Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

नज़्मे-क़ुरआन और क़ुरआन की शैली (क़ुरआन लेक्चर- 10)

नज़्मे-क़ुरआन (क़ुरआन का व्यवस्थीकरण) वह चीज़ है जिसने सबसे पहले अरब के बहुदेववादियों और मक्का के इस्लाम-विरोधियों को क़ुरआन मजीद के आरंभ से परिचित कराया और जिसको सबसे पहले अरब के बड़े-बड़े साहित्यकारों, भाषणकर्ताओं और भाषाविदों ने महसूस किया, जिसने अरबों के उच्च कोटि वर्गों से यह बात मनवाई कि पवित्र क़ुरआन की वर्णन शैली एक अलग प्रकार की वर्णन शैली है। यह वह शैली है जिसका उदाहरण न अरबी शायरी में मिलता है, न भाषण कला में, न कहानत में और न किसी और ऐसे कलाम में जिससे अरबवासी इस्लाम से पहले परिचित रहे होँ। पवित्र क़ुरआन में शेअर की मधुरता और संगीतगुण भी है, भाषण कला का ज़ोरे-बयान भी है, वाक्यों का संक्षिप्त रूप भी है। इस में सारगर्भिता भी पाई जाती है और अर्थों की गहराई भी, इसमें तथ्य एवं ब्रह्मज्ञान की गहराई भी है और तत्त्वदर्शिता एवं बुद्धिमत्ता भी। इस किताब में तर्क और प्रमाणों का प्रकाश और तार्किकता का नयापन और शक्ति भी उच्च कोटि की पाई जाती है, और इन सब चीज़ों के साथ-साथ यह कलाम भाषा की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के उच्चतम स्तर पर भी आसीन है।

उलूमुल-क़ुरआन-क़ुरआन से संबंधित ज्ञान (क़ुरआन लेक्चर - 9)

उलूमुल-क़ुरआन के अन्तर्गत वे सारे ज्ञान-विज्ञान आते हैं जो इस्लामी विद्वानों, क़ुरआन के टीकाकारों और समाज के चिन्तकों ने पिछले चौदह सौ वर्षों के दौरान में पवित्र क़ुरआन के हवाले से संकलित किए हैं। एक दृष्टि से इस्लामी ज्ञान एवं कलाओं का पूरा भंडार पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर (टीका) से भरा पड़ा है। आज से कमो-बेश एक हज़ार वर्ष पहले क़ुरआन के प्रसिद्ध टीकाकार और फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी ने लिखा था कि मुसलमानों के जितने ज्ञान एवं कलाएँ हैं, जिनका उन्होंने उस वक़्त अनुमान सात सौ के क़रीब लगाया था, वे सब के सब अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से हदीस की व्याख्या हैं, और हदीस पवित्र क़ुरआन की व्याख्या है। इस दृष्टि से मुसलमानों के सारे ज्ञान एवं कलाएँ उलूमुल-क़ुरआन की हैसियत रखते हैं।

क़ुरआन के चमत्कारी गुण (क़ुरआन लेक्चर - 8)

पवित्र क़ुरआन के हवाले से एजाज़ुल-क़ुरआन (क़ुरआन के चमत्कारी गुण) एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। पवित्र क़ुरआन की महानता को समझने और इसकी श्रेष्ठता का अनुमान करने के लिए इसकी चमत्कारी प्रकृति को समझना अत्य़ंत अनिवार्य है। क़ुरआन के चमत्कारी गुणों पर चर्चा करते हुए उसके दो विशिष्ट पहलू हमारे सामने आते हैं। एक पहलू तो इल्मे-एजाज़ुल-क़ुरआन (क़ुरआन की चमत्कारी प्रकृति का ज्ञान) के आरंभ एवं विकास तथा इतिहास का है। यानी एजाज़ुल-क़ुरआन एक ज्ञान और तफ़सीर तथा उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी ज्ञान) के एक विभाग के तौर पर किस प्रकार संकलित हुआ और किन-किन विद्वानों ने किन-किन पहलुओं को पवित्र क़ुरआन का चमत्कारी पहलू क़रार दिया।

