 6
(7) असंभव नहीं कि अल्लाह कभी तुम्हारे और उन लोगों के बीच मुहब्बत डाल दे जिनसे आज तुमने दुश्मनी मोल ली है।11 अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।
11. ऊपर की आयतों में मुसलमानों को अपने काफ़िर ('इंकारी) रिश्तेदारों से संबंध तोड़ लेने की ताकीद करने के बाद यह आशा भी दिलाई गई है कि ऐसा समय भी आ सकता है जब तुम्हारे यही रिश्तेदार मुसलमान हो जाएँ और आज की दुश्मनी कल फिर मुहब्बत में बदल जाए।
لَّا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَلَمۡ يُخۡرِجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ أَن تَبَرُّوهُمۡ وَتُقۡسِطُوٓاْ إِلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 7
(8) अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ नेकी और इंसाफ़ का बर्ताव करो जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे लड़ाई नहीं लड़ी है और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला है। अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है।12
12. अर्थ यह है कि जो व्यक्ति तुम्हारे साथ दुश्मनी नहीं करता, न्याय का तक़ाज़ा यह है कि तुम भी उसके साथ दुश्मनी न रखो। दुश्मन और गैर-दुश्मन को एक दर्जे में रखना और दोनों से एक ही जैसा व्यवहार करना न्याय नहीं है। तुम्हें उन लोगों के साथ कठोर व्यवहार अपनाने का अधिकार है जिन्होंने ईमान लाने के बदले में तुमपर अत्याचार किए और तुमको वतन से निकल जाने पर मजबूर किया और निकालने के बाद भी तुम्हारा पीछा न छोड़ा। मगर जिन लोगों ने इस जुल्म में कोई भाग नहीं लिया, न्याय यह है कि तुम उनके साथ अच्छा व्यवहार करो और रिश्ते और बिरादरी की दृष्टि से उनके जो हक़ तुमपर आइद होते हैं उन्हें अदा करने में कमी न करो।
إِنَّمَا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ قَٰتَلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَأَخۡرَجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ وَظَٰهَرُواْ عَلَىٰٓ إِخۡرَاجِكُمۡ أَن تَوَلَّوۡهُمۡۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 8
(9) वह तुम्हें जिस बात से रोकता है वह तो यह है कि तुम उन लोगों से दोस्ती करो जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध किया है और तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है और तुम्हारे निकालने में एक-दूसरे की सहायता की है। उनसे जो लोग दोस्ती करें, वही ज़ालिम हैं।13
13. पिछली आयतों में कुफ्फार (शत्रुओं) से जिस सम्बन्ध विच्छेद का आदेश दिया गया था उसके बारे में लोगों को यह भ्रम हो सकता था कि यह उनके काफ़िर (इंकारी) होने की वजह से है। इसलिए इन आयतों में यह समझाया गया है कि उसका मूल कारण उनका कुफ्र नहीं, बल्कि इस्लाम और इस्लाम को माननेवालों के साथ उनकी शत्रुता और उनका अत्याचारपूर्ण रवैया है। इसलिए मुसलमानों को दुश्मन काफ़िर और ग़ैर-दुश्मन काफ़िर में अन्तर करना चाहिए, और उन काफ़िरों के साथ उपकार की नीति अपनानी चाहिए, जिन्होंने कभी उनके साथ कोई बुराई न की हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا جَآءَكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ مُهَٰجِرَٰتٖ فَٱمۡتَحِنُوهُنَّۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِهِنَّۖ فَإِنۡ عَلِمۡتُمُوهُنَّ مُؤۡمِنَٰتٖ فَلَا تَرۡجِعُوهُنَّ إِلَى ٱلۡكُفَّارِۖ لَا هُنَّ حِلّٞ لَّهُمۡ وَلَا هُمۡ يَحِلُّونَ لَهُنَّۖ وَءَاتُوهُم مَّآ أَنفَقُواْۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۚ وَلَا تُمۡسِكُواْ بِعِصَمِ ٱلۡكَوَافِرِ وَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقۡتُمۡ وَلۡيَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقُواْۚ ذَٰلِكُمۡ حُكۡمُ ٱللَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡۖ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 9
