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سُورَةُ غَافِرٍ

40. अल-मोमिन

(मक्का में उतरी, आयतें 85)

परिचय

नाम

आयत 28 के वाक्य “व क़ा-ल रजलुम-मोमिनुम-मिन आलि फ़िरऔ-न" ( फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमान रखनेवाला व्यक्ति (अल-मोमिन) बोल उठा) से लिया गया है। अर्थात् वह सूरा जिसमें उस विशेष 'मोमिन' (ईमानमाले) का उल्लेख हुआ है। [इस सूरा का एक नाम ‘ग़ाफ़िर’ भी है, सूरा की आयत 3 में आए शब्द ‘ग़ाफ़िर’ से लिया गया है।]  

उतरने का समय

इब्‍ने-अब्‍बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का बयान है कि यह सूरा, सूरा-39 ज़ुमर के बाद उतरी है और इसका जो स्थान क़ुरआन मजीद के वर्तमान क्रम में है, वही क्रम अवतरण के अनुसार भी है।

उतरने की परिस्थितियाँ

जिन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी है, उनकी ओर स्पष्ट संकेत इसकी विषय वस्तु में मौजूद है। मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उस समय नबी (सल्ल०) के विरुद्ध दो प्रकार की कार्रवाइयाँ शुरू कर रखी थीं। एक यह कि हर ओर झगड़े और विवाद छेड़कर और नित नए मिथ्यारोपण द्वारा क़ुरआन की शिक्षा और इस्लाम की दावत और स्वयं नबी (सल्ल०) के बारे में अधिक से अधिक सन्देह और बुरे विचार आम लोगों के दिलों में पैदा कर दिए जाएँ। दूसरे यह कि आप (सल्ल०) की हत्या के लिए माहौल तैयार किया जाए। अतएव इस उद्देश्य के लिए वे निरंतर षड्‍यंत्र रच रहे थे।

विषय और वार्ता

परिस्थितियों के इन दोनों पहलुओं को अभिभाषण के आरंभ ही में स्पष्ट कर दिया गया है और फिर आगे का सम्पूर्ण अभिभाषण इन्हीं दोनों की एक अत्यन्त प्रभावी और शिक्षाप्रद समीक्षा है। हत्या के षड्‍यंत्र के जवाब में आले-फ़िरऔन में से एक मोमिन व्यक्ति का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है (आयत 23 से लेकर 55 तक)। और इस वृत्तान्त के रूप में तीन गिरोहों को तीन अलग-अलग शिक्षाएँ दी गई हैं-

(1) इस्लाम-विरोधियों को बताया गया है कि जो कुछ तुम मुहम्मद (सल्ल०) के साथ करना चाहते हो, यहांँ कुछ अपनी शक्ति के भरोसे पर फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ करना चाहता था, अब क्या ये हरकतें करके तुम भी उसी परिणाम को देखना चाहते हो जिस परिणाम को उसे देखना पड़ा था?

(2) मुहम्मद (सल्ल०) और उनके अनुयायियों को शिक्षा दी गई है कि [इन ज़ालिमों की बड़ी से बड़ी भयावह धमकी] के जवाब में बस अल्लाह की पनाह माँग लो और इसके बाद बिल्कुल निर्भय होकर अपने काम में लग जाओ। इस तरह अल्लाह के भरोसे पर ख़तरों और आशंकाओं से बेपरवाह होकर काम करोगे तो आख़िरकार उसकी मदद आकर रहेगी और आज के फ़िरऔन भी वही कुछ देख लेंगे जो कल के फ़िरऔन देख चुके हैं।

(3) इन दो गिरोहों के अलावा एक तीसरा गिरोह भी समाज में मौजूद था और वह उन लोगों का गिरोह था जो दिलों में जान चुके थे कि सत्य मुहम्मद (सल्ल०) ही के साथ है। मगर यह जान लेने के बावजूद वे चुपचाप सत्य-असत्य के इस संघर्ष का तमाशा देख रहे थे। अल्लाह ने इस अवसर पर उनकी अन्तरात्मा को झिंझोड़ा है और उन्हें बताया है कि जब सत्य के शत्रु खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी आँखों के सामने इतना बड़ा ज़ुल्म भरा क़दम उठाने पर तुल गए हैं, तो अफ़सोस है तुम पर अगर अब भी तुम बैठे तमाशा ही देखते रहो। इस हालत में जिस व्यक्ति की अन्तरात्मा बिल्‍कुल मर न चुकी हो उसे तो उठकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो फ़िरऔन के भरे दरबार में उसके अपने दरबारियों में से एक सत्यवादी व्यक्ति ने उस समय निभाया था जब फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल करना चाहा था। अब रहा इस्लाम-विरोधियों का वह तर्क-वितर्क जो सत्य को नीचा दिखाने के लिए मक्का मुअज़्ज़मा में रात-दिन जारी था, तो उसके उत्तर में एक ओर प्रमाणों के द्वारा तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की उन धारणाओं का सत्य होना सिद्ध किया गया है जो मुहम्मद (सल्ल०) और इस्लाम-विरोधियों के बीच झगड़े की असल जड़ थी। दूसरी ओर उन मूल प्रेरक तत्त्वों को स्पष्ट रूप से सामने लाया गया है जिनके कारण क़ुरैश के सरदार इतनी सरगर्मी के साथ नबी (सल्ल०) के विरुद्ध लड़ रहे थे। अतएव आयत 56 में यह बात किसी लाग-लपेट के बिना उनसे साफ़ कह दी गई है कि तुम्हारे इंकार का मूल कारण वह दंभ है, जो तुम्हारे दिलों में भरा हुआ है। तुम समझते हो कि अगर लोग मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी को मान लेंगे तो तुम्हारी बड़ाई कायम न रह सकेगी। इसी सिलसिले में विधर्मियों को बार-बार चेतावनियाँ दी गई हैं कि अगर अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में लड़ने-झगड़ने से बाज़ न आओगे तो उसी परिणाम का सामना करना पड़ेगा, जिसका सामना पिछली जातियों को करना पड़ा है।

