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سُورَةُ الأَنۡعَامِ

  1. अल-अनआम

(मक्‍का में उतरी आयतें 165)

परिचय

नाम

इस सूरा के रुकूअ 16-17 (आयत 130-144) में कुछ अन-आम (मवेशियों) की हुर्मत (हराम क़रार दिए जाने) और कुछ की हिल्लत (हलाल क़रार दिए जाने) के बारे में अरबों के अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका नाम 'अल-अनआम' रखा गया है।

उतरने का समय

इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह पूरी सूरा मक्का में एक ही समय में उतरी थी। हज़रत मुआज-बिन-जबल (रज़ि०) की चचेरी बहन अस्मा-बिन्ते-यज़ीद कहती हैं कि 'जब यह सूरा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतर रही थी, उस समय आप ऊँटनी पर सवार थे। मैं उसकी नकेल पकड़े हुए थी और बोझ के मारे ऊँटनी का यह हाल हो रहा था कि मालूम होता था कि उसकी हड्डियाँ अब टूट जाएँगी।' रिवायतों में इसका भी स्पष्टीकरण है कि जिस रात को यह उतरी, उसी रात को आपने इसे लिखवा दिया।

इसके विषयों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा मक्को युग के अन्तिम समय में उतरी होगी।

उतरने का कारण 

जिस समय यह व्याख्यान उतरा है, उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को इस्लाम की ओर दावत देते हुए बारह साल बीत चुके थे। क़ुरैश की डाली रुकावटें और ज़ुल्मो-सितम भरे कारनामे अपनी अन्तिम सीमा को पहुँच चुके थे। इस्लाम अपनानेवालों की एक बड़ी संख्या उनके ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर देश छोड़ चुकी थी और हबशा में ठहरी हुई थी।

वार्ताएँ

इन परिस्थितियों में यह व्याख्यान उतरा है और इसके विषयों को सात बड़े-बड़े शीर्षको में बांटा जा सकता है-

  1. शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का झुठलाना और तौहीद (एकेश्वरवाद) के अक़ीदे की ओर बुलाना,
  2. आख़िरत (परलोक) के अक़ीदे का प्रचार,
  3. अज्ञानता के अंधविश्वासों का खंडन,
  4. नैतिकता के उन बड़े-बड़े नियमों को अपनाने पर ज़ोर जिनपर इस्लाम समाज का निर्माण चाहता था,
  5. नबी (सल्ल०) और आपकी दावत (आह्वान) के विरुद्ध लोगों की आपत्तियों का उत्तर,
  6. प्यारे नबी (सल्ल०) और आम मुसलमानों को तसल्ली, और
  7. इंकारियों और विरोधियों को उपदेश, चेतावनी और डरावा।

मक्‍की जीवन के काल-खण्ड

यहाँ चूँकि पहली बार पढ़नेवालों के सामने एक सविस्तार मक्की सूरा आ रही है, इसलिए उचित मालूम हो रहा है कि यहाँ हम मक्की सूरतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की एक व्यापक व्याख्या कर दें, ताकि आगे तमाम मक्की सूरतों को और उनकी व्याख्याओं के सिलसिले में हमारे संकेतों को समझना आसान हो जाए।

जहाँ तक मदनी सूरतों का संबंध है, उनमें से तो क़रीब-क़रीब हर एक के उतरने का समय मालूम है या थोड़ी-सी कोशिश से निश्चित किया जा सकता है, बल्कि इनकी तो बहुत-सी आयतों के उतरने की अलग-अलग वजहें भी भरोसेमंद रिवायतों में मिल जाती हैं, लेकिन मक्की सूरतों के बारे में हमारे पास ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा कोई साधन नहीं है। बहुत कम सूरतें या आयते ऐसी है जिनके उतरने के समय और मौक़े के बारे में कोई सही और भरोसेमंद रिवायत (उल्लेख) मिलती हो। इस कारण मक्की सूरतों के बारे में हमें ऐतिहासिक गवाहियों के बजाय अधिकतर उन अन्दरूनी गवाहियों पर भरोसा करना पड़ता है जो अलग-अलग सूरतों के विषय, सामग्री और शैली में और अपनी पृष्ठभूमि की ओर उनके खुले या छिपे संकेतों में पाई जाती हैं, और स्पष्ट है कि इस प्रकार की गवाहियों से मदद लेकर एक-एक सूरा और एक-एक आयत के बारे में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह फ़ुलां तारीख़ को या फ़ुलां सन् में फ़ुलां मौके पर उतरी है। अधिक विश्वास के साथ जो बात कही जा सकती है, वह केवल यह है कि एक ओर हम मक्की सूरतों को अन्दरूनी गवाहियों को और दूसरी ओर नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन के इतिहास को आमने-सामने रखें और फिर दोनों की तुलना करते हुए यह राय बनाएँ कि कौन-सी सूरा किस युग से संबंधित है- शोध की इस पद्धति को बुद्धि में रखकर जब हम नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन पर नज़र डालते हैं तो वह इस्लामी दावत की दृष्टि से हमें चार बड़े-बड़े युगों में बँटा दिखाई देता है-

पहला युग, पैग़म्बर बनाए जाने से लेकर नुबूवत के एलान तक, लगभग 3 साल, जिसमें दावत खुफ़िया तरीके से खास-खास आदमियों को दी जा रही थी और सामान्य मक्कावालों को इसका ज्ञान न था।

दूसरा युग, नुबूवत के एलान से लेकर जुल्मो-सितम और फ़ितने (Persecution) के फैलने तक, लगभग 2 साल, जिसमें पहले विरोध शुरू हुआ, फिर उसने रोक-टोक का रूप लिया, फिर हँसी उड़ाना, आवाजें कसना, आरोप लगाना, गाली-गलोच, झूठे प्रोपगंडे और विरोधी जत्थेबन्दी तक नौबत पहुँची और अन्त में उन मुसलमानों पर ज़्यादतियाँ शुरू हो गईं जो औरों की तुलना में अधिक धनहीन, कमज़ोर और असहाय थे।

तीसरा युग, फ़ितने की शुरुआत (05 नबवी) से लेकर अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रजि०) के देहावसान (10 नबवी) तक, लगभग पाँच-छह साल। इसमें विरोध अति उग्र होता चला गया। बहुत-से मुसलमान मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के जुल्मो-सितम से तंग आकर हबशा की ओर हिजरत कर गए। नबी (सल्ल०) और आपके परिवार और बाक़ी मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया गया और आप अपने समर्थकों और साथियों सहित अबू-तालिब नामक घाटी में कैद कर दिए गए।

चौथा युग, 10 नबवी से लेकर 11 नबवी तक, लगभग तीन साल। यह नबी (सल्ल.) और आप के साथियों के लिए अति कठोर और विपदाओं का युग था। मक्का में आपके लिए ज़िन्दगी दूभर कर दी गई थी। अन्ततः अल्लाह की मेहरबानी से अंसार के दिल इस्लाम के लिए खुल गए और उनकी दावत पर आपने मदीने की और हिजरत की।

इनमें से हर युग में क़ुरआन मजीद की जो सूरतें उतरी हैं, उनमें उस युग की विशेष बातों का प्रभाव बहुत बड़ी हद तक दिखाई देता है। इन्ही निशानियों पर भरोसा करके हम आगे हर मक्की सूरा के शुरू में यह बताएँगे कि वह मक्का के किस काल में उतरी है।

