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शान्ति-मार्ग

शान्ति-मार्ग

यह जानेमाने विद्वान और महान समाज सुधारक मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी का एक भाषण है, जिसे एक लेख का रूप दे दिया गया है। यह भाषण कपूरथला में आजादी से पहले हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों की एक सम्मिलित सभा में दिया गया था। इस में ईश्वर के अस्तित्व को तार्किक ढंग से समझाया गया है।

लेखक

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी

अनुवाद

नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

प्रकाशक

एम॰ एम॰ आई॰ पब्लिशर्स

Shanti Marg [H] – MMI Publishers

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अल्लाह अत्यन्त दयावान और कृपाशील के नाम से

शान्ति-मार्ग

पैदा करनेवाले का वुजूद

भाइयो! अगर कोई व्यक्ति आपसे कहे कि बाज़ार में एक दुकान ऐसी है, जिसका कोई दुकानदार नहीं है, न कोई उसमें माल लानेवाला है न बेचनेवाला और न कोई उसकी रखवाली करता है। दुकान आप-से-आप चल रही है, आप-से-आप उसमें माल आ जाता है और आप से-आप ख़रीदारों के हाथ बिक भी जाता है, तो क्या आप उस व्यक्ति की बात मान लेंगे? क्या आप स्वीकार कर लेंगे कि किसी दुकान में माल लानेवाले के बिना आप-से-आप माल आ भी सकता है? माल बेचनेवाले के बिना आप-से-आप बिक भी सकता है? हिफ़ाज़त करनेवाले के बिना आप-से-आप चोरी और लूट से बचा भी रह सकता है? अपने दिल से पूछिए, ऐसी बात आप कभी मान सकते हैं? जिसकी अक़्ल और सूझबूझ ठिकाने हो क्या उसके दिमाग़ में कभी यह बात आ सकती है कि कोई दुकान दुनिया में ऐसी भी होगी?

कल्पना कीजिए, एक आदमी आप से कहता है कि इस शहर में एक कारख़ाना है जिसका न कोई मालिक है, न इंजीनियर, न मिस्त्री; सारा कारख़ाना आप-से-आप क़ायम हो गया है। सारी मशीनें ख़ुद ही बन गई हैं। ख़ुद ही सारे पुर्ज़े अपनी-अपनी जगह पर लग भी गए, ख़ुद ही सभी मशीनें चल भी रही हैं और ख़ुद ही उनमें से अजीब-अजीब चीज़ें बन-बन कर निकल भी रही हैं। सच बताइए, जो आदमी आपसे यह बात कहेगा, क्या आप हैरत से उसका मुँह न देखने लगेंगे? क्या आपको यह शक न होगा कि कहीं इसका दिमाग़ ख़राब तो नहीं हो गया है? क्या एक पागल के सिवा ऐसी ग़लत बात कोई कह सकता है?

दूर की मिसालों को जाने दीजिए, यह बिजली का बल्ब जो आपके सामने जल रहा है, क्या किसी के कहने से आप यह मान सकते हैं कि रौशनी इस बल्ब में आप-से-आप पैदा हो जाती है? यह कुर्सी जो आपके सामने रखी है, क्या किसी बड़े-से-बड़े धुरन्धर दार्शनिक (फ़ल्सफ़ी) के कहने से भी आप मान सकते हैं कि यह आप-से आप बन गई है? ये कपड़े जो आप पहने हुए हैं, क्या दुनिया के किसी बड़े-से-बड़े आलिम और पंडित के कहने से भी आप यह तस्लीम करने के लिए तैयार हो जाएँगे कि उनको किसी ने बुना नहीं है, ये आप-से-आप ही बुन गए हैं? ये घर जो आपके सामने खड़े हैं, यदि तमाम दुनिया की यूनिवर्सिटियों के प्रोफ़ेसर मिलकर भी आपको यक़ीन दिलाना चाहें कि इन घरों को किसी ने नहीं बनाया है, बल्कि यह आप-से-आप बन गए हैं, तो क्या उनके यक़ीन दिलाने से आपको ऐसी ग़लत बात पर यक़ीन आ जाएगा?

ये कुछ मिसालें तो आपके सामने की हैं, रात-दिन जिन चीज़ों को आप देखते हैं, उन्हीं में से कुछ को मैंने बयान किया है। अब विचार कीजिए, एक मामूली दुकान के बारे में जब आपकी अक़्ल यह नहीं मान सकती कि वह किसी क़ायम करनेवाले के बिना क़ायम हो गई और किसी चलानेवाले के बिना चल रही है, तो इतनी बड़ी सृष्टि के बारे में आपकी अक़्ल इसपर किस प्रकार यक़ीन कर सकती है कि वह किसी बनानेवाले के बिना बन गई है और किसी चलानेवाले के बिना चल रही है?

जब एक मामूली से कारख़ाने के बारे में आप यह मानने के लिए तैयार नहीं हो सकते कि वह किसी बनानेवाले के बिना बन जाएगा और किसी चलानेवाले के बिना चलता रहेगा, तो धरती और आकाश का यह ज़बरदस्त कारख़ाना जो आपके सामने चल रहा है, जिसमें चाँद, सूरज और बड़े-बड़े नक्षत्र (सय्यारे) घड़ी के पुर्ज़ों के समान चल रहे हैं, जिसमें समुद्रों से भापें उठती हैं, भापों से बादल बनते हैं, बादलों को हवाएँ उड़ाकर धरती के कोने-कोने में फैलाती हैं, फिर उनको ठीक समय पर ठंडक पहुँचाकर दोबारा भाप से पानी बनाया जाता है, फिर वह पानी बारिश की बूँदों के रूप में धरती पर गिराया जाता है, फिर उस बारिश की वजह से मरी हुई धरती के पेट से तरह-तरह के लहलहाते हुए पेड़-पौधे निकाले जाते हैं, क़िस्म-क़िस्म के अनाज, रंग-बिरंगे फूल और तरह-तरह के फल पैदा किए जाते हैं। इस कारख़ाने के बारे में आप यह कैसे मान सकते हैं कि यह सब कुछ किसी बनानेवाले के बिना आप-से-आप बन गया और किसी चलानेवाले के बिना आप-से-आप चल रहा है? एक ज़रा-सी कुर्सी, एक गज़भर कपड़े, एक छोटी-सी दीवार के बारे में कोई कह दे कि ये चीज़ें ख़ुद बनी हैं तो आप फ़ौरन फ़ैसला कर देंगे कि उसका दिमाग़ चल गया है, फिर भला उस व्यक्ति के दिमाग़ के ख़राब होने में क्या शक हो सकता है जो कहता है कि धरती आप-से-आप बन गई, जानवर आप-से-आप पैदा हो गए, इनसान जैसी अद्भुत चीज़ आप-से-आप बनकर खड़ी हो गई?

आदमी का शरीर जिन पदार्थों से मिलकर बना है, उन सबको साइंसदानों ने अलग-अलग करके देखा तो मालूम हुआ कि कुछ लोहा है, कुछ कोयला, कुछ गन्धक, कुछ फ़ास्फ़ोरस, कुछ कैल्शियम, कुछ नमक, कुछ गैसें और बस ऐसी ही कुछ और चीज़ें हैं, जिनकी पूरी क़ीमत कुछ रूपयों से अधिक नहीं है। ये चीज़ें जितने-जितने वज़न के साथ आदमी के शरीर में शामिल हैं उतने ही वज़न के साथ उन्हें ले लीजिए और जिस प्रकार जी चाहे मिलाकर देख लीजिए, आदमी किसी तरकीब से न बन सकेगा। फिर किस प्रकार आपकी अक़्ल यह मान सकती है कि उन कुछ बेजान चीज़ों से देखता, सुनता, बोलता, चलता-फिरता इनसान, वह इनसान जो जहाज़ और रेडियो बनाता है, किसी कारीगर की हिकमत और सूझबूझ के बिना आप-से-आप बन जाता है?

