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पवित्र क़ुरआन का विषय और महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ (क़ुरआन लेक्चर  - 11)

पवित्र क़ुरआन का विषय और महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ (क़ुरआन लेक्चर - 11)

क़ुरआन प्रबोधन - 11: पवित्र क़ुरआन का विषय और महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर नम्बर-11 (18 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण), “मुहाज़राते-क़ुरआनी” जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

आज की चर्चा का विषय है पवित्र क़ुरआन का मूल विषय और इसकी महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ। पवित्र क़ुरआन की महत्त्वपूर्ण वार्त्ताओं पर चर्चा करने के लिए ज़रूरी है कि पहले यह देखा जाए कि पवित्र क़ुरआन का अस्ल और मूल विषय क्या है। यह देखना इसलिए ज़रूरी है कि दुनिया की हर किताब का कोई न कोई विषय होता है, जिससे वह मूल रूप से बहस करती है। शेष बहसों के बारे में इस किताब में चर्चा या तो सन्दर्भगत होती है या केवल उस हद तक उन विषयों पर चर्चा की जाती है जिस हद तक उनका संबंध किताब के मूल विषय से होता है। अतः यह सवाल स्वाभाविक रूप से पैदा होता है कि पवित्र क़ुरआन का मूल विषय क्या है।

अगर क़ुरआन के मूल विषय का निर्धारण करने के लिए उसके अन्दर लिखी बातों को देखा जाए तो महसूस होता है कि पवित्र क़ुरआन में दार्शनिकता से भरपूर बहसें भी हैं। तो क्या पवित्र क़ुरआन को दर्शन की किताब कहा जा सकता है? जिन सवालों से दर्शन बहस करता है कि इंसान का आरंभ किया है, यह आरंभ क्यों और कैसे हुआ, आदम और आदमियत (मानवता) की वास्तविकता क्या है, अस्तित्व किसे कहते हैं, अस्तित्व का प्रकट चीज़ों से क्या संबंध है, ये वे चीज़ें हैं जिनके बारे में दर्शन-शास्त्र में सवाल उठाए जाते रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के एक सरसरी अध्ययन से अनुमान हो जाता है कि इन सवालों का जवाब पवित्र क़ुरआन ने भी दिया है तो क्या पवित्र क़ुरआन को दर्शन की किताब क़रार दिया जाए?

इसी तरह हम देखते हैं कि पवित्र क़ुरआन में क़ानून से संबंधित बहुत-सी समस्याएँ चर्चा के अन्तर्गत आई हैं। पवित्र क़ुरआन में बहुत-से संवैधानिक और क़ानूनी आदेश दिए गए हैं। जीवन के वे क्षेत्र जो क़ानून के द्वारा संकलित और संगठित होते हैं उनको संकलित और संगठित करने के लिए पवित्र क़ुरआन में बहुत-से ऐसे निर्देश दिए गए हैं जिनको अदालतों और राज्यों के द्वारा लागू किया जाना ज़रूरी है। तो क्या पवित्र क़ुरआन को इस अर्थ में क़ानून की किताब क़रार दिया जा सकता है जिस अर्थ में उदाहरणार्थ हमारे येहाँ पेनल-कोड, क़ानून की किताब है? क्या पवित्र क़ुरआन भी इस ढंग और इसी अर्थ में क़ानून की किताब है?

इसी तरह पवित्र क़ुरआन में अर्थशास्त्र की दिलचस्पी के आदेश भी हैं। दौलत क्या है? दौलत कैसे पैदा होती है? दौलत का इस्तेमाल क्या है? इससे और अधिक दौलत कैसे पैदा हो सकती है? ये अर्थशास्त्र के महत्त्वपूर्ण मामले हैं। लेकिन अगर यह कहा जाए कि पवित्र क़ुरआन अर्थशास्त्र की किताब है तो यह दुरुस्त नहीं होगा।

दरअस्ल यह कहना कि पवित्र क़ुरआन दर्शन, क़ानून, अर्थशास्त्र या ऐसे ही किसी और विषय की किताब है, यह बात अल्लाह की किताब के दिए गए निर्देशों को कम करने के समान है। अल्लाह की किताब का दर्जा उन इंसानी ज्ञान एवं कलाओं की किताबों से बहुत ऊँचा है। ये तमाम किताबें जो किसी भी इंसानी या सामूहिक विषय से संबंध रखती हों, ये सब-की-सब अल्लाह की किताब की मुहताज हैं। जिस हद तक ये किताबें अल्लाह की किताब में दिए गए निर्देशों के अनुसार हैं उस हद तक दुरुस्त हैं, और जिस हद तक ये अल्लाह की किताब के निर्देशों से टकराती हैं, उस हद तक अस्वीकार्य हैं। हम निस्संकोच और निर्भीक रूप से इन सबको ग़लत क़रार देते हैं।

लेकिन यह सवाल फिर भी बाक़ी रहता है कि ख़ुद इस किताब का अपना विषय क्या है। थोड़ा-सा विचार करने से अनुमान हो जाता है कि किताब का मूल विषय यह है कि इस ज़िंदगी में इंसान की भलाई और पालौकिक जीवन में इंसान के कल्याण को कैसे निश्चित बनाया जाए। पूरे पवित्र क़ुरआन में इसी मूल विषय से बहस हुई है। वे तमाम मामले जो अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से इस जीवन में इंसान की वास्तविक (आध्यात्मिक एवं नैतिक) सफलता के गारंटर हैं और वे तमाम मामले जो पारलौकिक जीवन में इंसान की शाश्वत एवं वास्तविक सफलता के लिए ज़रूरी हैं, उन सबसे पवित्र क़ुरआन में अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से बहस की गई है। जो विषय और बहसें इस मूल विषय से ज़्यादा गहरा और क़रीबी संबंध रखती हैं उनसे इस किताब में ज़्यादा बहस की गई है, और जो बहसें इस केन्द्रीय विषय से प्रत्यक्ष रूप से और ज़्यादा गहरा संबंध नहीं रखतीं, उनसे अधिक विस्तार से बहस नहीं की गई है, बल्कि सिर्फ़ सरसरी इशारे करने पर ही बस किया गया है। लेकिन पवित्र क़ुरआन के किसी पृष्ठ पर भी कोई एक आयत भी आपको ऐसी नज़र नहीं आएगी जिसका संबंध अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से इस सांसारिक जीवन में इंसान की भलाई और उस पारलौकिक जीवन में इंसान की सफलता से न हो। यह एक मूल चीज़ है जिसे पवित्र क़ुरआन के हर विद्यार्थी के सामने रहना चाहिए।

लेकिन यहाँ एक सवाल और पैदा होता है, और वह यह है कि जब हम यह तय कर लें और यह समझ लें कि पवित्र क़ुरआन का मूल विषय इस ज़िंदगी का सुधार और इस ज़िंदगी की सफलता है तो यह विषय तो और भी बहुत-से ज्ञान एवं कलाओं का है। कई इंसानी ज्ञान और कलाएँ ऐसी हैं जो मूल रूप से यह बहस करती हैं कि इंसान की ज़िंदगी को किस तरह सफलता दिलाई जा सके। अर्थशास्त्र भी यही बताता है कि इंसान आर्थिक सफलता प्राप्त करने के लिए क्या करे। इतिहास भी यही बताता है कि इंसान इतिहास के उतार-चढ़ाव से किसी प्रकार सबक़ हासिल करके अपने भविष्य को बेहतर बनाए, इल्मुल-इंसान (मानव-सम्बंधी ज्ञान) भी इंसान को यही बताता है कि इंसान किस प्रकार उन्नति कर सकते हैं। मानो एक प्रकार से तमाम ज्ञान एवं कलाएँ ख़ास तौर पर सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंसेज़) और मानवता (ह्यूमैनिटीज़) यह सब के सब इंसान ही की ज़िंदगी से बहस करते हैं और इंसान ही की सफलता इन सबका मक़सद है।

सवाल यह पैदा होता है कि इन ज्ञान एवं कलाओं में और पवित्र क़ुरआन में क्या अन्तर है। अगर थोड़ा-सा ग़ौर किया जाए तो दो बहुत बड़े अन्तर हमारे सामने आते हैं, जो पवित्र क़ुरआन में और अन्य तमाम ज्ञान एवं कलाओं में पाए जाते हैं। सबसे पहला और मूल अन्तर तो यह है कि पवित्र क़ुरआन ने इंसान को एक पूर्ण और सन्तुलित अस्तित्व क़रार दिया है, और इंसान से एक सम्पूर्ण अस्तित्व ही के तौर पर बहस की है। पवित्र क़ुरआन ने मानवशास्त्र और सामाजिक ज्ञान की तरह इंसान को विभिन्न हिस्सों में विभाजित नहीं किया। अर्थशास्त्र इंसानी ज़िंदगी का मात्र एक हिस्सा है। राजनीतिशास्त्र इंसानी गतिविधियों का मात्र एक हिस्सा है। क़ानून पूरे इंसान से बहस नहीं करता, बल्कि इंसानी गतिविधियों के केवल एक हिस्से से बहस करता है। ज्ञान के ये सब विभाग इंसानी ज़िंदगी का एक हिस्सा हैं। उनमें कोई भी पूरे तौर पर इंसान से इस तरह बहस नहीं करता कि उसमें इंसानी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं को सफलतापूर्वक समेट लिया गया हो। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन इंसान से समष्टीय रूप से एक सफल और परिपूर्ण और सन्तुलित अस्तित्व के तौर पर पेश करता है। एक बड़ा अन्तर तो यह है।

दूसरा बड़ा अन्तर यह है कि वे ज्ञान एवं कलाएँ जो इंसान से बहैसियते-इंसान बहस करती हैं। उदाहरणार्थ ‘इल्मुल-इंसान’ अर्थात् इंसान होने की हैसियत से इंसान का अध्ययन। उनके बारे में ख़याल पैदा हो सकता है कि यहाँ तो पवित्र क़ुरआन और इल्मुल-इंसान का विषय एक हो गया। फिर पवित्र क़ुरआन और दूसरे ज्ञानों में अन्तर क्या रहा? इस सवाल पर ज़रा ग़ौर किया जाए तो मालूम होगा कि ऐसा नहीं है। यहाँ भी दो बड़े मूल अन्तर पाए जाते हैं। इल्मुल-इंसान या इस तरह के दूसरे ज्ञान मूल तौर पर इंसानी ज़िंदगी के केवल एक हिस्से से बहस करते हैं। इन ज्ञानों को अस्ल दिलचस्पी इस सवाल से होती है कि इंसान का विकास कैसे हुआ और वह कहाँ से आया है। बाक़ी इन ज्ञानों को इस सवाल से कोई मतलब नहीं कि इंसान को क्या करना चाहिए और उसको अन्ततः कहाँ जाना है। ये ज्ञान केवल इस सवाल से बहस करते हैं कि इस वक़्त वह क्या करता है।

इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन की अस्ल बहस यह है कि इंसान को क्या करना चाहिए। और इसी बहस के हवाले से वह इसपर भी बहस करता है कि इंसान क्या करता है।