(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब ईमानवाली औरतें घर-बार छोड़कर तुम्हारे पास आएँ तो उनके ईमानवाली होने की जाँच-पड़ताल कर लो, और उनके ईमान की वास्तविकता तो अल्लाह ही भली-भाँति जानता है। फिर जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे ईमानवाली हैं तो उन्हें काफ़िरों की ओर वापस न करो।14 न वे काफ़िरों के लिए हलाल हैं और न काफ़िर उनके लिए हलाल। उनके काफ़िर पतियों ने जो महर उनको दिए थे, वह उन्हें फेर दो। और उनसे निकाह कर लेने में तुमपर कोई गुनाह नहीं, जबकि तुम उनके महर उनको अदा कर दो।15 और तुम ख़ुद भी काफ़िर औरतों को अपने निकाह में न रोके रहो । जो महर तुमने अपनी काफ़िर बीवियों को दिए थे, वह तुम वापस माँग लो और जो महर काफ़िरों ने अपनी मुसलमान बीवियों को दिए थे, उन्हें वे वापस माँग लें।16 यह अल्लाह का आदेश है, वह तुम्हारे बीच फ़ैसला करता है, और अल्लाह बड़ा जाननेवाला और तत्वदर्शी है।
14. इस आदेश की पृष्ठभूमि यह है कि हुदैबिया के समझौते के बाद शुरू-शुरू में तो मुसलमान मर्द मक्का से भाग-भागकर मदीना आते रहे और उन्हें समझौते की शर्तों के मुताबिक़ वापस किया जाता रहा। फिर मुसलमान औरतों के आने का सिलसिला शुरू हो गया और कुफ्फार ने समझौते का हवाला देकर उनकी वापसी की भी मांग की। इसपर यह प्रश्न पैदा हुआ कि क्या हुदैबिया का समझौता औरतों पर भी लागू होता है ? अल्लाह ने इसी सवाल का यहाँ जवाब दिया है कि अगर वे मुसलमान हों और यह इत्मीनान कर लिया जाए कि वास्तव में वे ईमान ही के लिए हिजरत (घर बार छोड़) करके आई हैं, कोई और चीज़ उन्हें नहीं लाई है, तो उन्हें वापस न किया जाए। यह आदेश इस आधार पर दिया गया कि संधि की जो शर्ते लिखी गई थीं उन [के अनुसार औरतों को वापस करने की कोई ज़िम्मेदारी न थी। यद्यपि बहुत-सी रिवायतों में ऐसे शब्द भी पाए जाते हैं जिनसे मालूम होता है कि समझौता सामान्य था, जिसमें औरत-मर्द सभी दाख़िल थे, लेकिन ये रिवायतें] ज़्यादातर बिल-माना रिवायतें हैं यानी ऐसी रिवायतें हैं जिनमें शब्द नहीं बल्कि तात्पर्य और आशय का उल्लेख किया गया है और उनकी वर्णन-शैली स्वयं यह बता रही है कि इनमें समझौते की उस शर्त को [जिसके अनुसार मक्का से मदीना भाग आनेवालों को मक्का वापस कर देने की ज़िम्मेदारी स्वीकार की गई थी,] उन शब्दों में बयान नहीं किया गया है जो मूल समझौते में लिखे गए थे। असल बात यह है समझौते की यह शर्त मुसलमानों की ओर से नहीं बल्कि क़ुरैश के कुफ़्फ़ार की ओर से थी और उनकी ओर से उनके नुमाइन्दे सुहैल बिन अम्र ने जो शब्द समझौते में लिखवाए थे वे ये थे, "और यह कि तुम्हारे पास हममें से कोई मर्द भी आए, यद्यपि वह तुम्हारे दीन ही पर हो, तुम उसे हमारी ओर वापस करोगे।" समझौते के ये शब्द [हदीस की प्रमुख पुस्तक] बुख़ारी, किताबुश्शुरूत, 'बाबुश्शुरूत फ़िल जिहाद वल मसालिह' में पक्की सनद के साथ उल्लेख हुए हैं। हो सकता है कि सुहैल ने रजुल (मर्द) का शब्द व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त किया हो, लेकिन यह उसका अपना आशय होगा। समझौते में जो शब्द लिखा गया था वह रजुल ही था जो अरबी भाषा में मर्द के लिए बोला जाता है। इसी कारण जब उम्मे-कुलसूम बिन्त उक़बा की वापसी की माँग लेकर [जो मक्का से मदीना हिजरत करके आई थीं] उनके भाई अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सेवा में हाज़िर हुए तो (इमाम ज़ोहरी की रिवायत के मुताबिक़) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको वापस करने से यह कहकर इंकार फ़रमाया कि "शर्त मर्दो के बारे में थी, न कि औरतों के बारे में," (अहकामुल-क़ुरआन : इब्ने अरबी, तफ़्सीर कबीर, इमाम राज़ी)। उस वक़्त तक ख़ुद कुरैश के लोग भी इस भ्रम में थे कि समझौता हर प्रकार के मुहाजिरों पर लागू होता है, भले ही वे मर्द हों या औरत। मगर जब नबी (सल्ल०) ने उनको समझौते के इन शब्दों की ओर तवज्जोह दिलाई तो वे ख़ामोश रह गए और उन्हें विवश होकर इस निर्णय को मानना पड़ा।
