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سُورَةُ الكَافِرُونَ

109. अल-काफ़िरून

(मक्का में उतरी—आयतें 6)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'क़ुल या अय्युहल-काफ़िरून' (कह दो कि ऐ इंकार करनेवालो) के शब्द 'अल-काफ़िरून' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) आदि कहते हैं कि यह सूरा मक्की है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) कहते हैं कि यह मदनी है। लेकिन आम तौर से सभी टीकाकारों के नज़दीक यह मक्की सूरा है और इसका विषय स्वयं इसके मक्की होने का प्रमाण जुटा रहा है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मक्का मुअज़्ज़मा में एक दौर ऐसा गुज़रा है जब नबी (सल्ल०) की इस्लामी दावत के विरुद्ध क़ुरैश के बहुदेववादी समाज में विरोध का तूफ़ान तो उठ चुका था, लेकिन अभी क़ुरैश के सरदार इस बात से बिल्कुल निराश नहीं हुए थे कि नबी (सल्ल०) को किसी न किसी तरह समझौते पर तैयार किया जा सकेगा। इसलिए कभी-कभी वे आप (सल्ल०) के पास समझौते के विभिन्न प्रस्ताव ले-लेकर आते रहते थे, ताकि आप उनमें से किसी को मान लें और वह झगड़ा समाप्त हो जाए जो आपके और उनके बीच पैदा हो चुका था। इस सिलसिले की बहुत सी रिवायतें हदीसों में उद्धृत की गई हैं।

[किसी रिवायत में क़ुरैश की इस पेशकश का उल्लेख है कि] "हम आपको इतना माल दिए देते हैं कि आप मक्का के सबसे अधिक धनवान आदमी बन जाएँ। आप जिस औरत को पसन्द करें, उससे आपका विवाह किए देते हैं। हम आपके पीछे चलने के लिए तैयार हैं, आप बस हमारी यह बात मान लें कि हमारे उपास्यों का खण्डन करने से रुक जाएँ।" [किसी में उनका यह प्रस्ताव उल्लिखित है कि] एक साल आप हमारे उपास्यों- लात और उज़्ज़ा की इबादत करें और एक साल हम आपके उपास्य की इबादत करें। इसपर यह सूरा उतरी।

विषय और वार्ता

इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो मालूम होता है कि यह सूरा धार्मिक उदारता का उपदेश देने के लिए नहीं उतरी थी, [ यानी इसलिए नहीं उतरी थी कि प्रचलित समस्त धर्मों को इस बात का प्रमाणपत्र दे दिया जाए कि वे अपनी-अपनी जगह पर सत्य हैं।] जैसा कि आजकल के कुछ लोग समझते हैं, बल्कि यह सूरा इसलिए उतरी थी कि विधर्मियों के धर्म और उनके पूजा-पाठ और उनके उपास्यों से पूर्ण अलगाव, विमुखता और बे-ताल्लुक़ी का एलान कर दिया जाए और उन्हें बता दिया जाए कि कुफ़्र और दीने-इस्लाम एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दीन है। उनके आपस में मिल जाने का सिरे से कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता। यह बात यद्यपि आरंभ में क़ुरैश के विधर्मियों को सम्बोधित करके समझौते के उनके प्रस्ताव के उत्तर में कही गई थी, लेकिन यह उन्हीं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे क़ुरआन में अंकित करके तमाम मुसलमानों को क़ियामत तक के लिए यह शिक्षा दे दी गई है कि कुफ़्र जहाँ जिस शक्ल में भी है उन्हें कथनी और करनी दोनों से अलगाव प्रकट करना चाहिए।

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दृष्टि में इस सूरा का क्या महत्त्व था, इसका अनुमान नीचे की कुछ हदीसों से किया जा सकता है।

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि मैंने कितनी ही बार नबी (सल्ल०) को फ़ज्र की नमाज़ से पहले और मग़रिब की नमाज़ के बाद की दो रक्अतों में 'सूरा-काफ़िरून' और 'सूरा इख़्लास' पढ़ते देखा है। हज़रत खब्बाव (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने मुझसे फ़रमाया कि जब तुम सोने के लिए अपने बिस्तर पर लेटो तो 'सूरा-काफ़िरून' पढ़ लिया करो, और नबी (सल्ल०) का भी यही तरीक़ा था कि जब आप सोने के लिए लेटते तो यह सूरा पढ़ लिया करते थे। (हदीस बज़्ज़ार, तबरानी, इब्ने मर्दूया)

