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तदवीने-हदीस (हदीसों का संकलन)-हदीस लेक्चर 7

तदवीने-हदीस (हदीसों के संकलन) के विषय पर चर्चा का उद्देश्य उस प्रक्रिया का एक सारांश बयान करना है जिसके परिणामस्वरूप हदीसों को इकट्ठा किया गया और किताब के रूप में संकलित करके हम तक पहुँचाया गया। संभव है कि आप में से जिसके ज़ेहन में यह ख़याल पैदा हो कि तदवीने-हदीस का विषय तो चर्चा के आरंभ में होना चाहिए था और सबसे पहले यह बताना चाहिए था कि हदीसें कैसे मुदव्वन (संकलित) हुईं और उनकी तदवीन (संकलन) का इतिहास क्या था।

जिरह और तादील (हदीस लेक्चर -6 )

इससे पहले इल्मे-इस्नाद और उससे संबंधित कुछ ज़रूरी मामलों पर चर्चा हुई थी और उसमें कहा गया था कि ख़ुद पवित्र क़ुरआन और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत के अनुसार यह बात ज़रूरी है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जो चीज़ जोड़ी जाए, वह हर तरह से निश्चित और यक़ीनी हो। उसमें किसी शक-सन्देह की गुंजाइश न हो और हर मुसलमान जो क़ियामत आने तक धरती पर आए उसको पूरे इत्मीनान और सन्तुष्ट दिल के साथ यह बात मालूम हो जाए कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसके लिए क्या बात कही है। क्या चीज़ जायज़ क़रार दी है, क्या नाजायज़ ठहराई है। किन चीज़ों पर ईमान लाना उसके लिए अनिवार्य क़रार दिया गया है और किन चीज़ों के बारे में उसको आज़ादी दी गई है।

इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल (हदीस लेक्चर-5)

इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल आज की चर्चा का शीर्षक है। इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल,  इन दोनों का आपस में बड़ा गहरा संबंध है। ‘इस्नाद’ से मुराद है किसी हदीस की सनद (प्रमाण) बयान करना। जबकि सनद से मुराद है रावियों (उल्लेखकर्ताओं) का वह सिलसिला जो हदीस के आरंभिक रावी से लेकर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पहुँचता है। रावी कौन लोग हों, उनका इल्मी (ज्ञान संबंधी) दर्जा क्या हो, उनकी दीनी (धार्मिक) और वैचारिक प्रतिभा क्या हो, उसकी जो शर्तें हैं उनपर इससे पहले विस्तार से चर्चा हो चुकी है। लेकिन अभी यह चर्चा बाक़ी है कि रावियों के हालात जमा करने का काम कब से शुरू हुआ, किस प्रकार ये हालात जमा किए गए, और किसी रावी के स्वीकार्य या अस्वीकार्य या ज़ाबित (हदीस ग्रहण करने योग्य) या उसमें असमर्थ होने का फ़ैसला किस आधार पर किया जाता है। यह वह इल्म (ज्ञान) है जिसको इल्मे-अस्माउर्रिजाल या इल्मे-रिजाल के नाम से याद किया जाता है।

उम्मुल मोमिनीन: हज़रत आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

माइल ख़ैराबादी हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इस्लाम के सबसे पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की छोटी बेटी थीं। इस्लामी इतिहास में जिस तरह हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) सबसे ज़्यादा मशहूर हैं उसी तरह हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) मुसलमान औरतों में सबसे ज़्यादा नुमायाँ हैं, और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का यह परिचय भी कितना शानदार है कि वे अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) की प्यारी बीवी थीं और यह कि अल्लाह तआला ने नबी (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) की बीवियों को उम्महातुल मोमिनीन (मुसलमानों की माएँ) कहा है। इस इरशाद के मुताबिक़ हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उम्मुल मोमिनीन (मुसलमानों की माँ) हैं।

इल्मे-रिवायत और हदीस के प्रकार (हदीस लेक्चर-4)

इल्मे-हदीस बुनियादी तौर पर दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक हिस्सा वह है जिसको ‘इल्मे-रिवायत’ कहते हैं और दूसरा हिस्सा वह है जिसको ‘इल्मे-दिरायत’ कहते हैं। इल्मे-रिवायत में उस ज़रिये या माध्यम से बहस होती है जिसके द्वारा कोई हदीस अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से लेकर हम तक पहुँची हो।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे थे?

