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इस्लामी शरीअ़त

इस्लामी शरीअ़त

लेखक : माइल ख़ैराबादी

मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

Islami Shariat [H] – MMI Publishers

'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम'

(अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।)

दो शब्द

हम अल्लाह की इबादत किस तरह करें? कैसे रहें-सहें? लेन-देन कैसे करें? एक आदमी के दूसरे आदमी पर क्या हक़ हैं? क्या हराम (अवैध) है? क्या हलाल (वैध) है? किस चीज़ को हम किस हद तक बरत सकते हैं और किस तरह बरत सकते हैं? ये और इसी तरह की तमाम बातें हमें शरीअ़त से मालूम होती हैं। इस्लामी शरीअ़त की बुनियाद क़ुरआन और सुन्नत है। क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और सुन्नत वह तरीक़ा है जो नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) से हमको मिला है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का सारा जीवन क़ुरआन पेश करने, समझाने और उसपर अमल करने में बीता। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का यही बताना, समझाना और अमल करना सुन्नत कहलाता है। हमारे बहुत-से बुज़ुर्गों और आलिमों ने क़ुरआन और सुन्नत से वे तमाम बातें चुन लीं जिनकी मदद से हम दीन की बातों पर अमल कर सकें।

इन बुज़ुर्गों में सबसे ज़्यादा मशहूर चार हैं, उनके नाम ये हैं—

(1) इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) — इनकी फ़िक़्ह को हनफ़ी फ़िक़्ह कहते हैं।

(2) इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) — इनकी फ़िक़्ह को मालिकी फ़िक़्ह कहते हैं।

(3) इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) — इनकी फ़िक़्ह को शाफ़िई फ़िक़्ह कहते हैं।

(4) इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) — इनकी  फ़िक़्ह को हम्बली फ़िक़्ह कहते हैं।

आज दुनिया भर के मुसलमान ज़्यादातर इन्हीं चारों इमामों की फ़िक़्ह पर अमल करते हैं। उलमा का कहना है कि क़ुरआन और हदीस का इल्म रखने और बारीकियों को ख़ुद समझने की अहलियत रखनेवाला सीधे क़ुरआन और हदीस पर अमल कर सकता है, और जो लोग इल्म नहीं रखते उन्हें चाहिए कि जिस आलिम पर इत्मीनान हो उसकी पैरवी करें। इसके साथ ही हममें से जो मुसलमान किसी एक इमाम की पैरवी करे उसे किसी दूसरे इमाम की फ़िक़्ह पर चलनेवालों को बुरा नहीं कहना चाहिए।

हमने यह किताब (इस्लामी शरीअ़त) हनफ़ी फ़िक़्ह के मुताबिक़ लिखी है और मशहूर आलिम मौलाना अशरफ़ अली थानवी की किताब 'बहिश्ती ज़ेवर' से लाभ उठाया है। इसमें वे तमाम ज़रूरी बातें जमा करने की कोशिश की है जो हनफ़ी फ़िक़्ह में बयान हुई हैं। हमारी दुआ है कि हिन्दी जाननेवाले तमाम बच्चे और बड़े ज़्यादा से ज़्यादा 'इस्लामी शरीअ़त' से लाभ उठाएँ। अल्लाह तआला हमारी इस कोशिश को क़ुबूल फ़रमाए। आमीन!

माइल ख़ैराबादी

10 सितम्बर सन् 1961,

रामपुर (यू.पी.)

इस्लामी शरीअ़त

इस्लामी अक़ीदे 

अपने बारे में और अपने पैदा करनेवाले के बारे में जिन बातों का जानना और उन्हें सच्चा मानना ज़रूरी है उन्हें “अक़ीदा" कहते हैं। जब तक अक़ीदा ठीक न हो, भले से भला काम करके भी हम अपने पैदा करनेवाले को ख़ुश नहीं कर सकते। अक़ीदा ही सारी अच्छाइयों और भलाइयों की जड़ है। इसलिए 'इस्लामी शरीअ़त' में अक़ीदे के सुधार पर सबसे पहले और सबसे ज़्यादा तवज्जोह दी गई है।

इस्लामी शरीअ़त में अक़ीदे की बुनियाद

इस्लामी शरीअ़त में अक़ीदे की बुनियाद ला इला-ह इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह पर है। यही हमारा कलिमा है, इस कलिमे को याद रखना और समझना हमारे लिए हर बात से ज़्यादा ज़रूरी है। इस कलिमे का मतलब यह है कि अल्लाह के सिवा कोई बन्दगी के लायक़ नहीं और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल हैं। इस अक़ीदे को अच्छी तरह समझने के लिए नीचे लिखी हुई बातों का जानना और मानना ज़रूरी है—

(1) अल्लाह के बारे में

● अल्लाह के बारे में हमारा अक़ीदा यह है कि अल्लाह 'एक' है। उस जैसा और उसके बराबर कोई और नहीं, न कभी था, न कभी होगा, और न ही कभी हो सकता है। उसका कोई जिस्म और शक्ल व सूरत नहीं और न वह कोई जिस्म या शक्ल व सूरत इख़्तियार करता है। अल्लाह कभी किसी आदमी, जानवर या किसी और की शक्ल में ज़मीन पर नहीं आया, कोई इनसान या कोई और आज तक ऐसा नहीं हुआ जिसमें अल्लाह का कोई हिस्सा आकर मिल गया हो। उसकी ख़ुदाई में कोई उसका साझी नहीं और न हो सकता है। अल्लाह के सिवा जो कुछ है, वह सब अल्लाह ही का पैदा किया हुआ है, वह अपनी पैदा की हुई किसी चीज़ में किसी शक्ल व सूरत में शामिल नहीं।

● उसकी कोई औलाद (बेटी या बेटा) नहीं और न वह किसी का बेटा है। न उसकी कोई बीवी (पत्नी) है और न कोई भाई-बहन। कोई उसकी जाति और बिरादरी का भी नहीं और न उसका कोई ख़ानदान और नस्ल ही है। वह सबसे निराला है।

● जो ख़ूबियाँ अल्लाह में हैं वे पूरी-पूरी किसी दूसरे में नहीं हो सकतीं। यह दुनिया जो पहले न थी, इसे अल्लाह ही ने पैदा किया। अल्लाह के सिवा कोई और नहीं जिसने कुछ भी कभी पैदा किया हो या पैदा कर सकता हो, क़ुदरतवाला और सबसे शक्तिशाली अल्लाह ही है। वह अकेला ही सारी दुनिया का इन्तिज़ाम करनेवाला है, वह किसी का मुहताज नहीं, सब उसके मुहताज हैं। अल्लाह ही सबका पालनेवाला है और वही सबकी देख-रेख करनेवाला है। अपने बन्दों को आफ़तों (विपत्तियों) से बचानेवाला भी अल्लाह ही है। अल्लाह सबसे बड़ा और बड़ाईवाला है।

● फ़ायदा और नुक़्सान उसी के हाथ में है। अस्ल इज़्ज़तवाला वही है और इज़्ज़त देनेवाला भी अल्लाह ही है। वह जिसको चाहे इज़्ज़त दे, कोई टोक नहीं सकता। जिसको चाहे ज़लील और नीचा कर दे, कोई उसे रोक नहीं सकता।

● वह हर बुराई से पाक है। उसको किसी ने पैदा नहीं किया। वह सदा से है और सदा रहेगा, उसके लिए मौत नहीं। वह दुनिया की सारी चीज़ों को थामे हुए है, वह थकता नहीं। उसे नींद भी नहीं सताती, वह कुछ खाता-पीता भी नहीं। वह सोता भी नहीं। वह हाथ, पाँव, नाक, कान, मुँह, आँख, होंठ, ज़बान और कोई अंग नहीं रखता, और न ही उसका कोई जिस्म ही है। वह अपनी क़ुदरत से सब कुछ करता है। सुनता है, देखता है, हुक्म और आदेश देता है। उसमें सारी की सारी ख़ूबियाँ हैं। उसकी ख़ूबियाँ व सिफ़तें बहुत बड़ी हैं। उसकी ख़ूबियों व सिफ़तों में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। उसकी सिफ़तें उससे कभी अलग नहीं हो सकतीं।

● ग़ैब (परोक्ष) का जाननेवाला अल्लाह ही है। दुनिया कब से है? कब तक रहेगी? मरने के बाद किसपर क्या बीतती है? कौन कहाँ मरेगा? कल क्या होगा? ये और ऐसी ही ग़ैब (परोक्ष) की बातें अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। हाँ, अल्लाह ग़ैब की कोई बात किसी रसूल को बता दे तो बात दूसरी है।

● अल्लाह खुली और छिपी हर बात को जानता है, उसके इल्म में सब कुछ है, दुनिया में जहाँ जो कुछ हो रहा है, उसे सब पता है। पहले जो कुछ हो चुका है, अल्लाह वह भी सब जानता है। जो कुछ होगा उसका भी उसे पता है, कोई उससे दिल के भेद भी नहीं छिपा सकता, अल्लाह दिल के भेदों को भी जाननेवाला है।

● इनसाफ़ और न्याय करना अल्लाह ही के बस में है। अल्लाह बहुत मेहरबान, बड़ी ही समाईवाला और अत्यन्त दयालु है।

● अल्लाह अपने बन्दों की दुआ और पुकार सुननेवाला है। बन्दों के काम बनानेवाला अल्लाह ही है। हमारी सारी ज़रूरतें पूरी करनेवाला अल्लाह ही है। अल्लाह के सिवा कोई और नहीं जो किसी की कोई ज़रूरत पूरी कर सके। हम उसी पर भरोसा करते हैं। देनेवाला अल्लाह है। सहायता और मदद करनेवाला अल्लाह है। रोज़ी पहुँचानेवाला अल्लाह है। जिसकी रोज़ी चाहे घटा दे, जिसकी चाहे बढ़ा दे। अल्लाह ही हमारा मालिक और मौला है, स्वामी और दाता है।

● इबादत व पूजा के लायक़ अल्लाह ही है। अल्लाह के सिवा कोई और ऐसा नहीं जिसके आगे हम अपना सिर झुकाएँ या उसके सामने हाथ बाँधकर खड़े हों या मन्नत मानें या भेंट चढ़ाएँ। इबादत की ये सारी बातें सिर्फ़ अल्लाह के लिए हैं। इबादत में भी कोई उसका शरीक और साझी नहीं।

● स्वामी, मालिक, हाकिम, राजा अल्लाह ही है। हुक्म और आदेश देने का हक़ उसी को है। उसी का भेजा हुआ क़ानून ठीक और सही क़ानून है, उससे हटकर बन्दों का अपने लिए क़ानून बनाना या किसी एक आदमी का ख़ुद क़ानून बनाना ठीक नहीं।

● सज़ा देनेवाला अल्लाह ही है। अल्लाह की इजाज़त के बिना कुछ नहीं होता और न हो सकता है।

मौत और ज़िन्दगी उसी के बस में है, उसी ने पैदा किया है, वही मौत देनेवाला है और वही क़ियामत में फिर सबको ज़िन्दा करेगा।

(2) रसूलों के बारे में

रसूलों के बारे में हमारा अक़ीदा यह है कि इनसानों में से अल्लाह के कुछ ऐसे नेक बन्दे हुए हैं जिनको अल्लाह ने इस बात के लिए चुन लिया था कि उनके पास अपना हुक्म भेजे और वे अल्लाह के दूसरे बन्दों तक अल्लाह का हुक्म पहुँचाएँ। ऐसे नेक बन्दों के बारे में हम यह मानते हैं कि—

● सारे रसूल गुनाहों से पाक थे। रसूल अल्लाह के बन्दों को अल्लाह की मरज़ी बताने और सिखाने आए। रसूलों ने अल्लाह का एक-एक हुक्म पहुँचा दिया और यह करके दिखा दिया कि अल्लाह के हुक्मों पर किस तरह चलना चाहिए।

● अल्लाह ने हर मुल्क और क़ौम में रसूल भेजे। एक वक़्त में कई-कई भेजे, अलग-अलग वक़्त में भी भेजे, एक जगह के लिए कई-कई रसूल एक साथ भी भेजे।

● सारे रसूल सच्चे थे, अमानतदार थे, उनको सच्चा साबित करने के लिए अल्लाह ने उनके हाथों से ऐसी अनोखी और निराली निशानियाँ दिखाईं जो किसी दूसरे के बस की नहीं। इन निशानियों को मोजिज़ा (चमत्कार) कहते हैं। ये मोजिज़े अल्लाह ने किसी रसूल को ज़्यादा दिए किसी को कम, और इस तरह किसी रसूल को किसी रसूल पर बड़ाई भी दी।

● हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के आख़िरी रसूल हैं, आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) के बाद अब कोई रसूल नहीं हो सकता। क़ियामत तक जितने इनसान और जिन्न होंगे सबके लिए हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ही अल्लाह के रसूल हैं।

● सबसे पहले रसूल हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) थे। हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) पहले इनसान भी थे। सारे इनसान हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) ही की औलाद हैं। हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) के बीच के समय में बहुत से रसूल और पैग़म्बर हुए, इनकी गिनती अल्लाह के सिवा कोई और नहीं जानता, इनमें मशहूर रसूलों के नाम ये हैं—

हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम), हज़रत हूद (अलैहिस्सलाम), हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम), हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम), हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम), हज़रत इसमाईल (अलैहिस्सलाम), हज़रत इसहाक़ (अलैहिस्सलाम), हज़रत याक़ूब (अलैहिस्सलाम), हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम), हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम), हज़रत हारून (अलैहिस्सलाम), हज़रत अय्यूब (अलैहिस्सलाम), हज़रत दाऊद (अलैहिस्सलाम), हज़रत सुलैमान (अलैहिस्सलाम), हज़रत ज़करीया (अलैहिस्सलाम), हज़रत यह्या (अलैहिस्सलाम), और हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम)।

(3) फ़रिश्तों के बारे में

हम यह मानते हैं कि फ़रिश्तों को अल्लाह ने नूर से पैदा किया, उनको हम देख नहीं सकते, उनकी गिनती अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। वे अल्लाह के हुक्म से दुनिया के सब काम करते हैं। किसी फ़रिश्ते को अल्लाह ने हवा चलाने के काम पर लगा दिया है और किसी फ़रिश्ते को पानी बरसाने के काम पर। इसी तरह, तमाम फ़रिश्ते अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ मशीन के पुरज़ों की तरह किसी न किसी काम पर लगे हुए हैं। वे अपनी मरज़ी से कुछ नहीं कर सकते, वे अल्लाह के हुक्म पर चलने के सिवा कुछ और नहीं कर सकते। अल्लाह के हुक्म के बिना न किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हैं और न नुक़सान। अल्लाह का हुक्म टालना वे जानते ही नहीं। फ़रिश्ते गुनाहों से पाक हैं, उनमें से कुछ के नाम और काम ये हैं—

हज़रत जिबरील (अलैहिस्सलाम)

हज़रत जिबरील (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के रसूलों के पास अल्लाह का हुक्म पहुँचाते थे। यही हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) के पास क़ुरआन मजीद और अल्लाह के दूसरे हुक्म और वह्य लाते थे।

हज़रत मीकाईल (अलैहिस्सलाम)

हज़रत मीकाईल (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के बन्दों को रोज़ी पहुँचाने के काम पर लगे हुए हैं।

हज़रत इज़राईल (अलैहिस्सलाम)

हज़रत इज़राईल (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह ने जान निकालने के काम पर लगाया है और वे यही काम करते हैं।

हज़रत इसराफ़ील (अलैहिस्सलाम)

हज़रत इसराफ़ील (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के हुक्म से 'सूर' [बिगुल या शंख जैसी चीज़ को कहते हैं।] लिए खड़े हैं और हर वक़्त अल्लाह के हुक्म पर कान लगाए हुए हैं। क़ियामत के दिन जैसे ही अल्लाह हुक्म देगा वे 'सूर' फूँक देंगे और दुनिया तहस-नहस हो जाएगी।

किरामन-कातिबीन (इज़्ज़तवाले कातिब)

किरामन-कातिबीन दो फ़रिश्ते हैं। हर इनसान के दाएँ-बाएँ साथ रहते हैं और इनसान जो कुछ भी अच्छा या बुरा काम करता है, उसे लिखते रहते हैं।

● मुनकर-नकीर

मुनकर-नकीर भी दो फ़रिश्ते हैं। हर इनसान के मरने के बाद उसके पास आते हैं। पूछते हैं कि “तेरा रब कौन है? और तेरा दीन क्या है?" हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में भी पूछते हैं कि “बताओ इनके बारे में क्या जानते हो?” जो कोई ठीक-ठीक जवाब दे देता है, मुनकर-नकीर उसके लिए जन्नत की खिड़की खोल देते हैं। लेकिन जो अल्लाह को अपना रब और मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) को अल्लाह का रसूल नहीं मानता वह हर सवाल के जवाब में कहता है, “मुझे कुछ पता नहीं।” उसपर क़ियामत तक अज़ाब होता रहता है।

(4) आख़िरत के बारे में

हमारा अक़ीदा यह है कि एक दिन अल्लाह हज़रत इसराफ़ील (अलैहिस्सलाम) को सूर फूंकने का हुक्म देगा। वे सूर फूँक देंगे, सूर से बड़ी भयानक और कड़क आवाज़ निकलेगी। इस आवाज़ से सारी दुनिया तहस-नहस हो जाएगी। दुनिया की सारी चीज़ें टूट-फूट जाएँगी। ज़मीन और आसमान सब फटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। सारे जानदार मर जाएँगे। सूरज और चाँद टकरा जाएँगे। पहाड़ धुनकी हुई रूई की तरह उड़ेंगे और भुरभुरी रेत की तरह हो जाएँगे। समुद्र उबल पड़ेंगे। न कहीं ऊँचाई रहेगी और न नीचाई।

एक वक़्त तक यही हालत रहेगी, फिर जब अल्लाह चाहेगा कि सबको दोबारा पैदा करे तो अल्लाह के हुक्म से हज़रत इसराफ़ील (अलैहिस्सलाम) दूसरी बार सूर फूंकेंगे। अल्लाह के हुक्म से सारी दुनिया फिर पैदा हो जाएगी। मुर्दे जी उठेंगे और एक बड़े और विशाल मैदान में इकट्ठा किए जाएँगे। इसका नाम “हश्र" है।

हश्र के मैदान में सारे इनसान अल्लाह के सामने खड़े किए जाएँगे, अच्छे और बुरे कामों का हिसाब किया जाएगा। हर आदमी के छोटे-से-छोटे काम की भी जाँच होगी। उस दिन जन्नत और दोज़ख सबके सामने होंगी। जिसने जैसे काम किए होंगे उसको वैसा ही बदला दिया जाएगा। जिन लोगों ने अल्लाह को अपना मालिक माना होगा, किसी को उसका साझी न ठहराया होगा, अल्लाह के सब रसूलों को सच्चा माना होगा और उन सारी बातों को सच जाना होगा जो अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने बताई हैं, ऐसे लोग मोमिन कहलाते हैं, अल्लाह उन्हें जन्नत देगा। उस दिन हर एक के साथ पूरा-पूरा इनसाफ़ होगा, रत्ती-भर किसी पर ज़ुल्म न होगा। जिन लोगों ने अच्छे काम किए होंगे,  उन्हें उनका अच्छा बदला मिलेगा। ऐसे ही लोगों से अल्लाह ख़ुश होगा। रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह को छोड़कर दूसरों को अपना मालिक बनाया होगा, किसी को उसका साझी ठहराया होगा, अल्लाह के रसूलों को न माना होगा, ऐसे लोगों के सारे काम बेकार जाएँगे, उनका ठिकाना जहन्नम होगा। अल्लाह उनसे ख़ुश न होगा, ये काफ़िर (इनकार करनेवाले) कहलाते हैं।

जो लोग जन्नत में जगह पाएँगे, वे वहाँ सदा रहेंगे। जन्नत में उनको सुख ही सुख होगा। जन्नत में अल्लाह के बन्दे अल्लाह की ज़ियारत भी करेंगे, यह जन्नत की सबसे बड़ी नेमत होगी।

जो लोग गुनाहगार होंगे, वे अपने गुनाहों की सज़ा भुगतने के लिए जहन्नम में डाले जाएँगे। गुनाहों की पूरी सज़ा भुगतने के बाद अल्लाह उनपर तरस खाएगा और उन्हें जहन्नम से निकालकर जन्नत में दाख़िल करेगा लेकिन काफ़िर और मुशरिक हमेशा-हमेशा जहन्नम में रहेंगे, जहन्नम में तरह-तरह की तकलीफ़ें होंगी, आग की तकलीफ़ें, ख़ौफ़नाक साँपों और बिच्छुओं की सज़ाएँ, खाने-पीने को पीप, काँटेदार और बुरी चीज़ें मिलेंगी जिनको ज़बरदस्ती मुँह में ठूँसा जाएगा।

कुफ़्र और शिर्क की बातें

अल्लाह को न मानना, अल्लाह के हुक्मों को सच न मानना और अल्लाह के हुक्मों पर चलने से इनकार कर देना, अल्लाह के साथ किसी और को शरीक करना, अल्लाह के कामों और सिफ़तों में किसी और को साझी बनाना या समझना, ये सब कुफ़्र और शिर्क की बातें हैं।

कुफ़्र को अच्छा समझना और किसी दूसरे से कुफ़्र की बात करना और कराना भी कुफ़्र है। किसी वजह से अपने अक़ीदे पर पछताना भी कुफ़्र है। ऐसे किसी मौक़े पर यह कहना कि अगर मुसलमान न होते तो हमारा यह काम हो जाता, मुसलमान न होते तो इस दुख और मार से बच जाते और सुख-चैन से रह रहे होते, यह कुफ़्र है। यानी दीन व ईमान की दौलत व नेमत की नाक़द्री करना भी कुफ़्र है।

अल्लाह या अल्लाह के रसूल के किसी हुक्म को बुरा समझना, उसमें ऐब निकालना, ऐसी बातें करना जिनसे किसी नबी या फ़रिश्ते की तौहीन हो या उनपर ऐब लगाना, यह सब भी कुफ़्र है।

किसी पीर-फ़क़ीर और साधू या सयाने के बारे में यह मानना कि उसको हमारे सारे ढके-छिपे कामों और दिल के भेदों का हाल मालूम रहता है या नुजूमी, पंडित, ज्योतिषी या जिनपर जिन्न चढ़ा हो उससे ग़ैब (परोक्ष) की बातें पूछना या फ़ाल खुलवाना और उसे सच्चा समझना यह सब भी कुफ़्र है।

अल्लाह के सिवा किसी और के बारे में यह मानना और समझना कि वह भी हमको फ़ायदा और नुक़सान पहुँचा सकता है। उससे मुरादें माँगना, रोज़ी और बेटी-बेटा माँगना, उसके नाम का व्रत और रोज़ा रखना, उसको सजदा करना, उसके सामने सिर झुकाना या उसके पैरों में सिर रखना, उसकी तस्वीर रखना और उसकी ऐसी इज़्ज़त करना जिससे उसकी पूजा मालूम हो या ऐसी इज़्ज़त व एहतिराम करना जो अल्लाह तआला के लायक़ होती है, उसके नाम का जानवर छोड़ना या चढ़ावा चढ़ाना, उसके नाम की मन्नत मानना, उसके नाम और सिर की क़सम खाना, उसकी क़ब्र या मकान का तवाफ़ (परिक्रमा) करना, नमाज़ की तरह उसके सामने खड़े होना या झुकना, उसके नाम पर जानवर की भेंट चढ़ाना, किसी लालच की वजह से उसके नाम की रट लगाना, तसबीह पढ़ना या माला जपना, उसकी दुहाई देना, उसके नाम पर बेटा-बेटी के नाक-कान छेदना या किसी के नाम की बाली और बुलाक़ पहनाना या बाज़ू पर पैसा बाँधना या गले में नाड़ा डालना या सेहरा बाँधना, या चोटी रखना, बद्धी पहनाना, किसी को फ़क़ीर बनाना, हाथ में कलावा आदि बाँधना और ऐसी ही दूसरी बातें करना कुफ़्र और शिर्क हैं।

काबा के बराबर किसी जगह का एहतिराम करना और ऐसे नाम रखना जिनके माने में कोई शिर्क की बात पाई जाती हो और उस बात को ठीक समझना भी कुफ़्र और शिर्क है। जैसे अली-बख़्श, हुसैन-बख़्श, या अब्दुन्नबी और ऐसे ही दूसरे नाम।

किसी जानवर पर किसी बुज़ुर्ग का नाम लगाकर उसका एहतिराम करना भी कुफ़्र है।

यह समझना कि दुनिया के मामलों पर सितारों और पत्थरों का असर पड़ता है, कुफ़्र है।

किसी महीने या तारीख़ और दिन को मनहूस समझना और काम करने के लिए कोई शगुन लेना या अच्छी-बुरी तारीख़ पूछना या दिन मानना, यह सब भी कुफ़्र है।

यूँ कहना भी कुफ़्र है कि ख़ुदा और रसूल चाहेगा तो काम हो जाएगा (याद रखना चाहिए कि ख़ुदा के सिवा किसी और के चाहने से कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है केवल अल्लाह के चाहने से होता है)।


बिदअत और बुरी रस्में

कोई ऐसी बात गढ़कर दीन में शामिल कर देना और उसका करना जिसका हुक्म न अल्लाह ने दिया हो, न अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने और न सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने ही उसके बारे में कुछ कहा या किया हो, बिदअत कहलाता है। शरीअ़त में कुफ़्र और शिर्क के बाद सबसे बुरी और गुनाह की बात बिदअत है। इसका करनेवाला बहुत गुनाहगार होता है और वह जहन्नम में जाएगा। ऐसी कुछ बातें नीचे लिखी जाती हैं—

क़ब्रों पर धूमधाम से मेला करना, दिया जलाना, औरतों का वहाँ जाना, चादरें चढ़ाना, पक्की क़ब्रें बनाना, क़ब्रों को चूमना-चाटना, किसी की समाधि या क़ब्र पर फूल चढ़ाना, उसे सजदा और उसका तवाफ़ (परिक्रमा) करना, उसकी ख़ाक (मिट्टी) अपने बदन से मलना, क़ब्र की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ना, उसपर हलवा, मलीदा, फूल या कुछ और चढ़ाना।

मुहर्रम के महीने में बनाव-सिंगार करने, मेंहदी और मिस्सी लगाने, लाल कपड़ा पहनने, शौहर-बीवी के मिलने आदि को, जिनके बुरा होने का क़ुरआन या हदीस में कोई ज़िक्र न हो, बिना किसी सुबूत के अपनी ओर से बुरा समझना। ताज़िया बनाना, ताज़िया रखना और उसकी ज़ियारत को जाना, उसपर कुछ चढ़ाना, मरसिया पढ़ना, मातम करना, बुराक़ रखना, अलम उठाना, दुलदुल सजाना और उसे निकालना, उसका एहतिराम करना और बाजा बजाना और बजवाना।

बीवी की सहनक करना, कूँडे करना, तीजा, चालीसवाँ वग़ैरह का ज़रूरी समझना, बेवा (विधवा) के निकाह (विवाह) को बुरा समझना, शादी-ब्याह, ख़तना, बिस्मिल्लाह, छटी-चिल्ला और चौथी-चाला में बुरी रस्में करना, लड़के को ज़ेवर पहनाना, ग़ैर-इस्लामी रस्में बरतना, सलाम के बदले बन्दगी, तसलीम, तसलीमात-अर्ज़, नमस्ते, या ऐसे ही दूसरे शब्द कहना या सिर पर हाथ रखकर झुक जाना, झंडे को सलामी देना, उसके पास नमाज़ की तरह हाथ बाँधकर खड़े होना, प्रार्थना में वन्देमातरम् या ऐसा कोई गीत गाना जिसमें अल्लाह की बन्दगी के बदले किसी और की बन्दगी का बयान हो।

देवर, जेठ, बहनोई, फूफीज़ाद भाई, ख़ालाज़ाद भाई वग़ैरह के सामने औरतों का बेधड़क बेपरदा आ जाना, साली-बहनोई, सलहज-ननदोई या किसी और नामहरम [शरीअ़त में जिसके सामने बेपरदा होना मना है, उसे नामहरम कहते हैं।] से परदा न करना, नदी से गगरी बजाते हुए लाना, राग-बाजा सुनना, डोमनियों को नचाना और देखना, उनको इनाम देना, अपने नसब (वंश) पर घमंड करना, किसी का मुरीद हो जाने पर यह यक़ीन कर लेना कि जहन्नम से नजात हो गई और जन्नत मिल गई, किसी के नसब में कोई ऐब हो तो उसकी हँसी उड़ाना, हाथ के किसी ऐसे पेशे, जैसे दस्तकारी को जिनसे शरीअ़त ने मना न किया हो या जिनमें कोई गन्दगी, नापाकी और ऐब न हो, नीचा मानना या किसी की बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ और प्रशंसा करना।

शादी-ब्याह में फ़ुज़ूल-ख़र्ची और बुरी रस्में करना, बेशर्मी की बातें करना, दूल्हे को मेंहदी लगाना, शरीअ़त के ख़िलाफ़ पोशाक पहनना, कंगना और सेहरा बाँधना, आतिशबाज़ी छोड़ना, घर में दूल्हे को बुलाकर बेपरदगी पर ध्यान न देना, ताक-झाँक करना, साली-बहनोई और सलहज व ननदोई का आपस में हँसी-दिल्लगी करना और इसे ठीक और जाइज़ समझना, चौथी खेलना, दुल्हनों को माँझे बिठाना, शर्म के मारे उनका नमाज़ न पढ़ना, शेख़ी के मारे मेहर ज़्यादा बँधवाना और खुदाई-रात करना।

घर में मौत हो जाने पर चिल्लाकर तरह-तरह की बातें बयान करके रोना, मुँह और सीना पीटना, घर के कामों में आनेवाले घड़े तोड़ डालना। मौत के बाद कुछ दिनों तक अचार डालने और इसी प्रकार कुछ खाने-पकाने से परहेज़ करना। एक साल तक कोई ख़ुशी की बात करने को बुरा या ऐब समझना। उसी तारीख़ में फिर ग़म मनाना। घर में तस्वीर लगाना, औरतों का ऐसा बारीक कपड़ा पहनना जिससे बदन दिखाई दे या बजता हुआ ज़ेवर पहनना या लहँगा पहनना। पानदान, ख़ासदान, इत्रदान, सुरमेदानी और सलाई आदि चाँदी, सोने की काम में लाना। साड़ी आदि ऐसे कपड़े इस्तेमाल करना जिनसे शरीर के वे हिस्से खुले रहें जिनका ढाँकना शरीअ़त ने ज़रूरी क़रार दिया है। मर्दों का औरतों के और औरतों का मर्दों के कपड़े पहनना और उन जैसी शक्ल-सूरत बनाना, बदन गोदना-गुदवाना और टोने-टोटके के चक्कर में पड़ना और किसी दिन का मनहूस समझना वग़ैरह।

पाकी का बयान

गन्दगी के धो डालने और साफ़ करने को पाकी और तहारत कहते हैं। शरीअ़त में गन्दगी से पाक-साफ़ रहने की ओर बड़ा ध्यान दिलाया गया है। क़ुरआन मजीद में है कि अल्लाह पाक है और पाक-साफ़ रहनेवालों को बहुत चाहता है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने पाकी व सफ़ाई को आधा ईमान बताया है। इस्लामी शरीअ़त ने दो तरह की गन्दगी से पाक रहने की ओर ध्यान दिलाया है—

(1) कुछ गन्दगियाँ तो ऐसी हैं जो हमें आँखों से दिखाई देती हैं। ऐसी गन्दगी को 'नजासते-हक़ीक़ी' कहते हैं।

(2) कुछ गन्दगियाँ ऐसी हैं जो आँखों से दिखाई तो नहीं देती हैं लेकिन शरीअ़त ने हुक्म दिया है कि इस गन्दगी को भी दूर किए बिना आदमी पाक नहीं होता, जैसे बेवुज़ू होना या नहाने की ज़रूरत होना। ऐसी गन्दगी को 'नजासते-हुक्मी' कहते हैं। यानी ऐसी हालत जिस पर शरीअ़त ने गन्दगी का हुक्म लगाया है। यहाँ सबसे पहले इसी गन्दगी का ज़िक्र किया जा रहा है।

बेवुज़ू होना

पाख़ाना-पेशाब करने, गैस निकलने, बदन के किसी हिस्से से ख़ून या पीप बहने, नमाज़ में खिलखिलाकर हँस पड़ने और मुँह भर क़ै (Vomiting) होने से आदमी बेवुज़ू हो जाता है। अब जब तक वह वुज़ू न कर ले, नमाज़ नहीं पढ़ सकता।

ग़ुस्ल (नहाने) की ज़रूरत होना

जिन बातों के होने पर शरीअ़त ने ग़ुस्ल यानी नहाने को ज़रूरी क़रार दिया है वे ये हैं—

सोते-जागते में मनी (वीर्य) का उछलकर निकलना, मर्द औरत का हमबिस्तर होना (सम्भोग करना), औरत को हैज़ (माहवारी) और निफ़ास (बच्चा पैदा होने पर आनेवाला ख़ून) आना।

यह गन्दगी ग़ुस्ल से दूर हो जाती है। जब तक आदमी नहा न ले, न तो नमाज़ पढ़ सकता है, न क़ुरआन को छू सकता है, न क़ुरआन ज़बानी पढ़ सकता है, न मस्जिद में जा सकता है। हाँ, नहाने ही के लिए पानी लेने या मस्जिद के अन्दर के ग़ुस्लख़ाने में जाना ज़रूरी हो तो बात दूसरी है।

जो गन्दगियाँ हमें दिखाई देती हैं, वे दो तरह की होती हैं—

(1) बड़ी गन्दगी (ग़लीज़ा) (2) छोटी गन्दगी (ख़फ़ीफ़ा)

नजासते-ग़लीज़ा या बड़ी गन्दगी

आदमी का पाख़ाना, पेशाब, मनी (वीर्य), ख़ून [मछली, मच्छर, मक्खी और खटमल का ख़ून जो बहुत थोड़ा होता है, इसके लगने से कोई चीज़ नापाक नहीं होती।], शराब, मुँह भर क़ै, चौपायों (बैल, भैंस आदि) का गोबर [गोबर, लीद और मेंगनी वग़ैरह जैसी नापाक चीज़ों की जब शक्ल बदल जाए जैसे गलकर मिट्टी या जलकर राख हो जाएं तो वे नापाक नहीं रहतीं।], भेड़-बकरी की मेंगनी, घोड़े, गधे और ख़च्चर वग़ैरह की लीद, कुत्ते-बिल्ली का पाख़ाना, कुत्ते की राल, सुअर की हर चीज़, सारे हराम [जिससे बचने के लिए अल्लाह और अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने साफ़-साफ़ बता दिया।] जानवरों का पाख़ाना-पेशाब, मुर्ग़ी और बत्तख़ वग़ैरह की बीट।

नजासते-ख़फ़ीफ़ा या छोटी गन्दगी

हलाल जानवरों जैसे गाय, बैल, भैंस, बकरी वग़ैरह का पेशाब।

हैज़ व निफ़ास

हैज़

औरतों को हर महीने जो ख़ून आता है उसे हैज़ या माहवारी का ख़ून कहते हैं। यह ख़ून गन्दा और नापाक होता है। कपड़े, बदन वग़ैरह किसी चीज़ को लग जाए तो धोना ज़रूरी है।

हैज़ के दिन

शरीअ़त में हैज़ के ख़ून का आना कम-से-कम पूरे तीन दिन-रात और ज़्यादा-से-ज़्यादा पूरे दस दिन-रात माना गया है। अगर तीन दिन-रात से कुछ भी कम और दस दिन-रात से कुछ भी ज़्यादा आए तो वह हैज़ का ख़ून नहीं। शरीअ़त में इसको इस्तिहाज़ा (फ़ालतू ख़ून) माना गया है। दो हैज़ के बीच कम-से-कम 15 दिन का ज़माना पाकी या तुहर का ज़माना है, ज़्यादा की कोई हद नहीं।

इस्तिहाज़ा या फ़ालतू ख़ून

अगर किसी औरत को हर महीने तीन दिन-रात ख़ून आता है तो उस औरत के लिए यही हैज़ के दिन माने जाएँगे। तीन रात के बाद उसे नहा लेना चाहिए। अब अगर किसी महीने उससे ज़्यादा दिन ख़ून आया तो यह ख़ून इस्तिहाज़ा यानी फ़ालतू माना जाएगा। यदि किसी औरत के हैज़ के दिन कम-ज़्यादा होते रहते हैं तो यह देखना होगा कि इससे पहले महीने में कितने दिन ख़ून आया, बस वही उस औरत के लिए हैज़ के दिन लगेंगे।

यह वैसा ही ख़ून है जैसा नाक, मुँह या दाँत से निकल आता है। अगर औरत के पेट में बच्चा है और ऐसी हालत में ख़ून आ गया या किसी को एक या दो दिन ख़ून आकर रुक गया, इसके बाद एक या दो दिन फिर आ गया और फिर रुक गया तो यह सब इस्तिहाज़ा (फ़ालतू ख़ून) होगा। फ़ालतू ख़ून आने की सूरत में उसे धोने के बाद हर नमाज़ के वक़्त या क़ुरआन पढ़ने के लिए वुज़ू करना चाहिए।

निफ़ास

जो ख़ून बच्चा पैदा होने के बाद औरत को आता है उसको निफ़ास का ख़ून कहते हैं। यह ज़्यादा से ज़्यादा चालीस दिन आता है, कम की कोई मुद्दत नहीं। अगर चालीस दिन से पहले रुक जाए तो ग़ुस्ल कर लेना चाहिए। अगर चालीस दिन के बाद आता रहे तो वह इस्तिहाज़ा (फ़ालतू ख़ून) होगा। चालीस दिन होते ही नहा लेना चाहिए और अपने को पाक समझना चाहिए।

अगर औरत के पेट से नौ (9) महीने पूरे होने से पहले बच्चा गिर गया और ख़ून आया तो निफ़ास का ख़ून माना जाएगा लेकिन अगर बच्चे का कोई हिस्सा (हाथ या पैर वग़ैरह) न बने और वह सिर्फ़ लोथड़ा गिरा और ख़ून आया तो निफ़ास नहीं।

नोट- हैज़ और निफ़ास की हालत में काबा का तवाफ़ करना, नमाज़ पढ़ना, क़ुरआन पाक देखकर या ज़बानी पढ़ना या छूना और शौहर के साथ हमबिस्तर होना मना है। इस हालत में नमाज़ बिल्कुल माफ़ है। अगर नमाज़ पढ़ने के दौरान हैज़ का ख़ून आ गया तो यह नमाज़ भी माफ़ हो गई लेकिन नफ़िल और सुन्नत नमाज़ पढ़ते वक़्त ख़ून आया तो यह माफ़ न होगी। बाद में इसकी क़ज़ा पढ़नी होगी। इस हालत में छूटे हुए रोज़े भी माफ़ नहीं, इन्हें फिर रखना पड़ेगा। रोज़े की हालत में हैज़ होने से रोज़ा टूट जाता है। हैज़ और निफ़ास की हालत में अल्लाह का नाम लिया जा सकता है, दुरूद शरीफ़ पढ़ा जा सकता है। क़ुरआन पाक को छुए बिना उसमें लिखी दुआएँ देखकर या ज़बानी पढ़ना भी मना नहीं है।

हैज़वाली औरत अगर किसी बच्चे को क़ुरआन पाक पढ़ाती है तो उसे हिज्जे करवा सकती है और अगर कोई आयत बतानी ही पड़ जाए तो एक-एक बताए और हर लफ़्ज़ बताने के बाद रुककर साँस तोड़ दे, फिर दूसरा लफ़्ज़ बताए।

हैज़ और निफ़ास की हालत में मर्द-औरत एक साथ बैठ सकते हैं, साथ खा-पी सकते हैं लेकिन हमबिस्तरी नहीं कर सकते, इस हालत में हमबिस्तरी करना हराम है।

पानी का बयान

पाक पानी

नदी, तालाब, झील, चश्मा (जल-स्रोत), बारिश, समुद्र और कुँए का पानी चाहे वह खारा हो या मीठा पाक है। ज़्यादा पानी और बहता हुआ पानी, जब तक उसमें इतनी गन्दगी न पड़ी हो कि गन्दगी से उसका रंग, बू (गन्ध) या मज़ा (स्वाद) बदल जाए, पाक होता है और नापाक चीज़ें उससे धोने से पाक हो जाती हैं। जो पानी घास, तिनके और पत्ते को बहा ले जाए वह बहता हुआ पानी है, चाहे वह धीरे-धीरे ही बहता हो।

नापाक पानी

कम पानी थोड़ी गन्दगी गिरने से भी नापाक हो जाता है। अगर अधिक पानी में इतनी गन्दगी पड़ जाए कि उसका रंग, मज़ा या बू बदल जाए तो वह भी नापाक हो जाता है।

ज़्यादा पानी

ज़्यादा पानी का मतलब यह है कि वह इतने बड़े हौज़ [हौज़ की लम्बाई-चौड़ाई दस-बारह हाथ होनी चाहिए और कम-से-कम इतना गहरा हो कि हाथ डालकर पानी लें तो उसकी ज़मीन उँगलियों में न लगे या ज़मीन न खुले।] या गढ़े या पोखर में हो कि उसके एक किनारे पर गन्दगी गिर जाए तो दूसरे किनारे पर उसका रंग, मज़ा या बू न बदले।

खेतों की सिंचाई के लिए जो पानी कुओं, तालाबों, नदियों, झीलों या ट्यूबवेल से नालियों में आता है, वह भी शरीअ़त में ज़्यादा पानी है। ऐसी नाली में किसी जगह गन्दगी पड़ जाए तो उसका तमाम पानी नापाक नहीं होता, उस जगह से हटकर वुज़ू या ग़ुस्ल कर सकते हैं। हाँ, अगर इतनी गन्दगी पड़ जाए कि उस पानी का रंग, मज़ा या बू बदल जाए तो नापाक हो जाएगा।

कम पानी

कम पानी उसे कहते हैं कि उसके एक किनारे पर गन्दगी पड़ जाए तो दूसरे किनारे पर उसका रंग, मज़ा और बू बदल जाए। शरीअ़त में कुएँ का पानी कम में गिना गया है। कुएँ में गन्दगी गिर जाए तो उसका पानी नापाक हो जाएगा। इसी तरह कूँडे, डोल, बालटी, घड़े, मटके वग़ैरह का पानी भी कम है, गन्दगी पड़ने से नापाक हो जाता है।

पाक मगर पाक न करनेवाला पानी

इसका मतलब यह है कि इससे वुज़ू और ग़ुस्ल नहीं कर सकते। लेकिन वह कहीं लग जाए तो उस जगह या चीज़ को नापाक नहीं करता, उससे लगी हुई गन्दगी धो सकते हैं। इस बारे में नीचे लिखी हुई बातें ध्यान में रखनी चाहिएँ—

(1) अगर पानी का मज़ा, बू या रंग सिर्फ़ रखे रहने से बदल जाए या पत्ती गिरने से उसका रंग या मज़ा बदल जाए तो वह नापाक न होगा, लेकिन वह इतना गाढ़ा हो जाए कि उसमें उसका असली पतलापन न रहे तो उससे हम पाक नहीं हो सकते। इसी तरह मिट्टी मिल जाने से पानी मटियाला और गाढ़ा हो जाए तो उससे भी पाक नहीं हो सकते।

(2) अगर पानी में कोई ऐसी चीज़ मिल जाए जिसके मिलने से उसका पतलापन तो बाक़ी रहे लेकिन बोल-चाल में उसे पानी न कहते हों, जैसे शरबत, सिरका, शोरबा, सोडावाटर, किसी दवा का अर्क़ वग़ैरह तो इन चीज़ों से भी पाक नहीं हो सकते, न वुज़ू कर सकते हैं और न ही ग़ुस्ल कर सकते हैं।