कभी आपने सोचा कि माँ के पेट की छोटी-सी फ़ैक्ट्री में किस प्रकार आदमी तैयार होता है? बाप की कारसाज़ी का इसमें कोई हाथ नहीं, माँ की हिकमत का इसमें कोई काम नहीं। एक छोटी-सी थैली में दो कीड़े जो सूक्ष्म-दर्शक यंत्र (Microscope) के बिना देखे तक नहीं जा सकते, न जाने कब आपस में मिल जाते हैं। माँ के ख़ून ही से उनको ख़ुराक पहुँचना शुरू होती है, वही लोहा, गन्धक, फ़ास्फ़ोरस वग़ैरा सब चीज़ें जिनको मैंने ऊपर बयान किया, एक ख़ास वज़न और एक ख़ास अनुपात के साथ वहाँ जमा होकर लोथड़ा बनती हैं, फिर उस लोथड़े में जहाँ आँखें बननी चाहिएँ वहाँ आँखें बनती हैं, जहाँ कान बनने चाहिएँ वहाँ कान बनते हैं, जहाँ दिमाग़ बनना चाहिए वहाँ दिमाग़ बनता है, जहाँ दिल बनना चाहिए वहाँ दिल बनता है; हड्डी अपनी जगह पर, मांस अपनी जगह पर, रगें अपनी जगह पर, यानी एक-एक पुर्ज़ा अपनी-अपनी जगह पर ठीक बैठता है फिर उसमें जान पड़ती है, देखने की ताक़त, सुनने की ताक़त, चखने और सूंघने की ताक़त, बोलने की ताक़त, सोचने और समझने की ताक़त, और कितनी ही अनगिनत ताक़तें उसमें भर जाती हैं। इस प्रकार जब इनसान मुकम्मल हो जाता है तो पेट की वही छोटी-सी फ़ैक्ट्री, जहाँ नौ महीने तक वह बन रहा था, ख़ुद ज़ोर लगाकर उसे बाहर ढकेल देती है और दुनिया यह देखकर हैरान रह जाती है कि इस फ़ैक्ट्री में एक ही तरीक़े से लाखों इनसान रोज़ बनकर निकल रहे हैं, लेकिन हर एक का नमूना भिन्न और अलग है, शक्ल अलग, रंग अलग, आवाज़, ताक़तें और सलाहियतें अलग, स्वभाव और विचार अलग, आचार और ख़ूबियाँ अलग, यानी एक ही पेट से निकले हुए दो सगे भाई तक एक-दूसरे से नहीं मिलते। यह ऐसा चमत्कार है जिसे देखकर अक़्ल दंग रह जाती है। इस चमत्कार को देखकर भी जो इनसान यह कहता है कि यह काम किसी ज़बरदस्त हिकमत, सूझबूझ और ज़बरदस्त ताक़तवाले और ज़बरदस्त ज्ञान रखनेवाले और अनुपम कमालात (निपुणताएँ) रखनेवाले ईश्वर के बिना हो रहा है या हो सकता है, निश्चय ही उसका दिमाग़ ठीक नहीं है। उसको अक़्लमंद समझना अक़्ल का अपमान करना है। कम-से-कम मैं तो ऐसे व्यक्ति को इस योग्य नहीं समझता कि किसी बौद्धिक और माक़ूल मसले पर उससे बातचीत करूँ।

ईश्वर एक है

अच्छा अब थोड़ा और आगे चलिए। आप में से हर व्यक्ति की अक़्ल इस बात की गवाही देगी कि दनिया में कोई काम भी चाहे छोटा हो या बड़ा, कभी सुव्यवस्थित और नियमित रूप से और बाक़ायदगी के साथ नहीं चल सकता, जब तक कि कोई एक व्यक्ति उसका ज़िम्मेदार न हो। एक स्कूल के दो हेडमास्टर, एक विभाग के दो डायरेक्टर, एक फ़ौज के दो कमाण्डर, एक हुकूमत के दो बादशाह कभी आपने सुने हैं? और यदि कहीं ऐसा हो तो क्या आप समझते हैं कि एक दिन के लिए भी प्रबन्ध ठीक हो सकता है? आप अपने जीवन के छोटे-छोटे मामलों में भी इसका तजरबा करते हैं कि जहाँ एक काम को एक से अधिक लोगों की ज़िम्मेदारी पर छोड़ा जाता है, वहाँ अत्यन्त अव्यवस्था और बदनज़मी पैदा हो जाती है। लड़ाई-झगड़े होते हैं और अंत में साझे की हंडिया एक दिन चौराहे में फूटकर रहती है। इंतिज़ाम (प्रबन्ध), नियमितता, एकरूपता और सलीक़ा दुनिया में जहाँ भी आप देखते हैं, वहाँ निश्चित रूप से किसी ताक़त का हाथ होता है, कोई एक ही वुजूद इख़्तियार और प्रभुत्ववाला होता है और किसी एक ही के हाथ में सारे कामों की बागडोर होती है, उसके बिना प्रबन्ध की आप कल्पना नहीं कर सकते।

यह ऐसी सीधी बात है कि कोई व्यक्ति जो थोड़ी अक़्ल भी रखता हो इसे मानने में संकोच या हिचकिचाहट न करेगा। इस बात को ध्यान में रखकर ज़रा अपने आसपास की दुनिया पर नज़र डालिए। यह विशाल संसार जो आपके सामने फैला हुआ है, ये करोड़ों नक्षत्र (सय्यारे) जो आपके ऊपर चक्कर लगाते दिखाई देते हैं, यह धरती जिस पर आप रहते हैं, यह चाँद जो रातों को निकलता है, यह सूरज जो प्रत्येक दिन उगता है, यह शुक्र, यह मंगल, यह बुध, यह बृहस्पति और ये दूसरे अनगिनत तारे जा गेंदों की तरह घूम रहे हैं, देखिए इन सबके घूमने में कैसी सख़्त और अटल नियमितता है! कभी रात अपने समय से पहले आती हुइ आपने देखी? कभी दिन अपने समय से पहले निकला? कभी चाँद धरती से टकराया? कभी सूरज अपना रास्ता छोड़कर हटा? कभी किसी तारे को आपने एक बाल बराबर भी अपनी गर्दिश की राह से हटते हुए देखा या सुना? ये करोड़ों ग्रह (सय्यारे) जिनमें से कुछ हमारी धरती से लाखों गुना बड़े हैं और कुछ सूरज से भी हज़ारों गुना बड़े। ये सब घड़ी के पुर्ज़ों की तरह एक ज़बरदस्त नियम में कसे हुए हैं और एक बंधे हुए हिसाब के अनुसार अपनी-अपनी निश्चित गति के साथ अपने-अपने निश्चित मार्ग पर चल रहे हैं। न किसी की रफ़्तार में ज़र्रा भर भी फ़र्क़ पड़ता है, न कोई अपने रास्ते से बाल बराबर टल सकता है। उनके बीच जो सम्बन्ध और निस्बतें क़ायम कर दी गई हैं, अगर उनमें एक पल के लिए ज़रा-सा भी अन्तर आ जाए तो विश्व का समस्त प्रबन्ध ही छिन्न-भिन्न हो जाए, जिस प्रकार रेलें टकराती हैं उसी प्रकार ग्रह एक-दूसरे से टकरा जाएँ।

यह तो आकाश की बातें हैं। अब ज़रा अपनी धरती और ख़ुद अपने ऊपर नज़र डालकर देखिए, इस मिट्टी की गेंद पर जीवन का यह सारा खेल जो आप देख रहे हैं, यह सब कुछ बंधे हुए नियमों और ज़ाब्तों की बदौलत क़ायम है। घरती की आकर्षण-शक्ति ने सारी चीज़ों को अपने दायरे में बाँध रखा है। एक सेकेण्ड के लिए भी अगर वह अपने बन्धन से मुक्त कर दे तो सारा कारख़ाना बिखर जाए, इस कारख़ाने में जितने कल-पुर्ज़े काम कर रहे हैं, सबके सब एक नियम में बंधे हुए हैं और इस नियम में कभी अंतर नहीं आता। हवा अपने नियम का पालन कर रही है, पानी अपने नियम में बंधा हुआ है, रौशनी के लिए जो नियम है उस पर वह चल रही है, गर्मी और सर्दी के लिए जो नियम हैं उसकी वह पाबन्द है। मिट्टी, पत्थर, धातुएँ, बिजली, भाप, पेड़, जानवर किसी में यह मजाल नहीं कि अपनी हद से बढ़ जाए या अपनी फितरतों (स्वभाव) और गुणों को बदल दे या उस काम को छोड़ दे, जो उसे सौंपा गया है।