इरफ़ान ख़लीली नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के गुलदस्ते का हर फूल बेमिसाल, हर एक की ख़ुशबू मेरे दिल के दामन को अपनी ओर खींच रही थी। मैं अजीब कशमकश में पड़ा हुआ था। न छोड़ते बनता था, न पकड़ते। मेरे अल्लाह ने मेरी मदद की। ज़ेहन में एक ख़याल उभरा— "क्यों न नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के उन वाक़िआत को जमा कर दूँ जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सीधा ताल्लुक़ रखते हों।" इस किताब के पढ़नेवालों से गुज़ारिश है कि इसे ग़ौर से पढ़ें और इस की बातों को अपनी ज़िन्दगियों में समोने की कोशिश करें।

हमारे रसूले-पाक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— 1. जो मुख़्तसर हो लेकिन उसमें कोई ज़रूरी बात न छूटे। 2. जिसमें जंचे-तुले हालात और आख़िरी हद तक सच्चे वाक़िआत दर्ज हों। 3. जिसकी ज़बान इतनी आसान और सुलझी हुई हो कि उसको छोटी उम्र के लड़के-लड़कियाँ और कम पढ़े-लिखे लोग भी आसानी से समझ सकें। 4. जो स्कूलों और मदरसों के कोर्स में शामिल की जा सके। 5. जिसकी रौशनी में माँ-बाप और उस्ताद (शिक्षक) अपने बच्चों और शागिर्दों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़िन्दगी के वाक़िआत को आसानी से याद करा सकें। 6. जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेहतरीन अख़लाक़ के अलग-अलग पहलुओं को दिल में उतर जानेवाले तरीक़े से ज़िक्र किया गया हो।

क्या पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी नहीं?

यह किताब अस्ल में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (1903-1979 ई.) के दो लेखों (इत्तिबाअ् व इताअते-रसूल' और 'रिसालत और उसके अह्काम) का हिन्दी तर्जमा है। ये लेख मौलाना के लेखों के उर्दू संग्रह तफ़हीमात, हिस्सा-1 में प्रकाशित हुए हैं। ये लेख उन्होंने सन् 1934 और 1935 ई. में उर्दू पत्रिका 'तर्जुमानुल-क़ुरआन' में कुछ लोगों के सवाल के जवाब में लिखे थे। सवाल पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी करने के बारे में था। मौलाना मौदूदी (रहमतुल्लाहि अलैह) ने बड़े ही प्रभावकारी ढंग से दलीलों के साथ उनका जवाब दिया। आज भी इस तरह के सवाल बहुत से लोगों के दिमाग़ों में आते हैं या दूसरे लोगों के ज़रिए पैदा किए जाते हैं और लोग उन सवालों की ज़ाहिरी शक्ल को देखकर मुतास्सिर हो जाते हैं कि अगर कोई आदमी ख़ुदा को एक मानता है और कुछ अच्छे काम भी करता है तो क्या उसके लिए पैग़म्बर पर ईमान लाना और उसकी फ़रमाँबरदारी ज़रूरी है? और अगर ज़रूरी है तो क्यों? इसलिए ज़रूरत महसूस की गई कि ऐसे क़ीमती लेखों का हिन्दी में तर्जमा प्रकाशित किया जाए।

आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

अल्लाह तीन प्रकार से इन्सानों को संबोधित करता है:- 1.अन्तः प्रेरणा द्वारा जो अल्लाह धार्मिक व्यक्तियों के मन या मस्तिष्क में सुझाव या विचार के रूप में डाल देता है। 2.किसी पर्दे के पीछे से दृश्य या दर्शन के रूप में जब योग्यतम व्यक्ति नींद या आलमेजज़्ब (आत्मविस्मृति) में हो, और- 3. ईश्वरीय संदेशवाहक हज़रत जिब्रील द्वारा प्रत्यक्ष ईश्वरीय संदेश के साथ, जिन्हें ईश्वर के चुने दूत तक पहुँचाने के लिए अवतरित किया जाता है। (क़ुरआन 42 : 51) यह आख़िरी रूप उच्च कोटि का है और इसी रूप में क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित हुआ। यह सीमित है केवल ईश-दूतों तक, जिनमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अन्तिम हैं और ईश दूतत्व की अन्तिम कड़ी हैं।