(3) अगर पाक चीज़ पानी में पड़ जाए या डाल दी जाए और उससे रंग, बू या मज़ा बदल जाए, जैसे साबुन, ज़ाफ़रान, कपड़ा रंगने का रंग वग़ैरह तो यह पानी पाक रहेगा। और हमें भी पाक करेगा लेकिन पानी में इतना दूध मिल गया कि उसका रंग पानी में आ गया तो उससे न हम पाक हो सकते हैं और न ही गन्दगी धो सकते हैं।

(4) अगर कोई पाक चीज़ पानी में डालकर पकाई और ज़रा-सा रंग आ गया हो, जैसे मुर्दा नहलाने के लिए बेरी की पत्ती पानी में डालकर गर्म करते हैं, तो इस पानी से पाक हो सकते हैं। लेकिन अगर उसे इतना पकाएँ कि पानी गाढ़ा हो जाए तो उससे पाक नहीं हो सकते।

(5) फल या पेड़ का निचोड़ा हुआ पानी, अर्क़, तरबूज़ का पानी, गन्ने का रस पाक होता है लेकिन इससे न तो हम पाक हो सकते हैं और न नापाक चीज़ों को पाक कर सकते हैं। इसी तरह वे पाक चीज़ें जो पानी की तरह पतली हों लेकिन उनमें चिकनाई हो तो उनसे भी न हम पाक हो सकते हैं और न नापाक चीज़ों को पाक कर सकते हैं, जैसे घी, तेल, दूध वग़ैरह।

पानी का नापाक होना

(1) कुत्ते, सुअर और सभी फाड़ खानेवाले जानवर, जैसे शेर, भेड़िया वग़ैरह अगर बर्तन के पानी, कुएँ या छोटे गढ़ों के पानी को पी लें तो उनका जूठा पानी नापाक हो जाएगा। अगर नदी या तालाब वग़ैरह का पानी पी लें तो उस जगह से हटकर वुज़ू और ग़ुस्ल कर सकते हैं। इसी तरह बिल्ली चूहा खाकर फ़ौरन ही पानी पीले या आदमी मुर्दार खाकर या हराम चीज़ (जैसे सुअर, शराब वग़ैरह) खा-पीकर उसी वक़्त पानी पी ले तो जूठा पानी नापाक हो जाएगा। साँप, सुअर, चूहे की खाल किसी तरह पाक नहीं होती। इनकी खालों की मशक में पानी रखने से पानी नापाक हो जाएगा।

(2) जिन जानवरों का गोश्त खाना तो शरीअ़त में हराम है लेकिन वे घरों में रहते हैं और आदमियों का उनसे बचना मुश्किल है, जैसे चूहा, छिपकली, बिल्ली (जिसने चूहा खाकर फ़ौरन पानी जूठा न किया हो) इन सबका जूठा शरीअ़त में मकरूह (नापसन्द) माना गया है, इसी तरह तमाम हराम चिड़ियों कौआ, चील, शिकरा, बाज़ वग़ैरह का जूठा भी मकरूह (नापसन्द) माना गया है।

(3) हलाल [जिनका गोश्त खाना हराम न हो और जिनके बारे में अल्लाह और अल्लाह के नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने बता दिया हो।] जानवर जो इधर-उधर खुले फिरते हैं, जैसे मुर्ग़ियाँ, गाय, बैल, भैंस वग़ैरह, अगर ये पानी में मुँह डाल दें तो पानी मकरूह हो जाएगा और अगर इनके मुँह में गन्दगी लगी हो और देख ली जाए और वे पानी पी लें तो पानी नापाक हो जाएगा। इसी तरह ग़ैर-मर्द का जूठा औरत के लिए और ग़ैर-औरत का जूठा मर्द के लिए मकरूह (नापसन्द) है।

(4) थोड़े पानी में ऐसे जानवर गिर जाएँ या मर जाएँ जिनमें ख़ून होता है, जैसे बिल्ली, चूहा, बकरी, मुर्ग़ी, कौआ, गौरय्या वग़ैरह तो पानी नापाक हो जाएगा।

(5) छत पर गन्दगी पड़ी है और पानी बरसा और परनाला चला तो अगर छत आधी या आधी से ज़्यादा नापाक है तो परनाले का पानी नापाक होगा। अगर गन्दगी परनाले के पास ही है और इतनी है कि सब पानी उससे मिलकर आता है तो वह सब पानी नापाक होगा।

(6) जो पानी में रहते हैं लेकिन वे पानी में पैदा नहीं होते, जैसे बत्तख़ और मुर्ग़ाबी वग़ैरह, ये थोड़े पानी में मर जाएँ तो पानी नापाक हो जाएगा।

(7) मुर्दार के बाल, सींग, हड्डी, और दाँत वग़ैरह पर उसकी कुछ चिकनाई वग़ैरह लगी हो तो वह नापाक है और पानी को नापाक कर देती है।

पानी का पाक रहना

(1) आदमी चाहे मुसलमान हो या न हो सबका जूठा पाक है, चाहे वह ख़ुद नापाक ही हो और इन सबका पसीना भी पाक है। इससे पानी पाक ही रहता है।

(2) हलाल जानवरों का जूठा भी पाक है, चाहे वे चौपाए हों या चिड़ियाँ।

(3) दरियाई जानवरों का जूठा भी पाक है, चाहे वे हलाल हों या हराम।

(4) घोड़े का जूठा और गधे, ख़च्चर का पसीना पाक है।

(5) वे जानवर जो पानी ही में रहते और पैदा होते हैं, जैसे मछली, मेंढक [ख़ुश्की का मेंढक भी इन्हीं में शामिल है।], केकड़ा वग़ैरह, पानी में इनके गिरने या मरने से पानी पाक रहता है चाहे वे उसमें सड़ ही जाएँ।

(6) वे जानवर जिनमें बहता हुआ ख़ून नहीं होता, जैसे मक्खी, मच्छर, भिड़, चींटी वग़ैरह इनके गिरने या मर जाने से पानी पाक रहता है।

(7) मुर्दार जानवर या ज़िब्ह किए हुए जानवर की हड्डी और उसका बाल और सींग वग़ैरह, जबकि मुर्दार की हड्डी वग़ैरह पर चिकनाई न हो, पानी में पड़ जाए तो पानी पाक रहता है लेकिन सुअर की हर चीज़ और कुत्ते की राल (लार) नापाक है।

साँप, सुअर और चूहे की खाल के सिवा सब खालें सूखकर पाक हो जाती हैं या उसकी दबाग़त [चमड़ा बनाना] दे दी जाए फिर मशक बनाकर पानी रखें तो पानी पाक रहता है।

नोट- गधे, ख़च्चर के जूठे पानी या जिस पानी में छोटा बच्चा हाथ डाल दे तो ऐसे पानी के पाक और नापाक होने में शक है, इसका मतलब यह है कि अगर दूसरा पानी मौजूद हो या आसानी से मिल सकता हो तो इस शकवाले पानी से वुज़ू न किया जाए।

कुएँ का पानी

ऊपर जिन गन्दगियों और हराम, हलाल जानवरों और उनके जूठे पानी के बारे में बताया गया है, अगर इस तरह की कोई गन्दगी कुएँ में गिरे या वे जानवर कुएँ में गिर जाएँ या मर जाएँ तो—

(1) कभी ऐसा होता है पूरा कुआँ नापाक हो जाता है और उसका सब पानी निकालना पड़ता है।

(2) कभी कुएँ का थोड़ा पानी नापाक होता है।

(3) कभी कुआँ नापाक ही नहीं होता। इन सबका बयान यहाँ लिखा जा रहा है। कुएँ के अलावा दूसरी तरह के थोड़े पानी का भी यही हुक्म है।

पूरा कुआँ नापाक होना

(1) कुएँ में छोटी-बड़ी कोई गन्दगी गिर जाए, जैसे हलाल जानवरों का गोबर या लीद [गोबर या लीद थोड़ी-सी गिर जाने पर कुआँ नापाक नहीं होता लेकिन इससे बचना चाहिए] या आदमी का पाख़ाना-पेशाब, ख़ून, पीप, शराब, मुर्ग़ी और बत्तख़ की बीट गिर जाए तो पूरा कुआँ नापाक हो जाएगा।

(2) अगर ऐसा जानवर गिर जाए जिसका जूठा नापाक है, जैसे कुत्ता, सुअर तो सारा पानी नापाक हो जाएगा। इसी तरह अगर इन जानवरों का जूठा गिरे तो भी पानी नापाक हो जाएगा।

(3) अगर कोई ऐसी चीज़ जैसे जूता, चप्पल, कपड़ा वग़ैरह कुएँ में गिर जाए, तो जिसपर गन्दगी लगी हो और यक़ीन भी हो कि गन्दगी लगी थी, तो पूरा पानी नापाक हो जाएगा। शक होने पर कि न जाने लगी थी या नहीं, पानी नापाक न होगा।

(4) अगर आदमी, बैल, भैंस या बकरी के बराबर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर जाए या दो बिल्लियाँ या कई चूहे एक साथ कुएँ में गिरकर मर जाएँ तो पूरा पानी नापाक हो जाएगा, लेकिन अगर वे ज़िन्दा निकल आएँ तो पानी नापाक न होगा। हाँ, अगर यह यक़ीन हो कि इनके बदन पर गन्दगी लगी थी तो फिर ज़िन्दा निकल आने पर भी पूरा पानी नापाक हो जाएगा।

(5) अगर छोटे जानवर या चिड़ियाँ जैसे गौरय्या, कबूतर, मुर्ग़ी, बिल्ली, चूहा, नेवला, साँप या कोई बहते ख़ूनवाला छोटा जानवर पानी में गिर जाए और उसी में मरने के बाद फूल या फट जाए तो पूरा पानी नापाक हो जाएगा। उसके बालों या परों का गिर जाना फटने की निशानी है।

(6) अगर कोई जानवर ज़ख़्मी हो और उसके बदन से ख़ून या पीप बह रहा हो और वह कुएँ में गिर जाए तो ख़ून की वजह से, जो कि नापाक है, सारा पानी नापाक हो जाएगा।

(7) जिस कुएँ का पानी नापाक हो अगर उसका कुछ पानी किसी दूसरे कुएँ में पड़ जाए तो दूसरे कुएँ का पानी भी नापाक हो जाएगा।

(8) मरा हुआ जानवर कुएँ में गिर जाए तो कुएँ का पानी नापाक हो जाएगा।

पूरे नापाक कुएँ को पाक करना

ऐसे कुएँ का सारा पानी निकाल देना चाहिए और जब तह की मिट्टी दिखाई दे तो फिर छोड़ दिया जाए। लेकिन अगर कुआँ इतना बड़ा हो कि उसका पूरा पानी न निकाला जा सकता हो या उसके चश्मे (स्रोत) से पानी इतनी तेज़ी से आता हो कि जितना पानी निकाला जाए उतना फिर भर जाता हो तो इस हालत में कुएँ के पानी का अन्दाज़ा करके उतना ही पानी निकाल देना चाहिए। अन्दाज़ा इस तरह किया जा सकता है कि रस्सी से कुएँ का पानी नाप लिया जाए, इसके बाद सौ डोल निकालकर नापा जाए और देखा जाए कि कितना पानी कम हुआ, फिर पूरे पानी की नाप के डोलों की तादाद मालूम कर ली जाए और उतने ही डोल पानी निकाल दिया जाए। जैसे मान लो 100 डोलों पर एक फ़ुट पानी कम हुआ तो अगर पूरे पानी की नाप 20 फ़ुट है तो 20x100 = 2000 डोल पानी निकाल देना चाहिए। डोल या घड़ा न बड़ा हो न छोटा बल्कि वही होना चाहिए जो आमतौर से इस्तेमाल किया जाता हो। अगर चमड़े के बड़े डोल (पुर) से पानी निकालें तो देख लें कि पुर में कितने डोल पानी आता है, उसी हिसाब से पानी निकालें।

कुएँ के अन्दर की दीवार, कंकर, पत्थर धोने की ज़रूरत नहीं, वे सब पानी निकलते-निकलते आपसे आप पाक हो जाते हैं। इसी तरह रस्सी और डोल भी पानी निकालते-निकालते धुलकर पाक हो जाते हैं।

नोट:

(1) जिस चीज़ के गिरने पर कुआँ नापाक हुआ है अगर वह किसी तरह न निकल सके तो अगर वह चीज़ तो पाक हो, पर नापाकी लगने से नापाक हो गई हो जैसे नापाक कपड़ा, गेंद, जूता वग़ैरह तो माफ़ है। वैसे ही पानी निकाल डालें और अगर वह चीज़ अपने-आप में नापाक है, जैसे मुर्दा जानवर और चूहा वग़ैरह तो जब तक यक़ीन न हो जाए कि सड़-गलकर मिट्टी हो गया है, रुके रहें, इसके बाद कुएँ का सारा पानी निकाल दें, कुआँ पाक हो जाएगा।

(2) जितना पानी कुएँ से निकालना हो, चाहे वह एकदम निकालें चाहे थोड़ा-थोड़ा करके कई बार में दोनों तरह ठीक है।

थोड़े पानी का नापाक होना

(1) यदि कुएँ में कबूतर, मुर्ग़ी, कौआ, बिल्ली या उनके बराबर कोई जानवर या चिड़िया गिरकर मर जाए लेकिन फूले-फटे नहीं तो इससे पूरा कुआँ नापाक नहीं होता, सिर्फ़ ऊपर का पानी नापाक होता है। यही ऊपर का पानी पचास-साठ डोल निकाल देना चाहिए।

(2) अगर चूहा, गौरय्या या ऐसा ही कोई छोटा जानवर या चिड़िया गिरकर मर जाए और सड़े-गले नहीं तो सिर्फ़ ऊपर का इतना पानी नापाक होता है कि पच्चीस-तीस डोल पानी निकाल देने से कुआँ पाक हो जाता है।

कुएँ का नापाक न होना

(1) पाक कपड़ा, पेड़ की पत्तियाँ या कोई और चीज़ कुएँ में गिर जाए तो पानी नापाक नहीं होगा। हाँ, अगर पत्तियाँ इतनी गिर जाएँ कि पानी गाढ़ा हो जाए और रंग या मज़ा बदल जाए तो पानी तो पाक होगा लेकिन वह पानी नापाक को पाक नहीं कर सकता, न उससे वुज़ू कर सकते हैं और न ग़ुस्ल।

(2) जो जानवर कुएँ में रहते हैं या जिनमें ख़ून नहीं होता, जैसे मेंढक, मछली, साँप, कछुआ, मच्छर, मक्खी, छोटी छिपकली वग़ैरह अगर ये कुएँ में गिरें या मरें तो पानी नापाक न होगा।

(3) सुअर को छोड़कर किसी फाड़ खानेवाले या हराम मुर्दा जानवर का बाल, हड्डी, नाख़ुन वग़ैरह गिरने से कुएँ का पानी नापाक नहीं होता।

(4) जिन जानवरों का जूठा पाक है जैसे गाय, बैल, बकरी, मुर्ग़ी वग़ैरह इनके बदन पर गन्दगी नहीं लगी है तो इनके कुएँ में गिरने और ज़िन्दा निकल आने से पानी नापाक नहीं होता।

(5) अगर कुएँ या घर के पानी में गौरय्या या कबूतर वग़ैरह की बीट पड़ जाए तो पानी नापाक नहीं होता।

(6) कोई आदमी चाहे वह मुसलमान हो या काफ़िर, अगर उसके बदन या कपड़े पर गन्दगी नहीं है और वह कुएँ में उतरे या गिर जाए तो पानी पाक रहता है।

कुछ और चीज़ों की पाकी-नापाकी

(1) बड़ी गन्दगी (ग़लीज़ा) में जो चीज़ पतली है, जैसे ख़ून, पेशाब, शराब वग़ैरह वह बदन, कपड़े, चौकी, चारपाई वग़ैरह पर लग जाए तो उसे पानी से धोना चाहिए। अगर ये रुपये की गोलाई के बराबर बदन या कपड़े पर लग जाएँ तो उसे धोए बिना नमाज़ पढ़ सकते हैं लेकिन जान-बूझकर बिना मजबूरी ऐसा करना ठीक नहीं।

बड़ी गन्दगी में कोई गाढ़ी चीज़ जैसे पाख़ाना और गोबर वग़ैरह कपड़े या बदन पर लग जाए तो यह अगर तोल में 3 ग्राम या इससे कम हो तो उसे धोए बिना नमाज़ पढ़ सकते हैं लेकिन बिना ज़रूरत व मजबूरी ऐसा नहीं करना चाहिए, यानी उसे धोना चाहिए।

धोने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस जगह पर गन्दगी लगी हो उसे तीन बार अच्छी तरह धो डालें, इसके बाद शक न करें और बेकार में पानी न बहाएँ। अल्लाह के सामने पानी का भी हिसाब देना होगा।

जिस चीज़ को निचोड़ा नहीं जा सकता, जैसे चौकी, चारपाई, कुरसी वग़ैरह तो उसपर पानी बहा दें। रूई का गद्दा, तोशक, लिहाफ़ वग़ैरह पर बच्चा पाख़ाना-पेशाब कर दे या गन्दगी लग जाए तो उसे पानी से धोना चाहिए, अगर निचोड़ना मुश्किल हो तो उस पर तीन [एक बार पानी बहाकर रुक जाएँ जब पानी टपकना बन्द हो जाए तो दूसरी बार बहाएँ। इसके बाद टपकना बन्द हो जाए तो तीसरी बार बहाएँ।] बार अच्छी तरह पानी बहा दें, रूई निकालकर धोने की ज़रूरत नहीं।

बड़ी गन्दगी अगर जूते पर लग जाए तो उसे रगड़ें या सूखा हो तो खुरचने से जूता पाक हो जाता है। बदन या कपड़े पर गाढ़ी मनी लगकर सूख जाए तो खुरचकर अच्छी तरह मल देने से पाक हो जाता है।

आइने का शीशा, छुरी-चाक़ू, चाँदी-सोने का ज़ेवर या धात की चीज़ें अगर नापाक हो जाएँ तो अच्छी तरह पोंछ डालने या रगड़ देने या मिट्टी से माँझ डालने से पाक हो जाती हैं लेकिन नक़्क़ाशी की हुई हो तो धोना चाहिए। दहकती आग में डालने से भी पाक हो जाती हैं।

शहद, शीरा, घी, तेल वग़ैरह नापाक हो जाए तो उसके बराबर या ज़्यादा पानी मिलाकर पानी जला देना चाहिए। इस तरह तीन बार करने से ये चीज़ें पाक हो जाती हैं। घी और तेल को तीन बार पानी में निथार लें तो पाक हो जाएगा।

कुत्ता या बन्दर आटे को जूठा कर दे तो चाहे आटा गुंधा हो या सूखा। जहाँ उसने मुँह डाला हो वहाँ से निकाल दें, बाक़ी पाक है।

लकड़ी का तख़्ता अगर एक ओर नापाक हो और इतना मोटा हो कि चीरा जा सके तो वह दूसरी ओर पाक होगा।

पेशाब की ऐसी नन्हीं-नन्हीं छींटें जो अच्छी तरह देखने पर भी दिखाई नहीं देतीं, कपड़े या बदन पर पड़ जाएँ तो कुछ हरज नहीं।

(2) छोटी गन्दगी (खफ़ीफ़ा) जैसे गाय, बैल, भैंस, बकरी वग़ैरह का पेशाब और तमाम चिड़ियों जैसे कौए, चील, तोते की बीट अगर कपड़े, बदन या किसी और चीज़ के चौथाई हिस्से से कम पर लगी हो और उसी हालत में आदमी नमाज़ पढ़ ले तो नमाज़ हो जाएगी लेकिन मकरूह होगी, इसलिए बिना मजबूरी ऐसा नहीं करना चाहिए।

नोट - जिस कपड़े में जोड़ हो तो हर जोड़ अलग-अलग हिस्सा है जैसे कुरते की आसतीन, दामन, पाजामे की दोनों मुहरियाँ और कलियाँ वग़ैरह। इसी तरह बदन के हर हिस्से को चौथाई समझना चाहिए।

बदन को पाक करना

बदन को पाक करने के चार तरीक़े हैं—

(1) इस्तिंजा (2) वुज़ू (3) ग़ुस्ल (4) तयम्मुम।

(1) इस्तिंजा

पाख़ाना या पेशाब करने के बाद पाख़ाना-पेशाब करने की जगहों को पाक करना इस्तिंजा कहलाता है। इसका तरीक़ा यह है—

पाख़ाना-पेशाब करने के बाद पाख़ाना-पेशाब निकलने की जगहों को पहले ढेलों से साफ़ कर डालें फिर पानी से धो लें। अगर पाख़ाना-पेशाब निकलने की जगह से फैले नहीं तो सिर्फ़ ढेले ही से इस्तिंजा करके पाक हो सकते हैं। लेकिन पाख़ाना-पेशाब एक रुपये की गोलाई के बराबर फैल जाए तो फिर पानी से धोना ज़रूरी है। इस बारे में नीचे लिखी हुई बातों को ध्यान में रखना चाहिए—

(1) रात या दिन में सोकर उठने के बाद पहले अपने दोनों हाथों को धो डालना चाहिए, इसके बाद पानी लेना चाहिए और फिर इस्तिंजे के लिए जाना चाहिए।

(2) पेशाब या पाख़ाना करते वक़्त पूरब या पश्चिम की तरफ़ मुँह करके नहीं बैठना चाहिए और न बच्चों को पूरब-पश्चिम की तरफ़ मुँह करके बिठाकर पाख़ाना-पेशाब कराना चाहिए। सूरज की तरफ़ मुँह करके पेशाब करना भी मना है।

(3) हड्डी, गोबर, कोयला, कपड़ा या खाने की चीज़ से इस्तिंजा करना ठीक नहीं।

(4) पाक मिट्टी, कंकर-पत्थर, पक्की ईंट के टुकड़े से इस्तिंजा किया जा सकता है पर ये चीज़ें पानी में तर न हों, सूखी होनी चाहिएँ।

(5) दाहिने हाथ से इस्तिंजा नहीं करना चाहिए, चाहे पानी से इस्तिंजा करें या ढेले से।

(6) अगर किसी को पेशाब करने के बाद कुछ देर तक पेशाब के क़तरे निकलते रहते हों तो उसे पहले ढेले आदि से इस्तिंजा कर लेना चाहिए। फिर पानी से धोना चाहिए। दस, बीस क़दम चलकर वह टहल ले तो और अच्छा है, इस तरह पेशाब की जो बूदें निकलनी होंगी वे निकल जाएँगी और जगह ख़ुश्क हो जाएगी, लेकिन औरतों और बच्चों के सामने या किसी मजमे के पास जैसे बाज़ार या प्लेटफ़ार्म वग़ैरह पर ढेले से इस्तिंजा करते हुए टहलना नहीं चाहिए।

(2) वुज़ू

वुज़ू करने का तरीक़ा यह है कि आदमी वुज़ू का इरादा और नीयत करके 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' पढ़े। फिर दोनों हाथ गट्टों तक तीन बार धोए। फिर तीन बार कुल्ली करे, मिस्वाक (दातून) करे या उँगली से दाँत साफ़ करे, ग़रारा [हलक़ तक पानी पहुँचाना, रोज़े से हो तो ग़रारा न करे।] भी करे। फिर तीन बार नाक में पानी डाले और बाएँ हाथ से नाक साफ़ करे। इसके बाद तीन बार मुँह धोए, माथे के बालों से लेकर ठोढ़ी के नीचे तक और इस कान की लौ से उस कान की लौ तक तमाम जगह पानी पहुँचाए। दाढ़ी घनी हो तो उसमें उँगलियों से ख़िलाल [जिस तरह, कंघी बालों में डालते हैं उसी तरह पंजा डालकर बाल और उनकी जड़ें भिगोना।] करे फिर तीन बार दाहिना हाथ कुहनियों समेत धोए। इसके बाद तीन बार बायाँ हाथ कुहनियों समेत धोए। नाक में कील या नथनी, हाथ में चूड़ी या कड़ा, उँगलियों में अँगूठी या छल्ला हो तो उसे हिला ले या फिरा ले कि उसके नीचे की खाल भीग जाए, साथ ही दोनों हाथों की उँगलियों को एक-दूसरे में डालकर ख़िलाल करे। फिर एक बार सारे सिर का मसह [दोनों हाथों की भीगी उँगलियों को मिलाकर सिर पर फेरना।] करे, फिर कान का मसह करे, कान के अन्दर शहादत की उँगली से और कान के ऊपरी हिस्से का मसह अँगूठों से करे। फिर उँगलियों को मिलाकर उनकी पीठ से गरदन के पिछले हिस्से का मसह करे, आख़िर में दोनों पैर टख़नों समेत तीन-तीन बार धोए, पहले दाहिना पैर, फिर बायाँ पैर। पैरों की उँगलियों में बाएँ हाथ की छोटी उँगली से ख़िलाल करे। पैरों में ख़िलाल दाहिने पैर की छोटी उँगली से शुरू करे और बाएँ पैर की छोटी उँगली पर ख़त्म करे।

वुज़ू में फ़र्ज़

(1) एक बार सारे चेहरे को धोना।

(2) एक-एक बार दोनों हाथ कोहनियों समेत धोना।

(3) एक बार चौथाई सिर का मसह करना।

(4) एक-एक बार टख़नों समेत दोनों पाँव धोना।

अगर इन चारों में से कोई हिस्सा बाल बराबर भी सूखा रह जाएगा तो वुज़ू न होगा। इसलिए अगर नाख़ूनों में आटा लगकर सूख गया हो या माथे में अफ़शाँ चुनी हो या कहीं कोई ऐसी चीज़ लगी हो जिसकी वजह से पानी खाल तक न पहुँच सके तो वे सब छुड़ा देनी चाहिए, अफ़शाँ भी छुड़ा देनी चाहिए, ऐसा न किया तो वुज़ू न होगा।

सहूलतें

कोई मजबूरी हो तो शरीअ़त ने कुछ सहूलतें भी दी हैं, वे सहूलतें ये हैं—

(1) अगर किसी का हाथ-पैर जाड़े के मारे फट गया हो और उसमें कोई दवा (मरहम, मोम, वैसलीन वग़ैरह) भर ली तो उसके ऊपर से पानी बहा लेना चाहिए, दवा के निकालने की ज़रूरत नहीं।

(2) वुज़ू के बाद मालूम हुआ कि कोई हिस्सा सूखा रह गया तो उसपर हाथ फेर लेना काफ़ी नहीं, उसे धो लेना चाहिए, फिर से वुज़ू करने की ज़रूरत नहीं।

(3) अगर बदन में किसी जगह ज़ख़्म हो या फोड़ा-फुंसी निकल आए और उसपर पानी लगने से बीमारी या तकलीफ़ बढ़ने का डर हो तो उसपर मसह कर लेना या हाथ फेर लेना काफ़ी है, और अगर इस तरह भी तकलीफ़ बढ़े तो वुज़ू करने में वह जगह छोड़ दी जाए।

(4) अगर किसी ज़ख़्म या फोड़े-फुंसी पर पट्टी बँधी हो और उसके खोलने में परेशानी और दुख हो तो पट्टी के ऊपर ही मसह कर लेना चाहिए।

(5) अगर किसी आदमी के बदन में ऐसा ज़ख़्म है कि उससे हर वक़्त ख़ून बहता रहता है या औरत को हैज़ के बाद इस्तिहाज़ा का ख़ून आता ही चला जाए या नकसीर फूट गई और ख़ून बन्द नहीं होता या किसी आदमी को पेशाब की बीमारी है और हर वक़्त पेशाब की बून्द आती रहती है ऐसा आदमी वुज़ू करके नमाज़ पढ़ ले। इसके बाद ख़ून, मवाद और पेशाब बहे तो बहने दे।

(6) कोई ऐसा बीमार हो कि वुज़ू करने में उसकी बीमारी के बढ़ने का डर हो या पानी ही न मिल सके तो तयम्मुम कर ले। तयम्मुम का तरीक़ा आगे बताया गया है।

(7) अगर कोई वुज़ू करके चमड़े या ऐसे मोटे कपड़े के मोज़े पहन ले कि उससे पानी न छने तो घर पर एक दिन और एक रात (24 घंटे) और सफ़र में तीन दिन और तीन रात तक (72 घंटे) वुज़ू टूटने पर वुज़ू करते वक़्त उन्हीं मोज़ों पर मसह कर लिया करे।

मोज़े और उनपर मसह

ये मोज़े चमड़े या ऐसे मोटे कपड़े के हों जिनमें पानी न छने। इन मोज़ों से पैरों के टख़ने ढके रहें। इनमें से कोई इतना न फटा हो कि पैर की तीन उँगलियाँ दिखाई दें। चलते वक़्त मोज़े पैर में टिके रहें और मोज़े वुज़ू करके पहने गए हों। इसके बाद अगर वुज़ू टूटे तो फिर वुज़ू करते वक़्त उनपर मसह करना ठीक होगा, वरना नहीं।

मोज़ों पर मसह करने का तरीक़ा यह है कि हाथ की कम से कम तीन उँगलियाँ पानी में भिगोकर पाँव के आगे की तरफ़ रखे फिर पाँव पर बिछाकर टख़ने की तरफ़ खींच ले जाए। दाहिने हाथ की उँगलियों से दाहिने पाँव के मोज़े पर और बाएँ हाथ की उँगलियों से बाएँ पैर के मौज़े पर। उँगलियों के सिरे पैर पर रखने और खींचने से मसह न होगा।

नोट - हाथ के दस्तानों पर मसह करना ठीक नहीं।

मोज़े का मसह टूटना

(1) मसह का वक़्त (घर पर एक दिन-रात और सफ़र में तीन दिन-रात) पूरा होते ही मसह टूट जाता है।

(2) मोज़े के अन्दर इतना पानी चला जाए कि एक पाँव भी आधा या आधे से ज़्यादा भीग जाए तो मसह टूट जाता है। दोनों मोज़े उतारकर दोनों पाँव धोने पड़ेंगे।

(3) जिन बातों से वुज़ू टूट जाता है, उनसे मसह भी टूट जाता है।

वुज़ू का टूटना

इन बातों से वुज़ू टूट जाता है—

(1) पाख़ाना-पेशाब करना।

(2) पाख़ाना के रास्ते से हवा निकलना।

(3) पाख़ाना-पेशाब की राह से कैचवा, कीड़ा, कंकरी, दाना या किसी और चीज़ का निकलना।

(4) बदन के किसी हिस्से से ख़ून या पीप का निकलकर अपनी जगह से बहना।

(5) बलग़म के अलावा ख़ून, पित्त या खाने-पीने की चीज़ों की मुँह-भर क़ै होना, थोड़ी-थोड़ी कई बार इतनी क़ै होना कि वह मुँह-भर हो जाए।

(6) थूक में आधा या आधे से ज़्यादा ख़ून आना।

(7) मज़ी का आ जाना (बुरे ख़यालों के आने या जोश के वक़्त पानी की तरह जो बूँदें लिंग से निकलती हैं, उनको मज़ी कहते हैं)।

(8) औरत की छाती से दूध के अलावा पानी या किसी और चीज़ का दर्द के साथ निकलना या किसी की नाफ़ (नाभि) या कान से दर्द के साथ पानी निकलना।

(9) दुखती हुई आँखों से इस बीमारी की वजह से पानी निकलना।

(10) लेटकर या टेक लगाकर सो जाना।

(11) बेहोश हो जाना या पागल हो जाना।

(12) किसी नशीली चीज़ के खाने-पीने से ऐसा नशा आ जाना कि डगमगाने और बहकने लगे।

(13) नमाज़ में खिलखिलाकर हँसना।

(14) मर्द-औरत के पेशाब के अंगों का आपस में मिल जाना जबकि बीच में कपड़ा न हो।

(15) फ़स्द लेना या जोंक लगवाना जबकि जोंक इतना ख़ून पी ले कि उसे बीच से काटें तो उससे ख़ून निकले।

ग़ुस्ल (नहाना)

ग़ुस्ल का शरई तरीक़ा यह है कि आदमी पहले दोनों हाथों को गट्टों समेत धोए, फिर इस्तिंजा करे, फिर बदन या कपड़े पर जहाँ गन्दगी लगी हो उसे धोए, फिर वुज़ू करे (कच्ची ज़मीन पर नहाना हो तो अभी पैर न धोए। नहाने के बाद धोए)। वुज़ू के बाद सारे बदन पर पानी डाले और सारे बदन को इस तरह मले कि कहीं सूखा न रहे। इसके बाद दो बार पानी और बहाए (हौज़, तालाब, नदी वग़ैरह में नहाना हो तो तीन डुबकियाँ लगानी चाहिएँ)।

ग़ुस्ल में फ़र्ज़ बातें

अगर इन बातों में कुछ भी कमी रह जाएगी या इनमें कुछ चूक हो जाएगी तो ग़ुस्ल न होगा, फिर से नहाना पड़ेगा। ग़ुस्ल में तीन बातें फ़र्ज़ हैं— (1) कुल्ली करना, (2) नाक में पानी डालना और (3) सारे बदन पर इस तरह पानी बहाना कि बदन का कोई हिस्सा, बाल-बराबर भी, सूखा न रहे। नाख़ुनों के अन्दर और बालों की जड़ों में भी पानी पहुँच जाए। औरत के बाल खुले हों तो उसके सारे बालों और बालों की जड़ों का भीगना ज़रूरी है। लेकिन बाल गुंधे हों तो सिर्फ़ बालों की जड़ों में पानी पहुँचाना वाजिब है। अगर इस तरह बालों की जड़ों में पानी न पहुँचे तो फिर बाल खोल डाले।

औरत तंग ज़ेवर पहने हो तो उन्हें हिला ले ताकि उनके नीचे की खाल सूखी न रहे। मर्द के बाल बड़े हों तो उसे हर हालत में बालों को खोलकर नहाना और बालों और उनकी जड़ों को भिगोना ज़रूरी है।

औरत को अपनी 'शर्म की जगह' में आगे की खाल के अन्दर पानी पहुँचाना फ़र्ज़ है। इसी तरह अगर मर्द का ख़तना नहीं हुआ है तो उसे भी सुपारी के ऊपर की खाल के अन्दर पानी पहुँचाना फ़र्ज़ है।

अगर दाँतों में छालिया का टुकड़ा वग़ैरह फँसा हो तो उसे निकाल देना चाहिए। अगर उसके नीचे पानी न पहुँचा तो ग़ुस्ल (स्नान) न होगा।

माथे की अफ़शाँ, बालों का गोंद, मिस्सी की धड़ी, आँख का सूखा कीचड़ वग़ैरह छुड़ाकर नहाना चाहिए, अगर उसके नीचे की जिल्द न भीगी तो ग़ुस्ल न होगा।

तयम्मुम

शरीअ़त में पाक मिट्टी या जिस चीज़ को पाक मिट्टी का मक़ाम दिया गया है, उससे पाक होने के तरीक़े को 'तयम्मुम' कहते हैं।

तयम्मुम की चीज़ें

पाक मिट्टी (किसी चीज़ की राख को मिट्टी नहीं कहते, राख से तयम्मुम ठीक नहीं) पत्थर, कंकर, रेत, चूना, मिट्टी की कच्ची या पक्की ईंट, गेरू, पत्थर या मिट्टी या ईंट की दीवार, मिट्टी के कच्चे-पक्के बरतन (चाहे उनमें पानी भरा हो या ख़ाली हों लेकिन रोग़न या वार्निश न फिरी हो) इन सबसे तयम्मुम हो सकता है। किसी लकड़ी या कपड़े या किसी और पाक चीज़ पर गर्द पड़ गई हो तो उससे भी तयम्मुम किया जा सकता है जबकि अच्छी तरह हाथ में लग जाए।

तयम्मुम का तरीक़ा

'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' पढ़कर तयम्मुम के इरादे से दोनों हाथों को हथेलियों की तरफ़ से मिट्टी पर मारे। फिर दोनों हाथों को चेहरे पर मल ले। दाढ़ी में ख़िलाल भी करे। (दाढ़ी में उँगलियाँ डालकर कंघी की तरह करे कि उँगलियाँ जिल्द से लग जाएँ)। हाथों में मिट्टी ज़्यादा लग जाए तो झाड़ दे, भभूत की तरह मलने की ज़रूरत नहीं। औरत अगर नाक की कील, नथनी या कोई और ज़ेवर पहने हो तो उसे हिला ले इसके बाद दोनों हाथों को हथेली की ओर से मिट्टी पर मारकर बाएँ हाथ से दाहिने हाथ को कुहनी समेत और दाहिने हाथ से बाएँ हाथ को कुहनी समेत अच्छी तरह मले। हाथ में तंग कपड़ा या चूड़ी या कोई ज़ेवर पहने हो तो उसे फेर ले और ज़ेवर के नीचे की जगह मल ले। वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों के बदले इतना ही तयम्मुम किया जाता है। ग़ुस्ल के बदले पूरे बदन का तयम्मुम नहीं किया जाता।

तयम्मुम में फ़र्ज़

(1) नीयत यानी इरादा करना।

(2) दोनों हाथों को पाक मिट्टी पर मारकर चेहरे पर अच्छी तरह मलना कि बाल बराबर जगह न छूटे।

(3) दोनों हाथों को दूसरी बार मिट्टी पर मारकर कुहनियों समेत इस तरह मलना कि ज़रा-सी जगह भी न छूटे।

तयम्मुम कब करें?