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سُورَةُ الكَافِرُونَ
109. अल-काफ़िरून
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡكَٰفِرُونَ
(1) कह दो कि ऐ इंकार करनेवालो!1
(1)अरबी शब्द 'कुल' (कह दो) के सर्वप्रथम सम्बोधित तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही हैं, मगर आदेश नबी (सल्ल०) के लिए खास नहीं है, बल्कि आपके माध्यम से हर ईमानवाले को पहुँचता है। II. मूल अरबी में शब्द काफ़िर' प्रयुक्त हुआ है। यह शब्द कोई गाली नहीं है जो इस आयत के सम्बोधित लोगों को दी गई हो, बल्कि अरबी भाषा में काफ़िर का अर्थ इंकार करनेवाले और न माननेवाले (Unbeliever) के हैं और इसके मुक़ाबले में 'मोमिन' का शब्द मान लेने और तस्लीम कर लेनेवाले (Believer) के लिए बोला जाता है इसलिए अल्लाह के आदेश से नबी (सल्ल0) का यह फ़रमाना कि 'ऐ काफ़िरो!' वास्तव में इस अर्थ में है कि "ऐ वे लोगों जिन्होंने मेरी पैग़म्बरी और मेरी लाई हुई शिक्षा को मानने से इंकार कर दिया है।" और इसी तरह एक मोमिन जब यह शब्द कहेगा तो इसका तात्पर्य मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान न लानेवाले होंगे। III. यहाँ इंकार करनेवालो (ऐ काफ़िरो) कहा है, 'ऐ शिर्क करनेवालो' नहीं कहा, इसलिए सम्बोधित केवल मुशरिक ही नहीं हैं, बल्कि वे सब लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल0) को अल्लाह का रसूल और आपकी लाई हुई शिक्षा और मार्गदर्शन को अल्लाह की शिक्षा और मार्गदर्शन नहीं मानते, भले ही वे यहूदी हों, ईसाई हों, मजूसी हों या दुनिया भर के काफ़िर व मुशरिक और अनीश्वरवादी हों। IV. इंकार करनेवालों को 'ऐ काफ़िरो' कहकर सम्बोधित करना बिल्कुल ऐसा हो है जैसे हम कुछ लोगों को 'ऐ दुश्मनो' या 'ऐ विरोधियों' कहकर सम्बोधित करें। इस तरह का सम्बोधन वास्तव में सम्बोधितों को जात से नहीं होता, बल्कि उनकी दुश्मनी और विरोध की नीति के आधार पर होता है और उसी समय तक के लिए होता है जब तक उनकी यह नीति बाक़ी रहे। और इसी तरह जिन लोगों को 'ऐ काफ़िरो' कहकर सम्बोधित किया गया है, वे भी उनके इंकार की नीति की दृष्टि से है, न कि उनकी निजी हैसियत से। उनमें से जो आदमी मरते दम तक काफिर रहे उसके लिए तो यह सम्बोधन हमेशा के लिए होगा, लेकिन जो आदमी ईमान ले आए, वह इसका सम्बोधत न रहेगा।
لَآ أَعۡبُدُ مَا تَعۡبُدُونَ ۝ 1
(2) मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो।2
2. इसमें वे सब उपास्य शामिल हैं जिनकी इबादत दुनिया भर के कुफ़्फ़ार और मुशरिक करते रहे हैं और कर रहे हैं। इसपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि अरब के मुशरिक अल्लाह तआला को भी तो उपास्य मानते थे और दुनिया के दूसरे मुशरिकों ने भी प्राचीन काल से आजतक अल्लाह तआला के उपास्य होने का इंकार नहीं किया है। रहे अहले-किताब, तो वे वास्तविक उपास्य तो अल्लाह ही को मानते हैं, फिर इन सब लोगों के तमाम उपास्यों की इबादत से किसी अपवाद के बिना उपास्यों से विरक्त होने का एलान कैसे सही हो सकता है, जबकि अल्लाह भी उनमें शामिल है? इसका उत्तर यह है कि अल्लाह उपास्यों की भीड़ में से एक उपास्य नहीं, बल्कि वही एक अकेला उपास्य है। और इस भीड़ की इबादत सिरे से अल्लाह की इबादत ही नहीं है, यद्यपि इसमें अल्लाह की इबादत भी शामिल हो। कुरआन मजीद में इस बात को साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि अल्लाह की इबादत केवल वह है जिसके साथ किसी दूसरे की इबादत का लेश मात्र भी न हो और जिसमें इंसान अपनी बन्दगी को बिल्कुल अल्लाह ही के लिए खालिस कर दे (उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-4 अन-निसा, आयत 145-146, सूरा-7 अल-आराफ, आयत 29; सूरा 39 अज-ज़ुमर, आयत 2, 3, 11, 14, 15: सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 14, 64 66; सूरा 98 अल-बैयिनह, आयत 5) अतएव वास्तव में अल्लाह को दो या तीन या बहुत से ख़ुदाओं में से एक क़रार देना और उसके साथ दूसरों की बन्दगी और पूजा करना हो तो वह वास्तविक इंकार है जिससे अपनी विरक्ति जाहिर करना इस सूरा का उद्देश्य है।
