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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

  1. आले इमरान

मदीना में उतरी आयते 200

परिचय

नाम

इस सूरा में एक स्थान पर 'आले इमरान' (इमरान के घरवालों) का उल्लेख हुआ है। उसी को पहचान के रूप में इसका यह नाम रख दिया गया है।

उतरने का समय और विषय

इसमें चार व्याख्यान हैं:

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 32 तक है और वह शायद बद्र की लड़ाई के बाद क़रीबी समय ही में उतरा है। दूसरा व्याख्यान आयत 33, “अल्लाह ने आदम और और इबराहीम की संतान और इमरान की संतान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था" से शुरू होता है और आयत 63 पर ख़त्म होता है। यह सन् 09 हिजरी में नजरान प्रतिनिधिमंडल के आगमन के अवसर पर उतरा। तीसरा व्याख्यान आयत 64 से आरंभ होता है और आयत 120 तक चलता है और इसका समय पहले व्याख्यान के समय से मिला हुआ लगता है। चौथा व्याख्यान आयत 121 से आरंभ होकर सूरा के अंत तक चलता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा है।

सम्बोधन और वार्ताएँ

इन विभिन्न व्याख्यानों को मिलाकर जो चीज़ क्रमागत विषय बनाती है, वह उद्देश्य, अभिप्राय और केन्द्रीय विषय की एकरूपता है। सूरा का सम्बोधन मुख्य रूप से दो गिरोहों की ओर है : एक अहले-किताब (यहूदी और ईसाई), दूसरे वे लोग जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए थे।

पहले गिरोह को उसी ढंग से और आगे की बात पहुँचाई गई है, जिसका सिलसिला सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू किया गया था। दूसरे गिरोह को, जो अब सर्वोत्तम गिरोह होने की हैसियत से सत्य का ध्वजावाहक और दुनिया के सुधार का ज़िम्मेदार बनाया जा चुका है, उसी सिलसिले में कुछ और आदेश दिए गए हैं जो सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू हुआ था। उन्हें पिछले समुदायों के धार्मिक और नैतिक पतन का शिक्षाप्रद दृश्य दिखाकर सचेत किया गया है कि उनके पद-चिह्नों पर चलने से बचें। उन्हें बताया गया है कि एक सुधारक जमाअत होने की हैसियत से वे किस तरह काम करें।

उतरने का कारण

इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है : (1) सूरा-2 (अल-बकरा) में इस सत्य-धर्म पर ईमान लानेवालों को जिन आज़माइशों, मुसीबतों और कठिनाइयों से समय से पहले सचेत कर दिया गया था, वे पूरी तीव्रता के साथ सामने आ चुकी थीं। बद्र की लड़ाई में यद्यपि ईमानवालो को विजय मिली थी, लेकिन यह लड़ाई मानो भिड़ों के छत्ते में पत्थर मारने जैसी थी [चुनांचे इसके बाद हर ओर तूफ़ान के लक्षण दिखाई देने लगे और मुसलमान नित्य- भय और अनवरत अशांति से दोचार हो गए] (2) हिजरत के बाद नबी (सल्ल.) ने मदीना के आस-पास के यहूदी कबीलों के साथ जो समझौते किए थे, उन लोगों ने उन समझौतों का कुछ भी सम्मान न किया। [और बराबर उनका उल्लंघन करने लगे।] अन्तत: जब उनकी शरारतें और वादाख़िलाफ़ियाँ असह्य हो गई तो नबी (सल्ल.) ने बद्र के कुछ महीने बाद बनी-क़ैनुकाअ पर, जो इन यहूदी क़बीलों में सबसे अधिक उद्दण्ड थे, हमला कर दिया और उन्हें मदीना के आस-पास से निकाल बाहर किया, लेकिन इससे दूसरे यहूदी क़बीलों की दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। उन्होंने मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों और हिजाज़ के मुशरिक क़बीलों के साथ साँठ-गांठ करके इस्लाम और मुसलमानों के लिए हर ओर संकट ही संकट पैदा कर दिए। (3) बद्र की पराजय के बाद कुरैश के दिलों में अपने आप ही प्रतिशोध की आग भड़क रही थी कि उसपर यहूदियों ने और तेल छिड़क दिया। परिणाम यह हुआ कि एक ही साल बाद मक्का से तीन हज़ार की भारी सेना मदीना पर हमलावर हो गई और उहुद के दामन में वह लड़ाई हुई जो उहुद की लड़ाई के नाम से मशहूर है। (4) उहुद की लड़ाई में मुसलमानों की जो पराजय हुई, उसमें यद्यपि मुनाफ़िक़ों की चालों की एक बड़ी भूमिका थी, लेकिन उसके साथ मुसलमानों की अपनी कमज़ोरियों की भूमिका भी कुछ कम न थी, इसलिए यह ज़रूरत पेश आई कि लड़ाई के बाद उस लड़ाई की पूरी दास्तान की एक विस्तृत समीक्षा की जाए और इसमें इस्लामी दृष्टिकोण से जो कमज़ोरियाँ मुसलमानों के भीतर पाई गई थीं, उनमें से एक-एक की निशानदेही करके उसके सुधार के बारे में आदेश दिए जाएँ। इस संबंध में यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि इस लड़ाई पर क़ुरआन की समीक्षा उन सभी समीक्षाओं से कितनी भिन्न है जो दुनिया के सेनानायक अपनी लड़ाइयों के बाद किया करते हैं।

 

