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इस्लामी सभ्यता और उसके मूल एवं सिद्धांत

इस्लामी सभ्यता और उसके मूल एवं सिद्धांत

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी

उर्दू से अनुवाद : मुशर्रफ़ अली

विषयों की सूची

1. प्रकाशक के उद्गार

2. प्रस्तावना

 3. पहला अध्याय

सांसारिक जीवन की इस्लामी अवधारणा

4. दूसरा अध्याय

जीवन का लक्ष्य

5. तीसरा अध्याय

मौलिक विचार और आस्था

i. ईमान की वास्तविकता और महत्व

ii. इस्लाम की मान्यताएं

iii. अल्लाह पर ईमान

iv. फ़रिश्तों (फ़रिश्तों) पर ईमान

v. रसूलों (पैग़म्बरों) पर ईमान

vi. किताबों (ईशग्रंथों) पर ईमान

vii. आख़िरत (अंतिम दिन) पर ईमान

viii. इस्लामी सभ्यता में ईमान का महत्व

6. परिशिष्ट ...... मृत्यु के बाद का जीवन

प्रकाशक के उद्गार

आधुनिक शिक्षाप्राप्त लोगों की एक बड़ी संख्या इस्लामी सभ्यता के बारे में बड़ी ग़लतफ़हमी का शिकार है। कुछ लोग इसे इस्लामी संस्कृति का पर्याय मानते हैं। कुछ लोग इसे मुसलमानों के चाल-चलन और रीति-रिवाजों का संग्रह मानते हैं। बहुत कम लोग हैं जो “सभ्यता” शब्द का सही अर्थ समझते हैं, और उससे भी कम लोग हैं जो “इस्लामी सभ्यता” के सही अर्थ को समझते हैं।

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने इस भ्रमित आधुनिक शिक्षित वर्ग को सामने रखते हुए अपनी अनूठी विद्वता और शोध शैली में इस विषय पर लिखा है। उन्होंने केवल उन दिमाग़ों में व्याप्त सभी भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास ही नहीं किया है, बल्कि इस्लामी सभ्यता को सकारात्मक रूप से बहुत स्पष्ट तरीक़े से प्रस्तुत भी कर दिया है।

अपने उच्च-स्तरीय विषयों के कारण, यह किताब देश और विदेश के अकादमिक वर्गों से सराहना प्राप्त कर चुकी है। यही कारण है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्र, विशेषकर एमए इस्लामियात और दर्शनशास्त्र के छात्र इससे लाभ उठाते रहे हैं।

हमें आशा है कि इस किताब के हिन्दी अनुवाद को भी वैसी ही लोकप्रियता प्राप्त होगी।

प्रकाशक

हिन्दी इस्लाम डॉट कॉम

(HindiIslam.com)

प्रस्तावना

पश्चिमी लेखकों और उनके प्रभाव से पूर्वी विद्वानों का एक बड़ा समूह भी यह राय रखता है कि इस्लाम की सभ्यता अपनी पूर्ववर्ती सभ्यताओं, विशेष रूप से ग्रीक और रोमन सभ्यताओं से ली गई है, और वह एक अलग सभ्यता केवल इस आधार पर बन गई है कि अरबी मानसिकता ने उस पुरानी सामग्री को नई शैली में ढालकर उसका रूप बदल दिया है। यही वह सिद्धांत है जिसके आधार पर ये लोग इस्लामी सभ्यता के तत्वों को ईरानी, बेबीलोनियाई, सीरियाई, फोनीशियन, मिस्री, ग्रीक और रोमन सभ्यताओं में तलाश करते हैं और फिर अरबी लक्षणों में उस मानसिक कारक का पता लगाते हैं जिसने उन सभ्यताओं से अपने ढब का मसाला लेकर उसे अपने ढंग से तैयार किया।

ग़लतफ़हमी

लेकिन यह एक बड़ी ग़लत धारणा है। मैं इस तथ्य से इनकार नहीं करता कि हर युग में मनुष्य का वर्तमान उसके अतीत से प्रभावित होता रहा है और हर नये निर्माण में पिछले निर्माणों के अवशेष का उपयोग किया जाता रहा है, लेकिन मैं यह बताना चाहता हूं कि इस्लामी सभ्यता अपने मूल में विशुद्ध रूप से इस्लामी है और किसी ग़ैर-इस्लामी प्रभाव का इसमें रत्ती भर भी हस्तक्षेप नहीं है। हालांकि, सांसारिक मामलों में अरब मानसिकता, अरब परंपराएं और पिछली एवं बाद की सभ्यताओं के प्रभाव निश्चित रूप से इसमें शामिल हो गए हैं। किसी इमारत में एक चीज़ तो उसकी योजना, उसकी विशिष्ट निर्माण शैली, उसका उद्देश्य और उस उद्देश्य के लिए उसकी उपयुक्तता है, और यही मूल है। दूसरी चीज़ है उसकी बाहरी साज-सज्जा, रंग-रौग़न, कलाकृति, आदि, और यह एक अमुख्य (सेकेंडरी) और अमौलिक चीज़ है। अतः जहाँ तक उत्पत्ति का संबंध है, इस्लामी सभ्यता का भवन पूर्णत: इस्लाम के स्वयं के निर्माण का परिणाम है। नक़्शा उसका अपना है, उसमें किसी और नक़्शे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। उसकी निर्माण शैली स्वयं उसी की आविष्कृत है और किसी दूसरे मॉडल से कॉपी नहीं की गयी है। इसके निर्माण का उद्देश्य निराला है, इस उद्देश्य के लिए कोई दूसरी इमारत न तो इसके पहले बनाई गई और न ही बाद में। इसी तरह इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिस तरह का निर्माण किया जाना चाहिए था, इस्लामी सभ्यता ठीक वैसी ही है। इस उद्देश्य के लिए जो कुछ इसने बना दिया है, उसमें कोई बाहरी इंजीनियर न संशोधन की योग्यता रखता है और न उसमें कुछ जोड़ने की। बाक़ी रहे अमुख्य और अमौलिक तत्व, तो इस्लाम ने इनमें भी दूसरों का बहुत कम सहयोग लिया है। यहां तक कि कहा जा सकता है कि उनमें से ज़्यादातर इस्लाम के अपने हैं। हालाँकि, मुसलमानों ने दूसरों से रंग-रौग़न और साज-सज्जा लेकर इसमें जोड़ दिया, और वे ही देखने वालों को इतने उभरे हुए दिखाई दिए कि उन्होंने पूरी इमारत को नक़्ल किया हुआ समझ लिया।

सभ्यता का मतलब

इस बहस का फ़ैसला करने के लिए सबसे पहले इस सवाल को सुलझाना ज़रूरी है कि सभ्यता किसे कहते हैं? लोग समझते हैं कि किसी क़ौम की सभ्यता नाम है उसके आचार-विचार, ज्ञान-विज्ञान, शिल्प-कला, शिष्टाचार और संस्कृति, और सामाजिक एवं राजनीतिक शैली का। लेकिन वास्तव में, ये स्वयं सभ्यता नहीं हैं, बल्कि ये सभ्यता के परिणाम और उसकी अभिव्यक्तियां हैं। ये सभ्यता का मूल नहीं, उसकी शाखाएं और पत्तियां हैं। किसी सभ्यता का मूल्य निर्धारण इन बाहरी दिखावे और प्रदर्शन के आधार पर नहीं किया जा सकता है। इन सब को छोड़कर हमें उसकी रूह तक पहुंचना चाहिए और इसकी बुनियाद की जांच करनी चाहिए।

सभ्यता के तत्व

इस दृष्टि से किसी सभ्यता में पहली चीज़ जो खोजी जानी चाहिए, वह है सांसारिक जीवन के बारे में उसकी अवधारणा। वह मनुष्य को इस संसार में क्या स्थान देती है? उसकी नज़र में दुनिया क्या है? मनुष्य का इस संसार से क्या संबंध है? और अगर मनुष्य इस दुनिया को बरते तो क्या समझ कर बरते? जीवन की अवधारणा का यह प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका मानव जीवन की सभी गतिविधियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है और इस अवधारणा के बदल जाने से सभ्यता का स्वरूप मौलिक रूप से बदल जाता है।

दूसरा प्रश्न, जो जीवन के प्रश्न से गहरा संबंध रखता है, वह है जीवन के लक्ष्य का प्रश्न। संसार में मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? यह पूरी दुनिया किस लिए है? वह कौन सी वांछित चीज़ है जिसकी ओर मनुष्य को भागना चाहिए? वह टार्गेट क्या है, जिस तक पहुँचने के लिए मनुष्य को प्रयास करना चाहिए? वह गंतव्य क्या है, जिसे व्यक्ति को अपने हर प्रयास और हर काम में सामने रखना चाहिए? यह लक्ष्य और गंतव्य का प्रश्न है जो व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन की दिशा और गति को निर्धारित करता है, और इसी के अनुसार काम के तरीक़े और सफलता के साधन अपनाए जाते हैं।

तीसरा सवाल यह है कि जिस सभ्यता की चर्चा हो रही है, उस में मानव चरित्र का निर्माण किन बुनियादों और आस्थाओं पर किया गया है? मनुष्य की मानसिकता को यह किस सांचे में ढालती है? इनसान के दिल और दिमाग़ में किस तरह के विचार बिठाती है? और इसमें वे कौन-से प्रेरक हैं जो, उसके आदर्शों के अनुसार, मनुष्य को उसके विशेष तरह के व्यावहारिक जीवन के लिए उभारते हैं? इसपर किसी चर्चा की ज़रूरत नहीं है कि मानवीय गतिविधियां उसके विचारों के अधीन हैं। उसके हाथ-पैर हिलाने वाली रूह उसके दिल और दिमाग़ से आती है। दिल और दिमाग़ पर जो आस्था, जो विश्वास, और जो कल्पना पूरी ताक़त से स्थापित होगी, व्यावहारिक ताक़तें उसी के प्रभाव में चलेंगी। मन जिस सांचे में ढला होगा, उसके अनुसार ही भावनाएं और एहसास उठेंगे और अंग उनके अनुसार ही काम करेंगे। इसलिए दुनिया में कोई भी सभ्यता एक बुनियादी मान्यता और बुनियादी अवधारणा के बिना स्थापित नहीं हो सकती। यही कारण है कि किसी भी सभ्यता को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए उस अवधारणा को समझना और उसकी भलाई-बुराई का मूल्यांकन करना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना किसी इमारत की मज़बूती और स्थायित्व को जानने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि उसकी नींव कितनी गहरी और कितनी मज़बूत है।

चौथा प्रश्न यह है कि वह सभ्यता मनुष्य को मनुष्य के रूप में कैसे आकार देती है? अर्थात् वह कौन-सा नैतिक प्रशिक्षण है जिसके द्वारा वह व्यक्ति को अपनी विचारधारा के अनुसार उपयोगी जीवन जीने के लिए तैयार करती है? वे कौन से गुण और कौन सी विशेषताएं हैं जिन्हें वह मनुष्य में बनाने और विकसित करने का प्रयास करती है? और उसके विशिष्ट नैतिक प्रशिक्षण से एक व्यक्ति कैसा व्यक्ति बनता है? सभ्यता का मुख्य उद्देश्य सामूहिक व्यवस्था का निर्माण हुआ करता है, लेकिन व्यक्ति ही वे मसाले हैं जो सामूहिकता के महल का निर्माण करते हैं, और उस महल का स्थायित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसका हर पत्थर अच्छी तरह से तराशा हुआ हो, हर ईंट अच्छी तरह से पकी हुई हो। हर बीम मज़बूत और टिकाऊ हो, कोई लकड़ी घुन खाई न हो, और उसके किसी भी हिस्से में कोई बेकार, कच्चा और बेजान मसाला इस्तेमाल नहीं किया जाए।

पाँचवाँ प्रश्न यह है कि उस सभ्यता में मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध उसकी विभिन्न हैसियतों के संदर्भ में किस तरह स्थापित किया गया है? उसके संबंध अपने परिवार के साथ, अपने पड़ोसियों के साथ, अपने दोस्तों के साथ, अपने साथ रहने बसने वालों के साथ, अपने अधीनस्थों के साथ, अपने वरिष्ठों के साथ, अपनी सभ्यता के मानने वालों के साथ और अपनी सभ्यता के न मानने वालों के साथ किस तरह के रखे गए हैं? उसके अधिकार दूसरों पर और दूसरों के अधिकार उस पर क्या ठहराए गए हैं? उसे किन सीमाओं से बांधा गया है? उसे किस हद तक आज़ादी दी गई है और उसे किस हद तक क़ैद किया गया है? इस प्रश्न के भीतर नैतिकता, समाज, क़ानून, राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सभी मुद्दे आ जाते हैं, और इसी से यह देखा जा सकता है कि यह सभ्यता परिवार, समाज और सरकार का संगठन किस ढंग पर करती है।

इस चर्चा से ज्ञात होता है कि सभ्यता का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है:

1. सांसारिक जीवन की अवधारणा

2. जीवन का आदर्श

3. मूल आस्था और विचार

4. लोगों का प्रशिक्षण

5. सामूहिक व्यवस्था

दुनिया की हर सभ्यता इन्हीं पांच तत्वों से बनी है और इसी तरह इस्लामी सभ्यता का विकास भी इन्हीं से हुआ है। इस किताब में, मैंने इस्लामी सभ्यता के पहले तीन तत्वों की समीक्षा की है और बताया है कि इस सभ्यता की स्थापना जीवन की किस विशिष्ट अवधारणा, जीवन के किस विशिष्ट उद्देश्य और किन बुनियादी मान्यताओं और विचारों पर हुई है और उन्होंने किस तरह इसे दुनिया की सभी सभ्यताओं से अलग एक विशिष्ट रूप दे दिया है। इसके बाद अंतिम दो तत्व, बाक़ी रह जाते हैं जिनकी चर्चा इस किताब में नहीं की गई है। उनमें से लोगों के प्रशिक्षण के विषय पर मेरी किताब, “इस्लामी इबादात पर एक तहक़ीक़ी नज़र” “ख़ुतबात” (नंबर 20 से 28) को पढ़ना उपयोगी होगा। जहाँ तक "सामूहिक व्यवस्था" के शीर्षक की बात है, उनका एक संक्षिप्त नक़्शा मेरे उन भाषणों में मिल जाएगा जो "इस्लाम की जीवन व्यवस्था" के नाम से प्रकाशित हुए हैं।

अबुल आला

अध्याय एक:

सांसारिक जीवन की इस्लामी अवधारणा

*           मनुष्य की हक़ीक़त

*           संसार में मनुष्य की स्थिति

*           मनुष्य अल्लाह का प्रतिनिधि है

*           प्रतिनिधित्व की व्याख्या

*           जीवन की इस्लामी अवधारणा

*           मनुष्य प्रतिनिधि है मालिक नहीं

*           दुनिया में सफलता की पहली शर्त

*           दुनिया बरतने के लिए है

*           सांसारिक जीवन का अर्थ

*           कर्मों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही

*           व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी

*           जीवन की प्राकृतिक अवधारणा

*           विभिन्न धर्मों की अवधारणाएं

*           इस्लामी अवधारणा की विशेषताएं

सांसारिक जीवन की इस्लामी अवधारणा

मनुष्य को शुरू से ही अपने बारे में एक बड़ी ग़लतफ़हमी रही है और उसकी यह ग़लतफ़हमी अब तक बाक़ी है। कभी वह एक चरम पर आता है और ख़ुद को दुनिया में सबसे ऊंचा समझने लगता है। उसके मन में अहंकार और घमंड की हवा भर जाती है। किसी शक्ति को अपने से ऊपर तो क्या, स्वयं के बराबर भी नहीं समझता।“हम से बढ़कर शक्तिशाली कौन है?” और “मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूं।” की आवाज़ लगाता है और ख़ुद को ग़ैरज़िम्मेदार और अनुत्तरदायी समझकर अत्याचार, क्रूरता और भ्रष्टाचार का देवता बन जाता है। दूसरी अति यह है कि अगर उसका झुकाव हीनता की तरफ़ होता है तो वह ख़ुद को दुनिया का सबसे अपमानित हस्ती मानने लगता है। वृक्ष, पत्थर, नदियाँ, पर्वत, पशु, वायु, अग्नि, मेघ, बिजली, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, आदि, वह हर उस चीज़ के आगे गर्दन झुका देता है जिसमें किसी भी तरह की शक्ति, हानि या लाभ दिखाई देता है, और ख़ुद अपने जैसे लोगों में भी कोई शक्ति देखता है तो, वह उन्हें भी देवी-देवताओं के रूप में स्वीकार करने में संकोच नहीं करता।

आदमी की हक़ीक़त

इस्लाम ने इन दो चरम अवधारणाओं को अमान्य कर दिया है और मनुष्य की असली हैसियत को उसके सामने प्रस्तुत किया है। वह कहता है:

“मनुष्य को अपनी वास्तविकता देखनी चाहिए, वह किस चीज़ से पैदा हुआ है? एक उछलते हुए पानी से, जो पीठ और छाती की हड्डियों के बीच से खिंच कर आता है।” (अत्तारिक़ 86 : 5-7)

“क्या मनुष्य नहीं देखता कि हमने उसे पानी की एक बूंद से पैदा किया है, और अब वह खुलेआम झगड़ालू बनता है और हमारे लिए उदाहरण पेश करता है और अपने मूल को भूल गया है।” (यासीन, 36:77-78)

“मनुष्य को पहले-पहल मिट्टी से बनाया गया, फिर मिट्टी के सार से, जो एक तुच्छ पानी है, उसकी पीढ़ी चलाई, फिर उसकी संरचना को ठीक किया और उसमें अपनी रूह फूंकी।”  (अल-सजदा, 32 : 7-9)

“हमने तुम्हें मिट्टी से, फिर पानी की एक बूंद से, फिर ख़ून के थक्के से, फिर एक पूरी और अधूरी बनी बोटी से पैदा किया, ताकि तुम्हें अपनी क़ुदरत दिखाएं, और हम जिस वीर्य को चाहते हैं एक निश्चित अवधि तक माँ के गर्भ में ठहराए रखते हैं, फिर तुमको एक बच्चे के रूप में बाहर ले आते हैं, फिर तुम्हें बढ़ाकर युवावस्था में पहुँचाते हैं। तुम में से कोई मर जाता है और कोई बुरी उम्र में पहुंच जाता है, कि समझ-बूझ पाने के बाद फिर नासमझ हो जाए।” (अल-हज, 22:5)

“हे इनसान! तुझे किस चीज़ ने तेरे उदार पालनहार से बहका दिया? उस रब से  जिसने तेरी रचना की, फिर तुझे संतुलित बनाया और जिस रूप में चाहा बना दिया। (अल-इन्फ़ितार, 82:6-8)

“और अल्लाह ही ने तुम्हें तुम्हारी माताओं के गर्भों से निकाला, इस दशा में कि तुम कुछ नहीं जानते थे और तुम्हारे कान और आँख और दिल बनाये, ताकि तुम (उसका) उपकार मानो।” (नह्ल,16:78)

“क्या तुमने ये विचार किया कि जो वीर्य तुम (गर्भाशयों में) गिराते हो, क्या तुम उसे शिशु बनाते हो या उसे बनाने वाले हम हैं? हमने निर्धारित किया है तुम्हारे बीच मरने को और हम विवश होने वाले नहीं हैं, इससे कि बदल दें तुम्हारे रूप और तुम्हें बना दें उस रूप में, जिसे तुम नहीं जानते। और तुमने तो जान लिया है प्रथम उत्पत्ति को फिर तुम शिक्षा ग्रहण क्यों नहीं करते?  फिर क्या तुमने विचार किया कि उसमें जो तुम बोते हो?  क्या तुम उसे उगाते हो या उसे उगाने वाले हम हैं? अगर हम चाहें, तो उसे भुस बना दें, फिर तुम बातें बनाते रह जाओ कि हम दण्डित कर दिये गये, बल्कि हम (जीविका से) वंचित कर दिये गये।  फिर तुमने विचार किया उस पानी में, जो तुम पीते हो?  क्या तुमने उसे बरसाया है बादल से या उसे बरसाने वाले हम हैं।?  अगर हम चाहें, तो उसे खारी कर दें, फिर तुम आभारी (कृतज्ञ) क्यों नहीं होते?  क्या तुमने उस अग्नि को देखा, जिसे तुम सुलगाते हो।  क्या तुमने उत्पन्न किया है उसके वृक्ष को या उसे उत्पन्न करने वाले हम हैं?  हमने ही बनाया उसे शिक्षाप्रद और यात्रियों के लिए लाभदायक। अतः, (ऐ इनसान!) अपने महा पालनहार के नाम की पवित्रता का वर्णन कर।” (वाक़िया, 56:58-74)

“और जब समुद्र में तुमपर कोई आपदा आ पड़ती है, तो अल्लाह के सिवा जिन्हें तुम पुकारते हो, उन्हें भूल जाते हो और ऐसी दशा में केवल अल्लाह याद आता है और उसी से सहायता माँगते हो, और जब अल्लाह तुम्हें बचाकर थल तक पहुँचा देता है, तो मुख फेर लेते हो और मनुष्य है ही अति कृतघ्न। क्या तुम निर्भय हो गये हो कि अल्लाह तुम्हें थल (धरती) ही में धंसा दे अथवा तुमपर फथरीली आँधी भेज दे? फिर तुम अपना कोई रक्षक न पाओ।  या तुम निर्भय हो गये हो कि फिर उस (सागर) में तुम्हें दूसरी बार ले जाये, फिर तुमपर वायु का प्रचण्ड झोंका भेज दे, फिर तुम्हें डुबा दे, उस कुफ़्र के बदले, जो तुमने किया है। फिर तुम अपने लिए हमारा पीछा करने वाला कोई हिमायती नहीं पाओगे (बनी इसराईल, 17:67-69)

इन आयतों में मनुष्य के अहंकार और घमंड को तोड़ा गया है। उमे ध्यान दिलाया गया है कि वह अपनी वास्तविकता को देखे। पानी की एक अशुद्ध और नीच बूंद जो गर्भ में विभिन्न तरह की अशुद्धियों से पोषित होती है और मांस की गांठ बन जाती है। अल्लाह चाहे तो उस गांठ में जान ही न डाले और वह अधूरी अवस्था में निकल जाए। अल्लाह अपनी शक्ति से उस गांठ में जीवन का संचार करता है, उसमें इंद्रियों को स्थापित करता है और इसे उन उपकरणों और शक्तियों से लैस करता है जिनकी मनुष्य को सांसारिक जीवन में ज़रूरत होती है। इस तरह तू दुनिया में आता है। लेकिन तेरी शुरुआती हालत यह होती है कि तू एक असहाय बच्चा होता है, जिसमें अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता नहीं होती। अल्लाह ने अपनी शक्ति से ऐसी व्यवस्था की है कि तेरा पालन-पोषण होता है। तू बढ़ता है, युवा, मज़बूत और सक्षम बनता है। फिर तेरी शक्ति क्षीण होने लगती है। तू यौवन से वृद्धावस्था की ओर जाता है, जब तक कि एक समय पर वही लाचारी की स्थिति न आ जाए जो बचपन में थी। तेरी इंद्रियां बेकार हो जाती हैं, तेरी शक्तियां कमज़ोर हो जाती हैं, तेरा ज्ञान फीका पड़ जाता है और अंत में तेरे जीवन का दीपक बुझ जाता है। तू अपने प्रियजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को छोड़कर क़ब्र में जा पहुंचता है। जीवन की इस छोटी सी अवधि में तू एक क्षण के लिए भी अपने आपको जीवित रखने में सक्षम नहीं है। तुझ से परे एक ताक़त है जो तुझे ज़िन्दा रखती है और जब चाहे दुनिया छोड़ने के लिए मजबूर कर देती है। फिर जब तक तू जीवित रहता है, प्रकृति के नियमों से बंधा रहता है। यह हवा, यह पानी, यह प्रकाश, यह गर्मी, ये ज़मीन के उत्पाद, ये प्राकृतिक उपकरण, जिन पर तेरा जीवन निर्भर है, इनमें से कोई भी तेरे नियंत्रण में नहीं है। न तू उन्हें बनाता है, न ही वे तेरी आज्ञाओं के अधीन हैं। जब ये चीज़ें तेरे ख़िलाफ़ हो जाती हैं, तो तू अपने आप को उनके ख़िलाफ़ असहाय पाता है। हवा का एक झोंका तेरी बस्तियों को उलट-पलट देता है। पानी का तूफान तुझको डुबो देता है। भूकंप तुझको ज़मीन में धंसा देता है। तू कितने भी यंत्रों से लैस हो, अपने ज्ञान (जो कि तेरी अपनी रचना नहीं है), से कितनी भी योजनाएँ बना ले, प्रकृति की शक्तियों के सामने सब धरी की धरी रह जाती हैं। फिर तू किस बल-बूते पर अकड़ता है, किसी भी शक्ति को नहीं मानता है, फ़िरऔन और नमरूद बनने लगता है, हिंसक और क्रूर हो जाता है, अल्लाह के ख़िलाफ़ विद्रोह करता है, अल्लाह के बन्दों का पूज्य बनना चाहता है और अल्लाह की ज़मीन में बिगाड़ फैलाता है।

संसार में मनुष्य का स्थान

दूसरी ओर, इस्लाम, मानव जाति को बताता है कि वह इतना तुच्छ भी नहीं है जितना कि उसने ख़ुद को बना लिया है। वह कहता है:

“और हमने बनी आदम (मानव) को प्रधानता दी और उन्हें थल और जल में सवारी के साधन दिये। और उन्हें स्वच्छ चीज़ों से जीविका प्रदान की और हमने उन्हें बहुत-सी उन चीज़ों पर प्रधानता दी, जिनकी हमने उत्पत्ति की है।”  (बनी इसराईल, 17:70)

“क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने वश में कर दिया है तुम्हारे, (अर्थात तुम उन से लाभान्वित हो रहे हो।) जो कुछ धरती में है।” (अल-हज, 22:65)

“और चौपायों की उत्पत्ति की, जिनमें तुम्हारे लिए गर्मी (अर्थात उन की ऊन और खाल से गर्म वस्त्र बनाते हो।) और बहुत-से लाभ हैं और उनमें से कुछ को खाते हो। और उनमें तुम्हारे लिए एक शोभा है, जिस समय संध्या को चराकर लाते हो और जब प्रातः चराने ले जाते हो। और वे तुम्हारे बोझ, उन नगरों तक लादकर ले जाते हैं, जिन तक तुम बिना कड़े परिश्रम के नहीं पहुँच सकते। वास्तव में, तुम्हारा पालनहार अति करुणामय, दयावान् है। और घोड़े, ख़च्चर और गधे पैदा किये, ताकि उनपर सवारी करो और (वे) शोभा (बनें) और (अल्लाह) ऐसी बहुत सी चीज़ों की उत्पत्ति करता है, जिन्हें तुम नहीं जानते हो। और अल्लाह पर, सीधी राह बताना है और उनमें से कुछ टेढ़े हैं और अगर अल्लाह चाहता, तो तुम सभी को सीधी राह दिखा देता। वही है, जिसने आकाश से जल बरसाया, जिसमें से कुछ तुम पीते हो और कुछ से पौधे उगते हैं, जिसमें तुम (पशुओं को) चराते हो। और तुम्हारे लिए उससे खेती उपजाता है और ज़ैतून, खजूर, अंगूर और हर तरह के फल। वास्तव में इस, में एक बड़ी निशानी है, उन लोगों के लिए, जो सोच-विचार करते हैं। और उसने तुम्हारे लिए रात और दिन को सेवा में लगा रखा है और सूर्य और चाँद को और (हाँ!) सितारे उसके आदेश के अधीन हैं। वास्तव में, इसमें कई निशानियाँ हैं, उन लोगों के लिए, जो समझ-बूझ रखते हैं। और जिसने तुम्हारे लिए धरती में विभिन्न रंगों की चीज़ें उत्पन्न की हैं, वास्तव में, इसमें एक बड़ी निशानी है, उन लोगों के लिए, जो शिक्षा ग्रहण करते हैं।  और वही है, जिसने सागर को वश में कर रखा है, ताकि तुम उससे ताज़ा मांस (अर्थात मछलियाँ) खाओ और उससे अलंकार (अर्थात मोती और मूँगा) निकालो, जिसे पहनते हो और तुम नौकाओं को देखते हो कि सागर में (जल को) फाड़ती हुई चलती हैं और इसलिए ताकि तुम उस अल्लाह के अनुग्रह (सागरों में व्यापारिक यात्रा कर के अपनी जीविका) की खोज करो और ताकि कृतज्ञ बनो। और उसने धरती में पर्वत गाड़ दिये, ताकि तुम्हें लेकर डोलने न लगे और नदियाँ और राहें, ताकि तुम राह पाओ। और बहुत-से चिन्ह (बना दिये) और वे सितारों से (भी, रात्रि में) राह पाते हैं।  तो क्या, जो उत्पत्ति करता है, उसके समान है, जो उत्पत्ति नहीं करता? क्या तुम शिक्षा ग्रहण नहीं करते, (और उस की सृष्टि को उस का साझी और पूज्य बनाते हो।)?  और अगर तुम अल्लाह के पुरस्कारों की गणना करना चाहो, तो कभी नहीं कर सकते। वास्तव में, अल्लाह बड़ा क्षमा और दया करने वाला है।” (नह्ल, 16:5-18)

इन आयतों में मनुष्य को बताया गया है कि ज़मीन की सभी चीज़ें तेरी सेवा और लाभ के लिए वश में की गई हैं, और आकाश में बहुत सी चीज़ों के साथ भी ऐसा ही है। ये वृक्ष, ये समुद्र, ये पर्वत, ये पशु, ये रात और दिन, ये अँधेरा और प्रकाश, ये चाँद, तारे, तो ये सब चीज़ें जो तू देखता है, तेरे सेवक हैं, ये तेरे लाभ के लिए उपयोगी बनाई गई हैं। तू इन सब में श्रेष्ठ है, तुझे इन सब से अधिक सम्मान दिया गया है। तो क्या तू अपने इन सेवकों के आगे सिर झुकाता है? इन्हें अपनी ज़रूरतों को पूरा करने वाला समझता है? इनके सामने हाथ फैलाता है? इन से मदद के लिए भीख माँगता है? इनसे डरता है और इनकी महानता के गीत गाता है। इस तरह, तू ख़ुद को अपमानित करता है, अपनी स्थिति को कम करता है, सेवकों का सेवक और दासों का दास बन जाता है।

मनुष्य अल्लाह का प्रतिनिधि (वाइस) है

इससे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य उतना ऊँचा नहीं है जितना वह सोचता है कि वह है और न ही वह उतना नीच और नीचा है जितना उसने स्वयं को बना लिया है। अब प्रश्न यह है कि इस संसार में मनुष्य की सही स्थिति क्या है? इस्लाम इसका यह उत्तर देता है:

“और जब आपके पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती में एक ख़लीफ़ा बनाने जा रहा हूँ। वे बोलेः क्या तू उसमें उसे बनायेग, जो उसमें उपद्रव करेगा और ख़ून बहाएगा? जबकि हम तेरी प्रशंसा के साथ तेरे गुण और पवित्रता का गान करते हैं! (अल्लाह) ने कहाः जो मैं जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते। और उसने आदम को सभी नाम सिखा दिये, फिर उन्हें फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया और कहाः मुझे इनके नाम बताओ, अगर तुम सच्चे हो! सबने कहाः तू पवित्र है। हम तो उतना ही जानते हैं, जितना तूने हमें सिखाया है। वास्तव में, तू सर्वज्ञ और तत्वदर्शी है। (अल्लाह ने) कहाः ऐ आदम! इन्हें इनके नाम बताओ और आदम ने जब उनके नाम बता दिये, तो (अल्लाह ने) कहाः क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि मैं आकाशों और धरती की सभी बातों को जानता हूँ और तुम जो बोलते और मन में रखते हो, सब जानता हूँ? और जब हमने फ़रिश्तों से कहाः आदम को सजदा करो, तो इब्लीस के सिवा सबने सजदा किया, उसने इन्कार और अभिमान किया और काफ़िरों में से हो गया। और हमने कहाः ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी जन्नत में रहो और इसमें से जिस स्थान से चाहो, खाओ केवल इस वृक्ष के पास न जाना, अन्यथा अत्याचारियों में से हो जाओगे। तो शैतान ने दोनों को उससे भटका दिया और जिस (सुख) में थे, उससे उन्हें निकलवा दिया। (अल-बक़रह, 2:30-36)

“और (याद करो) जब आपके पालनहार ने फ़रिश्तों से कहाः मैं एक मनुष्य पैदा करने वाला हूँ, सड़े हुए कीचड़ के सूखे गारे से। तो जब मैं उसे पूरा बना लूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ, तो उसके लिए सजदे में गिर जाना। अतः उन सब फ़रिश्तों ने सजदा किया। इब्लीस के सिवा। उसने सजदा करने वालों का साथ देने से इन्कार कर दिया। अल्लाह ने पूछाः ऐ इब्लीस! तुझे क्या हुआ कि सजदा करने वालों का साथ नहीं दिया?  उसने कहाः मैं ऐसा नहीं हूँ कि एक मनुष्य को सजदा करूँ, जिसे तूने सड़े हुए कीचड़ के सूखे गारे से पैदा किया है। अल्लाह ने कहाः यहाँ से निकल जा, वास्तव में, तू धिक्कारा हुआ है। और तुझपर धिक्कार है, प्रतिकार (क़ियामत) के दिन तक। (अल-हिज्र, 15:28-35)

पवित्र क़ुरआन में इस विषय का विभिन्न स्थानों पर विभिन्न तरह से वर्णन किया गया है। और इसका सार यह है कि अल्लाह ने मनुष्य को ज़मीन पर अपना प्रतिनिधि बनाया, उसे फ़रिश्तों से अधिक ज्ञान दिया। उसके ज्ञान के  फ़रिश्तों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा और महिमा-गान पर तरजीह दी। फ़रिश्तों को आदेश दिया कि वे उसके इस प्रतिनिधि को सजदा करें। इस तरह फ़रिश्ते उसके आगे झुक गए, लेकिन इब्लीस ने इनकार कर दिया, और इस तरह शैतानी ताक़तें मनुष्य के आगे नहीं झुकीं। वास्तव में, तो वह मिट्टी का एक तुच्छ सा पुतला था, लेकिन अल्लाह ने उसमें जो रूह फूंकी थी और उसे जो ज्ञान दिया था, उसने उसे अल्लाह के प्रतिनिधित्व के योग्य बना दिया। फ़रिश्तों ने उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया, और उस के आगे झुक गए, लेकिन शैतान ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस अपराध के लिए शैतान पर लानत भेजी गई, लेकिन उसने मनुष्य को बहकाने की कोशिश करने के लिए न्याय के दिन तक राहत मांग ली। इस तरह शैतान ने मनुष्य को बहकाया, उसे जन्नत से निकलवा दिया, और तब से मनुष्य और शैतान के बीच संघर्ष जारी है। अल्लाह ने मनुष्य से कह दिया कि अगर वह मेरे द्वारा भेजे गए निर्देशों का पालन करता है, तो वह जन्नत में जाएगा, और अगर वह अपने शाश्वत दुश्मन शैतान की आज्ञा का पालन करता है, तो नरक उसका ठिकाना होगा।

प्रतिनिधि पद की व्याख्या

इस बयान से कुछ बातें स्पष्ट हैं: मनुष्य की स्थिति इस संसार में अल्लाह के ख़लीफ़ा की है। ख़लीफ़ा कहते हैं नायब (प्रतिनिधि) को। नायब का काम यह है कि जिसका वह नायब है उसकी आज्ञा का पालन करे। वह उसके अलावा किसी और की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता, क्योंकि अगर वह ऐसा करता है, तो उसे एक विद्रोही माना जाएगा, और न वह अपने स्वामी की प्रजा और उसके सेवकों को अपनी प्रजा और  अपना सेवक बनाने के लिए अधिकृत नहीं है, अगर वह ऐसा करता है, तो भी वह विद्रोही ठहराया जाएगा, और दोनों हालतों में सज़ा का पात्र होगा। जहां उसे वायसराय बनाया गया है, वहां अपने स्वामी की संपत्ति का उपयोग कर सकता है, अपनी प्रजा पर शासन कर सकता है, उससे सेवा प्राप्त कर सकता है, उनका पर्यवेक्षण कर सकता है, लेकिन केवल प्रतिनिधि के रूप में। इस रूप में नहीं कि वह स्वयं स्वामी है, और न इस रूप में कि वह इस स्वामी के अलावा किसी और के अधीन है। केवल इस रूप में कि वह अपने स्वामी का प्रतिनिधि है और उन सभी चीज़ों पर अपने स्वामी का ट्रस्टी है जो उसके अधीन हैं। इस आधार पर, वह एक सच्चा और पसंदीदा और इनाम के योग्य प्रतिनिधि तभी हो सकता है जब वह अपने मालिक के विश्वास के साथ विश्वासघात नहीं करे, उसके निर्देशों का पालन करता रहे, कभी उसके आदेशों का उल्लंघन नहीं करे। उसकी संपत्ति के उपयोग में, उसके सेवकों से सेवा लेने और उसके दासों पर शासन करने में, उसके द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करे। अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो वह विद्रोही होगा, पसंदीदा नहीं। पुरस्कार योग्य नहीं दंड योग्य होगा।

“तो जो मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे, उनके लिए कोई डर नहीं होगा और न वे चिंतित होंगे। और जो अस्वीकार करेंगे और हमारी आयतों को मिथ्या कहेंगे, तो वही लोग आग में जाने वाले हैं और वे उसमें हमेशा रहेंगे। (अल-बक़रह, 2:38-39)

एक डिप्टी और ट्रस्टी स्वामी नहीं होता कि अपनी मर्ज़ी से जो चाहे करे, अपने मालिक के धन और उसकी प्रजा को अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करे और और उससे सवाल करने वाला कोई न हो। बल्कि वह अपने मालिक के प्रति जवाबदेह होता है, उसे पाई-पाई का हिसाब देना होता है, उसका मालिक उसकी हर हरकत पर सवाल उठा सकता है, और उसने उसकी संपत्ति और उसकी प्रजा का जिस तरह इस्तेमाल किया है उसके अनुसार उसे सज़ा या इनाम दे सकता है।

नायब का पहला कर्तव्य है कि जिसका वह नायब है उसके शासन और सर्वाधिकार को स्वीकार करे। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो उसे न तो उसके डिप्टी होने की स्थिति समझ में आएगी, न ही उसे एक ट्रस्टी के रूप में अपनी स्थिति का सही अंदाज़ा होगा, और न ही उसे अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास होगा। और न उस अमानत में जो उसे सौंपी गयी है, वह अपनी ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन नहीं कर पाएगा। पहले तो यह संभव नहीं है कि किसी अन्य कल्पना के तहत मनुष्य उस व्यवहार को अपना सके जो जो नायब और अमीन की अवधारणा के तहत वह अपनाएगा। और अगर मान लिया जाए कि उसका व्यवहार वैसा हो तो भी उसका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि स्वामी का स्वामित्व मानने से इनकार करके वह पहले ही बाग़ी हो चुका है। अब अगर अपनी इच्छा या किसी और के अनुपालन में उसने कुछ अच्छे काम किए भी उसका प्रतिफल उसी से मांगे जिसका उसने अनुपालन किया है। उसके मालिक की दृष्टि में उसके कर्म व्यर्थ हैं।

मनुष्य अपने मूल के आधार पर एक नीच प्राणी है, मगर उसे जो सम्मान मिला है वह उस रूह के कारण है जो उसमें फूंकी गई है और ईश्वर का वह प्रतिनिधित्व जो उसे इस धरती पर दिया गया है। अब इस सम्मान की सुरक्षा इस बात तक निर्भर है कि वह शैतान का अनुसरण करके अपनी रूह को अपवित्र नहीं करे और ख़ुद को प्रतिनिधि पद से गिरा कर विद्रोह के पद तक न ले जाए, क्योंकि उस स्थिति में वह फिर से वही नीच प्राणी रह जाएगा।

मलकूती (फ़रिश्तों की) शक्तियां मनुष्य को अल्लाह के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर चुकी हैं और वे उसके आगे झुकी हुई हैं, लेकिन शैतानी शक्तियां उसके प्रतिनिधि होने को स्वीकार नहीं करती हैं और उसे अपने अधीन करना चाहती हैं। अगर कोई व्यक्ति संसार में अल्लाह के मार्गदर्शन का पालन करता है, तो मलकूती (फ़रिश्तों की) शक्तियां उसका समर्थन करेंगी, उसके लिए फ़रिश्तों की सेना उतरेगी। इन शक्तियों की सहायता से वह शैतान और उसकी सेनाओं पर विजय प्राप्त कर लेगा, लेकिन अगर वह प्रतिनिधित्व की उपेक्षा करता है और अल्लाह के मार्गदर्शन का पालन नहीं करता है, तो मलकूती (फ़रिश्तों की) शक्तियां उसे छोड़ देंगी, क्योंकि इस तरह वह स्वयं अपने पद से अलग हो चुका होगा। और जब उसका साथ देने के लिए कोई ताक़त नहीं रहेगी तो वह मिट्टी का एक पुतला रह जाएगा, तो शैतानी शक्तियां उस पर क़ाबू पा लेंगी। तब शैतान और उसकी सेना ही उसकी समर्थक और सहायक होंगी, वह उनके आदेशों का पालन करेगा और उसका अंत उनहीं के जैसा होगा।

अल्लाह के प्रतिनिधि के रूप में, मनुष्य की स्थिति दुनिया की सभी चीज़ों से श्रेष्ठ है। संसार की सभी चीज़ें उसके अधीन हैं और इस लिए हैं कि वह उनका उपयोग करे और अपने स्वामी द्वारा बताए गए तरीक़े पर उनसे सेवा ले। उन मातहतों के आगे झुकना उनके लिए अपमानजनक है। अगर वह झुकेगा, तो वह अपने साथ अन्याय करेगा और एक तरह से वह ख़ुद अल्लाह के प्रतिनिधि के पद को त्याग दे देगा। एक हस्ती ऐसी है जिसके सामने झुकना और जिसका पालन करना उसका कर्तव्य है, और जिसे सजदा करने में उसका सम्मान है। वह हस्ती कौन है? ख़ुदा... उसका मालिक, जिसने इनसान को अपना प्रतिनिधि बनाया है।

मानव जाति का कोई विशिष्ट व्यक्ति या विशिष्ट समूह अल्लाह का प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि पूरी मानव जाति को अल्लाह के प्रतिनिधि पद पर बिठाया गया है और प्रत्येक इनसान अल्लाह के ख़लीफ़ा होने की हैसियत में दूसरे इनसान के बराबर है। इसलिए किसी भी इनसान को किसी दूसरे इनसान के सामने झुकना नहीं चाहिए और किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे इनसान से अपने सामने झुकने की मांग करे। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को केवल मालिक के आदेशों और निर्देशों का पालन करने के लिए कह सकता है। इस मामले में, जो अनुपालन करता है वह अनुपालन नहीं करने वाले से बेहतर है। लेकिन बेहतर होने का अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं उसका स्वामी है।

प्रतिनिधि और अमानतदार (ट्रस्टी) का पद प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग प्राप्त है। इसमें कोई साझा ज़िम्मेदारी नहीं है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर इस पद की ज़िम्मेदारियों के लिए जवाबदेह है। न तो एक पर दूसरे के कार्यों की ज़िम्मेदारी है, न ही एक दूसरे के कार्यों से लाभान्वित हो सकता है। न ही कोई किसी को अपने दायित्वों से मुक्त कर सकता है, और न ही किसी के ग़लत व्यवहार का परिणाम दूसरे पर पड़ सकता है।

जब तक मनुष्य ज़मीन में है और जब तक मिट्टी के शरीर और अल्लाह की फूंकी रूह के बीच संबंध है, वह अल्लाह का प्रतिनिधि है। जैसे ही संबंध टूट जाता है, वह सांसारिक ख़िलाफ़त की स्थिति से अलग हो जाता है। उसके प्रतिनिधि-काल के कार्यों की जांच की जानी चाहिए। उसे सौंपी गई अनामत का हिसाब होना चाहिए। प्रतिनिधि के रूप में उसे सौंपे गए दायित्वों की जांच की जानी चाहिए। उसने उन्हें कैसे निभाया। अगर उसने ग़बन, विश्वासघात, अवज्ञा, विद्रोह और बेईमानी की है, तो उसे सज़ा दी जानी चाहिए, और अगर उसने ईमानदारी से, कर्तव्यपरायणता से, आज्ञाकारी के रूप से काम किया है, तो उसे भी पुरस्कृत किया जाना चाहिए।

जीवन की इस्लामी अवधारणा

‘ख़िलाफ़त’ व ‘नियाबत’ (प्रतिनिधित्व) यह शब्द एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु को भी इंगित करता है। ‘नायब’ का कमाल यह है कि वह अपने स्वामी की संपत्ति में उसके उत्तराधिकार को पूरा करने का प्रयास करे और जहां तक संभव हो उस संपत्ति का उपयोग इस तरह करे, जैसे उसका वास्तविक स्वामी करता है। अगर राजा किसी को अपनी प्रजा पर अपना प्रतिनिधि नियुक्त करता है, तो उसके लिए प्रतिनिधि पद के उपयोग का सबसे अच्छा तरीक़ा यह होगा कि वह प्रजा की देखभाल, सुरक्षा और न्याय में, करुणा, दया, और अवसर के अनुसार कठोरता का वही रवैया अपनाए जो राजा स्वयं अपनाता हो। और राजा की संपत्ति का उसी ज्ञान और विवेक के साथ उपयोग करे, जैसा राजा स्वयं करता है।

जब मनुष्य को अल्लाह का ख़लीफ़ा और प्रतिनिधि ठहरा दिया गया, तो इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य अल्लाह के प्रतिनिधि होने और ख़िलाफ़त के दायित्व को उसी समय पूरा कर सकता है, जब अल्लाह की सृष्टि के साथ उसका व्यवहार वही हो, जो ख़ुद अल्लाह का होता है। अर्थात जिस तरह अल्लाह अपनी सृष्टि की देखभाल करता है और उनका पालन-पोषण करता है, मनुष्य भी अपने सीमित दायरे में उसी तरह देखभाल और पालन-पोषण करे।

उसी तरह, जिस तरह की दया और करुणा के साथ अल्लाह अपने संसाधनों का उपयोग करता है, जिस तरह के न्याय के साथ अल्लाह सृष्टि के बीच व्यवस्था स्थापित करता है, जिस तरह की दया के साथ अल्लाह अपने क्रोध और जब्र के गुणों को व्यक्त करता है, मनुष्य को भी अल्लाह की सृष्टि के साथ, जिस पर अल्लाह ने उसे प्रभुता दी है और जिसे उसने अपने वश में कर लिया है, उसी तरह का व्यवहार करना चाहिए। यही वह अर्थ है जो, “अल्लाह की सिफ़ात (गुणों) को अपनाओ।” के तत्वदर्शी वाक्यांश में व्यक्त किया गया है। लेकिन यह उच्च नैतिक स्तर तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कोई व्यक्ति अच्छी तरह से समझ ले कि वह इस दुनिया में एक स्वतंत्र शासक नहीं है, बल्कि उसके असली शासक का डिप्टी है। यही ख़िलाफ़त’ व ‘नियाबत का पद है, जो दुनिया और दुनाया की सभी चीज़ों के साथ, यहां तक कि अपने स्वयं के शरीर और शारीरिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों के साथ उसके संबंध की सीमा निर्धारित करता है ।

नियाबत के पद की व्याख्या में वर्णित इन सभी बिंदुओं का विवरण पवित्र क़ुरआन में उपलब्ध है, जो दुनिया और मनुष्य के बीच संबंध के हर पहलू को स्पष्ट करता है।

मनुष्य प्रतिनिधि है मालिक नहीं

कहा गया है:

“वह अल्लाह ही है, जिसने तुम्हें धरती में अधिकार दिया है और तुममें से कुछ को (धन शक्ति में) दूसरे से कई श्रेणियाँ ऊँचा किया है। ताकि उसमें तुम्हारी परीक्षा ले, जो तुम्हें दिया है। (अल-अनआम,6:165)

“मूसा ने (बनी इसराईल से) कहाः निकट है कि तुम्हारा पालनहार तुम्हारे दुश्मन का विनाश कर दे और तुम्हें देश में अधिकारी बना दे। फिर देखे कि तुम्हारे कर्म कैसे होते हैं? (अल-आराफ़, 7:129)

“ऐ दाऊद! हमने तुम्हें धरती पर अपना नायब (प्रतिनिधि) बनाया है, अतः, लोगों के बीच सत्य (न्याय) के साथ शासन कर, और अपनी मनेच्छाओं का अनुसरण न कर, अन्यथा, वह तुझे अल्लाह की राह से भटका देंगी। जो लोग अल्लाह की राह से भटक जाते हैं, उनके लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान है, क्योंकि वे हिसाब के दिन को भूल गए हैं। (सॉद, 38:26)

“क्या अल्लाह सभी शासकों का शासक नहीं है? (अत्तीन, 95:8)

“शासन किसी का नहीं, सिवा अल्लाह के। (अल-अनआम, 6 :57)

“कहोः ऐ अल्लाह! राज्य के अधिपति (स्वामी)! तू जिसे चाहे, राज्य दे और जिससे चाहे, राज्य छीन ले और जिसे चाहे, सम्मान दे और जिसे चाहे, अपमानित कर दे। तेरे ही हाथ में भलाई है। निःसंदेह तू जो चाहे, कर सकता है। (आले-इमरान, 3: 26)

“जो तुम्हारे पालनहार की ओर से तुमपर उतारा गया है, उसपर चलो और उसके सिवा दूसरे सहायकों के पीछे न चलो। (अल-आराफ़, 7:3)

“आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी और मेरा जीवन-मरण संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है। (अल-अनआम, 6:162)

इन आयतों से पता चलता है कि संसार की सभी चीज़ें जो मनुष्य के वश में हैं, यहाँ तक कि ख़ुद उसका शरीर भी उसके अधिकार में नहीं है। असली मालिक और शासक अल्लाह है। मनुष्य को इन चीज़ों को अपने पास रखने और मनमाने तरीक़े से उपयोग करने का अधिकार नहीं है। संसार में उसकी स्थिति केवल एक प्रतिनिधि की है और उसका अधिकार केवल अल्लाह के मार्गदर्शन का पालन करने और उसके द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार इन चीज़ों का उपयोग करने तक सीमित है। इस सीमा को पार करना और मनेच्छाओं का पालन करना या सच्चे मालिक के अलावा किसी अन्य का अनुसरण करना विद्रोह और गुमराही है।

दुनिया में सफलता की पहली शर्त

कहा गया कि:

“और जो लोग असत्य पर ईमान लाए और अल्लाह का इनकार किया, वे निश्चय ही घाटे में हैं। (अल-अंकबूत, 29:52)

“तुम में से जो कोई भी अपने दीन (धर्म) अर्थात अल्लाह की आज्ञाकारिता से विचलित हो जाता है, और इस अवस्था में मर जाता है कि वह एक काफ़िर था, तो ऐसे सभी लोगों के कर्म इस दुनिया और परलोक में नष्ट हो जाएंगे। (अल-बक़रह, 2:217)

“और जो कोई ईमान लाने से इनकार करता है, उसका कर्म बेकार हो गया और वह आख़िरत में हारे हुए लोगों में से है। (अल-माइदा, 5:5)

इन आयतों से ज्ञात होता है कि सांसारिक जीवन में अल्लाह के प्रतिनिधि के रूप में मनुष्य की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वह जिसका प्रतिनिधि है, उसका आदेश स्वीकार करे, और संसार में जो कुछ भी करे यह समझ कर करे कि मैं अल्लाह का प्रतिनिधि और उसका अमीन हूं। इस स्थिति को स्वीकार किए बिना, वह अल्लाह की सृष्टि में जो कुछ भी अधिकार इस्तेमाल करेगा, वह विद्रोहपूर्ण इस्तेमाल होगा। और यह नियम की बात है कि अगर कोई विद्रोही किसी देश पर अधिकार कर लेता है और बेहतर प्रदर्शन करता है, तब भी देश की वास्तविक सरकार उसके किसी भी कार्य को मान्यता नहीं देगी। राजा की दृष्टि में विद्रोही हर हाल में विद्रोही ही रहेगा, चाहे उसका व्यक्तिगत चरित्र अच्छा हो या बुरा, चाहे उसने विद्रोह कर देश को अच्छी तरह से संभाला हो या बुरी तरह से।

दुनिया बरतने के लिए है

कहा गया :

“ऐ लोगों! ज़मीन पर जो वैध और पवित्र है, उसमें से खाओ, और शैतान के पीछे मत चलो, क्योंकि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। वह तुम्हें बुराई और अभद्रता करने और अल्लाह के बारे में ऐसी बातें कहने की आज्ञा देता है जो तुम नहीं जानते। (अल-बक़रह, 2:168-169)

“ऐ ईमानवालों! जो पाक चीज़ो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल ठहरायी हैं, उनहें अपने ऊपर हराम न करो और सीमा का उल्लंघन न करो। निःसंदेह अल्लाह उल्लंघनकारियों को पसन्द नहीं करता। और उसमें से खाओ, जो ह़लाल (वैध) स्वच्छ चीज़ें अल्लाह ने तुम्हें प्रदान की हैं और अल्लाह (की अवज्ञा) से डरते रहो, अगर तुम उसीपर ईमान (विश्वास) रखते हो।     (अल-माइदा,5:87-88)

“कह दीजिए, कि किसने अल्लाह की उस शोभा को ह़राम (वर्जित) किया हैजिसे उसने अपने बंदों के लिए निकाला है? और किसने स्वच्छ जीविकाओं को हराम कर दिया? (अल-आराफ़,7:32)

“हमारा पैग़म्बर उन्हें सदाचार का आदेश देंता और दुराचार से रोकता है, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) और मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करता है, और उन पर से उनके बोझ उतारता है और उन बंधनों को खोलता है, जिनमें वे जकड़े हुए थे। (अल-आराफ़,7:157)  

“तुमपर कोई दोष नहीं कि अपने पालनहार के अनुग्रह की खोज करो, अर्थात कारोबार के ज़रिये आजीविका की खोज करो। (अल-बक़रह, 2:198)

“और संन्यास का तरीक़ा मसीह के अनुयायियों ने स्वयं निकाल लिया, हमने नहीं अनिवार्य किया उसे उनके ऊपर। परन्तु अल्लाह की प्रसन्नता के लिए (उन्होंने ऐसा किया) (अल-हदीद, 57:27)

“और बहुत-से जिन्न और इनसान को हमने नरक के लिए पैदा किया है। उनके पास दिल हैं, जिनसे सोच-विचार नहीं करते, उनकी आँखें हैं, जिनसे नहीं देखते और कान हैं, जिनसे नहीं सुनते। वे पशुओं के समान हैं; बल्कि उनसे भी गए-गुज़रे हैं, यही लोग अचेतना में पड़े हुए हैं। (अल-आराफ़,7:179)

इन आयतों से पता चलता है कि मनुष्य का काम संसार को छोड़ देना नहीं है, न ही यह दुनिया कोई ऐसी चीज़ है, कि इससे बचा जाए, इससे दूर भागा जाए, और इसके व्यवसाय, इसके मामले, इसकी नेमतों और इसके सुख-श्रंगार को अपने ऊपर हराम कर लिया जाए। यह संसार मनुष्य के लिए बनाया गया है और उसका काम इसे बरते और अच्छी तरह बरते, लेकिन अच्छे और बुरे, उचित और अनुचित, वैध और वर्जित के बीच के अंतर को ध्यान में रखते हुए बरते। अल्लाह ने उसे आंखें दी हैं ताकि वह उनसे देख सके। उस ने उनकी सुनने के लिये कान दिये हैं, और उन्हें प्रयोग करने की बुद्धि दी है। अगर वह अपनी इंद्रियों, अपने अंगों और अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग नहीं करता है, या उनका उपयोग ग़लत तरीक़े से करता है, तो उसके और जानवर के बीच कोई अंतर नहीं है।

सांसारिक जीवन का अर्थ

कहा गया:

“आख़िरत के बारे में अल्लाह का वादा निसंदेह सच्चा है। अतः, तुम्हें कदापि धोखे में न रखे सांसारिक जीवन और न वह बड़ा धोखेबाज़ (शैतान), तुम्हें अल्लाह के प्रति लापरवाह बना दे। (लुक़मान,31:33)

“जिन लोगों ने ख़ुद के साथ अन्याय किया, वे उन सांसारिक सुखों के पीछे पड़े रहे जो उन्हें दिए गए थे, और वे अपराधी थे। (हूद, 11:116)

“और (ऐ नबी!) आप उन्हें सांसारिक जीवन का उदाहरण दें, वह ऐसा है जैसे हमने आसमान से पानी बरसाया और उससे धरती के बेल-बूटे घने हो गए, फिर आख़िरकार ये सभी पौधे भूसा हो कर रह गए, जिसे वायु उड़ाये फिरती है। और अल्लाह प्रत्येक चीज़ पर सामर्थ्य रखने वाला है। धन और संतान सांसारिक जीवन की शोभा हैं  और आपके पालनहार के यहाँ प्रतिफल की दृष्टि से और आगे की आशा रखने के लिए शेष रह जाने वाले सत्कर्म ही अच्छे हैं। (अल-कह्‌फ़, 18:45-46)

“ऐ ईमानवालो! तुम्हें तुम्हारे धन और तुम्हारी संतान अल्लाह के स्मर्ण (याद) से अचेत न करें और जो ऐसा करेंगे, वही क्षति ग्रस्त हैं।। (अल-मनफ़िक़ून,63:09)

“और तुम्हारे धन और तुम्हारी संतान ऐसी नहीं हैं कि तुम्हें हमारे कुछ पास कर दें। परन्तु, जो ईमान लाये और सदाचार करे, तो यही हैं, जिनके लिए दोहरा प्रतिफल हैं। (सबा,34:37)

“जान लो कि सांसारिक जीवन एक खेल, मनोरंजन, शोभाआपस में गर्व और एक-दूसरे से धनों और संतान में बढ़ जाने का प्रयास है। इसका उदाहरण यह है कि वर्षा हुई, और उससे होने वाली उपज ने किसानों को ख़ुश कर दिया, फिर वह पक गयी, तो तुमने देखा कि वह पीली पड़ गई, फिर आख़िरकार वह भूसा हो कर रह गई। (अल-हदीद, 57:20)

“क्यों तुम व्यर्थ में हर ऊँचे स्थान पर एक यादगार भवन और स्मारक बना लेते हो? जैसे कि तुम सदा यहां रहोगे। (अल-शुअरा, 26:128)

क्या तुम उन चीज़ों में, जो यहाँ हैं, निश्चिन्त छोड़ दिये जाओगे? बाग़ों और स्रोतों में। और खेतों और खजूरों में, जिनके गुच्छे रस भरे हैं। और तुम पर्वतों को तराशकर घर बनाते हो, और गर्व करते हो। (अल-शुअरा, 26:146-149)

“तुम जहाँ भी रहो, तुम्हें मौत आ पकड़ेगी, यद्यपि मज़बूत क़िलों में क्यों न रहो। (अल-निसा, 4:78)

“प्रत्येक प्राणी मौत का स्वाद चखने वाला है, फिर तुम (अपने कर्मों का फल भोगन के लिये) हमारी ही ओर फेरे जाओगे। (अंकबूत, 29:57)

“क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाए जाओगे? (अल-मुमिनून, 23:115)

पहले कहा गया था कि दुनिया तुम्हारे लिए है, और इसे इसलिए बनाया गया है कि तुम इसे अच्छे से बरतो। अब बात का दूसरा पहलू पेश किया जाता है और कहा जाता है कि मगर तुम दुनिया के लिए नहीं हो और न ही इसलिए बनाया गया कि दुनिया तुम्हें बरते और तुम अपने आप को इसमें गुम कर दो। संसार के जीवन से धोखा खाकर कभी यह न समझ बैठना कि हमें सदा यहीं रहना है। अच्छी तरह याद रखो कि ये संपत्ति, ये धन, ये महिमा के सामान, सभी अस्थायी हैं। सब कुछ देर का बहलावा है। सबका अंत मृत्यु है और तुम्हारी तरह वे सब धूल में मिल जाएंगे। अगर इस नश्वर संसार से कोई चीज़ बाक़ी रहने वाली है, तो वह केवल अच्छाई, हृदय और रूह की भलाई, और कर्म की अच्छाई है।

कर्मों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही

 फिर कहा गया:

“न्याय की वह घड़ी, जिसे हम छिपाना चाहते हैं, आने वाली है, ताकि प्रत्येक प्राणी को उसके प्रयास के अनुसार बदला दिया जाये। (ताहा, 20:15)

“क्या तुमको तुम्हारे कर्मों के सिवा किसी और चीज़ के लिए पुरस्कृत किया जाएगा? ” (नमल, 27:90)

“और ये कि मनुष्य के लिए वही है, जिसका उसने प्रयास किया। और यह कि उसका प्रयास शीघ्र देखा जायेगा। फिर प्रतिफल दिया जायेगा उसे पूरा प्रतिफल। “और यह कि अपने पालनहार की ओर ही (सबको) पहुँचना है।”                 (अल-नज्म, 53:39-42)

“जो इस दुनिया में अंधा था, वह आख़िरत में भी अंधा होगा, और वह सही रास्ते से बहुत दूर भटक गया है। (बनी इतराईल, 17:72)

“और तुम जो भी भलाई इस दुनिया से अपने लिए भेजोगे, उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे। तुम जो कुछ कर रहे हो, अल्लाह उसे देख रहा है। (अल-बक़रह, 2:110)

“उस दिन से डरो, जिसमें तुम अल्लाह की ओर फेरे जाओगे, फिर प्रत्येक प्राणी को उसकी कमाई का भरपूर वदला दिया जाएगा और किसी पर अत्याचार न होगा। (अल-बक़रह, 2:281)

“जिस दिन प्रत्येक प्राणी ने जो सुकर्म किया है, और जो बुराई उसने की है उसे उपस्थित पायेगा। (आले-इमरान, 3:30)

“और उस (क़ियामत के) दिन (कर्मों की) तौल न्याय के साथ होगी। फिर जिसके पलड़े भारी होंगे, वही सफल होंगे। और जिनके पलड़े हलके होंगे, वही स्वयं को क्षति पहुंचाने वाले होंगे। क्योंकि वे हमारी आयतों के साथ अत्याचार करते रहे थे। (अल-आराफ़, 7:8-9)

“तो जिसने एक कण के बराबर भी भलाई की होगी, उसे देख लेगा। और जिसने एक कण के बराबर भी बुराई की होगी, उसे देख लेगा।”                            (अल-ज़िलज़ाल; 99:7-8)

“तो उनके पालनहार ने उनकी (दुआ) सुन ली, (और कहा किः) निःसंदेह मैं किसी कार्यकर्ता के कार्य को व्यर्थ नहीं करता, चाहे वह नर हो अथवा नारी।”        (आले-इमरान, 3:195)

“और दान करो उसमें से, जो प्रदान किया है हमने तुम्हें, इससे पहले कि आ जाये तुममें से किसी की मौत का समय, और वह कहे कि मेरे पालनहार! क्यों नहीं अवसर दे दिया मुझे कुछ समय का। ताकि मैं दान करता और सदाचारियों में हो जाता। और कदापि अल्लाह अवसर नहीं देता किसी प्राणी को, जब आ जाए उसका निर्धारित समय। (अल-मुनाफ़िक़ून, 63:10-11)

“और अगर आप देखते, जब अपराधी अपने सिर झुकाये होंगे अपने पालनहार के समक्ष, (वे कह रहे होंगेः) ऐ हमारे पालनहार! हमने देख लिया और सुन लिया, अतः, हमें फेर दे (संसार में) हम सदाचार करेंगे। हमें पूरा विश्वास हो गया। मगर कहा जाएगा कि अब उस ग़लती का मज़ा चखो कि तुमने हमारे सामने उपस्थित होने को भुला दिया अब हमने (भी) तुम्हें भुला दिया है। चखो, सदा की यातना का मज़ा उसके बदले, जो तुम कर रहे थे।                    (अल-सजदा, 32:12-14)

यहाँ यह कहा गया है कि संसार कर्म का स्थान है, प्रयास का स्थान है, और परलोक का जीवन अच्छे और बुरे कर्मों के फल का घर है। मनुष्य को मृत्यु के समय तक संसार में कार्य करने का समय दिया जाता है। इसके बाद उन्हें फिर कभी कर्म का मौक़ा नहीं मिलेगा। इसलिए इस जीवन काल में उसे यह समझ लेना चाहिए कि मेरे हर कर्म, मेरी हर कोशिश, मेरी हर बुराई और अच्छाई का अपना प्रभाव है, एक वज़न है, और इस प्रभाव और वज़न के अनुसार, बाद के जीवन में अच्छा या बुरा बदला मिलेगा। मुझे जो मिलेगा वह यहां मेरे प्रयास और यहां मेरे कर्म का प्रतिफल होगा। न मेरे अच्छे कर्म व्यर्थ होंगे और न मेरे बुरे कर्म दण्ड से बचेंगे।

व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी

ज़िम्मेदारी की इस भावना को सुदृढ़ करने के लिए यह भी बता दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों के लिए स्वयं ज़िम्मेदार है। न कोई दूसरा उसकी ज़िम्मेदारी में शरीक है, और न कोई किसी को उसके परिणामों से बचा सकता है।

“तुम पर तुम्हारी अपनी ज़िम्मेदारी है, अगर तुम सीधे रास्ते पर रहो तो वे तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकेंगे, जो भटक गये। (अल-माइदा, 5:105)

“हर व्यक्ति जो कमाता है उसका वह ज़िम्मेदार है, कोई किसी का बोझ नहीं उठाता। (अल-अनआम, 6:164)

“क़ियामत के दिन, तुम्हारे रिश्ते और तुम्हरी संतान किसी काम के नहीं होंगे। तुम्हारे बीच अल्लाह फ़ैसला करेगा, और उसकी नज़र तुम्हारे कामों पर है। (अल-मुम्तहिना, 60:3)

“अगर तुम भला करोगे, तो अपने लिए और अगर बुरा करोगे, तो अपने लिए। (बनी इस्राईल, 17: 7)

“और नहीं लादेगा कोई लादने वाला, दूसरे का बोझ, अपने ऊपर और अगर पुकारेगा कोई बोझल, उसे लादने के लिए, तो वह नहीं लादेगा उसमें से कुछ, चाहे वह उसका क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हो। (फ़ातिर, 35:18)

“ऐ लोगो! अपने रब से डरो और उस दिन से डरो जब कोई पिता अपने बेटे की मदद नहीं करेगा, और न ही कोई बेटा अपने पिता की मदद कर सकेगा। (लुक़मान, 31:33)

“जिसने कुफ़्र किया, उसके सिर पर कुफ़्र का बवाल है, और जो कोई नेक काम करेगा, ऐसे लोग अपनी भलाई के लिए रास्ता साफ़ कर रहे हैं। (अल-रोम, 30:44)

 यहाँ सभी अच्छे और बुरे कर्मों की पूरी ज़िम्मेदारी का भार व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक मनुष्य पर रखा गया है। न कोई उम्मीद रहने दी गई है कि कोई हमारी ग़लतियों और कमियों का बोझ उठा लेगा, न इस उम्मीद के लिए कोई जगह बची है कि हम किसी से और किसी के माध्यम से अपने अपराधों के परिणामों से बच जाएंगे। और न इस ख़तरे का कोई मौक़ा बचा है कि किसी का अपराध हमारे अच्छे कार्यों को प्रभावित करेगा, या यह कि अल्लाह के सिवा किसी और की ख़ुशी हमारे कार्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति में कोई हस्तक्षेप करेगी। जिस तरह आग में हाथ डालने वाले को कोई नहीं बचा सकता, और जो शहद खाता है उसे मिठास की अनुभूति से कोई नहीं रोक सकता, न ही कोई दूसरा व्यक्ति जलने की पीड़ा को साझा कर सकता है, न ही कोई दूसरा व्यक्ति मिठास का आनंद साझा कर सकता है। उसी तरह, प्रत्येक व्यक्ति बुरे कर्मों के बुरे परिणामों और अच्छे कर्मों के अच्छे परिणामों में अद्वितीय है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को संसार को बरतने में अपनी पूरी ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए और दुनिया और जो कुछ भी इसमें है, उसकी परवाह किए बिना यह समझकर जीना चाहिए कि मैं अपने कार्यों के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हूं। बुराई का बवाल भी मुझ पर ही है और मैं ही हूं अपनी अच्छाई का लाभ लेने के लिए।

ऊपर दुनिया के जीवन के बारे में इस्लाम की जो अवधारणा बयाम की गई है उस से इस अवधारणा की रचना के सभी घटक आपके सामने आ गए हैं। अब विश्लेषण के पहलू को छोड़कर, संश्लेषण और संकलन के पहलू को देखें, और देखें कि इन विभिन्न घटकों के संयोजन से प्राप्त समग्र अवधारणा किस हद तक प्रकृति और सच्चाई के अनुरूप है और सांसारिक जीवन के संबंध में अन्य सभ्यताओं की अवधारणाओं की तुलना में इसकी स्थिति क्या है? और जो सभ्यता जीवन की इस अवधारणा पर आधारित है, वह मनुष्य की सोच और कर्मों को किस सांचे में ढालती है?

