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कॉरपोरेट मीडिया

कॉरपोरेट मीडिया

प्रस्तुत पुस्तिका जमाअत इस्लामी हिन्द के साम्राज्यवाद विरोधी अभियान के दौरान लिखी गई थी। इसमें बताया गया है कि आज का कॉरपोरेट मीडिया किस तरह अपने दायित्व से विमुख होकर साम्राज्यवादी पूँजीवाद की कठपुतली बन गया है। इससे देश और देशवासियों को कितना नुक़सान उठाना पड़ रहा है। इसनें मीडिया का इस्लामी दृष्टिकोण, भी पेश किया गया है और सुधार के उपाय भी बताए गए हैं। [-संपादक]

लेखक : फ़हीमुद्दीन अहमद

प्रकाशक : मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

Corporate Media [H] – MMI Publishers

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

'अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयावान अत्यन्त कृपाशील है।'

दो शब्द

साम्राज्यवाद स्वयं में ही एक दमनकारी और शोषण पर आधारित व्यवस्था है। लेकिन जब साम्राज्य पूँजीवादियों के हाथ में चला जाए तो इसका परिणाम तदधिक भयावह हो जाता है। पूँजीवादी साम्राज्य केवल अर्थव्यवस्था पर ही अपना वर्चस्व स्थापित करके शान्त नहीं हो जाता बल्कि उसका शिकार समाज और राजनीति भी होती है और फिर शोषण का एक न समाप्त होनेवाला सिलसिला आरम्भ होता है। उसका शिकार केवल कमज़ोर वर्ग ही नहीं होता बल्कि समूचा वातावरण दूषित होकर रह जाता है। इससे एक ओर सामाजिक भेदभाव उत्पन्न होता है तो दूसरी ओर जलवायु प्रदूषण जैसे संकट उत्पन्न होते हैं। जिसका नतीजा आज हम अपनी आँखों से देख रहे हैं। फिर शिक्षा और रोज़गार इत्यादि के क्षेत्र में सबको समान अवसर न मिल पाने के कारण ग़रीब और अधिक ग़रीब होता चला जाता है तथा पूँजीपति की गाँठ और अधिक मोटी व मज़ूबत होती जाती है। उनकी भोग विलासितापूर्ण जीवन शैली के नतीजे में उपभोकतावाद को बढ़ावा मिलता है। लोगों में उनकी देखा-देखी ज़रूरत से अधिक चीज़ें ख़रीदने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। इससे पूँजीवादियों को ब्याज का कारोबार चमकाने का ख़ूब अवसर मिलता है और सामाजिक समस्याएँ विकराल रूप धारण कर लेती हैं।

इस पूरे परिदृश्य में मीडिया बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा करता है। चूँकि मीडिया पूँजीवाद की कठपुतली होता है इसलिए वह उन्हीं बातों को प्रचारित और प्रसारित करता है जिनमें साम्राज्यवाद का हित होता है।

उपरोक्त परिस्थितियों को सामने रखते हुए जमाअत इस्लामी हिन्द ने 2008 ई॰ में एक साम्राज्यवाद विरोधी अभियान चलाया था। यह अभियान उन लाखों और करोड़ों लोगों के दिल की आवाज़ थी जो इस पूँजीवादी साम्राज्य के शोषण का शिकार हैं।

इस अभियान में जहाँ एक ओर पूँजीवादी साम्राज्य के शोषण और अत्याचार के नतीजे में होने वाली तबाहकारियों से लोगों को परिचित कराया गया था वहीं इस्लाम को वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में पेश भी किया गया था।

इस अभियान के अवसर पर पुस्तिकाओं की एक श्रृंखला (Series) प्रकाशित की गई थी जिनमें पूँजीवादी साम्राज्य का विभिन्न पहलुओं से अध्ययन कर उससे होने वाली तबाहियों को सहज रूप में प्रस्तुत किया गया था और इस्लाम को एक वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इन पुस्तिकाओं की महत्ता और लोकप्रियता को देखते हुए इनको पुनः प्रकाशित किया जा रहा है। चूँकि ये पुस्तिकाएँ 2008 ई॰ में लिखी गई थीं इसलिए इनमें तत्कालिक घटनाओं का उल्लेख भी कहीं-कहीं हुआ है। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस बात का ध्यान रखें।

हमें आशा है कि ये पुस्तिकाएँ पाठकों के लिए लाभकारी सिद्ध होंगी।

हमारा पूरा प्रयास रहा है कि प्रूफ़ आदि की दृष्टि से इन पुस्तिकाओं में कोई त्रुटि न रहे। लेकिन यदि कहीं कोई त्रुटि पाई जाए तो पाठकगण हमें अवश्य सूचित करें हम उनके आभारी होंगे।

नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

सेक्रेट्री

इस्लामी साहित्य ट्रस्ट (दिल्ली)

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

"अल्लाह कृपाशील, दयावान के नाम से।"

कॉरपोरेट मीडिया

पूँजीवादी साम्राज्य अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन संसाधनों को इस्तेमाल करता है, उनमें मीडिया सबसे शक्तिशाली संसाधन है। सामान्यतः पूँजीवादी साम्राज्य की सेवा में लगे हुए मीडिया के लिए ‘कॉरपोरेट मीडिया' की शब्दावली का प्रयोग होता है। कॉरपोरेट मीडिया से आशय मिडिया प्रोडक्शन, मीडिया डिस्ट्रीब्यूशन, मीडिया का स्वामित्व और मीडिया में पूँजी निवेश की एक ऐसी व्यवस्था है जिसपर व्यापारिक संस्थाओं का वर्चस्व होता है। यह पूँजी निवेशकों, शेयर होल्डर्स और प्रचारदाताओं के हितों की रक्षा और उनके लिए अधिक से अधिक लाभ की उपलब्धता के नियम पर काम करता है। जनसामान्य के हितों से उसे कोई मतलब नहीं होता। यही मीडिया जनमत को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है।

प्रसार संसाधनों का आरम्भ वास्तव में मानव स्वभाव के अन्तर्गत हुआ। मनुष्य एक सामाजिक अस्तित्व रखता है। जीवन के स्वामित्व और विकास के लिए आवश्यक है कि वह अपनी जान व माल की रक्षा करे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदा अपने चारों ओर के हाल से अवगत रहने की कोशिश करता रहता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य में स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा भी पाई जाती है, जिसके कारण वह दिन-रात नई-नई स्थितियों एवं घटनाओं की खोज में रहता है। दुनिया की यह सारी उन्नति और सभ्यता व संस्कृति की सारी विविधता इसी मानव स्वभाव का परिणाम है, इतिहास के प्रत्येक चरण में विभिन्न मानव समूहों और सत्तासीन लोगों को उन सभी हालतों और घटनाओं को जानने में रुचि रही है, जिनका सम्बन्ध न केवल उनके अस्तित्व, कल्याण और हितों से हो बल्कि अन्य समुदायों के हालात से भी हो। इस उद्देश्य के लिए शासक अपने राजदूत, हरकारे, जासूस और तीव्रगामी सवार नियुक्त करते थे। जैसे-जैसे विकास होता गया ये साधन भी विकसित होते गए। छपाई और समाचार-प्रसार की कला और इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध से अवगत होने के साथ ही इनसान के भीतर यह इच्छा ही नहीं बल्कि तड़प उत्पन्न हो गई कि विभिन्न क्षेत्रों के बदलते हुए नए-नए हालात जल्दी से जल्दी मालूम कर लिए जाएँ। छपाई और समाचार-प्रसार की कला के सम्मिलन से पत्रकारिता की कला का आरम्भ हुआ, फिर इनमें प्रसार के इलैक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) रेडियो और टेलीवीज़न शामिल हुए। इस प्रकार माध्यमों का एक पूरा सिस्टम अस्तित्व में आया, जिसे हम आज सामान्य भाषा में मीडिया कहते हैं। आज का मीडिया अतीत की तुलना में हज़ारों गुना तेज़ हो चुका है और उसका महत्व इतना बढ़ गया है कि राजनीति के विशेषज्ञ इसे राज्य का चौथा स्तम्भ ठहराने लगे हैं। अलोकतांत्रिक देशों में प्रसार माध्यमों की व्यवस्था सरकार के नियंत्रण में होती है और उन्हें वे अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जबकि लोकतांत्रिक देशों में प्रसार माध्यमों की व्यवस्था का ढांचा, उसपर नियंत्रण का तरीक़ा और उसके नियमों की रचना देश के सामूहिक हितों को सामने रखकर की जाती है। अमेरिका वह पहला देश है जहाँ मीडिया पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र है और अमेरिका की मीडिया पर दो दर्जन से भी कम पूँजीपति कम्पनियों का क़ब्ज़ा है। वैश्वीकरण (Globalization) के प्रभाव में स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के वर्चस्व के बाद कई अन्य देशों में इसी मॉडल को अपनाया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप मीडिया पर से सरकार का नियन्त्रण कम से कम हो गया है और राज्य का चौथा स्तम्भ देश और जनता की सेवा के बजाय मुट्ठी भर पूँजीपतियों की सेवा में लगा हुआ है।

