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आदाबे ज़िन्दगी

आदाबे ज़िन्दगी

लेखक

मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ इस्लाही

अनुवादक

डॉ० कौसर यज़दानी नदवी

प्रकाशक

मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

(अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।)

दो बातें

ज़िन्दगी से भरपूर फ़ायदा उठाना, मज़ा लेना और असल कामयाब ज़िन्दगी गुज़ारना यक़ीनी तौर पर आपका हक़ है, लेकिन उसी वक़्त जब आप ज़िन्दगी का सलीक़ा जानते हों, कामयाब ज़िन्दगी के उसूल और आदाब की जानकारी रखते हों और न सिर्फ़ जानकारी रखते हों, बल्कि अमली तौर पर आप उन उसूलों और आदाब से अपनी ज़िन्दगी को सँवारने और बनाने की बराबर कोशिशें कर रहे हों।

अदब व सलीक़ा, सफ़ाई-सुथराई, पाकी और पाकीज़गी, अच्छे अख़लाक़, नेक अमल, हमदर्दी, भाईचारा, नर्मी, मिठास, त्याग, क़ुरबानी, बेग़र्ज़ी, ख़ुलूस, मुस्तैदी, फ़र्ज़ निभाने का एहसास, ख़ुदा से डरना, परहेज़गारी, हिम्मत, बहादुरी वग़ैरह ये इस्लामी ज़िन्दगी की ऐसी सुन्दर पहचान हैं, जिनकी वजह से मोमिन की बनी-सँवरी ज़िन्दगी में वह ग़ैर मामूली कशिश और अथाह आकर्षण पैदा हो जाता है कि न सिर्फ़ मुसलमान, बल्कि इस्लाम को न समझनेवाले ख़ुदा के दूसरे बन्दे भी बेइख़तियार उसकी ओर खिंचने लगते हैं और आम ज़ेहन यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि इनसानियत से भरी हुई जो तहज़ीब ज़िन्दगी को निखारने, सँवारने और ग़ैर मामूली आकर्षण पैदा करने के लिए इनसानियत को यह क़ीमती उसूल व आदाब देती है, वह यक़ीनन हवा और रोशनी की तरह सारे इनसानों की आम मीरास है और बेशक इस क़ाबिल है कि पूरी इनसानियत उसको क़बूल करके उसकी बुनियादों पर अपने निजी और सामूहिक जीवन का सफल निर्माण करे, ताकि दुनिया की ज़िन्दगी भी सुख-शान्ति से गुज़रे और दुनिया के बाद की ज़िन्दगी में भी वह सब कुछ मिले, जो एक कामयाब ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है।

इस 'आदाबे ज़िन्दगी' में इस्लामी तहज़ीब के उन्हीं उसूल और आदाब को लेख क्रम के साथ पेश करने की कोशिश की गई है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं और बुज़ुर्गों की अमली रहनुमाई और इस्लामी स्वभाव की रोशनी में ज़िन्दगी का सलीक़ा सिखानेवाला यह संग्रह (मजमूआ) पाँच महत्वपूर्ण अध्यायों पर आधारित है—

पहला अध्यायसलीक़ा व तहज़ीब

दूसरा अध्यायअल्लाह की इबादत

तीसरा अध्यायबेहतर समाज

चौथा अध्याय— दीन की दावत

पाँचवाँ अध्याय बन्दगी का एहसास

इन पाँच अध्यायों के तहत ज़िन्दगी के लगभग सभी पहलुओं से ताल्लुक़ रखनेवाले इस्लामी आदाबों को—

  • प्रभावी क्रम,
  • आसान और सादा ज़ुबान,
  • सबकी समझ में आनेवाली और दिल में बैठ जानेवाली व्याख्या और,
  • ज़ोरदार दलीलों

—के साथ वर्णन शैली में क्रमश: पेश किया गया है।

आशा है कि 'आदाबे ज़िन्दगी' का यह संग्रह हर वर्ग और हर उम्र के व्यक्तियों के लिए ख़ुदा की मेहरबानी से बहुत ज़्यादा फ़ायदेमन्द साबित होगा। इस्लाम से मुहब्बत रखनेवाले भाई और बहनें इन क़ीमती आदाब और दर्द भरी दुआओं से अपनी ज़िन्दगियाँ भी सँवारें और अपने छोटों के अख़लाक़, आदतों और तौर-तरीक़ों को भी सुधारने और बनाने की कोशिश करें और जहाँ तक मुमकिन हो, छोटों को ये आदाब और दुआएँ याद कराएँ, इन आदातों से सजी हुई ज़िन्दगी दुनिया में भी इज़्ज़त व एहतिराम और मुहब्बत व अक़ीदत की निगाह से देखी जाएगी और आख़िरत में भी अच्छे बदले और इनाम की हक़दार बन जाएगी।

किताब की तरतीब में जिन अहम किताबों से फ़ायदा उठाया गया है, उनके हवाले मौक़े ही पर दे दिए गए हैं।

अल्लाह बुज़ुर्ग व बरतर से दुआ है कि वह इस सेवा को क़बूल फ़रमाए और मुसलमानों को तौफ़ीक़ दे कि वे इन उसूल व आदाब से अपनी ज़िन्दगियों को बना-सँवारकर इस्लाम के लिए दिलों में गुंजाइश और शौक़ व अक़ीदत के जज़्बात पैदा करें और यह संग्रह (मजमूआ) ख़ुदा के बन्दों को ख़ुदा के सच्चे दीन की तरफ़ खींच लाने में एक असरदार ज़रिया और तरतीब देनेवाले के लिए मग़फिरत का ज़रिया साबित हो और दीन के उन ख़ादिमों को भी अच्छे बदले में शरीक फ़रमाए, जिनकी क़ीमती किताबों से फ़ायदा उठाया गया है। आमीन!!!

मुहम्मद यूसुफ़ इस्लाही

30 अगस्त, सन् 1967 ई०

अध्याय-1

सलीक़ा और तहज़ीब

1. पाकी और सफ़ाई के आदाब

ख़ुदा ने उन लोगों को अपना महबूब क़रार दिया है जो पाकी और सफ़ाई पर पूरा-पूरा ध्यान देते हैं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“पाकी और सफ़ाई आधा ईमान है।"

यानी आधा ईमान तो यह है कि आदमी रूह को पाक-साफ़ रखे और आधा ईमान यह है कि आदमी जिस्म की सफ़ाई और पाकी का ख़याल रखे।

रूह की पाकी यह है कि उसको कुफ़्र व शिर्क और ख़ुदा की नाफ़रमानी और गुमराही की गन्दगियों से पाक करके साफ़-सुथरे अक़ीदे और पाकीज़ा अख़लाक़ से सजाया जाए और जिस्म की पाकी और सफ़ाई यह है कि उसको ज़ाहिरी नापाकियों से पाक व साफ़ रखकर सफ़ाई और सलीक़े के आदाब से सजाया जाए—

1. सोकर उठने के बाद हाथ धोए बग़ैर पानी के बरतन में हाथ न डालिए। क्या मालूम सोते में आपका हाथ कहाँ-कहाँ पड़ा हो?

2. ग़ुस्लख़ाने की ज़मीन पर पेशाब करने से परहेज़ कीजिए, ख़ासतौर से उस वक़्त, जबकि ग़ुस्लख़ाने की ज़मीन कच्ची हो।

3. ज़रूरतों से फ़ारिग़ होने के लिए न क़िबला रुख़ बैठिए और न क़िबले की तरफ़ पीठ कीजिए। फ़ारिग़ होने के बाद ढेले और पानी से इस्तिंजा कीजिए या सिर्फ़ पानी से पाकी हासिल कीजिए। लीद, हड्डी और कोयले वग़ैरह से इस्तिंजा न कीजिए और इस्तिंजा के बाद साबुन या मिट्टी से ख़ूब अच्छी तरह हाथ धो लीजिए।

4. जब पेशाब-पाख़ाने की ज़रूरत हो तो खाना खाने न बैठिए, फ़ारिग़ होने के बाद खाना खाइए।

5. खाना वग़ैरह खाने के लिए दाहिना हाथ इस्तेमाल कीजिए। वुज़ू में दाएँ हाथ से काम लीजिए और इस्तिंजा करने और नाक वग़ैरह साफ़ करने के लिए बाएँ हाथ का इस्तेमाल कीजिए।

6. नर्म जगह पर पेशाब कीजिए ताकि छीटें न उड़ें और हमेशा बैठकर पेशाब कीजिए। हाँ, अगर ज़मीन बैठने के लायक़ न हो या कोई वाक़ई मजबूरी हो तो खड़े होकर पेशाब कर सकते हैं, लेकिन आम हालात में यह बड़ी गंदी आदत है, जिससे सख़्ती के साथ परहेज़ करना चाहिए।

7. नदी, नहर के घाट पर, आम रास्तों पर और छायादार जगहों पर हाजत पूरी करने के लिए न बैठिए, इससे दूसरे लोगों को तकलीफ़ भी होगी और अदब व तहज़ीब के ख़िलाफ़ भी है।

8. जब पाख़ाना जाना हो तो जूता पहनकर और सर को टोपी वग़ैरह से ढाँपकर जाइए और जाते वक़्त यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्-म इन्नी अऊज़ु बि-क मिनल ख़ुबुसि वल ख़बाइस। (बुख़ारी, मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! तेरी पनाह चाहता हूँ शैतानों से, उन शैतानों से भी जो नर हैं और उनसे भी जो मादा हैं।"

और जब पाख़ाने से बाहर आएँ तो यह दुआ पढ़िए—

अल-हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी अज़-ह-ब अन्निल अज़ा व आफ़ानी। (नसई, इब्ने माजा)    

"ख़ुदा का शुक्र है, जिसने मुझसे तकलीफ़ दूर फ़रमाई और मुझे आफ़ियत (कुशलता) बख़्शी।"

9. नाक साफ़ करने या बलग़म थूकने के लिए एहतियात के साथ उगालदान इस्तेमाल कीजिए या लोगों से नज़र बचाकर अपनी ज़रूरतें पूरी कीजिए।

10 बार-बार नाक में उँगली डालने और नाक की गन्दगी निकालने से परहेज़ कीजिए। अगर नाक साफ़ करने की ज़रूरत हो, तो लोगों की नज़र से बचकर अच्छी तरह इतमीनान से सफ़ाई कर लीजिए।

11. रूमाल में बलग़म थूककर मलने से सख़्ती के साथ परहेज़ कीजिए। यह बड़ी घिनौनी आदत है, अलावा इसके कि कोई मजबूरी हो।

12. मुँह में पान भरकर इस तरह बातें न कीजिए कि सामनेवाले आदमी पर छींटें पड़ें और उसे तकलीफ़ हो। इसी तरह अगर तम्बाकू और पान ज़्यादा खाते हों, तो मुँह साफ़ रखने पर भी बहुत ज़्यादा ध्यान दीजिए और इसका भी ख़याल रखिए कि बात करते वक़्त अपना मुँह सामनेवाले आदमी के क़रीब न ले जाएँ।

13. वुज़ू काफ़ी एहतिमाम के साथ कीजिए और अगर हर वक़्त मुमकिन न हो तो ज़्यादा से ज़्यादा बावुज़ू रहने की कोशिश कीजिए। जहाँ पानी न मिले, तयम्मुम कर लीजिए। 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' कहकर वुज़ू शुरू कीजिए और वुज़ू के बीच यह दुआ पढ़िए—

अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु वह-दहू ला शरी-क लहू व अश्हदु अन्-न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू अल्लाहुम्मज-अलनी मिनत्तव्वाबी-न वज-अलनी मिनल मु-त-तह्हिरीन। (तिरमिज़ी)

“मैं गवाही देता हूँ कि ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं, वह अकेला है, उसका कोई शरीक नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुदा के बन्दे और उसके रसूल हैं। ऐ ख़ुदा! मुझे उन लोगों में शामिल कर, जो बहुत ज़्यादा तौबा करनेवाले और बहुत ज़्यादा पाक-साफ़ रहनेवाले हैं।"

और वुज़ू करने के बाद यह दुआ पढ़िए—

सुब्हा-न-कल्लाहुम्-म व बिहम्दि-क अश्हदु अल्ला इला-ह इल्ला अन्-त अस्तग़्फ़िरु-क व अतूबु इलै-क!

“ऐ अल्लाह! तू पाक व बरतर है, अपनी हम्द व सना के साथ। मैं गवाही देता हूँ कि कोई माबूद नहीं मगर तू ही है। मैं तुझसे मग़फ़िरत चाहता हूँ और तेरी तरफ़ रुजू करता हूँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“क़ियामत के दिन मेरी उम्मत की निशानी यह होगी कि उनकी पेशानियाँ और वुज़ू के आज़ा (अंग) नूर से जगमगा रहे होंगे, तो जो आदमी अपने नूर को बढ़ाना चाहे, बढ़ा ले।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

14. पाबन्दी के साथ मिस्वाक कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि अगर मुझे उम्मत की तकलीफ़ का ख़याल न होता तो में हर वुज़ू में उनको मिस्वाक करने का हुक्म देता। एक बार आपके पास कुछ लोग आए जिनके दाँत पीले हो रहे थे। आपने देखा, तो ताकीद फ़रमाई कि मिस्वाक किया करो।

15. सप्ताह में एक बार तो ज़रूर ही ग़ुस्ल (स्नान) कीजिए। जुमा के दिन ग़ुस्ल का एहतिमाम कीजिए और साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर जुमा की नमाज़ में शिरकत कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अमानत की अदाएगी आदमी को जन्नत में ले जाती है।"

सहाबा ((रज़ियल्लाहु अन्हा)) ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! अमानत से क्या मतलब है?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“नापाकी से पाक होने के लिए ग़ुस्ल करना, इससे बढ़कर ख़ुदा ने कोई अमानत मुक़र्रर नहीं की है। इसलिए जब आदमी को नहाने की ज़रूरत हो जाए तो ग़ुस्ल करे।”

16. नापाकी की हालत में न मस्जिद में जाइए और न मस्जिद में से गुज़रिए और अगर कोई शक्ल मुमकिन ही न हो तो तयम्मुम करके मस्जिद में जाइए या गुज़रिए।

17. बालों में तेल डालने और कंघा करने का भी एहतिमाम कीजिए। दाढ़ी के बढ़े हुए बेढंगे बालों को क़ैंची से ठीक कर लीजिए। आँखों में सुरमा भी लगाइए। नाख़ून कटवाने और साफ़ रखने का भी एहतिमाम कीजिए और सादगी और सन्तुलन के साथ मुनासिब साज-सज्जा का एहतिमाम कीजिए।

18. छींकते वक़्त मुँह पर रूमाल रख लीजिए, ताकि किसी पर छींट न पड़े। छींकने के बाद 'अल-हम्दु लिल्लाह' (ख़ुदा का शुक्र है) कहिए। सुनने वाला 'यर्हमुकल्लाह' (ख़ुदा आप पर रहम फ़रमाए) कहे और उसके जवाब में 'यहदीकल्लाह' (ख़ुदा आप को हिदायत दे) कहिए।

19. ख़ुशबू का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुशबू को बहुत पसन्द करते थे। आप सोकर उठने के बाद जब ज़रूरतों से फ़ारिग होते तो ख़ुशबू ज़रूर लगाते।

2. सेहत के आदाब

1. सेहत ख़ुदा की बहुत बड़ी नेमत है और बहुत बड़ी अमानत भी। सेहत की क़द्र कीजिए और इसकी हिफ़ाज़त में कभी लापरवाही न कीजिए। एक बार जब सेहत बिगड़ जाती है, तो फिर बड़ी मुश्किल से बनती है। जिस तरह छोटी-सी दीमक बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियों को चाटकर तबाह कर डालती है, उसी तरह सेहत के मामले में ज़रा सी लापरवाही और छोटी-सी बीमारी ज़िन्दगी को तबाह कर डालती है। सेहत के मामले में ग़फ़लत बरतना और उसकी हिफ़ाज़त में कोताही करना बेहिसी भी है और ख़ुदा की नाशुक्री भी।

इनसानी ज़िन्दगी की असल ख़ूबी अक़्ल, अख़लाक़, ईमान और सलीक़ा है, और अक़्ल व अख़लाक़, ईमान और सलीक़ा की सेहत का दारोमदार भी बड़ी हद तक जिस्म की सेहत पर है। अक़्ल व दिमाग़ को बढ़ाने, अख़लाक़ी बड़ाई के तक़ाज़े और दीनी ज़िम्मेदारियों को अदा करने के लिए जिस्म की सेहत बुनियाद की हैसियत रखती है। कमज़ोर और बीमार जिस्म में अक़्ल व दिमाग़ भी कमज़ोर होते हैं और उनकी कारगुज़ारी भी निहायत ही हौसला तोड़नेवाली होती है और जब ज़िन्दगी उमंगों, वलवलों और हौसलों से दूर हो, इरादे कमज़ोर हों और भावनाएँ ठंडी हों तो ऐसी बेरौनक़ ज़िन्दगी कमज़ोर जिस्म के लिए बोझ बन जाती है।

ज़िन्दगी में मोमिन को जो बड़े कारनामे अंजाम देने और ख़िलाफ़त की जिस बड़ी ज़िम्मेदारी को निभाना है, उसके लिए ज़रूरी है कि जिस्म में जान हो, अक़्ल व दिमाग़ में ताक़त हो, इरादों में मज़बूती हो, हौसलों में बुलन्दी हो और ज़िन्दगी वलवलों, उमंगों और अच्छे जज़्बात से भरपूर हो। सेहतमन्द और ज़िन्दादिल लोगों से ही ज़िन्दा क़ौमें बनती हैं और ऐसी ही क़ौमें ज़िन्दगी के मैदान में बड़ी क़ुरबानियाँ देकर अपनी जगह पैदा करती हैं और ज़िन्दगी का मूल्य और महत्व समझाती हैं।

2. हमेशा हँसते-मुस्कराते और चाक़ व चौबन्द रहिए। हँसकर, मुस्कराकर, अपने अख़लाक़ और ज़िन्दा-दिली से ज़िंदगी को सजाइए, दिलचस्प और सेहतमन्द बनाए रखिए। ग़म, ग़ुस्सा, रंज, फ़िक्र, हसद, जलन, बुरा चाहना, तंग-नज़री, मुर्दा-दिली और दिमाग़ी उलझनों से दूर रहिए।

ये अख़लाक़ी बीमारियाँ और ज़ेहनी उलझनें मेदे पर बहुत बुरा असर डालती हैं और मेदे की ख़राबी सेहत की बदतरीन दुश्मन है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“सीधे-सादे रहो, बीच का रास्ता अपनाओ और हँसते-मुस्कराते रहो।" (मिश्कात)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक बूढ़े आदमी को देखा कि वह अपने दो बेटों का सहारा लिए हुए उनके बीच में घसिटता हुआ जा रहा है। आपने पूछा, "इस बूढ़े को क्या हो गया है?" लोगों ने बताया कि इसने बैतुल्लाह तक पैदल जाने की नज़्र मानी थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"ख़ुदा इससे बेनियाज़ है कि यह बूढ़ा ख़ुद को अज़ाब में डाले और उस बूढ़े को हुक्म दिया कि सवार होकर अपना सफ़र पूरा करो।"

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार एक जवान आदमी को देखा कि मरियल चाल चल रहा है। उन्होंने उसको रोका और पूछा, "तुम्हें क्या बीमारी है?" उसने कहा, "कोई बीमारी नहीं है।" उन्होंने अपना दुर्रा उठाया और उसको धमकाते हुए कहा, "रास्ते पर पूरी ताक़त के साथ चलो।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब रास्ते पर चलते तो निहायत जमे हुए क़दम रखते और इस तरह ताक़त के साथ चलते कि जैसे किसी ढलान में उतर रहे हों।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं—

“मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ज़्यादा मुस्करानेवाला कोई आदमी नहीं देखा।” (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी उम्मत को जो दुआ सिखाई है, उसका भी एहतिमाम कीजिए—

अल्लाहुम-म अऊज़ु बि-क मिनल हम्मि वल-हुज़्नि वल-अज्ज़ि वल-कसलि व ज़लइद्दैनि व ग़-ल-बतिर्रिजाल।  (बुख़ारी, मुस्लिम)

"ऐ ख़ुदा! मैं अपने को तेरी पनाह में देता हूँ परेशानी से, ग़म से, बेचारगी से, सुस्ती और काहिली से, क़र्ज़ के बोझ से और इस बात से कि लोग मुझको दबाकर रखें।"

3. अपने जिस्म पर बरदाश्त से ज़्यादा बोझ न डालिए। जिस्म की ताक़तों को बरबाद न कीजिए। जिस्म की ताक़तों का यह हक़ है कि उनकी हिफ़ाज़त की जाए और उनसे बरदाश्त के मुताबिक़ काम लिया जाए।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“उतना ही अमल करो, जितना कर सकने की तुम्हारे अन्दर ताक़त हो, इसलिए कि ख़ुदा नहीं उकताता, यहाँ तक कि ख़ुद तुम ही उकता जाओ।" (बुख़ारी)

हज़रत अबू क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में ऐसे वक़्त हाज़िर हुए जबकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुतबा दे रहे थे। हज़रत अबू क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) धूप में खड़े हो गए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुक्म दिया तो वे साए की तरफ़ हट गए। (अल-अदबुल मुफ़रद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इससे भी मना फ़रमाया कि आदमी के जिस्म का कुछ हिस्सा धूप में रहे और कुछ साए में।

क़बीला बाहिला की एक औरत मुजीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि एक बार मेरे अब्बा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के यहाँ दीन का इल्म हासिल करने के लिए गए और दीन की कुछ अहम बातें मालूम करके घर वापस आ गए। फिर एक साल के बाद दोबारा आप की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन्हें बिलकुल न पहचान सके तो उन्होंने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आपने मुझे पहचाना नहीं?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "नहीं, मैंने तो तुम्हें नहीं पहचाना। अपना परिचय कराओ!" उन्होंने कहा, "मैं क़बीला बाहिला का एक आदमी हूँ, पिछले साल भी आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ था।" तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा, "यह तुम्हारी हालत क्या हो रही है? पिछले साल जब आए थे तब तो तुम्हारी शक्ल व सूरत और हालत बड़ी अच्छी थी।" उन्होंने बताया कि जब से मैं आपके पास से गया हूँ। उस वक़्त से अब तक बराबर रोज़े रख रहा हूँ, सिर्फ़ रात में खाना खाता हूँ।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “तुमने ख़्वाह मख़्वाह अपने को तकलीफ़ में डाला (और अपनी सेहत बरबाद कर डाली)।" फिर आपने हिदायत फ़रमाई कि रमज़ान में महीने भर के रोज़े रखो और उसके अलावा हर महीने एक रोज़ा रख लिया करो। उन्होंने कहा, "हुज़ूर एक दिन से ज़्यादा की इजाज़त दीजिए।" इरशाद फ़रमाया, “अच्छा, हर महीने में दो दिन रोज़े रख लिया करो।" उन्होंने फिर कहा, "हुज़ूर! कुछ और ज़्यादा की इजाज़त दीजिए।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अच्छा हर महीने में तीन दिन।" उन्होंने कहा, "हुजूर! कुछ और बढ़ा दीजिए।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अच्छा, हर साल मुहर्रम के महीने में रोज़े रखो और छोड़ दो। ऐसा ही हर साल करो।" यह इरशाद फ़रमाते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी तीन उँगलियों से इशारा फ़रमाया, उनको मिलाया, फिर छोड़ दिया (इस तरह यह बताना चाहते थे कि रजब, शव्वाल, ज़ी-क़अदा और ज़िल-हिज्जा में रोज़े रखा करो और किसी साल नाग़ा भी कर दिया करो)।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है, "मोमिन के लिए मुनासिब नहीं है कि वह अपने को ज़लील (रुसवा) करे।" लोगों ने पूछा, "मोमिन भला कैसे अपने आपको ज़लील करता है?" इरशाद फ़रमाया, "अपने आपको बरदाश्त न होने के क़ाबिल आज़माइश में डाल देता है।" (तिरमिज़ी)

4. हमेशा सख़्ती सहने, मेहनत-मशक़्क़त करने और बहादुरी दिखानेवाली ज़िन्दगी गुज़ारिए। हर तरह की सख़्तियाँ झेलने और मुश्किल से मुश्किल वक़्त का मुक़ाबला करने की आदत डालिए, और सख़्त जान बनकर सादा और मुजाहिदाना ज़िन्दगी गुज़ारने का एहतिमाम कीजिए। आराम-तलब, सहलपसन्द, नज़ाकतपसन्द, काहिल, पस्तहिम्मत और दुनियापरस्त न बनिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यमन का गवर्नर बनाकर भेजने लगे तो हिदायत फ़रमाई—

“मुआज़ अपने को आराम-तलबी से बचाए रखना, इसलिए कि ख़ुदा के बन्दे आराम-तलब नहीं होते।" (मिश्कात)

और हज़रत अबू उमामा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"सादा (साधारण) ज़िन्दगी गुज़ारना ईमान की निशानी है।" (अबू दाऊद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सादा और मुजाहिदाना ज़िन्दगी गुज़ारते थे और हमेशा अपनी मुजाहिदाना ताक़त को बचाए रखने और बढ़ाने की कोशिश करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तैरने में भी दिलचस्पी रखते थे, इसलिए कि तैरने से बेहतरीन वरज़िश हो जाती है। एक बार एक तालाब में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कुछ साथी तैर रहे थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तैरनेवालों में से हर एक की जोड़ी मुक़र्रर फ़रमा दी कि हर आदमी अपने जोड़े की ओर तैरकर पहुँचे। चुनाँचे प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथी हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) क़रार पाए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तैरते हुए उन तक पहुँचे और जाकर उनकी गरदन पकड़ ली।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को सवारी के लिए घोड़ा बहुत पसन्द था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने घोड़े की ख़ुद ख़िदमत फ़रमाते, अपने हाथ से उसका मुँह पोंछते और साफ़ करते। उसके सिर के बालों को अपनी उँगलियों से कंघी करते और कहते, "भलाई इसकी पेशानी से क़ियामत तक के लिए जुड़ी हुई है।"

हज़रत उक़्बा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“तीर चलाना सीखो। घोड़े पर सवार हुआ करो। तीरंदाज़ी करनेवाले मुझे घोड़ों पर सवार होनेवालों से भी ज़्यादा पसन्द हैं और जिसने तीरंदाजी सीखकर छोड़ दी, उसने ख़ुदा की नेमत की नाक़द्री की।" (अबू दाऊद)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जिसने ख़तरे के मौक़े पर मुजाहिदों की देखभाल की, उसकी यह रात शबेक़द्र से ज़्यादा अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) है।" (हाकिम) 

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा किराम को ख़िताब करते हुए फ़रमाया—

"मेरी उम्मत पर वह वक़्त आनेवाला है जब दूसरी क़ौमें उसपर इस तरह टूट पड़ेंगी जिस तरह खानेवाले दस्तरख़्वान पर टूट पड़ते हैं," तो किसी ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या उस ज़माने में हमारी तादाद इतनी कम हो जाएगी कि हमें निगल लेने के लिए क़ौमें एकजुट होकर हम पर टूट पड़ेंगी?" इरशाद फ़रमाया— “नहीं, उस वक़्त तुम्हारी तादाद कम न होगी, बल्कि तुम बहुत बड़ी तादाद में होगे, लेकिन तुम बाढ़ में बहनेवाले तिनकों की तरह बेवज़न होगे। तुम्हारे दुश्मनों के दिलों से तुम्हारा रौब निकल जाएगा और तुम्हारे दिलों में पस्तहिम्मती घर कर लेगी।" इसपर एक आदमी ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! यह पस्तहिम्मती किस वजह से आ जाएगी?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "इस वजह से कि तुम दुनिया से मुहब्बत और मौत से नफ़रत करने लगोगे”।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“बेहतरीन ज़िन्दगी उस आदमी की ज़िन्दगी है जो अपने घोड़े की लगाम पकड़े हुए ख़ुदा की राह में उसको उड़ाता फिरता है। जहाँ किसी ख़तरे की ख़बर सुनी, घोड़े की पीठ पर बैठकर दौड़ गया। क़त्ल और मौत से ऐसा निडर है गोया उसकी खोज में है।" (मुस्लिम)

5. औरतें भी मेहनत व मशक़्क़त की ज़िन्दगी गुज़ारें। घर के काम-काज अपने हाथों से करें। चलने-फिरने और तकलीफ़ बरदाश्त करने की आदत डालें। आराम-तलबी, सुस्ती और आराम-पसन्दी से बचें और बच्चों को भी शुरू से ही मेहनती और सख़्त जान बनाने की कोशिश करें। घर में नौकर हों तो भी अपने बच्चों को बात-बात में नौकर का सहारा लेने से मना करें और आदत डलवाएँ कि बच्चे अपना काम ख़ुद अपने हाथ से करें। सहाबिया औरतें अपने घरों का काम अपने हाथ से ख़ुद करती थीं। रसोई घर का काम ख़ुद करतीं, चक्की पीसतीं, पानी भरकर लातीं, कपड़े धोतीं, सिलाई-बुनाई का काम करतीं और मेहनत-मशक़्क़त की ज़िन्दगी गुज़ारतीं और ज़रूरत पड़ने पर लड़ाई के मैदान में घायलों की मरहम-पट्टी करने और पानी पिलाने का इन्तिज़ाम भी सँभाल लेतीं। इससे औरतों की सेहत भी बनी रहती है, अख़लाक़ भी सेहतमन्द रहते हैं और बच्चों पर भी उसके अच्छे असरात पड़ते हैं। इस्लाम की नज़र में पसन्दीदा बीवी वही है जो घर के काम-काज में लगी रहती हो और जो रात-दिन इस तरह अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों में लगी हुई हो कि उसके चेहरे से मेहनत की थकन भी ज़ाहिर हो और बावर्चीख़ाने की कालिख और धुएँ का धुआँसा भी ज़ाहिर हो रहा हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“मैं और धूमिल गालोंवाली औरत क़ियामत के दिन इस तरह होंगे।" (आपने शहादत की उँगली और बीच की उँगली को मिलाते हुए बताया।)

6. सुबह जल्दी उठने की आदत डालिए सोने में सन्तुलन रखिए। न इतना कम सोइए कि जिस्म को पूरी तरह आराम व सुकून न मिल सके और जिस्म में थकन और टूटन रहे, और न इतना ज़्यादा सोइए कि सुस्ती और काहिली पैदा हो। रात को जल्द सोने और सुबह को जल्द उठने की आदत डालिए।

सुबह उठकर ख़ुदा की बन्दगी बजा लाइए और बाग़ या मैदान में टहलने और तफ़रीह करने के लिए निकल जाइए। सुबह की ताज़ा हवा सेहत पर बहुत अच्छा असर डालती है। हर दिन अपने जिस्म की ताक़त के लिहाज़ से मुनासिब और हल्की-फुल्की वरज़िश का भी एहतिमाम कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बाग़ की तफ़रीह को पसन्द फ़रमाते थे और कभी-कभी ख़ुद भी बाग़ में तशरीफ़ ले जाते थे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इशा के बाद जागने और बातें करने को मना फ़रमाया और फ़रमाया "इशा के बाद वही आदमी जाग सकता है, जिसको कोई दीनी बात करनी हो या फिर घरवालों से ज़रूरत की बातचीत करनी हो।”

7. आत्म-संयम (ज़ब्ते नफ़्स) की आदत डालिए। अपने जज़्बों, ख़यालों, ख़्वाहिशों और शहवतों (काम वासनाओं) पर क़ाबू रखिए। अपने दिल को बहकने, ख़यालों को बिखरने और निगाह को आवारा होने से बचाइए। ख़्वाहिशों का बहकाव और नज़र की आवारगी से दिल व दिमाग़, सुकून व आफ़ियत से महरूम हो जाते हैं और ऐसे चेहरे जवानी के हुस्न व जमाल, मलाहत (लावण्य), कशिश और मर्दों जैसी ख़ूबियों की दिलकशी से महरूम हो जाते हैं और फिर वे ज़िन्दगी के हर मैदान में पस्तहिम्मत, पस्तहौसला और डरपोक साबित होते हैं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"आँखों का ज़िना बदनिगाही (कुदृष्टि) और ज़बान का ज़िना बेहयाई की बातें हैं। नफ़्स तक़ाज़े करता है, और शर्मगाह या तो उसकी तस्दीक़ कर देती है या उसे झुठला देती है।"

किसी अक़्लमन्द आदमी ने कहा है—

मुसलमानो! बदकारी के क़रीब न फटको, इसमें छ: ख़राबियाँ हैं। तीन ख़राबियाँ तो दुनिया की हैं और तीन आख़िरत की। दुनिया की तीन ख़राबियाँ ये हैं कि इससे—

  • आदमी के चेहरे की रौनक़ और कशिश जाती रहती है।
  • आदमी पर ग़रीबी और फ़क़ीरी की मुसीबत नाज़िल होती है, और
  • उसकी उम्र कम हो जाती है।

8. नशीली चीज़ों से बचिए। नशीली चीज़ें दिमाग़ पर भी असर डालती हैं और मेदे पर भी। शराब तो ख़ैर हराम है ही, इसके अलावा भी जो नशीली चीज़ें हैं, उनसे भी परहेज़ कीजिए।

9. हर काम में बीच का रास्ता अपनाइए और सादगी पर ध्यान दीजिए। जिस्मानी मेहनत में, दिमाग़ी कामों में, मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ में, खाने-पीने में, सोने और आराम करने में, फ़िक्र करने और हँसते रहने में, खेल-तमाशों और इबादत में, चाल-ढाल और बातचीत में, ग़रज़ हर चीज़ में बीच का रास्ता अपनाइए और उसको ख़ैर व ख़ूबी का ख़ज़ाना समझिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुशहाली में बीच का रास्ता क्या ही ख़ूब है, ग़रीबी में बीच का रवैया क्या ही भला है और इबादत में बीच का रास्ता क्या ही बेहतर है।" (कंज़ुल उम्माल)

10. खाना हमेशा वक़्त पर खाइए। ज़्यादा खाने से बचिए, हर वक़्त मुँह चलाने से परहेज़ कीजिए। खाना भूख लगने पर ही खाइए और जब कुछ भूख बाक़ी हो तो उठ जाइए। भूख से ज़्यादा तो हरगिज़ न खाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ईमानवाला एक आँत में खाता है और ग़ैर ईमानवाला सात आँतों में खाता है।” (तिरमिज़ी)

सेहत पेट के ठीक-ठाक रहने पर सही रहती है और ज़्यादा खाने से मेदा ख़राब हो जाता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसे एक मिसाल से भी समझाया है—

“मेदा बदन के लिए हौज़ की तरह है और नसें इस हौज़ से सींची जानेवाली हैं। इसलिए अगर मेदा सही और तन्दुरुस्त है तो नसें भी सेहत से सिंची हुई लौटेंगी और अगर मेदा ही ख़राब और बीमार है, तो नसें बीमारी चूसकर लौटेंगी।" (बैहक़ी)

कम खाने पर उभारते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“एक आदमी का खाना दो आदमियों के लिए काफ़ी है।"

11. हमेशा साधारण खाना खाइए, बग़ैर छने हुए आटे की रोटी खाइए। ज़्यादा गर्म खाना खाने से भी परहेज़ कीजिए। मसालों, चटख़ारों और ज़रूरत से ज़्यादा ज़ायक़ेदार चीज़ों से परहेज़ कीजिए।

ऐसे खानों को पसन्द कीजिए जो जल्द हज़्म हों और साधारण हों और जिनसे जिस्म को सेहत और ताक़त मिले। सिर्फ़ लज़्ज़त हासिल करने और ज़बान का ज़ायका हासिल करने के पीछे न पड़िए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बग़ैर छने आटे की रोटी पसन्द करते। ज़्यादा पतली और मैदे की चपाती पसन्द न करते। बहुत ज़्यादा गर्म खाना, जिसमें भाप निकलती होती, न खाते, बल्कि ठंडा होने का इन्तिज़ार करते। गर्म खाने के बारे में कभी फ़रमाते कि ख़ुदा ने हमको आग नहीं खिलाई है और कभी इरशाद फ़रमाते कि गर्म खाने से बरकत नहीं होती। आप गोश्त पसन्द फ़रमाते, ख़ास तौर पर हाथ, गर्दन और पीठ का गोश्त चाव से खाते। हक़ीक़त में जिस्म को ताक़त पहुँचाने और मुजाहिदाना मिज़ाज बनाने के लिए गोश्त एक अहम और ज़रूरी भोजन है और मोमिन का सीना हर वक़्त मुजाहिदाना जज़्बों से आबाद रहना चाहिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी ख़ुदा की राह में जिहाद किए बग़ैर मर गया और उसके दिल में इसकी आरज़ू भी नहीं थी, वह निफ़ाक़ (कपट) की एक हालत में मरा।" (मुस्लिम)

12. खाना निहायत इतमीनान व सुकून के साथ ख़ूब चबा-चबाकर खाइए। ग़म, ग़ुस्सा, रंज और घबराहट की हालत में खाने से परहेज़ कीजिए। ख़ुशी और ज़ेहनी सुकून की हालत में इतमीनान के साथ जो खाना खाया जाता है, वह जिस्म को ताक़त पहुँचाता है और रंज व फ़िक्र और घबराहट में जो खाना निगला जाता है, वह मैदे पर बुरा असर डालता है और इससे जिस्म को पूरी तरह ताक़त नहीं मिल पाती। दस्तरख़्वान पर न तो बिलकुल ख़ामोश, दुखी और ग़मगीन होकर बैठिए और न हद से बढ़ी हुई दिल्लगी ज़ाहिर कीजिए कि दस्तरख़्वान पर ठहाके उठने लगें। खाने के दौरान ठहाके लगाना, कभी-कभी जान के लिए ख़तरे की वजह भी बन जाता है।

दस्तरख़्वान पर सन्तुलन के साथ हँसते-बोलते रहिए, ख़ुशी-ख़ुशी खाना खाइए और ख़ुदा की दी हुई नेमतों पर उसका शुक्र अदा कीजिए और जब बीमार हों तो परहेज़ भी पूरे एहतिमाम से कीजिए।

उम्मे मुंज़िर (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरे यहाँ तशरीफ़ लाए। हमारे यहाँ खजूर के ख़ोशे लटक रहे थे। हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उनमें से खाने लगे, हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी आपके साथ थे। वे भी खाने लगे तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनको रोक दिया कि तुम अभी बीमारी से उठे हो, तुम मत खाओ। चुनाँचे हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) रुक गए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) खाते रहे। उम्मे मुंज़िर (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि फिर मैंने थोड़ा-सा जौ और चुकन्दर लेकर पकाया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से फ़रमाया, "अली! इसे खाओ, यह तुम्हारे लिए मुनासिब खाना है।" (शमाइले तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दस्तरख़्वान पर जब कोई मेहमान होता तो वे बार-बार उससे फ़रमाते जाते, खाइए और खाइए। जब मेहमान ख़ूब पेट भर लेता और बेहद इनकार करता, तब आप अपने इसरार से बाज़ आते। यानी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बड़ी ही ख़ुशगवार और ख़ुशी के माहौल में मुनासिब बातें करते हुए खाना खाते।

13. दोपहर का खाना खाने के बाद थोड़ी देर क़ैलूला (आराम) ज़रूर कीजिए और रात का खाना खाने के बाद थोड़ी देर चहल-क़दमी कीजिए और खाना खाने के बाद तुरन्त कोई सख़्त क़िस्म का दिमाग़ी या जिस्मानी काम हरगिज़ न कीजिए। अरबी की मशहूर कहावत है—

त-ग़द-द त-मद-द, त-अश-श त-मश-श।

"दोपहर का खाना खाओ, तो लम्बे हो जाओ। रात का खाना खाओ तो चहल क़दमी करो।"

14. आँखों की हिफ़ाज़त का पूरा एहतिमाम कीजिए, तेज़ रौशनी से आँखें न लड़ाइए। सूरज की तरफ़ नज़र जमाकर न देखिए। ज़्यादा हल्की या ज़्यादा तेज़ रौशनी में न पढ़िए, हमेशा साफ़ और दरमियानी रौशनी में पढ़िए। ज़्यादा जागने से भी बचिए। धूल-ग़ुबार से आँखों को बचाइए। आँखों में सुरमा लगाइए और हमेशा आँखें साफ़ रखने की कोशिश कीजिए। खेतों, बाग़ों और हरी-हरी घासों में सैर व तफ़रीह कीजिए। हरियाली देखने से निगाहों पर अच्छा असर पड़ता है। आँखों को बदनिगाही (बुराई) से बचाइए। इससे आँखें बेरौनक़ हो जाती हैं और सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"तुम्हारी आँखों का भी तुम पर हक़ है। मोमिन का फ़र्ज है कि वह ख़ुदा की इस नेमत की क़द्र करे, उसको ख़ुदा की मरज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल करे, उसकी हिफ़ाज़त और सफ़ाई का एहतिमाम रखे, वे सारी तदबीरें अपनाए, जिनसे आँखों को फ़ायदा पहुँचता हो और उन बातों से बचा रहे, जिनसे आँखों को नुक़सान पहुँचता हो।”

इसी तरह जिस्म के दूसरे अंगों और ताक़त की हिफ़ाज़त का भी ख़याल रखिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“लोगो! आँखों में सुरमा लगाया करो। सुरमा आँख के मैल को दूर करता है और बालों को उगाता है।" (तिरमिज़ी)

15. दाँतों की सफ़ाई और हिफ़ाज़त का एहतिमाम कीजिए। दाँतों को साफ़ रखने से फ़रहत (ख़ुशी) हासिल होती है, हाज़मे पर अच्छा असर पड़ता है और दाँत मज़बूत रहते हैं। मिस्वाक की आदत डालिए, अच्छे मंजन वग़ैरह का भी इस्तेमाल कीजिए। पान या तम्बाकू वग़ैरह की ज़्यादती से दाँतों को ख़राब न कीजिए। खाने से पहले और खाने के बाद दाँतों को अच्छी तरह साफ़ कर लिया कीजिए।

दाँत गन्दे रहने से तरह-तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं, इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा था कि जब नींद से जागते तो मिस्वाक से अपना मुँह साफ़ करते। (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं—

"हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिए वुज़ू का पानी और मिस्वाक तैयार रखते थे। जिस वक़्त भी ख़ुदा का हुक्म होता, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उठ बैठते थे और मिस्वाक करते थे। फिर वुज़ू करके नमाज़ अदा करते थे।" (मुस्लिम)

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"मैं तुम लोगों को मिस्वाक करने के बारे में बहुत ताकीद कर चुका हूँ।" (बुख़ारी)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“मिस्वाक मुँह को साफ़ रखनेवाली और ख़ुदा को राज़ी करनेवाली चीज़ है।" (नसई)

आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"अगर मैं अपनी उम्मत के लिए बोझ न समझता तो हर नमाज़ के वक़्त मिस्वाक करने का हुक्म देता।" (अबू दाऊद)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से मिलने के लिए कुछ मुसलमान हाज़िर हुए, उनके दाँत साफ़ न होने की वजह से पीले हो रहे थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नज़र पड़ी तो फ़रमाया—

"तुम्हारे दाँत पीले क्यों नज़र आ रहे हैं? मिस्वाक किया करो।" (मुस्नद अहमद)

16. पेशाब-पाख़ाने की ज़रूरत हो तो फ़ौरन ज़रूरत पूरी कीजिए। इन ज़रूरतों को रोकने से मेदे और दिमाग़ पर बहुत बुरे असरात पड़ते हैं।

17. पाकी और सफ़ाई का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए। क़ुरआन में है—

"ख़ुदा उन लोगों को अपना महबूब रखता है जो बहुत ज़्यादा पाक व साफ़ रहते हैं।" (क़ुरआन, अत्तौबा)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सफ़ाई और पाकीज़गी आधा ईमान है।"

सफ़ाई और पाकीज़गी की इसी अहमियत को देखते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पाकी के अहकाम खुलकर बयान किए हैं और हर मामले में पाकी और सफ़ाई की ताकीद की है। खाने-पीने की चीज़ों को ढँककर रखिए, उन्हें गन्दा होने से बचाइए और मक्खियों से हिफ़ाज़त कीजिए। बरतनों को साफ़-सुथरा रखिए, कपड़ों और लेटने-बैठने के बिस्तरों को पाक-साफ़ रखिए। उठने-बैठने की जगहों को साफ़-सुथरा रखिए। जिस्म की सफ़ाई के लिए वुज़ू और ग़ुस्ल (नहाने) का एहतिमाम कीजिए। जिस्म, कपड़े और ज़रूरत की सारी चीज़ों की सफ़ाई और पाकीज़गी से रूह को भी ख़ुशी हासिल होती है और जिस्म को भी ताज़गी मिलती है। इस तरह कुल मिलाकर इनसानी सेहत पर इसका बहुत ही ज़्यादा ख़ुशगवार असर पड़ता है।

हज़रत अदी बिन हातिम (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“जब से मैंने इस्लाम क़बूल किया है हर नमाज़ के लिए बावुज़ू रहता हूँ।" (मुस्लिम)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत बिलाल (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछा, "कल तुम मुझसे पहले जन्नत में कैसे दाख़िल हो गए?" बोले, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मैं जब भी अज़ान कहता हूँ तो दो रकअत नमाज़ ज़रूर पढ़ लेता हूँ और जिस वक़्त भी वुज़ू टूटता है फ़ौरन नया वुज़ू करके हमेशा बावुज़ू रहने की कोशिश करता हूँ।”

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"हर मुसलमान का ख़ुदा पर यह हक़ है कि हर हफ़्ते में एक दिन ज़रूर नहाया (स्नान) करे और अपने सिर और बदन को धोया करे।" (बुख़ारी)

3. लिबास के आदाब

1. लिबास ऐसा पहनिए जो शर्म व हया, ग़ैरत व शराफ़त और जिस्म को ढाँके और उसकी हिफ़ाज़त के काम को पूरा करे और जिससे तहज़ीब व सलीक़ा और ज़ीनत व जमाल ज़ाहिर होता हो।

क़ुरआन पाक में अल्लाह तआला ने अपनी इस नेमत का ज़िक्र करते हुए इरशाद फ़रमाया है—

“ऐ आदम की औलाद! हमने तुम पर लिबास उतारा है कि तुम्हारे जिस्म की शर्मगाहों को ढाँके और तुम्हारे लिए ज़ीनत और हिफ़ाज़त का ज़रिया भी हो।" (क़ुरआन 7:26)

क़ुरआन मजीद की उक्त आयत में अरबी शब्द 'रीश' आया है। 'रीश' दरअसल चिड़ियों के पंखों को कहते हैं। चिड़ियों के पंख उसके लिए ख़ूबसूरती का भी ज़रिया हैं और जिस्म की हिफ़ाज़त का भी। आम इस्तेमाल में 'रीश' शब्द जमाल व ज़ीनत और बहुत अच्छे लिबास के लिए बोला जाता है।

लिबास का मक़सद साज-सज्जा और जिस्म को मौसम के असर से बचाना भी है, लेकिन पहला मक़सद शर्मवाले अंगों को ढाँकना ही है। ख़ुदा ने शर्म व हया इनसान की फ़ितरत में पैदा की है। यही वजह है कि जब हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत हव्वा (अलैहस्सलाम) से जन्नत का अच्छा लिबास उतरवा लिया गया तो वे जन्नत के पेड़ों के पत्तों से अपने जिस्मों को ढाँपने लगे। इसलिए लिबास में इस मक़सद को सबसे ज़्यादा अपने सामने रखिए और ऐसा लिबास चुनिए जिससे शर्मगाहों को ढकने का मक़सद अच्छी तरह पूरा हो सके। साथ ही, इसका भी एहतिमाम रहे कि लिबास मौसम के असर से जिस्म की हिफ़ाज़त करनेवाला भी हो और ऐसा सलीक़े का लिबास हो जो ज़ीनत व जमाल और तहज़ीब का भी ज़रिया हो। ऐसा न हो कि उसे पहनकर आप कोई अजूबा या खिलौना बन जाएँ और लोगों के लिए हँसी और दिल्लगी का सामान इकट्ठा हो जाए।

2. लिबास पहनते वक़्त यह सोचिए कि यह वह नेमत है जिससे ख़ुदा ने सिर्फ़ इनसान को नवाज़ा है। दूसरी मख़लूक़ (जीव) इससे महरूम हैं। इस ख़ास बख़शिश व इनाम पर ख़ुदा का शुक्र अदा कीजिए और ख़ुदा की नाशुक्री और नाफ़रमानी कभी न कीजिए। लिबास ख़ुदा की एक ज़बरदस्त निशानी है। लिबास पहनें तो इस एहसास को ताज़ा कीजिए और शुक्रगुज़ारी के जज़्बों को उस दुआ के लफ़्ज़ों में ज़ाहिर कीजिए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मोमिनों को सिखाई है।

3. बेहतरीन लिबास तक़वा का लिबास है। तक़वा के लिबास से बातिनी पाकीज़गी भी मुराद है और ज़ाहिरी परहेज़गारी का लिबास भी, यानी ऐसा लिबास पहनिए जो शरीअत की नज़र में परहेज़गारों का लिबास हो, जिससे घमंड और ग़ुरूर ज़ाहिर न होता हो, जो न औरतों के लिए मर्दों जैसा बनने का ज़रिया हो और न मर्दों के लिए औरतों जैसा बनने का। ऐसा लिबास पहनिए जिसको देखकर महसूस हो सके कि लिबास पहननेवाला कोई शरीफ़ और भला आदमी है। और औरतें लिबास की उन हदों को ध्यान में रखें जो शरीअत ने उनके लिए मुक़र्रर कर दी हैं और मर्द उन हदों का ख़याल रखें जो शरीअत ने उनके लिए मुक़र्रर की हैं।

4. नया लिबास पहनें तो कपड़े का नाम लेकर ख़ुशी ज़ाहिर कीजिए कि ख़ुदा ने अपने फ़ज़्ल व करम से यह कपड़ा दिया और शुक्र के जज़्बों में डूबकर नया लिबास पहनने की वह दुआ पढ़िए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पढ़ा करते थे।

हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब कोई नया कपड़ा, अमामा, कुरता या चादर पहनते तो उसका नाम लेकर फ़रमाते—

अल्लाहुम-म ल-कल हम्दु अन-त कसौ-तनीहि, अस्अलु-क ख़ै-रहू व ख़ै-रमा सुनि-अ लहू व अऊज़ु बि-क मिन शर्रिहि व शर्रिमा सुनि-अ लहू। (अबू दाऊद)

"ऐ अल्लाह! तेरा शुक्र है, तूने मुझे यह लिबास पहनाया, मैं तुझसे इसकी भलाई चाहता हूँ और मैं अपने आपको तेरी पनाह में देता हूँ इस लिबास की बुराई से और इसके मक़सद के उस बुरे पहलू से, जिसके लिए यह बनाया गया है।"

दुआ का मतलब यह है कि ऐ ख़ुदा! तू मुझे तौफ़ीक़ दे कि तेरा बख़्शा हुआ लिबास उन्हीं मक़सदों में लगाऊँ जो तेरे नज़दीक पाक़-साफ़ मक़सद है। मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं इससे अपनी शर्मगाहों को छिपा सकूँ और बेशर्मी और बेहयाई की बातों से अपने ज़ाहिर व बातिन को बचाए रख सकूँ और शरीअत की हदों में रहते हुए मैं इसके ज़रिए अपने जिस्म की हिफ़ाज़त कर सकूँ और उसको ज़ीनत व जमाल का ज़रिया बना सकूँ, कपड़े पहनकर न तो दूसरों पर अपनी बड़ाई जताऊँ, न घमंड करूँ और न तेरी इस नेमत को इस्तेमाल करने में शरीअत की उन हदों को तोड़ूँ जो तूने अपने बन्दों और बन्दियों के लिए मुक़र्रर फ़रमाई हैं।

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी नए कपड़े पहने, अगर वह गुंजाइश रखता हो, तो अपने पुराने कपड़े किसी ग़रीब को ख़ैरात में दे दे और नए कपड़े पहनते वक़्त यह दुआ पढ़े—

अल्हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी कसानी मा उवारी बिही औ-रती व अ-त-जम्मलु बिही फ़ी हयाती। (तिरमिज़ी)

“सारी तारीफ़ और हम्द उस ख़ुदा के लिए है, जिसने मुझे ये कपड़े पहनाए जिससे मैं अपनी शर्मगाह ढाँकता हूँ और जो इस ज़िन्दगी में मेरे लिए हुस्न व जमाल का भी ज़रिया है।"

जो आदमी भी नया कपड़ा पहनते वक़्त यह दुआ पढ़ेगा, अल्लाह तआला उसको ज़िन्दगी में भी और मौत के बाद भी अपनी हिफ़ाज़त और निगरानी में रखेगा।

5. कपड़े पहनते वक़्त सीधी तरफ़ का ख़याल रखिए। क़मीज़, कुरता, शेरवानी और कोट वग़ैरह पहनें तो पहले सीधी आस्तीन पहनिए और इसी तरह पाजामा वग़ैरह पहनें तो पहले सीधे पैर में पाँयचा डालिए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब क़मीज़ पहनते तो पहले दाएँ हाथ को आस्तीन में डालते और फिर बायाँ हाथ आस्तीन में डालते, इसी तरह जब आप जूता पहनते तो पहले सीधा पाँव सीधे जूते में डालते फिर उल्टा पाँव उल्टे जूते में डालते और जूता उतारते वक़्त पहले उल्टा पाँव जूते में से निकालते, फिर सीधा पाँव निकालते।

6. कपड़े पहनने से पहले ज़रूर झाड़ लीजिए, हो सकता है कि उसमें कोई तकलीफ़ पहुँचानेवाला जानवर हो और ख़ुदा न करे कोई तकलीफ़ पहुँचाए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार एक जंगल में अपने मोज़े पहन रहे थे। पहला मोज़ा पहनने के बाद जब आपने दूसरा मोज़ा पहनने का इरादा किया, तो एक कौवा झपटा और मोज़ा उठाकर उड़ गया और काफ़ी ऊपर ले जाकर छोड़ दिया। वह मोज़ा जब ऊँचाई से नीचे गिरा तो गिरने की चोट से उसमें से एक साँप दूर जा पड़ा। यह देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ुदा का शुक्र अदा किया और इरशाद फ़रमाया—

“हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि जब मोज़ा पहनने का इरादा करे तो उसको झाड़ लिया करे।" (तबरानी)

7. लिबास सफ़ेद पहनिए। सफ़ेद लिबास मर्दों के लिए पसंदीदा है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सफ़ेद कपड़े पहना करो, यह बेहतरीन लिबास है। सफ़ेद कपड़ा ही ज़िन्दगी में पहनना चाहिए और सफ़ेद ही कपड़ों में मुर्दों को दफ़न करना चाहिए।" (तिरमिज़ी)

एक और मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"सफ़ेद कपड़े पहना करो इसलिए कि सफ़ेद कपड़ा ज़्यादा साफ़-सुथरा रहता है और इसी में अपने मुर्दों को कफ़नाया करो।” (मुस्लिम)

ज़्यादा साफ़-सुथरा रहने का मतलब यह है कि अगर उसपर ज़रा भी दाग़-धब्बा लगे तो फ़ौरन महसूस हो जाएगा और आदमी फ़ौरन उसे धोकर साफ़ कर लेगा और अगर कोई रंगीन कपड़ा होगा तो उस पर दाग़-धब्बा जल्द नज़र न आ सकेगा और जल्द धोने की ओर तवज्जोह न हो सकेगी।

सही बुख़ारी में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सफ़ेद कपड़ा पहना करते थे, यानी आपने ख़ुद भी सफ़ेद कपड़ा पसन्द किया और उम्मत के मर्दों में भी इसी के पहनने का चाव पैदा किया।

8. पाजामा और लुंगी वग़ैरह को टख़नों से ऊँचा रखिए। जो लोग घमण्ड में अपना पाजामा या लुँगी वग़ैरह लटका लेते हैं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नज़र में वे नाकाम और नामुराद लोग हैं और सख़्त अज़ाब के हक़दार हैं। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“तीन क़िस्म के लोग ऐसे हैं कि अल्लाह क़ियामत के दिन न तो उनसे बात करेगा, न उनकी तरफ़ नज़र फ़रमाएगा और न उनको पाक व साफ़ करके जन्नत में दाख़िल करेगा, बल्कि उनको इंतिहाई दर्दनाक अज़ाब देगा।"

हज़रत अबू ज़र ग़िफ़ारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा—

"ऐ अल्लाह के रसूल! ये नाकाम व नामुराद लोग कौन हैं?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

पहला- वह जो घमंड में अपना तहबंद टख़नों से नीचे लटकाता है,

दूसरा- वह आदमी है जो एहसान जताता है, और

तीसरा- वह आदमी है जो झूठी क़समों के सहारे अपनी तिजारत को चमकाना चाहता है।" (मुस्लिम)

हज़रत उबैद बिन ख़ालिद (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपना एक वाक़िआ बयान फरमाते हैं—

कि मैं एक बार मदीना मुनव्वरा में जा रहा था कि मैंने अपने पीछे से यह कहते सुना, "अपना तहबन्द ऊपर उठा लो कि इससे आदमी ज़ाहिरी गन्दगी से भी बचा रहता है और बातिनी गन्दगी से भी।"

मैंने गर्दन फेरकर जो देखा तो नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) थे। मैंने अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के रसूल! यह तो एक मामूली-सी चादर है। भला इसमें क्या घमण्ड हो सकता है।

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "क्या तुम्हारे लिए मेरी पैरवी ज़रूरी नहीं है?" मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लफ़्ज़ सुने तो फ़ौरन मेरी निगाह आपके तहमद पर पड़ी। मैंने देखा कि आप का तहमद आधी पिंडली तक ऊँचा है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का यह इरशाद कि 'टख़नों से ऊँचा पाजामा और लुंगी वग़ैरह पहनने से आदमी हर तरह की ज़ाहिरी और बातिनी गंदगियों से बच जाता है' बड़े ही मानीवाला है। इसका मतलब यह है कि जब कपड़ा नीचे लटकेगा तो रास्ते की गन्दगी से मैला और ख़राब होगा, पाक-साफ़ न रह सकेगा और यह बात पाकी और सफ़ाई के ज़ौक़ पर भारी बोझ है। फिर ऐसा करना घमण्ड की वजह से है और घमण्ड बातिनी गन्दगी है और अगर ये मस्लहतें न भी हों तो मोमिन के लिए तो यह फ़रमान ही सब कुछ है कि—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ज़िन्दगी तुम्हारे लिए बेहतरीन नमूना है।” (अल-क़ुरआन)

और अबू दाऊद की हदीस में तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसकी बड़ी हिला देनेवाली सज़ा सुनाई है। फ़रमाया—

"मोमिनों का तहमद आधी पिंडली तक होना चाहिए और उसके नीचे टख़नों तक होने में भी कोई हरज नहीं, लेकिन टख़नों से नीचे तहमद का जितना हिस्सा लटकेगा, वह आग में जलेगा और जो आदमी घमंड में अपने कपड़े को टख़ने से नीचे लटकाएगा, क़ियामत के दिन ख़ुदा उसकी तरफ़ नज़र उठाकर भी न देखेगा।"

9. रेशमी कपड़ा न पहनिए। यह औरतों का पहनावा है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मर्दों को औरतों जैसा पहनावा पहनने और औरतों जैसी शक्ल व सूरत बनाने से सख़्ती के साथ मना किया है।

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"रेशमी कपड़े न पहनो कि जो इसको दुनिया में पहनेगा, वह आख़िरत में इसको न पहन सकेगा।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से फ़रमाया—

"उस रेशमी कपड़े [यह कपड़ा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को उकैदर, दूमा के हाकिम ने तोहफ़े में भेजा था।] को फाड़कर और उसके दुपट्टे बनाकर इन फ़ातिमाओं [फ़ातिमाओं से मुराद ये तीन इज़्ज़तदार औरतें हैं— (i) हज़रत फ़ातिमा, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की प्यारी बेटी और हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बीवी, (ii) फ़ातिमा बिन्त असद, हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की माँ। (iii) फ़ातिमा बिन्त हमज़ा, हज़रत हमज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बेटी।] में बाँट दो।" (मुस्लिम)

इससे यह भी मालूम हुआ कि औरतों के लिए रेशमी कपड़े पहनना पसंदीदा है। इसी लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुक्म दिया कि औरतों के दुपट्टे बना दो, वरना कपड़ा तो दूसरे कामों में भी आ सकता है।

10. औरतें ऐसे बारीक कपड़े न पहनें जिसमें से बदन झलके और न ऐसा चुस्त लिबास पहनें जिसमें से बदन की बनावट और ज़्यादा आकर्षक बनकर ज़ाहिर हो और वे कपड़े पहनकर भी नंगी नज़र आएँ। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसी बेहया औरतों को बुरे अंजाम की ख़बर दी है—

“वे औरतें भी जहन्नमी हैं जो कपड़े पहनकर भी नंगी रहती हैं, दूसरों को रिझाती हैं और ख़ुद दूसरों पर रीझती हैं। उनके सिर नाज़ से बुख़्ती (एक क़िस्म के बड़े) ऊँटों के कोहानों की तरह टेढ़े हैं। ये औरतें न जन्नत में जाएँगी और न जन्नत की ख़ुशबू पाएँगी, जबकि जन्नत की ख़ुशबू बहुत दूर से आती है।” (रियाज़ुस्सालिहीन)

एक बार हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बारीक कपड़े पहने हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुईं। वे सामने आईं तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़ौरन मुँह फेर लिया और फ़रमाया—

“अस्मा! जब औरत जवान हो जाए तो उसके लिए जायज़ नहीं है कि मुँह और हाथ के अलावा उसके जिस्म का कोई हिस्सा नज़र आए।”

11. तहमद और पाजामा वग़ैरह पहनने के बाद भी ऐसे अन्दाज़ से लेटने और बैठने से बचिए, जिसमें बदन खुल जाने या नुमायाँ हो जाने का अंदेशा हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“एक जूता पहनकर न चला करो और तहमद में एक ज़ानू उठाकर उकड़ूँ न बैठो और बाएँ हाथ से न खाओ और चादर पूरे बदन पर इस अन्दाज़ से न लपेटो (कि काम-काज करने या नमाज़ वग़ैरह पढ़ने में हाथ न निकल सकें) और न चित लेटकर एक पाँव को दूसरे पाँव पर रखो (कि इस तरह भी शर्मगाहों के ढकने में बेएहतियाती का अंदेशा है)।"

12. लिबास में औरतें और मर्द एक-दूसरे जैसा रंग-ढंग न अपनाएँ। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा ने उन मर्दों पर लानत की है जो औरतों का-सा रंग-ढंग अपनाएँ और उन औरतों पर भी लानत फ़रमाई है जो मर्दों का-सा रंग-ढंग अपनाएँ।" (बुख़ारी)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उस मर्द पर लानत फ़रमाई है जो औरतों जैसा लिबास पहने और उस औरत पर लानत फ़रमाई है जो मर्द जैसा पहनावा पहने।" (अबू दाऊद)

एक बार हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से किसी ने ज़िक्र किया कि एक औरत है जो मर्दों जैसे जूते पहनती है तो उन्होंने फ़रमाया, “अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसी औरतों पर लानत फ़रमाई है, जो मर्द बनने की कोशिश करती हैं।"

13. औरतें दुपट्टा ओढ़े रहने का एहतिमाम रखें और उससे अपने सिर और सीने को छिपाए रखें। दुपट्टा ऐसा बारीक न ओढ़िए जिससे सिर के बाल नज़र आएँ। दुपट्टे का मक़सद ही यह है कि इससे ज़ीनत को छिपाया जाए। क़ुरआन पाक में अल्लाह का इरशाद है—

“और अपने सीनों पर अपने दुपट्टों के आँचल डाले रहें।" (क़ुरआन, 24:31)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास मिस्र की बनी हुई बारीक मलमल आई। आपने उसमें से कुछ हिस्सा फाड़कर देहया कलबी को दिया और फ़रमाया—

“इसमें से एक हिस्सा फाड़कर तुम अपना कुरता बना लो और एक हिस्सा अपनी बीवी को दुपट्टा बनाने के लिए दे दो, पर उनसे कह देना कि इसके नीचे एक और कपड़ा लगा लें, ताकि जिस्म की बनावट अन्दर से न झलके।" (अबू दाऊद)

किताब व सुन्नत की इस खुली हिदायत को सामने रखकर अल्लाह के हुक्मों के मक़सद को पूरा कीजिए और चार गिरह की पट्टी को गले का हार बनाकर अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के हुक्मों का मज़ाक़ न उड़ाइए।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं—

“जब यह हुक्म उतरा तो औरतों ने बारीक कपड़े छोड़कर मोटे कपड़े छाँटे और उनके दुपट्टे बनाए।” (अबू दाऊद)

14. लिबास हमेशा अपनी ताक़त और हैसियत के मुताबिक़ पहनिए। न ऐसा लिबास पहनिए जिससे घमण्ड और दिखावा ज़ाहिर हो और आप दूसरों को हक़ीर समझकर इतराएँ और अपनी दौलतमन्दी की बेजा नुमाइश करें और न ऐसा लिबास पहनिए जो आपकी ताक़त से ज़्यादा क़ीमती हो और आप फ़िज़ूलख़र्ची के गुनाह में पड़ जाएँ, और न ऐसे फटेहाल बने रहें कि हर वक़्त आपकी शक्ल सवाली बनी रहे और सब कुछ होने के बावजूद आप महरूम नज़र आएँ, बल्कि हमेशा अपनी ताक़त और हैसियत के लिहाज़ से मुनासिब, सलीक़ेदार और साफ़-सुथरे कपड़े पहनिए।

कुछ लोग फटे-पुराने और पैवन्द लगे कपड़े पहनकर फटेहाल बने रहते हैं और इसको दीनदारी समझते हैं, इतना ही नहीं, बल्कि वे उन लोगों को दुनियादार समझते हैं जो साफ़-सुथरे सलीक़े के कपड़े पहनते हैं, हालाँकि दीनदारी का यह ख़याल ही बिलकुल ग़लत है।

हज़रत अबू हसन अली शाज़ली (रहमतुल्लाह अलैह) एक बार बहुत अच्छा कपड़ा पहने हुए थे। किसी फटेहाल सूफ़ी ने उनके इस ठाट-बाट पर एतराज़ किया कि भला अल्लाहवालों को ऐसा क़ीमती लिबास पहनने की क्या ज़रूरत? हज़रत शाज़ली ने जवाब दिया—

“भाई यह शान व शौकत, सबसे बड़े शानवाले, ख़ुदा की हम्द व शुक्र को ज़ाहिर करने के लिए है और तुम्हारा यह फटेहाल होना हाथ फैलाने जैसा है।"

असल बात तो यह है कि दीनदारी न फटे-पुराने, पैवन्द लगे, घटिया कपड़ों के पहनने का नाम है और न शानदार कपड़ों के पहनने का नाम है, बल्कि दीनदारी तो आदमी की नीयत और उसकी सही सोच के मुताबिक़ क़ायम होती है। सही बात यह है कि आदमी हर मामले में अपनी ताक़त और हैसियत का ख़याल रखते हुए बीच का रास्ता अपनाए, न फटेहाल होकर मन को मोटा होने का मौक़ा दे और न तड़क-भड़क के कपड़े पहनकर घमंड को ज़ाहिर करे।

हज़रत अबुल अहवस (रहमतुल्लाह अलैह) के बाप अपना एक वाक़िआ नक़्ल करते हैं कि एक बार मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। उस वक़्त मेरे जिस्म पर निहायत ही घटिया और मामूली कपड़े थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा—

"क्या तुम्हारे पास माल व दौलत है?"

मैंने कहा– “जी हाँ!"

पूछा— “किस तरह का माल है?"

मैंने कहा – “ख़ुदा ने मुझे हर क़िस्म का माल दे रखा है। ऊँट भी हैं, गायें भी हैं, बकरियाँ भी हैं, घोड़े भी हैं और नौकर-चाकर भी हैं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जब ख़ुदा ने तुम्हें माल व दौलत दे रखा है, तो उसकी मेहरबानी का असर तुम्हारे जिस्म पर ज़ाहिर होना चाहिए।" (मिश्कात)

मतलब यह है कि जब ख़ुदा ने तुम्हें सब कुछ दे रखा है, तो फिर तुमने ग़रीबों और फ़क़ीरों की तरह अपना हुलिया क्यों बना रखा है? यह तो ख़ुदा की नाशुक्री है।

हज़रत जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुलाक़ात की ग़रज़ से हमारे यहाँ तशरीफ़ लाए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक आदमी को देखा जो गर्द व ग़ुबार में अटा हुआ था और उसके बाल बिखरे हुए थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“क्या इस आदमी के पास कोई कंघा नहीं है, जिससे यह अपने बालों को ठीक कर लेता?"

और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक दूसरे आदमी को देखा, जिसने मैले कपड़े पहन रखे थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“क्या इस आदमी के पास वह चीज़ (यानी साबुन वग़ैरह) नहीं है, जिससे यह अपने कपड़े धो लेता।" (मिश्कात)

एक आदमी ने नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा—

"ऐ अल्लाह के रसूल! मैं चाहता हूँ कि मेरा पहनावा बहुत उम्दा हो, सिर में तेल लगा हुआ हो, जूते भी अच्छे हों, इसी तरह उसने बहुत-सी चीज़ों का ज़िक्र किया, यहाँ तक कि उसने कहा, मेरा जी चाहता है कि मेरा कोड़ा भी निहायत उम्दा हो।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसकी बातें सुनते रहे, फिर फ़रमाया, "ये सारी बातें पसंदीदा हैं और ख़ुदा इस अच्छे ज़ौक़ को अच्छी नज़र से देखता है।" (मुस्तदरक हाकिम)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या यह घमण्ड है कि मैं अच्छे और उम्दा कपड़े पहनूँ? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "नहीं यह तो ख़ूबसूरती है और ख़ुदा इस ख़ूबसूरती को पसन्द करता है।” (इब्ने माजा)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“नमाज़ में दोनों कपड़े पहन लिया करो (यानी पूरे लिबास पहन लिया करो।) ख़ुदा ज़्यादा हक़दार है कि उसकी हुज़ूरी में आदमी अच्छी तरह बन सँवरकर जाए।" (मिश्कात)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जिसके दिल में ज़रा भी घमण्ड होगा वह जन्नत में न जाएगा।" एक आदमी ने कहा, "हर आदमी यह चाहता है कि उसके कपड़े अच्छे हों, उसके जूते अच्छे हों।”

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा ख़ुद जमाल (सौन्दर्य) वाला है और जमाल को पसन्द करता है। (यानी अच्छा पहनावा घमण्ड नहीं है) घमण्ड तो असल में यह है कि आदमी हक़ से बेनियाज़ी बरते और लोगों को नीचा और ज़लील समझे।" (मुस्लिम)

15. पहनने-ओढ़ने और बनाव-श्रृंगार करने में भी ज़ौक़ और सलीक़े का पूरा-पूरा ख़याल रखिए। गिरेबान खोले-खोले फिरना, उलटे-सीधे बटन लगाना, एक पायँचा चढ़ाना और एक नीचा रखना और एक जूता पहनकर चलना या उलझे हुए बाल रखना– ये सभी बातें ज़ौक़ और सलीक़े के ख़िलाफ़ हैं।

एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मस्जिद में तशरीफ़ रखते थे कि इतने में एक आदमी वहाँ आया जिसके सिर और दाढ़ी के बाल बिखरे हुए थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने हाथ से उसकी ओर इशारा किया, जिसका मतलब यह था कि जाकर अपने सिर के बाल और दाढ़ी को सँवारो। चुनाँचे वह आदमी गया और बालों को बना-सँवारकर आया तो आपने इरशाद फ़रमाया—

"क्या यह ज़ीनत और साज-सज्जा इससे बेहतर नहीं है कि आदमी के बाल बिखरे हुए हों? ऐसा मालूम होता है कि गोया वह शैतान है।" (मिश्कात)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“एक जूता पहनकर कोई न चले, या दोनों पहनकर चलो या दोनों उतारकर चलो।" (तिरमिज़ी)

और इसी हदीस की रौशनी में उलमा ने एक आस्तीन और एक मोज़ा पहनने से भी मना किया है।

16. लाल और शोख़ (गहरा या तेज़) रंग, तड़क-भड़क पहनावा और नुमाइशी काले और गेरवे कपड़े पहनने से भी परहेज़ कीजिए। लाल और शोख़ रंग और तड़क-भड़क लिबास औरतों ही के लिए मुनासिब हैं और उनको भी हदों का ख़याल रखना चाहिए। रहे नुमाइशी लम्बे-चौड़े जुब्बे या काले और गेरवा जोड़े पहनकर दूसरों के मुक़ाबले में अपनी बरतरी दिखाना और अपना बड़प्पन जताना, तो यह सरासर घमण्ड की निशानी है। इसी तरह ऐसे अजीब व ग़रीब कपड़े और ऐसे कपड़े जिनका मज़ाक़ उड़ाया जाए, न पहनिए, जिनके पहनने से आप ख़्वाह-मख़्वाह अजूबा बन जाएँ और लोग आपको हँसी और दिल्लगी की चीज़ समझ लें।

17. हमेशा सादा, वक़ारवाला और तहज़ीब का लिबास पहनिए और पहनावे पर हमेशा दरमियाना ख़र्च कीजिए। लिबास में आरामपसन्दी और ज़रूरत से ज़्यादा नज़ाकत से परहेज़ कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“आरामपसन्दी से दूर रहो, इसलिए कि ख़ुदा के प्यारे बन्दे आरामपसन्द नहीं होते।" (मिश्कात)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी इरशाद फ़रमाया—

“जिस आदमी ने हैसियत और ताक़त के बावजूद ख़ाकसारी और आजिज़ी की ग़रज़ से लिबास में सादगी अपनाई तो ख़ुदा उसको शराफ़त और बुज़ुर्गी के लिबास से सजाएगा।" (अबू दाऊद)

सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) एक दिन बैठे दुनिया का ज़िक्र कर रहे थे तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“लिबास की सादगी ईमान की निशानियों में से एक है।" (अबू दाऊद)  

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— 

"ख़ुदा के बहुत से बन्दे जिनकी ज़ाहिरी हालत निहायत ही मामूली होती है, बाल परेशान और ग़ुबार में अटे हुए, कपड़े मामूली और सादा होते हैं, लेकिन ख़ुदा की नज़र में उनका रुत्बा इतना बुलन्द होता है कि अगर वे किसी बात पर क़सम खा बैठें तो ख़ुदा उनकी क़सम को पूरा ही फ़रमा देता है। इस क़िस्म के लोगों में से एक बरा बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी हैं।" (तिरमिज़ी)

18. ख़ुदा की इस नेमत का शुक्र अदा करने के लिए उन ग़रीबों को भी पहनाएँ, जिनके पास तन ढाँकने के लिए कुछ न हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी किसी ईमानवाले को कपड़े पहनाकर उसकी तनपोशी करेगा तो अल्लाह तआला क़ियामत के दिन जन्नत का हरा कपड़ा पहनाकर उसकी तनपोशी फ़रमाएगा।" (अबू दाऊद)

और प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि किसी मुसलमान ने अपने मुसलमान भाई को कपड़े पहनाए तो जब तक वे कपड़े पहननेवाले के बदन पर रहेंगे, पहनानेवाले को ख़ुदा अपनी निगरानी व हिफ़ाज़त में रखेगा। (तिरमिज़ी)

19. अपने उन नौकरों और ख़ादिमों को भी अपनी हैसियत के मुताबिक़ अच्छा कपड़ा पहनाइए जो रात व दिन आपकी ख़िदमत में लगे रहते हैं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“लौंडी और ग़ुलाम तुम्हारे भाई हैं। ख़ुदा ने उनको तुम्हारे क़ब्ज़े में दे रखा है। पर तुममें से जिस किसी के क़ब्ज़े और इस्तेमाल में ख़ुदा ने किसी को दे रखा है तो उसको चाहिए कि उसको वही खिलाए जो वह ख़ुद खाता है और उसे वैसा ही लिबास पहनाए जो वह ख़ुद पहनता है और उसपर काम का उतना ही बोझ डाले जो उसकी बर्दाश्त से ज़्यादा न हो और अगर वह उस काम को न कर पा रहा हो तो ख़ुद उस काम में उसकी मदद करे।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

4. खाने-पीने के आदाब

1. खाने से पहले हाथ धो लीजिए। पाकी और सफ़ाई का तक़ाज़ा है कि खाने में पड़नेवाले हाथों की तरफ़ से तबीयत को इतमीनान हो।

2. 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' पढ़कर खाना शुरू कीजिए और अगर भूल जाएँ तो याद आने पर 'बिसमिल्लाहि अव्व-लहू व आख़ि-रहू' कह लीजिए। याद रखिए जिस खाने पर ख़ुदा का नाम नहीं लिया जाता, उसको शैतान अपने लिए जायज़ कर लेता है।

3. खाने के लिए टेक लगाकर न बैठिए। ख़ाकसारी (नम्रता) के साथ उकड़ूँ या दो-ज़ानू होकर या एक घुटना बिछाकर और एक खड़ा करके बैठिए। ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इसी तरह बैठते थे।

4. हमेशा सीधे हाथ से खाइए। ज़रूरत पड़ने पर बाएँ हाथ से भी मदद ले सकते हैं।

5. तीन उँगलियों से खाइए और अगर ज़रूरत हो तो सबसे छोटी उँगली छोड़कर चार उँगलियों से काम लीजिए और उँगलियाँ जड़ों तक सानने से परहेज़ कीजिए।

6. निवाला (लुक़्मा) न ज़्यादा बड़ा लीजिए और न ज़्यादा छोटा, और एक निवाला निगलने के बाद ही दूसरा निवाला मुँह में दीजिए।

7. रोटी से उँगलियाँ हरगिज़ साफ़ न कीजिए। यह बड़ी घिनावनी आदत है।

8. रोटियों को झाड़ने और पटकने से भी परहेज़ कीजिए।

9. प्लेट में अपनी ओर के किनारे से खाइए, न बीच में हाथ डालिए और न दूसरों की ओर से खाइए।

10. निवाला गिर जाए तो उठाकर साफ़ कर लीजिए या धो लीजिए और खा लीजिए।

11. खाना मिल-जुलकर खाइए। मिल-जुलकर खाने से प्रेम व मुहब्बत भी पैदा होती है और बरकत भी।

12. खाने में कभी ऐब न निकालिए। पसन्द न हो तो छोड़ दीजिए।

13. बहुत गर्म जलता हुआ खाना न खाइए।

14. खाने के दौरान ठट्ठा मारने और बहुत ज़्यादा बातें करने से परहेज़ कीजिए।

15. बेज़रूरत खाने को न सूँघिए। यह बुरी आदत है। खाने के बीच बार-बार इस तरह मुँह न खोलिए कि चबता हुआ खाना नज़र आए और न बार-बार मुँह में उँगली डालकर दाँतों में से कुछ निकालिए। इससे दस्तरख़्वान पर बैठनेवालों को घिन आती है।

16. खाना भी बैठकर खाइए और पानी भी बैठकर पीजिए, अलबत्ता ज़रूरत पड़ने पर फल वग़ैरह खड़े होकर खा सकते हैं और पानी भी पी सकते हैं।

17. प्लेट में जो कुछ रह जाए, अगर पतली चीज़ हो तो पी लीजिए, नहीं तो उँगली से चाटकर प्लेट साफ़ कर लीजिए।

18. खाने-पीने की चीज़ों पर फूँक न मारिए, अन्दर से आनेवाली साँस गंदी और ज़हरीली होती है।

19. पानी तीन साँस में ठहर-ठहरकर पीजिए। इससे पानी भी ज़रूरत के मुताबिक़ पिया जाता है और दिल भी भर जाता है। एक साथ पूरे बरतन का पानी पेट में उडेल लेने से कभी-कभी तकलीफ़ भी हो जाती है।

20. एक साथ खाते वक़्त, देर तक खानेवालों और धीमे खानेवालों की रिआयत कीजिए और सबके साथ उठिए।

21. खाने से फ़ारिग़ होकर उँगलियाँ चाट लीजिए और फिर हाथ धो लीजिए।

22. फल वग़ैरह खा रहे हों तो एक साथ दो-दो की तादाद में या दो-दो फाँके न उठाइए।

23. लोटे की टोंटी या सुराही या इसी तरह की दूसरी चीज़ों से पानी न पीजिए। ऐसे बरतन में पानी लेकर पीजिए, जिसमें पीते वक़्त मुँह में जानेवाला पानी नज़र आए, ताकि कोई गन्दगी या नुक़सानदेह चीज़ पेट में न जाए।

24. खाने से फ़ारिग़ होकर यह दुआ पढ़िए—

अलहम्दु लिल्लाहिल्लज़ी अत-अ-मना व सक़ाना व ज-अ-लना मिनल मुस्लिमीन।

"हम्द व सना उस ख़ुदा के लिए है, जिसने हमें खिलाया और जिसने हमें पिलाया और जिसने हमें फ़रमाबरदारों में से बनाया।"

5. सोने और जागने के आदाब

1. जब शाम का अँधेरा छाने लगे तो बच्चों को घर में बुला लीजिए और बाहर न खेलने दीजिए। हाँ, जब रात का कुछ हिस्सा गुज़र जाए तो निकलने की इजाज़त दे सकते हैं। एहतियात इसी में है कि किसी बड़ी ज़रूरत के बग़ैर बच्चों को रात में घर से न निकलने दें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब शाम हो जाए तो छोटे बच्चों को घर में रोके रखो, इसलिए कि उस वक़्त शैतान (ज़मीन में) फैल जाते हैं। अलबत्ता जब घड़ी भर रात गुज़र जाए तो बच्चों को छोड़ सकते हो।” (सिहाहे सित्ता ब-हवाला हिस्ने हसीन)

2. जब शाम हो जाए, तो यह दुआ पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को यही दुआ पढ़ने को फ़रमाया करते थे—

अल्लाहुम-म बि-क अम्सैना व बि-क अस्बह्-ना व बि-क नह्-या व बि-क नमूतु व इलैकन्नुशूर। (तिरमिज़ी)

"ऐ ख़ुदा हम ने तेरी ही तौफ़ीक़ से शाम की और तेरी ही मदद से सुबह की, तेरी ही इनायत से जी रहे हैं और तेरे ही इशारे पर मर जाएँगे और आख़िकार तेरे ही पास उठकर हाज़िर होंगे।"

और मग़रिब की अज़ान के वक़्त यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म हाज़ा इक़बालु लैलि-क व इदबारु नहारि-क व अस्वातु दुआति-क फ़ग़फ़िरली। (तिरमिज़ी, अबूदाऊद)

"ऐ ख़ुदा! यह वक़्त है तेरी रात के आने का, तेरे दिन के जाने का और तेरे मुअज़्ज़िनों की पुकार का, बस तू मेरी मग़फ़िरत फ़रमा दे।"

3. इशा की नमाज़ पढ़ने से पहले सोने से परहेज़ कीजिए। इस तरह अकसर इशा की नामज़ ख़तरे में पड़ जाती है। क्या ख़बर कि नींद की इस मौत के बाद ख़ुदा बन्दे की जान वापस करता है या फिर हमेशा के लिए ले लेता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इशा से पहले कभी न सोते थे।

4. रात होते ही घर में रौशनी ज़रूर कर लीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ऐसे घर में सोने से परहेज़ फ़रमाते, जिसमें रौशनी न की गई होती।

5. रात गए तक जागने से परहेज़ कीजिए। रात में जल्द सोने और सुबह में जल्द उठने की आदत डालिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"इशा की नमाज़ के बाद या तो अल्लाह के ज़िक्र के लिए जागा जा सकता है या घरवालों से ज़रूरत की बात करने के लिए।" (मुस्लिम)

6. रात को जागने और दिन में नींद पूरी करने से परहेज़ कीजिए। ख़ुदा ने रात को आराम और सुकून के लिए पैदा फ़रमाया है और दिन को सोकर उठने और ज़रूरतों के लिए दौड़-धूप करने का वक़्त क़रार दिया है। क़ुरआन की सूरा फ़ुरक़ान में है—

“और वह ख़ुदा ही है जिसने रात को तुम्हारे लिए परदापोश बनाया और नींद को राहत व सुकून और दिन उठ खड़े होने को बनाया।" (क़ुरआन, 25:47)

और सूरा 'नबा' में है—

“और हमने नींद को तुम्हारे लिए सुकून व आराम, रात को परदापोश और दिन को रोज़ी की दौड़-धूप का वक़्त बनाया।" (क़ुरआन, 78:9-11)

और सूरा 'नम्ल' में है—

"क्या उन लोगों ने नहीं देखा कि हमने (अँधेरी) रात बनाई कि ये उसमें आराम व सुकून हासिल करें और दिन को रौशन (कि दौड़-धूप करें)। बेशक इसमें ईमानवालों के लिए सोचने के इशारे हैं।" (क़ुरआन, 27:86)

रात को अँधेरी और सुकून व आराम का वक़्त बनाने और दिन को दौड़-धूप और मेहनत के लिए रौशन बनाने में इशारा यह है कि रात को सोने की पाबन्दी की जाए और दिन में अपनी ज़रूरतों के लिए मेहनत और कोशिश की जाए।

दिन की रौशनी में अपनी रोज़ी-रोटी और ज़रूरतों के लिए मेहनत और मशक़्क़त के साथ लगे रहिए, यहाँ तक कि आपके अंग और क़ुव्वतें थकन महसूस करने लगें। उस वक़्त रात की सुकूनवाली और परदापोश फ़िज़ा में सुकून व राहत के साथ सो जाइए और दिन निकलते ही फिर ख़ुदा का नाम लेते हुए ताज़ा-दम अमल के मैदान में उतर पड़िए। जो लोग आराम-तलबी और सुस्ती की वजह से दिन में ख़र्राटे लेते हैं या ऐश करने और खेल-तमाशे में लगे रहने के लिए रात भर जागते हैं, वे क़ुदरत की हिकमतों का ख़ून करते हैं और अपनी सेहत व ज़िन्दगी को बरबाद करते हैं। दिन चढ़े तक सोनेवाले अपने दिन के कामों में भी कोताही करते हैं और जिस्म व जान को भी आराम से महरूम रखते हैं, इसलिए कि दिन की नींद रात का बदल नहीं बन पाती। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तो इसको भी पसन्द नहीं फ़रमाया कि आदमी रात-रात भर जागकर ख़ुदा की इबादत करे और अपने को न बरदाश्त करने के क़ाबिल मशक़्क़त में डाले।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) से एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा, "क्या यह बात जो मुझे बताई गई है सही है कि तुम पाबन्दी से दिन में रोज़े रखते हो और रात-रात भर नमाज़ें पढ़ते हो?" हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, “जी हाँ, बात तो सही है।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "नहीं, ऐसा न करो, कभी रोज़ा रखो और कभी खाओ पियो, इसी तरह सोओ भी और उठकर नमाज़ भी पढ़ो, क्योंकि तुम्हारे जिस्म का भी तुमपर हक़ है, तुम्हारी आँख का भी तुमपर हक़ है।" (बुख़ारी)

7. ज़्यादा आरामदेह बिस्तर न इस्तेमाल कीजिए। दुनिया में मोमिन को आराम-तलबी और ऐश-पसन्दी से बचना चाहिए। ज़िन्दगानी मोमिन के लिए जिहाद है और मोमिन को बहुत ज़्यादा मेहनती होना चाहिए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का बिस्तर चमड़े का था, जिसमें खजूर की छाल भरी हुई थी।" (शमाइले तिरमिज़ी)

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से किसी ने पूछा—

"आपके यहाँ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का बिस्तर कैसा था?", फ़रमाया, “एक टाट था, जिसको हम दोहरा करके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नीचे बिछा दिया करते थे। एक दिन मुझे ख़याल आया कि अगर इसे चौहरा करके बिछा दिया जाए तो ज़रा ज़्यादा नर्म हो जाएगा, इसलिए मैंने उसको चौहरा करके बिछा दिया। सुबह को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मालूम किया, "रात मेरे नीचे क्या चीज़ बिछायी थी?" मैंने कहा, "वही टाट का बिस्तर था। अलबत्ता रात मैंने उसको चौहरा करके बिछा दिया था कि कुछ नर्म हो जाए।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "नहीं, उसको दोहरा ही रहने दिया करो। रात बिस्तर की नरमी तहज्जुद के लिए उठने में रुकावट बनी।" (शमाइले तिरमिज़ी)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि एक बार एक अनसारी औरत आईं और उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का बिस्तर देखा। घर जाकर उस औरत ने एक बिस्तर तैयार किया। उसमें ऊन भरकर ख़ूब मुलायम बना दिया और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिए भेजा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब घर आए और नर्म बिस्तर रखा हुआ देखा तो फ़रमाया, “यह क्या है?" मैंने अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! फ़लाँ अनसारी औरत आई थीं और आपका बिस्तर देख गई थीं, अब यह उन्होंने आपके लिए तैयार करके भेजा है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "नहीं, इसको वापस कर दो।" मुझे वह बिस्तर बहुत ही पसन्द था, इसलिए वापस करने को जी नहीं चाह रहा था, पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इतनी बार कहा कि मुझे वापस करना ही पड़ा। (शमाइले तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार चटाई पर सो रहे थे। लेटने से आपके जिस्म पर चटाई के निशान पड़ गए। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मैं यह देखकर रोने लगा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझे रोते देखा तो फ़रमाया, "क्यों रो रहे हो?" मैंने अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! ये क़ैसर व किसरा तो रेशम और मख़मल के गद्दों पर सोएँ और आप बोरिये पर।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“यह रोने की बात नहीं है। उनके लिए दुनिया है और हमारे लिए आख़िरत है।"

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“मैं ऐश व आराम और बेफ़िक्री की ज़िन्दगी कैसे गुज़ार सकता हूँ, जबकि हाल यह है कि इसराफ़ील मुँह में सूर लिए, कान लगाए (हुक्म बजा लाने के लिए), सिर झुकाए इन्तिज़ार कर रहे हैं कि कब सूर फूँकने का हुक्म होता है।" (तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ज़िन्दगी का यह पहलू माँग करता है कि मोमिन इस दुनिया में मुजाहिदों जैसी ज़िन्दगी गुज़ारे और ऐश करने से बचे।

8. सोने से पहले वुज़ू करने का भी एहतिमाम कीजिए और पाक व साफ़ होकर सोइए। अगर हाथों में चिकनाई वग़ैरह लगी हो तो हाथों को ख़ूब अच्छी तरह धोकर सोइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जिसके हाथ में चिकनाई वग़ैरह लगी हो और वह उसे धोए बिना सो गया और उसे नुक़सान पहुँचा (यानी किसी जानवर ने काट लिया) तो वह अपने आपकी निंदा करे (कि धोए बग़ैर सो गया था)।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा था कि सोने से पहले आप वुज़ू फ़रमाते और अगर कभी इस हालत में सोने का इरादा फ़रमाते कि ग़ुस्ल की हाजत होती तो नापाकी की जगह को धोते और फिर वुज़ू करके सो रहते।

9. सोने के वक़्त घर का दरवाज़ा बन्द कर लीजिए। खाने-पीने के बरतन को ढाँक दीजिए। चिराग़ या लालटेन वग़ैरह बुझा दीजिए और अगर आग जल रही हो तो उसको भी बुझा दीजिए। एक बार मदीने में रात के वक़्त किसी के घर में आग लग गई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“आग तुम्हारी दुश्मन है, जब सोया करो तो आग बुझा दिया करो।”

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जब शाम हो जाए तो छोटे बच्चों को घर से बाहर न निकलने दो, क्योंकि उस वक़्त शैतान (ज़मीन में) फैल जाते हैं, फिर जब घड़ी भर रात गुज़र जाए तो उन्हें छोड़ दो और 'बिसमिल्लाह' कहकर दरवाज़ा बन्द करो, और 'बिसमिल्लाह' कहकर ही बत्ती बुझा दो, और 'बिसमिल्लाह' कहकर ही पानी के मशक का मुँह बाँध दो, और 'बिसमिल्लाह' कहकर ही खाने-पीने के बरतन ढाँक दो और अगर ढाँकने के लिए कोई सरपोश (ढकना) वग़ैरह मौजूद न हो तो कोई और चीज़ ही बरतन पर रख दो।” (सिहाहे सित्ता ब-हवाला हिस्ने हसीन)

10. सोते वक़्त बिस्तर पर और बिस्तर के क़रीब ये चीज़ें ज़रूर रख लीजिए। पीने का पानी और गिलास, लोटा, लाठी, रौशनी के लिए माचिस या टार्च, मिस्वाक, तौलिया वग़ैरह। और अगर आप कहीं मेहमान हों तो घरवालों से बैतुलख़ला (पाख़ाने) वग़ैरह ज़रूर मालूम कर लीजिए। हो सकता है कि रात में किसी वक़्त ज़रूरत पेश आ जाए और परेशानी हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब आराम फ़रमाते तो आपके सिरहाने सात चीज़ें रखी रहतीं—

तेल की शीशी, कंघा, सुरमेदानी, क़ैंची, मिस्वाक, आइना और लकड़ी की एक छोटी-सी सीख़ जो सर वग़ैरह खुजाने के काम में आती।

11. सोते वक़्त अपने जूते और कपड़े वग़ैरह पास रखिए, क्योंकि जब सोकर उठें, तो तलाश न करने पड़ें। उठते ही जूते में पैर न डालिए। इसी तरह कपड़े भी बग़ैर झाड़े न पहनिए। हो सकता है कि जूते या कपड़े में कोई तकलीफ़ पहुँचानेवाला जानवर हो और वह ख़ुदा न करे आपको तकलीफ़ पहुँचा दे।

12. सोने से पहले बिस्तर अच्छी तरह झाड़ लीजिए और अगर कभी सोते से किसी ज़रूरत के लिए उठें और फिर आकर लेटें तब भी बिस्तर अच्छी तरह झाड़ लीजिए, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“और जब कोई रात में बिस्तर से उठे और फिर बिस्तर पर जाए तो अपनी लुँगी के किनारे से तीन बार उसे झाड़ दे, इसलिए कि वह नहीं जानता कि उसके पीछे बिस्तर पर क्या चीज़ आ गई है।" (तिरमिज़ी)

13. जब बिस्तर पर पहुँचें तो यह दुआ पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़ास ख़ादिम हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि जब आप बिस्तर पर तशरीफ़ ले जाते तो यह दुआ पढ़ते—

अल-हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी अत-अ-मना व सक़ाना व कफ़ाना व आवाना फ़-कम मिम्-मल्-ला काफ़ि-य लहू व ला मुअ-वि-य। (शमाइले तिरमिज़ी)

“शुक्र व तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है जिसने हमें खिलाया, पिलाया और जिसने हमारे कामों में भरपूर मदद फ़रमाई और जिसने हमें रहने-बसने को ठिकाना बख़्शा– कितने ही लोग हैं जिनका न कोई मददगार है और न कोई ठिकाना देनेवाला।"

14. बिस्तर पर पहुँचने पर क़ुरआन पाक का कुछ हिस्सा ज़रूर पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सोने से पहले क़ुरआन पाक का कुछ हिस्सा ज़रूर तिलावत फ़रमाते।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी अपने बिस्तर पर आराम करने के वक़्त अल्लाह की किताब की कोई सूरा पढ़ता है तो अल्लाह तआला उसके पास एक फ़रिश्ता भेजता है, जो हर तकलीफ़ देनेवाली चीज़ से उसके जागने तक उसकी हिफ़ाज़त करता है, चाहे वह किसी भी वक़्त नींद से जागा हो।" (अहमद)

और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जब आदमी सोने के लिए अपने बिस्तर पर पहुँचता है तो उसी वक़्त एक फ़रिश्ता और शैतान उसके पास पहुँचते हैं। फ़रिश्ता उससे कहता है—

"अपने कामों का ख़ात्मा भलाई पर करो और शैतान कहता है अपने कामों का ख़ात्मा बुराई पर करो। फिर अगर वह आदमी ख़ुदा का ज़िक्र करके सोया, तो फ़रिश्ता रात भर उसकी हिफाज़त करता है। (मुस्लिम)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब बिस्तर पर तशरीफ़ ले जाते तो दोनों हाथ दुआ माँगने की तरह मिलाते और 'क़ुल हुवल्लाहु अहद' और 'क़ुल अअूज़ु बिरब्बिल फ़-लक़' और 'क़ुल अअूज़ु बिरबिन्नास' की सूरतें तिलावत फ़रमाकर हाथों पर दम फ़रमाते और फिर जहाँ तक हाथ पहुँचता अपने जिस्म पर फेर लेते। सिर, चेहरे और जिस्म के अगले हिस्से से शुरू फ़रमाते और आप तीन बार यही अमल करते। (शमाइले तिरमिज़ी)

15. जब सोने का इरादा करें तो दायाँ हाथ अपने दाएँ गाल के नीचे रखकर दाईं करवट पर लेटिए। हज़रत बरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आराम फ़रमाते तो अपने दाएँ हाथ को दाएँ गाल के नीचे रखते और यह कलिमात पढ़ते—

रब्बि क़िनी अज़ा-ब-क यौ-म तब-असु इबा-द-क।

"ऐ मेरे रब! मुझे उस दिन अपने अज़ाब से बचा जिस दिन तू अपने बन्दों को अपने हुज़ूर उठा हाज़िर करेगा।"

—'हिस्ने हसीन' में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यही कलिमात तीन बार पढ़ते।

16. पट लेटने और बाईं करवट पर सोने से परहेज़ कीजिए।

हज़रत मुअीश के बाप तफ़्ख़तुल ग़िफ़ारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मैं मस्जिद में पेट के बल लेटा हुआ था कि किसी साहब ने मुझे अपने पाँव से हिलाया और कहा, "इस तरह लेटने को ख़ुदा नापसन्द फ़रमाता है।" अब जो मैंने देखा तो वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) थे। (अबू दाऊद)

17. सोने के लिए ऐसी जगह को चुनिए जहाँ ताज़ा हवा पहुँचती हो। ऐसे बन्द कमरों में सोने से परहेज़ कीजिए जहाँ ताज़ा हवा का गुज़र न होता हो।

18. मुँह लपेटकर न सोइए, इस तरह सोने से सेहत पर बुरा असर पड़ता है। चेहरा खोलकर सोने की आदत डालिए, ताकि आपको ताज़ा हवा मिलती रहे।

19. ऐसी खुली छतों पर सोने से परहेज़ कीजिए जहाँ कोई मुंडेर या जंगला वग़ैरह न हो और छत से उतरते वक़्त एहतियात कीजिए और ज़ीने पर पाँव रखने से पहले आप रौशनी का इन्तिज़ाम कर लें, कभी-कभी मामूली ग़लती से काफ़ी तकलीफ़ उठानी पड़ती है।

20. कैसी ही कड़ी सर्दी पड़ रही हो, कमरे में अंगीठी जलाकर न सोइए और न बंद कमरे में लालटेन जलाकर सोइए। आग जलने से बन्द कमरों में जो गैस पैदा होती है वह सेहत के लिए काफ़ी नुक़सानदेह है, बल्कि कभी-कभी तो इससे जान का ख़तरा भी पैदा हो जाता है और मौत हो जाती है।

21. सोने से पहले यह दुआ पढ़ लिया कीजिए। हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सोने से पहले यह दुआ पढ़ लिया करते थे—

बिस्मि-क रब्बी व-ज़अतु जम्बी व बि-क अर-फ़उहू इन अम-सक-त नफ़्सी फ़र-हम्हा, व इन अर-सल-तहा फह-फ़ज़हा बिमा तह-फ़ज़ु बिहि इबा-द-कस्सालिहीन। (बुख़ारी, मुस्लिम)

“ऐ मेरे रब! तेरे ही नाम से मैंने अपना पहलू बिस्तर पर रखा और तेरे ही सहारे मैं उसको बिस्तर से उठाऊँगा। अगर तू रात ही में मेरी जान क़ब्ज़ करे तो उसपर रहम फ़रमा और अगर तू उसे छोड़कर और ज़्यादा मोहलत दे तो उसकी हिफ़ाज़त फ़रमा, जिस तरह तू अपने नेक बन्दों की हिफ़ाज़त करता है।"

अगर यह दुआ याद न हो तो छोटी-सी दुआ यह है—

अल्लाहुम-म बिस्मि-क अमूतु व अह्-या। (मुस्लिम, बुख़ारी)

“ऐ अल्लाह! मैं तेरे ही नाम से मौत की गोद में जाता हूँ और तेरे ही नाम से ज़िन्दा उठूँगा।"

22. रात के आख़िरी हिस्से में उठने की आदत डालिए। नफ़्स की तरबियत और ख़ुदा से ताल्लुक़ पैदा करने के लिए आख़िरी रात में उठना और ख़ुदा को याद करना ज़रूरी है। ख़ुदा ने अपने महबूब बन्दों की यही ख़ास ख़ूबी बयान फ़रमाई है कि रातों को उठकर ख़ुदा के हुज़ूर में रुकू और सज्दे करते हैं और अपने गुनाहों की माफ़ी माँगते हैं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा था कि आप शुरू रात में आराम फ़रमाते और आख़िरी रात में उठकर ख़ुदा की इबादत में लग जाते।

23. नींद से जागने पर यह दुआ पढ़िए—

अल-हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी अह्-याना बअ-दमा अमा-तना व इलैहिन्नुशूर। (बुख़ारी, मुस्लिम)

“शुक्र व तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है, जिसने हमें मुर्दा कर देने के बाद ज़िन्दगी से नवाज़ा और उसी के हुज़ूर उठकर हाज़िर होना है।"

24. जब कोई अच्छा सपना देखें तो ख़ुदा का शुक्र अदा कीजिए और उसको अपने हक़ में ख़ुशख़बरी समझिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"अब नुबूवत में से ख़ुशख़बरियों (बशारतों) के सिवा कुछ बाक़ी न रहा। लोगों ने पूछा, “बशारत का क्या मतलब है?" फ़रमाया, "अच्छा सपना।" (बुख़ारी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि तुम में जो ज़्यादा सच्चा है, उसका सपना भी ज़्यादा सच्चा होगा। और आपने यह हिदायत भी फ़रमाई—

"जब कोई अच्छा सपना देखो तो ख़ुदा की हम्द व सना करो और उसको बयान करो और दोस्त से ही बयान करो।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब कोई सपना देखते तो सहाबा किराम से बयान फ़रमाते और सहाबा किराम से भी कहते कि अपना सपना बयान करो, मैं उसकी ताबीर (स्वप्न फल) दूँगा। (बुख़ारी)

25. दरूद शरीफ़ ज़्यादा से ज़्यादा पढ़िए। उम्मीद है अल्लाह तआला नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ज़ियारत कराए।

हज़रत मौलाना मुहम्मद अली मुंगेरी (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक बार हज़रत फ़ज़्ले रहमान गंज-मुरादाबादी से सवाल किया कि कोई ख़ास दरूद शरीफ़ बताइए, जिससे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का दीदार हासिल हो, तो फ़रमाया कोई ख़ास दरूद नहीं है, बस ख़ुलूस पैदा करना चाहिए, फिर कुछ रुककर इरशाद फ़रमाया, अलबत्ता हज़रत सैयद हसन (रहमतुल्लाह अलैह) का इस दरूद पर अमल कारगर हुआ—

अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व इत-र-तिही बि-अ-ददि कुल्लि मअ-लूमिल्ल-क।

"ऐ ख़ुदा! रहमत नाज़िल फ़रमा मुहम्मद पर और उनकी आल पर, उन तमाम चीज़ों की तादाद के बराबर जो तेरे इल्म में हैं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जिस आदमी ने सपने में मुझे देखा उसने वाक़ई मुझे ही देखा, इसलिए कि शैतान मेरी शक्ल में नहीं आ सकता।" (शमाइले तिरमिज़ी)

हज़रत यज़ीद फ़ारसी (रहमतुल्लाह अलैह) क़ुरआन पाक लिखा करते थे। एक बार उनको सपने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का दीदार हुआ। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ज़िन्दा थे। हज़रत यज़ीद ने उनसे ज़िक्र किया तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की यह हदीस सुनाई कि जिसने सपने में मुझे देखा उसने वाक़ई मुझे ही देखा, इसलिए कि शैतान मेरी शक्ल में नहीं आ सकता। फिर पूछा, “तुमने सपने में जिस ज़ात को देखा उसका हुलिया बयान कर सकते हो?" हज़रत यज़ीद (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा, “आपका बदन और आपका डील-डोल बहुत दरमियाना था आपका रंग गेहुँवेपन के साथ सफ़ेद था। आँखें सुरमा लगीं। हँसता, ख़ूबसूरत गोल चेहरा, निहायत भरी हुई दाढ़ी जो पूरे चेहरे पर छाई हुई थी और सीने पर फैली हुई थी।" हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने फ़रमाया, "अगर तुम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ज़िन्दगी में देखते, तब भी इससे ज़्यादा हुलिया बयान नहीं कर सकते।” (यानी तुमने जो हुलिया बयान किया, वह वाक़ई नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही का हुलिया है।) (शमाइले तिरमिज़ी)

26. जब कभी, ख़ुदा न करे, कोई नापसन्दीदा और डरावना सपना देखें तो हरगिज़ किसी से बयान न कीजिए और इस सपने की बुराई से ख़ुदा की पनाह माँगिए। ख़ुदा ने चाहा तो उसकी बुराई से बचे रहेंगे।

हज़रत अबू सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मैं बुरे सपनों की वजह से अकसर बीमार पड़ जाया करता था। एक दिन मैंने हज़रत अबू क़तादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से शिकायत की तो उन्होंने मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की यह हदीस सुनाई—

“अच्छा सपना ख़ुदा की ओर से होता है। अगर तुममें से कोई अच्छा सपना देखे तो अपने मुख़लिस दोस्त के सिवा किसी और से न बयान करे और कोई बुरा सपना देखे तो क़तई तौर पर किसी को न बताए, बल्कि जागते ही— 'अऊज़ु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर्रजीम' पढ़कर तीन बार बाईं तरफ़ थुथकार दे और करवट बदल ले तो वह सपने की बुराई से बचा रहेगा।" (रियाज़ुस्सालिहीन, मुस्लिम)

27. अपने जी से गढ़कर झूठे सपने कभी न बयान कीजिए। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो सपना देखे बिना अपनी ओर से गढ़-गढ़कर बयान करेगा उसको यह सज़ा दी जाएगी कि जौ के दो दानों में गिरह लगाए और वह ऐसा कभी न कर सकेगा।" (मुस्लिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "यह बहुत बड़ा बुहतान है कि आदमी ऐसी बात कहे, जो उसकी आँखों ने नहीं देखी है।" (बुख़ारी)

28. जब कभी कोई दोस्त अपना सपना सुनाए तो उसकी अच्छी ताबीर दीजिए और उसके हक़ में दुआ कीजिए। एक बार एक आदमी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अपना सपना बयान किया तो आपने फ़रमाया—

"बेहतर सपना देखा है और बेहतर ताबीर (स्वप्न फल) होगी।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आमतौर पर फ़ज्र की नमाज़ के बाद पालती मारकर बैठ जाते और लोगों से फ़रमाते कि जिसने जो सपना देखा हो बयान करो और सपना सुनने से पहले ये लफ़्ज़ फ़रमाते—

ख़ै-रन त-लक़्क़ाहु व शर्रन त-वक़्क़ाहु व ख़ै-रल-लना व शर्रन अला अअ-दाइना वल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन।

“उस सपने की भलाई तुम्हें नसीब हो और उसकी बुराई से तुम बचे रहो, हमारे हक़ में भलाई और हमारे दुश्मनों के लिए वबाल हो और हम्द व शुक्र ख़ुदा ही के लिए है जो तमाम दुनिया का पालनहार है।"

29. कभी सपने में डर जाएँ या कभी परेशान करनेवाले सपने देखकर परेशान हो जाएँ तो डर और परेशानी दूर करने के लिए यह दुआ पढ़िए और अपने होशियार बच्चों को भी यह दुआ याद कराइए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि जब कोई सपने में डर जाता या परेशान हो जाता तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसकी परेशानी दूर करने के लिए यही दुआ पढ़ने को फ़रमाते—

'ऊज़ु बि कलिमातिल्लाहित्ताम्मति मिन ग़-ज़बिहि व 'इक़ाबिहि व शर्रि इ़बादिहि व मिन ह-मज़ातिश शयातीनि व अंय्यह्-ज़ुरून। (अबू दाऊद, तिरमिज़ी)

“मैं ख़ुदा ही के पूरे कलिमों की पनाह माँगता हूँ, उसके ग़ज़ब व ग़ुस्से से, उसकी सज़ा से, उसके बन्दों की बुराई से, शैतानों के वस्वसों से और इस बात से कि वे मेरे पास आएँ।”

6. रास्ते के आदाब           

1. रास्ते में दरमियानी चाल चलिए न इतना झपट कर चलिए कि ख़्वाह मख़्वाह लोगों के लिए तमाशा बन जाएँ और न इतने सुस्त होकर रेंगने की कोशिश कीजिए कि लोग बीमार समझकर बीमारपुर्सी करने लगें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) क़दम लम्बे-लम्बे रखते और क़दम उठाकर रखते, घसीटकर कभी न चलते।

2. अदब व वक़ार (शिष्टता और गम्भीरता) के साथ नीचे देखते हुए चलिए और रास्ते में इधर-उधर हर चीज़ पर निगाह डालते हुए न चलिए। ऐसा करना संजीदगी और तहज़ीब के ख़िलाफ़ है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) चलते वक़्त अपने मुबारक बदन को आगे की तरफ़ झुकाकर चलते, जैसे कोई बुलन्दी से पस्ती (नीचे) की तरफ़ उतर रहा हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) वक़ार के साथ ज़रा तेज़ चलते और बदन को चुस्त और सिमटा हुआ रखते और चलते हुए दाएँ-बाएँ न देखते।

3. ख़ाकसारी के साथ दबे पाँव चलिए, अकड़ते हुए न चलिए, न तो आप अपनी ठोकर से ज़मीन को फाड़ सकते हैं और न पहाड़ों की ऊँचाई को पहुँच सकते हैं, फिर भला अकड़ने की क्या ज़रूरत है!