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
3. आले इमरान
سُورَةُ آلِ عِمۡرَانَ
3.आले इमरान
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम,
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُ ۝ 1
(2) अल्लाह, वह जीवन्त नित्य सत्ता, जो सृष्टि-व्यवस्था को सँभाले हुए है, वास्तव में उसके सिवा कोई खुदा नहीं।1
1. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा),टिप्पणी नं०-278
نَزَّلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَأَنزَلَ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 2
(3,4) ऐ नबी ! उसने तुमपर यह किताब उतारी, जो सत्य लेकर आई है और उन किताबों की पुष्टि कर रही है जो पहले से आई हुई थीं। इससे पहले वह इंसानों के मार्गदर्शन के लिए तौरात और इंजील उतार चुका है2, और उसने वह कसौटी उतारी है (जो सत्य और असत्य का अन्तर दिखानेवाली है)। अब जो लोग अल्लाह के फ़रमानों को स्वीकार करने से इनकार करें, उनको निश्चित रूप से कड़ी सज़ा मिलेगी। अल्लाह असीम शक्तिवाला है और बुराई का बदला देनेवाला है।
2. आमतौर से लोग तौरात से तात्पर्य बाइबल के पूर्वविधान (Old Testament) के शुरू की पाँच पुस्तकें और इंजील से तात्पर्य नवविधान (New Testament) की चार मशहूर पुस्तकें ले लेते हैं। इस कारण यह उलझन सामने आती है कि क्या वास्तव में ये पुस्तकें ईशवाणी हैं ? और क्या वाक़ई क़ुरआन उन सब बातों की पुष्टि करता है जो उनमें लिखी हुई हैं? लेकिन वास्तविकता यह है कि तौरात बाइबल के पूर्वविधान की पहली पाँच पुस्तकों का नाम नहीं है, बल्कि वह उनके अन्दर अंकित है और इंजील नवविधान को चार पुस्तकों का नाम नहीं है, बल्कि वह उनके भीतर पाई जाती है। वास्तव में तौरात से अभिप्रेत वे आदेश हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को भेजे जाने से लेकर उनके देहान्त तक लगभग चालीस साल के दौरान में उनपर उतरे। उनमें से दस आदेश तो वे थे जो अल्लाह ने पत्थर की पट्टिकाओं पर खोदकर उन्हें दिए थे, बाक़ी आदेशों को हज़रत मूसा (अलैहि०) ने लिखवाकर उसकी नकलें बनी इसराईल के 12 क़बीलों को दे दी थीं और एक नक़ल बनी लावी (लावी वशंज) के सुपुर्द की थी, ताकि वे उसकी सुरक्षा करें। इसी किताब का नाम 'तौरात' था। यह एक स्थायी किताब के रूप में बैतुल-मक्दिस की पहली तबाही के समय तक सुरक्षित थी। इसकी एक कापी जो लावी वंशज के सुपुर्द की गई थी, पत्थर की पट्टिकाओं सहित, अहद के संदूक में रख दी गई थी और बनी इसराईल उसको तौरात ही के नाम से जानते थे, लेकिन उससे उनकी लापरवाही इस हद तक पहुंच गई थी कि यहूदिया के बादशाह योशिय्याह के दौर में, जब हैकले सुलैमानी की मरम्मत हुई तो संयोग से सरदार काहिन (यानी हैकल के सज्जादानशीन और क़ौम के सबसे बड़े धार्मिक नेता) हिलकिय्याह को एक जगह तौरात रखी हुई मिल गई और उसने एक अनोखी चीज़ की तरह उसे राजमंत्री को दिया और राजमंत्री ने उसे ले जाकर बादशाह के सामने इस तरह पेश किया, जैसे कोई विचित्र रहस्योद्घाटन हुआ है । (देखिए बाइबल,2 राजा 22: 8-13) यही कारण है कि जब बख्त नस्सर ने यरूशलम जीता और हैकल सहित शहर की ईंट से ईट बजा दी, तो बनी इसराईल ने तौरात की वे मूल प्रतियाँ, जो उनके यहाँ भुला दी गई थीं और बहुत ही थोड़ी संख्या में थीं, हमेशा के लिए गुम कर दी। फिर जब अज़रा काहिन (उजैर) के ज़माने में बनी इसराईल के बचे-खुचे लोग बाबिल की कैद से वापस यरूशलम आए और दोबारा बैतुल मक्दिस का निर्माण हुआ, तो अज़रा ने अपनी कौम के कुछ दूसरे बुजुर्गों की मदद से बनी इसराईल का पूरा इतिहास लिखा, जो अब बाइबल की पहली सत्तरह किताबों पर आधारित है। इस इतिहास के चार अध्याय अर्थात निर्गमन, लैव्यव्यवस्था, गिनती और व्यवस्थाविवरण हज़रत मूसा (अलैहि.) की जीवनी पर आधारित हैं और इस जीवन-वृत्त (सीरत) ही में उतरने के इतिहास के क्रमानुसार तौरात की वे आयतें भी प्रसंग के अनुसार लिख दी गई हैं जो अज़रा और उनके मददगार बुजुर्गों को मिल सकी। इसलिए वास्तव में अब तौरात उन बिखरे हिस्सों का नाम है जो मूसा (अलैहि.) की जीवनी के अन्दर पाए जाते हैं-कुरआन इन्हीं बिखरे हिस्सों को तौरात कहता है और इन्हीं की वह पुष्टि करता है, और सच तो यह है कि इन हिस्सों को जमा करके जब कुरआन से उनकी तुलना की जाती है तो दोनों ग्रंथों की मूल शिक्षाओं में बाल बराबर भी अन्तर नहीं पाया जाता। इसी तरह इंजील नाम है वास्तव में उन ईश्वरीय व्याख्यानों और कथनों का जो मसीह (अलैहि.) ने अपनी ज़िन्दगी के आखिरी ढाई-तीन वर्षों में नबी की हैसियत से कहे थे। एक मुद्दत के बाद जब आपके जीवन-वृत्त पर किताबें लिखी गई तो उनमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ वे व्याख्यान और कथन भी जगह-जगह मौका देखकर शामिल कर दिए गए जो इन किताबों के लेखकों तक मौखिक बातों और लिखित संस्मरणों के माध्यम से पहुंचे थे। आज मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना की जिन किताबों को 'इंजील' कहा जाता है, वास्तव में इंजील वे नहीं हैं, बल्कि इंजील हज़रत ईसा के वे कथन हैं जो उनके अन्दर लिखे हुए हैं। कुरआन इन्हीं [कथनों और व्याख्यानों के संग्रह] को 'इंजील' कहता है और इन्हीं की वह पुष्टि करता है।
مِن قَبۡلُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَأَنزَلَ ٱلۡفُرۡقَانَۗ إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 3
0
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَخۡفَىٰ عَلَيۡهِ شَيۡءٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 4
(5) ज़मीन और आसमान की कोई चीज़ अल्लाह से छिपी नहीं।3
3. अर्थात् वह सृष्टि के समस्त तथ्यों का जाननेवाला है, इसलिए जो किताब उसने उतारी हो वह पूर्णतया सत्य चाहिए, बल्कि विशुद्ध सत्य केवल उसी. ग्रंथ में इंसान को मिल सकता है जो उस ज्ञाता और विवेकी की ओर से अवतरित हो।
هُوَ ٱلَّذِي يُصَوِّرُكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ كَيۡفَ يَشَآءُۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 5
(6) वही तो है जो तुम्हारी माँओं के पेट में तुम्हारी शक्लें जैसी चाहता है, बनाता है।4 उस ज़बरदस्त हिकमतवाले के सिवा कोई और खुदा नहीं है
4. इसमें दो महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत है। एक यह कि तुम्हारी प्रकृति को जैसा वह जानता है, न कोई दूसरा जान सकता है, न तुम खुद जान सकते हो, इसलिए उसके मार्गदर्शन पर भरोसा किए बिना तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं है। दूसरे यह कि जिसने तुम्हारे गर्भ ठहरने से लेकर बाद के मरहलों तक हर मौके पर तुम्हारी छोटी-छोटी ज़रूरतों को पूरा करने का प्रबंध किया, किस तरह संभव था कि वह दुनिया के जीवन में तुम्हारी हिदायत और मार्गदर्शन का प्रबंध न करता, हालाँकि तुम सबसे बढ़कर अगर किसी चीज़ के मुहताज हो तो वह यही है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۡهُ ءَايَٰتٞ مُّحۡكَمَٰتٌ هُنَّ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ وَأُخَرُ مُتَشَٰبِهَٰتٞۖ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمۡ زَيۡغٞ فَيَتَّبِعُونَ مَا تَشَٰبَهَ مِنۡهُ ٱبۡتِغَآءَ ٱلۡفِتۡنَةِ وَٱبۡتِغَآءَ تَأۡوِيلِهِۦۖ وَمَا يَعۡلَمُ تَأۡوِيلَهُۥٓ إِلَّا ٱللَّهُۗ وَٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ يَقُولُونَ ءَامَنَّا بِهِۦ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ رَبِّنَاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 6
(7) ऐ नबी! वही खुदा है, जिसने यह किताब तुमपर उतारी है। इस किताब में दो प्रकार की आयते हैं, एक अटल, 5 जो किताब का मूल आधार हैं और दूसरी उपलक्षित 6 । जिन लोगों के दिलों में टेढ़ है, वे फ़ितने (बिगाड़) की तलाश में हमेशा उपलक्षित (आयतो) ही के पीछे पड़े रहते हैं और उनको (मनमाना) अर्थ पहनाने की कोशिश किया करते हैं, हालाँकि उनका वास्तविक अर्थ अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। इसके विपरीत जो लोग ज्ञान में परिपक्व है. वे कहते हैं कि "हमारा उनपर ईमान है, ये सब हमारे रब ही की ओर से है।''7 और सच यह है कि किसी चीज़ से सही शिक्षा सिर्फ सूझ-बूझवाले लोग ही प्राप्त करते हैं।
5. यहाँ अरबी शब्द 'मुहकमात' का अनुवाद अटल किया गया है। 'अटल आयतों' से अभिप्रेत वे आयतें हैं जिनको भाषा बिल्कुल स्पष्ट है, जिनका अर्थ और भाव निश्चित करने में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं है, जिनके शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है। ये आयतें 'ग्रंथ के मूल-आधार हैं' अर्थात् कुरआन जिस उद्देश्य के लिए उतरा है, उस उद्देश्य को यही आयतें पूरा करती हैं, इन्हीं में इस्लाम की ओर दुनिया को दावत दी गई है, इन्हीं में शिक्षा और नसीहत की बातें कही गई है, इन्हीं में गुमराहियों का खंडन और सीधे रास्ते का स्पष्टीकरण किया गया है। इन्हीं में दीन (धर्म) के मूल सिद्धान्त बताए गए हैं। इन्हीं में अकीदे (धारणाएँ), इबादतें, नैतिकता, कर्तव्य और करने-न-करने के आदेश दिए गए हैं, इसलिए जो आदमी सत्य का अभिलाषी हो उसकी प्यास बुझाने के लिए पक्की और अटल आयतें ही मूल स्रोत हैं और स्वाभाविक रूप से इन्हीं की ओर उसका ध्यान केंद्रित होगा।
6. यहाँ अरबी शब्द 'मुतशाबिहात' का हिन्दी अनुवाद 'उपलक्षित किया गया है। 'उपलक्षित आयतों' से अभिप्रेत वे आयतें हैं, जिनका अर्थ और भाव निश्चित करने में संदेह और आशंका को गुंजाइश रहती है। यह स्पष्ट है कि इंसान के लिए ज़िन्दगी का कोई रास्ता प्रस्तावित नहीं किया जा सकता, जब तक परोक्ष संबंधी तथ्यों के बारे में कम-से-कम आवश्यक जानकारियाँ इंसान को न दी जाएँ। और यह भी स्पष्ट है कि जो चीजें इंसान की ज्ञानेन्द्रियों से परे हैं, जिनको उसने न कभी देखा, न छुआ, न चखा; उनके लिए इंसानी भाषाओं में न ऐसे शब्द मिल सकते हैं जो उन्हीं के लिए बनाए गए हों और न ही ऐसी प्रचलित वर्णन-शैलियाँ मिल सकती हैं जिनसे हर सुननेवाले के मन में उनका सही चित्र खिंच जाए। निश्चित रूप से यह अनिवार्य है कि इस प्रकार के विषयों को बयान करने के लिए ऐसे शब्द और ऐसी वर्णन-शैलियाँ प्रयोग की जाएँ जो वास्तविक तथ्य से अधिक से अधिक मिलती-जुलती प्रत्यक्ष चीज़ों के लिए इंसान को भाषा पाई जाती हैं। चुनाँचे इन तथ्यों के बयान में कुरआन में ऐसी ही भाषा प्रयुक्त हुई है। और मुतशाबिहात (उपलक्षित आयतों) से अभिप्रेत वे आयतें हैं जिनमें यह भाषा प्रयुक्त हुई है। लेकिन इस भाषा का अधिक-से-अधिक लाभ बस इतना ही हो सकता है कि आदमी को वास्तविकता के निकट पहुंचा दे या उसकी एक धुंधली सी परिकल्पना उत्पन्न कर दे। ऐसी आयतों के अर्थ को निश्चित को तय करने की जितनी ज़्यादा कोशिश की जाएगी, उतना ही ज़्यादा संदेहों और संदिग्धताओं का सामना करना पड़ेगा, यहाँ तक कि इंसान वास्तविकता के अधिक निकट होने के बजाय उससे और अधिक दूर होता चला जाएगा। इसलिए जो लोग सत्य के अभिलाषी हैं और निरर्थक रुचि नहीं रखते, वे तो उपलक्षित (मुतशाबिहात) आयतों के उन्हीं अर्थों पर, जो अस्पष्ट परिकल्पना होती हैं किन्तु सत्यानुकूल होती हैं, संतोष कर लेते हैं जो काम चलाने के लिए काफ़ी है और अपना पूरा ध्यान अटल और स्पष्ट आयतों पर केंद्रित रखते हैं। परन्तु जो लोग व्यर्थ की बातों में रुचि रखनेवाले या फ़ितना चाहनेवाले होते हैं, उनका तमामतर काम उपलक्षित आयतों पर बहस करने और उसी के तर्क-वितर्क में पड़े रहना है।
رَبَّنَا لَا تُزِغۡ قُلُوبَنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَيۡتَنَا وَهَبۡ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةًۚ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡوَهَّابُ ۝ 7
(8) वे अल्लाह से दुआ करते रहते हैं कि “पालनहार ! जब तू हमें सीधे रास्ते पर लगा चुका है तो फिर कहीं हमारे दिलों में टेढ़ न पैदा कर देना। हमें अपने कृपा-भंडार से दयालुता प्रदान कर । तू ही वास्तविक दाता है।
رَبَّنَآ إِنَّكَ جَامِعُ ٱلنَّاسِ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 8
(9) पालनहार ! तू निश्चय ही सब लोगों को एक दिन जमा करनेवाला है, जिसके आने में कोई संदेह नहीं । तू कदापि अपने वादे से टलनेवाला नहीं है।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ وَقُودُ ٱلنَّارِ ۝ 9
(10) जिन लोगों ने इनकार की नीति अपनाई हैं8, उन्हें अल्लाह के मुकाबले में न उनका माल कुछ काम देगा, न औलाद । वे नरक का ईधन बनकर रहेंगे।
8. व्याख्या के लिए देखिए सूरा 2 (अल-बक़रा), टिप्पणी न० 161
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 10
(11) उनका अंजाम वैसा ही होगा, जैसा कि फ़िरऔन के साथियों और उनसे पहले के नाफ़रमानों का हो चुका है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों (निशानियों) को झुठलाया। नतीजा यह हुआ कि अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया, और सच यह है कि अल्लाह कड़ी सज़ा देनेवाला है।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ سَتُغۡلَبُونَ وَتُحۡشَرُونَ إِلَىٰ جَهَنَّمَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 11
(12) अत: ऐ नबी ! जिन लोगों ने तुम्हारी दावत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, उनसे कह दो कि निकट है वह समय, जब तुम मग़लूब (अधीन) हो जाओगे और जहन्नम की ओर हांके जाओगे, और जहन्नम बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
قَدۡ كَانَ لَكُمۡ ءَايَةٞ فِي فِئَتَيۡنِ ٱلۡتَقَتَاۖ فِئَةٞ تُقَٰتِلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَأُخۡرَىٰ كَافِرَةٞ يَرَوۡنَهُم مِّثۡلَيۡهِمۡ رَأۡيَ ٱلۡعَيۡنِۚ وَٱللَّهُ يُؤَيِّدُ بِنَصۡرِهِۦ مَن يَشَآءُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 12
(13) तुम्हारे लिए उन दो गिरोहों में एक शिक्षाप्रद निशानी थी, जिन्होंने (बद्र में) एक-दूसरे से जंग की। एक गिरोह अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा गिरोह अधर्मी था। देखनेवाले सर को आँखों से देख रहे थे कि अधर्मी गिरोह ईमानवाले गिरोह से दो गुना है।9 (मगर नतीजे ने साबित कर दिया कि) अल्लाह अपनी विजय और सहायता से जिसको चाहता है मदद देता है। आँखे खुली रखनेवालों के लिए इसमें बड़ी शिक्षा छिपी हुई है।10
9. यद्यपि वास्तविक अन्तर तीन गुना था, लेकिन सरसरी निगाह से देखनेवाला भी यह महसूस किए बिना तो नहीं रह सकता था कि शत्रुओं की सेना मुसलमानों से दोगुनी है।
10.बद्र की लड़ाई की घटना उस समय क़रीबी ज़माने में ही घट चुकी थी, इसलिए उसकी प्रत्यक्ष घटनाओं और नतीजों की ओर इशारा करके लोगों को शिक्षा दिलाई गई है। इस युद्ध में तीन बातें अत्यंत शिक्षाप्रद थीं- एक यह कि मुसलमान और विधर्मी जिस शान से एक-दूसरे के मुकाबले में आए थे, उससे दोनों का नैतिक अन्तर स्पष्ट रूप से सामने आ रहा था। एक ओर विधर्मियों की सेना में शराबों के दौर चल रहे थे, नाचने और गानेवाली दासियाँ साथ आई थीं और खूब मौज-मस्ती मनाई जा रही थी। दूसरी ओर मुसलमानों की सेना में परहेज़गारी थी, अल्लाह का डर था, नैतिकता पर अत्यंत नियंत्रण था, नमानें थीं और रोज़े थे, बात-बात पर अल्लाह का नाम था और अल्लाह ही के आगे दुआएं और प्रार्थनाएँ की जा रही थीं। दोनों फौजों को देखकर हर आदमी आसानी से जान सकता था कि दोनों में से कौन अल्लाह की राह में लड़ रहा है। दूसरे यह कि मुसलमान अपनी अल्पसंख्या और संसाधनों के अभाव के उपरांत विरोधियों को बड़ी संख्या और बेहतर हथियार रखनेवाली फ़ौज के मुकाबले में जिस तरह सफल हुए उससे साफ़ मालूम हो गया था कि उनको अल्लाह का सहयोग प्राप्त था। तीसरे यह कि अल्लाह की प्रभावशाली शक्ति से बेपरवाह होकर जो लोग अपने संसाधनों और अपने समर्थकों की भारी संख्या पर फूले हुए थे, उनके लिए यह घटना एक चेतावनी थी कि अल्लाह किस तरह कुछ दरिद्र, बेहाल, परदेसी मुहाजिरों और मदीना के किसानों के एक मुट्ठी भर गिरोह के द्वारा क़ुरैश जैसे क़बीले को पराजय दिला सकता है, जो तमाम अरब का सरताज था।
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ ٱلشَّهَوَٰتِ مِنَ ٱلنِّسَآءِ وَٱلۡبَنِينَ وَٱلۡقَنَٰطِيرِ ٱلۡمُقَنطَرَةِ مِنَ ٱلذَّهَبِ وَٱلۡفِضَّةِ وَٱلۡخَيۡلِ ٱلۡمُسَوَّمَةِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ وَٱلۡحَرۡثِۗ ذَٰلِكَ مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلۡمَـَٔابِ ۝ 13
(14) लोगों के लिए मनपसन्द चीजें औरतें, औलाद, सोने-चाँदी के ढेर, चुने हुए घोड़े, मवेशी और खेती की जमीनें बड़ी सुहावनी बना दी गई हैं, मगर ये सब दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी के सामान हैं। सच तो यह है कि जो बेहतर ठिकाना है, वह तो अल्लाह के पास है।
۞قُلۡ أَؤُنَبِّئُكُم بِخَيۡرٖ مِّن ذَٰلِكُمۡۖ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَأَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 14
(15) कहो : मैं तुम्हें बताऊँ कि इनसे ज़्यादा अच्छी चीज़ क्या है? जो लोग तक़वा (परहेज़गारी) का रवैया अपनाएँ उनके लिए उनके रब के पास बाग़ हैं, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वहाँ उन्हें शाश्वत जीवन प्राप्त होगा, पवित्र पत्निया उनकी संगिनी होंगी11 और अल्लाह की प्रसन्नता उन्हें प्राप्त होगी। अल्लाह अपने बन्दों की नीति पर गहरी नज़र रखता है।12
11.व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा),टिप्पणी 27 ।
12.अर्थात् अल्लाह अनुचित रूप से देनेवाला नहीं और न सरसरी और ऊपरी तौर पर फैसला करनेवाला है। वह बन्दों के कर्मों और क्रिया-कलापों और उनकी नीयतों और इरादों को खूब जानता है। उसे अच्छी तरह मालूम है कि बन्दों में से कौन उसके इनाम का हक़दार है और कौन नहीं है।
ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ إِنَّنَآ ءَامَنَّا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 15
(16) ये वे लोग है जो कहते हैं कि “मालिक ! हम ईमान लाए, हमारी खताओं को माफ़ कर और हमें दोज़ख की आग से बचा ले।"
ٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡمُنفِقِينَ وَٱلۡمُسۡتَغۡفِرِينَ بِٱلۡأَسۡحَارِ ۝ 16
(17) ये लोग सब्र करनेवाले हैं13, सच्चे हैं, आज्ञाकारी और दानशील हैं और रात की अन्तिम घड़ियों में अल्लाह से मग़ाफ़िरत (क्षमा और मुक्ति) की दुआएँ माँगा करते हैं।
شَهِدَ ٱللَّهُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَأُوْلُواْ ٱلۡعِلۡمِ قَآئِمَۢا بِٱلۡقِسۡطِۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 17
(18) अल्लाह ने स्वयं इस बात की गवाही दी है कि उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है14 और फ़रिश्ते और सब ज्ञानवाले भी सच्चाई और न्याय के साथ इसपर गवाह हैं15 कि उस बलशाली तत्त्वदशी के सिवा वास्तव में कोई खुदा नहीं ।
14.अर्थात् अल्लाह जो सृष्टि के तमाम तथ्यों का सीधा ज्ञान रखता है, यह उसकी गवाही है और उससे बढ़कर विश्वसनीय चश्मदीद गवाही और किसकी होगी कि सम्पूर्ण सृष्टि में उसके अपने व्यक्तित्व के सिवा कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो ईश्वरत्त्व की विशेषताएँ रखती हो, ईश्वरीय सत्ता की मालिक हो और ईश्वरीय अधिकारों की हक़दार हो ।
15.अल्लाह के बाद सबसे अधिक भरोसेमंद गवाही फ़रिश्तों की है, क्योंकि वे सृष्टि-राज्य के प्रशासनिक कारिन्दे हैं और वे सीधे-सीधे अपने निजी ज्ञान के आधार पर गवाही दे रहे हैं कि इस राज्य में अल्लाह के सिवा किसी का आदेश नहीं चलता और उसके सिवा कोई हस्ती ऐसी नहीं है जिससे ज़मीन और आसमान के प्रशासनिक मामलों में वे सम्पर्क करते हों। इसके बाद प्राणियों में से जिन लोगों को भी तथ्यों का थोड़ा या बहुत ज्ञान मिला हुआ है, उन सबको शुरू से लेकर आज तक यह सर्वसम्मत गवाही रही है कि एक ही ख़ुदा इस पूरी सृष्टि का स्वामी और शासक है।
إِنَّ ٱلدِّينَ عِندَ ٱللَّهِ ٱلۡإِسۡلَٰمُۗ وَمَا ٱخۡتَلَفَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 18
(19) अल्लाह के नज़दीक दीन (धर्म) सिर्फ इस्लाम 16 है । इस धर्म से हटकर जो विभिन्न मार्ग उन लोगों ने ग्रहण किए, जिन्हें किताब दी गई थी, उनकी इस कार्य-नीति की कोई वजह इसके सिवा न थी कि उन्होंने ज्ञान आ जाने के बाद आपस में एक-दूसरे पर अत्याचार करने के लिए ऐसा किया, 17 और जो कोई अल्लाह के हुक्मों और हिदायतों को मानने से इनकार कर दे, अल्लाह को उससे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती ।
16.अर्थात् अल्लाह के निकट इंसान के लिए केवल एक ही जीवन-व्यवस्था और एक ही जीवन-पद्धति सही और ठीक है, और वह यह है कि इंसान अल्लाह को अपना स्वामी और उपास्य माने और उसकी बंदगी और गुलामी में अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर दे और उसकी बंदगी और आज्ञापालन का तरीका स्वयं न गढ़े, बल्कि उसने अपने पैग़म्बरों के माध्यम से जो हिदायत भेजी है. बिना कुछ घटाए-बढ़ाए केवल उसी का पालन करे । इसी चिन्तन एवं कार्य-प्रणाली का नाम 'इस्लाम' है और यह बात बिल्कुल उचित है कि सृष्टि का रचयिता और स्वामी अपनी सृष्टि और प्रजा के लिए इस इस्लाम के सिवा किसी अन्य कार्य-नीति को वैध न माने। आदमी अपनी मूर्खता से अपने आपको नास्तिकता से लेकर शिर्क और बुतपरस्ती तक प्रत्येक दृष्टिकोण और प्रत्येक पंथ की पैरवी का वैध अधिकारी समझ सकता है, परन्तु सृष्टि के सम्राट की दृष्टि में तो यह खुला विद्रोह है।
17.अर्थ यह है कि अल्लाह की ओर से जो पैग़म्बर भी दुनिया के किसी कोने और किसी काल में आया है, उसका दीन इस्लाम ही था और जो किताब भी दुनिया को किसी भाषा और किसी कौम में अवतरित हुई है, उसने इस्लाम ही की शिक्षा दी है। इस असल दीन को बिगाड़कर और उसमें कमी व बेशी करके जो बहुत से धर्म इंसानों में प्रचलित किए गए, उनके पैदा होने का कारण इसके सिवा कुछ न था कि लोगों ने अपनी वैध सीमा से बढ़कर अधिकार, लाभ और विशिष्टताएँ प्राप्त करनी चाहीं और अपनी इच्छाओं के अनुसार असल दीन (धर्म) की धारणाओं, सिद्धान्तों और आदेशों में फेर-बदल कर डाला।
فَإِنۡ حَآجُّوكَ فَقُلۡ أَسۡلَمۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّهِ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِۗ وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡأُمِّيِّـۧنَ ءَأَسۡلَمۡتُمۡۚ فَإِنۡ أَسۡلَمُواْ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 19
(20) अब अगर ऐ नबी ! ये लोग तुमसे झगड़ा करें तो इनसे कहो : “मैंने और मेरी पैरवी करनेवालों ने तो अल्लाह के आगे अपने आपको डाल दिया है।" फिर किताबवालों और बिना किताबवालों दोनों से पूछो : “क्या तुमने भी उसका आज्ञापालन और बन्दगी स्वीकार की?18 अगर की, तो वे सीधा रास्ता पा गए और अगर उससे मुँह मोड़ा तो तुमपर सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी। आगे अल्लाह खुद अपने बन्दों के मामलों को देखनेवाला है।
18.दूसरे शब्दों में इसको इस प्रकार समझिए कि,"मैं और मेरी पैरवी करनेवाले तो इस ठेठ इस्लाम के क़ायल हो चुके हैं जो अल्लाह का असल दीन है। अब तुम बताओ कि क्या तुम अपने और अपने बाप-दादाओं को गढ़ी हुई बातों को छोड़कर उस वास्तविक और असली दीन की ओर आते हो?"
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَيَقۡتُلُونَ ٱلَّذِينَ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡقِسۡطِ مِنَ ٱلنَّاسِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 20
(21) जो लोग अल्लाह के आदेशों और मार्गदर्शन को मानने से इनकार करते हैं और उसके पैगम्बरों की नाहक हत्या करते हैं और ऐसे लोगों की जान को लग जाते हैं जो खुदा के बंदों में से न्याय और सच्चाई का आदेश देने के लिए उठे, उनको दर्दनाक सज़ा की खुशखबरी सुना दो।19
19.यह व्यंग्यपूर्ण वर्णन-शैली है कि अपनी जिन करतूतों पर वे आज बहुत प्रसन्न हैं और समझ रहे हैं कि हम बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. उन्हें बता दो कि तुम्हारे इन कर्मों का अंजाम यह है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 21
(22) ये वे लोग हैं जिनके कर्म लोक (दुनिया) और परलोक (आखिरत) दोनों में बर्बाद हो गए20, और उनका मददगार कोई नहीं है।
20.अर्थात् उन्होंने अपनी शक्तियाँ और कोशिशें ऐसे रास्ते में लगाई हैं जिसका नतीजा दुनिया में भी खराब है और आखि़रत में भी ख़राब ।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ كِتَٰبِ ٱللَّهِ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ وَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) तुमने देखा नहीं कि जिन लोगों को किताब के ज्ञान में से कुछ हिस्सा मिला है, उनका हाल क्या है? उन्हें जब अल्लाह की किताब की ओर बुलाया जाता है ताकि वह उनके बीच फैसला करे22, तो उनमें से एक गिरोह इससे पहलू बचा जाता है और इस फैसले की ओर आने से मुँह फेर जाता है।
22.अर्थात् उनसे कहा जाता है कि अल्लाह की किताब को अन्तिम प्रमाण मान लो, उसके फैसले के आगे सिर झुका दो और जो कुछ उसके अनुसार सत्य सिद्ध हो, उसे सत्य और जो उसके अनुसार असत्य सिद्ध हो, उसे असत्य मान लो। यह बात स्पष्ट रहे कि इस जगह अल्लाह की किताब से अभिप्रेत तौरात व इंजील है और, ग्रंथ के ज्ञान में से कुछ हिस्सा पानेवालों से" तात्पर्य ईसाई और यहूदी धर्म-विद्वान (उलमा) हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۖ وَغَرَّهُمۡ فِي دِينِهِم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 23
(24) उनकी यह नीति इस कारण है कि वे कहते हैं, “जहन्नम (नरक) की आग तो हमें छुएगी तक नहीं और अगर जहन्नम की सज़ा हमें मिलेगी भी तो बस कुछ दिन।''23 उनकी अपनी मनगढंत धारणाओं ने उनको अपने धर्म के मामले में बड़ी ग़लतफ़हमियों में डाल रखा है।
23.अर्थात् ये लोग अपने आपको अल्लाह का चहेता समझ बैठे हैं। ये इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि हम चाहे कुछ करें हर हाल में जन्नत हमारी है। हम ईमानवाले हैं, हम फलाँ की संतान और फलाँ के माननेवाले और फलाँ के मुरीद और फलों के दामन को पकड़े हुए लोग हैं, भला जहन्नम की क्या मजाल है कि हमें छू जाए। और मान लीजिए अगर हम जहन्नम में डाले भी गए तो बस कुछ दिन वहाँ रखे जाएँगे ताकि गुनाहों की जो गन्दगी लग गई है वह साफ़ हो जाए, फिर सीधे जन्नत में पहुंचा दिए जाएंगे। इसी प्रकार के विचारों ने उनको इतना निडर और बेबाक बना दिया है कि वे भारी-से-भारी अपराध कर बैठते हैं, बुरे-से-बुरे गुनाह कर जाते हैं, खुल्लम-खुल्ला हक से मुँह मोड़ जाते हैं और तनिक भी अल्लाह का डर उनके दिल में नहीं आता।
فَكَيۡفَ إِذَا جَمَعۡنَٰهُمۡ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِ وَوُفِّيَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 24
(25) मगर क्या बनेगी उनपर जब हम उन्हें उस दिन इकट्ठा करेंगे जिसका आना निश्चित है? उस दिन हर आदमी को उसकी कमाई का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी पर ज़ुल्म न होगा।
قُلِ ٱللَّهُمَّ مَٰلِكَ ٱلۡمُلۡكِ تُؤۡتِي ٱلۡمُلۡكَ مَن تَشَآءُ وَتَنزِعُ ٱلۡمُلۡكَ مِمَّن تَشَآءُ وَتُعِزُّ مَن تَشَآءُ وَتُذِلُّ مَن تَشَآءُۖ بِيَدِكَ ٱلۡخَيۡرُۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 25
(26) कहो : “ऐ अल्लाह ! राज्य के मालिक ! तू जिसे चाहे राज्य दे और जिससे चाहे छीन ले। जिसे चाहे इज्जत दे और जिसको चाहे अपमानित कर दे, भलाई तेरे अधिकार में है। निस्संदेह तुझे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है।
تُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَتُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۖ وَتُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَتُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّۖ وَتَرۡزُقُ مَن تَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 26
(27) रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में। बेजान में से जानदार को निकालता है और जानदार में से बेजान को। और जिसे चाहता है, बेहिसाब रोज़ी देता है।24