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سُورَةُ غَافِرٍ
40. अल-मोमिन (फ़ातिर)
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 1
(2) इस किताब का अवतरण अल्लाह की ओर से है, जो प्रभुत्वशाली है, सब कुछ जाननेवाला है,
غَافِرِ ٱلذَّنۢبِ وَقَابِلِ ٱلتَّوۡبِ شَدِيدِ ٱلۡعِقَابِ ذِي ٱلطَّوۡلِۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ إِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 2
(3) गुनाह माफ़ करनेवाला और तौबा क़बूल करनेवाला है, कड़ी सजा देनेवाला और बड़ा मेहरबान है, कोई उपास्य उसके सिवा नहीं, उसी की ओर सबको पलटना है।1
1. यह व्याख्यान की प्रस्तावना है, जिसके द्वारा सुननेवालों को पहले ही सचेत कर दिया गया है कि यह वाणी (कलाम), जो उनके सामने प्रस्तुत की जा रही है, किसी साधारण हस्ती की वाणी नहीं है, बल्कि उस ख़ुदा की ओर से अवतरित की गई है जिसके ये और ये गुण हैं- एक यह कि वह 'जबरदस्त' (प्रभुत्वशाली) है, अर्थात् सबपर उसका प्रभुत्व है। उसका जो फैसला भी किसी के हक़ में हो, लागू होकर ही रहता है। इसलिए उसके फ़रमान से मुँह मोड़कर अगर कोई व्यक्ति सफलता की आशा करता हो और उसके रसूल से झगड़ा करके यह उम्मीद रखता है कि वह उसे नीचा दिखा देगा, तो यह उसकी अपनी मूर्खता है। दूसरा गुण यह कि वह 'सब कुछ जाननेवाला' है, अर्थात् वह हर चीज़ का सीधे तौर पर ज्ञान रखता है, इसलिए अनुभूति और चेतना से परे के तथ्यों के बारे में जो ज्ञान वह दे रहा है, सिर्फ वही सही हो सकता है। इसी तरह वह जानता है कि इंसान की भलाई किस चीज़ में है। इसलिए उसके मार्गदर्शन को स्वीकार न करने का अर्थ यह है कि आदमी खुद अपनी तबाही के रास्ते पर जाना चाहता है। फिर इंसानों की गतिविधियों और आचरण, यहाँ तक कि वह उन नीयतों और इरादों तक को जानता है जो इंसानों के कमी के मूल प्रेरक होते हैं। इसलिए इंसान किसी बहाने उसकी सज़ा से बचकर नहीं निकल सकता। तीसरा यह कि 'वह गुनाह माफ़ करनेवाला' और 'तौबा क़बूल करनेवाला है।' यह आशा उत्पन्न करनेवाला और प्रेरित करनेवाला गुण है जो इस उद्देश्य से बयान किया गया है कि जो लोग अब तक सरकशी करते रहे हैं, वे निराश न हों, बल्कि यह समझते हुए अपने रवैये पर पुनरविचार करें कि अगर वे अब भी इस रवैये को छोड़ दें तो अल्लाह की रहमत के दामन में जगह पा सकते हैं। इस जगह यह बात समझ लेनी चाहिए कि गुनाह माफ़ करना और तौबा क़बूल करना अनिवार्य रूप से एक ही चीज़ के दो पहलू नहीं हैं, बल्कि कभी-कभी तौबा के बिना भी अल्लाह के यहाँ गुनाहों की माफ़ी होती रहती है। इसी कारण गुनाहों की माफ़ी का उल्लेख तौबा स्वीकार करने से अलग किया गया है। चौथा यह कि ‘वह कठोर सज़ा देनेवाला है।' इस गुण का उल्लेख करके लोगों को सावधान किया गया है कि बन्दगी का रास्ता अपनानेवालों के लिए अल्लाह जितना दयावान है, विद्रोह और सरकशी का रवैया अपनानेवालों के लिए उतना ही कठोर है। पाँचवाँ गुण यह कि 'वह मेहरबानी करनेवाला' है, अर्थात् मुक्तहस्त, धनी और दाता है। समस्त सृष्ट जीवों (मख़लूक) पर उसकी नेमतों और उसके उपकारों की हर जगह और हर समय वर्षा हो रही है। इन पाँच गुणों के बाद दो सच्चाइयाँ खोलकर बयान कर दी गई हैं- एक यह कि उपास्य वास्तव में उसके अलावा कोई नहीं है। दूसरी यह कि जाना सबको आखिरकार उसी की ओर है। इसलिए उसको छोड़कर अगर कोई दूसरों को उपास्य बनाएगा तो अपनी इस मूर्खता की सज़ा ख़ुद भुगतेगा।
مَا يُجَٰدِلُ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَا يَغۡرُرۡكَ تَقَلُّبُهُمۡ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 3
(4) अल्लाह की आयतों में झगड़े2 नहीं करते, मगर सिर्फ़ वे लोग जिन्होंने कुफ़्र3 (इंकार) किया है। इसके बाद दुनिया के देशों में उनकी चलत-फिरत तुम्‍हें किसी धोखे में न डाले।4
2. झगड़ा करने से तात्पर्य है कठहुज्जती करना, मीन-मेख़ निकालना, उलटे-सीधे आरोप जड़ना, वाणी के मूल अर्थ को नज़रअंदाज़ करके उसका ग़लत अर्थ निकालना ताकि आदमी न ख़ुद बात को समझे, न दूसरों को समझने दे।
3. 'कुफ़्र' का शब्द यहाँ (मूल ग्रंथ में) दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक नेमतों का इंकार, दूसरे सत्य का इंकार। पहले अर्थ की दृष्टि से इस वाक्य का अर्थ यह है कि अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में यह तरीक़ा सिर्फ़ वे लोग अपनाते हैं जो उसके उपकारों को भूल गए हैं और जिन्हें यह एहसास नहीं रहा है कि उसी की नेमतें हैं जिनके बल पर वे पल रहे हैं। दूसरे अर्थ की दृष्टि से अर्थ यह है कि यह तरीक़ा सिर्फ़ वही लोग अपनाते हैं जिन्होंने सत्य से मुँह मोड़ लिया है और उसे न मानने का फैसला कर लिया है।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۖ وَهَمَّتۡ كُلُّ أُمَّةِۭ بِرَسُولِهِمۡ لِيَأۡخُذُوهُۖ وَجَٰدَلُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّ فَأَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ عِقَابِ ۝ 4
(5) इनमे पहले नूह की क़ौम भी झुठला चुकी है, और उसके बाद बहुत-से दूसरे जत्‍थों ने भी यह काम किया है। हर क़ौम अपने रसूल पर झपटी, ताकि उसे गिरफ्तार करे। उन सबने असत्य के हथियारों से सत्य को नीचा दिखाने की कोशिश की, किन्तु आख़िरकार मैंने उनको पकड़ लिया, फिर देख लो कि मेरी सज़ा कैसी कठोर थी।
وَكَذَٰلِكَ حَقَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَى ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ ۝ 5
(6) इसी तरह तेरे रब का यह फ़ैसला भी उन सब लोगों पर चस्पाँ हो चुका है। जिन्होंने इंकार किया है कि वे जहन्नम में जानेवाले हैं।5
5. अर्थात् दुनिया में जो अज़ाब (प्रकोप) उनपर आया, वह उनको अन्तिम सज़ा न थी, बल्कि अल्लाह ने यह फ़ैसला भी उनके हक में कर दिया है कि उनको जहन्नम में पहुँचना है।
ٱلَّذِينَ يَحۡمِلُونَ ٱلۡعَرۡشَ وَمَنۡ حَوۡلَهُۥ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْۖ رَبَّنَا وَسِعۡتَ كُلَّ شَيۡءٖ رَّحۡمَةٗ وَعِلۡمٗا فَٱغۡفِرۡ لِلَّذِينَ تَابُواْ وَٱتَّبَعُواْ سَبِيلَكَ وَقِهِمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 6
(7) अर्शे-इलाही (ईश-सिंहासन) के उठानेवाले फ़रिश्ते और वे जो अर्श (सिंहासन) के चारों तरफ़ हाज़िर रहते हैं, सब अपने रब की प्रशंसा और स्तुति के साथ उसका महिमागान कर रहे हैं। वे उसपर ईमान रखते हैं और ईमान लानेवालों के हक़ में मग़फ़िरत (मोक्ष) की दुआ करते हैं।6 वे कहते हैं: “ऐ हमारे रब! तू अपनी दयालुता और अपने ज्ञान के साथ हर चीज़ पर छाया हुआ है,7 अत: माफ़ कर दे और दोज़ख़ के अज़ाब से बचा ले,8 उन लोगों को जिन्‍होंने तौबा की है और तेरा रास्ता अपना लिया है।9
6. यह बात नबी (सल्ल०) के साथियों की तसल्ली के लिए कही गई है। वे उस समय मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ज़बानदराज़ियों और अत्याचारों और उनके मुक़ाबले में अपनी विवशता देख-देखकर अत्यन्त हतोत्साहित हो रहे थे। इसपर कहा गया कि इन घटिया और नीच लोगों की बातों पर तुम दुखी क्यों होते हो। तुम्हारा स्थान तो वह है कि अर्शे इलाही (ईश-सिंहासन) के उठानेवाले फ़रिश्ते और सिंहासन के चारों ओर रहनेवाले फ़रिश्ते तक तुम्हारे समर्थक हैं और तुम्हारे लिए अल्लाह के समक्ष सिफ़ारिशें कर रहे हैं। फिर यह जो कहा गया कि ये फ़रिश्ते अल्लाह पर ईमान रखते हैं और ईमान लानेवालों के लिए मग़फ़िरत (मोक्ष) की दुआ करते हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि ईमान का रिश्ता ही वह अस्ल रिश्ता है जिसने आसमानवालों और ज़मीनवालों को मिलाकर परस्पर एक कर दिया है और इसी संबंध के कारण सिंहासन के क़रीब रहनेवाले फ़रिश्तों को ज़मीन पर बसनेवाले उन मिट्टी के बने इंसानों से दिलचस्पी पैदा हुई है, जो उन्हीं की तरह अल्लाह पर ईमान रखते हैं।
7. अर्थात् अपने बन्दों की कमज़ोरियाँ और ग़लतियाँ और ख़ताएँ तुझसे छिपी हुई नहीं हैं। बेशक तू सब कुछ जानता है, मगर तेरे ज्ञान की तरह तेरी कृपा का दामन भी तो फैला हुआ है। इसलिए उनकी ख़ताओं को जानने के बावजूद इन बेचारों को माफ़ कर दे।
رَبَّنَا وَأَدۡخِلۡهُمۡ جَنَّٰتِ عَدۡنٍ ٱلَّتِي وَعَدتَّهُمۡ وَمَن صَلَحَ مِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَأَزۡوَٰجِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡۚ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 7
(8) ऐ हमारे पालनहार! और दाख़िल कर उनको हमेशा रहनेवाली उन जन्‍नतों में, जितना तूने उनसे वादा किया है10 और उनके माँ-बाप और पत्नियों और सन्तान में से जो नेक हों (उनको भी वहाँ उनके साथ ही पहुँचा दे11)। तू निस्सन्देह सर्वशक्तिमान और तत्त्वदर्शी है।
10. इसमें भी वही गिड़गिड़ाने की स्थिति पाई जाती है जिसकी ओर ऊपर टिप्पणी 8 में हमने संकेत किया है। फ़रिश्तों के मन में ईमानवालों के कल्याण और हित की भावना इतनी प्रबल है कि वे अपनी ओर से उनके लिए भली बात कहते ही चले जाते हैं।
11. अर्थात् उनकी आँखें ठंडी करने के लिए उनके माँ-बाप, पलियों और सन्तान को भी उनके साथ जमा कर दे। यह वही बात है जो अल्लाह ने स्वयं भी उन नेमतों के सिलसिले में बयान फ़रमाई है जो जन्नत में ईमानवालों को दी जाएँगी। देखिए सूरा-13 अर-रअद, आयत 23 और सूरा-52 अत-तूर, आयत 21 ।
وَقِهِمُ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ وَمَن تَقِ ٱلسَّيِّـَٔاتِ يَوۡمَئِذٖ فَقَدۡ رَحِمۡتَهُۥۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 8
(9) और बचा दे उनको बुराइयों से।12 जिसको तूने क़ियामत के दिन बुराइयों13 से बचा दिया, उसपर तूने बड़ी कृपा की। यही बड़ी सफलता है।"
12. मूल में 'सय्यिआत' (बुराइयों) का शब्द तीन अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होता है, और यहाँ तीनों अर्थ मुराद हैं- एक, गलत आस्थाएँ, बिगड़े हुए चरित्र और बुरे कर्म। दूसरा, पथभ्रष्टता और बुरे कर्मों का दुष्परिणाम। तीसरा, विपत्तियाँ, मुसीबतें और यातनाएँ, चाहे वे इस दुनिया की हों या बरज़ख़ की या क़ियामत के दिन की।
13. क़ियामत के दिन को बुराइयों से तात्पर्य हश्र के मैदान का हौल (घबराहट और बेचैनी), साए और हर प्रकार की सुविधाओं से वंचित होना, पकड़ और हिसाब-किताब की सख़्ती, तमाम लोगों के सामने जिंदगी के भेदों के खुल जाने की रुसवाई और दूसरी वे तमाम जिल्लतें और सख़्तिया हैं जिनसे वहाँ अपराधियों को वास्ता पड़नेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنَادَوۡنَ لَمَقۡتُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُ مِن مَّقۡتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡ إِذۡ تُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلۡإِيمَٰنِ فَتَكۡفُرُونَ ۝ 9
(10) जिन लोगों ने इंकार किया है, क्रियामत के दिन उनको पुकारकर कहा जाएगा, "आज तुम्हें जितना ज़्यादा गुस्सा अपने ऊपर आ रहा है, अल्लाह तुमपर इससे ज्यादा ग़ुस्सा उस समय करता था, जब तुम्हें ईमान की ओर बुलाया जाता था और तुम इंकार करते थे।"14
14. अर्थात् इस्लाम-विरोधी जब क़ियामत के दिन देखेंगे कि उन्होंने दुनिया में शिर्क और अनीश्वरवाद, आख़िरत के इंकार और रसूलों के विरोध पर जिंदगी के अपने पूरे कारनामे को बुनियाद रखकर कितनी बड़ी मूर्खता की है और इस मूर्खता की वजह से अब वे किस बुरे परिणाम से दोचार हुए हैं, तो वे अपनी उँगलियाँ चबाएँगे और झुंझला-झुंझलाकर अपने आपको स्वयं कोसने लगेंगे। उस वक़्त फ़रिश्ते उनसे पुकार कर कहेंगे कि आज तो तुम्हें अपने ऊपर बड़ा गुस्सा आ रहा है, मगर कल जब तुम्हें इस अंजाम से बचाने के लिए अल्लाह के नबी और दूसरे नेक लोग सीधे रास्ते की ओर बुलाते थे और तुम उनको दावत को ठुकराते थे, उस समय अल्लाह का प्रकोप इससे अधिक तुमपर भड़कता था।
قَالُواْ رَبَّنَآ أَمَتَّنَا ٱثۡنَتَيۡنِ وَأَحۡيَيۡتَنَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَٱعۡتَرَفۡنَا بِذُنُوبِنَا فَهَلۡ إِلَىٰ خُرُوجٖ مِّن سَبِيلٖ ۝ 10
(11) वे कहेंगे "ऐ हमारे रब! तूने वास्तव में हमें दो बार मौत और दो बार ज़िंदगी दे दी,15 अब हम अपने गुनाहों को क़बूल करते हैं,16 क्या अब यहाँ से निकलने का भी कोई रास्ता है?''17