जीवन की प्राकृतिक अवधारणा

थोड़ी देर के लिए अपने दिमाग़ को दुनिया और दुनिया में जीवन के बारे में धर्मों द्वारा प्रस्तुत की गई सभी अवधारणाओं से ख़ाली कर दें और अपने आसपास की दुनिया को एक पर्यवेक्षक के रूप में देखें और विचार करें कि इस पूरे परिवेश में आपकी क्या स्थिति है? इस प्रेक्षण में आप कुछ चीज़ें स्पष्ट रूप से देखेंगे।

आप पाएंगे कि आपको जो शक्तियां प्राप्त हैं उनका दायरा सीमित है। आपकी इंद्रियां, जिन पर आपका ज्ञान निर्भर करता है, आपके तत्काल परिवेश की सीमा से आगे नहीं बढ़ती हैं। आपके अंग, जिन पर आपके कर्म निर्भर हैं, बहुत कम चीज़ों तक पहुंच रखते हैं। आपके चारों ओर असंख्य ऐसी चीज़ें हैं, जो आकार और ताक़त में आपसे बढ़ी हुई हैं और उनकी तुलना में आपका अस्तित्व बहुत छोटा और कमज़ोर दिखई पड़ता है। दुनिया के इस महान कारख़ाने में काम करने वाली कोई भी शक्तिशाली ताक़त आपके हाथ में नहीं है और आप उन ताक़तों के सामने ख़ुद को असहाय पाते हैं। शारीरिक रूप से, आप एक मध्यम आकार के प्राणी हैं जो आपसे छोटी चीज़ों पर हावी है और अपने से बड़ी चीज़ों से अभिभूत है।

लेकिन एक और शक्ति आप के भीतर ऐसी है जिसने आप को इन सब चीज़ों पर श्रेष्ठता दी है। इस शक्ति की बदौलत आप सभी जानवरों को नियंत्रित करते हैं और उनकी शारीरिक शक्तियों को अभिभूत करते हैं जो आपसे कहीं अधिक हैं। इस शक्ति के कारण आप अपने आस-पास की चीज़ों का उपयोग करते हैं और अपनी इच्छानुसार उनसे सेवा लेते हैं। इस शक्ति की बदौलत, आप शक्ति के नए-नए स्रोतों की खोज करते हैं और उनका उपयोग नए तरीक़ों से करते हैं। इस शक्ति की बदौलत आप ज्ञान के अधिग्रहण के अपने संसाधनों का विस्तार करते हैं और उन चीज़ों तक पहुंच प्राप्त करते हैं जो आपकी शारीरिक शक्ति की पहुंच से बाहर हैं। तो एक ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा संसार की सभी चीज़ें आपकी सेवक बन जाती हैं और आपको उनसे सेवा लेने का अवसर मिलता है।

फिर संसार की उच्चतर शक्तियाँ, जो आपके वश में नहीं हैं, इस तरह से काम कर रही हैं कि सामान्य तौर पर वे आपकी दुश्मन और विरोधी नहीं हैं, बल्कि आपकी सहायक और आपके हितों के अधीन हैं। वायु, जल, प्रकाश, ऊष्मा और अन्य ऐसी शक्तियाँ जिन पर आपका जीवन निर्भर है, आपकी सहायता करने के उद्देश्य से एक व्यवस्था के तहत काम कर रही हैं, और इसलिए आप कह सकते हैं कि वे सभी आपके प्रति समर्पित हैं।

जब आप अपने परिवेश को गहरी नज़र से देखते हैं, तो आपको एक शक्तिशाली क़ानून कार्यरत दिखाई देता है जिसमें छोटी से लेकर बड़ी सभी हस्तियां समान रूप से जकड़ी नज़र आती हैं, और जिसके नियंत्रण पर पूरी दुनिया का अस्तित्व निर्भर करता है। आप स्वयं भी उस क़ानून के अधीन हैं, लेकिन आप में और दुनिया की अन्य चीज़ों के बीच एक बड़ा अंतर है। अन्य सभी चीज़ों में इस क़ानून के ख़िलाफ़ जाने की थोड़ी भी शक्ति नहीं है, लेकिन आपके पास इसके ख़िलाफ़ जाने की शक्ति है। इतना ही नहीं, जब आप इसके ख़िलाफ़ जाना चाहते हैं, तो वह क़ानून भी उस उल्लंघन में आपकी मदद करता है। हालाँकि, यह निश्चित है कि इस तरह के हर उल्लंघन के साथ कुछ नुक़सान होता है और ऐसा कभी नहीं होता है कि आप इसका विरोध करने के बाद इसके बुरे प्रभावों से बच सकें।

इस सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय क़ानून के तहत, आप दुनिया में बनाव और बिगाड़ के विभिन्न प्रदर्शनों को देख सकते हैं। पूरे जगत में गठन और क्षय का एक अंतहीन चक्र चल रहा है। जिस क़ानून के तहत किसी चीज़ का जन्म और पालन-पोषण होता है, उसी क़ानून के तहत उसका विनाश होता है। दुनिया में कोई भी चीज़ ऐसी नहीं जिसपर यह क़ानून लागू न होता हो। जो चीज़ें इससे सुरक्षित दिखाई देती हैं, उन चीज़ों को भी जब आप गहराई से देखते हैं, तो आप पाते हैं कि उनमें भी परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है और वे भी बनाव और बिगाड़ के चक्र से मुक्त नहीं हैं। चूंकि जगत में अन्य चीज़ों में चेतना नहीं है या कम से कम हम इसके बारे में नहीं जानते हैं, इसलिए हमें इस बनाव और बिगाड़ से होने वाले सुख या दुख के प्रभाव का एहसास नहीं होता है। अगर जीवों की प्रजातियों में इसका असर महसूस किया भी जाता है, तो यह बहुत सीमित होता है। लेकिन मनुष्य, जो एक सचेत और बोधगम्य प्राणी है, अपनी आँखों में इन परिवर्तनों को देखकर सुख-दुख के तीव्र प्रभावों को महसूस करता है। कभी-कभी उचित मामलों से उसका आनंद इतना तीव्र हो जाता है कि वह भूल जाता है कि इस दुनिया में बिगाड़ भी है, और कभी-कभी विरोधी मामलों से उसकी पीड़ा इतनी तीव्र हो जाती है कि उसे इस दुनिया में बिगाड़ ही बिगाड़ दिखाई देने लगता है और वह भूल जाता है कि यहाँ बनाव भी है।

लेकिन सुख-दुख की कितनी भी परस्पर विरोधी भावनाएँ हों और सांसारिक जीवन के बारे में आपका दृष्टिकोण कितना भी प्रभावित क्यों न हो, आप अपनी प्रवृत्ति से बंधे हुए हैं कि इस दुनिया को वैसे ही स्वीकार करें और बरतें जैसी यह है और उन शक्तियों से जो आप के अंदर मौजूद हैं काम लें। आपकी प्रवृत्ति में जीवित रहने की इच्छा है, और इस इच्छा को पूरा करने के लिए आपके भीतर भूख की एक बड़ी शक्ति रख दी गई है, जो आपको लगातार सक्रिय रहने के लिए मजबूर करती रहती है। प्रकृति का नियम आपकी प्रजाति की निरंतरता के लिए आपसे सेवा लेना चाहता है और इसके लिए इसने आपके भीतर वासना की एक अदम्य शक्ति रखी है जो आप से अपना उद्देश्य पूरा करा के ही छोड़ती है। इसी तरह कुछ अन्य शक्तियों को भी आपकी प्रवृत्ति में कुछ अन्य उद्देश्यों के लिए रख दिया गया है और वे सभी अपना काम आपसे ले लेती हैं। अब यह आपके अपने विवेक पर निर्भर है कि प्रकृति के इन उद्देश्यों को अच्छे तरीक़े से पूरा करें या बुरे तरीक़े से। अपनी मर्ज़ी से पूरा करें या ज़बरदस्ती। इतना ही नहीं, प्रकृति ने आपको विशेष रूप से यह क्षमता भी दी है कि इन उद्देश्यों की पूर्ति करें या न करें। लेकिन साथ ही, इस प्रकृति का नियम यह भी है कि उस की सेवा करना और अच्छी तरह से ख़ुशी-ख़ुशी करना आपके लिए अच्छा होता है, और अगर आप मुकड़ते हैं उससे दूर भागते हैं, या अगर आप उसका बुरी तरह पालन करते हैं, तो यह आपके लिए हानिकारक है।

विभिन्न धर्मों की अवधारणाएं

जब एक सही प्रवृत्ति और व्यापक सोच वाला व्यक्ति दुनिया को देखेगा और इस दुनिया के संबंध में अपनी स्थिति पर विचार करेगा, तो ऊपर वर्णित सभी पहलू उसकी आंखों के सामने आ जाएंगे। लेकिन मानव जाति के विभिन्न समूहों ने इसे विभिन्न कोणों से देखा। और अक्सर ऐसा हुआ है कि जिसे जो पहलू उभरा हुआ दिखाई पड़ा, उसने उसी पहलू के संदर्भ में दुनिया के जीवन के बारे में एक राय बना ली और अन्य पहलुओं को देखने की कोशिश ही नहीं की।

उदाहरण के लिए, एक समूह ने मनुष्य की कमज़ोरी और लाचारी और उसके सामने प्रकृति की महान शक्तियों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला कि वह दुनिया में एक बहुत ही तुच्छ प्राणी है, और ये लाभ और हानि पहुंचाने वाली शक्तियां जो उन्हें दुनिया में दिखाई देती हैं, वे किसी सार्वभौमिक क़ानून के अधीन नहीं हैं, बल्कि स्वतंत्र या अर्ध-स्वायत्त शक्तियां हैं। यह कल्पना उनके मन पर इतनी हावी हो गई कि जिस पहलू से मनुष्य का पूरे जगत पर श्रेष्ठता प्राप्त है, वह उसकी आंखों से ओझल हो गया। वे अपने व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को भी भूल गए और अपनी कमज़ोरी और अक्षमता की अतिरंजित स्वीकृति के लिए अपने सम्मान और श्रेष्ठता की भावना का त्याग कर दिया। मूर्तिपूजा, वृक्ष पूजा, नक्षत्र पूजा और प्रकृति की अन्य शक्तियों की पूजा इसी विचारधारा की उपज है।

एक और समूह ने दुनिया को इस नज़रिये से देखा कि इसमें केवल बिगाड़ ही बिगाड़ है। प्रकृति की समस्थ व्यवस्था केवल इस लिए चल रही है कि मनुष्य को कष्ट और पीड़ा पहुंचाए। दुनिया के सारे संबंध और संपर्क इनसान को मुसीबतों में फँसाने वाले फंदे हैं। एक इनसान ही क्या सारा जगत अवसाद और मृत्यु के चंगुल में फंसा हुआ है। यहां जो बनाया जाता है वह तोड़ने के लिए बनाया जाता है। वसंत इसलिए आता है कि पतझड़ उसका चमन लूट ले। जीवन का वृक्ष इसलिए फल देता है ताकि मृत्यु का राक्षस उसका आनंद उठा सके। अस्तित्व की सुंदरता संवर-संवर कर आती है ताकि विनाश के देवता को इसके साथ खेलने का अच्छा मौक़ा मिले। इस कल्पना ने उन लोगों के लिए दुनिया और इसके जीवन से कोई लगाव नहीं छोड़ा, और उन्होंने मुक्ति का एकमात्र तरीक़ा इसी में देखा कि दुनिया से अलग-थलग हो जाएं, आत्म-त्याग और तपस्या से अपनी सभी भावनाओं को मिटा दें, और प्रकृति के इस क्रूर क़ानून को तोड़ दें, जिसने मात्र अपना कारख़ाना चलाने के लिए मनुष्य को एक साधन बनाया है।

एक अन्य समूह ने इस दुनिया को इस दृष्टिकोण से देखा कि इसमें मनुष्य के लिए सुख और विलासिता के साधन मौजूद हैं और उसका आनंद लेने के लिए उसे एक छोटी अवधि मिल गई है। दुख और पीड़ा इन सुखों का मज़ा बिगाड़ते हैं। अगर इनसान इस भावना को मिटा दे, और किसी भी चीज़ को अपने लिए दर्द और पीड़ा का स्रोत नहीं रहने दे, तो यहां आनंद ही आनंद है। आदमी के लिए जे कुछ है यही संसार है और इसे जो कुछ भी आनंद लेना है, इसी सांसारिक जीवन में लेना है। मृत्यु के बाद न वह रहेगा, न संसार, न उसके सुख, सब कुछ मिट जाएगा।

इसके विपरीत, एक ऐसा समूह है जो संसार और उसके सुखों को, बल्कि सांसारिक जीवन को ही, पूरी तरह से गुनाह साझता है। उनके अनुसार, मानव रूह के लिए, दुनिया के भौतिक सुखों में अशुद्धता ही अशुद्धता है। इस संसार को बरतने और इसके व्यवसाय में भाग लेने और इसके सुखों का आनंद लेने में मनुष्य के लिए कोई पवित्रता, कोई भलाई और कोई लाभ नहीं है। जो कोई मानवता का आनंद लेना चाहता है उसे दुनिया से अलग-थलग रहना चाहिए, और जो सांसारिक धन और शासन और सांसारिक जीवन का आनंद लेना चाहता है उसे विश्वास करना चाहिए कि उसका स्वर्गीय राज्य में कोई हिस्सा नहीं है। फिर जब इस समूह ने महसूस किया कि मनुष्य अपनी प्रवृत्ति से इस दुनिया में रहने और इसकी धंधों में फंसने के लिए मजबूर है, और स्वर्गीय राज्य में प्रवेश करने का विचार, चाहे वह कितना भी लुभावना हो, इतना मज़बूत नहीं हो सकता कि मनुष्य उसके बल पर अपनी प्रकृति की मांगों का विरोध कर सके, तो उन्होंने जन्नत तक पहुंचने का एक आसान तरीक़ा ढूंढ लिया, और वह यह था एक हस्ती के प्रायश्चित ने उन सभी को अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया, जो उस हस्ती पर आस्था रखते हों।

एक अन्य समूह ने प्रकृति के नियम की सर्वव्यापकता को देखा और मनुष्य को एक मजबूर प्राणी माना। उन्होंने देखा कि मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान और आनुवंशिकता के नियम के प्रमाण यह संकेत देते हैं कि मनुष्य किसी भी तरह से एक संप्रभु प्राणी नहीं है। प्रकृति का नियम उसे पूरी तरह से बांधे हुए है। वह इस क़ानून के ख़िलाफ़ न तो कुछ सोच सकता है और न ही कुछ इरादा कर सकता है। और कोई भी हिलने-डुलने में सक्षम नहीं है। इसलिए, वह अपने किसी भी कार्य के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। इसके विपरीत, एक समूह की दृष्टि में, मनुष्य केवल एक स्व-इच्छाधारी प्राणी है, लेकिन वह किसी उच्च इच्छा के अधीन नहीं है और उसकी श्रेष्ठ शक्ति के प्रति आज्ञाकारी नहीं है, न ही अपने कार्यों और कार्यों में अपने विवेक या क़ानून के अधीन है। मानव सरकार किसी और के प्रति जवाबदेह नहीं। वह इस दुनिया का मालिक है। संसार में सब कुछ उसके अधीन है। उसे उनके साथ वैसा ही व्यवहार करने का अधिकार है जैसा वह चाहता है। उन्होंने अपने जीवन को बेहतर बनाने और अपने कार्यों में अनुशासन और व्यवस्था बनाने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन पर आत्म-प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन सामूहिक स्थिति में वे पूरी तरह से निरंकुश हैं और एक उच्च व्यक्ति के लिए ज़िम्मेदार होने की कल्पना पूरी तरह अमान्य है।

ये सांसारिक जीवन के संबंध में विभिन्न धर्मों के विचारों और मतों की अलग-अलग अवधारणाएं हैं और इनमें से अधिकतर वे हैं जिन पर विभिन्न सभ्यताओं की इमारतों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक सभ्यता के भवनों में, जो विभिन्न शैलियों में देखे जाते हैं, उनके विशिष्ट और अलग रूप लेने का मुख्य कारण यह है कि उनकी नींव में सांसारिक जीवन की एक विशेष अवधारणा है जिसे इस विशिष्ट रूप के लिए विनियोजित किया गया है। अगर हम उनमें से प्रत्येक के विवरण को देखें और जांच करें कि इसने सभ्यता की एक विशेष शैली कैसे बनाई है, तो यह निश्चित रूप से एक दिलचस्प चर्चा होगी, लेकिन यह चर्चा हमारे विषय के लिए अप्रासंगिक है, क्योंकि हम केवल इस्लामी सभ्यता की विशेषताओं को उजागर करना चाहते हैं। यहां केवल यह बताने का इरादा है कि जीवन की ये सभी अवधारणाएं जो आपको समझाई गई हैं, दुनिया को एक निश्चित कोण से देखने का परिणाम हैं। संपूर्ण जगत को समग्र रूप से देखने और जगत में मनुष्य की सही स्थिति का निर्धारण करने के बाद इनमें से कोई भी अवधारणा स्थापित नहीं होती है। यही कारण है कि जब हम संसार को उसकी दृष्टि से दूसरे कोण से देखते हैं तो यह अवधारणा हमारी दृष्टि में अमान्य हो जाती है। और फिर पूरी दुनिया को देखने के बाद, इन सभी अवधारणाओं की त्रुटि हम पर स्पष्ट हो जाती है।

इस्लामी अवधारणा की विशेषता

अब यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि जीवन की सभी अवधारणाओं में केवल इस्लाम ही की अवधारणा एक ऐसी अवधारणा है जो प्रकृति और वास्तविकता के अनुरूप है, और जिसमें दुनिया और मनुष्य के बीच के संबंध को ठीक से देखा गया है। यहाँ हम देखते हैं कि संसार न तो त्यागने और घृणा करने योग्य चीज़ है और न ही यह ऐसी चीज़ है जिसपर मोहित होकर मनुष्य उसके सुखों में खो जाए। यह न तो पूर्ण बनाव है और न ही पूर्ण बिगाड़ है, न ही इसे त्यागना सही है और न ही इसी का होकर रह जाना। न यह पूरी तरह से गंदगी और अपवित्रता है, और यह पूरी तरह पवित्रता ही पवित्रता है। फिर मनुष्य का इस संसार से संबंध उस तरह का नहीं है जैसा किसी राजा का अपने राज्य के साथ होता है और न ही उस तरह का जैसा किसी क़ैदी का अपने कारागार से होता है। न मनुष्य इतना नीच है कि संसार की हर शक्ति उसकी उपास्य हो, और न ही वह इतना शक्तिशाली है कि वह संसार की प्रत्येक चीज़ का उपास्य हो। वह न तो इतना असहाय है कि उसकी व्यक्तिगत इच्छा कुछ भी नहीं है और न ही इतना शक्तिशाली कि उसकी इच्छा ही सब कुछ हो। वह न तो संसार का निरंकुश शासक है और न ही लाखों स्वामी का असहाय दास। वास्तविकता जो कुछ है वह इन विभिन्न अतियों के बीच एक मध्य अवस्था है।

यहां तक कि प्रकृति और सामान्य ज्ञान हमारा मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन इस्लाम इससे आगे बढ़ता है और यह निर्धारित करता है कि दुनिया में इनसान की वास्तविक स्थिति क्या है? मनुष्य और संसार के बीच क्या संबंध है? और अगर इनसान दुनिया को बरते, तो क्या समझ कर बरते? वह यह कहकर मनुष्य की आंखें खोल देता है कि वह सामान्य प्राणियों की तरह नहीं है, बल्कि वह ज़मीन पर लोकों के स्वामी का ज़िम्मेदार वायसराय है। संसार और उसकी शक्तियाँ तेरे लिए वशीभूत कर दी गई हैं। तू सभी का शासक और एक का शासित है। सभी को आदेश देने वाला और केवल एक का आदेशपाल है। तुझे समस्त सृष्टि पर श्रेषठता प्राप्त है, मगर तू सम्मान का यह विशेषाधिकार तब प्राप्त कर सकता है जब तू उसका आज्ञाकारी हो, और उसके आदेशों का पालन करें जिसने तुझको प्रतिनिधि का पद देकर दुनिया में सम्मान दिया है। दुनिया में तू इस लिए भेजा गया है कि इसे बरते और इसका उपयोग करे। फिर, तू इस दुनिया के जीवन में जिस तरह से सही या ग़लत काम करेगा, उसके अच्छे या बुरे परिणाम निकलेंगे, जिन्हें तू बाद के जीवन में देखेगा। इसलिए सांसारिक जीवन के इस छोटे से समय में तुझे हर पल अपनी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास रहना चाहिए, और कभी भी इसे भूलना नहीं चाहिए कि जो चीज़ें अल्लाह ने तुझे अपने प्रतिनिधि के रूप में सौंपी हैं उन सब का तुझ से पूरा-पूरा हिसाब लिया जाएगा।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अवधारणा अपने विवरण के साथ हर मुसलमान के दिमाग़ में मौजूद नहीं है और विद्वानों के एक निश्चित समूह को छोड़कर किसी को भी इन विवरणों की स्पष्ट समझ नहीं है, लेकिन चूंकि यह अवधारणा इस्लामी सभ्यता की नींव में मौजूद है, इसलिए, मुसलमान का चरित्र अपनी असली शान और विशेषताओं से बहुत हद तक दूर हो जाने के बावजूद आज भी उसके प्रभावों से ख़ाली नहीं है। एक मुसलमान जिसने इस्लामी सभ्यता के माहौल में आंखें खोली हो, उसके कार्य बाहरी प्रभावों के कारण कितने भी त्रुटिपूर्ण क्यों न हो गए हों, लेकिन आत्म-संयम और आत्म-सम्मान की भावना, अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं झुकना, अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरना, अल्लाह के सिवा किसी और को अपना मालिक न समझना, दुनिया में ख़ुद को व्यक्तिगत ज़िम्मेदार मानना, दुनिया को कर्मस्थान और परलोक को बदला मिलने की जगह मानना, दुनिया और इसकी दौलत को नश्वर और केवल अपने कर्मों और उसके परिणामों को स्थायी मानना। ये ऐसे मामले हैं जो उसकी नस-नस में अंतर्निहित हैं,(चाहे वे कितने भी धुंधले हो गए हों),  गहरी नज़र रखने वाला पर्यवेक्षक इसे महसूस कर सकता है।

फिर जो कोई भी इस्लामी सभ्यता के इतिहास का अध्ययन करेगा, वह महसुस करेगा कि जब तक इसमें विशुद्ध इस्लामियत रही, तब तक यह पूरी तरह व्यवहारिक सभ्यता थी। उसके मानने वालों के लिए दुनिया परलोक की खेती थी। वे सदैव अपने जीवन का एक-एक क्षण संसार में इस खेती की बुवाई और जुताई में लगाने का प्रयास करते थे, ताकि बाद के जीवन में अधिक से अधिक फ़सल काटने का अवसर मिल सके। उन्होंने संसार त्याग और भोग-विलास के बीच एक ऐसी मध्यास्था में दुनिया को बरता, जिसका कोई संकेत भी हम किसी अन्य सभ्यता में नहीं देखते हैं। अल्लाह की ख़िलाफ़त की अवधारणा उन्हें पूरी तरह से दुनिया में लीन होने और उसके मामलों को अत्यधिक सक्रियता के साथ करने के लिए प्रेरित करती और इसके साथ ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास उन्हें सीमा पार करने की अनुमति नहीं देता था। अल्लाह के प्रतिनिधि होने के कारण उनमें अत्यधिक आत्मदिश्वास था और फिर यही अवधारणा उनमें अहंकार और अभिमान के जन्म को रोकती भी थी। ख़िलाफ़त के कर्तव्यों का पालन करने के लिए, वे उन सभी चीज़ों की ओर आकर्षित होते थे जो दुनिया के काम को चलाने के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन साथ ही, उन चीज़ों के प्रति उनका कोई आकर्षण नहीं था जो व्यक्ति को सुखों और आनंद में गुम कर के अपने कर्तव्यों से लापरवाह कर दें। यानी वे संसार के कार्यों को ऐसे करते थे मानो उन्हें हमेशा यहीं रहना है, और फिर इसके सुखों में लिप्त होने से इस तरह परहेज़ करते जैसे कि दुनिया उनके लिए एक सराय हो जहां वे केवल अस्थायी रूप से ठहर गए हैं।

बाद में जब इस्लामियत का प्रभाव कम हो गया और अन्य सभ्यताओं से प्रभावित होने के कारण मुसलमानों के जीवन में पूर्ण इस्लामी ग़ौरव बाक़ी नहीं रहा, तो उन्होंने वे सब कुछ किया जो सांसारिक जीवन की इस्लामी अवधारणा के विरुद्ध था। वे विलासिता में लिप्त हुए। भव्य महल बनाये। संगीत, चित्रकला, नक़्क़्शी, स्थापत्यकला और अन्य ललित कलाओं में रुचि ली। समाज और रहन-सहन में उस अपव्यय और भव्यता को अपनाया जो इस्लामी अवधारणा के बिल्कुल विपरीत था। शासन, राजनीति और अन्य सांसारिक मामलों में, उन्होंने ऐसे तरीक़े अपनाए जो पूरी तरह से ग़ैर-इस्लामी थे। लेकिन इसके बावजूद भी उन के दिल में जो सांसारिक जीवन की इस्लामी अवधारणा उतरी हुई थी, वह कहीं न कहीं अपना प्रभाव दिखा कर रहती थी और यही प्रभाव दूसरों की तुलना में उन के भीतर एक अलग ग़ौरव पैदा करता था। एक मुस्लिम राजा यमुना के तट पर एक भव्य महल का निर्माण करता है और उसे वह सभी सुख-सुविधाएं और वैभव प्रदान करता है जिसकी कल्पना उस युग में मनुष्य कर सकता है, लेकिन महल का सबसे रमणीय मनोरंजन केंद्र में पीछे की ओर एक चौपाई भी ख़ुदवाता है, जिसका अर्थ है:

तू दिल पर ताला डाले और आंखें बंद किए किधर जा रहा है।

संभल तेरी मंज़िल तो पश्चिम की ओर है और तू पूर्व की दिशा में जा रहा है।

वह महल अपनी जगह अद्वितीय नहीं है, इससे बेहतर महल दुनिया के अन्य देशों में मिल सकते हैं, लेकिन इस कल्पना का उदाहरण दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहीं मिल सकता है, जो धरती पर जन्नत बनाने वाले को सावधान रहने की चेतावनी देता है।

 इस्लामी इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुतायत में मिलेंगे कि सीजर और किसरा के आदर्शों पर शासन करने वालों ने भी जब दुश्मन पर विजय प्राप्त की तो अपना अभिमान प्रकट करने के स्थान पर एक अल्लाह के सामने भूमि पर सजदे में गिर गए। जब बड़े से बड़े क्रूर और अत्याचारी शासकों ने इस्लामी शरीयत के ख़िलाफ़ कोई काम करना चाहा, तो उन्हें ख़ुदा के किसी बंदे ने खुलेआम टोक दिया और वे ख़ुदा के डर से काँप उठे। बड़े से बड़े और उद्दंडों और दुष्कर्मियों को एक छोटी सी बात से चेतावनी दी गई और उनके जीवन का रंग तुरंत बदल गया। संसार की दौलत के लिए मारने मरने वालों के दिल में संसार की क्षणभंगूरता और परलेक के हिसाब का ख़याल आया और उन्होंने सब कुछ अल्लाह के बंदों में बांट दिया और धर्मपरायणता का जीवन अपना लिया। उन सभी ग़ैर-इस्लामिक प्रभावों के बावजूद, जो मुसलमानों के जीवन में फैल गए हैं, आप को हर क़दम पर इस्लामी अवधारणा का जलवा किसी न किसी रूप में देखने को मिलेगा और आपको ऐसा महसूस होगा मानो अँधेरे में अचानक से उजाला आ गया।

दूसरा अध्याय:

जीवन का आदर्श

सही सामूहिक आदर्श की अनिवार्य विशेषताएं

मनुष्य का प्राकृतिक आदर्श

दो लोकप्रिय सामूहिक आदर्श और उनकी आलोचना

इस्लामी सभ्यता का आदर्श और उसकी विशेषताएं

1. भौतिक और बौद्धिक आदर्शों का सामंजस्य

2. इस्लामी व्यवस्था का आकर्षण

3. सोच और कर्म की एकाग्रता

4. विशुद्ध मानव सामूहिकता का गठन

5. मनुष्य की समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति

6. धर्मपरायणता और भलाई के कामों के लिए सबसे अच्छी प्रेरणा

7. तौर-तरीक़ों के भेदभाव में लक्ष्य निर्धारण का प्रभाव

8. इस्लामी सभ्यता के निर्माण में इसके आदर्श का हिस्सा

जीवन का आदर्श

जीवन की अवधारणा के बाद, दूसरा प्रश्न जो किसी सभ्यता की भलाई और बुराई का मूल्यांकन करने में विशेष महत्व रखता है, वह यह है कि वह मनुष्य के सामने कौन सा आदर्श प्रस्तुत करती है? इस प्रश्न का महत्व इस तथ्य के कारण है कि व्यक्ति के इरादे और उसके व्यावहारिक प्रयास स्वाभाविक रूप से उसी दिशा और उसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं जिसे उन्होंने अपना आदर्श घोषित किया है। उसके सही या ग़लत होने पर मानसिकता का अच्छा या बुरा गठन और जीने के तरीक़ों का सही या ग़लत होना निर्भर करता है। उसी के उच्च या निम्न होने पर, विचारों का उच्च और निम्न हेना, नैतिकता और संस्कार के गुण और दोष, और सामाजिकता और अर्थव्यवस्था का उच्च और निम्न होना निर्भर है। इसके स्पष्ट और परिभाषित होने या न होने पर, इनसान के इरादे और विचार का एकीकृत या बिखरा होना, उसके जीवन के मामले का सुचारू या असमान होना, और उसकी ताक़तों और क्षमताओं का एक राह में लगना या अलग-अलग राहों में बिखर जाना निर्भर है। कुल मिलाकर, आदर्श वह चीज़ है जिसके कारण व्यक्ति विचार और कर्म के कई रास्तों में से एक रास्ता चुनता है और अपनी मानसिक और शारीरिक शक्तियों और अपने भौतिक और आध्यात्मिक संसाधनों को उसी मार्ग में ख़र्च करता है। इसलिए, जब हम किसी सभ्यता का मूल्यांकन शुद्धता के आधार पर करना चाहते हैं, तो उसके आदर्शों की खोज हमारे लिए अपरिहार्य है।

सही सामूहिक आदर्श की अनिवार्य विशेषताएं

लेकिन चर्चा और शोध के पथ पर चलने से पहले हमें यह परिभाषित करना होगा कि सभ्यता के आदर्श से हमारा क्या मतलब है। यह स्पष्ट है कि जब हम "सभ्यता" शब्द बोलते हैं, तो हमारा मतलब व्यक्तियों की व्यक्तिगत सभ्यता से नहीं होता है.बल्कि उनकी सामाजिक सभ्यता से होता है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत उद्देश्य सभ्यता का उद्देश्य नहीं हो सकता है, बल्कि इसके विपरीत, यह ज़रूरी है कि सभ्यता का उद्देश्य इस सभ्यता के मानने वालों के बीच प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श हो, चाहे हर व्यक्ति को इसकी समझ हो या न हो। इस अर्थ में सभ्यता का आदर्श वह है जो समझ-बूझ कर या अनजाने में, मनुष्यों के एक बड़े समूह का सामान्य सामूहिक आदर्श बन गया हो, और वह व्यक्तियों के व्यक्तिगत आदर्श पर इतना हावी हो गया हो कि प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श ख़ुदबख़ुद वही हो गया हो जो पूरे समाज के सामने है।

इस प्रकार के सामूहिक आदर्श के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है कि उसमें व्यक्तियों के व्यक्तिगत आदर्श के साथ पूर्ण अनुकूलता हो और उसमें व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों आदर्श बनने की क्षमता हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि अगर सामूहिक आदर्श व्यक्तियों के व्यक्तिगत आदर्शों के विरुद्ध हो, तो उसका सामूहिक आदर्श बनना ही मुश्किल होगा, क्योंकि एक विचार जो व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्वीकार नहीं किया जाता हो, वह सामूहिक विचार नहीं बन सकता है, और भले ही कुछ शक्तिशाली प्रभाव के तहत वह एक सामूहिक आदर्श बन गया हो, तो व्यक्ति के आदर्श और समाज के आदर्श के बीच एक संघर्ष स्पष्ट रूप से उत्पन्न होगा, यहां तक कि जैसे ही वह शक्तिशाली प्रभाव कमज़ोर हो, व्यक्ति अपने स्वयं के आदर्शों पर लौट आएंगे और समाज का आदर्श अमान्य हो जाएगा। सामूहिक निकाय की ताक़त धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी और सभ्यता का नाम व निशान भी नहीं रहेगा। अतः सभ्यता का वास्तविक आदर्श वही हो सकता है जो वास्तव में मनुष्य का स्वाभाविक आदर्श हो और सभ्यता का वास्तविक गुण यही है कि वह ऐसा सामूहिक आदर्श प्रस्तुत करती हो जो व्यक्तिगत आदर्श भी बन सकता हो।

इस दृष्टि से हमारे सामने दो प्रश्न आते हैं जिन्हें हल किए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं:

* एक यह कि स्वभाव से मनुष्य का सही आदर्श क्या है?

* दूसरा यह कि विश्व की अन्य सभ्यताओं द्वारा प्रस्तुत आदर्श मनुष्य के प्राकृतिक आदर्शों के साथ किस सीमा तक संगत हैं?

मनुष्य का स्वभाविक आदर्श

मनुष्य के स्वाभाविक आदर्श का प्रश्न वास्तव में यह प्रश्न है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से संसार में किस उद्देश्य के लिए प्रयास करता है और उसकी स्वाभाविक इच्छा क्या है? इसकी जांच करने के लिए, अगर आप प्रत्येक व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से पूछें कि वह दुनिया में क्या चाहता है, तो आपको अलग-अलग लोगों से अलग-अलग उत्तर मिलेंगे, और शायद ऐसे दो लोग न मिल पाएं जिन के पास बिल्कुल समान लक्ष्य और इच्छाएं हों। लेकिन अगर आप हर चीज़ की जांच करें, तो आपको पता चल जाएगा कि जिन चीज़ों को लोगों ने लक्ष्य घोषित किया है, वे वास्तव में लक्ष्य नहीं हैं, बल्कि लक्ष्य तक पहुंचने के साधन हैं, और वह लक्ष्य समृद्धि और आत्मसंतोष है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी बौद्धिक या मानसिक वर्ग और किसी भी सामाजिक वर्ग का हो, और चाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में संघर्ष कर रहा हो, उसके प्रयासों का एक ही उद्देश्य है, और वह यह है कि उसे शांति, सुरक्षा, सुख और समृद्धि मिले। तो हम इसे मानवजाति का प्राकृतिक या स्वभाविक आदर्श कह सकते हैं।

दो लोकप्रिय सामूहिक आदर्श और उनकी आलोचना

विश्व की विभिन्न सभ्यताओं द्वारा प्रस्तुत सामूहिक आदर्शों को अगर विस्तार से देखा जाय तो उनमें अनेक भेद पाये जायेंगे, जो यहाँ सूचीबद्ध करने के लिए अभिप्रेत नहीं हैं। सैद्धांतिक रूप में हम उन सभी को दो भागों में बाँट सकते हैं।

1. जो सभ्यताएं धार्मिक और आध्यात्मिक कल्पना पर आधारित नहीं हैं, उन्होंने अपने अनुयायियों के सामने सर्वोच्चता का आदर्श प्रस्तुत किया है। यह आदर्श कई घटकों के संयोग से बना है, जिनमें से विशेष और महत्वपूर्ण रचना घटक ये हैं:

 *    राजनीतिक प्रभुत्व की मांग।

 *    धन में वृद्धि की इच्छा, चाहे देशों को जीतकर या व्यापार और उद्योग पर हावी होकर प्राप्त हो।

 *    नागरिक विकास की अभिव्यक्तियों में सभी को पीछे छोड़ देने की इच्छा, चाहे वह विज्ञान और कला के मामले में हो, या सभ्यता और संस्कृति में महिमा के आधार पर।

यह सामूहिक आदर्श स्पष्ट रूप में उस व्यक्तिगत आदर्श के विरुद्ध नहीं है जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है। क्योंकि ज़रा भी विचार किए बिना यह बात कही जा सकती है कि अगर समूह का यह उद्देश्य पूरा हो जाता है, तो व्यक्ति का उद्देश्य निश्चित रूप से पूरा हो जाएगा। इस आदर्श का यही भ्रम है, जिसकी बदौलत एक क़ौम के लाखों लोग इसमें अपना व्यक्तिगत आदर्श खो देते हैं। लेकिन अवलोकन और व्यावहारिक अनुभव साबित करते हैं कि वास्तव में यह सामाजिक आदर्श व्यक्ति के प्राकृतिक आदर्श के साथ तीव्र संघर्ष रखता है। ज़ाहिर है कि दुनिया में एक ही ऐसी क़ौम नहीं है जिसके आदर्श सर्वोच्चता की प्राप्ति है, बल्कि एक ज़माने में अनगिनत क़ौमें अपने सामने यही आदर्श रखती हैं, और वे सभी इसे हासिल करने के लिए संघर्ष करती हैं। इसका अपरिहार्य परिणाम यह होता है कि उनमें घोर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक टकराव उत्पन्न हो जाता है, प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध की बड़ी उथल-पुथल मच जाती है और इस के बीच लोगों के लिए शांति और आत्मसंतोष की प्राप्ति लगभग असंभव हो जाती है। इसलिए पश्चिमी देशों में भी यही स्थिति हमारी आंखों के सामने है। फिर भी अगर एक युग ऐसा भी मान लिया जाए जिसमें केवल एक क़ौम इस उद्देश्य के लिए प्रयास करने वाली हो, और कोई अन्य क़ौम इस उद्देश्य के लिए उसका विरोध करने वाली न हो, फिर भी उसकी सफलता में, व्यक्तियों के व्यक्तिगत आदर्श की प्राप्ति संभव नहीं है। इस लिए यह इस तरह के सामूहिक आदर्श की एक स्वाभाविक विशेषता है कि वह केवल अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा ही पैदा नहीं करता है बल्कि राष्ट्र के अपने सदस्यों के बीच प्रतिस्पर्धा की मानसिकता भी पैदा करता है। इसके कारण राष्ट्र के प्रत्येक सदस्य के जीवन का उद्देश्य राष्ट्र के अन्य सदस्यों पर प्रभुत्व प्राप्त कर धन, बल, शक्ति, वैभव और विलासिता के साधनों में बढ़ जाना हो जाता है। वह चाहता है कि दूसरों के भाग्य की कुंजियां उस के हाथ में आ जाएं, जितना संभव हो उतने संसाधन और धन केवल उसके पास हों, उसके हिस्से में केवल लाभ ही लाभ हो और नुक़सान दूसरों के हिस्से में जाए। पहली बात तो यह कि इस प्रकार के लोगों का लोभ और लालच किसी भी स्तर पर पहुंचकर संतुष्ट नहीं होता है, इसलिए वे हमेशा असंतुष्ट और बेचैन रहते हैं। दूसरा, जब किसी राष्ट्र के अपने सदस्यों के बीच इस प्रकार का संघर्ष उत्पन्न हो जाता है, तो हर घर और हर बाज़ार युद्ध का मैदान बन जाता है और शांति और संतोष, सुख, सुरक्षा और समृद्धि ग़ायब हो जाती है, चाहे कितनी भी दौलत और सुख सुविधा के साधन मौजूद हों।

इसके अलावा, यह स्वाभाविक है कि विशुद्ध भौतिक विकास, आध्यात्मिकता के किसी भी तत्व के बिना, किसी भी मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकता। क्योंकि केवल कामुक सुखों की खोज एक विशुद्ध पाश्विक उद्देश्य है, और अगर यह सच है कि मनुष्य एक पूर्ण पशु से अधिक कुछ है, तो यह भी सच होना चाहिए कि मनुष्य उन चीज़ों की खोज से संतुष्ट नहीं हो सकता जिनके सुख केवल उसकी पाश्विक इच्छाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त हों।

 2. धार्मिक और आध्यात्मिक कल्पना पर आधारित सभ्यताओं ने सामान्यतः मोक्ष को अपना आदर्श ठहराया है। निस्संदेह, इस आदर्श में वह आध्यात्मिक तत्व मौजूद है जो मनुष्य को शांति और संतुष्टि देता है। यह भी सच है कि जिस तरह मोक्ष किसी क़ौम का आदर्श बन सकता है, उसी तरह वह प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श भी बन सकता है, लेकिन अधिक गहरे मूल्यांकन से पता चलता है कि वास्तव में यह आदर्श एक सच्चा आदर्श नहीं हो सकता। इसके कुछ कारण हैं:

*     पहला: मोक्ष के लक्ष्य में एक प्रकार का स्वार्थ छिपा है, जिसकी विशेषता है सामूहिकता को कमज़ोर करके व्यक्तिवाद को शक्ति देना। क्योंकि जब प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के कुछ शुद्ध कर्म करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है, तो इस आदर्श में ऐसा कुछ भी नहीं बचता जो इसे एक सामूहिक दर्जा देता हो, और उस के लिए, व्यक्ति को समुदाय के साथ सहयोग पर उभारता हो।

*     दूसरा: मोक्ष का मुद्दा मोक्ष प्राप्ति की वास्तविक विधि के मुद्दे से निकट संबंध रखता है। इस लक्ष्य के सही या ग़लत होने में उस तरीक़े के सही या ग़लत होने से बहुत कुछ लेना-देना है। उदाहरण के लिए, जिन धर्मों ने संसार त्याग और संन्यास को मोक्ष प्राप्ति का माध्यम ठहराया है, उन में मोक्ष न तो व्यक्तिगत लक्ष्य बन सकता है और न ही सामूहिक। ऐसे धर्मों के अनुयायियों को अंततः दुनिया से धर्म को अलग करने और सांसारिक लोगों के उद्धार के लिए मध्यवर्ती तरीक़े (जैसे धार्मिक लोगों की सेवा या प्रायश्चित आदि) खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इसका परिणाम यह हुआ कि यह लक्ष्य अब व्यक्ति और समुदाय का साझा लक्ष्य नहीं रह गया, दूसरे यह कि, धार्मिक लोगों की एक छोटी संख्या को छोड़कर, पूरे समुदाय के लिए, इस लक्ष्य में कोई आकर्षण बाक़ी नहीं रहा, जो उसे अपना समर्थक बनाए रखती। इसलिए सारे दुनियादार इस को छोड़कर उस भौतिकवादी लक्ष्य के पीछे पड़ गया जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है। दूसरी ओर, जिन धर्मों ने विभिन्न देवी-देवताओं को प्रसन्न करना मोक्ष का आधार बनाया है, उनमें भी यह साझा लक्ष्य नहीं बन पाता, क्योंकि अलग-अलग समूह अलग-अलग देवताओं की ओर फिर जाते हैं और लक्ष्य की वह सच्ची एकता स्थापित नहीं हो पाती, जिसे स्थापित करना एक सभ्यता का वास्तविक कार्य है। इसलिए जब इन धर्मों के अनुयायी भी सांसारिक विकास के पथ पर चलना चाहते हैं और अपने समुदाय को संगठित करना चाहते हैं, तो उन्हें किसी दूसरे आदर्श की ज़रूरत होती है। एक अन्य प्रकार का धर्म वह है जिसका आह्वान एक विशेष जाति और एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों से है, समस्त मानव जाति से नहीं। इसलिए उनके अनुसार, मोक्ष भी उस विशेष जाति और राष्ट्र के लिए विशिष्ट है। यह आदर्श निस्संदेह सभ्यता के प्रारंभिक चरणों में एक व्यावहारिक सामाजिक आदर्श हो सकता है, लेकिन यह तर्क के मानक को पूरा नहीं करता है, और एक विशेष जाति के लिए मोक्ष का आरक्षण कुछ ऐसा है जिसे कोई भी स्वभाविक सोच वाला आदमी स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए ऐसे धर्मों के अनुयायी बौद्धिक विकास के पथ पर कुछ क़दम आगे बढ़ने के बाद इस आदर्श के ख़िलाफ़ विद्रोह कर देते हैं और इसे अपने दिमाग़ से निकाल कर एक दूसरा आदर्श अपना लेते हैं।

*     तीसरा: मोक्ष का आदर्श चाहे वह धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से कितना भी पवित्र क्यों न हो, लेकिन सांसारिक दृष्टिकोण से, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो एक राष्ट्र को एक राष्ट्र के रूप में ऊपर उठा सके और उसके भीतर वह गर्मी और शक्ति हो जो राष्ट्रीय विकास के लिए उत्प्रेरक बनें। यही कारण है कि किसी भी प्रगतिशील राष्ट्र ने कभी भी इसे अपना सामूहिक आदर्श नहीं बनाया है, और यह उन राष्ट्रों में भी हमेशा एक व्यक्तिगत आदर्श ही रहा है, जिनके धर्म ने केवल यही एक आदर्श पेश किया है।

यही कारण हैं कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों आदर्श सही होने के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं। आइए अब देखें कि इस्लामी सभ्यता ने किस चीज़ को अपना आदर्श बनाया है और इसकी क्या विशेषताएं हैं जो इसे एक सही आदर्श बनाती हैं:

इस्लामी सभ्यता का आदर्श और उसकी विशेषताएं

इस चर्चा की शुरुआत में ही यह समझ लेना चाहिए कि आदर्श का प्रश्न वास्तव में जीवन की अवधारणा के प्रश्न से गहरा संबंध रखता है। सांसारिक जीवन के बारे में हमारा जो दृष्टिकोण है, और दुनिया में हमारी स्थिति और हमारे लिए दुनिया की स्थिति के बारे में हमारा दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से जीवन का एक उद्देश्य बना देता है, और हम अपनी सारी ऊर्जा उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समर्पित करने लगते हैं। अगर हम संसार को अपने लिए चरागाह के रूप में देखते हैं और हमारे अनुसार जीवन एक छूट का नाम है जो हमें खाने, पीने और दुनिया के सुखों का आनंद लेने के लिए मिली हुई है, तो यह पाश्विक अवधारणा निस्संदेह हमारे अंदर जीवन का एक पशुवत आदर्श स्थापित कर देगी, और हम जीवन भर सांसारिक सुखों के सामान जुटाने का प्रयास करते रहेंगे। दूसरी ओर, अगर हमने अपने आप को जन्मजात अपराधी और स्वभाविक दोषी मान लिया है, और दुनिया की हमारी धारणा यह है कि यह एक प्रायश्चित और सज़ा का घर है जहां हमें अपने मूल अपराध की सज़ा भुगतने के लिए फेंक दिया गया है तो, स्वाभाविक रूप से, यह अवधारणा हमारी अंदर इस यातना से छुटकारा पाने की इच्छा पैदा करेगी, और इसी आधार पर हम मोक्ष को अपने जीवन का आदर्श ठहराएंगे। लेकिन अगर दुनिया की हमारी अवधारणा चारागाह और सज़ा के घर दोनों से श्रेष्ठ है, और एक इनसान के रूप में हम ख़ुद को पशु और अपराधी दोनों से ऊंचा मानते हैं, तो निश्चित रूप से हम भौतिक सुखों और मोक्ष दोनों से बड़े उद्देश्य की तलाश करेंगे, और किसी भी निम्नतर उद्देश्य पर हमारी नज़र नहीं ठहरेगी।

इस नियम को ध्यान में रखते हुए, जब आप देखते हैं कि इस्लाम ने मनुष्य को ख़लीफ़ा और ज़मीन पर अल्लाह का प्रतिनिधि घोषित किया है, तो जीवन की इस अवधारणा से, जो आदर्श स्वाभाविक रूप से पैदा हो सकता है और होना चाहिए, उस तक आप की बुद्धि स्वतः पहुंच जाएगी। एक प्रतिनिधि का लक्ष्य इस के सिवा और क्या होना चाहिए कि वह जिसका प्रतिनिधि है उसकी मर्ज़ी के अनुसार काम करे और उसकी दृष्टि में एक अच्छा, वफ़ादार और कर्तव्यपरायण सेवक माना जाए? अगर वह एक सच्चा और नेक इरादे वाला आदमी है, तो क्या वह अपने स्वामी की सेवा में अपने स्वामी की संतुष्टि के अलावा किसी और चीज़ का लक्ष्य रख सकता है? क्या वह अपना कर्तव्य इसलिए निभाएगा कि उसे मुआवज़े या लाभ का लालच है? यह दूसरी बात है कि उसका स्वामी उससे प्रसन्न होता है और उसे ये सब चीज़ें दे देता है, यह भी हो सकता है कि मालिक उसे किसी सेवा के लिए पुरस्कार के रूप में इन चीज़ों को देने की आशा दिलाए, और इस में भी कोई हर्ज नहीं कि उसे यह ज्ञान हो कि अगर मैं ने उचित रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करके मालिक को प्रसन्न कर दिया, तो वह मुझे ये पुरस्कार देंगा। लेकिन अगर वह पुरस्कार को अपना लक्ष्य बना ले, और लाभ के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करे, तो क्या कोई समझदार व्यक्ति ऐसे कर्मचारी को कर्तव्यपरायण कर्मचारी कह सकता है? इसी उदाहरण पर, अल्लाह और उसके प्रतिनिधि के मामले की कल्पना करें। अगर मनुष्य ज़मीन पर अल्लाह का प्रतिनिधि है, तो उसके जीवन का उद्देश्य अल्लाह को ख़ुश करने और उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ काम करने के सिवा और क्या हो सकता है?

यही वह आदर्श है जो जीवन की इस अवधारणा से बौद्धिक और स्वभाविक रूप से निकलता है, और ठीक यही वह आदर्श है जिसे इस्लाम ने मनुष्य के सामने प्रस्तुत किया है। पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करने से आपको पता चलेगा कि इसी एक आदर्श को दिल और दिमाग़ में बिठाने का विभिन्न तरीक़ों से प्रयास किया गया है, और इसके सिवा हर दूसरे सिद्धांत का पूरी ताक़त से खंडन किया गया है। कहा गया:

“आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी और मेरा जीवन-मरण संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है। जिसका कोई साझी नहीं और मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं सब से पहले उसके आगे सर झुकाने वाला हूँ।” (अल-अनआम,6:162-163)

“निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों और उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि उनके लिए स्वर्ग है। वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं, वे मारते और मरते हैं। ... अतः, अपने इस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने किया और यही बड़ी सफलता है। (अल-तौबा, 9:111)

सूरह बक़रह में, अवज्ञाकारी और आज्ञाकारी बंदे के बीच अंतर को समझाते हुए, आज्ञाकारी बंदों की परिभाषा इस प्रकार की गई है:

“और लोगों में से एक वह है जो अल्लाह की प्रसन्नता के लिए अपनी जान को बेच देता है, और अल्लाह अपने बंदों पर दया करने वाला है। (अल-बक़रह, 2:207)

सूरह फ़त्ह में मुसलमानों को परिभाषित किया गया है कि ये वे लोग हैं जिनकी दोस्ती और दुश्मनी और जिनका झुकना और सजदा करना सब अल्लाह के लिए है।

“मुह़म्मद अल्लाह के रसूल हैं और जो लोग उनके साथ हैं, वे काफ़िरों के लिए कठोर और आपस में दयालु हैं। तुम देखोगे उन्हें, रुकूअ-सजदा करते हुए, वे खोज कर रहे होंगे अल्लाह की दया और प्रसन्नता की। (अल-फ़त्ह, 48:29)

सूरह मुहम्मद (सल्ल.) में, अविश्वासियों के कर्मों के बर्बाद होने का कारण यह बताया गया है कि वे अल्लाह के लिए कुछ नहीं करते हैं, बल्कि अन्य उद्देश्यों के लिए एक काम कर के अल्लाह की नाराज़गी मोल ले लेते हैं:

“ये इसलिए कि वे चले उस राह पर, जिसने अल्लाह को अप्रसन्न कर दिया और उन्होंने अल्लाह को राज़ी करने को पसंद नहीं किया, तो अल्लाह ने उनके कर्मों को व्यर्थ कर दिया। (मुहम्मद (सल्ल.), 47:28)

सूरह हज में ख़ुदा की ऐसी इबादत जो सांसारिक फ़ायदे के लिए होती है, उसे बिल्कुल बेकार क़रार दिया गया है।

“और लोगों में वह (भी) है जो इबादत (वंदना) करता है अल्लाह की, एक किनारे पर होकर, फिर अगर उसे कोई लाभ पहुँचता है, तो वह संतुष्ट हो जाता है और अगर उसे कोई परीक्षा आ लगे, तो मुँह के बल फिर जाता है। वह क्षति में पड़ गया लोक और परलोक की और यही खुली क्षति है। (अल-हज, 22:11)

सूरह बक़रह में यह उल्लेख है कि लोगों को दिखाने के लिए किया जाने वाला दान और एक व्यक्ति जो एहसान दिखाने के लिए धन देता है वह अमान्य है।

“इसका एक उदाहरण यह है कि चट्टान पर थोड़ी सी मिट्टी थी, आपने उसमें बीज बोया, लेकिन पानी की बाढ़ आई और उसे बहा ले गई। दूसरी ओर, जो दान विशेष रूप से अल्लाह की प्रसन्नता के लिए किया जाता है, वह एक बगीचे की तरह होता है, अगर अच्छी बारिश होती है, तो ख़ूब फल लगते हैं, और अगर ज़ोर की बारिश नहीं हो तो भी हल्की फुहार भी इसके फलने-फूलने के लिए काफ़ी हो जाती है। (अल-बक़रह, 2:263-264)

“इस बात को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग ढंग से बताया गया है कि तुम जो भी नेक काम करो, उसे केवल अल्लाह की ख़ुशी के लिए करो और उसका कोई और मक़सद नहीं रखो।तुम जो कुछ भी दान में ख़र्च करते हो, उसका लाभ केवल तुम्हारे लिए है, और तुम जो भी ख़र्च करते हो, केवल अल्लाह की ख़ुशी के लिए ख़र्च करते हो। (अल-बक़रह, 2:272)

“और जिन लोगों ने अपने पालनहार की प्रसन्नता के लिए धैर्य से काम लिया, नमाज़ की स्थापना की और हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें छुपे और खुले तरीक़े से दान करते रहे, तो वही हैं, जिनके लिए परलोक का घर (स्वर्ग) है। (अल-राद, 13:22)

“परन्तु, संयमी (सदाचारी) जहन्नम की आग से बचा लिया जाएगा। जो अपना धन, दान करता है, ताकि पवित्र हो जाए। उसपर किसी का कोई उपकार नहीं, जिसे वह उतारा रहा हो। वह तो केवल अपने परम पालनहार की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए है। निःसंदेह, वह प्रसन्न हो जाएगा।” (अल-लैल, 92:17-21)

“तो अपने रिशतेदारों और निर्धनों और यात्रियों को उनका अधिकार दो। ये उत्तम है उन लोगों के लिए, जो चाहते हों अल्लाह की प्रसन्नता और वही सफल होने वाले हैं। (अल-रोम, 30:38)

“और तुम जो ज़कात देते हो, चाहते हुए अल्लाह की प्रसन्नता, तो वही लोग अपने दिये को दोगुना-चौगुना कर रहे हैं। (अल-रोम, 30:39)

“और अल्लाह की मुहब्बत के लिए बेसहारा और अनाथों को खाना खिलाते हैं और कहते हैं: हम तुम्हें अल्लाह के लिए खिला रहे हैं, हम तुम से कोई बदला चाहते हैं और न कोई कृतज्ञता। हम अपने अल्लाह से डरते हैं उस दिन से, जिस दिन लोगों के मुंह बने होंगे और चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाएंगी। तो अल्लाह ने उन्हें उस दिन की बुराई से बचा लिया और उन्हें तरोताज़ा और ख़ुश महसूस कराया। (अल-दह्‌र, 78:8-11)

“(फ़ै में) उन ग़रीब लोगों का एक हिस्सा भी है जो पलायन कर गए हैं और जिन्हें उनके घरों और संपत्ति से निकाल दिया गया है और जिन्होंने यह सब स्वीकार कर लिया है क्योंकि वे अल्लाह की कृपा और उसकी ख़ुशी चाहते हैं और वे अल्लाह और उसके रसूल की सेवा करते हैं, वास्तव में ये ही सच्चे लोग हैं। (अल-हश्र, 59:8)

“अल्लाह उन लोगों को पसंद करता है जो उसके मार्ग में इस तरह लड़ते हैं जैसे कि वे सीसा पिलाई दीवार हैं। (अल-सफ़्फ़, 61:4)

“जो लोग ईमान लाए हैं वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जो काफ़िर हैं वे ज़ुल्म और उद्दंडता के लिए लड़ते हैं। (अल-निसा, 4:76)

इन सारी शिक्षाओं को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) मुस्तफ़ा (सल्ल.) ने एक वाक्य में इस तरह बयान किया है:

अल्लाह केवल उन्हीं कामों को स्वीकार करता है जो विशुद्ध रूप से उसके लिए किए जाते हैं और जो केवल उसे प्रसन्न करने के लिए होते हैं।

इस चर्चा से यह स्पष्ट हो गया कि इस्लाम ने सभी सांसारिक और आख़िरत के उद्देश्यों को छोड़कर, एक चीज़ को जीवन का लक्ष्य, और सभी मानवीय प्रयासों का लक्ष्य, और सभी इरादों का लक्ष्य क़रार दिया है, और वह चीज़ है अल्लाह की ख़ुशी प्राप्त करना और उसे राज़ी करना। अब हमें यह देखना होगा कि इस लक्ष्य में क्या विशेषताएं हैं जो इसे एक महान आदर्श बनाती हैं।

शारीरिक और बौद्धिक आदर्शों का सामंजस्य

संसार के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण, जो सिद्धांत की सीमा से आगे बढ़कर ईमान और विश्वास की अंतिम सीमा तक पहुंच गया है, यह है कि अस्तित्व के इस असीमित राज्य का शासक केवल एक अल्लाह है, और संसार में जो कुछ भी है, उसके अधीन हैं। उसका आज्ञाकारी है और उसी के आगे झुका हुआ है।

“और आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, उसी का है और उसी के आदेशों और मर्ज़ी के अधीन है। (अल-रोम, 30:28)

“वास्तव में, आदेश और निर्णय तो केवल अल्लाह के अधिकार में है।         (अल-अनआम, 6:57)

“इस दुनिया में और अन्य सभी दुनियाओं में जितनी चीज़ें हैं, उन सभी का स्रोत उसी की सत्ता है।अंत में, सभी मामले अल्लाह के सामने ही पेश होंगे।        (अल-बक़रह, 2:210)

इसी चीज़ का नाम है इस्लाम। जिसका अर्थ है गर्दन झुका देना और आज्ञाकारी हो जाना। सारा संसार और उसका हर कण अपनी प्रकृति के अधार पर इसी दीन (धर्म) इस्लाम का अनुयायी है, चाहे स्वेच्छा से या जबरन।

“जबकि जो कुछ भी आकाशों और धरती में है, स्वेच्छा से या अनिच्छा से उसी के आज्ञाकारी हैं और सब उसी की ओर फेरे जायेंगे। (आले-इमरान, 3:83)

इस सार्वभौमिक, अपरिवर्तनीय और अपवादरहित क़ानून में, पूरे संसार की तरह, स्वयं मनुष्य भी जकड़ा हुआ है और उसका स्वभाव भी उसी अल्लाह का आज्ञाकारी और उसी के धर्म की अनुयायी है।

“तो (ऐ नबी और नबी के अनुयायी) एकाग्र हो जाओ और स्वयं को इस धर्म की दिशा में जमा दो, उस प्रकृति पर दृढ़ हो जाओ, जिस पर अल्लाह ने इंसानों को बनाया है, अल्लाह द्वारा बनाई गई संरचना को बदला नहीं जा सकता है, यही बिल्कुल सच्चा और सही धर्म है। (अल-रोम, 30:30)

इस सिद्धांत के अनुसार, मानव सहित संसार की समस्त सृष्टि का स्वाभाविक उद्देश्य, लक्ष्य, और आदर्श अल्लाह की सत्ता है, और सभी की प्रकृति की दिशा उसी केंद्र और स्रोत की ओर है। अब, एक बुद्धि रखने वाले प्राणी के रूप में, मनुष्य के लिए केवल एक ही चीज़ बची रह जाती है कि वह अपने इस भौतिक उद्देश्य के बारे में जागरूकता प्राप्त कर ले और उसे तर्क और विचार के साथ समझे, और अपने इरादों, नीयतों और प्रयासों को दिशा भी उसी ओर कर ले। इस स्थिति में उसका तर्कसंगत आदर्श उसके और सभी प्राणियों के भौतिक आदर्श के अनुरूप हो जाएगा। संसार की सभी शक्तियां और अस्तित्व की व्यवस्था के सभी अंग उस लक्ष्य तक पहुंचने में उसका साथ देंगे और वह अपनी बौद्धिक स्थिति के अनुसार इस भव्य कारवां का नेता और कमांडर होगा। इसके विपरीत अगर वह इस लक्ष्य को छोड़ कर किसी और चीज़ को अपना बौद्धिक लक्ष्य बनाए, तो उसका उदाहरण ऐसा होगा जैसे एक आदमी किसी कारवां के साथ है, कारवां पश्चिम की ओर यात्रा कर रहा है, वह व्यक्ति स्वयं जिस घोड़े पर सवार है, वह भी पश्चिम की ओर दौड़ रहा है, लेकिन उस बेहोश यात्री को कारवां की दिशा या अपनी सवारी की दिशा का पता नहीं है। उसका हृदय पूर्व में अटका हुआ है। उसने अपना मुंह अपने घोड़े की पूंछ की ओर कर रखा है। लगाम खींच-खींच कर और एड़ी लगा-लगा कर कोशिश कर रहा है कि घोड़ा पीछे की ओर चले। वह घोड़े को कुछ क़दम पीछे की ओर खींच भी लाता है, लेकिन फिर, कारवां की गति और अपनी शारीरिक गति से मजबूर होकर, घोड़ा उसी पश्चिमी दिशा में दौड़ने लगता है। इस तरह यह यात्री अपनी इच्छा और मंशा के विरुद्ध उस गंतव्य पर जाने के लिए मजबूर हो जाता है, लेकिन एक सफल और उद्देश्यपूर्ण यात्री की तरह नहीं, बल्कि एक असफल और उद्देश्यहीन यात्री की तरह। क्योंकि उसने अपनी जो मंज़िल तय कर रखी है, उस तक पहुंचना उसके भाग्य में नहीं होता, और जिस स्थान पर वह वास्तव में पहुंचता है, वह उसकी मंज़िल नहीं है, और न ही उसने उस जगह पर रहने की कोई तैयारी की है।

2. इस्लामी व्यवस्था का आकर्षण

जैसा कि ऊपर बताया गया है, इस्लाम की पूरी व्यवस्था का केंद्र और धुरी अल्लाह है, पूरी व्यवस्था इस केंद्र के चारों ओर घूम रही है। इस व्यवस्था में जो कुछ भी है, चाहे वह इरादे या विश्वास के रूप में हो या इबादत के रूप में या सांसारिक जीवन के मामलों में से, हर हाल में उसकी दिशा उसी केंद्रीय इकाई की ओर है और सब कुछ उसकी आकर्षण शक्ति के शक्तिशाली तारों में बंधा हुआ है। शब्द ‘दीन’ (आज्ञाकारिता) और ‘इस्लाम’ (गर्दन झुका देना) जो इस धार्मिक व्यवस्था का नाम दिया गया है, इसकी प्रकृति और वास्तविकता को सबसे अच्छी तरह दर्शाता है। दीन और इस्लाम का अर्थ यह है कि बन्दा अपने अल्लाह की मर्ज़ी के आगे सिर झुका दे और उसकी इच्छा के अधीन हो जाए।

“और उस व्यक्ति से बेहतर किसका धर्म हो सकता है, जिसने स्वयं को अल्लाह के लिए झुका दिया, वह अच्छे कर्म करने वाला भी हो। (अल-निसा, 4:125)

“जो कोई अल्लाह की ओर अपना मुँह फेर दे और साथ ही वह अच्छे कर्म करने वाला भी हो, तो उसने बहुत मज़बूत रस्सी थाम ली। (लुकमान, 31:22)

इससे भी बढ़कर इस्लाम के स्वरूप का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और उनके बेटा ख़ुदा के आगे सर झुका देते हैं तो बेटा (ऐ पिता, जो हुक्म दिया गया है उसका पालन करें) कहकर ख़ुद को छुरी के हवाले कर देता है, और पिता अपने कलेजे के टुकड़े को केवल अल्लाह की ख़ुशी के लिए बलिदान करने को तैयार हो जाता है, तो उन दोनों के इस कृत्य को "इस्लाम" शब्द से उल्लेख किया जाता है।

“आख़िर को जब उन दोनों ने (स-ल-म) सरेंडर कर दिया।“                    (अल-साफ़्फ़ात, 37:103)

इसलिए इस्लाम में जो कुछ भी है अल्लाह के लिए है। नमाज़ अगर अल्लाह के लिए नहीं है, तो यह एक अर्थहीन उठक-बैठक है। रोज़ा अगर अल्लाह के लिए नहीं है, तो यह मात्र एक उपवास है। ज़कात और दान अगर अल्लाह के लिए है, तो दान और अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करना है, नहीं तो यह फ़ुजूलख़र्ची और बर्बादी है। युद्ध और जिहाद, अगर यह पूरी तरह से अल्लाह के लिए है, तो बेहतरीन इबादत है, अन्यथा यह उपद्रव और ख़ून-ख़राबा है। इसी तरह, इस्लाम में जितने भी कामों का आदेश दिया गया है, अगर वे अल्लाह के लिए किए जाते हैं, तो वे अच्छे और इनाम के योग्य हैं, अन्यथा वे बेकार और फलहीन हैं। और जिन कामों से इस्लाम ने मना किया है, अगर उन्हें अल्लाह की ख़ुशी के लिए न किया जाए, तो यह उपयोगी, अन्यथा निश्चित रूप से लाभहीन है।

यह महान केंद्रीकरण और एकाग्रता जो इस्लाम की व्यवस्था में देखी जाती है, उसी आदर्श का उत्पाद है। यह आकर्षण बल है जिसने इस्लामी व्यवस्था के सभी घटकों में एक बल और एक केन्द्रभिमुख झुकाव बना दिया है, जिसकी बदौलत यह व्यवस्था उसी तरह एक पूर्ण और मज़बूत व्यवस्था बन गई है, जैसी वर्तमान युग के भौतिक ज्ञान के अनुसार हमारे सौर मंडल की व्यवस्था पूर्ण और मज़बूत है। अगर यह आदर्श नहीं होता, तो इस्लाम धर्म में यह व्यवस्था भी मौजूद नहीं होती।

3. सोच और कर्म की एकाग्रता

जिस तरह इस आदर्श ने इस्लाम की धार्मिक व्यवस्था में केंद्रीयता, एकाग्रता और अनुशासन की शक्ति पैदा की है, उसी तरह यह मानवीय विचारों, इरादों आस्थाओं और कर्मों में भी पूर्ण एकाग्रता पैदा करती है। एकाग्रता के साथ यह उसका ध्यान इतने ऊँचे लक्ष्य की ओर लगा देती है कि कोई भी लक्ष्य उससे अधिक ऊँचा नहीं हो सकता। एक व्यक्ति जो केवल अपनी भौतिक इच्छाओं की संतुष्टि, या अपने मनोवैज्ञानिक लक्ष्यों की पूर्ति या अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए चिंतित है, वह कभी भी सोच और कर्म की एकाग्रता नहीं पा सकता है।क्योंकि बौद्धिक और मानसिक विकास और सैद्धांतिक और व्यावहारिक अन्वेषण के हर चरण में उसमें नई इच्छाएं पैदा होंगी और वह नई चीज़ों को अपना लक्ष्य और उद्देश्य घोषित करता रहेगा। यह किसी भी तरह से संभव नहीं है कि एक व्यक्ति, ज्ञान और बुद्धि के उच्च स्तर पर पहुंचकर भी उन्हीं शारीरिक इच्छाओं और मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक मांगों पर निर्भर रहे जो पहले के निचले चरण में उसको प्रेरित कर रही थीं। इस तरह व्यक्ति का पूरा जीवन एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए व्यतीत होगा और उसके मन में कोई भी ऐसा केंद्रीय विचार नहीं जाग पाएगा जो उसके विचारों में एक आदर्श एकाग्रता का निर्माण करे और जिसके रास्ते में वह अपनी सारी बौद्धिक और व्यावहारिक ऊर्जा ख़र्च कर सकता हो। यह गुण केवल इस्लामी आदर्श में है कि यह ज्ञान और तर्क में हर बार मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य बन सकता है और उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद इसे बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि हम जितनी भी बौद्धिक और व्यावहारिक डिग्री की कल्पना कर सकते हैं, अल्लाह उन सभी में सबसे ऊंचा है। इसके बावजूद वह सबसे निचले पायदान से लेकर उच्चतम पायदान तक सभी के साथ समान संबंध रखता है। अगर कोई अंतर है, तो वह हमारी बुद्धि और चेतना के स्तर के संदर्भ में है।

4. विशुद्ध मानव सामूहिकता का गठन

फिर, जिस तरह यह आदर्श एक व्यक्ति का आदर्श बन सकता है, यह एक समूह, एक राष्ट्र, बल्कि पूरी मानव जाति का भी आदर्श बन सकता है। इसमें व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थ का वह अवयव नहीं है, जिसकी स्वाभाविक विशेषता मानवता को जातियों और राष्ट्रों में विभाजित करना है, और फिर व्यक्तियों के भीतर विभाजित करके एक-दूसरे के प्रति विरोध, द्वेष और ईर्ष्या की भावना पैदा करना है। इसके विपरीत, यह आदर्श मनुष्य को उस इकाई की ओर आकर्षित करता है जिसके साथ सभी मनुष्यों, बल्कि पूरे संसार का एक ही संबंध है। इसमें हर आयाम और हर स्थिति में मानव लक्ष्यों में ऐसी एकता और अनुकूलता होती है कि लोगों में सहयोग और समर्थन, बढ़ता है और बंधुत्व की भावना पैदा होती है। दुनिया में जितने भौतिक लक्ष्य हैं, उनके मार्ग में कोई भी दो व्यक्ति एक-दूसरे के सच्चे सहायक नहीं हो सकते। भाई और भाई, पिता और पुत्र, माता और बेटी के लिए भी एक भौतिक लक्ष्य साझा करते हुए टकराव बल्कि दुश्मनी तक से बचना मुश्किल हो जाता है। हमने ख़ुद ख़ून के रिश्तों को टूटते देखा है। हमारी आंखों के सामने भाइयों ने भाइयों के गले काट दिये हैं। हमारी आंखों के सामने से ऐसे अनगिनत दृश्य गुज़रते रहते हैं, जहां प्रियजनों ने सांसारिक उद्देश्यों के लिए एक दूसरे के जीवन, धन, सम्मान और प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया है। ये सब उसी स्वार्थ और स्वकेंद्रीयता के प्रभाव हैं जो सांसारिक लक्ष्यों की रचना में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। लेकिन अल्लाह की सत्ता वह लक्ष्य और आदर्श है जिसकी ओर लाखों, करोड़ों लोग बिना किसी संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध के, एक साथ दौड़ सकते हैं। बल्कि, यह यात्रा एक ऐसी यात्रा है जिसमें प्रत्येक यात्री ईमानदारी से दूसरे यात्री की मदद करता है, अपने आराम पर दूसरों के आराम को प्राथमिकता देता है, और दूसरों की परेशानी के बजाय अपनी परेशानी को सहन कर लेता है। ऐश व आराम के साथ जाने के बजाय, वह सोचता है कि अपने मालिक की अधिकतम ख़ुशी प्राप्त करने के लिए अपने साथियों का बोझ उठाना, दूसरों की सेवा करना, हांफना, कांपना, थकना और पसीना बहाते हुए मंज़िल तक पहुंचना बेहतर है।

सच्चाई यह है कि नस्ल, रंग, भाषा और भौगोलिक सीमाओं के भेदों को मिटाकर एक सार्वभौमिक राष्ट्रीयता के निर्माण के लिए और एक अंतरराष्ट्रीय मानव समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी केंद्रीय कल्पना इस आदर्श में पूरी तरह से मौजूद है। इस प्रकार की सर्वव्यापी सभ्यता के लिए इससे बेहतर आदर्श नहीं हो सकता। क्योंकि यह एक ओर व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूरी तरह मिटाता भी नहीं है, और दूसरी ओर, व्यक्तित्व की सभी प्रतिकारक प्रवृत्तियों को मिटाकर उसे पूरी तरह से एक विशुद्ध मानवीय सामूहिकता में विलीन कर देता है।

5. सभी मानवीय इच्छाओं की प्राप्ति

इस आदर्श की प्रमुख विशेषताओं में से एक यह है कि एक व्यक्ति के रूप में और एक समूह के रूप में दुनिया में इंसानों के जो भी लक्ष्य हो सकते हैं, वे सभी इस लक्ष्य की प्राप्ति के साथ व्यक्ति द्वारा उन्हें अपना लक्ष्य बनाए बिना ही प्राप्त हो जाते हैं । पवित्र क़ुरआन ने एक-एक करके उन सभी चीज़ों को गिनाया है जो अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति के साथ प्राप्त हो जाती हैं।

सांसारिक जीवन में मनुष्य जो सबसे अधिक चाहता है वह है शांति, आराम और संतोष। क़ुरआन कहता है, "अल्लाह की ओर फिरो और उसकी ख़ुशी की तलाश करो, ये चीज़ें तुमको आप से आप मिल जाएंगी।"

“हाँ, जो कोई अल्लाह के अधीन हो जाता है और अच्छे कर्म करता है, उसका इनाम उसके पालनहार के पास है। ऐसे लोगों को न तो कोई डर होता है और न ही वे दुखी होते हैं। (अल-बक़रह, 2:122)

“सुन लो! दिलों को अल्लाह की याद से संतुष्टि मिलती है। (अल-राद, 13:28)

वह दूसरी चीज़ जो मनुष्य इस संसार में प्राप्त करना चाहता है, वह है सुख। यानी एक ऐसा जीवन जो दुख और चिंता से मुक्त हो। क़ुरआन कहता है कि अल्लाह पर ईमान लाने और उसके क्रोध से बचने और उसके लिए धर्मपरायणता अपनाने और अच्छे कर्म करने से, यह चीज़ भी प्राप्त हो जाती है।

“अगर इन बस्तियों के लोग ईमान लाए होते और धर्मपरायणता का पालन करते, तो हम उनके लिए आकाशों और धरती से बरकतों के द्वार खोल देते। (अल-आराफ़, 7:96)

“जो कोई अच्छे कर्म करता है, इस हाल में कि वह ईमान भी रखता हो, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हम निश्चित रूप से उसे एक सुखी जीवन देंगे, और हम ऐसे लोगों को उनके कर्म से बेहतर बदला देंगे। (अल-नहल 97:16)

तीसरी चीज़ है शासन, वर्चस्व और श्रेषठता है, जो मनुष्य की बड़ी पसन्दीदा और वांछित चीज़ है। क़ुरआन कहता है कि तुम अल्लाह के हो जाओ, यह सुख तुम्हारे चरणों में ख़ुद आ जाएगा।

“जो कोई अल्लाह और उसके रसूल और ईमान लाने वालों का दोस्त बन गया (वह अल्लाह की पार्टी में शामिल हो गया), और अल्लाह की पार्टी ही प्रबल आर प्रभावी होगी।”             (अल-माइदा, 5:56)

“और हम ने ज़बूर में नसीहत के बाद यह लिख दिया है कि धरती के उत्तराधिकारी मेरे सदाचारी बन्दे होंगे।  (अल-अन्बिया, 21:105)

“तुम में से जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम किए, अल्लाह ने उनसे वादा किया है कि वह उन्हें ज़रूर ज़मीन में ख़लीफ़ा बना देगा, जैसे उसने उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को ख़लीफ़ा बनाया था, और वह ज़रूर उनके धर्म को मज़बूती प्रदान करेगा, जिसे उसने उनके लिए चुना है और उनके भय की स्थिति के बाद उन्हें शांति प्रदान करेगा।           (अल-नूर, 24:55)

इसी तरह मृत्यु के बाद के जीवन में मुक्ति मनुष्य के लिए वांक्षित है और उसके बारे में भी क़ुरआन कहता है कि यह केवल अल्लाह की मर्ज़ी और प्रसन्नता को प्राप्त करने का परिणाम है:

“ऐ शान्त आत्मा! अपने पालनहार की ओर चल, तू उससे प्रसन्न, और वह तुझ से प्रसन्न। फिर (अल्लाह कहेगा) "तू मेरे बन्दों में से हो जा और मेरी जन्नत में प्रवेश कर जा।" (अल-फज्र, 89, 27-30)

इससे यह ज्ञात होता है कि जिन्हें दूसरों ने लक्ष्य और उद्देश्य घोषित किया है, इस्लाम ने उन बातों पर ध्यान भी नहीं दिया है बल्कि इस चीज़ को अपना लक्ष्य बनाया है, जिसे प्राप्त करने से ये सभी चीज़ें स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं। जिन चीज़ों को दूसरे लोग अपना आदर्श बताते हैं, एक मुसलमान की नज़र में वे इस लायक़ नहीं हैं कि वह अपने दिल को एक पल के लिए भी उनकी चाहत में भ्रमित होने दे। उसकी नज़र में तो एक ऐसा आदर्श है जो संसार की हर चीज़ से ऊंचा और उत्तम है। वह जानता है कि जब वह इस सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुँच जाएगा, तो वह आपसे आप वह सब कुछ प्राप्त करे लेगा जो उसके अधीन है। ठीक उसी तरह जैसे किसी इमारत की सबसे ऊपरी मंज़िल पर पहुंच जातने वाला बीच की सभी मंज़िलों को अपने पैरों के नीचे पाता है।

6. धर्मपरायणता और भलाई के कामों का प्रेरक

इस आदर्श की एक और विशेषता यह है कि इस्लाम ने धर्मपरायणता और भलाई के कामों का जो उच्च मानक स्थापित किया है, और इसके लिए आदेश और निषेध का जो नियम प्रस्तुत किया है, उसका पालन करने के लिए इनसान को तैयार करने के लिए केवल यही एक आदर्श हो सकता है।

दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि भलाई का काम इसलिए करना चाहिए क्योंकि वह भलाई है और बुराई से इसलिए बचना चाहिए क्योंकि वह बुराई है। लेकिन ऐसा कहने वाले ख़ुद भी नहीं जानते कि उनके बयान का क्या मतलब है। भलाई केवल भलाई के लिए करने का अर्थ यह है कि सभी प्रकार के लाभ से परे, भलाई अपने आप में भलाई है और यह मनुष्य का लक्ष्य बन सकती है। और इसी तरह, बुराई से केवल इसलिए बचना कि यह बुराई है, इसका मतलब यह है कि सभी नुक़सानों से अलग बुराई अपने आप में बुराई है, और उसकी प्रकृति ही ऐसी चीज़ है जिसे मनुष्य को बचना है। लेकिन वास्तव में, दुनिया में मनुष्य के लिए ऐसी कोई शुद्ध अच्छाई नहीं है जो सभी लाभों से परे अपने आप में अच्छाई हो और ऐसी कोई शुद्ध बुराई भी नहीं है जो सभी नुक़सानों से मुक्त अपने आप में बुराई हो। बल्कि यह अधिक सही है कि मानव मन में अच्छाई और बुराई की कल्पना लाभ और हानि के अनुभवों से पैदा होती है। व्यक्ति हर उस काम को बुरा कहता है जो उसके स्वयं के लिए वास्तविक नुक़सान का कारण बनता है, भले ही उसके अंदर कुछ गुण हों। अगर किसी काम को लाभ और हानि के सभी पहलुओं से अलग कर दिया जाता है और वह क्रिया मात्र एक क्रिया रह जाती है, तो हम उस पर अच्छा या बुरा कोई लेबल नहीं लगा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अच्छाई के स्थापित हो जाने और उच्च बौद्धिक स्तर तक पहुंच जाने के बाद, यह संभव है कि लोग लाभ और हानि की अवधारणा से मुक्त हो जाएं और केवल अच्छाई के लिए अच्छाई करना शुरू कर दें और बुराई से केवल केवल उसके बुरे होने के कारण बचना शुरू कर दें। लेकिन पहली बात तो यह कि यह केवल अच्छे और बुरे का भ्रम है, इसका अस्तित्व नहीं है, दूसरी बात यह है कि यह केवल दार्शनिकों की कल्पना है, जिस तक पहुंचना बड़े से बड़े दार्शनिक को भी नहीं माला। फिर भला आम आदमी अपने दैनिक जीवन में केवल भलाई को अपनाने और केवल बुराई से बचाव को अपना आदर्श कैसे बना सकता है?

