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क़ुरआन के चमत्कारी गुण (क़ुरआन लेक्चर - 8)

क़ुरआन के चमत्कारी गुण (क़ुरआन लेक्चर - 8)

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर नम्बर-8 (15 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण), “मुहाज़राते-क़ुरआनी” जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

पवित्र क़ुरआन के हवाले से एजाज़ुल-क़ुरआन (क़ुरआन के चमत्कारी गुण) एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। पवित्र क़ुरआन की महानता को समझने और इसकी श्रेष्ठता का अनुमान करने के लिए इसकी चमत्कारी प्रकृति को समझना अत्य़ंत अनिवार्य है। क़ुरआन के चमत्कारी गुणों पर चर्चा करते हुए उसके दो विशिष्ट पहलू हमारे सामने आते हैं। एक पहलू तो इल्मे-एजाज़ुल-क़ुरआन (क़ुरआन की चमत्कारी प्रकृति का ज्ञान) के आरंभ एवं विकास तथा इतिहास का है। यानी एजाज़ुल-क़ुरआन एक ज्ञान और तफ़सीर तथा उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी ज्ञान) के एक विभाग के तौर पर किस प्रकार संकलित हुआ और किन-किन विद्वानों ने किन-किन पहलुओं को पवित्र क़ुरआन का चमत्कारी पहलू क़रार दिया। दूसरा पहलू यह है कि पवित्र क़ुरआन जिसको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी पैग़म्बरी और सच्चाई के प्रमाण तथा प्रतीक के रूप में पेश किया, किस दृष्टि से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सत्यता का प्रमाण और किस पहलू से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पैग़म्बरी का प्रतीक और चमत्कार है। फिर दूसरे पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के चमत्कारों के सन्दर्भ में क़ुरआन के चमत्कार की हैसियत क्या है।

जहाँ तक पहले सवाल का संबंध है कि एजाज़ुल-क़ुरआन ने उलूमुल-क़ुरआन के एक विभाग की हैसियत कब और कैसे अपना ली, यह उलूमे-क़ुरआन के इतिहास का विषय है, इस विषय पर विद्वानों ने चिन्तन-मनन और लेखन का सिलसिला दूसरी और तीसरी सदी हिजरी में ही शुरू कर दिया था। चौथी शताब्दी हिजरी से विद्वानों ने इस विषय पर विधिवत रूप से किताबें लिखनी शुरू कर दी थीं। इस तरह बहुत थोड़े समय में इस विषय को स्थायी रूप से एक अलग विषय, बल्कि ज्ञान का रूप दे दिया गया। और आज यह उलूमे-क़ुरआन के महत्त्वपूर्ण विषयों में से ही एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। संभवतः सबसे पहला व्यक्तित्व जिसने एजाज़ुल-क़ुरआन के विषय पर एक अलग और अनोखी किताब लिखी, वह प्रसिद्ध शाफ़िई फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) और मुतकल्लिम (तर्कशास्त्री) क़ाज़ी अबू-बक्र बाक़लानी हैं। जिन्होंने एजाज़ुल-क़ुरआन के नाम से एक किताब तैयार की, जो आज भी उपलब्ध है और इस विषय पर प्राचीनतम पुस्तक है। फिर इस विषय पर विभिन्न विद्वानों ने काम किया और अपने-अपने शोध के परिणामों को अलग-अलग किताबों के रूप में संकलित किया।

इब्ने-ख़लदून के कथनानुसार जिन दो व्यक्तित्वों ने पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता को पूरी तरह समझा है उनमें अल्लामा ज़मख़्शरी और शैख़ अब्दुल-क़ाहिर जुरजानी का नाम सबसे नुमायाँ है। अब्दुल-क़ाहिर जुरजानी ने भी एजाज़ुल-क़ुरआन पर एक अलग किताब लिखी जो बाद में आनेवाले तमाम लोगों के लिए एक उद्धरण स्रोत और मूलस्रोत क़रार पाई। जिन लोगों ने भी बाद में पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता और इसके आधार पर संकलित होनेवाले सिद्धांतों पर काम करना चाहा, वह शैख़ अब्दुल-क़ाहिर की किताब के प्रति उदासीन नहीं हो सके।

शैख़ अबदुल-क़ाहिर जुरजानी के काम का एक और महत्त्व भी है जिसने उनकी किताब को दूसरी किताबों से विशिष्ट बना दिया है। शेष लोग उदाहरणार्थ क़ाज़ी अबू-बक्र ने एजाज़ुल-क़ुरआन पर एक किताब लिखी और बताया कि पवित्र क़ुरआन के आलोक में उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के क्या उसूल होने चाहिएँ। उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के इन मानदंडों को देखते हुए पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का क्या दर्जा है। उन्होंने केवल यह बताने पर सन्तोष किया कि पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता किस स्तर और किसी दर्जे की है।

लेकिन शैख़ अब्दुल-क़ाहिर जुरजानी इससे एक क़दम आगे बढ़े। उन्होंने पहले ही निर्धारित किया कि पवित्र क़ुरआन से उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के जो सिद्धांत मालूम होते हैं वे क्या हैं, यानी पवित्र क़ुरआन की शैली से उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का जो अंदाज़ मालूम होता है वह क्या है। फिर इन सिद्धांतों पर तदधिक शोध करके उन्होंने एक किताब, जो बाद में आनेवालों के लिए अरबी वाग्मिता की एक मूल किताब क़रार पाई, जिसका नाम है ‘असरारुल-बलाग़ा’। यह किताब बहुत बार प्रकाशित हुई है और आम तौर पर उपलब्ध है। इस किताब में उन्होंने पवित्र क़ुरआन को आधार बनाकर अरबी वाग्मिता के स्थायी सिद्धांत निर्धारित कर दिए हैं, जिनको सामने रखकर क़ुरआन की वाग्मिता का अनुमान भी लगाया जा सकता है और इस वाग्मिता से ख़ुद उन सिद्धांतों की सत्यता का भी अनुमान हो सकता है। उन्होंने इन दोनों चीज़ों को ऐसे ढंग से मिला दिया है कि अब ये दोनों एक-दूसरे से अलग-अलग हो ही नहीं सकतीं। इसलिए इब्ने-ख़लदून का यह कहना दुरुस्त मालूम होता है कि अब्दुल-क़ाहिर जुरजानी से ज़्यादा पवित्र क़ुरआन की वाग्मिता को किसी ने नहीं समझा।

अबदुल-क़ाहिर जुरजानी और ज़मख़्शरी के अलावा और भी बहुत-से लोगों ने पवित्र क़ुरआन की भाषागत और साहित्यिक वास्तविकता को अपना विषय बनाया और एजाज़ुल-क़ुरआन के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से लिखा। यही कारण है कि उलूमे-क़ुरआन के विषय पर लिखी जानेवाली कोई उल्लेखनीय किताब एजाज़ुल-क़ुरआन की बहसों से ख़ाली नहीं है।

क़ाज़ी एयाज़ एक प्रसिद्ध उंदलुसी फ़क़ीह और सीरत-निगार (जीवनी लेखक) थे। उनकी एक किताब बहुत अच्छी और बड़ी अलग प्रकार की है। यानी ‘अश्शिफ़ाउ फ़ी तारीख़े हुक़ूक़ुल-मुस्तफ़ा’। इस किताब में उन्होंने यह बताया है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के उम्मत (मुस्लिम समुदाय) पर क्या अधिकार हैं। और इस विषय में यह बहस भी की है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को कौन-सी विशिष्टताएँ प्रदान की गई हैं। और दूसरे पैग़म्बरों पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को और दूसरे पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के सन्देश पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सन्देश को जो श्रेष्ठता प्राप्त है उसके कौन-कौन से पहलू नुमायाँ हैं। इस सन्दर्भ में उन्होंने एजाज़ुल-क़ुरआन पर भी बड़े विस्तार से चर्चा की है जिसमें उन्होंने इस विषय को बहुत निखार कर बयान किया है।

जब हम एजाज़ुल-क़ुरआन पर बात करते हैं तो हमारे ज़ेहन में तुरन्त यह सवाल पैदा होता है कि एजाज़ या मोजिज़ा (चमत्कार) से क्या मुराद है? ‘एजाज़’ का अर्थ है चमत्कार के रूप में  सामने आना या चमत्कार दिखाना, या दूसरों को चमत्कार दिखाकर चकित कर देना। यह एजाज़ का शाब्दिक अर्थ है। लेकिन ‘एजाज़’ को उस समय तक नहीं समझा जा सकता, जब तक मोजिज़ा या चमत्कार को न समझा जाए। ‘मोजिज़ा’ इस्लामी साहित्य में एक दीनी या धार्मिक शब्दावली के तौर पर प्रचलित है, लेकिन यह बड़ी दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण बात है कि मोजिज़ा का शब्द न पवित्र क़ुरआन में कहीं आया है और न ही हदीसों में प्रयुक्त हुआ है। और न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने और न ही ताबिईन ने इस शब्दावली को इस्तेमाल किया। यह शब्दावली बाद की मालूम होती है। पवित्र क़ुरआन ने इस अर्थ को बयान करने के लिए आयत (निशानी, प्रमाण, प्रतीक) का शब्द प्रयोग किया है। सॉलेह (अलैहिस्सलाम) की ऊँटनी के लिए आयत का शब्द प्रयुक्त हुआ है। मूसा (अलैहिस्सलाम) के मोजिज़ात (चमत्कारों) के लिए भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। وَ لَقَدْ اٰتَیْنَا مُوْسٰى تِسْعَ اٰیٰتٍۭ بَیِّنٰتٍ (व-लक़द आतैना मूसा तिस-अ आयातिम्बैय्यिनात) अर्थात् “हमने मूसा को नौ खुली-खुली निशानियाँ दीं।” यानी पवित्र क़ुरआन की मूल शब्दावली में इस अर्थ के लिए ‘आयत’ का शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसका शाब्दिक अनुवाद तो निशान और मंज़िल है, लेकिन पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरी के सन्दर्भ में इसका अनुवाद मोजिज़ा (चमत्कार) किया जा सकता है।

पवित्र क़ुरआन की दूसरी शब्दावली ‘बुरहान’ है, जिसका अर्थ एक ऐसा प्रमाण है जो अकाट्य हो और जिससे कोई बात पूरे तौर पर स्पष्ट होकर सामने आ जाए। ये दो पारिभाषिक शब्द तो पवित्र क़ुरआन में बार-बार प्रयुक्त हुए हैं। दो पारिभाषिक शब्द जो इनसे मिलते-जुलते हैं वे हदीस और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के साहित्य में भी प्रयुक्त हुए हैं और बाद के इस्लामी साहित्य में भी आए हैं। वे हैं ‘दलील’ और ‘अलामत’ यानी पैग़म्बरी की अलामात (निशानियाँ) और पैग़म्बरी के दलीलें (प्रमाण)। चुनाँचे ‘दलायलुन-नुबुव्वः’ के नाम से अलग किताबें भी मिलती हैं और सीरत (जीवनी) की बड़ी किताबों में इस शीर्षक से अध्याय और बहसें भी मौजूद हैं। दलील का अर्थ भी रास्ता बतानेवाला मार्गदर्शक और मंज़िल का पाता बतानेवाले निशानात हैं। रास्ते में जो मंज़िल के निशानात लगाए जाते हैं उनको भी दलील कहते हैं। और रास्ता बतानेवाले साथी के लिए भी दलील का शब्द प्रयुक्त होता है। मानो जिस चीज़ को हम मोजिज़ा (चमत्कार) क़रार दे रहे हैं यह हमें रास्ता बताकर उस मंज़िल तक ले जाता है जो ईमान की और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सन्देश को मान लेने की मंज़िल है। ये दो पारिभाषिक शब्द हैं जो क़ुरआन और सुन्नत और इस्लामी साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस शब्दावली के अर्थ को अधिक सारगर्भित और समझ में आने योग्य बनाने के लिए कुछ विद्वानों ने ‘मोजिज़ा’ की शब्दावली प्रयुक्त की जो अपनी सारगर्भिता के कारण बहुत जल्द आम हो गई। यानी वह निशानी जो (बुद्धि को) आजिज़ (असमर्थ) कर दे। ‘मोजिज़ा’ वस्तुतः विशेषण था ‘आयत’ का, यानी आयते-मोजिज़ा, वह निशानी जो सामनेवाले या दुश्मन को असमर्थ कर दे। इसी से ‘एजाज़’ की शब्दावली भी निकली।