15. दो बार मौत और दो बार जिंदगी से तात्पर्य वहीं चीज़ है जिसका उल्लेख सूरा-2 अल-बकरा, आयत में किया गया है कि तुम ख़ुदा के साथ कैसे कुफ्र करते हो, जबकि तुम बेजान थे, उसने तुम्हें जीवन दिया, फिर वह तुम्हें मौत देगा और फिर दोबारा जिंदा कर देगा। विधर्मी इनमें से पहली तीन हालतों का तो इंकार नहीं करते, क्योंकि वे देखने में तो आ जाती हैं और इस आधार पर उनका इंकार नहीं किया जा सकता। मगर आख़िरी हालत के पेश आने का इंकार करते हैं, क्योंकि वह उनके देखने में अभी तक नहीं आई है और सिर्फ़ नबियों ही ने इसकी ख़बर दी है। क़ियामत के दिन जब व्यावहारिक रूप से वह चौथी हालत भी देखने में आ जाएगी, तब ये लोग स्वीकार करेंगे कि वास्तव में वही कुछ सामने आ गया, जिसकी हमें ख़बर दी गई थी।
16. अर्थात् हम मानते हैं कि इस दूसरी जिंदगी का इंकार करके हमने बड़ी ग़लती की और इस ग़लत नीति पर काम करके हमारी जिंदगी गुनाहों से भर गई।
ذَٰلِكُم بِأَنَّهُۥٓ إِذَا دُعِيَ ٱللَّهُ وَحۡدَهُۥ كَفَرۡتُمۡ وَإِن يُشۡرَكۡ بِهِۦ تُؤۡمِنُواْۚ فَٱلۡحُكۡمُ لِلَّهِ ٱلۡعَلِيِّ ٱلۡكَبِيرِ ۝ 11
(12) (उत्तर मिलेगा), ‘’यह हालात जिसमें तुम पड़े हुए हो, इस कारण है कि जब अकेले अल्‍लाह की ओर बुलाया जाता था तो तुम मानने से इंकार कर देते थे, और जब उसके साथ दूसरों को बुलाया जाता, तो तुम मान लेते थे। अब फैसला अल्लाह महान और सर्वोच्च के हाथ है।''18
18. अर्थात् फैसला अब उसी अकेले ख़ुदा के हाथ में है, जिसकी अकेली ख़ुदाई पर तुम राज़ी न थे। (इस जगह को समझने के लिए सूरा-39, अज-जुमर, आयत 45 और उसकी टिप्पणी 64 भी दृष्टि में रहनी चाहिए।) इस वाक्य में आप से आप यह अर्थ भी शामिल है कि अब इस अज़ाब की हालत से तुम्हारे निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
هُوَ ٱلَّذِي يُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُنَزِّلُ لَكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ رِزۡقٗاۚ وَمَا يَتَذَكَّرُ إِلَّا مَن يُنِيبُ ۝ 12
(13) वही है जो तुमको अपनी निशानियाँ दिखाता है19 और आसमान से तुम्हारे लिए रोज़ी उतारता है,20 मगर (इन निशानियों के देखने से) शिक्षा केवल वही आदमी ग्रहण करता है जो अल्लाह की ओर रुजूअ करनेवाला हो।21
19. निशानियों से तात्पर्य वे निशानियाँ हैं जो इस बात का पता देती हैं कि इस सृष्टि का रचयिता, उपाय करनेवाला और प्रबन्धक एक ख़ुदा और एक ही ख़ुदा है।
20. [अर्थात् बारिश बरसाता है जो रोज़ी की वजह है, गर्मी और सर्दी उतारता है जिसका रोज़ी के पैदा करने में बड़ा दख़ल है।] अल्लाह अपनी अनगिनत निशानियों में से अकेली इस एक निशानी को प्रस्तुत करके लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है कि केवल इसी एक चीज़ के प्रबन्ध पर तुम विचार करो तो तुम्हारी समझ में आ जाए कि सृष्टि-व्यवस्था के बारे में जो अवधारणा तुमको कुरआन में दी जा रही है, वही सत्य है। यह प्रबन्ध केवल उसी स्थिति में क़ायम हो सकता था जबकि ज़मीन और उसके जीव और पानी और हवा और सूरज और गर्मी और सर्दी सबका पैदा करनेवाला एक ही ख़ुदा हो।
فَٱدۡعُواْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 13
(14) (अतः ऐ रुजूअ करनेवालो!) अल्लाह ही को पुकारो अपने दीन को उसके लिए ख़ालिस (विशिष्ट) करके,22 चाहे तुम्हारा यह कर्म इस्लाम विरोधियों को कितना ही नापसन्‍द हो।
22. 'दीन' (धर्म) को अल्लाह के लिए विशिष्ट करने की व्याख्या सूर-9, अब-ज़ुमर, टिप्पणी 3 में की जा चुकी है।
رَفِيعُ ٱلدَّرَجَٰتِ ذُو ٱلۡعَرۡشِ يُلۡقِي ٱلرُّوحَ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ لِيُنذِرَ يَوۡمَ ٱلتَّلَاقِ ۝ 14
(15)वह ऊँचे दरजोंवाला,23 अर्श (सिंहासन) का मालिक है,24 अपने बन्‍दों में से जिसपर चाहता है अपने आदेश से रूह उतार देता है,25 ताकि यह मुलाकात के दिन से26 सावधान कर दे।
23. अर्थात् तमाम मौजूद चीजों से उसका दर्जा कहीं ज्यादा उच्च है। कोई हस्ती भी जो इस सृष्टि में मौजूद है, अल्लाह के सर्वोच्च स्थान से उसके क़रीब होने तक की कल्पना नहीं की जा सकती, कहाँ यह कि ख़ुदा के गुणों और अधिकारों में उसके शरीक होने का गुमान किया जा सके।
24. अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का बादशाह और शासक है। सृष्टि के सिंहासन का स्वामी है। (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-7 आल-आराफ़, टिप्पणी 41; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 4; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 3)
يَوۡمَ هُم بَٰرِزُونَۖ لَا يَخۡفَىٰ عَلَى ٱللَّهِ مِنۡهُمۡ شَيۡءٞۚ لِّمَنِ ٱلۡمُلۡكُ ٱلۡيَوۡمَۖ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ ۝ 15
(16) इह दिन जबकि सब लोग बेपरदा होंगे, अल्लाह से उनकी कोई बात भी छिपी हुई न होगी। (उस दिन पुकारकर पूछा जाएगा) आउ वादशाही किसकी है?27 (सारी दुनिया पुकार उठेगी) अल्‍लाह अकेले प्रभुत्‍वशाली की।
27. अर्थात् दुनिया में तो बहुत-से शेखी बघारनेवाले लोग अपनी बादशाही और प्रभुत्व के डंके पीटते रहे और बहुत-से मूर्ख उनकी बादशाहियाँ और प्रभुत्व मानते रहे, अब बताओ, बादशाही वास्तव में किसकी है? अधिकारों का बास्तविक स्वामी कौन है और आदेश किसका चलता है?
ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡۚ لَا ظُلۡمَ ٱلۡيَوۡمَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 16
(17) (कहा जाएगा) आज ही जीव को उस कमाई का बदला दिया जाएगा जो उसने की थी। आज किसी पर कोई अत्याचार न होगा।28 और अल्लाह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।29
28. अर्थात् किसी प्रकार का अत्याचार भी न होगा। स्पष्ट रहे कि बदले के मामले में अत्याचार के कई रूप हो सकते हैं । एक, यह कि आदमी बदले का हक़दार हो और वह उसको न दिया जाए। दूसरा, यह कि वह जितने बदले का हक़दार हो, उससे कम दिया जाए। तीसरा, यह कि वह सज़ा का हक़दार न हो और उसे सज़ा दे डाली जाए। चौथा, यह कि जो सज़ा का हकदार हो उसे सज़ा न दी जाए। पाँचवाँ, यह कि जो कम सज़ा का हक़दार हो उसे अधिक सज़ा दे दी जाए। छठा, यह कि जिसपर अत्याचार किया गया हो वह मुँह देखता रह जाए और अत्याचारी उसकी आँखों के सामने साफ़ बरी होकर निकल जाए। सातवाँ, यह कि एक के गुनाह में दूसरा पकड़ लिया जाए। अल्लाह के कथन का अभिप्राय यह है कि इन तमाम प्रकारों में से किसी प्रकार का अत्याचार भी उसकी अदालत में न होने पाएगा।
29. अर्थ यह है कि अल्लाह को हिसाब लेने में कोई देर नहीं लगेगी। वह जिस तरह सृष्टि के हर जीव को एक ही समय में रोज़ी दे रहा है और किसी को रोज़ी पहुँचाने के प्रबन्ध में वह ऐसा व्यस्त नहीं रहता कि दूसरों को रोज़ी देने का उसे समय न मिले। वह जिस तरह सृष्टि की हर चीज़ को एक ही समय में देख रहा है, सारी आवाज़ों को एक ही समय में सुन रहा है, तमाम छोटे से छोटे और बड़े से बड़े मामलों का एक ही समय में प्रबन्ध और संचालन कर रहा है, और कोई चीज़ उसके ध्यान को इस तरह नहीं खींच लेती कि उसी समय वह दूसरी चीज़ों की ओर ध्यान न दे सके, उसी तरह वह हर-हर व्यक्ति का एक ही समय में हिसाब-किताब भी कर लेगा और एक मुक़द्दमे को सुनने में वह ऐसा व्यस्त न होगा कि उसी समय दूसरे अनगिनत मुक़द्दमों को न सुन सके। फिर उसकी अदालत में इस कारण भी कोई देर न होगी कि मुक़द्दमे के वाक़िआत की जाँच-पड़ताल और उसके लिए गवाहियाँ जुटाने में वहाँ कोई कठिनाई सामने आए। अदालत का अधिकारी सीधे-सीधे स्वयं तमाम सच्चाइयों को जानता होगा। मुक़द्दमे का हर फ़रीक़ उसके सामने बिल्कुल बेनक़ाब होगा और घटनाओं की खुली-खुली इंकार न की जा सकनेवाली गवाहियाँ छोटे-से-छोटे आंशिक विवरणों के साथ, अविलम्ब पेश हो जाएंगी। इसलिए हर मुक़द्दमे का फ़ैसला झटपट हो जाएगा।
وَأَنذِرۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡأٓزِفَةِ إِذِ ٱلۡقُلُوبُ لَدَى ٱلۡحَنَاجِرِ كَٰظِمِينَۚ مَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ حَمِيمٖ وَلَا شَفِيعٖ يُطَاعُ ۝ 17
(18) ऐ नबी ! डरा दो इन लोगों को उस दिन से जो क़रीब आ लगा है।30 जब कलेजे मुँह को आ रहे होंगे और लोग चुपचाप ग़म के घूँट पिए खड़े होंगे। ज़ालिमों का न कोई मेहरबान दोस्त होगा31 और न कोई सिफ़ारिश करनेवाला जिसकी बात मानी जाए।32
30. क़ुरआन मजीद में लोगों को बार-बार यह एहसास दिलाया गया है कि क़ियामत उनसे कुछ दूर नहीं है, बल्कि क़रीब ही लगी खड़ी है और हर क्षण आ सकती है। (उदाहरण के लिए देखिए : सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 1; सूरा-54 अल-कमर, आयत 1; सूरा-16 अन-नल, आयत 1; सूरा-53 अन-नज्म,आयत-57) इससे अभिप्रेत लोगों को ख़बरदार करना है कि कियामत को दूर की चीज़ समझकर निर्भय न रहें और सँभलना है तो एक क्षण नष्ट किए बिना सँभल जाएँ।
31. मूल अरबी में शब्द ' हमीम' प्रयुक्त किया गया है, जिससे तात्पर्य किसी आदमी का ऐसा दोस्त है जो उसको पिटते देखकर जोश में आए और उसे बचाने के लिए दौड़े।
يَعۡلَمُ خَآئِنَةَ ٱلۡأَعۡيُنِ وَمَا تُخۡفِي ٱلصُّدُورُ ۝ 18
(19) अल्लाह निगाहों की चोरी तक का ज्ञान रखता है और वह भेद तक जानता है जो सीनों ने छिपा रखे हैं।
وَٱللَّهُ يَقۡضِي بِٱلۡحَقِّۖ وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَقۡضُونَ بِشَيۡءٍۗ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 19
(20) और अल्लाह ठीक-ठीक बे-लाग फैसला करेगा। रहे वे, जिनको (ये बहुदेववादी) अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं, वे किसी चीज़ का भी फैसला करनेवाले नहीं हैं। निस्सन्देह अल्लाह ही सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।33
33. अर्थात् तुम्हारे उपास्यों की तरह वह कोई अंधा-बहरा ख़ुदा नहीं है जिसे कुछ पता न हो कि जिस आदमी के मामले का वह फ़ैसला कर रहा है, उसके क्या करतूत थे।
۞أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ كَانُواْ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُواْ هُمۡ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَءَاثَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡ وَمَا كَانَ لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن وَاقٖ ۝ 20
(21) क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का परिणाम दिखाई पड़ता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे अधिक शक्तिशाली थे और इनसे अधिक ज़बरदस्त निशानियाँ जमीन में छोड़ गए हैं। मगर अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया और उनको अल्‍लाह से बचानेवाला कोई न था।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَكَفَرُواْ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 21
(22) यह उनका अंजाम इसलिए हुआ कि उनके पास उनके मुल प्रत्यक्ष प्रमाण34 लेकर आए और उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। आख़िरकार अल्लाह ने उनको पकड़ लिया। निश्चय ही वह बड़ी शक्तिवाला और सज़ा देने में बहुत कठोर है।
34. स्पष्ट प्रमाण (बव्यिनात) से तात्पर्य तीन चीजें हैं- एक, ऐसे स्पष्ट लक्षण और निशानियाँ जो अल्लाह की ओर से उनके नियुक्त होने को साक्षी थीं। दूसरी, ऐसे खुले प्रमाण जो उनकी प्रस्तुत की हुई शिक्षाओं के सत्य होने को सिद्ध कर रहे थे। तीसरी, जिंदगी की समस्याओं और मामलों के बारे में ऐसे स्पष्ट आदेश, जिन्हें देखकर हर समझदार व्यक्ति यह जान सकता था कि ऐसी पवित्र शिक्षा कोई झूठा स्वार्थी व्यक्ति नहीं दे सकता।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 22
(23-24) हमने मूसा35 को फ़िरऔन और हामान36 और क़ारून की ओर अपनी निशानियों और नियुक्ति के स्पष्ट प्रमाण37 के साथ भेजा, मगर उन्होंने कहा, "जादूगर है, बहुत झूठा है।"
35. हज़रत मूसा (अलैहि०) के किस्से के अन्य विवरणों के लिए देखिए : सूरा-2, अल-बक़रा, आयतें 49-61, 164; सूरा-5, अल-माइदा, आयते 20-26; सूरा-7, अल-आराफ, आयतें 103-160; सूरा-10, यूनुस, आयतें 75-93; सूरा-11, हूद, आयतें 17-90, 98-110; सूरा-14, इबराहीम, आयतें 5-13; सूरा-17, बनी इस्राईल, आयतें 101-104; सूरा-18, अल-कहफ़, आयतें 60-82; सूरा-19, मरयम, आयतें 51-53; सूरा-20, ता-हा, आयतें 9-98; सूरा-23, अल-मोमिनून, आयतें 45-49; सूरा-26, अश-शुअरा, आयतें 10-68; सूरा-27, अन-नम्ल, आयतें 7-14; सूरा-28, अल-क़सस, आयतें 3-43; सूरा-33, अल-अहज़ाब, आयत 69; सूरा-37, अस-साफ़्फात, आयतें 114-122
36. हामान के संबंध में विरोधियों को आपत्तियों का उत्तर सूरा-28 अल-क़सस, टिप्पणी 8 में दिया जा चुका है।
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَ وَقَٰرُونَ فَقَالُواْ سَٰحِرٞ كَذَّابٞ ۝ 23
0