क़ुरआन के टीकाकारों की टीका-शैलियाँ (क़ुरआन लेक्चर - 7)

टीका-शैलियों से अभिप्रेत वह ढंग और विधि है जिसके अनुसार किसी टीकाकार ने पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर या टीका की हो, या उस कार्य-विधि के अनुसार पवित्र क़ुरआन की टीका को संकलित करने का इरादा किया है। हम सब का ईमान (विश्वास) है कि पवित्र क़ुरआन रहती दुनिया तक के लिए है, और दुनिया के हर इंसान के लिए मार्गदर्शन उपलब्ध करता है। इस अस्थायी सांसारिक जीवन में इंसानों को अच्छा इंसान बनाने में जिन-जिन पहलुओं के बारे में कल्पना की जा सकती है, उन सब के बारे में पवित्र क़ुरआन मार्गदर्शन उपलब्ध करता है। पवित्र क़ुरआन एक व्यापारी के लिए भी मार्गदर्शक किताब है, एक शिक्षक के लिए भी मार्गदर्शक किताब है, एक दार्शनिक, अर्थशास्त्री और क़ानून-विशेषज्ञ के लिए भी मौलिक सिद्धांत उपलब्ध करता है। कहने का तात्पर्य यह कि ज़िंदगी का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसका संबंध इंसान को बेहतर इंसान बनाने से हो और उसके बारे में पवित्र क़ुरआन मार्गदर्शन न उपलब्ध करता हो।

इस्लामी इतिहास में क़ुरआन के कुछ बड़े टीकाकार (क़ुरआन लेक्चर - 6)

मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) पर चर्चा की ज़रूरत दो कारणों से महसूस होती है। पहला कारण तो यह है कि तफ़सीरी अदब (टीका संबंधी साहित्य) में जिस प्रकार से और जिस तेज़ी के साथ व्यापकता पैदा हुई उसके परिणामस्वरूप बहुत-सी तफ़सीरें (टीकाएँ) लिखी गईं। पूरे पवित्र क़ुरआन की विधिवत तथा पूरी टीका के अलावा भी टीका संबंधी विषयों पर सम्मिलित बहुत-सी किताबें तैयार हुईं और आए दिन तैयार हो रही हैं। उनमें से कुछ तफ़सीरों में ऐसी चीज़ें भी शामिल हो गई हैं जो सही इस्लामी विचारधारा को प्रस्तुत नहीं करती हैं। पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थियों को उन तमाम प्रवृत्तियों और शैलियों से अवगत और सचेत रहना चाहिए। इसलिए उचित महसूस होता है कि कुछ ऐसे नामवर, विश्वसनीय और प्रवृत्ति बनानेवाले मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) का उल्लेख किया जाए जो तफ़सीर के पूरे भंडार में प्रमुख और अद्भुत स्थान भी रखते हैं और इस्लामी सोच का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, ये वे दूरदर्शी और बड़े मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन हैं, जिन्होंने पवित्र क़ुरआन के उलूम (विद्याओं) के प्रचार-प्रसार में अत्यंत लाभकारी और सृजनात्मक भूमिका निभाई है, जिनके काम के प्रभाव, परिणाम तथा फल आज पूरी दुनिया के सामने हैं, और जिनकी निष्ठा और काम की उपयोगिता से आज पवित्र क़ुरआन के अर्थ और भावार्थ अपने मूल रूप में हम तक पहुँचे हैं और हमारे पास मौजूद हैं।

इल्मे-तफ़सीर : एक परिचय (क़ुरआन लेक्चर- 5)