‘एजाज़’ की शब्दावली का अर्थ है वह पराभौतिक घटना जो अल्लाह तआला ने किसी पैग़म्बर की पैग़म्बरी की सत्यता के लिए दुनिया के सामने घटित की हो। यहाँ तीन चीज़ें उल्लेखनीय हैं। (1) वह घटना जो घटित हुई है वह पराभौतिक हो। (2) दूसरे यह कि वह किसी पैग़म्बर की पैग़म्बरी के दावे की सत्यता के लिए भेजा गया हो। और (3) तीसरे यह कि वह इस पैग़म्बर और इंसानों पर इस तरह से स्पष्ट कर दिया जाए कि उनके सामने इनकार की कोई गुंजाइश न रहे और वे कोई भौतिक कारण न बायन कर सकें। पराभौतिक घटना से तात्पर्य यह है कि वह चीज़ आम इंसानों के वश में न हो और उनकी शक्ति से बाहर हो। वे लोग जिनसे उस समय उस पैग़म्बर का सम्बोधन है, वे इस काम को करके न दिखा सकें और पैग़म्बर उस काम को अपनी पैग़म्बरी की सत्यता के लिए कर के दिखा दे, और लोग उसके सामने निरुत्तर हो जाएँ, और मजबूर हो कर, उसको हतप्रभ होकर देखें, ऐसी पराभौतिक घटना को मोजिज़ा कहते हैं।

अल्लाह तआला की यह सुन्नत (रीति) रही है कि उसने अपने नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के समर्थन के लिए हमेशा निशानियाँ (आयतें) और मोजिज़े भेजे। अगरचे यह बात भी पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की पैग़म्बरी और इतिहास से सामने आती है कि पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) के अत्यंत क़रीबी इंसानों को कभी मोजिज़े (चमत्कार) की ज़रूरत पेश नहीं आई। सकारात्मक सोचवाले इंसानों के सामने जब भी पैग़म्बर ने अपनी दावत पेश की तो उन्होंने निस्संकोच इस तरह उसको स्वीकार कर लिया, जैसे वे पहले से इसकी प्रतीक्षा में थे। फिर एक और बात भी पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की ज़िंदगी में मिलती है, वह यह कि जो जितना ज़्यादा सकारात्मक सोच का मालिक था और अपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सीरत और किरदार से जितनी गहराई से अवगत था उसने उतनी शिद्दत से अपने नबी के इस दावे को क़ुबूल किया।

ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व और चरित्र से जिस अंदाज़ से परिचित थीं, वह सब जानते हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अपने क़बीले क़ुरैश से उनका संबंध था। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र बीस-बाईस साल थी उस वक़्त से आपका बिना किसी माध्यम के ख़दीजा से सम्पर्क था। पहले बतौर कारोबार में साझेदार के और बाद में बतौर जीवन-साथी के। और इस साझेदारी में ज़िंदगी के बीस साल गुज़र चुके थे। इतना समय किसी व्यक्ति के चरित्र की महानता को जानने के लिए काफ़ी होता है। फिर जो किसी व्यक्ति से जितना क़रीब होता है इतना ही वह उसकी कमज़ोरियों को भी जानता है। लेकिन पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की ज़िंदगियों को हमेशा यह असाधारण अपवाद प्राप्त रहा है कि उनके स्वयं से जो जितना ज़्यादा क़रीब था, उतना ही उनके व्यक्तित्व की महानता और अन्य ख़ूबियों को जानता था, और उनका दिल की गहराइयों से परिचित होता चला गया था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सौतेले बेटे, यानी ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पहले पति के बेटे हिंद-बिन-अबी-हाला, जो हसन (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) के मामूँ थे, उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के स्वभाव के बारे में एक बहुत ही अहम और गहरी बात की थी। उनका कहना है कि जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पहली बार देखता था उसके ऊपर एक रोब और प्रभावित होने की कैफ़ियत छा जाती थी और फिर जो जितना साथ रहता था उसके दिल में उतनी ही मुहब्बत पैदा हो जाती थी। यही वे अच्छाइयाँ थीं जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़रीब रहनेवालों को पहले से मालूम होती थीं। चुनाँचे  ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ज्यों ही आपकी पैग़म्बरी की ख़बर सुनी तो कहा कि अल्लाह तआला आपको हरगिज़ रुस्वा न करेगा, इसलिए कि आप रिश्तेदारों का ख़याल रखते हैं, लोगों का बोझ उठाते हैं, आप बहुत मेहमान-नवाज़ हैं, और हक़ के मामले में हमेशा लोगों की मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। यानी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शिष्टाचार की महानता का आभास जो ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दिल में पहले से मौजूद था, उसके आधार पर उन्होंने तुरन्त जिस प्रतिक्रिया को व्यक्त किया था वह यह था कि जो व्यक्तित्व इस शान का हो और इतनी ख़ूबियों का मालिक हो उसे अल्लाह का नबी होना ही चाहिए।

यही कैफ़ियत शेष प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की भी थी। इसलिए जिसके दिल में पहले से उच्च नैतिक गुणों, सह्हृदयता और सकारात्मक सोच के तत्त्व मौजूद हों, जिसके अंदर पहले से इस्लाम और ईमान के लिए समर्थन की भावना मौजूद हो, वह कभी मोजिज़ा (चमत्कार) की माँग नहीं करता, और उनमें से कभी किसी ने मोजिज़ा नहीं माँगा। जैसे ही दावत दी गई तुरन्त क़ुबूल कर ली। जो लोग मोजिज़ा माँगते हैं वे अधिकांश रूप से ईमान नहीं लाया करते। फ़िरऔन ने मोजिज़ा माँगा, लेकिन ईमान नहीं लाया। अबू-जहल और अबू-लहब सारी उम्र मोजिज़े ही तलब करते रहे, लेकिन ईमान नहीं लाए।

एक तरफ़ बेहतर प्रकृति के लोग बुलंदी के एक चरम पर होते हैं। जिनको किसी मोजिज़े की ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर कुछ लोग पतन की सबसे बुरी हालत में होते हैं। जो किसी भी मोजिज़े को नहीं मानते। उदाहरणार्थ चाँद को दो टुकड़े होते हुए देखा, फिर भी नहीं माना। लेकिन इन दोनों अतियों के बीच जो लोग होते हैं उनकी बड़ी संख्या ऐसी होती है जिनके दिल में सत्य को स्वीकार करने की क्षमता तो होती है लेकिन दिल पर एक पर्दा पड़ा हुआ होता है। मोजिज़ा देखने के बाद वह पर्दा हट जाता है। पर्दा हटते ही इंसान सोचने पर मजबूर हो जाता है और आख़िरकार इस्लाम की परिधि में दाख़िल हो जाता है। मोजिज़ा ऐसे ही लोगों को प्रभावित करने के लिए दिया जाता है। वह ऐसे ही लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए होता है कि यह एक महान व्यक्तित्व है जो सारे संसार के पालनहार अल्लाह की ओर से प्रवक्ता बनाकर भेजा गया है और यह मोजिज़ा (चमत्कार) इसको बतौर निशानी के दिया गया है, जिसको कोई इंसान चैलेंज नहीं कर सकता।

अल्लाह तआला की एक सुन्नत (रीति) यह भी रही है कि उसने जिस पैग़म्बर को जिस इलाक़े और जिस क़ौम में भेजा उसको वह मोजिज़ा दिया जो इस इलाक़े की परिस्थितियों, वातावरण और उस इलाक़े के लोगों के मानसिक, बौद्धिक, ज्ञानपरक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर के अनुकूल था। मिसाल के तौर पर सॉलेह (अलैहिस्सलाम) का संबंध अरब द्वीप से था जहाँ पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्र था। वहाँ कोई लिखने-पढ़ने का रिवाज या कोई ज्ञानपरक तथा वैचारिक जीवन मौजूद नहीं था। न कोई उद्योग था। केवल ऊँट चलानेवाले बद्दू थे। उनको एक ऐसी ऊँटनी मोजिज़े के तौर पर दी गई जो एक अलग प्रकार की थी। यह सीधा-साधा मोजिज़ा उनके संबोधितों की समझ के क़रीब था। यह मोजिज़ा उनकी माँग पर ही उनको दिया गया था। फिर उस ऊँटनी की शर्तें भी रखी गईं। और उनसे कहा गया कि तुमने मोजिज़ा माँगा है। अब उसकी ज़िम्मेदारी भी अदा करो, लेकिन वह इस ज़िम्मेदारी को पूरा न कर सके। ऊँटनी की हत्या कर दी। आख़िरकार वे लोग भी तबाह किए गए।

मूसा (अलैहिस्सलाम) मिस्र में थे। वहाँ जादूगरी की कला अत्यंत चरम पर थी। जादूगरी के आधार पर ही लोगों को समाज में स्थान और श्रेष्ठता प्राप्त होती थी। बाइबल से पता चला है कि मिस्र में उस ज़माने में जादूगरी की कला जाननेवालों की संख्या लाखों में थी। इसलिए  मूसा (अलैहिस्सलाम) को जो मोजिज़े (चमत्कार) दिए गए वे इस प्रकार के थे कि मिस्र की जादूगरी को ऐसे ही मोजिज़ों से निरुत्तर और बेबस किया जा सकता था। उनके ज़माने में बड़े पैमाने पर जादू सीखा और सिखाया जाता था। देश में लाखों की संख्या में जादूगर मौजूद थे। उनको बादशाह के दरबार में ख़ूब सम्मान प्राप्त था। मूसा (अलैहिस्सलाम) का मोजिज़ा ऐसा ज़बरदस्त और असाधारण था कि संयोगवश सारे जादूगरों ने बिना किसी अपवाद के और एक स्वर में य़ह स्वीकार किया कि यह मोजिज़ा ही हो सकता है, यह जादू नहीं हो सकता। और अनायास सजदे में गिर गए। यानी इंसानी कमाल जहाँ तक जा सकता था, वहाँ तक पहुँचे हुए उच्चतम लोगों ने उसको अपने वश से बाहर और अपने कमाल से परे एक चीज़ क़ुबूल किया और उसको चमत्कार माना।

ईसा (अलैहिस्सलाम) का जन्म फ़िलस्तीन में हुआ। उन दिनों फ़िलस्तीन, सीरिया, वर्तमान जॉर्डन और इराक़ का कुछ हिस्सा, यह सब रोम के पूर्वी साम्राज्य के अंग थे। इस क्षेत्र में जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा चर्चा थी वह यूनानियों के ज्ञान एवं कलाएँ थीं। यूनान का  दर्शन, यूनान का तर्कशास्त्र, यूनान के ज्ञान और यूनान की हर चीज़ वहाँ प्रचलित थी। यूनानियों में जो चीज़ ज्ञानपरक दृष्टि से सबसे नुमायाँ थी वह उनकी चिकित्सा पद्धति थी। अब यूनानियों के शेष ज्ञान तो क़रीब-क़रीब मिट गए हैं, लेकिन उनके ज्ञान एवं कलाओं में जो चीज़ आज तक चली आ रही है वह उनकी यूनानी चिकित्सा पद्धित है। यूनानियों का दर्शन और तर्कशास्त्र आज अपना महत्त्व खो चुके हैं। लेकिन जो चीज़ आज तक लाभकारी और लोकप्रिय चली आ रही है, वह उनकी चिकित्सा पद्धति ही है। उदाहरणार्थ यहाँ इस शहर में इस वक़्त भी आपको यूनानी दवाएँ मिलेंगी, जवारिश जालीनूस आज भी हर जगह उपलब्ध है। माजून बुक़रात आज भी लोगों के इस्तेमाल में है।