जीवनी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम

इस किताब के अध्ययन से अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की प्रमुख झलकियाँ आपके सामने आएंगी और इस किताब को पढ़नेवाला ऐसा महसूस करेगा, जैसे वह ख़ुद उस दौर से गुज़र रहा है, जिस दौर से पैग़म्बरे इस्लाम गुज़रे हैं।सलामती और रहमत हो उस पाक नबी पर जिसने मानवता को दुनिया में रहने का सही ढंग और ख़ुदा तक पहुँचने का सच्चा मार्ग दिखाया। मुबारकबाद हो उन लोगों को जो स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मार्ग पर चलें और दुनिया को इस मार्ग पर चलने की दावत दें।

हदीस और सुन्नत - शरीअत के मूलस्रोत के रूप में (हदीस लेक्चर-3)

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी [ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

जगत्-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

अबू-ख़ालिद जगत-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दरअस्ल 'हादी-ए-आज़म (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)' (उर्दू) का नया हिन्दी तर्जमा है। 'हादी-ए-आज़म' किताब जनाब अबू-ख़ालिद साहब (एम॰ ए॰) ने ख़ास तौर पर बच्चों के लिए लिखी थी, जो बहुत ज़्यादा पसंद की गई और बहुत-से स्कूलों और मदरसों में यह किताब पढ़ाई जा रही है।

इल्मे-हदीस - आवश्यकता एवं महत्व (हदीस लेक्चर-2)

इल्मे-हदीस की आवश्यकता तथा इसके महत्व पर चर्चा दो शीर्षकों से की जा सकती है। एक शीर्षक जिसपर आज चर्चा करना मेरा उद्देश्य है, वह इल्मे-हदीस की आम ज़रूरत और इस्लामी ज्ञान एवं कला में विशेषकर तथा मानवीय चिंतन के क्षेत्र में आम तौर पर उसके महत्व का मामला है। दूसरा पहलू इस्लामी क़ानून और शरीअत के एक मूलस्रोत के रूप में हदीस और सुन्नत के महत्व एवं स्थान का है। इस्लाम का हर अनुयायी जानता है कि पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल मुसलमानों के लिए शरीअत (इस्लामी धर्म-विधान) और क़ानून बनाने का सर्वप्रथम तथा आरंभिक स्रोत है। सुन्नत पवित्र क़ुरआन के साथ शरीअत का स्रोत किस प्रकार है? किन मामलों में यह स्रोत है? इससे अहकाम (आदेश एवं निर्देश) कैसे निकाले जाते हैं? इसपर कुछ विस्तार से आगे चर्चा होगी।

हम ऐसी बनें!

अच्छी बात क़बूल करने का एक ज़रिया यह भी है कि चाहे ज़बान से कुछ न कहा जाए, क़लम से कुछ न लिखा जाए, लेकिन अच्छी बातों और अच्छे अख़लाक़ का नमूना सामने आ जाए, साथ ही इनसानियत की चलती-फिरती तस्वीरों में वह समा जाए तो यह नमूना बहुत असरदार होता है। कुछ महान महिलाओं (सहाबियात) के जीवन से उच्च नैतिकता के चंद उदाहरण पढिए इस किताब में

इस्लाम का नैतिक दृष्टिकोण

हम देख रहे हैं कि पूरे-पूरे राष्ट्र विस्तृत रूप से उन अति घृणित नैतिक अवगुणों का प्रदर्शन कर रहे हैं जिनको सदैव से मानवता की अन्तरात्मा अत्यन्त घृणास्पद समझती रही है। अन्याय, क्रूरता, निर्दयता, अत्याचार, झूट, छल-कपट, मिथ्या, भ्रष्टाचार, निर्लज्जता, वचन-भंग, काम-पूजा, बलात्कार और ऐसे ही अन्य अभियोग केवल व्यक्तिगत अभियोग नहीं रहे हैं अपितु राष्ट्रीय आचरण एवं नीति का रूप धारण कर चुके हैं। प्रत्येक राष्ट्र ने छाँट-छाँटकर अपने बड़े से बड़े अपराधियों को अपना लीडर और नेता बनाया है और बड़े से बड़ा पाप ऐसा नहीं रह गया है जो उनके नेतृत्व में अति निर्लज्जता के साथ बड़े पैमाने पर खुल्लम-खुल्ला न हो रहा हो। ईश्वर तथा मरणोत्तर जीवन के धार्मिक विश्वास पर जितनी नैतिक कल्पनायें स्थिर होती हैं उनके रूप में पूर्ण अवलम्बन उस विश्वास की प्रकृति पर होता है जो ईश्वर तथा मरणोत्तर जीवन के विषय में लोगों में पाया जाता है। अतएव हमें देखना चाहिये कि संसार इस समय ईश्वर को किस रूप में मान रहा है और मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में उसकी सामान्य धारणायें क्या हैं।