- अल-अनआम
(मक्का में उतरी आयतें 165)
परिचय
नाम
इस सूरा के रुकूअ 16-17 (आयत 130-144) में कुछ अन-आम (मवेशियों) की हुर्मत (हराम क़रार दिए जाने) और कुछ की हिल्लत (हलाल क़रार दिए जाने) के बारे में अरबों के अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका नाम 'अल-अनआम' रखा गया है।
उतरने का समय
इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह पूरी सूरा मक्का में एक ही समय में उतरी थी। हज़रत मुआज-बिन-जबल (रज़ि०) की चचेरी बहन अस्मा-बिन्ते-यज़ीद कहती हैं कि 'जब यह सूरा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतर रही थी, उस समय आप ऊँटनी पर सवार थे। मैं उसकी नकेल पकड़े हुए थी और बोझ के मारे ऊँटनी का यह हाल हो रहा था कि मालूम होता था कि उसकी हड्डियाँ अब टूट जाएँगी।' रिवायतों में इसका भी स्पष्टीकरण है कि जिस रात को यह उतरी, उसी रात को आपने इसे लिखवा दिया।
इसके विषयों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा मक्को युग के अन्तिम समय में उतरी होगी।
उतरने का कारण
जिस समय यह व्याख्यान उतरा है, उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को इस्लाम की ओर दावत देते हुए बारह साल बीत चुके थे। क़ुरैश की डाली रुकावटें और ज़ुल्मो-सितम भरे कारनामे अपनी अन्तिम सीमा को पहुँच चुके थे। इस्लाम अपनानेवालों की एक बड़ी संख्या उनके ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर देश छोड़ चुकी थी और हबशा में ठहरी हुई थी।
वार्ताएँ
इन परिस्थितियों में यह व्याख्यान उतरा है और इसके विषयों को सात बड़े-बड़े शीर्षको में बांटा जा सकता है-
- शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का झुठलाना और तौहीद (एकेश्वरवाद) के अक़ीदे की ओर बुलाना,
- आख़िरत (परलोक) के अक़ीदे का प्रचार,
- अज्ञानता के अंधविश्वासों का खंडन,
- नैतिकता के उन बड़े-बड़े नियमों को अपनाने पर ज़ोर जिनपर इस्लाम समाज का निर्माण चाहता था,
- नबी (सल्ल०) और आपकी दावत (आह्वान) के विरुद्ध लोगों की आपत्तियों का उत्तर,
- प्यारे नबी (सल्ल०) और आम मुसलमानों को तसल्ली, और
- इंकारियों और विरोधियों को उपदेश, चेतावनी और डरावा।
मक्की जीवन के काल-खण्ड
यहाँ चूँकि पहली बार पढ़नेवालों के सामने एक सविस्तार मक्की सूरा आ रही है, इसलिए उचित मालूम हो रहा है कि यहाँ हम मक्की सूरतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की एक व्यापक व्याख्या कर दें, ताकि आगे तमाम मक्की सूरतों को और उनकी व्याख्याओं के सिलसिले में हमारे संकेतों को समझना आसान हो जाए।
जहाँ तक मदनी सूरतों का संबंध है, उनमें से तो क़रीब-क़रीब हर एक के उतरने का समय मालूम है या थोड़ी-सी कोशिश से निश्चित किया जा सकता है, बल्कि इनकी तो बहुत-सी आयतों के उतरने की अलग-अलग वजहें भी भरोसेमंद रिवायतों में मिल जाती हैं, लेकिन मक्की सूरतों के बारे में हमारे पास ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा कोई साधन नहीं है। बहुत कम सूरतें या आयते ऐसी है जिनके उतरने के समय और मौक़े के बारे में कोई सही और भरोसेमंद रिवायत (उल्लेख) मिलती हो। इस कारण मक्की सूरतों के बारे में हमें ऐतिहासिक गवाहियों के बजाय अधिकतर उन अन्दरूनी गवाहियों पर भरोसा करना पड़ता है जो अलग-अलग सूरतों के विषय, सामग्री और शैली में और अपनी पृष्ठभूमि की ओर उनके खुले या छिपे संकेतों में पाई जाती हैं, और स्पष्ट है कि इस प्रकार की गवाहियों से मदद लेकर एक-एक सूरा और एक-एक आयत के बारे में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह फ़ुलां तारीख़ को या फ़ुलां सन् में फ़ुलां मौके पर उतरी है। अधिक विश्वास के साथ जो बात कही जा सकती है, वह केवल यह है कि एक ओर हम मक्की सूरतों को अन्दरूनी गवाहियों को और दूसरी ओर नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन के इतिहास को आमने-सामने रखें और फिर दोनों की तुलना करते हुए यह राय बनाएँ कि कौन-सी सूरा किस युग से संबंधित है- शोध की इस पद्धति को बुद्धि में रखकर जब हम नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन पर नज़र डालते हैं तो वह इस्लामी दावत की दृष्टि से हमें चार बड़े-बड़े युगों में बँटा दिखाई देता है-
पहला युग, पैग़म्बर बनाए जाने से लेकर नुबूवत के एलान तक, लगभग 3 साल, जिसमें दावत खुफ़िया तरीके से खास-खास आदमियों को दी जा रही थी और सामान्य मक्कावालों को इसका ज्ञान न था।
दूसरा युग, नुबूवत के एलान से लेकर जुल्मो-सितम और फ़ितने (Persecution) के फैलने तक, लगभग 2 साल, जिसमें पहले विरोध शुरू हुआ, फिर उसने रोक-टोक का रूप लिया, फिर हँसी उड़ाना, आवाजें कसना, आरोप लगाना, गाली-गलोच, झूठे प्रोपगंडे और विरोधी जत्थेबन्दी तक नौबत पहुँची और अन्त में उन मुसलमानों पर ज़्यादतियाँ शुरू हो गईं जो औरों की तुलना में अधिक धनहीन, कमज़ोर और असहाय थे।
तीसरा युग, फ़ितने की शुरुआत (05 नबवी) से लेकर अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रजि०) के देहावसान (10 नबवी) तक, लगभग पाँच-छह साल। इसमें विरोध अति उग्र होता चला गया। बहुत-से मुसलमान मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के जुल्मो-सितम से तंग आकर हबशा की ओर हिजरत कर गए। नबी (सल्ल०) और आपके परिवार और बाक़ी मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया गया और आप अपने समर्थकों और साथियों सहित अबू-तालिब नामक घाटी में कैद कर दिए गए।
चौथा युग, 10 नबवी से लेकर 11 नबवी तक, लगभग तीन साल। यह नबी (सल्ल.) और आप के साथियों के लिए अति कठोर और विपदाओं का युग था। मक्का में आपके लिए ज़िन्दगी दूभर कर दी गई थी। अन्ततः अल्लाह की मेहरबानी से अंसार के दिल इस्लाम के लिए खुल गए और उनकी दावत पर आपने मदीने की और हिजरत की।
इनमें से हर युग में क़ुरआन मजीद की जो सूरतें उतरी हैं, उनमें उस युग की विशेष बातों का प्रभाव बहुत बड़ी हद तक दिखाई देता है। इन्ही निशानियों पर भरोसा करके हम आगे हर मक्की सूरा के शुरू में यह बताएँगे कि वह मक्का के किस काल में उतरी है।
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وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ مَلَكٞۖ وَلَوۡ أَنزَلۡنَا مَلَكٗا لَّقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ 7
(8) कहते हैं कि इस नबी पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया?5 अगर कहीं हमने फ़रिश्ता उतार दिया होता तो अब तक कभी का निर्णय हो चुका होता, फिर उन्हें कोई मोहलत न दी जाती ।6
5.अर्थात जब यह व्यक्ति अल्लाह की ओर से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है तो आसमान से एक फ़रिश्ता उतरना चाहिए था जो लोगों से कहता कि यह अल्लाह का पैग़म्बर है, इसकी बात मानो, वरना तुम्हें सज़ा दी जाएगी। अज्ञानी आपत्ति-कर्ताओं को इस बात पर आश्चर्य था कि ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला किसी को पैग़म्बर नियुक्त करे और फिर उस तरह उसे असहाय, पत्थर खाने और गालियाँ सुनने के लिए छोड़ दे। इतने बड़े बादशाह का दूत किसी बड़े स्टाफ के साथ न आया था तो कम-से-कम एक फ़रिश्ता तो अंगरक्षक रहना चाहिए था, ताकि वह उसकी सुरक्षा करता, उसका रौब विठाता, उसकी नियुक्ति का यकीन दिलाता और प्राकृतिक तरीकों से ऊपर उठकर उसके काम अंजाम देता।
6.यह उनकी आपत्ति का पहला उत्तर है। इसका अर्थ यह है कि ईमान लाने और अपनी नीति में सुधार कर लेने के लिए जो मोहलत तुम्हें मिली हुई है यह उसी समय तक है, जब तक वास्तविकता परोक्ष में है, वरना जहाँ परोक्ष की स्थिति समाप्त हुई, फिर मोहलत का कोई मौक़ा बाकी न रहेगा। उसके बाद तो केवल हिसाब ही लेना बाकी रह जाएगा, इसलिए कि सांसारिक जीवन तुम्हारे लिए एक परीक्षाकाल है और परीक्षा इस बात की है कि तुम वास्तविकता को देखे बिना बुद्धि और विवेक का सही उपयोग करके इसकी अनुभूति कर पाते हो या नहीं और इस अनुभूति के बाद अपने मन और उसकी कामनाओं को काबू में लेकर अपने कर्म को वास्तविकता के अनुसार ठीक रखते हो या नहीं। इस परीक्षा के लिए परोक्ष का परोक्ष रहना अनिवार्य शर्त है और तुम्हारा सांसारिक जीवन,जो वास्तव में परीक्षा की मोहलत है, उसी समय तक कायम रह सकता है, जब तक परोक्ष है। जहाँ परोक्ष प्रत्यक्ष में परिवर्तित हो गया, यह मोहलत अनिवार्य रूप से ख़त्म हो जाएगी और परीक्षा के बजाय 'परीक्षाफल के निकलने का समय आ पहुँचेगा। इसलिए तुम्हारी माँग के उत्तर में यह संभव नहीं है कि तुम्हारे सामने फ़रिश्ते को उसके वास्तविक रूप में प्रकट कर दिया जाए, क्योंकि अल्लाह अभी तुम्हारी परीक्षा का समय समाप्त नहीं करना चाहता । (देखिए सूरा-2, टिप्पणी न० 228)
قُلۡ أَيُّ شَيۡءٍ أَكۡبَرُ شَهَٰدَةٗۖ قُلِ ٱللَّهُۖ شَهِيدُۢ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَۚ أَئِنَّكُمۡ لَتَشۡهَدُونَ أَنَّ مَعَ ٱللَّهِ ءَالِهَةً أُخۡرَىٰۚ قُل لَّآ أَشۡهَدُۚ قُلۡ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَإِنَّنِي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ 18
(19) इनसे पूछो, किसकी गवाही सबसे बढ़कर है?-कहो, मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाह है।11 और यह कुरआन मेरी ओर वह्य के ज़रिए भेजा गया है ताकि, तुम्हें और जिस-जिसको यह पहुँचे, सबको सचेत कर दूं। क्या वास्तव में तुम लोग यह गवाही दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे खुदा भी हैं?12 कहो, मैं तो इसकी गवाही कदापि नहीं दे सकता।13 कहो, अल्लाह तो वही एक है और मैं उस शिर्क से बिल्कुल बेज़ार हूँ जिसमें तुम पड़े हुए हो।
11.अर्थात इस बात पर गवाह है कि मैं उसकी ओर से भेजा गया हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ उसी के आदेश से कह रहा हूँ।
12.किसी चीज़ की गवाही देने के लिए मात्र अटकल और अनुमान काफ़ी नहीं है, बल्कि उसके लिए ज्ञान होना जरूरी है, जिसके आधार पर आदमी विश्वास के साथ कह सके कि ऐसा है। अतः प्रश्न का अर्थ यह है कि क्या वास्तव में तुम्हें यह ज्ञान है कि इस सम्पूर्ण जगत् में अल्लाह के सिवा और भी कोई अधिकार प्राप्त शासक है जो बन्दगी और पूजा का अधिकारी हो?