(1) जब पानी इतनी दूर हो कि पानी लाने में नमाज़ का वक़्त बीत जाने का डर हो।

(2) कुआँ तो हो लेकिन पानी निकालने का सामान न हो।

(3) पानी के पास कोई शेर या साँप जैसा जानवर हो या दुश्मन हो कि पास जाने से नुक़सान पहुँचने का डर हो।

(4) रेल, हवाई जहाज़ या मोटर पर सवार हो और उसपर पानी न मिल सकता हो या वुज़ू करने का मौक़ा न हो या उतरकर पानी लाने में सवारी के छूट जाने का डर हो।

(5) पानी लगने से कोई बीमारी पैदा हो जाने या बढ़ने का डर हो और गर्म पानी काम में लाने से भी नुक़सान हो।

(6) इतना पानी हो कि अगर उससे वुज़ू कर ले तो फिर प्यासा रह जाने का डर हो या खाना न पकाने पर भूखों मरने का डर हो।

(7) पानी तो हो लेकिन उठकर न ले सकता हो और दूसरा कोई देनेवाला भी न हो।

(8) वुज़ू या ग़ुस्ल करने में किसी ऐसी नमाज़ के छूट जाने का डर हो जिसकी बाद में क़ज़ा नहीं पढ़ी जाती, जैसे ईद-बक़रीद और जनाज़े की नमाज़।

कुछ और ज़रूरी बातें

(1) अगर किसी को ग़ुस्ल की ज़रूरत है और ग़ुस्ल से नुक़सान का डर हो लेकिन वुज़ू करने में नुक़सान का डर न हो तो ग़ुस्ल के लिए तयम्मुम कर ले और हर नमाज़ के वक़्त तयम्मुम के बदले वुज़ू करके नमाज़ पढ़े।

(2) अगर पानी इतना कम हो कि सिर्फ़ वुज़ू के फ़र्ज़ अदा हो सकें (एक-एक बार मुँह, हाथ, पाँव धो सके और मसह कर सके) तो तयम्मुम न करे, वुज़ू कर ले।

(3) अगर किसी ने पानी की तलाश अच्छी तरह कर ली और फिर पानी न मिलने पर तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ ली, इसके बाद पता चला कि पानी तो पास ही मौजूद है तो अब वुज़ू करके नमाज़ दुहराने की ज़रूरत नहीं। हाँ, अगर पानी के लिए कोशिश नहीं की तो वुज़ू करके नमाज़ दुहरानी होगी।

(4) अगर कोई ऐसी सवारी पर है कि उतर नहीं सकता और पानी और मिट्टी भी पास नहीं तो वुज़ू और तयम्मुम के बिना ही नमाज़ पढ़ लेनी चाहिए। इस तरह की मजबूरी अगर जेल में क़ैदी को हो तो उसे भी ऐसा ही करना चाहिए। इसके बाद जब पानी या मिट्टी मिल जाए तो वुज़ू या तयम्मुम करके नमाज़ दुहरा ले।

(5) पानी और मिट्टी हो लेकिन किसी दूसरे आदमी की तरफ़ से रुकावट पैदा कर दी जाए, वुज़ू या तयम्मुम करने से ज़बरदस्ती रोक दिया जाए तो भी वुज़ू और तयम्मुम के बिना नमाज़ पढ़ ले, इसके बाद जब रुकावट दूर हो जाए तो फिर दुहरा ले।

(6) किसी जगह ज़मीन पर पेशाब वग़ैरह या कोई नापाक चीज़ पड़ गई। और धूप से सूख गई और बू भी जाती रही तो वह ज़मीन पाक हो गई। उसपर नमाज़ पढ़ सकते हैं, लेकिन उससे तयम्मुम नहीं कर सकते।

(7) किसी को बताने के लिए तयम्मुम करने से अपना तयम्मुम नहीं होता, अपने तयम्मुम के लिए नीयत करना ज़रूरी है।

(8) पानी थोड़ा है लेकिन बदन भी नापाक है और कपड़े भी, तो कपड़े धो ले। बदन के लिए तयम्मुम कर ले।

तयम्मुम का टूटना

(1) जिन बातों से वुज़ू टूट जाता है, उनसे तयम्मुम भी टूट जाता है।

(2) जिन बातों से ग़ुस्ल फ़र्ज़ हो जाता है, उनसे तयम्मुम टूट जाता है।

(3) जिस मजबूरी के तहत तयम्मुम किया जाता है, वह मजबूरी दूर होने से भी तयम्मुम टूट जाता है।

नमाज़

नमाज़ हर उस आदमी पर फ़र्ज़ [ऐसे तमाम काम फ़र्ज़ हैं जिनका हुक्म क़ुरआन या हदीस में खुले तौर पर आया हो, इनका इनकार करनेवाला काफ़िर और किसी मजबूरी के बिना छोड़नेवाला फ़ासिक (अल्लाह के हुक्मों को तोड़नेवाला) और बड़ा गुनाहगार है।] है जो समझ रखता है (पागल नहीं है) और बालिग़ हो चुका है। इस्लाम में यह इतनी ज़रूरी इबादत है, जो किसी भी वक़्त और किसी भी हालत में माफ़ नहीं है। मुसाफ़िर हो या बीमार, नमाज़ पढ़ना सबके लिए ज़रूरी है। खड़ा न हो सके तो बैठकर पढ़े, बैठ न सके तो लेटे-लेटे इशारे से पढ़े, यहाँ तक कि मरते दम भी अगर सुध-बुध है तो माफ़ नहीं। नमाज़ में सुस्ती करनेवाले के बारे में क़ुरआन में बहुत सख़्त बातें कही गई हैं।

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने भी नमाज़ के लिए बड़ी ताकीद की है। आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने नमाज़ को अपनी आँखों की ठंडक और दीन का सुतून (स्तम्भ) बताया है। जिसने यह सुतून ढा दिया उसने इस्लाम की इमारत ही गिरा दी। और फ़रमाया कि जिस तरह बार-बार नहाने से बदन का मैल-कुचैल साफ़ हो जाता है उसी तरह पाँच बार नमाज़ पढ़ने से आदमी गुनाहों से पाक हो जाता है। आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने नमाज़ को मुसलमान होने की पहचान बताया और यहाँ तक कह दिया कि जिसने जान-बूझकर नमाज़ छोड़ दी, उसने कुफ़्र किया।

नमाज़ का वक़्त और तादाद

दिन-भर में पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ हैं।

(1) फ़ज्र

सवेरे पौ फटने के बाद से सूरज निकलने तक फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त रहता है। इस नमाज़ में पहले दो रकअत सुन्नत फिर दो रकअत फ़र्ज़ है।

(2) ज़ुह्र

दोपहर को सूरज ढलने के बाद से लेकर हर चीज़ की परछाई उसकी असली परछाई को छोड़कर उस चीज़ से दूनी होने तक [जैसे एक हाथ लकड़ी की परछाई ठीक दोपहर को चार अंगुल थी, यह असली परछाई हुई। तो जब तक दो हाथ और चार अंगुल न हो ज़ुह्र का वक़्त रहता है।] इस नमाज़ का वक़्त रहता है। इस नमाज़ में पहले चार रकअत सुन्नत, फिर चार रकअत फ़र्ज़, फ़िर दो रकअत सुन्नत फिर दो रकअत नफ़्ल पढ़ी जाती है।

(3) अस्र

ज़ुह्र की नमाज़ का वक़्त बीतने के बाद ही अस्र की नमाज़ का वक़्त शुरू हो जाता है और सूरज डूबने तक रहता है। इस नमाज़ में पहले चार रकअत सुन्नत फिर चार रकअत फ़र्ज़ पढ़ते हैं।

(4) मग़रिब

सूरज डूबने के बाद ही मग़रिब का वक़्त शुरू हो जाता है और पश्चिम की तरफ़ आसमान पर लाली रहने तक बाक़ी रहता है। मग़रिब की नमाज़ में पहले 3 रक़अत फ़र्ज़ हैं, फिर दो रकअत सुन्नत, फिर दो रकअत नफ़्ल।

(5) इशा

मग़रिब की नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने पर इशा का वक़्त शुरू हो जाता है और सवेरे पौ फटने तक रहता है। इशा की नमाज़ में पहले चार रकअत सुन्नत, फिर चार रकअत फ़र्ज़, फिर दो रकअत सुन्नत, फिर दो रकअत नफ़्ल, फिर तीन रकअत वित्र (वाजिब) और आख़िर में दो रकअत नफ़्ल पढ़ी जाती है।

अज़ान

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने मर्दों को नमाज़ के लिए अज़ान का हुक्म दिया है लेकिन औरतों को अज़ान देने से मना फ़रमाया है। ईद, बक़रीद और जनाज़े की नमाज़ के लिए भी अज़ान देने को मना कर दिया। सफ़र में और छूटी हुई नमाज़ों को अदा करने के लिए अज़ान देना ज़रूरी नहीं है। अकेला आदमी घर में नमाज़ पढ़े तो अज़ान न कहे।

नोट - जुमे की अज़ान के बाद जुमे की फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने तक ख़रीदना-बेचना, कारोबार और दुनियावी काम-काज करना हराम है।

अज़ान का तरीक़ा

नमाज़ का वक़्त होने पर किसी ऊँची जगह खड़े होकर दोनों हाथों की उँगली जो अँगूठे के पास होती है, दोनों कानों में डाल ले। फिर पूरी आवाज़ के साथ कहे—

अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर,

(अल्लाह सब से बड़ा है)

अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह, अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह,

(में गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं)

अश्हदु अन्न मुहम्मदर्-रसूलुल्लाह, अश्हदु अन-न मुहम्मदर्-रसूलुल्लाह,

(मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं)

हय-य अलस्सलाह, हय-य अलस्सलाह,

(आओ नमाज़ की तरफ़)

हय-य अलल-फ़लाह, हय-य अलल-फ़लाह,

(आओ कामयाबी की तरफ़)

अल्लाहु-अकबर, अल्लाहु-अकबर,

(अल्लाह सब से बड़ा है)

ला इला-ह इल्लल्लाह।

(अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं)

'हय-य अलस्सलाह' कहते वक़्त दाहिनी तरफ़ और 'हय-य अलल-फ़लाह' कहते वक़्त बाईं तरफ़ मुँह फेरना चाहिए। फ़ज्र की अज़ान में 'हय-य अलल-फ़लाह' के बाद कहे—

'अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम', 'अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम'

(नमाज़ नीन्द से बेहतर है)

अज़ान के बाद की दुआ

अल्लाहुम-म रब-ब हाज़िहिद्-दअ़वतित्ताम्मति वस्सलातिल-क़ाइ-मति आति मुहम्म-द-निल वसी-ल-त वल फ़ज़ी-ल-त वद्द-र-जतर्र रफ़ीअ-त वब्-अ़स्हु मक़ा-मम्-महमू-द-निल्लज़ी वअ़त्तहू।

(ऐ अल्लाह! इस पूरी पुकार के और क़ायम होनेवाली नमाज़ के रब! हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) को (अपना) वसीला और बड़ाई प्रदान कर और उनको ऊँचा दर्जा दे और उनको पसन्दीदा मक़ाम पर पहुँचा, जिसका तूने वादा किया है।)

अगर अज़ान भूल से या किसी वजह से न कही जाए तो इसके बिना भी नमाज़ हो जाती है लेकिन 14 बातें ऐसी हैं कि अगर वे छूट जाएँ तो नमाज़ न होगी, ये 14 बातें फ़र्ज़ हैं, सात नमाज़ से पहले उसकी तैयारी में और सात नमाज़ पढ़ने में।

नमाज़ से पहले फ़र्ज़

(1) वक़्त पर नमाज़ पढ़ना (2) पाक होकर वुज़ू के साथ नमाज़ पढ़ना (3) नमाज़ी के कपड़ों का पाक होना (4) नमाज़ की जगह का पाक होना (5) नमाज़ी का बदन कपड़े से छिपा होना [मर्द को घुटनों से नाफ़ (नाभि) तक बदन छिपाना फ़र्ज़ है और औरतों को चेहरा, हाथ और पैर के सिवा सारा बदन छिपाना फ़र्ज है, औरत के टख़ने खुल जाएंगे तो नमाज़ न होगी।] (6) काबे की तरफ़ मुँह होना। (7) दिल में नमाज़ की नीयत करना।

नमाज़ में फ़र्ज़

(1) नीयत करने के बाद 'अल्लाहु-अकबर' कहना (2) सीधे खड़े होना (3) क़ुरआन की कम से कम तीन छोटी-छोटी आयतें या इनके बराबर या इनसे बड़ी एक आयत पढ़ना (4) रुकू करना (5) दोनों सजदे करना (6) आख़िरी रकअत में इतनी देर बैठना जितनी देर 'अत्तहिय्यात' पढ़ने में लगती है (7) इरादा करके नमाज़ से अलग होना।

नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा

जिस वक़्त की जितनी रकअत नमाज़ पढ़नी हो, आदमी सीधे खड़े होकर उसकी नीयत करे। फिर 'अल्लाहु अकबर' कहते हुए दोनों हाथों को कानों की लौ तक इस तरह ले जाए कि मुट्ठियाँ खुली हुई हों और हथेलियाँ काबे की ओर रहें। इसके बाद हाथों को नाफ़ के पास लाकर बाँध ले। पहले बाएँ हाथ की हथेली नाफ़ के पास रखे फिर बाएँ हाथ की हथेली की पीठ पर दाहिने हाथ की हथेली रखे और दाहिने हाथ के अँगूठे और छोटी उँगली से बाएँ हाथ के गट्टे को हलके से पकड़ ले। हाथ बाँधने के बाद यह दुआ पढ़े—

'सुबहा-न कल्लाहुम-म व बिहम्दि-क व तबा-र-कस्मु-क व तआ़ला जद्दु-क व ला इला-ह ग़ैरु-क।'

(ऐ अल्लाह! तू पाक है। शुक्र और तारीफ़ तेरे ही लिए है। तेरा नाम बरकतवाला है। तेरी शान सबसे ऊँची है। तेरे सिवा कोई इलाह (पूज्य) नहीं।)

दुआ के बाद अऊज़ु बिल्लाहि मि-नश्शैतानिर्रजीम" और बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" पढ़कर सूरा फ़ातिहा पढ़े। सूरा फ़ातिहा के बाद 'आमीन' कहे। अब क़ुरआन की कोई सूरा या कम से कम तीन छोटी-आयतें या इनके बराबर या इनसे बड़ी एक आयत पढ़े। फिर 'अल्लाहु-अकबर' कहता हुआ रुकू करे। रुकू में दोनों हाथों की उँगलियों को फैलाकर घुटनों को पकड़ ले। झुकने में पीठ सीध में रखे अब इत्मीनान के साथ ठहर-ठहरकर तीन या पाँच या सात बार

"सुबहा-न रब्बियल-अज़ीम"

(मेरा रब जो बड़ी शानवाला है (हर तरह की बुराई और शिर्क से) पाक है) कहे। इसके बाद

"समिअल्लाहु लिमन हमिदह्"

(अल्लाह ने उसकी सुन ली, जिसने उसका शुक्र और तारीफ़ की।)

कहते हुए सीधा खड़ा हो जाए और खड़े होकर कहे—

'रब्बना लकल-हम्द'

(ऐ हमारे रब! शुक्र और तारीफ़ तेरे ही लिए है।)

[इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ता हो तो समिअल्लाहु लिमन हमिदह् न कहे सिर्फ़ "रब्बना ल-कल हम्द" कहे।]

यह कह चुके तो 'अल्लाहु-अकबर' कहता हुआ सजदे में जाए। सजदा करते वक़्त पहले दोनों घुटने ज़मीन पर रखे। फिर दोनों हाथों के पंजे उँगलियाँ मिलाकर काबा के रुख़ बिछाए। फिर नाक और माथा टेक दे। हाथों के पंजे कानों के बराबर और काबा की तरफ़ रहें। दोनों पैरों की उँगलियाँ भी काबा की तरफ़ रहें। सजदा करते वक़्त पाँव ज़मीन से न उठने पाएँ। हाथों की कुहनियाँ और कलाइयाँ ज़मीन से न मिलें और पेट रानों से अलग रहे।

सजदे में इत्मीनान से ठहर-ठहरकर तीन या पाँच या सात बार

'सुबहा-न रब्बियल-आला'

(मेरा रब जो सबसे ऊँचे मरतबेवाला है (हर प्रकार की बुराई और शिर्क से) पाक है।)

पढ़े। फिर 'अल्लाहु-अकबर' कहते हुए सजदे से सर उठाए और बाएँ पैर के तलवे पर बैठ जाए और दाहिना पाँव इस तरह रखे कि उसका तलवा पीछे की तरफ़ और उँगलियाँ काबे की तरफ़ रहें।

इसके बाद 'अल्लाहु-अकबर' कहते हुए दूसरा सजदा करे और फिर तीन या पाँच या सात बार इत्मीनान के साथ रुक-रुककर 'सुबहान रब्बियल-आला' पढ़े।

इस तरह दो सजदे करने के बाद 'अल्लाहु-अकबर' कहता हुआ सीधा खड़ा हो जाए। सजदे से उठते हुए पहले माथा उठाए, फिर नाक, फिर दोनों हाथ उठाकर रानों पर रखे और फिर घुटने उठाए। अब एक रकअत हो गई।

दूसरी रकअत में पहले 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' पढ़े। फिर पहली रकअत की तरह सूरा फ़ातिहा, आमीन और क़ुरआन की आयतें या कोई सूरा पढ़े। फिर 'अल्लाहु-अकबर' कहकर रुकू और दो सजदे करे। रुकू और सजदों में वही पढ़े जो पहली रकअत में पढ़ा था। दूसरी रकअत का दूसरा सजदा करने के बाद जब बैठे तो हथेलियाँ रानों पर इस तरह रख ले कि उँगलियाँ काबे की तरफ़ हों और हर हाथ की उँगलियाँ मिली हों। बैठे-बैठे यह पढ़े—

अत्तहिय्यातु लिल्लाहि वस्स-ल-वातु वत्तय्यिबातु अस्सलामु अ़लै-क अय्युहन्नबिय्यु व रह-मतुल्लाहि व ब-रकातुहू अस्सलामु अ़लैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिही-न, अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु व अश्हदु अन-न मुहम्म-दन अ़ब्दुहू व रसूलुहू।'

(सलामियाँ, नमाज़ें और तमाम पाकीज़ा चीज़ें अल्लाह के लिए हैं। ऐ नबी! आप पर सलामती हो और अल्लाह की रहमत और बरकतें हों। सलामती हो हमपर और अल्लाह के नेक बन्दों पर। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह नहीं। और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) उसके बन्दे और उसके रसूल हैं।)

'अत्तहिय्यात' पढ़ने में जब 'अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु' पर पहुँचे तो दाहिने हाथ के अँगूठे और बीच की उँगली को मिलाकर घेरा बनाए। पिछली दो छोटी उँगलियाँ भी बीच की उँगली के साथ मोड़ ले। अब शहादत की उँगली (अँगूठे के पासवाली) 'ला इला-ह' कहते हुए उठाए और 'इल्लल्लाहु' कहते हुए गिरा दे। जब तक बैठा रहे उँगलियाँ इसी तरह रखे। अब अगर दो रकअत की नीयत की थी तो ‘अत्तहिय्यात' के बाद यह दुरूद शरीफ़ पढ़े—

'अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अ़ला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अ़ला इबराही-म व अ़ला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम्मजीद, अल्लाहुम-म बारिक अ़ला मुहम्मदिंव व अ़ला आलि मुहम्मदिन कमा बा-रक-त अ़ला इबराही-म व अ़ला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम्मजीद।'

(ऐ अल्लाह ! रहमत भेज (हज़रत) मुहम्मद पर और (हज़रत) मुहम्मद के पैरोकारों पर। जिस तरह तूने रहमत भेजी (हज़रत) इबराहीम पर और (हज़रत) इबराहीम के पैराकारों पर। बेशक तू शुक्र और तारीफ़ के लायक़ और बुज़ुर्ग है। ऐ अल्लाह बरकत नाज़िल कर (हज़रत) मुहम्म्द पर और (हज़रत) मुहम्मद के पैरोकारों पर। जिस तरह तूने बरकत नाज़िल की (हज़रत) इबराहीम पर और (हज़रत) इबराहीम के पैराकारों पर। बेशक तू शुक्र और तारीफ़ के लायक़ और बुज़ुर्ग है।)

इस दुरूद के बाद जो दुआ याद हो उसे पढ़े जैसे—

रब्बना आतिना फ़िद्दुन्या ह-स-न-तंव व फ़िल आख़ि-रति ह-स-न-तंव व क़िना अज़ाबन्नार।'

(ऐ हमारे रब! हमें इस दुनिया में भी भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई दे और हमें जहन्नम की आग से बचा।)

एक दुआ यह भी है:

'अल्लाहुम-म इन्नी ज़-लम्तु नफ़्सी ज़ुल्मन कसीरंव व ला यग़्फ़िरुज़्ज़ुनू-ब इल्ला अन्-त फ़ग़्फ़िर-ली मग़्फ़ि-र-तम मिन इन्दि-क वर-हमनी इन्न-क अन्तल ग़फ़ूरुर्रहीम।'

(ऐ अल्लाह! मैंने अपनी जान पर बहुत ज़्यादा ज़ुल्म किया है और तेरे इलावा कोई माफ़ करनेवाला नहीं है। अपने फ़ज़्ल से मुझे माफ़ कर दे और मुझपर रहम फ़रमा। बेशक तूही माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।)

और दुआ के बाद 'अस्सलामु अलैकुम व रह-मतुल्लाह' कहते हुए पहले दाहिनी तरफ़ मुँह मोड़कर सलाम करे फिर बाईं तरफ़। दो रकअत नमाज़ पूरी हो गई। नमाज़ के बाद जो दुआ चाहे माँगे। एक दुआ यह है—

'अल्लाहुम-म अन्तस्सलामु व मिन्कस्सलामु तबा-रक-त रब्बना व तआ़लै-त या ज़ल-जलालि वल इकराम।'

(ऐ अल्लाह! तू सरापा अम्न है और तुझ ही से अम्न और सलामती है, बा-बरकत है तू ऐ महान और करम करनेवाले!)

लेकिन अगर चार रकअत की नीयत की थी तो दूसरी रकअत के बाद 'अत्तहिय्यात' पढ़कर 'दुरूद शरीफ़' न पढ़े बल्कि 'अल्लाहु-अकबर' कहकर खड़ा हो जाए। खड़े होने के बाद अगर फ़र्ज़ की चार रकअत नमाज़ पढ़ रहा हो तो 'बिसमिल्लाह' और सूरा फ़ातिहा पढ़े और आमीन कहकर रुकू कर दे और अगर सुन्नत या नफ़्ल की चार रकअतें पढ़ रहा हो तो सूरा फ़ातिहा और आमीन के बाद पहली दोनों रकअतों की तरह कोई सूरा भी पढ़े फिर रुकू करे। रुकू के बाद दोनों सजदे करे और फिर खड़े होकर तीसरी रकअत की तरह चौथी रकअत पढ़े और बैठकर अब ‘अत्तहिय्यात, ‘दुरूद शरीफ़' और दुआ पढ़कर सलाम फेरे।

औरतों की नमाज़

नमाज़ पढ़ने का जो तरीक़ा ऊपर बताया गया, उसमें जो बातें पढ़ने से ताल्लुक़ रखती हैं, वे तो मर्दों और औरतों सबके लिए हैं लेकिन औरतों का खड़ा होना, रुकू और सजदा करना और बैठना मर्दों की तरह नहीं होता। इस बारे में औरतों को नीचे लिखी हुई बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ—

(1) नीयत करके पहली बार 'अल्लाहु-अकबर' कहते वक़्त औरतों को सीने तक ही हाथों को उठाना चाहिए और उनके हाथ दुपट्टे के अन्दर ही रहें, बाहर निकालकर न उठाएँ।

(2) औरतों को हाथ सीने पर इस तरह बाँधने चाहिएँ कि बाएँ हाथ की हथेली की पुश्त पर दाहिने हाथ की हथेली रहे।

(3) औरतें रुकू में इतनी ही झुकें कि उनका हाथ घुटने तक पहुँच जाए और हाथ की उँगलियाँ मिलाकर घुटने पर रखें।

(4) रुकू में औरतों की कुहनियाँ पहलू से मिली रहनी चाहिएँ।

(5) औरतें सजदे में अपने बाज़ू बग़ल, पेट और रान से मिलाए रहें और ख़ूब सिमट कर सजदा करें।

(6) औरतों को सजदा करने से पहले अपने दोनों पैर दाहिनी तरफ़ निकालकर रानों को मिला लेना चाहिए। इसके बाद सजदा करना चाहिए और सजदे के बाद इसी तरह बैठना भी चाहिए।

(7) औरतों को हर नमाज़ में जो कुछ पढ़ना हो चुपके-चुपके पढ़ें।

वित्र की नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा

इशा की नमाज़ में फ़र्ज़ और सुन्नत के बाद तीन रकअत वित्र पढ़ना वाजिब है। वित्र की दो रकअतें तो उसी तरह पढ़ी जाती हैं, जिस तरह दूसरी नमाज़ें पढ़ते हैं। लेकिन तीसरी रकअत में सूरा फ़ातिहा और कोई दूसरी सूरा पढ़कर रुकू में जाने से पहले 'अल्लाहु अकबर' कहकर दोनों हाथों को कानों तक उठाते हैं और फिर हाथ बाँधकर 'दुआ-ए क़ुनूत' पढ़ते हैं, 'दुआ-ए-क़ुनूत' यह है—

अल्लाहुम-म इन्ना नस्तईनु-क व नस्तग़फ़िरु-क व नूमिनु बि-क व न-तवक्कलु अ़लै-क व नुस्नी अ़लैकल ख़ैर व नशकुरु-क वला नकफुरु-क व नख़लउ व नतरुकु मंय्यफ़जुरु-क अल्लाहुम-म इय्या-क नअ़बुदु व ल-क नुसल्ली व नस्जुदु व इलै-क नस्-आ़ व नहफ़िदु व नर-जू रह-म-त-क व नख़्शा अ़ज़ाब-क, इन-न अ़ज़ाब-क बिल् कुफ़्फ़ारि मुल्हिक़।

(ऐ अल्लाह! हम तुझसे मदद माँगते हैं और तुझसे माफ़ी चाहते हैं, तुझपर ईमान रखते हैं, तुझपर भरोसा करते हैं, भलाई के साथ तेरा गुणगान करते हैं, तेरा शुक्र अदा करते हैं, तेरी नाशुक्री नहीं करते, जो तेरा कहा नहीं मानता उसे हम छोड़ देते हैं और उससे अलग हो जाते हैं। ऐ अल्लाह! हम तेरी ही बन्दगी करते हैं, हम तेरे ही लिए नमाज़ पढ़ते हैं, तुझही को सजदा करते हैं, हम तेरी ही तरफ़ लपकते हैं, तेरी ही ख़िदमत बजा लाते हैं, हम तेरी रहमत के उम्मीदवार हैं और तेरे अज़ाब से डरते हैं, बेशक तेरा अज़ाब कुफ़्र करनेवालों को मिलकर रहेगा।)

'दुआ-ए-क़ुनूत' पढ़ने के बाद रुकू और सजदा करते हैं।

इस तरह मर्दों और औरतों को अच्छी तरह ध्यान लगाकर पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़नी चाहिए। जल्दी-जल्दी और ध्यान किए बिना नमाज़ पढ़ने से कभी तो सवाब कम हो जाता है और कभी ऐसा होता है कि कोई फ़र्ज़ छूट जाता है तो नमाज़ ही नहीं होती, फिर से पढ़नी पड़ती है। और कभी नमाज़ की कोई वाजिब बात छूट जाती है तो 'सजद-ए-सह्व' (भूल का सजदा [भूल के सजदे का तरीक़ा आगे बताया गया है।]) करना पड़ता है तब नमाज़ सही होती है, उसके बग़ैर नमाज़ नहीं होती।

नमाज़ में वाजिब

(1) पूरी सूरा फ़ातिहा पढ़ना।

(2) सुन्नत, नफ़्ल और वित्र की तमाम रकअतों में सूरा फ़ातिहा के बाद क़ुरआन की तीन छोटी-छोटी आयतें या एक बड़ी आयत या कोई सूरा पढ़ना और फ़र्ज़ नमाज़ों में सिर्फ़ पहली दो रकअतों में सूरा फ़ातिहा के साथ कोई सूरा या तीन छोटी आयतें पढ़ना या एक बड़ी आयत तीन छोटी आयतों के बराबर पढ़ना, फ़र्ज़ की बाक़ी रकअतों में सूरा फ़ातिहा के साथ क़ुरआन की कोई आयत या सूरा न मिलाना।

(3) फ़र्ज बातों को इत्मीनान के साथ और एक के बाद दूसरी अदा करना, भूले से उलट-पलट न देना और न जल्दी करना, न देर लगाना। जल्दी करने की मिसाल यह है जैसे रुकू के बाद अच्छी तरह सीधे न खड़े होना या दोनों सजदों के बीच में अच्छी तरह सीधे न बैठना और झट से दूसरा सजदा कर लेना या इतनी देर करना जितनी देर में एक बार 'सुब्हा-न रब्बियल आला' कह सकें जैसे नीयत करके 'अल्लाहु-अकबर' कहने के बाद इतनी देर कुछ न पढ़ना और बेकार रहना जितनी देर में एक सजदा या रुकू हो जाए या सूरा फ़ातिहा पढ़ने के बाद क़ुरआन की दूसरी आयतें पढ़ने में इतनी ही देर लगा देना या चार रकअतवाली नमाज़ में दो रकअत के बाद बैठकर जो ‘अत्तहिय्यात' पढ़ते हैं उसमें उतनी ही देर लगा देना जितनी देर में दुरूद शरीफ़ पढ़ लेते हैं।

नोट - उलट-पलट देने का मतलब यह है जैसे भूलकर पहले क़ुरआन की दूसरी सूरा या आयतें पढ़ना, बाद में सूरा फ़ातिहा पढ़ना या बेख़याली में रुकू से पहले सजदा कर लेना।

(4) चार रकअतवाली नमाज़ में दो रकअत के बाद बैठना।

(5) चार रकअतवाली नमाज़ में दो रकअत के बाद जब बैठते हैं और आख़िर में जब बैठते हैं तो दोनों बार 'अत्तहिय्यात' पढ़ना।

(6) ज़ुह्र और अस्र में चुपके-चुपके सूरा फ़ातिहा और क़ुरआन की आयतें पढ़ना और मग़रिब, इशा और फ़ज्र की फ़र्ज़ नमाज़ों में जमाअत के साथ पहली दो रकअतों के अन्दर ज़ोर से पढ़ना।

(7) 'अस्सलामु अलैकुम व रह-मतुल्लाह' कहकर नमाज़ ख़त्म करना।

(8) वित्र की तीसरी रकअत में सूरा फ़ातिहा और क़ुरआन की आयतें पढ़कर 'अल्लाहु-अकबर' कहना और 'दुआ-ए-क़ुनूत' पढ़ना।

नोट ये वाजिब बातें अगर जान-बूझकर छोड़ी जाएँगी तो बड़ा गुनाह होगा और फिर भूल का सजदा करने पर भी नमाज़ न होगी, तौबा करके फिर से नमाज़ पढ़नी होगी।

'सजद-ए-सह्व' (भूल का सजदा) करने का तरीक़ा

नमाज़ के आख़िर में 'अत्तहिय्यात' पढ़कर दाहिनी तरफ़ सलाम फेरकर फिर मुँह काबे की तरफ़ करके दो सजदे करें, इसके बाद फिर 'अत्तहिय्यात' के बाद दुरूद शरीफ़ और दुआ पढ़कर दोनों तरफ़ सलाम फेरें।

नमाज़ में आदमी पर 'सजद-ए-सह्व' वाजिब हो जाए और भूलकर सलाम भी फेर दे तो अगर तुरन्त याद आ जाए और बात न की हो तो झट भूल का सजदा कर लेना चाहिए, लेकिन अगर बात कर ली तो नमाज़ दोहरानी पड़ेगी।

नमाज़ का टूटना

जिन बातों से नमाज़ टूट जाती है और फिर से पढ़नी पड़ती है, वे ये हैं—

(1) नमाज़ में बोल देना जैसे—

● किसी को सलाम करना या सलाम का जवाब देना।

● किसी छींकनेवाले ने 'अल-हम्दु लिल्लाह' कहा, उसके जवाब में 'यर-हमुकल्लाह' कह देना। लेकिन ख़ुद को छींक आए और भूलकर 'अल-हम्दुलिल्लाह' कह दिया तो माफ़ है, नमाज़ नहीं टूटी।

● किसी की मौत की ख़बर सुनकर 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' कह देना।

● दर्द और तकलीफ़ की वजह से 'उफ़-उफ़' या 'आह-आह' करना, लेकिन नमाज़ में अल्लाह के डर से रोना या आह का निकल जाना बहुत ही अच्छी बात है।

(2) कोई ऐसा काम करना जिसे देखकर कोई यह समझे कि नमाज़ नहीं पढ़ रहा है, जैसे दोनों हाथों से खुजलाना या एक हाथ से देर तक बदन खुजलाना या कपड़ा या कुछ और ठीक करते रहना।

(3) बिला वजह ज़ोर से खाँसना और गला साफ़ करना।

(4) कुछ खा-पी लेना।

(5) क़ुरआन पढ़ने में क़ुरआन का कोई लफ़्ज़ इस तरह निकल जाना कि उसका मतलब ही बदल जाए।

(6) नमाज़ में चार-पाँच क़दम चल देना।

(7) काबा की तरफ़ से जान-बूझकर दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेना।

(8) जितनी देर में रुकू या सजदा किया जाता है उतनी देर बदन का वह हिस्सा खुला रहना जिसका छिपाना फ़र्ज़ है। (मर्द के लिए नाफ़ से घुटनों तक छिपाना फ़र्ज़ है और औरत के लिए हाथ के पंजों, दोनों पाँव और चेहरे के सिवा सारा बदन छिपाना फ़र्ज है। इसको सतर कहते हैं।)

(9) ठट्ठा मारकर हँस देना।

(10) इमाम से पहले पूरा रुकू या सजदा कर लेना या उससे आगे बढ़ जाना।

(11) औरत का मर्द से मिलकर खड़े होना।

(12) तयम्मुम करने के बाद पानी देख लेना।

नमाज़ तोड़ देना

ऊपर जो बातें बताई गईं, वे तो नमाज़ के टूटने के बारे में हैं। अब कुछ ऐसी बातें लिखी जाती हैं जिनके होने पर नमाज़ तोड़ देनी चाहिए, नमाज़ न तोड़ी तो गुनाह होगा। वे बातें ये हैं—

(1) अचानक कोई ऐसा जानवर आ जाए जिससे जान का खटका हो या उसके काटने से बहुत तकलीफ़ हो, जैसे साँप आ जाए या भिड़ या बिच्छू कपड़े में घुस जाए।

(2) किसी क़ीमती चीज़ के नुक़सान का डर हो, जैसे चूल्हे पर हाँडी में कोई चीज़ पक रही हो और उसके जल जाने का खटका हो, या मुर्ग़ी को बिल्ली पकड़ ले या पकड़ लेने का डर हो या इसी तरह का कोई और खटका हो तो नमाज़ तोड़ देनी चाहिए।

(3) नमाज़ पढ़ने में रेल या दूसरी सवारी छूट जाने का डर हो या सामान या बाल-बच्चों के छूट जाने का डर हो या इसी तरह का कोई और नुक़सान हो।

(4) नमाज़ में पेशाब-पाख़ाना लगे और उसे बर्दाश्त न कर सके तो नमाज़ तोड़ देनी चाहिए।

(5) किसी को मौत या तबाही से बचाने के लिए नमाज़ तोड़ देना फ़र्ज़ है, अगर न तोड़ेगा तो बड़ा ही गुनाहगार होगा।

(6) माँ-बाप, दादा-दादी या नाना-नानी, किसी मुसीबत की वजह से पुकारें, जैसे वे चोट खा जाएँ, गिरें और उठ न सकें और दूसरा मदद देनेवाला भी न हो तो नमाज़ तोड़कर उनकी मदद करनी चाहिए।

नमाज़ न पढ़ने के वक़्त

(1) सूरज निकलते वक़्त नमाज़ पढ़ना मना है। जब तक गज़-दो गज़ सूरज ऊँचा न हो जाए नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए।

(2) ठीक दोपहर के वक़्त।

(3) सूरज डूबने से पहले जब वह पीला पड़ जाए, उस वक़्त से डूबने तक (लेकिन अगर उस दिन अस्र की नमाज़ न पढ़ी हो तो पढ़ ले)।

(4) जुमे का ख़ुतबा शुरू हो जाने के बाद।

नोट- सवेरे पौ फटने के बाद फ़ज्र की सुन्नतों और फ़र्ज़ के सिवा नफ़्ल नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए। हाँ, इशा की नमाज़ छूट गई हो तो इशा की फ़र्ज़ और वित्र की क़ज़ा पढ़ी जा सकती है।

(5) अस्र और मग़रिब के दरमियानी वक़्त में और फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने के बाद सूरज निकलने तक कोई नफ़्ल नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए।

(6) ईद-बक़रीद के दिन फ़ज्र की नमाज़ के बाद फ़र्ज़ और वाजिब नमाज़ों की क़ज़ा और जनाज़े की नमाज़ या जो रोज़ाना चाश्त, इशराक़ की नमाज़ पढ़ता है, उनके सिवा उस वक़्त तक कोई नफ़्ल नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए जब तक कि ईद-बक़रीद की नमाज़ न हो जाए।

क़ज़ा नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा

अगर किसी वजह से किसी वक़्त की नमाज़ छूट जाए तो दूसरे वक़्त याद आने पर पढ़ ले, इसको नमाज़ की क़ज़ा पढ़ना कहते हैं। इस बारे में ये बातें याद रखनी चाहिएँ—

(1) क़ज़ा सिर्फ़ फ़र्ज़ और वाजिब नमाज़ की होती है लेकिन अगर फ़ज्र की फ़र्ज़ तो पढ़ ली मगर सुन्नतें छूट गई हों तो उसी दिन दोपहर से पहले उनकी क़ज़ा पढ़ ले।

(2) जहाँ तक हो सके छूटी हुई नमाज़ की क़ज़ा अगले वक़्त की नमाज़ की फ़र्ज़ नमाज़ से पहले ही पढ़ लेनी चाहिए।

(3) अगर कई वक़्त की नमाज़ें छूट गई हों तो मौक़ा मिलते ही सब पढ़ लेनी चाहिएँ।

(4) अगर बहुत-सी नमाज़ें छूटी हों और एक वक़्त में उनकी क़ज़ा पढ़नी मुश्किल हो तो हर नमाज़ के वक़्त एक या दो वक़्त की क़ज़ा पढ़ते रहना चाहिए।

(5) अगर जानकर नमाज़ें छोड़ी हों और फिर तौबा कर ली हो तो चाहिए कि छूटी हुई नमाज़ों का अन्दाज़ा करके एक-एक, दो-दो करके क़ज़ा पढ़ता रहे। अगर पूरी न कर सके और मौत का वक़्त आ जाए तो कह जाए कि उन नमाज़ों का मेरे माल से फ़िदया दे दिया जाए।

(6) अगर नापाकी में कोई नमाज़ पढ़ ली और वक़्त बीत गया फिर याद आया तो अब पाक होकर क़ज़ा पढ़ ले। इमाम से ऐसी भूल हो जाए तो वह याद आने पर अपने पीछे जमाअत से नमाज़ पढ़नेवालों को बता दे कि वे नमाज़ फिर से पढ़ लें।

तिलावत का सजदा

● तिलावत के सजदे का मतलब यह है कि क़ुरआन में 14 आयतें ऐसी हैं जिनको पढ़ने और सुनने से सजदा वाजिब हो जाता है। अगर यह सजदा न किया गया तो गुनाह होगा। क़ुरआन पढ़ते वक़्त जो आदमी इन आयतों को पढ़े या सुने तो फ़ौरन ही 'अल्लाहु अकबर' कहकर एक सजदा करे। सजदे में तीन बार 'सुब्हा-न रब्बियल आला' पढ़े। क़ुरआन मजीद की तिलावत कर रहा हो तो सजदे के बाद फिर पढ़ने लगे और सुननेवाला कोई काम कर रहा हो तो अब फिर काम करने लगे।

● नमाज़ पढ़ने में सजदे की आयत आ जाए तो उसे पढ़कर 'अल्लाहु-अकबर' कहे और एक सजदा करके सीधा खड़ा हो जाए और बाक़ी नमाज़ पढ़े। इमाम के साथ तमाम नमाज़ियों को भी सजदा करना चाहिए।

● अगर किसी वजह से फ़ौरन सजदा करना मुश्किल हो या मजबूरी हो तो फिर किसी वक़्त कर लेना चाहिए।

● सजदा बैठे-बैठे भी किया जा सकता है और खड़े होकर भी।

जमाअत से नमाज़

औरतों के लिए तो यही अच्छा है कि वे घर में अकेले ही नमाज़ पढ़ें लेकिन मर्दों के लिए क़ुरआन और हदीस में जमाअत से नमाज़ पढ़ने की बड़ी ताकीद है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने यहाँ तक फ़रमा दिया कि जो लोग किसी मजबूरी के बिना जमाअत में शरीक नहीं होते, मेरा जी चाहता है कि उनके घरों में आग लगा दूँ।

तरीक़ा

अगर दो नमाज़ी भी जमा हो जाएँ तो उन्हें चाहिए कि अपने में से अच्छे आदमी को इमाम बना लें। नमाज़ियों की मरज़ी के बिना किसी को इमाम नहीं बनना चाहिए। इसी तरह अगर मस्जिद का इमाम मौजूद हो तो उसकी इजाज़त के बिना किसी दूसरे का इमाम बनना ठीक नहीं।

● इमाम को दूसरे नमाज़ियों से आगे खड़े होकर नमाज़ पढ़ाना चाहिए। बाक़ी नमाज़ी उसके पीछे सीधी सफ़ (लाइन) बनाकर खड़े हों। अगर एक सफ़ पूरी हो जाए तो दूसरी बना लें। अगर सफ़ भरी हो और एक नमाज़ी और आ जाए तो वह सफ़ में से एक आदमी को पीछे खींच ले। अकेला न खड़ा हो।

● अगर इमाम समेत दो ही नमाज़ी हों तो दूसरा आदमी इमाम के दो-तीन अंगुल पीछे दाहिनी ओर खड़ा हो। तीसरा आदमी आ जाए तो वह नमाज़ी को पीछे खींच ले या इमाम को आगे बढ़ा दे या इमाम के बाईं ओर खड़ा हो जाए।

● सफ़ बनाने के बाद तकबीर कह लेनी चाहिए। तकबीर में अज़ान के अल्फ़ाज़ दुहराए जाते हैं, फ़र्क़ यह है कि तकबीर में 'हय्य अलल फ़लाह' के बाद 'क़द-क़ामतिस्सलाह' दो बार कहा जाता है।

● इमाम की नमाज़ ख़राब होने से उसके पीछेवाले सारे नमाज़ियों की नमाज़ ख़राब हो जाती है, लेकिन इमाम ने नमाज़ ठीक पढ़ी और पीछे किसी नमाज़ी ने कोई फ़र्ज़ छोड़ दिया या उसका वुज़ू जाता रहा तो सिर्फ़ उसी नमाज़ी की नमाज़ न होगी, उसे फिर से नमाज़ पढ़नी होगी।

● अगर कोई नमाज़ी जमाअत में उस वक़्त आकर मिला जब इमाम ने एक या एक से ज़्यादा रकअतें पढ़ ली हैं तो उस नमाज़ी को चाहिए कि इमाम के पीछे उसे जितनी रकअतें मिल सकें, पढ़ ले लेकिन आख़िरी रकअत में जब बैठे तो सिर्फ़ 'अत्तहिय्यात' पढ़कर रुक जाए, जब इमाम सलाम फेरे तो सलाम न फेरे बल्कि अब खड़े होकर छूटी हुई रकअतें अकेला पढ़े और उनमें सूरा फ़ातिहा और क़ुरआन की आयतें और जो कुछ पढ़ा जाता है, सब पढ़े।

● अगर मग़रिब की नमाज़ में दो रकअतें छूटी हैं तो खड़े होकर छूटी हुई रकअतों में से एक रकअत पढ़े और बैठ जाए, फिर 'अत्तहिय्यात' पढ़कर खड़ा हो और अब दूसरी छूटी हुई रकअत पढ़े।

● अगर चार रकअतवाली नमाज़ में तीन रकअत छूटी हों तो खड़े होकर एक छूटी हुई रकअत पढ़े और बैठ जाए और 'अत्तहिय्यात' पढ़कर फिर खड़ा हो और बाक़ी दो रकअतें पढ़े।

● किसी नमाज़ी की कोई रकअत छूट गई और उसने भूले से एक तरफ़ या दोनों तरफ़ इमाम के साथ सलाम फेर दिया लेकिन फ़ौरन ही याद आ गया या किसी ने याद दिला दिया तो बोले बिना फ़ौरन खड़ा हो जाए और रकअत पूरी कर ले। अगर देर लग गई लेकिन अभी बोला नहीं तो भी खड़ा हो जाए और छूटी हुई रकअत पढ़े लेकिन अब भूल का सजदा करे और अगर इमाम के साथ सलाम फेरने के बाद बोल दिया तो नमाज़ जाती रही, फिर से पढ़े। इमाम रुकू में है और नमाज़ी जमाअत में शामिल हो गया और रुकू पा गया तो उसकी कोई रकअत नहीं छूटी लेकिन रुकू पाने के लालच में दौड़ना और जल्दी करना मना है। इत्मीनान से नीयत बाँधकर 'अल्लाहु-अकबर' कहे, इसके बाद दूसरी बार 'अल्लाहु अकबर' कहकर रुकू में जाए, जल्दी में अगर नीयत करके जो अल्लाहु अकबर कहा जाता है, वह न कहा तो एक फ़र्ज़ छूटा और फ़र्ज़ छूटने से नमाज़ नहीं होती।

● कोई अपनी फ़र्ज़ नमाज़ अकेले पढ़ रहा है, इतने में जमाअत खड़ी हो गई तो अगर वह फ़ज्र या मग़रिब की नमाज़ है और उसने अभी दूसरी रकअत का सजदा नहीं किया है तो अपनी नमाज़ तोड़ दे और जमाअत में मिल जाए और अगर दूसरी रकअत का सजदा कर लिया तो फिर नमाज़ न तोड़े और अपनी नमाज़ पढ़ ले। अगर ज़ुह्र, अस्र या इशा की चार रकअतवाली फ़र्ज़ नमाज़ है और उसने तीसरी रकअत का सजदा नहीं किया है तो अपनी नमाज़ तोड़ दे और जमाअत में जा मिले, लेकिन अगर तीसरी रकअत का सजदा कर लिया यानी अगर अपनी नमाज़ का ज़्यादा हिस्सा पढ़ लिया तो नमाज़ न तोड़े और अपनी फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ ले।

● अगर जमाअत खड़ी हो जाए तो सुन्नत या नफ़्ल नमाज़ शुरू करना मना है।

सजद-ए-सह्व (नमाज़ में भूल का सजदा)

● अगर नमाज़ की वाजिब बातों में से कुछ भूल-चूक हो जाए तो भूल का सजदा करे, इमाम को सजद-ए-सह्व करना पड़े तो उसके साथ उसके पीछे सारे नमाज़ियों को सजद-ए-सह्व करना चाहिए।

● इमाम के पीछे किसी नमाज़ी की कोई रकअत छूट गई, इमाम के सलाम फेरने के बाद वह नमाज़ी अपनी छूटी हुई रकअत पूरी करने खड़ा हुआ और उससे नमाज़ की वाजिब बात में भूल-चूक हो गई तो उसपर भूल का सजदा वाजिब हो गया। अब उसको चाहिए कि सजद-ए-सह्व करे।

जुमे की नमाज़

जुमे की नमाज़ मर्दों पर फ़र्ज़ है, यह इतनी ज़रूरी नमाज़ है कि इसकी अज़ान सुनकर मुसलमानों को अपना कारोबार बन्द कर देना चाहिए और जुमे की नमाज़ के लिए दौड़ पड़ना चाहिए। जुमे की अज़ान के वक़्त से नमाज़ अदा करने के वक़्त तक ख़रीदना-बेचना और काम-काज करना मना है।

अगर कोई किसी मजबूरी की वजह से जुमे की नमाज़ न पढ़ सके तो उसे ज़ुह्र की नमाज़ पढ़नी चाहिए।

जुमे की नमाज़ ज़ुह्र की नमाज़ के वक़्त पढ़ी जाती है लेकिन ज़ुह्र की चार रकअत फ़र्ज़ के बदले जुमे में दो रकअत फ़र्ज़ पढ़ी जाती है।

जुमे में कुल दस रकअतें पढ़ी जाती हैं जो ये हैं—

पहले 4 रकअत सुन्नत फिर दो रकअत फ़र्ज़ फिर चार रकअत सुन्नत।

जुमे की फ़र्ज़ नमाज़ से पहले दो ख़ुतबे पढ़ना ज़रूरी (वाजिब) हैं। ये ख़ुतबे इमाम मिम्बर पर पढ़े। खड़े होकर किताब से पढ़े या ज़बानी ख़ुतबा दे। पहला ख़ुतबा अपनी ज़बान में पढ़ा या दिया जा सकता है लेकिन दूसरा ख़ुतबा अरबी ज़बान ही में होना चाहिए। दोनों ख़ुतबों के बीच में इमाम को दो-तीन मिनट के लिए बैठ जाना चाहिए। इन ख़ुतबों के वक़्त में बोलना, क़ुरआन की तिलावत करना, सलाम करना, सलाम का जवाब देना, यहाँ तक कि सुन्नत पढ़ना भी मना है। हाँ, अगर कोई सुन्नत पढ़ रहा हो तो पूरी कर ले।