1990 ई॰ में भारत ने आई॰ एम॰ एफ़॰ और विश्व बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में अपने दरवाज़े अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी निवेशकों के लिए खोल दिए। चूँकि भारत 30 करोड़ दर्शकों के साथ दुनिया का एक बड़ा सेटेलाइट टी॰ वी॰ मार्केट है, इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय टेलीवीज़न कम्पनियों ने इस मार्केट पर क़ब्ज़ा करने के लिए बड़ी तेज़ी से भारत में प्रवेश किया और प्रसार माध्यमों के एक बड़े भाग पर आज उन्हीं कम्पनियों का क़ब्ज़ा है।

प्रसार माध्यमों में साम्राज्यवाद की मौजूदगी इससे भी स्पष्ट होती है कि बड़ी और शक्तिशाली मीडिया कम्पनियों की शक्ति की तुलना में कमज़ोर और छोटे देश अपनी पहचान से वंचित हो रहे हैं। जिस प्रकार सेवाओं और उत्पादों के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के प्रवेश के बाद स्थानीय कम्पनियाँ या तो बन्द हो रही हैं या उन्हें ये बड़ी कम्पनियाँ निगल रही हैं, जिस प्रकार रिलायंस मार्ट, वॉल मार्ट जैसी रिटेल कम्पनियों के आगमन के बाद स्थानीय स्तर की छोटी-छोटी दुकानों का भविष्य अंधकारमय हो चुका है इसी प्रकार मीडिया की बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश के बाद इस क्षेत्र में काम करनेवाली छोटी-छोटी कम्पनियाँ मजबूरन या तो बन्द हो रही हैं या उनका उन बड़ी कम्पनियों में विलय हो रहा है। दुनिया भर के प्रसार माध्यम कुछ मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथ में हैं।

प्रसार माध्यमों को सरकार के नियन्त्रण से स्वतन्त्र रखने और घरेलू मीडिया की अवधारणा मौलिक रूप से ग़लत नहीं है। इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पैदा होती है और सरकार की ग़लतियों पर नज़र भी रखी जा सकती है, लेकिन चिन्ता की बात यह है कि प्रसार माध्यमों की सभी कम्पनियाँ निरन्तर केवल कुछ बड़े पूँजीपतियों के हाथों में सिमटती जा रही हैं। आज स्थिति यह है कि पूरी दुनिया की मीडिया पर 10 से भी कम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का क़ब्ज़ा है।

इन कम्पनियों में टाइम वार्नर (Time Warner), डिज़नी (Disney), न्यूज़ कॉर्पोरेशन, वायाकॉम (Viacom), सोनी (Sony), सीग्राम (Seagram), बरटेल्समैन (Bertelsmann) और जी॰ ई॰ (G. E.) शामिल हैं।

रोपर्ट मरडून की न्यूज़ कॉर्पोरेशन के विभिन्न टी॰ वी॰ स्टेशन, लातीनी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, उत्तर व मध्य अमेरिका, ब्रिटेन और ऐशिया के विभिन्न देशों में काम करते हैं। स्टार टी॰ वी॰ के सभी चैनल उसी कम्पनी के हैं। अमेरिका का पहला ब्रॉडकास्ट नेटवर्क एन॰ बी॰ सी॰ पूरी दुनिया में 28 से ज़्यादा स्टेशन चलाता है, जिसमें बिज़नेस चैनल CNBC भी शामिल है। CNN इन्टरनेशनल दुनिया के 212 देशों में देखा जा सकता है और उसके दर्शकों की संख्या दुनिया भर में लगभग एक बिलियन है। मीडिया पर कुछ मुट्ठी के पूंजीपतियों के अधिपत्य के कारण पत्रकारिता का स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है। हद से ज़्यादा दौलतपरस्ती का कल्चर विकसित किया जा रहा है, जिसके कारण सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यवस्त हो रहा है और लोकतांत्रिक मूल्य रौंदे जा रहे हैं।

मीडिया के उद्देश्य

नियमानुसार प्रसार माध्यमों की व्यवस्था कुछ मौलिक उद्देश्यों के अन्तर्गत काम करती है। ये मौलिक उद्देश्य ही वास्तव में मीडिया के कर्तव्य भी हैं:

1. जानकारी उपलब्ध करना

2. मानसिकता का निर्माण करना

3. मनोरंजन उपलब्ध कराना

लेकिन पूँजीवादी आर्थिक साम्राज्य के वर्चस्व के परिणामस्वरूप मीडिया अपनी इन तीनों ज़िम्मेदारियों से लगभग आज़ाद हो चुका है और कॉरपोरेट जगत् के हितों की पूर्ति ही उसका मूल उद्देश्य बन चुका है।

(1) जानकारी उपलब्ध करना

मीडिया का सबसे पहला दायित्व यह है कि वह विभिन्न स्रोतों से काम लेकर जनता तक सही जानकारी पहुँचाए, लेकिन आज का कॉरपोरेट मीडिया अपने स्वामियों और पूंजीनिवेशकों के हितों की रक्षा करने के लिए अन्याय और झूठ से काम लेकर वास्तविकताओं और घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है। महत्वहीन जानकारियों को महत्वपूर्ण बनाकर प्रस्तुत करता है और कभी-कभी तो बिलकुल निराधार और ग़लत ख़बरें फैलाई जाती हैं, और इन सबका उद्देश्य मात्र पूँजीवादी साम्राज्य के हितों की सुरक्षा है।

पिछले दिनों दुनिया भर के टी॰ वी॰ चैनल और अख़बारों के पन्ने बर्ड फ़्लू नामक एक बीमारी पर चीख़ व पुकार कर रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में लाखों मुर्ग़ियों को मार दिया गया। ख़ुद भारत के कई राज्यों में लाखों मुर्ग़ियाँ मार डाली गईं। भारत का पूरा पोल्ट्री व्यवसाय संकट में आ गया। छोटे किसानों का व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हुआ, लोग अण्डों के प्रयोग से भी डरने लगे। यह सारी कार्रवाई मीडिया की ओर से खड़े किए गए बर्ड फ़्लू के हौए का परिणाम थी, जबकि उन दिनों भारत में एक भी व्यक्ति बर्ड फ़्लू से मरा नहीं था। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इस प्रकार का संकट और सनसनी उत्पन्न करने की क्या आवश्यकता थी? वास्तव में यह सारा हौआ कुछ बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कम्पनियों के कहने पर खड़ा किया गया था, जो अपनी निर्मित ऐंटी बायोटिक दवाओं को एशियाई देशों में फैलाना चाहते थे। इसका भी सन्देह है कि कुछ बड़े देशों की पोल्ट्री कम्पनियाँ तीसरी दुनिया के इन देशों की पोल्ट्री मार्केट में प्रवेश करना चाहती थीं, इसके लिए यह ज़रूरी था कि बाज़ार में उपलब्ध पोल्ट्री उत्पादों के प्रति लोगों को बदगुमान (भ्रमित) कर दिया जाए। इस प्रकार धन के बल पर एक कृत्रिम हौआ खड़ा किया गया और उसके बाद पता नहीं बर्ड फ़्लू कहाँ चला गया?

इसके विपरीत एक दूसरी स्थिति यह है कि भारत में प्रति मिनट एक व्यक्ति टी॰ बी॰ रोग के कारण मौत का शिकार हो जाता है। प्रतिदिन लगभग 1440 व्यक्ति इस घातक बीमारी का शिकार होते हैं। इस बीमारी का शिकार होकर मरनेवालों की वार्षिक संख्या 5,25,600 तक पहुँचती है। ये वर्णन किसी के अनुमान या कल्पना का परिणाम नहीं है, बल्कि कुछ दिनों पूर्व स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में डॉ॰ एल॰ एस॰ चौहान डायरेक्टर जेनरल (टी॰ बी॰) ने ये आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। उनका कहना है कि प्रति वर्ष 18 लाख टी॰ बी॰ के नए रोगी अस्पताल आते हैं और उनमें से 5 लाख से अधिक रोगी इसके कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। उन रोगियों में से अधिकांश का सम्बन्ध ग़रीब वर्गों से होता है। क़ालीन बनाने, बीड़ी बनाने, अगरबत्ती व अन्य कारख़ानों में कम मज़दूरी पर काम करनेवाले मज़दूर, रिक्शा चालक, भूमिहीन किसान, सफ़ाई कर्मचारी और उनके परिवार के वे लोग इस जानलेवा रोग का शिकार हैं, जो जन्म के बाद ही से बल्कि अधिकतर जन्म के पूर्व ही से कुपोषण का शिकार होते हैं और अत्यन्त अस्वस्थ वातावरण में जीवन गुज़ारते हैं। लेकिन इस स्थिति पर कॉरपोरेट मीडिया को कोई चिन्ता नहीं होती। प्रिंट मीडिया की दुनिया के बड़े-बड़े अख़बारों के पास इससे जुड़ी ख़बरों के लिए कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है। टी॰ वी॰ चैनलों के प्राइम टाइम प्रोग्रामों में इसपर डिबेट के लिए कोई समय नहीं है। उनका मानना है कि इसके कारण वे विज्ञापनों से वंचित हो जाएँगे या उनकी टी॰ आर॰ पी॰ कम हो जाएगी। इस सम्बन्ध में उनकी दूसरी दलील यह है कि इन समाचारों के कारण दुनिया में भारत की ग़लत छवि बनेगी और परिणामस्वरूप यहाँ किया जानेवाला पूँजीनिवेश प्रभावित होगा।