इन हालात और इस माहौल में ईसा (अलैहिस्सलाम) को जो मोजिज़ा दिया गया, वह चिकित्सा प्रकार का था। उनके इस ‘मसीहाई’ मोजिज़े (चमत्कार) को देखकर यूनानी चिकात्सा के बड़े से बड़े माहिर ने यह स्वीकार किया कि यह चिकित्सा से परे कोई चीज़ है। चिकित्सा विज्ञान वहाँ तक नहीं पहुँच सकता जहाँ तक ईसा (अलैहिस्सलाम) का मसीहाई का गुण पहुँचा है। चिकित्सा विज्ञान के लिए यह बात अकल्पनीय है कि एक जन्मजात अंधे को फूँक मार दी जाए और उसको नेत्र-ज्योति मिल जाए, या मात्र हाथ फेर देने से एक कोढ़ी का कोढ़ ठीक हो जाए। ऐसी कोई चिकित्सा पद्धति अभी तक तो ईजाद नहीं हुई कि डॉक्टर के फूँक मारने से रोग ठीक हो जाए। अतः सबने उसको अल्लाह तआला का मोजिज़ा (चमत्कार) स्वीकार कर लिया।

इन उदाहरणों से ही अनुमान हो जाता है कि अल्लाह तआला की यह सुन्नत (रीति) रही है कि जिस क्षेत्र में जो मोजिज़ा भेजा जाए वह उस क्षेत्र के उच्चतम मानवीय चमत्कारों से बढ़कर और उसकी महानता के चरम से बहुत आगे हो। और लोग यह स्वीकार कर लें कि यह हमारे बस से बाहर की चीज़ है। एक मूल गुण तो मोजिज़ा का यह है। दूसरा गुण जो पहले तमाम मोजिज़ों में समान रूप से रहा है वह यह है कि अल्लाह तआला की नियति रही है कि जब तक और जिस क्षेत्र में किसी नबी की पैग़म्बरी काम कर रही हो उस समय तक वह मोजिज़ा भी बाक़ी रहा। और जब पैग़म्बरी का दौर ख़त्म हुआ तो मोजिज़ा भी ख़त्म हो गया। तीसरा गुण यह था कि पिछले पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) को आभासी मोजिज़े दिए गए, जिनको इंसान अपनी संवेदनाओं से महसूस कर सकता था कि मोजिज़ा (चमत्कार) है। चौथा महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि बाक़ी पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के मोजिज़े सामयिक चमत्कार थे, जो एक विशेष समय के बाद ख़त्म हो गए। आज हम यह मानते हैं कि मूसा (अलैहिस्सलाम) जब अपनी लाठी फेंकते थे तो वह अजगर बन जाया करती थी। लेकिन आज न वह लाठी है और न वह अजगर है। हममें से किसी ने न वह लाठी देखी और न वह अजगर देखा। इसलिए कि वह केवल उस दौर के लिए था। वह दौर गुज़रा तो वह मोजिज़ा भी समाप्त हो गया।

इसके विपरीत अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पैग़म्बरी हमेशा के लिए है और हमेशा रहेगी। वह आनेवाले तमाम इंसानों के लिए है। इसलिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का प्रस्तुत किया हुआ चमत्कार भी बाक़ी है जो इस पैग़म्बरी की पुष्टि और प्रमाण के रुप में भेजा गया था। जब तक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दीन बाक़ी है, आपका मोजिज़ा भी बाक़ी रहेगा। पवित्र क़ुरआन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चमत्कारों में सबसे बड़ा चमत्कार है और इस दृष्टि से सबसे अलग है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी पैग़म्बरी के समर्थन एवं पुष्टि में जब भी कोई चीज़ पेश की तो वह क़ुरआने-नातिक़ (बोलता हुआ क़ुरआन अर्थात् क़ुरआन को जीनेवाला व्यक्ति यानी स्वयं हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और क़ुरआने-सामित (गूँगा क़ुरआन अर्थात् क़ुरआन की लिखित प्रति) है। इन दोनों के अलावा जितने मोजिज़े भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हाथ पर ज़ाहिर हुए उनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी पैग़म्बरी के प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी की बहुत-सी घटनाओं से यह पता चलता है कि आपने किसी भी ग़ैर-मुस्लिम को अपनी पैग़म्बरी के प्रमाण के तौर पर कोई आभासी चीज़ प्रस्तु नहीं की। केवल अपने व्यक्तित्व और पवित्र क़ुरआन को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया।

सवाल यह पैदा होता है कि पवित्र क़ुरआन किस दृष्टि से मोजिज़ा या चमत्कार है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का व्यक्तित्व किस दृष्टि से मोजिज़ा है। एक दृष्टि से अस्ल मोजिज़ा तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का व्यक्तित्व है जिसको देखकर हर सद्बुद्धि रखनेवाले व्यक्ति ने निस्संकोच ही यह स्वीकार किया कि यह सन्देश और यह आमंत्रण सत्य है। अबदुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक ज्ञानवान व्यक्तित्व थे। उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व के बारे में नकारात्मक प्रोपेगंडा सुन रखा था, लेकिन ज्यों ही मुलाक़ात हुई और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुबारक चेहरे पर नज़र पड़ी तो तुरन्त पुकार उठे कि यह चेहरा किसी झूठे इंसान का नहीं हो सकता। ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के उदाहरण मौजूद हैं। इनके अलावा हज़ारों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ऐसे उदाहरण मिलते हैं।

पवित्र क़ुरआन की चमत्कारी हैसियत को समझने के लिए एक मूलभूत बात यह ज़ेहन में रखनी चाहिए कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जिस दौर के लिए भेजे गए थे, वह दौर वह्य के अवतरण के आरंभ से शुरू होता है, यानी 27 रमज़ान 13 हिजरत पूर्व से वह ज़माना शुरू हुआ। और जब तक अल्लाह तआला इस सृष्टि को बाक़ी रखता है उस समय तक यह दौर जारी रहेगा। यह सारा ज़माना नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का और आपके सन्देश का दौर है। अगर इस ज़माने की कोई ऐसी व्यक्तिगत विशिष्टता तलाश की जाए जो उस ज़माने को पिछले ज़मानों से अलग कर दे तो वह केवल ज्ञान एवं शोध तथा ईश-ज्ञान है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पहले का दौर अशिक्षा और अज्ञानता का दौर है। और यह दूसरा दौर ज्ञान एवं तत्त्वदर्शिता तथा बौद्धिकता का दौर है। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जो चमत्कार प्रदान किया गया वह ऐसा ज्ञानपरक चमत्कार है जिसे देखकर हर दौर का विद्वान व्यक्ति स्वीकार कर लेगा कि यह अल्लाह की किताब है और हमारी सामर्थ्य से परे है।

यह बात तो उन पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) को दिए जानेवाले चमत्कारों की विशेषताओं की वजह से सामने आई। लेकिन यह बात कि पवित्र क़ुरआन के ‘एजाज़’ (चमत्कारी गुण) के महत्त्वपूर्ण पहलू कौन-से हैं, इसपर भी बात करनी होगी। लेकिन इससे पहले एक बात और ध्यान में रखें। वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दो ‘बेअसतें’ (पैग़म्बर के रूप में आगमन) हुई हैं। सूरा-62 जुमुआ में बताया गया कि هُوَ الَّذِیْ بَعَثَ فِی الْاُمِّیّٖنَ رَسُوْلًا (हुवल्लज़ी बुइ-स फ़िल-उम्मीई-न रसूला) यानी “वही सत्ता है जिसने अरब के उम्मियों में उन्हीं में से एक रसूल भेजा।” (आयत:11) यह तो पहली ‘बेअसत’ हुई, जो अरब के उम्मियों की ओर हुई। उसके बाद दूसरी बेअसत का ज़िक्र करते हुए कहा गया कि कुछ और लोगों की नस्ल की ओर भी भेजा। यानी उन बहुत-से लोगों की तरफ़ जो अभी तक आए ही नहीं, जो अभी पैदा ही नहीं हुए।

अब यह तो नहीं हो सकता था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र कई हज़ार साल होती और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) प्रत्यक्ष रूप से हर इंसान को इस्लाम की ओर बुलाते। ऐसा होना अल्लाह की रीति के विरुद्ध है। इसलिए जिस तरह आम इंसानों को भेजा गया उसी प्रकार रसूल को भी भेजा गया। अब यही हो सकता था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक बेअसत तो पहले की जाए। पहले मरहले में जो प्रत्यक्ष संबोधित लोग हों वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के द्वारा तैयार हो जाएँ और प्रशिक्षण पा जाएँ। फिर इन प्रशिक्षण प्राप्त लोगों के द्वारा दूसरे इंसानों तक इस्लाम का सन्देश पहुँचाया जाए। यों आगे और आगे तक यह सिलसिला चलता रहे। ज़ाहिर है कि यह अधिक श्रेयस्कर, ज्ञानपरक, मानवानुकूल और तर्कसंगत ढंग था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पैग़म्बरी और आह्वान को क़ियामत आने तक इंसानों तक पहुँचाने का इससे अच्छा और प्रभावकारी प्रबंध नहीं हो सकता था। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दो बेअसतें हुई हैं, और दोनों बेअसतों का पवित्र क़ुरआन में उल्लेख है। एक प्रत्यक्ष ‘बेअसत’ जिसका सौभाग्य अरबों को और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को प्राप्त हुआ और दूसरी ‘बेअसत’ उन लोगों की तरफ़ जिनको अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) या ताबिईन या उनके बाद आनेवाली नस्लों के ज़रिये से सन्देश पहुँचाना था।

अब पवित्र क़ुरआन की इन दोनों बेअसतों की दृष्टि से और पवित्र क़ुरआन के इन दो विभिन्न संबोधित वर्गों की दृष्टि से दो विभिन्न प्रकार का चमत्कार क़ुरआन में पाया जाता है। पहली प्रकार के एजाज़ (चमत्कार) पर तो लोग प्रायः बहुत ज़ोर देते हैं, किताबें भी अधिकतर चमत्कार के इसी पहलू पर लिखी गई हैं। दूसरे दौर के चमत्कार पर तुलनात्मक रूप से कम लिखा गया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सबसे पहले संबोधित लोग अरब के विधर्मी और मक्का के बहुदेववादी थे। उनको जो चीज़ प्रभावित कर सकती थी वह अल्लाह के कलाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (वाणी) के शाब्दिक अर्थ, उसकी उत्कृष्टता एवं वाग्मिता, उसकी शैली की श्रेष्ठता, उसकी रचनात्मकता और कलात्मकता और उसकी व्यवस्था की परिपूर्णता। यह वे चीज़ें थीं जो अरबवालों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर सकती थीं। वे लोग क़ानून, दर्शन, गणित से अवगत नहीं थे। भाषा-ज्ञान तथा उत्कृष्टता एवं वाग्मिता ही उनका मैदान था। वह अपने आप को सुभाषी और अपने अलावा हर एक को ‘अजमी’ यानी गूँगा समझते थे। मानो उनको अपनी भाषा विद्वता पर गर्व था कि उनकी नज़र में सारी दुनिया गूँगी थी। कोई नौजवान शेअर कहना शुरू करता तो ख़ुशी मनाने और दावतें किया करते थे।

हस्सान-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) प्रसिद्ध सहाबी और पहली पंक्ति के शायर थे। उनका छोटा बच्चा एक बार रोता हुआ आया। उसको भिड़ (ततैया) ने काट लिया था। हस्सान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा कि क्या हुआ। बच्चे ने जवाब दिया मुझे किसी चीज़ ने काट लिया है। हस्सान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा वह चीज़ क्या और कैसी थी? बच्चा बोला कि मुझे एक ऐसी चीज़ ने काट लिया है जो इस तरह की थी जैसे उसने धारीदार चादर ओढ़ रखी हो। हस्सान (रज़ियल्लाहु अन्हु) यह सुनकर ख़ुशी से झूम उठे कि ख़ुदा की क़सम, मेरा बेटा तो शायर हो गया। यानी केवल उसकी ओर से अलग-सी उपमा देने पर ख़ुश हुए कि बच्चे के अंदर शायरी के कीटाणु मौजूद हैं।

अरबों में भाषा-ज्ञान का स्तर तीन चीज़ें मानी जाती थीं। इन्हीं तीनों चीज़ों से भाषा-ज्ञान का पता चलता था। एक भाषण-कला, दूसरे शायरी, तीसरे कहानत। कहानत से तात्पर्य वे छोटे-छोटे निरर्थक एवं अस्पष्ट वाक्य होते थे जो काहिन लोग परोक्ष-ज्ञान को व्यक्त करने के लिए बोला करते थे और दावे करते थे कि उन्हें परोक्ष की बातों का ज्ञान है। अरबों ने शेअरो-शायरी के भंडार भी सुरक्षित रखे। भाषण-कला के बहुत-से संग्रह भी सुरक्षित रखे। काहिनों के वाक्य भी नस्ल दर नस्ल नक़्ल होते रहे।