फिर अपनी-अपनी हद के अन्दर अपने-अपने नियम का पालन करने के साथ इस कारख़ाने के सारे पुर्ज़े एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रहे हैं और दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है सब इसलिए हो रहा है कि ये सारी चीज़ें और सारी ताक़तें मिलकर काम कर रही हैं। एक मामूली से बीज की ही मिसाल ले लीजिए, जिसको आप धरती में बोते हैं, वह कभी विकसित होकर पेड़ बन ही नहीं सकता, जब तक कि धरती और आकाश की सारी शक्तियाँ मिलकर उसको पालने-पोसने में हिस्सा न लें। धरती अपने ख़ज़ानों से उसको भोजन देती है, सूरज उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ उसे गर्मी पहुँचाता है, पानी से जो कुछ वह माँगता है; वह पानी दे देता है, हवा से वह जो कुछ चाहता है वह दे देती है, रातें उसके लिए ठण्डक और ओस का इंतिज़ाम करती हैं, दिन उसे गर्मी पहुँचाकर पुख़्तगी (परिपक्वता) की ओर ले जाता है, इस प्रकार महीनों और सालों तक लगातार एक नियम और क़ायदे के साथ ये सब मिल-जुलकर उसे पालते-पोसते हैं, तब जाकर कहीं पेड़ बनता है और उसमें फल आते हैं। आपकी ये सारी फ़सलें जिनके बलबूते पर आप जी रहे हैं, इन्हीं बेशुमार तरह-तरह की शक्तियों के मिल-जुलकर काम करने ही की वजह से तैयार होती हैं, बल्कि ख़ुद आप ज़िन्दा इसी वजह से हैं कि धरती और आकाश की तमाम शक्तियाँ मिलकर आपके पालन-पोषण में लगी हुई हैं। अगर सिर्फ़ एक हवा ही इस काम में अपना सहयोग देना छोड़ दे तो आप ख़त्म हो जाएँगे। यदि पानी, हवा और गर्मि के साथ सहयोग करने से इनकार कर दे तो आप पर बारिश की एक बूंद न बरस सके। यदि मिट्टी पानी के साथ सहयोग करना छोड़ दे तो आपके बाग़ सूख जाएँ, आपकी खेतियाँ कभी न पकें और आपके मकान कभी न बन सकें। यदि दियासलाई की रगड़ से आग पैदा होने पर तैयार न हो तो आपके चूल्हे ठण्डे हो जाएँ और आपके सारे कारख़ाने फ़ौरन ठप हो जाएँ। यदि लोहा आग के साथ सम्बन्ध रखने से इनकार कर दे तो आप रेलें और मोटरें तो दूर रहीं, एक छुरी और एक सुई तक न बना सकें। यानी यह सारी दुनिया जिसमें आप जी रहे हैं, यह केवल इस कारण क़ायम है कि इस विशाल जगत के सभी विभाग पूरी पाबन्दी के साथ एक-दूसरे से मिलकर काम कर रहे हैं और किसी विभाग के किसी कर्मचारी की यह मजाल नहीं है कि अपनी ड्यूटी से हट जाए या नियमानुसार अन्य विभाग के कर्मचारियों से सहयोग का मामला न करे।

यह जो कुछ मैंने आपसे बयान किया है, क्या इसमें कोई बात ग़लत या सत्य के विरुद्ध है? शायद आपमें से कोई भी इसे हरगिज़ असत्य न कहेगा। अच्छा यदि यह सच है तो मुझे बताइए कि यह ज़बरदस्त प्रबन्ध, यह आश्चर्यजनक नियमितता, यह उच्चकोटि की एकरूपता यह आकाश और धरती की असीम एवं अनगिनत चीज़ों और शक्तियों में पूर्ण सामंजस्य तालमेल का आख़िर कारण क्या है?

करोड़ों सालों से यह सृष्टि यों ही क़ायम चली आ रही है, लाखों साल से इस धरती पर पेड़-पौधे उग रहे हैं, जीव-जन्तु पैदा हो रहे हैं और न जाने इस धरती पर कब से इनसान जी रहा है। कभी ऐसा न हुआ कि चाँद ज़मीन पर गिर जाता, या ज़मीन सूरज से टकरा जाती, कभी रात और दिन के हिसाब में अन्तर न आया, कभी हवा के विभाग की जल विभाग से लड़ाई न हुई, कभी पानी मिट्टी से न रूठा, कभी गर्मी ने आग से नाता न तोड़ा। आख़िर इस सल्तनत के समस्त प्रांत, तमाम विभाग, हरकारे और कारिन्दे क्यों इस प्रकार क़ानून और नियम का पालन किए चले जा रहे हैं? क्यों उनमें लड़ाई नहीं होती? क्यों विद्रोह उत्पन्न नहीं होता? किस चीज़ की वजह से ये सब एक व्यवस्था में बंधे हुए हैं? इसका उत्तर अपने दिल से पूछिए। क्या वह गवाही नहीं देता कि एक ही ईश्वर इस सारे विश्व का प्रभु और शासक है, एक ही का आदेश सब पर चल रहा है, एक ही है जिसकी ज़बरदस्त शक्ति ने सबको अपने नियम और ज़ाब्ते में बाँध रखा है? यदि दस-बीस नहीं, दो ख़ुदा भी इस दुनिया के मालिक होते तो यह व्यवस्था इस नियमित रूप से कभी न चल सकती। एक मामूली से स्कूल का प्रबन्ध तो दो हेडमास्टरों की हेडमास्टरी सहन नहीं कर सकता, फिर भला इतनी बड़ी ज़मीन और आकाश की सल्तनत दो प्रभुओं की प्रभुता और दो ख़ुदाओं की ख़ुदाई में कैसे चल सकती थी?

अतः सत्य केवल इतना ही नहीं है कि यह दुनिया किसी बनानेवाले के बिना नहीं बनी है, बल्कि यह भी सत्य है कि इसको एक ही ने बनाया है। सत्य केवल इतना ही नहीं है कि इस विश्व का प्रबन्ध बिना किसी शासक के नहीं हो रहा है, बल्कि यह भी सत्य है कि वह शासक एक ही है। प्रबन्ध की सुव्यवस्था साफ़ कह रही है कि यहाँ एक के सिवा किसी के हाथ में राज्य के अधिकार नहीं हैं। क़ानून की पाबन्दी मुँह से बोल रही है कि इस राज्य में एक हाकिम के सिवा किसी का हुक्म नहीं चलता। क़ानून का सख़्ती से चलना गवाही दे रहा है कि एक बादशाह का राज्य धरती से आकाश तक क़ायम है। चाँद, सूरज और अन्य ग्रह उसी के हाथ में हैं। ज़मीन अपनी तमाम चीज़ों के साथ उसी का आज्ञापालन कर रही है, हवा उसी की ग़ुलाम है, पानी उसी का दास है, नदी और पहाड़ उसी के अधीनस्थ हैं, पेड़ और जीव-जन्तु उसी की आज्ञा का पालन कर रहे हैं, मनुष्य का जीना और मरना उसी के अधिकार में है। उसकी मज़बूत पकड़ ने सबको पूरी ताक़त के साथ जकड़ रखा है और किसी में इतना बल नहीं कि उसके राज्य में अपना हुक्म चला सके। वास्तव में इस सम्पूर्ण व्यवस्था में एक से अधिक हाकिमों के लिए गुंजाइश ही नहीं है। व्यवस्था में प्रकृति यह चाहती है कि आज्ञा लागू करने में कण मात्र भी कोई उसका भागीदार न हो, अकेले वही हुक्म देनेवाला हो और उसके सिवा सब मातहत और अधीन हों। क्योंकि किसी दूसरे के हाथ में हुक्म देने या राज-कार्य का मामूली-सा अधिकार देने का मतलब ही यह होता है कि अव्यवस्था और फ़साद पैदा हो। हुक्म चलाने के लिए केवल ताक़त ही ज़रूरी नहीं है, ज्ञान भी ज़रूरी है। इतनी व्यापक दृष्टि की ज़रूरत है, जो समस्त विश्व को एक ही समय में देख सके और उसकी मस्लहतों को