पवित्र क़ुरआन अल्लाह तआला की आख़िरी किताब है। यह मुसलमानों के लिए क़ियामत तक जीवन-व्यवस्था की हैसियत रखता है। एक मानव समाज में तमाम सिद्धांतों और सामाजिक क़ानूनों का सबसे पहला मूल स्रोत यह किताब है। एक इस्लामी राज्य में यह किताब एक श्रेष्ठ क़ानून और दिशा निर्देश की हैसियत रखती है। पवित्र क़ुरआन एक ऐसा तराज़ू और कर्म-मापक है जिसके आधार पर सत्य-असत्य में अन्तर किया जा सकता है। यह वह कसौटी है जो हर सही को हर ग़लत से अलग कर सकती है। यह किताब मुसलमानों के लिए व्यावहारिक एवं प्रत्यक्ष रूप से, और पूरी मानवता के लिए, मार्गदर्शन की एक व्यवस्था है। यह एक ऐसी कसौटी है जिसपर परखकर खरे और खोटे का पता लगाया जा सकता है। यह वह मार्गदर्शन व्यवस्था है जो रहती दुनिया तक के लिए है, जिसकी पैरवी हर ज़माने और हर जगह के इंसानों के लिए वाजिब है। यह मार्गदर्शन-व्यवस्था हर स्थिति में इंसानों को पेश आनेवाले हर मामले में आध्यात्मिक मार्गदर्शन और नैतिक तथा शरीअत का मार्गदर्शन उपलब्ध कर सकती है। इस किताब की मदद से उच्च नैतिक मानदंड रहती दुनिया तक के लिए निर्धारित किए जा सकते हैं।

पवित्र क़ुरआन का संकलन एवं क्रमबद्धता (क़ुरआन लेक्चर - 4 )

जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से विदा हुए और पवित्र क़ुरआन का अवतरण पूरा हो गया, तो उस समय कमो-बेश एक लाख प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पवित्र क़ुरआन पूरे तौर पर हिफ़्ज़ (कंठस्थ) था, लाखों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ऐसे थे जिनको पूरा पवित्र क़ुरआन तो नहीं, अलबत्ता पवित्र क़ुरआन का अधिकतर भाग याद था। हज़ारों के पास पूरा पवित्र क़ुरआन लिखा हुआ सुरक्षित था, लाखों सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के पास उसके विभिन्न अंश लिखे हुए मौजूद थे। तमाम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन नमाज़ों में पवित्र क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे। नमाज़ों के अलावा प्रतिदिन अपने समय के तौर पर तीन दिन में, सात दिन में, महीने में, या कुछ सहाबा प्रतिदिन एक-बार के हिसाब से पूरे पवित्र क़ुरआन की तिलावत भी कर रहे थे, और किसी पिछली आसमानी किताब की यह भविष्यवाणी पूरी हो रही थी कि जब आख़िरी पैग़ंबर आएँगे तो उनके सहाबा इस दर्जे के होंगे कि उनके सीने उनकी इंजीलें होंगी। यानी अल्लाह की वह्य जिस तरह इंजील की प्रतियों में लिखी हुई है उसी तरह पवित्र क़ुरआन उनके सीनों में लिखा हुआ होगा।

पवित्र क़ुरआन के अवतरण का इतिहास (क़ुरआन लेक्चर - 3)

आज की वार्ता का शीर्षक है ‘पवित्र क़ुरआन के अवतरण का इतिहास’। इस वार्ता में मूल रूप से जो चीज़ देखनी है वह पवित्र क़ुरआन के अवतरण का विवरण और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में पवित्र क़ुरआन का संकलन एवं क्रमबद्ध करना और पवित्र क़ुरआन के विषयों का आन्तरिक सुगठन और एकत्व है। जैसा कि हममें से हर एक जानता है कि पवित्र क़ुरआन का अवतरण थोड़ा-थोड़ा करके 23 साल से कुछ कम अवधि में पूरा हुआ। दूसरी आसमानी किताबों के विपरीत क़ुरआन का अवतरण एक ही बार में नहीं हुआ। परिस्थितियों की माँगों और आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित होता रहा। मक्का में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के दौरान सामने आनेवाली समस्याएँ और फिर मदीना और उसके आस-पास में स्थापित होनेवाले इस्लामी राज्य एवं समाज को बनाने की प्रक्रिया का सीधा संबंध क़ुरआन के अवतरण और उसकी शैली से था।

पवित्र क़ुरआन : एक सामान्य परिचय (क़ुरआन लेक्चर - 2)