सबसे नुमायाँ दर्जा शायरी का था। अरबों ने जिन बड़े-बड़े शायरों की बड़ाई को सर्वसहमति से स्वीकार किया, उनमें सात शायर सबसे बड़े माने जाते थे। उनके सात बड़े क़सीदे (काव्य का एक प्रकार) थे। उनको ‘मज़हबात’ कहा जाता था। यानी सोने से लिखे जाने योग्य। इन सात शायरों की महानता को अरब के तमाम शायरों ने माना और स्वीकार किया। यहाँ तक कि जब कोई शायर ऐसा शेअर कहा करता जिसके बारे में तमाम शायर बरबस ही यह पुकार उठते कि इस शेअर से ऊँचा कोई शेअर नहीं है तो वह उस शायर के आगे सजदे में गिर जाया करते थे। यह मानो किसी शायर के काव्य गुण की पराकाष्ठा थी कि दूसरे शायर उसकी महानता को स्वीकार करते हुए सजदे में गिर जाएँ।

पवित्र क़ुरआन की महानता का एक पहलू यह था कि इसकी उत्कृष्टता एवं वाग्मिता को बड़े-बड़े भाषाविदों ने स्वीकार किया। कई बार ऐसा हुआ कि बड़े-बड़े विरोधियों ने पवित्र क़ुरआन को सुना और इसके वाक्-प्रवाह और ताक़त के सामने नतमस्तक हो गए। इसके वाक्-प्रवाह के सामने टिक न सके और तुरन्त प्रभावित हो गए। इस प्रभाव के घटनात्मक उदाहरण दिए जाएँ तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी।

केवल दो मिसालें पेश करता हूँ। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में सब जानते हैं कि शुरू-शुरू में इस्लाम के कट्टर विरोधी थे और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में भी अच्छे विचार नहीं रखते थे, इसलिए न उन्होंने उस वक़्त तक आपकी मुबारक ज़बान से अल्लाह का कलाम सुना और न ही आपसे कभी प्रत्यक्ष रूप से कोई मुलाक़ात की। विरोधियों से जो कुछ सुन रखा था, बस उसी के प्रभाव में थे। ख़ुद उन का कहना है कि सबसे पहले उनके दिल में जो इस्लाम का बीज पड़ा, जिसने उनको आख़िरकार इस्लाम क़ुबूल करने पर आमादा किया, वह दरअस्ल पवित्र क़ुरआन सुनने की एक घटना है।

वह बयान करते हैं कि एक बार रात को किसी महफ़िल से वापस आरहे थे। आधी रात का वक़्त था और हर ओर अंधेरा छाया हुआ था। उन्होंने देखा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हरम में मौजूद हैं, बैतुल्लाह (काबा) की ओर मुँह कर के नमाज़ अदा कर रहे हैं और बुलंद आवाज़ से क़ुरआन पढ़ रहे हैं। उन्होंने सोचा कि इस वक़्त तो कोई देखनेवाला भी नहीं है, क्यों न ठहरकर इस कलाम को सुना जाए। शायद दूसरों के सामने सुनने में संकोच महसूस करते होंगे कि लोग कहेंगे कि इतना बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति इस्लाम की बातें सुनता है। यह सोचकर चुपके से बैतुल्लाह के दूसरी ओर खड़े हो गए और पर्दे के अंदर छिप गए।

उस वक़्त बैतुल्लाह के पर्दों की यह कैफ़ियत नहीं होती थी जो आज है। आज पर्दे बैतुल्लाह की दीवारों के साथ कसे हुए होते हैं और बैतुल्लाह के साइज़ के अनुसार बनाए जाते हैं। आज उनके अंदर कोई नहीं जा सकता। लेकिन उस समय बैतुल्लाह के पर्दों की यह कैफ़ियत नहीं होती थी। उसके ऊपर एक नहीं, बल्कि छोटे-बड़े बहुत-से पर्दे चादरों की तरह लटके होते थे। जिस किसी का दिल चाहता तो जब भी मौक़ा मिलता वह कोई चादर डालकर बाँध दिया करता था। किसी ने बड़ा कपड़ा लगा दिया और किसी ने छोटा। इस तरह एक-एक दिशा में कई-कई पर्दे लटके रहते थे। इन पर्दों के पीछे छिपकर खड़ा होना आसान था।

इस तरह के एक पर्दे के अंदर छिपकर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तिलावत (क़ुरआन पाठ) सुननी शुरू कर दी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उस समय सूरा-69 हाक़्क़ा की तिलावत कर रहे थे। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि तिलावत सुनते हुए मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरा दिल अब निकल पड़ेगा। मैं इस कलाम के ज़ोर और इसकी गहरे प्रभाव का प्रतिरोध न कर सका। मैंने अपने आपको सन्तुष्ट करने और अपने आपको उसके प्रभाव से बचाने का प्रयास करते हुए तुरन्त अपने आपको यह सांत्वना देने की कोशिश की कि यह तो बड़ा ज़बरदस्त शायराना कलाम है। उसी समय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान पर ये शब्द जारी हुए وَمَا ھُوَ بِقَوْلِ شَاعِر (वमा हु-व बिक़ौलि शाइर) अर्थात् “यह किसी शायर का कथन नहीं है।” उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने तुरन्त ही दोबारा अपने दिल को तसल्ली देने का असफल प्रयास किया और दिल में कहा कि तो फिर यह कहानत है। उसी समय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह आयत तिलावत की, ولَا بِقَوْلِ کَاہِن  (वला बिक़ौलि काहिन) अर्थात् “और न यह किसी काहिन का कथन है।” यह सुनकर वह इससे ज़्यादा उस कलाम को बर्दाश्त न कर सके और वहाँ से वापस चले आए।

ऐसा मालूम होता है कि इस घटना के बाद दो-तीन दिन वह एक सख़्त मानसिक उलझन, परेशानी और एक सख़्त प्रकार की मनःस्थिति में पड़े रहे। उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। इसी कैफ़ीयत में यह तय किया कि इस सारे क़िस्से ही को समाप्त कर देते हैं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) रहेंगे और न यह परेशानी होगी। यह फ़ैसला करके घर से चले और आख़िरकार इस्लाम क़ुबूल करने की नौबत आई, जैसा कि घटना का विस्तृत वर्णन आप सब जानते हैं।

दूसरी घटना ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बाप की है। उसका नाम वलीद-बिन-मुग़ीरह था। यह ख़ुद भी क़ुरैश का एक बहुत बड़ा सरदार का और ख़ालिद (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे विजयी जनरल का बाप था। वलीद को एक बार एकाग्रता के साथ एकान्त में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुलाक़ात का मौक़ा मिला। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने संभवतः उसे खाने की दावत दी थी। वह इस असमंजस में घिरा था कि जाए या न जाए। लोगों से मश्वरा किया। लोगों ने कहा जाने में क्या हरज है, आप पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, आपको जाना चाहिए। अतः वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दावत क़ुबूल करते हुए आपकी सेवा में हाज़िर हो गया। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे खाने के बाद पवित्र क़ुरआन का कुछ हिस्सा सुनाया। वह बड़े ध्यान से सुनता रहा। बहुत प्रभावित होकर वापस आ गया और अगले दिन क़ुरैश की सभा में जाकर कहने लगा कि “तुम उनका विरोध छोड़ दो। इसलिए कि जो कुछ वह कहे रहे हैं वह कुछ और ही चीज़ है। तुम उस कलाम की वास्तविकता को नहीं समझ सकते।” अबू-जहल ने यह सुनकर उसका बहुत मज़ाक़ उड़ाया और बोला, “क्या खाना ज़्यादा मज़ेदार था कि इस खाने ने तुम्हें इतना प्रभावित किया कि तुम बिल्कुल बदलकर आ गए हो?” उसने कहा कि “जो चाहो सो कहो, मैंने जो कहना था वह कह दिया।” फिर वह ज़िंदगी-भर इस विचार पर क़ायम रहा। इस्लाम के विरोध में जितना पहले सक्रिय था, उतना नहीं रहा। लेकिन इस्लाम उसके मुक़द्दर में नहीं था, इसलिए वह मुसलमान नहीं हुआ। अलबत्ता उसे यह विश्वास हो गया कि यह कोई असाधारण चीज़ है।

इसी से मिलती-जुलती एक और घटना प्रसिद्ध सरदार उत्बा-बिन-रबीआ की है। यह भी क़ुरैश का एक बहुत बड़ा सरदार था। इसको क़ुरैश ने विधिवत रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास यह पूछने के लिए भेजा कि आख़िर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) चाहते क्या हैं। वह आया और उसने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समक्ष बहुत-से प्रस्ताव रखे कि “भतीजे! अगर तुम भौतिक सुख-सुविधाएँ और धन-दौलत चाहते हो तो हम तुम्हारे लिए धन-दौलत का ढेर लगा देंगे। अगर सत्ता चाहते हो तो हम तुम्हें अपना नेता स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। और अगर अरब की किसी भी महिला से शादी करने के इच्छुक हो तो उसका प्रबंध किए देते हैं। लेकिन तुम अपने इस काम को छोड़ दो।” जब वह सारी बात कह चुका तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा कि “चचा, आपको जो कहना था आप कह चुके?” उसने कहा, “हाँ, कह चुका।” आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसकी इन तमाम बातों के जवाब में क़ुरआन की सूरा-41 ‘हा-मीम सजदा’ की आरंभिक आयतों की तिलावत करनी शुरू कर दी। जिस वक़्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तिलावत कर रहे थे तो वह हाथ बाँधकर सम्मोहित-सी स्थिति में सुनता रहा। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इन आयतों पर पहुँचे जिनमें आद और समूद पर आनेवाले अज़ाब का ज़िक्र है तो उसने अनायास अपना हाथ आपके मुबारक मुँह पर रख दिया और कहने लगा कि “बस कीजिए! ऐसा न हो कि आपकी क़ौम पर अज़ाब आजाए।” यह कहकर वह वहाँ से चला गया और जाकर अपनी क़ौम को सचेत किया कि बेहतर है कि तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो। लेकिन इस्लाम उसके भाग्य में भी नहीं था। इस तरह की और भी बहुत-सी घटनाएँ हैं।

यह एजाज़ या चमत्कार का एक पहलू है जिसके प्रत्यक्ष और सबसे पहले संबोधित जन तो अरब थे, बाद में आनेवाले अप्रत्यक्ष रूप से एजाज़ (चमत्कार) के इस दर्जे के संबोधित थे। दूसरा पहलू वह है जिसके सर्वप्रथम संबोधित जन बादवाले थे और अरबवाले उसके अप्रत्यक्ष रूप से संबोधित थे। यह पवित्र क़ुरआन के ‘एजाज़’ का वह पहलू है जो हमेशा जारी रहेगा। जितना ज़्यादा लोग इसपर चिन्तन-मनन करते जाऐंगे नई-नई चीज़ें सामने आती जाएँगी। पवित्र क़ुरआन ने अपने ज्ञानात्मक चमत्कार की ओर संकेत करते हुए विरोधियों को इस बात की दावत दे रखी है कि अगर तुम्हें इस किताब के आसमानी किताब होने में सन्देह है तो ऐसी ही एक किताब तुम भी बना कर ले आओ। फिर चैलेंज दिया गया कि इस जैसा कलाम ले आओ। فَلْیَاتُوبِحَدِیْثٍ مِثْلِہٖ (फ़ल-यातू बिहदीसिम-मिसलिही)। ज़ाहिर है कि यह बात भी किसी के बस की नहीं थी। इस चैलेंज को वर्षों दोहराया जाता रहा। अरब और क़ुरैश के बड़े-बड़े शायर वहाँ मौजूद थे, भाषण-कला विशेषत्र और भाषाविद् मौजूद थे, अन्य विद्वान तथा बुद्धिजीवी मौजूद थे। वे भी थे जिनको अज्ञानकाल में ‘कामिल’ (परिपूर्ण) के लक़ब (उपाधि) से याद किया जाता था। यहूदी और ईसाई भी थे। उनके विद्वान और धार्मिक पेशवा भी मौजूद थे। उनकी पाठशालाएँ और शिक्षण संस्थान भी थे। लेकिन किसी को मुक़ाबले का साहस न हुआ। कुछ समय बाद इस चैलेंज में कमी कर दी गई और कहा गया कि इस जैसी दस सूरतें ही बनाकर ले आओ। यह बात भी बार-बार दोहराई जाती रही। वर्षों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) इस मुबारक आयत की तिलावत करने और लिखने में व्यस्त रहे। फिर आख़िर में कहा गया कि इसमें एक सूरा ही बना लाओ। चूँकि छोटी से छोटी सूरा तीन आयतों पर मुश्तमिल है यानी सूरा कौसर, तो मानो यह कहा गया कि इस जैसी तीन आयतें ही बना कर दिखा दो।