पूँजीवादी साम्राज्य की दृष्टि में इस समय उनके मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट इस्लाम और मुसलमान हैं। इसलिए मीडिया में मुसलमानों के बारे में प्रस्तुत किए जानेवाले समाचार और विश्लेषण पक्षपात से मुक्त नहीं होते। इस्लाम को हिंसा का ध्वाजावाहक और मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने का कोई मौक़ा मीडिया अपने हाथ से जाने नहीं देता। दुनिया में कहीं भी कोई हिंसक घटना होती है, तो घटना की सच्चाई चाहे कुछ भी हो, अख़बार या टी॰ वी॰ के माध्यम से बिना किसी प्रमाण या छान-बीन के उसका आरोप किसी मुस्लिम ग्रुप पर रख दिया जाता है, और उसी मिथ्या के आधार पर अत्यन्त झूठी कहानियाँ बनाई जाती हैं। टी॰ वी॰ चैनल तो इस मामले में सबपर बाज़ी ले जाते हैं और मामूली बातों को ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत करते हैं, लेकिन जब छानबीन के बाद सच्चाई सामने आती है तो यही मीडिया उसे इस प्रकार ब्लैक आउट कर देता है, जैसे इसका कोई महत्व ही नहीं है।

इसके विपरीत किसी घटना में ग़ैर मुस्लिम आतंकी संगठनों के लिप्त होने के स्पष्ट संकेत भी मौजूद हों तो मीडिया इसपर आपराधिक चुप्पी साध लेता है। नांदेड़ बम धमाका, मालेगाँव बम धमाके, समझौता एक्सप्रेस धमाका, आर॰ एस॰ एस॰ हेडक्वार्टर पर धमाका और मडगाँव (गोवा) बम धमाका की घटनाएँ इसके स्पष्ट उदाहरण हैं, जिनमें सारे सुबूतों के बावजूद राष्ट्रीय अख़बार और टी॰ वी॰ चैनल चुप साधे रहे।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थिति इससे भिन्न नहीं है। ओकलाहामा में बम धमाके का उत्तरदायी एक अमेरिकी आतंकी था, लेकिन किसी छानबीन के बिना मीडिया ने मुसलमानों के विरुद्ध एक तूफ़ान खड़ा कर दिया। मुसलमानों की छवि एक आतंकवादी समुदाय की बना दी गई। कई बार प्रसार माध्यम मुसलमानों से सम्बन्धित ऐसे विषय को बहस का मुद्दा बनाते हैं, जिनका ख़ुद मुसलमानों के बीच कोई महत्व नहीं होता, लेकिन उन्हें इस प्रकार चर्चा और बहस का विषय बना दिया जाता है कि इस्लाम के दीनी (धार्मिक) आदेश और प्रतीक मज़ाक़ का निशाना बन जाएँ। उदाहरणस्वरूप, उत्तर प्रदेश के आरिफ़ और गुड़िया के विवाह का मुद्दा, जिसके सीधे प्रसारण के द्वारा ज़ी॰ टी॰ वी॰ ने अपने टी॰ आर॰ पी॰ में वृद्धि करने के लिए सभी नैतिक मूल्यों को रौंदा।

इस देश में प्रतिदिन न जाने कितनी महिलाओं की आबरू लूटी जाती है। कई घटनाओं में उनके निकटतम सम्बन्धी इस घिनौने अपराध को अंजाम देते हैं। इनके समाचार अख़बारों के किसी कोने में भी स्थान पाने से वंचित रहते हैं। लेकिन यू॰पी॰ के किसी गाँव में एक मुस्लिम परिवार की बहू और ससुर के बीच होनेवाली घटना इसी मीडिया में इतना अधिक महत्त्व प्राप्त कर लेती है कि इसपर कई-कई दिनों तक बहसें की जाती हैं और विभिन्न दृष्टिकोणों से उसपर प्रकाश डाला जाता और उसे प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता है। यहाँ हमारा उद्देश्य इस घटना से इनकार करना या इसकी बुराई को कम करना नहीं है, बल्कि मीडिया के दोहरे रवैये को बताना है।

कॉरपोरेट मीडिया के लिए जनता की वास्तविक समस्याओं का कोई महत्व नहीं है। अगर वे इनके लिए आर्थिक लाभ का कारण नहीं बनते हों तो उन समस्याओं के लिए उनके पास कोई स्थान नहीं है। एक ऐसे देश में जहाँ लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार होकर मर जाते हैं, आधारभूत आवश्यकताओं और शिक्षा से वंचित रहकर अत्यन्त दुखद जीवन गुज़ारने पर विवश हैं, इस देश में किसी प्रिंस के बोरवेल में गिर जाने और उसके बचाने की घटना पर भारत का मीडिया ऐसे सक्रिय हो जाता है, जैसे बच्चों का वास्तविक हितैषी सिर्फ़ वही है। पूरे दो दिनों तक उसे बचाए जाने का लाइव टेलीकास्ट किया जाता रहा और इसके बीच करोड़ों रुपये के विज्ञापन प्राप्त किए गए। इस प्रकार भारत जैसे देश की पृष्ठभूमि में एक सामान्य घटना के द्वारा वित्तीय लाभ का भरपूर प्रयास किया गया।

चैम्पियंस ट्रॉफी के मैच में भारत की पराजय के कारणों और भारतीय टीम के कप्तान की कप्तानी पर वार्ता के लिए प्राइम टाइम में कई-कई दिनों तक वार्ता के लिए समय होता है, लेकिन हज़ारों किसानों की आत्म हत्या पर बात-चीत के लिए कोई समय नहीं होता। टी॰ वी॰ की स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन के घुटने का ऑपरेशन दिखाया जाता है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति के॰ आर॰ नारायनन की मृत्यु की सूचना स्क्रोलिंग (Scrolling) में आई और चली गई। आरुषि हत्या मामला कई सप्ताह तक मीडिया पर छाया रहा, लेकिन मनीपुर में होनेवाली सरकारी हत्या की कोई सूचना मीडिया में स्थान नहीं पा सकी, भारतीय जनता के सामने यह घटना तब आई जब तहलका डॉट कॉम ने इसे अपने प्रकाशन में प्रस्तुत किया।

जाने-माने प्रवासी भारतीय लक्ष्मी मित्तल स्पात की दुनिया के टाइकून हैं। भारतीय जनता के लिए उनकी कोई महत्त्वपूर्ण सेवा नहीं है, अतः यहाँ की जनता की उनमें क्या रुचि हो सकती है, लेकिन मीडिया में उनकी बेटी की शादी का समाचार अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ऐश्वर्या रॉय और अभिषेक बच्चन की शादी का समाचार भारत के टी॰ वी॰ चैनलों और अख़बारों पर कई दिनों तक छाया रहा। ऐश्वर्या रॉय के विवाह का जोड़ा (लिबास) जयपुर में तैयार हो रहा है, उसके हाथों पर लगाई जानेवाली मेहंदी राजस्थान के अमुक शहर में तैयार की जा रही है, प्रतीक्षा (अमिताभ बच्चन के घर) को फूलों से सजाने के लिए अमुक नगर से फूल मुंबई मँगवाए गए इत्यादि, इन समाचारों को मीडिया में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता रहा, जैसे ये भारतीय जनता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण समाचार हैं।

ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मीडिया की ओर से जानकारी उपलब्ध कराने के इस काम में केवल स्वार्थ और हित-साधना ही पाया जाता है और जनता को ऐसे ही समाचार उपलब्ध कराए जाते हैं जिनसे पूँजीवादी साम्राज्य के हितों की रक्षा होती हो। इसके लिए वे सच्चाई को बदलते भी हैं। महत्वहीन घटनाओं को महत्वपूर्ण बना देते हैं। अत्यन्त झूठी और बेतुकी बातों को पूरी ढिटाई के साथ फैलाते हैं। वे समाचार जो एक लोकतांत्रिक समाज के लिए आवश्यक हैं, जो उसके नागरिकों को समाज की भलाई और समाज कल्याण के लिए काम करने पर प्रेरित करते हैं, कॉर्पोरेट मीडिया उनसे आँखें मूँद लेता है, ताकि महत्वहीन, सनसनीख़ेज़ और नैतिक बिगाड़ उत्पन्न करनेवाले समाचारों को स्थान मिल सके।