पवित्र क़ुरआन का एक आम परिचय इसलिए ज़रूरी है कि हममें से अधिकतर ने पवित्र क़ुरआन आंशिक रूप से तो बहुत बार पढ़ा होता है, अनुवाद और टीका देखने का मौक़ा भी मिलता है, लेकिन हममें से बहुत-से लोगों को यह मौक़ा बहुत कम मिलता है कि पवित्र क़ुरआन पर समष्टीय रूप से आम ढंग से ग़ौर किया जाए, और अल्लाह की इस पूरी किताब को एक संगठित विषय की किताब समझकर इसपर समष्टीय दृष्टि डाली जाए। यों हममें से अधिकतर को एक लम्बा समय यह समझने में लग जाता है कि इस किताब का मूल विषय और लक्ष्य क्या है। इसके महत्त्वपूर्ण और मौलिक विषय क्या हैं, इसमें विषयों का क्रम किस प्रकार है, यह किताब दूसरी आसमानी किताबों से किस प्रकार भिन्न है? ये और इस तरह के बहुत-से ज़रूरी सवालों का जवाब एक लम्बे समय के बाद कहीं जाकर मिलता है। और वह भी किसी-किसी को।

पवित्र क़ुरआन की शिक्षण-विधि - एक समीक्षा (क़ुरआन लेक्चर -1)

मैं इस काम को अपने लिए बहुत बड़ा सौभाग्य समझता हूँ कि आज मुझे उन सम्मान एवं आदर कि अधिकारी बहनों से बात करने का अवसर मिल रहा है जिनकी ज़िंदगी का बड़ा भाग पवित्र क़ुरआन के शिक्षण-प्रशिक्षण में व्यतीत हुवा है, जिनकी दिन रात कि दिलचस्पियाँ पवित्र क़ुरआन के प्रचार-प्रसार से जुड़ी हुई हैं और जिन्होंने अपने जीवन के अधिकतर और मूल्यवान क्षण अल्लाह कि किताब के उत्थान और उसके शिक्षण-प्रतिक्षण तथा उसकी शिक्षाओं और संदेश को समझने और समझाने में व्यतीत किये हैं। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कि हदीस की दृष्टि से आप सब इस दुनिया में भी इस समाज का उत्तम अंग हैं और अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत के दिन भी आपकी गणना मुस्लिम समुदाय को सर्वोत्तम निधि के रूप में होगी। इसलिए की पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है : “तुम में से सर्वोत्तम वह है जिसने पवित्र क़ुरआन सीखा और सिखाया है।” आपने पवित्र क़ुरआन सीखा भी है और पवित्र क़ुरआन सिखाने का दायित्व भी अल्लाह की कृपा और अनुकंपा से तथा उसके असीम योगदान से संवरण कर रही है। इसलिए पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनानुसार आप इस समाज का सर्वोत्तम अंग है।

उलूमे-हदीस : आधुनिक काल में (हदीस लेक्चर 12)

इस चर्चा से दो चीज़ें पेश करना मेरा मक़सद है। एक तो इस ग़लतफ़हमी या कम-हिम्मती का खंडन कि इल्मे-हदीस पर जो काम होना था वह अतीत के वर्षों में हो चुका। और आज न इल्मे-हदीस पर किसी नए काम की ज़रूरत है और न कोई नया काम हो रहा है। मुहद्दिसीन के ये कारनामे सुनकर एक ख़याल यह ज़ेहन में आ सकता है कि जितना काम होना था वह हो चुका। जो शोध होना था वह हो चुका। अब और न किसी काम की ज़रूरत है और न किसी शोध की। यह ग़लतफ़हमी दूर हो सकती है अगर संक्षिप्त रूप से यह देख लिया जाए कि आजकल हदीस पर कितना काम हो रहा है और इसमें और किन-किन कामों के करने की संभावनाएँ हैं और क्या-क्या काम आगे हो सकते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस (हदीस लेक्चर 11)