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ 20
(21) और उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बुहतान लगाए15, या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए?16 निश्चित रूप से ऐसे जालिम कभी सफल नहीं हो सकते।
15.अर्थात यह दावा करे कि अल्लाह के साथ दूसरी बहुत-सी हस्तियाँ भी ईश्वरत्त्व में शरीक हैं, ईश्वरीय गुण उनके अन्दर पाए जाते हैं, ईश्वरीय अधिकार रखती है और इसको अधिकारी हैं कि इंसान उनके आगे बन्दगी की नीति अपनाए। और यह भी अल्लाह पर बोहतान है कि कोई यह कहे कि अल्लाह ने फ़्लॉ- फ़्लॉ हस्तियों को अपना सान्निध्यप्राप्त ठहराया है और उसी ने यह आदेश दिया है या कम से कम यह कि वह इसपर राज़ी है कि उनसे ईश्वरीय गुण जोड़े जाएँ और उनसे वह मामला किया जाए जो बन्दे को अपने अल्लाह के साथ करना चाहिए।
16.अल्लाह की निशानियों से तात्पर्य वे निशानियाँ भी हैं जो इंसान के अपने भीतर और सम्पूर्ण सृष्टि में फैली हुई हैं और वे भी जो पैग़म्बरों के आचरण और उनके कारनामों में प्रकट हुई और वे भी जो आसमानी किताबों में प्रस्तुत की गई। ये सारी निशानियाँ एक ही तथ्य की ओर मार्गदर्शन करती हैं अर्थात यह कि पूरी सृष्टि में अल्लाह सिर्फ एक है, शेष सब बन्दे हैं। अब जो व्यक्ति इन तमाम निशानियों के मुक़ाबले में किसी वास्तविक गवाही के बिना, किसी ज्ञान, किसी अवलोकन और किसी अनुभव के बिना, मात्र अटकल और अनुमान या बाप-दादा की पैरवी के आधार पर, दूसरों को ईश्वरत्व के गुणोंवाला और ईश्वरीय अधिकारों का अधिकारी ठहराता है, स्पष्ट है कि उससे बढ़कर ज़ालिम कोई नहीं हो सकता।
वह सच्चाई व जिसके साथ वह इस ग़लत दृष्टिकोण के आधार पर कोई मामला करता है।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَۖ وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوكَ يُجَٰدِلُونَكَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ 24
(25) इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं, मगर हाल यह है कि हमने उनके दिलों पर परदे डाल रखे हैं जिनके कारण वे उसको कुछ नहीं समझते और उनके कानों में बोझ डाल दिया है (कि सब कुछ सुनने पर भी कुछ नहीं सुनते)।17 वे चाहे कोई निशानी देख लें, उसपर ईमान लाकर न देंगे। हद यह है कि जब वे तुम्हारे पास आकर तुमसे झगड़ते हैं, तो उनमें से जिन लोगों ने इंकार का फ़ैसला कर लिया है वे (सारी बातें सुनने के बाद) यही कहते हैं कि यह एक पुरानी कहानियों के सिवा कुछ नहीं।18
17.यहाँ यह बात सामने रहे कि प्रकृति के नियम के अन्तर्गत जो कुछ दुनिया में घटित होता है उसे अल्लाह तआला अपने से जोड़ता है, क्योंकि वास्तव में इस क़ानून का बनानेवाला अल्लाह ही है और जो परिणाम इस क़ानून के अन्तर्गत सामने आते हैं, वे सब वास्तव में अल्लाह के आदेश और इरादे के अन्तर्गत ही सामने आया करते हैं। सत्य के हठधर्म इंकारियों का सब कुछ सुनने पर भी कुछ न सुनना और सत्य के आवाहक की किसी बात का उनके दिल में न उतरना उनको हठधर्मी और द्वेष और कुंठा का स्वाभाविक परिणाम है। प्रकृति का क़ानून यही है कि जो आदमी हठधर्मी पर उतर आता है और निष्पक्षता के साथ सत्य-प्रिय व्यक्ति की तरह नीति अपनाने पर तैयार नहीं होता, उसके दिल के दरवाज़े हर उस सच्चाई के लिए बन्द हो जाते हैं जो उसकी इच्छाओं के विपरीत हो । इस बात को जब हम बयान करेंगे तो यूँ कहेंगे कि फलाँ व्यक्ति के दिल के दरवाजे बन्द हैं, और इसी बात को जब अल्लाह बयान फ़रमाएगा तो यूँ फ़रमाएगा कि उसके दिल के दरवाज़े हमने बन्द कर दिए हैं, क्योंकि हम सिर्फ घटना बयान करते हैं और अल्लाह यथार्थ को प्रकट करता है।
18.नासमझ लोगों का सामान्य रूप से यह नियम होता है कि जब कोई व्यक्ति उन्हें सत्य की ओर बुलाता है तो वे कहते हैं कि तुमने नई बात क्या कही, ये तो वही सब पुरानी बातें हैं जो हम पहले से सुनते चले आरहे हैं। मानो इन मूखों का दृष्टिकोण यह है कि किसी बात के सत्य होने के लिए उसका नया होना भी आवश्यक है और जो बात पुरानी है,वह सत्य नहीं है। हालांकि सत्य हर समय में एक ही रहा है और सदा एक ही रहेगा। अल्लाह के दिए हुए ज्ञान के आधार पर जो लोग इंसानों के मार्गदर्शन के लिए आगे बड़े हैं, वे सब पुराने समय से एक ही सत्य बात को पेश करते आए हैं और आगे भी जो ज्ञान के इस स्रोत से लाभ उठाकर कुछ प्रस्तुत करेगा, वह इसी पुरानी बात को दोहराएगा। हाँ, नई बात केवल वही लोग निकाल सकते हैं जो अल्लाह की रोशनी से महरूम होकर आदिकालिक और सर्वकालिक सत्य को नहीं देख सकते और अपने मन-मस्तिष्क की उपज से कुछ सिद्धान्त गढ़कर उन्हें सत्य के नाम से पेश करते हैं । इस प्रकार के लोग निस्सन्देह ऐसी अनोखी बात कहनेवाले हो सकते हैं कि वह बात कहें जो उनसे पहले कभी दुनिया में किसी ने न कही हो।
وَإِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكَ إِعۡرَاضُهُمۡ فَإِنِ ٱسۡتَطَعۡتَ أَن تَبۡتَغِيَ نَفَقٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ سُلَّمٗا فِي ٱلسَّمَآءِ فَتَأۡتِيَهُم بِـَٔايَةٖۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَمَعَهُمۡ عَلَى ٱلۡهُدَىٰۚ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ 34
(35) फिर भी अगर इन लोगों की उदासीनता तुमसे सहन नहीं होती तो अगर तुममें कुछ ज़ोर है तो ज़मीन में कोई सुरंग ढूँढो या आसमान में सीढ़ी लगाओ और इनके पास कोई निशानी लाने की कोशिश करो।23 अगर अल्लाह चाहता तो इन सबको सीधे रास्ते पर इकट्ठा कर सकता था, इसलिए नादान न बनो।24
23.नबी (सल्ल.) जब देखते थे कि इस क़ौम को समझाते-समझाते मुद्दतें गुज़र गई हैं और किसी तरह यह सीधे रास्ते पर नहीं आती, तो कभी-कभी आपके मन में यह इच्छा पैदा होती थी कि काश ! कोई निशानी अल्लाह की ओर से ऐसी प्रकट हो जिससे इन लोगों का विरोध समाप्त हो और ये मेरी सच्चाई स्वीकार कर लें। आपकी इसी इच्छा का उत्तर इस आयत में दिया गया है। अर्थ यह है कि बेसब्री से काम न लो। जिस ढंग और जिस क्रम से हम इस काम को चलवा रहे हैं, उसी पर सब के साथ चलते जाओ। चमत्कारों से काम लेना होता तो क्या हम स्वयं न ले सकते थे? मगर हम जानते हैं कि जिस वैचारिक और नैतिक क्रान्ति और जिस कल्याणकारी सभ्यता के निर्माण के काम पर तुम नियुक्त किए गए हो उसे सफलता की सीमा तक पहुंचाने का सही रास्ता यह नहीं है। फिर भी अगर लोगों की वर्तमान कुंठा और उनके इंकार की कठोरता पर तुमसे सब नहीं होता और तुम्हारा कुछ विचार है कि इस हठ को तोड़ने के लिए किसी महसूस निशानी का दिखाना ही ज़रूरी है तो स्वयं ज़ोर लगाओ और तुम्हारा बस चलता हो तो ज़मीन में घुसकर या आसमान पर चढ़कर कोई ऐसा चमत्कार लाने की कोशिश करो जिसे तुम समझो कि यह अनिश्चितता को निश्चय में बदलने के लिए पर्याप्त होगा, मगर हमसे आशा न करो कि हम तुम्हारी यह इच्छा पूरी करेंगे, क्योंकि हमारी स्कीम में इस उपाय के लिए कोई जगह नहीं है।
24.अर्थात आर केवल यही बात अभीष्ट होती कि तमाम इंसान किसी न किसी तौर पर सत्यमार्गी बन जाएँ तो नबी भेजने और किताबें उतारने और आस्तिकों (मोमिनों) से नास्तिकों (काफ़िरों) के विरुद्ध संघर्ष कराने और सत्य-सन्देश को क्रमागत आन्दोलन के चरणों से गुज़रवाने की आवश्यकता ही क्या थी? यह काम तो अल्लाह के एक हो सृजनात्मक संकेत से पूरा हो सकता था, लेकिन अल्लाह इस काम को इस तरीके पर करना नहीं चाहता। उसका मंशा तो यह है कि सत्य को दलीलों के साथ लोगों के सामने लाया जाए। फिर इनमें से जो लोग सही चिंतन से काम लेकर सत्य को पहचान लें, वे अपने स्वतंत्र अधिकार से उसपर ईमान लाएँ। अपने आचरण को उसके साँचे में ढालकर असत्यवादियों के मुकाबले में अपनी नैतिक श्रेष्ठता सिद्ध करें। इंसानों के समूह में से भले तत्वों को अपने सशक्त तर्क, अपने महान लक्ष्य, जीवन के अपने उच्च जीवन-सिद्धातों और अपने पवित्र आचरण के आकर्षण से अपनी ओर खींचते चले जाएं, और असत्य के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करके स्वाभाविक विकास की राह से सत्य धर्म की स्थापना की मंज़िल तक पहुंचे। अल्लाह इस काम में उनका मार्गदर्शन करेगा और जिस मरहले पर जैसी मदद अल्लाह से पाने का वे अपने आपको हक़दार बनाएंगे, वह मदद भी उन्हें देता चला जाएगा, लेकिन अगर कोई यह चाहे कि इस स्वाभाविक मार्ग को छोड़कर अल्लाह केवल अपनी प्रभावी शक्ति के ज़ोर से दूषित विचार को मिटाकर लोगों में उत्कृष्ट विचार फैला दे और दूषित सभ्यता का उन्मूलन करके कल्याणकारी सभ्यता का निर्माण कर दे, तो ऐसा कदापि न होगा, क्योंकि यह अल्लाह की उस योजना के विरुद्ध है जिसके तहत उसने इंसान को दुनिया में एक उत्तरदायी प्राणी की हैसियत से पैदा किया है, उसे उपभोग के अधिकार दिए हैं, आज्ञापालन करने और न करने की स्वतंत्रता दी है, परीक्षा का समय प्रदान किया है और उसकी गतिविधि के अनुसार पुरस्कार और दंड देने के लिए निर्णय का एक समय निश्चित कर दिया है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا صُمّٞ وَبُكۡمٞ فِي ٱلظُّلُمَٰتِۗ مَن يَشَإِ ٱللَّهُ يُضۡلِلۡهُ وَمَن يَشَأۡ يَجۡعَلۡهُ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 38
(39) मगर जो लोग हमारी निशानियों को झुठलाते हैं, वे बहरे और गूंगे हैं, अंधेरों में पड़े हुए हैं।27 अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधे रास्ते पर लगा देता है।28
27.अर्थ यह है कि अगर तुम्हें सिर्फ़ तमाशा देखने का शौक़ नहीं है, बल्कि वास्तव में यह मालूम करने के लिए निशानी देखना चाहते हो कि यह नबी जिस चीज़ की ओर बुला रहा है वह सत्य बात है या नहीं, तो आँखें खोलकर देखो, तुम्हारे चारों ओर हर जगह निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं। धरती के जानवरों और हवा के परिन्दों की किसी एक प्रजाति को लेकर उसके जीवन पर विचार करो, किस तरह उसकी बनावट ठीक ठीक उसके दशानुकूल बनाई गई है, किस तरह उसकी प्रकृति में उसकी स्वाभाविक ज़रूरतों के ठीक अनुकूल शक्तियाँ और योग्यताएँ रखी गई हैं, किस तरह उसको रोजी पहुँचाने की व्यवस्था हो रही है, किस तरह उसका एक भाग्य निश्चित है जिसकी सीमाओं से न वह आगे बढ़ सकता है और न पीछे हट सकता है, किस तरह उनमें से एक-एक जानवर और एक-एक छोटे-से-छोटे कीड़े की उसी स्थान पर जहाँ वह है, देखभाल, निगरानी, रक्षा और मार्गदर्शन किया जा रहा है, किस तरह उससे एक निश्चित योजना के अनुसार काम लिया जा रहा है और किस तरह उसे एक नियम का पाबन्द बनाकर रखा गया है और किस तरह उसके जन्म, प्रजनन और मौत का सिलसिला पूर्णतः विधिवत चल रहा है। अगर अल्लाह की अनगिनत निशानियों में से सिर्फ़ इसी एक निशानी पर विचार करो तो तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह की तौहीद और उसके गुणों को जो धारणा यह पैग़म्बर तुम्हारे सामने पेश कर रहा है और इस धारणा के अनुसार दुनिया में जीवन व्यतीत करने की जिस नीति की तरफ़ तुम्हें बुला रहा है, वह बिलकुल सत्य है । लेकिन तुम लोग न स्वयं अपनी आँखें खोलकर देखते हो, न किसी समझानेवाले की बात सुनते हो, अज्ञानता के अंधेरों में पड़े हुए हो और चाहते हो कि प्रकृति के आश्चर्यों के चमत्कारों को दिखाकर तुम्हारा मन बहलाया जाए।
28.अल्लाह का भटकाना यह है कि एक अज्ञानताप्रिय मनुष्य को अल्लाह की आयतों के अध्ययन का सौभाग्य न प्रदान किया जाए और एक पक्षपाती, अयथार्थवादी विद्यार्थी अगर अल्लाह की आयतों को देखे भी तो वास्तविकता तक पहुँचने के निशान उसकी आँख से ओझल रहें और प्रमों में डालनेवाली चीजें उसे सत्य से और बहुत दूर तक खींचती चली जाएँ। इसके विपरीत अल्लाह का मार्गदर्शन यह है कि एक सत्य के एक खोजी को ज्ञान-साधनों से फायदा उठाने का सौभाग्य प्रदान किया जाए और अल्लाह की आयतों में उसे वास्तविकता तक पहुँचने के निशान और चिह्न मिलते चले जाएँ। इन तीनों प्रकारों की बहुत-सी मिसालें आए दिन हमारे सामने आती रहती हैं। बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जिनके सामने सृष्टि में और स्वयं उसकी अपनी जात में अल्लाह की अनगिनत निशानियाँ फैली हुई हैं, पर वह जानवरों की तरह उन्हें देखते हैं और कोई शिक्षा प्राप्त नहीं करते, और बहुत से इंसान हैं जो जन्तु विज्ञान (Zoology), वनस्पति-विज्ञान (Botany), जीव-विज्ञान (Biology), भू-शास्त्र (Geology) खगोल-विज्ञान (Astronomy) शरीर-विज्ञान (Physiology) और शरीर रचना-विज्ञान (Anatjomy) और विज्ञान की दूसरी शाखाओं का अध्ययन करते हैं। इतिहास, पुरातत्व (आसारे क़दीमा) और समाज-शास्त्र (Social Sciences) का अनुसंधान करते हैं और ऐसी-ऐसी निशानियाँ उनके देखने में आती हैं जो दिल को ईमान से भर दें, मगर चूंकि वे अध्ययन का आरंभ ही पक्षपात के साथ करते हैं और उनके सामने दुनिया और उसके फ़ायदों के सिवा कुछ नहीं होता इसलिए इस अवलोकन के दौरान उनको सच्चाई तक पहुँचानेवाली कोई निशानी नहीं मिलती, बल्कि जो निशानी भी सामने आती है वह उन्हें उलटे अनीश्वरवाद और नास्तिकता, भौतिकवाद और प्रकृतिवाद ही की ओर खींच ले जाती है। उनके मुकाबले में ऐसे लोग का कम अभाव नहीं है, जो आँखें खोलकर दुनिया के इस कारखाने को देखते हैं और उनका हाल यह है कि –
बर्ग दरख्ताने सब्ज़ दर नज़रे होशियार
हर वरके दफ़्तरीस्त मारफ़ते किरदिगार
(अर्थात् हरे-भरे वृक्षों को पत्तियाँ भी बुद्धिमान व्यक्ति की नज़र में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उनमें से हर पत्ती के भीतर स्रष्टा के पहचान की अगणित निशानियाँ मौजूद हैं।)
قُل لَّآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ إِنِّي مَلَكٌۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ 49
(50) ऐ नबी ! इनसे कहो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ और न यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ़ उस वह्य का पालन करता हूँ जो मुझपर उतारी जाती है।31 फिर इनसे पूछो, “क्या अंधा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो सकते हैं?32 क्या तुम विचार नहीं करते?"
