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इस्लामी इतिहास में क़ुरआन के कुछ बड़े टीकाकार (क़ुरआन लेक्चर - 6)

इस्लामी इतिहास में क़ुरआन के कुछ बड़े टीकाकार (क़ुरआन लेक्चर - 6)

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर नम्बर-6 (12 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण), “मुहाज़राते-क़ुरआनी” जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) पर चर्चा की ज़रूरत दो कारणों से महसूस होती है। पहला कारण तो यह है कि तफ़सीरी अदब (टीका संबंधी साहित्य) में जिस प्रकार से और जिस तेज़ी के साथ व्यापकता पैदा हुई उसके परिणामस्वरूप बहुत-सी तफ़सीरें (टीकाएँ) लिखी गईं। पूरे पवित्र क़ुरआन की विधिवत तथा पूरी टीका के अलावा भी टीका संबंधी विषयों पर सम्मिलित बहुत-सी किताबें तैयार हुईं और आए दिन तैयार हो रही हैं। उनमें से कुछ तफ़सीरों में ऐसी चीज़ें भी शामिल हो गई हैं जो सही इस्लामी विचारधारा को प्रस्तुत नहीं करती हैं। पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थियों को उन तमाम प्रवृत्तियों और शैलियों से अवगत और सचेत रहना चाहिए। इसलिए उचित महसूस होता है कि कुछ ऐसे नामवर, विश्वसनीय और प्रवृत्ति बनानेवाले मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) का उल्लेख किया जाए जो तफ़सीर के पूरे भंडार में प्रमुख और अद्भुत स्थान भी रखते हैं और इस्लामी सोच का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, ये वे दूरदर्शी और बड़े मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन हैं, जिन्होंने पवित्र क़ुरआन के उलूम (विद्याओं) के प्रचार-प्रसार में अत्यंत लाभकारी और सृजनात्मक भूमिका निभाई है, जिनके काम के प्रभाव, परिणाम तथा फल आज पूरी दुनिया के सामने हैं, और जिनकी निष्ठा और काम की उपयोगिता से आज पवित्र क़ुरआन के अर्थ और भावार्थ अपने मूल रूप में हम तक पहुँचे हैं और हमारे पास मौजूद हैं।

क़ुरआन के टीकाकारों पर चर्चा का दूसरा बड़ा कारण यह है कि क़ुरआन के लगभग तमाम बड़े और प्रमुख टीकाकार तफ़सीर की विभिन्न प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व और क़ुरआन को समझने की विभिन्न शैलियों को बयान करते हैं। कुछ तफ़सीरें (टीकाएँ) ऐसी हैं जो अत्यंत सारगर्भित ढंग की हैं, और उनमें सारी मूल प्रवृत्तियों को समो दिया गया है। कुछ तफ़सीरें ऐसी हैं जो इल्मे-तफ़सीर (टीका संबंधी ज्ञान) की किसी विशेष प्रवृत्ति या शैली का प्रतिनिधित्व करती हैं। और अगर क़ुरआन के विद्यार्थी इस विशेष प्रवृत्ति या शैली की जानकारी प्राप्त करना चाहें तो तफ़सीरें उनके लिए ख़ास तौर पर लाभदायक हैं, लेकिन उन विद्यार्थियों के लिए इन तफ़सीरों की उपयोगिता तुलनात्मक रूप से कम होगी जो पवित्र क़ुरआन से केवल सामान्य और आवश्यक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं और तफ़सीर की किसी निर्धारित शैली से दिलचस्पी नहीं रखते। इसलिए आज की चर्चा में इस पूरे विषय की भूमिका और आरंभिक बयान होगा और कल की चर्चा में मुफ़स्सिरीन के मनाहिज (तरीक़ों) पर चर्चा होगी।

जैसा कि इससे पहले भी कई बार उल्लेख किया जा चुका है, तफ़सीरी अदब (साहित्य) के संकलन, संपादन और उसको विस्तार देने की प्रक्रिया प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से शुरू हुई। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की संगत में जितना पवित्र क़ुरआन सीखा, उसको पूरी ईमानदारी और सही तरीक़े के साथ ताबिईन तक स्थानांतरित कर दिया। फिर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की अपनी समझ और अन्तर्दृष्टि और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्रशिक्षण के परिणामों की रौशनी में जो सोच और विवेक तथा दूरदर्शिता उनको प्राप्त हुई उससे काम लेकर उन्होंने नई तफ़सीरी बारीकियाँ (Points) तलाश कीं। फिर उस दौर की परिस्थितियों, संसाधनों, शैली और शब्दकोश पर जो पकड़ प्राप्त थी उसकी रौशनी में उन्होंने पवित्र क़ुरआन की बहुत-सी आयतों और शब्दों की तदधिक व्याख्या की। इन सब कारकों के परिणामस्वरूप अनेक प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को इल्म-तफ़सीर में इतनी विशेषज्ञता प्राप्त हुई कि लोग इस इल्म को सीखने के लिए उनसे सम्पर्क करने लगे।

सन्दर्भ और मूल स्रोत की हैसियत प्राप्त करनेवाले इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में सबसे प्रमुख नाम उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के थे जिनका कई बार उल्लेख इन अभिभाषणों में किया जा चुका है यानी चारों ख़लीफ़ा, और उनके अलावा अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु), आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा),  अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) वग़ैरा-वग़ैरा। इन सबमें तुलनात्मक रूप से अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु)  को विशेष स्थान प्राप्त है। उनको उम्र भी काफ़ी लम्बी प्राप्त हुई। इसी लिए उनके शिष्यों की संख्या भी दूसरों से अधिक थी और उनका चरित्र भी उलूमे-क़ुरआन के प्रचार-प्रसार के बारे में सबसे नुमायाँ है। अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित होने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। चूँकि वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकटतम संबंधी अर्थात् चचेरे भाई थे। फिर उम्मुल-मोमिनीन मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) के भानजे भी थे जो उनकी सगी ख़ाला (मौसी) थीं, इसलिए उन्हें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर के अंदर भी जाने का अक्सर अवसर मिलता रहता था। और कई अवसरों पर उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कुछ ऐसी दिनचर्याओं का भी अवलोकन किया जो किसी और के लिए इतनी आसानी से संभव नहीं था।

एक बार उन्होंने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं देखना चाहता हूँ कि आप रात किस तरह गुज़ारते हैं।” आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसकी अनुमति दे दी और एक रात उन्हें अपने साथ ठहराया। जिस रात आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उम्मुल-मोमिनीन मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) के घर ठहरना था, वह रात  अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर पर गुज़ारी। उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रात गुज़ारने की पूरी कैफ़ियत का अवलोकन किया। और फिर एक विस्तृत उल्लेख में उन सारे हालात को विस्तार के साथ बयान किया कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आराम करने का क्या तरीक़ा था, तहज्जुद के लिए कैसे उठा करते थे, वुज़ू करने का क्या तरीक़ा था, रात की नमाज़ किस तरह अदा किया करते थे, तहज्जुद की नमाज़ कितनी लम्बी होती थी, और इसके बाद क्या करते थे, फ़ज्र की नमाज़ के लिए कैसे तशरीफ़ ले जाते थे। ये सारी तफ़सीलात उन्होंने बयान कीं। इसी तरह और भी बहुत-से अवसर उनको प्राप्त रहे।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से विदा हो जाने के बाद अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की भी क़रीबी संगत और विशेष स्नेह प्राप्त रहा। वह कमो-बेश बारह साल उनके साथ रहे। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनको हमेशा बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के स्थान पर रखा। यहाँ तक कि एक बार जब शाम (सीरिया) और महत्त्वपूर्ण मामलों पर मश्वरा करने के लिए पहली पंक्ति के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को बुलाया गया, तो उनके साथ ही किशोर और नौजवान अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भी बुलाया गया। इस मौक़े पर कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने पूछा कि इतने वयोवृद्ध सहाबा की मौजूदगी में एक कमसिन और नौ-सिखिया नौजवान को किसलिए बुलाया गया है तो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने सीधे कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब महफ़िल का आरंभ हुआ तो उन्होंने वहाँ मौजूद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से कोई सवाल किया। लेकिन वहाँ मौजूद लोगों में से अधिकतर लोग इस सवाल का जवाब नहीं दे सके। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इशारे पर इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उसका वह जवाब दिया कि सब लोग आश्चर्यचकित रह गए। उस समय लोगों की समझ में आया कि उन्हें अपनी कमसिनी के बावजूद इसलिए बुलाया गया था।

इसके अलावा अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से भी एक ख़ास लगाव था। दोनों आपस में चचेरे भाई थे। दोनों का आपस में वही रिश्ता था जो दोनों का अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से था। इसलिए अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज्ञान से भी उनको लाभान्वित होने के बहुत-से अवसर प्राप्त हुए। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िलाफ़त के ज़माने में अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की गणना उनके निकटतम मित्र और विश्वासपात्र सलाहकारों में होती थी। इस लगातार संगत से उनको अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इल्म और ज्ञान से लाभान्वित होने के बहुमूल्य अवसर प्राप्त हुए। यों अब्दुलल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उलूमे-क़ुरआन में दक्षता प्राप्त करने के वे तमाम संभावित साधन प्रयोग किए जो किसी और व्यक्ति को प्राप्त न हो सकते थे।

इन सब अवसरों एवं साधनों से बढ़कर अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अल्लाह तआला की ओर से ज्ञान प्राप्त करने की असाधारण रुचि भी प्रदान की गई थी। वह गर्मी और सर्दी की परवाह किए बिना और दिन-रात का ख़याल किए बिना विभिन्न बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की सेवा में उपस्थित हुआ करते थे और उनसे वे तमाम मसाइल (अहम बातें) मालूम किया करते थे जो क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी थे। एक बार पवित्र क़ुरआन की किसी आयत पर चिन्तन-मनन कर रहे थे। चिन्तन-मनन के दौरान में अंदाज़ा हुआ कि मामला अटक गया है और बात पूरी तरह समझ में नहीं आ रही। सख़्त गर्मी का ज़माना था और तप्ती हुई दोपहर थी। किसी अंसारी सहाबी की तरफ़ ध्यान गया कि हो सकता है कि उनके पास इस आयत का इल्म मौजूद हो। उसी वक़्त घर से निकले और सहाबी के दरवाज़े पर जा पहुँचे। जाने के बाद अंदाज़ा हुआ कि सहाबी संभवतः आराम कर रहे हैं। उनके आराम में विघ्न डालना उचित नहीं समझा और उनके घर की दहलीज़ पर ही बैठ गए। गर्म-गर्म लू के थपेड़े उनके चेहरे को झुलसाते रहे। धूल भरी हवा के साथ सूखे और ख़ुश्क पत्ते उड़-उड़कर उनके बालों में फँसते रहे। लेकिन वह सब्र और साहस से वहीं बैठे इंतिज़ार करते रहे, यहाँ तक कि जब थकन से नींद आ गई तो एक पत्थर पर सिर रखकर सो गए।

अस्र का वक़्त हुआ। सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) नमाज़ अदा करने के लिए घर से बाहर निकले। देखा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चचेरे भाई गर्मी में पत्थर पर सिर रखे सो रहे हैं। वह एक दम घबरा से गए और यह दृश्य देखकर परेशान हो गए, अनायास बोले, “ऐ अल्लाह के रसूल के भाई! आपने मुझे याद कर लिया होता। आप ख़ुद क्यों तशरीफ़ लाए?” अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, “इल्म के पास उपस्थित हुआ जाता है। इल्म ख़ुद चलकर नहीं आता।” इससे अंदाज़ा होता है कि उन्होंने कितनी मेहनत से पवित्र क़ुरआन का ज्ञान प्राप्त किया था।

अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शिष्यों की भी बहुत बड़ी संख्या है, जिन्होंने बड़े पैमाने पर उनसे ज्ञान प्राप्त किया। अगरचे उनके शिष्यों की एक लम्बी सूची मिलती है, लेकिन उनके शिष्यों में सबसे नुमायाँ नाम मुजाहिद-बिन-जब्र का है। यह 21 हिजरी में पैदा हुए, ये उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ज़माना था। बड़े सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) जीवित थे और हर ओर क़ुरआन समझने की चर्चाएँ थीं। इस वातावरण में मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इल्म तो बहुत-से सहाबा से हासिल किया, लेकिन वे अस्ल शिष्य इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ही के रहे। होश संभालने से लेकर अब्दुल्लाह-बिन-अबास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इंतिक़ाल तक वह उनके साथ रहे और उनसे तमाम ज्ञान एवं कलाएँ प्राप्त कीं। पवित्र क़ुरआन के ज्ञान पर आख़िरकार उनको वह पकड़ प्राप्त हुई जो अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शिष्यों में से किसी और को प्राप्त नहीं हुई।

उनकी तमाम उम्र मक्का मुकर्रमा में गुज़री। वहाँ शिक्षक का पद जो अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने संभाल रखा था, वह 68 हिजरी में उनके इंतिक़ाल के बाद मुजाहिद ने संभाल लिया।

मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कमो-बेश पच्चीस साल शिक्षक का पदभार संभाला और हज़ारों इल्म के प्यासों को तृप्त किया। 104 हिजरी में हरम शरीफ़ में सजदे की हालत में उनका इंतिक़ाल हुआ। उनकी संकलित की हुई एक तफ़सीर है, जो ‘तफ़सीरे-मुजाहिद-बिन-जब्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह तफ़सीर काफ़ी समय से अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सकी थी। अलबत्ता उसके तमाम महत्त्वपूर्ण विषय और मूल भावार्थ बड़े-बड़े मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने अपनी-अपनी किताबों में दर्ज कर रखे थे। यह सौभाग्य इदारा तहक़ीक़ाते-इस्लामी के एक विद्वान मौलाना अब्दुर्रहमान ताहिर सूरती मरहूम को प्राप्त हुआ जिन्होंने इस किताब को अनेक हस्तलिखित लेख्य और टीका संबंधी प्राचीन मूल स्रोतों की मदद से बड़ी मेहनत से संपादित करके संकलित कर दिया और क़तर सरकार के ख़र्च पर आज से 35 साल पहले एक मोटी किताबी शक्ल में बड़े साइज़ पर प्रकाशित कराया।

मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जो तफ़सीरी रिवायतें अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से नक़्ल की हैं उनको इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने भी अपनी-अपनी किताबों में जगह दी है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की जामे सहीह बुख़ारी में बहुत-सी जगहों पर विशेषकर किताबे-तफ़सीर में पवित्र क़ुरआन की बहुत-सी आयतों की व्याख्या में अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) और मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हवाले दिए गए हैं। यों इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने अबदुल्लाह-बिन-अब्बास के ज्ञान एवं कलाओं को आगे आनेवालों के लिए सुरक्षित कर दिया। इसी तरह इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) की किताबों, विशेषकर अहकामुल-क़ुरआन, अहकामुल-हदीस और इख़तिलाफ़ुल-हदीस में जगह-जगह जहाँ अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के तफ़सीरी कथनों को मुजाहिद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हवाले से उद्धृत किया गया है, वहीं ख़ुद मुजाहिद के कथनों को भी जगह दी गई है।

मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूरा पवित्र क़ुरआन 30 बार अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पढ़ा। यह 30 बार तो इस तरह आम अंदाज़ में पढ़ा जिसमें उन्होंने पवित्र क़ुरआन की हर आयत के अर्थ और मतलब को उनसे सुना और समझा। लेकिन तीन बार पूरे पवित्र क़ुरआन को आरंभ से लेकर अन्त तक इस तरह ध्यानपूर्व और गहराई से पढ़ा कि उनके अपने शब्द हैं, “मैं हर आयत पर ठहरता था और पूछता था कि यह किस बारे में अवतरित हुई और किस स्थिति में अवतरित हुई, जब अवतरित हुई तो उसके क्या प्रभाव सामने आए और क्या परिणाम सामने आए। इस तरह एक-एक आयत के बारे में उनसे इल्म हासिल किया। मानो उन्होंने 33 बार पूरे पवित्र क़ुरआन का आरंभ से लेकर आख़िर तक सबक़ लिया और अन्ततः तफ़सीर के बहुत बड़े इमाम क़रार पाए। मुजाहिद-बिन-जब्र कहते हैं कि मैं अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से जो भी सुनता था उसे लिखता जाता था और अपने लिखित भंडार को बार-बार उनसे पूछ-पूछ कर बेहतर बनाता रहता और अपनी लिखित याददाश्तों का सुधार किया करता था और उन्हें बेहतर से बेहतर बनाने की कोशिश में लगा रहता था। मुजाहिद की तफ़सीरी रिवायतें हदीस की तमाम किताबों, विशेषकर सिहाहे-सित्ता में शामिल हैं। सिहाहे-सत्ता में बहुत कम उल्लेखकर्ता ऐसे हैं जिनकी रिवायतें हदीस की उन छः की छः किताबों में मौजूद हों। मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) उन अति विश्वस्त भाग्यशाली विद्वानों में से हैं जिनकी रिवायतें सिहाहे-सित्ता की हर किताब में मौजूद हैं। इससे अंदाज़ा होता है कि वह किस दर्जे के इंसान थे और उनके काम को कितना अधिक सराहा गया।

मुजाहिद-बिन-जब्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अलावा ताबिईन में क़ुरआन के टीकाकारों की एक बड़ी संख्या और भी है जिनसे तफ़सीरी (टीका संबंधी) रिवायतें नक़्ल हुई हैं। इन ताबिईन में से एक बहुत बड़ी संख्या तो उन लोगों की है जो ख़ुद अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) या दूसरे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के शिष्य हैं। और फिर वे लोग हैं जिनको प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से सीधे लाभान्वित होने का तो अधिक अवसर नहीं मिला, अलबत्ता उन्होंने बड़े ताबिईन से इल्म हासिल किया। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करनेवाले ताबिईन में अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शिष्य और अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कूफ़ा में रहने के दौरान में इल्म हासिल करनेवालों की एक बड़ी संख्या शामिल थी। इन सब का तफ़सीरी भंडार जैसे-जैसे पुस्तक रूप में आता गया दूसरों तक पहुँचता गया।

पहली सदी हिजरी इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्व रखती है कि सहाबा और ताबिईन के द्वारा आनेवाले तमाम भंडार और तमाम रिवायतें लिखित रूप में आ गईं और एक-दूसरे को उपलब्ध हो गईं। उदाहरण के तौर पर अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनका आवास अधिकतर मक्का मुकर्रमा या ताइफ में रहा। मक्का मुकर्रमा में तो उनकी रिवायतें उनके शिष्यों को उपलब्ध थीं, लेकिन अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो कूफ़ा में रह रहे थे, उनकी रिवायतों का काफ़ी बड़ा हिस्सा शुरू-शुरू में मक्का मुकर्रमा के कुछ ताबिईन को उपलब्ध नहीं था। इसी तरह कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जो दमिश्क (Syria) में थे, जैसे कि अबू-दरदा (रज़ियल्लाहु अन्हु) या उबादा-बिन-सामित (रज़ियल्लाहु अन्हु), उनकी रिवायतें कूफ़ा और मदीनावालों को शुरू-शुरू में प्राप्त नहीं थीं, लेकिन पहली सदी हिजरी के अन्त तक जब इन तमाम ताबिईन ने अपने-अपने भंडार लिखित रूप में संपादित एवं संकलित कर लिए और उन्हें किताबी रूप दे दिया तो फिर ये प्रतियाँ एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में पहुँचनी शुरू हो गईं और यों दूसरी शताब्दी हिजरी के आरंभ तक का तमाम ज्ञान का भंडार सारे ताबिईन तक पहुँच गया।

अब दूसरी सदी हिजरी में इस काम का एक दूसरा चरण शुरू हुआ जिसका विसतृत विवरण अगर देखा जाए तो आश्चर्य होता है कि अल्लाह तआला ने इंसानों से इतना बड़ा काम ले लिया। जहाँ तक अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से उल्लिखित सामग्री का संबंध था वह तो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के द्वारा सामने आ गया, उन्होंने ताबिईन तक पहुँचा दिया। ताबिईन ने पूरी सामग्री को संकलित कर लिया और एक-दूसरे तक पहुँचा दिया। और यों पहली सदी हिजरी के अन्त तक यह सारा काम संकलित एवं संपादित संग्रहों के रूप में पुस्तकों में आ गया। यह सारा तफ़सीरी संग्रह वह था जो अधिकतर हदीसों और ‘आसार’ (सहाबा के कथनों एवं कर्मों) पर आधारित था।

लेकिन पवित्र क़ुरआन की टीका का एक पहलू वह था जिसका संबंध भाषा एवं साहित्य तथा शब्दकोश से था। शब्दकोश के संग्रह को सुरक्षित करने के लिए भाषाविद लोग मैदान में आए और उन्होंने इतनी सूक्षमता एवं मेहनत तथा मनोयोग से इस काम को किया कि उन्होंने पवित्र क़ुरआन और हदीसों का हर वह शब्द, हर वह इबारत और हर वह वाक्य जिसको समझने के लिए किसी प्राचीन शेअर की या किसी प्राचीन साहित्यिक सन्दर्भ की ज़रूरत थी या लोकोक्ति और मुहावरे के बारे में स्पष्टीकरण चाहिए था कि इन सबसे संबंधित आवश्यक, ज्ञानपरक, शाब्दिक और साहित्यिक पाठ्य-सामग्री को पूरे अरब में घूम-फिरकर जमा किया। वे व्यक्तित्व जिन्होंने यह काम किया उनकी संख्या बहुत बड़ी है। सबका उल्लेख तो यहाँ नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ एक महान व्यक्त्तित्व का हवाला यहाँ देता हूँ।

अब्दुल-मलिक अस्मई इस शान के इंसान थे कि एक बार तत्कालीन ख़लीफ़ा ने उन्हें किसी दूसरे देश में राजनयिक और एलची के तौर पर भेजा। संभवतः रोमी साम्राज्य की ओर भेजे गए थे। वहाँ जब वह सन्देश लेकर गए और चर्चा करके वापस आ रहे थे तो उस देश के बादशाह ने जवाबी ख़त में मुसलमान ख़लीफ़ा को लिखा कि अगर आप उन्हें मेरे देश में ठहरने की इजाज़त दे दें तो जो क़ीमत आप कहेंगे में अदा चुकाऊँगा, इसलिए कि मैंने अपनी ज़िंदगी में इतना बुद्धिमान इंसान नहीं देखा। यह थे अब्दुल-मलिक अस्मई। उनकी अस्ल शोहरत एक साहित्यकार और एक शब्दकोश विशेषज्ञ तथा एक आलोचक के तौर पर रही है। लेकिन उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सत्तर साल इस प्रयास में गुज़ारे कि अरब के कोने-कोने में गए, एक-एक क़बीले में फिरे और रेगिस्तानों में ऊँट की, गधे की और ख़च्चर की पीठों पर और पैदल सफ़र किया। कोशिश थी कि अरबी भाषा की जितने शैलियाँ, लोकोक्तियाँ, लिपियाँ वाक्य और मुहावरे किसी न किसी हैसियत से पवित्र क़ुरआन को समझने के लिए अपरिहार्य हैं उन्हें एकत्र कर लिया जाए। कभी सुना कि अमुक क़बीले में एक बूढ़ा आदमी है, जिसकी ज़बान बहुत प्रवाहित और उच्च स्तरीय है और प्राचीन भाषा-शैलियाँ जानता है। उसके पास जा कर महीनों रहे, ज़ाहिर है कि ज्ञान एवं साहित्य सिखाने और जानकारी उपलब्ध करने के लिए लोग हर समय ख़ाली तो नहीं बैठे होते थे। कोई सफ़र पर गया हुआ होगा, कोई बीमार होगा और कोई व्यस्त होगा। अतः उन लोगों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए ठहरना भी पड़ता था। उनका इंतिज़ार भी करना पड़ता था। खाने और रहने का प्रबंध भी करना पड़ता था। ठहरने का प्रबंध भी मुश्किल से होता होगा। अपने नोट्स भी साथ रखते होंगे। आज उन मुश्किलों का अंदाज़ा करना संभव नहीं जो इस सारी प्रक्रिया में विद्वानों को पेश आती होंगी। इन सब मुश्किलों के बावजूद उन्होंने 70 साल यह काम किया और पवित्र क़ुरआन की शाब्दिक और साहित्यिक शैलियों के बारे में इतनी सामग्री इकट्ठा कर गए कि फिर हमेशा के लिए दुनिया को इस काम से मुक्त कर दिया। इस काम से दिलचस्पी लेनेवाले अस्मई की तरह के और लोग भी थे। लेकिन यह उनमें सबसे नुमायाँ थे।

