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क्या पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी नहीं?

यह किताब अस्ल में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (1903-1979 ई.) के दो लेखों (इत्तिबाअ् व इताअते-रसूल' और 'रिसालत और उसके अह्काम) का हिन्दी तर्जमा है। ये लेख मौलाना के लेखों के उर्दू संग्रह तफ़हीमात, हिस्सा-1 में प्रकाशित हुए हैं। ये लेख उन्होंने सन् 1934 और 1935 ई. में उर्दू पत्रिका 'तर्जुमानुल-क़ुरआन' में कुछ लोगों के सवाल के जवाब में लिखे थे। सवाल पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी करने के बारे में था। मौलाना मौदूदी (रहमतुल्लाहि अलैह) ने बड़े ही प्रभावकारी ढंग से दलीलों के साथ उनका जवाब दिया। आज भी इस तरह के सवाल बहुत से लोगों के दिमाग़ों में आते हैं या दूसरे लोगों के ज़रिए पैदा किए जाते हैं और लोग उन सवालों की ज़ाहिरी शक्ल को देखकर मुतास्सिर हो जाते हैं कि अगर कोई आदमी ख़ुदा को एक मानता है और कुछ अच्छे काम भी करता है तो क्या उसके लिए पैग़म्बर पर ईमान लाना और उसकी फ़रमाँबरदारी ज़रूरी है? और अगर ज़रूरी है तो क्यों? इसलिए ज़रूरत महसूस की गई कि ऐसे क़ीमती लेखों का हिन्दी में तर्जमा प्रकाशित किया जाए।

हमारे रसूले-पाक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— 1. जो मुख़्तसर हो लेकिन उसमें कोई ज़रूरी बात न छूटे। 2. जिसमें जंचे-तुले हालात और आख़िरी हद तक सच्चे वाक़िआत दर्ज हों। 3. जिसकी ज़बान इतनी आसान और सुलझी हुई हो कि उसको छोटी उम्र के लड़के-लड़कियाँ और कम पढ़े-लिखे लोग भी आसानी से समझ सकें। 4. जो स्कूलों और मदरसों के कोर्स में शामिल की जा सके। 5. जिसकी रौशनी में माँ-बाप और उस्ताद (शिक्षक) अपने बच्चों और शागिर्दों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़िन्दगी के वाक़िआत को आसानी से याद करा सकें। 6. जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेहतरीन अख़लाक़ के अलग-अलग पहलुओं को दिल में उतर जानेवाले तरीक़े से ज़िक्र किया गया हो।

आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

अल्लाह तीन प्रकार से इन्सानों को संबोधित करता है:- 1.अन्तः प्रेरणा द्वारा जो अल्लाह धार्मिक व्यक्तियों के मन या मस्तिष्क में सुझाव या विचार के रूप में डाल देता है। 2.किसी पर्दे के पीछे से दृश्य या दर्शन के रूप में जब योग्यतम व्यक्ति नींद या आलमेजज़्ब (आत्मविस्मृति) में हो, और- 3. ईश्वरीय संदेशवाहक हज़रत जिब्रील द्वारा प्रत्यक्ष ईश्वरीय संदेश के साथ, जिन्हें ईश्वर के चुने दूत तक पहुँचाने के लिए अवतरित किया जाता है। (क़ुरआन 42 : 51) यह आख़िरी रूप उच्च कोटि का है और इसी रूप में क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित हुआ। यह सीमित है केवल ईश-दूतों तक, जिनमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अन्तिम हैं और ईश दूतत्व की अन्तिम कड़ी हैं।

जीवनी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम

इस किताब के अध्ययन से अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की प्रमुख झलकियाँ आपके सामने आएंगी और इस किताब को पढ़नेवाला ऐसा महसूस करेगा, जैसे वह ख़ुद उस दौर से गुज़र रहा है, जिस दौर से पैग़म्बरे इस्लाम गुज़रे हैं।सलामती और रहमत हो उस पाक नबी पर जिसने मानवता को दुनिया में रहने का सही ढंग और ख़ुदा तक पहुँचने का सच्चा मार्ग दिखाया। मुबारकबाद हो उन लोगों को जो स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मार्ग पर चलें और दुनिया को इस मार्ग पर चलने की दावत दें।

हदीस और सुन्नत - शरीअत के मूलस्रोत के रूप में (हदीस लेक्चर-3)

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी [ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

