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एकेश्वरवाद और न्याय की स्थापना

एकेश्वरवाद और न्याय की स्थापना

एकेश्वरवाद (तौहीद) का अक़ीदा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों में से है। इसका मतलब है एक ऐसी हस्ती को जानना और मानना जिसने तमाम इनसानों और इस दुनिया की तमाम चीज़ों और जानदारों को पैदा किया है और जो इस दुनिया के निज़ाम को चला रही है। और इस मामले (पैदा करने और चलाने) में किसी दूसरी हस्ती को उसके साथ साझी न ठहराना। यह सिर्फ़ एक बेजान अक़ीदा नहीं है, बल्कि इसके मानने या न मानने से इनसानी ज़िन्दगी पर गहरे असरात पड़ते हैं। इस अक़ीदे पर ईमान लाने से इनसानी ज़िन्दगी में व्यवस्था, संतुलन और बैलेंस पैदा होता है और इस पर ईमान न लाने से वह अव्यवस्था (बदनज़्मी), असन्तुलन तथा बिगाड़ का शिकार हो जाती है। यह है वह बुनियादी सोच जिस पर इस किताब में बात की गई है।  संपादक

लेखक : मौलाना मुहम्मद जरजीस करीमी

एम॰ एम॰ आई॰ पब्लिशर्स

https://mmipublishers.net/

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

"अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है।"

भूमिका

एकेश्वरवाद (तौहीद) का अक़ीदा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों में से है। इसका मतलब है एक ऐसी हस्ती को जानना और मानना जिसने तमाम इनसानों और इस दुनिया की तमाम चीज़ों और जानदारों को पैदा किया है और जो इस दुनिया के निज़ाम को चला रही है। और इस मामले (पैदा करने और चलाने) में किसी दूसरी हस्ती को उसके साथ साझी न ठहराना। यह सिर्फ़ एक बेजान अक़ीदा नहीं है, बल्कि इसके मानने या न मानने से इनसानी ज़िन्दगी पर गहरे असरात पड़ते हैं। इस अक़ीदे पर ईमान लाने से इनसानी ज़िन्दगी में व्यवस्था, संतुलन और बैलेंस पैदा होता है और इस पर ईमान न लाने से वह अव्यवस्था (बदनज़्मी), असन्तुलन तथा बिगाड़ का शिकार हो जाती है। यह है वह बुनियादी सोच जिस पर इस किताब में बात की गई है।

इस किताब में चार विषयों पर चर्चा की गई है। आरम्भ में एकेश्वरवाद (तौहीद) को स्पष्ट किया गया है। इसमें बताया गया है कि अल्लाह इस दुनिया को वुजूद में लाया है और उसने इसमें इनसान को इरादा व इख़्तियार की आज़ादी दी है। इसका मक़सद इनसान का इम्तिहान है। यहाँ इनसान एक इम्तिहान देनेवाले की हालत में है। इस दुनिया के बाद अल्लाह तआला एक दूसरी दुनिया क़ायम करेगा और वहाँ इनसानों को इस दुनिया में किए गए कामों के मुताबिक़ इनाम या सज़ा देगा। दूसरे और तीसरे अध्याय में तफ़सील से यह बताया गया है कि तौहीद का यह अक़ीदा किस तरह इनसानी ज़िन्दगी में सन्तुलन पैदा करता है। चुनाँचे दूसरे अध्याय में इनसान के व्यक्तिगत जीवन में सन्तुलन की मिसालें पेश की गई हैं। तीसरे अध्याय में समाजी ज़िन्दगी में इसके और नतीजों पर रौशनी डाली गई है। आख़िरी अध्याय में तौहीद के अक़ीदे से महरूमी तथा अनेकेश्वरवाद (शिर्क) एवं नास्तिकता में पड़े रहने से होनेवाली हानियों और विचारों तथा किरदार और कामों पर पड़नेवाले असरात पर चर्चा की गई है।

इस किताब के लेखक मौलाना मुहम्मद जरजीस करीमी इदारा-ए-तहक़ीक़ो-तस्नीफ़े-इस्लामी अलीगढ़ यू॰ पी॰ के पुराने सदस्य हैं। इदारे (संस्था) की योजना के तहत लिखी गई उनकी किताबों 'जराइम और इस्लाम' और 'मुसलमानों की हक़ीक़ी तस्वीर' को इल्मी हल्क़ों में बहुत पसन्द किया गया है। 'क़ुरआन और मुस्तशरिक़ीन' और 'तफ़हीमाते-क़ुरआन' के शीर्षकों से उनके शोधपरक लेखों के दो संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। देश की प्रतिष्ठित एवं अधिक पढ़ी जानेवाली ज्ञानपरक एवं शोधपरक पुस्तिकाओं में आए दिन उनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। यह किताब भी उन्होंने बहुत पहले तैयार की थी, मगर इसका प्रकाशन जुलाई 2012 ई॰ में हुआ। इस किताब का हिन्दी अनुवाद अब ‘एकेश्वरवाद और न्याय की स्थापना' के नाम से आपके सामने है। आशा है इसे भी लोकप्रियता मिलेगी और इससे बहुत कुछ लाभ उठाया जाएगा।

-मुहम्मद रज़ी-उल-इस्लाम नदवी

सेक्रेटरी तस्नीफ़ी अकैडमी

जमाअत इस्लामी हिन्द

अध्याय-1

एकेश्वरवाद (तौहीद) का अक़ीदा

अल्लाह तआला मौजूद है, लेकिन वह क्या है या कैसे है? इस बात का देख पाना मुमकिन नहीं। इस्लामी अक़ीदों में यह बात बताई गई है कि इस दुनिया में अल्लाह को आँखों से नहीं देखा जा सकता। अल्लाह की हस्ती कैसी है, इसका इल्म केवल अल्लाह ही को है। फिर उसका परिचय कैसे हासिल किया जाए? यह एक अहम सवाल है। पवित्र क़ुरआन में इसका यह तरीक़ा अपनाया गया है कि जहाँ अल्लाह का ज़िक्र आया है, वहीं उसके गुण (सिफ़ात) भी बयान किए गए हैं, जिनसे उसके बारे में एक वाज़ेह तसव्वुर बनता है। मिसाल के तौर पर क़ुरआन की सूरा-112 इख़लास में अल्लाह के एक होने, बेनियाज़ (यानी किसी का मुहताज न होने), किसी का बेटा या किसी का बाप न होने और अपनी ज़ात (हस्ती) में बेमिसाल और ग़ैर-मुशक्कल (निराकार) होने का उल्लेख किया गया है। सूरा-2 बक़रा की आयत-255 में अल्लाह के इलाह (पूज्य) होने, ज़िन्दा-जावेद (शाश्वत) होने, नींद और ऊँघ जैसी कमज़ोरियों से पाक होने, सारी कायनात के मालिक होने, सर्वाधिकारी होने, आलिमे-ग़ैब (परोक्ष-ज्ञानी) तथा आकाश एवं धरती के शासक और उसके निगराँ होने का उल्लेख किया गया है। इसी तरह सूरा-59 हश्र, आयत-22 से 24 में अल्लाह को बन्दगी के लायक़, छिपे और खुले को जाननेवाला दयावान एवं कृपाशील, शासक, पाक, सलामती देनेवाला, निगहबान, सब पर प्रभावी, अपना आदेश बलपूर्वक लागू करनेवाला, बड़ा ही होकर रहनेवाला, शिर्क (किसी की समकक्षता) से पाक, पैदाइश की योजना बनानेवाला और उसको लागू करनेवाला और उसके मुताबिक़ शक्ल देनेवाला, बेहतरीन नामों वाला हर चीज़ से अपना महिमागान करानेवाला, ज़बरदस्त और हिकमतवाला बताया गया है। इनके अलावा क़ुरआन में जगह-जगह दूसरी बहुत सी सिफ़ात और ख़ूबियों का उल्लेख हुआ है। हदीसों में अल्लाह के एक कम, सौ नाम (गुण) गिनाए गए हैं।

अल्लाह तआला की वे तमाम सिफ़ात जो क़ुरआन और हदीस में बयान की गई हैं उनका जाइज़ा लेते हुए अगर अध्ययन किया जाए तो बुनियादी तौर पर निम्नलिखित शीर्षक हासिल होते हैं। इनके तहत अल्लाह तआला के अस्तित्व को कुछ हद तक समझा जा सकता है।                     1. तख़लीक़ (पैदा करना) : जैसे ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला), सानिअ (शक्ल देनेवाला), फ़ातिर (सर्वप्रथम पैदा करनेवाला), बदीअ (आविष्कार करनेवाला) जाइल (बनानेवाला), मुबदी (आरम्भ करनेवाला), मुहिय्य (ज़िन्दा करनेवाला), आदि।

2. रुबूबियत (पालना-पोसना) : जैसे रब (पालनहार) राज़िक़ (रोज़ी देनेवाला), बासित (खुली रोज़ी देनेवाला), नाफ़िअ (लाभ देनेवाला), वारिस (मददगार), मन्नान (एहसान करनेवाला), मुक़ीत (शक्ति देनेवाला), मुग़ीस (फ़रियाद सुननेवाला) आदि।

3. क़ुदरत (सामर्थ्य) : जैसे क़ादिर (सामर्थ्यवान), अज़ीज़ (ताक़तवाला), मुक़्तदिर (सत्ताधारी), जब्बार (बलपूर्वक अपना आदेश मनवाने में सक्षम), क़ह्हार (सज़ा देने में पूरी तरह सक्षम), हाकिम (हुक्म देनेवाला), क़वी (शक्तिशाली), मुबीन (स्पष्ट) आदि।

4. रहमत (दयालुता) : जैसे रहमान (करुणामय), रहीम (दयावान), ग़फ़्फ़ार (बहुत अधिक क्षमा करनेवाला), हलीम (उदार), शाकिर (ख़ूबियों की क़द्र करनेवाला), मुजीब (दुआओं को सुननेवाला), वदूद (अपने बन्दों से बहुत प्रेम करनेवाला), रऊफ़ (बहुत अधिक मेहरबान), नसीर (पूरी मदद करनेवाला), वली (सरपरस्त) आदि।

5. इल्म (ज्ञान) : जैसे आलिम (ज्ञानी), अलीम (सर्वज्ञाता), अल्लामुल-ग़ुयूब (परोक्ष-ज्ञानी), समीअ (सब कुछ सुननेवाला), बसीर (सब कुछ देखनेवाला), ख़बीर (सब कुछ जाननेवाला), रक़ीब (रखवाला), हफ़ीज़ (पूरी तरह हिफ़ाज़त करनेवाला), मुहसी (गिनकर रखनेवाला) आदि। 6. मुलूकियत (बादशाही) : जैसे मलिक (शासक), मलीक (कायनात का स्वामी), मुक़्तदिर (सर्व सत्ताधारी), हाकिम (हुक्म देनेवाला), आदिल (न्याय करनेवाला), क़ह्हार (सज़ा देने में पूरी तरह सक्षम), जब्बार (अपना आदेश मनवाने में पूरी तरह सक्षम) आदि।

7. उलूहियत (ईश्वरत्व) : अपने सभी मानी के साथ उलूहियत (ईश्वरत्व) का गुण अल्लाह के बिलकुल अनुकूल सिद्ध होता है।

पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि अगर धरती के सारे पेड़ क़लम और समन्दर रौशनाई बनकर अल्लाह की बात लिखने लगें तो भी उसकी बातें पूरी न होंगी, चाहे ऐसा सात बार किया जाए। ऐसे में इन कुछ पन्नों में अल्लाह के बारे में विस्तार से बयान करना कैसे सम्भव हो सकता है? फिर भी अल्लाह की हस्ती को सही तसव्वुरात (परिकल्पनाओं) के साथ समझना हमारी ज़िम्मेदारी है। इसी मक़सद से यह कोशिश की गई है। यहाँ क़ुरआन की आयतों के साथ आधुनिक विज्ञान सम्बन्धी जानकारियाँ भी दी गई हैं, ताकि अन्दाज़ा हो सके कि क़ुरआन में अल्लाह की हस्ती का जो तसव्वुर पेश किया गया है, वह कितना फैला हुआ है और अपने अन्दर कितने मानी रखता है। वैज्ञानिक जानकारियाँ पूरी और फ़ैसलाकुन न होकर भी हमारे दिल-दिमाग़ की गुत्थियों को खोल सकती हैं।

अल्लाह की रचनाएँ

अल्लाह ने सारी कायनात (सृष्टि) को पैदा किया है। इस कायनात या सृष्टि में बुनियादी तौर से दो चीज़ें पाई जाती हैं। पहली चीज़ पदार्थ (Metal) और दूसरी चीज़ ज़िन्दगी (Life) है। पदार्थ के तहत धरती एवं आकाश सभी आते हैं और एक छोटा सा अणु (Atom) भी। इसी तरह ज़िन्दगी के अन्तर्गत तमाम बड़े जानदार भी आते हैं और एक छोटा-सा जीवाणु (Bacteria) भी।