4. हमेशा जूते पहनकर चलिए, नंगे पाँव चलने-फिरने से परहेज़ कीजिए। जूते के ज़रिए पाँव काँटे, कंकड़ और दूसरी तकलीफ़देह चीज़ों से भी बचा रहता है और तकलीफ़ देनेवाले जानवरों से भी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“अकसर जूते पहने रहा करो। जूता पहननेवाला भी एक तरह का सवार होता है।"

5. रास्ता चलते में अच्छे ज़ौक़ और तहज़ीब व वक़ार का भी ध्यान रखिए, या तो दोनों जूते पहनकर चलिए या दोनों जूते उतारकर चलिए। एक पाँव नंगा और एक पाँव में जूता पहनकर चलना बड़ी मज़ाक़वाली हरकत है। अगर वाक़ई कोई मजबूरी न हो तो इस बदज़ौक़ी और बेतहज़ीबी से सख़्ती के साथ बचने की कोशिश कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“एक जूता पहनकर कोई न चले या तो दोनों जूते पहनकर चले या दोनों उतारकर चले।" (शमाइले तिरमिज़ी)

6. चलते वक़्त अपने कपड़ों को समेटकर चलिए, ताकि उलझने का ख़तरा न रहे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) चलते वक़्त अपना तहबन्द ज़रा उठाकर समेट लेते।

7. हमेशा बेतकल्लुफ़ी से अपने साथियों के साथ-साथ चलिए। आगे-आगे चलकर अपनी ख़ास शान न दिखाइए। कभी-कभी बेतकल्लुफ़ी में अपने साथी का हाथ अपने हाथ में लेकर भी चलिए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) साथियों के साथ चलने में कभी अपनी ख़ास शान ज़ाहिर न होने देते। अकसर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पीछे-पीछे चलते और कभी बेतकल्लुफ़ी में अपने साथी का हाथ पकड़कर भी चलते।

8. रास्ते का हक़ अदा करने का भी ध्यान रखिए। रास्ते में रुककर या बैठकर आने-जानेवालों को तकने से परहेज़ कीजिए और अगर कभी रास्ते में रुकना या बैठना पड़े तो रास्ते का हक़ अदा करने के लिए छह बातों का ख़याल रखिए।

(i) निगाहें नीची रखिए,

(ii) तकलीफ़ देनेवाली चीज़ों को रास्ते से हटा दीजिए,

(iii) सलाम का जवाब दीजिए,

(iv) नेकी पर उभारिए और बुरी बातों से रोकिए,

(v) भूले-भटके को रास्ता दिखाइए, और

(vi) मुसीबत के मारों की मदद कीजिए।

9. रास्ते में हमेशा अच्छे लोगों का साथ पकड़िए। बुरे लोगों के साथ चलने से परहेज़ कीजिए।

10. रास्ते में औरत और मर्द मिल-जुलकर न चलें। औरतों को बीच रास्ते से बचकर किनारे-किनारे चलना चाहिए और मर्दों को चाहिए कि उनसे बचकर चलें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“गारे में अटे हुए और बदबूदार सड़ी हुई कीचड़ में लिथड़े हुए सूअर से टकरा जाना तो गवारा किया जा सकता है, लेकिन यह गवारा करने की बात नहीं है कि किसी मर्द के शाने (कंधे) किसी अजनबी औरत से टकराएँ।"

11. शरीफ़ औरतें जब किसी ज़रूरत से रास्ते पर चलें तो बुर्क़े या चादर से अपने जिस्म, लिबास और बनाव-शृंगार को ख़ूब अच्छी तरह छिपा लें और चेहरे पर नक़ाब डाले रहें।

12. कोई ऐसा ज़ेवर पहनकर न चलिए जिसमें चलते वक़्त झंकार पैदा हो या फिर दबे पाँव चलिए ताकि उसकी आवाज़ अजनबियों को अपनी तरफ़ मुतवज्जोह न करे।

13. औरतें फैलनेवाली ख़ुश्बू लगाकर रास्ते पर न चलें। ऐसी औरतों के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सख़्त बात कही है।

14. घर से निकलें तो आसमान की तरफ़ निगाह उठाकर यह दुआ पढ़िए—

बिसमिल्लाहि तवक्कल्तु अलल्लाहि, अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क मिन अन्-नज़िल्-ल अव नुज़ल्-ल व अन नज़िल्-ल अव नुज़ल्-ल अव नज़लि-म अव युज़-ल-म अलैना अव नज-ह-ल अव युज-ह-ल अलैना। (मुस्नद अहमद)

“ख़ुदा ही के नाम से (मैंने बाहर क़दम रखा) और उसी पर मेरा भरोसा है। ऐ ख़ुदा! मैं तेरी पनाह चाहता हूँ इस बात से कि हम डगमगा जाएँ या कोई दूसरा हमें डगमगा दे, हम ख़ुद भटक जाएँ या कोई हमें भटका दे, हम ख़ुद किसी पर ज़ुल्म कर बैठें या कोई और हम पर ज़्यादती करे, हम ख़ुद नादानी पर उतर आएँ या कोई दूसरा हमारे साथ जिहालत का बरताव करे।"

15. बाज़ार जाएँ तो यह दुआ पढ़िए—

बिसमिल्लाहि अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क ख़ै-र हाज़िहिस्सूक़ि व ख़ै-रमा फ़ीहा व अऊज़ु बि-क मिन शर्रिहा व शर्रिमा फ़ीहा, अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क अन उसी-ब बिहा यमीनन फ़ाजि-र-तन अव स-फ़-क़-तन ख़ासिरह।

"ख़ुदा के नाम से (बाज़ार में दाख़िल होता हूँ), ऐ ख़ुदा! मैं तुझसे इस बाज़ार की भलाई और जो कुछ इसमें है उसकी भलाई चाहता हूँ और इस बाज़ार की बुराई से और जो कुछ उसमें है, उसकी बुराई से पनाह माँगता हूँ। ऐ ख़ुदा तेरी पनाह चाहता हूँ इस बात से कि यहाँ मैं झूठी क़समें खा बैठूँ या घाटे का कोई सौदा कर बैठूँ।"

हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जो आदमी बाज़ार में दाख़िल होते हुए यह दुआ पढ़ ले तो ख़ुदा उसके हिसाब में दस लाख नेकियाँ लिख देगा, दस लाख ख़ताएँ माफ़ फ़रमा देगा और दस लाख दर्जे बुलन्द फ़रमा देगा—

ला इला-ह इल्लल्लाहु वह्दहू ला शरी-क लहू लहुल मुल्कु व लहुल हम्दु युह्-यी व युमीतु व हु-व हय्युल्ला यमूतु बि-यदिहिल-ख़ैर व हु-व अला कुल्लि शैइन क़दीर। (तिरमिज़ी)

"ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं, वह यकता (अद्वितीय) है, उसका कोई शरीक नहीं, सत्ता उसी की है, वही शुक्र व तारीफ़ का हकदार है, वही ज़िन्दगी बख़्शता है और वही मौत देता है, वह ज़िन्दा व जावेद है, उसके लिए मौत नहीं, सारी भलाई उसी की क़ुदरत के क़ब्ज़े में है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है।"

7. सफ़र के आदाब

1. सफ़र के लिए ऐसे वक़्त रवाना होना चाहिए कि कम से कम वक़्त ख़र्च हो और नमाज़ों के वक़्तों का भी ध्यान रहे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुद सफ़र पर जाते या किसी को रवाना करते तो आमतौर पर जुमेरात के दिन को मुनासिब ख़याल फ़रमाते।

2. सफ़र अकेले न कीजिए। मुमकिन हो तो कम से कम तीन आदमी साथ लीजिए। इससे रास्ते में सामान वग़ैरह की हिफ़ाज़त और दूसरी ज़रूरतों में भी आसानी रहती है और आदमी बहुत-से ख़तरों से भी बचा रहता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“अगर लोगों को अकेले सफ़र करने की वे ख़राबियाँ मालूम हो जाएँ जो मैं जानता हूँ तो कोई भी सवार कभी रात में अकेले सफ़र न करे।” (बुख़ारी)

एक बार एक आदमी काफ़ी दूर का सफ़र करके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो आपने मुसाफ़िर से पूछा—

“तुम्हारे साथ कौन है?” बोला, “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे साथ तो कोई भी आदमी नहीं है। मैं अकेला आया हूँ,” तो आपने फ़रमाया, “अकेला सवार शैतान है और दो सवार शैतान हैं, अलबत्ता तीन सवार सवार हैं।" (तिरमिज़ी)

3. औरत को हमेशा किसी महरम के साथ सफ़र करना चाहिए। हाँ, अगर एक-आधे दिन का कोई मामूली सफ़र हो तो कोई हरज नहीं, लेकिन एहतियात यही है कि कभी तन्हा सफ़र न करे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो औरत ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती है, उसके लिए जायज़ नहीं कि वह तीन दिन या उससे ज़्यादा का सफ़र अकेले करे। वह इतना बड़ा सफ़र उसी वक़्त कर सकती है, जब उसके साथ उसका बाप हो, भाई हो, शौहर हो या उसका अपना लड़का हो या फिर कोई और महरम हो।" (बुख़ारी)

और एक मौक़े पर तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यहाँ तक फ़रमाया—

“औरत को एक दिन और एक रात की दूरी पर भी अकेली न जाना चाहिए।" (मुस्लिम, बुख़ारी)

4. सफ़र को रवाना होते वक़्त जब सवारी पर बैठ जाएँ और सवारी हरकत में आए तो यह दुआ पढ़िए—

सुब्हानल्लज़ी सख़्ख़-र लना हाज़ा व मा कुन्ना लहू मुक़रिनी-न व इन्ना इला रब्बिना ल-मुन्क़लिबून। अल्लाहुम-म इन्ना नस-अलु-क फ़ी स-फ़रिना हा-ज़लबिर्-र वत्तक़्वा व मिनल अ-मलि मा तर्ज़ा अल्लाहुम-म हव्विन अलैना स-फ़-रना हाज़ा वत्वि अन्ना बुअ-दहू अल्लाहुम-म अन्तस्साहिबु फ़िस्-स-फ़रि वल ख़लीफ़तु फ़िल अह्-लि, अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क मिंवअ-साइस्-स-फ़रि व कआ-बतिल मंज़रि, व सूइल मुन-क़-लबि फ़िलमालि वल अह्-लि वल व-लदि वल हौरि बअ-दल कौरि व दअ-वतिल मज़्लूम। (मुस्लिम, अबू दाऊद, तिरमिज़ी)

"पाक व बरतर है वह ख़ुदा जिसने उसको हमारे बस में कर दिया, हालाँकि हम उसको क़ाबू में करनेवाले न थे। यक़ीनन हम अपने परवरदिगार की ओर लौट जानेवाले हैं। ऐ अल्लाह! हम तुझसे अपने इस सफ़र में नेकी और तक़्वा की तौफ़ीक़ चाहते हैं और ऐसे कामों की तौफ़ीक़ जो तेरी ख़ुशनूदी के हों। ऐ ख़ुदा! हमपर यह सफ़र आसान फ़रमा दे और इसकी दूरी हमारे लिए कम कर दे। ऐ ख़ुदा! तू ही इस सफ़र में साथी है और तू ही घरवालों पर ख़लीफ़ा और निगराँ है। ऐ ख़ुदा! मैं तेरी पनाह चाहता हूँ सफ़र की मशक़्क़तों से, नागवार दृश्यों से और अपने माल, अपने से मुताल्लिक़ लोगों और अपनी औलाद में बुरी वापसी से, और अच्छाई के बाद बुराई से और मज़्लूम की बद-दुआ से।"

5. रास्ते में दूसरों की सहूलियात और आराम का भी ख़याल रखिए। रास्ते के साथी का भी हक़ है। क़ुरआन में है, 'वस्साहिबि बिल जम्बि' (पहलू के साथी के साथ अच्छा बरताव करो)। पहलू के साथी से तात्पर्य हर ऐसा आदमी है जिससे कहीं भी, किसी वक़्त आपका साथ हो जाए। सफ़र के बीच के छोटे-से साथी का भी यह हक़ है कि आप अपने सफ़र के साथी के साथ अच्छे से अच्छा व्यवहार करें और कोशिश करें कि आपकी किसी बात या काम से उसको कोई तकलीफ़ न पहुँचे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"क़ौम का सरदार उनका सेवक होता है। जो आदमी दूसरों की सेवा करने में बाज़ी ले जाए, उससे नेकी में आगे बढ़नेवाला अगर कोई हो सकता है तो सिर्फ़ वही जो ख़ुदा की राह में शहादत पाए।" (मिश्कात)

6. सफ़र के लिए रवाना होते वक़्त और वापस आने पर दो रकअत शुक्राने की नफ़्ल पढ़िए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का यही अमल था।

7. जब आपकी गाड़ी, बस या जहाज़ ऊँचाई पर चढ़े या उड़े तो यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म ल-कश-श-रफ़ु अला कुल्लि श-र-फ़िंव व ल-कल हम्दु अला कुल्लि हाल।

"ऐ ख़ुदा! तुझे हर बुज़ुर्गी और बुलन्दी पर बड़ाई हासिल है। हम्द व सना हर हाल में तेरा ही हक़ है।"

8. रात को कहीं ठहरना पड़े तो हिफ़ाज़तवाली जगह पर ठहरिए, जहाँ चोर-डाकू से आपका जान व माल बचा हुआ हो और तकलीफ़ पहुँचानेवाले जानवरों का भी कोई खटका न हो।

9. सफ़र की ज़रूरत पूरी होने पर घर वापस आने में जल्दी कीजिए। बेज़रूरत घूमने-फिरने से बचिए।

10. सफ़र से वापसी पर यकायक बिना इत्तिला रात को घर में न आना चाहिए, पहले से इत्तिला दीजिए, वरना मस्जिद में दोगाना नफ़्ल अदा करके घरवालों को मौक़ा दीजिए कि वे अच्छी तरह से आपके स्वागत के लिए तैयार हो सकें।

11. सफ़र में अगर जानवर साथ हों तो उनके सुख और आराम का भी ख़याल रखिए और अगर कोई सवार हो तो उसकी ज़रूरतों और हिफ़ाज़त का भी एहतिमाम कीजिए।

12. जाड़े के मौसम में ज़रूरी बिस्तर वग़ैरह साथ रखिए और मेज़बान को बेजा परेशानी में न डालिए।

13. सफ़र में पानी का बरतन और जा-नमाज़ (वह कपड़ा या चटाई जिस पर खड़े होकर नमाज़ पढ़ते हैं) साथ रखिए ताकि इस्तिंजा, वुज़ू, नमाज़ और पानी पीने की तकलीफ़ न हो।

14. कुछ आदमी सफ़र कर रहे हों तो एक को अपना अमीर मुक़र्रर कर लीजिए, अलबत्ता हर आदमी अपना टिकट, ज़रूरत भर रक़म और दूसरे ज़रूरी सामान अपने क़ब्ज़े में रखे।

15. जब सफ़र में कहीं रात हो जाए तो यह दुआ पढ़िए—

या अरज़ु! रब्बी व रब्बुकिल्लाहु अऊज़ु बिल्लाहि मिन शर्रिकि व शर्रिमा ख़ुलि-क़ फ़ीकि व शर्रिमा यदिब्बु अलैकि व अ'ऊज़ु बिल्लाहि मिन अ-सदिंव व अस-व-द व मिनल हय्यति वल अक़-रबि व मिन शर्रि साकिनिल ब-लदि व मिवं वालिदिवं वमा व-लद। (अबू दाऊद)

"ऐ ज़मीन! मेरा और तेरा परवरदिगार अल्लाह है। मैं ख़ुदा की पनाह चाहता हूँ तेरी बुराई से, और उन जीवों की बुराई से जो ख़ुदा ने तुझ में पैदा की हैं, और उन जीवों की बुराई से जो तुझपर चलते हैं और मैं ख़ुदा की पनाह चाहता हूँ शेर से, काले नाग से और साँप और बिच्छू से, इस शहर के बाशिंदों से और हर बाप और औलाद की बुराई से।"

16. और जब सफ़र से घर को वापस आएँ तो यह दुआ पढ़िए—

औ-बन औ-बल्लि रब्बिना नौबल्ला युग़ादिरु अलैना हौबा। (हिस्ने हसीन)

"पलटना है, अपने रब की ओर पलटना है और अपने रब ही के हुज़ूर तौबा है, ऐसी तौबा जो हमपर गुनाह का कोई असर बाक़ी न रहने दे।"

17. जब किसी को सफ़र पर विदा करें तो कुछ दूर उसके साथ जाइए, रुख़्सत करते वक़्त उससे भी दुआ की दरख़्वास्त कीजिए और उसको यह दुआ देते हुए विदा कीजिए—

अस्तौदिउल्ला-ह दी-न-क व अमा-न-त-क व ख़वाती-म अ-मलिक। (हिस्ने हसीन)

“मैं तुम्हारे दीन, अमानत और अमल के ख़ात्मे को ख़ुदा के सुपुर्द करता हूँ।"

18. जब कोई सफ़र से वापस आए तो उसका स्वागत कीजिए और मुहब्बत ज़ाहिर करनेवाले शब्दों को कहते हुए, ज़रूरत और मौक़े का लिहाज़ करते हुए, हाथ मिलाइए या गले भी मिलिए।

8. रंज व ग़म के आदाब

1. मुसीबतों को सब्र व सुकून के साथ बरदाश्त कीजिए, कभी हिम्मत न हारिए और रंज व ग़म को कभी हद से आगे बढ़ने न दीजिए। दुनिया की ज़िन्दगी में कोई भी इनसान रंज व ग़म, मुसीबत व तकलीफ़, आफ़त व नाकामी और नुक़सान से निडर और बचा हुआ नहीं रह सकता, अलबत्ता मोमिन और काफ़िर के चरित्र में यह फ़र्क़ ज़रूर होता है कि काफ़िर रंज व ग़म की भीड़ से परेशान होकर होश व हवास खो बैठता है, मायूसी का शिकार होकर हाथ-पैर छोड़ देता है और कभी-कभी ग़म की ताब (सहन शक्ति) न लाकर आत्महत्या कर लेता है जबकि मोमिन बड़े से बड़े हादसे पर भी सब्र का दामन हाथ से नहीं छोड़ता और सब्र व मज़बूती का पुतला बनकर चट्टान की तरह जमा रहता है। वह यूँ सोचता है कि यह जो कुछ हुआ तक़दीरे इलाही के मुताबिक़ हुआ। ख़ुदा का कोई हुक्म हिक्मत व मस्लहत से ख़ाली नहीं, और यह सोचकर कि ख़ुदा जो कुछ करता है, अपने बन्दे की बेहतरी के लिए करता है, यक़ीनन इसमें भला पहलू ही होगा। मोमिन को ऐसा रूहानी सुकून व इतमीनान हासिल होता है कि ग़म की चोट में मज़ा आने लगता है और तक़दीर का यह अक़ीदा हर मुश्किल को आसान बना देता है। ख़ुदा का इरशाद है—

“जो मुसीबतें भी धरती पर आती हैं और जो आफ़तें भी तुमपर आती हैं, वे सब इससे पहले कि हम उन्हें वुजूद में लाएँ, एक किताब में (लिखी हुई हिफ़ाज़त के साथ तयशुदा) हैं, इसमें कोई शक नहीं कि यह बात ख़ुदा के लिए आसान है, ताकि तुम अपनी नाकामी पर ग़म न करते रहो।" (क़ुरआन, 57:22-23)

यानी तक़दीर पर ईमान लाने का फ़ायदा यह है कि मोमिन बड़ी से बड़ी मुसीबत को भी तक़दीर का फ़ैसला समझकर अपने ग़म का इलाज पा लेता है और परेशान नहीं होता। वह हर मामले की निसबत अपने मेहरबान ख़ुदा की तरफ़ करके, भलाई के पहलू पर निगाह जमा लेता है और सब्र व शुक्र से हर बुराई में से अपने लिए भलाई निकालने की कोशिश करता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मोमिन का मामला भी ख़ूब ही है, वह जिस हाल में भी होता है भलाई ही समेटता है। अगर वह दुख, बीमारी और ग़रीबी से दो-चार होता है तो सुकून के साथ बरदाश्त करता है और यह आज़माइश उसके हक़ में भलाई साबित होती है, और अगर उसको ख़ुशी और ख़ुशहाली नसीब होती है तो शुक्र अदा करता है और यह ख़ुशहाली उसके लिए भलाई की वजह बनती है।" (मुस्लिम)

2. जब रंज व ग़म की कोई ख़बर सुनें या कोई नुक़सान हो जाए या कोई दुख और तकलीफ़ पहुँचे या किसी अचानक मुसीबत में ख़ुदा न-ख़ास्ता गिरफ़्तार हो जाएँ तो तुरन्त 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' (यानी हम ख़ुदा ही के हैं और उसी की ओर लौटकर जानेवाले हैं) पढ़िए। मतलब यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है, सब ख़ुदा ही का है। उसी ने दिया है और वही लेनेवाला है। हम भी उसी के हैं और उसी की ओर लौटकर जाएँगे। हम हर हाल में ख़ुदा की रज़ा पर राज़ी हैं। उसका हर काम मस्लहत, हिक्मत, और इनसाफ़ के मुताबिक़ है। वह जो कुछ करता है, किसी बड़ी भलाई को निगाह में रखकर करता है। वफ़ादार ग़ुलाम का काम यह है कि किसी वक़्त भी उसके माथे पर शिकन न आए।

ख़ुदा का इरशाद है—

“और हम ज़रूर तुम्हें डर, ख़तरा, भूख, जान व माल के नुक़सान और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे, और ख़ुशख़बरी उन लोगों को दीजिए जो मुसीबत पड़ने पर (सब्र करते हैं और) कहते हैं, 'हम ख़ुदा ही के हैं और ख़ुदा ही की ओर हमें पलट कर जाना है।' उनपर उनके रब की ओर से बड़ी इनायतें होंगी और उसकी रहमत होगी, और ऐसे ही लोग हिदायत के रास्ते पर हैं।" (क़ुरआन, 2:155-157)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब कोई बन्दा मुसीबत पड़ने पर 'इन्ना लिल्लाहि...' पढ़ता है तो ख़ुदा उसकी मुसीबत को दूर फ़रमा देता है, उसको अच्छे अंजाम से नवाज़ता है और उसको उसकी पसंदीदा चीज़ उसके बदले में अता फ़रमा देता है।"

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का चिराग़ बुझ गया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पढ़ा, 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।'

किसी ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या चिराग़ का बुझना भी कोई मुसीबत है?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "जी हाँ! जिस बात से भी मोमिन को दुख पहुँचे, वह मुसीबत है।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिस मुसलमान को भी कोई दिली तकलीफ़, जिस्मानी तकलीफ़ और बीमारी, कोई रंज व ग़म और दुख पहुँचता है, यहाँ तक कि अगर उसे एक काँटा भी चुभ जाता है (और वह इसपर सब्र करता है) तो ख़ुदा उसके गुनाहों को माफ़ फ़रमा देता है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जितनी बड़ी आज़माइश और मुसीबत होती है, उतना ही बड़ा उसका बदला होता है, और ख़ुदा जब किसी गिरोह से मुहब्बत करता है तो उनको (और ज़्यादा निखारने और कुन्दन बनाने के लिए) आज़माइश में डाल देता है। अतः जो लोग ख़ुदा की रज़ा पर राज़ी रहें, ख़ुदा भी उनसे राज़ी होता है और जो इस आज़माइश में ख़ुदा से नाराज़ हों, ख़ुदा भी उनसे नाराज़ हो जाता है।" (तिरमिज़ी)

हज़रत अबू मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जब किसी बन्दे का कोई बच्चा मरता है, तो ख़ुदा फ़रिश्तों से पूछता है, "क्या तुमने मेरे बन्दे के बच्चे की जान निकाल ली?" वे कहते हैं, “हाँ।” फिर वह उनसे पूछता है, "तुमने उसके जिगर के टुकड़े की जान निकाल ली?" वे कहते हैं, “हाँ।" फिर वह उनसे पूछता है, “तो मेरे बन्दे ने क्या कहा?" वे कहते हैं, “इस मुसीबत में उसने तेरी हम्द की और 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा", तो ख़ुदा उनसे फ़रमाता है, "मेरे इस बन्दे के लिए जन्नत में एक घर बनाओ और उसका नाम 'बैतुल हम्द' (शुक्र का घर) रखो।” (तिरमिज़ी)

3. किसी तकलीफ़ और हादसे पर ग़म ज़ाहिर करना एक फ़ितरी (स्वाभाविक) बात है, अलबत्ता इस बात का पूरा-पूरा ख़याल रखिए कि ग़म और दुख की बहुत ज़्यादा तकलीफ़ में भी ज़बान से कोई नाहक़ बात न निकले और सब्र व शुक्र का दामन हाथ से छूटने न पाए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बेटे हज़रत इबराहीम (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी की गोद में थे और साँस के उखड़ने का वक़्त था। यह रुला देनेवाला मंज़र देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आँखों से आँसू टपकने लगे और फ़रमाया— “ऐ इबराहीम! हम तेरी जुदाई से ग़मगीन हैं, पर ज़बान से वही निकलेगा जो अल्लाह की मरज़ी के मुताबिक़ होगा।" (मुस्लिम)

4. ग़म की ज़्यादती में भी कोई ऐसी हरकत न कीजिए जिससे नाशुक्री और शिकायत की बू आए और जो शरीअत के ख़िलाफ़ हो। दहाड़ें मार-मारकर रोना, गिरेबान फाड़ना, गालों पर तमाँचे मारना, चीख़ना-चिल्लाना और मातम में सिर और सीना पीटना, मोमिन के लिए किसी तरह जायज़ नहीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी गिरेबान फाड़ता, गालों पर तमाँचे मारता और जाहिलियत की तरह चीख़ता-चिल्लाता और बैन करता है, वह मेरी उम्मत में से नहीं है।" (तिरमिज़ी)

हज़रत जाफ़र तैयार (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब शहीद हुए और उनकी शहादत की ख़बर उनके घर पहुँची तो उनके घर की औरतें चीख़ने-चिल्लाने लगीं और मातम करने लगीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहला भेजा कि मातम न किया जाए, मगर वे बाज़ न आईं तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दोबारा मना फ़रमाया, फिर भी वे न मानीं तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुक्म दिया उनके मुँह में ख़ाक भर दो। (बुख़ारी)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक जनाज़े में शरीक थे। एक औरत अंगीठी लिए हुए आई। आपने उसको इतनी सख़्ती से डाँटा कि वह उसी वक़्त भाग गई। (सीरतुन्नबी, भाग-6)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया कि जनाज़े के पीछे कोई आग और राग न ले जाए।

अरब में यह रस्म थी कि लोग जनाज़े के पीछे चलते तो ग़म जाहिर करने के लिए अपनी चादर फेंक देते थे, सिर्फ़ कुरता पहने रहते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इन लोगों को इस हाल में देखा तो फ़रमाया—

“जाहिलियत की रस्म अपना रहे हो? मेरे जी में आया कि तुम्हारे हक़ में ऐसी बददुआ करूँ कि तुम्हारी शक्लें ही बिगड़ जाएँ।" लोगों ने उसी वक़्त अपनी-अपनी चादरें ओढ़ लीं और फिर कभी ऐसा न किया। (इब्ने माजा)

5. बीमारी को बुरा-भला न कहिए और न कोई शिकायत की बात ज़बान पर लाइए, बल्कि निहायत सब्र व ज़ब्त से काम लीजिए और आख़िरत के बदले की तमन्ना कीजिए।

बीमारी झेलने और तकलीफ़ें बरदाश्त करने से मोमिन के गुनाह धुलते हैं, वह साफ़-सुथरा हो जाता है और आख़िरत में बड़ा बदला मिलता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मोमिन को जिस्मानी तकलीफ़ या बीमारी या किसी और वजह से जो भी दुख पहुँचता है, अल्लाह तआला उसकी वजह से उसके गुनाहों को इस तरह झाड़ता है जैसे पेड़ अपने पत्तों को झाड़ देता है।” (बुख़ारी, मुस्लिम)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक औरत को काँपते देखकर पूछा, "ऐ उम्मे साइब (मुसय्यिब)! क्या बात है, तुम क्यों काँप रही हो?” कहने लगीं— "मुझे बुख़ार ने घेर रखा है, उसको ख़ुदा समझे।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हिदायत फ़रमाई—

"नहीं, बुख़ार को बुरा मत कहो, क्योंकि बुख़ार इस तरह आदम की औलाद को गुनाहों से पाक कर देता है जिस तरह आग लोहे के मैल को दूर करके साफ़ करती है।" (मुस्लिम)

हज़रत अता बिन रिबाह (रहमतुल्लाह अलैह) अपना एक क़िस्सा बयान करते हैं कि एक बार काबे के पास हज़रत अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुझसे बोले, "तुम्हें एक जन्नती औरत दिखाऊँ?" मैंने कहा, "ज़रूर दिखाइए।" कहा, देखो, यह जो काली कलूटी औरत है, यह एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और बोली, “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे मिरगी का ऐसा दौरा पड़ता है कि तन-बदन का होश नहीं रहता और मैं इस हालत में बिलकुल नंगी हो जाती हूँ। ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे लिए ख़ुदा से दुआ कीजिए।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "अगर तुम इस तकलीफ़ को सब्र के साथ बरदाश्त करती रहो तो ख़ुदा तुम्हें जन्नत से नवाज़ेगा और अगर चाहो तो मैं दुआ कर दूँ कि ख़ुदा तुम्हें अच्छा कर दे।" यह सुनकर औरत बोली, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं इस तकलीफ़ को सब्र के साथ बरदाश्त कर लूँगी, अलबत्ता यह दुआ फ़रमा दीजिए कि मैं इस हालत में नंगी न हो जाया करूँ।" तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उसके लिए दुआ फ़रमाई। हज़रत अता कहते हैं कि मैंने इस लम्बे क़द की औरत उम्मे ज़ुफ़र को काबा की सीढ़ियों पर देखा।

6. किसी की मौत पर तीन दिन से ज़्यादा ग़म न मनाइए। रिश्तेदारों की मौत पर दुखी होना और आँसू बहाना एक फ़ितरी बात है, लेकिन इसकी मुद्दत ज़्यादा से ज़्यादा तीन दिन है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“किसी मोमिन के लिए यह जायज़ नहीं कि तीन दिन से ज़्यादा किसी का शोक मनाए, अलबत्ता बेवा के शोक की मुद्दत चार महीने दस दिन है। इस मुद्दत में न वह कोई रंगीन कपड़ा पहने, न ख़ुश्बू लगाए और न कोई बनाव-शृंगार करे।" (तिरमिज़ी)

हज़रत ज़ैनब बिन्त जहश के भाई का इंतिक़ाल हुआ तो चौधे दिन पुर्से के लिए कुछ औरतें पहुँची। उन्होंने सबके सामने ख़ुश्बू लगाई और फ़रमाया—

"मुझे इस वक़्त ख़ुश्बू लगाने की कोई ज़रूरत न थी। मैंने यह ख़ुश्बू सिर्फ़ इसलिए लगाई कि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से सुना है कि किसी मुसलमान औरत को शौहर के सिवा किसी भी रिश्तेदार के लिए तीन दिन से ज़्यादा शोक मनाना जायज़ नहीं।"

7. रंज व ग़म और मुसीबत में एक-दूसरे को सब्र पर उभारिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब उहुद की लड़ाई से वापस तशरीफ़ लाए तो औरतें अपने-अपने अज़ीज़ों और रिश्तेदारों का हाल मालूम करने के लिए हाज़िर हुईं। जब हज़रत हम्ना बिन्त जहश नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने आईं तो आपने उनको सब्र पर उभारा और कहा अपने भाई अब्दुल्लाह पर सब्र करो। उन्होंने 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा और मग़फ़िरत की दुआ की। फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "अपने मामूँ हमज़ा पर भी सब्र करो।" उन्होंने फिर 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा और मग़फ़िरत की दुआ की।

हज़रत अबू तलहा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का लड़का बीमार था। वह बच्चे को इस हाल में छोड़कर काम पर चले गए। उनके जाने के बाद बच्चे का इंतिक़ाल हो गया। बेगम अबू तलहा ने लोगों से कह दिया कि अबू तलहा को इसकी ख़बर न होने पाए। वे जब शाम को अपने काम से घर वापस आए तो बीवी से पूछा—

"बच्चे का क्या हाल है?” बोलीं, "पहले से ज़्यादा सुकून में है।” यह कहकर अबू तलहा के लिए खाना लाईं। उन्होंने इतमीनान से खाना खाया और लेट गए। सुबह हुई तो नेक बीवी ने बड़े हिक्मत भरे अन्दाज़ से पूछा, “अगर कोई किसी को उधार कोई चीज़ दे और फिर वापस माँगे तो क्या उसको यह हक़ हासिल है कि वह उस चीज़ को रोक ले?" अबू तलहा ने कहा, "भला यह हक़ कैसे हासिल हो जाएगा," तो सब्र करनेवाली उस बीवी ने कहा, “अपने बेटे पर भी सब्र कीजिए।" (मुस्लिम)

8. हक़ के रास्ते में आनेवाली मुसीबतों का खुले दिल से स्वागत कीजिए और इस राह में जो दुख पहुँचे, उनपर दुखी होने के बजाए ख़ुशी महसूस करते हुए ख़ुदा का शुक्र अदा कीजिए कि उसने अपनी राह में आपकी क़ुरबानी क़बूल फ़रमाई।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की माँ हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) सख़्त बीमार पड़ीं। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) उनका हाल पूछने के लिए आए। माँ ने उनसे कहा, “बेटे! दिल में यह आरज़ू है कि दो बातों में से एक जब तक न देख लूँ, ख़ुदा मुझे ज़ोंदा रखे, या तो तू लड़ाई के मैदान में शहीद हो जाए और मैं तेरी शहादत की ख़बर सुनकर सब्र की सआदत हासिल करूँ या, तू जीते और मैं तुझे जीता हुआ देखकर आँखें ठंडी करूँ।" ख़ुदा का करना कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनकी ज़िन्दगी ही में शहादत का दर्जा पाया। शहीद करने के बाद हज्जाज ने उनको सूली पर लटका दिया। हज़रत अस्मा काफ़ी बूढ़ी हो चुकी थीं। लेकिन इंतिहाई कमज़ोरी के बाद भी यह रुला देनेवाला मंज़र देखने के लिए तशरीफ़ लाईं और अपने जिगर के टुकड़े की लाश को देखकर रोने-पीटने के बजाए हज्जाज से बोलीं, “इस सवार के लिए अभी वक़्त नहीं आया कि घोड़े की पीठ से नीचे उतरे?"

9. दुख-दर्द में एक-दूसरे का साथ दीजिए। दोस्तों के रंज व ग़म में शरीक होइए और उनका ग़म दूर करने में हर तरह का साथ दीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सारे मुसलमान मिलकर एक आदमी के जिस्म की तरह हैं कि अगर उसकी आँखें भी दुखें तो सारा बदन महसूस करता है और अगर सिर में दर्द हो तो सारा जिस्म तकलीफ़ में होता है।" (मुस्लिम)

हज़रत जाफ़र तैयार (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब शहीद हुए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया “जाफ़र के घर खाना भिजवा दो, इसलिए कि आज ग़म की ज़्यादती की वजह से उनके घरवाले खाना न पका सकेंगे।" (अबू दाऊद)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जिस आदमी ने किसी ऐसी औरत को तसल्ली दी, जिसका बच्चा मर गया हो, तो उसको जन्नत में दाख़िल किया जाएगा और जन्नत की चादर उढ़ाई जाएगी।” (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“जिस आदमी ने किसी मुसीबत में ग्रस्त आदमी को तसल्ली दी तो उसको भी उतना ही बदला मिलेगा, जितना ख़ुद मुसीबत पहुँचे हुए को मिलेगा।” (तिरमिज़ी)

इसी सिलसिले में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसकी भी ताकीद फ़रमाई कि जनाज़े में शिरकत की जाए। हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी जनाज़े में शरीक हुआ और जनाज़े की नमाज़ पढ़ी तो उसको एक क़ीरात भर सवाब मिलेगा और नमाज़े जनाज़ा के बाद दफ़न में भी शरीक हुआ तो उसको दो क़ीरात मिलेंगे।" किसी ने पूछा— “दो क़ीरात कितने बड़े होंगे?"

फ़रमाया— “दो पहाड़ों के बराबर।" (बुख़ारी)

10. मुसीबतों की मौजूदगी और ग़म की भीड़ में ख़ुदा की तरफ़ रुजू कीजिए और नमाज़ पढ़कर निहायत आजिज़ी के साथ ख़ुदा से दुआ कीजिए। क़ुरआन में है—

“मोमिनो! (मुसीबत और आज़माइश में) सब्र और नमाज़ से मदद लो।" (क़ुरआन, 2:153)

ग़म की हालत में आँखों से आँसू बहना और दुखी होना फ़ितरी (स्वाभाविक) बात है। लेकिन दहाड़ें मार-मारकर ज़ोर-ज़ोर से रोने से परहेज़ कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब रोते तो रोने में आवाज़ न होती, ठंडी साँसें लेते, आँखों से आँसू जारी होते और सीने से ऐसी आवाज़ आती जैसे कोई हांडी उबल रही हो या चक्की चल रही हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ुद अपने ग़म और रोने की हालत का नक़्शा इन शब्दों में बयान किया है—

"आँख आँसू बहाती है, दिल ग़मगीन होता है और हम मुँह से वही बोल निकालते हैं जिससे हमारा पालनहार ख़ुश होता है।"

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब फ़िक्रमन्द होते तो आसमान की तरफ़ सिर उठाकर फ़रमाते-

सुब्हानल्लाहिल अज़ीम।

"पाक व बरतर है बड़ाईवाला ख़ुदा।"

और जब ज़्यादा रोने की हालत में होते और दुआ में लगे होते तो फ़रमाते—

या हय्यु या क़य्यूम। (तिरमिज़ी)

11. रंज व ग़म की ज़्यादती, मुसीबतों के आते रहने और परेशानी और बेचैनी के बढ़ जाने में ये दुआएँ पढ़िए—हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया कि ज़ुन्नून (मछलीवाले यानी हज़रत यूनुस (अलैहिस्सलाम)) ने मछली के पेट में अपने परवरदिगार से जो दुआ की, वह यह है—

ला इला-ह इल्ला अन-त सुब्हा-न-क इन्नी कुन्तु मिनज़्ज़ालिमीन।

"तेरे सिवा कोई माबूद नहीं, तू बेऐब व पाक है, मैं ही अपने ऊपर ज़ुल्म ढानेवाला हूँ।"

अतः जो मुसलमान भी अपनी किसी तकलीफ़ या तंगी में ख़ुदा से यह दुआ माँगता है, ख़ुदा उसे ज़रूर क़बूल फ़रमाता है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी रंज या ग़म में पड़ते तो यह दुआ करते—

ला इला-ह इल्लल्लाहु रब्बुल अर्शिल अज़ीम, ला इला-ह इल्लल्लाहु रब्बुस्समावाति व रब्बुल अर्ज़ि रब्बुल अर्शिल करीम। (बुख़ारी, मुस्लिम)

"ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं है, वह बड़े अर्श का मालिक है। ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं है, वह आसमान व ज़मीन का मालिक है, अर्शे बुज़ुर्ग का मालिक है।”

हज़रत अबू मूसा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

ला हौ-ल व ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाहि व ला मल-ज-अ मिनल्लाहि इल्ला इलैह।

“गुनाह से रुके रहने की ताक़त और नेक अमल की तौफ़ीक़ बख़्शने की ताक़त सिर्फ़ ख़ुदा ही देनेवाला है और उसकी सज़ा से बचने के लिए कोई पनाहगाह नहीं सिवाए उसकी ज़ात के, यानी उसकी सज़ा से वही बच सकता है जो ख़ुद उसकी रहमत के दामन में पनाह ढूँढे।"

यह बोल 99 बीमारियों की दवा है। सबसे कम बात यह है कि इसका पढ़नेवाला रंज व ग़म से बचा रहता है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

जिस बन्दे को भी कोई दुख या तकलीफ़ पहुँचे और वह यह दुआ माँगे, अल्लाह तआला उसके रंज व ग़म को ज़रूर ख़ुशी में तबदील कर देगा—

अल्लाहुम-म इन्नी अब्दु-क वब्नु अब्दिक वब्नु अ-मति-क नासियती बियदि-क माज़िन फ़िय्-य हुक्मु-क, अदलुन फ़िय्-य क़ज़ाउ-क अस-अलु-क बिकुल्लिस्मिन हु-व ल-क सम्मै-त बिही नफ़-स-क अव अन्ज़ल-तहू फ़ी किताबि-क अव अल्लम-तहू अ-ह-दम मिन ख़लक़ि-क अविस्तअ-सर-त बिही फ़ी इल्मिल-ग़ैबि इन्-द-क अन तज-अ-लल क़ुरआ-नल अज़ी-म रबी-अ क़ल्बी, व नू-र ब-सरी व जला-अ हुज़्नी व ज़हा-ब हम्मी। (अहमद, इब्ने हिब्बान, हाकिम—हिस्ने हसीन के हवाले से)

"ऐ ख़ुदा! मैं तेरा बन्दा हूँ, मेरा बाप तेरा बन्दा है, मेरी माँ तेरी बन्दी है, मेरी चोटी तेरी क़ुदरत ही के क़ब्ज़े में है (यानी मैं पूरी तरह तेरे बस में हूँ)। तेरा ही हुक्म मेरे मामले में चलता है। मेरे बारे में तेरा ही हुक्म बिलकुल इनसाफ़ के मुताबिक़ है। मैं तेरे इस नाम का वास्ता देकर जिससे तूने मेरी ज़ात को जोड़ा है या अपनी किताब में उतारा है या अपनी मख़लूक़ में से किसी को सिखाया या अपने पास रौब के ख़ज़ाने ही में उसको छिपा रहने दिया, तुझसे दरख़ास्त करता हूँ कि तू इस अज़ीम क़ुरआन को मेरे दिल की बहार, मेरी आँखों का नूर, मेरे ग़म का इलाज और मेरे दिल की दवा बनाए।"

12. अगर कभी ख़ुदा न करे मुसीबतें और तकलीफ़ें इस तरह घेर लें कि ज़िन्दगी कठिन हो जाए और रंज व ग़म ऐसी भयानक शक्ल अपना लें कि आपको ज़िन्दगी बोझ मालूम होने लगे, तब भी कभी मौत की तमन्ना न कीजिए और न कभी अपने हाथों अपने को हलाक करने की शर्मनाक हरकत के बारे में सोचिए। यह बुज़दिली भी है और सबसे बुरी क़िस्म की ख़ियानत और गुनाह भी। ऐसी बेचैनी में बराबर ख़ुदा से यह दुआ करते रहिए—

अल्लाहुम-म अह्-यिनी मा का-नतिल हयातु ख़ैरल्ली व त-वफ़्फ़नी इज़ा का-नतिल वफ़ातु ख़ैरल्ली। (बुख़ारी, मुस्लिम)

“ऐ ख़ुदा! जब तक मेरे हक़ में ज़िन्दा रहना बेहतर हो, मुझे ज़िन्दा रख और जब मेरे हक़ में मौत ही बेहतर हो, तो मुझे मौत दे दे।"

13. जब किसी को किसी मुसीबत में फँसा देखें तो यह दुआ पढ़िए। हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

जिसने भी किसी को किसी मुसीबत में फँसा देखकर यह दुआ माँगी तो (इन्शाअल्लाह) वह उस मुसीबत से बचा रहेगा—

अल-हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी आफ़ानी मिम्मब-तला-कल्लाहु बिही व फ़ज़्ज़-लनी अला कसीरिम मिम्मन ख़-ल-क़ तफ़्ज़ीला। (तिरमिज़ी)

"ख़ुदा का शुक्र है जिसने मुझे इस मुसीबत से बचाए रखा जिसमें तुम फँसे हो और अपनी बहुत-सी मख़लूक़ों (रचनाओं और जीवों) पर मुझे बड़ाई दी।"

9. डर और ख़ौफ़ के आदाब

1. दीन के दुश्मनों की क़त्ल व ग़ारतगरी, ज़ुल्म व बर्बरता और फ़ितना व फ़साद का डर हो या क़ुदरती अज़ाबों की तबाहकारियों का डर हो— हर हाल में मोमिन जैसी सूझबूझ के साथ उसकी असल वजहों का पता लगाएँ और ऊपरी उपायों पर वक़्त बरबाद करने के बजाए किताब व सुन्नत के बताए हुए सच्चे उपायों पर अपनी पूरी ताक़त लगा दीजिए। क़ुरआन पाक में है—

"और तुम पर जो मुसीबतें आती हैं, वे तुम्हारी ही करतूतों का नतीजा हैं और ख़ुदा तो बहुत सी ख़ताओं को माफ़ करता रहता है।" (क़ुरआन, 42:30)

और क़ुरआन पाक ही ने इसका इलाज भी बता दिया है—

"और तुम सब मिलकर ख़ुदा की ओर पलटो, ऐ मोमिनो! ताकि तुम कामयाब हो जाओ।"  (क़ुरआन, 24:31)

यहाँ अरबी में शब्द 'तौबा' इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है 'पलटना' 'रुजू होना'। जब गुनाहों के भयानक दलदल में फँसी हुई उम्मत अपने गुनाहों पर शरमिंदा होकर ख़ुदा की ओर बन्दगी के जज़्बे के साथ फिर पलटती है और शर्म के आँसू से अपने गुनाहों की गन्दगी धोकर फिर ख़ुदा से अपना ताल्लुक़ जोड़ती है, तो इस हाल को क़ुरआन 'तौबा' शब्द से याद करता है और यही तौबा व इसतिग़फ़ार हर तरह के फ़ितना व फ़साद, डर और आतंक से बचने का सही इलाज है।

2. दीन के दुश्मनों के फैलाए फ़ितनों और ज़ुल्म व सितम से घबराकर बेहिम्मती दिखाने और बेरहमों से रहम की भीख माँगने की ज़िल्लत से कभी अपनी मिल्ली (सामुदायिक) ज़िन्दगी को दाग़दार न कीजिए। बल्कि उस कमज़ोरी पर क़ाबू पाने के लिए कमर कसिए जिसकी वजह से आपमें बुज़दिली पैदा हो रही है और दीन के दुश्मनों को आप पर ज़ुल्म ढाने और आपको हड़प करने की जुर्रत पैदा हो रही है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसकी दो वजहें बताई हैं—

1. दुनिया से मुहब्बत, और

2. मौत से नफ़रत

यह हिम्मत कीजिए कि आप न सिर्फ़ अपने सीने से, बल्कि मिल्लत के सीने से इन रोगों को दूर करके ही दम लेंगे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मेरी उम्मत पर वह वक़्त आनेवाला है जब दूसरी क़ौमें (तर निवाला समझकर) तुम पर इस तरह टूट पड़ेंगी, जिस तरह खानेवाले दस्तरख़्वान पर टूटते हैं।" किसी ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या उस ज़माने में हमारी तादाद इतनी कम हो जाएगी कि हमें निगल लेने के लिए क़ौमें एकजुट होकर हमपर टूट पड़ेंगी।" इरशाद फ़रमाया, "नहीं! उस वक़्त तुम्हारी तादाद कम न होगी, अलबत्ता तुम बाढ़ में बहनेवाले तिनकों की तरह बेवज़न होगे और तुम्हारा रौब निकल जाएगा और तुम्हारे दिलों में बुज़दिली और पस्त हिम्मती पैदा हो जाएगी।" इस पर एक आदमी ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! यह बुज़दिली क्यों पैदा हो जाएगी?" फ़रमाया, “इस वजह से कि तुम—

  • दुनिया से मुहब्बत करने लगोगे, और
  • मौत से भागने और नफ़रत करने लगोगे।" (अबू दाऊद)

3. नफ़्सपरस्ती, अय्याशी, औरतों की सरबराही और गुनाहों के काम से अपने समाज को पाक कीजिए और अपनी इज्तिमाइयत (सामूहिकता) को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत बनाकर इज्तिमाई (सामूहिक) ताक़त के ज़रिए फ़ितना व फ़साद को मिटाने और मिल्लत (समुदाय) में बहादुरी, ज़िन्दगी और हौसला पैदा करने की कोशिश कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जब तुम्हारे हाकिम अच्छे लोग हों, और तुम्हारे ख़ुशहाल लोग सख़ी-दाता हों और तुम्हारे सामूहिक मामले आपसी मशविरों से तय पाते हों तो यक़ीनन तुम्हारे लिए ज़मीन की पीठ (पर ज़िन्दगी) ज़मीन की गोद (में मौत) से बेहतर है और जब तुम्हारे अमीर और हाकिम बदकार लोग हों और तुम्हारे समाज के मालदार, दौलत के पुजारी और कंजूस हों और तुम्हारे मामले तुम्हारी बेगमों के हाथों में हों तो फिर तुम्हारी ज़मीन की गोद (मौत) ज़मीन की पीठ (ज़िन्दगी) से कहीं बेहतर है।" (तिरमिज़ी)

4. हालात कैसे भी हिला मारनेवाले हों, हक़ की हिमायत में कभी भी कोताही न कीजिए। हक़ की हिमायत में जान दे देना इससे कहीं बेहतर है कि आदमी बेदीनी और बेग़ैरती की ज़िन्दगी गुज़ारे। कड़ी से कड़ी आज़माइश और बड़े से बड़े डर की हालत में भी हक़ का दामन हरगिज़ न छोड़िए। कोई मौत से डराए तो मुस्कुरा दीजिए और शहादत का मौक़ा आए तो शौक़ व जज़्बे के साथ उसका स्वागत कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फरमाते हैं—

"इस्लाम की चक्की गर्दिश में है, तो जिधर क़ुरआन का रुख़ हो, उसी तरफ़ तुम भी घूम जाओ। होशियार रहो! क़ुरआन और सत्ता बहुत जल्द अलग-अलग हो जाएँगे। (ख़बरदार) तुम क़ुरआन को न छोड़ना। आगे ऐसे हाकिम होंगे जो तुम्हारे बारे में फ़ैसला करेंगे। अगर तुम उनकी बात मानोगे तो वे तुम्हें सीधी राह से भटका देंगे और अगर तुम उनकी नाफ़रमानी करोगे तो वे तुम्हें मौत के घाट उतार देंगे।" सहाबी ने कहा, "तो फिर हम क्या करें, ऐ अल्लाह के रसूल!" नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "वही करो जो ईसा के साथियों ने किया। वे लोग आरों से चीरे गए और सूलियों पर लटकाए गए। ख़ुदा की नाफ़रमानी में ज़िन्दा रहने से कहीं बेहतर है कि आदमी ख़ुदा के हुक्मों की पैरवी करते हुए जान दे दे।”

5. उन सामूहिक बाधाओं के ख़िलाफ़ बराबर जिहाद करते रहिए जिनके नतीजों में समाज पर डर व आतंक की घटाएँ छा जाती हैं। ग़रीबी, अकाल, ख़ूँरेज़ी आम हो जाती है और दुश्मनों के ज़ालिमाना क़ब्ज़े में क़ौम बेबस होकर रह जाती है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, “जिस क़ौम में ख़ियानत का बाज़ार गरम हो जाएगा, ख़ुदा उस क़ौम के दिलों में दुश्मनी का डर और आतंक बैठा देगा और जिस समाज में ज़िना (व्यभिचार) की वबा आम हो जाएगी, वह तबाह होकर रहेगा। जिस सोसाइटी में नाप-तौल में बददियानती का रिवाज हो जाएगा वह ज़रूर फ़ाक़े का शिकार होगी और जहाँ नाहक़ फ़ैसले होंगे वहाँ लाज़मी तौर पर ख़ूँरेज़ी आम होगी। जो क़ौम भी अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगी उस पर बहरहाल दुश्मन का कब्ज़ा होकर रहेगा।" (मिश्कात)

6. जब दुश्मनों की ओर से डर पैदा हो तो यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म इन्ना नज-अलु-क फ़ी नुहूरिहिम व नऊज़ु बि-क मिन शुरूरिहिम। (अबू दाऊद, नसई—हिस्ने हसीन के हवाले से)

"ऐ अल्लाह! हम इन दुश्मनों के मुक़ाबले में तुझे ही अपनी ढाल बनाते हैं और उनकी बुराई और बिगाड़ से बचने के लिए तेरी पनाह लेते हैं।"

7. और जब दुश्मन के घेरे में फँसे हुए हों तो यह दुआ पढ़िए।

अल्लाहुम-मस्तुर औरातिना व आमिन रौआतिना। (अहमद-हिस्ने हसीन के हवाले से)

"ऐ अल्लाह! तू हमारी इज़्ज़त व आबरू की हिफ़ाज़त कर और डर व आतंक से अम्न अता कर।"

8. जब आँधी या घटा उठती देखें तो घबराहट और ख़ौफ़ महसूस कीजिए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को इस तरह हँसते नहीं देखा कि आपका पूरा मुँह खुल जाए। आप सिर्फ़ मुसकुराते थे और जब कभी आँधी या घटा आती तो आप घबरा जाते और दुआ करने लगते। ख़ौफ़ की वजह से कभी उठते, कभी बैठते और जब तक पानी न बरस जाता तब तक आपकी यही हालत रहती। मैंने पूछा—

“ऐ अल्लाह के रसूल मैं लोगों को देखती हूँ कि जब वे बदली देखते हैं तो ख़ुश होते हैं कि पानी बरसेगा और आपको देखती हूँ कि जब आप बदली देखते हैं तो आपके चेहरे पर बोझ और परेशानी दिखाई देने लगती है तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"आइशा! आख़िर मैं कैसे बेख़ौफ़ हो जाऊँ कि इस बदली में अज़ाब न होगा, जबकि क़ौमे आद पर आँधी का अज़ाब आ चुका है। क़ौमे आद ने जब उस बदली को देखा था तो कहा था कि यह हमपर पानी बरसाएगी।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

आँधी के वक़्त यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-मज-अलहा रियाहन व ला तज-अलहा रीहन अल्लाहुम-मज-अलहा रह-म-तन व ला तज-अलहा अज़ाबन। (तबरानी)

"ऐ अल्लाह! तू इसको भलाई की हवा बना दे, बुराई की हवा न बना। ख़ुदा! तू इसको रहमत बना दे, अज़ाब न बना।"

और अगर आँधी के साथ घुप-अँधेरा भी हो तो सूरा 'क़ुल अ-ऊज़ु बीरब्बिल फ़-लक़' और 'क़ुल अऊज़ु बिरब्बिन्नास' भी पढ़िए। (अबू दाऊद)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब आँधी उठती देखते तो यह दुआ पढ़ते—

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क ख़ै-रहा व ख़ै-रमा फ़ीहा व ख़ै-रमा उर्सि-लत बिही व अऊज़ु बि-क मिन शर्रिहा व शर्रिमा फ़ीहा व शर्रिमा उर्सिलत बिही। (मुस्लिम, तिरमिज़ी)

“ऐ अल्लाह! मैं तुझसे इस आँधी की भलाई और जो इसमें है, उसकी भलाई चाहता हूँ और जिस मक़सद के लिए यह भेजी गई है, उसकी भलाई चाहता हूँ और उस आँधी की बुराई से और जो उसमें है, उसकी बुराई से और जिस ग़रज़ के लिए यह भेजी गई है, उसकी बुराई से तेरी पनाह चाहता हूँ।"

9. जब बारिश की ज़्यादती से तबाही का डर हो तो यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म हवालैना ला अलैना अल्लाहुम-म अ-लल आकामि वज़्ज़िराबि व बुतूनिल अवदियति व मनाबितिश-शजर। (बुख़ारी, मुस्लिम)

"ऐ ख़ुदा! (बारिश) हमारे आस-पास बरसे, हमारे ऊपर न बरसे। ऐ अल्लाह! पहाड़ियों पर, टीलों पर, वादियों पर और खेत और पेड़ उगने की जगहों पर बरसे।"

10. जब बादलों की गरज और बिजली की कड़क सुनें तो बात-चीत बन्द करके क़ुरआन पाक की यह आयत पढ़ना शुरू कर दीजिए—

व युसब्बिहुर-रअदु बि-हम्दिही वल मलाइ-कतु मिन ख़ी-फ़तिही। (क़ुरआन, 13:13)

“और बादलों की गरज ख़ुदा की हम्द के साथ उसकी तस्बीह करती है और फ़रिश्ते भी उसके डर से काँपते हुए पाकी और बरतरी बयान करते हैं।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब बादलों की गरज सुनते तो बातें बन्द कर देते और यही आयत पढ़ते। (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि जो आदमी गरज के वक़्त तीन बार इस आयत को पढ़ ले, वह गरज की आफ़त से बचा रहेगा। (तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब बादलों की गरज और बिजली की कड़क सुनते तो यह दुआ पढ़ते—

अल्लाहुम्-म ला तक़्तुलना बि-ग़-ज़बि-क व ला तुहलिक्ना बि अज़ाबि-क व आफ़िना क़ब-ल ज़ालिक। (अल-अदबुल मुफ़रद)

"ऐ अल्लाह! हमें अपने ग़ज़ब से हलाक न कर, अपने अज़ाब से हमें तबाह न कर, और ऐसा वक़्त आने से पहले ही हमें अपनी पनाह में ले ले।”

11. जब आग लग जाए तो उसको बुझाने की भरपूर कोशिश के साथ-साथ 'अल्लाहु अकबर' भी कहते जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जब आग लगती देखो तो 'अल्लाहु अकबर' कहो, तकबीर आग को बुझा देती है।"

12. डर और आतंक (ख़ौफ़) के वक़्त यह दुआ पढ़िए। ख़ुदा ने चाहा तो आतंक दूर होगा और इतमीनान नसीब होगा। हज़रत बरा बिन आज़िब (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक आदमी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से शिकायत की कि मुझपर ख़ौफ़ छाया रहता है। आपने फ़रमाया, “यह दुआ पढ़ा करो।" उसने इस दुआ को बार-बार पढ़ा। ख़ुदा ने उसके दिल से ख़ौफ़ दूर फ़रमा दिया। (तबरानी)

सुब्हा-नल्लाहिल मलिकिल क़ुद्दूसि रब्बिल मलाइ-कति वर्रूहि जल्लल-तस्समावाति वल-अर्-ज़ बिल इज़्ज़ति वल ज-बरूत।

"पाक व बरतर है अल्लाह, सच्चा बादशाह, ऐबों से पाक। ऐ फ़रिश्तों और जिबरील के परवरदिगार! तेरा ही इक़्तिदार और दबदबा आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है।"

10. ख़ुशी के आदाब

1. ख़ुशी के मौक़ों पर ख़ुशी ज़रूर मनाइए। ख़ुशी इनसान का फ़ितरी (स्वाभाविक) तक़ाजा और ज़रूरत है। दीन फ़ितरी ज़रूरतों की अहमियत को महसूस करता है और कुछ फ़ायदेमंद हदों और शर्तों के साथ उन ज़रूरतों को पूरा करने पर उभारता है। दीन कभी यह पसन्द नहीं करता कि आप बनावटी वक़ार (बड़प्पन), अनचाही संजीदगी, हर वक़्त की मुर्दादिली और दुखी चेहरा बनाए रखने पर अपने किरदार (चरित्र) की कशिश (आकर्षण) को ख़त्म कर दें। वह ख़ुशी के तमाम जायज़ मौक़ों पर ख़ुशी मनाने का पूरा-पूरा हक़ देता है और यह चाहता है कि आप हमेशा बुलन्द हौसलों, ताज़ा वलवलों और नई उमंगों के साथ ताज़ा दम रहें। जायज़ मौक़ों पर ख़ुशी न ज़ाहिर करना और ख़ुशी मनाने को दीनी वक़ार के ख़िलाफ़ समझना, दीन की समझ से महरूमी है।

आपको किसी दीनी कर्त्तव्य को अंजाम देने की तौफ़ीक़ मिले, आप या आपका कोई रिश्तेदार इल्म व फ़ज़्ल में ऊँची जगह पा ले, ख़ुदा आपको माल व दौलत या किसी और नेमत से नवाज़े, आप किसी लंबे सफ़र से ख़ैरियत के साथ घर वापस आएँ, आपका कोई रिश्तेदार किसी दूर की जगह के सफ़र से आए आपके यहाँ किसी इज़्ज़तदार मेहमान का आना हो, आपके यहाँ शादी-ब्याह या बच्चे की पैदाइश हो, किसी रिश्तेदार की सेहत या ख़ैरियत की ख़बर मिले या मुसलमानों की कामयाबी की ख़ुशख़बरी सुनें या कोई त्योहार हो, इस तरह के तमाम मौक़ों पर ख़ुशी मनाना आपका स्वाभाविक हक़ है। इस्लाम न सिर्फ़ ख़ुशी मनाने की इजाज़त देता है, बल्कि उसको दीनदारी भी क़रार देता है।

हज़रत काब बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि जब अल्लाह ने मेरी तौबा क़बूल कर ली और मुझे ख़ुशख़बरी मिली तो मैं तुरन्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में पहुँचा। मैंने जाकर सलाम किया। उस वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का चेहरा ख़ुशी से जगमगा रहा था और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को जब भी कोई ख़ुशी हासिल होती तो आपका चेहरा इस तरह चमकता कि जैसे चाँद का कोई टुकड़ा है, और हम आपके चेहरे की रौनक़ और चमक से समझ जाते कि आप इस वक़्त बहुत ख़ुश हैं। (रियाज़ुस्सालिहीन)

2. त्योहार के मौक़े पर एहतिमाम के साथ ख़ूब खुलकर ख़ुशी मनाइए और तबीयत को ज़रा आज़ाद छोड़ दीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब मदीने तशरीफ़ ले आए तो फ़रमाया—

"तुम साल में दो दिन ख़ुशियाँ मनाया करते थे। अब ख़ुदा ने तुमको उससे बेहतर दो दिन दे दिए यानी 'ईदुल फित्र' और 'ईदुल अज़्हा'।”

इस लिए साल के इन दो इस्लामी त्योहारों में पूरी-पूरी ख़ुशी ज़ाहिर कीजिए, और मिल-जुलकर कुछ खुली तबीयत से कुछ हँसी-ख़ुशी के काम स्वाभाविक ढंग से अपनाइए। इसी लिए इन त्योहारों में रोज़ा रखने से मना किया गया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ये दिन खाने-पीने, आपसी ख़ुशी का मज़ा उठाने और ख़ुदा को याद करने के हैं।" (शरहे मआनिल आसार)

ईद के दिन सफ़ाई-सुथराई और नहाने-धोने का एहतिमाम कीजिए। हैसियत के मुताबिक़ अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनिए, ख़ुश्बू लगाइए, अच्छे खाने खाइए और बच्चों को मौक़ा दीजिए कि वे जायज़ क़िस्म के सैर-सपाटों और खेलों से मन बहलाएँ और खुलकर ख़ुशी मनाएँ।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि ईद का दिन था। कुछ लड़कियाँ बैठी वे गीत गा रही थीं जो बुआस की लड़ाई के मौक़े पर अनसार ने गाए थे कि इसी बीच हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) तशरीफ़ ले आए। बोले, “नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के घर में यह गाना-बजाना?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "अबू बक्र! रहने दो। हर क़ौम के लिए त्योहार का दिन होता है और आज हमारी ईद का दिन है।"

एक बार ईद के दिन कुछ हब्शी बाज़ीगर फ़ौजी करतब दिखा रहे थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ये करतब ख़ुद भी देखे और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को भी अपनी आड़ में लेकर दिखाए। आप इन बाज़ीगरों को शाबाशी भी देते जाते थे। जब आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) देखते-देखते थक गईं तो आपने फ़रमाया, “अच्छा अब जाओ।” (बुख़ारी)

3. ख़ुशी मनाने में इस्लामी ज़ौक़ और इस्लामी हिदायतों और आदाब का ज़रूर ख़याल रखिए। जब आपको कोई ख़ुशी मिले तो ख़ुशी देनेवाले परवरदिगार का शुक्रिया अदा कीजिए। उसके हुज़ूर शुक्राने का सज्दा कीजिए। ख़ुशी के बहाव में कोई ऐसा काम या रवैया न अपनाइए जो इस्लामी मिज़ाज से मेल न खाए और इस्लामी तहज़ीब और हिदायतों के ख़िलाफ़ हो। ख़ुशी ज़रूर ज़ाहिर कीजिए, लेकिन हदों का ख़याल ज़रूर रखिए। ख़ुशी ज़ाहिर करने में इतना आगे न बढ़िए कि घमण्ड ज़ाहिर होने लगे और नियाज़मंदी, बन्दगी और आजिज़ी के जज़्बे दबने लगें, क़ुरआन में है—

"और उन नेमतों को पाकर इतराने न लगो, जो ख़ुदा ने दी हैं। ख़ुदा इतरानेवाले और बड़ाई जतानेवाले को नापसन्द करता है।" (क़ुरआन, 57:23)

और ख़ुशी में इतने फूल न जाइए कि ख़ुदा की याद से ग़ाफिल होने लगें। मोमिन की ख़ुशी यह है कि वह ख़ुशी देनेवाले को और ज़्यादा याद करे। उसके हुज़ूर शुक्र का सज्दा अदा कीजिए और अपने कामों से, बातों से, ख़ुदा के फ़ज़्ल व करम और अज़मत व जलाल का और ज़्यादा इज़हार करें।

रमज़ान के महीने भर के रोज़े रखकर, रात में क़ुरआन की तिलावत और तरावीह की तौफ़ीक़ पाकर जब आप ईद का चाँद देखते हैं तो ख़ुशी से झूम उठते हैं कि ख़ुदा ने जो हुक्म दिया था, आप ख़ुदा की मदद से उसे पूरा करने में कामयाब हुए और तुरन्त अपने माल में से अपने ग़रीब और मुहताज भाइयों का हिस्सा उनको पहुँचा देते हैं कि अगर आपकी इबादतों में कोई कोताही हो गई हो और बन्दगी का हक़ अदा करने में कोई भूल हुई हो, तो उसकी कमी पूरी हो जाए और ख़ुदा के ग़रीब बन्दे भी ईद की ख़ुशी में शामिल होकर, मिल-जुलकर कर ख़ुशी ज़ाहिर कर सकें और फिर आप ख़ुदा की इस तौफ़ीक़ पर ईद की सुबह को दोगाना शुक्र अदा करके अपनी ख़ुशी सही-सही ज़ाहिर करते हैं और इसी तरह ईदुल-अज़्हा के दिन हज़रत इबराहीम और हज़रत इसमाईल की महान और बेमिसाल क़ुरबानी की याद मनाकर और क़ुरबानी के जज़्बों से अपने सीने को भरा पाकर सज्द-ए-शुक्र बजा लाते हैं और फिर आपकी हर एक बस्ती में, सारे गली-कूचे और सड़क 'अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला इला-ह इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर व लिल्लाहिल हम्द' की आवाज़ों से गूंज उठते हैं और जब आप ख़ुदा की शरीअत के मुताबिक़ ईद के दिनों में अच्छा खाते, अच्छा पहनते और ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए जायज़ तरीक़ों को अपनाते हैं तो आपकी ये सारी सरगर्मियाँ अल्लाह का ज़िक्र बन जाती हैं।

4. अपनी ख़ुशी में दूसरों को भी शामिल कीजिए और इसी तरह दूसरों की ख़ुशी में ख़ुद भी शिरकत करके उनकी खुशियों में बढ़ोत्तरी कीजिए और ख़ुशी के मौक़ों पर मुबारकबाद देने का भी एहतिमाम कीजिए।

हज़रत काब बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) की तौबा जब क़बूल हुई और मुसलमानों को मालूम हुआ तो लोग जत्थे के जत्थे उनके पास मुबारकबाद देने के लिए पहुँचने लगे और ख़ुशी ज़ाहिर करने लगे, यहाँ तक कि हज़रत तलहा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की मुबारकबाद और ख़ुशी ज़ाहिर करने से तो हज़रत काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर इतना असर पड़ा कि ज़िन्दगी भर याद करते रहे। हज़रत काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जब बुढ़ापे के ज़माने में अपने बेटे अब्दुल्लाह को अपनी आज़माइश और तौबा का वाक़िआ सुनाया तो ख़ास तौर पर हज़रत तलहा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़ुशी का ज़िक्र किया और फ़रमाया कि मैं तलहा की मुबारकबाद और उनके ख़ुशी के जज़्बों को कभी नहीं भूल सकता।

ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी जब हज़रत काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) को तौबा क़बूल कर लिए जाने की ख़ुशख़बरी सुनाई तो बेहद ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए फ़रमाया—

“काब! यह तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे ज़्यादा ख़ुशी का दिन है।" (रियाज़ुस्सालिहीन)

किसी की शादी हो या किसी के यहाँ बच्चा पैदा हो या इसी तरह की कोई ख़ुशी हासिल हो, तो ख़ुशी में शिरकत कीजिए और मुबारकबाद दीजिए।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी के निकाह पर उसको मुबारकबाद देते तो यूँ फरमाते—

बा-र-कल्लाहु ल-क व बा-र-क अलैकुमा व ज-म-अ बै-नकुमा फ़ी ख़ैर।(तिरमिज़ी)

"ख़ुदा तुम्हें ख़ुशहाल रखे और तुम दोनों पर बरकतें उतारें और अच्छे तरीक़े से तुम दोनों का निबाह करे।"

एक बार हज़रत हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने किसी बच्चे की पैदाइश पर मुबारकबाद देने का तरीक़ा सिखाते हुए फ़रमाया कि यूँ कहा करो—

“ख़ुदा तुम्हें अपनी इस देन में ख़ैर व बरकत दे। अपनी शुक्रगुज़ारी की तुम्हें तौफ़ीक़ बख़्शे, बच्चे को जवानी की बहारें दिखाए और उसको तुम्हारा फरमाँबरदार उठाए।"

5. जब आपका कोई रिश्तेदार या जान पहचान का कोई आदमी किसी दूर के सफ़र से आए तो उसका स्वागत कीजिए और उसके ख़ैरियत के साथ वापस आ जाने और अपने मक़सद में कामयाब होने पर ख़ुशी ज़ाहिर कीजिए और अगर वह ख़ैरियत से वापस होने पर ख़ुशी का कोई जश्न मनाए तो उसमें शिरकत कीजिए और जब आप किसी सफ़र से ख़ैरियत के साथ वतन वापस पहुँचें और इस ख़ुशी में कोई जश्न मनाएँ तो इस ख़ुशी में भी क़रीबी लोगों को शरीक करें, अलबत्ता ना-मुनासिब ख़र्च, फ़िज़ूलख़र्ची और दिखावे से बचिए और कोई ऐसा ख़र्च हरगिज़ न कीजिए, जो आपकी ताक़त से ज़्यादा हो।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब तबूक की लड़ाई से वापस तशरीफ़ लाए, तो मुसलमान मर्द और बच्चे आपके स्वागत के लिए सनीयतुल विदाअ तक पहुँचे। (अबू दाऊद)

और जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मक्का से हिजरत करके मदीना पहुँचे और दक्षिण की ओर से शहर में दाख़िल होने लगे तो मुसलमान मर्द, औरतें, बच्चे, बच्चियाँ सभी आपका स्वागत करने के लिए निकल आए थे और अनसार की बच्चियाँ ख़ुशी से यह गीत गा रही थीं:

त-ल-अल बदरु अलैना मिन सनिय्यातिल विदाइ

व-ज-बश्-शुकरु अलैना मा दआ लिल्लाहि दाइ

अय्यु-हल मब-ऊसु फ़ीना जिअ्-त बिल अम्-रिल मुताइ

—“(आज) हम पर चौदहवीं का चाँद निकला (दक्षिणी पहाड़ी) सनीयतुल विदाअ से।

—हम पर शुक्र वाजिब है उस दावत व तालीम का कि दावत देनेवाले ने हमें ख़ुदा की ओर बुलाया।

—ऐ हमारे बीच भेजे जानेवाले रसूल! आप ऐसा दीन लाए हैं, जिसकी हम पैरवी करेंगे।"

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) किसी सफ़र से मदीना पहुँचे तो आपने अपने ऊँट ज़िब्ह करके लोगों की दावत फ़रमाई। (अबू दाऊद)

6. शादी-ब्याह के मौक़े पर भी ख़ुशी मनाइए और इस ख़ुशी में अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को भी शरीक कीजिए। इस मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कुछ अच्छे गीत गाने और दफ़ बजाने की भी इजाज़त दी है। इसका मक़सद ख़ुशी के जज़्बों की तस्कीन भी है और निकाह का आम एलान और शोहरत भी।

  • हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपने रिश्ते की एक औरत का किसी अनसारी से विवाह किया। जब उसको विदा किया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“लोगों ने उनके साथ कोई लौंडी क्यों नहीं भेज दी जो दफ़ बजाती और कुछ गीत गाती जाती?" (बुख़ारी)

  • जब हज़रत रुबैअ बिन्त मुअव्वज़ (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह हुआ तो उनके पास कुछ लड़कियाँ बैठी दफ़ बजा रही थीं और अपने उन बुज़ुर्गों की तारीफ़ में कुछ गीत गा रही थीं जो बद्र की लड़ाई में शहीद हुए थे। एक लड़की ने एक लड़ी पढ़ी—

"हमारे बीच एक ऐसा नबी है जो कल होनेवाली बात को जानता है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सुना तो फ़रमाया, “इसको छोड़ दो और वही गाओ जो पहले गा रही थीं।" (बुख़ारी)

7. शादी-ब्याह की ख़ुशी में अपनी हैसियत और ताक़त के मुताबिक़ अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को कुछ खिलाने-पिलाने का भी एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ुद अपनी शादी में भी वलीमे की दावत की और दूसरों को भी इसपर उभारा। आपका इरशाद है—

“और कुछ न हो तो एक बकरी ही ज़िब्ह करके खिला दो।" (बुख़ारी)

शादी में शिरकत का मौक़ा न हो तो कम से कम मुबारकबाद का पैग़ाम ज़रूर भेजिए। निकाह, शादी और इसी तरह के दूसरे ख़ुशी के मौक़ों पर तोहफ़े देने से ताल्लुक़ात में ताज़गी और मज़बूती पैदा होती है और मुहब्बत में गर्मी और बढ़ती है। हाँ, इसे ज़रूर ध्यान में रखिए कि तोहफ़ा अपनी हैसियत के मुताबिक़ हो और दिखावे से बचते हुए अपने इख़लास की जाँच ज़रूर करते रहिए।

अध्याय-2

अल्लाह की इबादत

11. मस्जिद के आदाब

1. ख़ुदा की नज़र में ज़मीन का सबसे ज़्यादा बेहतर हिस्सा वह है, जिसपर मस्जिद बनाई जाए। ख़ुदा से प्यार रखनेवालों की पहचान यह है कि वे मस्जिद से भी प्यार रखते हैं। क़ियामत के भयानक दिन में जब कहीं कोई साया न होगा, ख़ुदा उस दिन अपने उस बन्दे को अपने अर्श के साए में रखेगा जिसका दिल मस्जिद में लगा रहता हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“और वह आदमी (अर्श के साए में होगा) जिसका दिल मस्जिद में अटका रहता हो।" (बुख़ारी)

2. मस्जिद की ख़िदमत (सेवा) कीजिए और उसको आबाद रखिए। मस्जिद की ख़िदमत करना और उसको आबाद रखना ईमान की निशानी है। ख़ुदा का इरशाद है—

“ख़ुदा की मस्जिदों को वही लोग आबाद रखते हैं जो ख़ुदा पर और क़ियामत के दिन पर ईमान रखते हैं।" -क़ुरआन, 9:18

3. फ़र्ज़ नमाज़ें हमेशा मस्जिद में जमाअत से पढ़िए। मस्जिद में अज़ान और जमाअत का बाक़ायदा इन्तिज़ाम कीजिए और मस्जिद के निज़ाम से अपनी पूरी ज़िन्दगी का ताल्लुक़ जोड़िए। मस्जिद एक ऐसा मरकज़ है कि मोमिन की पूरी ज़िन्दगी उसी के चारों ओर गर्दिश करती है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मुसलमानों में कुछ लोग वे हैं जो मस्जिदों में जमे रहते हैं और वहाँ से हटते नहीं हैं। फ़रिश्ते ऐसे लोगों के साथ उठते-बैठते हैं। अगर ये लोग ग़ायब हो जाएँ तो फ़रिश्ते उनको खोजते फिरते हैं और अगर बीमार पड़ जाएँ तो फ़रिश्ते उनकी बीमारपुर्सी करते हैं और अगर किसी काम में लगे हों तो फ़रिश्ते उनकी मदद करते हैं— मस्जिद में बैठनेवाला ख़ुदा की रहमत का मुन्तज़िर होता है।" (मुस्नद अहमद)

4. मस्जिद में नमाज़ के लिए ज़ौक व शौक़ से जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"सुबह व शाम मस्जिद में नमाज़ के लिए जाना ऐसा है, जैसे जिहाद के लिए जाना।"

"जो लोग सुबह के अँधेरे में मस्जिद की तरफ़ जाते हैं, क़ियामत में उनके साथ पूरी रौशनी होगी।"

“नमाज़े बाजमाअत के लिए मस्जिद में जानेवाले का हर क़दम एक नेकी को बढ़ाता है और एक गुनाह को मिटाता है।" (इब्ने हिब्बान)

5. मस्जिद को साफ़-सुथरा रखिए। मस्जिद में झाड़ू दीजिए, कूड़ा-करकट साफ़ कीजिए, ख़ुश्बू कीजिए। ख़ासतौर पर जुमा के दिन मस्जिद को ख़ुश्बू में बसाने की कोशिश कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“मस्जिद में झाड़ू देना, मस्जिद को पाक-साफ़ रखना, मस्जिद का कूड़ा-करकट बाहर फेंकना, मस्जिद में ख़ुश्बू करना, ख़ासतौर पर जुमा के दिन मस्जिद को ख़ुश्बू में बसाना जन्नत में ले जानेवाले काम हैं।” (इब्ने माजा)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया है—

“मस्जिद का कूड़ा-करकट साफ़ करना हसीन आँखोंवाली हूरों (स्वर्ग में रहनेवाली सुन्दर स्त्रियों) का मह्र है।" (तबरानी)

6. मस्जिद में डरते-काँपते जाइए। दाख़िल होते वक़्त अस्सलामु अलैकुम कहिए और ख़ामोश बैठकर इस तरह ज़िक्र कीजिए कि ख़ुदा की बुज़ुर्गी और उसका जलाल आपके दिल पर छाया हुआ हो। हँसते-बोलते ग़फ़लत के साथ मस्जिद में दाख़िल होना ग़ाफ़िलों और बेअदबों का काम है, जिनके दिल ख़ुदा के ख़ौफ़ से ख़ाली हैं। कुछ लोग इमाम के साथ रुकू में शामिल होने और रक्अत पाने के लिए मस्जिद में दौड़ते हैं, यह भी मस्जिद के एहतिराम के ख़िलाफ़ है। रक्अत मिले या न मिले, संजीदगी, वक़ार और आजिज़ी के साथ मस्जिद में चलिए और भाग-दौड़ से परहेज़ कीजिए।

7. मस्जिद में सुकून से बैठिए और दुनिया की बातें न कीजिए। मस्जिद में शोर मचाना, ठट्ठा-मज़ाक़ करना, बाज़ार के भाव पूछना और बताना, दुनिया के हालात पर चर्चा करना और ख़रीदने व बेचने का बाज़ार गर्म करना मस्जिद की बेहुरमती (अनादर) है। मस्जिद ख़ुदा की इबादत का घर है, उसमें सिर्फ़ इबादत कीजिए।

8. मस्जिद में ऐसे छोटे बच्चों को न ले जाइए जो मस्जिद के एहतिराम का शुऊर न रखते हों और मस्जिद में पेशाब-पाख़ाना करें या थूकें।

9. मस्जिद को गुज़रने का रास्ता न बनाइए। मस्जिद के दरवाज़े में दाख़िल होने के बाद मस्जिद का यह हक़ है कि आप उसमें नमाज़ पढ़ें या बैठकर ज़िक्र और तिलावत करें।

10. अगर आपकी कोई चीज़ कहीं बाहर गुम हो जाए तो उसका एलान मस्जिद में न कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मस्जिद में अगर कोई आदमी इस तरह एलान करता तो आप नाराज़ होते और यह कलिमा फरमाते—

ला रद्-दल्लाहु अलै-क ज़ाल्-ल-त-क।

"ख़ुदा तुझको तेरी गुम हुई चीज़ न मिलाए।”

11. मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त पहले दायाँ पाँव रखिए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद व सलाम भेजिए, फिर यह दुआ पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि जब तुम में से कोई मस्जिद में आए तो पहले नबी पर दरूद भेजे और फिर यह दुआ पढ़े—

अल्लाहुम-मफ़्तह ली अब-वा-ब रह-मतिक। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे।"

और मस्जिद में दाख़िल होने के बाद दो रक्अत नफ़्ल नमाज़ पढ़िए। इस नफ़्ल को तहीयतुल मस्जिद कहते हैं। इसी तरह जब कभी सफ़र से वापसी हो तो सबसे पहले मस्जिद पहुँच कर दो रक्अत नफ़्ल नमाज़ पढ़िए और इसके बाद अपने घर जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब भी सफ़र से वापस आते तो पहले मस्जिद में जाकर नफ़्ल पढ़ते और फिर अपने घर तशरीफ़ ले जाते।

12. मस्जिद से निकलते वक़्त बायाँ पाँव बाहर रखिए और यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म इन्नी अस्-अलु-क मिन फ़ज़्लिक। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! मैं तुझ से तेरे फ़ज़्ल व करम का सवाल करता हूँ।"

13. मस्जिद में बाक़ायदा अज़ान और नमाज़ बाजमाअत का नज़्म क़ायम कीजिए और मुअज़्ज़िन और इमाम उन लोगों को बनाइए जो अपने दीन व अख़लाक़ में कुल मिलाकर सबसे बेहतर हों। जहाँ तक मुमकिन हो, कोशिश कीजिए कि ऐसे लोग अज़ान और इमामत के कर्त्तव्य निभाएँ जो मुआवज़ा न लें और ख़ुशी से आख़िरत के बदले की तलब में उन कर्त्तव्यों को निभाएँ।

14. अज़ान के बाद यह दुआ पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, जिस आदमी ने अज़ान सुनकर यह दुआ माँगी तो क़ियामत के दिन वह मेरी शफ़ाअत का हक़दार होगा।" (बुख़ारी)

अल्लाहुम-म रब-ब हाज़िहिद्दअ-वतित्ताम्मति वस्सलातिल क़ाइ-मति आति मुहम्म-दनिल वसी-ल-त वल फ़ज़ी-ल-त वब्-असहु मक़ामम महमू-द-निल्लज़ी वअत्तहू। (बुख़ारी)

"ऐ ख़ुदा! इस कामिल दावत और इस खड़ी होनेवाली नमाज़ के मालिक! मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपनी नज़दीकी और बुज़ुर्गी अता फ़रमा और उनको उस मक़ामे महमूद पर ले जा, जिसका तूने उनसे वादा फ़रमाया है।"

15. मुअज़्ज़िन जब अज़ान दे रहा हो तो उसके बोलों को सुन-सुनकर आप भी दोहराइए, अलबत्ता जब वह 'हय्-य अलस्सलाह और हय्-य अलल फ़लाह' कहे, तो उसके जवाब में कहिए 'ला हौ-ल व ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाहिल अलिय्यिल अज़ीम' और फ़ज्र की अज़ान में जब मुअज़्ज़िन 'अस्सलातु ख़ैरुम मिनन्नौम' कहे तो जवाब में ये बोल कहिए- 'स-दक़-त व ब-रर-त' (तुमने सच कहा और भलाई की बात कही।)

16. तकबीर कहनेवाला जब 'क़द क़ा-मतिस्सलाह' कहे तो जवाब में ये बोलिए 'अक़ा-म-हल्लाहु व अदा-महा' (ख़ुदा उसे हमेशा क़ायम रखे)

17. औरतें मस्जिदों में जाने के बजाए घर ही में नमाज़ अदा करें। एक बार हज़रत अबू हुमैद साअदी की बीवी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अर्ज़ किया, "अल्लाह के रसूल! आपके साथ नमाज़ पढ़ने का बड़ा शौक़ है।" आपने फ़रमाया, "मुझे तुम्हारा शौक़ मालूम है, लेकिन तुम्हारा कोठरी में नमाज़ पढ़ना इससे बेहतर है कि तुम दालान में नमाज़ पढ़ो और दालान में नमाज़ पढ़ना इससे बेहतर है कि आँगन में पढ़ो।"

लेकिन औरतों को मस्जिद की ज़रूरतें पूरी करने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए। पानी का इन्तिज़ाम, चटाई का इन्तिज़ाम और ख़ुश्बू वग़ैरह का सामान भेजें और मस्जिद से दिली ताल्लुक़ क़ायम रखें।

18. होशियार बच्चों को अपने साथ मस्जिद ले जाइए। माओं को चाहिए कि वे बच्चों को उकसाकर और उभारकर मस्जिद भेजें, ताकि बच्चों में शौक़ पैदा हो। मस्जिद में उनके साथ बड़ी नर्मी, मुहब्बत और प्रेम का व्यवहार कीजिए। वे अगर कोई कोताही करें या कोई शरारत कर बैठें तो डाँटने-फटकारने के बजाए उन्हें प्यार और मुहब्बत से समझाइए और भलाई पर उभारिए।

12. नमाज़ के आदाब

1. नमाज़ के लिए पाकी और सफ़ाई का पूरा-पूरा ख़याल रखिए। वुज़ू करते वक़्त भी मिस्वाक का एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“क़ियामत में मेरी उम्मत की निशानी यह होगी कि उनके माथे और वुज़ू के अंग नूर से चमक रहे होंगे, इसलिए जो आदमी अपने नूर को बढ़ाना चाहे बढ़ाए।"

2. साफ़-सुथरे, संजीदा, तहज़ीब और सलीक़े के कपड़े पहनकर नमाज़ अदा कीजिए। क़ुरआन मजीद में है—

“ऐ आदम के बेटो! हर नमाज़ के मौक़े पर अपनी ज़ीनत से सजा करो।" (क़ुरआन, 7:31)

3. वक़्त की पाबन्दी से नमाज़ अदा कीजिए—

“मोमिनों पर वक़्त की पाबन्दी से नमाज़ फ़र्ज़ की गई है।” (क़ुरआन, 4:103)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा— "ऐ अल्लाह के रसूल! ख़ुदा के नज़दीक कौन-सा अमल सबसे ज़्यादा पसन्दीदा है?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "नमाज़ को उसके वक़्त पर अदा करना।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"ख़ुदा ने पाँच नमाज़ें फ़र्ज़ की हैं। जिस आदमी ने इन नमाज़ों को उनके तयशुदा (निश्चित) वक़्त पर अच्छी तरह वुज़ू करके और मन लगाकर अदा किया तो ख़ुदा पर उसका यह हक़ है कि वह उसको बख़्श दे और जिसने इन नमाज़ों में कोताही की तो ख़ुदा पर उसकी मग़्फ़िरत व निजात की कोई ज़िम्मेदारी नहीं, चाहे तो अज़ाब दे और चाहे तो माफ़ कर दे।” (मालिक)

4. नमाज़ हमेशा जमाअत से पढ़िए। अगर कभी जमाअत न मिले तब भी फ़र्ज़ नमाज़ मस्जिद ही में पढ़ने की कोशिश कीजिए, अलबत्ता सुन्नतें घर पर पढ़ना भी अच्छा है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी चालीस दिन तक तकबीरे ऊला (नमाज़ की पहली तकबीर) के साथ नमाज़ बाजमाअत पढ़े, वह दोज़ख़ और निफ़ाक़ दोनों से बचा लिया जाता है।" (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“अगर लोगों को नमाज़ बाजमाअत का अज्र व सवाब मालूम हो जाए तो वे हज़ार मजबूरियों के बावजूद भी जमाअत के लिए दौड़-दौड़कर आएँ— जमाअत की पहली सफ़ ऐसी है जैसे फ़रिश्तों की। अकेले नमाज़ पढ़ने से दो आदमियों की जमाअत बेहतर है, फिर जितने आदमी ज़्यादा हों उतनी ही यह जमाअत ख़ुदा को ज़्यादा प्रिय होती है।" (अबू दाऊद)

5. नमाज़ सुकून के साथ पढ़िए और रुकू व सुजूद (सज्दे) इतमीनान के साथ अदा कीजिए। रुकू से उठने के बाद इतमीनान के साथ सीधे खड़े हो जाइए फिर सज्दे में जाइए। इसी तरह दोनों सज्दों के दरमियान भी मुनासिब वक़्त दीजिए और दोनों सज्दों के बीच यह दुआ भी पढ़ लिया कीजिए।

अल्लाहुम्मग़्फ़िर ली वर-हम्नी वह्दिनी वज्बुरनी व आफ़िनी वर्ज़ुक़्नी। (अबू दाऊद)

"ऐ ख़ुदा तू मेरी मग़फ़िरत फ़रमा, मुझपर रहम कर, मुझे सीधी राह पर चला, मेरी पस्तहाली दूर फ़रमा, मुझे सलामती दे और मुझे रोज़ी दे।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जो आदमी नमाज़ को अच्छी तरह अदा करता है, नमाज़ उसको दुआएँ देती है कि ख़ुदा उसी तरह तेरी भी हिफाज़त करे, जिस तरह तूने मेरी हिफाज़त की।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"सबसे बुरी चोरी नमाज़ की चोरी है।" लोगों ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! नमाज़ में कोई चोरी कैसे करता है?" फ़रमाया, "रुकू और सज्दे अधूरे-अधूरे करके।"

6. अज़ान की आवाज़ सुनते ही नमाज़ की तैयारी शुरू कर दीजिए और वुज़ू करके पहले से मस्जिद में पहुँच जाइए और ख़ामोशी के साथ सफ़ में बैठकर जमाअत का इन्तिज़ार कीजिए। अज़ान सुनने के बाद सुस्ती और देर करना और कसमसाते हुए नमाज़ के लिए जाना मुनाफ़िक़ों की निशानी है।

7. अज़ान भी ज़ौक व शौक़ से पढ़ा कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से एक आदमी ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे कोई ऐसा काम बता दीजिए जो मुझे जन्नत में ले जाए।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"नमाज़ के लिए अज़ान दिया करो।"

आपने यह भी फ़रमाया— "मुअज़्ज़िन की आवाज़ जहाँ तक पहुँचती है और जो उसकी अज़ान सुनता है, वह क़ियामत में मुअज़्ज़िन के हक़ में गवाही देगा। जो आदमी जंगल में अपनी बकरियाँ चराता हो और अज़ान का वक़्त आने पर ऊँची आवाज़ से अज़ान कहे तो जहाँ तक उसकी आवाज़ जाएगी, क़ियामत के दिन वे सारी चीज़ें उसके हक़ में गवाही देंगी।" (बुख़ारी)

8. अगर आप इमाम हैं तो इमाम के आदाब और शर्तों का एहतिमाम करते हुए नमाज़ पढ़ाइए और मुक़्तदियों की आसानी को ध्यान में रखकर अच्छी तरह इमामत कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो इमाम अपने मुक़्तदियों को अच्छी तरह नमाज़ पढ़ाते हैं और यह समझकर पढ़ाते हैं कि हम अपने मुक़्तदियों की नमाज़ की ज़मानत लेते हैं, उनको अपने मुक़्तदियों की नमाज़ का भी सवाब मिलता है जितना सवाब मुक़्तदियों को मिलता है उतना ही इमाम को भी मिलता है और मुक़्तदियों के अज्र व सवाब में कोई कमी नहीं की जाती।" (तबरानी)

9. नमाज़ उसी तरह दिल लगाकर पढ़िए कि दिल पर ख़ुदा की बड़ाई और जलाल का रौब छा जाए और आप ख़ौफ़ और सुकून से घिरे हुए हों। नमाज़ में बेवजह हाथ-पैर हिलाना, बदन खुजाना, दाढ़ी में ख़िलाल करना, नाक में उँगली देना, कपड़े संभालना बड़ी बेअदबी की हरकतें हैं। इनसे सख़्ती के साथ परहेज़ करना चाहिए।

10. नमाज़ के ज़रिए ख़ुदा से क़रीब होने की कोशिश कीजिए। नमाज़ इस तरह पढ़िए कि जैसे आप ख़ुदा को देख रहे हैं या कम से कम यह एहसास रखिए कि ख़ुदा आपको देख रहा है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“बन्दा अपने रब से सबसे ज़्यादा क़रीब उस वक़्त होता है जब वह उसके हुज़ूर सज्दा करता है। इसलिए जब तुम सज्दा करो तो सज्दे में ख़ूब दुआ किया करो।" (मुस्लिम)

11. नमाज़ ज़ौक़ व शौक़ के साथ पढ़िए। मारे-बाँधे व दिखावे की रस्मी नमाज़ हक़ीक़त में नमाज़ नहीं है। एक वक़्त की नमाज़ के पढ़ने के बाद दूसरी नमाज़ का बेचैनी और शौक़ से इन्तिज़ार कीजिए।

एक दिन मग़रिब की नमाज़ के बाद कुछ लोग इशा की नमाज़ का इन्तिज़ार कर रहे थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तशरीफ़ लाए और आप इतने तेज़-तेज़ चलकर आए कि आपकी साँस चढ़ गई थी। आप ने फ़रमाया—

“लोगो! ख़ुश हो जाओ। तुम्हारे पालनहार ने आसमान का एक दरवाज़ा खोलकर तुम्हें फ़रिश्तों के सामने किया और फ़ख़्र करते हुए फ़रमाया: देखो! मेरे बन्दे एक नमाज़ अदा कर चुके और दूसरी नमाज़ का इन्तिज़ार कर रहे हैं।"

12. ग़ाफ़िल और लापरवाहों की तरह जल्दी-जल्दी नमाज़ पढ़कर सिर से बोझ न उतारिए, बल्कि दिल की गहराई के साथ ख़ुदा को याद कीजिए और दिल, दिमाग़, एहसास, जज़्बा और ख़याल हर चीज़ से पूरी तरह ख़ुदा की तरफ़ रुजू होकर पूरी यकसूई और ध्यान के साथ नमाज़ पढ़िए। नमाज़, वही नमाज़ है जिसमें ख़ुदा की याद हो, मुनाफ़िक़ों की नमाज़ ख़ुदा की याद से ख़ाली होती है।

13. नमाज़ के बाहर भी नमाज़ का हक़ अदा कीजिए और पूरी ज़िन्दगी को नमाज़ का आइना बनाइए। क़ुरआन में है—

“नमाज़ बेहयाई और नाफ़रमानी से रोकती है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक बहुत ज़्यादा असरदार मिसाल में इस तरह उसको पेश फ़रमाया—आपने एक सूखी टहनी को ज़ोर-ज़ोर से हिलाया। टहनी में लगे हुए पत्ते हिलाने से झड़ गए, फिर आपने फ़रमाया—

"नमाज़ पढ़नेवालों के गुनाह इसी तरह झड़ जाते हैं जिस तरह इस सूखी टहनी के पत्ते झड़ गए।"

इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरआन की यह आयत पढ़ी-

व अक़िमिस्सला-त त-र-फ़-यिन्नहारि व ज़ु-लफ़म-मिनल्लैलि, इन्नल-ह-सनाति युज़्हिब-नस्सय्यिआति, ज़ालि-क ज़िक्रा लिज़्ज़ाकिरीन।

"और नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों किनारों पर (यानी फ़ज्र और मग़रिब) और कुछ रात गए पर। बेशक नेकियाँ बुराइयों को मिटा देती हैं। यह नसीहत है नसीहत हासिल करनेवालों के लिए।” (क़ुरआन, 11:114)

14. नमाज़ में ठहर-ठहरकर क़ुरआन शरीफ़ पढ़िए और नमाज़ के दूसरे ज़िक्र भी ठहर-ठहरकर पूरी तवज्जोह, दिल और दिमाग़ की हाज़िरी के साथ पढ़िए। समझ-समझकर पढ़ने से शौक़ में बढ़ोत्तरी होती है और नमाज़ वाक़ई नमाज़ बन जाती है।

15. नमाज़ पाबन्दी से पढ़िए, कभी नाग़ा न कीजिए। मोमिनों की बुनियादी ख़ूबी ही यह है कि वे पाबन्दी के साथ बिना नाग़ा नमाज़ पढ़ते हैं।

“मगर नमाज़ी लोग वे हैं जो अपनी नमाज़ों की पाबन्दी करते हैं।" (क़ुरआन, 70:22-23)

16. फ़र्ज़ नमाज़ों की पाबन्दी के साथ-साथ नफ़्ल नमाज़ों का भी एहतिमाम कीजिए और ज़्यादा से ज़्यादा नफ़्ल नमाज़ पढ़ने की कोशिश कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा दिन-रात में बारह रक्अतें [इससे मुराद वे सुन्नतें हैं जो फ़र्ज़ नमाज़ों के साथ पढ़ी जाती हैं— 2 रक्अत फ़ज्र में, 6 रक्अत ज़ुह्र में, 2 रक्अत मग़रिब और 2 रकअत इशा में।] पढ़ता है, उसके लिए एक घर जन्नत में बना दिया जाता है।" (मुस्लिम)

17. सुन्नत और नफ़्ल कभी-कभी घर में भी पढ़ा कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के बाद कुछ नमाज़ घर में पढ़ा करो। ख़ुदा उस नमाज़ के तुफ़ैल तुम्हारे घरों में भलाई अता फ़रमाएगा।" (मुस्लिम)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुद भी सुन्नत और नफ़्ल अक्सर घर में पढ़ा करते थे।

18. फ़ज्र की नमाज़ के लिए जब घर से निकलें तो यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्-मज-अल फ़ी क़ल्बी नू-रंव व फ़ी ब-स-री नूरंव व फ़ी सम-ई नूरंव-व अन यमीनी नूरंव-व अन शिमाली नूरंव-व मिन ख़ल्फ़ी नूरंव व मिन अमामी नूरंव वज-अल-ली नूरंव व फ़ी अ-स-बी नूरंव व फ़ी लहमी नूरंव व फ़ी दमी नूरंव व फ़ी शअरी नूरंव व फ़ी जिल्दी नूरंव व फ़ी लिसानी नूरंव वज-अल फ़ी नफ़्सी नूरंव व अअ-ज़िमली नूरंव वज-अलनी नूरंव वज-अल मिन फ़ौक़ी नूरंव व मिन तहती नूरन, अल्लाहुम-म अअतिनी नूरा। (हिस्ने हसीन)

"ऐ ख़ुदा तू पैदा फ़रमा दे मेरे दिल में नूर, मेरी आँखों में नूर, मेरी शुनवाई (तवज्जोह) में नूर, मेरे दाएँ नूर, मेरे बाएँ नूर, मेरे पीछे नूर, मेरे आगे नूर और मेरे लिए नूर ही नूर कर दे। मेरे पुट्ठों में नूर कर दे और मेरे गोश्त में नूर, मेरे ख़ून में नूर और मेरे बाल में नूर पैदा फ़रमा दे और मेरी खाल में नूर और मेरी ज़बान में नूर और मेरे नफ़्स में नूर पैदा कर दे और मुझे अज़ीम (महान) नूर दे और मुझे सिर से पैर तक नूर बना दे और पैदा कर मेरे ऊपर नूर, मेरे नीचे नूर, ऐ ख़ुदा! मुझे नूर अता कर।"

19. फ़ज्र और मग़रिब की नमाज़ से फ़ारिग़ होकर किसी से बातें करने से पहले ही सात बार यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म अजिरनी मिनन्नार।

“ऐ अल्लाह! मुझे जहन्नम की आग से पनाह दे।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"फ़ज्र और मग़रिब की नमाज़ के बाद किसी से बात करने से पहले सात बार यह दुआ पढ़ लिया करो, अगर उस दिन या उस रात में मर जाओगे तो तुम जहन्नम से ज़रूर निजात पाओगे।" (मिश्कात)

20. हर नमाज़ के बाद तीन बार अस्तग़फ़िरुल्लाह (मैं अल्लाह से बख़शिश चाहता हूँ) कहिए और फिर यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्-म अन्तस्सलामु व मिन्-कस्सलामु तबा-रक-त या ज़ल-जलालि वल इकराम। (मुस्लिम)

“ऐ ख़ुदा! तू सरासर सलामती है, सलामती का सोता तेरी ही ओर से है, तू ख़ैर व बरकतवाला है, ऐ बुज़ुर्गीवाले और करमवाले!”