जनाज़े की नमाज़

जनाज़े की नमाज़ ऐसी फ़र्ज़ नमाज़ है कि अगर किसी बस्ती के कुछ लोगों ने पढ़ ली और कुछ ने नहीं पढ़ी तो सबपर से फ़र्ज़ अदा हो जाएगा और कोई गुनाहगार न होगा, लेकिन अगर बस्ती के किसी आदमी ने भी जनाज़े की नमाज़ नहीं पढ़ी तो सब गुनाहगार होंगे।

जनाज़े की नमाज़ खड़े-खड़े ही पढ़ी जाती है। इसमें रुकू और सजदा नहीं होता। जनाज़े की नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा यह है—

सबसे पहले सफ़ ठीक कर ली जाए। अगर दस-पाँच आदमी हों तो एक सफ़, ज़्यादा हों तो तीन, पाँच, सात, नौ (विषम संख्या में) सफ़ें बनानी चाहिएँ। इसके बाद इमाम मय्यित के वली से इजाज़त ले और इस तरह नीयत करे—

"मैं ख़ुदा के लिए इस जनाज़े की नमाज़ पढ़ता हूँ।"

यह नमाज़ मय्यित के गुनाह माफ़ कराने के लिए दुआ के तौर पर पढ़ी जाती है। इसके बाद आवाज़ से 'अल्लाहु-अकबर' कहकर कानों तक हाथ उठाए और नाफ़ के नीचे हाथ बाँध ले। इमाम के पीछे जो लोग जनाज़े की नमाज़ पढ़ें वे भी इसी तरह नीयत करें और आहिस्ता से 'अल्लाहु अकबर' कहें और हाथ बाँध लें, अब इमाम और नमाज़ी पढ़ें।

'सुबहा-न-कल्लाहुम-म व बिहम्दि-क व तआला जद्दु-क व जल्-ल सनाउ-क व ला इला-ह ग़ैरुक।'

यह पढ़ने के बाद हाथ बाँधे-बाँधे ही इमाम आवाज़ से 'अल्लाहु अकबर' कहे और दूसरे नमाज़ी आहिस्ता से ‘अल्लाहु-अकबर' कहें फिर सब लोग दुरुद शरीफ़ पढ़ें। इसके बाद इमाम और दूसरे नमाज़ी हाथ बाँधे-बाँधे फिर अल्लाहु-अकबर' कहें, इसके बाद यह दुआ पढ़ें—

अल्लाहुम्मग़फ़िर लिहय्यिना व मय्यितिना व शाहिदिना व ग़ाइबिना व सग़ीरिना व कबीरिना व ज़-क-रिना व उन्साना अल्लाहुम-म मन अहयै-तहू मिन्ना फ़-अहयिही अलल् इस्लामि व मन तवफ़्फ़ै-तहू मिन्ना फ़-त-वफ़्फ़हू अलल् ईमान।

(ऐ अल्लाह! बख़्श दे, हमारे ज़िन्दा लोगों को और हमारे मुर्दा लोगों को। हमारे हाज़िर लोगों को और हमारे ग़ैरहाज़िर लोगों को। हमारे छोटों को और बड़ों को। हमारे मर्दों और औरतों को। ऐ अल्लाह! तू हम में से जिसको ज़िन्दा रखे, उसे इस्लाम पर ज़िन्दा रख और हम में से जिसे उठाए, ईमान पर उठा।)

मय्यित अगर नाबालिग़ लड़का हो तो यह दुआ पढ़ें:

अल्लाहुम्मज-अल्हु लना फ़र-तंव वज-अल्हु लना अज-रंव व जुख़-रंव वजअल्हु लना शाफ़िअंव व मुशफ़्फ़आ।

(ऐ अल्लाह! इस (बच्चे) को हमारे लिए आगे पहुँचकर सामान करनेवाला बना और इसको हमारे लिए सवाब का कारण और वक़्त पर काम आनेवाला बना और बना इसको हमारी सिफ़ारिश करनेवाला और जिसकी सिफ़ारिश मंज़ूर हो जाए।)

मय्यित अगर नाबालिग़ लड़की हो तो इस तरह पढ़ें:

अल्लाहुम्मज-अल्हा लना फ़र-तंव वज-अल्हा लना अज-रंव व जुख़-रंव वज-अल्हा लना शाफ़िअ-तंव व मुशफ़्फ़अह्।

(ऐ अल्लाह! इस (बच्ची) को हमारे लिए आगे पहुँचकर सामान करनेवाली बना दे और इसको हमारे लिए सवाब का कारण और वक़्त पर काम आनेवाली बना और बना इसको हमारे लिए सिफ़ारिश करनेवाली और जिसकी सिफ़ारिश मंज़ूर हो जाए।)

दुआ पढ़ने के बाद हाथ बाँधे-बाँधे इमाम आवाज़ से फिर तकबीर कहे और सलाम फेर दे। दूसरे नमाज़ी भी आहिस्ता से 'अल्लाहु-अकबर' कहें और वे भी सलाम फेर दें।

मुसाफ़िर की नमाज़

शरीअ़त में मुसाफ़िर उसे कहते हैं जो अपने घर से किसी ऐसे मक़ाम पर जाने का इरादा करे जो उसके घर से 48 मील या उससे ज़्यादा दूर हो। इतने सफ़र के इरादे के बाद जैसे ही वह अपनी बस्ती से बाहर होगा मुसाफ़िर हो जाएगा, चाहे वह पैदल हो या सवारी पर।

मुसाफ़िर के लिए शरीअ़त में यह इजाज़त है कि जिस वक़्त की नमाज़ में चार रकअतें फ़र्ज़ पढ़ी जाती हैं, वह चार के बदले दो ही रकअत पढ़े। शरीअ़त में इस रिआयत का नाम “क़स्र" है। सफ़र में सुन्नत माफ़ हैं, मौक़ा मिले तो पढ़ ले, न मौक़ा हो तो न पढ़े, लेकिन फ़ज्र की सुन्नत कोशिश करके ज़रूर पढ़ लेनी चाहिए। वित्र वाजिब है, यह माफ़ नहीं, सफ़र में भी वित्र पढ़ना चाहिए। क़स्र नमाज़ के बारे में इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए—

(1) अगर कोई मुसाफ़िर किसी ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ पढ़े जो मुसाफ़िर न हो तो मुसाफ़िर को उसके पीछे पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए।

(2) अगर इमाम मुसाफ़िर हो और उसके पीछे नमाज़ पढ़नेवाले मुसाफ़िर न हों तो इमाम को बता देना चाहिए कि मैं मुसाफ़िर हूँ। अब जब वह अपनी क़स्र नमाज़ ख़त्म कर चुके तो उसके सलाम फेरने के बाद लोग अपनी-अपनी बाक़ी नमाज़ पूरी कर लें।

(3) जो मुसाफ़िर किसी मक़ाम पर 15 दिन या इससे ज़्यादा ठहरने का इरादा कर लेगा वह मुसाफ़िर न रहेगा। उसे इरादा करने के बाद से पूरी नमाज़ पढ़नी होगी, लेकिन अगर 15 दिन ठहरने की नीयत न हो और कल परसों में जाने का इरादा करे लेकिन न जा सके और इस तरह चाहे 15 दिन से भी ज़्यादा हो जाएँ, क़स्र ही पढ़ता रहेगा।

(4) अगर किसी ने अपनी बस्ती बिल्कुल छोड़ दी और किसी दूसरी जगह घर बनाकर रहने लगा और बाल-बच्चों को भी वहीं ले गया तो अब अगर वह अपनी पुरानी बस्ती में आ जाएगा तो मुसाफ़िर होगा। अगर यह बस्ती 48 मील या उससे ज़्यादा दूर है तो वहाँ जाने पर उसे नमाज़ क़स्र करनी होगी लेकिन उसके बाल-बच्चे कुछ दिन यहाँ और कुछ दिन वहाँ रहते हैं तो फिर वह न यहाँ मुसाफ़िर होगा और न वहाँ, सिर्फ़ रास्ते में मुसाफ़िर रहेगा।

(5) जिस औरत की शादी हो जाए और वह अपनी सुसराल में रहने लगे तो वही उसका घर हो गया।

(6) अगर किसी की नमाज़ सफ़र में छूट जाए तो घर आकर क़ज़ा पढ़े और क़स्र ही की क़ज़ा पढ़े और घर छूटी हुई नमाज़ सफ़र में पढ़े तो पूरी क़ज़ा पढ़े।

ईद-बक़रईद (ईदैन) की नमाज़

ईद-बक़रईद के दिन मुसलमान मर्दों पर दो-दो रकअत नमाज़ पढ़नी वाजिब है। इस नमाज़ में नीयत बाँधकर 'अल्लाहु-अकबर' कहने के बाद हर रकअत में तीन-तीन बार 'अल्लाहु-अकबर' ज़्यादा भी कहते हैं। इस तरह दोनों रकअतों में 6 बार 'अल्लाहु अकबर' और कहना ज़रूरी है।

ईद-बक़रईद की नमाज़ आबादी के बाहर किसी ख़ास जगह पर पढ़नी चाहिए। इन नमाज़ों का वक़्त सवेरे सूरज ऊँचा हो जाने के बाद से दोपहर से पहले तक है। ईद की नमाज़ अगर किसी वजह से शव्वाल की पहली तारीख़ को न हो सके तो दूसरे दिन पढ़ सकते हैं और बक़रईद की नमाज़ 2 दिन बाद 11 और 12 तारीख़ तक पढ़ सकते हैं, इसके बाद इनकी क़ज़ा नहीं पढ़ी जाती।

दोनों ईदों की नमाज़ों में इमाम को ख़ुतबा नमाज़ के बाद देना चाहिए। दोनों ईदों की नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा यह है—

6 तकबीरों ['अल्लाहु-अकबर' कहने को तकबीर कहते हैं।] के साथ ईद या बक़रईद में दो-दो रकअत नमाज़ वाजिब की नीयत करनी चाहिए। नीयत के बाद इमाम पूरी आवाज़ से अल्लाहु-अकबर' कहकर हाथ बाँध ले और उसके पीछे नमाज़ पढ़नेवाले आहिस्ता से 'अल्लाहु-अकबर' कहकर हाथ बाँधें। अब इमाम और सारे नमाज़ी पढ़ें—

'सुबहा-न-कल्लाहुम-म व बिहम्दि-क व तबा-र-कस्मु-क व तआला जद्दु-क व ला इला-ह ग़ैरुक।'

इसके बाद इमाम पूरी आवाज़ के साथ 'अल्लाहु-अकबर' कहते हुए दोनों हाथों को कानों तक ले जाए और हाथ छोड़ दे। दूसरे नमाज़ी भी इसी तरह करें लेकिन वे 'अल्लाहु-अकबर' अहिस्ता से कहें। इमाम दूसरी बार इसी तरह तकबीर कहे और हाथ छोड़ दे और उसके साथ सारे नमाज़ी भी, तीसरी बार इसी तरह तकबीर कहकर इमाम और सारे नमाज़ी हाथ बाँध लें।

अब इमाम 'अऊज़ुबिल्लाहिमि-नश्शैतानिर्रजीम' और 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' के बाद सूरा फ़ातिहा और क़ुरआन की कोई सूरा पढ़े। दूसरे नमाज़ी ध्यान लगाकर सुनें और कुछ न पढ़ें। इसके बाद इमाम तकबीर कहकर रुकू और सजदा करे। दूसरे नमाज़ी भी उसके साथ रुकू और सजदा करें।

एक रकअत के बाद जब दूसरी रकअत में खड़े हों तो इमाम और सारे नमाज़ी हाथ बाँध लें। इमाम सूरा फ़ातिहा के बाद कोई सूरा पढ़े। दूसरे नमाज़ी ध्यान से सुनें और कुछ न पढ़ें। अब इमाम कानों तक हाथ ले जाकर तकबीर कहे और हाथ छोड़ दे। दूसरे नमाज़ी भी ऐसा ही करें लेकिन तकबीर आहिस्ता से कहें। इमाम दूसरी और तीसरी बार इसी तरह तकबीर पुकारे और हाथ छोड़ दे। दूसरे नमाज़ी भी आहिस्ता से तकबीर कहकर इसी तरह करें। चौथी बार हाथ उठाए बिना इमाम तकबीर पुकारे और रुकू में जाए। उसके साथ तमाम नमाज़ी भी रुकू करें और फिर जिस तरह नमाज़ पूरी की जाती है, यह नमाज़ भी पूरी की जाए।

नमाज़ पढ़कर इमाम फ़ौरन मिम्बर पर जाकर खड़े-खड़े दो ख़ुतबे पढ़े और दोनों ख़ुतबों के बीच उसे दो-एक मिनट बैठना भी चाहिए। दूसरे ख़ुतबे के बाद इमाम दुआ माँगे। उसके साथ सारे नमाज़ी दुआ माँगें। इसके बाद ईदगाह से अपने-अपने घरों को वापस हों।

नोट-

(1) ईदगाह को जाते वक़्त इस तरह तकबीर कहते जाना चाहिए—

'अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला इला-ह इल्लल्लाहु, वल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, व लिल्लाहिल हम्द।'

(2) दोनों ईदों की नमाज़ में जिन 6 तकबीरों में हाथ उठाते हैं वे वाजिब हैं लेकिन अगर ये किसी वजह से छूट जाएँ तो भूल का सजदा (सजद-ए-सह्व) करना ज़रूरी नहीं।

(3) ईद-बक़रईद के दिन फ़ज्र की नमाज़ के बाद उस वक़्त तक कोई नफ़्ल नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए, जब तक इन ईदों की नमाज़ न हो जाए। अगर फ़ज्र की नमाज़ छूट गई हो तो घर पर क़ज़ा पढ़ लें, ईदगाह में नहीं पढ़नी चाहिए।

(4) बक़रईद की नमाज़ के बाद क़ुरबानी करना भी वाजिब है।

क़ुरबानी

बक़रईद के दिनों में क़ुरबानी करना हर उस आदमी पर वाजिब है जिसपर सदक़-ए-फ़ित्र वाजिब है। क़ुरबानी सिर्फ़ अपनी तरफ़ से करना ज़रूरी है, अपने बाल-बच्चों की तरफ़ से करना वाजिब नहीं। क़ुरआन और हदीस में क़ुरबानी करने को बड़े सवाब का काम बताया गया है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है कि अल्लाह को क़ुरबानी के दिनों में क़ुरबानी से बढ़कर कोई और चीज़ पसन्द नहीं। इन दिनों में यह नेक काम सारे नेक कामों से बढ़कर है। क़ुरबानी करते वक़्त क़ुरबानी के जानवर का ख़ून ज़मीन पर गिरने से पहले ही अल्लाह तआला उसे क़बूल कर लेता है। क़ुरबानी के जानवर के बदन पर जितने बाल होते हैं, हर बाल के बदले में एक-एक नेकी का सवाब मिलता है।

क़ुरबानी का वक़्त

बक़रईद की दसवीं तारीख़ से लेकर बारहवीं तारीख़ को सूरज छुपने से पहले तक क़ुरबानी करने का वक़्त है, लेकिन बक़रईद के दिन क़ुरबानी करने का ज़्यादा सवाब है, इसके बाद 11 तारीख़ को फिर 12 तारीख़ को।

बक़रईद की नमाज़ से पहले क़ुरबानी करना ठीक नहीं। क़ुरबानी नमाज़ पढ़ने के बाद ही करनी चाहिए। हाँ, अगर गाँव के लोगों को नमाज़ पढ़ने के लिए शहर जाना पड़े तो वे बक़रईद की नमाज़ से पहले क़ुरबानी करने के बाद नमाज़ के लिए शहर को जा सकते हैं, लेकिन शहर और क़सबों के लोग नमाज़ के बाद ही क़ुरबानी करें।

क़ुरबानी के जानवर

बकरा-बकरी, भेड़, दुम्बा, गाय-बैल, भैंस-भैंसा, ऊँट-ऊँटनी इन 6 जानवरों के नर या मादा की क़ुरबानी हो सकती है, दूसरे जानवरों की नहीं। अगर कोई जंगली जानवर (हिरण, नीलगाय) की क़ुरबानी कर ले तो वह ठीक नहीं, चाहे वे पालतू ही हों।

बकरा-बकरी, भेड़, दुम्बा में से एक आदमी को एक जानवर की क़ुरबानी करनी चाहिए, गाय, बैल, भैंस और ऊँट में सात आदमी शरीक हो सकते हैं। सात से ज़्यादा नहीं।

क़ुरबानी के जानवरों की उम्र के बारे में इत्मीनान कर लेना चाहिए। ऊँट-ऊँटनी की उम्र पाँच साल से कम न हो। गाय, भैंस, बैल की उम्र दो साल या उससे ज़्यादा होनी चाहिए। बकरा-बकरी, भेड़ और दुम्बा की उम्र एक साल से कम नहीं होनी चाहिए। दुम्बा और भेड़ के लिए शरीअ़त में इतनी इज़ाज़त है कि अगर वे एक साल से कम के हों लेकिन इतने तगड़े हों कि साल भर के मालूम होते हों तो उनकी क़ुरबानी की जा सकती है। बकरा-बकरी किसी हाल में एक साल से कम के नहीं होने चाहिएँ।

क़ुरबानी के जानवरों की ख़ूबियाँ

(1) नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है कि क़ुरबानी का जानवर तगड़ा, तैयार और बे-ऐब होना चाहिए। अंधे, काने, लंगड़े और दुमकटे या कान कटे जानवर की क़ुरबानी करना ठीक नहीं। लंगड़े होने का मतलब यह है कि उसकी एक टाँग टूट गई हो और वह केवल तीन ही टाँगों से चलता हो, लेकिन अगर चौथा पाँव टेक सकता है और उससे सहारा लेता है तो उसकी क़ुरबानी हो सकती है।

(2) जिस जानवर के कान न हों या सारे दाँत गिर गए हों, उसकी क़ुरबानी करना भी ठीक नहीं। हाँ! दाँत आधे से कम गिरे हों तो ठीक है या एक कान तिहाई से कम कटा हो तो भी ठीक है। दुम तिहाई से कम कटी है तब भी ठीक है।

(3) जिस जानवर का सींग जड़ से टूट गया हो उसकी क़ुरबानी ठीक नहीं। हाँ, अगर पैदाइशी मुण्डा हो तो ठीक है या सींग ज़रा-सा टूट गया हो तो भी ठीक है।

(4) ऐसे मरियल और दुबले जानवर की क़ुरबानी करना ठीक नहीं जिसके सिर्फ़ हड्डी-चमड़ा रह गया हो और उसके बदन पर ज़रा भी गोश्त और हड्डियों में कुछ भी गूदा न हो।

(5) अगर क़ुरबानी का जानवर ख़रीदने के बाद उसमें कोई ऐब हो जाए तो अगर मालदार आदमी है तो दूसरा जानवर ख़रीदे और अगर मालदार नहीं है तो उसी जानवर की क़ुरबानी कर दे।

(6) अगर क़ुरबानी करने पर जानवर के पेट में बच्चा निकल आए तो भी क़ुरबानी ठीक होगी, उस बच्चे को भी ज़िबह कर देना चाहिए।

क़ुरबानी के हिस्से

(1) जिन जानवरों की क़ुरबानी में सात आदमी शरीक हों, उन सातों को बराबर-बराबर हिस्सा मिलना चाहिए, किसी के हिस्से में छँटा हुआ गोश्त नहीं होना चाहिए, बोटियाँ करके मिला देना चाहिए और फिर बराबर-बराबर सात हिस्से लगा देने चाहिएँ। साझी एक-एक ले ले। हाँ, अगर कोई हिस्सेदार, जानवर का कोई ख़ास हिस्सा लेना चाहता है तो सब हिस्सेदारों की मरज़ी से ऐसा कर सकता है।

(2) अगर किसी जानवर में सात से कम आदमी शरीक हों तो भी ठीक है लेकिन गोश्त हर एक को बराबर-बराबर मिलना चाहिए।

(3) अगर किसी जानवर में सात से कम हिस्सेदार हों और कोई एक साझी कई हिस्से लेना चाहे तो यह भी ठीक है। इस हालत में भी गोश्त के सात बराबर-बराबर हिस्से किए जाएँगे, एक हिस्सा लेनेवाला एक हिस्सा लेगा और ज़्यादा हिस्से लेनेवाला ज़्यादा हिस्से लेगा, जैसा पहले से तय हो।

(4) अगर कोई हिस्सेदार क़ुरबानी की नीयत से शरीक हो या अक़ीक़े की नीयत हो तो वह साझी माना जाएगा लेकिन अगर सिर्फ़ गोश्त खाने की नीयत हो तो ठीक नहीं।

(5) सात से ज़्यादा आदमी किसी जानवर में साझी नहीं हो सकते। इसी तरह किसी का हिस्सा सातवें हिस्से से कम हो तो ठीक न होगा।

क़ुरबानी का गोश्त बाँटना

क़ुरबानी का एक-तिहाई गोश्त ग़रीबों में बाँट दिया जाए, बाक़ी गोश्त ख़ुद खाए, पास-पड़ोस, बिरादरी, रिश्तेदार और दोस्तों को खिलाए। क़ुरबानी का गोश्त ग़ैर-मुस्लिमों को भी दिया जा सकता है। अगर ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी या ग़रीब हो तो उसे देना ही चाहिए, लेकिन किसी हालत में उस गोश्त की क़ीमत नहीं ली जा सकती। क़साई को गोश्त बनवाने की उजरत अलग से देनी चाहिए, उसे मज़दूरी में कुछ गोश्त या चरबी या छीछड़े या खाल देना जाइज़ नहीं।

नोट- अगर कोई आदमी क़ुरबानी की वसीयत करके मर गया तो उसकी क़ुरबानी का सारा गोश्त सदक़ा (ख़ैरात) कर देना चाहिए, लेकिन मुर्दे ने वसीयत नहीं की और किसी ने उसकी तरफ़ से क़ुरबानी कर दी तो उसमें से ख़ुद खाना और दूसरों को खिलाना ठीक है।

क़ुरबानी की खाल

(1) क़ुरबानी करनेवाला क़ुरबानी की खाल अपने काम में ला सकता है, चाहे उसकी जानमाज़ बनाए, छलनी बनवाए, डोल या मशक बनवाए या जूते वग़ैरह। और अगर उसने खाल किसी को मुफ़्त दे दी तो पानेवाला जिस तरह चाहे काम में लाए।

(2) अगर खाल बेच दी गई तो फिर उसकी क़ीमत को सदक़ा (ख़ैरात) करना ही वाजिब है।

(3) खाल की क़ीमत को मस्जिद की मरम्मत या किसी और नेक काम में ख़र्च करना ठीक नहीं, ख़ैरात ही करनी चाहिए।

क़ुरबानी का तरीक़ा

क़ुरबानी करने के लिए जानवर को इस तरह लिटाए कि उसका मुँह क़िब्ले (काबे) की तरफ़ हो, फिर यह दुआ पढ़े—

'इन्नी वज्जह्तु वजहि-य लिल्लज़ी फ़-तरस्समावाति वल अर्ज़ हनीफ़वं वमा अना मिनल-मुश-रिकीन। इन-न सलाती व नुसुकी व मह्-या-य व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन। ला शरी-क लहू व बिज़ालि-क उमिर्-तु व अना मिनल-मुस्लिमीन। अल्लाहुम-म मिन-क व ल-क, बिसमिल्लाहि अल्लाहु-अकबर।'

(मैंने पूरी तरह अपना रुख़ उस हस्ती की तरफ़ कर लिया जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है और मैं हरगिज़ शिर्क करनेवालों में से नहीं हूँ। बेशक मेरी नमाज़, मेरी क़ुरबानियाँ, मेरा जीना, मेरा मरना, सब अल्लाह के लिए है जो तमाम जहाँनों का रब है। उसका कोई शरीक नहीं और इसी बात का मुझे हुक्म दिया गया है और मैं सबसे पहले इसको माननेवाला हूँ। ऐ अल्लाह! यह तू ने ही दिया है और तेरे ही लिए है। अल्लाह के नाम से, अल्लाह सबसे बड़ा है।)

'बिसमिल्लाहि अल्लाहु-अकबर' कहते हुए ज़िब्ह कर दे। इसके बाद यह दुआ पढ़े—

अल्लाहुम-म तक़ब्बल्हु मिन्नी कमा त-क़ब्बल-त मिन हबीबि-क मुहम्मदिंव व ख़लीलि-क इबराही-म अलैहिमस्सलातु वस्सलाम।

(ऐ अल्लाह! इस (क़ुरबानी) को मेरी तरफ़ से क़बूल फ़रमा, जिस तरह तूने अपने महबूब मुहम्मद और अपने दोस्त इबराहीम की तरफ़ से क़बूल की, दोनों पर सलामती हो।)

कुछ ज़रूरी बातें

(1) जानवर की गरदन में चार रगें (नसें) होती हैं, इनमें से तीन रगों का कट जाना ज़रूरी है, अगर दो ही कटीं तो यह जानवर हराम हो गया।

(2) क़ुरबानी करते वक़्त पूरी तरह ज़िब्ह करना चाहिए, छुरी लगाकर अलग न हो जाना चाहिए।

(3) अगर किसी ने जान-बूझकर 'बिसमिल्लाहि अल्लाहु-अकबर' न कहा तो ज़िब्ह किया हुआ जानवर हराम हो गया, लेकिन नीयत तो थी मगर भूल गया तो जानवर हराम नहीं हुआ।

(4) जानवर को तेज़ छुरी से ज़िब्ह करना चाहिए, गुट्ठल (कुन्द) छुरी से नहीं।

(5) जब तक जानवर की जान न निकल जाए, उसकी खाल न निकाले, न उसका गला काटे और न ही उसको तड़पने के लिए छोड़ दे, बल्कि पकड़े रहे।

(6) अगर क़ुरबानी किसी दूसरे की तरफ़ से कर रहा हो तो 'मिन्नी' की जगह 'मिन फ़ुलाँ' (उसका नाम जिसकी तरफ़ से क़ुरबानी की जा रही है) कहे।

अक़ीक़ा

बच्चा पैदा होने के बाद सातवें दिन या उसके बाद बच्चे के नाम से किसी जानवर के ज़िब्ह करने को अक़ीक़ा कहते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने अक़ीक़ा करने का हुक्म फ़रमाया है। जिस जानवर की क़ुरबानी ठीक है, उसका अक़ीक़ा भी ठीक है।

तरीक़ा

जब किसी के यहाँ कोई लड़का या लड़की पैदा हो तो अच्छा यह है कि वह सातवें दिन उसका नाम रख दे। लड़का हो तो दो बकरी या दो भेड़ ज़िब्ह करे। लड़की हो तो एक बकरी या एक भेड़ या क़ुरबानी की भैंस में से लड़के के लिए दो हिस्से और लड़की के लिए एक हिस्सा ले ले और सर के बाल मुंडवा दे और बच्चे के बालों के वज़न भर चाँदी या सोना ख़ैरात करे।

अक़ीक़े की दुआ

अल्लाहुम-म हाज़िही अ़क़ी-क़तु इब्नी दमुहा बि-दमिही व लहमुहा बि-लहमिही व अ़ज़मुहा बि-अ़ज़मिही व जिल्दुहा बिजिल्दिही व शअ़रुहा बिशअ़रिही, अल्लाहुम्मज-अल्हा फ़िदाअल-लिइब्नी मिनन्नार'

(ऐ अल्लाह! यह मेरे बेटे का अक़ीक़ा है। इस अक़ीक़े का ख़ून इस लड़के के बदले, इसका गोश्त इसके गोश्त के बदले, इसकी हड्डी इसकी हड्डी के बदले, इसकी खाल इसकी खाल के बदले, इसके बाल इसके बाल के बदले। ऐ अल्लाह! इस अक़ीक़े को मेरे बेटे के लिए जहन्नम की आग से नजात का ज़रिआ बना।)

नोट- अगर किसी वजह से कोई सातवें दिन अक़ीक़ा न कर सके तो फिर जब चाहे कर दे, लेकिन अच्छा यह है कि जब करे तो बच्चे की पैदाइश के दिन से सातवाँ दिन पड़े, जैसे बच्चा जुमे को पैदा हुआ तो जुमेरात को अक़ीक़ा करे।

अक़ीक़े का गोश्त

अक़ीक़े का गोश्त चाहे कच्चा बाँट दे, चाहे पकाकर बाँटे, चाहे दावत करके खिलाए और जिसको चाहे दे। यह जो मशहूर है कि अक़ीक़े का गोश्त नाना, नानी, बाप, दादा वग़ैरह नहीं खा सकते, यह बात ग़लत है।

रोज़ा

अल्लाह को ख़ुश करने के लिए सवेरे पौ फटने से लेकर शाम को सूरज डूबने तक कुछ भी खाने-पीने, हमबिस्तरी करने और बुरी बातों से बचने को रोज़ा कहते हैं।

जिस तरह नमाज़ समझदार और बालिग़ मुसलमान मर्दों और औरतों पर फ़र्ज़ है, उसी तरह रमज़ान के पूरे महीने के रोज़े भी उनपर फ़र्ज़ किए गए हैं। जो आदमी रोज़े के फ़र्ज़ होने से इनकार करे वह काफ़िर है और जो किसी मजबूरी के बिना छोड़े वह फ़ासिक़ और बड़ा ही गुनहगार है।

रमज़ान का चाँद

रमज़ान के रोज़े रखने के लिए शाबान की 29 तारीख़ को चाँद देखने की कोशिश करना वाजिब है। इस बारे में दो बातें ध्यान में रखनी चाहिएँ—

(1) अगर 29 तारीख़ को चाँद दिखाई दे तो दूसरे दिन से रोज़ा शुरू कर देना चाहिए। अगर चाँद न दिखाई दे तो इस शक पर रोज़ा रखना ठीक नहीं कि शायद चाँद निकल आया हो। चाँद देखे बिना 30 शाबान को रोज़ा रखना मना है।

(2) अगर 29 शाबान को चाँद न दिखाई दे तो 30 शाबान को दोपहर से पहले तक चाँद होने की ख़बर का इन्तिज़ार करना चाहिए यानी उस वक़्त तक कुछ न खाना चाहिए। अगर चाँद होने की ख़बर मिल जाए तो नीयत करके रोज़ा रख लेना चाहिए, अगर उस वक़्त तक ख़बर न आए तो खा-पी लेना चाहिए।

रोज़े की नीयत

रोज़ा रखने के लिए नीयत करना फ़र्ज़ है। अगर कोई रोज़े की नीयत के बिना दिन भर कुछ न खाए-पीए तो उसका रोज़ा न होगा। रोज़े के लिए दिल में इरादा कर लेना काफ़ी है कि मैं आज रोज़ा रखूँगा। रोज़े की नीयत सवेरे पौ फटने से पहले ही कर लेना अच्छा है लेकिन किसी वजह से उस वक़्त नीयत न की तो फिर दोपहर से पहले-पहले कर लेनी चाहिए, इसके बाद नहीं।

सहरी

रोज़ा रखने के लिए सवेरे पौ फटने से पहले-पहले कुछ खा-पी लेने को सहरी कहते हैं। सहरी खाना सुन्नत है और इसमें बड़ा सवाब है। अगर खाने को जी न चाहता हो तो भी एक-दो निवाले खा लेना चाहिए। कुछ भी जी न जाहे तो पानी ही पी लेना अच्छा है।

सहरी खाने के लिए यह भी सुन्नत है कि जहाँ तक हो सके देर कर के खाए, लेकिन अगर कोई रात में सहरी न खा सके तो भी रोज़ा ज़रूर रखे। अगर सहरी न खाने से रोज़ा न रखेगा तो बड़ा गुनाहगार होगा।

रोज़े की फ़ज़ीलत

क़ुरआन और हदीस से मालूम होता है कि अल्लाह तआला हर नेकी का सवाब दस गुना से सात सौ गुना तक देता है, लेकिन रोज़े के बारे में अल्लाह ने फ़रमाया कि इसका बदला मैं ख़ुद दूँगा। इसका मतलब यह है कि रोज़े के सवाब की कोई हद नहीं है।

ऐसे बड़े फ़र्ज को अदा करने के लिए हमें चाहिए कि इसकी अच्छी तरह पूरी-पूरी देख-भाल करें और इसमें कोई ऐसी ख़राबी न पड़ने दें कि इसका सवाब कम हो जाए या रोज़ा टूट जाए और सवाब के बदले उलटे गुनाह समेटना पड़े। इस बारे में नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) की दो हदीसें हर वक़्त ध्यान में रखनी चाहिए—

“जो आदमी झूठ बोलना और बुरे काम करना न छोड़े तो अल्लाह को उसका खाना-पीना छुड़ाने की कोई ज़रूरत नहीं।” (बुख़ारी)

“कितने रोज़ेदार ऐसे हैं, जिनको प्यासा रहने के सिवा और कुछ नहीं मिलता।” (दारमी)

रोज़े का टूटना

जिन बातों से रोज़ा टूट जाता है और रमज़ान के बाद रख लेने से अदा हो जाता है, वे ये हैं—

(1) कोई रोज़ेदार के मुँह में ज़बरदस्ती कुछ डाल दे और वह उसके हलक़ से नीचे उतर जाए तो रोज़ा टूट जाएगा।

(2) रोज़ा याद हो लेकिन कुल्ली करते वक़्त ऐसी चूक हो जाए कि पानी हलक़ से नीचे चला जाए तो रोज़ा टूट जाएगा।

(3) अपने आप क़ै हो जाए तो रोज़ा न टूटेगा लेकिन जान-बूझ कर मुँह भर क़ै कर देने से रोज़ा टूट जाता है या मुँह में ज़रा-सी क़ै आए और रोज़ादार निगल जाए तो भी रोज़ा टूट जाएगा।

(4) जो चीज़ें खाई नहीं जाती हैं उनको जान-बूझकर निगल जाने से रोज़ा टूट जाता है, जैसे कंकर, पत्थर, मिट्टी, कोयला, काग़ज़ वग़ैरह।

(5) कान में तेल डालने से रोज़ा टूट जाता है।

(6) अगर कोई नाक में कोई चीज़ सुड़क ले और वह चीज़ हलक़ के नीचे उतर जाए तो रोज़ा टूट जाएगा।

(7) दाँत से निकले हुए ख़ून को (अगर वह थूक से ज़्यादा है) निगल जाने से रोज़ा टूट जाता है।

(8) भूलकर खा-पी लेने से रोज़ा नहीं टूटता, लेकिन यह बात रोज़ेदार को मालूम न हो और वह यह समझे कि रोज़ा तो टूट ही गया और फिर खा-पी लिया तो इसकी क़ज़ा वाजिब हो गई।

(9) सवेरे पौ फटने के बाद यह समझकर कि अभी वक़्त है, सहरी खा ली और रोज़ा रखा तो रोज़ा नहीं हुआ, बाद में रखना होगा।

(10) सूरज डूबने से पहले यह समझकर कि रोज़ा खोलने का वक़्त हो गया कुछ खा-पी लिया तो रोज़ा टूट गया, इसकी क़ज़ा वाजिब हो गई।

(11) दोपहर के बाद रोज़े की नीयत करने से रोज़ा नहीं होता, इसके बदले बाद में रोज़ा रखना पड़ेगा।

(12) किसी ने रात को खाना या पान खाया और सो रहा, सवेरे दाँतों में गोश्त या रोटी या छालिया का कोई टुकड़ा फँसा पाया, जो निकालने की कोशिश में अन्दर चला गया तो यह टुकड़ा अगर चने से छोटा है तो कुछ हरज नहीं और अगर चने के बराबर या उससे बड़ा है तो रोज़ा टूट गया।

लेकिन अगर यह टुकड़ा मुँह के बाहर निकालकर फिर निगल लिया तो वह भले ही छोटे से छोटा हो, रोज़ा टूट गया और उसकी क़ज़ा वाजिब हो गई।

(13) हैज़ व निफ़ास की हालत में औरत को रोज़ा रखना मना है लेकिन इन दिनों के छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा उसपर वाजिब हो गई। नमाज़ की तरह ये रोज़े औरत को माफ़ नहीं।

ऊपर लिखी हुई बातों के मुताबिक़ रोज़ा टूट जाए तो रोज़ेदार पर गुनाह न होगा लेकिन शर्त यह है कि बाद में रोज़ा रख ले।

रोज़ा तोड़ देना

रमज़ान का रोज़ा रखकर जान-बूझकर ऐसा काम करना जो मना है, जैसे खाना-पीना, हमबिस्तरी करना, जिस्म में मौजूद किसी क़ुदरती सूराख़ से खाना, पानी या दवा पहुँचाना, रोज़े में कोई ऐसा काम करना जिससे रोज़ा नहीं टूटता, जैसे सिर में तेल डालना या बे-इरादा मक्खी निगली या एहतिलाम हो गया या ख़ुशबू सूँघ ली या लगा ली या आँखों में सुरमा लगाया या मिसवाक (दातून) की और फिर यह सोचकर कि रोज़ा तो टूट ही गया जान बूझकर खा-पी लिया तो टूट जाएगा। रोज़ा तोड़ देने की हालत में इसकी क़ज़ा भी वाजिब होगी और इसका कफ़्फ़ारा (भुगतान) भी देना पड़ेगा।

लेकिन—

(अ) अगर किसी मौलवी ने ग़लत फ़तवा दे दिया और उसके कहे से रोज़ेदार ने रोज़ा तोड़ दिया तो कफ़्फ़ारा अदा करना न पड़ेगा सिर्फ़ क़ज़ा वाजिब होगी।

(ब) किसी ने नफ़्ल या वाजिब रोज़ा रखा और जानकर तोड़ दिया तो भी कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं, रोज़े की क़ज़ा वाजिब होगी।

(स) रोज़ा याद नहीं रहा और कुछ खा-पी लिया या भूले से हमबिस्तरी कर ली या औरत को गले लगाया और मनी निकल आई, मनी निकल आने से सोचा कि रोज़ा टूट गया और कुछ खा-पी लिया तो भी कफ़्फ़ारा वाजिब न होगा केवल क़ज़ा करनी होगी।

कफ़्फ़ारा

(1) रोज़ा तोड़ देनेवाला एक रोज़े के बदले लगातार दो महीने के रोज़े रखे। अगर इस बीच में एक रोज़ा भी छूट गया तो फिर से रोज़े रखने होंगे।

(2) कफ़्फ़ारे के रोज़े में औरत को हैज़ आ जाए तो उसे फिर से दो महीने के रोज़े रखने की ज़रूरत नहीं, हैज़ ख़त्म होते ही बाक़ी रोज़े रखने लगे।

(3) अगर किसी आदमी में लगातार दो महीने रोज़े रखने की ताक़त नहीं तो फिर वह एक रोज़े के बदले 60 मिसकीनों (ग़रीबों) को दोनों वक़्त पेट भरकर खाना खिलाए। अगर 60 मिसकीन न मिल सकें या उनका इन्तिज़ाम न कर सके तो एक मिसकीन को 60 दिन दोनों वक़्त खाना खिलाए या एक दिन के खाने के बराबर अनाज हर रोज़ दे दे मगर एक आदमी को 60 दिन का अनाज या उसकी क़ीमत एक दिन में देने से कफ़्फ़ारा अदा न होगा।

आसानियाँ

(1) 48 मील या उससे ज़्यादा के सफ़र में अगर कोई रोज़ा क़ज़ा कर दे तो कुछ हरज नहीं। सफ़र चाहे पैदल हो या सवारी पर। सफ़र में जितने रोज़े क़ज़ा करे उनको बाद में रख ले। रोज़े की नीयत करने के बाद सफ़र पर चले तो वह रोज़ा पूरा करना ज़रूरी है।

(2) आदमी बहुत ही कमज़ोर हो या बीमार हो और रोज़ा रखने से बीमारी के बढ़ जाने का डर हो या दवा न करने से अच्छा होने में देर लगने का डर हो तो भी रोज़ा क़ज़ा किया जा सकता है, इस बीच जितने रोज़े क़ज़ा करे, बाद में रख ले।

(3) औरत के पेट में बच्चा हो या वह बच्चे को दूध पिलाती हो और इस हालत में रोज़ा रखने से बच्चे की जान का डर हो या उस औरत को या बच्चे को बड़ी ही तकलीफ़ हो या दूध सूख जाता हो तो औरत रोज़ा क़ज़ा कर दे और बाद में रख ले। लेकिन अगर कोई मालदार है और दूध पीते बच्चे के दूध का इन्तिज़ाम ऊपर से कर सकता है और बच्चा ऊपर का दूध पी सकता है जो उसे नुक़सान न करता हो तो ऊपर का दूध पिलाए या दूध पिलानेवाली को रखे और फिर माँ रोज़ा रखे।

(4) रोज़ा रखने से जान जाने का डर हो तो रोज़ा तोड़ देना चाहिए। इन हालतों में सिर्फ़ क़ज़ा वाजिब है, कफ़्फ़ारा देना न होगा।

(5) अगर कोई इतना कमज़ोर है या और किसी वजह से रोज़ा नहीं रख सकता और क़ज़ा का मौक़ा भी उसे नहीं तो ऐसे आदमी को शरीअ़त ने एक और आसानी दी है, ऐसा आदमी रोज़ा न रखे, बस फ़िदया दे दे। फ़िदया का मतलब यह है कि एक रोज़े के बदले एक मुहताज को 2 सेर गेहूँ या उसकी क़ीमत दे दे या दोनों वक़्त पेट भर खाना खिला दे। फ़िदये का अनाज या दाम कई मुहताजों को दिया जा सकता है।

अगर मौक़ा न मिले और मर जाए तो उसके वारिसों को चाहिए कि उसके छोड़े हुए माल में से एक-तिहाई माल से फ़िदया दे दें।

नोट- ईद के दिन और बक़रईद की 10, 11, 12, 13 तारीख़ों में रोज़ा रखना हराम है। अगर कोई रखेगा तो बहुत गुनाहगार होगा।

तरावीह

रमज़ान के महीने में नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने इशा की फ़र्ज़ और सुन्नत के बाद और वित्र से पहले तरावीह की नमाज़ पढ़ने को सही कहा है। तरावीह की नमाज़ न पढ़नेवालों को शरीअ़त में लानती कहा गया है।

तरावीह की नमाज़ उसी तरह पढ़ी जाती है जिस तरह दूसरी नमाज़ें पढ़ते हैं। तरावीह की नमाज़ों में जमाअत के साथ थोड़ा-थोड़ा करके पूरा क़ुरआन पढ़ने और सुनने का बड़ा सवाब है।

तरावीह की नामज़ में हर चार रकअत के बाद दो-एक मिनट सुस्ता लेना चाहिए, उस वक़्त यह दुआ पढ़ें:

'सुब्हा-न ज़िल-मुल्कि वल म-लकूति सुब्हा-न ज़िल इज़्ज़ति वल अज़्मति वल हैबति वल क़ुद-रति वल किबरिया-इ वल ज-बरूति सुब्हा-नल मलिकिल हय्यिल्लज़ी ला यनामु वला यमूतु, सुब्बूहुन क़ुद्दूसुन रब्बुना व रब्बुल मलाइ-कति वर्रूहि, अल्लाहुम-म अजिर-ना मिनन्नारि या मुजीरु या मुजीरु या मुजीरु।'

(पाक है हुकूमत और इक़तिदारवाला, पाक है इज़्ज़त और बड़ाईवाला, हैबत और क़ुदरतवाला, बड़ाई और दबदबेवाला। पाक है वह ज़िन्दा-जावेद बादशाह जो न सोता है और न कभी उसके लिए फ़ना है और न मौत। बड़ा ही पाक व बरतर, ऐबों से पाक हमारा रब, फ़रिशतों का रब और जिबरील (अलैहिस्सलाम) का रब। ऐ अल्लाह! हमें जहन्नम की आग से पनाह दे, ऐ पनाह देनेवाले, ऐ पनाह देनेवाले, ऐ पनाह देनेवाले।)'