लेकिन इस चैलेंज का भी आज तक कोई जवाब नहीं दे सका। चैलेंज अब भी मौजूद है। और दुनिया-भर के लिए है, यह कहना ग़लत होगा कि शायद दुनिया को इस चैलेंज के बारे में पता नहीं है, इसलिए कि अब तक पवित्र क़ुरआन का अनुवाद दुनिया की 205 भाषाओं में हो चुका है और पवित्र क़ुरआन का ज्ञान रखनेवाले और इस चैलेंज की बाबत जाननेवाले पूरब और पश्चिम में हर जगह मौजूद हैं। पवित्र क़ुरआन के इन सैंकड़ों अनुवादों पर सम्मिलित करोड़ों प्रतियाँ हर जगह मौजूद हैं। लेकिन आज तक किसी बड़े से बड़े दार्शनिक, वैज्ञानिक, हकीम, विद्वान, शायर और साहित्यकार ने इसको स्वीकार करने का साहस नहीं किया। ऐसा कोई उदाहरण कोई एक मिसाल भी इतिहास में नहीं मिलती कि किसी ने पवित्र क़ुरआन या उस जैसी कोई सूरत या कोई आयत लिखकर उसका मुक़ाबला करने के उद्देश्य से दुनिया के सामने पेश किया हो। मुक़ाबले का शब्द मैंने इसलिए प्रयुक्त किया कि मुसैलमा कज़्ज़ाब अपने माननेवालों से कहा करता था कि उसपर भी वह्य (प्रकाशना) अवतरित होती है, और वह वह्य के नाम पर कुछ निरर्थक बातें किया करता था। संभवतः उसको कभी किसी ने नहीं माना। यह बात सही नहीं है कि मुसैलमा को लोगों ने सचमुच पैग़म्बर मान लिया था। यह मात्र क़बाइली पक्षपात था जिसकी वजह से उसके क़बीले के बहुत-से लोग उसके साथ हो गए थे। लेकिन वे कलिमात या वे शब्द जो वह अपनी क़ौम के सामने बतौर वह्य के पेश किया करता था उन शब्दों को उसने या उसके माननेवालों ने कभी भी पवित्र क़ुरआन के मुक़ाबले पर नहीं रखा। वह पवित्र क़ुरआन को भी मानता था कि यह भी आसमानी किताब है। यानी क़ुरआन का मुक़ाबला उसने कभी नहीं किया और न ऐसा करने का वह दुस्साहस कर सकता था। इसलिए कि वह इतना भाषा का ज्ञानी और समझदार था कि वह समझ गया कि यह उसके बस की बात नहीं है।

पवित्र क़ुरआन के बारे में बहुत संभव है कि कुछ लोग इसको आसमानी किताब न मानते हों, या इसको मार्गदर्शन ग्रन्थ न समझते हों। उनमें बहुत-से यहूदी और ईसाई भी शामिल हैं। लेकिन एक चीज़ का जवाब किसी के पास नहीं है और यह मानवीय भाषाशास्त्र, साहित्य-शास्त्र के इतिहास की एक बड़ी अद्भुत सच्चाई है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अपने कथन, जिनको हम हदीस कहते हैं, उनकी शैली और पवित्र क़ुरआन की शैली में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। हर वह व्यक्ति जिसने कुछ समय क़ुरआनी आयतों और हदीसें पढ़ी हों, उसको थोड़े-से प्रयत्न से यह प्रतिभा पैदा हो जाती है कि क़ुरआन की शैली और हदीस की शैली में भेद कर सके। क़ुरआन की आयत या हदीस का टेक्स्ट सुनते ही उसको पता चल जाएगा कि इन दोनों इबारतों में से कौन-सी क़ुरआनी आयत है और कौन-सी हदीस है। यह एक ऐसी चीज़ है जो किसी और इंसान के बस में नहीं है। कोई इंसान इसकी सामर्थ्य नहीं रखता कि कलाम के दो विभिन्न अंदाज़ अपना ले और दोनों शैलियों में लगातार तीस साल तक अलग-अलग काम करता रहे। दोनों कलाम अलग-अलग संकलित हों, और देखनेवाले समीक्षक को पहली ही नज़र में पता चल जाए कि यह अलग कलाम है और वह अलग कलाम है। यह अन्तर उसी समय संभव है कि जब एक हिस्सा अल्लाह तआला की ओर से हो और मोजिज़ा (चमत्कार) हो, और दूसरा हिस्सा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अपने शब्द हों और चमत्कार न हों। अगरचे हदीसे-नबवी का उत्कृष्टता एवं वाग्मिता में बहुत ऊँचा स्थान है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) निस्सन्देह अरबों में सबसे अच्छी भाषा बोलनेवाले थे, लेकिन आपने अपने शब्दों और कथनों को कभी मोजिज़े (चमत्मकार) के तौर पर पेश नहीं किया। आपने पवित्र क़ुरआन ही को हमेशा मोजिज़े के तौर पर पेश किया और उसी को मानने का आमंत्रण दिया।

क़ुरआन के चमत्कारी गुण का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू उसकी असाधारण उत्कृष्टता एवं वाग्मिता है। पवित्र क़ुरआन के शब्दों की बंदिश और उसकी शैली इतनी निराली है कि अरब शायरी में इसका कोई उदाहरण न उस समय और न बाद के चौदह सौ वर्षों के दौरान में सामने आया। अरबी भाषा की वर्णन-शैलियों में कोई और शैली इससे मिलती-जुलती मौजूद नहीं है। न यह भाषण-कला है, न कविता है, न आम और जाने-माने अर्थ में गद्य है, न पद्य है। न कहानत है, न मुहावरा। पवित्र क़ुरआन की शैली इन सबसे अलग है। कोई व्यक्ति भी पवित्र क़ुरआन की शैली की नक़्ल नहीं कर सका और न आगे कर सकता है। इसलिए कि इस शैली की नक़्ल की ही नहीं जा सकती। कोई बड़े से बड़ा सहित्यकार पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के दर्जे को नहीं पहुँच सकता। उत्कृष्ट-भाषा का अर्थ है किसी ख़ास मौक़े पर किसी उचित और सटीकतम शब्द का प्रयोग, और वाग्मिता से तात्पर्य यह है कि शब्दों की आम बंदिश और परस्पर संबंध से जो अर्थ निकलता है, वह इस तरह निकले कि बिल्कुल वास्तविकता के अनुसार हो। इसी लिए पवित्र क़ुरआन बहुत वाक्पटु भी है और उत्कृष्ट भी। जो शब्द उत्कृष्टता की दृष्टि से अरबी भाषा में ज़रा कम समझे जाते थे, वे पवित्र क़ुरआन में प्रयुक्त नहीं हुए।

उदाहरण के लिए ‘अर्ज़’ (भूमि, ज़मीन) का बहुवचन अरबी भाषा में ‘अर्ज़ीन’ होता है। यह शब्द हदीस में भी आया है और फ़क़ीहों (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के यहाँ भी बहुत प्रयुक्त हुआ है। लेकिन पवित्र क़ुरआन में ‘अर्ज़ीन’ का शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ, इसलिए कि यह शब्द (बहुवचन के रूप में) उत्कृष्टता के उस उच्च स्तर के विरुद्ध है जिसका क़ुरआन में हर जगह ध्यान रखा गया है। जब पवित्र क़ुरआन ने सात ज़मीनों का उल्लेख किया तो उसके लिए यह शैली अपनाई कि अल्लाह तआला ने सात आसमान बनाए “और ज़मीन में से भी उसके जैसी।” وَمِنَ الْاَرْضِ مِثْلَھُنَّ (वमिनल-अर्ज़ि मिस्लहुन-न) अब यह बात बिल्कुल स्पषट हो गई कि ज़मीनें सात हैं, लेकिन इस स्पष्टीकरण के बावजूद पवित्र क़ुरआन ने स्तरहीन शब्द प्रयुक्त नहीं किया। पवित्र क़ुरआन में वे शब्द प्रयुक्त किए गए हैं जो ज़बान पर आसानी से चढ़ जाते हैं। और बहुत आसानी से लोगों के दिलों में उतर जानेवाले हैं।

पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का एक अद्भुत गुण यह है कि यह कलाम एक ऐसे व्यक्तित्व की मुबारक जबान से जारी हुआ जिसने कभी किसी मकतब में बैठकर तालीम नहीं पाई, कभी किसी के शिष्य नहीं बने, किसी दर्सगाह में भी लिखना-पढ़ना नहीं सीखा। अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक दिन के लिए भी किसी मकतब में बतौर विद्यार्थी गए होते तो अरब के लोग तुरन्त कहते कि अमुक व्यक्ति से यह सब कुछ सीख लिया है। अगर ऐसा हुआ होता तो आज पश्चिम के प्राच्यविद् आसमान सिर पर उठा चुके होते और यह कह-कहकर हर एक को गुमराह कर रहे होते कि यह सब कुछ अल्लाह की वह्य की कृपा नहीं, बल्कि अमुक उस्ताद और अमुक शिक्षक का कमाल है। अब कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता था कि उसने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को एक नुक़्ते की भी शिक्षा दी है। अगर एक बार, एक पल के लिए भी ऐसा हो जाता तो बात का बतंगड़ बनानेवालों की कमी नहीं थी। इसलिए अल्लाह तआला ने एक ऐसे माहौल में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का प्रशिक्षण किया जहाँ किसी इंसान के लिये यह झूठा दावे करने की भी कोई संभावना नहीं है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सिखाने में उसका या किसी और इंसान का भी कोई हाथ है।

यह कलाम जो यकायक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान पर जारी हो गया, उसमें अतीत की क़ौमों की घटनाएँ भी शामिल थीं, ऐसे-ऐसी विस्तृत घटनाएँ इस कलाम में शामिल थीं जो कभी भी अरबों की जानकारी में नहीं थीं। इसी तरह इस कलाम में उन सवालों के जवाब भी अत्यंत विस्तार से दिए गए जो यहूदियों के उकसाने पर मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से किए। जिनमें अस्हाबे-कह्फ़ (गुफावालों) की घटना, मूसा (अलैहिस्सलाम) और ख़िज़्र (अलैहिस्सलाम) की घटना, ज़ुल-क़रनैन की घटना और कई दूसरी घटनाएँ शामिल हैं, जिनसे अरब अवगत नहीं थे। पवित्र क़ुरआन में इतने विस्तार से उन सवालों के जवाब दिए गए कि पूछनेवालों के पास चुप हो जाने के सिवा कोई चारा नहीं था।