15. मतलब यह है कि उनके काफ़िर पतियों को उनके जो महर वापस किए जाएँगे वही इन औरतों के महर न माने जाएंगे, बल्कि अब जो मुसलमान भी उनमें से किसी औरत से निकाह करना चाहे, वह उसका मह्र अदा करे और उससे निकाह कर ले।
وَإِن فَاتَكُمۡ شَيۡءٞ مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ إِلَى ٱلۡكُفَّارِ فَعَاقَبۡتُمۡ فَـَٔاتُواْ ٱلَّذِينَ ذَهَبَتۡ أَزۡوَٰجُهُم مِّثۡلَ مَآ أَنفَقُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) और अगर तुम्हारी काफिर बीवियों के महरों में से कुछ तुम्हें काफ़िरों से वापस न मिले और फिर तुम्हारी नौबत (बारी) आए तो जिन लोगों की बीवियाँ उधर रह गई हैं, उनको उतनी रक़म अदा कर दो जो उनके दिए गए महों के बराबर हो17 और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
17. इस मामले में दो शक्लें थीं और यह आयत इन दोनों शक्लों पर लागू होती है- एक शक्ल यह थी कि जिन काफ़िरों से मुसलमानों के समझौते पर आधारित सम्बन्ध थे, उनसे मुसलमानों ने यह मामला तय करना चाहा कि जो औरतें हिजरत करके हमारी ओर आ गई। महर हम वापस कर देंगे, और हमारे आदमियों की जो काफ़िर पत्नियाँ उधर रह गई हैं, उनके महर तुम वापस कर दो। लेकिन उन्होंने इस बात को स्वीकार न किया। इसपर अल्लाह ने आदेश दिया कि मुहाजिर औरतों के जो महर तुम्हें मुशरिकों को वापस करने हैं वे उनको भेजने के बजाय मदीना ही में जमा कर लिए जाएँ और जिन लोगों को मुशरिकों से अपने दिए हुए मह वापस लेने हैं, उनमें से हर एक को उतनी रक़म दे दी जाए जो उसे कुफ़्फ़ार से वुसूल होनी चाहिए थी। दूसरी शक्ल यह थी कि जिन काफ़िरों से मुसलमानों के समझौते पर आधारित सम्बन्ध न थे, उनके क्षेत्रों से भी अनेकों आदमी इस्लाम स्वीकार करके दारुल इस्लाम में आ गए थे और उनकी काफ़िर पलियाँ वहाँ रह गई थी। इसी तरह कुछ औरतें भी मुसलमान होकर हिजरत कर आई थीं और उनके काफ़िर पति वहाँ रह गए थे। उनके बारे में यह फैसला कर दिया गया कि दारुल इस्लाम ही में अदले का बदला चुका दिया जाए। जब काफ़िरों से कोई महर वापस नहीं मिल रहा है तो उन्हें भी कोई महर वापस न किया जाए। इसके बजाय जो औरत इधर आ गई है, उसके बदले का महर उस व्यक्ति को अदा कर दिया जाए जिसकी पत्नी उधर रह गई है। लेकिन अगर इस तरह हिसाब बराबर न हो सके और जिन मुसलमानों की पलियाँ उधर रह गई हैं उनके वुसूल तलब महर हिजरत करके आनेवाली मुसलमान औरतों के महरों से ज़्यादा हों, तो आदेश दिया गया कि उस माले-ग़नीमत से बाक़ी रक़में अदा कर दी जाएँ जो काफ़िरों से लड़ाई में मुसलमानों के हाथ आए हों। (इब्ने-जरीर : इब्ने-अब्बास (रजि०) की रिवायत)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَٰنٖ يَفۡتَرِينَهُۥ بَيۡنَ أَيۡدِيهِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِي مَعۡرُوفٖ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 11
(12) ऐ नबी! जब तुम्हारे पास ईमानवाली औरतें बैअत करने के लिए आएँ18 और इस बात की प्रतिज्ञा करें कि वे अल्लाह के साथ किसी चीज़ को शरीक न करेंगी,19 चोरी न करेंगी, व्यभिचार न करेंगी, अपनी सन्तान को क़त्ल न करेंगी,20 अपने हाथ-पाँव के आगे कोई आरोप गढ़कर न लाएँगी21, और किसी भले काम में तुम्हारी अवज्ञा न करेंगी22 तो उनसे बैअत ले लो23 और उनके लिए माफ़ी की दुआ करो, निश्चित रूप से अल्लाह क्षमाशील और दयावान है।