24.जब इंसान एक ओर इंकार करनेवालों और अवज्ञाकारियों की करतूत देखता है, और फिर यह देखता है कि वे दुनिया में किस तरह फल-फूल रहे हैं, दूसरी ओर ईमानवालों के आज्ञापालन को देखता है और फिर उनको उस दरिद्रता और निर्धनता और उन मुसीबतों और दुखों में ग्रस्त देखता है, जिनमें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके सहाबा किराम सन् 03 हि० और उसके आस-पास के ज़माने में ग्रस्त थे, तो स्वाभाविक रूप से उसके मन में एक विचित्र हसरत भरा सवाल घूमने लगता है। अल्लाह ने यहाँ इसी सवाल का जवाब दिया है और ऐसी सूक्ष्म शैली में दिया है कि इससे अधिक सूक्ष्मता की कल्पना नहीं की जा सकती।
لَّا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَلَيۡسَ مِنَ ٱللَّهِ فِي شَيۡءٍ إِلَّآ أَن تَتَّقُواْ مِنۡهُمۡ تُقَىٰةٗۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 27
(28) ईमानवाले ईमानवालों को छोड़कर अधर्मियों को अपना साथी और सहायक कदापि न बनाएँ । जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई संबंध नहीं । हाँ, यह माफ़ है कि तुम उनके जुल्म से बचने के लिए ऊपरी तौर पर यह नीति अपना लो।25 मगर अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है और तुम्हें उसी की ओर पलटकर जाना है।26
25.अर्थात् अगर कोई ईमानवाला किसी इस्लाम-विरोधी गिरोह के चंगुल में फँस गया हो और उसे उनके अत्याचार और उत्पीड़न का डर हो, तो उसको इजाज़त है कि अपने ईमान को छिपाए रखे और विधर्मियों के साथ ऊपरी तौर पर इस तरह रहे कि मानो उन्हीं में का एक आदमी है या अगर उसका मुसलमान होना जाहिर हो गया हो तो अपने प्राण की रक्षा के लिए वह विधर्मियों के साथ मैत्रीपूर्ण नीति का प्रदर्शन कर सकता है, यहाँ तक कि सज्न भय को दशा में जिस व्यक्ति में सहन की शक्ति न हो, उसको धर्म-विरुद्ध बात भी कह जाने तक की छूट है।
26.अर्थात् कहीं इंसानों का डर तुमपर इतना न छा जाए कि अल्लाह का डर दिल से निकल जाए। इंसान ज़्यादा-से-ज्यादा तुम्हारी दुनिया बिगाड़ सकते हैं, परन्तु अल्लाह तुम्हें हमेशा का अज़ाब दे सकता है। इसलिए अपने बचाव के लिए अगर मजबूरी की हालत में कभी इस्लाम-विरोधियों के साथ हीले-हवाले की बात करनी पड़े, तो वह बस इस हद तक होनी चाहिए कि इस्लाम के मिशन और इस्लामी गिरोह के हित और किसी मुसलमान की जान व माल को क्षति पहुँचाए बिना तुम अपनी जान व माल को रक्षा कर लो। लेकिन ख़बरदार ! इस्लाम के विरुद्ध और धर्म-विरोधियों को कोई ऐसी सेवा तुम्हारे हाथों न होने पाए जिससे इस्लाम के मुकाबले में इस्लाम-विरोध को बढ़ावा मिलने और मुसलमानों पर विधर्मियों के प्रभावी हो जाने की संभावना हो। खूब समझ लो कि अगर अपने आपको बचाने के लिए तुमने अल्लाह के दीन को या ईमानवालों के गिरोह को या किसी एक मुसलमान को भी क्षति पहुंचाई या अल्लाह के विद्रोहियों की कोई सच्ची सेवा की, तो अल्लाह की पकड़ से कदापि न बच सकोगे। जाना तुमको हर हाल में उसी के पास है।
قُلۡ إِن تُخۡفُواْ مَا فِي صُدُورِكُمۡ أَوۡ تُبۡدُوهُ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 28
(29) ऐ नबी ! लोगों को सचेत कर दो कि तुम्हारे दिलों में जो कुछ है, उसे तुम चाहे छिपाओ या प्रकट करो, अल्लाह हर हाल में उसे जानता है । जमीन और आसमान की कोई चीज़ उसके ज्ञान से बाहर नहीं है और उसका प्रभुत्व हर चीज़ पर छाया हुआ है।
يَوۡمَ تَجِدُ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ مِنۡ خَيۡرٖ مُّحۡضَرٗا وَمَا عَمِلَتۡ مِن سُوٓءٖ تَوَدُّ لَوۡ أَنَّ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَهُۥٓ أَمَدَۢا بَعِيدٗاۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 29
(30) वह दिन आनेवाला है जब हर प्राणी अपने किए का फल मौजूद पाएगा, चाहे उसने भलाई की हो या बुराई । उस दिन आदमी यह तमन्ना करेगा कि काश, अभी यह दिन उससे बहुत दूर होता ! अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और वह अपने बन्दों का बड़ा ही भला चाहनेवाला है।27
27अर्थात् वह तुम्हारा कितना बड़ा हितैषी है कि तुम्हें समय से पहले ऐसे कामों पर सचेत कर रहा है जो तुम्हारे अंजाम की खराबी का कारण बन सकते हैं।
قُلۡ إِن كُنتُمۡ تُحِبُّونَ ٱللَّهَ فَٱتَّبِعُونِي يُحۡبِبۡكُمُ ٱللَّهُ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 30
(31) ऐ नबी ! लोगों से कह दो कि, "अगर तुम वास्तव में अल्लाह से मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा और तुम्हारी ग़लतियों को क्षमा कर देगा। वह बड़ा क्षमा करनेवाला और दयावान है।”
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 31
(32) उनसे कहो कि, “अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करो", फिर अगर वे तुम्हारा यह सन्देश स्वीकार न करें तो निश्चित ही यह संभव नहीं है कि अल्लाह ऐसे लोगों से मुहब्बत करे जो उसके और उसके रसूल के आज्ञापालन से इंकार करते हों।28
28.यहाँ पहला व्याख्यान समाप्त होता है । इसकी विषयवस्तु , विशेषकर बद्र की जंग की ओर जो संकेत इसमें किया गया है, उसकी शैली पर, विचार करने से ज़्यादा अनुमान यही होता है कि इस व्याख्यान के अवतरण का समय बद्र की लड़ाई के बाद और उहुद की लड़ाई से पहले का है, अर्थात् 03 हि० । मुहम्मद बिन इसहाक़ की रिवायत से, आम से लोगों को यह भ्रम हुआ है कि इस सूरा के आरंभ की 80 आयतें नजरान के प्रतिनिधिमंडल के आने के अवसर पर सन् 09 हि० में उतरी थीं, लेकिन एक तो इस आरंभिक भाषण का विषय साफ़ बता रहा है कि यह उससे बहुत पहले उतरी होगी, दूसरे मुक़ातिल बिन सुलैमान की रिवायत में यह उल्लेख है कि नजरान के प्रतिनिधिमंडल के आने पर केवल वे आयतें उतरी हैं जो हज़रत यया और हज़रत ईसा (अलैहि.) के बयान पर सम्मिलित हैं और जिनकी संख्या 30 या उससे कुछ ज़्यादा है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰٓ ءَادَمَ وَنُوحٗا وَءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ وَءَالَ عِمۡرَٰنَ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 32
(33) अल्लाह ने 29 आदम और नूह और इबराहीम की सन्तान और इमरान 30 की सन्तान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था।
29.यहाँ से दूसरा व्याख्यान शुरू होता है। इसके उतरने का समय सन् 09 हि. है, जबकि नजरान के ईसाई लोकसत्ता के प्रतिनिधि नबी (सल्ल.) की सेवा में उपस्थित हुए थे। नजरान का इलाका हिजाज़ और यमन के बीच है। उस वक़्त उस क्षेत्र में 73 बस्तियाँ सम्मिलित थीं और कहा जाता है कि एक लाख बीस हज़ार लड़ने के योग्य मर्द उसमें से निकल सकते थे। आबादी पूरी-की-पूरी ईसाई थी और तीन सरदारों के आदेशाधीन थी। एक 'आकिब' कहलाता था जिसकी हैसियत क़ौम के अमीर (सरदार) की थी। दूसरा 'सैयद कहलाता था जो उनके सांस्कृतिक और राजनैतिक मामलों की निगरानी करता था और तीसरा 'उस्कुफ' (बिशप) था जिससे संबंधित धार्मिक मार्गदर्शन था । जब नबी (सल्ल.) ने मक्का पर विजय प्राप्त की और तमाम अरबवालों को यक़ीन हो गया कि देश का भविष्य अब अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के हाथ में है तो अरब के विभिन्न भागों से आपके पास प्रतिनिधिमंडल आने शुरू हो गए। इसी सिलसिले में नजरान के तीनों सरदार भी 60 आदमियों का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर मदीना पहुँचे । लड़ाई के लिए वे किसी भी हाल में तैयार न थे। अब प्रश्न केवल यह था कि वे इस्लाम अपनाते हैं या ज़िम्मी बनकर रहना चाहते हैं। इस अवसर पर अल्लाह ने नबी (सल्ल.) पर यह व्याख्यान अवतरित किया, ताकि उसके द्वारा नजरान के प्रतिनिधिमंडल को इस्लाम की ओर बुलाया जाए।
30.इमरान हज़रत मूसा और हारून के पिता का नाम था, जिसे बाइबिल [निर्ग,6 : 20]में 'अम्राम' लिखा गया है।
ذُرِّيَّةَۢ بَعۡضُهَا مِنۢ بَعۡضٖۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 33
(34) ये एक सिलसिले के लोग थे जो एक-दूसरे की नस्ल से पैदा हुए थे। अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।31
31. मसीहियों (ईसाइयों) को गुमराही की पूरी-की-पूरी वजह यह है कि वे मसीह को बन्दा और रसूल मानने के बजाय ईश्वर का बेटा और उलूहियत (ईश्वरत्त्व) में उसका साझीदार करार देते हैं । अगर उनकी यह बुनियादी ग़लती दूर हो जाए तो सही और विशुद्ध इस्लाम की ओर उनका पलटना आसान हो जाए। इसी लिए इस व्याख्यान की शुरुआत यूँ की गई है कि आदम और नूह और इबराहीम को संतति और इमरान की संतति के सब पैग़म्बर इंसान थे, एक को नस्ल से दूसरा पैदा होता चला आया, इनमें से कोई भी ख़ुदा न था, उनकी विशेषता मात्र यह थी कि अल्लाह ने अपने दीन के प्रचार और दुनिया के सुधार के लिए उनको चुन लिया था।
إِذۡ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ عِمۡرَٰنَ رَبِّ إِنِّي نَذَرۡتُ لَكَ مَا فِي بَطۡنِي مُحَرَّرٗا فَتَقَبَّلۡ مِنِّيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 34
(35) (वह उस समय सुन रहा था) जब इमरान की औरत32 कह रही थी कि,"मेरे पालनहार ! मैं इस बच्चे को जो मेरे पेट में है, तुझे भेंट स्वरूप अर्पित करती हूँ, वह तेरे ही काम के लिए वफ़ होगा। मेरी इस भेंट को क़बूल कर ले, तू सुनने और जाननेवाला है।"33
32.अगर इमरान की औरत से तात्पर्य 'इमरान की बीवी' लिया जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि यह वह इमरान नहीं हैं जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है, बल्कि यह हज़रत मरयम के पिता थे, जिनका नाम शायद इमरान होगा। (मसीही रिवायतों में हज़रत मरयम के पिता का नाम युआनेम Ioachim लिखा) है और आगर इमरान की औरत से मुराद आले इमरान की औरत ली जाए, तो इसका अर्थ यह होगा कि हज़रत मरयम की माँ इसी कबीले से ताल्लुक रखती थीं। लेकिन हमारे पास जानने का कोई ऐसा साधन मौजूद नहीं है जिससे हम निश्चित रूप से इन दोनों अर्थों में से किसी एक को प्रमुखता दे सकें,क्योंकि इतिहास में - इसका कोई उल्लेख नहीं है कि हज़रत मरयम के बाप कौन थे और उनकी माँ किस कबीले को थीं। हाँ, अगर यह रिवायत सही मानी जाए कि हज़रत यया की माँ और हज़रत मरयम की माँ आपस में रिश्ते की बहनें थीं, तो फिर 'इमरान की औरत' का अर्थ 'इमरान क़बीले की औरत' ही सही होगा, क्योंकि इंजील लूका में हमें यह उल्लेख मिलता है कि हज़रत यह्या की माँ हज़रत हारून की सन्तान से थीं । (लूका, 1:5)
33.अर्थात् तू अपने बन्दों की दुआएँ सुनता है और उनकी नीयतों का हाल जानता है।
فَلَمَّا وَضَعَتۡهَا قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي وَضَعۡتُهَآ أُنثَىٰ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا وَضَعَتۡ وَلَيۡسَ ٱلذَّكَرُ كَٱلۡأُنثَىٰۖ وَإِنِّي سَمَّيۡتُهَا مَرۡيَمَ وَإِنِّيٓ أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 35
(36) फिर जब वह बच्ची उसके यहाँ पैदा हुई तो उसने कहा, “मालिक ! मेरे यहाँ तो लड़की पैदा हो गई है-हालाँकि जो कुछ उसने जना था, अल्लाह को उसकी खबर थी-और लड़का लड़की की तरह नहीं होता।34 खैर, मैंने इसका नाम मरयम रख दिया है और मैं इसे और इसकी आगे की नस्ल को तिरस्कृत (धुतकारे हुए) शैतान के उपद्रव से तेरी पनाह में देती हूँ।"
34.अर्थात् लड़का उन बहुत-सी स्वाभाविक कमज़ोरियों और सामाजिक पाबन्दियों से आज़ाद होता है जो लड़की के साथ लगी हुई होती हैं, इसलिए अगर लड़का होता तो वह उद्देश्य ज़्यादा अच्छी तरह प्राप्त हो था जिसके लिए मैं अपने बच्चे को तेरी राह में नज्न (भेंट) करना चाहती थी।
فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٖ وَأَنۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنٗا وَكَفَّلَهَا زَكَرِيَّاۖ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيۡهَا زَكَرِيَّا ٱلۡمِحۡرَابَ وَجَدَ عِندَهَا رِزۡقٗاۖ قَالَ يَٰمَرۡيَمُ أَنَّىٰ لَكِ هَٰذَاۖ قَالَتۡ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٍ ۝ 36
(37) अन्तत: उसके रब ने उस लड़की को सहर्ष स्वीकार कर लिया, उसे बड़ी अच्छी लड़की बनाकर उठाया और ज़करीया को उसका संरक्षक बना दिया। ज़करीया 35 जब कभी उसके पास मेहराब36 में जाता तो उसके पास कुछ-न-कुछ खाने-पीने का सामान पाता। पूछता: "मरयम ! यह तेरे पास कहाँ से आया?" वह जवाब देती : “अल्लाह के पास से आया है। अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब रोज़ी देता है।”
35.अब उस समय का उल्लेख आरंभ होता है जब हज़रत मरयम प्रौढ़ावस्था को पहुंच गई और बैतुल-मक्दिस की इबादतगाह (हैकल) में दाखिल कर दी गई और अल्लाह की याद में रात-दिन लगी रहने लगीं। हज़रत जकरीया जिनकी देखभाल में वे दी गई थीं, शायद रिश्ते में उनके मौसा (खालू) थे और हैकल के मुजाविरों में से थे। यह वह ज़करीया नबी नहीं हैं जिनकी हत्या का उल्लेख बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट में हुआ है।
36.शब्द "मेहराब” से लोगों का ध्यान आम तौर से उस मेहराब की ओर चला जाता है जो हमारी मस्जिदों में इमाम के खड़े होने के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन यहाँ मेहराब से यह तात्पर्य नहीं है। गिरजाघरों और कनीसों में असल इबादतगाह की इमारत से मिली हुई और धरती से काफी ऊंचाई पर जो कमरे बनाए जाते हैं, जिनमें इबादतगाह के मुजाविर (प्रबंधक), सेवक और एंकात में बैठकर और एकाग्रचित्त होकर ईश्वर की याद में लीन रहनेवाले लोग (मोतकिफ़) रहा करते हैं, उन्हें "मेहराब" कहा जाता है। इसी प्रकार के कमरों में से एक में हज़रत मरयम एतिकाफ में खुदा की इबादत के लिए रहा करती थीं।
هُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهُۥۖ قَالَ رَبِّ هَبۡ لِي مِن لَّدُنكَ ذُرِّيَّةٗ طَيِّبَةًۖ إِنَّكَ سَمِيعُ ٱلدُّعَآءِ ۝ 37
(38) यह हाल देखकर जकरीया ने अपने रब को पुकारा, “पालनहार ! अपनी कुदरत से मुझे नेक औलाद प्रदान कर । तू ही दुआ सुननेवाला है।"37
37.हज़रत जकरीया उस समय तक निःसन्तान थे। उस नौजवान नेक लड़की को देखकर स्वाभाविक रूप से उनके मन में यह तमन्ना पैदा हुई कि काश, अल्लाह उन्हें भी ऐसी ही भली सन्तान दे, और यह देखकर कि अल्लाह किस तरह अपनी कुदरत से इस एकांतवासी लड़की को रोज़ी पहुंचा रहा है, उन्हें यह आशा हुई कि अल्लाह चाहे तो इस बुढ़ापे में भी उनको सन्तान दे सकता है।
فَنَادَتۡهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُوَ قَآئِمٞ يُصَلِّي فِي ٱلۡمِحۡرَابِ أَنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحۡيَىٰ مُصَدِّقَۢا بِكَلِمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَسَيِّدٗا وَحَصُورٗا وَنَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 38
(39) जवाब में फ़रिश्तों ने आवाज़ दी, जबकि वह मेहराब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था, कि “अल्लाह तुझे यहया 38 की शुभ-सूचना देता है। वह अल्लाह की ओर से एक आदेश39 की पुष्टि करनेवाला बनकर आएगा। उसमें सरदारी और बुजुर्गी की शान होगी, पूर्णत: संयत होगा, नबी बनाया जाएगा और भले लोगों में उसकी गिनती होगी।"
38.बाइबल में इनका नाम “यूहन्ना" लिखा है। इनके हालात के लिए देखिए मत्ती, अध्याय 3, 11, 14; मरकुस, अध्याय 3,6; लूका,अध्याय 1,3
39.अल्लाह के आदेश से तात्पर्य हज़रत ईसा (अलैहि०) हैं। चूंकि उनका जन्म अल्लाह के एक असाधारण आदेश से चमत्कारस्वरूप हुआ था, इसलिए उनको कुरआन मजीद में कलिमतुम-मिनल्लाहि' (अर्थात् अल्लाह का आदेश) कहा गया है।
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَقَدۡ بَلَغَنِيَ ٱلۡكِبَرُ وَٱمۡرَأَتِي عَاقِرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكَ ٱللَّهُ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ ۝ 39
(40) ज़करीया ने कहा, “पालनहार ! भला मेरे यहाँ लड़का कहाँ से होगा? मैं तो बहुत बूढ़ा हो चुका हूँ और मेरी बीवी बाँझ है।" जवाब मिला, "ऐसा ही होगा40, अल्लाह जो चाहता है करता है।"
40.अर्थात् तेरे बुढ़ापे और तेरी बीवी के बाँझपन के बावजूद अल्लाह तुझे बेटा देगा।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٍ إِلَّا رَمۡزٗاۗ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ كَثِيرٗا وَسَبِّحۡ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ ۝ 40
(41) निवेदन किया, “मालिक ! फिर कोई निशानी मेरे लिए निश्चित कर दे।41 कहा, “निशानी यह है कि तुम तीन दिन तक लोगों से संकेत के सिवा कोई बातचीत न करोगे (या न कर सकोगे), इस बीच अपने रब को बहुत याद करना और सुबह व शाम उसका गुणगान (तस्बीह) करते रहना ।''42
41.अर्थात् ऐसी निशानी बता दे कि जब एक बूढ़ा खूसट और बूढ़ी बाँझ के यहाँ लड़के के जन्म जैसी असाधारण घटना घटनेवाली हो तो इसकी सूचना मुझे पहले से हो जाए।
42.इस व्याख्यान का मूल उद्देश्य ईसाइयों पर उनकी इस धारणा की त्रुटि स्पष्ट करना है कि वे मसीह (अलैहित) को अल्लाह का बेटा और “इलाह" (उपास्य) समझते हैं। शुरू में हज़रत यया (अलैहि०) का उल्लेख इसलिए किया गया है कि जिस तरह मसीह (अलैहित) का जन्म चमत्कारिक रूप से हुआ था, उसी तरह उनसे छ: ही महीने पहले उसी परिवार में हज़रत यह्या का जन्म भी एक दूसरे तरह के चमत्कार से हो चुका था। इससे अल्लाह ईसाइयों को यह समझाना चाहता है कि अगर यया को उनके चमत्कारिक जन्म ने 'खुदा' नहीं बनाया तो मसीह सिर्फ अपने असाधारण जन्म के बल पर 'खुदा' कैसे हो सकते हैं।
وَإِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰكِ وَطَهَّرَكِ وَٱصۡطَفَىٰكِ عَلَىٰ نِسَآءِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 41
42) फिर वह समय आया जब मरयम से फ़रिश्तों ने आकर कहा, “ऐ मरयम ! अल्लाह ने तुझे चुना और पावनता (पाकीज़गी) प्रदान की और तमाम दुनिया औरतों पर तुझको प्रमुखता देकर अपनी सेवा के लिए चुन लिया।
يَٰمَرۡيَمُ ٱقۡنُتِي لِرَبِّكِ وَٱسۡجُدِي وَٱرۡكَعِي مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 42
(43) ऐ मरयम ! अपने रब के आदेशों की पाबंद बनकर रह, उसके आगे सिर को झुका और जो बन्दे उसके समक्ष झुकनेवाले हैं, उनके साथ तू भी झुक जा।"
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۚ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يُلۡقُونَ أَقۡلَٰمَهُمۡ أَيُّهُمۡ يَكۡفُلُ مَرۡيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 43
(44) ऐ नबी ! ये रौब (परोक्ष) की खबरें हैं, जो हम तुमको वह्य के ज़रिये से बता रहे हैं, वरना तुम उस समय वहाँ मौजूद न थे, जब हैकल (उपासनागृह) के सेवक यह फैसला करने के लिए कि मरयम का अभिभावक (सरपरस्त) कौन हो, अपने-अपने क़लम फेंक रहे थे43, और न तुम उस समय हाज़िर थे जब उनके बीच झगड़ा हो रहा था।
43.अर्थात् पर्ची डाल रहे थे। पर्ची डालने की ज़रूरत इसलिए महसूस की गई कि हज़रत मरयम की माँ ने उनको अल्लाह के काम के लिए हैकल (उपासनागृह) की नज़्र (भेंट) कर दिया था और वह चूँकि लड़की थीं, इसलिए यह एक गंभीर समस्या बन गई थी कि हैकल के मुजाविरों (पुरोहितों) में से किसके संरक्षण में वे रहें।
إِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٖ مِّنۡهُ ٱسۡمُهُ ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ وَجِيهٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 44
(45) और जब फ़रिश्तों ने कहा, "ऐ मरयम ! अल्लाह तुझे अपने एक फ़रमान की शुभ-सूचना देता है। उसका नाम मसीह मरियम का बेटा ईसा होगा, दुनिया और आखिरत में इज्ज़तदार होगा, अल्लाह के करीबी बन्दों में गिना जाएगा,
وَيُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗا وَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 45
(46) लोगों से पालने में भी बातें करेगा और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी और वह एक नेक और भला व्यक्ति होगा।”
قَالَتۡ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكِ ٱللَّهُ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 46
(47) यह सुनकर मरयम बोली,"पालनहार ! मेरे यहाँ बच्चा कहाँ से होगा? मुझे तो किसी पुरुष ने हाथ तक नहीं लगाया।" जवाब मिला, "ऐसा ही होगा44, अल्लाह जो चाहता है, पैदा करता है। वह जब किसी काम के करने का फैसला फ़रमाता है, तो बस कहता है कि हो जा, और वह हो जाता है।"
44.अर्थात् बावजूद इसके कि किसी मर्द ने तुझे हाथ नहीं लगाया, तेरे यहाँ बच्चा पैदा होगा। यही शब्द 'क-ज़ालि-क' (ऐसा ही होगा) हज़रत ज़करीया के जवाब में भी कहा गया था। इसका जो अर्थ वहाँ है, वही यहाँ भी होना चाहिए। साथ ही बाद का वाक्य, बल्कि पिछला और आगला सारा व्याख्यान इसी अर्थ की पुष्टि करता है कि हज़रत मरयम को किसी से बिना किसी लैंगिक संबंध के बच्चा पैदा होने की शुभ-सूचना दो गई थी और वास्तव में इसी तरह से हज़रत ईसा (अलैहि.) का जन्म हुआ। वरना अगर बात यही थी कि हज़रत मरयम के यहाँ उसो सर्वज्ञात स्वाभाविक तरीके से बच्चा पैदा होनेवाला था जिस तरह दुनिया में औरतों के यहाँ हुआ करता है और अगर हज़रत ईसा (अलैहि०) का जन्म वास्तव में उसी तरह हुआ होता, तो यह सारा व्याख्यान बिल्कुल निरर्थक ठहरता है जो इस सूरा की आयत 35 से अयत 63 तक चला जा रहा है, और वे तमाम व्याख्यान भी निरर्थक समझे जा सकते हैं जो मसीह के जन्म के ताल्लुक से कुरआन की दूसरी जगहों पर हमें मिलते हैं। ईसाइयों ने हज़रत ईसा को ख़ुदा और खुदा का बेटा इसी कारण समझा था कि उनका जन्म अस्वाभाविक रूप से बिना बाप के हुआ था, और यहूदियों ने हज़रत मरयम पर आरोप भी इसी कारण लगाया कि सबके सामने यह घटना घटी थी कि एक लड़की अविवाहिता थी और उसके यहाँ बच्चा पैदा हुआ। अगर यह सिरे से घटना घटी ही न थी, तब इन दोनों गिरोहों के विचारों के खंडन में बस इतना कह देना बिल्कुल पर्याप्त था कि तुम लोग ग़लत कहते हो, वह लड़की विवाहिता थी, अमुक व्यक्ति उसका पति था और उसी के वीर्य से ईसा पैदा हुए थे। यह संक्षिप्त-सी दो-टूक बात कहने के बजाय आखिर इतनी लम्बी भूमिका बाँधने और पेच-दर-पेच बातें करने और साफ़-साफ़ फला का बेटा मसीह कहने के बजाय मरियम का बेटा मसीह कहने की आखिर क्या ज़रूरत थी, जिससे बात सुलझने के बजाय और उलझ जाए। तो जो लोग कुरआन को अल्लाह का कलाम मानते हैं और फिर मसीह (अलैहिक) के बारे में यह भी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि उनका जन्म नियमानुसार माँ और बाप के मिलने से हुआ था, वे वास्तव में सिद्ध यह करते हैं कि अल्लाह दिल की बात प्रकट करने और उद्देश्य के बयान करने की उतनी ताक़त भी नहीं रखता जितनी स्वयं ये लोग रखते हैं। (अल्लाह की पनाह)
وَيُعَلِّمُهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 47
(48) (फ़रिश्तों ने फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा) “और अल्लाह उसे किताब और तत्त्वदर्शिता की शिक्षा देगा, तौरात और इंजील का ज्ञान प्रदान करेगा
وَرَسُولًا إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنِّي قَدۡ جِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ أَنِّيٓ أَخۡلُقُ لَكُم مِّنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ فَأَنفُخُ فِيهِ فَيَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ وَأُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُنَبِّئُكُم بِمَا تَأۡكُلُونَ وَمَا تَدَّخِرُونَ فِي بُيُوتِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 48
(49) और बनी इसराईल की ओर अपना रसूल नियुक्त करेगा।" है। मैं अल्लाह के आदेश से जन्मजात अन्धे और कोढ़ी को अच्छा करता हूँ और उसके आदेश से मुर्दो को जिंदा करता हूँ। मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम क्या खाते हो और क्या अपने घरों में भंडार करके रखते हो। इसमें तुम्हारे लिए पर्याप्त निशानी है अगर तुम ईमान लानेवाले हो ।45
45.अर्थात् ये निशानियाँ तुमको इस बात का भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्त हैं कि मैं उस खुदा का भेजा हुआ हूँ जो सृष्टि का रचयिता और प्रभुत्वशाली शासक है, बस शर्त यह है कि तुम सत्य को मानने के लिए तैयार हो, हठधर्म न हो।
وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي حُرِّمَ عَلَيۡكُمۡۚ وَجِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 49
(50) और मैं उस शिक्षा और मार्गदर्शन की पुष्टि करनेवाला बनकर आया हूँ जो तौरात में से इस समय मेरे ज़माने में मौजूद है46, और इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ उन चीज़ों को हलाल कर दूँ जो तुमपर हराम कर दी गई हैं।47 देखो मैं तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ, इसलिए अल्लाह से डरो और मेरा कहना मानो ।
46.अर्थात् यह मेरे अल्लाह की ओर से भेजे जाने का एक और प्रमाण है। अगर मैं उसकी ओर से भेजा हुआ न होता, बल्कि झूठा दावेदार होता तो स्वयं एक स्वतंत्र धर्म की नींव डालता और अपने इन चमत्कारों के बल पर तुम्हें पिछले धर्म से हटाकर अपने गढ़े हुए धर्म की ओर लाने की कोशिश करता, लेकिन मैं तो उसी असल धर्म को मानता हूं और उसी शिक्षा को सही ठहरा रहा हूँ जो अल्लाह की ओर से उसके पैग़म्बर मुझसे पहले लाए थे। यह बात कि मसीह (अलैहि०) वही दीन लेकर आए थे जो मूसा (अलैहि०) और दूसरे नबियों ने पेश किया था, आज भी मौजूद इंजीलों (अर्थात् बाइबल) में स्पष्ट रूप से हमें मिलती है, जैसे मत्ती की रिवायत के अनुसार पहाड़ी के उपदेश में मसीह (अलैहि०), साफ फरमाते हैं- “यह न समझो कि मैं धर्म-व्यवस्था (तौरात) या नबियों की शिक्षाओं को निरस्त करने आया हूँ। निरस्त करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।" (5 : 17) एक यहूदी विद्वान ने हज़रत मसीह (अलैहि०) से पूछा कि धर्म के आदेशों में सर्वप्रथम आदेश कौन-सा है ? उत्तर में आपने कहा- "तू अपने प्रभु परमेश्वर से अपने सारे दिल और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम कर। बड़ा और पहला आदेश यही है। और इसी के समान दूसरा यह भी है कि अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ये ही दो आदेश सारी धर्म-व्यवस्था (तौरात) और नबियों के आधार है (मत्ती,22:37-40) फिर हज़रत मसीह अपने शिष्यों से कहते हैं- "धर्मशास्त्री और फ़रीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं। इसलिए वे तुमसे जो कुछ कहें, वह करना और मानना; परन्तु उनके जैसे काम मत करना, क्योंकि वे कहते तो हैं, मगर करते नहीं।" (मत्ती,23:2-3)
47.अर्थात् तुम्हारे अज्ञानियों के अंधविश्वास, तुम्हारे धर्म-विधिज्ञों की कानून के संबंध में बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति, तुम्हारे संन्यास-प्रिय लोगों की सख़्तिया और गैर-मुस्लिम क़ौमों के ग़ालिब होने और छा जाने की वजह से तुम्हारे यहाँ मूल ईश्वर-रचित धर्म-विधान (शरीअते इलाही) पर जिन प्रतिबंधों की वृद्धि हो गई है, मैं उनको निरस्त करूंगा और तुम्हारे लिए बही चीजें हलाल और वही हराम करार दूंगा जिन्हें अल्लाह (ईश्वर) ने हलाल या हराम किया है।
إِنَّ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 50
(51) अल्लाह मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी, तुम उसी की बन्दगी अपनाओ, यही सीधा रास्ता है।48