हज़रत सौबान (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब नमाज़ से सलाम फेर लेते तो तीन बार 'अस्तग़फ़िरुल्लाह' कहते और फिर इस दुआ को पढ़ते। (मुस्लिम)

21. जमाअत की नमाज़ में सफ़ों के ठीक रखने का पूरा-पूरा ध्यान दीजिए। सफ़ें अच्छी तरह सीधी रखिए और खड़े होने में इस तरह कंधे से कंधा मिलाइए कि बीच में ख़ाली जगह न रहे और जब तक आगे की सफ़ें न भर जाएँ, पीछे दूसरी सफ़ें न बनाइए। एक बार जमाअत की नमाज़ में एक आदमी इस तरह खड़ा हुआ था कि उसका सीना बाहर निकला हुआ था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने देखा तो तंबीह फ़रमाई—

“ख़ुदा के बन्दो! अपनी सफ़ों को सीधी और ठीक रखने का ज़रूर एहतिमाम करो, वरना ख़ुदा तुम्हारे रुख़ एक दूसरे के ख़िलाफ़ कर देगा।" (मुस्लिम)

एक मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी नमाज़ की किसी सफ़ को जोड़ेगा, उसे ख़ुदा जोड़ेगा और जो किसी सफ़ को काटेगा, ख़ुदा उसे काटेगा।" (अबू दाऊद)

22. बच्चों की सफ़ मर्दों के पीछे बनाइए और बड़ों के साथ खड़ा न कीजिए, अलबत्ता ईदगाहों में या जहाँ अलग करने में परेशानियाँ हों या बच्चों के गुम होने का डर हो तो वहाँ बच्चों को पीछे भेजने की ज़रूरत नहीं, अपने साथ रखिए और औरतों की सफ़ें या तो सबसे पीछे हों या अलग हों, अगर मस्जिद में उनके लिए अलग जगह बनी हुई हो। इसी तरह ईदगाह में औरतों के लिए अलग जगह का इन्तिज़ाम कीजिए।

13. क़ुरआन की तिलावत के आदाब

1. क़ुरआन मजीद की तिलावत ज़ौक़ व शौक़ के साथ दिल लगाकर कीजिए और यक़ीन रखिए कि क़ुरआन मजीद से लगाव ख़ुदा से लगाव है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“मेरी उम्मत के लिए सबसे बेहतर इबादत क़ुरआन की तिलावत है।"

2. ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त तिलावत में लगे रहिए और कभी तिलावत से न उकताइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि ख़ुदा का इरशाद है—

“जो बन्दा क़ुरआन की तिलावत में इतना लगा हुआ हो कि वह मुझसे दुआ माँगने का मौक़ा न पा सके तो मैं उसको बग़ैर माँगे ही माँगनेवालों से ज़्यादा दूँगा।” (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“बन्दा क़ुरआन की तिलावत के ज़रिए ही ख़ुदा के सबसे ज़्यादा क़रीब हो पाता है।" (तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरआन की तिलावत पर उभारते हुए यह भी फ़रमाया—

"जिस आदमी ने क़ुरआन पढ़ा और वह हर दिन उसकी तिलावत करता रहता है, उसकी मिसाल ऐसी है जैसे मुश्क (कस्तूरी) से भरी हुई ज़ंबील (थैली) कि उसकी ख़ुश्बू हर ओर महक रही है। और जिस आदमी ने क़ुरआन पढ़ा लेकिन वह उसकी तिलावत नहीं करता तो उसकी मिसाल ऐसी है जैसे मुश्क से भरी हुई बोतल कि उसको डाट लगाकर बन्द कर दिया गया हो।" (तिरमिज़ी)

3. क़ुरआन पाक की तिलावत सिर्फ़ हिदायत तलब करने के लिए कीजिए। लोगों को अपना गिर्वीदा बनाने, अपने राग का सिक्का जमाने और उनमें अपनी दीनदारी की धाक बिठाने से सख़्ती के साथ परहेज़ कीजिए। ये बड़े घटिया मक़सद हैं और इन मक़सदों से क़ुरआन की तिलावत करनेवाला क़ुरआन की हिदायत से महरूम रहता है।

4. तिलावत से पहले पाकी और सफ़ाई पर पूरा ध्यान दीजिए। बग़ैर वुज़ू क़ुरआन मजीद छूने से परहेज़ कीजिए और पाक-साफ़ जगह पर बैठकर तिलावत कीजिए।

5. तिलावत के वक़्त क़िबला रुख़ दो-ज़ानू होकर बैठिए और गरदन झुकाकर बड़ी तवज्जोह, यकसूई, दिल की आमादगी और सलीक़े से तिलावत कीजिए।

ख़ुदा का इरशाद है—

"किताब जो हमने आपकी तरफ़ भेजी बरकतवाली है, ताकि वे उसमें सोच-विचार करें और अक़्लवाले उससे नसीहत हासिल करें।" (क़ुरआन, 38:29)

6. तज्वीद (उच्चारण) और तरतील (ठहर-ठहरकर पढ़ने) का भी जहाँ तक हो सके, ख़याल रखिए। हर्फ़ (अक्षर) को ठीक-ठीक अदा कीजिए और ठहर-ठहरकर पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“अपनी आवाज़ और अपने स्वर से क़ुरआन को सजाओ।" (अबू दाऊद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक-एक हर्फ़ (अक्षर) खोलकर और एक-एक आयत को अलग-अलग करके पढ़ा करते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“क़ुरआन पढ़नेवाले से क़ियामत के दिन कहा जाएगा कि जिस ठहराव और अच्छी आवाज़ के साथ तुम दुनिया में बना-सँवारकर क़ुरआन पढ़ा करते थे, उसी तरह क़ुरआन पढ़ो और हर आयत के बदले में एक दर्जा बुलन्द होते जाओ। तुम्हारा ठिकाना तुम्हारी तिलावत की आख़िरी आयत के क़रीब है।" (तिरमिज़ी)

7. क़ुरआन न ज़्यादा ज़ोर से पढ़िए और न बिलकुल ही धीमे, बल्कि बीच की आवाज़ में पढ़िए, ख़ुदा की हिदायत है—

“और अपनी नमाज़ें न तो ज़्यादा ज़ोर से पढ़िए और न बिलकुल ही धीरे-धीरे, बल्कि दोनों के दरमियान का तरीक़ा अपनाइए।” (क़ुरआन, 17:110)

8. यूँ तो जब भी मौक़ा मिले तिलावत कीजिए, लेकिन भोर में, तहज्जुद की नमाज़ में भी क़ुरआन पढ़ने की कोशिश कीजिए। यह क़ुरआन की तिलावत की बड़ाई का सबसे ऊँचा दर्जा है और हर मोमिन की यह तमन्ना होनी चाहिए कि वह तिलावत का ऊँचे से ऊँचा दर्जा हासिल करे।

9. तीन दिन से कम में क़ुरआन शरीफ़ ख़त्म करने की कोशिश न कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जिसने तीन दिन से कम में क़ुरआन पढ़ा, उसने क़तई तौर पर क़ुरआन को नहीं समझा।"

10. क़ुरआन की बड़ाई और हैसियत का एहसास रखिए और जिस तरह ज़ाहिरी पाकी और सफ़ाई का ख़याल रखा है उसी तरह दिल को भी गन्दे ख़यालों, बुरे जज़्बों और नापाक इरादों से पाक कीजिए। जो दिल गन्दे और नापाक ख़यालों और जज़्बों से सने हैं, उनमें न क़ुरआन पाक की बड़ाई और ऊँची हैसियत बैठ सकती है और न वे क़ुरआन की बातों और सच्चाइयों को समझ सकते हैं। हज़रत इक्रिमा (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब क़ुरआन शरीफ़ खोलते तो ज़्यादातर बेहोश हो जाते और फ़रमाते,

“यह मेरे जलाल और बड़ाईवाले परवरदिगार का कलाम है।"

11. यह समझकर तिलावत कीजिए कि धरती पर इनसान को अगर हिदायत मिल सकती है, तो सिर्फ़ इसी किताब से और इसी ख़याल को लिए हुए इसकी गहराई में उतरकर सोचिए और इसकी सच्चाइयों को समझने की कोशिश कीजिए। फ़र-फ़र तिलावत न कीजिए, बल्कि समझ-समझकर पढ़ने की आदत डालिए और उसमें ग़ौर व फ़िक्र करने की कोशिश कीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाया करते थे कि मैं अल-क़ारिअह और अल-क़द्र जैसी छोटी-छोटी सूरतों को सोच-समझकर पढ़ना इससे ज़्यादा बेहतर समझता हूँ कि अल-बक़रह और आले इमरान जैसी बड़ी-बड़ी सूरतें फ़र-फ़र पढ़ जाऊँ और कुछ न समझूँ।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार सारी रात एक ही आयत को दोहराते रहे—

इन तु-अज़्ज़िब-हुम फ़-इन्नहुम इबादुक, व इन तग़्फ़िर लहुम फ़-इन्न-क अन्तल अज़ीज़ुल हकीम। (क़ुरआन, 5:118)

“ऐ ख़ुदा! अगर तू इनको अज़ाब दे, तो ये तेरे बन्दे हैं और अगर तू इनको बख़्श दे, तो तू इंतिहाई ज़बरदस्त हिक्मतवाला है।"

12. इस इरादे के साथ तिलावत कीजिए कि मुझे उसके हुक्मों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी बदलनी है और उसकी हिदायतों की रौशनी में अपनी ज़िन्दगी बनानी है। और फिर जो हिदायतें मिलें, उसके मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी को ढालने और कोताहियों से ज़िन्दगी को पाक करने की लगातार कोशिश कीजिए। क़ुरआन आइने की तरह आपका हर-हर दाग़ और हर-हर धब्बा आपके सामने साफ़-साफ़ रख देगा। अब यह आपका काम है कि आप इन दाग़-धब्बों से अपनी ज़िन्दगी को साफ़ करें।

13. तिलावत के दौरान क़ुरआन की आयतों से असर लेने की भी कोशिश कीजिए। जब रहमत, मग़फ़िरत और जन्नत की न ख़त्म होनेवाली नेमतों का ज़िक्र पढ़ें तो ख़ुशी से झूम उठिए और जब ख़ुदा के ग़ज़ब, ग़ुस्से और जहन्नम के अज़ाब की तबाहियों को पढ़ें तो बदन काँपने लगे, आँखें बेइख़तियार बह पड़ें और दिल तौबा और शर्मिंदगी की हालत में होने की वजह से रोने लगे। जब नेक ईमानवालों की कामयाबियों का हाल पढ़ें तो चेहरा दमकने लगे और जब क़ौमों की तबाही का हाल पढ़ें तो ग़म से निढाल नज़र आएँ। धमकी और डरावे की आयत पढ़कर काँप उठें और ख़ुशख़बरी की आयतें पढ़कर रूह शुक्र के जज़्बों से भर उठे।

14. तिलावत के बाद दुआ फ़रमाइए। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की एक दुआ के अलफ़ाज़ ये हैं—

अल्लाहुम्मर्ज़ुक़्नित त-फ़क्कु-र वत्त-दब्बु-र बिमा यत्लूहु लिसानी मिन किताबि-क वल-फ़ह-म लहू वल मअरि-फ़-त बि-मआ-नीहि वन्न-ज़-र फ़ी अज़ाइबिही वल अ-म-ल बिज़ालि-क मा बक़ीतु, इन्न-क अला कुल्लि शैइन क़दीर।

“ऐ अल्लाह! मेरी ज़बान तेरी किताब में से जो कुछ तिलावत करे, मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं सोच-विचार करूँ। ऐ अल्लाह! मुझे इनकी समझ दे, इसका मतलब और मानी समझने की मारफ़त बख़्श और इसकी अजीब व अनोखी चीज़ें पाने की नज़र अता कर और जब तक ज़िन्दा रहूँ, मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं उसपर अमल करता रहूँ। बेशक, तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।"

14. जुमा के दिन के आदाब

1. जुमा के दिन सफ़ाई-सुथराई, नहाने-धोने और सजने-सँवरने का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “जब कोई जुमा की नमाज़ पढ़ने आए तो उसे ग़ुस्ल करके आना चाहिए।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"हर मुसलमान पर ख़ुदा का यह हक़ है कि वह हर हफ़्ते (जुमा) को ग़ुस्ल करे, सिर और बदन को धोए।"

हज़रत अबू सईद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जुमा के दिन हर बालिग़ और जवान के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है और मिस्वाक करना और ख़ुश्बू लगाना भी, अगर मयस्सर हो।” (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत सलमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी जुमा के दिन नहाया, धोया और अपनी ताक़त भर उसने पाकी व सफ़ाई का पूरा-पूरा एहतिमाम किया, फिर उसने तेल लगाया, ख़ुश्बू मली, फिर दोपहर ढले मस्जिद में जा पहुँचा और (मस्जिद में जाकर सफ़ में बैठा) दो आदमियों को एक-दूसरे से नहीं हटाया, फिर उसने नमाज़ पढ़ी जो उसके लिए मुक़र्रर थी, फिर जब इमाम मिम्बर की तरफ़ निकला वह चुपचाप बैठे ख़ुतबा सुनता रहा तो उस आदमी के वे सारे गुनाह बख़्श दिए गए जो एक जुमा से दूसरे जुमा तक उससे हुए थे।” (बुख़ारी)

2. जुमा के दिन ज़्यादा से ज़्यादा ज़िक्र व तसबीह, क़ुरआन की तिलावत और दुआ, सदक़ा व ख़ैरात, रोगियों का पूछना, जनाज़े की शिरकत, क़ब्रिस्तान की सैर और दूसरे नेक काम करने का एहतिमाम कीजिए।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"सबसे बेहतर दिन, जिसपर सूरज उगा, वह जुमा का दिन है। इसी दिन आदम पैदा हुए थे और इसी दिन वह जन्नत में दाख़िल किए गए और इसी दिन वहाँ से निकाले गए (और ख़ुदा के ख़लीफ़ा बनाए गए) और इसी दिन क़ियामत क़ायम होगी।" (मुस्लिम)

हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “पाँच अमल ऐसे हैं कि जो आदमी उनको एक दिन में करेगा, ख़ुदा उसको जन्नतवालों में लिख देगा—

1. बीमार का हाल पूछना,

2. जनाज़े में शरीक होना,

3. रोज़ा रखना,

4. जुमे की नमाज़ पढ़ना, और

5. ग़ुलाम को आज़ाद करना।" (इब्ने हिब्बान)

ज़ाहिर है पाँचों अमल का करना उसी वक़्त मुमकिन है जब जुमा का दिन हो।

हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही की एक रिवायत और है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी जुमा के दिन सूरा कहफ़ पढ़ेगा तो उसके लिए दोनों जुमों के दरमियान एक नूर चमकता रहेगा।" (नसई)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जो आदमी जुमा की रात में सूरा दुख़ान की तिलावत करे तो उसके लिए सत्तर हज़ार फ़रिश्ते इस्तिग़फ़ार करते हैं और उसके सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाते हैं।" (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

जुमा के दिन में एक ऐसी मुबारक साअत (घड़ी) है कि बन्दा उसमें जो भी माँगता है, वह क़बूल होता है।" (बुख़ारी)

यह साअत कौन-सी है, इसमें उलमा के बीच मतभेद है, इसलिए कि रिवायतों में अलग-अलग वक़्तों का ज़िक्र है। अलबत्ता उलमा के दो क़ौल इनमें बहुत सही हैं:

पहला : जिस वक़्त ख़तीब (ख़ुतबा देनेवाला) ख़ुतबे के लिए मिम्बर पर आता है, उस वक़्त से लेकर नमाज़ ख़त्म होने तक का वक़्त है।

दूसरा : वह घड़ी, जुमा के दिन की आख़िरी घड़ी है जब सूरज डूबने लगे।

मुनासिब यह है कि आप दोनों ही वक़्त निहायत अदब व आजिज़ी के साथ दुआ व फ़रियाद में गुज़ारें। अपनी दुआओं के साथ यह दुआ माँगिए तो अच्छा है—

अल्लाहुम-म अन्-त रब्बी ला इला-ह इल्ला अन्-त ख़-लक़-तनी व अना अब्दु-क व अना अला अह्दि-क व वअदि-क मस-त-तअतु अबूउ ल-क बिनिअ्-मति-क अलैय्-य व अबूउ बिज़म्बी फ़ग़फ़िरली फ़-इन्नहू ला यग़फ़िरुज़्ज़ुनू-ब इल्ला अन्-त अऊज़ु बिक मिन शर्रि मा स-नअतु। (बुख़ारी, नसई)

“ऐ अल्लाह! तू ही मेरा रब है, तेरे सिवा कोई माबूद नहीं, तूने मुझे पैदा फ़रमाया। मैं तेरा बन्दा हूँ और अपनी ताक़त भर तुझसे किए हुए वादों पर क़ायम हूँ। मैं तेरी नेमतों और तेरे एहसानों का इक़रार करता हूँ जो तूने मुझपर किए हैं और अपने गुनाहों को मानता हूँ, पर तू मेरी मग़फ़िरत फ़रमा, क्योंकि तेरे सिवा कोई नहीं जो गुनाहों का बख़्शनेवाला हो, और मैं अपने करतूत की बुराई से तेरी पनाह माँगता हूँ।"

3. जुमा की नमाज़ का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए। जुमा की नमाज़ हर बालिग़, सेहतमन्द, ठहरे हुए और होशमंद मुसलमान मर्द पर फ़र्ज़ है। अगर किसी जगह इमाम के अलावा दो आदमी भी हों तो जुमा की नमाज़ ज़रूर पढ़ें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“लोगों को चाहिए कि जुमा की नमाज़ हरगिज़ न छोड़ें, वरना ख़ुदा उनके दिलों पर मुहर लगा देगा, फिर (हिदायत से महरूम होकर) वे ग़ाफ़िलों में से हो जाएंगे।" (मुस्लिम)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी नहा-धोकर जुमा की नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में आया फिर उसने सुन्नत अदा की जो उसके लिए ख़ुदा ने तय की थी, फिर ख़ामोश बैठा (ख़ुतबा सुनता) रहा, यहाँ तक कि ख़ुतबा पूरा हुआ, फिर इमाम के साथ फ़र्ज़ अदा किए तो उसके एक जुमा से लेकर दूसरे जुमा तक के गुनाह माफ़ हो जाते हैं और तीन दिन के और ज़्यादा।"

हज़रत यज़ीद बिन मरयम (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मैं जुमे की नमाज़ के लिए जा रहा था कि रास्ते में हज़रत इबाया बिन रिफ़ाआ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से मुलाक़ात हो गई। उन्होंने मुझसे पूछा, “कहाँ जा रहे हो?" मैंने कहा, "जुमा की नमाज़ पढ़ने जा रहा हूँ।" फ़रमाया, "मुबारक हो, तुम्हारा यह चलना ख़ुदा की राह में चलना है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जिस बन्दे के पाँव ख़ुदा की राह में गर्द में सने, उसपर आग हराम है।"

4. जुमा की अज़ान सुनते ही मस्जिद की तरफ़ दौड़ पड़िए। कारोबार और दूसरे काम बन्द कर दीजिए और पूरी यकसूई के साथ ख़ुतबा सुनने और नमाज़ अदा करने में लग जाइए। और जुमा से फ़ारिग़ हो जाएँ तो फिर कारोबार में लग जाइए। क़ुरआन में है—

“मोमिनो! जब जुमा के दिन नमाज़ के लिए अज़ान दे दी जाए तो जल्द ख़ुदा के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो और ख़रीदना-बेचना छोड़ दो। अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो तुम्हारे हक़ में यही बेहतर है। फिर जब नमाज़ हो चुके तो ज़मीन में (अपने-अपने कामों के लिए) फैल जाओ और ख़ुदा के फ़ल में से अपना हिस्सा ढूंढ लेने में लग जाओ और ख़ुदा को ख़ूब याद करो, ताकि तुम कामयाबी पाओ।" (क़ुरआन, 62:9-10)

इन आयतों से मोमिन को जो हिदायतें मिलती हैं वे इस तरह हैं—

(i) मोमिन को पूरी सोच और और समझ के साथ जुमा की नमाज़ का एहतिमाम करना चाहिए और अज़ान की आवाज़ सुनते ही सब कुछ छोड़कर मस्जिद की तरफ़ दौड़ पड़ना चाहिए।

(ii) ज़ुमा की अज़ान सुनने के बाद मोमिन के लिए यह जायज़ नहीं कि वह कारोबार करे या किसी और दुनियावी कारोबार में फँसा रहे और ख़ुदा से ग़ाफ़िल दुनियादार बन जाए।

(iii) मोमिन की भलाई का राज़ यह है कि वह दुनिया में ख़ुदा का बन्दा और ग़ुलाम बनकर रहे और जब भी ख़ुदा की तरफ़ से पुकार आए, तो वह एक वफ़ादार और बात माननेवाले ग़ुलाम की तरह, अपनी सारी दिलचस्पियों से मुँह मोड़कर और दुनिया के तमाम फ़ायदों को ठुकराकर, ख़ुदा की पुकार पर दौड़ पड़े और अपने अमल से यह एलान करे कि तबाही और नाकामी यह नहीं कि दीन के तक़ाज़ों पर दुनिया के फ़ायदों को क़ुरबान कर दे, बल्कि नाकामी और तबाही यह है कि आदमी दुनिया बनाने की धुन में दीन को तबाह कर डाले।

(iv) दुनिया के बारे में सोचने का यह अन्दाज़ सही नहीं है कि आदमी उसकी तरफ़ से आँखें बन्द कर ले और ऐसा दीनदार बन जाए कि दुनिया के लिए बिलकुल नाकारा साबित हो, बल्कि क़ुरआन हिदायत देता है कि नमाज़ से फ़ारिग़ होते ही ख़ुदा की ज़मीन में फैल जाओ और ख़ुदा ने अपनी ज़मीन में रोज़ी पहुँचाने के लिए जो भी ज़रिए और वसीले जुटा रखे हैं, उनसे पूरा-पूरा फ़ायदा उठाओ और अपनी क़ाबिलियतों को पूरी तरह खपाकर अपने हिस्से की रोज़ी खोजो। इसलिए कि मोमिन के लिए न यह सही है कि वह अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों का मुहताज रहे और न यह सही है कि वह अपने से मुताल्लिक़ लोगों की ज़रूरतें पूरी करने में कोताही करे और वे परेशानी और मायूसी के शिकार हों।

(v) आख़िरी अहम हिदायत यह है कि मोमिन दुनिया के धंधों और कामों में इस तरह न फँस जाए कि वह अपने ख़ुदा से ग़ाफ़िल हो जाए। उसे हर हाल में यह याद रखना चाहिए कि उसकी ज़िन्दगी की असल पूँजी और सही जौहर ख़ुदा का ज़िक्र है। हज़रत सईद बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, “ख़ुदा का ज़िक्र सिर्फ़ यह नहीं है कि ज़बान से तसबीह [सुब्हानल्लाह कहना] व तहमीद [अल-हम्दु लिल्लाह कहना] और तकबीर [अल्लाहु अकबर कहना] व तहलील [ला इला-ह इल्लल्लाह कहना] के बोल अदा किए जाएँ बल्कि हर वह आदमी अल्लाह के ज़िक्र में लगा हुआ है जो ख़ुदा की इताअत के तहत अपनी ज़िन्दगी का निज़ाम तामीर करने पर लगा हुआ हो।"

5. जुमा की नमाज़ के लिए जल्द से जल्द मस्जिद में पहुँचने की कोशिश कीजिए और शुरू वक़्त में जाकर पहली सफ़ में जगह हासिल करने का एहतिमाम कीजिए।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी जुमा के दिन बड़े एहतिमाम के साथ इस तरह नहाया जैसे पाकी हासिल करने के लिए नहाते हैं (यानी एहतिमाम के साथ पूरे जिस्म पर पानी पहुँचाकर ख़ूब अच्छी तरह बदन को साफ़ किया), फिर शुरू वक़्त में मस्जिद जा पहुँचा तो गोया कि उसने एक ऊँट की क़ुरबानी की और उसके बाद दूसरी साअत में पहुँचा तो गोया गाय (या भैंस) की क़ुरबानी की और उसके बाद तीसरी साअत में पहुँचा तो गोया उसने सींगवाला मेंढा (दुंबा) क़ुरबान किया और उसके बाद चौथी साअत में पहुँचा तो गोया उसने ख़ुदा की राह में एक अंडा सदक़ा दिया। फिर जब ख़तीब ख़ुतबा देने निकल आया तो फ़रिश्ते मस्जिद का दरवाज़ा छोड़कर ख़ुतबा सुनने और नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में आ बैठते हैं। (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत इरबाज़ बिन सारिया (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं—

“नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पहली सफ़वालों के लिए तीन बार इसतिग़फ़ार फ़रमाते थे और दूसरी सफ़वालों के लिए एक बार।” (इब्ने माजा, नसई)

और हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“लोगों को पहली सफ़ का अज्र व सवाब मालूम नहीं है। अगर पहली सफ़वालों का अज्र व सवाब मालूम हो जाए तो लोग पहली सफ़ के लिए क़ुरआ (पर्ची) डालने लगें।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

6. जुमा की नमाज़ जामा मस्जिद में पढ़िए और जहाँ जगह मिल जाए वहीं बैठ जाइए। लोगों के सिरों और कंधों पर से फाँद-फाँदकर जाने की कोशिश न कीजिए, इससे लोगों को जिस्मानी तकलीफ़ भी होती है और दिली कोफ़्त (तकलीफ़) भी, और उनके सुकून, यकसूई और तवज्जोह में भी ख़लल पड़ता है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी पहली सफ़ को छोड़कर दूसरी सफ़ में इसलिए खड़ा हो कि उसके भाई (मुसलमान) को कोई तक़लीफ़ न पहुँचे, तो अल्लाह तआला उसको पहली सफ़वालों से दो गुना अज्र व सवाब अता फ़रमाएगा।" (तबरानी)

हज़रत सलमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जो आदमी जुमा के दिन नहाया-धोया और अपने बस-भर उसने पाकी सफ़ाई का भी एहतिमाम किया, फिर तेल लगाया, ख़ुश्बू लगाई और दोपहर ढलते ही मस्जिद में जा पहुँचा और दो आदमियों को एक-दूसरे से नहीं हटाया यानी उसने उनके सिरों और कंधों पर से फ़ाँदने, सफ़ को चीरकर गुज़रने या दो बैठे हुए नमाज़ियों के बीच में जा बैठने की ग़लती नहीं की, बल्कि जहाँ जगह मिली, वहीं ख़ामोशी से सुन्नत नमाज़ वग़ैरह अदा की, जो भी ख़ुदा ने उसके हिस्से में लिख दी थी, फिर जब ख़तीब मिम्बर पर आए तो ख़ामोश (बैठा ख़ुतबा सुनता) रहा हो तो ऐसे आदमी के वे सारे गुनाह बख़्श दिए गए जो एक जुमा से लेकर दूसरे जुमा तक उससे हुए।" (बुख़ारी)

7. ख़ुतबा नमाज़ के मुक़ाबले में हमेशा छोटा पढ़िए, इसलिए कि ख़ुतबा असल में सिर्फ़ याद-देहानी है जिसमें आप लोगों को ख़ुदा की बन्दगी और इबादत पर उभारते हैं। और नमाज़ न सिर्फ़ इबादत है, बल्कि सबसे अहम इबादत है, इसलिए यह किसी तरह सही नहीं कि ख़ुतबा तो लम्बा-चौड़ा दिया जाए और नमाज़ जल्दी-जल्दी छोटी-सी पढ़ ली जाए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"नमाज़ को लम्बा करना और ख़ुतबे को छोटा करना इस बात की निशानी है कि ख़ुतबा देनेवाला सूझ-बूझ रखता है। अतः तुम नमाज़ लम्बी पढ़ो और ख़ुतबा छोटा दो।" (मुस्लिम)

8. ख़ुतबा निहायत ख़ामोशी, तवज्जोह, यकसूई, आमादगी और क़बूल किए जाने के जज़्बे के साथ सुनिए और ख़ुदा और रसूल के जो हुक्म मालूम हों, उनपर सच्चे दिल से अमल करने का इरादा कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिस आदमी ने ग़ुस्ल किया, फिर जुमा की नमाज़ पढ़ने आया और आकर अपने मुक़द्दर की नमाज़ पढ़ी, फिर ख़ामोश (बैठकर निहायत तवज्जोह और यकसूई के साथ) ख़ुतबा सुनता रहा यहाँ तक कि ख़ुतबा देनेवाला ख़ुतबे से फ़ारिग हुआ, फिर उसने इमाम के साथ फ़र्ज़ नमाज़ अदा की, तो उसके वे सारे गुनाह बख़्श दिए गए जो उससे एक जुमा से दूसरे जुमा तक हुए, बल्कि तीन दिन के ज़्यादा गुनाह भी बख़्श दिए गए।” (मुस्लिम)

एक दूसरी रिवायत यह है कि जब ख़ुतबा देनेवाला ख़ुतबा देने के लिए निकल आए, तो फिर न कोई नमाज़ पढ़ना सही है और न बात करना सही है।

9. दूसरा ख़ुतबा अरबी में पढ़िए, अलबत्ता पहले ख़ुतबे में मुक़्तदियों को कुछ ख़ुदा व रसूल के हुक्म, ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ नसीहत व हिदायत और याददेहानी का एहतिमाम अपनी भाषा में भी कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जुमा में जो ख़ुतबे दिए हैं उनसे यही मालूम होता है कि ख़ुतबा देनेवाला हालात के मुताबिक़ मुसलमानों को कुछ नसीहत व हिदायत दे और यह मक़सद उसी वक़्त पूरा हो सकता है जब ख़ुतबा देनेवाला सुननेवालों की भाषा में उनसे बात करे।

10. जुमा के फ़र्ज़ों में सूरा अल-आला और सूरा ग़ाशियह पढ़ना या सूरा मुनाफ़िक़ून और सूरा जुमुआ पढ़ना बेहतर और मस्नून है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अकसर यही सूरतें जुमा में पढ़ा करते थे।

11. जुमा के दिन ज़्यादा से ज़्यादा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद व सलाम भेजने का ख़ुसूसी एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जुमा के दिन मुझपर ज़्यादा से ज़्यादा दरूद भेजा करो। उस दिन दरूद में फ़रिश्ते हाज़िर होते हैं और यह दरूद मेरे हुज़ूर में पेश किया जाता है।" (इब्ने माजा)

15. जनाज़े की नमाज़ के आदाब

1. जनाज़े की नमाज़ में शिरकत का एहतिमाम कीजिए। जनाज़े की नमाज़ मुर्दे के लिए मग़फ़िरत की दुआ है और यह मैयत का एक अहम हक़ है। अगर डर हो कि वुज़ू करते-करते जनाज़े की नमाज़ ख़त्म हो जाएगी तो तयम्मुम करके खड़े हो जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जनाज़े की नमाज़ पढ़ा करो, शायद कि इस नमाज़ से तुमपर ग़म छा जाए। ग़मगीन आदमी ख़ुदा के साए में रहता है और ग़मगीन आदमी हर नेक आदमी का स्वागत करता है।" (हाकिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जिस मैयत पर मुसलमानों की तीन सफ़ें जनाज़े की नमाज़ पढ़ती हैं, उसके लिए जन्नत वाजिब हो जाती है।" (अबू दाऊद)

2. जनाज़े की नमाज़ के लिए मैयत की चारपाई इस तरह रखिए कि सिर उत्तर की ओर हो और पाँव दक्षिण की ओर और मैयत का रुख़ क़िबले की ओर रखिए।

3. अगर आप जनाज़े की नमाज़ पढ़ा रहे हों तो इस तरह खड़े हों कि आप मैयत के सीने के मुक़ाबले में रहें।

4. जनाज़े की नमाज़ में सफ़ों की तादाद हमेशा ताक़ (Odd Numbers) रखिए। अगर थोड़े लोग हों तो एक सफ़ बनाइए, वरना तीन, पाँच, सात या लोग ज़्यादा हो जाएँ तो ज़्यादा सफ़ें बनाते जाइए, लेकिन तादाद ताक़ रहे। [इमाम के अलावा अगर छः आदमी हों तब भी मुस्तहब यह है कि तीन सफ़ें बनाई जाएँ। पहली सफ़ में तीन लोग रहें, दूसरी में दो और तीसरी में एक।]

5. जनाज़े की नमाज़ शुरू करें तो यह नीयत कीजिए कि हम इस मैयत के वास्ते सबसे रहम करनेवाले ख़ुदा से मग़फ़िरत चाहने के लिए इसकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ते हैं। इमाम भी यही नीयत करे और मुक़्तदी भी यही नीयत करें।

6. जनाज़े की नमाज़ में जो इमाम पढ़े, वही मुक़्तदी भी पढ़ें। मुक़्तदी खामोश न रहें, अलबत्ता इमाम तकबीरें ऊँची आवाज़ से कहे और मुक़्तदी धीरे-धीरे कहें।

7. जनाज़े की नमाज़ में चार तकबीरें पढ़िए। पहली तकबीर कहते हुए हाथ कानों तक ले जाइए और फिर हाथ बाँध लीजिए और सना पढ़िए:

सुब्हा-न-कल्लाहुम्-म व बिहम्दि-क व तबा-र-कस्मु-क व तआला जद्दु-क व जल्-ल सनाउ-क व ला इला-ह ग़ैरु-क।

"ऐ अल्लाह! तू पाक है और बरतर, अपनी हम्द व सना के साथ, तेरा नाम ख़ैर व बरकतवाला है और तेरी बुज़ुर्गी और बड़ाई बहुत बुलन्द है और तेरी तारीफ़ बड़ी अज़मतवाली है और तेरे सिवा कोई माबूद नहीं।"

अब दूसरी तकबीर पढ़िए, लेकिन तकबीर में न हाथ उठाइए और न सिर से कोई इशारा कीजिए। दूसरी तकबीर के बाद दुरूद शरीफ़ पढ़िए—

अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद। अल्लाहुम-म बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मदिन कमा बा-रक-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद।

"ऐ ख़ुदा! तू मुहम्मद पर रहमत फ़रमा और उनकी आल पर रहमत फ़रमा, जैसे तूने रहमत फ़रमाई इबराहीम पर और इबराहीम की आल पर। बेशक तू बड़ी ख़ूबियोंवाला और बुज़ुर्गीवाला है। ऐ ख़ुदा! तू बरकत नाज़िल फ़रमा मुहम्मद पर और उनकी आल पर, जिस तरह तूने बरकत नाज़िल फ़रमाई इबराहीम पर और उनकी आल पर। बेशक तू बड़ी ख़ूबियोंवाला और बुज़ुर्गीवाला है।"

अब बग़ैर हाथ उठाए तीसरी तकबीर कहिए और मैयत के लिए मसनून दुआ पढ़िए फिर चौथी बार तकबीर कहिए और दोनों तरफ़ सलाम फेर दीजिए।

8. अगर मैयत बालिग़ मर्द या बालिग़ औरत की है तो तीसरी तकबीर के बाद यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्मग़फ़िर लिहय्यिना व मय्यितिना व शाहिदिना व ग़ाइबिना व सग़ीरिना व कबीरिना व ज़-करिना व उनसाना, अल्लाहुम्-म मन अह्यै-तहू मिन्ना फ़-अह्यिही अ-लल इस्लामि व मन त-वफ़्फ़ै-तहू मिन्ना फ़-त-वफ़्फ़हू अलल-ईमान।

"ऐ ख़ुदा हमारे ज़िन्दों, हमारे मुर्दों, हमारे हाज़िरों, हमारे ग़ाइबों, हमारे छोटों, हमारे बड़ों, हमारे मर्दों, हमारी औरतों की तू मग़फ़िरत फ़रमा दे। ऐ ख़ुदा! हममें से जिसको तू ज़िन्दा रखे, तू उसको इस्लाम पर ज़िन्दा रख और जिसको तू मौत दे, तू उसको ईमान के साथ मौत दे।"

और अगर मैयत नाबालिग़ लड़के की हो तो यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्मज-अलहु लना फ़-र-तंव वज-अलहु लना अज-रंव व ज़ुख़-रंव वज-अलहु लना शाफ़िअंव व मुशफ़्फ़आ।

"ऐ अल्लाह! तू इस लड़के को हमारे लिए मग़फ़िरत का ज़रिया बना और इसको हमारे लिए अज्र और आख़िरत का ज़ख़ीरा बना और ऐसा सिफ़ारिशी बना, जिसकी सिफ़ारिश क़बूल कर ली जाए।"

और अगर मैयत नाबालिग़ लड़की की है तो यह दुआ पढ़िए। इस दुआ का मतलब भी वही है जो लड़के के लिए पढ़ी जानेवाली दुआ का है।

अल्लाहुम्मज-अलहा लना फ़-र-तंव वज-अलहा लना अजरंव व ज़ुख़रंव वज-अलहा लना शाफ़ि-अ-तंव व मुशफ़्-फ़-अह।

9. जनाज़े के लिए जाते हुए अपने अंजाम को सोचते रहिए और यह ग़ौर कीजिए कि जिस तरह आप दूसरे को ज़मीन के हवाले करने जा रहे हैं, ठीक उसी तरह एक दिन दूसरे लोग आपको ले जाएँगे। इस ग़म और फ़िक्र के नतीजे में आप कम से कम इतने वक़्त के लिए आख़िरत की फ़िक्र में घुलने की सआदत पाएँगे और दुनिया की उलझनों और बातों से बचे रहेंगे।

16. मैयत के आदाब

1. जब किसी ऐसे आदमी के पास जाएँ जो मरने के क़रीब हो तो ज़रा ऊँची आवाज़ से कलिमा 'ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह' पढ़ते रहें। रोगी से पढ़ने के लिए न कहें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब मरनेवालों के पास बैठो तो कलिमा का ज़िक्र करते रहो।" (मुस्लिम)

2. किसी की साँस उखड़ते वक़्त सूरा यासीन की तिलावत कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि मरनेवालों के पास सूरा यासीन पढ़ा करो। (आलमगीरी, पृष्ठ 100 भाग-1) हाँ, दम निकलने के बाद जब तक मुर्दे को ग़ुस्ल न दे दिया जाए, उसके पास बैठकर क़ुरआन शरीफ़ न पढ़िए और वह आदमी जिसको नहाने की ज़रूरत हो और हैज़ व निफ़ासवाली औरतें भी मुर्दे के पास न जाएँ।

3. मौत की ख़बर सुनकर 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि जो आदमी किसी मुसीबत के मौक़े पर इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ता है, उसके लिए तीन बदले होते हैं—

—पहला यह कि उसपर अल्लाह की ओर से रहमत और सलामती उतरती है।

—दूसरा यह कि उसको हक़ की तलाश व जुस्तजू का बदला मिलता है।

—तीसरा यह कि उसके नुक़सान को पूरा किया जाता है और उसको फ़ौत होनेवाली चीज़ का उससे अच्छा बदला दिया जाता है। (तबरानी)

4. मैयत के ग़म में चीख़ने-चिल्लाने और बैन करने से बचिए, अलबत्ता ग़म में आँसू निकल पड़ें तो यह फ़ितरी बात है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बेटे हज़रत इबराहीम (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इंतिक़ाल हुआ तो आपकी आँखो से आँसू बह पड़े। इसी तरह आपके नवासे इब्ने ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इंतिक़ाल हुआ तो आपकी आँखों से आँसू जारी हो गए। पूछा गया, "ऐ अल्लाह के रसूल! यह क्या?" फ़रमाया—

"यह रहमत है, जो ख़ुदा ने अपने बन्दों के दिल में रख दी है और ख़ुदा अपने बन्दों में से उन्हीं बन्दों पर रहम फ़रमाता है जो रहम करनेवाले हैं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि जो मुँह पर तमाँचे मारे, गिरेबान फाड़े, जाहिलियत की तरह बैन करे, उसका हमसे कोई ताल्लुक़ नहीं।

5. जान निकलने के बाद मैयत के हाथ-पैर सीधे कर दीजिए, आँखे बन्द कर दीजिए और एक चौड़ी-सी पट्टी ठोढ़ी के नीचे से निकालकर सिर के ऊपर बाँध दीजिए और पाँव के दोनों अंगूठे मिलाकर धज्जी से बाँध दीजिए और चादर से ढक दीजिए और यह पढ़ते रहिए— बिसमिल्लाहि व अला मिल्लति रसूलिल्लाह (ख़ुदा के नाम से और रसूलुल्लाह की मिल्लत पर)। लोगों को वफ़ात की सूचना दे दीजिए और क़ब्र में उतारते वक़्त भी यही दुआ पढ़िए।

6. मैयत की ख़ूबियाँ बयान कीजिए और बुराइयों का ज़िक्र न कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"अपने मुर्दों की ख़ूबियाँ बयान करो और उनकी बुराइयों से ज़बान को बन्द करो।" (अबू दाऊद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जब कोई आदमी मरता है तो उसके चार पड़ोसी उसके भला होने की गवाही देते हैं तो ख़ुदा फ़रमाता है, मैंने तुम्हारी गवाही मान ली और जिन बातों का तुम्हें इल्म न था, वे मैंने माफ़ कर दीं। (इब्ने हिब्बान)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के हुज़ूर में सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने एक जनाज़े की तारीफ़ की। आपने फ़रमाया—

"इसके लिए जन्नत वाजिब हो गई। लोगो! तुम ज़मीन पर ख़ुदा के गवाह हो, तुम जिसको अच्छा कहते हो ख़ुदा उसको जन्नत में दाख़िल कर देता है और तुम जिसको बुरा कहते हो ख़ुदा उसको दोज़ख़ में भेज देता है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जब किसी रोगी का हाल पूछने जाओ या किसी के जनाज़े में शिरकत करो तो हमेशा ज़बान से भलाई के बोल बोलो, क्योंकि फ़रिश्ते तुम्हारी बातों पर आमीन कहते जाते हैं।" (मुस्लिम)

7. हमेशा मौत पर सब्र और जमाव ज़ाहिर कीजिए। कभी ज़बान से कोई नाशुक्री का कलिमा न निकालिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब कोई आदमी अपने बच्चे के मरने पर सब्र करता है तो ख़ुदा अपने फ़रिश्ते से फ़रमाता है, क्या तुमने मेरे बन्दे के बच्चे की रूह क़ब्ज़ कर ली? फ़रिश्ते जवाब देते हैं: पालनहार! हमने तेरा हुक्म पूरा किया। फिर ख़ुदा पूछता है: तुमने मेरे बन्दे के जिगर के टुकड़े की जान क़ब्ज़ कर ली? वे कहते हैं: 'जी हाँ!' फिर वह पूछता है तो मेरे बन्दे ने क्या कहा? वे कहते हैं: पालनहार उसने तेरी हम्द की और 'इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा। तो ख़ुदा फ़रिश्तों से कहता है कि मेरे बन्दे के लिए जन्नत में एक घर बनाओ और उसका नाम बैतुल हम्द (शुक्र का घर) रखो।" (तिरमिज़ी)

8. मुर्दे को नहलाने धुलाने में देर न कीजिए। ग़ुस्ल के लिए पानी में बेरी के पत्ते डालकर हल्का गर्म कर लीजिए तो अच्छा है। मुर्दे को पाक-साफ़ तख़्ते पर लिटाइए, कपड़े उतारकर तहबन्द डाल दीजिए। हाथ पर कपड़ा लपेटकर पहले छोटा-बड़ा इस्तिंजा कराइए और ख़याल रखिए कि तहबन्द ढका रहे, फिर वुज़ू कराइए। वुज़ू में कुल्ली करने और नाक में पानी डालने की ज़रूरत नहीं। ग़ुस्ल कराते वक़्त कान और नाक में रूई रख दीजिए ताकि पानी अन्दर न जाए। फिर सिर को साबुन या किसी और चीज़ से अच्छी तरह धोकर साफ़ कर दीजिए, फिर बाएँ करवट लिटाकर दाईं तरफ़ सिर से पाँव तक पानी डालिए, फिर इसी तरह बाईं तरफ़ यानी सिर से पाँव तक डालिए। अब भीगा हुआ तहबन्द हटा दीजिए और सूखा तहबन्द डाल दीजिए और फिर उठाकर चारपाई पर कफ़न में लिटा दीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जिसने किसी मैयत को ग़ुस्ल दिया और उसके ऐब को छिपाया, ख़ुदा ऐसे बन्दे के चालीस बड़े गुनाह बख़्श देता है और जिसने किसी मैयत को क़ब्र में उतारा, तो गोया उसने मैयत को क़ियामत तक के लिए रहने का मकान जुटाया।" (तबरानी)

9. कफ़न औसत दर्जे के उजले कपड़े का बनाइए, न ज़्यादा क़ीमती बनाइए और न बिलकुल ही घटिया बनाइए। मर्दों के लिए कफ़न में तीन कपड़े रखिए—एक चादर, एक तहबन्द और एक कफ़नी या कुरता। चादर की लम्बाई मैयत के क़द से ज़्यादा रखिए, ताकि सिर और पाँव दोनों ओर बाँधा जा सके और चौड़ाई इतनी रखिए कि मुर्दे को अच्छी तरह लपेटा जा सके। औरतों के लिए इन कपड़ों के अलावा एक सरबन्द रखिए जो एक गज़ से कुछ कम चौड़ा और एक गज़ से ज़्यादा लम्बा हो और बग़ल से लेकर घुटने तक का सीनाबन्द भी रखिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिसने किसी मैयत को कफ़न पहनाया तो ख़ुदा उसको जन्नत में सुन्दुस और इस्तबरक़ का लिबास पहनाएगा।" (हाकिम)

10. जनाज़ा क़ब्रिस्तान की तरफ़ ज़रा तेज़ क़दमों से ले जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "जनाज़े में जल्दी करो।"

हज़रत इब्ने मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! जनाज़े को किस रफ़्तार से ले जाया करें?" फ़रमाया—

"जल्दी-जल्दी दौड़ने की रफ़्तार से कुछ कम, अगर मुर्दा भला है तो उसको भले अंजाम तक जल्दी पहुँचाओ और अगर बुरा है तो इस बुराई को जल्दी अपने से दूर करो।"

11. जनाज़े के साथ पैदल जाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक जनाज़े के साथ चले और आपने देखा कि कुछ आदमी सवार हैं। आपने उनसे कहा, "तुम लोगों को शर्म नहीं आती कि ख़ुदा के फ़रिश्ते पैदल चल रहे हैं और तुम जानवरों की पीठ पर हो।"

अलबत्ता जनाज़े से वापसी पर सवारी पर आ सकते हैं। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अबू वाहिदी के जनाज़े में पैदल गए और वापसी में घोड़े पर सवार होकर आए।

12. जब आप जनाज़ा आते देखें तो खड़े हो जाइए। फिर अगर उसके साथ चलने का इरादा न हो तो ठहर जाइए कि जनाज़ा कुछ आगे निकल जाए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जब तुम जनाज़े को आते देखो तो खड़े हो जाओ और जो लोग जनाज़े के साथ जाएँ, वे उस वक़्त तक न बैठें, जब तक जनाज़ा न रखा जाए।

13. जनाज़े की नमाज़ पढ़ने का भी एहतिमाम कीजिए और जनाज़े के साथ जाने और कंधा देने का भी एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मुसलमान का मुसलमान पर यह भी हक़ है कि वह जनाज़े के साथ जाए।" और आपने यह भी फ़रमाया कि— "जो आदमी जनाज़े में शरीक हुआ और जनाज़े की नमाज़ पढ़ी तो उसको एक क़ीरात के बराबर सवाब मिलता है। नमाज़ के बाद जो दफ़न में भी शरीक हो, उसको दो क़ीरात के बराबर सवाब दिया जाता है। किसी ने पूछा: दो क़ीरात कितने बड़े होंगे? फ़रमाया: दो पहाड़ों के बराबर।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

14. मुर्दे की क़ब्र उत्तर-दक्षिण लम्बाई में खुदवाइए और मुर्दे को क़ब्र में उतारते वक़्त क़िबले की तरफ़ रखकर उतारिए। अगर मुर्दा हल्का हो तो दो आदमी उतारने के लिए काफ़ी हैं, वरना ज़रूरत के मुताबिक़ तीन या चार आदमी भी उतारें। उतारते वक़्त मैयत का रुख़ क़िबले की ओर कर दीजिए और कफ़न की गिरहें खोल दीजिए।

15. औरत को क़ब्र में उतारते वक़्त परदे का एहतिमाम कीजिए।

16. क़ब्र पर मिट्टी डालते वक़्त सिरहाने की ओर से शुरू कीजिए और दोनों हाथों में मिट्टी भरकर तीन बार क़ब्र पर डालिए। पहली बार मिट्टी डालते वक़्त पढ़िए—

'मिनहा ख़-लक़-नाकुम (इसी ज़मीन से हमने तुमको पैदा किया)

दूसरी बार मिट्टी डालते वक़्त पढ़िए—

व फ़ीहा नुईदुकुम (और इसी में हम तुम्हें लौटा रहे हैं)

और तीसरी बार जब मिट्टी डालें तो पढ़िए—

व मिन्हा नुख़रिजुकुम ता-र-तन उख़रा (और इसी से हम तुम्हें दोबारा उठाएँगे।)

17. मैयत की क़ब्र को न ज़्यादा ऊँचा कीजिए और न चौकोर बनाइए। बस उतनी ही मिट्टी क़ब्र पर डालिए जो उसके अन्दर से निकली है और मिट्टी डालने के बाद थोड़ा-सा पानी छिड़क दीजिए।

18. दफ़न करने के बाद कुछ देर क़ब्र के पास ठहरिए। मैयत के लिए मग़फ़िरत की दुआ कीजिए। कुछ क़ुरआन शरीफ़ पढ़कर उसका सवाब मैयत को पहुँचाइए और लोगों को भी तवज्जोह दिलाइए कि इस्तिग़फ़ार करें। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दफ़न के बाद ख़ुद भी इसतिग़फ़ार फ़रमाते और लोगों से भी फ़रमाते—

"यह वक़्त हिसाब का है, अपने भाई के लिए साबित-क़दमी की दुआ माँगो और मग़फ़िरत तलब करो।" (अबू दाऊद)

19. अज़ीज़ों, रिश्तेदारों या पास-पड़ोस में किसी के यहाँ मैयत हो जाए तो उसके यहाँ दो-एक वक़्त का खाना भिजवा दीजिए, इसलिए कि वे ग़म से परेशान होंगे। जामेअ तिरमिज़ी में है कि जब हज़रत जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शहीद होने की ख़बर आई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "जाफ़र के घरवालों के लिए खाना तैयार कर दो, वे आज मशग़ूल हैं।"

20. तीन दिन से ज़्यादा मैयत का शोक न कीजिए। अलबत्ता किसी औरत का शौहर मर जाए तो उसके शोक की मुद्दत चार महीने दस दिन है। जब उम्मुल मूमिनीन हज़रत उम्मे हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप अबू सुफ़ियान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इंतिक़ाल हुआ तो बीबी ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) उनके पास मातमपुर्सी के लिए गईं। हज़रत उम्मे हबीबा ने ख़ुश्बू मँगवाई। उसमें ज़ाफ़रान की ज़र्दी वग़ैरह मिली हुई थी। उम्मुल मूमिनीन ने वह ख़ुश्बू अपनी बांदी को मली और फिर कुछ अपने मुँह पर मली और फिर फ़रमाने लगीं—

"ख़ुदा गवाह है, मुझे ख़ुश्बू की कोई ज़रूरत नहीं थी, मगर मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह फ़रमाते सुना है कि जो औरत ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती है, वह किसी मुर्दे का शोक तीन दिन से ज़्यादा न मनाए, अलबत्ता शौहर के शोक की मुद्दत चार महीने और दस दिन है।" (अबू दाऊद)

20. मैयत की तरफ़ से हैसियत के मुताबिक़ सदक़ा और ख़ैरात भी कीजिए। अलबत्ता इस मामले में ग़ैर-इस्लामी रस्मों से सख़्ती के साथ बचने की कोशिश कीजिए।

17. क़ब्रिस्तान के आदाब

1. जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान भी जाइए और मैयत के दफ़नाने में शरीक रहिए और कभी वैसे भी क़ब्रिस्तान जाया कीजिए, इससे आख़िरत की याद ताज़ा होती है और मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिए तैयारी का जज़्बा पैदा होता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान तशरीफ़ ले गए और वहाँ एक क़ब्र के किनारे पर बैठकर आप इतना रोए कि ज़मीन तर हो गई, फिर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को ख़िताब करते हुए फ़रमाया—

"भाइयो! इस दिन की तैयारी करो।" (इब्ने माजा)

एक बार क़ब्र के पास बैठकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"क़ब्र हर दिन बड़ी भयानक आवाज़ में पुकारती है कि ऐ आदम की औलाद! क्या तू मुझे भूल गई, मैं तन्हाई का घर हूँ, मैं अनजानेपन और वहशत की जगह हूँ, मैं कीड़े-मकोड़े का मकान हूँ, मैं तंगी और मुसीबत की जगह हूँ। उन ख़ुशनसीबों के अलावा, जिनके लिए ख़ुदा मुझको कुशादा फ़रमा दे, मैं सारे इनसानों के लिए ऐसी ही तकलीफ़देह हूँ।” और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “क़ब्र या तो जहन्नम के गढ़ों में से एक गढ़ा है या जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है।" (तबरानी)

2. क़ब्रिस्तान जाकर सबक़ लीजिए और सोच की तमाम ताक़तें समेटकर मौत के बाद की ज़िन्दगी पर सोच-विचार की आदत डालिए। एक बार हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) क़ब्रिस्तान में तशरीफ़ ले गए। उनके साथ हज़रत कुमैल (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थे। क़ब्रिस्तान पहुँचकर अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक नज़र क़ब्रों पर डाली और फिर क़ब्रवालों से ख़िताब करते हुए फ़रमाया—

"ऐ क़ब्र के बसनेवालो! ऐ खंडहरों में रहनेवालो! ऐ वहशत और तन्हाई में रहनेवालो! कहो, तुम्हारी क्या ख़ैर व ख़बर है? हमारा हाल तो यह है कि माल बाँट लिए गए, औलादें यतीम हो गईं। बीवियों ने दूसरे शौहर कर लिए, यह तो हमारा हाल है। अब तुम भी तो अपनी कुछ ख़ैर-ख़बर सुनाओ।"

फिर अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) कुछ देर ख़ामोश रहे। इसके बाद हज़रत कुमैल (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ओर देखा और फ़रमाया—

"कुमेल! अगर इन क़ब्रों में रहनेवालों को बोलने की इजाज़त होती तो यह कहते: बेहतरीन तोशा (सामाने सफ़र) परहेज़गारी है।"

यह फ़रमाया और रोने लगे, देर तक रोते रहे फिर बोले—

"कुमेल! क़ब्र अमल का सन्दूक़ है और मौत के वक़्त ही यह बात मालूम हो जाती है।"

3. क़ब्रिस्तान में दाख़िल होते वक़्त यह दुआ पढ़िए—

अस्सलामु अलैकुम अह्लद्दियारि मिनल मूमिनी-न वल मुस्लिमीन व इन्ना इन्शा-अल्लाहु बिकुम लाहिक़ू-न अस-अलुल्ला-ह लना व लकुमुल आफ़ियह।

"सलामती हो तुमपर ऐ इस बस्ती के रहनेवालो! इताअत गुज़ार मोमिनो! इन्शा-अल्लाह हम भी बहुत जल्द तुमसे आ मिलनेवाले हैं। हम अपने और तुम्हारे लिए ख़ुदा से दुआ करते हैं कि वह अपने अज़ाब और ग़ज़ब से बचाए।”

4. क़ब्रिस्तान में ग़ाफ़िल और लापरवाह लोगों की तरह हँसी-मज़ाक़ और दुनिया की बातें न कीजिए। क़ब्र आख़िरत का दरवाज़ा है। इस दरवाज़े को देखकर वहाँ की चिन्ता अपने ऊपर ग़ालिब करके रोने की कोशिश कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मैंने तुम्हें क़ब्रिस्तान जाने से रोक दिया था (कि तौहीद का अक़ीदा तुम्हारे दिलों में पूरी तरह घर कर जाए) लेकिन अब अगर तुम चाहो तो जाओ, क्योंकि क़ब्र आख़िरत की याद ताज़ा करती हैं।” (मुस्लिम)

5. क़ब्रों को पक्की बनाने और सजाने से बचिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जब आख़िरी वक़्त आ गया, दर्द की तकलीफ़ से आप बेइन्तिहा बेचैन थे। कभी आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) चादर मुँह पर डालते और कभी उलट देते। इसी ग़ैर मामूली बेचैनी में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कान लगाकर सुना तो मुबारक ज़बान पर ये शब्द थे—

"यहूदियों और ईसाइयों पर ख़ुदा की लानत! इन्होंने अपने पैग़म्बरों की क़ब्रों को इबादतगाह बना लिया।"

6. क़ब्रिस्तान जाकर मुर्दों के लिए ईसाले सवाब कीजिए और ख़ुदा से मग़फ़िरत की दुआ कीजिए।

हज़रत सुफ़ियान (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि जिस तरह ज़िन्दा इनसान खाने-पीने के मुहताज होते हैं, उसी तरह मुर्दे दुआ के बहुत ज़्यादा मुहताज होते हैं।

तबरानी की एक रिवायत में है कि ख़ुदा जन्नत में एक नेक बन्दे का दर्जा ऊँचा करता है तो वह पूछता है: पालनहार मुझे यह दर्जा कहाँ से मिला? ख़ुदा फ़रमाता है कि तेरे लड़के की वजह से कि वह तेरे लिए इसतिग़फ़ार करता रहा।

18. सूरज व चाँद गरहन (ग्रहण) के आदाब

1. सूरज या चाँद में गरहन लगे तो ख़ुदा की याद में लग जाइए, उससे दुआएँ कीजिए, तकबीर [अल्लाहु अकबर कहना] व तहलील [ला इला-ह इल्लल्लाह कहना] और सदक़ा व ख़ैरात कीजिए। इन भले कामों की बरकत से ख़ुदा मुसीबतों और आफ़तों को टाल देता है।

हज़रत मुग़ीरह बिन शोबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“सूरज और चाँद ख़ुदा की दो निशानियाँ हैं। किसी के मरने या पैदा होने से उनमें गरहन नहीं लगता। जब तुम देखो कि उनमें गरहन लग गया है तो ख़ुदा को पुकारो उससे दुआएँ करो और नमाज़ पढ़ो, यहाँ तक कि सूरज या चाँद साफ़ हो जाए।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

2. जब सूरज में गरहन लगे तो मस्जिद में जमाअत के साथ नमाज़ पढ़िए, लेकिन उस नमाज़ के लिए अज़ान और इक़ामत न कहिए, यूँ ही लोगों को दूसरे साधनों से जमा कर लीजिए और जब चाँद गरहन लगे तो अपने तौर पर नफ़्लें पढ़िए, जमाअत न कीजिए।

3. सूरज गरहन में जब जमाअत के साथ दो रक्अत नफ़्ल पढ़ें, तो उसमें लम्बी क़िरात कीजिए और उस वक़्त तक नमाज़ में लगे रहिए जब तक कि सूरज साफ़ न हो जाए और क़िरात बुलन्द आवाज़ में कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दौर में एक बार सूरज गरहन पड़ा। इत्तिफ़ाक़ से उसी दिन आपके एक दूध पीते बच्चे हज़रत इबराहीम (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी इंतिक़ाल हुआ। लोगों ने कहना शुरू किया: चूँकि हज़रत इबराहीम बिन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इंतिक़ाल हुआ है, इसलिए यह सूरज गरहन पड़ा है। तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लोगों को जमा किया, दो रक्अत नमाज़ पढ़ाई। इस नमाज़ में आपने निहायत लम्बी क़िरात की। सूरा बक़रा के जितना क़ुरआन पढ़ा, लम्बे रुकू और सज्दे किए। नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो सूरज गरहन साफ़ हो चुका था। इसके बाद आपने लोगों को बताया—

"सूरज और चाँद ख़ुदा की दो निशानियाँ हैं। इनमें किसी के मरने या पैदा होने से गरहन नहीं लगता। लोगो! जब तुम्हें कोई ऐसा मौक़ा पेश आए तो ख़ुदा के ज़िक्र में लग जाओ, उसी से दुआएँ माँगो, तकबीर व तहलील में लगे रहो, नमाज़ पढ़ो और सदक़ा व ख़ैरात करो।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत अब्दुर्रहमान बिन समुरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुबारक ज़माने में एक बार सूरज गरहन लगा। मैं मदीने के बाहर तीर अंदाज़ी कर रहा था। मैंने तुरन्त तीरों को फेंक दिया कि देखूँ आज इस हादसे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) क्या अमल करते हैं? चुनाँचे मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। आपने अपने हाथ उठाए। ख़ुदा की हम्द व तस्बीह, तक्बीर व तहलील और दुआ व फ़रियाद में लगे हुए थे। फिर आपने दो रक्अत नमाज़ पढ़ी और उसमें दो लम्बी-लम्बी सूरतें पढ़ीं और उस वक़्त तक लगे रहे, जब तक कि सूरज साफ़ न हो गया।

सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी चाँद गरहन और सूरज गरहन में नमाज़ पढ़ते। एक बार मदीने में गरहन लगा तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नमाज़ पढ़ी। एक और मौक़े पर गरहन लगा तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने लोगों को जमा किया और जमाअत से नमाज़ पढ़ाई।

4. सूरज गरहन की नमाज़ में पहली रक्अत में सूरा फ़ातिहा के बाद सूरा अनकबूत पढ़िए और दूसरी रक्अत में सूरा रूम पढ़िए। इन सूरतों का पढ़ना मस्नून है, अलबत्ता ज़रूरी नहीं है, दूसरी सूरतें भी पढ़ी जा सकती हैं।

5. सूरज गरहन की बाजमाअत नमाज़ में अगर औरतें शरीक होना चाहें और शरीक करने की आसानी हो तो ज़रूर शरीक कीजिए और बच्चों को भी उभारिए, ताकि शुरू ही से उनके दिलों पर तौहीद का नक़्शा बैठे और तौहीद के ख़िलाफ़ कोई विचार पनपने न पाए।

6. जिन वक़्तों में नमाज़ पढ़ने को शरीअत मना करती है यानी सूरज निकलने के वक़्त, सूरज डूबने के वक़्त और ज़वाल के वक़्तों में अगर सूरज गरहन हो तो नमाज़ न पढ़िए, लेकिन ज़िक्र व तस्बीह ज़रूर कीजिए। ग़रीबों और फ़क़ीरों को सदक़ा व ख़ैरात दीजिए और अगर सूरज के निकलने के वक़्त और ज़वाल के वक़्त के निकल जाने के बाद भी गरहन बाक़ी रहे तो फिर नमाज़ भी पढ़िए।

19. रमज़ान मुबारक के आदाब

1. रमज़ान मुबारक का उसकी शान के मुताबिक़ स्वागत करने के लिए शाबान ही से ज़ेहन को तैयार कीजिए और शाबान की पन्द्रह तारीख़ से पहले-पहले ज़्यादा से ज़्यादा रोज़े रखिए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सभी महीनों से ज़्यादा शाबान के महीने में रोज़ा रखा करते थे।

2. पूरे एहतिमाम और शौक़ के साथ रमज़ान मुबारक का चाँद देखने की कोशिश कीजिए और चाँद देखकर यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहु अकबर अल्लाहुम-म अहिल्लहू अलैना बिल अम्नि वल ईमानि वस्सलामति वल इस्लामि वत्तौफ़ीक़ि लिमा तुहिब्बु व तर्ज़ा। रब्बुना व रब्बु-कल्लाह।

"ख़ुदा सबसे बड़ा है। ऐ ख़ुदा! यह चाँद हमारे लिए अम्न व ईमान व सलामती और इस्लाम का चाँद बनाकर निकाल और उन कामों की तौफ़ीक़ के साथ जो तुझे महबूब और पसन्द हैं। ऐ चाँद! हमारा रब और तेरा रब अल्लाह है।" (तिरमिज़ी, इब्ने हिब्बान वग़ैरह)

और हर महीने का नया चाँद देखकर भी यही दुआ पढ़िए।

3. रमज़ान में इबादतों से ख़ास लगाव पैदा कीजिए। फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा नफ़्ल नमाज़ों का ख़ास एहतिमाम कीजिए और ज़्यादा से ज़्यादा नेकी कमाने के लिए तैयार हो जाइए। यह बड़ाई और बरकतवाला महीना ख़ुदा की ख़ास इनायत और रहमत का महीना है। शाबान की आख़िरी तारीख़ को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने रमज़ान की बड़ाई का ज़िक्र करते हुए फ़रमाया—

"लोगो! तुमपर एक बहुत बड़ाई और बरकत का महीना साया करनेवाला है। यह वह महीना है जिसमें एक रात हज़ार महीनों से ज़्यादा बेहतर है। ख़ुदा ने इस महीने के रोज़े फ़र्ज़ क़रार दिए हैं और क़ियामे लैल (मस्नून तरावीह) को नफ़्ल क़रार दिया है। जो आदमी इस महीने में दिल की ख़ुशी से अपने आप कोई एक नेक काम करेगा, वह दूसरे महीनों के फ़र्ज़ के बराबर बदला पाएगा और जो आदमी इस महीने में एक फ़र्ज़ अदा करेगा, ख़ुदा उसको दूसरे महीनों के सत्तर फ़र्ज़ों के बराबर सवाब बख़्शेगा।"

4. पूरे महीने के रोज़े बड़े ज़ौक़ व शौक़ और एहतिमाम के साथ रखिए और अगर कभी रोग की तेज़ी या शरई उज़्र की वजह से रोज़े न रख सकें तब भी रमज़ान के एहतिराम में खुल्लम-खुल्ला खाने से सख़्ती के साथ परहेज़ कीजिए और इस तरह रहिए कि गोया आप रोज़े से हैं।

5. क़ुरआन की तिलावत का ख़ास एहतिमाम कीजिए। इस महीने को क़ुरआन पाक से ख़ास ताल्लुक़ है। क़ुरआन पाक इसी महीने में उतरा और दूसरी आसमानी किताबें भी इसी महीने में उतरीं। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को इसी महीने की पहली या तीसरी तारीख़ को सहीफ़े (किताबें) दिए गए। हज़रत दाऊद को इसी महीने की 12 या 18 को ज़बूर दी गई। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) पर इसी मुबारक महीने की 6 तारीख़ को तौरात उतरी और हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को भी इसी मुबारक महीने की 12 या 13 तारीख़ को इंजील दी गई। इसलिए इस महीने में ज़्यादा से ज़्यादा क़ुरआन पाक पढ़ने की कोशिश कीजिए। हज़रत जिबरील (अलैहिस्सलाम) हर साल रमज़ान में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पूरा क़ुरआन सुनाते और सुनते थे और आख़िरी साल उन्होंने दो बार रमज़ान में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ दौर फ़रमाया।

6. क़ुरआन पाक ठहर-ठहरकर और समझ-समझकर पढ़ने की कोशिश कीजिए। तिलावत की ज़्यादती के साथ-साथ समझने और असर लेने का भी ख़ास ख़याल रखिए।

7. तरावीह में पूरा क़ुरआन सुनने का एहतिमाम कीजिए। एक बार रमज़ान में पूरा क़ुरआन पाक सुनना मस्नून है।

8. तरावीह की नमाज़ दिल लगाकर और ज़ौक़ व शौक़ के साथ पढ़िए और ज्यों-त्यों बीस रक्अत की गिनती पूरी न कीजिए, बल्कि नमाज़ को नमाज़ की तरह पढ़िए, ताकि आपकी ज़िन्दगी पर इसका असर पड़े और ख़ुदा से ताल्लुक़ मज़बूत हो और ख़ुदा तौफ़ीक़ दे तो तहज्जुद का भी एहतिमाम कीजिए।

9. सदक़ा और ख़ैरात कीजिए। ग़रीबों, बेवाओं और यतीमों की ख़बरगीरी कीजिए और मजबूरों की सहरी और इफ़्तार का एहतिमाम कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"यह मुवासात [यानी ग़रीबों और ज़रूरतमंदों के साथ हमदर्दी का महीना है। हमदर्दी से मुराद माली हमदर्दी भी है और ज़बानी हमदर्दी भी। इनके साथ बातों और व्यवहार में नर्मी बरतिए। नौकरों को आसानियाँ दीजिए और माली मदद भी कीजिए] का महीना है।"

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सख़ी-दाता तो थे ही, लेकिन रमज़ान में तो आपका दान बहुत ही बढ़ जाता था। जब हज़रत जिबरील (अलैहिस्सलाम) हर रात को आपके पास आते और क़ुरआन पाक पढ़ते और सुनते थे तो इन दिनों नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तेज़ चलनेवाली हवा से भी ज़्यादा सख़ी होते थे।

10. शबे क़द्र में ज़्यादा से ज़्यादा नफ़्लों का एहतिमाम कीजिए और क़ुरआन की तिलावत कीजिए। इस रात की अहमियत यह है कि इस रात में क़ुरआन उतरा। क़ुरआन में है—

"हमने इस क़ुरआन को शबे क़द्र में उतारा और तुम क्या जानो कि शबे क़द्र क्या है? शबे क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है। इसमें फ़रिश्ते और जिबरील अपने पालनहार के हुक्म से हर काम के इंतिज़ाम के लिए उतरते हैं, सलामती ही सलामती, यहाँ तक कि सुबह हो जाए।" (क़ुरआन, 97:1-5)

हदीस में है कि शबे क़द्र रमज़ान की आख़िरी दहाई की ताक़ रातों में से कोई रात होती है। इस रात को यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म इन्न-क अफ़ुव्वुन तुहिब्बुल अफ़्-व फ़अ-फ़ु अन्नी। (हिस्ने हसीन)

ऐ ख़ुदा! तू बहुत ही ज़्यादा माफ़ फ़रमानेवाला है, क्योंकि माफ़ करना तुझे पसन्द है। इसलिए तू मुझे माफ़ फ़रमा दे।"

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक साल रमज़ान आया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“तुम लोगों पर एक महीना आया है, जिसमें एक रात है जो हज़ार महीनों से बेहतर है। जो आदमी इस रात से महरूम रह गया वह सारे के सारे ख़ैर से महरूम रह गया और इस रात की ख़ैर व बरकत से महरूम वही रहता है जो वाक़ई महरूम है। (इब्ने माजा)

11. रमज़ान की आख़िरी दहाई में एतिकाफ़ कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रातों को ज़्यादा से ज़्यादा जागकर इबादत फ़रमाते और घरवालों को भी जगाने का एहतिमाम करते और पूरे जोश और चाव के साथ ख़ुदा की बन्दगी में लग जाते।

12. रमज़ान में लोगों के साथ निहायत नर्मी और मुहब्बत का व्यवहार कीजिए। नौकरों को ज़्यादा से ज़्यादा आसानियाँ दीजिए और खुले दिल के साथ उनकी ज़रूरतें पूरी कीजिए और घरवालों के साथ भी रहमत और फ़ैयाज़ी का बरताव कीजिए।

13. बड़ी आजिज़ी और ज़ौक़ व शौक़ के साथ ज़्यादा दुआएँ कीजिए। दुर्रे-मंसूर में है कि जब रमज़ान का मुबारक महीना आता तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का रंग बदल जाता था और नमाज़ में ज़्यादती हो जाती थी और दुआ में बहुत आजिज़ी फ़रमाते थे और डर बहुत ज़्यादा छाया रहता था।

हदीस में है—

"ख़ुदा रमज़ान में अर्श उठानेवाले फ़रिश्तों को हुक्म देता है कि अपनी इबादत छोड़ दो और रोज़ा रखनेवालों की दुआओं पर आमीन कहो।”

14. फ़ितरा दिल के चाव के साथ पूरे एहतिमाम से अदा कीजिए और ईद की नमाज़ से पहले अदा कर दीजिए, बल्कि इतना पहले अदा कीजिए कि ज़रूरतमन्द और ग़रीब लोग आसानी के साथ ईद की ज़रूरतें पूरी कर सकें और वे भी सबके साथ ईदगाह जा सकें और ईद की ख़ुशियों में शरीक हो सकें।

हदीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़ितरा उम्मत के लिए इसलिए ज़रूरी क़रार दिया ताकि वे उन बेहूदा और बेहयाई की बातों का जो रोज़े में रोज़ेदार से हो गई हों, कफ़्फ़ारा बने और ग़रीबों और मिस्कीनों के खाने का इन्तिज़ाम हो जाए। (अबू दाऊद)

15. रमज़ान के मुबारक दिनों में ख़ुद ज़्यादा से ज़्यादा नेकी कमाने के साथ-साथ दूसरों को भी बड़े ही सोज़, तड़प, नर्मी और हिक्मत के साथ नेकी और भलाई के काम करने पर उभारिए, ताकि पूरी फ़िज़ा पर ख़ुदातरसी, ख़ैर पसन्दी और भलाई के जज़्बे छाए रहें और समाज ज़्यादा से ज़्यादा रमज़ान की क़ीमती बरकतों से फ़ायदा उठा सके।

20. रोज़े के आदाब

1. रोज़े के बड़े अज्र और फ़ायदों को निगाह में रखकर पूरे ज़ौक़ व शौक़ के साथ रोज़े रखने का एहतिमाम कीजिए। यह एक ऐसी इबादत है जिसका बदला कोई दूसरी इबादत नहीं हो सकती। यही वजह है कि रोज़ा हर उम्मत पर फ़र्ज रहा है। अल्लाह तआला का इरशाद है—

“ऐ ईमानवालो! तुमपर रोज़े फ़र्ज़ किए गए, जिस तरह तुमसे पहले के लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे, ताकि तुम मुत्तक़ी परहेज़गार बन जाओ।" -क़ुरआन, 2:183

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने रोज़े के इस बड़े मक़सद को यूँ बयान फ़रमाया—

"जिस आदमी ने रोज़ा रखकर भी झूठ बोलना और झूठ पर अमल करना न छोड़ा, तो ख़ुदा को इससे कोई दिलचस्पी नहीं कि वह भूखा और प्यासा रहता है।" (बुख़ारी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जिस आदमी ने ईमान, जज़्बे और एहतिसाब [एहतिसाब से मुराद यह है कि रोज़ा सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ुशी और आख़िरत में बदले के लिए रखा जाए और उन तमाम बेकार बातों से बचा जाए जो रोज़े को बेजान कर देती हैं] के साथ रमज़ान का रोज़ा रखा तो ख़ुदा उसके उन गुनाहों को माफ़ फ़रमा देगा जो पहले हो चुके होंगे।” (बुख़ारी)

2. रमज़ान के रोज़े पूरे एहतिमाम के साथ रखिए और किसी बड़ी बीमारी या शरई उज़्र के बग़ैर कभी रोज़ा न छोड़िए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिस आदमी ने किसी बीमारी या शरई उज़्र के बग़ैर रमज़ान का एक रोज़ा भी छोड़ा तो उम्र भर के रोज़े रखने से भी एक रोज़े की पूर्ति न हो सकेगी।" (तिरमिज़ी)

3. रोज़े में दिखावे से बचने के लिए हमेशा की तरह ख़ुश व ख़ुर्रम और मुस्तैद होकर अपने कामों में लगे रहिए और अपने तौर-तरीक़ों से रोज़े की कमज़ोरी और सुस्ती को ज़ाहिर न कीजिए। हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इरशाद है—

“आदमी जब रोज़े रखे तो चाहिए कि हमेशा की तरह तेल लगाए कि उस पर रोज़े का असर न दिखाई दे।"

4. रोज़े में बड़े एहतिराम के साथ हर बुराई से दूर रहने की भरपूर कोशिश कीजिए, इसलिए कि रोज़े का मक़सद ही ज़िन्दगी को पाकीज़ा बनाना है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"रोज़ा ढाल है और जब तुममें से कोई रोज़े से हो तो अपनी ज़बान से कोई बेशर्मी की बात न निकाले और न शोर व हंगामा करे और अगर कोई उससे गाली-गलौच करने लगे या लड़ाई पर उतर आए, तो उस रोज़ेदार को सोचना चाहिए कि मैं तो रोज़ेदार हूँ। (भला मैं कैसे गाली का जवाब दे सकता या लड़ सकता हूँ)।" (बुख़ारी व मुस्लिम)

5. हदीसों में रोज़े का जो बड़ा बदला बयान किया गया है, उसकी आरज़ू कीजिए और ख़ास तौरपर इफ़्तार के क़रीब ख़ुदा से दुआ कीजिए कि ऐ अल्लाह! मेरे रोज़े को क़बूल फ़रमा और मुझे वह अज्र व सवाब दे जिसका तूने वादा किया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"रोज़ेदार जन्नत में एक ख़ास दरवाज़े से दाख़िल होंगे। इस दरवाज़े का नाम रय्यान है [रय्यान का मतलब है सींचनेवाला। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है रय्यान के दरवाज़े से दाख़िल होनेवालों को कभी प्यास न सताएगी। (तिरमिज़ी)]। जब रोज़ेदार दाख़िल हो चुकेंगे तो यह दरवाज़ा बन्द कर दिया जाएगा, फिर कोई उस दरवाज़े से न जा सकेगा।" (बुख़ारी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि क़ियामत के दिन रोज़ा सिफ़ारिश करेगा और कहेगा कि पालनहार! मैंने इस आदमी को दिन में खाने-पीने और दूसरी लज़्ज़तों से रोके रखा। ऐ ख़ुदा! तू इस आदमी के हक़ में मेरी सिफ़ारिश क़बूल फ़रमा और ख़ुदा उसकी सिफ़ारिश को क़बूल फ़रमाएगा। (मिश्कात)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि इफ़्तार के वक़्त रोज़ेदार जो दुआ माँगे, उसकी दुआ क़बूल की जाती है, रद्द नहीं की जाती। (तिरमिज़ी)

6. रोज़े की तकलीफ़ों को हँसी-ख़ुशी से बरदाश्त कीजिए और भूख और प्यास की ज़्यादती या कमज़ोरी की शिकायत कर-करके रोज़े की नाक़द्री न कीजिए।

7. सफ़र के दौरान या रोग की ज़्यादती में रोज़ा न रख सकते हों तो छोड़ दीजिए और दूसरे दिनों में उसकी क़ज़ा कीजिए। क़ुरआन में है—

"जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में रोज़ों की तादाद पूरी कर ले।” -क़ुरआन, 2:184

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, "जब हम लोग नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ रमज़ान में सफ़र पर होते तो कुछ लोग रोज़ा रखते और कुछ लोग न रखते, फिर न तो रोज़ेदार रोज़ा छोड़नेवालों पर कोई एतिराज़ करता और न रोज़ा छोड़नेवाला रोज़ेदार पर एतिराज़ करता।" (बुख़ारी)

8. रोज़े में ग़ीबत और बदनिगाही से बचने का ख़ास तौर पर एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"रोज़ेदार सुबह से शाम तक ख़ुदा की इबादत में है, जब तक कि वह किसी की ग़ीबत न करे और जब वह किसी की ग़ीबत कर बैठता है तो उसके रोज़े में दरार पड़ जाती है।" (अद-दैलमी)

9. हलाल रोज़ी का एहतिमाम कीजिए। हराम कमाई से पलनेवाले जिस्म की कोई इबादत क़बूल नहीं होती। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"हराम कमाई से जो बदन पला हो वह जहन्नम ही के लायक़ है।" (बुख़ारी)

10. सहरी ज़रूर खाइए। इससे रोज़ा रखने में आसानी होगी और कमज़ोरी और सुस्ती पैदा न होगी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“सहरी खा लिया करो इसलिए कि सहरी खाने में बरकत है।" (बुख़ारी)

11. सूरज डूब जाने के बाद इफ़्तार में देर न कीजिए, इसलिए कि रोज़े का असल मक़सद फ़रमाँबरदारी का जज़्बा पैदा करना है, न कि भूखा-प्यासा रहना। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मुसलमान अच्छी हालत में रहेंगे जब तक इफ़्तार करने में जल्दी करेंगे।" (बुख़ारी)

12. इफ़्तार के वक़्त यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म ल-क सुम्तु व अला रिज़्क़ि-क अफ़्तरतु। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! मैंने तेरे ही लिए रोज़ा रखा और तेरी ही रोज़ी से इफ़्तार किया।"

और जब रोज़ा इफ़्तार कर लें तो यह दुआ पढ़िए—

ज़-ह-बज़्ज़-मउ वब-तल्लतिल उरूक़ु व स-ब-तल अजरु इन्शा-अल्लाह।  (अबू दाऊद)

“प्यास जाती रही, रगें तर व ताज़ा हो गईं और बदला भी ज़रूर मिलेगा, अगर ख़ुदा ने चाहा।"

13. किसी के यहाँ रोज़ा इफ़्तार करें तो यह दुआ पढ़िए—

अफ़-त-र इन्-दकुमुस्साइमू-न व अ-क-ल तआ-मकुमुल अबरारु व सल्लत अलैकुमुल मलाइ-कह। (अबू दाऊद)

“(ख़ुदा करे) तुम्हारे यहाँ रोज़ेदार रोज़े इफ़्तार करें और नेक लोग तुम्हारा खाना खाएं और फ़रिश्ते तुम्हारे लिए रहमत की दुआएँ करें।"

14. रोज़े इफ़्तार कराने का भी एहतिमाम कीजिए, इसका बड़ा अज्र है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी रमज़ान में किसी का रोज़ा खुलवाए तो उसके बदले में ख़ुदा उसके गुनाह को बख़्श देगा और उसको जहन्नम की आग से निजात देगा और इस इफ़्तार करानेवाले को रोज़ेदार के बराबर सवाब मिलेगा और रोज़ेदार के सवाब में कोई कमी न होगी।" लोगों ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! हम सबके पास इतना कहाँ है कि रोज़ेदार को इफ़्तार कराएँ और उसको खाना खिलाएँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "सिर्फ़ एक खजूर से या दूध और पानी के एक घूँट से इफ़्तार करा देना भी काफ़ी है।"  (इब्ने ख़ुज़ैमा)

21. ज़कात और सदक़े के आदाब

1. ख़ुदा की राह में जो भी दें, सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ुशी हासिल करने के लिए दीजिए। किसी और ग़रज़ की नीयत से अपने काम को कभी ख़राब न कीजिए। यह आरज़ू हरगिज़ न रखिए कि जिनको आपने दिया है वे आपका एहसान मानें, आपका शुक्रिया अदा करें और आपकी बड़ाई को तस्लीम करें। मोमिन अपने अमल का बदला सिर्फ़ अपने ख़ुदा से चाहता है। क़ुरआन पाक में मोमिनों के जज़्बे को इस तरह ज़ाहिर किया गया है।

"हम तुमको अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए खिला रहे हैं, न तुम से बदला तलब करते हैं और न शुक्रगुज़ारी की तलब है।" (क़ुरआन, 76:9)

2. धोखादेही और दिखावे से परहेज़ कीजिए। दिखावा अच्छे से अच्छे अमल को तबाह कर देता है।

3. ज़कात खुल्लम-खुल्ला दीजिए, ताकि दूसरों में भी फ़र्ज़ अदा करने का जज़्बा उभरे। अलबत्ता दूसरे सदक़े छिपाकर दीजिए, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा इख़लास (निष्ठा) पैदा हो। ख़ुदा की नज़र में उसी अमल की क़ीमत है जो इख़लास के साथ किया गया हो। क़ियामत के डरावने मैदान में जबकि कहीं साया न होगा, ख़ुदा अपने उस बन्दे को अर्श के साए में रखेगा जिसने इंतिहाई छिपे तरीक़ों से ख़ुदा की राह में ख़र्च किया होगा। यहाँ तक कि बाएँ हाथ को यह ख़बर न होगी कि दाहिने हाथ ने क्या ख़र्च किया। (बुख़ारी)

4. ख़ुदा की राह में ख़र्च करने के बाद न एहसान जताइए और न उन लोगों को दुख दीजिए जिनको आप दे रहे हों। देने के बाद मुहताजों और ग़रीबों के साथ हिक़ारत का सुलूक़ करना, उनके स्वाभिमान को ठेस लगाना, उनपर एहसान जता-जताकर उनके टूटे हुए दिलों को दुखाना और यह सोचना कि वे आपका एहसान मानें, आपके सामने झुके रहें, आपके बड़े होने को स्वीकार करें, इंतिहाई घिनौने जज़्बे हैं। मोमिन का दिल इन जज़्बों से पाक होना चाहिए। ख़ुदा का इरशाद है—

“मोमिनो! अपने सदक़ों व ख़ैरात को एहसान जता-जताकर और ग़रीबों का दिल दुखाकर, उस आदमी की तरह धूल में न मिला दो जो सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करता है।" (क़ुरआन, 2:264)

5. ख़ुदा की राह में देने के बाद घमण्ड न कीजिए, लोगों पर अपनी बड़ाई न जताइए, बल्कि यह सोच-सोचकर काँपते रहिए कि मालूम नहीं ख़ुदा के यहाँ मेरा यह सदक़ा क़बूल भी हुआ या नहीं। ख़ुदा का इरशाद है—

“और वे लोग देते हैं (ख़ुदा की राह में), जो भी देते हैं और उनके दिल इस विचार से काँपते हैं कि हमें ख़ुदा की ओर पलटना है।" (क़ुरआन, 23:60)

6. फ़क़ीरों और मुहताजों के साथ नर्मी का सुलूक कीजिए, न उनको डाँटिए, न उनपर रौब जमाइए, न उनपर अपनी बड़ाई ज़ाहिर कीजिए। मांगनेवाले को देने के लिए अगर कुछ न हो तब भी बड़ी नर्मी और अच्छे अख़लाक़ से माफ़ी माँग लीजिए, ताकि वह कुछ न पाने के बावजूद ख़ामोशी से दुआ देता हुआ विदा हो जाए। क़ुरआन में है—

“अगर तुम इनसे मुख मोड़ने पर मजबूर हो जाओ अपने पालनहार की मेहरबानी की उम्मीद रखते हुए, तो उनसे नर्मी की बात कह दिया करो।" (क़ुरआन, 17:28)

और ख़ुदा का इरशाद यह भी है—

"और माँगनेवाले को झिड़की न दो।" (क़ुरआन, 93:10)

7. ख़ुदा की राह में खुले दिल और शौक़ के साथ ख़र्च कीजिए। तंगदिली, कुढ़न और ज़बरदस्ती का जुर्माना समझकर न ख़र्च कीजिए। कामयाबी के हक़दार वही लोग होते हैं जो कंजूसी, तंगदिली और तंगी जैसी भावनाओं से अपने दिल को पाक रखते हैं।

8. ख़ुदा की राह में हलाल माल ख़र्च कीजिए। ख़ुदा सिर्फ़ वही माल क़बूल फ़रमाता है जो पाक और हलाल हो। जो मोमिन ख़ुदा की राह में देने की तड़प रखता है, वह भला यह कैसे गवारा कर सकता है कि उसकी कमाई में हराम माल शामिल हो। क़ुरआन में ख़ुदा का इरशाद है—

‘‘ईमानवालो! ख़ुदा की राह में अपनी पाक कमाई ख़र्च करो।" —2:267

9. ख़ुदा की राह में बेहतरीन माल ख़र्च कीजिए। क़ुरआन में है—

"तुम हरगिज़ नेकी हासिल न कर सकोगे जब तक कि वह माल ख़ुदा की राह में न दो, जो तुम्हें प्यारा है।" - क़ुरआन, 3:92

सदक़े में दिया हुआ माल आख़िरत की हमेशा की ज़िन्दगी के लिए जमा हो रहा है। भला मोमिन यह कैसे सोच सकता है कि वह अपनी हमेशा की ज़िन्दगी के लिए ख़राब और नाकारा माल जमा कराए।

10. ज़कात वाजिब होने पर देर न लगाइए, तुरन्त अदा करने की कोशिश कीजिए और अच्छी तरह हिसाब लगाकर दीजिए कि ख़ुदा-न-ख़ास्ता आपके ज़िम्मे कुछ रह न जाए।

11. ज़कात मिल-जुलकर अदा कीजिए और उसके ख़र्च का इंतिज़ाम भी मिल-जुलकर कीजिए। जहाँ मुसलमानों की हुकूमत नहीं है, वहाँ मुसलमानों की जमाअतें, बैतुलमाल क़ायम करके उसका इंतिज़ाम करें।

22. हज के आदाब

1. हज करने में देर न कीजिए और टाल-मटोल हरगिज़ न कीजिए। जब भी ख़ुदा इतना दे कि आप इस अच्छे कर्त्तव्य को निभा सकें, तो पहली फ़ुरसत में रवाना हो जाइए। ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं है कि आप इस कर्त्तव्य को एक साल से दूसरे साल पर टालते रहें। क़ुरआन में है—

"और लोगों पर ख़ुदा का यह हक़ है कि जो उसके घर तक पहुँचने की ताक़त रखता हो वह उसका हज करे। और जो उस हुक्म की पैरवी से इनकार करे, तो उसे मालूम होना चाहिए कि ख़ुदा सारे जहानवालों से बेनियाज़ है।" (क़ुरआन, 3:97)

इनसान की इससे बड़ी तबाही और महरूमी और क्या होगी कि ख़ुदा उससे बेनियाज़ी (उपेक्षा) और बेताल्लुक़ी का एलान फ़रमाए। हदीस में है—

“जो आदमी हज का इरादा करे उसे हज करने में जल्दी करनी चाहिए, क्योंकि मुमकिन है वह बीमार पड़ जाए, मुमकिन है ऊँटनी खो जाए और मुमकिन है कोई और ऐसी ज़रूरत पेश आ जाए कि हज नामुमकिन हो जाए।" (इब्ने माजा)

मतलब यह है कि साधन होने के बाद ख़ामख़ाह टाल-मटोल न करनी चाहिए। मालूम नहीं आगे ये साधन और कुशादगी बाक़ी रहें या न रहें और फिर ख़ुदा-न-ख़ास्ता आदमी बैतुल्लाह के हज से महरूम हो जाए। ख़ुदा इस महरूमी से हर मोमिन बन्दे को बचाए रखे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसे लोगों को बड़े कड़े अंदाज़ में तंबीह फ़रमाई है। हदीस में है—

“जिस आदमी को किसी बीमारी ने या वाक़ई ज़रूरत ने या किसी ज़ालिम व जाबिर हाकिम ने न रोक रखा हो और फिर भी वह हज न करे तो चाहे वह यहूदी मरे, चाहे ईसाई।” (सुनने कुबरा, भाग-4)

और हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यह कहते सुना गया—

"जो लोग क़ुदरत रखने के बावजूद हज नहीं करते तो मेरा जी चाहता है कि उनपर जिज़या लगा दूँ, वे मुसलमान नहीं हैं, वे मुसलमान नहीं हैं।" (अल-मुंतक़ा)

2. ख़ुदा के घर की ज़ियारत और हज सिर्फ़ अपने ख़ुदा को ख़ुश करने के लिए कीजिए। किसी और दुनिया की ग़रज़ से इस पाकीज़ा मक़सद को गन्दा न कीजिए। क़ुरआन पाक में है—

"और न उन लोगों को छेड़ो, जो अपने पालनहार की दया और उसकी ख़ुशी की खोज में इज़्ज़तवाले घर की तरफ़ जा रहे हैं।" (क़ुरआन, 5:2)

“हज और उमरा को सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ुशी के लिए पूरा करो।” (क़ुरआन, 2:196)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"हज्जे मबरूर [हज्जे मबरूर वह हज है जो सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ुशी हासिल करने के लिए पूरे आदाब और शर्तों के साथ किया गया हो] का बदला तो जन्नत से कम है ही नहीं।" (मुस्लिम, किताबुल हज)

3. हज के लिए जाने की चर्चा न कीजिए। ख़ामोशी से जाइए और आइए और हर उस रस्म और तरीक़े से सख़्ती के साथ बचिए जिसमें धोखा और दिखावे का हिस्सा हो। यूँ तो हर काम के भले काम होने और मक़बूल काम होने का आश्रय इसपर है कि वह सिर्फ़ ख़ुदा के लिए हो और किसी दूसरी ख़ाहिश की उसमें थोड़ी-सी मिलावट भी न हो, लेकिन ख़ास तौर पर हज में इसका और ज़्यादा ध्यान रखना इसलिए ज़रूरी है कि यह रूहानी इनक़िलाब (आध्यात्मिक क्रान्ति) और मन और चरित्र को पाक करने का एक आख़िरी उपाय है और जो रूहानी रोगी इस कामयाब इलाज से भी सेहत न पाए, फिर उसके सेहत पाने की उम्मीद किसी दूसरे इलाज से बहुत ही कम रह जाती है।

4. हज को जाने की ताक़त न हो तब भी ख़ुदा के घर को देखने की तमन्ना, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के रौज़े पर सलाम पढ़ने की आरज़ू और हज से पैदा होनेवाले इबराहीमी जज़्बों से अपने सीने को आबाद और मुनव्वर रखिए। इन भावनाओं के बिना कोई सीना मोमिन का सीना नहीं, बल्कि एक वीरान खंडहर है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“हज और उमरा के लिए जानेवाले ख़ुदा के ख़ास मेहमान हैं। वे ख़ुदा से दुआ करें तो ख़ुदा क़बूल फ़रमाता है और मग़फ़िरत तलब करें तो बख़्श देता है।" (तबरानी)

5. हज के लिए रास्ते का बेहतरीन ख़र्च साथ लीजिए। रास्ते का बेहतरीन ख़र्च तक़वा है। इस पाकीज़ा सफ़र के दौरान ख़ुदा की नाफ़रमानियों से बचने और बैतुल्लाह के हज की बरकतों से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठानेवाला बन्दा वही है जो हर हाल में ख़ुदा से डरता है और उसकी ख़ुशी हासिल करने का ज़ोरदार जज़्बा रखे। क़ुरआन में है—

"और सफ़र के लिए रास्ते का ख़र्च साथ लो और सबसे बेहतर रास्ते का ख़र्च ख़ुदा का तक़वा है।" (क़ुरआन, 2:197)

6. हज का इरादा करते ही हज के लिए ज़ेहनी यकसूई और तैयारी शुरू कर दीजिए। हज की तारीख़ को ताज़ा कीजिए और हज के एक-एक काम की हक़ीक़त पर ग़ौर कीजिए और ख़ुदा का दीन, हज के इन अरकान के ज़रिए मोमिन बन्दे के दिल में जो जज़्बे पैदा करना चाहता है उन्हें समझने की कोशिश कीजिए और फिर एक चेतना रखनेवाले मोमिन की तरह पूरी चेतना के साथ हज के कामों को करके इन सच्चाइयों को अपने भीतर समाने और उनके मुताबिक़ ज़िन्दगी में सालेह इनक़िलाब लाने की कोशिश कीजिए जिसके लिए ख़ुदा ने मोमिनों पर हज फ़र्ज़ किया है। ख़ुदा का इरशाद है—

"और ख़ुदा को याद करो जिस तरह याद करने की उसने तुम्हें हिदायत की है और यह हक़ीक़त है कि तुम लोग इससे पहले इन हक़ीक़तों से भटके हुए थे।" (क़ुरआन, 2:198)

इस मक़सद के लिए क़ुरआन पाक के उन हिस्सों को गहराई में उतरकर पढ़िए जिनमें हज की हक़ीक़त व अहमियत और हज से पैदा होनेवाली भावनाओं को ज़ाहिर किया गया है और उसके लिए रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की हदीसों और उन किताबों का पढ़ना भी फ़ायदेमंद रहेगा जिनमें हज के इतिहास और हज के अरकान की हक़ीक़त पर चर्चा की गई है।

7. हज के दौरान जो मस्नून दुआएं हदीस की किताबों में मिलती हैं, उन्हें याद कीजिए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लफ़्ज़ों में ख़ुदा से वही माँगिए जो ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने माँगा था।

8. अपने हज की पूरी-पूरी हिफ़ाज़त कीजिए और ध्यान रखिए कि आपका हज कहीं उन दुनिया-परस्तों का हज न बन जाए जिनका आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है, इसलिए कि वे आख़िरत से आँखें बन्द करके सब कुछ दुनिया ही में चाहते हैं। वे जब बैतुल्लाह पहुँचते हैं तो उनकी दुआ यह होती है—

रब्बना आतिना फ़िद्-दुन्या वमा लहू फ़िल आख़िरति मिन ख़लाक़। (क़ुरआन, 2:200)

"ऐ अल्लाह! हमें जो कुछ देना है बस इसी दुनिया में दे दे। ऐसे (दुनियापरस्त) लोगों का आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है।"

आप हज के ज़रिए से दोनों दुनिया की कामयाबी तलब कीजिए और ख़ुदा से दुआ कीजिए कि पालनहार! मैं तेरे हुज़ूर इसलिए आया हूँ कि तू दोनों ज़िन्दगियों में मुझे कामयाब और बामुराद बना और यह दुआ करते रहिए—

रब्बना आतिना फ़िद्-दुन्या ह-स-न-तंव व फ़िल आख़ि-रति ह-स-न-तंव व क़िना 'अज़ाबन्नार। (क़ुरआन, 2:201)

"ऐ अल्लाह हमें इस दुनिया में भी भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई दे और हमें आग के अज़ाब से बचा।”

9. हज के दौरान ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचने के एहसास को बराबर ज़िन्दा रखिए। हज का सफ़र ख़ुदा के घर का सफ़र है। आप ख़ुदा के मेहमान बनकर आए हैं, उससे बन्दगी का वचन ताज़ा करने गए हैं। हजरे अस्वद (काले पत्थर) पर हाथ रखकर आप गोया ख़ुदा के हाथ में हाथ देकर वचन देते हैं, इक़रार करते हैं और उसको बोसा देकर ख़ुदा के आस्ताने पर बोसा देते हैं, बार-बार तकबीर व तहलील की आवाज़ें बुलन्द करके अपनी वफ़ादारी ज़ाहिर करते हैं। ऐसी फ़िज़ा में सोचिए, किसी मामूली गुनाह और ख़ता की गन्दगी भी कितनी घिनौनी है। ख़ुदा ने अपने दरबार में हाज़िर होनेवाले बन्दों को होशियार फ़रमाया है—

वला फ़ुसू-क़

"ख़ुदा की नाफ़रमानी की बातें न होनी चाहिएँ।”  -क़ुरआन, 2:197

10. हज के दौरान लड़ाई-झगड़े की बातों से पूरी तरह बचे रहिए। सफ़र के दौरान जब जगह-जगह भीड़ हो, परेशानियाँ हों, क़दम-क़दम पर स्वार्थ टकराएँ, क़दम-क़दम पर भावनाओं को ठेस लगे तो ख़ुदा के मेहमान का काम यह है कि खुले दिल और त्याग से काम ले और हर एक के साथ माफ़ी और उदारता का बरताव करे, यहाँ तक कि नौकर को डाँटने से भी बचे। ख़ुदा का इरशाद है—

वला जिदा-ल फ़िल हज्ज। -क़ुरआन, 2:197

"और हज में लड़ाई-झगड़े की बातें न हों।"

11. हज के दौरान शहवानी (वासनापूर्ण) बातों से भी बचने और बचे रहने का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए। सफ़र के दौरान भावनाओं के भड़कने और निगाह के आज़ाद हो जाने का अंदेशा कुछ ज़्यादा होता है इसलिए आप भी ज़्यादा चौकन्ने हो जाएँ और नफ़्स और शैतान की चालों से ख़ुद को बचाए रखने की ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश करें। और अगर आपका जोड़ा आपके साथ हो तो न सिर्फ़ यह कि उससे ख़ास ताल्लुक़ क़ायम न कीजिए, बल्कि ऐसी बातों से भी सोच-समझकर बचे रहिए जो शहवानी भावनाओं के भड़कने की वजह बन सकती हों। ख़ुदा ने होशियार करते हुए फ़रमाया है—

“हज के महीने सबको मालूम हैं। जो आदमी इन मुक़र्ररा महीनों में हज की नीयत करे, उसे ख़बरदार रहना चाहिए कि हज के दौरान शहवानी बातें न हों।" (क़ुरआन, 2:197)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी ख़ुदा के इस घर की ज़ियारत के लिए यहाँ आया और वह बेहयाई और शहवानी बातों से बचा रहा और फ़िस्क़ व फ़ुजूर में नहीं पड़ा तो वह पाक व साफ़ होकर इस तरह लौटता है, जिस तरह वह माँ के पेट से पाक व साफ़ पैदा हुआ था।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

12. अल्लाह की निशानियों का पूरा-पूरा एहतिराम कीजिए। किसी ज़ाहिरी और बातिनी सच्चाई के महसूस कराने और याद दिलाने के लिए ख़ुदा ने जो चीज़ निशानी के तौरपर मुक़र्रर फ़रमाई है उसको अरबी में 'शअीरा' कहते हैं। 'शआइर' उसका बहुवचन है। हज के सिलसिले की सारी ही चीज़ें ख़ुदापरस्ती की किसी न किसी हक़ीक़त को महसूस कराने के लिए निशानी के तौरपर मुक़र्रर की गई हैं, इन सबका आदर कीजिए। क़ुरआन में ख़ुदा का इरशाद है—

“और ऐ ईमानवालो! ख़ुदापरस्ती की इन निशानियों की बेहुर्मती (अनादर) न करो, न हुर्मत के इन महीनों की बेहुर्मती करो, न क़ुरबानी के जानवरों पर हाथ डालो, न उन जानवरों पर हाथ डालो जिनकी गरदनों में ख़ुदा की नज़्र के तौरपर पट्टे पड़े हैं और न उन लोगों की राह में रुकावट डालो, जो अपने परवरदिगार की मेहरबानी और उसकी ख़ुशी की तलाश में मकाने मोहतरम (काबा) की तरफ़ जा रहे हों।” (क़ुरआन, 5:2)

और सूरा हज में है—

“और जो ख़ुदापरस्ती की इन निशानियों का एहतिराम करे, जो ख़ुदा ने मुक़र्रर की हैं, तो यह दिलों के तक़्वे की बात है।" (क़ुरआन, 22:32)

13. हज के कामों को पूरा करते हुए बड़ी आजिज़ी, बेकसी और बेबसी ज़ाहिर कीजिए कि ख़ुदा को बन्दे की आजिज़ी और बेचारगी ही सबसे ज़्यादा पसन्द है।

14. एहराम बाँधने के बाद, हर नमाज़ के बाद, हर बुलन्दी पर चढ़ते वक़्त, हर पस्ती की तरफ़ उतरते वक़्त, हर क़ाफ़िले से मिलते वक़्त और हर सुबह को नींद से जागकर ऊँची आवाज़ से तलबिया पढ़िए। तलबिया यह है—

लब्बैक अल्लाहुम्-म लब्बैक, लब्बै-क ला शरी-क ल-क लब्बैक, इन्नल हम्-द वन्-निअ-म-त ल-क वल-मुल्क ला शरी-क लक। (मिश्कात)

“मैं हाज़िर हूँ ऐ ख़ुदा! मैं हाज़िर हूँ! तेरा कोई शरीक नहीं, मैं हाज़िर हूँ। बेशक तारीफ़ तेरे ही लिए है। नेमत सब तेरी ही है। सारी बादशाही तेरी ही है, तेरा कोई शरीक नहीं।"

15. अरफ़ात के मैदान में हाज़िर होकर ज़्यादा से ज़्यादा तौबा व इसतिग़फ़ार कीजिए। क़ुरआन की हिदायत है—

“फिर तुम (मक्कावाले) भी वहीं से पलटो, जहाँ से और सारे लोग पलटते हैं, और ख़ुदा से मग़फ़िरत चाहो, बेशक ख़ुदा बहुत ज़्यादा माफ़ करनेवाला और बहुत ज़्यादा रहम फ़रमानेवाला है। (क़ुरआन, 2:199)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“ख़ुदा के नज़दीक अरफ़े का दिन तमाम दिनों से ज़्यादा बेहतर है। उस दिन अल्लाह दुनिया के आसमान पर ख़ास तवज्जोह फ़रमाकर फ़रिश्तों के सामने अपने हाजी बन्दों की आजिज़ी की हालत पर फ़ख़्र करता है। फ़रिश्तों से फ़रमाता है, फ़रिश्तो! देखो, मेरे बन्दे परेशान, धूप में मेरे सामने खड़े हैं। ये लोग दूर-दूर से यहाँ आए हैं। मेरी रहमत की उम्मीद उन्हें यहाँ लाई है, हालाँकि उन्होंने मेरे अज़ाब को नहीं देखा। इस फ़ख़्र के बाद लोगों को जहन्नम के अज़ाब से आज़ाद करने का हुक्म दिया जाता है। अरफ़ा के दिन इतने लोग बख़्शे जाते हैं कि इतने किसी दिन भी नहीं बख़्शे जाते।" (इब्ने हिब्बान)

16. मिना में पहुँचकर उन्हीं भावनाओं के साथ क़ुरबानी कीजिए, जिन भावनाओं के साथ ख़ुदा के दोस्त हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने अपने प्यारे बेटे हज़रत इसमाईल (अलैहिस्सलाम) की गरदन पर छुरी रखी थी और क़ुरबानी की इन भावनाओं को अपने दिल व दिमाग़ पर इस तरह छा जाने दीजिए कि ज़िन्दगी के हर मैदान में आप क़ुरबानी पेश करने के लिए तैयार रहें और ज़िन्दगी वाक़ई इस वचन की असली तस्वीर बन जाए कि—

"बेशक मेरी नमाज़ और मेरी क़ुरबानी, मेरी ज़िन्दगी और मेरी मौत एक अल्लाह के लिए है जो सारे आलमों का पालनहार है, जिसका कोई शरीक नहीं।" (क़ुरआन, 6:162-163)

17. हज के दिनों में बराबर ख़ुदा की याद में लगे रहिए और किसी वक़्त भी दिल को इस ज़िक्र से ग़ाफ़िल न होने दीजिए। ख़ुदा की याद ही तमाम इबादतों का असल जौहर है। ख़ुदा का इरशाद है—

"और ख़ुदा की याद में लगे रहो, गिनती के इन कुछ दिनों में।" (क़ुरआन, 2:202)

और फ़रमाया—

"फिर जब तुम हज के तमाम अरकान पूरे कर चुको तो जिस तरह पहले अपने बाप-दादों का ज़िक्र करते थे उसी तरह अब ख़ुदा का ज़िक्र करो, बल्कि उससे भी बढ़कर।" (क़ुरआन, 2:200)

हज के कामों का मक़सद ही यह है कि आप इन दिनों में लगातार ख़ुदा की याद में डूबे रहें और इन दिनों में उसकी याद इस तरह दिल में रच-बस जाए कि फिर ज़िन्दगी की चहल-पहल और संघर्ष में कोई चीज़ उसकी याद से आपको ग़ाफ़िल न कर सके। जाहिलियत के ज़माने में लोग हज के कामों को पूरा करने के बाद अपने बाप-दादा की बड़ाई करते और डींगे मारते थे। ख़ुदा ने हिदायत दी कि ये दिन ख़ुदा की याद में गुज़ारो और उसी की बड़ाई बयान करो, जो वाक़ई बड़ा है।

18. ख़ुदा के घर का परवानावार तवाफ़ कीजिए। ख़ुदा का इरशाद है—

“और चाहिए कि अल्लाह के घर का तवाफ़ करें।"

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा हर दिन अपने हाजी बन्दों के लिए एक सौ बीस रहमतें उतारता है, जिसमें साठ रहमतें उनके लिए होती हैं जो बेतुल्लाह का तवाफ़ करते हैं, चालीस उनके लिए जो वहाँ नमाज़ पढ़ते हैं और बीस उन लोगों के लिए जो सिर्फ़ काबे को देखते रहते हैं।" (बैहक़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जिसने पचास बार अल्लाह के घर का तवाफ़ किया वह अपने गुनाहों से ऐसे पाक हो गया जैसे उसकी माँ ने उसको आज ही जन्म दिया है।" (तिरमिज़ी)

अध्याय-3

बेहतर समाज

23. माँ-बाप से व्यवहार के आदाब

1. माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार कीजिए और इस अच्छे-व्यवहार की जो तौफ़ीक़ आपको मिली है उसे दोनों दुनिया की सआदत समझिए। ख़ुदा के बाद इनसान पर सबसे ज़्यादा हक़ माँ-बाप का ही है। माँ-बाप के हक़ की अहमियत और बड़ाई का अन्दाज़ा इससे कीजिए कि क़ुरआन पाक ने जगह-जगह माँ-बाप के हक़ को ख़ुदा के हक़ के साथ बयान किया है और ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी की ताकीद के साथ-साथ माँ-बाप की शुक्रगुज़ारी की ताकीद भी की है—

“और तुम्हारे पालनहार ने फ़ैसला फ़रमा दिया है कि तुम ख़ुदा के सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो।" (क़ुरआन, 17:23)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा— "कौन-सा अमल ख़ुदा को सबसे ज़्यादा प्यारा है?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "वह नमाज़ जो वक़्त पर पढ़ी जाए।" मैंने फिर पूछा— "इसके बाद कौन-सा काम ख़ुदा को सबसे ज़्यादा पसन्द है?" फ़रमाया— माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार। मैंने पूछा, “इसके बाद?" फ़रमाया— "ख़ुदा की राह में जिहाद करना।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहने लगा—