31.नासमझ लोगों के मन में सदा से यह मूर्खतापूर्ण विचार पाया जाता रहा है कि जो व्यक्ति अल्लाह को पहुंचा हुआ हो उसे मानवता से परे होना चाहिए। उससे आश्चर्यजनक और विचित्र बातें प्रकट होनी चाहिए। वह एक इशारा करे और पहाड़ सोने का बन जाए, वह हुक्म दे और धरती से ख़ज़ाने उबलने लगें, उसपर लोगों के अगले-पिछले सब हालात रौशन हों, वह बता दे कि गुमशुदा चीज़ कहाँ रखी है, रोगी बच जाएगा या मर जाएगा, गर्भवती के पेट में नर है या मादा। फिर उसको इंसानी कमज़ोरियों और सीमितताओं से भी परे होना चाहिए। भला वह भी कोई अल्लाह तक पहुँचा हुआ है, जिसे भूख और प्यास लगे, जिसको नींद आए, जो बीवी-बच्चे रखता हो, जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए क्रय-विक्रय करता फिरे, जिसे कभी कर्ज लेने की ज़रूरत पेश आए और कभी वह ग़रीबी और तंगदस्ती में पड़कर परेशान हो। इसी प्रकार के विचार नबी (सल्ल.) के दौर के लोगों के मस्तिष्क पर छाए रहते थे। वे जब आपसे पैग़म्बरी का दावा सुनते थे तो आपकी सच्चाई जाँचने के लिए आपसे परोक्ष की ख़बरें पूछते थे, पराप्राकृतिक बातों की माँग करते थे और आपको बिल्कुल आम इंसानों जैसा एक इंसान देखकर आपत्ति करते थे कि यह अच्छा पैग़म्बर है जो खाता-पीता है, बीवी-बच्चे रखता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है। इन्हीं बातों का उत्तर इस आयत में दिया गया है।
32.अर्थ यह है कि में जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने रख रहा हूं उन्हें मैंने देखा है, वे सीधे-सीधे मेरे अनुभव में आई हैं, मुझे वह्य के द्वारा उनका ठीक-ठीक ज्ञान दिया गया है, उनके बारे में मेरी गवाही आँखों देखी गवाही है। इसके विपरीत तुम इन सच्चाइयों की ओर से अंधे हो,तुम इनके बारे में जो विचार रखते हो वे या तो अटकल और गुमान पर आधारित हैं या मात्र अंधी पैरवी पर, इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच नेत्रवान और नेत्रहीन जैसा अन्तर है, और इसी दृष्टि से मुझे तुमपर प्रमुखता प्राप्त है, न इस दृष्टि से कि मेरे पास ईश्वरीय भंडार हैं या मैं परोक्ष का जाननेवाला हूँ या ईसानी कमज़ोरियों से पाक हूँ।
وَلَا تَطۡرُدِ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ مَا عَلَيۡكَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَمَا مِنۡ حِسَابِكَ عَلَيۡهِم مِّن شَيۡءٖ فَتَطۡرُدَهُمۡ فَتَكُونَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ 51
(52) और जो लोग अपने रब को रात-दिन पुकारते रहते हैं और उसकी प्रसन्नता की तलब में लगे हुए हैं उन्हें अपने से दूर न फेंको।34 उनके हिसाब में से किसी चीज का बोझ तुमपर नहीं है और तुम्हारे हिसाब में से किसी चीज़ का बोझ उनपर नहीं। इसपर भी अगर तुम उन्हें दूर फेंकोगे तो ज़ालिमों में गिने जाओगे।35
34.क़ुरैश के बड़े-बड़े सरदारों और खाते-पीते लोगों को नबी (सल्ल.) पर दूसरी अन्य आपत्तियों के साथ एक आपत्ति यह भी थी कि आपके चारों ओर हमारी कौम के दास, दलित और निम्न वर्ग के लोग जमा हो गए है। ये ताना दिया करते थे कि इस आदमी को साथी भी कैसे-कैसे इज़्ज़तदार लोग मिले हैं, बिलाल, अम्मार, सुहैब और खब्बाब (रज़ि.), बस यही लोग अल्लाह को हमारे दर्मियान ऐसे मिले जिनको मनोनीत किया जा सकता था। फिर वे इन ईमान लानेवालों की बदहाली का उपहास करने पर ही बस न करते थे, बल्कि इनमें से जिस-जिससे कभी पहले कोई नैतिक कमज़ोरी प्रकट हुई थी, उसपर भी आवाजें कसते ये और कहते थे कि फला जो कल तक यह था और फलाँ जिसने यह किया था, आज वह भी उस पुनीत और मनोनीत गिरोह में शामिल है। इन्हीं बातों का जवाब यहाँ दिया जा रहा है।
35.अर्थात हर व्यक्ति अपने भले-बुरे का ज़िम्मेदार आप ही है। इन मुसलमान होनेवालों में से किसी व्यक्ति की जवाबदेही के लिए तुम खड़े न होगे और न तुम्हारी जवाबदेही के लिए इनमें से कोई खड़ा होगा। तुम्हारे हिस्से की कोई नेकी ये तुमसे छीन नहीं सकते और अपने हिस्से की कोई बदी तुमपर डालू नहीं सकते । फिर जब ये मात्र सत्य के अभिलाषी बनकर तुम्हारे पास आते हैं तो आखिर तुम क्यों उन्हें अपने से दूर फेंको।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ وَيَوۡمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُۚ قَوۡلُهُ ٱلۡحَقُّۚ وَلَهُ ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ 72
(73) वही है जिसने आसमान व ज़मीन को सत्य पर पैदा किया।46 और जिस दिन वह कहेगा कि हश्र (प्रलय) हो जाए, उसी दिन वह हो जाएगा। उसका कथन बिल्कुल सत्य है। और जिस दिन सूर फूंका जाएगा47 उस दिन बादशाही उसी की होगी48, वह गैब और शहादत 49 हर चीज़ का जानकार है और हिक्मतवाला (तत्त्वदर्शी) और हर चीज़ की खबर रखनेवाला है।
46.क़ुरआन में यह बात जगह-जगह कही गई है कि अल्लाह ने धरती और आसमानों को सत्य पर पैदा किया है या सत्य के साथ पैदा किया। यह कथन बहुत ही विस्तृत अर्थ अपने अन्दर रखता है।
इसका एक अर्थ यह है कि धरती और आसमानों की पैदाइश सिर्फ खेल के तौर पर नहीं हुई है। यह किसी देवी-देवता की लीला नहीं है। यह किसी बच्चो का खिलौना नहीं है कि मात्र दिल बहलाने के लिए वह इससे खेलता रहे और फिर यूँ ही उसे तोड़-फोड़कर फेंक दे । वास्तव में यह एक बड़ा गंभीर काम है जो तत्त्वदर्शिता (हिकमत) के आधार पर किया गया है। एक महान उद्देश्य इसके भीतर काम कर रहा है और इसका एक युग बीत जाने के बाद अनिवार्य है कि पैदा करनेवाला उस पूरे काम का हिसाब ले जो उस युग में अंजाम पाया हो और उसी युग के नतीजों पर दूसरे दौर की नींव रखे। यही बात है जो कुरआन में दूसरी जगहों पर यूँ बयान की गई है, “ऐ हमारे रब ! तूने यह सब कुछ व्यर्थ पैदा नहीं किया है", और हमने आसमान व जमीन और उन चीज़ों को जो आसमान व ज़मीन के बीच हैं,खेल के तौर पर पैदा नहीं किया है।” और “तो क्या तुमने यह समझ रखा है कि हमने तुम्हें यूँ ही व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर वापस न लाए जाओगे।"
दूसरा अर्थ यह है कि अल्लाह ने सृष्टि की यह सम्पूर्ण व्यवस्था सत्य को ठोस आधारशिला पर स्थापित की है। न्याय और तत्त्वदर्शिता और सच्चाई के कानूनों पर इसकी हर चीज़ आधारित है। असत्य के लिए वास्तव में इस व्यवस्था में जड़ पकड़ने और फलने-फूलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह और बात है कि अल्लाह असत्यवादियों को अवसर दे दे कि वे अगर अपने झूठ, जुल्म और असत्यता को बढ़ावा देना चाहते हैं तो अपनी कोशिश कर देखें। लेकिन अन्तत: धरती असत्य के हर बीज को उगलकर फेंक देगी और अपने हिसाब की आखिरी चार्जशीट में हर असत्यवादी देख लेगा कि जो कोशिशें उसने इस बुरे पौधे की खेती करने और सींचने में लगाई, वे सब बर्बाद हो गई।
तीसरा अर्थ यह है कि अल्लाह ने इस सारी सृष्टि को सत्य के आधार पर पैदा किया है और अपने निजी अधिकार के आधार पर ही वह इसपर शासन कर रहा है। उसका आदेश यहाँ इसलिए चलता है कि वही अपनी पैदा की हुई सृष्टि में शासन का अधिकार रखता है। दूसरों का आदेश अगर प्रत्यक्ष में चलता नज़र भी आता हो तो इससे धोखा न खाओ, वास्तव में न उनका आदेश चलता है,न चल सकता है, क्योंकि सृष्टि की किसी चीज़ पर भी उनको कोई अधिकार नहीं है कि वे उसपर अपना आदेश चलाएँ।
47.सूर फूँकने का सही रूप क्या होगा इसका विवरण हमारी समझ से बाहर है। क़ुरआन से जो कुछ हमें मालूम हुआ है, वह सिर्फ़ इतना है कि क़ियामत के दिन अल्लाह के हुक्म से एक बार सूर फूँका जाएगा और सब हलाक हो जाएँगे। फिर न जाने कितनी मुद्दत बाद,जिसे अल्लाह ही जानता है, दूसरा सूर फूँका जाएगा और तमाम अगले-पिछले नए सिरे से ज़िंदा होकर अपने आपको हश्र के मैदान में पाएंगे। पहले सूर पर सृष्टि की सारी व्यवस्था तितर-बितर हो जाएगी और दूसरे सूर पर एक दूसरी व्यवस्था नए रूप और नए नियमों के साथ स्थापित हो जाएगी।
وَكَذَٰلِكَ نُرِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ مَلَكُوتَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلِيَكُونَ مِنَ ٱلۡمُوقِنِينَ 74
(75) इबराहीम को हम इसी तरह ज़मीन और आसमानों की राज्य-व्यवस्था दिखाते 51 थे और इसलिए दिखाते थे कि वह विश्वास करनेवालों में से हो जाए।52
51.अर्थात जिस तरह तुम लोगों के सामने सृष्टि के चिह्न स्पष्ट हैं और अल्लाह की निशानियाँ तुम्हें दिखाई जा रही हैं, उसी तरह इबराहीम (अलैहि०) के सामने भी यही चिह्न थे और यही निशानियाँ थीं। मगर तुम लोग उन्हें देखने पर भी अंधों की तरह कुछ नहीं देखते और इबराहीम (अलैहि०) ने उन्हें आँखें खोलकर देखा और उन्हीं निशानियों से वे वास्तविकता तक पहुँच गए।
52.इस जगह को और क़ुरआन की उन दूसरी जगहों को जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि.) से उनकी क़ौम के विवाद का उल्लेख हुआ है, अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम की धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों पर एक नज़र डाल ली जाए। आज की नई खोजों के सिलसिले में न सिर्फ वह शहर मालूम कर लिया गया है जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि.) पैदा हुए थे, बल्कि इबराहीमी दौर में उस इलाके के लोगों की जो दशा थी उसपर भी बहुत कुछ रौशनी पड़ी है। सर ल्यूनार्ड वूली (Sir Leonard Woolley) ने अपनी किताब Abraham', Londan, 1935 में इन खोजों के जो नतीजे प्रकाशित किए हैं उनसे मालूम होता है कि 2100 ई० पू० के लगभग समय में, जिसे अब आम तौर से अनुसंधानकर्ता हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के प्रकट होने का समय मानते हैं, राज्य की राजधानी उर नगर की आबादी ढाई लाख के करीब थी और असंभव नहीं कि पाँच लाख हो। बड़ा औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्र था। यहाँ के लोगों का दृष्टिकोण शुद्ध भौतिकवादी था। धन कमाना और अधिक-से-अधिक सुख-सामग्री जुटाना उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य था। ब्याज खाने का चलन आम था। आबादी में तीन वर्ग पाए जाते थे, इनमें से पहले वर्ग को जिसे अमीलू कहा जाता था, विशेष अधिकार प्राप्त थे। इनके फौजदारी और दीवानी अधिकार दूसरों से अलग थे, और इनकी जान व माल की क़ीमत दूसरों से बढ़कर थी।
यह शहर और यह समाज था जिसमें हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने आँखें खोलीं। इनका और इनके परिवार का जो हाल हमें तलमूद में मिलता है, उससे मालूम होता है कि वह अमीलू वर्ग के एक व्यक्ति थे और उनका बाप राज्य का सबसे बड़ा पदाधिकारी था। (देखिए सूरा-2,टिप्पणी न० 290)
उर के शिलालेखों में लगभग पाँच हज़ार ख़ुदाओं के नाम मिलते हैं। देश के विभिन्न शहरों के अलग-अलग ख़ुदा थे। हर शहर का एक विशेष रक्षक ख़ुदा होता था जो 'रब्बुल बलद', 'महादेव' 'या रईसुल आलिहा' समझा जाता था और उसका आदर दूसरे उपास्यों से अधिक होता था। उर का 'रब्बुल बलद' नन्नार (चंद्रदेव) था। दूसरे बड़े शहर लरसा का रब्बुल बलद 'शमाश' (सूर्यदेव) था। इन बड़े ख़ुदाओं के मातहत बहुत-से छोटे ख़ुदा भी थे जो ज़्यादातर आसमानी तारों और सितारों में से और कमतर ज़मीन से चुने गए थे।