जो लोग जमाअत से तरावीह पढ़ें वे वित्र भी जमाअत से पढ़लें। अगर किसी को तहज्जुद पढ़ना हो तो वित्र तहज्जुद के बाद भी पढ़ सकते हैं।

एतिकाफ़

एतिकाफ़ का मतलब यह है कि रमज़ान शरीफ़ के 20 रोज़े पूरे करके इक्कीसवीं रात से दुनिया के काम-काज और बाल-बच्चों से अलग होकर मग़रिब की नमाज़ के बाद फ़ौरन ही एतिकाफ़ की नीयत करे और मस्जिद के किसी कोने में अल्लाह की याद के लिए अकेला बैठ जाए। उसी जगह खाए, पिए और सोए, सिर्फ़ पाख़ाना-पेशाब के लिए मस्जिद से बाहर निकले या फिर जुमे की फ़र्ज़ नमाज़ के लिए मस्जिद से निकल सकता है।

औरतें अगर एतिकाफ़ करना चाहें तो वे अपने घर में करें, इसके लिए घर ही में जगह बना लें। एतिकाफ़ में मर्द हो या औरत, सब उस वक़्त तक रहेंगे जब तक ईद का चाँद न दिखाई दे।

रमज़ान में एतिकाफ़ के लिए पाक होने के साथ-साथ नीयत की तरह रोज़ेदार होना भी ज़रूरी है। रोज़ा तोड़ देने से एतिकाफ़ भी टूट जाएगा। औरत को हैज़ (माहवारी) का ख़ून आ जाए तो उसका भी एतिकाफ़ टूट जाएगा।

पाख़ाना, पेशाब, जुमे की फ़र्ज़ नमाज़, शरई ग़ुस्ल के अलावा अगर मस्जिद से निकलेगा तो एतिकाफ़ टूट जाएगा। हाँ, अगर कोई घर से खाना लानेवाला नहीं या मस्जिद में पानी नहीं मिल सकता या किसी जनाज़े की नमाज़ पढ़ानेवाला उसके सिवा दूसरा आदमी नहीं मिलता तो इतनी देर के लिए मस्जिद से बाहर निकल सकता है।

याद रखना चाहिए कि एतिकाफ़ दुनियादारी से कटकर अल्लाह की याद के लिए किया जाता है, इसलिए चुपचाप बैठे रहना ठीक नहीं। किसी न किसी इबादत और ज़िक्र में लगा रहे। क़ुरआन और हदीस पढ़ता रहे, नफ़्ल नमाज़ पढ़े, तसबीह और वज़ीफ़ा पढ़ता रहे या दीन की बातें लिखने में लगे। कोशिश करे कि रात-भर इबादत करता रहे, दिन को सो ले।

फ़ित्र का सदक़ा

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने मुसलमानों को रोज़े पूरे करने की ख़ुशी में रमज़ान के आख़िर में और ईद से पहले कुछ अनाज ख़ैरात करने का हुक्म दिया है और इसे ज़रूरी बताया है। इसी को फ़ित्र का सदक़ा कहते हैं।

सदक़े का वाजिब होना

जिस मुसलमान के पास साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चाँदी या दुकान में इतनी ही क़ीमत का माल हो या ज़रूरत से ज़्यादा इतनी ही क़ीमत का सामान हो, जैसे मेज़-कुर्सी, क़ीमती कपड़े, मकान वग़ैरह तो उस पर सदक़ा वाजिब होगा।

ऐसे आदमी को चाहिए कि वह अपना सदक़ा दे और घर में जिन लोगों का वह ज़िम्मेदार है उन सबका भी सदक़ा दे, यहाँ तक कि अपने घर के ख़िदमतगारों का भी दे। अगर किसी वजह से ईद से पहले न दे सके तो बाद में दे दे।

कुछ आलिमों के नज़दीक सदक़-ए-फ़ित्र देने के लिए ज़कात का निसाब होना ज़रूरी नहीं है, बल्कि हर वह मुसलमान देगा जो दे सकता है।

सदक़ा देना

सदक़े में 1 किलो 666 ग्राम गेहूँ या इससे दो गुना जौ या उसका आटा या उसकी क़ीमत या इस क़ीमत के बराबर दूसरा अनाज देना चाहिए। सदक़ा उन तमाम लोगों को दिया जा सकता है जिनपर सदक़ा वाजिब नहीं। सदक़े की रक़म या अनाज एक आदमी को भी दिया जा सकता है और कई आदमियों में भी बाँटा जा सकता है।

ज़कात का बयान

मालदार मुसलमानों को अल्लाह की ख़ुशी के लिए हर साल शरीअ़त के मुताबिक़ अपने माल का कुछ हिस्सा ग़रीबों में देने के लिए निकालना ज़रूरी है। इसी को ज़कात कहते हैं।

मालदार मुसलमानों पर ज़कात फ़र्ज़ है। जो इसके फ़र्ज़ होने से इनकार करे वह काफ़िर और जो मालदार मुसलमान ज़कात अदा न करे वह फ़ासिक़ है (अल्लाह के हुक्मों को खुल्लम-खुल्ला तोड़नेवाले को फ़ासिक़ कहते हैं)। क़ुरआन में ऐसे लोगों के लिए बड़े अज़ाब की ख़बर दी गई है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने भी ज़कात न देनेवालों के बारे में बड़ी वईद (आख़िरत के अज़ाब का वादा) बयान की है। एक बार आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जिन लोगों को अल्लाह ने माल दिया है और वे उसकी ज़कात नहीं देते तो क़ियामत के दिन उनका यह माल एक बहुत ही ज़हरीले और गंजे साँप की शक्ल में आएगा और उनकी गर्दन में लिपट जाएगा और उनके दोनों जबड़ों को नोचेगा और कहेगा कि मैं तेरा माल हूँ, मैं तेरा ख़ज़ाना हूँ।”

मालदार

जिसके पास साढ़े बावन तोला चाँदी या साढ़े सात तोला सोना हो या इनकी क़ीमत के बराबर दोनों चीज़ें मिलकर हों या इसी क़ीमत के बराबर तिजारत का समान हो या ज़रूरत से ज़्यादा इस क़ीमत के बराबर माल और रुपया-पैसा हो। इतने या इससे ज़्यादा माल के मालिक को इस्लामी शरीअ़त में मालदार माना गया है।

ज़कात का लागू होना

(1) शरीअ़त में जो आदमी मालदार माना गया है अगर उसके माल पर पूरा साल बीत जाए तो उसे अपने माल पर ढाई रुपया सैकड़ा के हिसाब से (माल का चालीसवाँ हिस्सा) निकालना चाहिए। साल भर बीतने का मतलब यह है, जैसे आज किसी के पास इतना माल आ गया कि वह उसकी ज़कात दे। अगर दूसरे साल उसी तारीख़ को उसके पास इतना ही या उससे ज़्यादा मौजूद हो तो अब उसपर ज़कात लागू होगी। साल के बीच में थोड़े दिन के लिए घटने-बढ़ने का कोई एतिबार नहीं।

(2) चाँदी सोने की बनी हुई चीज़ों में अगर मिलावट आधे से कम है तो पूरी चीज़ चाँदी या सोने की समझी जाएगी और अगर आधे से ज़्यादा है तो पूरी चीज़ मिलावट में गिनी जाएगी।

(3) वे चीज़ें जो हमारी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी हैं, जैसे खाना, कपड़ा, मकान, दवा, पेशे के औज़ार वग़ैरह तो चाहे ये सब चीज़ें इतने की हों, जितने पर ज़कात लागू हो जाती है तो भी उनपर ज़कात लागू न होगी।

(4) पालतू जानवर जैसे गाय, भैंस, बकरी वग़ैरह जो दूध और घी के लिए पाले जाते हैं और बैल, भैंसा, घोड़े, गधे और ख़च्चर जो गाड़ी खींचने, सामान लादने, ताँगे चलाने और खेती-बाड़ी के काम में आते हैं, उनपर ज़कात नहीं। हाँ! अगर ये तिजारत के लिए हों तो उनकी क़ीमत लगा ली जाएगी और उसपर ज़कात होगी। चाहे ज़कात में रक़म दे या उतनी रक़म के जानवर दे।

(5) जिन जानवरों को इसलिए पाला जाए कि उनके दूध को बेचकर फ़ायदा उठाया जाएगा या उनकी नस्ल बढ़ेगी और उससे फ़ायदा होगा या फिर अपने शौक़ के लिए पाले जाएँ तो इसका हिसाब बड़ा लम्बा है। अगर किसी के पास ऐसे जानवर हों तो उसे चाहिए कि ज़कात देते वक़्त किसी जानकार (आलिम) से पूछ ले।

पैदावार पर ज़कात

अल्लाह तआला ने ज़मीन की पैदावार पर भी ज़कात लागू की है। इसका तरीक़ा यह है कि अगर खेती को सींचना न पड़े, बारिश के पानी से हो जाए, या नदी के किनारे तराई में कोई चीज़ बोई जाए और वह सींचे बिना पैदा हो जाए, चाहे वह अनाज हो या तरकारी, मेवा हो या फल-फूल वग़ैरह तो यह जितना पैदा हुआ है, वह कम हो या ज़्यादा, उस पर उसका दसवाँ हिस्सा ज़कात देना वाजिब है। जैसे ही मिले दस मन में एक मन या दस सेर में एक सेर के हिसाब से आदमी उसको निकाल दे। पास के तालाब से खेत में पानी काट देने से पैदावार हुई तो भी दसवाँ हिस्सा ज़कात देना वाजिब होगा।

अगर खेत ट्यूबवेल या नहर वग़ैरह से सींचा जाए या पानी नदी से लाया जाए तो पैदावार का बीसवाँ हिस्सा ज़कात देनी होगी, जैसे बीस मन में एक मन या बीस सेर में एक सेर वग़ैरह। बाग़ की पैदावार के लिए भी यही हुक्म है। हाँ, अगर किसी ने घर के अन्दर पेड़ लगा लिया या तरकारी में से कुछ बोया और उससे फल पाया तो उसमें ज़कात नहीं।

खेत अगर ठेके पर हो चाहे उसका ठेका पैसा देकर अदा किया जाए या अनाज देकर, तो ज़कात किसान को देनी होगी और अगर बटाई पर है तो ज़मींदार और किसान दोनों अपने-अपने हिस्से की ज़कात देंगे।

ज़कात देना

ज़कात अदा करते वक़्त यह इरादा ज़रूर कर लेना चाहिए कि यह रक़म ज़कात में दे रहा हूँ। अगर इस इरादे से न दिया तो वह ख़ैरात होगी, ख़ैरात का सवाब मिलेगा। ज़कात वाजिब और लागू रहेगी। यह भी याद रखना चाहिए कि कोई मजबूरी न हो तो ज़कात फ़ौरन ही अदा कर देनी चाहिए और इसका सवाब हलाल कमाई में है, हराम कमाई में नहीं! हराम कमाई से अल्लाह को कोई इबादत मंज़ूर नहीं, उल्टे गुनाह है।

ज़कात अदा करने का तरीक़ा

ज़कात अदा करने का सही तरीक़ा यह है कि मुसलमान मिल-जुलकर एक जमाअत बना लें, यह जमाअत मुसलमानों से ज़कात वुसूल करे और अल्लाह और अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) की तालीम के मुताबिक़ हक़दार लोगों पर ख़र्च करे।

ज़कात की रक़म ख़र्च करना

ज़कात की रक़म जिन लोगों पर ख़र्च की जा सकती है, वे ये हैं:

(1) ऐसे फ़क़ीरों को ज़कात दी जाए जिनके पास खाने, पहनने और दूसरी ज़रूरतों के लिए माल नहीं होता और जो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दूसरों के मुहताज होते हैं। जैसे यतीम बच्चे, विधवा औरतें, बेरोज़गार लोग और ऐसे लोग जिनपर अचानक कोई आफ़त आ पड़ी हो और उन्हें माल की ज़रूरत हो।

(2) मिसकीन लोगों को ज़कात दी जाए। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने उन लोगों को मिसकीन बताया है जो अपनी ज़रूरत-भर का माल नहीं पाते और लोग उन्हें जानते भी नहीं ताकि उनकी मदद कर सकें और वे बेचारे शर्म के मारे किसी से माँग भी नहीं सकते। इन शरीफ़ मिसकीनों को ढूँढ-ढूँढकर ज़कात देनी चाहिए।

(3) ज़कात उन लोगों पर भी ख़र्च की जा सकती है जो ज़कात की रक़म वुसूल करने पर लगाए जाएँ, चाहे वे मालदार ही क्यों न हों।

(4) ग़ैर-मुस्लिमों का मन दीन (इस्लाम) की तरफ़ मोहने के लिए भी ज़कात दी जा सकती है।

(5) जो लोग क़र्ज़दार हों लेकिन उनके पास इतना पैसा न हो कि अपना क़र्ज़ अदा कर सकें और वे फुज़ूलख़र्च और माल उड़ानेवाले भी न हों, तो ऐसे लोग भी ज़कात के हक़दार हैं।

(6) अल्लाह की राह में जिहाद करनेवाले ज़कात के सबसे ज़्यादा हक़दार हैं, चाहे वे मालदार ही क्यों न हों। अल्लाह की राह में जिहाद करनेवाले वे लोग होते हैं जो अल्लाह के दीन को क़ायम करने में तन-मन-धन से लगे हों।

(7) ऐसे मुसाफ़िर पर भी ज़कात की रक़म ख़र्च की जा सकती है जो चाहे अपने घर पर कितना ही मालदार हो लेकिन सफ़र में वह ग़रीब हो गया हो।

(8) ग़ुलाम को आज़ाद कराने और आज के वक़्त में जेलों में क़ैद बेक़सूर मुसलमानों की रिहाई पर भी ज़कात की रक़म ख़र्च की जा सकती है।

नोट - अगर मुसलमानों की ऐसी कोई जमाअत न हो तो ज़कात निकालनेवाला अपने-आप ज़कात की रक़म हक़दार लोगों तक पहुँचाए और कोशिश करके अपने रिश्तेदारों को पहले दे जैसे भाई, भतीजे-भतीजियाँ, बहन-बहनोई, भांजे-भांजियाँ, चाचा-चाची, ख़ाला-ख़ालू, फूफी-फूफा, मामू-मुमानी, सास-ससुर, साले, दामाद, दूध-पिलाई माँ, दूध-पिलाया लड़का-लड़की, सौतेली माँ वग़ैरह।

रिश्तेदारों के बाद दोस्तों और पड़ोसियों को, इनके बाद दूसरे हक़दारों को। लेकिन नीचे लिखे हुए लोगों को ज़कात नहीं देनी चाहिए—

(1) जो मुसलमान शरीअ़त की तालीम के मुताबिक़ मालदार हो।

(2) माँ, बाप, दादा, दादी, नाना, नानी, और उनके ऊपर ऐसे ही लोगों को।

(3) बेटा-बेटी, पोती-पोता, नवासा-नवासी और उनके नीचे अपनी ऐसी ही औलाद को।

(4) शौहर बीवी को और बीवी शौहर को।

(5) मालदार आदमी की नाबालिग़ औलाद को।

(6) किसी को मस्जिद बनाने के लिए।

हज का बयान

ईदुल-अज़हा (बक़रईद) के महीने की आठ तारीख़ से बारह तारीख़ तक अल्लाह की इबादत के लिए काबा का तवाफ़ करने, अरफ़ात के मैदान में पहुँचने और उन दिनों में वहाँ अल्लाह और उसके रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए कुछ तरीक़ों के मुताबिक़ इबादत करने को हज कहते हैं।

जिस मुसलमान में इतनी ताक़त हो और उसके पास खाने-कपड़े और दूसरी ज़रूरतों से ज़्यादा इतना माल हो कि वह मक्का जा सके और मामूली तौर पर वहाँ का ख़र्च उठा सके उसपर उम्र-भर में एक बार हज करना फ़र्ज़ है। जो इसके फ़र्ज़ होने से इनकार करे वह क़ाफ़िर है और फ़र्ज़ होने पर अदा न करनेवाला फ़ासिक़ (बहुत बड़ा गुनाहगार) है।

हज की फ़ज़ीलत

क़ुरआन में अल्लाह ने मुसलमानों के लिए हज करना फ़र्ज़ किया है, हदीस में भी हज की बहुत ज़्यादा फ़ज़ीलत बयान की गई है और क्यों न हो, हज में तन-मन-धन से होनेवाली सभी इबादतें हो जाती हैं। हज करनेवाला अपना माल ख़र्च करके, अपना वक़्त लगाकर, अपना देश, अपना ख़ानदान और अपना कारोबार छोड़कर अपने अल्लाह की ख़ुशी के लिए, मक्का जाने को निकल खड़ा होता है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने हज का बड़ा सवाब बताया है। आपने फ़रमाया कि—

“जिस आदमी ने सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी के लिए हज किया और जब तक सफ़र में रहा बेशर्मी की बातों से बचता रहा और किसी से झगड़ा नहीं किया और न कोई और बुराई की तो जब वह हज से लौटेगा तो गुनाहों से इस तरह पाक होगा जिस तरह बच्चा माँ के पेट से पैदा होते वक़्त होता है।"

इसका मतलब यह है कि हाजी के पिछले सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं।

एक और हदीस में है, नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा गया कि कौन-सा काम सबसे अफ़ज़ल है? आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अल्लाह और रसूल पर ईमान लाना।” पूछा गया, “इसके बाद?” आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अल्लाह के दीन के लिए जिहाद करना।” फिर पूछा गया, "इसके बाद?” आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "वह हज जिसमें आदमी अल्लाह की मरज़ी के ख़िलाफ़ काम न करे।”

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने उस आदमी के बारे में, जो हज की ताक़त रखता है और फिर भी हज नहीं करता, फ़रमाया है कि चाहे वह यहूदी होकर मरे या नसरानी होकर, अल्लाह को उसकी परवाह नहीं।

क़ुरआन, हदीस और सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की बातों से मालूम होता है कि हज इस्लाम में कितनी बड़ी और ज़रूरी इबादत है। इसलिए नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने ताकीद फ़रमाई है कि जिस आदमी पर हज फ़र्ज़ हो जाए वह उसके लिए जल्दी करे। आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी हज का इरादा करे उसे जल्दी करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वह बीमार पड़ जाए, ऐसा भी हो सकता है कि उसकी ऊँटनी [इसका मतलब यह है कि जिस सवारी के ज़रीए हज का सफ़र करना है, वह न रहे या रास्ते में कोई ख़तरा पैदा हो जाए या सफ़र ख़र्च न रहे।] खो जाए और यह भी हो सकता है कि कोई ऐसी ज़रूरत आ पड़े जिसकी वजह से हज को न जा सके।"

जिस ख़ुशक़िस्मत को हज का मुबारक मौक़ा हासिल हो उसको समझना चाहिए कि यह मुबारक मौक़ा बार-बार नहीं हासिल होता। फिर यह भी तो है कि मौत न जाने कब आ जाए, इसलिए हज इस तरह करना चाहिए कि उसकी तमाम बातें मौक़े-मौक़े से पूरी की पूरी अदा हो सकें और हज में कम-से-कम जो बातें फ़र्ज़ और वाजिब हैं, वे किसी हालत में न छूटने पाएँ, नहीं तो घाटा ही घाटा रहेगा, माल और वक़्त बेकार जाएगा और इतनी दूर जाने-आने की परेशानियाँ ऊपर से सहन करनी होंगी और उनसे कोई फ़ायदा न होगा।

हज करनेवाले ख़ुशक़िस्मत लोगों को चाहिए कि हज को जाने से पहले किसी जाननेवाले से हर तरह की जानकारी ले लें। कम-से-कम फ़र्ज़ और वाजिब बातों को ज़रूर समझें। हज में जगह-जगह कुछ दुआएँ पढ़ी जाती हैं, उनका बड़ा सवाब है। उन दुआओं को याद कर लेना चाहिए। फिर हज में ऐसे लोगों के साथ रहें जो इन सारी बातों के जाननेवाले हों। जो लोग यह समझते हैं कि मक्का में मुअल्लिम तो होते ही हैं वे ठीक-ठीक हज करा देंगे, उनका यह समझना ठीक नहीं। इस धोखे में बहुत-से हाजियों को हाथ मलने के सिवा कुछ हाथ नहीं आता। हज पर जाने से पहले हज करना सीखना चाहिए और सब ज़रूरी बातों की जानकारी हासिल करनी चाहिए।

औरत के लिए शर्त- अगर कोई औरत इतनी ताक़त और इतना माल रखती है कि वह हज को जा सके और ख़र्च उठा सके तो वह उस वक़्त तक हज को नहीं जा सकती जब तक उसके साथ उसका शौहर या कोई महरम मर्द न हो। महरम मर्द उसे कहते हैं जिससे निकाह करना हराम हो, जैसे बाप, दादा, नाना, मामू, सगा भाई, बेटा, दामाद, पोता, नवासा, दूध-पिलाया लड़का वग़ैरह। चाहे ऐसे साथी का ख़र्च औरत ही को उठाना पड़े। ऐसी औरत पर भी हज फ़र्ज़ नहीं है जिसका शौहर मर गया हो और वह इद्दत के दिन [इद्दत के दिन विधवा होने के बाद चार महीने दस दिन हैं।] बिता रही हो।

नोट- जवान होने से पहले बच्चों पर और अंधे और दीवाने पर हज फ़र्ज़ नहीं।

मन्नत मानना

किसी ने कहा, “या अल्लाह! मेरा फ़ुलाँ काम हो जाए तो मैं पाँच रोज़े रखूँगा या चार रकअत नमाज़ पढूँगा या दस रुपये ख़ैरात करूँगा या बीस ग़रीबों को खाना खिलाऊँगा या एक बकरा ज़िब्ह करके ग़रीबों को बाटूँगा या पूरे क़ुरआन की तिलावत करूँगा या दो सौ बार दुरूद शरीफ़ पढूँगा या सौ बार कलिमा पढूँगा वग़ैरह", तो इस तरह अल्लाह से वादा करने को मन्नत मानना कहते हैं।

अल्लाह के सिवा किसी और से मन्नत मानना जाइज़ नहीं है, जैसे किसी ने कहा, "ऐ बड़े पीर साहब! मेरा फ़ुलाँ काम हो जाए तो मैं चादर चढ़ाऊँगा, गागर उठाऊँगा, कूँडा भरूँगा" वग़ैरह तो यह मन्नत नहीं हुई। इस तरह मन्नत मानना शिर्क है।

जब हम अल्लाह ही को अपना पैदा करनेवाला, अपनी ज़रूरतों का पूरा करनेवाला, रोगों और दुखों से बचानेवाला और अपना मालिक और मौला मानते हैं, हम मानते हैं कि ज़िन्दा रखना और मौत देना अल्लाह ही के बस में है इसलिए शुक्र उसी के लिए है तो मन्नत भी उसी की माननी चाहिए।

अगर किसी ने यूँ कहा कि, “फ़ुलाँ काम पूरा हो जाए तो मौलूद शरीफ़ पढ़वाऊँगा या फ़ुलाँ मियाँ का ताक़ भरूँगा या मस्जिद में गुलगुले चढ़ाऊँगा या बड़े पीर की ग्यारहवीं करूँगा" वग़ैरह तो यह भी मन्नत नहीं हुई। ऐसी मन्नतें मानना गुनाह है।

मन्नत का पूरा करना

किसी ने मन्नत मानी और उसका काम पूरा हो गया तो मन्नत का पूरा करना उसपर वाजिब हो गया। अगर पूरा न करेगा तो गुनाहगार होगा। अगर काम पूरा न हुआ तो मन्नत का अदा करना वाजिब नहीं हुआ। मन्नत मानते वक़्त अदा करने के लिए जो कुछ नीयत करेगा, वही अदा करना पड़ेगा, जैसे—

किसी ने नीयत की कि पाँच रोज़े लगातार रखूँगा, तो चाहिए कि लगातार रखे। अगर बीच में एक रोज़ा छूट गया तो फिर से रखना पड़ेगा। अगर दिल में सिर्फ़ यह है कि पाँच रोज़े रखूँगा तो चाहे एक-एक, दो-दो करके रखे चाहे लगातार।

अगर मन्नत मानी कि फ़ुलाँ महीने के पूरे रोज़े रखूँगा तो उस महीने के पूरे रोज़े वाजिब हो गए और लगातार रखना वाजिब हुए। अगर बीच में कोई रोज़ा छूट गया तो उसकी क़ज़ा रखनी होगी, फिर से दुहराना न पड़ेगा।

अगर मन्नत मानी कि दस ग़रीबों को खाना खिलाऊँगा तो दस को खिलाना होगा। एक वक़्त खिलाने की मन्नत की तो एक वक़्त, पूरे दिन की मन्नत मानी तो दो वक़्त, अगर अनाज देने की नीयत की तो जितना-जितना देने की नीयत की उतना दे, दिल में नाप और वज़न का ध्यान नहीं आया तो फिर हर एक को सदक़-ए-फ़ित्र के बराबर दे, इसी तरह रुपये की गिनती की नीयत की तो कुल रुपये दे; एक ही को सब दे दे, चाहे कई ग़रीबों को।

किसी काम के पूरा होने की मन्नत मानी और काम बनने से पहले मन्नत अदा कर दी तो यह अलग से सदक़ा हुआ, मन्नत अदा उस वक़्त होगी जब काम बनने के बाद दे। अगर पहले अदा कर चुका तो फिर अदा करे।

अगर किसी ने यह मन्नत मानी कि फ़ुलाँ से बोलूँ तो दो रोज़े रखूँ या आज नमाज़ न पढूँ तो दस रुपए दूँगा। इसके बाद बोल दिया या नमाज़ पढ़ ली तो यह मन्नत नहीं है। यह एक तरह की क़सम है। इस तरह की क़सम न खाए, इस तरह क़सम खाना गुनाह है लेकिन अगर खा ली तो फिर रोज़े रखे और रुपया दे। अच्छा यह है कि क़सम तोड़ दे और कफ़्फ़ारा अदा करे।

क़सम खाना

किसी ने कहा कि, “अल्लाह की क़सम! मैं ऐसा करूँगा या न करूँगा" तो यह क़सम हो गई। क़सम अल्लाह ही के नाम के साथ खाना ठीक है। अल्लाह के सिवा किसी और के नाम के साथ क़सम खाना ठीक नहीं। इस बारे में नीचे लिखी बातें ध्यान में रखनी चाहिएँ:

अल्लाह की क़सम, ख़ुदा की क़सम, अल्लाह की बड़ाई की क़सम, ख़ुदा गवाह है, ख़ुदा को मौजूद समझकर कहता हूँ, क़ुरआन की क़सम, कलाम पाक की क़सम, कलाम मजीद की क़सम, इस तरह कहने से क़सम हो जाती है और यह सब ठीक है। इतना कह दिया कि, "क़सम खाता हूँ, फ़ुलाँ काम करूँगा या न करूँगा” तो भी क़सम हो गई। उसका पूरा करना वाजिब है।

कलाम पाक को हाथ में लेकर कोई बात कही तो क़सम नहीं हुई। क़सम तब होगी जब क़सम के अल्फ़ाज़ कहे।

रसूल की क़सम, काबे की क़सम, अपनी आँखों की क़सम, या इल्म की क़सम, जवानी की क़सम, बाप की क़सम, सिर की क़सम, अपनी जान की क़सम, तुम्हारी जान की क़सम, वग़ैरह इस तरह अल्लाह के सिवा दूसरे की क़सम खा ली तो यह क़सम न होगी, न इसका पूरा करना वाजिब होगा। इस तरह की क़सम खाना शिर्क है और इसका बड़ा गुनाह है। अगर ऐसी क़सम खा ली तो तौबा करे।

इस तरह कहा कि फ़ुलाँ काम करूँ तो ईमान नसीब न हो या मुसलमान न रहूँ या हाथ टूटे, दीदें फूटें, कोढ़ी हो जाऊँ, बदन फूटे, ख़ुदा का ग़ज़ब फट पड़े, आसमान टूटे, दाने-दाने का मुहताज हो जाऊँ, क़ियामत के दिन ख़ुदा के सामने ज़लील होऊँ, रसूल की शिफ़ाअत नसीब न हो वग़ैरह, इस तरह की क़समें खाना बड़ा गुनाह है। इस तरह कहने से क़सम नहीं होती। ऐसी बातों से हमेशा बचना चाहिए और तौबा करनी चाहिए।

किसी से कह दिया कि तेरे घर का खाना मुझपर हराम है या फ़ुलाँ चीज़ मैंने अपने ऊपर हराम कर ली। इस तरह कहने से वह खाना या चीज़ हराम न होगी लेकिन यह क़सम हो गई, अगर खा लिया तो कफ़्फ़ारा देना होगा।

क़सम खाकर 'इन-शाअल्लाह' (अगर अल्लाह ने चाहा) कह लिया जैसे “ख़ुदा की क़सम! इन-शाअल्लाह ऐसा करूँगा या न करूँगा" तो यह क़सम नहीं हुई।

झूठ बोलना हराम है और इसका बहुत बड़ा गुनाह है लेकिन झूठी क़सम खाना इससे भी बुरा है। झूठी क़सम खा ली तो यह कफ़्फ़ारे से भी माफ़ नहीं होती। बस दिन-रात अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाए, रोए और तौबा करे। इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं।

ग़ैब की बात पर क़सम न खाए, जैसे ख़ुदा की क़सम! आज पानी बरसेगा। अगर न बरसा तो कफ़्फ़ारा देना होगा।

भूल-चूक में झूठी क़सम खा ली जैसे ख़ुदा की क़सम! फ़ुलाँ आदमी नहीं आया और दिल में यक़ीन है कि नहीं आया लेकिन वह आदमी आ चुका है तो यह क़सम माफ़ है। इसमें न गुनाह है न कफ़्फ़ारा।

गुनाह के कामों पर क़सम न खाए, जैसे ख़ुदा की क़सम! आज चोरी करूँगा या नमाज़ न पढूँगा वग़ैरह। अगर ऐसी क़सम खा ली तो तोड़ दे और कफ़्फ़ारा दे दे।

ठीक बातों के न करने की क़सम न खाए, जैसे आज खाना न खाऊँगा, लेकिन अगर क़सम खा ली तो तोड़े नहीं। भूले से भी खा लिया या किसी ने ज़बरदस्ती खिला दिया तो कफ़्फ़ारा देना होगा।

क़सम का कफ़्फ़ारा

क़सम टूटने पर कफ़्फ़ारा देना वाजिब है। अगर कफ़्फ़ारा न देगा तो गुनाहगार होगा। कफ़्फ़ारा देने में नीचे लिखी हुई बातें ध्यान में रखनी चाहिएँ—

(1) क़सम का कफ़्फ़ारा यह है कि 10 मुहताजों को दोनों वक़्त पेट-भर के खाना खिला दे या अनाज दे दे। अगर अनाज दे तो सदक़-ए-फ़ित्र के बराबर दे।

(2) क़सम तोड़नेवाला अगर ग़रीब है और वह कफ़्फ़ारा नहीं दे सकता तो लगातार तीन रोज़े रखे। अगर बीच में कोई रोज़ा छूट गया तो फिर से रखे।

(3) क़सम खा ली इसके बाद कफ़्फ़ारा देकर क़सम तोड़ी तो यह कफ़्फ़ारा न होगा फिर कफ़्फ़ारा दे तब अदा होगा। पहले जो कफ़्फ़ारा दिया उसे वापिस लेना ठीक नहीं। वह सदक़ा-ख़ैरात होगा।

(4) अगर किसी के ज़िम्मे बहुत-से कफ़्फ़ारे देना बाक़ी हों तो हर एक का अलग-अलग दे। ज़िन्दगी में न दे सके तो उसकी वसीयत करना वाजिब है।

(5) कफ़्फ़ारे में उन्हीं मुहताजों को दिया जा सकता है जिनको ज़कात दी जा सकती है।

गिरी-पड़ी चीज़ उठाना

अगर किसी रास्ते, गली या किसी भीड़ में या शादी-ब्याह के बाद किसी की कोई चीज़ रह गई और किसी ने देखी और उठा ली तो उसे अपने काम में लाना हराम है। अगर उठाए तो इस नीयत से उठाए कि वह मालिक को पहुँचा देगा। उठानेवाले पर यह बात वाजिब हो गई।

अगर गिरी-पड़ी चीज़ किसी ने देखी और न उठाई चाहे उस चीज़ के गुम हो जाने या बेकार हो जाने का डर भले ही हो तो न उठानेवाला गुनाहगार न होगा, लेकिन ऐसी चीज़ उठा ली तो मालिक तक पहुँचाना वाजिब हो गया। अब उठानेवाला अगर फिर उसी जगह डाल गया तो यह ठीक नहीं, उठाने के बाद मालिक को ढूँढना वाजिब हो गया।

अगर किसी भीड़ में कोई चीज़ पड़ी दिखाई दी तो पुकारकर ऐलान करे और साफ़-साफ़ बताए कि फ़ुलाँ चीज़ है, जिसकी हो आकर ले ले। अगर डर हो कि कोई झूठा आदमी धोका देकर ले जाएगा तो चीज़ का अता-पता न बताए केवल चीज़ का नाम बता दे, फिर जो लेने आए, उससे अता-पता और पहचान पूछे। अगर वह बता दे तो दे दे।

अच्छी तरह ऐलान करने पर अगर चीज़ का मालिक न मिले और चीज़ उठानेवाला उसके मालिक के मिलने से मायूस हो जाए कि वह अब न मिलेगा तो वह चीज़ ख़ैरात कर दे, अपने पास न रखे। बहुत ग़रीब हो और दिल में कपट न हो और अच्छी तरह ऐलान करने पर मालिक न मिले तो फिर अपने आप ले ले, लेकिन फिर मालिक आ गया तो देना पड़ेगा।

घर में मुर्ग़ी, कबूतर, तोता या ऐसी ही कोई पालतू चिड़िया आ गई तो उसे अपने घर रख लेना हराम है। उसके मालिक को पहुँचाना वाजिब है।

बाग़ में आम, अमरूद वग़ैरह पड़े हों तो इजाज़त के बिना उन्हें उठाना हराम है। हाँ, अगर कोई ऐसी चीज़ है जिसका कोई पूछनेवाला नहीं, जैसे बेर पड़ा मिला या मुट्ठी भर चने पड़े मिले हों तो ऐसी चीज़ उठा सकता है।

अगर किसी मकान या जंगल में कोई दौलत मिल गई या गड़ा हुआ ख़ज़ाना मिल गया तो वह भी गिरी-पड़ी चीज़ ही है, उसे ले लेना ठीक नहीं, उसके मालिक को तलाश करे। जब मायूस हो जाए तो ख़ैरात कर दे या दिल में लालच न हो और ग़रीब हो तो ख़ुद ले ले।

कुछ और ज़रूरी बातें

● किसी को छींक आए और वह 'अल्हम्दुलिल्लाह' कहे तो सुननेवाले पर 'यर-हमुकल्लाह' कहना वाजिब हो गया।

● नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का नाम ले या सुने तो दुरूद शरीफ़ पढ़ना वाजिब हो गया। यूँ कहे 'सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम' या पढ़े 'अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन व बारिक व सल्लिम।'

● अगर किसी ने कोई चीज़ या जायदाद वक़्फ़ कर दी तो फिर वह अल्लाह की हो गई, अब उसका वापस लेना या उसका बेचना ठीक नहीं।

● मस्जिद की कोई चीज़ चाहे वह कितनी निकम्मी हो जाए, अपने काम में लाना जाइज़ नहीं, ले लेगा तो गुनाहगार होगा।

● नफ़्ल या सुन्नत नमाज़ की नीयत करके अगर बीच में नीयत तोड़ दी तो उसकी क़ज़ा वाजिब हो गई।

● नफ़्ल का रोज़ा नीयत करने के बाद वाजिब हो जाता है।

● 29 शाबान को रमज़ान का चाँद देखने की कोशिश करना वाजिब है।

● क़ुरआन मजीद ठीक-ठीक पढ़ना वाजिब है।

हराम और हलाल

जिन कामों या बातों से अल्लाह ने और अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने बचने का हुक्म दिया है, वे हराम हैं। इनके सिवा जिनकी इजाज़त है, उन्हें हलाल कहते हैं।

हलाल और हराम जानवर

शराब, सुअर, ख़ून और मुर्दार का खाना हराम है। इनके अलावा जो जानवर या चिड़ियाँ दूसरे जानवरों का शिकार करके खाती हैं, उन सबका खाना भी हराम है, जैसे शेर, भेड़िया, चीता, गीदड़, बिल्ली, कुत्ता, शिकरा, बाज़, गिद्ध, चील वग़ैरह और जो जानवर और चिड़ियाँ ऐसी न हों वे हलाल हैं।

पानी के जानवरों में से मछली हलाल है, बाक़ी सब हराम हैं। मछली और टिड्डी ज़िब्ह किए बिना खाना हलाल है, इनके सिवा और कोई जानवर ज़िब्ह किए बिना खाना हराम है। अगर कोई जानवर मर गया तो हराम हो गया। जो मछली मरकर पानी में तैरने लगे, उसे भी नहीं खाना चाहिए।

किसी चीज़ में चींटियाँ मर गईं तो निकाले बिना खाना ठीक नहीं। अगर एक चींटी खा ली तो मुर्दार खाया और गुनाहगार हुआ।

ग़ैर-मुस्लिम के हाथ के ज़िब्ह किए हुए जानवर का गोश्त खाना हराम है। वे सारे जानवर जिनका गला घोंट दिया जाए और वे मर जाएँ या किसी और वजह से मर जाएँ वे सब मुर्दार हैं, और मुर्दार खाना हराम है। जो जानवर अल्लाह के नाम के सिवा किसी और के नाम पर ज़िब्ह किए जाएँ वे भी हराम हो गए। चोट खाया हुआ जानवर मरने से पहले ज़िब्ह कर लिया जाए तो हलाल होगा।

शराब और ताड़ी हराम है। जिस दवा में ऐसी चीज़ मिली हो उसका लगाना भी ठीक नहीं।

ख़ुदकुशी (आत्म-हत्या) हराम है।

सोने-चाँदी की चीज़ें

सोने-चाँदी के बरतन में खाना-पीना जाइज़ नहीं है। सोने-चाँदी के चमचे से खाना-पीना हराम है। इनके ख़िलाल से दाँत साफ़ करना, सोने-चाँदी के गुलाब-पाश से गुलाब वग़ैरह छिड़कना, उनकी सुरमेदानी या सलाई काम में लाना, उनका इत्रदान, पानदान, ख़ासदान काम में लाना, जिस पलंग के पाए सोने-चाँदी के हों उनपर सोना, सोने-चाँदी की आरसी में मुँह देखना हराम है। औरतों को ज़ेवर गहने के तौर पर पहनाना हलाल है। सोने-चाँदी का गहना औरतों के लिए हलाल है, मर्दों के लिए हराम। मर्द चाँदी की अंगूठी पहन सकते हैं।

लिबास और कपड़ा

ख़ालिस रेशमी कपड़ा पहनना मर्दों के लिए हराम है, औरतों के लिए जाइज़ है। अगर रेशम और सूत मिला हुआ कपड़ा हो तो मर्द पहन सकता है।

औरतों को बहुत बारीक कपड़ा, जैसे मलमल, जाली, नॉयलोन वग़ैरह पहनना हराम है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने बड़ी ताकीद के साथ ऐसे कपड़ों के पहनने से औरतों को मना फ़रमाया है। आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि इस तरह के कपड़े पहनना और नंगे रहना बराबर है। इतना तंग, कसा हुआ लिबास पहनना भी जाइज़ नहीं है कि औरत का शरीर साफ़-साफ़ दिखाई दे।

नाच-रंग और दूसरी बातें

नाच और बाजे के साथ गाना, उसका देखना और सुनना हराम है।

कुत्ता पालना और घरों में जानदार की तस्वीर रखना, जानदार की तस्वीर का बनाना और उसकी तस्वीर खींचना हराम है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जिस घर में कुत्ता और जानदार की तस्वीर हो उसमें रहमत के फ़रिश्ते नहीं आते।

आतिशबाज़ी छोड़ना और छुड़वाना हराम है। यह फ़ुज़ूलख़र्ची भी है। क़ुरआन में है कि फ़ज़ूलख़र्ची करनेवाले शैतान के भाई हैं।

जुआ खेलना-खिलवाना, फ़ाल निकालना हराम है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने शतरंज खेलने से भी मना फ़रमाया है। ताश, चौसर वग़ैरह भी शतरंज की तरह के खेल हैं। इनमें भी वक़्त बेकार जाता है, इनसे भी बचना चाहिए।

सूद लेना और देना, रिश्वत देना और लेना, अल्लाह के सिवा किसी और की क़सम खाना, अमानत में ख़ियानत करना, झूठ बोलना, ग़ीबत (किसी की पीठ पीछे बुराई) करना, घमंड करना और ज़िना ये सब हराम काम हैं और इनका बड़ा अज़ाब है। मुसलमानों को इन तमाम बुरे कामों से बचना चाहिए।

औरतों का क़ब्रों और मज़ारों पर जाना हराम है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ब्रों पर जानेवाली औरतों पर लानत (फटकार) फ़रमाई है।

जवान औरतों का बेपरदा ना-महरम (ग़ैर-मर्द) के सामने आना हराम है।

मुसलमान औरत का तनहा (महरम के बिना) सफ़र करना हराम है।

ना-महरम

मुसलमान औरतों के लिए तमाम ग़ैर-मुस्लिम मर्द ना-महरम हैं और मुसलमानों में वह मर्द औरतों के लिए और वह औरत मर्दों के लिए ना-महरम हैं जिनका विवाह आपस में किसी वक़्त हो सके। इस्लामी शरीअ़त के मुताबिक़ पीर और लेपालक भी ना-महरम हैं। समधी-समधन, देवर-भावज-जेठ, साली-बहनोई, ननदोई, सलहज, चाचा, मामू, फूफी वग़ैरह के लड़के-लड़कियाँ भी सब एक-दूसरे के लिए ना-महरम हैं। अंधे, हिजड़े ख़्वाजा-सरा भी ना-महरम हैं। जब तक कोई महरम न हो, ना-महरम के साथ बैठना ठीक नहीं, चाहे दूर-दूर ही बैठे हों। जिन औरतों का चाल-चलन अच्छा न हो, मुसलमान औरतों को उनसे भी परदा करना चाहिए, जैसे, रंडी और डोमनी वग़ैरह।

महरम

महरम वे लोग हैं जिनसे परदा करने की ज़रूरत नहीं। जैसे मियाँ-बीवी आपस में महरम हैं और वे लोग महरम हैं जिनसे कभी विवाह नहीं हो सकता, जैसे माँ-बाप, बेटा-बेटी, [अगर कोई औरत किसी बच्चे को जो दो या ढाई साल के अन्दर हो दूध पिला दे तो वह उसका बेटा माना जाएगा।] चाचा-भतीजी, भाई-बहन [शरीअ़त में भाई-बहन वे कहलाते हैं जो एक माँ-बाप से हों या दोनों का बाप एक हो और माँ दो, या दोनों की माँ एक हो और बाप दो।] दूध शरीक भाई-बहन, दादा-परदादा, दादी-परदादी, नाना-नानी, परनाना-परनानी, ख़ाला-ख़ालू, मामूँ-मुमानी, भाँजे-भाँजियाँ, ससुर-सास और उनके बाप-दादा, इसी तरह सौतेली माँ और सौतेला बेटा।

किसी मजबूरी के बिना नाफ़ से लेकर रानों तक का बदन औरतों को औरतों के सामने भी न खोलना चाहिए। मजबूरी हो तो डॉक्टर या हकीम को नब्ज़ या बदन का कोई हिस्सा दिखाया जा सकता है या दाई को छिपी जगह दिखाई जा सकती है।