इस तरह उद्धरण और उल्लेखों से संबंधित संकलन एवं सम्पादन का काम तो पहली सदी में पूरा हो गया। जो काम भाषा, शब्दकोश और साहित्य से संबंधित था वह दूसरी सदी हिजरी में पूरा हो गया। ये तमाम लिखित तफ़सीरी संग्रह अब्दुल-मलिक अस्मई और उनके समय के विद्वानों के साहित्यिक और शब्दकोशीय संग्रह, सब दूसरी सदी हिजरी के समाप्त होने से पहले-पहले संकलित हो गए। दूसरी सदी हिजरी के जिन विद्वानों ने क़ुरआनी भाषा और क़ुरआनी साहित्य-शास्त्र की यह सेवा की उनमें अबुल-अब्बास सालब, अल-मुबर्द, मुफ़ज़्ज़ल ज़मी, यह्या-बिन-ज़याद अल-फ़रा आदि शामिल थे।

जब तीसरी सदी का आरंभ हुआ तो पवित्र क़ुरआन के तमाम विद्यार्थियों के सामने यह सारी सामग्री संकलित अवस्था में मौजूद थी। लिखित संग्रह के रूप में भी, दर्स देनेवालों के रूप में भी और विभिन्न मदरसों और मकतबों के रूप में भी जहाँ दर्से-क़ुरआन देनेवाले मौजूद थे। अब गोया तीसरी सदी हिजरी में वह चरण आया कि पवित्र क़ुरआन की व्यापक तफ़सीरें संकलित की जाएँ। ऐसी तफ़सीरें जिनमें प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के माध्यम से आनेवाली तमाम रिवायतें भी मौजूद हों, ताबिईन के माध्यम से आनेवाला सारा इल्म भी एकत्र हो, भाषा और साहित्य से संबंधित वह सारा संग्रह जो अस्मई और उनके समय के लोगों के माध्यम से आया था उससे भी काम लिया गया हो, और उस वक़्त तक पवित्र क़ुरआन के बारे में जो कुछ भी लोगों ने सोचा वह भी सारा का सारा मौजूद हो।

फिर पहली सदी हिजरी के अन्त ही से विद्वानों की एक बहुत बड़ी संख्या ने पवित्र क़ुरआन के फ़िक़ही (धर्मशास्त्र संबंधी) आदेशों पर इस दृष्टिकोण से विशेष रूप से चिन्तन-मनन आरंभ कर दिया था कि किस आयत से कितने आदेश निकलते हैं, और पवित्र क़ुरआन के कौन-से शब्दों में कौन-सी शैली ऐसी प्रयुक्त हुई है जिससे कोई नया आदेश मालूम होता है। यह इतना बड़ा और इतना असाधारण काम था जिसका उदाहरण मानव इतिहास में नहीं मिलता। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के बारे में उनका वृत्तांत लिखनेवालों ने लिखा है कि उन्होंने पवित्र क़ुरआन की आयतों से प्रत्यक्ष रूप से जितने आदेश निकाले हैं, उनकी संख्या छियासी हज़ार (86,000) से अधिक है, और उनके संकलित किए हुए आदेशों की रौशनी में उनके शिष्यों और उनसे संबद्ध लोगों ने जो और तफ़रीआत (गौण आदेश और अमौलिक विवरण) संकलित की हैं इन सबको अगर एकत्र किया जाए तो उनकी संख्या दस लाख बनती है। यानी उन्होंने पवित्र क़ुरआन की कुछ सौ आदेशवाली आयतों से दस लाख छियासी हज़ार आदेश निकाले।

इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) का प्रिय और सम्मानित नाम हम सबने सुना है। वह अपने ज़माने के सबसे नामवर क़ुरआन के टीकाकारों, हदीस के संकलनकर्ताओं और इस्लामी धर्मशास्त्रों में से हैं, इस्लामी इतिहास क्या चीज़ है, मानव इतिहास के पहली पंक्ति के कुछ क़ानूनी दिमाग़ों में से एक हैं। अगर मानव इतिहास के दस उत्तम क़ानूनी दिमाग़ों की कोई सूची बनाई जाए तो इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) अवश्य ही उनमें से एक होंगे। उन्होंने मानवता को उसूले-फ़िक़्ह (धर्मशास्त्रीय नियम) का इल्म दिया। आज दुनिया के हर क़ानून में इल्म-उसूले-क़ानून, यानी jurisprudence पढ़ा और पढ़ाया जाता है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) इस मुश्किल और गहरी कला के आविष्कारक हैं। इससे आप अंदाज़ा कर लीजिए कि जो उसूले-क़ानून जैसे असाधारण इल्म को सम्पादित कर डाले वह किस दर्जे का इंसान होगा।

इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के शिष्य इमाम अहमद-बिन-हंबल (रहमतुल्लाह अलैह) को भी हर मुसलमान जानता है। उनके बारे में इमाम इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाह अलैह) का यह वाक्य दोहरा देना काफ़ी है कि इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) से मुहब्बत इस बात की काफ़ी दलील है कि इस इंसान को सुन्नते-रसूल से मुहब्बत है। यानी जिस व्यक्ति को सुन्नते-रसूल से मुहब्बत होगी उसको इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) से अवश्य ही मुहब्बत होगी। उनका स्थान एवं रुत्बा स्पष्ट करने के लिए यह एक वाक्य ही काफ़ी है। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की ज़िंदगी असाधारण रूप से इबादत और अल्लाह की ओर प्रवृत्त होने की गतिविधियों में गुज़रती थी। वह इस मामले में अपने ज़माने में एक मिसाल थे कि उनके दिन इल्मे-हदीस की शिक्षा देने में और उनकी रातें अल्लाह के आगे सजदे में और अपने जाने-अनजाने गुनाहों की माफ़ी माँगने में गुज़रा करती थीं। लेकिन जब भी इबादत से निवृत होते तो यह दुआ करते कि “ऐ अल्लाह! इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) की उम्र में बरकत अता कर।” उनका अपना बयान है कि मैंने पिछले तीस वर्षों में कोई एक नमाज़ भी ऐसी नहीं पढ़ी जिसमें मैंने इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के लिए दुआ न की हो।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) की एक नन्ही-सी बच्ची थी जो यह सोचा करती थी कि मेरे पिता इतनी असाधारण इबादत करते हैं कि दुनिया उनकी इबादत को मिसाल समझती है। वह कहती कि आख़िर इससे ज़्यादा क्या इबादत संभव है कि दिन मस्जिद में हदीस पढ़ाने में गुज़ारें और रातें मुसल्ले पर खड़े होकर इबादत में? इन दो व्यस्तताओं के अलावा मेरे पिता को किसी चीज़ से मतलब नहीं है। वह यह भी सोचा करती कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) जिनके लिए मेरे पिता हर वक़्त दुआ करते हैं, आख़िर वह किस दर्जे के इंसान होंगे और आख़िर उनकी इबादत गुज़ारी किस दर्जे और किस शान की होगी। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) क़ाहिरा में रहते थे और इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) बग़दाद में रहा करते थे। क़ाहिरा और बग़दाद का फ़ासला इतना था कि अगर आप उस ज़माने की दृष्टि से देखें तो मुलाक़ात भी किसी तरह नहीं हो सकती थी।

संयोग से ऐसा हुआ कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) का सन्देश इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) को मिला कि मैं बग़दाद आना चाहता हूँ। इसलिए कि बग़दाद में अमुक मुहद्दिस के इल्म में एक हदीस है और मैं उनसे ख़ुद इस हदीस को सुनने के लिए आना चाहता हूँ। उनकी उम्र इतनी हो गई है कि मुझे ख़तरा है कि वह दुनिया से चले न जाएँ। चुनाँचे उनसे एक रिवायत सुनने के लिए उन्होंने क़ाहिरा से बग़दाद का सफ़र किया। उस ज़माने में न रेलगाड़ियाँ होती थीं, और न जहाज़ होते थे। लेकिन क़ाफ़िले चला करते थे, और क़ाफ़िलों को संगठित करनेवाले होते थे, जैसे आजकल ट्रैवल एजेंट होते हैं। उन्हें ‘जमाल’ कहा जाता था। वे एक शहर से दूसरे शहर तक कारवाँ लेकर जाया करते थे। अकेले सफ़र करना मुश्किल होता था। रास्ते में न खाने का इंतिज़ाम है, न पानी है, और न सराय। अलबत्ता पूरा कारवाँ जब चलता तो उसमें चार सौ, पाँच सौ लोग होते थे। वह अपना प्रबंध भी करता था और खाने-पीने का इंतिज़ाम भी उसके ज़िम्मे होता था। और रास्ते में अपनी सुरक्षा का प्रबंध भी उसी को करना होता था। इसलिए लोग बहुत पहले से क़ाफ़िले में बुकिंग करा लिया करते थे। एलान हो जाता था कि अमुक तिथि को क़ाफ़िला रवाना होगा। जिसे जाना हो वह पैसे जमा करा दे और क़ाफ़िले में शामिल होकर रवाना हो जाए। चुनाँचे इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने भी अपने किराए के पैसे जमा करवाए और क़ाफ़िले के साथ रवाना हो गए। किराए के पैसे पहले से जमा करवाने पड़ते थे और खाने के पैसे साथ ले लिए जाते थे और वक़्त पर जमा करवाने पड़ते थे। इसलिए कि जिस जगह क़ाफ़िला पड़ाव डाला करता था, उस जगह आस-पास से लोग आकर दुकानें भी लगाया करते थे। उनसे क़ाफ़िलेवाले नक़द पैसों पर खाना लिया करते थे। इस तरह कई माह का सफ़र करके इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) बग़दाद पहुँच गए।

इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ ही ठहरे। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपनी कम-सिन बेटी को विशेष निर्देश दे दिया कि तुम्हें मेरे उस्ताद का ख़ास ख़याल रखना है। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाए। अब बच्ची को बड़ी जिज्ञासा पैदा हुई कि अब यह देखने का मौक़ा मिलेगा कि उनकी रात की इबादत कैसी होती है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने इशा की नमाज़ मस्जिद में जाकर अदा की और वापस आकर आराम करने के लिए बिस्तर पर लेट गए। बच्ची थोड़ी-थोड़ी देर में अपने पिता के कमरे का दरवाज़ा खोलकर देखती कि वह मुसल्ले पर खड़े हैं और रो रहे हैं। फिर इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के कमरे का दरवाज़ा खोलकर देखती कि वह बिस्तर पर लेटे हैं और सो रहे हैं। उसको ख़याल हुआ कि शायद आज सफ़र से आए हुए हैं। थकन की वजह से सो गए हैं। शायद तहज्जुद में उठेंगे। लेकिन इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) तहज्जुद में भी नहीं उठे। फ़ज्र की अज़ान पर भी नहीं उठे। जब इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) फ़ज्र की नमाज़ के लिए मस्जिद जाने लगे तो उन्होंने आवाज़ दी कि जमाअत तैयार है तशरीफ़ ले चलिए। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने चादर उतारकर फेंकी और उनके साथ मस्जिद चल दिए। बच्ची हैरानी से यह सारा दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि मालूम नहीं क्या मामला है। वैसे तो मेरे पिता के भी शैख़ और उस्ताद हैं, मगर तमाम रात सोते रहे। सुबह को फ़ज्र की नमाज़ के लिए वुज़ू के बिना ही मस्जिद में चले गए और वुज़ू का पानी ज्यों का त्यों रखा रहा। आख़िर मेरे पिता उनके किस अमल (कर्म) के कारण उनके इतने समर्थक हैं कि हर समय उनके लिए दुआ करते रहते हैं। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) सुन्नत के मुताबिक़ फ़ज्र के बाद मस्जिद में बैठे रहे और ज़िक्र (अल्लाह के नामों का जाप) करते रहे। सूरज निकलने के बाद इशराक़ की नफ़्ल नमाज़ अदा करके घर वापस आए कि सुन्नत तरीक़ा यही है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) फ़ज्र पढ़कर ही वापस आ गए और फिर बिस्तर पर लेट गए। जब दस्तरख़्वान लग गया और उन्हें नाश्ते के लिए बुलाया गया तो वह दो बारा चादर फेंककर नाश्ते के लिए आकर बैठ गए। अब यह बच्ची भी देखती थी कि उसके पिता हमेशा से बहुत थोड़ा खाते हैं। उसने शायद यही सुना था कि बुज़ुर्ग बहुत थोड़ा खाते हैं। लेकिन इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) को देखा कि उन्होंने ख़ूब डटकर नाश्ता किया। उसने यह सोचा कि अगर यह सचमुच बुज़ुर्ग हैं तो उनके अन्दर ये बातें क्यों हैं? और अगर उनके अन्दर ये बातें हैं तो फिर यह बुज़ुर्ग किस तरह हैं?

इसी दौरान में इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलै

ह) ने उस्ताद से पूछा कि “रात आराम से गुज़री? ठीक तरह से सो गए थे?” इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने जवाब दिया कि “रात तो अल्लाह तआला के फ़ज़्ल (कृपा) से आराम से गुज़री, मगर मैं सोया एक पल के लिए भी नहीं।” उन्होंने पूछा, “क्या वजह हुई?” इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने जवाब दिया कि “रात जब तुमने इशा की नमाज़ पढ़ाई तो तुमने यह आयत तिलावत की, وَإِن كَانَ ذُو عُسْرَةٍۢ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيْسَرَةٍۢ ۚ (वइन का-न ज़ू उस-रतिन फ़-नज़ि-रतुन इला मैस-र) यह सूरा बक़रा की आख़िरी आयतों में से है। इसमें कहा गया है कि अगर क़र्ज़ लेनेवाला तंगदस्त हो तो उस समय तक मुहलत दी जाए जब तक उसे समृद्धि न प्राप्त हो जाए।” इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि “इस आयत को सुनकर मेरे ज़ेहन में यह बात आई कि इस आयत से तो इस्लामी क़ानूने-इफ़्लास (दारिद्र क़ानून) निकलता है। फिर मैंने विचार किया तो मेरे ज़ेहन में यह ख़याल आया कि इस क़ानूने-इफ़्लास का आधार नैतिक सिद्धांतों पर है। फिर मुझे ख़याल आया कि इससे तो यह आदेश भी निकलता है,  इसके बाद ख़याल आया कि इस से तो अमुक आदेश भी निकलता है।” वह बयान करते गए और इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) सुनते गए। फिर उन्होंने कहा कि “जब मैं 108वें मसले पर पहुँचा तो तुमने मुझे फ़ज्र की नमाज़ के लिए आवाज़ दी।” अब जाकर बच्ची को मालूम हुआ कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) की एक रात मेरे पिता की हज़ारों रातों के ऊपर भारी है। इसलिए कि उसके पिता जो कुछ कर रहे हैं, अपने स्वयं के लिए कर रहे हैं। और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) जो भी कर रहे हैं वह पूरी उम्मत (समाज) के लिए है, और उम्मत आज तक उनके इस काम से लाभान्वित हो रही है। मुसलमानों में आज लगभग 40-45 करोड़ इंसान हैं जो इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) द्वारा व्याख्यायित किए गए शरई आदेशों के अनुसार इस्लाम की शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। उनके ये प्रभाव तो आज भी हमारे सामने हैं।

सवाल का दूसरा हिस्सा अगरचे विषय से संबंधित नहीं है लेकिन बच्ची के दिल में यह भी ख़याल था कि यह ज़्यादा क्यों खाते हैं। हो सकता है कि आपके ज़ेहन में भी सवाल पैदा हो। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) ने उनसे पूछा कि आपका सफ़र कैसा गुज़रा। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि “सफ़र में थोड़ी-सी परेशानी रही। इसलिए कि जब मैं क़ाहिरा से रवाना हुआ तो मेरे साथ पैसों की जो थैली थी, दिरहम और दीनार की, वह रास्ते में गुम हो गई। अब मेरे सामने दो ही रास्ते थे। एक तो यह कि क़ाहिरा वापस चला जाऊँ और दोबारा पैसों का प्रबंध करके आऊँ। इस अन्तराल में यह क़ाफ़िला निकल जाता और जिस मुहद्दिस की सेवा में जा रहा हूँ वह बूढ़े हो चुके हैं, मालूम नहीं कब दुनिया से विदा हो जाएँ। दूसरा रास्ता यह था कि अल्लाह का नाम लेकर रवाना हो जाऊँ कि जो होगा देखा जाएगा। मैंने इस दूसरे रास्ते पर अमल करने को प्राथमिकता दी। मेरे क़ाफ़िले के साथियों ने मेरा बहुत सम्मान और सेवा की लेकिन मुझे उनकी आय पर बहुत ज़्यादा भरोसा नहीं था कि जायज़ है या नाजायज़। इस स्थिति में शरीअत का आदेश यह है कि जब इंसान की जान पर बन जाए तो सन्दिग्ध आमदनी में से आवश्यकतानुसार खा सकता है। इसलिए मैंने तीसरे-चौथे दिन उनसे आवश्यकतानुसार खाना क़ुबूल किया और पूरे छः माह के सफ़र में शिकम सैर होकर खाना न खा सका। आज पहली बार मुझे हलाल और जायज़ खाना मिला। दूसरे यह कि मैंने हमेशा महसूस किया कि हलाल रिज़्क़ में एक ख़ास नूर होता है जिसका अंदाज़ा दस्तरख़्वान पर बैठ कर ही हो जाता है। आज तुम्हारे दस्तरख़्वान पर बैठकर मुझे जितना नूर नज़र आया था किसी और दस्तरख़्वान पर कभी नज़र नहीं आया था, इसलिए मैंने आज इस नूर से ख़ूब फ़ायदा उठाया। उनकी इस बात से बच्ची के दूसरे सवाल का जवाब भी मिल गया। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) फ़िक़्ह के बहुत-से इमामों में से एक इमामे-फ़िक़्ह थे और उनकी तरह के अल्लाह तआला ने फ़िक़्ह के सैकड़ों इमाम पैदा किए थे। उन्होंने एक रात में पवित्र क़ुरआन के तीन शब्दों से 108 मसाइल (शरई आदेश) निकाल लिए। कितने फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने कितने मसाइल पवित्र क़ुरआन से निकाले होंगे। इसका अब कुछ न कुछ अंदाज़ा आप में से हर व्यक्ति कर सकता है।

यह सारा काम दूसरी सदी हिजरी में हुआ। यह सामग्री की उपलब्धता का काम था। जो रिवायत से आनी थी वह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के माध्यम से आ गई। जो शब्दकोश के द्वारा आनी थी वह अस्मई और उनके समकालीनों के माध्यम से आ गई, और जो मौलिक सिद्धांतों और नियमों पर चिन्तन-मनन का काम था वह इन फ़ुक़हा-ए-इस्लाम (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) और अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (क़ुरआन एवं हदीस के गहन अध्ययन के बाद अपनी राय से शरई आदेश निर्धारित करनेवालों) ने किया।

जब तीसरी सदी हिजरी आरंभ हुई तो जामे तफ़सीरों (सारगर्भित टीकाओं) का काम शुरू हुआ। और बहुत-से लोगों ने इस सारी सामग्री से काम लेकर जामे तफ़सीरें तैयार करनी शुरू कीं। इन जामे तफ़सीरों में सबसे उल्लेखनीय और प्राचीनतम जामे तफ़सीर जो पवित्र क़ुरआन के तमाम पहलुओं से बहस करती हो और संकलित रूप में पूरे पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर बयान करती हो और कुछ चुनिंदा आयतों ही की तफ़सीर पर आधारित न हो, वह इमाम तबरी की ‘जामेउल-बयान फ़ी तफ़सीरे-आयातिल-क़ुरआन’ है। पहले उन्होंने एक बहुत सारगर्भित और विस्तृत तफ़सीर भी लिखी थी, जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि वह तीस हज़ार पृष्ठों पर आधारित थी। जब इमाम तबरी इस लम्बी और विस्तृत तफ़सीर को लिखकर पूरी कर चुके तो उन्हें ख़याल आआ कि ऐसा न हो कि लोगों के लिए इतनी विस्तृत तफ़सीर पढ़ना मुश्किल हो जाए। इसलिए ज़रूरी है कि मैं एक संक्षिप्त तफ़सीर तैयार करूँ। चुनाँचे उन्होंने तुलनात्मक रूप से एक संक्षिप्त तफ़सीर तैयार की जो आज ‘तफ़सीरे-तबरी’ के रूप में हमारे पास मौजूद है। यह तफ़सीर 30 भागों पर आधारित है। और लगभग एक पारा एक भाग में है।

इमाम तबरी प्रसिद्ध इतिहासकार भी हैं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘तारीख़े-तबरी’ का नाम भी आपने सुना होगा। टीकाकार एवं इतिहासकार होने के साथ-साथ इमाम तबरी एक बहुत बड़े फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) भी थे और एक बहुत बड़े फ़िक़्ही मसलक के संस्थापक भी। जैसे इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह), इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) आदि। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के शिष्य से उनका संबंध था। इमाम तबरी इस दृष्टि से बहुत नुमायाँ हैं कि वह इल्मे-क़ानून की एक ख़ास शाखा या विभाग के आविष्कारक और पहले संकलनकर्ता हैं।

आज क़ानून की एक शाखा है Comparative jurisprudence दुनिया के क़ानून और उसूली क़ानूनों का तुलनात्मक अध्ययन। ज्ञान के इस विभाग में क़ानून के विद्यार्थी यह अध्ययन करते हैं कि उदाहरणार्थ किसी ख़ास विषय के बारे में हिंदू क़ानून में मूल सिद्धांत क्या है और इस विषय पर दिए गए आदेश क्या हैं। फिर देखा जाता है कि दूसरे क़ानूनों में इस विषय के बारे में क्या कहा गया है, उदाहरणार्थ रोमन क़ानून में मूल सिद्धांत क्या है, और क्या विस्तृत आदेश दिए गए हैं। इस तरह का तुलनात्मक अध्ययन विषयों की दृष्टि से करते हैं। इमाम तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) इस कला के आविष्कारक हैं। इसलिए कि इस कला पर प्राचीनतम पुस्तक इन्ही की पाई जाती है। उनकी किताब ‘इख़्तिलाफ़ुल-फ़ुक़हा’ का एक हिस्सा प्रसिद्ध जर्मन प्राच्यविद जोज़फ़ शच्ट (Joseph Schacht) ने संकलित किया था। और 1934 में प्रकाशित हुआ। जोज़फ़ शच्ट एक प्रसिद्ध यहूदी प्राच्यविद था जिसने इस्लामी क़ानून के बारे में बहुत-सी ग़लतफ़हमियाँ पैदा की थीं। लेकिन यह एक अच्छा काम भी कर गया था।