وَلَآ أَنتُمۡ عَٰبِدُونَ مَآ أَعۡبُدُ ۝ 2
(3) न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ,3
3. मूल अरबी शब्द हैं 'मा आबुद'। अरबी भाषा में 'मा' (जो, जिन) शब्द सामान्यतः निष्प्राण या बुद्धिहीन वस्तुओं के लिए प्रयुक्त होता है और बुद्धि रखनेवाली प्राणियों के लिए 'मन' (जो, जिन) का शब्द बोला जाता है। इस कारण यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ 'मन आयुदु' कहने के बजाय 'मा आबुदु' क्यों कहा गया है। इसके चार उत्तर आमतौर से टीकाकारों ने दिए हैं। ये चारों उत्तर यद्यपि एक-एक दृष्टि से सही हैं, मगर इनमें से किसी से भी वह मूल आशय स्पष्ट नहीं होता जिसके लिए 'मन आबुद' कहने के बजाय 'मा आबुदु' कहा गया है। वास्तव में अरबी भाषा में किसी व्यक्ति के लिए जब 'मन' शब्द बोला जाता है तो इसका अभिप्राय उसके अपने स्वयं के बारे में कुछ कहना या पूछना होता है और जब 'मा' शब्द प्रयुक्त होता है तो उसका अभिप्राय उसके गुणों के बारे में पूछना या विचार व्यक्त करना होता है। अतएव अगर इस आयत में यह कहा जाता कि 'ला अन्तुम आबिद्-न मन आबुद' तो इसका अर्थ यह होता है कि तुम उस हस्ती की इबादत करनेवाले नहीं हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ और इसके उत्तर में मुशरिक और कुफ़्फ़ार यह कह सकते थे कि अल्लाह की हस्ती को तो हम मानते हैं और उसकी इबादत भी हम करते हैं, लेकिन जब यह कहा गया कि 'ला अन्तुम आबिदू-न मा आबुद तो इसका अर्थ यह हुआ कि जिन गुणवाले ख़ुदा की मैं इबादत करता हूँ तुम उन गुणोंवाले ख़ुदा की इबादत करनेवाले नहीं हो। और यही वह असल बात है जिसके आधार पर नबी (सल्ल0) का दीन अल्लाह के इंकार करनेवालों के सिवा हर प्रकार के 'काफ़िरों' के दीन से निश्चित रूप से अलग हो जाता है, क्योंकि आप (सल्ल०) का ख़ुदा उन सबके ख़ुदा से बिल्कुल भिन्न है।
وَلَآ أَنَا۠ عَابِدٞ مَّا عَبَدتُّمۡ ۝ 3
(4) और न मैं उनकी इबादत करनेवाला हूँ जिनकी इबादत तुमने की है,
وَلَآ أَنتُمۡ عَٰبِدُونَ مَآ أَعۡبُدُ ۝ 4
(5) और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ4
4. प्रत्यक्ष में तो ये दोनों वाक्य पहले दो वाक्यों के विषय हो को दोहरा रहे हैं, [ लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है।] पहले वाक्य में फ़रमाया गया है कि "और न मैं उनकी उपासना करनेवाला हूँ जिनकी उपासना तुमने की है। इसका विषय आयत 2 के विषय से बिल्कुल अलग है जिसमें फ़रमाया गया था कि "मैं उनको उपासना नहीं करता जिनकी उपासना तुम करते हो।" इन दोनों बातों में दो हैसियतों से बहुत बड़ा अन्तर है। एक यह कि मैं फ़लाँ काम नहीं करता या नहीं करूंगा कहने में यद्यपि इंकार और ज़ोरदार इंकार है, लेकिन इससे बहुत ज़्यादा ज़ोर यह कहने में है कि मैं फ़लाँ काम करनेवाला नहीं है। क्योंकि इसका अर्थ यह है कि वह ऐसा बुरा काम है जिसे करना तो दूर की बात, उसका इरादा या विचार करना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। दूसरे यह कि 'जिनकी इबादत तुम करते हो' में केवल वे उपास्य आते हैं जिनकी इबादत काफ़िर अब कर रहे हैं। इसके विपरीत 'जिनको इबादत तुमने की है' में वे सब उपास्य आ जाते हैं जिनकी उपासना इससे पहले काफ़िरों ने और इनके बाप-दादा ने की है। अब यह एक ज्ञात तथ्य है कि कुफ़्फ़ार और मुशरिकों के उपास्यों