'नन्नार' का बुत उर में सबसे ऊँची पहाड़ी पर एक शानदार इमारत में स्थापित था। उसी के क़रीब 'नन्नार' की बीवी 'निनगल' का पूजास्थल था। नन्नार के पूजास्थल की शान एक शाही महलसरा की सी थी। उसके शयन कक्ष में हर दिन रात को एक पुजारिन जाकर उसकी दुल्हन बनती थी। मन्दिर में बहुत ज़्यादा औरतें देवता के नाम पर वक़्फ़ थीं और उनकी हैसियत देवदासियों (Religious Prostitutes) की-सी थी। नन्नार मात्र देवता ही न था, बल्कि देश का सबसे बड़ा ज़मींदार, सबसे बड़ा व्यापारी, सबसे बड़ा कारखानेदार और देश के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा शासक भी था। बहुत सारे बाग़, मकान और ज़मीनें उसके मन्दिर के लिए वक़्फ़ थीं। देश का सबसे बड़ा न्यायालय मन्दिर ही में था। पुजारी उसके जज थे और उनके फैसले 'ख़ुदा के फैसले समझे जाते थे। स्वयं राजकीय परिवार का सम्प्रभुत्व भी नन्नार ही से ली गई थी। असल बादशाह नन्नार था और देश का शासक उसकी ओर से राज्य करता था। इस ताल्लुक़ से बादशाह स्वयं भी उपास्यों में शामिल हो जाता था और खुदाओं की तरह उसकी उपासना की जाती थी।
उर का राजकीय परिवार जो हज़रत इबराहीम (अलैहि.) के ज़माने में शासक था, उसके पहले संस्थापक का नाम नमुव्व उर था। इसी से इस परिवार को 'नमुव्व' का नाम मिला जो अरबी में जाकर नमरूद हो गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि.) की हिजरत के बाद इस परिवार और इस क़ौम पर बराबर तबाही आनी शुरू हुई । इन तबाहियों ने नन्नार के साथ उर के लोगों का अक़ीदा डगमगा दिया, क्योंकि वह उनकी रक्षा न कर सका।
ये अब तक के आधुनिक अनुसंधानों के परिणाम अगर सही हैं तो इनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि.) की क़ौम में शिके सिर्फ एक मज़हबी अक़ीदा (धार्मिक अवधारणा) और बुतपरस्ताना इबादतों का योग ही न था, बल्कि वास्तव में इस क़ौम की पूरी आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक ज़िन्दगी की व्यवस्था इसी अवधारणा पर आधारित थी। इसके मुकाबले में हज़रत इबराहोम (अलैहि०) तौहीद (एकेश्वरवाद) का जो संदेश लेकर उठे थे, उसका असर सिर्फ बुतों को पूजा ही पर न पड़ता था, बल्कि [इस पूरी व्यवस्था पर पड़ता था।
فَلَمَّا رَءَا ٱلشَّمۡسَ بَازِغَةٗ قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَآ أَكۡبَرُۖ فَلَمَّآ أَفَلَتۡ قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ 77
(78) फिर जब सूरज को रौशन देखा तो कहा : यह है मेरा रब, यह सबसे बड़ा है ! मगर जब वह भी डूबा तो इबराहीम पुकार उठा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! मैं इन सबसे खिन्न हूँ जिन्हें तुम अल्लाह का शरीक ठहराते हो।53
53.यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के उस आरंभिक चिन्तन की दशा बयान की गई है जो नुबूवत के पद पर आसीन होने से पहले उनके लिए सत्य तक पहुँचने का साधन बना । इसमें बताया गया है कि एक बुद्धिमान और दृष्टिवान इंसान, जिसने सरासर शिर्क (बहुदेववाद) के माहौल में आँखें खोली थीं और जिसे तौहीद (एकेश्वरवाद) की शिक्षा कहीं से प्राप्त न हो सकती थी, किस तरह सृष्टि की निशानियों को देखकर की और उनपर चिन्तन-मनन करके और उनसे उचित तर्क द्वारा सत्य बात मालूम करने में सफल हो गया। ऊपर इबराहीम (अलैहि.) की कौम की जो परिस्थितियाँ बयान की गई हैं, उनपर एक दृष्टि डालने से यह मालूम हो जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि.) ने जब होश संभाला था तो उनके आस-पास हर ओर चाँद, सूरज और तारों की खुदाई के डंके बज रहे थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को सत्य खोज का आरंभ इसी प्रश्न से होना चाहिए था कि क्या वास्तव में इनमें से कोई रब हो सकता है ? इसी केन्द्रीय प्रश्न पर उन्होंने चिन्तन-मनन किया और अन्ततः अपनी क़ौम के सारे ख़ुदाओं को एक अटल क़ानून के तहत गुलामों की तरह गर्दिश करते देखकर वह इस नतीजे पर पहुँच गए कि जिन-जिन के रब होने का दावा किया जाता है, उनमें से किसी के अन्दर भी रब होने का कोई अंश तक नहीं है, रब केवल वही एक है जिसने इन सबको पैदा किया और बन्दगी पर मजबूर किया है। इस क़िस्से के शब्दों से आमतौर पर लोगों के मन में एक सन्देह पैदा होता है और यह कि हज़रत इबराहीम ने। यह चितंन-मनन तो समझ-बूझ की उम्र तक पहुँचने के बाद ही किया होगा, फिर यह किस्सा इस तरह क्यों बयान किया गया है कि जब रात हुई तो यह देखा और दिन निकला तो यह देखा ? मानो इस विशेष घटना से पहले उन्हें इन चीज़ों के देखने का संयोग न हुआ था, हालाँकि ऐसा होना बिल्कुल असंभव है। यह सन्देह कुछ लोगों के लिए इतना विकट हो गया कि इसे दूर करने की कोई शक्ल उन्हें इसके सिवा दीख न पड़ी कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के जन्म और लालन-पालन के बारे में एक असाधारण कहानी घड़ें। अत: बयान किया जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का जन्म और लालन-पालन एक गुफा में हुआ था, जहाँ सूझ-बूझ की उम्र को पहुंचने तक वे चाँद, तारों और सूरज के देखने से वंचित रखे गए थे। हालांकि बात बिल्कुल स्पष्ट है और इसको समझने के लिए इस प्रकार की किसी कहानी की जरूरत नहीं है । न्यूटन के बारे में प्रसिद्ध है कि उसने बाग़ में एक सेब को पेड़ से गिरते देखा और इससे उसका मातिष्क अचानक इस सवाल की ओर मुतवज्जह हो गया कि चीजें आखिर ज़मीन पर ही क्यों गिरा करती हैं? यहाँ तक कि चिर्तन करते-करते गुरुत्व-नियम की खोज तक पहुंच गया। स्पष्ट है कि [इस घटना से पहले न्यूटन ने ज़मीन पर चीज़ों को बार-बार गिरते देखा होगा, फिर क्या कारण है कि उस विशेष तिथि से पहले उसके मस्तिष्क ने इस तरह काम नहीं किया ?] इसका उत्तर अगर कुछ हो सकता है तो यही कि सोच-विचार करनेवाला मन सदैव एक तरह के निरीक्षणों से एक ही तरह का प्रभाव नहीं ग्रहण करता। बहुत बार ऐसा होता है कि आदमी एक चीज़ को हमेशा देखता रहता है और उसके मन में कोई हरकत पैदा नहीं होती, मगर एक समय उसी चीज़ को देखकर यकायक मन में एक खटक पैदा हो जाती है जिससे चिंतन-शक्तियाँ एक विशेष विषय की ओर काम करने लगती हैं या पहले से किसी सवाल की खोज में मन उलझ रहा होता है और यकायक नित्य के निरीक्षणों में से किसी एक चीज़ पर नज़र पड़ते ही गुत्थी का व्ह सिरा हाथ लग जाता है जिससे सारी उलझनें सुलझती चली जाती हैं। ऐसा ही मामला हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ भी पेश आया। रातें रोज़ आती थीं और बीत जाती थीं। सूरज, चाँद और तारे सब ही आँखों के सामने डूबते और उभरते रहते थे, लेकिन वह एक खास दिन था जब एक तारे के निरीक्षण ने उनके मन को उस राह पर डाल दिया जिससे अन्ततः वे एकेश्वरवाद के केन्द्र-बिन्दु तक पहुँचकर रहे।
इस सिलसिले में एक और प्रश्न भी पैदा होता है, वह यह कि जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तारे को, और फिर चाँद को और सूरज को देखकर कहा 'यह मेरा रब है तो क्या उस समय सामयिक रूप से ही सही, वे शिर्क में पड़ नहीं गए थे? इसका उत्तर यह है कि सत्य का एक खोजी अपनी खोज की राह में आगे बढ़ते हुए बीच की जिन मंज़िलों पर सोच-विचार के लिए ठहरता है उनपर उसका ठहरना तलब और खोज के सिलसिले में होता है, न कि निर्णय के रूप में । वास्तव में यह ठहराव समझने और खोजबीन करने के लिए हुआ करता है, न कि निर्णायक रूप में। खोजी व्यक्ति जब इनमें से किसी मंजिल पर रुककर कहता है कि “ऐसा है" तो वास्तव में यह उसकी आखिरी राय नहीं होती, बल्कि इसका अर्थ यह होता है कि "ऐसा है?" और खोज करने से उसका उत्तर'न' में पाकर वह आगे बढ़ जाता है । इसलिए यह सोचना बिल्कुल ग़लत है कि रास्ते में जहाँ-जहाँ वह ठहरता रहा, वहाँ वह सामयिक रूप से कुफ़ (अनेकेश्वरवाद) या शिर्क में ग्रस्त रहा।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓ إِذۡ قَالُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٖ مِّن شَيۡءٖۗ قُلۡ مَنۡ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِي جَآءَ بِهِۦ مُوسَىٰ نُورٗا وَهُدٗى لِّلنَّاسِۖ تَجۡعَلُونَهُۥ قَرَاطِيسَ تُبۡدُونَهَا وَتُخۡفُونَ كَثِيرٗاۖ وَعُلِّمۡتُم مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنتُمۡ وَلَآ ءَابَآؤُكُمۡۖ قُلِ ٱللَّهُۖ ثُمَّ ذَرۡهُمۡ فِي خَوۡضِهِمۡ يَلۡعَبُونَ 90
(91) इन लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अनुमान लगाया, जब कहा कि अल्लाह ने किसी बशर (इंसान) पर कुछ नहीं उतारा है।59 इनसे पूछो, फिर वह किताब जिसे मूसा लाया था, जो तमाम इंसानों के लिए रौशनी और हिदायत थी, जिसे तुम पारा-पारा (खंड-खंड) करके रखते हो, कुछ दिखाते हो और बहुत कुछ छिपा जाते हो, और जिसके माध्यम से तुमको वह ज्ञान दिया गया, जो न तुम्हें प्राप्त था और न तुम्हारे बाप-दादा को, आख़िर उसका उतारनेवाला कौन था?60 बस इतना कह दो कि अल्लाह, फेर उन्हें अपनी दलीलबाज़ियों (कुतर्को) से खेलने के लिए छोड़ दो।
59.पिछले वर्णन-क्रम और बाद के जवाबी भाषण से साफ़ पता चलता है कि यह कथन यहूदियों का था। चूँकि नबी (सल्ल०) का दावा यह था कि मैं नबी हूँ और मुझपर किताब उतरी है, इसलिए स्वाभाविक रूप से क़ुरैश और अरब के दूसरे मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) इस दावे की जाँच के लिए यहूदियों और ईसाइयों के पास जाते थे और उनसे पूछते थे कि तुम भी अहले किताब हो, पैग़म्बरों को मानते हो, बताओ क्या सचमुच इस आदमी पर अल्लाह का कलाम उतरा है ? फिर जो कुछ जवाब वे देते, उसे नबी (सल्ल०) के सक्रिय विरोधी जगह-जगह बयान करके लोगों को भड़काते फिरते थे। इसी लिए यहाँ यहूदियों के इस कथन को, जिसे इस्लाम के विरोधियों ने अपने लिए प्रमाण बना रखा था, नक़ल करके उसका उत्तर दिया जा रहा है।
सन्देह किया जा सकता है कि एक यहूदी, जो स्वयं तौरात को अल्लाह की ओर से उतरी किताब मानता है, यह कैसे कह सकता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर कुछ नहीं उतारा। लेकिन यह सन्देह सही नहीं है, इसलिए कि दुराग्रह और हठधर्मी के कारण कभी-कभी आदमी किसी दूसरे की सच्ची बातों' को रद्द करने के लिए ऐसी बातें भी कह जाता है जिनसे स्वयं उसकी अपनी मान्यताओं पर भी चोट पड़ जाती है। ये लोग मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत को रद्द करने पर तुले हुए थे और अपने विरोध के उन्माद में इतने अंधे हो जाते थे कि नबी (सल्ल.) की पैग़म्बरी का खंडन करते-करते स्वयं पैग़म्बरी हो का खंडन कर गुज़रते थे।
और यह जो फ़रमाया कि लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अनुमान लगाया जब यह कहा, तो इसका अर्थ यह है कि उन्होंने अल्लाह की तत्वदर्शिता और उसकी सामर्थ्य का अनुमान लगाने में ग़लती की है। जो आदमी यह कहता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर सत्य-ज्ञान और ज़िन्दगी का हिदायतनामा नहीं उतारा है, वह या तो इंसान पर वह्य (प्रकाशना) के उतरने को असंभव समझता है और यह अल्लाह की शक्ति व सामर्थ्य का ग़लत अन्दाज़ा है, या फिर वह यह समझता है कि अल्लाह ने इंसान को बुद्धि के हथियार और उपयोग के अधिकार तो दे दिए, मगर उसकी सही रहनुमाई की कोई व्यवस्था न की, बल्कि उसे दुनिया में अंधाधुंध काम करने के लिए यूं ही छोड़ दिया और यह अल्लाह की तत्वदर्शिता का ग़लत अनुमान है।
60.यह उत्तर चूंकि यहूदियों को दिया जा रहा है, इसलिए मूसा (अलैहि०) पर तौरात के उतरने को प्रमाण के रूप में पेश किया गया है, क्योंकि वे स्वयं इसके कायल थे। स्पष्ट है कि उनका यह मान लेना कि हज़रत मूसा पर तौरात उतरी थी, उनके इस कथन का आप-से-आप खंडन कर देता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर कुछ नहीं उतारा, साथ ही इससे कम से कम इतनी बात तो सिद्ध हो जाती है कि इंसान पर अल्लाह का कलाम उतर सकता है और उतर चुका है।