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سُورَةُ الأَنۡعَامِ
6. अल-अनआम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَجَعَلَ ٱلظُّلُمَٰتِ وَٱلنُّورَۖ ثُمَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ
(1) प्रशंसा अल्लाह के लिए है जिसने ज़मीन और आसमान बनाए, रौशनी और अंधेरों को पैदा किया, फिर भी वे लोग जिन्होंने सत्य सन्देश को मानने से इंकार कर दिया है, दूसरों को अपने रब का समकक्ष ठहरा रहे हैं।1
1.याद रहे कि संबोधन अरब के उन मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों) से है जो इस बात को मानते थे कि ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला अल्लाह है, वही दिन निकालता है और रात लाता है और उसी ने सूर्य और चाँद को अस्तित्व प्रदान किया है। उनमें से किसी का भी यह विश्वास न था कि ये काम लात या हुबल या उज़्ज़ा या किसी और देवी या देवता के हैं। इसलिए उनको सम्बोधित करते हुए कहा जा रहा है कि नादानो ! जब तुम स्वयं यह मानते हो कि ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला और रात और दिन को बारी-बारी लाने और ले जानेवाला अल्लाह है तो ये दूसरे कौन होते हैं कि उनके सामने सजदे करते हो, नज़्रें और चढ़ावे चढ़ाते हो, दुआएं मांगते हो और अपनी ज़रूरतें रखते हो। (देखिए सूरा फ़ातिहा, टिप्पणी न० 2, सूरा-2,टिप्पणी न० 163) रौशनी के मुक़ाबले में अंधेरों को बहुवचन में बयान किया गया, क्योंकि अंधेरा नाम है प्रकाश के अभाव की और इसके विभिन्न चरण हैं, इसलिए प्रकाश एक ही है और अंधेरे बहुत हैं।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن طِينٖ ثُمَّ قَضَىٰٓ أَجَلٗاۖ وَأَجَلٞ مُّسَمًّى عِندَهُۥۖ ثُمَّ أَنتُمۡ تَمۡتَرُونَ ۝ 1
(2) वही है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया2, फिर तुम्हारे लिए जीवन की एक अवधि निश्चित कर दी, और एक दूसरी अवधि और भी है जो उसके यहाँ निश्चित हैं3, मगर तुम लोग हो कि सन्देह में पड़े हुए हो।
2.मानव-देह के तमाम तत्व धरती से प्राप्त होते हैं। कोई एक अंश भी इसमें धरती से हटकर नहीं है, इसलिए कहा कि तुमको मिट्टी से पैदा किया गया है।
3.अर्थात क़ियामत (प्रलय) की घड़ी जबकि तमाम अगले-पिछले इंसान नए सिरे से ज़िंदा किए जाएँगे और हिसाब देने के लिए अपने रब के सामने हाज़िर होंगे।
وَهُوَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ يَعۡلَمُ سِرَّكُمۡ وَجَهۡرَكُمۡ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡسِبُونَ ۝ 2
(3) वही एक ख़ुदा आसमानों में भी है और ज़मीन में भी, तुम्हारे खुले और छिपे सब हाल जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उसे खूब जानता है।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 3
(4) लोगों का हाल यह है कि उनके रब की निशानियों में से कोई निशानी ऐसी नहीं जो उनके सामने आई हो और उन्होंने उससे मुँह न मोड़ लिया हो।
فَقَدۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَسَوۡفَ يَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 4
(5) चुनांचे अब जो सत्य उनके पास आया तो उसे भी उन्होंने झुठला दिया। अच्छा, जिस चीज़ का वे अब तक उपहास करते रहे हैं, बहुत जल्द उसके बारे में कुछ खबरें उन्हें पहुँचेगी।4
4.संकेत है हिजरत (देश-परित्याग) और उन सफलताओं की ओर जो हिजरत के बाद इस्लाम को निरंतर मिलनेवाली थीं। जिस समय यह संकेत किया गया था उस समय न शत्रु यह सोच सकते थे कि किस प्रकार की खबरें उन्हें पहुँचनेवाली हैं और न मुसलमानों के ही मन में इसका कोई विचार था, बल्कि नबी (सल्ल.) स्वयं भी आगे की संभावनाओं की खबर न रखते थे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّن قَرۡنٖ مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَا لَمۡ نُمَكِّن لَّكُمۡ وَأَرۡسَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡهِم مِّدۡرَارٗا وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَنۡهَٰرَ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ ۝ 5
(6) क्या उन्होंने देखा नहीं कि इनसे पहले कितनी ऐसी कौमों को हम नष्ट कर चुके हैं जिनका अपने-अपने समय में दौर-दौरा रहा है? उनको हमने धरती में वह सत्ता दी थी जो तुम्हें नहीं दी है। उनपर हमने आसमान से खूब बारिशें बरसाई और उनके नीचे नहरे बहा दी । (मगर जब उन्होंने कृतघ्नता से काम लिया, तो) अन्तत: हमने उनके पापों के बदले में उन्हें तबाह कर दिया और उनकी जगह दूसरे युग की क़ौमों को उठाया।
وَلَوۡ نَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ كِتَٰبٗا فِي قِرۡطَاسٖ فَلَمَسُوهُ بِأَيۡدِيهِمۡ لَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 6
(7) ऐ पैग़म्बर ! अगर हम तुम्हारे ऊपर कोई काग़ज़ में लिखी-लिखाई किताब भी उतार देते और लोग उसे अपने हाथों से छूकर भी देख लेते तब भी, जिन्होंने सत्य का इंकार किया है, वे यही कहते कि यह तो खुला जादू है ।
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ مَلَكٞۖ وَلَوۡ أَنزَلۡنَا مَلَكٗا لَّقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ ۝ 7
(8) कहते हैं कि इस नबी पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया?5 अगर कहीं हमने फ़रिश्ता उतार दिया होता तो अब तक कभी का निर्णय हो चुका होता, फिर उन्हें कोई मोहलत न दी जाती ।6
5.अर्थात जब यह व्यक्ति अल्लाह की ओर से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है तो आसमान से एक फ़रिश्ता उतरना चाहिए था जो लोगों से कहता कि यह अल्लाह का पैग़म्बर है, इसकी बात मानो, वरना तुम्हें सज़ा दी जाएगी। अज्ञानी आपत्ति-कर्ताओं को इस बात पर आश्चर्य था कि ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला किसी को पैग़म्बर नियुक्त करे और फिर उस तरह उसे असहाय, पत्थर खाने और गालियाँ सुनने के लिए छोड़ दे। इतने बड़े बादशाह का दूत किसी बड़े स्टाफ के साथ न आया था तो कम-से-कम एक फ़रिश्ता तो अंगरक्षक रहना चाहिए था, ताकि वह उसकी सुरक्षा करता, उसका रौब विठाता, उसकी नियुक्ति का यकीन दिलाता और प्राकृतिक तरीकों से ऊपर उठकर उसके काम अंजाम देता।
6.यह उनकी आपत्ति का पहला उत्तर है। इसका अर्थ यह है कि ईमान लाने और अपनी नीति में सुधार कर लेने के लिए जो मोहलत तुम्हें मिली हुई है यह उसी समय तक है, जब तक वास्तविकता परोक्ष में है, वरना जहाँ परोक्ष की स्थिति समाप्त हुई, फिर मोहलत का कोई मौक़ा बाकी न रहेगा। उसके बाद तो केवल हिसाब ही लेना बाकी रह जाएगा, इसलिए कि सांसारिक जीवन तुम्हारे लिए एक परीक्षाकाल है और परीक्षा इस बात की है कि तुम वास्तविकता को देखे बिना बुद्धि और विवेक का सही उपयोग करके इसकी अनुभूति कर पाते हो या नहीं और इस अनुभूति के बाद अपने मन और उसकी कामनाओं को काबू में लेकर अपने कर्म को वास्तविकता के अनुसार ठीक रखते हो या नहीं। इस परीक्षा के लिए परोक्ष का परोक्ष रहना अनिवार्य शर्त है और तुम्हारा सांसारिक जीवन,जो वास्तव में परीक्षा की मोहलत है, उसी समय तक कायम रह सकता है, जब तक परोक्ष है। जहाँ परोक्ष प्रत्यक्ष में परिवर्तित हो गया, यह मोहलत अनिवार्य रूप से ख़त्म हो जाएगी और परीक्षा के बजाय 'परीक्षाफल के निकलने का समय आ पहुँचेगा। इसलिए तुम्हारी माँग के उत्तर में यह संभव नहीं है कि तुम्हारे सामने फ़रिश्ते को उसके वास्तविक रूप में प्रकट कर दिया जाए, क्योंकि अल्लाह अभी तुम्हारी परीक्षा का समय समाप्त नहीं करना चाहता । (देखिए सूरा-2, टिप्पणी न० 228)
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ مَلَكٗا لَّجَعَلۡنَٰهُ رَجُلٗا وَلَلَبَسۡنَا عَلَيۡهِم مَّا يَلۡبِسُونَ ۝ 8
(9) और अगर हम फ़रिश्तों को उतारते । तब भी उसे मानव-रूप ही में उतारते और इस तरह इन्हें उसी सन्देह में डाल देते जिसमें अब ये पड़े हुए हैं।7
7.यह उनकी आपत्ति का दूसरा उत्तर है। फ़रिश्ते के आने की पहली शक्ल यह हो सकती थी कि वह लोगों के सामने अपने वास्तविक अनुभूति रूप में प्रकट होता । लेकिन ऊपर बता दिया गया कि अभी उसका समय नहीं आया। अव दूसरी शक्ल यह बाक़ी रह गई कि वह मानव-रूप में आए। इसके बारे में फ़रमाया जा रहा है कि अगर वह मानव-रूप में आए तो उसके अल्लाह की ओर से भेजा हुआ होने में भी तुमको वही संदेह होगा जो मुहम्मद (सल्ल.) को अल्लाह की ओर से भेजे जाने में हो रहा है।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 9
(10) ऐ नबी ! तुमसे पहले भी बहुत-से रसूलों का उपहास किया जा चुका है, मगर इन उपहास करनेवालों पर अन्तत: वही वास्तविकता छाकर रही जिसका वे उपहास करते थे।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ ٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 10
(11) इनसे कहो, तनिक जमीन में चल-फिरकर देखो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ है।8
8.अर्थात गुज़री हुई क़ौमों के पुरातत्व और उनकी ऐतिहासिक कथाएँ गवाही देंगी कि सत्य और वास्तविकता से मुंह मोड़ने और असत्य ही पर जमे रहने के कारण किस तरह इन क़ौमों को शिक्षाप्रद परिणाम भोगना पड़ा।
قُل لِّمَن مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُل لِّلَّهِۚ كَتَبَ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 11
(12) इनसे पूछो, आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह किसका है?-कहो, सब कुछ अल्लाह ही का हैं9, उसने दयालुता की नीति अपने लिए अनिवार्य कर ली है। (इसी लिए वह अवज्ञा और उदंडता पर तुम्हें जल्दी से नहीं पकड़ लेता क़ियामत के दिन वह तुम सबको अवश्य जमा करेगा, यह बिल्कुल एक सन्देह-रहित तथ्य है, मगर जिन लोगों ने अपने आपको स्वयं तबाही के खतरे में डाल लिया है वे उसे नहीं मानते।
9.यह एक सूक्ष्म शैली है। पहले हुक्म हुआ कि इनसे पूछो, ज़मीन और आसमान की मौजूद चीजें किसकी है ? पूछनेवाले ने पूछा और जवाब के इन्तिज़ार में ठहर गया। सम्बोधित व्यक्ति यद्यपि स्वयं कहनेवाले हैं कि सब कुछ अल्लाह का है, लेकिन न तो ग़लत जवाब देने का साहस उनमें है और न वे सही जवाब देना चाहते हैं, क्योंकि अगर सही जवाब देते हैं तो उन्हें डर है कि विरोधी इससे अनेकेश्वरवादी धारणा के विरुद्ध प्रमाण जुटाएगा। इसलिए वे कुछ जवाब नहीं देते । तब हुक्म होता है कि तुम स्वयं ही कहो कि सब कुछ अल्लाह का है।
۞وَلَهُۥ مَا سَكَنَ فِي ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 12
(13) रात के अंधेरे और दिन के उजाले में जो कुछ ठहरा हुआ है सब अल्लाह का है और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَتَّخِذُ وَلِيّٗا فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَهُوَ يُطۡعِمُ وَلَا يُطۡعَمُۗ قُلۡ إِنِّيٓ أُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَسۡلَمَۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 13
(14) कहो, अल्लाह को छोड़कर क्या मै किसी और को अपना सरपरस्त बना लूँ? उस अल्लाह को छोड़कर जो ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाला है और जो रोज़ी देता है, रोजी लेता नहीं है?10 कहो, मुझे तो यही आदेश दिया गया है कि सबसे पहले मैं उसके आगे आज्ञापालन के साथ अपने को डाल दूं (और ताकीद की गई है कि कोई शिर्क करता है तो करे) तू बहरहाल मुशरिकों में शामिल न हो।
10.इसमें एक सूक्ष्म व्यंग्य है। मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों) ने अल्लाह के सिवा जिन-जिनको अपना ख़ुदा बना रखा है, वे सब अपने उन बन्दों को रोज़ी देने के बजाय उलटा उनसे रोज़ी पाने के मुहताज हैं। कोई फ़िरऔन खुदाई के ठाठ नहीं जमा सकता जब तक उसके बन्दे उसे टैक्स और नज़राने न दें। किसी क़ब्रवाले के माबूद (उपास्य) होने की शान क़ायम नहीं हो सकती जब तक उसके परस्तार उसका शानदार मकबरा न बनाएँ। किसी देवता का दैवी दरबार सज नहीं सकता जब तक उसके पुजारी उसकी मूर्ति बनाकर किसी भव्य मन्दिर में न रखें और उसको साज-सज्जा की सामग्रियों से सजाएँ नहीं। सारे बनावटी ख़ुदा बेचारे स्वयं अपने बन्दों के मुहताज हैं। मगर संसार का एक मात्र ख़ुदा ही वह वास्तविक ख़ुदा है जिसकी खुदाई आप अपने बलबूते पर कायम है और जो किसी की मदद का मुहताज नहीं, बल्कि सब उसी के मुहताज हैं।
قُلۡ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 14
(15) कहो, अगर मैं अपने रब की अवज्ञा करूँ तो डरता हूँ कि एक बड़े (भयानक) दिन मुझे सज़ा भुगतनी पड़ेगी।
مَّن يُصۡرَفۡ عَنۡهُ يَوۡمَئِذٖ فَقَدۡ رَحِمَهُۥۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 15
(16) उस दिन जो सज़ा से बच गया उसपर अल्लाह की बड़ी ही कृपा हुई, और यही खुली सफलता है ।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يَمۡسَسۡكَ بِخَيۡرٖ فَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) अगर अल्लाह तुम्हें किसी प्रकार की हानि पहुँचाए, तो उसके सिवा कोई नहीं जो तुम्हें इस हानि से बचा सके और अगर वह तुम्हें कोई भलाई पहुँचाए, तो उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है,
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 17
(18) वह अपने बन्दों पर पूरे अधिकार रखता है, और वह जानता और खबर रखता है।
قُلۡ أَيُّ شَيۡءٍ أَكۡبَرُ شَهَٰدَةٗۖ قُلِ ٱللَّهُۖ شَهِيدُۢ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَۚ أَئِنَّكُمۡ لَتَشۡهَدُونَ أَنَّ مَعَ ٱللَّهِ ءَالِهَةً أُخۡرَىٰۚ قُل لَّآ أَشۡهَدُۚ قُلۡ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَإِنَّنِي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 18
(19) इनसे पूछो, किसकी गवाही सबसे बढ़कर है?-कहो, मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाह है।11 और यह कुरआन मेरी ओर वह्य के ज़रिए भेजा गया है ताकि, तुम्हें और जिस-जिसको यह पहुँचे, सबको सचेत कर दूं। क्या वास्तव में तुम लोग यह गवाही दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे खुदा भी हैं?12 कहो, मैं तो इसकी गवाही कदापि नहीं दे सकता।13 कहो, अल्लाह तो वही एक है और मैं उस शिर्क से बिल्कुल बेज़ार हूँ जिसमें तुम पड़े हुए हो।
11.अर्थात इस बात पर गवाह है कि मैं उसकी ओर से भेजा गया हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ उसी के आदेश से कह रहा हूँ।
12.किसी चीज़ की गवाही देने के लिए मात्र अटकल और अनुमान काफ़ी नहीं है, बल्कि उसके लिए ज्ञान होना जरूरी है, जिसके आधार पर आदमी विश्वास के साथ कह सके कि ऐसा है। अतः प्रश्न का अर्थ यह है कि क्या वास्तव में तुम्हें यह ज्ञान है कि इस सम्पूर्ण जगत् में अल्लाह के सिवा और भी कोई अधिकार प्राप्त शासक है जो बन्दगी और पूजा का अधिकारी हो?
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمُۘ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 19
(20) जिन लोगों को हमने किताब दी है वे इस बात को इस तरह असंदिग्ध रूप से पहचानते हैं जैसे उनको अपने बेटों को पहचानने में कोई सन्देह नहीं होता 14, मगर जिन्होंने अपने आपको स्वयं घाटे में डाल दिया है वे इसे नहीं मानते ।
14.अर्थात आसमानी किताबों का ज्ञान रखनेवाले इस सच्चाई को असंदिग्ध रूप से पहचानते हैं कि अल्लाह एक ही है और ईश्वरत्त्व में किसी की कुछ भागीदारी नहीं है। जिस तरह किसी का बच्चा बहुत-से बच्चों में मिला-जुला खड़ा हो तो वह अलग पहचान लेगा कि उसका बच्चा कौन-सा है, इसी तरह जो आदमी ईश-गंथ का ज्ञान रखता हो वह ईश्वरत्व के बारे में लोगों की अनगिनत धारणाओं और विचारों के दर्मियान बिना किसी सन्देह के यह पहचान लेता है कि इनमें से सच्ची बात कौन-सी है?
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 20
(21) और उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बुहतान लगाए15, या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए?16 निश्चित रूप से ऐसे जालिम कभी सफल नहीं हो सकते।
15.अर्थात यह दावा करे कि अल्लाह के साथ दूसरी बहुत-सी हस्तियाँ भी ईश्वरत्त्व में शरीक हैं, ईश्वरीय गुण उनके अन्दर पाए जाते हैं, ईश्वरीय अधिकार रखती है और इसको अधिकारी हैं कि इंसान उनके आगे बन्दगी की नीति अपनाए। और यह भी अल्लाह पर बोहतान है कि कोई यह कहे कि अल्लाह ने फ़्लॉ- फ़्लॉ हस्तियों को अपना सान्निध्यप्राप्त ठहराया है और उसी ने यह आदेश दिया है या कम से कम यह कि वह इसपर राज़ी है कि उनसे ईश्वरीय गुण जोड़े जाएँ और उनसे वह मामला किया जाए जो बन्दे को अपने अल्लाह के साथ करना चाहिए।
16.अल्लाह की निशानियों से तात्पर्य वे निशानियाँ भी हैं जो इंसान के अपने भीतर और सम्पूर्ण सृष्टि में फैली हुई हैं और वे भी जो पैग़म्बरों के आचरण और उनके कारनामों में प्रकट हुई और वे भी जो आसमानी किताबों में प्रस्तुत की गई। ये सारी निशानियाँ एक ही तथ्य की ओर मार्गदर्शन करती हैं अर्थात यह कि पूरी सृष्टि में अल्लाह सिर्फ एक है, शेष सब बन्दे हैं। अब जो व्यक्ति इन तमाम निशानियों के मुक़ाबले में किसी वास्तविक गवाही के बिना, किसी ज्ञान, किसी अवलोकन और किसी अनुभव के बिना, मात्र अटकल और अनुमान या बाप-दादा की पैरवी के आधार पर, दूसरों को ईश्वरत्व के गुणोंवाला और ईश्वरीय अधिकारों का अधिकारी ठहराता है, स्पष्ट है कि उससे बढ़कर ज़ालिम कोई नहीं हो सकता। वह सच्चाई व जिसके साथ वह इस ग़लत दृष्टिकोण के आधार पर कोई मामला करता है।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَيۡنَ شُرَكَآؤُكُمُ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 21
(22) जिस दिन हम इन सबको इकट्ठा करेंगे और मुशरिकों से पूछेगे कि अब वे तुम्हारे ठहराए हुए साझीदार कहाँ हैं, जिनको तुम अपना खुदा समझते थे,
ثُمَّ لَمۡ تَكُن فِتۡنَتُهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ وَٱللَّهِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشۡرِكِينَ ۝ 22
(23) तो वे इसके सिवा कोई उपद्रव न मचा सकेंगे (कि यह झूठा बयान दें कि) ऐ हमारे स्वामी ! तेरी क़सम ! हम हरगिज़ मुशरिक (बहुदेववादी) न थे
ٱنظُرۡ كَيۡفَ كَذَبُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡۚ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 23
(24) देखो, उस समय ये किस तरह अपने ऊपर आप झूठ घड़ेगे और वहाँ इनके सारे बनावटी उपास्य गुम हो जाएँगे।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَۖ وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوكَ يُجَٰدِلُونَكَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 24
(25) इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं, मगर हाल यह है कि हमने उनके दिलों पर परदे डाल रखे हैं जिनके कारण वे उसको कुछ नहीं समझते और उनके कानों में बोझ डाल दिया है (कि सब कुछ सुनने पर भी कुछ नहीं सुनते)।17 वे चाहे कोई निशानी देख लें, उसपर ईमान लाकर न देंगे। हद यह है कि जब वे तुम्हारे पास आकर तुमसे झगड़ते हैं, तो उनमें से जिन लोगों ने इंकार का फ़ैसला कर लिया है वे (सारी बातें सुनने के बाद) यही कहते हैं कि यह एक पुरानी कहानियों के सिवा कुछ नहीं।18
17.यहाँ यह बात सामने रहे कि प्रकृति के नियम के अन्तर्गत जो कुछ दुनिया में घटित होता है उसे अल्लाह तआला अपने से जोड़ता है, क्योंकि वास्तव में इस क़ानून का बनानेवाला अल्लाह ही है और जो परिणाम इस क़ानून के अन्तर्गत सामने आते हैं, वे सब वास्तव में अल्लाह के आदेश और इरादे के अन्तर्गत ही सामने आया करते हैं। सत्य के हठधर्म इंकारियों का सब कुछ सुनने पर भी कुछ न सुनना और सत्य के आवाहक की किसी बात का उनके दिल में न उतरना उनको हठधर्मी और द्वेष और कुंठा का स्वाभाविक परिणाम है। प्रकृति का क़ानून यही है कि जो आदमी हठधर्मी पर उतर आता है और निष्पक्षता के साथ सत्य-प्रिय व्यक्ति की तरह नीति अपनाने पर तैयार नहीं होता, उसके दिल के दरवाज़े हर उस सच्चाई के लिए बन्द हो जाते हैं जो उसकी इच्छाओं के विपरीत हो । इस बात को जब हम बयान करेंगे तो यूँ कहेंगे कि फलाँ व्यक्ति के दिल के दरवाजे बन्द हैं, और इसी बात को जब अल्लाह बयान फ़रमाएगा तो यूँ फ़रमाएगा कि उसके दिल के दरवाज़े हमने बन्द कर दिए हैं, क्योंकि हम सिर्फ घटना बयान करते हैं और अल्लाह यथार्थ को प्रकट करता है।
18.नासमझ लोगों का सामान्य रूप से यह नियम होता है कि जब कोई व्यक्ति उन्हें सत्य की ओर बुलाता है तो वे कहते हैं कि तुमने नई बात क्या कही, ये तो वही सब पुरानी बातें हैं जो हम पहले से सुनते चले आरहे हैं। मानो इन मूखों का दृष्टिकोण यह है कि किसी बात के सत्य होने के लिए उसका नया होना भी आवश्यक है और जो बात पुरानी है,वह सत्य नहीं है। हालांकि सत्य हर समय में एक ही रहा है और सदा एक ही रहेगा। अल्लाह के दिए हुए ज्ञान के आधार पर जो लोग इंसानों के मार्गदर्शन के लिए आगे बड़े हैं, वे सब पुराने समय से एक ही सत्य बात को पेश करते आए हैं और आगे भी जो ज्ञान के इस स्रोत से लाभ उठाकर कुछ प्रस्तुत करेगा, वह इसी पुरानी बात को दोहराएगा। हाँ, नई बात केवल वही लोग निकाल सकते हैं जो अल्लाह की रोशनी से महरूम होकर आदिकालिक और सर्वकालिक सत्य को नहीं देख सकते और अपने मन-मस्तिष्क की उपज से कुछ सिद्धान्त गढ़कर उन्हें सत्य के नाम से पेश करते हैं । इस प्रकार के लोग निस्सन्देह ऐसी अनोखी बात कहनेवाले हो सकते हैं कि वह बात कहें जो उनसे पहले कभी दुनिया में किसी ने न कही हो।
وَهُمۡ يَنۡهَوۡنَ عَنۡهُ وَيَنۡـَٔوۡنَ عَنۡهُۖ وَإِن يُهۡلِكُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 25
(26) वे इस सत्य बात को स्वीकार करने से लोगों को रोकते हैं और स्वयं भी उससे दूर भागते हैं। (वे समझते हैं कि इस हरकत से वे तुम्हारा कुछ बिगाड़ रहे हैं। हालाँकि वास्तव में वे स्वयं अपनी ही तबाही का सामान कर रहे हैं, पर उन्हें इसका एहसास नहीं है।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَى ٱلنَّارِ فَقَالُواْ يَٰلَيۡتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا وَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 26
(27) काश, तुम उस समय की हालत देख सकते जब वे दोज़ख के किनारे खड़े किए जाएंगे। उस समय वे कहेंगे, काश कोई शक्ल ऐसी हो कि हम दुनिया में फिर वापस भेजे जाएँ और अपने रब की निशानियों को न झुठलाएँ और ईमान लानेवालों में शामिल हों !
بَلۡ بَدَا لَهُم مَّا كَانُواْ يُخۡفُونَ مِن قَبۡلُۖ وَلَوۡ رُدُّواْ لَعَادُواْ لِمَا نُهُواْ عَنۡهُ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 27
(28) वास्तव में यह बात वे केवल इस कारण कहेंगे कि जिस वास्तविकता पर उन्होंने परदा डाल रखा था, वह उस वक्त बेनकाब होकर उनके सामने आ चुकी होगी19, वरना अगर उन्हें पिछले जी जीवन की ओर वापस भेजा जाए तो फिर वही सब कुछ करें जिससे उन्हें मना किया गया है. वे तो है ही झूठे (इसलिए अपनी इस इच्छा व्यक्त करने में भी झूठ ही से काम लेंगे)|
19.अर्थात् उनका यह कथन वास्तव में बुद्धि और विवेक के किसी सही निर्णय और राय की किसी वास्तविक तब्दीली का नतीजा न होगा, बल्कि मात्र सत्यावलोकन का परिणाम होगा जिसके बाद स्पष्ट है कि कोई कट्टर से कट्टर इनकारी भी इंकार का साहस नहीं कर सकता।
وَقَالُوٓاْ إِنۡ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا وَمَا نَحۡنُ بِمَبۡعُوثِينَ ۝ 28
(29) आज ये लोग कहते हैं कि जीवन जो कुछ भी है, बस यही हमारी दुनिया का जीवन है और हम मरने के बाद कदापि दोबारा न उठाए जाएंगे।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ قَالَ أَلَيۡسَ هَٰذَا بِٱلۡحَقِّۚ قَالُواْ بَلَىٰ وَرَبِّنَاۚ قَالَ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 29
(30) काश, वह दृश्य तुम देख सको जब ये अपने रब के सामने खड़े किए जाएंगे ! उस समय उनका रब उनसे पूछेगा, क्या यह वास्तविकता नहीं है?" ये कहेंगे, "हाँ, ऐ हमारे रब! यह वास्तविकता ही है। वह फ़रमाएगा, "अच्छा, तो अब अपने सत्य के इंकार के बदले में अजाब का मज़ा चखो।"
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ قَالُواْ يَٰحَسۡرَتَنَا عَلَىٰ مَا فَرَّطۡنَا فِيهَا وَهُمۡ يَحۡمِلُونَ أَوۡزَارَهُمۡ عَلَىٰ ظُهُورِهِمۡۚ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 30
(31) घाटे में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अल्लाह से अपनी मुलाकात की खबर को झूठ ठहराया। जब अचानक वह घड़ी आ जाएगी तो यही लोग कहेंगे, “अफ़सोस! हमसे इस मामले में कैसी कोताही हुई ?” और इनका हाल यह होगा कि अपनी पीठों पर अपने गुनाहों का बोझ लादे हुए होंगे। देखो, कैसा बुरा बोझ है जो ये उठा रहे हैं !
وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۖ وَلَلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 31
(32) सांसारिक जीवन तो एक खेल और एक तमाशा है। 20 वास्तव में आखिरत ही की जगह उन लोगों के लिए बेहतर है जो हानि उठाने से बचना चाहते हैं। फिर क्या तुम लोग बुद्धि से काम न लोगे?
20.इसका यह अर्थ नहीं कि सांसारिक जीवन में कोई गंभीरता नहीं है और यह मात्र खेल और तमाशे के तौर पर बनाई गई है। वास्तव में इसका अर्थ यह है कि आखिरत के वास्तविक और स्थायी जीवन के मुक़ाबले में यह जीवन ऐसा है जैसे कोई आदमी कुछ देर खेल और मनोरंजन में दिल बहलाए और फिर असल संजीदा कारोबार की ओर वापस हो जाए। इसके अलावा उसे खेल और तमाशे से उपमा इसलिए भी दी गई है कि यहाँ वास्तविकता के छिपे होने की वजह से दूरदृष्टि न रखनेवाले और केवल ऊपरी चीज़ों को देखकर रीझनवाले व्यक्तियों के लिए ग़लतफ़हमी में पड़ जाने के बहुत-से कारण मौजूद हैं और इन ग़लतफ़हमीयों में फंसकर लोग मूल वास्तविकता के विरुद्ध ऐसी-ऐसी विचित्र नीति अपनाते हैं जिनकी वजह से उनका जीवन मात्र एक खेल और तमाशा बनकर रह जाता है। जैसे कि जो आदमी यहाँ बादशाह बनकर बैठता है उसकी हैसियत वास्तव में थिएटर के उस बनावटी बादशाह से भिन्न नहीं होती जो ताज पहनकर विराजमान होता है और इस तरह हुक्म चलाता है मानो वह वास्तव में बादशाह है, हालाँकि वास्तविक बादशाही की उसको हवा तक नहीं लगी होती। डायरेक्टर के एक इशारे पर वह पदच्युत हो जाता है, कैद किया जाता है और उसके क़त्ल तक का फैसला कर दिया जाता है। ऐसे ही तमाशे इस दुनिया में हर ओर हो रहे हैं। कहीं किसी वली या देवी के दरबार से कामनाएं पूरी हो रही हैं, हालाँकि वहाँ ज़रूरत पूरी करने की ताक़त का नाम-निशान तक मौजूद नहीं। कहीं कोई परोक्षीय चमत्कारों का प्रदर्शन कर रहा है, हालाँकि परोक्ष का ज्ञान वहाँ लेशमात्र भी नहीं। कहीं कोई लोगों का जीविकादाता बना हुआ है, हालाँकि बेचारा स्वयं अपनी जीविका के लिए किसी और का मुहताज है, कहीं कोई अपने आपको सम्मान व रुसवाई देनेवाला, लाभ और हानि पहुँचानेवाला समझे बैठा है और यूँ अपनी किबियाई (महानता) के डंके बजा रहा है मानो वही आस-पास के सारे जीवों का ख़ुदा है, उसके माथे पर यह चिह्न लगा हुआ है कि वह तुच्छ बंदा है और भाग्य का एक ज़रा-सा झटका उसे महानता के पद से गिराकर उन्हीं लोगों के कदमों में पामाल करा सकता है जिनका वह कल तक खुदा बना था। ये सब खेल जो दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी में खेले जा रहे हैं, मौत की घड़ी आते ही एकबारगी ख़त्म हो जाएंगे और इस सीमा से पार होते ही इंसान उस दुनिया में पहुँच जाएगा जहाँ सब कुछ बिल्कुल वास्तविकता के अनुसार होगा और जहाँ सांसारिक जीवन के सारे भ्रमों के छिलके उतारकर हर व्यक्ति को दिखा दिया जाएगा कि वह सच्चाई का कितना जौहर अपने साथ लाया है, जिसका सत्य को तराजू में कोई वज़न और कुछ भी मूल्य हो सकता हो।
قَدۡ نَعۡلَمُ إِنَّهُۥ لَيَحۡزُنُكَ ٱلَّذِي يَقُولُونَۖ فَإِنَّهُمۡ لَا يُكَذِّبُونَكَ وَلَٰكِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 32
(33) ऐ नबी ! हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग बनाते हैं उनसे तुम्हें रंज होता है, लेकिन ये लोग तुम्हें नहीं झुठलाते, बल्कि ये ज़ालिम वास्तव में अल्लाह की आयतों का इंकार कर रहे है ।21
21.सच तो यह है कि जब तक मुहम्मद (सल्ल.) ने अल्लाह की आयतें सुनानी शुरू न को थीं, आपकी क़ौम के सब लोग आपको अमीन (अमानतदार) और सादिक़ (सच्चा) समझते थे और आपकी सच्चाई पर पूरा भरोसा करते थे। उन्होंने आपको झुठलाया उस समय जबकि आपने अल्लाह की ओर से सन्देश पहुँचाना शुरू किया और इस दूसरे दौर में भी उनके भीतर कोई आदमी ऐसा न था जो व्यक्तिगत रूप से आपको झूठा करार देने का सहास कर सकता हो। आपके किसी बड़े-से-बड़े विरोधी ने भी कभी आपपर यह आरोप नहीं लगाया कि आप दुनिया के किसी मामले में कभी झूठ बोले हैं। उन्होंने जितना आपको झुठलाया, वह केवल नबी होने की हैसियत से झुठलाया। आपका सबसे बड़ा दुश्मन अबू जहल था और हज़रत अली की रिवायत है कि एक बार उसने स्वयं नबी (सल्ल.) से बातचीत करते हुए कहा, “हम आपको तो झूठा नहीं कहते, मगर जो कुछ आप पेश कर रहे हैं उसे झूठ करार देते हैं।" बद्र की लड़ाई के मौक़े पर अननस बिन शुरैक़ ने एकान्त में अबू जहल से पूछा कि यहाँ मेरे और तुम्हारे सिवा कोई तीसरा मौजूद नहीं है। सच बताओ कि मुहम्मद को तुम सच्चा समझते हो या झूठा? उसने जवाब दिया कि "ख़ुदा की कसम । मुहम्मद एक सच्चा आदमी है, उम्र भर कभी झूठ नहीं बोला, मगर जब झंडा उठाना, पानी पिलाना, काबा की निगरानी और नुबूवत सब कुछ बनी कुसई ही के हिस्से में आ जाए तो बताओ बाकी सारे क़ुरैश के पास क्या रह गया?" इसी कारण यहाँ अल्लाह अपने नबी को तसल्ली दे रहा है कि वास्तव में तुम्हें नहीं, हमें झुठलाया जा रहा है और जब हम धैर्य और सहनशीलता के साथ उसे सहते जा रहे हैं, और ढील पर ढील दिए जाते हैं तो तुम क्यों बेचैन होते हो?