समझकर आदेश जारी कर सके। अगर जगत्-स्वामी के सिवा कुछ छोटे-छोटे ख़ुदा ऐसे होते जो संपूर्ण विश्व को देखने वाली नज़र तो न रखते किन्तु उन्हें संसार के किसी हिस्से या किसी मामले में अपना हुक्म चलाने का अधिकर प्राप्त होता, तो यह धरती और आकाश का सारा कारख़ाना छिन्न-भिन्न होकर रह जाता। एक मामूली मशीन के बारे में भी आप जानते हैं कि यदि किसी ऐसे व्यक्ति को उसमें हस्तक्षेप का अधिकार दे दिया जाए, जो उससे भली-भांति परिचित न हो तो वह उसे बिगाड़कर रख देगा। इसलिए अक़्ल यह फ़ैसला करती है, धरती और आकाश की सल्तनत की व्यवस्था का अत्यन्त नियमित रूप से चलना इस बात की गवाही देता है कि इस सल्तनत के शाही इख़्तियारात में एक ईश्वर के सिवा और किसी का कण-मात्र भी हिस्सा नहीं है।

यह केवल एक वास्तविकता ही नहीं है, बल्कि सत्य यह है कि ईश्वर के शासन-क्षेत्र में उसके अलावा किसी और का हुक्म चलने की कोई वजह भी नहीं। जिनको उसने स्वयं अपनी शक्ति से उत्पन्न किया है, जो उसकी रचना हैं, जिनका अस्तित्व उसकी दया से क़ायम है, जो उससे बेपरवाह होकर स्वयं अपने बलबूते पर एक क्षण के लिए भी मौजूद नहीं रह सकते, उनमें से किसी की यह हैसियत कब हो सकती है कि ख़ुदाई में उसका हिस्सेदार बन जाए? क्या किसी नौकर को आपने मिल्कियत में मालिक का साझीदार होते देखा है? क्या आपकी अक़्ल में यह बात आती है कि कोई मालिक अपने ग़ुलाम को अपना साझी बनाले? क्या ख़ुद आपमें से कोई व्यक्ति अपने नौकरों में से किसी को अपनी जायदाद में या अपने अधिकारों में हिस्सेदार बनाता है? इस बात पर जब आप विचार करेंगे तो आपका दिल गवाही देगा कि ख़ुदा के इस राज्य में किसी बन्दे को स्वतंत्र रूप से शासन का स्वाधिकार प्राप्त ही नहीं है। ऐसा होना न केवल वास्तविकता के विरुद्ध है, न केवल अक़्ल और प्रकृति के विरुद्ध है, बल्कि सत्य के विरुद्ध भी है।

इनसान की बर्बादी की अस्ल वजह

सज्जनो! यह वे बुनियादी तथ्य हैं जिन पर इस संसार की सम्पूर्ण व्यवस्था चल रही है। आप इस संसार से अलग नहीं हैं, बल्कि उसके अन्दर उसके एक अंश की हैसियत से रहते हैं। अतः आपके जीवन के लिए भी ये तथ्य इसी प्रकार बुनियादी हैं जिस प्रकार सारे संसार के लिए हैं।

आज यह प्रश्न आपमें से हर व्यक्ति के लिए और संसार के तमाम इनसानों के लिए एक चिंताजनक गुत्थी बना हुआ है कि आख़िर हम इनसानों के जीवन से शान्ति और चैन क्यों विदा हो गया है? क्यों प्रतिदिन मुसीबतें और परेशानियाँ हम पर आ रही हैं, क्यों हमारे जीवन की कल बिगड़ गई है? राष्ट्र राष्ट्रों से टकरा रहे हैं। देश-देश में खींचातानी हो रही है। इनसान, इनसान के लिए भेड़िया बन गया है। लाखों लोग लड़ाइयों में मारे जा रहे हैं। करोड़ों और अरबों के व्यापार तहस-नहस हो रहे हैं। बस्तियाँ-की-बस्तियाँ उजड़ रही हैं। ताक़तवर कमज़ोरों को खाए जाते हैं, मालदार ग़रीबों को लूटे लेते हैं। राज्य में अत्याचार है, अदालत में अन्याय है, धन में उन्माद और बदमस्ती है, सत्ता में अहंकार और घमंड है, दोस्ती में बेवफ़ाई है, अमानत में ख़यानत है, आचार-व्यवहार में सत्यता नहीं रही, इनसान पर से इनसान का विश्वास उठ गया, धर्म की आड़ में अधर्म हो रहा है, आदम के बच्चे असंख्य गरोहों में बटे हुए हैं और हर गरोह दूसरे गरोह को धोखा, अत्याचार और बेईमानी, हर संभव तरीक़े से नुक़सान पहुँचाना नेकी और पुण्य का काम समझ रहा है। आख़िर इन सारी ख़राबियों और बुराइयों की वजह क्या है? ख़ुदा की ख़ुदाई में और जिस ओर भी हम देखते हैं शान्ति-ही-शान्ति दिखाई देती है, नक्षत्रों में शान्ति है, हवा में शान्ति है, पानी में शान्ति है, पेड़ों और जीव-जन्तुओं में शान्ति है, पूरे जगत् का प्रबन्ध पूरी शान्ति के साथ चल रहा है, कहीं अव्यवस्था या अशान्ति का चिन्ह नहीं पाया जाता है। मगर इनसान ही की ज़िन्दगी क्यों इस ईश्वरीय देन से वंचित हो गई है?

यह एक बड़ी समस्या है जिसे हल करने में लोगों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। किन्तु मैं पूरे यक़ीन और इत्मीनान के साथ इसका जवाब देना चाहता हूँ। मेरे पास इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि आदमी ने अपने जीवन को वास्तविकता और सत्यता के विरुद्ध बना दिया है। इसलिए वह परेशानी उठा रहा है और जब तक वह फिर उसे वास्तविकता के अनुसार न बनाएगा, कभी चैन न पा सकेगा। आप चलती हुई रेल के दरवाज़े को अपने घर का दरवाज़ा समझ बैठें और उसे खोलकर बेझिझक इस प्रकार बाहर निकल आएँ, जैसे अपने मकान के आँगन में पांव रख रहे हैं तो आपकी इस नासमझी से न रेल का दरवाज़ा घर का दरवाज़ा बन जाएगा और न वह मैदान, जहाँ आप गिरेंगे, आपके घर का आँगन सिद्ध होगा। आपके अपनी जगह कुछ समझ बैठने से हक़ीक़त ज़रा भी न बदलेगी। तेज़ दौड़ती हुई रेल के दरवाज़े से जब आप बाहर पधारेंगे तो उसका जो नतीजा सामने आना है वही सामने आकर रहेगा, चाहे टांग टूटने और सिर फूटने के बाद भी आप यह स्वीकार न करें कि आपने जो कुछ समझा था ग़लत था। ठीक इसी तरह अगर आप यह समझ बैठे कि इस दुनिया का कोई ईश्वर नहीं है या आप ख़ुद अपने ईश्वर बन बैठें या ईश्वर के अलावा किसी और का प्रभुत्व मान लें, तो आपके ऐसा समझने या मान लेने से सच्चाई कभी नहीं बदलेगी। ईश्वर, ईश्वर ही रहेगा। उसका विराट साम्राज्य, जिसमें आप केवल प्रजा और जनता के रूप में रहते हैं, पूरे अधिकारों के साथ उसी के क़ब्ज़े में रहेगा, अलबत्ता आप अपनी इस ग़लतफ़हमी की वजह से ज़िन्दगी गुज़ारने का जो तरीक़ा इख़्तियार करेंगे उसका बहुत ही बुरा नतीजा आपको भुगतना पड़ेगा, चाहे आप कष्ट उठाने के बाद भी अपनी इस ग़लत ज़िन्दगी को अपने तौर पर सत्य ही समझते रहें।