48.इससे मालूम हुआ कि तमाम नबियों की तरह हज़रत ईसा (अलैहि.) की दावत की भी यही तीन बुनियादी बातें थीं- एक यह कि सम्प्रभुत्व, जिसके मुकाबले में बंदगी और आज्ञापालन की नीति अपनाई जाती है और जिसके अनुपालन पर नैतिकता और सामाजिकता की सम्पूर्ण व्यवस्था स्थापित होती है, सिर्फ अल्लाह के लिए ख़ास माना जाए, दूसरे यह कि उस सम्प्रभु के प्रतिनिधि के रूप में नबी के आदेशों का पालन किया जाए, तीसरे यह कि इंसानी ज़िन्दगी को हलाल व हराम और वैध-अवैध की पाबन्दियों से जकड़नेवाला कानून और विधान सिर्फ अल्लाह का हो, दूसरों के लागू किए हुए क़ानून निरस्त कर दिए जाएँ। अतः वास्तव में हज़रत ईसा (अलैहि.) , हज़रत मूसा (अलैहि०) , हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और दूसरे नबियों के मिशन में बाल बराबर भी अन्तर नहीं है। जिन लोगों ने विभिन्न पैग़म्बरों के विभिन्न मिशन बताए हैं और उनमें उद्देश्य और स्वरूप की दृष्टि से अन्तर किया है, उन्होंने सज्ज गलती की है। राज्य के स्वामी की ओर से उसकी प्रजा की ओर जो आदमी भी नियुक्त किया जाएगा, उसके आने का उद्देश्य इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता कि वह प्रजा को अवज्ञा और मनमानी से रोके और शिर्क से (अर्थात् इस बात से कि वे सम्प्रभुत्व में किसी हैसियत से दूसरों को राज्य के स्वामी के साथ साझी ठहराएँ और अपने आज्ञापालन और वफ़ादारी को उनमें बाँट दें) मना करे और वास्तविक स्वामी के विशुद्ध आज्ञापालन और उपासना और वफादारी की ओर बुलाए। खेद है कि वर्तमान इंजीलों में मसीह (अलैहि.) के मिशन को इस व्याख्या के साथ नहीं बयान किया गया, जिस तरह ऊपर कुरआन में पेश किया गया है फिर भी बिखरे संकेतों के रूप में वे तीनों मूल बातें हमें इनके अन्दर मिलती हैं जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है। जैसे यह बात कि मसीह सिर्फ अल्लाह की बन्दगी के कायल थे, उनके इस कथन से स्पष्ट होती है- "तू अपने प्रभु परमेश्वर को प्रणाम (अर्थात सजदा) कर और केवल उसी की उपासना कर।" (बाइबल मत्ती,4 : 10) और केवल यही नहीं कि वे इसके कायल थे, बल्कि उनकी सारी कोशिशों का उद्देश्य यह था कि ज़मीन पर अल्लाह (ईश्वर) के धर्म-सम्बन्धी आदेशों का उसी तरह पालन हो जिस तरह आसमान पर उसके सर्जक आदेशों का पालन हो रहा है- "तेरा राज्य आए । तेरो इच्छा जैसी आसमान में पूरी होती है वैसी पृथ्वी पर भी हो।" (बाइबल, मत्ती 6 : 10) फिर यह बात कि मसीह (अलैहित) अपने आपको नबी और आसमानी राज्य के प्रतिनिधि की हैसियत से पेश करते थे और उसी हैसियत से लोगों को अपने आज्ञानुपालन की ओर बुलाते थे, उनके बहुत से कथनों से मालूम होता है। उन्होंने जब अपने वतन नासरा से अपनी दावत की शुरुआत की तो उनके अपने ही कुल-कुटुम्ब और शहर के लोग उनके विरोध के लिए खड़े हो गए। इसपर मत्ती, मरकुस और लूका तीनों का संयुक्त बयान है कि उन्होंने फ़रमाया,"नबी अपने वतन में लोकप्रिय नहीं होता।” (लूका, 4 : 24) और जब यरूशलम में उनकी हत्या की साज़िशें होने लगी और लोगों ने उनको मशविरा दिया कि आप कहीं और चले जाएँ, तो उन्होंने जवाब दिया, "संभव नहीं कि नबी यरूशलम से बाहर हलाक हो" (लूका, 13 : 23) । अन्तिम बार जब वे यरूशलम में दाखिल हो रहे थे तो उनके शिष्यों ने ऊंची आवाज़ से कहना शुरू किया, “धन्य है वह राजा जो प्रभु के नाम से आता है।” (लूका,19 : 38) इसपर यहूदी विद्वान नाराज़ हुए और उन्होंने हज़रत मसीह से कहा कि आप अपने शिष्यों को चुप करें। इसपर आपने फरमाया, "अगर ये चुप रहेंगे तो पत्थर पुकार उठेंगे" (लूका, 19 : 40)। एक और अवसर पर आपने फ़रमाया, ऐ परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो । मेरे पास आओ, मैं तुमको आराम दूंगा। मेरा जुआ अपने ऊपर उठा लो। ... क्योंकि मेरा जुआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।” (मत्ती,11 : 28-30) फिर यह बात कि मसीह (अलैहित) इंसान के बनाए हुए कानूनों के बजाय अल्लाह के कानून का पालन कराना चाहते थे, मत्ती और मरकुस के उस कथन से स्पष्ट रूप से यह बात सामने आती है, जिसका सार यह है कि यहूदी धर्म-विद्वानों ने (ईसा अलैहि० से) पूछा कि आपके शिष्य क्यों बुजुर्गों की परम्पराओं पर नहीं चलते और बिना हाथ धोए खाना खाते हैं ? इसपर हज़रत मसीह (अलैहि.) ने उनसे कहा,"नबी यसयाह ने तुम पाखंडियों के विषय में बहुत ठीक भविष्यवाणी की है। जैसा धर्मशास्त्र में लिखा है- "ये लोग होंठों से तो मेरा आदर करते हैं, किन्तु इनका हृदय मुझसे दूर रहता है। क्योंकि ये मनुष्यों की आज्ञाओं को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं।" तुम परमेश्वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की प्रथाओं को मानते हो।... परमेश्वर (अल्लाह) ने तौरात में आदेश दिया था कि माँ-बाप का आदर करो और जो कोई माँ-बाप को बुरा कहे वह जान से मारा जाए, मगर तुम कहते हो कि यदि कोई आदमी अपनी माँ या बाप से यह कह दे कि मेरी जो सेवाएँ तुम्हारे काम आ सकती थीं उन्हें मैं खुदा की भेंट कर चुका हूँ, उसके लिए बिल्कुल जाइज़ है कि फिर माँ या बाप की कोई सेवा न करे। (मत्ती 15:2-9, मरकुस 7:5-13)
۞فَلَمَّآ أَحَسَّ عِيسَىٰ مِنۡهُمُ ٱلۡكُفۡرَ قَالَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 51
(52) जब ईसा ने महसूस किया कि बनी इसराईल अधर्म और इनकार पर उतारू हैं तो उसने कहा, “कौन अल्लाह की राह में मेरा मददगार होता है ?" हवारियों49 ने जवाब दिया, “हम अल्लाह के मददगार है50 हम अल्लास पर ईमान लाए आप गवाह रहिए हम मुस्लिम (अल्लाह के आज्ञाकारी) है।
49.हवारी शब्द का अर्थ लगभग वही है जो अरबी में 'अनसार (मददगार) शब्द का है। बाइबल में आम तौर से हवारियों के बजाय 'शिष्यों' का शब्द प्रयुक्त हुआ है और कुछ स्थानों पर इन्हें रसूल भी कहा गया है, मगर रसूल इस अर्थ में कि मसीह (अलैहि०) उनको प्रचार के लिए भेजते थे, न कि इस अर्थ में कि अल्लाह ये उनको रसूल नियुक्त किया था।
50.इस्लाम धर्म की स्थापना में हिस्सा लेने को क़ुरान मजीद में अकसर मक़ाम पर " अल्लाह की मदद करने" से व्यक्त किया गया है। यह विषय स्‍पष्‍टीकरण चाहता है। जीवन के जिस क्षेत्र में अल्लाह ने इंसान को इरादा व अधिकार की स्वतंत्रता दी है, उसमें वह इंसान को इंकार करने या मानने, विद्रोह या अधीनता में से किसी एक राह के अपनाने पर अपनी ईश्वरीय शक्ति से विवश नहीं करता। इसके बजाय वह दलील और नसीहत से इंसान को इस बात का क़ायल करना चाहता है कि इंकार और नाफ़रमानी और विद्रोह की स्वतंत्रता रखने के बावजूद उसके लिए सत्य यही है और उसके कल्याण और मुक्ति का रास्ता भी यही है कि अपने पैदा करनेवाले की बंदगी और आज्ञापालन को नीति अपनाए। इस तरस समझाने-बुझाने और नसीहत के ज़रिये से बन्‍दों को सीधे रास्ते पर लाने का उपाय करना, यह वास्तव में अल्लाह का काम है और जो बन्‍दे इस काम में अल्लाह का साथ दें, उनको अल्लाह अपना मित्र और मददगार कहता है और यह वह सर्वश्रेष्ठ स्थान है जिसपर किसी बन्दे की पहुँच हो सकती है। नमाज़, रोज़ा और हर प्रकार की इबादतों में तो इंसान केवल बन्दा और दास होता है, मगर धर्म का प्रचार और उसको स्थापित करने की कोशिशों में बन्दे को अल्लाह का साथ और उसकी मददगारी का सौभाग्य प्राप्त होता है जो इस दुनिया में आध्‍यात्मिक विकास को पराकाष्ठा है।
رَبَّنَآ ءَامَنَّا بِمَآ أَنزَلۡتَ وَٱتَّبَعۡنَا ٱلرَّسُولَ فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 52
(53) मालिक । जो आदेश तूने उतारा है हमने उससे मान लिया और रसूल की पैरवी स्वीकार की। हमारा नाम गवाही देवालो में लिख ले।"
وَمَكَرُواْ وَمَكَرَ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 53
(54) फिर भी इसाईल (मसीह के विरूद्ध) गुप्त उपाय करने लगे। जवाब में अल्लाह ने अपना गुप्त उपाय किया, और उपायों में अल्लाह सबसे बढ़कर है।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَىٰٓ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَجَاعِلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوكَ فَوۡقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ ثُمَّ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 54
(55) (वह अल्लाह का गुप्त उपाय हो था) जब उसने कहा कि ‘’ऐ ईसा । अब में तुझे वापस ले लूँगा।51 और तुझको अपनी ओर उठा लूँगा और जिन्होंने तेरा इंकार किया है उनसे (अर्थात उनकी संगत से और उनके गंदे वातावरण में उनके साथ रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरी पैरवी करनेवालों को कि़यामत तक उन लोगों पर हावी रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है।52 फिर तुम सबको अन्तत: मेरे पास आना है, उस समय मैं उन बातों का निर्णय कर दूंगा जिनमें तुम्हारे बीच मतभेद हुआ है।
51.मूल शब्द ‘मु-त-वफ़्फ़ी-क’ प्रयुक्‍त हुआ है। ‘तवफ़्फी' का वास्तविक अर्थ 'लेना और वुसूल करना' है। ‘प्राण-ग्रस्त करना’ तो इस शब्‍द का लाक्षणिक प्रयोग है, न कि वास्तविक । यहाँ यह शब्‍द अंग्रेज़ी शब्द ‘To Recall’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, अर्थात किसी पदाधिकारी को उसके पद और कार्य से वापस बुला लेना। चूँकि बनी इसराईल सदियों से बराबर नाफ़रमानी करते चले आ रहे थे, बार बार की चेतावनी और समझाने-बुझाने के बावजूद उनकी सामूहिक नीति बिगड़ती ही चली जा रही थी। एक के बाद एक कई नबियों की हत्या कर चुके थे और हर उस नेक बन्दे के खून के प्यासे हो जाते थे जो नेकी और सच्चाई की ओर उन्हें बुलाता था, इसलिए अल्लाह ने उनपर युक्ति पूरी करने और उन्हें एक अन्तिम अवसर देने के लिए हज़रत ईसा और हज़रत यया (अलैहि०) जैसे दो महान पैग़म्बरों को एक ही समय में भेजा, जिनके साथ अल्लाह की ओर से भेजे जाने के प्रमाण में ऐसी खुली-खुली निशानियाँ थीं कि उनसे इंकार केवल वहीं लोग कर सकते थे जो हक़ और सच्चाई से अत्यंत वैर रखते हों और सत्य के मुक़ाबले में जिनका दुस्साहस और ढिठाई सीमा को पहुंच चुकी हो, परन्तु बनी इसराईल ने इस अन्तिम अवसर को भी हाथ से खो दिया और सिर्फ इतना ही न किया कि इन दोनों पैग़म्बरों की दावत रद्द कर दी, बल्कि इनके एक सरदार ने एलानिया हज़रत यह्या (अलैहि०) जैसे महान व्यक्ति का सिर एक नर्तकी की फरमाइश पर उड़वा दिया और उनके उलमा व फुकहा (विद्वानों व धर्मशास्त्रियों) ने साज़िश करके हज़रत ईसा (अलैहि.) को रूमी साम्राज्य से मौत की सज़ा दिलवाने की कोशिश की। इसके बाद बनी इसराईल के समझाने-बुझाने पर अधिक समय और ताक़त लगाना बिलकुल बेकार था, इसलिए अल्लाह ने अपने पैग़म्बर को वापस बुला लिया और क़ियामत तक के लिए बनी इसराईल पर अपमान और रुसवाई की ज़िन्दगी का फैसला लिख दिया। यहाँ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि कुरआन का यह पूरा व्याख्यान वास्तव में ईसाइयों की इस धारणा को कि ईसा ईश्वर हैं' रद्द करने और उसको सुधारने पर आधारित है । ईसाइयों में इस झूठी धारणा के पैदा होने के सबसे महत्वपूर्ण कारण तीन थे- 1. हज़रत मसीह का चमत्कारिक जन्म, 2. उनके खुले तौर पर महसूस होनेवाले स्पष्ट मोजज़े (चमत्कार), 3. उनका आसमान की ओर उठाया जाना, जिसका उल्लेख स्पष्ट शब्दों में उनकी किताबों में पाया जाता है। क़ुरआन ने पहली बात की पुष्टि की और कहा कि मसीह का बे-बाप पैदा होना सिर्फ अल्लाह की कुदरत का करिश्मा था। अल्लाह जिसको जिस तरह चाहता है, पैदा करता है। जन्म का यह असाधारण तरीक़ा कदापि इस बात का प्रमाण नहीं है कि मसीह ईश्वर था या ईश्वरत्व में कुछ भी हिस्सा रखता था। दूसरी बात की भी कुरआन ने पुष्टि की और स्वयं मसीह के मोजज़े (चमत्कार) एक-एक करके गिनाए, मगर बता दिया कि ये सारे काम उसने अल्लाह की अनुमति से किए थे, अपने अधिकार से कुछ भी नहीं किया। इसलिए इनमें से भी कोई बात ऐसी नहीं है जिससे तुम्हें यह नतीजा निकालने में कुछ भी हक पर कहा जा सके कि मसीह का ईश्वरत्व में कोई हिस्सा था। अब तीसरी बात के बारे में अगर ईसाइयों का कथन सिरे से बिल्कुल ही ग़लत होता तब तो उनकी इस धारणा को कि ईसा मसीह ईश्वर है, रद्द करने के लिए ज़रूरी था कि साफ़-साफ़ कह दिया जाता कि जिसे तुम ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा बना रहे हो, वह मरकर मिट्टी में मिल चुका है, और अधिक इतमीनान चाहते हो तो फलाँ जगह जाकर उसकी क़ब्र देख लो, लेकिन ऐसा करने के बजाय कुरआन सिर्फ यही नहीं कि उनकी मौत को स्पष्ट नहीं करता और सिर्फ यही नहीं कि ऐसे शब्द प्रयुक्त करता है जो ज़िंदा उठाए जाने का कम से कम अर्थ रखते ही हैं, बल्कि ईसाइयों को उलटा यह और बता देता है कि मसीह सिरे से सूली पर चढ़ाए ही नहीं गए, अर्थात् वह जिसने अन्तिम समय में 'एली एली लिमा शबक-तानी' कहा था और जिसकी सूली के तख्ते पर चढ़ी हुई हालत का चित्र तुम लिए फिरते हो, वह मसीह न था, मसीह को तो इससे पहले ही अल्लाह ने उठा लिया था।– इसके बाद जो लोग कुरआन की आयतों से मसीह की मृत्यु का अर्थ निकालने की कोशिश करते हैं, वे वास्तव में यह सिद्ध करते हैं कि अल्लाह को साफ़-सुलझे शब्दों में अपना मतलब स्पष्ट करने तक का सलीक़ा नहीं। इससे हम अल्लाह की पनाह चाहते हैं।
52.इंकार करनेवालों से तात्पर्य यहूदी हैं जिनको हज़रत ईसा ने ईमान लाने की दावत दो और उन्होंने उसे रद्द कर दिया। इसके विपरीत पैरवी करनेवालों से तात्पर्य अगर सही पैरवी करनेवाले हों, तो वे सिर्फ मुसलमान हैं और अगर इससे तात्पर्य आपके तमाम माननेवाले हों, तो इनमें ईसाई और मुसलमान दोनों शामिल हैं।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَأُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 55
(56) जिन लोगों ने विधर्मिता और इंकार की नीति अपनाई है, उन्हें दुनिया और आखिरत दोनों में कठोर सज़ा दूंगा और वे कोई सहायक न पाएँगे और
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 56
(57) जिन्होंने ईमान और अच्छे कर्म करने की नीति अपनाई है उन्हें उनके बदले पूरे-पूरे दे दिए जाएंगे और (खूब जान लो कि) ज़ालिमों से अल्लाह कदापि मुहब्बत नहीं करता।"
ذَٰلِكَ نَتۡلُوهُ عَلَيۡكَ مِنَ ٱلۡأٓيَٰتِ وَٱلذِّكۡرِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 57
(58) ऐ नबी ! ये आयतें और तत्त्वज्ञान से भरी हुई बातें हैं जो हम तुम्हें सुना रहे हैं।
إِنَّ مَثَلَ عِيسَىٰ عِندَ ٱللَّهِ كَمَثَلِ ءَادَمَۖ خَلَقَهُۥ مِن تُرَابٖ ثُمَّ قَالَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 58
(59) अल्लाह के नज़दीक ईसा की मिसाल आदम की-सी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और हुक्म दिया कि हो जा और वह हो गया।53
53.अर्थात् अगर केवल चमत्कारिक जन्म ही किसी को ख़ुदा या खुदा का बेटा बनाने के लिए पर्याप्त प्रमाण है, तब तो फिर तुम्हें (अर्थात ईसाइयों को आदम के बारे में सबसे पहले ऐसी धारणा ग्रहण करनी चाहिए थी, क्योंकि मसीह तो केवल बिना-बाप ही के पैदा हुए थे, परन्तु आदम माँ और बाप दोनों के बिना पैदा हुए।
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 59
(60) यह एक मूल तथ्य है जो तुम्हारे रब की ओर से बताया जा रहा है, और तुम उन लोगों में शामिल न हो जो इसमें सन्देह करते हैं।54
54.यहाँ तक के व्याख्यान में जो बुनियादी बातें ईसाइयों के सामने पेश की गई हैं उनका सार क्रमश: इस तरह है- पहली बात, जो उनके मन में बिठाने की कोशिश की गई है, यह है कि मसीह को खुदा बनाए जाने की धारणा तुम्हारे भीतर जिन कारणों से पैदा हुई है उनमें से कोई कारण भी ऐसी धारणा के लिए सही नहीं है। एक इंसान था जिसको अल्लाह ने अपनी मस्लहतों के तहत उचित समझा कि असाधारण रूप से पैदा करे और उसे ऐसे चमत्कार प्रदान करे जो नुबूवत के स्पष्ट लक्षण हों और सत्य का इंकार करनेवालों को उसे सूली पर न चढ़ाने दे, बल्कि उसको अपने पास उठा ले। मालिक को अधिकार है, अपने जिस बन्दे को जिस तरह चाहे इस्तेमाल करे। केवल इस असामान्य आचरण को देखकर यह नतीजा निकालना कैसे सही हो सकता है कि वह स्वयं प्रभुसत्ता-संपन्न था या प्रभुसत्ता-संपन्न का बेटा था या, प्रभुसत्ता में उसका भागीदार था। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो उनको समझाई गई है वह यह है कि मसीह जिस चीज़ की ओर दावत देने आए थे, वह वही चीज़ है जिसकी ओर मुहम्मद (सल्ल.) दावत दे रहे हैं। दोनों के मिशन में बाल बराबर भी अन्तर नहीं है। तीसरी बुनियादी बात इस व्याख्यान में यह है कि मसीह के बाद उनके हवारियों का धर्म भी यही इस्लाम था जो कुरआन पेश कर रहा है। बाद के ईसा (अलैहि.) के अनुयायी न इस शिक्षा पर कायम रहे जो मसीह (अलैहि.) ने दी थी और न उस धर्म की पैरवी करनेवाले रहे जिसकी पैरवी मसीह के हवारी करते थे।
فَمَنۡ حَآجَّكَ فِيهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ فَقُلۡ تَعَالَوۡاْ نَدۡعُ أَبۡنَآءَنَا وَأَبۡنَآءَكُمۡ وَنِسَآءَنَا وَنِسَآءَكُمۡ وَأَنفُسَنَا وَأَنفُسَكُمۡ ثُمَّ نَبۡتَهِلۡ فَنَجۡعَل لَّعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 60
(61) यह ज्ञान आ जाने के बाद अब जो कोई इस मामले में तुमसे झगड़ा करे तो ऐ नबी ! उससे कहो कि “आओ, हम और तुम स्वयं भी आ जाएँ और अपने-अपने बाल-बच्चों को भी ले आएँ और अल्लाह से दुआ करें कि जो झूठा हो उसपर अल्लाह की फिटकार55 हो।"
55.निर्णय की यह शक्ल सामने लाने से वास्तव में यह सिद्ध करना अभिप्रेत था कि नजरान का प्रतिनिधि मंडल जान-बूझकर हठधर्मी कर रहा है। ऊपर के व्याख्यान में जो बातें कही गई हैं, उनमें से किसी का जवाब भी उन लोगों के पास न था। ईसाई धर्म के अलग-अलग अकीदों में से किसी के पक्ष में भी वे खुद अपनी पवित्र ग्रन्थों का ऐसा प्रमाण न पाते थे जिसके आधार पर पूरे विश्वास के साथ यह दावा कर सकते कि उनका अक़ीदा सच्चाई के ठीक अनुरूप है और सच्चाई इसके विपरीत बिल्कुल नहीं है। फिर नबी (सल्ल.) का आचरण, आपकी शिक्षा और आपके कारनामों को देखकर प्रतिनिधि-मंडल की बड़ी संख्या अपने दिलों में आपको नुबूवत को कायल हो गई थी या कम-से-कम अपने इंकार में डगमगा गई थी। इसलिए जब उनसे कहा गया कि अच्छा अगर तुम्हें अपनी धारणा के बारे में पूरा यकीन है कि वह सत्यानुकूल है तो आओ, हमारे मुकाबले में दुआ करो कि जो झूठा हो उसपर अल्लाह की फिटकार हो, तो इनमें से कोई इस मुकाबले के लिए तैयार न हुआ। इस तरह यह बात तमाम अरब के सामने खुल गई कि नजरानी मसीही धर्म के पेशवा और पादरी, जिनकी पावनता का सिक्का दूर-दूर तक चल रहा है, वास्तव में ऐसी धारणाओं पर चल रहे हैं जिनकी सच्चाई पर स्वयं उन्हें पूरा भरोसा नहीं है।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡقَصَصُ ٱلۡحَقُّۚ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّا ٱللَّهُۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 61
(62) ये बिल्कुल सच्ची घटनाएँ हैं, और सच तो यह है कि अल्लाह के सिवा कोई प्रभु नहीं है, और वह अल्लाह ही की हस्ती है जिसकी शक्ति सर्वश्रेष्ठ और जिसकी तत्त्वदर्शिता जगत् की व्यवस्था में काम कर रही है।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 62
(63) अत: अगर ये लोग (इस शर्त पर मुक़ाबले में आने से) मुँह मोड़ें तो (उनका उपद्रवकारी होना स्पष्ट हो जाएगा) और अल्लाह तो उपद्रवकारियों के हाल को जानता ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ كَلِمَةٖ سَوَآءِۭ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ أَلَّا نَعۡبُدَ إِلَّا ٱللَّهَ وَلَا نُشۡرِكَ بِهِۦ شَيۡـٔٗا وَلَا يَتَّخِذَ بَعۡضُنَا بَعۡضًا أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُولُواْ ٱشۡهَدُواْ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 63
(64) (ऐ नबी !) कहो 56 "ऐ किताबवालो ! आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है,57 यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को साझी न ठहराएँ और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बना ले।"-इस आह्वान को स्वीकार करने से अगर वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी और आज्ञापालन करनेवाले) हैं।"
56.यहाँ से एक तीसरा व्याख्यान शुरू होता है जिसके विषय पर विचार करने से अंदाज़ा होता है कि यह बद्र और उहुद की लड़ाइयों के बीच के समय का है। लेकिन इन तीनों व्याख्यानों के बीच अर्थों का एक ऐसा सामंजस्य पाया जाता है कि शुरू सूरा से लेकर यहाँ तक, किसी जगह वाणी का क्रम और आपसी सम्बन्ध टूटता नज़र नहीं आता। इसी कारण कुछ टीकाकारों को सन्देह हुआ कि ये बाद की आयतें भी नजरान के प्रतिनिधि-मंडल वाले व्याख्यान ही के क्रम की हैं, मगर यहाँ से जो व्याख्यान शुरू हो है उसकी शैली साफ़ बता रही है कि ये बातें यहूदियों को सम्बोधित करके कही जा रही हैं।
57.अर्थात् एक ऐसी धारणा पर हमसे सहमति कर लो जिसपर हम भी ईमान लाए हैं और जिसके सही होने से तुम भी इंकार नहीं कर सकते। तुम्हारे अपने नबियों से यही धारणा नक़ल की गई है । तुम्हारे अपने पवित्र ग्रन्थों में इसकी शिक्षा मौजूद है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تُحَآجُّونَ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمَآ أُنزِلَتِ ٱلتَّوۡرَىٰةُ وَٱلۡإِنجِيلُ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 64
(65) ऐ किताबवालो ! तुम इबराहीम के बारे में हमसे क्यों झगड़ा करते हो? तौरात और इंजील तो इबराहीम के बाद ही अवतरित हुई हैं। फिर क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?58
58.अर्थात् तुम्हारा यह यहूदी मत और यह ईसाई मत बहरहाल तौरात और इंजील के उतरने के बाद पैदा हुआ है, और इबराहीम (अलैहि.) इन दोनों के उतरने से बहुत पहले गुज़र चुके थे। अब एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी यह बात आसानी से समझ सकता है कि इबराहीम (अलैहि०) जिस धर्म पर थे वह बहरहाल यहूदी मत या ईसाई मत तो न था, फिर अगर हज़रत इबराहीम सीधे रास्ते पर थे और वे मुक्ति प्राप्त थे तो ज़रूरी हो जाता है कि आदमी का सीधे रास्ते पर होना और निजात पाना यहूदी मत और ईसाई मत की पैरवी पर आश्रित नहीं है। (देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा),टिप्पणी 135, 141)
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ حَٰجَجۡتُمۡ فِيمَا لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ فَلِمَ تُحَآجُّونَ فِيمَا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 65
(66) -तुम लोग जिन चीज़ों का ज्ञान रखते हो उनमें तो खूब बहसें कर चुके, अब उन मामलों में क्यों बहस करने चले हो जिनका तुम्हारे पास कुछ भी ज्ञान नहीं। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते ।
مَا كَانَ إِبۡرَٰهِيمُ يَهُودِيّٗا وَلَا نَصۡرَانِيّٗا وَلَٰكِن كَانَ حَنِيفٗا مُّسۡلِمٗا وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 66
(67) इबराहीम न यहूदी था, न ईसाई, बल्कि वह (तो अल्लाह का एक) एकाग्रचित्त आज्ञापालक था।59 और वह कदापि मुशरिकों में से न था।
59.मूल अरबी शब्द “हनीफ़” प्रयुक्त हुआ है। इस शब्द से अभिप्रेत एक ऐसा व्यक्ति है जो हर ओर से रुख फेरकर एक विशेष रस्ते पर चले। इसी अर्थ को हमने '(अल्लाह का) एकाग्रचित्त आज्ञापालक' कहकर व्यक्त किया है।
إِنَّ أَوۡلَى ٱلنَّاسِ بِإِبۡرَٰهِيمَ لَلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ وَهَٰذَا ٱلنَّبِيُّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۗ وَٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 67
(68) इबराहीम से ताल्लुक रखने का सबसे ज़्यादा हक़ अगर किसी को पहुँचता, है तो वह उन लोगों को पहुँचता है जिन्होंने उसकी पैरवी की और अब यह नबी और इसके माननेवाले इस ताल्लुक़ के ज़्यादा हक़दार हैं। अल्लाह केवल उन्हीं का समर्थक और सहायक है जो ईमान रखते हों।
وَدَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يُضِلُّونَكُمۡ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 68
(69) (ऐ ईमान लानेवालो !) किताबवालों में से एक गिरोह चाहता है कि किसी तरह तुम्हें सीधे रास्ते से हटा दे, हालाँकि सच तो यह है कि वे अपने सिवा किसी को गुमराही में नहीं डाल रहे हैं, किन्तु उन्हें इसकी अनुभूति नहीं है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 69
(70) ऐ किताबवालो ! क्यों अल्लाह की आयतों का इंकार करते हो, हालाँकि तुम स्वयं उनका अवलोकन कर रहे हो?60
60.दूसरा अनुवाद इसका यह भी हो सकता है कि 'तुम खुद गवाही देते हो।' दोनों हालतों में मूल भाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वास्तव में नबी (सल्ल.) की पाकीज़ा ज़िन्दगी और सहाबा किराम (रजि.) की जिन्दगियों पर आपकी शिक्षा-दीक्षा के आश्चर्यजनक प्रभाव और वे उच्च श्रेणी की शिक्षाएँ जो कुरआन में बयान हो रही थीं, ये सारी चीजें अल्लाह की ऐसी रौशन आयतें थीं कि जो व्यक्ति नबियों के हालात और आसमानी किताबों की शैली को जानता हो, उसके लिए इन आयतों को देखकर प्यारे नबी (सल्ल.) की नुबूबत में सन्देह करना बहुत ही कठिन था। चुनांचे यह एक सत्य है कि बहुत-से किताबवाले (मुख्य रूप से उनके विद्वान) यह जान चुके थे कि हुजूर (सल्ल.) वही नबी है जिनके आने का वादा पिछले नबियों ने किया था, यहाँ तक कि कभी-कभी सत्य की प्रबल शक्ति से मजबूर होकर उनकी ज़बानें आपको सच्चाई और आपकी लाई हुई शिक्षा के सत्य होने को स्वीकार तक कर जाती थीं। इसी कारण कुरआन बार-बार उनको आरोपित करता है कि अल्लाह की जिन आयतों को तुम आँखों से देख रहे हो, जिनके सत्य होने पर तुम खुद गवाही देते हो, उनको तुम जान-बूझकर अपने मन के विकार के कारण झुठला रहे हो। 61.यह उन चालों में से एक चाल थी जो मदीना के पास पड़ोस के रहनेवाले यहूदियों के लीडर और धर्म-गुरु इस्लाम की दावत को कमजोर करने के लिए चलते रहते थे। उन्होंने मुसलमानों को हतोत्साहित करने और नबी (सल्ल.) के प्रति जनसामान्य में संदेह उत्पन्न करने के लिए खुफ़िया तौर पर आदमियों को तैयार करके भेजना शुरू किया, ताकि पहले सार्वजनिक रूप से इस्लाम कबूल करें, फिर उसका परित्याग कर दें, और इसके बाद जगह-जगह लोगों में यह प्रचार करते फिरें कि हमने इस्लाम में और मुसलमानों में और उनके पैगम्बर में ये और ये अवगुण देखे हैं तभी तो हम उनसे अलग हो गए।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَلۡبِسُونَ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 70
(71) ऐ किताबवालो ! क्यों सत्य को असत्य का रंग चढ़ाकर संदिग्ध बनाते हो? क्यों जानते-बूझते सत्य को छिपाते हो?
وَقَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامِنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَجۡهَ ٱلنَّهَارِ وَٱكۡفُرُوٓاْ ءَاخِرَهُۥ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 71
(72) किताबवालों में से एक गिरोह कहता है कि इस नबी के माननेवालों पर जो कुछ उतरा है, उसपर सुबह ईमान लाओ और शाम को उससे इनकार कर दो, शायद इस युक्ति से ये लोग अपने ईमान से फिर जाएँ।61
61.यह उन चालों में से एक चाल थी जो मदीना के पास पड़ोस के रहनेवाले यहूदियों के लीडर और धर्म-गुरु इस्लाम की दावत को कमजोर करने के लिए चलते रहते थे। उन्होंने मुसलमानों को हतोत्साहित करने और नबी (सल्ल.) के प्रति जनसामान्य में संदेह उत्पन्न करने के लिए खुफ़िया तौर पर आदमियों को तैयार करके भेजना शुरू किया, ताकि पहले सार्वजनिक रूप से इस्लाम कबूल करें, फिर उसका परित्याग कर दें, और इसके बाद जगह-जगह लोगों में यह प्रचार करते फिरें कि हमने इस्लाम में और मुसलमानों में और उनके पैगम्बर में ये और ये अवगुण देखे हैं तभी तो हम उनसे अलग हो गए।
وَلَا تُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّا لِمَن تَبِعَ دِينَكُمۡ قُلۡ إِنَّ ٱلۡهُدَىٰ هُدَى ٱللَّهِ أَن يُؤۡتَىٰٓ أَحَدٞ مِّثۡلَ مَآ أُوتِيتُمۡ أَوۡ يُحَآجُّوكُمۡ عِندَ رَبِّكُمۡۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 72
(73) साथ ही ये लोग आपस में कहते हैं कि अपने धर्मवाले के सिवा किसी की बात न मानो। ऐ नबी ! इनसे कह दो कि वास्तव में हिदायत (मार्गदर्शन) तो अल्लाह की हिदायत है और यह उसी की देन है कि किसी को वही कुछ दे दिया जाए जो कभी तुमको दिया गया था, या यह कि दूसरों को तुम्हारे रब के पास पेश करने के लिए तुम्हारे विरुद्ध ठोस प्रमाण मिल जाए।" ऐ नबी ! इनसे कहो कि “प्रतिष्ठा और सम्मान तो अल्लाह के अधिकार में है, जिसे चाहे दे, वह व्यापक दृष्टिवाला है 62 और सब कुछ जानता है।63
62.मूल अरबी शब्द 'वासिअ' प्रयुक्त हुआ है। यह शब्द आम तौर से कुरआन में तीन मौकों पर आया करता है। एक वह मौका जहाँ इंसानों के किसी गिरोह के संकुचित विचार और संकुचित दृष्टि का उल्लेख होता है और उसे इस वास्तविकता से सचेत करने की ज़रूरत होती है कि अल्लाह तुम्हारी तरह संकुचित दृष्टिवाला नहीं है। दूसरा वह मौक़ा जहाँ किसी की कंजूसी, ओछापन और कायरता की भर्त्सना करते हुए यह बताना होता है कि अल्लाह खुले हाथोंवाला है, तुम्हारी तरह कंजूस नहीं है। तीसरा वह मौका जहाँ लोग अपनी संकीर्ण धारणाओं के कारण अल्लाह की ओर किसी प्रकार की परिसीमितता आरोपित करते हैं और उन्हें यह बताना होता है कि अल्लाह असीम है। (देखिए सूरा 2 (अल-बक़रा) टिप्पणी न० 116)
63.अर्थात् अल्लाह को मालूम है कि कौन प्रतिष्ठा और सम्मान का अधिकारी है।
يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 73
(74) अपनी रहमत के लिए जिसको चाहता है खास कर लेता है और उसकी उदारता और अनुकम्पा बहुत बड़ी है।"
۞وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مَنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِقِنطَارٖ يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِدِينَارٖ لَّا يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ إِلَّا مَا دُمۡتَ عَلَيۡهِ قَآئِمٗاۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَيۡسَ عَلَيۡنَا فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ سَبِيلٞ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 74