निकाह

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “निकाह करना मेरी सुन्नत (तरीक़ा) है। जो आदमी इससे मुँह मोड़ता है, वह मेरी सुन्नत से मुँह मोड़ता है। तो ऐसे आदमी से मेरा कोई ताल्लुक़ नहीं।"

इस हदीस से मालूम होता है कि निकाह करना बहुत बड़े सवाब का काम है और किसी मजबूरी के बिना निकाह न करना बड़ा गुनाह है। क़ुरआन में अल्लाह तआला ने मर्द-औरत के इस ताल्लुक़ को अपने एहसानों में से एक बड़ा एहसान गिनाया है और निकाह करने का हुक्म दिया है।

तरीक़ा

एक जवान बालिग़, आक़िल (समझवाला) मुसलमान मर्द ने बालिग़, आक़िल मुसलमान औरत से या बालिग़, आक़िल मुसलमान औरत ने बालिग़, आक़िल मुसलमान मर्द से दो बालिग़ और आक़िल मुसलमान मर्दों के समाने अपने आप कह दिया या किसी के ज़रीए कहला दिया कि मैं तुमसे निकाह करना चाहता हूँ और उसने मंज़ूर कर लिया तो वे दोनों आपस में मियाँ-बीवी हो गए और उनका निकाह हो गया।

अगर मर्द-औरत में से एक ने दो गवाहों के सामने इस तरह कहा कि 'मैं तुमसे निकाह करूँगा' और दूसरे ने इस तरह कहा कि 'मैं क़बूल कर लूँगा' या 'मंज़ूर कर लूँगा' तो इस तरह कहने से निकाह नहीं हुआ। यह तो आइन्दा के लिए वादा हुआ। इस तरह कहना चाहिए कि "मैं तुमसे निकाह करता हूँ" दूसरा जवाब दे कि “मैंने क़बूल कर लिया।"

कोई वकील हो तो वह इस तरह कहे कि "मैंने इन दो गवाहों के सामने फ़ुलाँ लड़की का निकाह इतने मह्र पर तुमसे किया या इस तरह कहे कि तुम्हारे निकाह में दिया और मर्द इस तरह कहे कि "मैंने क़बूल कर लिया।"

किसी ने दो गवाहों के सामने किसी मर्द से कहा कि “मैंने अपनी लड़की का निकाह तुम्हारे साथ किया" और उस मर्द ने मंज़ूर कर लिया तो निकाह हो गया। अगर कई बेटियाँ हैं तो लड़की का नाम लेना ज़रूरी है।

ज़रूरी बातें

(1) निकाह खुल्लम-खुल्ला लोगों के सामने हो, छिपकर न किया जाए। कम-से-कम दो आक़िल और बालिग़ मुसलमान गवाहों के सामने निकाह होना ज़रूरी है। अगर ऐसे दो मुसलमान मर्द गवाह न मिल सकें तो एक बालिग़ और आक़िल मर्द और दो बालिग़ मुसलमान औरतें होनी चाहिएँ। अगर एक भी मुसलमान मर्द निकाह के लिए न हुआ तो फिर उस वक़्त चाहे कितनी ही औरतें हों, निकाह न होगा। इसी तरह गवाह पागल या काफ़िर हों तो भी निकाह न होगा।

(2) गवाहों के लिए ज़रूरी है कि दोनों मौजूद हों और निकाह करनेवाले जोड़े के वे अल्फ़ाज़ अपने कानों से सुन रहे हों जिनके ज़रीए एक निकाह के लिए कहता है और दूसरा मंज़ूर करता है।

(3) अगर गवाह औरत को जानते हों तो उसका नाम लेना काफ़ी है कि इस नाम की लड़की का निकाह हो रहा है और अगर न जानते हों तो फिर उसके नाम के साथ बाप या दादा का नाम लेना होगा कि फ़ुलाँ की बेटी या फ़ुलाँ की पोती का निकाह हो रहा है। मतलब यह है कि लोग समझ लें कि किसका निकाह हो रहा है।

(4) औरत को मर्द के बारे में और मर्द को औरत के बारे में अच्छी तरह मालूम होना चाहिए कि उसका निकाह किससे हो रहा है।

(5) अगर मर्द औरत दोनों बालिग़ और समझदार हों और दो गवाहों के सामने अपने आप निकाह कर रहे हों तो उनको एक-दूसरे के अल्फ़ाज़ सुनने ज़रूरी हैं लेकिन औरत या मर्द की तरफ़ से कोई दूसरा उनका वकील होकर निकाह कर रहा है तो उस वकील को दोनों गवाहों के सामने उस मर्द या औरत की इजाज़त को दूसरे के कानों तक पहुँचा देना चाहिए ताकि क़बूल करनेवाले को अच्छी तरह मालूम हो जाए कि वह किसके साथ निकाह को क़बूल कर रहा है।

(6) निकाह करते वक़्त मह्र के बारे में साफ़-साफ़ बता देना चाहिए कि इतनी चीज़ या रक़म के मह्र में निकाह हो रहा है।

ना-बालिग़ का निकाह

इस्लामी शरीअ़त में उन लड़कों और लड़कियों का निकाह करना भी ठीक है जो अभी बालिग़ नहीं हुए हैं लेकिन ऐसे लड़के-लड़की अपने आप निकाह नहीं कर सकते। इनकी तरफ़ से उनका वली निकाह करने को कहेगा या क़बूल करेगा।

नोट- बालिग़ कुँवारी लड़की का वली अगर उससे निकाह की इजाज़त ले और वह चुप रहे या मुस्करा दे या रोने लगे तो इसका मतलब यह लिया जाएगा कि लड़की को मंज़ूर है। इसी तरह अगर वली ने किसी से कहा कि मेरी तरफ़ से इजाज़त लेकर निकाह कर दो तो ऐसी सूरत में भी लड़की का चुप रहना इजाज़त ही समझा जाएगा। वली न हो या उसने कहा न हो तो फिर बालिग़ लड़की को ज़बान से इजाज़त देनी ज़रूरी है। लेकिन अगर लड़की बेवा (विधवा) है या उसे तलाक़ हो गई है तो फिर उसका वली के सामने चुप रहना या रोना काफ़ी नहीं। उसे वली के सामने भी ज़बान से इजाज़त देनी ही पड़ेगी, तभी निकाह हो सकता है वरना नहीं।

लड़का बालिग़ है तो चाहे वह कुँवारा हो, वली के पूछने पर उसका चुप रहना ठीक न माना जाएगा, उसे ज़बान से साफ़-साफ़ इजाज़त देनी होगी या क़बूल करना होगा। बालिग़ लड़के और लड़की वली की इजाज़त के बिना भी निकाह कर सकते हैं। लेकिन गवाहों का होना ज़रूरी है।

वली

लड़की और लड़के का वली सबसे पहले उसका बाप है। अगर बाप न हो तो दादा, दादा न हो तो परदादा, अगर इनमें से कोई न हो तो सगा भाई, यह न हो तो सौतेला भाई, सौतेले भाई का मतलब बाप-शरीक भाई है। यह भी न हो तो भतीजा वली है। इसके बाद भतीजे का लड़का, फिर भतीजे का पोता, अगर इन लोगों में से कोई न हो तो सगा चाचा, फिर सौतेला चाचा (बाप का सौतेला भाई) फिर सगे चाचा का लड़का और पोता। इनमें से कोई न हो तो बाप का चाचा वली है। फिर उसका बेटा, पोता, परपोता। अगर ये भी न हों तो दादा का चाचा, फिर उसके लड़के, पोते, परपोते, इनमें से भी कोई न हो तो फिर माँ वली है। फिर दादी, फिर नानी, फिर सगी बहन, सौतेली बहन, बाप-शरीक बहन फिर जो भाई-बहन माँ-शरीक हो, फिर फूफी, फिर मामू, फिर ख़ाला वग़ैरह।

नोट-

(1) नाबालिग़, पागल और काफ़िर आदमी किसी का वली नहीं हो सकता। अगर क़रीबी वली बाप या दादा ऐसा है तो उनके बाद वाले वली निकाह कर सकते हैं।

(2) अगर किसी वली ने बालिग़ लड़के या लड़की का निकाह उनसे पूछे बग़ैर कर दिया तो यह निकाह अगर वे मंज़ूर कर लें तो हो जाएगा, अगर मंज़ूर न करें तो न होगा।

जिनसे निकाह नहीं हो सकता

(1) माँ, दादी, नानी, परदादी, परनानी और उनसे ऊपर जो हों, इन सबसे निकाह हराम है। वह सौतेली माँ भी हराम है जिससे बाप ने हमबिस्तरी कर ली हो। जिससे निकाह किए बिना हमबिस्तरी कर ली उसकी माँ से भी निकाह हराम है।

(2) बेटी, पोती, परपोती, नवासी, परनवासी और उनसे जो नस्ल चले इन सबसे निकाह हराम है। निकाह किए बिना किसी से हमबिस्तरी कर ली तो उससे जो लड़की पैदा होगी, उससे भी निकाह नहीं हो सकता।

(3) बहन, सगी और सौतेली दोनों तरह की बहनों से निकाह नहीं हो सकता। इन बहनों से मतलब यह है कि जो एक माँ-बाप से हों या दोनों के बाप तो दो हों मगर माँ एक हो या माँ दो हों और बाप एक हो। हाँ, अगर दोनों के बाप भी दो हों और माँ भी दो हों तो यह आपस में बहन-भाई नहीं। इनका निकाह एक-दूसरे से हो सकता है।

(4) फूफी और ख़ाला, सौतेली फूफी (बाप की सौतेली बहन), सौतेली ख़ाला (माँ की सौतेली बहन) से निकाह हराम है। लेकिन अगर ये दूर के नाते से ख़ाला या फूफी लगती हैं तो इनसे निकाह हो सकता है। फूफी और ख़ाला के मरने पर सगे फूफा और सगे ख़ालू से भी निकाह हो सकता है।

(5) भतीजी और भाँजी और उनकी बेटियों और पोतियों और उनसे नीचे जो हों, सबसे निकाह हराम है। किसी वक़्त भी इनसे निकाह नहीं हो सकता।

(6) सास, सास की माँ, सास की नानी वग़ैरह से भी निकाह हराम है।

(7) बहू से भी निकाह हराम है। पोते और नवासे की बीवी भी शरीअ़त में बहू हैं, इनसे भी निकाह नहीं हो सकता।

(8) किसी औरत से निकाह किए बिना हमबिस्तरी कर ली या इस इरादे से उसपर हाथ डाला तो अब उसकी माँ और दादी वग़ैरह मर्द के लिए और मर्द का बाप-दादा औरत के लिए हराम हो गए। अगर इस काम में औरत पहल करे तब भी शरीअ़त में यही हुक्म है।

(9) जिस औरत का शौहर मौजूद है, उस औरत से निकाह करना हराम है।

(10) बीवी के होते हुए साली से निकाह नहीं हो सकता, बीवी की मौत या तलाक़ के बाद हो सकता है। दो बहनें या दो ऐसी औरतें कि जिनमें से एक को मर्द मान लिया जाए तो उनका आपस में निकाह न हो सकता हो, एक वक़्त में एक मर्द के निकाह में नहीं रह सकतीं।

(11) इस्लामी शरीअ़त के मुताबिक़ एक मुसलमान चार बीवियाँ एक साथ रख सकता है, चार बीवियों के होते हुए पाँचवीं बीवी करना हराम है। अगर चार बीवियोंवाले मर्द ने एक को तलाक़ दे दी तो जब तक तलाक़ की इद्दत पूरी न हो, कोई औरत उस मर्द से निकाह नहीं कर सकती।

(12) काफ़िर और मुशरिक से निकाह नहीं हो सकता।

(13) जो औरत इद्दत के दिन गुज़ार रही है, उससे इद्दत के अन्दर निकाह करना ठीक नहीं।

(14) दूध पिलानेवाली औरत, उसके शौहर, उसकी सगी औलाद और उसके क़रीबी सगे नातेदारों से भी निकाह हराम है, चाहे दूध पिलानेवाली ने दूध की कुछ ही बूँदें पिलाई हों या उसकी छाती से दूध निकालकर बच्चे के मुँह या नाक में डाल दिया गया तब भी वह दूध-पिलाई माँ हो गई। या किसी औरत का दूध पानी या बकरी वग़ैरह के दूध में मिलाकर पिलाया गया और उसमें औरत का दूध ज़्यादा हुआ तो भी वह औरत दूध पिलानेवाली माँ हो गई। लेकिन शर्त यह है कि ये सब बच्चे दो साल की उम्र या ज़्यादा से ज़्यादा ढाई साल की उम्र तक हों। इस उम्र के बाद पिया तो वह औरत माँ नहीं हुई।

(15) कुँवारी लड़की जिसकी उम्र नौ साल से ज़्यादा है अगर उसकी छातियों से दूध निकल आए और कोई बच्चा पी ले तो यह कुँवारी लड़की उस बच्चे की दूध-पिलाई माँ हो जाएगी, फिर उससे उसका निकाह नहीं हो सकता।

(16) जिस लड़के और लड़की ने किसी एक औरत का दूध पी लिया है तो ये दोनों दूध-शरीक बहन-भाई हो गए, इन दोनों की शादी आपस में नहीं हो सकती।

नोट:

(1) औरत का दूध दवा में डालना या मिलाना ठीक नहीं, अगर किसी दवा में मिला दिया गया तो उसको खाना और लगाना हराम है। औरत का दूध कान और आँख में डालना भी ठीक नहीं।

(2) एक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरत का निकाह हो गया। अब अगर इनमें से कोई एक काफ़िर हो जाए तो उनका निकाह भी टूट जाएगा। इनमें से जो मुसलमान हो उसे चाहिए कि काफ़िर से फ़ौरन अलग हो जाए।

(3) अगर काफ़िर जोड़ा एक साथ मुसलमान हो जाए तो उसे अब फिर आपस में निकाह करने की ज़रूरत नहीं। इस्लामी शरीअ़त के मुताबिक़ वे अब भी मियाँ-बीवी रहेंगे।

मह्र का बयान

मह्र उस रक़म को कहते हैं जो निकाह करते वक़्त मर्द औरत को देता या देने का वादा करता है।

मह्र इतना मुक़र्रर करना चाहिए जितना शौहर आसानी से अदा कर सके।

निकाह के समय अगर मह्र का नाम न लिया या मह्र मुक़र्रर करने में कोई ग़लती हो गई या मह्र तय किए बिना निकाह हो गया तो भी हैसियत के मुताबिक़ या अब जो मह्र तय किया जाएगा, देना पड़ेगा।

ग़रीबों के लिए कम-से-कम मह्र पौने तीन तोले चाँदी के बराबर होना चाहिए। इससे कम नहीं, अगर इससे कम पर निकाह हुआ तो पौने तीन तोले चाँदी के बराबर ही देना पड़ेगा।

निकाह करके अगर शौहर ने बीवी से हमबिस्तरी नहीं की और मर गया तो भी बीवी को मह्र की पूरी रक़म मिलेगी।

निकाह करके दोनों ऐसी जगह रहें जहाँ बिल्कुल तनहाई है और हमबिस्तरी करने में कोई बात रोकनेवाली नहीं और फिर भी हमबिस्तरी नहीं की तो भी पूरा मह्र देना होगा चाहे मर्द हिजड़ा और नामर्द ही हो। हाँ, अगर ऐसी तनहाई होने से पहले तलाक़ हो गई या शौहर नाबालिग़ है और तलाक़ हो गई तो आधा मह्र देना पड़ेगा। अगर मह्र अदा न हो सका और औरत मर गई तो औरत के वारिसों को मह्र की रक़म मिलेगी। मतलब यह है कि मह्र अदा होना चाहिए।

निकाह होने के बाद शौहर ने मह्र की रक़म बढ़ा दी और वादा कर लिया कि मह्र में अब हज़ार के बदले इतने हज़ार देगा तो अब यही ज़्यादावाला मह्र देना वाजिब हो गया, जिस वक़्त औरत माँगे, मर्द को देना वाजिब है। अब अगर न देगा तो गुनाहगार होगा और औरत दावा करके ले सकती है और अगर औरत ने पूरा मह्र या उसका कुछ हिस्सा माफ़ कर दिया तो फिर वह माफ़ किया हुआ पूरा मह्र या उसका माफ़ किया हुआ हिस्सा नहीं ले सकती।

मर्द ने डरा-धमकाकर या परेशान करके मह्र माफ़ करा लिया तो उससे मह्र माफ़ नहीं होता, जो मह्र मुक़र्रर हुआ, वह देना पड़ेगा।

शौहर औरत को खिलाने-पिलाने और पहनाने में मह्र की रक़म का ज़रा-सा हिस्सा भी काट नहीं सकता। हाँ, अगर मह्र के नाम से ज़ेवर बनवा दिया या जायदाद लिख दी और वह मह्र की रक़म के बराबर या उससे ज़्यादा है तो मह्र अदा हो जाएगा और वह सब मह्र ही में शुमार होगा। अब शौहर वह ज़्यादा रक़म वापस नहीं ले सकता।

नोट:

(1) सबसे अच्छी और बरकतवाली शादी वह है जिसमें कम-से-कम ख़र्च किया जाए और शादी करनेवालों पर कम-से-कम बोझ पड़े।

(2) बुरी शादी वह है जिसमें अपनी हैसियत से ज़्यादा ख़र्च किया जाए और बुरी रस्मों और नाम के लिए माल बेकार में उड़ाया जाए।

(3) बेटा-बेटी जवान (बालिग़) हो जाएँ तो उनका निकाह जल्दी ही कर देना चाहिए। अगर न किया और उनसे “बुरा काम" हो गया तो वालिदैन भी गुनाहगार होंगे।

कुछ और बातें

(1) अगर कोई आदमी निकाह करने के लिए किसी लड़की या लड़के के बारे में पूछे तो जो कुछ मालूम हो, ठीक-ठीक बता देना चाहिए। अगर बुराई हो तो उसके बताने में पीठ पीछे बताने (ग़ीबत) का गुनाह न होगा, बल्कि सवाब होगा।

(2) अगर किसी लड़की के शादी का पैग़ाम कहीं से आ गया है तो जब तक इनकार न हो जाए किसी दूसरे को उस लड़की के लिए शादी का पैग़ाम नहीं देना चाहिए।

(3) निकाह के लिए सबसे अच्छी जगह मस्जिद है।

(4) वली या वकील जो निकाह कराए तो वह ख़ुतबा भी दे तो अच्छा है।

(5) अगर कोई दावत में बुलाए तो इनकार नहीं करना चाहिए।

(6) जहाँ कोई ग़ैर-इस्लामी बात हो वहाँ न जाएँ।

बीवी का हक़ शौहर पर

(1) मह्र

शादी होते ही शौहर पर फ़र्ज़ है कि वह बीवी को मह्र अदा कर दे, नहीं तो औरत को हक़ है कि वह शौहर को अपने साथ हमबिस्तरी से रोक दे। यह दूसरी बात है कि बीवी अपनी ख़ुशी से मह्र फ़ौरन न माँगे या माफ़ कर दे।

(2) ख़र्च

शौहर पर फ़र्ज़ है कि अपनी हैसियत के मुताबिक़ रोटी, कपड़ा और दूसरी ज़रूरी चीज़ें बीवी को दे।

(3) घर

शौहर पर तीसरा फ़र्ज़ या बीवी का हक़ यह है कि शौहर अपनी हैसियत के मुताबिक़ घर भी दे। बीवी का यह ऐसा हक़ है कि अगर शौहर उसे तलाक़ भी दे दे तो इद्दत पूरी होने तक वह उसे उस घर से निकाल नहीं सकता।

(4) अच्छा बरताव

मर्द के लिए वाजिब है कि वह बीवी के साथ अच्छा बरताव करे। क़ुरआन मजीद में बीवियों को सताने से बड़ी सख़्ती से रोका गया है और नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने मुसलमानों में उस आदमी को अच्छा बताया है जो अपनी बीवी के साथ अच्छा सुलूक करता है।

(5) बीवी का ख़ास हक़

शौहर पर फ़र्ज़ है कि वह बीवी का “ख़ास हक़” अदा करे। नमाज़, रोज़ा और दीन के कामों में ऐसा न लग जाए कि बीवी के इस ख़ास हक़ को अदा न कर सके।

(6) बीवियों में बराबरी

अगर किसी मर्द की कई बीवियाँ हों तो मर्द के लिए वाजिब है कि सबको बराबर रखे, जितना एक बीवी को दे उतना दूसरी बीवी को, चाहे उनमें कोई पुरानी हो या नई।

मर्द पर वाजिब है कि रात के रहने में बीवियों को बराबर का हक़ दे, जितनी रातें एक को दे उतनी ही दूसरी बीवियों को भी। दिन में बराबरी वाजिब नहीं।

हमबिस्तरी करने में भी बराबरी वाजिब नहीं, और सब बीवियों से बराबर प्यार रखना भी वाजिब नहीं क्योंकि यह आदमी के बस में नहीं।

सफ़र में जाते वक़्त भी बराबरी वाजिब नहीं, जिसको चाहे ले जाए।

(7) दीन की बातें बताना

शौहर पर फ़र्ज़ है कि वह बीवी को और उससे जो औलाद हो उसे दोज़ख़ की आग से बचाने की कोशिश करे। दीन की जो बातें उसे मालूम हों बीवी और बच्चों को बताए और उन्हें दीन के रास्ते पर चलाने की कोशिश में लगा रहे, शौहर उसके उन बच्चों को रोटी-कपड़ा भी दे और उन्हें दीन की तालीम दे या दिलाए।

(8) ख़ुलअ़

औरत को हक़ है कि अगर उसका शौहर उसके हक़ अदा नहीं करता तो ख़ुलअ़ कर ले (ख़ुलअ़ का बयान आगे आ रहा है)।

शौहर का हक़ बीवी पर

(1) बीवी पर सबसे पहला फ़र्ज़ यह है कि वह अपनी आबरू की हिफ़ाज़त करे।

(2) शौहर घर पर न हो तो शौहर की हर चीज़ की हिफ़ाज़त करे और ऐसे लोगों को घर न आने दे, जिनको शौहर पसन्द न करता हो।

(3) बीवी पर तीसरा फ़र्ज़ यह है कि वह शौहर का हुक्म माने [अगर शौहर शरीअ़त के ख़िलाफ़ कोई काम करने को कहे तो औरत हरगिज़ न माने, चाहे निबाह हो सके या न हो सके। जैसे बे-परदा रहने को कहे या सिनेमा देखने को कहे या फ़र्ज़ नमाज़ या फ़र्ज़ रोज़ों से रोके या बेशर्मी के काम करने को कहे।]।

(4) औरत के लिए यह भी ज़रूरी है कि वह शौहर की हैसियत का ख़याल रखे और कोई ऐसी माँग न करे जिसे वह पूरा न कर सके।

(5) जो बच्चा शौहर से है उसे दूध पिलाना भी औरत पर फ़र्ज़ है। किसी मजबूरी के बिना पर वह इस काम से इनकार नहीं कर सकती और न उसके बदले मर्द से कुछ ले सकती है। हाँ, अगर शौहर मालदार है और वह दूध पिलानेवाली आसानी से रख सकता है, तो बच्चे की माँ को हक़ है कि वह दूध न पिलाए। लेकिन अपना यह हक़ लेने में औरत इतनी ज़िद न करे कि शौहर से बिगाड़ हो जाए।

(6) शौहर को हक़ है कि अगर उसकी बीवी उसका हक़ अदा नहीं करती और समझाने-बुझाने से भी बाज़ नहीं आती तो उसे तलाक़ दे दे।

तलाक़

तलाक़ का मतलब है “बन्धन तोड़ना"। इस्लामी शरीअ़त में उस बन्धन के तोड़ने या खोल देने को तलाक़ कहते हैं जो एक मर्द और औरत में निकाह के ज़रीए लगाया जाता है।

किसी-किसी मियाँ-बीवी के दरमियान हालात ऐसे पैदा हो जाते हैं कि निबाह नामुमकिन हो जाता है। यूँ तो छोटी-मोटी कड़वी-मीठी बातें आपस में होती ही रहती हैं, ये कोई हैरत या ऐब की बात नहीं बल्कि ज़िन्दगी का हिस्सा होती हैं। बल्कि कभी-कभी तो इन कड़वी-कसीली बातों से ज़िन्दगी का मज़ा बढ़ जाता है। सबसे अच्छी बात तो यही है कि मियाँ-बीवी दोनों एक-दूसरे को ख़ुश रखने की कोशिश करें। एक दूसरे के हुक़ूक़ और अपने फ़राइज़ व ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखें। एक-दूसरे के मिज़ाज को समझें और जाइज़ ख़ुशी व नाख़ुशी, पसन्द व नापसन्द का लिहाज़ रखें। दीने-इस्लाम ने मियाँ-बीवी दोनों के हुक़ूक़ मुक़र्रर कर दिए हैं और फ़राइज़ भी बता दिए हैं। इसके साथ ही अच्छे शौहर और अच्छी बीवी होने के लिए बहुत सारे उसूल भी बता दिए हैं। एक हदीस में है अल्लाह के नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि तुममें सबसे अच्छा आदमी वह है जो अपने घरवालों, बीवी-बच्चों के लिए अच्छा हो। ख़ुद अल्लाह के नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) अपने बीवी-बच्चों के लिए सबसे अच्छे थे। दूसरी हदीस में है कि अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “बेहतरीन बीवी वह है कि जब तुम उसे देखो तो तुम्हारा जी ख़ुश हो जाए, जब तुम उसे किसी बात का हुक्म दो तो वह तुम्हारी इताअत करे, और जब तुम घर के अन्दर न हो तो वह तुम्हारे पीछे तुम्हारे घर और अपनी आबरू की हिफ़ाज़त करे।"

निकाह का मतलब यही होता है कि सदा-सदा के लिए साथ रहने के बन्धन (अक़्द) का अह्द किया जाए लेकिन अगर मियाँ-बीवी में निबाह न हो, घर के जहन्नम बन जाने की हालत हो जाए तो फिर बन्धन को तोड़ देना ही अच्छा है। इस्लाम ने इसकी इजाज़त तो दी है मगर अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है कि जाइज़ कामों में अल्लाह के नज़दीक सबसे नापसन्दीदा काम तलाक़ है।

इसलिए क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया, “अगर तुम्हें मियाँ-बीवी के बीच ताल्लुक़ात ख़राब होने का अन्देशा हो, यानी उन दोनों के आपस में समझौते और मामलात को सुधार लेने की उम्मीद न रहे तो एक आदमी शौहर के घरवालों या रिश्तेदारों में से और एक बीवी के घरवालों या रिश्तेदारों में से मुक़र्रर कर लो” (क़ुरआन, सूरा-4 अन-निसा, आयत-35) कि वे दोनों को समझा-बुझाकर दोनों के बीच समझौते की सूरतें निकाल लें।

अगर निबाह की कोई सूरत न बन रही हो तो फिर इस्लामी शरीअ़त में तलाक़ का तरीक़ा भी बहुत तफ़सील से बता दिया गया है।

तलाक़ जैसा बड़ा क़दम बहुत सोच-समझकर और ठन्डे दिल से फ़ैसला करके उठाना चाहिए। इसी लिए अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में फ़रमाया है, “जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो उन्हें भी मुनासिब तौर पर कुछ न कुछ दे-दिलाकर रुख़सत किया जाए (क़ुरआन, सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-241)। यानी ग़ुस्से और लड़ाई की हालत में तलाक़ देकर औरत को घर से न निकाला जाए बल्कि ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा सब कुछ ठण्डे दिल से सोच-समझकर तलाक़ दी जाए और इस बात का ख़याल करते हुए कि हम दोनों ने इतने दिन एक साथ रहकर गुज़ारे हैं लेकिन अब साथ रहना मुश्किल हो गया, मुमकिन नहीं रहा इसलिए अब अलग होने का फ़ैसला कर रहे हैं, फिर भी इतने दिन साथ रहने की अच्छी यादों का ख़याल करते हुए औरत को भले तरीक़े से अपने घर से कुछ दे-दिलाकर रुख़्सत करे।

तलाक़ की तीन शक्लें

(1) तलाक़ रजई : तलाक़ की एक शक्ल तलाक़ रजई है। इससे निकाह बिल्कुल नहीं टूट जाता, सिर्फ़ कमज़ोर पड़ जाता है। शरीअ़त में इसके लिए कुछ वक़्त तक रिआयत है, अगर मर्द चाहे तो इस वक़्त के अन्दर यह नाता फिर जोड़ सकता है, चाहे बीवी राज़ी हो या न राज़ी हो लेकिन मर्द को चाहिए कि इद्दत के अन्दर अपनी उस बीवी से हमबिस्तरी ज़रूर कर ले। मर्द को तलाक़ रजई देने का दो बार तक इख़्तियार है, चाहे एक वक़्त में दो बार तलाक़ रजई दे दे, चाहे दो वक़्त में एक-एक करके।

(2) तलाक़ बाइन : तलाक़ की दूसरी शक्ल तलाक़े-बाइन है इससे निकाह टूट जाता है लेकिन शरीअ़त में इसके लिए भी कुछ वक़्त तक रिआयत है। मर्द-औरत दोनों राज़ी हों तो आपस में फिर से निकाह करना पड़ेगा तभी मर्द हमबिस्तरी कर सकता है। तलाक़ बाइन उस वक़्त पड़ती है, जब मर्द एक बार या दो बार तलाक़ दे और इद्दत के अन्दर फिर नाता न जोड़े यानी बीवी से हमबिस्तरी न करे तो इद्दत गुज़रने पर एक तलाक़ दी है तो एक तलाक़ बाइन और दो तलाक़ें दी हैं तो दो तलाक़ बाइन पड़ जाएँगी।

तलाक़ रजई में औरत को शौहर के घर में रहने का हक़ है और वह उससे परदा भी नहीं कर सकती लेकिन तलाक़ बाइन होते ही औरत को मर्द से फ़ौरन परदा कर लेना चाहिए और इद्दत गुज़रते ही घर छोड़ देना चाहिए।

एक बात और याद रखनी चाहिए कि तलाक़ रजई उस बीवी को दी जा सकती है जिससे शौहर हमबिस्तरी कर चुका हो लेकिन अगर अभी तक अपनी बीवी से हमबिस्तरी नहीं की और एक या दो बार या एक साथ दो तलाक़ें दे दीं तो ये दोनों तलाक़ें बाइन होंगी। ऐसी बीवी तलाक़ बाइन के बाद इद्दत के अन्दर अपना निकाह दूसरे मर्द से कर सकती है।

(3) तलाक़ मुग़ल्लज़ा : तलाक़ की तीसरी शक्ल तलाक़ मुग़ल्लज़ा है। इससे निकाह बिल्कुल टूट जाता है और फिर शरीअ़त में शौहर-बीवी के एक साथ रहने की ज़रा भी रिआयत बाक़ी नहीं रहती। तलाक़ मुग़ल्लज़ा होने के बाद औरत किसी दूसरे मर्द से निकाह कर ले और वह उससे हमबिस्तरी भी कर ले और फिर तलाक़ हो जाए तो इस औरत का निकाह पहले शौहर से दोबारा हो सकता है। अगर मर्द एक वक़्त में तीन तलाक़ें दे या तीन वक्तों में एक-एक करके तीन तलाक़ें दे तो इन दोनों सूरतों में तलाक़ मुग़ल्लज़ा हो जाएगी।

तलाक़ के अल्फ़ाज़ (शब्द)

तलाक़ देते वक़्त मर्द इस तरह कहे कि "मैंने तुझको तलाक़ दी" या "मैं तुझको तलाक़ देता हूँ" या "तुझे तलाक़ है" या तलाक़ की नीयत से यह कह दिया कि “मैंने तुझको छोड़ दिया।” ये अल्फ़ाज़ मर्द चाहे ग़ुस्से में कहे या बीमारी में कहे, चाहे नशे की हालत में कहे या दिल्लगी और हँसी-मज़ाक़ में कहे, हर तरह तलाक़ पड़ जाएगी। हाँ, अगर सोते में आदमी के मुँह से ये अल्फ़ाज़ निकले या मर्द अपने होश में न हो तब कहे, जैसे वह पागल हो गया या सरसाम में है और बक दिया या नाबालिग़ है और तलाक़ के अल्फ़ाज़ कह दिए तो तलाक़ न पड़ेगी। अगर यूँ कहे कि “तुझको तलाक़ दे दूँगा” तो भी यह तलाक़ नहीं हुई।

गोल-मोल अल्फ़ाज़

अगर कोई गोलमोल अल्फ़ाज़ में तलाक़ दे और नीयत भी तलाक़ देने की हो तो गोलमोल अल्फ़ाज़ में तलाक़ रजई का हक़ छिन जाता है, एक बार कहेगा तो एक तलाक़ बाइन, दो बार कहेगा तो दो तलाक़ बाइन और अगर तीन बार कहेगा तो तलाक़ मुग़ल्लज़ा पड़ जाएगी।

नोट-

(1) अगर किसी ने लिखकर औरत को दे दिया या लिखा हुआ तलाक़नामा भेज दिया तो काग़ज़ में जितनी तलाक़ें लिखी होंगी उतनी ही पड़ेंगी।

(2) अगर कोई किसी से यह कह दे कि मैंने अपनी बीवी को तलाक़ दे दी तो यह भी तलाक़ पड़ गई।

(3) अगर मर्द ने औरत से कोई शर्त लगाकर तलाक़ का लफ़्ज़ कहा तो शर्त पूरी होते ही तलाक़ पड़ जाएगी। जैसे किसी मर्द ने कहा कि अगर तू ऐसा करे तो तुझे तलाक़ है या मैं ऐसा करूँ तो तुझे तलाक़ वग़ैरह।

ईला

अगर किसी ने बीवी से हमबिस्तरी न करने की क़सम खा ली और चार महीने तक हमबिस्तरी न की तो औरत पर तलाक़ बाइन पड़ जाएगी। अब निकाह किए बिना दोनों नहीं रह सकते। और अगर चार महीने के अन्दर क़सम तोड़ दी और हमबिस्तरी कर ली तो तलाक़ न पड़ेगी, हाँ क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा देना पड़ेगा। ऐसी क़सम खाने को शरीअ़त में ईला कहते हैं।

वक़्त मुक़र्रर करना

(1) अगर किसी ने चार महीने से कम के लिए क़सम खाई तो यह ईला न होगा।

(2) अगर किसी ने सदा के लिए क़सम खा ली और इस तरह कह दिया कि अब तुझसे हमबिस्तरी न करूँगा तो अगर चार महीने के अन्दर हमबिस्तरी न की तो एक तलाक़ बाइन पड़ गई। इसके बाद निकाह कर लिया और फिर चार महीने तक हमबिस्तरी न की तो फिर दूसरी तलाक़ बाइन पड़ गई। अब फिर निकाह कर लिया और फिर चार महीने तक हमबिस्तरी न की तो तीसरी तलाक़ बाइन पड़ जाएगी और यह तलाक़ मुग़ल्लज़ा होगी। अब निकाह बिल्कुल टूट गया।

ख़ुलअ़

अगर मियाँ-बीवी में किसी तरह निबाह न हो सके और मर्द तलाक़ भी न दे तो औरत को यह हक़ है कि कुछ माल देकर मर्द से कहे कि यह लेकर मेरी जान छोड़ दे या मेरा जो मह्र तेरे ज़िम्मे है, उसके बदले मेरी जान छोड़ दे। इसके जवाब में मर्द कहे कि मैंने छोड़ दी तो इस औरत पर तलाक़ बाइन पड़ जाएगी। मर्द से औरत के इस तरह जान छुड़ाने को शरीअ़त में “ख़ुलअ़" कहते हैं।

अगर मर्द अपनी तरफ़ से कहे कि मैंने तुझसे ख़ुला किया और औरत क़बूल कर ले, चाहे औरत उसी वक़्त उसी जगह बैठे हुए क़बूल करे या मर्द के जाने के बाद, तो भी ख़ुलअ़ हो गया लेकिन औरत क़बूल न करे तो कुछ नहीं हुआ।

चाहे औरत के कहने से ख़ुलअ़ हो चाहे मर्द के कहने से, मह्र दोनों सूरतों में माफ़ हो जाएगा, औरत मह्र नहीं ले सकती। हाँ, अगर ख़ुलअ़ से पहले वुसूल कर चुकी है तो उसका वापस करना वाजिब नहीं।

ख़ुलअ़ के लिए औरत जितना माल देने को कहेगी, उतना माल देना उसपर वाजिब हो गया। मह्र पा चुकी हो तब भी और अब जब ख़ुलअ़ से मह्र आप-से-आप माफ़ हो गया तब भी।

अगर मर्द ख़ुलअ़ के लिए मारे-पीटे और धमकी से ख़ुला के लिए औरत को मजबूर कर दे तो मह्र माफ़ न होगा, इस तरह मर्द को देना वाजिब होगा।

अगर मर्द का बरताव ठीक न हो और औरत ख़ुलअ़ माँगे और मर्द ख़ुलअ़ न दे तो औरत शरई काज़ी की मदद से ख़ुलअ़ करा सकती है।

इद्दत

शौहर से तलाक़ पाने या शौहर के मरने के बाद एक मुक़र्रर वक़्त तक दूसरा निकाह न करने और शोक मनाने को 'इद्दत' कहते हैं। इसकी कई शक्लें हैं।

(1) अगर औरत को तलाक़ मिल गई तो उसकी इद्दत तीन हैज़ है। तीन हैज़ का मतलब यह है कि तलाक़ के बाद एक हैज़ आ जाए, इसके बाद दूसरा हैज़ भी आ जाए, इसके बाद तीसरा हैज़ भी आ जाए।

(2) जिन औरतों को नाबालिग़ होने या बुढ़ापे की वजह से हैज़ न आते हों उनकी इद्दत का वक़्त तीन महीने है।

(3) शौहर के मरने पर उसकी बीवी के लिए इद्दत का वक़्त चार महीने दस दिन है।

(4) जिस औरत के पेट में बच्चा हो और उसको तलाक़ मिल जाए या उसका शौहर मर जाए तो उसके लिए इद्दत का वक़्त बच्चे के पैदा होने तक है, चाहे बच्चा घड़ी दो घड़ी के बाद ही पैदा हो या आठ-नौ महीने के बाद।

इद्दत में ज़रूरी बातें

(1) औरत के लिए इद्दत के वक़्त में दूसरा निकाह करना हराम है।

(2) किसी मजबूरी के बिना औरत को घर से बाहर निकलना हराम है।

(3) इद्दत के वक़्त में बनाव-सिंगार करना हराम है लेकिन जिसे तलाक़ रजई मिली हो वह सिंगार कर सकती है।

नोट- औरत का निकाह हुआ लेकिन वह शौहर के पास नहीं गई और शौहर मर गया या तलाक़ हो गई तो उस औरत पर इद्दत वाजिब नहीं।

मय्यित का बयान

(1) मुसलमान मय्यित को नहलाना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। जो आदमी तालाब में डूब कर मरा तो उस मय्यित को भी नहलाना फ़र्ज़ है। इसी तरह जिस मय्यित पर बारिश का पानी बरस जाए तो यह भी काफ़ी नहीं, इसे भी नहलाना ज़रूरी है।

(2) मुसलमान मय्यित को कफ़न देना और दफ़न करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है।

(3) मुसलमान मय्यित की नमाज़ उन मुसलमानों पर फ़र्ज़ है जिनको उसकी मौत के बारे में ख़बर हो जाए। मय्यित को नहलाए बिना नमाज़ ठीक न होगी।

नोट: यह फ़र्ज़ किफ़ाया कहलाता है। इसका मतलब यह है कि अगर ये तीनों फ़र्ज़ अदा न हुए तो वे सारे मुसलमान गुनाहगार होंगे जिनको मय्यित की ख़बर हो चुकी है। और अगर कुछ मुसलमानों ने ये तीनों फ़र्ज़ अदा कर दिए तो सारे मुसलमानों पर से फ़र्ज़ अदा हो जाएँगे।

(4) जो बच्चा मरा हुआ पैदा हो उसकी नमाज़ की ज़रूरत नहीं।

(5) मर्द की मय्यित को नहलाने के लिए मर्द न हों तो जो औरत उसकी महरम हो, वह नहलाए। अगर सारी औरतें ना-महरम हों तो फिर अपने हाथ से मय्यित को तयम्मुम कराएँ। तयम्मुम कराते वक़्त अपने हाथों में दस्ताने पहन लें। ना-महरम औरतें मर्द की मय्यित को न छुएँ।

(6) शौहर की मय्यित को उसकी बीवी तो नहला सकती है लेकिन बीवी की मय्यित को शौहर नहीं नहला सकता और न छू सकता है। हाँ, देख सकता है और कपड़े के ऊपर से हाथ भी लगा सकता है।

(7) औरतों का मय्यित के साथ जाना हराम है।

मय्यित की जायदाद

नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने तीन बातों को जानने का नाम इल्म (ज्ञान) बताया। (1) क़ुरआन सीखने को (2) नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा जानने को (3) इनसाफ़ के साथ धन-दौलत वारिसों में बाँटने को।

एक और हदीस में नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने मय्यित की जायदाद (विरासत) बाँटने का तरीक़ा जानने को आधा इल्म (ज्ञान) बताया है।

“मय्यित की विरासत को बाँटने का तरीक़ा सीखो और दूसरों को सिखाओ क्योंकि यह आधा इल्म (ज्ञान) है। वह भुला दिया जाएगा और पहली चीज़ जो मेरी उम्मत से उठा ली जाएगी वह यही है ....।"

इस्लामी शरीअ़त में मय्यित की विरासत को इनसाफ़ के साथ बाँटने पर बड़ा ज़ोर दिया गया है लेकिन इससे पहले तीन बातें ज़रूरी हैं—

(1) मय्यित ने जो कुछ विरासत छोड़ी है, सबसे पहले उसमें से कफ़न-दफ़न का ख़र्च लिया जाएगा, लेकिन बीवी मर जाए और उसका शौहर ज़िन्दा हो तो उसका कफ़न-दफ़न शौहर को करना होगा। अगर मय्यित ने कोई विरासत न छोड़ी हो तो उसका कफ़न-दफ़न उन लोगों पर वाजिब है जो इस्लामी शरीअ़त के मुताबिक़ उसके वारिस हों। कोई ऐसा आदमी मर जाए जिसका कोई वारिस न हो तो उसका कफ़न-दफ़न उस मुहल्ले और बस्ती के लोगों पर वाजिब है।

(2) कफ़न-दफ़न के बाद अगर मय्यित पर कुछ क़र्ज़ है तो उसकी विरासत से यह क़र्ज़ अदा करना ज़रूरी है। अगर मरनेवाले ने ज़िन्दगी में किसी का कोई नुक़सान कर दिया था और उसका तावान उसपर वाजिब था तो यह तावान भी क़र्ज़ माना जाएगा। बीवी का मह्र बाक़ी है तो यह भी क़र्ज़ माना जाएगा और उसका अदा करना ज़रूरी है।

इसी तरह अगर किसी मरनेवाले के ज़िम्मे ज़कात वाजिब थी और वह अदा न कर सका था या कफ़्फ़ारा या फ़िदया वग़ैरह बाक़ी है और वह उसके अदा करने को कह गया था तो उसका अदा करना भी वाजिब हो जाएगा।

(3) कफ़न-दफ़न और मय्यित का क़र्ज़ अदा करने के बाद वसीयत की रक़म विरासत से निकाली जाएगी जो उसको दी जाएगी जिसके लिए मरनेवाला कह गया है, लेकिन इसमें दो बातें ज़रूरी हैं—

(i) एक तो यह कि पानेवाला मय्यित के वारिसों में से न हो।

(ii) दूसरे यह कि मरनेवाला अपनी विरासत में से ज़्यादा से ज़्यादा एक तिहाई के लिए कह गया हो।

नोट- मरनेवाला अगर कोई ऐसी बात करने को कह जाए जो इस्लामी शरीअ़त के ख़िलाफ़ हो तो उसका यह कहना ग़लत होगा और इसे पूरा न करना चाहिए।