इससे पता चलता है कि अच्छाई और बुराई की अवधारणा को लाभ और हानि की अवधारणा से अलग नहीं किया जा सकता है। अच्छाई अपने आप में मनुष्य तब तक नहीं समझ सकता जब तक कि उसमें कुछ लाभ छिपा न हो और बुराई को तब तक रोका नहीं जा सकता जब तक कि उसमें कुछ नुक़सान छिपा न हो। अब अगर हम धर्मपरायणता और उपकार को स्वार्थ के निम्न स्तर से निःस्वार्थता और ईमानदारी के उच्च स्तर तक बढ़ाना चाहते हैं और इसे एक ऐसे आचार संहिता का आधार बनाना चाहते हैं जो सभी लोगों के लिए मान्य हो, तो इसका सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि लाभ और क्षति का एक ऐसा मानक स्थापित किया जाए जो भौतिकता और स्वार्थ से परे हो। जिसके आधार पर, सभी भौतिक नुक़सानों से भरा होने के बावजूद, भलाई का एक-एक काम मनुष्य की दृष्टि में सभी प्रकार के लाभों से भरा हुआ दिखाई दे, और तरह-तरह के लाभों से भरा हुआ होने के बावजूद, एक बुरा काम उसे सिर से पैर तक नुक़सान महसूस हो। यह इस्लाम द्वारा अपनाई गई विधि है, इसने अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति और ग़ैर-प्राप्ति को लाभ और हानि की कसौटी के रूप में घोषित किया है, जो भौतिक प्रदुषण से पूरी तरह मुक्त है। इस मापदण्ड के अनुसार एक धर्मपरायण और भलाई के काम करने वाला इनसान, अपनी जान, माल, संतान और कीर्ति सब कुछ अल्लाह की प्रसन्नता के लिए कुर्बान कर देता है और यक़ीन रखता है कि वह फ़ायदे में है, और बुरे काम करने वाला एक व्यक्ति दुनिया के सभी भौतिक लाभ हासिल करके भी डरता है कि वह नुक़सान में है। यही चीज़ है जो व्यक्ति को सभी सांसारिक लाभों और हानियों से मुक्त होकर सच्चे इरादे से धर्मपरायणता और उपकार करने पर आमादा करती है।

अब तक दो मुद्दों की व्याख्या की जा चुकी है। एक यह कि इस्लाम ने किस चीज़ को जीवन का आदर्श घोषित किया है, दूसरा यह कि किन कारणों से वह सर्वोत्तम आदर्श है। अब हमें इस मुद्दे के तीसरे पहलू पर ग़ौर करना चाहिए, और वह यह कि इस्लामी सभ्यता को एक विशिष्ट सभ्यता बनाने में इस आदर्श की क्या भूमिका है और इसने इस सभ्यता को क्या विशेष गौरव दिया है?

तरीक़ों के अंतर में लक्ष्य निर्धारण का प्रभाव

इस बात की ओर पहले ही इशारा किया जा चुका है कि जीवन के सभी मामलों में लक्ष्य का निर्धारण ज़रूरी है, उसी तरह लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि का निर्धारण भी ज़रूरी है, और विधि का निर्धारण लक्ष्य के अनुरूप ही होना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई विशिष्ट लक्ष्य नहीं हो, और वह केवल सड़कों और गलियों की धूल छानता रहे, तो हम उसे मजनू या आवारा कहते हैं। और अगर उसका कोई लक्ष्य है, लेकिन उसकी प्राप्ति के विभिन्न तरीक़ों के बीच किसी विशेष तरीक़े का वह पालन नहीं कर रहा है, बल्कि वह किसी भी तरीक़े का पालन करने के लिए तैयार है जो उसे लगता है कि वह उसके लक्ष्य तक पहुंचता है, तो भी हम उसे मूर्ख कहते हैं। क्योंकि बुद्धि के अनुसार एक स्थान पर पहुंचने के लिए दस अलग-अलग रास्तों पर चलने की कोशिश करने वाला कभी मंज़िल तक नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति किसी चीज़ को अपना लक्ष्य घोषित कर देता है और विपरीत दिशा में जाने वाले रास्ते को अपना लेता है तो हम उसे बुद्धिमानी नहीं समझते हैं। क्योंकि वह उस की तरह है जो काबा जाने के लिए तुर्किस्तान की सड़क पर चल रहा है। अतः व्यक्ति की व्यावहारिक सफलता के लिए यह ज़रूरी है कि वह पहले एक लक्ष्य निर्धारित करे, फिर अपने इरादों और प्रयासों को उसी लक्ष्य की ओर मोड़ दे, और अगर उस लक्ष्य तक पहुँचने के कई रास्ते हैं, तो उनमें से एक ऐसा रास्ता अपनाए जो उसके अनुसार सबसे अच्छा है और अन्य सभी रास्तों को छोड़ दे।

यह त्यागने और अपनाने का ज्ञान है। उद्देश्य निर्धारित करने का तार्किक परिणाम यह है कि उस उद्देश्य के लिए विशेष रूप से उपयुक्त विधि को अपनाया जाए और अन्य सभी विधियों को छोड़ दिया जाए। जब एक बुद्धिमान व्यक्ति यात्रा करता है, तो वह उस मार्ग को अपनाता है जो गंतव्य तक जाने वाले मार्गों में सबसे अच्छा हो। इसके अलावा वह यात्रा के दौरान मिलने वाले अन्य बीस रास्तों पर ध्यान भी नहीं देता। एक बुद्धिमान छात्र अपने लिए ज्ञान की उस शाखा को चुनता है जो उसके उद्देश्य की खोज में सबसे अधिक सहायक हो। वह अपना समय और दिमाग़ अन्य क्षेत्रों में ख़र्च करना पसंद नहीं करता है जो उससे संबंधित नहीं हैं। एक चतुर व्यवसायी व्यवसाय का वह तरीक़ा चुनता है जो उसके लिए आय का सबसे अच्छा स्रोत हो। हर काम में अपनी पूंजी लगाना और हर पेशे में अपना श्रम ख़र्च करना मूर्खता है। त्याग की इस प्रक्रिया पर एक आलोचक केवल इस आधार पर चर्चा कर सकता है कि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लिया गया यह मार्ग सबसे अच्छा है या नहीं। लेकिन त्यागने और चुनने पर कोई आपत्ति संभव नहीं है।

यह सिद्धांत जैसे जीवन के आंशिक मामलों पर लागू होता है, वैसे ही यह पूरे जीवन पर भी लागू होता है। अगर किसी व्यक्ति का अपने जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है, या दूसरे शब्दों में, उसके जीने का उद्देश्य केवल जीना है, तो वह जिस तरह से जीना चाहता है उसे चुनने के लिए स्वतंत्र है। उसके लिए अच्छे-बुरे, सही-ग़लत, ऊंच-नीच का भेद व्यर्थ है। वह अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों को किसी भी तरह से पूरा कर सकता है। बाहरी कारक उसे एक निश्चित पद्धति का पालन करने के लिए मजबूर भी करें तो वे उसके जीवन को किसी अनुशासन और विनियमन के तहत लाने में प्रभावी नहीं हो सकते, क्योंकि अनुशासन के लिए कोई प्रेरणा स्वयं उसमें मौजूद नहीं होगी। दूसरी ओर, अगर उसके सामने जीवन का लक्ष्य है, या अधिक सही शब्दों में, अगर उसके पास जीवन के भौतिक लक्ष्य से परे एक बौद्धिक मानवीय लक्ष्य है, तो वह निश्चित रूप से तरीक़ों के बीच अंतर करेगा और अगर वास्तव में वह एक समझदार व्यक्ति है, तो उसके लिए जीवन के विभिन्न तरीक़ों में से एक को चुनना ज़रूरी होगा जो उसके उद्देश्य के लिए अधिक उपयुक्त हो। एक लक्ष्य निर्धारित कर लेने के बाद, उसके लिए यह किसी भी तरह से उचित नहीं होगा कि वह तरीक़ों के चुनाव में उसी स्वतंत्रता का प्रयोग करे जो एक लक्ष्यहीन व्यक्ति करता है।

अब इस नियम को थोड़ा विस्तार दें। व्यक्ति के बजाय समुदाय को देखें। यही नियम समान रूप से व्यक्तियों के समुदायों पर लागू होता है। जब तक कोई समाज सभ्यता के प्रारंभिक चरण में होता है, और जीवन के भौतिक लक्ष्यों से बढ़कर कोई उद्देश्य उसके सामने नहीं होता है, वह एक उद्देश्यहीन व्यक्ति की तरह अपने तरीक़ों से मुक्त रहता है। लेकिन जब बौद्धिक विकास के उच्च स्तर पर पहुँच कर, उसमें एक सभ्यता का विकसित होती है, और वह सभ्यता उसके लिए सामूहिक जीवन का एक तर्कसंगत लक्ष्य निर्धारित करती है, तो यह अपरिहार्य हो जाता है कि उस लक्ष्य के अनुरूप आस्थाओं, अवधारणाओं, मामलों, नैतिकता, समाज, अर्थव्यवस्था आदि के लिए एक व्यवस्था तैयार की जाए, सभ्यता के मानने वालों को उस व्यवस्था का पालनकर्ता बनाया जाए, और उन्हें इसकी अनुमति न दी राए कि वे इस सर्कल में रहते हुए, किसी ऐसी आस्था और अभ्यास को अपनाएं जो इस व्यवस्था से बाहर हो।

अपनी संहिता की रक्षा के लिए सख़्ती करना सभ्यता का स्वभाव है। इस क्षेत्र में, जिस सभ्यता की पकड़ ढीली होगी, और जिसमें कमज़ोरी पायी जाएगी, वह जीवित ही नहीं रह सकती, क्योंकि सभ्यता का अस्तित्व इस पर निर्भर करता है कि आस्था और कर्म की व्यवस्था उसने तैयार की है, इसके मानने वाले उसका पालन करें। जब मानने वाले उसका पालन ही नहीं करेंगे और इस व्यवस्था के बाहर की अवधारणाएं और तरीक़े उनके दिमाग़ और उनके व्यावहारिक जीवन पर क़ब्ज़ा कर लेंगे तो सभ्यता का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होगा। इसलिए, एक सभ्यता अपने अनुयायियों से उस व्यवस्था के पालन की मांग करने और अन्य बाहरी व्यवस्थाओं से अलग होने पर ज़ोर देने के मामले में बिल्कुल सही है। आलोचक अगर कुछ आपत्ति कर सकता है, तो वह केवल उद्देश्य के सही या ग़लत होने पर कर सकता है, या इस पर कि यह विशेष विधि इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त है या नहीं, या सभी परिस्थितियों में व्यवस्था का पालन किया जा सकता है या नहीं। लेकिन वह यह नहीं कह सकता कि इस सभ्यता को अपने अनुयायियों से उस व्यवस्था के पालन की मांग करने का कोई अधिकार नहीं है जिसे उसने तैयार किया है।

फिर जब यह नियम सिद्ध हो गया है कि मानसिक और व्यावहारिक जीवन के लिए जो विशिष्ट विधियाँ और तरीक़े निर्धारित किए जाते हैं, वे वास्तविक लक्ष्य की प्रकृति के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं, और लक्ष्य के अंतर से तरीक़ों का अलग होना ज़रूरी है, तो यह भी स्वीकार करना होगा कि जो सभ्यताएं अपने लक्ष्यों के आधार पर भिन्न हैं, उनकी मान्यताएं और व्यावहारिक व्यवस्थाएं अनिवार्य रूप से एक दूसरे से भिन्न होनी चाहिए। यह संभव है कि वे व्यवस्थाएं अपने कुछ घटकों में एक-दूसरे के समान हों, और यह संभव है कि एक व्यवस्था में कुछ विवरण दूसरी व्यवस्था से आए हों, लेकिन न तो आंशिक समानताएँ पूर्ण अनुरूपता का प्रमाण हैं, और न ही कुछ आंशिक चीज़ों का उधार लेना कुल उधार लेने का प्रमाण है।

इसी मूल से दो नियम और निकलते हैं:

एक यह कि एक विशिष्ट उद्देश्य रखने वाली सभ्यता की व्यवस्था को परखने के लिए एक अलग उद्देश्य वाली दूसरी सभ्यता की व्यवस्था को मानक नहीं बनाया जा सकता है। यानी आलोचना का यह तरीक़ा सही नहीं है कि यह व्यवस्था अगर इस व्यवस्था के अनुकूल है तो सही है, नहीं तो ग़लत है।

दूसरी बात यह कि किसी सभ्यता को बाक़ी रखते हुए उसकी वैचारिक और व्यवहारिक व्यवस्था को दूसरी व्यवस्था से बदला नहीं जा सकता और न ही एक व्यवस्था के बुनियादी घटकों को दूसरी व्यवस्था में गडमड किया जा सकता है। जो व्यक्ति इस तरह की मिलावट को सही मानता है वह सभ्यता के सिद्धांतों से अनभिज्ञ है और इसकी प्रकृति को समझने में सक्षम नहीं है।

इस्लामी सभ्यता के गठन में उसके आदर्श का एक हिस्सा

इन मामलों पर विचार करने के बाद आप समझ सकते हैं कि इस्लामी सभ्यता को पूरी तरह से अलग और विशिषिट सभ्यता बनाने में उसके आदर्श की क्या भूमिका है। पिछली चर्चाओं में विस्तार से बताया जा चुका है कि इस्लाम द्वारा निर्धारित जीवन के आदर्श अन्य धर्मों और अन्य सभ्यताओं के आदर्शों से मूलत: भिन्न हैं। और यह भी सिद्ध हो चुका है कि उद्देश्य का अंतर आस्था और कर्म की व्यवस्था में मूलभूत अंतर की ओर ले जाता है। इसलिए इसका तार्किक निष्कर्ष यह है कि इस्लाम के आदर्शों ने इसे एक विशिष्ट सभ्यता बना दिया है जो अन्य सभ्यताओं से मौलिक रूप से भिन्न है और जिसकी आस्था और कर्म की व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से मौलिक रूप से भिन्न है। यह संभव है कि इस व्यवस्था के कुछ घटक अन्य व्यवस्थाओं में पाए जाते हों, लेकिन वे घटक यहां ठीक उसी तरह सूचीबद्ध नहीं हैं जैसे वे अन्य व्यवस्थाओं में सूचीबद्ध हैं। एक व्यवस्था में शामिल होने के बाद, अवयव अपनी इकाई की प्रकृति को खो देता है और समग्र की प्रकृति ग्रहण कर लेता है, और जब एक कुल की प्रकृति दूसरे कुल से भिन्न होती है, तो उसके प्रत्येक अवयव की प्रकृति भी दूसरे के अवयव की प्रकृति से भिन्न होगी। दूसरे के प्रत्येक भाग का कोई अन्तर नहीं पड़ता कि इसके कुछ घटक दूसरों के कुछ घटकों के समान हैं।

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, इस्लाम ने दुनिया में मनुष्य को अल्लाह का प्रतिनिधि घोषित किया है और उसके जीवन का उद्देश्य यह निर्धारित किया है जिस स्वामी का वह प्रतिनिधि है उस की मर्ज़ी के अनुसार चले। चूँकि यह उसके जीवन का लक्ष्य है, इसलिए ज़रूरी है कि उसके जीवन के सभी कार्य इसी लक्ष्य की दिशा में हों। इस लक्ष्य के मार्ग में उसकी आत्मा और उसके शरीर की सभी शक्तियों को लगना चाहिए। उसके विचार और उसकी सक्रियताएं इसी लक्ष्य से संचालित होनी चाहिए। उसका जीना और मरना, उसका सोना और जागना, उसका खाना-पीना, उसके संपर्क और रिश्ते, उसकी दोस्ती और दुश्मनी, उसकी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां, यानी उसके पास जो कुछ भी है वह इसी एक उद्देश्य के लिए हो, और यह लक्ष्य उस में इस तरह से व्याप्त हो जैसे यही उसकी आत्मा है जिससे वह जीवित और सक्रिय है। अब यह स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति के जीवन में एक उद्देश्य है, और वह उस उद्देश्य के लिए जीता है, वह उस व्यक्ति की तरह नहीं हो सकता जिसका कोई उद्देश्य नहीं है या अगर हो भी, तो वह उस उद्देश्य से अलग हो। यह उद्देश्य तो अपने स्वभाव से ही, मनुष्य को एक सक्रिय कार्यकर्ता में बदल देता है। एक ऐसा कार्यकर्ता जो केवल अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीता है। तो इस लक्ष्य को निर्धारित करने के बाद, इस्लाम जीने के विभिन्न तरीक़ों में से एक विशेष तरीक़ा चुनता है और मनुष्य को मजबूर करता है कि वह उस तरीक़े से अलग किसी अन्य तरीक़े पर अपना क़ीमती समय और अपनी ऊर्जा बर्बाद न करे। वह इस लक्ष्य की प्रकृति के अनुसार आस्थाओं और कर्मों की एक अलग व्यवस्था तैयार करता है और व्यक्ति से किसी भी परिस्थिति में इस विशेष व्यवस्था से बाहर नहीं जाने की मांग करता है। वह इस व्यवस्था को पूर्ण आज्ञाकारिता के रूप में वर्णित करता है, इसलिए इसका नाम ही "दीन" रख देता है जिसका अर्थ पूर्ण आज्ञाकारिता और समर्पन है। वह कहता है:

“अल्लाह के नज़दीक दीन केवल इस्लाम ही है। (आले-इमरान, 3:19)

इसी दीन के आधार पर वह अपने मानने वालों और न मानने वालों के बीच अंतर करता है। जो लोग इस विशेष उद्देश्य के लिए इस धार्मिक व्यवस्था का पालन करते हैं उन्हें मुसलमान (आज्ञाकारी) और मोमिन (मानने वाला) कहा जाता है, और जो इस उद्देश्य से सहमत नहीं होते हैं और इस धार्मिक व्यवस्था का पालन नहीं करते हैं उन्हें 'काफ़िर' (इन्कार करने वाला) कहा जाता है। वह जाति, राष्ट्र, भाषा, मातृभूमि और इस तरह के अन्य सभी भेदों को मिटा देता है और आदम के बच्चों में अविश्वास और विश्वास का केवल यही भेद स्थापित करता है। जो कोई उसकी व्यवस्था का पालन करता है, वह उसका अपना है, चाहे वह पूर्व में हो या पश्चिम में, और जो उसकी व्यवस्था का पालन नहीं करता है वह विदेशी है, भले ही वह काबा की दीवार के नीचे ही क्यों न रहता हो, और उसका शरीर मक्का की खजूर और ज़मज़म के पानी से ही क्यों न बना हो?

जिस प्रकार उस ने विश्वास और कर्म के आधार पर लोगों के बीच "अविश्वास" और "विश्वास" का अंतर स्थापित किया है, उसी तरह उसने जीने के तरीक़ों और दुनिया की सभी चीज़ों के बीच हलाल-हराम, जायज़-नाजायज, मकरूह और मुस्तहब का अंतर स्थापित किया है। जो काम और तरीक़े इस लक्ष्य की प्राप्ति और ख़िलाफ़त के दायित्वों की पूर्ति में सहायक वे अपनी स्थिति के आधार पर मुस्तहब या हलाल या जायज़ (अनुमेय) हैं। और जो इसमें प्रतिरोधी और बाधित हैं, वे अपनी स्थिति के अनुसार मकरूह (घृणित) या नाजायज़ (अस्वीकार्य) या हराम (निषिद्ध) हैं। जो ईमान वाला इस भेद का सम्मान करता है वह मुत्तक़ी (धर्मपरायण) व्यक्ति है और जो व्यक्ति इसका सम्मान नहीं करता है वह एक फ़ासिक़ (उल्लंघनकर्ता) है। अल्लाह की पार्टी के लोगों में ऊँच-नीच का भेद-भाव दौलत और समृद्धि, या वंश, या सामाजिक स्थिति, या काले या गोरे रंग के आधार पर नहीं, बल्कि केवल "तक़वा" के आधार पर किया जाता है:

“वास्तव में, अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे अधिक सम्मानित वह है जो तुम में सबसे  ज़्यादा तक़वा वाला है। (हुजुरात, 49:13)

इस तरह सोच और विचार, गुण और नैतिकता सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था सभ्यता और संस्कृति, राजनीति और शासन, यानी मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में इस्लामी सभ्यता का मार्ग अन्य सभ्यताओं के मार्ग से अलग हो जाता है। जीवन के प्रति इस्लाम का दृष्टिकोण अन्य सभ्यताओं के दृष्टिकोण से भिन्न है। इस्लाम के अनुसार जीवन का उद्देश्य अन्य सभ्यताओं द्वारा निर्धारित उद्देश्य से भिन्न है। इसलिए इस्लाम जिस तरह से अपनी विचारधारा के अनुसार दुनिया के साथ व्यवहार करता है, और जिस तरह से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सांसारिक जीवन में जो तरीक़ा अपनाता है, वह भी मूल रूप से अन्य सभ्यताओं द्वारा अपनाए गए तरीक़े और पद्धति से अलग है।

मन के कई विचार और अवधारणाएं हैं, इच्छा के कई झुकाव और प्रवृत्तियां हैं, और जीने के कई तरीक़े हैं, जो अन्य सभ्यताओं के अनुसार न केवल अनुमेय हैं, बल्कि कभी-कभी वांक्षित हैं, लेकिन इस्लाम उन्हें नाजायज़ और घृणित और कुछ स्थितियों में हराम मानता है। इस लिए कि वे उन सभ्यताओं के जीवन की अवधारणा के बिल्कुल अनुकूल हैं और उनके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हैं, लेकिन उन्हें इस्लाम के जीवन की अवधारणा से कोई लगाव नहीं है या वे इसके जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा हैं।

उदाहरण के लिए, ललित कला दुनिया की कई सभ्यताओं में संस्कृति की जान है, और जो इन कलाओं में उच्च कौशल रखते हैं उन्हें राष्ट्रीय नायकों का दर्जा मिलता है, लेकिन इस्लाम उनमें से कुछ को प्रतिबंधित करता है, कुछ घृणित हैं, और कुछ की सीमित अनुमति देता है। इस के क़ानून में, ललित कला और कृत्रिम सौंदर्य का आनंद लेने की अनुमति केवल उस हद तक दी जाती है कि मनुष्य उसके साथ अल्लाह को भी याद कर सके, उसकी ख़ुशी प्राप्त करने के लिए काम कर सके, और ख़िलाफ़त के अपने दायित्वों को पूरा कर सके। लेकिन जिस स्थान पर यह आनंद कर्तव्य की भावना पर विजय प्राप्त कर लेता है, जहां आनंद की इच्छा व्यक्ति को ख़ुदा के बजाय सौंदर्य का भक्त बना देती है, जहां ललित कला का स्वाद इतना प्रभावशाली हो जाता है कि बुद्धि की पकड़ ढीली पड़ जाती है और दिल के कान अंतरात्मा की आवाज़ के लिए बहरे हो जाते हैं और कर्तव्य की पुकार के लिए आज्ञाकारिता नहीं रह जाती है, उस सीमा पर इस्लाम घृणित और वर्जित की रुकावट लगा देता है। क्योंकि उसका उद्देश्य तानसेन, पिकासो और चार्ली चैपलिन पैदा करना नहीं है, बल्कि वह अबूबक्र सिद्दीक़ और उमर फारूक़, अली इब्न अबी तालिब और हुसैन इब्न अली, अबूज़र ग़िफ़री और राबिया बसरी पैदा करना चाहता है।

यही हाल समाज और संस्कृति और कई अन्य मामलों का भी है, जिनका विवरण उपरोक्त उदाहरण से निकाला जा सकता है। विशेष रूप से, इस्लाम जिस तरह से पुरुषों और महिलाओं के संबंधों, अमीरों और ग़रीबों के मामलों, राजा और प्रजा के संबंधों और मानव वर्गों के पारस्परिक व्यवहार से संबंधित इस्लाम का तरीक़ा सभी प्राचीन और आधुनिक सभ्यताओं के तरीक़ों से मौलिक रूप से अलग है। इस संबंध में अन्य सभ्यताओं की व्यवस्था को मानक मानना और उस पर इस्लाम की व्यवस्था का मूल्यांकन करने की कोशिश करना बिल्कुल ग़लत है। जो लोग ऐसा करते हैं वे केवल एक पक्ष देखने वाले और सच्चाई से अनभिज्ञ होते हैं।

अध्याय तीन:

मौलिक विचार और ईमान

1. ईमान की वास्तविकता और उसका महत्व

चरित्र और उसका मानसिक आधार

कर्म की व्यवस्था की पहली शर्त

ईमान का अर्थ

सभ्यता की स्थापना में ईमान की भूमिका

दो तरह का ईमान:

  1. धार्मिक ईमान  2. सांसारिक ईमान

    कुछ सिद्धांत

2. इस्लाम के ईमान

  बौद्धिक आलोचना

  इस्लाम में ईमान का महत्व

  कर्म पर ईमान की प्रधानता

  सार

  एक आपत्ति

  आपत्ति की छानबीन

3. अल्लाह पर ईमान

अल्लाह पर ईमान का महत्व

अल्लाह पर ईमान की विस्तृत मान्यता

अल्लाह पर ईमान के नैतिक लाभ:

1. दृष्टिकोण की व्यापकता

2. स्वाभिमान

3. विनम्रता

4. झूठी उम्मीदों का विरोध

5. आशावाद और संतुष्टि

6. धैर्य और भरोसा

7. वीरता

8-हृद्य की ऊदारता

9. नैतिक सुधार और कर्म की व्यवस्था

4. फ़रिश्तों पर ईमान

फ़रिश्तों पर ईमान का उद्देश्य

फ़रिश्तों की वास्तविकता

    मनुष्य और फ़रिश्तों की अतिरिक्त स्थिति

5. रसूलों (अल्लाह के संदेशवाहकों) पर ईमान

    रिसालत (संदेशवाहन) की वास्तविकता

    रसूलों और आम सुधारकों के बीच अंतर

अल्लाह पर ईमान और रसूल पर ईमान का संबंध

कलिमा की एकता

रसूल की आज्ञापालन और नुसरण

रिसालत के अक़ीदे (मान्यता) का महत्व

मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के विशिष्ट गुण

पिछली नुबूवतों (ईसदूतत्वों) और मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत का अंतर

सामान्य आह्वाण

दीन (धर्म) की पूर्ति

पिछले दीनों निरस्तीकरण

नुबूवत का अंत

मुहम्मद (सल्ल.) की आस्था के घटक

6. अल्लाह की किताबों पर ईमान

रिसालत और किताब का संबंध

दीपक और मार्गदर्शक का क़ुरआनी उदाहरण

अल्लाह की सभी किताबों पर ईमान

केवल क़ुरआन का अनुसरण

क़ुरआन के बारे में विस्तृत आस्था

जामिया इस्लामी की आधारशिला

7. अंतिम दिन रक ईमान

कुछ स्वभाविक प्रश्न

परलोक के जीवन का इनकार

चरित्र पर परलोक के इनकार का प्रभाव

पुनर्जन्म का सिद्धांत

बौद्धिक आलोचना

सभ्यता पर पुनर्जन्म का मान्यता का प्रभाव

परलोक के जीवन की अवधारणा

बौद्धिक शोध का सही तरीक़ा

परलोक के जीवन पर इनकारियों की आपत्ति

क़ुरआन की तर्क शैली

परलोक के जीवन पर संभावना

संसार की व्यवसअथा एक बौद्धिक व्यवस्था है

बौद्धिक व्यवस्था लक्ष्यहीन नहीं हो सकती

बौद्धिकता के आधार पर विश्व व्यवस्था का अंत क्या होना चाहिए?

विश्व व्यवस्था का अंत

परलोक के जीवन की व्यवस्था क्या होगी?

आख़िरी दिन पर आस्था की ज़रूरत

दुनिया पर आख़िरत की प्राथमिकता

कर्मपत्र और अदालत

आख़िरी दिन पर आस्था का लाभ

8. इस्लामी सभ्यता में ईमान का महत्व

    ईमान का अवलोकन

    इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा

    इस्लामी सभ्यता में ईमान का महत्व

    निफ़ाक़ (पाखंड/कपटाचार) का ख़तरा

अनुबंध:

मौत के बाद जीवन

मौलिक विचार और ईमान

1. ईमान की वास्तविकता और उसका महत्व

जीवन के सिद्धांत और जीवन के उद्देश्य से गुज़रने के बाद अब तीसरा प्रश्न हमारे सामने आता है और वह यह कि इस्लाम ने मानव चरित्र की रचना किस आधार पर की है?

चरित्र और उसका मानसिक आधार

मनुष्य के सभी कार्यों का स्रोत उसका मस्तिष्क है। कर्मों का स्रोत बिन्दु होने के रूप में मस्तिष्क की दो अवस्थाएँ होती हैं: एक यह कि इसमें कोई विशेष तरह के विचार स्थापित न हों। अलग-अलग, बिखरे हुए विचार आते रहें और उनमें जो विचार भी प्रबल हो, वही क्रिया के लिए प्रेरक बन जाएं। दूसरी हालत यह है कि वह बिखरी हुई कल्पनाओं का आसन न बने, बल्कि उसमें कुछ विशेष विचार इस तरह स्थापित हों कि उनका व्यावहारिक जीवन निरंतर उनके प्रभाव में रहे, और वह उल्टे-सीधे काम करने के बजाय व्यवस्थित और अनुशासित काम किया करे। हम पहली हालत की तुलना उस सड़क से करते हैं जो बिना किसी प्रतिबंध के सभी यातायात के लिए खुली हो। दूसरी स्थिति एक साँचे की तरह है जिसमें से हमेशा एक निश्चित आकार और रूप के पुर्ज़े ढल कर निकलते हैं। जब मानव मस्तिष्क पहली अवस्था में होता है, तो हम कहते हैं कि उसका कोई चरित्र नहीं है। वह शैतान भी हो सकता है और फ़रिश्ता भी। उसके स्वभाव में विचलन है। यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि वह कब किस तरह के काम करेगा। इसके विपरीत, जब वह दूसरी हालत में आ जाता है, तो हम कहते हैं कि इसका अपना एक चरित्र है। उसके व्यावहारिक जीवन में एक व्यवस्था है। एक क्रम है। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वह किन परिस्थितियों में क्या कार्रवाई करेगा।

कर्म की व्यवस्था की पहली शर्त

अतः यह ज्ञात हुआ कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन की एक विश्वसनीय व्यवस्था एक स्थायी चरित्र के निर्माण पर निर्भर करती है, और चरित्र का निर्माण इस बात पर निर्भर करता है कि उसका दिमाग़ विचारों के बिखराव की स्थिति से निकल जाए और कुछ विशिष्ट विचार उसमें स्थापित हो जाएं और उन विचारों में ऐसा प्रभाव, इतनी एकाग्रता, इतनी ताक़त हो, कि वे किसी अन्य तरह के विचारों को आने और मस्तिष्क की दुनिया में अराजकता पैदा करने का मौक़ा न दें। इन विचारों की जड़ें जितनी गहरी होंगी, चरित्र उतना ही मज़बूत होगा, और मनुष्य का व्यावहारिक जीवन उतना ही व्यवस्थित और विश्वसनीय होगा। इसके विपरीत, वे जितने कमज़ोर होंगे, उनमें विरोधी विचारों को रास्ता देने की क्षमता जितनी अधिक होगी, उतना ही चरित्र भी कमज़ोर होगा और व्यावहारिक जीवन भी उतना ही अव्यवस्थित और अविश्वसनीय हो जाएगा।

ईमान का अर्थ

क़ुरआन की शब्दावली में मानव चरित्र के इस मानसिक आधार का नाम “ईमान” है। ईमान शब्द 'अमन' से बना है। उसका का वास्तविक अर्थ आत्मसंतुष्ट और भयमुक्त हो जाना है। इसी से ‘अमानत’ बना है, जो ‘विश्वासघात’ का विलोम है। यानी अमानत वह है जिसमें विश्वासघात का भय न हो। ‘अमीन’ को अमीन इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अच्छे रवैये पर दिल ठुक जाता है।

इसी मूल से “ईमान” (विश्वास) बना है। इस का तात्पर्य यह है कि अपने अंदर कोई बात इस तरह जमा ली जाए कि अब उसके ख़िलाफ़ किसी बात के उसमें प्रवेश करने का कोई डर ही न रहे। ईमान के कमज़ोर होने का अर्थ है कि दिमाग़ इस बात से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है, हृदय पूरी तरह से शांत नहीं हुआ है, इसके विपरीत बातों को भी मन में प्रवेश करने का मौक़ा मिल गया है। इससे चरित्र कमज़ोर हो गया और उसने व्यावहारिक जीवन में अव्यवस्था पैदा कर दी। मज़बूत ईमान (दृढ़ विश्वास) का अर्थ यह है कि चरित्र एक ठोस और निश्चित आधार पर स्थापित हो गया है, अब यह विश्वास किया जा सकता है कि व्यवहार ठीक उसी कल्पना और अवधारणा के अनुसार सामने आएंगे जो हृदय में जमी हुई है और जिससे चरित्र का साँचा विकसित हुआ है।

सभ्यता की स्थापना में ईमान की भूमिका

अगर अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह के विश्वासों और विचारों को मानते हैं और उनका जीवन अलग-अलग और विरोधाभासी आधारों पर स्थापित होता है, तो कोई सामूहिक निकाय नहीं बन सकता। उनका उदाहरण मैदान में बिखरे हुए कई पत्थरों की तरह होगा। प्रत्येक पत्थर निस्संदेह अपनी जगह मज़बूत है, लेकिन उनके बीच कोई संबंध नहीं है। दूसरी ओर, अगर एक ही सामान्य कल्पना कई लोगों के दिलों में ईमान बन कर जम जाए, तो साझा विश्वास का बंधन उन्हें एक क़ौम बना देगा। मानो वही पत्थर जो बिखरे हुए थे, चूने से जोड़ दिए गए और एक मज़बूत दीवार बन गई। अब उनके बीच सहयोग शुरू होगा जिससे विकास की गति तेज़ होगी। एक तरह का ईमान उनके जीवन में सामंजस्य और उनके कार्यों में एकरूपता पैदा करेगा। यह एक विशेष संस्कृति का निर्माण करेगा। सभ्यता में एक विशेष वैभव दिखाई देगा। नई जीवन शैली, नई मानसिकता, नए विचार, काम करने के नए तरीक़े के साथ एक नयी क़ौम पैदा होगी और एक नए तरीक़े से अपनी सभ्यता का निर्माण करेगी।

आप समझ गए होंगे कि एक सभ्यता में इस बुनियादी विचार की क्या स्थिति है जो सामूहिक रूप से इस सभ्यता के माननेवालों के बीच ईमान बन कर जम जाए।

दो तरह की ईमान

अब देखना चाहिए कि ईमान की दृष्टि से विश्व की विभिन्न सभ्यताओं का क्या हाल है। ईमान शब्द वास्तव में एक धार्मिक शब्दावली है, लेकिन चूंकि यहां इसे हम बुनियादी विचार के अर्थ में बोल रहे हैं, इसलिए इस अर्थ में दो तरह की ईमान को परिभाषित किया जा सकता है। एक ईमान जिसमें धार्मिक प्रकृति होती है। धार्मिक प्रकृति वाला ईमान केवल उसी सभ्यता का आधार बन सकता है, जो धर्म पर आधारित हो क्योंकि इस हालत में एक ही ईमान धर्मिक और सांसारिक दोनों मामलों पर शासन करता है। लेकिन ऐसी सभ्यता में जो धर्म पर आधारित नहीं है, सांसारिक ईमान धार्मिक ईमान से अलग हो जाता है और धार्मिक ईमान का व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

  1. धार्मिक ईमान

धार्मिक ईमान आम तौर पर उन मुद्दों पर आधारित होता है जो आध्यात्मिक और नैतिक बुनियादों पर मानव चरित्र का निर्माण करते हैं। उदाहरण के लिए, एक या अधिक उपास्य जिनमें विशिष्ट गुण दिखाए गए हों, किताबें, जिनका ईश्वरीय होना स्वीकार किया गया हो, धर्मगुरु जिनकी शिक्षाओं और तरीक़ों पर मान्यताओं और प्रचलनों की आधारशिला रखी गई हो, धार्मिक दृष्टिकोण को छोड़कर विशुद्ध सांसारिक दृष्टिकोण से इस तरह के ईमान की सफलता दो बातों पर निर्भर करती है। एक यह है कि जिन मामलों को धर्म सत्यापित करने और विश्वास करने की मांग करता है, उन्हें तर्कसंगत रूप से सत्यापित किया जाना चाहिए। दूसरा यह है कि वे ऐसे मुद्दे हों जिनके आधार पर मानव चरित्र का सही निर्माण किया जा सके। यानी उन्हें चरित्र ऐसा बनाना चाहिए कि उसकी आध्यात्मिकता उच्च स्तर की नैतिकता की स्थापना करे और उसकी नैतिकता और पवित्रता सांसारिक जीवन में भी सफलता के लिए अनुकूल हो।

पहली शर्त इसलिए ज़रूरी है कि अगर आस्थाएं केवल भ्रमों का एक संग्रह हों, या अगर उनमें भ्रम अधिक तार्किकता कम हो, तो मानव मन पर उनको थोपना पूर्ण अज्ञानता का संकेत होगा। जैसे ही मनुष्य ने बौद्धिक विकास के उच्च चरणों की ओर कदम बढ़ाया, झूठे भ्रमों का जादू टूटने लगेगा, ईमान की नींव हिलने लगेगी और साथ ही साथ आध्यात्मिकता और नैतिकता की पूरी व्यवस्था भी धराशाई हो जाएगी, जिस पर व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र की नींव रखी गई थीं। इसके उदाहरण के रूप में, हम उन मान्यताओं का हवाला दे सकते हैं जो विभिन्न बहुदेववादी धर्मों में देवी-देवताओं, और धर्मगुरुओं के बारे में पेश की गई हैं। उन्हें जिन गुणों से परिपूर्ण और जिन कामों को करने वाला दिखाया गया है, जो किंवदंतियां उनके बारे में गढ़ी गई हैं, वे ऐसी हैं कि बुद्धि उनकी पुष्टि करने और उन पर विश्वास करने से इनकार करती है। अक्सर ऐसा होता है कि जो राष्ट्र इन पर विश्वास करता है, वह विकसित नहीं हो पाता है। मिथ्या भ्रम का उसके मन पर इतना बुरा प्रभाव पड़ता है कि कर्म की शक्तियाँ ठिठुर कर रह जाती हैं। न मनोबल में वृद्धि होती है, न महत्वाकांक्षा में तीव्रता आती है, न दृष्टि में उदारता, न मन में प्रकाश, न हृदय में साहस। अन्त में यही चीज़ें उस क़ौम के लिए पिछड़ेपन, अपमान और दासता का कारण बन जाती हैं। इसके विपरीत जिन राष्ट्रों पर किसी अन्य कारण से विकास के मार्ग खुलते हैं, वे बुद्धि और ज्ञान के मामले में जैसे-जैसे प्रगति करते हैं, उनका अपने देवी, देवताओं और नेताओं में विश्वास उठता जाता है। पहले तो वे सामूहिक व्यवस्था की रक्षा के लिए उन झूठी मान्यताओं को बनाए रखने का प्रयास करते हैं। लेकिन धीरे-धीरे उनके ख़िलाफ़ दिल और दिमाग़ का विद्रोह इतना तीव्र हो जाता है कि अंत में उनकी पकड़ ढीली पड़ जाती है। केवल एक छोटा आध्यात्मिक समूह उनमें वास्तविक या पेशेवराना यक़ीन रखने के लिए छोड़ दिया जाता है और बाकी देश पर एक दूसरे ईमान का प्रभुत्व हो जाता है, जिसे हमने सांसारिक ईमान के रूप में परिभाषित किया है।

दूसरी शर्त की ज़रूरत स्पष्ट है। जो आस्थाएं व्यक्ति को सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए तैयार नहीं कर सकती, उनका प्रभाव केवल आध्यात्मिक और नैतिक जीवन तक ही सीमित रहता है। भौतिक जीवन तक नहीं पहुंचता। नतीजतन, या तो जो राष्ट्र उन पर विश्वास करता है, वह विकसित नहीं हो पाता, या अगर विकसित होता है, तो बहुत जल्द उनकी पकड़ से बाहर हो जाता है । धर्म का ईमान सभ्यता के ईमान के लिए रास्ता ख़ाली कर देता है। जब भौतिक क्षेत्र में राष्ट्र के प्रयास में वृद्धि होती है तो नैतिकता और आध्यात्मिकता भी धार्मिक विश्वासों के प्रभाव से मुक्त हो जाती है।

मैं जानबूझकर किसी धर्म की आलोचना नहीं करना चाहता, इसलिए मैं विभिन्न धर्मों की मान्यताओं के बारे में विस्तार से बात नहीं करूंगा। अगर आप धर्मों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करते हैं, तो आपको स्वयं पता चल जाएगा कि कैसे कुछ धर्मों की मान्यताओं ने अपने अनुयायियों को सांसारिक जीवन में आगे बढ़ने से रोका है और कैसे धर्मों की मान्यताएं ज्ञान विज्ञान के विकास का समर्थन नहीं करती हैं। फिर यह भी आप पाएंगे कि अन्य राष्ट्रों ने पतन की हालत में अपनी धार्मिक मान्यताओं को अपनाए रखा और विकास आन पर त्याग दिया। इसके विपरीत, मुसलमान अपने ईमान में सबसे मज़बूत तब थे जब वे दुनिया में सबसे उन्नत थे, और उनका ईमान कम मज़बूत हो गया जब वे बुद्धि, ज्ञान और सांसारिक प्रगति की दौड़ में पीछे रह गए। दूसरी जातियां ने उनपर जीत प्राप्त कर ली। आज मुसलमान अत्यधिक पतन की स्थिति में हैं और इसके साथ ही वे अंधविश्वास की बीमारी से गंभीर रूप से पीड़ित हैं। अब से हज़ार बारह सौ साल पहले वे महान विकास की स्थिति में थे, और साथ ही साथ उनके आध्यात्मिक विश्वास भी बेहद मज़बूत थे। इसके विपरीत, यूरोप के ईसाई और जापान के बौद्ध, जब वे पक्के ईसाई और बौद्ध थे, अत्यंत गिरावट की स्थिति में थे, और जब वे विकसित हुए, तो वे ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म में विश्वास नहीं रह गया। यह इस्लाम की मान्यताओं और अन्य धर्मों की मान्यताओं के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है, जिसे हर समझदार व्यक्ति बिना किसी हिचकिचाहट के महसूस कर सकता है।

2. सांसारिक ईमान

अब, दूसरी ओर, उन आस्थाऔं को देखें जिन्हें हम सांसारिक ईमान के रूप में संदर्भित कर रहे हैं। उनमें कोई धार्मिक तत्व शामिल नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है, कोई धार्मिक नेता नहीं है, कोई प्रेषित किताब नहीं है और ऐसी कोई शिक्षा नहीं है जो आध्यात्मिक और नैतिक आधार पर मानव चरित्र का निर्माण करे। ये विशुद्ध सांसारिक मामले हैं।

इनमें से सबसे बड़ी चीज़ क़ौम (राष्ट्र) है, जिसे एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोग देवता मानाते हैं और पूरी ईमानदारी और भक्ति के साथ पूजते हैं। सभी राष्ट्रवादी मानते हैं कि राष्ट्र उनके जीवन और संपत्ति का मालिक है, उसकी सेवा करना और उसकी रक्षा करना उनका कर्तव्य है, और उस पर अपना जीवन और धन बलिदान करना सौभाग्य की बात है। इतना ही नहीं, उनका मानना ​​है कि उन्हीं का राष्ट्र सही है। यह धरती का उत्तराधिकारी है। दुनिया की सभी भूमि और दुनिया की सारी जातियां इसके लिए लूट का माल हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि पूरी दुनिया में अपने राष्ट्र का झंडा ऊंचा करे।

दूसरा उपास्य देश का ‘क़ानून’ है, जिसे वे ख़ुद बनाते हैं और फिर ख़ुद उसकी पूजा करते हैं। यह पूजा उनके सामूहिक अनुशासन की गारंटी है।

तीसरा उपास्य उनका ‘स्वयं’ है, जिनका पालन-पोषण, जिसकी ज़रूरतओं पूर्ति, और जिसकी इच्छाओं का पालन हमेशा उनके सामने रहता है।

चौथा उपास्य ‘ज्ञान’ है जिस पर वे विश्वास करते हैं और उसके प्रकाश में चलते हैं, और जिसके मार्गदर्शन में वे प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं। यह आस्था निश्चित रूप से सांसारिक जीवन के लिए कुछ हद तक उपयोगी हो सकती है, भले ही सत्य और प्रामाणिकता के मामले में उसकी स्थिति कुछ भी न हो। विशुद्ध सांसारिक दृष्टि से भी हम कह सकते हैं कि इनका लाभ स्थायी नहीं होता। इनका सबसे बड़ा दोष यह है कि इनमें कोई नैतिक तत्व शामिल नहीं होता, इसलिए कि धर्म के हाथ से छूटते ही नैतिक बिगाड़ का द्वार खुल जाता है। क़ानून में लोगों के दिलों में नैतिक भावना पैदा करने और आचरण के किसी भी मानक को स्थापित करने की क्षमता नहीं है। क़ानून इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में नैतिकता की रक्षा कर सके। इसके प्रभाव और दायरा सीमित है, और विशेष रूप से वे क़ानून जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं वे इस मामले में और भी विवश हैं, क्योंकि यह उन लोगों के हाथ में है कि वे इस तरह के क़ानून की पकड़ को मज़बूत रखें या ढीला कर दें। जैसे-जैसे लोगों में काम करने की स्वतंत्रता की इच्छा बढ़ती है, पुरानी नैतिक सीमाएं संकीर्ण और असहनीय लगने लगती हैं। जब नैतिक बंधन की यह भावना आम हो जाती है, तो जनता की राय क़ानून पर नैतिक सीमाओं को ढीला करने का दबाव डालती है। इस तरह धीरे-धीरे नैतिकता के सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं। सामान्य नैतिक पतन शुरू हो जाता है। और नैतिक पतन एक ऐसी चीज़ है जिसके घातक प्रभावों को धन की प्रचुरता, प्रशासन की शक्ति, भौतिक संसाधनों की शक्ति, ज्ञान के उपायों से नहीं रोका जा सकता है। यह एक घुन है जो अंदर से लगना शुरू होती है और मज़बूत से मज़बूत इमारत को उसके सामानों के साथ ले बैठता है।

इसके अलावा राष्ट्रवाद और स्वार्थ की अन्य बुराइयाँ इतनी प्रमुख हैं कि उन्हें समझने के लिए किसी बहस की ज़रूरत नहीं है। हम अपनी आंखों से देख रहे हैं कि आज उन्हीं की बदौलत एक महान सभ्यता विनाश के कगार पर पहुंच गई है और इसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं जो पूरी दुनिया के लिए डर का कारण बना हुआ है।

कुछ सिद्धांत

इस सारी बहस से कुछ सिद्धांत निकलते हैं जिन्हें अगली चर्चा पर बढ़ने से पहले ध्यान में रखा जाना चाहिए:

1. मानव क्रिया का अनुशासित और संगठित होना इस पर निर्भर है कि उसका एक स्थायी और निश्चित चरित्र बन जाए। स्थायी और निश्चित चरित्र के बिना, व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन अविश्वसनीय और बिखराव का शिकार रहता है।

2. चरित्र का आधार उन विचारों पर होता है, जो मन में पूरी ताक़त से स्थापित हो जाएं, और ऐसा प्रभुत्व प्राप्त कर लें कि मनुष्य की सभी व्यावहारिक शक्तियाँ उनके प्रभाव में काम करने लगें। इस प्रभाव का नाम ईमान है।

3. अच्छा और बुरा, सही और ग़लत, मज़बूत और कमज़ोर चरित्र का निर्माण ईमान के स्वास्थ्य और उनके प्रभाव पर निर्भर करता है। ईमान सही होगा तो चरित्र सही होगा, ईमान मज़बूत होगा तो चरित्र भी मज़बूत होगा, नहीं तो स्थिति इसके विपरीत होगी। अत: मनुष्य के जीवन को उच्च स्तर पर लाने के लिए उसके जीवन को दृढ़ ईमान पर स्थापित करना ज़रूरी है।

4. जिस तरह किसी एक व्यक्ति के कार्यों को अव्यवस्था से बाहर निकालने और उन्हें नियंत्रण और व्यवस्था में लाने के लिए ईमान की ज़रूरत होती है, उसी तरह बहुत से लोगों को अराजकता और विभाजन की हालत से एक व्यवस्थित और एकजुट समुदाय में लाने के लिए ज़रूरी है कि सभी के दिलों में मज़बूत ईमान हो। सभ्यता के हित के लिए यह ज़रूरी है कि ईमान लोगों का केवल व्यक्तिगत मामला न हो, बल्कि राष्ट्रीय एकता का साधन बन जाए।

5. जब एक साझा ईमान के प्रभाव में कई लोगों के बीच एक आम राष्ट्रीय चरित्र बनता है, और इस चरित्र के प्रभाव के कारण, उनके जीवन कार्यों में एक तरह की समरसता पैदा होती है, तब सभ्यता की एक निश्चित शैली अस्तित्व में आती है। इस अर्थ में, राष्ट्रीय चरित्र को बनाने और मज़बूत करने वाली प्रत्येक सभ्यता की स्थापना और गठन में ईमान का बहुत प्रभाव है।

6. जिस राष्ट्र के ईमान आध्यात्मिक होते हैं, उसका धर्म और उसकी सभ्यता दोनों एक होते हैं, और जिसके ईमान में सांसारिक बातें होती हैं, उसकी सभ्यता उसके धर्म से अलग हो जाती है। इस दूसरे मामले में, धर्म का व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं होता है।

7. धर्म से सभ्यता की मुक्ति अंततः नैतिक पतन और विनाश की ओर ले जाती है।

8. सभ्यता का धर्म से प्रभाव में होना इस बात पर निर्भर करता है कि धर्म की मान्यताओं में ऐसे आध्यात्मिक मामले हों जो मनुष्य के बौद्धिक विकास का निम्नतम से उच्चतम स्तर तक साथ दे सकें, और जिससे मानव चरित्र का निर्माण इस तरह से हो कि वह एक ही समय में अत्यधिक धार्मिक भी हो और सांसारिक भी, बल्कि यह अपनी सांसारिकता में धार्मिक और अपने धर्म में सांसारिक हो।

9. जिस राष्ट्र का धर्म और संस्कृति एक हो, उसका ईमान न केवल धार्मिक ईमान होता है, बल्कि सांसारिक ईमान भी होती है। उसके विश्वास का डगमगाना उसके धर्म और उसकी सभ्यता दोनों के लिए विनाशकारी है, उसकी दुनिया और उसके परलोक दोनों के लिए विनाशकारी है।

ये वे सिद्धांत हैं जिनके आधार पर हमें ईमान के संबंध में इस्लाम की स्थिति को गंभीरता से देखना होगा।

ईमान की वास्तविकता व्यक्तिगत चरित्र में उसका महत्व, और सामूहिक सभ्यता में उसकी स्थिति के बाद, आप देखें कि इस्लाम किन चीज़ों पर ईमान लाने के लिए आमंत्रित करता है? उसकी मान्यताएँ किस हद तक तर्कसंगत आलोचना के मानदंडों पर पूरी उतरती हैं? उसकी व्यवस्था में ईमान की क्या स्थिति है? और इसका किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत चरित्र और सामूहिक चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ता है?

इस्लाम के ईमानियात (मान्यताएं)

पवित्र क़ुरआन में इस्लाम की मान्यताओं का इतना विस्तार से वर्णन किया गया है कि उनके बीच असहमति के लिए कोई जगह नहीं बची है, लेकिन जिन्होंने क़ुरआन की व्याख्या की शैली को नहीं समझा है, या इसके विषयों का अध्ययन नहीं किया है, उन्हें कुछ मतभेद और कुछ ग़लतफहमियां हो गई हैं।

क़ुरआन की शैली यह है कि कहीं यह सभी ईमानियात का एक साथ वर्णन करता है, और कहीं अवसर और स्थान के आधार पर, कुछ या एक का वर्णन करके उस पर ज़ोर देता है। इससे कुछ लोगों ने यह समझ लिया कि इस्लाम की मान्यताओं में से एक या कुछ पर ईमान लाना ही काफ़ी है और उनमें से कुछ के इनकार के बावजूद व्यक्ति कामयाब हो सकता है। हालाँकि, क़ुरआन का निर्णय यह है कि इसके द्वारा ईमान के रूप में प्रस्तुत किए गए सभी मामलों को स्वीकार करना ज़रूरी है। उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। अगर उनमें से एक को भी अस्वीकार कर दिया, तो यह अन्य सभी की स्वीकारोक्ति को अमान्य कर देगा। क़ुरआन में एक जगह कहा गया है:

 “जिन लोगों ने कहा कि अल्लाह हमारा रब है और फिर उस पर जमे रहे, निश्चय ही उन पर फ़रिश्ते उतरते हैं। (हा-मीम सजदा, 41:30)

इस आयत में केवल अल्लाह पर ईमान का उल्लेख किया गया है और इस दुनिया और अगली दुनिया में सफलता की ख़ुशख़बरी दी गई है। एक अन्य स्थान में अल्लाह के साथ अंतिम दिन का भी उल्लेख है: (अल-बक़रह, 2:62)

यही विषय आले इमरान, मायदा और रॉद में भी आया है। तीसरे स्थान पर अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाने का निमंत्रण है: (आले-इमरान, 3:179)

 यही उल्लेख अल-हदीद में भी है। एक अन्य स्थान पर, ईमानदार वह व्यक्ति कहा जाता है जो अल्लाह और मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाए:

अल-नूर, 24:62, मुहम्मद (47:2-3), जिन्न (72:22) और फ़त्ह (48:25) में इसी को दोहराया गया है। एक स्थान पर, तीन चीज़ों पर ईमान लाने का आदेश है: अल्लाह, मुहम्मद (सल्ल.) और क़ुरआन: अल-तग़ाबुन (64:8)

एक स्थान पर अल्लाह, अल्लाह की पुस्तकें, क़ुरआन और अंतिम दिन, चार बातों का उल्लेख है: अन-निसा (4:162)

एक अन्य स्थान पर, अल्लाह ने कहा कि फ़रिश्तों, पैग़म्बरों और क़ुरआन का इनकार कुफ़्र है: अल-बक़रह (2:98-99)

एक जगह कहा गया कि जो लोग अल्लाह, फ़रिश्तों, अल्लाह की किताबों, पैग़म्बरों और क़ुरआन को मानते हैं वे ईमान वाले है: अल-बक़रह,(2: 285)

दूसरी जगह ईमान के पाँच घटकों का वर्णन किया गया है। अल-बक़रह (2:177)

सूरह अल-निसा में, उपरोक्त पांच तत्वों के साथ, पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) और क़ुरआन पर ईमान लाने पर ज़ोर दिया गया है और जो उनका इनकार करते हैं उन्हें काफ़िर और गुमराह कहा गया है। (निसा, 4:136)

 एक जगह अंतिम दिन की स्वीकृति पर ज़ोर दिया गया है और इसे नकारने को विफलता का कारण बताया गया है: (अल-अनआम,6:31)

यह विषय सूरह आराफ़, यूनुस, फ़ुर्क़ान, नमल, साफ़्फ़ात में दोहराया गया है।

एक अन्य स्थान पर अन्तिम दिन के साथ-साथ अल्लाह की किताबों का इनकार भी दण्ड का कारण ठहराया गया है: (अल-अंबिया, 78:27-28)

तीसरे स्थान पर, अंतिम दिन और अल्लाह की किताबों के साथ, क़ुरआन भी ईमान में शामिल है: (अल-बक़रह, 2:4-5)

चौथे स्थान पर कहा गया है कि अंतिम दिन अल्लाह की किताबों और पैग़म्बरों का इनकार करने से सभी कार्य निष्फल हो जाएंगे। ऐसा व्यक्ति नारकीय होता है और उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता। (18:100-106)

अल्लाह की किताबों पर ईमान का बार-बार उल्लेख किया गया है और उनमें तौरात, इंजील, ज़बूर और इब्राहीम के सहीफ़ों का स्पष्टीकरण के साथ उल्लेख किया गया है, लेकिन क़ुरआन में बीस स्थानों पर यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इन किताबों पर ईमान लाना हरगिज़ पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनके साथ क़ुरआन पर भी ईमान लाना ज़रूरी है। अगर कोई व्यक्ति सभी किताबों पर ईमान लाता है और क़ुरआन पर ईमान नहीं लाता है, तो वह काफ़िर है, ठीक उसी तरह जो सभी किताबों को नकारता है, वह भी काफ़िर है। बक़रह (2:99-100)) निसा (4:47) माइदा (5:68,81), अंकबूत (29:47), ज़ुमर (39:55-60)। इतना ही नहीं, अल्लाह द्वारा भेजी गई प्रत्येक किताब को उसकी संपूर्णता में स्वीकार किया जाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति उसके कुछ शब्दों पर विश्वास करता है और कुछ पर विश्वास नहीं करता है, तो वह भी काफ़िर है: (2:85)

इसी तरह पैग़म्बरों के बारे में भी बताया गया है कि उन सब पर ईमान लाना ज़रूरी है। जिनके नामों का विस्तार से उल्लेख किया गया है और जिनके नामों का उल्लेख नहीं किया गया है, उन पर संक्षेप में। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सभी नबियों को मानता है और केवल मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत को नकारता है, तो वह निश्चित रूप से काफ़िर है। क़ुरआन में, इसे बीसियों स्थानों में निर्दिष्ट किया गया है, और सभी नबियों के साथ, मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत की स्वीकृति, ईमान की एक ज़रूरी शर्त के रूप में घोषित की गई है। बक़रह (2:89), निसा (4:75), माइदा (5:15-16), आराफ़ (7:157), अल-अनफाल (8:1, 27), मोमिनून (23:69), शुरा (42:13), मुहम्मद (47:2-3), तलाक़ (65:1)।

इनमें से अधिकांश आयतें ऐसी हैं जिनमें हज़रत मूसा और हज़रत ईसा की उम्मतों को पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाने के लिए आमंत्रित किया गया है और कहा गया है कि जब तक आप क़ुरआन पर ईमान नहीं लाएंगे आपको मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होगा।

इन व्याख्याओं से ज्ञात होता है कि इस्लाम की पाँच ईमानियात (मान्यताएँ) हैं:

1. अल्लाह

2. फ़रिश्ते

3. क़ुरआन सहित अल्लाह की पुस्तकें।

4. पैग़म्बरों पर ईमान, जिनमें पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) भी शामिल हैं।

5. अंतिम दिन अर्थात क़ियामत

ये संक्षेप है। आगे चल कर बताया जाएगा कि उनमें से प्रत्येक के बारे में विस्तृत मान्यता क्या है? उनके बीच ऐसा क्या संबंध है, जिसके कारण उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और एक की अस्वीकृति सभी को अस्वीकार करने के बराबर है? और उनमें से प्रत्येक को ईमान में शामिल करने का क्या लाभ है?

बौद्धिक आलोचना

इन पांचों ईमान का संबंध अदृश्य से है और ये इस दुनिया से परे के मामले हैं, इसलिए हमारे विभाजन के अनुसार, वे धार्मिक और आध्यात्मिक ईमान हैं। लेकिन उनकी विशेषता यह है कि इस्लाम ने इन पर न केवल अपनी आध्यात्मिक व्यवस्था, बल्कि अपनी नैतिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्थाओं की भी नींव रखी है। उसने धार्मिक और सांसारिक दोनों मामलों को मिलाकर एक ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसके तहत मानव जीवन के सभी क्षेत्र संचालित होते हैं। इस व्यवस्था को अपने अस्तित्व और अपने स्वभाव के लिए जितनी शक्ति की ज़रूरत है, वह सभी इन पांच ईमानों से प्राप्त होती है। ये उसके लिए शक्ति का एक अंतहीन स्रोत हैं जिसकी आपूर्ति कभी समाप्त नहीं होती है। अब हमें देखना चाहिए कि जिन मान्यताओं को इतना बड़ा काम लिया गया है, उनका बौद्धिक आधार क्या है? और उनमें किस हद तक इतनी सार्वभौमिक और विकासशील व्यवस्था का आधार और संसाधन बनने की क्षमता है?