قَدۡ جَآءَكُم بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنۡ أَبۡصَرَ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ عَمِيَ فَعَلَيۡهَاۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ 103
(104) देखो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से विवेक का प्रकाश आ गया है। अब जो सूझ-बूझ से काम लेगा, अपना ही भला करेगा और जो अंधा बनेगा, स्वयं हानि उठाएगा। मैं तुमपर कोई निगराँ नहीं हूँ।69
69.यह वाक्य यद्यपि अल्लाह ही का बोल (कलाम) है, मगर नबी की ओर से अदा हो रहा है, जिस तरह क़ुरआन को सूरा, फ़ातिहा है तो अल्लाह का कलाम, मगर बन्दों के मुख से अदा होता है । क़ुरआन मजीद में जिस तरह सम्बोधित लोग बार-बार बदलते हैं कि कभी नबी (सल्ल.) से सम्बोधन होता है, कभी ईमानवालों से, कभी किताबवालों से, कभी इंकारियों और मुशरिकों से, कभी क़ुरैश के लोगों से, कभी अरबवालों से और कभी आम इंसानों से, हालाँकि मूल उद्देश्य सम्पूर्ण मानव-जाति का मार्गदर्शन है। इसी तरह बात कहनेवाले भी बार-बार बदलते हैं कि कहीं वह अल्लाह होता है, कहीं वह्य लानेवाला फ़रिश्ता, कहीं फरिश्तों का गिरोह, कहीं नबी (सल्ल.) और कहीं ईमानवाले, हालाँकि इन सब शक्लों में वाणी वही एक अल्लाह की वाणी होती है।
‘’मैं तुमपर निगरा नहीं हूँ’’ अर्थात मेरा काम बस इतना ही है कि इस प्रकाश को तुम्हारे सामने रख दूँ। इसके बाद आँखें खोलकर देखना या न देखना तुम्हारा अपना काम है। मेरे सुपुर्द यह काम नहीं किया गया है कि जिन्होंने स्वयं आँखें बन्द कर रखी हैं उनकी आँखें ज़बरदस्ती खोलूँ और जो कुछ वे नहीं देखते वह उन्हें दिखाकर ही छोडूँ।
وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدۡوَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖۗ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرۡجِعُهُمۡ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ 107
(108) और (ऐ मुसलमानो !) ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं, उन्हें गालियाँ न दो, कहीं ऐसा न हो कि ये अनेकेश्वरवाद (शिर्क) से आगे बढ़कर अज्ञान के कारण अल्लाह को गालियाँ देने लगें।72 हमने तो इसी तरह हर गिरोह के लिए उसके कर्म को सुहावना बना दया है73, फिर उन्हें अपने पालनहार ही की ओर पलटकर आना है, उस समय वह उन्हें बता देगा कि वे क्या करते रहे हैं।
72.यह उपदेश नबी (सल्ल.) के अनुयाइयों की पैरवी करनेवालों को दिया गया है कि अपने प्रचार के जोश में वे भी इतने बेकाबू न हो जाएँ कि शास्त्रार्थ और वाद-विवाद से मामला बढ़ते-बढ़ते गैर-मुस्लिमों की आस्थाओं पर कड़े हमले करने और उनके धर्म गुरुओं और उपास्यों को गालियाँ देने तक नौबत पहुँच जाए, क्योंकि यह चीज़ उनको सत्य से करीब लाने के बजाय और अधिक दूर फेंक देगी।
73.यहाँ फिर उस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए जिसकी ओर इससे पहले भी हम अपनी टिप्पणियों में संकेत कर चुके हैं कि जो चीजें प्रकृति के नियमों के तहत प्रकट होती हैं, अल्लाह उन्हें अपना प्राकृतिक काम क़रार देता रहा है, क्योंकि वही उन नियमों का तय करनेवाला है और जो कुछ इन कानूनों के तहत प्रकट होता है, वह उसी के आदेश से प्रकट होता है। जिस बात को अल्लाह यूँ बयान फ़रमाता है कि हमने ऐसा किया है, उसी को अगर हम इंसान बयान करें तो इस तरह कहेंगे कि प्राकृतिक रूप से ऐसा ही हुआ करता है।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا شَيَٰطِينَ ٱلۡإِنسِ وَٱلۡجِنِّ يُوحِي بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ زُخۡرُفَ ٱلۡقَوۡلِ غُرُورٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ 111
(112) और हमने तो इसी तरह सदा शैतान इंसानों और शैतान जिन्नों को हर नबी का दुश्मन बनाया है जो एक-दूसरे के मन में हर्षित कर देनेवाली बातें धोखे और छल के तौर पर डालते रहे हैं।79 अगर तुम्हारे पालनहार ने यही चाहा होता कि वे ऐसा न करें तो कभी वे न करते।80 तो तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो कि झूठ घड़ने का काम करते रहें।
79.अर्थात आज अगर जिन्न और इंसान शैतान एक होकर तुम्हारे मुकाबले में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं तो घबराने की कोई बात नहीं। यह कोई नई बात नहीं है जो तुम्हारे ही साथ हो रही हो। हर काल में ऐसा ही होता आया है कि जब कोई पैग़म्बर दुनिया को सीधा रास्ता दिखाने के लिए उठा तो तमाम शैतानी ताकतें उसके मिशन को विफल करने के लिए उठ खड़ी हुई।
मुहावनी बातों से तात्पर्य वे तमाम चालें, तदबीरें, शंका व संदेह और आपत्तियाँ हैं जिनसे ये लोग जनता को सत्य की ओर बुलाने और उसके संदेश के विरुद्ध भड़काने और उकसाने का काम लेते हैं। फिर इन सब बातों को कुल मिलाकर धोखा और फरेब बताया गया है, क्योंकि सत्य से लड़ने के लिए जो हथियार भी सत्य-विरोधी इस्तेमाल करते हैं, वे न केवल दूसरों के लिए, बल्कि स्वयं उनके लिए भी वास्तविकता के पहलू से मात्र एक धोखा होते हैं, यद्यपि देखने में वे उनको बहुत लाभप्रद और सफल हथियार नज़र आते है।
80.यहाँ हमारी पिछली व्याख्याओं के अतिरिक्त यह तथ्य भी अच्छी तरह मन में बैठ जाना चाहिए कि क़ुरआन के अनुसार अल्लाह की इच्छा (मशीयत) और ठसकी प्रसन्नता (रिज़ा) में बहुत बड़ा अन्तर है जिसको नज़रअंदाज़ कर देने से आम तौर पर भारी ग़लतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं। किसी चीज़ के अल्लाह की इच्छा और उसकी अनुमति के तहत प्रकट होने का अर्थ अनिवार्यतः यह नहीं होता कि अल्लाह उससे प्रसन्न भी और उसे पसन्द भी है करता है। दुनिया में कोई घटना कभी नहीं घटती जब तक कि अल्लाह उसका आदेश न दे और अपनी विशाल योजना में उसके घटित होने की गुंजाइश न निकाले और परिस्थितियों को बना दे कि वह घटना घटित हो सके। किसी चोर का चोरी करना, किसी कातिल का क़त्ल करना, किसी ज़ालिम और फ़सादी का ज़ुल्म व फ़साद और किसी अधर्मी व मुशरिक का अधर्म व शिर्क अल्लाह के चाहे बिना संभव नहीं है। और इसी तरह किसी ईमानवाले और किसी परहेज़गार (धर्मपरायण) इंसान को ईमान और परहेज़गारी भी अल्लाह के चाहे बिना असंभव है। दोनों प्रकार की घटनाएँ समान रूप से अल्लाह की इच्छा और अनुमति के तहत घटित होती हैं, मगर पहले प्रकार की घटनाओं से अल्लाह प्रसन्न नहीं है और उसके विपरीत दूसरे प्रकार की घटनाओं को उसकी प्रसन्नता, उसकी पसंदीदगी और गया उसके प्रिय होने का प्रमाण प्राप्त है । यद्यपि अन्ततः किसी बड़ी भलाई ही के लिए सृष्टि के शासक की (ना- इच्छा काम कर रही है, लेकिन उस बड़ी भलाई के प्रकट होने का रास्ता रौशनी और अंधेरे, भलाई और बुराई और बनाव और बिगाड़ की अलग-अलग ताक़तों के एक-दूसरे के मुक़ाबले में संघर्षरत होने ही से साफ़ होता है, इसलिए अपने दूरगामी हितों के आधार पर वह आज्ञापालन और अवज्ञा, इबराहीमवाद और नमरूदवाद, मूसावाद और फ़िरऔनवाद,मानवतावाद और राक्षसवाद दोनों को अपना-अपना काम करने का अवसर देता है। उसने अपने अधिकार प्राप्त प्राणियों (इंसान और जिन्न) को भलाई-बुराई में से किसी एक के चुन लेने की स्वतंत्रता दे दी है, जो चाहे दुनिया के इस कारखाने में अपने लिए भलाई का काम पसन्द कर ले और जो चाहे बुराई का काम। दोनों प्रकार के कार्यकर्ताओं को, जिस सीमा तक अल्लाह की मस्लहतें इजाज़त देती हैं, साधनों का समर्थन मिलता है, लेकिन अल्लाह की प्रसन्नता और उसकी पसंदीदगी केवल भलाई ही के लिए काम करनेवालों को प्राप्त है और अल्लाह की प्रिय बात यही है कि उसके बन्दे अपने लिए चुन लेने की स्वतंत्रता से फायदा उठाकर भलाई को अपनाएँ, न कि बुराई को।
इसके साथ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि यह जो अल्लाह सत्य के शत्रुओं की विरोधपूर्ण कार्रवाइयों का उल्लेख करते हुए अपनी इच्छा का बार-बार हवाला देता है, इसका उद्देश्य वास्तव में नबी (सल्ल०) को और आपके माध्यम से ईमानवालों को यह समझाना है कि तुम्हारा कार्य-प्रकार फ़रिश्तों के कार्य जैसा नहीं है जो किसी रुकावट के बिना अल्लाह के आदेशों का पालन करते चले जा रहे हैं, बल्कि तुम्हारा वास्तविक कार्य दुष्टों और विद्रोहियों के मुकाबले में अल्लाह पसंद की हुई प्रणाली को प्रभावी करने के लिए अथक प्रयास करना है। अल्लाह अपनी इच्छा के अन्तर्गत उन लोगों को भी काम करने का अवसर दे रहा है जिन्होंने अपनी कोशिशों और मेहनतों के लिए स्वयं अल्लाह से विद्रोह के रास्ते को अपनाया है और इसी तरह वह तुम्हें भी, जिन्होंने आज्ञापालन और बन्दगी के रास्ते को अपनाया है, काम करने का पूरा अवसर देता है। यद्यपि उसको प्रसन्नता और हिदायत व रहनुमाई और समर्थन व सहायता तुम्हारे ही साथ है, क्योंकि तुम उस पहलू में काम कर रहे हो जिसे वह पसन्द करता है, लेकिन तुम्हें यह आशा न करनी चाहिए कि अल्लाह अपने अलौकिक हस्तक्षेप से उन लोगों को ईमान लाने पर विवश कर देगा जो ईमान नहीं लाना चाहते या उन जिन्न और इंसान रूपी शैतानों को ज़बरदस्ती तुम्हारे रास्ते से हटा देगा जिन्होंने अपने दिल व दिमाग़ को और हाथ-पैर की ताक़तों को और अपने साधनों को सत्य-मार्ग रोकने के लिए इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया है, नहीं, अगर तुमने वास्तव में सत्य, नेकी और सच्चाई के लिए काम करने का संकल्प कर लिया है तो तुम्हें असत्यवादियों के मुक़ाबले में कड़ा संघर्ष और जिद्दोजुहद करके अपनी सत्यवादिता का प्रमाण देना होगा, वरना मोजज़ों (चमत्कारों) के बल पर असत्य को मिटाना और सत्य को विजयी करना होता तो तुम्हारी ज़रूरत ही क्या थी, अल्लाह स्वयं ऐसा प्रबंध कर सकता था कि दुनिया में कोई शैतान न होता और किसी शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और कुफ्र (अधर्म) के प्रकट होने की संभावना न होती।
وَلَا تَأۡكُلُواْ مِمَّا لَمۡ يُذۡكَرِ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَإِنَّهُۥ لَفِسۡقٞۗ وَإِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ لَيُوحُونَ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِهِمۡ لِيُجَٰدِلُوكُمۡۖ وَإِنۡ أَطَعۡتُمُوهُمۡ إِنَّكُمۡ لَمُشۡرِكُونَ 120
(121) और जिस जानवर को अल्लाह का नाम लेकर जिब्ह न किया गया हो उसका माँस न खाओ, ऐसा करना फ़िस्क (अवज्ञा) है। शैतान अपने साथियों के दिलों में सन्देह और आपत्तियाँ डाल देते हैं, ताकि वे तुमसे झगड़ा करें।86 लेकिन अगर तुमने उनकी बात मान ली तो निश्चय ही तुम मुशरिक (बहुदेववादी) हो।87
86.हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि यहूदी उलमा अरब के अज्ञानियों को नबी (सल्ल०) पर आपत्ति करने के लिए जो प्रश्न सिखाया करते थे, उनमें से एक यह भी था कि "आख़िर यह क्या मामला है कि जिसे अल्लाह मारे, वह तो हराम हो और जिसे हम मारें, वह हलाल हो जाए।" यह एक छोटा-सा नमूना है उस टेढ़ी मनोवृत्ति का जो इन कथित किताबवालों में पाई जाती थी। वे इस प्रकार के प्रश्नों को घड़-घड़कर पेश करते थे, ताकि आम लोगों के दिलों में सन्देह पैदा करें और उन्हें सत्य से लड़ने के लिए हथियार जुटाकर दें।
87.अर्थात एक ओर अल्लाह के ईश्वरत्व को स्वीकार करना और दूसरी ओर अल्लाह से फिरे हुए लोगों के आदेशों पर चलना और उनके तय किए हुए तरीकों की पाबन्दी करना, शिर्क' (अनेकेश्वरवाद) है। तौहीद (एकेश्वरवाद) यह है कि ज़िन्दगी सरासर अल्लाह के आज्ञापालन में गुज़रे । अल्लाह के साथ अगर दूसरों को अपनी धारणा में स्वतंत्र आज्ञा-दाता स्वीकार कर लिया जाए, तो यह धारणा सम्बन्धी शिर्क है और अगर व्यावहारिक रूप से ऐसे लोगों का आज्ञापालन किया जाए, जो अल्लाह के मार्गदर्शन से बेपरवाह होकर स्वयं आदेश देने या रोकने के अधिकारी बन गए हों तो यह व्यावहारिक शिर्क है।