दूसरा बड़ा अन्तर यह है कि ये सारे ज्ञान एवं कलाएँ अधिकांश रूप से इंसान के अतीत से बहस करती हैं कि वह अतीत में क्या था? बंदर था या कीड़ा था? इसके अलावा इंसान के रवैये, उसकी ज़िम्मादारियों और नैतिक तथा आध्यात्मिक चरित्र से किसी को ज़्यादा बहस नहीं। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन न सिर्फ़ इंसान के अतीत का उल्लेख करता है, बल्कि उस की अस्ल दिलचस्पी इंसान के भविष्य से है। पवित्र क़ुरआन की शैली यह है कि इंसान के अतीत के बारे में जो विस्तृत विवरण जानना ज़रूरी हैं उनकी ओर इशारे कर दिए जाएँ, ताकि इंसान संतुष्ट हो जाए कि उसका वुजूद किसी नकारात्मक रवैये या नकारात्मक पृष्ठभूमि से नहीं बना है। दुनिया की बहुत-सी क़ौमों में इंसान के अस्तित्व और आरंभ के बारे में नकारात्मक पृष्ठभूमि पाई जाती है। इन धर्मों के निकट किसी इंसान ने अतीत में कोई बड़ी ग़लती कर दी थी। ऐसी ग़लती कि हमेशा के लिए उसकी नस्लें इस ग़लती का फल भोग रही हैं और हर व्यक्ति जन्मजात अपराधी बन गया है, हर इंसान के माथे पर अपराध का ऐसा धब्बा लग गया है जो कभी नहीं मिट सकता। हर इंसान के अतीत के बारे में कोई सुखद बात नहीं है। कुछ लोग यह समझते हैं कि इंसान अपने अतीत में कुत्ता, बिल्ली, या बंदर था और अस्थायी रूप से उसे एक बेहतर लिबास दिया गया। यह वह परिकल्पना है जिसको ‘आवागमन’ कहते हैं। जैसे आप किसी परेशान हाल और बीमार व्यक्ति को अच्छा लिबास पहना दें। जब तक उसके ऊपर अच्छा लिबास रहेगा उसकी हालत अच्छी नज़र आएगी। जब यह इंसान या लिबास उतारेगा तो फिर कुत्ता, बिल्ली पा बंदर बन जाएगा। यह इंसानी ज़िंदगी के आरंभ की इससे भी बदतर परिकल्पना है। इससे भी बुरी वह धारणा है जिसके अनुसार इंसान का आरंभ कीड़े मकोड़ों से हुआ।

केवल पवित्र क़ुरआन वह एक मात्र किताब है जिसने इंसान के अतीत के बारे में ज़रूरी विवरण बयान करके यह बता दिया कि इंसान का आरंभ एक अत्यंत सम्माननीय हालत में हुआ है। उसको जन्म से पहले ही अल्लाह तआला ने उसके आगमन की ख़ुश-ख़बरी सुना दी थी, और एलान कर दिया था कि वह ज़मीन में अपना प्रतिनिधि पैदा करनेवाला है। अल्लाह तआला ने आदम (अलैहिस्सलाम) की पैदाइश के इरादे को ज़ाहिर करने के साथ यह भी बता दिया था कि उसको न केवल ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) का सम्मान प्रदान किया जाएगा, बल्कि उस को ज्ञान एवं विचार-शक्ति की दौलत से भी माला-माल किया जाएगा। पहले दिन ही यह एलान भी कर दिया गया था कि اِنِّیْ جَاعِلٌ فِی الْاَرْضِ خَلِیْفَۃ (इन्नी जाइलुन फ़िल-अर्ज़ि ख़लीफ़ा) यानी “मैं धरती में अपना ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनानेवाला हूँ।” (क़ुरआन, 2:30) अब यह कहना या यह समझना कि इंसान को जन्नत से सज़ा के तौर पर निकाला गया था या किसी कमतर दर्जे की वजह से उच्च स्थान से धुत्कारा गया था, दुरुस्त नहीं है।

यह अवधारणा देने के बाद पवित्र क़ुरआन इंसानियत के आरंभ के तदधिक विवरण से बहस नहीं करता कि यह सब कैसे हुआ। यह बहस और विवरण पवित्र क़ुरआन के बहस के दायरे से बाहर है। पवित्र क़ुरआन की दिलचस्पी इंसान के भविष्य से है। इसलिए कि भविष्य को इंसान बिगाड़ भी सकता है और सँवार भी सकता है। अतीत को न बिगाड़ा जा सकता है न सँवारा जा सकता है। अगर आपसे आज कहा जाए कि आप अपने अतीत को बना लें तो आप नहीं बना सकते। इसलिए कि अतीत तो हमारे और आपके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। हम अपने अतीत के बारे में अब कुछ नहीं कर सकते, सिवाए इसके कि अगर हमारा अतीत ख़राब है तो उसपर खेद प्रकट करें और अल्लाह तआला से तौबा करें। और अगर हमारा अतीत अच्छा है तो अल्लाह तआला का शुक्र अदा करें। आज अगर हम कुछ कर सकते हैं तो अपने भविष्य के लिए कर सकते हैं। हम इसको सँवार भी सकते हैं और बिगाड़ भी सकते हैं। इसलिए पवित्र क़ुरआन का ज़्यादा ज़ोर इंसान के इस पहलू पर है जो इंसान के अपने वश में है। इसी पर चर्चा करना लाभदायक भी है, इसी के बारे में बहस लाभकारी और फलदायक होगी। जो चीज़ फलदायक नहीं है उसके बारे में जानकारी का ढेर लगाना पवित्र क़ुरआन की दिलचस्पी का मैदान नहीं है। संभवतः यही वह चीज़ है जिसके बारे में अल्लामा ‘इक़बाल’ ने कहा है—

ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है

कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इन्तिहा क्या है

अर्थात् अपने आरंभ के बारे में न तो बुद्धिमानों से ज़्यादा पूछने की ज़रूरत है और न एक हद से अधिक ख़ुद चिन्ता करने की ज़रूरत ही है। भविष्य के बारे में ख़ुद भी चिन्तन-मनन करने की ज़रूरत है और बुद्धिमानों से भी पूछने की ज़रूरत है कि अपने भविष्य को कैसे बेहतर बनाया जाए।

अब अगर पवित्र क़ुरआन का मूल विषय मी सांसारिक जीवन में सुधार और पारलौकिक जीवन में सफलता आपके सामने हो तो फिर आप देखेंगे कि इस मूल विषय से बहुत-से दूसरे विषय संबद्ध हैं। इससे बहुत-सी चीज़ों का संबंध बनता है। इंसान का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन कैसा होना चाहिए? घरेलू ज़िंदगी कैसी हो? इंसान का संबंध अपने पालनहार से क्या हो? इंसान का अपने माहौल से क्या संबंध हो? इंसान के विचार क्या हों? उसका अपने विचारों के साथ क्या रवैया हो, इंसान की भावनाएँ एवं अनुभूतियाँ क्या हों? ये सारी चीज़ें इस मूल विषय से प्रत्यक्ष संबंध रखती हैं। इसलिए पवित्र क़ुरआन ने इन तमाम विषयों से बहस की है।

वे वार्त्ताएँ जो पवित्र क़ुरआन के मूल विषय से गहरा संबंध रखती हैं उनको विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न ढंग से बयान करने की कोशिश की है। ये वार्त्ताएँ पवित्र क़ुरआन के मूल विषय या मूल बहसें क़रार दिए जा सकते हैं। इन मूल विषयों या मूल बहसों के साथ-साथ कुछ और विषय ऐसे हैं जिनका प्रत्यक्ष रूप से इस मूल विषय से संबंध नहीं है, लेकिन वह आम इंसान के अवलोकन की चीज़ें हैं, इंसान उनका अवलोकन करके एक ख़ास वास्तविकता की समझ प्राप्त कर लेता है। इस समझ के बाद उसके लिए दूसरी बहुत-सी चीज़ों को समझना आसान हो जाता है। इसी लिए पवित्र क़ुरआन ने बतौर मिसाल और गवाही के इन चीज़ों को भी बयान किया है। मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन विज्ञान और प्रयोगात्मक ज्ञान की किताब नहीं है, और न ही पवित्र क़ुरआन वैज्ञानिक आविष्कारों में सहायक बनने के लिए भेजा गया है। यह काम इंसान अपनी बुद्धि और प्रयोग से ख़ुद कर सकते हैं। पहले भी वे यह काम करते रहे। जब पवित्र क़ुरआन अवतरित नहीं हुआ था, उस वक़्त भी चिन्तन-मनन की यह प्रक्रिया जारी थी। और जो लोग क़ुरआन को नहीं मानते वे भी करते हैं, और जो मानते हैं वे भी करते हैं।

अलबत्ता कुछ वैज्ञानिक तथ्य ऐसे हैं जिनका अवलोकन इंसान हर वक़्त करता है, लेकिन उनसे वह सीख प्राप्त नहीं करता जो पवित्र क़ुरआन उससे प्राप्त करवाना चाहता है। इसलिए कहीं-कहीं याददिहानी के तौर पर पवित्र क़ुरआन में कुछ ऐसे वक्तव्य भी हैं जो वैज्ञानिक प्रकार के हैं, रसायन, भौतिकी, खगोलशास्त्र तथा चिकित्सा संबंधी ज्ञान में महत्त्व रखते हैं, उनका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में इसलिए किया गया कि इन चीज़ों को इंसान हर समय देखता है। इनपर इंसान ज़रा गहन विचार से काम ले तो उनके द्वारा इंसान आसानी से उन तथ्यों तक पहुँच सकता है जो पवित्र क़ुरआन इंसान के ज़ेहन में बिठाना चाहता है। इन कारणों और तत्त्वदर्शिताओं की वजह से सन्दर्भगत कुछ ऐसी बहसें भी पवित्र क़ुरआन में आ गई हैं जो अगरचे अस्ली बहसों से प्रत्यक्ष रूप से तो कोई संबंध नहीं रखतीं, लेकिन अस्ल बहसों को समझने में मददगार साबित होती हैं।

जैसा कि मैंने बताया कि पवित्र क़ुरआन के मूल विषय को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न ढंग से समझने की कोशिश की है। एक अंदाज़ शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) का है जिसकी तरफ़ मैं संक्षिप्त रूप से इशारा करूँगा जिससे यह अनुमान हो जाएगा कि शाह साहब पवित्र क़ुरआन की इन वार्त्ताओं को किस ढंग से बयान करते हैं। वह एक शब्द ‘तज़कीर’ का इस्तेमाल करते हैं जिसका अर्थ है याद दिलाना और यह शब्द इसलिए इस्तेमाल किया गया कि पवित्र क़ुरआन सिर्फ़ पिछली ईश्वरीय ग्रन्थों में दिए गए अल्लाह के निर्देश की याददिहानी है, बल्कि ख़ुद पवित्र क़ुरआन की अपनी वार्त्ताओं और मूल शिक्षाओं की उसमें बार-बार याददिहानी कराई गई है। इसलिए पवित्र क़ुरआन की वार्त्ताओं के सन्दर्भ में “तज़कीर” का शब्द बहुत उपयुक्त है।

शाह साहब के निकट पवित्र क़ुरआन की मूल बहसें ये हैं—

पहला: तज़कीर बि-अहकामुल्लाह : अर्थात् अल्लाह तआला के आदेशों को याद दिलाना। शाह साहब की शब्दावली में यह पवित्र क़ुरआन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण और मूल विषय है। उम्मते-मुस्लिमा (मुस्लिम समुदाय) में जो लोग पवित्र क़ुरआन के इस विषय में ज़्यादा दिलचस्पी लेते रहे और जिन्होंने पवित्र क़ुरआन के इस पहलू पर गहराई से ग़ौर करके इन आदेशों को अधिक संकलित किया वे इस्लामी फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्री) कहलाते हैं। इन लोगों ने पवित्र क़ुरआन में बयान किए गए उन आदेशों को अपनी ज़िंदगी का एक विशिष्ट विषय बनाया और फ़िक़्हे-इस्लामी का एक बड़ा भंडार पूरी लाइब्रेरी के रूप में संकलित करके रख दिया। ये फ़िक़्ही आदेश जो पवित्र क़ुरआन में बयान हुए जिनका तदधिक विवरण हदीस में आया और जिनके बारे में तदधिक व्याख्या से इस्लामी फ़ुक़्हा ने काम लिया उसको शाह साहब ने चार महत्त्वपूर्ण उपशीर्षकों के अन्तर्गत बयान किया है—