प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं के अलावा बहुत-से अवसरों पर पवित्र क़ुरआन में लोगों के दिलों की बातें भी बयान कर दी गईं। एक बार अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक अभियान पर गए जो बनू-मुस्तलिक़ को दबाने के लिए अपनाया गया था। वहाँ सख़्त गर्मी और पानी की कमी थी। पानी का केवल एक स्रोत था और सब लोग उससे पानी भर रहे थे। एक सहाबी जहजाह-बिन-अम्र ग़िफ़ारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नौकर थे। वह पानी लेने गए। उनकी बारी आई और उन्होंने पानी लेना चाहा तो उनसे पीछे जो साहब खड़े थे वह एक बहुत वरिष्ठ अंसारी सहाबी थे। उन्होंने सोचा कि अगर मैं पहले पानी ले लूँ तो शायद इन्हें कोई एतराज़ न हो। इसलिए उन्होंने आगे बढ़कर पानी लेना चाहा। इसपर उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नौकर ने उन्हें कुहनी से पीछे करना चाहा। वह अंसारी सहाबी गिर गए और दोनों के दरमियान तेज़ वाक्यों का आदान-प्रदान हुआ। प्रसिद्ध कपटाचारी अब्दुल्लाह-बिन-उबई भी क़रीब ही मौजूद था। उसने मौक़े से फ़ायदा उठाया और वहाँ मौजूद नौजवान अंसारियों को भड़काना शुरू कर दिया और बोला कि ये मुहाजिर किस क़द्र शेर हो गए हैं। अगर मेरे बस में होता तो मैं यह कर देता और वह कर देता, और फिर बोला, “मदीना पहुँचकर इज़्ज़तवाला ज़िल्लतवालों को निकाल बाहर करेगा।” वहाँ एक कमसिन सहाबी ज़ैद-बिन-अर्क़म भी मौजूद थे। उन्होंने यह बात सुनी और आकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बताई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कुछ अंसारी सहाबा को बुलाकर उनसे कहा कि सफ़र के दौरान में ऐसा झगड़ा करना उचित नहीं है। उन सहाबा ने अब्दुल्लाह-बिन-उबई से यह बात की तो वह और अकड़ गया और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की महफ़िल में आकर बदतमीज़ी से भी पेश आया और अपनी बात से भी मुकर गया। अभी उस जगह से रवाना भी नहीं होने पाए थे कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य के लक्षण प्रकट हुए। सूरा-63 मुनाफ़िक़ून अवतरित हुई, जिसमें अल्लाह तआला ने कम-सिन सहाबी ज़ैद-बिन-अर्क़म की बात का समर्थन कर दिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसी वक़्त ज़ैद-बिन-अर्क़म को बुलवाया और प्यार से उनका कान मरोड़ कर कहा, “बच्चे के कान ने सही सुना था, बच्चे के कान ने सही सुना था!” संभवतः तीन बार यह बात दोहराई।

कई बार और भी ऐसा हुआ कि मुनाफ़िक़ों ने कोई बात दिल में सोची और वह पवित्र क़ुरआन में आ गई। सूरा-9 तौबा में इसकी कई मिसालें मौजूद हैं। बहुत-से अवसरों पर क़ुरआन में भविष्य के बारे में भी ऐसी भविष्यवाणियाँ की गईं कि जब वे पूरी हुईं तो दुनिया दंग रह गई। इन भविष्यवाणियों की सबसे बड़ी मिसाल रोम और फ़ारस (ईरान) की जंग में रोम की विजय की भविष्यवाणी थी। उस ज़माने में रोम और फ़ारस दुनिया के दो महा साम्राज्य थे। उनमें आपस में लड़ाई छिड़ गई। उस ज़माने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मक्का मुकर्रमा में थे। वहाँ उनको इस जंग की ख़बरें पहुँचती रहती थीं। मक्का के बहुदेववादियों की सहानुभूति फ़ारसवालों (इरानीओं) के साथ थी, इसलिए कि वे अग्निपूजक थे और मक्का के बहुदेववादी मूर्तिपूजक थे। यों इन दोनों के दरमियान एक दूसरे से इस दृष्टि से निकटता थी। इसके विपरीत मुसलमानों की सहानुभूति रोमवालों के साथ थी, इसलिए कि वे ईसाई थे, पैग़म्बरी पर ईमान रखनेवाले थे। उनको मुसलमानों की सहानूभित इस कारण प्राप्त थी कि दोनों में वैचारिक समरूपता थी कि वे आसमानी धर्मों, पैग़म्बरी, परलोक आदि पर विश्वास रखते थे। उस ज़माने में फ़ारसवालों ने आरंभ में रोमवालों को पराजित किया और लगभग या बिलकुल समाप्त कर के रख दिया। मक्का के बहुदेववादियों ने इस मौक़े पर बहुत ख़ुशी मनाई और मुसलमान दुखी हुए।

इस मौक़े पर क़ुरआन मजीद की यह आयत अवतरित हुई, الٓمّٓۚ غُلِبَتِ الرُّوْمُۙ فِيْۤ اَدْنَى الْاَرْضِ وَ هُمْ مِّنْۢ بَعْدِ غَلَبِهِمْ سَيَغْلِبُوْنَۙ यानी “अलिफ़-लाम-मीम। रोमी निकटवर्ती क्षेत्र में पराभूत हो गए हैं। और ये अपने पराभव के पश्चात् शीघ्र ही कुछ वर्षों में प्रभावी हो जाएँगे।” (क़ुरआ, 30:1-3) इन आयतों में मुसलमानों को ख़ुशख़बरी दी गई कि कुछ वर्षों के अंदर-अंदर रोमवासियों को सफलता प्राप्त होगी, अगरचे इस समय वे पराभूत हो गए हैं। और जब उन्हें सफलता प्राप्त होगी तो उस दिन मुसलमान भी अपनी फ़तह की ख़ुशी मना रहे होंगे। जब यह आयतें अवतरित हुईं उस वक़्त रोमियों की विजय की कोई ज़ाहिरी संभावना दूर-दूर भी नज़र नहीं आती था। लेकिन यह अजीब बात है कि कुछ साल के अंदर-अंदर रोमी सरदार हिरक़्ल ने फ़ारस पर आक्रमण किया और उसको पहली सफलता उस दिन प्राप्त हुई जिस दिन मुसलमान यौमे-बद्र में सफलतापूर्वक ख़ुशी मना रहे थे। हिरक़्ल को दूसरी सफलता उस दिन प्राप्त हुई जिस दिन मुसलमान हुदैबिया से सफल वापस जा रहे थे, और तीसरी और आख़िरी सफलता उस वक़्त हुई जब मुसलमान मक्का विजय के अभियान से निवृत हुए थे। आम हालात के दृष्टिकोण से इसकी कोई संभावना न थी। लेकिन ऐसा होकर रहा और पवित्र क़ुरआन की भविष्यवाणी पूरी हुई। पवित्र क़ुरआन में इस भविष्यवाणी के पूरे होने के लिए ‘बि-ज़-अ सिनीन’ का शब्द प्रयुक्त किया गया था जिसमें तीन से नौ तक की संख्या आती हैं। चुनाँचे पूरे नौ साल के अंदर-अंदर भविष्यवाणी पूरे तौर पर पूरी हो गई।

इसी तरह पवित्र क़ुरआन में एक जगह फ़िरऔन के बारे में आया है, فَالْيَوْمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُونَ لِمَنْ خَلْفَكَ آيَةً وَإِنَّ كَثِيرًا مِنَ النَّاسِ عَنْ آيَاتِنَا لَغَافِلُونَ अर्थात् “आज हम तेरे शरीर को बचा लेंगे, ताकि तू अपने बादवालों के लिए एक निशानी हो जाए। निश्चय ही बहुत-से लोग हमारी निशानियों के प्रति असावधान भी रहते हैं।” (क़ुरआन, 10:92) अब उस समय फ़िरऔन का शव तो कहीं सुरक्षित नज़र नहीं आता था। इसलिए आम तौर पर टीकाकार इस आयत की तावीलें (अपनी समझ से अर्थ बयान करना) किया करते थे। एक तावील तो तफ़सीर की किताबों में मिलती है कि जब फ़िरऔन मर गया तो उसका शव कोई हफ़्ते या कई महीने बाक़ी रखा गया, ताकि आगे आनेवालों के लिए शिक्षाप्रद हो। कुछ लोगों का कहना था कि ‘बदन’ (शरीर) का शब्द अरबी ज़बान में ज़िरह (कवच) के लिए भी प्रयुक्त होता है, चुनाँचे फ़िरऔन के मरने के बाद उसकी ज़िरह बाक़ी रही और लोग आ आकर उसको देखते और सीख लेते रहे कि यह बादशाह की ज़िरह है। मगर सच्ची बात यह है कि यह ज़िरहवाली बात दिल को नहीं लगी। हर मरनेवाले के इस्तेमाल की चीज़ें बाक़ी रहती हैं। इसमें सीख लेने की कौन-सी ऐसी ख़ास बात है।

लेकिन आज से लगभग सौ या सवा सौ साल पहले जब क़ाहिरा के क़रीब खुदाई शुरू हुई और वे इमारतें खोली गईं जो मिस्र के एहराम (Pyramid) कहलाती हैं तो वहाँ से बहुत-से प्राचीन मिस्री शासकों की मय्यतें बरामद हुईं। मिस्रियों का तरीक़ा था कि जब कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मरता था तो ख़ास तरीक़े से मसाला लगाकर उसकी लाश (शव) को सुरक्षित कर लिया करते थे। इस लाश को एक संदूक़ में रखते और फिर संदूक़ के ऊपर मरनेवाले का पूरा विवरण लिख देते थे कि यह व्यक्ति कौन था और इसकी ज़िंदगी कब और कैसे गुज़री थी। फिर दीवार में एक ताक़ बनाकर संदूक़ उसमें खड़ा करते और ताक़ को सामने से बंद कर देते थे। इस तरह अनगिनत लाशें हज़ारों साल से दफ़न थीं। मुसलमानों ने अपने सत्ताकाल में न कभी इस चीज़ पर ध्यान दिया और न यह कभी खोलकर देखा कि इन उँची-ऊँची इमारतों के अंदर क्या है।

जब मुस्लिम जगत् पर पश्चिमी देशों का प्रभुत्व हुआ तो चूँकि उनको पुरातत्त्व अवशेषों से बहुत दिलचस्पी है और वे ऐसे प्राचीन अवशेषों पर शोध करने में बहुत दिलचस्पी लेते हैं, इसलिए उन्होंने मिस्र के एहराम को भी खोला और वहाँ मौजूद मुर्दा लाशों को खंगाला। चुनाँचे जब उन्होंने तलाश की और उन ताक़ों को खोला तो मालूम हुआ कि यहाँ तो मिस्र के इतिहास का सबसे बड़ा भंडार मौजूद है। इस दौरान में जब एक लाश का संदूक़ खोला तो पता चला कि यह रामेसेस (Ramesses) द्वितीय की लाश है। जो एक लम्बे अन्तराल 48 वर्ष तक मिस्र का शासक रहा। जब ज़माने का अनुमान किया गया तो यह वह ज़माना था जब मूसा (अलैहिस्सलाम) मिस्र में मौजूद थे। फिर जब उसकी लाश का जायज़ा लिया गया तो पता चला कि इसके जिस्म पर पूरी तरह नमक लगा हुआ है। इससे विशेषज्ञों ने यह ख़याल ज़ाहिर किया कि यह समुद्र में डूबकर मरा है और डूबने से समुद्र के पानी के साथ समुद्र का नमक भी अन्दर चला गया है, और यह वही नमक है जो लाश के जिस्म से निकल-निकलकर बाहर आता रहा और यों लाश के जिस्म पर बाहर भी लगा रह गया। मानो पूरे तौर पर यह साबित हो गया कि यह वही फ़िरऔन है जिसके डूबने का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में आया है और जिसके शरीर (बदन) को सुरक्षित रखे जाने की ख़बर दी गई है। फ़िरऔन की लाश आज भी क़ाहिरा के म्यूज़ियम में मौजूद है और देखनेवाले इसको देखकर सीख लेते हैं। इस तरह فَالْيَوْمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ (आज हम तेरे शरीर को बचा लेंगे, ताकि तू अपने बादवालों के लिए एक निशानी हो जाए।) वाली बात सच साबित हो गई।