इन सब बातों को सामने रखकर किसी पढ़े-लिखे आदमी की मदद से विरासत बाँट लेनी चाहिए। इससे ग़फ़लत बरतना अच्छा नहीं।

मामलात

इस्लामी शरीअ़त में अक़ीदा और इबादत पर सबसे ज़्यादा ध्यान दिया गया है। अक़ीदा और इबादत के बाद सबसे ज़्यादा ध्यान उन बातों पर दिया गया है जिनकी मदद से एक आदमी अपनी रोज़ी कमाता है और दूसरों के लिए रोज़ी पैदा करता और इकट्ठा करता है। कारोबार, खेती-बाड़ी, क़र्ज़, गिरवी, साझा, मेहनत-मज़दूरी और दूसरे लोगों से लेन-देन व मामलात वग़ैरह इसी तरह की बातें हैं। इस्लामी शरीअ़त में इनको 'मामलात' कहते हैं। मामला अकेले कभी नहीं होता, कम-से-कम दो आदमियों में होता है। इस्लामी शरीअ़त में मामले के लिए दो शर्तों का होना ज़रूरी है—

(1) मामला करनेवाले दोनों फ़रीक़ों (पक्षों) का आपस में राज़ी होना ज़रूरी है। अगर मामला करनेवाला एक फ़रीक़ राज़ी न होगा तो इस्लामी शरीअ़त में यह मामला ठीक नहीं होगा।

(2) जिस चीज़ के बारे में मामला हो रहा है, वह हराम न हो, हलाल हो। अगर वह चीज़ हराम होगी तो चाहे दोनों फ़रीक़ भले ही राज़ी हों, वह मामला ठीक न माना जाएगा।

इस्लामी शरीअ़त के मुताबिक़ बहुत-सी हराम और हलाल बातों का बयान 'इस्लामी शरीअ़त' के शुरू के हिस्से में आ चुका है। अब यहाँ वे हराम-हलाल चीज़ें बयान की जा रही हैं जिनका मामला इस्लामी शरीअ़त में ठीक है या ठीक नहीं है।

हराम-हलाल चीज़ें

(1) किताब के शुरू के हिस्से में जो जानवर हराम बताए गए हैं, उन जानवरों की तिजारत करना भी हराम है, इनकी वही चीज़ें बेचना और ख़रीदना ठीक है जिनकी इस्लामी शरीअ़त में इजाज़त है, जैसे सींग, सुखाई या बनाई हुई खाल और ऊन वग़ैरह लेकिन यह बात 'किताब' के शुरू के हिस्से में बताई जा चुकी है कि सुअर की हर चीज़ हर हालत में हराम है।

(2) मुर्दार (मरे हुए जानवर) का व्यापार करना हराम है, इसका गोश्त और चर्बी किसी हालत में भी हलाल नहीं, हाँ इसका चमड़ा सुखा या बना लिया जाए तो उसकी तिजारत ठीक है और उसे काम में लाना हलाल है।

(3) नशीली और ज़हरीली चीज़ें भी हराम हैं। इनमें शराब और ताड़ी हर हालत में हराम हैं, बाक़ी चीज़ें हकीम, डॉक्टर, वैद्य की राय से काम में लाने की इजाज़त है।

(4) सोने-चाँदी का ज़ेवर औरतों के लिए हलाल है, मर्दों के लिए हराम है। इनके बर्तन, चम्मच, पानदान वग़ैरह काम में लाना औरतों के लिए भी हराम है। सोना-चाँदी और इनके ज़ेवर ख़रीदना और बेचना हलाल है।

(5) मर्दों को रेशमी कपड़े पहनना हराम है लेकिन औरतों के लिए हलाल है। रेशमी कपड़े की तिजारत करना भी हलाल है।

(6) सूद (ब्याज) लेना और देना दोनों हराम है। किसी को क़र्ज़ देकर उससे काम लेना या उससे किसी और तरह फ़ायदा उठाना या उससे कोई शर्त करा लेना हराम है, जैसे यह शर्त कि तुम मेरी यह चीज़ ख़रीद लो तो मैं तुमको क़र्ज़ दे दूँ, वग़ैरह।

(7) जुआ हराम है, लॉट्री, सट्टेबाज़ी, घुड़दौड़ में शर्त लगाना, जो माल मौजूद न हो उसका कारोबार, बीमा की तिजारत, मुअम्मा-बाज़ी, धोखा और छल-कपट की तिजारत वग़ैरह ये सब जुए में शामिल हैं और वे सारे काम भी जुए में शामिल हैं जिनमें क़िस्मत से अचानक किसी को कोई रक़म मिल जाए या बाज़ी लगाकर जो खेल खेले जाते हैं वे भी जुआ हैं। इस तरह का बैआना भी हराम है कि जिस माल के ख़रीदने के लिए बैआना दिया है अगर वह माल न लिया तो बैआना ज़ब्त।

(8) नाच, गाना और उसका तमाम सामान हराम है।

(9) ऐसे अड्डे क़ायम करना और ऐसे इदारे खोलना हराम है जिनसे ज़िना, चोरी, डाका, क़त्ल वग़ैरह किए जाएँ।

(10) जानदार की तस्वीर (फ़ोटो) बनाना हराम है। ऐसी फ़िल्म बनाना, जिसमें नाच-गाना और औरतों की नुमाइश हो, हराम है।

(11) औरत का दूध बेचना हराम है।

तिजारत

किसी चीज़ के लेन-देन और आपस में ख़रीदने-बेचने को तिजारत या व्यापार कहते हैं। दुनिया में आमतौर पर लोग हराम हलाल हर चीज़ की तिजारत करते हैं और उसे ठीक समझते हैं लेकिन इस्लामी शरीअ़त में वही तिजारत जाइज़ और ठीक है कि—

(1) उस तिजारत का माल हलाल हो, जैसे अनाज, कपड़ा, लकड़ी, बर्तन वग़ैरह। तिजारत का माल हराम न हो, जैसे शराब, सुअर, मुर्दार, नाच-गाने का सामान वग़ैरह।

(2) उस तिजारत के लिए हलाल तरीक़ों से काम लिया गया हो। अगर तरीक़े हलाल न होंगे तो तिजारत हराम होगी। जैसे, महाजन लोग माल बाज़ार में आने से पहले उचक लेते हैं और अपने घर-खत्ते भर लेते हैं या जैसे, रुपया-पैसा हासिल करने के लिए सट्टाबाज़ी, सूद, जुआ, झूठ, छल-कपट वग़ैरह से काम लिया गया हो तो इस तरह हलाल न रहने से उसका व्यापार भी ठीक और जाइज़ न होगा।

(3) तीसरी बात यह है कि व्यापार फ़रीक़ैन (दोनों पक्षों) की आपस में रज़ामन्दी से हो। इसका मतलब यह है कि सौदे की अच्छाई-बुराई की तरफ़ से इत्मीनान होना चाहिए और उसकी क़ीमत तय होनी चाहिए।

इस्लामी शरीअ़त ने सौदे और क़ीमत के बारे में जो ज़रूरी हिदायतें दी हैं, वे नीचे बयान की जाती हैं—

सौदा

(1) सौदा या माल जो बेचा जाए वह बेचते वक़्त सामने होना चाहिए। हाँ, जो चीज़ सामने नहीं है वह इस शर्त पर बेची जा सकती है कि ग्राहक उसे देखने के बाद आख़िरी बात (हाँ या नहीं) का फ़ैसला करेगा। इसी तरह वह चीज़ जो पैदा ही नहीं हुई है, जैसे बाग़ के फल या जानवर का बच्चा जो पेट में है वग़ैरह तो उसका भाव-ताव और उसके बारे में लेन-देन करना इस्लामी शरीअ़त में जाइज़ नहीं है। इसी तरह चीज़ तो थी लेकिन फिर न रही, जैसे एक जानवर जो गुम हो गया या कमरा जो गिर गया तो ऐसा जानवर और कमरा (जिसे अब हवा की जगह कहना चाहिए) बेचना ठीक नहीं।

(2) जो चीज़ बेची जाए उसका कोई मालिक होना ज़रूरी है। इस्लामी शरीअ़त में बहुत-सी ऐसी चीज़ें हैं जिनका कोई मालिक नहीं हो सकता, जैसे ज़मीन और आसमान के बीच की जगह, तालाब, नदी, झील वग़ैरह का पानी, हवा, जंगली चिड़ियाँ और जानवर, मछलियाँ, मैदान की घास और जंगली लकड़ी वग़ैरह। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है कि पानी, घास और आग तमाम आदमियों की मिली-जुली पूँजी है।

हाँ, ये चीज़ें उस वक़्त बेची जा सकती हैं, जब उनपर मेहनत की जाए या पैसा लगाया जाए, जैसे किसी ने नदी पर बाँध बनाया या तालाब का पानी बाक़ी रखने के लिए कोई जतन या साधन काम में लाया या पैसा लगाकर जंगल लगाया या घास लगाई या मेहनत करके मछलियाँ पकड़ीं या जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाया वग़ैरह तो इस तरह उनकी तिजारत ठीक होगी।

इसी तरह खनिज पदार्थ (सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, अभ्रक, कोयला वग़ैरह) का किसी ने पता लगाया और मेहनत की और पैसा ख़र्च किया तो फिर ऐसी चीज़ों पर पता लगानेवाले, मेहनत करनेवाले और रुपया ख़र्च करनेवाले का हक़ हो गया और वे सब अपना-अपना हिस्सा बेच सकते हैं।

(3) जो चीज़ बेची जाए उसकी अच्छाई-बुराई ग्राहक को बता देनी चाहिए, अगर ताजिर (व्यापारी) झूठ बोलकर या धोखा देकर ग्राहक के सिर मढ़ देगा तो वह तिजारत जाइज़ न होगी और फिर ग्राहक उसे वापस कर सकता है।

(4) ऐसी चीज़ बेची जाए जिसके बेचने की इस्लामी शरीअ़त में इजाज़त है।

(5) सौदे में कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो सौदे के साथ बिक जाती हैं, जैसे—

● घोड़ा बेचा तो उसकी लगाम और रस्सी।

● ताले के साथ उसकी कुँजी।

● गाय-भैंस के साथ उनका दूध पीता बच्चा।

● ज़मीन के साथ उसके पेड़ और घास वग़ैरह।

कोई चीज़ बिक गई लेकिन ग्राहक अभी ले नहीं गया और इस दरमियान उस चीज़ में कुछ बढ़ोत्तरी हो गई, जैसे गाभिन जानवर है, उसके बच्चा पैदा हो गया या बाग़ में फल आ गए तो ये सब ग्राहक के होंगे।

बाग़ या खेत बेचते वक़्त अगर उसमें फल या फ़सल है तो यह फल और फ़सल बेचनेवाले की होगी या फिर पहले तय कर ली हो तो ग्राहक की।

क़ीमत

(1) क़ीमत का लेन-देन खुला हुआ हो, ताजिर और ग्राहक दोनों को मालूम हो कि दस, बीस, पच्चीस रुपया या इतनी रक़म में सौदा बिक रहा है।

(2) क़ीमत उधार भी ली जा सकती है लेकिन अदा करने का दिन और महीना वग़ैरह बताना चाहिए। इस तरह नहीं कि बरसात बाद या जाड़ों तक दे दूँगा, इस तरह कहना ठीक न होगा। अगर अदा करने का वक़्त ठीक न बताया और ग्राहक ले गया तो इस तरह अदा करने का वक़्त एक महीना माना जाएगा।

(3) माल के बदले माल भी दिया जा सकता है लेकिन वह सामने हो।

(4) अगर कोई ताजिर एक दाम से बेचता है या उसकी तरफ़ से इत्मीनान है कि ठीक भाव देगा और उससे मामला करे और उसकी दुकान से सौदा आता रहे और ग्राहक आपस की रज़ामन्दी से क़ीमत अदा करता रहे तो यह ठीक है।

(5) माल बाहर से मँगाया तो उसपर जो ख़र्च होगा, वह भी ग्राहक को देना होगा या फिर जैसा तय हो जाए।

सौदे और क़ीमत की वापसी

(1) अगर कोई ग्राहक चीज़ दिखाने घर ले गया और उसे ख़राब कर दिया या वह उसके यहाँ ख़राब हो गई तो व्यापारी उससे क़ीमत ले सकता है।

(2) पैकिट-बन्द चीज़ों में माल की कमी और बढ़ोत्तरी ताजिर (जिसके यहाँ से माल आया है) के ज़िम्मे होगी।

(3) मोटर साइकिल, घोड़ा, स्वेटर, मोज़ा, वग़ैरह इस तरह की चीज़ें ग्राहक घर ले गया और वहाँ देखा तो ऐबदार निकलीं तो उसे वापस करने का हक़ है लेकिन अगर बिकी हुई चीज़ पर लेबिल लगा था और वह छूट गया और उसके छूटने से सौदे की क़ीमत घट जाने का डर है तो फिर ताजिर को हक़ है चाहे वह वापस ले या न ले।

(4) माल का नमूना देखकर सौदा तय हुआ, इसके बाद माल नमूने के मुताबिक़ आया तो ग्राहक को लेना होगा और अगर नमूने से घटिया होगा तो वापस कर सकता है।

(5) बाहर से माल मँगाया गया और रास्ते में ख़राब हो गया तो ग्राहक को वापस करने का हक़ है।

(6) अगर किसी का एजेंट माल ख़रीद ले तो मालिक को वापसी का हक़ नहीं।

(7) अन्धा अगर अच्छी तरह जाँच-पड़ताल और परख और परखवाकर सौदा ले जाए तो फिर उसे वापस करने का हक़ नहीं।

नोट:

(1) अगर कोई अनजाने में या भूल-चूक में ऐसी तिजारत कर ले जो ठीक न हो तो जानकारी होते ही तौबा कर ले और उसे छोड़ दे, ऐसा माल पास मौजूद हो तो उसे ख़ैरात कर दे और सवाब की उम्मीद न रखे।

(2) एक आदमी कोई चीज़ ख़रीद रहा है और उसने कुछ दाम लगा दिए, अब किसी को उस वक़्त तक उसके दाम पर दाम लगाना ठीक नहीं है जब तक वह आदमी इनकार न कर दे। हाँ, नीलामी में दाम पर दाम लगाना ठीक है।

(3) रुपये की रेज़गारी लेने में बट्टा लेना ठीक नहीं है। इसी तरह हुंडी वग़ैरह में बट्टा काटना नाजाइज़ है।

साझा

दो या कई आदमी मिल-जुलकर जब कोई करोबार करने के लिए मामला करते हैं तो ऐसे मामले को साझा कहते हैं। साझे की दो शक्लें हैं—

(1) एक आदमी अपना रुपया लगाता है और दूसरा मेहनत करता है। इस तरह जो फ़ायदा होता है, वे दोनों उस हिसाब से बाँट लेते हैं जो उनमें तय होता है।

(2) दो या ज़्यादा आदमी कोई तिजारत करने के लिए मामला करते हैं और उसमें बराबर रुपया और मेहनत लगाते हैं, या कम ज़्यादा हिस्सा करते हैं और काम दूसरों से लेते हैं। आजकल बड़े-बड़े कारख़ाने और लिमिटेड कम्पनियाँ इसी तरह के साझे से चलती हैं।

हम यहाँ दोनों तरह के साझे के बारे में इस्लामी शरीअ़त की ज़रूरी बातें लिखते हैं। पहले साझा नं. 1 के बारे में समझ लीजिए।

साझा नं. 1 - जिस साझे में एक आदमी अपना रुपया लगाता है और दूसरा मेहनत करता है उसे 'मुज़ारबत' कहते हैं, इसमें ये शर्तें ज़रूरी हैं—

(1) दोनों में से कोई पागल न हो, नाबालिग़ हों तो कोई हरज नहीं लेकिन उनमें समझ ज़रूर हो कि दोनों मामले और कारोबार के नफ़े और नुक़सान को समझते हों।

(2) जो रक़म साझे के लिए तय हो, वह कुल मेहनत करनेवाले को दे दी जाए; गोल-मोल बात ठीक नहीं।

(3) यह बात पहले तय हो जानी ज़रूरी है कि रुपया लगानेवाला इतना और मेहनत करनेवाला इतना पाएगा और यह भी तय कर लेना चाहिए कि कितने दिन के बाद हिसाब करके नफ़ा बाँटा जाएगा।

(4) यह साझा ज़बानी तय हो जाना भी ठीक है और लिखा-पढ़ी भी दुरुस्त है, ज़्यादा अच्छा यह है कि लिखा-पढ़ी हो जाए।

धनवाले का हक़

(1) जिसने रुपया लगाया है वह यह शर्त लगा सकता है कि इस रुपए से फ़ुलाँ जगह फ़ुलाँ कारोबार किया जाए। अगर उसके कहने पर रुपया उस काम में न लगाया गया और नुक़सान हो गया तो इसकी ज़िम्मेदारी मेहनत करनेवाले पर होगी।

(2) रुपया लगानेवाला यह शर्त भी लगा सकता है कि यह रुपया इतने वक़्त तक के लिए दिया गया है।

नोट - इस तरह के साझे में अगर रुपया लगानेवाला यह शर्त लगाना चाहे कि घाटे में मेहनत करनेवाला भी शरीक होगा तो उसको यह हक़ नहीं है।

मेहनत करनेवाले का हक़

(1) मेहनत करनेवाला मालवाले का एक तरह का अमानतदार है। अगर अचानक किसी वजह से माल बरबाद हो जाए तो उसका तावान उसे देना नहीं पड़ेगा लेकिन अगर इसका सुबूत मिल गया कि पूँजी ख़त्म करने में उसका हाथ है तो फिर उसपर ज़िम्मेदारी होगी। या फिर उसने ठीक से देखा-भाला नहीं और माल ख़राब हो गया या नुक़सान हो गया तो भी उसकी ज़िम्मेदारी मेहनत करनेवाले पर होगी।

(2) मेहनत करनेवाला अपनी राय से जिस तरह चाहेगा तिजारत करेगा और दौड़-धूप और जतन करने में माल के मालिक का मातहत न होगा, हाँ मालिक ने पहले कोई शर्त लगा दी हो तो उसे मानना पड़ेगा।

(3) मेहनत करनेवाले को उधार और नक़द बेचने और ख़रीदने का हक़ है। [लेकिन अगर उसने किसी को इतना उधार दे दिया जो कारोबार सँभाल न सके और उधार का माल मारा जाए तो इसकी ज़िम्मेदारी मेहनत करनेवाले पर होगी।] वह अपनी मदद के लिए दूसरों को नौकर भी रख सकता है, इसमें रुपया लगानेवाले का कोई इख़्तियार न चलेगा।

(4) कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए मेहनत करनेवाला दौड़-धूप और जतन में जो कुछ ख़र्च करेगा, वह दुकान से लेगा लेकिन वह तनख़ाह (वेतन) नहीं ले सकता, हाँ अगर कारोबार के लिए उसे बाहर जाना पड़े तो सफ़र ख़र्च के साथ अपनी हैसियत के मुताबिक़ खाना खा सकता है।

(5) अगर मामला किसी वजह से बीच में तोड़ दिया गया तो मेहनत करनेवाले को उसकी मेहनत का बदला मिलेगा लेकिन मेहनत के बदले की रक़म नफ़े से ज़्यादा न होगी, और अगर नफ़ा होने से पहले मामला तोड़ दिया गया तो कुछ न मिलेगा, या नफ़ा तो हुआ लेकिन इतना कम कि मेहनत के बदले की रक़म (उजरत) उससे ज़्यादा हुई तो फिर उसे नफ़ा से ज़्यादा मज़दूरी न दी जाएगी।

साझा नं. 2 - इस साझे या शिरकत का मतलब यह है कि इसमें दो या ज़्यादा आदमी बराबर के शरीक हों या उस काम में कम-ज़्यादा के हिस्सेदार हों और इस साझे का कारोबार वे हिस्सेदार अपने आप करें या किसी से करवाएँ। ऐसे साझे के बारे में इस्लामी शरीअ़त की ज़रूरी बातें ये हैं—

(1) अगर कुछ लोगों ने अपने आदमियों से कुछ जायदाद या माल या रक़म पाई या कुछ लोगों को किसी ने कुछ मुफ़्त ही दे दिया तो चाहे कोई हिस्सेदार कम का हक़दार हो तो भी उसकी मरज़ी के बिना ऐसी जायदाद या माल या पूँजी और रक़म वग़ैरह के बारे में दूसरे हक़दार सिर्फ़ अपनी मरज़ी से कोई कार्रवाई नहीं कर सकते, न काम में ला सकते हैं, न बेच सकते हैं, न किराए पर दे सकते हैं, न बाँट सकते हैं।

(2) अगर दो या ज़्यादा आदमियों ने कोई चीज़ ख़रीदी और वह सारी चीज़ एक जैसी है, जैसे अनाज, तरकारी, एक ही मेल का कपड़ा या उसके बहुत-से थान वग़ैरह, तो अगर बाँटते वक़्त एक साझी नहीं है तो ऐसी चीज़ उसके बिना बाँटी जा सकती है लेकिन अगर उसके हिस्से पर उस तक पहुँचने से पहले कोई आँच आई तो दूसरे साझियों से उसे अपना हिस्सा लेने का हक़ है।

(3) अगर साझे में ऐसी चीज़ें ली गईं कि उनमें कोई बड़ी है कोई छोटी, जैसे फल या जानवर या कोई ऐसा कपड़ा लिया जिसमें कुछ थान एक तरह के हैं और कुछ थान दूसरी तरह के तो इनके बाँटते वक़्त सभी हिस्सेदारों का मौजूद होना ज़रूरी है। या फिर जो न हो और उसे अपने साझियों पर भरोसा हो तो ऐसे साझी के बिना भी ऐसी चीज़ें बाँटी जा सकती हैं। या फिर उसे मानने या न मानने का इख़्तियार होगा।

(4) अगर दो या ज़्यादा आदमियों ने मिलकर कोई कारोबार करने का मामला किया तो इसके बारे में इस्लामी शरीअ़त ने ये हुक्म दिए हैं—

● सब मिलकर यह तय कर लें कि साझे के रुपये से फ़ुलाँ काम होगा और जिसने जितना दिया होगा उसी के हिसाब से नफ़ा पाएगा या फ़ुलाँ को ज़्यादा मिलेगा और कारोबार में जो नफ़ा होगा उसका पौन या तिहाई या आधा वग़ैरह या सारा नफ़ा बाँट लिया करेंगे। यह बात ज़बानी तय कर ली जाए या इसको लिख लिया जाए। लेकिन लिख लेना ज़्यादा अच्छा है।

● इस तरह के साझे में से कोई साझी जिस वक़्त चाहे, निकल सकता है। उसके निकलने से दूसरे लोगों का साझा ठीक वैसा ही रहेगा जैसा था। अगर कोई साझी मर जाए तो उसका साझा भी ख़त्म हो जाएगा। उसका हिस्सा उसके हक़दार को दे दिया जाएगा या फिर उसके हक़दार उसे चालू रखें और साझी बन जाएँ।

● ऐसे सारे साझी इस कारोबार की रक़म के अमानतदार होंगे और सभी बराबर का इन्तिज़ाम करनेवाले भी, और उस कारोबार को आगे बढ़ानेवाले भी और बचानेवाले भी होंगे।

● नफ़ा और नुक़सान में सारे साझी शरीक रहेंगे, चाहे वे कारोबार की देखभाल करते हों या न करते हों।

● अगर कोई साझी अपने बदले किसी और को अपनी जगह काम सँभालने या देखने-भालने को भेज दे तो यह भी ठीक है।

● अगर साझे का मामला करते वक़्त किसी साझी ने शरीक होने से इनकार कर दिया तो उसका हक़ जाता रहेगा और वह मामले से अलग समझा जाएगा।

● दो या ज़्यादा आदमी कम और ज़्यादा रुपया लगाकर नफ़े में बराबर के साझी बन सकते हैं, यह बात साझियों की सूझ-बूझ, बल-बूते और काम के मुताबिक़ तय की जा सकती है।

● दो या ज़्यादा आदमी बराबर रुपया लगाकर नफ़े में कम और ज़्यादा के साझी बन सकते हैं, यह बात साझियों की सूझ-बूझ, बल-बूते और काम को देखकर तय की जा सकती है।

● तमाम साझियों ने बराबर-बराबर रुपया लगाया लेकिन वे सब काम में शरीक न हुए बल्कि कारोबार किसी एक या दो के सिर डाल दिया तो जिसके सिर काम डाला गया है, उसे नफ़े के साथ मेहनत का बदला भी मिलना चाहिए।

● सारे साझी नफ़े और नुक़सान के ज़िम्मेदार होंगे लेकिन अगर कोई जान-बूझकर नुक़सान कर देगा तो वही उसका ज़िम्मेदार होगा।

● साझे का मामला ख़त्म करने पर तमाम पूँजी सारे साझी आपस में बाँट लेंगे और जिसका जितना हिस्सा होगा उसे उसी हिसाब से हिस्सा मिलेगा।

● साझे का मामला करनेवाले का साझे के कारोबार में अपना माल मिलाना और मिलाकर कारोबार करना ठीक नहीं या फिर सारे साझेदारों से इजाज़त ले ली जाए, इसी तरह किसी नए साझेदार को भी सबकी राय से ही साझी बनाया जा सकता है।

● साझे की रक़म में से सारे साझियों की इजाज़त के बिना किसी को क़र्ज़ देना ठीक नहीं है।

● साझे का काम चलाने और उसे आगे बढ़ाने में सारे साझी राय और मशवरा देने में बराबर के शरीक होंगे। अगर किसी साझी ने सबकी राय के बिना कहीं कोई लेन-देन किया तो उसके नफ़े में सारे साझी शरीक होंगे लेकिन नुक़सान में नहीं, अपनी राय से लेनदेन करनेवाले के सिर नुक़्सान होगा।

सिर्फ़ काम में साझा

इसका मतलब यह है कि रुपये-पैसे के बिना काम और मेहनत में साझा किया जाए, जैसे कुछ मज़दूर मिलकर मेहनत करने का मामला करें या कुछ ठेकेदार मिलकर कोई ठेका लें या कुछ मोची या क़ुली वग़ैरह इस तरह का मामला करें तो ऐसे मामले के लिए इस्लामी शरीअ़त में यह हुक्म है—

(1) काम और मेहनत में साझा करनेवाले चाहे ताक़तवर हों या कमज़ोर, बूढ़े हों या जवान, कम काम करें या ज़्यादा लेकिन मज़दूरी बाँटने के लिए जो पहले से तय कर चुके होंगे उसी के मुताबिक़ बाँटनी होगी। ताक़तवर, जवान, ज़्यादा काम करनेवाले और ज़रूरी काम करनेवाले को पहले ही अपना हक़ जता देना चाहिए और उसका हक़ दूसरों को मानना चाहिए।

(2) जो आदमी मज़दूरों को काम देगा वह काम के बारे में हर मज़दूर से पूछ-गछ कर सकता है, चाहे कोई मज़दूर कम काम करनेवाला हो या ज़्यादा।

(3) इस तरह साझा करनेवालों में एक साझी जो ऑर्डर लेगा वह सबकी ओर से होगा।

(4) ऑर्डर देनेवाला उनमें से किसी एक को पूरी मज़दूरी दे सकता है। और उनमें से एक मज़दूर उससे माँग भी सकता है लेकिन अगर मज़दूर पहले कह दे कि मज़दूरी फ़ुलाँ को दी जाए तो आर्डर देनेवाले को चाहिए कि उसी को दे, नहीं तो ज़िम्मेदार होगा।

(5) काम के साझी कई हों और उनमें से एक काम न करे तो काम का आर्डर देनेवाला उससे यह नहीं कह सकता कि तू काम क्यों नहीं करता? लेकिन अगर उसने ठेका और आर्डर देते वक़्त यह कह दिया कि काम सबको करना होगा तो सबके लिए काम करना ज़रूरी हो गया।

(6) अगर साझे में ठेका लेनेवालों को नुक़सान उठाना पड़ा तो तमाम ठेकेदार इसमें शरीक होंगे और जिस हिसाब से एक साझी फ़ायदे का हक़दार था उसी हिसाब से नुक़सान का भी ज़िम्मेदार होगा। जैसे फ़ायदे का एक-तिहाई और किसी का चौथाई था तो उसे नुक़सान भी एक-तिहाई या चौथाई देना होगा।

(7) एक ही पेशेवाले कुछ लोग साझा करें और दुकान किसी की हो और औज़ार किसी के, तो यह साझा भी ठीक होगा।

नोट -

● याद रखना चाहिए कि इस तरह साझे का मामला काम और मज़दूरी दोनों के बारे में होना चाहिए, नहीं तो वह मामला ठीक न माना जाएगा। जैसे दो आदमियों के पास एक-एक ट्रक है, वे इस तरह मामला करें कि जो माल लादने के लिए मिलेगा उसको दोनों में से कोई एक पहुँचा देगा और उसका जो किराया मिलेगा उसे आपस में बाँट लेंगे तो यह मामला जाइज़ और ठीक है लेकिन अगर यह मामला इस तरह हुआ कि दोनों अलग-अलग जो कुछ कमाएँगे उसमें बाँटेंगे तो यह मामला जाइज़ नहीं है।

● साखवाले लोग भी आपस में साझा कर सकते हैं। दो या ज़्यादा आदमी जो किसी बात में साख रखते हैं, वे आपस में मामला करें कि आओ मिलकर माल उधार लेकर बेचें और जो नफ़ा हो उसे बाँट लें तो यह मामला ठीक है लेकिन इसमें भी जो साझी ज़्यादा साखवाला है और वह अपनी साख पर जितना ज़्यादा माल लाएगा उतना ही ज़्यादा नफ़ा पाने का हक़दार होगा और उसी हिसाब से नुक़सान में भी शरीक होगा। इस तरह के साझेदारों में से किसी ने उधार माल लेकर खो दिया या ख़राब कर दिया तो उसकी ज़िम्मेदारी उसी पर होगी।

● अगर किसी ने जानवर इस शर्त पर दिया कि खिलाने-पिलाने और चराने के बाद जब बच्चे होंगे तो दोनों बाँट लेंगे तो यह मामला जाइज़ न होगा। सब बच्चे जानवरवाले के होंगे। चरानेवाले को खिलाने, पिलाने और चराने की मज़दूरी मिलनी चाहिए।

क़र्ज़ (उधार)

क़ुरआन और हदीस में उधार का मामला लिखित में करने के बारे में तो कहा गया है फिर भी यह लिखना फ़र्ज़ नहीं किया गया, अगर कोई न लिखे तो गुनाहगार न होगा और अगर कोई लिखने से इनकार करे तो वह काफ़िर भी न होगा।

ज़रूरी बातें

(1) जो चीज़ उधार ख़रीदी गई अगर उसके दाम बाज़ार में घट-बढ़ जाएँगे तो इससे कुछ नहीं होता, वापसी में वह चीज़ उतनी ही देनी होगी जितनी ली गई थी, जैसे एक मन गेहूँ उधार लिए गए तो वापसी में एक मन ही देने होंगे। देते वक़्त गेहूँ का भाव कुछ भी हो। लेकिन अगर वापस लेनेवाला क़ीमत लेने पर राज़ी हो जाए तो क़ीमत ले सकता है।

(2) जहाँ जिस तरह का लेन-देन चालू हो, वहाँ उसी तरह वापसी होगी। इसका मतलब यह है कि जो चीज़ तोलकर या गिन कर या नाप कर दी जाती है, उसी तरह वापस होगी, जैसे अंडे, संतरे गिनकर और अनाज, तेल, मसाला, कपड़ा और चूना वग़ैरह तौलकर लिया तो तौलकर और अगर नापकर लिया तो नापकर वापस करना होगा। यह जाइज़ और ठीक न होगा कि अंडे और कपड़ा वापसी में तोल कर दिया जाए।

(3) अगर रुपया-पैसा उधार दिया गया है तो उधार देनेवाला अपना रुपया किसी दूसरी जगह भी माँग सकता है और उधार लेनेवाले को वहाँ अदा करना होगा या उसे ज़मानत देनी होगी, लेकिन अगर रुपए के सिवा कोई और चीज़ अनाज, चूना, सीमेन्ट, तेल वग़ैरह उधार लिया तो वह चीज़ तो वहीं वापस होगी जहाँ मामला हुआ था, हाँ दूसरी जगह उसकी क़ीमत वापस हो सकती है लेकिन यह क़ीमत वही लगाई जाएगी जो मामला करते वक़्त मामले की जगह थी। दिल्ली में कोलकाता का भाव लागू न होगा।

(4) कोई चीज़ उधार ख़रीदी गई उसके बाद यह बाज़ार में नहीं मिलती तो अगर मिल जाने की उम्मीद हो तो कुछ दिन ठहर जाए या फिर आपस की रज़ामन्दी से उसकी क़ीमत दे दी जाए।

(5) उधार ख़रीदी हुई चीज़ उधार लेनेवाले की हो जाती है, अब चाहे वह बेचे या कुछ करे, अब उस चीज़ को उधार देनेवाला बेच नहीं सकता।

(6) उधार देते वक़्त कोई शर्त लगाना जाइज़ नहीं है।

(7) उधार ली गई चीज़ के बदले वापसी के वक़्त अगर उससे अच्छी या बुरी चीज़ है तो यह उधार देनेवाले की मरज़ी पर है, चाहे ले या न ले।

(8) जिसने उधार लिया फिर उसके बाद उसके पास अल्लाह का दिया सब कुछ हो गया फिर भी वह अदा नहीं करता तो उधार देनेवाला चाहे तो जो चीज़ उसने उधार दी है उसके बदले उसकी उसी तरह की चीज़ कहीं पा जाए तो इजाज़त के बिना भी ले सकता है और ज़बरदस्ती भी ले सकता है, लेकिन गेहूँ के बदले गेहूँ और रुपये के बदले रुपये ही ले सकता है, दूसरी चीज़ नहीं।

ज़मानत

कभी ऐसा होता है कि उधार लेनेवाला क़र्ज़ अदा नहीं कर पाता और उधार देनेवाला अपना रुपया या उधार में दी हुई चीज़ की वापसी के लिए परेशान होता है या उसे अपनी रक़म डूब जाने का डर पैदा हो जाता है। इस परेशानी से बचने के लिए कभी-कभी उधार लेनेवाले की तरफ़ से कोई दूसरा आदमी खड़ा हो जाता है और ज़मानत देता है कि अगर यह न देगा तो मैं दूँगा। इस मामले को ज़मानत कहते हैं और ज़मानत देनेवाले को ज़ामिन कहते हैं।

इसी तरह कोई मुलज़िम है, उसका मुक़द्दमा अदालत में चल रहा है लेकिन वह ऐसा मुलज़िम है कि फ़ैसले तक अदालत उसको हवालात में रखना चाहती है तो ऐसे आदमी को भी ज़मानत की इजाज़त है, वह ज़मानत पर छूट सकता है।

ज़मानत कुछ दिनों के लिए भी दी जा सकती है। ज़मानत के दिन गुज़रने पर ज़ामिन पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेकिन वह ज़मानत के आख़िरी दिन उस आदमी को अदालत के सामने या उधार देनेवाले के पास हाज़िर कर दे।

ज़मानत का ठीक होना

(1) जो ज़मानत दे और जिसकी ज़मानत दे उन दोनों का आक़िल और बालिग़ होना ज़रूरी है (वे पागल और बच्चे न हों)।

(2) ज़मानत में मुलज़िम का नाम और पता अच्छी तरह मालूम होना चाहिए लेकिन अगर ज़मानत में माल है तो यह मालूम होना ज़रूरी नहीं कि वह कितना है। ज़ामिन का इतना कहना काफ़ी है कि इसके क़र्ज़ का मैं ज़िम्मेदार हूँ।

(3) ज़मानत में माल है तो उसकी ज़मानत गिरवी या माँगे की चीज़ से नहीं दी जा सकती और न अमानत ही से ज़मानत हो सकती है, लेकिन अगर उसी की अमानत है जिसकी ज़मानत दे रहा है तो ठीक है। और उसके न देने पर ज़ामिन उसकी अमानत में से दे सकता है। लेकिन अगर उसकी अमानत वापस कर दी तो ज़मानत ख़त्म नहीं हुई और रक़म अपने पास से देनी होगी।

ज़ामिन की ज़िम्मेदारी

(1) अगर ज़ामिन ने किसी आदमी (मुलज़िम) की ज़मानत दी है तो वादे के दिन उसे मुलज़िम को अदालत में हाज़िर करना पड़ेगा नहीं तो अपने आप फँसेगा और अगर माल की ज़मानत दी है तो माल देना पड़ेगा।

(2) जिसकी ज़मानत ली गई, अगर वह मर जाए तो ज़मानत अपने आप ख़त्म हो जाएगी लेकिन अगर उधार देनेवाला मर जाए तो ज़मानत ख़त्म न होगी, माल हर तरह देना पड़ेगा।

(3) मुलज़िम पर जुर्म साबित हो गया और उसे सज़ा देना तय कर लिया गया तो अब उसके बदले दूसरे आदमी को सज़ा नहीं दी जा सकती और न अब उसकी सज़ा का कोई ज़ामिन हो सकता है, बदला और सज़ा मुजरिम ही के ज़िम्मे होगी।

(4) अगर कुछ लोगों ने मिलकर उधार लिया और ज़िम्मेदार एक को बनाया तो क़र्ज़ की माँग सब लोगों से हो सकती है।

(5) अगर किसी के कई ज़ामिन हों तो अगर उन्होंने अलग-अलग ज़िम्मेदारी ली है तो हर एक से कुल रक़म माँगी जा सकती है, जिससे वसूल हो जाए और अगर कई आदमियों ने मिलकर ज़मानत दी है तो क़र्ज़ सबपर बराबर बाँट दिया जाएगा।

(6) जिस शर्त के साथ उधार दिया गया है, ज़मानत में वे शर्तें बाक़ी रहेंगी।

(7) अगर किसी ने किसी के लिए अदालत में हाज़िर करने की ज़मानत दी और वह हाज़िर न कर सका तो मुलज़िम के ज़िम्मे जो रक़म होगी या निकलेगी, ज़ामिन को वह भी देनी पड़ेगी।

(8) अगर ज़मानत कुछ ख़ास मुद्दत के लिए दी है और इस मुद्दत में यह आदमी जिसकी ज़मानत दी गई है, कहीं दूर परदेस में जाना चाहता है तो ज़मानत देनेवाले को हक़ है कि वह उसे मजबूर करे कि रक़म देकर जाए, चाहे उसके लिए अदालत ही जाना पड़े।

(9) ज़मानत में रुपये के बदले अगर कोई चीज़ है, जैसे गेहूँ, तो जिस तरह का गेहूँ ज़मानत में है, उसी तरह का गेहूँ उस आदमी से वुसूल कर सकता है जिसकी ज़मानत दी है, चाहे ज़ामिन अपने पास से उससे अच्छा अदा करे लेकिन अगर ज़ामिन ने ख़राब गेहूँ देकर पीछा छुड़ा लिया तो फिर अपने उस आदमी से जिसकी ज़मानत दी है, वैसा ही गेहूँ वसूल करेगा।

(10) किसी ने किसी आदमी को या किसी के माल वग़ैरह को कहीं पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ली तो वह ज़ामिन हो गया, जैसे रेलवे, रोडवेज़, जहाज़ कम्पनी या डाक वग़ैरह। अब अगर रास्ते में जान और माल का नुक़सान हो गया तो ज़ामिन को अदा करना होगा।

गिरवी (रहन)

किसी ने किसी से कुछ क़र्ज़ या उधार लिया और अदा करने की तरफ़ से इत्मीनान के लिए कोई चीज़ उसे दे दी कि रख ले, अगर क़र्ज़ अदा न हो तो इस चीज़ को बेचकर वुसूल कर लेना, यह मामला गिरवी और रहन कहलाता है।

शर्तें-

(1) गिरवी करनेवाला और गिरवी रखनेवाला दोनों इसपर राज़ी हों।

(2) गिरवी करनेवाला गिरवी रखनेवाले को क़ब्ज़ा भी दे दे।

(3) दोनों फ़रीक़ (पक्ष) समझ रखते हों (उनमें से कोई पागल न हो), बालिग़, जवान होना ज़रूरी नहीं।

(4) गिरवी की चीज़ इतनी क़ीमत की हो कि उससे पूरा क़र्ज़ अदा किया जा सके और उसका बेचना इस्लामी शरीअ़त में ठीक हो। [इसका ज़िक्र तिजारत के बयान में हो चुका।]

(5) गिरवी चीज़ की देख-रेख की ज़िम्मेदारी गिरवी रखनेवाले पर होगी। गुम हो जाने या खो जाने पर या ख़राब हो जाने पर उधार की रक़म काट कर उसकी बाक़ी क़ीमत उसे देनी होगी। वह उसे गिरवी करनेवाले की मरज़ी के बिना बेच भी नहीं सकता।

(6) गिरवी चीज़ को गिरवी करनेवाला दूसरी चीज़ से बदल सकता है।

(7) गिरवी चीज़ में अगर कुछ बढ़ गया, जैसे जानवर गिरवी है, उसने बच्चा दिया या बाग़ गिरवी है, उस पर फल आए तो ये सब गिरवी करनेवाले के हुए, जिसकी चीज़ है। इस बढ़त में जो कुछ बिकेगा, जैसे फल वग़ैरह तो उसकी क़ीमत वापस करनी होगी। हाँ, अगर जानवर, बाग़, खेत और बढ़त पर कुछ ख़र्च हुआ है तो गिरवी रखनेवाला ख़र्च ले सकता है। मकान रहन है तो रहन रखनेवाला उसका किराया नहीं ले सकता न उसमें रह सकता है, जानवर गिरवी है तो उससे काम नहीं ले सकता और न उसका दूध अपने काम में ला सकता है।

(8) गिरवी रखी हुई चीज़ को गिरवी रखनेवाले की रज़ामन्दी के बिना बेचा नहीं जा सकता।

नोट-

(1) गिरवी करनेवाला मर जाए तो गिरवी का मामला ख़त्म समझा जाएगा। अब या तो मरनेवाले के वारिस क़र्ज़ अदा करके वह चीज़ ले लें या अदालत के ज़रिए गिरवी रखनेवाला उस चीज़ की इजाज़त ले। दोनों तरह ठीक है।

(2) गिरवी की चीज़ किसी सालिस (इन दोनों के सिवा किसी तीसरे आदमी) के पास रखी जा सकती है।

(3) गिरवी करनेवाला जब तक पूरा क़र्ज़ अदा न करे उसे गिरवी की चीज़ वापस लेने का हक़ नहीं।

(4) अगर किसी चीज़ के कई मालिक हैं तो वह चीज़ गिरवी नहीं रखी जा सकती।

(5) बाग़ फल समेत और खेत फ़सल समेत गिरवी रखी जा सकती है।

अमानत

किसी ने किसी को कोई चीज़ रखने के लिए दी या किसी ने गिरवी में पाई या माँग कर लाया या किराए पर ली या उनकी ज़िम्मेदारी ले ली तो ये हर तरह की चीज़ें अमानत कहलाती हैं। पानेवाले पर इसकी हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है। इसमें काँट-छाँट करना या अपनी ग़लती या लापरवाही से ख़राब कर देना या सारी की सारी वापस न करना यह सब बड़ा गुनाह है, ऐसा गुनाह करनेवाले के लिए क़ुरआन और हदीस में बड़ा डरावा आया है। ऐसा करनेवाले को मुनाफ़िक़ कहा गया है। मुनाफ़िक़ का मतलब यह है कि जो ज़बान से तो अपने को मुसलमान कहे लेकिन मन में इस्लाम से बैर रखे और इस्लाम का विरोधी हो।