وَلَقَدۡ كُذِّبَتۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ فَصَبَرُواْ عَلَىٰ مَا كُذِّبُواْ وَأُوذُواْ حَتَّىٰٓ أَتَىٰهُمۡ نَصۡرُنَاۚ وَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ وَلَقَدۡ جَآءَكَ مِن نَّبَإِيْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 33
(34) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं, मगर इस झुठलाने पर और उन पीड़ाओं पर जो उन्हें पहुंचाई गईं, उन्होंने सब किया, यहाँ तक कि उन्हें हमारी मदद पहुँच गई। अल्लाह की बातों बदलने ताक़त किसी में नहीं है22 और पिछले रसूलों के साथ जो कुछ पेश आया उसकी खबरें तुम्हें पहुँच ही चुकी हैं।
22.अर्थात अल्लाह ने सत्य-असत्य के संघर्ष के लिए जो क़ानून बना दिया है उसे बदल देना किसी के बस में नहीं है। सत्यवादियों के लिए अनिवार्य है कि वे एक लम्बे समय तक आज़माइशों की भट्टी में तपाए जाएँ। अपने सब की, अपनी सच्चाई की, अपने त्याग और अपनी फ़िदाकारी की, अपने ईमान की दृढ़ता और अल्लाह पर अपने भरोसे की परीक्षा दें। कष्टों और कठिनाइयों के युग से गुज़रकर अपने भीतर वे गुण पल्लवित करें जो केवल इसी कठिन घाटी में पल बढ़ सकते हैं और आरंभ में विशुद्ध और उत्कृष्ट आचरण और सच्चरित्रता के हथियारों से अज्ञानता पर विजय प्राप्त करके दिखाएँ। इस तरह जब वे सिद्ध कर देंगे कि वे उत्कृष्ट गुणोंवाले हैं तब अल्लाह की मदद ठीक अपने समय पर उनका हाथ थामने के लिए आ पहुँचेगी। समय से पहले वह किसी के लाए नहीं आ सकती।
وَإِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكَ إِعۡرَاضُهُمۡ فَإِنِ ٱسۡتَطَعۡتَ أَن تَبۡتَغِيَ نَفَقٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ سُلَّمٗا فِي ٱلسَّمَآءِ فَتَأۡتِيَهُم بِـَٔايَةٖۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَمَعَهُمۡ عَلَى ٱلۡهُدَىٰۚ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 34
(35) फिर भी अगर इन लोगों की उदासीनता तुमसे सहन नहीं होती तो अगर तुममें कुछ ज़ोर है तो ज़मीन में कोई सुरंग ढूँढो या आसमान में सीढ़ी लगाओ और इनके पास कोई निशानी लाने की कोशिश करो।23 अगर अल्लाह चाहता तो इन सबको सीधे रास्ते पर इकट्ठा कर सकता था, इसलिए नादान न बनो।24
23.नबी (सल्ल.) जब देखते थे कि इस क़ौम को समझाते-समझाते मुद्दतें गुज़र गई हैं और किसी तरह यह सीधे रास्ते पर नहीं आती, तो कभी-कभी आपके मन में यह इच्छा पैदा होती थी कि काश ! कोई निशानी अल्लाह की ओर से ऐसी प्रकट हो जिससे इन लोगों का विरोध समाप्त हो और ये मेरी सच्चाई स्वीकार कर लें। आपकी इसी इच्छा का उत्तर इस आयत में दिया गया है। अर्थ यह है कि बेसब्री से काम न लो। जिस ढंग और जिस क्रम से हम इस काम को चलवा रहे हैं, उसी पर सब के साथ चलते जाओ। चमत्कारों से काम लेना होता तो क्या हम स्वयं न ले सकते थे? मगर हम जानते हैं कि जिस वैचारिक और नैतिक क्रान्ति और जिस कल्याणकारी सभ्यता के निर्माण के काम पर तुम नियुक्त किए गए हो उसे सफलता की सीमा तक पहुंचाने का सही रास्ता यह नहीं है। फिर भी अगर लोगों की वर्तमान कुंठा और उनके इंकार की कठोरता पर तुमसे सब नहीं होता और तुम्हारा कुछ विचार है कि इस हठ को तोड़ने के लिए किसी महसूस निशानी का दिखाना ही ज़रूरी है तो स्वयं ज़ोर लगाओ और तुम्हारा बस चलता हो तो ज़मीन में घुसकर या आसमान पर चढ़कर कोई ऐसा चमत्कार लाने की कोशिश करो जिसे तुम समझो कि यह अनिश्चितता को निश्चय में बदलने के लिए पर्याप्त होगा, मगर हमसे आशा न करो कि हम तुम्हारी यह इच्छा पूरी करेंगे, क्योंकि हमारी स्कीम में इस उपाय के लिए कोई जगह नहीं है।
24.अर्थात आर केवल यही बात अभीष्ट होती कि तमाम इंसान किसी न किसी तौर पर सत्यमार्गी बन जाएँ तो नबी भेजने और किताबें उतारने और आस्तिकों (मोमिनों) से नास्तिकों (काफ़िरों) के विरुद्ध संघर्ष कराने और सत्य-सन्देश को क्रमागत आन्दोलन के चरणों से गुज़रवाने की आवश्यकता ही क्या थी? यह काम तो अल्लाह के एक हो सृजनात्मक संकेत से पूरा हो सकता था, लेकिन अल्लाह इस काम को इस तरीके पर करना नहीं चाहता। उसका मंशा तो यह है कि सत्य को दलीलों के साथ लोगों के सामने लाया जाए। फिर इनमें से जो लोग सही चिंतन से काम लेकर सत्य को पहचान लें, वे अपने स्वतंत्र अधिकार से उसपर ईमान लाएँ। अपने आचरण को उसके साँचे में ढालकर असत्यवादियों के मुकाबले में अपनी नैतिक श्रेष्ठता सिद्ध करें। इंसानों के समूह में से भले तत्वों को अपने सशक्त तर्क, अपने महान लक्ष्य, जीवन के अपने उच्च जीवन-सिद्धातों और अपने पवित्र आचरण के आकर्षण से अपनी ओर खींचते चले जाएं, और असत्य के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करके स्वाभाविक विकास की राह से सत्य धर्म की स्थापना की मंज़िल तक पहुंचे। अल्लाह इस काम में उनका मार्गदर्शन करेगा और जिस मरहले पर जैसी मदद अल्लाह से पाने का वे अपने आपको हक़दार बनाएंगे, वह मदद भी उन्हें देता चला जाएगा, लेकिन अगर कोई यह चाहे कि इस स्वाभाविक मार्ग को छोड़कर अल्लाह केवल अपनी प्रभावी शक्ति के ज़ोर से दूषित विचार को मिटाकर लोगों में उत्कृष्ट विचार फैला दे और दूषित सभ्यता का उन्मूलन करके कल्याणकारी सभ्यता का निर्माण कर दे, तो ऐसा कदापि न होगा, क्योंकि यह अल्लाह की उस योजना के विरुद्ध है जिसके तहत उसने इंसान को दुनिया में एक उत्तरदायी प्राणी की हैसियत से पैदा किया है, उसे उपभोग के अधिकार दिए हैं, आज्ञापालन करने और न करने की स्वतंत्रता दी है, परीक्षा का समय प्रदान किया है और उसकी गतिविधि के अनुसार पुरस्कार और दंड देने के लिए निर्णय का एक समय निश्चित कर दिया है।
۞إِنَّمَا يَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ يَسۡمَعُونَۘ وَٱلۡمَوۡتَىٰ يَبۡعَثُهُمُ ٱللَّهُ ثُمَّ إِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 35
(36) सत्य-सन्देश को वही लोग स्वीकार करते हैं जो सुननेवाले हैं। रहे मुर्दे25, तो उन्हें तो अल्लाह बस क़ब्रों ही से उठाएगा और फिर वे (उसकी अदालत में पेश होने के लिए) वापस लाए जाएंगे।
25.सुननेवालों से तात्पर्य वे लोग हैं, जिनको अन्तरात्मा जीवित है, जिन्होंने अपनी बुद्धि और चेतना को मुअत्तल नहीं कर दिया है और जिन्होंने अपने दिल के दरवाज़ों पर पक्षपात और कुंठा के ताले नहीं चढ़ा दिए हैं। इनके मुक़ाबले में मुर्दा वे लोग हैं जो लकीर के फकीर बने अंधों की तरह चले जा रहे हैं और इस लकीर से हटकर कोई बात क़बूल करने के लिए तैयार नहीं हैं, चाहे वह स्पष्ट सत्य ही क्यों न हो।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يُنَزِّلَ ءَايَةٗ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 36
(37) ये लोग कहते हैं कि इस नबी पर इसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी गई? कहो, अल्लाह निशानी उतारने में पूरी तरह समर्थ है, मगर इनमें से अधिकतर लोग नासमझी में पड़े हुए हैं।26
26.निशानी से तात्पर्य महसूस मोजज़ा (खुला चमत्कार) है। अल्लाह के इस कथन का अर्थ यह है कि मोजज़ा न दिखाए जाने का कारण यह नहीं है कि हम उसको दिखाने में असमर्थ हैं, बल्कि इसका कारण कुछ और है जिसे ये लोग केवल अपनी नासमझी से नहीं समझते।
وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا طَٰٓئِرٖ يَطِيرُ بِجَنَاحَيۡهِ إِلَّآ أُمَمٌ أَمۡثَالُكُمۚ مَّا فَرَّطۡنَا فِي ٱلۡكِتَٰبِ مِن شَيۡءٖۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يُحۡشَرُونَ ۝ 37
(38) धरती में चलनेवाले किसी जानवर और हवा में परों से उड़नेवाले किसी परिंदे को देख लो, ये सब तुम्हारी ही तरह की जातियाँ हैं, हमने उनके भाग्य के लेख में कोई कमी नहीं छोड़ी है, फिर ये सब अपने रब की ओर समेटे जाते हैं,
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا صُمّٞ وَبُكۡمٞ فِي ٱلظُّلُمَٰتِۗ مَن يَشَإِ ٱللَّهُ يُضۡلِلۡهُ وَمَن يَشَأۡ يَجۡعَلۡهُ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 38
(39) मगर जो लोग हमारी निशानियों को झुठलाते हैं, वे बहरे और गूंगे हैं, अंधेरों में पड़े हुए हैं।27 अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधे रास्ते पर लगा देता है।28
27.अर्थ यह है कि अगर तुम्हें सिर्फ़ तमाशा देखने का शौक़ नहीं है, बल्कि वास्तव में यह मालूम करने के लिए निशानी देखना चाहते हो कि यह नबी जिस चीज़ की ओर बुला रहा है वह सत्य बात है या नहीं, तो आँखें खोलकर देखो, तुम्हारे चारों ओर हर जगह निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं। धरती के जानवरों और हवा के परिन्दों की किसी एक प्रजाति को लेकर उसके जीवन पर विचार करो, किस तरह उसकी बनावट ठीक ठीक उसके दशानुकूल बनाई गई है, किस तरह उसकी प्रकृति में उसकी स्वाभाविक ज़रूरतों के ठीक अनुकूल शक्तियाँ और योग्यताएँ रखी गई हैं, किस तरह उसको रोजी पहुँचाने की व्यवस्था हो रही है, किस तरह उसका एक भाग्य निश्चित है जिसकी सीमाओं से न वह आगे बढ़ सकता है और न पीछे हट सकता है, किस तरह उनमें से एक-एक जानवर और एक-एक छोटे-से-छोटे कीड़े की उसी स्थान पर जहाँ वह है, देखभाल, निगरानी, रक्षा और मार्गदर्शन किया जा रहा है, किस तरह उससे एक निश्चित योजना के अनुसार काम लिया जा रहा है और किस तरह उसे एक नियम का पाबन्द बनाकर रखा गया है और किस तरह उसके जन्म, प्रजनन और मौत का सिलसिला पूर्णतः विधिवत चल रहा है। अगर अल्लाह की अनगिनत निशानियों में से सिर्फ़ इसी एक निशानी पर विचार करो तो तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह की तौहीद और उसके गुणों को जो धारणा यह पैग़म्बर तुम्हारे सामने पेश कर रहा है और इस धारणा के अनुसार दुनिया में जीवन व्यतीत करने की जिस नीति की तरफ़ तुम्हें बुला रहा है, वह बिलकुल सत्य है । लेकिन तुम लोग न स्वयं अपनी आँखें खोलकर देखते हो, न किसी समझानेवाले की बात सुनते हो, अज्ञानता के अंधेरों में पड़े हुए हो और चाहते हो कि प्रकृति के आश्चर्यों के चमत्कारों को दिखाकर तुम्हारा मन बहलाया जाए।
28.अल्लाह का भटकाना यह है कि एक अज्ञानताप्रिय मनुष्य को अल्लाह की आयतों के अध्ययन का सौभाग्य न प्रदान किया जाए और एक पक्षपाती, अयथार्थवादी विद्यार्थी अगर अल्लाह की आयतों को देखे भी तो वास्तविकता तक पहुँचने के निशान उसकी आँख से ओझल रहें और प्रमों में डालनेवाली चीजें उसे सत्य से और बहुत दूर तक खींचती चली जाएँ। इसके विपरीत अल्लाह का मार्गदर्शन यह है कि एक सत्य के एक खोजी को ज्ञान-साधनों से फायदा उठाने का सौभाग्य प्रदान किया जाए और अल्लाह की आयतों में उसे वास्तविकता तक पहुँचने के निशान और चिह्न मिलते चले जाएँ। इन तीनों प्रकारों की बहुत-सी मिसालें आए दिन हमारे सामने आती रहती हैं। बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जिनके सामने सृष्टि में और स्वयं उसकी अपनी जात में अल्लाह की अनगिनत निशानियाँ फैली हुई हैं, पर वह जानवरों की तरह उन्हें देखते हैं और कोई शिक्षा प्राप्त नहीं करते, और बहुत से इंसान हैं जो जन्तु विज्ञान (Zoology), वनस्पति-विज्ञान (Botany), जीव-विज्ञान (Biology), भू-शास्त्र (Geology) खगोल-विज्ञान (Astronomy) शरीर-विज्ञान (Physiology) और शरीर रचना-विज्ञान (Anatjomy) और विज्ञान की दूसरी शाखाओं का अध्ययन करते हैं। इतिहास, पुरातत्व (आसारे क़दीमा) और समाज-शास्त्र (Social Sciences) का अनुसंधान करते हैं और ऐसी-ऐसी निशानियाँ उनके देखने में आती हैं जो दिल को ईमान से भर दें, मगर चूंकि वे अध्ययन का आरंभ ही पक्षपात के साथ करते हैं और उनके सामने दुनिया और उसके फ़ायदों के सिवा कुछ नहीं होता इसलिए इस अवलोकन के दौरान उनको सच्चाई तक पहुँचानेवाली कोई निशानी नहीं मिलती, बल्कि जो निशानी भी सामने आती है वह उन्हें उलटे अनीश्वरवाद और नास्तिकता, भौतिकवाद और प्रकृतिवाद ही की ओर खींच ले जाती है। उनके मुकाबले में ऐसे लोग का कम अभाव नहीं है, जो आँखें खोलकर दुनिया के इस कारखाने को देखते हैं और उनका हाल यह है कि – बर्ग दरख्ताने सब्ज़ दर नज़रे होशियार हर वरके दफ़्तरीस्त मारफ़ते किरदिगार (अर्थात् हरे-भरे वृक्षों को पत्तियाँ भी बुद्धिमान व्यक्ति की नज़र में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उनमें से हर पत्ती के भीतर स्रष्टा के पहचान की अगणित निशानियाँ मौजूद हैं।)
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ أَوۡ أَتَتۡكُمُ ٱلسَّاعَةُ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَدۡعُونَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 39
(40) इनसे कहो, तनिक विचार करके बताओ, अगर कभी तुमपर अल्लाह की ओर से कोई बड़ी विपदा आ जाती है या आख़िरी घड़ी आ पहुँचती है तो क्या उस समय तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारते हो? बोलो, अगर तुम सच्चे हो ।
بَلۡ إِيَّاهُ تَدۡعُونَ فَيَكۡشِفُ مَا تَدۡعُونَ إِلَيۡهِ إِن شَآءَ وَتَنسَوۡنَ مَا تُشۡرِكُونَ ۝ 40
(41) उस समय तुम अल्लाह ही को पुकारते हो, फिर अगर वह चाहता है तो उस विपदा को तुमपर से टाल देता है। ऐसे मौक़ों पर तुम अपने ठहराए हुए साझीदारों को भूल जाते हो।29
29.पिछली आयत में कहा गया था कि तुम एक निशानी की माँग करते हो और हाल यह है कि तुम्हारे आस-पास हर ओर निशानियाँ-ही-निशानियाँ फैली हुई हैं। इस सिलसिले में पहले मिसाल के तौर पर जीवधारियों के जीवन के अवलोकन की ओर ध्यान आकृष्ट कराया गया। इसके बाद अब एक दूसरी निशानी की ओर संकेत किया जा रहा है जो स्वयं सत्य के इंकारियों के अपने मन में मौजूद है। जब इंसान पर कोई बड़ी विपदा आ पड़ती है या मौत अपने भयानक रूप में सामने आ खड़ी होती है, उस समय एक अल्लाह के दामन के सिवा कोई दूसरी शरणस्थली उसे नज़र नहीं आती। बड़े-बड़े मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) ऐसे अवसर पर अपने उपास्यों को भूलकर एक ईश्वर को पुकारने लगते हैं। कट्टर-से-कट्टर नास्तिक तक ईश्वर के आगे दुआ के लिए हाथ फैला देता है। इसी निशानी को यहाँ सत्य को प्रकाशित करने के लिए पेश किया जा रहा है, क्योंकि यह इस बात की दलील है कि खुदापरस्ती (ईश्वरवाद) और तौहीद (एकेश्वरवाद) की गवाही हर व्यक्ति के अंदर मौजूद है जिसपर बे-खबरी और अज्ञानता के चाहे जितने ही परदे डाल दिए गए हों, मगर फिर भी कभी-न-कभी वह उभरकर सामने आ जाती है। अबू जहल के बेटे इक्रिमा को इसी निशानी के देखने से ईमान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब प्रतिष्ठित मक्का नबी (सल्ल.) के हाथों जीत लिया गया तो इक्रिमा जद्दा की ओर भागे और एक नाव पर सवार होकर हबश की राह ली। रास्ते में भयंकर तूफान आया और नाव खतरे में पड़ गई। पहले तो देवियों और देवताओं को पुकारा जाता रहा, परन्तु जब तूफान को उग्रता बढ़ी और मुसाफिरों को विश्वास हो गया कि अब नाव डूब जाएगी तो सब कहने लगे कि यह समय ईश्वर के सिवा किसी को पुकारने का नहीं है, वही चाहे तो हम बच सकते हैं। उस समय इक्रिमा की आँखें खुली और उनके दिल ने आवाज़ दी कि अगर यहाँ ईश्वर के सिवा कोई सहायक नहीं तो कहीं और क्यों हो । यही तो वह बात है जो ईश्वर का वह नेक बन्दा (मुहम्मद) हमें बीस वर्ष से समझा रहा है और हम अकारण उससे लड़ रहे हैं। यह इक्रिमा के जीवन में निर्णायक क्षण था। उन्होंने उसी समय ईश्वर को वचन दिया कि अगर मैं इस तूफ़ान से बच गया तो सीधा मुहम्मद (सल्ल.) के पास जाऊँगा और उनके हाथ में हाथ दे दूंगा। अतः उन्होंने अपने इस वचन को पूरा किया और बाद में आकर न केवल इस्लाम कबूल किया बल्कि अपनी बाक़ी उम्र इस्लाम के लिए जिद्दोजुहद में गुज़ार दी।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَتَضَرَّعُونَ ۝ 41
(42) तुमसे पहले बहुत-सी क़ौमों की ओर हमने रसूल भेजे और उन क़ौमों को मुसीबतों और परेशानियों में डाला, ताकि वे विनम्रता के साथ हमारे सामने झुक जाएँ ।
فَلَوۡلَآ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَا تَضَرَّعُواْ وَلَٰكِن قَسَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 42
(43) अत: जब हमारी ओर से उनपर सख्ती आई तो क्यों न उन्होंने विनम्रता अपनाई ? उनके दिल तो और कठोर हो गए और शैतान ने उनको इत्मीनान दिलाया कि जो कुछ तुम कर रहे हो, खूब कर रहे हो ।
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَبۡوَٰبَ كُلِّ شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ إِذَا فَرِحُواْ بِمَآ أُوتُوٓاْ أَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ فَإِذَا هُم مُّبۡلِسُونَ ۝ 43
(44) फिर जब उन्होंने उस नसीहत को, जो उन्हें की गई थी, भुला दिया तो हमने हर प्रकार की सुख-सम्पन्नताओं के दरवाजे उनके लिए खोल दिए, यहाँ तक कि जब वे उन चीज़ों में, जो उन्हें प्रदान की गई थीं, खूब मगन हो गए तो अचानक हमने उन्हें पकड़ लिया और अब हाल यह था कि वे हर भलाई से निराश थे।
فَقُطِعَ دَابِرُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْۚ وَٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 44
(45) इस तरह उन लोगों की जड़ काटकर रख दी गई जिन्होंने ज़ुल्म किया था, और प्रशंसा है सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए (कि उसने उनकी जड़ काट दी)।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَخَذَ ٱللَّهُ سَمۡعَكُمۡ وَأَبۡصَٰرَكُمۡ وَخَتَمَ عَلَىٰ قُلُوبِكُم مَّنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِهِۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ هُمۡ يَصۡدِفُونَ ۝ 45
(46) ऐ नबी ! इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर अल्लाह तुम्हारे देखने और सुनने की क्षमता तुमसे छीन ले और तुम्हारे दिलों पर ठप्पा लगा दे30 तो अल्लाह के सिवा और कौन-सा खुदा है जो ये क्षमताएँ तुम्हें वापस दिला सकता हो। देखो, किस तरह हम बार-बार अपनी निशानियाँ इनके सामने पेश करते हैं और फिर ये किस तरह उनसे नज़र चुरा जाते हैं।
30.यहाँ दिलों पर मुहर करने से तात्पर्य सोचने और समझने की शक्ति को छीन लेना है।
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ بَغۡتَةً أَوۡ جَهۡرَةً هَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 46
(47) कहो, कभी तुमने सोचा कि अगर अल्लाह की ओर से अचानक या एलानिया तुमपर अज़ाब आ जाए तो क्या ज़ालिम लोगों के सिवा कोई और हलाक होगा?
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۖ فَمَنۡ ءَامَنَ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 47
(48) हम जो रसूल भेजते हैं, इसी लिए तो भेजते हैं कि वे सच्चरित्र लोगों के लिए शुभसूचना देनेवाले और दुष्चरित्र लोगों के लिए डरानेवाले हों। फिर जो लोग उनकी बात मान लें और अपने रवैए को सुधार लें, उनके लिए किसी भय और रंज का मौक़ा नहीं है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَمَسُّهُمُ ٱلۡعَذَابُ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 48
(49) और जो हमारी आयतों को झुठलाएँ, वे अपनी अवज्ञाओं के बदले में सज़ा भुगत कर रहेंगे
قُل لَّآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ إِنِّي مَلَكٌۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ ۝ 49
(50) ऐ नबी ! इनसे कहो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ और न यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ़ उस वह्य का पालन करता हूँ जो मुझपर उतारी जाती है।31 फिर इनसे पूछो, “क्या अंधा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो सकते हैं?32 क्या तुम विचार नहीं करते?"
31.नासमझ लोगों के मन में सदा से यह मूर्खतापूर्ण विचार पाया जाता रहा है कि जो व्यक्ति अल्लाह को पहुंचा हुआ हो उसे मानवता से परे होना चाहिए। उससे आश्चर्यजनक और विचित्र बातें प्रकट होनी चाहिए। वह एक इशारा करे और पहाड़ सोने का बन जाए, वह हुक्म दे और धरती से ख़ज़ाने उबलने लगें, उसपर लोगों के अगले-पिछले सब हालात रौशन हों, वह बता दे कि गुमशुदा चीज़ कहाँ रखी है, रोगी बच जाएगा या मर जाएगा, गर्भवती के पेट में नर है या मादा। फिर उसको इंसानी कमज़ोरियों और सीमितताओं से भी परे होना चाहिए। भला वह भी कोई अल्लाह तक पहुँचा हुआ है, जिसे भूख और प्यास लगे, जिसको नींद आए, जो बीवी-बच्चे रखता हो, जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए क्रय-विक्रय करता फिरे, जिसे कभी कर्ज लेने की ज़रूरत पेश आए और कभी वह ग़रीबी और तंगदस्ती में पड़कर परेशान हो। इसी प्रकार के विचार नबी (सल्ल.) के दौर के लोगों के मस्तिष्क पर छाए रहते थे। वे जब आपसे पैग़म्बरी का दावा सुनते थे तो आपकी सच्चाई जाँचने के लिए आपसे परोक्ष की ख़बरें पूछते थे, पराप्राकृतिक बातों की माँग करते थे और आपको बिल्कुल आम इंसानों जैसा एक इंसान देखकर आपत्ति करते थे कि यह अच्छा पैग़म्बर है जो खाता-पीता है, बीवी-बच्चे रखता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है। इन्हीं बातों का उत्तर इस आयत में दिया गया है।
32.अर्थ यह है कि में जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने रख रहा हूं उन्हें मैंने देखा है, वे सीधे-सीधे मेरे अनुभव में आई हैं, मुझे वह्य के द्वारा उनका ठीक-ठीक ज्ञान दिया गया है, उनके बारे में मेरी गवाही आँखों देखी गवाही है। इसके विपरीत तुम इन सच्चाइयों की ओर से अंधे हो,तुम इनके बारे में जो विचार रखते हो वे या तो अटकल और गुमान पर आधारित हैं या मात्र अंधी पैरवी पर, इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच नेत्रवान और नेत्रहीन जैसा अन्तर है, और इसी दृष्टि से मुझे तुमपर प्रमुखता प्राप्त है, न इस दृष्टि से कि मेरे पास ईश्वरीय भंडार हैं या मैं परोक्ष का जाननेवाला हूँ या ईसानी कमज़ोरियों से पाक हूँ।
وَأَنذِرۡ بِهِ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَن يُحۡشَرُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ لَيۡسَ لَهُم مِّن دُونِهِۦ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ لَّعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 50
(51) और ऐ नबी ! तुम इस (वय के ज्ञान) के माध्यम से उन लोगों को उपदेश दो जो इस बात का डर रखते हैं कि अपने रबके सामने कभी इस हाल में पेश किए जाएंगे कि उसके सिवा वहाँ कोई (ऐसा सत्तावान) न होगा जो उनका समर्थक व सहायक हो या उनकी सिफारिश करे, शायद कि (इस उपदेश से सचेत होकर) वे खुदातरसी की रीति अपनाएँ ।33
33.अर्थ यह है कि जो लोग दुनिया की जिन्दगी में ऐसे मगन हैं कि उन्हें न मौत की चिन्ता है, न यह विचार है कि कभी हमें अपने अल्लाह को भी मुंह दिखाना है, उनपर तो यह उपदेश कदापि काम न करेगा और इसी तरह उन लोगों पर भी इसका कुछ प्रभाव न होगा जो इस बेबुनियाद भरोसे पर जी रहे हैं कि दुनिया में हम जो चाहे कर गुज़रे, आखिरत में हमारा बाल तक बाका न होगा, क्योंकि हम फलाँ का दामन पकड़े हुए हैं या फलाँ हमारी सिफारिश कर देगा या फला हमारे लिए प्रायश्चित बन चुका है, इसलिए ऐसे लोगों को तुम अपना सम्बोधन उन लोगों की ओर रखो जो अल्लाह के सामने हाज़िरी का भी अंदेशा रखते ही और उसके साथ झूठे भरोसों पर फूले हुए भी न हों । इस उपदेश का प्रभाव मात्र ऐसे ही लोगों पर हो सकता है और उन्हीं के ठीक होने की आशा की जा सकती है।
وَلَا تَطۡرُدِ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ مَا عَلَيۡكَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَمَا مِنۡ حِسَابِكَ عَلَيۡهِم مِّن شَيۡءٖ فَتَطۡرُدَهُمۡ فَتَكُونَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 51
(52) और जो लोग अपने रब को रात-दिन पुकारते रहते हैं और उसकी प्रसन्नता की तलब में लगे हुए हैं उन्हें अपने से दूर न फेंको।34 उनके हिसाब में से किसी चीज का बोझ तुमपर नहीं है और तुम्हारे हिसाब में से किसी चीज़ का बोझ उनपर नहीं। इसपर भी अगर तुम उन्हें दूर फेंकोगे तो ज़ालिमों में गिने जाओगे।35
34.क़ुरैश के बड़े-बड़े सरदारों और खाते-पीते लोगों को नबी (सल्ल.) पर दूसरी अन्य आपत्तियों के साथ एक आपत्ति यह भी थी कि आपके चारों ओर हमारी कौम के दास, दलित और निम्न वर्ग के लोग जमा हो गए है। ये ताना दिया करते थे कि इस आदमी को साथी भी कैसे-कैसे इज़्ज़तदार लोग मिले हैं, बिलाल, अम्मार, सुहैब और खब्बाब (रज़ि.), बस यही लोग अल्लाह को हमारे दर्मियान ऐसे मिले जिनको मनोनीत किया जा सकता था। फिर वे इन ईमान लानेवालों की बदहाली का उपहास करने पर ही बस न करते थे, बल्कि इनमें से जिस-जिससे कभी पहले कोई नैतिक कमज़ोरी प्रकट हुई थी, उसपर भी आवाजें कसते ये और कहते थे कि फला जो कल तक यह था और फलाँ जिसने यह किया था, आज वह भी उस पुनीत और मनोनीत गिरोह में शामिल है। इन्हीं बातों का जवाब यहाँ दिया जा रहा है।
35.अर्थात हर व्यक्ति अपने भले-बुरे का ज़िम्मेदार आप ही है। इन मुसलमान होनेवालों में से किसी व्यक्ति की जवाबदेही के लिए तुम खड़े न होगे और न तुम्हारी जवाबदेही के लिए इनमें से कोई खड़ा होगा। तुम्हारे हिस्से की कोई नेकी ये तुमसे छीन नहीं सकते और अपने हिस्से की कोई बदी तुमपर डालू नहीं सकते । फिर जब ये मात्र सत्य के अभिलाषी बनकर तुम्हारे पास आते हैं तो आखिर तुम क्यों उन्हें अपने से दूर फेंको।
وَكَذَٰلِكَ فَتَنَّا بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لِّيَقُولُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنۢ بَيۡنِنَآۗ أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَعۡلَمَ بِٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 52
(53) वास्तव में हमने इस तरह इन लोगों में से कुछ को कुछ के द्वारा आज़माइश में डाला है"36, ताकि वे इन्हें देखकर कहें, “क्या ये हैं वे लोग जिनपर हमारे बीच अल्लाह की कृपा हुई है?" - हाँ, क्या अल्लाह अपने कृतज्ञ दासों को इनसे अधिक नहीं जानता है ?
36.अर्थात ग़रीबों, दलितों और ऐसे लोगों को जो समाज में मामूली हैसियत रखते हैं, सबसे पहले ईमान का सौभाग्य प्रदान कर हमने दौलत और इज्ज़त का घमंड रखनेवाले लोगों को परीक्षा में डाल दिया है।
وَإِذَا جَآءَكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِنَا فَقُلۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۖ كَتَبَ رَبُّكُمۡ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَ أَنَّهُۥ مَنۡ عَمِلَ مِنكُمۡ سُوٓءَۢا بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَأَنَّهُۥ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 53
(54) जब तुम्हारे पास वे लोग आएँ, जो हमारी आयतों पर ईमान लाते हैं, तो इनसे कहो, “तुमपर सलामती है, तुम्हारे रब ने दया व कृपा की रीति अपने ऊपर अनिवार्य कर ली है । (यह उसकी दया व कृपा ही है कि) अगर तुममें से कोई नादानी के साथ कोई बुराई कर बैठा हो, फिर उसके बाद तौबा करे और सुधार कर ले तो वह उसे क्षमा कर देता है और नर्मी से काम लेता है37
37.जो लोग उस समय नबी (सल्ल.) पर ईमान लाए थे उनमें अधिकतर लोग ऐसे भी थे जिनसे अज्ञानता-काल में बड़े-बड़े पाप हो चुके थे। अब इस्लाम स्वीकार करने के बाद यद्यपि उनकी ज़िन्दगियाँ बिल्कुल बदल गई थी, लेकिन इस्लाम विरोधी उनको पिछली ज़िन्दगी के ऐबों, दोषों और कामों के ताने देते थे। इसपर फ़रमाया जा रहा है कि ईमानवालों को तसल्ली दो। उन्हें बताओ कि जो व्यक्ति तौबा करके अपने को सुधार लेता है उसकी पिछली ग़लतियों की पकड़ करने का तरीक़ा अल्लाह के यहाँ नहीं है।
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِتَسۡتَبِينَ سَبِيلُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 54
(55) और इस तरह हम अपनी निशानियाँ खोल-खोलकर सामने लाते हैं, ताकि अपराधियों की राह बिल्कुल खुलकर सामने आ जाए।38
38.'इस तरह’ का संकेत व्याख्यान के उस पूरे क्रम की ओर है जो चौथे रुकूअ की इस आयत से शुरू हुआ था। ये लोग कहते हैं कि उसपर कोई निशानी क्यों नहीं उतरी। अर्थ यह है कि ऐसी साफ़ और खुली दलीलों और निशानियों के बाद भी जो लोग अपनी अवज्ञा और इंकार पर आग्रह ही किए चले जाएँ, उनका अपराधी होना बिल्कुल असंदिग्ध रूप से सिद्ध हुआ जाता है और वास्तविकता बिल्कुल आईना की तरह स्पष्ट तो जाती है कि वास्तव में ये लोग गुमराहपसन्दी के आधार पर यह राह चल रहे हैं, न इस कारण कि सत्य के रास्ते की दलीलें स्पष्ट नहीं है या यह कि कुछ दलीलें उनकी इस पथभ्रष्टता के पक्ष में भी मौजूद हैं।
قُلۡ إِنِّي نُهِيتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ قُل لَّآ أَتَّبِعُ أَهۡوَآءَكُمۡ قَدۡ ضَلَلۡتُ إِذٗا وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 55
(56) ऐ नबी ! इनसे कहो कि तुम लोग अल्लाह के सिवा जिन दूसरों को पुकारते हो, उनकी बन्दगी करने से मुझे मना किया गया है। कहो, "मैं तुम्हारी इच्छाओं का पालन नहीं करूँगा। अगर मैंने ऐसा किया तो गुमराह हो गया, सीधा रास्ता पानेवालों में से न रहा।”
قُلۡ إِنِّي عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَكَذَّبۡتُم بِهِۦۚ مَا عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦٓۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ يَقُصُّ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰصِلِينَ ۝ 56
(57) कहो, “मैं अपने रब की ओर से एक रौशन दलील पर क़ायम हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है। अब मेरे अधिकार में वह चीज़ है नहीं जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे हो39, निर्णय का पूरा अधिकार अल्लाह को है, वही सत्य तथ्य बयान करता है और वही सबसे अच्छा निर्णय करनेवाला है।"