पवित्र क़ुरआन के ‘एजाज़’ (चमत्कार) का एक और पहलू यह है कि पवित्र क़ुरआन में कई ऐसे वक्तव्य आए हैं जिनके बारे में हमारे दौर के कुछ लोगों ने सन्देहों को व्यक्त किया है और प्राच्यविदों ने भी उनपर बहुत-सी आपत्तियों का तूफ़ान उठाया है। उन्होंने कहा कि यह बात जो पवित्र क़ुरआन में आई है वह ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध है। उदाहरण के तौर पर एक जगह पवित्र क़ुरआन में आया है कि यहूदी कहते हैं कि उज़ैर अल्लाह तआला के बेटे हैं और नसारा (ईसाई) कहते हैं कि मसीह अल्लाह के बेटे हैं। अब ईसाइयों के बारे में तो सब जानते हैं कि वह  ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का बेटा मानते हैं। इस बारे में कोई मतभेद नहीं है। लेकिन यहूदियों के बारे मैं यह सवाल पैदा हुआ कि वह तो उज़ैर (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का बेटा नहीं मानते, और न ही यहूदियों की किसी किताब में लिखा है कि उज़ैर अल्लाह तआला के बेटे थे। न ही आजकल के यहूदी इस बात को स्वीकार करते हैं कि यहूदियों का कभी यह अक़ीदा रहा हो। जब पहली बार यह एतिराज़ सामने आया तो मुसलमान उलमा में से कुछ लोगों ने इस आपत्ति का यह जवाब दिया कि जिस ज़माने में यह आयत अवतरित हुई उस ज़माने में यहूदियों में एक व्यक्ति फ़िंजास ने यह दावा किया था। कुछ और लोगों का कहना है कि यहूदियों में एक फ़िर्क़ा पाया जाता था जो उज़ैर को अल्लाह तआला का बेटा मानता था। इमाम राज़ी और दूसरे कई टीकाकारों ने संभवत ख़ुद अहले-किताब की रिवायतों के आधार पर लिखा है कि जब उज़ैर (अलैहिस्सलाम) ने गुमशुदा तौरात दोबारा अपनी याददाश्त से लिखवा दी तो यहूदी इसपर उनके बहुत शुक्रगुज़ार हुए और उनकी महानता को स्वीकारोक्ति में उनको अल्लाह का बेटा कहने लगे।

पश्चिमी विद्वान मुसलमानों के इस बयान को कि यहूदियों में एक फ़िर्क़ा उज़ैर को अल्लाह का बेटा मानता था, यह कहकर रद्द करते हैं कि ऐसा कोई फ़िर्क़ा कभी मौजूद ही नहीं था। मुसलमान टीकाकारों ने इसका जवाब दर जवाब दे दिया कि अगर यहूदियों में ऐसा कोई फ़िर्क़ा मौजूद न रहा होता तो यसरिब और ख़ैबर आदि के यहूदी ज़रूर इस आयत पर आपत्ति करते और निश्चय ही कहते कि यह बात उनसे ग़लत तौर पर जोड़ी जा रही है। उनका आपत्ति न करना इस बात का प्रमाण है कि उनमें ऐसा फ़िर्क़ा मौजूद था। यह सचमुच बड़ा दमदार और बुद्धिसंगत जवाब था। लेकिन चूँकि पश्चिमी लेखकों के पास उसका कोई जवाब नहीं था, इसलिए उन्होंने सिरे से यह बात ही मानने से इनकार कर दिया कि मदीना और ख़ैबर तथा फ़दक में यहूदी पाए जाते थे। अब उन्होंने यह दावा करना शुरू कर दिया कि मदीना मुनव्वरा और उसके उत्तर की बस्तियों में जो यहूदी रहते थे वे अस्ल में यहूदी थे ही नहीं, और यह कि अरब में कभी यहूदी आबाद ही नहीं हुए। जब उन्हें याद दिलाया गया कि पूरे इस्लामी इतिहास में और ख़ास तौर पर इस्लाम से पूर्व और इस्लाम के दौरान में अरब के इतिहास में मदीने के यहूदियों का विस्तृत और निरन्तर उल्लेख मिलता है तो उन्होंने यह दावा कर डाला कि ये लोग वैसे ही अपने आपको यहूदी कहते थे। अस्ल में वे यहूदी नहीं थे, बल्कि यहूदियों के साथ मेल-जोल, शादी-ब्याह और व्यापार आदि करने के कारण यहूदी प्रसिद्ध हो गए थे और उन्होंने यहूदियों की सी आदतें अपना ली थीं। अतः उनकी तरफ़ से पवित्र क़ुरआन के इस बयान पर आपत्ति न करना इस बात का प्रमाण नहीं है कि यह बात यहूदियों के यहाँ स्वीकार्य थी। इन आपत्तियों के बहुत-से जवाब मुस्लिम विद्वान देते रहे। लेकिन कभी पश्चिमी विद्वानों ने उन जवाबों से सहमति नहीं जताई। वे निरन्तर आपत्तियाँ करते रहे।

आज से 54 साल पहले उर्दुन (जॉर्डन) के इलाक़े में बड़ी अजीब घटना घटी। Dead Sea जिसको मृत सागर भी कहते हैं, उसके एक ओर पहाड़ हैं और पहाड़ की समाप्ति पर मृत सागर शुरू हो जाता है। इसके दूसरे किनारे पर इस इलाक़े की सीमाएँ शुरू होती हैं जिसको पश्चिमी किनारा कहते हैं, जिसपर अब इसराईल ने क़ब्ज़ा कर रखा है। यहाँ एक छोटा-सा गाँव था। वहाँ एक चरवाहा रहता था, जिसका नाम अहमद था। वह प्रतिदिन उस जगह अपनी बकरियाँ चराया करता था। एक रोज़ वह अपनी बकरियाँ चराता-चराता पहाड़ के ऊपर चला गया और शाम तक वहाँ बकरियाँ चराता रहा। जब वापस जा रहा था तो एक बकरी कम हो गई। वह इस बकरी की तलाश में निकला। चलते-चलते उसको एक गुफा दिखाई दी। उसने सोचा कि शायद बकरी गुफा के अंदर चली गई है। बकरी को बुलाने के लिए उसने आवाज़ दी तो अंदर से बकरी की आवाज़ आई। वह गुफा के अंदर दाख़िल हो गया। वह गुफा के अंदर चलता गया और बकरी भी आगे-आगे चलती गई। जब काफ़ी अन्दर चला गया तो उसे कुछ अंधेरा-सा महसूस हुआ। वह अपनी बकरी छोड़कर वापस आ गया और अगले दिन कुछ लोगों को साथ लेकर गया और साथ ही रौशनी का इंतिज़ाम करने के लिए कोई मोमबत्ती या लालटेन भी साथ लिए गया। जब वह अंदर दाख़िल हुआ और बकरी को साथ लाने लगा तो उसने देखा कि गुफा के अन्दर मिट्टी के बहुत-सारे बड़े-बड़े घड़े रखे हुए हैं। उसको यह लगा कि शायद यह कोई पुराना खज़ाना है जो यहाँ छिपा हुआ है। उसने एक मटके में हाथ डाला तो उसमें पुराने काग़ज़ इस तरह लिपटे हुए रखे हुए थे जैसे तूमार (Scroll) लिपटे हुए होते हैं। एक को छेड़ा तो वह फट गया, दूसरे को छेड़ा तो वह भी फट गया। हर मटके में ऐसे ही तूमार भरे हुए थे। वह वापस आ गया और उसने आकर गाँववालों को बताया कि शायद वहाँ कोई ख़ज़ाना दफ़न है। बहुत-से गाँववाले वहाँ पहुँचे और उन्होंने उन मटकों में हाथ डालकर कुछ निकालने की कोशिश की जिसके नतीजे में बहुत-से काग़ज़ फट गए।

संयोग से वहाँ पुरातत्त्व विशेषज्ञों की एक टीम आई हुई थी जो कुछ पश्चिमी विशेषज्ञों पर आधारित थी। जब उन्हें यह क़िस्सा मालूम हुआ तो वे भी वहाँ पहुँचे और उनमें से बहुत-से काग़ज़ात और किताबें चुराकर ले गए। स्थानीय सरकार को जब उनकी इस हरकत का पता चला तो उसने उन्हें रोका और तमाम काग़ज़ात और किताबें सरकारी क़ब्ज़े में लेकर एक केन्द्र में रख दीं और विशेषज्ञों की एक टीम नियुक्त की कि वह काग़ज़ों और तूमारों का अध्ययन करके देखे कि ये क्या किताबें हैं, कहाँ से आई हैं और किसने लिखी हैं और उनमें क्या लिखा हुआ है। इन पुराने दस्तावेज़ात का जो हिस्सा पश्चिमी विशेषज्ञ ले गए थे, उन्होंने भी उन काग़ज़ात का अध्ययन करना शुरू किया। प्राचीन पत्रों और धर्मों के विशेषज्ञों को बुलवाया गया। उन्होंने भी इन किताबों को पढ़ा तो मालूम हुआ कि यह एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था जो किसी बड़े ईसाई विद्वान की मिल्कियत था। वह ईसाई विद्वान उस ज़माने में था जब ईसाइयों पर अत्याचार हो रहे थे और यहूदियों का राज था।

यह ईसा (अलैहिस्सलाम) के 100, 150 साल बाद की घटना है। ये लोग ईमानवाले और एकेश्वरवादी थे। जब उन पर अत्याचार हुए तो अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर हुए। इस पुस्तकालय के मालिक विद्वान ने सोचा कि किताबों का यह बहुमूल्य भंडार लोग नष्ट कर देंगे। इसलिए वह इस भंडार को गुफा में छिपाकर चला गया कि अगर ज़िंदगी बची तो वापस आकर ले लूँगा। उसके बाद उसको वापस आने और अपने पुस्तकालय को प्राप्त करने का मौक़ा नहीं मिला। यों यह पुस्तकालय कमो-बेश अठारह सौ साल वहाँ गुफाओं में सुरक्षित रहा। यानी लगभग सन् 100 या 150 ईसवी से ये किताबें वहाँ रखी हुई थीं।

कोई पौने दो हज़ार साल पहले के लिखे हुए ये भंडार प्राचीन इब्रानी (हिब्रू) और सुरयानी भाषाओं में थे। उनमें से एक-एक कर के चीज़ें अब प्रकाशित हो रही हैं। कुछ चीज़ें उर्दुन में प्रकाशित हुई हैं और कुछ अंग्रेज़ी भाषा में यूरोप में प्रकाशित हो रही हैं। यूनेस्को इस महान कार्य के लिए पैसा दे रहा है। उनमें से कुछ हिस्से जो 1960 या उसके लगभग प्रकाशित हुए थे उनमें एक पूरी किताब है जो संभवतः किसी ईसाई विद्वान की लिखी हुई है। इसका कुछ हिस्सा यहूदियों के खंडन में है। ख़ास तौर पर उन यहूदियों के खंडन में जो उज़ैर (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह तआला का बेटा मानते थे। किताब में इस अक़ीदे (धारणा) की बुराई बयान की गई है। और इस बहुदेववादी धारणा पर उन यहूदियों को शर्म दिलाई गई है और फिर यह स्पष्टीकरण भी किया गया है कि अल्लाह तआला की सत्ता तो एक है। उसका कोई बेटा नहीं है। और उज़ैर (अलैहिस्सलाम) तो अल्लाह के नेक बंदे और इंसान थे। वह अल्लाह तआला के बेटे कैसे हो सकते हैं?