पदार्थ की हक़ीक़त

कुछ समय पहले तक परमाणु (Atom) को पदार्थ की सबसे छोटी इकाई के रूप में जाना जाता था। लेकिन आधुनिक खोजों से मालूम हुआ है कि पदार्थ की इससे भी छोटी इकाई (Unit) मौजूद है। वह इस तरह कि एक परमाणु प्रोटोंस (Protons) और न्यूट्रोंस (Neutrons) से मिलकर बना है और उसके आसपास इलेक्ट्रोंस (Electrons) के बादल होते हैं। और परमाणु (Atom) को नाभिकीय बिन्दु (Nucleus) में प्रोटोन और न्यूट्रोन के साथ मेसन (Meson), न्यूट्रिनो (Neutrino) और एंटी न्यूट्रिनो (Anti Neutrino) यानी एक्स-रेज़ (x-rays) और गामा-रेज़ (y-rays) के क़द्रे (Quantas)) भी छिपे होते हैं, जो परमाणु से बहुत ही छोटे होते हैं। क़ुरआन में भी इस बारे में इशारा मौजूद है कि ज़र्रे (अणु) से भी छोटे अंश यहाँ मौजूद हैं जिनका पैदा करनेवाला अल्लाह है और वह उसके इल्म में है। अल्लाह का कथन है—

“उससे ज़र्रा (अणु) बराबर कोई चीज़ न आसमानों में छिपी हुई है, न ज़मीन में। न ज़र्रे (अणु) से बड़ी और न उससे छोटी, सब कुछ एक खुली किताब में लिखा है।” (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-3)

यह सबसे छोटी कायनात है, सबसे बड़ी कायनात क्या है? इस बारे में साइंसदाँ कहते हैं कि इस कायनात में फैले हुए सितारों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि अगर हर सितारे का एक शाब्दिक नाम रखा जाए और कोई उन नामों को बोलना शुरू करे तो तमाम नामों को दोहराने के लिए तीन सौ खरब साल की मुद्दत चाहिए होगी। उन सितारों, ग्रहों और आकाश-गंगाओं का व्यास, एक-दूसरे के बीच की दूरी और उनकी गति भी कुछ मामूली नहीं। मिसाल के तौर पर ऑरीगाई (Aurigai) एक तारा है जो सूरज से दो हज़ार गुना बड़ा है। जबकि सूरज ख़ुद हमारी ज़मीन से आठ लाख गुना बड़ा है। उसका व्यास एक अरब तिहत्तर करोड़ मील है। अगर उसको सूरज की जगह पर रख दिया जाए तो पूरा सौर्य-मण्डल उसके दाइरे में आ जाएगा और यहाँ हर ओर सिर्फ़ आग की लपटें ही होंगी। यह तो केवल एक सितारे की मोटाई है। जबकि एक आकाश-गंगा के अन्दर अरबों-खरबों तारे मौजूद होते हैं। मिसाल के तौर पर हमारा सौर्य-मण्डल जिस आकाश-गंगा के तहत आता है, उसमें लगभग एक खरब तारे मौजूद हैं। उन सबको मिलाकर जितना पदार्थ होता है वह एक खरब सूरजों के पदार्थ के बराबर है। अगर बड़ी-से-बड़ी दूरबीन से देखा जाए तो आसमान पर तारों से ज़्यादा आकाश-गंगाएँ ही दिखाई पड़ेंगी। Palomer Observatory, कैलिफ़ोर्निया की वेधशाला में लगी हुई दो सौ इंच व्यास की दूरबीन (Haletele Scope) से एक समय में एक अरब आकाश-गंगाओं को देखा जा सकता है। क़ुदरत ने उन तमाम आकाश-गंगाओं को गति-क्षमता भी दी है, जैसे कि हमारी आकाश-गंगा अपने तमाम तारों के साथ सात लाख छ्यासी हज़ार किलो मीटर प्रतिघण्टा के हिसाब से उत्तर की ओर दौड़ रही है। विर्गो कांस्टिलेशन (Virgo Constellation) से पाँच करोड़ प्रकाश-वर्ष दूर हज़ारों आकाश-गंगाओं का एक संग्रह मौजूद है जो हमारी आकाश-गंगा से तैंतालीस लाख किमी॰ प्रति घण्टा की गति से आगे चला जा रहा है। दूसरे संग्रह में लगभग तीन सौ आकाश-गंगाएँ हैं जो ध्रुव तारों से पाँच करोड़ प्रकाश-वर्ष दूर हैं और पाँच करोड़ छत्तीस लाख किमी॰ प्रति घण्टा की गति से आगे बढ़ रहा है। तीसरा संग्रह जो चौरानवे करोड़ प्रकाश-वर्ष दूर है, सात करोड़ किमी॰ प्रति घण्टा की गति से विशाल ब्रह्माण्ड में दौड़ रहा है। चौथा संग्रह जिसमें हज़ारों आकाश-गंगाएँ हैं और जो हमसे एक अरब सत्तर करोड़ प्रकाश-वर्ष दूर है, चौदह करोड़ आठ लाख किमी॰ प्रति घण्टा की गति से दूर होता जा रहा है। खगोल विज्ञान के विशेषज्ञों ने अंदाज़ा लगाया है कि कायनात का मौजूदा क्षेत्रफल पैंतीस अरब प्रकाश-वर्ष है और इसमें बराबर इज़ाफ़ा हो रहा है। प्रकाश की गति से कायनात के एक किनारे से चला जाए तो अपनी जगह वापस आने में दो खरब प्रकाश-वर्ष लगेंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या कायनात की बस यही सीमा है? क़ुरआन कहता है कि यह तो पहले आसमान की विशालता है। जबकि अल्लाह तआला ने सात आसमान एक के ऊपर एक पैदा किए हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

“उसने एक के ऊपर एक सात आसमान बनाए...और हमने दुनिया के आसमान को अज़ीमुश्शान चिराग़ों (ग्रहों, आकाश-गंगाओं) से सजाया।” (क़ुरआन सूरा-67 मुल्क, आयातें-3-5)

हदीस में बयान किया गया है कि एक आसमान से दूसरे आसमान तक की दूरी इतनी ही है जितनी कि पहले आसमान की दूरी दिखाई देती है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कायनात की विशालता क्या है और अल्लाह ने उसको बनाया है तो वह किन सिफ़ात का मालिक है।

ज़िन्दगी की हक़ीक़त

अल्लाह ने इस कायनात (सृष्टि) में सिर्फ़ पदार्थ (Matter) ही पैदा नहीं किया है, बल्कि ज़िन्दगी भी पैदा की है। ज़िन्दगी पदार्थ की वह सुन्दर तरतीब है, जिसको तरतीब देनेवाला केवल अल्लाह ही हो सकता है। चाहे एक चींटी की ज़िन्दगी हो या एक इनसान की ज़िन्दगी। अल्लाह फ़रमाता है—

"उसने मौत और ज़िन्दगी को पैदा किया ताकि तुम लोगों को आज़माकर देखे कि तुममें से कौन बेहतर काम करनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-67 मुल्क, आयत-2)

साइंसदानों के लिए यह विषय बड़ा दिलचस्प है कि वे जानदार और ग़ैर-जानदार चीज़ों में रासायनिक अन्तर को समझें। इजतिमाई साइंसी प्रयोगों से यह पता चला है कि कार्बनिक संरचनाओं (Organic Structures) में ख़ास बात यह है कि इनमें कार्बन के अणु (Carbon Atoms) ऋणावेश (Negative Charge) वाले होते हैं। अगरचे क़ुदरत की व्यवस्था में कार्बन 4 प्रतिशत के हिसाब से पाया जाता है, परन्तु कार्बनिक संरचनाओं या ज़िन्दा चीज़ों में यह 4 प्रतिशत ऋणावेश का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार हाइड्रोजन के साथ मिलकर यौगिकों (Compounds) की एक ज़ंजीर (Chain) बन जाती है। बाद में जीव कोशिकाओं में नाइट्रोजन के महत्व का भी पता चला। इसके अलावा ऐसी चीज़ों का भी पता चला जो निश्चय ही निर्जीव वस्तुओं में मौजूद नहीं थीं, जैसे Amino Acid जिस तक DNA की खोज से पहुँचा गया और मालूम हुआ कि ज़िन्दा चीज़ों में आनुवंशिक गुणों वाले कीटाणु उस बड़े DNA की वजह से ही पैदा होते हैं, जो ज़िन्दगी का बुनियादी ढाँचा है। अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है कि वह न केवल तमाम जानदार चीज़ों का पैदा करनेवाला है, बल्कि ज़िन्दगी के इस बुनियादी ढाँचे का बनानेवाला भी वही है—

"हमने पानी से हर ज़िन्दा चीज़ पैदा की। क्या वे (हमारी इस ताक़त को) नहीं मानते?" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-30)

यह बात याद रखनी चाहिए कि ज़िन्दगी में पानी की भूमिका बहुत अहम है और कोशिकाओं की जैव रासायनिकी पर शोध ने यह स्पष्ट कर दिया है कि तमाम विद्युतीय क्रम जीवाश्म में लाइसोसोम (Lisosome) और पानी के इलेक्ट्रिक चार्ज आयन (Ions) की मदद से बने रहते हैं। साथ ही यह कि तमाम रासायनिक क्रम कोशिका प्रयोगशाला में, जिसे माइटोकोंड्रिया (Mitochondria) कहा जाता है, पानी के आयन (Ions) के माध्यम ही से प्रभावशाली होते हैं।

पैदाइश में विविधता

अल्लाह ने पदार्थ और ज़िन्दगी को सिर्फ़ पैदा ही नहीं किया, बल्कि उसमें जातियता और संख्या के पहलू से विविधता भी पैदा की। जिस तरह उसने पदार्थ की केवल एक क़िस्म पैदा नहीं की बल्कि उसकी तरह-तरह की क़िस्में पैदा कीं, इसी तरह हर क़िस्म को उसने सिर्फ़ एक ही रूप में पैदा नहीं किया, बल्कि उसमें भी विविधता पैदा की। बिलकुल इसी तरह ज़िन्दगी भी अपने अन्दर रंगा-रंगी और विविधता लिए हुए है। इस ज़मीन पर हज़ारों-लाखों प्रकार के जानदार मौजूद हैं और हर जानदार अरबों-खरबों की तादाद में मौजूद है। जिनकी शक्लें, शक्तियाँ और योग्यताएँ अलग-अलग हैं। मिसाल के तौर पर इनसान का बुनियादी ढाँचा एक है, लेकिन अरबों इनसानों में से कोई दो इनसान भी एक जैसी शक्ल-सूरत और ताक़त और सलाहियत के नहीं हैं। बल्कि हर एक की शक्ल-सूरत, सलाहियत और ताक़त भिन्न है। क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है—

"और वही है जिसने आसमान से पानी बरसाया। फिर उसके द्वारा हर प्रकार की वनस्पति उगाई। फिर उससे हरे-हरे खेत और पेड़ पैदा किए। फिर उनसे तले-ऊपर चढ़े हुए दाने निकाले और खजूर की कलियों से फलों के गुच्छे-के-गुच्छे पैदा किए जो बोझ के मारे झुके पड़े हैं, और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए, जिनके फल एक दूसरे से मिलते-जुलते भी हैं और फिर प्रत्येक की ख़ासियतें अलग-अलग भी हैं। ये पेड़ जब फलते हैं तो इनमें फल आने और इनके पकने की हालत को ज़रा ध्यानपूर्वक देखो, इन चीज़ों में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-99)

एक दूसरी जगह कहा गया है—

“और वही है जिसने यह धरती फैला रखी है। इसमें पहाड़ों के खूँटे गाड़ रखे हैं और नदियाँ बहा दी हैं। उसी ने हर प्रकार के फलों के जोड़े पैदा किए हैं और वही दिन पर रात छा देता है। इन सारी चीज़ों में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार से काम लेते हैं। और देखो! धरती में अलग-अलग भू-भाग पाए जाते हैं जो एक दूसरे से जुड़े हैं। अंगूर के बाग़ हैं, खेतियाँ हैं, खजूर के पेड़ हैं जिनमें से कुछ इकहरे हैं और कुछ दोहरे। सबको एक ही पानी सिंचित करता है, मगर स्वाद में हम किसी को बेहतर बना देते हैं और किसी को कमतर। इन सब चीज़ों में बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-13 रअद, आयतें-3,4)

एक जगह और कहा गया है—

"उसने आकाश और धरती को मक़सद के साथ पैदा किया है। वह बहुत उच्च और महान है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं। उसने इनसान को एक ज़रा सी बूँद से पैदा किया और वह देखते-देखते एक खुला झगड़ालू हस्ती बन गया। उसने जानवर पैदा किए जिनमें तुम्हारे लिए वस्त्र है और भोजन भी और तरह-तरह के दूसरे फ़ायदे भी। उनमें तुम्हारे लिए सौंदर्य है कि जब तुम उन्हें चरने के लिए भेजते हो और जबकि शाम को उन्हें वापस लाते हो। वे तुम्हारे लिए बोझ ढोकर ऐसी जगहों तक ले जाते हैं, जहाँ तुम सख़्त मेहनत के बिना नहीं पहुँच सकते। हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही करुणामय और दयावान है। उसने घोड़े और टट्टू और गधे पैदा किए ताकि तुम उन पर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की रौनक़ बनें और वह ऐसी चीज़ें भी पैदा करता है जो तुम नहीं जानते।" (क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, आयतें-3-8)