इस प्रश्न की पड़ताल में आगे बढ़ने से पहले हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इस्लाम एक ऐसी सभ्यता की स्थापना करना चाहता है जो सही मायने में मानव सभ्यता हो। लेकिन यह किसी विशेष देश या जाति के लोगों से संबंधित नहीं होना चाहिए, न ही एक विशेष रंग का राष्ट्र होना चाहिए और एक विशेष भाषा बोलना इसके लिए अनन्य होना चाहिए, बल्कि सभी मानव जाति का कल्याण इसका लक्ष्य होना चाहिए, और इसके प्रभाव में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है जिसमें मनुष्य के रूप में मनुष्य के लिए जो कुछ भी अच्छा है, उसका पोषण किया जाता हो, और जो कुछ भी उसके लिए बुरा और हानिकारक है, उसे मिटा दिया जाता हो। एक शुद्ध मानव सभ्यता की नींव पानी और मिट्टी की इस दुनिया से संबंधित विश्वासों पर आधारित नहीं हो सकती है। क्योंकि भौतिक चीज़ें और संवेदनाएं या तो वे हैं जिनके साथ सभी मनुष्यों का एक ही जैसा संबंध है, जैसे कि सूर्य, चंद्रमा, ज़मीन, वायु, प्रकाश, आदि, या फिर वे हैं जिनके साथ सभी मनुष्यों का समान संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीयता, जाति, रंग, भाषा, आदि।

पहली तरह की चीज़ों में ईमान बनने की क्षमता ही नहीं होती है, क्योंकि उनके अस्तित्व में ईमान लाना व्यर्थ है, और इस स्थिति में उन पर ईमान लाना कि ज्ञान और तर्क के माध्यम से मनुष्य के सुधार में उनका कोई प्रभाव है, ग़लत है। इसके अलावा, इन पर किसी भी रूप में ईमान लाने से व्यक्ति के आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक जीवन में कोई लाभ नहीं होता है। रहीं दूसरी तरह की चीज़ें, तो यह स्पष्ट है कि वे एक सामान्य मानव सभ्यता का आधार नहीं हो सकती हैं, क्योंकि वे विभाजन का आधार हैं, संयोजन का नहीं। इसलिए, यह बिल्कुल अपरिहार्य है कि इस तरह की सभ्यता की नींव भौतिक भावनाओं से परे ईमानों पर रखी जाए।

लेकिन यह पर्याप्त नहीं है कि वे केवल भौतिकता और भावनाओं से परे हों, यह ज़रूरी है कि उनमें कुछ अन्य विशेषताएं भी हों:

1. वे मिथक या भ्रम न हों, बल्कि ऐसे मामले हों, जिनकी पुष्टि सामान्य ज्ञान से की जा सके।

2. वे ऐसी चीज़ें हों, जिनका हमारे जीवन से निकट संबंध हो।

3. उनमें इतनी सार्थक शक्ति हो कि सभ्यता की व्यवस्था को मानव विचार और कर्म पर लागु करने में उनसे पूरी मदद मिल सके।

इस अर्थ में, जब हम इस्लाम की मान्यताओं को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि वे इन तीन परीक्षाओं में खरे उतरते हैं।

सबसे पहले, इस्लाम द्वारा प्रस्तुत अल्लाह, फ़रिशते, वह्य (प्रकाशना), रिसालत और अंतिम दिन की अवधारणा में कुछ भी बौद्धिकता के विरुद्ध नहीं है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका सत्य होना असंभव हो, और न ही ऐसा कुछ है जिसे सामान्य ज्ञान स्वीकार करने से इनकार करता हो। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुद्धि उन तक नहीं पहुंच सकती, उनकी वास्तविकताओं को नहीं समझ सकती, लेकिन हमारे वैज्ञानिकों ने भी अब तक जितनी चीज़ों की पुष्टि की है, उन सब का यही हाल है। ऊर्जा, जीवन, अवशोषण, आकर्षण, विकास और ऐसे अन्य मामलों की पुष्टि इस आधार पर नहीं की गई है कि हम उनकी वास्तविकताओं को पूरी तरह से समझ चुके हैं, बल्कि विभिन्न तरह की चीज़ों को लेकर हमने जो प्रयोग किए हैं, उनके अनुसार इन चीज़ों का मौजूद होना ज़रूरी है।और जो सिद्धांत हमने घटनाओं की आंतरिक व्यवस्था के बारे में स्थापित किए हैं, उनसे इन मामलों के अस्तित्व की पुष्टि होती है। इसलिए इस्लाम जिस निरपेक्षता पर विश्वास करने की मांग करता है, उसकी पुष्टि करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि हमारी बुद्धि उनकी वास्तविकताओं को पूरी तरह से समझे, बल्कि उन्हें बौद्धिक रूप से समझने के लिए यही पर्याप्त है कि संसार और इनसान के बारे में इस्लाम द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत बुद्धि के विपरीत नहीं है। इन पांच चीज़ों का अस्तित्व है जिन्हें इस्लाम ने ईमान के रूप में प्रस्तुत किया है।

इस्लाम का सिद्धांत यह है कि:

1. संसार की व्यवस्था एक सर्वशक्तिमान द्वारा स्थापित की हुई है और वही उसे संचालित कर रहा है।

2. उस सर्वशक्तिमान के अधीन अनगिनत दूसरी हस्तियां हैं जो इस विशाल संसार को उसके आदेशों के अनुसार प्रबंधित कर रही हैं।

3. मनुष्य के अस्तित्व में, उसके निर्माता ने अच्छे और बुरे दोनों रुझान रखे हैं। ज्ञान और अज्ञान दोनों ही उसके अंदर मौजूद हैं। वह ग़लत और सही दोनों रास्तों पर चल सकता है। इन विपरीत शक्तियों और झुकावों में से, जो भी प्रबल होता है, मनुष्य उसका अनुसरण करने लगता है।

4. अच्छाई और बुराई के बीच इस संघर्ष में अच्छाई की ताक़तों की मदद करने और मनुष्य को सीधा रास्ता दिखाने के लिए, उसका निर्माता ख़ुद मानव जाति में से एक बेहतर आदमी का चयन करता है और उसे ज्ञान देकर लोगों के मार्गदर्शन के लिए नियुक्त करता है।

5. मनुष्य एक ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह हस्ती नहीं है। वह अपने द्वारा किए गए सभी कार्यों के लिए अपने रचयिता के प्रति जवाबदेह है। एक दिन उसे अपने कार्यों का हिसाब देना होगा और अपने कार्यों के अच्छे या बुरे परिणाम देखने होंगे।

यह सिद्धांत अल्लाह, फ़रिश्ते, वह्य, रिसालत और क़ियामत के दिन, सभी पांच चीज़ों के अस्तित्व की मांग करता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो तार्किक रूप से असंभव हो। न इस में से किसी को भी भ्रम या मिथक कहा जा सकता है। इसके विपरीत, जितना अधिक हम इसके बारे में सोचते हैं, उतना ही इसकी पुष्टि की ओर हमारा झुकाव बढ़ता हैं।

भले ही हम अल्लाह की वास्तविकता को नहीं समझ पाते हैं, लेकिन उसे स्वीकार किए बिना कोई विकल्प नहीं है। यह एक ऐसी ज़रूरत है जिसके बिना संसार की पहेली को हल नहीं किया जा सकता है।

हम फ़रिश्तों के अस्तित्व का निर्धारण नहीं कर सकते हैं, लेकिन उनके अस्तित्व के बारे में कोई संदेह नहीं है। ज्ञान और बुद्धि रखने वाले सभी लोगों ने किसी न किसी रूप में उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। भले ही वे उन्हें उस नाम से न पुकारें जिससे क़ुरआन उन्हें पुकारता है।

क़ियामत या न्याय के दिन का आना और एक दिन जगत की व्यवस्था का विघटन तर्कसंगत अटकलों की दृष्टि से लगभग निश्चित है।

मनुष्य अपने अल्लाह के प्रति जवाबदेह होने और अपने कार्यों के लिए पुरस्कार या दंड का भागी होने को किसी निश्चित तर्क से साबित नहीं हो सकता है, लेकिन बुद्धि इस हद तक स्वीकार करने के लिए मजबूर है कि मनुष्य की मृत्यु और मृत्यु के बाद की स्थिति के बारे में जितने सिद्धांत स्थापित किए गए हैं, उनमें से सबसे अधिक संभावित सिद्धांत वही है, जो इस्लाम द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

रहा वह्य और रिसालत का मुद्दा तो स्पष्ट है कि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। लेकिन जिन किताबों को ईश्वरीय प्रकाशना के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उनके अर्थ और जिन लोगों को अल्लाह का दूत कहा गया है, उनकी जीवनी पर विचार करके हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मानव जाति के मन-मस्तिष्क पर जो गहरे, व्यापक, स्थायी और लाभकारी प्रभाव उन्होंने डाले हैं, वह किसी सामान्य नेता के वश की बात नहीं है, उनमें कुछ असामान्य ज़रूर रहा होगा।

इस कथन से यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम की मान्यताएँ बुद्धि के विरुद्ध नहीं हैं, बुद्धि के पास उन्हें नकारने का कोई औचित्य नहीं है। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मनुष्य बौद्धिक विकास के एक निश्चित चरण तक पहुँचने के बाद अस्वीकार करने के लिए मजबूर हो। इसके विपरीत, ज्ञान और बुद्धि इनकी पुष्टि ही करती आई है। जहाँ तक ईमान और पुष्टि की बात है, यह बुद्धि से नहीं, बल्कि अंतःकरण से संबंधित है। हम जितने अमूर्त और परोक्ष की बातों में विश्वास करते हैं, उन सभी की पुष्टि वास्तव में हमारे अंतर्ज्ञान पर आधारित है। अगर हम अनदेखी में विश्वास नहीं करना चाहते हैं, अगर हमारा हृदय संतुष्ट नहीं है, तो हमें तर्क-वितर्क से उसकी पुष्टि करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, ईथर के अस्तित्व के लिए जितने भी तर्क दिए गए हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जो निर्णायक रूप से उसे सिद्ध करता हो और इसकी वैधता के बारे में संदेह के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता हो। इन तर्कों को देखकर कुछ ज्ञानी लोग इस पर विश्वास करते हैं तो कुछ अन्य विद्वान इसे अपर्याप्त मानकर इसे मानने से इनकार कर देते हैं। तो पुष्टि और विश्वास वास्तव में अंतरात्मा की संतुष्टि और अंतर्ज्ञान की गवाही पर निर्भर करता है। हालाँकि, बुद्धि को इसमें इस हद तक शामिल किया जाना चाहिए कि बुद्धि के ख़िलाफ़ जिस की पुष्टि की जाती है, उसके बारे में अंतर्ज्ञान और बुद्धि के बीच एक संघर्ष उत्पन्न होता है और विश्वास कमज़ोर हो जाता है, और जिनकी पुष्टि बुद्धि के ख़िलाफ़ नहीं होती है, उनके बारे में अंतःकरण की संतुष्टि अधिक बढ़ जाती है और विश्वास को बल मिलता है।

दूसरे, परोक्ष के अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनकी स्थिति केवल अकादमिक है, उनका हमारे व्यावहारिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। उदाहरण के लिए, ईथर, पदार्थ, प्रकृति और प्रकृति के नियम, कारण और प्रभाव के नियम, और बीसियों ऐसे वैज्ञानिक तथ्य या धारणाएं हैं जिन पर विश्वास करने या न करने का हमारे व्यवहारिक जीवन के मामलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन इस्लाम ने परोक्ष की जिन चीज़ों में विश्वास करने के लिए आमंत्रित किया है, वे ऐसे नहीं हैं। उनकी स्थिति न केवल अकादमिक है, बल्कि उनका हमारे नैतिक और व्यावहारिक जीवन से निकट संबंध है। उनकी पुष्टि को मुख्य सिद्धांत के रूप में घोषित करने का कारण यही है कि वे मात्र बौद्धिक सत्य नहीं हैं, बल्कि उनका ज्ञान और उनमें पूर्ण विश्वास हमारे निजी गुणों और विशेषताओं को, हमारे व्यक्तिगत कार्यों को, और हमारे सामूहिक मामलों को बहुत प्रभावित करता है। इसकी विस्तृत व्याख्या आगे आएगी।

तीसरा, इस्लाम की सभ्यता व्यवस्था को विभिन्न बौद्धिक स्तरों वाली विशाल मानव आबादियों पर उनके जीवन के छिपे हुए और छोटे से छोटे विभागों तक में अपना शासन स्थापित करने और अपनी पकड़ मज़बूत रखने के लिए जिस शक्ति की ज़रूरत है, वह केवल उन्ही ईमानियात से मिल सकती है, जिनकी पुष्टि की इस्लाम ने मांग की है। यह विश्वास कि एक देखने और सुनने वाला, सर्वशक्तिमान, और दयालु अल्लाह हम पर शासक है, उसकी अनगिनत सेनाएँ हर जगह और हर घड़ी मौजूद हैं, पैग़म्बर उसी के द्वारा भेजे गए हैं, जो आदेश उन्होंने (पैग़म्बर ने) हमें दिए हैं, वे उन्होंने ख़ुद नहीं गढ़ लिये है, बल्कि वे सभी अल्लाह की ओर से हैं, और हमें अपनी आज्ञाकारिता या अवज्ञा के अच्छे या बुरे परिणाम ज़रूर देखने होंगे।

भौतिक शक्तियां केवल शरीर को बांध सकती हैं, प्रशिक्षण और शिक्षा के नैतिक प्रभाव मानव समाज के उच्च वर्गों तक पहुंच सकते हैं, क़ानून केवल वहीं काम कर सकता है जहां उसके एजेंट पहुंच सकते हैं। लेकिन यह वह शक्ति है कि दिल और रूह पर क़ब्ज़ा कर लेती है, सामान्य और विशेष, अज्ञानी और विद्वान, बुद्धिमान और मूर्ख, सभी को अपनी पकड़ में ले लेती है। जंगल के एकांत और रात के अंधेरे में भी अपना काम करती है। जहां गुनाह से रोकने वाला, यहां तक कि उसे देखने वाला भी कोई नहीं होता है, वहां यह विश्वास कि अल्लाह मौजूद है और देख रहा है, यह विश्वास कि पैग़म्बर द्वारा दी गई शिक्षा सही है, यह विश्वास कि क़ियामत के दिन पूछ-ताछ होनी है, वह काम करता है, जो न कोई पुलिस का सिपाही यह कर सकता है, न अदालत का हाकिम, न ही प्रोफेसर की शिक्षा। फिर, जिस तरह इस विश्वास ने ज़मीन पर फैले अनगिनत विभिन्न और परस्पर विरोधी मानवीय तत्वों को एक साथ जमा किया, उन्हें एकजुट कर एक क़ौम बनाया, उनकी कल्पनाओं, कार्यों और दृष्टिकोणों में एकरूपता का एक स्तर बनाया और उनके भीतर मतभेद के बावजूद, एक संस्कृति का प्रसार किया और उनमें उच्च उद्देश्य के लिए बलिदान की एक महान भावना पैदा की, जिसका उदाहरण कहीं नहीं पाया जा सकता है।

अब तक जो साबित हुआ है वह यह है कि इस्लाम शब्द में ईमान का अर्थ है अल्लाह, फ़रिश्तों, रसूल और अंतिम दिन पर विश्वास करना और ये पाँचों ईमान मिलकर एक अविभाज्य संपूर्णता का निर्माण करते हैं। उनके बीच एक ऐसा संपर्क है कि अगर उनमें से किसी एक को भी नकारा जाए तो संपूर्ण को नकारने जैसा होगा। फिर, तर्कसंगत आलोचना से यह साबित हो गया है कि इस्लाम जिस तरह की सभ्यता स्थापित करना चाहता है उसके लिए केवल ये ही ईमान बन सकते हैं। और यह कि उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो बौद्धिक विकास का समर्थन न कर सके।

अब हमें अपना ध्यान तीसरे प्रश्न की ओर लगाना चाहिए, और वह यह है कि इस्लाम में ईमान की स्थिति क्या है? और यह स्थिति क्यों है? लोगों ने इस को समझने में कई ग़लतियां की हैं, और कुछ प्रसिद्ध विद्वानों और महान बुद्धिजीवी ने भी इसमें ठोकर खाई है। इसलिए इसे विस्तार से समझाना ज़रूरी है।

इस्लाम में ईमान का महत्व

अगर प्रश्न पूछा जाए कि पवित्र क़ुरआन के आह्वान का मुख्य सिद्धांत क्या है, तो उत्तर केवल एक शब्द में दिया जा सकता है, और वह है “ईमान”। क़ुरआन के उतारे जाने और पैग़म्बर (सल्ल.) को भेजने का उद्देश्य ही ईमान की ओर बुलाना है।

क़ुरआन अपने लाने वाले के बारे में स्पष्ट रूप से कहता है कि वह ईमान का उपदेशक है:

“ऐ हमारे पालनहार! हमने एक पुकारने वाले को ईमान के लिए पुकारते हुए सुना कि अपने पालनहार पर ईमान लाओ, तो हम ईमान ले आये।                 (आले-इमरान 3:193)

 और अपने स्वयं के संबंध की घोषणा करता है:

“वह केवल उन लोगों का मार्गदर्शन करेगा जो अनदेखी चीज़ों (यानी इन्ही ईमानियात) में विश्वास करने के लिए तैयार हैं।” (अल-बक़रह 2:2-3)

वह उपदेशों, वादों, डरावों, तर्कों, कहानियों और उपाख्यानों के माध्यम से इसी की ओर बुलाता है। मनुष्य से उसकी पहली मांग यह है कि वह ईमान लाए। उसके बाद, वह आत्म-शुद्धि, नैतिक सुधार और नागरिक क़ानूनों के निर्माण की ओर बढ़ता है। उसके अनुसार ईमान ही सत्य, धर्म, ज्ञान, मार्गदर्शन और प्रकाश है, और वह अविश्वास अर्थात् कुफ़्र को अज्ञानता, असत्य, झूठ, अंधकार और पथभ्रष्टता कहता है।

पवित्र क़ुरआन ने एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींचकर दुनिया के लोगों को दो समूहों में विभाजित कर दिया है। एक समूह ईमान लानेवालों का, दूसरा समूह इनकार करने वालों का, पहला समूह उसके अनुसार सत्य पर है, वह ज्ञान और प्रकाश से भरा है, उसके लिए मार्गदर्शन का मार्ग और पवित्रता का द्वार खोल दिया गया है, और वही सफलता पाने वाला है। उसके अनुसार, दूसरा समूह अविश्वासी, अत्याचारी, अज्ञानी, अंधेरे में फंसा हुआ है, मार्गदर्शन के मार्ग उसके लिए बंद हैं, धर्मपरायणता में उसका कोई हिस्सा नहीं है, और उसके घाटे का निर्णय हो चुका है।

वह इन दो वर्गों का उदाहरण देता है, उनमें से एक अंधा और बहरा और दूसरा देखने और सुनने वाला:

इन दोनों पक्षों का उदाहरण ऐसा है मानो एक अंधा और बहरा है और दूसरा देखने और सुनने वाला है। (हूद, 11:24)

वह कहता है कि ईमान का मार्ग सीधा मार्ग है:

निश्चय ही तुम सीधे मार्ग पर मार्गदर्शन कर रहे हो। (अश-शूरा 42:52)

और इसके सिवा अन्य सभी तरीक़ों को छोड़ना ज़रूरी है:

साथ ही उसका निर्देश यह है कि

यह मेरा सीधा मार्ग है, इसलिए इसका अनुसरण करो और अन्य मार्गों पर न चलो। (अल-अनआम, 6:153)

उसने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट रूप से कह दिया है कि जो कोई अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताब पर ईमान रखता है उसके पास एक उज्जवल दीपक है, जिसकी मदद से वह सीधे रास्ते पर चल सकता है। इस दीपक के होते हुए उसके भटक जाने की आशंका नहीं है। वह टेढ़े-मेढ़े रास्तों से सही रास्ते को अलग कर देगा, और वह सफलता की मंज़िल तक पहुंच जाएगा। और जिसके पास ईमान का दीप नहीं है, उसके पास ज्योति नहीं है। उसके लिए सीधे और टेढ़े रास्तों में अन्तर करना मुश्किल है। वह अँधों की तरह अँधेरे में टटोल-टटोल कर चलेगा। हो सकता है कि संयोग से उसका एक कदम सही रास्ते पर पड़ जाए, लेकिन सही रास्ते पर चलने का यह पक्का तरीक़ा नहीं है। अधिक संभावना है कि वह रास्ते से भटक जाएगा, खाई में गिर जाएगा और कांटों में कहीं फंस जाएगा। पहले समूह के बारे में वह कहता है:

“तो जो लोग रसूल पर ईमान लाए और जो उसकी सहायता करते हैं और उस ज्योति का अनुसरण करते हैं जो उसके साथ उतरी है, वही सफलता पाने वाले हैं। (अल-आराफ़, 7:157)

और

“लोगो! अल्लाह से डरो और उसके रसूल पर ईमान लाओ, अल्लाह तुम्हें अपनी रहमत से दोहरा हिस्सा देगा और तुम्हारे लिए एक रोशनी करेगा जिसमें तुम चलोगे और वह तुम्हें माफ़ कर देगा। (अल-हदीद, 57:28)

और दूसरे समूह के बारे में वह कहता है:

“जो लोग अल्लाह के सिवा अन्य भागीदारों को पुकारते हैं, क्या आप जानते हैं कि वे किसका अनुसरण करते हैं? वे केवल एक अनुमान का पालन करते हैं और मात्र आटकल का अनुसरण करते हैं। (यूनुस, 10:66)

“उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं। वे मात्र गुमान का अनुसरण कर रहे हैं और चीज़तः गुमान सत्य के सामने कुछ भी लाभप्रद नहीं होता।  (अल-नज्म, 53:28)

“और उस व्यक्ति से अधिक पथभ्रष्ट कौन है जिसने अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना अपनी इच्छाओं का पालन किया? अल्लाह ऐसे गुनाहगारों को सीधा नहीं दिखाता। (अल-क़सस, 28:50)

और जिसे अल्लाह ने रोशनी नहीं दी, उसके लिए कोई उजाला नहीं है।         (अन-नूर 24:40)

इस पूरे विषय की व्याख्या सूरह अल-बक़रह में मिलती है, जो इस तथ्य को बहुत स्पष्ट करती है कि ईमान और कुफ़्र के अंतर से मानव जाति के इन दो समूहों के बीच कितना बड़ा अंतर हो जाता है।

“ दीन (धर्म) में बल प्रयोग नहीं। सुपथ, कुपथ से अलग हो चुका है। अतः, अब जो ताग़ूत (अर्थात अल्लाह के सिवा पूज्यों) को नकार दे और अल्लाह पर ईमान लाये, तो उसने दृढ़ मज़बूत (सहारा) पकड़ लिया, जो कभी खण्डित नहीं हो सकता और अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता है। अल्लाह उनका सहायक है, जो ईमान लाये। वह उनहें अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं। जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं। यही नारकी हैं, जो उसमें सदावासी होंगे। (अल-बक़रह, 2:256-257)

ज्ञान पर ईमान की प्रधानता

फिर इसी ईमान और अविश्वास के बुनियादी अंतर ने मानवीय कर्मों में अन्तर कर दिया है। क़ुरआन के अनुसार, वही व्यक्ति गुणी और पवित्र हो सकता है, जो ईमान लाता है। ईमान के बिना किसी भी कार्य में धर्मपरायणता और सुधार नहीं होता, चाहे वह दुनिया की नज़र में कितना भी अच्छा क्यों न हो। वह कहता है:

“और जो सत्य लाये और जिसने उसे सच माना, तो वही (यातना से) सुरक्षित रहने वाले हैं, वे ही पवित्र हैं। (अल-ज़ुमर, 39:33)

“ये किताब है, जिसमें कोई संशय (संदेह) नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं। जो ग़ैब (परोक्ष) पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और नमाज़ की स्थापना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से दान करते हैं। और जो आप (ऐ नबी!) पर उतारी गयी (किताब क़ुरआन) और आपसे पूर्व उतारी गयी (किताबों) पर ईमान रखते हैं और आख़िरत (परलोक) पर भी विश्वास रखते हैं। (अल-बक़रह, 2:2-4)

इसलिए, क़ुरआन की नज़र में, ईमान ही तक़वा (धर्मपरायणता) का मूल और परहेज़गारी की जड़ है। ईमान लाने वाले के अच्छे कर्म उसी तरह फलते फूलते हैं जैसे एक अच्छी जलवायु में माली द्वारा लगाए गए पेड़ हरे-भरे होते हैं और फल-फूल लाते हैं। इसके विपरीत, जो बिना ईमान के कार्य करता है, वह बंजर, पथरीली भूमि और ख़राब जलवायु में बाग़ लगाने के समान है। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन में हर जगह नेक कामों पर ईमान को तरजीह दी गई है और कहीं भी मात्र अच्छे कामों को बिना ईमान के कल्याण का जरिया नहीं  बताया गया है। पवित्र क़ुरआन के अध्ययन से आपको पता चल जाएगा कि इस के द्वारा दिए गए नैतिक निर्देश और क़ानूनी आदेश केवल उन लोगों को संबोधित हैं जिन्होंने ईमान क़ुबूल किया है। ऐसी सभी अयतें या तो "ऐ ईमान लाने वालों" से शुरू होते हैं, या कथन किसी तरह से निर्दिष्ट करता है कि संबोधन केवल ईमानवालों के लिए है। जहाँ तक काफ़िरों का सवाल है, उन्हें अच्छे कामों के लिए नहीं, बल्कि केवल ईमान के लिए आमंत्रित किया गया है, और यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो ईमान नहीं लाते हैं, उनके भले कर्मों का कोई मूल्य नहीं है, वे भारहीन हैं और बर्बाद होने वाले हैं।

“और काफ़िरों के काम, चटियल मैदान में मृगतृष्णा के समान हैं, प्यासा उसे देखता है और समझता है कि पानी है, लेकिन जब वह वहाँ पहुँचता है तो उसे कुछ नहीं मिलता। (नूर, 24:39)

“आप कह दें कि क्या हम तुम्हें बता दें कि कौन अपने कर्मों में सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हैं? वह हैं, जिनके सांसारिक जीवन के सभी प्रयास व्यर्थ हो गये और वे समझते रहे कि वे अच्छे कर्म कर रहे हैं। यही वे लोग हैं, जिन्होंने अपने पालनहार की आयतों और उससे मिलने को नहीं माना अतः हम क़ियामत के दिन उनका कोई भार निर्धारित नहीं करेंगे। उन्हीं का बदला नरक है, इस कारण कि उन्होंने कुफ़्र किया और मेरी आयतों और मेरे रसूलों का उपहास किया। (अल-कह्फ़, 18:103-106)

यही विषय सूरह माइदा, अनआम, आराफ़, तौबा, हूद, अहज़ाब, ज़ुमर, मुहम्मद में भी समझाया गया है, और सूरह तौबा में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इनकारी जो स्पष्ट रूप से अच्छे कर्म करता है वह ईमान वाले के बराबर नहीं हो सकता:

“क्या तुम ह़ाजियों को पानी पिलाने और सम्मानित मस्जिद (काबा) की सेवा को, उसके (ईमान के) बराबर समझते हो, जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया और अल्लाह की राह में जिहाद किया? अल्लाह के पास दोनों बराबर नहीं हैं और अल्लाह अत्याचारियों को सुपथ नहीं दिखाता! जो लोग ईमान लाये और हिजरत कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ उनका बहुत बड़ा पद है और वही सफल होने वाले हैं।        (तौबा, 9:19-20)

 सार

इस कथन से और पवित्र क़ुरआन की आयतों से जो इसके समर्थन में प्रस्तुत की गई हैं, कुछ बातें निर्विवाद रूप से सिद्ध होती हैं:

1. ईमान इस्लामी व्यवस्था की आधारशिला है, जिस पर इस व्यवस्था की इमारत खड़ी की गई है। कुफ़्र और इस्लाम का अंतर केवल ईमान और अविश्वास के मूलभूत अंतर पर आधारित है।

2. मनुष्य से इस्लाम की पहली मांग यह है कि वह ईमान लाए। इस मांग को स्वीकार करने वाला इस्लाम के दायरे में शामिल है, और सभी नैतिक नियम और नागरिक क़ानून उसी के लिए हैं। और जो इस मांग को रद्द कर दे, वह इस्लाम के दायरे से बाहर है, उस के लिए न कोई नैतिक आदेश है और न ही कोई नागरिक क़ानून।

3. इस्लाम के अनुसार ईमान ही कर्म का मूल है। उसकी दृष्टि में केवल उसी कर्म का मूल्य और भार होता है जो ईमान पर आधारित है। जहां यह नींव ही मौजूद न हो, वहां सभी कर्म आधारहीन और भारहीन हैं।

एक आपत्ति

ईमान का यह महत्व कुछ लोग नहीं समझते हैं। उनका कहना है कि कुछ बौद्धिक अवधारणा का मानना कोई ऐसी विशेषता नहीं रखता है कि इसके आधार पर मानवता को दो समूहों में विभाजित किया जा सके। हमारे लिए असली चीज़ है नैतिकता, और चरित्र इसी पर अच्छे और बुरे, सही और ग़लत का अन्तर होता है। जिस व्यक्ति के पास अच्छी नैतिकता, शुद्ध चरित्र और अच्छा चाल चलन है, तो चाहे वह उन विचारों को स्वीकार करता हो या नहीं, जिन्हें इस्लाम ने ईमान के रूप में पेश किया है हम उसे अच्छा कहेंगे और उसे पवित्र लोगों के समूह में गिनेंगे। जिसके पास ये गुण नहीं हैं, उसके लिए ईमान और अविश्वास का अंतर बिल्कुल अर्थहीन है। वह जिस आस्था में भी विश्वास करता है, हम उसे बुरा ही कहेंगे। रही यह बात कि कर्मों का वज़न और उनका मूल्य ईमान पर निर्भर करता है, और ईमान के बिना कोई भी कर्म भला नहीं हो सकता, तो यह तर्कसंगत नहीं है। और बिना तर्क के किसी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि अल्लाह, रसूल, अल्लाह की किताब या क़ियामत के दिन के बारे में इस्लाम से अलग विश्वास रखने वालों के गुण, नैतिकता और अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। इस्लाम अगर किसी मान्यता को सही समझता है, तो निस्संदेह उसे इसका प्रचार करने का अधिकार है, लोगों को इसमें बुला सकता है, उन्हें इस पर विश्वास करने के लिए आमंत्रित कर सकता है। लेकिन नैतिकता की उत्कृष्टता, चरित्र की पवित्रता और कर्मों के सुधार को ईमान पर निर्भर कर देना किस हद तक सही है?

ज़ाहिर है, यह आपत्ति इतनी भारी है कि कुछ मुसलमान भी इससे प्रभावित हुए हैं और इस्लाम के सिद्धांतों को संशोधित करने को तैयार हो गए हैं। लेकिन ईमान की वास्तविकता और चरित्र से उसके संबंध को समझ लेने के बाद, यह आपत्ति अपने आप दूर हो जाती है।

आपत्ति की पड़ताल

सबसे पहले, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मनुष्यों के बीच अच्छे और बुरे के बीच का अंतर वास्तव में दो अलग-अलग बुनियादों पर आधारित है। एक जन्मजात गुण, जिसकी सुंदरता और कुरूपता मनुष्य के वश में नहीं है। दूसरा अधिग्रहण, जसकी अच्छी या बुरी होना, मन और इच्छा के सही या ग़लत प्रयोग पर निर्भर करती है। ये दो मुद्दे मानव जीवन में उनके प्रभावों के संदर्भ में एक दूसरे के साथ इतने मिश्रित हैं कि हम उन्हें और उनके प्रभावों की सीमा को एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते हैं। लेकिन सैद्धान्तिक रूप से, हम निश्चित रूप से जानते हैं कि सौंदर्य और कुरूपता की ये दो नींव मानव जीवन, विचार और कर्म में अलग-अलग मौजूद हैं।

जो अच्छाई और बुराई प्रकृति के आधार पर है, उत्पत्ति के आधार पर उसका न्याय के पैमाने पर कोई वज़न नहीं हो सकता। वज़न उसी सुंदरता और कुरूपता को दिया जाना चाहिए जो अधिग्रहण पर आधारित हो। शिक्षा, उपदेश और सभ्यता के लिए जितने भी प्रयास किए जाते हैं, उनका संबंध पहली नींव (यानी जन्मजात) से नहीं है, क्योंकि उसकी सुंदरता को कुरूपता से और कुरूपता को सुंदरता से बदलना असंभव है, बल्कि उसका संबंध दूसरी नींव (अधिग्रहण) से है, जो सही शिक्षा और सही प्रशिक्षण के माध्यम से सुंदरता की ओर निर्देशित हो सकती है और ग़लत शिक्षा और उससे भी अधिक ग़लत व्यवहार के माध्यम से कुरूपता की ओर निर्देशित हो सकती है।

इस सिद्धांत की दृष्टि से उस व्यक्ति के लिए सही तरीक़ा क्या हो सकता है जो अधिग्रहित शक्तियों को सुंदरता की ओर मोड़ता हो और उसी राह में विकसित करना चाहता हो? यही कि मनुष्य को सही ज्ञान दे, और इस ज्ञान के आलोक में उसके लिए प्रशिक्षण की एक व्यवस्था तैयार करे जो उसकी नैतिकता और उसके चरित्र को, जहां तक कि यह अधिग्रहण से संबंधित है, प्रकृति से नहीं, बेहतर तरीक़े से तैयार करे। इस संदर्भ में, ज्ञान की प्रशिक्षण पर वरीयता होना अनिवार्य है, और कोई ज्ञान वाला इसे नकार नहीं सकता है। अतः ज्ञान ही कर्म का आधार है, सही ज्ञान के बिना कोर्म का सही होना संभव नहीं है।

अब ज्ञान को लेते हैं। एक तरह का ज्ञान वह है जो हमारे जीवन के विभागों से संबंधित है, जिसे हम स्कूलों में पढ़ते और पढ़ाते हैं, और जिसमें कई विज्ञान और कला शामिल हैं। दूसरी तरह का ज्ञान वह है जिसे क़ुरआन की शब्दावली में “अल-इल्म” के नाम ते जाना जाता है। जो हमारे मामलों से नहीं बल्कि “हम” से जुड़ा है। इसका विषय यह है कि हम क्या हैं? हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसमें हमारी क्या स्थिति है? हमें और इस दुनिया को किसने बनाया? इस निर्माता के साथ हमारा क्या संबंध है? हमारे जीने का सही तरीक़ा क्या है? और वह हमें कैसे मालूम हो सकता है? हमारी जीवन यात्रा का गंतव्य क्या है?

 इन दो तरह के ज्ञान में से, इस दूसरी तरह का ज्ञान ही मौलिक है। इसी ज्ञान के सही या ग़लत होने पर, हमारी सभी कल्पनाओं और मामलों का सही या ग़लत होना निर्भर है। इसलिए मनुष्य के प्रशिक्षण और सभ्यता के लिए जो भी व्यवस्था तैयार की जाएगी उसकी बुनियाद इसी समग्र ज्ञान पर आधारित होगी। अगर समग्र ज्ञान पूरी तरह से सही होगा, तो सभ्यता और प्रशिक्षण की व्यवस्था भी सही होगी, और अगर इस ज्ञान में कोई त्रुटि है, तो इस त्रुटि के कारण सभ्यता और शिक्षा की व्यवस्था भी भ्रष्ट हो जाएगी।

पवित्र क़ुरआन में अल्लाह, फ़रिश्तों, किताबों, रसूलों और अंतिम दिन के बारे में आस्थाएं प्रस्तुत की गई हैं वे इसी समग्र ज्ञान से संबंधित हैं, और उन पर विश्वास करने की मांग इतनी दृढ़ता से इसलिए की गई है कि इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की व्यवस्था इसी ज्ञान पर आधारित है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य की अर्जन शक्तियों के प्रशिक्षण और सभ्यता की वही व्यवस्था सही है जो सही ज्ञान पर आधारित हो। जो व्यवस्थाएं बिना किसी ज्ञान के स्थापित की जाती हैं, या जिनकी नींव इस ज्ञान पर नहीं रखी जाती है, वे मूलत: ग़लत हैं। उनके तहत, मनुष्य की अधिग्रहण शक्तियों को ग़लत तरीक़े से निर्देशित किया गया है। इन रास्तों में मनुष्य के प्रयास चाहे सही प्रतीत होते हों, लेकिन वास्तव में वे ग़लत हैं। उनकी दिशा गंतव्य की ओर नहीं होती है। वे सफलता के मक़ाम तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए, वे बर्बाद होने वाले हैं और उनसे कोई लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि इस्लाम केवल अपने मार्ग को "सीधा मार्ग" कहता है और अन्य सभी रास्तों को त्यागने का आह्वान करता है जो बिना ज्ञान के या ग़लत ज्ञान के आधार पर अपनाए गए हैं।

“साथ ही, उनका मार्गदर्शन यह है कि यही मेरा सीधा मार्ग है, इसलिए इसी का अनुसरण करो और अन्य मार्गों का अनुसरण न करें, ऐसा न हो कि वे तुम्हें उसके मार्ग से हटा दें और पथभ्रष्ट कर दें। (अल-अनआम, 6:153)

इसलिए इस्लाम कहता है कि जिसका ईमान सही नहीं है, उसके सभी कार्य निष्फल हैं और वह व्यर्थ हो कर रहने वाला है।

“और जो कोई ईमान के मार्ग पर चलने से इनकार करता है, उसके जीवन की सारी उपलब्धियां नष्ट हो जाएंगी और वह आख़िरत में दिवालिया हो जाएगा। (अल-माइदा, 5:5)

इस्लाम ने जो ईमानियात प्रस्तुत किए हैं, उसके अनुसार सही मानो में वही ज्ञान, सत्य, मार्गदर्शन और सच्चा प्रकाश है। जब वे ऐसे हैं, तो उनके ख़िलाफ़ जितनी अवधारणाएं हैं, वे अज्ञानता, झूठ, गुमराही, और असत्य होनी चाहिए। अगर इस्लाम ने इतनी दृढ़ता से उनके त्याग की मांग नहीं की होती, और अगर इन झूठे विश्वासों के अनुयायियों को ईमानवालों के समान दर्जा दिया होता, तो यह एक तरह से उनकी मान्यताओं को स्वीकार करने जैसा होता और यह बात आती कि इस्लाम स्वं अपनी मान्यताओं के अंतिम सत्य होने पर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है। उस स्थिति में, उन मान्यताओं की उनकी प्रस्तुति, और उनके आधार पर प्रशिक्षण और सभ्यता की एक व्यवस्था, और लोगों को इस व्यवस्था में शामिल होने के लिए आमंत्रित करना, अर्थहीन होता। क्योंकि अगर वह मान लेता कि दूसरे ज्ञान भी इस ज्ञान के विरुद्ध समान रूप से मान्य हैं, तो एक समग्र ज्ञान को प्रस्तुत करने और उस पर विश्वास करने का आह्वान करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी तरह, अगर वह यह मान लेता है कि दूसरे ज्ञानों के आधार पर या किसी समग्र ज्ञान के बिना जो प्रशिक्षण व्यवस्थाएं विकसित हुई हैं उनके आधार पर भी सफलता पाई जा सकती है, तो इस्लामी व्यवस्था के अनुपालन के लिए आमंत्रित करने में, कोई वज़न न रहता।

साथ ही अगर पिछले पन्नों में ईमान की वास्तविकता पर चर्चा आपके दिमाग़ में ताज़ा है, तो आप समझ सकते हैं कि इस्लाम ने ईमान पर इतना ज़ोर क्यों दिया है। जो लोग कल्पना की दुनिया में रहते हैं, वे रेत पर, पानी पर, हवा पर भी महल बना सकते हैं, लेकिन इस्लाम एक बौद्धिक धर्म है, यह खोखली नींव पर सभ्यता और शिक्षा का निर्माण नहीं कर सकता है। वह पहले मनुष्य की रूह और उसकी बौद्धिक शक्तियों की गहराई में मज़बूत नींव स्थापित करता है, फिर उन पर एक ऐसी इमारत बनाता है जिसे कोई भी हिला नहीं सकता। वह सबसे पहले मनुष्य को याद दिलाता है कि सबके ऊपर एक अल्लाह है जो इस दुनिया और परलोक दोनों में सबका शासक है। जिसकी सत्ता से कोई किसी भी तरह से बाहर नहीं निकल सकता है। जिसके ज्ञान से कुछ भी छिपा नहीं है। उसने तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए रसूल भेजा है, और रसूल के माध्यम से उसने तुम्हें यह किताब और क़ानून दिया है जिसका पालन करके तुम उस वास्तविक शासक की मर्ज़ी प्राप्त कर सकते हो। अगर तुम उसके विरुद्ध कार्य करते हो, चाहे तुम्हारा अपराध कितना ही गुप्त क्यों न हो, वह शासक निश्चित रूप से तुम्हें पकड़ लेगा और तुम्हें सज़ा दिए बिना नहीं छोड़ेगा।

यह तथ्य व्यक्ति के दिल-दिमाग़ में गहराई से बिठा देने के बाद, वह अच्छे शिष्टाचार सिखाता है, अच्छे आचरण की आज्ञा देता है, और ईमान की शक्ती से, अपनी शिक्षाओं और आज्ञाओं का पालन कराता है यह छवि जितनी गहरी होगी, अनुसरण इतना परिपूर्ण होगा, आज्ञाकारिता इतनी ही मज़बूत होगी, सभ्यता और प्रशिक्षण की व्यवस्था इतनी ही शक्तिशाली होगी। इस बात को पवित्र क़ुरआन में एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया गया है:

(ऐ नबी!) क्या आप नहीं जानते कि अल्लाह ने कलिमा तय्यिबा ( पवित्र बोल, अर्थात सही आस्था) का उदाहरण एक पवित्र वृक्ष से दिया है, जिसकी जड़ (भूमि में) सुदृढ़ स्थित है और उसकी शाखा आकाश में है? वह अपने पालनहार की अनुमति से प्रत्येक समय फल दे रहा है और अल्लाह लोगों को उदाहरण दे रहा है, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें। और कलिमा ख़बीसा (अपवित्र बोल, अर्थात असत्य आस्था) का उदाहरण एक बुरे वृक्ष जैसा है, जिसे धरती के ऊपर से उखाड़ दिया गया हो, जिसके लिए कोई स्थिरता नहीं है। अल्लाह ईमान वालों को स्थिर कथन के सहारे लोक और परलोक में स्थिरता प्रदान करता है और अत्याचारियों को गुमराह कर देता है और अल्लाह जो चाहता है, करता है।”                    (इब्राहीम, 14:24-27)

अब तक, पांच ईमनियात को समग्र रूप से देखा गया है। अब हमें विस्तार से देखना चाहिए कि इन पांच मुद्दों में से प्रत्येक के बारे में इस्लाम ने क्या आस्था प्रस्तुत की है। प्रत्येक की क्या ज़रूरत है? मनुष्य की बौद्धिक शक्ति पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? और मन में उसका जमना किस तरह एक ठोस और बहुत स्थिर चरित्र का निर्माण करता है।

3. अल्लाह पर ईमान

अल्लाह पर ईमान का महत्व

इस्लाम की आस्था और अभ्यास की पूरी व्यवस्था में पहली और मौलिक चीज़ अल्लाह पर ईमान है। अन्य सभी मान्यताएँ और विश्वास इसी एक मूल की शाखाएँ हैं, और सभी नैतिक नियम और सांस्कृतिक क़ानून इसी केंद्र से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। यहां जो कुछ भी है उसका स्रोत और संदर्भ अल्लाह की सत्ता है। फ़रिशतों को इसलिए माना जाता है क्योंकि वे अल्लाह के फ़रिश्ते हैं। किताबों पर ईमान है क्योंकि वे अल्लाह द्वारा भेजी हुई हैं। रसूलों पर ईमान इसलिए है क्योंकि वे अल्लाह द्वारा भेजे गए हैं। अंतिम दिन पर ईमान है क्योंकि वह अल्लाह के न्याय का दिन है। कर्तव्य इसलिए कर्तव्य हैं क्योंकि अल्लाह ने उन्हें ठहराया है। अधिकार इसलिए अधिकार हैं क्योंकि वे अल्लाह के आदेश पर आधारित हैं। आज्ञाओं का पालन करना और निषेधों से बचना ज़रूरी है क्योंकि वे अल्लाह की ओर से हैं। यानी, इस्लाम में जो कुछ भी है, चाहे वह आस्था हो या अभ्यास, केवल अल्लाह पर ईमान पर आधारित है। इस एक बात को अलग कर दें, फिर न तो फ़रिश्ते कुछ हैं और न ही अंतिम दिन, न तो रसूल अनुसरण के योग्य हैं और न ही उनके द्वारा लाई गई किताबें, न ही कर्तव्यों और आज्ञाकारिता में, और न ही अधिकारों और दायित्वों में कोई अर्थ बचता है। न तो अध्यादेशों में कोई प्रवर्तन बल होता और न ही नियम और क़ानून में। जैसे ही यह एक केंद्र हटा दिया जाता है, पूरी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है, बल्कि, इस्लाम नाम की कोई चीज़ ही नहीं रहती है।

अल्लाह पर ईमान की विस्तृत मान्यता

यह विश्वास, जो इस महान बौद्धिक और व्यावहारिक व्यवस्था में केंद्र और शक्ति के स्रोत के रूप में काम कर रहा है, केवल इतना ही नहीं है, “सर्वशक्तिमान अल्लाह मौजूद है”, बल्कि यह कि सर्वशक्तिमान अल्लाह के गुणों की एक पूर्ण और सही अवधारणा है, (जहां तक मनुष्य के लिए उनकी कल्पना संभव है)। अल्लाह के गुणों की इस अवधारणा से वह शक्ति प्राप्त होती है जो मनुष्य की सभी बौद्धिक और व्यावहारिक शक्तियों को समाहित है और उनको नियंत्रित करती है। केवल सृष्टि के रचयिता के आस्तित्व की पुष्टि को ही इस्लाम की विशिष्टता नहीं कहा जा सकता है। अन्य समुदायों ने भी किसी न किसी रूप में अल्लाह के अस्तित्व की पुष्टि की है। हालांकि, इस्लाम को अन्य सभी धर्मों से अलग करने वाली बात यह है कि उसने अल्लाह के गुणों का सही, पूर्ण और विस्तृत ज्ञान दिया है, और फिर उस ज्ञान को विश्वास, बल्कि मूल ईमान बनाकर आत्म-शुद्धि, सुधार के लिए उपयोग किया है। इस्लाम ने इससे नैतिकता, कार्यों के संगठन, अच्छाई और बुराई के प्रसार और सभ्यता के निर्माण का इतना बड़ा काम लिया है कि दुनिया में किसी अन्य धर्म या राष्ट्र ने नहीं लिया है।

अल्लाह में आस्था का पूर्ण रूप, जिसकी ज़ुबान से स्वीकारोक्ति और दिल से पुष्टि, जो इस्लाम में प्रवेश करने की पहली और अनिवार्य शर्त है, “ला इलाहा इल लल्लाह” है। यानी दिल से इस बात की पुष्टि और जुबान से इस बात की घोषणा कि एक सत्ता, जिसका नाम अल्लाह है, के सिवा कोई उपास्य नहीं है। दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ है कि “उलूहियत” (उपास्यता, दिव्यता या उपास्य होना) को संसार की सभी चीज़ों से निकाल कर केवल एक इकाई के लिए सिद्ध किया जाए, और सभी भावनाओं, कल्पनाओं, विश्वासों और पूजाओं और प्रार्थनाओं को दिव्यता के लिए आरक्षित किया जाए। इस कलिमा (बोल) के घटक तीन हैं:

○ एक, उपास्यता की अवधारणा

○ दो, सभी चीज़ों से उसका निषेध।

○ तीन, अकेले अल्लाह के लिए उसकी पुष्टि।

पवित्र क़ुरआन में अल्लाह की सत्ता और उसके गुणों के बारे में जो कुछ भी कहा गया है, वह इन्ही तीन बातों का विवरण है।

उसने उपास्यता की ऐसी पूर्ण और सही अवधारणा प्रस्तुत की है जो हमें दुनिया के किसी भी धर्म और किसी ग्रंथ में नहीं मिलती। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अवधारणा सभी राष्ट्रों और समुदायों में किसी न किसी रूप में मौजूद है, लेकिन हर जगह ग़लत या अधूरा है। कहीं “उलूहियत” नाम है केवल प्रधानता और दायित्व का, कहीं इसे केवल मूल के रूप में लिया जाता है, कुछ जगहों पर इसे शक्ति के समानार्थी माना जाता है, कुछ जगहों पर यह केवल भय की चीज़ है। कहीं वह केवल प्रेम का सन्दर्भ है, कहीं इसका अर्थ केवल ज़रूरत की पूर्ति और पुकार का उत्तर है, तो कहीं वह विभाज्य है। कहीं यह रूपक और उपमा और लिंग से दूषित हो गया है। कभी वह आकाश में है तो कहीं वह मानव रूप में धरती पर उतर आया है।

इन सभी ग़लत या त्रुटिपूर्ण अवधारणाओं को सही और पूरा करने वाली एकमात्र किताब क़ुरआन है। इस किताब ने उपास्यता को पवित्र और प्रतिष्ठित किया है। उसने कहा है कि अल्लाह केवल वही हो सकता है जो निस्पृह, दृढ़ और स्थायी हो। जो हमेशा से हो और हमेशा रहे। जो सर्वशक्तिमान और संप्रभु हो। जिसका ज्ञान सर्वव्यापक है, जिसकी दया सब पर छाई हुई हो, जिसकी शक्ति सब पर व्याप्त हो। जिसकी तत्वदर्शिता में कोई दोष न हो। जिसके न्याय में क्रूरता का सन्देह भी नहीं हो। जो जीवनदाता और जीवन के संसाधन उपलब्ध कराने वाला हो। जो लाभ और हानि की सभी शक्तियों का स्वामी है। सभी को उसकी क्षमा और सुरक्षा की ज़रूरत हो। सभी प्राणी उसकी ओर प्रतिध्वनित हों। वही हर चीज़ का हिसाब लेनेवाला हो और सज़ा व पुरस्कार देने का अधिकार उसी के पास हो। उपास्यता के ये गुण विभाज्य नहीं हैं कि एक ही समय में अनेक उपास्य हों और इन गुणों से सजे हों, या इनमें से कुछ गुण रखते हों। न ये सामयिक और लौकिक हैं कि एक उपास्य में कभी तो ये गुण पाए जाएं और कभी नहीं। न ये गुण ऐसे हैं कि आज एक उपास्य में पाए जाएं और कल दूसरे में।

उपास्यता की इस पूर्ण और सही अवधारणा को प्रस्तुत करने के बाद, क़ुरआन अपने बहुत मज़बूत बयान से साबित करता है कि जगत की जितनी भी चीज़ें और जितनी भी ताक़तें हैं उनमें से किसी पर भी यह परिभाषा सही नहीं बैठती है। जगत की सारी सृष्टि ज़रूरतमंद और मजबूर हैं, वशीभूत और अपूर्ण हैं। किसी को लाभ या हानि पहुंचाना तो दूर वे स्वयं को हानि से बचाने में सक्षम नहीं हैं। उनके कार्यों और उनके प्रभावों का स्रोत स्वयं में नहीं है, बल्कि वे सभी अपनी कर्म शक्ति और प्रभावशक्ति भी कहीं और से प्राप्त करते हैं। इसलिए जगत में ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिसके भीतर उपास्यता का संदेह भी पाया जाता हो और जो इसका कुछ भी पात्र हो कि हम उसके आगे झुकें।

इस निषेध के बाद, वह एक इकाई की उपास्यता का दावा करता है, जिसका नाम अल्लाह है। मनुष्य से मांग करता है कि सब कुछ छोड़ कर उसी पर ईमान लाओ, उसी के सामने झुको, उसी का सम्मान करो, उसी से मुहब्बत करो, उसी से डरो, उसी से आशा करो, जो कुछ भी तुम मांगो, उसी से मांगो, हर हाल में भरोसा उसी पर करो, और हमेशा याद रखो कि एक दिन उसी के पास वापस जाना है, उसे हिसाब देना है, और तुम्हारा अच्छा या बुरा अंजाम उसी के निर्णय पर निर्भर है।

अल्लाह पर ईमान के नैतिक लाभ

अल्लाह के गुणों की इस विस्तृत अवधारणा के साथ, अल्लाह पर जो ईमान मनुष्य के दिल में स्थापित हो जाए, वह अपने अंदर ऐसे असाधारण लाभ रखता है जो किसी दूसरी अवधारणा से प्राप्त नहीं हो सकते।

दृष्टिकोण की व्यापकता

अल्लाह पर ईमान की पहली विशेषता यह है कि यह मनुष्य के क्षितिज को अल्लाह के असीमित साम्राज्य की तरह विस्तृत करता है। जब तक मनुष्य संसार को अपने स्वयं के संबंध के रूप में देखता है, तब तक उसकी दृष्टि उसी चक्र तक सीमित रहती है जिसके भीतर उसकी अपनी शक्ति, उसका अपना ज्ञान और उसकी अपनी ज़रूरतें सीमित हैं। इसी दायरे में वह अपने लिए ज़रूरतें पूरी करने वाला खोजता है। उसी दायरे में, जो मज़बूत हैं, वह उन से डरता और दबता है और जो कमज़ोर हैं उन पर रोब जमाता है। उसी दायरे में उसकी दोस्ती और दुश्मनी, मुहब्बत और नफ़रत, सम्मान और अपमान सीमित रहते हैं, जिसके लिए उसके स्वयं के सिवा कोई अन्य मानक नहीं होता। लेकिन अल्लाह पर ईमान करने के बाद उसकी दृष्टि अपने परिवेश से निकल कर पूरे जगत तक फैल जाती है। अब वह जगत को अपने संबंध में नहीं बल्कि अल्लाह के संबंध में देखता है। अब उसका इस विशाल संसार की हर चीज़ से एक अलग रिश्ता बन जाता है। अब उसे इनमें कोई ज़रूरतें पूरी करना वाला, शक्ति वाला, हानि या लाभ पहुंचाने वाला नहीं दिखाई देता है। वह अब किसी को भी सम्मान या अपमान करने, डरने या उम्मीद करने लायक़ नहीं पाता है। अब उसकी दोस्ती या दुश्मनी, प्यार या नफ़रत अपने लिए नहीं बल्कि ख़ुदा के लिए है। वह देखता है कि जिस अल्लाह को मैं मानता हूं वह केवल मेरा या मेरे परिवार या मेरे राष्ट्र का निर्माता और प्रभु नहीं है, बल्कि आसमानों और ज़मीन का निर्माता और सभी दुनियाओं का पालमहार है। उसका शासन केवल मेरे देश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह आसमानों और ज़मीन का स्वामी और पूर्व और पश्चिम का मालिक है। इसका अर्थ यह है कि उसकी उपासना करने वाला मैं अकेला नहीं हूं, बल्कि ज़मीन और आकाश की सभी चीज़ें उसके सामने झुकी हुई हैं:

“हालांकि आकाशों और ज़मीन की सारी चीज़ें स्वेच्छा से या अनिच्छा से अल्लाह ही की आज्ञाकारी हैं और सब उसी की ओर फेरे जायेंगे। (आले-इमरान, 3:83)

और हर चीज़ उसकी महिमा और पवित्रता में लगी हुई है:

“उसकी पवित्रता का वर्णन कर रहे हैं सातों आकाश और धरती और जो कुछ उनमें है। (बनी इसराईल, 17:44)

इस अर्थ में, जब वह जगत को देखता है, तो कोई भी उसके लिए पराया नहीं होता है, सभी अपने होते हैं। उसकी करुणा, उसका प्रेम, उसकी सेवा उसके आत्म-संबंध द्वारा निर्धारित किसी क्षेत्र से बंधी नहीं होती।

तो जो कोई अल्लाह पर ईमान रखता है वह कभी भी संकीर्ण सोच वाला नहीं हो सकता। शब्द "अंतर्राष्ट्रीयता" भी उसके व्यापक दायरे के लिए संकीर्ण है। उसे वास्तव में "सार्वभौमिक और कायनाती" कहा जाना चाहिए।

आत्मसम्मान

अल्लाह पर यही ईमान व्यक्ति को दीनता और अपमान से आत्म-संयम और आत्म-सम्मान के उच्चतम स्तरों पर ले जाता है। जब तक वह अल्लाह को नहीं पहचानता था, दुनिया की हर शक्तिशाली चीज़, हर फ़ायदेमंद या हानिकारक चीज़, हर शानदार और महान चीज़ के सामने झुकता था, उससे डरता था, उसके सामने हाथ फैलाता था, वह उससे उम्मीदें बांधता था। लेकिन जब उसने अल्लाह को पहचान लिया, तो उसने महसूस किया कि जिनके आगे वह हाथ फैला रहा था, वे ख़ुद मुहताज हैं।

“वे स्वयं अपने प्रभु तक पहुंच प्राप्त करने के साधन की तलाश में हैं।          (बनी इसराईल, 17:57)

“तुम लोग अल्लाह को छोड़ कर जिन्हें पुकारते हो, वे तो मात्र बंदे हैं, जैसे तुम बंदे हो। (अल-आराफ़, 7:194)

“जिनसे उसने मदद की उम्मीद की थीवह उसकी मदद तो दूर आप अपनी मदद नहीं कर सकते। (अल-आराफ़, 7:197)

“वास्तविक शक्ति का स्वामी तो अल्लाह है। (अल-बक़रह, 2:165)

“वही शासक और आदेश का स्वामी है। (अल-अनआम, 6:57)

“और उसके सिवा कोई तुम्हें ख़बर लेने वाला और तुम्हारी सहायता करने वाला नहीं है? (अल-बक़रह, 2:107)

“और समर्थन तो केवल अल्लाह ही के पास से है, जो प्रभुत्वशाली और सब कुछ जानने वाला है। आले-इमरान,3:126)

“अवश्य अल्लाह ही जीविका दाता, शक्तिशाली और पराक्रमी है।                  (अल-ज़ारियात, 51:58)

“ज़मीन और आसमानों की कुंजियाँ उसी के हाथ में हैं। (अल-शूरा, 42:12)

वही है जो मारता है और जिलाता है। इसका मतलब है कि उसकी अनुमति के बिना कोई किसी को न मार सकता है न बचा सकता है।

“और वह अल्लाह ही है जो जीवन देता है और मारता है। (आले-इमरान, 3:145)

“अल्लाह ही है जो असल में मारता और जिलाता है।  (आले-इमरान,3:156)

लाभ और हानि की वास्तविक शक्ति उसी के हाथ में है।

“अगर अल्लाह तुम्हें विपत्ति में डाल दे, तो उसके सिवा कोई नहीं जो उस विपत्ति को टाल सके और अगर वह तुम्हारे लिए कुछ भलाई का इरादा करे, तो कोई नहीं है जो उसकी कृपा को फेर सके। (यूनुस, 10:107)

इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद, वह दुनिया की सभी ताक़तों से स्वतंत्र और निडर हो जाता है। उसकी गर्दन अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं झुकती। उसका हाथ अल्लाह के सिवा किसी के आगे नहीं बढ़ता। अल्लाह के सिवा किसी की महानता उसके हृदय में निवास नहीं करती। वह अल्लाह के अतिरिक्त किसी से आशा नहीं रखता।

विनम्रता

लेकिन यह आत्म-सम्मान वह झूठा आत्म-सम्मान नहीं है जो अपनी ताक़त, धन, या क्षमता पर घमंड का परिणाम होता है। यह स्वाभिमान वह स्वाभिमान नहीं है जो किसी ग़लत व्यक्ति में अहंकार और घमंड के कारण उत्पन्न होता है। बल्कि, यह परिणाम है अल्लाह के साथ समस्त सृष्टि के संबंध को ठीक-ठीक समझ लेने का । इसलिए अल्लाह पर ईमान रखने वालों में स्वाभिमान का विनम्रता के साथ और आत्म-सम्मान का अल्लाह से डर के साथ संबंध होता है। वह जानता है कि मैं अल्लाह की शक्ति के आगे पूरी तरह से असहाय हूं। कहा गया:

“उसका अपने बन्दों (सेवकों) पर पूर्ण अधिकार है। (अल-अनआम, 6:18)

अल्लाह की सत्ता से निकलना मेरे या किसी और के अधिकार में नहीं है। तो अल्लाह कहता है:

“ऐ जिन्नों और मनुष्यों के समूह, अगर तुम ज़मीन और आकाश की सीमाओं से निकल कर भाग सकते हो, तो भाग कर देखो, तुम नहीं भाग सकते। इसके लिए एक बड़ा ज़ोर चाहिए। (अल-रहमान, 55:33)

मैं क्या, समस्त जगत को अल्लाह की ज़रूरत है और उसे किसी की ज़रूरत नहीं।

“और अल्लाह धनी है और तुम निर्धन हो, तुम सब को उसकी ज़रूरत है। (मुहम्मद, 47:38)

“आकाश और ज़मीन में जो कुछ भी है वह अल्लाह का है। (अल-बक़रह 2:284)

और जो नेमत मुझे मिली है वह अल्लाह की ओर से है।

“तुम को जो नेमत भी मिली है, अल्लाह ही की तरफ़ से है। (अल-नह्ल, 16:53)

इस मान्यता के बाद अभिमान और अहंकार कहाँ रह सकता है? अल्लाह पर ईमान की ख़ास बात यह है कि यह इनसान को पूरी तरह से विनम्र बना देता है।

“और अल्लाह अति दयावान् के बन्दे वे हैं, जो धरती पर नम्रता से चलते हैं और जब अशिक्षित (असभ्य) लोग उनसे व्यर्थ बातें करते हैं, तो सलाम करके अलग हो जाते हैं। (अल-फ़ुर्क़ान, 25:63)

 झूठी उम्मीदों का विरोध

सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच संबंध की सही जानकारी का एक फ़ायदा यह भी है कि इससे उन सभी झूठी उम्मीदों और झूठे विश्वासों का अंत हो जाता है जो अज्ञानता का परिणाम हैं, और एक व्यक्ति अच्छी तरह से समझ लेता है कि उसके लिए सही आस्था और अच्छे कर्मों के सिवा सफलता का और कोई ज़रिया नहीं है। जो लोग इस ज्ञान से वंचित हैं उनमें से कुछ लोग सोचते हैं कि बहुत से और छोटे देवता भी अल्लाह के कार्यों में भागीदार हैं। हम उनकी ख़ुशामद कर के अनुशंसा करा लेंगे।

“और वे कहते हैं कि ये हमारे लिए अल्लाह के पास सिफ़ारिश करने वाले हैं। (यूनुस, 10:18)

कोई समझता है कि अल्लाह का पुत्र है और उस पुत्र ने प्रायश्चित करके हमारे लिए मोक्ष का अधिकार सुरक्षित कर लिया है। कोई सोचता है कि:

हम ख़ुद अल्लाह के बेटे और उसके चहीते हैं।

“यहूदी और ईसाई कहते हैं कि हम अल्लाह के बेटे और उसके चहीते हैं।      (अल-माइदा, 5:19)

हम कुछ भी कर लें, हमें सज़ा नहीं दी जा सकती। कई झूठी उम्मीदें हैं जो लोगों को हमेशा गुनाह के चक्र में फंसाए रखती हैं, क्योंकि वे उनके भरोसे पर अपनी रूह की पवित्रता और अपने कर्म के सुधार की अनदेखी करने लगते हैं। लेकिन क़ुरआन अल्लाह पर जिस ईमान की शिक्षा देता है, उसमें ग़लत उम्मीदों के लिए कोई जगह नहीं है। उसका कहना है कि कोई भी राष्ट्र अल्लाह के लिए विशेष नहीं होता।

सब उसकी सृष्टि हैं और वह सबका रचयिता है।

“वास्तव में, तुम भी वैसे ही इनसान हो, जैसे अल्लाह द्वारा बनाए गए अन्य इनसान हैं। (अल-माइदा, 5:18)

बड़ाई और विशेषता जो कुछ भी है वह धर्मपरायणता के आधार पर है।

“वास्तव में, अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अधिक सम्माननीय वह है जो तुम में सबसे धर्मपरायण है। (हुजरात, 49:13)

अल्लाह न कोई संतान रखता है और न उसका कोई साथी या सहायक है।

“और कहो कि सब प्रशंसा उस अल्लाह के लिए है, जिसके कोई संतान नहीं और न राज्य में उसका कोई साझी है और न उसका कोई समर्थक है।              (बनी इसराइल, 17:111)

जिन्हें तुम उसकी सन्तान या साझीदार समझते हो, वे सब उसके बन्दे और दास हैं।

“वास्तविक तथ्य यह है कि ज़मीन और आकाशों में जो भी है, वह उसी का है और सब उसी के आज्ञाकारी हैं। (अल-बक़रह 2:116)

उनकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश करने की हिम्मत किसी में नहीं है।

“कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके।        (अल-बक़रह, 2:255)

 अगर तुम अवज्ञा करते हो, तो कोई मध्यस्थ और सहायक तुमको उसकी सज़ा से बचा न सकेगा।

“और जब अल्लाह किसी राष्ट्र की शामत लाने का निश्चय कर लेता है, तो वह किसी के टाले नहीं टल सकता और न ही ऐसी जाति का अल्लाह के विरुद्ध कोई सहायक या सहायक हो सकता है। (अल-राद, 13:11)

आशावाद और संतुष्टि

इसके साथ ही अल्लाह पर ईमान व्यक्ति में आशावाद की ऐसी स्थिति पैदा करता है जो किसी भी स्थिति में निराशा से हार नहीं मानती। ईमान वाले के लिए, ईमान आशा का एक शाश्वत ख़ज़ाना है, जिससे दिल और रूह को निरंतर शक्ति मिलती रहती है। भले ही वह दुनिया के सभी दरवाज़ों से ठुकरा दिया जाए, सभी संसाधन एक-एक करके उसका साथ छोड़ दें, लेकिन अल्लाह का सहारा कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ता और वह हमेशा आशा से भरा रहता है। क्योंकि जिस अल्लाह पर उसने विश्वास किया है, वह कहता है कि:

“और ऐ पैग़म्बर, अगर मेरे बन्दे तुझ से मेरे विषय में पूछें, तो उन्हें बता दो कि मैं उनके निकट ही हूं। पुकारने वाला जब मुझे पुकारता है, तो मैं उसकी पुकार सुनता हूं और जवाब देता हूं। (अल-बक़रह, 2:186)

“मुझ से अन्धेर का डर न करो, क्योंकि मैं अन्यायी नहीं हूं।

अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म नहीं करता। (आले-इमरान, 3:182)

“मेरी दया हर चीज़ तक फैली हुई है। (अल-आराफ़, 7:156)

मेरी दया से निराश ते वे होते हैं, जो मुझ पर ईमान नहीं रखते।

“अल्लाह की रहमत से मायूस न हो, उसकी रहमत से तो काफ़िर ही मायूस होते हैं। (यूसुफ़, 12:87)

रहा मोमिन (ईमान वाला), तो उसके लिए निराशा की कोई जगह नहीं है। अगर उसने कोई ग़लती की है, तो मुझसे माफ़ी मांगे, मैं उसे माफ़ कर दूंगा।

“जो व्यक्ति कोई बुराई करे अथवा अपने ऊपर अत्याचार करे, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करे, तो वह उसे क्षमा करने वाला और दयालु पायेगा।           (अल-निसा, 4:110)

(ऐ नबी) कह दो: ऐ मेरे बन्दों, जिन्हों ने अपने आप पर अत्याचार किया है, अल्लाह की दया से निराश मत हो, निश्चय ही अल्लाह सभी गुनाहों को क्षमा कर देता है। (अल-ज़ुमर 39:53)

अगर संसार के संसाधन उसका साथ नहीं देते हैं, तो वह उन पर अपना भरोसा छोड़ कर मेरी पनाह में आ जाए। तब उसके पास भय और शोक नहीं आएगा।

जिन लोगों ने कहा, "अल्लाह हमारा रब है" और फिर उस पर जमे रहे, यक़ीनन उन पर फ़रिश्ते उतरते हैं और उनसे कहते हैं कि न डरो और न चिंता करो। (अल-सजदा, 41:30)

मेरी याद वह चीज़ है जो दिलों में शांति और संतोष लाती है।

“जान लो, अल्लाह की याद ही वह चीज़ है जो दिलों को तसल्ली देती है।     (अल-राद, 13:28)

धैर्य और भरोसा

फिर यही आशावाद विकसित होता है और धैर्य और अल्लाह पर भरोसा के उच्चतम स्तर तक पहुंच जाता है। जहां मोमिन (ईमान वाला) का हृदय भारी चट्टान की तरह मज़बूत और स्थिर हो जाता है, और सारी दुनिया की कठिनाइयां, दुश्मनियां, कष्ट और विरोधी शक्तियां उसे अपने स्थान से हिला नहीं सकतीं। यह ताक़त इनसान को अल्लाह पर ईमान के सिवा किसी और ज़रिए ते प्राप्त नहीं होती, क्योंकि जो अल्लाह पर ईमान नहीं रखता वह भौतिक या मायावी साधनों और संसाधनों पर निर्भर रहता है, जिसमें कोई शक्ति नहीं होती। जो उनके बल पर रहता है वह मकड़ी के तार का सहारा लेता है।

इसलिए अल्लाह कहता है:

“जिन्होंने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिये हैं, उन लोगों का उदाहरण मकड़ी की तरह है जो अपने लिए घर बनाती है, और मकड़ी का घर सभी घरों में सबसे कमज़ोर घर होता है। (अंकबूत, 29:41)

इतने कमज़ोर सहारों पर जिसका जीवन निर्भर हो उसका कमज़ोर हो जाना निश्चित है:

“मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद मांगी जाती है वे भी कमज़ोर। (अल-हज, 22:73)

लेकिन जो अल्लाह पर भरोसा रखता है, उसका सहारा इतना मज़बूत होता है कि वह कभी टूट नहीं सकता:

“अब जो कोई भी तग़ूत (शैतानी ताक़तों) को ठुकराता है और अल्लाह पर ईमान रखता है, उसके पास एक दृढ़ सहारा है जो कभी टूटने वाला नहीं।             (अल-बक़रह 2:256)

 उसके पास तो आकाशों और ज़मीन के प्रभु की शक्ति है, कौन सी शक्ति उस पर प्रबल हो सकती है?

“अगर अल्लाह तुम्हारे साथ है, तो कोई भी शक्ति तुम पर हावी नहीं होगी। (आले-इमरान, 3:160)

संसार के सारे संकट मिल कर भी उसे धैर्य और दृढ़ता के स्थान से हटा नहीं सकते, क्योंकि :

“कहो सब कुछ अल्लाह की ओर से है। (अल-निसा, 4:78)

उसके अनुसार, अच्छा और बुरा सब कुछ अल्लाह की ओर से है। जो भी विपत्ति आती है वह ईश्वरीय नियति के अधीन होती है और अल्लाह के सिवा कोई टालने वाला नहीं है।

“उन से कहो कि अल्लाह ने हमारे लिए जो कुछ लिखा है, उसके सिवा हम पर कोई बुराई या भलाई नहीं आती। अल्लाह हमारा रब है, और ईमानवालों को उस पर भरोसा करना चाहिए l (अल-तौबा, 9:51)

 नबियों ने जिस अलौकिक शक्ति के साथ दुनिया की भयानक परेशानियों का सामना किया। महान साम्राज्यों और शक्तिशाली राष्ट्रों के ख़िलाफ़ अकेले संघर्ष करते रहे, वे सांसारिक संसाधनों के बिना दुनिया को अपने अधीन करने के दृढ़ संकल्प लेकर उठे और कठिनाइयों के तूफ़ान में भी अपने मिशन से न हटे, अपने मिशन से विचलित नहीं हुए, वे सभी धैर्य और अल्लाह पर भरोसे की शक्ति थी। हज़रत इब्राहीम को देखिए, वे अपने देश के अत्याचारी राजा से वाद-विवाद करते हैं, निडर होकर आग में कूद जाते हैं और अंत में बिना किसी संसाधन के मातृभूमि को छोड़ देते हैं। देखिए कैसे हज़रत हुद ने आद की महान शक्ति को चुनौती दे दी:

“उस (अल्लाह) के सिवा, तुम सब मिलकर मेरे विरुध्द षड्यंत्र रच लो, फिर मुझे कुछ भी अवसर न दो। वास्तव में, मैंने अल्लाह पर, जो मेरा पालनहार और तुम्हारा पालनहार है, भरोसा किया है। कोई चलने वाला जीव ऐसा नहीं, जो उसके अधिकार में न हो। (हूद, 11:55)

हज़रत मूसा को देखिए, अल्लाह के भरोसे पर फ़िरऔन की शक्तिशाली सत्ता से टकराते हैं। जब वह उन्हें मारने की धमकी देता है, तो वे उत्तर देते हैं कि मैंने हर अभिमानी व्यक्ति के ख़िलाफ़ उसकी शरण ले ली है, जो मेरा और तुम सब का पालनहार है।

जब वे मिस्र से निकलते हैं, तब फ़िरऔन अपनी सारी शक्ति से उनका पीछा करता है, उनकी डरपोक क़ौम घबरा कर कहती है कि दुश्मन हमारे पास आ गए हैं। लेकिन वे बड़े शांत मन से कहते हैं: नहीं, अल्लाह मेरे साथ है, वह मुझे सुरक्षा के मार्ग पर ले जाएगा।

अंत में, पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को देखिए। हिजरत (प्रवास) के अवसर पर वे एक गुफा में रहते हैं। केवल एक मित्र ही साथ होता है। ख़ून के प्यासे काफ़िर सिर पर चढ़ आते हैं, लेकिन फिर भी आप चिंतित नहीं होते। अपने साथी से कहते है: डरो मत, अल्लाह हमारे साथ है। यह अजेय शक्ति, यह लोहे जैसा दृढ़ संकल्प, यह पहाड़ जैसी दृढ़ता, अल्लाह में आस्था के सिवा किसी और चीज़ से प्राप्त की जा सकती है क्या?

बहादुरी

इससे मिलता-जुलता एक और गुण है जो अल्लाह पर ईमान से जन्म लेता है, अर्थात् साहस और बहादुरी। इनसान को दो चीज़ें कायर बनाती हैं, एक मुहब्बत जो वह अपनी जान, अपने परिवार और अपने माल से रखता है। दूसरा डर, जो उस झूठे विश्वास का परिणाम है कि नुक़सान पहुंचाने और मारने की शक्ति उन चीज़ों में निहित है जो केवल उपकरण के रूप में उपयोग की जाती हैं। अल्लाह पर ईमान इन दोनों चीज़ों को दिल से निकाल देता है। मोमिन में यह विश्वास निहित है कि अल्लाह ही सबसे अधिक प्रेम का अधिकार रखता है:

ईमान वाले अल्लाह को सबसे बढकर मुहब्बत करते हैं। (अल-बक़रह, 2:165)

उनके हृदय में यह बात बैठ जाती है कि धन और सन्तान सब संसार की शोभा हैं, जिनका कभी न कभी नाश होना निश्चित है।

“ये संपत्ति और ये बच्चे सांसारिक जीवन की एक अस्थायी शोभा मात्र हैं। वास्तव में, शेष रहने वाले अच्छे कर्म ही तेरे पालनहार की दृष्टि में परिणाम के आधार पर सबसे अच्छे हैं और उनसे ही अच्छी उम्मीदें जुड़ी हो सकती हैं।          (कह्फ़, 18:46)

इस दुनिया की जिंदगी बस कुछ ही दिनों की है, इसे बचाने के लिए जितना हो सके जतन करो, मौत तो एक दिन ज़रूर आएगी:

“उनसे कहो कि जिस मृत्यु से तुम भाग रहे हो वह तुम्हें आ कर रहेगी।      (अल-जुमुआ, 62:8)

“रही मृत्यु, तो जहां भी तुम रहो, वह तुम्हें आ कर रहेगी, चाहे तुम्हारी इमारतें कितनी भी मज़बूत क्यों न हों। (अल-निसा, 4:78)

तो क्यों न अल्लाह के पास मिलने वाले अनन्त सुख के जीवन के लिए इस जीवन को क़ुर्बान कर दिया जाए:

“जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाते हैं, उन्हें मरा हुआ न समझो, असल में वे ज़िन्दा हैं, अपने रब के पास रोज़ी पा रहे हैं। अल्लाह ने अपनी कृपा से उन्हें जो कुछ दिया है, उससे वे ख़ुश और संतुष्ट हैं। (आले-इमरान, 3:169-170)

क्यों न कुछ दिनों के सांसारिक सुखों और अस्थायी लाभों का बलिदान अल्लाह की प्रसन्नता के लिए किया जाए, जो वास्तव में हमारे जीवन और धन का स्वामी है, और जो इन के बदले में इससे बेहतर जीवन और अधिक वास्तविक लाभ देने वाला है?