  1. एक शीर्षक है इबादात का, अर्थात् वे आदेश जो इंसान और अल्लाह के दरमियान संबंध को मज़बूत करते हैं। मसलन नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज।
  2. दूसरा शीर्षक है मामलात (व्यवहार) का। यानी वे आदेश जो इंसान के इंसानों के साथ संबंधों को मज़बूत करते हैं। इन आदेशों में इंसान की घरेलू ज़िंदगी, निकाह, तलाक़, ख़रीद-बिक्री और जंग तथा सन्धि आदि के क़ानून शामिल हैं। मामलात में वे सब चीज़ें शामिल हैं जो क़ानून का विषय समझी जाती हैं।
  3. आदेशों का तीसरा विभाग शाह साहब के निकट तदबीरे-मंज़िल है। अर्थात् इंसान के पारिवारिक जीवन का क्रम और व्यवस्था। यह पारिवारिक सम्पर्कों का वह सामाजिक पहलू है जिसका निर्वहन करके ही परिवार और समाज की संस्थाओं को सफलता से चलाया जा सकता है। पारिवारिक और सामाजिक सम्पर्कों के दो पहलू होते हैं। एक पहलू क़ानूनी अधिकारों एवं दायित्वों का होता है। जिनकी प्राप्ति के लिए इंसान अदालत में जाता है। लेकिन उनके अलावा भी घरेलू ज़िंदगी के अनगिनत मामले ऐसे होते हैं जो अदालती कार्रवाई के बजाय आपसी समझ-बूझ और सौहार्द से चलते हैं। उनके लिए आदमी हर समय अदालतों का रुख़ नहीं करता। आपस के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समझना और उनका ध्यान रखना ही पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की सुरक्षा को निश्चित करता है।
  4. चौथी और आख़िरी चीज़ तदबीरे-मदन है। यानी सरकारों की व्यवस्था को चलाना और उसमें निर्देश और मार्गदर्शन उपलब्ध करना। ये चार बड़े विभाग हैं, जिन्हें शाह साहब आदेशों की चार बड़ी शाखाएँ क़रार देते हैं। मानो ‘तज़कीरे-बि-अहकामुल्लाह’ (अल्लाह के आदेशों को याद दिलाना) जो पवित्र क़ुरआन के पाँच बड़े विषयों में से एक है। उपर्युक्त चारों उपशाखाओं पर आधारित है।

शाह वलियुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) के निकट पवित्र क़ुरआन का दूसरा मूल विषय ‘मुख़ासमा’ है। ‘‘मुख़ासमा’’ से अभिप्रेत यह है कि दूसरी क़ौमों या दूसरे धर्मों के माननेवालों से जो डायलॉग हो उसकी शैली क्या हो और उसके नियम-सिद्धांत और उसमें लिखे विवरण क्या हों। इस डायलॉग या क़ुरआनी शब्दावली में ‘मुख़ासमा’ की एक स्पेशल शैली पवित्र क़ुरआन में आई है। दूसरी क़ौमों के ग़लत अक़ीदों पर टिप्पणी, उन ग़लतियों का सुधार और उनकी जगह सही अवधारणाओं की याददिहानी। अगर उनकी तरफ़ से कोई आपत्ति हो तो उसे इस आपत्ति का जवाब और आपत्ति की कमज़ोरी का स्पष्टीकरण कि वह आपत्ति किस भ्राँति पर आधारित है और इस भ्राँति की व्याख्या। ये सारी चीज़ें ‘मुख़ासमा’ के अन्तर्गत आती हैं। इस्लामी विद्वानों में वे लोग जो इस विषय से ज़्यादा दिलचस्पी रखते थे और जिन्होंने इसपर ज़्यादा ध्यान दिया वे ‘मुतकल्लिमीने-इस्लाम’ कहलाते हैं। ‘मुख़ासमा’ के सन्दर्भ में पवित्र क़ुरआन ने जहाँ-जहाँ ज़रूरत समझी है वहाँ गुमराह फ़िर्क़ों के अक़ीदों (धारणाओं) का खंडन भी किया है।

गुमराह फ़िर्क़ों में पवित्र क़ुरआन ने जिनको बहुत महत्त्व दिया है। उनमें से दो का उल्लेख संक्षेप के साथ पूरा हो चुका है, यहूदी और ईसाई। यहूदियों में गुमराही की कौन-सी शक्लें प्रचलित हैं और उनके कारण क्या थे। इसी तरह ईसाइयों में गुमराही की कौन-सी शक्लें प्रचलित हैं और उनके कारण क्या थे। इन सवालों पर पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह बहसें मौजूद हैं।

यहूदियों और ईसाइयों के बाद पवित्र क़ुरआन में बहुदेववादियों के अक़ीदों (धारणाओं) पर टिप्पणियाँ हैं। बहुदेववादियों में वे तमाम क़ौमें शामिल हैं जो मूर्तिपूजा के किसी न किसी रोग से ग्रस्त हैं और किसी आकाशीय धर्म की कोई बदली हुई शक्ल नहीं हैं। इन सबको बहुदेववादियों की एक आम कैटेगरी में रखा गया है।

चौथा और आख़िरी गिरोह ‘मुनाफ़क़ीन’ (कपटाचारियों) का है। पवित्र क़ुरआन की मदनी सूरतों में उनका अधिक विवरण है। ख़ास तौर पर मदनी दौर की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, उदाहरणार्थ ग़ज़वा-ए-उहुद, इफ़्क की घटना, ग़ज़वा-ए-मरीसीअ और ग़ज़वा-ए-अहज़ाब के विषय में मुनाफ़क़ीन का उल्लेख कुछ विस्तार से किया गया है। और यह बताया गया है कि इनके अंदर निफ़ाक़ (कपटाचार) का जो रोग पैदा हुआ वह किस प्रकार पैदा हुआ और इसके क्या कारक और उत्प्रेरक थे। यह रवैया किस तरह और किन कारणों से पैदा हुआ। और मुसलमान इससे कैसे बच सकते हैं। ये चार वे वर्ग या धार्मिक वर्ग हैं जिनपर पवित्र क़ुरआन ने टिप्पणी की है और ‘मुख़ासमा’ का विशेष विषय हैं।

तीसरा विषय वह है जिसको शाह साहब ‘तज़कीर बि-आलाइल्लाह’ के शीर्षक से याद करते हैं। यह एक दृष्टि से तौहीद (एकेश्वरवाद) और अक़ाइद (अवधारणाओं) ही का एक महत्त्वपूर्ण विभाग है। एक दृष्टि से यह अक़ाइद का एक पहलू है, और एक दूसरी दृष्टि से अपना व्यक्तिगत महत्त्व भी रखता है। इसलिए कि अल्लाह तआला की रचनात्मकता और उसकी सामर्थ्य शक्ति तथा बंदे पर अल्लाह तआला की जो विशेष अमुकम्पाएँ हैं उनका उल्लेख और बार-बार याददिहानी ख़ुद अपनी जगह एक महत्त्व रखती है। बंदों को अपनी नेमतें प्रदान करने के लिए अल्लाह तआला ने अपनी सामर्थ्य शक्ति के जो अजीबो-ग़रीब नमूने दिखाए हैं उनको पवित्र क़ुरआन में ‘आला’ के सारगर्भित शब्द से याद किया गया है। उन सबकी लगतार याददिहानी और तज़कीर ज़रूरी है ताकि इंसान उनमें चिन्तन-मनन करे। इन ‘आला’ की महानताओं का आभास करे और यों अपने अंदर शुक्र (आभार) की भावना पैदा करे। जब शुक्र की भावना पैदा होगी तो फिर इबादत का शौक़ पैदा होगा। और जब इबादत में दिलचस्पी पैदा होगी तो इंसान सफलता के उस रास्ते पर चल पड़ेगा जो पवित्र क़ुरआन का गंतव्य स्थान है।

‘तज़कीर बि-आलाइल्लाह’ में वे नेमतें भी शामिल हैं जो अल्लाह तआला ने इंसान के जन्म से पहले से तैयार कर दी थीं, आदम (अलैहिस्सलाम) की उत्पत्ति से पहले से अल्लाह तआला ने इंसान के लिए जो सामान तैयार किया हुआ था और धरती पर इंसान की राहत और आराम के जो कारण उपलब्ध कर दिए थे उनका उल्लेख जगह-जगह पवित्र क़ुरआन में मौजूद है। इंसान के दुनिया में आने से पहले ही उसकी सेवा के लिए चाँद, सूरज, नदियाँ, पहाड़, समुद्र, हवा, पानी, जड़ वस्तुएँ, पेड़-पौधे और पशु-पक्षी सब मौजूद थे, उन सबको पैदा करके आख़िर में इंसान को भेजा गया कि अब सारा स्टेज तैयार है, जाओ और ख़िलाफ़त (अल्लाह के प्रतिनिधि होने) का कार्यभार संभालो। ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए पूरा माहौल तैयार करने के बाद ही आदम (अलैहिस्सलाम) को ज़मीन पर उतारा गया कि अब आप जाकर चार्ज ले लें और अपनी ज़िम्मेदारी संभाल लें। अल्लाह तआला की ये वे नेमतें या उसकी क़ुदरत के वे चमत्कार हैं जो अल्लाह तआला ने इंसान की उत्पत्ति से पहले से तैयार कर के रख दिए थे। उनका भी उल्लेख है। उनके अलावा कुछ नेमतें वे हैं जिनका प्रकटन अल्लाह तआला के गुणों से निरंतर हो रहा है। और इंसान उनके फलों से लाभान्वित हो रहा है। अल्लाह तआला की रचनात्मकता, उसकी दयालुता, उसका प्रभुत्व वे कुछ महत्त्वपूर्ण गुण हैं जिनके फलों का अवलोकन हर समय हर इंसान कर रहा है। जिनके फलों से हर समय हर इंसान लाभान्वित हो रहा है। मानो अल्लाह तआला की आम नेमतों की याददिहानी, शाह साहब की नज़र में पवित्र क़ुरआन का तीसरा मूल विषय है।

पवित्र क़ुरआन का चौथा मूल विषय वह है जिसको शाह साहब ‘तज़कीर बि-अय्यामिल्लाह’ के नाम से याद करते हैं। लेन-देन पर अमल करने या न करने के दृष्टिकोण से मानवता का इतिहास और उसका उतार-चढ़ाव। अतीत में जितने अच्छे इंसान हुए, या बुरे इंसान हुए, उनकी घटनाओं को इसलिए बयान किया जाए कि पढ़नेवाले अच्छे रास्ते को अपनाएँ और बुरे रास्ते से बचें।

पाँचवाँ और आख़िरी विषय जो शाह साहब के निकट पवित्र क़ुरआन का मूल विषय है वह ‘तज़कीर बिल-मौत व मा-बअदल-मौत’ है। यानी मौत और मौत के बाद आनेवाली तमाम घटनाओं की याददिहानी। यों तो ये अक़ीदों (अवधारणाओं) का एक हिस्सा है लेकिन चूँकि मरने के बाद की ज़िंदगी का अक़ीदा एक बहुत महत्त्वपूर्ण और मूल अक़ीदा है इसलिए उसको ज़ेहन में बिठाने का पवित्र क़ुरआन में विशेष ध्यान रखा गया है। इस महत्त्व को देखते हुए शाह साहब ने इसको एक अलग मूल विषय की हैसियत से बयान किया है।