पहले जो कुछ कह चुका हूँ, उसे तनिक अपने दिमाग़ में फिर ताज़ा कर लीजिए। पूरे जगत का ईश्वर किसी के बनाने से पूरे जगत का ईश्वर नहीं बना है। वह इसका मुहताज नहीं है कि आप उसकी ख़ुदाई मानें तो वह ख़ुदा हो, आप चाहे मानें या न मानें वह तो स्वयं ख़ुदा है। उसका राज और प्रभुत्व स्वयं अपने बल पर क़ायम है। उसने आपको और इस विश्व को ख़ुद बनाया है। यह धरती, यह चाँद, यह सूरज और यह सारी सृष्टि उसके हुक्म की पाबन्द है। इस सृष्टि में जितनी शक्तियाँ काम कर रही हैं, सब उसके हुक्म की पाबन्द हैं। वे सारी चीज़ें जिनके बल पर आप ज़िन्दा हैं, उसी के अधिकार-सूत्र में बंधी हैं, ख़ुद आपका अपना वुजूद उसके अधिकार में है, इस सत्य को आप किसी प्रकार बदल नहीं सकते। आप इसको न मानें तब भी यह सत्य है। आप इससे आँखें बन्द कर लें तब भी यह सत्य है, आप इसके सिवा कुछ और समझ बैठें तब भी यह सत्य है। इन सब स्थितियों में सत्य का तो कुछ भी नहीं बिगड़ता अलबत्ता फ़र्क़ यह होता है कि यदि आप इस सत्य को स्वीकार करके अपनी वही हैसियत मान लें जो इस सत्य के अनुसार वास्तव में आपकी है, तो आपका जीवन ठीक होगा, आपको चैन मिलेगा, शान्ति मिलेगी, संतोष और इत्मीनान नसीब होगा, और आपके जीवन की सारी कल ठीक चलेगी। और अगर आपने इस सत्य के विरुद्ध कोई और हैसियत अपनाई तो अंजाम वही होगा जो चलती हुई रेल के दरवाज़े को अपने घर का दरवाज़ा समझकर पाँव बाहर निकालने का होता है। चोट आप ख़ुद खाएँगे, टाँग आपकी टूटेगी, सिर आपका फटेगा, तकलीफ़ आपको पहुँचेगी, सत्य जैसा था वैसा ही रहेगा।

आप पूछेंगे कि इस सत्य के अनुसार हमारी सही हैसियत क्या है? मैं कुछ शब्दों में उसकी तफ़सील बयान कर देता हूँ। अगर किसी नौकर को आप तनख़्वाह देकर पाल रहे हों तो बताइए उस नौकर की असली हैसियत क्या है? यही न, कि वह आपकी नौकरी करे, आपकी आज्ञा का पालन करे, आपके इच्छानुसार काम करे और नौकरी की सीमा से न बढ़े। नौकर का काम आख़िर नौकरी के सिवा और क्या हो सकता है? आप अगर अफ़सर हों और कोई आपका मातहत और अधीन हो तो अधीन का काम क्या है? यही न कि वह आज्ञापालन करे, अफ़सरी की हवा में न रहे। अगर आप किसी जायदाद के मालिक हों तो उस जायदाद में आपकी इच्छा और मर्ज़ी क्या होगी? यही न, कि उसमें आपकी इच्छा चले, जो कुछ आप चाहें वही उसमें हो और आपकी इच्छा के विरुद्ध पत्ता न हिल सके। यदि आप पर कोई सत्ता अधिकार जमाए हुए हो और तमाम शक्तियाँ उसके हाथ में हों तो ऐसे शासन के होते हुए आपकी हैसियत क्या हो सकती है? यही न, कि आप सीधी तरह प्रजा बनकर रहना स्वीकार करें और शासन के नियम के आज्ञापालन से क़दम बाहर न निकालें। बादशाह के राज्य के अन्दर रहते हुए अगर आप स्वयं अपनी बादशाही का दावा करेंगे या किसी दूसरे की बादशाही मानकर उसके हुक्म पर चलेंगे तो आप विद्रोही होंगे और विद्रोही के साथ जो बर्ताव किया जाता है वह आपको मालूम ही है।

इन मिसालों से आप ख़ुद समझ सकते हैं कि ख़ुदा की इस सल्तनत में आपकी सही हैसियत क्या है? आपको उसने बनाया है। स्वाभाविक रूप से आपका काम इसके सिवा कुछ नहीं है कि अपने बनानेवाले की इच्छा पर चलें। आपको वह पाल रहा है और उसी के ख़ज़ाने से आप तनख़ाह ले रहे हैं, आपकी कोई हैसियत इसके सिवा नहीं है कि आप उसके नौकर हैं, आपका और सारी दुनिया का शासक वही है। उसके शासन में आपकी हैसियत आज्ञाकारी और मातहत के सिवा और क्या हो सकती है? यह धरती और आकाश सब उसकी मिल्कियत हैं, इस मिल्कियत में उसी की मर्ज़ी चलेगी और उसी की चलनी चाहिए। आपको यहाँ अपनी मर्ज़ी चलाने का कोई हक़ नहीं है। यदि आप अपनी मर्ज़ी चलाने की कोशिश करेंगे तो मुँह की खाएंगे। इस सल्तनत में उसका शासन उसके अपने बल पर क़ायम है। धरती और आकाश के समस्त विभाग उसके अधिकार में हैं, और आप चाहे राज़ी हों या न हों, आप हर हालत में आप-से-आप उसकी प्रजा हैं। आपकी और किसी इनसान की भी, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, कोई और हैसियत प्रजा होने के सिवा नहीं है, उसी का क़ानून इस सल्तनत में क़ानून है और उसी का हुक्म, हुक्म है। प्रजा में से किसी को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि मैं 'हिज़मैजेस्टी' हूँ, या 'हिज़हाइनेस' हूँ, या डिक्टेटर और सर्वेसर्वा हूँ। न किसी व्यक्ति या पार्लियामेंट या असेम्बली या काउंसिल को यह अधिकार प्राप्त है कि इस राज्य में ईश्वर के बजाए स्वयं अपना क़ानून बनाए और ईश्वर की प्रजा से कहे कि हमारे इस क़ानून का पालन करो। न किसी इनसानी सरकार को यह अधिकर प्राप्त है कि ईश्वर के हुक्म से बेपरवाह होकर ईश्वर के बंदों पर स्वयं अपना हुक्म चलाए और उनसे कहे कि हमारे इस हुक्म का पालन करो। न किसी इनसान और न किसी इनसानी गरोह के लिए यह जाइज़ है कि असली बादशाह की प्रजा बनने के बजाए बादशाही के झूठे दावेदारों में से किसी की प्रजा बनना स्वीकार करें। असली बादशाह के क़ानून को छोड़कर झूठे क़ानून बनानेवालों का क़ानून स्वीकर करें और असली शासक से मुँह मोड़कर झूठ-मूठ की उन सत्ताओं का हुक्म मानने लगें, ये तमाम स्थितियाँ विद्रोह की हैं। बादशाही के अधिकार का दावा करना और ऐसे दावे को स्वीकार करना दोनों काम प्रजा के लिए विद्रोह का हुक्म रखती हैं और इस विद्रोह की सज़ा उन दोनों को मिलना निश्चित है चाहे जल्दी मिले या देर में।

आपकी और प्रत्येक इनसान की चोटी के बाल ईश्वर की मुट्ठी में हैं, जब चाहे पकड़कर घसीट ले। ज़मीन और आसमान के इस राज्य से भाग जाने की शक्ति किसी में नहीं है। आप इससे भागकर कहीं पनाह नहीं ले सकते। मिट्टी में मिलकर अगर आपका एक-एक कण छिन्न-भिन्न हो जाए, आग में जलकर चाहे आपकी राख हवा में फैल जाए, पानी में बहकर चाहे आप मछलियों का भोजन बन जाएँ या समुद्र के पानी में घुल जाएँ, हर जगह से ईश्वर आपको पकड़ कर बुलाएगा। हवा उसकी सेविका है, धरती उसकी दासी है, पानी और मछलियाँ सब उसके हुक्म की पाबन्द हैं। एक इशारे पर आप सब तरफ़ से पकड़ में आ जाएँगे, और फिर वह आप में से एक-एक को बुलाकर पूछेगा कि मेरी प्रजा होकर बादशाही का दावा करने का अधिकार तुम्हें कहाँ से पहुँच गया था? मेरे राज्य में अपना हुक्म चलाने का अधिकार तुम कहाँ से लाए थे? मेरे राज्य में अपना क़ानून लागू करनेवाले तुम कौन थे? मेरे बन्दे होकर दूसरों की बन्दगी करने के लिए तुम कैसे राज़ी हो गए? मेरे नौकर होकर तुमने दूसरों का हुक्म माना, मुझसे तनख़्वाह लेकर दूसरों को अन्नदाता और रोज़ी देनेवाला समझा, मेरे ग़ुलाम होकर दूसरों की ग़ुलामी की, मेरे राज्य में रहते हुए दूसरों की सत्ता स्वीकार की, दूसरों के क़ानून को क़ानून समझा और दूसरों के आदेशों का पालन किया, यह विद्रोह किस प्रकार तुम्हारे लिए उचित हो गया था? कहिए आप में से किसके पास इस आरोप का उत्तर है? कौन-से वकील साहब वहाँ अपने क़ानूनी दाँव-पेच से बचाव का उपाय निकाल सकेंगे? और कौन-सी सिफ़ारिश पर आप भरोसा रखते हैं कि वह आपको इस विद्रोह के जुर्म की सज़ा भुगतने से बचा लेगी?