“सच तो यह है कि अल्लाह ने ईमान वालों से जन्नत के बदले उनकी जान और माल ख़रीद लिया है। वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते और मारते और मरते हैं।  (अल-तौबा, 9:111)

रहा डर, तो मोमिन को सिखाया जाता है कि नुक़सान पहुंचाने और मारने की वास्तविक शक्ति मनुष्य या जानवर, तोप या तलवार, लकड़ी या पत्थर में नहीं है, बल्कि अल्लाह की शक्ति में है। अगर दुनिया की सभी ताक़तें एक साथ आ जाएं और किसी को नुक़सान पहुंचाना चाहें, तो अल्लाह की अनुमति के बिना, उसका बाल भी बेका नहीं हो सकता:

“यह स्पष्ट था कि अल्लाह की अनुमति के बिना वे इस माध्यम से किसी को नुक़सान नहीं पहुंचा सकते थे। (अल-बक़रह, 2:102)

मृत्यु का जो समय अल्लाह ने लिख दिया है, उस से पहले किसी के लाने से मृत्यु नहीं आ सकती।

“अल्लाह की इजाज़त के बिना कोई भी जानदार नहीं मर सकता। मृत्यु का समय तो लिखा हुआ है। (आले-इमरान, 3:145)

और अगर मृत्यु का लिखित समय आ जाए, तो उसे कोई टाल नहीं सकता:

“उनसे कहो कि अगर तुम अपने घरों में भी होते तो जिन लोगों की मौत लिखी हुई थी, वे अपने मारे जाने के स्थानों की ओर निकल आते।                  (आले-इमरान, 3:154)

“इसलिए जब मामला यह है, तो लोगों से डरने के बजाय अल्लाह से डरना चाहिए:

इसलिए आगे से तुम मनुष्यों से मत डरना, मुझ से डरना, अगर तुम सच में ईमान वाले हो। (आले-इमरान, 3:175)

वास्तव में वही ऐसी हस्ती है, जिससे डरा जाए:

“हालाँकि अल्लाह इसका हक़दार है कि तुम उससे डरो। (अल-अहज़ाब, 33:37)

अल्लाह के मार्ग में लड़ने से जी चुराना तो उनका काम है जिन के दिल में ईमान नहीं है, इस लिए वे अल्लाह से अधिक बन्दों से डरते हैं:

“वे लोगों से ऐसा डर रहे हैं। जैसा अल्लाह से डरना चाहिए या कुछ उससे भी बढ़कर। (अल-निसा, 4:77)

नहीं तो जो सच्चे ईमानवाले हैं, वे अपने दुश्मनों के दल देखकर भयभीत होने के स्थान पर और अधिक शेर हो जाते हैं, क्योंकि उनका भरोसा सांसारिक शक्ति पर नहीं, बल्कि अल्लाह पर है:

“जिन से लोगों ने कहा, "तुम्हारे विरुद्ध बड़ी सेनाएं इकट्ठी हो गई हैं, उनसे डरो।" यह सुनकर, उनका ईमान बढ़ गया और उन्होंने उत्तर दिया, " हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह सबसे अच्छा कार्यसाधक है।" (आले-इमरान 3:173)

संतोष

फिर, अल्लाह में यह विश्वास मनुष्य के दिल से लालच और ईर्ष्या की उन गंदी भावनाओं को भी दूर कर देता है, जो उसे लाभ पाने के लिए शर्मनाक और अवैध तरीक़े अपनाने के लिए मजबूर करती हैं। ईमान के साथ इनसान में, संतोष और विनम्रता का उदय होता है। वह दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करता है। वह अत्याचार और आक्रामकता की घाटियों में नहीं भागता। वह हमेशा अपने अल्लाह की कृपा को गरिमापूर्ण तरीक़े से चाहता है और जो थोड़ा बहुत उसे मिलता है, तो वह इसे अल्लाह की कृपा समझकर संतुष्ट रहता है। मोमिन को सिखाया गया है कि सब कुछ अल्लाह के हाथ में है, वह जिसे चाहता है उसे देता है:

“ऐ नबी, उनसे कहो: इनाम और सम्मान अल्लाह के अधिकार में हैं, जिसे वह चाहता है उसे देता है। वह व्यापक हृदय वाला और सर्वज्ञ, वह अपनी दया के लिए जिसे चाहता है, उसे चुन लेता है। (आले-इमरान, 3:73-74)

जीविका अल्लाह के हाथ में है, जिसे वह जितना चाहे प्रदान करता है:

“अल्लाह जिसे चाहता है उसे भरपूर रोज़ी देता है और जिसे चाहता है उसे नपी-तुली रोज़ी देता है। (अल-राद, 13:26)

वास्तव में, ज़मीन अल्लाह की है, जिसे वह चाहे शासक बना दे:

“धरती अल्लाह की है, वह जिसे चाहता है अपने बन्दों में से उसका वारिस बना देता है। (आराफ़, 7:128)

 सम्मान और प्रतिष्ठा उसी के हाथ में है, जिसे चाहे सम्मान देता है और जिसे चाहे अपमानित करता है:

“जिसे चाहता है उसको सम्मान देता है और जिसे चाहता है उसे अपमानित करता है। भलाई तेरे नियंत्रण में है। वास्तव में, तू सब कुछ करने में सक्षम है।    (आले-इमरान,3:26)

संसार की यह व्यवस्था मान, धन, शक्ति, सौन्दर्य, यश और अन्य गुणों की दृष्टि से कोई आगे है तो कोई पीछे, वास्तव में अल्लाह द्वारा स्थापित है, अल्लाह इसके हितों को बहुत अच्छी तरह जानता है। मनुष्य के लिए अल्लाह द्वारा बनाई गई व्यवस्था को बदलने का प्रयास करना न तो उचित है और न ही व्यावहारिक:

“और देखो, अल्लाह ने तुम में से कुछ लोगों को दूसरों पर रोज़ी में श्रेष्ठता प्रदान की है। (अल-नह्ल, 16:71)

“और जो कुछ अल्लाह ने तुम में से किसी को दूसरों से अधिक दिया है उसका लालच न करो। (अल-निसा, 4:32)

 नैतिक सुधार और कर्म की व्यवस्था

इनमें से सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह है जो अल्लाह में आस्था से सभ्यता को पहुंचता है। यह मानव समुदाय के सदस्यों के बीच ज़िम्मेदारी की भावना पैदा करता है। रूहों में शुद्धता और कार्यों में संयम आता है, लोगों के बीच आपसी संबंध सही होते हैं, क़ानून के पालन की भावना पैदा होती है, आज्ञाकारिता और आत्म-संयम आता है। व्यक्ति आंतरिक शक्ति द्वारा प्रेरित होकर एक न्यायपूर्ण और व्यवस्थित समाज का निर्माण करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो जाते हैं। यह वास्तव में अल्लाह पर ईमान का चमत्कार है और उसी के लिए आरक्षित है। दुनिया में किसी सत्ताधारी शक्ति, शिक्षा और प्रशिक्षण, या आदेश और उपदेश से नैतिकता के सुधार और कार्यों को व्यवस्थित करने का काम इतने व्यापक पैमाने पर और इतनी गहरी बुनियादों पर पूरा नहीं हो सकता है। सांसारिक शक्तियों की पहुंच केवल शरीर तक होती है, रूह तक नहीं, और शरीर पर उनकी पकड़ हर जगह और हर समय नहीं होती है। शिक्षा और प्रशिक्षण और उपदेश का प्रभाव भी केवल बुद्धि और विचार तक ही सीमित रहता है, और वह भी एक सीमा तक। रही मनेच्छा, तो वह न केवल स्वयं इससे अप्रभावित रहती है, बल्कि बुद्धि को भी वश में करने में लगी रहती है। लेकिन ईमान वह चीज़ है जो अपनी सुधार और संगठनात्मक शक्तियों को लेकर मनुष्य के दिल और रूह की गहराई में उतरता जाता है और वहां एक शक्तिशाली और जागृत विवेक को जन्म देता है जो हर समय और हर जगह मनुष्य को पवित्रता और आज्ञाकारिता की सीधी राह दिखाता रहता है। और दुष्ट से दुषट मन में भी अपनी फटकार से कुछ न कुछ प्रभाव बनाए बिना नहीं रहता है।

यह बड़ा लाभ अल्लाह के और उसकी शक्ति से मिलता है, जो ईमान का एक अनिवार्य हिस्सा है। पवित्र क़ुरआन में कई जगहों पर मनुष्य को चेतावनी दी गई है कि अल्लाह का ज्ञान हर चीज़ पर हावी है और उससे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता।

“पूर्व और पश्चिम सब अल्लाह ही के हैं। तुम जिधर भी मुंह करोगे, उधर अल्लाह मौजूद है। वास्तव में, अल्लाह विशाल और सर्वव्यापी है। (अल-बक़रह 2:115)

तुम जहाँ कहीं भी हो, अल्लाह तुम सबको पकड़ बुलाएगा। बेशक, अल्लाह सब कुछ करने में सक्षम है। (अल-बक़रह 2:148)

“वास्तव में, अल्लाह से कुछ भी छिपा नहीं है, न धरती में और न ही आकाश में। (आले-इमरान 3:5)

और उसके पास परोक्ष की कुंजियाँ हैं, जिसका ज्ञान उसके सिवा और किसी को नहीं । वह सब कुछ जानता है जो जल और थल में है। एक पत्ता भी ज़मीन पर गिर जाए तो अल्लाह को उसका ज्ञान हो जाता है। और ज़मीन की अँधेरी परतों में कोई दाना ऐसा नहीं और कोई सूखी या गीली चीज़, जो एक खुली किताब में लिखी हुई मौजूद न हो।

“हमने ही मनुष्य को पैदा किया है और हम जानते हैं जो विचार उसके मन में आते हैं और हम उससे (उसकी) प्राणनाड़ी से भी अधिक पास हैं। (क़ाफ़,50:16)

किसी तीन की काना-फूसी ऐसी नहीं होती जिसमें चौथा अल्लाह न हो, और किसी पांच की काना-फूसी ऐसी नहीं होती जिसमें छठा अल्लाह न हो,  और न इससे कम या इससे अधिक लोगों का कोई समुह ऐसा होता है जिसमें वह उनके साथ न हो, चाहे वह जहाँ भी हो। (अल-मुजादला, 58:7)

“वे लोगों से छिप सकते हैं, लेकिन वे अल्लाह से नहीं छिप सकते। अल्लाह उनके साथ तब भी होता है जब वे रात में उसकी इच्छा के विरुद्ध छुप कर बातें करते हैं, और जो कुछ वे करते हैं उसमें अल्लाह उनपर छाया हुआ है। (अल-निसा. 4:108)

“क्या वे नहीं जानते कि वे जो कुछ भी गुप्त रूप से और सार्वजनिक रूप से करते हैं, अल्लाह को उसकी जानकारी होती है। (अल-बक़रह, 2:77)

“जबकि (उसके) दायें-बायें दो फ़रिश्ते लिख रहे हैं। वह नहीं बोलता कोई बात, मगर उसे लिखने के लिए उसके पास एक निरीक्षक तैयार होता है।          (क़ाफ़, 50:17-18)

“तुममें से जो बात चुपके बोले और जो पुकार कर बोले और कोई रात के अंधेरे में छुपा हो या दिन के उजाले में चल रहा हो, (उसके लिए) बराबर है। उसके आगे और पीछे अल्लाह  के जासूस लगे हुए हैं, जो अल्लाह के आदेश से, उसकी रक्षा कर रहे हैं। (अल-राद 13:10-11)

इसके साथ ही मनुष्य के मन में यह बात बहुत अच्छी तरह से बिठा दी गई है कि एक दिन उसे अल्लाह के सामने ज़रूर उपस्थित होना है:

“और अच्छी तरह से जान लो कि एक दिन तुम्हें उससे मिलना है।            (अल-बक़रह 2:223)

“और अच्छी तरह जान लो कि एक दिन तुम्हें उसके सामने उपस्थित होना है। (अल-बक़रह 2:203)

 और उसे हर चीज़ का हिसाब देना होगा:

“या कम से कम इसी तरह से अल्लाह हर चीज़ का हिसाब लेने वाला है।”   (अल-निसा 4:86)

और अल्लाह की पकड़ बहुत मज़बूत है:

“निश्चय ही तुम्हारे रब की पकड़ बहुत सख़्त है। (अल-बुरुज, 85:12)

यह विश्वास, जिसे विभिन्न तरीक़ों से हृदय में बिठाने की कोशिश की गई है, वास्तव में इस्लाम के पूरे क़ानून को लागु करने की ताक़त है। इस्लाम ने हराम और हलाल की जो सीमा तय की है, और नैतिकता, रहन-सहन और मामलों के बारे में जो नियम भी दिए हैं, उनका कार्यान्वयन वास्तव में सेना और पुलिस पर निर्भर नहीं है, न ही शिक्षा और प्रशिक्षण पर, बल्कि उन्हें लागु करने की शक्ति इसी विश्वास से प्राप्त करते हैं कि इन्हें निर्धारित करने वाला वह शक्तिशाली शासक है जिसकी शक्ति और ज्ञान हर चीज़ पर हावी है। एक व्यक्ति जो इसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करता है, उसके पास न तो अपने अपराध को छिपाने की क्षमता है और न ही वह किसी भी तरह से जवाबदेह होने से बच सकता है। इसलिए क़ुरआन में जगह-जगह आदेश देने के बाद यह चेतावनी दी गई है कि ये अल्लाह द्वारा निर्धारित सीमाएं हैं, सावधान! इनसे आगे न बढ़ना:

“ये अल्लाह की ओर से निर्धारित सीमाएँ हैं, उनका उल्लंघन न करो।          (अल-बक़रह, 2:229)

“याद रखो कि जो कुछ तुम करते उसे अल्लाह देख रहा है।“ (अल-बक़रह 2:229)

“अल्लाह से डरो और जान लो कि तुम जो कुछ भी करते हो वह अल्लाह की दृष्टि में है। (अल-बक़रह 2:233)

4. फ़रिश्तों पर ईमान

फ़रिश्तों पर ईमान का उद्देश्य

फ़रिश्तों पर ईमान वास्तव में अल्लाह पर ईमान का अनिवार्य पूरक है। इसका उद्देश्य केवल फ़रिश्तों के अस्तित्व की पुष्टि करना और स्वीकार करना ही नहीं है, बल्कि वास्तविक उद्देश्य अस्तित्व की व्यवस्था में उनकी स्थिति को समझना है, ताकि अल्लाह पर ईमान शुद्ध एकेश्वरवाद पर आधारित हो, और शिर्क और अल्लाह के सिवा किसी और की पूजा की किसी भी संभावना से मुक्त हो जाए।

जैसा कि पहले बताया गया है, फ़रिश्तों की एक सामान्य अवधारणा सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मौजूद रही है। अलग-अलग धर्मों ने इस अवधारणा पर अलग-अलग मान्यताओं के भवन स्थापित कर लिए हैं। कुछ के लिए, वे प्रकृति की ताक़तें हैं जो जगत के विभिन्न क्षेत्रों को नियंत्रित करती हैं। कुछ के अनुसार वे देवता हैं, जिनमें से प्रत्येक जगत के एक विभाग का अध्यक्ष है, उदाहरण के लिए, कोई हवा का मालिक है, कोई बारिश का, कोई प्रकाश का और कोई गर्मी या आग का। किसी की मान्यता है कि वे ईश्वर के सहायक हैं। किसी की राय में, वे ईश्वर की संतान हैं। किसी ने उन्हें भौतिक अस्तित्व के रूप में माना है, तो किसी ने मात्र कल्पना। किसी ने उन्हें ग्रहों और तारों से जोड़ दिया है तो किसी ने उनके बारे में अन्य अजीब धारणाएं स्थापित की हैं। कुल मिला कर फ़रिश्तों के बारे में यह धारणा आम रही है कि वे किसी न किसी तरह से ईश्वर की सत्ता में हिस्सेदार हैं और इसलिए चित्र बनाकर या मूर्तियों गढ़ कर उनकी पूजा की जाती है। उनसे दुआएं मांगी जाती है, उन्हें एक मध्यस्थ के रूप में स्वीकार किया जाता है, और इसी के कारण दुनिया में बहुदेववाद का कोलाहल मचा रहा है।

अस्तित्व की व्यवस्था में फ़रिश्तों की स्थिति

पवित्र क़ुरआन ने एक ओर, अल्लाह के अस्तित्व, गुणों और कार्यों में शुद्ध और पूर्ण एकेश्वरवाद की स्थापना की, और दूसरी ओर, फ़रिश्तों की एक सही अवधारणा प्रस्तुत की ताकि जिस द्वार से बहुदेववाद प्रवेश करता है वह बंद हो जाए। उसने फ़रिश्तों की हक़ीक़त से कोई बहस नहीं की, इस लिए कि इसका अपने आप में कोई महत्व नहीं है। इसमें मनुष्य के लिए कोई लाभ नहीं है, न ही इसे मनुष्य द्वारा समझा जा सकता है। वास्तविक मुद्दा जिसे हल करने की ज़रूरत थी, यह था कि अस्तित्व की व्यवस्था में फ़रिश्तों की स्थिति क्या थी, और यह पवित्र क़ुरआन द्वारा बहुत स्पष्ट किया गया है। उसने कहा कि फ़रिश्ते अल्लाह की संतान नहीं हैं, न ही उसके साझी हैं, बल्कि उसके सेवक और दास हैं:

“इनकार करने वालों ने कहा कि रहमान ने किसी को बेटा बनाया, शुद्ध है उसका स्वभाव। वे (फ़रिश्ते) तो उसके सम्मानित सेवक हैं, वे उसके आगे बढ़कर बोल भी नहीं सकते, और वे केवल वही करते हैं जिसका वह आदेश देता है। जो कुछ उनके सामने है और जो कुछ उनके पीछे है, सब अल्लाह जानता है। वे किसी के लिए सिफ़ारिश नहीं कर सकते, सिवाय उसके जिसे अल्लाह चाहता है, और वे अल्लाह की महिमा से डरते रहते हैं। (अंबिया, 21:26-28)

उनकी स्थिति मामलों के संरक्षकों की है (अन-नाज़िआत, 79:5)। यानी वे केवल उन्हीं मामलों को संभालते हैं जो अल्लाह ने उन्हें सौंपे हैं। अल्लाह की सत्ता में भागीदार होना तो दूर, उनमें इतनी क्षमता भी नहीं कि वे उसके आदेशों की बाल बराबर भी अवज्ञा कर सकें। उनका काम केवल आज्ञाकारिता और उपासना है। वे एक पल के लिए भी अपने कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करते हैं और हमेशा अपने अल्लाह की महिमा गान करते रहते हैं।

“बिजली (की गर्जन) स्तुति के साथ उसकी पवित्रता बयान करती है और फ़रिश्ते उसके डर से कोंपते हुए उसकी पवित्रता का वर्णन करते हैं। (अल-राद 13:13)

“अल्लाह के सामने सजदा कर रहे हैं वे जो आसमानों में हैं और जो धरती पर चलते फिरते हैं, और फ़रिश्ते, वे अवज्ञा नहीं करते अपने रब की, जो उन से कहीं ऊपर है, डरते हैं, और वही करते हैं, जिसकी आज्ञा दी जाती है।        (नह्ल, 16:49-50)

“उसके दास हैं, जो आकाशों में हैं और जो ज़मीन पर हैं और जो उसके निकट हैं, वे उसकी सेवा से नहीं थकते, और न अवज्ञा करते हैं, वे दिन-रात उसकी महिमा गान में लगे रहते हैं और वे आलस नहीं करते। (अल-अंबिया 21:19-20)

“वे उस आदेश की कभी अवज्ञा नहीं करते जो अल्लाह ने उन्हें दिया है, और वे वही करते हैं जो उन्हें करने का आदेश दिया जाता है। (तहरीम 66:6)

इस अवधारणा ने बहुदेववाद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी, क्योंकि जिन्हें देवता माना जा सकता था, वे सभी हमारे जैसे विवश सेवक साबित हुए। उसके बाद, हमारी इबादतों और हमारे भरोसे का स्रोत अल्लाह के सिवा और कौन हो सकता है?

मनुष्य और फ़रिश्तों की अतिरिक्त स्थिति

इतना ही नहीं पवित्र क़ुरआन में मनुष्य और फ़रिश्तों की अतिरिक्त स्थिति भी स्पष्ट की गई है, ताकि मनुष्य उनकी तुलना में अपनी स्थिति को अच्छी तरह समझ सके। जहां क़ुरआन में आदम की रचना का उल्लेख किया गया है, यह निर्दिष्ट है कि जब अल्लाह ने हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) को अपना ख़लीफ़ा बनाया, तो फ़रिश्तों को उनके आगे सजदा करने का आदेश दिया, और इब्लीस के सिवा सब ने उन्हें सजदा किया। और सभी (बक़रह 2:34), आराफ़ (11), बानी इस्राईल (61), कह्फ़ (50), ता-हा (116), साद (75)

जब फ़रिश्तों ने अपनी श्रेष्ठता का दावा किया, तो सर्वशक्तिमान अल्लाह ने उनके दावे को रद्द कर दिया और एक परीक्षा लेकर साबित कर दिया कि हमने आदम को तुमसे अधिक ज्ञान दिया है। इब्लीस ने अपनी भौतिक रचना को एक गुण बताते हुए आदम की श्रेष्ठता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और उसके सामने नहीं झुका, इसलिए उसे हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया गया। इससे एक ओर तो मनुष्य में आत्मसम्मान का भाव पैदा होता है, वहीं दूसरी ओर उसकी उपासना की सारी भावनाएँ अल्लाह की भक्ति के केंद्र में आ जाती हैं। इससे पता चलता है कि अस्तित्व की व्यवस्था में सर्वशक्तिमान के सिवा इनसान से बेहतर कुछ भी नहीं है। भले ही फ़रिश्ते अन्य सभी चीज़ों से श्रेष्ठ हैं, लेकिन उन्होंने भी मनुष्य के आगे सिर झुकाया है। फिर इनसान का उपास्य और उसका मददगार अल्लाह के सिवा कौन हो सकता है।

इस तरह, फ़रिश्तों पर ईमान के सही ज्ञान और समझ पर स्थापित हो जाने से, अल्लाह पर ईमान पूरी तरह से शुद्ध और प्रबुद्ध हो जाता है।

फ़रिश्तों पर ईमान का दूसरा उद्देश्य

फ़रिश्तों की दूसरी स्थिति जो पवित्र क़ुरआन में वर्णित है, वह यह है कि उनके द्वारा अल्लाह अपने नबियों को अपने वचन और अपनी आज्ञाएँ भेजता है, ताकि वह हर प्रकार के मिश्रण और सभी बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त हो। एक तो, ये फ़रिश्ते आत्म-अनुशासित और अच्छे स्वभाव वाले होते हैं। सभी तरह के बुरे रुझानों और अहंकार से मुक्त होते हैं, अल्लाह से डरने वाले और बिना किसी हिचकिचाहट के उसके आज्ञा का पालन करने वाले होते हैं। इसलिए वे भेजे जाने वाले संदेश में किसी तरह की कमी-बेशी नहीं करते हैं और न ही कर सकते हैं। दूसरे, वे इतने शक्तिशाली हैं कि कोई भी विरोधी शक्ति उनके संदेश वितरण और पर्यवेक्षण में ज़रा भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। पवित्र क़ुरआन में इस लेख का कई जगहों पर उल्लेख है:

“वह ऐसे माननीय शास्त्रों में है, जो ऊँचे और पवित्र हैं। ऐसे लेखकों (फ़रिश्तों) के हाथों में है, जो सम्मानित और आदरणीय हैं। (अ-ब-स, 80:13-16)

“वास्तव में, यह एक महान फ़रिश्ते का कथन है जिसके पास महान शक्ति है, सिंहासन वाले (अल्लाह) के यहां ऊंचा स्थान रखता है, उसकी आज्ञा का पालन किया जाता है और उस पर भरोसा किया जाता है। (अल-तकवीर, 81:19-21)

“वह (अल्लाह) परोक्ष को जानने वाला है, और वह अपने परोक्ष के बारे में किसी को सूचित नहीं करता है, सिवाय उस रसूल के जिसे वह पसंद करता है, फिर वह उसके आस-पास संरक्षक फ़रिश्तों को लगा देता है, ताकि वह संतुष्ट हो जाए कि संदेश देने वालों ने अपने रब के संदेशों को सही-सही पहुँचा दिया है, और अल्लाह उनके ऊपर है और सब कुछ गिनता है। (अल-जिन, 72:26-28)

“इसे (रूह़ुल क़ुद्स) ने आपके पालनहार की ओर से सत्य के साथ क्रमशः उतारा है। (नह्ल, 16:102)

“वास्तव में, यह संसारों के पालनहार द्वारा उतारी गई किताब है, जिसे रूहुल-अमीन (अमानतदार रूह) ले कर उतरता है। (अल-शुअरा, 26:193)

“वास्तव में, यह उच्च कोटि का क़ुरआन है।  एक सुरक्षित किताब में अंकित। जिसे पवित्रों (फ़रिश्तों) के सिवा कोई छू नहीं सकता। अवतरित किया गया है सर्वलोक के पालनहार की ओर से। (वाक़िया, 56:77-80)

 इससे ज्ञात हुआ कि फ़रिश्तों पर ईमान केवल अल्लाह पर ईमान के लिए ही नहीं, बल्कि शास्त्रों पर ईमान और रसूलों पर ईमान के लिए भी ज़रूरी है। फ़रिश्तों पर ईमान लाने का अर्थ यह है कि हम इस माध्यम को भरोसेमंद मानें जिसके माध्यम से अल्लाह का संदेश उसके दूतों तक पहुँचा है। इस संदेश पर और इसे पेश करने वाले रसूलों पर हमारा भरोसा तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि हम उस मध्यस्थ पर पूरी तरह से भरोसा नहीं करें, जो अल्लाह और उसके रसूलों के बीच काम करता है।

तीसरा उद्देश्य

इसके अलावा पवित्र क़ुरआन में फ़रिश्तों की एक और स्थिति का भी वर्णन किया गया है, और वह यह है कि वे अल्लाह के राज्य के एजेंट हैं। जिन सेवकों से अल्लाह सारी सृष्टि का प्रबंध करा रहा है, वे फ़रिश्ते ही हैं। अल्लाह के राज्य में उनकी स्थिति वही है, जो दुनिया की सरकारों में उनकी सेवाओं की होती है। इनके द्वारा ही वह किसी को दण्ड देता है और किसी पर दया करता है। किसी की रूह निकाल लेता है और किसी को जीवन देता है। कहीं वर्षा होती है तो कहीं अकाल पड़ जाता है। वे प्रत्येक व्यक्ति के कार्यों, शब्दों और विचारों का पूरा रिकॉर्ड रख रहे हैं और प्रत्येक गतिविधि की निगरानी कर रहे हैं। जब तक आदमी अल्लाह द्वारा दी गई समय सीमा के भीतर कार्य कर रहा है, तब तक सभी कार्यकर्ता उसकी सभी बुरी और अच्छी बातों से अवगत होते हुए भी ईश्वरीय आदेश के तहत उसका सहयोग करते रहते हैं और उसके सभी काम बनाए चले जाते हैं। लेकिन जैसे ही उसकी समय सीमा समाप्त होती है, उसे उन्हीं नौकरों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया जाता है जो एक क्षण पहले तक उसकी ख़िलाफ़त का कारख़ाना चला रहे थे। वही हवा, जिसके बल पर आदमी जी रहा रहा था, उसकी बस्तियां पलट देती है। वही पानी जिसका सीना आदमी चीर रहा था, अचानक उसे डुबो देता है। आदमी जिस भूमि पर माता की गोद की भाँति सन्तुष्ट बस रहा था, अचानक एक झटके में उसे नष्ट कर देती है। पवित्र क़ुरआन में कई स्थानों पर इसका चित्रण बहुत विस्तार से किया गया है।

इस अर्थ में, फ़रिश्तों पर ईमान अल्लाह पर ईमान का एक अभिन्न अंग है। इसका अर्थ है कि आदमी जगत के सम्राट के साथ-साथ उसकी सेवाओं को भी स्वीकार करे। इसके बिना आदमी इस साम्राज्य में अपनी स्थिति को ठीक से नहीं समझ सकता है, न ही वह उस स्थिति के बारे में पूरी जागरूकता के साथ काम कर सकता है।

5. रसूलों पर ईमान

रिसालत की सच्चाई

एकेश्वरवाद के बाद, इस्लाम की दूसरी मौलिक आस्था “रिसालत” है। जिस तरह आस्था के मामले में तौहीद मूल धर्म है, उसी तरह पालन के मामले में रिसालत (ईशदूतत्व, संदेशवाहन, नुबूवत, पैग़म्बरी) मूल धर्म है। रिसालत का शाब्दिक अर्थ है, पैग़म्बरी या संदेशवाहन। एक व्यक्ति जो किसी के संदेश को दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाता है वह "रसूल" है। लेकिन इस्लाम की शब्दावली में, रसूल वह है जो अल्लाह का संदेश उसके बन्दों तक पहुँचाए, और अल्लाह के आदेश से उन्हें सही मार्ग पर ले जाए। इसलिए क़ुरआन में रसूल के लिए "हादी" शब्द का प्रयोग भी किया गया है। यानी ‘वह जो सीधा रास्ता दिखाए’।

अल्लाह ने एक मार्गदर्शक तो मनुष्य के स्वयं में नियुक्त कर दिया है, जो ईश्वरीय प्रेरणा के आधार पर, अच्छे और बुरे विचारों, ग़लत और सही कार्यों के बीच अंतर करता है, और मनुष्य को विचार और कर्म का सीधा मार्ग दिखाता है, जैसा कि कहा:

“और जीव की सौगन्ध, और उसकी जिसने उसे ठीक-ठीक सुधारा। फिर उसे दुराचार और सदाचार का विवेक दिया है। वह सफल हो गया, जिसने अपने आप का शुध्दिकरण किया। और वह क्षति में पड़ गया, जिसने उसे (पाप में) धंसा दिया।” (अल-शम्स, 91:7-10)

लेकिन चूंकि इस पथप्रदर्शक का मार्गदर्शन स्पष्ट नहीं है, और इसके साथ कई मानसिक और बाहरी ताक़तें ऐसी भी जुड़ी हुई हैं जो व्यक्ति को बुरे कार्यों की ओर खींचती रहती हैं, इस लिए अकेले भीतरी पथप्रदर्शक का मार्गदर्शन मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं है कि वह अनगिनत टेढ़े-मेढ़े रास्तों में से सत्य का सीधा रास्ता चुन ले और सुरक्षित रूप से उस पर चले। इसलिए अल्लाह ने बाहर से इस कमी को पूरा किया और अपने दूतों को मनुष्य के पास भेजा ताकि वह ज्ञान और समझ के प्रकाश के साथ आंतरिक पथप्रदर्शक में मदद कर सके और सीधा मार्ग एकदम स्पष्ट कर दे।

यही रिसालत है। जिन लोगों को इस पद पर नियुक्त किया गया है, उन्हें अल्लाह की ओर से एक असाधारण ज्ञान और अंतर्दृष्टि का प्रकाश दिया गया है, जिसके माध्यम से वे इन मामलों की सच्चाई अनुमान के आधार पर नहीं, बल्कि ज्ञान और विश्वास के आधार पर जान गए हैं, जिन में आम लोगों के बीच असहमति है। उस अंतर्दृष्टि के प्रकाश में उन्होंने टेढ़े-मेढ़े रास्तों में से सत्य का सीधा और स्पष्ट मार्ग देख लिया है।

रसूलों और आम मार्गदर्शकों के बीच अंतर

बाहरी मार्गदर्शक की ज़रूरत को मनुष्य ने सभी युगों में मान्यता दी है, यह कभी दावा नहीं किया गया कि मनुष्य के लिए केवल अपने आंतरिक मार्गदर्शक का मार्गदर्शन ही पर्याप्त है। पुश्तैनी परिवार और जनजाति और राष्ट्र के बुजुर्ग, शिक्षक, विद्वान, धार्मिक नेता, राजनीतिक नेता, समाज सुधारक और ऐसे अन्य लोग जिनकी बुद्धि पर भरोसा किया जा सकता है, उन्हें हमेशा मार्गदर्शन का पद दिया गया है और उनका अनुकरण किया गया है। लेकिन जो एक रसूल को इन अन्य तरह के मार्गदर्शकों से अलग करता है वह है ‘ज्ञान’। अन्य मार्गदर्शकों के पास ज्ञान नहीं है, वे आकलन के आधार पर राय बनाते हैं और स्वार्थ के तत्व भी उस राय में शामिल होते हैं। इसलिए, वे जो धारणाएं और क़ानून बनाते हैं उनमें सत्य और असत्य दोनों का मिश्रण होता है। उनके स्थापित तरीक़ों में पूर्ण सत्य नहीं होता। पवित्र क़ुरआन इस तथ्य के बारे में बार-बार चेतावनी देता है:

“वे जिसका अनुसरण करते हैं वह अनुमान  और मनेच्छाओं के सिवा और कुछ नहीं है। (अल-नज्म, 53:23)

“और उन्हें वास्तविकता का कोई ज्ञान नहीं है। वे केवल अनुमान का पालन करते हैं, और अनुमान का हाल यह है कि वह सत्य की ज़रूरत को कभी पूरा नहीं करता है। (अल-नज्म, 53:28)

“लेकिन अपराधियों ने बिना किसी ज्ञान के अपनी इच्छाओं का पालन किया। (अल-रोम, 30:29)

“और लोगों में वह (भी) है, जो विवाद करता है अल्लाह के विषय में बिना किसी ज्ञान और मार्गदर्शन एवं बिना किसी ज्योतिमय किताब के। अपना पहलू फेरकर ताकि अल्लाह की राह से भटका दे। उसी के लिए संसार में अपमान है और हम उसे क़ियामत के दिन दहन की यातना चखायेंगे।” (अल-हज, 22:8-9)

“और उससे अधिक पथभ्रष्ट कौन होगा जो अल्लाह के मार्गदर्शन के बजाय अपनी ही इच्छा पर चलता है। (अल-क़सस, 28:50)

इसके विपरीत, अल्लाह के रसूल को ज्ञान दिया जाता है। उनका मार्गदर्शन अनुमान और मनेच्छा पर आधारित नहीं होता, बल्कि वह सीधे रास्ते की ओर निर्देशित करता है जिसे वह अल्लाह द्वारा दिए गए ज्ञान के प्रकाश से स्पष्ट देखता है। इसलिए, पवित्र क़ुरआन में जहां कहीं भी यह उल्लेख किया गया है कि उन्हें रिसालत का पद दिया गया, वहां यही कहा जाता है कि उन्हें “ज्ञान” दिया गया। उदाहरण के लिए, पैग़म्बर इब्राहीम (अलै.) की रिसालत की घोषणा इस तरह की जाती है:

“ऐ मेरे पिता! मेरे पास वह ज्ञान आ गया है, जो आपके पास नहीं आया, अतः आप मेरा अनुसरण करें, मैं आपको सीधी राह दिखा दूँगा। (मरयम, 19:43)

लूत को नबी बनाए जामे का उल्लेख इस तरह है:

“और हमने लूत को निर्नय की क्षमता और ज्ञान दिया। (अंबिया, 21:74)

हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में कहा गया है:

“और जब वह अपनी पूरी जवानी तक पहुँच गया और एक पूर्ण मनुष्य बन गया, तो हमने उसे निर्नय की क्षमता और ज्ञान दिया। (अल-क़सस, 28:14)

दाऊद और सुलैमान (अलैहि.) को नबी बनाने का उल्लेख भी इसी तरह किया गया है:

“और प्रत्येक को हमने प्रदान किया था निर्णय शक्ति और ज्ञान         (अंबिया, 21:79)

अरबी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) (सल्ल.) से कहा जाता है:

“और अगर तुम इस ज्ञान के बाद जो तुम्हारे पास आया है, उनकी इच्छा का पालन करो, तो तुम्हें बचाने के लिए अल्लाह की ओर से कोई सहायक या समर्थक नहीं होगा। (अल-बक़रह, 2:120)

पैग़म्बर की स्थिति और सामान्य सुधारकों की तुलना में रसूल की विशेष स्थिति की व्याख्या करने के बाद, हमें अब उन सिद्धांतों पर ध्यान देना चाहिए जो क़ुरआन ने रिसालत के बारे में प्रस्तुत किया है।

 अल्लाह पर ईमान और रसूल पर ईमान का का रिश्ता

पहली बात तो यह है कि जब रसूल के पास ज्ञान का वह स्रोत हो जो अन्य लोगों के पास नहीं है, और अल्लाह ने उसे अंतर्दृष्टि का प्रकाश दिया है जिससे सामान्य लोग वंचित हैं, तो अल्लाह के बारे में केवल वही मान्यता सही हो सकती है, जो रसूलों ने पेश की है। अगर कोई व्यक्ति अपने स्वयं के चिंतन मनन या अन्य विद्वानों की शिक्षाओं पर कोई मान्यता स्थापित करता है, तो न केवल अल्लाह के बारे में उसकी मान्यता सही नहीं हो सकती है, बल्कि वह उन दूसरे अलौकिक मामलों के बारे में कोई भी सच्चा ज्ञान नहीं दे सकता है, जो धर्म के मौलिक मुद्दे हैं और सामान्य मानवीय बुद्धि की पहुंच से बाहर हैं। इसलिए, सभी मान्यताएं रसूलों पर ईमान पर निर्भर हैं। यह किसी भी तरह से संभव नहीं है कि हम इस माध्यम को छोड़ कर सच्चे ज्ञान के साथ नाता जोड़ सकें। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन में कई जगहों पर रसूलों पर ईमान पर ज़ोर दिया गया है। कहा गया है:

“और कितने नगर ऐसे हैं जिन्होंने अपने पालनहार और उसके रसूलों के आदेशों की अवज्ञा की, तो हमने उन पर कड़ी कार्रवाई की और उन्हें कड़ी सज़ा दी, जिससे उन्होंने अपने किए का मज़ा चख लिया, और अंत में उनका अंजाम विफलता रहा। (अल-तलाक़, 65:8-9)

“जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों के साथ (अविश्वास) कुफ़्र करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अन्तर करें और कहते हैं कि हम कुछ पर ईमान रखते हैं और कुछ के साथ कुफ़्र करते हैं और इसके बीच राह अपनाना चाहते हैं। वही काफ़िर हैं और हमने काफ़िरों के लिए अपमानजनक यातना तैयार कर रखी है। और जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाये और उनमें से किसी के बीच अन्तर नहीं किया, तो उन्हीं को, हम उनका प्रतिफल प्रदान करेंगे और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान है। (अल-निसा 4:150-152)

“और जो व्यक्ति अपने ऊपर मार्गदर्शन उजागर हो जाने के बाद रसूल का विरोध करे और ईमान वालों की राह के सिवा (दूसरी राह) का अनुसरण करे, तो हम उसे उसी रास्ते पर फेर देंगे, जिस पर वह ख़ुद फिर गया है और उसे नरक में झोंक देंगे और वह बहुत बुरा ठिकाना है। (अल-निसा 4:115)

ये और ऐसी ही सैकड़ों आयतें हैं जिनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अल्लाह पर ईमान और रसूल पर ईमान अविभाज्य हैं। जो कोई अल्लाह के रसूलों को अस्वीकार करता है और उनकी शिक्षाओं को स्वीकार नहीं करता है, चाहे वह अल्लाह को मानता हो या नहीं, दोनों ही हालतों में उसकी गुमराही समान है। क्योंकि अल्लाह के बारे में जो मान्यता बिना ज्ञान के स्थापित की जाएगी, वह कभी सही नहीं होगी, चाहे वह मान्यता तौहीद ही क्यों न हो।

कलिमा की एकता

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल रसूलों पर ईमान ही वह चीज़ है, जो मानव जाति को एक आस्था पर जमा कर सकती है। मतभेद का आधार वास्तव में अज्ञानता है। लोग जिस चीज़ की वास्तविकता से अवगत नहीं होंगे उसके बारे में अटकलों के आधार पर धारणाएँ बनाएंगे, और अनिवार्य रूप से उनके बीच मतभेद होंगे, क्योंकि अटकलों की मदद से राय बनाना अंधेरे में टटोलने जैसा है।

जहां प्रकाश नहीं होगा, वहां पचास आदमी एक चीज़ को टटोलेंगे और पचास अलग-अलग राय व्यक्त करेंगे। लेकिन प्रकाश आने के बाद कोई असहमति नहीं होगी और सभी की निगाहें एक ही निष्कर्ष पर सहमत होंगी। इसलिए, जब नबियों को ज्ञान और अंतर्दृष्टि की रोशनी दी गयी है, तो यह संभव नहीं है कि उनके विचारों में अंतर हो, उनकी शिक्षाओं में अंतर हो। इसलिए, पवित्र क़ुरआन कहता है कि सभी पैग़म्बर एक ही समूह हैं, सभी की  शिक्षा एक है, सभी का धर्म एक है, सभी एक ही सीधे रास्ते पर बुलाने वाले हैं, और  मोमिन के लिए उन सभी पर विश्वास करना ज़रूरी है। जो कोई नबियों में से किसी एक का इनकार करेगा, वह सभी नबियों का इनकार करने का दोषी होगा, और उसके दिल में ईमान बाक़ी नहीं रहेगा। क्योंकि वह जिस शिक्षा का इनकार कर रहा है, वह केवल उसी नबी की शिक्षा नहीं है, बल्कि सभी नबियों की एक ही शिक्षा है।

(अल्लाह ने पैग़म्बरों से कहा कि) ऐ पैग़म्बरो! खाओ स्वच्छ चीज़ों में से और अच्छे कर्म करो, वास्तव में, मैं उससे, जो तुम कर रहे हो, भली-भाँति अवगत हूँ।और वास्तव में, तुम्हारा धर्म एक ही धर्म है और मैं ही तुम सबका पालनहार हूँ, अतः मुझी से डरो। मगर बाद के लोगों ने  आपस में मतभेद करके अपने धर्म अलग-अलग बना लिए, और अब हाल यह है कि प्रत्येक सम्प्रदाय उसी में मग्न है, जो उनके पास है। (अल-मोमिनून 23:51-53)

(ऐ मुहम्मद (सल्ल.)!) हमने आपकी ओर वैसे ही वह़्यी भेजी है, जैसे नूह़ और उसके पश्चात के नबियों के पास भेजी और इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब और उसकी संतान, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान के पास वह़्यी भेजी और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान की थी। कुछ रसूल तो ऐसे हैं, जिनका उल्लेख हम इससे पहले आपसे कर चुके हैं और कुछ का उल्लेख नहीं किया है और अल्लाह ने मूसा से वास्तव में बात की। (अल-निसा, 4:163-164)

ये और इसी तरह की कई आयतें बताती हैं कि सभी पैग़म्बर एक ही सच्चे धर्म की ओर बुलाते आए हैं और वे हर क़ौम में भेजे जा चुके हैं। उनमें से जिन पैग़म्बरों का क़ुरआन में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, उन पर तो विशेष रूप से ईमान लाना ज़रूरी है रहे वे पैग़म्बर और सुधारक जिनके नाम हमें नहीं बताए गए हैं, उनके बारे में सही मान्यता यह है कि वे सभी इस्लाम के हिमायती थे, मगर लोगों ने उनकी शिक्षाओं को बदल दिया और एक-दूसरे से मतभेद कर अलग-अलग धर्म बना लिये। हम बुद्ध, कृष्ण, जरथ्रुश्ट, कन्फ्यूशियस आदि को पैग़म्बर इस लिए नहीं कह सकते क्योंकि क़ुरआन में उनके बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं है, लेकिन हम मानते हैं कि भारत, चीन, जापान, ईरान, अफ्रीका, यूरोप और सभी देशों में अल्लाह के दूत आए हैं, और सभी ने इस्लाम की ओर ही आमंत्रित किया है, जिस की ओर मुहम्मद (सल्ल.) बुलाते हैं। इसलिए हम किसी भी राष्ट्र की धार्मिक हस्तियों को नकारते नहीं हैं, बल्कि हम उन ग़लत तरीक़ों को नकारते हैं, जो अब इस्लाम के सीधे रास्ते से हटे हुए हैं। पैग़म्बर के बारे में क़ुरआन की शिक्षा अद्वितीय है, किसी भी धर्म में ऐसी शिक्षा मौजूद नहीं है, यह क़ुरआन की प्रामाणिकता का एक स्पष्ट प्रमाण है और मानव जाति के लिए इसमें सार्वभौमिक सहमति और एकता का सुखदायक संदेश है।

रसूल की आज्ञापालन और अनुसरण

पैग़म्बर पर ईमान का अनिवार्य नतीजा यह है कि अक़ीदे और इबादतों में हीनहीं, बल्कि जीवन के सभी व्यावहारिक मामलों में भी अल्लाह के रसूल द्वारा अपनाए गए मार्ग का अनुसरण किया जाए। क्योंकि अल्लाह ने उन्हें जो ज्ञान और दृष्टि का प्रकाश दिया था, उससे वे निश्चित रूप से ग़लत और सही तरीक़ों के अंतर को जान जाते थे, इस लिए वे जो कुछ अपनाते थे और जो कुछ छोड़ते थे, वे सब अल्लाह की ओर से था। साधारण लोग वर्षों और सदियों के अनुभव के बाद भी सही और ग़लत के बीच भेद करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाते हैं, और जो थोड़ी सी सफलता वे प्राप्त कर लेते हैं, वह पूर्ण विश्वास की ठोस बुनियादों पर खड़ी नहीं होती, बल्कि केवल अटकलों और अनुमानों पर आधारित होती है, जिसमें त्रुटि का भय बना रहता है। इसके विपरीत जीवन के मामलों में पैग़म्बरों द्वारा अपनाए गए और पालन करने के लिए सिखाए गए तरीक़ों को ज्ञान के आधार पर अपनाया गया होता है, इसलिए उनमें त्रुटि की कोई संभावना नहीं होती। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन बार-बार नबियों की आज्ञा मानने और उनका पालन करने का आदेश देता है। उनके द्वारा स्थापित विधि को ‘शरीयत’ और ‘मिन्हाज’ और ‘सिराते मुस्तक़ीम’ (सीधा रास्ता) बताता है और अन्य सभी लोगों को छोड़ने और केवल पैग़म्बरों का आज्ञापालन पर ज़ोर देता है। उनका अनुसरण करो और उनके मार्गों पर चलो, क्योंकि उनका आज्ञापालन करना अल्लाह की आज्ञा मानना है, और उनका अनुसरण करना अल्लाह की इच्छा का पालन करना है।

और हमने जो भी रसूल भेजा, वह इसलिए, ताकि अल्लाह की अनुमति से, उसकी आज्ञा का पालन किया जाये। (अन-निसा, 4:64)

“जो कोई भी रसूल की आज्ञा का पालन करता है वह अल्लाह की आज्ञा का पालन करता है। (अल-निसा, 4:80)

“ऐ मुहम्मद (सल्ल.)! कह दोः अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। कह दोः अल्लाह और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करो। फिर भी अगर वे विमुख हों, तो निःसंदेह अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता। (आले-इमरान, 3: 31-32)

“ऐ ईमान वालो! अल्लाह के आज्ञाकारी रहो और उसके रसूल के और उससे मुँह न फेरो, जबकि तुम उसका आदेश सुन चुके हो। और उनके समान न हो जाओ, जिन्होंने कहा कि हमने सुन लिया, जबकि वास्तव में वे सुनते नहीं थे। वास्तव में, अल्लाह के हाँ सबसे बुरे पशु वे (मानव) हैं, जो बहरे-गूँगे हों, जो कुछ समझते न हों।” (अल-अनफल 8:20-22)

और किसी ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्री के लिए योग्य नहीं कि जब अल्लाह और उसके रसूल किसी बात का निर्णय कर दें, तो फिर उनके लिए अपने विषय में कोई अधिकार रह जाये, और जो अल्लाह एवं उसके रसूल की अवज्ञा करेगा, तो वह खुली गुमराही में पड़ गया। (अल-अहज़ाब 33:36)

“फिर अगर वे पूरी न करें आपकी माँग, तो आप जान लें कि वे मनमानी कर रहे हैं और उससे अधिक गुमराह कौन है, जो अपनी मनमानी करे, अल्लाह की ओर से बिना किसी मार्गदर्शन के? वास्तव में, अल्लाह अत्याचारी लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता है । (अल-क़सस, 28:50)

ऐसी बीस से अधिक आयतें हैं जिनमें रसूल की आज्ञाकारिता पर बल दिया गया है। फिर, सूरह अल-अहज़ाब में, यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अल्लाह के रसूल का जीवन उन लोगों के लिए अनुकरण के योग्य है जो अल्लाह से क्षमा और अंतिम दिन में सफलता की आशा करते हैं।

“तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम आदर्श है, उसके लिए, जो अल्लाह और अन्तिम दिन (क़ियामत) की आशा रखता हो और अल्लाह को अत्यधिक याद करे। (अल-अहज़ाब, 33:21)

रिसालत के अक़ीदे (मान्यता) का महत्व

आज्ञाकारिता और अनुसरण के इन आदेशों के साथ रिसालत का अक़ीदा (मान्यता) वास्तव में उस सभ्यता की रूह है, जो इस्लाम द्वारा स्थापित की गई है।

प्रत्येक सभ्यता और संस्कृति में, तीन चीज़ें आधार का दर्जा रखती हैं: एक सोचने का तरीक़ा, दूसरा नैतिक सिद्धांत, और तीसरा नागरिक क़ानून। विश्व की सभी सभ्यताओं में ये तीन चीज़ें तीन अलग-अलग स्रोतों से आती हैं। सोचने का तरीक़ा उन विचारकों और चिन्तकों की शिक्षाओं से निकलता है, जिन्होंने किसी न किसी कारण से वड़े-बड़े मानव समूहों की मानसिकता को अपने नियंत्रण में ले लिया है। नैतिक सिद्धांत उन सुधारकों और नेताओं से लिए गए हैं जिन्होंने विभिन्न युगों में कुछ देशों पर सत्ता हासिल की है। और नागरिक क़ानूनों के निर्माता वे लोग हैं जिनकी विशेषज्ञता जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विश्वसनीय है। इस तरह से जो सभ्यता स्थापित होती है, उसमें अनिवार्य रूप से तीन मूलभूत दोष पाए जाते हैं:

1. इन तीन अलग-अलग स्रोतों से जो तत्व प्राप्त होते हैं वे एक ऐसा मिश्रण बनाते हैं जो सदियों में जाकर व्यवहारिक हो पाते हैं, और फिर कई विसंगतियां, अनियमितताएं और असंगतताएं बनी रहती हैं। विचारक और विद्वान बहुत से हैं। सबके सोचने का तरीक़ा एक दूसरे से अलग होता है। आमतौर पर वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें मानव जीवन की व्यावहारिक समस्याओं का कभी कोई अनुभव नहीं रहा होता। बल्कि, उनमें से ज़्यादातर को उनकी असामाजिकता के लिए जाना जाता है। इस स्रोत से दुनिया के लोगों को सोचने का तरीक़ा मिलता है। दूसरा तत्व जिस समूह से लिया जाता है, उसमें भी व्यक्तिगत कल्पनाओं, विचारों और मानसिकता के संदर्भ में बहुत अंतर होता है, और अगर इस समूह में कोई चीज़ समान है, तो यह है कि इसके सभी सदस्य कल्पना की दुनिया में रहने वाले और भावुक लोग होते हैं जिनका ठोस व्यावहारिक मुद्दों से बहुत कम लेना-देना होता है। जहां तक तीसरे तत्व की बात है, तो इसके स्रोत भी भिन्न हैं और उनमें यह बात समान है कि उनमें सूक्ष्म भावों का बहुत अभाव होता है। अत्यधिक व्यावहारिकता ने उन्हें कठोर और शुष्क बना दिया होता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे विषम तत्वों में एक सही और संतुलित संयोजन स्थापित करना बहुत कठिन है और उनका विरोधाभास अपने रंग को उजागर किए बिना नहीं रह सकता।

2. इन स्रोतों से जो तीन तत्व प्राप्त होते हैं उनमें न तो दीर्घायु की शक्ति होती है और न ही विस्तार करने की क्षमता होती है। विभिन्न क़ौमों पर विभिन्न विचारकों, नेताओं और विधि निर्माताओं के प्रभाव होते हैं और उनके कारण उनकी सोच, नैतिक सिद्धांतों और नागरिक क़ानूनों में सैद्धांतिक अंतर हो जाता है। फिर एक क़ौम पर भी सभी युगों में उन्हीं विशिष्ट विचारकों नेताओं और विधि निर्माताओं के प्रभाव बाक़ी नहीं रहते, जिन्होंने शुरुआत में उसे प्रभावित किया था, बल्कि ये प्रभावक और उनके प्रभाव समय के साथ बदलते रहते हैं। इस तरह, एक ओर सभ्यताएँ राष्ट्रीय हो जाती हैं, और उनके मतभेद राष्ट्रीयताओं के मतभेदों को भड़काते हैं जो वास्तव में शांति को नष्ट कर देते हैं। दूसरी ओर, प्रत्येक राष्ट्र में भी संस्कृति और सभ्यता की व्यवस्था एक अस्थिर अवस्था में रहती है, और एक सीधी रेखा में विकसित होने के बजाय, उसमें हमेशा मौलिक परिवर्तन होते रहते हैं, जो कभी विकास की दिशा में होते हैं और कभी क्रान्ति की दिशा में।

3. इन तीनों तत्वों में से किसी में भी पवित्रता नहीं होती। क़ौम अपने विचारकों से जो विचार, नेताओं से आचरण के जो सिद्धांत और क़ानून निर्माताओं से जो नागरिक क़ानून लेती है सभी मानव खोज का परिणाम होते हैं, और इसका एहसास उन पर विश्वास करने वालों को भी रहता है। इसका अनिवार्य प्रभाव यह है कि अनुसरण कभी पूर्ण नहीं होता। अनुयायी अनुसरण की स्थिति में भी ईमान की स्थिति तक नहीं पहुंच पाते हैं। वे स्वयं समझते हैं कि इसमें त्रुटि की संभावना है और उनकी सभ्यता के मूल तत्वों में सुधार की ज़रूरत है। फिर प्रयोग भी धीरे-धीरे उनकी ग़लतियों को साबित करते रहते हैं, जिससे संदेह की हालत पैदा हो जाती है। इस तरह, किसी भी सोच या क़ानून के शासन को कभी भी राष्ट्र पर अपनी पूर्ण पकड़ स्थापित करने और सभ्यता व्यवस्था को मज़बूत करने का मौक़ा नहीं मिलता है।

रसूलों पर ईमान के आधार पर स्थापित सभ्यता इन तीनों दोषों से मुक्त होती है। इसमें सभ्यता के तीन अवयव एक ही स्रोत से आते हैं। वही व्यक्ति सोचने का तरीक़ा निर्धारित करता है, नैतिकता के नियम निर्धारित करता है और नागरिक क़ानून के नियम भी बनाता है। वह एक ही समय में विचार की दुनिया, नैतिकता की दुनिया और कार्रवाई की दुनिया का अध्यक्ष होता है। तीनों की समस्याओं पर उसकी नज़र एक जैसी रहती है। उसमें विचार, भावुकता और व्यावहारिक ज्ञान का एक संतुलित मिश्रण होता है। वह उन तीनों तत्वों में से प्रत्येक की उचित मात्रा लेकर सभ्यता के मिश्रण में इस तरह मिला देता है कि किसी भी घटक की कमी-बेशी नहीं होती। यह मामला वास्तव में मानवीय क्षमता से परे है। सर्वशक्तिमान के मार्गदर्शन के बिना इसे हासिल करना संभव नहीं है।

 इसमें कोई तत्व राष्ट्रीय या सामयिक नहीं होता। अल्लाह का रसूल सोचने का जो तरीक़ा, नैतिकता के जो नियम और क़ानून के सिद्धांत को निर्धारित करता है, वह राष्ट्रीय प्रवृत्तियों या अस्थायी विशेषताओं पर आधारित नहीं, बल्कि सत्य पर आधारित होते हैं। सत्य ऐसी चीज़ है जो पूर्व और पश्चिम, काले और गोरे, सेमिटिक और आर्य, प्राचीन और आधुनिक की सीमाओं से परे है। जो सत्य है वह दुनिया के हर कोने में, दुनिया के हर देश में और समय के हर चक्र में समान रूप से सत्य और सही है। सूरज जापान में भी सूरज है और जिब्राल्टर में भी। एक हज़ार साल पहले सूरज था और एक हज़ार साल बाद सूरज रहेगी। तो अगर कोई सभ्यता विश्वव्यापी, मानवतावादी और स्थायी सभ्यता बन सकती है तो वह अल्लाह के रसूल द्वारा स्थापित सभ्यता ही है। उसी में अपने सिद्धांतों को बदले बिना हर देश, हर राष्ट्र और हर युग में उपयोगी होने की क्षमता है।

तीसरी बात यह कि यह संस्कृति पवित्रता से परिपूर्ण है। इसका मानने वाला यह ईमान रखता है कि जिसने इस सभ्यता की स्थापना की, वह अल्लाह का रसूल है। उस के पास अल्लाह का दिया हुआ ज्ञान है, उसके ज्ञान में कोई संदेह नहीं है। वह जो कुछ भी प्रस्तुत करते हैं वह अल्लाह द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, उसके भटकने की कोई संभावना नहीं है:

“और वह नहीं बोलते अपनी इच्छा से। वह तो बस वह़्यी (प्रकाशना) है। जो (उनकी ओर) की जाती है। सिखाया है जिसे उन्हें सर्वशक्तिवान ने।”                   (अल-नज्म, 53:3-5)

जब यह विश्वास और आस्था रसूल का अनुसरण करने वाले की नसों में समा जाती है, तो वह पूरी संतुष्टि के साथ रसूल का अनुसरण करता है। उसके मन में कोई संदेह या झिझक नहीं होती। उसके मन में यह संशय नहीं रहता कि कहीं यह मार्ग ठीक न हो। ज़ाहिर है कि ऐसी सभ्यता स्थायी होगी। उनका अनुसरण बहुत मज़बूत होगा। इसमें सांसारिक सभ्यताओं से अधिक अनुशासन होगा। उनके सोचने के तरीक़े, नैतिक सिद्धांतों और नागरिक क़ानूनों में अधिक स्थिरता होगी।

अल्लाह के सभी पैग़म्बर इसी सभ्यता के निर्माता थे। सदियों तक उन्होंने दुनिया के हर क्षेत्र में इसके लिए ज़मीन तैयार की, और जब ज़मीन पूरी तरह से तैयार हो गई, तो मुहम्मद (सल्ल.) ने आकर इसका निर्माण पूरा किया।

 मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के विशिष्ट गुण

अब तक जो वर्णन किया गया है वह पैग़म्बर के सामान्य आदेशों से संबंधित था, लेकिन उनके अलावा कुछ मामले ऐसे भी हैं जो विशेष रूप से मुहम्मद (सल्ल.) सल्ल. की रिसालत से संबंधित हैं। निस्संदेह, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) सल्ल. और अन्य नबियों के बीच पैग़म्बर की स्थिति के संदर्भ में कोई अंतर नहीं है, और पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट निर्णय है कि पैग़म्बर के बीच कोई भेद अनुमेय नहीं है।

 हम अल्लाह के रसूलों को एक दूसरे से अलग नहीं करते। (अल-बक़रह 2:285)

 जहाँ तक सिद्धांत का सवाल है, सभी नबियों में यह समान है कि वे सभी अल्लाह द्वारा भेजे गए हैं, उन सभी को आदेश और ज्ञान दिया गया है, वे सभी एक ही सीधे रास्ते पर बुलाते रहे हैं, सभी मानव जाति के मार्गदर्शक और नेता हैं, सबकी आज्ञाकारिता अनिवार्य है और सभी का व्यवहार आदम की सन्तान के लिए एक आदर्श है। लेकिन वास्तव में, अल्लाह ने अन्य पैग़म्बरों की तुलना में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) को कुछ मामलों में एक श्रेष्ठता दी है, और यह श्रेष्ठता केवल सतही नहीं है कि इसका कोई प्रभाव न हो, बल्कि वास्तव में इस्लाम की धार्मिक व्यवस्था में इसकी एक मौलिक स्थिति है। व्यावहारिक रूप से इस्लाम की सभी मान्यताएं और क़ानूनों की बुनियाद मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत की इसी विशिष्ट स्थिति पर आधारित हैं। इसलिए, रिसालत के बारे में किसी का ईमान तब तक मान्य नहीं हो सकता जब तक कि वह उस विशिष्ट स्थिति को ध्यान में रखते हुए मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान न लाए।

पिछली नुबूवतों (ईसदूतत्वों) और मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत का अंतर

इस लेख को समझने के लिए पहले कुछ बातों का ध्यान में रखना ज़रूरी है:

1. क़ुरआन के संकेतों, हदीसों और तर्कसंगत अनुमानों से यही पता चलता है कि पैग़म्बरों की संख्या हज़ारों से अधिक होनी चाहिए। क़ुरआन कहता है:

ऐसा कोई राष्ट्र कभी नहीं रहा जिसमें एक चेतावनी देने वाला न गुज़रा हो। (फ़ातिर, 35:24)

यह स्पष्ट है कि मानव जाति के इतनी उम्मतें (समुदाय) दुनिया में गुज़र चुकी हैं कि इतिहास का ज्ञान उन्हें कवर नहीं कर सकता है। इसलिए, अगर हर उम्मत के लिए एक रसूल भी आया हो, तो रसूलों की संख्या हज़ारों से अधिक होनी चाहिए। इसकी पुष्टि कुछ हदीसों से भी होती है, जिनमें पैग़म्बरों की संख्या एक लाख चौबीस हज़ार बताई गई है। लेकिन क़ुरआन में जिन पैग़म्बरों के नाम दर्ज हैं, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। उनके साथ अगर हम उन सुधारकों को शामिल करें, जिनके नबी होने के बारे में कोई संकेत क़ुरआन में नहीं है, तो भी यह संख्या दो अंकों से अधिक नहीं पहुंचती है। इस तरह, अनगिनत नबियों के नाम और निशान मिटाना, और उनकी शिक्षाओं के प्रभाव का ख़त्म हो जाना, इस बात का प्रमाण है कि उन्हें कुछ विशेष भाषाओं और कुछ विशेष राष्ट्रों में भेजा गया था, और उनके पास ऐसा कुछ नहीं था जो स्थिरता, निरंतरता और वैश्विक विस्तार प्रदान करने में सक्षम हो।

2. फिर जिन नबियों और सुधारकों के नाम, हमें ज्ञात भी हैं, उनकी शिक्षाएं मिथकों और विकृतियों से इतनी ढकी हुई हैं कि उनके बारे में हमारा ज्ञान और हमारी अज्ञानता बराबर है। उनके जितने अंश इस समय संसार में मौजूद हैं, अगर आप उनकी शुद्ध ऐतिहासिक वैधता के आधार पर पड़ताल करें तो यह स्वीकार करना होगा कि उनमें एक भी ऐसी चीज़ नहीं है जिस पर भरोसा किया जा सके। हम उनके काल तक निर्धारित नहीं कर सकते। हमें उनके सही नाम तक की जानकारी नहीं है। हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि वे वास्तव में दुनिया में मौजूद थे या नहीं। बुद्ध, जरथ्रुश्ट और क्राइस्ट जैसी प्रसिद्ध हस्तियों के बारे में इतिहासकारों ने यह संदेह भी जताया है कि क्या वे ऐतिहासिक शख़्सियत हैं या केवल काल्पनिक हैं। फिर उनके जीवन के बारे में हमारे पास जो जानकारी है वह इतनी अस्पष्ट है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में उनका अनुकरण नहीं किया जा सकता है। और यही उनकी शिक्षाओं का मामला है। उनके द्वारा लिखी गई किसी भी किताब या शिक्षा को उनके द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है, और आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के मज़बूत प्रमाण हैं, जो साबित करते हैं कि उनमें कई विकृतियां की गई हैं। ये बातें यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त हैं कि मुहम्मद (सल्ल.) से पहले जितने भी नबी और समाज सुधारक गुजर चुके हैं, उनकी रिसालत और उनके सुधार समाप्त हो गए हैं।

3. लगभग सभी नबियों और पेशवाओं के बारे में यह स्पष्ट है कि उनकी शिक्षाएँ उन विशेष राष्ट्रों के लिए थीं जिनमें वे आए थे। कुछ ने इसे स्वयं निर्दिष्ट किया, और कुछ संबंधित घटनाओं ने इसे साबित कर दिया है। हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, कन्फ्यूशियस, जरथ्रुश्ट और कृष्ण की शिक्षाएँ उनके राष्ट्र से बाहर नहीं गईं। यही बात अन्य नबियों और सेमिटिक और आर्य राष्ट्रों के नेताओं के साथ भी है। हालाँकि, बुद्ध और ईसा की शिक्षाओं को उनके अनुयायियों द्वारा अन्य राष्ट्रों में फैलाया गया था, लेकिन उन्होंने स्वयं कभी इसकी कोशिश नहीं की, और न ही यह कहा कि उनका संदेश पूरी दुनिया के लिए है। इसके विपरीत, बाइबिल में ही कहा गया है कि वह केवल बनी इस्राईल का मार्गदर्शन करने आए थे।

सभी पैग़म्बरों और पेशवाओं में से केवल मुहम्मद (सल्ल.) ही ऐसे हैं जिनके जीवन और शिक्षाओं के बारे में हमारे पास इतनी सही, प्रामाणिक और निश्चित जानकारी है कि उनके स्वास्थ्य के बारे में संदेह की कोई जगह नहीं है। बिना किसी संशय के यह कहा जा सकता है कि आज दुनिया में किसी भी ऐतिहासिक शख़्सियत के बारे में इतनी सटीक और विश्वसनीय जानकारी नहीं है। अगर किसी को उसके स्वास्थ्य पर संदेह हो, तो उसे पूरी दुनिया के ऐतिहासिक संग्रह को जलाना होगा, क्योंकि इतने प्रामाणिक संग्रह की प्रामाणिकता पर संदेह करने के बाद, यह ज़रूरी हो जाता है कि इतिहास का पूरा ज्ञान झूठ का पुलिन्दा हो और उसके एक शब्द पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है।

5. इसी तरह सभी पैग़म्बरों और नेताओं में केवल मुहम्मद (सल्ल.) ही हैं जिनकी जीवनी और जीवन परिस्थितियाँ हमारे सामने पूरी तरह से मौजूद हैं। न केवल पेशवाओं, बल्कि दुनिया के तमाम ऐतिहासिक शख़्सियतों में मुहम्मद (सल्ल.) के अलावा कोई शख़्स नहीं है, जिसकी जीवनी इतिहास के पन्नों में इतने विस्तार के साथ सुरक्षित रखी गई है। अगर पवित्र पैग़म्बर के युग और हमारे वर्तमान युग के बीच कोई अंतर है, तो केवल यह है कि पवित्र पैग़म्बर उस समय अपने भौतिक जीवन के साथ मौजूद थे, और अब नहीं हैं। लेकिन अगर भौतिक जीवन की शर्त न हो, तो हम कह सकते हैं कि पवित्र पैग़म्बर आज भी जीवित हैं। और जब तक दुनिया में जीवन है, तब तक वे जीवित रहेंगे। हदीसों और सीरत (पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की जीवनी) की किताबों में, दुनिया पवित्र पैग़म्बर के जीवन को उतनी ही क़रीब से देख सकती है, जितनी उनके युग के लोग देख सकते थे। इसलिए यह कहना बिल्कुल सही है कि पैग़म्बरों और पथ-प्रदर्शकों में से अगर किसी का सही और पूरी तरह से पालन किया जा सकता है, तो वे केवल मुहम्मद (सल्ल.) है।

6. यही हाल पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षा का है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, नबियों और पेशवाओं में से एक भी ऐसा नहीं है जिसकी लाई किताब और जिसकी शिक्षा आज अपने सही रूप में मौजूद हो, और जो उसे लाने और प्रस्तुत करने वाले के साथ पूरी विश्वतनीयता और प्रामाणिकता के साथ जोड़ी जा सके। अकेले मुहम्मद (सल्ल.) को यह सम्मान प्राप्त कि वे जो किताब लाए, क़ुरआन, सटीक शब्दों के साथ मौजूद है जिसमें पवित्र पैग़म्बर ने उसे प्रस्तुत किया था। और क़ुरआन के अलावा, जो निर्देश आपनी भाषा के माध्यम से दिए थे, वे भी लगभग अपने मूल रूप में आज तक संरक्षित हैं और संरक्षित रहेंगे। तो, रसूलों और नेताओं के बीच, अगर किसी की शिक्षाओं का निश्चित रूप से पालन किया जा सकता है, तो वह केवल मुहम्मद (सल्ल.) हैं।

7. अतीत के पैग़म्बरों और पेशवाओं की शिक्षा और जीवनी से जुड़ा जो भंडार इस समय दुनिया में मौजूद है, उन सब को देखा जाए। उसमें आपको सत्य, अच्छाई, सलाह, नैतिकता और अच्छे मामलों के जितने शुद्ध उदाहरण मिलेंगे, वे सभी आप मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षा और उनके जीवन में पा सकते हैं। इसी तरह, आपके बाद मानव जाति के सभी नेताओं की शिक्षाओं और जीवन में, आपको कुछ भी ऐसा नहीं मिलेगा जो मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओं और जीवन में मौजूद नहीं हो। फिर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षा और जीवन में आपको ज्ञान, सही कर्म, अच्छे सिद्धांतों का प्रचुर संग्रह मिलेगा, जो दुनिया के किसी भी अगले या पिछले नेता के शिक्षण और जीवन में नहीं मिलता है। इन सबके अलावा, मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान और नैतिकता और सांसारिक मामलों से संबंधित कुछ भी ऐसी सही बात नहीं सोच सकता जो इस्लाम से बाहर हो। तो यह एक तथ्य है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षा और जीवनी सभी अच्छाइयों का व्यापक संग्रह है। सत्य जो था वह मुहम्मद (सल्ल.) ने प्रकट कर दिया । सीधा रास्ता जो है वह आप ने दिखा दिया। आपने उन सभी सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर दिया, जो मनुष्य की व्यक्तिगत और सामूहिक हैसियत से नैतिकता और मामलों को सही रखने और दुनिया में सही ढंग से जीने के लिए उचित हो सकते हैं। अब उन पर किसी तरह की बढ़ोतरी की कोई गुंजाइश नहीं है।

8. मुहम्मद (सल्ल.) पैग़म्बर और धर्म के अग्रदूतों के पूरे समूह में एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दावा किया कि उनका निमंत्रण सभी मानव जाति के लिए है, और ऐसा हुआ भी कि अपने जीवनकाल में उन्होंने राष्ट्रों के शासकों को निमंत्रण भेजा और ज़मीन के हर हिस्से हर कोने और हर देश में में उनका निमंत्रण पहुंचा। यह विशेषता पवित्र पैग़म्बर को छोड़कर किसी और के यहां उपलब्ध नहीं है। उनमें से कुछ ने न तो सार्वभौमिकता का दावा किया और न उन्हें सार्वभौमिकता मिली। कुछ धर्मों को सार्वभौमिकता प्राप्त तो हुई, लेकिन उन्होंने स्वयं कभी इसका दावा नहीं किया और न ही इसके लिए कोई प्रयास किया। पवित्र पैग़म्बर के सिवा कोई नहीं है जिसने सार्वभौमिकता का दावा किया हो, उसके लिए प्रयास किया हो, और सार्वभौमिकता उन्हें प्राप्त भी हुई हो।

9. दुनिया में पैग़म्बरों के आने के केवल तीन कारण हो सकते हैं: एक तो यह है कि किसी राष्ट्र का मार्गदर्शन करने के लिए पहले कोई नबी नहीं आया और इसके लिए एक नबी या एक से अधिक नबी की ज़रूरत है। दूसरा यह है कि एक नबी पहले आया था, लेकिन उसकी नुबूवत के निशान खो गए, उसकी शिक्षा और वह जो किताब लाया था, सब विकृत हो गयी, उसकी जीवनी के निशान इस तरह से मिटा दिए गए कि लोगों के लिए उसका अनुसरण करना संभव नहीं रहा। तीसरा यह है कि पहले नबी या नबियों की शिक्षा और मार्गदर्शन पूर्ण नहीं हो और इसमें और वृद्धि की ज़रूरत हो। इन तीन कारणों के अलावा पैग़म्बर के भेजने का कोई चौथा कारण नहीं है और न हो सकता है। यह संभव नहीं है कि एक नबी किसी राष्ट्र में आया हो, उसकी शिक्षा और उसकी जीवनी अपने सही रूप में संरक्षित हो, उसमें किसी भी वृद्धि की ज़रूरत न हो, और उसके बाद एक और नबी भेज दिया जाए।

इसके अलावा, नुबूवत का पद इतना छोटा और निम्न स्तर का पद नहीं है कि केवल पिछले पैग़म्बर की शिक्षाओं पर ध्यान आकर्षित कराने के लिए किसी नबी को भेज दिया जाए। इस काम के लिए उलमा और मुजद्दिदीन (सुधारकों) का समुदाय काफ़ी है। विवेक भी गवाही देता है कि कोई भी पैग़म्बर तब तक नहीं आ सकता जब तक कि उपरोक्त तीन कारणों में से कोई मौजूद न हो। हमारे पिछले बयान से यह साबित हो चुका है कि मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के साथ ये तीनों ही कारण मौजूद हैं। आपका आवाह्ण समस्त मानवजाति के लिए है, इसलिए अलग-अलग राष्ट्रों में किसी नबी के आने की कोई ज़रूरत नहीं है। आपके द्वारा लाई गई किताब और आपकी रिसालत के सभी कार्य अपने सही रूप में संरक्षित हैं, इसलिए किसी नई किताब या मार्गदर्शन की कोई ज़रूरत नहीं है। आपकी शिक्षा और मार्गदर्शन पूर्ण और व्यापक है, सत्य के ज्ञान में से एक भी चीज़ छिपी नहीं रही है, और नेक कार्यों के लिए मार्गदर्शन और अनुकरणीय नमूना प्रदान करने में कोई कमी बाक़ी नहीं है, इसलिए इसमें किसी चीज़ को जोड़ने की ज़रूरत नहीं है। जब ये तीन कारक मौजूद नहीं हैं, और पैग़म्बर का मिशन इन्हीं तीन कारकों पर निर्भर करता है, तो यह स्वीकार करना अनिवार्य है कि मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के बाद पैग़म्बरी का दरवाज़ा पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। अगर यह द्वार अभी खुला रहता है, तो इसका अर्थ यह होगा कि अल्लाह व्यर्थ कार्य भी करता है, हालांकि अल्लाह इससे पाक है कि कोई बेकार काम करे।

मुहम्मद (सल्ल.) के रिसालत की यही विशिष्टताएं हैं, जिन्हें पवित्र क़ुरआन ने पूरे विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है।

सामान्य आह्वाण

क़ुरआन कहता है:

(ऐ नबी!) आप लोगों से कह दें कि ऐ मानव जाति के लोगो! मैं तुम सभी की ओर उस अल्लाह का रसूल हूँ, जिसके लिए आकाश और धरती का राज्य है। कोई वंदनीय (पूज्य) नहीं है, परन्तु वही, जो जीवन देता और मारता है। अतः अल्लाह पर ईमान लाओ और उसके उस उम्मी ) जिसने संसार में किसी से शिक्षा न प्राप्त की हो) नबी पर, जो अल्लाह पर और उसकी सभी (आदि) किताबों पर ईमान रखते हैं और उनका अनुसरण करो, ताकि तुम मार्गदर्शन पा जाओ।” (अल-आराफ़, 7:158)

“ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से रसूल सत्य लेकर आ गये हैं। अतः उनपर ईमान लाओ, यही तुम्हारे लिए अच्छा है और अगर कुफ़्र करोगे, तो (याद रखो कि) अल्लाह ही का है, जो आकाशों और धरती में है।”          (अन-निसा, 4:170)

“और (ऐ नबी!) हमने आपको समस्त संसार के लिए दया बना  कर ही भेजा है।” (अल-अन्बिया, 21:107)

“पाक (महिमान्वित) है वह (अल्लाह), जिसने फ़ुर्क़ान (सत्य और असत्य में अंतर  करने वाली किताब) अवतरित किया अपने बन्दे पर, ताकि पूरे संसार-वासियों को सावधान करने वाला हो।” (अल-फुरकान 25:1)

 इसका तात्पर्य कुछ मुद्दों से है:

एक यह है कि मुहम्मद (सल्ल.) का आह्वान किसी समय या किसी राष्ट्र या देश के लिए विशिष्ट नहीं है, बल्कि वे सभी मानव जाति के हमेशा के लिए मार्गदर्शक हैं।

दूसरा यह है कि सारी मानव जाति मुहम्मद (सल्ल.) पर विश्वास करने और आपका अनुसरण करने के लिए बाध्य है।

तीसरा, मुहम्मद (सल्ल.) पर विश्वास किए बिना और आपका अनुसरण किए बिना मार्गदर्शन प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

ये तीन मुद्दे ईमानियात में शामिल हैं, क्योंकि इस्लाम जिस सार्वभौमिक और वैश्विक मानव सभ्यता का नाम है, वह इसी पर आधारित है। अगर यह मान लिया जाए कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के धर्म के बाहर भी मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है, तो इस्लाम के आह्वाण से उसकी व्यापकता समाप्त हो जाती है और इस्लाम की सार्वभौमिकता समाप्त हो जाती है।

दीन (धर्म) की पूर्णता

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत की दूसरी विशिषटता जो पवित्र क़ुरआन प्रस्तुत करता है वह यह है:

“वही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्य धर्म के साथ भेजा, ताकि वह पूरे दीन पर प्रभावी हो जाए।” (अल-तौबा, 9:33)

“आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) सिद्ध कर दिया और तुम पर अपना आशीर्वाद पूरा कर दिया और तुम्हारे लिए इस्लाम को पसंद कर लिया।”        (अल-माइदा, 5:3)

इससे पता चलता है कि मार्गदर्शन जिस चीज़ का नाम है और दीने हक़ (सत्य धर्म) जिसे कहते हैं, यह सब अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा पूरी की जा चुकी है। इसके बाद, मार्गदर्शन, सत्य धर्म और सत्य ज्ञान में से ऐसा कुछ भी नहीं रहा है जिसके लिए किसी अन्य पैग़म्बर या दूत के आने की ज़रूरत हो। इन स्पष्ट शब्दों के साथ धर्म और नेमतों की जिस पूर्णता की घोषणा की गई है, उसका तार्किक परिणाम यह है कि पिछली नुबूवतों के साथ अनुसरण और पालन का संबंध टूट जाता है और भविष्य के लिए नुबूवत का द्वार बंद हो जाता है। ये दो मुद्दे, यानी अतीत के धर्मों का निरस्तीकरण और पैग़म्बरी का अंत, मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत की विशिष्टताएं हैं और दोनों को पवित्र क़ुरआन में स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है।

पिछले दीनों का निरस्तीकरण

पिछले दीनों का निरस्तीकरण का अर्थ यह है कि पिछले नबियों ने जो कुछ प्रस्तुत किया, वह अब निरस्त कर दिया गया है। उनकी नुबूवत और सच्चाई पर सामान्य विश्वास रखना तो ज़रूरी है क्योंकि वे सभी इस्लाम ही के आवाहक थे, और उनकी पुष्टि वास्तव में इस्लाम की पुष्टि है, लेकिन आज्ञाकारिता और अनुसरण का संबंध अब उनसे अलग हो गया है और केवल मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओं और तरीक़ों से जुड़ गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्ण सिद्धांत के बाद अपूर्णता की कोई ज़रूरत नहीं रहती। दूसरी बात, पिछले नबियों की शिक्षाएं और जीवनियां विकृत हो चुकी हैं, जिसके कारण व्यवहार में उनका पालन करना संभव नहीं है। इस कारण से, पवित्र क़ुरआन में जहां भी रसूल आज्ञाकारिता और अनुसरण का आदेश दिया गया है, वहां "अल-रसूल" या "अल-नबी" शब्द का प्रयोग किया गया है, जो विशेष रूप से मुहम्मद (सल्ल.) के के लिए है। उदाहरणार्थ:

“और अल्लाह और रसूल की आज्ञा मानो, आशा करो कि तुम पर दया की जाएगी।” (आले इमरान, 3:132)

और

“आज्ञापालन करो रसूल की और उन लोगों की जो तुम में से फ़ैसला लेने वाले हों। (अल-निसा, 4:59)

और

“जो कोई भी रसूल का पालन करता है वह वास्तव में अल्लाह का पालन करता है। (अल-निसा, 4:80)

फिर यही कारण है कि उन लोगों को भी मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाने और उनका अनुसरण करने का आदेश दिया गया है जो पिछले किसी नबी पर ईमान रखने वाले हैं। तो कहा गया है:

“ऐ किताब वालो! तुम्हारे पास हमारे रसूल आ गये हैं, जो तुम्हारे लिए उन बहुत सी बातों को उजागर कर रहे हैं, जिन्हें तुम छुपा रहे थे और बहुत सी बातों को छोड़ भी रहे हैं। अब तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश और खुली किताब (कुर्आन) आ गई है। जिसके द्वारा अल्लाह उन्हें शान्ति का मार्ग दिखा रहा है, जो उसकी प्रसन्नता पर चलते हों, उन्हें अपनी अनुमति से अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है और उन्हें सीधा रास्ता दिखाता है।”   (अल-माइदा, 5:15-16)

और

“किताब वालों में से ईमान वाले वे हैं जो उस रसूल का अनुसरण करते हैं, जो उम्मी नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात और इंजील में पाते हैं; जो सदाचार का आदेश देते हैं और दुराचार से रोकते हैं, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) और मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करते हैं, उनसे उनके बोझ उतारते हैं और उन बंधनों को खोल देते हैं, जिनमें वे जकड़े हुए हैं। अतः जो लोग आपपर ईमान लाये, आपका समर्थन किया, आपकी सहायता की और उस प्रकाश (क़ुरआन) का अनुसरण किया, जो आपके साथ उतारा गया, तो वही सफल होंगे। (ऐ नबी!) आप लोगों से कह दें कि ऐ मानव जाति के लोगो! मैं तुम सभी की ओर उस अल्लाह का रसूल हूँ, जिसके लिए आकाश और धरती का राज्य है। कोई वंदनीय (पूज्य) नहीं है, परन्तु वही, जो जीवन देता और मारता है। अतः अल्लाह पर ईमान लाओ और उसके उस उम्मी नबी पर, जो अल्लाह पर और उसकी सभी (आदि) किताबों पर ईमान रखते हैं और उनका अनुसरण करो, ताकि तुम मार्गदर्शन पा जाओ।” (अल-आराफ़, 7:157-158)

इन आयतों में पिछले दीनों का निरस्तीकरण की व्याख्या, उसका अर्थ, उसका कारण, और उसके तार्किक परिणाम सभी हैं।अब मार्गदर्शन और कल्याण की कड़ी उम्मी पैग़म्बर के अनुसरण से जुड़ी है। और यह भी समझाया गया है कि उम्मी नबी का धर्म वास्तव में उस धर्म का सुधार और उसकी पूर्णता है जिसे तौरात और बाइबिल के मानने वालों और दुनिया के अन्य देशों में भेजा गया था।

नुबूवत का अंत

इसी तरह धर्म के पूरा होने का दूसरा परिणाम, यानी नुबूवत की समाप्ति का भी पवित्र क़ुरआन में वर्णन किया गया है।

कहा गया कि:

“मुह़म्मद तुम्हारे पुरुषों मेंसे किसी के पिता नहीं हैं। किन्तु, वे अल्लाह के रसूल और सब नबियों में अन्तिम हैं और अल्लाह प्रत्येक चीज़ का ज्ञानी है।”       (अल-अहज़ाब, 33:40)

नुबूवत की समाप्ति की यह इतनी स्पष्ट और खुली घोषणा है कि अगर किसी के दिल में कोई विकृति और टेढ़ न हो, तो इस घोषणा के बाद, वह किसी भी तरह से इस्लाम में नुबूवत के दरवाज़े के खुले रहने के लिए जगह नहीं निकाल सकता है।

मुहम्मद (सल्ल.) की आस्था के घटक

दीन की पूर्णता, पिछले दीनों का निरस्तीकरण और नुबूवत का अंत, ये तीनों मान्यताएं वास्तव में इस्लाम के ईमानियात में शामिल हैं, और मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत की मानयता के अनिवार्य़ घटक हैं। इस्लाम का आह्वान इस आधार पर स्थित है कि एक पूर्ण धर्म मानव जाति को मुहम्मद (सल्ल.) के आह्वाण के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है, जिसमें पिछले सभी आहवाणों की कमी पूरी कर दी गई है, और भविष्य के लिए कोई भी कमी नहीं छोड़ी गई है, जिसे पूरा करने की ज़रूरत हो। इस पूर्ण धर्म ने हमेशा के लिए इस्लाम और कुफ़्र, सत्य और असत्य के बीच इतना स्थायी अंतर स्थापित कर दिया है कि क़ियामत के दिन तक इसमें कोई कमी या वृद्धि नहीं होगी।

यह वह ठोस और अपरिवर्तनीय नींव है जिस पर इस्लामी सभ्यता की सार्वभौमिक और स्थायी इमारत का निर्माण किया गया है। ऐसा इस लिए किया गया है ताकि दुनिया के लोग हमेशा एक ही सभ्यता के अनुपालन पर एकमत हो सकें। एक ऐसा समुदाय जिसकी पूर्णता और स्थायित्व के बारे में दे पूरी तरह से निश्चिंत हों। एक ऐसा धर्म जो सत्य और मार्गदर्शन पर पूरी तरह से हावी हो। ऐसी सभ्यता जिसके भवन पर कुफ़्र और इस्लाम के किसी नए विभाजन से विक्षुब्ध होने का ख़तरा न हो। इस पर इस्लाम की आधारित है।

जो व्यक्ति कहता है कि इस्लाम आने के बाद भी पिछले धर्म का पालन करना सही है, वह वास्तव में इस्लाम से सार्वजनिक आहवान का अधिकार छीन रहा है। अगर इस्लाम के अलावा अन्य तरीक़ों से भी मार्गदर्शन संभव है, तो सभी राष्ट्रों और समुदायों को इस्लाम में आमंत्रित करना व्यर्थ है। जो कोई यह कहता है कि मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओं को प्रत्येक युग की ज़रूरतों और परिस्थितियों के अनुसार संशोधित किया जा सकता है, वह वास्तव में इस्लाम से स्थायी होने के अधिकार से वंचित करता है। जो धर्म त्रुटिपूर्ण हो और जिसमें से कुछ हटाया या जोड़ा जा सके वह अगर हमेशा के लिए मार्गदर्शन का स्रोत होने का दावा करता है, तो उसका दावा झूठा होगा।

 फिर जो कोई यह कहता है कि मुहम्मद (सल्ल.) के बाद भी इस्लाम में पैग़म्बरों के आने की गुंजाइश है, वह वास्तव में इस्लाम की स्थिरता पर प्रहार कर रहा है। पैग़म्बरी का दरवाज़ा खुला होने का मतलब है कि इस्लामी समुदाय हमेशा बिखराव और विभाजन के ख़तरे में है। इस्लाम में इस दरवाज़े का खुला रहना वास्तव में बिगाड़ के दरवाज़े का खुला रहना है। इस्लाम को मिटाने के सभी संभावित कारणों में से सबसे घातक और ख़तरनाक कारण किसी के द्वारा इस्लाम में पैग़म्बरी का दावा करना है। मुस्लिम उम्मत की जमीयत व्यवस्था इसी आधार पर तो स्थापित की गई थी कि जो लोग मुहम्मद (सल्ल.) और क़ुरआन पर ईमान लाएं, वे सभी मुसलमान और ईमानवाले हें, एक राष्ट्र हैं, एक समुदाय हैं, भाई-भाई हैं, जो एक-दूसरे के दुखों और सुख-सुविधाओं को साझा करते हैं। अब अगर कोई आकर कहे कि मुहम्मद (सल्ल.) और क़ुरआन पर ईमान रखना ही काफ़ी नहीं है, उसके साथ मुझ पर भी ईमान लाना ज़रूरी है और जो मुझ पर ईमान नहीं रखता वह काफ़िर है, भले ही वह मुहम्मद (सल्ल.) और क़ुरआन पर ईमान रखता हो। फिर इसी  आधार पर वह मुसलमानों के बीच कुफ़्र और इस्लाम का विभेद करे, और उस समुदाय को टुकड़ों में विभाजित कर दे, जिसे मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बनाया था, तो उससे बढ़कर इस्लाम, इस्लामी सभ्यता, और इस्लाम की व्यवस्था का दुश्मन और कौन हो सकता है।

इस बहस से, कोई भी समझ सकता है कि मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के साथ दीन की पूर्णता, पिछले दीनों का निरस्तीकरण और नुबूवत का अंत की मान्यता कितनी महत्वपूर्ण है और इस्लाम के अस्तित्व और स्थिरता के लिए कितनी ज़रूरी है।

6. अल्लाह की किताबों पर ईमान

इस्लाम की शब्दावली में, "किताब" से आशय वह किताब है, जो अल्लाह की ओर से रसूल पर बन्दों का मार्गदर्शन करने के लिए उतारी जाती है। इस अर्थ के संदर्भ में, किताब उसी संदेश के आधिकारिक बयान की तरह है, या इस्लामी शब्दावली के अनुसार, अल्लाह का कलाम है, जिसे लोगों को बताने, समझाने और व्याख्या करने और व्यवहार में लाने के लिए पैग़म्बरों को दुनिया में भेजा जाता है। यह जान लेना ज़रूरी है कि पैग़म्बरों के माध्यम से लोगों को दी जाने वाली शिक्षाओं के सिद्धांत अल्लाह की ओर से पैग़म्बर के दिल में डाले जाते हैं। उस शिक्षा के शब्द और अर्थ दोनों आल्लाह के होते हैं, उन में पैग़म्बर की बुद्धि, विवेक और इच्छाओं की कोई भूमिका नहीं होती। पैग़म्बर इस संदेश को अल्लाह के बन्दों तक एक भरोसेमंद दूत के रूप में पहुंचा देता है। फिर अल्लाह द्वारा दी गई अंतर्दृष्टि के साथ इसके अर्थ और मांगों की व्याख्या करता है, और इन ईश्वरीय सिद्धांतों के आधार पर नैतिकता, समाज, सभ्यता और संस्कृति की स्थापना करता है। वह अपनी शिक्षा और अपने पवित्र आचरण से लोगों के विचारों और प्रवृत्तियों में क्रांति पैदा करता है।

उनमें पवित्रता, आत्म-शुद्धि और अच्छे कर्मों की भावना का संचार करता है। अपने प्रशिक्षण और व्यावहारिक मार्गदर्शन से, वह उन्हें इस तरह व्यवस्थित करता है कि एक नई मानसिकता, नए विचार, नए तरीक़े, नए रीति-रिवाज और नए क़ानून एवं संविधान के साथ एक नया समाज अस्तित्व में आता है। फिर वह उनके बीच अल्लाह की किताब और उसके साथ अपने शिक्षण और अपने पवित्र आचरण के निशान छोड़ देता है, जो हमेशा उस समुदाय और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन की मशाल के रूप में काम करता है।

रिसालत और किताब का संबंध

पैग़म्बर और किताब दोनों उसी एक अल्लाह की ओर से हैं। दोनों एक ही उद्देश्य और एक ही आह्वान की पूर्ति के माध्यम हैं। अल्लाह के ज्ञान की शाब्दिक अभिव्यक्ति 'किताब' है और उसका व्यवहारिक आदर्श पैग़म्बर का जीवन।

मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि वह केवल किताबी विद्या से कोई असाधारण लाभ नहीं उठा पाता। ज्ञान के साथ-साथ इसे एक मानव शिक्षक और मार्गदर्शक की भी ज़रूरत होती है जो उस ज्ञान को अपनी शिक्षा के माध्यम से दिलों में बिठा सके और इसका मूर्त रूप बन सके जो उस ज्ञान का वास्तविक उद्देश्य है। पूरे मानव इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा कि एक किताब ने किसी शिक्षक के मार्गदर्शन के बिना किसी क़ौम की मानसिकता और जीवन में क्रांति ला दी हो। जिन नेताओं ने क़ौमों के विचारों और कर्मों में क्रांति पैदा की है, अगर वे स्वयं अपनी शिक्षा के पूर्ण व्यावहारिक मॉडल न होते, और केवल उनकी शिक्षाओं और उनके सिद्धांतों को एक किताब के रूप में प्रकाशित कर दिया गया होता, तो कोई यह दावा करने का साहस नहीं कर सकता कि केवल किताबों द्वारा भी वही क्रांतियाँ पैदा होतीं, जो उन नेताओं के व्यावहारिक शिक्षा के द्वारा लाई गई।

दूसरी ओर, यह मानव स्वभाव है कि वह मानव मार्गदर्शक के साथ उसकी शिक्षाओं का  एक प्रामाणिक और विश्वसनीय बयान भी चाहता है। चाहे वह काग़ज़ पर लिखा हो, या छातियों में संग्रहीत हो। नेता जिन सिद्धांतों पर समुदाय के विचारों, कार्यों, नैतिकता और संस्कृति का निर्माण करता है, अगर उन्हें उनके मूल रूप में संरक्षित नहीं किया जाए, तो धीरे-धीरे उसकी शिक्षा फीकी पड़ने लगती है, और इस के साथ, व्यक्तिगत चरित्र और सामूहिक व्यवस्था की नींव कमज़ोर होती जाती है। अंत में भी यह समूह केवल उन मिथकों के साथ रह जाता है जिनमें सभ्यता की एक शक्तिशाली व्यवस्था को संभालने की ताक़त नहीं होती है। यही कारण है कि जिन नेताओं की शिक्षाओं को संरक्षित नहीं किया गया, उनके अनुयायी गुमराही में पड़ गए।

जगत के निर्माता को अपनी रचना की इस प्रकृति के बारे में पता था, इसलिए जब उसने मानव जाति के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी ली, तो साथ ही साथ इसके लिए पैग़म्बरी की श्रृंखला जारी की। एक ओर उसने श्रेष्ठ चरित्र वाले लोगों को मार्गदर्शक के पद पर नियुक्त किया और दूसरी ओर अपना कलाम भी उतारा, ताकि ये दोनों चीज़ें मानव स्वभाव की इन दो मांगों को पूरा करें। अगर बिना किताब के गाइड आ जाए, या किताब गाइड के बिना आ जाए, तो ज्ञान का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।

दीपक और मार्गदर्शक का क़ुरआनी उदाहरण

पवित्र क़ुरआन पैग़म्बर और किताब के इस संबंध को अलंकारिक रूप से वर्णित करता है। उसने कई जगहों पर रसूल को मार्गदर्शक बताया है जिसका काम भटकने वालों को सीधा रास्ता दिखाना है। उदाहरण के लिए:

“और हमने उन्हें इमाम बना दिया जो हमारे आदेश से मार्गदर्शन करते थे। (अल-अंबिया, 21:73)

“और हर क़ौम के लिए एक मार्गदर्शक है। (अल-राद, 13:7)

“आप मेरे पीछे चलें, मैं आपको सीधा मार्ग दिखाऊंगा। (मरयम, 19:43)

“और मैं तुम्हें तुम्हारे पालनहार की ओर मार्ग दिखाऊं, तो तुम्हारे भीतर (उसका) डर पैदा हो। (अल-नाज़ियात, 79:19)

दूसरी ओर, वह किताब को "नूर" (प्रकाश) और "ज़िया" (ज्योति) और "बुरहान" (साक्ष्य) और "फ़ुरक़ान" (कसौटी) और "मुनीर और मुबीन" (स्पष्ट औक खुला हिआ) के शब्दों से संदर्भित करता है, उदाहरण के लिए:

“और उसी प्रकाश का अनुसरण करो जो उसके साथ प्रकट हुआ है। (अल-आराफ़, 7:157)

“पहले, हम मूसा और हारून को फ़ुरक़ान और प्रकाश और (याद दिहानी) दे चुके हैं। (अल-अंबिया, 21:48)

“तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से रोशनी और ऐसी स्पष्ट किताब आ गई है। (अल-माइदा, 5:15)

“तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे लिए स्पष्ट प्रमाण आ गया है।                (अन-निसा, 4:174)

ये उपमाएं महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा करती हैं। इन से यह बताया गया है कि आम आदमी को अपनी स्वभाविक बुद्धि से पर्याप्त प्रकाश और मार्गदर्शन नहीं मिलता है और सत्य के सीधे रास्ते पर चलने के लिए ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। इस अजनबी और अंधेरी जगह में, उसे एक असाधारण मार्गदर्शक की ज़रूरत है जो इस जगह के रीति-रिवाजों को जानता हो, और उसके हाथ में एक दीपक भी हो जो उसे क़दम दर क़दम बताता चले कि यहां गड्ढा है, यहाँ पैर फिसलता है, यहाँ काँटे हैं, यहाँ से और भी टेढ़े-मेढ़े रास्ते निकलते हैं, और जो आदमी उसके पीछे चलता है, इस दीपक के प्रकाश में पथ के चिन्हों को देखकर, सीधे रास्ते के संकेतों को पहचानता है, टेढ़े-मेढ़े रास्तों के मोड़ से परिचित होता है और उनका पालन करता है। रात के अँधेरे में गाइड और दीये का जो रिश्ता होता है, वही रिश्ता रसूल और किताब के बीच होता है। अगर हम गाइड के हाथ से दीपक लेकर ख़ुद उसे ढोते हैं, तो रास्ते में हमें कई कांटे, चौराहे और टेढ़े-मेढ़े रास्ते मिलेंगे, जहाँ हमें या तो हैरानी में रुकना पड़ेगा या उलझन में हम दीपक की रोशनी में ग़लत रास्ते पर चले जाएंगे। क्योंकि केवल दीपक के अस्तित्व काफ़ी नहीं होता है। इसी तरह अगर पथ प्रदर्शक के हाथ में दीया न हो तो हम अंधे अनुचर की तरह उसका अनुसरण करेंगे और प्रकाश के बिना हमारे पास टेढ़े पथ और सीधे मार्ग में भेद करने के लिए पर्याप्त अंतर्दृष्टि नहीं होगी। जैसे रात के अँधेरे में अपने रास्तों पर चलने के लिए हमें एक ऐसे मार्गदर्शक की ज़रूरत होती है, जो इस मंज़िल के रीति-रिवाज़ों और तौर-तरीक़ों से भली-भांति परिचित हो, और हमें एक मशाल की भी ज़रूरत होती है, जिसकी रोशनी से हम इस रास्ते पर चल सकें और उसे अच्छी तरह से पहचानने में सक्षम हों। हम इन दोनों में से किसी के बिना नहीं रह सकते। उसी तरह, वास्तविकता की अजनबी मंज़िल में, जहां हमारी बुद्धि का प्रकाश अकेले काम नहीं करता है, हमें उनमें रसूल और किताब दोनों की समान रूप से ज़रूरत होती है। इनमें से किसी को छोड़ कर हम सीधे रास्ते को नहीं पा सकते।

रसूल वह विशेषज्ञ है जो अल्लाह द्वारा दी गई अंतर्दृष्टि से सीधा मार्ग को जानता है और इस के रीति-रिवाजों से परिचित होता है। जैसे गाइड जो सैकड़ों बार उस रासुते पर चला है और प्रत्येक कदम की विस्तृत जानकारी रखता है। इस अंतर्दृष्टि का नाम 'आदेश’ ‘ज्ञान’  ‘शर्हे सद्र’, ‘इलाही शिक्षा’ और ‘रब्बानी मार्गदर्शन' है, जिसका विशेष रूप से क़ुरआन में बार-बार नबियों को दिए जाने के रूप में उल्लेख किया गया है, उदाहरण के लिए:

“(ऐ पैग़म्बर) क्या हमने तुम्हारे लिए तुम्हारी छाती नहीं खोल दी? ”       (अलम-नशरह, 94:1)

“अल्लाह ने तुम पर किताब और हिकमत उतारी है, और तुमसे वह कुछ बताता है जो तुम नहीं जानते थे, और उसकी कृपा तुम्हारे लिए महान है।”            (अल-निसा, 4:113)

“हालाँकि हमने उन्हें आदेश और ज्ञान दोनों दिया था। (अल-अन्बियाह 21:79)

“उन लोगों का अनुसरण करो जो तुम से कुछ नहीं मांगते हैं और सही रास्ते पर हैं। (यासीन, 36:21)

और किताब वह दीया है जिसकी मदद से नबी न केवल अपने माननेवालों को सीधे रास्ते पर चलाते हैं, बल्कि उन्हें सच्चाई के वह ज्ञान और प्रबुद्ध सोच भी देता है जो उसे अल्लाह ने दिया है। वह अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण से उन्हें इतना सक्षम बना देता है कि अगर वे उसके कदम के निशान पर चलते रहें और उस दीपक को अपने हाथों में पकड़ते रहों, तो वे न केवल मार्गदर्शन पा लेंगे, बल्कि दूसरों के लिए मार्गदर्शक और इमाम बन जाएंगे।

“यह एक किताब है जिसे हमने लोगों को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए आप पर उतारा है। (इब्राहीम,14:1)

“और हमने तुझ पर उल्लेखित (क़ुरआन) उतारा ताकि तू लोगों को यह मार्गदर्शन स्पष्ट कर सके जो उन की ओर भेजी गयी है, ताकि वे उसपर विचार कर सकें। (अन-नह्ल, 16:44)

फिर, क़ुरआन ने यह भी समझाया कि भौतिक दुनिया में दीपक और मार्गदर्शक के बीच जो अंतर है, वह रसूल और किताब के बीच नहीं है, बल्कि दोनों के बीच एक गठबंधन है। इसलिए, कुछ जगहों पर किताब की उपमा जित चीज़ से की गई है, दूसती जगहों पर रसूल की उपमा भी उसी से की गई है।

“ऐ पैग़म्बर, हमने आपको भेजा है गवाह बनाकर, ख़ुशख़बरी देने वाला और चेतावनी देने वाला बनाकर, अल्लाह की अनुमति से उसकी ओर आमंत्रित करने वाला बनाकर और एक उज्ज्वल दीपक बनाकर। (अल-अहज़ाब, 33:45-46)

इस में रसूल को दीपक कहा गया है, और

“सच तो यह है कि क़ुरआन एक ऐसा रास्ता दिखाता है जो बिल्कुल सीधा है।” (बनी इस्राईल, 17:9)

में किताब को रास्ता दिखाने बाला कहा गया है।

इससे यह ज्ञात होता है कि किताब और रसूल के बीच का संबंध वास्तव में अविभाज्य है। मार्गदर्शन के लिए मनुष्य को दोनों की समान रूप से ज़रूरत होती है। मनुष्य जिस बौद्धिक और व्यावहारिक व्यवस्था और सभ्यता को स्थापित करना चाहता है, उसकी स्थापना और स्थिरता के लिए यह अनिवार्य है कि वह हमेशा रसूल और किताब दोनों के साथ अपना संबंध बनाए रखे। इस ज़रूरत के कारण, पैग़म्बर और किताब दोनों को ईमान के अलग-अलग स्थायी घटक ठहराया गया है और प्रत्येक पर ईमान लाने के लिए बार-बार ज़ोर दिया गया है।

 अल्लाह की सभी किताबों पर ईमान

जहाँ तक ईमान का सवाल है, इस्लाम अल्लाह द्वारा अपने रसूलों पर उतारी गई सभी किताबों में विश्वास का आदेश देता है। मुसलमान होने के लिए सभी पैग़म्बरों पर ईमान लाना ज़रूरी है, उसी तरह सभी किताबों पर ईमान लाना भी ज़रूरी है। इसलिए क़ुरआन में बार-बार कहा गया है:

 “और नेक लोग वे हैं जो ईमान लाते हैं उस किताब पर जो तुम पर उतारी गई है और उन किताबों पर जो तुमसे पहले उतारी गई हैं। (अल-बक़रह, 2:4)

“रसूल और सभी ईमान वाले ईमान रखते हैं, अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर। (अल-बक़रह, 2:285)

“अल्लाह ने तुम पर सच्चाई के साथ किताब उतारी है, जो उन सभी किताबों की पुष्टि करती है जो इससे पहले आ चुकी हैं। (आले-इमरान, 3:3)

“कह दो: हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर और उस किताब पर जो हम पर उतारी गई है, और उन किताबों पर जो इब्राहीम और इसमाईल और इसहाक और याकूब और याकूब की सन्तान पर उतारी गई थीं, और जो मूसा और ईसा और दूसरे नबियों पर उनके पालनहार की ओर से अवतरित हुई थीं। हम उनमें से किसी के बीच भेदभाव नहीं करते हैं और हम उसके अधीन हैं। (आले-इमरान, 3:84)

“जिन लोगों ने इस किताब और उन किताबों को झुठलाया जिनके साथ हमने अपने रसूल भेजे थे, जल्द ही उनको अपना अंत मालूम हो जाएगा। जब उनके गले में बेड़ियां पड़ी होंगी और उन्हें उबलते पानी में घसीटा जाएगा, फिर आग में झोंक दिया जाएगा। (अल-मोमिन, 40:70-72)

“निश्चय ही हमने अपने रसूलों को स्पष्ट निशानियों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तराजू उतारी, ताकि लोग सच्चाई के मार्ग पर चल सकें। (अल-हदीद, 57:25)

इस विवरण के साथ-साथ कुछ किताबों के नामों लेकर भी उन पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है और उनकी प्रशंसा की गई है, उदाहरण के लिए, तौरात को मार्गदर्शन, नूर फ़ुरक़ान, ज़िया इमाम और रहमत कहा गया है। बाइबिल की मार्गदर्शन, प्रकाश और चेतावनी के शब्दों से व्याख्या की गई है। यह इस्लाम के सिद्धांतों में से एक है कि क़ुरआन में जिन किताबों का उल्लेख किया गया है, उन पर स्पष्ट रूप से ईमान लाया जाना चाहिए, और जिनका उल्लेख नहीं किया गया है, उन पर संक्षेप में ईमान लाया जाना चाहिए। इस्लामी मान्यता के अनुसार, दुनिया में कोई भी राष्ट्र नहीं है जिसमें अल्लाह के रसूल अल्लाह की ओर से किताबें लेकर न आए हों, और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों और राष्ट्रों में जितनी भी किताबें आई हैं, वे सभी एक ही की स्रोत की धाराएं हैं। इसलिए जो मुसलमान है, वह उन सब पर ईमान रखता है और जो उनमें से किसी एक को नकारता है, वह उन सब को नकारने का और वास्तव में मूल स्रोत को नकारने का दोषी है।

 केवल क़ुरआन का अनुसरण

लेकिन ईमान के बाद, जहां से पालन करने की सीमा शुरू होती है, अन्य किताबों से अलग होना और केवल क़ुरआन से जुड़ना ज़रूरी है। इसके अनेक कारण हैं:

आसमानी किताबों में से कई किताबें अब विलुप्त हो चुकी हैं, और जो मौजूद हैं, उनमें क़ुरआन के सिवा कोई भी किताब अपने मूल शब्दों और अर्थों में संरक्षित नहीं है। मानव शब्द और अर्थ दोनों ईशवरीय शब्दों में मिल गए हैं। मार्गदर्शन के साथ भटकाव, जो मन की इच्छाओं का पालन करने का अनिवार्य परिणाम है, इन किताबों में मिश्रित हो चुका है। अब कितना सच है और कितना झूठ, यह भेद करना मुश्किल है। यही हाल उन किताबों का है जिन पर विभिन्न धर्म अपनी बुनियाद रखते हैं, और जिनके आसमानी होने का शक किया जा सकता है। उनमें से कुछ तो ऐसी हैं कि अल्लाह की ओर से उतरने की कल्पना भी नहीं है। उनमें से कुछ के बारे में यह भी ज्ञात नहीं है कि अगर वे अल्लाह की ओर से आई हैं, तो वे किस पैग़म्बर पर आई और उनमें से कुछ की भाषाएँ इतनी मृत हो गई हैं कि आज उनका अर्थ निर्धारित करना कठिन है। कुछ में मानवीय इच्छाओं और ग़लत विचारों का मिश्रण साफ़ नज़र आता है। कुछ में शिर्क की शिक्षा, अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत और अन्य ऐसी झूठी मान्यताएँ और कर्म हैं जो सही नहीं हो सकते। ऐसी पुस्तकें, जो इस स्थिति में हैं, मनुष्य को सही ज्ञान नहीं दे सकती हैं। इनका पालन करके मनुष्य को पथभ्रष्ट होने से नहीं बचाया जा सकता।

 क़ुरआन को छोड़कर, जितनी पुस्तकें इस समय मौजूद हैं चाहे वे आसमानी हों या उनपर आसमानी होने का संदेह किया जा सकता हो, उनकी शिक्षाओं और उनके आदेशों में, या तो एक सीमित जातीय राष्ट्रीयता का प्रभाव प्रमुख है, या विशिष्ट समय का प्रभाव। वे हर समय में सभी मनुष्यों के लिए मार्गदर्शन का स्रोत न कभी थीं और न ही हो सकती हैं।

 इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन किताबों में से प्रत्येक में ऐसी शिक्षाएँ हैं जो सत्य हैं, और उनमें मानव आचरण और मामलों के सुधार के लिए कुछ अच्छे सिद्धांत और क़ानून भी हैं, लेकिन उनमें एक भी किताब ऐसी नहीं है, जो सभी अच्छी चीज़ों का व्यापक संग्रह हो, जिसमें पूर्ण सत्य प्रकट होता है, जो अकेले मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन कर सकती हो।

पवित्र क़ुरआन इन तीन दोषों से मुक्त है:

1. यह उन्हीं शब्दों में संरक्षित है जिसमें अल्लाह के रसूल ने इसे प्रस्तुत किया था। पहले दिन से, सैकड़ों, हज़ारों, लाखों लोगों ने हर युग में इसे शब्दशः कंठस्थ किया है, लाखों-लाखों लोगों ने इसे प्रतिदिन पाठ किया है, इसकी प्रतियां हमेशा किताब-रूप में लाई गई हैं, और कभी इसके टेक्स्ट में कण भर भी अंतर नहीं मिला है। इसलिए इस मामले में कोई संदेह नहीं है कि जो क़ुरआन पैग़म्बर से अरबी भाषा में सुना गया था, वही क़ुरआन आज तक दुनिया में मौजूद है और हमेशा मौजूद रहेगा। इसमें एक भी शब्द नहीं बदला गया है और न ही बदला जा सकता है।

2. वह अरबी में आया है, जो एक जीवित भाषा है। आज लाखों लोग हैं जो इसे बोलते और समझते हैं, और आज तक इस भाषा का मानक साहित्य वही है जो क़ुरआन के अवतरण के समय था। इसके अर्थ समझने में मनुष्य को कोई कठिनाई नहीं होती।

3. यह परम सत्य है, और शुरू से अंत तक ईश्वरीय शिक्षाओं से भरा हुआ है। इसमें मानवीय भावनाओं, स्वार्थी इच्छाओं, राष्ट्रीय या सांप्रदायिक स्वार्थ और अज्ञानतापूर्ण पथभ्रष्टता का नामो-निशान भी नहीं है। इसमें ईश्वरीय शब्दों के साथ मानवीय शब्दों का मिश्रण नहीं है।

4. इसमें सभी मनुष्यों को संबोधित किया जाता है और ऐसी मान्यताएं, नैतिकता के सिद्धांत और आचरण के नियम प्रस्तुत किए गए हैं जो किसी देश या राष्ट्र और किसी विशेष समय के लिए विशिष्ट नहीं हैं। इसकी शिक्षा सार्वभौमिक और शाश्वत दोनों है।

5. इसमें उन सभी तथ्यों, ज्ञान और अच्छी चीज़ें को एकत्र कर दिया गया है, जो इससे पहले की आसमानी किताबों में वर्णित थे। किसी भी धर्म की किताब से ऐसी कोई बात नहीं निकाली जा सकती जो सच्ची और अच्छी हो और क़ुरआन उसके उल्लेख से ख़ाली हो। इतनी व्यापक किताब की उपस्थिति में व्यक्ति आपसे आप अन्य सभी किताबों से अलग हो जाता है।

6. यह आसमानी निर्देशों और ईश्वरीय शिक्षाओं का नवीनतम संस्करण है। कुछ निर्देश, जो पिछली किताबों में विशेष हालात के तहत दिए गए थे, इसमें से हटा दिए गए हैं और कई नई शिक्षाएँ जो पिछली किताबों में नहीं थीं, जोड़ दी गईं हैं। इसलिए जो व्यक्ति पूर्वजों का अनुयायी नहीं है बल्कि वास्तव में ईश्वरीय मार्गदर्शन का अनुयायी है, उसके लिए इस नवीनतम और आधुनिक संस्करण का पालन करना ज़रूरी है न कि पुराने संस्करणों का।

यही कारण हैं जिनके आधार पर इस्लाम ने सभी किताबों से अनुसरण के संबंध को तोड़ दिया और केवल पवित्र क़ुरआन से ही जोड़ दिया और पूरी दुनिया को इस किताब को अपना मैनुअल बनाने के लिए आमंत्रित किया।

“हम ने यह किताब सत्य के साथ तुम्हारी ओर उतारी है, कि तुम लोगों के बीच उस सच्चाई के ज्ञान से न्याय करो जो अल्लाह ने तुम्हें दी है।               (अन-निसा, 4:105)

“तो जो लोग इस नबी पर ईमान लाए और जिन्होंने उसकी मदद की और उसे सहारा दिया और उस ज्योति का अनुसरण किया जो उसके साथ उतरी थी, वही सफल होंगे। (अल-आराफ़, 7:157)

यही कारण है कि उन क़ौमों को भी पवित्र क़ुरआन पर ईमान लाने और उसका पालन करने के लिए आमंत्रित किया गया है, जिनके पास पहले से ही एक आसमानी किताब मौजूद है। क़ुरआन में बार-बार यह आदेश दिया गया है:

“ऐ वे लोगो! जिन्हें किताब दी गई है, इस किताब (क़ुरआन) पर ईमान लाओ जिसे हमने उतारा है। और जिसकी पुष्टि वे किताबें करती हैं जो तुम्हारे पास मौजूद हैं। (अल-निसा 4:47)

“ऐ किताब वालो! हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है, जो तुम पर बहुत सी बातें प्रकट करता है, जिन्हें तुम किताब से छिपाते थे, और बहुत सी बातों को क्षमा कर देता है। तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश और स्पष्टता के साथ बयान करने वाली एक किताब आ गई है, जिसके द्वारा अल्लाह उन लोगों को सुरक्षा का मार्ग दिखाता है जो उसके आदेशों का अनुसरण करते हैं, और वह उन्हें अल्लाह की अनुमति से अंधकार से दूर करता है, उन्हें प्रकाश में लाता है और उन्हें सीधे मार्ग पर ले जाता है। (अल-माइदा, 5:15-16)

“और हमने तुम्हारी ओर स्पष्ट और खुली आयतें उतारी हैं, और उन्हें केवल वे ही झुठलाते हैं, जो उल्लंघन कारी हैं। (अल-बक़रह, 2:99)

 क़ुरआन के बारे में विस्तृत आस्था

जिस किताब को मनुष्य के लिए विचार और विश्वास का सही मार्गदर्शक ठहराया गया है, और जिसे व्यावहारिक जीवन के लिए अनिवार्य क़ानून के रूप में निर्धारित किया गया है, उसका अनुसरण तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि व्यक्ति उसकी शुद्धता और ग़लतियों से सुरक्षित होने का पूरा यकीन न रखता हो। क्योंकि अगर उसके सही होने को लेकर कोई भी संदेह पैदा हो जाए, तो उसपर से भरोसा उठ जाएगा और फिर उसका पालन नहीं किया जा सकेगा। इस ज़रूरत के आधार पर क़ुरआन पर ईमान के ज़रूरी तत्व इस तरह हैं, जिनका वर्णन पवित्र क़ुरआन में किया गया है:

1. क़ुरआन जिस भाषा में उतरा था, उसी भाषा में संरक्षित है। किसी तरह की कमी बेशी उस में नहीं हुई। इसका प्रमाण निम्नलिखित आयतों में है:

“इसे इकट्ठा करना और सिखाना हमारी ज़िम्मेदारी है। इसलिए जब हम इसका पाठ करें, तो आप इसके पाठ का अनुसरण करें। फिर इसका अर्थ समझाना हमारा काम है।” (अल-क़ियामह, 75:17-19)

“हम आपको इस तरह से सिखाएंगे कि आप भूल नहीं पाएंगे, सिवाय उसके जिसे अल्लाह भुलाना चाहे। (अल-आला, 87:6-7)

“इस ज़िक्र (क़ुरआन) को हम ही ने उतारा है और हम ही इसके रखवाले हैं। (अल-हिज्र, 15:9)

“तेरी ओर तेरे रब की किताब में से जो कुछ उतारा गया है, उसकी तिलावत कर, कोई उसकी बातों को बदलने वाला नहीं। (कह्फ़ 18:27)

2. क़ुरआन के उतरने में कोई शैतानी ताक़त शामिल नहीं है।

“और नहीं उतरे हैं (इस क़ुरआन) को लेकर शैतान। और न योग्य है उनके लिए और न वे इसकी शक्ति रखते हैं। वास्तव में, वे तो (इसके) सुनने से भी दूर कर दिये गये हैं।” (शुअरा, 26:110-112)

 3. क़ुरआन में ख़ुद पैग़म्बर की इच्छा का कोई हस्तक्षेप नहीं:

और वह नहीं बोलते अपनी इच्छा से। वह तो बस वह़्यी (प्रकाशना) है, जो (उनकी ओर) की जाती है।” (अल-नज्म, 53: 3-4)

4. क़ुरआन में असत्य को कभी रास्ता नहीं मिला:

“सच यह है कि ये एक अति सम्मानित पुस्तक है। नहीं आ सकता असत्य इसके आगे से और न इसके पीछे से। उतरा है तत्वज्ञ, प्रशंसित (अल्लाह) की ओर से।”

 5. क़ुरआन परम सत्य है, यह अटकल और अनुमान के आधार पर नहीं, बल्कि ज्ञान के आधार पर उतारा गया है, इसमें कोई टेढ़ापन नहीं है, यह बिल्कुल सीधा रास्ता दिखाता है:

“और जिनके पास ज्ञान है, वे इस किताब को समझते हैं, जो तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर उतारी गई है, कि यह सत्य है और संमार्ग दर्शाती है, अति प्रभुत्वशाली, प्रशंसित का ओर ले जाती है।” (सबा, 34:6)

“और हम उनके लिए एक किताब लाए हैं, जिसे हमने ईमान वालों के लिए विस्तृत ज्ञान, मार्गदर्शन और दया बनाया है।” (अल-आराफ़, 7:52)

 “ऐ मुहम्मद (सल्ल.), कह दो कि यह किताब उस ने उतारी है जो आकाशों और ज़मीन के सभी रहस्यों को जानता है।” (अल-फ़ुर्क़ान, 25:6)

 “यही एक ऐसी किताब है जिसमें कोई बात संदेह के आधार पर नहीं कही गई है।” (अल-बक़रह 2:2)

“और अल्लाह ने इसमें कोई विकृति नहीं रखी है। वह बिल्कुल सीधा है।”    (अल-कह्फ़, 18:1-2)

“और वास्तव में क़ुरआन वह रास्ता दिखाता है जो बिल्कुल सीधा है।” (बनी इस्राईल, 17:9)

6. क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं को बदलने का अधिकार किसी को नहीं है, यहां तक कि पैग़म्बर भी नहीं:

“ऐ मुहम्मद (सल्ल.), कहो कि मुझे अपनी ओर से इस किताब को बदलने का अधिकार नहीं है। मैं केवल इस वह्य का पालन करता हूं जो मेरे सामने प्रकट हुई है। अगर मैं अपने रब की अवज्ञा करूं, तो मैं उस महान दिन के दण्ड से डरता हूँ।” (यूनुस,10:15)

7. जो कुछ भी क़ुरआन के ख़िलाफ़ है उसका पालन नहीं किया जा सकता है:

“जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर उतारा गया है, उसका पालन करो और उसके सिवा औरों के मार्ग पर न चलो।” (अल-आराफ़, 7:3)

पवित्र क़ुरआन के संबंध में यह इस्लाम की विस्तृत मान्यता है और इसके प्रत्येक भाग पर विश्वास करना ज़रूरी है। जिसके ईमान में एक भी तत्व की कमी है वह क़ुरआन का सही और पूरी तरह से पालन नहीं कर पाएगा और सही रास्ते से भटक जाएगा, जिसका नाम इस्लाम है।

 समग्र इस्लाम की आधारशिला

एक किताब और एक रसूल पर ईमान, उसी का पालन करना, उसी के द्वारा बनाए गए सांचे में मानसिकताओं का ढल जाना, सभी मान्यताएं, इबादतें, नैतिकता, मामले और सभी नागरिक क़ानून एक ही स्रोत से लेना, और उसी ईमान, आज्ञाकारिता और अनुपालन के संबंध में इस्लाम के सभी अनुयायी का बंध जाना, इस्लाम को एक स्थायी सभ्यता और मुसलमानों को सभी तरह के जातीय, भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक मतभेदों के बावजूद एक क़ौम बनाता है।

क़ुरआन वास्तव में उन सभी मुद्दों का संग्रह है जिन पर इस्लाम की आधारित है। जो क़ुरआन पर ईमान लाया, मानो वह ख़ुदा और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन पर ईमान लाया। क्योंकि क़ुरआन में ये सभी ईमानियात अपने विवरण के साथ मौजूद हैं, और क़ुरआन पर ईमान के सही और पक्का हो जाने का निश्चित परिणाम यह है कि व्यक्ति को पूर्ण ईमान प्राप्त हो जाए। इसी तरह शरीयत के सभी सिद्धांत और बुनियादी क़ानून भी क़ुरआन में निहित हैं, जिसे शरीयत लाने वाले (मुहम्मद (सल्ल.) ने, अपने कर्मों और कथनों से स्पष्ट कर दिया है। अतः जो व्यक्ति ईमान के साथ क़ुरआन और रसूल की सुन्नत को अपने जीवन के सभी मामलों में अनिवार्य क़ानून के रूप में अपनाता है, वह निश्चित रूप से आस्था और अनुपालन के आधार पर मुसलमान है। आस्था और अनुपालनों के इसी संयोजन का नाम इस्लाम है। जहां ये दो चीज़ें मौजूद हैं, वहां इस्लाम होगा और जहां वे नहीं हैं, वहां इस्लाम नहीं होगा।

7. आख़िरत (अंतिम दिन) पर ईमान

अंतिम दिन मृत्यु के बाद के जीवन को संदर्भित करता है। इसलिए इसे ‘हयाते अख़िरत’ और ‘दारे आख़िरत भी कहा जाता है। पवित्र क़ुरआन का शायद ही कोई ऐसा पन्ना होगा जिसमें इस दूसरे जीवन का उल्लेख न हो। विभिन्न तरह से इसे मन में बिठाया गया है, इसकी प्रामाणिकता के लिए तर्क स्थापित किए गए हैं, इसके विवरणों की व्याख्या की गई है, इसके महत्व पर बल दिया गया है, इसमें विश्वास करने के लिए आमंत्रित किया गया है, और यह स्पष्ट रूप से कहा गया है। कि जो कोई परलोक में विश्वास नहीं करता, उसके कर्म व्यर्थ हो जाते हैं:

“जो कोई हमारी आयतों को झुठलाता है और आख़िरत के आने को झुठलाता है, उसके सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं।” (अल-आराफ़, 7:147)

“जिन लोगों ने अल्लाह से मिलने की ख़बर को झुठलाया, वे घाटे में पड़ गए।” (अल-अनआम, 6: 31)

बाद के जीवन में विश्वास जो इस तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कुछ ऐसे सवालों का जवाब है जो इनसान के दिल में स्वाभाविक रूप से उठते हैं।

कुछ स्वभाविक प्रश्न

 मनुष्य को सुख से अधिक दुख और राहत से अधिक पीड़ा का अनुभव होता है, और यह स्वाभाविक है कि जो चीज़ मनुष्य की भावना को जितना ठेस पहुंचाती है, वह उसकी विचार शक्ति को उतना ही अधिक उत्तेजित करती है। जब हमें कुछ मिलता है, तो अपनी ख़ुशी में हम यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि वह कहां से आया। ऐसा क्यों हुआ और यह कब तक चलेगा? लेकिन जब हमसे कुछ खो जाता है तो उसका सदमा हमारी चिंता को जगा देता है और हम सोचने लगते हैं कि वह कैसे खो गया? कहाँ गया? अब कहाँ होगा? और क्या हम इसे फिर से प्राप्त करेंगे या नहीं? इसलिए जीवन और उसके आरंभ का प्रश्न हमारे लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि मृत्यु और उसके अंत का। दुनिया का यह तमाशा और उसमें अपना वजूद देखें तो हमारे दिल में सवाल उठता है कि ये कैसा हंगामा है? यह कैसे शुरू हुआ? इसे किसने स्थापित किया? लेकिन ये सब फुरसत की बातें हैं और गहरी सोच रखने वालों के सिवा आम लोग इन सवालों में कम उलझते हैं। इस के विपरीत, मौत और उसकी कटुता, जिससे हर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, हर किसी के जीवन में ऐसे कई मौके आते हैं जब वह अपने दोस्तों और प्रियजनों को अपनी आंखों के सामने मरता हुआ देखता है। असहाय और कमज़ोर भी मर जाते हैं, शक्तिशाली और पराक्रमी भी मर जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति यह विश्वास हो जाता है कि उसे भी इसी मार्ग पर जाना है, जिसपर से सब गुज़र चुके हैं। इन दृश्यों को देखकर संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसका हृदय मृत्यु के प्रश्न से न विचलित हुआ हो और जिसने इस बात पर विचार न किया हो कि यह मृत्यु क्या है? इस दरवाज़े से गुज़रने के बाद इनसान कहां जाता है? और इस दरवाज़े के पीछे क्या है? बल्कि कुछ है या नहीं?

यह तो एक आम सवाल है जिस पर सभी ने विचार किया है। एक साधारण किसान से लेकर एक महान दार्शनिक और ऋषि तक, हर कोई इसमें शामिल है। लेकिन इसी संदर्भ में कुछ और भी सवाल हैं जो लगभग हर विचारशील व्यक्ति के दिल में खटकते हैं और जीवन की कई कड़वी घटनाएं उस खटक को और भी बढ़ा देती हैं। जीवन के ये कुछ वर्ष जो हम में से प्रत्येक को इस दुनिया में मिलते हैं, हमेशा किसी न किसी काम, किसी प्रयास और किसी आंदोलन में व्यतीत होते हैं। जिसे हम विश्राम समझते हैं वह भी एक आंदोलन है। जिसे हम बेकारी समझते हैं वह भी एक काम है। इनमें से हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होनी चाहिए,  हर प्रयास का एक फल और एक अंत होना चाहिए। अच्छाई का फल और बुराई का फल भोगना ज़रूरी है। एक अच्छा प्रयास एक अच्छा परिणाम दिखाना चाहिए और एक बुरा प्रयास एक बुरा परिणाम दिखाना चाहिए। लेकिन क्या हमें अपने इस जीवन में, हमारे सभी प्रयासों का परिणाम, हमारे सभी कार्यों का उत्तर मिलता है? एक दुष्ट व्यक्ति ने अपना सारा जीवन उद्दंडता में बिताया। निसंदेह उसे संसार में कुछ पापों का फल मिल गया। लेकिन कई कुकर्म ऐसे भी थे जिनका उन्हें दुनिया में पूरा बदला नहीं मिला। कई गुनाह इस तरह छुप गये कि उसकी बदनामी भी नहीं हुई, और अगर उन्हें बदनाम भी किया गया, तो उस ग़रीब व्यक्ति के नुक़सान की भरपाई का क्या? जिसके साथ उसने अन्याय किया था? तो क्या दुष्टों का अन्धेर और दीन का सब्र सब निष्फल रहेगा? क्या उनका अंत नहीं होगा? यही हाल सद्गुणों का भी है। कई अच्छे लोग जीवन भर अच्छे कर्म करते रहे और उनका पूरा फल दुनिया में नहीं मिला। यहां तक कि कुछ अच्छे कामों के लिए, उन्हें बदनाम किया गया। कुछ अच्छे कामों के लिए उन्हें सताया गया। कुछ अच्छे कामों को दुनिया के सामने कभी प्रकट नहीं किया गया। लेकिन क्या इन ग़रीबों के सारे अच्छे काम बेकार गए? क्या इतनी मेहनत का इतना ही फल काफ़ी है कि उन्हें अंतरात्मा की संतुष्टि मिल गई?

यह प्रश्न तो केवल व्यक्तियों से संबंधित है, लेकिन उसके बाद एक और प्रश्न प्रजातियों, चीज़ों, तत्वों और इस पूरे जगत के अंत से संबंधित है। हम देखते हैं कि मनुष्य मर रहे हैं और उनकी जगह दूसरे लोग ले रहे हैं। पेड़ और जानवर सभी नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर अन्य पेड़ और जानवर अस्तित्व में आते हैं। लेकिन क्या मरने और जीने का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा? कहीं खत्म तो नहीं होगा? यह वायु, यह जल, यह ज़मीन, यह प्रकाश, यह ऊष्मा और ये प्राकृतिक शक्तियाँ जिनसे यह कारख़ाना एक निश्चित तरीक़े से चलता है, क्या ये सभी शाश्वत हैं? क्या उनके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है? क्या उनके क्रम और व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा?

इस्लाम ने इन सभी सवालों को हल कर दिया है, और बाद के जीवन पर ईमान वास्तव में इन सवालों का जवाब है। लेकिन इस समाधान और इसकी वैधता और इसके नैतिक और सांस्कृतिक परिणामों पर चर्चा करने से पहले यह देखना चाहिए कि इन सवालों को हल करने के लिए ख़ुद मनुष्य द्वारा किए गए प्रयास कितने सफल हैं।

परलोक के जीवन का इनकार

एक समूह का कहना है कि जीवन जो कुछ भी है, यही दुनिया का जीवन है, और मृत्यु का अर्थ है पूर्ण विनाश और विलुप्त होना, जिसके बाद जीवन चेतना, भावना और परिणाम कुछ नहीं है:

“ये लोग कहते हैं, "हमारी पहली मृत्यु के सिवा और कुछ नहीं, उसके बाद हम फिर से जीवित किए जाने वाले नहीं हैं।” (अल-दुख़ान 44:35)

“ये लोग कहते हैं कि जिंदगी तो केवल हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है, यहीं हमें मरना और जीना है, और कुछ नहीं बल्कि दिनों का चक्कर है जो हमें मार डालता है।” (अल-जसिया, 45:24)

इसके विपरीत, जगत का यह कारख़ाना जैसा है वैसा ही चलता रहेगा, व्यवस्था में ऐसा स्थायित्व है जो कभी बाधित होने वाला नहीं है।

ऐसा कहने वाले ऐसा इसलिए नहीं कहते हैं क्योंकि उन्हें ज्ञान के किसी स्रोत से पता चला है कि वास्तव में मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं है, और वास्तव में यह बिना क्षय वाला संसार है, बल्कि वास्तव में वे केवल अपनी अनुभूति पर भरोसा करते हैं। और यह मत इसलिए स्थापित किया गया है क्योंकि उन्होंने मृत्यु के बाद किसी भी स्थिति को महसूस नहीं किया, और उन्होंने सांसारिक व्यवस्था के विघटन के कोई लक्षण नहीं देखे। लेकिन क्या हमारा कुछ महसूस नहीं करना उसके इनकार का पर्याप्त कारण है? क्या हमारी अनुभूति ही चीज़ों का अस्तित्व है और हमें महसूस न होना ही चीज़ों का न होना है? अगर ऐसा है, तो मैं कह सकता हूं कि जो चीज़ मेरी अनुभूति में आती है वह वास्तव में उसी क्षण अस्तित्व में आती है और जब वह मेरी अनुभूति से गायब हो जाती है तो वह वास्तव में नष्ट हो जाती है। मैंने जिस नदी को बहते हुए देखा, वह तब पैदा हुई जब मैंने उसे बहते हुए देखा। और जब वह मेरी दृष्टि से ओझल हो गयी, तो वह नष्ट हो गयी। क्या कोई समझदार व्यक्ति मेरी बात को सही मानेगा? अगर नहीं, तो कोई भी समझदार व्यक्ति इस कथन पर कैसे विश्वास कर सकता है कि मृत्यु के बाद की स्थिति हमारे अवलोकन और अनुभव में नहीं आई है, इसलिए मृत्यु के बाद कोई स्थिति नहीं है।

फिर जिस तरह अनुभूतियों के आधार पर मृत्यु और विनाश का निर्णय करना ग़लत है, उसी तरह जीवन और अस्तित्व के बारे में जो निर्णय अनुभूतियों के आधार पर किए जाते हैं, वे विश्वसनीय नहीं होते। अगर दुनिया के शाश्वत होने को केवल इस आधार पर तय करना सही है क्योंकि हमने इसे टूटते नहीं देखा है, तो मैं एक मज़बूत इमारत को देख कर कह सकता हूं कि यह हमेशा के लिए खड़ी रहेगा, क्योंकि मैंने इसे गिरते नहीं देखा है, और न ही मुझे इसमें कोई क्षय दिखाई देता है जो इसके भविष्य के पतन की भविष्यवाणी करता हो। क्या समझदार लोगों की मौजूदगी में मेरा यह तर्क मान्य होगा?

चरित्र पर परलोक के इनकार का प्रभाव

दार्शनिक और विद्वान अब इस विचार पर लगभग सहमत हो चुके हैं कि एक न एक दिन संसार की इस व्यवस्था का पतन अवश्य होगा। शायद विद्वानों के समुदाय में ऐसा कोई नहीं है जो दुनिया की अमरता और अनंत काल के प्राचीन दार्शनिक दृष्टिकोण को दोहराता हो। हालाँकि, अभी भी बहुत से लोग हैं जो केवल यह कहते हैं कि मृत्यु पूर्ण अंत है, और उनके इस कथन का आधार वही अनुचित तर्क है जो ऊपर बताया गया। इस कथन के अनुचित होने से अलग यह एक सच्चाई है कि इस कथन से कभी संतुष्टि नहीं होती है। कई प्रश्न जो जीवन के मामलों को देखने के बाद दिल में उठते हैं, इस कथन में उनका उत्तर नहीं मिलता   है। इसके अलावा, अगर किसी व्यक्ति की नैतिकता और उसके जीवन का निर्माण इस विश्वास पर आधारित है, तो अगर परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों, तो यह विश्वास व्यक्ति के मन में एक गंभीर निराशा और कम अवसाद का कारण बनेगा, क्योंकि जब वह संसार में अपने अच्छे कर्मों का कोई परिणाम नहीं देखेगा, तो उसकी सक्रियता ठंडी हो जाएगी। जब उसे दुनिया में अपने सत्कर्मों के लिए न्याय का कोई साधन नहीं मिलेगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। और जब वह दुष्टों और उत्पीड़कों को संसार में फलते-फूलते देखता है, तो वह सोचेगा कि जगत में बुराई ही बुराई है और अच्छे को केवल हेय दृष्टि से देखा जाता है। वहीं अगर परिस्थितियाँ अनुकूल रही तो इस विश्वास के प्रभाव से मनुष्य स्वार्थी प्राणी बन जाएगा। वह सोचेगा कि विलासिता और आनंद में बिताए दिन ग़नीमत हैं। अगर कोई संसार के किसी भी सुख से वंचित रह गया, तो ऐसा कोई जीवन नहीं है जिसमें उसकी कमी पूरी हो। वह अन्याय करेगा, लोगों के अधिकारों को हड़पेगा, वह अपने लाभ और इच्छाओं के लिए कुछ भी बुरा करने से नहीं हिचकेगा। उच्चतम गुण और बड़प्पन जिसकी एक व्यक्ति कल्पना कर सकता है, वही है जो अच्छा नाम, प्रसिद्धि, सम्मान, या कोई अन्य सांसारिक लाभ प्राप्त करने के लिए व्यक्त किया जा सकता है। इसी तरह, वह केवल ऐसे अपराधों को अपराध के रूप में और केवल ऐसे पापों को पाप के रूप में मानेगा जिसके सांसारिक दंड या शारीरिक दंड या भौतिक हानि के रूप में प्रकट होने की संभावना है। जिन गुणों का इस संसार में कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं है, वे उसकी दृष्टि में मूर्खता से कम नहीं होंगे, और जो बुराईयां इस संसार में कोई हानि नहीं पहुंचाती हैं, वे उनकी दृष्टि में समझदारी होगी।

अगर कहीं पूरे समाज की नैतिक व्यवस्था ऐसे ही विश्वास और ऐसी ही मानसिकता पर आधारित हो, तो इसकी नैतिक अवधारणाएं बदल जाएंगी। उसकी पूरी नैतिकता व्यवस्था स्वार्थ पर आधारित होगी। अच्छाई सांसारिक लाभ का पर्याय होगी और बुराई सांसारिक हानि का पर्याय होगी। अगर झूठ संसार में हानि का कारण है, तो वह पाप होगा, और अगर वह लाभ का साधन है, तो वह सही हो जाएगा। अगर सत्यता संसार में लाभ का स्रोत है, तो वह अच्छा होगा, अन्यथा अगर हानि का स्रोत है, तो उससे बड़ी कोई बुराई नहीं होगी। व्यभिचार सुख और विलासिता के लिए वांछनीय होगा, और इसमें बुराई का पहलू, अगर कभी होगा, तो वह तभी उत्पन्न होगा जब यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो। अतः जहाँ इस सांसारिक जीवन से परे किसी अच्छे या बुरे परिणाम का भय या आशा नहीं हो, वहाँ मनुष्य केवल इस संसार में आने वाले कार्यों के परिणामों को देखेगा, और इससे नैतिक मूल्यों में वह परिवर्तन होगा जो किसी भी सभ्य मानव समाज के अनुकूल नहीं हो सकता। बल्कि, यह कहना अधिक सही होगा कि ऐसे नैतिक मानकों के साथ, कोई भी मानव समूह जानवरों से भी बदतर स्तर तक गिरे बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता है।

आप कहेंगे कि दंड और पुरस्कार के लिए संसार में केवल भौतिक हानियाँ और लाभ ही नहीं हैं, बल्कि स्वयं मनुष्य के भीतर भी एक शक्ति मौजूद है, जिसे ज़मीर (अंतरात्मा) कहा जाता है। उसकी निंदा और नाराज़गी इस दुनिया में बुराई के लिए पर्याप्त सज़ा है, और उसकी संतुष्टि मनुष्य के अच्छे कर्मों के लिए पर्याप्त इनाम है। लेकिन मैं कहता हूं कि, पहले कई पाप ऐसे होते हैं जिनके भौतिक लाभ मनुष्य को अंतःकरण की भर्त्सना सहन करने के लिए प्रेरित करते हैं, और अनेक गुणों के लिए मनुष्य को इतना त्याग करना पड़ता है कि अंतःकरण की संतुष्टि ही उनका पूर्ण मुआवज़ा नहीं हो सकता। दूसरा, अगर आप अंतःकरण की वास्तविकता पर विचार करें, तो आपको पता चलेगा कि इसका कार्य नैतिक अवधारणाओं का निर्माण करना नहीं है, बल्कि एक निश्चित तरह की शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से किसी व्यक्ति के मन में जो नैतिक अवधारणाएं स्थापित होती हैं, अंतःकरण उनका समर्थन करना शुरू कर देता है। यही कारण है कि एक हिंदू की अंतरात्मा उन बुराईयों की निंदा नहीं करती, जिन की एक मुस्लिम की अंतरात्मा निंदा करती है। अत: अगर किसी समाज की नैतिक धारणाएँ बदल जाती हैं और अच्छे-बुरे के पैमाने बदल जाते हैं, तो उनके साथ-साथ अंतरात्माएं भी पीछे हट जाती हैं, वह उन कार्यों पर फटकार नहीं लगाती है, जिन्हें इस समाज ने पाप मानना बंद कर दिया हो, और न ही उसे उन कार्यों में संतुष्टि महसूस होती है, जिसे यह समाज अब अच्छा नहीं मानता।

पुनर्जन्म का सिद्धांत

दूसरा समूह वह है जिसने पुनर्जन्म के सिद्धांत को प्रस्तावित किया है। इस सिद्धांत का सार यह है कि मृत्यु का अर्थ केवल विनाश नहीं बल्कि एक परिवर्तित शरीर है। इस शरीर से अलग होने के बाद, रूह एक और शरीर धारण करती है, और वह दूसरा शरीर, या अधिक सटीक रूप से दूसरा रूप, उस क्षमता से मेल खाता है जो मनुष्य ने अपने कार्यों और झुकावों से अपने पहले जीवन में प्रदान की है। अगर उसके कर्म बुरे रहे हैं और उसके प्रभाव से उसकी रूह में बुरे गुण उत्पन्न हुए हैं, तो उसकी रूह निम्न पशु या वनस्पति वर्गों में जाएगी, और अगर उसने अच्छे कर्म किए हैं, जिसके माध्यम से उसकी रूह लिए अच्छे गुण आए हैं, तो रूह उच्च स्तर पर जाएगी ओर प्रगति करेगा। इसलिए इस सिद्धांत के अनुसार जो कुछ भी इनाम और दंड है, वह इस दुनिया में और इन शरीरों की दुनिया में है। रूहें अपने पिछले कर्मों के परिणाम भुगतने के लिए, रूप बदलते हुए, एक ही दुनिया में बार-बार लौटती रहती हैं।

यूनान में ईसा से कई शताब्दियों पहले पाइथोगोरस और इम्पेडोक्लस आदि इस बात के प्रति आश्वस्त थे। ईसाई धर्म से पहले रोम में भी इसकी चर्चा होती थी। इसके कुछ निशान कभी-कभी मिस्र के प्राचीन इतिहास में भी मिलते हैं। यहूदियों में भी बाहरी प्रभावों से पुनर्जन्म की यह मान्यता आ गई थी। लेकिन अब यह विश्वास या तो भारतीय मूल के धर्मों (ब्राह्मणवाद, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, आदि) में पाया जाता है, या पश्चिम अफ्रीका, दक्षिण अफ्रीका, मेडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, ओशिनिया, दक्षिण अमेरिका के जंगली या अर्ध-जंगली देशों में पाया जाता है। अन्य सभी सभ्य राष्ट्रों ने इसे अस्वीकार कर दिया है, क्योंकि ज्ञान और विज्ञान के विकास के माध्यम से मनुष्य ने अब तक दुनिया और उसके जीवन को जितना समझ लिया है, वह उन सभी विचारों का खंडन करता है जिन पर पुनर्जन्म का सिद्धांत आधारित है। जब हम भारतीय मूल के धर्मों में भी इस विचार के इतिहास को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि यह विचार प्राचीन और वैदिक भारत में बिल्कुल भी नहीं था। उस समय के आर्यों की मान्यता थी कि मृत्यु के बाद मनुष्य को एक दूसरा जीवन मिलता है जो दुष्टों के पूर्ण दुख और यातना भरा होता है और सत्कर्म करने वालों के लिए पूर्ण राहत भरा। इसके बाद इस दृष्टिकोण में बदलाव आया है, और दूसरी अवधि के भारतीय साहित्य में हम पुनर्जन्म का सिद्धांत पाते हैं। सिद्धांत के इस परिवर्तन का कारण अभी तक सामने नहीं आ पाया है।. कुछ विद्वानों का मानना है कि यह कल्पना आर्य जनजातियों से आई थी, और अन्य कहते हैं कि यह स्वयं आर्यों के निम्न वर्गों में मौजूद थी, और बाद के ब्राह्मण दार्शनिकों ने इसे अपनाया और इस पर कल्पनाओं और अटकलों का एक पूरा भवन बना लिया। इसी तरह, बौद्ध धर्म शुरू में पुनर्जन्म की विस्तृत योजना से रहित था जो बाद के बौद्ध साहित्य में यह पाया जाता है। जहाँ तक प्राचीन साहित्य की बात है, बौद्ध धर्म ने शुरू में यह माना था कि अस्तित्व एक नदी है जो निरंतर परिवर्तन और क्रांति की महिमा में बहती है। वही कल्पना आगे बढ़ी और रूप धारण कर लिया कि सारे जगत में एक रूह है और सारे जगत में एक ही अस्तित्व है, जो रूप से रूप बदलता रहता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय लोगों ने मूल रूप से प्रकाशना और प्रेरणा के स्रोत से प्राप्त ज्ञान को बदल दिया और एक दार्शनिक धर्म का आविष्कार कर लिया जो उनकी अपनी सोच का परिणाम था।

बौद्धिक आलोचना

यहां पुनर्जन्म के मुद्दे पर विस्तृत चर्चा नहीं की जा रही है, लेकिन इसकी त्रुटि को स्पष्ट करने के लिए, यह इंगित करना ज़रूरी है कि पुनर्जन्म में विश्वास उन विचारों पर आधारित है जो तर्क के ख़िलाफ़ हैं, और उन सभी विधाओं के ख़िलाफ़ हैं जो अब तक मनुष्य ने सृष्टि और जीवन पर विचार करके प्राप्त किया है। पुनर्जन्म के समर्थक लोगों का मानना है कि इस दुनिया में सभी को अपने कार्यों का फल इस तरह मिलता है कि वह अपने अच्छे कार्यों के कारण उच्च वर्गों के जीवन तक पहुंचता है और अपने बुरे कार्यों के कारण निम्न वर्ग में उतरता है। उदाहरण के लिए, अगर मनुष्य इस जीवन में बुरे कर्म करता है, तो वह पशु और वनस्पति वर्गों में पैदा होगा, और अगर पशु अपने जीवन में अच्छे कर्म करता है, तो वह मानव वर्ग में पैदि किया जाएगा। इसका अर्थ यह है कि पशु और वनस्पति का जीवन मानव जीवन के बुरे कार्यों का परिणाम है, और मानव जीवन वनस्पति और पशु जीवन के अच्छे कार्यों का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, जो इस समय मानव हैं वे इस लिए मानव हैं कि उन्होंने पशु जीवन में अच्छे कर्म किए हैं, और जो इस समय पशु वे इसलिए पशु हैं कि उन्होंने मानव जीवन में बुरे कर्म किए हैं। इस सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए कुछ अन्य बातों को स्वीकार करना ज़रूरी है और वे सभी ज्ञान और तर्क के विरुद्ध हैं, उदाहरण के लिए:

1 पुनर्जन्म का यह चक्र वह है जिसकी कोई शुरुआत नहीं ठहराई जा सकती है। इनसान होने के लिए उसके पहले पौधे और जानवर होना ज़रूरी है, और पौधे और जानवर होने के लिए उसके पहले इनसान होना ज़रूरी है।यह एक खुला विरोधाभास है जिसे बुद्धि असंभव घोषित करती है।

 2. अगर पुनर्जन्म का चक्र शाश्वत है, तो हमें यह विश्वास करना होगा कि न केवल वे रूहें जो बार-बार रूप बदलती हैं, शासवत हैं बल्कि वे पदार्थ भी जो उन रूहों को रूप प्रदान करते हैं, वे शाश्वत हों। यह ज़मीन और यह व्यवस्था सौर मंडल और इस व्यवस्था में काम करने वाली शक्तियां भी शाश्वत हों। लेकिन सामान्य ज्ञान के दावे और वैज्ञानिक जांच इस बात की गवाही देते हैं कि हमारा सौर मंडल न तो हमेशा से है और न हमेशा रहेगा।

3. यह स्वीकार करना होगा कि पौधों और जानवरों और मनुष्यों की सभी विशिष्टताएं वास्तव में उनके शरीर की विशेषताएं हैं, न कि उनकी रूह की। क्योंकि जो रूह मनुष्य के रूप सोचमे समझने की शक्ति रखता था, वह जानवर के रूप में पहुंचकर बुद्धिविहीन हो गया, और पौधे के रूप में पहुंचकर, इस बेचारे से हिलने-डुलने की शक्ति भी छीन ली गई।

4. अच्छा या बुरा वास्तव में उन कार्यों को कहते हैं जो सोच समझ कर किए जाएं। इस अर्थ में, मानव कर्म अच्छे और बुरे हो सकते हैं और उन्हें दंडित किया जा सकता है, लेकिन पौधों और जानवरों के कार्यों के लिए अच्छाई और बुराई का प्रयोग अनुमेय नहीं है, और न ही उन्हें दंडित करने का कोई उचित कारण है। ऐसा आदेश स्थापित करने के लिए यह मानना ज़रूरी है कि पौधों और जानवरों में भी सोचने और कार्य करने की शक्ति होती है।

अगर बाद का जीवन हमारे वर्तमान जन्म के कर्मों का फल है, तो स्पष्ट है कि बुरे कर्मों का फल बुरा ही होना चाहिए और जब दूसरे जन्म में वह बुरा फल हमको मिला, तो यह कैसे संभव है कि इस बुरे फल से अच्छे कर्म निकल सकें। अनिवार्य रूप से, उससे बुरे कर्म ही होंगे, और फिर तीसरे जन्म में उनका फल और भी बुरा होगा। इस तरह दुष्ट व्यक्ति की रूह पुनर्जन्म के चक्र में नीचे से नीचे स्तर तक गिरती चली जाएगी। इसके उभर आने की आशा भी नहीं की जा सकती है। इसका एक और अर्थ यह है कि मनुष्य से पशु तो बन सकता है, लेकिन पशु के लिए मनुष्य बनना असंभव है। अब प्रश्न यह है कि जो लोग इस समय मनुष्य हैं, वे किस अच्छे कर्मों के फलस्वरुप मनुष्य बने और कहाँ से आए?