ये शाह वलियुल्लाह साहब के बयान किए हुए ‘उलूमे-ख़मसा’ (पाँच ज्ञान) हैं। जिनमें उन्होंने पवित्र क़ुरआन की वार्त्ताओं को एक ख़ास अंदाज़ में बयान करने की कोशिश की है। हम अपनी समझ के अनुसार अगर जायज़ा लें तो शाह साहब के बयान किए हुए ‘पाँच ज्ञानों’ की तरह हमें भी पवित्र क़ुरआन में पाँच मूल विषय नज़र आते हैं। इन पाँचों में से हर विषय पवित्र क़ुरआन के हर पृष्ठ पर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से मौजूद है, जिसका हर पाठक ख़ुद अवलोकन कर सकता है। इससे कलवाली उस बात का समर्थन होता है कि पवित्र क़ुरआन यह चाहता है कि उसकी कुल वास्तविकता एक साथ क़ुरआन के पाठक के सामने रहे। और पवित्र क़ुरआन की कोई महत्त्वपूर्ण चीज़ किसी वक़्त भी नज़रों से ओझल न होने पाए। ख़ास तौर पर जब पवित्र क़ुरआन में किसी ख़ास पहलू को ज़ेहन में बिठाया जा रहा हो तो शेष चीज़ें पूरी तरह नज़रों से ओझल न होने पाएँ, बल्कि उन पर भी नज़र रहे।

इनमें सबसे पहला विषय ‘अक़ाइद’ का है। ‘अक़ाइद’ अक़ीदे की जमा है। ‘अक़ीदा’ पवित्र क़ुरआन की शिक्षा का वह हिस्सा है जो इंसान की वैचारिक गतिविधियों को सकारात्मक और सार्थक आयाम प्रदान करता है और उसकी वैचारिक व्यस्तताओं को सही लाइनों पर संगठित करता है। अगर आप ग़ौर करें तो इंसान की मूल रूप से तीन शक्तियाँ हैं। एक बुद्धि और चिन्तन शक्ति है, जिसका केन्द्र दिमाग़ है। दूसरी उसकी अनुभूतियाँ और भावनाओं की शक्ति है जिनका केन्द्र दिल है और तीसरी शक्ति उसके ज़ाहिरी कर्म हैं जिनको प्रदर्शित करनेवाले इंसान के अंग हैं। अधिकांश रूप से मानव-गतिविधियाँ इन्ही तीनों में से किसी एक के दायरे में आती हैं। कभी-कभी बौद्धिक एवं वैचारिक शक्ति काम कर रही होती है, शरीर साथ नहीं रहता। जैसा इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) वाली घटना में हमने देखा कि बज़ाहिर चुपचाप बिस्तर पर लेटे हुए हैं, लेकिन उनकी अक़्ल लगातार काम कर रही है। और जब तक सैंकड़ों समस्याओं का समाधान खोज चुकी थी। इसी तरह कभी-कभी दिल में भावनाओं का एक तूफ़ान बरपा होता है, मगर शरीर पर कुछ ज़ाहिर नहीं होता। इसके विपरीत शारीरिक क्रियाएँ हर समय होती रहती हैं और हर एक को नज़र आती हैं।

इनमें से जो चीज़ इंसान की वैचारिकता से संबंध रखती है उसको संगठित करना अक़ीदों का काम है। ‘अक़ीदा’ का शाब्दिक अर्थ बहुत दिलचस्प है। इस अर्थ से अक़ीदे का प्रारूप, उसका कार्य-क्षेत्र और उसके उद्देश्यों का भी अनुमान हो जाता है। सृष्टि के बारे में जो मूल प्रश्न किसी इंसान के ज़ेहन में पैदा हो सकते हैं, अल्लाह तआला ने उनका जवाब दे दिया है। इंसान इस सृष्टि में जब भी कोई व्यवस्था बनाएगा वह पहले यह तय करेगा कि इस ज़िंदगी में इंसान का मूल चरित्र क्या है? वह कहाँ से आया है और क्यों आया है? जब तक इन सवालों का कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलेगा उस वक़्त तक उसका मूल चरित्र निर्धारित नहीं हो सकेगा। इसके लिए ज़रूरी है कि उसको अपने वातावरण से अपना संबंध मालूम हो। और उसको यह पता हो कि उसको यहाँ कितने दिन रहना है और फिर कहाँ जाना है। ये सब कुछ जाने बिना न कोई रवैया तय किया जा सकता है और न ही कोई व्यवस्था गठित की जा सकती है।

अगर मैं आपसे यह कहूँ कि कल से आप हमारे अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में आ जाएँ और काम करें तो आपके लिए वहाँ उस वक़्त तक काम करना मुश्किल होगा जब तक आपको मालूम न हो कि आपका वहाँ क्या काम होगा, क्या पद होगा, और कितने दिन आपको वहाँ रहना होगा, किसके आगे आप जवाबदेह होंगे, शिक्षकों, विद्यार्थियों, कर्मचारियों के साथ आपके संबंध किस प्रकार के होंगे। इन सवालों का जवाब मालूम किए बिना आपके लिए कोई काम भी करना संभव नहीं होगा। इसी तरह जब अल्लाह तआला ने इंसान को दुनिया में भेजा तो उसे इन मूल प्रश्नों का उत्तर देना भी ज़रूरी समझा।

अब इन मूल प्रश्नों के उत्तर में तीन शक्लें हो सकती हैं। और बौद्धिक रूप से तीन ही संभव हैं। चौथी कोई शक्ल संभव नहीं है।

इन सवालों का जवाब देने की एक शक्ल तो यह हो सकती थी कि अल्लाह तआला कहता कि हमने तुम्हें ज़ेहन दे दिया और अक़्ल दे दी। अब तुम अपने ज़ेहन से काम लो और अपने लिए एक जीवन-व्यवस्था बना लो। लेकिन इस स्थिति में अनिवार्य परिणाम वह निकलता जो अधर्मी समाजों में निकल रहा है कि जितने दिमाग़ होते हैं उतनी ही परिकल्पनाएँ होतीं, और जितनी परिकल्पनाएँ होती हैं, उतनी ही व्यवस्थाएँ होती हैं। जीवन-व्यवस्था जो इस उद्देश्य के लिए होती है कि लोगों को अनुशासन की एक लड़ी में पिरो दे, वह ऊहापोह और बिखराव का माध्यम बन जाती । इसलिए यह तरीक़ा अल्लाह तआला ने नहीं अपनाया।

यहाँ ज़रा ठहरकर इंसानी दिमाग़ की सीमाओं को भी देख लें। इंसानी दिमाग़ एक कंप्यूटर की तरह है और यह इंसानी कंप्यूटर इतना sophisticated कंप्यूटर है कि अभी तक इस जैसा कोई कंप्यूटर नहीं बनाया जा सका। आज तक बननेवाले सब कंप्यूटर इसी इंसानी कंप्यूटर की नक़्लें हैं। अस्ल यही इंसानी दिमाग़ है और कंप्यूटर इसकी नक़्ल है। नक़्ल कभी अस्ल के बराबर नहीं हो सकती। लेकिन जिस तरह कंप्यूटर किसी न किसी डेटा का मुहताज होता है, उसी तरह यह कंप्यूटर भी डेटा का मुहताज है। अगर किसी कंप्यूटर को उपलब्ध किया जानेवाला डेटा दुरुस्त है तो वह कंप्यूटर भी दुरुस्त जवाब देगा। और अगर उसको उपलब्ध किया जानेवाला डेटा ग़लत है तो कंप्यूटर भी ग़लत जवाब देगा।

अगर आप दुनिया-भर से बेहतरीन कंप्यूटर तलाश करके ले आएँ और उसमें ग़लत जानकारी डाल दें, उदाहरणार्थ आप उसमें फ़ीड कर दें कि आपका नाम अब्दुल-हक़ है और आपके पिता का नाम चाँद अली है तो बड़े से बड़े कंप्यूटर में यही जानकारी सुरक्षित हो जाएगी। अब जब भी आप कंप्यूटर से पूछेंगे कि आपका नाम क्या है तो वह आपका नाम अब्दुल-हक़ और आपके पिता का चाँद अली बताएगा। इसमें कंप्यूटर की कोई ग़लती नहीं है। वह तो बिलकुल ठीक और ताज़ा मालूमात दे रहा है। उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

यही हाल दिमाग़ के कंप्यूटर का होता है। इसमें भी अगर आप सही जानकारी डालेंगे तो यह कंप्यूटर सही जवाब देगा। और अगर ग़लत मालूमात डालेंगे तो ग़लत जवाब देगा। अगर कंप्यूटर में सिरे से कोई जानकारी डाली ही न जाए और उससे पूछा जाए तो वहाँ से कोई जवाब नहीं आएगा, सादा और साफ़ स्क्रीन ही आती रहेगी, इसलिए कि जिस डेटा की ज़रूरत थी वह उपलब्ध नहीं किया गया। इस उदाहरण से यह बताना अभीष्ट है कि इंसानी दिमाग़ और अक़्ल स्वयं से किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकते। इंसानी दिमाग़ से जवाब लेने के लिए ज़रूरी है कि उसके पास पहले से सही जनकारी का एक उचित और ज़रूरी भंडार मौजूद हो।

दूसरा तरीक़ा यह हो सकता था कि अल्लाह तआला यह कहता कि दुनिया में आनेवाले तमाम इंसानों के तमाम सवालों के जवाब दिए जाएँगे और इस सृष्टि में इंसान के स्थान और पद के बारे में जो-जो सवाल और सन्देह इंसानों के दिमाग़ों में आ सकते हैं उन सबका हल क़ुरआन में बयान कर दिया जाता, अगर यह ऑप्शन अपनाया जाता तो निश्चय ही इसके दो परिणाम निकलते। एक परिणाम तो यह निकलता कि फिर इंसान का दिमाग़ बेकार और व्यर्थ साबित हो जाता और उसकी हैसियत एक रोबोट से ज़्यादा की न होती, और उसे मात्र एक मशीन की तरह चलाया जाता। हालाँकि अल्लाह तआला जितनी भी मख़लूक़ात (सृष्ट रचनाएँ) हमारे अवलोकन में आ गई हैं उनमें शायद इंसानी दिमाग़ से ऊँची कोई चीज़ अब तक पैदा नहीं की गई है। इसलिए कि इंसान सर्वोत्तम रचना है और सर्वोत्तम रचना अपने दिमाग़ ही की वजह से है। इस दूसरी स्थिति में यह इंसानी दिमाग़ बेकार ठहरता। इससे भी बढ़कर इस ऑप्शन का दूसरा अनिवार्य परिणाम यह निकलता कि फिर अल्लाह तआला पवित्र क़ुरआन भी संक्षिप्त और सारगर्भित किताब के बजाय एक पूरी लाइब्रेरी अवतरित करता जो शायद कई हज़ार बल्कि कई लाख किताबों पर सम्मिलित होती। न उस किताब को इंसान याद कर सकते और न यों आसानी से सत्यमार्ग प्राप्त होता जिस तरह पवित्र क़ुरआन से प्राप्त हुआ।

अतः अल्लाह तआला ने यह ऑप्शन भी नहीं अपनाय। इन दोनों संभावनाओं के अस्वीकार्य क़रार पाने के बाद फिर तीसरा और दरमियानी तरीक़ा यही था कि इन तमाम मूल सवालों का जवाब दे दिया जाए जो इंसान ख़ुद अपनी अक़्ल से मालूम नहीं कर सकता, जिन चीज़ों का वह तजरिबा नहीं कर सकता, जिन मामलों का वह अवलोकन नहीं कर सकता और जिन बातों को वह अपनी पाँच इंद्रियों से मालूम नहीं कर सकता। उन सबके बारे में पवित्र क़ुरआन के द्वारा उसका मार्गदर्शन कर दिया जाए। फिर उन जवाबों के कार्य-क्षेत्र में इंसान की बुद्धि को आज़ादी दे दी जाए कि जहाँ तक जा सके जाए, जहाँ तक मर्ज़ी हो वह अपने ज़ेहन और कल्पना के घोड़े को दौड़ाए, वैचारिकता एवं बौद्धिकता का मैदान उसके सामने खुला हुआ हो और जहाँ तक वह जाना चाहे जाए।