में हमेशा परिवर्तन और कमी-बेशी होती रही है। अलग-अलग समयों में काफ़िर के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग उपास्यों को पूजते रहे हैं, और सारे काफ़िरों के उपास्य हमेशा और हर जगह एक ही नहीं रहे हैं। अतः आयत का अर्थ यह है कि मैं तुम्हारे आज के उपास्यों ही से नहीं, बल्कि तुम्हारे बाप-दादा के उपास्यों से भी बरी और विरक्त हैं, और मेरा यह काम नहीं है कि ऐसे उपास्यों की इबादत का विचार तक अपने मन में लाऊँ। रहा दूसरा वाक्य, तो यद्यपि आयत न०-5 में उसके शब्द वही है जो आपत 3 में हैं, लेकिन दोनों जगह उसका अर्थ अलग-अलग है। आयत 3 में वह इस वाक्य के बाद आया है कि मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो।" इसलिए इसका अर्थ यह है कि " और न तुम इन गुणों के एक मात्र उपास्य की इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत में करता हूँ।" और आयत 5 में वह इस वाक्य के बाद आया है कि" और न मैं उनको इबादत करनेवाला हूँ जिनकी इबादत तुमने की है। इसलिए इसका अर्थ यह है कि " और न तुम उस एक मात्र उपास्य की इबादत करनेवाले बनते नज़र आते हो जिसकी मैं इबादत करता हूँ।" या दूसरे शब्दों में मेरे लिए यह संभव नहीं है कि जिन-जिन को तुमने और तुम्हारे बाप-दादाओं ने पूजा है, उनका पुजारी बन जाऊँ और तुमको बहुत-से उपास्यों को बन्दगी छोड़कर एक ही उपास्य की इबादत करने से जो चिढ़ है, उसके आधार पर तुमसे यह आशा नहीं है कि अपनी इस गलत इबादत से रुक जाओगे और उसकी इबादत करनेवाले बन जाओगे जिसकी इबादत में करता हूँ।
لَكُمۡ دِينُكُمۡ وَلِيَ دِينِ ۝ 5
(6) तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) है और मेरे लिए मेरा दीन।5
5. अर्थात् मेरा दीन अलग है और तुम्हारा दीन अलग यह कुफ़्फ़ार को उदारता का सन्देश नहीं है, बल्कि जब तक वे काफ़िर हैं उनसे सदा के लिए अलगाव, विमुखता और वे ताल्लुकी का एलान है, और इससे अभिप्राय उनको इस बात से निश्चित और अन्तिम रूप से निराश कर देना है कि दीन के मामले में अल्लाह का रसूल और उसपर ईमान लानेवालों का गिरोह कभी उनसे कोई समझौता करेगा। अलगाव और बे-ताल्लुक़ी का यही एलान इस सूरा के बाद उतरनेवाली मक्की सूरतों में बार-बार किया गया है। चुनांचे सूरा-10 यूनुस (आयत 41) में फ़रमाया, "अगर ये तुझे झुठलाते हैं तो कह दो कि मेरा कर्म मेरे लिए है और तुम्हारा कर्म तुम्हारे लिए जो कुछ मैं करता हूँ, उसके दायित्व से तुम बरी हो और जो कुछ तुम कर रहे हो, उसके दायित्व से मैं बरी हूँ।" [इसके अलावा देखिए सूरा-10 यूनुस आयत 104 सूरा-26 अश शुअरा, आयत 261; सूरा-34 अस-सबा, आयत 25-26; सूरा-39 अज़-जुमर, आयत 39-40] फिर यही शिक्षा मदीना तैयबा में तमाम मुसलमानों को दी गई कि "तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौम से साफ कह दिया कि हम तुमसे और तुम्हारे उन उपास्यों से, जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो, निश्चित रूप से विरक्त हैं। हमने तुमसे कुछ किया और हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए दुश्मनी हो गई और वैर पड़ गया, जब तक कि तुम एक अल्लाह को न मान लो।" (सूरा-60 अल-मुस्तहिना, आयत 4) क़ुरआन मजीद की इन निरंतर व्याख्याओं से इस सन्देह की गुंजाइश तक नहीं रहती कि 'तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिए मेरा दीन है, का अर्थ यह है कि तुम अपने दीन पर क़ायम रहो और मुझे अपने दीन पर चलने दो, बल्कि यह उसी तरह की बात है जैसी सूरा 39 जुमर (आयत 14 ) में फ़रमाई गई कि "ऐ नबी इनसे कहो कि मैं तो अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसी की बन्दगी करूँगा, तुम उसे छोड़कर जिस जिसकी बन्दगी करना चाहो, करते रहो।"