बनाने और पैदा करने में कमाल

अल्लाह ने न सिर्फ़ ज़िन्दगी की तरह-तरह की चीज़ें पैदा कीं, बल्कि हर चीज़ को अपनी जगह मुकम्मल बनाया है। इसमें कहीं कोई कमी या टेढ़ नहीं है। एक एटम भी अपनी जगह मुकम्मल है और बड़े-से-बड़ा ग्रह भी। इसी तरह एक चींटी भी अपनी जगह मुकम्मल है और एक हाथी भी। चींटी को सलाहियत, जिसमानी बनावट और अंगों की जो ज़रूरतें हो सकती थीं, क़ुदरत ने उसे वे प्रदान कीं। हाथी के लिए जैसे जिस्म, अंगों, ताक़त और सलाहियत की ज़रूरत थी, वह उसे दी गई। कायनात की कोई भी चीज़ चाहे वह मामूली हो या ग़ैर-मामूली, उसको बनाने और पैदा करने में कमाल का ध्यान रखा गया है। क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"जिसने तले-ऊपर सात आसमान बनाए। तुम रहमान (करुणामय ईश्वर) की रचना में किसी प्रकार की विषमता न पाओगे। फिर पलटकर देखो, कहीं तुम्हें कोई ख़राबी दिखाई देती है? बार-बार निगाह दौड़ाओ, तुम्हारी निगाह थककर निराश लौट आएगी।" (क़ुरआन, सूरा-67 मुल्क, आयतें-3,4)

बनाने और पैदा करने में निरन्तरता

ऐसा नहीं है कि अल्लाह ने एक बार पदार्थ और ज़िन्दगी की बहुत सी क़िस्में पैदा कर दीं और फिर (अल्लाह माफ़ करे) वह थक हारकर बैठ गया है, बल्कि अल्लाह तआला लगातार चीज़ों को बना रहा है और पैदा कर रहा है और क़ियामत तक यह सिलसिला चलता रहेगा। चुनाँचे प्रतिदिन जितने जानदार मौत की गोद में जाते हैं, उससे कहीं ज़्यादा ज़िन्दगी लेकर इस दुनिया में आते हैं, लेकिन पैदा करने का अमल सिर्फ़ जीवन के विकास ही में नहीं बल्कि कायनात के विकास में भी जारी है। क़ुरआन ने इस बारे में साफ़ शब्दों में बयान किया है। अल्लाह फ़रमाता है—

"आसमान को हमने अपने बल से बनाया है और हम इसकी क़ुदरत रखते हैं। धरती को हमने बिछाया है और हम बड़े अच्छे समतल करनेवाले हैं।" (क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, आयतें-47, 48)

साइंसदानों ने मुशाहिदा किया है कि यह कायनात एक केन्द्र-बिन्दु या स्थान से बाहर की ओर फैल रही है और यह फैलाव रौशनी की रफ़्तार से हो रहा है। एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"डराओ उन्हें उस दिन से जबकि धरती और आकाश बदलकर कुछ-से-कुछ कर दिए जाएँगे।"

(क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, आयत-48)

इस आयत से मालूम हो रहा है कि एक दिन ऐसा आएगा जब कायनात का रूप ही बदला हुआ होगा। न यह आकाश होगा, न यह ज़मीन होगी, बल्कि इसकी जगह पर दूसरे आकाश और धरती स्थापित कर दिए जाएँगे।

इस्लामी अक़ीदे में यह बात बयान की गई है कि अल्लाह तआला के जो गुण हैं, वे उसी तरह हमेशा से हैं जिस तरह अल्लाह हमेशा से है। ऐसा नहीं है कि अल्लाह के बारे में जो यह कहा जाता है कि उसने इस कायनात की रचना की तो रचना करने के बाद उसको यह गुण प्राप्त हुआ है, बल्कि अल्लाह तआला उस वक़्त भी रचना की क्षमता रखता था जब किसी चीज़ की रचना नहीं हुई थी। इसी तरह उसके पैदा करने और बनाने के गुण का मतलब यह नहीं है कि वह किसी चीज़ को सिर्फ़ एक बार पैदा कर देने की क़ुदरत रखता है, बल्कि वह इस अमल को जितनी बार चाहे, दोहरा सकता है। चाहे इनसान को पैदा करना हो या धरती एवं आकाश को। अल्लाह फ़रमाता है—

"क्या उनको यह न सूझा कि जिस ख़ुदा ने धरती और आकाशों को पैदा किया है, वह उन जैसों को पैदा करने की ज़रूर क़ुदरत रखता है?" (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-99)

कायनात को पैदा करने का मक़सद

अल्लाह ने इस लम्बी चौड़ी कायनात को पैदा किया। ऐसा नहीं है कि इसे अलल-टप बस यों ही पैदा कर दिया गया है। क़ुरआन ने इस हक़ीक़त की ओर बार-बार ध्यान दिलाया कि कायनात का बनाया जाना कोई खेल नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक बड़ा मक़सद काम कर रहा है। अल्लाह तआला कहता है—

"हमने इस आकाश और ज़मीन को और जो कुछ इनमें है कुछ खेल के तौर पर नहीं बनाया है। अगर हम कोई खिलौना बनाना चाहते और बस यही कुछ हमें करना होता तो अपने ही पास से कर लेते।" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयतें-16,17)                                            सवाल यह है कि वह बड़ा मक़सद क्या है, जिसके लिए यह कायनात बनाई गई है? इसका जवाब क़ुरआन ने यह दिया है कि कायनात को पैदा करने का मक़सद 'इस्लाम' है। इस्लाम का मतलब है अल्लाह के आगे सिर झुका देना। दुनिया की हर चीज़ इस मक़सद को पूरा कर रही है। अल्लाह कहता है—

“क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे में सिर झुकाए हुए हैं वे सब जो आकाशों में हैं और जो धरती में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत से इनसान और बहुत से वे लोग भी जो अज़ाब के हक़दार हो चुके हैं।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-18)

सारी कायनात का यह सजदा करना और सिर झुकाना फ़ितरत के क़ानून के तौर पर है। अल्लाह इनसानों से यह चाहता है कि वे उसके सामने जानते-बूझते और अपनी ख़ुशी से सजदा करें और उसके आदेशों का पालन करें। इस मक़सद के तहत उसने इनसान को पैदा किया है और उसको एक हद तक आज़ादी दी है। क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है—                        "हमने इनसान को एक मिले-जुले वीर्य से पैदा किया, ताकि उसका इम्तिहान लें और इस मक़सद के लिए हमने उसे सुनने और देखनेवाला बनाया। हमने उसे रास्ता दिखाया, चाहे वह शुक्रगुज़ार बने या नाशुक्रा।" (क़ुरआन, सूरा-76 दहर, आयतें-2,3)

इनसान को जो आज़ादी दी गई है वह अक़्ल और शऊर के साथ दी गई है और उसको अक़्ल और शऊर के तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए पैदा किया गया है। वरना एक जानदार की हैसियत से इनसान और दूसरे जानवरों में कोई फ़र्क़ नहीं है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

“और यह सच है कि बहुत से जिन्न और इनसान ऐसे हैं, जिनको हमने जहन्नम (नरक) ही के लिए पैदा किया है। उनके पास दिल-दिमाग़ हैं मगर वे उनसे सोचते नहीं, उनके पास आँखें हैं, मगर वे उनसे देखते नहीं, उनके पास कान हैं मगर वे उनसे सुनते नहीं। वे जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी ज़्यादा गए गुज़रे। ये वे लोग हैं जो ग़फ़लत में पड़े हैं।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-179)

अल्लाह ही रब है

अल्लाह तआला का दूसरा सबसे बड़ा गुण रुबूबियत (पालनकार्य) है। रुबूबियत (यानी 'रब' होने) का मतलब खिलाना-पिलाना और पालना-पोसना ही नहीं है, बल्कि इसमें वे कारक एवं कारण भी शामिल हैं जिनके तहत एक ज़र्रे से लेकर आसमान तक अपना वुजूद बाक़ी रखे हुए है। मिसाल के तौर पर परमाणु का अस्तित्व : एक परमाणु का नाभिकीय बिन्दु (Nucleus) एक सेकेंड में दस अरब बार झूलता है। एक नाभिक (Nucleus) को अपने आपको क़ायम रखने के लिए यह क्रिया करनी पड़ती है। इसलिए कि नाभिकीय बिन्दु में प्रोटॉन सबके सब धनावेशित होते हैं। और न्यूट्रोन उदासीन होते हैं। चुनाँचे आम हालत में नाभिकीय बिन्दु को एक ओर उड़ जाना चाहिए। परन्तु परमाणु की एक और मज़बूत ताक़त और आरम्भिक कण मेसन (Meson) जिसका काम नाभिक को आपस में बाँधे रखना है, दख़लअंदाज़ी करता है। यह दख़लअंदाज़ी एक सेकेंड में दस अरब बार की गति से होती है। क्या यह अल्लाह की रुबूबियत के बिना हो सकता है? अल्लाह फ़रमाता है—

"ऐ नबी! (इन बहुदेववादियों से) कह दो कि पुकार देखो अपने उन उपास्यों को जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा अपना उपास्य समझे बैठे हो। वे न आसमानों में किसी ज़र्रा बराबर चीज़ के मालिक हैं न ज़मीन में। वे आसमान और ज़मीन की मिल्कियत (स्वामित्व) में साझेदार भी नहीं हैं। उनमें से कोई अल्लाह का सहायक भी नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-22)

कायनात का अस्तित्व

इस कायनात में दो शक्तियाँ पाई जाती हैं। एक आकर्षण-शक्ति (Attraction) दूसरी विकर्षण-शक्ति (Repulsion) है। अगर ये दोनों शक्तियाँ मौजूद न हों तो यह कायनात एक क्षण के लिए भी बाक़ी नहीं रह सकती। सारे ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगाएँ एक दूसरे पर गिर पड़ें। लेकिन इन शक्तियों के कारण कायनात में आश्चर्यजनक सन्तुलन बना हुआ है। इस बात को अल्लाह तआला ने इन शब्दों में बयान किया है—

"आसमान को उसने ऊँचा किया और मीज़ान (सन्तुलन) स्थापित कर दिया।" (क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, आयत-7)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ही है जो आकाशों और धरती को टल जाने से रोके हुए है, और अगर वे टल जाएँ तो अल्लाह के बाद दूसरा उन्हें थामनेवाला नहीं है। निस्सन्देह अल्लाह बड़ा सहनशील और क्षमा करनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, आयत-41)

जीवन का अस्तित्व

अभी कुछ समय पहले तक समझा जाता था कि जीवन का विकास किसी भी ग्रह पर एक विशेष तापमान पर हो सकता है, मगर वर्तमान वैज्ञानिक खोजों ने साबित कर दिया है कि किसी भी ग्रह पर जीवन के लिए अनुकूल वातावरण का प्राप्त करना असम्भव है। उदाहरणार्थ धरती में ज़िन्दगी पाई जाती है और यह यहाँ के अनुकूल वातावरण के कारण है, लेकिन अगर इसमें थोड़ा सा असन्तुलन भी पैदा हो जाए तो यहाँ भी जीवन कठिन हो जाएगा। जैसे सूर्य पृथ्वी से जिस दूरी पर है, अगर उससे थोड़ा भी पास हो जाए तो वायुमण्डल में गर्मी की ज़्यादती से तमाम छोटे कण उबलकर ग़ायब हो जाएँ। इसके विपरीत अगर सूरज और ज़्यादा दूरी पर होता तो छोटे-छोटे कणों की हरकत बहुत सुस्त हो जाती वे जम जाते और धरती में मिलकर अपना वुजूद खो देते। इसी तरह जिस रफ़्तार से ज़मीन घूम रही है, अगर वह थोड़ी भी कम या ज़्यादा हो जाए तो ज़मीन पर ज़िन्दगी ख़त्म हो जाएगी। मिसाल के तौर पर अगर ज़मीन अपना चक्कर तीस घण्टे में पूरा करे तो इसका नतीजा यह होगा कि उस पर इतनी ज़्यादा तेज़ और ख़तरनाक आँधियाँ चलेंगी कि उसमें किसी जानदार का बचे रहना असम्भव होगा। या अगर ज़मीन अपना चक्कर बीस घण्टों ही में पूरा कर ले तो ज़मीन पर उगनेवाली वनस्पतियाँ अपनी जैविक सक्रियता खो देंगी। इस तरह यहाँ ज़िन्दगी ख़त्म हो जाएगी।

धरती में जो रासायनिक तत्व पाए जाते हैं, वे भी अत्यन्त सन्तुलित हैं। अगर उनमें ज़रा भी घटाव-बढ़ाव हो जाए तो ज़िन्दगी की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी। मिसाल के तौर पर अगर धरती में केवल यूरेनियम 225 आइसोटोप के रूप में पाया जाता तो यह ग्रह एक खौलता हुआ गढ़ा होता। इसी प्रकार अगर वायुमण्डल में कार्बन मौजूद न होता तो ज़िन्दगी भी नहीं होती, जबकि वही चीज़ अगर अपनी अपेक्षित मात्रा से ज़्यादा हो जाए तो ज़बरदस्त ख़तरे का कारण होगी। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"लोगो! एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो! जिन उपास्यों को तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो, वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयात-73)