इमाम तबरी की यह तफ़सीर बहुत सारगर्भित है और 30 भागों में है। इसकी एक विशेष बात जिसने इस तफ़सीर को क़ुरआन की शेष सभी टीकाओं के लिए एक उद्गम और मूलस्रोत का रूप दे दिया है, यह है कि सहाबा और ताबिईन के माध्यम से जितनी सामग्री भी आई थी और इमाम तबरी तक पहुँची थी, इस सारी सामग्री को उन्होंने इस किताब में समो दिया। यानी अगर हमारे पास ताबिईन के तफ़सीरी संग्रह न होते मुजाहिद-बिन-जब्र की तफ़सीर न होती, तो भी अन्य ताबिईन और मुजाहिद-बिन-जब्र के जितने कथन और टीका संबंधी उल्लेख हैं वे नष्ट न होते, इसलिए कि वे सबकी सब इमाम तबरी की इस तफ़सीर में मौजूद हैं। इसी तरह शेष ताबिईन के जितने टीका संबंधी कथन एवं उल्लेख हैं जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के टीका संबंधी विचारों का सबसे बड़ा मूलस्रोत हैं, वे सब इस तफ़सीर में सुरक्षित हैं। इसी तरह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से क़ुरआन की जितनी व्याख्याएँ बयान हुई हैं, वे सारी की सारी उन्होंने इस किताब में समो दी हैं। इस दृष्टि से यह किताब बहुत अलग है कि अगर हमारे पास सिर्फ़ यही एक किताब होती तो इस्लाम के आरंभिक काल की क़ुरआन की टीका संबंधी पूँजी के लिए किसी और किताब से सम्पर्क करने की ज़रूरत न पड़ती, इसलिए कि सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के तमाम महत्त्वपूर्ण तफ़सीरी उल्लेख इस किताब से मिल सकते हैं।

दूसरा काम उन्होंने यह किया है कि हर रिवायत की पूरी सनद (उल्लेखकर्ताओं का क्रम) बयान की है और शुरू में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि मैंने हर रिवायत की सनद नक़्ल कर दी है। अब यह पढ़नेवालों का काम है कि वे जा कर देखें कि कौन-सी सनद किस दर्जे की है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कह दिया है कि मैंने यह पड़ताल नहीं की कि कौन-सी सनद कितनी मज़बूत है और कितनी कमज़ोर है। सनदों की मानो छान-फटक भी मैंने हर जगह नहीं की।

यह बात मैंने इसलिए बयान करनी ज़रूरी समझी कि मात्र तफ़सीरे-तबरी में लिखी देखकर किसी चीज़ का सौ प्रतिशत संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ओर करना उचित नहीं है। जब तक हर रिवायत का अलग से कलात्मक रूप से आन्तरिक एवं बाह्य सुबूतों के आधार पर अवलोकन न किया जाए और मुहद्दिसीन के उसूलों की रौशनी में इसको परख न लिया जाए उस वक़्त तक किसी चीज़ का सम्बन्ध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से न जोड़ा जाए।

इमाम तबरी की यह तफ़सीर (टीका) बहुत लोकप्रिय हुई, इतनी अधिक कि एक बहुत बड़े मुफ़स्सिर (टीकाकार) ने यह लिखा है कि अगर किसी व्यक्ति को पैदल चीन तक सफ़र करना पड़े और चीन में यह तफ़सीर मिलती हो और वहाँ से लेकर आना चाहे तो तफ़सीर इस बात की हक़दार है कि इसको पैदल सफ़र करके चीन से जाकर लाया जाए। याद रहे कि जिन मुफ़स्सिर ने यह बात की है उनका संबंध बग़दाद से था और बग़दाद ही में बैठकर उन्होंने यह बात लिखी थी।

इमाम इब्ने-जरीर तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) की यह तफ़सीर इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने इसमें जहाँ तफ़सीरी रिवायतें (उल्लेख) इकट्ठा की हैं, वहाँ शब्दकोश और तार्किकता की बहसें भी वर्णित की हैं। इसके अलावा वह स्वयं इल्मे-क़िरअत के इमाम भी थे। अतः जहाँ-जहाँ क़िरअत (क़ुरआन का उच्चारण) में अन्तर है वह भी उन्होंने बयान किया है। इब्ने-जरीर तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) की इस तफ़सीर के बाद बहुत-सी तफ़सीरें लिखी गईं। इन तफ़सीरों के संकलन में विद्वानों और मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने अल्लामा इब्ने-जरीर की तफ़सीर में वर्णित सामग्री से ख़ूब काम लिया। और उनकी शैली का अनुकरण किया।

इसके बाद एक लम्बा अन्तराल होता है। और लगभग सौ वर्षों के बाद पाँचवीं शताब्दी में हिस्पानिया (Spain) के एक बुज़ुर्ग अल्लामा इब्ने-अतिया उंदलुसी ने क़ुरआन की तफ़सीर के क्षेत्र में एक और छाप छोड़ी। अल्लामा इब्ने-अतिया ग़रनाता (ग्रेनेडा) के रहनेवाले थे जो मुसलमानों का खोया हुआ स्वर्ग है। उनकी तफ़सीर का नाम है ‘अलमुहर्रिर अल-वजीज़ फ़ी तफ़सीरिल-किताबिल-अज़ीज़’ यानी बज़ाहिर उन्होंने उसे संक्षिप्त क़रार दिया है लेकिन यह संक्षिप्त भी लगभग पंद्रह-बीस भागों में है। तफ़सीर इस दृष्टि से बड़ा प्रमुख स्थान और एक अलग महत्त्व रखती है कि मुस्लिम स्पेन का प्रतिनिधित्व करनेवाली तफ़सीरों में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। न सिर्फ़ पूरे टीका संबंधी साहित्य में, बल्कि मुस्लिम स्पेन में अल्लामा इब्ने-अतिया से पहले जितना भी काम हुआ, वहाँ के आलिमों, फ़क़ीहों, मुहद्दिसीन, भाषाविदों और साहित्यकारों ने जो-जो शोध किए, उनके काम से उन्होंने लाभ उठाया और यह किताब तैयार की जो आज से दस पंद्रह वर्ष पहले मराक़श (Morocco) के औक़ाफ़ के मंत्रालय ने अपने ख़र्च पर प्रकाशित की है, मंत्रालय ने इस किताब का एक बहुत सुन्दर संस्करण प्रकाशित कर दिया जो संभवतः 15 भागों पर आधारित है। किताब के विद्वान शोधकर्ताओं ने किताब पर बहुत-सी बहुमूल्य और ज्ञानपरक टिप्पणियाँ भी लिखी हैं।

तफ़सीर न केवल पश्चिमी इस्लाम जगत् में मुस्लिम स्पेन, मराक़श, अल-जज़ाइर, त्यूनिस, लीबिया का पश्चिमी भाग और पश्चिमी अफ़्रीक़ा के वे हिस्से जहाँ मुसलमानों की आबादी पाई जाती है, इस पूरे इलाक़े का वह उत्तम प्रतिनिधित्व करनेवाली तफ़सीर है। बल्कि इस दृष्टि से भी बहुत नुमायाँ है कि जो काम इमाम इब्ने-जरीर तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) ने शुरू किया था, उसे उन्होंने आगे तक पहुँचाया और पूरा किया। इब्ने-जरीर ने अधिकतर रिवायतों में परस्पर तुलना नहीं की है। अगर एक सहाबी की एक राय है, और दूसरे सहाबी की दूसरी राय, तो उन्होंने इन दोनों रायों के बीच कोई तुलना नहीं की थी और न यह बताने की कोशिश की कि उनमें सामंजस्य किस प्रकार हो सकता है। इस तरह की चर्चा इब्ने-जरीर ने बहुत कम की है। लेकिन अल्लामा इब्ने-अतिया ने यह चर्चा भी की है और बताया है कि अनेक टीका संबंधी कथनों में सामंजस्य कैसे किया जा सकता है। इसी तरह मुहद्दिसीन के माध्यम से जो सामग्री प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से पहुँचा था उसको भी उन्होंने एक कलात्मक तथा संगठित रूप से संकलित किया।

अल्लामा इब्ने-जरीर (रहमतुल्लाह अलैह) के थोड़े ही समय बाद आनेवाले एक और अत्यंत प्रख्यात और विद्वान टीकाकार अल्लामा क़ुर्तुबी हैं। उनकी तफ़सीर ‘अल-जामि लि-अहकामिल-क़ुरआन’ टीका संबंधी साहित्य में एक विशेष स्थान रखती है। यह तफ़सीर कई दृष्टिकोण से एक उल्लेखनीय तफ़सीर है। बल्कि यह कहा जाए तो बेजा न होगा कि वह अपने प्रकार की एक अलग तफ़सीर है। पूरे मुस्लिम जगत् में वह एक विशेष प्रवृत्ति की प्रतिनिधि है और उसमें कुछ ऐसे गुण पाए जाते हैं जो उसे आम तफ़सीरों से विशिष्ट बनाते हैं। यह महान तफ़सीर 30 जिल्दों में है और तफ़सीरे-क़ुरआन से संबंधित जितनी सामग्री उस वक़्त तक मौजूद थी वह सारी उन्होंने अपनी इस विद्वतापूर्ण किताब में समो दी है। ‘अल-जामि लि-अहकामिल-क़ुरआन’ सचमुच पवित्र क़ुरआन के तमाम आदेशों और क़ानूनों को समेटे हुए है। अल्लामा क़ुर्तुबी क़ुर्तुबा के रहनेवाले थे और अल्लामा इब्ने-अतिया ग्रेनेडा के रहनेवाले थे। इन दोनों लोगों की ये दोनों तफ़सीरें मुस्लिम स्पेन (उंदलुस) में लिखी जानेवाली बेहतरीन तफ़सीरें हैं। जब तक ये तफ़सीरें दुनिया में ज़िंदा रहेंगी स्पेन के आलिम और मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन का उल्लेख भी ज़िंदा रहेगा और उंदलुस की खोई हुई फ़िर्दोस को याद रखने का सबक़ भी हमें मिलता रहेगा।

इसके बाद क़ुरआन की तफ़सीर के बारे में एक और महत्त्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण और नुमायाँ तरीन काम जो हुआ है वह पवित्र क़ुरआन के प्रवाह, वाग्मिता और साहित्यिक विशेषता के विषय पर है। यह काम अल्लामा महमूद-बिन-उमर जारुल्लाह ज़मख़्श्री का है। जिनको इतिहास एवं टीका लिखने में बहुत ऊँचा और प्रमुख स्थान प्राप्त है। उनको पवित्र क़ुरआन की साहित्यिक, व्याकरण संबंधी और लोगों को आकर्षित करनेवाली तफ़सीर में जो रुत्बा प्राप्त हुआ वह शायद किसी और को प्राप्त नहीं हुआ। इब्ने-ख़लदून का नाम आपने सुना होगा, वह अपने ज़माने के बहुत बड़े विद्वान, चिन्तक और इतिहासकार थे। इब्ने-ख़लदून ने लिखा है कि अगर किसी ने क़ुरआन की वाग्मिता और उत्कृष्टता को इस तरह समझा है जैसा कि उसे समझना चाहिए तो वह सिर्फ़ दो आदमियों ने समझा है। एक थे अब्दुल-क़ाहिर जिरजानी, और दूसरे थे अल्लामा जारुल्लाह ज़मख़्शरी, जिनका अस्ल नाम महमूद था और जो मेरे हमनाम थे, यह अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दौर में हिजरत करके मक्का मुकर्रमा में आबाद हो गए थे। और बैतुल्लाह का पड़ोस उन्होंने अपना लिया था। इसलिए लोग उनको सम्मानपूर्वक ‘जारुल्लाह’ कहा करते थे।