أَوَمَن كَانَ مَيۡتٗا فَأَحۡيَيۡنَٰهُ وَجَعَلۡنَا لَهُۥ نُورٗا يَمۡشِي بِهِۦ فِي ٱلنَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُۥ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ لَيۡسَ بِخَارِجٖ مِّنۡهَاۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡكَٰفِرِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ 121
(122) क्या वह आदमी जो पहले मुर्दा था, फिर हमने उसे जीवन दिया 88 और उसको वह रौशनी दी जिसके उजाले में वह लोगों के बीच ज़िन्दगी की राह तय करता है, उस आदमी की तरह हो सकता है जो अँधेरों में पड़ा हुआ हो और किसी तरह उनसे न निकलता हो? 89 इकार करनेवालों के लिए तो इसी तरह उनके कर्म सुहावने बना दिए गए हैं,90
88.यहाँ मौत से तात्पर्य अज्ञानता और बुद्धिहीनता की स्थिति है और जीवन से तात्पर्य ज्ञान और विवेक और सत्यपरकता की स्थिति है । जिस आदमी को सही और ग़लत की पहचान नहीं और जिसे मालूम नहीं कि सीधा रास्ता क्या है, वह भौतिक रूप से भले ही जीवधारी हो, मगर वास्तविकता की दृष्टि से उसे मानवता का जीवन हासिल नहीं है। वह ज़िंदा प्राणी तो ज़रूर है,मगर जिंदा इंसान नहीं। जिंदा इंसान वास्तव में केवल वह आदमी है जिसे सत्य और असत्य, नेकी और बदी, सही और ग़लत को समझ प्राप्त हुई है।
89.अर्थात तुम किस तरह यह आशा कर सकते हो कि जिस इंसान को मानवता की चेतना प्राप्त हो चुकी है और जो ज्ञान की रौशनी में टेढ़े रास्तों के बीच सत्य की सीधी राह को स्पष्ट रूप से देख रहा है, वह उन बेसमझ लोगों की तरह दुनिया में ज़िन्दगी बसर करेगा जो नासमझी और अज्ञानता की अंधियारियों में भटकते फिर रहे हैं।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَنِيُّ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفۡ مِنۢ بَعۡدِكُم مَّا يَشَآءُ كَمَآ أَنشَأَكُم مِّن ذُرِّيَّةِ قَوۡمٍ ءَاخَرِينَ 132
(133) तुम्हारा पालनहार निस्पृह है और दयालुता उसकी रीति है।101 अगर वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और तुम्हारी जगह दूसरे जिन लोगों को चाहे ले आए जिस तरह उसने तुम्हें कुछ और लोगों की नस्ल से उठाया है,
101."तुम्हारा पालनहार उदासीन है", अर्थात उसका कोई स्वार्थ तुमसे अटका हुआ नहीं है, उसका कोई हित तुमसे जुड़ा हुआ नहीं है कि तुम्हारी अवज्ञा से उसका कुछ बिगड़ जाता हो, या तुम्हारे आज्ञापालन से उसको कोई लाभ पहुँच जाता हो, तुम सब मिलकर सख्त अवज्ञाकारी बन जाओ तो उसकी बादशाही में कण भर भी कमी नहीं कर सकते और सब के सब मिलकर उसके आज्ञापालक और उपासक बन जाओ तो उसके साम्राज्य में कुछ बढ़ोत्तरी नहीं सकते। वह न तुम्हारी सलामियों का मुहताज है और न तुम्हारी नज्न व नियाज़ का। अपने अनगिनत ख़ज़ाने तुमपर लुटा रहा है, बिना इसके कि इनके बदले में अपने लिए तुमसे कुछ चाहे।
"दयालुता उसकी नीति है", यहाँ सन्दर्भ की दृष्टि से इस वाक्य के दो अर्थ हैं-
एक यह कि तुम्हारा पालनहार तुमको सीधे रास्ते पर चलने का जो आदेश देता है और वास्तविक तथ्य के विपरीत नीति अपनाने से जो मना करता है, उसका कारण यह नहीं है कि तुम्हारे सीधा चलने से उसका कोई लाभ और ग़लत राह चलने से उसका कोई नुकसान होता है, बल्कि इसका कारण वास्तव में यह है कि सीधा रास्ता चलने में तुम्हारा अपना लाभ और ग़लत रास्ता चलने में तुम्हारी अपनी हानि है। इसलिए यह पूरी तरह उसकी कृपा है कि वह तुम्हें उस सही तरीके की शिक्षा देता है जिससे तुम ऊँचे दों तक तरक़्क़ी करने के योग्य बन सकते हो और उस ग़लत तरीके से रोकता है जिसके कारण तुम निचले दों की ओर गिरते हो।
दूसरे यह कि तुम्हारा पालनहार कड़ी पकड़ करनेवाला नहीं है, तुमको सज़ा देने में उसे कोई मज़ा नहीं आता है, वह तुम्हें पकड़ने और मारने पर तुला हुआ नहीं है कि तनिक तुमसे ग़लती हो, और वह तुम्हारी ख़बर ले डाले । वास्तव में वह अपनी समस्त सृष्टि पर अत्यन्त दयालु है, वह अत्यन्त दयालुता के साथ प्रभुताई कर रहा है और यही उसका मामला इंसानों के साथ भी है। इसी लिए वह तुम्हारी ग़लतियों पर ग़लतियाँ माफ़ करता चला जाता है। तुम अवज्ञा करते हो, पाप करते हो, अपराध करते हो, उसकी रोज़ी पर पलकर भी कर उसके आदेशों से मुँह मोड़ते हो, मगर वह नर्मी और क्षमा ही से काम लिए जाता है और तुम्हें सँभलने और समझने और अपना सुधार कर लेने के लिए मोहलत पर मोहलत दिए जाता है, वरना अगर वह कड़ी पकड़ करनेवाला होता तो उसके लिए कुछ कठिन न था कि तुम्हें दुनिया से विदा कर देता और तुम्हारी जगह किसी दूसरी क़ौम को उठा खड़ा करता या सारे इंसानों को समाप्त करके कोई और प्राणी पैदा कर देता।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ ٱلۡحَرۡثِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ نَصِيبٗا فَقَالُواْ هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعۡمِهِمۡ وَهَٰذَا لِشُرَكَآئِنَاۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَآئِهِمۡ فَلَا يَصِلُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَآئِهِمۡۗ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ 135
(136) इन लोगों ने104 अल्लाह के लिए स्वयं उसी की पैदा की हुई खेतियों और चौपायों में से एक हिस्सा निश्चित किया है, और अपने ख्याल से कहते हैं कि यह अल्लाह के लिए है, और यह हमारे ठहराए हुए शरीकों के लिए।105 फिर जो हिस्सा इनके ठहराए हुए शरीकों के लिए है, वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता, मगर जो अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों को पहुँच जाता है।106 कैसे बुरे फ़ैसले करते हैं ये लोग !
104. ऊपर का व्याख्यान-क्रम इस बात पर पूरा हुआ था कि अगर ये लोग उपदेश मानने के लिए तैयार नहीं है और अपनी अज्ञानता पर आग्रह ही किए जाते हैं तो उनसे कह दो कि अच्छा, तुम अपने तरीक़े पर काम करते रहो और मैं अपने तरीक़े पर काम करूँगा। कियामत एक दिन ज़रूर आनी है, उस समय तुम्हें मालूम हो जाएगा कि इस नीति का क्या अंजाम होता है। बहरहाल यह खूब समझ लो कि वहाँ ज़ालिमों को सफलता न मिलेगी। इसके बाद अब उस अज्ञानता की कुछ व्याख्या की जाती है जिसपर वे लोग आग्रह कर रहे थे और जिसे छोड़ने पर किसी तरह तैयार न होते थे, और उन्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारा वह 'जुल्म' क्या है जिसपर क़ायम रहते हुए तुम किसी सफलता की आशा नहीं कर सकते ।
105. इस बात को वे स्वयं मानते थे कि ज़मीन अल्लाह की है और खेतियाँ वही उगाता है। और उन जानवरों का पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है जिनसे वे अपनी ज़िन्दगी में सेवा लेते हैं, लेकिन उनका विचार यह था कि उनपर अल्लाह की यह कृपा उन देवियों और देवताओं और फ़रिश्तों और जिन्नों और आसमानी सितारों और पिछले बुजुर्गों की रूहों की कृपा और बरकत से है जो उनपर कृपा-दृष्टि रखते हैं, इसलिए वे अपने खेतों की पैदावार और अपने जानवरों में से दो हिस्से निकालते थे। एक हिस्सा अल्लाह के नाम का, इस शुक्रिए में कि उसने ये खेत और ये जानवर उन्हे प्रदान किए और दूसरा हिस्सा अपने क़बीले या परिवार के 'बड़े उपास्यों के चढ़ावे का, ताकि उनकी मेहरबानियाँ उनके साथ रहें। अल्लाह सबसे पहले उनके इसी जुल्म पर पकड़ करता है कि ये सब चौपाए हमारे पैदा किए हुए और हमारे दिए हुए हैं, उनमें यह दूसरों का चढ़ावा कैसा? यह नमकहरामी नहीं तो क्या है कि तुम अपने उपकारकर्ता के उपकार को, जो उसने पूर्ण रूप से स्वयं अपनी मेहरबानी से तुमपर किया है, दूसरों के हस्तक्षेप और उनकी मध्यस्थता का नतीजा बताते हो और शुक्रिए के हक़ में उन्हें उसके साथ साझी ठहराते हो, फिर सांकेतिक रूप में दूसरी पकड़ इस बात पर भी की है कि यह अल्लाह का हिस्सा जो उन्होंने निश्चित किया है, यह भी अपने आप ही कर लिया है अपने नियम निर्माता स्वयं बन बैठे हैं, आप ही जो हिस्सा चाहते हैं, अल्लाह के लिए निश्चित कर लेते हैं और जो चाहते हैं, दूसरों के लिए तय कर देते हैं, हालाँकि अपनी प्रदान की हुई चीज़ों का वास्तविक स्वामी व अधिकारी स्वयं अल्लाह है और यह बात उसी की शरीअत (विधान) के अनुसार तय होनी चाहिए कि इस देने में से कितना हिस्सा उसके शुक्रिए के लिए निकाला जाए और शेष में कौन-कौन अधिकारी हैं। अत: वास्तव में इस मनमाने तरीके से जो हिस्सा ये लोग अपने झूठे विचार में अल्लाह के लिए निकालते हैं और निर्धनों और ज़रूरतमंदों आदि को दान देते हैं, वह भी कोई नेकी नहीं है। अल्लाह के यहाँ उसके स्वीकार्य होने का भी कोई कारण नहीं।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ قَتۡلَ أَوۡلَٰدِهِمۡ شُرَكَآؤُهُمۡ لِيُرۡدُوهُمۡ وَلِيَلۡبِسُواْ عَلَيۡهِمۡ دِينَهُمۡۖ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ 136
(137) और इसी तरह बहुत-से मुशरिकों के लिए उनके शरीकों ने अपनी सन्तान के क़त्ल को ख़ुशनुमा बना दिया है107, ताकि इनको तबाही में डाल दें 108 और उनपर उनके दीन को संदिग्ध बना दें।109अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते, इसलिए इन्हें छोड़ दो कि अपने झूठ गढ़ने में लगे रहे।110
107.यहाँ 'शरीकों' का शब्द एक दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो ऊपर के अर्थ से भिन्न है। ऊपर की आयत में जिन्हें 'शरीक' के शब्द से परिभाषित किया गया था, वे उनके वे उपास्य थे जिनको बरकत या सिफ़ारिश या वास्ते को ये लोग नेमत की प्राप्ति में मददगार समझते थे और नेमत के शुक्र के हक़दार के तौर पर उन्हें अल्लाह के साथ हिस्सेदार बनाते थे। इसके विपरीत इस आयत में 'शरीक' से तात्पर्य वे इंसान हैं जिन्होंने औलाद के वध की रस्म पैदा की थी और वे शैतान हैं जिन्होंने इस अत्याचारपूर्ण रस्म को इन लोगों की निगाह में एक जाइज़ और पसंदीदा कार्य बना दिया था, उन्हें शरीक कहने की वजह यह है कि इस्लाम की दृष्टि में जिस तरह इबादत का हक़दार अकेला अल्लाह है। उसी तरह बन्दों के लिए कानून बनाने और जाइज़ व नाजाइज़ की हदें तय करने का हक़दार भी सिर्फ अल्लाह है। इसलिए जिस तरह किसी दूसरे के आगे इबादत के कामों में से कोई काम करना उसे अल्लाह का शरीक बनाने का समानार्थी है, उसी तरह किसी के स्वयं गढ़े हुए क़ानून को सत्यानुकूल समझते हुए उसकी पाबन्दी करना और उसकी निश्चित की हुई सीमाओं की पैरवी अनिवार्य मानना भी उसे खुदाई में अल्लाह का शरीक करार देने के समानार्थी है। ये दोनों कार्य बहरहाल शिर्क हैं, भले ही उसका करनेवाला उन हस्तियों को ज़बान से इलाह (ईष्ट-प्रभु) और रब कहे या न कहे जिनके आगे वह भेंट और चढ़ावा पेश करता है या जिनके निश्चित किए हुए क़ानून की पैरवी को अनिवार्य समझता है। सन्तान के क़त्ल की तीन शक्लें अरववासियों में प्रचलित हुई थी और कुरआन में तीनों को ओर संकेत किया गया है-
1. लड़कियों का कत्ल इस विचार से कि कोई उनका दामाद न बने या कबीलों की लड़ाइयों में वे दुश्मन के हाथ न पड़ें या किसी दूसरे कारण से वे उनके लिए लज्जा का कारण न बनें ।
2. बच्चों का क़त्ल इस विचार से कि उनके लालन-पालन का बोझ न उठाया जा सकेगा और आर्थिक साधनों की कमी के कारण वे असह्य बोझ बन जाएँगे।
3. बच्चों को अपने उपास्यों की प्रसन्नता के लिए भेंट चढ़ाना।