अल्लाह के द्वारा खाने-पीने की चीज़ों का प्रबन्ध

इस धरती पर लाखों प्रकार के जीवधारी मौजूद हैं। ज़िन्दा रहने के लिए ये जीवधारी लाखों-करोड़ों साल से भोजन प्राप्त करते रहे हैं और कभी तो एक प्रकार के जानदार दूसरे प्रकार के जानदारों को खाकर ज़िन्दा रहते हैं। तो सवाल पैदा होता है कि जब जीवधारी एक-दूसरे को खाते हैं तो ज़मीन पर इतनी बड़ी तादाद में जानदार किस प्रकार जीवित और मौजूद हैं? उनमें सबसे अधिक ताक़तवर जानदार दूसरे तमाम जानदारों को मारकर ख़त्म क्यों नहीं कर देते? मगर कोई जानदार चाहे वह कितना कमज़ोर क्यों न हो, अपनी नस्ल को जारी रखे हुए है। मिसाल के तौर पर दीमक आमतौर पर एक हज़ार से दो हज़ार तक अण्डे देती है, लेकिन दीमक की एक क़िस्म ऐसी भी है जो एक समय में बीस लाख अण्डे देती है। शोध से पता चला है कि ये अण्डे बहुत से दूसरे कीड़े-मकोड़ों के लिए बेहद लज़ीज़ खाना होते हैं और हर कीड़ा कोशिश करता है कि वह उनको अपना आहार बना ले। इसी वजह से अल्लाह ने दीमक को यह ख़ासियत दी है। चुनाँचे उन बीस लाख अण्डों में से पाँच-छह सौ की तादाद किसी-न-किसी प्रकार बच जाती है और इस तरह उसकी नस्ल चलती रहती है। इस बारे में एक दूसरी मिसाल यह है कि एक ख़ास क़िस्म का उल्लू अपनी ख़ास जगह पर बिना हिले-डुले बैठा रहता है। और एक ख़ास क़िस्म का विकिरण (Radiation) निकालता रहता है जिसके असर से एक चिड़िया उसके बिलकुल सामने आकर बैठ जाती है। इस तरह वह अपनी भूख मिटाता है जो कि अल्लाह की रुबूबियत (पालनहार) होने का एक बेमिसाल तरीक़ा है। लेकिन उसकी रुबूबियत (पालनहारिता) का दायरा इन अद्भूत बातों से भी आगे तक पहुँचा हुआ है। वे जानदार जो ज़ाहिरी तौर पर ख़ुद ज़िन्दा नहीं रह सकते, अपना खाना किस प्रकार प्राप्त करते हैं? अलास्का में जीव-विज्ञान पर अनुसंधान करनेवाले एक ग्रुप ने यह रहस्योदघाटन किया है कि एक बार बर्फ़ के अन्दर एक छोटे से कीड़े को फँसा हुआ देखा गया, जिसके मुँह में हरे पत्ते का एक टुकड़ा था। इसी प्रकार एक खोजी टीम ने ज्वालामुखियों के खड्ड में साँप से मिलते-जुलते एक जीव का पता लगाया जो डेढ़-दो मीटर लंबा था। जबकि ज्वालामुखियों से बहनेवाले लावे का तापमान दो हज़ार से तीन हज़ार सेंटीग्रेड होता है और उनमें किसी शरीर या जीवधारी के बीज (DNA) तक का ज़िन्दा रह जाना सम्भव नहीं है फिर वह साँप जैसा प्राणी कहाँ से आया और उसमें जीवन कैसे पाया गया जबकि बाद में प्रयोगशाला में निरीक्षण से मालूम हुआ कि अगरचे उसके अन्दर पाचन-व्यवस्था और श्वास-क्रिया की व्यवस्था नहीं है लेकिन उसके अन्दर उसका दिल मौजूद है। सवाल पैदा होता है कि वह कैसे ज़िन्दा रहता होगा? कैसे खाता-पीता होगा और किस तरह साँस लेता होगा? इस प्राणी की जिल्द पर किए गए अनुसंधान ने यह गुत्थी भी सुलझा दी कि उसकी जिल्द पर रहनेवाले सूक्ष्म कीटाणु (Bacteria) उसे भोजन उपलब्ध कराते थे और उन्हीं के द्वारा यह प्राणी ऑक्सीजन प्राप्त करता था। अल्लाह तआला ने इस हक़ीक़त को क़ुरआन में इस प्रकार बयान किया है—

"कितने ही जानदार हैं जो अपना रिज़्क़ (भोजन) उठाए नहीं फिरते। अल्लाह ही उनको रोज़ी देता है और तुम्हें भी। वह सब कुछ सुनता और जानता है।" (क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, आयत-60)

अल्लाह के इस गुण में कि वह जानदारों को खाना-पीना देता है, यह बात भी शामिल है कि उसने जिस जानवर के लिए जो भोजन तय कर दिया है, वह उसके लिए बिलकुल अनुकूल और मुनासिब है। जैसे इनसान के लिए खाने-पीने की विभिन्न वस्तुएँ उपलब्ध की हैं जो साफ़-सुथरी और स्वास्थ्यवर्धक हैं, नुक़सानदेह और ज़हरीली नहीं हैं। बदमज़ा और बदबूदार भी नहीं हैं। उनके खाने से एक स्वाद और आनंद प्राप्त होता है। ये सब ख़ासियतें जो भोजन के अन्दर अल्लाह तआला ने रख दी हैं, उसकी पालनहारिता की व्यापकता को ज़ाहिर करती हैं। इन्हीं हक़ीक़तों को अल्लाह तआला ने क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों में बयान किया है—

"अत: प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जो धरती और आकाशों का मालिक और सारे जहानवालों का पालनहार है। धरती और आकाशों में बड़ाई उसी के लिए है और वही प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।" (क़ुरआन, सूरा-45 जासिया, आयतें-36,37)

इस्लाम में यह बात बयान की गई है कि अल्लाह तआला ने सृष्टि और उसकी हर चीज़ को पैदा किया और वह हर चीज़ की परवरिश कर रहा है। ऐसा नहीं है कि अल्लाह तआला को कोई ज़रूरत आ पड़ी थी कि जिसकी वजह से उसने इन सब चीज़ों को पैदा किया और फिर उन्हें खिला-पिला रहा है। बल्कि उसकी सारी रचनाएँ और जिन चीज़ों के द्वारा उसकी रुबूबियत ज़ाहिर होती है, यह सब अल्लाह की मात्र इच्छा का करिश्मा है वरना अगर इनमें से कोई भी चीज़ मौजूद न हो यहाँ तक कि ये आकाश और धरती भी अस्तित्वहीन हो जाएँ तो भी उसके साम्राज्य में कोई अन्तर पड़नेवाला नहीं है। अल्लाह फ़रमाता है—

"मैंने जिन्न और इनसानों को इसके सिवा किसी और काम के लिए पैदा नहीं किया कि वे मेरी बन्दगी करें। मैं उनसे कोई रिज़्क़ (भोजन) नहीं चाहता और न यह चाहता हूँ कि वे मुझे खिलाएँ। अल्लाह तो ख़ूब ही रज़्ज़ाक़ (अन्नदाता) है, शक्तिशाली और ज़बरदस्त।" (क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, आयतें-56-58)

एक हदीस में बयान किया गया है कि पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि अल्लाह तआला कहता है कि ऐ मेरे बन्दो! तुममें का अगला और पिछला, जिन्न और इनसान अगर किसी बहुत बड़े परहेज़गार व्यक्ति की तरह हो जाएँ तो भी मेरी सत्ता में इससे कोई बढ़ोत्तरी न होगी। और इसके विपरीत अगर सबके सब किसी बहुत बड़े गुनहगार और दुराचारी की तरह हो जाएँ तो भी मेरी सत्ता में किसी प्रकार की कमी नहीं होगी और ऐ मेरे बन्दो! अगर तुममें का हर व्यक्ति किसी ऊँची चोटी पर चढ़कर मुझसे माँगे और मैं हर व्यक्ति को उसकी माँग के अनुसार दे दूँ तो इससे मेरे ख़ज़ाने में इतनी भी कमी न होगी जितनी कि समुद्र में सुई डुबोकर उठा लेने से होती है।

अल्लाह तआला की दयालुता

अल्लाह तआला का तीसरा बड़ा गुण उसकी दयालुता (रहमत) है। उसका यह गुण पैदाइश के काम में भी नुमायाँ है और पालन-पोषण में भी, इस कायनात का सारा वुजूद और इसका बाक़ी रहना अल्लाह की दयालुता को ज़ाहिर कर रहा है। अल्लाह तआला हर चीज़ का पैदा करनेवाला और पालनहार है, लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पैदा करना और पालना-पोसना बस यों ही हो रहा है, बल्कि इस कायनात की हर चीज़ में इस बात को देखा जा सकता है कि हर जगह बाहमी तालमेल, अनुकूलता और सन्तुलन पाया जाता है। कहीं कोई कठिनाई, फ़साद और बिगाड़ नहीं है। क़ुरआन में कहा गया है—

"फिर वह (ईश्वर) आकाश की ओर उन्मुख हुआ, जो उस समय मात्र धुआँ था। उसने आकाश और धरती से कहा : अस्तित्व में आ जाओ, चाहे स्वेच्छा के साथ या अनिच्छा के साथ। दोनों ने कहा : हम आ गए फ़रमाँबरदारों की तरह।" (क़ुरआन, सूरा-41 हामीम सजदा, आयत-11)

पीछे अल्लाह तआला की रुबूबियत (रब होने के गुण) के बारे में बयान किया जा चुका है कि यह कायनात किस प्रकार अपना वुजूद बाक़ी रखे हुए है। इसके अलावा यह भी जान लें कि कायनात में मौजूद अरबों-खरबों ग्रहों और नक्षत्रों के बीच आकर्षण-शक्ति और विकर्षण-शक्ति से जो सन्तुलन बना हुआ है, वह केवल एक सूरज की वृद्धि को भी सहन नहीं कर सकता। चुनाँचे अरबों की संख्या में ये सितारे अपने-अपने वुजूद को एक दूसरे से ख़ास दूरियों पर रहकर और ख़ास रफ़्तार से क़ायम रखे हुए हैं। कोई भी सम्भव टकराव उनके आपसी सन्तुलन को तबाह व बरबाद कर सकता है। अभी कुछ समय पहले खगोलशास्त्र विशेषज्ञों ने अवलोकन किया था कि बहुत दूर सितारों की व्यवस्थावाली दो आकाशगंगाएँ एक दूसरे की ओर बढ़ रही हैं। अरबों की संख्या में सितारों पर सम्मिलित ये दोनों आकाशगंगाएँ एक दूसरे से टकरानेवाली थीं, मगर इस प्रकार की कोई घटना न घटी और वे एक दूसरे को कोई नुक़सान पहुँचाए बिना गुज़र गईं। इतना बड़ा चमत्कार किस प्रकार हुआ? इसका जवाब यह है कि अल्लाह तआला की दयालुता का गुण उन दोनों आकाशगंगाओं पर भारी पड़ गया।

हमारी इस ज़मीन के आसपास रोज़ाना दस खरब उल्कापिण्ड गिरते हुए देखे गए हैं। लेकिन उनमें से कुछ के अलावा वे तमाम धरती पर गिरने से पहले जलकर भस्म हो जाते हैं। ख़ुदा न करे, अगर ये सब धरती पर आकर गिरने लगते तो यहाँ पर दिन रात पथरीली आग की बारिश होती और यहाँ कोई भी जानदार ज़िन्दा नहीं बचता। दूसरी ओर हमारी ज़मीन हर समय भूकम्प की चपेट में है। विशेषज्ञों का कहना है कि ज़मीन पर हर साल दस लाख बार भूकम्प की स्थिति पैदा होती है, लेकिन उनमें से 95 प्रतिशत भूकम्प वे हैं जो केवल भूकम्प नापने की मशीन द्वारा मालूम किए जा सकते है। अगर ख़ुदा की दयालुता प्रभावी न हो तो क्या धरती पर कोई तंबू गाड़ना भी सम्भव होगा? यह तो बहुत दूर की बात है कि इतने बड़े-बड़े शहर हम आबाद कर सकें। इनसान के शरीर में दस अरब एटम होते हैं और एक एटम जिन उसूलों के तहत अपने नाभिक से बँधा रहता है, अगर वे उसूल बाक़ी न रहें तो इनसानी शरीर एक एटम बम की तरह धमाके से फट जाएगा। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"और मेरी (रहमत) दयालुता हर चीज़ को घेरे हुए है।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-156)

यह अल्लाह की दयालुता ही का एक पहलू है जो सारी कायनात को घेरे हुए है। इसका दूसरा पहलू यह है कि वह अपने बन्दों की ग़लतियों और गुनाहों को माफ़ करता है। क़ुरआन में बयान किया गया है कि अगर ख़ुदा बन्दों के गुनाहों पर उनकी पकड़ करनी शुरू कर दे तो इस धरती पर एक भी व्यक्ति बच कर न जा सकेगा। लेकिन वह अपने बन्दों से दयालुता और नम्रता का व्यवहार करता है और उनको मुहलत देता रहता है ताकि वे ख़ुद का सुधार कर लें। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बयान किया है कि अगर बन्दों के अन्दर तौबा व इस्तिग़फ़ार (गुनाहों को पुनः न करने का प्रण करने तथा गुनाहों की माफ़ी चाहने) का गुण मौजूद हो तो ज़मीन के भार के बराबर गुनाह भी माफ़ हो जाते हैं। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी बयान किया है कि अल्लाह तआला की रहमत (दयालुता) का पता इससे भी चलता है कि हर वह व्यक्ति जन्नत में दाख़िल होगा, जिसके दिल में ज़र्रा बराबर भी ईमान मौजूद हो। अल्लाह तआला फ़रमाता है—                            "(ऐ नबी!) कह दो कि ऐ मेरे (ख़ुदा के) बन्दो! जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है, अल्लाह की दयालुता से निराश न हो जाओ, निश्चय ही अल्लाह सारे गुनाह माफ़ कर देता है। वह तो क्षमाशील और दयावान है।" (क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, आयत-53)