अल्लामा जारुल्लाह ज़मख़्शरी अपने विचारों और मसलक की दृष्टि से ‘मोतज़िली’ थे, जो अहले-सुन्नत वल-जमाअत के निकट कुछ आपत्तिजनक विचारों और कुछ ग़लत धारणाओं पर आधारित मसलक है। उन्होंने अपनी इस तफ़सीर में जहाँ पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता पर चर्चा का हक़ अदा कर दिया है वहाँ जगह-जगह अपने मोतज़िली अक़ीदों (धारणाओं) का भी बचाव किया है और पवित्र क़ुरआन से उनको साबित करने की कोशिश की है। इसलिए उनकी इस तफ़सीर की कड़ी आलोचना भी की गई। लेकिन जिस पहलू से उनकी तफ़सीर बहुत नुमायाँ है वह पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का पहलू है। सचमुच पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता को जिस प्रकार ज़मख़्शरी ने समझा इस तरह कोई नहीं समझ सका। बाद में जितने आनेवाले विद्वान और मुफ़स्सिरीन हैं, उनमें से जिस किसी ने भी पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता पर कुछ लिखना चाहा वह ज़मख़्शरी के शोधकार्य से मुँह नहीं फेर सका। चाहे उसका संबंध मुसलमानों के किसी भी फ़िर्क़े से रहा हो। उनकी किताब का अस्ली नाम है ‘अल-कश्शाफ़ अन ग़व्वामिज़ुत-तंज़ील’। जिसको संक्षेप में ‘कश्शाफ़’ भी कह दिया जाता है। यही वह किताब है जिसका अल्लामा इक़बाल ने अपने इस शेअर में ज़िक्र किया है—

तेरे ज़मीर पे जब तक न हो नुज़ूले-किताब

गिरह-कुशा है न राज़ी न साहिबे-कश्शाफ़

साहिबे-कश्शाफ़ से अभिप्रेत अल्लामा ज़मख़्शरी हैं, इसलिए कि यह उसी कश्शाफ़ के लेखक हैं। तात्पर्य यह है कि अगर दिल में कोई निष्ठापूर्ण भावना न हो और क़ुरआन के अंदर उतर जाने की कोई दिली-ख़ाहिश न हो तो फिर कश्शाफ़ की वाग्मिता से भी कुछ प्राप्त न होगा।

ज़मख़्शरी के तुरन्त बाद जिस व्यक्तित्व का दर्जा आता है, वह इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) हैं। इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका लक़ब (उपाधि) फ़ख़्रुद्दीन राज़ी था मूलतः ‘रे’ के रहनेवाले थे, लेकिन उनकी आख़िरी उम्र अफ़्ग़ानिस्तान और हिरात में गुज़री थी। अपने ज़माने के प्रसिद्ध क़ुरआन के टीकाकारों में से हैं। इतने बड़े टीकाकार हैं कि सातवीं सदी हिजरी मानो इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की शताब्दी है। उनका इंतिक़ाल 606 हिजरी में हुआ। उनकी तफ़सीर इस दृष्टि से अत्यंत विशिष्ट है कि उस ज़माने में बुद्धि-शास्त्र का जितना विकास हुआ था, तार्किकता, दर्शन, अवधारणाओं के क्षेत्र में उस समय तक जो-जो खोजें हुई थीं उन सबसे इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) ने क़ुरआन की टीका में काम लिया। तार्किकता एवं दर्शन के समर्थकों की ओर से इस्लाम के अक़ीदों (धारणाओं), पर आपत्तियाँ और उनके उत्तर, और इस्लाम के दृष्टिकोण का बौद्धिक एवं तार्किक बचाव, ये तमाम चीज़ें इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ जिस शान से मिलती हैं वह न पहले किसी के यहाँ मिलती हैं और न बाद में किसी के यहाँ। इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) इस कला के इमाम हैं।

इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की तफ़सीर इस दृष्टि से बहुत विशिष्ट और नुमायाँ है कि उन्होंने अपने अत्यंत बौद्धिक तर्कों और तार्किक भाषा-शैली से पवित्र क़ुरआन में वर्णित तथ्यों और अन्तर्ज्ञान के समर्थन में तर्कों के ढेर लगा दिए हैं। राज़ी और ज़मख़्शरी दोनों की तफ़सीरों ने बाद के क़रीब-क़रीब सभी मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) पर बहुत प्रभाव डाला। ज़मख़्शरी की भाषा की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के उच्च स्तर ने और इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की बुद्धिमत्ता के उच्च स्तर ने हर विद्यार्थी को अपना प्रशंसक बना लिया, लेकिन आम तौर पर पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थियों को इमाम राज़ी से यह शिकायत थी कि उनके यहाँ विशुद्ध क़ुरआनी मसाइल (शरई आदेशों) और अस्ल तफ़सीरी मामलों पर ज़ोर कम है और बुद्धिमत्ता पर ज़ोर ज़रूरत से कुछ ज़्यादा है। वह स्वयं बहुत उच्चकोटि के दार्शनिक थे और बुद्धि-शास्त्र में उनके यहाँ अनगिनत बहसें मिलती हैं, लेकिन लोग तफ़सीरे-क़ुरआन के मामले में बुद्धि-शास्त्र की इस बहुतायत और तार्किकता एवं अनुमानों की इस अधिकता और ज़्यादती से सन्तुष्ट नहीं थे।

दूसरी तरफ़ ज़मख़्शरी की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता से तो प्रभावित थे, लेकिन उनके मोतज़िली अक़ीदों को लोग पसन्द नहीं करते थे। इसलिए बाद में ऐसी तफ़सीरें लिखी गईं जिनमें इन दोनों किताबों से लाभ तो उठाया गया, लेकिन कोशिश की गई कि जहाँ तक भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता की बारीकियों का संबंध है वह जमख़्शरी से ले ली जाएँ, और जहाँ तक बुद्धिमत्ता का मामला है इसमें इमाम राज़ी की तफ़सीर से मार्गदर्शन लिया जाए और सनतुलित रूप में पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर सही अक़ीदों के साथ बयान कर दी जाए। यह काम करने का अनेक लोगों ने बीड़ा उठाया। उनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय नाम क़ाज़ी नासिरुद्दीन बैज़ावी का है। जिनकी तफ़सीर बैज़ावी प्रसिद्ध है। क़ाज़ी बैज़ावी ने इन दोनों लेखकों से भरपूर लाभ उठाया। ज़मख़शरी से भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के नुकते लिए और इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) के बौद्धिक तर्कों से फ़ायदा उठाया। बैज़ावी शाफ़िई मसलक के थे। उन्होंने शाफ़िई दृष्टिकोण से फ़िक़ही आदेशों को बयान किया।

उसी ज़माने में दो और मुफ़स्सिर मशहूर हुए। अल्लामा निस्फ़ी और अल्लामा बग़वी। ये दोनों हनफ़ी थे। उन्होंने दो तफ़सीरें ‘मदारिकुत-तंज़ील’ और ‘मआलिमु-तंज़ील’ के नाम से हैं। ये दोनों न सिर्फ़ अपने ज़माने में बहुत लोकप्रिय तफ़सीरें रहीं, बल्कि आज भी उनकी गिनती जानी-मानी और प्रामाणिक तफ़सीरों में होती है। पूरे मध्य एशिया, उपमहाद्वीप, अफ़्ग़ानिस्तान और बंगलादेश, जहाँ-जहाँ फ़िक़्ह हनफ़ी के माननेवाले हैं, वहाँ ये दोनों तफ़सीरें आज भी विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। तफ़सीर बैज़ावी तुलनात्मक रूप से वहाँ ज़्यादा लोकप्रिय हुई, जहाँ फ़िक़्ह शाफ़िई के माननेवाले ज़्यादा थे। लेकिन बैज़ावी हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में भी बहुत लोकप्रिय रही, इसलिए कि उसका और उसके लेखक का ज्ञानात्मक स्थान इतना ऊँचा था कि फ़िक़्ही (धर्मशास्त्र संबंधी) मतभेदों के बावजूद उनकी तफ़सीर उन इलाक़ों में भी बहुत लोकप्रिय हुई, जहाँ शाफ़िई मसलक के लोग नहीं रहते थे।

इसके बाद का विवरण मैं छोड़ देता हूँ। अब आठवीं सदी हिजरी में आते हैं जब एक ऐसे मुफ़स्सिर (टीकाकार) पैदा हुए जिनकी तफ़सीर (टीका) आज तक हर जगह और हर वर्ग में लोकप्रिय है। इसके अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, इंडोनेशी, और मलाई भाषा में अनुवाद मौजूद हैं। यह हैं अल्लामा इब्ने-कसीर दमिश्क़ी। अल्लामा इब्ने-कसीर अपने ज़माने के अत्यंत नामवर और पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में से थे। वह मुस्लिम जगत् के पहली पंक्ति के इतिहासकार भी हैं और मुहद्दिस भी। इतिहास-ज्ञान और इल्मे-हदीस दोनों में उनका दर्जा बहुत ऊँचा है। मुस्लिम जगत् में इतिहास पर जो कुछ बेहतरीन और अति लोकप्रिय किताबें लिखी गईं उनमें से एक किताब उनकी किताब ‘अलबिदाया व अन्निहाया’ है। यह किताब पूरी दुनिया के इतिहास से बहस करती है। आदम (अलैहिस्सलाम) की पैदाइश से लेकर अपने ज़माने तक का इतिहास उन्होंने संकलित कर दिया है।

अल्लामा इब्ने-कसीर ने एक तफ़सीर लिखी जो ‘तफ़सीरुल-क़ुरआन अल-अज़ीम’ के नाम से जानी जाती है। इस किताब में उन्होंने तफ़सीर का जो मूल ढाँचा खड़ा किया वह रिवायतों और हदीसों की बुनियाद पर किया। संभवतः उन्होंने यह महसूस किया कि अल्लामा ज़मख़्शरी से प्रभावित लोग पवित्र क़ुरआन से मार्गदर्शन लेने पर कम ध्यान दे रहे हैं और उसके साहित्यिक सौंदर्य पर ध्यान ज़्यादा दे रहे हैं। पवित्र क़ुरआन में निस्संदेह असाधारण साहित्यिक सौंदर्य मौजूद है और वाग्मिता में उसका स्तर इतना ऊँचा है कि वह चमत्कार के दर्जे तक पहुँचा हुआ है, मगर अस्ल में यह किताब एक मार्गदर्शक ग्रन्थ है। इससे मार्गदर्शन लेना ही इसके अवतरण का उद्देश्य है। अगर सारा वक़्त उसकी भाषा और साहित्य सौंदर्य की दाद देने में गुज़ार दें और बस इसी बात पर ज़िंदगी-भर सिर धुनते रहें कि इसकी शैली बड़ी साहित्यिक है और इसका अंदाज़ बड़ा मनमोहक है और इससे मार्गदर्शन लेने का कोई गंभीर प्रयास न करें तो पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर का सही इस्तेमाल नहीं होगा। लेकिन ज़मख़्शरी ने इतना भरपूर काम किया था कि यह असर पैदा होना शायद स्वाभाविक था।

इसी तरह इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) का बुद्धि-शास्त्र इतना ज़ोर दार था कि उनसे प्रभावित मुफ़स्सिरीन (टीकाकार) क़ुरआन के विद्यार्थी बनने के बजाय बुद्धि-शास्त्र के विद्यार्थी ज़्यादा हो गए। पहले दिन जो मैंने इल्मे-हुज़ूरी और इल्मे-हुसूली की बात की थी वह आपको याद होगी। इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) के बहुत-से पाठकों के यहाँ क़ुरआन पढ़ते वक़्त इल्मे-हुज़ूरी की जो कैफ़ियत होनी चाहिए थी, वह ख़त्म या कमज़ोर हो गई। और इल्मे-हुसूली के पक्ष में तर्क ज़्यादा हो गए और बौद्धिक तर्कों का तत्व बढ़ता चला गया।