“मैं आपके हाथ पर हिजरत और जिहाद के लिए बैअत करता हूँ और ख़ुदा से उसका बदला चाहता हूँ।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा— "क्या तुम्हारे माँ-बाप में से कोई एक ज़िन्दा है?" उन्होंने कहा– “जी हाँ बल्कि (ख़ुदा का शुक्र है) दोनों ज़िन्दा हैं।" आपने फ़रमाया— "तो क्या वाक़ई तुम ख़ुदा से अपनी हिजरत और जिहाद का बदला चाहते हो?" उन्होंने कहा, “जी हाँ!" (मैं ख़ुदा से बदला चाहता हूँ)। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया— “तो जाओ, अपने माँ-बाप की ख़िदमत में रहकर उनके साथ अच्छा बरताव करो।" (मुस्लिम)

हज़रत अबू उमामा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक आदमी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा—

“ऐ अल्लाह के रसूल! माँ-बाप का औलाद पर क्या हक़ है?" आपने फ़रमाया, "माँ-बाप ही तुम्हारी जन्नत हैं और माँ-बाप ही दोज़ख़।” (इब्ने माजा)

यानी उनके साथ नेक सुलूक करके तुम जन्नत के हक़दार होगे और उनके हक़ों को मारकर तुम जहन्नम के ईंधन बनोगे।

2. माँ-बाप के शुक्रगुज़ार रहिए। मुहसिन की शुक्रगुज़ारी और एहसानमंदी शराफ़त का पहला तक़ाज़ा है, और सच यह है कि हमारे वुजूद का नज़र आनेवाला सबब माँ-बाप हैं, फिर माँ-बाप ही की परवरिश और निगरानी में हम पलते-बढ़ते और चेतना को पहुँचते हैं और वे जिस ग़ैर मामूली क़ुरबानी, बेमिसाल जाँफ़िशानी और बड़ी ही मुहब्बत के साथ हमारी सरपरस्ती फ़रमाते हैं, उसका तक़ाज़ा है कि हमारा सीना उनकी अक़ीदत व एहसानमन्दी और बड़प्पन और मुहब्बत से भरा हुआ हो और हमारे दिल की नस-नस उनकी शुक्रगुज़ार हो, यही वजह है कि ख़ुदा ने अपनी शुक्रगुज़ारी के साथ-साथ उनकी शुक्रगुज़ारी की ताकीद फ़रमाई है—

“(हमने वसीयत की कि) मेरा शुक्र अदा करो और अपने माँ-बाप के शुक्रगुज़ार रहो।"

(क़ुरआन, 31:14)

3. माँ-बाप को हमेशा ख़ुश रखने की कोशिश कीजिए और उनकी मरज़ी और मिज़ाज के ख़िलाफ़ कभी कोई ऐसी बात न कहिए जो उनको नागवार हो, ख़ास तौर पर बुढ़ापे में जब मिज़ाज कुछ चिड़चिड़ा और खुर्रा हो जाता है और माँ-बाप कुछ ऐसे तक़ाज़े और माँगें करने लगते हैं जो उम्मीद के ख़िलाफ़ होते हैं, उस वक़्त भी हर बात को ख़ुशी-ख़ुशी सहन कीजिए और उनकी किसी बात से उकताकर जवाब में कोई ऐसी बात हरगिज़ न कीजिए जो उनको नागवार हो और उनकी भावनाओं को ठेस लगे।

“अगर उनमें से एक या दोनों तुम्हारे सामने बुढ़ापे की उम्र को पहुँच जाएँ तो तुम उनको उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़कियाँ दो।” (क़ुरआन, 17:23)

असल में बुढ़ापे की उम्र में बात को बरदाश्त करने की ताक़त नहीं रहती और कमज़ोरी की वजह से अपनी अहमियत का एहसास बढ़ जाता है। इसलिए ज़रा-ज़रा सी बात भी महसूस होने लगती है। इसलिए इस नज़ाकत का ध्यान रखते हुए अपने किसी काम और बात से माँ-बाप को नाराज़ होने का मौक़ा न दीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा की ख़ुशनूदी बाप की ख़ुशनूदी में है और ख़ुदा की नाराज़ी बाप की नाराज़ी में है।" (तिरमिज़ी, इब्ने हिब्बान, हाकिम)

यानी अगर कोई अपने ख़ुदा को ख़ुश रखना चाहे तो वह अपने बाप को ख़ुश रखे, बाप को नाराज़ करके वह ख़ुदा के ग़ज़ब को भड़काएगा।

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही का बयान है कि एक आदमी अपने माँ-बाप को रोता हुआ छोड़कर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हिजरत पर बैअत करने के लिए हाज़िर हुआ तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जाओ, अपने माँ-बाप के पास वापस जाओ और उनको उसी तरह ख़ुश करके आओ जिस तरह उनको रुलाकर आए हो।" (अबू दाऊद)

4. दिलो जान से माँ-बाप की ख़िदमत कीजिए। अगर आपको ख़ुदा ने इसका मौक़ा दिया है तो असल में यह इस बात की तौफ़ीक़ है कि आप ख़ुदको जन्नत का हक़दार बना सकें और ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल कर सकें। माँ-बाप की ख़िदमत से ही दोनों जहान की भलाई, सआदत और बड़ाई हासिल होती है और आदमी दोनों जहान की आफ़तों से बचा रहता है।

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जो आदमी यह चाहता है कि उसकी उम्र लम्बी की जाए और उसकी रोज़ी में फैलाव हो, उसको चाहिए कि अपने माँ-बाप के साथ भलाई करे और रिश्ते-नातों को जोड़े रहे।" (अत्तर्ग़ीब वत्तर्हीब)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“वह आदमी ज़लील हो, फिर ज़लील हो और फिर ज़लील हो।" लोगों ने पूछा— “ऐ ख़ुदा के रसूल कौन आदमी?" आपने फ़रमाया, “वह आदमी जिसने अपने माँ-बाप को, बुढ़ापे की हालत में पाया- दोनों को पाया या किसी एक को और फिर (उनकी ख़िदमत करके) जन्नत में दाख़िल न हुआ।" (मुस्लिम)

एक मौक़े पर तो आपने माँ बाप की ख़िदमत को जिहाद जैसी अहम इबादत पर भी तरजीह दी और एक सहाबी को जिहाद में जाने से रोककर माँ-बाप की ख़िदमत की ताकीद फ़रमाई।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास जिहाद में शरीक होने की ग़रज़ से हाज़िर हुआ। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उससे पूछा—

"तुम्हारे माँ-बाप ज़िन्दा हैं?" उसने कहा, “जी हाँ, ज़िन्दा हैं।”

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “जाओ उनकी ख़िदमत करते रहो, यही जिहाद है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

5. माँ-बाप का अदब व एहतिराम कीजिए और कोई भी ऐसी बात या हरकत न कीजिए जो उनके एहतिराम के ख़िलाफ़ हो। क़ुरआन में है—

“और उनसे एहतिराम से बात कीजिए।” (क़ुरआन, 17:23)

एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछा, "क्या आप यह चाहते हैं कि जहन्नम से दूर रहें और जन्नत में दाख़िल हों?" इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "क्यों नहीं? ख़ुदा की क़सम! यही चाहता हूँ।” हज़रत इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा, “आपके माँ-बाप ज़िन्दा हैं?" इब्ने अब्बास ने कहा, "जी हाँ, मेरी माँ ज़िन्दा हैं।" इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, “अगर तुम उनके साथ नर्मी के साथ बातें करो, उनके खाने-पीने का ख़याल रखो तो ज़रूर जन्नत में जाओगे, बशर्ते कि तुम बड़े गुनाहों से बचते रहो।” (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार दो आदमियों को देखा। एक से पूछा, “यह दूसरे तुम्हारे कौन हैं?" उसने कहा “ये मेरे बाप हैं।" उन्होंने फ़रमाया, "देखो, न उनका नाम लेना, न कभी उनसे आगे चलना और न कभी उनसे पहले बैठना।"(अल-अदबुल मुफ़रद)

6. माँ-बाप के साथ आजिज़ी और इनकिसारी से पेश आइए—

“और आजिज़ी और नर्मी से उनके सामने बिछे रहो।" (क़ुरआन-17:24)

आजिज़ी से बिछे रहने का मतलब यह है कि हर वक़्त उनके रुतबे को ध्यान में रखो और कभी उनके सामने अपनी बड़ाई न जताओ और न उनकी शान में गुस्ताख़ी करो।

7. माँ-बाप से मुहब्बत कीजिए और इसको अपने लिए सआदत और आख़िरत के अच्छे बदले की वजह समझिए। हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फ़रमाते हैं—

“जो भी नेक औलाद माँ-बाप पर मुहब्बत भरी एक नज़र डालती है, उसके बदले में ख़ुदा उसको एक मक़बूल हज का सवाब बख़्शता है।" लोगों ने पूछा, "ऐ ख़ुदा के रसूल! अगर कोई एक दिन में सौ बार इसी तरह रहमत व मुहब्बत की नज़र डाले।" आपने फ़रमाया, “जी हाँ! अगर कोई सौ बार ऐसा करे तब भी। ख़ुदा (तुम्हारे ख़याल से) बहुत बड़ा और (तंगदिली जैसे ऐबों से) बिलकुल पाक है।" (मुस्लिम)

8. माँ-बाप की दिलोजान से इताअत कीजिए। अगर वे कुछ ज़्यादती भी कर रहे हों तब भी ख़ुशदिली से इताअत कीजिए और उनके बड़े एहसानों को नज़र के सामने रखकर उनकी वे माँगें भी ख़ुशी-ख़ुशी पूरी कीजिए जो आपके ज़ौक़ और मिज़ाज पर बोझ हों, बशर्ते कि वे दीन के ख़िलाफ़ न हों। हज़रत अबू सईद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि यमन का एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उससे पूछा—

“यमन में तुम्हारा कोई है?" उसने कहा, (जी हाँ!) मेरे माँ-बाप हैं। आपने पूछा, "उन्होंने तुम्हें इजाज़त दे दी है?" उसने कहा, "नहीं तो (मैंने उनसे इजाज़त तो नहीं ली है)।" आपने फ़रमाया, "अच्छा तो तुम वापस जाओ और माँ-बाप से इजाज़त लो। अगर वे इजाज़त दे दें, तब तो जिहाद में शिरकत करो, वरना (उनकी ख़िदमत में रहकर) उनके साथ अच्छा सुलूक करते रहो।” (अबू दाऊद)

माँ-बाप की बात मानने की अहमियत का अन्दाज़ा इस बात से कीजिए कि एक आदमी मीलों दूर से आता है और चाहता है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ दीन की सरबुलन्दी के लिए जिहाद में शरीक हो, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसको लौटा देते हैं और फ़रमाते हैं कि जिहाद में शिरकत भी तुम उसी शक्ल में कर सकते हो जब तुम्हारे माँ-बाप दोनों तुम्हें इजाज़त दें।

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जिस आदमी ने इस हाल में सुबह की कि वह उन हिदायतों और हुक्मों में ख़ुदा की बात माननेवाला रहा जो उसने माँ-बाप के हक़ में उतारे हैं, तो उसने इस हाल में सुबह की कि उसके लिए जन्नत के दो दरवाज़े खुले हुए हैं और अगर माँ-बाप में से कोई एक हो तो जन्नत का एक दरवाज़ा खुला हुआ है और जिस आदमी ने इस हाल में सुबह की कि माँ-बाप के बारे में ख़ुदा के भेजे हुए हुक्मों और हिदायतों से मुँह मोड़े हुए है तो उसने इस हाल में सुबह की कि उसके लिए दोज़ख़ के दो दरवाज़े खुले हुए हैं और माँ-बाप में से कोई एक है तो दोज़ख़ का एक दरवाज़ा खुला हुआ है।" उस आदमी ने पूछा, "ऐ ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! अगर माँ-बाप उसके साथ ज़्यादती कर रहे हों तब भी?" फ़रमाया, "हाँ अगर ज़्यादती कर रहे हों तब भी! अगर ज़्यादती कर रहे हों तब भी! अगर ज़्यादती कर रहे हों तब भी।” (मिश्कात)

9. माँ-बाप को अपने माल का मालिक समझिए और उनपर दिल खोलकर ख़र्च कीजिए। क़ुरआन में है—

“लोग आपसे पूछते हैं, हम क्या ख़र्च करें? जवाब दीजिए कि जो भी माल तुम ख़र्च करो, उसके पहले हक़दार माँ-बाप हैं।" (क़ुरआन, 2:215)

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास एक आदमी आया और अपने बाप की शिकायत करने लगा कि जब चाहते हैं मेरा माल ले लेते हैं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उस आदमी के बाप को बुलवाया, लाठी टेकता हुआ एक बूढ़ा कमज़ोर आदमी हाज़िर हुआ आपने उस बूढ़े आदमी से पूछा तो उसने कहना शुरू किया—

"ख़ुदा के रसूल! एक ज़माना था जब यह कमज़ोर और बेबस था और मुझमें ताक़त थी, मैं मालदार था और यह ख़ाली हाथ था। मैंने कभी इसको अपनी चीज़ लेने से नहीं रोका, आज मैं कमज़ोर हूँ और यह तन्दुरुस्त और ताक़तवर है, मैं ख़ाली हाथ हूँ और यह मालदार है। अब यह अपना माल मुझसे बचा-बचाकर रखता है।"

बूढ़े की ये बातें सुनकर प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रो पड़े और (बूढ़े के लड़के की ओर ख़िताब करके) फ़रमाया, “तू और तेरा माल, तेरे बाप का है।"

10. माँ-बाप अगर ग़ैर मुस्लिम हों तब भी उनके साथ अच्छा सुलूक कीजिए। उनका अदब व एहतिराम और उनकी ख़िदमत बराबर करते रहिए। अलबत्ता अगर वे शिर्क व गुनाह का हुक्म दें तो उनकी इताअत से इनकार कर दीजिए और उनका कहा हरगिज़ न मानिए।

“और अगर माँ-बाप दबाव डालें कि मेरे साथ किसी को शरीक बनाओ, जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं तो हरगिज़ उनका कहना न मानो और दुनिया में उनके साथ नेक बरताव करते रहो।" (क़ुरआन, 31:15)

हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुबारक दौर में मेरी माँ आईं और उस वक़्त वह मुशरिक (शिर्क करनेवाली) थीं। मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अर्ज़ किया कि मेरे पास मेरी माँ आई हैं और वह इस्लाम से नफ़रत करती हैं। क्या मैं उनके साथ अच्छा व्यवहार करूँ? आपने फ़रमाया, "हाँ तुम अपनी माँ के साथ अच्छा व्यवहार करती रहो।" (बुख़ारी)

11. माँ-बाप के लिए बराबर दुआ भी करते रहिए और उनके एहसानों को याद कर करके ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाइए और बहुत ही ज़्यादा दिल लगाकर और दिल की गहराइयों के साथ उनके लिए रहम व करम की दरख़ास्त कीजिए।

ख़ुदा का इरशाद है—

"और दुआ करो कि पालनहार! इन दोनों पर रहम फ़रमा, जिन दोनों ने बचपन में मुझे पाला-पोसा था।” (क़ुरआन, 17:24)

यानी, ऐ परवरदिगार! बचपन की बेबसी में जिस रहमत, मेहनत और मुहब्बत से उन्होंने मुझे पाला-पोसा और मेरे लिए अपने ऐश को क़ुरबान किया, पालनहार! अब ये बुढ़ापे की कमज़ोरी और बेबसी में मुझसे ज़्यादा ख़ुद रहमत व मुहब्बत के मुहताज हैं। ऐ ख़ुदा! मैं उनका कोई बदला नहीं दे सकता। तू ही उनकी सरपरस्ती फ़रमा और उनकी इस हालत पर रहम की नज़र कर।

12. माँ की ख़िदमत का ख़ास ख़याल रखिए। माँ फ़ितरी तौर पर ज़्यादा कमज़ोर होती है, ज़्यादा महसूस करती है और आपकी ख़िदमत व सुलूक की ज़्यादा ज़रूरतमंद भी होती है। फिर उसके एहसान व क़ुरबानियाँ भी बाप के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा हैं, इसलिए इस्लाम ने माँ का हक़ ज़्यादा बताया है और माँ के साथ अच्छे व्यवहार को ख़ास तौर से कहा है। क़ुरआन पाक का इरशाद है—

“और हमने इनसान को माँ-बाप के साथ भलाई करने की ताकीद की। उसकी माँ तकलीफ़ उठा-उठाकर उसको पेट में लिए-लिए फिरी और तकलीफ़ ही से जना और पेट में उठाने और दूध पिलाने की यह (तकलीफ़ देनेवाली) मुद्दत ढाई साल है।" (क़ुरआन, 46:15)

क़ुरआन ने माँ-बाप दोनों के साथ अच्छे सुलूक की ताकीद करते हुए ख़ास तौरपर माँ के लगातार दुख उठाने और कठिनाइयाँ झेलने का नक़्शा बड़े ही असर भरे अन्दाज़ में खींचा है और बड़ी ही ख़ूबी के साथ मन को छूनेवाले अन्दाज़ में इस सच्चाई की ओर इशारा किया है कि बाप के मुक़ाबले में जाँनिसार माँ तुम्हारी ख़िदमत व सुलूक की ज़्यादा हक़दार है और फिर इसी हक़ीक़त को ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी खोल-खोलकर बयान फ़रमाया है।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में आया और पूछा—

"ऐ ख़ुदा के रसूल! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन है?"

आपने फ़रमाया, "तेरी माँ!"

उसने पूछा, "फिर कौन है?"

आपने फ़रमाया, “तेरी माँ!"

उसने पूछा, "फिर कौन है?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "तेरी माँ!”

उसने कहा, "फिर कौन?"

तो आपने फ़रमाया, "तेरा बाप!" (अल-अदबुल मुफ़्रद)

हज़रत जाहमा (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! मेरा इरादा है कि मैं आपके साथ जिहाद में शिरकत करूँ और इसी लिए आया हूँ कि आपसे इस मामले में मशविरा लूँ। (फ़रमाइए, आपका क्या हुक्म है?) "

"तुम्हारी माँ (ज़िन्दा) है?"

जाहमा ने कहा, "जी हाँ! (ज़िन्दा हैं)"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“तो जाओ और उन्हीं की ख़िदमत में लगे रहो, क्योंकि जन्नत उन्हीं के क़दमों में है।" (इब्ने माजा, नसई)

हज़रत उवैस क़रनी (रहमतुल्लाह अलैह) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दौर में मौजूद थे। पर उनसे मुलाक़ात का शरफ़ हासिल न कर सके। उनकी एक बूढ़ी माँ थीं। दिन-रात उन्हीं की ख़िदमत में लगे रहते। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दीदार की बड़ी आरज़ू थी और कौन मोमिन होगा जो इस तमन्ना में न तड़पता हो कि उसकी आँखें रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दीदार से रौशन हों। चुनाँचे हज़रत उवैस (रहमतुल्लाह अलैह) ने आना भी चाहा, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मना फ़रमाया। हज का फ़र्ज़ अदा करने की भी उनके दिल में बड़ी आरज़ू थी, लेकिन जब तक उनकी माँ ज़िन्दा रहीं, उनकी तनहाई के ख़याल से हज नहीं किया और उनकी वफ़ात के बाद ही यह आरज़ू पूरी हो सकी।

13. दूध शरीक माँ के साथ भी अच्छा व्यवहार कीजिए, उनकी ख़िदमत कीजिए और अदब व एहतिराम से पेश आइए। हज़रत अबू तुफ़ैल (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने जाराना नामी जगह पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को देखा कि आप गोश्त बाँट रहे हैं, इतने में एक औरत आई और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बिलकुल ही क़रीब पहुँच गई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनके लिए अपनी चादर बिछा दी। वह उसपर बैठ गईं। मैंने लोगों से पूछा, "यह कौन साहिबा हैं?"

लोगों ने बताया कि यह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की माँ हैं। जिन्होंने आपको दूध पिलाया था। (अबू दाऊद)

14. माँ-बाप के मरने के बाद भी उनका ख़याल रखिए और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए नीचे की बातों पर अमल कीजिए—

(i) माँ-बाप के लिए मग़फ़िरत की दुआएँ बराबर करते रहिए। क़ुरआन पाक ने ईमानवालों को यह दुआ सिखाई है—

रब्ब-नग़फ़िर ली वलिवालिदय्-य व लिल मूमिनी-न यौ-म यक़ूमुल हिसाब। (क़ुरआन, 14:41)

“पालनहार! मेरी मग़फ़िरत फ़रमा और मेरे माँ-बाप को और सब ईमानवालों को उस दिन माफ़ फ़रमा दे, जबकि हिसाब क़ायम होगा।"

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि मरने के बाद जब मैयत के दर्जे बुलन्द होते हैं तो वह हैरत से पूछता है कि यह कैसे हुआ! ख़ुदा की तरफ़ से उसे बताया जाता है कि तुम्हारी औलाद तुम्हारे लिए मग़फ़िरत की दुआ करती रही (और ख़ुदा ने उसको क़बूल फ़रमा लिया)।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जब कोई आदमी इंतिक़ाल कर जाता है तो उसके अमल की मोहलत ख़त्म हो जाती है, सिर्फ़ तीन चीज़ें ऐसी हैं जो मरने के बाद भी फ़ायदा पहुँचाती रहती हैं—

पहली, सदक़-ए-जारिया,

दूसरी, उसका (फैलाया हुआ वह) इल्म जिससे लोग फ़ायदा उठाएँ।

तीसरी, वह नेक औलाद, जो उसके लिए मग़फ़िरत की दुआ करती रहे।

(ii) माँ-बाप के किए हुए वादे और वसीयत को पूरा कीजिए। माँ-बाप ने अपनी ज़िन्दगी में बहुत से लोगों से कुछ वायदे किए होंगे। अपने ख़ुदा से कुछ अह्द किया होगा, कोई नज़्र मानी होगी, किसी को कुछ माल देने का वादा किया होगा, उनके ज़िम्मे किसी का क़र्ज़ा रह गया होगा और अदा करने का मौक़ा न पा सके होंगे, मरते वक़्त कुछ वसीयतें की होंगी, आप अपनी हद तक इन सारे कामों को पूरा कीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि हज़रत साद बिन उबादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अर्ज़ किया—

"ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी माँ ने नज़्र मानी थी, लेकिन वह नज़्र पूरी करने से पहले ही वफ़ात पा गईं, क्या मैं उनकी तरफ़ से यह नज़्र पूरी कर सकता हूँ?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, "क्यों नहीं! तुम ज़रूर उनकी तरफ़ से नज़्र पूरी कर दो।"

(iii) बाप के दोस्तों और माँ की सहेलियों के साथ भी अच्छा व्यवहार करते रहिए। उनका एहतिराम कीजिए। उनको अपने मशविरों में अपने बुज़ुर्गों की तरह शरीक रखिए। उनकी राय और मशविरों की इज़्ज़त कीजिए।

एक मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“सबसे अच्छा व्यवहार यह है कि आदमी अपने बाप के दोस्तों और साथियों के साथ भलाई करे।"

एक बार हज़रत अबूबर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बीमार हुए और मर्ज़ बढ़ता ही गया। यहाँ तक कि बचने की कोई उम्मीद न रही तो हज़रत यूसुफ़ बिन अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बहुत दूर से सफ़र करके उनका हाल मालूम करने के लिए तशरीफ़ लाए। हज़रत अबूबर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उन्हें देखा तो ताज्जुब से पूछा, “तुम यहाँ कहाँ?"

युसूफ़ बिन अब्दुल्लाह ने कहा, "मैं यहाँ सिर्फ़ इसलिए आया हूँ कि आपका हाल मालूम करूँ क्योंकि वालिद से आपके ताल्लुक़ात गहरे थे।"

हज़रत अबूबर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि जब मैं मदीने आया तो मेरे पास अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) तशरीफ़ लाए और कहने लगे, “अबूबर्दा तुम जानते हो, मैं तुम्हारे पास क्यों आया हूँ? मैंने कहा, "मैं तो नहीं जानता कि आप क्यों तशरीफ़ लाए हैं।" इस पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया—

"मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना है कि जो आदमी क़ब्र में अपने बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहता हो, उसको चाहिए कि बाप के मरने के बाद बाप के दोस्त साथी के साथ अच्छा व्यवहार करे और फिर फ़रमाया कि भाई! मेरे बाप हज़रत उमर और आपके बाप में गहरी दोस्ती थी। मैं चाहता हूँ कि इस दोस्ती को निभाऊँ और उसके हक़ों को अदा करूँ।" (इब्ने हिब्बान)

(iv) माँ-बाप के रिश्तेदारों के साथ भी बराबर अच्छा व्यवहार करते रहिए और रिश्तेदारों का पूरी तरह ख़याल रखिए। इन रिश्तेदारों से बेनियाज़ी और बेपरवाही असल में माँ-बाप से बेनियाज़ी है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"तुम अपने बाप-दादा से हरगिज़ बेपरवाई न बरतो, माँ-बाप से बेपरवाई बरतना ख़ुदा की नाशुक्री है।"

15. अगर ज़िन्दगी में, ख़ुदा न करे, माँ-बाप के साथ व्यवहार करने और उनके हक़ों को अदा करने में कोताही हो गई है तो फिर भी ख़ुदा की रहमत से मायूस न हों। मरने के बाद उनके हक़ में बराबर मग़फ़िरत की दुआ करते रहिए। उम्मीद है कि ख़ुदा आपकी कोताही को दरगुज़र फ़रमाए और आपकी गिनती अपने नेक बन्दों में फ़रमा दे।

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अगर ख़ुदा का कोई बन्दा ज़िन्दगी में माँ-बाप का नाफ़रमान रहा और माँ-बाप में से किसी एक का या दोनों का इसी हाल में इंतिक़ाल हो गया, तो अब उसको चाहिए कि वह अपने माँ-बाप के लिए बराबर दुआ करता रहे और ख़ुदा से उनकी बख़्शिश की दरख़ास्त करता रहे, यहाँ तक कि ख़ुदा उसको अपनी रहमत से नेक लोगों में लिख दे।"

24. शौहर और बीवी के आदाब

इस्लाम जिस ऊँची तहज़ीब और रहन-सहन की दावत देता है, वह उसी वक़्त वुजूद में आ सकता है जब हम एक साफ़-सुथरा समाज क़ायम करने में कामयाब हों और साफ़-सुथरे समाज की तामीर के लिए ज़रूरी है कि आप ख़ानदानी व्यवस्था को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत और कामयाब बनाएँ। ख़ानदानी ज़िन्दगी की शुरूआत शौहर और बीवी के पाक-साफ़ ताल्लुक़ से होती है और इस ताल्लुक़ की ख़ुशगवारी और मज़बूती उसी वक़्त मुमकिन है जब शौहर और बीवी दोनों ही साथ मिलकर गुज़ारनेवाली ज़िन्दगी के आदाब और फ़र्ज़ों को ख़ूब अच्छी तरह जानते हों और उन आदाब और फ़र्ज़ों को पूरा करने के लिए पूरा दिल लगाकर ख़ुलूस और यकसूई के साथ मुस्तैद और सरगर्म हों।

नीचे हम पहले उन आदाब और फ़र्ज़ों को बयान करते हैं जिनका ताल्लुक़ शौहर से है और फिर उन आदाब और फ़र्ज़ों का ज़िक्र करना है जिनका ताल्लुक़ बीवी से है।

शौहर की ज़िम्मेदारियाँ

1. बीवी के साथ अच्छे व्यवहार की ज़िन्दगी गुज़ारिए। उसके हक़ों को दिल खोलकर अदा कीजिए और हर मामले में एहसान और ईसार का रवैया अपनाइए। ख़ुदा का इरशाद है—

“और उनके साथ भले तरीक़े से ज़िन्दगी गुज़ारो।” (क़ुरआन, 4:19)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विदाई हज के मौक़े पर एक बड़े इज्तिमा (सभा) को ख़िताब करते हुए हिदायत फ़रमाई—

“लोगो सुनो! औरतों से अच्छे व्यवहार के साथ पेश आओ क्योंकि वे तुम्हारे पास क़ैदियों की तरह हैं। तुम्हें उनके साथ सख़्ती का बरताव करने का कोई हक़ नहीं, सिवाए उस हालत में कि जब उनकी तरफ़ से कोई खुली हुई नाफ़रमानी सामने आए। अगर वे ऐसा कर बैठें तो फिर ख़ाबगाहों में उनसे अलग रहो और उन्हें मारो तो ऐसा न मारना कि कोई भारी चोट आए और फिर जब वे तुम्हारे कहने पर चलने लगें तो उनको ख़ाहमख़ाह सताने के बहाने न ढूँढो। देखो, सुनो! तुम्हारे कुछ हक़ तुम्हारी बीवियों पर हैं और तुम्हारी बीवियों के कुछ हक़ तुम्हारे ऊपर हैं। उनपर तुम्हारा हक़ यह है कि वे तुम्हारे बिस्तरों को उन लोगों से न रौंदवाएँ जिनको तुम नापसन्द करते हो और तुम्हारे घरों में ऐसे लोगों को हरगिज़ न घुसने दें जिनका आना तुम्हें नागवार हो। और सुनो, उनका तुमपर यह हक़ है कि तुम उन्हें अच्छा खिलाओ और अच्छा पहनाओ।" (रियाज़ुस्सालिहीन)

यानी उनके ख़िलाने-पिलाने का ऐसा इन्तिज़ाम कीजिए जो मियाँ-बीवी के बेमिसाल क़रीबी, दिली ताल्लुक़ात और साथ रहने के जज़्बे की शान के मुताबिक़ हो।

2. जहाँ तक हो सके बीवी से ख़ुशगुमान रहिए और उसी के साथ निबाह करने में बरदाश्त करने और ऊँचा हौसला दिखानेवाले रवैए को अपनाइए। अगर उसमें शक्ल व सूरत या आदत व अख़लाक़ या सलीक़ा और हुनर के एतिबार से कोई कमज़ोरी भी हो तो सब्र के साथ उसे पी जाइए और उसकी ख़ूबियों पर निगाह रखते हुए खुले दिल और ऊँचे हौसले के साथ त्याग और सुलह से काम लीजिए। ख़ुदा का इरशाद है—

"और सुलह भलाई ही है।"

और ईमानवालों को हिदायत की गई है—

“फिर अगर वे तुम्हें (किसी वजह से) नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो, पर ख़ुदा ने उसमें (तुम्हारे लिए) बहुत कुछ भलाई रख दी हो।" (क़ुरआन, 4:19)

इसी बात को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक हदीस में यूँ कहा है—

"कोई ईमानवाला मर्द अपनी ईमानवाली बीवी से नफ़रत न करे। अगर बीवी की कोई आदत उसको नापसन्द है तो हो सकता है दूसरी आदत उसको पसन्द आ जाए।"

सच तो यह है कि हर औरत में किसी न किसी पहलू से कोई न कोई कमज़ोरी ज़रूर होगी और अगर शौहर किसी ऐब को देखते ही उसकी ओर से निगाहें फेर ले और दिल बुरा कर ले तो फिर किसी ख़ानदान में घरेलू ख़ुशगवारी मिल ही न सकेगी। हिकमत का तक़ाज़ा तो यही है कि आदमी दरगुज़र से काम ले और ख़ुदा पर भरोसा रखते हुए औरत के साथ ख़ुशदिली से निबाह करने की कोशिश करे। हो सकता है कि ख़ुदा उस औरत के वास्ते से मर्द को कुछ ऐसी भलाइयाँ दे दे, जिन तक मर्द की कोताह नज़र न पहुँच रही हो, जैसे औरत में दीन व ईमान और अमल की कुछ ऐसी खुली ख़ूबियाँ हों जिनकी वजह से वह पूरे ख़ानदान के लिए रहमत साबित हो या उसकी ज़ात से कोई ऐसी नेक रूह वुजूद में आए जो एक बड़ी आबादी को फ़ायदा पहुँचाए और रहती ज़िन्दगी के लिए बाप के हक़ में सदक़-ए-जारिया (जारी रहनेवाली नेकी) बने या औरत मर्द में सुधार लाने का ज़रिया बने और उसको जन्नत से क़रीब करने में मददगार साबित हो या फिर उसकी क़िस्मत से दुनिया में ख़ुदा उस मर्द को बहुत-सी रोज़ी और ख़ुशहाली दे। बहरहाल औरत के किसी ज़ाहिरी ऐब को देखकर बेसब्री के साथ मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ को बरबाद न कीजिए, बल्कि हिकमत के साथ-साथ धीरे-धीरे घर के माहौल को ज़्यादा से ज़्यादा ख़ुशगवार बनाने की कोशिश कीजिए।

3. माफ़ करने और मेहरबानी करने का रवैया अपनाइए और बीवी की कोताहियों, नादानियों और सरकशियों से आँखें चुरा जाइए। औरत सूझ-बूझ और अक़्ल के एतिबार से कमज़ोर और बहुत ही जज़्बाती होती है। इसलिए सब्र व सुकून, रहमत व मुहब्बत और दिल के ख़ुलूस के साथ उसको सुधारने की कोशिश कीजिए और सब्र व ज़ब्त से काम लेते हुए निबाह कीजिए।

ख़ुदा का इरशाद है—

"ईमानवालो! तुम्हारी कुछ बीवियाँ और कुछ औलादें तुम्हारी दुश्मन हैं, सो उनसे बचते रहो। अगर तुम माफ़ी, मेहरबानी, ख़ुलूस और दिल की गहराई से काम लो तो यक़ीन रखो कि ख़ुदा बहुत ही ज़्यादा रहम करनेवाला है।" (क़ुरआन, 64:14)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"औरतों के साथ अच्छा व्यवहार करो। औरत पसली से पैदा की गई है और पसलियों में सबसे ज़्यादा ऊपर का हिस्सा टेढ़ा है, उसको सीधा करोगे तो टूट जाएगी और अगर उसको छोड़े रहो तो टेढ़ी ही रहेगी, अत: औरतों के साथ अच्छा व्यवहार करो।" (मुस्लिम, बुख़ारी)

4. बीवी के साथ अच्छे अख़लाक़ का बरताव कीजिए और प्यार व मुहब्बत से पेश आइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“पूरे ईमानवाले मोमिन वही हैं जो अपने अख़लाक़ में सबसे अच्छे हों और तुममें सबसे अच्छे लोग वे हैं जो अपनी बीवियों के हक़ में सबसे अच्छे हों।" (तिरमिज़ी)

अपने अच्छे अख़लाक़ और नर्म मिज़ाज को जाँचने का असल मैदान घरेलू ज़िन्दगी है। घरवालों से ही हर वक़्त का वास्ता रहता है और घर की बेतकल्लुफ़ ज़िन्दगी में ही मिज़ाज व अख़लाक़ का हर रुख़ सामने आता है और यह हक़ीक़त है कि वही मोमिन अपने ईमान में पूरा है जो घरवालों के साथ अच्छे अख़लाक़, खुले दिल और मेहरबानी का बरताव करे, घरवालों का दिल रखे और प्यार व मुहब्बत से पेश आए।

एक बार हज के मौक़े पर हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) का ऊँट बैठ गया और वह सबसे पीछे रह गईं। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने देखा कि वह फूट-फूटकर रो रही हैं। आप रुक गए और अपने मुबारक हाथों से चादर का पल्लू लेकर उनके आँसू पोंछे। आप आँसू पोंछते जाते और वह बेइख़तियार रोती जाती थीं।

5. पूरे खुले दिल से अपनी ज़िन्दगी की साथी की ज़रूरतें पूरी कीजिए और ख़र्च में कभी तंगी न कीजिए, अपनी मेहनत की कमाई घरवालों पर ख़र्च करके सुकून और ख़ुशी महसूस कीजिए। खाना-कपड़ा बीवी का हक़ है और इस हक़ को हाथ खोलकर और दिल की गहराइयों के साथ अदा करने के लिए दौड़-धूप करना शौहर की बड़ी ख़ुशगवार ज़िम्मेदारी है। इस ज़िम्मेदारी को खुले दिल से अंजाम देने से न सिर्फ़ दुनिया में मियाँ-बीवी को भली ज़िन्दगीवाली नेमत मिलती है, बल्कि ईमानवाला आख़िरत में भी अज्र और इनाम का हक़दार बनता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“एक दीनार तो वह है जो तुमने ख़ुदा की राह में ख़र्च किया। एक दीनार वह है जो तुमने किसी ग़ुलाम को आज़ाद करने में लगाया। एक दीनार वह है जो तुमने किसी फ़क़ीर को सदक़े में दिया और एक दीनार वह है जो तुमने अपने घरवालों पर लगाया। इनमें सबसे ज़्यादा अज्र व सवाब उस दीनार के ख़र्च करने का है जो तुमने अपने घरवालों पर लगाया है।" (मुस्लिम)

6. बीवी को दीनी हुक्म और तहज़ीब सिखाइए, दीन की तालीम दीजिए, इस्लामी अख़लाक़ से सजाइए और उसकी तरबियत और सुधार के लिए हर मुमकिन कोशिश कीजिए ताकि वह एक अच्छी बीवी, अच्छी माँ और ख़ुदा की नेक बन्दी बन सके और अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह अदा कर सके। ख़ुदा का इरशाद है—

"ईमानवालो! अपने आपको और अपने घरवालों को जहन्नम की आग से बचाओ।"

(क़ुरआन, 66:6)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जिस तरह तबलीग़ व तालीम में लगे रहते थे, उसी तरह घर में भी इस ज़िम्मेदारी को अदा करते रहते। इसी की तरफ़ इशारा करते हुए क़ुरआन ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बीवियों को ख़िताब किया है—

“और तुम्हारे घरों में जो ख़ुदा की आयतें पढ़ी जाती हैं और हिक्मत की बातें सुनाई जाती हैं, उनको याद रखो।"

क़ुरआन में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के वास्ते से ईमानवालों को हिदायत की गई है—

“और अपने घरवालों को नमाज़ की ताकीद कीजिए और ख़ुद भी उसके पूरे पाबन्द रहिए।" (क़ुरआन, 20:132)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब कोई मर्द रात में अपनी बीवी को जगाता है और वे दोनों मिलकर दो रक्अत नमाज़ पढ़ते हैं तो शौहर का नाम ज़िक्र करनेवालों में और बीवी का नाम ज़िक्र करनेवालियों में लिखा जाता है।" (अबू दाऊद)

दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) रात में ख़ुदा के हुज़ूर खड़े इबादत करते रहते, फिर सहर का वक़्त आता तो अपनी बीवी को जगाते और कहते, उठो-उठो नमाज़ पढ़ो और फिर यह आयत भी पढ़ते—

वअ्-मुर अह-ल-क बिस्सलाति वस्-तबिर अलैहा। (क़ुरआन, 20:132)

“और अपने घरवालों को नमाज़ की ताकीद करो और उसपर जमे रहो।"

7. अगर कई बीवियाँ हों तो सबके साथ बराबरी का व्यवहार कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बीवियों के साथ बरताव में बराबरी का बड़ा एहतिमाम करते। सफ़र पर जाते तो क़ुरआ (पर्ची) डालते और क़ुरआ में जिस बीवी का नाम आता उसी को साथ ले जाते।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“अगर किसी आदमी की दो बीवियाँ हों और उसने उनके साथ इनसाफ़ और बराबरी का व्यवहार न किया तो क़ियामत के दिन वह आदमी इस हाल में आएगा कि उसका आधा धड़ गिर गया होगा।" (तिमिरज़ी)

इनसाफ़ और बराबरी से मतलब मामलों और बरतावों में बराबरी करनी है। रही यह बात कि किसी एक बीवी की ओर दिल का झुकाव और मुहब्बत के जज़्बे ज़्यादा हों तो यह इनसान के बस में नहीं है और उसपर ख़ुदा के यहाँ कोई पकड़ न होगी।

बीवी की जिम्मेदारियाँ

1. बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी अपने शौहर की इताअत कीजिए और इस इताअत में ख़ुशी और सुकून महसूस कीजिए, इसलिए कि यह ख़ुदा का हुक्म है और जो बन्दी ख़ुदा के हुक्म को पूरा करती है, वह अपने ख़ुदा को ख़ुश करती है। क़ुरआन में है—

"नेक बीवियाँ (शौहर की) इताअत करनेवाली होती हैं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“कोई औरत शौहर की इजाज़त के बिना रोज़ा न रखे।" (अबू दाऊद)

शौहर की इताअत और फ़रमाँबरदारी की अहमियत बताते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने औरत को तंबीह की है—

"दो क़िस्म के आदमी हैं जिनकी नमाज़ें उनके सिरों से ऊँची नहीं उठतीं– उस ग़ुलाम की नमाज़ जो अपने आक़ा से फ़रार हो जाए, जब तक वह लौट न आए और उस औरत की नमाज़ जो शौहर की नाफ़रमानी करे, जब तक कि शौहर की नाफ़रमानी से बाज़ न आ जाए।" (अत्तर्ग़ीब वत्तर्हीब)

2. अपनी आबरू और पाकदामनी की हिफ़ाज़त का एहतिमाम कीजिए और उन तमाम बातों और कामों से भी दूर रहिए जिनसे इज़्ज़त के दामन पर धब्बे का डर भी हो। ख़ुदा की हिदायत का तक़ाज़ा भी यही है और मियाँ-बीवीवाली ज़िन्दगी को बेहतर बनाए रखने के लिए भी यह इंतिहाई ज़रूरी है, इसलिए कि अगर शौहर के दिल में इस तरह का कोई शक पैदा हो जाए तो फिर औरत की कोई ख़िदमत व इताअत और कोई भलाई शौहर को अपनी ओर मायल नहीं कर सकती और इस मामले में मामूली-सी कोताही से भी शौहर के दिल में शैतान शक डालने में कामयाब हो जाता है। इसलिए इनसानी कमज़ोरी को निगाह में रखते हुए इंतिहाई एहतियात कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"औरत जब पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़े, अपनी आबरू की हिफ़ाज़त करे, अपने शौहर की फ़रमाँबरदार रहे तो वह जन्नत में जिस दरवाज़े से चाहे दाख़िल हो जाए।" (अत-तर्ग़ीब वत-तर्हीब)

3. शौहर की इजाज़त और मरज़ी के बग़ैर घर से बाहर न जाइए और न ऐसे घरों में जाइए जहाँ शौहर आपका जाना पसन्द न करे और न ऐसे लोगों को अपने घरों में आने की इजाज़त दीजिए जिनका आना शौहर को नागवार हो।

हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“ख़ुदा पर ईमान रखनेवाली औरत के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह अपने शौहर के घर में किसी ऐसे आदमी को आने की इजाज़त दे जिसका आना शौहर को नागवार हो और वह घर से ऐसी हालत में निकले जबकि उसका निकलना शौहर को नागवार हो और औरत शौहर के मामले में किसी दूसरे का कहा न माने।” (अत-तर्ग़ीब वत-तर्हीब)

यानी शौहर के मामले में शौहर की मरज़ी और इशारे पर ही अमल कीजिए और उसके ख़िलाफ़ हरगिज़ दूसरों के मशविरे को न अपनाइए।

4. हमेशा अपनी बातों, कामों और तौर-तरीक़ों से शौहर को ख़ुश रखने की कोशिश कीजिए। मियाँ-बीवी की कामयाब ज़िन्दगी का राज़ भी यही है और ख़ुदा की रिज़ा और जन्नत के हासिल करने का रास्ता भी यही है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिस औरत ने भी इस हाल में इन्तिक़ाल किया कि उसका शौहर उससे राज़ी और ख़ुश था तो वह जन्नत में दाख़िल होगी।" (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जब कोई आदमी अपनी बीवी को वासना पूर्ति के लिए बुलाए और वह न आए और इस कारण शौहर रात भर उससे खफ़ा रहे तो ऐसी औरत पर सुबह तक फ़रिश्ते लानत करते रहते हैं।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

5. अपने शौहर से मुहब्बत कीजिए और उसका साथ पाने की क़द्र कीजिए। यह ज़िन्दगी की ज़ीनत का सहारा और बड़ा मददगार है। ख़ुदा की इस बड़ी नेमत पर ख़ुदा का भी शुक्र अदा कीजिए और इस नेमत की भी दिल व जान से क़द्र कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक मौक़े पर फ़रमाया—

“निकाह से बेहतर कोई चीज़ दो मुहब्बत करनेवालों के लिए नहीं पाई गई।"

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से बेइंतिहा मुहब्बत थी। चुनाँचे जब आप बीमार हुए तो बड़ी ख़ुशी के साथ बोलीं, “काश! आपके बजाए मैं बीमार होती।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दूसरी बीवियों ने मुहब्बत के इस तरह ज़ाहिर करने पर ताज्जुब से उनकी ओर देखा तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"दिखावा नहीं है, बल्कि सच कह रही हैं।"

6. शौहर का एहसान मानिए। उसकी शुक्र गुज़ार रहिए। आपका सबसे बड़ा हमदर्द आपका शौहर ही तो है जो हर तरह आपको ख़ुश करने में लगा रहता है। आपकी हर ज़रूरत को पूरा करता है और आप को हर तरह का आराम पहुँचाकर आराम महसूस करता है।

हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरे पास से गुज़रे। मैं अपनी पड़ोसी सहेलियों के साथ थी। आपने हमें सलाम किया और इरशाद फ़रमाया—

"तुमपर जिसका एहसान है उनकी नाशुक्री से बचो। तुममें की एक अपने माँ-बाप के यहाँ काफ़ी दिनों तक बिन ब्याही बैठी रहती है, फिर ख़ुदा उसको शौहर अता फ़रमाता है, फिर ख़ुदा उसको औलाद देता है। (इन तमाम एहसानों के बावजूद) अगर कभी किसी बात पर शौहर से ख़फ़ा होती है तो कह उठती है: मैंने तो कभी तुम्हारी तरफ़ से भलाई देखी ही नहीं।" (अल-अदबुल मुफ़्रद)

नाशुक्रगुज़ार और एहसान भूल जानेवाली बीवी को तंबीह करते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"ख़ुदा क़ियामत के दिन उस औरत की ओर नज़र उठाकर भी न देखेगा जो शौहर की नाशुक्रगुज़ार होगी, हालाँकि औरत किसी वक़्त भी शौहर से बेनियाज़ नहीं हो सकती।" (नसई)

7. शौहर की ख़िदमत करके ख़ुशी महसूस कीजिए और जहाँ तक हो सके ख़ुद तकलीफ़ उठाकर शौहर को आराम पहुँचाइए और हर तरह उसकी ख़िदमत करके उसका दिल अपने हाथ में ले लेने की कोशिश कीजिए।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपने हाथ से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कपड़े धोतीं, सिर में तेल लगातीं, कंघा करतीं, ख़ुश्बू लगातीं और यही हाल अपने शौहरों के साथ दूसरी सहाबिया औरतों का भी था।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"किसी इनसान के लिए यह जायज़ नहीं कि वह किसी दूसरे इनसान को सज्दा करे। अगर इसकी इजाज़त होती तो बीवी को हुक्म दिया जाता कि वह अपने शौहर को सज्दा करे। शौहर का अपनी बीवी पर भारी हक़ है, इतना भारी हक़ कि अगर शौहर का सारा जिस्म घायल हो और बीवी शौहर के घायल जिस्म को ज़बान से चाटे, तब भी शौहर का हक़ अदा नहीं हो सकता।" (मुस्नद अहमद)

8. शौहर के घर-बार और माल व अस्बाब की हिफ़ाज़त कीजिए। शादी के बाद शौहर के घर को ही अपना घर समझिए और शौहर के माल को शौहर के घर की रौनक़ बढ़ाने, शौहर की इज़्ज़त बनाने और उसके बच्चों का भविष्य सँवारने में हिकमत, किफ़ायत और सलीक़े से ख़र्च कीजिए। शौहर की तरक़्क़ी और ख़ुशहाली को अपनी तरक़्क़ी और ख़ुशहाली समझिए। क़ुरैश की औरतों की तारीफ़ करते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"क़ुरैश की औरतें क्या ही ख़ूब औरतें हैं, बच्चों पर निहायत मेहरबान हैं और शौहर के घरबार की इंतिहाई हिफ़ाज़त करनेवाली हैं।" (बुख़ारी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नेक बीवियों की ख़ूबियाँ बयान करते हुए फ़रमाया—

“मोमिन के लिए अल्लाह के डर के बाद सबसे ज़्यादा फ़ायदेमंद और भलाई से भरी नेमत नेक बीवी है कि जब वह उससे किसी काम को कहे तो वह ख़ुशदिली से अंजाम दे और जब वह उसपर निगाह डाले तो वह उसको (अपनी अदा से) ख़ुश कर दे और जब वह उसके भरोसे पर क़सम खा बैठे तो वह उसकी क़सम पूरी कर दे और जब वह कहीं चला जाए तो वह उसके पीछे अपनी इज़्ज़त व आबरू की हिफ़ाज़त करे और शौहर के माल और सामान की निगरानी में शौहर की भलाई चाहनेवाली और वफ़ादार रहे।" (इब्ने माजा)

9. सफ़ाई, सलीक़ा और साज-सज्जा का भी पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए। घर को भी साफ़-सुथरा रखिए और हर चीज़ को सलीक़े से सजाइए और सलीक़े से इस्तेमाल कीजिए। साफ़-सुथरा घर, क़रीने से सजे हुए साफ़-सुथरे कमरे, घरेलू कामों में सलीक़ा और सुघड़पन, बनाव-सिंगार की हुई बीवी की पाकीज़ा मुस्कुराहट से न सिर्फ़ घरेलू ज़िन्दगी प्यार व मुहब्बत और ख़ैर व बरकत से मालामाल होती है, बल्कि एक बीवी के लिए अपनी आख़िरत बनाने और ख़ुदा को ख़ुश करने का भी यही ज़रिया है।

एक बार बेगम उसमान बिन मज़ऊन (रज़ियल्लाहु अन्हु) से हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की मुलाक़ात हुई तो उन्होंने देखा कि बेगम उसमान बड़े सादा कपड़ों में हैं और कोई बनाव-सिंगार भी नहीं किया है तो हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को बहुत ताज्जुब हुआ और उनसे पूछा—

“बहन क्या उसमान कहीं बाहर सफ़र पर गए हुए हैं?" इस ताज्जबु से अंदाज़ा कीजिए कि सुहागनों का अपने शौहरों के लिए बनाव-सिंगार करना कैसा पसंदीदा काम है।

25. औलाद की परवरिश के आदाब

1. औलाद को ख़ुदा का इनाम समझिए। उनके पैदा होने पर ख़ुशी मनाइए। ख़ैर व बरकत की दुआओं के साथ स्वागत कीजिए और ख़ुदा का शुक्र अदा कीजिए कि उसने आपको अपने एक बन्दे की परवरिश की तौफ़ीक़ बख़्शी और यह मौक़ा दिया कि आप अपने पीछे अपने दीन व दुनिया का जानशीन छोड़ जाएँ।

2. औलाद न हो तो ख़ुदा से नेक औलाद के लिए दुआ कीजिए, जिस तरह ख़ुदा के बुज़ुर्ग पैग़म्बर हज़रत ज़करिया (अलैहिस्सलाम) ने नेक औलाद के लिए दुआ फ़रमाई—

“मेरे पालनहार तू अपने पास से मुझे पाकबाज़ औलाद दे, बेशक तू दुआ का सुननेवाला है।" (क़ुरआन, 3:38)

3. औलाद की पैदाइश पर कभी दिल तंग न हो। खाने-पीने की तंगी या सेहत की ख़राबी या किसी और वजह से औलाद की पैदाइश पर कुढ़ने या उसको अपने हक़ में एक मुसीबत समझने से सख़्ती से परहेज़ कीजिए।

4. औलाद को कभी बरबाद न कीजिए। पैदा होने से पहले या पैदा होने के बाद औलाद को बरबाद करना बदतरीन संगदिली, भयानक ज़ुल्म, भारी बुज़दिली और दोनों दुनिया की तबाही है। ख़ुदा का इरशाद है—

“वे लोग इंतिहाई घाटे में हैं, जिन्होंने अपनी औलाद को नासमझी में अपनी मूर्खता से मौत के घाट उतार दिया।" (क़ुरआन, 6:140)

और ख़ुदा ने इनसानी कोताह नज़री का मनभावन जवाब देते हुए साफ़-साफ़ मना फ़रमाया है कि अपनी औलाद को क़त्ल न करो।

“और अपनी औलाद को फ़क़्र व फ़ाक़े के डर से क़त्ल न करो। हम उनको भी रोज़ी देंगे और हम ही तुम्हें भी रोज़ी दे रहे हैं। सच तो यह है कि औलाद का क़त्ल करना बहुत बड़ा गुनाह है।" (क़ुरआन, 17:31)

एक बार एक सहाबी ने पूछा— “ऐ अल्लाह के रसूल! सबसे बड़ा गुनाह क्या है?" फ़रमाया—“शिर्क।” पूछा, "इसके बाद?" फ़रमाया— "माँ-बाप की नाफ़रमानी!" फिर पूछा, “इसके बाद?" फ़रमाया, “तुम अपनी औलाद को इस डर से मार डालो कि वह तुम्हारे साथ खाएगी।"

5. जन्म के वक़्त जन्म देनेवाली औरत के पास आयतुल कुर्सी और सूरा आराफ़ की नीचे लिखी हुई दो आयतों की तिलावत कीजिए और सूरा फलक़ और सूरा नास पढ़-पढ़कर दम कीजिए।

अल्लाहु ला इला-ह इल्ला हु-वल हय्युल क़य्यूम, ला ताख़ुज़ुहू सि-नतुंव व ला नौम, लहू मा फ़िस्समावाति व मा फ़िल अर्ज़, मन ज़ल्लज़ी यश्फ़उ इन्-दहू इल्ला बिइज़्निही यअ-लमु मा बै-न ऐदीहिम व मा ख़ल-फ़हुम, वला युहीतू-न बिशैइम मिन इल्मिही इल्ला बिमा शा-अ, वसि-अ कुर्सिय्युहुस्समावाति वल अर्-ज़, वला यऊदुहू हिफ़्ज़ुहुमा व हु-वल अलिय्युल अज़ीम। (क़ुरआन, 2:255)

"ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं है, वह ज़िन्दा-ए-जावेद, कायनात (दुनिया) के निज़ाम को सम्भाले हुए है, न वह सोता है, न उसे नींद आती है। आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है उसी का है, कौन है जो उसके हुज़ूर उसकी इजाज़त के बग़ैर सिफ़ारिश कर सके। जो कुछ बन्दों के सामने है, उसे भी वह जानता है और जो कुछ उससे ओझल है, उसे भी वह जानता है और इनसान उसके इल्म में से किसी बात को भी घेरे में नहीं ले सकता सिवाए उसके कि जितना इल्म वह ख़ुद इनसान को देना चाहे, उसकी हुकूमत आसमान और ज़मीन पर छाई हुई है और उसकी हिफ़ाज़त व निगहबानी उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं। वह बड़ा ही ऊँचे रुत्बेवाला और बुज़ुर्गीवाला है।"

सूरा आराफ़ की दो आयतें ये हैं—

इन्-न रब्बकुमुल्लाहुल्लज़ी ख़-ल-क़स्समावाति वल अर-ज़ फ़ी सित्तति अय्यामिन सुम्मस-तवा अलल अर्श, युग़शिल लैलन्नहा-र यतलुबुहू हसीसंव वश्शम-स वल क़-म-र वन्नुजू-म मुसख़्ख़रातिम बिअमरिही, अला लहुल ख़ल्क़ु वल अम्र, तबा-रकल्लाहु रब्बुल आलमीन। उद-ऊ रब्बकुम त-ज़र्रुअंव- व ख़ुफ़-यह, इन्नहू ला युहिब्बुल मुअ-तदीन। (क़ुरआन, 7:54:55)

"हक़ीकत यह है कि ख़ुदा ही तुम्हारा परवरदिगार है, जिसने आसमानों और ज़मीनों को छः दिन में पैदा किया, फिर अपने सिंहासन पर आसीन हुआ। वही रात को दिन पर ढाँप देता है और फिर दिन-रात के पीछे दौड़ा चला आता है। उसी ने सूरज चाँद और तारे पैदा किए जो उसके हुक्म से काम में लगे हुए हैं। सुन रखो, उसी का काम है पैदा करना और उसी का हक़ है हुक्म देना। पर क्या ही बरकतवाला है ख़ुदा, सारे जहानों का मालिक और परवरदिगार! अपने पालनहार को पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके। बेशक, वह हद से गुज़रनेवालों को पसन्द नहीं करता।"

6. जन्म के बाद नहला-धुलाकर दाहिने कान में अज़ान और बाएँ कान में इक़ामत कहिए। जब हज़रत हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) का जन्म हुआ तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अज़ान व इक़ामत फ़रमाई। (तबरानी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि जिसके यहाँ बच्चे का जन्म हो और वह उस बच्चे के दाहिने कान में अज़ान और बाएँ कान में इक़ामत कहे तो बच्चा 'उम्मुस्सिबयान' (इस मर्ज़ में बच्चे बेहोश हो जाते हैं) की तकलीफ़ से बचा रहेगा। (अबू यअला इब्ने सुन्नी)

पैदा होते ही बच्चे के कान में ख़ुदा और रसूल का नाम पहुँचाने में बड़ी हिकमत है। अल्लामा इब्ने क़य्यिम अपनी किताब 'तोहफ़तुल वदूद' में फ़रमाते हैं—

"इसका मतलब यह है कि इनसान के कान में सबसे पहले अल्लाह की बड़ाई की आवाज़ पहुँचे और जिस गवाही को वह सोच-समझकर अदा करने के बाद इस्लाम में दाख़िल होगा, उसकी हिदायत पैदाइश के दिन ही से की जाए, जिस तरह मरने के वक़्त उसको तौहीद के कलिमों की ताकीद की जाती है। अज़ान और इक़ामत का दूसरा फ़ायदा यह भी है कि शैतान जो घात में बैठा होता है और चाहता है कि पैदा होते ही इनसान को आज़माइश में डाले, अज़ान सुनते ही भाग जाता है और शैतान की दावत से पहले बच्चे को इस्लाम और अल्लाह की इबादत की दावत दे दी जाती है।"

7. अज़ान व इक़ामत के बाद किसी नेक मर्द या औरत से तहनीक कीजिए यानी खजूर वग़ैरह चबवाकर बच्चे के तालू में लगवाइए और बच्चे के लिए ख़ैर व बरकत की दुआ कीजिए और कराइए। हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब पैदा हुए तो मैंने उनको नबी की गोद में दिया। आपने ख़ुरमा मँगवाया और चबाकर मुबारक लुआब अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के मुँह में लगा दिया और ख़ुरमा उनके तालू में मला और ख़ैर व बरकत की दुआ फ़रमाई।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के यहाँ बच्चे लाए जाते थे। आप तह्नीक फ़रमाते और उनके हक़ में ख़ैर व बरकत की दुआ करते। (मुस्लिम)

हज़रत इमाम अहमद बिन हंबल (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ बच्चे का जन्म हुआ तो उन्होंने उनकी तह्नीक के लिए मक्के की खजूर मँगवाई जो आपके घर में मौजूद थी और एक नेक बीवी उम्मे अली (रहमतुल्लाह अलैहा) से तहनीक की दरख़ास्त की।

8. बच्चे के लिए अच्छा-सा नाम तज्वीज़ कीजिए जो या तो पैग़म्बरों के नाम पर हो या ख़ुदा के नाम से पहले अब्द लगाकर बनाया गया हो, जैसे अब्दुल्लाह, अब्दुर्रहमान वग़ैरह।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"क़ियामत के दिन तुम्हें अपने-अपने नामों से पुकारा जाएगा। इसलिए बेहतर नाम रखा करो।" (अबू दाऊद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का यह भी इरशाद है कि ख़ुदा को तुम्हारे नामों में से अब्दुल्लाह और अब्दुर्रहमान सबसे ज़्यादा पसन्द है और आपने यह भी फ़रमाया है कि नबियों के नामों पर नाम रखो।

बुख़ारी में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“मेरे नाम पर नाम रखो, मेरी कुन्नियत पर मत रखो।”

9. अगर कभी अनजाने में ग़लत नाम रख दिया हो तो उसको बदलकर अच्छा नाम रख दीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ग़लत नाम को बदल दिया करते थे। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की एक साहबज़ादी का नाम आसिया था, आपने बदलकर जमीला रख दिया। (मुस्लिम)

हज़रत ज़ैनब अबू सलमा की बेटी थीं। उनका नाम बिर्रा था। बिर्रा का अर्थ है 'पाकबाज़'। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह सुना तो फ़रमाया—

"ख़ुद ही अपनी पाकबाज़ी का दम भरती हो?" लोगों ने कहा, "फिर क्या नाम रखें?" आपने फ़रमाया, 'ज़ैनब' नाम रखो।" (अबू दाऊद)

10. सातवें दिन अक़ीक़ा कीजिए। लड़के की तरफ़ से दो बकरे और लड़की की तरफ़ से एक बकरा कीजिए, लेकिन लड़के की तरफ़ से दो बकरे करना ज़रूरी नहीं है, एक बकरा भी कर सकते हैं और बच्चे के बाल मुंडवाकर उसके बराबर सोना या चाँदी भी ख़ैरात कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सातवें दिन बच्चे का नाम तज्वीज़ किया जाए और उसके बाल वग़ैरह उतरवाकर उसकी ओर से अक़ीक़ा किया जाए।" (तिर्मिज़ी)

(अक़ीक़े की दुआ आगे देखिए)

11. सातवें दिन ख़तना भी करा दीजिए, लेकिन किसी वजह से न कराएँ तो सात साल की उम्र के अन्दर-अन्दर ज़रूर करा दें। ख़तना इस्लामी पहचान है और सफ़ाई व सेहत के लिहाज़ से भी बेहतर है।

12. जब बच्चा बोलने लगे तो सबसे पहले उसको 'ला इला-ह इल्लल्लाह' सिखाइए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब तुम्हारी औलाद बोलने लगे तो उसको 'ला इला-ह इल्लल्लाह' सिखा दो, फिर मत परवाह करो कि कब मरे, और जब दूध के दाँत गिर जाएँ तो नमाज़ का हुक्म दो।" (इब्ने सुन्नी)

हदीस में यह भी है कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़ानदान में जब किसी बच्चे की ज़बान खुल जाती तो आप उसको सूरा फ़ुरक़ान की दूसरी आयत सिखाते, जिसमें तौहीद की पूरी तालीम को बड़ी ख़ूबी के साथ समेट दिया गया है—

अल्लज़ी लहू मुल्कुस्समावाति वल-अर्ज़ि व लम यत्तख़िज़ व-ल-दंव व लम यकुल्लहू शरीकुन फ़िल मुल्कि व ख़-ल-क़ कुल्-ल शैइन फ़-क़द्-द-रहू तक़दीरा। (क़ुरआन, 25:2)

"वह ख़ुदा जो आसमानों और ज़मीन की बादशाही का मालिक है, जिसने किसी को बेटा नहीं बनाया है, जिसके साथ बादशाही में कोई शरीक नहीं है, जिसने हर चीज़ पैदा की और फिर उसकी मुनासिब तक़दीर मुक़र्रर फ़रमाई।”

13. बच्चे को अपना दूध भी पिलाइए। माँ पर बच्चे का यह हक़ है। क़ुरआन ने औलाद को माँ का यही एहसान याद दिलाकर माँ के साथ ग़ैर-मामूली अच्छा बरताव करने की ताकीद की है। माँ का फ़र्ज़ यह है कि वह बच्चे को अपने दूध के एक-एक क़तरे के साथ तौहीद का सबक़, रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इश्क़ और दीन की मुहब्बत भी पिलाए और इस मुहब्बत को उसके क़ल्ब व रूह में बसाने की कोशिश करे। परवरिश की ज़िम्मेदारी आया (दाई) पर डालकर अपना बोझ न हल्का कीजिए, बल्कि इस बेहतर दीनी फ़रीज़े को ख़ुद अंजाम देकर रूहानी सुकून और ख़ुशी महसूस कीजिए।

14. बच्चों को डराने से बचिए। बचपन का यह डर सारी उम्र ज़ेहन व दिमाग़ पर छाया रहता है और ऐसे बच्चे आम तौर से ज़िन्दगी में कोई बड़ा कारनामा अंजाम देने के लायक़ नहीं रहते।

15. औलाद को बात-बात पर डाँटने, झिड़कने और बुरा-भला कहने से सख़्ती से परहेज़ कीजिए और उनकी कोताहियों पर बेज़ार होने और नफ़रत ज़ाहिर करने के बजाए पूरी हिकमत के साथ उनकी तरबियत करने की मुहब्बत भरी कोशिश कीजिए और अपने कामों से बच्चों के ज़ेहन पर यह डर बहरहाल ग़ालिब रखिए कि उनकी कोई शरीअत के खिलाफ़ बात आप हरगिज़ बरदाश्त न करेंगे।

16. औलाद के साथ हमेशा प्यार, मुहब्बत और नर्मी का बरताव कीजिए और ज़रूरत और हैसियत के मुताबिक़ उनकी ज़रूरतें पूरी करके उनको ख़ुश रखिए और इताअत और फ़रमाँबरदारी के जज़्बे उभारिए।

एक बार हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अहनफ़ बिन क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछा “कहिए, औलाद के सिलसिले में क्या सुलूक होना चाहिए?" अहनफ़ बिन क़ैस ने कहा—

“अमीरुल मोमिनीन! औलाद हमारे दिलों का फल है; कमर की टेक है, हमारी हैसियत उनके लिए ज़मीन की तरह है; जो निहायत नर्म और ग़ैर नुक़सानदेह है, और हमारा वुजूद उनके लिए फैले हुए आसमान की तरह है और हम इन्हीं के ज़रिए बड़े-बड़े काम अंजाम देने की हिम्मत करते हैं; अतः अगर ये आपसे कुछ माँगें तो उनको ख़ूब दीजिए और अगर कभी दिल बुझ जाए तो उनके दिलों का ग़म दूर कीजिए। नतीजे में वे आपसे मुहब्बत करेंगे; आपकी बापवाली कोशिशों को पसन्द करेंगे और कभी उनपर न सहने के क़ाबिल बोझ न बनिए कि वे आपकी ज़िन्दगी से उकता जाएँ और आपकी मौत चाहने लगें; आपके क़रीब आने से नफ़रत करें।"

हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर इन हिक्मत भरी बातों का बड़ा असर हुआ और फ़रमाया—

“अहनफ़! ख़ुदा की क़सम जिस वक़्त आप मेरे पास आकर बैठे, मैं यज़ीद के ख़िलाफ़ ग़ुस्से में भरा बैठा था।"

फिर जब हज़रत अहनफ़ तशरीफ़ ले गए तो हज़रत मुआविया का ग़ुस्सा ठंडा हो गया और यज़ीद से राज़ी हो गए और उसी वक़्त यज़ीद को दो सौ दिरहम और दो सौ जोड़े भिजवाए। यज़ीद के पास जब ये तोहफ़े पहुँचे तो यज़ीद ने ये तोहफ़े दो बराबर-बराबर हिस्सों में बाँट कर सौ दिरहम और सौ जोड़े हज़रत अहनफ़ बिन क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िदमत में भिजवा दिए।

17. छोटे बच्चों के सिर पर मुहब्बत से हाथ फेरिए, बच्चों को गोद में लीजिए, प्यार कीजिए और उनके साथ खेलिए। हर वक़्त सख़्त और खुर्रे मिज़ाज हाकिम न बने रहिए कि इस तरह बच्चों के दिल में माँ-बाप के लिए मुहब्बत का बेपनाह जज़्बा पैदा नहीं होता। उनके भीतर अपने पर भरोसा भी नहीं पैदा होता और उनके स्वाभाविक लालन-पालन पर भी अच्छा असर नहीं पड़ता।

एक बार हज़रत अक़रा बिन हाबिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आए। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उस वक़्त हज़रत हसन (रज़ियल्लाहु अन्हु) को प्यार कर रहे थे। अक़रा को देखकर ताज्जुब हुआ और बोले—

“ऐ अल्लाह के रसूल! आप भी बच्चों को प्यार करते हैं? मेरे तो दस बच्चे हैं, लेकिन मैंने तो कभी किसी को प्यार नहीं किया।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अक़रा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ओर नज़र उठाई और फ़रमाया, “अगर ख़ुदा ने तुम्हारे दिल से रहमत और मुहब्बत को निकाल दिया है तो मैं क्या कर सकता हूँ।"

हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दौर में हज़रत आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) किसी अहम ओहदे (पद) पर थे। एक बार हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से मिलने के लिए उनके घर पहुँचे। क्या देखते हैं कि हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) लेटे हुए हैं और बच्चे सीने पर चढ़े हुए खेल रहे हैं। हज़रत आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यह बात कुछ बोझ मालूम हुई। अमीरुल मोमिनीन ने पेशानी के उतार-चढ़ाव से उनकी नागवारी को भाँप लिया और हज़रत आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से बोले, “कहिए। आपका अपने बच्चों के साथ कैसा बरताव रहता है?"

आमिर को मौक़ा मिल गया। बोले, "अमीरुल मोमिनीन जब मैं घर में दाख़िल होता हूँ तो घरवालों पर ख़ामोशी छा जाती है। सब अपनी-अपनी जगह दम साधकर चुप हो जाते हैं।" हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने बड़े सोज़ के साथ कहा—

“आमिर! आप उम्मते मुहम्मदिया के बेटे होते हुए भी यह नहीं जानते कि मुसलमान को अपने घरवालों के साथ किस तरह नर्मी और मुहब्बत का सुलूक करना चाहिए।"

18. औलाद को पाकीज़ा तालीम व तरबियत से सजाने के लिए अपनी सारी कोशिश वक़्फ़ कर दीजिए और इस राह में बड़ी से बड़ी क़ुरबानी से भी झिझकिए नहीं। यह आपकी दीनी ज़िम्मेदारी भी है, औलाद के साथ भारी एहसान भी और अपनी ज़ात के साथ सबसे बड़ी भलाई भी।

क़ुरआन में है—

"ईमानवालो! बचाओ अपने आपको और अपने घरवालों को जहन्नम की आग से।" (क़ुरआन, 66:6)

और जहन्नम की आग से बचने का एक मात्र रास्ता यह है कि आदमी दीन का ज़रूरी इल्म रखता हो और उसकी ज़िन्दगी ख़ुदा और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की इताअत व फरमाँबरदारी में गुज़र रही हो।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“बाप अपनी औलाद को जो कुछ दे सकता है उसमें सबसे बेहतर भेंट औलाद की अच्छी तालीम व तरबियत है।" (मिश्कात)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया कि जब इनसान मर जाता है तो उसका अमल ख़त्म हो जाता है, लेकिन तीन क़िस्म के अमल ऐसे हैं कि उनका अज्र व सवाब मरने के बाद भी मिलता रहता है—

एक यह कि वह सदक़-ए-जारिया कर जाए,

दूसरे यह कि वह ऐसा इल्म छोड़ जाए जिससे लोग फ़ायदा उठाएँ,

तीसरे नेक औलाद जो बाप के लिए दुआ करती रहे। (मुस्लिम)

असल में औलाद ही आपके बाद आपकी तहज़ीबी रिवायतों, दीनी तालीम और तौहीद के पैग़ाम को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है और मोमिन नेक औलाद की आरज़ूएँ इसलिए करता है ताकि वह उसके बाद उसके पैग़ाम को ज़िन्दा रख सके।

19. बच्चे जब सात साल के हो जाएँ तो उनको नमाज़ सिखाइए, नमाज़ पढ़ने की ताकीद कीजिए और अपने साथ मस्जिद ले जाकर शौक़ पैदा कीजिए और जब वे दस साल के हो जाएँ और नमाज़ में कोताही करें तो उन्हें मुनासिब सज़ा भी दीजिए और अपने क़ौल व अमल से उनपर खोल दीजिए कि नमाज़ में कोताही को आप सहन न करेंगे।

20. बच्चे जब दस साल के हो जाएँ तो उनके बिस्तर अलग कर दीजिए और हर एक को अलग-अलग चारपाई पर सुलाइए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“अपनी औलाद को नमाज़ पढ़ने की ताकीद करो, जब वे सात साल के हो जाएँ, और नमाज़ के लिए उनको सज़ा दो जब वे दस साल के हो जाएँ और इस उम्र में पहुँचने के बाद उनके बिस्तर अलग कर दो।"

21. बच्चों को हमेशा साफ़-सुथरा रखिए। उनकी पाकी, सफ़ाई और नहाने वग़ैरह का ख़याल रखिए। कपड़े भी पाक-साफ़ रखिए, लेकिन ज़्यादा बनाव-सिंगार और दिखावे से ख़ुद बचिए और बच्चों को भी बचाइए। लड़की के कपड़े बहुत सादा रखिए और तड़क-भड़क कपड़े पहनाकर बच्चों के मिज़ाज ख़राब न कीजिए।

22. दूसरों के सामने बच्चों के ऐब न बयान कीजिए और किसी के सामने उनको शर्मिन्दा करने और उनकी ग़ैरत (स्वाभिमान) को ठेस लगाने से भी सख़्ती के साथ परहेज़ कीजिए।

23. बच्चों के सामने कभी बच्चों के सुधार से निराशा न ज़ाहिर कीजिए बल्कि उनकी हिम्मत बढ़ाने के लिए उनकी मामूली अच्छाइयों की भी दिल खोलकर तारीफ़ कीजिए। हमेशा उनका दिल बढ़ाने और उनमें अपने आप में यक़ीन और हौसला पैदा करने की कोशिश कीजिए, ताकि ये ज़िन्दगी के मैदान में ऊँची से ऊँची जगह हासिल कर सकें।

24. बच्चों को नबियों के क़िस्से, नेक लोगों की कहानियाँ और सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के मुजाहिदाना कारनामे ज़रूर सुनाते रहें। तरबियत व तहज़ीब के लिए, चरित्र बनाने के लिए और दीन से लगाव पैदा करने के लिए इसको बहुत ज़रूरी समझिए और हज़ार कामों के बावजूद इसके लिए वक़्त निकालिए। बार-बार उनको क़ुरआन पाक भी अच्छी आवाज़ में पढ़कर सुनाइए और मौक़ा-मौक़ा से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की असरदार बातें भी बताइए और शुरू ही से उनके दिलों में रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तड़प पैदा करने की कोशिश कीजिए।

25. कभी-कभी बच्चों के हाथ से ग़रीबों को कुछ खाना या पैसा वग़ैरह भी दिलवाइए, ताकि उनमें ग़रीबों के साथ सुलूक और ख़ैर-ख़ैरात का जज़्बा पैदा हो और कभी-कभी यह मौक़ा भी जुटाइए कि खाने-पीने की चीज़ें बहन-भाई में ख़ुद ही बाँटें, ताकि एक-दूसरे के हक़ों का एहसास और इनसाफ़ की आदत पैदा हो।

26. बच्चों की हर सही-ग़लत ज़िद पूरी न कीजिए बल्कि हिकमत के साथ उनकी यह आदत छुड़ाने की कोशिश कीजिए। कभी-कभी मुनासिब सख़्ती भी कीजिए, बेजा लाड-प्यार से उनको ज़िद्दी और सरकाश न बनाइए।

27. कड़ी आवाज़ से बोलने और गला फ़ाड़कर चीख़ने-चिल्लाने से ख़ुद भी बचिए और उनको भी ताकीद कीजिए कि दरमियानी आवाज़ में नर्मी के साथ बातें करें और आपस में भी एक-दूसरे पर चीख़ने-चिल्लाने से सख़्ती के साथ बचें।

28. बच्चों को आदत डालिए कि अपना काम अपने हाथ से करें। हर काम में नौकरों का सहारा न लें। इससे बच्चे सुस्त, काहिल और अपंग बन जाते हैं। बच्चों को जफ़ाकश, मेहनती और सख़्त कोशिश करनेवाला बनाइए।

29. बच्चों में आपसी लड़ाई हो जाए तो अपने बच्चे की बेजा हिमायत न कीजिए। यह ख़याल रखिए कि अपने बच्चे के लिए आपके सीने में जो भावनाएँ हैं वही भावनाएँ दूसरों के सीने में अपने बच्चों के लिए भी हैं। आप हमेशा अपने बच्चे की ग़लतियों पर निगाह रखिए और हर पेश आनेवाली अनचाही घटना में अपने बच्चे की कोताही और ग़लती की खोज लगाकर हिकमत और बराबर तवज्जोह से उसको दूर करने की ज़ोरदार कोशिश कीजिए।

30. औलाद के साथ हमेशा बराबरी का सुलूक कीजिए और इस मामले में बीच का रास्ता अपनाने की पूरी पूरी कोशिश कीजिए। अगर क़ुदरती तौरपर किसी एक बच्चे की ओर ज़्यादा झुकाव हो तो मजबूरी है, लेकिन सुलूक व बरताव और लेन-देन में हमेशा इनसाफ़ और बराबरी पर ध्यान दीजिए और कभी भी किसी एक के साथ ऐसा फ़र्क़ करनेवाला बरताव न कीजिए जिसको दूसरे बच्चे महसूस करें। इससे दूसरे बच्चों में हीन भाव, नफ़रत, निराशा और आख़िरकार बग़ावत पैदा होगी और ये बुरी भावनाएँ फ़ितरी सलाहियतों के परवान चढ़ने में ज़बरदस्त रुकावट और अख़लाक़ी और रूहानी तरक़्क़ी को हलाक कर देनेवाले ज़हर हैं।

एक बार हज़रत नोमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बाप हज़रत बशीर (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपने बेटे को साथ लिए हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! मेरे पास एक ग़ुलाम था वह मैंने अपने लड़के को बख़्श दिया।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा, “क्या तुमने अपने हर लड़के को एक-एक ग़ुलाम बख़्शा है।" बशीर बोले, "नहीं।" यह सुनकर हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि इस ग़ुलाम को वापस ले लो। और फ़रमाया, “ख़ुदा से डरो और अपनी औलाद के साथ बराबरी का सुलूक करो।" अब हज़रत बशीर (रज़ियल्लाहु अन्हु) घर वापस आए और नोमान से अपना दिया हुआ ग़ुलाम वापस ले लिया।

एक रिवायत में यह है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“तो फिर मुझे गुनाह पर गवाह न बनाओ क्योंकि मैं ज़ुल्म का गवाह न बनूँगा।"

और एक रिवायत में यह है कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा, “क्या तुम यह पसन्द करते हो कि सब लड़के तुम्हारे साथ अच्छा सुलूक करें।" हज़रत बशीर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! क्यों नहीं।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “फिर ऐसा मत करो।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

31. बच्चों के सामने हमेशा अच्छा अमली नमूना पेश कीजिए। आपकी ज़िन्दगी बच्चों के लिए हर वक़्त का एक ख़ामोश उस्ताद है जिससे बच्चे हर वक़्त पढ़ते और सीखते रहते हैं। बच्चों के सामने कभी मज़ाक़ में भी झूठ न बोलिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपना एक क़िस्सा बयान करते हैं कि एक दिन हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हमारे घर तशरीफ़ रखते थे। मेरी माँ ने मुझे बुलाया और कहा, “यहाँ आ, मैं तुझे एक चीज़ दूँगी।"

हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सुन लिया और पूछा, “तुम बच्चे को क्या देना चाहती हो?” माँ बोली, “मैं इसको खजूर देना चाहती हूँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने माँ से फ़रमाया—

अगर तुम देने का बहाना करके बुलातीं और बच्चे के आने पर कुछ न देतीं तो तुम्हारे आमालनामे में झूठ लिख दिया जाता। (अबू दाऊद)

32. लड़की के पैदा होने पर उसी तरह ख़ुशी मनाइए जिस तरह लड़के की पैदाइश पर मनाते हैं। लड़की हो या लड़का, दोनों ही ख़ुदा की देन हैं और ख़ुदा ही बेहतर जानता है कि आपके हक़ में लड़की अच्छी है या लड़का। लड़की की पैदाइश पर नाक-भौं चढ़ाना और दिल का टूटना सच्चे मोमिन के लिए क़तई मुनासिब नहीं है। यह नाशुक्री भी है और मेहरबान ख़ुदा की तौहीन भी।

हदीस में है—

“जब किसी के यहाँ लड़की पैदा होती है तो ख़ुदा उसके यहाँ फ़रिश्ते भेजता है जो आकर कहते हैं, ऐ घरवालो! तुमपर सलामती हो, वह लड़की को अपने परों के साए में ले लेते हैं और उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं कि यह कमज़ोर जान है जो एक कमज़ोर जान से पैदा हुई है, जो इस बच्ची की निगरानी और परवरिश करेगा क़ियामत तक ख़ुदा की मदद उसके शामिले हाल रहेगी।” (तबरानी)

33. लड़कियों की तरबियत व परवरिश बड़ी ख़ुशदिली, रूहानी ख़ुशी और दीनी एहसास के साथ कीजिए और उसके बदले में ख़ुदा से जन्नत की आरज़ू कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि-

“जिस आदमी ने तीन लड़कियों या तीन बहनों की सरपरस्ती की, उन्हें तहज़ीब व तालीम सिखाई और उनके साथ दया का व्यवहार किया, यहाँ तक कि ख़ुदा उनको बेनियाज़ कर दे तो ऐसे आदमी के लिए ख़ुदा ने जन्नत वाजिब फ़रमा दी, उसपर एक आदमी बोला, "अगर दो ही हों, तो?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "दो लड़कियों की परवरिश का भी यही बदला है।" हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि अगर लोग एक के बारे में पूछते तो आप एक की परवरिश पर भी यही ख़ुशख़बरी देते।" (मिश्कात)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि एक दिन एक औरत अपनी दो बच्चियों को लिए हुए मेरे पास आई और उसने कुछ माँगा। मेरे पास सिर्फ़ एक ही खजूर थी, वह मैंने उसके हाथ पर रख दी। उस औरत ने खजूर के दो टुकड़े किए और आधी-आधी दोनों बच्चियों में बाँट दी और ख़ुद न खाई। इसके बाद वह उठ खड़ी हुई और बाहर निकल गई। उसी वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) घर तशरीफ़ लाए। मैंने आपको यह सारा माजरा कह सुनाया। आपने सुनकर फ़रमाया—

“जो आदमी भी लड़कियों की पैदाइश के ज़रिए आज़माया जाए और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करके आज़माइश में कामयाब हो तो ये लड़कियाँ उसके लिए क़ियामत के दिन जहन्नम की आग से ढाल बन जाएँगी।" (मिश्कात)

34. लड़की को हीन न समझिए, न लड़के को उसपर किसी मामले में तरजीह दीजिए। दोनों के साथ एक जैसी मुहब्बत ज़ाहिर कीजिए और एक जैसा बरताव कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जिसके यहाँ लड़की पैदा हुई और उसने जाहिलियत के तरीक़े पर उसे (ज़िन्दा) दफ़न नहीं किया और न उसको हीन जाना और न लड़के को उसके मुक़ाबले में तरजीह दी और ज़्यादा समझा, तो ऐसे आदमी को ख़ुदा जन्नत में दाख़िल करेगा।" (अबू दाऊद)

35. जायदाद में लड़की का मुक़र्रर हिस्सा पूरी ख़ुशदिली और एहतिमाम के साथ दीजिए। यह ख़ुदा का फ़र्ज़ किया हुआ हिस्सा है, इसमें कमी-बेशी करने का कोई इख़तियार नहीं। लड़की का हिस्सा देने में हीले करना या अपने हिसाब से कुछ दे-दिलाकर इतमीनान कर लेना सच्चे मोमिन का काम नहीं है। ऐसा करना ख़ियानत भी है और ख़ुदा के दीन की तौहीन भी।

36. उन तमाम अमली तदबीरों के साथ-साथ दिल के इतमीनान और उसकी लगन के साथ औलाद के हक़ में दुआ भी करते रहिए। अल्लाह की ज़ात से उम्मीद है कि वह माँ-बाप के दिल की गहराइयों से निकली हुई दर्द भरी दुआएँ बरबाद न फ़रमाएगा।

26. दोस्ती के आदाब

1. दोस्तों से मुहब्बत कीजिए और दोस्तों के लिए प्रेम का केन्द्र बन जाइए। वह आदमी बड़ा ही ख़ुशक़िस्मत है जिसको उसके दोस्त प्रिय रखते हों और वह दोस्तों को प्रिय रखता हो और वह आदमी बहुत महरूम है जिससे लोग बेज़ार रहते हों और वह लोगों से दूर भागता हो। ग़रीब वह नहीं है जिसके पास दौलत न हो, बल्कि हक़ीक़त में सबसे बड़ा ग़रीब वह है जिसका कोई दोस्त न हो। दोस्त ज़िन्दगी की ज़ीनत, ज़िन्दगी के सफ़र का सहारा और ख़ुदा का इनाम हैं। दोस्त बनाइए और दोस्त बनिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मोमिन सिर से पैर तक मुहब्बत ही मुहब्बत है और उस आदमी में सिरे से कोई ख़ैर व ख़ूबी नहीं है जो न तो दूसरों से मुहब्बत करे और न दूसरे ही उससे मुहब्बत करें।" (मिश्कात)

क़ुरआन पाक में है—

“मोमिन मर्द और मोमिन औरतें आपस में एक-दूसरे के मददगार हैं।" (क़ुरआन, 9:71)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने साथियों से बड़ी मुहब्बत फ़रमाते थे और हर एक यह महसूस करता था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सबसे ज़्यादा उसी को चाहते हैं।

हज़रत अम्र बिन आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इस तवज्जोह और ख़ुलूस के साथ मुझसे बातें फ़रमाते और इतना ख़याल रखते थे कि मुझे यह ख़याल होने लगा कि शायद मैं अपनी क़ौम का सबसे बेहतर आदमी हूँ। एक दिन मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछ बैठा कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अफ़ज़ल हूँ या अबू बक्र? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, “अबू बक्र अफ़ज़ल हैं।" फिर मैंने पूछा, “मैं अफ़ज़ल हूँ या उमर?" फ़रमाया, “उमर!” मैंने फिर पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अफ़ज़ल हूँ या उसमान?" इरशाद फ़रमाया, "उसमान।" फिर मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से खुलकर हक़ीक़त मालूम की और आपने बे-रू-रियायत साफ़-साफ़ बात कह दी। तब मुझे अपनी इस हरकत पर बड़ी ही शर्म आई और मैं दिल में ख़याल करने लगा कि भला ऐसी बात पूछने की मुझे क्या ज़रूरत थी।

2. दोस्तों के साथ मिल-जुलकर मेल-मुहब्बत की ज़िन्दगी गुज़ारिए और ख़ुलूस भरे ताल्लुक़ात क़ायम करने और क़ायम रखने की कोशिश कीजिए। दोस्तों से नफ़रत, बेज़ारी और लिए-दिए रहने का रवैया छोड़ दीजिए। जब आदमी दोस्तों में मिल-जुलकर रहता है और हर मामले में उनका शरीक रहता है तो उसके नतीजे में उसको तरह-तरह की तकलीफ़ें पहुँचती हैं, कभी उसकी भावनाओं को ठेस लगती है, कभी उसके वक़ार को सदमा पहुँचता है, कभी उसके आराम में ख़लल पड़ता है, कभी उसके रोज़ के प्रोग्रामों पर असर पड़ता है, कभी उसकी ख़ाहिश और रुझान के ख़िलाफ़ कुछ बातें सामने आती हैं, कभी उसके सब्र व बरदाश्त की आज़माइश होती है, कभी उसको माली नुक़सान पहुँचता है। ग़रज़ अलग-अलग क़िस्म की तकलीफ़ें और परेशानियाँ उसको पहुँचती हैं, लेकिन जब यह आदमी इन तकलीफ़ों को बरदाश्त करता है तो उसके दिल में इससे रौशनी पैदा होती है, अच्छे अख़लाक़ परवरिश पाते हैं और वह तरबियत व तज़किए की फ़ितरी मंज़िलों से गुज़रता हुआ रूहानी और अख़्लाक़ी तरक़्क़ी करता है, उनमें सहने, बरदाश्त करने, ईसार (त्याग) और मुहब्बत, हमदर्दी और एक दूसरे का साथ देने, मुहब्बत व वफ़ादरी, भला चाहने और मदद करने, ख़ुलूस, बहादुरी और रहम व मुहब्बत के ऊँचे से ऊँचे जज़्बात पैदा होते हैं और वह इनसानी समाज के लिए बिलकुल ही ख़ैर व बरकत बन जाता है। हर दिल में उसके लिए क़द्र का जज़्बा पैदा होता है और हर इनसान उसके वुजूद को अपने हक़ में रहमत का साया समझता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो मुसलमान लोगों के साथ मिल जुलकर रहता है और उनकी ओर से पहुँचनेवाली तकलीफ़ों को सहन करता है, वह कहीं बेहतर है उस आदमी से जो लोगों से अलग-थलग रहता है और उनकी ओर से पहुँचनेवाली तकलीफ़ों पर दिल टूटा हुआ होता है।" (तिरमिज़ी)

3. हमेशा नेक और भले लोगों से दोस्ती कीजिए। दोस्ती के चुनाव में इस बात को ज़रूर ध्यान में रखिए कि जिन लोगों से आप दिली ताल्लुक़ बढ़ा रहे हैं, वे दीन व अख़लाक़ के पहलू से आपके लिए किस हद तक फ़ायदेमंद हो सकते हैं। एक मशहूर कहावत है कि 'अगर किसी की अख़लाक़ी हालत मालूम करना चाहो तो उसके दोस्तों की अख़लाक़ी हालत मालूम करो' और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“आदमी अपने दोस्त के दीन पर होता है। इसलिए हर आदमी को ग़ौर कर लेना चाहिए कि वह किससे दोस्ती कर रहा है।"(मुस्नद अहमद, मिश्कात)

दोस्त के दीन पर होने का मतलब यह है कि जब वह दोस्त की सोहबत (संगत) में बैठेगा तो वही जज़्बे व ख़याल और वही ज़ौक़ व रुझान उसमें पैदा होगा जो दोस्त में है और पसन्द व नापसन्द का वही मेयार उसका भी बनेगा जो उसके दोस्त का है, इसलिए हर आदमी को दोस्त के चुनाव में बड़े सोच-विचार से काम लेना चाहिए और दिली ताल्लुक़ उसी से बढ़ाना चाहिए जिसका ज़ौक व रुझान, सोच-विचार और दौड़-धूप दीन व ईमान के तक़ाज़ों के मुताबिक़ हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ताकीद फ़रमाई कि मोमिन ही से प्रेम का रिश्ता मज़बूत करो और उसी के साथ अपना खाना-पीना रखो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“मोमिन ही की सोहबत में रहो और तुम्हारे दस्तरख़ान पर परहेज़गार ही खाना खाएँ।"

एक दस्तरख़ान (वह कपड़ा जिसपर रखकर खाना खाते हैं) पर बैठकर खाना-पीना दिली ताल्लुक़ और मुहब्बत को फ़ितरी तौर पर पैदा करता है और यह ताल्लुक़ व मुहब्बत उसी मोमिन से होना चाहिए जो तक़वेवाला और परहेज़गार हो। ख़ुदा से ग़ाफ़िल (लापरवाह), ग़ैर-ज़िम्मेदार, बेअमल और बदअख़लाक़ लोगों से हमेशा दूर रहिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अच्छे और बुरे दोस्त से ताल्लुक़ की हालत को एक अच्छी मिसाल में यूँ बयान फ़रमाया है—

“अच्छे और बुरे दोस्त की मिसाल मुश्क (कस्तूरी) बेचनेवाले और भट्ठी धौंकनेवाले (लोहार) की तरह है। मुश्क बेचनेवाले की सोहबत से तुमको कुछ फ़ायदा ज़रूर पहुँचेगा या मुश्क ख़रीदोगे या मुश्क की ख़ुश्बू पाओगे, लेकिन लोहार की भट्ठी तुम्हारा घर या कपड़ा जलाएगी या तुम्हारे दिमाग़ में उसकी बदबू पहुँचेगी।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

अबू दाऊद में हदीस के अलफ़ाज़ इस तरह हैं—

“नेक दोस्त की मिसाल ऐसी है जैसे 'मुश्क बेचनेवाले की दुकान' कि और कुछ फ़ायदा न भी हो तो ख़ुश्बू ज़रूर आएगी और बुरा दोस्त ऐसा है जैसे भट्ठी कि उस से आग न लगे तब भी धुएँ से कपड़े तो ज़रूर काले हो जाएँगे।"

4. दोस्तों से सिर्फ़ ख़ुदा के लिए मुहब्बत कीजिए। ख़ुदा के महबूब बंदे वही हैं जो ख़ुदा के दीन की बुनियाद पर आपस में जुड़ते हैं और कंधे से कंधा और दिल से दिल मिलाकर इस तरह ख़ुदा के दीन को क़ायम करने और उसकी हिफ़ाज़त करने की ज़िम्मेदारी निभाते हैं कि वे सीसा पिलाई हुई दीवार मालूम होते हैं।

क़ुरआन पाक में है—

"हक़ीक़त में ख़ुदा के प्रिय वे लोग हैं जो ख़ुदा की राह में इस तरह पैर जमाकर लड़ते हैं गोया कि सीसा पिलाई हुई दीवार हैं।" (क़ुरआन, 61:4)

“क़ियामत में ख़ुदा फ़रमाएगा कि वे लोग कहाँ हैं जो सिर्फ़ मेरे लिए मुहब्बत किया करते थे। आज मैं उनको अपने साए में जगह दूँगा।" (मुस्लिम)

और क़ियामत के दिन ऐसे लोगों को जो क़ाबिले रश्क शान व शौकत हासिल होगी, उसका ज़िक्र करते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा के बन्दों में कुछ ऐसे (सआदतमंद) हैं जो नबी और शहीद तो नहीं हैं लेकिन क़ियामत के दिन ख़ुदा उनको ऐसे रुतबों से नवाज़ेगा कि नबी और शहीद भी उनके रुत्बों पर रश्क करेंगे।" सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा, "ये कौन ख़ुशनसीब होंगे ऐ अल्लाह के रसूल!" इरशाद फ़रमाया—

“ये वे लोग हैं जो आपस में एक दूसरे से सिर्फ़ ख़ुदा के दीन की बुनियाद पर मुहब्बत करते थे। न ये आपस में रिश्तेदार थे न उनके बीच माली लेन-देन का ताल्लुक़ था। ख़ुदा की क़सम! क़ियामत के दिन उनके चेहरे नूर से जगमगा रहे होंगे, बल्कि ये सिर से पैर तक नूर ही नूर होंगे और जब सारे लोग डर से काँप रहे होंगे तो उन्हें कोई डर न होगा और जब सारे ग़म में पड़े होंगे, उस वक़्त उन्हें क़तई तौर पर कोई ग़म न होगा।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरआन पाक की यह आयत तिलावत फ़रमाई—

"सुनो, अल्लाह के चाहनेवालों के लिए न किसी बात का कोई डर होगा और न (गुज़री हुई ज़िन्दगी के बारे में) किसी क़िस्म का ग़म।" (क़ुरआन, 10:62)

हज़रत अबुदर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“क़ियामत के दिन कुछ लोग अपनी क़ब्रों से आएँगे और उनके चेहरे नूर से जगमगा रहे होंगे। वे मोतियों के मिम्बर पर बिठाए जाएँगे। लोग उनकी शान पर रश्क करेंगे। ये लोग न नबी होंगे, न शहीद।" एक बद्दू ने सवाल किया, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! ये कौन लोग हैं, हमें इनकी पहचान बता दीजिए?" फ़रमाया, "ये वे लोग हैं जो आपस में ख़ुदा के लिए मुहब्बत करते हैं।" (तबरानी)

5. नेक लोगों से मुहब्बत को आख़िरत की निजात और ख़ुदा की ख़ुशी का ज़रिया समझिए और ख़ुदा से दुआ कीजिए कि ऐ ख़ुदा! नेक लोगों की मुहब्बत अता कर और नेक लोगों में शामिल फ़रमा। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहने लगा, "ऐ अल्लाह के रसूल! एक आदमी किसी नेक आदमी से उसकी नेकी की वजह से मुहब्बत करता है, पर ख़ुद उस आदमी जैसे अच्छे अमल नहीं करता?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "कोई हरज नहीं! आदमी क़ियामत के दिन उसी के साथ होगा जिससे वह मुहब्बत करेगा।" (बुख़ारी)

एक रात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ख़ुदा का दीदार हुआ। ख़ुदा ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा, माँगिए। तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह दुआ मांगी—

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क फ़िअ-लल ख़ैराति व तर्कल मुन-कराति व हुब्बल मसाकी-न व अन तग़फ़ि-र ली व तर-ह-मनी व इज़ा अ-र-त्त फ़ित-न-तन फ़ी क़ौमिन फ़-त-वक़्फ़नी ग़ै-र मफ़्तूनिन व अस-अलु-क हुब्ब-क व हुब्-ब मँय्युहिब्बु-क व हुब-ब अ़-मलिंय- युक़र्रिबुनी इला हुब्बिक। (मुस्नद अहमद)

“ऐ अल्लाह! मैं तुझसे नेक कामों की तौफ़ीक़ चाहता हूँ और बुरे कामों से बचने की ताक़त चाहता हूँ और मिस्कीनों की मुहब्बत चाहता हूँ और यह कि तू मेरी मग़फ़िरत फ़रमा दे और मुझपर रहम फ़रमाए और जब तू किसी क़ौम को अज़ाब में डालना चाहे तो मुझे इस हाल में उठा ले कि मैं उससे बचा रहूँ और मैं तुझसे तेरी मुहब्बत का सवाल करता हूँ और उस आदमी की मुहब्बत का सवाल करता हूँ जो तुझसे मुहब्बत करता है और उस अमल की तौफ़ीक़ चाहता हूँ जो तेरे क़ुर्ब (सामीप्य) का ज़रिया हो।”

और हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अल्लाह तआला का इरशाद है कि मुझपर वाजिब है कि मैं उन लोगों से मुहब्बत करूँ जो लोग मेरे लिए आपस में मुहब्बत और दोस्ती करते हैं और मेरा ज़िक्र करने के लिए एक जगह जमा होकर बैठते हैं। और मेरी मुहब्बत की वजह से एक दूसरे से मुलाक़ात करते हैं और मेरी ख़ुशी चाहने के लिए एक दूसरे के साथ नेक सुलूक करते हैं।" (अहमद, तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दो दोस्तों की मुलाक़ात का ईमान भरा नक़्शा खींचते हुए फ़रमाते हैं—

“एक आदमी अपने दोस्त से, जो किसी दूसरी बस्ती में था, मुलाक़ात के लिए चला। ख़ुदा ने उसके रास्ते पर एक फ़रिश्ते को बैठा दिया। फ़रिश्ते ने उससे पूछा, "कहाँ का इरादा है?" उसने जवाब दिया, "उस गाँव में अपने भाई से मिलने जा रहा हूँ।" फ़रिश्ते ने कहा, "क्या तुम्हारा उसपर हक़ है जो तुम वसूल करने जा रहे हो?" उसने कहा, "नहीं, बस इस ग़रज़ से उसके पास जा रहा हूँ कि मैं उससे ख़ुदा के लिए मुहब्बत करता हूँ।" फ़रिश्ता बोला, "तो सुनो! मुझे ख़ुदा ने तुम्हारे पास भेजा है और यह ख़ुशख़बरी दी है कि वह भी तुझसे ऐसी ही मुहब्बत रखता है, जैसी तू उसके लिए अपने दोस्त से रखता है।” (मुस्लिम)

6. दोस्ती ऐसे लोगों से कीजिए जो इस्लामी नज़र से दोस्ती के लायक़ हों और फिर ज़िन्दगी भर इस दोस्ती को निभाने की कोशिश भी कीजिए। जिस तरह यह ज़रूरी है कि दोस्ती के लिए अच्छे लोगों को चुना जाए, उसी तरह यह भी ज़रूरी है कि दोस्ती को हमेशा-हमेशा निभाने और क़ायम रखने की भी कोशिश की जाए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि क़ियामत के दिन जब अर्शे इलाही के सिवा कहीं कोई साया न होगा, उस दिन सात क़िस्म के आदमी अर्शे इलाही के साए में होंगे। उनमें से एक क़िस्म के लोग वे दो आदमी होंगे जो ख़ुदा के लिए एक दूसरे के दोस्त होंगे। ख़ुदा की मुहब्बत ही ने उन्हें आपस में जोड़ा होगा और इसी बुनियाद पर वे एक दूसरे से जुदा हुए होंगे। यानी उनकी दोस्ती ख़ुदा के लिए होगी और जिंदगी भर वे दोस्ती को क़ायम रखने की कोशिश करेंगे और जब उनमें से कोई एक-दूसरे से जुदा होकर दुनिया से विदा हो रहा होगा तो इसी हाल में उनकी यह दोस्ती क़ायम होगी और इसी दोस्ती की हालत में वे एक-दूसरे से अलग होंगे।

7. दोस्तों पर भरोसा कीजिए। उनके बीच हँसते-बोलते रहिए। ग़म में डूबे रहने और दोस्तों को ग़म में डुबाए रखने से बचिए। दोस्तों की सोहबत में बेतकल्लुफ़ और ख़ुशमिज़ाज रहिए। त्यौरी चढ़ाने और लिए-दिए रहने से बचिए। दोस्तों के साथ एक बेतकल्लुफ़ साथी, हँसते रहनेवाला दोस्त और हमेशा ख़ुश रहनेवाला दोस्त बनने की कोशिश कीजिए। आपकी सोहबत से दोस्त उकताएँ नहीं, बल्कि ख़ुशी, ज़िन्दगी और आकर्षण महसूस करें।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ज़्यादा किसी को मुस्कुराते हुए नहीं देखा।" (तिरमिज़ी)

हज़रत जाबिर बिन समुरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं— "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सोहबत में सौ मज्लिसों से भी ज़्यादा में बैठा हूँ। इन मज्लिसों में सहाबा किराम शेर भी पढ़ते थे और जाहिलियत के ज़माने के क़िस्से-कहानियाँ भी सुनाते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यह सब सुनते रहते थे, बल्कि कभी-कभी ख़ुद भी उनके साथ हँसने में शरीक हो जाया करते थे। (तिरमिज़ी)

हज़रत शरीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैं एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ सवारी पर आपके पीछे बैठा हुआ था। सवारी पर बैठे-बैठे मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को उमैया बिन सल्त के सौ शेर (पद) सुनाए। हर शेर (पद) पर आप फ़रमाते कि कुछ और सुनाओ, और मैं सुनाता। (तिरमिज़ी)

इसी तरह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपनी मज्लिस में ख़ुद भी कभी-कभी क़िस्से सुनाते। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि एक बार आपने घरवालों को एक क़िस्सा सुनाया। एक औरत ने कहा कि यह अजीब व ग़रीब क़िस्सा तो बिलकुल ख़ुराफ़ा के क़िस्सों की तरह है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि तुम्हें ख़ुराफ़ा का सही क़िस्सा भी मालूम है और फिर ख़ुद ही आपने ख़ुराफ़ा का असल क़िस्सा तफ़सील से सुनाया।

इसी तरह एक बार हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को ग्यारह औरतों की एक बहुत ही दिलचस्प कहानी सुनाई।

हज़रत बिक्र बिन अब्दुल्लाह, सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की बेतकल्लुफ़ी और हँसी-मज़ाक़ का हाल बयान करते हुए फ़रमाते हैं—

"सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हँसी और दिल बहलाने के तौर पर एक-दूसरे की ओर तरबूज़ के छिलके फेंका करते थे, लेकिन जब लड़ने और हिफ़ाज़त करने का वक़्त आता था तो इस मैदान के सिपाही भी सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ही हुआ करते थे।” (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत मुहम्मद बिन ज़ियाद (रहमतुल्लाह अलैह) फ़रमाते हैं—

“मैंने बुज़ुर्गों को देखा है कि उनके कई-कई कुंबे एक ही हवेली में रहते थे। कई बार ऐसा होता कि उनमें से किसी एक के यहाँ मेहमान आता और किसी दूसरे के यहाँ चूल्हे पर हांडी चढ़ी होती, तो मेहमानवाला दोस्त अपने मेहमान के लिए दोस्त की हांडी उतार ले जाता। बाद में हांडीवाला अपनी हांडी को ढूँढता फिरता और लोगों से पूछता कि मेरी हांडी कौन ले गया? वह मेज़बान दोस्त बताता कि भाई! अपने मेहमान के लिए हम ले गए थे। उस वक़्त हांडीवाला कहता कि ख़ुदा तुम्हारे लिए इसमें बरकत दे।"

मुहम्मद बिन ज़ियाद (रहमतुल्लाह अलैह) फ़रमाते हैं कि ये लोग जब रोटी पकाते तब भी यही शक्ल पेश आती। (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कथन है—

"दिल को आज़ाद भी छोड़ दिया करो, ख़ुश कर देनेवाली बातें भी सोचा करो, क्योंकि जिस्म की तरह दिल भी थक जाता है।"

8. रूखे-सूखे और मुर्दा दिल न बनिए, ख़ुश रहिए और हँसते-बोलते रहिए लेकिन इस बात की एहतियात ज़रूर कीजिए कि आपका ख़ुश रहना और हँसना-बोलना हद से बढ़ने न पाए। ख़ुश मिज़ाजी और तफ़रीह के साथ-साथ दीनी संजीदगी, ग़ैरत और सन्तुलन का भी ध्यान रखिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सहाबी हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी के सहाबी न रूखे-सूखे थे और न मुर्दों की-सी चाल चलते थे। वे अपनी मज्लिसों में शेर व शायरी भी करते थे और जाहिलियत के दौर के ख़िलाफ़ किसी बात की माँग होती तो उनकी आँखों की पुतलियाँ ग़ुस्से में इस तरह फिर जातीं कि जैसे उनपर जुनून छा गया है। (अल अदबुल मुफ़रद)

मशहूर मुहद्दिस हज़रत सुफ़ियान बिन उयैना (रहमतुल्लाह अलैह) से किसी ने कहा कि मज़ाक़ भी एक आफ़त है। उन्होंने जवाब दिया कि नहीं, बल्कि सुन्नत है, पर उस आदमी के लिए जो उसके मौक़ों को जानता हो और अच्छा मज़ाक़ कर सकता हो। (शरह शिमाइले तिरमिज़ी)

9. आप जिस आदमी से मुहब्बत रखते हों उससे अपनी मुहब्बत को ज़रूर ज़ाहिर कीजिए। उसके मन पर यह असर पड़ेगा और उसको भी क़रीब होने का एहसास होगा और दोनों तरफ़ के जज़्बात व एहसासात के तबादले से मुहब्बत व ख़ुलूस में ग़ैर-मामूली इज़ाफ़ा होगा और फिर मुहब्बत सिर्फ़ दिल की हालत का नाम नहीं रहेगी, बल्कि उसके तक़ाज़े अमली ज़िन्दगी पर असर डालेंगे और इस तरह निजी मामलों में दिलचस्पी लेने और ज़्यादा से ज़्यादा एक दूसरे से क़रीब होने का मौक़ा मिलेगा।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब किसी आदमी के दिल में अपने भाई के लिए ख़ुलूस व मुहब्बत की भावनाएँ हों तो उसे चाहिए कि वह अपने दोस्त को भी उन भावनाओं से आगाह कर दे और उसे बता दे कि वह उससे मुहब्बत रखता है।" (अबू दाऊद)

एक बार आपके सामने से एक आदमी गुज़रा। कुछ लोग आपके पास बैठे थे। उनमें से एक ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे उस आदमी से सिर्फ़ ख़ुदा के लिए मुहब्बत है।" यह सुनकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा, “तो क्या तुमने उस आदमी को यह बात बता दी है?" वह बोला, "नहीं तो!" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “जाओ और उसपर ज़ाहिर करो कि तुम ख़ुदा के लिए उससे मुहब्बत करते हो, वह आदमी फ़ौरन उठा और जाकर उस जानेवाले से अपनी भावनाएँ ज़ाहिर की। उसके जवाब में उसने कहा, "तुझसे वह ज़ात मुहब्बत करे, जिसके लिए तू मुझसे मुहब्बत करता है।" (तिरमिज़ी, अबू दाऊद)

दोस्ताना ताल्लुक़ात को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत करने और दोस्तों से क़रीब होने के लिए ज़रूरी है कि आप दोस्तों के निजी मामलों में एक हद तक दिलचस्पी लें और अपना क़रीब होना और ख़ास ताल्लुक़ होना ज़ाहिर करें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जब एक आदमी दूसरे से दोस्ती और भाईचारे का रिश्ता जोड़े तो उससे उसका नाम, उसके बाप का नाम और उसके ख़ानदान के हालात मालूम कर ले कि इससे आपसी मुहब्बत की जड़ें मज़बूत होती हैं।" (तिरमिज़ी)

10. मुहब्बत के ज़ाहिर करने और ताल्लुक़ पैदा करने में हमेशा बीच का रास्ता अपनाइए। न तो ऐसे ठंडेपन को ज़ाहिर कीजिए कि आपकी मुहब्बत और ताल्लुक़ में शक नज़र आए और न मुहब्बत के जोश में इतना आगे बढ़िए कि आपकी मुहब्बत और दोस्ती जुनून की शक्ल अपना ले और ख़ुदा न करे कि किसी वक़्त पछताना पड़े। सन्तुलन का हमेशा ख़याल रखिए और पूरे जमाव के साथ ऐसा बीच का रास्ता अपनाइए जिसको आप बराबर निभा सकें। हज़रत असलम (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि—

"हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया कि तुम्हारी मुहब्बत जुनून की शक्ल न अपनाने पाए और तुम्हारी दुश्मनी तकलीफ़ पहुँचाने की वजह न बनने पाए।" मैंने कहा, "हज़रत! वह कैसे?" आपने फ़रमाया, "(वह ऐसे कि) जब मुहब्बत करने लगो तो बच्चों की तरह चिमटने और बचकानी हरकत करने लगो और जब किसी से नाराज़ हो तो उसके जान व माल तक की तबाही और बरबादी पर उतर आओ।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत उबैद किन्दी (रहमतुल्लाह अलैह) फ़रमाते हैं कि मैंने हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से सुना, फ़रमा रहे थे—

"अपने दोस्त से दोस्ती में नर्मी और बीच का रास्ता अपनाओ, हो सकता है कि वह किसी वक़्त तुम्हारा दुश्मन बन जाए। इसी तरह दुश्मन से दुश्मनी में नर्मी और बीच का रास्ता अपनाओ, हो सकता है वह किसी वक़्त तुम्हारा दोस्त बन जाए।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

11. दोस्तों के साथ वफ़ादारी और भला चाहनेवाला व्यवहार कीजिए। दोस्त के साथ सबसे बड़ी भलाई यह है कि आप उसको अख़लाक़ी एतबार से ज़्यादा से ज़्यादा ऊँचा उठाने की कोशिश करें और उसकी दुनिया बनाने से ज़्यादा उसकी आख़िरत बनाने की चिंता करें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, 'दीन पूरे का पूरा भला चाहता है।' हाँ भला चाहने से असल मुराद यह है कि आप अपने दोस्त के लिए भी वही पसन्द करें जो अपने लिए पसन्द करते हों, इसलिए कि आदमी अपना बुरा कभी नहीं चाहता।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"उस ज़ात की क़सम जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, कोई बन्दा मोमिन नहीं हो सकता, जब तक कि वह भाई के लिए वही पसन्द न करे जो वह अपने लिए करता है।"

मुसलमान पर मुसलमान के छ: हक़ बयान करते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया–

“और यह कि वह अपने भाई का भला चाहे, चाहे वह ग़ायब हो या मौजूद।"

आपने यह भी फ़रमाया—

"बेशक ख़ुदा ने उस आदमी पर आग को वाजिब कर दिया है और जन्नत हराम कर दी है जिसने क़सम खाकर किसी मुसलमान का हक़ मारा।" (सहाबा में से किसी ने पूछा) “अगरचे वह कोई मामूली सी चीज़ हो?" आपने फ़रमाया, "हाँ, अगरचे वह पीलू की मामूली सी डाल ही क्यों न हो।"

12. दोस्तों के दुख-दर्द में शरीक रहिए और इसी तरह उनकी ख़ुशियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लीजिए। उनके ग़म में शरीक होकर ग़म ग़लत करने की कोशिश कीजिए और उनकी ख़ुशियों में शरीक होकर ख़ुशियाँ बढ़ाने की कोशिश कीजिए। हर दोस्त अपने मुख़लिस दोस्तों से यही उम्मीद रखता है कि वे मुसीबत में भी उसका साथ देंगे और वक़्त पड़ने पर उसका साथ न छोड़ेंगे। इसी तरह वह यह भी उम्मीद रखता है कि उसके दोस्त उसकी ख़ुशियों में बढ़ोत्तरी करें और उसके सामूहिक जश्नों की ज़ीनत और रौनक़ बढ़ाएँ।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के लिए एक इमारत की तरह है कि एक दूसरे को ताक़त पहुँचाता और सहारा देता है, जैसे इमारत की एक ईंट दूसरी ईंट का सहारा बनती है और ताक़त पहुँचाती है। इसके बाद आपने एक हाथ की उँगलियाँ दूसरे हाथ की उँगलियों में डाल दीं (और इस तरह मुसलमानों के आपसी ताल्लुक़ और नज़दीकी को वाज़ेह फ़रमाया)।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“तुम मुसलमानों को आपसी रहमदिली, आपसी मुहब्बत और आपसी तकलीफ़ के एहसास में ऐसा पाओगे जैसे एक जिस्म का अगर एक अंग बीमार पड़ जाए तो सारा जिस्म बुख़ार और बेख़ाबी में उसका शरीक रहता है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

13. दोस्तों से ख़ुशदिली, नर्मी, ख़ुशी और इख़लास (निष्कपटता) से मिलिए और बड़ी तवज्जोह और खुले दिल से उनका स्वागत कीजिए। लापरवाही, बेनियाज़ी (उपेक्षा) और रूखेपन से बचिए। ये दिलों को फाड़नेवाली बुराइयाँ हैं। मुलाक़ात के वक़्त हमेशा ख़ुशी, इतमीनान और शुक्र व हम्द के कलिमे कहिए। मायूसी और मुर्दा दिली के कलिमे हरगिज़ ज़बान पर न लाइए। मुलाक़ात के वक़्त ऐसा अन्दाज़ अपनाइए कि आपके दोस्त ख़ुशी और ज़िन्दगी महसूस करें। ऐसे बुझे चेहरे से उनका स्वागत न कीजिए कि उनका दिल बुझ जाए और वे आपकी मुलाक़ात को बोझ समझने लगें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"नेकियों में किसी नेकी को मामूली न जानो, चाहे वह इतनी ही हो कि तुम अपने भाई से खुले दिल से मिलो।" (मुस्लिम)

और एक मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“अपने भाई को देखकर तुम्हारा मुस्कुरा देना भी सदक़ा है।" (तिरमिज़ी)

नर्मी, अच्छा अख़लाक़ और मीठी बातों से ही दिलों में मुहब्बत पैदा होती है और इन्हीं ख़ूबियों की वजह से अच्छा समाज वुजूद में आता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फ़रमाते हैं—

“मैं तुम्हें उस आदमी की पहचान बताता हूँ जिसपर जहन्नम की आग हराम है और वह आग पर हराम है। यह वह आदमी है जो नर्म मिज़ाज हो, नर्म तबीयत हो और नर्म आदतोंवाला हो।" (तिरमिज़ी)

सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब मुलाक़ात के वक़्त किसी की ओर मुतवज्जह होते तो पूरे जिस्म से मुतवज्जह होते और जब कोई आपसे बात करता तो आप पूरी तरह मुतवज्जह होकर उसकी बात सुनते।

एक बार आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मस्जिद में बैठे हुए थे। एक आदमी आया तो आपने अपने जिस्म को हरकत दी और तनिक सिमटे। उस आदमी ने कहा, “ऐ अल्लाह रसूल! जगह तो काफ़ी फैली हुई है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मुसलमान का यह हक़ है कि जब उसका भाई उसे देखे तो वह उसके लिए तनिक अपने जिस्म को हरकत दे।” (बैहक़ी)

ईमानवालों की तारीफ़ में क़ुरआन में इरशाद है—

"वे ईमानवालों के लिए बड़ी नर्म आदतोंवाले होते हैं।”

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस हक़ीक़त को यूँ बयान किया है—

"ईमानवाले, बुर्दबार (सहनशील) और नर्म दिल होते हैं उस ऊँट की तरह जिसकी नाक में नकेल पड़ी हो, उसको खींचा जाए तो वह खिंचता चला आए और पत्थर पर बिठाया जाए तो पत्थर पर बैठ जाए।" (तिरमिज़ी)

14. अगर कभी किसी बात पर मतभेद हो जाए तो तुरन्त सुलह-सफ़ाई कर लीजिए और हमेशा माफ़ी तलब करने और अपनी ग़लतियों को मान लेने में पहल कीजिए।

हज़रत अबूदर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि एक बार हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) में किसी मामले पर सख़्त कलामी हो गई। बाद में हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) को बहुत एहसास हुआ और वे बड़े ग़मगीन हुए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में पहुँचे और फ़रमाया, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! मेरे और उमर के बीच कुछ मतभेद हो गया, मुझे ग़ुस्सा आ गया और कुछ सख़्त बातें हो गईं। मुझे बाद में बड़ी शर्मिंदगी हुई और मैंने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से माफ़ी चाही, लेकिन ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! वे माफ़ करने को तैयार न हुए। मैं परेशान होकर आपकी ख़िदमत में आया।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "ख़ुदा तुम्हें माफ़ फ़रमाएगा और तुम्हें बख़्श देगा।" इसी बीच हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भी अपनी ग़लती का एहसास हुआ और वे दौड़े-दौड़े हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के घर पहुँचे। वहाँ मालूम हुआ कि अबू बक्र नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में गए हैं तो वे भी उसी वक़्त हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चेहरे पर नाराज़गी फैल गई। यह देखकर हज़रत अबू बक्र बहुत डरे और बड़ी आजिज़ी के साथ घुटनों के बल होकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कोई क़ुसूर नहीं, क़ुसूर सारा मेरा ही है, मैंने ही ज़्यादती की है। मैंने ही उन्हें सख़्त सुस्त कहा है।" यह देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“ख़ुदा ने मुझे तुम्हारे पास पैग़म्बर बनाकर भेजा और जब शुरू में तुम लोग झुठला रहे थे, उस वक़्त अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मेरी तसदीक़ की और जान व माल से, मेरा हर तरह से साथ दिया, तो क्या अब तुम मेरे साथी को रंजीदा करके छोड़ोगे?"