(75) किताबवालों में कोई तो ऐसा है कि अगर तुम उसपर विश्वास करते हुए माल और दौलत का एक ढेर भी दे दो तो वह तुम्हारा माल तुम्हें लौटा देगा और किसी का हाल यह है कि अगर तुम एक दीनार के मामले में भी उसपर भरोसा करो तो वह अदा न करेगा, अलावा इसके कि तुम उसके सिर पर सवार हो जाओ। उनकी इस नैतिक दशा का कारण यह है कि वे कहते हैं, “उम्मियों (गैर-यहूदियों) के मामले में हमारी कोई पकड़ नहीं है"64, और यह बात केवल झूठ गढ़कर अल्लाह से जोड़ देते हैं, हालाँकि उन्हें मालूम है कि अल्लाह ने ऐसी कोई बात नहीं कही है ।
64.यह केवल आम यहूदियों ही का अज्ञानतापूर्ण विचार न था, बल्कि उनके यहाँ की धार्मिक शिक्षा भी यही कुछ थी और उनके बड़े-बड़े धार्मिक विद्वानों के शास्त्रीय आदेश भी ऐसे ही थे। बाइबल कर्ज और सूद (ब्‍याज) के आदेशों में इसराईली और ग़ैर-इसराईली के बीच स्पष्ट अंतर करती है (व्यवस्था विवरण 15 : 1-3, 23 : 20)। तलमूद में कहा गया है कि अगर इसराईली का बैल किसी गैर-इसराईली के बैल को घायल कर दे तो उसपर कोई जुर्माना नहीं, मगर ग़ैर-इसराईली का बैल आगर इसराईली के बैल को घायल कर दे तो उसपर जुर्माना है। अगर किसी आदमी को किसी जगह कोई गिरी-पड़ी चीज़ मिले तो उसे देखना चाहिए कि आस-पास में आबादी किन लोगों की है। अगर इसराईलियों की हो तो उसे एलान करना चाहिए और गैर-इसराईली की हो तो उसे बिना-एलान वह चीज़ रख लेनी चाहिए । रिब्बी शमूएल कहता है कि अगर इसराईली और गैर-इसराईली का मुकद्दमा काज़ी (जज) के पास आए तो काज़ी अगर इसराईली क़ानून के अनुसार अपने मज़हबी इसराईली भाई को जितवा सकता हो तो उसके अनुसार जितवाए और कहे कि यह हमारा क़ानून है और अगर गैर-इसराईलियों के कानून के अन्तर्गत जितवा सकता हो तो उसके अन्तर्गत जितवाए और कहे कि यह तुम्हारा क़ानून है और अगर दोनों क़ानून साथ न देते हों तो फिर जिस चाल से भी वह इसराईली को सफल कर सकता हो, करे। रिब्बी शमूएल कहता है कि गैर-इसराईली की हर ग़लती से फायदा उठाना चाहिए । (तालमूदिक मस्सलेनी, पॉल-आइज़िक हरशों, लन्दन 1880 ई०, पृ० 37,210, 221)
بَلَىٰۚ مَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ وَٱتَّقَىٰ فَإِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 75
(76) आखिर क्यों उनसे पूछताछ नहीं होगी? जो भी अपने वचन को पूरा करेगा और बुराई से बचकर रहेगा वह अल्लाह का प्रिय बनेगा, क्योंकि संयमी लोग अल्लाह को पसन्द हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَشۡتَرُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَأَيۡمَٰنِهِمۡ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيۡهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 76
(77) रहे वे लोग जो अल्लाह के वचन और अपनी क़समों को थोड़ी कीमत पर बेच डालते हैं, तो उनके लिए आखिरत में कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह क़ियामत के दिन न उनसे बात करेगा, न उनकी ओर देखेगा और न उन्हें विशुद्धता प्रदान करेगा65, बल्कि उनके लिए तो बड़ी दर्दनाक सज़ा है।
65.कारण यह है कि ये लोग ऐसे-ऐसे बड़े नैतिक अपराध करने के बाद भी अपनी जगह यह समझते हैं कि क़ियामत के दिन बस यही अल्लाह के सान्निध्य प्राप्त दास होंगे, उन्हीं की ओर कृपा-दृष्टि होगी और जो थोड़ा-बहुत गुनाहों का मैल दुनिया में उनको लग गया है, वह भी बुजुर्गों के सदके में उनपर से धो डाला जाएगा, हालांकि वास्तव में वहाँ उनके साथ बिल्कुल उलटा मामला होगा।
وَإِنَّ مِنۡهُمۡ لَفَرِيقٗا يَلۡوُۥنَ أَلۡسِنَتَهُم بِٱلۡكِتَٰبِ لِتَحۡسَبُوهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمَا هُوَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَمَا هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 77
(78) उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो किताब पढ़ते हुए इस तरह ज़बान का उलट-फेर करते हैं कि तुम समझो, जो कुछ वे पढ़ रहे हैं वह किताब ही का अंश है, हालाँकि वह किताब का अंश नहीं होता। 66 वे कहते हैं कि यह जो कुछ हम पढ़ रहे हैं, यह अल्लाह की ओर से है, हालाँकि वह अल्लाह की ओर से नहीं होता। वे जान-बूझकर झूठ बात को अल्लाह से जोड़ देते हैं।
66.इसका अर्थ यद्यपि यह भी हो सकता है कि वे अल्लाह की किताब के अर्थों में परिवर्तन कर देते हैं या शब्दो का उलट-फेर करके कुछ-का-कुछ अर्थ निकालते हैं, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ यह है कि वे किताब को पढ़ते हुए किसी विशेष शब्द या वाक्य को जो उनके स्वार्थ या उनकी स्वयं की गढ़ी हुई धारणाओ और सिद्धान्तों के विरुद्ध पड़ता हो, जबान को हिलाकर, कुछ का कुछ बना देते हैं। इसके उदाहरण कुरआन को माननेवाले किताववालों में भी पाए जाते हैं। उदाहरणतः कुछ लोग जो नबी के 'मनुष्य' होने के इंकारी हैं, इस आयत में-"कुल इन्नमा अना ब-श-रुम मिस्लुकुम” में 'इन्नमा' को 'इन-न-मा' पढ़ते हैं और इसका अनुवाद इस तरह करते हैं कि “ऐ नबी । कह दो कि 'निस्सन्देह, नहीं हूँ मैं मनुष्य तुम जैसा।"
مَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُؤۡتِيَهُ ٱللَّهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُولَ لِلنَّاسِ كُونُواْ عِبَادٗا لِّي مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن كُونُواْ رَبَّٰنِيِّـۧنَ بِمَا كُنتُمۡ تُعَلِّمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ وَبِمَا كُنتُمۡ تَدۡرُسُونَ ۝ 78
(79) किसी इंसान का यह काम नहीं है कि अल्लाह तो उसको किताब और विवेकपूर्ण निर्णय शक्ति और पैगम्बरी प्रदान करे और वह लोगों से कहे कि अल्लाह के बजाय तुम मेरे दास बन जाओ। वह तो यही कहेगा कि सच्चे रब्बानी67 बनो, जैसा कि उस किताब की शिक्षा को अपेक्षित है, जिसे तुम पढ़ते और पढ़ाते हो।
67.यहूदियों के यहाँ जो उलमा धार्मिक पदाधिकारी होते थे और जिनका काम धार्मिक मामलों में लोगों की रहनुमाई करना और इबादतों का आयोजन करना और धार्मिक आदेशों को लागू करना होता था उनके लिए शब्द 'रब्बानी' इस्तेमाल किया जाता था, जैसा कि स्वयं कुरआन में कहा गया है, "इनके रब्बानी और इनके उलमा इनको गुनाह की बातें करने और हराम के माल खाने से क्यों न रोकते थे" (5 : 44) । इसी तरह ईसाइयों के यहाँ शब्द Divine भो 'रब्बानी' का समानार्थी है।
وَلَا يَأۡمُرَكُمۡ أَن تَتَّخِذُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ أَرۡبَابًاۚ أَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡكُفۡرِ بَعۡدَ إِذۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 79
(80) वह तुमसे कदापि यह न कहेगा कि फ़रिश्तों को था पैगम्बरों को अपना रब बना लो। क्या यह संभव है कि एक नबी तुम्हें कुफ्त (अवज्ञा) का आदेश दे, जबकि तुम 'मुस्लिम' (आज्ञाकारी) हो? 68
68.यह उन तमाम गलत, बातों का एक व्यापक खंडन है जो दुनिया की विभिन्न जातियों ने अल्लाह की ओर से आए हुए पैग़म्बरों से संबद्ध करके अपने धार्मिक ग्रंथों में शामिल कर दी हैं और जिनके आधार पर किसी भी पैग़म्बर या फ़रिश्ते को किसी न किसी तरह 'खुदा' और 'उपास्य' बना लिया जाता है । इन आयतों में यह मूल नियम बताया गया है कि ऐसी कोई शिक्षा, जो अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी और उपासना सिखाती हो और किसी बन्दे को बन्दगी की हद से बढ़ाकर 'ईश्वरत्व' के स्थान तक ले जाती हो, कदापि किसी पैग़म्बर की दी हुई शिक्षा नहीं हो सकती । जहाँ किसी धार्मिक ग्रंथ में यह चीज़ नज़र आए, समझ लो कि यह पथभ्रष्ट लोगों के फेर-बदल का परिणाम है।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ لَمَآ ءَاتَيۡتُكُم مِّن كِتَٰبٖ وَحِكۡمَةٖ ثُمَّ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مُّصَدِّقٞ لِّمَا مَعَكُمۡ لَتُؤۡمِنُنَّ بِهِۦ وَلَتَنصُرُنَّهُۥۚ قَالَ ءَأَقۡرَرۡتُمۡ وَأَخَذۡتُمۡ عَلَىٰ ذَٰلِكُمۡ إِصۡرِيۖ قَالُوٓاْ أَقۡرَرۡنَاۚ قَالَ فَٱشۡهَدُواْ وَأَنَا۠ مَعَكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 80
(81) याद करो, अल्लाह ने पैग़म्बरों से वचन लिया था कि,"आज मैंने तुम्हें किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) और समझ-बूझ प्रदान की है, कल अगर कोई दूसरा रसूल तुम्हारे पास उसी शिक्षा की पुष्टि करता हुआ आए, जो पहले से तुम्हारे पास मौजूद है, तो तुमको उसपर ईमान लाना होगा और उसकी मदद करनी होगी। 69 यह बात फ़रमाकर अल्लाह ने पूछा, “क्या तुम इसका इक़रार करते हो और इसपर मेरी ओर से वचन की भारी ज़िम्मेदारी उठाते हो?" उन्होंने कहा, “हाँ, हम इक़रार करते हैं।" अल्लाह ने फ़रमाया, “अच्छा तो गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाह हूँ।
69.अर्थ यह है कि हर पैग़म्बर से बात का वचन लिया जाता रहा है और जो वचन पैग़म्बर से लिया गया हो, वह अनिवार्य रूप से उसके अनुपालकों पर भी आप-से-आप लागू हो जाता है कि जो नबी हमारी ओर से उस दीन (धर्म) के प्रचार और उसे स्थापित करने के लिए भेजा जाए, जिसके प्रचार और स्थापना के लिए तुम नियुक्त किए गए हो, उसका तुम्हें साथ देना होगा। उसके साथ तास्सुब (पक्षपात) न बरतना, अपने आपको दीन का ठेकेदार न समझना, सत्य का विरोध न करना, बल्कि जहाँ जो व्यक्ति भी हमारी ओर से सत्य का झंडा ऊँचा करने के लिए उठाया जाए, उसके झंडे तले जमा हो जाना। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से पहले हर नबी से यही वचन लिया जाता रहा है और इसी आधार पर हर नबी ने अपने अनुयायियों (उम्मत) को बाद के आनेवाले नबी की खबर दी है और उसका साथ देने का आदेश दिया है। लेकिन न कुरआन में और न हदीस में,कहीं भी इस बात का पता नहीं चलता कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से ऐसा वचन लिया गया हो या आपने अपनी उम्मत को किसी बाद के आनेवाले नबी को खबर देकर उसपर ईमान लाने का आदेश दिया हो, बल्कि कुरआन में स्पष्ट शब्दों में नबी (सल्ल.) को 'ख़ातमुन्नबीयीन' (अन्तिम नबी) कहा गया है और बहुत-सी हदीसों में नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि आपके बाद कोई नबी आने वाला नहीं है।
فَمَن تَوَلَّىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 81
82) इसके बाद जो अपने वचन से फिर जाए वही फ़ासिक (नाफ़रमान) है।70
70.इस कथन का अभिप्राय किताबवालों को सचेत करना है कि तुम अल्लाह के वचन को तोड़ रहे हों।मुहम्मद (सल्ल.) का इंकार और उनका विरोध करके उस वचन को भंग कर रहे हो जो तुम्हारे नबियों से लिया गया था, इसलिए अब तुम नाफरमान हो चुके हो, अर्थात् अल्लाह के आज्ञापालन से निकल गए हो।
أَفَغَيۡرَ دِينِ ٱللَّهِ يَبۡغُونَ وَلَهُۥٓ أَسۡلَمَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ طَوۡعٗا وَكَرۡهٗا وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 82
(83) अब क्या ये लोग अल्लाह के आज्ञापालन का तरीक़ा (अल्लाह का दीन) छोड़कर कोई और तरीका चाहते हैं? हालाँकि आसमान और ज़मीन की सारी चीजें चाहे-अनचाहे अल्लाह ही की आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।71 और उसी की ओर सबको पलटना है।
71.अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि और सृष्टि की हर वस्तु का दीन (धर्म) तो यही इस्लाम अर्थात् अल्लाह का आज्ञापालन और उसकी बन्दगी है। अब तुम इस सृष्टि के भीतर रहते हुए इस्लाम को छोड़कर जिन्दगी गुज़ारने का और कौन-सा तरीक़ा खोज रहे हो?
قُلۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 83
(84) ऐ नबी ! कहो कि,"हम अल्लाह को मानते हैं, उस शिक्षा को मानते है जो हमपर उतारी गई है, उन शिक्षाओं को भी मानते है जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक, याकूब और याकूब की औलाद पर उतरी थीं, और उन आदेशों पर भी ईमान रखते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की ओर से दिए गए। हम उनके बीच अन्तर नहीं करते72, और हम अल्लाह के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।"
72.अर्थात् हमारा तरीक़ा यह नहीं है कि हम किसी नबी को माने और किसी को न मानें, किसी को झूठा कहें और किसी को सच्चा । हम भेदभाव और अज्ञानतापूर्ण पक्षपात से मुक्त है। दुनिया में जहाँ, जो अल्लाह का बन्दा भी अल्लाह की ओर से सत्य लेकर आया है, हम उसके सत्य पर होने की गवाही देते हैं।
وَمَن يَبۡتَغِ غَيۡرَ ٱلۡإِسۡلَٰمِ دِينٗا فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡهُ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 84
(85) इस आज्ञापालन (इस्लाम) के सिवा जो व्यक्ति कोई और तरीका अपनाना चाहे उसका वह तरीका कदापि स्वीकार न किया जाएगा और आखिरत में वह असफल रहेगा।
كَيۡفَ يَهۡدِي ٱللَّهُ قَوۡمٗا كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ وَشَهِدُوٓاْ أَنَّ ٱلرَّسُولَ حَقّٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 85
(86) कैसे हो सकता है कि अल्लाह उन लोगों का मार्गदर्शन करे जिन्होंने ईमान की नेमत पा लेने के बाद फिर कुफ़ (इंकार की नीति) अपनाया, हालाँकि वे खुद इस बात पर गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल सत्य पर है और इनके पास स्पष्ट निशानियाँ भी आ चुकी हैं।73 अल्लाह ज़ालिमों को तो मार्ग नहीं दिखाया करता।
73.यहाँ फिर उसी बात को दोहराया गया है जो इससे पहले बार-बार कही जा चुकी है कि नबी (सल्ल.) के काल में अरब के यहूदी उलमा जान चुके थे और उनकी ज़बानों तक से इस बात की गवाही मिल चुकी थी कि आप सच्चे नवी हैं और जो शिक्षा आप लाए हैं, वह वही शिक्षा है जो पिछले नबी लाते रहे हैं। इसके बाद उन्होंने जो कुछ किया वह मात्र पक्षपात, हठ और सत्य से वैर की उस पुरानी आदत का नतीजा था जिसके वे सदियों से अपराधी बनते चले आ रहे थे।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُمۡ أَنَّ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةَ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 86
(87) उनके जुल्म का सही बदला यही है कि उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और तमाम इंसानों की फिटकार है,
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 87
(88) इसी हालत में वे हमेशा रहेंगे, न उनकी सज़ा में कमी होगी और न उन्हें मोहलत दी जाएगी।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 88
(89) हाँ, वे लोग बच जाएँगे जो इसके बाद तौबा करके अपनी नीति में सुधार कर लें, अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّن تُقۡبَلَ تَوۡبَتُهُمۡ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلضَّآلُّونَ ۝ 89
(90) मगर जिन लोगों ने ईमान लाने के बाद इंकार की नीति अपनाई फिर अपने इंकार में बढ़ते चले गए74, उनकी तौबा कदापि स्वीकार न होगी, ऐसे लोग तो पक्के गुमराह हैं।
74.अर्थात् केवल इंकार पर ही बस न किया, बल्कि व्यावहारिक रूप से विरोध किया और बाधाएँ भी खड़ी कीं, लोगों को अल्लाह के रास्ते से रोकने की कोशिश में एड़ी-चोटी तक का ज़ोर लगाया, सन्देहों को जन्म दिया, बदगुमानियाँ फैलाई, दिलों में भ्रम उत्पन्न किए और बुरी से बुरी साज़िशें की और जोड़-तोड़ किए, ताकि नबी का मिशन किसी तरह सफल न होने पाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡ أَحَدِهِم مِّلۡءُ ٱلۡأَرۡضِ ذَهَبٗا وَلَوِ ٱفۡتَدَىٰ بِهِۦٓۗ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 90
(91) विश्वास रखो, जिन लोगों ने इंकार की नीति अपनाई और इंकार की हालत में जान दी, उनमें से कोई अगर अपने आपको सज़ा से बचाने के लिए धरती भरकर भी सोना बदले में दे तो उसे स्वीकार न किया जाएगा। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है, और वे अपना कोई मददगार न पाएँगे।
لَن تَنَالُواْ ٱلۡبِرَّ حَتَّىٰ تُنفِقُواْ مِمَّا تُحِبُّونَۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 91
(92) तुम नेकी को नहीं पहुँच सकते जब तक कि अपनी वे चीजें (अल्लाह की राह में) खर्च न करो जिन्हें तुम प्रिय रखते हो75, और जो कुछ तुम खर्च करोगे अल्लाह उससे बेख़बर न होगा।
75.इसका अभिप्राय उनकी इस भ्रान्ति को दूर करना है जो वे 'नेकी' के बारे में रखते थे। उनके मस्तिष्क में नेकी की ऊँची से ऊँची परिकल्पना बस यह थी कि शताब्दियों की वंशागत परम्पराओं से जो धर्म संबंधी कानून प्रत्यक्षतः उनके यहाँ बन गया था उसकी नक़ल आदमी अपने जीवन में पूर्णत: उतार ले और उनके धार्मिक विद्वानों द्वारा कानून में बाल की खाल निकालने की नीति के परिणामस्वरूप जो एक लम्बी-चौड़ी विधि-व्यवस्था बन गई थी उसके अनुसार रात-दिन जीवन के गौण और अमौलिक मामलों की नाप-तौल करता रहे। इस कानून की ऊपरी सतह के नीचे आम तौर से यहूदियों के बड़े-बड़े 'दीनदार लोग तंगदिली, लोभ, कंजूसी, सत्य छिपाने और सत्य बेचने के अवगुण छिपाए हुए थे और आम लोग उनको नेक समझते थे। इसी प्रान्ति को दूर करने के लिए उन्हें बताया जा रहा है कि 'नेक इंसान' होने का दर्जा उन चीज़ों से ऊपर है जिनको तुमने भलाई की कसौटी समझ रखा है। नेकी की मूल आत्मा अल्लाह की मुहब्बत है, ऐसी मुहब्बत कि अल्लाह को राज़ी करने के मुकाबले में दुनिया की कोई चीज़ अधिक प्रिय न हो। जिस चीज़ की मुहब्बत भी मनुष्य के दिल पर इतनी छा जाए कि वह उसे अल्लाह की मुहब्बत पर कुरबान न कर सकता हो, बस वही बुत है और जब तक उस बुत को आदमी तोड़ न दे, नेकी के दरवाज़े उसपर बन्द है। इस भाव से खाली होने के बाद ज़ाहिरी दीनदारी की हैसियत सिर्फ उस चमकदार रंग की है जो घुन खाई हुई लकड़ी पर फेर दिया गया हो। इंसान ऐसे रंग रोगनों से धोखा खा सकते हैं, मगर अल्लाह नहीं खा सकता।
۞كُلُّ ٱلطَّعَامِ كَانَ حِلّٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِلَّا مَا حَرَّمَ إِسۡرَٰٓءِيلُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ مِن قَبۡلِ أَن تُنَزَّلَ ٱلتَّوۡرَىٰةُۚ قُلۡ فَأۡتُواْ بِٱلتَّوۡرَىٰةِ فَٱتۡلُوهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 92
(93) खाने की ये सारी चीजें (जो इस्लामी शरीअत में हलाल हैं) बनी इसराईल के लिए भी हलाल थीं76, परन्तु कुछ चीजें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले77 इसराईल ने स्वयं अपने ऊपर हराम कर लिया था। उनसे कहो, अगर तुम (आपत्ति में) सच्चे हो तो लाओ तोरात और पेश करो उसका कोई उद्धरण
76.कुरआन और मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओं पर जब यहूदी उलमा (धार्मिक विद्वान) कोई सैद्धान्तिक आपत्ति न कर सके (क्योंकि दीन की जो मूल बातें हैं उनमें पिछले नबियों की शिक्षाओं और हज़रत मुहम्मद सल्ल. की शिक्षा में बाल बराबर भी अन्तर न था) तो उन्होंने फिकही (कर्मकांड से सम्बन्धित) आपत्तियाँ शुरू की। इस सिलसिले में उनकी पहली आपत्ति यह थी कि आपने खाने-पीने की कुछ ऐसी चीज़ों को हलाल कर दिया है जो पिछले नबियों के समय से हराम चली आ रही हैं । इसी आपत्ति का उत्तर यहाँ दिया जा रहा है। इसी तरह एक आपत्ति उनकी यह भी थी कि बैतुल-मक्दिस को छोड़कर खाना काबा को किबला (उपासना-दिशा) क्यों बनाया गया। बाद की आयतें इसी आपत्ति के उत्तर में हैं।
77.इसराईल से अभिप्रेत अगर बनी इसराईल लिए जाएँ तो अर्थ यह होगा कि तौरात के अवतरण से पूर्व कुछ चीजें बनी इसराईल ने केवल रस्मी तौर पर हराम घोषित कर दी थीं और अगर इससे अभिप्रेत हज़रत याकूब (अलैहि०) लिए जाएं तो इसका अर्थ यह होगा कि वे कुछ चीज़ों के प्रति अपनी स्वाभाविक रुचि न होने के कारण या किसी मर्ज की वजह से बचा करते थे किन्तु बाद में उनकी औलाद ने उन्हें वर्जित वस्तु समझ लिया। यही बात अधिक प्रसिद्ध है और आगे आनेवाली आयत से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि ऊंट और खरगोश आदि के हराम किए जाने का जो आदेश बाइबल में लिखा है वह मूल तौरात का आदेश नहीं है, बल्कि यहूदी धार्मिक विद्वानों ने बाद में इसे किताब में दाखिल कर दिया है। (विस्तृत वार्ता के लिए देखिए सूरा 6 (अनआम), टिप्पणी न० 122)
فَمَنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 93
(94) इसके बाद भी जो लोग अपनी झूठी गढ़ी हुई बाते अल्लाह से जोड़ते हैं, वही वास्तव में ज़ालिम है ।
قُلۡ صَدَقَ ٱللَّهُۗ فَٱتَّبِعُواْ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 94
(95) कहो, अल्लाह ने जो कुछ फरमाया है, सब फरमाया है। तुमको एकाग होकर इबराहीम के तरीक़े की पैरवी करनी चाहिए और इबराहीम शिर्क करने (साझी ठहराने) वालों में से न था।78
78.अर्थ यह है कि फिकही (कर्मकांड संबंधी) इन छोटी-छोटी अमौलिक बातों में कहाँ जा फंसे हो, धर्म का मूल तो एक अल्लाह की बन्दगी है, जिसका तुमने परित्याग कर दिया और बहुदेववाद की गन्दगियों में फँस गए। अब विवाद करते हो फिकही मसलों में, हालांकि ये वे बातें हैं जो इबराहीम के वास्तविक पंथ से हट जाने के बाद पतन की लम्बी सदियों में तुम्हारे उलमा के बाल की खाल निकालने की नीति से पैदा हुई हैं।
إِنَّ أَوَّلَ بَيۡتٖ وُضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِي بِبَكَّةَ مُبَارَكٗا وَهُدٗى لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 95
(96) बेशक सबसे पहली इबादतगाह, जो इंसानों के लिए बनाई गई, वह वही है जो मक्का में स्थित है। उसको भलाई और बरकत दी गई थी और तमाम दुनियावालों के लिए मार्गदर्शन का केन्द्र बनाया गया था79
79.यहूदियों को दूसरी आपत्ति यह थी कि तुमने बैतुल-मक्दिस को छोड़कर काबा को किबला क्यों बनाया, हालांकि पिछले नबियों का किबला बैतुल-मक्दिस ही था। इसका उत्तर सूरा 2 (अल-बक़रा) में दिया जा चुका है। लेकिन यहूदी इसके बाद भी अपनी आपत्ति पर अड़े रहे, इसलिए यहाँ फिर इसका उत्तर दिया गया है। बैतुलम-मक्दिस के बारे में स्वयं बाइबल ही की गवाही मौजूद है कि हज़रत मूसा (अलैहि.) के साढ़े चार सौ वर्ष बाद हज़रत सुलैमान (अलैहि.) ने उसका निर्माण किया (1-राजा,6 : 1) और हज़रत सुलैमान (अलैहि.) ही के समय में वह तौहीदवालों (एकेश्वरवादियों) का क़िबला करार दिया गया (1-राजा,8 : 29-30) । इसके विपरीत यह तमाम अरब की निरंतर और सर्वसम्मत रिवायतों से सिद्ध है कि काबा को हज़रत इबराहीम (अलैहि.) ने निर्मित किया और वह हज़रत मूसा (अलैहि.) से आठ-नौ सौ वर्ष पहले गुज़रे हैं। इसलिए काबा का सर्वप्रथम पूजा स्थल होना एक ऐसी सच्चाई है जिसमें किसी विवाद की गुंजाइश नहीं।
فِيهِ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ مَّقَامُ إِبۡرَٰهِيمَۖ وَمَن دَخَلَهُۥ كَانَ ءَامِنٗاۗ وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلٗاۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 96
(97) उसमें खुली हुई निशानियाँ हैं,80 इबराहीम की इबादत की जगह है, और उसका हाल यह है कि जिसने उसमें प्रवेश किया, सुरक्षित हो गया। 81 लोगों पर अल्लाह का यह हक़ है कि जो उस घर तक पहुँचने का सामर्थ्य रखता हो, वह उसका हज करे, और जो कोई इस आदेश के पालन से इंकार करे तो उसे मालूम हो जाना चाहिए कि अल्लाह तमाम दुनियावालों से बेपरवाह है।
80.अर्थात् उस घर में ऐसी खुली निशानियाँ पाई जाती हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह अल्लाह के यहाँ स्वीकृत है और उसे अल्लाह ने अपने घर की हैसियत से पसन्द कर लिया है। लम्बे-चौड़े फैले निर्जन स्थान में बनाया गया और फिर अल्लाह ने इसके पास रहनेवालों को आजीविका पहुंचाने का अच्छे-से-अच्छा प्रबन्ध कर दिया। ढाई हज़ार वर्ष तक अज्ञानता के कारण सारा अरब देश घोर अशान्ति की स्थिति में पड़ा रहा, परन्तु इस विगाड़ भरे भूभाग पर काबा और काबा के आसपास का ही एक क्षेत्र ऐसा था जिसमें शान्ति कायम रही, बल्कि इसी काया की यह बरकत थी कि साल भर में चार महीने के लिए पूरे देश को इसके कारण शान्ति मिल जाती थी, फिर अभी आधी सदी पहले ही सब देख चुके थे कि अबरहा ने जब काबा को ढाने के लिए मक्का पर हमला किया तो उसकी सेना किस तरह अल्लाह के कहर की शिकार हुई। इस घटना को उस समय के अरब का बच्चा-बच्चा जानता था और इसके चश्मदीद गवाह इन आयतों के उतरने के समय मौजूद थे।
81.अज्ञानता के अंधेरे युग में भी उस घर का यह मान-सम्मान था कि खून के प्यासे दुश्मन एक-दूसरे को वहाँ देखते थे, किन्तु उनमें एक-दूसरे पर हाथ डालने का साहस न होता था।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا تَعۡمَلُونَ ۝ 97
(98) कहो, ऐ किताबवालो ! तुम क्यों अल्लाह की बातें मानने से इंकार करते हो? जो हरकतें तुम कर रहे हो, अल्लाह सब कुछ देख रहा है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ تَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَأَنتُمۡ شُهَدَآءُۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 98
(99) कहो, ऐ किताबवालो ! यह तुम्हारी कैसी नीति है कि जो अल्लाह की बात मानता है उसे भी तुम अल्लाह के गाने और चाहते हो कि वह टेढ़ी राह चले, हालांकि तुम स्वयं उसके सीने गाने परहा का गवाह । तुम्हारी हरकतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَرُدُّوكُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 99
(100) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो। अगर तुमने इन किताबवाली में से एक गिराह की बात मानी तो ये तुम्हें ईमान से पुन: अधर्म की ओर फेर ले जाएँगे ।
وَكَيۡفَ تَكۡفُرُونَ وَأَنتُمۡ تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ وَفِيكُمۡ رَسُولُهُۥۗ وَمَن يَعۡتَصِم بِٱللَّهِ فَقَدۡ هُدِيَ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 100
(101) तुम्हारे लिए, अधर्म की ओर जाने का अब क्या मौक़ा बाक़ी है, जबकि तुमको अल्लाह की आयतें सुनाई जा रही हैं और तुम्‍हारे बीच उसका रसूल मौजूद है ? जो अल्लाह का दामन मज़बूती के साथ थामेगा, वह अवश्य सीधा रास्ता पा लेगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ حَقَّ تُقَاتِهِۦ وَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 101
(102) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो जैसा कि उससे होने का हक है। तुमको मौत न आए मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो।82
82.अर्थात् मरते दम तक अल्लाह के आज्ञापालन और वफ़ादारी पर जमे रहो।
وَٱعۡتَصِمُواْ بِحَبۡلِ ٱللَّهِ جَمِيعٗا وَلَا تَفَرَّقُواْۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ كُنتُمۡ أَعۡدَآءٗ فَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم بِنِعۡمَتِهِۦٓ إِخۡوَٰنٗا وَكُنتُمۡ عَلَىٰ شَفَا حُفۡرَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنۡهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 102
(103) सब मिलकर अल्लाह की रस्सी83 को मजबूत पकड़ लो और फूट में न पड़ी। अल्लाह के उस उपकार को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। तुम एक दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिए और उसकी कृपा और मेहरबानी से तुम भाई-भाई बन गए। तुम आग से भरे हुए एक गढ़े के किनारे खड़े थे, अल्लाह ने तुमको उससे बचा लिया।84, इस तरह अल्लाह अपनी निशानियाँ तुम्हारे सामने रौशन करता है, शायद कि इन निशानियों से तुम्हें अपनी सफलता का सीधा रास्ता नज़र आ जाए।85
83.अल्लाह की रस्सी से अभिप्रेत उसका दीन है और उसको रस्सी की संज्ञा इसलिए दी गई है कि यही वह, रिश्ता है जो एक और ईमानवालों का ताल्लुक अल्लाह से कायम करता है और दूसरी और तमाम ईमान लानेवालों को आपस में मिलाकर एक जमाअत बनाता है। इस सी को मजबूत पकड़ने का अर्थ यह है कि मुसलमानों की निगाह में वास्तविक महत्व 'दीन' (धर्म) का हो, उसी से उनकी दिलचस्पी ही, उसी के स्थापित करने की वे कोशिशें करते रहे और उसी की सेवा के लिए आपस में मदद करते है। जहाँ दीन की मूलभूत शिक्षाएँ और उसकी स्थापना के लक्ष्य से मुसलमान हटे और उनका ध्यान और साथियों छोटी-छोटी और अमौलिक बातों की और फिर गई, तो फिर उनमें निश्चित रूप ये वही फूट और मतभेद पैदा हो जाएगा जो इससे पहले के नबियों के अनुयायियों को उनकी जि़न्दगी के मूल उद्देश्‍य से फेरकर दुनिया और आखि़रत की रूसवाइयों में डाल चुका है।