जगत्-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

अबू-ख़ालिद जगत-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दरअस्ल 'हादी-ए-आज़म (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)' (उर्दू) का नया हिन्दी तर्जमा है। 'हादी-ए-आज़म' किताब जनाब अबू-ख़ालिद साहब (एम॰ ए॰) ने ख़ास तौर पर बच्चों के लिए लिखी थी, जो बहुत ज़्यादा पसंद की गई और बहुत-से स्कूलों और मदरसों में यह किताब पढ़ाई जा रही है।

इल्मे-हदीस - आवश्यकता एवं महत्व (हदीस लेक्चर-2)

इल्मे-हदीस की आवश्यकता तथा इसके महत्व पर चर्चा दो शीर्षकों से की जा सकती है। एक शीर्षक जिसपर आज चर्चा करना मेरा उद्देश्य है, वह इल्मे-हदीस की आम ज़रूरत और इस्लामी ज्ञान एवं कला में विशेषकर तथा मानवीय चिंतन के क्षेत्र में आम तौर पर उसके महत्व का मामला है। दूसरा पहलू इस्लामी क़ानून और शरीअत के एक मूलस्रोत के रूप में हदीस और सुन्नत के महत्व एवं स्थान का है। इस्लाम का हर अनुयायी जानता है कि पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल मुसलमानों के लिए शरीअत (इस्लामी धर्म-विधान) और क़ानून बनाने का सर्वप्रथम तथा आरंभिक स्रोत है। सुन्नत पवित्र क़ुरआन के साथ शरीअत का स्रोत किस प्रकार है? किन मामलों में यह स्रोत है? इससे अहकाम (आदेश एवं निर्देश) कैसे निकाले जाते हैं? इसपर कुछ विस्तार से आगे चर्चा होगी।

हम ऐसी बनें!

अच्छी बात क़बूल करने का एक ज़रिया यह भी है कि चाहे ज़बान से कुछ न कहा जाए, क़लम से कुछ न लिखा जाए, लेकिन अच्छी बातों और अच्छे अख़लाक़ का नमूना सामने आ जाए, साथ ही इनसानियत की चलती-फिरती तस्वीरों में वह समा जाए तो यह नमूना बहुत असरदार होता है। कुछ महान महिलाओं (सहाबियात) के जीवन से उच्च नैतिकता के चंद उदाहरण पढिए इस किताब में

इस्लाम का नैतिक दृष्टिकोण

हम देख रहे हैं कि पूरे-पूरे राष्ट्र विस्तृत रूप से उन अति घृणित नैतिक अवगुणों का प्रदर्शन कर रहे हैं जिनको सदैव से मानवता की अन्तरात्मा अत्यन्त घृणास्पद समझती रही है। अन्याय, क्रूरता, निर्दयता, अत्याचार, झूट, छल-कपट, मिथ्या, भ्रष्टाचार, निर्लज्जता, वचन-भंग, काम-पूजा, बलात्कार और ऐसे ही अन्य अभियोग केवल व्यक्तिगत अभियोग नहीं रहे हैं अपितु राष्ट्रीय आचरण एवं नीति का रूप धारण कर चुके हैं। प्रत्येक राष्ट्र ने छाँट-छाँटकर अपने बड़े से बड़े अपराधियों को अपना लीडर और नेता बनाया है और बड़े से बड़ा पाप ऐसा नहीं रह गया है जो उनके नेतृत्व में अति निर्लज्जता के साथ बड़े पैमाने पर खुल्लम-खुल्ला न हो रहा हो। ईश्वर तथा मरणोत्तर जीवन के धार्मिक विश्वास पर जितनी नैतिक कल्पनायें स्थिर होती हैं उनके रूप में पूर्ण अवलम्बन उस विश्वास की प्रकृति पर होता है जो ईश्वर तथा मरणोत्तर जीवन के विषय में लोगों में पाया जाता है। अतएव हमें देखना चाहिये कि संसार इस समय ईश्वर को किस रूप में मान रहा है और मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में उसकी सामान्य धारणायें क्या हैं।

इस्लाम और सामाजिक न्याय

प्रत्येक मानवीय व्यवस्था कुछ समय तक चलने के बाद खोटी साबित हो जाती है और इनसान इससे मुँह फेरकर एक दूसरे मूर्खतापूर्ण प्रयोग की ओर क़दम बढ़ाने लगता है। वास्तविक न्याय केवल उसी व्यवस्था के अन्तर्गत हो सकता है जिस व्यवस्था को एक ऐसी हस्ती ने बनाया हो जो छिपे-खुले का पूर्ण ज्ञान रखती हो, हर प्रकार की त्रुटियों से पाक हो और महिमावान भी हो।