108.'तबाही' शब्द अति अर्थपूर्ण है। इससे तात्पर्य नैतिक विनाश भी है कि जो इंसान कठोरता और हृदयता पाषण की इस सीमा को पहुंच जाए कि अपनी सन्तान को अपने हाथ ही से क़त्ल करने लगे, उसमें मानवता का तत्त्व तो दूर की बात है, पशुता का तत्त्व भी बाकी नहीं रहता। और नस्ली और क़ौमी तबाही भी कि सन्तान के क़त्ल का अनिवार्य फल नस्लों का घटना और आबादी का कम होना है, जिससे मानव जाति को भी क्षति पहुँचती है और वह कौम भी तबाही के गढ़े में गिरती है जो अपनी समर्थकों और अपने संस्कृति के कार्यकर्ताओं और अपनी मीरास के वारिसों को पैदा नहीं होने देती, या पैदा होते ही स्वयं अपने हाथों उन्हें ख़त्म कर डालती है। और इससे तात्पर्य 'अंजामी' (परिणामिक) हलाकत भी है कि जो आदमी मासूम बच्चों पर यह जुल्म करता है और जो अपनी मानवता को बल्कि अपनी पशुता तक को यूँ उलटी छुरी से ज़िब्ह करता है और जो इंसानी नस्ल के साथ और स्वयं अपनी क़ौम के साथ यह दुश्मनी करता है वह अपने आपको अल्लाह के सख़्त अज़ाब का हक़दार बनाता है।
وَقَالُواْ هَٰذِهِۦٓ أَنۡعَٰمٞ وَحَرۡثٌ حِجۡرٞ لَّا يَطۡعَمُهَآ إِلَّا مَن نَّشَآءُ بِزَعۡمِهِمۡ وَأَنۡعَٰمٌ حُرِّمَتۡ ظُهُورُهَا وَأَنۡعَٰمٞ لَّا يَذۡكُرُونَ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا ٱفۡتِرَآءً عَلَيۡهِۚ سَيَجۡزِيهِم بِمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ 137
(138) कहते हैं, ये जानवर और ये खेत सुरक्षित हैं, इन्हें केवल वही लोग खा सकते हैं जिन्हें हम खिलाना चाहें, हालाँकि यह पाबंदी उनको अपनी गढ़ी हुई है ।111 फिर कुछ जानवर हैं जिनपर सवारी और बोझ ढोना हराम कर दिया गया है और कुछ जानवर हैं जिनपर ये अल्लाह का नाम नहीं लेते112 और यह सब कुछ इन्होंने अल्लाह पर झूठ मढ़ा है।113 बहुत जल्द अल्लाह उन्हें इस मिथ्यारोपण का बदला देगा।
111.अरबवासियों का नियम था कि कुछ जानवरों के बारे में या कुछ खेतियों को पैदावार के बारे में मन्नत मान लेते थे कि यह फलाँ आस्ताने या फलाँ हज़रत की नियाज़ के लिए मुख्य है। उस नियाज़ (चढ़ावे) को हर का एक न खा सकता था, बल्कि इसके लिए उनके यहाँ एक विस्तृत विधान था जिसके अनुसार अलग-अलग नियाज़ों को अलग-अलग प्रकार के मुख्य लोग ही खा सकते थे। अल्लाह उनके इस कार्य को न सिर्फ़ अनेकेशवदी कार्य समझता है, बल्कि इस पहलू पर भी सचेत करता है कि यह विधान उनका अपना गढ़ा हुआ है। अर्थात् जिस अल्लाह की रोज़ी में से वे यह मन्नतें मानते और नियाजें करते हैं, उसने न उन मन्नतों और नियाज़ों आदेश दिया है और न उनके खाने के बारे में ये पाबन्दियाँ लगाई हैं। यह सब कुछ उन उदंड और द्रोही बन्दों ने अपने अधिकार से स्वयं ही गढ़ लिया है।
112.रिवायतों से मालूम होता है कि अरबवासियों के यहाँ कुछ विशेष मन्नतों और नज़रानों के जानवर ऐसे होते थे जिनपर अल्लाह का नाम लेना जाइज़ न समझा जाता था, उनपर सवार होकर हज करना मना था, क्योंकि हज के लिए 'लब्बैक अल्लाहुम-म लब्बैक' (हाजिर हूँ ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ) कहना पड़ता था। इसी तरह उनका दूध दुहते समय या उनपर सवार होने की हालत में या उनको जिब्ह करते हुए या उनको खाने के समय व्यवस्था की जाती थी कि अल्लाह का नाम जुबान पर न आए।
قُل لَّآ أَجِدُ فِي مَآ أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٖ يَطۡعَمُهُۥٓ إِلَّآ أَن يَكُونَ مَيۡتَةً أَوۡ دَمٗا مَّسۡفُوحًا أَوۡ لَحۡمَ خِنزِيرٖ فَإِنَّهُۥ رِجۡسٌ أَوۡ فِسۡقًا أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 144
(145) ऐ नबी ! इनसे कहो कि जो प्रकाशना (वह्य) मेरे पास आई है उसमें मैं तो कोई चीज़ ऐसी नहीं पाता जो किसी खानेवाले पर हराम हो, अलावा इसके कि वह मुर्दार हो या बहाया हुआ ख़ून हो या सुअर का मांस हो कि वह नापाक है, या फिस्क (नाफ़रमानी, अवज्ञा) हो कि अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़िब्ह किया गया हो121, फिर जो व्यक्ति विवशता की स्थिति में (कोई चीज़ इनमें से खा ले) बिना इसके कि वह अवज्ञा करने का इरादा रखता हो और बिना इसके कि वह ज़रूरत की हद से आगे निकल जाए, तो निश्चय ही तुम्हारा रब क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है ।
121.यह विषय क़ुरआन की सूरा-2, आयत 173 और सूरा-5, आयत 3 में आ चुका है और आगे सूरा-16 आयत 115 में आनेवाला है।
सूरा-2 को आयत और इस आयत में प्रत्यक्ष में इतना मतभेद पाया जाता है कि वहाँ केवल 'ख़ून' कहा गया है और यहाँ ख़ून के साथ मस्फ़ूह' की क़ैद लगाई गई है। अर्थात ऐसा ख़ून जो किसी जानवर को घायल करके या ज़िब्ह करके निकाला गया हो। मगर वास्तव में यह मतभेद नहीं, बल्कि उस आदेश की व्याख्या है। इसी तरह सूरा-5 की आयत में इन चार चीज़ों के अलावा कुछ और चीज़ों के निषेध का उल्लेख मिलता है अर्थात वह जानवर जो गला घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो। लेकिन वास्तव में यह भी मतभेद नहीं है, बल्कि एक व्याख्या है जिससे मालूम होता है कि जो जानवर इस रूप में मारे गए हों, वे भी मुरदार की परिभाषा में आते हैं ।
यद्यपि इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में से एक गिरोह इस बात का क़ायल है कि पशु-आहार में से यही चार चीज़ें हराम हैं और इनके सिवा हर चीज़ खाई जा सकती है। यही राय हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) की थी। लेकिन बहुत-सी हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने कुछ चीज़ों के खाने से या तो मना फ़रमाया है या उन्हें नापसन्द किया है, जैसे पालतू गधे, कुचलियोंवाले दरिंदे और पंजोंवाले परिंदे । इस कारण अधिकतर फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) हराम होने को इन चार चीज़ों तक सीमित नहीं मानते, बल्कि दूसरी चीज़ों तक इसे विस्तृत कर देते हैं। लेकिन इसके बाद फिर विभिन्न चीज़ों के हराम व हलाल होते में फ़ुक़हा के बीच मतभेद हो गया है, जैसे पालतू गधे को इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम मालिक और इमाम शाफ़ई (रह०) हराम क़रार देते हैं, लेकिन कुछ दूसरे फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) कहते हैं कि वह हराम नहीं है, बल्कि किसी वजह से नबी (सल्ल.) ने एक मौक़े पर उसे निषेध कर दिया था। फाड़खानेवाले (दरिंदा) जानवरों और शिकारी परिंदों और मुरदार खानेवाले पशुओं को हनफ़िया पूर्ण रूप से हराम क़रार देते हैं, मगर इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक शिकारी परिंदे हलाल हैं। लैस के नज़दीक बिल्ली हलाल है। इमाम शाफ़ई के नज़दीक सिर्फ़ वे दरिंदे हराम हैं जो इंसान पर हमला करते हैं, जैसे शेर, भेड़िया, चीता आदि। इक्रिमा के नज़दीक कौवा और बिज्जू दोनों हलाल हैं। इसी तरह हनफ़िया तमाम कीड़ों-मकोड़ों को हराम क़रार देते हैं, पर इब्ने अबी लैला, इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक साँप हलाल है।
इन तमाम विभिन्न बातों और इनके तर्कों पर विचार करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि वास्तव में अल्लाह के शरीअत में बिल्कुल हराम चीजें यही चार हैं जिनका उल्लेख क़ुरआन में किया गया है। इनके सिवा दूसरे पशु-मांस में विभिन्न की अप्रियता है। जिन चीज़ों की सही रिवायतों के अनुसार नबी (सल्ल.) से प्रमाणित है, वे हराम होने की श्रेणी से अधिक क़रीब हैं और जिन चीज़ों में फ़ुक़हा में मतभेद हुआ है, उनकी अप्रियता संदिग्ध है। रही स्वभाविक घृणा जिसकी बुनियाद पर कुछ लोग कुछ चीज़ों को खाना पसन्द नहीं करते, या वर्गीय घृणा की कराहत, जिसकी बुनियाद पर इंसानों के कुछ वर्ग कुछ चीज़ों को नापसन्द करते हैं या कौमी घृणा, जिसकी बुनियाद पर कुछ कौमें कुछ चीज़ों से नफ़रत करती हैं, तो अल्लाह की शरीअत किसी को विवश नहीं करती कि वह खामखाह हर उस चीज़ को ज़रूर ही ख़ा जाए जो हराम नहीं की गई है और इसी तरह शरीअत किसी को यह अधिकार भी नहीं देती कि वह अपनी नापसन्दीदगी को कानून करार दे ले और उन लोगों पर आरोप लगाए जो ऐसे खाने खाते हैं जिन्हें वह नापसन्द करता है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٖۖ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ وَٱلۡغَنَمِ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ شُحُومَهُمَآ إِلَّا مَا حَمَلَتۡ ظُهُورُهُمَآ أَوِ ٱلۡحَوَايَآ أَوۡ مَا ٱخۡتَلَطَ بِعَظۡمٖۚ ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِبَغۡيِهِمۡۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ 145
(146) और जिन लोगों ने यहूदी मत अपनाया, उनपर हमने सब नाखूनवाले जानवर हराम कर दिए थे, और गाय और बकरी की चर्बी भी, अलावा उसके जो उनकी पीठ या उनकी आँतों से लगी हुई हो या हड्डी से लगी रह जाए। यह हमने उनकी उदंडता की सज़ा उन्हें दी थी,122 और यह जो कुछ हम कह रहे हैं, बिल्कुल सच कह रहे हैं ।
122.इस विषय का क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर उल्लेख हुआ है। सूरा-3 में फ़रमाया, “खाने की ये सारी चीज़ें (जो मुहम्मदी शरीअत में हलाल हैं), बनी इसराईल के लिए भी हलाल थीं, हाँ, कुछ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले इसराईल ने स्वयं अपने ऊपर हराम कर लिया था। इनसे कहो कि लाओ तौरात और पेश करो उसका कोई वाक्य अगर तुम (अपनी आपत्ति में) सच्चे हो।" (आयत 93) फिर सूरा-4 में फ़रमाया कि बनी इसराईल के अपराधों के कारण, "हमने बहुत-सी वे पाक चीजें उनपर हराम कर दी जो पहले उनके लिए हलाल थीं।" (आयत 160) और यहाँ कहा जा रहा है कि इनकी उदंडताओं के बदले में हमने इनपर तमाम नाखूनवाले जानवर हराम किए और बकरी और गाय की चर्बी भी उनके लिए हराम ठहरा दी। इन तीनों आयतों को जमा करने से मालूम होता है कि शरीअते मुहम्मदी और यहूदी फ़िक़ह (धर्मशास्त्र) के बीच पशु-आहार के हलाल और हराम होने के मामले में जो अंतर पाया जाता है उसके दो कारण हैं-
एक यह कि तौरात उतरने से सदियों पहले हज़रत याकूब (अलैहि.) ने कुछ चीज़ों का इस्तेमाल छोड़ दिया था और उनके बाद उनकी सन्तान भी उन चीज़ों को छोड़नेवाली रही, यहाँ तक कि यहूदी फुकहा ने उनको बाक़ायदा हराम समझ लिया और उनका हराम होना तौरात में लिख दिया । इन चीज़ों में ऊँट और ख़रगोश और साफ़ान शामिल हैं। आज बाइबिल में तौरात के जो अंश हमें मिलते हैं उनमें इन तीनों चीज़ों के हराम होने का उल्लेख है (अबार 11 : 4-6, इस्तिस्ना 14 :7) । लेकिन कुरआन मजीद में यहूदियों को जो चैलेंज दिया गया था कि लाओ तौरात और दिखाओ ये चीजें कहाँ हराम लिखी हैं, इससे मालूम हुआ कि तौरात में इन आदेशों की बढ़ोत्तरी इसके बाद की गई है, क्योंकि अगर उस समय तौरात में ये आदेश मौजूद होते तो बनी इसराईल तुरन्त लाकर पेश कर देते।
दूसरा कारण यह है कि अल्लाह की उतारी हुई शरीअत से जब यहूदियों ने विद्रोह किया और आप अपने नियम-निर्माता (शरीअत बनानेवाले) बन बैठे तो उन्होंने बहुत-सी पाक चीज़ों को अपनी बाल की खाल निकालनेवाली मनोवृति से स्वयं हराम कर लिया था और अल्लाह ने सज़ा के तौर पर उन्हें इस भ्रम में पड़े रहने दिया। इन चीज़ों में एक तो नाखूनवाले जानवर शामिल हैं, अर्थात शुतुरमुर्रा, क़ाज़, बत्तख आदि, दूसरे गाय और बकरी की चर्बी। बाइबिल में इन दोनों प्रकार की हराम को गई चीज़ों को तौरात के आदेशों में दाखिल कर दिया गया है (अस्बार 11 : 16-18, इस्तिस्ना 14 : 15-17, अहबार 3:17,7: 22-23) लेकिन सूरा-4 से मालूम होता है कि ये चीजें तौरात में हराम न थी, बल्कि हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाद हराम हुई हैं, और इतिहास भी गवाही देता है कि आज की यहूदी शरीअत दूसरी सदी ईसवी के आख़िर में रिब्बी यहूदाह के हाथों मुकम्मल हुई है।