सुलह-सफ़ाई की कोशिश में कभी देर न कीजिए क्योंकि जितनी देर होती जाती है उतनी ही ख़राबी जड़ पकड़ती जाती है और दिलों में दूरियाँ पैदा होती जाती हैं। इंजील में हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की यह नसीहत बहुत ज़्यादा ईमान को बढ़ानेवाली है—

“अतः अगर तू क़ुरबानगाह पर अपनी नज़्र गुज़ारता हो और वहाँ तुझे याद आए कि भाई को मुझसे शिकायत है तो वहीं क़ुरबानगाह के आगे ही अपनी नज़्र छोड़ दे और जाकर अपने भाई से मिलाप कर, तब अपनी नज़्र गुज़ारना।" (इंजील)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“लोगों के काम हर सोमवार और बृहस्पतिवार को सप्ताह में दो दिन (ख़ुदा के सामने) पेश होते हैं और हर मोमिन को बख़्श दिया जाता है सिवाए उसके, जिसके दिल में अपने मोमिन भाई से कोई दुश्मनी हो। कहा जाता है कि उनको छोड़ दो ताकि ये आपस में सुलह कर लें।"

किसे मालूम कि अगला लम्हा (क्षण) ज़िन्दगी का है या मौत का, और कौन जानता है कि उसे सोमवार या बृहस्पतिवार का दिन ज़िन्दगी में देखना नसीब होगा या नहीं, तो फिर दिल की सफ़ाई और दोस्तों की शिकायत दूर करने में देर क्यों और किस उम्मीद पर? क्या आख़िरत के दिन पर यक़ीन रखनेवाला होशमंद इसके लिए तैयार है कि वह खोट-कपट से भरा हुआ काला और घिनौना दिल लेकर ख़ुदा के हुज़ूर पहुँचे?

इसी के साथ-साथ इसका भी ख़याल रखिए कि जब आपका दोस्त अपनी ग़लती मान ले और माफ़ी चाहे तो उसका उज़्र क़बूल कीजिए और उसको माफ़ कर दीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिसने किसी मुसलमान भाई से अपनी ग़लती पर उज़्र किया और उसने इसको माज़ूर न समझा या उसके उज़्र को क़बूल न किया, उसपर इतना गुनाह होगा, जितना एक नाजायज़ महसूल वसूल करनेवाले पर उसके ज़ुल्म व ज़्यादती का गुनाह होता है।"

15. दोस्तों की ओर से अगर कोई बात तबीअत और ज़ौक़ के ख़िलाफ़ भी हो जाए तो आप अपनी ज़बान पर क़ाबू रखिए और जवाब में कभी सख़्त कलामी या बदज़बानी न कीजिए, बल्कि हिकमत और नर्मी के साथ बात को टाल जाइए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने ख़ुदा से पूछा, “ऐ मेरे पालनहार! आपके नज़दीक आपके बन्दों में कौन सबसे प्यारा है?" ख़ुदा ने जवाब दिया, "वह जो बदले की ताक़त रखने के बावजूद माफ़ कर देगा।" (मिशकात)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया है—

“मोमिन के तराज़ू में क़ियामत के दिन जो सबसे ज़्यादा वज़नी चीज़ रखी जाएगी वह उसका अच्छा अख़लाक़ होगा और ख़ुदा को वह आदमी बड़ा ही नापसन्द है जो ज़बान से बेहयाई की बात निकालता और बदज़बानी करता है।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) ने अच्छे अख़लाक़ की तारीफ़ तीन बातों से फ़रमाई है—

(i) जब आदमी किसी से मिले तो हँसते-मुस्कुराते चेहरे से मिले,

(ii) ख़ुदा के मुहताज और ज़रूरतमंद बन्दों पर ख़र्च करे, और

(iii) किसी को तकलीफ़ न पहुँचाए।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"ख़ुदा की नज़र में सबसे बुरा आदमी क़ियामत के दिन वह होगा जिसकी बुरी और गन्दी ज़बान की वजह से लोग उससे मिलना छोड़ दें।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

16. अपने दोस्तों की इस्लाह व तरबियत से कभी ग़फ़लत न कीजिए और अपने दोस्तों में वह बीमारी कभी पैदा न होने दीजिए जो इस्लाह व तरबियत की राह में सबसे बड़ी रुकावट है यानी— ख़ुदपसन्दी और घमण्ड। दोस्तों को हमेशा तैयार करते रहिए कि वे अपनी कोताहियों और ग़लतियों को महसूस करें, अपनी ख़ताओं को मानने में हिम्मत से काम लें और इस सच्चाई को हर वक़्त निगाह में रखें कि अपनी कोताही को महसूस न करने और अपने अलगाव पर ज़िद बाँधने से नफ़्स को सबसे बुरा भोजन मिलता है।

असल में नुमाइशी आजिज़ी (दिखावे की विनम्रता) दिखाना, लफ़ज़ों में अपने को हक़ीर कहना और चाल-ढाल में नर्मी ज़ाहिर करना, बहुत आसान है, लेकिन अपने नफ़्स पर चोट सहना, अपनी कोताहियों को ठंडे दिमाग़ से सुनना और मानना और अपने नफ़्स के ख़िलाफ़ दोस्तों की आलोचनाएँ सह जाना बहुत मुश्किल काम है, लेकिन सच्चे दोस्त वही हैं जो खुले ज़ेहन के साथ एक-दूसरे की ज़िन्दगी पर निगाह रखें और इस पहलू से एक-दूसरे की तरबियत व इस्लाह करते हुए घमण्ड से और ख़ुदपसन्दी से बचे रहें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फ़रमाते हैं—

"तीन बातें हलाकत में डालनेवाली हैं—

(i) ऐसी ख़ाहिश कि इनसान उसका अधीन और ग़ुलाम बनकर रह जाए,

(ii) ऐसा लालच जिसको पेशवा मानकर आदमी उसकी पैरवी करने लगे, और

(iii) ख़ुदपसन्दी— यह बीमारी इन तीनों में सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है।" (बैहक़ी, मिशकात)

आलोचना और जाँच-पड़ताल एक ऐसी छुरी है जो अख़लाक़ी (नैतिक) वुजूद के तमाम गंदे तत्त्वों को बाहर निकाल फेंकती है और अख़लाक़ी ताक़तों को बढ़ाकर व्यक्ति और समाज में नई ज़िन्दगी की रूह फूँक देती है। दोस्तों की आलोचना और जाँच-पड़ताल पर बिफरना (ग़ुस्सा करना), नाक-भौं चढ़ाना और ख़ुद को उससे बेनियाज़ समझना भी हलाकत है और इस अप्रिय ज़िम्मेदारी को अदा करने में कोताही बरतना भी हलाकत है।

दोस्तों के दामन पर घिनौने धब्बे नज़र आएँ तो बेचैनी महसूस कीजिए और उन्हें साफ़ करने के हिकमत भरे उपाय कीजिए और इस तरह ख़ुद भी खुले दिल और राज़ी-ख़ुशी से दोस्तों को हर वक़्त यह मौक़ा दीजिए कि वे अपने दाग़-धब्बों को आप पर नुमायाँ करें और जब वे यह कड़वी ज़िम्मेदारी निभाएँ तो अपने नफ़्स को फुलाने के बजाए बड़े हौसले, ख़ुशी और एहसानमंदी के जज़्बे से उनकी आलोचना का स्वागत कीजिए और उनके ख़ुलूस और मेहरबानी का शुक्रिया अदा कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने आदर्श दोस्ती की इस हालत को एक अच्छी मिसाल से इस तरह ज़ाहिर किया है—

“तुममें से हर एक अपने भाई का आईना है, इसलिए अगर वह अपने भाई में कोई ख़राबी देखे तो उसे दूर कर दे।" (तिरमिज़ी)

इसी मिसाल में पाँच ऐसे रौशन इशारे मिलते हैं जिनको नज़र में रखकर आप अपनी दोस्ती को वाक़ई आदर्श दोस्ती बना सकते हैं।

(i) आईना आपके दाग़-धब्बे उसी वक़्त ज़ाहिर करता है जब आप अपने दाग़-धब्बे देखने के इरादे से उसके सामने जा खड़े होते हैं और जब आप उसके सामने से हट जाते हैं तो वह भी पूरी चुप्पी साध लेता है।

इसी तरह आप भी अपने दोस्त के ऐब उसी वक़्त बताएँ जब वह ख़ुद को आलोचना के लिए आपके सामने पेश करे और खुले दिल से आलोचना करने का मौक़ा दे और आप भी महसूस करें कि इस वक़्त उसका ज़ेहन आलोचना सुनने के लिए तैयार है और मन में सुधार अपनाने के लिए भावनाओं में उथल-पुथल हो रही है और अगर आप यह हालत न पाएँ तो हिकमत के साथ अपनी बात को किसी और मौक़े के लिए उठा रखें और ख़ामोशी अपना लें और उसकी ग़ैर मौजूदगी में तो इतनी एहतियात करें कि आपकी ज़बान पर कोई ऐसा शब्द आए ही न, जिससे उसके ऐब की ओर इशारा होता हो, इसलिए कि यह ग़ीबत है और ग़ीबत से दिल जुड़ते नहीं, बल्कि फटते हैं।

(ii) आईना चेहरे के उन्हीं दाग़-धब्बों की सही-सही तस्वीर पेश करता है जो सच में चेहरे पर मौजूद होते हैं, न वह कम बताता है और न वह उनकी तादाद बढ़ाकर पेश करता है। फिर वह चेहरे के सिर्फ़ उन्हीं ऐबों को ज़ाहिर करता है जो उसके सामने होता है। वह छिपे हुए ऐबों को कुरेदता नहीं और न कुरेद-कुरेद कर ऐबों की कोई ख़याली तस्वीर पेश करता है। इसी तरह आप भी अपने दोस्त के ऐब बिना कमी-बेशी किए बयान करें, न तो बेजा मुरव्वत और ख़ुशामद में ऐब छिपाएँ और न अपनी तक़रीर और बयान के ज़ोर से इसमें बढ़ौतरी करें और फिर सिर्फ़ वही ऐब बयान करें जो आम ज़िन्दगी में आपके सामने आएँ। कुरेद और टोह में न लगें, छिपे ऐबों को कुरेदना कोई अख़लाक़ी ख़िदमत नहीं, बल्कि एक बहुत बुरा ऐब है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार मिम्बर पर चढ़े और काफ़ी ऊँची आवाज़ में लोगों को तंबीह फ़रमाई—

"मुसलमानों के ऐबों के पीछे न पड़ो। जो आदमी अपने मुसलमान भाइयों के छिपे ऐबों को खोलता है, तो फिर ख़ुदा उसके छिपे ऐबों को खोलने पर तुल जाता है, और जिसके ऐब ख़ुदा खोलने पर तुल जाए तो वह उसको रुसवा करके ही छोड़ता है, अगरचे वह अपने घर के भीतर घुसकर ही क्यों न बैठ जाए।" (तिरमिज़ी)

(iii) आईना हर ग़रज़ से पाक होकर बेलाग अन्दाज़ में अपनी ज़िम्मेदारी निभाता है और जो आदमी भी उसके सामने अपना चेहरा पेश करता है, वह बग़ैर किसी ग़रज़ के उसका सही-सही नक़्शा उसके सामने रख देता है। न वह किसी से कीना (द्वेष) रखता है और न ही किसी से बदला लेता है। आप भी निजी ग़रज़, बदले की भावना, कीना और हर तरह की बदनीयती से साफ़ होकर बेलाग पकड़ कीजिए और इसलिए कीजिए कि आपका दोस्त अपने को सँवार ले, जिस तरह आईने को देखकर आदमी अपने को बना-सँवार लेता है।

(iv) आईने में अपनी सही तस्वीर देखकर न कोई झुंझलाता है और न ग़ुस्से से बेक़ाबू होकर आईना तोड़ देने की बेवक़ूफ़ी करता है, बल्कि तुरन्त अपने को बनाने और सँवारने में लग जाता है और दिल ही दिल में आईने की क़द्र व क़ीमत महसूस करते हुए उसका शुक्रिया अदा करता है और कहता है कि वाक़ई आईने ने मेरे बनने-सँवरने में मेरी बड़ी मदद की और फ़ितरी ज़िम्मेदारी पूरी की और फिर बड़े एहतिमाम के साथ दूसरे वक़्त के लिए उसको हिफ़ाज़त से रख देता है। इसी तरह जब आपका दोस्त अपने लफ़्ज़ों के आईने में आपके सामने आपकी सही तस्वीर रखे तो आप झुंझलाकर दोस्त पर जवाबी हमला न करें, बल्कि उसके शुक्रगुज़ार हों कि उसने अपनी दोस्ती का हक़ अदा किया और न सिर्फ़ ज़बान से बल्कि दिल से उसका शुक्रिया अदा करते हुए उसी लम्हे से अपनी इस्लाह व तरबियत के लिए चिन्तित रहें और खुले दिल और एहसानमंदी के साथ दोस्त की अहमियत महसूस करते हुए उससे दरख़्वास्त करें कि आगे भी वह अपने क़ीमती मशविरों से नवाज़ता रहे।

(v) और आख़िरी इशारा यह है कि मुसलमानों में से हर एक 'अपने भाई का आईना' है और भाई-भाई के लिए इख़लास व मुहब्बत की मूर्ति होता है, वफ़ादार और भला चाहनेवाला होता है, हमदर्द और दोस्त होता है, भाई को मुसीबत में देखकर तड़प उठता है और ख़ुश देखकर बाग़-बाग़ हो जाता है, इसलिए भाई और दोस्त जो आलोचना करेगा उसमें इंतिहाई ख़ुलूस होगा, मुहब्बत होगी, दर्दमंदी होगी और एक-एक शब्द भला चाहने के जज़्बे से भरा होगा और ऐसी ही आलोचना से दिलों को जोड़ने और ज़िन्दगियों के बनने की उम्मीद की जा सकती है।

17. दोस्तों से ख़ुलूस व मुहब्बत करने और मुहब्बत को और ज़्यादा बढ़ाने के लिए उपहारों और तोहफ़ों की अदला-बदली भी कीजिए। उपहारों के लेने-देने से दिल भी जुड़ते हैं और मुहब्बत में बढ़ोत्तरी भी होती है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“एक दूसरे को उपहार भेजा करो, इससे आपस में मुहब्बत पैदा होगी और दिलों की कटुता (द्वेष) जाती रहेगी।" (मिशकात)

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुद अपने साथियों को ज़्यादा से ज़्यादा उपहार देते थे और आपके सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी आपस में ज़्यादा से ज़्यादा एक-दूसरे को उपहार और तोहफ़े देते रहते थे।

उपहार देते समय अपनी हैसियत को सामने रखिए और यह न सोचिए कि आप जिसको उपहार दें, क़ीमती उपहार दें। जो कुछ भी मिले दीजिए। उपहार का क़ीमती होना, न होना आपके इख़लास और जज़्बे पर टिका हुआ है और यही ख़ुलूस और जज़्बा दिलों को जोड़ता है, उपहार की क़ीमत नहीं जोड़ती। इसी तरह दोस्त के उपहार को भी कभी मामूली न समझिए, उसके इख़लास व मुहब्बत पर निगाह रखिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"अगर मुझे उपहार में कोई बकरी का एक पाया भी पेश करे तो मैं ज़रूर क़बूल करूँगा। अगर कोई दावत में एक पाया ही खिलाए तो मैं ज़रूर उस दावत में जाऊँगा।" (तिरमिज़ी)

उपहार के बदले में उपहार ज़रूर दीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इसका एहतिमाम फ़रमाते थे। आपके नज़दीक पसन्दीदा तोहफ़ा, ख़ुशबू का तोहफ़ा था। आप भी इस तोहफ़े को पसन्दीदा समझिए और आज के हालात में किताब भी बेहतरीन तोहफ़ा है।

इसी सिलसिले में कभी-कभी साथ मिलकर खाने-पीने का एहतिमाम कीजिए। दोस्तों को अपने यहाँ खाने पर बुलाइए। दोस्त-अहबाब दावत करें तो बड़ी ख़ुशी से उनके यहाँ जाइए। इससे भी मुहब्बत व ख़ुलूस के जज़्बे और मज़बूत होते हैं। अलबत्ता इस तरह के मौक़ों पर ग़ैर मामूली ताल्लुक़ बरतने और खाने-पीने के सामान में ज़्यादती दिखाने के बजाए आप इख़लास व मुहब्बत के जज़्बों की मात्रा बढ़ाने पर ज़्यादा तवज्जोह दीजिए।

18. दोस्तों की ख़बर रखा कीजिए। ज़रूरतों में उनके काम आइए और हर तरह जान व माल से उनकी मदद कीजिए।

इस्बहानी की एक रिवायत में है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास एक आदमी आया और पूछा कि लोगों में ख़ुदा के नज़दीक सबसे ज़्यादा महबूब कौन है? उन्होंने जवाब दिया—

“तमाम लोगों में ख़ुदा के नज़दीक सबसे ज़्यादा प्यारा वह आदमी है जो इनसानों को सबसे ज़्यादा नफ़ा पहुँचानेवाला हो और अमल में ख़ुदा के नज़दीक सबसे ज़्यादा पसन्दीदा यह है कि किसी मुसलमान को ख़ुश कर दे, इस तरह कि उसकी मुसीबत व मुश्किल दूर करे या उसकी भूख मिटा दे और यह बात कि मैं किसी भाई के साथ उसकी ज़रूरत पूरी करने के लिए जाऊँ, मुझे इससे ज़्यादा पसन्द है कि मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की इस मस्जिद में एतिकाफ़ करूँ और जिस आदमी ने अपना ग़ुस्सा इस हाल में पी लिया कि अगर वह चाहता तो अपने ग़ुस्से को पूरा कर लेता, तो क़ियामत के दिन ख़ुदा उसके दिल को अपनी ख़ुशनूदी से भर देगा और जो अपने भाई के साथ उसकी ज़रूरत पूरी करने के लिए चला और उसकी वह ज़रूरत पूरी कर दी तो ख़ुदा उसके दोनों क़दमों को उस दिन मज़बूती देगा, जब क़दम लड़खड़ा रहे होंगे।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जो आदमी अपने भाई की ज़रूरत पूरी करेगा तो ख़ुदा उसकी ज़रूरत पूरी करने में लगा रहेगा और जो किसी मुसलमान की कोई मुसीबत दूर करेगा तो ख़ुदा क़ियामत की मुसीबत में से किसी मुसीबत को उससे दूर फ़रमाएगा।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"ख़ुदा अपने बन्दे की मदद में उस वक़्त तक लगा रहता है, जब तक बन्दा अपने भाई की मदद में लगा रहता है।" (तिरमिज़ी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"किसी मुसलमान की ज़रूरत पूरी करने का अज्र व सवाब दस साल के एतिकाफ़ से भी ज़्यादा है।" (तबरानी)

और हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जो आदमी अपने मुसलमान भाई के पास ख़ुशी की बात लेकर पहुँचता है और उस बात से उसको ख़ुश कर देता है तो ख़ुदा क़ियामत के दिन उस बन्दे को ख़ुश कर देगा।" (तबरानी)

19. बेहतरीन राज़दार बनिए। दोस्त अगर आप पर भरोसा करके आपसे दिल की बात कह दे, तो उसकी हिफ़ाज़त कीजिए और कभी दोस्त के विश्वास को ठेस न लगाइए। अपने सीने को राज़ों का भण्डार बनाइए ताकि दोस्त बिना किसी झिझक के हर मामले में मशविरा ले सके और आप दोस्त को अच्छे मशविरे और सहयोग दे सकें।

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) जब बेवा हुईं तो मैं उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) से मिला और कहा कि अगर तुम चाहो तो हफ़्सा का निकाह तुमसे कर दूँ। उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जवाब दिया, "मैं इस मामले पर ग़ौर करूँगा।" मैंने कई रातों तक उनका इन्तिज़ार किया, फिर उसमान मुझसे मिले और बोले, "मेरा अभी शादी करने का ख़याल नहीं है।" मैं फिर अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास गया और कहा "अगर आप पसन्द फ़रमाएँ तो हफ़्सा से शादी कर सकते हैं।" वे ख़ामोश रहे और कोई जवाब नहीं दिया। मुझे उनकी ख़ामोशी बहुत खली, उसमान से भी ज़्यादा खली। इसी तरह कई दिन गुज़र गए। फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का पैग़ाम भेजा और मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से हफ़्सा का निकाह कर दिया। इसके बाद अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुझसे मिले और फ़रमाया, "तुमने मुझसे हफ़्सा का ज़िक्र किया था और मैंने ख़ामोशी अपना ली थी। हो सकता है, तुम्हें मेरी ख़ामोशी से कोई तकलीफ़ हुई हो।" मैंने कहा, "हाँ, तकलीफ़ तो हुई थी।" फ़रमाया, "मुझे मालूम था कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का ख़ुद ऐसा ख़याल है और यह आपका एक राज़ था जिसको मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता था, अगर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का ज़िक्र न फ़रमाते तो मैं ज़रूर क़बूल कर लेता।" (बुख़ारी)

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक दिन लड़कों के साथ खेल रहे थे कि इतने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तशरीफ़ लाए और हमें सलाम किया। फिर अपनी एक ज़रूरत बताकर मुझे भेजा। मुझे उस काम को करने में देर लगी। काम से फ़ारिग़ होकर जब घर गया तो माँ ने पूछा, “इतनी देर कहाँ लगाई?” मैंने कहा, “नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी एक ज़रूरत से भेजा था। बोलीं, “क्या ज़रूरत थी?" मैंने कहा, "वह राज़ की बात है।" माँ ने कहा, "देखो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का राज़ किसी को न बताना।" (मुस्लिम)

20. इज्तिमाई अख़लाक़ (सामूहिक-चरित्र) में इतना फैलाव और समाई पैदा कीजिए कि हर ज़ौक़ व तरबियत और हर सोच-विचार और रुझान रखनेवाला आपकी ज़ात में ग़ैर-मामूली आकर्षण महसूस करे और हर एक के ख़ास ज़ौक़ व रुझान और तरबियत की ख़ास तेज़ी की रियायत करते हुए ऐसा हिकमत भरा व्यवहार कीजिए कि किसी के जज़्बात को ठेस न लगे। हर एक को अपने ख़ास ज़ौक़ के पैमाने से नापने की ग़ैर हिकमत भरी कोशिश न कीजिए और न हर एक को अपनी तरबियत के मुताबिक़ ढालने की नाकाम कोशिश कीजिए। ज़ौक़ व तबियत का मतभेद एक फ़ितरी हुस्न (स्वाभाविक सौन्दर्य) है। फ़ितरत के हुस्न को बनावटी हुस्न की बेजा उम्मीद में न बिगाड़िए। हर दोस्त को उसकी फ़ितरी जगह पर रखते हुए उससे दिलचस्पी लीजिए और उसकी क़ीमत समझिए और अपने अच्छे अख़लाक़ के ज़रिए उससे जुड़े रहने की कोशिश कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शख़्सियत (व्यक्तित्व) का यह हाल था कि हर ज़ौक़ और हर तरबियत का इनसान आपकी मज्लिस में सुकून पाता और अपनी तबियत की रिआयत करते हुए कोई मामूली-सा भी परायापन महसूस न करता। आपकी मज्लिस में अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे साक्षात प्रेम भी थे और उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे नंगी तलवार भी, हस्सान बिन साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे काँपनेवाले भी थे और अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे ख़ैबर को जीतनेवाले भी, अबू ज़र ग़िफ़ारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे फ़क़ीर तबियत आदमी भी और अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे धनवान भी। लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ऊँचे अख़लाक़, अच्छे क़िरदार और हिकमत भरी सूझ-बूझ का कमाल यह था कि ये सभी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ज़ात से भी बेमिसाल ताल्लुक़ और मुहब्बत रखते और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) भी उनका इतना ख़याल रखते कि हर एक यह समझता कि शायद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सबसे ज़्यादा मुझ ही को चाहते हैं और इसी ऊँचे अख़लाक़ और ग़ैर मामूली त्याग की बदौलत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा किराम का वह आदर्श गिरोह तैयार किया जिनमें अलग-अलग तबियतों के मौजूद होने के बावजूद वह बेमिसाल एकता एवं ताल्लुक़ और लागव था कि इनसानी तारीख़ अपने इन पन्नों को अपनी लम्बी उम्र का निचोड़ समझती है।

आपकी दोस्तियाँ हक़ीक़त में उसी वक़्त कामयाब और मज़बूत हो सकती हैं जब आप इज्तिमाई अख़लाक़ में हिकमत भरी लचक और ग़ैर-मामूली जमाव और बर्दाश्त करने की ताक़त पैदा करें और दोस्ताना ताल्लुक़ात में एक-दूसरे का ख़याल और एक दूसरे की ग़लतियों की माफ़ी, त्याग-भाव, आपसी रिआयतें, हमदर्दी, मुहब्बत, एक दूसरे की भावनाओं का ख़याल और भला चाहने का ज़रूरी हद तक ख़याल करें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की कुछ घटनाओं से अन्दाज़ा कीजिए कि आप किस आला फ़ितरी फ़राख़दिली, नर्मी, सब्र और रवादारी के साथ लोगों की फ़ितरी ज़रूरतों, जज़्बों और कमज़ोरियों का ख़याल रखते थे।

“मैं नमाज़ के लिए आता हूँ और जी चाहता है कि लम्बी नमाज़ पढ़ाऊँ फिर किसी बच्चे के रोने की आवाज़ कान में आती है तो मैं नमाज़ को छोटी कर देता हूँ, क्योंकि मुझपर यह बात बहुत बोझ है कि नमाज़ को लम्बी करके बच्चे की माँ को परेशानी में डाल दूँ।” (बुख़ारी)

हज़रत मालिक बिन हुवैरस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि हम कुछ हम-उम्र नौजवान दीन का इल्म हासिल करने के लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के यहाँ पहुँचे। हमने बीस दिन आपके यहाँ क़ियाम किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बड़े रहम करनेवाले और नर्म मामला करनेवाले थे। (जब आपके यहाँ रहते हुए हमें बीस दिन हो गए तो) आपने महसूस किया कि हम घर जाने के शौक़ में हैं तो आपने हमसे पूछा, “तुम अपने घरों में अपने पीछे किन-किन लोगों को छोड़ आए हो?" हमने घर के हालात बताए तो आपने फ़रमाया, "जाओ अपने बीवी बच्चों में वापस जाओ और उनके दरमियान रहकर उन्हें भी वह सब सिखाओ जो तुमने सीखा है और उन्हें भले कामों पर उभारो और फ़लाँ नमाज़ फ़लाँ वक़्त पर पढ़ो और जब नमाज़ का वक़्त आ जाए तो तुममें से कोई अज़ान दे और जो तुम लोगों में इल्म व अख़लाक़ के एतिबार से बढ़ा हुआ है, वह नमाज़ पढ़ाए।” (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत मुआविया बिन हकम सुलमी (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपना क़िस्सा सुनाते हैं कि मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ नमाज़ पढ़ रहा था कि इतने में एक आदमी को छींक आई। नमाज़ पढ़ते हुए ही मेरी ज़बान से 'यर्हमु-कल्लाह' निकल गया तो लोग मुझे घूरने लगे। मैंने कहा, "ख़ुदा तुम्हें सलामत रखे, मुझे घूर क्यों रहे हो?" फिर जब मैंने देखा कि वे मुझसे ख़ामोश रहने को कह रहे हैं तो मैं ख़ामोश हो गया। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नमाज़ से फ़ारिग़ हो गए—मेरे माँ-बाप आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर क़ुरबान! मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ज़्यादा बेहतर तालीम व तरबियत करनेवाला न तो पहले देखा, न बाद में। आपने न तो मुझे डाँटा, न मारा, न भला-बुरा कहा, सिर्फ़ इतना कहा—

“यह नमाज़ है। नमाज़ में बातचीत करना मुनासिब नहीं। नमाज़ तो नाम है ख़ुदा की पाकी बयान करने का, उसकी बड़ाई बयान करने का और क़ुरआन पढ़ने का।" (मुस्लिम)

21. दुआ का ख़ास एहतिमाम कीजिए। ख़ुद भी दोस्तों के लिए दुआ कीजिए और उनसे भी दुआ की दरख़ास्त कीजिए। दुआ दोस्तों के सामने भी कीजिए और उनके पीछे भी। पीछे में दोस्तों का ख़याल करके और उनका नाम लेकर भी दुआ कीजिए। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से उमरा करने की इजाज़त चाही तो आपने इजाज़त देते हुए फ़रमाया—

“ऐ मेरे भाई! अपनी दुआओं में हमें न भूलना।” हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं, "मुझे इस बात से इतनी ख़ुशी हुई कि अगर उसके बदले मुझे पूरी दुनिया भी मिलती तो इतनी ख़ुशी न होती।”

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि जब कोई मुसलमान अपने मुसलमान भाई के लिए ग़ाइबाना (अनुपस्थिति में) दुआ करता है तो ख़ुदा उसको क़बूल फ़रमाता है और दुआ करनेवाले के सिरहाने एक फ़रिश्ता मुक़र्रर रहता है कि जब वह आदमी अपने भाई के लिए अच्छी दुआ करता है तो फ़रिश्ता 'आमीन' कहता है और कहता है, तेरे लिए भी वही कुछ है जो तू अपने भाई के लिए माँग रहा है। (मुस्लिम)

अपनी ख़ुलूस भरी दुआओं में ख़ुदा से यह दरख़ास्त करते रहिए कि ऐ ख़ुदा! हमारे दिलों को कीना और दुश्मनी की धूल से धो दे और हमारे सीनों को ख़ुलूस और मुहब्बत से जोड़ दे और हमारे ताल्लुक़ात को आपसी मेल-जोल और एकता के ज़रिए ख़ुशगवार बना।

क़ुरआन पाक की इस दुआ का भी एहतिमाम कीजिए—

रब्ब-नग़फ़िर लना व लि-इख़वानिनल्लज़ी-न स-बक़ूना बिल ईमानि व ला तज-अल फ़ी क़ुलूबिना ग़िल्लल लिल्लज़ी-न आमनू रब्बना इन्न-क रऊफ़ुर्रहीम।

“ऐ रब। हमारी और हमारे इन भाइयों की मग़फ़िरत फ़रमा जो ईमान में हम से बाज़ी ले गए और हमारे दिलों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कीना और कुदूरत न रहने दे। ऐ हमारे रब! तू बहुत ही मेहरबान, बहुत ही रहम करनेवाला है।" (अल-हश्र 59:10)

27. मेज़बानी के आदाब

1. मेहमान के आने पर ख़ुशी और मुहब्बत ज़ाहिर कीजिए और बड़ी ख़ुशदिली, खुले मन और इज़्ज़त के साथ उसका स्वागत कीजिए। तंगदिली, बेरुख़ी, कुढ़न और घुटन को हरगिज़ ज़ाहिर न कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो लोग ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर यक़ीन रखते हैं उन्हें अपने मेहमान का सत्कार करना चाहिए।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

आदर-सत्कार में वे तमाम बातें शामिल हैं जो मेहमान के मान-सम्मान, राहत व आराम, सुकून व ख़ुशी और भावनाओं की तस्कीन के लिए हों। खुले दिल और खुले मन से पेश आना, हँसी-ख़ुशी की बातों से दिल बहलाना, इज़्ज़त के साथ बैठने-लेटने का इन्तिज़ाम करना, अपने प्यारे दोस्तों से परिचय और भेंट कराना, उसकी ज़रूरतों का ख़याल करना, बड़ी ख़ुशदिली और फ़राख़दिली के साथ खाने-पीने का इन्तिज़ाम करना और आदर-सत्कार में लगे रहना, ये सभी बातें मेहमान के सत्कार में दाख़िल हैं।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास जब मेहमान आते तो आप ख़ुद ही उनकी ख़ातिरदारी फ़रमाते।

जब आप मेहमान को अपने दस्तरख़ान पर खाना खिलाते तो बार-बार फ़रमाते, “और खाइए, और खाइए।" जब मेहमान का दिल भर जाता और इनकार करता तब आप इसरार करने से रुक जाते।

2. मेहमान के आने पर सबसे पहले उससे दुआ-सलाम कीजिए और ख़ैर व आफ़ियत मालूम कीजिए। क़ुरआन में है—

“क्या आपको इबराहीम के इज़्ज़तदार मेहमानों की दास्तान भी पहुँची है कि जब वे उनके पास आए तो आते ही सलाम किया। इबराहीम ने जवाब में सलाम किया।" (क़ुरआन, 51:24)

3. दिल खोलकर मेहमान का स्वागत कीजिए और जो अच्छे से अच्छा मिले, मेहमान के सामने फ़ौरन पेश कीजिए। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के मेहमान जब आए तो हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) फ़ौरन उनके खाने-पीने के इंतिज़ाम में लग गए और जो मोटा-ताज़ा बछड़ा उनके पास था, उसी का गोश्त भूनकर मेहमानों की ख़िदमत में पेश किया।

क़ुरआन में है—

“तो जल्दी से घर में जाकर एक मोटा-ताज़ा बछड़ा (ज़बह करके भुनवा) लाए और मेहमानों के सामने पेश किया।" (क़ुरआन, 51:26)

यहाँ जो अरबी शब्द आए हैं, उसका एक मतलब यह भी है कि वे चुपके से घर में मेहमानों के सत्कार का इन्तिज़ाम करने चले गए, इसलिए कि मेहमानों को दिखाकर और जताकर उनके खाने-पीने और सत्कार की दौड़-धूप होगी तो वे शर्म और मेज़बान की तकलीफ़ की वजह से मना करेंगे और पसन्द न करेंगे कि उनकी वजह से मेज़बान किसी ग़ैर-मामूली परेशानी में पड़े और फिर मेज़बान के लिए मौक़ा न होगा कि वह भरपूर ख़ातिरदारी कर सके।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मेहमान की ख़ातिरदारी पर जिस अंदाज़ से उभारा है उसका नक़्शा खींचते हुए अबू शुरैह (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“मेरी इन दो आँखों ने देखा और इन दो कानों ने सुना, जबकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यह हिदायत दे रहे थे: “जो लोग ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर यक़ीन रखते हों, उन्हें अपने मेहमानों का सत्कार करना चाहिए। मेहमान के इनाम का मौक़ा पहली रात और दिन है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

पहली रात और दिन की मेज़बानी को इनाम कहने का मतलब यह है कि जिस तरह इनाम देनेवाला दिल की इंतिहाई ख़ुशी और मुहब्बत की गहरी भावनाओं के साथ इनाम देते हुए रूहानी लज़्ज़त और ख़ुशी महसूस करता है, ठीक यही बात पहली रात और दिन के मेज़बान की होनी चाहिए। और जिस तरह इनाम लेनेवाला ख़ुशी की भावनाओं में डूबकर इनाम देनेवाले के एहसान की क़द्र करते हुए अपना हक़ समझकर इनाम वसूल करता है, ठीक उसी हालत को पहली रात और दिन में मेहमान को भी ज़ाहिर करना चाहिए और बिना किसी झिझक के अपना हक़ समझते हुए ख़ुशी और क़ुरबत की भावनाओं के साथ मेज़बान की भेंट क़बूल करना चाहिए।

4. मेहमान के आते ही उसकी इनसानी ज़रूरतों का एहसास कीजिए। ज़रूरत पूरी करने के लिए पूछिए। मुँह-हाथ धोने का एहतिमाम कीजिए, ज़रूरत हो तो नहाने का भी इंतिज़ाम कीजिए खाने-पीने का वक़्त न हो जब भी मालूम कर लीजिए और इस बेहतर तरीक़े से कि मेहमान तकल्लुफ़ में इनकार न करे। जिस कमरे में लेटने-बैठने और ठहराने की व्यवस्था हो, वह मेहमान को बता दीजिए।

5. हर वक़्त मेहमान के पास धरना मारे बैठे न रहिए और इसी तरह रात गए तक मेहमान को परेशान न कीजिए ताकि मेहमान को आराम करने का मौक़ा मिले और वह परेशानी महसूस न करे। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के पास जब मेहमान आए तो उनके खाने-पीने का इन्तिज़ाम करने के बाद मेहमान से कुछ देर के लिए अलग हो गए।

6. मेहमानों के खाने-पीने पर ख़ुशी महसूस कीजिए। तंगदिली, कुढ़न और कोफ़्त महसूस न कीजिए। मेहमान परेशानी नहीं, बल्कि रहमत और बरकत का ज़रिया होता है और ख़ुदा जिसको आपके यहाँ भेजता है उसकी रोज़ी भी उतार देता है। वह आपके दस्तरख़ान पर आपकी क़िस्मत का नहीं खाता बल्कि अपनी क़िस्मत का खाता है और आपके आदर-सत्कार में बढ़ोत्तरी की वजह बनता है।

7. मेहमान की इज़्ज़त व आबरू का भी ध्यान रखिए और उसकी इज़्ज़त व आबरू को अपनी इज़्ज़त व आबरू समझिए। आपके मेहमान की इज़्ज़त पर कोई हमला करे तो उसको अपनी ग़ैरत के ख़िलाफ़ चुनौती समझिए।

क़ुरआन में है कि जब लूत (अलैहिस्सलाम) के मेहमानों पर बस्ती के लोग बदनियती के साथ हमलावर हुए तो वे रोकने के लिए उठ खड़े हुए और कहा कि ये लोग मेरे मेहमान हैं। इनके साथ बदसुलूकी करके मुझे रुसवा न करो, इनकी रुसवाई मेरी रुसवाई है।

लूत (अलैहिस्सलाम) ने कहा—

“भाइयो! ये मेरे मेहमान हैं, मुझे रुसवा न करो। ख़ुदा से डरो और मेरी बेइज़्ज़ती से बाज़ रहो।" (क़ुरआन 15:68-69)

8. तीन दिन तक बड़े शौक़ और वलवले के साथ मेज़बानी के तक़ाज़े पूरे कीजिए। तीन दिन तक की मेहमानी मेहमान का हक़ है और हक़ अदा करने में मोमिन को बड़े खुले दिल का होना चाहिए। पहला दिन ख़ास सत्कार का है, इसलिए पहले दिन मेहमान नवाज़ी का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए। बाद के दो दिनों में अगर वह ग़ैर-मामूली एहतिमाम न रह सके तो कोई हरज नहीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“और मेहमानदारी तीन दिन तक है। इसके बाद मेज़बान जो कुछ करेगा, वह उसके लिए सदक़ा होगा।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

9. मेहमान की ख़िदमत को अपना अख़लाक़ी फ़र्ज़ समझिए और मेहमान को नौकरों या बच्चों के हवाले करने के बजाए ख़ुद उनकी ख़िदमत और आराम के लिए कमर कसे रहिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) प्यारे मेहमानों की मेहमानदारी ख़ुद फ़रमाते थे। हज़रत इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) जब इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ जाकर मेहमान के तौरपर ठहरे तो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम से उन्हें एक कमरे में सुला दिया। भोर में इमाम शाफ़ई ने सुना कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया और बड़ी मुहब्बत से आवाज़ दी, आपपर ख़ुदा की रहमत हो, नमाज़ का वक़्त हो गया है। इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) तुरन्त उठे, क्या देखते हैं कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) हाथ में पानी का भरा हुआ लोटा लिए खड़े हैं। इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) को कुछ शर्म सी महसूस हुई। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ताड़ गए और निहायत मुहब्बत से बोले, “भाई! तुम कोई ख़याल न करो। मेहमान की ख़िदमत तो करनी ही चाहिए।”

10. मेहमान को ठहराने के बाद बैतुलख़ला (शौचालय) बता दीजिए। पानी का लोटा दे दीजिए और क़िबले का रुख़ भी बता दीजिए। नमाज़ की जगह और मुसल्ला वग़ैरह मुहय्या कर दीजिए। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के ख़ादिम ने इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) को एक कमरे में ठहराने के बाद कहा, "हज़रत! क़िबले का रुख़ यह है, पानी का बरतन यहाँ रखा है, बैतुलख़ला इस ओर है।"

11. खाने के लिए जब हाथ धुलाएँ तो पहले ख़ुद हाथ धोकर दस्तरख़ान पर पहुँचिए और फिर मेहमान का हाथ धुलाइए। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने जब यही अमल किया तो इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) ने इसकी वजह पूछी, फ़रमाया, “खाने से पहले तो मेज़बान को पहले हाथ धोना चाहिए और दस्तरख़ान पर पहुँचकर मेहमान का स्वागत करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए और खाने के बाद मेहमान का हाथ धुलवाना चाहिए और सबके बाद मेज़बान को हाथ धोना चाहिए। हो सकता है कि उठते-उठते कोई और आ पहुँचे।"

12. दस्तरख़ान पर खाने-पीने का सामान और बरतन वग़ैरह मेहमानों की तादाद से ज़्यादा रखिए, हो सकता है कि खाने के दौरान कोई और साहब आ जाएँ और फिर उनके लिए इन्तिज़ाम करने को दौड़ना-भागना पड़े। अगर बरतन और सामान पहले से मौजूद होगा तो आनेवाला भी हल्केपन के बजाए ख़ुशी और इज़्ज़त महसूस करेगा।

13. मेहमान के लिए त्याग से काम लीजिए। ख़ुद तकलीफ़ उठाकर उसको आराम पहुँचाइए।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में एक आदमी आया और बोला, "हुजूर! मैं भूख से बेताब हूँ।" आपने अपनी बीवी के यहाँ कहलवाया कि खाने के लिए जो कुछ भी मौजूद हो, भेज दो।" जवाब आया, "उस ख़ुदा की क़सम जिसने आपको पैग़म्बर बनाकर भेजा है, यहाँ तो पानी के सिवा और कुछ नहीं है।" फिर आपने दूसरी बीवी के यहाँ कहला भेजा, वहाँ से भी यही जवाब आया, यहाँ तक कि आपने एक-एक करके सब बीवियों के यहाँ कहलवाया और सबके यहाँ से उसी तरह का जवाब आया। अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने सहाबियों की ओर मुतवज्जह हुए और फ़रमाया, “आज रात के लिए इस मेहमान को कौन क़बूल करता है?" एक अनसारी सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! मैं क़बूल करता हूँ।"

अनसारी मेहमान को अपने घर ले गए और घर जाकर बीवी को बताया, "मेरे साथ यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मेहमान हैं, इनकी ख़ातिरदारी करो।" बीवी ने कहा, "मेरे पास तो सिर्फ़ बच्चों के लायक़ खाना है।" सहाबी ने कहा, "बच्चों को किसी तरह बहलाकर सुला दो और जब मेहमान के सामने खाना रखो तो किसी बहाने से चिराग़ बुझा देना, ताकि उसको यह महसूस हो कि हम भी खाने में शरीक हैं।”

इस तरह मेहमान ने पेट भरकर खाना खाया और घरवालों ने सारी रात फ़ाक़े से गुज़ारी। सुबह जब यह सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो आपने देखते ही फ़रमाया, “तुम दोनों ने रात अपने मेहमान के साथ जो अच्छा व्यवहार किया, वह ख़ुदा को बहुत ही पसन्द आया।” (बुख़ारी, मुस्लिम)

14. अगर आपके मेहमान ने कभी किसी मौक़े पर आपके साथ बेमुरव्वती और रूखेपन का व्यवहार किया हो तब भी आप उसके साथ बड़े खुले दिल का व्यवहार कीजिए।

हज़रत अबुल अहवस जश्मी (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपने बाप के बारे में बयान करते हैं कि एक बार उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा—

“अगर किसी के पास मेरा गुज़र हो और वह मेरी मेहमानी का हक़ अदा न करे और फिर कुछ दिनों के बाद उसका गुज़र मेरे पास हो तो क्या मैं उसकी मेहमानी का हक़ अदा करूँ? या उस (की बेमुरव्वती और बेरुख़ी) का बदला उसे चखाऊँ? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, “नहीं, बल्कि तुम उसकी मेहमानी का हक़ अदा करो।” (मिश्कात)

15. मेहमान से अपने हक़ में ख़ैर व बरकत की दुआ के लिए दरख़ास्त कीजिए, ख़ास तौर से अगर मेहमान नेक, दीनदार और बुज़ुर्ग हो। हज़रत अब्दुल्लाह बिन बिस्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरे बाप के यहाँ मेहमान ठहरे। हमने आपके सामने हरीसा पेश किया। आपने थोड़ा-सा खाया, फिर हमने खजूरें पेश कीं। आप खजूरें खाते थे और गुठलियाँ शहादत की उँगली और बीच की उँगली में पकड़-पकड़कर फेंकते जाते थे, फिर पीने के लिए कुछ पेश किया गया। आपने पी लिया और अपने दाईं तरफ़ बैठनेवाले के आगे बढ़ा दिया। जब आप तशरीफ़ ले जाने लगे तो वालिद साहब ने आपकी सवारी की लगाम पकड़ ली और दरख़ास्त की कि हुज़ूर हमारे लिए दुआ फ़रमाएँ। और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह दुआ फ़रमाई—

अल्लाहुम-म बारिक लहुम फ़ीमा र-ज़क़-तहुम वग़्फ़िर लहुम वर-हमहुम। (तिरमिज़ी)

“ऐ अल्लाह! तूने इनको जो रोज़ी दी है उसमें बरकत फ़रमा, इनकी मग़फ़िरत फ़रमा और इनपर रहम कर।"

28. मेहमानी के आदाब

1. किसी के यहाँ मेहमान जाएँ तो हैसियत के मुताबिक़ मेज़बान या मेज़बान के बच्चों के लिए कुछ तोहफ़े-तहाइफ़ लेते जाएँ और तोहफ़े में मेज़बान के ज़ौक और पसन्द पर ध्यान दीजिए| तोहफ़ों और उपहारों के लेन-देन से मुहब्बत और ताल्लुक़ात के जज़्बे बढ़ते हैं और तोहफ़ा देनेवाले के लिए दिल में गुंजाइश पैदा होती है।

2. जिसके यहाँ भी मेहमान बनकर जाएँ, कोशिश करें कि तीन दिन से ज़्यादा न ठहरें अलावा इसके कि कोई ख़ास हालात पैदा हो जाएँ और मेज़बान आग्रह करे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“मेहमान के लिए जायज़ नहीं कि वह मेज़बान के यहाँ इतना ठहरे कि उसको परेशानी में डाल दे।” (अल-अदबुल मुफ़रद)

सही मुस्लिम में है—

"मुसलमान के लिए जायज़ नहीं कि वह अपने भाई के यहाँ इतना ठहरे कि उसको गुनाहगार कर दे।" लोगों ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! गुनाहगार कैसे करेगा?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“इस तरह कि वह उसके पास इतना ठहरे कि मेज़बान के पास मेज़बानी के लिए कुछ न रहे।"

3. हमेशा दूसरों के ही मेहमान न बनिए, दूसरों को भी अपने यहाँ आने की दावत दीजिए और दिल खोलकर आदर-सत्कार कीजिए।

4. मेहमानी में जाएँ तो मौसम के लिहाज़ से ज़रूरी सामान और बिस्तर वग़ैरह लेकर जाएँ। जाड़े में ख़ास तौर पर बग़ैर बिस्तर के हरगिज़ न जाइए वरना मेज़बान को तकलीफ़ होगी और यह हरगिज़ मुनासिब नहीं कि मेहमान मेज़बान के लिए वबाले जान बन जाए।

5. मेज़बान के कामों और ज़िम्मेदारियों का भी ख़याल रखिए और इसका एहतिमाम कीजिए कि आपकी वजह से मेज़बान के कामों पर असर न पड़े और ज़िम्मेदारियों में ख़लल न पड़े।

6. मेज़बान से तरह-तरह की माँगें न कीजिए। वह आपके सत्कार के लिए और आपका दिल रखने के लिए ख़ुद जो एहतिमाम करे उसी पर मेज़बान का शुक्रिया अदा कीजिए और उसको किसी बेजा मशक़्क़त में न डालिए।

7. अगर आप मेज़बान की औरतों के लिए 'नामहरम' हैं तो मेज़बान के न रहने पर बेवजह उनसे बातें न कीजिए, न उनकी आपस की बातों पर कान लगाइए और इस ढंग से रहिए कि आपकी बातों और तौर-तरीक़ों से उन्हें कोई परेशानी भी न हो और किसी वक़्त बेपरदगी भी न होने पाए।

8. और अगर किसी वजह से आप मेज़बान के साथ न खाना चाहें या रोज़े से हों तो बड़े अच्छे अन्दाज़ में बता दें और मेज़बान के लिए ख़ैर व बरकत की दुआ माँगें।

जब हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने आनेवाले प्यारे मेहमानों के सामने तकल्लुफ़ भरा खाना रखा और वे हाथ खींचे ही रहे तो हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने दरख़ास्त की, “आप लोग खाते क्यों नहीं?" जवाब में फ़रिश्तों ने हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को तसल्ली देते हुए कहा—

"आप नागवार न महसूस फ़रमाएँ। असल में हम खा नहीं सकते, हम तो सिर्फ़ आपको एक लायक़ बेटे के पैदा होने की ख़ुशख़बरी देने आए हैं।"

9. जब किसी के यहाँ दावत में जाएँ तो खाने-पीने के बाद मेज़बान के लिए बेहतरीन रोज़ी, ख़ैर व बरकत और मग़फ़िरत व रहमत की दुआ कीजिए। हज़रत अबुल हैसम बिन तैहान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके सहाबा की दावत की। जब आप लोग खाने से फ़ारिग़ हुए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "अपने भाई का बदला दो।" सहाबा ने पूछा, “बदला क्या दें? ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)!" फ़रमाया– “जब आदमी अपने भाई के यहाँ जाए और वहाँ खाए पिए तो उसके हक़ में ख़ैर व बरकत की दुआ करे। यह उसका बदला है।” (अबू दाऊद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार हज़रत साद बिन उबादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के यहाँ तशरीफ़ ले गए। हज़रत साद ने रोटी और ज़ैतून पेश किया। आपने खाया और यह दुआ फ़रमाई—

अफ़-त-र इन्-दकुमुस्साइमू-न व अ-क-ल तआ-मकुमुल अबरारु व सल्लत अलैकुमुल मलाइ-कह।

"तुम्हारे यहाँ रोज़ेदार रोज़ा इफ़्तार करें, नेक लोग तुम्हारा खाना खाएँ और फ़रिश्ते तुम्हारे लिए रहमत व मग़फ़िरत की दुआ करें।" (अबू दाऊद)

29. मज्लिस के आदाब

1. हमेशा अच्छे लोगों की सोहबत में बैठने की कोशिश कीजिए।

2. मज्लिस में जो बातें हो रही हों उनमें हिस्सा लीजिए, मज्लिस की बातों में शरीक न होना और माथे पर लकीरें डाले बैठे रहना घमण्ड की निशानी है। मज्लिस में सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जिन बातों में लगे होते, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) भी उन बातों में शरीक रहते। मज्लिस में ग़मगीन और ढीले होकर न बैठिए। मुस्कुराते चेहरे के साथ ख़ुश व ख़ुर्रम बैठिए।

3. कोशिश कीजिए कि आपकी कोई मज्लिस ख़ुदा और आख़िरत के ज़िक्र से ख़ाली न रहे और जब आप महसूस करें कि मौजूद लोग दीनी बातों में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं तो बातों का रुख़ किसी दुनियावी मसले की तरफ़ फेर दें और फिर जब मुनासिब मौक़ा पाएँ तो बातों का रुख़ हिकमत के साथ दीन के किसी विषय की ओर फेरने की कोशिश करें।

4. मज्लिस में जहाँ जगह मिल जाए बैठ जाइए। मजमे को चीरते और कूदते-फलाँगते आगे जाने की कोशिश न कीजिए। ऐसा करने से आनेवालों और बैठनेवालों को भी तकलीफ़ होती है और ऐसा करनेवालों में भी अपनी बड़ाई का एहसास और घमण्ड पैदा होता है।

5. मज्लिस में से किसी बैठे हुए आदमी को उठाकर उसकी जगह बैठने की कोशिश न कीजिए। यह इंतिहाई बुरी आदत है। इससे दूसरों के दिल में नफ़रत और कीना भी पैदा होता है और अपने को बड़ा समझना और अपनी अहमियत बताना भी ज़ाहिर होता है।

6. अगर मज्लिस में लोग घेरा डाले बैठे हों तो उनके बीच में न बैठिए। यह सख़्त क़िस्म की बदतमीज़ी और मस्ख़रापन है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसा करनेवाले पर लानत भेजी है।

7. मज्लिस में बैठे हुए लोगों में से अगर कोई किसी ज़रूरत से उठकर चला जाए तो उसकी जगह पर क़ब्ज़ा न कीजिए, उसकी जगह बचाए रखिए। हाँ, अगर यह मालूम हो जाए कि वह आदमी अब वापस न आएगा तो फिर बेतकल्लुफ़ी से उस जगह बैठ सकते हैं।

8. अगर मज्लिस में दो आदमी एक-दूसरे के क़रीब बैठ गए हों तो उनसे इजाज़त लिए बग़ैर उनको अलग-अलग न कीजिए, क्योंकि वे आपसी बेतकल्लुफ़ी या मुहब्बत या किसी और मस्लहत से क़रीब बैठे होंगे और उनको अलग-अलग करने से उनके दिल को तकलीफ़ होगी।

9. मज्लिस में किसी ख़ास जगह पर बैठने से परहेज़ कीजिए। किसी के यहाँ जाएँ तो वहाँ भी उसकी ख़ास जगह पर बैठने की कोशिश न कीजिए। हाँ, अगर वह ख़ुद ही इसरार करे तो बैठने में कोई हरज नहीं। मज्लिस में हमेशा अदब से बैठिए, पाँव फैलाकर या पिंडलियाँ खोलकर न बैठिए।

10. यह कोशिश न कीजिए कि आप बहरहाल सदर (अध्यक्ष) के क़रीब ही बैठें, बल्कि जहाँ जगह मिले बैठ जाइए और इस तरह बैठिए कि बाद में आनेवालों को जगह मिलने और बैठने में कोई कष्ट न हो और जब लोग ज़्यादा आ जाएँ तो सिमटकर बैठ जाइए और आनेवालों को खुले दिल से जगह दे दीजिए।

11. मज्लिस में किसी के सामने या आस-पास खड़े न रहना चाहिए। एहतिराम का यह तरीक़ा इस्लामी मिज़ाज के ख़िलाफ़ है।

12. मज्लिस में दो आदमी आपस में चुपके-चुपके बातें न करें, इससे दूसरों को यह एहसास भी होता है कि उन्होंने हमें अपने राज़ की बातों में शरीक करने के क़ाबिल न समझा और यह बदगुमानी भी होती है कि शायद हमारे ही बारे में कोई बात कर रहे हों।

13. मज्लिस में जो कुछ कहना हो, मज्लिस के सदर से इजाज़त लेकर कहिए और बातों या सवाल व जवाब में ऐसा अन्दाज़ न अपनाइए कि आप ही मज्लिस के सदर मालूम होने लगें। यह अपने को नुमायाँ करना भी है और मज्लिस के सदर के साथ ज़्यादती भी।

14. एक वक़्त में एक ही आदमी को बोलना चाहिए और हर आदमी की बात ग़ौर से सुनना चाहिए। अपनी बात कहने के लिए ऐसी बेताबी नहीं होनी चाहिए कि सब एक ही साथ बोलने लगें और मज्लिस में हड़बोंग होने लगे।

15. मज्लिस में जो बातें राज़ की हों उनको जगह-जगह बयान न करना चाहिए। मज्लिस का यह हक़ है कि उसके राज़ों की हिफ़ाज़त की जाए।

16. मज्लिस में जिस विषय पर बात हो रही हो, जब तक उसके बारे में कुछ तय न हो जाए, दूसरा विषय न छेड़िए और न दूसरे की बात काटकर अपनी बात शुरू कीजिए। अगर कभी कोई ऐसी ज़रूरत पेश आ जाए कि आपके लिए तुरन्त बोलना ज़रूरी हो तो बोलनेवाले से पहले इजाज़त ले लीजिए।

17. मज्लिस के सदर को बातें करते समय तमाम लोगों की तरफ़ तवज्जोह रखनी चाहिए और दाएँ-बाएँ हर ओर रुख़ फेर-फेरकर बात करनी चाहिए और आज़ादी के साथ हर एक को ख़याल ज़ाहिर करने का मौक़ा देना चाहिए।

18. मज्लिस बर्ख़ास्त होने से पहले यह दुआ पढ़िए और फिर मज्लिस बर्ख़ास्त कीजिए—

अल्लाहुम्मक़्सिम लना मिन ख़श्यति-क मा तहूलु बै-नना व बै-न मअ-सि-यति-क व मिन ताअति-क मा तुबल्लिग़ुना बिही जन्न-त-क, व मिनल यक़ीनि मा तहूनु बिही अलैना मज़ार्रुद्-दुनया, अल्लाहुम-म मत्तिअ्ना बिअस्माइना व अब्सारिना व क़ुव्वतिना मा अहयै-तना वज-अलहुल वारि-स मिन्ना, वज-अल सअ-रना अला मन ज़-ल-म-ना वन्सुरना अला मन आदाना व ला तज- अल मुसी-ब-तना फ़ी दीनिना वला तज-अलिद्-दुनया अक-ब-र हम्मिना, व ला मब-ल-ग़ इल्मिना व ला तुसल्लित अलैना मल्ला यर-हमुना। (तिरमिज़ी)

“ऐ अल्लाह! तू हमें अपना डर नसीब कर जो हमारे और नाफ़रमानियों के दरमियान में आड़ बन जाए और वह फ़रमाँबरदारी दे जो हमें तेरी जन्नत में पहुँचा दे और हमें वह पक्का यक़ीन दे, जिससे हमारे लिए दुनिया के नुक़सान मामूली हो जाएँ। ऐ ख़ुदा! तू जब तक हमको रखे, हमें हमारे सुनने-देखने की ताक़तों और जिस्मानी तवानाइयों (शारीरिक शक्तियों) से फ़ायदा उठाने का मौक़ा दे और इस भलाई को हमारे बाद भी बाक़ी रख और जो हमपर ज़ुल्म करे उससे हमारा बदला ले और जो हमसे दुश्मनी करे उसपर हमें ग़लबा अता फ़रमा और हमें दीन की आज़माइश में न डाल और दुनिया को हमारा सबसे बड़ा मक़सद न बना और दुनिया को हमारे ज्ञान व विवेक (इल्म व बसीरत) की इंतिहा (आख़िरी हद) ठहरा और न हमपर उस आदमी को क़ाबू दे जो हमपर दया न करे।"

30. सलाम के आदाब

1. जब किसी मुसलमान भाई से मुलाक़त हो तो उससे अपने ताल्लुक़ और ख़ुशी को ज़ाहिर करने के लिए 'अस्सलामु अलैकुम' कहिए।

क़ुरआन पाक में है—

“ऐ नबी! जब आपके पास वे लोग आएँ जो हमारी आयतों पर ईमान लाते हैं तो उनसे कहिए, अस्सलामु अलैकुम।” (क़ुरआन, 6:54)

इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ख़िताब करते हुए उम्मत को यह उसूली तालीम दी गई है कि मुसलमान जब भी किसी मुसलमान से मिले तो दोनों ही मुहब्बत और ख़ुशी के जज़्बों का तबादला करें और इसका बेहतरीन तरीक़ा यह है कि एक-दूसरे के लिए सलामती और आफ़ियत की दुआ करें। एक 'अस्सलामु अलैकुम' कहे तो दूसरा जवाब में 'व अलैकुमुस्सलाम' कहे। सलाम आपसी मुहब्बत और लगाव को बढ़ाने और उसे मज़बूत करने का ज़रिया है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"तुम लोग जन्नत में नहीं जा सकते जब तक कि मोमिन नहीं बनते, और तुम मोमिन नहीं बन सकते जब तक कि एक-दूसरे से मुहब्बत न करो। मैं तुम्हें वह तदबीर क्यों न बता दूँ जिसको अपनाकर तुम आपस में एक दूसरे से मुहब्बत करने लगो। आपस में सलाम फैलाओ।” (मिश्कात)

2. हमेशा इस्लामी तरीक़े पर सलाम कीजिए। किसी से बात करें या पत्र-व्यवहार करें तो हमेशा किताब व सुन्नत के बताए हुए ये लफ़्ज़ (शब्द) ही इस्तेमाल कीजिए, इस्लामी तरीक़े को छोड़कर सोसायटी में जारी लफ़्ज़ और अन्दाज़ न अपनाइए। इस्लाम का बताया हुआ ख़िताब करने का यह अन्दाज़ बहुत सादा, मानीदार और असर से भरा हुआ भी है और सलामती और आफ़ियत से भरपूर दुआ भी। आप जब अपने किसी भाई से मिलते हुए 'अस्सलामु अलैकुम' कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि ख़ुदा तुम्हें हर क़िस्म की सलामती और आफ़ियत से नवाज़े, ख़ुदा तुम्हारे जान व माल को सलामत रखे, घर-बार को सलामत रखे, घरवालों और मुताल्लिक़ लोगों को सलामत रखे, दीन व ईमान को सलामत रखे, दुनिया भी सलामत रहे और आख़िरत भी। ख़ुदा तुम्हें उन सलामतियों से भी नवाज़े जो मेरी जानकारी में हैं और उन सलामतियों से भी नवाज़े जो मेरी जानकारी में नहीं हैं। मेरे दिल में तुम्हारा हित चाहने, मुहब्बत करने, ख़ुलूस दिखाने और सलामती व आफ़ियत चाहने की इंतिहाई गहरी भावनाएँ हैं। इसलिए तुम मेरी तरफ़ से कभी कोई डर महसूस न करना। मेरे तरीक़े से तुम्हें कोई दुख न पहुँचेगा। सलाम के शब्द पर 'अस' लगाकर 'अस्सलामु' कहकर आप मुख़ातब के लिए सलामती और आफ़ियत की सारी दुआएँ समेट लेते हैं। आप अन्दाज़ा कीजिए कि अगर वे शब्द चेतना के साथ सोच-समझकर आप अपनी ज़बान से निकालें तो मुख़ातब की मुलाक़ात पर दिली ख़ुशी ज़ाहिर करने और ख़ुलूस व मुहब्बत, भला चाहने और वफ़ादारी की भावनाओं को ज़ाहिर करने के लिए इससे बेहतर शब्द क्या हो सकते हैं। 'अस्सलामु अलैकुम' के शब्दों में भाई का स्वागत करके आप यह कहते हैं कि आपको वह हस्ती सलामती दे जो आफ़ियत का स्रोत और पूरी तरह सलाम है, जिसका नाम ही अस्सलाम है और वही सलामती और आफ़ियत पा सकता है जिसको वह सलामत रखे और जिसको वह सलामती से महरूम कर दे, वह दोनों जहान में सलामती से महरूम है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"अस्सलाम' ख़ुदा के नाम में से एक नाम है जिसको ख़ुदा ने ज़मीन में (ज़मीनवालों के लिए) रख दिया है, अत: 'अस्सलाम' को आपस में ख़ूब फैलाओ।” (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा ने जब हज़रत आदम को पैदा फ़रमाया तो उनको फ़रिश्तों की एक जमाअत के पास भेजते हुए यह हुक्म दिया कि जाओ और इन बैठे हुए फ़रिश्तों को सलाम करो और वे सलाम के जवाब में जो दुआ दें उसको ग़ौर से सुनना (और महफ़ूज़ रखना), इसलिए कि यही तुम्हारी और तुम्हारी औलाद की दुआ होगी। चुनाँचे हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) फ़रिश्तों के पास पहुँचे और कहा, 'अस्सलामु अलैकुम'। फ़रिश्तों ने जवाब में कहा, 'अस्सलामु अलै-क व रहमतुल्लाहि' यानी 'वरहमतुल्लाहि' को बढ़ाकर जवाब दिया।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

क़ुरआन में है कि फ़रिश्ते जब मोमिन की रूह क़ब्ज़ करने आते हैं तो आकर 'सलाम अलैक' करते हैं—

"ऐसी ही जज़ा देता है ख़ुदा तक़वावालों को, उन तक़वावाले लोगों को जिनकी रूहें पाकीज़गी की हालत में जब फ़रिश्ते क़ब्ज़ करते हैं तो कहते हैं, 'सलामुन अलैकुम', जाओ जन्नत में दाख़िल हो जाओ अपने (भले) कामों के बदले में।" (क़ुरआन, 16:31-32)

जन्नत के दरवाज़े पर जब यह तक़वावाले लोग पहुँचेंगे तो जन्नत के ज़िम्मेदार भी इन्हीं शब्दों के साथ उनका शानदार स्वागत करेंगे।

“और जो लोग पाकीज़गी और फ़रमाँबरदारी की ज़िन्दगी गुज़ारते रहे उनके जत्थे जन्नत की ओर रवाना कर दिए जाएँगे और जब वे वहाँ पहुँचेंगे तो उसके दरवाज़े पहले से ही (उनके स्वागत में) खुले हुए होंगे, तो जन्नत के ज़िम्मेदार उनसे कहेंगे 'सलामुन अलैकुम' बहुत ही अच्छे रहे, दाख़िल हो जाओ इस जन्नत में हमेशा के लिए।” (क़ुरआन, 39:73)

और जब ये लोग जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे तो फ़रिश्ते जन्नत के हर-हर दरवाज़े से दाख़िल होकर उनको 'अस्सलामु अलैकुम' कहेंगे। क़ुरआन में है—

“और फ़रिश्ते हर दरवाज़े से उनके स्वागत के लिए आएँगे और उनसे कहेंगे, 'सलामुन अलैकुम' यह बदला है तुम्हारे जमाव और साबित क़दमी की रविश का, अतः क्या ही ख़ूब है यह आख़िरत का घर।" (क़ुरआन, 13:23-24)

जन्नतवाले आपस में ख़ुद भी एक-दूसरे का स्वागत इन ही बोलों के साथ करेंगे।

"वहाँ उनकी ज़बान पर यह आवाज़ होगी कि ऐ ख़ुदा! तू पाक व बरतर है और उनकी आपस में दुआ यह होगी कि 'सलाम' (हो तुमपर)।"

और ख़ुदा की तरफ़ से भी उनके लिए सलाम व रहमत की आवाज़ें होंगी।

“जन्नतवाले उस दिन ऐश और ख़ुशी के कामों में होंगे। वे और उनकी औरतें घने सायों में मसहरियों पर तकिया लगाए (ख़ुश-ख़ुश बैठे) होंगे। उनके लिए जन्नत में हर क़िस्म के मज़ेदार मेवे होंगे और वह सब कुछ होगा, जो वे तलब करेंगे। दयावान रब की ओर से उनके लिए सलाम की पुकार है।" (क़ुरआन, 36:55-58)

ग़रज़ जन्नत में ईमानवालों के लिए चारों ओर सलाम ही सलाम की आवाज़ होगी।

“न वहाँ बेहूदा बकवास सुनेंगे और न गुनाह की बातें, बस (हर तरफ़) सलाम-सलाम ही की आवाज़ होगी।” (क़ुरआन, 56:25-26)

किताब व सुन्नत की इन खुली हिदायतों और गवाहियों के होते हुए मोमिन के लिए किसी तरह जायज़ नहीं कि वह ख़ुदा और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए तरीक़े को छोड़कर मुहब्बत और ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए दूसरे तरीक़े अपनाए।

3. हर मुसलमान को सलाम कीजिए चाहे उससे पहले से परिचय और ताल्लुक़ात हों या न हों। ताल्लुक़ात और परिचय के लिए इतनी बात ही काफ़ी है कि वह आपका मुसलमान भाई है और मुसलमान के लिए मुसलमान के दिल में मुहब्बत, ख़ुलूस, भलाई और वफ़ादारी की भावनाएँ होनी चाहिएँ।

एक आदमी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा, "इस्लाम का बेहतरीन अमल कौन-सा है?" आपने फ़रमाया—

“ग़रीबों को खाना खिलाना और हर मुसलमान को सलाम करना, चाहे तुम्हारी उससे जान-पहचान हो या न हो।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

4. जब आप अपने घर में दाख़िल हों तो घरवालों को सलाम कीजिए। क़ुरआन में है—

“अत: जब तुम अपने घरों में दाख़िल हुआ करो, तो अपने (घरवालों) को सलाम किया करो, भलाई की दुआ ख़ुदा की तरफ़ से तालीम की हुई बड़ी ही बरकतवाली और पाकीज़ा।" (क़ुरआन, 24:61)

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ताकीद फ़रमाई कि प्यारे बेटे! जब तुम अपने घर में दाख़िल हुआ करो तो पहले घरवालों को सलाम किया करो। यह तुम्हारे लिए और तुम्हारे घरवालों के लिए भलाई और बरकत की बात है। (तिरमिज़ी)

इसी तरह जब आप किसी दूसरे के घर जाएँ तो घर में दाख़िल होने से पहले सलाम कीजिए। सलाम किए बिना घर के भीतर न जाइए।

“ऐ मोमिनो! अपने घरों के सिवा दूसरों के घरों में दाख़िल न हुआ करो जब तक कि घरवालों की इजाज़त न ले लो और घरवालों को सलाम न कर लो।” (क़ुरआन, 24:27)

हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के पास जब फ़रिश्ते इज़्ज़तदार मेहमानों की हैसियत से पहुँचे तो उन्होंने आकर सलाम किया और इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने जवाब में उनको सलाम किया।

5. छोटे बच्चों को भी सलाम कीजिए। यह बच्चों को सलाम सिखाने का बेहतरीन तरीक़ा भी है और नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत भी। हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) बच्चों के पास से गुज़रे तो उनको सलाम किया और फ़रमाया, "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) भी ऐसा ही किया करते थे।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

और हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ख़त में भी बच्चों को सलाम लिखा करते थे। (अल-अदबुल मुफ़रद)

6. औरतें भी मर्दों को सलाम कर सकती हैं और मर्द भी औरतों को सलाम कर सकते हैं। हज़रत अस्मा अनसारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि मैं अपनी सहेलियों में बैठी हुई थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का हमारे पास से गुज़र हुआ तो आपने हम लोगों को सलाम किया। (अल-अदबुल मुफ़रद)

और हज़रत उम्मे हानी (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। आप उस वक़्त नहा रहे थे। मैंने आपको सलाम किया तो आपने पूछा, "कौन?” मैंने कहा, “उम्मे हानी हूँ।” फ़रमाया, “ख़ूब! स्वागत है।"

7. ज़्यादा से ज़्यादा सलाम करने की आदत डालिए और सलाम करने में कभी कोताही न कीजिए। आपस में ज़्यादा से ज़्यादा सलाम किया कीजिए। सलाम करने से मुहब्बत बढ़ती है और ख़ुदा हर नुक़सान से बचाता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मैं तुम्हें ऐसा उपाय बताता हूँ। जिसको अपनाने से तुम्हारे बीच दोस्ती और मुहब्बत बढ़ जाएगी, आपस में ज़्यादा से ज़्यादा एक-दूसरे को सलाम किया करो।"

और आपने यह भी फ़रमाया, "सलाम को ख़ूब फैलाओ, ख़ुदा तुमको सलामत रखेगा।"

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथी (सहाबा) बहुत ज़्यादा सलाम किया करते थे। सलाम की ज़्यादती का हाल यह था कि अगर किसी वक़्त आपके साथी किसी पेड़ की ओट में हो जाते और फिर सामने आते, तो फिर सलाम करते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी अपने मुसलमान भाई से मिले तो उसको सलाम करे और अगर पेड़ या दीवार या पत्थर बीच में ओट बन जाए और वह फिर उसके सामने आए तो उसको फिर सलाम करे।" (रियाज़ुस्सालिहीन)

हज़रत तुफ़ैल (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैं अकसर हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िदमत में हाज़िर होता और आपके साथ बाज़ार जाया करता, जब हम दोनों बाज़ार जाते तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिसके पास से भी गुज़रते, उसको सलाम करते, चाहे वह कोई कबाड़िया होता, चाहे कोई दुकानदार होता, चाहे कोई ग़रीब और मिस्कीन होता, ग़रज़ कोई भी होता आप उसको सलाम ज़रूर करते।

एक दिन मैं अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िदमत में आया तो उन्होंने कहा—

“चलो बाज़ार चलें। मैंने कहा, "हज़रत! बाज़ार जाकर क्या कीजिएगा। आप न तो सौदे की ख़रीदारी के लिए खड़े होते हैं, न किसी माल के बारे में जानकारी रखते हैं, न मोल-भाव करते हैं और न ही बाज़ार की महफ़िलों में बैठते हैं। आइए, यहाँ बैठकर कुछ बातचीत करें।" हज़रत ने फ़रमाया, "ऐ अबू बत्न (तोंदवाले) हम तो सिर्फ़ सलाम करने की ग़रज़ से बाज़ार जाते हैं कि हमें जो मिले हम उसे सलाम करें।" (मुवत्ता इमाम मालिक)

8. सलाम अपने मुसलमान भाई का हक़ समझिए और हक़ को अदा करने में उदारता का सबूत दीजिए। सलाम करने में कभी कमी न कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर यह हक़ है कि जब मुसलमान भाई से मिले तो उसको सलाम करे।" (मुस्लिम)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि सबसे बड़ा कंजूस वह है जो सलाम करने में कंजूसी करे। (अल-अदबुल मुफ़रद)

9. सलाम करने में हमेशा पहल कीजिए और अगर कभी ख़ुदा न ख़ास्ता किसी से अनबन हो जाए तब भी सलाम करने और सुलह-सफ़ाई करने में पहल कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"वह आदमी ख़ुदा से ज़्यादा क़रीब है जो सलाम करने में पहल करता है।" (अबू दाऊद)

और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"किसी मुसलमान के लिए यह बात जायज़ नहीं कि वह अपने मुसलमान भाई से तीन दिन से ज़्यादा तक ताल्लुक़ तोड़े रहे कि जब दोनों मिलें तो एक इधर कतरा जाए और एक उधर। इनमें अफ़ज़ल वह है, जो सलाम में पहल करे।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से किसी ने पूछा कि जब दो आदमी एक-दूसरे से मिलें तो दोनों में कौन पहले सलाम करे। फ़रमाया, "जो उन दोनों में ख़ुदा के नज़दीक ज़्यादा बेहतर हो।" (तिरमिज़ी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) सलाम में पहल करने का इतना एहतिमाम फ़रमाते कि कोई आदमी उनसे सलाम करने में पहल नहीं कर सकता था।

10. हमेशा ज़बान से 'अस्सलामु अलैकुम' कहकर सलाम कीजिए और ज़रा ऊँची आवाज़ में सलाम कीजिए ताकि वह आदमी सुन सके जिसको आप सलाम कर रहे हैं। अलबत्ता अगर कहीं ज़बान से 'अस्सलामु अलैकुम' कहने के साथ सिर से इशारा करने की ज़रूरत हो तो कोई हरज नहीं, जैसे— आप जिसको सलाम कर रहे हैं वह दूर है और ख़याल है कि आपकी आवाज़ उस तक न पहुँच सकेगी या कोई बहरा है और आपकी आवाज़ नहीं सुन सकता तो ऐसी हालत में इशारा कीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

"जब किसी को सलाम करो तो अपना सलाम उसको सुनाओ, इसलिए कि सलाम ख़ुदा की तरफ़ से निहायत पाकीज़ा और बरकतवाली दुआ है।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत असमा बिन्त यज़ीद (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं—

एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मस्जिद के पास से गुज़रे। वहाँ कुछ औरतें बैठी हुई थीं तो आपने उनको हाथ के इशारे से सलाम किया। (तिरमिज़ी)

मतलब यह है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ज़बान से 'अस्सलामु अलैकुम' कहने के साथ-साथ हाथ के इशारे से भी सलाम किया। इसी बात की ताईद इस रिवायत से भी होती है जो अबू दाऊद में है। हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हमारे पास से गुज़रे तो हमें सलाम किया। इसलिए सही बात यह है कि सलाम ज़बान से ही कीजिए, अलबत्ता कहीं ज़रूरत हो तो हाथ या सिर के इशारे से भी काम लीजिए।

11. अपने बड़ों को सलाम करने का एहतिमाम कीजिए। जब आप पैदल चल रहे हों और कुछ लोग बैठे हों तो बैठनेवालों को सलाम कीजिए और जब आप किसी छोटी टोली के साथ हों और कुछ ज़्यादा लोगों से मुलाक़ात हो जाए तो सलाम करने में पहल कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“छोटा बड़े को, चलनेवाला बैठे हुए को और थोड़े लोग ज़्यादा लोगों को सलाम करने में पहल करें।"

12. अगर आप सवारी पर चल रहे हों तो पैदल चलनेवालों को और राह में बैठे हुए लोगों को सलाम कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“सवारी पर चलनेवाले, पैदल चलनेवालों को और पैदल चलनेवाले बैठे हुए लोगों को और थोड़े आदमी ज़्यादा आदमियों को सलाम करने में पहल करें।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

13. किसी के यहाँ मिलने जाएँ या किसी की बैठक में पहुँचें या किसी मजमे के पास से गुज़रें या किसी मज्लिस में पहुँचें तो पहुँचते वक़्त भी सलाम कीजिए और जब वहाँ से विदा होने लगें तब भी सलाम कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जब तुम किसी मज्लिस में पहुँचो तो सलाम करो और जब वहाँ से विदा होने लगो तो फिर सलाम करो और याद रखो कि पहला सलाम दूसरे सलाम से ज़्यादा अज्र का हक़दार नहीं है कि आते वक़्त तो आप सलाम का बड़ा एहतिमाम करें और जब विदा होने लगें तो सलाम न करें और विदाई सलाम को कोई अहमियत न दें।" (तिरमिज़ी)

14. मज्लिस में आएँ तो पूरी मज्लिस को सलाम कीजिए, ख़ास तौर पर किसी का नाम लेकर सलाम न कीजिए। एक दिन हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) मज्लिस में थे कि एक माँगनेवाला आया और उसने आपका नाम लेकर सलाम किया। हज़रत ने फ़रमाया, "ख़ुदा ने सच फ़रमाया और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तबलीग़ का हक़ अदा कर दिया" और फिर आप घर में तशरीफ़ ले गए। लोग इन्तिज़ार में बैठे रहे कि आपके फ़रमाने का मतलब क्या है। ख़ैर जब आप आए तो हज़रत तारिक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा कि हज़रत! हम लोग आपकी बात का मतलब न समझ सके, तो फ़रमाया, "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि क़ियामत के क़रीब, लोग मज्लिसों में, लोगों को ख़ास-ख़ासकर के सलाम करने लगेंगे।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

15. अगर अपने किसी बुज़ुर्ग या अज़ीज़ और दोस्त को किसी दूसरे के ज़रिए सलाम कहलवाने का मौक़ा हो या किसी के ख़त में सलाम लिखवाने का मौक़ा हो तो इस मौक़े से ज़रूर फ़ायदा उठाइए और सलाम कहलवाइए।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझसे फ़रमाया—

“आइशा! जिब्रील (अलैहिस्सलाम) तुमको सलाम कर रहे हैं।" मैंने कहा, “व अलैकुमुस्सलामु व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

16. अगर आप किसी ऐसी जगह पहुँचें जहाँ कुछ लोग सो रहे हों तो ऐसी आवाज़ में सलाम कीजिए कि जागनेवाले सुन लें और सोनेवालों की नींद में ख़लल न पड़े।

हज़रत मिक़दाद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिए कुछ दूध रख लिया करते थे। जब आप कुछ रात गए तशरीफ़ लाते तो आप इस तरह सलाम करते कि सोनेवाला जागे नहीं और जागनेवाला सुन ले। अत: नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तशरीफ़ लाए और मामूल के मुताबिक़ सलाम किया। (मुस्लिम)

17. सलाम का जवाब बड़ी ख़ुशदिली के साथ और हँसते-मुस्कुराते दीजिए। यह मुसलमान भाई का हक़ है। इस हक़ को अदा करने में कभी भी कोताही न कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मुसलमान पर मुसलमान के पाँच हक़ हैं—

  • सलाम का जवाब देना,
  • बीमारों का हाल पूछना,
  • जनाज़े के साथ जाना,
  • दावत क़बूल करना, और
  • छींक का जवाब देना।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "रास्ते में बैठने से परहेज़ करो।" लोगों ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! हमारे लिए तो रास्तों में बैठना ज़रूरी है।" तो नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "अगर तुम्हारे लिए रास्तों में बैठना ऐसा ही ज़रूरी है तो बैठो, लेकिन रास्ते का हक़ ज़रूर अदा करो।" लोगों ने कहा, "रास्ते का हक़ क्या है?" अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "निगाहें नीची रखना, दुख न देना, सलाम का जवाब देना, नेकियों पर उभारना और बुराइयों से रोकना।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

18. सलाम के जवाब में 'व अलैकुमुस्सलाम' कहने पर ही बस न कीजिए बल्कि 'व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू' के शब्दों को भी बढ़ा दीजिए।

क़ुरआन पाक में है—

“और जब कोई तुम्हें दुआ-सलाम करे तो उसको उससे बेहतर दुआ दो या फिर वही लफ़्ज़ जवाब में कह दो।" (क़ुरआन, 4:86)

मतलब यह है कि सलाम के जवाब में कोताही न करो। सलाम के शब्दों में कुछ बढ़ाकर के उससे बेहतर दुआ दो, वरना कम से कम वही शब्द दोहरा दो, बहरहाल जवाब ज़रूर दो।

हज़रत इमरान बिन हसीन (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तशरीफ़ फ़रमा थे कि एक आदमी आया और उसने आकर 'अस्सलामु अलैकुम' कहा। आपने सलाम का जवाब दिया और फ़रमाया, "दस"। (यानी दस नेकियाँ) मिलीं। फिर एक दूसरा आदमी आया और उसने अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि कहा, आपने सलाम का जवाब दे दिया और फ़रमाया "बीस" (यानी बीस नेकियाँ) मिलीं। इसके बाद एक तीसरा आदमी आया और उसने आकर कहा, 'अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू।' आपने जवाब दिया और फ़रमाया, "तीस" (यानी उसको तीस नेकियाँ) मिलीं। (तिरमिज़ी)

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार मैं हज़रत अबू बक्र के पीछे सवारी पर था। हम जिन लोगों के पास से गुज़रते, अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) उन्हें 'अस्सलामु अलैकुम' कहते और वे जवाब देते 'व अलैकुमुस्सलामु व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू।' इस पर अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया कि आज तो लोग बुज़ुर्गी में हम से बहुत बढ़ गए। (अल-अदबुल मुफ़रद)

19. जब किसी से मुलाक़ात हो तो सबसे पहले 'अस्सलामु अलैकुम' कहिए। यकबारगी बात शुरू कर देने से बचिए, जो बातचीत भी करनी हो सलाम के बाद कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो कोई सलाम से पहले कुछ बात करने लगे, उसका जवाब न दो।” (मुस्लिम)

20. इन हालात में सलाम करने से बचिए

  • जब लोग क़ुरआन व हदीस पढ़ने-पढ़ाने या सुनने-सुनाने में लगे हों,
  • जब कोई ख़ुतबा देने और सुनने में लगा हो,
  • जब कोई अज़ान या तकबीर कह रहा हो,
  • जब किसी मज्लिस में किसी दीनी विषय पर बात हो रही हो या कोई किसी को कोई दीनी हुक्म समझा रहा हो,
  • जब उस्ताद पढ़ाने में लगा हो, और
  • जब कोई अपनी ज़रूरत पूरी करने बैठा हो।

और नीचे के हालात में न सिर्फ़ सलाम करने से बचिए, बल्कि अपनी बेतकल्लुफ़ी और रूहानी तकलीफ़ को हिकमत के साथ ज़ाहिर कीजिए—

  • जब कोई फ़िस्क़ व फ़ुजूर और शरीअत के ख़िलाफ़ खेल-तमाशे में लगकर दीन की तौहीन कर रहा हो,
  • जब कोई गाली-गलौज, बेहूदा बकवास, झूठी-सच्ची, ग़ैरसंजीदा बातें और फ़हश मज़ाक़ करके दीन को बदनाम कर रहा हो,
  • जब कोई दीन व शरीअत के ख़िलाफ़ नियम और सिद्धान्त का प्रचार कर रहा हो और लोगों को दीन से बिदकाने और बिदअत और बेदीनी अपनाने पर उभार रहा हो।
  • जब कोई दीनी अक़ीदों और पहचान की बेहुर्मती कर रहा हो और शरीअत के नियमों और हुक्मों का मज़ाक़ उड़ाकर अपनी अन्दरूनी ख़राबी और निफ़ाक़ का सबूत दे रहा हो।

21. जब किसी मज्लिस में मुसलमान और मुशरिक दोनों जमा हों तो वहाँ सलाम कीजिए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक बार ऐसी मज्लिस के पास से गुज़रे जिसमें मुस्लिम और मुशरिक सभी शामिल थे, तो आपने उन सबको सलाम किया। (अल-अदबुल मुफ़रद)

22. अगर किसी ग़ैर-मुस्लिम को सलाम करने की ज़रूरत पेश आए तो 'अस्सलामु अलैकुम' न कहिए, बल्कि 'आदाब अर्ज़', और जवाब में 'तस्लीमात' वग़ैरह क़िस्म के लफ़्ज़ इस्तेमाल कीजिए और हाथ या सिर से भी कोई ऐसा इशारा न कीजिए जो इस्लामी अक़ीदे और इस्लामी मिज़ाज के ख़िलाफ़ हो।

हिरक़्ल के नाम जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़त भेजा था, उसमें सलाम के शब्द ये थे—

"सलाम है उसपर जो हिदायत की पैरवी करे।"

23. सलाम के बाद मुहब्बत और ख़ुशी का अक़ीदा ज़ाहिर करने के लिए मुसाफ़ा भी कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुद भी मुसाफ़ा फ़रमाते और आपके सहाबा भी आपस में मिलते तो मुसाफ़ा करते। आपने सहाबा किराम को मुसाफ़ा करने की ताकीद फ़रमाई और उसकी बड़ाई और अहमियत पर बहुत से पहलुओं से रौशनी डाली।

हज़रत क़तादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछा, "क्या सहाबा में मुसाफ़ा का रिवाज था?" हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जवाब दिया, "जी हाँ, था।" (बुख़ारी)

हज़रत सलमा बिन वरदान (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि मैंने हज़रत मालिक बिन अनस (रहमतुल्लाह अलैह) को देखा कि लोगों से मुसाफ़ा कर रहे हैं। मुझसे पूछा, “तुम कौन हो?” मैंने कहा, "बनी लैस का ग़ुलाम हूँ।" आपने मेरे सिर पर तीन बार हाथ फेरा और फ़रमाया, "ख़ुदा तुम्हें ख़ैर व बरकत से नवाज़े।"

एक बार जब यमन के कुछ लोग आए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से कहा, “तुम्हारे पास यमन के लोग आए हैं और आनेवालों में ये मुसाफ़े के ज़्यादा हक़दार हैं।” (अबू दाऊद)

हज़रत हुज़ैफ़ा बिन यमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया, “जब दो मोमिन मिलते हैं और सलाम के बाद मुसाफ़े के लिए एक-दूसरे का हाथ अपने हाथ में लेते हैं तो दोनों के गुनाह इस तरह झड़ जाते हैं, जिस तरह के पेड़ से (सूखे) पत्ते।” (तबरानी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "मुकम्मल सलाम यह है कि मुसाफ़े के लिए हाथ भी मिलाए जाएँ।"

24. कोई दोस्त, अज़ीज़ या बुज़ुर्ग सफ़र से वापस आए तो गले मिलिए। हज़रत ज़ैद बिन हारिसा (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब मदीना आए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के यहाँ पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया। आप अपनी चादर घसीटते हुए दरवाज़े पर पहुँचे, उनसे गले मिले और माथे का बोसा दिया। (तिरमिज़ी)

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि जब सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) आपस में मिलते तो मुसाफ़ा करते और अगर सफ़र से वापस आते तो गले मिलते। (तबरानी)

31. इयादत (रोगी का हाल पूछने) के आदाब

1. मरीज़ की इयादत ज़रूर कीजिए। इयादत करने की हैसियत सिर्फ़ यही नहीं है कि वह इज्तिमाई (सामूहिक) ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है या आपसी मदद और सेवा के जज़्बे को उभारने का ज़रिया है, बल्कि यह मुसलमान पर दूसरे मुसलमान भाई का दीनी हक़ है और ख़ुदा से मुहब्बत का एक ज़रूरी तक़ाज़ा है। ख़ुदा से ताल्लुक़ रखनेवाला ख़ुदा के बन्दों से बेताल्लुक़ नहीं हो सकता। मरीज़ का हाल पूछना और उसके काम आने से ग़फ़लत बरतना असल में ख़ुदा से ग़फ़लत है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि क़ियामत के दिन ख़ुदा फ़रमाएगा—

“ऐ आदम के बेटे! मैं बीमार पड़ा और तूने मेरी इयादत नहीं की?" बन्दा कहेगा, "परवरदिगार! तू सारी दुनिया का पालनहार है, भला मैं तेरी इयादत कैसे करता?" ख़ुदा कहेगा, “अगर तू उसका हाल पूछने जाता तो मुझे वहाँ पाता (यानी तू मेरी ख़ुशनूदी और रहमत का हक़दार क़रार पाता)।” (मुस्लिम)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर छः हक़ हैं।" पूछा गया, "ऐ अल्लाह के रसूल! वे क्या हैं?" फ़रमाया:

—“जब तुम मुसलमान भाई से मिलो तो उसको सलाम करो,

—जब वह तुम्हें दावत के लिए बुलाए तो उसकी दावत क़बूल करो,

—जब वह तुमसे नेक मशविरे माँगे तो उसकी भलाई चाहो और नेक मशविरा दो,

—जब उसको छींक आए और वह 'अल-हम्दुलिल्लाह' कहे तो उसके जवाब में 'यर्हमुकल्लाह' कहो,

—जब वह बीमार पड़ जाए तो उसकी इयादत करो, और

—जब वह मर जाए तो उसके जनाज़े के साथ जाओ।” (मुस्लिम)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जिसने अपने मुसलमान भाई की इयादत की वह जन्नत के ऊपरी हिस्से में होगा।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जब कोई बन्दा अपने मुसलमान भाई की इयादत करता है या उससे मुलाक़ात के लिए जाता है तो एक पुकारनेवाला आसमान से पुकारता है, तुम अच्छे रहे, तुम्हारा चलना अच्छा रहा, तुमने अपने लिए जन्नत में ठिकाना बना लिया।" (तिर्मिज़ी)

2. मरीज़ के सिरहाने बैठकर उसके सिर या बदन पर हाथ फेरिए और तसल्ली भरे बोल बोलिए, ताकि उसका ज़ेहन आख़िरत के अज्र व सवाब की तरफ़ मुतवज्जोह हो और बेसब्री और शिकवा-शिकायत की कोई बात उसकी ज़बान पर न आए।

हज़रत आइशा बिन्त साद (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि मेरे वालिद ने अपना क़िस्सा सुनाया— "मैं एक बार मक्के में सख़्त बीमार पड़ा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरी इयादत के लिए तशरीफ़ लाए तो मैंने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं काफ़ी माल छोड़ रहा हूँ, मेरी सिर्फ़ एक ही बच्ची है। क्या मैं अपने माल में से दो तिहाई वसीयत कर जाऊँ और एक तिहाई बच्ची के लिए छोड़ दूँ? फ़रमाया, “नहीं।" मैंने कहा, “आधे माल की वसीयत कर जाऊँ और आधा लड़की के लिए छोड़ जाऊँ?" फ़रमाया, “नहीं।” मैंने अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! फिर एक तिहाई की वसीयत कर जाऊँ?" फ़रमाया, "हाँ, एक तिहाई की वसीयत कर जाओ और एक तिहाई बहुत है।" इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपना हाथ मेरे माथे पर रखा और फिर मेरे मुँह पर और पेट पर फेरा, फिर दुआ की—

"ऐ ख़ुदा! साद को शिफ़ा दे और उसकी हिजरत को पूरा कर दे।"

इसके बाद से आज तक जब भी ख़याल आता है तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुबारक हाथ की ठंडक अपने जिगर पर महसूस करता हूँ। (अल-अदबुल मुफ़रद)

हज़रत ज़ैद बिन अरक़म (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार मेरी आँखें दुखने आ गईं तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरा हाल पूछने के लिए तशरीफ़ लाए और कहने लगे, "ज़ैद! तुम्हारी आँख में यह तकलीफ़ है तो तुम क्या करते हो?" मैंने अर्ज़ किया कि सब्र व बरदाश्त करता हूँ।" आपने फ़रमाया, "तुमने आँखों की इस तकलीफ़ में सब्र व बरदाश्त से काम लिया तो तुम्हें इसके बदले में जन्नत नसीब होगी।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी मरीज़ की इयादत को जाते तो उसके सिरहाने बैठते थे। इसके बाद सात बार फ़रमाते-

अस्-अलुल्ला-हल अज़ी-म रब्बल अरशिल अज़ीमि अंय्यशफ़ि-यक।

“मैं बहुत बड़े ख़ुदा से जो बड़े अर्श का रब है, सवाल करता हूँ कि वह तुझे शिफ़ा दे।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि यह दुआ सात बार पढ़ने से मरीज़ को ज़रूर शिफ़ा होगी, अलावा इसके कि उसकी मौत हो गई हो। (मिश्कात)

हज़रत जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उम्मुस्साइब (एक बूढ़ी औरत) की इयादत को आए। उम्मुस्साइब बुख़ार की तेज़ी से काँप रही थीं। पूछा, “क्या हाल है?" औरत ने कहा— “ख़ुदा इस बुख़ार को समझे, इसने घेर रखा है।" यह सुनकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “बुख़ार को बुरा भला न कहो। यह मोमिन के गुनाहों को इस तरह साफ़ कर देता है, जैसे आग की भट्टी लोहे के मोर्चे को साफ़ कर देती है।" (अल-अदबुल मुफ़रद)

3. मरीज़ के पास जाकर उसकी तबीयत का हाल पूछिए और उसके लिए सेहत की दुआ कीजिए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब मरीज़ के पास पहुँचते तो पूछते, “कहिए, कैसी तबीयत है?" फिर तसल्ली देते और फ़रमाते, “घबराने की कोई बात नहीं, ख़ुदा ने चाहा तो यह मरज़ जाता रहेगा और यह मरज़ गुनाहों से पाक होने का ज़रिया साबित होगा।" और तकलीफ़ की जगह पर सीधा हाथ फेरते और यह दुआ फ़रमाते—

अल्लाहुम्-म रब्बन्नासि अज़हिबिल बअ्-स वश्फ़िही अन्तश्-शाफ़ी ला शिफ़ा-अ इल्ला शिफ़ाउ-क शिफ़ाअल्-ला युग़ादिरु स-क़मा।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