39.संकेत है अल्लाह के अज़ाब की ओर । विरोधी कहते थे कि अगर तुम अल्लाह की ओर से भेजे हुए नबी हो और हम खुल्लम-खुल्ला तुमको झुठला रहे हैं तो क्यों नहीं अल्लाह का अज़ाब हमपर टूट पड़ता? अल्लाह की ओर से तुम्हारे भेजे जाने का तकाज़ा तो यह था कि इधर कोई तुम्हें झुठलाता या तुम्हारा अपमान करता और उधर तुरन्त धरती धंसती और वह उसमें समा जाता या बिजली गिरती और वह भस्म हो जाता । यह क्या है कि खुदा का दूत है और उसपर ईमान लानेवाले तो मुसीबतों पर मुसीबतें और अपमानों पर अपमान सह रहे हैं और उनको गालियाँ देनेवाले और पत्थर मारनेवाले चैन किए जाते हैं।
قُل لَّوۡ أَنَّ عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦ لَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۗ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 57
(58) कहो, “अगर कहीं वह चीज़ मेरे अधिकार में होती, जिसकी तुम जल्दी मचा रहे हो, तो मेरे और तुम्हारे बीच कभी का निर्णय हो चुका होता। मगर अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि जालिमों के साथ क्या मामला किया जाना चाहिए।
۞وَعِندَهُۥ مَفَاتِحُ ٱلۡغَيۡبِ لَا يَعۡلَمُهَآ إِلَّا هُوَۚ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۚ وَمَا تَسۡقُطُ مِن وَرَقَةٍ إِلَّا يَعۡلَمُهَا وَلَا حَبَّةٖ فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡأَرۡضِ وَلَا رَطۡبٖ وَلَا يَابِسٍ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 58
(59) उसी के पास परोक्ष की कुंजियाँ हैं जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता, धरती और समुद्र में जो कुछ है, सबको वह जानता है। पेड़ से गिरनेवाला कोई पत्ता ऐसा नहीं जिसका उसे ज्ञान न हो। धरती के अंधेरे परदों में कोई दाना ऐसा नहीं जिसकी खबर उसे न हो। सूखा और गीला सब कुछ एक खुली किताब में लिखा हुआ है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُم بِٱلَّيۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا جَرَحۡتُم بِٱلنَّهَارِ ثُمَّ يَبۡعَثُكُمۡ فِيهِ لِيُقۡضَىٰٓ أَجَلٞ مُّسَمّٗىۖ ثُمَّ إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ ثُمَّ يُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 59
(60) वही है जो रात को तुम्हारी रूहे क़ब्ज़ करता है और दिन को जो कुछ तुम करते हो, उसे जानता है फिर दूसरे दिन वह तुम्हें इसी कारोबार की दुनिया में वापस भेज देता है, ताकि जीवन की निश्चित अवधि पूरी हो । अन्तत: उसी की ओर तुम्हारी वापसी है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो ।
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۖ وَيُرۡسِلُ عَلَيۡكُمۡ حَفَظَةً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ تَوَفَّتۡهُ رُسُلُنَا وَهُمۡ لَا يُفَرِّطُونَ ۝ 60
(61) अपने बन्दों पर वह पूरी कुदरत रखता है और तुमपर निगरानी करनेवाले नियुक्त करके भेजता है40, यहाँ तक कि जब तुममें से किसी की मौत का समय आ जाता है तो उसके भेजे हुए फ़रिश्ते उसकी जान निकाल लेते हैं और अपना कर्त्तव्य पूरा करने में तनिक कोताही नहीं करते।
40.अर्थात ऐसे फ़रिश्ते जो तुम्हारी एक-एक हरकत पर और एक-एक बात पर निगाह रखते हैं और तुम्हारी हर-हर हरकत का रिकार्ड सुरक्षित करते रहते हैं।
ثُمَّ رُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۚ أَلَا لَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَهُوَ أَسۡرَعُ ٱلۡحَٰسِبِينَ ۝ 61
(62) फिर सबके सब अल्लाह, अपने सच्चे स्वामी, की ओर वापस लाए जाते हैं। खबरदार हो जाओ, निर्णय के तमाम अधिकार उसी को प्राप्त हैं और वह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।‘’
قُلۡ مَن يُنَجِّيكُم مِّن ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ تَدۡعُونَهُۥ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةٗ لَّئِنۡ أَنجَىٰنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 62
(63) ऐ नबी ! इनसे पूछो, रेगिस्तान और समुद्र के अँधेरों में कौन तुम्हें खतरों से बचाता है ? कौन है जिससे तुम (मुसीबत के समय) गिड़-गिड़ा गिड़गिड़ाकर और चुपके चुपके दुआएँ माँगते हो? किससे कहते हो कि अगर इस विपत्ति से उसने हमें बचा लिया तो हम अवश्य कृतज्ञ होंगे?
قُلِ ٱللَّهُ يُنَجِّيكُم مِّنۡهَا وَمِن كُلِّ كَرۡبٖ ثُمَّ أَنتُمۡ تُشۡرِكُونَ ۝ 63
(64) -"कहो, अल्लाह तुम्हें उससे और हर कष्ट से मुक्ति देता है, फिर तुम दूसरों को उसका साझी ठहराते हो41,
41.अर्थात यह सच्चाई कि अकेला अल्लाह ही सर्वशक्तिमान है और वहीं तमाम अधिकारों का स्वामी और तुम्हारी भलाई और बुराई पर पूरा अधिकार रखता है और उसी के हाथ में तुम्हारे भाग्य की बागडोर है। उसकी गवाही तो तुम्हारे अपने अंदर मौजूद है। जब कोई कठिन पड़ी आती है और उससे बचने का रास्ता निकल नहीं पाता, तो उस समय तुम स्वतः उसी की ओर पलटते हो, लेकिन इस खुली निशानी के होते हुए भी तुमने खुदाई (ईश्वरत्व) में बिना किसी तर्क और बिना किसी प्रमाण के दूसरों को उसका साझी बना रखा है। पलते हो उसकी रोज़ी पर और अन्नदाता बनाते हो दूसरों को, मदद पाते हो उसकी मेहरबानी से और समर्थक और सहायक ठहराते हो दूसरों को। गुलाम हो उसके और बन्दगी बजा लाते हो दूसरों की। मुश्किलें दूर करता है वह, बुरे समय पर गिड़गिड़ाते हो उसके सामने और जब वह समय गुज़र जाता है तो तुम्हारी मुश्किल दूर करनेवाले बन जाते हैं दूसरे और चढ़ावे चढ़ने लगते हैं दूसरों के नाम के।
قُلۡ هُوَ ٱلۡقَادِرُ عَلَىٰٓ أَن يَبۡعَثَ عَلَيۡكُمۡ عَذَابٗا مِّن فَوۡقِكُمۡ أَوۡ مِن تَحۡتِ أَرۡجُلِكُمۡ أَوۡ يَلۡبِسَكُمۡ شِيَعٗا وَيُذِيقَ بَعۡضَكُم بَأۡسَ بَعۡضٍۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَفۡقَهُونَ ۝ 64
(65) कहो, “उसे इसका सामर्थ्य प्राप्त है कि तुमपर कोई अज़ाब ऊपर से उतार दे या तुम्हारे क़दमों के नीचे से ले आए या तुम्हें गिरोहों में बाँटकर एक गिरोह को दूसरे गिरोह की शक्ति का मज़ा चखवा दे।" देखो, हम किस तरह बार-बार अलग-अलग तरीक़ों से अपनी निशानियाँ इनके सामने पेश कर रहे हैं, शायद कि ये सत्य को समझ लें।42
42.जो लोग अल्लाह के अज़ाब को अपने से दूर पाकर सत्य के विरोध में दुस्साहस पर दुस्साहस दिखा रहे थे उनें सचेत किया जा रहा है कि अल्लाह के अज़ाब को आते कुछ देर नहीं लगती। हवा का एक तूफ़ान तुम्हें अचानक बर्बाद कर सकता है, जलजले (भूचाल) का एक झटका तुम्हारी बस्तियों को मिट्टी में मिला देने के लिए काफी है। क़बीलों और क़ौमों और देशों की दुश्मनियों की मैग्ज़ीन में एक चिंगारी वह विनाश फैला सकती है कि वर्षों तक रक्तपात और बदअमनी से मुक्ति न मिले। अतः अगर अज़ाब नहीं आ रहा है तो यह तुम्हारे लिए राफलत और नशे की पीनक न बन जाए कि इत्मीनान के साथ, सही व ग़लत में अन्तर किए बिना, अंधों की तरह ज़िन्दगी के रास्ते पर चलते रहो। गनीमत समझो कि अल्लाह तुम्हें मोहलत दे रहा है और वह निशानियाँ तुम्हारे सामने पेश कर रहा है जिनसे तुम सत्य को पहचानकर सही रास्ता अपना सको।
وَكَذَّبَ بِهِۦ قَوۡمُكَ وَهُوَ ٱلۡحَقُّۚ قُل لَّسۡتُ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 65
(66) तुम्हारी क़ौम उसका इंकार कर रही है, हालाँकि वह सत्य है। इनसे कह दो कि मैं तुमपर हवालेदार नहीं बनाया गया हूँ।43
43.अर्थात मेरा यह काम नहीं है कि जो कुछ तुम नहीं देख रहे हो वह ज़बरदस्ती तुम्हें दिखाऊँ और जो कुछ तुम नहीं समझ रहे हो वह ताकत से तुम्हारी समझ में उतार दूँ और मेरा यह काम भी नहीं है कि अगर तुम न देखो और न समझो तो तुमपर अज़ाब उतार दूं। मेरा काम सिर्फ सत्य और असत्य को अलग-अलग करके तुम्हारे सामने पेश कर देना है। अब अगर तुम नहीं मानते तो जिस बुरे अंजाम से मैं तुम्हें डराता हूँ, वह अपने समय पर स्वयं तुम्हारे सामने आ जाएगा।
لِّكُلِّ نَبَإٖ مُّسۡتَقَرّٞۚ وَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 66
(67) हर खबर के प्रकट होने का एक समय निश्चित है। बहुत जल्द तुम्हें स्वयं परिणाम मालूम हो जाएगा।
وَإِذَا رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ يَخُوضُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦۚ وَإِمَّا يُنسِيَنَّكَ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَلَا تَقۡعُدۡ بَعۡدَ ٱلذِّكۡرَىٰ مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 67
(68) और ऐ नबी ! जब तुम देखो कि लोग हमारी आयतों में नुक्ताचीनियाँ कर रहे हैं तो उनके पास से हट जाओ, यहाँ तक कि वे इस बातचीत को छोड़कर दूसरी बातों में लग जाएँ, और अगर कभी शैतान तुम्हें भुलावे में डाल दे44, तो जिस समय तुम्हें इस ग़लती का एहसास हो जाए, उसके बाद फिर ऐसे अत्याचारी लोगों के पास न बैठो।
44.अर्थात अगर किसी समय हमारा यह आदेश तुम्हें न याद रहे और तुम भूले से ऐसे लोगों की संगति में बैठे रह जाओ।
وَمَا عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَّقُونَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَلَٰكِن ذِكۡرَىٰ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 68
(69) उनके हिसाब में से किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी परहेज़गार लोगों पर नहीं है, अलबत्ता उपदेश देना उनका कर्तव्य है, शायद कि वे ग़लत रवैये से बच जाएँ।45
45.तात्पर्य यह है कि जो लोग अल्लाह की अवज्ञा से स्वयं बचकर काम करते हैं उनपर अवज्ञाकारियों के किसी कर्म की ज़िम्मेदारी नहीं है, फिर वे क्यों अकारण इस बात को अपने ऊपर अनिवार्य कर लें कि इन अवज्ञाकारियों से वाद-विवाद करके ज़रूर इन्हें मनवाकर ही छोड़ेंगे और इनकी हर निरर्थक आपत्ति का उत्तर अवश्य ही देंगे और अगर वे न मानते हों तो किसी न किसी तरह मनवाकर ही रहेंगे। उनका कर्त्तव्य बस इतना है कि जिन्हें गुमराही में भटकता देख रहे हों उन्हें उपदेश दें और सत्य बात उनके सामने प्रस्तुत कर दें। फिर अगर वे न मानें और झगड़े और वाद-विवाद और तर्क-वितर्क पर उतर आएँ तो सत्यवादियों का यह काम नहीं है कि उनके साथ दिमागी कुश्तियाँ लड़ने में अपना समय और अपनी शक्तियाँ बर्बाद करते फिरें। गुमराही पसन्द लोगों के बजाय उन्हें अपने समय और अपनी शक्तियों को उन लोगों की शिक्षा-दीक्षा और सुधार और उपदेश पर लगाना चाहिए जो स्वयं सत्य की तलब रखते हों।
وَذَرِ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَعِبٗا وَلَهۡوٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ وَذَكِّرۡ بِهِۦٓ أَن تُبۡسَلَ نَفۡسُۢ بِمَا كَسَبَتۡ لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ وَإِن تَعۡدِلۡ كُلَّ عَدۡلٖ لَّا يُؤۡخَذۡ مِنۡهَآۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ أُبۡسِلُواْ بِمَا كَسَبُواْۖ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 69
(70) छोड़ो उन लोगों को जिन्होंने अपने दीन को खेल और तमाशा बना रखा है और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी धोखे में डाले हुए है। हाँ, मगर यह क़ुरआन सुनाकर आदेश और चेतावनी देते रहो कि कहीं कोई व्यक्ति अपने किए करतूतों के वबाल में गिरफ़्तार न हो जाए, और गिरफ़्तार भी इस हाल में हो कि अल्लाह से बचानेवाला कोई समर्थक और सहायक और कोई सिफ़ारिशो उसके लिए न हो, और अगर वह हर संभव चीज़ बदले में देकर छूटना चाहे तो वह भी उससे स्वीकार न किया जाए, क्योंकि ऐसे लोग तो स्वयं अपनी कमाई के नतीजे में पकड़े जाएँगे, उनको तो अपने सत्य के इंकार के मुआवज़े में खौलता हुआ पानी पीने को और दर्दनाक यातना भुगतने को मिलेगी।
قُلۡ أَنَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلَىٰٓ أَعۡقَابِنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ كَٱلَّذِي ٱسۡتَهۡوَتۡهُ ٱلشَّيَٰطِينُ فِي ٱلۡأَرۡضِ حَيۡرَانَ لَهُۥٓ أَصۡحَٰبٞ يَدۡعُونَهُۥٓ إِلَى ٱلۡهُدَى ٱئۡتِنَاۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۖ وَأُمِرۡنَا لِنُسۡلِمَ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 70
(71) ऐ नबी ! इनसे पूछो कि क्या हम अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारें जो न हमें लाभ दे सकते हैं और न हानि? और जबकि अल्लाह हमें सीधा रास्ता दिखा चुका है तो क्या अब हम उलटे पाँव फिर जाएँ? क्या हम अपना हाल उस आदमी का-सा कर लें जिसे शैतानों ने बयाबान में भटका दिया हो और वह हेरान व परेशान फिर रहा हो जबकि उसके साथी उसे पुकार रहे हों कि इधर आ, यह सीधी राह मौजूद है? कहो, “वास्तव में सही रहनुमाई सिर्फ़ अल्लाह ही की रहनुमाई है और उसकी ओर से हमें यह आदेश मिला है कि सृष्टि के स्वामी के आगे आज्ञापालन के साथ सर झुका दो,
وَأَنۡ أَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَٱتَّقُوهُۚ وَهُوَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 71
(72) नमाज़ क़ायम करो और उसकी अवज्ञा से बचो, उसी की ओर तुम समेटे जाओगे।"
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ وَيَوۡمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُۚ قَوۡلُهُ ٱلۡحَقُّۚ وَلَهُ ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 72
(73) वही है जिसने आसमान व ज़मीन को सत्य पर पैदा किया।46 और जिस दिन वह कहेगा कि हश्र (प्रलय) हो जाए, उसी दिन वह हो जाएगा। उसका कथन बिल्कुल सत्य है। और जिस दिन सूर फूंका जाएगा47 उस दिन बादशाही उसी की होगी48, वह गैब और शहादत 49 हर चीज़ का जानकार है और हिक्मतवाला (तत्त्वदर्शी) और हर चीज़ की खबर रखनेवाला है।
46.क़ुरआन में यह बात जगह-जगह कही गई है कि अल्लाह ने धरती और आसमानों को सत्य पर पैदा किया है या सत्य के साथ पैदा किया। यह कथन बहुत ही विस्तृत अर्थ अपने अन्दर रखता है। इसका एक अर्थ यह है कि धरती और आसमानों की पैदाइश सिर्फ खेल के तौर पर नहीं हुई है। यह किसी देवी-देवता की लीला नहीं है। यह किसी बच्चो का खिलौना नहीं है कि मात्र दिल बहलाने के लिए वह इससे खेलता रहे और फिर यूँ ही उसे तोड़-फोड़कर फेंक दे । वास्तव में यह एक बड़ा गंभीर काम है जो तत्त्वदर्शिता (हिकमत) के आधार पर किया गया है। एक महान उद्देश्य इसके भीतर काम कर रहा है और इसका एक युग बीत जाने के बाद अनिवार्य है कि पैदा करनेवाला उस पूरे काम का हिसाब ले जो उस युग में अंजाम पाया हो और उसी युग के नतीजों पर दूसरे दौर की नींव रखे। यही बात है जो कुरआन में दूसरी जगहों पर यूँ बयान की गई है, “ऐ हमारे रब ! तूने यह सब कुछ व्यर्थ पैदा नहीं किया है", और हमने आसमान व जमीन और उन चीज़ों को जो आसमान व ज़मीन के बीच हैं,खेल के तौर पर पैदा नहीं किया है।” और “तो क्या तुमने यह समझ रखा है कि हमने तुम्हें यूँ ही व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर वापस न लाए जाओगे।" दूसरा अर्थ यह है कि अल्लाह ने सृष्टि की यह सम्पूर्ण व्यवस्था सत्य को ठोस आधारशिला पर स्थापित की है। न्याय और तत्त्वदर्शिता और सच्चाई के कानूनों पर इसकी हर चीज़ आधारित है। असत्य के लिए वास्तव में इस व्यवस्था में जड़ पकड़ने और फलने-फूलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह और बात है कि अल्लाह असत्यवादियों को अवसर दे दे कि वे अगर अपने झूठ, जुल्म और असत्यता को बढ़ावा देना चाहते हैं तो अपनी कोशिश कर देखें। लेकिन अन्तत: धरती असत्य के हर बीज को उगलकर फेंक देगी और अपने हिसाब की आखिरी चार्जशीट में हर असत्यवादी देख लेगा कि जो कोशिशें उसने इस बुरे पौधे की खेती करने और सींचने में लगाई, वे सब बर्बाद हो गई। तीसरा अर्थ यह है कि अल्लाह ने इस सारी सृष्टि को सत्य के आधार पर पैदा किया है और अपने निजी अधिकार के आधार पर ही वह इसपर शासन कर रहा है। उसका आदेश यहाँ इसलिए चलता है कि वही अपनी पैदा की हुई सृष्टि में शासन का अधिकार रखता है। दूसरों का आदेश अगर प्रत्यक्ष में चलता नज़र भी आता हो तो इससे धोखा न खाओ, वास्तव में न उनका आदेश चलता है,न चल सकता है, क्योंकि सृष्टि की किसी चीज़ पर भी उनको कोई अधिकार नहीं है कि वे उसपर अपना आदेश चलाएँ।
47.सूर फूँकने का सही रूप क्या होगा इसका विवरण हमारी समझ से बाहर है। क़ुरआन से जो कुछ हमें मालूम हुआ है, वह सिर्फ़ इतना है कि क़ियामत के दिन अल्लाह के हुक्म से एक बार सूर फूँका जाएगा और सब हलाक हो जाएँगे। फिर न जाने कितनी मुद्दत बाद,जिसे अल्लाह ही जानता है, दूसरा सूर फूँका जाएगा और तमाम अगले-पिछले नए सिरे से ज़िंदा होकर अपने आपको हश्र के मैदान में पाएंगे। पहले सूर पर सृष्टि की सारी व्यवस्था तितर-बितर हो जाएगी और दूसरे सूर पर एक दूसरी व्यवस्था नए रूप और नए नियमों के साथ स्थापित हो जाएगी।
۞وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ ءَازَرَ أَتَتَّخِذُ أَصۡنَامًا ءَالِهَةً إِنِّيٓ أَرَىٰكَ وَقَوۡمَكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 73
(74) इबराहीम की घटना याद करो जबकि उसने अपने बाप, आज़र से कहा था, “क्या तू बुतों को ख़ुदा बनाता है?50 मैं तो तुझे और तेरी क़ौम को खुली गुमराही में पाता हूँ।"
50.यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की घटना का उल्लेख इस बात के समर्थन और गवाही में किया जा रहा है कि जिस तरह अल्लाह के दिए हुए मार्गदर्शन से आज मुहम्मद (सल्ल०) ने और आपके साथियों ने शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का इंकार किया है और सब बनावटी खुदाओं से मुँह मोड़कर सिर्फ़ सृष्टि के मात्र एक स्वामी के आगे आज्ञापालन के साथ अपना सिर झुका दिया है, इसी तरह कल यही कुछ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) भी कर चुके हैं और जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) और उनपर ईमान लानेवालों से उनकी अज्ञानी क़ौम झगड़ रही है, उसी तरह कल हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से भी उनकी क़ौम यही झगड़ा कर चुकी है और कल जो उत्तर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी क़ौम को दिया था, आज मुहम्मद (सल्ल०) और उनके अनुयाइयों की ओर से उनकी कौम को भी वही उत्तर है। मुहम्मद (सल्ल०) उस रास्ते पर हैं जो नूह और इबराहीम (अलैहि०) और इबराहीमी नस्ल के तमाम नबियों का रास्ता रहा है। अब जो लोग उनकी पैरवी से इंकार कर रहे हैं, उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि वे नबियों के तरीक़े से हटकर गुमराही की राह पर जा रहे हैं।
وَكَذَٰلِكَ نُرِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ مَلَكُوتَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلِيَكُونَ مِنَ ٱلۡمُوقِنِينَ ۝ 74
(75) इबराहीम को हम इसी तरह ज़मीन और आसमानों की राज्य-व्यवस्था दिखाते 51 थे और इसलिए दिखाते थे कि वह विश्वास करनेवालों में से हो जाए।52
51.अर्थात जिस तरह तुम लोगों के सामने सृष्टि के चिह्न स्पष्ट हैं और अल्लाह की निशानियाँ तुम्हें दिखाई जा रही हैं, उसी तरह इबराहीम (अलैहि०) के सामने भी यही चिह्न थे और यही निशानियाँ थीं। मगर तुम लोग उन्हें देखने पर भी अंधों की तरह कुछ नहीं देखते और इबराहीम (अलैहि०) ने उन्हें आँखें खोलकर देखा और उन्हीं निशानियों से वे वास्तविकता तक पहुँच गए।
52.इस जगह को और क़ुरआन की उन दूसरी जगहों को जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि.) से उनकी क़ौम के विवाद का उल्लेख हुआ है, अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम की धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों पर एक नज़र डाल ली जाए। आज की नई खोजों के सिलसिले में न सिर्फ वह शहर मालूम कर लिया गया है जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि.) पैदा हुए थे, बल्कि इबराहीमी दौर में उस इलाके के लोगों की जो दशा थी उसपर भी बहुत कुछ रौशनी पड़ी है। सर ल्यूनार्ड वूली (Sir Leonard Woolley) ने अपनी किताब Abraham', Londan, 1935 में इन खोजों के जो नतीजे प्रकाशित किए हैं उनसे मालूम होता है कि 2100 ई० पू० के लगभग समय में, जिसे अब आम तौर से अनुसंधानकर्ता हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के प्रकट होने का समय मानते हैं, राज्य की राजधानी उर नगर की आबादी ढाई लाख के करीब थी और असंभव नहीं कि पाँच लाख हो। बड़ा औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्र था। यहाँ के लोगों का दृष्टिकोण शुद्ध भौतिकवादी था। धन कमाना और अधिक-से-अधिक सुख-सामग्री जुटाना उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य था। ब्याज खाने का चलन आम था। आबादी में तीन वर्ग पाए जाते थे, इनमें से पहले वर्ग को जिसे अमीलू कहा जाता था, विशेष अधिकार प्राप्त थे। इनके फौजदारी और दीवानी अधिकार दूसरों से अलग थे, और इनकी जान व माल की क़ीमत दूसरों से बढ़कर थी। यह शहर और यह समाज था जिसमें हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने आँखें खोलीं। इनका और इनके परिवार का जो हाल हमें तलमूद में मिलता है, उससे मालूम होता है कि वह अमीलू वर्ग के एक व्यक्ति थे और उनका बाप राज्य का सबसे बड़ा पदाधिकारी था। (देखिए सूरा-2,टिप्पणी न० 290) उर के शिलालेखों में लगभग पाँच हज़ार ख़ुदाओं के नाम मिलते हैं। देश के विभिन्न शहरों के अलग-अलग ख़ुदा थे। हर शहर का एक विशेष रक्षक ख़ुदा होता था जो 'रब्बुल बलद', 'महादेव' 'या रईसुल आलिहा' समझा जाता था और उसका आदर दूसरे उपास्यों से अधिक होता था। उर का 'रब्बुल बलद' नन्नार (चंद्रदेव) था। दूसरे बड़े शहर लरसा का रब्बुल बलद 'शमाश' (सूर्यदेव) था। इन बड़े ख़ुदाओं के मातहत बहुत-से छोटे ख़ुदा भी थे जो ज़्यादातर आसमानी तारों और सितारों में से और कमतर ज़मीन से चुने गए थे। 'नन्नार' का बुत उर में सबसे ऊँची पहाड़ी पर एक शानदार इमारत में स्थापित था। उसी के क़रीब 'नन्नार' की बीवी 'निनगल' का पूजास्थल था। नन्नार के पूजास्थल की शान एक शाही महलसरा की सी थी। उसके शयन कक्ष में हर दिन रात को एक पुजारिन जाकर उसकी दुल्हन बनती थी। मन्दिर में बहुत ज़्यादा औरतें देवता के नाम पर वक़्फ़ थीं और उनकी हैसियत देवदासियों (Religious Prostitutes) की-सी थी। नन्नार मात्र देवता ही न था, बल्कि देश का सबसे बड़ा ज़मींदार, सबसे बड़ा व्यापारी, सबसे बड़ा कारखानेदार और देश के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा शासक भी था। बहुत सारे बाग़, मकान और ज़मीनें उसके मन्दिर के लिए वक़्फ़ थीं। देश का सबसे बड़ा न्यायालय मन्दिर ही में था। पुजारी उसके जज थे और उनके फैसले 'ख़ुदा के फैसले समझे जाते थे। स्वयं राजकीय परिवार का सम्प्रभुत्व भी नन्नार ही से ली गई थी। असल बादशाह नन्नार था और देश का शासक उसकी ओर से राज्य करता था। इस ताल्लुक़ से बादशाह स्वयं भी उपास्यों में शामिल हो जाता था और खुदाओं की तरह उसकी उपासना की जाती थी। उर का राजकीय परिवार जो हज़रत इबराहीम (अलैहि.) के ज़माने में शासक था, उसके पहले संस्थापक का नाम नमुव्व उर था। इसी से इस परिवार को 'नमुव्व' का नाम मिला जो अरबी में जाकर नमरूद हो गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि.) की हिजरत के बाद इस परिवार और इस क़ौम पर बराबर तबाही आनी शुरू हुई । इन तबाहियों ने नन्नार के साथ उर के लोगों का अक़ीदा डगमगा दिया, क्योंकि वह उनकी रक्षा न कर सका। ये अब तक के आधुनिक अनुसंधानों के परिणाम अगर सही हैं तो इनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि.) की क़ौम में शिके सिर्फ एक मज़हबी अक़ीदा (धार्मिक अवधारणा) और बुतपरस्ताना इबादतों का योग ही न था, बल्कि वास्तव में इस क़ौम की पूरी आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक ज़िन्दगी की व्यवस्था इसी अवधारणा पर आधारित थी। इसके मुकाबले में हज़रत इबराहोम (अलैहि०) तौहीद (एकेश्वरवाद) का जो संदेश लेकर उठे थे, उसका असर सिर्फ बुतों को पूजा ही पर न पड़ता था, बल्कि [इस पूरी व्यवस्था पर पड़ता था।
فَلَمَّا جَنَّ عَلَيۡهِ ٱلَّيۡلُ رَءَا كَوۡكَبٗاۖ قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَآ أُحِبُّ ٱلۡأٓفِلِينَ ۝ 75
(76) अत: जब रात उसपर छा गई तो उसने एक तारा देखा, कहा यह मेरा रब है। मगर जब वह डूब गया तो बोला : डूब जानेवालों का तो मैं चाहनेवाला नहीं हूँ।
فَلَمَّا رَءَا ٱلۡقَمَرَ بَازِغٗا قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَئِن لَّمۡ يَهۡدِنِي رَبِّي لَأَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 76
(77) फिर जब चाँद चमकता नज़र आया तो कहा : यह है मेरा रब । मगर जब वह भी डूब गया तो कहा : अगर मेरे रब ने मेरी रहनुमाई न की होती तो मैं भी गुमराह लोगों में शामिल हो गया होता।
فَلَمَّا رَءَا ٱلشَّمۡسَ بَازِغَةٗ قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَآ أَكۡبَرُۖ فَلَمَّآ أَفَلَتۡ قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 77
(78) फिर जब सूरज को रौशन देखा तो कहा : यह है मेरा रब, यह सबसे बड़ा है ! मगर जब वह भी डूबा तो इबराहीम पुकार उठा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! मैं इन सबसे खिन्न हूँ जिन्हें तुम अल्लाह का शरीक ठहराते हो।53
53.यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के उस आरंभिक चिन्तन की दशा बयान की गई है जो नुबूवत के पद पर आसीन होने से पहले उनके लिए सत्य तक पहुँचने का साधन बना । इसमें बताया गया है कि एक बुद्धिमान और दृष्टिवान इंसान, जिसने सरासर शिर्क (बहुदेववाद) के माहौल में आँखें खोली थीं और जिसे तौहीद (एकेश्वरवाद) की शिक्षा कहीं से प्राप्त न हो सकती थी, किस तरह सृष्टि की निशानियों को देखकर की और उनपर चिन्तन-मनन करके और उनसे उचित तर्क द्वारा सत्य बात मालूम करने में सफल हो गया। ऊपर इबराहीम (अलैहि.) की कौम की जो परिस्थितियाँ बयान की गई हैं, उनपर एक दृष्टि डालने से यह मालूम हो जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि.) ने जब होश संभाला था तो उनके आस-पास हर ओर चाँद, सूरज और तारों की खुदाई के डंके बज रहे थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को सत्य खोज का आरंभ इसी प्रश्न से होना चाहिए था कि क्या वास्तव में इनमें से कोई रब हो सकता है ? इसी केन्द्रीय प्रश्न पर उन्होंने चिन्तन-मनन किया और अन्ततः अपनी क़ौम के सारे ख़ुदाओं को एक अटल क़ानून के तहत गुलामों की तरह गर्दिश करते देखकर वह इस नतीजे पर पहुँच गए कि जिन-जिन के रब होने का दावा किया जाता है, उनमें से किसी के अन्दर भी रब होने का कोई अंश तक नहीं है, रब केवल वही एक है जिसने इन सबको पैदा किया और बन्दगी पर मजबूर किया है। इस क़िस्से के शब्दों से आमतौर पर लोगों के मन में एक सन्देह पैदा होता है और यह कि हज़रत इबराहीम ने। यह चितंन-मनन तो समझ-बूझ की उम्र तक पहुँचने के बाद ही किया होगा, फिर यह किस्सा इस तरह क्यों बयान किया गया है कि जब रात हुई तो यह देखा और दिन निकला तो यह देखा ? मानो इस विशेष घटना से पहले उन्हें इन चीज़ों के देखने का संयोग न हुआ था, हालाँकि ऐसा होना बिल्कुल असंभव है। यह सन्देह कुछ लोगों के लिए इतना विकट हो गया कि इसे दूर करने की कोई शक्ल उन्हें इसके सिवा दीख न पड़ी कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के जन्म और लालन-पालन के बारे में एक असाधारण कहानी घड़ें। अत: बयान किया जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का जन्म और लालन-पालन एक गुफा में हुआ था, जहाँ सूझ-बूझ की उम्र को पहुंचने तक वे चाँद, तारों और सूरज के देखने से वंचित रखे गए थे। हालांकि बात बिल्कुल स्पष्ट है और इसको समझने के लिए इस प्रकार की किसी कहानी की जरूरत नहीं है । न्यूटन के बारे में प्रसिद्ध है कि उसने बाग़ में एक सेब को पेड़ से गिरते देखा और इससे उसका मातिष्क अचानक इस सवाल की ओर मुतवज्जह हो गया कि चीजें आखिर ज़मीन पर ही क्यों गिरा करती हैं? यहाँ तक कि चिर्तन करते-करते गुरुत्व-नियम की खोज तक पहुंच गया। स्पष्ट है कि [इस घटना से पहले न्यूटन ने ज़मीन पर चीज़ों को बार-बार गिरते देखा होगा, फिर क्या कारण है कि उस विशेष तिथि से पहले उसके मस्तिष्क ने इस तरह काम नहीं किया ?] इसका उत्तर अगर कुछ हो सकता है तो यही कि सोच-विचार करनेवाला मन सदैव एक तरह के निरीक्षणों से एक ही तरह का प्रभाव नहीं ग्रहण करता। बहुत बार ऐसा होता है कि आदमी एक चीज़ को हमेशा देखता रहता है और उसके मन में कोई हरकत पैदा नहीं होती, मगर एक समय उसी चीज़ को देखकर यकायक मन में एक खटक पैदा हो जाती है जिससे चिंतन-शक्तियाँ एक विशेष विषय की ओर काम करने लगती हैं या पहले से किसी सवाल की खोज में मन उलझ रहा होता है और यकायक नित्य के निरीक्षणों में से किसी एक चीज़ पर नज़र पड़ते ही गुत्थी का व्ह सिरा हाथ लग जाता है जिससे सारी उलझनें सुलझती चली जाती हैं। ऐसा ही मामला हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ भी पेश आया। रातें रोज़ आती थीं और बीत जाती थीं। सूरज, चाँद और तारे सब ही आँखों के सामने डूबते और उभरते रहते थे, लेकिन वह एक खास दिन था जब एक तारे के निरीक्षण ने उनके मन को उस राह पर डाल दिया जिससे अन्ततः वे एकेश्वरवाद के केन्द्र-बिन्दु तक पहुँचकर रहे। इस सिलसिले में एक और प्रश्न भी पैदा होता है, वह यह कि जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तारे को, और फिर चाँद को और सूरज को देखकर कहा 'यह मेरा रब है तो क्या उस समय सामयिक रूप से ही सही, वे शिर्क में पड़ नहीं गए थे? इसका उत्तर यह है कि सत्य का एक खोजी अपनी खोज की राह में आगे बढ़ते हुए बीच की जिन मंज़िलों पर सोच-विचार के लिए ठहरता है उनपर उसका ठहरना तलब और खोज के सिलसिले में होता है, न कि निर्णय के रूप में । वास्तव में यह ठहराव समझने और खोजबीन करने के लिए हुआ करता है, न कि निर्णायक रूप में। खोजी व्यक्ति जब इनमें से किसी मंजिल पर रुककर कहता है कि “ऐसा है" तो वास्तव में यह उसकी आखिरी राय नहीं होती, बल्कि इसका अर्थ यह होता है कि "ऐसा है?" और खोज करने से उसका उत्तर'न' में पाकर वह आगे बढ़ जाता है । इसलिए यह सोचना बिल्कुल ग़लत है कि रास्ते में जहाँ-जहाँ वह ठहरता रहा, वहाँ वह सामयिक रूप से कुफ़ (अनेकेश्वरवाद) या शिर्क में ग्रस्त रहा।