فَلَمَّا جَآءَهُم بِٱلۡحَقِّ مِنۡ عِندِنَا قَالُواْ ٱقۡتُلُوٓاْ أَبۡنَآءَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ وَٱسۡتَحۡيُواْ نِسَآءَهُمۡۚ وَمَا كَيۡدُ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ ۝ 24
(25) फिर जब वह हमारी ओर से सत्य उनके सामने ले आया38 तो उन्होंने कहा, "जो लोग ईमान लाकर इसके साथ शामिल हुए हैं, उनके सब लड़कों को क़त्ल करो और लड़कियों की ज़िन्दा छोड़ दो।’’39 मगर इस्लाम-विरोधियों की चाल अकारथ गई।40
38. अर्थात् जब एक के बाद एक चमत्कार और निशानियाँ दिखाकर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनपर यह बात पूरी तरह सिद्ध कर दी कि वे अल्लाह के भेजे हुए रसूल हैं और मज़बूत दलीलों से अपना सत्य पर होना पूरी तरह स्पष्ट कर दिया।
39. इस आदेश से अभिप्रेत यह था हज़रत मूसा (अलैहि०) के समर्थक और अनुयायियों को इतना भयभीत कर दिया जाए कि वे डर के मारे उनका साथ छोड़ दें।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ذَرُونِيٓ أَقۡتُلۡ مُوسَىٰ وَلۡيَدۡعُ رَبَّهُۥٓۖ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُبَدِّلَ دِينَكُمۡ أَوۡ أَن يُظۡهِرَ فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡفَسَادَ ۝ 25
(26) एक दिन41 फ़िरऔन ने अपने दरबारियों से कहा, "छोड़ो मुझे, मैं इस मूसा को क़त्ल किए देता हूँ42 और पुकार देखें यह अपने रब को। मुझे आशंका है कि यह तुम्हारा दीन बदल डालेगा था देश में बिगाड़ पैदा करेगा।"43
41. यहाँ से जिस घटना का उल्लेख हो रहा है, वह बनी इस्राईल के इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना है, जिसे स्वयं बनी इस्राईल बिल्कुल भूल गए हैं । बाइबिल और तलमूद दोनों इसके उल्लेख से ख़ाली हैं। सिर्फ़ क़ुरआन मजीद के द्वारा ही दुनिया को यह मालूम हुआ है कि फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) के संघर्ष के दौर में एक समय यह घटना भी घटी थी। इस किस्से को जो व्यक्ति भी पढ़ेगा, शर्त यह कि वह इस्लाम और क़ुरआन के विरुद्ध पक्षपात में अंधा न हो चुका हो, वह यह महसूस किए बिना न रह सकेगा कि सत्य के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से यह किस्सा बहुत बड़ा मूल्य और महत्व रखता है और स्वतः यह बात बुद्धि और अनुमान से परे भी नहीं है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का व्यक्तित्व, उनका प्रचार और उनके हाथों प्रकट होनेवाले आश्चर्यजनक चमत्कारों से प्रभावित होकर स्वयं फ़िरऔन के दरबारियों में से कोई व्यक्ति दिल ही दिल में ईमान ले आया हो और फ़िरऔन को उनके क़त्ल पर उतारू देखकर वह सहन न कर सका हो।
42. इस वाक्य से फ़िरऔन यह बात बताने की कोशिश करता है कि मानो कुछ लोगों ने उसे रोक रखा है जिनकी वजह से वह हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल नहीं कर रहा है, हालाँकि वास्तव में बाहर की कोई शक्ति उसे रोकनेवाली न थी। उसके अपने मन का डर ही उसको अल्लाह के रसूल पर हाथ डालने से रोके हुए था।
وَقَالَ مُوسَىٰٓ إِنِّي عُذۡتُ بِرَبِّي وَرَبِّكُم مِّن كُلِّ مُتَكَبِّرٖ لَّا يُؤۡمِنُ بِيَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 26
(27) मूसा ने कहा, "मैंने तो हर उस अहंकारी के मुकाबले में जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता, अपने रब और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है।"44
44. यहाँ दो समान संभावनाएं हैं। एक संभावना यह है कि हज़रत मूसा (अलैंहि०) उस समय दरबार में स्वयं मौजूद हों और फ़िरऔन ने उनकी उपस्थिति में उन्हें क़त्ल कर देने का इरादा जाहिर किया हो और हज़रत मूसा (अलैहि० ) ने उसको और उसके दरबारियों को सम्बोधित करके तत्काल यह उत्तर दे दिया हो। दूसरी संभावना यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की अनुपस्थिति में फ़िरऔन ने अपने शासनाधिकारियों की किसी सभा में यह विचार प्रकट किया हो और इस बातचीत की सूचना हज़रत मूसा (अलैहि०) को ईमानवालों में से कुछ लोगों ने दी हो और उसे सुनकर आपने अपने अनुयायियों की सभा में यह बात कही हो। इन दोनों स्थितियों में से जो स्थिति भी हो, हज़रत मूसा (अलैहि०) के शब्दों से स्पष्ट होता है कि फ़िरऔन की धमकी उनके दिल में कण भर भी भय की कोई कैफ़ियत पैदा न कर सकी।
وَقَالَ رَجُلٞ مُّؤۡمِنٞ مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَكۡتُمُ إِيمَٰنَهُۥٓ أَتَقۡتُلُونَ رَجُلًا أَن يَقُولَ رَبِّيَ ٱللَّهُ وَقَدۡ جَآءَكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ مِن رَّبِّكُمۡۖ وَإِن يَكُ كَٰذِبٗا فَعَلَيۡهِ كَذِبُهُۥۖ وَإِن يَكُ صَادِقٗا يُصِبۡكُم بَعۡضُ ٱلَّذِي يَعِدُكُمۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ كَذَّابٞ ۝ 27
(28) इस अवसर पर फ़िरऔन के लोगों में से एक मोमिन व्यक्ति, जो अपना ईमान छिपाए हुए था, बोल उठा, "क्या तुम एक व्यक्ति को सिर्फ इस कारण कत्ल कर दोगे कि वह कहता है कि मेरा रब अल्लाह है? हालाँकि वह तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास स्पष्ट प्रमाण45 ले आया। अगर वह झूठा है तो उसका झूठ स्वयं उसी पर पलट पड़ेगा,46 लेकिन अगर वह सच्चा है तो जिन भयंकर परिणामों से वह तुमको डराता है, उनमें से कुछ तो तुमपर अवश्य ही आ जाएँगे। अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखाता जो सीमा का उल्लंघन करनेवाला और बड़ा झूठा हो।47
45. अर्थात् उसने ऐसी खुली-खुली निशानियाँ तुम्हें दिखा दी हैं, जिनसे यह बात प्रकाशमान दिन की तरह स्पष्ट हो चुकी है कि वह तुम्हारे ख का भेजा हुआ रसूल है । फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमानवाले का संकेत उन निशानियों की ओर था, जिनका विवरण इससे पहले आ चुका है। (सूरा-7, अल-आराफ़, आयतें 107-108, 117-120, 130-135; सूरा-17, बनी इस्राईल, आयतें 101-102; सूरा-20, ता हा, आयतें 56-73; सूरा-26, अश-शुअरा, आयतें 30-51; सूरा-27, अन-नाल, आयतें 10-13)
46. अर्थात् अगर ऐसे स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद तुम उसे झूठा समझते हो, तब भी तुम्हारे लिए उचित यही है कि उसे उसके हाल पर छोड़ दो, क्योंकि दूसरी संभावना और अत्यन्त प्रबल संभावना यह भी है कि वह सच्चा हो और उसपर हाथ डालकर तुम अल्लाह के अज़ाब में ग्रस्त हो जाओ। इसलिए अगर तुम उसे झुठा भी समझते हो तो उसे छेड़ो नहीं। वह अल्लाह का नाम लेकर झूठ बोल रहा होगा तो अल्लाह स्वयं उससे निमट लेगा। क़रीब-क़रीब इसी तरह की बात इससे पहले स्वयं हज़रत मूसा (अलैहि०) भी फ़िरऔन से कह चुके थे : "अगर तुम मेरी बात नहीं मानते, तो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।" (सूरा-44, अद-दुख़ान, आयत 21) यहाँ यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमानवाले ने वार्ता के शुरू में खुलकर यह प्रकट नहीं किया था कि वह हज़रत मूसा (अलैहि०) पर ईमान ले आया है, बल्कि शुरू ही में वह इसी तरह बातें करता रहा कि वह भी फ़िरऔन ही के गिरोह का एक आदमी है और सिर्फ़ अपनी क़ौम की भलाई के लिए बात कर रहा है। मगर जब फ़िरऔन और उसके दरबारी किसी तरह सीधे रास्ते पर आते नज़र न आए तो अन्त में उसने अपने ईमान का भेद खोल दिया, जैसा कि आयतें 38-50 में उल्लिखित उसके अभिभाषण से स्पष्ट होता है।
يَٰقَوۡمِ لَكُمُ ٱلۡمُلۡكُ ٱلۡيَوۡمَ ظَٰهِرِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَن يَنصُرُنَا مِنۢ بَأۡسِ ٱللَّهِ إِن جَآءَنَاۚ قَالَ فِرۡعَوۡنُ مَآ أُرِيكُمۡ إِلَّا مَآ أَرَىٰ وَمَآ أَهۡدِيكُمۡ إِلَّا سَبِيلَ ٱلرَّشَادِ ۝ 28
(29) ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! आज तुम्हें बादशाही मिली हुई है और ज़मीन में तुम प्रभुत्वशाली हो, लेकिन अगर अल्लाह का अज़ाब हमपर आ गया तो फिर कौन है जो हमारी मदद कर सकेगा?48 फ़िरऔन ने कहा, "मैं तो तुम लोगों को वही राय दे रहा हूँ जो मुझे उचित दीख पड़ती है और मैं उसी मार्ग की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करता हूँ जो ठीक है।''49
48. अर्थात् क्यों अल्लाह की दी हुई इस नेमत, प्रभुत्त्व और सत्ता की नाशुक्री करके उसके प्रकोप को अपने ऊपर आमंत्रित करते हो?
49. फ़िरऔन के इस उत्तर से अनुमान होता है कि अभी तक वह यह भेद नहीं समझ सका था कि उसके दरबार का यह सरदार दिल-ही-दिल में ईमानवाला हो चुका है, इसलिए उसने इस व्यक्ति की बात पर किसी नाराज़ी को तो प्रकट नहीं किया, अलबत्ता यह स्पष्ट कर दिया कि उसके विचारों को सुनने के बाद भी वह अपनी राय बदलने के लिए तैयार नहीं है।
وَقَالَ ٱلَّذِيٓ ءَامَنَ يَٰقَوۡمِ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُم مِّثۡلَ يَوۡمِ ٱلۡأَحۡزَابِ ۝ 29
(30) वह व्यक्ति जो ईमान लाया था, उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मुझे डर है कि कहीं तुमपर भी वह दिन न आ जाए जो इससे पहले बहुत-से जत्थों पर आ चुका है,
مِثۡلَ دَأۡبِ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ وَمَا ٱللَّهُ يُرِيدُ ظُلۡمٗا لِّلۡعِبَادِ ۝ 30
(31) जैसा दिन नूह और आद और समूद और उनके बादवाली क़ौमों पर आया था। और यह सच है कि अल्लाह अपने बन्दों पर जुल्म का कोई इरादा नहीं रखता।50
50. अर्थात् अल्लाह को बन्दों से कोई दुश्मनी नहीं है कि वह खामखाह उन्हें नष्ट कर दे, बल्कि वह उनपर अज़ाब उसी समय भेजता है जबकि वे हद से गुज़र जाते हैं और उस समय उनपर अज़ाब भेजना न्याय व इंसाफ़ का तक़ाज़ा होता है।
وَيَٰقَوۡمِ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ يَوۡمَ ٱلتَّنَادِ ۝ 31
(32) ऐ क़ौम! मुझे डर है कि कहीं तुमपर चीख-पुकार और दुहाई का दिन न आ जाए,
يَوۡمَ تُوَلُّونَ مُدۡبِرِينَ مَا لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِنۡ عَاصِمٖۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 32
(33) जब तुम एक दूसरे को पुकारोगे और भागे-भागे फिरोगे, मगर उस वक़्त अल्लाह से बचानेवाला कोई न होगा। सच यह है कि जिसे अल्लाह भटका दे, उसे फिर कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं होता ।
وَلَقَدۡ جَآءَكُمۡ يُوسُفُ مِن قَبۡلُ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا زِلۡتُمۡ فِي شَكّٖ مِّمَّا جَآءَكُم بِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا هَلَكَ قُلۡتُمۡ لَن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِهِۦ رَسُولٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ مُّرۡتَابٌ ۝ 33
(34) इससे पहले यूसुफ़ तुम्हारे पास स्पष्ट प्रमाण लेकर आए थे, मगर तुम उनकी लाई हुई शिक्षा की प्रति सन्देह ही में पड़े रहे। फिर जब उनका देहान्त हो गया तो तुमने कहा कि अब उनके बाद अल्लाह कोई रसूल कदापि न भेजेगा।’’51 इसी तरह 52 अल्‍लाह उन सब लोगों को गुमराही में डाल देता है जो हद से गुज़रनेवाले और शक्‍की होते हैं।
51. अर्थात् तुम्हारी पथभ्रष्टता और फिर उस पर हठधर्मी का हाल यह है कि मूसा से पहले तुम्हारे देश में यूसुफ़ आए, जिनके बारे में तुम स्वयं मानते हो कि वे सर्वश्रेष्ठ चरित्र और आचरण के धनी थे, और यह बात भी तुम स्वीकारते हो कि उन्होंने समय के बादशाह के सपने की सही ताबीर (स्वप्नफल) देकर तुम्हें सात वर्ष के इस भयानक अकाल की तबाहियों से बचा लिया जो उनके दौर में तुमपर आया था और तुम्हारी सारी क़ौम इस बात को भी स्वीकारती है कि उनके शासनकाल से बढ़कर न्याय व इंसाफ़ और ख़ैर व बरकत का जमाना कभी मित्र की धरती ने नहीं देखा, मगर उनकी सारी विशेषताओं को जानते और मानते हुए भी तुमने उनके जीते जी उनपर ईमान लाकर न दिया और जब उनका देहान्त हो गया तो तुमने कहा कि अब भला ऐसा आदमी कहाँ पैदा हो सकता है । मानो तुमने उनके गुणों को माना भी तो इस तरह कि बाद के आनेवाले हर नवी का इंकार करने के लिए उसे एक स्थाई बहाना बना लिया। इसका अर्थ यह है कि मार्गदर्शन बहरहाल तुम्हें नहीं स्वीकार करनी है।
52. प्रत्यक्ष में तो ऐसा महसूस होता है कि आगे के ये कुछ वाक्य अल्लाह ने फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमानवाने के कथन के विस्तार और व्याख्या के रूप में कहे हैं।
ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ سُلۡطَٰنٍ أَتَىٰهُمۡۖ كَبُرَ مَقۡتًا عِندَ ٱللَّهِ وَعِندَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ قَلۡبِ مُتَكَبِّرٖ جَبَّارٖ ۝ 34