येही तीसरा ऑप्शन अल्लाह तआला ने पवित्र क़ुरआन में अपनाया। इसी तीसरे ऑप्शन को संगठित और संकलित अंदाज़ में बयान और दावा करने के लिए पवित्र क़ुरआन ने अक़ीदे की बुनियाद और इसके मूल सिद्धांत प्रदान कर दिए। ‘अक़ीदा’ का शाब्दिक अर्थ है ‘गिरह’ (गाँठ)। अक़ीदा भी उसी से है। जब आप दो रस्सियों में गाँठ लगाकर उन दोनों को एक बना दें और फिर उस गाँठ को खींचकर मज़बूत भी कर दें तो इस मज़बूत गाँठ को ‘अक़ीदा’ कहते हैं और बहुत-सी रस्सियों को जोड़कर एक बना दें तो उन्हें ‘अक़ाइद’ कहेंगे। अब सवाल पैदा होगा कि गिरह से अक़ीदे का क्या संबंध है और दोनों के दरमियान क्या ताल्लुक़ है। सच तो यह है कि यह ताल्लुक़ बड़ा असाधारण और बड़ा दिलचस्प संबंध है।

अगर आपसे कहा जाए कि किसी ऐसे बड़े रेगिस्तान में सफ़र करके गंतव्य स्थान पर जाएँ जहाँ न रास्ते की स्पष्ट निशानदेही हो और न यह पता हो कि किस दिशा में जाना है, केवल इतना पता हो कि इस रेगिस्तान के एक तरफ़ गंतव्य स्थान है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल होगा कि मंज़िल किस ओर है। हर दिशा एक जैसी नज़र आएगी। अगर उस रेगिस्तान में आपको रास्ता न बताया जाए तो मानव मस्तिष्क बुरी तरह भटक जाएगा। अक़ीदे से मुराद वह रस्सियाँ हैं। जिनको बाँधकर किसी ख़ास रास्ते की निशानदेही की जाती है। चलनेवाला ख़ुद ही चलता है, रस्सियों का काम केवल रास्ते की निशानदेही करना है। जो उन रस्सियों के अंदर-अंदर चलेगा, वह रास्ता पाएगा और जो रस्सियों के अंदर नहीं चलेगा वह सही रास्ता नहीं पाएगा। रेगिस्तान की विशालताओं में गुम होने से बचाने के लिए जिस तरह रास्ते की निशानदेही की जाती है इसी तरह वैचारिक मरुस्थलों और बौद्धिकता के रेगिस्तानों में भी अल्लाह तआला ने रास्ते की निशानदेही कर दी है। यही रास्ता अक़ीदा कहलाता है।

इसी तरह हमारी वैचारिकता भी इन बौद्धिक मरुस्थलों की विशालताओं में गुम होने से सुरक्षित रहती है। बुद्धि के मार्गदर्शन के लिए दोनों ओर निशान लगा दिया गया है। इससे एक स्पष्ट रास्ता निर्धारित हो जाता है, जिसके बाद भटकने की संभावना नहीं रहती। फिर आप जितना मर्ज़ी चले जाएँ, आपके लिए गंतव्य स्थान पर पहुँचना आसान हो जाएगा।

अल्लाह तआला ने पवित्र क़ुरआन में अक़ीदे को बयान करके इंसानी सोच का एक स्पष्ट रास्ता प्रदान कर दिया है। यह रास्ता इतना स्पष्ट है कि अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक हदीस में कहा कि मैं एक ऐसा रास्ता लेकर आया हूँ जो अत्यंत सीधा है, जिसपर आँख बंद करके भी चला जाए तो गंतव्य स्थान तक पहुँचा जा सकता है। यह बहुत आसान रास्ता है। अत्यंत नर्म है, रास्ते में कोई ईंट-पत्थर नहीं है। जब मेहमानों के लिए रास्ता बनाया जाता है तो उसे साफ़ और नर्म भी रखा जाता है। चट्टानों पर से फलांग कर तो मेहमान नहीं जाया करते। इस रास्ते में इतनी रौशनी है कि ‘उसकी रातें भी दिन जैसी लगती हैं’। इस रास्ते में कोई उलझाव और परेशानी नहीं। यह रास्ता मानव सोच को सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा पर डालने के लिए पवित्र क़ुरआन में दिया गया है।

अक़ीदे की तीन बुनियादें हैं, जिनका पवित्र क़ुरआन में उल्लेख किया गया है। तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्त्व) और ‘मआद’ (परलोक)। ‘मआद’ का शाब्दिक अर्थ है वह जगह या वह समय जहाँ आप किसी से मुलाक़ात का समय निर्धारित करें। मआद का अर्थ यह है कि अल्लाह तआला ने हर इंसान से और हर क़ौम से मुलाक़ात का एक समय निर्धारित किया हुआ है। इस मुलाक़ात का विवरण पवित्र क़ुरआन में मौजूद हैं। तौहीद, रिसालत और मआद (आख़िरत) का आपस में गहरा तार्किक संबंध है। जब इंसान सृष्टि पर थोड़ा-सा भी विचार करता है तो वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि इस सृष्टि का एक स्रष्टा होना चाहिए और है। अगर स्रष्टा है तो वह सर्वज्ञानी भी है। उसको बड़ा ज्ञानवान, और बुद्धिजीवी होना चाहिए, कोई मूर्ख और नादान तो यह सारी व्यवस्था इस तरह नहीं चला सकता जिस प्रकार चल रही है। जब वह ज्ञानवान स्रष्टा होगा तो वह दाता और सूझ-बूझवाला भी होगा। इसलिए कि वह उस कारख़ाने को बनाकर एक ओर बैठ नहीं गया, बल्कि हर समय और पल उसको चला भी रहा है। वह सर्वज्ञाता भी है कि ज्ञान के बिना सृष्टि को चलाना संभव नहीं है। इस तरह अल्लाह के वे सारे गुण जो पवित्र क़ुरआन में ‘अस्मा-ए-हुस्ना’ (अल्लाह के गुणवाचक नाम) में बयान हुए हैं, वह इस एक अक़ीदे के तार्किक नतीजे के तौर पर एक-एक कर के सामने आते चले जाएँगे। और मानव बुद्धि भी उन्हें स्वीकार करती चली जाएगी कि बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए। व्यावहारिक बुद्धि भी इसको स्वीकार करेगी।

जब एक बार तौहीद का अक़ीदा इंसान मान ले तो फिर दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि अल्लाह तआला की मर्ज़ी के अनुसार हम काम कैसे करें। जब हर जगह उसकी मर्ज़ी चल रही है, सूरज और चाँद उसकी मर्ज़ी के बिना ज़र्रा बराबर नहीं हिल सकते, सृष्टि की कोई शक्ति उसकी इच्छा के बिना हरकत नहीं कर सकती, तो हम कैसे उसकी मर्ज़ी के बिना हरकत कर सकते हैं और हमें क्यों ऐसा करना चाहिए। अतः हमें उसकी इच्छा मालूम करनी होगी। यों ज़रा विचार करने से रिसालत और नुबूवत पर यक़ीन आ गया कि वह भी ज़रूरी है।

जब नुबूवत और रिसालत पर क्रियान्वयन शुरू कर देंगे, तो यह सवाल पैदा हुआ कि जो सत्कर्मी होंगे उनके साथ अल्लाह तआला का रवैया क्या होगा। और जो दुष्कर्मी होंगे उनके साथ क्या सुलूक होगा। यों यहाँ से ‘मआद’ पर यक़ीन पैदा हो गया। यानी ये तीनों अक़ीदे आपस में न केवल पूरे तौर पर एक-दूसरे से संबद्ध हैं, बल्कि एक दूसरे का तार्किक परिणाम भी हैं। एक पर यक़ीन आ जाए तो बाक़ी सब पर भी एक-एक करके यक़ीन आता चला जाता है। पवित्र क़ुरआन में इस सारे चिन्तन-मनन को इंसान के स्वभाव का तक़ाज़ा बताया गया है। अक़ीदों में केवल मूल चीज़ें बताई गई हैं।

पवित्र क़ुरआन कोई इल्मुल-कलाम (धार्मिक सिद्धांतों को तर्कों के आधार पर साबित करने का ज्ञान) की किताब नहीं है, अलबत्ता इसमें मौलिक सिद्धांत और अक़ीदे की बातें बताई गई हैं जो इंसान के रवैये की बुनियादें बन सकती हैं। और निस्सन्देह बनी हैं। शेष मामलों में इंसान को आज़ादी हासिल है। अक़ीदे को सादा और स्पष्ट ढंग से समझना और समझाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन की सीमाओं में रहकर बयान करना चाहिए। किसी प्राचीन या आधुनिक दर्शन की बहसें अक़ीदे को किसी दौर की भाषा में बयान करने में मदद तो दे सकती हैं, और उनसे यह काम लिया जा सकता है, लेकिन उनको अक़ीदे का अंग बना लेना दुरुस्त नहीं।

मानव बुद्धि एवं सोच को अल्लाह तआला ने रोका नहीं है, न उसपर कोई प्रतिबंध है, मगर उसे उचित सीमाओं का पाबंद ज़रूर होना चाहिए, अक़ीदे ने कुछ सीमाएँ निर्धारित करके मानव बुद्धि को अपनी उचित सीमाओं का पाबंद कर दिया है। जिन सभ्यताओं में अक़ीदे नहीं हैं, यानी जिन मानव सभ्यताओं में बौद्धिक प्रयासों को मंज़िल के निशान नहीं बताए गए, या संगे-मील की निशानदेही नहीं की गई, वहाँ मानव सोच हर तरफ़ भटकी है, और लगातार भटक रही है। जो सवाल पहले दिन उठाए गए वह आज भी उठाए जा रहे हैं। पश्चिमी विचारधारा के इतिहास पर ही नज़र डालें तो पता चलता है कि हर पश्चिमी विचारक वैचारिकता एवं दर्शन पर आधारित अपनी नई व्यवस्था लाता है और नए सिरे से उन तमाम समस्याओं पर बहस और चर्चा करना ज़रूरी समझता है जो पहले दिन से हज़ारों-लाखों बार चर्चा के अन्तर्गत आ चुके हैं। यों वैचारिकता की नौका लगातार इस भँवर में फँसी रहती है जहाँ वह तीन हज़ार साल से फँसी हुई है। उसके विपरीत मुसलमान चिन्तकों का आधार और बुनियाद एक ही होती है। इसलिए यहाँ वह वैचारिक जटिलताएँ पैदा नहीं हुईं जिनसे दूसरी बहुत-सी क़ौमों को वास्ता पेश आया। इसके बावजूद इस्लामी विचारधारा के विकास में कोई रुकावट पैदा नहीं हुई। इंसानी विचारधारा में जितनी विविधता संभव है वह अक़ीदे के दायरे में रहते हुए इस्लामी विचारधारा में मौजूद है।

जब पवित्र क़ुरआन तौहीद (एकेश्वरवाद) की मूल धारणाओं का उल्लेख करता है तो उसके सामने यह बात भी रहती है कि अल्लाह तआला का अस्तित्व और गुणों के बारे में अतीत में किन-किन रास्तों से गुमराहियाँ आई हैं। पवित्र क़ुरआन की शैली यह है कि ऐसी गुमराहियों को पहले ही रोक दिया जाए। उदाहरणार्थ हमारी पड़ोसी क़ौम तो करोड़ों देवी-देवताओं को मानती है। डॉक्टर राधाकृष्णन जो हिन्दुओं के प्रसिद्ध चिन्तक और बीसवीं शताब्दी के बहुत बड़े दार्शनिक थे और भारत के राष्ट्रपति भी रहे। उन्हें अपनी तमाम-तर बुद्धिमत्ता और दार्शनिकता के बावजूद यह बात बिल्कुल भी अजीब नहीं लगी कि उनकी क़ौम करोड़ों देवी-देवताओं को मानती है। उन्होंने अपनी किताब ‘इंडियन फ़्लासफ़ी’ में अपनी धार्मिक अवधारणा की न केवल दार्शनिक व्याख्या की, बल्कि इस मूर्तिपूजा का तार्किक रूप से बचाव करने की भी कोशिश की। उनका कहना था कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के गुण और उसके प्रकटरूप इतने अधिक हैं कि उनकी सही परिकल्पना करने के लिए इतने बहुत-से देवताओं का मानना ज़रूरी है। यह ग़लतफ़हमी का सबसे बड़ा आधार है। उन्होंने अपनी समझ से अपनी क़ौम के बहुदेववादी रवैये की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की कि परमेश्वर को समझने के लिए उसके अनगिनत आभासी अस्तित्त्वों का मानना बेहद ज़रूरी है।