إِنِّي وَجَّهۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّذِي فَطَرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ حَنِيفٗاۖ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 78
(79) मैंने तो एकाग्र होकर अपना रुख़ उस हस्ती की ओर कर लिया जिसने जमीन और आसमानों को पैदा किया है और मैं कदापि शिर्क करनेवालों में से नहीं हूँ।”
وَحَآجَّهُۥ قَوۡمُهُۥۚ قَالَ أَتُحَٰٓجُّوٓنِّي فِي ٱللَّهِ وَقَدۡ هَدَىٰنِۚ وَلَآ أَخَافُ مَا تُشۡرِكُونَ بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَشَآءَ رَبِّي شَيۡـٔٗاۚ وَسِعَ رَبِّي كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 79
(80) उसकी क़ौम उससे झगड़ने लगी तो उसने क़ौम से कहा, “क्या तुम लोग अल्लाह के मामले में मुझसे झगड़ते हो हालाँकि उसने मुझे सीधा रास्ता दिखा दिया है ? और मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों (साझीदारों) से नहीं डरता। हाँ, अगर मेरा रब कुछ चाहे तो वह ज़रूर हो सकता है। मेरे रब का ज्ञान हर वस्तु पर छाया हुआ है। फिर क्या तुम होश में न आओगे?54
54.मूल शब्द 'तज़क्कुर' प्रयुक्त हुआ है, जिसका सही अर्थ यह है कि एक व्यक्ति जो गफलत और भुलावे में पड़ा हुआ हो वह चौंककर उस चीज़ को याद कर ले जिससे वह ग़ाफ़िल था। इसी लिए हमने 'अ-फ़-ला त-त-ज़क्करून' का यह अनुवाद किया है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के कथन का अर्थ यह था कि तुम जो कुछ कर रहे हो, तुम्हारा असली और वास्तविक रब उससे बेखबर नहीं है, उसका ज्ञान सारी चीज़ों पर फैला हुआ है, फिर क्या इस वास्तविकता को जानकर भी तुम्हें होश न आएगा?
وَكَيۡفَ أَخَافُ مَآ أَشۡرَكۡتُمۡ وَلَا تَخَافُونَ أَنَّكُمۡ أَشۡرَكۡتُم بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗاۚ فَأَيُّ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ أَحَقُّ بِٱلۡأَمۡنِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 80
(81) और अन्तत: मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों से कैसे डरूँ, जबकि तुम अल्लाह के साथ उन चीज़ों को ख़ुदाई में शरीक बनाते हुए नहीं डरते जिनके लिए उसने तुमपर कोई प्रमाण नहीं उतारा है? हम दोनों फ़रीक़ों में से कौन अधिक निर्भयता और सन्तोष का अधिकारी है? बताओ अगर तुम कुछ ज्ञान रखते हो ।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يَلۡبِسُوٓاْ إِيمَٰنَهُم بِظُلۡمٍ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡأَمۡنُ وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 81
(82) वास्तव में तो शान्ति उन्हीं के लिए है और सीधे रास्ते पर वही हैं जो ईमान लाए और जिन्होंने अपने ईमान को अन्याय के साथ मिलाया नहीं।"55
55.यह पूरा व्याख्यान इस बात पर गवाह है कि वह कौम आसमानों और ज़मीन के पैदा करनेवाले अल्लाह की हस्ती की इंकारी न थी, बल्कि उसका असली जुर्म अल्लाह के साथ दूसरों को ईश्वरीय गुणों और ईश्वरीय अधिकारों में शरीक करार देना था। एक तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) स्वयं ही फरमा रहे हैं कि तुम अल्लाह के साथ दूसरी चीज़ों को शरीक करते हो। दूसरे जिस तरह आप उन लोगों को सम्बोधित करते हुए अल्लाह का वर्णन करते हैं, यह वर्णन-शैली केवल उन्हीं लोगों के मुक़ाबले में अपनाई जा सकती है जो अल्लाह के अस्तित्व के इंकारी न हों, इसलिए उन टीकाकारों की राय ठीक नहीं है जिन्होंने इस जगह और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सिलसिले में दूसरी जगहों पर क़ुरआन के बयानों की व्याख्या इस काल्पनिक बात पर की है कि इबराहीम (अलैहि.) की क़ौम अल्लाह की इंकारी थी या उससे अपरिचित थी और केवल अपने उपास्यों ही को खुदाई का पूरी तरह मालिक समझती थी। आख़िरी आयत में यह जो वाक्य है कि “जिन्होंने अपने ईमान को अन्याय के साथ नहीं मिलाया” इसमें शब्द अन्याय से कुछ सहाबा (रज़ि.) को भ्र्म हुआ था कि शायद इससे तात्पर्य 'अवज्ञा' है, लेकिन नबी (सल्ल.) ने स्वयं व्याख्या कर दी कि असल में यहाँ अन्याय से तात्पर्य शिर्क है, इसलिए इस आयत का अर्थ यह हुआ कि जो लोग अल्लाह को मानें और अपने इस मानने को किसी अनेकेश्वरवादी धारणा और कर्म से न जोड़ें, शान्ति केवल उन्हीं के लिए है और वही सीधे रास्ते पर हैं। इस अवसर पर यह जान लेना भी दिलचस्पी से खाली न होगा कि यह घटना जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की महान पैग़म्बराना ज़िन्दगी की शुरुआत कर रही है, बाइबिल में कोई जगह नहीं पा सका है। हाँ, तलमूद में इसका उल्लेख आता है, लेकिन इसमें दो बातें कुरआन से भिन्न हैं। एक यह कि वह हज़रत इबराहीम की सत्य की खोज को सूरज से शुरू करके तारों तक और फिर अल्लाह तक ले जाती है। दूसरे उसका बयान है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब सूरज को “यह मेरा रब है” कहा तो साथ ही उसकी पूजा भी कर डाली और इसी तरह चाँद की भी “यह मेरा रब है" कहकर उसकी पूजा की।
وَتِلۡكَ حُجَّتُنَآ ءَاتَيۡنَٰهَآ إِبۡرَٰهِيمَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 82
(83) यह था हमारा वह तर्क जो हमने इबराहीम को उसके क़ौम के मुक़ाबले में प्रदान किया। हम जिसे चाहते हैं, ऊँचा दर्जा देते हैं। सत्य यह है कि तुम्हारा पालनहार बड़ा समझ-बूझवाला और ज्ञान रखनेवाला है।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ كُلًّا هَدَيۡنَاۚ وَنُوحًا هَدَيۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَمِن ذُرِّيَّتِهِۦ دَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ وَأَيُّوبَ وَيُوسُفَ وَمُوسَىٰ وَهَٰرُونَۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 83
(84) फिर हमने इबराहीम को इसहाक और याकूब जैसी सन्तान दी और हर एक को सीधा रास्ता दिखाया, (वही सीधा रास्ता जो) इससे पहले नूह को दिखाया था और उसी की नस्ल से हमने दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को (सीधा मार्ग दिखाया)। इस तरह हम सत्कर्मियों को उनकी नेकी का बदला देते हैं।
وَزَكَرِيَّا وَيَحۡيَىٰ وَعِيسَىٰ وَإِلۡيَاسَۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 84
(85) (उसी की सन्तान से) जकरीया, यह्या, ईसा और इल्यास को (रस्ता दिखाया)। हर एक इनमें से नेक था।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَٱلۡيَسَعَ وَيُونُسَ وَلُوطٗاۚ وَكُلّٗا فَضَّلۡنَا عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 85
(86) (उसी के वंश से) इसमाईल, अल-यसअ और यूनुस और लूत को (रास्ता दिखाया)। इनमें से हर एक को हमने तमाम दुनियावालों पर प्रमुखता दी,
وَمِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡ وَإِخۡوَٰنِهِمۡۖ وَٱجۡتَبَيۡنَٰهُمۡ وَهَدَيۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 86
(87) साथ ही उनके बाप-दादों और उनकी सन्तान और उनके भाई-बन्दों में से बहुतों को हमने अपना कृपापात्र बनाया, उन्हें अपनी सेवा के लिए चुन लिया और सोधे रास्ते की ओर उनकी रहनुमाई की।
ذَٰلِكَ هُدَى ٱللَّهِ يَهۡدِي بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَلَوۡ أَشۡرَكُواْ لَحَبِطَ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 87
(88) यह अल्लाह का मार्गदर्शन है, जिसके साथ वह अपने बन्दों में से जिसका चाहता है, मार्गदर्शन करता है। लेकिन अगर कहीं उन लोगों ने शिर्क किया होता तो उनका सब किया-कराया नष्ट हो जाता।56
56.अर्थात जिस शिर्क में तुम लोग पड़े हुए हो, अगर कहीं वे भी इसी में पड़े हुए होते तो ये दर्जे (पद) कदापि न पा सकते थे। संभव था कि कोई आदमी सफल डाकाज़नी करके विजेता की हैसियत से दुनिया में ख्याति पा लेता या धन की चाह में कमाल पैदा करके कारून का-सा नाम पैदा कर लेता, या किसी और तरह से दुनिया के दुराचारियों में बड़ा नामी दुराचारी बन जाता ।अगर वह अनेकेश्वरवाद से बचकर और विशुद्ध ईश-दासता के मार्ग पर मज़बूती से जमा न रहता तो मार्गदर्शन के नेतृत्व और परहेज़गारों के प्रमुख होने का श्रेय और यह दुनिया भर के लिए भलाई और कल्याण का स्रोत होने की प्रतिष्ठा तो कभी न पा सकता था।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَۚ فَإِن يَكۡفُرۡ بِهَا هَٰٓؤُلَآءِ فَقَدۡ وَكَّلۡنَا بِهَا قَوۡمٗا لَّيۡسُواْ بِهَا بِكَٰفِرِينَ ۝ 88
(89) वे लोग थे जिनको हमने किताब और हुक्म और नुबूवत 57 प्रदान की थी। अब अगर ये लोग उसको मानने से इंकार करते हैं तो (परवाह नहीं), हमने कुछ और लोगों को यह नेमत सौंप दी है जो उसके इंकारी नहीं हैं। 58
57.यहाँ नबियों को तीन चीजें प्रदान किए जाने का उल्लेख किया गया है- (I) किताब, अर्थात अल्लाह का हिदायतनामा, (II) हुक्म, अर्थात उस हिदायतनामे की सही समझ और उसके नियमों को ज़िन्दगी के मामलों पर लागू करने की क्षमता और जीवन-समस्याओं में निर्णायक राय बनाने को अल्लाह की दी हुई योग्यता, और (III) नुबूवत, अर्थात यह पद कि वह इस हिदायतनामे के अनुसार अल्लाह के बन्दों का मार्गदर्शन करे।
58.अर्थ यह है कि अगर ये इंकार करनेवाले और मुशरिक लोग अल्लाह की इस हिदायत को क़बूल करने से इंकार करते हैं तो कर दें, हमने ईमानवालों का एक ऐसा गिरोह पैदा कर दिया है जो इस नेमत को महत्व देनेवाला है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۖ فَبِهُدَىٰهُمُ ٱقۡتَدِهۡۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 89
(90) ऐ नबी ! वही लोग अल्लाह की ओर से हिदायत पाए हुए थे, उन्हीं के रास्ते पर तुम चलो, और कह दो कि मैं (इस प्रचार और मार्गदर्शन के) काम पर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता, यह तो एक सामान्य उपदेश है तमाम संसारवालों के लिए।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓ إِذۡ قَالُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٖ مِّن شَيۡءٖۗ قُلۡ مَنۡ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِي جَآءَ بِهِۦ مُوسَىٰ نُورٗا وَهُدٗى لِّلنَّاسِۖ تَجۡعَلُونَهُۥ قَرَاطِيسَ تُبۡدُونَهَا وَتُخۡفُونَ كَثِيرٗاۖ وَعُلِّمۡتُم مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنتُمۡ وَلَآ ءَابَآؤُكُمۡۖ قُلِ ٱللَّهُۖ ثُمَّ ذَرۡهُمۡ فِي خَوۡضِهِمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 90
(91) इन लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अनुमान लगाया, जब कहा कि अल्लाह ने किसी बशर (इंसान) पर कुछ नहीं उतारा है।59 इनसे पूछो, फिर वह किताब जिसे मूसा लाया था, जो तमाम इंसानों के लिए रौशनी और हिदायत थी, जिसे तुम पारा-पारा (खंड-खंड) करके रखते हो, कुछ दिखाते हो और बहुत कुछ छिपा जाते हो, और जिसके माध्यम से तुमको वह ज्ञान दिया गया, जो न तुम्हें प्राप्त था और न तुम्हारे बाप-दादा को, आख़िर उसका उतारनेवाला कौन था?60 बस इतना कह दो कि अल्लाह, फेर उन्हें अपनी दलीलबाज़ियों (कुतर्को) से खेलने के लिए छोड़ दो।
59.पिछले वर्णन-क्रम और बाद के जवाबी भाषण से साफ़ पता चलता है कि यह कथन यहूदियों का था। चूँकि नबी (सल्ल०) का दावा यह था कि मैं नबी हूँ और मुझपर किताब उतरी है, इसलिए स्वाभाविक रूप से क़ुरैश और अरब के दूसरे मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) इस दावे की जाँच के लिए यहूदियों और ईसाइयों के पास जाते थे और उनसे पूछते थे कि तुम भी अहले किताब हो, पैग़म्बरों को मानते हो, बताओ क्या सचमुच इस आदमी पर अल्लाह का कलाम उतरा है ? फिर जो कुछ जवाब वे देते, उसे नबी (सल्ल०) के सक्रिय विरोधी जगह-जगह बयान करके लोगों को भड़काते फिरते थे। इसी लिए यहाँ यहूदियों के इस कथन को, जिसे इस्लाम के विरोधियों ने अपने लिए प्रमाण बना रखा था, नक़ल करके उसका उत्तर दिया जा रहा है। सन्देह किया जा सकता है कि एक यहूदी, जो स्वयं तौरात को अल्लाह की ओर से उतरी किताब मानता है, यह कैसे कह सकता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर कुछ नहीं उतारा। लेकिन यह सन्देह सही नहीं है, इसलिए कि दुराग्रह और हठधर्मी के कारण कभी-कभी आदमी किसी दूसरे की सच्ची बातों' को रद्द करने के लिए ऐसी बातें भी कह जाता है जिनसे स्वयं उसकी अपनी मान्यताओं पर भी चोट पड़ जाती है। ये लोग मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत को रद्द करने पर तुले हुए थे और अपने विरोध के उन्माद में इतने अंधे हो जाते थे कि नबी (सल्ल.) की पैग़म्बरी का खंडन करते-करते स्वयं पैग़म्बरी हो का खंडन कर गुज़रते थे। और यह जो फ़रमाया कि लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अनुमान लगाया जब यह कहा, तो इसका अर्थ यह है कि उन्होंने अल्लाह की तत्वदर्शिता और उसकी सामर्थ्य का अनुमान लगाने में ग़लती की है। जो आदमी यह कहता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर सत्य-ज्ञान और ज़िन्दगी का हिदायतनामा नहीं उतारा है, वह या तो इंसान पर वह्य (प्रकाशना) के उतरने को असंभव समझता है और यह अल्लाह की शक्ति व सामर्थ्य का ग़लत अन्दाज़ा है, या फिर वह यह समझता है कि अल्लाह ने इंसान को बुद्धि के हथियार और उपयोग के अधिकार तो दे दिए, मगर उसकी सही रहनुमाई की कोई व्यवस्था न की, बल्कि उसे दुनिया में अंधाधुंध काम करने के लिए यूं ही छोड़ दिया और यह अल्लाह की तत्वदर्शिता का ग़लत अनुमान है।
60.यह उत्तर चूंकि यहूदियों को दिया जा रहा है, इसलिए मूसा (अलैहि०) पर तौरात के उतरने को प्रमाण के रूप में पेश किया गया है, क्योंकि वे स्वयं इसके कायल थे। स्पष्ट है कि उनका यह मान लेना कि हज़रत मूसा पर तौरात उतरी थी, उनके इस कथन का आप-से-आप खंडन कर देता है कि अल्लाह ने किसी इंसान पर कुछ नहीं उतारा, साथ ही इससे कम से कम इतनी बात तो सिद्ध हो जाती है कि इंसान पर अल्लाह का कलाम उतर सकता है और उतर चुका है।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ مُّصَدِّقُ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَلِتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَاۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَهُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 91
(92) (उसी किताब की तरह) यह एक किताब है जिसे हमने उतारा है। बड़ी खैर व बरकतवाली है, उस चीज़ की पुष्टि करती है जो इससे पहले आई थी और इसलिए उतारी गई है कि इसके ज़रिये से तुम बस्तियों के इस केन्द्र (अर्थात् मक्का) और उसके पास-पड़ोस में रहनेवालों को सचेत करो। जो लोग आखिरत को मानते हैं, वे इस किताब पर ईमान लाते हैं और उनका हाल यह है कि अपनो नमाज़ों की पाबन्दी करते हैं।61
61.पहली दलील इस बात के प्रमाण में थी कि इंसान पर खुदा का कलाम उतर सकता है और व्यवहारतः हुआ भी है। अब यह दूसरी दलील इस बात के प्रमाण में है कि यह कलाम, जो मुहम्मद (सल्ल.) पर उतरा है, यह अल्लाह ही का कलाम है, इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए चार बातें गवाही के रूप में प्रस्तुत को गई हैं।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ قَالَ أُوحِيَ إِلَيَّ وَلَمۡ يُوحَ إِلَيۡهِ شَيۡءٞ وَمَن قَالَ سَأُنزِلُ مِثۡلَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ فِي غَمَرَٰتِ ٱلۡمَوۡتِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ بَاسِطُوٓاْ أَيۡدِيهِمۡ أَخۡرِجُوٓاْ أَنفُسَكُمُۖ ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَكُنتُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهِۦ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 92
(93) और उस व्यक्ति से बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बोहतान घड़े या कहे कि मुझपर वह्य आई है, जबकि उसपर कोई वह्य उतारी न गई हो, या जो अल्लाह की उतारी हुई चीज़ के मुक़ाबले में कहे कि मैं भी ऐसी चीज़ उतारकर दिखा दूंगा? काश, तुम ज़ालिमों को इस हालत में देख सको जबकि वे मौत की पीड़ा में डुबकियाँ खा रहे होते और फ़रिश्ते हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कह रहे होते हैं कि “लाओ, निकालो अपनी जान, आज तुम्हें उन बातों के बदले में अपमान की यातना दी जाएगी जो तुम अल्लाह पर झूठ घड़कर नाहक़ बका करते थे और उसकी आयतों के मुकाबले में उदंडता दिखाते थे।
وَلَقَدۡ جِئۡتُمُونَا فُرَٰدَىٰ كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَتَرَكۡتُم مَّا خَوَّلۡنَٰكُمۡ وَرَآءَ ظُهُورِكُمۡۖ وَمَا نَرَىٰ مَعَكُمۡ شُفَعَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ أَنَّهُمۡ فِيكُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْۚ لَقَد تَّقَطَّعَ بَيۡنَكُمۡ وَضَلَّ عَنكُم مَّا كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 93
(94) (और अल्लाह फ़रमाएगा) “लो, अब तुम वैसे ही अकेले हमारे सामने हाज़िर हो गए जैसा हमने तुम्हें पहली बार अकेला पैदा किया था, जो कुछ हमने तुम्हें दुनिया में दिया था वह सब तुम पीछे छोड़ आए हो, और अब हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देखते जिनके बारे में तुम समझते थे कि तुम्हारे काम बनाने में उनका भी कुछ हिस्सा है, तुम्हारे आपस के सब सम्पर्क टूट गए और वे सब तुमसे गुम हो गए जिनका तुम दावा रखते थे।"
۞إِنَّ ٱللَّهَ فَالِقُ ٱلۡحَبِّ وَٱلنَّوَىٰۖ يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَمُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتِ مِنَ ٱلۡحَيِّۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 94
(95) दाने और गुठली को फाड़नेवाला अल्लाह है62, वही ज़िन्दा को मुर्दा से निकालता है और वही मुर्दा को ज़िन्दा से निकालनेवाला है।63 ये सारे काम करनेवाला तो अल्लाह है, फिर तुम किधर बहके चले जा रहे हो?
62.अर्थात धरती की तहों में बीज को फाड़कर उससे पेड़ की कोंपल निकालनेवाला।
63.जिंदा को मुर्दा से निकालने का अर्थ है निर्जीव पदार्थों से जीवित प्राणियों को पैदा करना और मुर्दा को जिंदा से निकालने का अर्थ जानदार शरीर में से बेजान पदार्थों को निकालना।
فَالِقُ ٱلۡإِصۡبَاحِ وَجَعَلَ ٱلَّيۡلَ سَكَنٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ حُسۡبَانٗاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 95
(96) रात के परदे को चाक करके वहीं सुबह निकालता है, उसी ने रात को शान्ति का समय बनाया है। उसी ने चाँद और सूरज के उगने और डूबने का हिसाब तय किया है। यह सब उसी प्रबल सामर्थ्य और ज्ञान रखनेवाले के ठहराए हुए अन्दाज़े हैं ।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلنُّجُومَ لِتَهۡتَدُواْ بِهَا فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 96
(97) और वही है जिसने तुम्हारे लिए तारों को जल और थल के अन्धकारों में रास्ता मालूम करने का साधन बनाया। देखो, हमने निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखते हैं।64
64.अर्थात इस सत्य की निशानियाँ कि अल्लाह सिर्फ एक है, कोई दूसरा न ख़ुदाई के गुण रखता है, न ख़ुदाई के अधिकारों में हिस्सेदार है और न ख़ुदाई के हक़ों में से किसी हक़ का हक़दार है। मगर इन निशानियों और पहचानों से वास्तविकता तक पहुँचना अज्ञानियों के बस की बात नहीं, इस दौलत से लाभ सिर्फ़ वही लोग उठा सकते हैं जो वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि की निशानियों का अवलोकन करते हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ فَمُسۡتَقَرّٞ وَمُسۡتَوۡدَعٞۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَفۡقَهُونَ ۝ 97
(98) और वही है जिसने एक जान से तुम्हें पैदा किया65, फिर हर एक के लिए एक ठहरने का स्थल है और एक उसके सौंपे जाने की जगह। ये निशानियाँ हमने स्पष्ट कर दी हैं उन लोगों के लिए जो समझ-बूझ रखते हैं।66
65.अर्थात इंसानी नस्ल की शुरुआत एक जान से की।
66.अर्थात मानव-जाति की पैदाइश और उसके अन्दर मर्द व औरत का अन्तर और प्रजनन-क्रिया के द्वारा उसकी बढ़ोत्तरी और माँ के गर्भाशय में इंसानी बच्चे का वीर्य ठहर जाने के बाद से ज़मीन में उसके सौंपे जाने तक उसकी ज़िन्दगी के विभिन्न तौर-तरीक़ों पर नज़र डाली जाए तो उसमें अनगिनत खुली-खुली निशानियाँ आदमी के सामने आएँगी जिनसे वह उस तथ्य को पहचान सकता है जो ऊपर बयान हुआ है । मगर इन निशानियों से यह पहचान प्राप्त करना उन्हीं लोगों का काम है जो समझ-बूझ से काम लें। जानवरों की तरह ज़िन्दगी बसर करनेवाले, जो सिर्फ़ अपनी मनोकामनाओं से और उन्हें पूरा करने के उपायों ही से वास्ता रखते हैं, इन निशानियों में कुछ भी नहीं देख सकते।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ نَبَاتَ كُلِّ شَيۡءٖ فَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهُ خَضِرٗا نُّخۡرِجُ مِنۡهُ حَبّٗا مُّتَرَاكِبٗا وَمِنَ ٱلنَّخۡلِ مِن طَلۡعِهَا قِنۡوَانٞ دَانِيَةٞ وَجَنَّٰتٖ مِّنۡ أَعۡنَابٖ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُشۡتَبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٍۗ ٱنظُرُوٓاْ إِلَىٰ ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَيَنۡعِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكُمۡ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 98
(99) और वही है जिसने आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके द्वारा हर प्रकार की वनस्पति उगाई, फिर इससे हरे-हरे खेत और पेड़ पैदा किए फिर उनसे तले-ऊपर चढ़े हुए दाने निकाले और खजूर के गाभों से फलों के गुच्छे के गुच्छे पैदा किए जो बोझ के मारे झुके पड़ते हैं, और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए जिनके फल एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी हैं और फिर हर एक के गुण भिन्न-भिन्न भी हैं। ये पेड़ जब फलते हैं तो उनमें फल आने और फिर उनके पकने की स्थिति तनिक ध्यान देकर देखो, इन चीज़ों में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ ٱلۡجِنَّ وَخَلَقَهُمۡۖ وَخَرَقُواْ لَهُۥ بَنِينَ وَبَنَٰتِۭ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 99
(100) इसपर भी लोगों ने जिन्‍नों को अल्‍लाह का शरीक (साथी) ठहरा दिया 67 हालाँकि वह उनका पैदा करनेवाला है, और बेजाने-बूझे उसके लिए बेटे और बेटियाँ रच दी 68, हालाँकि वह पवित्र और उच्च है उन बातों से जो ये लोग कहते हैं ।
67.अर्थात अपने अनुमान और अटकल से यह बात तै कर ली कि सृष्टि की व्यवस्था में और मनुष्य का भाग्य बनाने और बिगाड़ने में अल्लाह के साथ दूसरी छिपी हस्तियाँ भी शरीक हैं, कोई वर्षा का देवता है तो कोई पैदा करने और पालने-पोसने का, कोई धन की देवी है तो कोई बीमारी की, इत्यादि । इस प्रकार की अनर्गल मान्यताएँ दुनिया की तमाम मुशरिक क़ौमों में - रूहों, शैतानों, राक्षसों, देवताओं और देवियों के बारे में पाई जाती हैं |
68.अरब के अज्ञानी फ़रिश्तों अल्लाह की बेटियाँ कहते थे। इसी तरह दुनिया की दूसरी मुशरिक क़ौमों ने भी अल्लाह से वंश-क्रम चलाया है और फिर देवताओं और देवियों का एक पूरा वंश अपने मन से पैदा कर दी है।
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ صَٰحِبَةٞۖ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 100
(101) वह तो आसमानों और ज़मीन का ईजाद करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है, जबकि कोई उसका जीवन-साथी ही नहीं है ! उसने हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ فَٱعۡبُدُوهُۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٞ ۝ 101
(102) ह है अल्‍लाह तुम्‍हारा रब, कोई अल्‍लाह उसके सिवा नहीं है, हर चीज़ का पैदा करने वाला, इसलिए तुम उसी की बन्दगी करो और वह हर चीज़ का पोषक है।
لَّا تُدۡرِكُهُ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَهُوَ يُدۡرِكُ ٱلۡأَبۡصَٰرَۖ وَهُوَ ٱللَّطِيفُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 102
(103) निगाहें उसको नहीं पा सकतीं और वह निगाहों को पा लेता है, वह बड़ा सूक्ष्मदर्शी और हर चीज़ की खबर रखनेवाला है।
قَدۡ جَآءَكُم بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنۡ أَبۡصَرَ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ عَمِيَ فَعَلَيۡهَاۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 103
(104) देखो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से विवेक का प्रकाश आ गया है। अब जो सूझ-बूझ से काम लेगा, अपना ही भला करेगा और जो अंधा बनेगा, स्वयं हानि उठाएगा। मैं तुमपर कोई निगराँ नहीं हूँ।69
69.यह वाक्य यद्यपि अल्लाह ही का बोल (कलाम) है, मगर नबी की ओर से अदा हो रहा है, जिस तरह क़ुरआन को सूरा, फ़ातिहा है तो अल्लाह का कलाम, मगर बन्दों के मुख से अदा होता है । क़ुरआन मजीद में जिस तरह सम्बोधित लोग बार-बार बदलते हैं कि कभी नबी (सल्ल.) से सम्बोधन होता है, कभी ईमानवालों से, कभी किताबवालों से, कभी इंकारियों और मुशरिकों से, कभी क़ुरैश के लोगों से, कभी अरबवालों से और कभी आम इंसानों से, हालाँकि मूल उद्देश्य सम्पूर्ण मानव-जाति का मार्गदर्शन है। इसी तरह बात कहनेवाले भी बार-बार बदलते हैं कि कहीं वह अल्लाह होता है, कहीं वह्य लानेवाला फ़रिश्ता, कहीं फरिश्तों का गिरोह, कहीं नबी (सल्ल.) और कहीं ईमानवाले, हालाँकि इन सब शक्लों में वाणी वही एक अल्लाह की वाणी होती है। ‘’मैं तुमपर निगरा नहीं हूँ’’ अर्थात मेरा काम बस इतना ही है कि इस प्रकाश को तुम्हारे सामने रख दूँ। इसके बाद आँखें खोलकर देखना या न देखना तुम्हारा अपना काम है। मेरे सुपुर्द यह काम नहीं किया गया है कि जिन्होंने स्वयं आँखें बन्द कर रखी हैं उनकी आँखें ज़बरदस्ती खोलूँ और जो कुछ वे नहीं देखते वह उन्हें दिखाकर ही छोडूँ।
وَكَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِيَقُولُواْ دَرَسۡتَ وَلِنُبَيِّنَهُۥ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 104
(105) इस तरह हम अपनी आयतों को बार-बार विभिन्न तरीकों से बयान करते हैं और इसलिए करते हैं कि ये लोग कहें, “तुम किसी से पढ़ आए हो", और जो लोग ज्ञान रखते हैं उनपर हम सच्चाई को रौशन कर दें।70
70.यह वही बात है जो सूरा-2 (बक़रा), आयत 26 में कही गई है कि मच्छर और मकड़ी आदि के उदाहरण सुनकर सत्य की तलब रखनेवाले तो उस सच्चाई को पा लेते हैं जो इन उदाहरणों के रूप में बयान हुई हैं। मगर जिनपर इंकार का तास्सुब सवार है, वे ताने देते हुए कहते हैं कि भला अल्लाह की वाणी (कलाम) में इन तुच्छ चीज़ों के उल्लेख का क्या काम हो सकता है। वही विषय यहाँ एक दूसरी शैली में वर्णन किया गया है। कहने का उद्देश्य यह है कि यह वाणी लोगों के लिए आज़माइश बन गई है जिससे खोटे-खरे इंसान पहचाने जाते हैं। एक तरह के इंसान वे हैं जो इस वाणी को सुनकर या पढ़कर इसके उद्देश्य पर विचार करते हैं और जो तत्वदर्शिता और उपदेश इसमें बताई गई हैं उनसे लाभ उठाते हैं। इसके विपरीत एक दूसरे प्रकार के इंसानों का हाल यह है कि उसे सुनने और पढ़ने के बाद उनका मन वाणी के तत्व की ओर मुतवजह होने के बजाय इस टटोल में लग जाता है कि आखिर यह अपढ़ इंसान इन विषयों को लाया कहाँ से है और चूंकि विरोधपूर्ण पूर्वाग्रह पहले से उनके दिल पर क़ब्ज़ा किए हुए होता है, इसलिए एक खुदा की ओर से उत्तरे होने की संभावना को छोड़कर बाक़ी तमाम शक्लें जिनकी कल्पनाएँ संभव हो सकती हैं वे अपने मन से प्रस्तावित करते हैं और उन्हें इस तरह बयान करते हैं कि मानो उन्होंने इस किताब के स्रोत की खोज कर ली है।
ٱتَّبِعۡ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 105
(106) ऐ नबी ! इस वह्य की पैरवी किए जाओ जो तुमपर तुम्हारे रब की ओर से उतरी है, क्योंकि उस एक रब के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है और उन मुशरिकों के पीछे न पड़ो।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكُواْۗ وَمَا جَعَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗاۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 106
(107) अगर अल्लाह चाहता तो (वह स्वयं ऐसी व्यवस्था कर सकता था कि) ये लोग शिर्क न करते । तुमको हमने इनपर निगराँ नहीं नियुक्त किया है और न तुम इनपर हवालेदार हो 71
71.अर्थ यह है कि तुम्हें दावत देनेवाला और अल्लाह का पैग़ाम पहुँचानेवाला बनाया गया है, कोतवाल नहीं बनाया गया। तुम्हारा काम सिर्फ़ यह है कि लोगों के सामने उस रौशनी को पेश कर दो और सत्य को प्रकट करने का हक़ अदा करने में अपनी हद तक कोई कसर न उठा रखो। अब अगर कोई इस सत्य को स्वीकार नहीं करता तो न करे, तुमको न इस काम पर लगाया गया है कि लोगों को सत्यवादी बनाकर ही रहो और न तुम्हारी ज़िम्मेदारी और उत्तरदायित्व में यह बात शामिल है कि तुम्हारे नुबूवत-क्षेत्र में कोई आदमी असत्यवादी न रह जाए, इसलिए इस चिन्ता में खामखाह अपने मन को परेशान न करो कि अन्धों को किस तरह दृष्टिवान बनाया जाए और जो आँखें खोलकर नहीं देखना चाहते, उन्हें कैसे दिखाया जाए। अगर वास्तव में अल्लाह की तत्त्वदर्शिता को यही अपेक्षित होता कि दुनिया में कोई आदमी असत्यवादी न रहने दिया जाए, तो अल्लाह को यह काम तुमसे लेने की क्या ज़रूरत थी? क्या उसका ऐसा एक संकेत हो, जिसको पाबन्दी की बाध्यता होती, तमाम इंसानों को सत्यवादी न बना सकता था? मगर वहाँ तो उद्देश्य सिरे से यह है ही नहीं । उद्देश्य तो मात्र यह है कि इंसान के लिए सत्य और असत्य के चुनने की आज़ादी बाकी रहे और फिर सत्य की रौशनी उसके सामने पेश करके उसकी परीक्षा ली जाए कि वह दोनों चीज़ों में से किसे चुनता है ? अतः तुम्हारे लिए सही नीति यह है कि जो रौशनी तुम्हें दिखा दी गई है उसके उजाले में सीधे रास्ते पर स्वयं चलते रहो और दूसरों को उसकी दावत देते रहो । जो लोग इस दावत को क़बूल कर लें उन्हें सीने से लगाओ और उनका साथ न छोड़ो, चाहे वे दुनिया की दृष्टि में कितने ही तुच्छ हों और जो उसे स्वीकार न करें, उनके पीछे न पड़ो। जिस दुष्परिणाम की ओर वे स्वयं जाना चाहते हैं और जाने पर उन्हें आग्रह है, उसकी ओर जाने के लिए उन्हें छोड़ दो।
وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدۡوَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖۗ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرۡجِعُهُمۡ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 107
(108) और (ऐ मुसलमानो !) ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं, उन्हें गालियाँ न दो, कहीं ऐसा न हो कि ये अनेकेश्वरवाद (शिर्क) से आगे बढ़कर अज्ञान के कारण अल्लाह को गालियाँ देने लगें।72 हमने तो इसी तरह हर गिरोह के लिए उसके कर्म को सुहावना बना दया है73, फिर उन्हें अपने पालनहार ही की ओर पलटकर आना है, उस समय वह उन्हें बता देगा कि वे क्या करते रहे हैं।
72.यह उपदेश नबी (सल्ल.) के अनुयाइयों की पैरवी करनेवालों को दिया गया है कि अपने प्रचार के जोश में वे भी इतने बेकाबू न हो जाएँ कि शास्त्रार्थ और वाद-विवाद से मामला बढ़ते-बढ़ते गैर-मुस्लिमों की आस्थाओं पर कड़े हमले करने और उनके धर्म गुरुओं और उपास्यों को गालियाँ देने तक नौबत पहुँच जाए, क्योंकि यह चीज़ उनको सत्य से करीब लाने के बजाय और अधिक दूर फेंक देगी।
73.यहाँ फिर उस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए जिसकी ओर इससे पहले भी हम अपनी टिप्पणियों में संकेत कर चुके हैं कि जो चीजें प्रकृति के नियमों के तहत प्रकट होती हैं, अल्लाह उन्हें अपना प्राकृतिक काम क़रार देता रहा है, क्योंकि वही उन नियमों का तय करनेवाला है और जो कुछ इन कानूनों के तहत प्रकट होता है, वह उसी के आदेश से प्रकट होता है। जिस बात को अल्लाह यूँ बयान फ़रमाता है कि हमने ऐसा किया है, उसी को अगर हम इंसान बयान करें तो इस तरह कहेंगे कि प्राकृतिक रूप से ऐसा ही हुआ करता है।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِن جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ لَّيُؤۡمِنُنَّ بِهَاۚ قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡأٓيَٰتُ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَا يُشۡعِرُكُمۡ أَنَّهَآ إِذَا جَآءَتۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 108
(109) ये लोग कड़ी-कड़ी क़समें खा-खाकर कहते हैं कि अगर कोई निशानी74 (अर्थात मोजज़ा, चमत्कार) हमारे सामने आ जाए तो हम उसपर ईमान ले आएँगे। ऐ नबी ! इनसे कहो कि निशानियाँ तो अल्लाह के वश में हैं75 और तुम्हें कैसे समझाया जाए कि अगर निशानियाँ आ भी जाएँ तो ये ईमान लानेवाले नहीं।76
74.निशानी से तात्पर्य कोई ऐसा खुला महसूस मोजज़ा (प्रत्यक्ष चमत्कार) है जिसे देखकर नबी (सल्ल०) की सत्यता और आपके अल्लाह की ओर से भेजे हुए होने को मान लेने के सिवा कोई चारा न रहे।
75.अर्थात निशानियों के पेश करने और बना लाने का सामर्थ्य मुझे प्राप्त नहीं है, इनका अधिकार तो अल्लाह को है, चाहे दिखाए और न चाहे, न दिखाए।
وَنُقَلِّبُ أَفۡـِٔدَتَهُمۡ وَأَبۡصَٰرَهُمۡ كَمَا لَمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهِۦٓ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَنَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 109
(110) हम उसी तरह उनके दिलों और निगाहों को फेर रहे हैं जिस तरह ये पहली बार इस (किताब) पर ईमान नहीं लाए थे।77 हम इन्हें इनकी उदंडता ही में भटकने के लिए छोड़े देते।
77.अर्थात उनके अंदर वही मनोवृत्ति काम किए जा रही है जिसकी वजह से उन्होंने पहली बार मुहम्मद (सल्ल.) का संदेश सुनकर उसे मानने से इंकार कर दिया था। उनके दृष्टिकोण में अभी तक कोई परिवर्तन पैदा नहीं हुआ है। वही बुद्धि का फेर और दृष्टि का भेंगापन जो उन्हें उस समय सही समझने और सही देखने से रोक रहा था, आज भी उनपर उसी तरह छाया हुआ है।
۞وَلَوۡ أَنَّنَا نَزَّلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَكَلَّمَهُمُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَحَشَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ كُلَّ شَيۡءٖ قُبُلٗا مَّا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَجۡهَلُونَ ۝ 110
(111) अगर हम फ़रिश्ते भी इनपर उतार देते और मुर्दे इनसे बातें करते और दुनिया भर की चीज़ों को हम इनकी आँखों के सामने जमाकर देते तब भी ये ईमान लानेवाले न थे, अलावा इसके कि अल्लाह ने यही चाहा हो (कि ये ईमान लाएँ)78 मगर अधिकतर लोग नासमझी की बातें करते हैं।
78.अर्थात ये लोग अपने अधिकार और चुनाव से तो सत्य को असत्य के मुक़ाबले में प्राथमिकता देकर स्वीकार करनेवाले हैं नहीं। अब उनके सत्यवादी बनने की केवल एक ही शक्ल बाकी है और वह यह कि प्राकृतिक प्रक्रिया से जिस तरह सृष्टि की तमाम विवश चीज़ों को सत्य का अनुसरण करनेवाली पैदा किया गया है, इसी तरह उन्हें भी विवश करके प्राकृतिक और जन्मजात सत्यवादी बना डाला जाए, मगर यह उस तत्त्वदर्शिता के विपरीत है जिसके तहत अल्लाह ने इंसान को पैदा किया है, इसलिए तुम्हारा यह आशा करना बेकार है कि अल्लाह प्रत्यक्षतः अपने बाध्यतापूर्ण प्राकृतिक हस्तक्षेप से उनको मोमिन (ईमानवाला) बनाएगा।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا شَيَٰطِينَ ٱلۡإِنسِ وَٱلۡجِنِّ يُوحِي بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ زُخۡرُفَ ٱلۡقَوۡلِ غُرُورٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 111
(112) और हमने तो इसी तरह सदा शैतान इंसानों और शैतान जिन्नों को हर नबी का दुश्मन बनाया है जो एक-दूसरे के मन में हर्षित कर देनेवाली बातें धोखे और छल के तौर पर डालते रहे हैं।79 अगर तुम्हारे पालनहार ने यही चाहा होता कि वे ऐसा न करें तो कभी वे न करते।80 तो तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो कि झूठ घड़ने का काम करते रहें।
79.अर्थात आज अगर जिन्न और इंसान शैतान एक होकर तुम्हारे मुकाबले में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं तो घबराने की कोई बात नहीं। यह कोई नई बात नहीं है जो तुम्हारे ही साथ हो रही हो। हर काल में ऐसा ही होता आया है कि जब कोई पैग़म्बर दुनिया को सीधा रास्ता दिखाने के लिए उठा तो तमाम शैतानी ताकतें उसके मिशन को विफल करने के लिए उठ खड़ी हुई। मुहावनी बातों से तात्पर्य वे तमाम चालें, तदबीरें, शंका व संदेह और आपत्तियाँ हैं जिनसे ये लोग जनता को सत्य की ओर बुलाने और उसके संदेश के विरुद्ध भड़काने और उकसाने का काम लेते हैं। फिर इन सब बातों को कुल मिलाकर धोखा और फरेब बताया गया है, क्योंकि सत्य से लड़ने के लिए जो हथियार भी सत्य-विरोधी इस्तेमाल करते हैं, वे न केवल दूसरों के लिए, बल्कि स्वयं उनके लिए भी वास्तविकता के पहलू से मात्र एक धोखा होते हैं, यद्यपि देखने में वे उनको बहुत लाभप्रद और सफल हथियार नज़र आते है।
80.यहाँ हमारी पिछली व्याख्याओं के अतिरिक्त यह तथ्य भी अच्छी तरह मन में बैठ जाना चाहिए कि क़ुरआन के अनुसार अल्लाह की इच्छा (मशीयत) और ठसकी प्रसन्नता (रिज़ा) में बहुत बड़ा अन्तर है जिसको नज़रअंदाज़ कर देने से आम तौर पर भारी ग़लतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं। किसी चीज़ के अल्लाह की इच्छा और उसकी अनुमति के तहत प्रकट होने का अर्थ अनिवार्यतः यह नहीं होता कि अल्लाह उससे प्रसन्न भी और उसे पसन्द भी है करता है। दुनिया में कोई घटना कभी नहीं घटती जब तक कि अल्लाह उसका आदेश न दे और अपनी विशाल योजना में उसके घटित होने की गुंजाइश न निकाले और परिस्थितियों को बना दे कि वह घटना घटित हो सके। किसी चोर का चोरी करना, किसी कातिल का क़त्ल करना, किसी ज़ालिम और फ़सादी का ज़ुल्म व फ़साद और किसी अधर्मी व मुशरिक का अधर्म व शिर्क अल्लाह के चाहे बिना संभव नहीं है। और इसी तरह किसी ईमानवाले और किसी परहेज़गार (धर्मपरायण) इंसान को ईमान और परहेज़गारी भी अल्लाह के चाहे बिना असंभव है। दोनों प्रकार की घटनाएँ समान रूप से अल्लाह की इच्छा और अनुमति के तहत घटित होती हैं, मगर पहले प्रकार की घटनाओं से अल्लाह प्रसन्न नहीं है और उसके विपरीत दूसरे प्रकार की घटनाओं को उसकी प्रसन्नता, उसकी पसंदीदगी और गया उसके प्रिय होने का प्रमाण प्राप्त है । यद्यपि अन्ततः किसी बड़ी भलाई ही के लिए सृष्टि के शासक की (ना- इच्छा काम कर रही है, लेकिन उस बड़ी भलाई के प्रकट होने का रास्ता रौशनी और अंधेरे, भलाई और बुराई और बनाव और बिगाड़ की अलग-अलग ताक़तों के एक-दूसरे के मुक़ाबले में संघर्षरत होने ही से साफ़ होता है, इसलिए अपने दूरगामी हितों के आधार पर वह आज्ञापालन और अवज्ञा, इबराहीमवाद और नमरूदवाद, मूसावाद और फ़िरऔनवाद,मानवतावाद और राक्षसवाद दोनों को अपना-अपना काम करने का अवसर देता है। उसने अपने अधिकार प्राप्त प्राणियों (इंसान और जिन्न) को भलाई-बुराई में से किसी एक के चुन लेने की स्वतंत्रता दे दी है, जो चाहे दुनिया के इस कारखाने में अपने लिए भलाई का काम पसन्द कर ले और जो चाहे बुराई का काम। दोनों प्रकार के कार्यकर्ताओं को, जिस सीमा तक अल्लाह की मस्लहतें इजाज़त देती हैं, साधनों का समर्थन मिलता है, लेकिन अल्लाह की प्रसन्नता और उसकी पसंदीदगी केवल भलाई ही के लिए काम करनेवालों को प्राप्त है और अल्लाह की प्रिय बात यही है कि उसके बन्दे अपने लिए चुन लेने की स्वतंत्रता से फायदा उठाकर भलाई को अपनाएँ, न कि बुराई को। इसके साथ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि यह जो अल्लाह सत्य के शत्रुओं की विरोधपूर्ण कार्रवाइयों का उल्लेख करते हुए अपनी इच्छा का बार-बार हवाला देता है, इसका उद्देश्य वास्तव में नबी (सल्ल०) को और आपके माध्यम से ईमानवालों को यह समझाना है कि तुम्हारा कार्य-प्रकार फ़रिश्तों के कार्य जैसा नहीं है जो किसी रुकावट के बिना अल्लाह के आदेशों का पालन करते चले जा रहे हैं, बल्कि तुम्हारा वास्तविक कार्य दुष्टों और विद्रोहियों के मुकाबले में अल्लाह पसंद की हुई प्रणाली को प्रभावी करने के लिए अथक प्रयास करना है। अल्लाह अपनी इच्छा के अन्तर्गत उन लोगों को भी काम करने का अवसर दे रहा है जिन्होंने अपनी कोशिशों और मेहनतों के लिए स्वयं अल्लाह से विद्रोह के रास्ते को अपनाया है और इसी तरह वह तुम्हें भी, जिन्होंने आज्ञापालन और बन्दगी के रास्ते को अपनाया है, काम करने का पूरा अवसर देता है। यद्यपि उसको प्रसन्नता और हिदायत व रहनुमाई और समर्थन व सहायता तुम्हारे ही साथ है, क्योंकि तुम उस पहलू में काम कर रहे हो जिसे वह पसन्द करता है, लेकिन तुम्हें यह आशा न करनी चाहिए कि अल्लाह अपने अलौकिक हस्तक्षेप से उन लोगों को ईमान लाने पर विवश कर देगा जो ईमान नहीं लाना चाहते या उन जिन्न और इंसान रूपी शैतानों को ज़बरदस्ती तुम्हारे रास्ते से हटा देगा जिन्होंने अपने दिल व दिमाग़ को और हाथ-पैर की ताक़तों को और अपने साधनों को सत्य-मार्ग रोकने के लिए इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया है, नहीं, अगर तुमने वास्तव में सत्य, नेकी और सच्चाई के लिए काम करने का संकल्प कर लिया है तो तुम्हें असत्यवादियों के मुक़ाबले में कड़ा संघर्ष और जिद्दोजुहद करके अपनी सत्यवादिता का प्रमाण देना होगा, वरना मोजज़ों (चमत्कारों) के बल पर असत्य को मिटाना और सत्य को विजयी करना होता तो तुम्हारी ज़रूरत ही क्या थी, अल्लाह स्वयं ऐसा प्रबंध कर सकता था कि दुनिया में कोई शैतान न होता और किसी शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और कुफ्र (अधर्म) के प्रकट होने की संभावना न होती।
وَلِتَصۡغَىٰٓ إِلَيۡهِ أَفۡـِٔدَةُ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَلِيَرۡضَوۡهُ وَلِيَقۡتَرِفُواْ مَا هُم مُّقۡتَرِفُونَ ۝ 112
(113) (यह सब कुछ हम उन्हें इसी लिए करने दे रहे हैं कि जो लोग आख़िरत पर ईमान नहीं रखते उनके दिल इस (सुहावने धोखे) की ओर झुके हों और वे उससे राज़ी हो जाएँ और उन बुराइयाँ को करने लगें जिन्हें वे करना चाहते हैं
أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡتَغِي حَكَمٗا وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مُفَصَّلٗاۚ وَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡلَمُونَ أَنَّهُۥ مُنَزَّلٞ مِّن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّۖ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 113
(114) फिर जब हाल यह है तो क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और फ़ैसला करनेवाला खोर्जे, हालाँकि उसने पूर्ण विवरण के साथ तुम्हारी ओर किताब उतार दी है?81 और जिन लोगों को हमने (तुमसे पहले) किताब दी थी, वे जानते हैं कि यह किताब तुम्हारे रब ही की ओर से सत्य के साथ उतरी हुई है, इसलिए तुम सन्देह करनेवालों में शामिल न हो।82
81.इस वाक्य में सम्बोधनकर्ता नबी (सल्ल.) हैं और सम्बोधन मुसलमानों से है। मतलब यह है कि जब अल्लाह ने अपनी किताब में साफ़-साफ़ ये तमाम वास्तविकताएँ बयान कर दी हैं और यह भी फ़ैसला कर दिया है कि अनैसर्गिक हस्तक्षेप के बिना सत्यवादियों को स्वाभाविक तरीकों ही से सत्य की विजय के लिए जिद्दोजुहद करनी होगी, तो क्या अब मैं अल्लाह के सिवा कोई और ऐसा आदेश देनेवाला खोजूँ जो अल्लाह के इस फैसले पर पुनरावलोकन करे और ऐसा कोई चमत्कार भेजे जिससे ये लोग ईमान लाने पर विवश हो जाएँ?
82.अर्थात यह कोई नई बात नहीं है जो घटनाओं के स्पष्टीकरण में आज घड़ी गई हो। तमाम वे लोग जो आसमानी किताबों का ज्ञान रखते हैं और जिन्हें नबियों के मिशन की जानकारी प्राप्त है, इस बात की गवाही देंगे कि यह जो कुछ कुरआन में बयान किया जा रहा है, ठीक-ठीक सत्य बात है और वह सदा से पाई जानेवाली और सदा रहनेवाली सच्चाई है जिसमें कभी अन्तर नहीं आया है।
وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدۡقٗا وَعَدۡلٗاۚ لَّا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 114
(115) तुम्हारे पालनहार की बात सत्य और न्याय की दृष्टि से पूर्ण है, कोई उसके आदेशों को बदलनेवाला नहीं है, और वह सब कुछ सुनता और जानता है ।
وَإِن تُطِعۡ أَكۡثَرَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ يُضِلُّوكَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 115
(116) और ऐ नबी ! अगर तुम उनके अधिकतर लोगों के कहने पर चलो जो धरती में बसते हैं, तो वे तुम्हें अल्लाह के रास्ते से भटका देंगे। वे तो केवल गुमान पर चलते और अटकल दोड़ाते हैं।83
83.अर्थात अधिकतर लोग जो दुनिया में बसते हैं, ज्ञान के बजाय अटकल और अनुमान का पालन कर रहे हैं और उनकी धारणाएँ, विचार, दर्शन, जीवन-सिद्धान्त और कार्य-विधियाँ सबकी सब अटकलों और अनुमानों पर आधारित हैं। इसके विपरीत, अल्लाह का रास्ता, अर्थात दुनिया में जीवन बिताने का वह तरीक़ा जो अल्लाह की प्रसन्नता के अनुसार है, अनिवार्य रूप से केवल वही एक है जिसका ज्ञान अल्लाह ने स्वयं दिया है, न कि वह जिसको लोगों ने अपने आप गुमान और अटकलों से पसंद कर लिया है। इसलिए सत्य की तलब रखनेवाले किसी भी व्यक्ति को यह न देखना चाहिए कि दुनिया के बहुत-से लोग किस रास्ते जा गरिमा रहे हैं, बल्कि उसे पूरी मज़बूती के साथ उस रास्ते पर चलना चाहिए जो अल्लाह ने बताई है, चाहे उस रास्ते जा पर चलने के लिए वह दुनिया में अकेला ही रह जाए ।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ مَن يَضِلُّ عَن سَبِيلِهِۦۖ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 116
(117) वास्तव में तुम्हारा पालनहार ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसके रास्ते से हटा हुआ है और कौन सीधी राह पर है।
فَكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كُنتُم بِـَٔايَٰتِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 117
(118) फिर अगर तुम लोग अल्लाह की आयतों पर ईमान रखते हो तो जिस जानवर पर अल्लाह का नाम लिया गया हो उसका गोश्त खाओ।84
84.उन सभी ग़लत तरीकों में से जो प्रायः धरतीवालों ने अपने आप अटकल और अनुमान से घड़ लिए और जिन्हें धार्मिक मान्यताओं का स्थान मिल गया है, एक वे पाबन्दियाँ भी हैं जो खाने-पीने की चीज़ों में विभिन्न क़ौमों के बीच पाई जाती हैं । कुछ चीज़ों को लोगों ने आप ही आप हलाल ठहरा लिया है, हालाँकि अल्लाह की दृष्टि में वे हराम हैं और कुछ चीज़ों को उन्होंने स्वयं हराम ठहरा लिया है, हालाँकि अल्लाह ने उन्हें हलाल किया है। मुख्य रूप से, सबसे अधिक अज्ञानतापूर्ण बात जिसपर पहले भी कुछ गिरोहों का आग्रह था और आज भी दुनिया के कुछ गिरोहों का आग्रह है, वह यह है कि अल्लाह का नाम लेकर जो जानवर ज़िब्‍ह किया जाए, वह तो उनके नज़दीक नाजायज़ (अवैध) है और अल्लाह के नाम के बिना जिसे ज़िब्‍ह किया जाए, वह बिल्कुल जायज़ (वैध) है। इसी का खंडन करते हुए अल्लाह यहाँ मुसलमानों से फ़रमाता है कि अगर तुम वास्तव अल्लाह पर ईमान लाए हो और उसके आदेशों को मानते हो तो इन तमाम अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों को छोड़ दो जो अधर्मियों और मुशरिकों में पाए जाते हैं। इन सब पाबन्दियों को तोड़ दो जो अल्लाह की हिदायत से बेनियाज़ होकर लोगों ने स्वयं लगा रखी हैं। हराम सिर्फ़ उसी चीज़ को समझो जिसे अल्लाह ने हराम किया है और हलाल उसी को ठहराओ जिसको अल्लाह ने हलाल क़रार दिया है।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تَأۡكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَقَدۡ فَصَّلَ لَكُم مَّا حَرَّمَ عَلَيۡكُمۡ إِلَّا مَا ٱضۡطُرِرۡتُمۡ إِلَيۡهِۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا لَّيُضِلُّونَ بِأَهۡوَآئِهِم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 118
(119) आखिर क्या कारण है कि तुम वह चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो? हालाँकि जिन चीज़ों का इस्तेमाल विवशता (जान पर बन आने) की स्थिति के अतिरिक्त दूसरी तमाम स्थितियों में अल्लाह ने हराम (अवैध) कर दिया है उनका विवरण वह तुम्हें बता चुका है।85 अधिकतर लोगों का हाल यह है कि ज्ञान के बिना केवल अपनी इच्छाओं के आधार पर गुमराह करनेवाली बातें करते हैं। इन सीमा से आगे निकल जानेवालों को तुम्हारा रब खूब जानता है ।
85.देखिए, क़ुरआन की सूरा-16, (नह्ल), आयत 115 । इस संकेत से यह बात भी मालूम हुई कि सूरा नह्ल इस सूरा से पहले उतर चुकी थी।
وَذَرُواْ ظَٰهِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَبَاطِنَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡسِبُونَ ٱلۡإِثۡمَ سَيُجۡزَوۡنَ بِمَا كَانُواْ يَقۡتَرِفُونَ ۝ 119
(120) तुम खुले गुनाहों से भी बचो और छिपे गुनाहों से भी। जो लोग गुनाह की कमाई करते हैं, वे अपनी इस कमाई का बदला पाकर रहेंगे।
وَلَا تَأۡكُلُواْ مِمَّا لَمۡ يُذۡكَرِ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَإِنَّهُۥ لَفِسۡقٞۗ وَإِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ لَيُوحُونَ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِهِمۡ لِيُجَٰدِلُوكُمۡۖ وَإِنۡ أَطَعۡتُمُوهُمۡ إِنَّكُمۡ لَمُشۡرِكُونَ ۝ 120
(121) और जिस जानवर को अल्लाह का नाम लेकर जिब्ह न किया गया हो उसका माँस न खाओ, ऐसा करना फ़िस्क (अवज्ञा) है। शैतान अपने साथियों के दिलों में सन्देह और आपत्तियाँ डाल देते हैं, ताकि वे तुमसे झगड़ा करें।86 लेकिन अगर तुमने उनकी बात मान ली तो निश्चय ही तुम मुशरिक (बहुदेववादी) हो।87
86.हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि यहूदी उलमा अरब के अज्ञानियों को नबी (सल्ल०) पर आपत्ति करने के लिए जो प्रश्न सिखाया करते थे, उनमें से एक यह भी था कि "आख़िर यह क्या मामला है कि जिसे अल्लाह मारे, वह तो हराम हो और जिसे हम मारें, वह हलाल हो जाए।" यह एक छोटा-सा नमूना है उस टेढ़ी मनोवृत्ति का जो इन कथित किताबवालों में पाई जाती थी। वे इस प्रकार के प्रश्नों को घड़-घड़कर पेश करते थे, ताकि आम लोगों के दिलों में सन्देह पैदा करें और उन्हें सत्य से लड़ने के लिए हथियार जुटाकर दें।
87.अर्थात एक ओर अल्लाह के ईश्वरत्व को स्वीकार करना और दूसरी ओर अल्लाह से फिरे हुए लोगों के आदेशों पर चलना और उनके तय किए हुए तरीकों की पाबन्दी करना, शिर्क' (अनेकेश्वरवाद) है। तौहीद (एकेश्वरवाद) यह है कि ज़िन्दगी सरासर अल्लाह के आज्ञापालन में गुज़रे । अल्लाह के साथ अगर दूसरों को अपनी धारणा में स्वतंत्र आज्ञा-दाता स्वीकार कर लिया जाए, तो यह धारणा सम्बन्धी शिर्क है और अगर व्यावहारिक रूप से ऐसे लोगों का आज्ञापालन किया जाए, जो अल्लाह के मार्गदर्शन से बेपरवाह होकर स्वयं आदेश देने या रोकने के अधिकारी बन गए हों तो यह व्यावहारिक शिर्क है।
أَوَمَن كَانَ مَيۡتٗا فَأَحۡيَيۡنَٰهُ وَجَعَلۡنَا لَهُۥ نُورٗا يَمۡشِي بِهِۦ فِي ٱلنَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُۥ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ لَيۡسَ بِخَارِجٖ مِّنۡهَاۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡكَٰفِرِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 121
(122) क्या वह आदमी जो पहले मुर्दा था, फिर हमने उसे जीवन दिया 88 और उसको वह रौशनी दी जिसके उजाले में वह लोगों के बीच ज़िन्दगी की राह तय करता है, उस आदमी की तरह हो सकता है जो अँधेरों में पड़ा हुआ हो और किसी तरह उनसे न निकलता हो? 89 इकार करनेवालों के लिए तो इसी तरह उनके कर्म सुहावने बना दिए गए हैं,90
88.यहाँ मौत से तात्पर्य अज्ञानता और बुद्धिहीनता की स्थिति है और जीवन से तात्पर्य ज्ञान और विवेक और सत्यपरकता की स्थिति है । जिस आदमी को सही और ग़लत की पहचान नहीं और जिसे मालूम नहीं कि सीधा रास्ता क्या है, वह भौतिक रूप से भले ही जीवधारी हो, मगर वास्तविकता की दृष्टि से उसे मानवता का जीवन हासिल नहीं है। वह ज़िंदा प्राणी तो ज़रूर है,मगर जिंदा इंसान नहीं। जिंदा इंसान वास्तव में केवल वह आदमी है जिसे सत्य और असत्य, नेकी और बदी, सही और ग़लत को समझ प्राप्त हुई है।
89.अर्थात तुम किस तरह यह आशा कर सकते हो कि जिस इंसान को मानवता की चेतना प्राप्त हो चुकी है और जो ज्ञान की रौशनी में टेढ़े रास्तों के बीच सत्य की सीधी राह को स्पष्ट रूप से देख रहा है, वह उन बेसमझ लोगों की तरह दुनिया में ज़िन्दगी बसर करेगा जो नासमझी और अज्ञानता की अंधियारियों में भटकते फिर रहे हैं।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٍ أَكَٰبِرَ مُجۡرِمِيهَا لِيَمۡكُرُواْ فِيهَاۖ وَمَا يَمۡكُرُونَ إِلَّا بِأَنفُسِهِمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 122
(123) और इसी तरह हमने हर बस्ती में उसके बड़े-बड़े अपराधियों को लगा दिया है कि वहाँ अपने छल-कपट का जाल फैलाएँ । वास्तव में वे अपने धोखे के जाल में आप धंसते हैं, मगर उन्हें इसकी समझ नहीं है।
وَإِذَا جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ قَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ حَتَّىٰ نُؤۡتَىٰ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ رُسُلُ ٱللَّهِۘ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ حَيۡثُ يَجۡعَلُ رِسَالَتَهُۥۗ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْ صَغَارٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعَذَابٞ شَدِيدُۢ بِمَا كَانُواْ يَمۡكُرُونَ ۝ 123
(124) जब उनके सामने कोई आयत आती है तो वे कहते हैं, "हम न मानेंगे जब तक कि वह चीज़ स्वयं हमको न दी जाए जो अल्लाह के रसूलों को दी गई है।‘’91 अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि वह अपनी पैग़म्बरी (सन्देशवाहन) का काम किससे ले और किस तरह ले। क़रीब है वह समय जब ये अपराधी अपनी मक्कारियों के बदले में अल्लाह के यहाँ अपमान और कड़ी यातना से दो-चार होंगे।
فَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يَهۡدِيَهُۥ يَشۡرَحۡ صَدۡرَهُۥ لِلۡإِسۡلَٰمِۖ وَمَن يُرِدۡ أَن يُضِلَّهُۥ يَجۡعَلۡ صَدۡرَهُۥ ضَيِّقًا حَرَجٗا كَأَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي ٱلسَّمَآءِۚ كَذَٰلِكَ يَجۡعَلُ ٱللَّهُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 124
(125) तो (यह वास्तविकता है कि जिसे अल्लाह मार्ग दिखाने का इरादा करता है, उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है 92 और जिसे गुमराही में डालने का इरादा करता है, उसके सीने को तंग कर देता है और ऐसा भींचता है कि (इस्लाम का विचार आते ही) उसे यूँ मालूम होने लगता है कि मानो उसके प्राण-पखेरू आकाश की ओर उड़े जा रहे हैं । इस तरह अल्लाह (सत्य से भागने और घृणा की) नापाको उन लोगों पर मुसल्लत कर देता है जो ईमान नहीं लाते 92अ
92.सीना खोल देने से तात्पर्य इस्लाम की सत्यता पर पूरी तरह सन्तुष्ट कर देना और सन्देह और संकोच और दुविधा को दूर कर देना है।
92अ. इस वाक्य से यह बात स्पष्ट हो गई कि जो लोग ईमान नहीं लाते, अल्लाह उन्हीं का सीना इस्लाम के लिए तंग कर देता है और उन्हें रास्ता दिखाने का इरादा नहीं करता।
وَهَٰذَا صِرَٰطُ رَبِّكَ مُسۡتَقِيمٗاۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 125
(126) हालाँकि यह रास्ता तुम्हारे रब का सीधा रास्ता है और इसके निशान उन लोगों के लिए स्पष्ट कर दिए गए हैं जो नसीहत क़बूल करते हैं ।
۞لَهُمۡ دَارُ ٱلسَّلَٰمِ عِندَ رَبِّهِمۡۖ وَهُوَ وَلِيُّهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 126
(127) उनके रब के पास उनके लिए सलामती का घर है93 और वह उनका अभिभावक है उस सही व्यवहार नीति के कारण जो उन्होंने अपनाई।
93.'सलामती वा घर' अर्थात जन्नत, जहाँ इंसान हर विपत्ति से सुरक्षित और हर खराबी से बचा हुआ होगा।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ قَدِ ٱسۡتَكۡثَرۡتُم مِّنَ ٱلۡإِنسِۖ وَقَالَ أَوۡلِيَآؤُهُم مِّنَ ٱلۡإِنسِ رَبَّنَا ٱسۡتَمۡتَعَ بَعۡضُنَا بِبَعۡضٖ وَبَلَغۡنَآ أَجَلَنَا ٱلَّذِيٓ أَجَّلۡتَ لَنَاۚ قَالَ ٱلنَّارُ مَثۡوَىٰكُمۡ خَٰلِدِينَ فِيهَآ إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 127
(128) जिस दिन अल्लाह उन सब लोगों को घेरकर जमा करेगा, उस दिन वह जिन्नों94 को सम्बोधित करके फ़रमाएगा कि “ऐ जिन्नों के गिरोह ! तुमने तो इंसानी बिरादरी पर खूब हाथ साफ़ किया।" इंसानों में से जो उनके साथी थे वे कहेंगे, “पालनहार ! हममें से हर एक ने दूसरे को ख़ूब इस्तेमाल किया है।95 और अब हम उस वक़्त पर आ पहुँचे हैं जो तूने हमारे लिए निश्चित कर दिया था। अल्लाह फ़रमाएगा, “अच्छा, अब आग तुम्हारा ठिकाना है, उसमें तुम हमेशा रहोगे।" इससे बचेंगे केवल वही जिन्हें अल्लाह बचाना चाहेगा, निस्सन्देह तुम्हारा पालनहार तत्त्वदशी और सर्वज्ञ है।96
94.यहाँ जिन्नों से तात्पर्य शैतान जिन्न हैं।
95.अर्थात हममें से हर एक ने दूसरे से अनुचित लाभ उठाए हैं, हर एक दूसरे को धोखे में डालकर अपनी इच्छाएं पूरी करता रहा है।
وَكَذَٰلِكَ نُوَلِّي بَعۡضَ ٱلظَّٰلِمِينَ بَعۡضَۢا بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 128
(129) देखो, इस तरह हम (आख़िरत में) ज़ालिमो को एक-दूसरे का साथी बनाएँगे उस कमाई की वजह से जो वे (दुनिया में एक-दूसरे के साथ मिलकर) करते थे।97
97.अर्थात जिस तरह वे दुनिया में गुनाह समेटने और बुराइयाँ कमाने में एक दूसरे के साझीदार थे, उसी तरह आख़िरत की सज़ा पाने में भी वे एक दूसरे के साझीदार होंगे।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي وَيُنذِرُونَكُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَاۚ قَالُواْ شَهِدۡنَا عَلَىٰٓ أَنفُسِنَاۖ وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 129
(130) (इस अवसर पर अल्लाह उनसे यह भी पूछेगा कि) “ऐ जिन्नों और इंसानों के गिरोह ! क्या तुम्हारे पास स्वयं तुममें से ऐसे रसूल नहीं आए थे, जो तुमको मेरी आयतें सुनाते और उस दिन के अंजाम से डराते थे?" वे कहेंगे, "हाँ, हम अपने विरुद्ध स्वयं गवाही देते हैं।98 आज दुनिया की ज़िन्दगी ने उन लोगों को धोखे में डाल रखा है, मगर उस समय वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि वे [सत्य का] इंकार करनेवाले काफ़िर थे।99
98.अर्थात हम स्वीकार करते हैं कि आपकी ओर से रसूल पर रसूल आते और हमें वास्तविता से सचेत करते रहे,मगर यह हमारा अपना दोष था कि हमने उनकी बात न मानी।
99.अर्थात बेख़बर और अनजान न थे, बल्कि इंकार करनेवाले थे। वे स्वयं मानेंगे कि सत्य हम तक पहुँचा था, मगर हमने स्वयं उसे मानने से इंकार कर दिया था।
ذَٰلِكَ أَن لَّمۡ يَكُن رَّبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا غَٰفِلُونَ ۝ 130
(131) (यह गवाही उनसे इसलिए ली जाएगी कि यह सिद्ध हो जाए कि) तुम्हारा पालनहार बस्तियों को जुल्म के साथ तबाह करनेवाला न था, जबकि उनके रहनेवाले वास्तविकता से बेख़बर हों।100
100.अर्थात अल्लाह अपने बन्दों को यह मौका नहीं देना चाहता कि वे उसके मुक़ाबले में यह विरोध प्रकट कर सकें कि आपने हमें वास्तविकता तो बताई नहीं और न हमको सही रास्ता बताने का कोई प्रबन्ध किया, मगर जब न जानने की वजह से हम ग़लत रास्ते पर चल पड़े तो अब आप हमें पकड़ते हैं। इसी तर्क की काट के लिए अल्लाह ने पैग़म्बर भेजे और किताबें उतारौं, ताकि जिन्नों और इंसानों को स्पष्ट रूप से सचेत कर दिया जाए। अब अगर लोग ग़लत रास्तों पर चलते हैं और अल्लाह उनको सज़ा देता है तो इसका आरोप स्वयं उनपर है, न कि अल्लाह पर ।