(35) और अल्‍लाह की आयतों में झगड़े करते हैं बिना इसके कि उनके पास कोई प्रमाण या दलील आई हो।53 यह रवैया अल्‍लाह और ईमान लानेवालों की दृष्टि में अत्‍यन्‍त अप्रिय है। इसी तरह अल्लाह हर अहंकारी और दमनकारी के दिल पर ठप्पा लगा देता है।54
53. अर्थात् अल्लाह की और से गुमराही में उन्हीं लोगों को फेंका जाता है जिनमें ये तीन विशेषताएँ मौजूद होती हैं- एक यह कि वे अपने दुराचरण और कुकर्मों में हद से गुज़र जाते हैं, और फिर उन्हें दुष्कर्मों की ऐसी चाट लाग जाती है कि आचरण के सुधारने के किसी आमंत्रण को वे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। दूसरा यह कि नबियों के मामले में उनका स्थाई रवैया सन्देह का रवैया होता है। ख़ुदा के नबी उनके सामने चाहे कितने ही स्पष्ट प्रमाण ले आएँ, मगर वे उनकी नुबूवत में भी सन्देह करते हैं और उन वास्तविकताओं को भी सदैव सन्देह ही की दृष्टि से देखते हैं जो तौहीद और आखिरत (एकेश्वरवाद और परलोक) के बारे में उन्होंने पेश किए हैं। तीसरा यह कि वे अल्लाह की किताब की आयतों पर बुद्धिसंगत रूप से विचार करने के बजाय कठ-हुज्जतियों से उनका मुकाबला करने की कोशिश करते हैं और उनकी कठ-हुज्जतियों की बुनियाद न किसी बौद्धिक प्रमाण पर होती है, न किसी आसमानी किताब के प्रमाण पर, बल्कि शुरू से लेकर अन्त तक सिर्फ़ आग्रह और हठधर्मी ही उनका एकमात्र आधार होता है। ये तीन दोष जब किसी गिरोह में पैदा हो जाते हैं तो फिर अल्लाह उसे गुमराही के गढ़े में फेंक देता है, जहाँ से दुनिया की कोई शक्ति उसे नहीं निकाल सकती।
54. अर्थात् किसी के दिल पर ठप्या अकारण ही नहीं लगा दिया जाता। यह फटकार की मुहर सिर्फ़ उसी के दिल पर लगाई जाती है जिसमें अहं और दमन की हवा भर चुकी हो। अहं से तात्पर्य है आदमी का झूठा दंभ, जिसके आधार पर वह सत्य के आगे सिर झुकाने को अपनी हैसियत से गिरी हुई बात समाझता है, और दमन से तात्पर्य दुनियावालों पर जुल्म है जिसकी खुली छूट हासिल करने के लिए आदमी अल्ताह की शरीअत की पाबन्दियाँ स्वीकार करने से भागता है।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ يَٰهَٰمَٰنُ ٱبۡنِ لِي صَرۡحٗا لَّعَلِّيٓ أَبۡلُغُ ٱلۡأَسۡبَٰبَ ۝ 35
(36) फ़िरऔन ने कहा, "ऐ हामान! मेरे लिए एक ऊँची इमारत बना, ताकि मैं रास्तों तक पहुँच सकूँ,
أَسۡبَٰبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ فَأَطَّلِعَ إِلَىٰٓ إِلَٰهِ مُوسَىٰ وَإِنِّي لَأَظُنُّهُۥ كَٰذِبٗاۚ وَكَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِفِرۡعَوۡنَ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ وَصُدَّ عَنِ ٱلسَّبِيلِۚ وَمَا كَيۡدُ فِرۡعَوۡنَ إِلَّا فِي تَبَابٖ ۝ 36
(37) आसमानों के रास्तों तक, और मूसा के युदा को झाँककर देखूँ। मुझे तो यह काम झूठा ही मालूम होता है।"55 - इस तरह फिरऔन के लिए उसका दुष्कर्म ख़ुशनुमा बना दिया गया और वह सन्मार्ग से रोक दिया गया। फिरऔन की सारी चालबाज़ी (उसके अपने) विनाश के रास्‍ते ही में लगी।
55. फ़िरऔन के लोगों में से एक मोमिन के अभिभाषण ही के बीच में फ़िरऔन अपने मंत्री हामान को सम्बोधित करके यह बात कुछ ऐसे बैग से कहता है कि मानो वह उस मोमिन की वाणी को किसी तवज्जोह का हकदार नहीं समझता, इसलिए घमंड से भरी शान के साथ उसकी और से मुंह फेरकर हामान से कहता है कि तनिक मेरे लिए एक ऊँची इमारत तो बनवा, देखें तो सही कि यह मूसा जिस ख़ुदा की बातें कर रहा है, वह कहाँ रहता है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-28, अल-सस, टिप्पणी 53)
وَقَالَ ٱلَّذِيٓ ءَامَنَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُونِ أَهۡدِكُمۡ سَبِيلَ ٱلرَّشَادِ ۝ 37
(38) वह व्यक्ति जो ईमान लाया था, बोला, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो । मेरी बात मानो, मैं तुम्हें सही रास्ता बताता हूँ।
يَٰقَوۡمِ إِنَّمَا هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا مَتَٰعٞ وَإِنَّ ٱلۡأٓخِرَةَ هِيَ دَارُ ٱلۡقَرَارِ ۝ 38
(39) ऐ क़ौम! यह दुनिया की जिंदगी तो थोड़े दिनों की है।56 हमेशा ठहरने की जगह तो आख़िरत ही है।
56. अर्थात् इस दुनिया के अस्थाई धन और सम्पन्नता पर फूलकर तुम जो अल्लाह को भूल रहे हो, यह तुम्‍हारी नादानी है।
مَنۡ عَمِلَ سَيِّئَةٗ فَلَا يُجۡزَىٰٓ إِلَّا مِثۡلَهَاۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ يُرۡزَقُونَ فِيهَا بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 39
(40) जो बुराई करेगा, उसको उतना ही बदला मिलेगा जितनी उसने बुराई की होगी और जो नेक काम करेगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, शर्त यह है कि हो वह ईमानवाला, ऐसे सब लोग जन्नत में प्रवेश करेंगे जहाँ उनको बेहिसाब रोज़ी दी जाएगी।
۞وَيَٰقَوۡمِ مَا لِيٓ أَدۡعُوكُمۡ إِلَى ٱلنَّجَوٰةِ وَتَدۡعُونَنِيٓ إِلَى ٱلنَّارِ ۝ 40
(41) ऐ क़ौमवालो ! आख़िर यह क्या मामला है कि मैं तो तुम लोगों को नजात (मोक्ष) की ओर बुलाता हूँ और तुम लोग मुझे आग की ओर आमंत्रित करते हो?
تَدۡعُونَنِي لِأَكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَأُشۡرِكَ بِهِۦ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞ وَأَنَا۠ أَدۡعُوكُمۡ إِلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡغَفَّٰرِ ۝ 41
(42) तुम मुझे इस बात का आमंत्रण देते हो कि मैं अल्लाह के साथ इंकार की नीति अपनाऊँ और उसके साथ उन हस्तियों को साझी ठहराऊँ, जिन्हें मैं नहीं जानता,57 हालांकि मैं तुम्हें उस प्रभुत्त्वशाली, क्षमाशील अल्लाह की ओर बुला रहा हूँ।
57. अर्थात् उनके ख़ुदा का साझी होने का मेरे पास कोई बौद्धिक प्रमाण नहीं है, फिर आख़िर आँखें बन्द करके मैं इतनी बड़ी बात कैसे मान लूं कि खुदाई में उनका भी साझा है और मुझे अल्लाह के साथ उनकी भी बन्दगी करनी है।
لَا جَرَمَ أَنَّمَا تَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِ لَيۡسَ لَهُۥ دَعۡوَةٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَلَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ مَرَدَّنَآ إِلَى ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ هُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ ۝ 42
(43) नहीं, सत्य यह है और इसके विपरीत नहीं हो सकता कि जिनकी ओर तुम मुझे बुला रहे हो उनके लिए न दुनिया में कोई आमंत्रण है, न आख़िरत में58, और हम सबको पलटना अल्लाह ही की ओर है, और सीमा का उल्लंघन करनेवाले59 आग में जानेवाले हैं।
58. इस वाक्य के कई अर्थ हो सकते हैं । एक, यह कि उनको न दुनिया में यह हक़ पहुँचता है और न आख़िरत में कि उनकी ख़ुदाई स्वीकार करने के लिए ख़ुदा के बन्दों को आमंत्रण दिया जाए। दूसरा, यह कि उन्हें तो लोगों ने ज़बरदस्ती ख़ुदा बना लिया है, वरना वे ख़ुद न इस दुनिया में ख़ुदाई के दावेदार हैं, न आख़िरत में यह दावा लेकर उठेंगे कि हम भी तो ख़ुदा थे, तुमने हमें क्यों न माना। तीसरा, यह कि उनको पुकारने का कोई लाभ न इस दुनिया में है न आख़िरत में, क्योंकि वे बिल्कुल बे-इख़्तियार हैं और उन्हें पुकारना पूर्णतः व्यर्थ हैं।
59. 'सीमा का उल्लंघन करने' का अर्थ सीमा से आगे बढ़ जाना है। प्रत्येक वह व्यक्ति जो अल्लाह के सिवा दूसरों के ईश्वरत्व को मानता है या खुद ख़ुदा बन बैठता है या ख़ुदा से विद्रोह करके दुनिया में स्वच्छंदता और उद्देडता का रवैया अपनाता है और फिर अपने आपपर, दुनियावालों पर और दुनिया की हर उस चीज़ पर जिससे उसको वास्ता पड़े, तरह-तरह की ज़्यादतियाँ करता है वह वास्तव में बुद्धि और न्याय की तमाम सीमाओं को फाँद जानेवाला इंसान है।
فَسَتَذۡكُرُونَ مَآ أَقُولُ لَكُمۡۚ وَأُفَوِّضُ أَمۡرِيٓ إِلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 43
(44) आज जो कुछ मैं कह रहा हूँ, बहुत जल्‍द वह समय आएगा जब तुम उसे याद करोगे। और अपना मामला मैं अल्लाह को सौंपता हूँ, वह अपने बन्दों का निगहबान है।"60
60. इस वाक्य से साफ़ मालूम होता है कि ये बातें कहते समय उस मोमिन व्यक्ति को पूरा विश्वास था कि इस सच बोलने की सज़ा में फ़िरऔन के पूरे राज्य का प्रकोप उसपर टूट पड़ेगा और उसे केवल अपने पदों और हितों ही से नहीं, अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ेगा, मगर यह सब कुछ जानते हुए भी उसने सिर्फ़ अल्लाह के भरोसे पर अपना वह कर्त्तव्य पूरा कर दिया जिसे इस नाज़ुक मौके पर उसकी अन्तरात्मा ने उसका कर्तव्य समझा था।
فَوَقَىٰهُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِ مَا مَكَرُواْۖ وَحَاقَ بِـَٔالِ فِرۡعَوۡنَ سُوٓءُ ٱلۡعَذَابِ ۝ 44
(45) आख़िरकार उन लोगों ने जो बुरी चालें उस ईमानवाले के विरूद्ध चलीं, अल्‍लाह ने उन सबसे उसको बचा लिया,61 और फ़िरऔन के साथी ख़ुद अत्यन्त बुरे अज़ाब के फेर में और गए।62
61. इससे मालूम होता है कि वह आदमी फ़िरऔन की हुकूमत में इतनी अहम शख़्सियत का मालिक था कि भरे दरबार में फ़िरऔन के आमने-सामने हक़ बातें कह जाने के बावजूद एलानिया उसको सज़ा देने की हिम्मत न की जा सकती थी, इस वजह से फ़िरऔन और उसके समर्थकों को उसे मार डालने के लिए ख़ुफ़िया उपाय करने पड़े, किन्तु इन उपायों को भी अल्लाह ने न चलने दिया।
62. इस वर्णन-शैली से यह बात स्पष्ट होती है कि फ़िरऔन के लोगों में से एक मोमिन के सच बोलने को यह घटना हज़रत मूसा (अलैहि०) और फ़िरऔन के संघर्ष के बिल्कुल आख़िरी ज़माने में पेश आई थी। शायद इस लम्बे संघर्ष से तंग आकर अन्ततः फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल कर देने का इरादा किया होगा, मगर अपनी सल्तनत के इस प्रभावशाली व्यक्ति के सच-सच कह देने से उसको यह ख़तरा हो गया होगा कि मूसा के प्रभाव शासन के ऊपरी वर्गों में पहुंच गए हैं, इसलिए उसने फैसला किया होगा कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के विरुद्ध यह अन्तिम क़दम उठाने से पहले उन तत्त्वों का पता चलाया जाए जो सल्तनत के अधिकारियों और ऊँचे ओहदेदारों में इस आन्दोलन से प्रभावित हो चुके हैं, और उनका सिर कुचलने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) पर हाथ डाला जाए। लेकिन अभी वह इन उपायों में लगा ही हुआ था कि अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) और उनके साथियों को हिजरत (देशत्याग) का हुक्म में दिया और उनका पीछा करते हुए फ़िरऔन अपनी फ़ौजों समेत डूब गया।
ٱلنَّارُ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا غُدُوّٗا وَعَشِيّٗاۚ وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ أَدۡخِلُوٓاْ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ أَشَدَّ ٱلۡعَذَابِ ۝ 45
(46) दोज़ख़ की आग है, जिसके सामने सुबह व शाम वे पेश किए जाते हैं और जब क़ियामत की घड़ी आ जाएगी तो आदेश होगा कि फ़िरऔन के लोगों को सबसे कठोरतम अज़ाब (यातना) में दाख़िल करो।63
63. यह आयत बरज़ख़ (मृत्यु लोक) के अज़ाब का खुला प्रमाण है जिसका उल्लेख बहुत-सी हदीसों में क़ब्र के अज़ाब के शीर्षक से आया है। अल्लाह यहाँ स्पष्ट शब्दों में अज़ाब के दो मरहलों का उल्लेख कर रहा है। एक हलका अजाब, जो क़ियामत के आने से पहले फ़िरऔन और फ़िरऔन के लोगों को अब दिया जा रहा है, और यह कि उन्हें सुबह-शाम दोजख की आग के सामने पेश किया जाता है। देखकर वे हर समय भयभीत होते रहते हैं कि यह है वह दोज़ख़ जिसमें आख़िरकार हमें जाना है। इसके बाद जब क़ियामत आ जाएगी तो उन्हें वह असली और बड़ी सज़ा दी जाएगी जो उनका भाग्य बन चुकी है, अर्थात् वे उसी दोज़ख़ में झोंक दिए जाएंगे जिसका नज़ारा उन्हें डूबने के समय से आज तक कराया जा रहा है और क़ियामत की घड़ी तक कराया जाता रहेगा, और यह मामला सिर्फ़ फ़िरऔन और फ़िरऔन के लोगों के साथ ही विशिष्ट नहीं है, तमाम अपराधियों को मौत की घड़ी से लेकर क़ियामत तक वह बुरा अंजाम नज़र आता रहता है जो उसका इन्तिज़ार कर रहा है, और तमाम नेक लोगों को उस भले अंजाम का सुन्दर चित्र दिखाया जाता रहता है जो अल्लाह ने उनके लिए मुहैया कर रखा है। बुख़ारी, मुस्लिम और मुस्नद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुममें से जो व्यक्ति भी मरता है उसे सुबह-शाम उसका अन्तिम निवास-स्थल दिखाई जाता रहता है, चाहे वह जन्नती हो या दोज़ख़ी। उससे कहा जाता है कि यह वह जगह है जहाँ तू उस समय जाएगा, जब अल्लाह तुझे क़ियामत के दिन दोबारा उठाकर अपने सामने बुलाएगा।" (और अधिक विवरण के लिए देखिए सूरा-4, अन-निसा, आयत 97; सूरा-8, अन-अनफ़ाल, आयत 50; सूरा-27, अन-नम्ल, आयत 28-32; सूरा-23, अल-मोमिनून, आयत 99-100 टिप्पणियों सहित; सूरा-36, या-सीन, टिप्पणी 22-23)