संभवतः यह पृष्ठभूमि थी जिसमें अल्लामा इब्ने-कसीर ने यह चाहा कि एक ऐसी तफ़सीर लिखी जाए जो इस अनावश्यक बुद्धिवादी प्रवृत्ति को थोड़ा-सा कम कर के कुछ सन्तुलन पैदा करे और पवित्र क़ुरआन को मूलतः एक मार्गदर्शक ग्रन्थ के तौर पर प्रस्तुत करे। चुनाँचे उन्होंने यह तफ़सीर संकलित की जो ‘तफ़सीरे-इब्ने-कसीर’ के नाम से जनी जाती है। उन्होंने तफ़सीरी रिवायतों के पूरे भंडार में से छाँटकर उनके निकट जो सबसे सहीह, सबसे प्रामाणिक और सबसे सारगर्भित रिवायतें थीं, वे जमा कीं और एक ऐसी टीका संकलित की जो उस वक़्त से लेकर आज तक लोकप्रिय चली आ रही है। अल्लामा इब्ने-कसीर का इंतिक़ाल 774 ई. में हुआ था। यानी उनके इंतिक़ाल को साढे़ छः सौ वर्ष हो चुके हैं। लेकिन इन साढे़ छः सौ वर्षों में तफ़सीरे-इब्ने-कसीर की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है और पवित्र क़ुरआन की उच्च शिक्षा के लिए मुस्लिम जगत् में इंडोनेशिया से लेकर मराक़श (मोरक्को) तक शायद कोई ऐसी आला दीनी दर्सगाह (धार्मिक शिक्षण संस्थान) नहीं है जिसमें मसलक, फ़िक़्ह और दृष्टिकोण का भेद किए बिना तफ़सीरे-इब्ने-कसीर न पढ़ी जाती हो। और उससे लाभान्वित न हुआ जाता हो। यह अल्लामा इब्ने-कसीर की असाधारण निष्ठा और विद्वता का प्रमाण है।

इसके बाद एक लम्बा समय गुज़रा जिसे हम छोड़ देते हैं। इस अन्तराल में तफ़सीरी काम जारी रहा। विद्वान लोग विभिन्न पहलुओं से क़ुरआन की टीका लिखने का काम करते रहे। लेकिन आठवीं सदी हिजरी के बाद आगामी चार सौ साल तक किसी नई शैली और किसी उल्लेखनीय नई प्रवृत्ति का कोई उदाहरण नहीं मिलता। इसलिए हम सीधे तेरहवीं सदी हिजरी में आ जाते हैं। तेरहवीं सदी हिजरी में दो तफ़सीरें उल्लेखनीय हैं, एक तफ़सीर सदी के आरंभ की है और दूसरी सदी के अन्त की है। तेरहवीं सदी के आरंभ की सबसे नुमायाँ तफ़सीर ‘रूहुल-मआनी’ है। जो उसी बग़दाद में लिखी गई जो आज रक्त रंजित है। बग़दाद के प्रसिद्ध सपूत और मुस्लिम जगत् के गौरव, अल्लामा महमूद आलूसी बग़दादी, ने एक तफ़सीर लिखी थी, जो ‘रूहुल-मआनी’ के नाम से 30 भागों में हर जगह उपलब्ध है। इस तफ़सीर के बहुत-से ऐडिशन निकल चुके हैं। यह इस दृष्टि से बहुत लोकप्रिय तफ़सीर है कि मुस्लिम जगत् के हर वर्ग और हर इलाक़े में इसको हाथों-हाथ लिया गया। और विद्वानों के हर वर्ग में इसको लोकप्रियता प्राप्त हुई। जो लोग बौद्धिक प्रवृत्ति रखते थे उन्होंने इसमें बौद्धिक सामग्री पाई। जो लोग रुहानी (आध्यात्मिक) और सूफियाना स्वभाव रखते थे उनकी दिलचस्पी का सामान भी इसमें मौजूद है। इसलिए कि अल्लामा आलूसी ख़ुद एक रूहानी सिलसिले से जुड़े थे। फ़िक़्ही प्रवृत्ति रखनेवालों के लिए इस तफ़सीर में फ़िक़्ही आदेश भी विस्तार से मौजूद हैं। इस दृष्टि से यह एक सारगर्भित तफ़सीर है और भारतीय उपमहाद्वीप के कमो-बेश तमाम मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) पर इस तफ़सीर की शैली और इसमें लिखी बातों ने प्रभाव डाला है। भारतीय उपमहाद्वीप की उर्दू तफ़सीरों में शायद कोई तफ़सीर ऐसी नहीं है जिसपर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अल्लामा आलूसी बग़दादी के प्रभाव न हों। यह तफ़सीर तेरहवीं सदी के आरंभ में लिखी गई।

एक दूसरी तफ़सीर तेरहवीं सदी के अन्त में लिखी गई जो अपने उच्च स्तर के बावजूद मुस्लिम जगत् में इतनी चिर-परिचित नहीं हुई जितनी रूहुल-मआनी प्रसिद्ध हुई। यह तफ़सीर अल्लामा जमालुद्दीन क़ासिमी की है जो ‘अल्लामतुश्शाम’ कहलाते थे और अपने ज़माने में शाम (सीरिया) के सबसे बड़े आलिम समझे जाते थे। उनको यह निराली विशेषता अल्लाह तआला ने प्रदान की थी कि उन्होंने जो किताब भी लिखी वह अपने विषय पर बेहतरीन किताब क़रार पाई। उनकी जितनी भी किताबें हैं वे उस समय तक अपने विषय की बेहतरीन किताबों में गिनी जाती हैं। तफ़सीर पर उनकी किताब का नाम ‘मुहासिनुत-तावील’ है, यानी सर्वश्रेष्ठ व्याख्या, यह भारतीय उपमहाद्वीप में अधिक प्रचलित नहीं हुई, शायद इसलिए कि शाम (सीरिया) में ही प्रकाशित हुई। चूँकि लोग विभिन्न कारणों के आधार पर यहाँ से बग़दाद आते-जाते रहते थे, इसलिए बग़दाद की तफ़सीर यहाँ पहुँच गई, लेकिन शाम की तफ़सीर यहाँ न पहुँची।

बीसवीं सदी ईसवी (चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी हिजरी) तफ़सीर के एक नए दौर के आरंभ की सदी है। इस सदी में जितनी तफ़ीसीरें लिखी गईं उनकी संख्या शायद उतनी ही है जितनी पूरे तेरह सौ साल में लिखी जानेवाली तफ़सीरों की है। संख्या की दृष्टि से चौदहवीं सदी हिजरी की तफ़सीरें पिछली तेरह सदियों में लिखी जानेवाली तफ़सीरों के लगभग बराबर ही हैं। यानी इल्मे-तफ़सीर के मामले में अब एक नए दौर का आरंभ हुआ है। और अनेक नई-नई प्रवृत्तियाँ सामने आई हैं। जिनके बारे में किसी आगामी बैठक में विस्तार से चर्चा होगी। बीसवीं सदी ईसवी के टीका संबंधी साहित्य और तफ़सीरी प्रवृत्तियों पर चर्चा ख़ुद अभिभाषणों की एक नई श्रृंखला की अपेक्षा कर रही है।

पिछली शताब्दी (यानी 14वीं सदी हिजरी और 20सवीं सदी ईसवी) में जिन तफ़सीरों ने तफ़सीरी साहित्य और मुसलमानों की आम सोच पर बहुत ज़्यादा असर डाला, उनके बारे में तफ़सील और निश्चितता से कुछ कहना बहुत मुश्किल है। दो महीने पूर्व की बात है कि किसी पश्चिमी संस्था से एक सवाल-नामा आया, जिसमें वह यह जानने में दिलचस्पी रखते थे कि बीसवीं सदी में मुसलमानों पर किन ज्ञानपरक और वैचारिक व्यक्तित्त्वों और नामवर लोगों के सबसे ज़्यादा प्रभाव हुए हैं। मुसलमानों की मज़हबी सोच के गठन में किन व्यक्तित्त्वों या कारकों का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। इसके बारे में वह शायद कुछ जानकारी जमा करना चाहते थे। इस मक़सद के लिए उन्होंने दुनिया की बड़ी-बड़ी संस्थाओं और नामचिह्न व्यक्तित्वों को पत्र लिखे और यह पूछा कि मुस्लिम जगत् के वे दस महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व कौन-से हैं जिनका मुसलमानों पर बहुत गहरा प्रभाव है। और वह कौन-सी दस अति महत्त्वपूर्ण तफ़सीरें हैं जिन्होंने पवित्र क़ुरआन को समझने में मुसलमानों की सबसे ज़्यादा मदद की।

हमारी यूनिवर्सिटी में भी यह सवाल आया और कई विद्वान लोगों ने बैठकर इसपर चिन्तन-मनन किया। उन्होंने महसूस किया कि इसका निर्धारण करना बेहद मुश्किल है कि 20सवीं सदी ईसवी और 14वीं सदी हिजरी की वे कौन-सी तफ़सीरें हैं जिनके बारे में यह कहा जा सके कि वे सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक प्रमुख हैसियत रखनेवाली तफ़सीरें हैं। इसलिए कि हर तफ़सीर के अपने-अपने प्रभाव हैं। जिन लोगों ने जो तफ़सीरें ज़्यादा पढ़ी हैं या जो लोग जिस मुफ़स्सिर (टीकाकार) को ज़्यादा जानते हैं उनके ख़याल में वही तफ़सीरें और वही मुफ़स्सिरीन इस मामले में सबसे ज़्यादा नुमायाँ हैं। और जिन्होंने किसी दूसरी तफ़सीर को ज़्यादा पढ़ा है और इसके मुफ़स्सिर से ज़्यादा लाभ उठाया है, उनके ख़याल में वे नुमायाँ हैं, मगर हक़ीक़त यह है कि तमाम तफ़सीरें अपनी-अपनी जगह नुमायाँ हैं।

कुछ तफ़ासीरें ऐसी हैं कि उन्होंने हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों इंसानों को प्रभावित किया है। उदाहरणार्थ मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी की तफ़हीमुल-क़ुरआन जिसे लाखों इंसानों ने पढ़ा है और आज भी लाखों पाठक उसको पढ़ रहे हैं। मौलाना अमीन अहसन इस्लाही ने बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया और एक नई प्रवृत्ति तफ़सीर में पैदा की।  मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी उसमानी की तफ़सीर है जिसके पच्चीस-तीस एडिशन छप चुके हैं। इतनी अधिक संख्या में शायद किसी और तफ़सीर के एडिशन (तफ़हीमुल-क़ुरआन के अलावा) नहीं निकले।

अरब दुनिया में सय्यद मुहम्मद क़ुतुब (रहमतुल्लाह अलैह) की फ़ी ज़िलालिल-क़ुरआन है। जिसका उर्दू अनुवाद भी हो चुका है। इतनी अधिक संख्या में इसके भी एडिशन निकले हैं कि अब संख्या का अनुमान लगाना भी मुश्किल है। हालाँकि यह तफ़सीर जेल में बैठकर लिखी गई थी, जहाँ उनके पास न किताबें थीं, न संसाधन थे और न उद्धरण-स्रोत थे। उन्होंने इस तफ़सीर को अपने उद्गारों के से अंदाज़ में लिखा है। अरबी भाषा के एक विद्वान साहित्यकार का कहना है कि बीसवीं सदी में अरबी भाषा में कोई लेखन सामग्री इतनी जानदार और इतनी ज़ोरदार नहीं लिखी गई है जितनी सय्यद क़ुतुब की ‘फ़ी ज़िलालिल-क़ुरआन’ है। यह किताब ज़ोरे-बयान, असाधारण भाषाज्ञान, संबोधन क्षमता और लेखन का शाहकार है। ऐसा नमूना बीसवीं शताब्दी के किसी और अरबी लेखन में नहीं मिलता। पढ़नेवाला इस तफ़सीर में ऐसा बेख़ुद होकर बहता चला जाता है कि उसको कुछ ख़बर नहीं रहती कि वह कहाँ जा रहा है।