وَلِكُلّٖ دَرَجَٰتٞ مِّمَّا عَمِلُواْۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 131
(132) हर व्यक्ति का दर्जा उसके कर्म के अनुसार है और तुम्हारा पालनहार लोगों के कर्मों से बेख़बर नहीं है।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَنِيُّ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفۡ مِنۢ بَعۡدِكُم مَّا يَشَآءُ كَمَآ أَنشَأَكُم مِّن ذُرِّيَّةِ قَوۡمٍ ءَاخَرِينَ ۝ 132
(133) तुम्हारा पालनहार निस्पृह है और दयालुता उसकी रीति है।101 अगर वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और तुम्हारी जगह दूसरे जिन लोगों को चाहे ले आए जिस तरह उसने तुम्हें कुछ और लोगों की नस्ल से उठाया है,
101."तुम्हारा पालनहार उदासीन है", अर्थात उसका कोई स्वार्थ तुमसे अटका हुआ नहीं है, उसका कोई हित तुमसे जुड़ा हुआ नहीं है कि तुम्हारी अवज्ञा से उसका कुछ बिगड़ जाता हो, या तुम्हारे आज्ञापालन से उसको कोई लाभ पहुँच जाता हो, तुम सब मिलकर सख्त अवज्ञाकारी बन जाओ तो उसकी बादशाही में कण भर भी कमी नहीं कर सकते और सब के सब मिलकर उसके आज्ञापालक और उपासक बन जाओ तो उसके साम्राज्य में कुछ बढ़ोत्तरी नहीं सकते। वह न तुम्हारी सलामियों का मुहताज है और न तुम्हारी नज्न व नियाज़ का। अपने अनगिनत ख़ज़ाने तुमपर लुटा रहा है, बिना इसके कि इनके बदले में अपने लिए तुमसे कुछ चाहे। "दयालुता उसकी नीति है", यहाँ सन्दर्भ की दृष्टि से इस वाक्य के दो अर्थ हैं- एक यह कि तुम्हारा पालनहार तुमको सीधे रास्ते पर चलने का जो आदेश देता है और वास्तविक तथ्य के विपरीत नीति अपनाने से जो मना करता है, उसका कारण यह नहीं है कि तुम्हारे सीधा चलने से उसका कोई लाभ और ग़लत राह चलने से उसका कोई नुकसान होता है, बल्कि इसका कारण वास्तव में यह है कि सीधा रास्ता चलने में तुम्हारा अपना लाभ और ग़लत रास्ता चलने में तुम्हारी अपनी हानि है। इसलिए यह पूरी तरह उसकी कृपा है कि वह तुम्हें उस सही तरीके की शिक्षा देता है जिससे तुम ऊँचे दों तक तरक़्क़ी करने के योग्य बन सकते हो और उस ग़लत तरीके से रोकता है जिसके कारण तुम निचले दों की ओर गिरते हो। दूसरे यह कि तुम्हारा पालनहार कड़ी पकड़ करनेवाला नहीं है, तुमको सज़ा देने में उसे कोई मज़ा नहीं आता है, वह तुम्हें पकड़ने और मारने पर तुला हुआ नहीं है कि तनिक तुमसे ग़लती हो, और वह तुम्हारी ख़बर ले डाले । वास्तव में वह अपनी समस्त सृष्टि पर अत्यन्त दयालु है, वह अत्यन्त दयालुता के साथ प्रभुताई कर रहा है और यही उसका मामला इंसानों के साथ भी है। इसी लिए वह तुम्हारी ग़लतियों पर ग़लतियाँ माफ़ करता चला जाता है। तुम अवज्ञा करते हो, पाप करते हो, अपराध करते हो, उसकी रोज़ी पर पलकर भी कर उसके आदेशों से मुँह मोड़ते हो, मगर वह नर्मी और क्षमा ही से काम लिए जाता है और तुम्हें सँभलने और समझने और अपना सुधार कर लेने के लिए मोहलत पर मोहलत दिए जाता है, वरना अगर वह कड़ी पकड़ करनेवाला होता तो उसके लिए कुछ कठिन न था कि तुम्हें दुनिया से विदा कर देता और तुम्हारी जगह किसी दूसरी क़ौम को उठा खड़ा करता या सारे इंसानों को समाप्त करके कोई और प्राणी पैदा कर देता।
إِنَّ مَا تُوعَدُونَ لَأٓتٖۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 133
(134) तुमसे जिस चीज़ का वादा किया जा रहा है वह निश्चित रूप से आनेवाली है।102 और तुम अल्लाह को विवश कर देने की शक्ति नहीं रखते ।
102.अर्थात क़ियामत, जिसके बाद तमाम अगले-पिछले इंसान नए सिरे से ज़िंदा किए जाएंगे और अपने रब के सामने आखिरी फैसले के लिए पेश होंगे।
قُلۡ يَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَامِلٞۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن تَكُونُ لَهُۥ عَٰقِبَةُ ٱلدَّارِۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 134
(135) ऐ नबी ! कह दो कि लोगो ! तुम अपनी जगह कर्म करते रहो और मैं भी अपनी जगह कर्म कर रहा हूँ।103 बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा कि परिणाम किसके हक़ में अच्छा होता है । बहरहाल यह तथ्य है कि ज़ालिम कभी सफलता नहीं पा सकते।
103.अर्थात अगर मेरे समझाने से तुम नहीं समझते और अपनी ग़लत नीति से बाज़ नहीं आते तो जिस राह पर तुम चल रहे हो चले जाओ और मुझे अपनी राह चलने के लिए छोड़ दो, परिणाम जो कुछ होगा वह तुम्हारे सामने भी आ जाएगा और मेरे सामने भी।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ ٱلۡحَرۡثِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ نَصِيبٗا فَقَالُواْ هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعۡمِهِمۡ وَهَٰذَا لِشُرَكَآئِنَاۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَآئِهِمۡ فَلَا يَصِلُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَآئِهِمۡۗ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 135
(136) इन लोगों ने104 अल्लाह के लिए स्वयं उसी की पैदा की हुई खेतियों और चौपायों में से एक हिस्सा निश्चित किया है, और अपने ख्याल से कहते हैं कि यह अल्लाह के लिए है, और यह हमारे ठहराए हुए शरीकों के लिए।105 फिर जो हिस्सा इनके ठहराए हुए शरीकों के लिए है, वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता, मगर जो अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों को पहुँच जाता है।106 कैसे बुरे फ़ैसले करते हैं ये लोग !
104. ऊपर का व्याख्यान-क्रम इस बात पर पूरा हुआ था कि अगर ये लोग उपदेश मानने के लिए तैयार नहीं है और अपनी अज्ञानता पर आग्रह ही किए जाते हैं तो उनसे कह दो कि अच्छा, तुम अपने तरीक़े पर काम करते रहो और मैं अपने तरीक़े पर काम करूँगा। कियामत एक दिन ज़रूर आनी है, उस समय तुम्हें मालूम हो जाएगा कि इस नीति का क्या अंजाम होता है। बहरहाल यह खूब समझ लो कि वहाँ ज़ालिमों को सफलता न मिलेगी। इसके बाद अब उस अज्ञानता की कुछ व्याख्या की जाती है जिसपर वे लोग आग्रह कर रहे थे और जिसे छोड़ने पर किसी तरह तैयार न होते थे, और उन्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारा वह 'जुल्म' क्या है जिसपर क़ायम रहते हुए तुम किसी सफलता की आशा नहीं कर सकते ।
105. इस बात को वे स्वयं मानते थे कि ज़मीन अल्लाह की है और खेतियाँ वही उगाता है। और उन जानवरों का पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है जिनसे वे अपनी ज़िन्दगी में सेवा लेते हैं, लेकिन उनका विचार यह था कि उनपर अल्लाह की यह कृपा उन देवियों और देवताओं और फ़रिश्तों और जिन्नों और आसमानी सितारों और पिछले बुजुर्गों की रूहों की कृपा और बरकत से है जो उनपर कृपा-दृष्टि रखते हैं, इसलिए वे अपने खेतों की पैदावार और अपने जानवरों में से दो हिस्से निकालते थे। एक हिस्सा अल्लाह के नाम का, इस शुक्रिए में कि उसने ये खेत और ये जानवर उन्हे प्रदान किए और दूसरा हिस्सा अपने क़बीले या परिवार के 'बड़े उपास्यों के चढ़ावे का, ताकि उनकी मेहरबानियाँ उनके साथ रहें। अल्लाह सबसे पहले उनके इसी जुल्म पर पकड़ करता है कि ये सब चौपाए हमारे पैदा किए हुए और हमारे दिए हुए हैं, उनमें यह दूसरों का चढ़ावा कैसा? यह नमकहरामी नहीं तो क्या है कि तुम अपने उपकारकर्ता के उपकार को, जो उसने पूर्ण रूप से स्वयं अपनी मेहरबानी से तुमपर किया है, दूसरों के हस्तक्षेप और उनकी मध्यस्थता का नतीजा बताते हो और शुक्रिए के हक़ में उन्हें उसके साथ साझी ठहराते हो, फिर सांकेतिक रूप में दूसरी पकड़ इस बात पर भी की है कि यह अल्लाह का हिस्सा जो उन्होंने निश्चित किया है, यह भी अपने आप ही कर लिया है अपने नियम निर्माता स्वयं बन बैठे हैं, आप ही जो हिस्सा चाहते हैं, अल्लाह के लिए निश्चित कर लेते हैं और जो चाहते हैं, दूसरों के लिए तय कर देते हैं, हालाँकि अपनी प्रदान की हुई चीज़ों का वास्तविक स्वामी व अधिकारी स्वयं अल्लाह है और यह बात उसी की शरीअत (विधान) के अनुसार तय होनी चाहिए कि इस देने में से कितना हिस्सा उसके शुक्रिए के लिए निकाला जाए और शेष में कौन-कौन अधिकारी हैं। अत: वास्तव में इस मनमाने तरीके से जो हिस्सा ये लोग अपने झूठे विचार में अल्लाह के लिए निकालते हैं और निर्धनों और ज़रूरतमंदों आदि को दान देते हैं, वह भी कोई नेकी नहीं है। अल्लाह के यहाँ उसके स्वीकार्य होने का भी कोई कारण नहीं।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ قَتۡلَ أَوۡلَٰدِهِمۡ شُرَكَآؤُهُمۡ لِيُرۡدُوهُمۡ وَلِيَلۡبِسُواْ عَلَيۡهِمۡ دِينَهُمۡۖ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 136
(137) और इसी तरह बहुत-से मुशरिकों के लिए उनके शरीकों ने अपनी सन्तान के क़त्ल को ख़ुशनुमा बना दिया है107, ताकि इनको तबाही में डाल दें 108 और उनपर उनके दीन को संदिग्ध बना दें।109अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते, इसलिए इन्हें छोड़ दो कि अपने झूठ गढ़ने में लगे रहे।110
107.यहाँ 'शरीकों' का शब्द एक दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो ऊपर के अर्थ से भिन्न है। ऊपर की आयत में जिन्हें 'शरीक' के शब्द से परिभाषित किया गया था, वे उनके वे उपास्य थे जिनको बरकत या सिफ़ारिश या वास्ते को ये लोग नेमत की प्राप्ति में मददगार समझते थे और नेमत के शुक्र के हक़दार के तौर पर उन्हें अल्लाह के साथ हिस्सेदार बनाते थे। इसके विपरीत इस आयत में 'शरीक' से तात्पर्य वे इंसान हैं जिन्होंने औलाद के वध की रस्म पैदा की थी और वे शैतान हैं जिन्होंने इस अत्याचारपूर्ण रस्म को इन लोगों की निगाह में एक जाइज़ और पसंदीदा कार्य बना दिया था, उन्हें शरीक कहने की वजह यह है कि इस्लाम की दृष्टि में जिस तरह इबादत का हक़दार अकेला अल्लाह है। उसी तरह बन्दों के लिए कानून बनाने और जाइज़ व नाजाइज़ की हदें तय करने का हक़दार भी सिर्फ अल्लाह है। इसलिए जिस तरह किसी दूसरे के आगे इबादत के कामों में से कोई काम करना उसे अल्लाह का शरीक बनाने का समानार्थी है, उसी तरह किसी के स्वयं गढ़े हुए क़ानून को सत्यानुकूल समझते हुए उसकी पाबन्दी करना और उसकी निश्चित की हुई सीमाओं की पैरवी अनिवार्य मानना भी उसे खुदाई में अल्लाह का शरीक करार देने के समानार्थी है। ये दोनों कार्य बहरहाल शिर्क हैं, भले ही उसका करनेवाला उन हस्तियों को ज़बान से इलाह (ईष्ट-प्रभु) और रब कहे या न कहे जिनके आगे वह भेंट और चढ़ावा पेश करता है या जिनके निश्चित किए हुए क़ानून की पैरवी को अनिवार्य समझता है। सन्तान के क़त्ल की तीन शक्लें अरववासियों में प्रचलित हुई थी और कुरआन में तीनों को ओर संकेत किया गया है- 1. लड़कियों का कत्ल इस विचार से कि कोई उनका दामाद न बने या कबीलों की लड़ाइयों में वे दुश्मन के हाथ न पड़ें या किसी दूसरे कारण से वे उनके लिए लज्जा का कारण न बनें । 2. बच्चों का क़त्ल इस विचार से कि उनके लालन-पालन का बोझ न उठाया जा सकेगा और आर्थिक साधनों की कमी के कारण वे असह्य बोझ बन जाएँगे। 3. बच्चों को अपने उपास्यों की प्रसन्नता के लिए भेंट चढ़ाना।
108.'तबाही' शब्द अति अर्थपूर्ण है। इससे तात्पर्य नैतिक विनाश भी है कि जो इंसान कठोरता और हृदयता पाषण की इस सीमा को पहुंच जाए कि अपनी सन्तान को अपने हाथ ही से क़त्ल करने लगे, उसमें मानवता का तत्त्व तो दूर की बात है, पशुता का तत्त्व भी बाकी नहीं रहता। और नस्ली और क़ौमी तबाही भी कि सन्तान के क़त्ल का अनिवार्य फल नस्लों का घटना और आबादी का कम होना है, जिससे मानव जाति को भी क्षति पहुँचती है और वह कौम भी तबाही के गढ़े में गिरती है जो अपनी समर्थकों और अपने संस्कृति के कार्यकर्ताओं और अपनी मीरास के वारिसों को पैदा नहीं होने देती, या पैदा होते ही स्वयं अपने हाथों उन्हें ख़त्म कर डालती है। और इससे तात्पर्य 'अंजामी' (परिणामिक) हलाकत भी है कि जो आदमी मासूम बच्चों पर यह जुल्म करता है और जो अपनी मानवता को बल्कि अपनी पशुता तक को यूँ उलटी छुरी से ज़िब्‍ह करता है और जो इंसानी नस्ल के साथ और स्वयं अपनी क़ौम के साथ यह दुश्मनी करता है वह अपने आपको अल्लाह के सख्‍़त अज़ाब का हक़दार बनाता है।
وَقَالُواْ هَٰذِهِۦٓ أَنۡعَٰمٞ وَحَرۡثٌ حِجۡرٞ لَّا يَطۡعَمُهَآ إِلَّا مَن نَّشَآءُ بِزَعۡمِهِمۡ وَأَنۡعَٰمٌ حُرِّمَتۡ ظُهُورُهَا وَأَنۡعَٰمٞ لَّا يَذۡكُرُونَ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا ٱفۡتِرَآءً عَلَيۡهِۚ سَيَجۡزِيهِم بِمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 137
(138) कहते हैं, ये जानवर और ये खेत सुरक्षित हैं, इन्हें केवल वही लोग खा सकते हैं जिन्हें हम खिलाना चाहें, हालाँकि यह पाबंदी उनको अपनी गढ़ी हुई है ।111 फिर कुछ जानवर हैं जिनपर सवारी और बोझ ढोना हराम कर दिया गया है और कुछ जानवर हैं जिनपर ये अल्लाह का नाम नहीं लेते112 और यह सब कुछ इन्होंने अल्लाह पर झूठ मढ़ा है।113 बहुत जल्द अल्लाह उन्हें इस मिथ्यारोपण का बदला देगा।
111.अरबवासियों का नियम था कि कुछ जानवरों के बारे में या कुछ खेतियों को पैदावार के बारे में मन्नत मान लेते थे कि यह फलाँ आस्ताने या फलाँ हज़रत की नियाज़ के लिए मुख्य है। उस नियाज़ (चढ़ावे) को हर का एक न खा सकता था, बल्कि इसके लिए उनके यहाँ एक विस्तृत विधान था जिसके अनुसार अलग-अलग नियाज़ों को अलग-अलग प्रकार के मुख्य लोग ही खा सकते थे। अल्लाह उनके इस कार्य को न सिर्फ़ अनेकेशवदी कार्य समझता है, बल्कि इस पहलू पर भी सचेत करता है कि यह विधान उनका अपना गढ़ा हुआ है। अर्थात् जिस अल्लाह की रोज़ी में से वे यह मन्नतें मानते और नियाजें करते हैं, उसने न उन मन्नतों और नियाज़ों आदेश दिया है और न उनके खाने के बारे में ये पाबन्दियाँ लगाई हैं। यह सब कुछ उन उदंड और द्रोही बन्दों ने अपने अधिकार से स्वयं ही गढ़ लिया है।
112.रिवायतों से मालूम होता है कि अरबवासियों के यहाँ कुछ विशेष मन्नतों और नज़रानों के जानवर ऐसे होते थे जिनपर अल्लाह का नाम लेना जाइज़ न समझा जाता था, उनपर सवार होकर हज करना मना था, क्योंकि हज के लिए 'लब्बैक अल्लाहुम-म लब्बैक' (हाजिर हूँ ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ) कहना पड़ता था। इसी तरह उनका दूध दुहते समय या उनपर सवार होने की हालत में या उनको जिब्ह करते हुए या उनको खाने के समय व्यवस्था की जाती थी कि अल्लाह का नाम जुबान पर न आए।
وَقَالُواْ مَا فِي بُطُونِ هَٰذِهِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ خَالِصَةٞ لِّذُكُورِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِنَاۖ وَإِن يَكُن مَّيۡتَةٗ فَهُمۡ فِيهِ شُرَكَآءُۚ سَيَجۡزِيهِمۡ وَصۡفَهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 138
(139) और कहते है कि जो कुछ इन जानवरों के पेट में है, यह हमारे मर्दो के लिए खास है और हमारी औरतों पर हराम, लेकिन अगर वह मुर्दा हो तो दोनों उसके खाने में शरीक हो सकते हैं।114 ये बातें जो उन्होंने घड़ ली है, इनका बदला अल्लाह उन्हें देकर रहेगा। निश्चय ही वह तत्त्वदर्शी है और सब बातों की उसे ख़बर है।
114.अरबवासियों के यहाँ नों और मन्नतों के जानवरों के बारे में जो ख़ुद की गढ़ी हुई शरीअत (विधान) बनी हुई थी, उसकी एक धारा यह भी थी कि इन जानवरों के पेट से जो बच्चा पैदा हो उसका मांस सिर्फ़ मर्द खा सकते हैं, औरतों के लिए उनका खाना जाइज़ (वैध) नहीं, लेकिन अगर वह बच्चा मुर्दा हो या मर जाए तो उसका मांस खाने में मर्द व औरत सब शरीक हो सकते हैं।
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ قَتَلُوٓاْ أَوۡلَٰدَهُمۡ سَفَهَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَحَرَّمُواْ مَا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُ ٱفۡتِرَآءً عَلَى ٱللَّهِۚ قَدۡ ضَلُّواْ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 139
(140) निश्चय ही घाटे में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अपनी सन्तान को अज्ञान व नासमझी के कारण क़त्ल किया और अल्लाह की दी हुई रोज़ी को अल्लाह पर झूठ घड़कर हराम ठहरा लिया। निश्चय ही वे भटक गए और कदापि वे सीधा मार्ग पानेवालों में से न थे।115
115.अर्थात यद्यपि वे लोग, जिन्होंने ये रस्म व रिवाज गढ़े थे, तुम्हारे बाप-दादा थे, तुम्हारे धार्मिक गुरु थे, तुम्हारे पेशवा और सरदार थे, लेकिन सत्य बहरहाल सत्य है, उनके गढ़े हुए ग़लत तरीके सिर्फ इसलिए सही और पवित्र नहीं हो सकते कि वे तुम्हारे बाप-दादा और बुजुर्ग थे। जिन ज़ालिमों ने सन्तान के क़ल्ल जैसे वहशियाना कामों को रस्म बनाया हो, जिन्होंने अल्लाह की दी हुई रोज़ी को खामखाह अल्लाह के बन्दों पर हराम किया हो, जिन्होंने दीन में अपनी ओर से नई-नई बातों को शामिल करके अल्लाह से जोड़ दी हों, वे क आखिर सफल और संमार्गी कैसे हो सकते हैं, चाहे वे तुम्हारे बाप-दादे और बुजुर्ग ही क्यों न हों? बहरहाल थे वे गुमराह और अपनी इस गुमराही का बुरा अंजाम भी वे देखकर रहेंगे।
۞وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَ جَنَّٰتٖ مَّعۡرُوشَٰتٖ وَغَيۡرَ مَعۡرُوشَٰتٖ وَٱلنَّخۡلَ وَٱلزَّرۡعَ مُخۡتَلِفًا أُكُلُهُۥ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُتَشَٰبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٖۚ كُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَءَاتُواْ حَقَّهُۥ يَوۡمَ حَصَادِهِۦۖ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 140
(141) वह अल्लाह ही है जिसने तरह-तरह के बाग़ और ताकिस्तान116 और नख़लिस्तान पैदा किए, खेतियाँ उगाईं जिनसे भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं, जैतून और अनार के पेड़ पैदा किए जिनके फल रूप-रंग में मिलते-जुलते और स्वाद में भिन्न होते हैं। खाओ इनकी पैदावार, जबकि ये फलें और अल्लाह का हक़ अदा करो जब इनकी फसल काटो और से आगे न बढ़ो कि अल्लाह सीमा से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता ।
116.वास्तव में 'जन्नातिम मअ-रूशातिन्व व रो-र मअ-रूशातिन' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनसे अभिप्राय दो प्रकार के बाग़ हैं । एक वे जिनकी बेलें टट्टियों पर चढ़ाई जाती हैं, दूसरे वे जिनके पेड़ स्वयं अपने तनों पर खड़े रहते हैं। हमारी भाषा में बाग़ का शब्द केवल दूसरे प्रकार के बागों के लिए प्रयुक्त होता है, इसलिए हमने 'जन्नातिन गै-र मअ-रूशातिन' का अनुवाद 'बाग़' किया है और 'जन्नातिम मअ-रूशातिन' के लिए अंगूर के बाग़ का शब्द प्रयुक्त किया है।
وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ حَمُولَةٗ وَفَرۡشٗاۚ كُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 141
(142) फिर वही है जिसने चौपायों में से वे जानवर भी पैदा किए जिनसे सवारी का और बोझ ढोने का काम लिया जाता है और वे भी जो खाने और बिछाने के काम आते हैं।117 खाओ उन चीज़ों में से, जो अल्लाह ने तुम्हें दी हैं और शैतान का अनुपालन न करो कि वह तुम्हारा खुला शत्रु है।118
117.मूल अरबी शब्द 'फ़र्श' (बिछाना) प्रयुक्त हुआ है। जानवरों को फ़र्श कहना या तो इस वजह से है कि वे छोटे क़द के हैं और धरती से लगे हुए चलते हैं या इस वजह से कि वे ज़िब्ह के लिए धरती पर लिटाए जाते हैं या इस वजह से कि उनकी खालों और उनके बालों से फ़र्श बनाए जाते हैं।
118.वार्ता-क्रम को देखने से साफ़ मालूम होता है कि यहाँ अल्लाह तीन बाते मन में बिठाना चाहता है । एक यह कि ये बाग़ और खेत और ये जानवर जो तुमको प्राप्त हैं, ये सब अल्लाह के दिए हुए हैं, किसी दूसरे का इस देन में कोई हिस्सा नहीं है । इसलिए देन के शुक्रिए में भी किसी का कोई हिस्सा नहीं हो सकता। दूसरे यह कि जब ये चीजें अल्लाह की बख्शिश है तो उनके इस्तेमाल में अल्लाह ही के क़ानून का अनुपालन होना चाहिए। किसी दूसरे को हक़ नहीं पहुँचता कि उनके इस्तेमाल पर अपनी ओर से सीमाएँ निश्चित कर दे। अल्लाह के अलावा किसी और की निश्चित रस्मों की पाबन्दी करना और अल्लाह के सिवा किसी और के आगे नेमत के शुक्र की नज्र (भेट) पेश करना ही सीमा से आगे बढ़ जाना है, और यही शैतान का अनुपालन है। तीसरे यह कि ये सब चीजें अल्लाह ने इंसान के खाने-पीने और इस्तेमाल करने ही के लिए पैदा की हैं। इसलिए पैदा नहीं की कि इन्हें खामखाह हराम कर लिया जाए। अपने अंधविश्वास और अटकलों की बुनियाद पर जो पाबन्दियाँ लोगों ने अल्लाह की रोज़ी और उसकी दी हुई चीज़ों के इस्तेमाल पर लगा ली हैं, वे सभी अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध हैं।
ثَمَٰنِيَةَ أَزۡوَٰجٖۖ مِّنَ ٱلضَّأۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡمَعۡزِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ نَبِّـُٔونِي بِعِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 142
(143) ये आठ नर व मादा हैं, दो भेड़ की क़िस्म से और दो बकरी की क़िस्म से। ऐ नबी ! इनसे पूछो कि अल्लाह ने इनके नर हराम किए हैं या मादा या वे बच्चे जो भेड़ों और बकरियों के पेट में हों? ठीक-ठीक ज्ञान के साथ मुझे बताओ अगर तुम सच्चे हो।119
119.अर्थात अनुमान, अंधविश्वास या बाप-दादा की परम्पराएँ न पेश करो, बल्कि ज्ञान पेश करो अगर वह तुम्हारे पास हो।
وَمِنَ ٱلۡإِبِلِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ وَصَّىٰكُمُ ٱللَّهُ بِهَٰذَاۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا لِّيُضِلَّ ٱلنَّاسَ بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 143
(144) और इसी तरह दो ऊँट की क़िस्म से हैं और दो गाय की क़िस्म से । पूछो, इनके नर अल्लाह ने हराम किए हैं या मादा, या वे बच्चे जो ऊँटनी और गाय के पेट में हो?120 क्या तुम उस समय हाज़िर थे जब अल्लाह ने उनके हराम होने का आदेश तुम्हें दिया था? फिर उस व्यक्ति से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह से जोड़कर झूठी बात कहे, ताकि ज्ञान के बिना लोगों का ग़लत मार्गदर्शन करे। निश्चय ही अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता।
120.यह प्रश्न इस विस्तार के साथ उनके सामने इसलिए किया गया है कि उनपर स्वयं अपने उन अंधविश्वासों का अनुचित होना स्पष्ट हो जाए। यह बात कि एक ही जानवर का नर हलाल (वैध) हो और मादा हराम (अवैध) या मादा हलाल हो और नर हराम या जानवर स्वयं हलाल हो मगर उसका बच्चा हराम, यह स्पष्टत:ऐसी अनुचित बात है कि एक सही बुद्धि इसे मानने से इंकार करती है और कोई बुद्धिमान व्यक्ति यह कल्पना नहीं कर सकता कि अल्लाह ने ऐसी व्यर्थ बातों का आदेश दिया होगा। फिर जिस तरीक़े से क़ुरआन ने अरबवासियों को उनके इन अंधविश्वासों के अनुचित होने को समझाने की कोशिश की है, ठीक उसी का तरीक़े पर दुनिया की उन दूसरी क़ौमों को भी उनको अंधविश्वासपूर्ण व्यर्थ बातों पर सचेत किया जा सकता है जिनके अन्दर खाने-पीने की चीज़ों में हराम व हलाल होने की अनुचित पाबन्दियाँ और छूत-छात को क़ैदें पाई जाती हैं।
قُل لَّآ أَجِدُ فِي مَآ أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٖ يَطۡعَمُهُۥٓ إِلَّآ أَن يَكُونَ مَيۡتَةً أَوۡ دَمٗا مَّسۡفُوحًا أَوۡ لَحۡمَ خِنزِيرٖ فَإِنَّهُۥ رِجۡسٌ أَوۡ فِسۡقًا أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 144
(145) ऐ नबी ! इनसे कहो कि जो प्रकाशना (वह्य) मेरे पास आई है उसमें मैं तो कोई चीज़ ऐसी नहीं पाता जो किसी खानेवाले पर हराम हो, अलावा इसके कि वह मुर्दार हो या बहाया हुआ ख़ून हो या सुअर का मांस हो कि वह नापाक है, या फिस्क (नाफ़रमानी, अवज्ञा) हो कि अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़िब्ह किया गया हो121, फिर जो व्यक्ति विवशता की स्थिति में (कोई चीज़ इनमें से खा ले) बिना इसके कि वह अवज्ञा करने का इरादा रखता हो और बिना इसके कि वह ज़रूरत की हद से आगे निकल जाए, तो निश्चय ही तुम्हारा रब क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है ।
121.यह विषय क़ुरआन की सूरा-2, आयत 173 और सूरा-5, आयत 3 में आ चुका है और आगे सूरा-16 आयत 115 में आनेवाला है। सूरा-2 को आयत और इस आयत में प्रत्यक्ष में इतना मतभेद पाया जाता है कि वहाँ केवल 'ख़ून' कहा गया है और यहाँ ख़ून के साथ मस्फ़ूह' की क़ैद लगाई गई है। अर्थात ऐसा ख़ून जो किसी जानवर को घायल करके या ज़िब्ह करके निकाला गया हो। मगर वास्तव में यह मतभेद नहीं, बल्कि उस आदेश की व्याख्या है। इसी तरह सूरा-5 की आयत में इन चार चीज़ों के अलावा कुछ और चीज़ों के निषेध का उल्लेख मिलता है अर्थात वह जानवर जो गला घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो। लेकिन वास्तव में यह भी मतभेद नहीं है, बल्कि एक व्याख्या है जिससे मालूम होता है कि जो जानवर इस रूप में मारे गए हों, वे भी मुरदार की परिभाषा में आते हैं । यद्यपि इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में से एक गिरोह इस बात का क़ायल है कि पशु-आहार में से यही चार चीज़ें हराम हैं और इनके सिवा हर चीज़ खाई जा सकती है। यही राय हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) की थी। लेकिन बहुत-सी हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने कुछ चीज़ों के खाने से या तो मना फ़रमाया है या उन्हें नापसन्द किया है, जैसे पालतू गधे, कुचलियोंवाले दरिंदे और पंजोंवाले परिंदे । इस कारण अधिकतर फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) हराम होने को इन चार चीज़ों तक सीमित नहीं मानते, बल्कि दूसरी चीज़ों तक इसे विस्तृत कर देते हैं। लेकिन इसके बाद फिर विभिन्न चीज़ों के हराम व हलाल होते में फ़ुक़हा के बीच मतभेद हो गया है, जैसे पालतू गधे को इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम मालिक और इमाम शाफ़ई (रह०) हराम क़रार देते हैं, लेकिन कुछ दूसरे फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) कहते हैं कि वह हराम नहीं है, बल्कि किसी वजह से नबी (सल्ल.) ने एक मौक़े पर उसे निषेध कर दिया था। फाड़खानेवाले (दरिंदा) जानवरों और शिकारी परिंदों और मुरदार खानेवाले पशुओं को हनफ़िया पूर्ण रूप से हराम क़रार देते हैं, मगर इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक शिकारी परिंदे हलाल हैं। लैस के नज़दीक बिल्ली हलाल है। इमाम शाफ़ई के नज़दीक सिर्फ़ वे दरिंदे हराम हैं जो इंसान पर हमला करते हैं, जैसे शेर, भेड़िया, चीता आदि। इक्रिमा के नज़दीक कौवा और बिज्जू दोनों हलाल हैं। इसी तरह हनफ़िया तमाम कीड़ों-मकोड़ों को हराम क़रार देते हैं, पर इब्ने अबी लैला, इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक साँप हलाल है। इन तमाम विभिन्न बातों और इनके तर्कों पर विचार करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि वास्तव में अल्लाह के शरीअत में बिल्कुल हराम चीजें यही चार हैं जिनका उल्लेख क़ुरआन में किया गया है। इनके सिवा दूसरे पशु-मांस में विभिन्न की अप्रियता है। जिन चीज़ों की सही रिवायतों के अनुसार नबी (सल्ल.) से प्रमाणित है, वे हराम होने की श्रेणी से अधिक क़रीब हैं और जिन चीज़ों में फ़ुक़हा में मतभेद हुआ है, उनकी अप्रियता संदिग्ध है। रही स्वभाविक घृणा जिसकी बुनियाद पर कुछ लोग कुछ चीज़ों को खाना पसन्द नहीं करते, या वर्गीय घृणा की कराहत, जिसकी बुनियाद पर इंसानों के कुछ वर्ग कुछ चीज़ों को नापसन्द करते हैं या कौमी घृणा, जिसकी बुनियाद पर कुछ कौमें कुछ चीज़ों से नफ़रत करती हैं, तो अल्लाह की शरीअत किसी को विवश नहीं करती कि वह खामखाह हर उस चीज़ को ज़रूर ही ख़ा जाए जो हराम नहीं की गई है और इसी तरह शरीअत किसी को यह अधिकार भी नहीं देती कि वह अपनी नापसन्दीदगी को कानून करार दे ले और उन लोगों पर आरोप लगाए जो ऐसे खाने खाते हैं जिन्हें वह नापसन्द करता है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٖۖ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ وَٱلۡغَنَمِ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ شُحُومَهُمَآ إِلَّا مَا حَمَلَتۡ ظُهُورُهُمَآ أَوِ ٱلۡحَوَايَآ أَوۡ مَا ٱخۡتَلَطَ بِعَظۡمٖۚ ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِبَغۡيِهِمۡۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 145
(146) और जिन लोगों ने यहूदी मत अपनाया, उनपर हमने सब नाखूनवाले जानवर हराम कर दिए थे, और गाय और बकरी की चर्बी भी, अलावा उसके जो उनकी पीठ या उनकी आँतों से लगी हुई हो या हड्डी से लगी रह जाए। यह हमने उनकी उदंडता की सज़ा उन्हें दी थी,122 और यह जो कुछ हम कह रहे हैं, बिल्कुल सच कह रहे हैं ।