(2) मानसिकता का निर्माण करना

मीडिया का दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व यह है कि वह जनता की मानसिकता का निर्माण करे। उनकी राए, उनके कामों और रवैयों को देश और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित करे। समाज की महत्वपूर्ण एवं ज्वलन्त समस्याओं पर सरकार और जनता का ध्यान आकर्षित करे। वर्तमान कॉरपोरेट मीडिया जो पूँजीवादी साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली हथियार है, वह साम्राज्यवाद के हितों के लिए ग़लत बातों पर लोगों को मानसिक रूप से तैयार करता है। उन्हें ख़ुशी से आर्थिक ग़ुलामी पर तैयार करता है। यह काम इतनी दक्षता से किया जाता है कि प्रभावितगण बड़ी ख़ुशी और गर्व के साथ विष को भी अमृत समझकर प्रयोग करने लगते हैं। यह विभिन्न प्रमाणों के माध्यम से पूँजीवादी साम्राज्यवाद के अत्याचारों को न्यायोचित ठहराता है। नए-नए नारों और उपनामों से परिचित कराता है। दुष्प्रचार के माध्यम से अपने दुश्मनों के विरुद्ध घृणा और शत्रुता की आग भड़काता है और अपनी पसन्द के व्यक्तियों और संस्थाओं के लिए जनता के हृदय में सहानुभूति और सहयोग की भावना को विकसित करता है। उनके क़द को कृत्रिम रूप से बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है और ऐसे व्यक्तियों, संस्थाओं, नीतियों के विरुद्ध जो उसे पसन्द नहीं, दुर्भावना उत्पन्न करता है और उनके सम्मान और प्रतिष्ठा को कम करने के प्रयास करता है।

यह साम्राज्यवादी मीडिया का ही कारनामा है कि अपनी मातृभूमि पर शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले फ़िलिस्तीनियों को आतंकवादी बताया जाता है और अत्याचारी इसराईल को शांतिपूर्ण देश ठहराया जाता है।

इराक़ पर हमले के ज़रीए से मध्य-पूर्व के तेल भंडारों पर क़ब्ज़ा करने के लिए सद्दाम हुसैन के व्यक्तित्व को अमेरिका, पश्चिमी दुनिया, लोकतंत्र और मानवता का शत्रु प्रसिद्ध किया गया। पूरा विश्व मीडिया इराक़ी जनता की सहानुभूति में राग अलापने लगा। सद्दाम हुसैन की सेना नेशनल गार्ड को दुनिया की सबसे शक्तिशाली और उच्च कोटि की ऐसी प्रशिक्षण प्राप्त सेना ठहराया गया जो सर्वश्रेष्ठ हथियार और उत्तम क्षमता रखनेवाली है, जबकि सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत थी। इराक़ के विरुद्ध अमेरिका के युद्ध को मीडिया के पंडितों ने मीडिया का युद्ध ठहराया है। ऐसा युद्ध जो केवल मीडिया ने लड़ा और उसी मीडिया की सहायता से अमेरिका ने अरबों से खरबों डालर भी वसूल किए और उनके सरों पर सवार भी हो गया।

सेन्टर फ़ॉर पब्लिक इन्टेग्रिटी की ओर से किए गए एक विस्तृत अनुसन्धान के अनुसार अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश और उनके प्रशासन के सात अन्य महत्वपूर्ण अधिकारियों ने इस बीच दुनिया और अमेरिकी जनता के लिए सद्दाम हुसैन को अत्यन्त घातक सिद्ध करते हुए कम से कम 935 झूठे बयान जारी किए जिनको कॉरपोरेट मीडिया ने बिना किसी आपत्ति और छानबीन के प्रकाशित किया और उन्हें "इराक़ पर हमले" और "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" के लिए तार्किक औचित्य के रूप में प्रस्तुत किया।

भारत में कॉर्पोरेट मीडिया की ओर से इसी प्रकार की मानसिकता के निर्माण का काम किया जा रहा है। 2009 ई॰ में आम चुनाव के अवसर पर देश का सारा मीडिया भाजपा की प्रशंसा में लगा हुआ था। पूरी ढिठाई के साथ भाजपा के दोषों को छुपाकर उसके शासनकाल की सराहना की जाती थी। इंडिया शाइनिंग के नारों से सारे टी॰ वी॰ चैनल गूँज रहे थे और बड़े-छोटे सभी अख़बार उसी रंग में रंगे थे। अख़बारों, टी॰ वी॰ चैनलों में हर तरफ़ आडवाणी, वाजपेयी, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज और अन्य भाजपा नेताओं को Glorify (महिमामण्डित) किया जा रहा था। चुनाव में भाजपा की जीत यक़ीनी दिखाई जा रही थी। यह और बात है कि भारतीय जनता ने इस दुष्प्रचार को स्वीकार नहीं किया और भाजपा को मुँह की खानी पड़ी।

इसी प्रकार राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर होनेवाले प्रत्येक चुनाव के अवसर पर मीडिया के द्वारा अपनी पसन्द के या पैसा देनेवाले व्यक्तियों, नीतियों और पार्टियों के सम्बन्ध में जनता की मानसिकता बनाई जाती है। इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इसी वर्ष अर्थात 2009 ई॰ के आरम्भ में आंध्र प्रदेश के विधान सभा और लोकसभा चुनावों और अक्तूबर में महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर अख़बारों ने चुनावी उम्मीदवारों और उनकी पार्टियों को ख़बरों के स्थान पर 'न्यूज़ स्पेस' बेची। दोनों राज्यों के स्थानीय व अंग्रेज़ी अख़बरों और टी॰ वी॰ चैनलों को इन मामलों में कथित तौर पर सैकड़ों करोड़ की आमदनी हुई। इनके माध्यम से उम्मीदवार या उनकी पार्टी ने विभिन्न अख़बारों में ख़बरों की जगहें ख़रीद लीं और उसपर उनकी मर्ज़ी की ख़बरें प्रकाशित की जाती रहीं, जिसके द्वारा मतदाताओं के समक्ष उनकी बेहतर छवि प्रस्तुत की गई। जिन उम्मीदवारों या पार्टियों ने इन कवरेज पैकेज को स्वीकार नहीं किया उनके प्रचार से अख़बारों ने इनकार कर दिया। पी॰ साई नाथ ने अपने एक लेख में महाराष्ट्र के ताज़ा चुनाव के अवसर पर इस प्रकार की डीलिंग के विस्तार का ख़ुलासा किया है। (The Hindu, 26 Oct. 2009)

कई पत्रकारों ने 'समाचारों के स्थान के विक्रय' के इन मामलों की कटु आलोचना की है और कहा है कि इसके कारण समाचार पत्रों पर से जनता का विश्वास उठ जाएगा।

कांग्रेस की वर्तमान अमेरिका-भक्त नीति पूँजीवादी साम्राज्य की पसन्दीदा नीति है। बल्कि कुछ राजनीतिक पंडितों का विचार है कि यह नीति स्वयं पूँजीवादी साम्राज्यवाद की थोपी हुई है। भारत-अमेरिका नाभिकीय (Nuclear) समझौता इसी नीति का एक महत्वपूर्ण प्रदर्शन था। देश में वामपंथी दलों (Left Fronts) ने इस समझौते का विरोध किया। इस अवसर पर भारत का मीडिया पूरी शक्ति के साथ वामपंथियों के विरोध में लगा रहा। इस चर्चा का उद्देश्य साम्यवादी पार्टी का समर्थन नहीं है, बल्कि उद्देश्य केवल यह दिखाना है कि कॉरपोरेट मीडिया किस प्रकार अपने नापसन्दीदा व्यक्तियों और पार्टियों के क़द को कम करने का प्रयास करता है।

CNN-IBN की सागारिका घोष ने नाभिकीय समझौते पर एक टी॰ वी॰ डिबेट के बीच माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के मुहम्मद सलीम से लाइव सवाल किया:

सागारिका घोष : सलीम साहब! अगर यह समझौता नहीं होगा तो देश में बिजली कैसे आएगी? इसपर आप क्या कहते हैं?

मुहम्मद सलीम ने इसके उत्तर में सागारिका से एक सादा सा प्रश्न पूछा कि हमें इस समझौते के द्वारा कितनी बिजली मिलेगी? और कब मिलेगी?

सागरिका घोष चुप रहीं!