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस पर चर्चा की ज़रूरत दो कारणों से है। एक बड़ा कारण तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में एक ख़ास दौर में इल्मे-हदीस पर बहुत काम हुआ। यह काम इतने विस्तृत पैमाने पर और इतनी व्यापकता के साथ हुआ कि अरब दुनिया में बहुत-से लोगों ने इसको स्वीकार किया और इसके प्रभाव बड़े पैमाने पर अरब दुनिया में भी महसूस किए गए। मिस्र के एक प्रख्यात इस्लामी विद्वान और बुद्धिजीवी अल्लामा सय्यद रशीद रज़ा ने यह लिखा कि अगर हमारे भाई, भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान न होते तो शायद इल्मे-हदीस दुनिया से उठ जाता। यह अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी की स्थिति का उल्लेख है। भारतीय उपमहाद्वीप के उलमा किराम ने उस दौर में इल्मे-हदीस का पर्चम बुलंद किया जब मुस्लिम जगत् अपनी विभिन्न समस्याओं में उलझा हुआ था।

हदीस और उसकी व्याख्या की किताबें (हदीस लेक्चर 10)

आज की चर्चा में हदीस की कुछ प्रसिद्ध किताबों और उनकी व्याख्याओं का परिचय कराना अभीष्ट है। यह परिचय दो हिस्सों पर सम्मिलित होगा। हदीस की वे बुनियादी किताबें और उनकी वे व्याख्याएँ जो भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर लिखी गईं। उनपर आज की बैठक में चर्चा होगी। वे हदीस और व्याख्या की किताबें थीं जिनकी रचना का काम भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ उनमें से कुछ एक के बारे में कल बात होगी।

उलूमे-हदीस (हदीसों का ज्ञान)-हदीस लेक्चर 9

आज की वार्ता का शीर्षक है उलूमे-हदीस यानी हदीस के बारे में विस्तृत ज्ञान। आज तक जितनी बहस हुई है इस सब का संबंध एक तरह से उलूमे-हदीस ही से है। ये सब विषय उलूमे-हदीस ही के विषय थे, लेकिन उलूमे-हदीस पर अलग से चर्चा करने की ज़रूरत इस बात पर-ज़ोर देने के लिए पेश आई कि जिन विषयों को उलूमे-हदीस कहते हैं वे एक बहुत बड़ी, एक अनोखी और नई इल्मी रिवायत (ज्ञान संबंधी परम्परा) के विभिन्न हिस्से हैं। यह परम्परा मुसलमानों के अलावा किसी और क़ौम में नहीं पाई जाती। ज्ञान एवं कला के इस मिश्रण को अनगिनत विद्वानों ने अपनी ज़िंदगियाँ क़ुर्बान कर के संकलित किया। और उन तमाम विषयों से संबंधित सामग्री एकत्र की जिसका संबंध परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हालात, कथनों और व्यक्तित्व से था। उन्होंने इस सामग्री की पड़ताल की और इसको संकलित ढंग से और नित-नई शैलियों में पेश किया।

रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ (हदीस लेक्चर-8)

आज की चर्चा का शीर्षक है ‘रेहलत फ़ी तलबिल-हदीस’ यानी “इल्मे-हदीस की प्राप्ति और तदवीन (संकलन) के उद्देश्य से सफ़र।” यों तो ज्ञान प्राप्ति के लिए दूर-दराज़ इलाक़ों का सफ़र करना मुसलमानों की परम्परा का हमेशा ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा, लेकिन इल्मे-हदीस की प्राप्ति की ख़ातिर सफ़र का अपना एक अलग स्थान है। मुहद्दिसीन (हदीस के संकलनकर्ताओं) ने इल्मे-हदीस की प्राप्ति, हदीसों की पड़ताल, रावियों की जिरह और तादील (जाँच) और रिजाल (रावियों) के बारे में मालूमात जमा करने की ख़ातिर जो लम्बे और कठिन सफ़र किए उन सबकी दास्तान न सिर्फ़ दिलचस्प और हैरत-अंगेज़ है, बल्कि इल्मे-हदीस के इतिहास का एक बड़ा नुमायाँ और अनोखा अध्याय है।