84.यह संकेत है उस स्थिति की ओर जिसमें इस्लाम से पहले अरब के लोग ग्रस्त थे। कबीलों की आपसी दुश्मनियाँ, बात-बात पर उनकी लड़ाइयाँ और रात दिन के खून-खराबे, जिनकी वजह से क़रीब था कि पूरी अरब-कौम नष्ट-विनष्ट हो जाती। इस आग में जल-मरने से अगर किसी चीज़ ने उन्हें बचाया तो वह इस्लाम की यही नेमत थी। ये आयतें जिस समय उतरी हैं, उससे तीन-चार साल पहले ही मदीना के लोग मुसलमान हुए थे और इस्लाम को यह जीती-जागती नेमत सब देख रहे थे कि औस और खज़रज के वे क़बीले, जो वर्षों से एक-दूसरे के खून के प्यासे थे, परस्पर घुल-मिलकर एक हो चुके थे और ये दोनों कबीले मक्का से आनेवाले मुहाजिरों के साथ ऐसे अभूतपूर्व त्याग और प्रेम का बर्ताव कर रहे थे जो एक परिवार के लोग भी आपस में नहीं करते।
وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٞ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 103
(104) तुममें कुछ लोग तो ऐसे ज़रूर ही होने चाहिएँ जो नेकी की ओर बुलाएँ, भलाई का आदेश दें और बुराइयों से रोकते रहें। जो लोग यह काम करेंगे, वही सफलता पाएँगे ।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ تَفَرَّقُواْ وَٱخۡتَلَفُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 104
(105) कहीं तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो गिरोहों में बँट गए और खुली-खुली स्पष्ट हिदायतें पाने के बाद फिर विभेदों में पड़ गए। 86 जिन्होंने यह नीति अपनाई, वे उस दिन कड़ी सज़ा पाएँगे,
86.यह संकेत उन समुदायों की ओर है जिन्होंने अल्लाह के पैग़म्बरों से सत्य-धर्म की स्पष्ट और सीधी शिक्षाएँ पाई, मगर कुछ समय बीत जाने के बाद धर्म की बुनियाद को छोड़ दिया और असम्बद्ध,गौण और अमौलिक मसलों के आधार पर अलग-अलग गिरोह बनाने शुरू कर दिए, फिर फ़िजूल और निरर्थक बातों पर झगड़ने में ऐसे वयस्त हुए कि न उन्हें उस काम का होश रहा जो अल्लाह ने उनके सुपुर्द किया था और न अक़ीदा व अख़्लाक (धारणा और सद्व्यवहार) के उन मूल सिद्धान्तों से कोई दिलचस्पी रही जिनपर वास्तव में इंसान की सफलता और सौभाग्य आश्रित है।
يَوۡمَ تَبۡيَضُّ وُجُوهٞ وَتَسۡوَدُّ وُجُوهٞۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡوَدَّتۡ وُجُوهُهُمۡ أَكَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 105
(106) जबकि कुछ लोग उज्ज्वल चेहरेवाले होंगे और कुछ लोगों का मुँह काला होगा। जिनका मुँह काला होगा। (उनसे कहा जाएगा कि) ईमान की नेमत पाने के बाद भी तुमने कुफ़ (इंकार) की नीति अपनाई ? अच्छा, तो अब इस नेमत के ठुकराने के बदले में अज़ाब का मज़ा चखो।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱبۡيَضَّتۡ وُجُوهُهُمۡ فَفِي رَحۡمَةِ ٱللَّهِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 106
(107) रहे वे लोग जिनके चेहरे रौशन होंगे, तो उन्हें अल्लाह की रहमत की छाया में जगह मिलेगी और हमेशा वे इसी हालत में रहेंगे।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۗ وَمَا ٱللَّهُ يُرِيدُ ظُلۡمٗا لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 107
(108) ये अल्लाह के कथन है जो हम ठीक-ठीक तुम्हें सुना रहे हैं, क्योंकि अल्लाह दुनियावालों पर ज़ुल्म करने का कोई इरादा नहीं रखता।"87
87.अर्थात् चूँकि अल्लाह दुनियावालों पर ज़ुल्म करना नहीं चाहता, इसलिए वह उनको सीधा रास्ता भी बता रहा है और इस बात से भी उन्हें वक्त से पहले सचेत किए देता है कि अन्ततः वह किन बातों में उनसे पूछताछ करनेवाला है । इसके बाद भी जो लोग टेढ़ी चाल अपनाएँ और अपने ग़लत तरीकों से न रुकें, वे अपने ऊपर स्वयं जुल्म करेंगे। 88.यह वही विषय है जो सूरा-2 (अल-बकरा) आयत 142-147 में बयान हो चुका है। अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैरवी करनेवालों को बताया जा रहा है कि दुनिया की इमामत (नेतृत्व) और रहनुमाई के जिस पद (मंसब) से बनी इसराईल अपनी अयोग्यता के कारण हटाए जा चुके हैं, उसपर अब तुम आसीन किए गए हो इसलिए कि चरित्र और आचरण की दृष्टि से अब तुम दुनिया में सबसे उत्तम
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 108
(109) जमीन और आसमान की सारी चीज़ों का मालिक अल्लाह है और सारे मामले अल्लाह ही के सामने पेश होते हैं।
كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ وَلَوۡ ءَامَنَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۚ مِّنۡهُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 109
(110) अब दुनिया में वह उत्तम समुदाय तुम हो जिसे इंसानों के मार्गदर्शन और सुधार के लिए मैदान में लाया गया है।88 तुम नेकी का हुक्म देते हो, बदी से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो। ये किताबबाले89 ईमान लाते तो इन्हीं के हक में बेहतर था। यद्यपि इनमें कुछ लोग ईमानदार भी पाए जाते हैं, मगर इनके अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।
88.यह वही विषय है जो सूरा-2 (अल-बकरा) आयत 142-147 में बयान हो चुका है। अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैरवी करनेवालों को बताया जा रहा है कि दुनिया की इमामत (नेतृत्व) और रहनुमाई के जिस पद (मंसब) से बनी इसराईल अपनी अयोग्यता के कारण हटाए जा चुके हैं, उसपर अब तुम आसीन किए गए हो इसलिए कि चरित्र और आचरण की दृष्टि से अब तुम दुनिया में सबसे उत्तम मानव समुदाय बन गए हो और तुममें वे गुण पैदा हो गए हैं जो न्यायोचित नेतृत्त्व के लिए जरूरी हैं, अर्थात नेकी को स्थापित करने और बदी को मिटाने की भावना और प्रयास और एक अल्लाह को अकीदे की दृष्टि से भी और व्यावहारिक दृष्टि से भी अपना स्वामी और रख मानना। इसलिए अब यह काम तुम्हारे सुपुर्द किया गया है और तुम्हारे लिए जरूरी है कि अपनी जिम्मेदारियों को समझो और उन ग़लतियों से बचो जो तुमसे पहले के लोग कर चुके हैं। (देखिए सूरा 2, टिप्पणी 123 व 144)
89.यहाँ अहले किताब से तात्पर्य यहूदी हैं।
لَن يَضُرُّوكُمۡ إِلَّآ أَذٗىۖ وَإِن يُقَٰتِلُوكُمۡ يُوَلُّوكُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 110
(111) ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, अधिक से अधिक बस कुछ सता सकते हैं। अगर ये तुमसे लड़े तो मुक़ाबले में पीठ दिखाएँगे, फिर ऐसे बेबस होंगे कि कहीं से इनको सहायता न मिलेगी।
ضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ أَيۡنَ مَا ثُقِفُوٓاْ إِلَّا بِحَبۡلٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَحَبۡلٖ مِّنَ ٱلنَّاسِ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَسۡكَنَةُۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 111
(112) ये जहाँ भी पाए गए इनपर अपमान की मार ही पड़ी, कही अल्लाह के ज़िम्मे या इंसानों के ज़िम्मे में शरण मिल गई तो यह और बात है।90 ये अल्लाह के गज़ब (प्रकोप) में घिर चुके है, इनके लिए मुहताजी और पराधीनता थोप दी गई है और यह सब कुछ सिर्फ इस कारण हुआ कि ये अल्लाह की आयतों से कुफ्र (इंकार) करते रहे और इन्होंने पैगम्बरों को नाहक क़त्ल किया। यह इनकी नाफ़रमानियों और ज़्यादतियों का परिणाम है।
90.अर्थात दुनिया में अगर कहीं उनको थोड़ा बहुत चैन प्राप्त भी हुआ है तो वह उनके अपने बलबूते पर प्राप्त किया हुआ सुख-चैन नहीं है, बल्कि दूसरों के समर्थन और कृपा का परिणाम है। कहीं किसी मुस्लिम राज्य ने उनको अल्लाह के नाम पर शरण दे दी और कहीं किसी और मुस्लिम राज्य ने अपने तौर पर उन्हें अपनी हिमायत में ले लिया। इसी तरह कभी कभी उन्हें दुनिया में कही जोर पकड़ने का मौका भी मिल गया है, लेकिन वह भी अपने बाहुबल से नहीं, बल्कि केवल किसी पड़ोसी के बल पर। यही हैसियत उस यहूदी राज्य की है जो इसराईल के नाम से केवल अमेरिका, ब्रिटेन और रूस के समर्थन से अस्तित्व में आया।
۞لَيۡسُواْ سَوَآءٗۗ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ أُمَّةٞ قَآئِمَةٞ يَتۡلُونَ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ ءَانَآءَ ٱلَّيۡلِ وَهُمۡ يَسۡجُدُونَ ۝ 112
(113) मगर सारे किताबबाले बराबर नहीं हैं। इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सीधे रास्ते पर क़ायम है, रातों को अल्लाह की आयते पढ़ते हैं और उसके आगे सजदा करते हैं,
يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 113
(114) अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखते हैं, नेकी का हुक्म देते हैं. बुराइयों से रोकते हैं और भलाई के कामों में सक्रिय रहते हैं। ये भले लोग हैं,
وَمَا يَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلَن يُكۡفَرُوهُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 114
(115) और जो नेकी भी ये करेंगे उसकी उपेक्षा न की जाएगी। अल्लाह परहेजगारों को खूब जानता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 115
(116) रहे वे लोग जिन्होंने अधर्म की नीति अपनाई, तो अल्लाह के मुक़ाबले में उनको न उनका माल कुछ काम देगा, न संतान । वे तो आग में जानेवाले लोग हैं और आग ही में सदैव रहेंगे।
مَثَلُ مَا يُنفِقُونَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَثَلِ رِيحٖ فِيهَا صِرٌّ أَصَابَتۡ حَرۡثَ قَوۡمٖ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَأَهۡلَكَتۡهُۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِنۡ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 116
(117) जो कुछ वे अपनी इस दुनिया की ज़िन्दगी में खर्च कर रहे हैं उसका उदाहरण उस हवा जैसा है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती पर चले जिन्होंने अपने ऊपर आप अत्याचार किया है और उसे बर्बाद करके रख दे।91 अल्लाह ने उनपर ज़ुल्म नहीं किया, वास्तव में ये स्वयं अपने ऊपर जुल्म कर रहे हैं।
91.इस उदाहरण में खेती से अभिप्रेत ज़िन्दगी की यह खेती है जिसकी फसल आदमी को आखिरत में काटनी है। हवा से अभिप्रेत भलाई की वह ऊपरी भावना है जिसके कारण सत्य का इंकार करनेवाले जनहित के कामों और खैरात आदि में दौलत ख़र्च करते हैं और पाले से तात्पर्य सही ईमान और अल्लाह के क़ानून की पाबन्दी का अभाव है जिसकी वजह से उनकी पूरी ज़िन्दगी गलत होकर रह गई है । अल्लाह इस उदाहरण से यह बताना चाहता है कि जिस तरह हवा खेतियों की परवरिश के लिए लाभप्रद है, लेकिन अगर उसी हवा में पाला हो तो वह खेती की परवरिश करने के बजाय उसे तबाह कर डालती है, इसी तरह खैरात भी यद्यपि इसान की आखिरत की खेती की परवरिश करनेवाली चीज़ है, मगर जब उसके अन्दर अधर्म का विष मिला हुआ हो तो यही खैरात लाभप्रद होने के बजाय उलटी विनाशकारी बन जाती है। स्पष्ट है कि इंसान का मालिक अल्लाह है और उस माल का मालिक भी अल्लाह ही है जिसका इंसान उपभोग कर रहा है, और यह राज्य भी अल्लाह ही का है जिसके अन्दर रहकर इंसान काम कर रहा है। अब अगर अल्लाह का यह दास अपने मालिक के सम्प्रभुत्त्व को स्वीकार नहीं करता या उसकी बन्दगी के साथ किसी और की नाजाइज़ बन्दगी भी शरीक करता है और अल्लाह के माल और उसके साम्राज्य में उपयोग करते हुए उसके कानून और नियम की पाबन्दी नहीं करता, तो उसके ये तमाम उपभोग सिर से पैर तक अपराध बन जाते हैं। अज्र (इनाम) मिलना कैसा, वह तो इस बात का अधिकारी बन जाता है कि इन तमाम हरकतों के लिए उसपर फौज़दारी का मुकद्दमा कायम किया जाए। उसकी खैरात का उदाहरण ऐसा है जैसे एक नौकर अपने स्वामी की अनुमति के बिना उसका खज़ाना खोले और जहाँ-जहाँ अपनी समझ से सही समझे, ख़र्च कर डाले।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةٗ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالٗا وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِي صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 117
(118) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! अपनी जमाअत के लोगों के सिवा दूसरों को अपना राजदार (भेदी) न बनाओ। वे तुम्हारी खराबी के किसी मौके से फायदा उठाने में नहीं चूकते92 तुम्हें जिस चीज़ से हानि पहुँचे, वहीं उनको प्रिय है। उनके मन का द्वेष उनके मुँह से निकला पड़ता है, और जो कुछ वे अपने सीनों में छिपाए हुए हैं वह इससे बढ़कर है। हमने तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें दे दी हैं। अगर तुम बुद्धि रखते हो (तो इनसे संबंध रखने में सावधानी बरतोगे)।
92.मदीना के चारों ओर जो यहूदी आबाद थे उनके साथ औस और खज़रज के लोगों की दोस्ती पुराने समय से चली आ रही थी। व्यक्तिगत रूप से भी इन कबीलों के लोग उनके लोगों से मैत्रीपूर्ण संबंध रखते थे और कबीलों की हैसियत से भी ये और वे एक दूसरे के पड़ोसी और मित्र थे। जब औस और ख़ज़रज के क़बीले मुसलमान हो गए तो इसके बाद भी वे यहूदियों के साथ वही पुराने संबंध निभाते रहे और इनके लोग अपने पिछले यहूदी मित्रों से उसी प्रेम और निष्ठा के साथ मिलते रहे, लेकिन यहूदियों को अल्लाह के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और आपके मिशन से जो दुश्मनी हो गई थी, उसकी वजह से वे किसी ऐसे व्यक्ति से निष्ठापूर्ण प्रेम रखने के लिए तैयार न थे जो इस नए आन्दोलन में सम्मिलित हो गया हो । उन्होंने अनसार के साथ तो प्रत्यक्ष में वही संबंध रखे जो पहले से चले आते थे, लेकिन दिल में अब वे उनके घोर शत्रु हो चुके थे, और इस प्रत्यक्ष मैत्री से गलत फायदा उठाकर हर समय इस कोशिश में लगे रहते थे कि किसी तरह मुसलमानों की जमाअत में अन्दरूनी फितना और बिगाड़ पैदा कर दें और उनके जमाअती भेद मालूम करके उनके दुश्मनों तक पहुँचाएँ। अल्लाह यहाँ उनको इसी कपटपूर्ण नीति से मुसलमानों को सावधान रहने की हिदायत कर रहा है।
هَٰٓأَنتُمۡ أُوْلَآءِ تُحِبُّونَهُمۡ وَلَا يُحِبُّونَكُمۡ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ كُلِّهِۦ وَإِذَا لَقُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ عَضُّواْ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَنَامِلَ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۚ قُلۡ مُوتُواْ بِغَيۡظِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 118
(119) तुम उनसे मुहब्बत रखते हो, मगर वे तुमसे मुहब्बत नहीं रखते, हालाँकि तुम तमाम आसमानी किताबों को मानते हो।93 जब वे तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं कि हमने भी (तुम्हारे रसूल और तुम्हारी किताब को) मान लिया है, मगर जब अलग होते हैं तो तुम्हारे विरुद्ध उनके क्रोध और प्रकोप का यह हाल होता है कि अपनी उँगलियाँ चबाने लगते हैं। उनसे कह दो कि अपने गुस्से में आप जल मरो। अल्लाह दिलों के छिपे हुए भेद तक जानता है
93. अर्थात् यह बड़ी विचित्र बात है कि शिकायत बजाय इसके कि तुम्हें उनसे होती, उनको तुमसे है। तुम तो कुरआन के साथ तौरात को भी मानते हो, इसलिए उनको तुमसे शिकायत होने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता। हाँ, अगर शिकायत हो सकती थी तो तुम्हें उनसे हो सकती थी, क्योंकि वे कुरआन को नहीं मानते।
إِن تَمۡسَسۡكُمۡ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡ وَإِن تُصِبۡكُمۡ سَيِّئَةٞ يَفۡرَحُواْ بِهَاۖ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ لَا يَضُرُّكُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـًٔاۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 119
(120)-तुम्हारा भला होता है तो इनको बुरा मालूम होता है और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये खुश होते हैं, मगर इनकी कोई चाल तुम्हारे विरुद्ध सफल नहीं हो सकती, शर्त यह है कि तुम सब्र (धैर्य) से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो। जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उसपर हावी है।
وَإِذۡ غَدَوۡتَ مِنۡ أَهۡلِكَ تُبَوِّئُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مَقَٰعِدَ لِلۡقِتَالِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 120
(121) (ऐ94 पैग़म्बर ! मुसलमानों के सामने उस अवसर को चर्चा करो) जब तुम सुबह-सवेरे अपने घर से निकले थे और (उहुद के मैदान में) मुसलमानों को युद्ध के लिए जगह-जगह तैनात कर रहे थे। अल्लाह सारी बातें सुनता है और वह बहुत ही खबर रखनेवाला है।
94.यहाँ से चौथा व्याख्यान आरंभ होता है। यह उहुद को लड़ाई के बाद अवतरित हुआ है और इसमें उहुद की लड़ाई की समीक्षा की गई है। ऊपर के व्याख्यान को समाप्त करते हुए अन्त में कहा गया था कि "उनकी कोई चाल तुम्हारे विरुद्ध सफल नहीं हो सकती, बशर्ते कि तुम सब से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो ।” अब चूंकि उहुद के मैदान में मुसलमानों की हार का मूल कारण ही यह बना कि उनके भीतर सब्र की भी कमी थी और उनके लोगों से कुछ ऐसी गलतियाँ भी हो गई थीं जो खुदातरसी (ईशपरायणता) के विरुद्ध थीं। इसलिए यह व्याख्यान, जिसमें उन्हें इन कमजोरियों पर सचेत किया गया है, उपरोक्त वाक्य के बाद तुरन्त ही प्रस्तुत किया गया है। इस व्याख्यान की वर्णन-शैली यह है कि उहुद की लड़ाई के सिलसिले में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई थी, उनमें से एक-एक को लेकर उसपर कुछ जंचे-तुले वाक्यों में बड़ी ही शिक्षाप्रद समीक्षा की गई है। इसको समझने के लिए उसके घटनात्मक सदंर्भ को निगाहों में रखना आवश्यक है। शव्वाल सन् 03 हिजरी के आरंभ में इस्लाम के दुश्मन कुरैश्यिों ने लगभग तीन हज़ार की सेना लेकर मदीना पर आक्रमण किया। अधिक संख्या में होने के साथ-साथ उनके पास लड़ाई के सामान भी मुसलमानों की तुलना में बहुत अधिक थे और फिर वे बद्र की लड़ाई के प्रतिशोध की तीवभावना भी रखते थे। नबी (सल्ल.) और अनुभवी सहाबा (रज़ि.) को राय यह थी कि मदीना में रहकर प्रतिरक्षा की जाए, मगर कुछ नव जवानों ने, जिनमें शहीद होने की चाह तीव्र थी और जिन्हें बद्र की लड़ाई में शामिल होने का मौक़ा न मिला था, बाहर निकलकर लड़ने का आग्रह किया। अन्ततः इनके आग्रह पर मजबूर होकर नबी (सल्ल.) ने बाहर निकलने ही का निर्णय कर लिया। एक हज़ार आदमी आपके साथ निकले, मगर शौत नामक स्थान पर पहुंचकर अब्दुल्लाह बिन उबई अपने तीन सौ साथियों को लेकर अलग हो गया। ठीक वक़्त पर उसकी इस हरकत से मुसलमानों की सेना में अच्छी-खासी बेचैनी फैल गई, यहाँ तक कि बनू सलमा और बनू हारिसा के लोग तो ऐसा हतोत्साहित हुए कि उन्होंने भी पलट जाने का इरादा कर लिया था, किन्तु साहसी और हौसलामंद सहाबियों को कोशिशों से यह बेचैनी दूर हो गई। इन शेष सात सौ आदमियों के साथ नबी (सल्ल.) आगे बढ़े और उहुद की पहाड़ी के दामन में (मदीना से लगभग चार मील की दूरी पर) अपनी सेना को इस तरह पंक्तिबद्ध किया कि पहाड़ पीछे था और कुरैश की सेना सामने पहलू में केवल एक दर्रा ऐसा था जिससे अचानक हमले का खतरा हो सकता था। वहाँ आपने अब्दुल्लाह बिन जुबैर के नेतृत्व में पचास तीरंदाज़ बिठा दिए और उनको ताकीद कर दी कि “किसी को हमारे करीब न फटकने देना, किसी हाल में यहाँ से न हटना। अगर तुम देखो कि हमारी बोटियाँ पक्षी नोचे लिए जाते हैं, तब भी तुम उस जगह से न टलना।” इसके बाद लड़ाई शुरू हुई। आरंभ में मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा, यहाँ तक कि शत्रु को सेना में भगदड़ मच गई। लेकिन इस आरंभिक सफलता को पूरी जीत की हद तक पहुंचाने के बजाय मुसलमान माले ग़नीमत के लोभ में पड़ गए और उन्होंने शत्रु की सेना को लूटना शुरू कर दिया। उधर जिन तीरंदाज़ों को नबी (सल्ल.) ने पीछे की रक्षा के लिए बिठाया था, उन्होंने जो देखा कि शत्रु भाग निकला है और ग़नीमत लुट रही है, तो वे भी अपनी जगह छोड़कर ग़नीमत की ओर लपके । हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर ने उनको नबी (सल्ल.) का ताकीदी हुक्म याद दिलाकर बहुत रोकने की कोशिश की, मगर कुछ आदमियों के सिवा कोई न ठहरा । इस मौके से खालिद बिन वलीद ने जो उस समय शत्रु की सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे, समय पर फ़ायदा उठाया और पहाड़ी का चक्कर काटकर पहलू के दरें से हमला कर दिया। अब्दुल्लाह बिन जुबैर ने, जिनके साथ सिर्फ कुछ ही आदमी रह गए थे, इस हमले को रोकना चाहा, लेकिन रोक न सके और यह सैलाब यकायक मुसलमानों पर टूट पड़ा। दूसरी ओर जो शत्रु भाग गए थे, उन्होंने भी पलटकर हमला कर दिया। इस तरह लड़ाई का पांसा एकदम पलट गया और मुसलमान इस अप्रत्याशित परिस्थिति से इतना घबराए कि उनका एक बड़ा भाग बिखरकर भाग निकला। फिर भी कुछ बहादुर सिपाही अभी तक मैदान में डटे हुए थे। इतने में कहीं से यह अफवाह उड़ गई कि नबी (सल्ल.) शहीद हो गए। इस ख़बर ने सहाबा के रहे-सहे होश व हवास भी गुम कर दिए और बाकी लोग भी साहस छोड़ बैठे। उस समय नबी (सल्ल.) के आस-पास केवल दस-बारह जॉनिसार रह गए थे और आप स्वयं घायल हो चुके थे, पूर्णतः पराजय होने में कोई कसर बाकी न रही थी, लेकिन ठीक उसी समय सहाबा (रजि.) को मालूम हो गया कि प्यारे नबी (सल्ल.) ज़िन्दा हैं, चुनाँचे वे हर ओर से सिमटकर फिर आपके पास जमा हो गए और आपको सुरक्षित रूप से पहाड़ी की ओर ले गए। इस अवसर पर यह एक पहेली है जो हल नहीं हो सकी कि वह क्या चीज़ थी कि जिसने मक्का के दुश्मनों को स्वतः वापस फेर दिया। मुसलमान इतने बिखर चुके थे कि उनका फिर जमा होकर विधिवत लड़ाई लड़ना कठिन था। अगर दुश्मन अपनी जीत को अन्त तक पहुंचाने की चेष्टा करते तो उनकी सफलता असंभव न थी, लेकिन न जाने किस तरह वे आप-ही-आप मैदान छोड़कर वापस चले गए।
إِذۡ هَمَّت طَّآئِفَتَانِ مِنكُمۡ أَن تَفۡشَلَا وَٱللَّهُ وَلِيُّهُمَاۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 121
(122) याद करो जब तुममें से दो गिरोह कायरता दिखाने पर उतर आए थे,95 हालांकि अल्लाह उनकी सहायता को मौजूद था, और ईमानवालो को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
95.यह संकेत है बनू सलमा और बनू हारिसा की ओर जो अब्दुल्लाह बिन उबई और उसके साथियों की वापसी के बाद साहस छोड़ बैठे थे।
وَلَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ بِبَدۡرٖ وَأَنتُمۡ أَذِلَّةٞۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 122
(123) आखिर इससे पहले बद्र की लड़ाई में अल्लाह तुम्हारी सहायता कर चुका था, हालाँकि उस समय तुम बहुत कमज़ोर थे, इसलिए तुमको चाहिए कि अल्लाह की नाशुक्री से बचो, आशा है कि अब तुम शुक्रगुज़ार बनोगे।
إِذۡ تَقُولُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ أَلَن يَكۡفِيَكُمۡ أَن يُمِدَّكُمۡ رَبُّكُم بِثَلَٰثَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُنزَلِينَ ۝ 123
(124) ऐ नबी ! याद करो जब तुम ईमानवालों से कह रहे थे, “क्या तुम्हारे लिए यह बात काफ़ी नहीं कि अल्लाह तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करे ?"96
96.मुसलमानों ने जब देखा कि एक ओर दुश्मन तीन हज़ार हैं और हमारे एक हज़ार में से भी तीन सौ अलग हो गए हैं, तो उनके दिल टूटने लगे। उस समय नबी (सल्ल.) ने उनसे ये शब्द कहे थे।
بَلَىٰٓۚ إِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ وَيَأۡتُوكُم مِّن فَوۡرِهِمۡ هَٰذَا يُمۡدِدۡكُمۡ رَبُّكُم بِخَمۡسَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُسَوِّمِينَ ۝ 124
(125)–निस्सन्देह अगर तुम सब्र करो और अल्लाह से डरते हुए काम करो, तो जिस क्षण शत्रु तुम्हारे ऊपर चढ़कर आएँगे, उसी क्षण तुम्हारा रब (तीन हज़ार नहीं) पाँच हज़ार निशानवाले फ़रिश्तों से तुम्हारी सहायता करेगा।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ لَكُمۡ وَلِتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُكُم بِهِۦۗ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 125
(126) यह बात अल्लाह ने तुम्हें इसलिए बता दी है कि तुम प्रसन्न हो जाओ और तुम्हारे दिल सन्तुष्ट हो जाएँ। जीत और मदद जो कुछ भी है अल्लाह की ओर से है, जो बड़ी ताक़तवाला और सूझ-बूझवाला है।
لِيَقۡطَعَ طَرَفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡ يَكۡبِتَهُمۡ فَيَنقَلِبُواْ خَآئِبِينَ ۝ 126
(127) (और यह सहायता वह तुम्हें इसलिए देगा) ताकि कुफ़्र की राह चलनेवालो का एक बाजू काट दे, या उनको ऐसी अपमानजनक पराजय दे कि वे असफलता के साथ परास्त हो जाएँ।
لَيۡسَ لَكَ مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٌ أَوۡ يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡ أَوۡ يُعَذِّبَهُمۡ فَإِنَّهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 127
(128) (ऐ पैगम्बर ) निर्णय के अधिकारों में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह को अधिकार है. चाहे उन्हें क्षमा करे, चाहे सज़ा दे क्योंकि वे अत्याचारी हैं।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 128
(129) ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसका मालिक अल्लाह है, जिसको चाहे क्षमा करे और जिसको चाहे यातना दे। वह क्षमा करनेवाला और दयावान है।97
97.उहुद की लड़ाई में जब नबी (सल्ल.) घायल हुए तो आपके मुँह से दुश्मनों के लिए बद्दुआ निकल गई, और आपने फ़रमाया कि "वह क़ौम कैसे सफल हो सकती है जो अपने नबी को घायल करे।" ये आयते उसी के जवाब में आई हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُواْ ٱلرِّبَوٰٓاْ أَضۡعَٰفٗا مُّضَٰعَفَةٗۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 129
(130) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! यह बढ़ता और चढ़ता सूद खाना छोड़ दो 98 और अल्लाह से डरो, आशा है कि सफल होगे।
98.उहुद को हार का बड़ा कारण यह था कि मुसलमान ठीक सफलता के समय माल के लोभ के शिकार हो गए और अपने काम अन्त तक पहुंचाने के बजाय ग़नीमत लूटने में लग गए। इसलिए पूर्ण तत्वदर्शी (अल्लाह) ने इस हालत के सुधार के लिए धन-पूजा के स्रोत पर बाँध बाँधना आवश्यक समझा और आदेश दिया कि सूदखोरी (ब्याज खाने) से बाज़ आओ, जिसमें आदमी रात-दिन अपने लाभ के बढ़ने और चढ़ने का हिसाब लगाता रहता है और जिसके कारण आदमी के अन्दर रुपये का लोभ बेहद बढ़ता चला जाता है।
وَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِيٓ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 130
(131) उस आग से बचो जो इंकार करनेवालों के लिए जुटाई गई है।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 131
(132) और अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करो, आशा है कि तुमपर कृपा की जाएगी।
۞وَسَارِعُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ أُعِدَّتۡ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 132
(133) दौड़कर चलो उस राह पर जो तुम्हारे रब के क्षमादान और उस जन्नत की ओर जाती है, जिसका फैलाव ज़मीन और आसमानों जैसा है और वह अल्लाह से उन डरनेवालों के लिए तैयार की गई है।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ فِي ٱلسَّرَّآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَٱلۡكَٰظِمِينَ ٱلۡغَيۡظَ وَٱلۡعَافِينَ عَنِ ٱلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 133
(134) जो हर हाल में अपने माल खर्च करते हैं, चाहे बदहाल हों या खुशहाल, जो गुस्से को पी जाते हैं और दूसरों की ग़लती माफ़ कर देते हैं- ऐसे नेक लोग अल्लाह को बहुत पसन्द है99
99.सूदखोरी (ब्याज खाना) जिस समाज में मौजूद होती है उसके भीतर सूदखोरी के कारण दो प्रकार के नैतिक रोग पैदा हो जाते हैं। सूद लेनेवालों में लोभ-लालच, कंजूसी और स्वार्थपरायणता और सूद देनेवालों में नफ़रत, गुस्सा, कोना (द्वेष) और जलन । उहुद (को लड़ाई) की पराजय में इन दोनों प्रकार के रोगों का कुछ-न-कुछ हिस्सा शामिल था। अल्लाह मुसलमानों को बताता है कि सूदखोरो (ब्याज खाने) से दोनों पक्षो (लेनेवाले और देनेवाले) में जो नैतिक दोष पैदा होते हैं उनके बिलकुल विपरीत अल्लाह को राह में ख़र्च करने से ये दूसरे प्रकार के गुण पैदा हुआ करते हैं, और अल्लाह की क्षमा और उसकी जन्नत इसी दूसरे प्रकार के गुणों से प्राप्त हो सकती है, न कि पहली प्रकार के दोषों से । (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2,टिप्पणी 320)
وَٱلَّذِينَ إِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةً أَوۡ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ ذَكَرُواْ ٱللَّهَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ لِذُنُوبِهِمۡ وَمَن يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ إِلَّا ٱللَّهُ وَلَمۡ يُصِرُّواْ عَلَىٰ مَا فَعَلُواْ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 134