नोट-

(1) अगर कोई आदमी कोई चीज़ कहीं पड़ी पाए तो वह भी उसका अमानतदार हो गया। अब उसे चाहिए कि वह उसका ऐलान करे और उसके मालिक तक पहुँचाए, यह उसपर वाजिब हो गया। साल भर ऐलान करने के बाद उस चीज़ का मालिक न मिले तो बैतुलमाल (इस्लामी ख़ज़ाने) में दे दे। इस्लामी ख़ज़ाना न हो तो सदक़ा और ख़ैरात कर दे। अगर ख़ुद बहुत ही ग़रीब हो तो ले भी सकता है लेकिन साल-भर ऐलान करने के बाद।

(2) इसी तरह अगर कोई नौकर है तो उसके चार्ज में जो चीज़ है, उसका वह अमानतदार है, इससे वह अपना काम निकाले और ख़राब कर दे तो गुनाहगार होगा और उससे तावान भी लिया जाएगा।

इसी तरह नौकर जितने वक़्त के लिए नौकर है, वह वक़्त भी उसकी अमानत में है। इस वक़्त नौकर का गप लड़ाना और वक़्त को जान-बूझकर गँवाना गुनाह है।

ज़िम्मेदारी का ख़त्म होना

(1) जितने वक़्त के लिए कोई चीज़ अमानत रखी गई है, उस वक़्त के ख़त्म होने से अमानत की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाएगी।

(2) दोनों फ़रीक़ों (पक्षों) में से कोई जिस वक़्त अमानत रखने से इनकार कर देगा, उसी वक़्त ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाएगी।

(3) दोनों फ़रीक़ हर वक़्त अमानत ले और दे सकते हैं।

(4) दोनों में से एक मर जाए तो ज़िम्मेदारी ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएगी। अब जिसे करना हो फिर से करे।

शर्तें-

(1) हवा के परिन्दे, जंगली जानवर, तालाब की मछलियाँ वग़ैरह अमानत नहीं हो सकतीं, चाहे कोई उसकी अमानतदारी क़बूल ही कर ले। अमानत का मामला वही ठीक होगा, जब अमानतदार के क़ब्ज़े में आ जाए।

(2) दोनों फ़रीक़ लेन-देन के मामले की समझ रखते हों, नासमझ बच्चे न तो अमानत रख सकते हैं, न रखवा सकते हैं।

(3) अमानत में रखी हुई चीज़ में अगर इज़ाफ़ा हो जाए, जैसे जानवर बच्चा दे या बाग़ में फल आएँ या खेत में फ़सल हो तो यह सब उसका होगा जो अमानतवाली चीज़ का असली मालिक है, लेकिन इसका ख़र्च काटा जा सकता है।

(4) मालिक की इजाज़त के बिना अमानत की चीज़ को काम में लाना जाइज़ और ठीक नहीं, गुनाह है।

(5) जहाँ अमानत दी गई है, वहीं लेने का हक़ है।

नोट-

(1) अमानत रखते वक़्त दो आदमियों को गवाह बना लेना चाहिए। क़ुरआन में इसकी ताकीद आई है।

(2) अमानत का मामला ज़बानी भी हो सकता है और लिखकर भी।

ज़िम्मेदारी

(1) अमानतदार पर अमानत की देख-भाल वाजिब है। देख-भालकर रखने पर भी अगर अमानत की चोरी हो गई या उसमें आग लग गई या किसी और वजह से बरबाद हो गई तो अमानतदार को तावान नहीं देना पड़ेगा लेकिन अमानतदार ने देख-भालकर नहीं रखी और अमानत में ख़राबी आ गई या वह खो गई तो तावान देना पड़ेगा।

(2) किसी ने कहा “यह चीज़ देखते रहो, मैं अभी आता हूँ” तो अगर आपने कह दिया “अच्छा" या कुछ न बोले, दोनों हालतों में ज़िम्मेदारी हो गई। हाँ, अगर कह दिया कि “मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ” तो अब उसकी निगरानी आपपर वाजिब नहीं।

(3) अगर कई आदमियों को अमानतदार बनाया गया तो सबपर बराबर ज़िम्मेदारी है।

(4) अमानत में अगर रुपया-पैसा है तो उसे अलग रखना वाजिब है, अपनी रक़म में मिलाना ठीक नहीं और न ख़र्च करना ठीक है, इजाज़त लेकर मिलाने और ख़र्च करने पर अब वह अमानत नहीं रही, क़र्ज़ हो गया। इसके बाद चाहे फिर उतना ही रुपया निकालकर अलग रख दिया जाए और चोरी हो जाए तो भी अदा करना पड़ेगा।

(5) अमानत के सौ रुपये इजाज़त लेकर अपने सौ रूपयों में मिला दिए हैं तो यह अमानत नहीं, बल्कि साझा हुआ। नुक़सान हो गया या चोरी हो गई या वे जाते रहे तो दोनों का आधा-आधा गया।

(6) अमानत की चीज़ इजाज़त लेकर काम में लाई गई और वह ख़राब हो गई या अपनी सुस्ती और लापरवाही से खो गई तो तावान देना पड़ेगा।

(7) अमानत जैसे ही माँगी जाए वैसे ही वापस कर देना वाजिब है। अगर यह जवाब दिया कि इस वक़्त काम कर रहा हूँ फिर ले लेना और माँगनेवाले ने मान लिया तो कुछ हरज नहीं लेकिन वह न माना और नाराज़ होकर चला गया और अब अमानत की चीज़ खो गई तो तावान देना होगा।

(8) अमानत किसी दूसरे के हाथ भिजवाने से अगर बीच में खो गई तो इसका तावान देना पड़ेगा।

नोट-

(1) अगर उजरत पर कोई अमानत रखी गई, जैसे डाकख़ाना, बैंक वग़ैरह में रुपया या ज़ेवर वग़ैरह जमा किया या बड़े गोदामों में या बर्फ़ फ़ैक्ट्री में आलू वग़ैरह रखे तो उजरत लेनेवाला उस रक़म और चीज़ के वापस करने का ज़िम्मेदार होगा, चाहे वह चोरी हो जाए।

(2) अगर तावान देना वाजिब हो जाए तो रक़म के बदले रक़म देना तो आसान है लेकिन रक़म नहीं बल्कि कोई और चीज़ है तो बदले में वैसी ही चीज़ देनी चाहिए। अगर वैसी चीज़ न मिल सके तो क़ीमत देनी होगी। तावान में वही क़ीमत देनी होगी जो तावान देते वक़्त हो।

माँगे की चीज़

जो चीज़ किसी से कुछ वक़्त के लिए माँगकर लाई जाती है और काम निकलने पर वापस कर दी जाती है, इस्लामी शरीअ़त में वह भी अमानत ही है, दोनों में फ़र्क़ यह है कि माँगे की चीज़ काम में लाने के लिए लाई जाती है और अमानत को काम में नहीं लाया जा सकता।

शर्तें-

(1) जिस काम के लिए चीज़ माँगी गई है और चीज़ के मालिक ने इजाज़त दे दी है, उससे वही काम लेना चाहिए।

(2) जितने वक़्त के लिए माँगी गई है, उतने वक़्त के अन्दर वापस कर देनी चाहिए। अगर वक़्त के बाद तक रखी और वह चीज़ किसी तरह खो गई तो तावान देना वाजिब हो गया।

(3) चीज़ माँगनेवाले और चीज़ माँगने पर देनेवाले में से कोई मर गया तो मामला ख़त्म हो गया। अगर वह चीज़ माँगनेवाले के पास है तो अब वह उससे काम नहीं ले सकता। अगर उसके घरवालों के पास है तो वे भी उससे फ़ायदा नहीं उठा सकते।

(4) माँगी हुई चीज़ मालिक की इजाज़त के बग़ैर दूसरे को नहीं देनी चाहिए।

(5) दोनों फ़रीक़ का समझदार होना ज़रूरी है, छोटे बच्चों और पागलों से माँगे का मामला ठीक नहीं है।

नोट- माँगे की चीज़ की ज़िम्मेदारी और इसकी दूसरी बातों के बारे में इस्लामी शरीअ़त के अन्दर वही बातें लागू हैं जो अमानत के बारे में लिखी जा चुकीं।

इजारा

उजरत पर किसी चीज़ के लेन-देन के मामले को 'इजारा' कहते हैं। किराए पर मकान लेना, किराए पर सवारी करना, उजरत देकर कपड़ा सिलवाना और धुलवाना वग़ैरह ये सब इजारे का मामला कहलाता है। इस्लामी शरीअ़त में इजारे के मामले के लिए ज़रूरी बातें ये हैं—

(1) इजारे के लेन-देन के बारे में तमाम बातें पहले तय कर लेनी चाहिएं, जैसे यह कि कितने वक़्त के लिए मामला हो रहा है, कितनी उजरत पर हो रहा है? किस काम के लिए हो रहा है? इसमें चीज़ के मालिक और उजरत पर लेनेवाले की रज़ामन्दी ज़रूरी है।

(2) जो बातें तय कर ली जाएँ उनका तोड़ना नाजाइज़ है।

(3) जिस दिन से इजारे पर चीज़ ली है, उसके बाद जितने दिन अपने पास रखी तो, उससे फ़ायदा उठाए या काम में लाए या न लाए, उतने दिन की उजरत देना वाजिब हो गई।

(4) जिस चीज़ के कई मालिक हों उसे उजरत पर देना किसी एक के लिए जाइज़ नहीं है।

(5) सजावट और नाच-गाने की चीज़ों का मामला नाजाइज़ है।

(6) यह मामला भी ठीक नहीं है कि किसी जानवर को बटाई पर दे दिया और कहा कि पालो, जो बच्चे होंगे आधे-आधे बाँट लेंगे। इसकी मज़दूरी तय होनी चाहिए कि इतने रुपये महीना लिए जाएँगे वग़ैरह।

(7) उजरत पर लेनेवाला अगर मर जाए तो मामला ख़त्म समझा जाएगा। उसके घरवालों को फिर से इजारे का मामला करना चाहिए।

(8) उजरत पर पेशगी दी हुई रक़म (बैआना) वग़ैरह किसी हालत में मारी नहीं जा सकती।

(9) जो चीज़ किराए पर ली जाए उसके उठाने का ख़र्च उजरत पर लेनेवाले को देना होगा और वापसी का ख़र्च चीज़ के मालिक को देना होगा। या फिर जैसा तय हो जाए।

(10) जो मकान या जगह किराए पर ली जाए, बिना इजाज़त उसमें कोई इमारत बनाना, पेड़ लगाना वग़ैरह जाइज़ नहीं। जिस काम के लिए तय किया है सिर्फ़ वही कर सकता है। अगर उजरत पर लेनेवाला इजाज़त लेकर उसमें कोई पेड़ लगाए या अपने ख़र्च से कुछ इमारत बना ले तो वापसी पर उसे हक़ है कि वह पेड़ काट ले या बनाई हुई इमारत ढाह दे।

(11) उजरत पर ली हुई चीज़ किसी को माँगने पर देना जाइज़ नहीं है। I

(12) रेल का टिकट, डाक का टिकट वग़ैरह यह भी उजरत का मामला है। टिकट काम में लाकर दूसरी बार काम में लाना हराम है।

(13) किसी दुकान या किसी आदमी से कोई चीज़ बनवाई, जैसे जूता, डोल, बाल्टी वग़ैरह, तो बनने के बाद बनवानेवाले को वह लेनी ही पड़ेगी, उसको लेने से इनकार करने का उसे हक़ नहीं।

(14) उजरत पर काम करनेवाला मज़दूर या कारीगर काम का तो ज़िम्मेदार होगा, वक़्त का नहीं, वक़्त का उतार-चढ़ाव उसके बस में नहीं, वह बीमार हो सकता है और दूसरी अचानक आ पड़नेवाली बातों में फँस सकता है। हाँ, ऐसी हालत में जो दोगुनी और ड्योढ़ी उजरत तय हुई है, अब वह ज़्यादा उजरत छोड़नी पड़ेगी।

(15) अगर उजरत पर काम करनेवाले को उजरत न मिले तो वह उजरतवाली चीज़ को उस वक़्त तक रोक सकता है, जब तक उसे उजरत न मिले। अगर इस तरह रोकने में वह चीज़ ख़राब हो जाए या कोई और बात हो जाए तो उसकी ज़िम्मेदारी उजरत पर काम करनेवाले पर नहीं।

(16) अगर उजरत पर काम करनेवाला किसी मज़दूर या कारीगर से यह कहे कि मेरी चीज़ तुम्हीं बनाना तो फिर मज़दूर या कारीगर को यह हक़ नहीं कि उसे दूसरे से बनवाए।

तावान

(1) धोबी, दर्ज़ी और रंगरेज़ वग़ैरह को जो कपड़े धोने, सीने और रंगने के लिए दिए जाते हैं वे उनके पास अमानत हैं, अगर वे किसी मजबूरी से ख़राब या बरबाद हो जाएँ, जैसे उनके घर चोरी हो जाए और चोर ले जाए या मकान गिर पड़े और कपड़े बरबाद हो जाएँ, जल जाएँ तो उनका तावान वाजिब नहीं। लेकिन अगर अपनी ग़लती से सामान गिरा दिया तो तावान वाजिब हो गया। इसी तरह मज़दूर ने सामान गिरा दिया या उसके पास से गिर पड़ा और नुक़सान पहुँच गया तो इस सूरत में भी तावान लिया जा सकता है।

(2) नौकर-चाकर से नुक़सान हो जाए तो तावान वाजिब नहीं। हाँ, अगर जानकर नुक़सान कर दिया या चीज़ ख़राब कर दी तो तावान लिया जा सकता है।

जिस नौकर को बच्चा खिलाने के लिए रखा गया है अगर उसकी ठीक तरह से देख-भाल करने के बावजूद बच्चे की कोई चीज़ खो जाए तो तावान वाजिब नहीं।

मज़दूरी

किसी आदमी की मेहनत के बदले में जो कुछ दिया जाता है, उसे मज़दूरी कहते हैं, मेहनत करनेवाले को मज़दूर और मज़दूरी देनेवाले को मालिक कहा जाता है। मज़दूरी का मामला मज़दूर और मालिक आपस में तय करते हैं, लेकिन इस्लामी शरीअ़त में एक और मज़दूरी का बयान आया है, उसका नाम 'उजरते-मिस्ल' है। उजरते-मिस्ल का मतलब यह बताया गया है कि वह मज़दूरी जो हुकूमत मुक़र्रर कर दे या जो मज़दूरी आमतौर पर मज़दूरों को उन कामों के मुताबिक़ दी जाती है। इस्लामी शरीअ़त में मज़दूर और मज़दूरी के बारे में ये हिदायतें दी गईं हैं—

(1) मुलाज़िमों और मज़दूरों को अपना भाई समझा जाए।

(2) अपने मुलाज़िमों और मज़दूरों को इतनी उजरत दी जाए कि जिस तरह का रहन-सहन मुस्ताजिर (उजरत देनेवाले) का है उसी के लगभग अजीर (उजरत पानेवाले) का भी हो। अगर कोई मालिक कंजूसी के मारे मोटा-झोटा खाता-पीता और पहनता है तो उसको यह हक़ नहीं है कि अपने मुलाज़िमों और मज़दूरों को भी कहे कि वे भी वैसा ही खाएँ और पहनें।

(3) उनसे इतना काम न लिया जाए कि वे थककर चूर हो जाएँ या उनकी तन्दुरुस्ती ख़राब हो जाए, अगर कभी ज़्यादा काम लेने की ज़रूरत आ पड़े तो माल से उनकी मदद की जाए।

(4) मज़दूरी पूरी की पूरी और जल्द से जल्द दी जाए, एक हदीस में है कि आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“मज़दूर की मज़दूरी उसका पसीना ख़ुश्क होने से पहले दे दो।”

एक और हदीस में है कि आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“क़ियामत के दिन जिन तीन आदमियों के ख़िलाफ़ मैं अल्लाह की अदालत में दावा करूँगा, उनमें से एक वह शख़्स होगा जो किसी को मज़दूर रखे और उससे पूरा-पूरा काम ले मगर मज़दूरी पूरी न दे।”

(5) जिनसे काम लिया जाए या जो किसी की निगरानी में काम करें उनसे बुरा सुलूक नहीं करना चाहिए, उनको गाली भी नहीं देनी चाहिए। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है—

“उनकी देख-भाल इस तरह करो जिस तरह अपने लड़कों की करते हो। जो तुम खाते हो उसमें से उन्हें भी खिलाओ।” (इब्ने माजा)

एक और हदीस में है—

“एक सहाबी (आप सल्ललाहु अलैहि व सल्लम के प्यारे साथी) ने आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा कि अगर नौकर ग़लती करे तो कितनी बार उसे माफ़ किया जाए? आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने फिर पूछा, आप फिर चुप रहे। उन्होंने तीसरी बार पूछा तो आप (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि अगर रोज़ाना सत्तर बार ग़लती करे तो माफ़ करो।” (अबू-दाऊद व तिरमिज़ी)

सत्तर बार कहने का मतलब यह है कि उनकी ज़्यादा-से-ज़्यादा ग़लतियाँ माफ़ कर दो।

शर्तें -

(1) मालिक और मज़दूर में मज़दूरी के बारे में मामला तय होना चाहिए।

(2) मामला तय करते वक़्त मालिक और मज़दूर समझवाले हों (पागल न हों), दोनों का बालिग़ (जवान) होना ज़रूरी नहीं है। नाबालिग़ के वली चाहें तो उनको अपने काम में शरीक कर सकते हैं और काम पर लगा सकते हैं लेकिन नाबालिग़ न तो मालिक की हैसियत से मामला कर सकते हैं, न ही मज़दूर की हैसियत से।

(3) मज़दूरी का मामला मालिक और मज़दूर दोनों की रज़ामन्दी से तय होना चाहिए।

(4) मज़दूर को बता दिया जाए कि उसे फ़ुलाँ जगह फ़ुलाँ काम और इतना काम करना पड़ेगा और इतनी मज़दूरी मिलेगी, रोज़ की रोज़ मिलेगी या महीने में एक बार या दो बार या तीन बार मिलेगी और फ़ुलाँ तारीख़ को मिलेगी। अगर किसी वजह से मज़दूर को न बताया गया तो मज़दूर 'उजरते-मिस्ल' का हक़दार होगा।

हक़ और ज़िम्मेदारियाँ

(1) मालिक और मज़दूर में से किसी को यह हक़ नहीं है कि उनके दरमियान जिन शर्तों पर मामला तय हुआ है उनके ख़िलाफ़ करें या काम शुरू करने पर बग़ैर किसी वजह के काम बन्द कर दें।

(2) काम लेनेवाले (मालिक) को यह हक़ नहीं है कि किसी मज़दूर की बेरोज़गारी से फ़ायदा उठाकर उसे मज़दूरी कम दे। अगर मालिक ऐसा करेगा तो न इस्लामी हुकूमत ही उसे बरदाश्त करेगी और न ख़ुदा ही माफ़ करेगा। इसी तरह मज़दूर को भी यह हक़ नहीं है कि उसे जो काम दिया गया है, उसमें किसी तरह की ख़राबी डाले या काम बिगाड़ दे या निकम्मापन करे। अगर वह ऐसा करेगा तो मालिक उसे काम से अलग कर सकता है। काम को बिगाड़ने या ख़राब करने पर तावान भी लिया जा सकता है और आख़िरत में भी उससे पूछ-गछ होगी।

(3) अगर मालिक किसी मज़दूर से किसी दिन काम न ले तो अगर वह मज़दूर रोज़ाना की मज़दूरी पर काम कर रहा है तो उस दिन की मज़दूरी नहीं ले सकता और अगर माहवार तनख़ाह पर काम कर रहा है तो मज़दूरी पाने का हक़दार होगा।

खेती

खेती की दो शक्लें हैं। एक यह कि किसी आदमी के पास ज़मीन हो और वह ख़ुद उसमें खेती-बाड़ी करे। दूसरी शक्ल यह है कि वह आदमी किसी वजह से अपने आप खेती-बाड़ी नहीं कर पाता या नहीं करता तो इस्लामी शरीअ़त उसको यह हक़ देती है कि वह उस ज़मीन में दूसरों से मदद ले। यह मदद तीन तरह से ली जा सकती है—

(1) कोई अपना खेत किसी को बँटाई पर दे दे।

(2) लगान तय करके अपनी ज़मीन खेती के लिए किसी को दे दे।

(3) अपनी ज़मीन पर मज़दूरों से खेती कराए।

खेती की ज़मीन बँटाई पर देने की शर्तें

(1) बँटाई पर ज़मीन लेनेवाले और देनेवाले दोनों समझदार हों (पागल न हों), दोनों राज़ी हों, दोनों का बालिग़ होना ज़रूरी नहीं है।

(2) जो ज़मीन बँटाई पर दी जाए, वह खेती के लायक़ हो। [कोई अपनी ऊसर-बंजर ज़मीन देकर यह कहे कि तुम उसको खेती के लायक़ बना लो और खेती करो, जो कुछ पैदावार होगी आपस में बाँट लेंगे तो ऐसा मामला इस्लामी शरीअ़त में ठीक नहीं। ऊसर और बंजर ज़मीन किसी की मिलकियत नहीं होती। इसका बयान आगे आ रहा है।]

(3) बँटाई पर ज़मीन देनेवाला और बँटाई पर ज़मीन लेनेवाला दोनों पैदावार में अपना हिस्सा तय कर लें कि किसको कितना मिलेगा, यानी आधा-आधा या कितना-कितना? अगर दोनों में से कोई एक किसी ख़ास खेती की पैदावार अपने हक़ में लेना चाहे तो यह ठीक न होगा। इसी तरह पैदावार में यह तय करना भी ठीक न होगा कि इतने मन या इतने बोझ तो फ़ुलाँ लेगा और जो कुछ बचा रहेगा वह दूसरा लेगा।

(4) ज़मीन, हल, बैल वग़ैरह के बारे में तय हो जाना चाहिए कि कौन-सी चीज़ किसकी होगी लेकिन इस बारे में आगे लिखी हुई कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए—

● यह तय करना जाइज़ है कि ज़मीन एक आदमी की और बीज और मेहनत वग़ैरह दूसरे आदमी की।

● यह भी ठीक है कि ज़मीन, हल, बैल, बीज वग़ैरह सब चीज़ें एक आदमी की हों और दूसरा आदमी मेहनत करके पैदावार उगाए।

● यह भी ठीक होगा कि ज़मीन और बीज एक आदमी का हो और हल, बैल और मेहनत दूसरे आदमी की।

● ज़मीन तो एक की हो और बीज और मेहनत दूसरे की तो इस तरह मामला करने में इस्लामी शरीअ़त में कुछ आलिम तो जाइज़ बताते हैं और कुछ कहते हैं कि नाजाइज़ है।

(5) ज़मीन बँटाई पर देनेवाला अगर यह कह दे कि जो चाहो बो सकते हो तो बँटाई पर लेनेवाला चाहे अनाज बोए या तम्बाकू, चाहे सब्ज़ी बोए या कुछ और। लेकिन अगर यह बात तय नहीं हुई तो बताना पड़ेगा कि क्या चीज़ बोई जाएगी। ज़मीन के मालिक की इजाज़त के बिना कोई चीज़ बोई नहीं जा सकती।

(6) ज़मीन का मालिक या बँटाई पर देनेवाला ज़मीन को ख़ाली करके बँटाई पर लेनेवाले को दे।

(7) बँटाई पर देने के बाद दोनों उसी पैदावार में शरीक होंगे जो पैदा होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि पैदावार काटने के बाद दोनों में से कोई कहे कि मैं तो अनाज न लूँगा, रुपया लूँगा, या पैदा तो जौ या चना हुआ लेकिन कहे कि मैं गेहूँ लूँगा।

(8) यह भी तय हो जाना चाहिए कि ज़मीन कितने वक़्त के लिए बँटाई पर दी जा रही है।

लगान पर देने की शर्तें

ज़मीन को लगान पर देने की शर्तें वही हैं जो किसी चीज़ को किराए पर देने की शर्तें हैं। [देखिये 'इजारा' के बयान में] हाँ, यह बात और शामिल है कि यह ज़मीन का मामला है तो इसमें बँटाई पर देने की वे शर्तें भी शामिल हैं जो बँटाई की शर्तों के बारे में नम्बर 1, 2, 3, 4, 6, 8, में बयान हुई हैं। न. 5, 7 में लगान पर देनेवाला जैसा चाहेगा वैसा करेगा। न. 5, 7 में ज़मीन के मालिक का हक़ नहीं माना जाएगा। इसके अलावा लगानवाली ज़मीन में लगान तय किया जाएगा। यह बात भी खुलकर तय हो जानी चाहिए कि कौन-सी ज़मीन किसान को दी जा रही है?

पेड़ और बाग़ के लिए शर्तें

पेड़ और बाग़ के लिए भी वे सारी शर्तें हैं जो बँटाई पर ज़मीन देने की हैं। इसके साथ ही पेड़ और बाग़ के लिए ये दो शर्तें भी हैं—

(1) लगे-लगाए पेड़ और बाग़ ही के बारे में मामला किया जा सकता। यह मामला इस शर्त पर ठीक न होगा कि पेड़ या बाग़ लगाओ, तैयार होने पर फल बाँट लेंगे।

(2) पेड़ और बाग़ के बारे में मामला हो जाने पर दोनों में से किसी को हक़ नहीं है कि वह इस मामले को तोड़ दे। अगर कोई तोड़ेगा तो उसे मामला रखने के लिए मजबूर किया जाएगा, यहाँ तक कि अदालत उसका फ़ैसला करे।

कुछ और ज़रूरी बातें

(1) लगान पर कुछ ज़मीन कुछ वक़्त के लिए दी गई लेकिन वक़्त ख़त्म होने पर खेती पककर तैयार न हो सकी तो फ़सल काटने तक ज़मीन के मालिक को ज़मीन ख़ाली कराने का हक़ नहीं है, लेकिन इससे ज़्यादा वक़्त का लगान उसी हिसाब से ले सकता है जो तय हुआ था।

(2) पैदावार बाँट लेने के बाद उसे उठाने की ज़िम्मेदारी अपनी-अपनी है, खेती करनेवाले पर ज़मीन के मालिक का अनाज घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी नहीं है।

(3) जिसका बीज होगा वह यह शर्त नहीं लगा सकता कि जितना बीज दिया है, पैदावार होने पर उतना अनाज ले लेगा, फिर बाक़ी अनाज बाँटा जाएगा। अगर यह शर्त लगा ली है तो भी मानी नहीं जाएगी।

(4) अनाज तक़सीम करते (बाँटते) वक़्त भूसा भी बाँटा जाएगा। लेकिन ज़मीन का मालिक इस शर्त पर बीज दे कि वह उसके बदले भूसा ले लेगा तो फिर भूसा उसका होगा।

(5) बँटाई पर लेने के बाद खेती की गई और कुछ न पैदा हुआ तो बँटाई पर लेनेवाले को कुछ न मिलेगा। लेकिन ज़मीन के मालिक ने किसी किसान से इस शर्त पर खेती कराई कि मैं सब कुछ लगाता हूँ, तुम मेहनत करो, जो कुछ पैदा होगा उसमें इतना हिस्सा तुम्हारा होगा तो कुछ न पैदा होने पर उतने दिन की मज़दूरी ज़मीन का मालिक देगा।

(6) बँटाई पर लेनेवाले ने ज़मीन में कुछ मेहनत कर ली तो ज़मीन के मालिक को अभी मामला तोड़ने का हक़ है मगर इतने वक़्त की मेहनत की मज़दूरी देनी होगी, अगर खाद डाली है तो उसकी क़ीमत भी देनी होगी। लेकिन अगर खेत बो दिया है तो ज़मीन के मालिक को मामला तोड़ने का हक़ नहीं रहा।

(7) बँटाई पर लेनेवाला अपने साथ दूसरों को भी शरीक कर सकता है।

लेकिन वह उनको अपने हिस्से में से हिस्सा देगा, लेकिन अगर बीज ज़मीन के मालिक ने दिया है तो फिर उसकी इजाज़त लेनी होगी।

(8) बँटाई पर लेनेवाला कितनी ही ज़्यादा मुद्दत के लिए ज़मीन बँटाई पर ले, वह कभी उसका मालिक नहीं हो सकता।

मामले का टूटना

(1) लगान हो या खेती या पेड़ के फल, इनके मामले के लिए जो शर्तें इस्लामी शरीअ़त में हैं अगर उनमें से कोई न पाई गई तो यह मामला ही न माना जाएगा।

(2) अगर ज़मीन का मालिक या बँटाई पर लेनेवाला मर जाए तो यह मामला ख़ुद-ब-ख़ुद टूट जाएगा। अगर ज़मीन का मालिक मर जाए और उस वक़्त खेती बाड़ी हो या बाग़ में फल लगे हों तो जिसने बँटाई पर लिया है, वह फ़सल काटकर अपना हिस्सा लेने के बाद मालिक के वारिसों को ज़मीन और बाग़ देगा, लेकिन अगर बँटाई पर लेनेवाला मर गया तो उसके वारिस फ़सल की देख-भाल करेंगे और अपना हिस्सा ले लेंगे लेकिन अगर वे उस वक़्त फ़सल की देख-भाल न करें और काम छोड़ दें तो फिर वे हक़दार न रहेंगे।

(3) एक आदमी ने अपनी ज़मीन बँटाई पर दी या बाग़ या पेड़ दिया, अब उसे किसी वजह से मामला ख़त्म करके ज़मीन या बाग़ या पेड़ बेचने की ज़रूरत पड़ गई तो वह मामला ख़त्म कर सकता है। लेकिन अगर ज़मीन में बीज पड़ चुका है या बाग़ में फल आ चुके हैं और फ़सल और फल बिल्कुल तैयार हैं तो अभी मामला ख़त्म करने और ज़मीन बेचने का हक़ नहीं है। हाँ, अगर फ़सल और फल आ गए हैं लेकिन फ़सल और फल अभी कच्चे हैं, तैयार नहीं हुए तो फ़सल काटकर और फल तोड़कर ज़मीन और बाग़ बेचने का हक़ है।

(4) बँटाई पर लेनेवाला ऐसा बीमार पड़ जाए कि काम न कर सके तो उसे हक़ है कि यह मामला ख़त्म कर दे या दूसरों की मदद से काम कराए।

(5) बँटाई पर लेनेवाला अगर अपनी गुज़र-बसर इस खेती पर न कर सकता हो और उसे छोड़कर किसी नौकरी या कारख़ाने में काम करने जाना चाहता हो तो वह मामला ख़त्म कर सकता है,  वरना नहीं।

(6) अगर मामला उस वक़्त ख़त्म हुआ कि काम शुरू हो चुका है तो मेहनत करनेवाले को उस वक़्त की मज़दूरी मिलेगी और यह मज़दूरी इतनी होगी जो वहाँ आमतौर पर खेती का काम करनेवाले मज़दूरों को दी जाती है। हाँ, अगर बीज किसान ने अपना डाला है तो ज़मीन के मालिक को वहाँ के दस्तूर के मुताबिक़ लगान मिलेगा।

(7) अगर मामला तय करने के बाद अभी काम शुरू नहीं हुआ तो किसी को कुछ न मिलेगा।

मिलकियत

मिलकियत का मतलब है किसी चीज़ का मालिक होना। इस्लामी शरीअ़त में किसी ज़मीन जायदाद, माल या किसी चीज़ पर किसी आदमी की मिलकियत चार तरह से हो जाती है—

(1) आदमी कोई चीज़ विरासत में पाए। (मतलब यह है कि किसी आदमी के मरने पर उसकी जायदाद उसके हक़दार बाँट लें। इसका बयान मय्यित के बयान में हो चुका है।)

(2) कोई आदमी अपनी ख़ुशी से अपनी कोई चीज़ दूसरे को दे दे, चाहे बेच दे या मुफ़्त दे दे या इनाम में दे तो जिसको यह चीज़ मिली है, वह उसका मालिक हो जाएगा। अब जिसने चीज़ दे डाली है वह चीज़ उसकी मिलकियत से जाती रहेगी (इसका बयान भी पिछले पन्नों में हो चुका)।

(3) कोई आदमी अपनी मेहनत-मज़दूरी से ऐसी चीज़ को हासिल कर ले जो हराम नहीं है तो वह उसका मालिक हो जाएगा।

(4) अगर कोई आदमी ऐसी चीज़ को, जिसका कोई मालिक नहीं है, अपनी मेहनत से हासिल कर ले तो वह उसका मालिक हो जाएगा, जैसे- पानी, हवा, आग, रौशनी, अपने-आप उगनेवाली घास, जंगल, ज़मीन के अन्दर छिपे हुए ख़ज़ाने, बस्ती से दूर बेकार, बंजर और परती ज़मीन वग़ैरह।

नोट- कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनका मालिक कोई कभी नहीं हो सकता जैसे समुद्र, नदी, हवा, रोशनी, ज़मीन और आसमान के बीच की जगह, ये सबकी हैं और सारे लोग इनसे लाभ उठा सकते हैं लेकिन अगर कोई इन चीज़ों को दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए काम में लाएगा तो उसे रोका जाएगा और इस्लामी शरीअ़त उसे ज़ालिम और डाकू कहेगी। हाँ, अगर कोई रोशनी की मदद से धूप-चूल्हा बना ले या कोई आला बना ले या ऐसी ही चीज़ों से लोगों के लाभ के लिए कोई चीज़ बना ले तो वह चूल्हा, वह आला और वह चीज़ उसकी हो जाएगी, इन सारी चीज़ों के बारे में इस्लामी शरीअ़त के अन्दर अलग-अलग हुक्म हैं। उनको नीचे बयान किया जाता है।

पानी - पानी पाने के चार साधन हैं- (1) समुद्र और नदी-नाले (2) तालाब, झील, पोखर और झाबर वग़ैरह (3) वर्षा (4) वे तालाब, हौज़, नहरें और कुएँ वग़ैरह जिनको किसी आदमी या हुकूमत ने बनाया या पूँजी लगाकर बनवाया। इनके पाने के लिए इस्लामी शरीअ़त यह हुक्म देती है कि उसपर मेहनत और पूँजी लगाने से आदमी या हुकूमत मालिक तो हो जाएगी लेकिन उसे यह हक़ न होगा कि लोगों को पानी पीने या जानवरों को पिलाने या नहाने और ऐसी ही दूसरी ज़रूरतों से रोक दे या पानी पीने या पिलाने वग़ैरह का किराया ले। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) ने इससे मना फ़रमाया है।

अगर किसी वजह से जैसे पीने वाले जानवर बहुत हैं और लोग अन्धा-धुन्ध पिला रहे हैं और इस तरह हौज़ या तालाब वग़ैरह के किनारों के टूट जाने या ख़राब हो जाने का डर हो तो मालिक को यह हक़ है कि वह सबसे कहे कि सँभालकर पिलाए या बारी-बारी से पिलाए। मालिक के इस तरह कहने और इस तरह की पाबन्दी लगाने पर कोई ज़बरदस्ती करे तो मालिक उसे रोक भी सकता है।

अगर लोग किसी के तालाब, नहर और कुएँ से सिंचाई करना चाहें तो उनके मालिक को हक़ है कि उससे मना करे या उसका किराया ले ले।

इसी तरह जो ट्यूबवेल या कुँए या नहर से सिंचाई के लिए छोटी-छोटी नालियाँ बनाई जाती हैं, उसका पानी भी आदमी के पीने और जानवरों को पिलाने के लिए लिया जा सकता है, इससे कोई रोक नहीं सकता।

नोट- वह पानी जो किसी आदमी ने अपने बरतन में या भिश्ती ने मशक में भर लिया है तो वह उसका मालिक है, वह उस पानी को बेच भी सकता है और दूसरों को उसके पीने से रोक भी सकता है। लेकिन अगर कोई प्यास के मारे तड़प रहा है और उस वक़्त भिश्ती या पानी का मालिक पानी न दे तो फिर उससे ज़बरदस्ती लिया जा सकता है।

पानी का शिकार- समुद्र, तालाब और नदी वग़ैरह की मछलियाँ किसी की नहीं होतीं, जिसका जी चाहे, इनको पकड़ सकता है और इनका शिकार कर सकता है। अगर किसी ने मछलियाँ पकड़ने पर किसी को मज़दूर रखा तो यह व्यवहार ठीक न होगा, जो मछलियाँ मज़दूर पकड़ लेगा, वह उसी की होंगी। हाँ, अगर किसी ने जाल आदि दिया है तो उसका किराया ले सकता है।

अगर किसी ने मछलियाँ अपने तालाब या हौज़ में पाली हैं या तालाब उसका नहीं उसने मछलियाँ लाकर डाली हैं और उसके पालने पर ख़र्च किया है तो इसके दो रूप हैं—

(1) वह तालाब या हौज़ इतना छोटा और मछलियाँ इतनी ज़्यादा हैं कि मेहनत के बिना आदमी उसको पकड़ सकता है तो ऐसी मछलियों का वह मालिक हो जाएगा। और इन मछलियों को वह हौज़ या तालाब में रहते हुए भी बेच सकता है।

(2) मछलियों के पकड़ने में कोई जतन करना पड़े, जैसे जाल डालना पड़े, डोर-काँटे से पकड़ना पड़े तो इन मछलियों का वह मालिक तो होगा लेकिन इन मछलियों को पानी में रहते हुए बेच नहीं सकता, वह इन मछलियों का पहले शिकार करे फिर बेचे।

घास- अपने आप उगनेवाली घास चाहे वह किसी की ज़मीन पर हो, जब तक उसपर उसने कोई मेहनत न की हो, या कुछ ख़र्च न किया हो, उस वक़्त तक वह किसी को उसके काटने या जानवरों को चरने या चराने से रोक नहीं सकता और न वह उसको बेच सकता है। हाँ, उसको यह हक़ है कि अपनी ज़मीन के अन्दर किसी को आने न दे।

जंगल- अपने आप उगनेवाले जंगल का भी कोई मालिक नहीं है, उनमें से हर आदमी लकड़ी काट लाने का हक़दार है। हाँ, अगर जंगल किसी ने लगाए हैं या किसी की ज़मीन में उगे हैं तो फिर वह उनका मालिक है।

अगर किसी ने अपने आप उगनेवाले जंगल से लकड़ी काटी या मज़दूरी देकर कटवाई तो उस काटी हुई लकड़ी का मालिक वह हो गया।

धरती के ख़ज़ाने- धरती के अन्दर कई तरह के ख़ज़ाने पाए जाते हैं। एक तो वे ख़ज़ाने जो किसी के हों और उसने ज़मीन के अन्दर छिपा दिए हों, तो अगर कोई ऐसे ख़ज़ाने पाए तो वह गिरी पड़ी चीज़ मानी जाएगी (गिरी-पड़ी चीज़ के बारे में पिछले पन्नों में लिखा जा चुका है)।

दूसरे वे ख़ज़ाने जिनको ‘खनिज पदार्थ' कहा जाता है, जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, पेट्रौल, तेल और जवाहरात वग़ैरह। खनिज पदार्थ की वे धातें जो हैं तो जमी हुईं और जो आग में डालने से नर्म भी हो जाती हैं, तो अगर उन्हें कोई अपनी या जो किसी की न हों, ज़मीन में पा जाए या मालूम कर ले तो उसका पाँचवा हिस्सा इस्लामी हुकूमत ले लेगी और बाक़ी चार हिस्से उस आदमी के होंगे। लेकिन अगर वह ज़मीन ऐसी है कि वह आम लोगों के काम में आ रही है तो फिर सारा ख़ज़ाना इस्लामी हुकूमत का होगा।

दूसरी क़िस्म के खनिज पदार्थ सारे के सारे हुकूमत के होंगे।

मुर्दा ज़मीन- मुर्दा ज़मीन का मतलब यह है कि जिसे अब तक आबाद न किया गया हो या आबाद होने के बाद उजड़ गई हो और अब उसका कोई मालिक न रहा हो। ऐसी ज़मीन का हक़ केवल अल्लाह और उसके रसूल के लिए है।

मिलिकयत की शर्तें-

(1) मुर्दा, बेकार, ऊसर, बंजर ज़मीन जो आबादी के अन्दर न हो, न आबादी के आस-पास हो और न उसका कोई मालिक हो, ऐसी ज़मीन पर कोई गुड़ाई, जुताई शुरू कर दे और पानी देने के लिए नालियाँ बना दे या आबाद होने के लिए दूसरे साधन करने लगे तो वह उसका मालिक मान लिया जाएगा।

(2) किसी की आबाद की हुई ज़मीन के आस-पास मुर्दा ज़मीन को जो आबाद करेगा तो पहले आबाद करनेवाले के निकलने और उसके जानवरों के आने-जाने के लिए रास्ता देना पड़ेगा।

(3) आबाद होने के लिए यह काफ़ी है कि आदमी उतनी जगह चारदीवारी या लोहे के तारों आदि से घेर दे।

(4) अगर किसी की ज़मीन में कुआँ खोदा गया तो कुएँ के आस-पास उतनी ज़मीन कुएँ की समझी जाएगी जितनी ज़मीन पानी भरनेवालों के लिए काफ़ी हो। कुएँ की ज़मीन होने का मतलब यह है कि ज़मीन का मालिक उतनी ज़मीन को अपने काम के लिए नहीं ले सकता।

(5) कुएँ या तालाब आदि किसी की मिलकियत में हैं और वे पट गए और मालिक ने साफ़ नहीं कराए तो अगर हुकूमत ने साफ़ करा दिए तो फिर वे मालिक के हाथ से निकल गए और अब सारे लोग बिना रोक-टोक के इन तालाबों आदि को काम में ला सकते हैं और कोई उनसे किराया वग़ैरह नहीं ले सकता।

शुफ़आ का हक़

दूसरे की ख़रीदी हुई जायदाद को उसकी क़ीमत अदा करके अपनी जायदाद से मिलाने या अलग न होने देने को शुफ़आ का हक़ कहते हैं। इसके हक़दार तीन हैं—

(1) पहला हक़ उसका है जो उस जायदाद का हिस्सेदार हो।

(2) दूसरा जिसकी जायदाद से बिकी हुई जायदाद का लाभ मिला-जुला हो, जैसे दोनों का रास्ता एक है या दोनों एक कुएँ से पानी लेते हैं या सिंचाई करते हैं।

(3) तीसरा जिसका मकान बिके हुए मकान से मिला हो या ज़मीन उसकी ज़मीन से मिली हो।

नोट-

(1) शुफ़आ उस जायदाद पर है जो हटाई न जा सके, जैसे ज़मीन, बाग़, मकान वग़ैरह। माल, असबाब, सामान, वक़्फ़ की हुई जायदाद पर शुफ़आ नहीं।

(2) अगर किसी ने कहा कि मुझे इतने रुपये दे दो तो मैं शुफ़आ न करूँगा तो अब उस आदमी को शुफ़आ का हक़ न रहा, चाहे वह यह रुपया न पाये। यह रुपया उसके लिए रिश्वत और हराम होगा।

(3) शुफ़आ होने से पहले ख़रीदार ने जायदाद में कुछ बढ़ा लिया या उसे सँवारा या पेड़ लगाया या मकान बढ़ा लिया तो शुफ़आ करनेवाले को चाहिए कि वह इन सबकी क़ीमत दे या शुफ़आ से बाज़ आ जाए।

(4) शुफ़आ का दावा करने के बाद फ़ैसला होने से पहले शुफ़आ करनेवाला मर जाए तो शुफ़आ का हक़ जाता रहा। अब उसके वारिसों को शुफ़आ का हक़ नहीं।

(5) जायदाद बिकने के बाद जल्द से जल्द शुफ़आ करनेवाले को अपना इरादा ज़ाहिर कर देना चाहिए, नहीं तो उसका हक़ जाता रहेगा।

(6) शुफ़आ की जायदाद या तो हुकूमत को दिलाने का हक़ है या ख़रीदार जायदाद की क़ीमत लेकर वापस कर दे।

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