अल्लाह की क़ुदरत

सर्वोच्च अल्लाह का एक महान गुण उसकी क़ुदरत (सामर्थ्य) है। उसने अपने पूर्ण सामर्थ्य से एक कण से लेकर सारी कायनात तक को पैदा किया और अपने सामर्थ्य ही से उसका पालन-पोषण भी कर रहा है तथा अरबों-खरबों साल से उसको क़ायम रखे हुए है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"अल्लाह वह है जिसने सात आकाश बनाए और ज़मीन की क़िस्म से भी उन्हीं की भाँति।" (क़ुरआन, सूरा-65 तलाक़, आयत-12)

दूसरी जगह कहा गया है—

"अल्लाह ही है जो आकाशों और ज़मीन को टल जाने से रोके हुए है, और अगर वे टल जाएँ तो अल्लाह के बाद कोई दूसरा उन्हें थामनेवाला नहीं है। निस्सन्देह अल्लाह बड़ा सहनशील और माफ़ करनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, आयत-41)

अल्लाह तआला ने जिस प्रकार इस कायनात की रचना की और उसे क़ायम रखने पर वह पूरी तरह सामर्थ्य रखता है, इसी प्रकार वह इसकी भी सामर्थ्य रखता है कि वह इस कायनात को ख़त्म कर दे और दूसरी कायनात को पैदा कर दे। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"वह दिन जबकि आकाश को हम यों लपेटकर रख देंगे जैसे पंजी में पन्ने लपेट दिए जाते हैं, जिस प्रकार पहले हमने कायनात का आरम्भ किया था उसी तरह हम फिर उसको दोहराएँगे। यह एक वादा है हमारे ज़िम्मे, और यह काम हमें हर हाल में करना है।" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-104)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

" (डराओ उन्हें) उस दिन से जबकि धरती और आकाश बदलकर कुछ-से-कुछ कर दिए जाएँगे।" (क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, आयत-48)

क़ुरआन में क़ियामत की अवधारणा को बहुत ज़ोर के साथ बयान किया गया है। क़ियामत का मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि मौजूदा संसार तलपट और ख़त्म हो जाएगा बल्कि एक दूसरा संसार वुजूद में आएगा, जिसमें कायनात का पैदा करनेवाला अल्लाह, इनसानों को दोबारा पैदा करेगा और उनके कर्मों का हिसाब लेगा। वैज्ञानिकों ने भी यह बात स्वीकार कर ली है कि एक दिन यह कायनात ख़त्म हो जाएगी। क़ुरआन ने जहाँ भी क़ियामत की अवधारणा का उल्लेख किया है वहाँ यह तर्क दिया है कि जो सत्ता मौजूदा विशाल संसार को पैदा करने और उसके विनाश की सामर्थ्य रखती है, वह दोबारा उसको पैदा करने पर समर्थ क्यों न होगी। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"और क्या इन लोगों को यह सुझाई नहीं देता कि जिस अल्लाह ने यह धरती और आकाश पैदा किए हैं और इनको बनाते हुए वह न थका, वह अवश्य इसकी सामर्थ्य रखता है कि मुर्दों को जीवित कर उठाए? क्यों नहीं, निश्चय ही वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है।" (क़ुरआन, सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-33)

अल्लाह तआला की सामर्थ्य-शक्ति की पराकाष्ठा (कमाल) को व्यक्त करने के लिए इस्लामी अवधारणाओं की किताबों में "वला शै-अ युअ-जिज़ुहू" (यानी कोई चीज़ अल्लाह को विवश नहीं कर सकती है) की बात कही गई है। अर्थात् 'इज्ज़' (विवशता) का इनकार, सामर्थ्य की चरम सीमा है।

अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"अल्लाह को कोई चीज़ विवश करनेवाली नहीं है, न आकाशों में और न धरती में। वह सब कुछ जानता है और हर चीज़ पर सामर्थ्य रखता है।" (क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, आयत-44) एक दूसरी जगह अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"उसकी सत्ता आकाशों और धरती पर छाई हुई है और उनकी देखरेख उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक उच्च और महान हस्ती है।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-255)

अल्लाह की सामर्थ्य-शक्ति का एक पहलू यह है कि वह जब चाहे गुनहगार बन्दों की पकड़ कर सकता है और उनपर जिस प्रकार चाहे अज़ाब (यातना) भेज सकता है, अल्लाह तआला हर बात की सामर्थ्य रखता है। अल्लाह फ़रमाता है—

"कहो, वह इसकी सामर्थ्य रखता है कि तुमपर कोई यातना ऊपर से उतार दे, या तुम्हारे पैरों के नीचे से निकाल दे, या तुम्हें टुकड़ियों में बाँटकर एक टुकड़ी को दूसरी टुकड़ी की शक्ति का मज़ा चखवा दे।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-65)

अल्लाह का ज्ञान

ज्ञान अल्लाह का एक महान गुण है। ज्ञान से अभिप्राय हर चीज़ की वास्तविकता और उसके परिणाम का ज्ञान है। अल्लाह तआला (वह हमें माफ़ करे) कोई अन्धा, बहरा या बेख़बर नहीं है, बल्कि सब कुछ जानने और सब कुछ देखनेवाला है। उसकी ख़ुदाई (कायनात) में अंधाधुंध काम नहीं हो रहा है। बल्कि अत्यन्त सुनियोजित ढंग से तथा ज्ञान एवं तत्वदर्शिता के आधार पर होता है। अल्लाह तआला सिर्फ़ बड़ी-बड़ी चीज़ों ही का ज्ञान नहीं रखता बल्कि वह छोटी-छोटी चीज़ों का भी ज्ञान रखता है। एक-एक दाना जो धरती के नीचे जाता है, एक-एक पत्ती और कोंपल जो ज़मीन से फूटती है, बारिश की एक-एक बूंद जो आकाश से गिरती है और भापों की हर संख्या जो समुद्र से उठकर आकाश की ओर जाती है, सब बातों का उसे ज्ञान है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"उसी के पास परोक्ष की कुंजियाँ हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। जल और थल में जो कुछ है, सबसे वह अवगत है। पेड़ से गिरनेवाला कोई पत्ता ऐसा नहीं जिसका ज्ञान उसे न हो। शुष्क (ख़ुश्क) ज़मीन के अन्धेरे परदों में कोई दाना ऐसा नहीं जिससे वह बाख़बर न हो, एवं आद्र (तर) सब कुछ एक खुली किताब में लिखा हुआ है।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-59)

एक एटम का नाभिक एक सेकेंड में दस अरब बार झूलता है और एक ग्राम की मात्रावाले पदार्थ में दस हज़ार अरब-खरब एटम होते हैं। इसी तरह एक हाईड्रोजन एटम की मोटाई, उसके व्यास एक सेंटीमीटर के दस करोड़वें भाग के बराबर होती है। सर्वोच्च अल्लाह ने क़ुरआन में बयान किया है कि इन सब बातों का उसे ज्ञान है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"उससे ज़र्रा बराबर भी कोई चीज़ न आकाशों में छिपी है और न धरती में। न ज़र्रे से बड़ी और न उससे छोटी। सब एक स्पष्ट किताब में अंकित है।" (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-3)

सर्वोच्च अल्लाह द्वारा पैदा की हुई कोई भी चीज़ उसके ज्ञान से परे नहीं है। चाहे वह धरती में हो या आकाश में, पानी में हो या पहाड़ की चोटी पर, वह जहाँ कहीं भी हो, छोटी-से-छोटी चीज़ उसकी ज्ञान-परिधि में है। वह जानता है कि उसका वह जीव कहाँ है, क्या खाता है, क्या कर रहा है, कब तक वह जीवित रहेगा और कब उसकी मौत होगी। क़ुरआन में हज़रत लुक़मान के सन्दर्भ में बयान किया गया है कि वे अपने बेटे को उपदेश देते हुए कहते हैं—  "बेटा! कोई चीज़ राई के दाने के बराबर भी हो और किसी चट्टान में या आकाशों में या धरती में कहीं छिपी हुई हो अल्लाह उसे निकाल लाएगा। वह सूक्ष्मदर्शी और ख़बर रखनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-31 लुक़मान, आयत-16)

सर्वोच्च अल्लाह दिलों की एक-एक धड़कन को जानता है। उसमें क्या-क्या विचार जन्म ले रहे हैं, किस तरह की भावनाएँ उमड़ रही हैं, कैसी इच्छाएँ जन्म ले रही हैं, किसके बारे में आदमी क्या सोच रहा है, किसके ख़िलाफ़ क्या साज़िश की जा रही है। मतलब यह है कि वह अपने बन्दों के एक-एक कर्म और गतिविधि से अवगत है। क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है—

"हमने इनसान को पैदा किया है और उसके दिल में उभरनेवाले विचारों तक को हम जानते हैं। हम उसकी गर्दन की नाड़ी से भी अधिक उससे निकट हैं।" (क़ुरआन, सूरा-50 क़ाफ़, आयत-16)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"अल्लाह निगाहों की चोरी तक को जानता है और वे भेद (रहस्य) तक जानता है जो सीनों में छिपा रखे हैं।" (क़ुरआन, सूरा-40 मोमिन, आयत-19)

सर्वोच्च अल्लाह को सिर्फ़ मौजूद और हाज़िर का ही ज्ञान नहीं है बल्कि वह भविष्य और परोक्ष का भी ज्ञान रखता है। आदि से लेकर अन्त तक इस संसार में क्या हो चुका है और क्या होनेवाला है, कल और कल के बाद इस दुनिया में क्या घटना घटनेवाली है, क्या दुर्घटना होगी, कौन-सा जीवधारी ज़िन्दा रहेगा या कौन-सा प्राणी मर जाएगा, कौन-सा बन्दा क्या अमल करेगा, इन सब बातों का ज्ञान सर्वोच्च अल्लाह को है। अल्लाह फ़रमाता है—

"निस्सन्देह अल्लाह ही है जिसके पास क़ियामत का ज्ञान है और वही बारिश बरसाता है, वही जानता है कि माओं के पेटों में क्या पल रहा है। कोई जीवधारी नहीं जानता कि वह क्या कमाई करनेवाला है और न किसी व्यक्ति को यह पता है कि किस भूभाग में उसको मौत आनी है। अल्लाह ही सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-31 लुक़मान, आयत-34)

अल्लाह तआला की बादशाहत

अल्लाह तआला का छठा बड़ा गुण उसकी बादशाहत है। वह सारी कायनात का मालिक और वास्तविक शासक है। कायनात की पूरी व्यवस्था, पाताल से लेकर आकाश के ऊँचे-ऊँचे ग्रहों तक एक व्यापक नियम पर चल रही है। यह एक क्षण के लिए भी क़ायम नहीं रह सकती, अगर इसकी अनगिनत शक्तियों और अनगिनत चीज़ों के बीच अनुकूलता और सन्तुलन तथा तालमेल न हो। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"क्या उन्होंने कभी इस आकाश एवं धरती को नहीं देखा जो इन्हें आगे और पीछे से घेरे हुए है? हम चाहें तो इन्हें ज़मीन में धंसा दें या आकाश के कुछ टुकड़े इन पर गिरा दें। हक़ीक़त में इनमें एक निशानी है हर उस बन्दे के लिए जो ख़ुदा की ओर उन्मुख होनेवाला हो।" (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-9)

अल्लाह की बादशाहत का मतलब यह भी है कि हर प्रकार का अधिकार एवं सत्ता अल्लाह ही के लिए है। वह जो चाहता है, होता है और जो नहीं चाहता नहीं होता। वह किसी दूसरे के आदेश का पाबन्द नहीं और न दूसरा इसका अधिकार रखता है कि उसको आदेश दे। वह अपनी मरज़ी का मालिक है। वह कोई आदेश लागू करता है तो उसके लिए जवाबदेही नहीं और अगर वह आदेश लागू कर दे तो उसको कोई टालनेवाला नहीं—

"और अल्लाह फ़ैसला करता है, कोई उसके फ़ैसले पर पुनर्वालोकन करनेवाला नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-13 रअद, आयत-41)

एक दूसरी जगह अल्लाह ने फ़रमाया—

"जो कुछ वह करे, इसका वह किसी के सामने उत्तरदायी नहीं, और सब उत्तरदायी हैं।" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-23)

एक और जगह कहा गया—

"जिस चीज़ का वह निश्चय करे, उसे कर डालनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-85 बुरूज, आयत-16)

उसकी बादशाहत हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है। हर वुजूद उसके आदेश से है और हर वुजूद की प्रकृति उसके आदेश का पालन कर रही है। अगर वह चाहे तो तमाम मौजूद चीज़ों को अस्तित्वहीन कर दे और अगर चाहे तो वस्तुओं की प्रकृति को बदल दे। हर चीज़ उसके वश में है। उदाहरण के लिए एक एटम का वुजूद जिन मूल अंशों और जिन सिद्धान्तों पर आधारित है, वह चाहे तो उन अंशों में तथा उन सिद्धान्तों में परिवर्तन कर दे। इसी प्रकार सौर मण्डलीय व्यवस्था जिन सिद्धान्तों के तहत क़ायम है, वह उन सिद्धान्तों को बदल दे। मतलब यह कि हर चीज़ अल्लाह के आदेश की पाबन्द है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"वह आकाशों और धरती का आविष्कारक है। और जिस बात का वह फ़ैसला करता है, उसके लिए बस यह आदेश देता है कि "हो जा" और वह हो जाती है।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-117)