इस्लाम और अज्ञान

इन्सान इस संसार में अपने आपको मौजद पाता है। उसका एक शरीर है, जिसमें अनेक शक्तियां और ताक़तें हैं। उसके सामने ज़मीन और आसमान का एक अत्यन्त विशाल संसार है, जिसमें अनगिनत और असीम चीज़ें हैं और वह अपने अन्दर उन चीज़ों से काम लेने की ताक़त भी पाता है। उसके चारों ओर अनेक मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और पहाड़-पत्थर हैं। और इन सब से उसकी ज़िन्दगी जुड़ी हुई है। अब क्या आपकी समझ में यह बात आती है कि यह उनके साथ कोई व्यवहार संबंध स्थापित कर सकता है, जब तक कि पहले स्वयं अपने विषय में उन तमाम चीज़ों के बारे में और उनके साथ अपने संबंध के बारे में कोई राय क़ायम न कर ले।?

अहम हिदायतें (तहरीके इस्लामी के कारकुनों के लिए)

सबसे पहली चीज़ जिसकी हिदायत हमेशा से नबियों और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन और उम्मत के नेक लोग हर मौक़े पर अपने साथियों को देते रहे हैं, वह यह है कि वे अल्लाह की अवज्ञा से बचें, उसकी मुहब्बत दिल में बिठाएँ और उसके साथ ताल्लुक़ बढ़ाएँ। यह वह चीज़ है जिसको हर दूसरी चीज़ पर मुक़द्दम और सबसे ऊपर होना चाहिए। अक़ीदे (धारणाओं) में 'अल्लाह पर ईमान' मुक़द्दम और सबसे ऊपर है, इबादत में अल्लाह से दिल का लगाव मुक़द्दम है, अख़लाक़ में अल्लाह का डर सर्वोपरि है, मामलों (व्यवहारों) में अल्लाह की ख़ुशी की तलब सर्वोपरि।

इन्सान की आर्थिक समस्या और उसका इस्लामी हल

इंसान का आर्थिक मसला हमको यह नज़र आता है कि सभ्यता के विकास की रफ़्तार को क़ायम रखते हुए किस तरह सभी लोगों तक जीवन की ज़रूरत की चीज़ें पहुँचाने का प्रबन्ध हो और किस तरह समाज में हर व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार प्रगति करने, अपने व्यक्तित्व को विकसित करने और अपनी पूर्णता को प्राप्त होने तक अवसर उपलब्ध रहे? इस्लाम क्या आदेश देता है।?

आधुनिक पूंजीवादी समाज में शिक्षा, उपचार और न्याय

दुनिया की इक्कीस सभ्यताओं में किसी भी शिक्षक ने कभी पैसे लेकर शिक्षा नहीं दी और न किसी डॉक्टर, हकीम, वैद्य और चिकित्सक ही ने किसी रोगी की जाँच कभी पैसे लेकर की, न किसी रोगी को इस कारण देखने से इनकार किया कि रोगी के पास पैसे नहीं हैं, इसके बावजूद उन 21 सभ्यताओं के सभी शिक्षक खाते-पीते लोग थे और अपने घर का ख़र्च भी उठाते थे। उन 21 सभ्यताओं के डॉक्टर और हकीम किसी रोगी से एक पैसा माँगे बिना भी ख़ुशहाल और सम्पन्न जीवन जीते थे, भूखे नहीं मरते थे।

इल्मे-हदीस - एक परिचय (हदीस लेक्चर-1)

आज की चर्चा का विषय है— इल्मे-हदीसः एक परिचय। इल्मे-हदीस के परिचय की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि आम तौर से मुसलमान हदीस से तो परिचित होता है, उसको यह भी मालूम होता है कि हदीस क्या है? और इस्लाम में हदीस का महत्व क्या है? लेकिन बहुत-से लोगों को यह पता नहीं होता कि कलात्मक दृष्टि से इल्मे-हदीस का क्या अर्थ है? हदीस और उससे मिलती-जुलती इस्तिलाहात (पारिभाषिक शब्दों) का अर्थ क्या है? इन इस्तिलाहात का प्रयोग इल्मवालों के यहाँ किन-किन अर्थों में हुआ है? यह और इस प्रकार की बहुत-सी कला-संबंधी जानकारी ऐसी है जिसे बहुत-से लोग अनजान हैं। इस अनभिज्ञता के कारण बहुत-सी समस्याएँ और ख़राबियाँ पैदा होती हैं।