ज़ुल्म की वजह

भाइयो! यहाँ केवल अधिकार ही का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न भी है कि ईश्वर के इस ऐश्वर्य (शासन-क्षेत्र) में क्या कोई इनसान बादशाही करने या क़ानून बनाने का या हुक्म चलाने के योग्य हो सकता है? जैसा कि मैं अभी कह चुका हूँ कि एक मामूली मशीन के बारे में भी आप यह जानते हैं कि अगर कोई अनाड़ी आदमी जो उसकी मशीनरी का जानकार न हो, उसे चलाएगा तो उसे बिगाड़ देगा। ज़रा किसी अनाड़ी इनसान से एक कार ही चलवाकर देख लीजिए। अभी आपको मालूम हो जाएगा कि इस बेवक़ूफ़ी का क्या अंजाम होता है। अब ख़ुद सोचिए कि लोहे की एक मशीन का हाल जब यह है कि सही जानकारी के बिना उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, तो इनसान जिसकी मनोवृत्तियाँ अत्यन्त उलझी हुई हैं, जिसके जीवन के मामले बेशुमार पहलू रखते हैं और हर पहलू में लाखों गुत्थियाँ हैं, उसकी उलझी हुई मशीनरी को वे लोग क्या चला सकते हैं जो दूसरों को जानना और समझना तो एक तरफ़, ख़ुद अपने आपको भी अच्छी तरह नहीं जानते—नहीं समझते? ऐसे अनाड़ी जब विधान-निर्माता और क़ानूनसाज़ बन बैठेंगे और ऐसे नादान जब इनसान के जीवन की ड्राइवरी करने पर तैयार होंगे, तो क्या इसका अंजाम किसी अनाड़ी आदमी के कार चलाने के अंजाम से कुछ भी भिन्न हो सकता है? यही वजह है कि जहाँ ईश्वर के बजाए इनसानों का बनाया हुआ क़ानून माना जा रहा है और जहाँ ईश्वर के आज्ञापालन से बेपरवाह होकर मनुष्य हुक्म और आदेश दे रहे हैं और मनुष्य उनका आज्ञापालन कर रहे हैं, वहाँ किसी जगह भी शांति नहीं है, किसी जगह भी आदमी को सुख प्राप्त नहीं है, किसी भी जगह इनसानी ज़िंदगी की कल सीधी नहीं चलती। रक्तपात और हत्याएँ हो रही हैं, अत्याचार और अन्याय हो रहा है। लूटखसोट का बाज़ार गर्म है, आदमी का ख़ून आदमी चूस रहा है। अख़लाक़ और सदाचार तबाह हो रहे हैं, सेहत और तन्दुरुस्ती नष्ट हो रही है, सारी शक्तियाँ जो ईश्वर ने मनुष्य को दी थीं, मनुष्य के लाभ के बजाए उसके विनाश और बरबादी में ख़र्च हो रही हैं। यह स्थायी नरक जो इसी दुनिया में इनसान ने अपने लिए ख़ुद अपने हाथों बना लिया है, उसकी वजह इसके सिवा और कुछ नहीं है कि उसने बच्चों के समान शौक़ में आकर इस मशीन को चलाने की कोशिश की, जिसके क़ल-पुज़ों से वह परिचित ही नहीं। इस मशीन को जिसने बनाया है, वही इसके रहस्यों को जानता है, वही इसकी प्रकृति से परिचित है, उसी को भली-भाँति मालूम है कि यह किस प्रकार ठीक चल सकती है। अगर इनसान अपनी बेवक़ूफ़ी छोड़ दे और अपनी अज्ञानता स्वीकार करके उस नियम का पालन करने लगे जो ख़ुद इस मशीन के बनानेवाले ने निश्चित किया है, तब तो जो कुछ बिगड़ा है वह फिर बन सकता है, नहीं तो इन संकटों का कोई हल सम्भव नहीं है।

अन्याय क्यों है?

आप तनिक और गहरी नज़र से देखें तो आपको अज्ञानता के सिवा अपने जीवन के बिगाड़ का एक और कारण भी दिखाई देगा। थोड़ी-सी अक़्ल यह बात समझने के लिए काफ़ी है कि इनसान किसी एक व्यक्ति या एक परिवार या एक जाति का नाम नहीं है। संपूर्ण संसार के इनसान हर हाल में इनसान हैं। सारे इनसानों को जीने का अधिकार है, सब इसके अधिकारी हैं कि उनकी ज़रूरतें पूरी हों। सब शांति के, न्याय के, मान और सम्मान के अधिकारी हैं। इनसानी ख़ुशहाली अगर किसी चीज़ का नाम है तो वह किसी एक व्यक्ति या परिवार या जाति की ख़ुशहाली नहीं, बल्कि तमाम इनसानों की ख़ुशहाली हैं। अन्यथा एक ख़ुशहाल हो और दस बदहाल हों तो आप यह नहीं कह सकते कि इनसान ख़ुशहाल है। कल्याण अगर किसी चीज़ को कहते हैं तो वह सारे इनसानों का कल्याण है, न कि किसी एक वर्ग या एक जाति का। एक के कल्याण और दस के विनाश को आप मानव-कल्याण नहीं कह सकते। इस बात को अगर आप सही समझते हैं तो विचार कीजिए कि मानव-कल्याण और ख़ुशहाली किस प्रकार प्राप्त हो सकती है। मेरी राय में इसका कोई उपाए इसके सिवा नहीं है कि मानव-जीवन के लिए नियम वह बनाए, जिसकी नज़र में सारे इनसान एक समान हों। वह सबके हक़ और अधिकारों को न्याय के साथ निश्चित करे, वह ख़ुद न तो अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ रखता हो और न किसी परिवार या वर्ग के या किसी देश या जाति के लाभ से सम्बन्धित हो। सबके सब हुक्म उसी का मानें जो हुक्म देने में न अपनी अज्ञानता के कारण भूल करे न अपनी इच्छाओं और ख़ाहिशों के कारण राज्याधिकारों से अनुचित लाभ उठाए और न एक का दुश्मन और दूसरे का दोस्त, एक का पक्षपाती और दूसरे का विरोधी, एक की ओर झुका और दूसरे से खिंचा हो। केवल इसी अवस्था में न्याय स्थापित हो सकता है। इसी तरह सारे इनसानों, सभी जातियों, सभी वर्गों और सभी दलों को उनके उचित अधिकार मिल सकते हैं और यही एक उपाय है जिससे अन्याय मिट सकता है।

अब मैं पूछता हूँ कि संसार में कोई इनसान भी ऐसा बेलाग, ऐसा निष्पक्ष, ऐसा निःस्वार्थ और इतना अधिक मानव-दुर्बलताओं से उच्चतर हो सकता है? शायद आप में से कोई व्यक्ति मेरे इस प्रश्न के उत्तर में हाँ कहने का साहस न करेगा। यह महान विशेषता केवल ईश्वर ही के लिए है, कोई दूसरा इस विशेषता का नहीं है। इनसान चाहे कितना ही उदार-हृदय क्यों न हो, तब भी वह अपने कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ रखता है, कुछ मनोकामनाएँ रखता है, किसी से उसका सम्बन्ध अधिक है और किसी से कम, किसी से प्रेम है और किसी से नहीं है, किसी से उसको लगाव है और किसी से नहीं है। इन दुर्बलताओं से कोई इनसान परे नहीं हो सकता। यही वजह है कि जहाँ ईश्वर के स्थान पर इनसान का नियम माना जाता है और ईश्वर के स्थान पर इनसानों का आज्ञापालन किया जाता है, वहाँ किसी-न-किसी रूप में अत्याचार और अन्याय अवश्य पाया जाता है।