रहा यह प्रश्न कि फिर इन चीजों के बारे में यहाँ और सूरा-4 में अल्लाह ने 'हर्रमना' (हमने हराम किया) का शब्द क्यों इस्तामल किया? तो इसका उत्तर यह है कि अल्लाह के हराम करने को केवल यही एक शक्ल नहीं है कि वह किसी पैग़म्बर और किताब के द्वारा किसी चीज़ को हराम करे, बल्कि इसकी एक शक्ल यह भी है कि वह अपने विद्रोही बन्दों पर बनावटी शरीअत बनानेवालों और जाली कानून गढ़नेवालों को मुसल्लत कर दे और वे उनपर पाक चीज़ों को हराम कर दें। पहले प्रकार का हराम करना अल्लाह की ओर
से रहमत के रूप में होता है और यह दूसरे प्रकार का हराम करना उसकी फिटकार और सजा के तौर पर हुआ करता है।
قُلۡ فَلِلَّهِ ٱلۡحُجَّةُ ٱلۡبَٰلِغَةُۖ فَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ 148
(149) फिर कहो, (तुम्हारे इस तर्क के मुकाबले में) “तथ्य तक पहुँचानेवाला तर्क तो अल्लाह के पास है, निस्संदेह अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको सीधे रास्ते पर चला देता।"125
125.यह उनके बहाने' का पूर्ण उत्तर है। इस उत्तर को समझने के लिए इसका विश्लेषण करके देखना चाहिए।
पहली बात यह कही कि अपने ग़लत कामों और गुमराही की बातों के लिए अल्लाह की इच्छा को 'बहाने' के रूप में पेश करना और उसे बहाना बनाकर सही मार्गदर्शन को स्वीकार करने से इंकार करना अपराधियों का पुराना तरीक़ा रहा है, और इसका अंजाम यह हुआ है कि अन्ततः वे तबाह हुए और सत्य के विरुद्ध चलने का दुष्परिणाम उन्होंने देख लिया।
फिर कहा कि यह बहाना जो तुम बना रहे हो, यह वास्तव में वास्तविक ज्ञान के अनुसार नहीं है, बल्कि मात्र गुमान और अटकल है। तुमने केवल अल्लाह की इच्छा का शब्द कहीं से सुन लिया और उसपर अटकल को एक इमारत खड़ी कर ली। तुमने यह समझा ही नहीं कि इंसान के हित में वास्तव में अल्लाह की इच्छा क्या है। तुम इच्छा का अर्थ यह समझ रहे हो कि चोर अगर अल्लाह के इच्छानुसार चोरी कर रहा है तो वह अपराधी नहीं है, क्योंकि उसने यह काम अल्लाह की इच्छा के अन्तर्गत किया है, हालाँकि वास्तव में इंसान के हित में अल्लाह की इच्छा यह है कि वह शुक्र और नाशुक्री, हिदायत और गुमराही, आज्ञाकारिता और अवज्ञा में से जो राह भी अपने लिए चुनेगा, अल्लाह वही राह उसके लिए खोल देगा और फिर ग़लत या सही जो काम भी इंसान करना चाहेगा, अल्लाह अपनी विश्वव्यापी मस्लहतों को ध्यान में रखते हुए जिस सीमा तक उचित समझेगा उसे उस काम की अनुमति और उसके करने का अवसर दे देगा। इसलिए अगर तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने अल्लाह की इच्छा के अन्तर्गत शिर्क और पाक चीज़ों के हराम करने का अवसर पाया तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम लोग अपने इन कामों के उत्तरदायी नहीं हो। रास्ते के अपने ग़लत चुनाव और अपने ग़लत इरादे और कोशिश के ज़िम्मेदार तो तुम स्वयं ही हो।
अन्त में एक ही वाक्य के भीतर काँटे की बात भी कह दी कि 'फ़-लिल्लाहिल हुज्जतुल बालिग़ः, फ़-लौ शा-अ-ल-हदाकुम अज-मईन । “अर्थात तुम अपने बहाने में यह तर्क देते हो कि “अगर अल्लाह चाहता तो हम शिर्क न करते", इससे पूरी बात अदा नहीं होती, पूरी बात कहना चाहते हो तो यूँ कहो कि “अगर अल्लाह चाहता तो हम सबको हिदायत दे देता।" दूसरे शब्दों में तुम स्वयं अपने चुनाव से सीधा रास्ता अपनाने पर तैयार नहीं हो, बल्कि यह चाहते हो कि अल्लाह ने जिस तरह फ़रिश्तों को पैदाइशी तौर पर सीधी राह पर चलनेवाला बनाया था, उसी तरह तुम्हें भी बना देता। तो बेशक अगर अल्लाह की इच्छा इंसान के हक़ में यह होती तो वह ज़रूर ऐसा कर सकता था, लेकिन यह उसकी इच्छा नहीं है, इसलिए जिस गुमराही को तुमने अपने लिए स्वयं पसन्द किया है, अल्लाह भी तुम्हें उसी में पड़ा रहने देगा।
۞قُلۡ تَعَالَوۡاْ أَتۡلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمۡ عَلَيۡكُمۡۖ أَلَّا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗاۖ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُم مِّنۡ إِمۡلَٰقٖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكُمۡ وَإِيَّاهُمۡۖ وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَۖ وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 150
(151) ऐ नबी ! इनसे कहो कि आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारे रब ने तुमपर क्या पाबंदियाँ लगाई है127 यह कि उसके साथ किसी को शरीक न करो128 और माँ-बाप के साथ भला बर्ताव करो129, और अपनी औलाद को निर्धनता के डर से क़त्ल न करो, हम तुम्हें भी रोज़ी देते हैं और उनको भी देंगे, और निर्लज्जता की बातों के क़रीब भी न जाओ130 भले ही वे खुली हों या छिपी, और किसी जान की जिसे अल्लाह ने प्रतिष्ठित ठहराया है हत्या न करो, मगर सत्य के साथ।131 ये बातें हैं जिनका मार्गदर्शन उसने तुम्हें किया है, शायद कि तुम समझ-बूझ से काम लो ।
127.अर्थात तुम्हारे रब की डाली हुई पाबन्दियाँ वे नहीं हैं जिनमें तुम गिरफ्तार हो, बल्कि वास्तविक पाबन्दियाँ ये हैं जो अल्लाह ने मानव-जीवन को नियमित करने के लिए लगाई हैं और जो सदा से अल्लाह के विधान की जड़-बुनियाद रही हैं । (तुलना के लिए देखिए बाइबिल की किताब निर्गम, अध्याय 20)
128.अर्थात न अल्लाह को ज़ात में किसी को उसका शरीक ठहराओ, न उसके गुणों में, न उसके अधिकारों में और न उसके हक़ों में।
ज़ात में शिर्क यह है कि ईश्वरीय गुणों में किसी को भागीदार बना दिया जाए, जैसे ईसाइयों को त्रियेक परमेश्वर की धारणा, अरब के मुशरिकों का फरिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ करार देना और दूसरे मुशरिकों का अपने देवताओं और देवियों को और अपने शाही ख़ानदानों को ईश्वर का वंश बताना ये सब ज़ात में शरीक ठहराना है। विशेषताओं एवं गुणों में शिर्क यह है कि ईश्वरीय गुणों जैसा कि वे अल्लाह के लिए हैं, वैसा ही उनको या उनमें से किसी विशेषता को किसी दूसरे के लिए करार देना, जैसे किसी के बारे में यह समझना कि उसपर परोक्ष (ग़ैब) के सारे तथ्य रौशन हैं या वह सब कुछ सुनता और देखता है या वह तमाम ऐबों और तमाम कमजोरियों से पाक और बिल्कुल बे खता है। अधिकारों में शिर्क यह है कि अल्लाह होने की हैसियत से जो अधिकार सिर्फ़ अल्लाह के लिए मुख्य हैं, उनको या उनमें से किसी को अल्लाह के सिवा किसी और के लिए स्वीकार किया जाए। जैसे प्राकृतिक ढंग से लाभ व हानि पहुँचाना, ज़रूरतें पूरी करना, सहारा बनना, सुरक्षा व निगरानी करना, दुआएँ सुनना और भाग्य को बनाना और बिगाड़ना, साथ ही हराम व हलाल और जाइज़ व नाजाइज़ की सीमाएँ तय करना और मानव-जीवन के लिए कानून व शरीअत निर्धारित करना। ये सब अल्लाह के मुख्य अधिकार हैं जिनमें से किसी को गैर-अल्लाह के लिए मानना शिर्क है। हकों में शिर्क यह है कि अल्लाह होने को हैसियत से बन्दों पर अल्लाह के जो खास हक हैं, वे या उनमें से कोई हक, अल्लाह के सिवा किसी और के लिए माना जाए, जैसे रुकूअ (झुकना) व सज्दा (नतमस्तक होना), हाथ बाँधकर खड़ा होना, सलामी व आस्ताना बोसी, नेमत का शुक्र या बरतरी मानने के लिए नज़्र व नियाज़ और कुरबानी, जरूरतों को पूरी करना और कठिनाइयों को दूर काने के लिए मनौती, मुसीबतों और परेशानियों में मदद के लिए पुकारा जाना और ऐसी ही पूजा-पाठ की दूसरी तमाम शक्लें अल्लाह के विशेष हकों और अधिकारों में से हैं। इसी तरह ऐसा महबूब (प्रिय) होना कि उसकी मुहब्बत पर दूसरी सब मुहब्बतें क़ुरबान की जाएँ और ख़ुदा के डर जैसा हक़ रखना कि गैब व शहादत (खुले या छिपे) में उसकी नाराजी और उसके हुक्म की खिलाफवर्जी से डरा जाए, और यह भी अल्लाह ही का हक़ है कि उसकी बिना शर्त इताअत (आज्ञपालन) की जाए और उसकी हिदायत को सही व ग़लत का मेयार (मापदंड) माना जाए और किसी ऐसी इताअत का फंदा अपनी गर्दन में न डाला जाए जो अल्लाह की इताअत से आज़ाद एक स्थाई इताअत हो और जिसके हुक्म के लिए अल्लाह के हुक्म का प्रमाण न हो। इन हकों में से जो हक़ भी दूसरों को दिया जाएगा, वह अल्लाह का शरीक ठहरेगा, चाहे उसको अल्लाह के नामों में से कोई नाम दिया जाए या न दिया जाए।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۖ وَإِذَا قُلۡتُمۡ فَٱعۡدِلُواْ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰۖ وَبِعَهۡدِ ٱللَّهِ أَوۡفُواْۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ 151
(152) और यह कि यतीम के माल के क़रीब न जाओ, मगर ऐसे तरीके से जो सबसे अच्छा हो132, यहाँ तक कि वह अपने 'सिन्ने रुश्द' (युवावस्था) को पहुँच जाए, और नाप-तौल में पूरा न्याय करो। हम हर व्यक्ति पर दायित्व का उतना ही बोझ डालते हैं जितना उसके वश में है133 और जब बात कहो, न्याय की कहो, चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो, और अल्लाह की प्रतिज्ञा को पूरा करो।134 इन बातों की हिदायत अल्लाह ने तुम्हें की है, शायद कि तुम नसीहत क़बूल करो,
132.अर्थात ऐसा तरीक़ा जिसमें अधिक से अधिक निस्वार्थता, निष्ठा और यतीम का भला चाहा गया हो और जिसपर अल्लाह और दुनिया, किसी की ओर से भी तुमपर आपत्ति न की जा सके।
133.यह यद्यपि अल्लाह की शरीअत (ईश्वरीय विधान) का एक स्थायी नियम है,लेकिन यहाँ उसके बताने का उद्देश्य यह है कि जो आदमी अपनी हद तक नाप-तौल और लेन-देन के मामलों में सत्य और न्याय से काम लेने की कोशिश करे, वह अपने दायित्व से बरी हो जाएगा। भूल-चूक या अनजानी कमी-बेशी हो जाने पर उससे पूछगछ न होगी।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ رَبُّكَ أَوۡ يَأۡتِيَ بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَۗ يَوۡمَ يَأۡتِي بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفۡسًا إِيمَٰنُهَا لَمۡ تَكُنۡ ءَامَنَتۡ مِن قَبۡلُ أَوۡ كَسَبَتۡ فِيٓ إِيمَٰنِهَا خَيۡرٗاۗ قُلِ ٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ 157
(158) क्या अब लोग इस इंतिज़ार में हैं कि उनके सामने फ़रिश्ते आ खड़े हों या तुम्हारा रब स्वयं आ जाए या तुम्हारे रब की कुछ खुली निशानियाँ 139 ज़ाहिर हो जाएँ? जिस दिन तुम्हारे रब को कुछ विशेष निशानियाँ प्रकट हो जाएँगी, फिर किसी ऐसे आदमी को उसका ईमान कुछ फ़ायदा न देगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो ।140 ऐ नबी ! इनसे कह दो कि अच्छा, तुम इन्तिज़ार करो, हम भी इन्तिज़ार करते हैं।
139.अर्थात क़ियामत की निशानियाँ या अज़ाब या कोई और ऐसी निशानी जो वास्तविकता को बिल्कुल स्पष्ट कर देनेवाली हो और जिसके सामने आ जाने के बाद परीक्षा और आजमाइश का कोई प्रश्न बाकी न रहे।
140.अर्थात ऐसी निशानियों को देख लेने के बाद अगर कोई इंकारी अपने इंकार से तौबा करके ईमान ले आए कि तो उसका ईमान लाना व्यर्थ है और अगर कोई नाफरमान मोमिन आदमी अपनी नाफ़रमानी की नीति माग छोड़कर आज्ञापालक हो जाए तो उसका आज्ञापालन भी निरर्थक है, इसलिए कि ईमान और आज्ञापालन की क़द्र (मूल्य) तो उसी समय तक है, जब तक वास्तविकता परदे में है, मोहलत की रस्सी लंबी नज़र आ रही है की और दुनिया धोखे भरी अपनी तमाम पूँजी के साथ यह धोखा देने के लिए मौजूद है कि कैसा अल्लाह और कहाँ की आख़िरत, बस खाओ-पियो और मौज करो।