وَإِذۡ يَتَحَآجُّونَ فِي ٱلنَّارِ فَيَقُولُ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا نَصِيبٗا مِّنَ ٱلنَّارِ ۝ 46
(47) फिर तनिक विचार करो उस समय का जब ये लोग दोज़ख़ में एक-दूसरे से झगड़ रहे होंगे। दुनिया में जो लोग कमज़ोर थे, वे बड़े बननेवालों से कहेंगे कि "हम तुम्हारे अधीन थे, अब क्या यहाँ तुम जहन्नम की आग की तकलीफ़ के कुछ भाग से हमको बचा लोगे।"64
64. यह बात वे इस आशा पर नहीं कहेंगे कि हमारे ये पिछले पेशवा या शासक या मार्गदर्शक वास्तव में हमें अज़ाब से बचा सकेंगे या इसमें कुछ कमी करा देंगे। उस समय तो उनपर यह वास्तविकता खुल चुकी होगी कि ये लोग यहाँ हमारे किसी काम आनेवाले नहीं हैं, मगर वे उन्हें रुसवा और अपमानित करने के लिए उनसे कहेंगे कि दुनिया में तो जनाब बड़े तनतने से अपनी सरदारी हम पर चलाते थे, अब यहाँ इस मुसीबत से भी तो हमें बचाइए, जो आप ही के कारण हम पर आई है।
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُلّٞ فِيهَآ إِنَّ ٱللَّهَ قَدۡ حَكَمَ بَيۡنَ ٱلۡعِبَادِ ۝ 47
(48) वे बड़े बननेवाले जवाब देंगे, "हम सब यहाँ एक हाल में हैं और अल्लाह बन्दों के बीच फ़ैसला कर चुका है।65
65. अर्थात् हम और तुम दोनों ही सजा भुगत रहे हैं, और अल्लाह की अदालत से जिसको जो सजा मिलनी थी, मिल चुकी है। उसके फैसले को बदलना या उसकी दी हुई सज़ा में कमी-बेशी कर देना अब किसी के अधिकार में नहीं है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ فِي ٱلنَّارِ لِخَزَنَةِ جَهَنَّمَ ٱدۡعُواْ رَبَّكُمۡ يُخَفِّفۡ عَنَّا يَوۡمٗا مِّنَ ٱلۡعَذَابِ ۝ 48
(49) फिर ये दोज़ख़ में पड़े हुए लोग जहन्‍नम के कार्यकत्‍ताओं से कहेंगे, "अपने रब से दुआ करो कि हमारे अज़ाब में बस एक दिन की कमी कर दे।”
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ تَكُ تَأۡتِيكُمۡ رُسُلُكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ قَالُواْ بَلَىٰۚ قَالُواْ فَٱدۡعُواْۗ وَمَا دُعَٰٓؤُاْ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٍ ۝ 49
(50) वे पूछेंगे, ‘’क्‍या तुम्‍हारे पास तुम्हारे रसूल स्‍पष्‍ट प्रमाण लेकर नहीं आते रहे थे?’’ वे कहेंगे, ‘’हाँ।‘’ जहन्नम के कार्यकर्ता बोलेंगे, "फिर तो तुम ही दुआ करो और इंकार करनेवालों की दुआ अकारथ ही जानेवाली है।66
66. अर्थात् जब सत्य यह है कि रसूल तुम्हारे पास स्पष्ट प्रमाण लेकर आ चुके थे और तुम इस आधार पर सज़ा पाकर यहाँ आए हो कि तुमने उनकी बात मानने से इंकार (कुफ़्र) कर दिया था, तो अब हमारे लिए तुम्हारे हक़ में अल्लाह से कोई दुआ करना किसी तरह भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसी दुआ के लिए कोई न कोई कारण तो होना चाहिए, और तुम अपनी ओर से हर उज्र की गुंजाइश पहले ही समाप्त कर चुके हो। इस हालत में तो खुद दुआ करना चाहो तो कर देखो, मगर हम यह पहले ही तुम्हें वताए देते हैं कि तुम्हारी तरह इंकार (कुफ़्र) करके जो लोग यहाँ आए हों, उनकी दुआ बिल्कुल व्‍यर्थ है।
إِنَّا لَنَنصُرُ رُسُلَنَا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَيَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ ۝ 50
(51) विश्वास करो कि हम अपने रसूलों और ईमान लानेवालों की सहायता इस दुनिया की ज़िंदगी में भी अवश्य करते हैं 67 और उस दिन भी करेंगे जब गवाह खड़े होंगे,68
67. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-37, अस-साफ़्फात, टिप्पणी 93।
68. अर्थात् जब अल्लाह की अदालत क़ायम होगी और उसके सामने गवाह पेश किए जाएंगे।
يَوۡمَ لَا يَنفَعُ ٱلظَّٰلِمِينَ مَعۡذِرَتُهُمۡۖ وَلَهُمُ ٱللَّعۡنَةُ وَلَهُمۡ سُوٓءُ ٱلدَّارِ ۝ 51
(52) जब ज़ालिमों को उनकी (क्षमा के लिए) सफ़ाई पेश करना कुछ भी फ़ायदा न देगी और उनपर फिटकार पड़ेगी और अत्यन्त बुरा ठिकाना उनके हिस्से में आएगा।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡهُدَىٰ وَأَوۡرَثۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡكِتَٰبَ ۝ 52
(53) आख़िर देख लो कि मूसा का हमने मार्गदर्शन69 किया और इसराईल की सन्तान को उस किताब का उत्तराधिकारी बना दिया
69. अर्थात् मूसा को हमने फ़िरऔन के मुकाबले में भेजकर बस यूँ हो उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया था, बल्कि कदम-कदम पर हम उनका मार्गदर्शन करते रहे, यहाँ तक कि उन्हें कामियाबी की मंजिल तक पहुँचा दिया। इस कथन में एक सूक्ष्म संकेत इस विषय की ओर है कि ऐ मुहम्मद, ऐसा ही मामला हम तुम्हारे साथ भी करेंगे। तुमको भी मक्का के शहर और कुरैश के क़बीले में नुबूक्त के लिए उठा देने के बाद हमने तुम्हारे हाल पर नहीं छोड़ दिया है कि ये ज़ालिम तुम्हारे साथ जो व्यवहार चाहें, करें, बल्कि हम स्वयं तुम्हारे पीठ पर मौजूद हैं और तुम्हारी रहनुमाई कर रहे हैं।
هُدٗى وَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 53
(54) जो सूझ-बूझा रखनेवालों के लिए मार्गदर्शन और नसीहत थी।70
70. अर्थात् जिस तरह मूसा का इंकार करनेवाले इस नेमत और बरकत से वंचित रह गए और उनपर ईमान लानेवाले बनी इस्राईल ही किताब के वारिस बनाए गए, उसी तरह अब जो लोग तुम्हारा इंकार करेंगे, वे वंचित हो जाएंगे, और तुमपर ईमान लानेवालों ही को यह सौभाग्य प्राप्त होगा कि क़ुरआन के वारिस हों और दुनिया में सन्मार्ग के अलमबरदार बनकर उठे।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ ۝ 54
(55) अत: सब्र करो,71 अल्लाह का वादा सच्चा है,72 अपने क़ुसूर की माफ़ी चाहो73 और सुबह और शाम अपने रब की प्रशंसा के साथ उसकी तस्वीह (महिमागान) करते रहो।74
71. अर्थात् जिन परिस्थितियों का तुम्हें सामना करना पड़ रहा है, उनको ठंडे दिल से सहन करते चले जाओ।
72. संकेत है उस वादे की ओर जो अभी-अभी ऊपर के इस वाक्य में किया गया था कि "हम अपने रसूलों और ईमान लानेवालों की सहायता इस दुनिया की जिंदगी में भी लाज़िमन करते हैं।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ سُلۡطَٰنٍ أَتَىٰهُمۡ إِن فِي صُدُورِهِمۡ إِلَّا كِبۡرٞ مَّا هُم بِبَٰلِغِيهِۚ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 55
(56) सच तो यह है कि जो लोग किसी प्रमाण और तर्क के बिना, जो उनके पास आया हो, अल्लाह की आयतों में झगड़ रहे हैं, उनके दिलों में अहंकार भरा हुआ है,75 मगर वे उस बड़ाई को पहुँचनेवाले नहीं हैं, जिसका वे घमंड रखते हैं।76 बस अल्लाह की पनाह माँग लो,77 वह सब कुछ देखता और सुनता है।
75. अर्थात इन लोगों का बिना प्रमाण विरोध और इनकी अनुचित कठ-हुज्जतियों का मूल कारण यह है कि इनका अहं यह सहन करने के लिए तैयार नहीं है कि इनके होते अरब में मुहम्मद (सल्ल०) का नेतृत्त्व और मार्गदर्शन मान लिया जाए।
76. दूसरे शब्दों में अर्थ यह है कि जिसको अल्लाह ने बड़ा बनाया है, वही बड़ा बनकर रहेगा और ये छोटे लोग अपनी बड़ाई कायम रखने की जो कोशिशें कर रहे हैं, वे सब अन्तत: असफल हो जाएँगी।
لَخَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَكۡبَرُ مِنۡ خَلۡقِ ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 56
(57) आसमानों78 और ज़मीन का पैदा करना इंसानों को पैदा करने की अपेक्षा निश्चय ही अधिक बड़ा काम है, परन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।79
78. ऊपर की आयतों 1 से 56 में क़ुरैश के सरदारों के षड्यंत्रों की समीक्षा करने के बाद अब यहाँ से सम्बोधन आम लोगों की ओर मुड़ रहा है और उनको यह समझाया जा रहा है कि जिन सच्चाइयों को मानने की दावत मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं, वे पूर्णतः उचित हैं, उनको मान लेने ही में तुम्हारी भलाई है। इस सिलसिले में सबसे पहले आख़िरत के विश्वास को लेकर उसपर तर्क जुटाए गए हैं, क्योंकि इस्लाम-विरोधियों को सबसे ज्यादा अचंभा इसी विश्वास पर था।
79. यह आख़िरत के आने का प्रमाण है। इस्लाम-विरोधियों का विचार था कि मरने के बाद इंसान का दोबारा जी उठना असंभव है। इसके उत्तर में कहा जा रहा है कि जो लोग इस तरह की बातें करते हैं, वे वास्तव में नादान हैं। अगर बुद्धि से काम लें तो उनके लिए यह समझना कुछ भी कठिन न हो कि जिस ख़ुदा ने यह महान सृष्टि बनाई है, उसके लिए इंसानों को दोबारा पैदा कर देना कोई कठिन काम नहीं हो सकता।
وَمَا يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَلَا ٱلۡمُسِيٓءُۚ قَلِيلٗا مَّا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 57
(58) और यह नहीं हो सकता कि अंधा और आँखवाला समान हो जाए और ईमानदार व सदाचारी और दुराचारी बराबर ठहरें। मगर तुम लोग कम ही कुछ समझते हो।80
80. यह आख़िरत के अनिवार्य रूप आने का प्रमाण है। ऊपर के वाक्य में बताया गया था कि आख़िरत हो सकती है, उसका होना असंभव नहीं है। इस वाक्य में बताया जा रहा है कि आखिरत होनी चाहिए। बुद्धि-विवेक और न्याय का तकाज़ा यह है कि वह हो और उसका होना नहीं बल्कि न होना बुद्धि-विवेक और न्याय के विरुद्ध है। आख़िर कोई समझदार व्यक्ति इस बात को कैसे सही मान सकता है कि जो लोग दुनिया में अंधों की तरह जीते हैं और अपने बुरे चरित्र और आचरण से ख़ुदा की धरती को बिगाड़ से भर देते हैं, वे अपने इस ग़लत रवैये का कोई बुरा परिणाम न देखें, और इसी तरह वे लोग भी जो दुनिया में आँखें खोलकर चलते हैं और ईमान लाकर भले कर्म करते हैं, अपनी इस अच्छी कारकर्दगी का कोई अच्छा परिणाम देखने से वंचित रह जाएँ? यह बात अगर स्पष्ट रूप से बुद्धि-विवेक और न्याय के विरुद्ध है, तो फिर निश्चित रूप से आख़िरत के इंकार का विचार भी बुद्धि-विवेक और न्याय के विरुद्ध ही होना चाहिए, क्योंकि आख़िरत न होने का अर्थ यह है कि भले और बुरे दोनों अन्तत: मरकर मिट्टी हो जाएँ और एक ही अंजाम से दोचार हों।
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 58
(59) निश्चय ही क़ियामत की घड़ी आनेवाली है, उसके आने में कोई सन्देह नहीं, मगर अधिकतर लोग नहीं मानते।81
81. यह आख़िरत के होने का निश्चित आदेश है जो तर्कों के आधार पर नहीं, बल्कि मात्र ज्ञान के आधार पर ही दिया जा सकता है, और वह्य के कलाम (ईश्वर की ओर से अवतरित वाणी) के सिवा किसी दूसरी वाणी में यह बात इस पूर्ण विश्वास के साथ बयान नहीं हो सकती। वह्य के बिना सिर्फ़ बौद्धिक प्रमाणों से जो कुछ कहा जा सकता है. वह कस इतना ही है कि आखिरत हो सकती है और उसको होना चाहिए। इससे आगे बढ़कर यह कहना कि आख़ित निश्चित रूप से होगी और होकर रोगी, यह सिर्फ़ उस हस्ती के कहने की बात है जिसे मालूम है कि आख़िरत होगी, और वह हस्ती अल्लाह के सिवा कोई नहीं है। यही वह जगह है जहाँ पहुँचकर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अटकल और प्रमाण के बजाय विशुद्ध ज्ञान के आधार पर दीन की बुनियाद अगर स्थापित हो सकती है तो वह सिर्फ अल्लाह को वह्य (ईशवाणी) के ज़रिये ही हो सकती है।
وَقَالَ رَبُّكُمُ ٱدۡعُونِيٓ أَسۡتَجِبۡ لَكُمۡۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِي سَيَدۡخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ ۝ 59
(60) तुम्हारा रब82 कहता है, ‘‘मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएं क़बूल करूंगा।83 जो लोग घमंड में आकर मेरी बन्दगी से मुंह मोड़ते हैं, ज़रूर वे रुसवा व अपमानित होकर जहन्नम में प्रवेश करेंगे।‘’84
82. आख़िरत के बाद अब तीहीद (एकेश्शवाद) पर वार्ता शुरू हो रही है, जो इस्लाम-विरोधियों और नबी (सल्‍ल०) के बीच विवाद का दूसरा कारण थी।