उन राजपरिवारों को देखिए जो ज़बरदस्ती अपनी शक्ति के बलबूते पर विशेष अधिकार प्राप्त किए हुए हैं। उन्होंने अपने लिए वह सामान, वह ठाठ, वह आमदनी, वे हक़ अधिकार ख़ास कर लिए हैं, जो दूसरों के लिए नहीं हैं। ये क़ानून से परे हैं, इनके विरुद्ध कोई दावा नहीं किया जा सकता। ये चाहे कुछ करें इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। कोई अदालत उनके नाम समन नहीं भेज सकती। दुनिया देखती है कि ये ग़लतियाँ करते हैं किन्तु कहा यह जाता है और माननेवाले भी मान लेते हैं कि बादशाह ग़लती से पाक हैं। दुनिया देखती है कि ये साधारण इनसान हैं जैसे और इनसान होते हैं, किन्तु वह ईश्वर बनकर सबसे ऊँचे बैठते हैं और लोग उनके सामने यों हाथ बाँधे, सिर झुकाए, डरे-सहमे खड़े होते हैं, जैसे उनकी जीविका, उनका जीवन, उनकी मौत सब उनके हाथ में है। ये प्रजा का पैसा अच्छे और बुरे हर प्रकार से समेटते हैं और अपने महलों पर अपनी सवारियों पर, अपने ऐशो-आराम और भोग-विलास और अपने मनोरंजनों पर बेझिझक लुटाते हैं। उनके कुत्तों को वह रोटी मिलती है जो कमाकर देनेवाली जनता को नसीब नहीं होती। क्या यह न्याय है? क्या यह नियम किसी ऐसे न्यायवान का बनाया हुआ हो सकता है, जिसकी नज़र में सब इनसानों के हक़ और अधिकार और लाभ समान हों?

इन ब्राह्मणों और पीरों को देखिए, इन नवाबों और राजाओं को देखिए, इन जागीरदारों और ज़मींदारों को देखिए, इन साहूकारों और महाजनों को देखिए, ये सब वर्ग अपने आपको आम इनसानों से उच्च समझते हैं। उनके ज़ोर और असर से जितने नियम संसार में बने हैं वे उन्हें ऐसे अधिकार देते हैं जो आम इनसानों को नहीं दिए गए। ये पवित्र हैं और दूसरे अपवित्र, ये शिष्ट हैं और दूसरे अशिष्ट, ये ऊँचे हैं और दूसरे नीचे, ये लूटनेवाले हैं और दूसरे लुटने के लिए। इनके मन की इच्छाओं पर लोगों की जान, माल, इज़्ज़त, आबरू हर एक चीज़ भेंट चढ़ा दी जाती है। क्या ये नियम किसी न्यायकर्ता के बनाए हुए हो सकते हैं? क्या इनमें खुले तौर पर स्वार्थपरता और पक्षपात दिखाई नहीं देता?

इन शासक लोगों को देखिए, जो अपनी शक्ति के बल पर दूसरे लोगों को ग़ुलाम बनाए हुए हैं। उनका कौन-सा नियम और कौन-सा विधान ऐसा है जिसमें स्वार्थ शामिल नहीं है? ये अपने आपको सबसे ऊँचा इनसान कहते हैं, बल्कि वास्तव में केवल अपने ही को इनसान समझते हैं। उनके निकट कमज़ोर जातियों के लोग या तो इनसान ही नहीं हैं या यदि हैं तो निचले दर्जे के हैं। ये हर हैसियत से अपने आपको दूसरों से ऊँचा ही रखते हैं और अपने स्वार्थों पर दूसरों के लाभ को भेंट चढ़ाना अपना अधिकार समझते हैं। उनके ज़ोर और प्रभाव से जितने नियम और विधान संसार में बने हैं, उन सब में यह रंग मौजूद है।

ये कुछ मिसालें मैंने सिर्फ़ इशारे के तौर पर दी हैं, विस्तार का यहाँ अवसर नहीं। मैं केवल यह बात आपके मस्तिष्क में बिठाना चाहता हूँ कि दुनिया में जहाँ भी इनसान ने क़ानून बनाया है वहाँ अन्याय अवश्य हुआ है। कुछ इनसानों को उनके उचित अधिकार से बहुत अधिक दिया गया है और कुछ इनसानों के अधिकार न केवल हड़प लिए गए हैं, बल्कि उन्हें इनसानियत के दर्जे से गिरा देने में भी संकोच नहीं किया गया है। इसकी वजह इनसान की यह कमज़ोरी है कि वह जब किसी मामले का फ़ैसला करने बैठता है तो उसके दिल और दिमाग़ पर ख़ुद का या अपने ख़ानदान या अपनी नस्ल या अपने वर्ग या अपनी जाति ही के हित का ध्यान छाया रहता है। दूसरों के हक़ और लाभ के लिए उसके पास वह हमदर्दी की नज़र नहीं होती जो अपनों के लिए होती है। मुझे बताइए, क्या इस अन्याय का कोई इलाज इसके सिवा सम्भव है कि सारे इनसानी क़ानूनों को जल-मग्न कर दिया जाए और उस ईश्वर के क़ानून को हम सब स्वीकार कर लें, जिसकी नज़र में एक इनसान और दूसरे इनसान के बीच कोई भेद नहीं। भेद अगर है तो केवल उसके आचार, उसके व्यवहार और उसके गुणों (Merits) के पहलू से है, न कि वंश या वर्ग या जाति के पहलू से?

शांति किस प्रकार स्थापित हो सकती है?

भाइयो! इस मामले का एक और पहलू भी है, जिसे में अनदेखा नहीं कर सकता। आप जानते हैं कि इनसान को क़ाबू में रखनेवाली चीज़ सिर्फ़ ज़िम्मेदारी का एहसास ही है। अगर किसी आदमी को यह यक़ीन हो जाए कि वह जो चाहे करे, कोई उससे पूछताछ करनेवाला नहीं है और न उसके ऊपर कोई ऐसी ताक़त है जो उसे सज़ा दे सके, तो आप समझ सकते हैं कि वह बेलगाम और निरंकुश बन जाएगा। यह बात जिस तरह एक व्यक्ति के बारे में ठीक है, उसी तरह एक कुटुम्ब, एक वर्ग, एक जाति और सारी दुनिया के इनसानों के बारे में भी ठीक है। एक ख़ानदान जब यह महसूस करता है कि उससे कोई पूछताछ नहीं कर सकता तो वह आपे से बाहर हो जाता है। एक वर्ग भी जब उत्तरदायित्व और जवाबदेही से निडर होता है तो दूसरों पर अत्याचार करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। एक जाति या एक राज्य भी जब अपने आपको इतना शक्तिशाली पाता है कि अपने अत्याचार के किसी बुरे परिणाम का भय उसे नहीं होता, तो वह जंगल के भेड़िए के समान कमज़ोर बकरियों को फाड़ना और खाना शुरू कर देता है। दुनिया में जितनी अशांति पाई जाती है, उसकी एक बड़ी वजह यही है। जब तक इनसान अपने से ऊँची किसी सत्ता को स्वीकार न करे, और जब तक उसे विश्वास न हो कि मुझसे ऊपर कोई ऐसा है, जिसको मुझे अपने कामों (कर्मों) का जवाब देना है और जिसके हाथ में इतनी शक्ति है कि मुझे सज़ा दे सकता है, उस समय तक यह किसी प्रकार सम्भव नहीं है कि अत्याचार का दरवाज़ा बन्द हो और वास्तविक शांति स्थापित हो सके।