18. जैसा कि हम पहले बयान कर चुके हैं कि यह आयत मक्का-विजय से कुछ पहले उतरी थी। इसके बाद जब मक्का पर विजय मिली तो कुरैश के लोग गिरोह के गिरोह नबी (सल्ल०) से बैअत करने के लिए हाज़िर होने लगे। आप (सल्ल०) ने मर्दो से सफ़ा पहाड़ पर स्वयं बैअ्त ली और हज़रत उमर (रजि०) को अपनी ओर से नियुक्त किया कि वे औरतों से बैअत लें और उन बातों का इक़रार कराएँ जो इस आयत में बयान हुई हैं। (इब्ने-जरीर : इब्ने-अब्बास (रजि०) की रिवायत; इब्ने हातिम : क़तादा की रिवायत) फिर मदीना वापस तशरीफ़ ले जाकर आप (सल्ल.) ने एक मकान में अंसार की औरतों को जमा करने का आदेश दिया और हज़रत उमर (रज़ि०) को उनसे बैअ्त लेने के लिए भेजा। (इब्ने-जरीर, इब्ने-मर्दूया, बजार, इब्ने-हिब्बान : उम्मे-अतीया अंसारिया की रिवायत)
19. मक्का मुअज़्ज़मा में जब औरतों से बैअत ली जा रही थी, उस समय हज़रत अबू सुफ़ियान की पत्नी हिन्द बिन्त उत्वा ने इस आदेश की व्याख्या मालूम करते हुए नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! अबू सुफ़ियान तनिक कंजूस व्यक्ति हैं, क्या मेरे ऊपर इसमें कोई गुनाह है कि मैं अपनी और अपने बच्चों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उनसे पूछे बिना उनके माल में से कुछ ले लिया करूँ?" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "नहीं, मगर बस 'मारूफ़' की हद तक।" अर्थात् बस उतना माल ले लो जो वास्तव में उचित आवश्यकताओं के लिए काफ़ी हो। (अहकामुल-क़ुरआन : इब्ने-अरबी)
23. अनेक विश्वसनीय हदीसों से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के समय में औरतों से बैअ्त लेने का तरीक़ा मर्दो की बैअत से भिन्न था। मर्दी से बैअ्त लेने का तरीक़ा यह था कि बैअ्त करनेवाले आप (सल्ल०) के हाथ में हाथ देकर वचन देते थे, लेकिन औरतों से बैअ्त लेते हुए आप (सल्ल०) ने कभी किसी औरत का हाथ अपने हाथ में नहीं लिया, बल्कि विभिन्न दूसरे तरीक़े अपनाए। [जैसे कभी] औरत से बैअत लेते हुए बस ज़बान से फ़रमाया करते थे कि मैंने तुझसे बैअत ली। [कभी एक चादर नबी (सल्ल०) की ओर बढ़ा दी जाती और आप (सल्ल०) बस उसे हाथ में ले लेते, कभी] नबी (सल्ल०) पानी के एक बर्तन में हाथ डाल देते थे और फिर उसी बर्तन में औरत भी अपना हाथ डाल देती थी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ قَدۡ يَئِسُواْ مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِ كَمَا يَئِسَ ٱلۡكُفَّارُ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡقُبُورِ ۝ 12
(13) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनपर अल्लाह का प्रकोप हुआ है, जो आख़िरत (परलोक) से उसी तरह निराश हैं जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए काफ़िर निराश हैं।24
24. मूल अरबी शब्दों का अनुवाद है, "जो आखिरत से उसी तरह निराश हैं जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए काफ़िर हैं।" इसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक यह कि वे आख़िरत की भलाई और उसके सवाब (बदले) से उसी तरह निराश हैं जिस तरह मृत्यु के पश्चात आनेवाले जीवन से इंकार करनेवाले इस बात से निराश हैं कि उनके जो नातेदार और रिश्तेदार क़ब्रों में जा चुके हैं वे कभी फिर जिंदा करके उठाए जाएंगे। यह अर्थ हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) और हज़रत हसन बसरी, क़तादा और ज़हाक (रह०) ने बयान किया है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि वह आख़िरत की रहमत व मरिफ़रत से उसी तरह निराश हैं जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए काफ़िर हर भलाई से निराश हैं, क्योंकि उन्हें अपने अज़ाब में ग्रस्त होने का विश्वास हो चुका है। यह अर्थ हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि०) और हज़रत मुजाहिद, इब्ने-ज़ैद, कलबी, मुक़ातिल और मंसूर (रह०) से उल्लिखित है।