"ऐ ख़ुदा! ऐ इनसानों के रब! इस तकलीफ़ को दूर फ़रमा, इसको शिफ़ा अता फ़रमा, तू ही शिफ़ा देनेवाला है, तेरे सिवा किसी से शिफ़ा की उम्मीद नहीं, ऐसी शिफ़ा बख़्श कि बीमारी का नाम व निशान न रहे।"

4. मरीज़ के पास ज़्यादा देर तक न बैठिए और न शोर हंगामा कीजिए। हाँ, अगर मरीज़ आपका कोई बेतकल्लुफ़ दोस्त या अज़ीज़ हो और वह ख़ुद आपको देर तक बिठाए रखने का ख़ाहिशमंद हो तो आप ज़रूर उसकी भावनाओं का एहतिराम कीजिए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मरीज़ के पास ज़्यादा देर तक न बैठना और शोर हंगामा न करना सुन्नत है।

5. मरीज़ के रिश्तेदारों से भी मरीज़ का हाल पूछिए और हमदर्दी ज़ाहिर कीजिए और जो ख़िदमत कर सकते हों ज़रूर कीजिए। जैसे— डॉक्टर को दिखाना, हाल कहना, दवा वग़ैरह लाना और अगर ज़रूरत हो तो माली मदद भी कीजिए।

हज़रत इबराहीम बिन अबी हबला (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं, एक बार मेरी बीवी बीमार पड़ गईं। मैं उन दिनों हज़रत उम्मुद्दर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास आया-जाया करता था। जब मैं उनके पास पहुँचता तो फ़रमातीं, “कहो, तुम्हारी बीवी की तबीयत कैसी है?" मैं जवाब देता, “अभी तो बीमार हैं।" फिर वह खाना मँगवाती और मैं उनके यहाँ बैठकर खाना खाता और वापस जाता। एक दिन जब मैं पहुँचा और उन्होंने हाल पूछा तो मैंने बताया कि ख़ुदा के फ़ज़्ल व करम से अब क़रीब-क़रीब अच्छी हो गई हैं। फ़रमाने लगीं, "जब तुम कहते थे कि बीवी बीमार हैं तो मैं तुम्हारे खाने का इन्तिज़ाम कर दिया करती थी, अब जब वह ठीक हो गई हैं तो इस इन्तिज़ाम की क्या ज़रूरत है।"

6. ग़ैर मुस्लिम मरीज़ को पूछने के लिए भी जाइए और मुनासिब मौक़ा पाकर हिकमत के साथ उसको दीने हक़ की तरफ़ मुतवज्जोह कीजिए। बीमारी में आदमी ख़ुदा की तरफ़ कुछ ज़्यादा मुतवज्जोह होता है और भली बात अपनाने की भावना भी आम तौर से ज़्यादा उभार पर होती है।

हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि एक यहूदी लड़का नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत किया करता था। एक बार वह बीमार पड़ा तो आप उसका हाल पूछने के लिए तशरीफ़ ले गए। आप उसके सिरहाने बैठे तो उसको इस्लाम की दावत दी। लड़का अपने बाप की ओर देखने लगा जो पास ही मौजूद था (कि बाप का क्या ख़याल है?)। बाप ने लड़के से कहा, "(बेटे!) अबुल क़ासिम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बात मान ले।" चुनाँचे लड़का मुसलमान हो गया। अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसके यहाँ से यह कहते हुए बाहर आए, “शुक्र है उस ख़ुदा का, जिसने इस लड़के को जहन्नम से बचा लिया।”

7. मरीज़ के घर हाल पूछने के लिए पहुँचें तो इधर-उधर ताकने से परहेज़ कीजिए और एहतियात के साथ इस अन्दाज़ से बैठिए कि घर की औरतों पर निगाह न पड़े।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक बार किसी मरीज़ का हाल पूछने के लिए गए। उनके साथ कुछ और लोग भी थे। घर में एक औरत भी मौजूद थी। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथियों में से एक साहब उस औरत को घूरने लगे- हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) को जब महसूस हुआ तो फ़रमाया, "अगर तुम अपनी आँख फोड़ लेते तो तुम्हारे हक़ में बहुत बेहतर होता।"

8. जो लोग एलानिया फ़िस्क़ व फ़ुजूर में पड़े हों और बड़ी बेशर्मी और ढिठाई के साथ ख़ुदा की नाफ़रमानी कर रहे हों, उनका हाल पूछने के लिए न जाइए।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि शराब पीनेवाले जब बीमार पड़ जाएँ तो उनका हाल पूछने के लिए न जाओ।

9. मरीज़ का हाल पूछने के लिए जाइए तो मरीज़ से अपने लिए भी दुआ कराइए।

इब्ने माजा में है—

"जब तुम किसी मरीज़ का हाल पूछने के लिए जाओ तो उससे अपने लिए भी दुआ की दरख़ास्त करो। मरीज़ की दुआ ऐसी है जैसे फ़रिश्तों की दुआ।” (यानी फ़रिश्ते ख़ुदा की मरज़ी पाकर ही दुआ करते हैं और दुआ मक़बूल होती है।)

32. मुलाक़ात के आदाब

1. मुलाक़ात के वक़्त मुस्कुराते चेहरे से स्वागत कीजिए। ख़ुशी और मुहब्बत ज़ाहिर कीजिए और सलाम में पहल कीजिए, इसका बड़ा सवाब है।

2. सलाम और दुआ के लिए इधर-उधर के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल न कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए शब्द 'अस्सलामु अलैकुम इस्तेमाल कीजिए, फिर मौक़ा हो तो मुसाफ़ा कीजिए, मिज़ाज पूछिए और मुनासिब हो तो घरवालों की ख़ैरियत भी मालूम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए शब्द 'अस्सलामु अलैकुम' बहुत मानीदार (Meaningful) हैं। इसमें दीन व दुनिया की तमाम सलामतियाँ और हर तरह की ख़ैर व आफ़ियत शामिल है। यह भी ख़याल रखिए कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुसाफ़ा करते वक़्त अपना हाथ तुरन्त छुड़ाने की कोशिश न करते, बल्कि इन्तिज़ार फ़रमाते कि दूसरा आदमी ख़ुद ही हाथ छोड़ दे।

3. जब किसी से मिलने जाइए तो साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर जाइए। मैले-कुचैले कपड़ों में न जाइए और न इस नीयत से जाइए कि आप अपने क़ीमती कपड़ों में उसपर रौब क़ायम करें।

4. जब किसी से मुलाक़ात का इरादा हो तो पहले उससे वक़्त ले लीजिए, यूँ ही वक़्त बेवक़्त किसी के यहाँ जाना मुनासिब नहीं है। इससे दूसरों का वक़्त भी ख़राब होता है और मुलाक़ात करनेवाला भी कभी-कभी नज़रों से गिर जाता है।

5. जब कोई आपके यहाँ मिलने आए तो मुहब्बत भरी मुस्कान से स्वागत कीजिए, इज़्ज़त से बिठाइए और मौक़े के मुताबिक़ मुनासिब आवभगत भी कीजिए।

6. किसी के पास जाइए तो काम की बातें कीजिए। बेकार की बात करके उसका और अपना वक़्त बेकार न कीजिए, वरना आपका लोगों के यहाँ जाना और बैठना उनको खलने लगेगा।

7. किसी के यहाँ जाइए तो दरवाज़े पर इजाज़त लीजिए और इजाज़त मिलने पर 'अस्सलामु अलैकुम' कहकर अन्दर जाइए और तीन बार 'अस्सलामु अलैकुम' कहने के बाद कोई जवाब न मिले तो ख़ुशी-ख़ुशी लौट आइए।

8. किसी के यहाँ जाते वक़्त कभी-कभी मुनासिब तोहफ़ा भी साथ लेते जाइए। तोहफ़ा देने-दिलाने से मुहब्बत बढ़ती है।

9. जब कोई ज़रूरतमन्द आपसे मिलने आए तो जहाँ तक मुमकिन हो, उसकी ज़रूरत पूरी कीजिए। सिफ़ारिश की दरख़ास्त करे तो सिफ़ारिश कर दीजिए और अगर ज़रूरत पूरी न कर सकें तो प्यार भरे अन्दाज़ में मना कर दीजिए, ख़ाहमख़ाह उसको उम्मीदवार न रखिए।

10. आप किसी के यहाँ अपनी ज़रूरत से जाएँ तो तहज़ीब और अदब के साथ अपनी ज़रूरत बयान कीजिए, पूरी हो जाए तो शुक्रिया अदा कीजिए। न हो सके तो सलाम करके ख़ुश-ख़ुश लौट आइए।

11. हमेशा यही ख़ाहिश न रखिए कि लोग आप से मिलने आएँ, ख़ुद भी दूसरों से मिलने जाइए आपस में मेल-जोल बढ़ाना और एक-दूसरे के काम आना बड़ी पसन्दीदा बात है। लेकिन ख़याल रखिए कि मोमिनों का मेल-जोल हमेशा नेक मक़सदों के लिए होता है।

12. मुलाक़ात के वक़्त अगर आप देखें कि मिलनेवाले के चेहरे व दाढ़ी या कपड़ों पर कोई तिनका या कोई और चीज़ है तो हटा दीजिए और अगर कोई दूसरा आपके साथ यह अच्छा व्यवहार करे तो शुक्रिया अदा कीजिए और यह दुआ कीजिए—

मस्स-हल्लाहु अन-क मा तक-रहु।

“अल्लाह आपसे उन चीज़ों को दूर फ़रमाए जो आपको नागवार हैं।"

13. रात के वक़्त किसी के यहाँ जाने की ज़रूरत हो तो उसके आराम का ख़याल रखिए। ज़्यादा देर न बैठिए और अगर जाने के बाद अन्दाज़ा हो कि वह सो गया तो बिना किसी कुढ़न के ख़ुश-ख़ुश वापस आ जाइए।

14. कुछ लोग मिलकर किसी से मुलाक़ात के लिए जाएँ तो बात करनेवाले को बातों में सबकी नुमाइन्दगी करनी चाहिए। बातों में अपनी ख़ास शान ज़ाहिर करने, अपनी अहमियत जताने, अपने साथियों को नज़रअन्दाज़ करने और मुख़ातब को सिर्फ़ अपनी ज़ात की ओर मुतवज्जोह करने से सख़्ती से परहेज़ कीजिए।

33. बात करने के आदाब

1. हमेशा सच बोलिए। सच बोलने में कभी झिझक न महसूस कीजिए चाहे कितना ही बड़ा नुक़सान हो।

2. ज़रूरत के वक़्त बात कीजिए और जब भी बात कीजिए तो काम की बात कीजिए। हर वक़्त बोलना और बेज़रूरत बातें करना वक़ार और संजीदगी के ख़िलाफ़ है और ख़ुदा के यहाँ हर बात का जवाब देना है। आदमी जो भी बात मुँह से निकालता है, ख़ुदा के फ़रिश्ते उसे तुरन्त नोट कर लेते हैं।

“कोई बात उसकी ज़बान पर आती ही है कि एक निगराँ (उसको महफ़ूज़ करने के लिए) मुस्तैद (तैयार) रहता है।" (क़ुरआन 50:18)

3. जब बात कीजिए तो नर्मी के साथ कीजिए, मुस्कुराते हुए मीठे स्वर में कीजिए, हमेशा दरमियानी आवाज़ में बोलिए। न इतना धीरे बोलिए कि मुख़ातब सुन ही न सके और न इतना चीख़कर बोलिए कि मुख़ातब पर रौब जमाने का ख़तरा होने लगे। क़ुरआन में है—

"सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा और भद्दी आवाज़ गधे की है।" (क़ुरआन, 31:19)

4. कभी किसी बुरी बात से ज़बान गन्दी न कीजिए। दूसरों की बुराई न कीजिए, चुग़ली न खाइए, शिकायतें न कीजिए, दूसरों की नक़लें न उतारिए, झूठा वादा न कीजिए, किसी की हँसी न उड़ाइए, अपनी बड़ाई न कीजिए, अपनी तारीफ़ न कीजिए, कठहुज्जती न कीजिए, मुँह देखी बात भी न कीजिए, फ़ब्तियाँ न कसिए, किसी पर व्यंग न कीजिए, किसी को ज़िल्लत के नाम से न पुकारिए और बात-बात पर क़सम न खाइए।

5. हमेशा इनसाफ़ की बात कहिए, चाहे उसमें अपना या अपने किसी दोस्त और रिश्तेदार का नुक़सान ही क्यों न हो।

"और जब ज़बान से कुछ कहो तो इनसाफ़ की बात कहो, चाहे वह तुम्हारा रिश्तेदार ही हो।"

6. नर्म, भली और दिल रखनेवाली बात कीजिए। खुर्री, बेलोच और तकलीफ़देह सख़्त बात न कहिए।

7. औरतों को अगर कभी मर्दों से बोलने का इत्तिफ़ाक़ हो तो साफ़, सीधे और खुर्रे स्वर में बात करनी चाहिए। स्वर में कोई नज़ाकत और घुलावट न पैदा करें कि सुननेवाला मर्द बुरा ख़याल दिल में लाए।

8. जाहिल बातों में उलझाना चाहें तो मुनासिब अन्दाज़ में सलाम करके वहाँ से चल दीजिए। बेकार बातें कहनेवाले और बकवास में पड़े रहनेवाले लोग उम्मत के सबसे बुरे लोग हैं।

9. सामने के आदमी को बात अच्छी तरह समझाने के लिए या किसी बात की अहमियत को बताने के लिए उसके ज़ेहन व फ़िक्र को सामने रखकर मुनासिब अन्दाज़ अपनाइए और अगर सामने का आदमी न समझ सके या न सुन सके, तो फिर अपनी बात दोहरा दीजिए और ज़रा भी न कुढ़िए।

10. हमेशा कम और मतलब की बात कीजिए, बेमतलब बातों को लम्बा करना नामुनासिब है।

11. कभी कोई दीन की बात समझानी हो या तक़रीर के ज़रिए दीन के कुछ हुक्मों को बताना और मस्लों को ज़ेहन में बिठाना हो तो बड़े सादा अन्दाज़ में दर्द के साथ अपनी बात स्पष्ट कीजिए।

तक़रीर के ज़रिए शोहरत चाहना, अपनी लच्छेदार बातों से लोगों पर रौब डालना, उनको अपना चाहनेवाला बना लेना, घमण्ड करना या सिर्फ़ दिल्लगी और हँसी-मज़ाक़ के लिए तक़रीरें करना- ये सबसे बुरी आदतें हैं जिससे दिल काला हो जाता है।

12. कभी ख़ुशामद और चापलूसी की बातें न कीजिए। अपनी इज़्ज़त का हमेशा ख़याल रखिए और कभी अपने मरतबे से गिरी हुई बात न कीजिए।

13. दो आदमी बात कर रहे हों तो इजाज़त लिए बग़ैर दख़ल न दीजिए और न कभी किसी की बात काटकर बोलने की कोशिश कीजिए। बोलना ज़रूरी ही हो तो इजाज़त लेकर बोलिए।

14. ठहर-ठहरकर सलीक़े और वक़ार के साथ बातें कीजिए, जल्द और तेज़ न कीजिए, न हर वक़्त हँसी-मज़ाक़ कीजिए, इससे आदमी की इज़्ज़त जाती रहती है।

15. कोई कुछ पूछे तो पहले ग़ौर से उसका सवाल सुन लीजिए और ख़ूब सोचकर जवाब दीजिए। बिना सोचे-समझे अलल-टप जवाब देना बड़ी नादानी है और अगर कोई दूसरे से सवाल कर रहा हो तो ख़ुद बढ़-बढ़कर जवाब न दीजिए।

16. कोई कुछ बता रहा हो तो पहले यह न कहिए कि हमें मालूम है। हो सकता है कि उसके बताने से कोई नई बात समझ में आ जाए या किसी ख़ास बात का दिल पर ख़ास असर हो जाए, इसलिए कि बात के साथ-साथ बात करनेवाले का इख़लास और नेकी भी असर करती है।

17. जिससे भी बातें करें, उसकी उम्र, मरतबे और उससे अपने ताल्लुक़ का ध्यान रखते हुए बात कीजिए। माँ-बाप, उस्ताद और दूसरे बड़ों से दोस्तों की तरह बात न कीजिए। इसी तरह छोटों से बात करें तो अपने रुतबे को ध्यान में रखकर मुहब्बत और बड़प्पन के साथ बात कीजिए।

18. बात करते वक़्त किसी की तरफ़ इशारा न कीजिए कि दूसरे को बदगुमानी हो और ख़ाहमख़ाह उसके दिल में शक गुज़रे। दूसरों की बातें छिपकर सुनने से परहेज़ कीजिए।

19. दूसरों की ज़्यादा सुनिए और ख़ुद कम से कम बात कीजिए और जो बात राज़ की हो, वह किसी से भी बयान न कीजिए। अपना राज़ दूसरे को बताकर उसकी हिफ़ाज़त की उम्मीद रखना खुली नासमझी है।

34. ख़त लिखने के आदाब

1. ख़त की शुरूआत 'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' से कीजिए। थोड़े में लिखना चाहें तो 'बिस्मिही तआला' लिखिए। प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "जिस काम के शुरू में बिसमिल्लाह नहीं की जाती वह अधूरा और बेबरकत रहता है। कुछ लोग शब्दों में लिखने के बजाए 786 लिखते हैं। इससे बचने की कोशिश कीजिए, इसलिए कि ख़ुदा के सिखाए हुए शब्दों में ही बरकत है।

2. अपना पता हर ख़त में ज़रूर लिखिए। यह सोचकर पता लिखने में हरगिज़ सुस्ती न कीजिए कि आप जिसको ख़त लिख रहे हैं, उसको पता पहले लिख चुके हैं या उसको याद होगा। यह ज़रूरी नहीं है कि आपका पता उसके पास हिफ़ाज़त से रखा हो और यह भी ज़रूरी नहीं कि उसे आपका पता याद हो।

3. अपना पता दाहिनी ओर थोड़ा-सा हाशिया छोड़कर लिखिए। पता हमेशा साफ़ और अच्छा लिखिए और पते के सही लिखे होने की तरफ़ से ज़रूर इतमीनान कर लीजिए।

4. अपने पते के नीचे/बाईं ओर ऊपर तारीख़ ज़रूर लिख दिया कीजिए।

5. तारीख़ लिखने के बाद थोड़े-से शब्दों में अलक़ाब व आदाब के ज़रिए जिसे ख़त लिख रहे हैं उसे ख़िताब कीजिए। अलक़ाब व आदाब हमेशा थोड़ा और सादा लिखिए जिससे ख़ुलूस महसूस हो और यह कि आप उससे बहुत क़रीब हैं। ऐसे अलक़ाब से बचिए जिनसे बनावट और दिखावा ज़ाहिर हो। अलक़ाब व आदाब के साथ ही या अलक़ाब के नीचे दूसरी लाइन में 'सलाम मसनून' या 'अस्सलामु अलैकुम' लिखिए। 'आदाब', 'तस्लीमात' वग़ैरह न लिखिए।

6. ग़ैर मुस्लिम को ख़त लिख रहे हों तो 'अस्सलामु अलैकुम' या 'सलाम मस्नून' लिखने के बजाए 'आदाब' या 'तस्लीमात' वग़ैरह जैसे शब्द लिखिए।

7. अलक़ाब व आदाब के बाद अपना वह असल मक़सद लिखिए जिस ग़रज़ से आप ख़त लिखना चाहते हैं। मतलब और मक़सद के बाद, जिसे आप ख़त लिख रहे हैं, उससे अपना ताल्लुक़ ज़ाहिर करनेवाले शब्दों के साथ अपना नाम लिखकर ख़त को ख़त्म कीजिए, जैसे— 'आप का ख़ादिम' (सेवक), 'दुआ का तालिब', 'हितैषी', 'दुआ गो' वग़ैरह।

8. ख़त बहुत साफ़, सादा और अच्छा लिखिए कि आसानी से पढ़ा और समझा जा सके और जिसे ख़त लिखा जा रहा है उसके दिल में उसकी क़द्र हो।

9. ख़त में साफ़-सुथरी, आसान और सुलझी हुई भाषा इस्तेमाल कीजिए।

10. ख़त थोड़ा-सा लिखिए और हर बात खोलकर साफ़-साफ़ लिखिए, सिर्फ़ इशारों से काम न लीजिए।

11. पूरे ख़त में अलक़ाब व आदाब से लेकर ख़ातमे तक, जिसको ख़त लिखा जा रहा है, उसके मरतबे का ख़याल रखिए।

12. नया पैराग्राफ़ शुरू करते वक़्त शब्द की जगह छोड़ दीजिए।

13. ख़त में हमेशा संजीदा अन्दाज़ अपनाइए। ग़ैर संजीदा बातों से बचिए।

14. ख़त कभी ग़ुस्से में न लिखिए और न कोई सख़्त-सुस्त बात लिखिए। ख़त हमेशा नर्म लहजे में लिखिए।

15. आम ख़त में कोई राज़ की बात न लिखिए।

16. जुमले के ख़ातमे पर पूर्ण विराम ज़रूर लगाइए।

17. किसी का ख़त बग़ैर इजाज़त हरगिज़ न पढ़िए यह ज़बरदस्त अख़लाक़ी ख़ियानत है। अलबत्ता घर के बुज़ुर्गों और सरपरस्तों की ज़िम्मेदारी है कि वे छोटों के ख़तों को पढ़कर उनकी तरबियत फ़रमाएँ और उन्हें मुनासिब मशविरे दें। लड़कियों के ख़तों पर ख़ास नज़र रखनी चाहिए।

18. रिश्तेदारों और दोस्तों को ख़ैर व आफ़ियत के ख़त बराबर लिखते रहिए।

19. कोई बीमार पड़ जाए, ख़ुदा न ख़ास्ता कोई हादसा हो जाए या किसी और मुसीबत में कोई फँस जाए तो उसको हमदर्दी का ख़त ज़रूर लिखिए।

20. किसी के यहाँ कोई जश्न हो, कोई रिश्तेदार आया हो या ख़ुशी का कोई और मौक़ा हो तो मुबारकबाद का ख़त ज़रूर लिखिए।

21. ख़त हमेशा नीली या काली रोशनाई (स्याही) से लिखिए। पेंसिल या लाल रोशनाई से हरगिज़ न लिखिए।

22. कोई आदमी डाक में डालने के लिए ख़त दे तो निहायत ज़िम्मेदारी के साथ ठीक वक़्त पर ज़रूर डाल दिया कीजिए। लापरवाही या देर हरगिज़ न कीजिए।

23. ग़ैर-मुताल्लिक़ लोगों को जवाब तलब बातों के लिए जवाबी कार्ड या टिकट भेज दिया कीजिए।

24, लिखकर काटना चाहें तो हल्के हाथ से उसपर लाइन खींच दिया कीजिए।

25. ख़त में सिर्फ़ अपनी दिलचस्पी और अपने ही मतलब की बातें न लिखिए, बल्कि जिसे ख़त लिखा जा रहा है उसकी भावनाओं और दिलचस्पियों का भी ख़याल रखिए। सिर्फ़ अपने से मुताल्लिक़ लोगों की ख़ैर व आफ़ियत न बताइए, बल्कि उससे मुताल्लिक़ लोगों की ख़ैर व आफ़ियत भी मालूम कीजिए और याद रखिए— ख़तों में कभी किसी से ज़्यादा माँगें न कीजिए। ज़्यादा माँग करने से आदमी की इज़्ज़त नहीं रहती।

35. कारोबार के आदाब

1. दिलचस्पी और मेहनत के साथ कारोबार कीजिए। अपनी रोज़ी ख़ुद अपने हाथों से कमाइए और किसी पर बोझ न बनिए।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में एक अनसारी आए और उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कुछ सवाल किया। आपने पूछा, “तुम्हारे घर में कुछ सामान भी है?" सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल सिर्फ़ दो चीज़ें हैं एक टाट का बिछौना जिसको हम ओढ़ते भी हैं और बिछाते भी हैं और एक पानी पीने का प्याला है।" आप ने फ़रमाया— "ये दोनों चीज़ें मेरे पास ले आओ।" सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) दोनों चीज़ें लेकर हाज़िर हो गए। आप ने वे दोनों चीज़ें दो दिरहम में नीलाम कर दीं और दोनों दिरहम उनके हवाले करते हुए फ़रमाया, “जाओ, एक दिरहम में तो कुछ खाने-पीने का सामान ख़रीद कर घरवालों को दे आओ और एक दिरहम में कुल्हाड़ी ख़रीद कर लाओ।" फिर कुल्हाड़ी में आपने अपने मुबारक हाथों से दस्ता लगाया और फ़रमाया, “जाओ जंगल से लकड़ियाँ काट-काटकर लाओ और बाज़ार में बेचो। पन्द्रह दिन के बाद हमारे पास आकर पूरी बात सुनाना।" पन्द्रह दिन के बाद जब वह सहाबी हाज़िर हुए तो उन्होंने दस दिरहम जमा कर लिए थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुश हुए और फ़रमाया—

“यह मेहनत की कमाई तुम्हारे लिए इससे कहीं बेहतर है कि तुम लोगों से माँगते फिरो और क़ियामत के दिन तुम्हारे चेहरे पर भीख माँगने का दाग़ हो।"

2. जमकर कारोबार कीजिए और ख़ूब कमाइए ताकि आप लोगों के मुहताज न रहें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से लोगों ने एक बार पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! सबसे बेहतर कमाई कौन-सी है?" फ़रमाया—

“अपने हाथ की कमाई और हर वह कारोबार जिसमें झूठ और ख़ियानत न हो।"

हज़रत अबू क़लाबा (रहमतुल्लाह अलैह) फ़रमाया करते थे—

"बाज़ार में जमकर कारोबार करो, तुम दीन पर मज़बूती के साथ जम सकोगे और लोगों से बेनियाज़ रहोगे।"

3. कारोबार बढ़ाने के लिए हमेशा सच्चाई अपनाईए। झूठी क़समों से सख़्ती के साथ परहेज़ कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“क़ियामत के दिन अल्लाह तआला न उस आदमी से बात करेगा, न उसकी ओर मुँह उठाकर देखेगा और न ही उसको पाक-साफ़ करके जन्नत में दाख़िल करेगा, जो झूठी क़समें खा-खाकर अपने कारोबार को बढ़ाने की कोशिश करता है।" (मुस्लिम)

और आपने यह भी फ़रमाया—

“अपना माल बेचने के लिए कसरत से झूठी क़समें खाने से बचो। यह चीज़ वक़्ती तौर पर तो बढ़ाने की मालूम होती है, लेकिन आख़िरकार कारोबार में बरकत ख़त्म हो जाती है।" (मुस्लिम)

4. कारोबार में हमेशा दियानत व अमानत इख़तियार कीजिए और कभी किसी को ख़राब माल देकर या जाने-पहचाने नफ़ा से ज़्यादा ग़ैर-मामूली नफ़ा लेकर अपनी हलाल कमाई को हराम न बनाइए।

ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सच्चा और अमानतदार ताजिर क़ियामत में नबियों, सिद्दीक़ों और शहीदों के साथ-साथ होगा।" (तिरमिज़ी)

5. ख़रीदारों को अच्छे से अच्छा माल देने की कोशिश कीजिए। जिस माल पर आपको इतमीनान न हो, वह हरगिज़ किसी ख़रीदार को न दीजिए और अगर कोई ख़रीदार आपसे मशविरा तलब करे तो उसको मुनासिब मशविरा दीजिए।

6. ख़रीदारों को अपने एतबार में लेने की कोशिश कीजिए कि वे आपको अपना भला चाहनेवाला समझें, आप पर भरोसा करें और उनको पूरा-पूरा इतमीनान हो कि वे आपके यहाँ कभी धोखा न खाएँगे।

नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जिसने पाक कमाई पर गुज़ारा किया, मेरी सुन्नत पर अमल किया और लोगों को अपनी ख़राबी से बचाए रखा तो यह आदमी जन्नती है, जन्नत में दाख़िल होगा।" लोगों ने अर्ज़ किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस ज़माने में तो ऐसे लोग कसरत से हैं।" आपने फ़रमाया, "मेरे बाद भी ऐसे लोग होंगे।" (तिरमिज़ी)

7. वक़्त की पाबन्दी का पूरा-पूरा ख़याल रखिए। वक़्त पर दुकान पहुँच जाइए और जमकर सब्र के साथ बैठिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"रोज़ी की खोज और हलाल कमाई के लिए सुबह-सवेरे ही चले जाया करो, क्योंकि सुबह के कामों में बरकत और फैलाव होता है।"

8. ख़ुद भी मेहनत कीजिए और नौकरों को भी मेहनत का आदी बनाइए। अलबत्ता नौकरों के हक़ों को फ़ैयाज़ी और ईसार के साथ अदा कीजिए और हमेशा उनके साथ नर्मी और अच्छाई का बरताव कीजिए। बात-बात पर ग़ुस्सा करने और शक करने से परहेज़ कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा उस उम्मत को पाकीज़गी नहीं देता जिसके माहौल में कमज़ोरों को उनका हक़ न दिलवाया जाए।"

9. ख़रीदारों के साथ हमेशा नर्मी का मामला कीजिए और क़र्ज़ माँगनेवालों के साथ सख़्ती न कीजिए, न उन्हें मायूस कीजिए और न ही उनसे तक़ाज़े में सख़्ती कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा उस आदमी पर रहम फ़रमाएगा जो ख़रीदने-बेचने और तक़ाज़ा करने में नर्मी और ख़ुश-अख़लाक़ी से काम लेता है।" (बुख़ारी)

और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया, "जिस आदमी की यह ख़ाहिश हो कि ख़ुदा उसको क़ियामत के दिन की घुटन और ग़म से बचाए तो उसे चाहिए कि तंगदस्त क़र्ज़दार को मोहलत दे या क़र्ज़ का बोझ उसके ऊपर से उतार दे।"

10. माल का ऐब छिपाने और ख़रीदार को धोखा देने से परहेज़ कीजिए। माल की ख़राबी और ऐब ख़रीदार पर खोल दीजिए।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ग़ल्ले के एक ढेर के पास से गुज़रे। आपने अपना हाथ उस ढेर में डाला तो उँगलियों में कुछ नमी महसूस हुई। आपने ग़ल्लेवाले से पूछा—

"यह क्या है?" दुकानदार ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस ढेर पर बारिश हो गई थी।" आपने फ़रमाया, "फिर तुमने भीगे हुए ग़ल्ले को ऊपर क्यों नहीं रख दिया कि लोग उसे देख लेते। जो आदमी धोखा दे, उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं।"

11. क़ीमतें बढ़ने के इंतिज़ार में खाने-पीने की चीज़ें रोककर ख़ुदा की मख़लूक़ को परेशान करने से सख़्ती के साथ बचिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जमाख़ोरी करनेवाला गुनाहगार है।"

एक मौक़े पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“जमाख़ोरी करनेवाला बुरा आदमी है। जब ख़ुदा चीज़ों को सस्ता फ़रमा देता है तो वह ग़म में घुलता है और जब क़ीमतें चढ़ जाती हैं तो उसका दिल ख़ुश हो जाता है।" (मिश्कात)

12. ख़रीदार को उसका हक़ पूरा-पूरा दीजिए। नाप-तौल में एहतिमाम कीजिए। लेने और देने का पैमाना एक रखिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नाप-तौलवाले ताजिरों को ख़िताब करते हुए बताया—

“तुम लोग दो ऐसे कामों के ज़िम्मेदार बनाए गए हो जिनकी वजह से तुमसे पहले गुज़री हुई क़ौमें हलाक हुईं।”

क़ुरआन में है—

“नाप-तौल में कमी करनेवालों के लिए हलाकत है, जो लोगों से नापकर लें तो पूरा-पूरा लें और जब उनको नाप या तौल कर दें तो कम कर दें। क्या ये लोग नहीं जानते कि ये ज़िन्दा करके उठाए भी जाएँगे? एक बड़े ही सख़्त दिन में, जिस दिन तमाम इनसान सारे जहानों के पालनहार के हुज़ूर खड़े होंगे। (83:1-6)

13. तिजारती कोताहियों का कफ़्फ़ारा ज़रूर अदा करते रहिए और ख़ुदा की राह में दिल खोलकर सदक़ा व ख़ैरात (दान-पुण्य) करते रहा कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ताजिरों को हिदायत फ़रमाई—

"ऐ कारोबार करनेवालो! माल के बेचने में बेकार की बात करने और झूठी क़सम खा जाने का बहुत इमकान रहता है, तो तुम लोग अपने मालों में से सदक़ा ज़रूर किया करो।" (अबू दाऊद)

14. और उस तिजारत को कभी ज़ेहनों से ओझल न होने दीजिए जो दर्दनाक अज़ाब से निजात दिलानेवाली है और जिसका नफ़ा मिटनेवाली दौलत नहीं, बल्कि हमेशा की कामयाबी और न ख़त्म होनेवाली ज़िन्दगी है।

क़ुरआन में है—

“ऐ ईमानवालो! मैं तुम्हें ऐसी तिजारत क्यों न बताऊँ जो तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचाए। (यह कि) तुम ख़ुदा पर और उसके रसूल पर ईमान लाओ और ख़ुदा की राह में अपने माल और अपनी जानों से जिहाद करो। यह तुम्हारे हक़ में बहुत बेहतर है, अगर तुम इल्म से काम लो।” (क़ुरआन, 61:10-11)

अध्याय-4

दीन की दावत

36. दीन की दावत देनेवालों के आदाब

1. अपने मंसब (पद) की सच्ची चेतना पैदा कीजिए। आप नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जानशीन हैं और दीन की दावत, हक़ की गवाही और तबलीग़ की वही ज़िम्मेदारी आपको अंजाम देनी है जो ख़ुदा के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अंजाम देते रहे, इसलिए दावत देनेवाले इनसान जैसी तड़प पैदा करने की कोशिश कीजिए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़ास और उभरी हुई ख़ूबी है।

क़ुरआन का इरशाद है—

"उसने तुम्हें चुन लिया है और दीन के मामले में तुमपर कोई तंगी नहीं रखी है, पैरवी करो उस दीन की, जो तुम्हारे बाप इबराहीम का दीन है। उसने पहले ही से तुम्हें मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) नाम से नवाज़ा था और इसी सिलसिले में, कि रसूल तुम्हारे लिए दीने हक़ की गवाही दें और तुम दुनिया के सारे इनसानों के सामने दीने हक़ की गवाही दो।" (क़ुरआन, 22:78)

यानी मुस्लिम उम्मत (समुदाय) रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की जानशीन है और उसको वही काम अंजाम देना है जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अंजाम दिया, जिस तरह आख़िरी रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी कथनी-करनी और रात व दिन की दौड़-धूप से ख़ुदा के दीन को स्पष्ट करने का हक़ अदा किया, ठीक उसी तरह उम्मत को भी दुनिया के सारे ही इनसानों के सामने ख़ुदा के दीन को स्पष्ट करना है और ज़िम्मेदारी के उसी एहसास और दावत देनेवाले जैसी तड़प के साथ दीने हक़ की ज़िन्दा गवाही बनकर ज़िन्दा रहना है।

2. अपनी असल हैसियत को हमेशा निगाह में रखिए और उसकी शान के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी बनाने और बनाए रखने की कोशिशें बराबर जारी रखिए। आप दुनिया की आम उम्मतों की तरह एक आम उम्मत नहीं हैं बल्कि आपको ख़ुदा ने ख़ास शान बख़्शी है। आपको दुनिया की तमाम क़ौमों में सरदार की तरह रहनुमाई की जगह हासिल है। आप हर तरह की इंतिहाओं से पाक होकर ख़ुदा के सीधे रास्ते पर एतिदाल के साथ क़ायम रहें।

क़ुरआन में है—

"और इसी तरह हमने तुमको एक 'उम्मते वसत' बनाया है, ताकि तुम सारे इनसानों के लिए दीने हक़ के गवाह बनो और रसूल तुम्हारे लिए गवाह हों।" (क़ुरआन, 2:143)

3. अपने नस्बुलऐन (मिशन) की सच्ची जानकारी हासिल कीजिए और खुले दिल के साथ और पूरी तरह मुतमइन होकर उसको अपनाने की कोशिश कीजिए। ख़ुदा की नज़र में मुसलमानों का नस्बुलऐन क़तई तौरपर यह है कि वह पूरी यक्सूई और इख़लास के साथ उस पूरे दीन को क़ायम और जारी करें जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) लेकर आए और जो अक़ीदे व इबादत, अख़लाक़ और रहन-सहन, खान-पान और सियासत (राजनीति) ग़रज़ इनसानी ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ तमाम ही आसमानी हिदायतों में शामिल है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने मुबारक दौर में इस दीन को अपनी तमाम तफ़सीली बातों के साथ क़ायम फ़रमाया। आपने अक़ीदे और अख़लाक़ की तालीम भी दी, इबादत के तरीक़े भी सिखाए। दीन की बुनियादों और समाज का निर्माण भी किया और इनसानी ज़िन्दगी को संगठित करने और ख़ैर व बरकत से मालामाल करनेवाली एक बाबरकत स्टेट भी क़ायम की।

ख़ुदा का इरशाद है—

"मुसलमानो! ख़ुदा ने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है, जिसकी वसीयत उसने नूह को की थी और जिसकी वह्य ऐ रसूल! हमने आपकी ओर भेजी है और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं कि इस दीन को क़ायम करो और इसमें फूट न डालो।” (क़ुरआन, 42:13)

4. बुराइयों को मिटाने और भलाइयों को क़ायम करने के लिए हर वक़्त तैयार रहिए। यही आपके ईमान का तक़ाज़ा है और यही आपके मिल्ली वुजूद का मक़सद है। इसी मक़सद के लिए ज़िन्दा रहिए और इसी के लिए जान दीजिए। इसी काम को अंजाम देने के लिए ख़ुदा ने आपको 'ख़ैरे उम्मत' (सर्वोत्तम गिरोह) के बड़े लक़ब से याद किया है—

"तुम ख़ैरे उम्मत (बेहतरीन उम्मत) हो जो सारे इनसानों के लिए वुजूद में लाई गई है, तुम भलाई का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और ख़ुदा पर पूरा ईमान रखते हो।" (क़ुरआन, 3:110)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“उस ज़ात की क़सम जिसके कब्ज़े में मेरी जान है, तुम लोग लाज़िमी तौर पर नेकी का हुक्म देते रहो और बुराई से रोकते रहो, वरना बहुत जल्द ख़ुदा तुमपर ऐसा अज़ाब भेज देगा कि फिर तुम पुकारते रहोगे और कोई सुनवाई न होगी।" (तिरमिज़ी)

5. ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाने और ख़ुदा के बन्दों को जहन्नम के ख़तरनाक अज़ाब से बचाने के लिए दावत देनेवालों जैसी तड़प और मिसाली दर्द पैदा कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बेमिसाल तड़प और दर्द को क़ुरआन ने इन शब्दों में याद किया है—

“शायद आप इन लोगों के पीछे अपनी जान ही हलाक कर डालेंगे अगर ये लोग हिदायत के इस कलाम पर ईमान न लाएँ।” (क़ुरआन, 18:6)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी इस हालत को इन लफ़्ज़ों में बयान फ़रमाया है—

"मेरी मिसाल उस आदमी की सी है जिसने आग जलाई और जब आस-पास का माहौल आग की रौशनी से चमक उठा तो ये कीड़े-पतंगे उसपर गिरने लगे और वह आदमी पूरी ताक़त से उन कीड़े-पतंगों को रोक रहा है, लेकिन पतंगे हैं कि उसकी कोशिशों को नाकाम बनाए देते हैं और आग में घुसे पड़ रहे हैं, (इसी तरह) मैं तुम्हें कमर से पकड़-पकड़ कर आग से रोक रहा हूँ और तुम हो कि आग में गिरे पड़ रहे हो।" (मिश्कात)

एक बार हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने आपसे पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! उहुद से ज़्यादा सख़्त दिन भी आप पर कोई गुज़रा है?" फ़रमाया, "हाँ आइशा! मेरी ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा सख़्त दिन उक़्बा का दिन था।" यह वह दिन था, जब आप मक्केवालों से मायूस होकर तायफ़वालों को ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाने के लिए तशरीफ़ ले गए। वहाँ के सरदार अब्द या लैल ने ग़ुण्डों को आपके पीछे लगा दिया और उन्होंने पैग़ामे रहमत के जवाब में आप पर पत्थर बरसाए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) लहू-लुहान हो गए और बेहोश होकर गिर पड़े। फिर आप इंतिहाई परेशान और ग़मगीन वहाँ से चले। जब क़र्नुस्सआलिब पहुँचे तो ग़म कुछ हल्का हुआ। ख़ुदा ने अज़ाब के फ़रिश्ते को आपकी ख़िदमत में भेजा। अज़ाब के फ़रिश्ते ने कहा—

"ऐ अल्लाह के रसूल! अगर आप फरमाएँ तो मैं अबू क़ुबैस और जबले अहमर को आपस में टकरा दूँ और इन दोनों पहाड़ों के बीच में ये बदबख़्त पिसकर अपने अंजाम को पहुँच जाएँ।” रहमते आलम ने फ़रमाया, "नहीं, नहीं! मुझे छोड़ दो कि मैं अपनी क़ौम को ख़ुदा के अज़ाब से डराता रहूँ, शायद कि ख़ुदा इन्हीं के दिलों को हिदायत के लिए खोल दे या फिर उनकी औलाद में ऐसे लोग पैदा हों जो हिदायत को क़बूल कर लें।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मक्के में हैं और मक्के के लोगों में आपके ख़िलाफ़ साज़िशें हो रही हैं। कोई कहता है कि इन्हें शहर से निकाल दो। कोई कहता है कि इन्हें क़त्ल कर दो। उन्हीं दिनों मक्के को अचानक अकाल ने आ घेरा- ऐसा अकाल कि क़ुरैश के लोग पत्ते और छाल खाने पर मजबूर हो गए। बच्चे भूख से बिलबिलाते और बड़े उनकी इस हालत को देखकर तड़प-तड़प उठते।

रहमते आलम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन लोगों को इस हिला देनेवाली हालत में देखकर बेक़रार हो गए। आपके सच्चे साथी भी आपकी बेचैनी देखकर तड़प उठे। आपने अपने इन जानी दुश्मनों को, जिनके द्वारा पहुँचाए गए घाव अभी बिलकुल ताजा थे, अपनी दिली हमदर्दी का पैग़ाम भेजा और अबू सूफ़ियान और सफ़वान के पास पाँच सौ दीनार भेजकर कहलवाया कि ये दीनार इन अकाल के मारे हुए ग़रीबों में बाँट दिए जाएँ।

सच तो यह है कि गुमराह बन्दों के ग़म में घुलना, उनकी गुमराही और मुसीबत पर कुढ़ना, उनको ख़ुदा के ग़ज़ब से बचाने के लिए तड़पना, उनकी तकलीफ़ देखकर बेक़रार हो जाना उनकी हिदायत के लिए ग़ैर मामूली हरीस हो जाना- हक़ की दावत देनेवाले के यही वे जौहर हैं जिनके ज़रिए उसकी ज़िन्दगी बड़ी मनभावन और ग़ैर मामूली असर रखनेवाली बन जाती है।

6. क़ौम की बेग़रज़ ख़िदमत कीजिए और अपनी ख़िदमत का बदला बन्दों से तलब न कीजिए। जो कुछ कीजिए सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ुशनूदी के लिए कीजिए और उसी से अपने अज्र व सवाब की उम्मीद कीजिए। ख़ुदा की रिज़ा और ख़ुदा ही से अज्र व सवाब की तलब ऐसी बात है जो आदमी की बात में असर पैदा करती है और आदमी को लगातार सरगर्म रखती है। ख़ुदा हमेशा से है और हमेशा रहेगा, न उसे नींद आती है, न ऊँघ। उसकी नज़र से बन्दे का कोई अमल छिपा हुआ नहीं है। वह अपने सच्चे बन्दों का अज्र कभी बरबाद नहीं करता। वह मेहनत से कहीं ज़्यादा देता है और किसी को महरूम नहीं करता। पैग़म्बर बार-बार अपनी क़ौम से कहते थे—

"मैं तुमसे किसी अज्र और बदले की माँग नहीं करता। मेरा अज्र तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे है।"

7. इस्लाम की गहरी बसीरत (विवेक) हासिल कीजिए और यह यक़ीन रखिए कि ख़ुदा के नज़दीक दीन तो बस इस्लाम ही है, उस दीने हक़ को छोड़कर बन्दगी का जो तरीक़ा भी अपनाया जाएगा, ख़ुदा के यहाँ उसकी कोई क़द्र व क़ीमत न होगी। ख़ुदा के यहाँ तो वही मक़बूल दीन है जो क़ुरआन में है और जिसकी अमली तफ़सीर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी मुबारक ज़िन्दगी से पेश फ़रमाई। क़ुरआन पाक में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा गया है कि लोगों को साफ़-साफ़ बता दीजिए कि मैंने जो राह भी अपनाई है, सोच-समझकर पूरी बसीरत के साथ अपनाई है।

क़ुरआन में है—

"(ऐ रसूल) आप उनसे साफ़-साफ़ कह दीजिए कि मेरा रास्ता तो यह है। मैं और मेरे पीछे चलनेवाले पूरी बसीरत के साथ अल्लाह की ओर दावत दे रहे हैं और ख़ुदा हर ऐब से पाक है और मेरा उनसे कोई वास्ता नहीं है, जो ख़ुदा के साथ शिर्क कर रहे हैं।" (क़ुरआन, 12:108)

और ख़ुदा का साफ़-साफ़ इरशाद है—

“और जो कोई इस्लाम के सिवा किसी दूसरे दीन को अपनाना चाहेगा उसका वह दीन हरगिज़ क़बूल न किया जाएगा और आख़िरत में वह नाकाम व नामुराद रहेगा।" (क़ुरआन, 3:85)

“ख़ुदा के नज़दीक दीन तो बस इस्लाम ही है।"

8. अपने नस्बुलऐन (मिशन) के बड़प्पन और अहमियत को हमेशा निगाह में रखिए और ख़याल रखिए कि वह बड़ा काम है जिसके लिए ख़ुदा की ओर से हमेशा नबी भेजे जाते रहे हैं और यह यक़ीन रखिए कि ख़ुदा ने आपको दीन की जो दौलत दे रखी है, यही दोनों दुनिया के बड़प्पन और सरबुलन्दी की पूँजी है, भला उसके मुक़ाबले में दुनिया की दौलत और शान व शौकत की क्या क़द्र व क़ीमत है, जो कुछ दिनों की बहार है।

क़ुरआन में है—

“और हमने आपको सात दोहराई जानेवाली आयतें और बड़प्पनवाला क़ुरआन दे रखा है, तो आप इस ख़त्म हो जानेवाली पूँजी की ओर निगाह उठाकर भी न देखिए, जो हमने उनके अलग-अलग वर्गों को दे रखा है।" (क़ुरआन, 15:87)

और किताबवालों को ख़िताब करते हुए कहा गया है—

“ऐ अहले किताब! तुम कुछ नहीं हो, जब तक तुम तौरात और इंजील और दूसरी किताबों को क़ायम न करो, जो तुम्हारे रब ने उतारी हैं।" (क़ुरआन, 5:68)

9. दीन की सही समझ हासिल करने और दीन की हिकमतों को समझने की बराबर कोशिश करते रहिए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा जिस आदमी को भलाई से नवाज़ना चाहता है उसे अपने दीन की सही समझ और सूझ-बूझ अता फ़रमाता है।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

सच तो यह है कि दीन की सही समझ और दीन की हिकमत ही तमाम भलाइयों का स्रोत है और जो आदमी इस भलाई से महरूम है, वह दोनों दुनिया की सआदतों से महरूम है, न उसकी ज़िन्दगी में एतिदाल (सन्तुलन) और एक-रंगी पैदा हो सकती है और न वह ज़िन्दगी के हर मैदान में दीन की सही नुमाइन्दगी कर सकता है।

10. जो कुछ दुनिया के सामने पेश करें, उसे सबसे पहले अपनी ज़ात पर पेश कीजिए। दूसरों को बताने से पहले ख़ुद को बताइए और जो दूसरों से चाहें, पहले ख़ुद करके दिखाइए।

दीने हक़ की दावत देनेवाले की ख़ास बात यह होती है कि वह अपनी दावत का सच्चा नमूना होता है। जो कुछ वह कहता है, अपने अमल व किरदार को उसपर गवाह बनाता है। जिन हक़ीक़तों के क़बूल करने में वह दुनिया की भलाई देखता है, ख़ुद वह उसका सबसे ज़्यादा लालची होता है। पैग़म्बर जब-जब क़ौम के सामने दावत देने उठे तो उन्होंने एलान किया, 'अना अव्वलुल मुस्लिमीन'। (मैं ख़ुद सबसे पहला मुसलमान (फ़रमाबरदार) हूँ।)

आप ज़बान व क़लम से भी गवाही दीजिए कि हक़ वही है जो आप पेश कर रहे हैं और अपने निजी अमल, घरेलू ताल्लुक़ात, समाजी मामलों और सियासी और मुल्की सरगर्मियों से भी यह साबित कीजिए कि दीने हक़ को अपनाकर ही पाक-साफ़ किरदार वुजूद में आता है, मज़बूत ख़ानदान बनता है, अच्छा समाज ढलता है और तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता एवं संस्कृति) की ऐसी व्यवस्था बनती है जिसकी बुनियाद न्याय व इनसाफ़ पर हो। जो लोग अपनी तरबियत व इस्लाह से ग़ाफ़िल होकर दूसरों की इस्लाह व तरबियत की बातें करते हैं, वे इंतिहाई नादान हैं। वे अपना घर जलता हुआ देखकर बेफ़िक्र हैं और पानी की बाल्टियाँ लिए खोज रहे हैं कि किसी के घर आग लगी मिल जाए तो उसको बुझा दें। ऐसे लोग दुनिया में भी नाकाम हैं और आख़िरत में भी नाकाम रहेंगे। यहाँ तो उनकी बेअमली उनकी नसीहत को बेवज़न और बेअसर करती रहेगी और आख़िरत में ये इंतिहाई दर्दनाक अज़ाब भुगतेंगे।

ख़ुदा को यह बात बहुत नागवार है कि दूसरों को नसीहत करनेवाले ख़ुद बेअमल रहें और वह कहें जो ख़ुद न करते हों। (क़ुरआन, 61:3)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसे बेअमल दावत देनेवालों को इंतिहाई हौलनाक अज़ाब से डराया है। आपने फ़रमाया—

“क़ियामत के दिन एक आदमी लाया जाएगा और आग में फेंक दिया जाएगा। उसकी अंतड़ियाँ उस आग में बाहर निकल पड़ेंगी। फिर वह आदमी उन अंतड़ियों को इस तरह लिए-लिए फिरेगा जिस तरह गधा अपनी चक्की में फिरता है। यह देखकर दूसरे जहन्नमी लोग उसके पास जमा होंगे और पूछेंगे, “ऐ फ़लाँ! यह तुम्हारा क्या हाल है? क्या तुम दुनिया में हमें नेकियों पर उभारते न थे और बुराइयों से नहीं रोकते थे? (ऐसे नेकी के काम करने के बावजूद तुम यहाँ कैसे आ गए?) "वह आदमी कहेगा, "मैं तुम्हें नेकियों का सबक़ देता था लेकिन ख़ुद नेकी के क़रीब न जाता था, तुम्हें तो बुराइयों से रोकता था लेकिन ख़ुद बुराइयों पर अमल करता था। (मुस्लिम, बुख़ारी)

मेराज की रात के जो सबक़ भरे हुए दृश्य नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लोगों के सामने रखे हैं उनका एक अहम मक़सद यह भी है कि कोताही करनेवालों को तंबीह हो और वे अपने हालात सुधारने की चिन्ता करें। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“मैंने मेराज की रात में कुछ लोगों को देखा कि उनके होंठ आग की क़ैंचियों से काटे जा रहे थे।" मैंने जिबरील से पूछा, "ये कौन लोग हैं?" जिबरील ने कहा, "ये आपकी उम्मत के तक़रीर करनेवाले (वक्ता) हैं जो लोगों को नेकी और तक़वा पर उभारते थे और ख़ुद को भूले हुए थे।" (मिश्कात)

सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी इस क़िस्म की कोताही करनेवालों और बेअमलों को सख़्त तंबीह फ़रमाते थे। एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से एक आदमी ने कहा, "हज़रत! मैं चाहता हूँ कि लोगों को नेकी का हुक्म दूँ और बुराइयों से रोकूँ और दावत व तबलीग़ का काम करूँ?" हज़रत ने फ़रमाया, “क्या तुम इस रुतबे को पहुँच चुके हो कि तबलीग़ करनेवाले मुबल्लिग़ बनो।” उसने कहा, "हाँ, उम्मीद तो है।" हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, "अगर तुम्हें यह डर न हो कि क़ुरआन पाक की तीन आयतें तुम्हें रुसवा कर देंगी तो शौक़ से दीन की तबलीग़ का काम करो।" वह आदमी बोला, “हज़रत वे कौन-सी तीन आयतें हैं?” हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया—

पहली आयत यह है—

“क्या तुम लोगों को नेकी का हुक्म देते हो और अपने को भूल जाते हो।” (क़ुरआन, 2:44)

इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "क्या इस आयत पर अच्छी तरह अमल कर लिया है?" उसने कहा, “नहीं”, और दूसरी आयत यह है—

"तुम वह बात क्यों कहते हो जो करते नहीं हो।” (क़ुरआन, 61:2)

तो तुमने इस आयत पर अच्छी तरह अमल कर लिया है? उसने कहा, 'नहीं', और तीसरी आयत यह है—

“(हज़रत शुऐब ने अपनी क़ौम के लोगों से कहा) जिन बुरी बातों से मैं तुम्हें मना करता हूँ, उनको बढ़कर ख़ुद करने लगूँ, मेरी यह ख़ाहिश नहीं (बल्कि मैं तो इन बातों से बहुत दूर रहूँगा)।" (क़ुरआन, 11:88)

बताओ, तुमने इस आयत पर अच्छी तरह अमल कर लिया है? वह आदमी बोला, "नहीं," तो हज़रत ने फ़रमाया, “जाओ, पहले अपने को नेकी का हुक्म दो और बुराई से रोको।”

11. नमाज़ को उसके पूरे आदाब व शर्तों और चाव के साथ अदा कीजिए। नफ़्लों का भी एहतिमाम कीजिए। ख़ुदा से गहरा ताल्लुक़ क़ायम किए बिना उसके दीन की दावत व तबलीग़ का काम मुमकिन नहीं और ख़ुदा से ताल्लुक़ पैदा करने का यक़ीनी ज़रिया नमाज़ है, जो ख़ुद ख़ुदा ही ने अपने बन्दों को बताया है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ख़िताब करते हुए ख़ुदा ने फ़रमाया—

“ऐ चादर में लिपटनेवाले! रात में क़ियाम कीजिए, पर कुछ रात, आधी रात या उससे कुछ कम या कुछ ज़्यादा और क़ुरआन को ठहर-ठहर कर पढ़िए। हम जल्द आप पर एक भारी फ़रमान (की ज़िम्मेदारी) डालनेवाले हैं।" (क़ुरआन, 73:1-5)

भारी फ़रमान की ज़िम्मेदारी से मुराद दीने हक़ की तबलीग़ है और यह एक सच्चाई है कि यह ज़िम्मेदारी दुनिया की तमाम ज़िम्मेदारियों में ज़्यादा भारी और बोझिल है। इस बड़ी ज़िम्मेदारी का हक़ अदा करने के लिए ज़रूरी है कि आप नमाज़ से ताक़त हासिल करें और ख़ुदा से ताल्लुक़ मज़बूत करें।

12. क़ुरआन पाक से लगाव पैदा कीजिए और पाबन्दी के साथ उसकी तिलावत (अध्ययन) कीजिए। नमाज़ में भी इंतिहाई तवज्जोह के साथ तिलावत कीजिए और नमाज़ के बाहर भी ज़ौक़ व शौक़ के साथ ठहर-ठहरकर पढ़िए। दिल के झुकाव और तबीयत की हाज़िरी के साथ जो तिलावत की जाती है, उससे क़ुरआन को समझने और सोच-विचार करने में भी मदद मिलती है और ज़ौक़ व शौक़ में भी बढ़ोत्तरी होती है। क़ुरआन पाक हिदायत व नसीहत का अकेला स्रोत है। यह इसी लिए उतरा है कि उसकी आयतों पर ग़ौर किया जाए और उसकी हिदायतों और नसीहतों से फ़ायदा उठाया जाए, इसलिए इसमें ख़ुद सोच-विचार की आदत डाली जाए और इस इरादे के साथ इसकी तिलावत कीजिए कि इसी की रहनुमाई में अपनी ज़िन्दगी भी बनानी है और इसी की हिदायतों के मुताबिक़ समाज को भी बदलना है। ख़ुदा के दीन को वही लोग क़ायम कर सकते हैं जो सोच-विचार का केन्द्र और अपनी दिलचस्पियों की धुरी क़ुरआन पाक को बनाएँ। इससे बेनियाज़ होकर न तो ख़ुद दीन पर क़ायम रहना मुमकिन है और न दीन क़ायम करने की कोशिश में हिस्सा लेना ही मुमकिन है। तिलावत करनेवालों को हिदायत की गई है—

“किताब जो हमने आपकी ओर भेजी है, शुरू से लेकर आख़िर तक बरकत है, ताकि लोग उसकी आयतों में सोच-विचार करें और सही अक़ल रखनेवाले उससे सबक़ हासिल करें।" (क़ुरआन, 38:29)

और हिदायत की गई—

"और क़ुरआन को ठहर ठहरकर पढ़िए।" (क़ुरआन, 73:4)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“दिलों पर ज़ंग (मोर्चा) लग जाता है जिस तरह लोहे पर लग जाता है, जब उसपर पानी पड़ता है।" पूछा गया, "ऐ अल्लाह के रसूल! फिर दिलों के ज़ंग को दूर करनेवाली चीज़ क्या है?" फ़रमाया, "दिल का ज़ंग इस तरह दूर होता है कि आदमी मौत को ज़्यादा से ज़्यादा याद करे और दूसरे यह कि क़ुरआन की तिलावत करे।" (मिशकात)

13. हर हाल में ख़ुदा का शुक्र कीजिए और शुक्र का जज़्बा पैदा करने के लिए उन लोगों पर निगाह रखिए जो दुनिया की शान व शौकत और माल व दौलत में आपसे कमतर हों।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“उन लोगों की तरफ़ देखो जो तुमसे माल व दौलत और दुनिया के रुतबों में कम हैं (तो तुम्हारे अन्दर शुक्र का जज़्बा पैदा होगा)। और उन लोगों की ओर न देखो जो तुमसे माल व दौलत में और दुनिया के साज़ व सामान में बढ़े हुए हैं, ताकि जो नेमतें तुम्हें इस वक़्त मिली हुई हैं, वे तुम्हारी निगाह में हक़ीर न हों, (वरना ख़ुदा की नाशुक्री का जज़्बा पैदा होगा)।"

14. आराम-तलबी से बचिए और हक़ के ऐसे सिपाही बनिए जो हर वक़्त ड्यूटी पर हो और किसी वक़्त भी हथियार न उतारिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मैं ऐश व आराम की ज़िन्दगी कैसे गुज़ारुँ जबकि इसराफ़ील सूर मुँह में लिए कान लगाए और सिर झुकाए इंतिज़ार कर रहे हैं कि कब सूर फूँकने का हुक्म होता है।"

और क़ुरआन पाक में ईमानवालों को ख़िताब करते हुए ख़ुदा ने इरशाद फ़रमाया—

"और तुम लोग, जहाँ तक तुम्हारा बस चले, ज़्यादा से ज़्यादा ताक़त और तैयार बँधे रहनेवाले घोड़े उनके मुक़ाबले के लिए जुटा रखो, ताकि इसके ज़रिए ख़ुदा के दुश्मनों और ख़ुद अपने दुश्मनों को और उन दूसरे दीन के दुश्मनों को डरा दो जिन्हें तुम नहीं जानते, ख़ुदा जानता है। ख़ुदा की राह में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगे, उसका पूरा-पूरा बदला लौटाया जाएगा और तुम्हारा हक़ देने में ज़रा भी कमी न की जाएगी। (क़ुरआन, 8:60)

15. दीन के लिए हर क़ुरबानी देने और ज़रूरत पड़ने पर अपने प्यारे वतन से भी हिजरत करने के लिए ख़ुदको तैयार रखिए और ख़ुदको बराबर तौलते रहिए कि किस हद तक आप में यह जज़्बा ताक़त पकड़ रहा है। क़ुरआन में हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) की हिजरत की घटना का ज़िक्र करते हुए हिजरत पर उभारने और क़ुरबानियों के लिए तैयार रहने के लिए इस तरह कहा गया है—

"और इस किताब में इबराहीम के क़िस्से से नसीहत हासिल कीजिए। बेशक वह एक सच्चे नबी थे। (लोगों को उसका ज़िक्र सुनाइए) जब उन्होंने अपने बाप से कहा, अब्बा जान! आप उन चीज़ों की इबादत क्यों कर रहे हैं जो न सुनती हैं, न देखती हैं और न आपके किसी काम आ सकती हैं? अब्बा जान! मेरे पास वह इल्म (ज्ञान) आया है जो आपके पास नहीं आया है, आप मेरे कहे पर चलें, मैं आपको सीधी राह पर चलाऊँगा। अब्बा जान! आप शैतान की बन्दगी न कीजिए। शैतान तो रहमान का बड़ा नाफ़रमान है। अब्बा जान! मुझे डर है कि (आप इसी रवैए पर अगर रहे तो) रहमान का अज़ाब आपको आ पकड़े और आप शैतान के साथी बनकर रह जाएँ।

बाप ने कहा, "इबराहीम! क्या तुम मेरे माबूदों से फिर गए हो? अगर तुम बाज़ न आए तो मैं तुम्हें पत्थर मार-मारकर हलाक कर दूँगा और जाओ, हमेशा के लिए मुझ से दूर हो जाओ।" इबराहीम ने कहा, “आपको मेरा सलाम है। मैं अपने पालनहार से दुआ करूँगा कि वह आपकी बख़्शिश फ़रमा दे। बेशक मेरा रब मुझपर बड़ा ही मेहरबान है। मैं आप लोगों से किनारा करता हूँ और उन हस्तियों से भी जिनको आप ख़ुदा को छोड़कर पुकारा करते हैं। मैं तो अपने रब ही को पुकारूँगा मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने रब को पुकारकर हरगिज़ नामुराद (असफल) नहीं होऊँगा।" (क़ुरआन, 19:41-48)

16. ख़ुदा की राह में निकलने की तड़प, जान व माल से जिहाद करने का जज़्बा और उसकी राह में शहादत पाने की पाकीज़ा आरज़ू पैदा कीजिए। हक़ीक़त तो यह है कि जिहाद ईमान का मेयार है और जिस दिल में इसकी आरज़ू न हो, वह ईमान व हिदायत से महरूम एक बेरौनक़ और वीरान खंडहर है। जिहाद के मैदान में पहुँचने की तौफ़ीक़ और ख़ुदा की राह में जान व माल क़ुरबान कर देने का मौक़ा पाना वाक़ई बहुत बड़ी सआदत है, लेकिन अगर ऐसे हालात न हों कि आप उसका मौक़ा पा सकें या साधन न हों कि आप जिहाद के मैदान में पहुँचकर ईमान के जौहर दिखा सकें, तब भी आपकी गिनती ख़ुदा के यहाँ उन मुजाहिदों में हो सकती है जो ख़ुदा की राह में शहीद हुए या ग़ाज़ी बनकर लौटे, बशर्ते कि आपके दिल में ख़ुदा की राह में निकलने की तड़प हो, दीन की राह में क़ुरबान होने की भावना हो और शहादत की आरज़ू हो, इसलिए कि ख़ुदा की नज़र मन की उन भावनाओं पर होती है जो मुजाहिदाना कारनामों के लिए आदमी को बेचैन करती हैं। तबूक की लड़ाई से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) वापस हो रहे थे तो राह में आपने अपने साथियों को ख़िताब करते हुए फ़रमाया था—

“मदीना में कुछ लोग ऐसे हैं कि तुमने जो कूच भी किया और जो घाटी भी तय की, वह बराबर तुम्हारे साथ रहे।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथियों ने ताज्जुब से पूछा, "क्या मदीना में रहते हुए?" फ़रमाया, "हाँ, मदीना में रहते हुए, क्योंकि उनको मजबूरी ने रोक लिया था। वे ख़ुद रुकनेवाले न थे।”

क़ुरआन पाक में भी ख़ुदा ने ऐसे लोगों की तारीफ़ फ़रमाई है जो जज़्बा रखने के बावजूद जिहाद की शिरकत से महरूम रहे और अपनी इस महरूमी पर उनकी आँखें आँसू बहाती रहीं।

"और न उन (बेसरो सामान) लोगों पर इलज़ाम है जो ख़ुद आपके पास आए कि आप उनके लिए सवारियाँ जुटा दें और जब आपने कहा कि मैं तुम्हारे लिए सवारियों का इन्तिज़ाम नहीं कर सकता तो वे इस हाल में वापस हुए कि उनकी आँखों से आँसू जारी थे, इस ग़म में कि उनके पास जिहाद में शरीक होने के लिए ख़र्च करने को कुछ मौजूद नहीं है।" (क़ुरआन, 9:92)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी ख़ुदा की राह में जिहाद किए बग़ैर मर गया और उसके दिल में उसकी आरज़ू भी नहीं थी तो वह निफ़ाक़ की एक हालत में मरा।" (मुस्लिम)

हक़ीक़त यह है कि ख़ुदा की राह में लड़ने और जान व माल की क़ुरबानी पेश करने की भावना से जो सीना ख़ाली है, वह मोमिन का सीना नहीं हो सकता।

37. दावत व तबलीग़ के आदाब

1. दावत व तबलीग़ की हिकमत और सलीक़े का पूरा-पूरा ख़याल रखिए और ऐसा तरीक़ा अपनाइए जो हर लिहाज़ से मुनासिब, बावक़ार, मक़सद के मुताबिक़ और सामने के आदमी में शौक़ और वलवला पैदा करनेवाला हो।

क़ुरआन पाक का इरशाद है—

“अपने रब के रास्ते की ओर दावत दीजिए, हिकमत के साथ और बेहतर नसीहत के साथ और बहस कीजिए तो ऐसे तरीक़े पर जो बहुत भला हो।” (क़ुरआन, 16:125)

क़ुरआन की इस आयत से तीन उसूली हिदायतें मिलती हैं—

(i) दावत हिकमत के साथ दी जाए,

(ii) नसीहत और समझाने-बुझाने का काम अच्छे अन्दाज़ में किया जाए, और

(iii) बहस भले तरीक़े पर की जाए।

हिकमत के साथ दावत देने का मतलब यह है कि ख़ुद आपको अपनी दावत की पाकी और बड़प्पन का पूरा-पूरा एहसास हो और आप इस क़ीमती दौलत को नादानी के साथ यूँ ही जा-बजा न बिखेरें बल्कि आप मौक़े को भी पूरा-पूरा ध्यान में रखिए और उसका भी जिसे ख़िताब किया जा रहा हो। हर तबक़े, हर गिरोह और हर आदमी से उसकी सोच की बुलन्दी, क़ाबिलियत, सलाहियत और समाजी दर्जे के मुताबिक़ बात कीजिए और उन अटल मूल्यों को आपसी समझाने-बुझाने और दावत देने की बुनियाद बनाइए जिनमें आपस में एक राय हो और जो एक-दूसरे के लिए क़रीब होने और अच्छी बात अपना लेने का ज़रिया बनें।

उम्दा नसीहत करने का मतलब यह है कि आप बड़े ख़ुलूस और दर्द के साथ नेक भावनाओं को उभारिए ताकि जिसे ख़िताब किया जा रहा है, उसमें शौक़ और चाव पैदा हो जाए और दीन से उसका ताल्लुक़ सिर्फ़ ज़ेहनी इतमीनान की हद तक न रहे, बल्कि दीन उसके दिल की आवाज़, रूह का खाना और जज़्बात की तस्कीन बन जाए।

बहसों में अच्छा तरीक़ा अपनाने का मतलब यह है कि आपकी बात सही हो, दिल की गहराईयों से निकली हो और ख़ुलूस से भरी हुई हो और अन्दाज़ ऐसा मनभावन और सादा हो कि जिसे ख़िताब किया जा रहा हो उसमें ज़िद, नफ़रत, हठधर्मी, तास्सुब और जाहिलियत के जज़्बात न उभरें, बल्कि वह वाक़ई कुछ सोचने-समझने पर मजबूर हो और उसको हक़ की तलब पैदा हो और जहाँ ये बातें पैदा होती नज़र न आएँ, आप अपनी ज़बान बन्द कर लीजिए और उस मज्लिस से उठकर चले आइए।

2. हर हाल में पूरे दीन की दावत दीजिए और अपनी समझ से इसमें काट-छाँट न कीजिए। इस्लाम की दावत देनेवाले को यह हक़ हरगिज़ नहीं है कि वह अपनी मरज़ी से उसके कुछ हिस्से पेश करे और कुछ छिपाए रखे।

ख़ुदा का इरशाद है—

“और जब उनको हमारी खुली-खुली आयतें पढ़कर सुनाई जाती हैं तो जो लोग हमारी मुलाक़ात का यक़ीन नहीं रखते, वे कहते हैं कि इस क़ुरआन के बजाए दूसरा क़ुरआन लाइए या इसी में कुछ तबदीली कर दीजिए। आप फ़रमा दीजिए कि मैं अपनी ओर से हरगिज़ उसमें कुछ कमी-बेशी नहीं कर सकता। मैं तो ख़ुद उसी वह्य की पैरवी करनेवाला हूँ जो मेरी ओर भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो मुझे एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का डर है, और कहिए कि अगर ख़ुदा ने यह न चाहा होता कि मैं यह क़ुरआन तुम्हें सुनाऊँ, तो मैं कभी न सुना सकता और न वही तुम्हें इसकी जानकारी देता। फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर ख़ुदा से जोड़ दे या ख़ुदा की (वाक़ई) आयतों को झूठा क़रार दे दे, यक़ीनन मुजरिम लोग कभी कामयाब नहीं हो सकते।” (क़ुरआन, 10:15-17)

हालात कैसे ही नासाज़गार (प्रतिकूल) हों, दावत देनेवाले का काम बहरहाल यही है कि वह ख़ुदा के दीन को अपनी असल और मुकम्मल हालत में पेश करे और ख़ुदा के दीन में कमी-बेशी और हालात के तक़ाज़ों के तहत अपनी समझ से उसमें तबदीली बहुत बड़ा ज़ुल्म है और ऐसे लोगों की दुनिया भी तबाह होती है और आख़िरत भी। इस्लाम, उस ख़ुदा का भेजा हुआ दीन है, जिसका ज्ञान (इल्म) पूरी कायनात का घेरा किए हुए है, जो शुरू से आख़िर तक का सच्चा ज्ञान रखता है और जिसकी सोच ग़लती से बिलकुल पाक है, जो इनसानी ज़िन्दगी की शुरूआत को भी जानता है और अंजाम को भी और जिसकी मंशा के तहत ही इनसानी जानकारियों में हर दिन अचम्भे में डाल देनेवाला फैलाव पैदा हो रहा है और इनसानी ज़िन्दगी में ग़ैर-मामूली तरक़्क़ियाँ होती जा रही हैं,-..... किसी और के लिए तो भला किसी कमी-बेशी की क्या गुंजाइश होगी जबकि ख़ुद पहले दावत देनेवाले का यह रुतबा बताया गया है कि वह एक आदर्श फ़रमाँबरदार की तरह उस दीन की पैरवी करे और नाफ़रमानी के ख़याल से काँपता रहे।

3. दीन को इस हिकमत के साथ फ़ितरी अंदाज़ में पेश कीजिए कि वह ग़ैर फ़ितरी बोझ महसूस न हो और लोग बिदकने और परेशान होने के बजाए उसको क़बूल करने में सुकून और राहत महसूस करें और आपकी नर्मी, मिठास और दावत के हिकमत भरे तरीक़े से लोग दीन में ग़ैर-मामूली खिंचाव महसूस करें।

हज़रत मुआविया बिन हकम (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक बार मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ नमाज़ पढ़ रहा था कि एक आदमी को छींक आई। मैंने नमाज़ ही में यर्हमुकल्लाह कहकर छींक का जवाब दे दिया। लोग मुझे घूरने लगे। मैंने कहा, "ख़ुदा तुम्हारा भला करे, मुझे क्यों घूर रहे हो?" तो लोगों ने मुझे इशारा किया, मैं ख़ामोश हो गया। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नमाज़ से फ़ारिग़ हुए, मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, मैंने ऐसा बेहतरीन तालीम व तरबियत करनेवाला न उनसे पहले कभी देखा और न उनके बाद। आपने न तो मुझे डाँटा, न मारा और न ही बुरा-भला कहा। सिर्फ़ यह फ़रमाया—

"देखो, यह नमाज़ है। नमाज़ में बातचीत करना मुनासिब नहीं। नमाज़ तो नाम है ख़ुदा की पाकी और बरतरी बयान करने का, उसकी बड़ाई करने और क़ुरआन पढ़ने का।"

4. अपने लेखों, भाषणों और दावती बातों में हमेशा इस दरमियानी बात का एहतिमाम रखिए कि सुननेवालों पर उम्मीद की दशा भी पाई जाए और डर की भी। न तो डर पर इतना ज़्यादा ज़ोर दीजिए कि वे ख़ुदा की रहमत से मायूस होने लगें और अपनी इस्लाह और निजात उन्हें न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि नामुमकिन नज़र आने लगे और न ख़ुदा की रहमत और बख़्शिश का ऐसा विचार पेश कीजिए कि वह बिलकुल ही बेबाक और ग़ैर-ज़िम्मेदार बन जाएँ और ख़ुदा की अपार रहमत व बख़्शिश का सहारा लेकर नाफ़रमानियों पर कमर बाँध लें।

हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“बेहतरीन आलिम वह है जो लोगों को (ऐसे अन्दाज़ से ख़ुदा की तरफ़ दावत देता है कि) ख़ुदा से मायूस नहीं करता और न ही ख़ुदा की नाफ़रमानी के लिए उन्हें रुख़्सतें देता है और न ख़ुदा के अज़ाब से उन्हें बेख़ौफ़ बना देता है।"

5. दावती कोशिशों को हमेशा और लगातार जारी रखिए और जो प्रोग्राम बनाएँ, उसे बराबर और ज़िम्मेदारी के साथ चलाते रहने की कोशिश कीजिए। प्रोग्राम को अधूरा छोड़ने और नए-नए प्रोग्राम बनाने की आदत से बचिए। थोड़ा काम कीजिए, लेकिन लगातार।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"बेहतरीन अमल वह है जो लगातार किया जाता रहे, चाहे वह कितना ही छोटा हो।”

6. दावत व तबलीग़ की राह में पेश आनेवाली कठिनाइयों, तकलीफ़ों और आज़माइशों का खुले दिल से स्वागत कीजिए और सब्र व इस्तिक़ामत (दृढ़ता) दिखाइए।

क़ुरआन में है—

"और नेकी का हुक्म दो और बुराई से रोको और इस राह में जो मुसीबतें भी आएँ, उनको जमकर बरदाश्त करते रहो।” (क़ुरआन, 31:17)

राहे हक़ में मुसीबतों का आना ज़रूरी है। आज़माइश की मंज़िलों से गुज़र कर ही ईमान में ताक़त आती है और चरित्र मज़बूत हो जाता है। यही वजह है कि ख़ुदा अपने उन बन्दों को ज़रूर आज़माता है जो ईमान का दावा करते हैं और जो अपने दीन व ईमान में जितना ज़्यादा पक्का होता है उसकी आज़माइश भी उसी हिसाब से सख़्त होती है।

ख़ुदा का इरशाद है—

"और हम ज़रूर तुम्हें डर, ख़तरा, उपवास, जान व माल के नुक़सान और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे। इन हालात में जो लोग सब्र करें और जब कोई मुसीबत पड़े तो कहें, 'हम ख़ुदा ही के हैं और ख़ुदा ही की ओर हमें पलटकर जाना है, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दीजिए कि उनपर उनके रब की ओर से नवाज़िशें होंगी, उसकी रहमत उनपर साया करेगी और ऐसे ही लोग हिदायत पर हैं।" (क़ुरआन, 2:155-157)

हज़रत सअ्द (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा, "सबसे ज़्यादा सख़्त आज़माइश किस आदमी की होती है?" आपने फ़रमाया—

“नबियों की, फिर जो दीन व ईमान में उनसे ज़्यादा क़रीब हो और फिर जो उनसे क़रीब हो। आदमी की आज़माइश उसके दीन के एतिबार से होती है, अतः जो आदमी अपने दीन में पक्का होता है, उसकी आज़माइश सख़्त होती है और जो दीन में कमज़ोर होता है, उसकी आज़माइश हल्की होती है और यह आज़माइश बराबर होती रहती है, यहाँ तक कि वह ज़मीन पर इस हाल में चलता है कि उसपर गुनाह का कोई असर नहीं रह जाता।" (मिश्कात)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपना हाल बयान करते हुए फ़रमाया—

"मुझे ख़ुदा की राह में इतना-इतना सताया गया कि कभी कोई इनसान इतना नहीं सताया गया और मुझे ख़ुदा की राह में इतना-इतना डराया गया कि कभी कोई आदमी इतना नहीं डराया गया और हम पर तीस दिन और रात ऐसे गुज़रे हैं कि मेरे और बिलाल के खाने के लिए कोई ऐसी चीज़ न थी, जिसे कोई जानदार खा सके, सिवाए उस थोड़े से सामान के जो बिलाल की बग़ल में था।” (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"जो आदमी सब्र करने की कोशिश करेगा ख़ुदा उसको सब्र बख़्शेगा और सब्र से ज़्यादा बेहतर और बहुत-सी भलाइयों को समेटनेवाली बख़्शिश और कोई नहीं।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

असल में आज़माइशें तहरीक (आन्दोलन) को ताक़त पहुँचाने और आगे बढ़ाने का ज़रूरी साधन हैं। आज़माइशों की मंज़िलों से गुज़रे बिना कोई तहरीक कभी कामयाब नहीं हो सकती, ख़ास तौर से वह तहरीक जो इनसानी दुनिया में हर पहलू पर छानेवाले इनक़िलाब की दावत देती हो और पूरी इनसानी ज़िन्दगी को नई बुनियादों पर तामीर करने का मंसूबा रखती हो।

जिस ज़माने में मक्का के संगदिल लोग नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथियों पर बेपनाह ज़ुल्म व सितम तोड़ रहे थे, उन्हीं दिनों का एक वाक़िआ हज़रत ख़ब्बाब बिन अरत (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान फ़रमाते हैं—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के घर के साए में चादर को सिर के नीचे रखे आराम फ़रमा रहे थे। हम आपके पास शिकायत लेकर पहुँचे। ऐ अल्लाह के रसूल! आप हमारे लिए ख़ुदा से मदद तलब नहीं फ़रमाते, आप इस ज़ुल्म के ख़ात्मे की दुआ नहीं करते (आख़िर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा और कब इन मुसीबतों का दौर ख़त्म होगा?)।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह सुनकर फ़रमाया, "तुमसे पहले ऐसे लोग गुज़रे हैं कि उनमें से कुछ के लिए गढ़ा खोदा जाता, फिर उसको उस गढ़े में खड़ा कर दिया जाता, फिर आरा लाया जाता और उसके जिस्म को चीरा जाता, यहाँ तक कि उसके जिस्म के दो टुकड़े कर दिए जाते, फिर भी वह अपने दीन से न फिरता और उसके जिस्म में लोहे के कंधे चुभाए जाते जो गोश्त से गुज़रकर हड्डियों और पट्ठों तक पहुँच जाते, पर बन्दा हक़ से न फिरता। क़सम है ख़ुदा की, यह दीन ग़ालिब होकर रहेगा, यहाँ तक कि सवार सन्आ (यमन की राजधानी) से हज़रमौत तक का सफ़र करेगा और रास्ते में ख़ुदा के सिवाय उसको किसी का डर न होगा, अलबत्ता चरवाहों को सिर्फ़ भेड़ियों का डर रहेगा कि कहीं बकरी उठा न ले जाएँ, लेकिन अफ़सोस कि तुम जल्दी मचा रहे हो।” (बुख़ारी)

हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं—

“मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह इरशाद फ़रमाते सुना है कि मेरी उम्मत में बराबर एक गिरोह ऐसा मौजूद रहेगा जो 'ख़ुदा के दीन की हिफ़ाज़त करता रहेगा। जो लोग उनका साथ न देंगे और जो लोग उनकी मुख़ालफ़त करेंगे वे उनको तबाह न कर सकेंगे, यहाँ तक कि ख़ुदा का फ़ैसला आ जाए और ये दीन की हिफ़ाज़त करनेवाले लोग अपनी उसी हालत पर क़ायम रहेंगे।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

7. बेजा रवादारी, ढीलापन और उसूलों की क़ुरबानी देने से सख़्ती से परहेज़ कीजिए। क़ुरआन में ईमानवालों की तारीफ़ में कहा गया है—

“वे काफ़िरों (इनकार करनेवालों) पर सख़्त होते हैं।" (क़ुरआन, 48:29)

यानी वे अपने दीन और उसूल के मामले में बड़े सख़्त होते हैं। वे किसी हाल में भी अपने उसूलों के मामलों में कोई समझौता नहीं करते, न ढीलापन दिखाते हैं। वे सब कुछ सहन कर सकते हैं, लेकिन दीन व उसूल की क़ुरबानी नहीं दे सकते। मुसलमानों को ख़ुदा ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के वास्ते से हिदायत दी है—

“अतः आप इसी दीन की ओर दावत दीजिए और जिस तरह आप को हुक्म दिया गया है, उसी पर मज़बूती के साथ जमे रहिए और उन लोगों के चाहने पर न चलिए।" (क़ुरआन, 42:15)

दीन के मामले में ढीलापन, बेजा रवादारी और असत्य से समझौता बेहद ख़तरनाक कमज़ोरी है जो दीन व ईमान को तबाह करके रख देती है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब बनी इसराईल ख़ुदा की नाफ़रमानियों के काम करने लगे तो उनके उलमा ने उनको रोका, लेकिन वे नहीं रुके (तो उनके उलमा उनका बाइकाट करने के बजाए) उनकी मज्लिसों में बैठने लगे और उनके साथ खाने-पीने लगे। जब ऐसा हुआ तो ख़ुदा ने उन सबके दिल एक जैसे कर दिए और फिर हज़रत दाऊद और हज़रत ईसा बिन मरयम की ज़बान से ख़ुदा ने उनपर लानत की, यह इसलिए कि उन्होंने नाफ़रमानी की राह अपनाई और उसी में बढ़ते चले गए।”

इस हदीस को रिवायत करनेवाले हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद हैं। वे फरमाते हैं—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) टेक लगाए बैठे थे, फिर सीधे बैठ गए और फ़रमाया, "नहीं! उस ज़ात की क़सम, जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, तुम ज़रूर लोगों को नेकी का हुक्म देते रहोगे और बुराई से रोकते रहोगे और ज़ालिम का हाथ पकड़ोगे और ज़ालिम को हक़ के आगे झुकाओगे। अगर तुम लोग ऐसा न करोगे तो तुम सबके दिल भी एक ही तरह के हो जाएँगे और फिर ख़ुदा तुम्हें अपनी रहमत और हिदायत से दूर फेंक देगा, जिस तरह बनी इसराईल को उसने महरूम कर दिया।"

8. अपने बच्चों को इस्लाह व तरबियत और उनको दीन क़ायम करने की ज़िम्मेदारी निभाने पर तैयार करना आपका पहला कर्त्तव्य है और आपकी सरगर्मियों का फ़ितरी मैदान भी। इस मैदान को छोड़कर अपनी तबलीग़ी और इस्लाही कोशिशों के लिए सिर्फ़ बाहर के मैदान तलाश करना हिकमत के ख़िलाफ़ भी है और ग़ैर फ़ितरी अमल भी। यह बहुत बड़ी कोताही और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागना भी है। इसकी मिसाल ऐसी है कि आप अकाल के ज़माने में अपने घरवालों को भूख-प्यास से निढाल और मरने के क़रीब छोड़कर बाहर के ज़रूरतमंदों को तलाश करके अनाज बाँटने में फ़ैयाज़ी दिखाएँ, गोया न तो आपको भूख-प्यास और क़ुर्बत व मुहब्बत का एहसास है और न अनाज के बाँटने की हिकमत ही को आपका मन जानता है। क़ुरआन में मोमिनों को हिदायत दी गई है—

“ऐ ईमानवालो! बचाओ अपने को और घरवालों को जहन्नम की आग से।" (क़ुरआन, 66:6)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इन शब्दों में इसे बयान किया—

“तुममें से हर एक निगराँ और ज़िम्मेदार है और तुममें से हर एक से उन लोगों के बारे में पूछ-गछ की जाएगी, जो तुम्हारी निगरानी में होंगे। हाकिम निगराँ है और उससे उसकी जनता के बारे में पूछा जाएगा, और शौहर अपने घर का निगराँ है, और औरत अपने शौहर के घर और उसके बच्चों की निगराँ है, तो तुममें से हर एक निगराँ और ज़िम्मेदार है और तुममें से हर एक से उन लोगों के बारे में पूछ-गछ होगी, जो उसकी निगरानी में दिए गए हैं।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

9. अपने पड़ोसियों और मुहल्लेवालों की इस्लाह व तरबियत की भी फ़िक्र कीजिए और उसको भी अपनी ज़िम्मेदारी समझिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक दिन ख़ुतबा दिया और उसमें कुछ मुसलमानों की तारीफ़ फ़रमाई, फिर फ़रमाया—

"ऐसा क्यों है कि कुछ लोग अपने पड़ोसियों में दीन की समझ-बूझ पैदा नहीं करते और उन्हें दीन नहीं सिखाते और उन्हें दीन न जानने के सबक़ भरे नतीजे नहीं बताते और उन्हें बुरे कामों से नहीं रोकते? और ऐसा क्यों है कि कुछ लोग अपने पड़ोसियों से दीन का इल्म हासिल नहीं करते और दीन की समझ-बूझ पैदा नहीं करते और दीन से जाहिल रहने के सबक़ भरे नतीजे मालूम नहीं करते? ख़ुदा की क़सम! लोग अपने पड़ोसियों को ज़रूर ही दीन की तालीम दें, उनके अन्दर दीन की समझ पैदा करें, उन्हें नसीहत करें, उनको अच्छी बातें बताएँ और उनको बुरी बातों से रोकें। साथ ही लोगों को चाहिए कि वे ज़रूर ही अच्छे पड़ोसियों से दीन सीखें, दीन की समझ पैदा करें और उनकी नसीहतों को क़बूल करें, वरना मैं उन्हें बहुत जल्द सज़ा दूँगा।" (फिर आप मिम्बर से उतर आए और तक़रीर ख़त्म फ़रमा दी।)

सुननेवालों में से कुछ लोगों ने दूसरों से पूछा— “ये कौन लोग थे जिनके ख़िलाफ़ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तक़रीर फ़रमाई?” दूसरे लोगों ने बताया कि आपका रुख़ अश्अर क़बीले के लोगों की ओर था। ये लोग दीन का इल्म रखनेवाले लोग हैं और उनके पड़ोस में चश्मों पर रहनेवाले देहाती उजड्ड लोग हैं। जब इस तक़रीर की ख़बर अश्अरी लोगों को पहुँची तो वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा, "ऐ ख़ुदा के रसूल! आपने अपने ख़ुतबे में कुछ लोगों की तारीफ़ फ़रमाई और हमारे ऊपर ग़ुस्सा फ़रमाया, तो फ़रमाइए हम से क्या क़सूर हुआ?" आपने फ़रमाया, "लोगों का फ़र्ज़ है कि वह अपने पड़ोसियों को दीन की तालीम दें, उन्हें वाज़ व नसीहत करें, अच्छी बातें बताएँ और बुरी बातों से रोकें और लोगों का यह भी फ़र्ज़ है कि वे अपने पड़ोसियों से दीन का इल्म हासिल करें, उनकी नसीहतों को क़बूल करें और अपने अन्दर दीन की समझ पैदा करें, वरना मैं उनको बहुत जल्द सज़ा दूँगा।" यह सुनकर अश्अर क़बीले के लोगों ने कहा, "ऐ ख़ुदा के रसूल! क्या हम दूसरे लोगों में समझ पैदा करें?" आपने फ़रमाया, "जी हाँ! यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।" तो ये लोग बोले, " "हुज़ूर हमें साल भर की मोहलत दीजिए।” चुनाँचे हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनको एक साल की मोहलत दी जिसमें वे अपने पड़ोसियों को दीन सिखाएँ और दीनी समझ पैदा करें। इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ये आयतें तिलावत फ़रमाईं—

“बनी इसराईल के कुफ़्र करनेवालों पर लानत की गई दाऊद की ज़बान से और ईसा बिन मरयम की ज़बान से और यह लानत इसलिए की गई कि उन्होंने नाफ़रमानी की राह अपनाई और बराबर ख़ुदा के हुक्मों को तोड़ते चले गए। ये आपस में एक दूसरे को बुरी बातों के करने से नहीं रोकते थे। बेशक उनकी यह हरकत इंतिहाई बुरी थी।" (क़ुरआन, 5:78)

10. जिन लोगों के बीच आप दावत व तबलीग़ की भारी ज़िम्मेदारी निभा रहे हों उनके मज़हबी अक़ीदों और जज़्बों का मान-सम्मान कीजिए। न उनके बुज़ुर्गों और पेशवाओं को बुरे नाम से याद कीजिए, न उनके विचारों पर हमले कीजिए और न उनके मज़हबी नज़रियों को हक़ीर समझिए। सीधे तरीक़े से हिकमत के साथ अपनी दावत पेश कीजिए और आलोचना में भी सामने के लोगों को भड़काने के बजाए दिल की गहराइयों से उनके दिल में अपनी बात उतारने की कोशिश कीजिए, इसलिए कि जज़्बाती तनक़ीद (भावनात्मक आलोचना) और तौहीन भरी बातों से सामनेवाले आदमी में किसी अच्छी तबदीली की उम्मीद नहीं होती। अलबत्ता यह डर रहता है कि बेजा तास्सुब और तंगनज़री की वजह से वह ख़ुदा और दीन की शान में गुस्ताख़ी करने लगे और दीन के क़रीब आने के बजाए और ज़्यादा दीन से दूर हो जाए।

क़ुरआन की हिदायत है—

“(ऐ ईमानवालो!) ये लोग ख़ुदा के सिवा जिनको पुकारते हैं उनको गालियाँ न दो, ऐसा न हो कि ये शिर्क से आगे बढ़कर जिहालत की बुनियाद पर ख़ुदा को गालियाँ देने लगें।” (क़ुरआन, 6:108)

11. अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाला बनकर दावत की ज़िम्मेदारी पूरी कीजिए। यानी सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ दावत देनेवाले बनिए। ख़ुदा के बन्दों को ख़ुदा के सिवा किसी और चीज़ की ओर हरगिज़ न बुलाइए, न वतन की ओर बुलाइए, न क़ौम और नस्ल की ओर, न किसी ज़बान की ओर दावत दीजिए और न किसी जमाअत की ओर। ईमानवाले का लक्ष्य सिर्फ़ ख़ुदा की रिज़ा है, इसी लक्ष्य की ओर दावत दीजिए और यह यक़ीन पैदा करने की कोशिश कीजिए कि बन्दे का काम सिर्फ़ यह है कि वह अपने पैदा करनेवाले और मालिक की बन्दगी करे। अपनी निजी ज़िन्दगी में भी और घरेलू ज़िन्दगी में भी, समाजी ज़िन्दगी में भी और मुल्की मामलों में भी। ग़रज़ पूरी ज़िन्दगी में अपने मालिक और परवरदिगार के कहने पर चले और उसके क़ानून की ख़ुलूस के साथ पैरवी करे, उसके सिवा कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसको मुसलमान अपना लक्ष्य क़रार दे और उसकी तरफ़ लोगों को दावत दे। मोमिन जब भी ख़ुदा की हिदायत से मुँह मोड़कर ख़ुदा की रिज़ा के सिवा किसी और चीज़ को अपना लक्ष्य क़रार देगा, दोनों दुनिया में नाकाम व नामुराद होगा।

"उस आदमी से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की और दावत दी और नेक अमल किया और कहा कि मैं ख़ुदा का फ़रमाँबरदार और मुस्लिम हूँ।" (क़ुरआन, 41:33)

38. जमाअत बनाने के आदाब

1. दावत व तबलीग़ की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मज़बूत संगठन बनाइए और दीन क़ायम करने के लिए मिल-जुलकर कोशिश कीजिए—

"और तुममें एक जमाअत तो ऐसी ज़रूर ही होनी चाहिए जो भलाई की तरफ़ दावत दे, अच्छे कामों का हुक्म दे और बुरे कामों से रोके।” (क़ुरआन, 3:104)

'ख़ैर' से मुराद हर वह फ़ितरी भलाई है जिसे हमेशा इनसानी फ़ितरत ने भलाई समझा है और जिसकी भलाई होने की गवाही आसमानी किताबों ने दी है। उन तमाम भलाइयों और ख़ूबियों की एक शानदार शक्ल ख़ुदा का वह दीन है जो हर दौर में ख़ुदा के पैग़म्बर लाते रहे हैं, जिसकी आख़िरी मुकम्मल, भरोसे के लायक़ और महफ़ूज़ शक्ल वह किताब व सुन्नत है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उम्मत को दे गए हैं। उसी 'ख़ैर' की ओर बुलाने और भलाइयों से दुनिया को मालामाल करने के लिए ज़रूरी है कि मुसलमान एक जमाअत बनकर और संगठित होकर इस काम को करें और ज़िन्दगी के हर मैदान में असत्य पर ग़लबा हासिल करने के लिए मज़बूत गिरोह वुजूद में लाएँ और संगठित होकर कोशिश करें। ख़ुदा ने ईमानवालों के इस मज़बूत गिरोह और संगठन बनकर कोशिश करने का नक़्शा खींचते हुए उनके आदर्श समूह की तारीफ़ की है और उनको अपना प्रिय बताया है—

"बेशक वे लोग ख़ुदा के प्रिय हैं जो उसकी राह में जमकर सफ़ बाँधे लड़ते हैं, गोया कि वे सीसा पिलाई हुई इमारत हैं।" (क़ुरआन, 61:4)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इज्तिमाई ज़िन्दगी की अहमियत और जमाअत बनाकर ज़िन्दगी गुज़ारने की हिदायत करते हुए इरशाद फ़रमाया—

“तीन आदमी जो किसी जंगल में रहते हों, उनके लिए जायज़ नहीं है, मगर यह कि वे अपने में से किसी को अपना अमीर चुन लें।" (मुन्तक़ा)

और आपने यह भी इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी जन्नत के बीच में अपना घर बनाना चाहता हो, उसे 'अल-जमाअत' से चिमटा रहना चाहिए, इसलिए कि शैतान एक आदमी के साथ होता है और जब वे दो हो जाते हैं तो वह दूर भाग जाता है।”

'अल-जमाअत' से मुराद मुसलमानों का ऐसा संगठित गिरोह है, जब सत्ता इस्लाम के हाथ में हो, और मुसलमान ख़लीफ़ा इस्लामी हुक्म और क़ानून लागू कर रहा हो, और सारे इस्लामवाले उस नेतृत्व और रहनुमाई पर एक राय हों तो ऐसी हालत में किसी मुसलमान के लिए क़तई तौर पर कोई गुंजाइश नहीं कि वह जमाअत से अलग रहकर ज़िन्दगी गुज़ारे और जब यह अल-जमाअत मौजूद न हो तो उम्मत का फ़र्ज़ है कि वह संगठित होकर, मिल-जुलकर की गई कोशिशों के ज़रिए इस अल-जमाअत को वुजूद में लाने की कोशिश करे।

2. मेल-मिलाप और संगठन की बुनियाद सिर्फ़ दीन को बनाइए। इस्लामी संगठन वही है जिसकी बुनियाद ख़ुदा का दीन हो। ख़ुदा के दीन को छोड़कर किसी और बुनियाद पर मुसलमानों का मेल-मिलाप वह मेल-मिलाप नहीं है, जिसका हुक्म इस्लाम ने दिया है और ऐसा संगठन और जमाअत हक़ीक़त में इस्लामी संगठन नहीं है। मुसलमानों में भाईचारा और मेल-मिलाप का हक़ीक़ी रिश्ता सिर्फ़ दीन है। दीन के सिवा जिस चीज़ को भी यह अपने मेल-मिलाप की बुनियाद बनाएँगे, एक होने के बजाए अलग-अलग होंगे और एक 'अल-जमाअत' बनने के बजाए गिरोह-गिरोह और फ़िरक़ा-फ़िरक़ा बन जाएँगे।

जमाअत बनाइए तो सिर्फ़ इसलिए कि ख़ुदा का दीन क़ायम करना आपका लक्ष्य हो और आपकी सारी कोशिश सिर्फ़ उसी के लिए हो।

क़ुरआन का इरशाद है—

“और तुम सब मिलकर ख़ुदा की रस्सी को मज़बूत पकड़े रहना, और अलग-अलग फ़िरक़े न बन जाना और ख़ुदा के इस एहसान को याद रखना जो उसने तुमपर किया है। तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिए और तुम उसकी मेहरबानी से भाई-भाई बन गए।" (क़ुरआन, 3:103)

ख़ुदा की रस्सी से मुराद ख़ुदा का दीन, इस्लाम है। क़ुरआन के नज़दीक मुसलमानों की इकाई और गिरोह बनने की बुनियाद यही है। इसके सिवा कोई भी बुनियाद मुसलमानों को जोड़नेवाली नहीं, बल्कि टुकड़े-टुकड़े कर देनेवाली है।

3. हक़ की तरफ़ बुलानेवाले कार्यकर्त्ताओं (कारकुनों) से दिली मुहब्बत कीजिए और इस रिश्ते को हर रिश्ते से ज़्यादा अहम और एहतिराम के क़ाबिल समझिए।

क़ुरआन में ईमानवालों की तारीफ़ में कहा गया है—

"तुम उस गिरोह को जो ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, उन लोगों से मुहब्बत और प्रेम करते न देखोगे जो ख़ुदा और उसके रसूल की दुश्मनी और मुख़ालफ़त पर तैयार हों, चाहे वे उसके अपने ही बाप या अपने ही बेटे या अपने ही भाई या अपने ही ख़ानदानवाले क्यों न हों।" (क़ुरआन, 58:22)

4. जमाअती साथियों की भलाई चाहने का एहतिमाम कीजिए और जमाअती ज़िन्दगी में आपस में एक-दूसरे के जज़्बे को जगाए रखिए, इसलिए कि यही कामयाबी की ज़मानत है। ख़ुदा का इरशाद है—

"ज़माना गवाह है कि इनसान घाटे में है सिवाए उन लोगों के, जो ईमान लाए और जो नेक अमल करते रहे और जो एक-दूसरे को दीने हक़ की वसीयत करते रहे और सब्र और जमाव पर उभारते रहे।" (क़ुरआन, 103:1-3)

5. जमाअती अनुशासन (Discipline) की पूरी-पूरी पाबन्दी कीजिए और उसको सिर्फ़ जमाअती मज़बूती का ज़रिया ही न समझिए बल्कि दीनी ज़िम्मेदारी भी समझिए।

ख़ुदा का इरशाद है—

"ईमानवाले तो हक़ीक़त में वही लोग हैं जो ख़ुदा और उसके रसूल को दिल से मानें और जब किसी सामूहिक काम के मौक़े पर रसूल के साथ हों तो उनसे इजाज़त लिए बिना न जाएँ। सच तो यह है कि जो लोग आपसे इजाज़त लेते हैं, वही लोग ख़ुदा और उसके रसूल को माननेवाले हैं।" (क़ुरआन, 24:62)

जमाअत के नज़्म (अनुशासन) की पाबन्दी और अपने नेता की इताअत व फ़रमाँबरदारी सिर्फ़ एक क़ानूनी मामला ही नहीं है बल्कि यह एक अहम शरई मामला है और क़ुरआन पाक ने उन लोगों के ईमान की सच्चाई की गवाही दी जो जमाअत के अनुशासन के पाबन्द हों और जमाअती ड्यूटी से उसी वक़्त हटें जब अपने ज़िम्मेदार से इजाज़त हासिल कर लें।

6. जमाअती ज़िन्दगी में नेकी के जो काम भी हो रहे हों, दिल के ख़ुलूस से उसमें मदद कीजिए और जो कुछ कर सकते हों उसमें कमी न कीजिए। ख़ुदग़रज़ी, स्वार्थ और अहंकार जैसी गन्दी भावनाओं से अपना अख़लाक़ी दामन पाक रखिए।

क़ुरआन की हिदायत है—

"और नेकी और ख़ुदातरसी के कामों में एक-दूसरे की मदद करते रहो।" (क़ुरआन, 5:2)

7. साथियों से ताल्लुक़ात अच्छे रखिए और कभी किसी से कोई मतभेद हो जाए तो तुरन्त सुलह-सफ़ाई कर लीजिए और मन को मैल से पाक रखिए।

“अतः ख़ुदा से डरो और आपस के ताल्लुक़ात को अच्छा रखो।" (8:1)

8. इस्लामी जमाअत के अमीर की ख़ुशदिली के साथ इताअत कीजिए और उसका भला चाहनेवाले और वफ़ादार रहिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"मुसलमानों को अपने ज़िम्मेदार की बात सुननी और माननी ज़रूरी है, चाहे उसका हुक्म अपनी तबीअत को पसन्द हो या न हो बशर्ते कि वह ख़ुदा की नाफ़रमानी की बात न हो। हाँ, जब ख़ुदा की नाफ़रमानी का हुक्म दिया जाए तो वह बात न सुननी चाहिए और न माननी चाहिए।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

हज़रत तमीम दारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"दीन ख़ुलूस के साथ भला चाहने और वफ़ादार रहने का नाम है।"

—तीन बार आपने यह बात फ़रमाई। लोगों ने पूछा, "किसका भला चाहना और वफ़ादार रहना?" इरशाद फ़रमाया—

"ख़ुदा का, रसूल का, उसकी किताब का, मुसलमानों के ज़िम्मेदार का और आम मुसलमानों का।” (मुस्लिम)

9. जमाअती पक्षपात, तंगनज़री और गुटबन्दी से बचिए। खुले दिल और अच्छे अख़लाक़ के साथ हर एक की मदद कीजिए और जो लोग भी दीन का काम कर रहे हों उनकी क़द्र कीजिए। उनके साथ भला चाहने का और इख़लास का बरताव कीजिए और उनको अपना साथी और कामों में मददगार समझिए। दीन का काम करनेवाले हक़ीक़त में सब एक दूसरे के मददगार और हिमायत करनेवाले हैं। सब दीन की तलब में हैं और सब अपनी-अपनी समझ के मुताबिक़ दीन की ख़िदमत ही करना चाहते हैं। ख़ुलूस के साथ समझा-बुझाकर एक दूसरे की ग़लती बताना और सोच-विचार के सही तरीक़े की निशानदेही करना तो एक निहायत ही मुबारक अमल है और यह होना ही चाहिए। अलबत्ता आपसी नफ़रत, खिंचाव और दुश्मनी, एक दूसरे को नीचा दिखाना और एक दूसरे के ख़िलाफ़ प्रचार करना वह घटिया तरीक़ा है जो किसी तरह भी दीन की दावत देनेवालों की शान के मुताबिक़ नहीं है और उन लोगों का दामन इस तरह के दाग़-धब्बों से बिलकुल ही साफ़ होना चाहिए जो वाक़ई दिल की गहराई से यह चाहते हैं कि अपनी ताक़त और योग्यताओं को ख़ुदा की राह में लगाएँ और ज़िन्दगी में ख़ुदा के दीन की कुछ ख़िदमत कर जाएँ।

39. रहनुमाई के आदाब

1. इस्लामी जमाअत की रहनुमाई के लिए ऐसे आदमी को चुनिए जो ख़ुदातरसी और परहेज़गारी में सबसे बढ़ा हुआ हो, (क्योंकि) दीन में बुज़ुर्गी और बड़ाई का मेयार न माल व दौलत है और न ख़ानदान, बल्कि दीन में वही आदमी सबसे अफ़ज़ल है जो सबसे ज़्यादा ख़ुदा से डरनेवाला है।

क़ुरआन का इरशाद है—

“ऐ इनसानो! हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया, तुम्हारे कुंबे और क़बीले बनाए ताकि तुम आपस में पहचाने जाओ। बेशक ख़ुदा के नज़दीक तुम सबमें ज़्यादा इज़्ज़तदार वह है जो तुम सबमें ज़्यादा तक़वावाला और परहेज़गार है।"  (क़ुरआन, 49:13)

2. रहनुमा के चुनाव को एक ख़ालिस दीनी फ़र्ज़ समझिए और अपनी राय को ख़ुदा की अमानत समझते हुए सिर्फ़ उसी आदमी के हक़ में इस्तेमाल कीजिए जिसको आप वाक़ई इस बड़े बोझ को उठाने और उसका हक़ अदा करने के लायक़ समझते हों।

ख़ुदा का इरशाद है—

"बेशक ख़ुदा तुम्हें हुक्म देता है कि तुम अपनी अमानतें उन्हीं के सुपुर्द करो जो उसके अहल हैं।" (क़ुरआन, 4:58)

यह एक उसूली हिदायत है जो हर तरह की अमानतों पर हावी है और यहाँ अमानतों से मुराद इस्लामी जमाअत की ज़िम्मेदारियाँ हैं, यानी इस्लामी जमाअत की रहनुमाई के लिए अपनी राय और पसन्द की अमानत उसी सबसे अहल आदमी के हवाले कीजिए जो वाक़ई अमानत के इस बोझ को उठाने की अहलियत और सलाहियत रखता हो। इस मामले में जानिबदारी या बेजा रवादारी और इसी तरह के दूसरे तत्त्वों से मुतास्सिर होकर राय देना ख़ियानत है जिससे मोमिन का दामन पाक होना चाहिए।

3. अगर आप मुसलमानों की जमाअत की ज़िम्मेदारी सँभालें तो अपनी ज़िम्मेदारियों का पूरा-पूरा एहसास रखिए और पूरी दियानत, मेहनत, ज़िम्मेदारी के एहसास और तनदही के साथ अपनी ड्यूटी अंजाम दीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी मुसलमानों के सामूहिक मामलों का ज़िम्मेदार हो और वह उनके साथ ख़ियानत करे तो ख़ुदा उसपर जन्नत हराम कर देगा।" (बुख़ारी, मुस्लिम)