122.इस विषय का क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर उल्लेख हुआ है। सूरा-3 में फ़रमाया, “खाने की ये सारी चीज़ें (जो मुहम्मदी शरीअत में हलाल हैं), बनी इसराईल के लिए भी हलाल थीं, हाँ, कुछ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले इसराईल ने स्वयं अपने ऊपर हराम कर लिया था। इनसे कहो कि लाओ तौरात और पेश करो उसका कोई वाक्य अगर तुम (अपनी आपत्ति में) सच्चे हो।" (आयत 93) फिर सूरा-4 में फ़रमाया कि बनी इसराईल के अपराधों के कारण, "हमने बहुत-सी वे पाक चीजें उनपर हराम कर दी जो पहले उनके लिए हलाल थीं।" (आयत 160) और यहाँ कहा जा रहा है कि इनकी उदंडताओं के बदले में हमने इनपर तमाम नाखूनवाले जानवर हराम किए और बकरी और गाय की चर्बी भी उनके लिए हराम ठहरा दी। इन तीनों आयतों को जमा करने से मालूम होता है कि शरीअते मुहम्मदी और यहूदी फ़िक़ह (धर्मशास्त्र) के बीच पशु-आहार के हलाल और हराम होने के मामले में जो अंतर पाया जाता है उसके दो कारण हैं- एक यह कि तौरात उतरने से सदियों पहले हज़रत याकूब (अलैहि.) ने कुछ चीज़ों का इस्तेमाल छोड़ दिया था और उनके बाद उनकी सन्तान भी उन चीज़ों को छोड़नेवाली रही, यहाँ तक कि यहूदी फुकहा ने उनको बाक़ायदा हराम समझ लिया और उनका हराम होना तौरात में लिख दिया । इन चीज़ों में ऊँट और ख़रगोश और साफ़ान शामिल हैं। आज बाइबिल में तौरात के जो अंश हमें मिलते हैं उनमें इन तीनों चीज़ों के हराम होने का उल्लेख है (अबार 11 : 4-6, इस्तिस्ना 14 :7) । लेकिन कुरआन मजीद में यहूदियों को जो चैलेंज दिया गया था कि लाओ तौरात और दिखाओ ये चीजें कहाँ हराम लिखी हैं, इससे मालूम हुआ कि तौरात में इन आदेशों की बढ़ोत्तरी इसके बाद की गई है, क्योंकि अगर उस समय तौरात में ये आदेश मौजूद होते तो बनी इसराईल तुरन्त लाकर पेश कर देते। दूसरा कारण यह है कि अल्लाह की उतारी हुई शरीअत से जब यहूदियों ने विद्रोह किया और आप अपने नियम-निर्माता (शरीअत बनानेवाले) बन बैठे तो उन्होंने बहुत-सी पाक चीज़ों को अपनी बाल की खाल निकालनेवाली मनोवृति से स्वयं हराम कर लिया था और अल्लाह ने सज़ा के तौर पर उन्हें इस भ्रम में पड़े रहने दिया। इन चीज़ों में एक तो नाखूनवाले जानवर शामिल हैं, अर्थात शुतुरमुर्रा, क़ाज़, बत्तख आदि, दूसरे गाय और बकरी की चर्बी। बाइबिल में इन दोनों प्रकार की हराम को गई चीज़ों को तौरात के आदेशों में दाखिल कर दिया गया है (अस्बार 11 : 16-18, इस्तिस्ना 14 : 15-17, अहबार 3:17,7: 22-23) लेकिन सूरा-4 से मालूम होता है कि ये चीजें तौरात में हराम न थी, बल्कि हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाद हराम हुई हैं, और इतिहास भी गवाही देता है कि आज की यहूदी शरीअत दूसरी सदी ईसवी के आख़िर में रिब्बी यहूदाह के हाथों मुकम्मल हुई है। रहा यह प्रश्न कि फिर इन चीजों के बारे में यहाँ और सूरा-4 में अल्लाह ने 'हर्रमना' (हमने हराम किया) का शब्द क्यों इस्तामल किया? तो इसका उत्तर यह है कि अल्लाह के हराम करने को केवल यही एक शक्ल नहीं है कि वह किसी पैग़म्बर और किताब के द्वारा किसी चीज़ को हराम करे, बल्कि इसकी एक शक्ल यह भी है कि वह अपने विद्रोही बन्दों पर बनावटी शरीअत बनानेवालों और जाली कानून गढ़नेवालों को मुसल्लत कर दे और वे उनपर पाक चीज़ों को हराम कर दें। पहले प्रकार का हराम करना अल्लाह की ओर से रहमत के रूप में होता है और यह दूसरे प्रकार का हराम करना उसकी फिटकार और सजा के तौर पर हुआ करता है।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل رَّبُّكُمۡ ذُو رَحۡمَةٖ وَٰسِعَةٖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُهُۥ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 146
(147) अब अगर वे तुम्हें झुठलाएँ तो उनसे कह दो कि तुम्हारे रब की रहमत का दामन फैला हुआ है और अपराधियों से उसके अज़ाब को फेरा नहीं जा सकता।123
123.अर्थात अगर तुम अब भी अपनी अवज्ञा की रीति से रुक जाओ और बन्दगी की सही रीति की ओर पलट आओ तो अपने रब की रहमत के दामन को अपने लिए कुशादा हुआ पाओगे, लेकिन अगर अपनी इस अपराधपूर्ण व विद्रोहपूर्ण नीति पर अड़े रहोगे तो खूब जान लो कि उसके प्रकोप से भी फिर कोई बचानेवाला नहीं है।
سَيَقُولُ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكۡنَا وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ حَتَّىٰ ذَاقُواْ بَأۡسَنَاۗ قُلۡ هَلۡ عِندَكُم مِّنۡ عِلۡمٖ فَتُخۡرِجُوهُ لَنَآۖ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَخۡرُصُونَ ۝ 147
(148) ये मुशरिक लोग (तुम्हारी इन बातों के उत्तर में) ज़रूर कहेंगे कि “अगर अल्लाह चाहता तो न हम शिर्क करते और न हमारे बाप-दादा, और न हम किसी चीज़ को हराम ठहराते।124 ऐसी ही बातें बना-बनाकर इनसे पहले के लोगों ने भी सत्य को झुठलाया था, यहाँ तक कि अन्तत: हमारे अज़ाब का मज़ा उन्होंने चख लिया। इनसे कहो, "क्या तुम्हारे पास कोई ज्ञान है जिसे हमारे सामने ला सको? तुम तो केवल अटकल पर चल रहे हो और निरा अनुमान लगाते हो।”
124.अर्थात वे अपने अपराध और अपने ग़लत कामों के लिए वही पुराने बहाने पेश करेंगे जो हमेशा से अपराधी और ग़लत काम करनेवाले लोग पेश करते रहे हैं। वे कहेंगे कि हमारे हित में अल्लाह की यही इच्छा है कि हम शिर्क करें और जिन चीज़ों को हमने हराम ठहरा रखा है, उन्हें हराम ठहराएँ, वरना अगर अल्लाह न चाहता कि हम ऐसा करें तो कैसे संभव था कि ये काम हमसे होते । अत: चूँकि हम अल्लाह की इच्छा के अनुसार यह सब कुछ कर रहे हैं, इसलिए ठीक कर रहे हैं। उसका आरोप अगर है तो हम पर नहीं, अल्लाह पर है और जो कुछ हम कर रहे हैं, ऐसा ही करने पर विवश हैं कि इसके सिवा कुछ और करना हमारी सामर्थ्य के बाहर है।
قُلۡ فَلِلَّهِ ٱلۡحُجَّةُ ٱلۡبَٰلِغَةُۖ فَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 148
(149) फिर कहो, (तुम्हारे इस तर्क के मुकाबले में) “तथ्य तक पहुँचानेवाला तर्क तो अल्लाह के पास है, निस्संदेह अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको सीधे रास्ते पर चला देता।"125
125.यह उनके बहाने' का पूर्ण उत्तर है। इस उत्तर को समझने के लिए इसका विश्लेषण करके देखना चाहिए। पहली बात यह कही कि अपने ग़लत कामों और गुमराही की बातों के लिए अल्लाह की इच्छा को 'बहाने' के रूप में पेश करना और उसे बहाना बनाकर सही मार्गदर्शन को स्वीकार करने से इंकार करना अपराधियों का पुराना तरीक़ा रहा है, और इसका अंजाम यह हुआ है कि अन्ततः वे तबाह हुए और सत्य के विरुद्ध चलने का दुष्परिणाम उन्होंने देख लिया। फिर कहा कि यह बहाना जो तुम बना रहे हो, यह वास्तव में वास्तविक ज्ञान के अनुसार नहीं है, बल्कि मात्र गुमान और अटकल है। तुमने केवल अल्लाह की इच्छा का शब्द कहीं से सुन लिया और उसपर अटकल को एक इमारत खड़ी कर ली। तुमने यह समझा ही नहीं कि इंसान के हित में वास्तव में अल्लाह की इच्छा क्या है। तुम इच्छा का अर्थ यह समझ रहे हो कि चोर अगर अल्लाह के इच्छानुसार चोरी कर रहा है तो वह अपराधी नहीं है, क्योंकि उसने यह काम अल्लाह की इच्छा के अन्तर्गत किया है, हालाँकि वास्तव में इंसान के हित में अल्लाह की इच्छा यह है कि वह शुक्र और नाशुक्री, हिदायत और गुमराही, आज्ञाकारिता और अवज्ञा में से जो राह भी अपने लिए चुनेगा, अल्लाह वही राह उसके लिए खोल देगा और फिर ग़लत या सही जो काम भी इंसान करना चाहेगा, अल्लाह अपनी विश्वव्यापी मस्लहतों को ध्यान में रखते हुए जिस सीमा तक उचित समझेगा उसे उस काम की अनुमति और उसके करने का अवसर दे देगा। इसलिए अगर तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने अल्लाह की इच्छा के अन्तर्गत शिर्क और पाक चीज़ों के हराम करने का अवसर पाया तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम लोग अपने इन कामों के उत्तरदायी नहीं हो। रास्ते के अपने ग़लत चुनाव और अपने ग़लत इरादे और कोशिश के ज़िम्मेदार तो तुम स्वयं ही हो। अन्त में एक ही वाक्य के भीतर काँटे की बात भी कह दी कि 'फ़-लिल्लाहिल हुज्जतुल बालिग़ः, फ़-लौ शा-अ-ल-हदाकुम अज-मईन । “अर्थात तुम अपने बहाने में यह तर्क देते हो कि “अगर अल्लाह चाहता तो हम शिर्क न करते", इससे पूरी बात अदा नहीं होती, पूरी बात कहना चाहते हो तो यूँ कहो कि “अगर अल्लाह चाहता तो हम सबको हिदायत दे देता।" दूसरे शब्दों में तुम स्वयं अपने चुनाव से सीधा रास्ता अपनाने पर तैयार नहीं हो, बल्कि यह चाहते हो कि अल्लाह ने जिस तरह फ़रिश्तों को पैदाइशी तौर पर सीधी राह पर चलनेवाला बनाया था, उसी तरह तुम्हें भी बना देता। तो बेशक अगर अल्लाह की इच्छा इंसान के हक़ में यह होती तो वह ज़रूर ऐसा कर सकता था, लेकिन यह उसकी इच्छा नहीं है, इसलिए जिस गुमराही को तुमने अपने लिए स्वयं पसन्द किया है, अल्लाह भी तुम्हें उसी में पड़ा रहने देगा।
قُلۡ هَلُمَّ شُهَدَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ يَشۡهَدُونَ أَنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَ هَٰذَاۖ فَإِن شَهِدُواْ فَلَا تَشۡهَدۡ مَعَهُمۡۚ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَهُم بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ ۝ 149
(150) इनसे कहो कि “लाओ अपने वे गवाह जो इस बात की गवाही दें कि अल्लाह ही ने इन चीज़ों को हराम किया है।" फिर अगर वे गवाही दे दे तो तुम उनके साथ गवाही न देना126 और कदापि उन लोगों की इच्छाओं के पीछे न चलना जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया है और जो आखिरत के इंकारी हैं और जो दूसरों को अपने रब के बराबर ठहराते हैं।
126.अर्थात अगर वे गवाही की ज़िम्मदारी को समझते हों और जानते हों कि गवाही उसी बात की देनी चाहिए जिसका आदमी को ज्ञान हो, तो वे कभी यह गवाही देने का सहास न करेंगे कि खाने-पीने पर ये पाबन्दियाँ, जो उनके यहाँ रस्म के तौर पर प्रचलित हैं, और ये पाबन्दियाँ कि फलाँ चीज़ को फ़लाँ न खाए और फ़लाँ चीज़ को फलों का हाथ न लगे, ये सब अल्लाह की निश्चित की हुई हैं, लेकिन अगर ये लोग गवाही की ज़िम्मेदारी को महसूस किए बिना इतनी ढिठाई पर उतर आएँ कि अल्लाह का नाम लेकर झूठी गवाही देने में भी न झिझकें, तो उनके इस झूठ में तुम उनके साथी न बनो, क्योंकि उनसे यह गवाही इसलिए नहीं माँगी जा रही है कि अगर वे गवाही दे दें तो तुम उनकी बात मान लोगे, बल्कि इसका उद्देदश्य यह है कि इनमें से जिन लोगों के भीतर कुछ भी सत्यवादिता मौजूद है, उनसे जब कहा जाएगा कि क्या सचमुच तुम सच्चाई इस बात की गवाही दे सकते हो कि ये कानून अल्लाह ही के निश्चित किए हुए हैं, तो वे अपनी रस्मों की वास्तविकता पर विचार करेंगे और जब उनके अल्लाह की ओर से होने का कोई प्रमाण न पाएँगे तो इन व्यर्थ की रस्मों की पाबन्दी से बाज़ आ जाएँगे।
۞قُلۡ تَعَالَوۡاْ أَتۡلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمۡ عَلَيۡكُمۡۖ أَلَّا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗاۖ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُم مِّنۡ إِمۡلَٰقٖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكُمۡ وَإِيَّاهُمۡۖ وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَۖ وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 150
(151) ऐ नबी ! इनसे कहो कि आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारे रब ने तुमपर क्या पाबंदियाँ लगाई है127 यह कि उसके साथ किसी को शरीक न करो128 और माँ-बाप के साथ भला बर्ताव करो129, और अपनी औलाद को निर्धनता के डर से क़त्ल न करो, हम तुम्हें भी रोज़ी देते हैं और उनको भी देंगे, और निर्लज्जता की बातों के क़रीब भी न जाओ130 भले ही वे खुली हों या छिपी, और किसी जान की जिसे अल्लाह ने प्रतिष्ठित ठहराया है हत्या न करो, मगर सत्य के साथ।131 ये बातें हैं जिनका मार्गदर्शन उसने तुम्हें किया है, शायद कि तुम समझ-बूझ से काम लो ।
127.अर्थात तुम्हारे रब की डाली हुई पाबन्दियाँ वे नहीं हैं जिनमें तुम गिरफ्तार हो, बल्कि वास्तविक पाबन्दियाँ ये हैं जो अल्लाह ने मानव-जीवन को नियमित करने के लिए लगाई हैं और जो सदा से अल्लाह के विधान की जड़-बुनियाद रही हैं । (तुलना के लिए देखिए बाइबिल की किताब निर्गम, अध्याय 20)
128.अर्थात न अल्लाह को ज़ात में किसी को उसका शरीक ठहराओ, न उसके गुणों में, न उसके अधिकारों में और न उसके हक़ों में। ज़ात में शिर्क यह है कि ईश्वरीय गुणों में किसी को भागीदार बना दिया जाए, जैसे ईसाइयों को त्रियेक परमेश्वर की धारणा, अरब के मुशरिकों का फरिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ करार देना और दूसरे मुशरिकों का अपने देवताओं और देवियों को और अपने शाही ख़ानदानों को ईश्वर का वंश बताना ये सब ज़ात में शरीक ठहराना है। विशेषताओं एवं गुणों में शिर्क यह है कि ईश्वरीय गुणों जैसा कि वे अल्लाह के लिए हैं, वैसा ही उनको या उनमें से किसी विशेषता को किसी दूसरे के लिए करार देना, जैसे किसी के बारे में यह समझना कि उसपर परोक्ष (ग़ैब) के सारे तथ्य रौशन हैं या वह सब कुछ सुनता और देखता है या वह तमाम ऐबों और तमाम कमजोरियों से पाक और बिल्कुल बे खता है। अधिकारों में शिर्क यह है कि अल्लाह होने की हैसियत से जो अधिकार सिर्फ़ अल्लाह के लिए मुख्य हैं, उनको या उनमें से किसी को अल्लाह के सिवा किसी और के लिए स्वीकार किया जाए। जैसे प्राकृतिक ढंग से लाभ व हानि पहुँचाना, ज़रूरतें पूरी करना, सहारा बनना, सुरक्षा व निगरानी करना, दुआएँ सुनना और भाग्य को बनाना और बिगाड़ना, साथ ही हराम व हलाल और जाइज़ व नाजाइज़ की सीमाएँ तय करना और मानव-जीवन के लिए कानून व शरीअत निर्धारित करना। ये सब अल्लाह के मुख्य अधिकार हैं जिनमें से किसी को गैर-अल्लाह के लिए मानना शिर्क है। हकों में शिर्क यह है कि अल्लाह होने को हैसियत से बन्दों पर अल्लाह के जो खास हक हैं, वे या उनमें से कोई हक, अल्लाह के सिवा किसी और के लिए माना जाए, जैसे रुकूअ (झुकना) व सज्दा (नतमस्तक होना), हाथ बाँधकर खड़ा होना, सलामी व आस्ताना बोसी, नेमत का शुक्र या बरतरी मानने के लिए नज़्र व नियाज़ और कुरबानी, जरूरतों को पूरी करना और कठिनाइयों को दूर काने के लिए मनौती, मुसीबतों और परेशानियों में मदद के लिए पुकारा जाना और ऐसी ही पूजा-पाठ की दूसरी तमाम शक्लें अल्लाह के विशेष हकों और अधिकारों में से हैं। इसी तरह ऐसा महबूब (प्रिय) होना कि उसकी मुहब्बत पर दूसरी सब मुहब्बतें क़ुरबान की जाएँ और ख़ुदा के डर जैसा हक़ रखना कि गैब व शहादत (खुले या छिपे) में उसकी नाराजी और उसके हुक्म की खिलाफवर्जी से डरा जाए, और यह भी अल्लाह ही का हक़ है कि उसकी बिना शर्त इताअत (आज्ञपालन) की जाए और उसकी हिदायत को सही व ग़लत का मेयार (मापदंड) माना जाए और किसी ऐसी इताअत का फंदा अपनी गर्दन में न डाला जाए जो अल्लाह की इताअत से आज़ाद एक स्थाई इताअत हो और जिसके हुक्म के लिए अल्लाह के हुक्म का प्रमाण न हो। इन हकों में से जो हक़ भी दूसरों को दिया जाएगा, वह अल्लाह का शरीक ठहरेगा, चाहे उसको अल्लाह के नामों में से कोई नाम दिया जाए या न दिया जाए।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۖ وَإِذَا قُلۡتُمۡ فَٱعۡدِلُواْ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰۖ وَبِعَهۡدِ ٱللَّهِ أَوۡفُواْۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 151
(152) और यह कि यतीम के माल के क़रीब न जाओ, मगर ऐसे तरीके से जो सबसे अच्छा हो132, यहाँ तक कि वह अपने 'सिन्ने रुश्द' (युवावस्था) को पहुँच जाए, और नाप-तौल में पूरा न्याय करो। हम हर व्यक्ति पर दायित्व का उतना ही बोझ डालते हैं जितना उसके वश में है133 और जब बात कहो, न्याय की कहो, चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो, और अल्लाह की प्रतिज्ञा को पूरा करो।134 इन बातों की हिदायत अल्लाह ने तुम्हें की है, शायद कि तुम नसीहत क़बूल करो,
132.अर्थात ऐसा तरीक़ा जिसमें अधिक से अधिक निस्वार्थता, निष्ठा और यतीम का भला चाहा गया हो और जिसपर अल्लाह और दुनिया, किसी की ओर से भी तुमपर आपत्ति न की जा सके।
133.यह यद्यपि अल्लाह की शरीअत (ईश्वरीय विधान) का एक स्थायी नियम है,लेकिन यहाँ उसके बताने का उद्देश्य यह है कि जो आदमी अपनी हद तक नाप-तौल और लेन-देन के मामलों में सत्य और न्याय से काम लेने की कोशिश करे, वह अपने दायित्व से बरी हो जाएगा। भूल-चूक या अनजानी कमी-बेशी हो जाने पर उससे पूछगछ न होगी।
وَأَنَّ هَٰذَا صِرَٰطِي مُسۡتَقِيمٗا فَٱتَّبِعُوهُۖ وَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلسُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمۡ عَن سَبِيلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 152
(153) साथ ही उसकी हिदायत यह है कि यही मेरा सीधा रास्ता है, इसलिए तुम इसी पर चलो और दूसरे रास्तों पर न चलो कि वे उसके रास्ते से हटाकर तुम्हें बिखेर देंगे।135 यह है वह हिदायत जो तुम्हारे रब ने तुम्हें की है, शायद कि तुम पथ-भ्रष्टता से बचो।
135.ऊपर जिस स्वाभाविक प्रतिज्ञा का उल्लेख हुआ है, यह उस प्रतिज्ञा का ज़रूरी तकाज़ा है कि इंसान अपने रब के बताए हुए रास्ते पर चले, क्योंकि उसके आदेश के पालन से मुँह मोड़ना और स्वच्छन्दता या स्वायत्ता या दूसरे की बन्दगी की ओर कदम बढ़ाना इंसान की ओर से उस प्रतिज्ञा की पहली ख़िलाफ़वर्ज़ी है जिसके मामी बाद हर कदम पर उसकी धाराएँ टूटती चली जाती हैं । इसके अलावा इस अत्यन्त नाजुक, अत्यन्त विस्तृत और अत्यंत पेचीदा प्रतिज्ञा की ज़िम्मेदारियों से इंसान कदापि अपने को अलग नहीं कर सकता जब तक न कि वह अल्लाह की रहनुमाई को स्वीकार करके उसके बताए हुए रास्ते पर जीवन न बिताए । उसको स्वीकार न करने की दो ज़बरदस्त हानियाँ हैं। एक यह कि हर दूसरे रास्ते की पैरवी अनिवार्य रूप से इंसान को उस राह से हटा देती है जो अल्लाह के सान्निध्य और उसकी प्रसन्नता तक पहुँचने की एक ही राह है। दूसरे यह कि उस से हटते ही अनगिनत पगडंडियाँ सामने आ जाती हैं जिनमें भटककर पूरी मानव-जाति बिखर जाती है और उस बिखराव के साथ ही उसकी परिपक्वता एवं विकास का सपना भी fine बिखरकर रह जाता है। इन्हीं दोनों हानियों को इस वाक्य में बयान किया गया है कि "दूसरे रास्तों पर न चलो कि वे तुम्हें उसके रास्ते से हटाकर बिखेर देंगे।" (देखिए सूरा-5,टिप्पणी न० 35)
ثُمَّ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ تَمَامًا عَلَى ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 153
(154) फिर हमने मूसा को किताब दी थी जो भलाई को नीति अपनानेवाले इंसान पर नेमत की पूर्ति और हर ज़रूरी चीज़ का विवेचन और पूर्ण रूप से हिदायत व रहमत थी (और इसलिए बनी इसराईल को दी गई थी कि शायद लोग अपने रब की मुलाक़ात पर ईमान लाएँ।136
136.रब की मुलाक़ात पर ईमान लाने से तात्पर्य अपने आपको अल्लाह के सामने उत्तरदायी समझना और उत्तरदायित्त्वपूर्ण जीवन बिताना है। यहाँ इस कथन के दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि स्वयं बनी इसराईल में इस किताब को विद्वतापूर्ण शिक्षा से दायित्व-भाव जाग जाए। दूसरे यह कि आम लोग उस उच्च श्रेणी की जीवन-व्यवस्था का अध्ययन करके और सदाचारी लोगों में हिदायत की इस नेमत और इस रहमत के प्रभाव देखकर यह महसूस कर लें कि आखिरत के इंकार के अनुत्तर-दायित्त्वपूर्ण जीवन के मुकाबले में वह जीवन हर दृष्टि से बेहतर है जो आखिरत के इकरार की बुनियाद पर दायित्त्वपूर्ण ढंग से बसर की जाती है, और इस तरह यह अवलोकन एवं अध्ययन उन्हें इंकार से ईमान को ओर खींच लाए।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ فَٱتَّبِعُوهُ وَٱتَّقُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 154
(155) और इसी तरह यह किताब हमने उतारी है, एक बरकतवाली किताब। तो तुम इसका पालन करो और तक़वा (ईश-भय, संयम) का तरीका अपनाओ। असंभव नहीं कि तुमपर कृपा की जाए।
أَن تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أُنزِلَ ٱلۡكِتَٰبُ عَلَىٰ طَآئِفَتَيۡنِ مِن قَبۡلِنَا وَإِن كُنَّا عَن دِرَاسَتِهِمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 155
(156) अब तुम यह नहीं कह सकते कि किताब तो हमसे पहले के दो गिरोहों को दी गई थी137, और हमको कुछ खबर न थी कि वे क्या पढ़ते-पढ़ाते थे।
137.अर्थात यहूदियों और ईसाइयों को।
أَوۡ تَقُولُواْ لَوۡ أَنَّآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡكِتَٰبُ لَكُنَّآ أَهۡدَىٰ مِنۡهُمۡۚ فَقَدۡ جَآءَكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَصَدَفَ عَنۡهَاۗ سَنَجۡزِي ٱلَّذِينَ يَصۡدِفُونَ عَنۡ ءَايَٰتِنَا سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يَصۡدِفُونَ ۝ 156
(157) और अब तुम यह बहाना भी नहीं कर सकते कि अगर हमपर किताब उतारी गई होती तो हम उनसे ज़्यादा हिदायत पर होनेवाले साबित होते। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक रौशन दलील और हिदायत और रहमत आ गई है, अब उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की आयतों को झुठलाए और उनसे मुँह मोड़े।138 जो लोग हमारी आयतों से मुँह मोड़ते हैं उन्हें इस मुँह मोड़ने के बदले में हम बहुत-ही बुरी सज़ा देकर रहेंगे।
138.अल्लाह की आयतों से तात्पर्य उसकी वे बातें भी हैं जो कुरआन की शक्ल में लोगों के सामने पेश की जा रही थीं और वे निशानियाँ भी जो नबी (सल्ल०) के व्यक्तित्व और आप (सल्ल०) पर ईमान लानेवालों के पवित्र जीवन में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थीं और सृष्टि के वे लक्षण भी जिन्हें क़ुरआन अपनी दावत (सन्देश) के समर्थन में गवाही के रूप में पेश कर रहा था।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ رَبُّكَ أَوۡ يَأۡتِيَ بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَۗ يَوۡمَ يَأۡتِي بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفۡسًا إِيمَٰنُهَا لَمۡ تَكُنۡ ءَامَنَتۡ مِن قَبۡلُ أَوۡ كَسَبَتۡ فِيٓ إِيمَٰنِهَا خَيۡرٗاۗ قُلِ ٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 157
(158) क्या अब लोग इस इंतिज़ार में हैं कि उनके सामने फ़रिश्ते आ खड़े हों या तुम्हारा रब स्वयं आ जाए या तुम्हारे रब की कुछ खुली निशानियाँ 139 ज़ाहिर हो जाएँ? जिस दिन तुम्हारे रब को कुछ विशेष निशानियाँ प्रकट हो जाएँगी, फिर किसी ऐसे आदमी को उसका ईमान कुछ फ़ायदा न देगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो ।140 ऐ नबी ! इनसे कह दो कि अच्छा, तुम इन्तिज़ार करो, हम भी इन्तिज़ार करते हैं।
139.अर्थात क़ियामत की निशानियाँ या अज़ाब या कोई और ऐसी निशानी जो वास्तविकता को बिल्कुल स्‍पष्ट कर देनेवाली हो और जिसके सामने आ जाने के बाद परीक्षा और आजमाइश का कोई प्रश्न बाकी न रहे।
140.अर्थात ऐसी निशानियों को देख लेने के बाद अगर कोई इंकारी अपने इंकार से तौबा करके ईमान ले आए कि तो उसका ईमान लाना व्यर्थ है और अगर कोई नाफरमान मोमिन आदमी अपनी नाफ़रमानी की नीति माग छोड़कर आज्ञापालक हो जाए तो उसका आज्ञापालन भी निरर्थक है, इसलिए कि ईमान और आज्ञापालन की क़द्र (मूल्य) तो उसी समय तक है, जब तक वास्तविकता परदे में है, मोहलत की रस्सी लंबी नज़र आ रही है की और दुनिया धोखे भरी अपनी तमाम पूँजी के साथ यह धोखा देने के लिए मौजूद है कि कैसा अल्लाह और कहाँ की आख़िरत, बस खाओ-पियो और मौज करो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗا لَّسۡتَ مِنۡهُمۡ فِي شَيۡءٍۚ إِنَّمَآ أَمۡرُهُمۡ إِلَى ٱللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 158
(159) जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही, उनसे तुम्हारा कुछ वास्ता नहीं।141 उनका मामला तो अल्लाह के सुपुर्द है । वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।
141.सम्बोधन नबी (सल्ल०) से है और आपके वास्ते से सत्य-धर्म के तमाम अनुयाइयों से सम्बोधन है । कहने का अर्थ यह है कि मूल दीन सदा से यही रहा है और अब भी यही है कि एक अल्लाह को उपास्य और पालनहार माना जाए। अल्लाह की ज़ात, गुणों, अधिकारों और हकों में किसी को शरीक न किया जाए। अल्लाह के सामने अपने आपको उत्तरदायी समझते हुए आखिरत पर ईमान लाया जाए और उन विस्तृत सिद्धान्तों और नियमों के अनुसार ज़िन्दगी बसर की जाए जिनकी शिक्षा अल्लाह ने अपने रसूलों और किताबों के ज़रिए से दी है। यही दीन (धर्म) तमाम इंसानों को जन्म के पहले दिन से दिया गया था। बाद में जितने अलग-अलग धर्म बने, वे सब के सब इस तरह बने कि अलग-अलग युग के लोगों ने अपने मन की ग़लत उपज से या मनोकामनाओं के ग़लबे से या श्रद्धा के अतिरेक से इस दीन को बदला और इसमें नई-नई बातें मिला दीं। इसकी धारणाओं में अपने अंधविश्वासों और अटकलों और दर्शनों से कमी व बेशी और फेर बदल की। इसके हुक्मों और आदेशों में नई-नई बातों को बढ़ोत्तरी की, अपने आप गढ़े हुए कानून बनाए, छोटी-छोटी और अमौलिक बातों में बाल की खाल निकाली, गैर-ज़रूरी मतभेदों को हदों से बढ़ाया, अहम को गैर-अहम और गैर-अहम को अहम बनाया। उसके लानेवाले नबियों और उसके ध्वजावाहक बुजुर्गों में से किसी से श्रद्धा रखने में हद से बढ़ गए और किसी को शत्रुता और विरोध का निशाना बनाया। इस तरह अनगिनत धर्म और सम्प्रदाय बनते चले गए और हर धर्म और सम्प्रदाय का जन्म मानव-जाति को लड़नेवाले गिरोहों में बाँटता चला गया। अब जो आदमी भी वास्तविक सत्य धर्म का अनुयायी हो, उसके लिए अनिवार्य है कि इन सारी गिरोहबन्दियों से अलग हो जाए और उन सबसे अपना रास्ता अलग कर ले।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ عَشۡرُ أَمۡثَالِهَاۖ وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَلَا يُجۡزَىٰٓ إِلَّا مِثۡلَهَا وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 159
(160) जो अल्लाह के पास नेको लेकर आएगा उसके लिए दस गुना अज्र (बदला) है और जो बदी लेकर आएगा उसको उतना ही बदला दिया जाएगा जितना उसने कुसूर किया है, और किसी पर ज़ुल्म न किया जाएगा।
قُلۡ إِنَّنِي هَدَىٰنِي رَبِّيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ دِينٗا قِيَمٗا مِّلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۚ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 160
(161) ऐ नबी ! कहो, मेरे रब ने निश्चित रूप से मुझे सीधा रास्ता दिखा दिया है, बिल्कुल ठीक दीन जिसमें कोई टेढ़ नहीं, इबराहीम का तरीक़ा142 जिसे एकाग्र होकर उसने अपनाया था और वह मुशरिकों में से न था।
142.'इबराहीम का तरीक़ा', यह उस रास्ते की निशानदेही के लिए एक और परिभाषा है। यद्यपि उसको 'मूसा का तरीक़ा' या 'ईसा का तरीक़ा' भी कहा जा सकता था मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) की ओर दुनिया ने यहूदी मत को और हज़रत ईसा की ओर ईसाई मत को जोड़ रखा है, इसलिए 'इबराहीम का तरीक़ा फ़रमाया है। हज़रत इबराहीम को यहूदी और ईसाई दोनों गिरोह सत्य पर मानते हैं और दोनों यह भी जानते हैं कि यह यहूदी मत और ईसाई मत के जन्म से बहुत पहले गुज़र चुके थे। साथ ही अरब के मुशरिक भी उनको सत्य-मार्गी मानते थे और अपनी अज्ञानता के बावजूद कम से कम इतनी बात उन्हें भी स्वीकार थी कि काबा की बुनियाद रखनेबाला पवित्र इंसान विशुद्ध ख़ुदापरस्त (ईश्वरवादी) था न कि बुतपरस्त।
قُلۡ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحۡيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 161
(162) कहो, मेरी नमाज़, मेरी इबादत की तमाम रस्में143, मेरा जीना और मेरा मरना, सब कुछ अल्लाह सारे संसार के रब के लिए है
143.मूल शब्द 'नुसुक' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ कुरबानी भी है और यह आम तौर से बन्दगी व उपासना की दूसरी तमाम शक्लों के लिए भी प्रयुक्त होता है।
لَا شَرِيكَ لَهُۥۖ وَبِذَٰلِكَ أُمِرۡتُ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 162
(163) जिसका कोई शरीक नहीं। इसी का मुझे हुक्म दिया गया है और सबसे पहले आज्ञापालन का सिर झुकानेवाला मैं हूँ।
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِي رَبّٗا وَهُوَ رَبُّ كُلِّ شَيۡءٖۚ وَلَا تَكۡسِبُ كُلُّ نَفۡسٍ إِلَّا عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرۡجِعُكُمۡ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 163
(164) कहो, क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और रब खोजुं, हालाँकि वही हर चीज़ का रब है ?144 हर आदमी जो कुछ कमाता है उसका ज़िम्मेदार वह स्वयं है, कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाता145 , फिर तुम सबको अपने रब की ओर पलटना है, उस समय वह तुम्हारे मतभेदों की वास्तविकता तुमपर खोल देगा ।
144.अर्थात सृष्टि की सारी चीज़ों का रब तो अल्लाह है, मेरा रब कोई और कैसे हो सकता है ? किस तरह यह बात बुद्धि-संगत हो सकती है कि सारी सृष्टि तो अल्लाह की आज्ञापालन-व्यवस्था पर चल रही है और सृष्टि का एक हिस्सा होने की हैसियत से मेरा अपना अस्तित्व भी उसी व्यवस्था पर अमल कर रहा हो,मगर मैं अपनी विवेकपूर्ण और अधिकार-पूर्ण ज़िन्दगी के लिए कोई और रब खोजूँ? क्या पूरी सृष्टि के विरुद्ध मैं अकेला एक दूसरी दिशा में चल पडूँ ?
145.अर्थात हर आदमी स्वयं ही अपने कर्म का ज़िम्मेदार है, एक के कर्म की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं है।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَكُمۡ خَلَٰٓئِفَ ٱلۡأَرۡضِ وَرَفَعَ بَعۡضَكُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ إِنَّ رَبَّكَ سَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمُۢ ۝ 164
(165) वही है जिसने तुमको ज़मीन का ख़लीफ़ा बनाया और तुममें से कुछ को कुछ के मुकाबले में ज़्यादा ऊँचे दर्जे दिए, ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसमें तुम्हारी आज़माइश करे ।146 निस्सन्देह तुम्हारा रब सज़ा देने में भी बहुत तेज़ है और बहुत क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला भी है।
146.इस वाक्य में तीन वास्तविकताएँ बयान की गई हैं- एक यह कि तमाम इंसान धरती में अल्लाह के खलीफ़ा हैं इस अर्थ में कि अल्लाह ने अपनी पैदा की हुई चीज़ों में से बहुत-सी चीजें उनकी अमानत में दी हैं और उनको इस्तेमाल के अधिकार दिए हैं, दूसरे यह कि इन ख़लीफ़ों में श्रेणी का अन्तर भी अल्लाह ही ने रखा है, किसी को अमानत का क्षेत्र विस्तृत है और किसी का सीमित, किसी को ज़्यादा चीज़ों के उपभोग के अधिकार दिए हैं और किसी को कम चीज़ों पर, किसी को धक काम करने की क्षमता दी है और किसी को कम और कुछ इंसान भी कुछ इंसानों को अमानत में हैं। तीसरे यह कि यह सब कुछ वास्तव में परीक्षा का सामान है। पूरी जीवन एक परीक्षा-स्थली है और जिसको जो कुछ भी अल्लाह ने दिया है, उसी में उसकी परीक्षा है कि उसने किस तरह अल्लाह की अमानत का उपभोग किया, कहाँ तक अमानत की ज़िम्मेदारी को समझा और उसका हक़ अदा किया और किस सीमा तक अपनी योग्यता या अयोग्यता का प्रमाण दिया। इसी परीक्षा के नतीजे पर जीवन के दूसरे मरहले में इंसान की श्रेणी का निधारण निर्भर है।