मुहम्मद सलीम ने दोबारा पूछा, वह फिर भी चुप रहीं। और जब सलीम ने स्वयं अपने सवालों का जवाब देना शुरू किया तो सागारिका ने किसी अन्य प्रश्न के द्वारा इस बात को कट कर दिया। (स्पष्ट हो कि इस समय नाभिकीय ऊर्जा देश में ऊर्जा की मात्र 3 प्रतिशत आवश्यकता की ही पूर्ति कर रही है। और आशा है कि 2020 तक यह केवल 7 प्रतिशत आवश्यकता की पूर्ति कर पाएगी।)

कॉरपोरेट मीडिया का यही रवैया मुसलमानों की समस्याओं के विषय पर भी देखने को मिलता है। मीडिया में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ऐसे लोगों से करवाया जाता है जो मुसलमानों में नापसन्दीदा, मगर कॉरपोरेट मीडिया के निकट पसन्दीदा होते हैं। या वे जो मीडिया की पसन्द की बात करते हैं। इस प्रकार महत्वहीन व्यक्तियों और संस्थाओं को मुसलमानों का प्रतिनिधि बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।

बांगलादेश की तस्लीमा नसरीन एक साधारण सी लेखिका है, जिसकी रचनाओं का कोई स्तर नहीं है। उसका उपन्यास 'लज्जा' भी साहित्यिक दृष्टि से एक घटिया उपन्यास है, लेकिन मीडिया ने जिस प्रकार उसका प्रचार किया और उसे विचार अभिव्यक्ति और ज्ञान की स्वतंत्रता की हीरोइन बनाकर प्रस्तुत किया इससे मीडिया की मानसिकता का पता चलता है।

(3) मनोरंजन उपलब्ध कराना

मीडिया का एक और उद्देश्य लोगों को मनोरंजन उपलब्ध करना भी है। समाचार पत्र अपना यह उद्देश्य कॉलमों द्वारा पूरा करते हैं। कार्टून, फ़ीचर और अन्य लेख भी मनोरंजन का सामान उपलब्ध करते हैं। रेडियो और टी॰ वी॰ ने तो मनोरंजन मीडिया का ही रूप धारण कर लिया है। मनोरंजन मनुष्य की स्वाभाविक आवश्यकता है, लेकिन यदि यह मनोरंजन मनुष्य को मानवता के स्थान से गिरा दे तो फिर यह मनोरंजन नहीं, पीड़ा है।

पूँजीवादी साम्राज्य की सेवक कॉरपोरेट मीडिया के माध्यम से मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है उसके कारण मनुष्य मानवता के शिखर से गिरकर पशु बनता जा रहा है। इस क्षेत्र में समाचार पत्र, पत्रिका, टी॰ वी॰ चैनल, रेडिया, फ़िल्म और इन्टरनेट सभी प्रसार माध्यम पूरी तरह लगे हुए हैं और मनोरंजन के नाम पर वह सब कुछ परोस रहे हैं, जिसे एक सभ्य समाज कदापि सहन नहीं कर सकता था, लेकिन धीरे-धीरे समाज को इसका आदी बनाया गया और अब उसकी गम्भीरता का अनुभव करनेवाले भी कम से कम होते जा रहे हैं।

टी॰ वी॰ पर घरेलू विषयों के सीरियलों के नाम पर देश में नैतिकताविहीन सभ्यता को विकसित किया जा रहा है। कई वर्षों से लगातार दिखाए जानेवाले सीरियल "सास भी कभी बहू थी", "कहानी घर-घर की" और इस तरह के अनगिनत टी॰ वी॰ सीरियल विभिन्न चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं। इन सीरियलों में नाजाइज़ यौन सम्बन्ध, पति-पत्नी की एक-दूसरे के प्रति बेवफ़ाई, अश्लीलता पर आधारित प्रेम कहानियाँ, मर्द-औरतों की सम्मिलित पार्टियाँ, घरेलू झगड़े, निकट सम्बन्धियों की एक-दूसरे के विरुद्ध साज़िशों की कहानियाँ नाम बदल-बदलकर दिखाई जाती हैं। इसके अलावा बड़ी-बड़ी इमारतें, लग्ज़री कारें, उच्च कोटि के परिधान और आभूषण, उत्तम फ़र्नीचर्ज़ व अन्य सामानों को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है कि महिलाएँ उनकी दीवानी हो जाती हैं और बाज़ार से वैसे सामानों की ख़रीदारी के प्रयास करती हैं। महिलाओं के अधिकतर परिधानों एवं आभूषणों के नाम विभिन्न सीरियलों और उनकी हिरोइनों के नाम पर होते हैं।

टी॰ वी॰ चैनलों के माध्यम से रियालिटी शो के नाम पर अत्यन्त अश्लील और भद्दा कल्चर भारतीय समाज की रगों में पहुँचाया जा रहा है। जानी-मानी आई॰ पी॰ एस॰ अधिकारी किरण बेदी के द्वारा प्रस्तुत प्रोग्राम “आपकी कचहरी" में पूर्व की पारिवारिक व्यवस्था के बिखराव का पूरा सामान उपलब्ध किया गया था। लोग बड़ी निर्लज्जता और ढिठाई के साथ अपने अनैतिक सम्बन्धों और झगड़ों को खुलेआम बयान करते रहे। कुछ दिन पूर्व शुरू हुए रियालिटी प्रोग्राम "सच का सामना" पर अख़बारों में की गई आलोचना के बावजूद यह प्रोग्राम चलता रहा।

नग्नता और अश्लीलता पर आधारित सीरियलों के अलावा टी॰ वी॰ चैनलों पर अपराध से सम्बन्धित भी कई प्रोग्राम प्रसारित किए जाते हैं, जिनमें देश के विभिन्न भागों में घटित अपराधों का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। इस्लाम ने अपराध और गुनाह के प्रसार से मना किया है, ताकि लोग इनके प्रति संवेदनहीन न हो जाएँ। लेकिन इन प्रोग्रामों में अपराधों की सनसनीख़ेज़ अन्दाज़ में नाटकीय प्रस्तुति की जाती है। अपराध की बारीकियों को दिखाया जाता है। इससे अपराध में कमी के स्थान पर वृद्धि ही होती है। इसके द्वारा भी लोगों के लिए मनोरंजन का सामान उपलब्ध होता है। इससे अनुभवहीन अपराधी भी अपराध करने को प्रेरित होते हैं।

टी॰ वी॰ पर मनोरंजन के नाम पर बच्चों को अश्लीलता, हिंसा और अन्धविश्वास का विष पिलाया जा रहा है। बच्चों के टी॰ वी॰ सीरियलों में जादू-टोना, भूत-प्रेत, नायकों के अप्राकृतिक कारनामों की बहुतायत होती है, जिसके कारण बच्चों का कोमल मस्तिष्क वास्तविकता और विज्ञान से दूर होता जा रहा है। लिट्ल चैम्प्स जैसे बच्चों के गेम शो के द्वारा मासूम बच्चों को नाच-गाने और उसमें प्रतियोगिता की शिक्षा दी जाती है। ऐसे गेम शोज़ बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं। इसके अतिरिक्त आजकल एन्टरटेनमेंट, स्पोर्ट्स, संगीत, कार्टून, रियालिटी शोज़, फ़ैशन आदि विषयों के अन्तर्गत सैकड़ों टी॰ वी॰ चैनल अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं में जनता के मनोरंजन के लिए उपलब्ध हैं। ये सभी टी॰ वी॰ चैनल अपने दर्शकों की संख्या में वृद्धि के लिए एक-दूसरे से प्रतियोगिता में अधिक से अधिक मनोरंजन पेश करने की कोशिश करते हैं।

लोगों के लिए सिनेमा मनोरंजन का एक मुख्य साधन है। वर्तमान समय में सिनेमा भी पूँजीवादी साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण हथियार बन चुका है। भारत का फ़िल्म उद्योग, जिसे 'बॉलीवुड' कहते हैं, दुनिया का सबसे अधिक फ़िल्में उत्पादित करनेवाला उद्योग है। यहाँ अमेरिका के हॉलीवुड से भी ज़्यादा अर्थात् लगभग 300 फ़िल्में प्रतिवर्ष तैयार की जाती हैं। देश की आज़ादी के बाद ही से भारतीय फ़िल्म उद्योग में पश्चिमी फ़िल्मों की नक़्क़ाली का सिलसिला शुरू हो चुका था और उसमें क्रमशः पश्चिमी सभ्यता के अवयव सम्मिलित होते गए। लेकिन वैश्वीकरण के बाद जब विभिन्न सेटेलाइट टी॰ वी॰ चैनलों पर विदेशी फ़िल्में प्रसारित की जाने लगीं तो इससे यहाँ का सिनेमा उद्योग बहुत प्रभावित हुआ। उनसे प्रतियोगिता में भारतीय सिनेमा भी ज़्यादा से ज़्यादा हिंसा और नग्नता का सहारा लेने लगा। आज स्थिति यह है कि भारतीय सिनेमा अश्लीलता, नग्नता और हिंसा के दृश्यों में विदेशी सिनेमा से किसी प्रकार भी पीछे नहीं रहा। वैश्वीकरण के बाद बड़े परदे पर भी सिनेमा के प्रदर्शन के लिए देश की सीमाएँ अब कोई रुकावट नहीं रहीं। हॉलीवुड की फ़िल्में सभी अहम भारतीय भाषाओं में डब होकर यहाँ की जनता के लिए प्रस्तुत की जा रही हैं, अमेरिका के सिनेमा उद्योग की बड़ी-बड़ी कम्पनियों को भारतीय दर्शकों के रूप में एक बहुत बड़ी मार्केट हाथ आई है, जहाँ वे बहुत कम पूँजी-निवेश करके भारी लाभ कमा सकती हैं।