और आपने यह भी इरशाद फ़रमाया—

“जिस आदमी ने मुसलमानों के सामूहिक मामलों की ज़िम्मेदारी क़बूल की, फिर उसने उनका भला न चाहा और उनके काम अंजाम देने में अपने आपको इस तरह नहीं थकाया जिस तरह वह अपनी निजी ज़रूरत के लिए ख़ुद को थकाता है तो ख़ुदा उस आदमी को मुँह के बल जहन्नम में गिरा देगा।" (तबरानी)

4. अपने पीछे चलनेवालों के साथ नर्मी, मुहब्बत, इनसाफ़ और सूझबूझ का बरताव कीजिए ताकि वे खुले दिल से आपका साथ दे सकें और ख़ुदा आपकी जमाअत को अपने दीन की कुछ ख़िदमत करने की तौफ़ीक़ बख़्शे। क़ुरआन में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तारीफ़ में कहा गया है—

"यह ख़ुदा की रहमत ही तो है कि आप उन लोगों के लिए इंतिहाई नर्म दिल हैं, वरना अगर कहीं आप सख़्त मिज़ाज और कड़ी पकड़ करनेवाले होते तो ये सब आपके आस-पास से छँट जाते।" (क़ुरआन, 3:159)

और आपको ताकीद की गई है—

"और आप अपनी मुहब्बत के बाज़ू फैला दीजिए उन मोमिनों के लिए जो आपकी पैरवी कर रहे हैं।" (क़ुरआन, 26:215)

हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार तक़रीर (Speach) करते हुए इरशाद फ़रमाया—

"ऐ लोगो! हमारा तुमपर हक़ है कि पीठ पीछे हमारा ख़ुलूस के साथ भला चाहो और नेकी के मामलों में हमारी मदद करो।"

फिर इरशाद फ़रमाया—

"ऐ हुकूमत के ज़िम्मेदारो! ज़िम्मेदार की नर्मी से ज़्यादा नफ़ा देनेवाली और ख़ुदा के नज़दीक ज़्यादा पसन्दीदा और कोई नर्मी नहीं है। इसी तरह ज़िम्मेदार की नासमझी, भावुकता में डूबकर बेसमझे-बूझे काम करने से ज़्यादा नुक़सानदेह और नापसन्दीदा कोई दूसरी नासमझी नहीं है।"

5. अपने साथियों की अहमियत को महसूस कीजिए, उनकी भावनाओं का एहतिराम कीजिए, उनकी ज़रूरतों का एहसास कीजिए और उनके साथ ऐसा भाई जैसा सुलूक कीजिए कि वे आपको अपना सबसे बड़ा भला चाहनेवाला समझें।

हज़रत मालिक बिन हुवैरिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार हम कुछ हमउम्र नौजवान नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में रहने के लिए पहुँचे और हम आपकी ख़िदमत में बीस रात तक रहे। वाक़ई ख़ुदा के रसूल इंतिहाई नर्मदिल और रहम करनेवाले थे। जब आपने यह महसूस किया कि अब हमें घरवालों की याद सता रही है तो हमसे पूछने लगे कि तुम लोग अपने पीछे घर में किन-किन लोगों को छोड़कर आए हो? हमने तफ़सील बताई तो फ़रमाया—

"अच्छा तो अब तुम लोग अपने घरों को वापस जाओ और उन्हीं के साथ रहो और जो कुछ तुमने सीखा है, उनको सिखाओ और उन्हें नेक बातें बताओ और फ़लाँ नमाज़ फ़लाँ वक़्त पढ़ो और जब नमाज़ का वक़्त आ जाए तो तुममें से कोई एक अज़ान दे दे और तुममें जो इल्म व किरदार के लिहाज़ से सबसे बढ़कर हो, वह नमाज़ पढ़ाए।"

6. अपने साथियों की क़द्र कीजिए और इन्हीं को अपनी असल पूँजी समझते हुए पूरी तनदही और दिलसोज़ी के साथ उनकी तरबियत कीजिए। उनको ग़रीब और कमज़ोर समझकर उन लोगों की ओर ललचाई हुई नज़रों से न देखिए जिनको ख़ुदा ने दुनिया की शान व शौकत और माल व असबाब देकर ढील दी है—

“और अपने आपको उन लोगों के साथ होने पर मुतमइन रखिए जो अपने रब की रिज़ा के तालिब बनकर सुबह व शाम उसको पुकारते रहते हैं और उनको नज़रअंदाज़ करके दुनिया की शान व शौकत की तलब में अपनी निगाहें न दौड़ाइए।" (क़ुरआन18:28)

असल में दीनी जमाअत की असल पूँजी वही लोग हैं जो तन-मन-धन से दीन की तबलीग़ व इशाअत में लग गए हैं। जमाअत के नेता का फ़र्ज़ है कि उनकी अहमियत का एहसास करे और अपनी सारी तवज्जोह इन्हीं की तरबियत और तैयारी पर लगाए रखे।

7. जमाअत के तमाम अहम काम साथियों के मशविरे से तय कीजिए और अंजाम दीजिए और साथियों के ख़ुलूस भरे मशविरे से फ़ायदा उठाकर जमाअत के कामों से उनका लगाव और चाव बढ़ाइए, ईमानवालों की ख़ूबी ख़ुदा ने यह भी बयान की है कि उनके मामले आपसी मशविरों से तय होते हैं।

“और उनके मामले आपसी मशविरों से तय पाते हैं।" (क़ुरआन, 42:38)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ताकीद की गई है कि ख़ास मामलों में अपने साथियों से मशविरा लीजिए।

“और ख़ास मामले में उनसे मशविरा कीजिए।” (क़ुरआन, 3:159)

8. जमाअती मामलों में हमेशा खुले दिल और त्याग-भावना से काम लीजिए। अपने और अपने घरवालों को किसी मामले में तरजीह न दीजिए, बल्कि हमेशा ईसार और फ़ैयाज़ी का बरताव कीजिए, ताकि साथी ख़ुशदिली के साथ हर क़ुरबानी देने के लिए पेश-पेश रहें और जमाअत से बददिली और बेताल्लुक़ी न पैदा हो और न ख़ुदग़रज़ी और स्वार्थ की भावनाएँ उभरने पाएँ। हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा—

“ऐ ख़त्ताब के बेटे! मैंने मुसलमानों पर तुम्हें इसलिए चुना है कि तुम उनके साथ मुहब्बत का बरताव करो। तुमने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सोहबत उठाई है। तुमने देखा है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) किस तरह हमको अपने ऊपर और हमारे घरवालों को अपने घरवालों पर तरजीह दिया करते थे, यहाँ तक कि हमको जो कुछ आपकी तरफ़ से मिलता, उसमें से कुछ बच जाता तो वह हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के घरवालों को तोहफ़ा भेजा करते थे।" (किताबुल ख़िराज)

9. जानिबदारी और भाई-भतीजावाद से हमेशा बचते रहिए और बेजा मुहब्बत और रवादारी से भी परहेज़ कीजिए। हज़रत यज़ीद बिन सुफ़ियान (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि जब हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मुझे सिपहसालार (सेनापति) बनाकर शाम की ओर रवाना किया तो उस वक़्त यह नसीहत फ़रमाई—

“ऐ यज़ीद! तुम्हारे कुछ अज़ीज़ और रिश्तेदार हैं। हो सकता है कि तुम उनको कुछ ज़िम्मेदारियाँ देने पर तरजीह देने लगो। तुम्हारे लिए मेरे नज़दीक सबसे ज़्यादा अंदेशे और डर की बात यही है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जो आदमी मुसलमानों के समाजी मामलों का ज़िम्मेदार हो और वह मुसलमानों पर किसी को सिर्फ़ रिश्तेदारी की वजह से या सिर्फ़ दोस्ती की वजह से हाकिम बनाए, तो ख़ुदा उसकी ओर से कोई फ़िदया क़बूल न करेगा, यहाँ तक कि जहन्नम में डाल देगा। (किताबुल ख़िराज)

10. जमाअत के नज़्म (संगठन) को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत रखने की कोशिश कीजिए और इस मामले में बेजा नर्मी और ढील से काम न लीजिए। ख़ुदा का इरशाद है—

"तो जब वे अपने किसी ख़ास काम के लिए आपसे इजाज़त माँगें तो आप जिसको चाहें इजाज़त दे दिया करें और उन लोगों के हक़ में ख़ुदा से मग़फ़िरत (माफ़ी) तलब किया करें।" (क़ुरआन, 24:62)

यानी जब जमाअत के साथी किसी समाजी ज़रूरत के लिए जमा हों और फिर कुछ लोग अपनी निजी ज़रूरत और मजबूरियों की वजह से इजाज़त माँगने लगें तो जमाअत के ज़िम्मेदार का फ़र्ज़ है कि वह जमाअत के नज़्म की अहमियत को देखते हुए सिर्फ़ उन्हीं लोगों को इजाज़त दे जिनकी ज़रूरत वाक़ई इस इज्तिमाई दीनी काम के मुक़ाबले में तरजीह के ज़्यादा क़ाबिल हो या जिनकी मजबूरी वाक़ई मजबूरी हो और उसका क़बूल करना ज़रूरी हो।

अध्याय-5

बंदगी का एहसास

40. तौबा और इसतिग़फ़ार

1. तौबा के क़बूल होने के बारे में कभी मायूस न हों, कैसे ही बड़े-बड़े गुनाह हो गए हों, तौबा से अपने नफ़्स को पाक कीजिए और ख़ुदा से उम्मीद बाँधे रखिए। मायूसी तो ग़ैर ईमानवालों का तरीक़ा है। ईमानवालों की तो ख़ास ख़ूबी ही यह है कि वे बहुत ज़्यादा तौबा करनेवाले होते हैं और किसी हाल में ख़ुदा से मायूस नहीं होते। गुनाहों की ज़्यादती से घबराकर मायूसी में पड़े रहना और तौबा के क़बूल होने से नाउम्मीद होना ज़ेहन व फ़िक्र की तबाह कर देनेवाली गुमराही है। ख़ुदा ने अपने महबूब बन्दों की यह तारीफ़ नहीं फ़रमाई है कि उनसे गुनाह नहीं होते, बल्कि फ़रमाया कि उनसे गुनाह होते हैं लेकिन वे अपने गुनाहों पर इसरार नहीं करते, खुलेदिल से उन्हें मान लेते हैं और ख़ुदको पाक करने के लिए बेचैन हो जाते हैं—

“और अगर कभी उनसे कोई गन्दा काम हो जाता है या वे अपने ऊपर कभी ज़्यादती कर बैठते हैं तो तुरन्त उन्हें ख़ुदा याद आ जाता है और वे उससे अपने गुनाहों की माफ़ी चाहते हैं और ख़ुदा के सिवा कौन है, जो गुनाहों को माफ़ कर सकता है और वे जानते-बूझते अपने किए पर हरगिज़ इसरार नहीं करते।" (क़ुरआन, 3:135)

और दूसरी जगह फ़रमाया—

"हक़ीक़त में जो लोग ख़ुदा से डरनेवाले हैं, उनका हाल यह होता है कि कभी शैतान के असर से कोई बुरा ख़याल उन्हें छू भी जाता है तो वे फ़ौरन चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आने लगता है कि सही रविश क्या है।" (क़ुरआन, 7:201)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“सारे के सारे इनसान ख़ताकार हैं और बेहतरीन ख़ताकार वे हैं जो बहुत ज़्यादा तौबा करनेवाले हैं।" (तिरमिज़ी)

क़ुरआन पाक में ख़ुदा ने अपने प्यारे बन्दों की यह ख़ास ख़ूबी बयान की है कि वे भोर में ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाते हैं और तौबा व इसतिग़फ़ार करते हैं। और ईमानवालों को हिदायत फ़रमाई है कि वे तौबा व इसतिग़फ़ार करते रहें और यह यक़ीन रखें कि ख़ुदा उनके गुनाहों पर माफ़ी का परदा डाल देगा, इसलिए कि वह बड़ा ही माफ़ फ़रमानेवाला और अपने बन्दों से इंतिहाई मुहब्बत करनेवाला है।

“और अपने परवरदिगार से माफ़ी चाहो और उसके आगे तौबा करो। बेशक मेरा रब बड़ा ही रहम फ़रमानेवाला और बहुत ही मुहब्बत करनेवाला है।" (क़ुरआन, 11:90)

2. ख़ुदा की रहमत से हमेशा उम्मीदें बाँधे रखिए और यह यक़ीन रखिए कि गुनाह चाहे कितने ही ज़्यादा हों, ख़ुदा की रहमत इससे कहीं ज़्यादा बड़ी और फैली हुई है। समुद्र के झाग से ज़्यादा गुनाह करनेवाला भी जब अपने गुनाहों पर शर्मिंदा होकर ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाता है तो ख़ुदा उसकी सुनता है और उसको अपनी रहमत के दामन में पनाह देता है।

“ऐ मेरे वे बन्दो जो अपनी जानों पर ज़्यादती कर बैठे हो! ख़ुदा की रहमत से हरगिज़ मायूस न होना, यक़ीनन ख़ुदा तुम्हारे सारे के सारे गुनाह माफ़ फ़रमाएगा। वह बहुत ही माफ़ फ़रमानेवाला और बड़ा ही मेहरबान है और तुम अपने रब की तरफ़ रुजू हो जाओ और उसकी फ़रमाँबरदारी बजा लाओ, इससे पहले कि तुमपर कोई अज़ाब आ पड़े और फिर तुम कहीं से मदद न पा सको।" (क़ुरआन 39:53-54)

3. ज़िन्दगी के किसी हिस्से में गुनाहों पर शर्मिंदगी और नदामत का एहसास पैदा हो तो उसे ख़ुदा की तौफ़ीक़ समझिए और तौबा के दरवाज़े को खुला समझिए ख़ुदा अपने बन्दों की तौबा उस वक़्त तक क़बूल फ़रमाता है जब तक उसकी साँस नहीं उखड़ती, अलबत्ता साँस उखड़ने के बाद जब इनसान दूसरी दुनिया में झाँकने लगता है तो तौबा की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा अपने बन्दे की तौबा क़बूल करता है, पर साँस उखड़ने से पहले-पहले।" (तिरमिज़ी)

हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के भाइयों ने उनको अँधेरे कुएँ में धकेलकर अपनी समझ से उन्हें ख़त्म कर दिया, गोया वे नबी के क़त्ल का गुनाह कर बैठे और उनका कुर्ता ख़ून में रंगकर अपने बाप याक़ूब (अलैहिस्सलाम) को यक़ीन दिलाने की कोशिश करने लगे कि यूसुफ़ मर गए और उनको भेड़िए ने अपना भोजन बना लिया। लेकिन ऐसा महापाप करने के कई साल बाद जब अपने जुर्म का एहसास उभरता है और वे शर्मिंदा होकर अपने बाप से दरख़ास्त करते हैं कि अब्बा जान! हमारे लिए ख़ुदा से दुआ कीजिए कि ख़ुदा हमारे गुनाह को माफ़ फ़रमा दे, तो ख़ुदा के पैग़म्बर हज़रत याक़ूब (अलैहिस्सलाम) यह कहकर उन्हें मायूस नहीं करते कि तुम्हारा पाप बहुत बड़ा है और इस (महापाप) पर अब वर्षों गुज़र चुके हैं, इसलिए अब माफ़ी का क्या सवाल, बल्कि वे उनसे वादा करते हैं कि मैं ज़रूर तुम्हारे लिए पालनहार से माफ़ी की दुआ करूँगा और उन्हें यह यक़ीन दिलाते हैं कि ख़ुदा ज़रूर तुम्हें माफ़ करेगा, इसलिए कि वह बहुत ज़्यादा दरगुज़र (माफ़) करनेवाला और बड़ा ही रहम फ़रमानेवाला है।

"उन सबने कहा: ऐ अब्बा जान! हमारे गुनाहों की बख़्शिश के लिए दुआ कीजिए, वाक़ई हम बड़े ख़ताकार थे।" (क़ुरआन, 12:97)

हज़रत याक़ूब (अलैहिस्सलाम) ने कहा—

“मैं अपने रब से तुम्हारे लिए ज़रूर माफ़ी की दुआ करूँगा (और वह तुम्हें ज़रूर माफ़ कर देगा।) यक़ीनन वह बड़ा ही माफ़ करनेवाला और इंतिहाई रहम फ़रमानेवाला है।" (क़ुरआन, 12:98)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उम्मत को मायूसी की तबाही से बचाने के लिए सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को एक अजीबो ग़रीब क़िस्सा सुनाया जिससे यह सबक़ मिलता है कि मोमिन उम्र के जिस हिस्से में भी अपने गुनाहों पर शर्मिंदा होकर सच्चे दिल से ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाएगा तो वह अपनी मग़फ़िरत के दामन में ढाँप लेगा और कभी नहीं धुतकारेगा।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि पिछली क़ौम में एक आदमी था जिसने निन्नान्वे ख़ून किए थे। उसने लोगों से मालूम किया कि दुनिया में सबसे बड़ा आलिम कौन है? लोगों ने उसको एक ख़ुदा को पहुँचे हुए राहिब (संन्यासी) का पता दिया। वह उस राहिब के पास गया और बोला, “हज़रत! मैंने निन्नान्वे ख़ून किए हैं, क्या मेरी तौबा भी क़बूल हो सकती है? राहिब ने कहा, "नहीं, तुम्हारी तौबा क़बूल होने की अब कोई शक्ल नहीं।" यह सुनते ही उस आदमी ने मायूसी में उस राहिब को भी क़त्ल कर दिया और अब पूरे सौ आदमियों का क़ातिल था। अब उसने फिर लोगों से पूछना शुरू किया कि इस धरती पर दीन का सबसे बड़ा आलिम कौन है? लोगों ने उसको एक और राहिब का पता दिया। अब वह तौबा की ग़रज़ से उस राहिब की ख़िदमत में पहुँचा और उसको अपनी हालत बताते हुए कहा कि हज़रत! मैंने सौ क़त्ल किए हैं। यह बताइए, क्या मेरी तौबा क़बूल हो सकती है? और मेरी बख़्शिश की भी कोई शक्ल है? राहिब ने कहा, "क्यों नहीं? भला तुम्हारे और तौबा के दरमियान में कौन-सी चीज़ रुकावट बन सकती है? तुम फ़्लाँ मुल्क में जाओ, वहाँ ख़ुदा के कुछ चुने हुए बन्दे ख़ुदा की इबादत में लगे हुए हैं, तुम भी उनके साथ ख़ुदा की इबादत में लग जाओ और फिर कभी अपने वतन लौटकर न आना, क्योंकि अब यह जगह दीनी लिहाज़ से तुम्हारे लिए मुनासिब नहीं है।” (यहाँ तुम्हारे लिए तौबा पर क़ायम रहना और सुधार की कोशिश करना बहुत मुश्किल है।) वह आदमी रवाना हुआ। अभी आधे रास्ते तक ही पहुँचा था कि मौत का पैग़ाम आ गया। अब फ़रिश्ते आपस में झगड़ने लगे। रहमत के फ़रिश्तों ने कहा, "यह गुनाहों से तौबा करके ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह होकर इधर आया है।" अज़ाब के फ़रिश्तों ने कहा, "नहीं, अभी उसने कोई भी नेक अमल नहीं किया है।"

यह बात हो ही रही थी कि एक फ़रिश्ता इनसान की शक्ल में आया। इन फ़रिश्तों ने उसको अपना हकम (पंच) बना लिया कि वह इन दोनों के दरमियान कोई फ़ैसला कर दे। उसने कहा, "दोनों तरफ़ की ज़मीन नापो और यह देखो कि वह जगह यहाँ से क़रीब है जहाँ से आदमी आया है या वह जगह यहाँ से क़रीब है जहाँ उस आदमी को जाना था।" फ़रिश्तों ने ज़मीन को नापा तो वह जगह क़रीब निकली जहाँ उस आदमी को जाना था और जाते हुए राह में रहमत के फ़रिश्ते ने उसकी रूह क़ब्ज़ कर ली, और ख़ुदा ने उसको बख़्श दिया। (बुख़ारी, मुस्लिम)

4. सिर्फ़ ख़ुदा के हुज़ूर अपने गुनाहों का इक़रार कीजिए। उसी के हुज़ूर गिड़गिड़ाइए और उसी के सामने अपनी आजिज़ी, बेकसी और ख़ताकारी को ज़ाहिर कीजिए। इज़्ज़त व इनकिसारी इनसान की वह पूँजी है जो सिर्फ़ ख़ुदा ही के हुज़ूर पेश की जा सकती है और जो बदनसीब अपनी इज़्ज़त व इनकिसारी की यह पूँजी अपने ही जैसे मजबूर व बेबस इनसानों के सामने पेश करता है, तो फिर उस दिवालिए के पास ख़ुदा के हुज़ूर पेश करने के लिए कुछ नहीं रह जाता और वह ज़लील व रुसवा होकर हमेशा के लिए दर-दर की ठोकरें खाता है और कहीं इज़्ज़त नहीं पाता।

ख़ुदा का इरशाद है—

“और आपका परवरदिगार गुनाहों को ढाँपनेवाला और बहुत ज़्यादा रहम करनेवाला है। अगर वह उनके करतूतों पर उनको तुरन्त पकड़ने लगे, तो अज़ाब भेज दे, पर उसने (अपनी रहमत से) एक वक़्त उनके लिए मुक़र्रर कर रखा है और ये लोग बचने के लिए उसके सिवा कोई पनाहगाह न पाएँगे।” (क़ुरआन, 18:58)

और सूरा शूरा में है—

"और वही तो है जो अपने बन्दों की तौबा क़बूल करता है और उनकी ख़ताओं को माफ़ फ़रमाता है और वह सब जानता है जो तुम करते हो।” (क़ुरआन, 42:25)

असल में इनसान को यह यक़ीन रखना चाहिए कि कामयाबी का एक ही दरवाज़ा है। उस दरवाज़े से जो धुत्कार दिया गया, फिर वह हमेशा के लिए ज़लील और महरूम हो गया। ईमानवालों की सोच का अन्दाज़ यही है कि बन्दे से चाहे कैसे भी गुनाह हो जाएँ, उसका काम यह है कि वह ख़ुदा ही के हुज़ूर गिड़गिड़ाए और उसी के दामन पर अपनी शर्मिन्दगी के आँसू टपकाए। बन्दे के लिए ख़ुदा के सिवा कोई और दरवाज़ा नहीं जहाँ उसे माफ़ी मिल सके। हद यह है कि अगर आदमी ख़ुदा को छोड़कर रसूल को ख़ुश करने की कोशिश करेगा भी तो ख़ुदा के दरबार में उसकी इस कोशिश की कोई क़ीमत न लगेगी और वह धुत्कार दिया जाएगा। रसूल भी ख़ुदा का बन्दा है और वह भी उसी दर का फ़क़ीर है। उसे भी जो बड़ा रुतबा मिला है, इसी दर से मिला है और उसके बड़प्पन का भेद भी यही है कि वह ख़ुदा का सबसे ज़्यादा आजिज़ बन्दा होता है और आम इनसानों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“लोगो! ख़ुदा से अपने गुनाहों की माफ़ी चाहो और उसकी ओर पलट आओ। मुझे देखो मैं दिन में सौ-सौ बार ख़ुदा से मग़फ़िरत की दुआ करता रहता हूँ।” (मुस्लिम)

मुनाफ़िक़ों का ज़िक्र करते हुए अल्लाह तआला ने फ़रमाया—

“ये मुनाफ़िक़ आपके सामने क़समें खाएँगे कि आप उनसे राज़ी हो जाएँ। अगर आप उनसे राज़ी हो भी गए तो ख़ुदा हरगिज़ ऐसे बेदीनों से राज़ी न होगा।" (क़ुरआन, 9:96)

क़ुरआन पाक में हज़रत काब बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) का वाक़िआ हमेशा के लिए सबक़ है कि बन्दा सब कुछ सहे, हर आज़माइश बरदाश्त करे, लेकिन ख़ुदा के दर से उठने का ख़याल तक उसके दिल में न आए। दीन की राह में आदमी पर जो कुछ बीते और ख़ुदा की ओर से उसको जितना भी रौंदा जाए, वह उसकी ज़िन्दगी को चमकाने और उसके दर्जों को बुलन्द करने का ज़रिया है। यह बेइज़्ज़ती हमेशा रहनेवाली इज़्ज़त का यक़ीनी रास्ता है और जो ख़ुदा के दरवाज़े को छोड़कर कहीं और इज़्ज़त तलाश करता है, उसको कहीं भी इज़्ज़त नहीं मिल सकती। वह हर जगह ज़लील होगा और ज़मीन और आसमान की कोई एक आँख भी उसको इज़्ज़त की नज़र से नहीं देख सकती।

“और उन तीनों को भी ख़ुदा ने माफ़ कर दिया, जिनका मामला मुल्तवी (स्थगित) कर दिया गया था, जब ज़मीन अपने सारे फैलाव के बावजूद उनपर तंग हो गई और उनकी जानें भी उनपर बोझ होने लगीं और उन्होंने जान लिया कि ख़ुदा से बचने के लिए कोई पनाहगाह नहीं है, सिवाए इसके कि ख़ुद उसी की पनाह ली जाए, तो ख़ुदा अपनी मेहरबानी से उनकी ओर पलटा, ताकि वे उसकी ओर पलट आएँ, बेशक वह बड़ा ही माफ़ फ़रमानेवाला और इंतिहाई मेहरबान है।" (क़ुरआन, 9:118)

इन तीन बुज़ुर्गों से हज़रत काब बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु), हज़रत मुरारा बिन रुबैअ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हिलाल बिन उमैया (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुराद हैं और इन तीनों की मिसाली तौबा रहती ज़िन्दगी तक के लिए मोमिनों के वास्ते रास्ते की मशाल है।

हज़रत काब बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो बुढ़ापे में अंधे हो गए थे और अपने लड़के के सहारे चला करते थे, उन्होंने ख़ुद अपनी मिसाली तौबा का नसीहत भरा वाक़िआ अपने बेटे से बयान किया था जो हदीस की किताबों में दर्ज है— तबूक की लड़ाई की तैयारी में जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुसलमानों को लड़ाई में शरीक होने पर उभारा करते थे, मैं भी उन सोहबतों में शरीक रहता था। मैं जब भी आपकी बातें सुनता, मन में सोचता कि मैं ज़रूर जाऊँगा, लेकिन वापस जब घर आता तो सुस्ती कर जाता और सोचता कि अभी बहुत वक़्त है, मेरे पास सफ़र का सामान मौजूद है, मैं सेहतमंद हूँ, सवारी अच्छी से अच्छी मुहैया है, फिर रवाना होते क्या देर लगेगी और बात टलती रही। यहाँ तक कि मुजाहिद लड़ाई के मैदान में पहुँच गए और मैं मदीना में बैठा इरादा ही करता रहा।

अब ख़बरें आने लगीं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) वापस आनेवाले हैं और एक दिन मालूम हुआ कि आप वापस आ गए और आदत के मुताबिक़ मस्जिद में ठहरे हुए हैं। मैं भी मस्जिद में पहुँचा, यहाँ मुनाफ़िक़ (कपटी लोग) हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में पहुँच रहे थे और लम्बी-चौड़ी क़स्में खा-खाकर अपने बहाने पेश कर रहे थे। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उनकी बनावटी बातें सुन-सुनकर उनके ज़ाहिरी उज़्र क़बूल कर रहे थे और फ़रमाते जाते– “ख़ुदा तुम्हें माफ़ करे।"

जब मेरी बारी आई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझसे कहा—

“कहो तुम्हें किस चीज़ ने रोक दिया था?" मैंने देखा कि आप की मुस्कराहट में ग़ुस्से के निशान हैं और मैंने साफ़-साफ़ बात कह डाली—ख़ुदा के रसूल! वाक़िआ यह है कि मुझे कोई उज़्र न था। मैं सेहतमन्द था, ख़ुशहाल था, सवारी भी मेरे पास मौजूद थी, बस मेरी सुस्ती और ग़फ़लत ने मुझे इस सआदत से महरूम रखा।"

मेरी साफ़-साफ़ बात सुनकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अच्छा जाओ और इन्तिज़ार करो कि ख़ुदा तुम्हारे मामले में कोई फ़ैसला फ़रमाए।" मैं उठा और अपने क़बीले के लोगों में आ बैठा। क़बीले के लोगों ने मुझे बुरा-भला कहना शुरू किया कि तुमने कोई बात क्यों न बना दी। तुम तो हमेशा दीन के कामों में पेश-पेश रहे हो लेकिन जब मुझे यह मालूम हुआ कि मेरे दो साथियों ने भी इसी तरह सच्ची बात कही है तो मेरा दिल मुतमइन हो गया और मैंने तय कर लिया कि मैं अपनी सच्चाई पर जमा रहूँगा।

इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने आम एलान फ़रमाया कि हम तीनों से कोई बात न करे। यह एलान होते ही मेरे लिए मदीने की ज़मीन बिलकुल बदल गई और मैं अपनों में बे-यार व मददगार बिलकुल अजनबी बनकर रह गया। कोई भी समाज में मुझसे सलाम-कलाम न करता। एक दिन जब मैं बहुत ज़्यादा उकता गया और तबीअत बहुत घबराई तो अपने एक बचपन के दोस्त और चचेरे भाई अबू क़तादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास गया। मैंने जाकर सलाम किया लेकिन उस ख़ुदा के बन्दे ने सलाम का जवाब तक न दिया। मैंने पूछा, “अबू क़तादा! मैं तुम्हें ख़ुदा की क़सम देकर पूछता हूँ, बताओ क्या मुझे ख़ुदा और उसके रसूल से मुहब्बत नहीं है?" वे ख़ामोश रहे। मैंने फिर पूछा लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। तीसरी बार जब मैंने क़सम देकर पूछा तो बस उन्होंने कहा, "ख़ुदा और ख़ुदा के रसूल ही बेहतर जानते हैं।" मेरा दिल भर आया और मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे और मैं अपना ग़म लिए हुए वापस आ गया।

उन्हीं दिनों बाज़ार में 'शाम' के एक व्यापारी ने मुझे 'शाह ग़स्सान' का एक ख़त दिया। ईसाइयों के इस बादशाह ने लिखा था— हमने सुना है कि तुम्हारे साहब तुमपर बहुत ही सितम तोड़ रहे हैं। तुम कोई ज़लील आदमी तो हो नहीं, तुम्हारी क़द्र हम जानते हैं, तुम हमारे पास आओ। हम तुम्हारे मरतबे के लायक़ सुलूक करेंगे। ख़त देखते ही मेरी ज़बान से निकला, “यह एक और मुसीबत नाज़िल हुई।" उसी वक़्त उस ख़त को लेकर मैंने चूल्हे में झोंक दिया।

चालीस दिन इस हालत पर गुज़र चुके थे कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का भेजा हुआ एक आदमी यह हुक्म लेकर आया कि अपनी बीवी से भी अलग हो जाओ। मैंने पूछा, "तलाक़ दे दूँ?" जवाब मिला, "नहीं, बस अलग रहो।" मैंने अपनी बीवी को मायके रवाना कर दिया और उस ख़ुदा की बन्दी से कह दिया कि अब तुम भी ख़ुदा के फ़ैसले का इन्तिज़ार करती रहो।

पचासवें दिन मैं फ़ज्र की नमाज़ के बाद अपनी जान से बेज़ार बहुत ही मायूस और दुखी अपने मकान की छत पर बैठा हुआ था कि यकायक किसी ने पुकारकर कहा, "काब! मुबारक हो।" यह सुनते ही मैं समझ गया और अपने ख़ुदा के हुज़ूर सज्दे में गिर पड़ा, फिर तो लोगों का ताँता बँध गया। फ़ौज दर फ़ौज मेरे पास मुबारकबाद देने के लिए लोग आने लगे। मैं उठा और सीधे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास मस्जिद में पहुँचा। क्या देखता हूँ कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का चेहरा ख़ुशी से चमक रहा है। मैंने आगे बढ़कर सलाम किया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "काब! मुबारक हो यह तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन दिन है।" मैंने कहा, “हुज़ूर! यह माफ़ी आपकी तरफ़ से है या ख़ुदा की तरफ़ से?" फ़रमाया, “ख़ुदा की तरफ़ से" और सूरा तौबा की कुछ आयतें पढ़कर सुनाईं।

5. तौबा करने में कभी देर न कीजिए। ज़िन्दगी का हाल किसी को मालूम नहीं, कब अमल की मोहलत ख़त्म हो जाए कुछ ख़बर नहीं अगला लम्हा ज़िन्दगी का लम्हा है या मौत का मालूम नहीं। हर वक़्त अंजाम का ध्यान रखिए और तौबा व इसतिग़फ़ार के ज़रिए क़ल्ब व रूह और ज़ेहन व ज़बान को गुनाहों से धोते रहिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा रात को अपना हाथ फैलाता है ताकि जिस आदमी ने दिन में कोई गुनाह किया है वह रात में ख़ुदा की ओर पलट आए और दिन में वह अपना हाथ फैलाता है ताकि रात में अगर किसी ने कोई गुनाह किया है तो वह दिन में अपने रब की ओर पलटे और गुनाहों की माफ़ी माँगे, यहाँ तक कि सूरज पश्चिम से निकले।" (मुस्लिम)

ख़ुदा के ‘हाथ फैलाने' से मुराद यह है कि वह अपने गुनाहगार बन्दों को अपनी ओर बुलाता है और अपनी रहमत से उनके गुनाहों को ढाँपना चाहता है। अगर बन्दे ने किसी वक़्ती जज़्बे से दबकर कोई गुनाह कर लिया है तो उसे चाहिए कि वह अपने रहम फ़रमानेवाले और माफ़ करनेवाले ख़ुदा की ओर दौड़े और तनिक देर न करे कि गुनाह से गुनाह पैदा होता है और शैतान हर वक़्त इनसान की घात में लगा हुआ है और वह उसको गुमराह करने की चिन्ता से किसी वक़्त भी निश्चिन्त नहीं है।

6. बहुत ही सच्चे दिल से ख़ुलूस के साथ तौबा कीजिए जो आपकी ज़िन्दगी की काया पलट दे और तौबा के बाद आप एक दूसरे ही इनसान नज़र आएँ।

ख़ुदा का फ़रमान है—

“ऐ मोमिनो! ख़ुदा के आगे सच्ची और ख़ालिस तौबा करो। उम्मीद है कि तुम्हारा परवरदिगार तुम्हारे गुनाहों को तुमसे दूर फ़रमा देगा और तुम्हें ऐसे बाग़ों में दाख़िल फ़रमाएगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, उस दिन ख़ुदा अपने रसूल को और उन लोगों को जो ईमान लाकर उसके साथ हो लिए हैं, रुसवा न करेगा।" (क़ुरआन, 66:8)

यानी ऐसे तौबा कीजिए कि फिर क़ल्ब व ज़ेहन के किसी कोने में भी गुनाह की ओर पलटने का कोई अंश बाक़ी न रह जाए। ऐसी तौबा के तीन या चार पहलू है। अगर गुनाह का ताल्लुक़ ख़ुदा के हक़ से है तो तौबा के तीन हिस्से हैं—

(क) इनसान वाक़ई अपने गुनाहों के एहसास से शर्मिंदा हो,

(ख) आगे गुनाह से बचने का पक्का इरादा करे, और

(ग) अपनी ज़िन्दगी को सँवारने और सुधारने में पूरा दिल लगाकर और फ़िक्र के साथ सरगर्म हो जाए, और अगर उसने किसी बंदे का हक़ मार लिया है तो तौबा का हिस्सा यह भी है कि—

(घ) बन्दे का हक़ अदा करे या उससे माफ़ कराए।

यही वह तौबा है जिससे वाक़ई इनसान गुनाहों से धुल जाता है। उसका एक-एक गुनाह उसकी रूह से टपककर गिर जाता है और वह नेक कामों से सँवरकर, सजी ज़िन्दगी के साथ, ख़ुदा के हुज़ूर पहुँचता है और ख़ुदा उसको अपनी जन्नत में ठिकाना बख़्शता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"बन्दा जब कोई गुनाह करता है तो उसके दिल में एक स्याह (काला) दाग़ पड़ जाता है।”

अब अगर वह-

  • गुनाह से बाज़ आ जाए,
  • अपने गुनाहों के एहसास से शर्मिंदा होकर बख़्शिश का तलबगार (इच्छुक) हो, और
  • ख़ुदा की ओर पलटकर गुनाह से बचने का पक्का इरादा करे तो ख़ुदा उसके दिल को रौशनी बख़्श देता है और अगर वह फिर गुनाह कर बैठे तो इस स्याह दाग़ में बढ़ोत्तरी कर दी जाती है, यहाँ तक कि वह पूरे दिल पर छा जाता है। यही वह मोर्चा है जिसका ज़िक्र ख़ुदा ने अपनी किताब में फ़रमाया है—

“हरगिज़ नहीं, बल्कि असल बात यह है कि उनके दिलों पर उनके बुरे करतूतों का ज़ंग चढ़ गया है।" (क़ुरआन, 83:14)

7. अपनी तौबा पर क़ायम रहने का पक्का इरादा कीजिए और रात व दिन ध्यान रखिए कि ख़ुदा से किए हुए अह्द के ख़िलाफ़ कोई हरकत (काम) न होने पाए और अपनी हर दिन बढ़ती पाकीज़गी और सुधार से अपने इरादे का अंदाज़ा करते रहिए और अगर अपनी सारी कोशिशों के बावजूद भी आप फिसल जाएँ और फिर कोई ख़ता कर बैठें तब भी मायूस हरगिज़ न हों, बल्कि फिर ख़ुदा की मग़फ़िरत के दामन में पनाह खोजिए और ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाइए कि 'पालनहार! मैं बहुत कमज़ोर हूँ, तू मुझे अपने दर से ज़िल्लत के साथ न निकाल, इसलिए कि मेरे लिए तेरे दर के सिवा और कोई दर नहीं है जहाँ जाकर मैं पनाह लूँ।'

हज़रत शेख़ सादी (रहमतुल्लाह अलैह) ने फ़रमाया है—

इलाही बज़िल्लत मराँ अज़ दरम्

कि जुज़ तू नदारम दरे दीगरम्

और हज़रत अबू सईद अबुल ख़ैर (रहमतुल्लाह अलैह) की यह रुबाई (चौकड़ी) भी बहुत ही ख़ूब है—

बाज़ आ बाज़ आ हर आन चे हस्ती बाज़ आ

गर काफ़िर व गिब्र व बुतपरस्ती बाज़ आ,

ईं दर गहे मादर गहे नौमीदी नीस्त,

सद बार अगर तौबा शिकस्ती बाज़ आ।

(पलट आ ख़ुदा की तरफ़, फिर पलट आ तू जो कुछ और जैसा कुछ भी है, ख़ुदा की तरफ़ पलट आ। अगर तू काफ़िर, आतिशपरस्त और बुतपरस्त है तब भी ख़ुदा की तरफ़ पलट आ। हमारा यह दरबार मायूसी और नाउम्मीदी का दरबार नहीं है, अगर तूने सौ बार भी तौबा कर के तोड़ दी है तब भी पलट आ।)

ख़ुदा को सबसे ज़्यादा ख़ुशी जिस चीज़ से होती है वह बन्दे की तौबा है। तौबा का मतलब है पलटना, रुजू होना। बन्दा जब फ़िक्र व जज़्बात की गुमराही में पड़कर गुनाहों के दलदल में फँसता है तो वह ख़ुदा से बिछुड़ता है और बहुत दूर जा पड़ता है गोया वह ख़ुदा से गुम हो गया और जब वह फिर पलटता है और शर्मिंदा होकर ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह होता है तो यूँ समझिए कि गोया ख़ुदा को अपना गुम हुआ बन्दा फिर मिल गया। इस पूरी हालत को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बड़ी ज़ोरदार मिसाल में यूँ बयान फ़रमाया है—

“अगर तुममें से किसी आदमी का ऊँट एक चटयल मैदान में गुम हो गया और उस आदमी का खाने-पीने का सामान भी उसी गुम होनेवाले ऊँट पर लदा हुआ हो और वह आदमी चारों ओर उस चटयल मैदान में अपने ऊँट को ढूँढ-ढूँढकर मायूस हो चुका हो, फिर वह ज़िन्दगी से निराश होकर किसी पेड़ के नीचे मौत के इन्तिज़ार में लेट रहा हो, ठीक इसी हालत में वह अपने ऊँट को सारे सामान से लदा हुआ अपने पास खड़ा देखे, तो सोचो तो उसको कैसी कुछ ख़ुशी होगी! तुम्हारा पालनहार उस आदमी से भी कहीं ज़्यादा उस वक़्त ख़ुश होता है जब तुममें से कोई भटका हुआ बन्दा उसकी ओर फिर पलटता है और गुमराही के बाद फिर वह फ़रमाँबरदारी की रविश इख़तियार करता है।" (तिरमिज़ी)

एक मौक़े पर कुछ लड़ाई के क़ैदी गिरफ़्तार होकर आए। उनमें एक औरत भी थी जिसका दूध पीता बच्चा छूट गया था। वह ममता की मारी ऐसी बेक़रार थी कि जिस छोटे बच्चे को पा लेती तो अपनी छाती से लगाकर दूध पिलाने लगती। उस औरत का यह हाल देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से पूछा, "क्या तुम उम्मीद कर सकते हो कि यह माँ अपने बच्चे को ख़ुद अपने हाथों आग में फेंक देगी?" सहाबा ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! ख़ुद फेंकना तो दूर की बात, वह अगर गिरता हो तो भी यह जान की बाज़ी लगाकर उसको बचाएगी।" उसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

"ख़ुदा अपने बन्दों पर इससे भी ज़्यादा रहीम और मेहरबान है, जितनी यह माँ अपने बच्चे पर मेहरबान है।"

8. तौबा और इसतिग़फ़ार बराबर करते रहिए। सुबह से शाम तक इनसान से न मालूम कितनी ख़ताएँ होती रहती हैं और कभी-कभी ख़ुद इनसान को इनका एहसास भी नहीं हो पाता। यह न सोचिए कि कोई बड़ा गुनाह हो जाने पर ही तौबा की ज़रूरत है। इनसान हर वक़्त ही तौबा व इसतिग़फ़ार का मुहताज है और क़दम-क़दम पर उससे कोताहियाँ होती रहती हैं। ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दिन में सत्तर-सत्तर बार और सौ-सौ बार तौबा व इसतिग़फ़ार फ़रमाते थे। (बुख़ारी, मुस्लिम)

9. जो गुनाहगार तौबा करके अपनी ज़िन्दगी को सुधार ले उसको कभी हक़ीर न समझिए। हज़रत इमरान बिन हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) रिसालत के दौर का एक वाक़िआ बयान फ़रमाते हैं कि क़बीला जुहैना की एक औरत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुई जो बदकारी के नतीजे में गर्भवती हो गई थी। कहने लगी, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं ज़िनाकारी की सज़ा की हक़दार हूँ, मुझपर शरई हद क़ायम कीजिए और मुझे सज़ा दीजिए।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उस औरत के वली को बुलाया और उससे कहा, "तुम उसके साथ अच्छा सुलूक करते रहो और जब उसका बच्चा पैदा हो जाए तो उसको मेरे पास लेकर आना।" विलादत के बाद जब वह औरत आई तो आपने हुक्म दिया कि उसके कपड़े उसके जिस्म से बाँध दिए जाएँ। (ताकि संगसार होते वक़्त खुल न जाएँ और बेपरदगी न हो)। फिर उसको संगसार करने का हुक्म दिया और वह संगसार कर दी गई। फिर नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ी तो हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! आप इसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ रहे हैं, यह तो बदकारी कर चुकी है।" इसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "इसने तौबा कर ली और ऐसी तौबा की कि अगर इसकी तौबा मदीने के सत्तर आदमियों पर तक़्सीम कर दी जाए तो सबकी निजात के लिए काफ़ी हो जाए। तुमने उससे अफ़ज़ल किसी को देखा है जिसने अपनी जान ख़ुदा के हुज़ूर पेश कर दी।"

10. सय्यिदुल इसतिग़फ़ार का एहतिमाम कीजिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत शद्दाद बिन औस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को बताया कि सय्यिदुल इसतिग़फ़ार यानी सबसे उम्दा दुआ यह है—

अल्लाहुम-म अन-त रब्बि ला इला-ह इल्ला अन-त ख़लक़-तनी व अना अब्दु-क व अना अला अहदि-क व वअदि-क मस-त-तअतु अऊज़ु बि-क मिन शर्रि मा स-नअतु अबू-उ ल-क बिनिअ-मति-क अलय्-य व अबू-उ बिज़म्बी फ़ग़फ़िरली फ़इन-नहू ला यग़फ़िरुज़्ज़ुनू-ब इल्ला अन-त।

“ऐ ख़ुदा! तू मेरा परवरदिगार है, तेरे सिवा कोई और माबूद नहीं। तूने मुझे पैदा किया और मैं तेरा बन्दा हूँ। और मैंने तुझसे बन्दगी और इताअत का जो अह्द किया है, उसपर अपने बस भर क़ायम रहूँगा और जो गुनाह भी मुझसे हो जाए उसके बुरे नतीजों से बचने के लिए मैं तेरी पनाह का तालिब हूँ, तूने मुझे जिन-जिन नेमतों से नवाज़ा है उनका मैं इक़रार करता हूँ और मैं मानता हूँ कि गुनाहगार हूँ, अतः ऐ मेरे परवरदिगार! मेरे जुर्म को माफ़ फ़रमा दे, तेरे सिवा मेरे गुनाहों को और कौन माफ़ करनेवाला है।" (बुख़ारी, तिरमिज़ी)

41. दुआ के आदाब

1. दुआ सिर्फ़ ख़ुदा से माँगिए, उसके सिवा कभी किसी को ज़रूरत के पूरा करने के लिए न पुकारिए। दुआ इबादत का जौहर है और इबादत का हक़दार तनहा ख़ुदा है।

क़ुरआन पाक का इरशाद है—

"उसी को पुकारना बरहक़ है और ये लोग उसको छोड़कर जिन हस्तियों को पुकारते हैं, वे उनकी दुआओं का कोई जवाब नहीं दे सकते। उनको पुकारना तो ऐसा है जैसे कोई आदमी अपने दोनों हाथ पानी की तरफ़ फैलाकर चाहे कि पानी (दूर ही से) उसके मुँह में आ पहुँचे, हालाँकि पानी उस तक कभी नहीं पहुँच सकता। बस उसी तरह काफ़िरों की दुआएँ बेनतीजा भटक रही हैं।" (क़ुरआन, 13:14)

यानी ज़रूरतें पूरी करनेवाला और सबका करता-धरता ख़ुदा ही है। उसी के हाथ में तमाम इख़तियार हैं, उसके सिवा किसी के पास कोई इख़तियार नहीं, सब उसके मुहताज हैं, उसके सिवा कोई नहीं जो बन्दों की पुकार सुने और उनकी दुआओं का जवाब दे।

"इनसानो! तुम सब अल्लाह के मुहताज हो, अल्लाह ही है जो ग़नी और बेनियाज़ और अच्छी ख़ूबियोंवाला है।" (क़ुरआन, 35:15)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि ख़ुदा ने फ़रमाया है—

“मेरे बन्दो! मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म हराम कर लिया है, तुम भी एक दूसरे पर ज़ुल्म व ज़्यादती को हराम समझो। मेरे बन्दो! तुममें से हर एक गुमराह है, सिवाए उसके जिसको में हिदायत दूँ, अतः तुम मुझी से हिदायत तलब करो कि मैं तुम्हें हिदायत दूँ। मेरे बन्दो! तुममें से हर एक भूखा है सिवाए उस आदमी के जिसको मैं खिलाऊँ, अतः तुम मुझी से रोज़ी माँगो, तो मैं तुम्हें रोज़ी दूँ। मेरे बन्दो! तुममें से हर एक नंगा है, सिवाए उसके जिसको मैं पहनाऊँ, अतः मुझी से लिबास माँगो मैं तुम्हें पहनाऊँगा। मेरे बन्दो! तुम रात में भी गुनाह करते हो और दिन में भी और मैं सारे गुनाह माफ़ कर दूँगा।" (मुस्लिम)

और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी इरशाद फ़रमाया है कि आदमी को अपनी सारी ज़रूरतें ख़ुदा ही से माँगनी चाहिएँ यहाँ तक कि अगर जूती का फ़ीता भी टूट जाए तो ख़ुदा ही से माँगे और अगर नमक की ज़रूरत हो तो वह भी उसी से माँगे। (तिरमिज़ी)

मतलब यह है कि इनसान को अपनी छोटी से छोटी ज़रूरत के लिए भी ख़ुदा ही की तरफ़ मुतवज्जोह होना चाहिए। उसके सिवा न कोई दुआओं का सुननेवाला है और न कोई मुरादें पूरी करनेवाला है।

2. ख़ुदा से वही कुछ माँगिए जो हलाल और पाक हो। नाजायज़ मक़सदों और गुनाह के कामों के लिए ख़ुदा के हुज़ूर हाथ फैलाना इन्तिहाई दर्जे की बेअदबी, और बेहयाई और गुस्ताख़ी है। हराम और नाजायज़ मुरादों के पूरा होने के लिए ख़ुदा से दुआएँ करना और मन्नतें मानना दीन के साथ बहुत बुरे क़िस्म का मज़ाक़ है। इसी तरह उन बातों के लिए भी दुआ न माँगिए जो ख़ुदा ने हमेशा के लिए तय फ़रमा दी हैं और जिनमें तबदीली नहीं हो सकती, जैसे—कोई पस्ता क़द (ठिगना) इनसान अपने क़द के लम्बा होने की दुआ करे या कोई ग़ैर मामूली लम्बे क़द का आदमी क़द के पस्त होने की दुआ करे या कोई दुआ करे कि मैं हमेशा जवान रहूँ, कभी बुढ़ापा न आए, वग़ैरह।

क़ुरआन का इरशाद है—

"और हर इबादत में अपना रुख़ ठीक उसी की ओर रखो और उसी को पुकारो, उसके लिए अपनी इताअत को ख़ालिस करते हुए।" (क़ुरआन, 7:29)

ख़ुदा के हुज़ूर अपनी ज़रूरतें रखनेवाला नाफ़रमानी की राह पर चलते हुए नाजायज़ मुरादों के लिए दुआएँ न माँगे, बल्कि अच्छा किरदार और पाकीज़ा जज़्बों को पेश करते हुए नेक मुरादों के लिए ख़ुदा के हुज़ूर अपनी दरख़ास्त रखे।

3. दुआ गहरे इख़लास और पाकीज़ा नीयत से माँगिए और इस यक़ीन के साथ माँगिए कि जिस ख़ुदा से आप माँग रहे हैं, वह आपके हालात का पूरा-पूरा यक़ीनी इल्म भी रखता है। आप पर इन्तिहाई मेहरबान भी है और वही है जो अपने बन्दों की पुकार सुनता है और उनकी दुआएँ क़बूल करता है। दिखावा, नुमाइश, धोखादेही और शिर्क के हर पहलू से अपनी दुआओं को अलग रखिए।

क़ुरआन में है—

“अतः अल्लाह को पुकारो उसके लिए अपनी इताअत को ख़ालिस करते हुए।" (क़ुरआन 40:14)

और सूरा बक़रा में है—

"और ऐ रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! जब आप से मेरे बन्दे मेरे बारे में पूछें, तो उन्हें बता दीजिए कि मैं उनके क़रीब ही हूँ। पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है तो मैं उसकी दुआ को क़बूल करता हूँ। इसलिए उन्हें मेरी दावत क़बूल करनी चाहिए और मुझपर ईमान लाना चाहिए, ताकि वे सीधे रास्ते पर चलें।" (क़ुरआन, 2:186)

4. दुआ पूरी तवज्जोह, यकसूई और दिल लगाकर माँगिए और ख़ुदा से अच्छी उम्मीद रखिए। अपने गुनाहों के ढेर पर निगाह रखने के बजाए ख़ुदा की बेपनाह माफ़ी, मेहरबानी और बेहद व हिसाब फ़ैयाज़ी पर नज़र रखिए। उस आदमी की दुआ हक़ीक़त में दुआ ही नहीं है जो ग़ाफ़िल और लापरवाह हो और ला-उबालीपन के साथ सिर्फ़ ज़बान की नोक से कुछ लफ़्ज़ बेदिली के साथ अदा कर रहा हो और ख़ुदा से ख़ुशगुमान न हो।

हदीस में है—

"अपनी दुआओं के क़बूल होने का यक़ीन रखते हुए (दिल की गहराई से) दुआ कीजिए। ख़ुदा ऐसी दुआ को क़बूल नहीं करता जो ग़ाफ़िल और बेपरवाह दिल से निकली हो।” (तिरमिज़ी)

5. दुआ इंतिहाई आजिज़ी और गिड़गिड़ाहट के साथ माँगिए। गिड़गिड़ाहट से मुराद यह है कि आपका दिल ख़ुदा की हैबत और अज़मत व जलाल से काँप रहा हो और जिस्म की ज़ाहिरी हालत पर भी ख़ुदा का डर पूरी तरह ज़ाहिर हो, सिर और निगाहें झुकी हुई हों, आवाज़ पस्त हो, आँखें नम हों और तमाम तौर-तरीक़ों से मिस्कीनी और बेकसी ज़ाहिर हो रही हो।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक आदमी को देखा कि वह नमाज़ के दौरान अपनी दाढ़ी के बालों से खेल रहा है तो आपने फ़रमाया, “अगर उसके दिल में गिड़गिड़ाहट होती तो उसके जिस्म पर भी कपकपाहट होती।"

असल में दुआ माँगते वक़्त आदमी को इस विचार से काँपना चाहिए कि मैं एक मुहताज फ़क़ीर, बेसहारा मिस्कीन हूँ। अगर ख़ुदा न ख़ास्ता मैं इस दर से ठुकरा दिया गया तो फिर मेरे लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ मिला है, ख़ुदा से ही मिला है और अगर ख़ुदा न दे तो दुनिया में कोई दूसरा नहीं है जो मुझे कुछ दे सके। ख़ुदा ही हर चीज़ का वारिस है, उसी के पास हर चीज़ का ख़ज़ाना है, बन्दा तो सिर्फ़ फ़क़ीर और आजिज़ है।

क़ुरआन पाक में हिदायत है—

"अपने पालनहार को आजिज़ी और गिड़गिड़ाहट के साथ पुकारो।" (क़ुरआन, 7:55)

बन्दगी की शान ही यही है कि बन्दा अपने पालनहार को बड़ी आजिज़ी और गिड़गिड़ाहट के साथ पुकारे और उसका दिल व दिमाग़, सोच-विचार, भावनाएँ और सारे अंग उसके हुज़ूर झुके हुए हों और उसके ज़ाहिर व बातिन की पूरी हालत से ज़रूरत और फ़रियाद टपकी पड़ रही हो।

6. दुआ चुपके-चुपके धीमी आवाज़ में माँगिए। ख़ुदा के हुज़ूर गिड़गिड़ाइए लेकिन इस गिड़गिड़ाहट की नुमाइश हरगिज़ न कीजिए। बन्दे की आजिज़ी, इनकिसारी और फ़रियाद सिर्फ़ ख़ुदा के सामने होना चाहिए।

बेशक कभी-कभी दुआ ज़ोर-ज़ोर से भी कर सकते हैं, लेकिन या तो तनहाई में ऐसा कीजिए या फिर जब इज्तिमाई (सामूहिक) दुआ करा रहे हों तो उस वक़्त बुलन्द आवाज़ से दुआ कीजिए, ताकि दूसरे लोग 'आमीन' कहें। आम हालात में ख़ामोशी के साथ, पस्त आवाज़ में दुआ कीजिए और इस बात का पूरा-पूरा एहतिमाम कीजिए कि आपकी गिरया व ज़ारी और फ़रियाद बन्दों को दिखाने के लिए हरगिज़ न हो।

“और अपने रब को दिल ही दिल में ज़ारी और ख़ौफ़ के साथ याद किया करो और ज़बान से भी, हल्की आवाज़ से भी, सुबह व शाम याद करो और उन लोगों में से न हो जाओ जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।" (क़ुरआन, 7:205)

हज़रत ज़करीया (अलैहिस्सलाम) की शाने बन्दगी की तारीफ़ करते हुए क़ुरआन में कहा गया है—

"जब उसने अपने रब को चुपके-चुपके पुकारा।" (क़ुरआन, 19:3)

7. दुआ करने से पहले कोई नेक अमल कीजिए, जैसे— कुछ सदक़ा व ख़ैरात कीजिए, किसी भूखे को खाना दीजिए या नफ़्ली नमाज़ और रोज़ों का एहतिमाम कीजिए और अगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता किसी मुसीबत में गिरफ़्तार हो जाएँ तो अपने आमाल का वासता देकर दुआ कीजिए, जो आपने पूरे इख़लास के साथ सिर्फ़ ख़ुदा के लिए किए हों।

क़ुरआन में है—

“उसी की ओर पाकीज़ा कलिमे चढ़ते हैं और नेक अमल उन्हें ऊँचे दर्जे तय कराते हैं।" (क़ुरआन, 35:10)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक बार तीन ऐसे लोगों का वाक़िआ सुनाया जो एक अंधेरी रात में एक गुफा के भीतर फँस गए थे। उन लोगों ने अपने ख़ुलूस-भरे अमल का वास्ता देकर ख़ुदा से दुआ की और ख़ुदा ने उनकी मुसीबत को दूर फ़रमा दिया।

वाक़िआ यह हुआ कि तीन साथियों ने एक रात एक गुफा में पनाह ली। ख़ुदा का करना, पहाड़ से एक चट्टान फिसलकर गुफा के मुँह पर आ पड़ी और गुफा बन्द हो गई। भारी-भरकम चट्टान थी भला उनके बस में कहाँ था कि उसको हटाकर गुफा का मुँह खोल दें। मशविरा यह हुआ कि अपनी-अपनी ज़िन्दगी के ख़ुलूस-भरे अमल का वास्ता देकर ख़ुदा से दुआ की जाए, क्या अजब कि ख़ुदा सुन ले और इस मुसीबत से निजात मिल जाए। चुनाँचे एक ने कहा कि मैं जंगल में बकरियाँ चराया करता था और उसी पर मेरा गुज़ारा था। जब मैं जंगल से वापस आता तो सबसे पहले अपने बूढ़े माँ-बाप को दूध पिलाता और फिर अपने बच्चों को। एक दिन मैं देर में आया, बूढ़े माँ-बाप सो चुके थे, बच्चे जाग रहे थे और भूखे थे, लेकिन मैंने यह गवारा न किया कि माँ-बाप से पहले बच्चों को पिलाऊँ और यह भी गवारा न किया कि माँ-बाप को जगाकर तकलीफ़ पहुँचाऊँ। चुनाँचे में रात भर दूध का प्याला लिए उनके सिरहाने खड़ा रहा। बच्चे मेरे पैरों में चिमट-चिमटकर रोते रहे, लेकिन मैं सुबह तक उसी तरह खड़ा रहा।

ऐ ख़ुदा! मैंने यह अमल ख़ालिस तेरे लिए किया तू उसकी बरकत से गुफा के मुँह से चट्टान हटा दे और चट्टान इतनी हट गई कि आसमान नज़र आने लगा।

दूसरे ने कहा कि मैंने कुछ मज़दूरों से काम लिया और सबको मज़दूरी दे दी, लेकिन एक आदमी अपनी मज़दूरी छोड़कर चला गया। कुछ दिनों के बाद जब वह मज़दूरी लेने आया तो मैंने उससे कहा कि ये गायें, ये बकरियाँ और ये नौकर-चाकर सब तुम्हारे हैं, ले जाओ। वह बोला, "ख़ुदा के लिए मज़ाक़ न करो।" मैंने कहा, "मज़ाक़ नहीं, वाक़ई यह सब कुछ तुम्हारा है। तुम जो रक़म छोड़कर गए थे मैंने उसको कारोबार में लगाया। ख़ुदा ने उसमें बरकत दी और यह जो कुछ तुम देख रहे हो सब उसी से हासिल हुआ है, यह तुम इतमीनान के साथ ले जाओ, सब कुछ तुम्हारा है।" वह आदमी सब कुछ लेकर चला गया।"

ऐ ख़ुदा! यह मैंने सिर्फ़ तेरी रिज़ा के लिए किया। ऐ ख़ुदा! तू उसकी बरकत से गुफा के मुँह से इस चट्टान को दूर फ़रमा दे।" ख़ुदा के करम से चट्टान और हट गई।

तीसरे ने कहा: मेरी एक चचेरी बहन थी जिससे मुझको ग़ैर-मामूली मुहब्बत हो गई थी। सख़्त ज़रूरत पड़ने पर उसने कुछ रक़म माँगी। मैंने इस शर्त पर रक़म मुहैया कर दी कि वह मेरी ख़ाहिश पूरी करे। लेकिन जब मैंने अपनी ख़ाहिश पूरी करनी चाही तो उसने कहा, ख़ुदा से डरो और इस काम से बाज़ रहो। मैं फ़ौरन रुक गया और मैंने वह रक़म भी उसको बख़्श दी। ऐ ख़ुदा तू ख़ूब जानता है कि मैंने यह सब सिर्फ़ तेरी ख़ुशनूदी के लिए किया> ऐ ख़ुदा! तू उसकी बरकत से गुफा के मुँह को खोल दे।" ख़ुदा ने गुफा के मुँह से चट्टान हटा दी और तीनों को ख़ुदा ने उस मुसीबत से निजात बख़्शी।

8. नेक मक़सदों के लिए दुआ करने के साथ-साथ अपनी ज़िन्दगी को ख़ुदा की हिदायत के मुताबिक़ सँवारने और सुधारने की भी कोशिश कीजिए। गुनाह और हराम से पूरी तरह परहेज़ कीजिए। हर काम में ख़ुदा की हिदायत का पास व लिहाज़ कीजिए और परहेज़गारी की ज़िन्दगी गुज़ारिए। हराम खाकर, हराम पीकर, हराम पहनकर और बेबाकी के साथ हराम के माल से अपने जिस्म को पालकर दुआ करनेवाला यह आरज़ू करे कि मेरी दुआ क़बूल हो तो यह ज़बरदस्त नादानी और ढिठाई है। दुआ को क़ाबिले क़बूल बनाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी की कथनी-करनी भी दीन की हिदायत के मुताबिक़ हो।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“ख़ुदा पाकीज़ा है और वह सिर्फ़ पाकीज़ा माल ही को क़बूल करता है और ख़ुदा ने ईमानवालों को उसी बात का हुक्म दिया है, जिसका उसने रसूलों को हुक्म दिया है। चुनाँचे उसने फ़रमाया है—

"ऐ रसूलो! पाकीज़ा रोज़ी खाओ और नेक अमल करो।” (क़ुरआन, 23:51) 

और ईमानवालों को ख़िताब करते हुए उसने कहा—

“ऐ ईमानवालो! जो हलाल और पाकीज़ा चीज़ें हमने तुमको बख़्शी हैं वे खाओ।”

फिर आपने एक ऐसे आदमी का ज़िक्र किया जो लम्बा सफ़र तय करके पाक जगह पर हाज़िरी देता है, धूल में अटा हुआ है और अपने दोनों हाथ आसमान की ओर उठाकर कहता है, "ऐ मेरे रब ऐ मेरे रब!" हालाँकि उसका खाना हराम है, उसका पीना हराम है, उसका लिबास हराम है और हराम ही से उसका जिस्म पला है, तो ऐसे बाग़ी और नाफ़रमान आदमी की दुआ क्योंकर क़बूल हो सकती है। (मुस्लिम)

9. बराबर दुआ करते रहिए। ख़ुदा के हुज़ूर अपनी आजिज़ी, इनकिसारी और बन्दगी ज़ाहिर करना ख़ुद एक इबादत है। ख़ुदा ने ख़ुद दुआ करने का हुक्म दिया है और फ़रमाया है कि बन्दा जब मुझे पुकारता है तो मैं उसकी सुनता हूँ। दुआ करने से कभी न उकताइए और इस चक्कर में कभी न पड़िए कि दुआ से तक़दीर बदलेगी या नहीं। तक़दीर का बदलना या न बदलना, दुआ का क़बूल करना या न करना ख़ुदा का काम है, जो जाननेवाला और हिकमतवाला है। बन्दे का काम बहरहाल यह है कि वह एक फ़क़ीर व मुहताज की तरह बराबर उससे दुआ करता रहे और लम्हे भर के लिए भी ख़ुद को बेनियाज़ न समझे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"सबसे बड़ा आजिज़ वह है जो दुआ करने में आजिज़ है।"

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“ख़ुदा के नज़दीक दुआ से ज़्यादा इज़्ज़त व इकरामवाली चीज़ और कोई नहीं है।" (तिरमिज़ी)

मोमिन की शान यह है कि वह रंज व राहत, दुख व सुख, तंगी व ख़ुशहाली और मुसीबत व आराम हर हाल में ख़ुदा ही को पुकारता है। उसी के हुज़ूर अपनी हाजतें रखता और बराबर उससे ख़ैर की दुआ करता रहता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जो आदमी ख़ुदा से दुआ नहीं करता, ख़ुदा उसपर ग़ज़बनाक (क्रोधित) होता है।" (तिरमिज़ी)

10. दुआ क़बूल होने के मामले में ख़ुदा पर पूरा भरोसा रखिए और अगर दुआ के क़बूल होने के असरात जल्द ज़ाहिर न हो रहे हों तो मायूस होकर दुआ छोड़ देने की ग़लती कभी न कीजिए। दुआ के क़बूल होने की चिन्ता में परेशान होने के बजाए सिर्फ़ दुआ माँगने की चिन्ता कीजिए।

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं—

“मुझे दुआ क़बूल होने की चिन्ता नहीं है, मुझे सिर्फ़ दुआ माँगने की चिन्ता है। जब मुझे दुआ माँगने की तौफ़ीक़ हो गई तो क़बूल होना भी उसके साथ हो जाएगा।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"जब कोई मुसलमान ख़ुदा से कुछ माँगने के लिए ख़ुदा की ओर मुँह उठाता है तो ख़ुदा उसका सवाल ज़रूर पूरा करता है, या तो उसकी मुराद पूरी हो जाती है या ख़ुदा उसके लिए माँगी हुई चीज़ को आख़िरत के लिए जमा फ़रमा देता है। क़ियामत के दिन ख़ुदा ऐसे मोमिन बन्दे को अपने हुज़ूर तलब फ़रमाएगा और उसको अपने सामने खड़ा करके पूछेगा, 'ऐ मेरे बन्दे! मैंने तुझे दुआ करने का हुक्म दिया था और यह वादा किया था कि मैं तेरी दुआ क़बूल करूँगा तो क्या तूने दुआ माँगी थी?' वह कहेगा, 'पालनहार! माँगी थी।' फिर ख़ुदा फ़रमाएगा, 'तूने मुझसे जो दुआ भी माँगी थी, मैंने वह क़बूल की, क्या तूने फ़्लाँ दिन यह दुआ न की थी कि मैं तेरा वह रंज व ग़म दूर कर दूँ जिसमें तू पड़ा हुआ था और मैंने तुझे इस रंज व ग़म से निजात बख़्शी थी?' बन्दा कहेगा, "बिलकुल सच है पालनहार" फिर ख़ुदा फ़रमाएगा, "वह दुआ तो मैंने क़बूल करके दुनिया ही में तेरी आरज़ू पूरी कर दी थी और फ़लाँ दिन फिर तूने दूसरे ग़म में पड़ने पर दुआ की कि ऐ ख़ुदा! इस मुसीबत से निजात दें, पर तूने इस रंज व ग़म से निजात न पाई और बराबर उसमें पड़ा रहा था।" वह कहेगा- "बेशक पालनहार!" तो ख़ुदा फ़रमाएगा, "मैंने इस दुआ के बदले जन्नत में तेरे लिए तरह-तरह की नेमतें जमा कर रखी हैं," और इसी तरह दूसरी ज़रूरतों के बारे में भी मालूम करके यही फ़रमाएगा।"

फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मोमिन बन्दे की कोई दुआ ऐसी न होगी जिसके बारे में ख़ुदा यह बयान न कर दे कि यह मैंने दुनिया में क़बूल की और यह तुम्हारी आख़िरत के लिए जमा करके रखी। उस वक़्त मोमिन बन्दा सोचेगा, काश मेरी कोई भी दुआ क़बूल न होती, इसलिए बन्दे को हर हाल में दुआ माँगते रहना चाहिए।" (हाकिम)

11. दुआ माँगते वक़्त ज़ाहिरी आदाब, पाकी और सफ़ाई का भी पूरा-पूरा ख़याल रखिए और दिल को भी नापाक जज़्बों (दूषित भावनाओं), गन्दे ख़यालों और बेहूदा विचारों से पाक रखिए।

क़ुरआन में है—

"बेशक ख़ुदा के महबूब वे बन्दे हैं जो बहुत ज़्यादा तौबा करते हैं और जो बहुत पाक व साफ़ रहते हैं।" (क़ुरआन, 2:222)

और क़ुरआन की सूरा मुद्दस्सिर में है—

“और अपने पालनहार की किबरियाई (बड़ाई) बयान कीजिए और अपने नफ़्स को पाक रखिए।” (क़ुरआन, 74:23)

12. दूसरों के लिए भी दुआ कीजिए लेकिन हमेशा अपनी ज़ात से शुरू कीजिए। पहले अपने लिए माँगिए, फिर दूसरों के लिए। क़ुरआन पाक में हज़रत इबराहीम और हज़रत नूह (अलैहिमस्सलाम) की जो दुआएँ नक़ल की गई हैं उनसे यही सबक़ मिलता है—

रब्बिज-अलनी मुक़ी-मस्सलाति व मिन् ज़ुर्रिय्यती, रब्बना व त-क़ब्बल दुआ। रब्ब-नग़फ़िरली व लि-वालि-दय्-य व लिल मुअ्मिनी-न यौ-म यक़ूमुल हिसाब। (क़ुरआन, 14:40-41)

“ऐ मेरे पालनहार! मुझे नमाज़ क़ायम करनेवाला बना और मेरी औलाद में से भी (ऐसे लोग उठा जो ये काम करें)। पालनहार! मेरी दुआ क़बूल फ़रमा और मेरे माँ-बाप और सारे मुसलमानों को उस दिन माफ़ फ़रमा दे जबकि हिसाब क़ायम होगा।"

रब्बिग़फ़िरली व लिवालि-दय्-य व लि-मन् द-ख़-ल बैति-य मुअ्मिनंव व लिल मुअ्मिनी-न वल मुअ्मिनात। (क़ुरआन, 71:28)

“मेरे पालनहार! मेरी मग़फ़िरत फ़रमा और मेरे माँ-बाप की मग़फ़िरत फ़रमा और उन ईमानवालों की मग़फ़िरत फ़रमा जो ईमान लाकर मेरे घर में दाख़िल हुए और सारे ही ईमानवाले मर्दों और औरतों की मग़फ़िरत फ़रमा।"

हज़रत उबई बिन काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी आदमी का ज़िक्र फ़रमाते तो उसके लिए दुआ करते और दुआ अपनी ज़ात से शुरू करते। (तिरमिज़ी)

13. अगर आप इमामत कर रहे हों तो हमेशा जामेअ दुआएँ माँगिए और बहुवचन का इस्तेमाल किया कीजिए। क़ुरआन पाक में जो दुआएँ नक़ल की गई हैं उनमें आमतौर से बहुवचन का इस्तेमाल किया गया है। इमाम असल में सब मुक़्तदियों का नुमाइन्दा है। जब वह बहुवचन में दुआ माँगे तो मुक़्तदियों को चाहिए कि वे 'आमीन' कहते जाएँ।

14. दुआ में तंगनज़री और ख़ुदग़रज़ी से भी बचिए और ख़ुदा की आम रहमत को महदूद (सीमित) समझने की ग़लती करके उसकी मेहरबानी को अपने लिए ख़ास करने की दुआ न कीजिए।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मस्जिदे नबवी में एक बद्दू आया, उसने नमाज़ पढ़ी, फिर दुआ माँगी और कहा, “ऐ ख़ुदा! मुझपर और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर रहम फ़रमा और हमारे साथ किसी और पर रहम न फ़रमा", तो नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“तूने ख़ुदा की फैली हुई रहमत को तंग कर दिया।” (बुख़ारी)

15. दुआ सादे अंदाज़ में गिड़गिड़ाकर माँगिए। गाने और सुर मिलाने से बचिए। अलबत्ता अगर बग़ैर किसी तकल्लुफ़ के कभी ज़बान से ऊँचे लफ़्ज़ निकल जाएँ या ग़लती से कुछ छूट जाए तो कोई हरज नहीं है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से भी कुछ दुआएँ ऐसी नक़ल की गई हैं जिनमें ऊँचे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हुआ है। जैसे आपकी एक बहुत ही जामेअ दुआ हज़रत ज़ैद बिन अरक़म (रज़ियल्लाहु अन्हु) से नक़्ल की गई है—

अल्लाहुम्-म इन-नी अ-ऊज़ु बि-क मिन क़लबिल् ला यख़्-शउ व नफ़सिल् ला तश-बउ व इलमिल् ला यन-फ़उ, व दअ्वतिल् ला युस्तजाबु लहा।

“ऐ अल्लाह! मैं तेरी पनाह में आता हूँ उस दिल से जिसमें नर्मी न हो, उस नफ़्स से जिसमें सब्र न हो, उस इल्म से जो नफ़ा न देनेवाला हो और उस दुआ से जो क़बूल न हो।”

16. ख़ुदा के दरबार में अपनी ज़रूरत और हाजत रखने से पहले उसकी हम्द व सना कीजिए फिर दो रक्अत नफ़्ल पढ़ लीजिए और दुआ के शुरू और आख़िर में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद पढ़ने का भी एहतिमाम कीजिए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“जब किसी आदमी को ख़ुदा या किसी इनसान से ज़रूरत व हाजत पूरी करने का मामला सामने हो तो उसको चाहिए कि पहले वुज़ू करके दो रक्अत नमाज़ पढ़े और फिर ख़ुदा की हम्द व सना करे और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद व सलाम भेजे। (इसके बाद ख़ुदा की बारगाह में अपनी ज़रूरत बयान करे)।" (तिरमिज़ी)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की गवाही है कि बन्दे की जो दुआ ख़ुदा की हम्द व सना और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद व सलाम के साथ पहुँचती है, वह क़बूल हो जाती है। हज़रत फ़ुज़ाला (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मस्जिद में तशरीफ रखते थे कि एक आदमी आया, उसने नमाज़ पढ़ी और नमाज़ के बाद कहा, "ऐ अल्लाह! मेरी मग़फ़िरत फ़रमा।"

आपने यह सुनकर उससे कहा, “तुमने दुआ माँगने में जल्दबाज़ी से काम लिया। जब नमाज़ पढ़कर बैठो तो पहले ख़ुदा की हम्द व सना करो, फिर दरूद शरीफ़ पढ़ो, फिर दुआ माँगो।" आप यह फ़रमा ही रहे थे कि दूसरा आदमी आया और उसने नमाज़ पढ़कर ख़ुदा की हम्द बयान की, दरूद शरीफ़ पढ़ा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अब दुआ माँगो, दुआ क़बूल होगी।” (तिरमिज़ी)

17. ख़ुदा से हर वक़्त दुआ माँगते रहिए, इसलिए कि वह अपने बन्दों की फ़रियाद सुनने से कभी नहीं उकताता, लेकिन हदीस से मालूम होता है कि कुछ ख़ास वक़्त और हालतें ऐसी हैं जिनमें ख़ुसूसियत के साथ दुआएँ जल्द क़बूल होती हैं, इसलिए इन ख़ास वक़्तों और हालतों में दुआओं का भी ख़ास एहतिमाम कीजिए।

(i) रात के पिछले हिस्से के सन्नाटे में, जब आम तौर पर लोग मीठी नींद के मज़े में मस्त पड़े होते हैं, जो बन्दा उठकर अपने रब से राज़ व नियाज़ की बातें करता है और मिस्कीन बनकर अपनी ज़रूरतें उसके सामने रखता है तो वह ख़ास करम फ़रमाता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा हर रात को दुनिया के आसमान पर पूरे जलाल के साथ ज़ाहिर होता है यहाँ तक कि रात का पिछला हिस्सा बाक़ी रह जाता है तो फ़रमाता है: कि कौन मुझे पुकारता है कि मैं उसकी दुआ क़बूल करूँ; कौन मुझसे माँगता है कि मैं उसको अता करूँ और कौन मुझसे मग़फ़िरत चाहता है कि मैं उसे माफ़ करूँ।” (तिरमिज़ी)

(ii) शबे क़द्र में ज़्यादा से ज़्यादा दुआ कीजिए कि यह रात ख़ुदा के नज़दीक एक हज़ार महीनों से ज़्यादा बेहतर है। और यह दुआ ख़ास तौर पर पढ़िए—

अल्लाहुम-म इन्न-क अफ़ुव्वुन तुहिब्बुल अफ़-व फ़अफ़ु अन्नी।

"ऐ ख़ुदा! तू बहुत ज़्यादा माफ़ करनेवाला है, माफ़ करने को पसन्द करता है, अत: तू मुझे माफ़ फ़रमा दे।" (तिरमिज़ी)

(iii) अरफ़ात के मैदान में जब 9 ज़िलहिज्जा को ख़ुदा के मेहमान जमा होते हैं। (तिरमिज़ी)

(iv) जुमा की ख़ास साअत में जो जुमा का ख़ुतबा शुरू होने से नमाज़ के ख़त्म होने तक है या अस्र की नमाज़ के बाद से मग़रिब की नमाज़ तक है।

(v) अज़ान के वक़्त और जिहाद के मैदान में जब मुजाहिदों की लाइनें ठीक की जा रही हों।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“दो चीज़ें ख़ुदा के दरबार से रद्द नहीं की जातीं- एक अज़ान के वक़्त की दुआ, दूसरी जिहाद (में लाइनें ठीक करते वक़्त) की दुआ।" (अबू दाऊद)

(vi) अज़ान और तकबीर के दरमियान में।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“अज़ान और इक़ामत के बीच के वक़्त की दुआ रद्द नहीं की जाती।” सहाबा किराम ने मालूम किया, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस बीच क्या दुआ माँगा करें?"

फ़रमाया, "यह दुआ माँगा करो—

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-कल अफ़-व वल आफ़ि-य-त फ़िद्दुनया वल आख़ि-रह।

"ऐ अल्लाह मैं तुझसे माफ़ी, मेहरबानी, आफ़ियत और सलामती माँगता हूँ, दुनिया में भी और आख़िरत में भी।"

(vii) रमज़ान के मुबारक दिनों में, ख़ास तौर से इफ़तार के वक़्त। (बज़्ज़ार)

(vii) फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद चाहे आप तनहा दुआ करें या इमाम के साथ। (तिरमिज़ी)

(ix) सज्दे की हालत में। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सज्दे की हालत में बन्दा अपने रब से बहुत ही क़रीब हो जाता है, अतः तुम इस हालत में ख़ूब-ख़ूब दुआ माँगा करो।"

(x) जब आप किसी बड़ी मुसीबत या इंतिहाई रंज व ग़म में हों। (हाकिम)

(xi) जब ज़िक्र व फ़िक्र की कोई दीनी मज्लिस हो। (बुख़ारी, मुस्लिम)

(xii) जब क़ुरआन पाक ख़त्म किया जाए। (तबरानी)

18. इन जगहों पर भी दुआ का ख़ास एहतिमाम कीजिए। हज़रत हसन बसरी (रहमतुल्लाह अलैह) जब मक्का से बसरा जाने लगे तो आपने मक्कावालों के नाम एक ख़त लिखा जिसमें मक्का में ठहरने की अहमियत और फ़ज़ीलतें बयान कीं और यह भी लिखा कि मक्का में इन जगहों पर ख़ुसूसी तौर पर दुआ क़बूल होती है—

(i) मुलतज़म के पास (ii) मीज़ाब के नीचे (iii) काबा के अन्दर (iv) चाहे ज़मज़म (ज़मज़म के कुएँ) के पास (v) सफ़ा व मरवा पर (vi) सफ़ा व मरवा के पास, जहाँ 'सई' की जाती है। (vii) मक़ामे इबराहीम के पीछे (viii) अरफ़ात में (ix) मुज़दल्फ़ा में, (x) मिना में (xi) तीनों जमरात के पास। (हिस्ने हसीन)

19. बराबर कोशिश करते रहिए कि आपको ख़ुदा से दुआ माँगने के लिए दुआ के वही शब्द याद हो जाएँ जो क़ुरआन पाक और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की हदीसों में आए हैं। ख़ुदा ने अपने पैग़म्बरों और नेक बन्दों को दुआ माँगने के जो अन्दाज़ और शब्द बताए हैं, उनसे अच्छे शब्द और अन्दाज़ कोई कहाँ से लाएगा। फिर ख़ुदा के बताए हुए और रसूलों के इख़तियार किए हुए शब्दों में जो असर, मिठास, बरकत, क़बूलियत की शान और व्यापकता हो सकती है वह किसी दूसरे कलाम में कैसे मुमकिन है। इसी तरह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने रात-दिन जो दुआएँ माँगी हैं उनमें भी तड़प, मिठास, व्यापकता और बन्दगी की ऐसी शान पाई जाती है कि उनसे बेहतर दुआओं, प्रार्थनाओं और आरज़ुओं की बात सोची भी नहीं जा सकती।

क़ुरआन व हदीस की बताई हुई दुआओं को बार-बार पढ़िए। उनके शब्दों और मतलबों पर ध्यान देने से सोचने-समझने की यह ट्रेनिंग भी होती है कि मोमिन की तमन्नाएँ और इल्तिजाएँ क्या होनी चाहिएँ, किन कामों में उसकी अपनी ताक़तों को खपाना चाहिए और किन चीज़ों को उसे अपना मक़सद बनाना चाहिए।

बेशक दुआ के लिए किसी भाषा, शैली या शब्दों की कोई क़ैद नहीं है। बन्दा अपने ख़ुदा से जिस भाषा और जिन शब्दों में जो चाहे माँगे, पर यह ख़ुदा की बड़ी मेहरबानी है कि उसने यह भी बताया कि मुझसे यह माँगो और इस तरह माँगो और दुआओं के शब्दों को तय करके बता दिया कि मोमिन को दीन व दुनिया की कामयाबी के लिए किस तरह सोचना चाहिए और क्या तमन्नाएँ और आरज़ुएँ करनी चाहिएं और फिर दीन व दुनिया की कोई ज़रूरत और भलाई का कोई पहलू ऐसा नहीं जिसके लिए दुआ न सिखाई गई हो। इसलिए बेहतर यही है कि आप ख़ुदा से क़ुरआन व सुन्नत के बताए हुए शब्दों ही में दुआ माँगें और उन्हीं दुआओं को बार-बार पढ़ें जो क़ुरआन में नक़्ल की गई हैं, या अलग-अलग वक़्तों में ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने माँगी हैं।

अलबत्ता जब तक आपको क़ुरआन व सुन्नत की ये दुआएँ याद नहीं हो जातीं, उस वक़्त तक के लिए आप कम से कम यही एहतिमाम कीजिए कि अपनी दुआओं में किताब व सुन्नत की बताई हुई दुआओं के मतलब ही को नज़रों के सामने रखें।

आगे क़ुरआन पाक और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की कुछ जामेअ दुआएँ नक़्ल की जाती हैं। इन मुबारक दुआओं को याद कर लीजिए और फिर इन्हीं को बार-बार पढ़िए।

42. क़ुरआन की दुआएँ

रहमत व मग़फ़िरत की दुआ

रब्बना ज़-लम्ना अन्फ़ु-सना व इल्लम तग़फ़िर लना व तर्-हम्ना ल-नकू-नन्-न मि-नल ख़ासिरीन।

“ऐ हमारे रब! हमने अपने ऊपर बड़ा ज़ुल्म किया। अगर तू हमारी मग़फ़िरत न फ़रमाए और हम पर रहम न खाए तो हम यक़ीनन तबाह हो जाएँगे।" (क़ुरआन, 7:23)

बेशक अगर ख़ुदा इनसान के गुनाहों को माफ़ न करे और अपनी अपार रहमत से न नवाज़े तो वह तबाह हो जाएगा।

दोनों दुनिया की कामयाबी की दुआ

रब्बना आतिना फ़िद्-दुन्या ह-स-न-तँव व फ़िल आख़ि-रति ह-स-न-तँव व क़िना अज़ा-बन्नार। (क़ुरआन, 2:201)

"ऐ हमारे रब! हमें दुनिया में भी भलाई दे, और आख़िरत में भी भलाई दे और आग के अज़ाब से हमें बचा।"

सब्र और जमाव की दुआ

रब्बना अफ़रिग़ अलैना सब्-रँव व सब्बित अक़्दा-मना वन्सुरना अ-लल क़ौमिल काफ़िरीन। (क़ुरआन, 2:250)

"पालनहार! हमपर सब्र उंडेल दे और हमारे क़दमों को मज़बूत जमा दे और काफ़िरों पर विजय दिलाने के लिए हमारी मदद फ़रमा।"

शैतान की शरारतों से बचे रहने की दुआ

रब्बि अऊज़ु बि-क मिन ह-मज़ातिश-शयातीनि व अऊज़ु बि-क रब्बि अँय्यहज़ुरून। (क़ुरआन, 23:97,98)

"पालनहार! मैं शैतान की उकसाहटों से तेरी पनाह में आता हूँ, बल्कि ऐ मेरे पालनहार! मैं इससे भी तेरी पनाह चाहता हूँ कि वे मेरे क़रीब फटकें।"

जहन्नम के अज़ाब से बचने की दुआ

रब्ब-नसरिफ़ अन्ना अज़ा-ब जहन्न-म इन्-न अज़ा-बहा का-न ग़रामा, इन्नहा सा-अत मुस्त-क़र्-रँव व मुक़ामा। (क़ुरआन, 25:65-66)

“ऐ हमारे परवरदिगार! जहन्नम का अज़ाब हमसे फेर दे। बेशक उसका अज़ाब तो जान का लागू है। वह बहुत ही बुरा ठिकाना और बहुत ही बुरी जगह है।"

दिल के सुधार की दुआ

रब्बना ला तुज़िग़ क़ुलू-बना बअ-द इज़ हदै-तना व हब लना मिल्लदुन्-क रह-म-तन इन्न-क अन्तल वह्हाब। (क़ुरआन, 3:8)

“परवरदिगार! जब तूने हमें सीधी राह पर लगा दिया है तो फिर कहीं हमारे दिलों को टेढ़ में न फँसा देना। हमें अपनी ओर से रहमत अता फ़रमा कि तू ही हक़ीक़ी देनेवाला है।

दिल की सफ़ाई की दुआ

रब्ब-नग़फ़िर लना व लिइख़्वानि-नल्लज़ी-न स-बक़ूना बिल ईमानि व ला तज्-अल फ़ी क़ुलूबिना ग़िल्लल लिल्लज़ी-न आमनू रब्बना इन्न-क रऊफ़ुर्रहीम। (क़ुरआन, 59:10)

“पालनहार हमारे गुनाह माफ़ फ़रमा दे और हमारे उन भाइयों के, जो हमसे पहले ईमान ले आए हैं। और हमारे दिलों में ईमानवालों के ख़िलाफ़ कपट न पैदा होने दे। हमारे रब बेशक तू बड़ी मुहब्बत करनेवाला मेहरबान है।"

हालात के सुधार की दुआ

रब्बना आतिना मिल्लदुन्-क रह-म-तँव व हय्यिअ लना मिन अमरिना र-श-दा। (क़ुरआन, 18:10)

“पालनहार! हम पर अपने यहाँ से रहमत उतार और हमारे मामले में सुधार (के सामान) जुटा।"

इसतिग़फ़ार

रब्बना आमन्ना फ़ग़फ़िर लना वर्हमना व अन-त ख़ैरुर्राहिमीन। (क़ुरआन, 23:109)

"पालनहार! हम ईमान लाए, अत: तू हमारी मग़फ़िरत फ़रमा दे और हम पर रहम कर दे, तू बड़ा ही रहम फ़रमानेवाला है।

घर के लोगों की ओर से सुकून की दुआ

रब्बना हब लना मिन अज़-वाजिना व ज़ुर्रिय्यातिना क़ुर्र-त अअ-युनिँव वज्-अलना लिलमुत्तक़ी-न इमामा। (क़ुरआन, 25:74)

“पालनहार! हमें हमारे जोड़ों की ओर से और हमारी औलाद की ओर से आँखों की ठंडक दे और हमको परहेज़गारों ही के लिए मिसाल बना।

यानी हमको ऐसी नेक और पाकीज़ा ज़िन्दगी दे कि परहेज़गार लोग हमें अपने लिए नमूना और मिसाल समझें।

माँ-बाप के लिए दुआ

रब्ब-नग़फ़िर ली व लिवालिदय्-य व लिल मुअ्मिनी-न यौ-म यक़ूमुल हिसाब। (क़ुरआन, 14:41)

"पालनहार! मेरी और मेरे माँ-बाप की और तमाम ईमानवालों की उस दिन मग़फ़िरत फ़रमा, जिस दिन कि हिसाब क़ायम होगा।"

आज़माइश से बचने की दुआ

रब्बना ला तुआख़िज़ना इन नसीना अव् अख़-तअ्ना रब्बना व ला तहमिल अलैना इस-रन कमा ह-मल-तहू अलल्लज़ी-न मिन क़ब्लिना, रब्बना व ला तु-हम्मिलना मा ला ता-क़-त लना बिही, वअ-फ़ु अन्ना वग़फ़िर लना, वर्-हम-ना, अन्-त मौलाना फ़न्-सुरना अ-लल क़ौमिल काफ़िरीन। (क़ुरआन, 2:286)

“ऐ हमारे परवरदिगार! हमसे भूलचूक में जो क़ुसूर हो जाएँ, उनकी पकड़ न कर। मालिक! हमपर वह बोझ न डाल जो तूने हमसे पहले लोगों पर डाले थे। पालनहार! जिस बोझ को उठाने की ताक़त हममें नहीं है, वह हमपर न रख। हमारे साथ नर्मी कर, हम से दरगुज़र फ़रमा, हमपर रहम कर! तू हमारा मौला है, कुफ़्र करनेवालों के मुक़ाबले में हमारी मदद फ़रमा।"

कुफ़्रवालों से निजात की दुआ

अलल्लाहि त-वक्कलना रब्बना ला तज्-अलना फ़ित-न-तल लिल-क़ौमिज़्ज़ालिमीन, व नज्जिना बि-रह-मति-क मि-नल क़ौमिल काफ़िरीन। (क़ुरआन, 10:85,86)

"हमने ख़ुदा ही पर भरोसा किया। ऐ हमारे रब हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ितना न बना और अपनी रहमत से हमको काफ़िरों से निजात दे।”

भलाई पर ख़ातमे की दुआ

फ़ाति-रस्समावाति वल अर्-ज़ि अन्-त वलिय्यी फ़िद्-दुन्या वल आख़ि-रति त-वफ़्फ़नी मुस्लिमँव व अल-हिक़्नी बिस्सालिहीन। (क़ुरआन, 12:101)

“ऐ आसमानों और ज़मीन के पैदा करनेवाले! तू ही मेरा वली और कारसाज़ है, दुनिया और आख़िरत में मेरा ख़ातमा इस्लाम पर फ़रमा और मुझे अपने नेक बन्दों में शामिल फ़रमा।"

रब्बना इन्नना समिअ-ना मुनादियँय्युनादी लिल ईमानि अन् आमिनू बि-रब्बिकुम फ़आमन्ना, रब्बना फ़ग़फ़िर लना ज़ुनू-बना व कफ़्फ़िर अन्ना सय्यिआतिना व त-वफ़्फ़ना म-अल अबरार, रब्बना व आतिना मा व-अत्तना अला रुसुलि-क व ला तुख़ज़िना यौ-मल क़िया-मति इन्न-क ला तुख़लिफ़ुल मीआद। (क़ुरआन, 3:193-194)

“परवरदिगार! हमने एक पुकारनेवाले को सुना जो ईमान की तरफ़ बुलाता था और कहता था कि अपने रब को मानो। हमने उसकी दावत क़बूल कर ली। अतः ऐ हमारे मालिक! जो क़ुसूर हमसे हुए हैं, उनसे दरगुज़र फ़रमा और जो बुराइयाँ हम में हैं, उन्हें दूर फ़रमा और हमारा ख़ात्मा नेक लोगों के साथ कर। ऐ हमारे परवरदिगार! अपने रसूलों के ज़रिए तूने जो वादे किए हैं, तू उन्हें हमारे हक़ में पूरे फ़रमा और क़ियामत के दिन हमें रुसवा न कर। बेशक तू अपने वादे के ख़िलाफ़ करनेवाला नहीं है।"

43. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दुआएँ

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रात व दिन, चाहे सफ़र में हों या घर पर, जो दुआएँ माँगा करते थे, हदीस के आलिमों ने बड़ी जी-तोड़ मेहनत करके ये सब हदीस की किताबों में जमा कर दी हैं। क़ुरआन पाक की दुआओं के साथ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की इन दुआओं को पढ़ने का भी एहतिमाम कीजिए। ये दुआएँ निहायत जामेअ, असरदार और बरकतवाली भी हैं और इनसे यह हिदायत भी मिलती है कि एक मोमिन के सोचने का सही अन्दाज़, उसकी आरज़ुओं का सच्चा केन्द्र और उसकी तमन्नाएँ क्या होनी चाहिएँ। सच तो यही है कि आदमी की सही तस्वीर उसकी आरज़ुओं में ही देखी जा सकती है, ख़ास तौर से उन वक़्तों में जब आदमी को यह भी इतमीनान हो कि वह बन्दों की नज़र से ओझल है और उसकी कानाफूसी को सुननेवाला सिर्फ़ उसका पालनहार है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रात के अँधेरे में तन्हाई में लोगों से अलग और लोगों की मौजूदगी में जो दुआएँ माँगा करते थे, उनके प्रत्येक शब्द से ख़ुलूस, तड़प, शौक़ और नूर टपकता है और महसूस होता है कि कोई महान बन्दा है जिसे अपने बन्दे होने का पूरा एहसास है और सिर से पैर तक ज़रूरत बनकर हर वक़्त अपने रब से माँगता रहता है और उसका शौक़ और उसकी लगन बराबर बढ़ती ही जाती है। वह जो कुछ माँगता है उसकी रूह (आत्मा) यह है कि ऐ अल्लाह मुझे अपना क़ुर्ब (नज़दीकी) अता फ़रमा, अपने ग़ज़ब से बचाए रख, अपनी ख़ुशनूदी से नवाज़ और आख़िरत की कामयाबी नसीब फ़रमा।

सुबह व शाम की दुआएँ

हज़रत उसमान बिन अफ़्फ़ान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा का जो भी बन्दा हर सुबह व शाम यह दुआ पढ़ लिया करे उसको कोई चीज़ नुक़सान नहीं पहुँचाती।"

बिसमिल्लाहिल्लज़ी ला यज़ुर्रु म-अस्-मिही शैउन फ़िल अर्ज़ि व ला फ़िस्समाइ व हु-वस्समीउल अलीम। (मुस्नद अहमद)

"ख़ुदा के नाम से (हर काम की) शुरूआत है, जिसके नाम के साथ ज़मीन व आसमान की कोई चीज़ नुक़सान नहीं पहुँचा सकती है। वह सुननेवाला और जाननेवाला है।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पाबन्दी से सुबह व शाम इस दुआ को पढ़ा करते थे और कभी छोड़ते न थे।

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-कल आफ़ि-य-त फ़िद्-दुनया वल आख़ि-रति, अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-कल अफ़-व वल आफ़ि-य-त फ़ी दीनी व दुनया-य व अह्-ली व माली, अल्लाहुम्मस्तुर औराती व आमिन रौआती, अल्लाहुम्मह-फ़ज़्नी मिम बैनि यदय्-य व मिन ख़ल्फ़ी व अँय्यमीनी व अन् शिमाली व मिन् फ़ौक़ी, व अऊज़ु बिअज़्मति-क अन उग़ता-ल मिन तह्ती। (तिरमिज़ी)

“ऐ ख़ुदा! मैं तुझसे दुनिया और आख़िरत में आफ़ियत चाहता हूँ। ऐ अल्लाह! मैं तुझसे माफ़ी, सलामती और आफ़ियत चाहता हूँ दीन व दुनिया के मामलों में, अपने घरवालों और अपने माल व दौलत में। ऐ ख़ुदा! तू मेरे छिपे ऐबों को ढाके रख और मेरी बेचैनियों को अम्न व चैन में बदल दे। ऐ अल्लाह! आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ और ऊपर से मेरी हिफ़ाज़त फ़रमा और मैं तेरी बड़ाई की पनाह चाहता हूँ इस बात से कि अचानक अपने नीचे की ओर से हलाक किया जाऊँ (यानी ख़ुदा मुझे ज़मीन में धँसने के अज़ाब से बचाए रखे)।" (तिरमिज़ी)

काहिली और बुज़दिली से बचने की दुआ

हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ख़िदमत करने में लगा रहता था और में ज़्यादा से ज़्यादा आपको यह दुआ पढ़ते सुना करता था—

अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क मि-नल हम्मि वलहुज़्नि वलइज्-ज़ि वलक-सलि, वलबुख़लि, वलजुबनि व ज़लइद्-दैनि व ग़-ल-बतिर्रिजाल। (बुख़ारी, मुस्लिम)

“ऐ अल्लाह मैं तेरी पनाह माँगता हूँ रंज व ग़म से, बेबसी और काहिली से, कंजूसी और बुज़दिली से, क़र्ज़ के बोझ से और लोगों के दबाव से।"

तक़्वा और पाकदामनी की दुआ

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-कल हुदा वत्तुक़ा वल अफ़ा-फ़ वल ग़िना।

"ऐ ख़ुदा! मैं तुझसे हिदायत, तक़्वा, पाकदामनी और बेनियाज़ी का सवाल करता हूँ।"

यह दुआ बहुत जामेअ है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इन चार शब्दों में असल में वह सब ही कुछ माँग लिया है जिसकी मोमिन बन्दे को ज़रूरत है।

दुनिया और आख़िरत की रुसवाई से बचने की दुआ

अल्लाहुम-म अहसिन आक़ि-ब-तना फ़िल उमूरि कुल्लिहा व अजिरना मिन ख़िज़यिद्-दुनया व अज़ाबिल आख़ि-रह। (तबरानी)

"ऐ ख़ुदा! सारे कामों में हमारा अंजाम बख़ैर फ़रमा और हमें दुनिया की रुसवाई और आख़िरत के अज़ाब से बचाए रख।"

नमाज़ के बाद की दुआ

हज़रत मुआज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मेरा हाथ पकड़ा और फ़रमाया—

"ऐ मुआज़! मुझे तुमसे मुहब्बत है", फिर (फ़रमाया), "ऐ मुआज़! मैं तुम्हें वसीयत करता हूँ कि तुम किसी नमाज़ के बाद इन कलिमों को मत छोड़ना। हर नमाज़ के बाद ये कलिमे ज़रूर पढ़ा करना।"

अल्लाहुम्-म अइन्नी अला ज़िक्-रि-क व शुक्-रि-क व हुसनि इबा-दतिक।

"ऐ अल्लाह! तू हमारी मदद फ़रमा, अपनी याद और अपने शुक्र के लिए और अपनी अच्छी बन्दगी के लिए।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की वसीयत

हज़रत शद्दाद बिन औस (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह वसीयत फ़रमाई—

“शद्दाद! जब तुम देखो कि दुनियावाले सोना और चाँदी जमा करने में लग गए हैं तो तुम इन कलिमों का भण्डार करो।"

अल्लाहुम-म इन्नी अस्-अलु-कस्सबा-त फ़िल अमरि वल अज़ी-म-त अलर्-रुशदि, व अस्-अलु-क शुक-र निअ-मति-क व हुस-न इबा-दति-क व अस्-अलु-क क़ल्बन सलीमँव व लिसा-नन सादि-क़ँव व अस्-अलु-क मिन ख़ैरि मा तअ्-लमु व अऊज़ु बि-क मिन शर्रि मा तअ्-लमु व अस्तग़फ़िरु-क लिमा तअ-लमु इन्न-क अन-त अल्लामुल ग़ुयूब। (मुसनद अहमद)

“ऐ अल्लाह! मैं साबित क़दमी में और सीधा रास्ता चलने में जमाव का सवाल करता हूँ और तेरी नेमतों का शुक्र अदा करने और तेरी बेहतरीन बन्दगी बजा लाने की तौफ़ीक़ माँगता हूँ और ऐ ख़ुदा! मैं तुझसे साफ़ मन और सच्ची ज़बान की ख़ाहिश करता हूँ और हर वह भलाई तुझसे माँगता हूँ जिसका तुझे इल्म है और हर उस बुराई से तेरी पनाह माँगता हूँ जो तेरे इल्म में है और अपने सारे गुनाहों की माफ़ी चाहता हूँ जो तेरे इल्म में हैं। बेशक तू ग़ैब की बातों को पूरी तरह जानता है।"

मग़फ़िरत और अल्लाह की रिज़ा की दुआ

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सलमान फ़ारसी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को वसीयत करते हुए फ़रमाया—

“मैं तुम्हें कुछ कलिमे देना चाहता हूँ, उनके ज़रिए रहमान से सवाल करो, रहमान की तरफ़ लपको और रात दिन इन्हीं शब्दों में ख़ुदा से दुआ माँगो।"

अल्लाहुम-म इन्नी अस्-अलु-क सिह्-ह-तन फ़ी ईमानिँव व ईमा-नन फ़ी हुस्नि ख़ुलुक़िँव व नजाहँय्यत-बउहू फ़लाहुँव व रह-म-तम मिन-क व आफ़ि-य-तँव व मग़फ़ि-र-तम मिन-क व रिज़वाना। (तबरानी, हाकिम)

“ऐ अल्लाह! मैं तुझसे अपने ईमान में सेहत और ताक़त तलब करता हूँ, अच्छे अख़लाक़ में ईमान के असर को चाहता हूँ और ऐसी कामयाबी चाहता हूँ जिसके तेहत आख़िरत की कामयाबी हासिल हो और तुझसे रहमत, सलामती, गुनाहों की माफ़ी और तेरी रिज़ा तलब करता हूँ।" (तबरानी, हाकिम)

गुनाहों से पाक होने की दुआ

हज़रत उम्मे सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यह दुआ माँगा करते थे—

अल्लाहुम-म नक़्क़ि क़ल्बी मि-नल ख़ताया कमा नक़्क़ै-तस्सौ-बल अब-य-ज़ मि-नद्-द-नसि अल्लाहुम-म बअ-इद बैनी व बै-न ख़तीअती कमा बअ-अत्-त बै-नल मशरिक़ि वल मग़रिब। (मोअ्जमे कबीर)

"ऐ ख़ुदा! तू मेरे दिल को ख़ताओं के मैल से ऐसा पाक व साफ़ कर दे जैसे तू सफ़ेद कपड़े को मैल-कुचैल से साफ़-सुथरा कर देता है। ऐ अल्लाह! तू मुझे गुनाहों से इतना दूर कर दे जितना तूने पूरब और पश्चिम में दूरी कर रखी है।

दुनिया की नज़र में इज़्ज़त की दुआ

अल्लाहुम्मज-अलनी सबूरँव वज-अलनी शकूरँव वज-अलनी फ़ी ऐनी सग़ीरँव व फ़ी अअ्- युनिन्नासि कबीरा।

"ऐ अल्लाह! तू मुझे बहुत सब्र करनेवाला बना दे और बहुत ज़्यादा शुक्रगुज़ार बना दे और मुझे मेरी अपनी निगाहों में हक़ीर और लोगों की निगाहों में बड़ा बना दे।”

जामेअ दुआ

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मेरे पास तशरीफ़ लाए। मैं नमाज़ में लगी हुई थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मुझसे कुछ ज़रूरत थी और मुझे देर लग गई तो आपने फ़रमाया, “आइशा! छोटी और जामेअ दुआ माँगा करो।" फिर जब मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आई तो मैंने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल! छोटी और जामेअ दुआ क्या है तो आपने फ़रमाया कि यह पढ़ा करो—

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क मि-नल ख़ैरि कुल्लिही ‘आजिलिही व आजिलिही मा अलिम्तु मिन्हु व मा लम अअ-लम, व अऊज़ु बि-क मि-नश्-शर्रि कुल्लिही ‘आजिलिही व आजिलिही मा अलिम्तु मिन्हु व मा लम अअ-लम व अस्-अलु-कल जन्न-त व मा क़र्र-ब इलैहा मिन क़ौलिन अव् अ-मलिन व अऊज़ु बि-क मिनन्नारि व मा क़र्र-ब इलैहा मिन क़ौलिन अव् अ-म-लिन व अस्-अलु-क मिम्मा स-अ-ल-क बिही मुहम्मदुन व अऊज़ुबि-क मिम्मा त-अव्व-ज़ मिन्हु मुहम्मदुन व मा क़ज़ै-त ली मिन क़ज़ाइन फ़ज्-अल आक़ि-ब-त-हू रुशदा। (हाकिम)

“ऐ अल्लाह! मैं तुझसे सारी की सारी भलाई का सवाल करता हूँ, जल्द होनेवाली का भी और देर में होनेवाली का भी, मालूम का भी और ग़ैर मालूम का भी। और मैं सारी की सारी बुराई से तेरी पनाह चाहता हूँ, जल्द होनेवाली बुराई से भी और देर में होनेवाली बुराई से भी, मालूम से भी और नामालूम से भी। और मैं तुझसे जन्नत तलब करता हूँ और ऐसी कथनी-करनी की जो जन्नत से क़रीब कर देनेवाली हो और जहन्नम से तेरी पनाह चाहता हूँ और उस कथनी-करनी से भी तेरी पनाह चाहता हूँ जो जहन्नम के क़रीब कर देनेवाली हो और मैं तुझसे वे भलाइयाँ चाहता हूँ जिसका सवाल तुझसे मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने किया है और तेरी पनाह चाहता हूँ उन सारी चीज़ों से, जिनसे मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पनाह माँगी है और यह चाहता हूँ कि तू मेरे हक़ में जो फ़ैसला भी फ़रमाए उसका अंजाम बेहतर फ़रमा।"

इस्लाम पर क़ायम रहने की दुआ

अल्लाहुम्मह-फ़ज़्नी बिल इस्लामि क़ाइ-मन वहफ़ज़्नी बिल इस्लामि क़ाइदँव वहफ़ज़्नी बिल इस्लामि राक़िदँव व ला तुशमित बी अदुव्वन हासिदा।