पवित्र क़ुरआन ने इस ग़लत अवधारणा का खंडन करते हुए बताया कि सृष्टि का रचयिता एक ही है, अलबत्ता उसके बहुत-से ख़ूबसूरत नाम हैं। पवित्र क़ुरआन में ‘सिफ़ात’ (गुणों) की शब्दावली भी इस्तेमाल नहीं की गई, बल्कि ‘असमाउल-हुस्ना’ (सुन्दर नामों) का उल्लेख किया गया है। ये पवित्र नाम अल्लाह तआला के अनगिनत गुणों को ज़ाहिर करते हैं।

पवित्र क़ुरआन में एक जगह आया है कि हमने आसमान और ज़मीन के दरमियान जो कुछ पाया जाता है, इसको खेल के तौर पर पैदा नहीं किया। हमने उसे उद्देश्य के साथ और सत्य पर आधारित लक्ष्य के साथ पैदा किया है। ज़ेहन में सवाल पैदा हो सकता है कि यह कौन कहता है कि खेल के तौर पर बनाया है। ज़ाहिर है कि न अरबों में कोई व्यक्ति यह व्यर्थ और बकवास अवधारणा रखता था, न अरब में आबाद अन्य धर्मों में यह अवधारणा पाई जाती थी। लेकिन एक क़ौम दुनिया में मौजूद है जिसका यह मानना है कि यह सारा संसार राम की लीला है। यह दुनिया परमात्मा ने लीला यानी खेल और वक़्त गुज़ारी के लिए बनाई है। जब उसका दिल भर जाएगा तो वह इसको तोड़-फोड़ देगा। जैसे बच्चे रेत के घरौंदे बनाते हैं, उनसे दिल बहलाते हैं और जब दिल भर जाता है तो उनको तोड़-फोड़ कर दूसरी दिलचस्प व्यस्तताओं की तलाश में निकल पड़ते हैं। हिन्दू माइथालोजी की दृष्टि से इस धारणा के आधार पर सृष्टि की पूरा व्यवस्था बनी हुई है। पवित्र क़ुरआन ने इस ग़लत विचारधारा को एक शब्द में रद्द कर दिया कि यह सारी सृष्टि हक़ (सत्य) के साथ पैदा की गई है, इसकी बुनियाद में कोई अगंभीर उत्प्रेरक या तत्त्व शामिल नहीं है।

यहूदियों में यह अवधारणा न जाने कब से चली आ रही है कि अल्लाह तआला ने पहले दिन अमुक चीज़ को पैदा किया, दूसरे दिन अमुक चीज़ को पैदा किया और तीसरे दिन अमुक चीज़ को पैदा किया। इसी तरह छः दिन की रचनाओं का उल्लेख करने के बाद लिखा है कि सातवें दिन उसने आराम किया (अल्लाह हमें माफ़ करे)। पवित्र क़ुरआन ने एक शब्द में इस सारी अवधारणा को ग़लत क़रार दे दिया,  وَلَمْ يَعْىَ بِخَلْقِهِنَّ“वह इन सबको पैदा कर के थका नहीं।”

ये कुछ मिसालें हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह पवित्र क़ुरआन ने एक-एक दो-दो शब्दों में बड़ी-बड़ी असत्यवादी विचारधाराओं और अधर्मी अवधारणाओं को ग़लत क़रार दिया। यह शैली है, जो पवित्र क़ुरआन ने अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) के स्पष्टीकरण और निर्धारण के लिए अपनाई है, मानव की वैचारिकता की मंज़िलें निर्धारित करने के लिए मानो ये रास्ते तय कर दिए। जहाँ-जहाँ से विमुखता के रास्ते खुल सकते थे वे रास्ते बंद कर दिए। जहाँ कहीं गड्ढे थे और इंसान का पाँव धँस सकता था, वे गड्ढे और छेद बंद कर दिए।

एक और चीज़ अक़ीदों के बारे में ख़ास तौर पर पवित्र क़ुरआन में आई है जो अतीत में बड़ी भ्रान्ति का ज़रिया बनती रही है। इस मामले में अगर उलझन पैदा हो जाएगी तो इंसान बहुत-सी भ्रान्तियों का शिकार हो जाता है। सबसे बड़ी भ्रान्ति इंसान को अपने बारे में हो जाती है। कभी समझता है कि मैं सबसे बड़ा हूँ तो अपने को ख़ुदा समझकर फ़िरऔन बन जाता है। हमारे इस ज़माने में भी एक अफ़्रीक़ी देश का राष्ट्रपति था उसके माननेवाले उसको ख़ुदा समझते थे। हर सुबह उसका चेहरा देखना इबादत समझा जाता था।

इसके विपरीत एक और भ्रान्ति इंसान को यह पैदा हो जाती है कि वह समझता है कि मैं तो कीड़ों-मकोड़ों से भी बदतर हूँ। दुनिया की हर चीज़ मुझसे बेहतर और श्रेष्ठ है। हर चीज़ जो मुझ से श्रेष्ठ है वह मेरे लिए भगवान है। हर वह चीज़ जो मुझे लाभ या हानि पहुँचाए वह मेरे लिए भगवान का दर्जा रखती है। वह बन्दर हो, छिपकली हो, पीपल का पेड़ हो, गंगा और यमुना की नदियाँ हों। इन सबको उपास्य ठहराया गया है।

पवित्र क़ुरआन ने इन दोनों भ्रान्तियों का खंडन कर दिया और बताया कि इंसान का दर्जा हमने अपनी तमाम मख़्लूक़ात (सृष्ट रचनाओं) से उच्चतम रखा है। وَ لَقَدْ كَرَّمْنا بَنِي آدَمَ وَ حَمَلْناهُمْ فِي الْبَرِّ وَ الْبَحْرِ وَ رَزَقْناهُمْ مِنَ الطَّيِّباتِ وَ فَضَّلْناهُمْ عَلى كَثِيرٍ مِمَّنْ خَلَقْنا تَفْضِيلاً “हमने आदम की सन्तान को श्रेष्ठता प्रदान की और उन्हें थल और जल में सवारी दी और अच्छी पाक चीज़ों की उन्हें रोज़ी दी और अपने पैदा किए हुए बहुत-से प्राणियों की अपेक्षा उन्हें श्रेष्ठता प्रदान की।” (क़ुरआन, 17:70) अतः जब हमने श्रेष्ठता प्रदान की है तो दुनिया की किसी चीज़ को देवता न मानो हर चीज़ से तुम्हारा दर्जा बुलंद है और हर चीज़ तुम्हारे लिए वशीभूत की गई है।

अब वर्तमान समय के इंसान ने एक व्यक्ति को तो ख़ुदा बनाना छोड़ दिया है। अलबत्ता एक से अधिक व्यक्तियों पर आधारित गिरोहों और जमाअतों को ख़ुदाई का स्थान हमारे इस आधुनिक काल में भी दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर ब्रिटेन के संसद को ले लीजिए। कहा जाता है कि पार्लियामेंट को पूर्णाधिकार प्राप्त है, वह जो चाहे करे, सिवाय इसके कि वह किसी पुरुष को स्त्री नहीं बना सकता और किसी स्त्री को पुरुष नहीं बना सकता। यह वह पूर्ण सामर्थ्य है जिसे हम अल्लाह तआला के लिए मानते हैं। यह पार्लियामेंट को फ़िरऔन के स्थान पर आसीन करने के समान है, जिसको वह जायज़ समझे, वह जायज़ है और जिसे नाजायज़ समझे, वह नाजायज़ है। जो हैसियत इराक़वालों ने नमरूद को और मिस्रवालों ने फ़िरऔन को दी थी, वह हैसियत इंग्लैंड के लोगों ने पार्लियामेंट को दे दी है। यह अलग बात है कि पहलों ने यह ख़ुदाई हैसियत एक व्यक्ति को दी थी और पिछलों ने एक गिरोह को दे रखी है। कभी-कभी गुमराही एक व्यक्ति की ओर से आती है तो सीमित होती है। लेकिन अगर बहुत-से इंसानों की तरफ़ से गुमराही आए तो उसके प्रभाव बहुत बढ़ जाते हैं।

ये वे चीज़ें हैं जिनका संबंध अक़ीदों से है। पवित्र क़ुरआन में ये सारी बातें सूरा-1 फ़ातिहा से लेकर सूरा-114 नास तक बयान हुई हैं।

पवित्र क़ुरआन का दूसरा बड़ा विषय आदेश है। यानी पवित्र क़ुरआन के वे निर्देश और शिक्षाएँ जो मानव जीवन के दिखाई देनेवाले कर्मों को संगठित करती हैं। यहाँ भी पवित्र क़ुरआन ने इंसानों को अनावश्यक नियमों एवं सिद्धांतों के बोझ तले नहीं दबाया और न ही यह पवित्र क़ुरआन चाहता है। पवित्र क़ुरआन ने पिछली क़ौमों के इस रवैये को ग़लत क़रार दिया है जिसके मुताबिक़ उन्होंने क़ानून का अनावश्यक बोझ लोगों के ऊपर इतना लाद दिया था कि उनकी कमर टूट गई थी।

पवित्र क़ुरआन ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की लाई हुई शिक्षा और शरीअत के गुण और खूबियाँ बयान करते हुए कहा : وَ یَضَعُ عَنْهُمْ اِصْرَهُمْ وَ الْاَغْلٰلَ الَّتِیْ كَانَتْ عَلَیْهِمْؕ “...और उनपर से वे बोझ उतारता है जो अब तक उनपर लदे हुए थे।” (क़ुरआन, 7:157) यहाँ यहूदियों की ओर अप्रत्यक्ष रूप से इशारा है कि उनके रिब्बियों और राहिबों ने आम लोगों पर अनावश्यक नियमों और अनगिनत सिद्धांतों एवं नियमों का इतना बोझ लाद दिया था कि लोग उससे उकता गए थे। पवित्र क़ुरआन ने स्पष्ट और दोटूक एलान किया कि दीन में न कोई सख़्ती है और न तंगी। وَ ما جَعَلَ عَلَيْكُمْ فِي الدِّينِ مِنْ حَرَجٍ “उसने तुम्हारे लिए दीन में कोई तंगी नहीं रखी।” (क़ुरआन, 22:78) और ऐसे दूसरे नियम एवं सिद्धांत शरीअत के आदेशों का आधार हैं।

जिस प्रकार अक़ीदों में भी मूल निर्देश दिए गए हैं, इसी तरह आदेशों में भी मूल निर्देश दिए गए हैं। प्रत्यक्ष रूप से आदेशों पर आधारित आयतें पवित्र क़ुरआन में केवल दो सौ या सवा दो सौ हैं, और इतनी ही और हैं जो आदेशों से अप्रत्यक्ष रूप से संबंध रखती हैं। शेष छः हज़ार एक सौ आयतें दूसरे मामलों से संबंधित हैं। ये सीमाएँ जो पवित्र क़ुरआन ने दी हैं यानी हलाल (वैध), हराम (अवैध), मुस्तहब (पसन्दीदा), आदि इनके अंदर रहते हुए मुस्लिम समाज के विद्वान अपने ‘इज्तिहाद’ (धर्म के विषय में निजी राय) और ‘इजमा’ (विद्वानों की सर्वसहमति) से ज़रूरी विवरण तय कर सकते हैं। इन विवरणों की क़ियामत तक कोई इंतिहा नहीं होगी।