भारतीय सिनेमा द्वारा प्रायोजित ढंग से एक विशेष कल्चर को देश में फैलाने की कोशिश की जा रही है। 1980 के दशक के बाद बननेवाली अधिकतर फ़िल्मों का विषय प्रेम था, जिसमें एक लड़के और लड़की के बीच प्रेम हो जाता है, घरवाले विरोध करते हैं। दोनों इस विरोध के आगे अड़ जाते हैं और अन्ततः उनका प्रेम सफल हो जाता है। इन फ़िल्मों में यह कहानी इस प्रकार प्रस्तुत की जाती थी कि दर्शकों को उनसे सहानुभूति हो जाती। इस प्रकार नई पीढ़ी में इस कल्चर को बढ़ावा दिया गया। "क़ियामत से क़ियामत तक", "मैंने प्यार किया", “आशिक़ी” और ऐसी ही कई फ़िल्में उस दौर में प्रदर्शित हुईं और बहुत सफल हुईं। आजकल Live in Relation, समलैंगिकता और Gay कल्चर को पेश करनेवाली फ़िल्मों की बहुतायत है और भारत में अब इस कल्चर के बारे में लोगों की मानसिकता बनाई जा रही है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अलावा भारत का प्रिंट मीडिया भी इस कल्चर के विकास में लगा हुआ है। इस समय भारत में Debonair, Fantasy जैसी पूरी अश्लील और नग्न पत्रिकाओं के अतिरिक्त देश की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में 200 से अधिक ऐसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, जो सभी नैतिक सीमाओं को पार करके समाज को हवस-परस्त बना रही हैं। ये जिंसी पत्रिकाएँ ही क्या कम थीं कि दैनिक समाचार पत्रों ने भी इसी काम का बीड़ा उठा लिया है। भारत की किसी भी भाषा के दैनिक समाचार पत्र पर नज़र डालें तो आसानी से इस बात का अंदाज़ा हो जाता है कि सभी अख़बार इस मामले में बराबर हैं। अश्लील और नग्न तस्वीरों की भरमार, पेज थ्री के कॉलम, जिनमें बड़े शहरों की पार्टियों और उनमें शामिल होनेवालों का परिचय और उनके चित्र, Pubs और क्लबों का परिचय, फ़ैशन और सौंदर्य-शृंगार के तरीक़े और उनसे सम्बन्धित तस्वीरें, स्वास्थ्य के स्तम्भ में जागरूकता के नाम पर भद्दे प्रश्नोत्तर आदि के माध्यम से सारे अख़बार एक विशेष कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं।

टी॰ वी॰, फ़िल्मों, अख़बारों, पत्रिकाओं और अन्य प्रसार माध्यमों के द्वारा मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है उसके अत्यन्त घातक प्रभाव समाज पर पड़ रहे हैं। देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ते अपराध का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही मीडिया है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की ओर से उपलब्ध किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 35 बड़े नगरों में अपराध की गति में चिन्ताजनक वृद्धि हो रही है। इन नगरों में 2003 ई॰ के बीच होनेवाले दर्ज अपराधों की संख्या 2,91,246 थी, जो 2007 ई॰ में बढ़कर 3,36,889 हो गई। महिला विरोधी अपराधों की संख्या में वृद्धि भी ध्यान देने योग्य है। आंकड़ों के अनुसार 2003 ई॰ में बलात्कार के 15,847, अपहरण के 13,296 और उत्पीड़न के 50,703 मामले रिकार्ड किए गए, जबकि 2007 ई॰ में बलात्कार के 20,737, अपहरण के 20,416 और उत्पीड़न के 75,930 मामले रिकार्ड किए गए। बच्चों में भी अपराध का रुझान बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। देश में नैतिक मूल्य पतनोन्मुख हैं। परिवार बिखरता जा रहा है। (इस सम्बन्ध में आँखें खोल देनेवाली रिपोर्ट नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की वेबसाइट www.ncrb.nic.in पर देखी जा सकती है।)

मीडिया और विज्ञापन

मौलिक रूप से विज्ञापन मीडिया के वास्तविक मुद्दे का भाग नहीं होते, बल्कि ये अतिरिक्त जानकारी के रूप में शामिल होते हैं। चूँकि प्रसार माध्यमों की पहुँच जनता के एक बड़े वर्ग तक होती है इसलिए विभिन्न कम्पनियाँ अपने उत्पादों के परिचय के लिए मीडिया की सेवा प्राप्त करती हैं। बात सीधे-सादे ढंग से इस सीमा तक उचित थी, लेकिन मीडिया पर पूँजीवाद के वर्चस्व के कारण उसका दृष्टिकोण ही बदल चुका है। वर्तमान कॉरपोरेट मीडिया के लिए मुख्य चीज़ विज्ञापन ही हैं। अधिक से अधिक विज्ञापनों की प्राप्ति कॉरपोरेट मीडिया का लक्ष्य है। बड़ी कम्पनियों और कॉरपोरेट मीडिया के संयुक्त हित के कारण विज्ञापन प्रदर्शन की नई-नई कार्य-नीतियाँ तैयार हो चुकी हैं। नई-नई आवश्यकताएँ पैदा की जा रही हैं, भोग-विलास की विभिन्न वस्तुओं को ज़रूरत बनाकर पेश किया जा रहा है और इस प्रकार उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है, जो पूँजीवादी साम्राज्य के जीवन के लिए आवश्यक है। इस काम के लिए विज्ञापन का पूरा तंत्र अस्तित्व में आ चुका है। कई कम्पनियाँ केवल आकर्षक विज्ञापन की तैयारी करती हैं। अनगिनत मॉडल्स, डिज़ाइनर्स और बिलकुल नए विज्ञापन तैयार करनेवाले इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। दुनिया भर में विज्ञापनों का यह व्यवसाय जनसंख्या वृद्धि की गति से भी तीव्र गति से बढ़ रहा है। एक सतर्क अनुमान के अनुसार दुनिया भर में विज्ञापनों पर 435 बिलियन डॉलर ख़र्च किए जाते हैं। (Human Development Report, UNDP) जब विज्ञापनों की प्राप्ति ही मुख्य उद्देश्य हो तो फिर इसकी कोई सीमा बाक़ी नहीं रहती कि इनकी मात्रा क्या हो। न्यूज़ बुलेटिन के बीच, फ़िल्मों के बीच, सीरियलों के बीच और अख़बार व पत्रिकाओं में विज्ञापनों की ऐसी भरमार होती है कि वास्तविक कार्यक्रम उन विज्ञापनों के बीच कहीं दबकर रह जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन में 1,50,000 विज्ञापन देखता है। कई बार दैनिक समाचार पत्रों का पृष्ठ पूरा का पूरा विज्ञापन पर आधारित होता है।

विज्ञापन देनेवाली कम्पनियों के दबाव में कार्यक्रमों की रूपरेखा भी उनकी मर्ज़ी के अनुसार तैयार की जाती है। दर्शकों में भी जो विज्ञापनों के लक्ष्य होते हैं उनकी मानसिकता के अनुसार कार्यक्रमों की तैयारी होती है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि मीडिया में प्रस्तुत किए जानेवाले मैटर की उतनी अहमियत नहीं होती जितनी अहमियत इसकी होती है कि विज्ञापन का लक्ष्य कौन-सा वर्ग है। प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों के विषय में मीडिया के एक विशेषज्ञ का कहना है कि पत्रिकाओं पर विज्ञापनों के प्रभाव इस सीमा तक बढ़ गए हैं कि पत्रिका का सम्पादक लेखों का चयन पाठकों की रुचि के आधार पर नहीं बल्कि विज्ञापनों पर उनके प्रभाव के आधार पर करता है। हल्के-फुल्के लेख सामान्यतः लोगों की ख़रीदारी के मूड के लिए सहायक होते हैं, जबकि वे गम्भीर लेख विज्ञापनों के लिए सहायक नहीं होते, जो लेख पढ़नेवाले के अन्दर विशलेषण का ज़ेहन पैदा करते हैं। इसके कारण पाठक इन विज्ञापनों पर गम्भीरता से विचार नहीं करता जो केवल काल्पनिक हों या मामूली क़िस्म के प्रोडक्ट का प्रचार कर रहे हों। किसी गम्भीर सामाजिक समस्या से सम्बन्धित गम्भीर लेख के कारण पाठकों की ख़रीदारी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि अधिकतर विज्ञापन भोग-विलास की वस्तुओं के होते हैं। जन-विज्ञापन अब केवल उपभोक्ता वस्तुओं का परिचय और उनके विवरण का माध्यम नहीं हैं, (हालाँकि वे यह काम भी कर रहे हैं) बल्कि अब ये मुट्ठीभर पूँजीपतियों के लिए अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए एक हथियार बन चुका है। इन पूँजीपतियों को अख़बार, पत्रिकाएँ और टी॰ वी॰ चैनलों की ज़रूरत केवल प्रोडक्टस को बेचने के लिए नहीं, बल्कि अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभावों को बरक़रार रखने के लिए है। (Ben H. Bagdikian. The Media Monopoly)