(135)-और जिनका हाल यह है कि अगर कभी कोई अश्लील काम उनसे हो जाता है या कोई गुनाह करके वे अपने ऊपर ज़ुल्म कर बैठते हैं तो तुरन्त उन्हें अल्लाह याद आ जाता है और उससे वे अपने कुसूरों की माफ़ी चाहते हैं क्योंकि अल्लाह के सिवा और कौन है जो गुनाह माफ़ कर सकता हो-और वे जानते-बूझते अपने किए पर आग्रह नहीं करते ।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُم مَّغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَجَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَنِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 135
(136) ऐसे लोगों का बदला उनके रब के पास यह है कि वह उनको क्षमा कर देगा और ऐसे बाग़ों में उन्हें दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वहाँ वे हमेशा रहेंगे। कैसा अच्छा बदला है अच्छे कर्म करनेवालों के लिए!
قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُمۡ سُنَنٞ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 136
(137) तुमसे पहले बहुत-से युग बीत चुके हैं। धरती में चल-फिरकर देख लो कि उन लोगों का क्या अंजाम हुआ जिन्होंने (अल्लाह के आदेशों और हिदायतों को) झुठलाया ।
هَٰذَا بَيَانٞ لِّلنَّاسِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٞ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 137
(138) यह लोगों के लिए एक स्पष्ट और खुली चेतावनी है और जो अल्लाह से डरते हों उनके लिए हिदायत और नसीहत
وَلَا تَهِنُواْ وَلَا تَحۡزَنُواْ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 138
(139) हताश न हो, राम न करोतुम ही प्रभावी रहोगे अगर तुम ईमानवाले हो।
إِن يَمۡسَسۡكُمۡ قَرۡحٞ فَقَدۡ مَسَّ ٱلۡقَوۡمَ قَرۡحٞ مِّثۡلُهُۥۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيۡنَ ٱلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَتَّخِذَ مِنكُمۡ شُهَدَآءَۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 139
(140) इस समय अगर तुम्हें चोट लगी है तो इससे पहले ऐसी ही चोट तुम्हारे विरोधी पक्ष को भी लग चुकी है।100 यह तो समय के उतार-चढ़ाव हैं जिन्हें हम लोगों के बीच गर्दिश देते रहते हैं। तुमपर यह समय इसलिए लाया गया कि अल्लाह देखना चाहता था कि तुममे सच्चे ईमानवाले कौन है, और उन लोगों को छाँट लेना चाहता था जो वास्तव में (सत्य के) गवाह हो101 -क्योंकि ज़ालिम लोग अल्लाह को प्रिय नहीं हैं
100.संकेत है बद्र की लड़ाई की ओर। कहने का अर्थ यह है कि जब उस चोट को खाकर शत्रु निरुत्साहन हुए तो उहुद की लड़ाई में यह चोट खाकर तुम निरुत्साह क्यों हो?
101.इस आयत में मूल अरबी वास्प व यत्तखिज़ मिन-कुम शुहदा-अ" प्रयुक्त हुआ है। इसका एक अर्थ तो यह है कि "तुममें से कुछ 'शहीद' लेना चाहता था, अर्थात कुछ लोगों को (अल्लाह) शहादत' का सम्मान प्रदान करना चाहता था और दूसरा अर्थ यह है कि ईमानवालों और मुनाफिको (कपटाचारियों) के उस मिले-जुले गिरोह में से, जिस रूप में तुम इस समय हो, उन लोगों को अलग छाँट लेना चाहता था जो वास्तव में 'शुहदा-अ-अलन्नास' (लोगों पर गवाह) है, अर्थात् उस प्रतिष्ठित पद के योग्य हैं जिसपर हमने मुसलमान समुदाय को आसीन होने को प्रतिष्ठा प्रदान की है।
وَلِيُمَحِّصَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَمۡحَقَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 140
(141) और वह इस परीक्षा द्वारा ईमानवालों को अलग छोटकर इंकार करनेवालों (दुश्मनों) का सिर कुचल देना चाहता था।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَيَعۡلَمَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 141
(142) क्या तुमने यह समझ रखा है कि यूं ही जन्नत में चले जाओगे, हालांकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें कौन वे लोग हैं जो उसकी राह में जानें लड़ानेवाले और उसके लिए सब करनेवाले हैं।
وَلَقَدۡ كُنتُمۡ تَمَنَّوۡنَ ٱلۡمَوۡتَ مِن قَبۡلِ أَن تَلۡقَوۡهُ فَقَدۡ رَأَيۡتُمُوهُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 142
(143) तुम तो मौत की तमन्नाएँ कर रहे थे! मगर यह उस समय की बात थी जब मौत सामने न आई थी, लो अब वह तुम्हारे सामने आ गई और तुमने उसे आँखों से देख लिया।102
102.संकेत है शहीद होने को तमन्ना रखनेवाले उन लोगों की ओर, जिनके बार-बार के आग्रह पर नबी (सल्ल.) ने मदीने से बाहर निकलकर लड़ने का निर्णय लिया था।
وَمَا مُحَمَّدٌ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُۚ أَفَإِيْن مَّاتَ أَوۡ قُتِلَ ٱنقَلَبۡتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡۚ وَمَن يَنقَلِبۡ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ فَلَن يَضُرَّ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ وَسَيَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 143
(144) मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल हैं। उनसे पहले और रसूल भी गुज़र चुके हैं, फिर क्या अगर वे मर जाएँ या क़त्ल कर दिए जाएँ तो तुम लोग उलटे पाँव फिर जाओगे?103 याद रखो ! जो उलटा फिरेगा, वह अल्लाह को कुछ हानि न पहुँचा सकेगा। हाँ, जो अल्लाह के कृतज्ञ बंदे बनकर रहेगे, उन्हें वह उसका बदला देगा।
103.जब नबी (सल्ल.) के शहीद होने की खबर फैली तो अधिकतर सहाबा अपना साहस छोड़ बैठे। इस हालत में मुनाफ़िकों ने (जो मुसलमानों के साथ ही लगे हुए थे) कहना शुरू किया कि चलो अब्दुल्लाह बिन उबई के पास चलें, ताकि वह हमारे लिए अबू सुफ़ियान से पनाह (शरण) ले दे और कुछ ने यहाँ तक कह डाला कि अगर मुहम्मद अल्लाह के रसूल होते तो क़त्ल कैसे होते? चलो, अब बाप-दादा के धर्म की ओर लौट चलें । इन्हीं बातों के जवाब में कहा जा रहा है कि अगर तुम्हारी हकपरस्ती (सत्यवादिता) केवल मुहम्मद के व्यक्तित्व से संबद्ध है और तुम्हारा इस्लाम ऐसी कमज़ोर बुनियाद रखता है कि मुहम्मद के दुनिया से विदा होते ही तुम उसी कुधर्म (कुफ्र) की ओर पलट जाओगे जिससे निकलकर आए थे तो अल्लाह के दीन को तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تَمُوتَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِ كِتَٰبٗا مُّؤَجَّلٗاۗ وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلۡأٓخِرَةِ نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَاۚ وَسَنَجۡزِي ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 144
(145) कोई प्राणी अल्लाह की अनुमति के बिना नहीं मर सकता। मौत का समय तो लिखा हुआ है।104 जो आदमी दुनिया के सवाब (बदला) के इरादे से काम करेगा, उसको हम दुनिया ही में से देंगे और जो आखिरत105 के सवाब के इरादे से काम करेगा, वह आखिरत का सवाब पाएगा, और कृतज्ञता दिखानेवालों106 को हम उनका बदला ज़रूर प्रदान करेंगे।
104.इससे यह बात मुसलमानों के मन में बिठानी है कि मौत के डर से तुम्हारा भागना बेकार है। कोई आदमी न तो अल्लाह के निर्धारित समय से पहले मर सकता है और न उसके बाद जी सकता है। इसलिए तुमको चिन्ता मौत से बचने की नहीं, बल्कि इस बात की होनी चाहिए कि ज़िन्दगी की जो मुहलत भी तुम्हें मिली हुई है, उसमें तुम्हारी कोशिशों और दौड़-धूप का लक्ष्य क्या है, दुनिया या आख़िरत (लोक या परलोक)?
105.सवाब का मतलब है किए गए कर्म का फल । दुनिया के सवाब से अभिप्रेत वे फ़ायदे हैं जो इंसान को उसकी कोशिशों और कर्मों के नतीजे में इसी दुनिया की ज़िन्दगी में प्राप्त हों और आख़िरत (परलोक) के सवाब से अभिप्रेत वे फायदे हैं जो उसी काम और कोशिश के नतीजे में आखिरत के शाश्वत जीव्न में प्राप्त होंगे। इस्लामी दृष्टिकोण से मानव-नीति के विषय में दो-टूक प्रश्न यही है कि जीवन के इस मैदान में आदमी जो दौड़-धूप कर रहा है, उसमें क्या वह दुनिया के नतीजों पर निगाह रखता है या आखिरत के नतीजों पर।
وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيّٖ قَٰتَلَ مَعَهُۥ رِبِّيُّونَ كَثِيرٞ فَمَا وَهَنُواْ لِمَآ أَصَابَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا ٱسۡتَكَانُواْۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 145
(146) इससे पहले कितने ही नबो ऐसे हुए हैं जिनके साथ मिलकर बहुत-से खुदा-परस्तों (ईशभक्तों) ने लड़ाई लड़ी। अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उनपर पड़ी, उनसे वे हताश नहीं हुए, उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई वे (असत्य के आगे) झुके नहीं।107 ऐसे ही धैर्य (सब) रखनेवालों को अल्लाह पसन्द करता है।
107.अर्थात् अपनी तादाद की कमी, बे-सर व सामानी और शत्रुओं की बड़ी संख्या और शक्ति देखकर उन्होंने असत्य के पुजारियों के आगे हथियार नहीं डाला।
وَمَا كَانَ قَوۡلَهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسۡرَافَنَا فِيٓ أَمۡرِنَا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 146
(147) उनकी दुआ बस यह थी कि “ऐ हमारे रब ! हमारी ग़लतियों और कोताहियों को क्षमा कर, हमारे काम में तेरी सीमाओं और हदों का जो भी उल्लंघन हो गया हो उसे क्षमा कर दे, हमारे क़दम जमा दे और काफ़िरों (विरोधियों) के मुक़ाबले में हमारी सहायता कर ।"
فَـَٔاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا وَحُسۡنَ ثَوَابِ ٱلۡأٓخِرَةِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 147
(148) अन्ततः अल्लाह ने उनको दुनिया का सवाब (बदला) भी दिया और उससे बेहतर आखिरत (परलोक) का सवाब (बदला) भी प्रदान किया। अल्लाह को ऐसे ही सत्कर्मी लोग प्रिय हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَرُدُّوكُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 148
(149) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम उन लोगों के इशारों पर चलोगे जिन्होंने कुफ़्र (कुधर्म) की राह अपनाई है, तो वे तुमको उलटा फेर ले जाएँगे108 और तुम असफल हो जाओगे।
108.अर्थात् जिस कुफ्फ़ (इंकार) की हालत से तुम निकलकर आए हो उसी में ये तुम्हें फिर वापस ले जाएंगे। मुनाफ़िक़ीन और यहूदी, उहुद की पराजय के बाद मुसलमानों में यह विचार फैलाने का यत्न कर रहे थे कि मुहम्म अगर सचमुच नबी होते तो परास्त क्यों होते, ये तो एक मामूली आदमी हैं। इनका मामला भी दूसरे आदमियों की तरह है। आज जीत है तो कल हार। अल्लाह के जिस समर्थन और सहायता का उन्होंने तुमको विश्वास दिला रखा है, वह केवल एक ढोंग है।
بَلِ ٱللَّهُ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلنَّٰصِرِينَ ۝ 149
(150) (उनकी बातें ग़लत हैं) सच तो यह है कि अल्लाह तुम्हारा समर्थक और सहायक है और वह बेहतरीन सहायता करनेवाला है।
سَنُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ بِمَآ أَشۡرَكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗاۖ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 150
(151) बहुत जल्द वह समय आनेवाला है जब हम सत्य का इंकार करनेवालों के दिलों में रौब बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह के साथ उनको ईश्वरत्व में साझी ठहराया है जिनके साझी होने पर अल्लाह ने कोई प्रमाण नहीं उतारा। उनका आखि़री ठिकाना जहन्नम है, और बहुत ही बुरी है वह ठहरने की जगह जो उन ज़ालिमो को मिलेगी।
وَلَقَدۡ صَدَقَكُمُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥٓ إِذۡ تَحُسُّونَهُم بِإِذۡنِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا فَشِلۡتُمۡ وَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَعَصَيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَآ أَرَىٰكُم مَّا تُحِبُّونَۚ مِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلدُّنۡيَا وَمِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۚ ثُمَّ صَرَفَكُمۡ عَنۡهُمۡ لِيَبۡتَلِيَكُمۡۖ وَلَقَدۡ عَفَا عَنكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 151
(152) अल्लाह ने (समर्थन और सहायता का) जो वादा तुमसे किया था वह तो उसने पूरा कर दिया। आरंभ में उसके आदेश से तुम ही उनको क़त्ल कर रहे थे, मगर जब तुमने कमज़ोरी दिखाई और अपने काम में आपस में विभेद किया, और ज्यों ही वह चीज़ अल्लाह ने तुम्हें दिखाई जिसके मोह में तुम पड़े हुए थे (अर्थात् ग़नीमत का माल), तुम अपने सरदार के आदेश का उल्लंघन कर बैठे-इसलिए कि तुममें से कुछ लोग दुनिया के इच्छुक थे और कुछ आखिरत की इच्छा रखते थे-तब अल्लाह ने तुम्हें कुधर्मियों के मुक़ाबले में परास्त कर दिया ताकि तुम्हारी आज़माइश करे, और सच तो यह है कि अल्लाह ने फिर भी तुम्हें क्षमा ही कर दिया109, क्योंकि ईमानवालों पर अल्लाह की बड़ी कृपा-दृष्टि होती है।
109.अर्थात् तुमने ग़लती तो ऐसी की थी कि अगर अल्लाह तुम्हें क्षमा न कर देता तो उस समय तुम्हारा उन्मूलन कर दिया जाता। यह अल्लाह की कृपा थी और उसका समर्थन और उसकी सहायता थी जिसकी वजह से तुम्हारे दुश्मन तुमपर काबू पा लेने के बाद होश गुम कर बैठे और अकारण स्वतः परास्त होकर चले गए।
۞إِذۡ تُصۡعِدُونَ وَلَا تَلۡوُۥنَ عَلَىٰٓ أَحَدٖ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ فِيٓ أُخۡرَىٰكُمۡ فَأَثَٰبَكُمۡ غَمَّۢا بِغَمّٖ لِّكَيۡلَا تَحۡزَنُواْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا مَآ أَصَٰبَكُمۡۗ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 152
(153) याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे, किसी की ओर पलटकर देखने तक का होश तुम्हें न था और रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था110, उस समय तुम्हारे इस रवैये का बदला अल्लाह ने तुम्हें यह दिया कि तुमको दुख पर दुख दिए", ताकि आगे के लिए तुम्हें यह शिक्षा मिले कि जो कुछ तुम्हारे हाथ से जाए या जो मुसीबत तुमपर उतारी जाए, उसपर दुखी न हो। अल्लाह तुम्हारे सब कामों की ख़बर रखता है।
110.उहुद की लड़ाई में जब मुसलमानों पर अचानक दो दिशाओं से एक ही समय में आक्रमण हुआ और उनकी पंक्तियाँ बिखर गई तो कुछ लोग मदीना की ओर भाग निकले और कुछ उहुद पर चढ़ गए, परन्तु नबी (सल्ल.) एक इंच अपनी जगह से न हटे । दुश्मनों की चारों ओर भीड़ थी। दस-बारह आदमियों की मुट्ठी भर जमाअत पास रह गई थी, किन्तु अल्लाह के रसूल इस नाजुक मौके पर भी पहाड़ की तरह अपनी जगह जमे हुए थे और भागनेवालों को पुकार रहे थे, “इलै-य इबादल्लाहि, इलै-य इबादल्लाह” (अल्लाह के बन्दो ! मेरी ओर आओ, अल्लाह के बन्दो | मेरी ओर आओ।)
ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنۢ بَعۡدِ ٱلۡغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغۡشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمۡۖ وَطَآئِفَةٞ قَدۡ أَهَمَّتۡهُمۡ أَنفُسُهُمۡ يَظُنُّونَ بِٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ ظَنَّ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِۖ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ مِن شَيۡءٖۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَمۡرَ كُلَّهُۥ لِلَّهِۗ يُخۡفُونَ فِيٓ أَنفُسِهِم مَّا لَا يُبۡدُونَ لَكَۖ يَقُولُونَ لَوۡ كَانَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٞ مَّا قُتِلۡنَا هَٰهُنَاۗ قُل لَّوۡ كُنتُمۡ فِي بُيُوتِكُمۡ لَبَرَزَ ٱلَّذِينَ كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَتۡلُ إِلَىٰ مَضَاجِعِهِمۡۖ وَلِيَبۡتَلِيَ ٱللَّهُ مَا فِي صُدُورِكُمۡ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 153
(154) इस ग़म के बाद फिर अल्लाह ने तुममें से कुछ लोगों पर ऐसी निश्चिंतता की-सी स्थिति पैदा कर दी कि वे ऊँघने लगे।112 मगर एक दूसरा गिरोह, जिसके निकट सारा महत्व बस अपने हित ही का था, अल्लाह के बारे में तरह-तरह के अज्ञानपूर्ण विचार करने लगा जो सत्य के सर्वथा विपरीत था। ये लोग अब कहते हैं कि “इस काम के चलाने में हमारा भी कोई हिस्सा है?" उनसे कहो, “(किसी का कोई हिस्सा नहीं) इस काम के सारे अधिकार अल्लाह के हाथ में है।" वास्तव में ये लोग अपने दिलों में जो बात छिपाए हुए हैं उसे तुमपर प्रकट नहीं करते । उनका असल मक़सद यह है कि “अगर नेतृत्त्व के अधिकारों में हमारा कुछ हिस्सा होता तो यहाँ हम न मारे जाते।" उनसे कह दो कि “अगर तुम अपने घरों में भी होते तो जिन लोगों की मौत लिखी हुई थी, वे स्वयं अपने मारे जाने की जगहों की ओर निकल आते ।" और यह मामला-जो पेश आया, यह तो इसलिए था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में छिपा है अल्लाह उसे जाँच ले और जो खोट तुम्हारे दिलों में है उसे छाँट दे। अल्लाह दिलों का हाल खूब जानता है
112.यह एक ऐसा विचित्र अनुभव था जो उस समय इस्लामी सेना के कुछ लोगों को हुआ। हज़रत अबू तलहा (रज़ि.) जो उस लड़ाई में शरीक थे, स्वयं बयान करते हैं कि इस हालत में हमपर ऊंच ऐसी छाई जा रही थी कि तलवारें हाथ से छूटी पड़ती थीं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَلَّوۡاْ مِنكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ إِنَّمَا ٱسۡتَزَلَّهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ بِبَعۡضِ مَا كَسَبُواْۖ وَلَقَدۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 154
(155) तुममें से जो लोग मुकाबले के दिन पीठ फेर गए थे, उनके इस फिसलने का कारण यह था कि उनकी कुछ कमजोरियों की वजह से शैतान ने उनके क़दम डगमगा दिए थे। अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया, अल्लाह बहुत क्षमा करनेवाला और सहनशील है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ إِذَا ضَرَبُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ كَانُواْ غُزّٗى لَّوۡ كَانُواْ عِندَنَا مَا مَاتُواْ وَمَا قُتِلُواْ لِيَجۡعَلَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ حَسۡرَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 155
(156) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, काफि़रों (विधर्मियों) की-सी बातें न करो जिनके नाते-रिश्तेदार अगर कभी यात्रा पर निकलते हैं या लड़ाई में शरीक होते हैं (और वहाँ किसी दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं) तो वे कहते हैं कि अगर वे हमारे पास होते तो न मारे जाते और न क़त्ल होते। अल्लाह इस प्रकार की बातों को उनके दिलों में पछतावा और रंज की वजह बना देता है।113 वरना वास्तव में मारने और जिलानेवाला तो अल्लाह ही है, और तुम्हारी तमाम हरकतों पर वहीं निगरानी करनेवाला है।
113.अर्थात् ये बातें वास्तविकता पर आधारित नहीं हैं, सच तो यह है कि अल्लाह का फैसला किसी के टाले नहीं टल सकता, मगर जो लोग अल्लाह पर ईमान नहीं रखते और सब कुछ अपने प्रयत्नों और उपायों ही पर आश्रित समझते हैं उनके लिए इस प्रकार के अनुमान बस आरजू की निशानी बनकर रह जाते हैं और वे हाथ मलते रह जाते हैं कि काश ! यूँ होता तो यह हो जाता।
وَلَئِن قُتِلۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوۡ مُتُّمۡ لَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَحۡمَةٌ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 156
(157) अगर तुम अल्लाह की राह में मारे जाओ या मर जाओ तो अल्लाह की जो दयालुता और क्षमादान तुम्हारे हिस्से में आएगा, वह उन सारी चीज़ों से ज़्यादा बेहतर है जिन्हें ये लोग जमा करते हैं।
وَلَئِن مُّتُّمۡ أَوۡ قُتِلۡتُمۡ لَإِلَى ٱللَّهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 157
(158) और चाहे तुम मरो या मारे जाओ, बहरहाल तुम सबको सिमटकर जाना अल्लाह ही की ओर है।
فَبِمَا رَحۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ وَشَاوِرۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَوَكِّلِينَ ۝ 158
(159) (ऐ पैग़म्बर !) यह अल्लाह की बड़ी कृपा है कि तुम इन लोगों के प्रति बहुत विनम्र स्वभाव हो, अन्यथा अगर कहीं तुम कठोर स्वभाव और पत्थर दिल होते तो ये सब तुम्हारे आस-पास से छंट जाते। इनके कुसूर क्षमा कर दो, इनके लिए 'मग़ाफ़िरत' (क्षमा की दुआ) करो और दीन के काम में इनको भी मशविरे में शरीक रखो, फिर जब तुम किसी राय पर जम जाओ और निश्चय कर लो तो अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह को वे लोग पसन्द हैं जो उसी के भरोसे पर काम करते हैं।
إِن يَنصُرۡكُمُ ٱللَّهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمۡۖ وَإِن يَخۡذُلۡكُمۡ فَمَن ذَا ٱلَّذِي يَنصُرُكُم مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 159
(160) अल्लाह तुम्हारी मदद पर हो तो कोई ताक़त तुमपर ग़ालिब आनेवाली नहीं और वह तुम्हें छोड़ देगा, तो उसके बाद कौन है जो तुम्हारी सहायता कर सकता हो? तो जो सच्चे ईमानवाले हैं उनको अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ وَمَن يَغۡلُلۡ يَأۡتِ بِمَا غَلَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 160
(161) किसी नबी का यह काम नहीं हो सकता कि वह खियानत (धोखा) कर जाए114- और जो कोई खियानत करे तो वह अपनी खियानत समेत क़ियामत के दिन हाज़िर हो जाएगा, फिर हर प्राणी को उसकी कमाई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा और किसी पर कुछ ज़ुल्म न होगा!
114.जिन तीरंदाज़ों को नबी (सल्ल.) ने पीछे की सुरक्षा के लिए बिठाया था, उन्होंने जब देखा कि दुश्मन को फ़ौज लूटी जा रही है तो उनको आशंका हुई कि कहीं सारी गनीमत (युद्ध में प्राप्त माल) उन्हीं लोगों को न मिल जाए जो उसे लूट रहे हैं और हम वितरण के समय वंचित हो जाएँ। इसी कारण उन्होंने अपनी जगह छोड़ दी थी। लड़ाई समाप्त होने के बाद जब नबी (सल्ल.) मदीना वापस तशरीफ़ ले आए तो आपने उन लोगों को बुलाकर इस नाफ़रमानी का कारण मालूम किया तो उन्होंने जवाब में कुछ कारण बताए जो बड़े कमज़ोर थे। इसपर हुजूर (सल्ल.) ने फरमाया,"असल बात यह है कि तुमको हमपर विश्वास न था, तुमने यह सोचा कि हम तुम्हारे साथ धोखा (ख्रियानत) करेंगे और तुमको हिस्सा नहीं देंगे।" इस आयत का संकेत इसी मामले की ओर है। अल्लाह के कथन का अर्थ यह है कि जब तुम्हारी सेना का कमांडर स्वयं अल्लाह का नबी था और सारे मामले उसके हाथ में थे, तो तुम्हारे मन में यह आशंका कैसे पैदा हुई कि नबी के हाथ में तुम्हारा हित सुरक्षित न होगा। क्या अल्लाह के पैग़म्बर से यह आशा रखते हो कि जो माल उसकी निगरानी में हो वह ईमानदारी और न्याय के सिवा किसी और तरीक़े से भी वितरित हो सकता है।
أَفَمَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِ كَمَنۢ بَآءَ بِسَخَطٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 161
(162)-भला यह कैसे हो सकता है कि जो व्यक्ति सदैव अल्लाह की प्रसन्नता पर चलनेवाला हो वह उस व्यक्ति जैसा काम करे जो अल्लाह के प्रकोप में घिर गया हो और जिसका अन्तिम ठिकाना जहन्नम हो, जो सबसे बुरा ठिकाना है?
هُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 162
(163) अल्लाह के नज़दीक दोनों प्रकार के व्यक्तियों में कई दों का अन्तर है और अल्लाह सबके कर्मों पर नज़र रखता है।
لَقَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ بَعَثَ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 163
(164) वास्तव में ईमानवालों पर तो अल्लाह ने यह बहुत बड़ा उपकार किया है कि उनके बीच स्वयं उन्हीं में से एक ऐसा पैग़म्बर उठाया जो उसको आयते उन्हें सुनाता है, उनकी जिन्दगियों को संवारता है और उनको किताब और गहरी समझ की शिक्षा देता है, हालाँकि इससे पहले यही लोग खुली गुमराहियों में पड़े हुए थे।
أَوَلَمَّآ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَدۡ أَصَبۡتُم مِّثۡلَيۡهَا قُلۡتُمۡ أَنَّىٰ هَٰذَاۖ قُلۡ هُوَ مِنۡ عِندِ أَنفُسِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 164
(165) और यह तुम्हारा क्या हाल है कि जब तुमपर मुसीबत आ पड़ी तो तुम कहने लगे, यह कहाँ से आई?115हालाँकि (बद्र की लड़ाई में) इससे दुगुनी मुसीबत तुम्हारे हाथों (विरोधी पक्ष पर) पड़ चुकी है।116 ऐ नबी ! इनसे कहो, यह मुसीबत तुम्हारी अपनी लाई हुई है,117 अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है। 118
115.वरिष्ठ सहाबा तो निश्चित रूप से वास्तविकता समझते थे और किसी भ्रम में न पड़ सकते थे, मगर आम मुसलमान यह समझ रहे थे कि जब अल्लाह का रसूल (सल्ल.) हमारे बीच मौजूद है और अल्लाह का समर्थन और उसकी सहायता हमारे साथ है तो किसी हाल में शत्रु हमपर विजयी नहीं हो सकते । इसलिए जब उहुद में उनकी हार हुई तो उनकी आशाओं को बड़ा आघात पहुँचा और उन्होंने स्तब्ध होकर पूछना शुरू किया कि यह क्या हुआ? हम अल्लाह के दीन (धर्म) के लिए लड़ने गए, उसकी सहायता का वादा हमारे साथ था, उसका रसूल स्वयं लड़ाई के मैदान में मौजूद था और फिर भी हम हार गए? और हारे भी उनसे जो अल्लाह के दीन को मिटाने आए थे? ये आयतें इसी विस्मय को दूर करने के लिए अवतरित हुई।
116.उहुद की लड़ाई में मुसलमानों के 70 आदमी शहीद हुए। इसके विपरीत बद्र की लड़ाई में दुश्मन के 70 आदमी मुसलमानों के हाथों मारे गए थे और 70 आदमी गिरफ्तार होकर आए थे।
وَمَآ أَصَٰبَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 165
(166, 167) जो हानि लड़ाई के दिन तुम्हें पहुँची वह अल्लाह की अनुमति से थी और इसलिए थी कि अल्लाह देख ले कि तुममें से ईमानवाला कौन है और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) कौन? वे मुनाफ़िक़ कि जब उनसे कहा गया, “आओ, अल्लाह की राह में युद्ध करो या कम-से-कम (अपने नगर की) रक्षा ही करो,” तो कहने लगे, "अगर हमें मालूम होता कि आज युद्ध होगा तो हम अवश्य तुम्हारे साथ चलते ।”119 यह बात जब वे कह रहे थे उस समय वे ईमान की अपेक्षा कुफ़ (अधर्म) से ज़्यादा क़रीब थे। वे अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होती, और जो कुछ वे दिलों में छिपाते हैं अल्लाह उसे खूब जानता है। है,120 अपने रख के पास रोजी पा रहे हैं,
119.अब्दुल्लाह बिन उबई जब तीन सौ मुनाफिकों (पाखंडियों) को अपने साथ लेकर रास्ते से पलटने लगा तो कुछ मुसलमानों ने जाकर उसे समझाने की कोशिश को और साथ चलने के लिए तैयार करना चाहा, तो उसने जवाब दिया कि हमें विश्वास है कि आज लड़ाई नहीं होगी, इसलिए हम जा रहे हैं, अगर हमें उम्मीद होती कि आज लड़ाई होगी तो हम अवश्य तुम्हारे साथ चलते।
120.व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (अल बक़रा),टिप्पणी न० 155
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ نَافَقُواْۚ وَقِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ قَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوِ ٱدۡفَعُواْۖ قَالُواْ لَوۡ نَعۡلَمُ قِتَالٗا لَّٱتَّبَعۡنَٰكُمۡۗ هُمۡ لِلۡكُفۡرِ يَوۡمَئِذٍ أَقۡرَبُ مِنۡهُمۡ لِلۡإِيمَٰنِۚ يَقُولُونَ بِأَفۡوَٰهِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يَكۡتُمُونَ ۝ 166
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ٱلَّذِينَ قَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ وَقَعَدُواْ لَوۡ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُواْۗ قُلۡ فَٱدۡرَءُواْ عَنۡ أَنفُسِكُمُ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 167
(168) ये वही लोग हैं जो स्वयं तो बैठे रहे और उनके जो भाई-बन्धु लड़ने गए और मारे गए, उनके बारे में उन्होंने कह दिया कि अगर वे हमारी बात मान लेते तो न मारे जाते। इनसे कहो कि अगर तुम अपनी इस बात में सच्चे हो तो स्वयं तुम्हारी मौत जब आए उसे टालकर दिखा देना।
وَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتَۢاۚ بَلۡ أَحۡيَآءٌ عِندَ رَبِّهِمۡ يُرۡزَقُونَ ۝ 168
(169) जो लोग अल्लाह की राह में क़त्ल हुए हैं उन्हें मुर्दा न समझो, वे तो वास्तव में ज़िन्दा है,120 अपने रख के पास रोजी पा रहे हैं,
120.व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (अल बक़रा),टिप्पणी न० 155
فَرِحِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَيَسۡتَبۡشِرُونَ بِٱلَّذِينَ لَمۡ يَلۡحَقُواْ بِهِم مِّنۡ خَلۡفِهِمۡ أَلَّا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 169
(170) जो कुछ अल्लाह ने अपनी कृपा से उन्हें दिया उसपर प्रसन्न और आनंदित है,121 "और सन्तुष्ट है कि जो ईमानवाले उनके पीछे दुनिया में रह गए हैं और अभी वहाँ नहीं पहुंचे हैं, उनके लिए भी किसी भय और रंज का अवसर नहीं है ।