एक दूसरी जगह अल्लाह ने फ़रमाया है—

"कभी तुमने सोचा, यह बीज जो तुम बोते हो, इनसे खेतियाँ तुम उगाते हो या इनके उगानेवाले हम हैं? हम चाहें तो इन खेतियों को भूसा बनाकर रख दें, और तुम तरह-तरह की बातें बनाते रह जाओ..... कभी तुमने आँखें खोलकर देखा, यह पानी जो तुम पीते हो, इसे तुमने बादल से बरसाया है या इसके बरसानेवाले हम हैं? हम चाहें तो इसे अत्यन्त खारा बनाकर रख दें। फिर क्यों तुम कृतज्ञ (शुक्रगुज़ार) नहीं होते?" (क़ुरआन, सूरा-56 वाक़िआ, आयतें-63-70)

क़ुदरत (सामर्थ्य-शक्ति) और बादशाहत के अर्थ में इतना अन्तर है कि बादशाह आदेश देने का अधिकार रखता है, जबकि क़ुदरत (सामर्थ्य) वाला अनिवार्य रूप से इसका अधिकार नहीं रखता। मिसाल के तौर पर एक बादशाह एक पहलवान को आदेश दे सकता है। लेकिन पहलवान बादशाह को आदेश देने का अधिकार नहीं रखता। चुनाँचे अल्लाह तआला केवल सामर्थ्यवान ही नहीं बल्कि अपने इरादे और मरज़ी का भी मालिक है कि वह जो चाहता है, करता है और जो हुक्म चाहे लागू करता है। लेकिन अल्लाह के अपने इरादे और मरज़ी के मालिक होने का मतलब यह भी नहीं है कि वह डिक्टेटर शासकों की तरह अन्यायपूर्ण फ़ैसले करता है और लोगों को सज़ाएँ देता फिरता है। अल्लाह की बादशाहत के साथ अद्ल (न्याय) का गुण अनिवार्य है। अद्ल का मतलब सन्तुलन और अनुकूलता है। चुनाँचे एक ज़र्रे से लेकर पूरी कायनात तक 'अद्ल' पर आधारित है और मानव-जीवन में इनाम और सज़ा की परिकल्पना भी इसी 'अद्ल' के गुण की व्याख्या है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"अल्लाह ने आकाशों और धरती को हक़ के साथ पैदा किया है और इसलिए किया है कि हर व्यक्ति को उसकी कमाई का बदला दिया जाए। लोगों पर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।"

(क़ुरआन, सूरा-45 जासिया, आयत-22)

दुनिया में बादशाहत की जो परिकल्पना है, वह सीमित और लाक्षणिक है। दुनिया के किसी भी शासक को वास्तविक शासनाधिकार प्राप्त नहीं होता और न हो सकता है। हाकिमियत (शासनाधिकार) जिस चीज़ का नाम है, वह सिर्फ़ अल्लाह तआला की बादशाही ही में पाई जाती है। अत: जब दुनिया के लोगों को बादशाहतवाला कहा जाता है तो इससे मुराद इसका अत्यन्त सीमित और अस्थाई अर्थ होता है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"कहो, ऐ अल्लाह, राज्य के स्वामी, तू जिसे चाहे राज्य दे और जिससे चाहे छीन ले। जिसे चाहे इज़्ज़त (सम्मान, प्रभुत्व) प्रदान करे और जिसको चाहे अपमानित कर दे। भलाई तेरे ही हाथ में है। निस्सन्देह तुझे हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-26)

अल्लाह की तशरीई* बादशाहत

[*इस संसार में दो प्रकार के नियम एवं क़ानून पाए जाते हैं। 1. तकवीनी क़ानून 2. तशरीई क़ानून। तकवीनी क़ानून उस प्राकृतिक व स्वाभाविक नियम को कहते हैं जिसके अन्तर्गत यह सृष्टि एक लगे-बँधे नियम के अनुसार चल रही है। सूर्य का उदय-अस्त होना, पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों का अपनी कक्षा में घूमना, तमाम जीवधारियों का निर्धारित तरीक़े से पैदा होना, बढ़ना और फिर मृत्यु को प्राप्त होना आदि। ये वे स्वाभाविक नियम हैं जिनका उल्लंघन कोई चाह कर भी नहीं कर सकता। इसके विपरीत तशरीई क़ानून उन नियमों को कहते हैं जिन्हें सर्वोच्च अल्लाह ने आदेश के रूप में इनसानों पर लागू किए हैं, साथ ही इन्हें मानने या न मानने का अधिकार भी इनसान को दिया है। मिसाल के तौर पर इनसान इस बात का पूरा अधिकार रखता है कि वह अच्छाई के रास्ते पर चले या बुराई का मार्ग अपनाए, न्याय एवं उपकार की नीति अपनाए या अन्याय एवं अत्याचार को अपनी आदत बना ले। यहाँ तक कि वह इसके लिए भी स्वतंत्र है कि एक अल्लाह की उपासना के बजाय अपने लिए अनगिनत उपास्य बना ले या फिर सिरे से किसी सर्वोपरि शक्ति के अस्तित्व ही से इनकार कर दे। ऐसा केवल इसलिए है कि अल्लाह ने इनसान को परीक्षा हेतु इन तशरीई क़ानूनों को मानने या न मानने का अधिकार दे रखा है। -अनुवादक]

अल्लाह तआला इस ज़मीन का न सिर्फ़ तकवीनी (प्राकृतिक) तौर पर बादशाह है, बल्कि वह तशरीई बादशाहत का भी मालिक है। वह अपने बन्दों को शरई आदेश देने का भी अधिकार रखता है। चुनाँचे इनसान का एक निर्धारित उद्देश्य के अन्तर्गत पैदा किया जाना और नबियों और रसूलों (ईश्वरीय सन्देष्टाओं) का आगमन और वह्य (प्रकाशना) का उतरना, उसकी तशरीई बादशाहत को ज़ाहिर करते हैं। एक बादशाह होने की वजह से उसने अपने बन्दों को विभिन्न आदेश दिए हैं, जिनका पालन उनके लिए ज़रूरी है और उनका उल्लंघन बादशाह के आदेश के उल्लंघन के समान है। ऐसे लोगों को कष्टदायक यातना की धमकी दी गई है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"निस्सन्देह अल्लाह जो चाहता है आदेश देता है।" (क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, आयत-1)

एक दूसरी जगह अल्लाह ने फ़रमाया है—

"जो लोग अल्लाह के द्वारा अवतरित किए गए क़ानून के अनुसार फ़ैसला न करें, वही अधर्मी हैं।" (क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, आयत-44)

क़ुरआन में यह हक़ीक़त बार-बार उजागर की गई है कि जो आदेश तुम्हें दिया जा रहा है, वह किसी साधारण हस्ती की तरफ़ से नहीं दिया जा रहा है। बल्कि उस हस्ती की ओर से आदेश लागू हो रहे हैं जो सृष्टा है, पालनहार है, सामर्थ्यवान है, अत्यन्त दयावान है और सारी कायनात का शासक है। अल्लाह फ़रमाता है—

"(ऐ नबी! कहो कि ऐ इनसानो!) मैं तुम सब की तरफ़ उस अल्लाह का पैग़म्बर हूँ जो धरती और आकाशों के राज्य का स्वामी है।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-158) 

अल्लाह का उपास्य होना

सर्वोच्च अल्लाह का एक और महान गुण उसका इलाह (उपास्य) होना है। इलाह (उपास्य) वह है जिसकी इबादत (उपासना) की जाए। यह अल्लाह का गुण भी है और उसके तमाम गुणों का तक़ाज़ा भी। सर्वोच्च अल्लाह जब हर चीज़ का पैदा करनेवाला है, सारी रुबूबियतें (प्रभुत्व) उसी के लिए हैं, हर चीज़ उसी के वश में है, तमाम रहमतों (दयालुताओं) का वही मालिक है, सारा ज्ञान उसी के पास है और हुकूमत और बादशाहत का वास्तविक मालिक भी वही है तो फिर क्या वह ऐसा नहीं है कि उसकी उपासना की जाए, उससे लौ लगाई जाए, उसके सामने सिर झुकाया जाए और उसके आदेशों पर चला जाए? दूसरी बात यह कि सृष्टि की हर चीज़ एक कण से लेकर आकाश तक पूरी तरह उसी पर आश्रित है। हर एक के लिए यही उचित है कि वह अल्लाह ही के सामने हाथ फैलाए। यही इबादत है। अल्लाह तआला के इलाह (उपास्य) होने का अर्थ भी यही है।

क़ुरआन में अल्लाह तआला के इलाह (उपास्य) होने को सिद्ध करने के लिए जो विवरण दिए गए हैं, वह इसी बात की व्याख्या करते हुए दिखाई पड़ते हैं। जहाँ भी अल्लाह ने अपने इलाह होने पर तर्क दिया है, वहाँ उसने अपने किसी-न-किसी गुण का हवाला ज़रूर दिया है। उदाहरण के लिए क़ुरआन की निम्नलिखित आयतें देखिए—

"भला वह कौन है जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया और तुम्हारे लिए आकाश से पानी बरसाया। फिर उसके द्वारा लुभावने बाग़ उगाए जिनके पेड़ों का उगाना तुम्हारे वश में न था? फिर क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा इलाह (उपास्य) भी (इन कामों में साझेदार) है? बल्कि यही लोग सीधे मार्ग से हटकर चले जा रहे हैं। और वह कौन है जिसने धरती को ठहरने का स्थान बनाया और उसके अन्दर नदियाँ प्रवाहित कीं और उसमें (पहाड़ों) के खूँटे गाड़ दिए और पानी के दो भंडारों के बीच परदे डाल दिए? क्या अल्लाह के साथ कोई और इलाह (पूज्य-प्रभु) भी (इन कामों में साझेदार) है? नहीं, बल्कि उनमें से अधिकतर लोग नादान हैं। कौन है जो विकल (बेक़रार) की पुकार सुनता है जबकि वह उसे पुकारे और कौन उसका कष्ट दूर करता है? और (कौन है जो) तुम्हें धरती में ख़लीफ़ा (प्रशासक) बनाता है? क्या अल्लाह के साथ कोई और इलाह (पूज्य-प्रभु) भी (यह कार्य करनेवाला) है? तुम लोग कम ही सोचते हो। और वह कौन है जो थल और जल के अंधेरों में तुमको रास्ता दिखाता है और कौन अपनी दयालुता के आगे हवाओं को ख़ुशख़बरी लेकर भेजता है? क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा इलाह (पूज्य-प्रभु) भी (यह काम करता) है? बहुत उच्च है अल्लाह उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं। और वह कौन है जो कायनात का आरम्भ करता है और फिर उसकी पुनरावृत्ति करता है? और कौन तुमको आकाश और धरती से रोज़ी देता है? क्या अल्लाह के साथ कोई इलाह (पूज्य-प्रभु) भी (इन कामों में भागीदार) है? कहो कि लाओ अपना प्रमाण अगर तुम सच्चे हो।" (क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, आयतें-60-64)

क़ुरआन में इस प्रकार की अनगिनत आयतें हैं, जिनके द्वारा यह तर्क दिया गया है कि अल्लाह के सिवा कोई सृष्टा नहीं। अत: इसके सिवा कोई माबूद (पूज्य-प्रभु) भी नहीं और कोई रब (पालनहार) भी नहीं। वह दयावान भी है और पूर्णतः सामर्थ्यवान भी, अत: उसी से डरना और उसी से आशा रखनी चाहिए। हुकूमत और बादशाहत उसी के पास है अतः आदेश भी उसी का चलेगा। तात्पर्य यह कि इबादत (उपासना) के जितने रूप भी हो सकते हैं, सब अल्लाह के लिए ख़ास हैं।

इस्लामी आलिमों ने बयान किया है कि 'इबादत' एक व्यापक अर्थ रखनेवाला शब्द है, जिसमें शरीअत (इस्लामी विधान) का हर आदेश सम्मिलित है चाहे उसका सम्बन्ध आदेशों से हो, या निषिद्ध किए गए कार्यों से, चाहे बाहरी हो या आन्तरिक। चाहे वह आदेश अनिवार्य कार्यों से सम्बन्ध रखता हो या पसन्दीदा और मात्र जाइज़ कामों से। तात्पर्य यह कि पूरे दीन (धर्म) का पालन करना इबादत है और इसमें से कोई भी कर्म अल्लाह के सिवा किसी के लिए जाइज़ नहीं है। अल्लाह फ़रमाता है—

"सत्ता का अधिकार अल्लाह के सिवा किसी के लिए नहीं है। उसका आदेश है कि ख़ुद उसके सिवा तुम किसी की बन्दगी न करो। यही ठेठ सीधा दीन (जीवन-प्रणाली) है।" (क़ुरआन, सूरा-12 यूसुफ़, आयत-40)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"और जो इस्लाम के अलावा कोई और दीन (धर्म) तलाश करेगा उससे वह दीन हरगिज़ स्वीकार न किया जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-85)

एक जगह और फ़रमाया गया—

"और जो अल्लाह के अवतरित किए हुए आदेशों के अनुसार फ़ैसला न करें तो यही लोग अधर्मी हैं।" (क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, आयत-44)