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट के निकट प्रत्येक वस्तु केवल Commodity या Product होती है। अतः कॉरपोरेट मीडिया के निकट उसके दर्शक, श्रोता या पाठक उसका Product हैं जो वे विभिन्न कम्पनियों के हाथों बेचते हैं। उदाहरणस्वरूप, स्टार टी॰ वी॰ के किसी प्रोग्राम के पाँच लाख दर्शक हैं तो वे वास्तव में स्टार टी॰ वी॰ के प्रोडक्ट हैं और उस Product को वे विभिन्न उत्पादों की कम्पनियों को बेचते हैं। जिस टी॰ वी॰ चैनल या समाचार पत्र के दर्शकों और पाठकों की संख्या जितनी अधिक होगी वह अख़बार उतना ही अधिक विज्ञापन प्राप्त करेगा। जिस टी॰ वी॰ चैनल या समाचार पत्र-पत्रिका में जनता की रुचि का मसाला जितना अधिक होगा उसके दर्शकों व पाठकों की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी। इस प्रकार यह पूँजीपतियों का स्वार्थपूर्ण और धन-लोलुपतापूर्ण चक्कर है, जिसमें जनता फंसी होती है।

विज्ञापनों की तैयारी में सत्य और असत्य में कोई भेद नहीं रखा जाता बल्कि इस बात का प्रयास किया जाता है कि अधिक से अधिक धोखे और झूठ के माध्यम से अपने उत्पाद की बिक्री में वृद्धि हो। विज्ञापनों की तैयारी में मनुष्य की मनोवैज्ञानिक कमज़ोरी का भरपूर शोषण किया जाता है। उदाहरणस्वरूप, काम व पेट का स्वाद, शांतिपूर्ण और आरामदायक वातावरण, ख़तरे से सुरक्षा, यौन आकर्षण, सौन्दर्य प्रियता, बाल-बच्चों का कल्याण, बड़ा आदमी बनने की अभिलाषा, अधिक लाभ कमाने की आकांक्षा, सफलता और प्रतिष्ठिा की प्राप्ति, मनोरंजन और उत्सुकता की भावना और ऐसे ही दूसरे कई कारण में प्रयोग होते हैं और वस्तुओं को ऐसा आकर्षक और इतना अनिवार्य बनाकर प्रस्तुत करते हैं कि उन्हें देखनेवाला अनायास ही उसकी ज़रूरत का अनुभव करने लगता है। हम जानते हैं कि वैश्वीकरण की इस व्यवस्था से पूर्व भारत में न तो इतने सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग होता था और न महिलाएँ इसकी ज़रूरत महसूस करती थीं, लेकिन आज प्रत्येक घर में शृंगार की ऐसी कुछ चीज़ें ज़रूर नज़र आती हैं, जिनका प्रयोग जीवन के लिए कदापि आवश्यक नहीं। इस प्रकार Mc Donald, KFC, Pizza Hut भारत में नागरिक जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। जनता की ख़रीदारी की आदतों पर इन विज्ञापनों के प्रभाव के कारण उनमें नित् नए उत्पाद की प्राप्ति की इच्छा और घर में पहले से मौजूद वस्तुओं से उदासीनता उत्पन्न होती है, जो अपव्यय और उपभोक्तावाद का प्रेरक बनती है। जब मनुष्य की क्रय-शक्ति साथ नहीं देती तो उसमें निराशा और इसकी मनोवैज्ञानिक ख़राबियाँ उत्पन्न होती हैं। उसमें नाजाइज़ तरीक़ों से धन कमाने का अस्वस्थ रुझान भी पैदा होता है।

विज्ञापन का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसमें महिला का प्रयोग अत्यधिक और अत्यन्त ग़लत तरीक़े से किया जाता है। पूँजीवादी साम्राज्य ने महिला का जिस प्रकार शोषण किया है उसके जीवित उदाहरण ये विज्ञापन हैं। वस्तु चाहे पुरुषों के प्रयोग की हो या महिलाओं के प्रयोग की, रसोई घर का सामान हो या स्नान घर के टाइल्स, प्रत्येक विज्ञापन में महिला की उपस्थिति अनिवार्य होती है। इन विज्ञापनों में नग्नता और अश्लीलता अत्यधिक होती है। गर्भ निरोधक चीज़ों और महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं की वस्तुओं के विज्ञापन भी ऐसी निर्लज्जता से प्रस्तुत किए जाते हैं कि उन्हें घर में परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर देखा नहीं जा सकता। इन विज्ञापनों से सबसे अधिक प्रभावित बच्चे होते हैं।

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मीडिया का इस्लामी दृष्टिकोण

इस्लाम ने जीवन के सभी मामलों में मनुष्य का मार्गदर्शन किया है। यह दीन (धर्म) हर ज़माने के हालात में मनुष्य के लिए मार्गदर्शन उपलब्ध करता है। क़ुरआन व हदीस और इस्लामी शिक्षाओं के अध्ययन से हमें वर्तमान समय के महत्वपूर्ण विभाग अर्थात् मीडिया के सम्बन्ध में मार्गदर्शन मिलता है। नीचे उन बातों की ओर संकेत किया जा रहा है जिनपर चलने से मीडिया निस्सन्देह मानवता की भलाई व कल्याण, शान्ति और ख़ुशहाली और विकास और कामयाबी का एक महत्त्वपूर्ण ज़रीआ बन सकता है।

जैसा कि आरम्भ में कहा गया कि मीडिया का मौलिक उद्देश्य लोगों को जानकारी उपलब्ध कराना, उनकी मानसिकता का निर्माण करना और उनको मनोरंजन उपलब्ध कराना है। इन तीनों कामों की पूर्ति के लिए इन नियमों को ध्यान में रखना आवश्यक है—

(1) समाचार का सही होना

समाचारों और जानकारियों का प्रसारण सच्चाई और वास्तविकता के आधार पर होना चाहिए। कोई ऐसा समाचार न फैलाया जाए जिसके सही और सच्चा होने में सन्देह हो। झूठी बातें और अफ़वाहें न फैलाई जाएँ। सच्चाई की खोजबीन की जाए। क़ुरआन में है—

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर कोई फ़ासिक (दुराचारी) तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो छानबीन कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी समूह को अनजाने में नुक़सान पहुँचा बैठो और फिर अपने किए पर पछताओ।” (49:6)

(2) सत्य को न छिपाया जाए

इस सम्बन्ध में यह बात भी सामने रहनी चाहिए कि न केवल सही समाचार ही प्रसारित किए जाएँ और झूठी अफ़वाहें न फैलाई जाएँ, बल्कि सत्य को छिपाने से भी बचा जाए। क़ुरआन में शहादत (गवाही) को न छिपाने का आदेश दिया गया है और शहादत (गवाही) का अर्थ केवल यह नहीं है कि किसी मुक़द्दमे के सिलसिले में अदालत में पेश होकर गवाही दी जाए, बल्कि शहादत का सही अर्थ है कि आदमी जिस सत्य से अवगत हो दूसरों को भी उससे अवगत करे और उस सत्य को न छिपाए। क़ुरआन में है—

"शहादत (गवाही) कदापि न छिपाओ, जो शहादत छिपाता है उसका दिल गुनाह से प्रदूषित है, और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से अनभिज्ञ नहीं है।" (2:283)

शहादत को छिपाने का सीधा-सा अर्थ यही है कि मनुष्य किसी घटना को देखे या किसी बात के सत्य या असत्य होने से अवगत हो लेकिन भय, लालच या किसी लाभ के कारण उसको बयान करने से बचे। गवाही को छिपाने में वे सभी प्रयास भी सम्मिलित हैं जो इस उद्देश्य से किए जाते हैं कि सत्य सामने न आने पाए। इसमें यह भी शामिल है कि आदमी सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर न पेश करे और न लोगों के लिए सच्चाई को संदिग्ध बना दे। क़ुरआन में है—

“और असत्य का रंग चढ़ाकर सत्य को संदिग्ध न बनाओ और न जानते-बूझते सत्य को छिपाने का प्रयास करो।” (2:42)