इसका उदाहरण ऐसा है जैसे कि एक कई मंज़िला इमारत बनाई जाए और उसकी गहरी बुनियादें रखी जाएँ। निर्माण कार्य पूरा होने के बाद उस इमारत के अंदर से सजावट और चमक-दमक होती रहे, अंदर से सामान तब्दील किया जाता रहे, शेष इमारत का ढाँचा और बुनियादें वही रहें, उसका रंग तब्दील होता रहे, हालात के लिहाज़ से अंदरूनी और आंशिक तब्दीलियाँ होती रहें। मौसम की दृष्टि से, इलाक़े की दृष्टि से, और ज़माने की दृष्टि से लोग आवश्यकतानुसार आंशिक फेर-बदल करते रहें। आदेशों के मामले में पवित्र क़ुरआन का यही अंदाज़ है। आदेशों के लिए ‘फ़िक़्ह’ की शब्दावली प्रचलित है।

‘फ़िक़्ह’ का शाब्दिक अर्थ हैं गहरी समझ। आप सोचेंगे कि गहरी समझ का और क़ानून का आपस में क्या संबंध है? ज़रा-सा ग़ौर करें तो पता चल जाता है कि इन दोनों में बहुत गहरा संबंध है। पवित्र क़ुरआन में आदेशों से संबंधित जो आयतें हैं वे दो ढाई सौ आयतों से ज़्यादा नहीं हैं। लेकिन ये कुछ सौ आयतें अनगिनत प्रकार के हालात और समस्याओं पर चस्पाँ हो रही हैं। इंसानी ज़िंदगी में बेहद और बेहिसाब तथा अनगिनत कैफ़ियतें और अनगिनत मामले हर समय और हर पल हमको पेश आ रहे हैं। ये सारे के सारे मामले इन ढाई सौ ‘नूसूस’ (स्पष्ट आदेशों) से निकल रहे हैं। इन सीमित ‘नुसूस’ को असीमित हालात पर चस्पाँ करने के लिए गहन चिन्तन-मनन की ज़रूरत पड़ती है। जब तक गहरी समझ से काम न लिया जाए उस वक़्त तक इन ढाई सौ ‘नुसूस’ को ज़िंदगी के असीमित एवं असंख्य विभागों में चस्पाँ करना असंभव है। अतः ‘फ़िक़्ह’ यानी गहरी समझ एवं अन्तर्दृष्टि इस सारी प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। यह पवित्र क़ुरआन का दूसरा मूल विषय था।

तीसरा मूल विषय है ‘अख़्लाक़’ (नैतिक आचरणस, शिष्टाचार), ‘तज़किया’ (चरित्र को निखारना) और ‘एहसान’ (कर्त्तव्य से बढ़कर काम करना) लेकिन वह चीज़ जो इंसान की भावनाओं और संवेदनाओं को संगठित करे वह अख़्लाक़, तज़किया और एहसान है। ‘तज़किया’ की शब्दावली पवित्र क़ुरआन में इस्तेमाल हुई है ویعلمھم الکتاب والحکمۃ ویزکیھم अर्थात् “और उनको किताब और तत्त्वदर्शिता की शिक्षा दे और उन (की आत्मा) को विकसित करे।” (क़ुरआन, 2:129) ‘तज़किया’ से मुराद है आत्मिक पवित्रता की ऐसी प्रक्रिया जिसके नतीजे में इंसान अंदर से पवित्र हो जाए और अल्लाह तआला से संबंध इतना मज़बूत हो जाए जितना होना चाहिए। इस प्रक्रिया का नाम जिसमें प्रशिक्षण की एक पूरी व्यवस्था शामिल है, ‘तज़किया’ है। जब इंसान पवित्रता और ‘तज़किया’ की इस लम्बी प्रक्रिया से गुज़रता है तो वह एक ऐसे स्थान पर जाता है जो ‘एहसान’ का स्थान कहलाता है। इसका उल्लेख उस मशहूर हदीस में मिलता है जो हदीसे-जिब्रील कहलाती है। इस हदीस के अनुसार एहसान यह है कि “तुम अल्लाह की इबादत इस तरह करो मानो उसे देख रहे हो, इसलिए कि अगर तुम उसको नहीं देख रहे हो तो वह तो तुम्हें देख रहा है।”

यह एहसास कि मैं हर पल अल्लाह तआला की नज़र में हूँ और वह किसी वक़्त भी, एक पल और एक क्षण के लिए भी मेरे कर्मों से अनभिज्ञ नहीं है, एक बहुत बड़ी नेमत है। यह एहसास इंसान के अंदर एक क्रान्तिकारी शक्ति और असाधारण परिवर्तन पैदा कर देता है। फिर इंसान अगर अपनी पिछली कैफ़ियत की वर्तमान कैफ़ियत से तुलना करे तो उसे ज़मीन और आसमान का अन्तर महसूस होता है। लगता है कि पहली ज़िंदगी पशुओं की ज़िंदगी थी और अब अस्ली ज़िंदगी शुरू हुई है। जब यह एहसास पैदा हो जाता है तो फिर इंसान का हर कर्म, चाहे वह तन्हाई में हो या रात के अँधेरे में, केवल अल्लाह सर्वशक्तिमान की इच्छा के लिए हो जाता है, ऐसे में वह कैफ़ियत हासिल हो जाती है कि एक युवती रात के अँधेरे में यह सोचकर दूध में पानी नहीं मिलाती कि अगर उमर नहीं देख रहा तो उमर का ख़ुदा तो देख रहा है। यह एहसान का स्थान है जो ‘तज़किया’ के नतीजे में दूध बेचनेवाली लड़कियों तक में पैदा हो जाता है।

यह पवित्र क़ुरआन का तीसरा मूल विषय है। तज़किया और आदेशों के संबंध में एक चीज़ महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि जहाँ तक आदेशों का संबंध है वह अधिकाँश रूप से मदनी सूरतों में अवतरित हुए। मक्की सूरतों में आदेश नहीं हैं। अख़्लाक़ और तज़किया के निर्देश दोनों जगह हैं। सूरा-23 मोमिनून और सूरा-25 फुरक़ान में जो दोनों मक्की सूरतें हैं, नैतिक आदेश दिए गए हैं, और बताया गया है कि अख़्लाक़ पर अमल करने के लिए न किसी राज्य की ज़रूरत है, न क़ानून की और न किसी राजनैतिक संस्था की। तमाम ईमानवाले पवित्र क़ुरआन के नैतिक निर्देशों का पालन करने के पाबंद हैं, चाहे राज्य का अस्तित्व हो या न हो, अख़्लाक़ और रूहानियात (आध्यात्मिकता) ही में इबादतें भी शामिल हैं और हर जगह हर व्यक्ति पर उनका पालन अनिवार्य है। इन मामलों पर क्रियान्वयन के लिए किसी इस्लामी हुकूमत या मुस्लिम समाज का अस्तित्व ज़रूरी नहीं है।

पवित्र क़ुरआन का जो बड़ा विषय ‘उममे-साबिक़ा’ (पिछले नबियों के अनुयायी समुदायों) का उल्लेख है, जिसमें क़िससुल-क़ुरआन भी शामिल है। इस उल्लेख में पवित्र क़ुरआन ने दो प्रकार के उल्लेख किए हैं। एक उल्लेख तो उन लोग का है जो अल्लाह तआला के नबी और निकटवर्ती बंदे थे, और अल्लाह तआला के निर्देश दूसरों तक पहुँचाकर और उनका पालन करके दुनिया से चले गए। उनके बारे में पवित्र क़ुरआन का कहना है कि उनमें से कुछ की घटनाएँ हमने आपसे बयान कीं और कुछ की बयान नहीं की। ऐसा क्यों है? अगर पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की तादाद एक लाख चौबीस हज़ार है, जैसा कि आम तौर पर मशहूर है, तो फिर सिर्फ़ 15 पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) का उल्लेख क्यों किया गया है। अगर सब का न सही तो कम से कम दो-चार सौ का तो ज़िक्र होता।

यह वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण सवाल है जिसपर विचार करना चाहिए। अगर मेरी एक पिछली चर्चा को ज़ेहन में रखा जाए जिसमें मैंने बताया था कि अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का आना दरअस्ल दो तरह से है। एक प्रत्यक्ष रूप से आगमन जो अरबों के लिए थी, दूसरा आगमन जो अरबों के माध्यम से ग़ैर-अरबों के लिए था। शैली के सन्दर्भ में मैंने बताया था कि पवित्र क़ुरआन में बहुत-से विषय ख़ास अरबों का ध्यान रखते हुए आए हैं। ये वे वार्त्ताएँ हैं जिससे अरब परिचित थे, और न केवल परिचित थे, बल्कि उनमें से बहुत-से मामले उनके स्वभाव और संस्कृति का हिस्सा थे। चुनाँचे जिन पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के नामों से अरब लोग परिचित थे उनका उल्लेख करने पर बस किया गया है। वहाँ यह मनवाना अभीष्ट नहीं था कि अमुक-अमुक व्यक्ति जो उदाहरणार्थ भारत, जापान या चीन में भेजे गए थे वह सचमुच नबी थे। अगर ऐसा किया जाता तो अरबों के लिए एक दोहरी मुसीबत खड़ी हो जाता। लोग अस्ल बात को नज़रअंदाज करके यह बहस शुरू कर देते कि अमुक साहब जिनका नाम आया है, वह वास्तव पैग़म्बर थे कि नहीं थे। यह एक विशुद्ध ऐतिहासिक सवाल होता जिसका पवित्र क़ुरआन के मक़सद से कोई संबंध नहीं है।

चूँकि वहाँ अभीष्ट केवल पैग़म्बरी के सिद्धांत और पद को मनवाना था, इसलिए केवल उन्हीं पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) का नाम लिया गया जिनको क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधित, अर्थात् अरब लोग पहले से जानते थे। वे दाऊद और सुलैमान (अलैहिमस्सलाम) से इस हद तक परिचित थे कि ये दोनों बहुत बड़े बादशाह गुज़रे हैं। बताया गया कि वे नबी भी थे। वे इबराहीम और इस्माईल (अलैहिमस्सलाम) के नाम-लेवा थे। इसलिए उनके हवाले से दीन की बहुत-सी बातें ज़ेहन में बिठाना उचित था। अन्य कई पैग़म्बरों के नामों से परिचित थे। उनको बताया गया कि वे सब भी एकेश्वरवादी थे।

ग़ैर-अरबों की मिसालें देने से अन्य उलझनें भी पैदा हो सकती थीं। उदाहरण के तौर पर अगर भारत में कोई कृष्ण जी नबी आए हों तो अरबों के लिए पवित्र क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधित के तौर पर यह मानना ज़रूरी नहीं था कि वास्तव में भारत के लिए भेजे जानेवाले नबी का नाम कृष्ण ही था। उस वक़्त अस्ल मक़सद पैग़म्बरी का पद उनसे मनवाना था, इसलिए उनके जाने-पहचाने नबियों के उल्लेख पर बस किया गया। और चूँकि पैग़म्बरी की आख़िरी कड़ी अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हैं, इसलिए आपके चरित्र एवं आचरण का विवरण बयान कर दिया गया।

पिछले पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) में से हर नबी के बारे में नाम-बनाम जानना मुसलमान होने के लिए ज़रूरी नहीं है। केवल यह जानना काफ़ी है कि अल्लाह तआला ने जब और जहाँ और जिसको नबी बनाकर भेजा, वह सच्चा और सही था।