तौहीद (एकेश्वरवाद) की अवधारणा

अल्लाह तआला की हस्ती की हक़ीक़त को समझ लेने के बाद 'तौहीद' को समझना मुश्किल नहीं है। तौहीद का मतलब है किसी को 'एक' ठहराना। चुनाँचे अल्लाह तआला अपने आप में एक है, कोई उसके जैसा नहीं, न उसके बराबर कोई है और न उसके साथ कोई साझेदार है। अल्लाह तआला अपने गुणों में एक है, उनमें उसका कोई साझी नहीं। उसने अकेले सारी कायनात को पैदा किया है। वह तन्हा हर चीज़ की परवरिश कर रहा है। सारी शक्तियाँ और सामर्थ्य अकेले उसी के पास है। सारी दयालुताओं का अकेला वही मालिक है। ज्ञान के सारे तथ्य केवल उसी को मालूम हैं। कायनात में हुकूमत और बादशाहत तन्हा उसी की चलती है। हर तरह की इबादत और बन्दगी का केवल वही हक़दार है। यही तौहीद है और इसमें तौहीद की हर क़िस्म शामिल है। इसमें से किसी क़िस्म को अलग करके अल्लाह की हस्ती को समझना मुमकिन नहीं है।

अल्लाह तआला ने क़ुरआन में अपनी हस्ती और गुणों के बारे में केवल यह दावा नहीं किया है कि वह ऐसा और ऐसा है और ये-ये गुण रखता है बल्कि यह दावा भी किया है कि अगर कोई दूसरा वैसे गुण रखता हो तो सामने आए और बताए कि कायनात की कौन-कौन-सी चीज़ें उसने पैदा की हैं, रुबूबियत (पालनहारिता), दयालुता, सामर्थ्य, ज्ञान, बादशाहत और उलूहियत (उपासनाधिकार) में उनका हिस्सा क्या है? अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"(ऐ नबी! इन बहुदेववादियों से) कहो कि पुकार देखो अपने उन उपास्यों को जिन्हें तुम ईश्वर के सिवा अपना उपास्य समझे बैठे हो। वह न आकाशों में कणभर भी किसी चीज़ के मालिक हैं और न धरती में। वे उनके स्वामित्व में साझी भी नहीं हैं। उनमें से कोई अल्लाह का मददगार भी नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आय-22)

एक जगह और अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"ऐ लोगो! एक उदाहरण दिया जाता है, ध्यान से सुनो! जिन उपास्यों को तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो, वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते।"

(क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-73)

मक्खी एक मामूली जीव है, परन्तु अल्लाह के सिवा कोई इसका सामर्थ्य नहीं रखता कि एक मक्खी भी पैदा करके दिखा दे। इसी प्रकार एटम एक मामूली चीज़ है, परन्तु कोई नहीं जो इस मामूली चीज़ में भी कोई ज़रा सी छेड़-छाड़ करके दिखा दे। या वह जिन उसूलों के तहत क़ायम है, उन उसूलों को बदल दे। जबसे कायनात वुजूद में आई है, आज तक किसी ने और कभी इसका दावा नहीं किया और न कर सकता है।

इनसान किसी की इबादत अपनी किसी ज़रूरत के लिए करता है। वह समझता है कि जिन ज़रूरतों को वह ख़ुद पूरी नहीं कर सकता, उनको उसका माबूद (पूज्य-प्रभु) पूरी कर देगा। परन्तु क्या कायनात में कोई चीज़ ऐसी पाई जाती है, जो किसी इनसान की छोटी-से-छोटी ज़रूरत पूरी कर देने की ताक़त रखती हो? सर्वोच्च अल्लाह फ़रमाता है—

"वे अल्लाह के सिवा उनकी इबादत करते हैं जो न उनको नुक़सान पहुँचाने की क़ुदरत रखते हैं, न फ़ायदा पहुँचाने की।" (क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-18)

इस बारे में भी आज तक किसी ने यह दावा नहीं किया है कि वह फ़ायदे और नुक़सान का मालिक है। इस सिलसिले में इनसानी इतिहास में जो गुमराहियाँ पाई जाती हैं, वे सब अंधविश्वासों और भ्रांतियों पर आधारित हैं।

अध्याय-2

एकेश्वरवाद और व्यक्तिगत जीवन में

न्याय की स्थापना

एकेश्वरवाद की ज़रूरत

इनसान के अन्दर बहुत सी इच्छाएँ और भावनाएँ उमड़ती रहती हैं, लेकिन उन इच्छाओं में सबसे बुनियादी इच्छा हमेशा बाक़ी रहने की इच्छा है, जो उसकी दूसरी छोटी इच्छाओं और भावनाओं को जन्म देती है। इनसान खाता-पीता है ताकि वह ज़िन्दा रहे। वह शादी-ब्याह के बन्धनों में बँधता है ताकि उसकी नस्ल बाक़ी रहे। वह हुकूमत की इच्छा रखता है ताकि उसके हितों की रक्षा व्यापक स्तर पर हो सके। वह उस चीज़ से डरता है जिससे उसे ख़तरा हो। वह उस चीज़ से उम्मीद रखता है जिससे उसे कुछ फ़ायदा मिल सकता हो। उसके हितों को जो नुक़सान पहुँचाने की कोशिश करता है, उसपर वह ग़ुस्सा होता है और उससे मुक़ाबला करता है। जब उसको कोई नुक़सान पहुँचाता है तो वह दुखी होता है और जब उसे कोई फ़ायदा हासिल हो तो वह ख़ुशी मनाता है। मतलब यह है कि इनसान की सारी इच्छाएँ और भावनाएँ, उसका हर काम और सरगरमी इसी एक बाक़ी रहनेवाली ख़ाहिश के गिर्द घूमती है।

एक तरफ़ तो इनसान का हाल यह है कि वह हमेशा ज़िन्दा रहना चाहता है, दूसरी तरफ़ वह चारों ओर से दुश्मनों में घिरा हुआ है और हर एक उसे मिटा देने पर तैयार दिखाई देता है। मौसम की सख़्तियाँ उसे शिथिल किए देती हैं। उस पर बीमारियों के लगातार हमले होते हैं। ख़ुद अपने जैसे ही दूसरे इनसान उसको ज़िन्दा देखना नहीं चाहते। वे तरह-तरह से उसका जीना दूभर किए होते हैं। यह सब कुछ न भी हो तो बीतती उम्र को कौन रोक सका है, जो हर पल मौत की ओर बढ़ रही है। मान लीजिए अगर वह मौत से भी मुक़ाबला कर ले, लेकिन इसका क्या किया जाए कि ख़ुद यह कायनात अपने अन्त की ओर बढ़ रही है। वैज्ञानिकों ने कायनात के बारे में जो रहस्योद्घाटन किए हैं, वे ये हैं कि यह कायनात अरबों, खरबों ग्रहों, नक्षत्रों और आकाशगंगाओं से मिलकर बनी है जो समय बीतने के साथ फैलती जा रही है और सारे ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगाएँ एक दूसरे से दूर होती जा रही हैं। जैसे-जैसे उनकी दूरी बढ़ती जाती है, उनकी गति भी बढ़ती जा रही है। एक समय ऐसा आएगा जब कायनात की सारी व्यवस्था अव्यवस्था में बदल जाएगी। सारे ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगाएँ एक दूसरे पर गिर पड़ेंगी। पूरे अन्तरिक्ष का तापमान एक समान हो जाएगा। न प्रकाश रहेगा, न ज़िन्दगी और न गर्मी। शक्ति का वुजूद मिट जाएगा तथा कारण एवं माध्यम बेमानी हो जाएँगे। तात्पर्य यह कि यह कायनात के रूप में बाक़ी नहीं रहेगी। तो सवाल पैदा होता है कि कायनात के इस अंधकारमय और निराशाजनक भविष्य में इनसान का क्या होगा, जो हमेशा ज़िन्दा रहना चाहता है और कभी मिटना नहीं चाहता? क्या उसके लिए बचने का कोई रास्ता है या उसका भविष्य भी निराशाजनक तथा अंधकारमय है? वैज्ञानिक कहते हैं कि भविष्य की इस निराशाजनक स्थिति को रोकने की कोई सम्भावना दिखाई नहीं देती है, क्योंकि प्रकृति के मौलिक सिद्धान्त ऐसे नहीं हैं कि जिनमें कोई अपनी पिछली हालत को पहुँच जाए। ऐसा कभी नहीं हुआ और न हो सकता है कि एक बूढ़ा दोबारा बच्चा बन जाए या इसी प्रकार कायनात अपनी फैलती हुई विशालता को दोबारा समेटना शुरू कर दे। तो फिर इनसान क्या करे? कहाँ जाए? उसके लिए पनाह कहाँ है? क्या इस निराशाजनक स्थिति को देखते हुए वह आत्महत्या कर ले? यही स्थान है जहाँ इनसान भटकने लगता है। कभी तो वह इस दुनिया ही को सब कुछ समझने लगता है और कहता है: खाओ, पिओ और कल की फ़िक्र छोड़ दो। जिस प्रकार भी हो अपनी इच्छाओं को ज़्यादा-से-ज़्यादा पूरा करो। तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति की राह में जो रुकावट बने उसका वुजूद ही मिटा दो। छोटी-सी ज़िन्दगी में इनसान जो कुछ कर सकता है, वह यही है कि वह अपनी इच्छाएँ पूरी कर ले और बस! या फिर वह उन सैकड़ों काल्पनिक उपास्यों के सामने सिर झुकाना आरम्भ कर देता है जिनसे उसे ख़तरा महसूस होता है या जिनसे उसे फ़ायदे की उम्मीद नज़र आती है। वह हर उस चीज़ को ख़ुदा समझने लगता है, जो उसकी किसी मामूली-से-मामूली इच्छा की पूर्ति का सबब बन जाए। इस प्रकार इस कायनात में उसे हर ओर ख़ुदा-ही-ख़ुदा दिखाई पड़ते हैं, परन्तु क्या ये काल्पनिक उपास्य, इनसान को उसके अंधकारमय भविष्य से मुक्ति दिला सकते हैं? अगर हाँ, तो उनसे कहा जाए कि इनसान से उसकी मौत का ख़तरा टालकर दिखा दें? या कायनात के बढ़ते फैलाव को रोक लें? स्पष्ट है कि ये बातें किसी के वश में नहीं हैं तो फिर इनसान आख़िर कहाँ जाए? ऐसी स्थिति में केवल एक शरण-स्थल बाक़ी रह जाता है जहाँ इनसान को पनाह मिल सकती है, और वह है एक ईश्वर का शरण-स्थल। अल्लाह कहता है कि इनसान निराश न हो। उसको यदि हर चीज़ मिटा डालने को आतुर दिखाई देती है तो इससे भी डरने की ज़रूरत नहीं है। कायनात अपने अन्त की ओर बढ़ रही है तो बढ़ा करे, उसमें मौजूद ग्रह, नक्षत्र तथा आकाशगंगाएँ एक दूसरे से टकरा जानेवाली हैं तो टकरा जाएँ, उसका तापमान कम हो रहा है तो हुआ करे, शक्ति समाप्त हो रही है तो होती रहे। कारक एवं माध्यम निरर्थक हो रहे हैं तो होते रहें। तात्पर्य यह कि कायनात में मिटने या न मिटने के कार्य से इनसान को कुछ लेना-देना नहीं है। इनसान का मिट जाना या बाक़ी रहना, कायनात की व्यवस्था से नहीं बल्कि कायनात के रचयिता से है और उसको कभी मिटना न होगा। अल्लाह ने कहा—

"हर चीज़ जो इस धरती पर है मिट जानेवाली है, और केवल तेरे रब का प्रतापवान और उदार स्वरूप ही शेष रहनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, आयतें-26,27)

एक दूसरी जगह है—

(ऐ नबी!) उस ख़ुदा पर भरोसा रखो जो ज़िन्दा है और कभी मरनेवाला नहीं।" (क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-58)

अल्लाह की हस्ती की सिर्फ़ यही ख़ुसूसियत नहीं है कि वह आदि (हमेशा) से है और अन्त तक रहेगा और वह कभी न मिटेगा, बल्कि उसकी ख़ुसूसियत यह भी है कि वह मुर्दों को ज़िन्दा करता है, नाज़ुक हालात में भी वह ज़िन्दगी के लिए अनुकूल माहौल पैदा कर सकता है। कहा—

"तुम अल्लाह के साथ इनकार की नीति कैसे अपनाते हो जबकि तुम बेजान थे उसने तुमको ज़िन्दगी दी, फिर वही तुम्हारी जान निकालेगा, फिर वही दोबारा ज़िन्दगी देगा, फिर उसी की ओर तुम्हें पलटकर जाना है।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-28)

एक दूसरी जगह है—

"वह ज़िन्दा को मुर्दा में से निकालता है और मुर्दे को ज़िन्दा में से निकाल लाता है और धरती को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी देता है। इसी प्रकार तुम लोग भी (मौत की हालत से) निकाल लिए जाओगे।" (क़ुरआन, सूरा-30 रूम, आयत-19)

क़ुरआन में क़ियामत की अवधारणा अत्यन्त ज़ोरदार अन्दाज़ में बयान की गई है। चुनाँचे 'क़ियामत' के मानी सिर्फ़ यही नहीं है कि यह कायनात तबाह व बरबाद हो जाएगी बल्कि इसका मतबल यह है कि एक दूसरी कायनात वुजूद में आएगी और इसके साथ सारे मरे हुए इनसान दोबारा ज़िन्दा किए जाएँगे और वे अपने अच्छे और बुरे कामों का बदला पाएँगे। जिसने अच्छे काम किए होंगे वह जन्नत (स्वर्ग) में जाएगा और जिसने बुरे काम किए होंगे वह जहन्नम (नरक) में डाला जाएगा। इस प्रकार इनसान अपने काम के मुताबिक़ अपना अंजाम पाएगा। अल्लाह फ़रमाता है—