इस आयत के द्वारा मीडिया में की जानेवाली ऐसी सभी गतिविधियों से रोका गया है, जिसके द्वारा मूल घटना या किसी के बयान को बदल कर उसके कुछ के कुछ मानी पहनाकर और उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है।

(3) न्याय और निष्पक्षता

किसी घटना या बयान की ख़बर देने में पूरे न्याय से काम लिया जाए, किसी भी तरह का रंग चढ़ाने, टिप्पणी और पक्षपात से बचा जाए। किसी भी हालत में न्याय का साथ न छोड़ा जाए। किसी का प्रेम या शत्रुता न्याय की बात कहने से न रोक दे। क़ुरआन में अल्लाह कहता है—

“और जब बात कहो, न्याय की कहो चाहे मामला अपने सम्बन्धियों का ही क्यों न हो।" (6:152)

"किसी समूह की शत्रुता तुम्हें इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम न्याय से फिर जाओ। न्याय करो यह परहेज़गारी (ईशपरायणता) से क़रीब है।" (5:8)

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! न्याय के ध्वजवाहक बनो और ख़ुदा-वास्ते के गवाह बनो, चाहे तुम्हारे न्याय और तुम्हारी गवाही के नीचे तुम स्वयं या तुम्हारे माता-पिता और सम्बन्धी ही क्यों न आ जाएँ। दूसरा पक्ष चाहे अमीर हो या ग़रीब, अल्लाह तुमसे अधिक उनका शुभचिन्तक है। अतः अपनी इच्छाओं की पैरवी में न्याय से न रुको। और अगर तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से पहलू बचाया, तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।" (4:135)

(4) टोह में न रहा जाए

इस्लाम इसकी अनुमति नहीं देता कि मनुष्य अनावश्यक तौर पर दूसरों के हालात और निजी जीवन की टोह में रहे। वर्तमान समय में जिस प्रकार विभिन्न लोगों के निजी हालात को विभिन्न स्रोतों से मालूम किए जाने का प्रयास किया जाता है और उन्हें लोगों की रुचि के लिए ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत किया जाता है, क़ुरआन इससे मना करता है—

'ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बहुत गुमान करने से बचो, कुछ गुमान गुनाह होते हैं। टोह में न रहो।" (49:12)

इस आयत में लोगों की टोह में रहने से जो मना किया गया है इसका कारण यह है कि दूसरों के निजी और पारिवारिक मामलों को टटोल-टटोलकर उनकी कमियाँ मालूम करना ऐसी अनैतिकता है जिससे तरह-तरह की ख़राबियाँ सामने आती हैं। इसलिए हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—

"तुम यदि लोगों के गुप्त हालात मालूम करने के पीछे पड़ोगे तो उनको बिगाड़ दोगे, या कम से कम बिगाड़ के नज़दीक पहुँचा दोगे।" (हदीस: अबू-दाऊद)

(5) बुराई और निर्लज्जता का प्रसार-प्रचार न किया जाए

इस्लाम इसे पसन्द नहीं करता कि समाज में मनोरंजन या किसी और आवश्यकता के नाम पर बुराई और निर्लज्जता का प्रसार-प्रचार किया जाए। इसलिए इस्लाम में बुराई और अश्लीलता को बढ़ावा देने और उसके प्रचार-प्रसार को पूरी तरह अवैध ठहराया गया है और ऐसा करनेवालों को अल्लाह की ओर से कठोर यातना की ख़बर सुनाई गई है। अश्लीलता, नग्नता और बुराई का प्रसार-प्रचार आदि इस्लाम की दृष्टि में समाज सुधार और मनुष्य के चरित्र निर्माण के लिए विष है। यह मनुष्य के नैतिक स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त घातक है। क़ुरआन में है—

“और बेशर्मी की बातों के क़रीब भी न जाओ चाहे वे खुली हों या छिपी।" (6:151)

“(ऐ मुहम्मद)! उनसे कहो, मेरे रब ने बेशर्मी के काम हराम किए हैं चाहे वे खुले हों या छिपे।” (7:33)

बुराइयों की चर्चा चाहे किसी भी बहाने से हो, इससे बुराइयाँ फैलती हैं, इससे लोगों की आँखें और लोगों के कान बुराई से अवगत और परिचित हो जाते हैं और उनके दिलों में बुराइयों से घृणा में कमी आती है। क़ुरआन में अल्लाह कहता है—

“जो लोग इस बात को पसन्द करते हैं कि ईमानवालों में बुराई फैले उनके लिए दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक अज़ाब होगा। और ख़ुदा जानता है, तुम नहीं जानते।" (24:19)

(6) पवित्र और उच्च उद्देश्य

मीडिया के माध्यम से लोगों को उच्च उद्देश्य के लिए काम पर उभारा जाए। ऐसी चीज़ें न पेश की जाएँ जिससे मानवता का कोई भला न हो और जिसमें पड़कर मनुष्य अल्लाह से, उसके आदेशों से और लोगों के अधिकारों से ग़ाफ़िल हो जाए। अल्लाह अपनी किताब क़ुरआन में फ़रमाता है—

"और इनसानों में कोई ऐसा भी है, जो अल्लाह से ग़ाफ़िल करनेवाली बातें ख़रीदता है, ताकि बे-समझे-बूझे (दूसरों को) पथभ्रष्ट करे और उस राह की हँसी उड़ाए। ऐसे ही लोगों के लिए रुसवाई का अज़ाब है।" (31:6)

यह बात स्पष्ट रहे कि प्रसार माध्यम अपने आप में ग़लत या बुरे नहीं हैं, बल्कि इनपर इस समय जिन शक्तियों का क़ब्ज़ा है वे इसका ग़लत प्रयोग कर रहे हैं। अगर ऊपर वर्णित नियमों के अनुसार मीडिया का गठन हो तो यही मीडिया बड़ा ही उपयोगी और समाज के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है। जीवन के अन्य क्षेत्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी इस्लाम का मार्गदर्शन बिलकुल स्पष्ट है। इसके प्रकाश में मुसलमान अन्य समुदायों का मार्गदर्शन कर सकते हैं। ख़ुद इस्लाम के लिए भी इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग आवश्यक है। इसलिए हमें अपने अन्दर इसके सही प्रयोग की क्षमता उत्पन्न करना अत्यावश्यक है। साथ ही साथ कॉरपोरेट मीडिया के प्रभाव से स्वयं को और जनता को सुरक्षित रखने की भरपूर कोशिश भी की जानी चाहिए।

सुधार के उपाय

भारत में कॉरपोरेट मीडिया के प्रभाव को कम से कम करने के लिए सरकार पर निम्नलिखित बातों के लिए जनता की ओर से दबाव डाला जाए:

(1) टी॰ वी॰ चैनलों, फ़िल्मों और अख़बारों पर अश्लीलता विरोधी क़ानून को सख़्ती से लागू किया जाए। सेंसर बोर्ड में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका जाए।

(2) व्यापारिक आधारों पर प्रसार करनेवाली संस्थाओं का लाइसेंस जारी करने के लिए सख़्त नियम तय किए जाएँ। जैसे, बच्चों के कार्यक्रमों और समाचार प्रसारण के बीच विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबन्ध या कठोर सीमाएँ लागू की जाएँ। चुनाव अभियान के बीच राजनीतिक दलों के विज्ञापन पर प्रतिबन्ध लगे। प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्थाओं को अपना काम प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिए विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की ओर से प्रतिनिधित्व किया जाता रहे।

(3) टी॰ वी॰ पर व्यापारिक विज्ञापनों को सीमित करने, उसके लिए नियम बनाने के लिए बोर्ड कार्रवाई करे ताकि मीडिया में व्यापार की भरमार को रोका जा सके।

(4) सरकार की ओर से पारम्परिक जन-प्रसारणों को पूरी तरह अव्यापारिक बनाने के लिए और जन-निरीक्षण के योग्य बनाने के लिए फ़न्ड्स में वृद्धि की जाए। विशेष रूप से समाचारों और जनकल्याण के कार्यक्रमों की तैयारी के लिए ज़रूरी फ़न्ड्स उपलब्ध किए जाएँ ताकि कॉरपोरेट मीडिया की ख़बरों को जमा करने में गम्भीरता की कमी के कारण उत्पन्न शून्य को भरा जा सके और जनता को वास्तविकताओं पर आधारित जानकारियाँ मिल सकें।

इनके अतिरिक्त देश में विभिन्न सामाजिक ग्रुपों की ओर से वैकल्पिक मीडिया का विकास किया जाए। ऐसे छोटे अव्यापारिक और अवामी टी॰ वी॰ चैनल तथा रेडियो स्टेशन शुरू किए जाएँ जिनकी जड़ें स्थानीय जनता में गहरी हों। इस योजना के हिस्से के तौर पर सरकार को चाहिए कि वह इस सम्बन्ध में आनेवाली रुकावटों को दूर करे।

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