यह इसलिए किया गया कि मूल उद्देश्य पर नज़र केन्द्रित रहे और उद्देश्य से हटकर अनावश्यक बहसें न शुरू हो जाएँ। इससे एक और सबक़ भी मिलता है कि इस्लाम के प्रचार-प्रसार के मैदान में अनावश्यक बहस उठाने से बचना चाहिए।

इन पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के उल्लेख की एक वजह तो यह है। दूसरी वजह यह है कि पवित्र क़ुरआन इतिहास की किताब नहीं है। क़ुरआन को उन घटनाओं से उस प्रकार की दिलचस्पी नहीं है जिस प्रकार की एक इतिहासकार को होती है। क़ुरआन केवल यह बताना चाहता है कि पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की शिक्षाएँ क्या थीं और उनका रवैया किस तरह का था, ताकि दूसरे भी उसी तरह का रवैया अपनाएँ। इस उल्लेख में पवित्र क़ुरआन ने यह ध्यान रखा है कि उन पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के उल्लेख को प्राथमिकता दी है जो महत्त्वपूर्ण नैतिक गुणों का विशेष रूप से प्रतिनिधित्व करते थे। क़ुरआन सब्र, शुक्र, हिजरत, क़ुर्बानी और दमनकारी शासकों के सामने साहसपूर्वक सत्य बात कह देने की शिक्षा देता है। यह पैग़म्बर जिनका पवित्र क़ुरआन में उल्लेख आया है ख़ास तौर पर इन गुणों का व्यावहारिक आदर्श थे। सब्र का प्रतिनिधित्व जितना अय्यूब (अलैहिस्सलाम) की ज़िंदगी में नज़र आता है, उतना दूसरी जगह नहीं मिलता, अगरचे सब्र का यह गुण सभी पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) में मौजूद था, मगर जितना स्पष्ट होकर अय्यूब (अलैहिस्सलाम) की ज़िंदगी में प्रदर्शित हुआ उतना किसी और के यहाँ नुमायाँ नहीं हुआ। शुक्र सुलैमान (अलैहिस्सलाम) की ज़िंदगी में जितना मिलेगा उतना किसी और नबी के यहाँ नुमायाँ होकर नहीं आएगा कि सुलेमान (अलैहिस्सलाम) जैसी नेमतें भी किसी को प्रदान नहीं की गईं। क़ुर्बानी हर नबी ने दी है, मगर जिस तरह इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के चरित्र में यह चीज़ प्रकट हो रही है इस तरह किसी और के चरित्र में नहीं हो रही है। क्रूर एवं दमनकारी शासक के सामने बहुत-से नबी सत्य बात लेकर खड़े हुए, मगर जिस अदम्य साहस के साथ मूसा (अलैहिस्सलाम) फ़िरऔन के सामने खड़े हुए वह एक कहावत बन गई ‘हर फिरऔने रा मूसा’  अर्थात् ‘हर फ़िरऔन का दमन रोकने के लिए एक मूसा आता है।’ इतना सत्साहस कि इंसान का नाम कहावत बन जाए बहुत कम इंसानों को नसीब होता है।

इस तरह ये पच्चीस के पच्चीस पैग़म्बर ख़ास-ख़ास मानवी गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) का उल्लेख केवल कुछ शब्दों में ही आया है। जैसे कि उज़ैर (अलैहिस्सलाम)। उनके ऊपर मौत छा गई थी, अल्लाह तआला ने लम्बे समय बाद उन्हें दोबारा ज़िंदा करके खड़ा कर दिया। इसलिए इस असाधारण घटना की वजह से उनका उल्लेख आ गया।

यह पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की जीवनी का उल्लेख है जो पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह बिखरा है। जब पवित्र क़ुरआन का पाठक ये उल्लेख बार-बार पढ़ता रहेगा तो उसके सामने ये सारे मानवीय तथा नैतिक गुण साकार होकर आते रहेंगे। पवित्र क़ुरआन का पढ़नेवाला पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की आध्यात्मिक संगत में ज़िंदगी गुज़ारेगा। हर समय उसके सामने ये दृश्य रहेंगे कि अय्यूब (अलैहिस्सलाम) ने कैसे सब्र किया, सुलैमान (अलैहिस्सलाम) ने कैसे शुक्र किया, इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने कैसे क़ुर्बानी दी। मूसा (अलैहिस्सलाम) ने कैसे बात की। मानव मस्तिष्क और चरित्र निर्माण पर इसका जो प्रभाव होता है और हो सकता है वह स्पष्ट है।

इन तमाम ख़ूबियों और गुणों का संग्रह अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मुबारक चरित्र है। आपका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में शेष तमाम पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) से अधिक है। आपकी ज़िंदगी की तमाम महत्त्वपूर्ण घटनाएँ पवित्र क़ुरआन में सुरक्षित हैं, ग़ज़वात (युद्ध), हिजरत (देश पलायन), फ़तेह-मक्का, आदि। क़ुरआन पढ़नेवाला सचमुच महसूस करता है कि वह मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दौर के माहौल में ज़िंदगी गुज़ार रहा है। अगर क़ुरआन का पाठक पवित्र क़ुरआन को समझकर पढ़ता है तो आत्मिक तौर पर वह पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की संगत में ज़िंदगी गुज़ारता है। इसका प्रभाव इंसान के चरित्र में इतना असाधारण और अनाभासित तरीक़े से पैदा होता है कि इसका अनुमान उन लोगों से तुलना करके हो सकता है जो पवित्र क़ुरआन तो उस तरह नहीं पढ़ते जैसा कि पढ़ना चाहिए।

यह उन लोगों का उल्लेख है जो क़ुरआन मजीद की नज़र में सकारात्मक रोल मॉडल हैं। दूसरा उल्लेख पिछली उम्मतों के हवाले से उन नकारात्मक चरित्रों का है जो गुमराही और बिमुखता का नमूना हैं। गुमराही और विमुखता इंसान की ज़िंदगी में जितने रास्तों से आती है वे दो हैं। विमुखता के उप-प्रकार तो अनगिनत हैं लेकिन ये दो बड़े-बड़े रास्ते हैं। एक बिमुखता आती है किसी नेमत के आने के बाद और दूसरी विमुखता आती है नेमत के छिन जाने बाद। कभी-कभी नेमत्त आती है तो इंसान फूला नहीं समाता। उदाहरणार्थ सत्ता मिल जाए तो फ़िरऔन और नमरूद बन जाता है। कभी-कभी सत्ता तो नहीं मिलती, लेकिन सत्ताधारियों की संगत है तो वह हामान बन जाता है। हामान की समय के शासक से बड़ी निकटता थी। इसलिए इस निकटता के नशे में मुब्तला हो गया और सत्यमार्ग से भटक गया।

कभी-कभी इंसान दौलत के नशे में गिरफ़्तार हो जाता है और इस नशे में सत्यमार्ग से भटकता है। इसके लिए क़ारून की मिसाल दिखाई गई। कभी न दौलत होती है न सत्ता होती है, न सत्ता से निकटता होती है, लेकिन किसी बड़े आदमी से रिश्तेदारी के आधार पर इंसान बहक जाता है। मानव इतिहास में हज़ारों-लाखों बड़े-बड़े इंसान गुज़रे हैं। पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) से बड़ा कौन होगा। इस उद्देश्य के लिए पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के रिश्तेदारों की मिसालें दी गईं, और ऐसे रिश्तों का चयन किया गया जिनकी बदौलत इंसान बहकता है। यानी नूह (अलैहिस्सलाम) और लूत (अलैहिस्सलाम) जैसे महान पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की पत्नियाँ। दो निकटवर्ती बंदों की पत्नियाँ, जिन्होंने जब बेवफ़ाई की तो अल्लाह तआला के मुक़ाबले में उनके पति उनके कुछ काम न आ सके, बल्कि उनसे कहा गया कि दाख़िल होनेवालों के साथ जहन्नम की आग में दाख़िल हो जाएँ। सत्कर्मी पत्नी और दुष्कर्मी पति के तौर पर फ़िरऔन और आसिया का उदाहरण दिया गया। किसी के बाप का उल्लेख है। और किसी के बेटे का उल्लेख है। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जितने ख़ानदानवाले थे और आपके तमाम निकटवर्ती संबंधी आपकी आँखों की ठंडक बने। केवल एक अभागा चाचा था जो इस्लाम स्वीकार करने का सौभाग्य प्राप्त न कर सका। यह अबू-लहब था, जिसका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में नाम लेकर किया गया। चेतावनी दी गई कि अगर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जैसे महान व्यक्तित्व का चाचा भी गुमराह होगा तो उसको कड़ी सज़ा दी जाएगी।

ये वे वार्ताएँ हैं जो पिछली उम्मतों के हवाले से पवित्र क़ुरआन में आई हैं। एक दृष्टि से ये अक़ीदे ही को पूर्ण करती हैं कि इन घटनाओं के उल्लेख से अक़ीदा मज़बूत होता है। एक दृष्टि से यह आदेशों को पूर्ण करती हैं कि इनसे आदेशों पर अमल करने में आसानी होती है और एक दृष्टि से यह अख़्लाक़ (नैतिक आचरण) को पूर्ण करती हैं कि इनसे अख़्लाक़ बेहतर होते हैं। इस तरह ये दरअस्ल पिछले तीनों मूल विषयों अर्थात् अक़ीदों (अवधारणाओं), आदेशों और नैतिकता की पूर्ति हैं और इन तीनों को reinforce (सुदृढ़) करने के लिए हैं।

आख़िरी चीज़ जो इन चारों को reinforce करती है वह मौत और मरने के बाद का उल्लेख है। अर्थात् मौत के दृश्य, इन दृश्यों के बारे में पिछले दिनों की वह चर्चा ज़ेहन में रखें जिसमें मैंने बताया था कि जैसे फ़िल्म का एक शॉर्ट होता है। और अति संक्षिप्त समय में बड़े-बड़े दृश्य दिखा दिए जाते हैं, उसी तरह पवित्र क़ुरआन में अति संक्षिप्त शब्दों में ये बातें बताई गई हैं और उद्देश्य यह है कि क़ियामत की भयावहता के दृश्यों को ज़ेहनों में जागरूक और ताज़ा रखा जाए। इसलिए कहीं हिसाब-किताब का दृश्य है। कहीं हश्र का दृश्य है और कहीं जन्नत और जहन्नम का उल्लेख है।

ऐसा तो कई बार हुआ है कि मक्की सूरा या वार्ताक्रम में केवल जन्नत का उल्लेख है और जहन्नम का नहीं है। लेकिन ऐसा कहीं नहीं है कि केवल जहन्नम का उल्लेख हो और जन्नत का उल्लेख न हो। इसलिए कि अल्लाह तआला की दयालुता उसके ग़ज़ब पर हावी है। जन्नत उसकी रहमत (दयालुता) का शाहकार है। और जहन्नम उसके दंड और प्रकोप की निशानी है। अल्लाह तआला ने जहन्नम के साथ जन्नत का उल्लेख ज़रूरी क़रार दिया, लेकिन जन्नत के साथ जहन्नम का उल्लेख ज़रूरी नहीं है।

ये हैं पवित्र क़ुरआन के वे मूल विषय जो उसके अस्ल विषय से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं। लेकिन इंसान के इस वर्तमान जीवन में सुधार और उस आनेवाले जीवन में सफलता को कैसे प्राप्त किया जाए और अल्लाह तआला का प्रतिनिधि कैसे बनकर दिखाया जाए।

इनके अलावा भी बहुत-सी समस्याएँ और विषय पवित्र क़ुरआन में आए हैं। कुछ जगहों पर चिकित्सा संबंधी आदेश हैं। कुछ जगह वातावरण का उल्लेख है। ये सारी समस्याएँ भी उन्हीं पाँच विषयों को मन में बिठाने के लिए हैं। और आख़िरकार उनका उद्देश्य भी यही है कि पवित्र क़ुरआन का मूल विषय इंसान के सामने ताज़ा और जाग्रत रहे।

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