83. अर्थात दुआएँ क़बूल करने और न करने के तमाम अधिकार मेरे पास हैं, इसलिए तुम दूसरों से दुआएं न माँगो, बल्कि मुझसे माँगो। इस आयत की स्प्रिट को ठीक-ठीक समझने के लिए तीन बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ : एक यह कि दुआ आदमी सिर्फ़ उस हस्ती से माँगता है जिसको वह सुननेवाला, देखनेवाला और परा प्राकृतिक सत्‍ता (Super natural power ) का स्वामी समझता है, और दुआ मांगने का प्रेरक वास्तव में आदमी का यह आन्‍तरिक एहसास होता है कि कार्य-कारण जगत के अन्तर्गत प्राकृतिक साधन उसके किसी कष्ट को दूर करने या किसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए काफ़ी नहीं हैं या काफ़ी साबित नहीं हो रहे हैं, इसलिए किसी परा प्राकृतिक सत्ता की अधिकारी हस्ती की ओर उन्मुख होना नितान्त आवश्यक है। उस हस्ती को आदमी बे-देखे पुकारता है। हर समय, हर जगह, हर हाल में पुकारता है। अकेलेपन की तंहाइयों में पुकारता है। ज़ोर-ज़ोर से ही नहीं, चुपके-चुपके भी पुकारता है, बल्कि दिल ही दिल में उससे मदद की विनती करता है। यह सब कुछ अनिवार्य रूप से इस आस्था के आधार पर होता है कि वह हस्ती उसको हर जगह हर हाल में देख रही है, उसके दिल की बात भी सुन रही है, और उसको ऐसी पूर्ण शक्ति प्राप्त है कि उसे पुकारनेवाला जहाँ भी हो वह उसकी सहायता को पहुँच सकती है और उसकी बिगड़ी बना सकती है। दुआ की इस वास्तविकता को जान लेने के बाद यह समझना मनुष्य के लिए कुछ भी कठिन नहीं रहता कि जो व्यक्ति अल्लाह के सिवा किसी और हस्ती को मदद के लिए पुकारता है, वह वास्‍तव में निश्चित और विशुद्ध और स्पष्ट शिर्क करने का दोषी होता है, क्योंकि वह उस हस्ती के अन्दर उन गुणों को तस्‍लीम करता है जो सिर्फ़ अल्‍लाह के गुण हैं। [दूसरी बात यह कि किसी हस्ती के बारे में आदमी का अपनी जगह यह समझ बैठना कि वह अधिकारों की स्‍वामी है, इससे यह अनिवार्य नहीं हो जाता कि वह वास्तव में अधिकारों की स्वामी हो जाए। अधिकारों का स्वामी होना तो एक वास्तविक तथ्य है जो किसी के समझने या न समझने पर निर्भर नहीं है। अब वह बात एक वास्तविकता है कि सर्वशक्तिमान और सृष्टि की व्यवस्था करनेवाला, सुनने और देखनेवाली हस्ती केबल अल्लाह ही की है और वही पूर्ण रूप से अधिकारों का स्वामी है। दूसरी कोई हस्ती भी इस पूरी सृष्टि में ऐसी नहीं है जो दुआएँ सुनने और उनको स्वीकार करने या न करने की स्थिति में कोई कार्रवाई करने के अधिकार रखती हो। इस तथ्य के विरुद्ध अगर लोग अपनी जगह कुछ नबियों और बलियों और फरिश्तों और जिनों और ग्रहों और काल्पनिक देवताओं को अधिकारों में साझी समझ बैठे, तो इससे वास्तविकता में कण भर भी कोई अन्तर न आएगा। स्वामी, स्वामी ही रहेगा और अधिकार रहित बन्दे, बन्दे ही रहेंगे। तीसरी बात यह है कि अल्लाह के सिवा दूसरों से दुआ माँगना बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई आदमी दरख़्वास्त लिखकर सरकार की ओर जाए, मगर वास्तविक अधिकारी को छोड़कर वहाँ जो दूसरे प्रार्थी अपनी ज़रूरतें लिए बैठे हों, उन्हीं में से किसी एक के आगे अपनी दरख़्वास्त पेश कर दे और फिर हाथ जोड-जोड़कर उससे विनती करता चला जाए कि आप ही सब कुछ हैं, आप ही का यहाँ आदेश चलता है, मेरी कामता आप ही पूरी करेंगे तो पूरी होगी। यह हरकत एक तो अपने आप में बड़ी मूर्खता और अज्ञानता है, लेकिन ऐसी स्थिति में यह गुस्ताखी भी बन जाती है जबकि वास्तविक अधिकार-सम्पन्न शामक सामने मौजूद हो और ठीक उसकी मौजूदगी में उसे छोड़कर किसी दूसरे के सामने दरख़्वास्तें और विनतियाँ प्रस्तुत की जा रही हो। फिर वह अज्ञानता अपने शिखर पर उस समय पहुँच जाती है जब वह व्यक्ति जिसके सामने दरखास्त पेश की जा रही हो, उखुद बार-बार उसको समझाए कि मैं तो स्वयं तेरी ही ताह का एक प्रार्थी हूँ, मेरे हाथ में कुछ नहीं है। वास्तविक शासक सामने मौजूद है, तू उसकी सरकार में अपनी दरख़्वास्त पेश कर। मगर उसके समझाने और मना करने के बावजूद यह मूर्ख कहता ही चला जाए कि मेरे सरकार तो आप है, मेरा काम आप ही बनाएँगे तो बनेगा? इन तीन बातों को मन में रखकर अल्लाह के इस कथन को समझने की कोशिश कीजिए कि मुझे पुकारी तुम्हारी दुआओं का जवाब देनेवाला मैं हूँ, इन्हें क़बूल करना मेरा काम है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 60
(61) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई ताकि तुम उसमें शान्ति प्राप्त करो और दिन की प्रकाशमान किया। सच तो यह है कि अल्लाह लोगों पर बड़ी कृपा फ़रमानेवाला है, मगर ज़्यादातर लोग शुक्र अदा नहीं करते।85
85. यह आयत दो महत्त्वपूर्ण विषयों पर आधारित है। एक यह कि इसमें रात और दिन को तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि उनका निश्चित और नियमित रूप से आना यह अर्थ रखता है कि ज़मीन और सूरज पर एक ही ख़ुदा शासन कर रहा है, और उनके उलट-फेर का इंसान और धरती की दूसरी मख़लूक (सृष्टि) के लिए लाभप्रद होना इस बात का खुला प्रमाण है कि वही एक ख़ुदा इन सब चीजों का पैदा करनेवाला भी है और उसने यह व्यवस्था पूर्ण तत्त्वदर्शिता के साथ इस तरह बनाई है कि वह उसकी पैदा की हुई सृष्टि के लिए लाभप्रद हो। दूसरे यह कि उसमें ख़ुदा का इंकार करनेवाले और ख़ुदा के साथ शिर्क करनेवाले इंसानों को यह एहसास दिलाया गया है कि ख़ुदा ने रात और दिन के रूप में यह कितनी बड़ी नेमत उनको दी है। और वे कितने बड़े नाशुक्रे हैं कि उसकी इस नेमत से लाभ उठाते हुए रात-दिन उससे गद्दारी और वेवफ़ाई किए चले जाते हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 65; सूरा-25 फुरकान, टिप्पणी 77; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 104; सूरा-28 अल-क़सस, आयतें 71-73; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 33; सूरा-31 लुकमान, आयत 29, टिप्पणी 50; सूरा-36 या-सीन, आयत 37, टिप्पणी 32)
ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 61
(62) वहीं अल्लाह (जिसने तुम्हारे लिए यह कुछ किया है) तुम्हारा रब है। हर चीज़ का पैदा करनेवाला है। उसके सिवा कोई उपास्य नहीं।86 फिर तुम किधर से बहकाए जा रहे हो?87
86. अर्थात् रात और दिन के उलट-फेर ने सिद्ध कर दिया कि वही तुम्हारा और हर चीज़ का पैदा करनेवाला है और यह उलट-फेर तुम्हारे जीवन के लिए जो बड़े फ़ायदे और लाभ अपने भीतर रखता है, उससे सिद्ध हो जाता है कि वह तुम्हारा अत्यन्त दयावान पालनहार है। इसके बाद अनिवार्य रूप से यह बात अपने आप सिद्ध हो जाती है कि तुम्हारा वास्तविक उपास्य भी वही है।
87. अर्थात् कौन तुमको यह उलटी पट्टी पढ़ा रहा है कि जो न पैदा करनेवाले हैं, न पालनहार, वे तुम्हारी उपासना के अधिकारी हैं।
كَذَٰلِكَ يُؤۡفَكُ ٱلَّذِينَ كَانُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 62
(63) इसी तरह वे सब लोग बहकाए जाते रहे हैं, जो अल्लाह की आयतों का इंकार करते थे।88
88. अर्थात् हर युग में जन-साधारण केवल इस कारण इन बहकानेवालों के फ़रेब में आते रहे हैं कि अल्लाह ने अपने रसूलों के ज़रिये से वास्तविकता समझाने के लिए जो आयतें उतारी, लोगों ने उनको न माना। फल यह निकला कि वह उन स्वार्थी फ़रेबियों के जाल में फँस गए जो अपनी दुकान चमकाने के लिए जाली ख़ुदाओं के आस्ताने बनाए बैठे थे।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ قَرَارٗا وَٱلسَّمَآءَ بِنَآءٗ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡۖ فَتَبَارَكَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 63
(64) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए जमीन को ठहरने की जगह बनाई89 और ऊपर आसमान का गुम्बद बना दिया।90 जिसने तुम्हारा रूप बनाया और बड़ा ही अच्छा बनाया। जिसने तुम्हें अच्छी स्वच्छ चीज़ों की रोज़ी दी।91 वही अल्लाह (जिसके ये काम हैं) तुम्हारा रब है। बेहिसाब बरकतोंवाला है, वह सृष्टि का पालनहार।
89. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-27, अन-नम्ल, टिप्पणी 74
90. अर्थात् तुम्हें खुले वातावरण में नहीं छोड़ दिया गया कि ऊपरी दुनिया की विपदाएँ वर्षा के रूप में बरस कर तुमको नष्ट-विनष्ट कर दें। बल्कि धरती के ऊपर एक अति सुदृढ़ आसमानी व्यवस्था (जो देखनेवाली आँख को गुंबद की तरह नज़र आती है) निर्मित कर दी जिससे गुजरकर कोई विनाशकारी वस्तु तुम तक नहीं पहुँच सकती, यहाँ तक कि अन्तरिक्ष की घातक किरणें तक नहीं पहुँच सकतीं और इसी अम्न व चैन के साथ धरती पर जी रहे हो।
هُوَ ٱلۡحَيُّ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ فَٱدۡعُوهُ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَۗ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 64
(65) वही ज़िंदा है,92 उसके सिवा कोई उपास्य नहीं। उसी को तुम पुकारो अपने दीन (धर्म) को उसी के लिए ख़ालिस (विशुद्ध) 93 करके सारी प्रशंसा अल्लाह, सारे जहान के रब, ही के लिए है।94
92. अर्थात् असली और वास्तविक जिंदगी उसी की है। अपने बल पर आप जिंदा वही है। हमेशा से और हमेशा के लिए जिंदगी उसके सिवा किसी को भी नहीं। बाक़ी सबकी ज़िंदगी दी हुई है, अस्थाई है । मौत का मज़ा चखनेवाली और नाशवान है।
93. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-39, अज-जुमर, टिप्पणी 3-4
۞قُلۡ إِنِّي نُهِيتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَمَّا جَآءَنِيَ ٱلۡبَيِّنَٰتُ مِن رَّبِّي وَأُمِرۡتُ أَنۡ أُسۡلِمَ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 65
(66) ऐ नबी! इन लोगों से कह दो कि मुझे तो उन हस्तियों की बन्दगी (उपासना) से रोक दिया गया है, जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो।95 (मैं यह काम कैसे कर सकता हूँ) जबकि मेरे पास मेरे रब की ओर से स्पष्ट प्रमाण आ चुके हैं। मुझे आदेश दिया गया है कि मैं सारे जहान के रब के आगे सिर झुका दूँ।
95. यहाँ फिर इबादत और दुआ को समानार्थी प्रयुक्त किया गया है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ يُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡ ثُمَّ لِتَكُونُواْ شُيُوخٗاۚ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ مِن قَبۡلُۖ وَلِتَبۡلُغُوٓاْ أَجَلٗا مُّسَمّٗى وَلَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 66
(67) वहीं तो है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर खून के लोथड़े से, फिर वह तुम्हें बच्चे के रूप में निकालता है, फिर तुम्हें बढ़ाता है, ताकि तुम अपनी पूरी शक्ति (प्रौढ़ता) को पहुँच जाओ, फिर और बढ़ाता है ताकि तुम बुढ़ापे को पहुँचो और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है।96 यह सब कुछ इसलिए किया जाता है ताकि तुम अपने निश्चित समय तक पहुँच जाओ97, और इसलिए कि तुम सच्चाई को समझो।98
96. अर्थात् कोई पैदा होने से पहले और कोई जवानी को पहुंचने से पहले और कोई बुढ़ापे को पहुँचने से पहले मर जाता है।
97. निर्धारित समय से तात्पर्य या तो मौत का समय है, या वह समय जब तमाम इंसानों को दोबारा उठकर अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है। पहली स्थिति में अर्थ यह होगा कि अल्लाह हर इंसान को ज़िंदगी के विभिन्न मरहलों से गुज़ारता हुआ उस विशेष घड़ी तक ले जाता है, जो उसने हर एक की वापसी के लिए निश्चित कर रखी है। उस समय से पहले सारी दुनिया मिलकर भी किसी को मारना चाहे तो नहीं मार सकती, और वह वक्त आ जाने के बाद दुनिया की सारी ताक़तें मिलकर भी किसी को जिंदा रखने की कोशिश करें तो सफल नहीं हो सकतीं। दूसरा अर्थ लेने की स्थिति में अर्थ यह होगा कि जीवन का यह हंगामा इसलिए बरपा नहीं किया गया है कि तुम मरकर मिट्टी में मिल जाओ और फ़ना (विनष्ट) हो जाओ, बल्कि जिंदगी के इन विभिन्न मरहलों से अल्लाह तुमको इसलिए गुज़ारता है कि तुम सब उस समय तक, जो उसने निर्धारित कर रखा है, उसके सामने हाज़िर हो।
هُوَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ فَإِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 67
(68) वही है जिंदगी देनेवाला, और वही मौत देनेवाला है। वह जिस बात का भी फैसला करता है, बस एक आदेश देता है कि वह हो जाए और वह हो जाती है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ أَنَّىٰ يُصۡرَفُونَ ۝ 68
(69) तुमने देखा उन लोगों को जो अल्लाह की आवतों में झगडे करते हैं, कहाँ से वे फिराए जा रहे हैं?99
99. अर्थ यह है कि ऊपरवाले व्याख्यान के बाद भी क्या तुम्हारी समझ में यह बात न आई कि इन लोगों के ग़लत देखने और ग़लत रवैया अपनाने का मूल स्रोत कहाँ है और कहाँ से ठोकर खाकर ये उस गुमराही के गढ़े में गिरे हैं? (स्पष्ट रहे कि यहाँ ‘तुम' का संबोधना नबी सल्‍ल० से नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति से है जो इन आयतों को पढ़े या सुने।)
ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِٱلۡكِتَٰبِ وَبِمَآ أَرۡسَلۡنَا بِهِۦ رُسُلَنَاۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 69
(70) ये लोग जो इस किताब को और उन सारी किताबों को झुठलाते हैं जो हमने अपने रसूलों के साथ भेजी थी,100 बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा
100. यह है उनके टोकर खाने का मूल कारण। उनका कुरआन को और अल्लाह के रसूलों की लाई हुई शिक्षा को न मानता और अल्लाह की आयतों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बजाय झगड़ालूपन से उनका मुक़ाबला करना, यही वह मूल कारण है जिसने उनको भटका दिया है और उनके लिए सीधी राह पर आने की सारी संभावनाएँ समाप्‍त कर दी हैं।