121.हदीस संग्रह “मुस्नद अहमद" में नबी (सल्ल.) का एक फरमान है, जिसमें है कि जो व्यक्ति सत्कर्म लेकर दुनिया से जाता है उसे अल्लाह के यहाँ इतना आनन्दमय और सरस जीवन मिलता है जिसके बाद वह कभी दुनिया में वापस आने की तमन्ना नहीं करता मगर शहीद इससे अलग है। वह तमन्ना करता है कि फिर दुनिया में भेजा जाए और फिर उस रसास्वादन, सुखानुभूति और आंनद प्राप्त करे जो अल्लाह के रास्ते में जान देते समय उसे प्राप्त हुआ है।
۞يَسۡتَبۡشِرُونَ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 170
(171) वे अल्लाह के पुरस्कार और उसकी कृपा पर आनंदित और प्रसन्न हैं और उनको मालूम हो चुका है कि अल्लाह ईमानवालों के प्रतिफल को नष्ट नहीं करता
ٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡقَرۡحُۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ مِنۡهُمۡ وَٱتَّقَوۡاْ أَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 171
(172) (ऐसे ईमानवालों के बदले को) जिन्होंने धाव खाने के बाद भी अल्लाह और रसूल की पुकार को स्वीकार किया122 -उनमें जो लोग नेक और परहेज़गार है, उनके लिए बड़ा बदला है
122.उहुद की लड़ाई से पलटकर जब मुशरिक कई मंजिल दूर चले गए तो उन्हें होश आया और उन्होंने आपस में कहा कि यह हमने क्या हरकत की कि मुहम्मद (सल्ल.) की शक्ति को तोड़ देने का जो मूल्यवान अवसर मिला था उसे खोकर चले आए। अत: एक जगह ठहरकर उन्होंने आपस में मशविरा किया कि मदोना पर तुरन्त ही दूसरा आक्रमण कर दिया जाए, लेकिन फिर हिम्मत न पड़ी और मक्का वापस चले गए। इधर नबी (सल्ल.) को भी यह आशंका थी कि ये लोग कहीं फिर न पलट आएँ। इसलिए उहुद की लड़ाई के दूसरे ही दिन आपने मुसलमानों को जमा करके फ़रमाया कि शत्रुओं का पीछा करने के लिए चलना चाहिए। यह यद्यपि बड़ी नाजुक घड़ी थी, लेकिन फिर भी जो सच्चे ईमानवाले थे, वे जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो गए और नबी (सल्ल.) के साथ हमरा-उल-असद तक गए जो मदीना से 8 मील को दूरी पर स्थित है। इस आयत का इशारा इन्हीं फ़िदाकारों की ओर है।
ٱلَّذِينَ قَالَ لَهُمُ ٱلنَّاسُ إِنَّ ٱلنَّاسَ قَدۡ جَمَعُواْ لَكُمۡ فَٱخۡشَوۡهُمۡ فَزَادَهُمۡ إِيمَٰنٗا وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ وَنِعۡمَ ٱلۡوَكِيلُ ۝ 172
(173) जिनसे123 लोगों ने कहा कि "तुम्हारे विरुद्ध बड़ी फ़ौजे जमा हुई हैं, उनसे डरो", तो यह सुनकर उनका ईमान और बढ़ गया और उन्होंने जवाब दिया कि “हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वही सबसे अच्छा कार्य-साधक है।"
فَٱنقَلَبُواْ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ لَّمۡ يَمۡسَسۡهُمۡ سُوٓءٞ وَٱتَّبَعُواْ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَظِيمٍ ۝ 173
(174) अन्तत: वे अल्लाह की नेमत और दयालुता के साथ पलट आए, उनको किसी प्रकार की हानि भी न पहुँची और अल्लाह की प्रसन्नता पर चलने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त हो गया, अल्लाह बड़ा अनुग्रह करनेवाला है।
إِنَّمَا ذَٰلِكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ يُخَوِّفُ أَوۡلِيَآءَهُۥ فَلَا تَخَافُوهُمۡ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 174
(175) अब तुम्हें मालूम हो गया कि वह वास्तव में शैतान था जो अपने दोस्तों से अकारण डरा रहा था, इसलिए आगे तुम इंसानों से न डरना, मुझसे डरना अगर तुम वास्तव में ईमानवाले हो।124
124.उहुद से वापस होते समय अबू सुफ़ियान मुसलमानों को चुनौती दे गया था कि अगले साल बद्र में हमारा-तुम्हारा फिर मुक़ाबला होगा, मगर जब वादे का वक़्त क़रीब आया तो उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया, क्योंकि उस साल मक्का में अकाल पड़ा था। इसलिए उसने पहलू बचाने के लिए यह उपाय किया कि खुफ़िया तौर पर एक आदमी को भेजा जिसने मदीना पहुँचकर मुसलमानों में ये खबरें फैलानी शुरू कीं कि अबके साल कुरैश ने बड़ी ज़बरदस्त तैयारी की है और ऐसी भारी फौज जमा कर रहे हैं जिसका मुक़ाबला तमाम अरब में कोई न कर सकेगा। इससे उद्देश्य यह था कि मुसलमान भयभीत होकर अपनी जगह रह जाएँ और मुक़ाबले पर न आने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर रहे। अबू सुफियान की इस चाल का यह असर हुआ कि जब हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने बद्र की ओर चलने के लिए मुसलमानों से अपील की तो उसका कोई उत्साहवर्द्धक उत्तर न मिला। अन्ततः अल्लाह के रसूल ने तमाम लोगों के सामने एलान कर दिया कि आगर कोई न जाएगा तो मैं अकेला जाऊँगा । इसपर 1500 फ़िदाकार आपके साथ चलने के लिए तैयार हो गए और आप इन्हीं को लेकर बद्र तशरीफ़ ले गए। उधर से अबू सुफ़ियान दो हज़ार को टुकड़ो लेकर चला, किन्तु दो दिन तक चलते रहने के बाद उसने अपने साथियों से कहा कि इस वर्ष लड़ना उचित नहीं मालूम होता, अगले वर्ष आएँगे। अतः वह और उसके साथी वापस हो गए। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) आठ दिन तक बद्र नामी जगह पर उसके इन्तिज़ार में ठहरे रहे और इस बीच आपके साथियों ने एक व्यापारी काफि़ले से कारोबार करके खूब आर्थिक लाभ कमाया, फिर जब यह ख़बर मिल गई कि दुश्मन वापस चले गए तो आप मदीना वापस तशरीफ़ ले आए।
وَلَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِۚ إِنَّهُمۡ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ يُرِيدُ ٱللَّهُ أَلَّا يَجۡعَلَ لَهُمۡ حَظّٗا فِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 175
(176) (ऐ पैगम्बर !) जो लोग आज इंकार के रास्ते में बड़ी दौड़-धूप कर रहे है उनकी गतिविधियाँ तुम्हें दुखी न करे, ये अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। अल्लाह का इरादा यह है कि उनके लिए परलोक (आखिरत) में कोई हिस्सा न रखे, और अन्तत: उनको कठोर सज़ा मिलनेवाली है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 176
(177) जो लोग ईमान को छोड़कर कुफ़ (इंकार) के ग्राहक बने हुए हैं, वे निश्चय ही अल्लाह को कोई हानि नहीं पहुंचा रहे हैं, उनके लिए दुखद यातना (अज़ाब) तैयार है।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ خَيۡرٞ لِّأَنفُسِهِمۡۚ إِنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِثۡمٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 177
(178) यह ढील जो हम उन्हें दिए जाते हैं उसको ये विधर्मी अपने हक में अच्छा न समझें, हम तो इन्हें इसलिए ढील दे रहे है कि ये खूब पाप-भार समेट लें, फिर उनके लिए अत्यन्त अपमानजनक कठोर सज़ा है।
مَّا كَانَ ٱللَّهُ لِيَذَرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَىٰ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ حَتَّىٰ يَمِيزَ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُطۡلِعَكُمۡ عَلَى ٱلۡغَيۡبِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَجۡتَبِي مِن رُّسُلِهِۦ مَن يَشَآءُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَلَكُمۡ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 178
(179) अल्लाह ईमानवालों को इस हालत में कदापि न रहने देगा जिसमें तुम लोग इस समय पाए जाते हो125, वह पवित्र लोगो को अपवित्र लोगों से अलग करके रहेगा। परन्तु अल्लाह का यह तरीका नहीं है कि तुम लोगों को रौब (परोक्ष) की सूचना दे।126 (रौब की बातें बताने के बारे में तो) वह अपने रसूलों में से जिसको चाहता है चुन लेता है, इसलिए (रौब की बातों के बारे में) अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखो। अगर तुम ईमान और परहेज़गारी की नीति पर चलोगे तो तुमको बड़ा बदला मिलेगा।
126.अर्थात् ईमानवाले और मुनाफ़िक की पहचान करने के लिए अल्लाह यह तरीका नहीं अपनाया करता कि रौब (परोक्ष) से मुसलमानों को दिलों का हाल बता दे कि फला ईमानवाला है और फलाँ मुनाफ़िक़, बल्कि
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ هُوَ خَيۡرٗا لَّهُمۖ بَلۡ هُوَ شَرّٞ لَّهُمۡۖ سَيُطَوَّقُونَ مَا بَخِلُواْ بِهِۦ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 179
(180) जिन लोगों पर अल्लाह ने अपनी कृपा की है और फिर वे कंजूसी से काम लेते हैं, वे यह न समझे कि यह कंजूसी उनके लिए अच्छी है। नहीं, यह उनके लिए बहुत ही बुरी है। जो वे अपनी कंजूसी से जमा कर रहे हैं वहीं कियामत के दिन उनके गले का तौक़ बन जाएगा। जमीन और आसमानों की मीरास अल्लाह ही के लिए है127, और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसे जानता है।
127.अर्थात् ज़मीन और आसमान की जो चीज़ भी कोई प्राणी उपभोग में ला रहा है, वह वास्तव में अल्लाह की मिल्कियत है और उसपर किसी प्राणी का कब्जा और उसका उपभोग अस्थायी है। हर एक को अपने क़ब्ज़े की चीज़ों से बहरहाल बेदखल होना है और अन्तत: सब कुछ अल्लाह ही के पास रह जानेवाला है। इसलिए बुद्धिमान है वह जो इस अस्थायी कब्जे के समय में अल्लाह के माल को अल्लाह की राह में दिल खोलकर खर्च करता है और बड़ा मूर्ख है वह जो उसे बचा-बचाकर रखने का यत्न करता है।
لَّقَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ فَقِيرٞ وَنَحۡنُ أَغۡنِيَآءُۘ سَنَكۡتُبُ مَا قَالُواْ وَقَتۡلَهُمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَنَقُولُ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 180
(181) अल्लाह ने उन लोगों की बात सुनी जो कहते हैं कि अल्लाह निर्धन है और हम धनी हैं।128 उनकी ये बाते भी हम लिख लेगे और इससे पहले जो वे पैग़म्बरों को नाहक क़त्ल करते रहे हैं वही उनके कर्म-पत्र में अंकित है। (जब निर्णय का समय आएगा, उस समय) उनसे कहेंगे कि लो, अब जहन्नम के अज़ाब का मज़ा चखो,
128.यह यहूदियों का कथन था। कुरआन मजीद में जब यह आयत (2 : 245) आई कि 'मन-जल्लज़ी युक़रि ज़ुल्ला-ह क़र्ज़न ह-स-नन' (अर्थात कौन है जो अल्लाह को अच्छा ऋण दे) तो उसका उपहास करते हुए यहूदियों ने कहना शुरू किया कि “जी हाँ, अल्लाह मियाँ निर्धन हो गए हैं, अब वे बन्दों से ऋण माँग रहे हैं।"
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّامٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 181
(182) ये तुम्हारे अपने हाथों की कमाई है, अल्लाह अपने बन्दों के लिए ज़ालिम नहीं है। उसके आदेश से ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सामने आएंगी जिनमें अनुभवों से ईमानवाले और मुनाफिक की दशा स्पष्ट हो जाएगी।
ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ عَهِدَ إِلَيۡنَآ أَلَّا نُؤۡمِنَ لِرَسُولٍ حَتَّىٰ يَأۡتِيَنَا بِقُرۡبَانٖ تَأۡكُلُهُ ٱلنَّارُۗ قُلۡ قَدۡ جَآءَكُمۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِي بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلَّذِي قُلۡتُمۡ فَلِمَ قَتَلۡتُمُوهُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 182
(183) जो लोग कहते हैं कि “अल्लाह ने हमको आदेश दे रखा है कि हम किसी को रसूल न मानें, जब तक वह हमारे सामने ऐसी कुरबानी न करे जिसे (रौब से आकर) आग खा ले।" उनसे कहो, "तुम्हारे पास मुझसे पहले बहुत से रसूल आ चुके हैं जो बहुत-सी स्पष्ट निशानियाँ लाए थे और वह निशानी भी लाए थे जिसका उल्लेख तुम करते हो, फिर अगर (ईमान लाने के लिए यह शर्त रखने में) तुम सच्चे हो तो उन रसूलों को तुमने क्यों क़त्ल किया?’’129
129.बाइबल में बुहत-सी जगहों पर यह उल्लेख हुआ है कि खुदा के यहाँ किसी कुरबानी (बलि) के क़बूल किए जाने की पहचान यह थी कि गैब से एक आग निकलकर उसे भस्म कर देती थी (न्यायियों 6 : 20-21 एवं 13 : 19-20) साथ ही यह उल्लेख भी बाइबल में आता है कि कुछ मौकों पर कोई नबी जलानेवाली कुरबानी (होमबलि) करता था; जिसमें एक गैबी आग कुरबानी किए गए पशु के मांस को आकर खा लेती थी। (लैव्यव्यवस्था 9 : 24, इतिहास दूसरा भाग तवारीख 7 : 1-2)। लेकिन यह किसी जगह भी नहीं लिखा कि इस तरह की कुरबानी नबी होने की कोई अनिवार्य निशानी है या यह कि जिस आदमी को यह चमत्कार (मोजज़ा) न दिया गया हो, वह कदापि नबो नहीं हो सकता। यह मात्र एक मनगढ़त बहाना था जो यहूदियों ने मुहम्मद (सल्ल.) के नबी होने का इंकार करने के लिए गढ़ लिया था, परन्तु इससे भी बढ़कर उनके सत्य से दुश्मनी का प्रमाण यह था कि खुद बनी इसराईल के नबियों में से कुछ नबी ऐसे गुज़रे हैं जिन्होंने आग की इस कुरबानी का चमत्कार प्रस्तुत किया और फिर भी ये जरायमपेशा लोग इनके क़त्‍ल से रुके नहीं। उदाहरण के रूप में बाइबल में हज़रत इलियास (एलिय्याह तिशबी) के बारे में लिखा है कि उन्होंने बअल के पुजारियों को चुनौती दी कि जनसभा में एक बैल की कुरबानी तुम करो और एक की क़ुरबानी मैं करता हूँ। जिसकी कुरबानी को गैबी (परोक्ष की) आग खा ले वही सत्य पर है। अतः एक भारी जनसभा के सामने यह मुक़ाबला हुआ और परोक्ष की आग ने हज़रत इलियास की कुरबानी खाई, लेकिन इसका जो कुछ नतीजा निकला वह यह था कि इसराईल के बादशाह की बअल की पुजारिन रानी हज़रत इलियास (अलैहि.) की शत्रु हो गई और वह औरतपरस्त बादशाह अपनी रानी के लिए उनके क़त्ल पर उतारू हुआ और उनको मजबूरन मुल्क से निकलकर सौना प्रायद्वीप के पहाड़ों में पनाह लेनी पड़ी (1-राजा, अध्याय 18-19) । इसी कारण कहा गया है कि सत्य के शत्रुओ। तुम किस मुंह से आग की क़ुरबानी का मोजज़ा (स्पष्ट प्रमाण) माँगते हो? जिन पैग़म्बरों ने यह मोज़ाजा (स्पष्ट चमत्कार) दिखाया था, उन्हीं के क़त्ल से तुम कब बाज़ रहे।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقَدۡ كُذِّبَ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ جَآءُو بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُنِيرِ ۝ 183
(184) अब ऐ नबी। अगर ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं तो बहुत-से रसूल तुमसे पहले झुठलाए जा चुके है, जो खुली-खुली निशानियाँ और सहीफ़े (ग्रंथ) और रौशनी देनेवाली किताबें लाए थे।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَإِنَّمَا تُوَفَّوۡنَ أُجُورَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ فَمَن زُحۡزِحَ عَنِ ٱلنَّارِ وَأُدۡخِلَ ٱلۡجَنَّةَ فَقَدۡ فَازَۗ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 184
(185) अन्तत: हर व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपना-अपना पूरा बदला क़ियामत के दिन पानेवाले हो । सफल वास्तव में वह है जो वहाँ दोज़ख़ की आग से बच जाए और जन्नत में दाखिल कर दिया जाए। रही यह दुनिया, तो यह मात्र बाह्य धोखे की चीज़ है।130
130.अर्थात् इस दुनिया के जीवन में जो परिणाम सामने होते हैं, उन्हीं को अगर कोई व्यक्ति वास्तविक और अन्तिम परिणाम समझ बैठे और उन्हीं को सत्य और असत्य और सफलता और असफलता के निर्णय का आधार रख ले, तो वास्तव में वह बड़े धोखे में पड़ जाएगा। यहाँ किसी पर नेमतों की वर्षा होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वही सत्य पर भी है और उसी को अल्लाह का सान्निध्य भी प्राप्त है। और इसी तरह यहाँ किसी का कष्टों और दुखों में ग्रस्त रहना भी अनिवार्य रूप से यह अर्थ नहीं रखता कि वह असत्य पर है और अल्लाह का ठुकराया हुआ है। अधिकतर इस आरंभिक मरहले के परिणाम उन अन्तिम परिणामों के विपरीत होते हैं जो शाश्वत जीवन के मरहले में पेश आनेवाले है,और असल महत्व उन्हीं परिणामों का है।
۞لَتُبۡلَوُنَّ فِيٓ أَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ وَلَتَسۡمَعُنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَذٗى كَثِيرٗاۚ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ذَٰلِكَ مِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 185
(186) मुसलमानो ! तुम्हें माल और जान दोनों की परीक्षाओं से गुज़रना ही पड़ेगा और तुम अहले किताब और मुशरिकों से बहुत-सी पीड़ादायक बातें सुनोगे। अगर इन सब परिस्थितियों में तुम धैर्य और धर्मपरायणता की नीति पर क़ायम रहो131 तो यह बड़े हौसले का काम है।
131.अर्थात् उनके व्यंग्यों, उनके आक्षेपों और उनकी अनर्गल बातों और उनके झूठे प्रोपेगण्डों के मुक़ाबले में अधीर होकर तुम ऐसी बातों पर न उतर आओ जो सच्चाई और न्याय, प्रतिष्ठा, सभ्यता तथा शालीनता के विपरीत हों।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهُۥ لِلنَّاسِ وَلَا تَكۡتُمُونَهُۥ فَنَبَذُوهُ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ وَٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَبِئۡسَ مَا يَشۡتَرُونَ ۝ 186
(187) इन अहले किताब को वह वचन भी याद दिलाओ जो अल्लाह ने उनसे लिया था कि तुम्हें किताब की शिक्षाओं को लोगों में फैलाना होगा, उन्हें छिपाकर रखना नहीं होगा।132 परन्तु उन्होंने किताब को पीठ पीछे डाल दिया और थोड़ी कीमत पर उसे बेच डाला। कितना बुरा कारोबार है जो ये कर रहे हैं ।
132.अर्थात् उन्हें यह तो याद रह गया कि कुछ पैग़म्बरों को आग में जलनेवाली कुरबानी प्रमाण स्वरूप दी गई थी, परन्तु यह याद न रहा कि अल्लाह ने अपनी किताब उनके सुपुर्द करते समय उनसे क्या वचन लिया था और किस महान सेवा की ज़िम्मेदारी उनपर डाली थी। यहाँ जिस वचन का उल्लेख किया गया है, उसका उल्लेख जगह-जगह बाइबल में मिलता है, मुख्य रूप से पुस्तक व्यवस्थाविवरण (5 : 4-9) में हज़रत मूसा (अलैहि.) का जो अन्तिम व्याख्यान दिया गया है, इसमें तो वे बार-बार बनी इसराईल से बचन लेते हैं कि जो आदेश मैंने तुमको पहुँचाए हैं, उन्हें अपने दिल में बिठा लेना, अपनी अगली नस्लों को सिखाना, घर बैठे और राह चलते और लेटते और उठते, हर समय उनकी चर्चा करना, अपने घर की चौखटों पर और अपने फाटकों पर उनको लिख देना। फिर अपनी अन्तिम वसीयत में उन्होंने ताकीद की कि फ़िलस्तीन की सीमा में दाखिल होने के बाद पहला काम यह करना कि एवाल पहाड़ पर बड़े-बड़े पत्थर लगा करके व्यवस्था (तौरात) के सारे वचनों को उनपर अंकित कर देना (व्यवस्थाविवरण 27 : 2-4) साथ ही मूसा ने लेवीय याजकों को व्यवस्था को एक प्रति देकर ताकीद की कि हर सातवें वर्ष तम्बूओं (झोपड़ियों) के पर्व के मौके पर कौम के मर्दो, औरतों, बच्चों सबको जगह-जगह जमा करके यह पूरी किताब शब्दशः उनको सुनाते रहना (व्यवस्थाविवरण 31 : 9-11), लेकिन इसपर भी अल्लाह की किताब से बनी इसराईल की सफ़लत धीरे-धीरे यहाँ तक बढ़ी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के सात सौ वर्ष बाद हैकले सुलैमानी के सज्जादानशीन (पीठासीन) और यरूशलम के यहूदी शासकों तक को यह मालूम न था कि उनके यहाँ तौरात नामी भी कोई किताब मौजूद है । (2- राजा 22 : 8-13)
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡرَحُونَ بِمَآ أَتَواْ وَّيُحِبُّونَ أَن يُحۡمَدُواْ بِمَا لَمۡ يَفۡعَلُواْ فَلَا تَحۡسَبَنَّهُم بِمَفَازَةٖ مِّنَ ٱلۡعَذَابِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 187
(188) तुम उन लोगों को अज़ाब (यातना) से सुरक्षित न समझो जो अपने करतूतों पर प्रसन्न हैं और चाहते हैं कि ऐसे कामों की प्रशंसा उन्हें प्राप्त हो जो वास्तव में उन्होंने नहीं किए हैं।133वास्तव में उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है।
133.उदाहरणतः वे अपनी प्रशंसा में यह सुनना चाहते हैं कि हज़रत बड़े परहेज़गार है, धर्मपरायण और पारसा हैं और धर्म-सेवक और ईश-विधान के समर्थक हैं, लोगों का सुधार करनेवाले और उनकी ज़िन्दगियों को पवित्र करनेवाले हैं, हालांकि ये कुछ भी नहीं हैं। ये अपने लिए यह ढिंढोरा पिटवाना चाहते हैं कि फ़लाँ साहब बड़े त्यागी और निष्ठावान और सत्यनिष्ठ मार्गदर्शक हैं और उन्होंने मिल्लत (समुदाय) को बड़ी सेवा की है, यद्यपि वस्तुस्थिति बिलकुल विपरीत है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 188
(189) ज़मीन और आसमानों का मालिक अल्लाह है, और सबपर उसे सामर्थ्य प्राप्त है।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 189
(190) ज़मीन134 और आसमानों की पैदाइश में और रात और दिन के बारी-बारी से आने में उन विवेकशील लोगों के लिए बहुत निशानियाँ हैं
134.व्याख्यान का यह अंत है। इसका संबंध ऊपर की करीबी आयतों में नहीं, बल्कि पूरी सूरा में खोजना चाहिए। इसको समझने के लिए मुख्य रूप से सूरा की भूमिका को नज़र में रखना जरूरी है।
ٱلَّذِينَ يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِهِمۡ وَيَتَفَكَّرُونَ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبَّنَا مَا خَلَقۡتَ هَٰذَا بَٰطِلٗا سُبۡحَٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 190
(191) जो उठते, बैठते और लेटते, हर हाल में अल्लाह को याद करते हैं और जमीन और आसमानों की बनावट में चिंतन-मनन करते हैं।135 (वे सहसा बोल उठते हैं) “पालनहार ! यह सब कुछ तूने व्यर्थ और निरुद्देश्य नहीं बनाया है, तू पाक है इससे कि बेकार काम करे। अत: ऐ रख ! हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा ले।136
135.अर्थात् इन निशानियों से हर आदमी आसानी के साथ सच्चाई तक पहुंच सकता है। बस शर्त यह है कि वह अल्लाह से गाफिल न हो और सृष्टि की निशानियों को जानवरों की तरह न देखे, बल्कि उनका अवलोकन सोच-विचार और चिंतन-मनन के साथ करे।
136.जब वे सृष्टि की व्यवस्था का ध्यानपूर्वक अवलोकन करते हैं तो यह वास्तविकता उनपर खुल जाती है कि यह पूर्णतः एक तत्त्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था है। और यह बात पूर्णतः तत्त्वदर्शिता के विपरीत है कि जिस प्राणी में अल्लाह ने नैतिक चेतना पैदा की हो, जिसे उपभोग के अधिकार दिए हों, जिसे बुद्धि और विवेक दिया हो,उससे उसके सांसारिक जीवन के कर्मों की पूछगच्छ न हो और उसे नेकी पर इनाम और बदी पर सज़ा न दी जाए। इस तरह सृष्टि-व्यवस्था पर सोच-विचार करने से उन्हें आख़िरत का यकीन हासिल हो जाता है और वे अल्लाह की सजा से पनाह माँगने लगते हैं।
رَبَّنَآ إِنَّكَ مَن تُدۡخِلِ ٱلنَّارَ فَقَدۡ أَخۡزَيۡتَهُۥۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 191
(192) तूने जिसे दोज़ख में डाला, उसे वास्तव में बड़ी ज़िल्लत व रुसवाई में डाल दिया, और फिर ऐसे जालिमों का कोई सहायक न होगा।
رَّبَّنَآ إِنَّنَا سَمِعۡنَا مُنَادِيٗا يُنَادِي لِلۡإِيمَٰنِ أَنۡ ءَامِنُواْ بِرَبِّكُمۡ فَـَٔامَنَّاۚ رَبَّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَكَفِّرۡ عَنَّا سَيِّـَٔاتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ ٱلۡأَبۡرَارِ ۝ 192
(193) मालिक ! हमने एक पुकारनेवाले को सुना जो ईमान की ओर बुलाता था और कहता था कि अपने रब को मानो। हमने उसके आह्वान (सन्देश) को स्वीकार कर लिया137 तो ऐ हमारे रब ! जो गलतियाँ हमसे हुई है उनको क्षमा कर दे, जो बुराइयाँ हममें हैं उन्हें दूर कर दे और हमारा अन्त नेक लोगों के साथ कर ।
137.इस प्रकार यहाँ अवलोकन उनको इस बात पर भी सन्तुष्ट कर देता है कि पैगम्बर इस सृष्टि और उसके आरंभ और अन्त के बारे में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं और ज़िन्दगी का जो रास्ता बताते हैं, वह पूर्णतः सत्य है।
رَبَّنَا وَءَاتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَىٰ رُسُلِكَ وَلَا تُخۡزِنَا يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ إِنَّكَ لَا تُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 193
(194) ऐ हमारे रब ! जो वादे तूने अपने रसूलो के माध्यम से किए है उनको हमारे साथ पूरा कर और कियामत के दिन हमे रुसवाई में न डाल निस्सन्देह तू अपने वादे के विपरीत करनेवाला नहीं है।‘138
138.अर्थात् उन्हें इस बात में तो सन्देह नहीं है कि अल्लाह अपने वादों को पूरा करेगा या नहीं। हाँ, यदि दुविधा है जो इस विषय में है कि क्या वे वादे हमपर चरितार्थ होंगे या नहीं, इसलिए वे अल्लाह से दुआ मांगते हैं कि हमें उन वादों के अनुसार इनाम पाने का पात्र बना दे। कहीं ऐसा न हो कि दुनिया में तो हम पैग़म्बरों पर ईमान लाकर इकारियों का उपहास और व्यंग्यों का निशाना बने हो हैं, कियामत में भी इन इंकारियों के सामने हमारी रुसवाई हो और वे हमपर फब्ती कसें कि ईमान लाकर भी इनका भला न हुआ।
فَٱسۡتَجَابَ لَهُمۡ رَبُّهُمۡ أَنِّي لَآ أُضِيعُ عَمَلَ عَٰمِلٖ مِّنكُم مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰۖ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۖ فَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَأُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأُوذُواْ فِي سَبِيلِي وَقَٰتَلُواْ وَقُتِلُواْ لَأُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ ثَوَابٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلثَّوَابِ ۝ 194
(195) जवाब में उनके रब ने फरमाया मैं तुममें से किसी का कर्म नष्ट करनेवाला नहीं हूँ। चाहे मर्द हो या औरत तुम सब आपस में एक-दूसरे के सहजाति हो,139 इसलिए जिन लोगों ने मेरे लिए अपने वतन छोड़े और जो मेरी राह में अपने घरों से निकाले गए और सताए गए और मेरे लिए लड़े और मारे गए, उनके सब कुसूर मैं माफ़ कर दूंगा और उन्हें ऐसे बागों में दाखि़ल करूंगा जिनके नीचे नहरे बहती होगी। यह उनकी जज़ा (इनाम) है अल्लाह के यहाँ, और बेहतरीन जज़ा अल्लाह ही के पास है।140
139.अर्थात् तुम सब इंसान हो और मेरो दृष्टि में बराबर हो। मेरे यहाँ यह प्रथा नहीं है कि औरत और मर्द, स्वामी और दास, काले और गोरे, ऊंच और नीच के लिए न्याय के नियम और फैसले को कसौटी अलग-अलग हों।
140. उल्लिखित है कि कुछ गैर-मुस्लिम नबी (सल्ल.) के पास आए और कहा कि भूसा लाठी और यदे बैज़ा (चमकता स्खेत हाप) लाए थे। ईसा (अलैहि.) अंधे को आँखोंचाला और कोड़ियों को अच्छा करते थे। दूसरे पैराम्बर भी कुछ-न-कुछ मोजजे (चमत्कार) लाए थे। आप बताएं कि आप क्या लाए हैं इसपर आपने आयत 190 से यहाँ तक की आयतें पढ़ीं और उनसे कहा, "मैं तो यह लाया हूँ।"
لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 195
(196) ऐ नबी । दुनिया के देशों में अल्लाह के नाफरमान लोगों की चलत फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ ثُمَّ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 196
(197) यह केवल कुछ दिनों के जीवन का थोड़ा-सा आनन्द है, फिर ये सब जहन्नम में जाएंगे, जो सबसे बुरा ठिकाना है।
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا نُزُلٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۗ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّلۡأَبۡرَارِ ۝ 197
(198) इसके विपरीत जो लोग अपने रब से डरते हुए जीवन बिताते हैं उनके लिए ऐसे बारा है जिनके नीचे नहरें बहती हैं, इन बातों में वे हमेशा रहेगे, अल्लाह की ओर से यह मेहमानी का सामान है उनके लिए, और जो कुछ अल्लाह के पास है लेक लोगों के लिए वहीं सबसे अच्छा है।
وَإِنَّ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَمَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِمۡ خَٰشِعِينَ لِلَّهِ لَا يَشۡتَرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 198
(199) अहले किताब में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह को मानते हैं, इस किताब पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी ओर भेजी गई है और उस किताब पर भी ईमान रखते हैं जो इससे पहले खुद उनकी ओर भेजी गई थी। अल्लाह के आगे झुके हुए हैं, और अल्लाह की आयतों को थोड़ी-सी कीमत पर बेच नहीं देते। उनका अज्र (बदला) उनके रख के पास है, और अल्लाह हिसाब चुकाने में देर नहीं लगाता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱصۡبِرُواْ وَصَابِرُواْ وَرَابِطُواْ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 199
(200) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, सब से काम लो, असत्यवादियों के मुकाबले में जमे रहो141, सत्य की सेवा के लिए कमर कसे रहो, और अल्लाह से डरते रहो, आशा है कि सफलता प्राप्त करोगे।
141.मूल अरबी में 'साबिरू' शब्द आया है। इसके दो अर्थ हैं, एक यह कि शत्रु अपने शत्रुता पर जो मज़बूती दिखा रहे हैं और उसको ऊँचा रखने के लिए जो तकलीफें उठा रहे हैं, तुम उनके मुक़ाबले में उनसे बढ़कर मज़बूती दिखाओ। दूसरे यह कि उनके मुकाबले में एक दूसरे से बढ़कर मजबूती दिखाओ।