सभ्यता पर पुनर्जन्म की मान्यता का प्रभाव

इनके अलावा और भी कई कारण हैं जिनके आधार पर सामान्य ज्ञान पुनर्जन्म में विश्वास नहीं कर पाता है। यही कारण है कि जैसे-जैसे मनुष्य ने बुद्धि और ज्ञान में प्रगति की, पुनर्जन्म में विश्वास लुप्त होता गया, अब तक यह ज़्यादातर उन राष्ट्रों में बना हुआ है जो बौद्धिक और वैज्ञानिक विकास में बहुत पिछड़े हैं। यह भी एक तथ्य है कि पुनर्जन्म में विश्वास प्रगति की भावना में मनोबल गिराने वाला और एक घातक विश्वास है। इसी विश्वास से ‘अहिंसा’ का विश्वास उत्पन्न हुआ है, जो मनुष्य के व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन के लिए सर्वथा घातक है। जो राष्ट्र इस विश्वास को मानता है, उसकी सामरिक भावना नष्ट हो जाती है, उसकी शारीरिक शक्ति कमज़ोर हो जाती है, वह शारीरिक शक्ति देने वाले सर्वोत्तम खाद्य पदार्थों से वंचित हो जाता है, उसके सदस्य न केवल शारीरिक रूप से कमज़ोर होते हैं, बल्कि मानसिक रूप से भी कमज़ोर होते हैं। इस दूसरी दृष्टि का परिणाम यह है कि राष्ट्र अधीन और शासित रहता है, और अंततः या तो अस्तित्व से गायब हो जाता है या अन्य शक्तिशाली राष्ट्रों में समाहित हो जाता है।

पुनर्जन्म में विश्वास का एक और नुक़सान यह है कि यह सभ्यता का दुश्मन है और एक व्यक्ति को मठवाद और संसार त्याग की ओर ले जाता है। पुनर्जन्मवादियों का मानना है कि जो चीज़ रूह को पापों से दूषित करती है वह इच्छा है। इसके कारण रूह को बार-बार भौतिक रूपों में आना पड़ता है और अपने कार्यों का परिणाम भुगतना पड़ता है। अगर मनुष्य कामनाओं का परित्याग कर स्वयं को संसार और उसके धंधों में न उलझाए, तो उसकी रूह को आवागमन के चक्र से मुक्त किया जा सकता है। यही मोक्ष का एकमात्र तरीक़ा है, क्योंकि सांसारिक जीवन के जाल में फंसने के बाद वहां से निकल पाना इनसान के के लिए नामुमकिन है। इसका परिणाम यह हुआ कि जो लोग मोक्ष की तलाश में हैं, वे संन्यासी बन गए और जंगलों, पहाड़ों में चले जाएं। जो ऐसा न करें वे मोक्ष से निराश हो हो कर जानवरों और पेड़ों की कक्षाओं में जाने के लिए तैयार हो जाएं। क्या यह मान्यता किसी भी तरह से सभ्यता के विकास में मदद कर सकती है? और क्या इस विश्वास को रखने वाला कोई राष्ट्र विश्व में विकसित हो सकता है?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ मामलों में पुनर्जन्म की मान्यता इससे बेहतर है कि  मृत्यु को पूर्ण विनाश समझ लिया जाए। क्योंकि मनुष्य में सदा जीवित रहने की स्वाभाविक इच्छा को कुछ हद तक पुनर्जन्म में संतुष्टि मिल सकती है, और इस मान्यता में पुरस्कार दंड और कर्मों के अच्छे और बुरे परिणाम का जो विचार मौजूद है, उसके आधार पर यह एक अच्छे और मज़बूत नैतिक क़ानून को भी समर्थन प्रदान कर सकता है। लेकिन सबसे पहले, यह एक निर्विवाद सत्य है कि जो विश्वास बुद्धि और ज्ञान के ख़िलाफ़ हो और सभ्यता के विकास में बाधा डालता हो, उसकी पकड़ मनुष्य के दिल और दिमाग़ पर कभी इतनी मज़बूत नहीं हो सकती है कि वह सभ्यता और संस्कृति और बौद्धिक विकास के हर चरण में समान बल के साथ बनी रह सके। जब इसकी पकड़ क़ायम नहीं रह सकती, तो किताबों में दार्शनिक सिद्धांत के रूप में इस विश्वास की उपस्थिति नैतिक व्यवस्था के अस्तित्व और स्थिरता के लिए फ़ायदेमंद नहीं हो सकती। जब कोई व्यक्ति यह मानता है कि पुनर्जन्म का चक्र एक मशीन की तरह चलता है, और यह कि प्रत्येक क्रिया का एक पूर्व निर्धारित परिणाम होता है, जो सामने आकर रहेगा, और किसी क्षमा याचना या प्रायश्चित से इस परिणाम को नहीं बदला जा सकता है, तो एक बार पाप करने के बाद, ऐसा व्यक्ति हमेशा के लिए पाप की स्थिति में होगा, और समझ जाएगा कि जब मुझे एक जानवर या एक पेड़ बनना ही है, तो क्यों न इस मानव जीवन के सभी सुखों का पूरा लाभ उठाया जाए।

परलोक के जीवन की अवधारणा

दुनिया और मनुष्य के अंजाम पर दो धर्मों के विचार आप सुन चुके हैं, और आपको यह भी पता चल चुका है कि वे दो धर्म न तो बौद्धिक रूप से सही हैं, न ही वे उन स्वभाविक प्रश्नों का पूर्ण और संतोषजनक उत्तर देते हैं जो संसार में क्षय के लक्षणों को देख कर मन में पैदा होते हैं। न ही उनमें यह क्षमता ही है कि एक सही और मज़बूत नैतिक व्यवस्था संरक्षक बम सके। अब तीसरे धर्म का वर्णन सुनिए। वह कहता है:

 1. जिस तरह दुनिया में हर चीज़ की अपनी उम्र होती है, जिसके ख़त्म होने के बाद उसका विघटन होने लगता है, उसी तरह इस पूरी व्यवस्था की भी एक उम्र है, जिसके बाद इस का विनाश हो जाएगा, और दूसरी व्यवस्था स्थापित होगी। उस नई व्यवस्था के नियम भी भिन्न होंगे।

2. जब यह व्यवस्था नष्ट हो जाएगी, तो अल्लाह सर्वशक्तिमान एक अदालत स्थापित करेगा जिसमें हर चीज़ का हिसाब होगा। उस दिन मनुष्य को फिर से एक नया भौतिक जीवन मिलेगा। वह अपने अल्लाह के सामने पेश होगा। उसके सभी कार्यों, जो उसने अपने पहले जीवन में किए थे, की सावधानीपूर्वक जांच की जाएगी और उनका वजन किया जाएगा। उनके मामले में सच्चाई और न्याय के साथ फ़ैसला किया जाएगा। अच्छे कर्मों का अच्छा फल मिलेगा और बुरे कर्मों का बुरा दण्ड मिलेगा।

3. एक व्यक्ति का सांसारिक जीवन वास्तव में उसके पारलौकिक जीवन की प्रस्तावना है। यह जीवन अस्थायी है और वह स्थायी, यह अपूर्ण है और वह पूर्ण। इस अस्थायी जीवन में सभी कार्यों का पूर्ण फल स्थापित नहीं होता है। यहां बोया जाने वाला हर बीज फलदायी नहीं हो सकता है। यह कमी उस दूसरे जीवन में पूरी होगी। जो यहाँ फलहीन रह गया है, वह वहाँ अपने वास्तविक फल के साथ प्रकट होगा। इसलिए मनुष्य को अपने कार्यों के अपूर्ण और कभी-कभी भ्रामक परिणामों को ही नहीं देखना चाहिए, जो इस सांसारिक जीवन में बनते हैं, बल्कि नतीजों की इस पूरी श्रृंखला पर विचार करके अपने कार्यों का मूल्य निर्धारित करना चाहिए।

यह वह धर्म है जो पैग़म्बरों द्वारा प्रस्तुत किया गया है और पवित्र क़ुरआन इस धर्म का प्रबल समर्थक है। इससे पहले कि हम इस धर्म के नैतिक परिणामों और इस्लामी सभ्यता में इसके अस्तित्व और महत्व के बारे में बात करें, हमें यह देखना चाहिए कि इस धर्म के तर्क क्या हैं? और बुद्धि इसे कहाँ तक स्वीकार करती है?

 बौद्धिक शोध का सही तरीक़ा

मृत्यु के बाद जीवन है या नहीं, इस सवाल का संबंध हमारी इंद्रियों और अनुभव की सीमाओं से परे है। हमें बस यही लगता है कि जो व्यक्ति कुछ क्षण पहले अपनी इच्छा से सांस ले रहा था और चल रहा था, वह अब जीवन के सभी लक्षण खो चुका है और उसके शरीर से कोई ऐसी चीज़ गायब हो गयी है जिसने इस स्थिर, नामहीन, अचल पदार्थ को विकास और गति की शक्ति दे रखी थी। अब सवाल यह है कि वह चीज़ गयी कहां? क्या यह शरीर से अलग होकर भी अस्तित्व में है या गायब हो गयी है? और फिर कभी उसका इस शरीर से या ऐसे किसी अन्य शरीर से संबंध स्थापित होगा या नहीं? तो जहाँ तक हमारी इंद्रियों और अनुभवजन्य ज्ञान का संबंध है, हम इस प्रश्न का उत्तर हां या न में नहीं दे सकते। क्योंकि हमने पहले कभी इस बात को महसूस नहीं किया था और अब हम इसे महसूस कर रहे हैं। इसलिए शुरू में ही समझ लेना चाहिए कि इस सवाल का विज्ञान, यानी अनुभवजन्य ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। अगर वैज्ञानिक उस पर 'हां' की मुहर नहीं लगा सकता है, तो उसे 'नहीं' की मुहर लगाने का भी कोई अधिकार नहीं है। वह इतना ही कह सकता है कि मृत्यु के बाद क्या होता है, इसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। लेकिन अगर वह कहे कि चूंकि मैं नहीं जानता कि मृत्यु के बाद क्या होता है, इसलिए मैं जानता हूं कि मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं होता है, यह निश्चित रूप से तर्कसंगत नहीं होगा।

इंद्रियों के बाद, हमारे पास ज्ञान का दूसरा स्रोत है, 'सोच'। मनुष्य ने हमेशा ख़ुद को संवेदनाओं के दायरे तक सीमित रखने से इनकार कर दिया है, और विचार की शक्तियों का उपयोग करना उसका मानव स्वभाव है। छिपी वास्तविकताओं का पता लगाना, जो इंद्रियों से परे हैं, इसी बौद्धिक खोज का नाम "चिन्तन" है और इसकी दो विधियाँ हैं:

एक यह है कि आप दुनिया और अपने स्वयं के संकेतों और साक्ष्यों से आँखें बंद कर के, विशुद्ध रूप से तर्कसंगत मामलों से निष्कर्ष निकालना शुरू करें और अक़्ल के घोड़े दौड़ाते चले जाएं। यह शुद्ध दर्शन का क्षेत्र है, और सभी गुमराहियों का केंद्र है। यह एक अंधेरी गली है। यहीं से वे दार्शनिक धर्म निकले हैं, जिनमें मनुष्य भ्रमित होकर कल्पना की घाटियों में भटकता चला जाता है। यहीं से अल्लाह और फ़रिश्तों और विश्व व्यवस्था और मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में अलग-अलग और परस्पर विरोधी मान्यताएँ सामने आई हैं, जो अंधेरे में टटोलने और अटकल पर चलने का परिणाम हैं।

दूसरी विधि यह है कि आप अपनी आंखें खोलकर जगत में और अपने आप में संकेतों का निरीक्षण करें, जो परम सत्य के मशाल वाहक हैं, और इन दीपकों को लेकर, बुद्धि और सही विचार की सहायता से, उन सच्चाइयों तक पहुंचें जो तल में छिपी हुई हैं। इस दूसरे तरीक़े में विज्ञान और दर्शन दोनों साथ-साथ चलते हैं। यद्यपि यह सत्य तक पहुँचने का निश्चित मार्ग नहीं है, लेकिन ईश्वरीय मार्गदर्शन की परवाह किए बिना, मनुष्य के पास सत्य तक पहुंचने का यही एकमात्र स्रोत है, और इसके माध्यम से सत्य तक पहुँचना या उसके करीब पहुँचना संभव है, बशर्ते कि मनुष्य की अवलोकन की शक्ति तेज़ हो, और उसके पास चिंतन करने की पर्याप्त क्षमता हो। ज्ञान सिद्धांत में मानव विकास की दिशा अवलोकन और सोच के संयोजन पर आधारित होती है। कोई भी सिद्धांत जिस पर आज ज्ञान आधारित है, और जिन सिद्धांतों के बिना विज्ञान का कोई भी छात्र एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है, वे केवल अनुभव और अवलोकन पर आधारित हैं। प्रत्येक दृष्टिकोण और प्रत्येक सिद्धांत एक तर्कसंगत परिकल्पना पर आधारित है जिसके लिए अवलोकन और प्रयोग भौतिक परिकल्पना के रूप में उपयोग किए जाते हैं। प्रकृति का नियम, आकर्षण का नियम, कारण और प्रभाव का दृष्टिकोण, सापेक्षता का सिद्धांत, विकास और विकास का नियम, प्राकृतिक चयन का नियम और ऐसे अन्य सिद्धांत और क़ानून जिन्हें महान विद्वानों ने स्वीकार किया है, सब के सब संकेतों और घटनाओं के अवलोकन, विचार और तर्कसंगत अटकलों के उपयोग का परिणाम हैं। वरना आज तक किसी ने इन क़ानूनों और इन सिद्धांतों का अनुभव नहीं किया है।

फिर एक विद्वान अपने अवलोकन और अनुमान से जो निष्कर्ष निकालता है, वह उसके लिए उतना ही निश्चित होता है जितना कि एक आम आदमी को किसी चीज़ के इन्द्रीय अवलोकन से होता है। लेकिन इसके बावजूद महान से महान विद्वान भी किसी इनकार करने वाले को इन परिणामों को मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। क्योंकि जब तक कोई व्यक्ति उन संकेतों और घटनाओं को उस विशेष दृष्टि से नहीं देखता जिससे विद्वान ने देखा है, और उसी विचार से कार्य नहीं करता है जिसके साथ विद्वान ने कार्य किया है, वह किसी भी तरह से उन परिणामों तक पहुंच नहीं सकता है।

इस मामले को ध्यान में रखें, क्योंकि परोक्ष के मामले में पवित्र क़ुरआन के कथन और तर्क को समझने के लिए इस मामले को समझना ज़रूरी है। इस के न समझने से कई ग़लतफ़हमियां पैदा होती हैं।

अब हमें आख़िरत के बारे में क़ुरआन के बयान की ओर मुड़ना चाहिए।

 परलोक के जीवन पर इनकारियों की आपत्ति

जब परलोक में विश्वास को पवित्र क़ुरआन द्वारा प्रस्तुत किया गया, तो उस समय के इनकार करने वालों द्वारा उठाई गई आपत्ति आज के इनकार करने वालों के समान ही थी। और वास्तव में, इस पर केवल यही आपत्ति संभव है। यानी यह कि मृत्यु के बाद फिर से जीवन में आना समझ में आने वाली बात नहीं है। जो मुर्दे ज़मीन में सड़ गल गए,जिनके शरीर पंच तत्व में विलीन हो गए, उन्हें क्या फिर से जीवन मिलेगा?

“और उन्होंने कहा: जब हम ज़मीन में खो जाएंगे, तो क्या हम फिर से पैदा होंगे? (अल-सजदा, 32:10)

“और उन्होंने कहा कि जब सड़ गल कर हमारी हड्डियाँ रह जाएँगी और हम कण-कण हो जाएंगी, तो क्या हम फिर से पैदा करके उठाए जाएंगे?         (बनी इसराईल, 17:49)

“जब हम मर कर मिट्टी बन जाएंगे तो क्या हम पुनर्जीवित होंगे? यह वापसी तो समझ से बहुत दूर है। (क़ाफ़, 50:3)

“कौन है, जो हड्डियों को पुनर्जीवित करेगा जब कि वे सड़ चुकी होंगी? ”             (यासीन 36:78)

क़ुरआन की तर्क शैली

इसके विपरीत, पवित्र क़ुरआन ने तर्क की जो शैली अपनायी है, वह यह है कि, सबसे पहले, वह ईश्वरीय शक्ति के संकेतों को देखने और उनपर ध्यान देने के लिए आमंत्रित करता है। वह कहता है:

“हम उन्हें अपनी निशानियाँ दुनिया में और उनके अपने अंदर दिखाएंगे, ताकि उन्हें यह स्पष्ट हो जाए कि यही सत्य है। हामीम अल-सजदा 53:41)

“क्या वे आकाश और ज़मीन के प्रबंधन पर विचार नहीं करते हैं?    (अल-आराफ़, 7:185)

“आकाशों और ज़मीन में कितनी ही निशानियां हैं जिन पर से वे इस तरह गुज़र जाते हैं, कभी विचार ही नहीं करते। (यूसुफ़, 12:105)

यह एक संकेत है कि आपको इतनी शक्ति तो नहीं दी गई है कि आप अपनी इंद्रियों से छिपी हुई चीज़ों को देख सकें, या अनुभव से उसकी वास्तविकता को जान सकें। हालाँकि, अगर आप अपनी आँखें खोल कर इन संकेतों को देखें जो दिन-रात आपके सामने पेश हो रहे हैं, और ज़मीन और आकाश की व्यवस्था का निरीक्षण करें, और अपने जन्म पर विचार करें और सत्य तक पहुँचने की कोशिश करें तो आप पाएंगे कि जो कहा गया है वह सत्य है।

 परलोक के जीवन की संभावना

फिर वह उन संकेतों और घटनाओं को प्रस्तुत करता है जो सबसे सहज हैं, और उनमें से वह तर्क देता है कि जिसे आप बुद्धि से दूर मानते हैं, भले ही वह आपके तर्क और अटकलों से दूर हो, लेकिन वास्तव में यह असंभव नहीं है।

“अल्लाह वही है, जिसने आकाशों को ऐसे सहारों के बिना ऊँचा किया है, जिन्हें तुम देख सको। फिर अर्श (सिंहासन) पर स्थिर हो गया और सूर्य और चाँद को नियमबध्द किया। सब एक निर्धारित अवधि के लिए चल रहे हैं। वही समस्त जगत की व्यवस्था कर रहा है, वह निशानियों का विवरण (ब्योरा) दे रहा है, ताकि तुम अपने पालनहार से मिलने का विश्वास करो। (अल-राद, 13:2)

“क्या तुम्हें पैदा करना कठिन है अथवा आकाश को (इतनी बड़ी चीज़ को), जिसे उस (अल्लाह) ने बनाया? (अल-नाज़ियात, 79:27)

जिस अल्लाह ने जगत की इतनी बड़ी व्यवस्था बनाई है, जिसने महान ग्रहों को अपने क़ानून के बंधन में बांध दिया है, जिसकी शक्ति इन महान आकाशीय पिंडों को इस तरह से चला रही है कि कोई भी पिंड अपने मार्ग से बाल बराबर भी हट नहीं सकता, न ही अपने नियत समय से एक पल के लिए विचलित हो सकता है, और वह शक्ति जिसने जगत को ऐसे अदृश्य मचानों पर स्थापित किया है जिन्हें आप समझने में असमर्थ हैं, उस अल्लाह के बारे में यह सोचना कि वह तुम जैसे तुच्छ जीव को एक बार मारने के बाद पुनर्जीवित करने में असमर्थ है, यह एक घोर भ्रम है:

“क्या वे नहीं देखते कि जिस अल्लाह ने आकाशों और ज़मीन को बनाया है, वह उन जैसों को पैदा करने में सक्षम है। (बनी इसराईल, 17:99)

आकाश के बाद, वह हमारे निकटतम पर्यावरण, ज़मीन के संकेतों की ओर मुड़ता है:

“ज़मीन का भ्रमण करें और देखें कि अल्लाह ने कैसे सृष्टि की रचना की शुरुआत की और फिर वही अल्लाह चीज़ों को दोबारा जीवन देता है। वास्तव में, अल्लाह सब कुछ करने पर सक्षम है। (अल-अंकबूत, 29:20)

“और उनके लिए एक निशानी है वह मरी हुई ज़मीन, जिसे हमने जीवन दिया और उसमें से वह अनाज निकाला जो ये लोग खाते हैं। (यासीन, 36:33)

“फिर देखिए अल्लाह की रहमत की निशानियाँ, कैसे वह धरती को मरने के बाद जीवन देता है। निश्चय वह मनुष्यों को भी जीवन देनेवाला है, और वह सब कुछ कर सकता है। (अल-रोम, 30:50)

“और उसी की निशानियों में से है कि आप देखते हैं धरती को सहमी हुई। फिर जैसे ही हमने उसपर जल बरसाया, तो वह लहलहाने लगी और उभर गयी। निश्चय जिसने जीवित किया है उसे, अवश्य वही जीवित करने वाला है मुर्दों को। वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है। (हामीम सजदा, 41:39)

“और अल्लाह वही है, जो वायु को भेजता है, जो बादलों को उठाती है, फिर हम हाँक देते हैं उन्हें, निर्जीव नगर की ओर। फिर जीवित कर देते हैं उनके द्वारा धरती को, उसके मरण के पश्चात्। इसी प्रकार, फिर जीना  उठना क़ियामत में (भी) होगा। (फ़ातिर, 35:9)

उसके बाद वह कहता है, कि चारों ओर से अपनी आँखें बंद करो और अपने बारे में सोचो और देखो कि तुम्हारे भीतर मनुष्यों को पुनर्जीवित करने की अल्लाह की क्षमता का प्रमाण मौजूद है:

“निस्संदेह, मनुष्य के ऊपर एक ऐसा समय बीत गया जब वह कोई उल्लेखनीय चीज़ नहीं था। (अल-दहर, 76:1)

 “जब तुम मरे हुए थे, तो अल्लाह ने तुम्हें फिर से जीवित किया, फिर वह तुम्हें मृत कर देगा, फिर वह तुम्हें फिर से जीवित कर देगा, फिर तुम उसकी ओर लौटाए जाओगे। (अल-बक़रह, 2:28)

“अगर मौत के बाद जी उठने पर तुम शक करते हो तो जान लो कि हमने तुम्हें मिट्टी जैसे बेजान पदार्थ से पैदा किया है। (हज, 22:5)

“उसने कहा, "जब हडि्डयां सड़ जाएंगी, तब कौन उन्हें जीवित करेगा?" कहो कि वे उसी के द्वारा पुनर्जीवित होंगे जिसने उन्हें पहली बार जीवन दिया था। (यासीन, 36:76-78)

 आप कह दें कि पत्थर बन जाओ या लोहा। अथवा कोई उत्पत्तिजो तुम्हारे मन में इससे बड़ी हो। फिर वे पूछते हैं कि कौन हमें पुनः जीवित करेगा? आप कह दें: वही, जिसने प्रथम चरण में तुम्हारी उत्पत्ति की है। फिर वे आपके आगे सिर हिलायेंगे और कहेंगेः ऐसा कब होगा? आप कह दें कि संभवता वह पास ही है। (बनी इसराईल, 17:50-51)

“और हमने उत्पन्न किया है मनुष्य को मिट्टी के सार से। फिर हमने उसे वीर्य बनाकर रख दिया एक सुरक्षित स्थान में। फिर बदल दिया वीर्य को जमे हुए ख़ून में, फिर हमने उसे मांस का लोथड़ा बना दिया, फिर हमने लोथड़े में हड्डियाँ बनायीं, फिर हमने पहना दिया हड्डियों को मांस, फिर उसे एक अन्य रूप में उत्पन्न कर दिया। तो बड़ी बरकत वाला है अल्लाह, जो सबसे अच्छी उत्पत्ति करने वाला है। फिर तुमसब इसके पश्चात् अवश्य मरने वाले हो। फिर निश्चय तुमसब (क़ियामत) के दिन जीवित किये जाओगे।  (अल-मुमिनून, 23:12-16)

“क्या वह नहीं था वीर्य की बूंद, जो (गर्भाशय में) बूँद-बूँद गिराई जाती है? फिर वह बंधा ख़ून हुआ, फिर अल्लाह ने उसे पैदा किया और उसे बराबर बनाया। फिर उसका जोड़ाः नर और नारी बनाया। तो क्या वह सामर्थ्यवान नहीं कि मुर्दों को जीवित कर दे ? (क़ियामह, 75:37-40)

इन स्पष्ट प्रमाणों को हमारे अवलोकन और भावना के करीब प्रस्तुत करने के बाद, पवित्र क़ुरआन एक खुला तर्क प्रस्तुत करता है जो पूरी तरह से सामान्य ज्ञान से संबंधित है। उनका कहना है कि शून्य (कुछ भी नहीं) से चीज़ों को बनाना ज़्यादा मुश्किल है, इससे कि बिखरने के बाद उन्हें फिर से पहले जैसा बनाया जाए। तो जो शक्ति इस अधिक कठिन कार्य को करने में असमर्थ न हुई, वह आसान कार्य को करने में असमर्थ कैसे हो सकती है? अगर कोई व्यक्ति मोटर का आविष्कार करने में सक्षम है और उसने इसे बनाया है, तो क्या यह समझ में आता है कि वह मोटर के पुर्जों को अलग करके वापस एक साथ रखने में सक्षम नहीं होगा? इस उदाहरण पर अनुमान लगाएं कि जो निर्माता आपको शून्य से अस्तित्व में लाया है वह मृत्यु के बाद आपको फिर से बनाने में क्यों सक्षम नहीं हो सकता है:

“क्या उन्होंने नहीं दखा कि अल्लाह ही उत्पत्ति का आरंभ करता है, फिर उसे दुहराएगानिश्चय ये अल्लाह के लिए अति सरल है।” (अल-अंकबूत, 29:19)

“और वही है, जो आरंभ करता है उत्पत्ति का, फिर वह उसे दुहरायेगा और वह अति सरल है उसपर और उसी का सर्वोच्च गुण है आकाशों और धरती में और वही प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।” (रोम, 30:27)

“तो क्या हम थक गये हैं प्रथम बार पैदा करके? बल्कि, ये लोग संदेह में पड़े हुए हैं नये जीवन के बारे में।” (क़ाफ़,50:15)

अब केवल यह संशय रह गया है कि जिन लोगों के शरीर के अंग नष्ट हो गए हैं, उन्हें पहला शरीर कैसे दिया जा सकता है? कोई पानी में डूब गया और मर गया और उसकी बोटी-बोटी मछली और जलीय जानवरों का भोजन बन गई। कोई जलकर मर गया और उसका पूरा शरीर राख और धुएं में बदल गया। किसी को ज़मीन में गाड़ दिया गया और मिट्टी में दबा दिया गया। अब उसका पहला शरीर वापस आना और उसी पहली रूह का उसमें सांस लेना कैसे संभव है? धर्मशास्त्रियों ने यह कहते हुए इस संदेह को दूर करने का प्रयास किया है कि रूह को भौतिक जीवन देने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वही पहला शरीर उसे वापस दिया जाए। हो सकता है कि रूह वही हो और उसे पहले शरीर के समान दूसरा शरीर दिया गया हो। लेकिन क़ुरआन कहता है कि केवल अल्लाह ही शरीर देने में सक्षम है। पहले तो शरीर के अवयव लुप्त नहीं हुए हैं। बिखरी हुई अवस्था में उसका एक-एक घटक कहीं न कहीं मौजूद है, चाहे वह हवा में हो, चाहे वह पानी में हो, चाहे वह मिट्टी में हो, चाहे वह कहीं भी हो।अल्लाह का ज्ञान इतना अधिक है कि वह प्रत्येक भाग की स्थिति को जानता है और उसकी शक्ति इतनी परिपूर्ण है कि वह उन बिखरे हुए भागों को फिर से इकट्ठा कर मूल रूप में बना सकता है।

“हमें ज्ञान है कि धरती उनका क्या अंश कम करती है और हमारे पास एक सुरक्षित पुस्तक है, जिस में हर चीज़ का हिसाब मौजूद है। (क़ाफ़, 50:4)

“और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं। उन्हें केवल वही जानता है और जो कुछ थल और जल में है, वह सबका ज्ञान रखता है और कोई पत्ता नहीं गिरता परन्तु उसे वह जानता है और न कोई अन्न, जो धरती के अंधेरों में हो और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा) है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में है। (अल-अनाम, 6:59)

जो कहा गया है उसका उद्देश्य उस दूरी को मिटाना है जिसके आधार पर लोग आख़िरत से इनकार करते हैं। इनकार का वास्तविक कारण यह नहीं है कि इनकार करने वालों ने निश्चित रूप से और सकारात्मक रूप से किसी अनुभव या अवलोकन या ज्ञान के किसी अन्य माध्यम से जान लिया है कि मृत्यु के बाद कोई जीवन नहीं है। बल्कि उनका इन्कार केवल इस आधार पर होता है कि मृत्यु के बाद जी उठना उनकी बुद्धि में फिट नहीं बैठता। उन्होंने यह नज़ारा कभी नहीं देखा। उन्हें यह देखने की आदत है कि जो मर जाता है वह कभी वापस नहीं आता। इसलिए, जब यह कहा जाता है कि जो मर गए हैं वे वापस जीवित हो जाएंगे, तो वे इसे असंभव और तर्क और अनुमान से परे मानते हैं। लेकिन चिंतन के मार्ग में एक कदम आगे बढ़ाएं। एक बीज का भूमि में जाकर अंकुरित होकर वृक्ष के रूप में उभरना, एक बूंद का गर्भ में पहुंचकर मनुष्य के रूप में बाहर आना रही है, दो हवाओं के संयोजन से पानी बनना और इसी क्रम बार-बार भाप से पानी और पानी से भाप बनते रहना, इस निस्सीम जगत में करोड़ों ग्रहों का गेंदों की तरह बिना किसी भौतिक संबंध के एक-दूसरे से इस तरह जुड़े रहना कि उनकी गति और घुमाव के क्रम में तनिक भी अंतर न आना, आप इन सब चीज़ों को देखने के इतने अभ्यस्त हैं, कि आप इन्हें हल्के में लेते हैं। लेकिन अगर ये चीज़ें आपके सामने नहीं आतीं, तो आप इन सभी चीज़ों को तर्क और अटकलों से बहुत दूर मानते और उनकी संभावना को दृढ़ता से नकार देते। मान लीजिए कि मंगल पर पेड़ नहीं उगते हैं और वहां के लोगों को यह समझाया जाए है कि माशा भर का एक बीज ज़मीन में दबा दिया जाए तो एक पेड़ बन जाता है, और अपने प्रारंभिक आकार से कई हज़ार गुना बड़ा हो जाता है, और फिर उससे हज़ारों बीज पैदा होते हैं, तो यह बात मंगल ग्रह वालों के लिए उतनी ही आश्चर्यजनक होगी जितना कि मृत्यु के बाद पुनरुत्थान की बात आपके लिए है। इसी तरह वे कहेंगे कि यह असंभव है, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह असंभवता ज्ञान के कारण नहीं होगी, बल्कि अज्ञानता के कारण होगी। आपका भी यही हालल है। स्वयं मनुष्य आज जिन चीज़ों का आविष्कार कर रहा है, वे सौ साल पहले उसके लिए असंभव ही तो थीं। किसी चीज़ को केवल इसलिए संभव नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह इस सीमित बुद्धि में फिट नहीं होती है।

किसी गूढ़ और अलौकिक चीज़ को सिद्ध करने का पहला क़दम उसकी संभावना को सिद्ध करना है। इसलिए, पवित्र क़ुरआन ने अपने तर्क के साथ मृत्यु के बाद के जीवन की संभावना को साबित कर दिया है। अब दूसरा क़दम है इसकी ज़रूरत को सिद्ध करना ताकि बुद्धि यह मान ले कि ऐसी चीज़ का अस्तित्व होना ही चाहिए।

जगत की व्यवस्था एक बौद्धिक व्यवस्था है

पारलौकिक जीवन की ज़रूरत की पुष्टि वास्तव में इस प्रश्न के समाधान पर आधारित है कि क्या यह जगत किसी तत्वदर्शी का काम है या आप से आप बन गया है।

वर्तमान समय के विज्ञान-पीड़ित कहते हैं कि इस व्यवस्था को किसी तत्वदर्शी ने नहीं बनाया है, यह आप से आप बन गयी है और अपने सभी घटकों (मनुष्यों सहित) के साथ एक सेल्फ मूविंग मशीन की तरह चल रही है। जिस दिन पदार्थ और ऊर्जा की परस्पर क्रिया समाप्त हो जाएगी, उस दिन यह व्यवस्था भी नष्ट हो जाएगी। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी व्यवस्था, जो ज्ञान, बुद्धि, चेतना, इरादा के बजाय अंधी प्रकृति द्वारा चलाई जा रही है, उसमें किसी उद्देश्य और ज्ञान की खोज बिल्कुल बेकार है। इसी कारण भौतिकवादी विज्ञान ने जगत की teledogical causation को अपनी सीमा से न केवल बाहर रखा है, बल्कि इस सोच को बेतुका और अर्थहीन भी घोषित किया है, और दावा किया है कि इस जगत और इसकी किसी भी चीज़ और कार्यों में कोई उद्देश्य नहीं पाया जाता है।

आंखें देखने के लिए नहीं हैं, बल्कि देखना परिणाम है पदार्थ के विशेष संगठन का जो आंखों में पाया जाता है। दिमाग़ सोचने और विचार करने के लिए नहीं है, लेकिन विचार मस्तिष्क के पदार्थ से उसी तरह बहते हैं जैसे जिगर से पित्त बहता है। यह मूर्खता है कि चीज़ों की स्वभाविक क्रिया को उनका मक़सद ठहराया जाए और उनके अस्तित्व में, बुद्धि की तलाश की जाए।

इस दृष्टिकोण को अगर स्वीकार कर लिया जाए, तो इस सांसारिक जीवन के बाद के जीवन की ज़रूरत को स्वीकार करने का कोई उचित कारण नहीं रह जाता है। क्योंकि जो व्यवस्था एक अंधी नासमझ और लक्ष्यहीन रूप से चल रही है, वह एक खिलौने से ज़्यादा कुछ नहीं हो सकती। वह और उसकी सारी चीज़ें व्यर्थ हैं, और व्यर्थ ही नष्ट हो जाएंगी। मनुष्य उसके हाथों में एक असहाय खिलौने की तरह खेल रहा है और उसके पास कोई अधिकार या इरादा नहीं है। अत: उस पर किसी कार्य के लिए कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं होनी चाहिए। ज़िम्मेदारी का सवाल उठ जाने के बाद, दुनिया में ही न्याय, इनाम और सज़ा का सवाल कट जाता है।

यह दृष्टिकोण बुद्धि के बिल्कुल विपरीत है, और इसकी वैधता को साबित करने के लिए कोई तर्कसंगत या वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है। इसके समर्थन में जो कहा गया है, उसका सार यह है कि हमें जगत का कोई भी रचयिता या संचालिका दिखाई नहीं देता और न ही हमें इसकी रचना का कोई उद्देश्य समझ में आता है। हम इसे एक निर्माता के बिना चलते हुए देखते हैं, और इसके उद्देश्य को जानना हमारे लिए संभव नहीं है, और न ही हमारे लिए इसे जानना ज़रूरी है। लेकिन किसी चीज़ के कारण और प्रभाव को न जानना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उसका कोई कारण या प्रभाव नहीं है। मान लीजिए कि कोई बच्चा छपाई की मशीन को काम करते हुए देखता है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि इस मशीन का इस्तेमाल किस लिए किया जाता है। इस वजह से वह सोचता है कि यह एक खिलौना है जो बिना किसी उद्देश्य के चल रहा है। वह देखता है कि जैसे मशीन आवाज करती है, पुर्जे हिलते हैं, ज़मीन हिलती है, कागज भी छप के निकल आता है। इसलिए उसने फ़ैसला किया कि जिस तरह वे क्रियाएं मशीन की गति का परिणाम हैं, उसी तरह कागजों का छपना भी इसकी गति का एक भौतिक परिणाम है। वह यह नहीं समझता है कि उसके द्वारा किए जा रहे सभी कार्यों में से केवल एक कार्य अर्थात काग़ज़ों की छपाई, पूरी मशीन का उद्देश्य है, और अन्य सभी कार्य मशीन की गति हैं। बच्चे की समझ इतनी नहीं है कि वह इस मशीन के पुर्ज़ों में अनुपात और क्रम को देख सके और यह समझ सके कि इसका प्रत्येक पुर्ज़ा विशेष रूप में बना है, और जिस स्थान पर इसे रखा गया है, वही जगह उसके लिए उपयुक्त है। इस वजह से वह बच्चा सोचता है कि यह मशीन लोहे के टुकड़ों के आपस में जुड़ने से ख़ुद बन गई है। उसकी बौद्धिक शक्ति इतनी विकसित नहीं है कि वह मशीन के कामकाज और लेआउट से अनुमान लगा सके कि इसका निर्माता होना चाहिए। इतने अच्छे अनुमान और इतनी बारीक योजना पर किसने ऐसी मशीन बनाई है, कि उसका कोई भी हिस्सा बेकार, अयोग्य, अनियमित और अनावश्यक नहीं है, और ऐसी तत्वदर्शिता के साथ जो चीज़ प्रस्तुत की गई है वह कभी भी व्यर्थ नहीं हो सकती। अब अगर प्रेस मशीन के इस अवलोकन के बाद वह अज्ञानी बच्चा यह सिद्धांत स्थापित करता है कि मशीन का कोई मक़सद और प्रभाव नहीं है, तो क्या कोई समझदार और परिपक्व व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि एक बच्चे ने इस मशीन की वास्तविकता के बारे में सही दृष्टिकोण अपनाया है?

अगर प्रेस मशीन के मामले में यह सच नहीं है, तो जगत की इस व्यवस्था के मामले में यह कैसे सच हो सकता है, जिसका प्रत्येक कण इसके निर्माता के ज्ञान, इरादे, तत्वदर्शिता और अंतर्दृष्टि की गवाही दे रहा है। जिसमें ज़रूरत से ज़्यादा या कम कुछ भी नहीं है, जिसका हर हिस्सा अपनी जगह और अपनी ज़रूरत के बिल्कुल अनुकूल है, और जिसमें कहीं त्रुटि नहीं है, तो ये सब कुछ किसी ज्ञान, किसी इरादे के बिना कैसे हो सकता है और कैसे चला सकता है।

 बौद्धिक व्यवस्था लक्ष्यहीन नहीं हो सकती

पवित्र क़ुरआन द्वारा पारलौकिक जीवन की ज़रूरत पर जो तर्क स्थापित किए गए हैं, वे सभी इसी मूल विचार पर आधारित हैं कि इस जगत का निर्माता एक तत्वदर्शी है, जिनके कार्य तत्वदर्शिता से ख़ाली नहीं हैं। इस नींव को स्थापित करने के बाद, पवित्र क़ुरआन कहता है:

“क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाये जाओगे? तो सर्वोच्च है अल्लाह वास्तविक अधिपति। नहीं है कोई सच्चा पूज्य, परन्तु वही महिमावान अर्श (सिंहासन) का स्वामी।” (अल-मोमिनून, 23:115-116)

“क्या इनसान यह समझे बैठा है कि उसे इसी तरह छोड़ दिया जाएगा? (अल-क़ियामा, 75:36)

“और हमने आकाशों और धरती को एवं जो कुछ उन दोनों के बीच है, खेल नहीं बनाया है। हमने नहीं पैदा किया है उन दोनों को, परन्तु सत्य के आधार पर। किन्तु अधिकतर लोग इसे नहीं जानते हैं। निःसंदेह निर्णय का दिन, उन सबका निश्चित समय है।”  (अल-दुख़ान, 44:38-40)

“क्या और उन्होंने अपने में सोच-विचार नहीं किया कि नहीं उत्पन्न किया है अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उन दोनों के बीच है, परन्तु सत्यानुसार और एक निश्चित अवधि के लिए? और बहुत-से लोग अपने पालनहार से मिलने का इनकार करने वाले हैं।” (अल-रोम, 30:8)

इन आयतों में संकेत मिलता है कि अगर ज़मीन और आकाश का यह सारा कारख़ाना केवल इस लिए है कि कुछ समय तक चलता रहे, और फिर बिना किसी लाभ या परिणाम के लुप्त हो जाए, तो यह एक व्यर्थ और निरर्थक कार्य होगा। ऐसा कृत्य कभी भी किसी तत्वदर्शी का कृत्य नहीं हो सकता। अगर आप मानते हैं कि कारख़ाना अल्लाह द्वारा बनाया गया है और अल्लाह आपके अनुसार तत्वदर्शी हैं, तो आपको अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए और समझना चाहिए कि जगत में कुछ भी बिना उद्देश्य के अस्तित्व में नहीं आने वाला है और न ही बिना किसी परिणाम के गायब होने वाला। विशेष रूप से मनुष्य, जो सांसारिक जगत का फूल है, जो इस सांसारिक जगत और उसके सभी आंदोलनों और परिवर्तनों के क्रमिक विकास का परिणाम है, जो इतनी बुद्धि, अंतर्दृष्टि, ज्ञान और इच्छा से संपन्न है, उसकी रचना का उद्देश्य इतना व्यर्थ नहीं हो सकता कि वह इस संसार में कुछ वर्षों तक मशीन की तरह रहा, फिर मर गया और विलुप्त हो गया।

बौद्धिकता के आधार पर विश्व व्यवस्था का अंत क्या होना चाहिए?

जब यह ज्ञात हो गया कि यह जगत कोई खेल नहीं है और इसकी एक भी चीज़ बिना परिणाम के नहीं है, तब दूसरा प्रश्न उठता है कि इस कारख़ाने का अंत क्या है, जो इसकी तत्वदर्शिता के अनुकूल हो। इस प्रश्न का विस्तृत उत्तर पवित्र क़ुरआन की आयतों में मिलता है, और यह एक ऐसा उत्तर है जिसे सुनकर स्वस्थ मन पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है। लेकिन इस जवाब को समझने के लिए पहले कुछ बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है:

 1 जगत के सभी लक्षण इस बात की गवाही दे रहे हैं कि इस व्यवस्था के सभी परिवर्तन विकासोनमुख हैं। इसके सभी चक्रों का उद्देश्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाना है, और चीज़ों के अपूर्ण रूपों को मिटाना और उन्हें पूर्ण और परिपूर्ण रूप देना है।

2. चूंकि विकास के इस नियम की प्रक्रिया परिवर्तन की पद्धति पर आधारित है, इसलिए पर उत्पत्ति के लिए एक विनाश ज़रूरी है। एक रूप के अस्तित्व में आने के लिए ज़रूरी है कि पहला रूप नष्ट हो, और अपूर्ण रूप का ग़ायब होना अधिक परिपूर्ण के अस्तित्व में आने की प्रस्तावना है। यद्यपि ये परिवर्तन हर क्षण होते रहते हैं, लेकिन कई सूक्ष्म परिवर्तनों के बाद, एक बड़ा और दृश्यमान परिवर्तन होता है जिसमें एक बड़ा विनाश होता है। यह दूसरी तरह का विनाश है जिसे हम आम तौर पर मृत्यु या क्षय कहते हैं, और एक रूप के अस्तित्व में आने से लेकर उसकी मृत्यु या उसके पूर्ण क्षय तक का अंतराल होता है, जिसे हम अपनी भाषा आयु कहते हैं।

3. हर स्थिति अपने लिए एक विशेष जगह चाहती है जो उसके लिए उपयुक्त हो। कोई भी स्थिति ऐसी जगह नहीं रह सकती जो उसके लिए उपयुक्त न हो। उदाहरण के लिए, पशु शरीर पौधे के रूप के लिए अनुपयुक्त है, और मानव रूप को उसी शरीर और उसी विशिष्ट भौतिक व्यवस्था की ज़रूरत होती है जो मनुष्य के लिए बनाई गई है। अत: अगर किसी चीज़ को उन्नत रूप देना है तो उस संरचना को तोड़ना ज़रूरी है जो निचले स्तर के रूप के लिए बनी थी, और नए रूप के लिए उपयुक्त स्थिति तैयार करना ज़रूरी है।

 4. जिस व्यक्ति ने विकास के नियम की सार्वभौमिकता को समझ लिया, उसके लिए यह बिल्कुल भी अनोखा नहीं है कि एक ही क़ानून दुनिया की पूरी व्यवस्था पर हावी है। इस समय हम जिस विश्व व्यवस्था को देख रहे हैं, उसके बारे में हम यह नहीं कह सकते हैं कि सृष्टि की शुरुआत से, अब तक कितनी व्यवस्थाएं बीत चुकी हैं, जिनमें से प्रत्येक ने अपनी उम्र पूरी कर ली है। और उन्नत व्यवस्था के लिए जगह ख़ाली कर दी, और धीरे-धीरे विकास के चरण, हमारे सिस्टम तक पहुंच गए। उसी तरह, यह व्यवस्था एक अंतिम व्यवस्था नहीं है, जब यह अपनी संभावित पूर्णता तक पहुंच जाए, और उच्च स्तर की पूर्णता को स्वीकार करने की क्षमता इसमें बाक़ी न रहे, तो इसे तोड़ दिया जाएगा और दूसरी व्यवस्था प्रतिस्थापित की जाएगी। जिसके क़ानून अलग होंगे, और जो अस्तित्व के अधिक उत्तम स्तरों को स्वीकार करने में सक्षम होगी।

5. जगत की वर्तमान व्यवस्था पर विचार करने से हमें यह एहसास होता है कि यह एक त्रुटिपूर्ण व्यवस्था है और इसमें और सुधार की ज़रूरत है। इस व्यवस्था में, चीज़ों की वास्तविकताएं भौतिक सुख-सुविधाओं से इस हद तक दूषित हो जाती हैं कि वास्तविकताओं ने भ्रम की स्थिति हासिल कर ली है। यहाँ ठोस भौतिक चीज़ों का आकार और भार है और सूक्ष्म वास्तविकताओं का कोई भार नहीं है । आप यहां लकड़ी और पत्थर तोल सकते हैं, लेकिन इस दुनिया के क़ानून में बुद्धि, विचार,  इरादे, भावनाओं और अंतर्ज्ञान को मापने और तौलने के लिए कोई जगह नहीं है। यहां अनाज तोला जा सकता है, लेकिन प्यार और नफ़रत को मापने के लिए कोई तराजू नहीं है। यहां कपड़ों को मापा जा सकता है लेकिन द्वेष और ईर्ष्या को मापने का कोई पैमाना नहीं है।

यहां रुपये और पैसे के मूल्य निर्धारित किए जा सकते हैं, लेकिन उस भावना का मूल्य निर्धारित करना संभव नहीं है जो उदारता या लोभ का संकेत देती है। यह इस दुनिया की व्यवस्था की कमी है। बुद्धि चाहती है कि इससे अधिक विकसित कोई और व्यवस्था हो जिसमें वास्तविकताओं को भौतिक वस्त्रों की ज़रूरत न हो। जिसमें सूक्ष्मता घनत्व पर हावी हो जाए और जो अब छिपा है वह सामने आ जाए। इसी तरह इस संसार का भी दोष है कि भौतिक नियम यहां प्रबल होते हैं, जिसके कारण कर्मों के केवल वही परिणाम उत्पन्न होते हैं जो भौतिक नियमों के अनुरूप होते हैं, और ऐसे परिणाम उत्पन्न नहीं किए जा सकते जो तर्क और ज्ञान के अनुसार होते हैं। अगर यहाँ आग लगाओ तो जलने वाली हर चीज़ जलेगी, अच्छाई करो तो उसका फल अच्छाई के रूप में आना ज़रूरी नहीं है। इस दोष को देखकर तर्क मांग करता है कि इस व्यवस्था के बाद एक और विकसित व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए जिसमें भौतिक क़ानूनों के बजाय तर्कसंगत क़ानून प्रबल हों, और क्रियाओं के वे वास्तविक परिणाम दिखाई दें, जो इस व्यवस्था में भौतिक क़ानूनों की प्रबलता के कारण प्रकट नहीं हो सकते हैं।

 विश्व व्यवस्था का अंत

इन मामलों को समझने के बाद, आइए देखें कि पुनरुत्थान और उसके बाद के जीवन के पवित्र क़ुरआन द्वारा तैयार किए गए नक़्शे में आपके प्रश्न का उत्तर क्या मिल सकता है। क़ुरआन कहता है:

 हमने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है वह सब बुद्धि के अनुसार और नियत समय के लिए पैदा किया।

“उसने चन्द्रमा और सूर्य को अपने नियम से बाँध दिया। ये सभी एक निश्चित अवधि के लिए चल रहे हैं।” (अल-राद, 13:2)

“जब आकाश फट जाएगा और तारे तितर-बितर हो जाएंगे और समुद्र फूट निकलेंगे और कब्रें उखाड़ दी जाएंगी।” (अल-इन्फितार, 82:1-4)

“और जब सूरज लपेट दिया जाएगा, और तारे तितर-बितर हो जाएँगे और पहाड़ चला दिए जाएँगे।” (अल-तकवीर, 81: 1-3)

“फिर जब तारे फीके पड़ जाएंगे और कब आकाश विभाजित हो जाएगा और जब पहाड़ उड़ा दिए जाएंगे।” (अल-मुरसलात, 77:8-10)

“जब आंखें पथरा जाएंगी और चन्द्रमा पर ग्रहण लग जाएगा और चन्द्रमा और सूर्य को मिला दिया जाएगा।” (अल-क़ियामह, 75:7-9)

“धरती और पहाड़ उठा कर टकरा दिया जाएगा, और वे एक ही झटके में चकनाचूर हो जाएंगे।” (अल-हाक़्कह, 69:14)

“जिस दिन धरती बदल कर दूसरी तरह की धरती कर दी जाएगी, और वैसे ही आकाश भी और सब के सब अल्लाह के समक्ष उपस्थित होंगे, जो अकेला प्रभुत्वशाली है।” (इब्राहीम, 14:48)

ये सभी संकेत हैं कि जगत की इस व्यवस्था की एक निश्चित उम्र निर्धारित है। यह कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। जब वह अपनी उम्र तक पहुंच जाएगा, तो इस व्यवस्था को खत्म कर दिया जाएगा। सूर्य, ज़मीन, चंद्रमा और अन्य ग्रह जो इस व्यवस्था के सदस्य हैं, और जिनकी गति से यह व्यवस्था चल रही है, एक दूसरे के साथ टकराएंगे और यह अस्थायी संरचना नष्ट हो जाएगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सार्वभौमिक अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, सृष्टि और सृजन की प्रक्रिया बंद हो जाएगी, बल्कि इसका मतलब यह है कि यह अस्तित्व जो दिखाई दे रहा है, बदल डाला जाएगा। अस्तित्व की एक दूसरी व्यवस्था स्थापित की जाएगी जैसा कि इब्राहीम, 14:48 में दर्शाया गया है।

 परलोक के जीवन की व्यवस्था क्या होगी?

वह सिस्टम कैसा दिखाई देगा? क़ुरआन के वर्णन से यह स्पष्ट है कि उसमें वर्तमान व्यवस्था के दोषों को दूर कर दिया जाएगा। वह इसी व्यवस्था का विकसित रूप है, और यह वैसा ही है जैसा बुद्धि चाहती है। उस व्यवस्था में, वजन, माप और गणना सब कुछ होगी, लेकिन भौतिक चीज़ों के लिए नहीं, बल्कि सूक्ष्म, सरल सच्चाइयों के लिए। अच्छाई और बुराई, विश्वास और अविश्वास, नैतिकता सब का वज़न होगा। नीयतों और इरादों को मापा जाएगा। हृदय की क्रियाओं को मापा और तौला जाएगा। वहां उस रोटी और उस पैसे का वज़न नहीं होगा जो आपने किसी ग़रीब को दिया है, बल्कि उस इरादे का हिसाब होगा जो देने की प्रेरणा बनी, क्योंकि वहां क़ानून बौद्धिक होगा, भौतिक नहीं होगा।

“आंख-कान-दिल सब की पूछताछ की जाएगी।” (बनी इसराईल, 17:36)

“और क़ियामत के दिन हम न्याय का तराज़ू रख देंगे फिर किसी पर कुछ भी अत्याचार नहीं किया जायेगा और अगर (किसी का राई के दाने के बराबर  भी कर्म) होगा तो हम उसे सामने ले आयेंगे और हम बस (काफ़ी) हैं ह़िसाब लेने वाले।” (अल- अंबिया, 21:47)

“और उस (क़ियामत के) दिन (कर्मों की) तोल न्याय के साथ होगी। फिर जिसके पलड़े भारी होंगे, वही सफल होंगे। और जिनके पलड़े हलके होंगे, उन्होंने ही स्वयं को क्षति में डाल लिया होगा। क्योंकि वे हमारी आयतों के साथ अत्याचार करते रहे। (अल-आराफ, 7:8-9)

“उस दिन लोगों को अलग किया जाएगा ताकि उनके कर्म उन्हें दिखाए जाएं। फिर जिस किसी ने रत्ती भर भी भलाई की होगी, वह उसे देख लेगा, और जिस किसी ने रत्ती भर भी बुराई की होगी, वह उसे देख लेगा।” (अल-ज़िलज़ाल 99:6-9)

 इस दूसरी व्यवस्था में, वे सभी चीज़ें जो भौतिक क़ानूनों की सीमाओं के कारण इस भौतिक व्यवस्था में बंधी हुई हैं, प्रमुख हो जाएंगी। वहां छिपी हुई वास्तविकताओं को उजागर कर दिया जाएगा और हर चीज़ की वास्तविक स्थिति खुल जाएगी।

“मनुष्य से कहा जाएगा कि तुम इस बात से बेख़बर थे, अब हमने तुम्हारी आंखों से पर्दा हटा दिया है और अब तुम्हारी दृष्टि बहुत तेज़ है।” (क़ाफ़, 50:22)

“उस दिन तुम्हें पेश किया जाएगा, और तुम्हारा कोई भी रहस्य छिपा नहीं रहेगा।” (अलहाक़्क़ा, 69:18)

वहों तर्क, बुद्धि और न्याय के अनुसार कर्मों का वास्तविक परिणाम होगा। वर्तमान व्यवस्था के भौतिक नियम और भौतिक संसाधन, जिसके प्रभाव से कार्यों के वास्तविक और तर्कसंगत परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकते हैं, वहां लागू नहीं होंगे। यहां न्याय में बाधा डालने वाली सभी चीज़ें, वहां प्रभावहीन हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, यहाँ धन, भौतिक संसाधनों की प्रचुरता, मित्रों और समर्थकों की शक्ति, प्रयास, सिफ़ारिश, पारिवारिक प्रभाव, अपनी चतुराई और ऐसी अन्य चीज़ें व्यक्ति को उसके कई कार्यों के परिणामों से बचा लेती हैं। लेकिन वहां, इन कारणों की प्रभावशीलता शून्य हो जाएगी और प्रत्येक क्रिया का वही परिणाम होगा जो न्याय के आधार पर उत्पन्न होना चाहिए।

“वहाँ हर कोई उन कामों को ख़ुद जांच लेगा जो उसने पहले किए थे।”        (यूनुस, 10:30)

“हर जान के जैसा उसने किया है, उसका पूरा-पूरा बदला मिलेगा और उनके साथ अन्याय नहीं किया जाएगा।” (आले-इमरान, 3:25)

“जिस दिन वह अपने किए हुए अच्छे कामों और अपने किए गए हर बुरे काम को उपस्थित पायेगा।”  (आले इमरान 3:30)

“और उस दिन से डरो, जिस दिन कोई किसी के कुछ काम नहीं आयेगा और न उसकी कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) मानी जायेगी और न उससे कोई अर्थदण्ड लिया जायेगा और न उन्हें कोई सहायता मिल सकेगी।” (अल-बक़रह, 2:48)

“तो जब नरसिंघा में फूँक दिया जायेगा, तो कोई संबन्ध नहीं होगा, उनके      बीच, उस दिन और न वे एक-दूसरे को पूछेंगे। फिर जिसके पलड़े भारी होंगे,           वही सफल होने वाले हैं। और जिसके पलड़े हल्के होंगे, तो उन्होंने ही स्वयं           को क्षतिग्रस्त कर लिया, (और वे) नरक में सदावासी होंगे।              (मोमिनून, 23:101-103)

“जिस दिन, लाभ नहीं देगा कोई धन और न संतान। परन्तु, जो अल्लाह के पास स्वच्छ दिल लेकर आयेगा। (शुअरा, 26:88-89)

“और (अल्लाह) कहेगाः तुम मेरे सामने उसी प्रकार अकेले आ गये, जैसे तुम्हें प्रथम बार हमने पैदा किया था और हमने जो कुछ दिया था, अपने पीछे (संसार ही में) छोड़ आये और आज हम तुम्हारे साथ, तुम्हारे अभिस्तावकों (सिफ़ारिशियों) को नहीं देख रहे हैं, जिनके बारे में तुम्हारा भ्रम था कि तुम्हारे कामों में वे (अल्लाह के) साझी हैं? निश्चय तुम्हारे बीच के संबंध भंग हो गये हैं और तुम्हारा सब भ्रम खो गया है।” (अल-अनआम, 6:94)

“क़ियामत के दिन तुम्हें लाभ नहीं देंगे तुम्हारे सम्बंधी और न तुम्हारी संतान। वह (अल्लाह) अलगाव कर देगा तुम्हारे बीच और अल्लाह जो कुछ तुम कर रहे हो, उसे देख रहा है। (अल- मुम्तहिना, 60:3)

“उस दिन इनसान अपने भाई से भागेगा। और अपने माता और पिता से। एवं अपनी पत्नी और अपने पुत्रों से। प्रत्येक व्यक्ति को उस दिन अपनी पड़ी होगी। (अ-ब-स, 80:34-37)

वर्तमान व्यवस्था में दोष यह है कि यहां प्रकृति के पुरस्कारों का वितरण मनुष्य के कार्यों और गुणों पर निर्भर नहीं करता है। बल्कि, यह ऐसे कारणों पर आधारित है जिनमें व्यक्तिगत क्रियाएं और निजी क्षमताएं केवल एक कारण भर हैं और अन्य मज़बूत कारण उनकी प्रभावशीलता को कमज़ोर करते हैं और कभी-कभी पूरी तरह से नष्ट ही कर देते हैं। इस कारण से, व्यक्तिगत गुणों का पुरस्कारों के वितरण में हस्तक्षेप नहीं होता है या बहुत कम होता है। यहां एक व्यक्ति जीवन भर अन्याय और अत्याचार करते हुए भी सुख और सांसारिक सुखों का आनंद ले सकता है, और व्यक्ति जीवन भर ईमानदारी और पवित्रता के साथ जीने के बावजूद दुख और सांसारिक दुखों की स्थिति में रह सकता है। दोष को दूर करने की ज़रूरत है और ज्ञान की ज़रूरत यह है कि वर्तमान व्यवस्था को विकसित किया जाना चाहिए और एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित किया जाना चाहिए जिसमें दंड और पुरस्कार न्याय के साथ वितरित किए जाते हैं और एक व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत गुण और अवगुण के आधार पर वह मिले जिसका वह हक़दार हो। आख़िरत की व्यवस्था ऐसी ही होगी:

“और क्या हम ईमान लानेवालों और नेक कामों को करनेवालों को उन लोगों के समान कर देंगे जो देश में उपद्रव करते हैं? क्या हम आज्ञाकारियों और उल्लंघनकारियों को एक समान कर देंगे? (साद, 38:28)

“क्या गुनाह करने वाले यह समझते हैं कि हम उन्हें ईमान लाने वालों और नेक काम करने वालों के बराबर कर देंगे और उनकी ज़िंदगी और मौत एक ही हो जाएगी? ऐसा ही बुरा वे सोचते हैं।” (अल-जासिया, 45:21)

“और जो कुछ उन्होंने किया है उसके अनुसार हर एक को पद दिया जाएगा।” (अल- अनआम, 6:132)

“जन्नत को नेक लोगों के निकट लाया जाएगा और नर्क को पथभ्रष्टों के सामने लाया जाएगा।” (अल-शुअरा, 26:90-91)

यह है उस दूसरी दुनिया का नक़्शा, जो इस दुनिया के बाद मुहम्मद (सल्ल.) का धर्म और सभी पैग़म्बरों का धर्म पेश करता है। जो लोग इस दुनिया को एक खेल, और लक्ष्यहीन कोलाहल समझते हैं, उनके लिए यह प्रस्ताव और उनके तर्कों और सबूतों में कुछ भी स्वीकार्य नहीं मिलेगा, लेकिन जो व्यक्ति जगत की व्यवस्था को अल्लाह की रचना मानता है और मानता है कि अल्लाह तत्वदर्शी है, इन तर्कों पर विचार करने के बाद, वह निश्चित रूप से यह मानने के लिए मजबूर होगा कि वर्तमान व्यवस्था के बाद एक ऐसी एक व्यवस्था होनी चाहिए। जब यह साबित हो गया है कि मृत्यु के बाद एक और जीवन संभव है, तो इस संभावना को साबित करने की ज़रूरत इस पर विश्वास करने के लिए काफ़ी है कि अल्लाह निश्चित रूप से इस संभव को अस्तित्व देगा।

इस बहस से, यह स्पष्ट हो गया कि इस्लाम ने जिस पारलौकिक जीवन पर ईमान लाने की मांग की है, वह औचित्यपूर्ण है।

आख़िरी दिन पर आस्था की ज़रूरत

अब तक जो कहा गया है, उससे यह सिद्ध हो चुका है कि इस सांसारिक जीवन के बाद, पारलौकिक जीवन का अस्तित्व संभव है। बुद्धि (बशर्ते कि वह सही और वैध हो) और ज्ञान (बशर्ते कि वह वास्तविक हो) हमें क़ुरआन द्वारा प्रस्तुत जीवन के बाद की अवधारणा पर विश्वास करने से रोकते नहीं, बल्कि वे हमें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि पारलौकिक जीवन की इस अवधारणा पर विश्वास करने की क्या ज़रूरत है? इसे धर्मशास्त्र में क्यों शामिल किया गया है? इस पर इतना ज़ोर क्यों दिया गया है कि मुसलमान बनने के लिए इसे स्वीकार करना ज़रूरी है और इसे स्वीकार किए बिना कोई व्यक्ति मुसलमान नहीं हो सकता? इसे इतना महत्व क्यों दिया गया है कि इसे नकारने के बाद अल्लाह और रसूल और किताब पर ईमान लाना उपयोगी नहीं होगा, यहां तक कि जीवन भर के अच्छे कर्म भी व्यर्थ हो जाएंगे?

कोई कह सकता है कि पारलौकिक जीवन का सिद्धांत तत्वमीमांसा के अन्य सिद्धांतों की तरह ही एक आध्यात्मिक सिद्धांत है। हम मानते हैं कि इस विचार को प्रमाणों द्वारा अच्छी तरह मज़बूत कर दिया गया है, और इसे स्वीकार करने के पर्याप्त कारण हैं, लेकिन तथ्य यह है कि इसमें विश्वास करना इतना ज़रूरी क्यों है कि उस पर अविश्वास इस्लाम के दायरे से बाहर कर देगा।

अगर पारलौकिक जीवन में विश्वास केवल एक आध्यात्मिक मुद्दा होता, तो यह आपत्ति निश्चित रूप से प्रबल होती। उस मामले में इस को ईमानियात में शामिल करने का कोई उचित कारण नहीं था, क्योंकि एक विशुद्ध आध्यात्मिक मुद्दे का हमारे व्यावहारिक जीवन के लिए कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर हम इससे अनजान हैं या इसे स्वीकार करने से इनकार भी करते हैं, तो इसका हमारी नैतिकता और हमारे कार्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन पारलौकिक जीवन के मुद्दे पर विचार करने मालूम होता है कि इसका मनुष्य के नैतिक और व्यावहारिक जीवन से गहरा संबंध है। इसे स्वीकार करने से सांसारिक जीवन और इसके मामलों के बारे में व्यक्ति का दृष्टिकोण मौलिक रूप से बदल जाता है। इस विश्वास को स्वीकार करने का अर्थ है कि एक व्यक्ति अपने आप को एक ज़िम्मेदार और जवाबदेह प्राणी मानता है और अपने जीवन के सभी मामलों को यह देखते हुए संचालित करता है कि वह अपने हर कार्य के लिए जवाबदेह है। अगले जीवन में उसे अपने सभी कार्यों का उत्तर देना होता है और भविष्य का सुख-दुख उसके वर्तमान की अच्छाई और बुराई पर निर्भर करता है। इसके विपरीत, इस विश्वास को न मानने का अर्थ है कि मनुष्य स्वयं को ग़ैर-ज़िम्मेदार मानता है और अपने सांसारिक जीवन के पूरे कार्यक्रम को इस विचार के तहत व्यवस्थित करता है कि उसे इस जीवन के कार्यों के लिए दूसरे जीवन में जवाबदही नहीं करनी है। और इस जीवन के कार्यों के आधार पर आने वाले जीवन में कोई अच्छा या बुरा परिणाम आने वाला नहीं है। इस अक़ीदे से बेपरवाह होने या इस पर विश्वास न करने का अपरिहार्य प्रभाव यह होगा कि एक व्यक्ति अपने कार्यों के केवल उन परिणामों को देखेगा जो इस सांसारिक जीवन में उत्पन्न होते हैं और इसी आधार वह राय बनाएगा कि कौन सा कार्य उसके लिए फ़ायदेमंद है और कौन हानिकारक है। वह जहर खाने और आग में हाथ डालने से तो बचेगा, क्योंकि वह जानता है कि उसे अपने जीवन में इन दोनों कार्यों के बुरे परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन अत्याचार, अन्याय, झूठ, विश्वासघात, व्यभिचार और इस तरह के अन्य कार्यों के पूर्ण परिणाम चूंकि इस सांसारिक जीवन में प्रकट नहीं होते हैं, इसलिए वह उनसे उसी हद तक बचेगा, जहां तक उनमें किसी बुरे परिणाम की आशंका इस जीवन में हो। जहां कोई बुरा परिणाम नहीं दिखाई दे या, इसके विपरीत, उनसे किसी लाभ की उम्मीद हो, तो वह इन कार्यों को करने में संकोच नहीं करेगा। अत: इस अवधारणा के अंतर्गत किसी भी नैतिक कार्य का उसकी दृष्टि में कोई निश्चित नैतिक मूल्य नहीं होगा, लेकिन ऐसे प्रत्येक कार्य की अच्छाई और बुराई इस संसार में उससे होने वाले परिणाम की अच्छाई और बुराई पर निर्भर करेगी। दूसरी ओर, एक व्यक्ति जो अंतिम दिन में विश्वास करता है, वह केवल इस जीवन में होने वाले अपने नैतिक कार्यों के परिणामों को ही नहीं देखेगा, बल्कि वह अंतिम परिणामों को भी देखेगा जो इस जीवन के बाद दूसरे जीवन में दिखाई देने वाले हैं, और यह तय करेगा कि इन परिणामों के आधार पर कोई क्रिया फ़ायदेमंद है या हानिकारक। जिस तरह वह मानता है कि जहर घातक है और आग हानिकारक है, उसी तरह उसे विश्वास होगा कि अत्याचार, अन्याय, झूठ, विश्वासघात और व्यभिचार भी घातक और हानिकारक हैं। जैसे वह रोटी और पानी को उपयोगी समझेगा, उसी तरह वह न्याय और ईमानदारी और शुद्धता को भी उपयोगी समझेगा। वह अपने हर कर्म के एक निश्चित परिणाम के प्रति आश्वस्त होगा, भले ही वह परिणाम इस जीवन में ज़रूरी रूप से प्रकट न हो बल्कि विपरीत रूप में प्रकट हो। उसके पास नैतिक कार्यों के निश्चित नैतिक मूल्य होंगे। उसकी नज़र में, ईमानदारी, न्याय और वफादारी सही और अच्छी होगी, भले ही इस दुनिया में उनका कोई लाभ न हो, और झूठ, क्रूरता और अधर्म उसकी नज़र में पाप और बुराइयाँ होंगे, भले ही वे दुनिया में लाभ लाते हों और उनसे कोई नुक़सान न पहुँचे।

अत: पकरलौकिक जीवन में विश्वास से ख़ाली होने या इसे नकारने का अर्थ यह है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से बेख़बर हो गया है, ख़ुद को निरंकुश और जवाबदेही से मुक्त समझ बैठा है। वह एक ठोस और स्थिर नैतिक संहिता से वंचित है जिसे केवल ज़िम्मेदारी की भावना और अंतिम परिणामों पर विचार और सटीक नैतिक मूल्यों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है, और इस तरह वह अपना पूरा जीवन दुनिया के सतही दिखावे से धोखा खाकर बिताता है।

अंतिम दिन पर विश्वास न करने के परिणामों का पवित्र क़ुरआन में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। उन सभी दोषों को एक-एक करके गिनाया गया है, जो अंतिम दिन पर विश्वास न करने से व्यक्ति के विचारों और कार्यों में पैदा होते हैं।

 मनुष्य स्वयं को स्वतंत्र, निरंकुश, ग़ैर-ज़िम्मेदार समझता है, अपने जीवन को व्यर्थ समझता है, और इस धारणा के तहत काम करता है कि उसकी देखरेख और हिसाब लेने वाला कोई नहीं है:

“क्या तुम समझते हो कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और तुम्हें हमारे पास वापस नहीं लाया जाएगा? (अल-मोमिनून, 23:115)

“क्या मनुष्य यह समझता है कि उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाएगा?            (अल-क़ियामा, 75:36)

“क्या मनुष्य यह सोचता है कि उसपर किसी का वश नहीं चलेगा? वह कहता है कि मैंने बहुत माल उड़ा दिया। क्या वह समझता कि किसी ने उसे नहीं देखा? (अल-बलद, 90:5-7)

ऐसा व्यक्ति संसार के केवल बाहरी पहलू को देखता है, वह प्रारंभिक और सतही परिणामों को अंतिम और वास्तविक परिणाम मानता है और उनसे धोखा खा कर ग़लत राय बनाता है।

“वे केवल सांसारिक जीवन के स्वरूप को जानते हैं और परलोक से बेख़बर रहते हैं।” (अल-रोम, 30:7)

“लोग हमसे मिलने की उम्मीद नहीं करते हैं और दुनिया के जीवन से राज़ी और संतुष्ट हो गए हैं।” (यूनुस, 10:7)

“कदापि नहीं, बल्कि तुम प्रेम करते हो शीघ्र प्राप्त होने वाली चीज़ (संसार) से। और छोड़ देते हो परलोक को। (अल-क़ियामा, 75:20-21)

“बल्कि तुम लोग तो सांसारिक जीवन को प्राथमिकता देते हो। जबकि आख़िरत का जीवन ही उत्त्म और स्थायी है। (अल-अला, 87:16-17)

“उन्हें दुनिया के जीवन ने धोखे में डाल दिया है।” (अल-आराफ़, 7:51)

इस का परिणाम यह होता है कि मनुष्य की दृष्टि में चीज़ों के नैतिक मूल्यों की गुणवत्ता पूरी तरह उलट जाती है। जो चीज़ें अपने अन्तिम परिणाम की दृष्टि से वास्तव में हानिकारक होती हैं, उन्हें वह तात्कालिक लाभ के कारण उपयोगी समझता है, और जो क्रियाएँ अन्तिम परिणाम की दृष्टि से ग़लत होती हैं, उन्हें वह प्रारम्भिक परिणामों के आधार पर अच्छा मानता है। इससे उसके सांसारिक प्रयास भटक जाते हैं और अंततः व्यर्थ हो जाते हैं।

“जो सांसारिक जीवन की चाहत रखते थे उन लोगों ने कहा, क्या ही अच्छा होता कि हमारे लिए (भी) उसी के समान (धन-धान्य) होता, जो दिया गया है क़ारून को! वास्तव में, वह बड़ा सौभाग्यशाली है। और उन्होंने कहा जिन्हें ज्ञान दिया गयाः तुम्हारा बुरा हो! अल्लाह का प्रतिकार उसके लिए उत्तम है, जो ईमान लाये और सदाचार करे और ये सोच, धैर्यवानों ही को मिलती है।                   (अल-क़सस, 28:79-80)

 “जो आख़िरत पर ईमान नहीं लाते, हम उनके कामों को ख़ुशनुमा बना देते हैं और वे भटकते फिरते हैं।” (अल-नमल, 27:4)

क्या वे लोग इस भ्रम में हैं कि हम, उनकी धन और संतान से सहायता कर रहे हैं ते उनके लिए भलाईयों में सक्रिय हैं? बल्कि वे सच्चाई को समझते नहीं हैं। (अल-मोमिनून, 23:55-56)

“आप कह दें कि क्या हम तुम्हें बता दें कि कौन अपने कर्मों में सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हैं? वे हैं, जिनके सांसारिक जीवन के सभी प्रयास व्यर्थ हो गये और वे समझते रहे कि वे अच्छे कर्म कर रहे हैं। यही वे लोग हैं, जिन्होंने नहीं माना अपने पालनहार की आयतों को और उससे मिलने को, अतः हम क़ियामत के दिन उनका कोई भार निर्धारित नहीं करेंगे।” (कह्फ़, 18:103-105)

ऐसा व्यक्ति कभी भी सत्य-धर्म को स्वीकार नहीं कर सकता। जब भी उसके सामने नैतिकता और नेकी के काम प्रस्तुत किए जाएंगे, तो वह उन्हें अस्वीकार कर देगा, और जब इसके ख़िलाफ़ विश्वास और कार्य प्रस्तुत किए जाएंगे, तो वह उन्हें अपना लेगा। सत्य धर्म के जितने तरीक़े हैं, वे सांसारिक जीवन के कई लाभों और कई सुखों का बलिदान चाहते हैं, और उनका मुख्य सिद्धांत इस दुनिया के अस्थायी लाभों को परलोक के बेहतर और अधिक उन्नत लाभों के लिए बलिदान करना है।

लेकिन इनकार करने वाला इस दुनिया के फ़ायदों को फ़ायदा समझता है, इसलिए वह ऐसे किसी भी बलिदान के लिए तैयार नहीं हो सकता, और न ही वह सत्य धर्म के तरीक़ों को अपना सकता है। इसलिए परलोक को नकारना और सच्चे धर्म का पालन करना दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। जो आख़िरत का इनकार करता है, वह कभी भी सच्चे धर्म का अनुयायी नहीं हो सकता।

“मैं उन्हें अपनी आयतों (निशानियों) से फेर दूँगा, जो धरती में अवैध अभिमान करते हैं, अगर वे प्रत्येक आयत (निशानी) देख लें, तब भी उसपर ईमान नहीं लायेंगे; अगर वे सुपथ देखेंगे, तो उसे नहीं अपनायेंगे और अगर कुपथ देख लें, तो उसे अपना लेंगे। ये इस कारण कि उन्होंने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठला दिया और उनसे निश्चेत रहे। (अल-आराफ़ 7: 146-147)

 परलोक का इनकार व्यक्ति के संपूर्ण नैतिक और व्यावहारिक जीवन को प्रभावित करता है। वह अहंकारी और विद्रोही हो जाता है।

“जो आख़िरत पर ईमान नहीं रखते, उनके दिल सच्चाई से इनकार करने लगते हैं और वे घमंडी हो जाते हैं।” (अल-नह्ल, 16:22)

“फ़िरौन और उसकी सेनाओं ने ज़मान में बिना किसी अधिकार के अहंकार किया और यह समझने लगे कि उन्हें हमारे पास वापस नहीं लाया जाएगा।”        (अल-क़सस, 28:39)

 उसके मामले बिगड़ जाते हैं :

“विनाश है डंडी मारने वालों का। जो लोगों से नाप कर लें, तो पूरा लेते हैं। और जब उन्हें नाप या तोल कर देते हैं, तो कम देते हैं। क्या वे नहीं सोचते कि फिर जीवित किये जायेंगे? एक भीषण दिन के लिए।( अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन, 83:1-5)

वह संकीर्णचित्त, आत्मकेंद्रित हो जाता है और अल्लाह की इबादत से दूर हो जाता है:

“ऐ नबी!) क्या तुमने उसे देखा, जो प्रतिकार (बदले) के दिन को झुठलाता है? यही वह है, जो अनाथ (यतीम) को धक्के देता है। और ग़रीब के लिए भोजन देने पर नहीं उभारता। विनाश है उन नमाज़ियों के लिए। जो अपनी नमाज़ से अचेत हैं। और जो दिखावे (आडंबर) के लिए करते हैं। और माऊन (प्रयोग में आने वाली मामूली चीज़) भी माँगने पर नहीं देते।” (अल-माऊन, 107:1-7)

संक्षेप में, सत्य का उल्लंघन करना और पापों में शामिल होना परलोक के इनकार का एक ज़रूरी परिणाम है।

“और उसे (क़ियामत के दिन को) वही झुठलाता है, जो महा अत्याचारी और पापी है।( अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन, 83:12)

ये अंतिम दिन में विश्वास को नकारने के परिणाम हैं, जिन्हें कोई भी समझदार व्यक्ति नकार नहीं सकता। विशेष रूप से जब हमने उस सभ्यता के फल को अपनी आँखों से देखा है, जहां जीवन केवल सांसारिक और भौतिक उद्देश्य पर स्थापित था, और परलोक के विश्वास से पूरी तरह ख़ाली था। इस लिए इस वास्तविकता से इनकार करने के लिए कोई जगह नहीं बची है कि परलोक के इनकार के साथ पवित्रता और नैतिकता की स्थापना  बिल्कुल असंभव है।

अब देखिए जब इस्लाम इन्ही चीज़ों को स्थापित करना चाहता है, जब वह मनुष्य को अच्छे आचरण और अच्छे कर्मों के लिए आमंत्रित करता है जिसके लिए दुनिया के कई भौतिक सुखों और लाभों का बलिदान ज़रूरी है, जब वह मनुष्य को अल्लाह की इबादत करने के लिए आमंत्रित करता है, जो जिसका इस दुनिया में कोई भी लाभ नज़र नहीं आता है, इसके विपरीत, व्यक्ति की रूह और शरीर को कई तरह की कठिनाइयों से पीड़ित होना पड़ता है, जब वह जीवन के सभी मामलों में हराम और हलाल, बुराई और अच्छाई का अंतर स्थापित करता है, जब इसके लिए किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत लक्ष्यों और व्यक्तिगत प्यार और इच्छाओं और कभी-कभी जीवन और धन को उच्च आध्यात्मिक लक्ष्यों के लिए बलिदान करने की ज़रूरत होती है, और जब वह विनियमित करना चाहता है एक नैतिक संहिता के तहत मनुष्य का जीवन जिसमें सांसारिक लाभ और हानि की परवाह किए बिना हर चीज़ के लिए एक निश्चित नैतिक मूल्य निर्धारित किया गया है, तो क्या बाद के जीवन में आस्था के बिना ऐसी व्यवस्था की स्थापना हो सकती थी?