إِذِ ٱلۡأَغۡلَٰلُ فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ وَٱلسَّلَٰسِلُ يُسۡحَبُونَ ۝ 70
(71-72) जब तक उनकी गरदनों में होंगे, और जंजारें, जिनसे पकड़कर वे खौलते हुए पानी की ओर खाँचे जाएंगे और फिर दोज़ख़ की आग में झोंक दिए जाएंगे,101
101. अर्थात् जब प्यास की तीव्रता में मजबूर होकर पानी माँगेंगे तो दोज़ख़ (नरक) के कार्यकर्ता उनको ज़ंजीरों से खींचते हुए ऐसे स्रोतों की ओर ले आएंगे जिनसे खौलता हुआ पानी निकल रहा होगा, और फिर जब वे उस पीकर फ़ारिग़ होंगे तो फिर वे उन्हें खींचते हुए वापस ले जाएंगे और दोज़ख़ की आग में झोंक देंगे।
فِي ٱلۡحَمِيمِ ثُمَّ فِي ٱلنَّارِ يُسۡجَرُونَ ۝ 71
0
ثُمَّ قِيلَ لَهُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تُشۡرِكُونَ ۝ 72
(73-74) फिर इनसे पूछा जाएगा कि “अब कहाँ हैं अल्लाह के सिवा वे दूसरे बुदा जिनको तुम साझी ठहराते थे?’’102 वे जवाब देंगे, "खोए गए वे हमसे, बल्कि हम इससे पहले किसी चीज को न पुकारते थे।‘’103 इस तरह अल्लाह इंकार करनेवालों का गुमराह होना प्रमाणित कर देगा।
102. अर्थात् अगर वे वास्तव में ख़ुदा या ख़ुदाई में साझीदार थे और तुम इस आशा पर उनकी उपासना करते थे कि वे बुरे समय में तुम्हारे काम आएंगे, तो अब क्यों वे आकर तुम्हें नहीं छुड़ाते?
103. यह अर्थ नहीं है कि हम दुनिया में शिर्क नहीं करते थे, बल्कि अर्थ यह है कि अब हमपर यह बात खुल गई है कि हम जिन्हें दुनिया में पुकारते थे, वे कुछ भी न थे, तुच्छ थे, लाशे थे।
مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالُواْ ضَلُّواْ عَنَّا بَل لَّمۡ نَكُن نَّدۡعُواْ مِن قَبۡلُ شَيۡـٔٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 73
0
ذَٰلِكُم بِمَا كُنتُمۡ تَفۡرَحُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَبِمَا كُنتُمۡ تَمۡرَحُونَ ۝ 74
(75) उनसे कहा जाएगा, “यह तुम्हारा परिणाम इसलिए हुआ है कि तुम ज़मीन में असत्व पर मगन थे और फिर उसपर इतराते थे।104
104. अर्थात् तुमने सिर्फ़ इतने ही को पर्याप्त न समझा कि जो चीज़ सत्य न थी, उसका तुमने पालन किया, बल्कि तुम उस असत्य पर इतने मगन रहे कि जब सत्य तुम्हारे सामने प्रस्तुत किया गया तो तुमने उसकी ओर ध्यान न दिया और उलटे अपनी असत्यप्रियता पर इतराते रहे।
ٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 75
(76) अब जाओ, जहन्नम के दरवाज़ों में दाख़िल हो जाओ, हमेशा तुमको वहीं रहना है। बहुत ही बुरा ठिकाना है अहंकारियों का।"
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۚ فَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا يُرۡجَعُونَ ۝ 76
(77) अतः ऐ नबी! सब्र करो105 अल्लाह का वादा सच्चा है। अब चाहे हम तुम्हारे सामने ही इनको उन बुरे परिणामों का कोई हिस्सा दिखा दें, जिनसे हम इन्हें डरा रहे हैं या (उससे पहले) तुम्हें दुनिया से उठा लें, पलटकर आना तो इन्हें हमारी ही और है।106
105. अर्थात् जो लोग झगड़ालूपन से तुम्हारा मुकाबला कर रहे हैं और तुच्छ हथकंडों से तुम्हें नीचा दिखाना चाहते हैं, उनकी बातों और हरकतों पर सब्र करो।
106. अर्थात् यह ज़रूरी नहीं है कि हम हर उस व्यक्ति को, जिसने तुम्हें पराजित करने की कोशिश की है, इसी दुनिया में और तुम्हारी जिंदगी ही में सज़ा दे दें। यहाँ कोई सज़ा पाए या न पाए, बहरहाल वह हमारी पकड़ से बचकर नहीं जा सकता। मरकर तो उसे हमारे पास ही आना है। उस समय वह अपने करतूतों की भरपूर सजा पाएगा।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلٗا مِّن قَبۡلِكَ مِنۡهُم مَّن قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّن لَّمۡ نَقۡصُصۡ عَلَيۡكَۗ وَمَا كَانَ لِرَسُولٍ أَن يَأۡتِيَ بِـَٔايَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ قُضِيَ بِٱلۡحَقِّ وَخَسِرَ هُنَالِكَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 77
(78) ऐ नबी !107 तुमसे पहले हम बहुत-से रसूल भेज चुके हैं जिनमें से हमने कुछ के हालात तुमको बताए हैं और कुछ के नहीं बताए। किसी रसूल की भी यह शक्ति नहीं थी कि अल्लाह की अनुमति के बिना स्वयं कोई निशानी108 ले आता। फिर जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो सत्य के अनुसार फैसला कर दिया गया और उस समय ग़लत काम करनेवाले लोग घाटे में पड़ गए।109
107. यहाँ से एक और विषय शुरू हो रहा है। मक्का के इस्लाम-विरोधी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहते थे कि हम आपको उस वक़्त तक खुदा का रसूल नहीं मान सकते, जब तक आप हमारा मुँहमाँगा मोजज़ा (चमत्कार) न दिखा दें। आगे की आयतों में उनकी इसी बात को नक़ल किए बिना उसका जवाब दिया जा रहा है। जिस प्रकार के मोजज़ों की वे लोग माँग करते थे, उनके कुछ नमूनों के लिए देखिए (सूरा-11, हूद, आयत 12; सूरा-15, अल-हिज्र, आयत 7; सूरा-17, बनी इस्राईल, आयत 90-95; सूरा-25, अल-फ़ुरक़ान, आयत 21)
108. अर्थात् किसी नबी ने भी कभी अपनी इच्छा से कोई मोजज़ा (चमत्कार) नहीं दिखाया है और न कोई नबी स्वयं मोजज़ा दिखाने की सामर्थ्य रखता था। मोजज़ा तो जब भी किसी नबी के ज़रिये से प्रकट हुआ है, उस समय प्रकट हुआ है जब अल्लाह ने यह चाहा कि उसके हाथ से कोई मोजज़ा किसी इंकारी क़ौम की दिखाया जाए। यह विधर्मियों की माँग का पहला जवाब है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمَ لِتَرۡكَبُواْ مِنۡهَا وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 78
(79) अल्लाह ही ने तुम्हारे लिए ये चौपाए बनाए हैं, ताकि उनमें से किसी पर तुम सवार हो और किसी का गोश्त खाओ।
وَلَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَلِتَبۡلُغُواْ عَلَيۡهَا حَاجَةٗ فِي صُدُورِكُمۡ وَعَلَيۡهَا وَعَلَى ٱلۡفُلۡكِ تُحۡمَلُونَ ۝ 79
(80) उनके अन्दर तुम्हारे लिए और भी बहुत-से लाभ हैं। वे इस काम भी आते हैं कि तुम्हारे दिलों में जहाँ जाने की ज़रूरत हो, वहाँ तुम उनपर पहुँच सको। उनपर भी और नावों पर भी तुम सवार किए जाते हो।
وَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ فَأَيَّ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ تُنكِرُونَ ۝ 80
(81) अल्लाह अपनी ये निशानियाँ तुम्हें दिखा रहा है, आख़िर तुम उसकी किन-किन निशानियों का इंकार करोगे?110
110. अर्थ यह है कि अगर तुम सिर्फ तमाशा देखने और दिल बहलाने के लिए मोजज़े (चमत्कार) की माँग नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम्हें सिर्फ़ यह सन्तोष कर लेने की ज़रूरत है कि मुहम्मद (सल्ल०) जिन बातों को मानने की दावत तुम्हें दे रहे हैं (अर्थात् तौहीद और आख़िरत), वे सत्य हैं या नहीं, तो इसके लिए अल्‍लाह की ये निशानियाँ बहुत काफ़ी हैं जो हर समय तुम्‍हारे अवलोकन और अनुभव में आ रही हैं। सच्चाई को समझने के लिए इन निशानियों के होते किसी और निशानी की क्या ज़रूरत रह जाती है। ये मोजज़ों की माँग का तीसरा जबाब है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 26-27-29; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 105; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 15, 16, 17, 18, 20, सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 1,3,5) ज़मीन पर जो जानवर इंसान की सेवा कर रहे हैं, विशेष रूप से गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, ऊँट और घोड़े, इनको बनानेवाले ने ऐसे स्वभाव पर बनाया है कि ये आसानी से उसके पालतू सेवक बन जाते हैं और इनसे उसकी तरह-तरह की अनगिनत ज़रूरतें पूरी होती हैं। इनपर सवारी करता है, इनसे बोझा ढ़ोने का काम लेता है, इन्हें खेती-बाड़ी के काम में इस्तेमाल करता है, इनका दूध निकालकर उसे पीता भी है और उससे दही, लस्सी, मक्खन, घी, खोया, पनीर और तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाता है। इनका गोश्त खाता है, इनकी चर्बी इस्तेमाल करता है। इनके ऊन और बाल और खाल और आँतें और हड्डी और ख़ून और गोबर, हर चीज़ उसके काम आती है। क्या यह इस बात का खुला हुआ प्रमाण नहीं है कि इंसान के पैदा करनेवाले ने ज़मीन पर उसको पैदा करने से भी पहले उसकी इन अनगिनत ज़रूरतों को सामने रख कर ये जानवर उस विशेष स्वभाव पर पैदा कर दिए थे, ताकि वह उनसे लाभ उठाए? फिर ज़मीन का तीन चौथाई भाग पानी से भरा हुआ है और सिर्फ़ एक चौथाई सूखा है। सूखे भाग के बहुत-से छोटे और बड़े क्षेत्र ऐसे हैं जिनके बीच पानी विद्यमान है। धरती के इन सूखे क्षेत्रों में इंसानी आबादियों का फैलना और फिर उनके बीच यात्रा और व्यापार के सम्बन्धों का क़ायम होना, इसके बिना संभव न था कि पानी और समुद्रों और हवाओं को ऐसे क़ानूनों का पाबन्द बनाया जाता जिनकी वजह से जहाज़ चलाए जा सकते और धरती पर वह सरो-सामान पैदा किया जाता, जिसे इस्तेमाल करके इंसान जहाज़ बनाने में समर्थ होता। क्या यह इस बात की खुली निशानी नहीं है कि एक ही सर्वशक्तिमान प्रभु है जो अत्यन्त दयावान और तत्वदर्शी है जिसने इंसान और ज़मीन और पानी और समुद्रों और हवाओं और उन तमाम चीज़ों को जो धरती पर हैं, अपनी विशेष योजना के अनुसार बनाया है। बल्कि अगर इंसान सिर्फ़ जहाज़ चलाने ही की दृष्टि से देखे तो उसमें तारों के स्थलों और ग्रहों के विधिवत घूमते रहने से जो मदद मिलती है, वह इस बात की गवाही देती है कि ज़मीन ही नहीं आसमानों को बनानेवाला भी वही एक दयावान प्रभु है। इसके बाद इस बात पर भी विचार कीजिए कि जिस तत्त्वदर्शी ख़ुदा ने अपनी इतनी अनगिनत चीजें इंसान के प्रयोग में दी हैं और उसके फ़ायदे के लिए यह कुछ सामान जुटाया है, क्या होशो-हवास के रहते आप उसके बारे में यह कल्पना कर सकते हैं कि वह 'खुदा की पनाह', ऐसा आँख का अंधा और गाँठ का पूरा होगा कि इंसान को यह सब कुछ देकर वह कभी उससे हिसाब न लेगा?
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِنۡهُمۡ وَأَشَدَّ قُوَّةٗ وَءَاثَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 81
(82) फिर क्या 111 ये ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इनको उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इन से पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे तादाद में अधिक थे, इनसे बढ़कर शक्तिशाली थे, और ज़मीन में इनसे अधिक शानदार निशान छोड़ गए हैं। जो कुछ कमाई उन्होंने की थी, आख़िर वह उनके किस काम आई?
111. यह वार्ता का अन्त है। इस हिस्से को पढ़ते समय आयतें 4-5 और आयत 21 पर एक बार फिर निगाह डाल लें।
فَلَمَّا جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرِحُواْ بِمَا عِندَهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 82
(83) जब उनके रसूल उनके पास स्‍पष्‍ट प्रमाण लेकर आए तो वे उसी ज्ञान में मगन रहे जो उनके अपने पास था,112 और फिर उसी चीज़ के फिर आगा जिसकी वे हँसी उड़ाते थे।
112. अर्थात अपने दर्शन और विज्ञान, अपपने क़ानून, अपने सांसारिक ज्ञान और अपने पेशवाओं की गढ़ी हुई धार्मिक काथाओं (Mythology) और धर्मशास्‍त्र (Theology) ही को उन्‍होंने मूल ज्ञान समझा और नबियों (पैगम्बरों) के लाए हुए ज्ञान की तुच्छ समझकर उसकी ओर कोई ध्यान न दिया।
فَلَمَّا رَأَوۡاْ بَأۡسَنَا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥ وَكَفَرۡنَا بِمَا كُنَّا بِهِۦ مُشۡرِكِينَ ۝ 83
(84) जब उन्होंने हमारा अजाब देख लिया तो पुकार उले कि हमने मान लिया अल्लाह को जो अकेला है, जिसका कोई साझी नहीं और हम इंकार करते हैं उन सब उपायों का, जिन्हें हम उसका साझी ठहराते थे।
فَلَمۡ يَكُ يَنفَعُهُمۡ إِيمَٰنُهُمۡ لَمَّا رَأَوۡاْ بَأۡسَنَاۖ سُنَّتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ فِي عِبَادِهِۦۖ وَخَسِرَ هُنَالِكَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 84
(85) मगर हमारा अज़ाब देख लेने के बाद उनका ईमान उनके लिए कुछ भी लाभदायक न हो सकता था, क्योंकि यही अल्लाह की नियत की हुई प्रणाली है जो हमेशा उसके बन्दों में जारी रही है113 और उस समय इंकारी लोग घाट में पड़ गए।
113. यह कि तौबा और ईमान बस उसी समय तक लाभप्रद है, जब तक आदमी अल्लाह के अज़ाब या मौत की पकड़ में न आ जाए। अज़ाब आ जाने या मौत की निशानियाँ शुरू हो जाने के बाद ईमान लाना या तौबा करना अल्लाह के यहाँ पसन्दीदा नहीं है।