बीसवीं सदी की और भी तफ़सीरें हैं जिनपर प्रवृत्ति के सिलसिले में चर्चा की जाए तो बात लम्बी होती चली जाएगी। आख़िरी दो तफ़सीरों का हवाला देकर चर्चा ख़त्म कर देना चाहता हूँ। एक तफ़सीर अरबी में है और दूसरी उर्दू में हमारे भारतीय उपमहाद्वीप की है। आपने नाम सुना होगा, डॉक्टर वहबा ज़ुहैली एक मशहूर और बड़े आलिम हैं, मेरे गहरे दोस्त हैं, सीरिया के रहनेवाले हैं। उन्होंने दो किताबें बहुत असाधारण लिखी हैं। बहुत कम लोगों के साथ ऐसा हुआ है कि अल्लाह तआला ने उन्हें ज़िंदगी में इतनी लोकप्रियता दी हो जितनी डॉक्टर वहबा ज़ुहैली को प्राप्त हुई। उनकी ये दोनों किताबें हवालों (सन्दर्भों) की किताबें बन गई हैं और उनके दर्जनों एडिशन निकल चुके हैं। एक किताब है ‘अल-फ़िक़्हुल-इस्लामी वद्दलाला’। इसमें फ़िक़्ह के सारे भंडार का उन्होंने मानो इत्र निकालकर रख दिया है। फ़िक़्ह इस्लामी के असीमित समुद्र की रूह निकालकर दस खंडों में संकलित कर दी है। मैंने कोई इस्लामी लाइब्रेरी ऐसी नहीं देखी कि जहाँ लोग फ़िक़्ह या इस्लामी क़ानून पर काम कर रहे हों और यह किताब उनके पास मौजूद न हो। डॉक्टर वहबा ज़ुहैली की इस एक किताब ने विद्वानों को बहुत-सी दूसरी किताबों से निस्पृह कर दिया है। डॉक्टर वहबा ज़ुहैली को दुनिया की तमाम बड़ी-बड़ी फ़िक़्ह इस्लामी की संस्थाओं की सदस्यता प्राप्त है।

उन्होंने इस किताब को पूरा करने के बाद इसी शैली में एक तफ़सीर भी लिखी है जिसके 30 भाग हैं। उन्होंने पूर तफ़सीरी भंडार का इत्र और उसकी आत्मा निकालकर उस तफ़सीर में जमा कर दी है। इस तफ़सीर के भी कई एडिशन निकल चुके हैं। और यह दुनिया में लोकप्रिय हो रही है। इस तफ़सीर के बारे में शेष विस्तृत विवरण परसों पेश करूँगा।

जैसा कि मैंने बताया, भारतीय उपमहाद्वीप में पिछली दो शताब्दियों में तफ़सीर पर बहुत काम हुआ है। मात्रा की दृष्टि से भी और स्तर की दृष्टि से भी। इसमें सबसे नुमायाँ काम शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) के ख़ानदान का है। उन्होंने स्वयं तो उर्दू में काम नहीं किया, इसलिए कि उनकी ज्ञान संबंधी और लेखन की भाषा उर्दू नहीं थी, बल्कि उस ज़माने की ज्ञान संबंधी भाषा फ़ारसी थी। लेकिन उनके बेटे शाह अब्दुल-क़ादिर (रहमतुल्लाह अलैह) ने पवित्र क़ुरआन का सबसे पहला उर्दू अनुवाद किया। यह बात हमारे लिए बेहद ख़ुशी और गर्व की है कि जो उपाधि सहाबा और ताबिईन ने अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को दी थी वही उपाधि भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों ने शाह अब्दुल-क़ादिर साहब को दी। यानी तर्जुमानुल-क़ुरआन। शाह वलियुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) के बेटों में यह तीसरे नंबर पर थे।

शाह अब्दुल-क़ादिर (रहमतुल्लाह अलैह) ने पवित्र क़ुरआन का उर्दू अनुवाद किया था जो अब कुछ पुराना हो गया है, लेकिन यह अनुवाद उनके द्वारा क़ुरआन के पचास वर्षीय अध्ययन का निचोड़ था। उन्होंने ख़ुद पचास साल पवित्र क़ुरआन का दर्स दिया। उनके पिता शाह वलियुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) पवित्र क़ुरआन का दर्स देते रहे, और उनके पिता शाह अबदुर्रहीम भी पवित्र क़ुरआन का दर्स देते रहे। यानी कमो-बेश 100 वर्षों की क़ुरआन समझने की ख़ानदानी परम्परा और अपना पचास वर्षीय निजी अध्ययन। इस सबकी रौशनी में उन्होंने वह अनुवाद किया जो न केवल उर्दू का सबसे पहला क़ुरआन का अनुवाद है, बल्कि त्रुटिरहित होने के दृष्टि से उर्दू का उत्कृष्ट अनुवाद भी है। अगर आप इससे लाभान्वित हों तो आपको अंदाज़ा होगा कि पवित्र क़ुरआन के बहुत-से मुश्किल स्थान जहाँ मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने बहुत लम्बी-लम्बी बहसें की हैं और बहुत-से सवालात उठाए हैं वहाँ शाह साहब अनुवाद इस तरह कर देते हैं कि कोई समस्या पैदा ही नहीं होती, बल्कि ख़ुद-ब-ख़ुद अनुवाद से ही समस्या हल हो जाती है। अनुवाद अगरचे पुराना है और इसकी शैली भी अब पुरानी हो चुकी है, लेकिन उर्दू भाषा में इससे बेहतर अनुवाद करना संभव नहीं है।

इसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में क़ुरआन के अनुवाद और उर्दू में तफ़सीर लिखने का एक नया दौर शुरू हुआ। आदेशोंवाली आयतों पर भी नई तफ़सीरें लिखी गईं। शाह अब्दुल-क़ादिर (रहमतुल्लाह अलैह) की पैरवी में पवित्र क़ुरआन का सेवाकार्य करनेवालों ने लगभग साढ़े तीन सौ अनुवाद उर्दू में किए, और यह सिलसिला अभी तक जारी है और नए आनेवाले मुफ़स्सिरीन और विद्वान नई-नई आवश्यकताओं को देखते हुए उर्दू भाषा में पवित्र क़ुरआन के नए-नए अनुवाद करते चले जा रहे हैं। हर अनुवाद में एक नई शान और एक नई विशेषता पाई जाती है।

उर्दू में अनगिनत तफ़ीसीरें हैं। लेकिन एक तफ़सीर अत्यंत सारगर्भित है जिसके बारे में न तो लोगों को बहुत ज़्यादा जानकारी है और न ही वह बहुत लोकप्रिय है। इस तफ़सीर का नाम ‘मवाहिबुर्रहमान’ है। यह अद्वितीय तफ़सीर मौलाना सय्यद अमीर अली मलीहाबादी ने लिखी थी। मौलाना सय्यद अमीर अली एक असाधारण और बड़े विद्वान लेकिन कुछ गुमनाम बुज़ुर्ग थे, जिनकी ज़िंदगी का अधिकांश बंगाल में गुज़रा। इसके बाद वह नदवतुल-उलमा लखनऊ के अध्यक्ष हो गए और उन्होंने वहाँ ठहरने के दौरान में यह तफ़सीर लिखी थी जो पुराने अंदाज़ के लगभग 15-16 मोटे खंडों में है। अगर इस किताब को छपाई के नए ढंग से फिर से प्रकाशित किया जाए तो संभवतः चालीस-पचास भाग बनेंगे। इससे अधिक सारगर्भित और विस्तृत कोई अन्य तफ़सीर उर्दू ज़बान में मौजूद नहीं है। लेकिन इसकी ज़बान भी बहुत पुरानी है और अंदाज़ भी बहुत पुराना है, न कोई शीर्षक है, और न पैराग्राफ़। शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग) भी पुराने हैं। इसलिए आजकल के पढ़नेवाले उसे पढ़ने में मुश्किल महसूस करते हैं। उनकी उर्दू भाषा भी ऐसी है कि इसमें अनगिनत अरबी और फ़ारसी के शब्द हैं। जो लोग अरबी भाषा नहीं जानते उनके लिए इस तफ़सीर को पढ़ना कठिन है। उनके बाद की तफ़सीरें आपके सामने हैं उनपर बाद में किसी और फ़ुर्सत में बात करेंगे।

एक और उल्लेखनीय तफ़सीर उर्दू की एक अधूरी तफ़सीर है जो स्यालकोट के एक बुज़ुर्ग मौलाना मुहम्मद अली सिद्दीक़ी ने तैयार की थी। वह अत्यंत आलिम फ़ाज़िल (विद्वान) इंसान थे। अल्लाह तआला ने उनको बहुत शीघ्र लिखने, बल्कि उतनी ही जल्दी शोध कर लेने की निपुणता प्रदान की थी। जब 1965 की भारत-पाक जंग हुई तो सत्रह दिन तक ब्लैक आउट चलता रहा। और इस दौरान में उन्होंने एक लेख लिखना शुरू किया, जिसका शीर्षक था ‘इमाम अबू-हनीफ़ा और इल्मे-हदीस’। किसी ने उनसे कहा था कि हमने सुना है कि इमाम अबू-हनीफ़ा इल्मे-हदीस ज़्यादा नहीं जानते थे। इसपर उन्होंने एक लेख लिखना शुरू किया और सत्रह दिनों में उन्होंने सात सौ सफ़हात पर सम्मिलित एक मोटी किताब तैयार कर दी। जो इस विषय पर बेहतरीन किताब है।

अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्होंने एक तफ़सीर लिखनी शुरू की थी। और ख़ुद मुझे से यह बात कही थी जितनी तफ़सीरें आज उर्दू में उपलब्ध हैं वे किसी न किसी मसलक से जुड़ गई हैं, मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी साहब की तफ़सीर बहुत अच्छी है। लेकिन बहुत-से लोग समझते हैं कि वह देवबंदी थे। इसलिए ग़ैर-देवबंदी उसको नहीं पढ़ते। मौलाना मौदूदी साहब की तफ़सीर बहुत उम्दा है लेकिन जो लोग जमाअते-इस्लामी के इलाक़े से बाहर हैं वह उसको नहीं पढ़ते। इसी तरह और भी अनेक तफ़सीरें हैं, जिनसे लाभ उठाने में लोगों को गिरोही पक्षपात आड़े आता है। इसलिए अगर कोई ऐसी तफ़सीर की जाए जिसमें तमाम तफ़सीरों की रूह निकालकर रख दी जाए और इस तरह उसको पेश किया जाए कि हर वर्ग के लोग उसको पढ़ें और तमाम मुफ़स्सिरीन के ख़यालात और शोधकार्य से लाभान्वित हों। इस इरादे से उन्होंने एक तफ़सीर लिखनी शुरू की ‘तफ़सीरे-मआलिमुल-क़ुरआन’। अभी उसके चौदह भाग ही संकलित किए थे कि वह दुनिया से विदा हो गए। अभी सोलह भागों का काम बाक़ी है। संभवतः बारह या तेरह भाग प्रकाशित हो चुके हैं। 14वाँ अभी प्रकाशित नहीं हुआ। लेकिन जितना लिखा है उसका भी बड़ा असाधारण महत्त्व है। उनका काम इस दर्जे और इस मक़ाम का है कि लोग उससे लाभान्वित हों। भारतीय उपमहाद्वीप की समस्त टीका संबंधी प्रवृत्तियों और बीसवीं शताब्दी के समस्त टीका संबंधी काम का सारांश मौलाना मुहम्मद अली सिद्दीक़ी की इस किताब में आ गया है।

यह एक आरंभिक परिचय था इस्लामी इतिहास में क़ुरआन के कुछ महत्त्वपूर्ण टीकाकारों का। उनमें से बहुत-से महत्त्वपूर्ण लोगों के केवल नाम ही लिए जा सके। बहुत बड़ी संख्या में विद्वानों के नाम भी नहीं लिए जा सके। इसलिए कि इस सीमित समय में इससे अधिक संभव नहीं था।

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