क्या यह संभव था कि कोई व्यक्ति इस विश्वास को नकारते हुए ऐसी शिक्षा को स्वीकार कर लेता? अगर उत्तर ‘नहीं’ है, और निश्चित रूप से ‘नहीं’ है, तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस तरह की धार्मिक व्यवस्था और आचार संहिता को स्थापित करने के लिए, मनुष्य के हृदय में मृत्यु के बाद के जीवन में विश्वास को स्थापित करना ज़रूरी है। यही एकमात्र कारण है जिसके आधार पर इस्लाम ने इस विश्वास को ईमान में शामिल किया है और इस पर इतना ज़ोर दिया है कि उसने अल्लाह पर ईमान के बाद किसी और चीज़ को महत्व नहीं दिया है।

आइए अब देखते हैं कि इस्लाम ने इस विश्वास को किस रूप में प्रस्तुत किया है और मनुष्य की नैतिकता और कार्यों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।

दुनिया पर आख़िरत की प्राथमिकता

पहली बात जो पवित्र क़ुरआन ने मनुष्य को बताने की कोशिश की है वह यह है कि दुनिया मनुष्य के लिए एक अस्थायी निवास है। उसके लिए केवल यही एक जीवन नहीं है, उसके बाद एक और बेहतर और उन्नत जीवन है, जिसका लाभ यहां के लाभों से अधिक प्रचुर मात्रा में है और जिसका नुक़सान यहां नुक़सान से अधिक गंभीर है। जो इस संसार के दिखावे से धोखा खाकर इसके सुखों और लाभों के पीछे पड़ा रहता है, और इन्हें पाने के लिए ऐसे प्रयास करता है जिसके कारण वह उस दूसरे जीवन के सुख और गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता, वह बहुत बुरा सौदा करता है। उसका व्यापार पूरी तरह हानि का व्यापार है। इसी तरह जो कोई इस संसार की हानि को हानि समझता है और इससे बचने का इस तरह प्रयास करता है कि वह स्वयं को उस दूसरे जीवन के नुक़सान का पात्र बना लेता है, वह बड़ी मूर्खता करता है। पवित्र क़ुरआन में इस विषय का उल्लेख बहुत विस्तार से किया गया है।

उदाहरण के लिए :

“यह दुनिया और कुछ नहीं बल्कि खेल-तमाशा है, और वास्तविक जीवन का घर आख़िरत है।” (अल-अनकबूत, 29:64)

“कहो ऐ मुहम्मद (सल्ल.)! कि इस दुनिया के सुख थोड़े हैं, और परलोक उसके लिए बेहतर है जो पवित्रता के साथ रहता है।” (अल-निसा, 4:77)

“क्या आप परलोक के बजाय इस दुनिया के जीवन से संतुष्ट हैं? परलोक की तुलना में इस दुनिया के जीवन का सामान बहुत थोड़ा है।” (तौबा, 9:38)

 “आप इस सांसारिक जीवन को पसंद करते हैं जबकि आख़िरत बेहतर और अधिक स्थायी है।” (अल-आला, 87:16-17)

 “हर किसी को मौत का स्वाद चखना है और क़ियामत के दिन आपको अपने इस जीवन का पूरा बदला मिलने वाला है। तो, उस दिन, जो व्यक्ति आग की सज़ा से बच गया और जन्नत में चला गया, वह वास्तव में सफल हुआ। जहाँ तक इस संसार के जीवन की बात है, यह तो केवल एक छलावा है।”         (आले-इमरान, 3:185)

“जो अपने आप पर अत्याचार करते थे, वे उन सुखों के पीछे चले जो उन्हें दिए गए थे, और वे अपराधी बन गए।” (हुद, 11:116)

“ऐ मुहम्मद (सल्ल.)! कह दो: भारी नुक़सान में वे लोग हैं जिन्होंने क़ियामत के दिन अपने आप को और अपने बच्चों को नुक़सान में डाला। यह वास्तविक और खुला घाटा है।” (अल-जुमर, 39:15)

“फिर जो कोई अवज्ञा करता है और इस दुनिया के जीवन को प्राथमिकता देता है, नर्क उसका ठिकाना है। और जो कोई अपने रब के सामने खड़े होने से डरता है और अपने आप को इच्छाओं से रोकता है, तो जन्नत उसका ठिकाना है।” (अल-नाज़िआत, 79:37-41)

“जान लो कि इस संसार का जीवन और कुछ नहीं है, जिसमें खेल-कूद और अलंकार है और धन और सन्तान के मामले में एक-दूसरे पर गर्व और श्रेष्ठता है। इसका उदाहरण बारिश की तरह है, कि इससे खेती लहलहाती और फलती-फूलती है और किसान इसे देखकर जश्न मनाते हैं। फिर वह पक कर सूख जाती है और आप देखते हैं कि यह पीली हो जाती है और अंत में उसे कुचल दिया जाता है। उसके बाद आख़िरत का जीवन है, जिसमें किसी के लिए कड़ी सज़ा और किसी के लिए अल्लाह की ओर से क्षमा और प्रसन्नता का प्रावधान है। तो इस संसार का जीवन केवल एक भ्रम है।” (हदीद, 57:20)

“लोगों के लिए महिलाओं और बच्चों का प्यार और सोने और चांदी के ढेर, और असील घोड़ों और जानवरों और खेतों की मुहब्बत को लुभावना बना दिया गया है। यह सांसारिक जीवन का आनंद है, लेकिन अल्लाह के पास इससे बेहतर आश्रय है। कहो, ऐ मुहम्मद (सल्ल.), क्या मैं तुम्हें इससे बेहतर ख़ुशी की ख़बर दूं? जो नेक हैं उनके लिए उनके रब के पास बाग़ हैं जिनके नीचे नदियाँ बहती हैं। उनमें वे सदा रहेंगे और उन्हें पवित्र जोड़ियां मिलेंगी और वे अल्लाह की प्रसन्नता से सम्मानित होंगे।” (आले-इमरान, 3:14-15)

इस दुनिया पर परलोक की प्राथमिकता और परलोक की शाश्वत सफलता के लिए इस दुनिया के अस्थायी लाभ को त्यागने की शिक्षा, और परलोक की शाश्वत विफलता से बचने के लिए इस दुनिया के कुछ दिनों के नुक़सान को सहन करने के शिक्षा, इस्लाम में बहुत ही दृढ़ता और प्रभावी ढंग से दी गयी है। इसका उद्देश्य यह है कि जिस व्यक्ति ने क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाया है, वह किसी ज़ोर या ज़बरदस्ती से नहीं, बल्कि अपने दिल की इच्छा से, वह सब कुछ करे जिसे किताब और अल्लाह रसूल ने आख़िरत में कामयाबी का ज़रिया बताया है, और हर उस चीज़ से परहेज़ करे जिसे इन दोनों ने आख़िरत में नुक़सान का कारण बताया है, चाहे वह इस दुनिया में उसके लिए कितना भी फ़ायदेमंद या नुक़सानदेह क्यों न हो।

कर्मपत्र और अदालत

दूसरी बात जो पवित्र क़ुरआन ने मनुष्य के दिल में बसाने की कोशिश की है वह यह है कि मनुष्य अपने सांसारिक जीवन में जो कुछ भी करता है, चाहे वह कितना भी गुप्त रूप से करे, उसका ठीक-ठीक रिकॉर्ड संरक्षित किया जाता है, जिसे अल्लाह के दरबार में पेश किया जाएगा। मनुष्य के कर्मों से किसी भी तरह का संबंध रखने वाला हर कण उसके कार्यों की गवाही देगा, यहां तक कि उसके अपने अंग भी उसके ख़िलाफ़ गवाह के रूप में खड़े होंगे। तब उसके कामों का ठीक-ठीक तौल किया जाएगा। न्याय के पैमाने के एक हिस्से में उसके अच्छे कर्म होंगे और दूसरे हिस्से में बुरे। अच्छे कर्मों का पलड़ा झुके तो आख़िरत की कामयाबी उसका स्वागत करेगी और जन्नत उसका ठिकाना होगा और अगर बुराई का पलड़ा भारी रहे तो उसका अंजाम नुक़सान होगा और उसके लिए सबसे बुरा ठिकाना निर्धारित किया जाएगा, जिसका नाम है नरक है। उस न्यायालय में प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के साथ अकेले उपस्थित होगा और सांसारिक संसाधनों में से कुछ भी उसके काम न आएगा।

इस विषय को भी बहुत विस्तार से और बहुत प्रभावी तरीक़े से समझाया गया है। कुछ आयतें नमूने के तौर पर यहाँ प्रस्तुत हैं:

“तुम में से जो गुप्‍त बातें करता, और जो ऊंचे स्वर से बोलता, और जो रात के अन्‍धकार में छिप जाता, और जो दिन के उजियाले में चलता, सब बराबर हैं। हरेक के आगे और पीछे पहरेदार लगे हैं और वे सब कुछ अल्लाह की आज्ञा से दर्ज कर रहे हैं।” (अल-राद, 13:10-11)

 जब कर्म विलेख प्रस्तुत किया जाएगा, तो आप देखेंगे कि उसमें क्या सब लिखा होगा, अपराधी इससे डरेंगे और कहेंगे, "हाय! इस किताब का क्या हाल है कि इसमें कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं छूटा, सब कुछ इसमें दर्ज है। जो कुछ उन्होंने किया था, वे सब वहां मौजूद पाएंगे।

“जिस दिन उनकी अपनी जुबानें और उनके हाथ और पैर उनके कामों की गवाही देंगे।” (अल-नूर, 24:24)

“यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे, तब उनके कान और उनकी आँखें और उनकी खालें उन कामों की गवाही देंगी जो वे करते थे। वे अपनी खाल से कहेंगे, तू ने हमारे विरुद्ध क्यों गवाही दी? वह उत्तर देंगी कि हमें उस अल्लाह की ओर से वाणी दी गई है, जिसने हर चीज़ को वाणी दी है। तुम गुप्त रूप से काम करते थे और यह नहीं जानते थे कि तुम्हारे अपने कान और आंखें और खाल तुम्हारे कामों की गवाही देंगे। बल्कि तुमने सोचा कि अल्लाह भी तुम्हारे कई कामों से अनजान है।” (हामीम सजदा, 41:20-21)

“वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि वे कृतघ्न सेवक थे।”                  (अल-अनआम, 6:130)

इन कर्मों और इन गवाहों के साथ, मनुष्य अल्लाह के दरबार में उपस्थित होगा। फिर इस पेशी की स्थिति क्या होगी? वह अकेला असहाय खड़ा रहेगा।

“अब तुम वैसे ही अकेले हमारे पास आए हो जैसा हमने तुम्हें पहली बार पैदा किया था। जो कुछ हमने तुम्हें दिया था, वह तुमने छोड़ दिया है।”             (अल-अनआम, 6:94)

“हमने हर एक के अच्छे और बुरे कामों का हिसाब उसके गले में लटका रखा है और क़ियामत के दिन हम उसके लिए एक किताब निकालेंगे, जिसे वह अपने सामने खुला हुआ पाएगा। उसे उसके कामों की किताब पढ़ने के लिए कहा जाएगा, आज तू ख़ुद ही अपना हिसाब करने के लिए पर्याप्त है।”              (बनी इस्राईल, 17:13-14)

“क़ियामत के दिन न तो तुम्हारे सम्बन्धी और न तुम्हारी संतान किसी काम आएंगे।” (अल-मुम्तहिनाः 60:3)

सिफ़ारिश काम नहीं करेगी:

“उत्पीड़कों के लिए कोई मित्र नहीं होगा और कोई मध्यस्थ स्वीकार नहीं किया जाएगा।” (अल-मुमिन, 40:18)

 रिश्वत नहीं चलेगी :

 “वह दिन जब न माल काम आएगा और न संतान।” (अल-शुअरा, 26:88)

 कर्मों को तौला जाएगा और कण-कण का हिसाब होगा:

“और क़ियामत के दिन हम न्याय का तराज़ू रख देंगे, फिर नहीं अत्याचार किया जायेगा किसी पर कुछ भी और अगर होगा राई के दाने के बराबर (किसी का कर्म) तो हम उसे सामने ले आयेंगे और हम बस (काफ़ी) हैं ह़िसाब लेने वाले।” (अल- अंबिया, 21:47)

 इनाम और सज़ा कर्मों के अनुसार होगी:

आज, बदला दिया जायेगा तुम लोगों को, तुम्हारे कर्मों के अनुसार।”           (अल जासिया, 45:28)

“आज आप जो करते थे उसका प्रतिफल आपको मिलेगा।” (अल-अनम 132:6)

यह वह पुलिस और अदालत है, जिसका डर इनसान की मन में बिठा दिया गया है। यह संसार की पुलिस नहीं, जिसकी दृष्टि से व्यक्ति बच सकता है, और न ही यह संसार का न्यायालय है, जिसके चंगुल से व्यक्ति को साक्ष्य के अभाव में या झूठे और अनुचित साक्ष्य के कारण मुक्त किया जा सकता है। बल्कि, यह ऐसी पुलिस है जो हर स्थिति में उसकी निगरानी कर रही है, और यह ऐसी अदालत है जिसके चश्मदीद गवाहों से वह किसी भी तरह से बच नहीं सकता है।

आख़िरी दिन पर आस्था का लाभ

इस तरह, इस्लाम ने अंतिम दिन के अक़ीदे को अपने नैतिक संहिता और शरीयत की व्यवस्था के लिए एक मज़बूत समर्थन बना दिया है, जिसमें एक ओर अच्छे कर्म करने और बुराइयों से बचने के लिए तर्कसंगत प्रेरणा है, और दूसरी ओर अच्छाई पर निश्चित इनाम। इस की संहिता और व्यवस्था को अपने अस्तित्व और स्थिरता के लिए भौतिक शक्ति और संप्रभु सत्ता की ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह अंतिम दिन पर ईमान के माध्यम से मनुष्य के भीतर एक शक्तिशाली विवेक पैदा करता है, जो बाहरी लालच और भय से मुक्त होता है। यह मनुष्य को निर्देशित करता है उन सद्गुणों के लिए जिन्हें इस्लाम ने अंतिम परिणाम के संदर्भ में अच्छा घोषित किया है, और उनसे उन पापों से बचने का आग्रह करता है जिन्हें उसने अंतिम परिणाम के संदर्भ में गुनाह ठहरा दिया है।

पवित्र क़ुरआन में आप पाएंगे कि इस मान्यता का उपयोग अच्छी नैतिकता सिखाने के लिए किया जाता है। जब धर्मपरायणता और संयम का आदेश दिया जाता है, तो यह भी कहा जाता है:

“अल्लाह से डरो और जान लो कि तुम उसके सामने उपस्थित होना है।”     (अल-बक़रह 2:223)

अल्लाह के मार्ग में, जान की बाज़ी लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तो यह भी विश्वास दिलाया जाता है कि अगर आप मारे गए, तो आप वास्तव में नहीं मरेंगे, बल्कि आपके पास अनन्त जीवन होगा। तो सूरह बक़रह में कहा गया है:

“और जो अल्लाह की राह में मारे गए, उनके बारे में यह न कहना कि वे तो मर गए, बल्कि वे जीवित हैं, लेकिन तुम नहीं समझते।

मुसीबतों के सामने धैर्य रखने की सलाह दी जाती है, तो यह भी कहा जाता है कि धैर्यवान लोगों के लिए अल्लाह की कृपा और दया होती है। इस तथ्य को इस तरह समझाया गया है:

“उन लोगों पर प्रभु का आशीर्वाद और दया है।” (अल-बक़रह, 2:157)

निडरता और वीरता की भावना इस तरह पैदा की जाती है:

“जो लोग मानते थे कि उन्हें अल्लाह के पास आना है, उन्होंने कहा कि अल्लाह के आदेश से एक छोटा समूह एक बड़े समूह पर हावी हो जाता है।”            (अल-बक़रह 2:249)

ऐसा कहने से बड़ी से बड़ी मुश्किलों में डटे रहने की ताक़त पैदा होती है।

“नर्क की आग दुनिया की गर्मी से भी ज़्यादा गर्म होती है।” (तौबा, 9:81)

यह कहकर धन को अच्छे कार्यों में ख़र्च करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है:

“तुम जो कुछ दान करोगे, उसका पूरा प्रतिफल तुम्हें मिलेगा, और तुम पर कोई अत्याचार नहीं होगा।” (अल-बक़रह 2:272)

कंजूसी को रोकने के लिए कहा जाता है:

“जिन लोगों को अल्लाह ने अपनी उदारता से समृद्ध किया है और फिर उसके साथ कंजूस हैं, वे यह न सोचें कि यह उनके लिए अच्छा है, वास्तव में यह उनके लिए बुरा है। जिस धन में वे कंजूसी कर रहे हैं, वही क़ियामत के दिन उनके गले में बांध दिया जाएगा।” (आले-इमरान, 3:180)

 सूदखोरी के लाभों का त्याग करने के लिए यह कहकर प्रेरित किया जाता है:

“उस दिन से डरो जिस दिन तुम अल्लाह की ओर लौटाए जाओगे।”            (अल-बक़रह, 2:281)

 संसार के सुखों के प्रति उदासीनता और दुष्टों के सुख से ईर्ष्या न करना इस तरह सिखाया जाता है:

“पैग़म्बर! दुनिया के देशों में अल्लाह की अवज्ञा करने वाले लोगों की चलत-फिरत से धोखा मत खाओ। यह तो बस चंद दिनों की जिंदगी का मजा है, फिर सब लोग नर्क में जाएंगे, जो कि सबसे बुरा ठिकाना है। इसके विपरीत, जो लोग अपने रब से डरते हुए जीते हैं, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नदियाँ बहती हैं, जिनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह की ओर से यह उनके लिए मेज़बानी का सामान है और जो कुछ अल्लाह के पास है वह नेक लोगों के लिए उत्तम है।” (आले इमरान, 3:196-198)

8. इस्लामी सभ्यता में ईमान का महत्व

ईमानियात (आस्था) का अवलोकन

ईमान के पांच विभागों पर विस्तार से चर्चा की जा चुकी है, उनमें से प्रत्येक के बारे में इस्लाम की विस्तृत मान्यता, वैधता के संदर्भ में इसका तर्कसंगत स्तर, मानव व्यवहार पर इसके प्रभाव और सभ्यता की स्थापना और निर्माण में इसकी भूमिका, सब मालूम हो चुकी है। अब एक बार हमें उन सभी को समग्र रूप से देखना चाहिए और देखना चाहिए कि ये ईमानियात मिल जुलकर किस तरह की सभ्यता का निर्माण करते हैं।

इस लेख के शुरुआती अध्यायों में बताया गया है कि इस्लामी सभ्यता की आधारशिला यह विचार है कि मनुष्य की स्थिति इस दुनिया में सामान्य प्राणियों की तरह नहीं है, बल्कि उसे यहां सर्वशक्तिमान अल्लाह द्वारा एक ख़लीफ़ा के रूप में भेजा गया है। इस अवधारणा से, एक तार्किक परिणाम के रूप में, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य अपने निर्माता और अल्लाह की ख़ुशी प्राप्त करना ठहरता है, और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए यह ज़रूरी हो गया कि:

पहला: वह अल्लाह की सही पहचान प्राप्त करे।

दूसरा: वह केवल अल्लाह को ही आदेश देने वाला और रोकने वाला समझे और अपने सारे अधिकार अल्लाह की आज्ञाओं के अधीन कर दे।

तीसरा: उन तरीक़ों का पता लगाए जिनके द्वारा अल्लाह का समर्थन प्राप्त किया जा सकता है, और जब वे तरीक़े मालूम हो जाएं, तो उनके अनुसार ज़िन्दगी गुज़ारे।

चौथा: वह अल्लाह की ख़ुशी के फल और उसकी नाराज़गी के परिणामों के बारे में जाने ताकि दुनिया के जीवन के पूर्ण परिणाम से धोखा न खाए।

वे पांच अक़ीदे जिन को विस्तार से बताया जा चुका है, इसी ज़रूरत को पूरा करते हैं।

क़ुरआन में अल्लाह और उसके गुणों के बारे में जो कुछ भी वर्णित किया गया है, वह सब इसलिए है कि मनुष्य को उसके बारे में सही ज्ञान हो, उसकी सही पहचान हो, जिसके द्वारा उसे ख़लीफ़ा के रूप में धरती पर भेजा गया है और वह किसकी ख़ुशी चाहे। फ़रिश्तों के बारे में जो कुछ कहा गया है वह इस लिए कि मनुष्य जगत की कार्यकर्ता शक्तियों में से किसी को कार्यसाधक न मान बैठे, और किसी और को अल्लाह का साझीदार न ठहराए। इस सही ज्ञान के बाद अल्लाह पर ईमान लाने का अर्थ यह है कि जिस तरह अल्लाह का पूरे जगत पर और मानव जीवन के ग़ैर-वैकल्पिक क्षेत्रों पर शासन है, उसी तरह मनुष्य को अपने जीवन के वैकल्पिक क्षेत्रों में अल्लाह के शासन को स्वीकार करना चाहिए। हर मामले में अल्लाह को एकमात्र क़ानून बनाने वाला और अपने आप को क़ानून-पालक समझे, और अपने अधिकार को अल्लाह की ठहराई सीमा के भीतर सीमित कर दे। इस ईमान में वह शक्ति है जो व्यक्ति को स्वेच्छा से अल्लाह की आज्ञाओं के पालन के लिए प्रेरित करती है। इससे एक विशेष तरह की अंतरात्मा का निर्माण होता है और एक विशेष तरह के चरित्र का निर्माण होता है जो स्वेच्छा से क़ानूनों और सीमाओं का पालन करने के लिए ज़रूरी है।

रिसालत और किताब का अक़ीदा तीसरी ज़रूरत को पूरा करता है। इन दोनों के माध्यम से, मनुष्य को नियमों और उन तरीक़ों का विस्तृत ज्ञान होता है जो अल्लाह ने मनुष्य के लिए निर्धारित किए हैं। और उन सीमाओं की पहचान करना संभव हो जाता है जिनके द्वारा अल्लाह ने मनुष्य के अधिकारों को सीमित कर दिया है। रसूल की शिक्षा को अल्लाह की शिक्षा के रूप में मानना, और उनके द्वारा प्रस्तुत किताब को अल्लाह की किताब समझना ही रिसालत और किताब पर ईमान है, और यह ईमान व्यक्ति में इन क़ानूनों का पालन करने की क्षमता पैदा करता है जिन्हें अल्लाह ने अपने पैग़म्बरों और अपनी किताबों के माध्यम से उस पर प्रकट किया है।

आख़िरी ज़रूरत को पूरा करने के लिए दूसरे जीवन का ज्ञान है। इससे व्यक्ति की दृष्टि इतनी तेज़ हो जाती है कि वह दृश्य जगत के पीछे दूसरी दुनिया को देखने लगता है। यह अनुभव करता है कि इस संसार का सुख-दुख, लाभ-हानि, अल्लाह की ख़ुशी और नाराज़गी का मानक नहीं है। अल्लाह के ओर से कर्मों का अच्छा बुरा फल इस दुनिया में ख़त्म नहीं हो जाता है, बल्कि अंतिम न्याय दूसरी दुनिया में होने वाला है। वही निर्णय मान्य है और उस निर्णय में सफलता का एकमात्र साधन इस दुनिया में अल्लाह के क़ानून का पालन करना और उसके द्वारा निर्धारित सीमाओं का पूरी तरह से पालन करना है। इस आस्था में विश्वास को अंतिम दिन पर ईमान कहा जाता है, और अल्लाह पर ईमान के बाद, यह दूसरी सबसे बड़ी शक्ति है जो व्यक्ति को इस्लामी क़ानूनों का पालन करने के लिए प्रेरित करती है। यह मान्यता किसी व्यक्ति को इस्लामी सभ्यता के लिए मानसिक रूप से तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाती है।

इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा

ईमनियात के विवरण को देखकर, हम उनके द्वारा बनाई गई सभ्यता की पूरी रूपरेखा देख सकते हैं। इस आरेख की मुख्य विशेषताएं हैं:

♦ इस सभ्यता की व्यवस्था एक साम्राज्य व्यवस्था की तरह है। इसमें अल्लाह की स्थिति सामान्य धार्मिक अवधारणा के संदर्भ में केवल एक पूज्य की नहीं है, बल्कि सांसारिक अवधारणा के संदर्भ में, वह सम्राट भी है। वह वास्तव में इस राज्य का बादशाह है, रसूल उसका प्रतिनिधि है, क़ुरआन उसका संविधान है, और जो कोई भी उसकी संप्रभुता को स्वीकार करता है, उसके प्रतिनिधि का अनुसरण करता है और उसकी संविधान की किताब का पालन करता है, वह राज्य की प्रजा है। मुसलमान होने का अर्थ यह है कि इस सम्राट द्वारा अपने प्रतिनिधि और संविधान की किताब के माध्यम से निर्धारित क़ानूनों को बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार किया जाए, भले ही वे उनका उद्देश्य समझते हों या नहीं। जो व्यक्ति उसके आदेश का पालन करने या उसकी अवज्ञा करने का अधिकार अपने लिए सुरक्षित रखता है, उसके लिए इस राज्य में कोई जगह नहीं है।

♦ क्योंकि इस सभ्यता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को अंतिम सफलता के लिए तैयार करना है (अर्थात परलोक के निर्णय में सर्वशक्तिमान अल्लाह की प्रसन्नता से सम्मानित होना), और यह सफलता उसके अनुसार, वर्तमान जीवन में मनुष्य के सही कर्मों पर निर्भर करती है। यह जानना, कि अंतिम परिणाम के संदर्भ में कौन सा कार्य उपयोगी है और कौन सा घातक, मनुष्य के वश में नहीं है, इसे केवल अल्लाह ही बेहतर जानता है। इसलिए यह सभ्यता मनुष्य से मांग करती है कि अपने जीवन के सभी मामलों में अल्लाह के बनाए तरीक़ों का पालन करे। यह सभ्यता दीन (धर्म) और दुनिया दोनों को शामिल करती है। इसे आम सीमित अर्थों में शब्द "धर्म" से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। यह एक ऐसी विस्तृत व्यवस्था है जिसमें मनुष्य की सोच और विचार, उसका व्यक्तिगत चरित्र और नैतिकता, उसके व्यक्तिगत कार्य, उसके पारिवारिक मामले, उसका समाज, उसकी संस्कृति, उसकी राजनीति सभी पर हावी है, और इन सभी मामलों में अल्लाह द्वारा निर्धारित निययों और क़ानूनों को सामूहिक रूप से "दीन इस्लाम" या "इस्लामिक सभ्यता" कहा जाता है।

♦ यह सभ्यता कोई जातीय, राष्ट्रीय या नस्ली सभ्यता नहीं है, बल्कि सही अर्थों में यह एक मानव सभ्यता है। यह मनुष्य को मनुष्य के रूप में संबोधित करती है, और तौहीद, रिसालत, किताब और अंतिम दिन पर ईमान रखने वाले सभी लोगों को अपने अन्दर समाहित कर लेती है। इस तरह इस सभ्यता ने एक ऐसी राष्ट्रीयता का निर्माण किया है जिसमें प्रत्येक मनुष्य बिना किसी भेदभाव, रंग, जाति और भाषा के प्रवेश कर सकता है, जो ज़मीन की पूरी सतह पर फैलने की क्षमता रखती है, और जो सभी मानव जाति को एक एकीकृत राष्ट्र में जोड़ती है। यह उन सभी को एक सभ्यता का अनुयायी बनाने की क्षमता रखती है। लेकिन इस सार्वभौमिक मानव समुदाय की स्थापना में इसका मुख्य उद्देश्य अपने माननेवालों की जनसंख्या को बढ़ाना नहीं है, बल्कि सभी मनुष्यों को सच्चे ज्ञान और सही कार्यों में साझा करना है जो सभी की भलाई के लिए अल्लाह ने ठहराया है। इसलिए, वह विश्वास का बंधन लगाकर और केवल उन लोगों को चुनकर इस समुदाय में शामिल करना चाहती है जो अल्लाह के पूर्ण शासन के आगे सर झुकाने के लिए तैयार हैं, और उन सीमाओं और क़ानूनों को स्वीकार करते हैं जो अल्लाह ने उनके लिए निर्धारित किए हैं। क्योंकि सभ्यता की इस व्यवस्था में केवल ऐसे लोग (चाहे वे कितने ही कम क्यों न हों) फिट हो सकते हैं, और इससे एक अधिक शक्तिशाली व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है। इनकार करने वालों या कपटाचारियों या कमज़ोर ईमान के लोगों की घुसपैठ इस व्यवस्था के लिए कमज़ोरी का कारण है।

♦ सार्वभौमिकता वाली इस सभ्यता की विशिष्ट विशेषता इसका महान अनुशासन और इसकी शक्तिशाली पकड़ है। जिसके द्वारा यह अपने अनुयायियों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से अपने संविधान से बांधती है। इसका कारण यह है कि यह नियम बनाने और सीमा निर्धारित करने से पहले पालन किए जाने वाले नियमों और पालन की जाने वाली सीमाओं का प्रावधान करती है। आदेश देने से पहले, वह व्यवस्था करती है कि उसके आदेश का पालन किया जाए। सबसे पहले, यह मनुष्य से अल्लाह की सत्ता को स्वीकार कराती है। फिर वह उसे विश्वास दिलाती है कि रसूल और किताब द्वारा दी गई आज्ञाएँ अल्लाह की आज्ञाएँ हैं, और उनका पालन करना अल्लाह का पालन करना है। फिर यह उसकी रूह में एक पुलिस स्थापित करती है जो हर समय और सभी परिस्थितियों में उसे आज्ञाओं का पालन करने पर उभारती रहती है, उसे अवज्ञा पर फटकार लगाती है, और उसे सज़ा के दिन का भय दिलाती है। इस तरह जब यह प्रत्येक व्यक्ति की रूह और अंतःकरण में इस शक्ति को बिठा देती है, तो उसके मानने वालों में यह क्षमता पैदा करती है कि वे स्वयं नियमों का पालन करें और मर्यादा का पालन करें। यह उनके सामने अपने क़ानून देती है, उन्हें आज्ञा देती है, उनके लिए सीमा निर्धारित करती है, उनके जीने के तरीक़े निर्धारित करती है, और उनसे इसके लिए सबसे गंभीर बलिदान मांगती है। इस तरह, इस्लामी सभ्यता ने ऐसा मज़बूत प्रभाव प्राप्त किया है, जो किसी अन्य सभ्यता को प्राप्त नहीं हुआ है।

♦ सांसारिक दृष्टि से यह सभ्यता एक सही सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना चाहती है और एक पवित्र समाज को अस्तित्व में लाना चाहती है। ऐसे समाज का अस्तित्व तब तक संभव नहीं है जब तक कि इसके लोगों में अच्छी नैतिकता और अच्छे गुण न हों। इसके लिए लोगों की रूह को शुद्ध करना ज़रूरी है ताकि वे कूड़ा-करकट और बिखरे विचारों का वास न रहे। और उनमें एक शुद्ध मानसिकता की स्थापना की जाए, ऐसा मज़बूत चरित्र बनाया जा सके जो स्वाभाविक रूप से अच्छे कर्मों की ओर ले जाए। इस्लाम ने अपनी संस्कृति में इस नियम का पालन किया है। व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए, वह पहले उनमें ईमान स्थापित करता है, जो उच्च क्रम के एक मज़बूत चरित्र को विकसित करने का एकमात्र साधन है। यह वह ईमान है जिसके माध्यम से वह लोगों में ईमानदारी, भरोसेमंदी, आत्म-धार्मिकता, जवाबदेही, आत्म-अनुशासन, आत्म-नियंत्रण, उदारता, व्यापक दिमाग़, आत्म-संयम, शील और विनम्रता, उदार साहस, उच्च-उत्साह, आत्म-सम्मान पैदा करता हैं। बलिदान, कर्तव्य, धैर्य और दृढ़ता साहस और ताक़त, संतोष और आत्म-अनुशासन, और क़ानून का पालन करने से अच्छे गुण पैदा होते हैं और उन्हें एक उत्कृष्ट समाज बनाने में सक्षम बनाता है।

♦ इस सभ्यता की मान्यताओं में एक ओर वे सभी ताक़तें हैं जो मनुष्य में अच्छे संस्कार और गुण पैदा करती हैं, और उनका पोषण और संरक्षण करती हैं, दूसरी ओर, इन मान्यताओं में यह शक्ति भी है कि वे मनुष्य को सांसारिक विकास के लिए प्रेरित करती हैं और उसे दुनिया के साधनों और संसाधनों का सर्वोत्तम तरीक़े से उपयोग करने और उन सभी शक्तियों का उपयोग करने के लिए सक्षम बनाती हैं जो अल्लाह ने दी हैं। तब यह ईमान उसमें उन सभी सद्गुणों का भी निर्माण करता है जो संसार में वास्तविक प्रगति के लिए ज़रूरी हैं। उनमें मनुष्य की सक्रिय शक्तियों को संगठित करने और संगठन के साथ चलने की, और इस आंदोलन को सीमा से अधिक होने और विचलन की ओर ले जाने वाले रास्तों से रोकने की भी बड़ी शक्ति है। इस तरह, इन ईमानियात में वे सभी गुण हैं जो अन्य धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं में अलग-अलग पाए जाते हैं, और उन सभी दोषों से मुक्त हैं जो विभिन्न धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं में मौजूद हैं।

 इस्लामी सभ्यता में का महत्व

यह उस सभ्यता की व्यापक रूपरेखा है जिसे इस्लाम ने स्थापित किया है। अगर हम इसे दृष्टान्त में एक इमारत के रूप में लेते हैं, तो यह एक इमारत है जिसे स्थिर करने के लिए बहुत गहरी नींव खोदी गयी है, फिर ठोस ईंटों के साथ क्रमबद्ध किया गया है और सबसे अच्छे चूने के साथ सीमेंट किया गया है। फिर उसने इमारत को इतनी महिमा के साथ बनाया कि यह ऊंचाई में आकाश तक उठती है और आकाश में फैलता है, लेकिन इस विशालता और भव्यता के बावजूद, इसके सदस्यों में कोई बिखराव न आए। इसकी दीवारें और इसके खंभे चट्टान जैसे मज़बूत हों। इस इमारत के दरवाज़े और रोशनदान इस तरह से डिजाइन किए गए हैं कि वे बाहर की रोशनी और ताज़ा हवा को तो प्रवेश करने देते हैं, लेकिन धूल और कूड़ा-करकट को प्रवेश करने से रोकते हैं।

ये सभी गुण जो भवन में पैदा हुए हैं, वे एक चीज़ के कारण हुए हैं, और वह है ईमान। वह इसकी नींव बनाता है। वह बेकार और अकुशल सामग्री को छांटकर अच्छी सामग्री निकालता है, उसी सामग्री से मज़बूत ईंटों का उत्पादन किया जाता है। वही ईंटों को जोड़कर मज़बूत दीवार बनाता है। इमारत का आकार और स्थिरता उसी पर निर्भर करती है। वह उसका विस्तार करता है, उसे ऊंचा करता है, मज़बूत करता है, बाहरी बुराइयों से बचाता है और शुद्ध चीज़ों को ही उसमें प्रवेश करने देता है। तो ईमान इस इमारत की रूह है। अगर ईमान न हो, तो इसका अस्तित्व में आना असंभव है। और अगर यह कमज़ोर हो, तो इसका मतलब है कि इमारत की नींव कमज़ोर है।

यानी ईमान का न होना इस्लाम का न होना है, ईमान की कमज़ोरी इस्लाम की कमज़ोरी है, और ईमान की मज़बूती इस्लाम की मज़बूती है। और चूंकि इस्लाम केवल एक धर्म नहीं है, बल्कि नैतिकता, सभ्यता, समाज, राजनीति सब कुछ है, इसलिए इस व्यवस्था में ईमान की स्थिति केवल धार्मिक विश्वास की नहीं है, बल्कि इसी पर व्यक्तियों की नैतिकता और चरित्र भी की निर्भरता भी है। वही उनके मामलों की शुद्धता के लिए भी ज़िम्मेदार है। वही उन्हें जोड़ता है और एक राष्ट्र बनाता है। वही उनकी राष्ट्रीयता और उनकी संस्कृति की भी रक्षा करता है। वही उनकी संस्कृति, उनके समाज और उनकी राजनीति का भी खमीर है। इसके बिना इस्लाम न केवल एक धर्म के रूप में बल्कि एक सभ्यता और एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में भी स्थापित नहीं हो सकता। अगर ईमान कमज़ोर है, तो यह केवल धार्मिक आस्था की कमज़ोरी नहीं है, बल्कि इसका मतलब है कि मुसलमानों की नैतिकता ख़राब हो जाएगी, उनका चरित्र कमज़ोर हो जाएगा, उनके मामले बिगड़ जाएंगे, उनका समाज और उनकी सभ्यता बाधित हो जाएगी। वे एक स्वतंत्र, सम्मानित और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जीवित नहीं रह पाएंगे। यही कारण है कि इस्लाम में ईमान ही इस्लाम और कुफ़्र का आधार है और यही इस्लामी व्यवस्था में प्रवेश की पहली शर्त है। सबसे पहले, मनुष्य को ईमान ही प्रस्तुत किया जाता है। अगर उसने ईमान स्वीकार कर लिया, तो वह मुस्लिम समुदाय में प्रवेश कर गया, मुसलमानों के बीच समाज, संस्कृति और राजनीति में समान भागीदार बन गया, और सभी आदेश, सीमा और क़ानून उससे संबंधित हो गए। लेकिन अगर वह ईमान को स्वीकार नहीं करता है, तो वह किसी भी हैसियत से इस्लामी क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता है, उस पर इस्लाम का कोई आदेश और कोई क़ानून लागू नहीं होगा, और वह किसी भी तरह से मुसलमानों के समुदाय में भाग नहीं ले पाएगा।

 कपटाचार का ख़तरा

ईमान के निमंत्रण को खुले तौर पर अस्वीकार करने वालों का मामला तो स्पष्ट है। उनके और मुसलमानों के बीच कुफ़्र और ईमान की सीमा इतनी स्पष्ट और प्रमुख है कि वे इस्लामी क्षेत्र में प्रवेश करके कोई गड़बड़ी पैदा नहीं कर सकते। लेकिन जो लोग ईमान वाले नहीं हैं और ईमान का दिखावा करके मुस्लिम समुदाय में शामिल हो जाते हैं, और जिनके दिल में संदेह का रोग है, और जो ईमान में कमज़ोर हैं, उनका अस्तित्व इस्लामी व्यवस्था के लिए बहुत ख़तरनाक है। क्योंकि वे इस्लाम के घेरे में प्रवेश करते हैं, लेकिन वे इस्लामी नैतिकता और इस्लामी व्यवहार को नहीं अपनाते हैं, वे इस्लामी क़ानूनों का पालन नहीं करते हैं और अल्लाह की सीमाओं का पालन नहीं करते हैं, वे मुसलमानों की संस्कृति और सभ्यता को अपने बुरे आचरण और कार्यों से ख़राब कर देते हैं। मुसलमानों की क़ौमियत की जड़ें खोखली कर देते हैं, और इस्लाम के ख़िलाफ़ अंदर या बाहर से उठने वाले हर उपद्रव को बढ़ाने और भड़काने में भाग लेते हैं। ऐसे लोगों को पवित्र क़ुरआन में मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) कहा गया है, और इस्लामी जमाअत में उनके प्रवेश से उत्पन्न होने वाले सभी ख़तरों का एक-एक करके वर्णन किया गया है। उनकी विशेषता यह है कि वे ईमान का दावा करते हैं लेकिन वास्तव में वे ईमानवाले नहीं हैं:

“जो लोग कहते हैं कि हम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं, जबकि वे ईमानवाले नहीं हैं।” (अल-बक़रह 2:8)

“जब वे ईमानवालों से मिले, तो उन्होंने कहा, “हम ईमान ले आए है,” और अपने शैतानों के पास गए तो कहा, “हम तुम्हारे साथ हैं।” (अल-बक़रह, 2:14)

वे अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ उड़ाते हैं और संदेह करते हैं:

“जब तुम सुनते हो कि अल्लाह की आयतों को झुठलाया और ठट्ठों में उड़ाया गया है, तो तुम उन के साथ मत बैठो।” (अल-निसा, 4:140)

वे अपने धार्मिक कर्तव्यों से कतराते हैं, और अगर वे करते भी हैं, तो केवल मुसलमानों को दिखाने के लिए:

“वास्तव में, मुनाफ़िक (द्विधावादी) अल्लाह को धोखा दे रहे हैं, जबकी, वही उन्हें धोखे में डाल रहा है और जब वे नमाज़ के लिए खड़े होते हैं, तो आलसी होकर खड़े होते हैं, वे लोगों को दिखाते हैं और अल्लाह का स्मरण थोड़ा ही करते हैं। वह इसके बीच द्विधा में पड़े हुए हैं, न इधर न उधर। दरअसल, जिसे अल्लाह गुलराह कर दे, आप उसके लिए कोई राह नहीं पा सकेंगे।”           (अल-निसा, 4:142-143)

“और वे नमाज़ के लिए आलसी होकर आते हैं और दान भी करते हैं, तो अनिच्छा करते हैं।” (तौबा, 9:54)

 “और बेदोइनों में से कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह की राह में ख़र्च करने को अर्थदण्ड समझते हैं।” (तौबा, 9:98)

वे इस्लाम होने का दावा करते हैं लेकिन इस्लामी क़ानूनों का पालन नहीं करते हैं लेकिन अपने मामलों में किफ़िरों के क़ानूनों का पालन करते हैं:

“क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो उस किताब पर ईमान लाने का दावा करते हैं जो तुम पर उतारी गई है और जो तुमसे पहले उतारी गई है, लेकिन चाहते हैं कि ये अपने मामलों को शैतानी शासक के पास ले जाएं, जबकि उसने उन्हें आदेश दिया है कि वे उसके आदेश का पालन न करें।” (आल-निसा, 4:60)

उनके कर्म ख़ुद ख़राब होते हैं और वे मुसलमानों के अक़ीदे और कार्यों को भी ख़राब करने का प्रयास करते हैं:

“वे बुराई का हुक्म देते हैं और अच्छाई से मना करते हैं और अपने हाथों को अच्छे कामों से दूर रखते हैं। वे अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह भी उन्हें भूल गया।” (अल-तौबा, 9:67)

(ऐ ईमान वालो!) वे तो ये कामना करते हैं कि उन्हीं के समान तुमभी काफ़िर हो जाओ और उनके बराबर हो जाओ।” (अल-निसा 4:89)

वे मुसलमानों के साथ तब तक हैं जब तक इससे उन्हें फ़ायदा होता है। जहां लाभ कम हुआ वे क़ौम का साथ छोड़कर चले गए।

(ऐ नबी!) उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ ज़कात के वितरण में आप पर आक्षेप करते हैं। फिर अगर उन्हें उसमें से कुछ दे दिया जाये, तो प्रसन्न हो जाते हैं और अगर न दिया जाये, तो तुरन्त अप्रसन्न हो जाते हैं।” (अल-तौबा, 9:58)

जब इस्लाम और मुसलमानों के लिए मुसीबत का समय आता है, तो वे लड़ने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि वास्तव में वे इस्लाम से प्यार नहीं करते हैं कि उसके लिए बलिदान कर सकें, और न ही वे उस बलिदान के लिए किसी इनाम में विश्वास करते हैं और न ही वे इस्लाम की सच्चाई में विश्वास करते हैं कि वे इसके समर्थन के लिए लड़ने को तैयार हैं। वे विभिन्न तरीक़ों से अपने जीवन को बचाने की कोशिश करते हैं, और अगर वे युद्ध में भाग लेते भी हैं, तो न चाहते हुए, बल्कि उनकी भागीदारी मुसलमानों के लिए ताक़त के बजाय कमज़ोरी का कारण बन जाती है। सूरह आले इमरान, सूरह निसा, सूरह तौबा और सूरह अहज़ाब में उनकी इस स्थिति का विस्तार से वर्णन किया गया है।

उनकी सबसे खतरनाक विशेषता यह है कि जब मुसलमानों पर मुसीबत आती है, तो वे किफ़िरों से मिल जाते हैं, उन्हें ख़बर देते हैं, उनके साथ सहानुभूति रखते हैं, मुसलमानों की परेशानी पर ख़ुशी मनाते हैं, अपनी क़ौम को धोखा देते हैं और किफ़िरों से इनाम पाते हैं। वे उनसे सम्मान और पद प्राप्त करते हैं, वे इस्लाम के ख़िलाफ़ उठने वाले हर फ़ितना में सबसे आगे भाग लेते हैं, और वे मुस्लिम समुदाय को विभाजित करने की साजिश रचते हैं।

आले इमरान, निसा तौबा अहज़ाब और मुनाफ़िक़ून में भी इन गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इससे अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि इस्लामी व्यवस्था की स्थापना, अस्तित्व और स्थिरता के लिए सच्चा और शुद्ध ईमान अनिवार्य है। ईमान की कमज़ोरी इस व्यवस्था को जड़ से अंतिम शाखा तक खोखला बना देती है और इसके खतरनाक प्रभाव से नैतिकता, समाज, संस्कृति, सभ्यता और राजनीति कोई नहीं बच सकती।

अनुबंध:

मौत के बाद जीवन

मृत्यु के बाद कोई और जीवन है या नहीं? और अगर ऐसा है तो कैसा है? यह सवाल हमारे ज्ञान की पहुंच से बहुत दूर है। हमारे पास वे आंखें नहीं हैं जिससे हम मौत की सीमा के पार देख सकें कि वहां क्या है और क्या नहीं है। हमारे पास वे कान नहीं हैं जिससे हम वहां से कोई आवाज़ सुन सकें। हमारे पास यह जांचने के लिए कोई उपकरण भी नहीं है कि वहां कुछ है या नहीं। जहां तक विज्ञान की बात है तो यह सवाल पूरी तरह से इसके दायरे से बाहर है। एक व्यक्ति जो विज्ञान के नाम पर कहता है कि मृत्यु के बाद कोई जीवन नहीं है, वह पूरी तरह से अवैज्ञानिक बात कह रहा है। विज्ञान की दृष्टि से न तो यह कहा जा सकता है कि जीवन है और न ही यह कि जीवन नहीं है। जब तक हमें विज्ञान का एक निश्चित स्रोत नहीं मिल जाता, कम से कम तब तक, सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण यही हो सकता है कि मृत्यु के बाद के जीवन को न तो नकारा जाए और न ही उसकी पुष्टि की जाए।

लेकिन क्या हम व्यावहारिक जीवन में इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बनाए रख सकते हैं? शायद नहीं, बल्कि निश्चित रूप से नहीं। बौद्धिक रूप से, यह संभव है कि जब हमारे पास किसी चीज़ को जानने का साधन न हो, तो उसके बारे में हम इनकार और पुष्टि दोनों से बचें, लेकिन जब वही बात हमारे व्यावहारिक जीवन से संबंधित हो, तो हमारे पास ऐसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है कि या तो अपने व्यवहार को इनकार पर आधारित करें या स्वीकारोक्ति  पर। उदाहरण के लिए, किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जिसे आप नहीं जानते हैं, अगर आपका उसके साथ कोई मामला नहीं है, तो आपके लिए यह संभव है कि उसके ईमानदार या बेईमान होने पर कोई राय क़ायम न करें, लेकिन जब आपको उसके साथ मामला करना हो तो आप के लिए ज़रूरी हो जाता है कि उसे ईमानदार या बेईमान समझ कर मामला करें। अगर आप उसकी ईमानदारी को संदिग्ध मानते हुए, उसके साथ मामला करते हैं तो व्यावहारिक रूप से यह वैसा ही होगा जैसा कि आप बेईमान समझ कर उसके साथ मामला करें। इसलिए, वास्तव में, इनकार और पुष्टि के बीच संदेह की स्थिति केवल मन में ही मौजूद हो सकती है, व्यावहारिक रवैया कभी भी संदेह पर आधारित नहीं हो सकता। इसके लिए पुष्टि या इनकार अपरिहार्य है।

थोड़ा सा विचार करने से आप समझ सकते हैं कि मृत्यु के बाद जीवन का प्रश्न केवल दार्शनिक प्रश्न नहीं है, बल्कि यह हमारे व्यावहारिक जीवन से बहुत निकट से जुड़ा हुआ है। वास्तव में हमारा नैतिक व्यवहार पूरी तरह इसी प्रश्न पर निर्भर करता है। अगर मैं सोचता हूँ कि जीवन केवल यही सांसारिक जीवन है, और उसके बाद और कोई जीवन नहीं है, तो मेरा नैतिक आचरण एक तरह का होगा। अगर मैं यह मान लूं कि इसके बाद एक और जीवन है, जिसमें मुझे अपने वर्तमान जीवन का लेखा-जोखा देना होगा, और यह कि मेरा अच्छा या बुरा अंत यहां मेरे कार्यों पर निर्भर करेगा, तो निश्चित रूप से मेरा नैतिक आचरण एकदम दूसरी तरह का होगा। इसका उदाहरण इस तरह समझें। एक व्यक्ति यह समझते हुए यात्रा कर रहा है कि से इस बस से कराची जाना है, और कराची पहुंचने पर न केवल उसकी यात्रा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी, बल्कि वह पुलिस, अदालत आदि हर उस शक्ति की पहुंच से भी बाहर होगा जहां उससे किसी भी तरह का सवाल किया जा सकता है। इसके विपरीत, एक अन्य व्यक्ति सोचता है कि यहाँ से कराची उसकी यात्रा का एक पड़ाव है। उसके बाद उसे समुद्र पार एक ऐसे देश में जाना होगा जिसका शासक वही है, जो पाकिस्तान का शासक है। और उस शासक के कार्यालय में मेरे सभी कारनामों का एक गुप्त रिकॉर्ड मौजूद है जो मैंने पाकिस्तान में किये हैं। वहां मेरा रिकॉर्ड जांच कर फ़ैसला होगा कि मैं अपने काम के आधार पर किस दर्जे के लायक़ हूं। आप आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उन दोनों लोगों का व्यवहार एक दूसरे से कितना अलग होगा। पहला आदमी यहां से कराची की यात्रा की तैयारी करेगा, और दूसरा बाद की लंबी यात्राओं की भी तैयारी करेगा। पहला यह सोचेगा कि कराची पहुंचने तक जो भी लाभ या हानि है, आगे कुछ नहीं, और दूसरा यह सोचेगा कि वास्तविक लाभ या हानि यात्रा के पहले चरण में नहीं, बल्कि अंतिम चरण में है। पहला अपने कार्यों के उन परिणामों पर नज़र रखेगा जो कराची की यात्रा तक निकल सकते हैं, लेकिन दूसरा व्यक्ति उन परिणामों को देखेगा जो समुद्र के पार दूसरे देश में पहुंचने पर निकलेंगे। ज़ाहिर है, इन दोनों लोगों के व्यवहार में यह अंतर उनकी यात्रा की प्रकृति के बारे में उनकी राय का प्रत्यक्ष परिणाम है। इसी तरह हमारा नैतिक जीवन मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में हमारे विश्वास से निर्धारित होता है। कर्म के क्षेत्र में हम जो भी कदम उठाते हैं, उसकी दिशा इस बात से निर्धारित होगी कि हम इस जीवन को पहला और अंतिम जीवन समझ कर काम कर रहे हैं, या बाद के जीवन और उसके परिणाम पर विचार कर रहे हैं। पहले मामले में हमारा कदम एक दिशा में आगे बढ़ेगा और दूसरे मामले में यह पूरी तरह से अलग दिशा में होगा।

इससे यह ज्ञात होता है कि मृत्यु के बाद जीवन का प्रश्न केवल एक बौद्धिक और दार्शनिक प्रश्न नहीं है, बल्कि व्यावहारिक जीवन का प्रश्न है। जब बात यह है, तो हमारे लिए इस मामले में संदेह और झिझक के स्थान पर ठहरने का कोई अवसर नहीं है। जीवन में हम जो संदेह का रवैया अपनाते हैं, वह अनिवार्य रूप से इनकार का ही होगा। अत: हम यह तय करने के लिए मजबूर हैं कि मृत्यु के बाद कोई और जीवन है या नहीं। अगर विज्ञान उन्हें निर्धारित करने में हमारी मदद नहीं करता है, तो हमें बुद्धि और विवेक से मदद लेनी चाहिए।

तो बौद्धिक तर्क के लिए हमारे पास क्या सामग्री है?

हमारे सामने एक तो स्वयं मनुष्य है और दूसरी है जगत की यह व्यवस्था। हम मनुष्य को जगत की इस व्वस्था के भीतर रखेंगे और देखेंगे कि मनुष्य में जो कुछ भी है, क्या इस व्चवस्था में उसकी सभी मांगें पूरी हो जाती हैं, या कुछ ऐसा रहता है, जिसके लिए दूसरे तरह की व्यवस्था की ज़रूरत होती है।

देखिए, मनुष्य के पास एक तो शरीर है, जो कई खनिजों, लवणों, पानी और गैसों का संग्रह है। इसके प्रत्युत्तर में जगत के भीतर मिट्टी, चट्टान, धातु, लवण, गैस, नदियां और इसी तरह की अन्य चीज़ें मौजूद हैं। इन चीज़ों को काम करने के लिए जिन क़ानूनों की ज़रूरत होती है, वे सभी जगत के भीतर काम कर रहे हैं, और जैसे वे बाहरी वातावरण में पहाड़ों, नदियों और हवाओं को अपना काम करने का अवसर देते हैं, वैसे ही मनुष्य को भी इन क़ानूनों के तहत कार्य करने का अवसर मिलता है।

तब मनुष्य एक जीवित प्राणी है, जो अपनी इच्छा से चलता है, अपने स्वयं के प्रयास से अपना भोजन प्रदान करता है, और अपनी रक्षा करता है, और अपनी प्रजातियों को संरक्षित करने का प्रबंधन करता है। जगत में इस जाति की कई अन्य प्रजातियां हैं। ज़मीन पर, पानी में और हवा में असंख्य जानवर पाए जाते हैं, और वे क़ानून भी यहां पूरी तरह से स्थापित हैं, जो जीवित प्राणियों की पूरी श्रृंखला पर हावी होने के लिए पर्याप्त हैं।

इन सबसे ऊपर मनुष्य का एक और तरह का अस्तित्व है, जिसे हम नैतिक अस्तित्व कहते हैं। उसके पास अच्छाई और बुराई करने की चेतना है, अच्छाई और बुराई के बीच अंतर है, अच्छाई और बुराई करने की शक्ति है, और उसकी प्रकृति मांग करती है कि अच्छे और बुरे कामों का अच्छा और बुरा परिणाम सामने आए, और वह अन्याय और न्याय के बीच अंतर करता है सत्य और असत्य, सही और ग़लत, दया और निर्दयता, उपकार और विस्मृति, उदारता और कंजूसी, विश्वास और विश्वासघात और अन्य कई नैतिक गुण। ये गुण वास्तव में उनके जीवन में पाए जाते हैं, और ये केवल काल्पनिक चीज़ें नहीं हैं, बल्कि वास्तव में इनका प्रभाव मानव सभ्यता पर पड़ता है। इसलिए जिस प्रकृति पर मनुष्य का जन्म हुआ है, वह दृढ़ता से मांग करती है कि जैसे उसके कार्यों के भौतिक परिणाम होते हैं, वैसे ही नैतिक परिणाम भी होने चाहिए।

लेकिन जगत की व्यवस्था पर एक गहरी नज़र डालें, क्या इस व्यवस्था में मानवीय कार्यों के नैतिक परिणामों को पूरी तरह से महसूस किया जा सकता है? मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि यह संभव नहीं है, क्योंकि कोई अन्य प्राणी नहीं है जिसका नैतिक अस्तित्व हो। जगत की पूरी व्यवस्था भौतिकी के नियमों के तहत संचालित होती है। वे नैतिक नियमों से प्रेरित नहीं लगते। यहां वजन और कीमत रुपए में है, लेकिन वास्तव में न तो वजन है और न ही मूल्य। यहाँ तो आम की गुठली हमेशा आम पैदा करती है, लेकिन जो सदाचार का बीज बोता है, उस पर कभी फूलों की वर्षा की जाती है, तो कभी जूतों की। भौतिक तत्वों के लिए निश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार निश्चित परिणाम हमेशा प्राप्त होते हैं, लेकिन नैतिक तत्वों के लिए कोई निश्चित क़ानून नहीं है कि उनके कामकाज से हमेशा निश्चित परिणाम मिल सकें। भौतिक नियमों के आधार पर, नैतिक परिणाम कभी तो निकल ही नहीं सकते, कभी निकलते हैं तो केवल उस सीमा तक जिसकी भौतिक क़ानून अनुमति देते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि नैतिकता को एक निश्चित परिणाम प्राप्त करने के अपेक्षा होती है। लेकिन भौतिक क़ानूनों के हस्तक्षेप से, परिणाम बिल्कुल विपरीत निकलते हैं।

उदाहरणों से देखते हैं। अगर कोई मनुष्य दूसरे का दुश्मन हो, और अपने घर में आग लगाए, तो उसका घर जल जाएगा। यह उसके कार्यों का स्वाभाविक परिणाम है। इसका नैतिक परिणाम यह होना चाहिए कि व्यक्ति को उतनी ही सज़ा दी जाए जितना उसने एक परिवार को नुक़सान पहुंचाया है, लेकिन यह परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि आग लगाने वाले का पता चले, वह पुलिस के हाथ आ सके। उसपर दोषी साबित हो, अदालत पूरी तरह से आग से परिवार और उसकी आने वाली पीढ़ियों को हुए नुक़सान की सही आकलन कर सके, और फिर उसके अनुसार अपराधी को उचित रूप से दंडित किया जाए। अगर इनमें से कोई भी शर्त पूरी न हो, तो नैतिक परिणाम या तो बिल्कुल प्रकट नहीं होगा या इसका एक छोटा सा हिस्सा ही प्रकट होगा, और यह भी भी संभव है कि अपने प्रतिद्वंद्वी को नष्ट कर के वह इस दुनिया में मज़े करता फिरे।

आइए एक और उदाहरण लें। कुछ व्यक्ति अपने राष्ट्र में प्रभाव पैदा करते हैं, और पूरा राष्ट्र उनके आदेशों का पालन करने लगता है। इस पद का लाभ उठाकर वे लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति को भड़काते हैं। पड़ोसी देशों से युद्ध छेड़ते हैं, लाखों लोगों को मारते हैं, कई देशों को नष्ट कर देते हैं। मानव इतिहास पर इतना गहरा प्रभाव पड़ता है और वह आने वाले सैकड़ों वर्षों तक पीढ़ी दर पीढ़ी फैलता रहेता है। क्या आपको लगता है कि कुछ लोग, जिन्होंने यह बड़ा अपराध किया है, उन्हें इस सांसारिक जीवन में उचित सज़ा मिल सकती है? ज़ाहिर सी बात है कि अगर उन्हें ज़िन्दा जला दिया जाए या कोई और सज़ा जो मानवीय रूप से संभव हो, दी जाए तो भी किसी तरह उन्हें लाखों लोगों को हुए नुक़सान के बराबर की सज़ा नहीं दी जा सकती। जगत की वर्तमान व्यवस्था के भौतिक नियमों के अनुसार उनके लिए अपने अपराध के बराबर सज़ा मिलना संभव नहीं है।

इसी तरह उन अच्छे लोगों को भी लीजिए जिन्होंने मानवजाति को सत्य और धार्मिकता की शिक्षा दी और मार्गदर्शन का प्रकाश दिखाया। क्या यह संभव है कि ऐसे लोगों की सेवा का पूरा प्रतिफल इस दुनिया में मिल जाए? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि वर्तमान क़ानूनों की सीमाओं के भीतर एक व्यक्ति अपने कार्यों का पूरा प्रतिफल प्राप्त कर सकता है, जिसका परिणाम उसकी मृत्यु के हज़ारों साल बाद और अनगिनत मनुष्यों पर फैल गया?

जैसा कि मैंने अभी समझाया है, सबसे पहले, मानव कार्यों के नैतिक परिणामों को पूरी तरह से स्थापित करने के लिए जगत की वर्तमान व्यवस्था उन क़ानूनों के भीतर पर्याप्त जगह नहीं है। पूर्ण परिणाम प्राप्त करने के लिए हज़ारों, लाखों वर्षों का जीवन चाहिए। प्रकृति के वर्तमान नियमों के तहत मनुष्य के लिए एक नया जीवन प्राप्त करना असंभव है। इससे यह पता चला कि भौतिक संसार और उसके भौतिक नियम मनुष्य के भौतिक, जैविक और पशु तत्वों के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन यह दुनिया उसके नैतिक विभाग के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त है। इसके लिए एक द्वितीय विश्व व्यवस्था की ज़रूरत है, जिसमें शासी नियम नैतिकता का नियम हो, और भौतिक नियम इसके तहत केवल सहायक के रूप में कार्य करें। जिसमें जीवन सीमित नहीं, बल्कि असीमित हो, जिसमें सभी नैतिक परिणाम प्राप्त होते हों। जहां सोने और चांदी के बजाय भलाई और धार्मिकता का वजन और मूल्य हो, जहां आग केवल उसी चीज़ को जलाए जो भस्म हो होने योग्य हो। जहां ऐश उसको मिले जो भला हो और मुसीबत उसके हिस्से में आए जो बुरा हो, बुद्धि मांग करती है कि ऐसी व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए।

जहां तक बुद्धि और तर्क का संबंध है, यह हमें 'होना चाहिए' की सीमा पर छोड़ देता है। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में कोई ऐसा संसार है, तो हमारी बुद्धि और हमारा ज्ञान इस बारे में फ़ैसला नहीं कर सकता। यहां क़ुरआन हमारी मदद करता है। उसका कहना है कि तुम्हारी बुद्धि और स्वभाव की मांग वास्तव में पूरी होने वाली है। जगत की वर्तमान व्यवस्था, जो प्राकृतिक नियमों पर आधारित है, एक समय में नष्ट हो जाएगी, उसके बाद एक और व्यवस्था बनाई जाएगी, जिसमें ज़मीन और आकाश और सभी चीज़ें एक अलग रूप में होंगी। फिर अल्लाह तआला उन लोगों को फिर से पैदा करेगा जो सृष्टि के शुरू से लेकर क़ियामत के दिन तक पैदा हुए थे और एक ही समय में उन सभी को अपने सामने इकट्ठा करेगा। वहां, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक राष्ट्र और पूरी मानवता का रिकॉर्ड बिना किसी ग़लती के संरक्षित होगा। उसके हर एक कर्म की जितनी प्रतिक्रिया दुनिया में हुई है, उसका पूरा असर होगा। इस प्रतिक्रिया से प्रभावित होने वाली सभी पीढ़ियां गवाह स्टैंड पर होंगी। प्रत्येक कण जिस पर मानव शब्दों और कार्यों के प्रभाव दर्ज किए गए हैं, वह अपनी कहानी ख़ुद बताएगा। हाथ और पैर और आंखें और जीभ और मनुष्य के सभी अंग स्वयं गवाही देंगे कि उसने उनका उपयोग कैसे किया। तब सबसे बड़ा शासक पूरे न्याय के साथ फ़ैसला करेगा कि कौन कितना इनाम का हक़दार है और कौन कितनी सज़ा का हक़दार है। यह इनाम और यह सज़ा दोनों इतने बड़े पैमाने पर होंगे कि इसे वर्तमान विश्व व्यवस्था की सीमित मात्रा के संदर्भ में नहीं मापा जा सकता है। वहां के क़ानून अलग प्रकृति के होंगे। मनुष्य के अच्छे कर्मों का प्रभाव संसार में हज़ारों वर्षों से जारी है, वह मृत्यु, रोग और वृद्धावस्था के बिना उनका पूरा फल वहीं प्राप्त कर सकेगा। और बुरे आदमी की बुराइयों का प्रभाव, जो हज़ारों वर्षों से दुनिया भर में और अनगिनत लोगों तक फैला हुआ है, उसे मौत और बेहोशी के बिना, अपनी पूरी सज़ा भुगतनी पड़ेगी।

ऐसे जीवन और ऐसे संसार को जो लोग असंभव समझते हैं, मुझे उनके मस्तिष्क की संकीर्णता पर दया आती है। अगर हमारी वर्तमान विश्व व्यवस्था के मौजूदा क़ानूनों के साथ मौजूद होना संभव है, तो एक दूसरी विश्व व्यवस्था का दूसरे क़ानूनों के साथ मौजूद होना क्यों असंभव हो? अब रहा यह तथ्य कि यह वास्तव में ऐसा होगा, तो इसका निर्धारित न तर्क से किया जा सकता है और न किसी वैज्ञानिक प्रमाण से। इसके लिए ग़ैब, परोक्ष, अदृश्य पर ईमान लाना ज़रूरी है।

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