2.सूरा अल-बक़रा
(मदीना में उतरी, आयतें 286)
परिचय
नाम और नाम रखने का कारण
इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।
उतरने का समय
इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।
उतरने का कारण
इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-
1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।
2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।
3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।
4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।
सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।
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