यानी इस्लाम से बहुत पहले का यहूदियों के अपने हाथ का लिखा हुआ, ईसाइयों का सुरक्षित किया हुआ और पश्चिमवालों का छापा हुआ एक मुसव्वदा (ड्राफ़्ट) लिया गया कि जिससे यह साबित हो गया कि उस ज़माने में यहूदियों में एक फ़िर्क़ा ऐसा मौजूद था जो उज़ैर (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का बेटा मानता था।

पवित्र क़ुरआन में एक जगह आया है कि फ़िरऔन के वज़ीरों में एक हामान भी था। लेकिन यहूदियों के किसी लिट्रेचर से इस बात का समर्थन नहीं होता था कि हामान भी फ़िरऔन का कोई हमराज़ या वज़ीर था। उपलब्ध प्राचीन मिस्री साहित्य से भी इस बात का समर्थन नहीं होता था। पश्चिमी चिन्तकों ने इसपर एक तूफ़ान उठा दिया और कहा कि (अल्लाह माफ़ करे) यह ग़लत है। जब यह बात फैली तो मुसलमान विद्वानों ने इसका जवाब देने की कोशिश की। लेकिन आज से कुछ वर्ष पूर्व जब मिस्र से वे दस्तावेज़ात निकलनी शुरू हुईं और प्राचीन फ़िरऔनों के बारे में सारी जानकारी जमा होकर सामने आनी शुरू हुई तो आज से कुछ समय पूर्व एक शव मिला जिसके ताबूत पर पूरा विवरण लिखा हुआ था कि यह कौन व्यक्ति है और किस ज़माने का व्यक्ति है। उसमें लिखा है कि इसका नाम हामान है और यह उस दौर का एक बहुत प्रभावशाली इंसान था। और यह उसी ज़माने में था जिसमें फ़िरऔन मिस्र का शासक था। इससे क़ुरआन के इस बयान की भी पुष्टि और समर्थन हो गया। ऐसे और भी उदाहरण हैं कि पश्चिमी विद्वानों ने पवित्र क़ुरआन के बयान को मानने से इनकार कर दिया। लेकिन फिर बाद में ऐसे प्रमाण मिल गए जिनसे पवित्र क़ुरआन के बयान की ख़ुद-ब-ख़ुद पुष्टि हो गई।

एक और चीज़ जो पवित्र क़ुरआन की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता में बड़ा महत्त्व रखती है, वह यह है कि दुनिया में बड़े से बड़े साहित्यकार और बड़े से बड़े प्रतिभावान का सारा लेखन एक समान नहीं होता। बड़े से बड़े साहित्यकार के यहाँ भी बहुत बुलंद और कुछ बहुत गिरे हुए जुमले मिलते हैं। जो किसी दृष्टि से भी स्तरीय नहीं होते। यही हाल शायरों का है। उनके यहाँ भी बहुत कम अशआर बहुत उच्च कोटि के होते हैं। बड़-बड़े शायरों के बारे में यह टिप्पणी की गई कि “ऊँचे उठे तो बहुत ऊँचे उठ गए और गिरे तो बिल्कुल गर्त में जा गिरे।” इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन वह एकमात्र किताब है जो आरंभ से लेकर अन्त तक अपने इस स्तर को बनाए रखे हुए है। पढ़नेवाले के लिए यह फ़ैसला करना मुश्किल हो जाता है कि कलाम कहाँ ज़्यादा उच्च एवं श्रेष्ठ है। यहाँ तक कि हदीसों में भी यह बात नहीं है। वहाँ ज़्यादा बुलंद हदीसों और ज़्यादा उच्च कोटि के ख़ुत्बात (अभिभाषणों) की निशानदेही करना आसान है।

क़ुरआन के चमत्कारी गुण का, एक और पहलू क़ुरआन का आश्चर्यजनक प्रभाव है। किसी और किताब में यह विशेषता नहीं पाई जाती जो पवित्र क़ुरआन में नज़र आती है। यह एक ऐसी किताब है जिसके एक-एक वाक्य, बल्कि एक-एक शब्द ने इंसानों की ज़िंदगियाँ बदल दी हैं। इंसानों की विचारधारा, धारणाएँ यहाँ तक कि लिबास और तौर-तरीक़े भी बदल दिए हैं। ऐसी कोई और किताब इतिहास में मौजूद नहीं है। चाहे वह साहित्यिक हो या असाहित्यिक, धार्मिक हो या अधार्मिक।

क़ुरआन के चमत्कारी गुण का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस किताब की शिक्षा, और इसका सन्देश इतना व्यापक है कि किसी और किताब को इसका हज़ारवाँ बल्कि लाखवाँ हिस्सा भी नहीं प्राप्त हुआ। मुसलमानों का चौदह सौ वर्षीय इतिहास इस बात का गवाह है कि पवित्र क़ुरआन की सीमित आयतों के आधार पर असीमित आदेश और नियम एवं सिद्धांत निकलते चले आ रहे हैं। और अभी तक यह सिलसिला जारी है। अर्थों और भावार्थों के स्रोत हैं कि लगातार बहते चले जा रहे हैं, लेकिन यह समुद्र है कि अभी तक ख़त्म नहीं हुआ। दुनिया की हर किताब की एक अवधि होती है। हर लेख की एक उम्र होती है। थोड़े समय बाद ये किताबें और ये लेख पुराने होकर पुरातत्त्व अवशेषों में चले जाते हैं। अख़बार शाम तक रद्दी हो जाता है। अन्य किताबें कुछ साल या कुछ दशकों या ज़्यादा से ज़्यादा एक-आध शताब्दी के बाद बेकार हो जाती हैं। पवित्र क़ुरआन वह एकमात्र किताब है जो हर वक़्त और हर पल ज़िंदा है।

आज भी इस वक़्त भी इस धरती पर हज़ारों मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकर) मौजूद हैं। और लाखों पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थी हैं। हर जगह हर महफ़िल से दर्से-क़ुरआन सुननेवाला उसकी आयतों के नए मतलब और उसके शब्दों से नए अर्थ का तोहफ़ा लेकर उठता है। यह चीज़ पवित्र क़ुरआन के अलावा किसी अन्य किताब में संभव नहीं है।

पवित्र क़ुरआन के चमत्कार का एक और पहलू यह है कि इसमें इंसानी ज़रूरतों की पूर्ति का बेइंतिहा सामान मौजूद है। इंसानों में जो लोग दर्शन से दिलचस्पी रखते हैं, उनको वैचारिक मार्गदर्शन इस किताब से मिल रहा है। जो लोग अर्थशास्त्र से दिलचस्पी रखते हैं उनको अपनी समस्याओं का समाधान इस किताब से मिल रहा है। जो लोग राजनीतिशास्त्र या क़ानून से या किसी भी ऐसे पहलू से दिलचस्पी रखते हैं जो इंसान के कल्याण एवं सुधार के लिए अपरिहार्य है, उस पहलू के बारे में पवित्र क़ुरआन का मार्गदर्शन इस तरह निरन्तरता के साथ जारी है जैसा कि ‘ज़मज़म’ नामक जलस्रोत जारी है, जो कभी ख़त्म नहीं हो रहा। लोग लाखों की संख्या में लेने आ रहे हैं, लेकिन वह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा। इससे कहीं ज़्यादा पवित्र क़ुरआन का स्रोत जारी है।

एक आख़िरी चीज़ जो हम सब जानते हैं वह यह है कि पवित्र क़ुरआन थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित हुआ और 23 वर्षों के अन्तराल में पूर्ण हुआ। इस अन्तराल में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी मर्ज़ी से जो निर्देश देने चाहे वे दिए हों, बल्कि हमेशा ऐसा हुआ कि जब कोई सवाल पूरा हुआ, उसके जवाब में पवित्र क़ुरआन की आयतें अवतरित हुईं। किसी ने कोई आपत्ति की, उसका जवाब पवित्र क़ुरआन में अवतरित हुआ। कोई और समस्या पैदा हुई, उसका हल पवित्र क़ुरआन में अवतरित हो गया। ग़ज़वा-ए-बद्र में जंगी क़ैदी मुसलमानों के हाथ आए तो सवाल पैदा हुआ कि उनका क्या करें। तुरन्त पवित्र क़ुरआन की आयतें अवतरित हो गईं। माले-ग़नीमत (युद्ध में प्राप्त माल) प्राप्त हुआ तो सवाल उठा कि इसका बँटवारा कैसे करें। इसपर सूरा-8 अनफ़ाल की आयतें अवतरित हुईं। फ़तहे-मक्का के मौक़े पर मुसलमानों का रवैया कैसा होना चाहिए था, इसपर आयतें अवतरित हुईं। हालात पैदा होते जा रहे थे और जवाब अवतरित होते जा रहे थे। ये जवाब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पवित्र क़ुरआन में विभिन्न जगहों पर रखवाए कि अमुक आयत को इधर रखो और अमुक आयत को उधर रखो।

जब यह सारा पवित्र क़ुरआन पूर्ण होकर सामने आ गया तो अब हम देखते हैं कि पवित्र क़ुरआन का आंतरिक क्रम अब ख़ुद एक मोजिज़ा या चमत्कार है। जैसे आपके पास चिप्स की दस-बीस ढेरियाँ विभिन्न रंगों की रखी हों और 23 साल तक आप लोगों की माँग पर उन ढेरों में से थोड़ी कंकरियाँ उठाते रहें और किसी को यह निर्देश देते रहें कि एक मुट्ठी ढेरी की इधर रखें और एक मुट्ठी ढेरी की उधर रखें। कभी केवल एक या दो ही कंकरियाँ रखवा दें। और चौथाई सदी बाद जब ये सारी ढेरियाँ ख़त्म हो जाएँ तो एक पूर्ण और भरपूर सुन्दर नक़्शा सामने आ जाए। इसी तरह जब 23 वर्षों के अन्तराल में क़ुरआन का अवतरण पूरा हुआ तो एक बहुत सुन्दर मोज़ाइक की शक्ल सामने आई जो रूप-सौंदर्य का एक अद्भुत साँचा थी और सुगठन एवं क्रमिकता का एक अत्यंत सुन्दर नमूना।

पवित्र क़ुरआन की हर चीज़ अपनी जगह सुरक्षित है। अरबी भाषा भी सुरक्षित है। अरबी व्याकरण भी सुरक्षित हैं। दुनिया में भाषाएँ मिटती रहती हैं। उनमें परिवर्तन की क्रिया जारी रहती है। नियम-सिद्धांत बदलते रहते हैं। मुहावरे बदलते रहते हैं। क़ुरआन के अवतरण के ज़माने की सब भाषाएँ या मिट चुकीं या बदलकर कुछ से कुछ हो गईं। केवल अरबी भाषा इसका अपवाद है। यह ख़ुद अपनी जगह एक चमत्कार है।

जैसे-जैसे समय गुज़र जाएगा क़ुरआन के चमत्कारी गुणों के नए-नए पहलू सामने आते जाऐंगे। यहाँ तक कि लोग गवाही देंगे कि यही किताब सत्य है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कलाम यानी हदीस में भी आपको लगेगा कि यह हिस्सा ज़्यादा ज़ोरदार है और वह हिस्सा ज़्यादा प्रभावकारी है। अन्तर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कलाम में भी नज़र आता है। लेकिन पवित्र क़ुरआन में यह अन्तर नहीं है। और इसमें एक ही स्तर है उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का।

आज से कुछ साल पहले मिस्र के एक मुसलमान विद्यार्थी पेरिस की एक यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। वहाँ एक प्राच्यविद् उनका शिक्षक था। उसने एक दिन एक मुसलमान विद्यार्थी से पूछा, “क्या तुम भी यह समझते हो कि पवित्र क़ुरआन एक चमत्कार है?” उन्होंने कहा, “जी हाँ, बिलकुल यही समझता हूँ।” उसने कहा कि “तुम जैसे पढ़े-लिखे आदमी को जो यहाँ या किसी बड़ी यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त कर रहा हो, तो कम से कम यह नहीं कहना चाहिए।” मुसलमान विद्यार्थी ने उसे समझाना चाहा और समझाने के उद्देश्य से उसके सामने एक प्रस्ताव रखा। वह यह कि ऐसा करते हैं कि हम 20, 25 लोग जो अरबी भाषा से अवगत हैं, एक ऐसे विषय को अरबी में बयान करने की कोशिश करते हैं जो पवित्र क़ुरआन में भी बयान हुआ है। वह प्राच्यविद जो बहुत बड़ा अरबी का विद्वान था, इस बात के लिए तैयार हो गया और उन सबने पवित्र क़ुरआन की इस आयत को चुन लिया। يَوْمَ نَقُولُ لِجَهَنَّمَ هَلِ ٱمْتَلَأْتِ وَتَقُولُ هَلْ مِن مَّزِيدٍۢ (यौ-म नक़ूलु लिजहन्न-म हल अम्तलातु व-तक़ूलु हल मिम-मज़ीद) अर्थात् “जिस दिन जहन्नम से कहा जाएगा क्या तू भर गई और वह कहेगी क्या अभी और कुछ है?” (क़ुरआन, 50:30)

उन तमाम लोगों ने अपनी अपनी अरबी में इस विषय को बयान किया। किसी ने कहा جھنم کبیرۃ جدا (जहन्नमु कबीरतन जद्दन) किसी ने कहा, جھنم واسعۃ جدا (जहन्नमु वासिअतन जद्दन) किसी ने लिखा جھنم لا تملا (जहन्नमु लन तुमिला) यानी विषय यह बयान करना था कि जहन्नम की विशालता बहुत अधिक है। सब लोगों ने अपनी पूरी-पूरी भाषागत विद्वता ख़र्च कर दी। इसके बाद उन्होंने पवित्र क़ुरआन की ही आयत सामने रखी और बताया कि इस विषय को जिस अंदाज़ से पवित्र क़ुरआन ने बयान किया है उसकी उत्कृष्टता एवं वाग्मिता का मुक़ाबला करना असंभव है। सबने सर्वसम्मति से इसे स्वीकार किया कि पवित्र क़ुरआन की इस शैली का मुक़ाबला संभव नहीं है।

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