अब मुझे बताइए कि ऐसी शक्ति विश्व-विधाता ईश्वर के सिवा और कौन सी हो सकती है? ख़ुद इनसानों में से तो ऐसा कोई नहीं हो सकता, क्योंकि जिस इनसान या जिस इनसानी तबक़े को भी आप यह हैसियत देंगे, ख़ुद उसके निरंकुश और सरकश हो जाने की सम्भावना है, ख़ुद उससे आशंका है कि सब राक्षसों का; एक राक्षस वह हो जाएगा, और ख़ुद उससे यह भय है कि स्वार्थ और पक्षपात से काम लेकर, वह कुछ इनसानों को गिराएगा और कुछ को उठाएगा। यूरोप ने इस समस्या को हल करने के लिए "राष्ट्र-संघ" (League Of Nations) बनाया था। किन्तु वह बहुत जल्द सफ़ेद रंगवाली जातियों का संघ बनकर रह गया और उसने कुछ शक्तिशाली साम्राज्यों के हाथ में खिलौना बनकर निर्बल जातियों के साथ अन्याय आरम्भ कर दिया। इस तजरबे के बाद इस बात में कोई शक बाक़ी नहीं रह सकता कि ख़ुद इनसान में से किसी ऐसी शक्ति का पैदा हो जाना असम्भव है, जिसकी जवाबतलबी का भय एक-एक आदमी से लेकर संसार की जातियों और साम्राज्यों तक को वश और क़ाबू में रख सकता हो। ऐसी शक्ति स्वभावतः मानवीय क्षेत्र से बाहर और उसके ऊपर ही होनी चाहिए और वह केवल सम्पूर्ण जगत के स्वामी ईश्वर ही की शक्ति हो सकती है। हम यदि अपनी भलाई चाहते हैं तो हमारे लिए इसके सिवा कोई उपाय ही नहीं कि ईश्वर पर विश्वास करें, उसकी सत्ता के आगे अपने आपको आज्ञाकारी प्रजा के समान सौंप दें, और इस विश्वास के साथ संसार में जीवन व्यतीत करें कि वह सम्राट हमारे छिपे और खुले सब कामों को जानता है और एक दिन हमें उसकी अदालत में अपनी पूरी ज़िन्दगी के कामों का हिसाब देना है। हमारे सज्जन, सभ्य और शांति-प्रिय इनसान बनने का केवल यही एक उपाय है।

एक संदेह

अब मैं अपनी बात को समाप्त करने से पहले एक सन्देह को दूर कर देना ज़रूरी समझता हूँ जो सम्भवतः आप में से हर एक के दिल में पैदा हो रहा होगा। आप सोच रहे होंगे कि जब ईश्वर का साम्राज्य इतना शक्तिशाली है कि मिट्टी के एक कण से लेकर चन्द्रमा और सूर्य तक हर चीज़ उसके क़ाबू में है, और जब इनसान उसके साम्राज्य में केवल एक प्रजा की हैसियत रखता है, तो आख़िर यह सम्भव कैसे हुआ कि इनसान उसके साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करे और ख़ुद अपनी बादशाही का एलान करके उसकी प्रजा पर अपना क़ानून चलाए? क्यों नहीं ईश्वर उसका हाथ पकड़ लेता और क्यों उसको सज़ा नहीं देता? इन प्रश्नों का उतर मैं संक्षिप्त शब्दों में दूँगा।

बात यह है कि ईश्वर के साम्राज्य में मनुष्य की हैसियत लगभग ऐसी है जैसे एक बादशाह किसी आदमी को अपने राज्य के किसी ज़िले का अधिकारी नियुक्त करके भेज देता है। राज्य बादशाह ही का होता है, प्रजा भी उसकी ही होती है। रेल, टेलीफ़ोन, सेना और दूसरी सारी शक्तियाँ बादशाह ही के हाथ में रहती हैं, और बादशाह का शासन इस ज़िले पर चारों ओर से इस प्रकार छाया रहता है कि इस छोटे से ज़िले का अधिकारी उसकी तुलना में बिलकुल विवश होता है। यदि बादशाह चाहे तो उसे पूरी तरह मजबूर कर सकता है कि उसकी आज्ञा से बाल बराबर मुँह न मोड़ सके। किन्तु बादशाह उस अधिकारी की बुद्धि की, उसकी पात्रता और उसकी योग्यता की परीक्षा लेना चाहता है, इसी लिए वह उसपर से अपनी पकड़ इतनी ढीली कर देता है कि उसे अपने ऊपर अपने से ऊँची कोई सत्ता महसूस नहीं होती। अब यदि वह अधिकारी अक़्लमन्द, नमक हलाल, कर्तव्यनिष्ठ और वफ़ादार है तो इस ढीली पकड़ के होते हुए भी वह अपने आपको प्रजा और नौकर ही समझता रहता है। बादशाह के राज्य में उसी के क़ानून के अनुसार हुकूमत करता है और जो अधिकार बादशाह ने उसे दिए हैं उन्हें ख़ुद बादशाह की इच्छा के अनुसार उपयोग में लाता है। उसके इस विश्वसनीय आचार-व्यवहार से उसकी योग्यता साबित हो जाती है और बादशाह उसे अधिक ऊँचे पदों के योग्य पाकर उन्नतियों पर उन्नतियाँ देता चला जाता है। किन्तु यदि वह अधिकारी बेवक़ूफ़, नमकहराम, और दुष्ट हो और प्रजा के वे लोग जो उस ज़िले में रहते हैं नासमझ और नादान हों, तो अपने ऊपर सत्ता की पकड़ ढीली पाकर वह विद्रोह पर आमादा हो जाता है, उसके दिमाग़ में ख़ुदमुख़्तारी (स्वायत्तता) की हवा भर जाती है। यह ख़ुद अपने आपको ज़िले का मालिक समझकर आज़ादी के साथ मनमानी शासन चलाने लगता है और मूर्ख प्रजा के लोग केवल यह देखकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर लेते हैं कि वेतन यह देता है, पुलिस इसके पास है, अदालतें इसके हाथ में हैं, जेल की हथकड़ियाँ और फाँसी के तख़ते इसके अधिकार में हैं, और हमारे भाग्य के बनाने या बिगाड़ने के अधिकार यह रखता है। बादशाह इस अंधी प्रजा और इस विद्रोही अफ़सर दोनों के आचार-व्यवहार को देखता रहता है। वह चाहे तो तुरन्त पकड़ ले और ऐसी सज़ा दे कि होश ठिकाने न रहें। किन्तु वह उन दोनों की पूरी परीक्षा लेना चाहता है, इसलिए वह बड़ी ही बर्दाश्त और धैर्य के साथ उन्हें ढील देता चला जाता है, जिससे कि जितनी अयोग्याताएँ उनमें भरी हुई हैं, पूर्ण रूप से प्रकट हो जाएँ। उसकी शक्ति इतनी प्रबल है कि उसे इस बात का कोई भय ही नहीं है कि यह अधिकारी कभी ज़ोर पकड़कर उसका सिंहासन छीन लेगा। उसे इस बात की भी कोई आशंका नहीं कि ये विद्रोही ओर नमकहराम लोग उसकी पकड़ से निकलकर कहीं भाग जाएँगे। इसलिए उसे जल्दबाज़ी के साथ फ़ैसला कर लेने की कोई ज़रूरत नहीं। वह वर्षों बल्कि शताब्दियों तक ढील देता रहता है, यहाँ तक कि जब ये लोग अपनी पूरी दुष्टता प्रकट कर चुकते हैं और कोई कसर उनके प्रकट होने में नहीं रहती तब वह एक दिन अपना प्रकोप उनपर भेजता है और वह ऐसा समय होता है कि कोई उपाय उस समय उन्हें उसके प्रकोप से नहीं बचा सकता।

सज्जनो! मेरी और आपकी और ईश्वर के बनाए हुए इन अधिकारियों की इसी तरह आज़माइश हो रही है। हमारी अक़्ल की, हमारी क्षमता और बर्दाश्त की, हमारी फ़र्ज़शनासी (कर्तव्यनिष्ठा) की, हमारी वफ़ादारी की कठिन परीक्षा हो रही है। अब हम में से हर इनसान को ख़ुद फ़ैसला करना चाहिए कि वह अपने असली मालिक का नमक हलाल अधिकारी या प्रजा बनना पसन्द करता है या नमकहराम। मैंने अपने लिए नमकहलाली का फ़ैसला कर लिया है और मैं हर उस इनसान का विद्रोही हूँ जो ईश्वर का विद्रोही है। आप अपने फ़ैसले में आज़ाद हैं, चाहे यह रास्ता अपनाएँ या वह। एक ओर वे हानियाँ हैं और वे लाभ हैं जो ईश्वर के ये विद्रोही नौकर पहुँचा सकते हैं और दूसरी ओर वे हानियाँ और वे लाभ हैं जो ईश्वर स्वयं पहुँचा सकता है। दोनों में से जिसको आप चुनना चाहें चुन सकते हैं।

स्रोत

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