“ऐ अल्लाह! मुझे उठते-बैठते, सोते (जागते हर हालत में) इस्लाम पर क़ायम रख और किसी दुश्मन और हसद करनेवाले को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे।"

नव मुस्लिम की दुआ

हज़रत अबू मालिक अशजई (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मेरे वालिद का बयान है कि जब कोई आदमी दीने इस्लाम में दाख़िल होता तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसको नमाज़ सिखाते, फिर उसको बताते कि इस तरह दुआ माँगो—

अल्लाहुम्मग़फ़िरली, वर्-हम्नी वहदिनी व आफ़िनी वर्-ज़ुक़नी।

"ऐ ख़ुदा! तू मेरी मग़फ़िरत फ़रमा, मुझपर रहम कर, मुझे सीधे रास्ते पर चला, मुझे आफ़ियत बख़्श और मुझे रोज़ी अता फ़रमा।"

निफ़ाक़ और बदअख़लाक़ी से बचने की दुआ

अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क मिम-मुन-करातिल अख़लाक़ि वल अ’अमालि वल अहवाइ, अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ु बि-क मि-नश्-शिक़ाक़ि वन्निफ़ाक़ि व सूइल अख़लाक़।

"ऐ ख़ुदा! मैं तेरी पनाह चाहता हूँ बुरे अख़लाक़, बुरे काम और नफ़्स की ख़ाहिश से, ऐ ख़ुदा! मैं तेरी पनाह चाहता हूँ झगड़े, निफ़ाक़ और बदअख़लाक़ी से।"

क़र्ज़ की अदायगी की दुआ

हज़रत अबू वाइल का बयान है कि हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िदमत में एक मुकातब ग़ुलाम हाज़िर हुआ और बोला, “हज़रत! मेरी मदद फ़रमाइए। मैं मुकातबत का मुआवज़ा अदा नहीं कर पा रहा हूँ।" हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, "मैं तुझे वह दुआ क्यों न सिखा दूँ जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बताई है। अगर तुम्हारे ज़िम्मे उहुद पहाड़ के बराबर क़र्ज़ भी होगा तो ख़ुदा उसको अदा कर देगा।" मुकातब ने अर्ज़ किया, "यह दुआ मुझे ज़रूर सिखाइए।" चुनाँचे उन्होंने यह दुआ बताई—

अल्लाहुम्-मकफ़िनी बि-हलालि-क अन हरामि-क व-अग़निनी बि-फ़ज़लि-क ‘अम्मन सिवाक।

“ऐ ख़ुदा! मुझे हलाल रोज़ी देकर हराम रोज़ी से बेपरवा कर दे और अपनी मेहरबानी से मुझे अपने सिवा हर एक से बेनियाज़ कर दे।"

44. दरूद व सलाम

अपने बहुत बड़े मुहसिन (उपकारी) हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ज़्यादा से ज़्यादा दरूद व सलाम भेजिए। यह सच है कि आपके अपार एहसान और निहायत रहमत व शफ़क़त का हम कोई बदला नहीं दे सकते। अगर कुछ कर सकते हैं तो सिर्फ़ यह कि अक़ीदत, मुहब्बत और फ़िदाकारी व जाँनिसारी की गहरी भावनाओं के साथ आपके हुज़ूर में दरूद व सलाम के तोहफ़े पेश करें और ख़ुदा से दुआ करें कि 'पालनहार! तेरे नबी ने हमारे लिए रात व दिन जो हिला देनेवाली तकलीफ़ें उठाकर हम तक दीन की रौशनी पहुँचाई और हमारी हिदायत के लिए घुल-घुलकर जिस तरह अपनी जान हल्कान की, पालनहार! हम इस बेमिसाल एहसान का कोई बदला नहीं दे सकते। तुझसे ही हमारी दरख़ास्त है कि पालनहार तू उनपर अपनी बेहद व बेहिसाब रहमतें उंडेल दे, उनके दर्जों को बुलन्द फ़रमा दे, उनके दीन को बातिल के हमले से सलामत रख और उसे तरक़्क़ी दे और आख़िरत में उन्हें तमाम क़रीबी लोगों से बढ़कर अपना क़ुर्ब अता फ़रमा। क़ुरआन पाक में मुसलमानों को हिदायत दी गई है—

"ख़ुदा और उसके फ़रिश्ते नबी पर बराबर दरूद भेजते हैं। मुसलमानो! तुम भी उनपर दरूद व सलाम भेजो।” (क़ुरआन, 33:56)

हज़रत उबई बिन काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“उबई! अगर तुम अपने सारे वक़्त दरूद व सलाम में लगा दोगे तो ख़ुदा दुनिया और आख़िरत में तुम्हारी ज़िम्मेदारी अपने ज़िम्मे ले लेगा।" (मुस्नद अहमद)

हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“जो आदमी मुझपर एक बार दरूद भेजता है, ख़ुदा उसपर दस बार रहमत उतारता है। उसके लिए दस नेकियाँ लिखता है, दस गुनाह मिटाता है और दस दर्जे बुलन्द फ़रमाता है।" (नसई)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

"जो आदमी मुझपर दरूद भेजता है, फ़रिश्ते उस पर दरूद भेजते रहते हैं जब तक वह मुझपर दरूद भेजता रहे।" (अहमद व इब्ने माजा)

आपने उस आदमी को बख़ील (कंजूस) क़रार दिया है जो आपका ज़िक्र सुने और आप पर दरूद न भेजे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"वह आदमी कंजूस है जिसके सामने मेरा ज़िक्र किया जाए और वह मुझपर दरूद न भेजे।" (तिरमिज़ी)

और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उस आदमी को आख़िरत में अपने साथ रहने और सोहबत उठाने का सबसे ज़्यादा हक़दार क़रार दिया है जो सबसे ज़्यादा आपपर दरूद व सलाम भेजे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

“क़ियामत के दिन मेरे साथ रहने और सोहबत उठाने का सबसे ज़्यादा हक़दार वह आदमी होगा जो मुझपर सबसे ज़्यादा दरूद भेजेगा।" (तिरमिज़ी)

सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बहुत से मौक़ों पर दरूद व सलाम के जो शब्द सिखाए हैं, उनमें शब्दों का थोड़ा-थोड़ा फ़र्क़ है। आप उनमें से जो दरूद चाहें, पढ़ सकते हैं। आमतौर पर जो दरूद शरीफ़ नमाज़ में पढ़ते हैं और जिसको हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अफ़ज़ल क़रार दिया है वह यह है—

अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिँव व अला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद। अल्लाहुम-म बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मदिन कमा बा-रक-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद। (सिहाहे सित्ता, मुसनद अहमद)

ऐ ख़ुदा! तू रहमत फ़रमा हज़रत मुहम्मद पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर, जिस तरह तूने रहमत फ़रमाई हज़रत इबराहीम पर और हज़रत इबराहीम की आल पर। बेशक तू बड़ा ही पाकीज़ा ख़ूबियोंवाला और बड़ाईवाला है। "ऐ ख़ुदा! तू बरकत अता फ़रमा मुहम्मद को और मुहम्मद की आल को, जिस तरह तूने बरकत दी हज़रत इबराहीम को और हज़रत इबराहीम की आल को। बेशक तू बड़ा ही पाकीज़ा ख़ूबियोंवाला और बड़ाईवाला है।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने लोगों से फ़रमाया कि जब तुम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद भेजो तो अच्छे तरीक़े से भेजो। तुम्हें क्या मालूम कि यह दरूद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बारगाह में पेश किया जाता हो। लोगों ने उनसे दरख़ास्त की कि फिर आप हमें दरूद सिखा दीजिए तो उन्होंने फ़रमाया कि यूँ दरूद पढ़ा करो:

अल्लाहुम्मज-अल सला-त-क व रह-म-त-क व ब-रकाति-क अला सय्यिदिल मुर्-सली-न व इमामिल मुत्तक़ी-न व ख़ात-मन्नबिय्यी-न मुहम्मदिन अब्दि-क व रसूलि-क इमामिल ख़ैरि व क़ाइदिल ख़ैरि व रसूलिर्रह-मति, अल्लाहुम्मब-असहु मक़ामँय्यग़बितुहू बिहिल अव्वलून। अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिँव व अला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद। अल्लाहुम-म बारिक अला मुहम्मदिँव व अला आलि मुहम्मदिन कमा बा-रक-त अला इबराहीम व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम मजीद। (इब्ने माजा)

"ऐ ख़ुदा! तू अपनी बरकत, रहमत और मेहरबानियाँ उतार रसूलों के सरदार, परहेज़गारों के पेशवा और आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर जो तेरे बन्दे, तेरे रसूल, भलाई की मिसाल, ख़ैर के रहनुमा और रहमतवाले रसूल हैं। ऐ ख़ुदा! उनको उस बड़ाई की जगह पर बैठा जो आगेवालों के लिए रश्क के क़ाबिल हो।

ऐ ख़ुदा! तू रहमत भेज हज़रत मुहम्मद पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर, जिस तरह तूने रहमत फ़रमाई हज़रत इबराहीम पर और हज़रत इबराहीम की आल पर। बेशक तू पाकीज़ा ख़ूबियोंवाला, बड़ाईवाला है। ऐ ख़ुदा! तू बरकत नाज़िल फ़रमा हज़रत मुहम्मद पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर जिस तरह तूने बरकत दी हज़रत इबराहीम को और हज़रत इबराहीम की आल को। बेशक तू पाकीज़ा ख़ूबियोंवाला और बड़ाईवाला है।"

हज़रत अबू मस्ऊद अनसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार बशीर बिन साद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! हम आपपर किस तरह दरूद व सलाम भेजें।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कुछ देर ख़ामोश रहे फिर फ़रमाया, यूँ कहा करो—

अल्लाहुम्-म सल्लि अला मुहम्मदिँव व अला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अला इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिँव व अला आलि मुहम्मदिन कमा बा-रक-त अला इबराही-म फ़िल-आलमी-न इन्न-क हमीदुम मजीद। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! रहमत फ़रमा हज़रत मुहम्मद पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर जिस तरह तूने रहमत फ़रमाई हज़रत इबराहीम पर और बरकत फ़रमा हज़रत मुहम्मद पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर जिस तरह तूने कायनात में बरकत फ़रमाई हज़रत इबराहीम पर। बेशक तू इन्तिहाई पाकीज़ा, ख़ूबियोंवाला और बुज़ुर्गीवाला है।"

45. क़ुरबानी की दुआ

जानवर को क़िबला रुख़ लिटाकर पहले यह दुआ पढ़िए—

इन्नी वज्जह्तु वजहि-य लिल्लज़ी फ़-त-रस्समावाति वल अर्-ज़ हनीफ़ँव व मा अना मि-नल मुशरिकीन, इन्-न सलाती व नुसुकी व मह्-या-य व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आ-लमीन, ला शरी-क लहू व बिज़ालि-क उमिर्तु व अना मि-नल मुस्लिमीन, अल्लाहुम्-म ल-क व मिन-क।

"मैंने पूरी यकसूई के साथ अपना रुख़ ठीक उस अल्लाह की ओर कर लिया है जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और मैं शिर्क करनेवालों में से नहीं हूँ। बेशक मेरी नमाज़, मेरी क़ुरबानी, मेरी ज़िन्दगी और मेरी मौत सब अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए है। उसका कोई शरीक नहीं, इसी का मुझे हुक्म दिया गया है और मैं मुस्लिम और फ़रमाबरदार हूँ। ऐ ख़ुदा! यह तेरे ही हुज़ूर पेश है और तेरा ही दिया हुआ है।"

'बिसमिल्लाहि अल्लाहु अकबर' कहते हुए तेज़ छुरी जानवर के गले पर फेर दीजिए और ज़िब्ह करने के बाद यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम-म त-क़ब्बलहु मिन्नी [अगर जानवर में कई हिस्सेदार हों तो 'मिन्नी' के बजाए 'मिन' पढ़िए और इसके बाद सबके नाम लीजिए] कमा त-क़ब्बल-त मिन ख़लीलि-क इबराही-म व हबीबि-क मुहम्मदिन अलैहिमस्सलातु वस्सलाम।

"ऐ ख़ुदा! तू इस क़ुरबानी को हमारी ओर से क़बूल फ़रमा जिस तरह तूने अपने दोस्त हज़रत इबराहीम और अपने हबीब हज़रत मुहम्मद की क़ुरबानी क़बूल फ़रमाई। दोनों पर दरूद व सलाम हो।"

क़ुरबानी का जानवर अगरचे किसी दूसरे से ज़िब्ह कराना भी जायज़ है, लेकिन बेहतर यही है कि आप ख़ुद ही ज़िब्ह करें और ज़िब्ह करते वक़्त उन भावनाओं को जान-बूझकर अपने दिल व दिमाग़ पर ग़ालिब कर लें जिन्हें आप दुआ के शब्दों में ज़ाहिर करते हैं यानी यह कि हमारा सब कुछ ख़ुदा के लिए ही है और उसी की राह में यह सब कुछ क़ुरबान होना चाहिए। उसका इशारा पाकर आज हम उसकी राह में जानवर क़ुरबान कर रहे हैं, कल अगर उसका इशारा होगा तो हम उन्हीं भावनाओं के साथ अपनी प्यारी जान भी उसी की राह में क़ुरबान कर देंगे और उसका शुक्रिया अदा करेंगे कि उसने अपनी राह में ख़ून बहाने की तौफ़ीक़ देकर शहादत की सआदत नसीब फ़रमाई।

46. अक़ीक़े की दुआ

अक़ीके से मुराद वह बकरी या बकरा है जो नए पैदा बच्चे की ओर से पैदाइश के सातवें दिन सदक़े के तौर पर ज़िब्ह किया जाए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"सातवें दिन बच्चे का नाम तजवीज़ किया जाए और उसके बाल वग़ैरह, मैल-कुचैल दूर किया जाए और उसकी ओर से अक़ीक़ा किया जाए।"

जानवर को ज़िब्ह करते वक़्त क़िबला रख़ लिटा दीजिए और पहले वह दुआ पढ़िए जो क़ुरबानी का जानवर ज़िब्ह करने से पहले पढ़ते हैं यानी इन्नी वज्जह्तु से ल-क व मिन-क तक, फिर बिसमिल्लाहि अल्लाहु अकबर कहते हुए तेज़ छुरी जानवर के गले पर फेर दीजिए और यह दुआ पढ़िए—

अल्लाहुम्-म हाज़िही अक़ी-क़तु ['हाज़िही अक़ी-क़तु' कहने के बाद उस बच्चे का नाम लीजिए जिसका अक़ीक़ा है।].............., त-क़ब्बलहु कमा त-क़ब्बल-त मिन हबीबि-क मुहम्मदिँव व ख़लीलि-क इबराही-म अलैहिमस्सलातु वस्सलामु दमुहा बि-दमिही लह्-मुहा बि-लहमिही शअ्-रुहा बि-शअरिही अज़्मुहा बिअज़्मिही।

"ऐ ख़ुदा! यह अक़ीक़ा है..... का, इसको क़बूल फ़रमा जिस तरह तूने अपने हबीब हज़रत मुहम्मद और अपने दोस्त हज़रत इबराहीम अलैहिमस्सलाम की तरफ़ से क़बूल किया। इसका ख़ून बच्चे के ख़ून का फ़िदया है, इसका गोश्त बच्चे के गोश्त का फ़िदया है, इसके बाल बच्चे के बाल का फ़िदया हैं और इसकी हड्डियाँ बच्चे की हड्डियों का फ़िदया हैं। (ऐ ख़ुदा! इसको क़बूल फ़रमा।)”

जो लोग पैसेवाले हों वे अपनी औलाद की ओर से ज़रूर सदक़ा करें। अक़ीक़ा एक मुस्तहब सदक़ा है। लड़के की तरफ़ से दो बकरे या दो बकरियाँ और लड़की की ओर से एक बकरा या एक बकरी। और यह भी जायज़ है कि लड़के की ओर से भी एक ही बकरी की जाए। अलबत्ता जो लोग ताक़त नहीं रखते, उनके लिए हरगिज़ मुनासिब नहीं कि वे तंगदस्ती के बावजूद अक़ीक़ा करना ज़रूरी समझें और बोझ लादकर इस फ़र्ज़ को पूरा करें।

अक़ीक़े का गोश्त कच्चा भी बाँट सकते हैं, अलबत्ता मुस्तहब यह है कि पकाकर फ़क़ीरों, मिस्कीनों और पड़ोसियों के यहाँ भेजें। अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को भी खिला सकते हैं और ख़ुद भी खा सकते हैं। हज़रत हसन (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अक़ीक़े के मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हिदायत दी कि जानवर की एक टाँग दाई को भेज दो और बाक़ी तुम ख़ुद खाओ और खिलाओ। (अबू दाऊद)

47. तरावीह की दुआ

'तरावीह', तरवीहा का बहुवचन है। तरावीह में हर चार रक्अत के बाद बैठने और आराम लेने को तरवीहा कहते हैं, और इसी वजह से रमज़ान की इस नफ़्ल नमाज़ को तरावीह कहते हैं। तरावीह यानी हर चार रक्अत के बाद बैठना और आराम लेना मसनून है।

तरवीहा में यह दुआ पढ़िए—

सुबहा-न ज़िल मुलकि वल म-लकूति सुबहा-न ज़िलइज़्ज़ति वल अज़्मति वल है-बति वल क़ुद-रति वल किबरियाइ वल ज-बरूत। सुबहा-नल मलिकिल हय्यिल्लज़ी ला यनामु वला यमूतु सुब्बूहुन क़ुद्दूसुन, रब्बुना व रब्बुल मलाइ-कति वर्रूहि अल्लाहुम-म अजिरना मि-नन्-नारि या मुजीरु या मुजीरु या मुजीर।

"पाक है हुकूमत व इक़्तिदारवाला, पाक है इज़्ज़त व अज़मत, हैबत व क़ुदरत और बड़ाई और दबदबेवाला।

पाक है वह ज़िन्दा जावेद बादशाह, जो न सोता है और न कभी उसके लिए फ़ना है; निहायत पाक व बरतर, ऐबों से पाक, हमारा परवरदिगार और फरिश्तों का परवरदिगार और हज़रत जिबरील (अलैहिस्सलाम) का परवरदिगार।

ऐ ख़ुदा। हम को दोज़ख़ की आग से पनाह दे! ऐ पनाह देनेवाले, ऐ पनाह देनेवाले, ऐ पनाह देनेवाले।"

तरावीह की नमाज़ जमाअत से पढ़िए और अगर हो सके तो पूरा क़ुरआन नमाज़ में सुनने की कोशिश कीजिए। तरावीह किसी ऐसे हाफ़िज़ के पीछे पढ़िए जो पूरे एहतिराम के साथ, दिल लगाकर और ज़ौक व शौक़ के साथ इस तरह क़ुरआन को ठहर-ठहरकर एतिदाल के साथ पढ़े कि ज़्यादा देरी की वजह से मुक़्तदी (इमाम के पीछे नमाज़ पढ़नेवाले) भी न उकताएँ और क़ुरआन पाक भी इस तरह साफ़-साफ़ पढ़ा जाए कि उसकी तिलावत का हक़ अदा हो। क़ुरआन को बेपनाह रवानी के साथ बेसोचे-समझे इस तरह पढ़ना कि गोया सिर से एक बोझ उतारा जा रहा है, अस्ल में क़ुरआन के साथ बड़ा ज़ुल्म है। ख़ुदा कि किताब का यह हक़ है कि उसको दिल की आमादगी, तबीअत की हाज़िरी और मन के लगाव के साथ पढ़ा जाए और उसको समझने और उसमें ग़ौर व फ़िक्र करने की आदत डाली जाए।

इसी तरह तरावीह की नमाज़ भी सुकून व एतिदाल के साथ पढ़नी चाहिए। लापरवाही के साथ जल्दी-जल्दी रुकू व सज्दा करना नमाज़ के मक़सद से ग़फ़लत भी है और नमाज़ की लज़्ज़त से महरूमी भी।

48. क़ुनूते नाज़िला

1. ख़ुदा न करे मुसलमान सख़्त हालात में घिरे हुए हों और दुश्मन का भय और आतंक छाया हुआ हो, तो नमाज़ों में क़ुनूते नाज़िला पढ़ने का एहतिमाम कीजिए, ख़ास तौर से फ़ज्र की नमाज़ में। फ़ज्र की नमाज़ की दूसरी रक्अत में रुकू से उठने के बाद खड़े-खड़े यह दुआ पढ़िए और फिर सजदे में जाइए। हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके सहाबा ने सख़्त हालात में यह दुआ नमाज़ों में पढ़ी है और ख़ास तौर पर फ़ज्र की नमाज़ में इसका एहतिमाम किया है—

अल्लाहुम्मह-दिना फ़ी मन हदै-त व आफ़िना फ़ी मन आफ़ै-त व त-वल्लना फ़ी मन त-वल्लै-त व बारिक लना फ़ी मा अ’अतै-त व क़िना शर्-र मा क़ज़ै-त फ-इन्न-क तक़्ज़ी व ला युक़्ज़ा अलै-क इन्नहु ला यज़िल्लु मँव्वालै-त व ला यइज़्ज़ु मन आदै-त तबा-रक-त रब्बना व तआलै-त नस्तग़फ़िरु-क व नतूबु इलैक। अल्लाहुम-म अज़्ज़िबिल क-फ़-र-तल्लज़ी-न यसुद्दू-न अन सबीलि-क व युकज़्ज़िबू-न रुसु-ल-क व युक़ातिलू-न औलि-या-अक। अल्लाहुम्मग़फ़िर लिल मुअ्मिनी-न वल मुअ्मिनाति वल मुस्लिमी-न वल मुस्लिमाति व असलिह ज़ा-त बैनिहिम व अल्लिफ़ बै-न क़ुलूबिहिम वज्-अल फ़ी क़ुलूबिहिमिल ईमा-न वल हिक-म-त व सब्बितहुम अला मिल्लति रसूलि-क (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) व औज़ि’अहुम अँय्यूफ़ू बिअहदि-कल्लज़ी आहत्-तहुम अलैहि वन्सुरहुम अला अदुव्वि-क व अदुव्विहिम इला-हल हक़्क़ि वज-अलना मिन्हुम।

“ऐ ख़ुदा! तू हमें दिहायत से नवाज़कर हिदायत पाए हुए लोगों में शामिल फ़रमा और हमें आफ़ियत बख़्शकर आफ़ियत पानेवालों में शामिल फ़रमा और हमारी सरपरस्ती फ़रमाकर उन लोगों में शामिल फ़रमा जिनकी तूने सरपरस्ती फ़रमाई और हमें उन चीज़ों में बरकत दे जो तूने इनायत फ़रमाई हैं और हमें उसकी शरारतों से बचा जिसका तूने फ़ैसला फ़रमाया है, क्योंकि तू ही फ़ैसला फ़रमाता है और तुझ पर किसी का फ़ैसला लागू नहीं होता। वह हरगिज़ ज़लील नहीं हो सकता जिसकी तू सरपरस्ती फ़रमाए और वह कभी इज़्ज़त नहीं पा सकता जिसको तू अपना दुश्मन क़रार दे ले, तू बड़ा ही बरकतोंवाला है। ऐ हमारे रब और बुलन्द व बरतर! हम तुझसे मग़फ़िरत चाहते हैं और तेरे हुज़ूर बहुत ही तौबा करते हैं। ऐ अल्लाह! काफ़िरों को अज़ाब दे जो तेरी राह से रोकते हैं और तेरे रसूलों को झुठलाते हैं और तेरे औलिया से लड़ते रहते हैं। ऐ अल्लाह! मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों, मुसलमान मर्दों और मुसलमान औरतों की मग़फ़िरत फ़रमा और उनके आपसी ताल्लुक़ात में सुधार फ़रमा, उनके दिलों में आपसी मुहब्बत पैदा कर; उनके दिलों में ईमान व हिकमत पैदा कर और उनको अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मिल्लत पर जमा दे और उनको तौफ़ीक़ अता फ़रमा कि ये तेरे अह्द (वादे) को पूरा कर सकें जो तूने उनसे लिया है और उनकी मदद फ़रमा अपने दुश्मनों के मुक़ाबले में और उनके दुश्मनों के मुक़ाबले में। ऐ हक़ीक़ी माबूद! हमारी इल्तिजाएँ (प्रार्थनाएँ) सुन ले और हमें भी उन्हीं लोगों में शामिल फ़रमा दे।"

49. हाजत (ज़रूरत) की नमाज़

जब भी आपको कोई छोटी या बड़ी ज़रूरत पेश आए ख़ुदा के हुज़ूर खड़े होकर दो रक्अत नफ़्ल (सलातुल हाजत) पढ़िए और फिर हम्द व सना और दरूद पढ़कर यह दुआ पढ़िए। ख़ुदा से उम्मीद है कि वह आपकी दुआ को रद्द नहीं फ़रमाएगा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि जब किसी को ख़ुदा से या किसी बन्दे से कोई ज़रूरत हो तो ख़ूब अच्छी तरह वुज़ू करे, फिर दो रक्अत नमाज़ पढ़कर ख़ुदा की हम्द व सना करे और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दरूद पढ़े और फिर ख़ुदा से यूँ दुआ करे—

ला इला-ह इल्लल्लाहुल हलीमुल करीमु सुब्हानल्लाहि रब्बिल अर्शिल अज़ीम वलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमी-न अस-अलु-क मूजिबाति रहमति-क व अज़ाइ-म मग़फ़ि-र-ति-क वल ग़नी-म-त मिन कुल्लि बिर्रिँव वस्सला-म-त मिन कुल्लि इस्मिन ला त-दअ् ली ज़म्बन इल्ला ग़-फ़र-तहू व ला हम्मन इल्ला फ़र्रज-तहू व ला हा-ज-तन हि-य ल-क रि-ज़न इल्ला कज़ै-तहा या अर्-ह-मर्राहिमीन। (तिरमिज़ी, इब्ने माज़ा)

"ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं, वह बड़ा ही बुर्दबार (सहनशील) और बहुत ही करम फ़रमानेवाला है। पाक व बरतर है ख़ुदा, बड़े अर्श का मालिक। शुक्र व तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है जो सारे जहानों का परवरदिगार है। (ऐ ख़ुदा!) मैं तुझसे उन चीज़ों की भीख माँगता हूँ जो तेरी रहमत को वाजिब करनेवाली और तेरी मग़फ़िरत को ज़रूरी करनेवाली हैं। हर भलाई में हिस्सा और हर गुनाह से सलामती चाहता हूँ। ऐ अल्लाह! तू मेरा कोई गुनाह बख़्शे बग़ैर और कोई दुख और ग़म दूर किए बग़ैर न छोड़ और मेरी कोई ज़रूरत जो तेरे नज़दीक पसन्दीदा हो, पूरी किए बग़ैर न रहने दे, ऐ रहम करनेवालों में सबसे ज़्यादा रहम करनेवाले।”

50. क़ुरआन हिफ़्ज़ करने की दुआ

क़ुरआन पाक को याद करने और याद रखने के लिए इस दुआ का एहतिमाम कीजिए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) को सिखाई थी।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार हम लोग नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मज्लिस में बैठे हुए थे कि अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) आए और अपने हाफ़िज़े की शिकायत करने लगे, "ऐ अल्लाह के रसूल! क़ुरआन की आयतें मेरे ज़ेहन में महफ़ूज़ नहीं रहतीं, जो सीखता हूँ याद ही नहीं रहता।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की शिकायत सुनकर फ़रमाया—

“ऐ अबुल हसन! मैं तुम्हें ऐसी दुआ क्यों न सिखा दूँ जिसको पढ़कर तुम भी फ़ायदा उठाओ और वह भी फ़ायदा उठाए जिसको तुम यह दुआ सिखाओ और फिर जो भी तुम सीखो, वह तुम्हारे दिल में जम जाए और तुम्हें याद रहे।" हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! ऐसी दुआ तो ज़रूर सिखाइए।” तो आपने इस दुआ के बारे में फ़रमाया—

"जुमा की रात में यह दुआ पढ़ो, तीन या पाँच या सात जुमेरातों में बराबर पढ़ो। ख़ुदा के हुक्म से यह दुआ तीर की तरह सही निशाने पर बैठेगी। उस ज़ात की क़सम जिसने मुझे दीने हक़ देकर भेजा है! मोमिन की यह दुआ कभी ख़ाली नहीं जाती।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि पाँच या सात जुमेरातें गुज़री होंगी कि इसी तरह फिर एक दिन हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मज्लिस में आए और कहने लगे, "ऐ अल्लाह के रसूल! पहले मैं चार आयतें याद करता, लेकिन जब दोहराता तो ज़ेहन से निकल जातीं और अब यह हाल है कि मैं चालीस-चालीस आयतें याद करता हूँ और जब पढ़ता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि गोया मेरे सामने ख़ुदा की किताब खुली हुई रखी है। इसी तरह पहले मैं एक हदीस सुनता और जब दोहराने की कोशिश करता तो भूल जाता और अब यह हाल है कि मैं कितनी ही हदीसें सुनता हूँ और जब दोहराता हूँ तो एक हर्फ़ (अक्षर) की भी ग़लती नहीं होती।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह सुनकर फ़रमाया, "काबा के रब की क़सम! अबुल हसन वाक़ई मोमिन हैं।"

दुआ पढ़ने का तफ़सीली तरीक़ा बताते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हिदायत फ़रमाई कि जुमा की रात में यह दुआ पढ़ें। मेरे भाई याक़ूब (अलैहिस्सलाम) के बेटों ने, जब उनसे इसतिग़फ़ार की दुआ के लिए दरख़ास्त की तो उन्होंने फ़रमाया, "मैं बहुत जल्द तुम्हारे लिए इसतिग़फ़ार करूँगा।" याक़ूब (अलैहिस्सलाम) का मक़सद था कि जुमा की रात आने पर मैं तुम्हारे लिए इसतिग़फ़ार करूँगा, तो ऐ अली तुम जुमा की रात में तहज्जुद के वक़्त उठो, इसलिए कि यह वक़्त दुआ के क़बूल होने का वक़्त है। तबीअत उस वक़्त हाज़िर होती है और ख़ुदा की तरफ़ पूरी यकसूई होती है और अगर रात के आख़िरी हिस्से में न उठ सको तो आधी रात को उठो और अगर आधी रात को भी न उठ सको तो शुरू रात में चार रक्अत नफ़्ल इस तरह पढ़ो कि पहली रक्अत में सूरा फ़ातिहा के बाद सूरा यासीन [क़ुरआन मजीद की सूरा, 36] और दूसरी रक्अत में सूरा फ़ातिहा के साथ सूरा दुख़ान [क़ुरआन मजीद की सूरा, 44] और तीसरी रक्अत में सूरा फ़ातिहा और अलिफ़-लाम-मीम अस-सज्दा [क़ुरआन मजीद की सूरा, 32] और चौथी रक्अत में सूरा फ़ातिहा के बाद सूरा मुल्क [क़ुरआन मजीद की सूरा, 67] पढ़ो। फिर जब अत्तहिय्यात पढ़कर सलाम फेर लो तो अच्छे अन्दाज़ में ख़ुदा की हम्द व सना करो और निहायत अच्छे तरीक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और दूसरे तमाम नबियों पर दरूद व सलाम भेजो और सारे मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों के लिए इसतिग़फ़ार करो और अपने उन भाइयों के लिए इसतिग़फ़ार करो जो ईमान लाने में तुम पर बाज़ी ले गए हैं। फिर आख़िर में यह दुआ पढ़ो—

अल्लाहुम्मर्-हमनी बितर्-किल मआसी अब-दम् मा अबक़ै-तनी वर्-हमनी अन् अ-त-कल्ल-फ़ मा ला यअनीनी वर्-ज़ुक़नी हुस्नन् न-ज़रि फ़ीमा युर्-ज़ी-क अन्नी, अल्लाहुम्-म बदी-अस्समावाति वल-अर्-ज़ि ज़ल-जलालि वल-इकरामि वल-इज़्ज़तिल्लती ला तुरामु अस्-अलु-क या अल्लाहु या रहमानु बि-जलालि-क व नूरि वजहि-क अन् तुलज़ि-म क़ल्बी हिफ़्-ज़ किताबि-क कमा अल्लम-तनी वर्-ज़ुक़नी अन् अतलूहु अलन्नहविल्लज़ी युर्-ज़ी-क अन्नी, अल्लाहुम्-म बदी-अस्समावाति वल-अर्-ज़ि ज़ल-जलालि वल-इकरामि वल-इज़्ज़तिल्लती ला तुरामु अस्-अलु-क या अल्लाहु या रहमानु बि-जलालि-क व नूरि वजहि-क अन् तु-नव्वि-र बिकिताबि-क ब-स-री व अन् तुतलि-क़ बिही लिसानी व अन् तु-फ़र्रि-ज बिही अन् क़ल्बी व अन् तश-र-ह बिही सदरी व अन् तग़सि-ल बिही ब-द-नी फ़इन्नहू ला युईनुनी अ-लल हक़्क़ि ग़ैरु-क व ला युअ्तीहि इल्ला अन्-त व ला हौ-ल व ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाहिल अलिय्यिल अज़ीम। (तिरमिज़ी)

"ऐ ख़ुदा! तू मुझे जब तक भी ज़िन्दा रखे अपनी रहमत से हमेशा गुनाहों से बचने की तौफ़ीक़ दे और अपनी रहमत से मुझे बेमक़सद और बेकार की बातों से दूर रहने की ताक़त अता फ़रमा और मुझे उन कामों में अच्छी नज़र और सूझ-बूझ दे जिनसे तेरी रिज़ा हासिल हो। ऐ ख़ुदा! आसमानों और ज़मीन को बग़ैर मिसाल के बनानेवाले, अज़मत व एहतिरामवाले और ऐसी सत्ता रखनेवाले जिसके मुक़ाबले में आने का इरादा भी नहीं किया जा सकता। ऐ ख़ुदा! ऐ रहम करनेवाले! मैं तुझ से तेरी बुज़ुर्गी और तेरी ज़ात के नूर का वास्ता देकर सवाल करता हूँ कि जिस तरह तूने मुझे अपनी किताब सिखाई उसी तरह मुझे उसके हाफ़िज़े की भी ताक़त दे और मुझे इस किताब को पढ़ने की इस तरह तौफ़ीक़ दे जिससे तेरी रिज़ा हासिल हो। ऐ आसमानों और ज़मीन के बनानेवाले! अज़मत व एहतिरामवाले और ऐसी सत्ता रखनेवाले जिसके मुक़ाबले का इरादा भी नहीं किया जा सकता, ऐ ख़ुदा! अपार दया करनेवाले! मैं तेरी बुज़ुर्गी और तेरी ज़ात के नूर का वास्ता देकर तुझ से सवाल करता हूँ कि तू अपनी किताब की बरकत से मेरी आँखों को रौशन कर दे और मेरी ज़बान पर इसके शब्द जारी कर दे और मेरे दिल से ग़म और घुटन दूर कर दे और इसकी बरकत से इसके लिए मेरे सीने को खोल दे और इसकी बरकत से मेरे जिस्म को धोकर पाक-साफ़ कर दे। तेरे सिवा कोई नहीं जो हक़ के मामले में मेरी मदद व हिमायत कर सके, हक़ से नवाज़नेवाला बस तू ही है; गुनाहों से बाज़ रहने की ताक़त और नेकी पर जमने की ताक़त ख़ुदा ही से मिल सकती है जो बड़ा ही बुलन्द और बहुत ही बुज़ुर्गीवाला है।"

51. क़ुरआन की समझ के लिए दुआ

क़ुरआन मजीद की तिलावत और उसके मतलब पर सोच-विचार मोमिन की प्यारी इबादत है। क़ुरआन से लगाव ख़ुदा से ताल्लुक़ की दलील भी है और ख़ुदा से ताल्लुक़ का ज़रिया भी। क़ुरआन में सोच-विचार करने से मोमिन को रूहानी ख़ुशी भी हासिल होती है और उसी के ज़रिए उस पर हिक्मत के दरवाज़े भी खुलते हैं।

क़ुरआन हकीम बेशक बड़ी आसान किताब है। जहाँ तक उससे हिदायत हासिल करने और उसके हुक्मों की पैरवी करने का ताल्लुक़ है, उसकी तालीम (शिक्षाएँ) बड़ी सादा, खुली हुई और हर एच-पेच से पाक हैं अलबत्ता उसके मर्म-भेद और उसकी गूढ़ बातों को समझने के लिए ज़रूरी है कि आप क़ुरआन की समझ पैदा करने के तमाम आदाब और तमाम शर्तों के साथ उसको पढ़ें, सच्ची तलब के साथ उस पर सोचें और किसी वक़्त भी उससे ग़फ़लत और बेनियाज़ी न बरतें, बराबर पढ़ते रहें और ज़िन्दगी भर पढ़ते रहें।

यह बिलकुल फ़ितरी बात है कि पढ़ते वक़्त कुछ ऐसी मुश्किल जगहें भी आएँगी जहाँ गहरे सोच-विचार के बावजूद भी किसी मतलब पर आपका ज़ेहन मुतमइन न होगा और आप सख़्त उलझन महसूस करेंगे। लेकिन अगर आप वाक़ई क़ुरआन के विद्यार्थी हैं तो आप हरगिज़ मायूस न हों, न आपका दिल टूटे, न क़ुरआन के बारे में किसी ग़लत ख़याल को दिल में आने दें और न उकताकर क़ुरआन में सोचना-समझना छोड़ दें, बल्कि पूरी यकसूई के साथ ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह हों और पूरी सुपुर्दगी के साथ ख़ुदा से इस मुश्किल के हल में मदद तलब करें। क़ुरआन की आयतों में अपनी ख़ाहिश और अपनी राय से मतलब निकालने या अपना मनपसन्द मतलब निकालने की बेहूदा हिम्मत बिलकुल न करें बल्कि हक़ के एक तलबगार की तरह उस मतलब पर जमे रहें जो क़ुरआन पाक के शब्दों से समझ में आ रहा हो और फिर इंतिहाई आजिज़ी और बेचारगी के साथ ख़ुदा से दुआ करें कि ऐ अल्लाह! मेरी इस उलझन को दूर फ़रमा; मुझ पर सही मतलब खोल दे और मेरे दिल को उस मतलब पर इतमीनान दे जो वाक़ई सही है। इस मक़सद के लिए रात की नफ़्लों में तनिक आवाज़ से, ठहर-ठहरकर तिलावत भी कीजिए और नीचे लिखी हुई दुआ भी पढ़ते रहिए। ख़ुदा से उम्मीद है कि यह फ़ायदा पहुँचाएगी।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि जो बन्दा भी अपने किसी ग़म और फ़िक्र में यह दुआ पढ़ेगा, ख़ुदा उसके फ़िक्र और ग़म को दूर फ़रमाकर ख़ुशी देगा।

अल्लाहुम्-म इन्नी अब्दु-क, इब्नु अब्दि-क, इब्नु अ-मति-क, नासि-यती बियदि-क, माज़िन फ़िय्-य हुक्मु-क, अदलुन फ़िय्-य क़ज़ाउ-क अस्-अलु-क बिकुल्लिस्मिन हु-व ल-क सम्मै-त बिही नफ़-स-क अव् अन-ज़ल-तहू फ़ी किताबि-क अव् अल्लम-तहू अ-ह-दम मिन ख़ल्क़ि-क अविस्तअ-सर-त बिही फ़ी इल्मिल ग़ैबि इन्-द-क, अन् तज-अ-लल क़ुरआ-न रबी-अ क़ल्बी, व नू-र सदरी व जिला-अ हुज़्नी व ज़िहा-ब हम्मी व ग़म्मी।

“ऐ ख़ुदा! मैं तेरा बन्दा हूँ, तेरे बन्दे का बेटा हूँ, तेरी बन्दी का बेटा हूँ, मेरी पेशानी तेरी मुट्ठी में है, मुझ पर तेरा ही हुक्म चलता है, मेरे हक़ में तेरा फ़ैसला ही अस्ल इंसाफ है, मैं तुझसे तेरे हर उस नाम के वास्ते से, जो तेरी शान के मुताबिक़ है, जो तूने अपने लिए रखा है या तूने अपनी किताब में उतारा है या अपनी मख़लूक़ में से किसी को बताया है या तूने अपने पास ग़ैब के ख़ज़ाने में उसे छिपा ही रहने दिया है— यह दरख़ास्त करता हूँ कि क़ुरआन को मेरे दिल की बहार, मेरे सीने का नूर, मेरे ग़म की दवा और मेरी फ़िक्र और परेशानी का इलाज बना दे।" (मुस्नद अहमद, इब्ने हिब्बान)

हदीस रिवायत करनेवाले हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा गया कि हम इस दुआ को सीख लें, तो आपने इरशाद फ़रमाया, "जो आदमी भी इस दुआ को सुने, वह ज़रूर इसको सीखे और ज़रूर याद करे।"

52. ज़ुमे का ख़ुतबा

इस्लामी जज़बों को उभारने, ईमान को ताज़ा रखने और याददेहानी की ज़िम्मेदारी को तरतीब के साथ लगातार अंजाम देने के लिए जुमे का ख़ुतबा बहुत ही असरदार ज़रिया है। फ़ितरी अन्दाज़ में हर हफ़्ते मुसलमानों को उनकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने, दीन के तक़ाज़े समझाने और इस्लाम के लिए कुछ करने की तड़प को पैदा करने के लिए एक ऐसा दीनी इन्तिज़ाम है जिसकी कोई मिसाल पेश नहीं की जा सकती। लेकिन इससे भरपूर फ़ायदा आप उसी वक़्त उठा सकते हैं जब आप सुननेवालों को उनकी अपनी ज़बान में भी ख़िताब करें।

जहाँ तक दूसरे ख़ुतबे का ताल्लुक़ है तो वह अरबी ज़बान ही में होना चाहिए। हाँ, पहला ख़ुतबा आप उस ज़बान में भी दें जिसे सुननेवाले जानते हों। अच्छा तो यह है कि आप आज के हालात को सामने रखते हुए दीन के तक़ाज़ों पर छोटी, पर जामेअ तक़रीर अपने तौर पर तैयार करें और हर हफ़्ते बराबर और तरतीब के साथ ज़ेहन को बनाने और अमल पर उभारने की कोशिश करें, लेकिन किसी वजह से अगर आप ऐसा न कर सकें तो कम से कम इतना ज़रूर कीजिए कि कोई भी अरबी ख़ुतबा पढ़कर उसका मतलब भर तर्जुमा उस ज़बान में भी पेश करें जिसको सुननेवाले समझते हों। अरबी ख़ुतबे के चुनाव में भी ज़्यादा मुनासिब यह है कि आप ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) या ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का कोई ख़ुतबा चुन लें। नीचे हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ऐसे वाक्य लिखते हैं जिसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। इनमें एक तो वह मशहूर ख़ुतबा है जो हिजरत के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मदीने में पहले जुमा को दिया था और दूसरा वह है जिसमें आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुसलमानों को बड़े भले और ज़ोरदार अंदाज़ में उभारा है कि वे क़ुरआन से गहरा लगाव पैदा करें और बराबर इसमें सोच-विचार करते रहें, इसलिए कि इससे ताल्लुक़ जोड़े बिना दीन से ताल्लुक़ क़ायम रखना मुमकिन नहीं।

मदीने में पहला ख़ुतबा

अल-हम्दु लिल्लाहि अह्-मदुहू व अस्तईनुहू व अस्तग़फ़िरुहू व अस्तह्दीहि व ऊमिनु बिही व ला अक्फ़ुरुहू, व उआदी मँय्यकफ़ुरुहू। व अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु वह-दहू ला शरी-क लहू व अश्हदु अन्-न मुहम्म-दन अब्दुहू व रसूलुहू। अर-स-लहू बिलहुदा वन्नूरि वल-मौइज़ति अला फ़त-रतिम मि-नर्रुसुलि व क़िल्लतिम मि-नल इल्मि व ज़ला-लतिम मि-नन्नासि वनक़िताइम मि-नज़्ज़मानि व दुनुव्विम मि-नस्सा-अति व क़ुर्बिम मि-नल अ-जल। व मँय्-युतिइल्ला-ह व रसू-लहू फ़-क़द र-श-द व मँय्यअसिहिमा फ़-क़द ग़वा व फ़र्र-त व ज़ल्-ल ज़ला-लम बईदा। ऊसीकुम बि-तक़्वल्लाहि फ़इन्नहू ख़ैरु-मा औसा बिहिल मुसलिमुल मुसलि-म अँय्यहुज़्-ज़हू अ-लल आख़ि-रति व अँय्यअ्-मु-रहू बि-तक़्वल्लाहि फ़ह-ज़रू मा हज़्ज़-रकुमुल्लाहु मिन नफ़सिही व ला अफ़-ज़-ल मिन ज़ालि-क नसी-ह-तँव व ला अफ़-ज़-ल मिन ज़ालि-क ज़िक्-रँव व इन्-न तक़्वल्लाहि लि-मन अमि-ल बिही अला व-जलिँव व मख़ा-फ़तिम मिर्-रब्बिहि औ-नु सिदक़िन अला मा तब्ग़ू-न मिन अमरिल आख़ि-रति व मँय्युसलिहिल्लज़ी बै-नहू व बै-नल्लाहि मिन अमरिहि फ़िस्सिर्रि वल अलानि-यति ला यन्वी बिज़ालि-क इल्ला वज-हल्लाहि यकुल्लहु ज़िक-रन फ़ी ‘आजिलि अमरिही व ज़ुख़-रन फ़ी मा बअ-दल मौति ही-न यफ़्तक़िरुल मर-उ इला मा क़द्द-म व मा का-न सिवा ज़ालि-क य-वद्दु लव् अन्-न बै-नहा व बै-नहू अ-म-दम बईदँव व यु-हज़्ज़िरुकुमुल्लाहु नफ़्सहू वल्लाहु रऊफ़ुम बिल इबादि, वल्लज़ी स-द-क़ क़ौ-लहू, व अन्-ज-ज़ वअ-दहू ला ख़ुल-फ़ लिज़ालि-क फ़इन्नहू यक़ूलु अज़्-ज़ व जल्-ल मा यु-बद्दलुल क़ौलु ल-दय्-य व मा अना बि-ज़ल्लामिल लिल अबीदि, फ़त्तक़ुल्ला-ह फ़ी ‘आजिलि अमरिकुम व आजिलि-ही फ़िस्सिर्रि वल अलानि-यति फ़-इन्नहू मँय्यत्तक़िल्ला-ह युकफ़्फ़िर अन्हु सय्यिआतिही व युअज़िम लहू अजरा। व मँय्यत्तक़िल्ला-ह फ़-क़द फ़ा-ज़ फ़ौ-ज़न अज़ीमा। व इन्-न तक़्वल्लाहि युवक़्क़ी मक़्तहू व युवक़्क़ी उक़ू-ब-तहू व युवक़्क़ी सुख़्तहू, व इन्-न तक़्वल्लाहि यु-बय्यिज़ुल वुजू-ह, व युर्-ज़िर् रब-ब व यर-फ़उद्-द-र-जह।

ख़ुज़ू बि-हज़्ज़िकुम व ला तु-फ़र्रितू फ़ी जम्बिल्लाहि व क़द अल्ल-मकुमुल्लाहु किता-बहू व न-ह-ज लकुम सबी-लहू लि-यअ-ल-मल्लज़ी-न स-दक़ू व यअ-ल-मलकाज़िबीन, फ़-अहसिनू कमा अह-स-नल्लाहु इलैकुम व आदू अअ-दा-अह, व जाहिदू फ़िल्लाहि हक़्-क़ जिहादिही, हु-वज-तबाकुम व सम्माकुमुल मुसलिमी-न लि-यहलि-क मन ह-ल-क अम्-बय्यि-नतिँव व यह्या मन् हय्-य अम-बय्यि-नतिन वला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाह।

फ़-अक्सिरू ज़िक्-रल्लाहि वअ-मलू लिमा बअ-दल यौमि फ़-इन्नहू मँय्युस्लिहु मा बै-नहू व बै-नल्लाहि यक्फ़िहिल्लाहु मा बै-नहू व बै-नन्नास।

ज़ालि-क बि-अन्नल्ला-ह यक़्ज़ी अ-लन्नासि वला यक़ज़ू-न अलैहि व यमलिकु मि-नन्नासि व ला यमलिकू-न मिन्हु, अल्लाहु अक्बरु व ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाहिल अज़ीम।

(तबरी, भाग- 12, पृ० 255)

“शुक्र व तारीफ़ अल्लाह के लिए, मैं उसका शुक्र अदा करता हूँ, उससे मदद चाहता हूँ, उससे मग़फ़िरत तलब करता हूँ और उससे हिदायत चाहता हूँ और उसपर ईमान लाता हूँ और उसके साथ कुफ़्र नहीं करता और उसको अपना दुश्मन समझता हूँ जो उससे कुफ़्र करता है और मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, वह यकता है, उसका कोई शरीक नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद ख़ुदा के बन्दे और उसके रसूल हैं जिनको ख़ुदा ने हिदायत, नूर और नसीहत देकर ऐसे दौर में रसूल बनाया जबकि लम्बी मुद्दत से रसूलों के आने का सिलसिला बन्द था। सच्चे ज्ञान की रौशनी हल्की पड़ चुकी थी, गुमराही का दौर-दौरा था, ज़िन्दगी का निज़ाम (व्यवस्था) बिगड़ चुका था, क़ियामत सिरों पर आ गई थी और हर आदमी की मौत उसके सिर पर मंडरा रही थी। अतः जिसने (रसूल को मानकर) अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (पैरवी) की, उसने हिदायत को पा लिया और जिसने (रिसालत का इनकार करके) ख़ुदा और उसके रसूल की नाफ़रमानी की, वह गुमराह हुआ और कोताह अंदेशी में घिर गया और हक़ के रास्ते से भटककर गुमराही में दूर जा पड़ा।

मैं तुम्हें वसीयत करता हूँ कि ख़ुदा से डरते रहो, एक मुसलमान को जो बेहतरीन नसीहत कर सकता है वह यही है कि वह उसे आख़िरत का भंडार जुटाने पर उभारे और ख़ुदा से डरते रहने को कहे। अतः अल्लाह से डरो जैसा कि उसने अपनी ज़ात से डरते रहने का हुक्म दिया है, उससे बेहतर न कोई और वसीयत है और न उससे बेहतर कोई याद-देहानी हो सकी है।

और सच तो यह है कि ख़ुदा का तक़्वा बन्दे के लिए, जो ख़ुदा से डरते-काँपते ज़िन्दगी गुज़ारे, आख़िरत के बेहतर अंजाम का सच्चा मददगार है, जिसकी तुम ख़ाहिश करते हो और जो आदमी सच्ची नीयत के साथ सिर्फ़ अल्लाह की रिज़ा के लिए ख़ुदा से अपने मामले को खुले-छिपे हर हाल में ठीक कर ले, तो उसका तुरन्त बदला दुनिया में यह है कि वह नेक नाम होगा और मौत के बाद की उस घड़ी में वह मालामाल होगा जबकि हर आदमी अपने उन नेक कामों का बेहद मुहताज होगा जो उसने उस वक़्त के लिए किए होंगे और उनके सिवा जो बुरे काम होंगे, उनके बारे में वह तमन्ना करेगा कि काश! ये काम मुझसे बहुत दूर होते और ख़ुदा तुमको अपनी ज़ात से डराता है और ख़ुदा अपने बन्दों पर इंतिहाई मेहरबान है।

क़सम है उस ज़ात की जिसकी बात सच्ची है और वादा वफ़ा होकर रहता है कि यह बात होकर रहेगी, क्योंकि ख़ुद वह बुज़ुर्ग व बरतर फ़रमाता है, "मेरे हुज़ूर बात बदली नहीं जाती और मैं अपने बन्दों पर ज़रा भी ज़ुल्म करनेवाला नहीं हूँ।" अतः ख़ुदा से डरते रहो दुनिया और आख़िरत के सारे खुले और छिपे मामलों में, सच तो यह है कि जो ख़ुदा के ग़ज़ब से डरता है ख़ुदा उसके गुनाहों को उससे झाड़ देता है और उसके बदले को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाता है और जो उससे डरता रहा, उसने बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की और अच्छी तरह जान लो कि ख़ुदा का डर बन्दे को उसके ग़ुस्से से दूर रखता है; उसके अज़ाब से बचाकर रखता है और उसकी नाराज़गी से बचाता है और इस सच्चाई को भी अच्छी तरह समझ लो कि ख़ुदा का तक़्वा चेहरों को रौशन और रौनक़दार बनाता है, मालिक को अपने बन्दे से ख़ुश रखता है और बन्दे के मरतबे और बुलन्द करता है।

देखो, अपने-अपने नसीब की नेकियाँ समेट लो और ख़ुदा की जनाब में हरगिज़ कोताही न करो। जबकि उसने तुम्हें अपनी किताब का ज्ञान देकर अपना सीधा रास्ता तुम पर खोल दिया है ताकि वह जान ले उन लोगों को जो अपने ईमान के दावे में सच्चे हैं और उनको जो झूठे हैं। अतः तुम भी उन लोगों के साथ बेहतर व्यवहार करो, जैसा कि उसने तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार किया है और उसके दुश्मनों को अपना दुश्मन समझो और उसकी राह में ऐसा जिहाद करो कि जिहाद का हक़ अदा हो जाए। उसने तुम्हें अपने दीन के लिए चुन लिया है और तुम्हारा नाम 'मुस्लिम' रखा है, ताकि जिसे हलाक होना है वह रौशन दलील के साथ हलाक हो और जिसे ज़िन्दा रहना है, वह रौशन दलील के साथ ज़िन्दा रहे और ताक़त व क़ुव्वत का स्रोत ख़ुदा की ज़ात है।

अतः ख़ुदा का ज़िक्र ज़्यादा से ज़्यादा करो और आज के बाद आनेवाले कल के लिए अमल करते रहो, क्योंकि जो बन्दा अपने और अपने ख़ुदा के दरमियान मामले को सँवार लेता है, ख़ुदा उसके लिए इन तमाम मामलों में काफ़ी हो जाता है जो उसके और बन्दों के बीच होते हैं, इसलिए कि ख़ुदा ही बन्दों के फ़ैसले फ़रमाता है, बन्दे उसका फ़ैसला नहीं करते। वह इनसानों की हर चीज़ का मालिक है और इनसान के क़ब्ज़े में उसकी कोई चीज़ नहीं। वह सबसे बड़ा है और क़ुव्वत व ताक़त सिर्फ़ उसी के पास है।"

क़ुरआन मजीद से लगाव की हिदायत

इन्नल हम्-द लिल्लाहि अह-मदुहू व अस्तईनुहू व नऊज़ु बिल्लाहि मिन शुरूरि अनफ़ुसिना व मिन सय्यिआति अअ्-मालिना मँय्यहदिहिल्लाहु फ़ला मुज़िल्-ल लहू व मँय्युज़-लिल्हु फ़ला हादि-य लहू व अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु वह्दहू ला शरी-क लह।

इन्-न अह्स-नल हदीसि किताबुल्लाहि क़द अफ़-ल-ह मन ज़य्य-नहुल्लाहु फ़ी क़ल्बिही व अद-ख़-लहू फ़िल इस्लामि बअ-दल कुफ़रि, वख़्ता-रहू अला मा सिवाहु मिन अहादीसिन्नासि। इन्नहू अस्दक़ुल हदीसि व अब्लग़ुह। अहिब्बू मन अ-हब्बल्ला-ह व अहिब्बुल्लाह मिन कुल्लि क़ुलूबिकुम व ला त-मल्लू कला-मल्लाहि व ज़िक-रहू, व ला तक़्सू अलैहि क़ुलू-बकुम।

उअ-बुदुल्ला-ह व ला तुशरिकू बिही शै-अन, इत्तक़ुल्ला-ह हक़्-क़ तुक़ातिही व सद्दिक़ू सालि-ह मा तअ-मलू-न बि-अफ़वाहिकुम व तहाब्बू बिरूहिल्लाहि बै-नकुम। वस्सलामु अलैकुम व रह-मतुल्लाह। (एजाज़ुल क़ुरआन)

"बेशक शुक्र व तारीफ़ अल्लाह ही के लिए है! मैं उसकी हम्द व तारीफ़ करता उससे मदद चाहता हूँ और हम उसकी माफ़ी के दामन में पनाह चाहते हैं, नफ़्स की शरारतों से और बद-आमालियों के बदले से। जिसको ख़ुदा हिदायत दे (और वह उसी को हिदायत देता है जो वाक़ई हिदायत की तलब रखता हो) तो उसको कोई गुमराह नहीं कर सकता और जिसको ख़ुदा सीधे रास्ते से भटका दे (और वह उसी को भटकाता है जो सीधे रास्ते की तलब न रखता हो) तो उसको कोई हिदायत नहीं दे सकता।

मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, वह यक्ता है, उसका कोई शरीक नहीं।

सच तो यह है कि सबसे बेहतर कलाम ख़ुदा की किताब है। वह आदमी कामयाब हो गया जिसके दिल में अल्लाह की किताब की रौनक़ है और जिसको कुफ़्र के बाद अल्लाह ने इस्लाम की दौलत दी। जिसने सारे इनसानी कलामों को छोड़कर ख़ुदा की किताब को अपने लिए चुना। बेशक ख़ुदा का कलाम पूरे का पूरा सच्चाई है, इनतिहाई असरदार है, जो उससे लगाव रखे, तुम भी उससे मुहब्बत रखो और अपने दिलों की सारी तवज्जोह के साथ ख़ुदा से सच्ची मुहब्बत करो और उसके कलाम की तिलावत और उसकी याद से कभी भी न उकताओ, और न कभी तुम्हारे दिल अल्लाह के कलाम की तरफ़ से बेनियाज़ और सख़्त हों। अतः ख़ुदा ही की बन्दगी करो, किसी को उसके साथ ज़रा भी शरीक न बनाओ और उससे डरते रहो, जैसा कि डरने का हक़ है और अपने नेक कामों की तसदीक़ ज़बान से भी करते रहो (यानी ज़बान से वही कहो जो तुम्हारी शान के मुताबिक़ हो) और ख़ुदा की रहमत और दीन की बुनियाद पर आपस में मुहब्बत रखो।" वस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह!

दूसरा ख़ुतबा

अल-हम्दु लिल्लाहि हम्दन कसीरँव वस्सलातु वस्सलामु अला रसूलिही अर-स-लहुल्लाहु शाहिदँव व नज़ीरँव व दाइ-यन इलल्लाहि बिइज़्निहि व सिरा-जम मुनीरा, व अला आलिही व अस्हाबिही व सल्ल-म तस्ली-मन कसीरन कसीरा।

अम्मा बअद! फ़-या अय्यु-हन्नासु! ऊसीकुम बि-तक़्वल्लाहि फ़-इन्-न तक़्वल्लाहि मिलाकुल हस-नात, व अलैकुम बित्ता-अति फ़-इन्नहू मँय्युतिइल्ला-ह व रसू-लहू फ़-क़द फ़ा-ज़ फ़ौ-ज़न अज़ीमा, व क़ालल्लाहु तआला फ़ी किताबिहिल मजीद, इन्नल्ला-ह व मलाइ-क-तहू यु-सल्लू-न अलन्नबिय्यि या अय्यु-हल्लज़ी-न आमनू सल्लू अलैहि व सल्लिमू तस्लीमा।

अल्लाहुम्-म सल्लि अला सय्यिदिना व मौलाना मुहम्मदिँव व अला आलिही व अस्हाबिहिल्लज़ी-नत्त-बऊहु फ़ी सा-अतिल ‘उस-रह। अल्लाहुम्-म अम्तिर श-आबी-ब रिज़्वानि-क अ-लस्साबिक़ी-नल अव्वली-न मि-नल मुहाजिरी-न वल अनसारि ख़ुसू-सन अला अफ़्ज़लिल ब-शरि बअ-दल अम्बियाइ बित्तहक़ीक़ि अमीरिल मुअ्मिनी-न सय्यिदिना अबी बक्रिनिस्-सिद्दीक़ि रज़ियल्लाहु तआला अन्हु व अला अमीरिल मुअ्मिनी-न सय्यिदिना उ-म-रल फ़ारूक़ि रज़ियल्लाहु तआला अन्हु व अला अमीरिल मुअ्मिनी-न सय्यिदिना उसमा-नब्नि अफ़्फ़ा-न रज़ियल्लाहु तआला अन्हु व अला अमीरिल मुअ्मिनी-न सय्यिदिना अलिय्यिब्नि अबी तालिबिन कर्र-मल्लाहु वज्हहू व अला व-लदैहिस्-सईदैनि सय्यिदा शबाबि अह्लिल जन्नति अल-ह-सनि वल हुसैनि रज़ियल्लाहु तआला अन्हुमा व अला उम्मिहिमा सय्यि-दति निसाइ अह्लिल जन्नति फ़ाति-म-तज़्-ज़हराइ रज़ियल्लाहु तआला अन्हा व अला साइरिस्सहा-बति वत्ताबिई-न रिज़वानुल्लाहि तआला अलैहिम अजमईन।

अल्लाहुम्मन्सुर मन न-स-र दी-न मुहम्मदिन सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल-म वज-अलना मिन्हुम, वख़्ज़ुल मन ख-ज़-ल दी-न मुहम्मदिन सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल-म व ला तज-अलना मिन्हुम इबादल्लाहि! रहि-मकुमुल्लाहु इन्नल्ला-ह यअ-मुरु बिल अद्लि वल इहसानि व ईताइ ज़िल क़ुर्बा व यन्हा अनिल फ़ह्शाइ वल मुन-करि वल बग़्यि यइज़ुकुम ल-अल्लकुम त-ज़क्करू-न उज़्क़ुरुल्ला-ह यज़्क़ुरकुम वद्ऊहु यस-तजिब लकुम व ल-ज़िकरुल्लाहि तआला अअ-ला व औला व अ-अज़्ज़ु व अ-जल्लु व अ-तम्मु व अ-हम्मु व अअ-ज़मु व अकबर।

सारी तारीफ़ें और शुक्र अल्लाह के लिए है और बहुत-बहुत दरूद व सलाम हो उसके पैग़म्बर पर, जिन्हें अल्लाह ने अपने हुक्म से गवाही देनेवाला, डरानेवाला और अल्लाह की ओर बुलानेवाला और रौशन चिराग़ बनाकर भेजा और बहुत-बहुत दरूद व सलाम हो उनकी आल पर और उनके साथियों पर।

ऐ लोगो मैं तुम्हें अल्लाह का तक़वा और परहेज़गारी इख़तियार करने की नसीहत करता हूँ। बेशक, अल्लाह का तक़वा नेकियों का ख़ज़ाना है। तुम्हारे लिए इताअत और फ़रमाबरदारी ज़रूरी है, तो जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा वह बड़ी कामयाबी पाएगा, अल्लाह तआला ने अपनी बड़ाईवाली किताब में फ़रमाया है, 'बेशक! अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर दरूद व सलाम भेजते हैं। ऐ ईमानवालो! तुम भी उनपर दरूद और ख़ूब-ख़ूब सलाम भेजो।'

ऐ अल्लाह! तू अपनी रहमतों की बारिश कर, हमारे सरदार और हमारे मौला हज़रत मुहम्मद पर और उनकी आल और साथियों पर, जिन्होंने तंगी और मुसीबतों की घड़ियों में उनकी पैरवी की, ऐ अल्लाह! अपनी रज़ामन्दी और ख़ुशनूदी की बारिश फ़रमा, उन मुहाजिरों और अनसार पर जो पहले-पहल ईमान लाए। ख़ासतौर से नबियों के बाद सबसे अफ़ज़ल इनसान अमीरुल मोमिनीन, हमारे सरदार हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर और अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर और अमीरुल मोमिनीन हमारे सरदार उसमान बिन अफ़्फ़ान (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर और अमीरुल मोमिनीन हमारे सरदार हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (कर्रमल्लाहु वज्हहु) पर और उनके दोनों नेक, जवान बेटे, जन्नतियों के सरदार हज़रत हसन और हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर और उन दोनों की माँ, जन्नती औरतों की सरदार हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर और सारे सहाबा और ताबईन (रिज़वानुल्लाहि तआला अलैहिम अजमईन) पर।

ऐ अल्लाह! तू मदद फ़रमा उन लोगों की जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लाए हुए दीन की मदद करें और हमें ऐसे लोगों में शामिल कर और नाकाम और रूसवा कर उन लोगों को जिन लोगों ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लाए हुए दीन को रुसवा और नाकाम बनाने की कोशिश की और हमें ऐसे लोगों में शामिल न कर।

ऐ अल्लाह के बन्दो! अल्लाह तुम पर रहम करे। बेशक, अल्लाह हुक्म देता है इनसाफ़ करने का एहसान करने का और रिश्तेदारों को देने का और वह मना करता है गन्दी बातों से, बुराइयों से और ज़ुल्म व ज़्यादती से। वह तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम सबक़ लो। अल्लाह को याद रखो, वह तुम्हें याद रखेगा। उसे पुकारो वह तुम्हारी पुकार का जवाब देगा और (जान रखो कि) अल्लाह तआला का ज़िक्र बुलन्द ऊँची इज़्ज़त और बड़ाईवाली, मुकम्मल, अहम, अज़ीम और बड़ी चीज़ है।

53. निकाह का ख़ुतबा

निकाह की शरई हैसियत समझाने, उसके तक़ाज़ों को ज़ेहन में बिठाने और निकाह के ताल्लुक़ से आनेवाली बड़ी ज़िम्मेदारियों को याद दिलाने के लिए निकाह की महफ़िल में ख़ुतबा पढ़ना भी मसनून है। इस मौक़े पर ख़ुतबे से पूरा-पूरा फ़ायदा उठाने के लिए ज़्यादा मुनासिब यह है कि निकाह पढ़ानेवाले ख़ुतबे का तर्जुमा और थोड़ी-सी व्याख्या भी अपनी भाषा में पेश कर दिया करें ताकि सुननेवाले अच्छी तरह समझ सकें। इस मक़सद को देखते हुए नीचे निकाह के ख़ुतबे के साथ उसका तर्जुमा भी दिया जाता है—

इन्नल हम-द लिल्लाहि न-स-तईनुहू व नस्तग़फ़िरुहू व नऊज़ू बिल्लाहि मिन शुरूरि अनफ़ुसिना मँय्यहदिहिल्लाहु फ़ला मुज़िल्-ल लहू व मँय्युज़लिल्हू फ़ला हादि-य लहू व अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्-न मुहम्म-दन अब्दुहू व रसूलुह।

या अय्यु-हल्लज़ी-न आ-मनुत्तक़ुल्ला-ह हक़्-क़ तुक़ातिही व ला तमूतुन्-न इल्ला व अन्तुम मुसलिमून।

या अय्युहन्नासुत्तक़ू रब्बकुमुल्लज़ी ख़-ल-क़कुम मिन्-नफ़सिँव वाहि-दतिँव व ख़-ल-क़ मिनहा ज़ौ-जहा व बस्-स मिनहुमा रिजा-लन कसी-रँव व निसा-आ, वत्तक़ुल्ला-हल्लज़ी तसा-अलू-न बिही वल अरहा-म इन्नल्ला-ह का-न अलैकुम रक़ीबा। या अय्यु-हल्लज़ी-न आ-मनुत्तक़ुल्ला-ह व क़ूलू क़ौ-लन सदीदँय्युसलिह लकुम अअ-मा-लकुम व यग़फ़िर लकुम ज़ुनू-बकुम व मँय्युतिइल्ला-ह व रसू-लहू फ़-क़द फ़ा-ज़ फ़ौ-ज़न अज़ीमा।

व क़ा-ल रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल-म वल्लाहि इन्नी ल-अख़शाकुम लिल्लाहि व अतक़ाकुम लहू वलाकिन्नी असूमु व उफ़तिरु व उ-सल्ली व अरक़ुदु व अ-त-ज़व्वजुन्निसा-अ फ़-मर्-रग़ि-ब अन् सुन्नती फ़लै-स मिन्नी। (बुख़ारी)

“शुक्र व तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है। हम उसी से मदद चाहते हैं और उसी से अपने गुनाहों की माफ़ी चाहते हैं और हम अपने नफ़्स की शरारतों और बुराइयों के मुक़ाबले में अपने आपको अल्लाह की पनाह में देते हैं। (सच तो यह है कि) जिसको ख़ुदा सीधी राह चलाए (और वह उसी को सीधी राह चलाता है जो चलने का वाक़ई इरादा रखता हो) तो उसको कोई भटका नहीं सकता और जिसको ख़ुदा गुमराह करता है (और वह उसी को गुमराह करता है जो गुमराह होना चाहता है) तो उसको कोई भी सीधी राह पर नहीं ला सकता और मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं।

ऐ ईमानवालो! ठीक-ठीक अल्लाह का तक़वा अपनाओ और मरते दम तक ख़ुदा की वफ़ादारी और हुक्म-बरदारी पर क़ायम रहो।

ऐ लोगो! अपने रब के ग़ज़ब से डरो जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा पैदा फ़रमाया और उन दोनों के ज़रिए बहुत से मर्द और औरतें फैलाए, उस पालनेवाले अल्लाह की नाराज़ी से बचते रहना जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो और रिश्तेदारों के हक़ों का पास व लिहाज़ रखो। यक़ीन जानों, ख़ुदा तुम्हारी निगरानी कर रहा है।

ऐ ईमानवालो! अल्लाह से डरते रहो और जँची तुली मज़बूत बात ज़बान से निकालो। अल्लाह तुम्हारे अमल की इसलाह फ़रमाएगा और गुनाहों पर माफ़ी का परदा डाल देगा और जो लोग अल्लाह और उसके रसूल की इताअत और फ़रमाँबरदारी करेंगे, वे बड़ी कामयाबी से सरफ़राज़ होंगे।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया—

“ख़ुदा की क़सम! मैं तुम सबमें ज़्यादा ख़ुदा से डरनेवाला हूँ। तुम सबमें ज़्यादा उसकी नाराज़ी से बचनेवाला हूँ, लेकिन मेरा हाल यह है कि मैं कभी नफ़्ली रोज़े रखता कभी बग़ैर रोज़े के रहता हूँ, रातों को नमाज़ भी पढ़ता हूँ और सोता भी हूँ और मैं औरतों से निकाह भी करता हूँ। अत: जो मेरी इस सुन्नत से मुँह फेरे, उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं।"

54. इसतिख़ारा

ज़िन्दगी के अहम मामलों, जैसे—सफ़र, निकाह और तिजारत के मामले वग़ैरह में इस्तिख़ारा कर लिया कीजिए।

इस्तिख़ारे का मतलब है 'ख़ैर और भलाई तलब करना'। जिन अहम और जायज़ कामों में आप पर ख़ैर का पहलू खुल न पाए, उनमें इस्तिख़ारे का ज़रूर एहतिमाम कीजिए और फिर जिस तरह दिल का झुकाव महसूस हो, उसको ख़ुदा का फ़ैसला समझकर अपना लीजिए।

इस्तिख़ारे का तरीक़ा यह है कि जब भी कोई ग़ैर मामूली काम सामने हो तो मकरूह और हराम वक़्तों के अलावा जब भी चाहें दो रकअत नफ़्ल अदा कीजिए और फिर इस्तिख़ारे की दुआ पढ़िए।

हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़ुदा से इस्तिख़ारा करना आदम की औलाद की सआदत है और ख़ुदा के फ़ैसले पर राज़ी हो जाना भी आदम की औलाद की सआदत है और आदम की औलाद की बदबख़्ती यह है कि वह ख़ुदा से इस्तिख़ारा न करे और ख़ुदा के फ़ैसले पर नाख़ुश हो।" (मुस्नद अहमद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—

“इस्तिख़ारा करनेवाला कभी नामुराद नहीं होता और मशविरा करनेवाला कभी शरमिंदा नहीं होता और किफ़ायत से काम लेनेवाला कभी किसी का मुहताज नहीं होता।" (तबरानी)

हज़रत जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जिस तरह हमें क़ुरआन पढ़ाया करते थे उसी तरह हर काम में इस्तिख़ारा करने की भी तालीम देते थे। फ़रमाते, “जब तुममें से कोई किसी अहम मामले में फ़िक्रमंद हो तो दो रक्अत नफ़्ल नमाज़ पढ़े और फिर यह दुआ पढ़े— (बुख़ारी)

अल्लाहुम्-म इन्नी अस्तख़ीरु-क बिइल्मि-क व अस्तक़्दिरु-क बिक़ुद-रति-क व अस्-अलु-क मिन फ़ज़लि-कल अज़ीमि फ़इन्न-क तक़दिरु व ला अक़दिरु व तअ-लमु व ला अअ-लमु व अन्-त अल्लामुल ग़ुयूब।

अल्लाहुम्-म इन कुन-त तअ-लमु अन्-न हा-ज़ल अम-र [यहाँ 'हाज़ल अम-र' के बजाए अपनी हाजत का नाम लेकर उसे बयान करें या 'हाज़ल अम-र' कहते वक़्त अपनी हाजत का तसव्वुर करें।] ख़ैरुल्ली फ़ी दीनी व मई-शती व आक़िबति अमरी फ़क़दिरहु ली व यस्सिरहु ली सुम्-म बारिक ली फ़ीहि व इन कुन्-त तअ-लमु अन्-न हाजल अम-र शर्रुल्ली फ़ी दीनी व मईशती व आक़िबति अमरी फ़सरिफ़्हु अन्नी वसरिफ़्नी अन्हु वक़्दुर लि-यल ख़ै-र हैसु का-न सुम-म अर्ज़िनी बिही।

"ऐ अल्लाह! मैं तुझसे तेरे इल्म के वास्ते से ख़ैर की तलब करता हूँ और तेरी क़ुदरत के ज़रिए तुझसे तेरी बड़ी मेहरबानी का सवाल करता हूँ, इसलिए कि तू क़ुदरतवाला है और मुझे ज़रा क़ुदरत नहीं। तू इल्मवाला है और मुझे इल्म नहीं और तू ग़ैब की सारी बातों को ख़ूब जानता है।

ऐ अल्लाह! अगर तेरे इल्म में यह काम मेरे लिए बेहतर है, मेरे दीन व दुनिया के लिहाज़ से और अंजाम के लिहाज़ से, तो मेरे लिए इसे मुक़द्दर फ़रमा और मेरे लिए इसको आसान कर और मेरे लिए इसको मुबारक बना दे और अगर तेरे इल्म में यह काम मेरे लिए बुरा है, मेरे दीन और दुनिया के लिहाज़ से और अंजाम के लिहाज़ से, तो इस काम को मुझ से दूर रख और मुझे इससे बचाए रख और मेरे लिए ख़ैर और भलाई मुक़द्दर फ़रमा जहाँ कहीं भी हो, और फिर मुझे उसपर राज़ी और यकसू भी फ़रमा दे।"

55. अस्मा-ए-हुसना (अच्छे नाम)

नफ़्स को पाक करने और मन को सुकून पहुँचाने का वह ज़रिया जो भरोसेमंद और महफ़ूज़ है, यह है कि आप अल्लाह के ज़िक्र से अपनी ज़बान तर रखें, उसके गुणों को बार-बार ताज़ा करें, इन गुणों के तक़ाज़ों पर ग़ौर करें, ईमान और सूझ-बूझ के साथ इन गुणों को दिल व दिमाग़ पर छाए रखने की आदत डालें। क़ुरआन का इरशाद है—

"ईमानवालो! अल्लाह का ज़िक्र ज़्यादा से ज़्यादा करते रहो और सुबह व शाम उसकी तस्बीह (गुण-गान) में लगे रहो।” (क़ुरआन, 33:42)

सूरा आराफ़ में है—

“और अल्लाह के अच्छे-अच्छे नाम हैं, अत: इन अच्छे नामों से उसको पुकारते रहो।” 

(क़ुरआन, 7:180)

इन नामों की तफ़सील और इनके फैले तक़ाज़े क़ुरआन में भी साफ़ तौर पर बयान किए गए हैं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी इन गुणों की तादाद, तफ़सील और उनको हिफ़ाज़त से रखने का बड़ा बदला बताते हुए उनको बार-बार पढ़ने पर उभारा है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है—

"ख़ुदा के निन्यानवे (एक कम पूरे सौ) नाम हैं, जो आदमी इन्हें याद कर लेगा, जन्नत में दाख़िल होगा।" (बुख़ारी)

अल्लाह के गुणों को याद कर लेने का मतलब यह है कि आप उनको समझें, उनके तक़ाज़ों पर अमल करें और उनके मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी को ढालने की कोशिश करें। इसका सही तरीक़ा यह है कि आप ज़ौक़ व शौक़ के साथ तिलावत कीजिए, क़ुरआन पाक को पढ़ने की आदत डालिए और पाबन्दी के साथ उसमें सोच-विचार को अपने ऊपर ज़रूरी कर लीजिए। फिर उन भरोसे की हदीसों को तवज्जोह के साथ दिल लगाकर पढ़िए जिनमें इन गुणों का मतलब और तक़ाज़े ज़ेहन में बिठाए गए हैं। साथ ही उन मस्नून ज़िक्रों और दुआओं को भी तबीअत की हाज़िरी और यकसूई के साथ पढ़ने की पाबन्दी कीजिए जो आमतौर से अल्लाह के इन गुणों की बुनियाद पर होती हैं। क़ुरआन पर नज़र रखनेवाले उलमा ने क़ुरआन ही से इन निन्यानवे भले नामों को जमा किया है—

1. अल्लाह- यह दुनिया के पैदा करनेवाले की ज़ात का नाम है जो तमाम ऊँचे गुणों और ख़ैर व बरकत का स्रोत है। यह नाम उसके सिवा न कभी किसी के लिए बोला गया है और न बोलना सही है। अल्लाह ही आपकी मुहब्बतों का हक़ीक़ी मरकज़ है, वही आपकी इबादत और क़ुरबानी का अकेला हक़दार है और वही तमाम ख़तरों से हिफ़ाज़त की एक ही पनाहगाह है। अतः उसी की मुहब्बत से दिल को आबाद रखिए। उसी की ख़ुलूस के साथ इबादत कीजिए और उसी पर भरोसा कीजिए।

“और ईमान रखनेवाले मोमिन अल्लाह से ज़बरदस्त मुहब्बत रखते हैं।" (क़ुरआन, 2:165)

"ऐ नबी! यह किताब हमने आपकी ओर हक़ के साथ उतारी है। अतः अल्लाह ही की इबादत कीजिए इताअत को उसके लिए ख़ालिस करते हुए, अच्छी तरह समझ लीजिए कि इताअत और बन्दगी सिर्फ़ अल्लाह ही का हक़ है।" (क़ुरआन, 39:2)

"कह दीजिए कि मुझे तो बस यही हुक्म मिला है कि में अल्लाह ही की इबादत करूँ और किसी को भी उसका शरीक न बनाऊँ।” (13:36)

"और भरोसा करनेवाले अल्लाह ही पर भरोसा करते हैं।" (14:12)

2. अर्रहमान- वह ज़ात जिसकी रहमत में इंतिहाई जोश व ख़रोश है और बहुत ज़्यादा रहम करनेवाली है, जिसने अपनी रहमत से इनसान को बहुत ज़्यादा नेमतों से नवाज़ा है।

"रहमान ने यह क़ुरआन सिखाया, इनसान को पैदा करके बोलने की ताक़त दी।"(क़ुरआन, 55:1- 4)

ख़ुदा की रहमानियत सबसे ज़्यादा इस बात से ज़ाहिर हो रही है कि उसने इनसान को क़ुरआन जैसी बड़ी नेमत बख़्शी और फिर इनसान को बोलने की ताक़त देकर दूसरे जीवों में नुमायाँ कर दिया।

3. अर्रहीम- वह ज़ात जिसकी रहमत लगातर हो रही है, जिसकी हमेशा रहनेवाली रहमत का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होता, दुनिया में भी लगातार उसकी रहमत के साए ही में इनसान पल-बढ़ रहा है, तरक़्क़ी कर रहा है, नेकियों के रास्ते पर बढ़ रहा है, अमल की मोहलत पा रहा है और आख़िरत में भी ईमानवाले उसकी इसी ख़ूबी की बरकत से जन्नत जैसी आरामगाह में आराम व सुकून की ज़िन्दगी पाएंगे।

“और अगर तुम ख़ुदा की नेमतों का हिसाब लगाना चाहो तो हिसाब नहीं लगा सकते, यानी ख़ुदा की अपार और लगातार मिलनेवाली नेमतों की गिनती मुमकिन नहीं। इनसान ज़िन्दगी के लम्हे-लम्हे में ख़ुदा की रहमत व तवज्जोह का मुहताज है और उसकी रहमतों की बारिश बराबर हो रही है।" (क़ुरआन, 16:18)

"वही है जो तुम पर रहमत फ़रमा रहा है और उसके फ़रिश्ते तुम्हारे लिए रहमत की दुआ करते हैं, ताकि वे तुम्हें अंधेरों में से निकालकर रौशनी में लाएँ। वह ईमानवालों पर बहुत रहम फ़रमानेवाला है, जिस दिन वे उससे मुलाक़ात करेंगे तो उनका स्वागत सलाम से होगा और उनके लिए ख़ुदा ने इज़्ज़त का बदला मुहैया कर रखा है।" (क़ुरआन, 33:43)

4. अल-मलिक- दुनिया का हक़ीकी बादशाह जिसकी निगरानी दोनों दुनिया में है।

"अतः बाला व बरतर है अल्लाह, हकीक़ी बादशाह।" (क़ुरआन, 20:114)

5. अल-क़ुद्दूस- तमाम ऐबों और ग़लतियों से सरासर पाक, इसलिए उसी का भेजा हुआ क़ानून हर ग़लती से महफ़ूज़ है।

6. अस्सलाम- तमाम कमज़ोरियों और ख़राबियों से सलामत और महफ़ूज़ है। 

7. अल-मुअ्मिन- तमाम आफ़तों और अज़ाब से अम्न व अमान में रखनेवाला है।

8. अल-मुहैमिन- दुनिया की निगरानी करनेवाला और ख़ताओं से महफ़ूज़ रखनेवाला।

9. अल-अज़ीज़- इज़्ज़त व इक़तिदार का एक ही स्रोत जिसका इक़तिदार सब पर हावी है।

“इज़्ज़त सारी की सारी अल्लाह के लिए है।” (क़ुरआन, 10:65)

10. अल-जब्बार- ज़बरदस्त ग़लबे और ज़ोरवाला, दुनिया की बिगड़ी बनानेवाला।

11. अल-मुतकब्बिर- अज़मत व किबरियाई (बड़ाई और प्रतिष्ठा) का स्रोत, जिसकी किबरियाई में कोई शरीक नहीं।

"वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, हक़ीक़ी बादशाह, पाक ज़ात, हर कमी से सलामत, अम्न व अमान में रखनेवाला, निगहबान, सब पर ग़ालिब, ज़बरदस्त बड़ाईवाला। पाक व बरतर है अल्लाह उन चीज़ों से जिनको ये लोग उसका शरीक क़रार देते हैं।" (क़ुरआन, 59:23)

12. अल-ख़ालिक़- मुनासिबेहाल ताक़तों और सलाहियतों का मालिक और बेहतरीन वुजूद बख़्शनेवाला।

13. अल-बारी- हर चीज़ को अदम (नास्ति) से वुजूद (अस्तित्व) में लानेवाला, बेमिसाल ईजाद करनेवाला।

14. अल-मुसव्विर- जीवों और दुनिया को शक्ल व सूरत देनेवाला।

"वही है जो (माओं के) रहमों (गर्भाशयों) में जैसी चाहता है तुम्हारी सूरतें बनाता है।" (क़ुरआन, 3:6)

"उसने तुम्हारी शक्लें बनाईं और बेहतरीन शक्लें बनाईं।" (64:3)

"वही अल्लाह है दुनिया का पैदा करनेवाला, वुजूद देनेवाला, सूरतें बनानेवाला और उसी के लिए हैं अच्छे-अच्छे नाम।" (क़ुरआन, 59:24)

15. अल-ग़फ़्फ़ार- बहुत ज़्यादा माफ़ फ़रमानेवाला और बख़्शनेवाला।

"और मैंने कहा कि अपने रब से मग़फ़िरत चाहो, वह बहुत ज़्यादा माफ़ फ़रमानेवाला है।" (क़ुरआन, 71:10)

16. अल-क़ह्हार- अपनी मख़लूक़ (पैदा की हुई चीज़ों) पर ग़लबा और इख़तियार रखनेवाला।

17. अल-वाहिद- अकेला, जिसकी ज़ात और गुणों, जिसकी क़ुदरत और जिसके हक़ों में कोई शरीक नहीं।

"आज किसकी हुकूमत है, अल्लाह की जो एक है और सब पर ग़ालिब है।" (क़ुरआन, 40:16)

18. अत्तव्वाब- बन्दों के हाल पर तवज्जोह फ़रमानेवाला और गुनाहगारों की तौबा क़बूल करनेवाला।

"फिर ख़ुदा ने उनपर तवज्जोह फ़रमाई कि तौबा करें। बेशक अल्लाह ही बहुत ज़्यादा तौबा क़बूल करनेवाला और दया करनेवाला है।" (क़ुरआन, 9:118)

19. अल-वह्हाब- बेग़रज़ बख़शिश और सख़ावत करनेवाला।

"हमें अपने पास से रहमत अता फ़रमा। बेशक तू बड़ा फ़ैयाज़ है।" (क़ुरआन, 3:8)

20. अल-ख़ल्लाक़- हर तरह, हर वक़्त, हर चीज़ को पैदा करनेवाला, पैदा करने के गुण में कामिल।

“क्या वह, जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया, इस पर क़ुदरत नहीं रखता कि इन जैसों को पैदा कर सके। क्यों नहीं, वह बड़ा पैदा करनेवाला और इल्म रखनेवाला है।" (क़ुरआन, 36:81)

21. अल-रज़्ज़ाक़- अपनी मख़लूक़ को ख़ूब ही रोज़ी देनेवाला, ज़रूरत पूरी करनेवाला।

22. अल-मतीन- निहायत मज़बूत व ताक़तवर।

"बेशक अल्लाह ही ख़ूब रोज़ी देनेवाला ज़ोरआवर और मज़बूत व तवाना है।" (क़ुरआन, 51:58)

23. अल-फ़त्ताह- मख़लूक़ के दरमियान सही फ़ैसला करनेवाला, मुशकिल-कुशा।

24. अल-अलीम- बन्दों की हर कथनी-करनी और भाव-विचार का सीधे-सीधे जाननेवाला।

"कहिए, हमारा पालनहार हमको जमा करेगा, फिर हमारे दरमियान ठीक-ठीक फ़ैसला करेगा। बेशक वह बड़ा ही इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करनेवाला और सब कुछ जाननेवाला है।" (क़ुरआन, 34:26)

25. अल-मुहीत- सारी मख़लूक़ों का अहाता करनेवाला कोई चीज़ उसके इल्म व क़ुदरत से बाहर नहीं है।

"और ख़ुदा उनको हर ओर से घेरे हुए है।” (क़ुरआन, 85:20)

26. अल-क़दीर- हर चीज़ पर पूरी-पूरी क़ुदरत और इख़तियार रखनेवाला।

"यह कि ख़ुदा हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है और यह कि ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ का अहाता किए हुए है।" (क़ुरआन, 65:12)

27. अल-हलीम- अज़ाब देने में जल्दी न करनेवाला बन्दों को सँभलने का मौक़ा देनेवाला, बुर्दबार (सहनशील)।

28. अल-ग़फ़ूर- बहुत ज़्यादा माफ़ फ़रमानेवाला और परदापोशी करनेवाला।

29. अल-अफ़ुव्वु- बहुत ज़्यादा माफ़ फ़रमानेवाला।

30. अश-शकूर- मख़लूक़ के नेक और भले कामों की बहुत क़द्र करनेवाला।

"हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ही है जो आसमानों और ज़मीन को टल जाने से रोके हुए है, और अगर वे टल जाएँ तो अल्लाह के बाद कोई दूसरा उन्हें थामनेवाला नहीं है। बेशक ख़ुदा बड़ा ही दरगुज़र करनेवाला और बुर्दबार है।" (क़ुरआन, 35:41)

"नामुमकिन नहीं कि ख़ुदा उनको माफ़ फ़रमा दे, अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दरगुज़र फ़रमानेवाला है।" (क़ुरआन, 4:99)

"और वे कहेंगे कि ख़ुदा का शुक्र है जिसने हमसे ग़म दूर कर दिया। बेशक हमारा रब बहुत ज़्यादा चश्मपोशी करनेवाला और क़द्र फ़रमानेवाला है।" (क़ुरआन, 35:34)

31. अल-अज़ीम- अपनी ज़ात व सिफ़ात (गुणों) में बड़ाई और बुज़ुर्गीवाला।

"तो तुम अपने परवरदिगार बुज़ुर्ग के नाम की तस्बीह करते रहो।" (56:74)

 32. अल-वासिअ्- निहायत वुसअतवाला, बन्दों पर बड़ी फ़राख़ी के साथ एहसान करनेवाला।

“अल्लाह बड़ी वुसअतवाला और जानकार है। जिसको चाहता है हिकमत अता करता है और जिसको हिकमत मिली, उसको सच में बड़ी दौलत मिल गई।" (क़ुरआन, 2:268-269)

33. अल-हकीम- दुनिया के निज़ाम और बन्दों के मामले में बड़ी हिकमत के साथ फ़ैसला करनेवाला।

"बेशक अल्लाह बहुत जाननेवाला और हिकमत के फ़ैसले करनेवाला है, जिसको चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल फ़रमा लेता है और ज़ालिमों के लिए उसने दुख देनेवाला अज़ाब तैयार कर रखा है।" (76:30-31)

 34. अल-हय्यु- ज़िन्दगी का स्रोत, मौत, नींद और ऊँघ से पाक।

"और भरोसा कीजिए उस ज़िन्दा रहनेवाले पर जिसको कभी मौत न आएगी।" (क़ुरआन, 25:58)

35. अल-क़य्यूम- दुनिया के इंतिज़ाम को संभालने और क़ायम रखनेवाला।

"अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, वह ज़िन्दा जावेद, दुनिया के निज़ाम को सँभाले हुए है, न उसको ऊँघ आती है, न नींद।" (क़ुरआन, 2:55)

36. अस्समीअ्- बन्दों की सुननेवाला, बन्दों का पूरी तरह जानकर।

37. अल-बसीर- बन्दों के कामों और मामलों पर निगाह रखनेवाला ताकि उनके दरमियान सही-सही फ़ैसला करे।

"और अल्लाह ठीक-ठीक बेलाग फ़ैसला फ़रमाएगा। रहे वे, जिनको ये ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हैं, वे किसी चीज़ का भी फ़ैसला करनेवाले नहीं। बेशक अल्लाह ही सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।" (क़ुरआन, 40:20)

38. अल-लतीफ़ - निहायत ही बारीकी से देखनेवाला, बारीक से बारीक उपायों को अपनानेवाला।

39. अल-ख़बीर- बन्दों की हर बात की पूरी-पूरी ख़बर रखनेवाला।

“प्यारे बेटे! कोई चीज़ राई के दाने के बराबर भी हो और किसी चट्टान में या आसमानों या ज़मीन में छिपी हुई हो, अल्लाह उसको निकाल लाएगा। बेशक अल्लाह बारीकियों को जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।" (क़ुरआन, 31:16)

40. अल-अलिय्यु- इंतिहाई ऊँचा और बुलन्द मरतबेवाला।

41. अल-कबीर- इंतिहाई बुज़ुर्ग और बड़ाईवाला, जिसकी बड़ाई में कोई शरीक और मुक़ाबलेवाला नहीं है।

42. अल-हक़्क़ु- जिसका वुजूद हक़ है और किसी के इंकार करने से उसके हक़ होने पर कोई असर नहीं पड़ता।

"यह इसलिए कि उसका वुजूद हक़ है और वे सब बातिल हैं, जिन्हें अल्लाह को छोड़कर ये लोग पुकारते हैं और यह कि अल्लाह ही बुलन्द और बड़ाईवाला है।" (क़ुरआन, 31:30

43. अल-मुबीन- हक़ को खोलनेवाला और हक़ को हक़ कर दिखानेवाला।

"और वे जान लेंगे कि अल्लाह ही हक़ है, सच को सच कर दिखानेवाला।" (क़ुरआन, 24:25)

44. अल-मौला- ईमानवालों की हिमायत और मदद करनेवाला, हक़ीक़ी आक़ा, कारसाज़।

45. अन्नसीर- ईमानवालों की मदद और हिमायत करनेवाला।

“और अल्लाह से जुड़ जाओ, वही तुम्हारा हक़ीक़ी आक़ा है, क्या ही बेहतरीन हामी है और क्या ही ख़ूब मददगार।” (क़ुरआन, 22:78)

“यह इसलिए कि जो ईमानवाले हैं उनका आक़ा और कारसाज़ ख़ुदा है और कुफ़्रवालों का कोई हिमायत करनेवाला और कारसाज़ नहीं।" (क़ुरआन, 47:11)

46. अल-करीम- भारी हौसले के साथ बख़शिश और सुलूक करनेवाला।

"ऐ इनसान! तुझको किस चीज़ ने तेरे अपने करीम रब के मामले में धोखे में डाल रखा है, वह रब, जिसने तुझे पैदा करने का मंसूबा बनाया, फिर तेरी बनावट को ठीक-ठीक किया, अतः तुझे निहायत मौज़ूँ (सन्तुलित) बनाया और जिस शक्ल में चाहा तुझे तरकीब दिया।"

(क़ुरआन, 82:6-8)

47. अल-ग़निय्यु- मख़लूक़ से बेनियाज़।

48. अल-हमीद- अपनी ज़ात में पाकीज़ा ख़ूबियोंवाला, जो किसी की तारीफ़ व सना का मुहताज नहीं।

"जो कोई शुक्र करे उसका शुक्र उसके अपने ही लिए फ़ायदेमंद है और जो कुफ़्र करे तो ख़ुदा बेनियाज़ और आप से आप पाक ख़ूबियोंवाला है।" (क़ुरआन, 31:12)

49. अल-क़विय्यु- बड़ी ताक़तवाला, जिसके सामने किसी का ज़ोर नहीं चलता।

50. अश-शदीद- बड़ी कड़ी पकड़ करनेवाला जिसकी पकड़ से बचना मुमकिन नहीं।

"जिस तरह आले फ़िरऔन और उनसे पहले के लोगों के साथ मामला पेश आया है, उन्होंने ख़ुदा की आयतों को मानने से इंकार किया और अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया। अल्लाह ज़बरदस्त ताक़तवाला और सख़्त सज़ा देनेवाला है।" (क़ुरआन, 8:54)

51. अर-रक़ीब- बन्दों के कामों और मामलों की निगरानी करनेवाला।

"यक़ीन जानो कि ख़ुदा तुम्हारी निगरानी कर रहा है।" (क़ुरआन, 4:1)

52. अल-क़रीब- बन्दों से निहायत नज़दीक रहनेवाला।

53. अल-मुजीब- बन्दों की दुआएँ सुनने और क़बूल करनेवाला।

"और जब मेरे बन्दे मेरे मुताल्लिक़ आप से पूछें तो उन्हें बताइए कि मैं उनसे बहुत क़रीब हूँ, पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है तो मैं उसकी दुआ क़बूल करता हूँ।" (क़ुरआन, 2:186)

"अतः तुम उससे मग़फ़िरत चाहो और उसके हुज़ूर तौबा करो। यक़ीनन मेरा रब क़रीब है और दुआओं को क़बूल करनेवाला है।" (क़ुरआन, 11:61)

54. अल-वकील- बन्दों के काम बनाने की ज़िम्मेदारी लेनेवाला, कारसाज़।

"और उन्होंने कहा, हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वही बेहतरीन कारसाज़ है"।

(क़ुरआन, 3:173)

 55. अल-हसीब- बन्दों से पूछ-गछ करने और हिसाब लेनेवाला।

“बेशक अल्लाह हर चीज़ का हिसाब लेनेवाला है।” (क़ुरआन, 4:86)

 56. अल-जामि'अ- जिस्म के कणों को इकट्ठा करनेवाला और हश्र के दिन बन्दों को जमा करनेवाला।

"ऐ हमारे पालनहार तू इनसानों को उस दिन जमा करेगा जिसके आने में कोई शक नहीं।" (क़ुरआन, 3:9)

57. अल-क़ादिर- हर काम के करने की ताक़त व क़ुदरत रखनेवाला।

"क्या इनसान यह ख़याल करता है कि हम उसकी (कण-कण बिखरी हुई) हड्डियाँ इकट्ठा नहीं करेंगे? ज़रूर करेंगे। हम इसकी क़ुदरत रखते हैं कि उसके पोर-पोर को दुरुस्त कर दें।"

(क़ुरआन, 75:3-4)

58. अल-हफ़ीज़- बन्दों को हर आफ़त और मुसीबत से बचानेवाला।

"बेशक मेरा रब हर चीज़ की हिफ़ाज़त करनेवाला है।" (क़ुरआन, 11:57)

59. अल-मुक़ीत- मख़लूक़ को ठीक-ठीक हिस्सा देने पर पूरी तरह क़ुदरत रखनेवाला, रोज़ी देनेवाला।

“और अल्लाह हर चीज़ को ठीक हिस्सा देने की क़ुदरत रखता है।" (क़ुरआन, 4:85)

60. अल-वदूद- बन्दों से बेपनाह मुहब्बत रखनेवाला।

61. अल-मजीद- बुज़ुर्गी और शर्फ़वाला।

"और वह बहुत ज़्यादा माफ़ करनेवाला, बेपनाह मुहब्बत करनेवाला, अर्शवाला, बुज़ुर्गी और शर्फ़वाला है।" (क़ुरआन, 85:14-15)

62. अश-शहीद- हर जगह हाज़िर व नाज़िर, हर चीज़ पर निगाह रखनेवाला।

"और अल्लाह हर चीज़ पर निगाह रखनेवाला है।” (क़ुरआन, 85:9)

63. अल-वारिस- हर चीज़ का हक़ीक़ी मालिक, जिसकी मिलकियत कभी ख़त्म नहीं होगी।

64. अल-मुहयी- मख़लूक़ को ज़िन्दगी देनेवाला।

"और हम ही ज़िन्दगी और मौत देनेवाले हैं और हम ही असल वारिस और मालिक हैं।" (क़ुरआन, 15:23)

65. अल-वलीयु- ईमानवालों का हामी व सरपरस्त।

66. अल-फ़ातिर- हर चीज़ का बनानेवाला।

“आसमानों और ज़मीन के बनानेवाले! तू ही मेरा सरपरस्त है दुनिया में और आख़िरत में।"

67. अल-मालिक- हर चीज़ का हक़ीक़ी मालिक जिसके सामने सब आजिज़ और बेबस हैं। (क़ुरआन, 12:101)

"बदले के दिन का मालिक।" (क़ुरआन, 1:3)

68. अल-मुक़्तदिर- हर चीज़ पर पूरा-पूरा इक़तिदार रखनेवाला, जो किसी काम में मजबूर नहीं है।

69. अल-मलीक- कामिल इख़तियार रखनेवाला बादशाह।

“मुत्तक़ी लोग बाग़ों और नहरों में होंगे, कामिल इख़तियार रखनेवाले बादशाह के दरबार में।" (क़ुरआन, 54:54-55)

70. अल-अव्वल- वह जो सारी मख़लूक़ों की तख़लीक़ (रचना) से पहले मौजूद था।

71. अल-आख़िर- वह जो सारी मख़लूक़ की फ़ना (ख़त्म होने) के बाद मौजूद रहेगा।

72. अज़्-ज़ाहिर- जिसकी ख़ुदाई हर कण से ज़ाहिर है।

73. अल-बातिन- निगाहों से छिपा हुआ। (क़ुरआन, 57:3)

"वह सबसे पहला, सबसे पिछला, सब पर ज़ाहिर और सबकी निगाहों से छिपा हुआ है।"

74. अल-क़ाहिर- बन्दों पर कामिल ग़लबा और इख़तियार रखनेवाला।

"और वह अपने बन्दों पर कामिल ग़लबा रखता है।" (क़ुरआन, 6:18)

75. अल-काफ़ी- जो बन्दों की हर ज़रूरत के लिए ख़ुद काफ़ी है।

"क्या अल्लाह अपने बन्दों के लिए काफ़ी नहीं है।" (क़ुरआन, 39:36)

76. अश्-शाकिर- बन्दों की कोशिश और अमल की क़द्र करनेवाला।

"और अल्लाह क़द्र करनेवाला और इल्म (ज्ञान) रखनेवाला है।" (क़ुरआन, 4:147)

77. अल-मुस्तआन- वह ज़ात जिससे मदद माँगी जाए।

"और अल्लाह ही से मदद माँगी जा सकती है।" (क़ुरआन, 12:18)

78. अल-बदीअ- बग़ैर किसी नज़ीर के पैदा करनेवाला, बेमिसाल मूजिद।

“आसमानों और ज़मीन का बेमिसाल मूजिद है।" (क़ुरआन, 2:117)

79. अल-ग़ाफ़िर- गुनाहों को माफ़ फ़रमानेवाला।

“गुनाह को माफ़ करने और तौबा क़बूल करनेवाला।” (क़ुरआन, 40:3)

80. अल-हाकिम- अपनी मख़लूक़ पर हुकूमत करनेवाला अकेला फ़रमाँरवा और क़ानूनसाज़।

"फ़रमाँरवाई सिर्फ़ ख़ुदा का हक़ है।" (क़ुरआन, 6:57)

81. अल-ग़ालिब- कामिल इख़तियार और पूरा क़ाबू रखनेवाला।

"और अल्लाह अपने काम पर पूरा क़ाबू रखता है।" (क़ुरआन, 12:21)

82. अल-हकम- बेलाग़ फ़ैसला करनेवाला।

"तो क्या मैं ख़ुदा के सिवा हकम खोजूँ।" (क़ुरआन, 6:114)

83. अल-आलिम- खुले-छिपे को पूरी तरह जाननेवाला।

84. अल-मु-तआल- हर हाल में बुलन्द व बाला रहनेवाला।

"पोशीदा और ज़ाहिर हर चीज़ को जाननेवाला, बुज़ुर्ग और बरतर।" (क़ुरआन, 13:9)

85. अर्-रफ़ीअ- बुलन्द व बरतर दर्जोंवाला।

"बुलन्द दर्जोंवाला, अर्शवाला। (क़ुरआन, 40:15)

86. अल-हाफ़िज़- आफ़तों और हादसों से हिफ़ाज़त करनेवाला।

"अतः अल्लाह ही बेहतरीन हिफ़ाज़त करनेवाला है।" (क़ुरआन, 12:64)

87. अल-मुंतक़िम- अपने और अपने मुख़लिसों के दुशमनों से बदला लेनेवाला।

"फिर जिन लोगों ने जुर्म किया, उनसे हमने बदला लिया और हम पर यह हक़ था कि हम ईमानवालों की मदद करें।" (क़ुरआन, 30:47)

88. अल-क़ाइमु बिल-क़िस्त- अद्ल व इनसाफ़ के साथ तदबीर व इन्तिज़ाम करनेवाला।

89. अल-इलाह- माबूद, जिसके सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं।

"अद्ल के साथ इन्तिज़ाम करनेवाला, अकेला माबूद।" (क़ुरआन, 3:18)

90. अल-हादी- सीधी राह दिखानेवाला, रसूल और किताब भेजनेवाला।

"यक़ीनन अल्लाह ईमानवालों को सीधी राह दिखाता है।" (क़ुरआन, 22:54)

91. अर्-रऊफ़- बन्दों पर इंतिहाई मेहरबानी करनेवाला।

“और ख़ुदा अपने बन्दों पर निहायत ही मेहरबान है।" (क़ुरआन, 3:30)

92. अन्-नूर- दोनों दुनिया को रौशन करनेवाला, रौशनी का स्रोत।

"ख़ुदा आसमानों और ज़मीन का नूर है।" (क़ुरआन, 24:35)

93. अल-अकरम- इज़्ज़त और शर्फ़वाला, बन्दों के साथ बेहतर इज़्ज़त का मामला करनेवाला।

“पढ़िए, और आपका रब बड़ा ही करमवाला है। (क़ुरआन, 96:3)

94. अल-अअला- सबसे बुलन्द और बरतर।

“अपने बुलन्द व बरतर रब के नाम की तसबीह कीजिए।" (क़ुरआन, 87:1)

95. अल-बर्र- अपनी मख़लूक़ के साथ एहसान का सुलूक करनेवाला।

"बेशक वह बड़ा ही एहसान करनेवाला मेहरबान है।" (क़ुरआन, 52:28)

96. अर्-रब- परवरिश करनेवाला, हर तरह के ख़तरों से बचाते हुए और तरक़्क़ी के तमाम साधनों को जुटाते हुए कमाल की मंज़िल तक पहुँचानेवाला, आक़ा, मालिक।

"शुक्र अल्लाह, जहानों के रब के लिए।" (क़ुरआन, 1:1)

97. अल-हफ़िय्यु मख़लूक़ का बहुत ज़्यादा ख़याल रखनेवाला, निहायत मेहरबान।

"बेशक वह मुझ पर निहायत मेहरबान है।" (क़ुरआन, 19:47)

98. अल-अहद- यकता, बेमिसाल, जिसका कोई बराबरी करनेवाला नहीं।

99. अस-समद- बेनियाज़, जो किसी का मुहताज नहीं और सब उसके मुहताज हैं।

“कहिए, वह अल्लाह यकता है, अल्लाह बेनियाज़ है, सब उसके मुहताज हैं।" (क़ुरआन, 112:1-2)

56. मसनून दुआएँ

दिन व रात के अलग-अलग वक़्तों में और मौक़ों पर पढ़ने के लिए क़ुरआन व हदीस में जो दुआएँ आई हैं उनको याद कीजिए, उन्हें बार-बार पढ़िए और उनको ख़ुलूस के साथ, सोच-समझकर और पूरा दिल लगाकर बराबर पढ़ते रहिए, यहाँ तक कि ये दुआएँ और इलतिजाएँ वाक़ई आपके दिल की आरज़ूएँ बन जाएँ। अपने ख़ुदा से माँगना और बराबर माँगते रहना और उन्हीं लफ़्ज़ों में माँगना जो उसने बताए हैं। और वही कुछ माँगना जो उसके प्यारे बन्दे हमेशा माँगते रहे हैं— यही मोमिन की शान है और यही है दोनों दुनिया की सआदत।

यही सोचकर क़ुरआन व हदीस से चुनी हुई दुआएँ इस किताब में जमा कर दी गई हैं, आप उनको याद करके उनसे ज़रूर फ़ायदा उठाएं।

स्रोत

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