कुरआन ख़ुदा की आख़िरी किताब है और अपनी अस्ल और महफूज़ शक्ल में इनसान के पास सिर्फ यही किताब बाक़ी रह गई है। कुरआन इसलिए उतारा गया है कि वह इनसान को जिहालत और गुमराही के अन्धेरे से निकालकर ज्ञान और मार्गदर्शन की रोशनी में ले आए। कुरआन के आने के बाद दुनिया में जो क्रान्ति आई, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। कुरआन ने दुनिया के असभ्य समाज को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाया। उसे खुदा की मर्ज़ी और इनसान की मुहब्बत के साथ जीना सिखाया। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दुनिया पर कुरआन से ज्यादा किसी दूसरी किताब का असर नहीं पड़ा। आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा बिकनेवाली और पढ़ी जानेवाली किताब कुरआन मजीद ही है। आइए देखते हैं कि क़ुरआन आज के माहौल में किस तरह प्रसांगिक है।
आत्मा और परमात्मा, एक ऐसा विषय है जिसपर सदैव विचार किया जाता रहा है। अपना और अपने स्रष्टा का यदि समुचित ज्ञान न हो तो मनुष्य और पत्थर में अन्तर ही क्या रह जाता है। हमने विशेष रूप से भारत के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त विषय पर विचार व्यक्त करने की कोशिश की है और इस पर दृष्टि डाली है कि भारत के ऋषियों और दार्शनिकों की इस सम्बन्ध में क्या धारणा रही है। पुस्तक के अन्त में यह दिखाया गया है कि उपरोक्त विषय में इस्लाम का मार्गदर्शन क्या है।
"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।” क़ुरआन मजीद की इस आयत में एक बात यह बतलाई गयी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। अल्लाह की ओर से अपने नबी पर सलात (दुरूद) का मलतब यह है कि वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर बेहद मेहरबान है। आप की तारीफ़ फ़रमाता है, आप के काम में बरकत देता है, आप का नाम बुलन्द करता है और आप पर अपनी रहमत की बारिश करता है।
हमारे विश्वास के अनुसार इस्लाम किसी ऐसे धर्म का नाम नहीं, जिसे पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पेश किया हो और इस कारण आप को इस्लाम का संस्थापक कहना उचित हो। क़ुरआन इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अल्लाह की ओर से मानव-जाति के लिए हमेशा एक ही धर्म भेजा गया है और वह है इस्लाम, अर्थात अल्लाह के आगे नत-मस्तक हो जाना। संसार के विभिन्न भागों तथा विभिन्न जातियों में जो नबी भी अल्लाह के भेजे हुये आये थे, वे अपने किसी अलग धर्म के संस्थापक नहीं थे कि उनमें से किसी के धर्म को नूहवाद और किसी के धर्म को इब्राहीमवाद या मूसावाद या ईसावाद कहा जा सके, बल्कि हर आने वाला नबी उसी एक धर्म को पेश करता रहा, जो उससे पहले के नबी पेश करते चले आ रहे थे।
आख़िरत में इनसान की नजात और उसका मुस्लिम व मोमिन क़रार दिया जाना और अल्लाह के मक़बूल बन्दों में गिना जाना इस क़ानूनी इक़रार पर मुन्हसिर नहीं है, बल्कि वहाँ अस्ल चीज़ आदमी का क़ल्बी इक़रार, उसके दिल का झुकाव और उसका राज़ी-ख़ुशी अपने आपको पूरे तौर पर ख़ुदा के हवाले कर देना है। दुनिया में जो ज़बानी इक़रार किया जाता है, वह तो सिर्फ़ शरई क़ाज़ी के लिए और आम इनसानों और मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वे सिर्फ़ ज़ाहिर ही को देख सकते हैं। मगर अल्लाह आदमी के दिल को और उसके बातिन को देखता है और उसके ईमान को नापता है।
क़ुरआन मजीद को अगर सरसरी तौर से भी पढ़ा जाए तो यह बात पहली नज़र में वाज़ेह हो जाती है कि इस्लाम इनसान की पूरी ज़िन्दगी को ख़ुदा के हुक्मों के मुताबिक़ गुज़ारने का नाम है। इसी लिए अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों ने अपनी क़ौम से अपनी पूरी ज़िन्दगी में अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करने का मुतालबा किया। यही मामला अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जो लोग ईमान लाए उनके दिमागों में यह बात बिलकुल वाज़ेह थी और उनकी अमली ज़िन्दगी इस हक़ीक़त की गवाह थी।
क़ुरआन के मुताबिक़ इनसान की गुमराही के तीन सबब हैं— एक यह कि वह ख़ुदा के क़ानून को छोड़कर अपने मन की ख़ाहिशों का ग़ुलाम बन जाए। दूसरा यह कि ख़ुदाई क़ानून के मुक़ाबले में अपने ख़ानदान के रस्म-रिवाज और बाप-दादा के तौर-तरीक़ों को तरजीह (प्राथमिकता) दे। तीसरा यह कि ख़ुदा और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो तरीक़ा बताया है उसको छोड़कर इनसानों की पैरवी करने लगे, चाहे वे इनसान ख़ुद उसकी अपनी क़ौम के बड़े लोग हों या ग़ैर-क़ौमों के लोग।
प्राचीनकाल में जब किसी क्षेत्र की भूमि उपजाऊपन खो देती, धरती अनाज उगलना बंद कर देती, तो लोग इन क्षेत्रों से पलायन करते थे। आधुनिक समय की गुमराही राष्ट्रभक्ति (Nationalism) ने जिसका इतिहास चार-सौ वर्ष से अधिक नहीं, राष्ट्रीय सीमाएँ बनाकर इस पलायन को असंभव बना दिया है। कुछ साल पहले अफ़्रीक़ा में अकाल पड़ा और लोग एक अफ़्रीक़ी देश से दूसरे अफ़्रीक़ी देश जाने लगे तो सीमाओं पर फ़ायरिंग कर के इंसानों को मार दिया गया।
अनस और बिन मसऊद (रज़ि0) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मख़लूक़ (प्राणी) अल्लाह की 'अयाल' (कुम्बा) हैं। इसलिए उसे अपनी मख़लूक़ (जानदार) में सबसे ज़्यादा प्यारा वह है जो उसके कुम्बे से अच्छा सुलूक करे। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत में मुफ़लिस (निर्धन) वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात लेकर आएगा, मगर इस हालत में आएगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया होगा, किसी का (नाहक़) माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा और किसी को मारा होगा।
बर्थ कन्ट्रोल का आन्दोलन है क्या? कैसे आरम्भ हुआ? किन कारणों से उसे तरक्क़ी हुई? और जिन देशों में वह लोकप्रिय हुआ, वहाँ उसके क्या परिणाम निकले! जब तक ये बातें अच्छी तरह बुद्धिगम्य न हो जायेंगी, इस्लाम का पक्ष ठीक-ठीक समझ में न आएगा, और न ही मन को संतोष होगा, इसलिए इस पुस्तिका में हम सब से पहले इन्हीं प्रश्नों पर प्रकाश डालेंगे और अन्त में इस सम्बन्ध में इस्लामी दृटिकोण की व्याख्या करेंगे।
कुरआन मजीद में एक अहम बात यह बयान की गई है की अल्लाह ज़ालिम नहीं है की किसी क़ौम को व्यर्थ ही बर्बाद कर दे, जबकि वह नेक और भला काम करने वाली हो –“और तेरा रब ऐसा नहीं है की बस्तियों को ज़ुल्म से तबाह कर दे, जबकि उस के बाशिंदे नेक अमल करने वालें हों |’’ (कुरआन, सूरा – 11 हूद, आयत – 117)
मनुष्य शरीर ही नहीं आत्मा भी है। बल्कि वास्तव में वह आत्मा ही है, शरीर तो आत्मा का सहायक मात्र है, आत्मा और शरीर में कोई विरोध नहीं पाया जाता। किन्तु प्रधानता आत्मा ही को प्राप्त है। आत्मा की उपेक्षा और केवल भौतिकता ही को सब कुछ समझ लेना न केवल यह कि अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध आचरण है बल्कि यह एक ऐसा नैतिक अपराध है जिसे अक्षम्य ही कहा जाएगा। आत्मा का स्वरूप क्या है और उसका गुण-धर्म क्या है। यह जानना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा के अत्यन्त विमल, सुकुमार और सूक्ष्म होने के कारण साधारणतया उसका अनुभव और उसकी प्रतीति नहीं हो पाती और वह केवल विश्वास और एक धारणा का विषय बनकर रह जाती है।
जब तक ग़लतफ़हमियाँ दूर नहीं होंगी, दंगों का सिलसिला शायद रुक नहीं सकता। मुसलमानों को यहाँ के हिन्दू भाइयों से जो संदेह और आशंकाएं हैं उन्हें उनका कोई प्रतिनिधि ही दूर कर सकता है। अलबत्ता मुसलमानों के बारे में जो ग़लतफ़हमियाँ हिन्दू भाइयों को हैं उनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ बातें पेश की जा रही हैं। इसी के साथ उनकी कुछ शिकायतों का भी उल्लेख किया जा रहा है, ताकि गम्भीरता से उन पर ग़ौर किया जा सके।
यह किताब हज करनेवालों के लिए लिखी गई है। इसमें इस बात की पूरी कोशिश की गई है कि हज के सभी मक़सद और उसकी हक़ीक़त व रूह के तमाम पहलू, जो क़ुरआन और सुन्नत से साबित हैं, पढ़नेवालों के सामने आ जाएँ, साथ ही उन अमली तदबीरों की भी निशानदेही कर दी गई है जिनको अपनाकर उन मक़सदों को हासिल किया जा सकता है और ये सबकुछ ऐसे ढंग से लिखा गया है कि हज की हक़ीक़त और रूह खुलकर सामने आने के साथ दीन के बुनियादी तक़ाज़े भी पूरी तरह उभरकर सामने आ जाते हैं। इस तरह यह किताब दीन की बुनियादी दावत पेश करने के मक़सद को भी बड़ी हद तक पूरा करती है।
इस संक्षिप्त पुस्तिका में हज करने का तरीक़ा स्पष्ट रूप से बयान किया गया है। साथ ही इसमें मदीना मुनव्वरा की हाज़िरी का बयान भी है। हज करनेवालों को ऐसी किताबें ज़रूर पढ़नी चाहिए जिनसे हज का मक़सद, उसकी हक़ीक़त और उसकी रूह के सभी पहलू उनके सामने आ जाएँ।