"आख़िरकार हर व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपने-अपने पूरे बदले क़ियामत के दिन पानेवाले हो। सफल वास्तव में वह है जो वहाँ दोज़ख़ (नरक) की आग से बच जाए और जन्नत में दाख़िल कर दिया जाए। रहा यह संसार, तो यह सिर्फ़ एक माया-सामग्री है।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-185)

इनसान जब अल्लाह की हस्ती पर यक़ीन कर लेता है तो उसके अन्दर उम्मीद की एक किरण जन्म लेती है और वह अपने आपको निराशाओं की दलदल से निकलता हुआ महसूस करता है। दूसरी तरफ़ वह अपने से तुच्छ प्राणियों और पदार्थों के आगे सिर नहीं झुकाता, उसका सिर झुकता है तो उसी एक हस्ती (सर्वोच्च अल्लाह) के आगे झुकता है जिसके वश में सारी कायनात है। जो हर चीज़ का सृष्टा है, हर चीज़ का पालनहार है, जिसकी दयालुताएँ हर चीज़ को अपने दायरे में लिए हुए हैं। ज़र्रा-ज़र्रा जिसकी सत्ता के अधीन है और जो प्रत्येक वस्तु का उपास्य है।

ज़िन्दगी का मक़सद

इनसान की ज़िन्दगी का मक़सद क्या है? हर आदमी अपने हालात के अनुसार इसका जवाब देगा। एक बच्चा कहेगा कि मेरी ज़िन्दगी का मक़सद खेलकूद है, क्योंकि इसमें मुझे ख़ुशी मिलती है। एक नौजवान बनने-सँवरने और अच्छे कपड़े पहनने को ज़िन्दगी का मक़सद ठहराएगा, क्योंकि यह चीज़ उसके मन को भाती है। एक बड़ी उम्रवाला व्यक्ति कहेगा कि मेरी ज़िन्दगी का मक़सद धन-दौलत तथा अच्छा पद एवं प्रतिष्ठा पाना है, क्योंकि ये चीज़ें मेरे लिए दिली सुकून का सबब हैं। यानी इनसान की ज़िन्दगी का मक़सद ख़ुशी हासिल करना है चाहे वह जिस चीज़ से हासिल हो। इनसान की यह बात मुनासिब मालूम होती है, अतः उसे ख़ुशी मिलनी चाहिए। इस्लाम ने इस हक़ीक़त से इनकार नहीं किया है, अलबत्ता इनसान जिन साधनों से इसको हासिल करने की कोशिश करता है, क्या उनसे सच्ची ख़ुशी हासिल होती है? यह एक अहम सवाल है जिसको किसी तरह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। क्योंकि देखा जाता है कि बहुत से लोग जिनके पास धन-दौलत की बहुतायत होती है या जिनको पद-प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है, उनकी ज़िन्दगी ख़ुशियों से दूर होती है और वे सैकड़ों प्रकार के दुखों से ग्रस्त रहते हैं। यह एक आम तौर से देखने में आनेवाली सच्चाई है। इसके लिए किसी मिसाल की ज़रूरत नहीं है। दूसरी बात यह है कि इसकी कोई मात्रा तय नहीं है कि इनसान को कितना धन या किस प्रकार का पद या प्रतिष्ठा प्राप्त हो तो वह ख़ुशियों को पा लेगा! देखा जाता है कि एक व्यक्ति के पास अच्छा ख़ासा धन है जिससे वह आनन्द ले रहा है फिर भी उसे मन की संतुष्टि प्राप्त नहीं है और वह हर समय मुझे और चाहिए का नारा लगाता रहता है। अत: मालूम हुआ कि इनसान जिन साधनों मे ख़ुशी की प्राप्ति की आशा रखता है, उनसे उसको सच्ची ख़ुशी हासिल नहीं हो सकती। तो फिर सवाल उठता है कि वह उस चीज़ को कहाँ तलाश करे? इसका जवाब क़ुरआन ने दिया है। वह कहता है कि इनसान की ख़ुशी दुनिया के पास नहीं है, बल्कि अल्लाह के पास है। उस अल्लाह के पास जिसने सारी कायनात को पैदा किया और जो इस का रब (पालनहार प्रभु) है। जिसके वश में कायनात का हर कण है। जिसके पास आकाश तथा धरती के ख़ज़ाने हैं और जिसको इस ख़ज़ाने में से ख़र्च करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है।

सवाल पैदा होता है कि जब सारी ख़ुशियाँ अल्लाह ही देता है तो वह इनसानों को इसके लिए तड़पाता क्यों है? उसने क्यों लोगों को दुख-दर्द में डाल रखा है? वह क्यों नहीं एक बार में सबके लिए ख़ुशियाँ उड़ेल देता है? क़ुरआन ने इस सवाल का भी मुनासिब जवाब दिया है। क़ुरआन कहता है कि कायनात के पैदा करनेवाले ख़ुदा ने इनसान को एक ख़ास मक़सद के लिए पैदा किया है। जो उस मक़सद को पूरा करेगा, अल्लाह तआला उसको ख़ुशियाँ प्रदान करेगा। दूसरी बात यह है कि अल्लाह पहले इनसान के अन्दर वह सकत और समाई पैदा करना चाहता है, जिससे वह उन ख़ूबियों का भार सहने के योग्य हो सके और उसके अन्दर वह समाई और सकत तभी पैदा हो सकती है जब वह अपने पैदा किए जाने का मक़सद पूरा कर रहा हो। इनसान की ज़िन्दगी का मक़सद क्या है? अल्लाह कहता है कि मैंने इनसान को पैदा किया है, उसका कोई वुजूद नहीं था, अल्लाह ने उसे वुजूद बख़्शा, उसे अक़्ल और समझ दी, उसकी ज़िन्दगी के लिए सारे माहौल को अनुकूल और साज़गार बनाया, उसके खाने-पीने के लिए साफ़-सुथरी चीज़ें पैदा कीं, उसे उम्रभर मुहलत दी, उसके अन्दर विभिन्न प्रकार के एहसास को उभारनेवाली प्रेरणा शक्ति पैदा की। यह सब कुछ ख़ुदा ने इसलिए किया ताकि वह देखे कि इनसान कैसा रवैया अपनाता है। वह अच्छे काम करता है या बुरे? इसी लिए ख़ुदा ने उसे किसी हद तक अधिकार भी दिया है ताकि उसकी ठीक-ठीक परीक्षा हो सके। अल्लाह का कथन है—

"अत्यन्त उच्च एवं महान है वह जिसके हाथ में (कायनात की) बादशाहत है, और वह हर चीज़ की क़ुदरत रखता है। जिसने मौत और ज़िन्दगी को पैदा किया ताकि तुम लोगों को आज़माकर देखे कि तुममें से कौन बेहतर काम करनेवाला है। वह प्रभुत्वशाली भी है और माफ़ करनेवाला भी।" (क़ुरआन, सूरा-67 मुल्क, आयतें-1,2)

अल्लाह इनसान की परीक्षा लेना चाहता है। मगर देखिए, किस प्रकार वह उसकी परीक्षा लेता है। उसने इस कायनात को पैदा किया और इनसानों के लिए दो ख़ास जगहें बनाईं। एक का नाम 'जन्नत' (स्वर्ग) है जो ख़ुशियों का घर है, और यह बात सबको मालूम है कि इनसान फ़ितरी तौर पर ख़ुशियाँ चाहता है। दूसरी जगह 'जहन्नम' (नरक) है जो तकलीफ़ों व परेशानियों का घर है। और यह बात भी सब जानते हैं कि इनसान तकलीफ़ों व परेशिानियों को पसन्द नहीं करता है। अल्लाह तआला चाहता तो एक बार ही में उसे जहन्नम (तकलीफ़ों) से बचाकर जन्नत (यानी ख़ुशियों के घर) में दाख़िल कर देता परन्तु उसने दुनिया की यह ज़िन्दगी पैदा की और उसको रंगीनियों से भर दिया जिनकी ओर इनसान का दिल खिंचा चला जाता है। दूसरी ओर उसने कुछ आदेश भेजे जिनका पालन करने की इनसान से अपेक्षा की गई है। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जो मेरे भेजे हुए आदेशों का पालन करेगा, वह ख़ुशियों के घर में दाख़िल होगा और जो थोड़े दिनों की ज़िन्दगी की रंगीनियों में पड़कर मेरे आदेशों का उल्लंघन करेगा वह तकलीफ़ों व परेशानियों के घर में दाख़िल होगा। चुनाँचे अल्लाह कहता है—

"लोगों के लिए मनभावक चीज़ें, औरतें, औलाद, सोने चाँदी के ढेर, चुने हुए घोड़े, मवेशी और खेती की ज़मीनें बड़ी ख़ुशगवार बना दी गई हैं, मगर ये सब दुनिया की थोड़े दिनों की ज़िन्दगी के सामान हैं। हक़ीक़त में जो अच्छा ठिकाना है वह तो अल्लाह के पास है। कहो:  मैं तुम्हें बताऊँ कि इनसे ज़्यादा अच्छी चीज़ क्या है? जो लोग तक़वा (ईशपरायणता) का रवैया अपनाएँ, उनके लिए उनके रब (पालनहार) के पास बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। अल्लाह अपने बन्दों के रवैये पर गहरी नज़र रखता है।" (क़ुरआन सूरा-3 आले-इमरान, आयतें-14,15)

क़ुरआन में यह बात भी साफ़ तौर पर बयान की गई है कि यह दुनिया मनमोहक वस्तुओं तथा रंगीनियों से भरी हुई है। लेकिन यह सब चीज़ें हर एक को हासिल नहीं हैं। बल्कि यहाँ कोई अमीर है तो कोई ग़रीब। कोई पहलवान है तो कोई बीमार है। किसी के यहाँ बच्चों की भरमार है तो कोई बेऔलाद है। कोई ज्ञानी है तो कोई अज्ञानी। कोई चतुर है तो कोई बुद्धू है। मतलब यह कि दर्जों के फ़र्क़ का एक सिलसिला है जो एक को दूसरे से अलग करता है। यहाँ पर कोई दो आदमी एक सी सलाहियत और मक़ाम और दर्जा नहीं रखते हैं। तो सवाल उठता है कि यह ऊँच-नीच और कमी-बेशी आखिर क्यों है? अल्लाह कहता है कि यह भी आज़माइश ही के मक़सद से है। अल्लाह फ़रमाता है—

"वही है (अल्लाह ही है) जिसने तुमको धरती में ख़लीफ़ा (अपना प्रतिनिधि) बनाया और तुममें से कुछ को दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा ऊँचे दर्जे दिए ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसमें तुम्हारा इम्तिहान ले। बेशक तुम्हारा रब सज़ा देने में बहुत तेज़ है। और बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-165)

इस दुनिया में न सिर्फ़ यह कि दर्जों का फ़र्क़ है बल्कि मुसीबतें और परेशानियाँ भी हैं। अकाल, भुखमरी, महामारी और युद्ध जैसी सामूहिक मुसीबतों व परेशानियों के अलावा व्यक्तिगत रूप से भी दुर्घटना, बीमारी, मौत और मुहताजी पेश आती है। उनके बारे में अल्लाह कहता है कि ये भी इम्तिहान के लिए होती हैं। कहा गया—

"और हम ज़रूर तुम्हें डर और ख़तरे, भुखमरी, जान-माल के नुक़सान और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारा इम्तिहान लेंगे। इन हालात में जो लोग सब्र से काम लें, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-155)

बदले और इनाम की अवधारणा

अल्लाह ने जब इनसान को एक ख़ास मक़सद के लिए पैदा किया है तो ज़ाहिर बात है कि उसका एक निश्चित परिणाम भी होगा, क्योंकि जब किसी का इम्तिहान लिया जाता है तो उसमें कामयाब होनेवाले को इनाम दिया जाता है और जो नाकाम होता है, उसके हिस्से में रुसवाई आती है। अल्लाह ने भी इस उसूल को पूरी तरह सामने रखा है। चुनाँचे इस्लाम में 'इनाम' और 'सज़ा' की जो अवधारणा है वह इसी उसूल को बयान करती है।

जज़ा के मानी बदले के हैं। इससे अच्छे और बुरे दोनों तरह के बदले मुराद हैं। 'अच्छे बदले' के लिए क़ुरआन में 'सवाब' और 'अज्र' के शब्द भी आए हैं, और 'बुरे बदले' के लिए 'अज़ाब' (यातना), 'इताब' (प्रकोप), 'हलाकत' (तबाही) और 'इन्तिक़ाम' (प्रतिशोध) जैसे शब्द इस्तेमाल हुए हैं। इनसान का हर काम चाहे वह अच्छा हो या बुरा, साधारण हो या असाधारण, वक़्ती सार्थकता रखनेवाला हो या स्थाई सार्थकता, यहाँ तक कि एक बार किसी की ओर ग़लत नज़र से देखने, ग़लत राह में एक क़दम चलने और एक मुस्कराहट का भी बदला देने का अल्लाह ने वादा किया है। इसी तरह कोई काम करनेवाला दुनिया में अच्छी हैसियत रखनेवाला रहा हो या मामूली हैसियत का हो, राजा हो या भिखारी, ज्ञानी हो या अज्ञानी, पुरुष हो या स्त्री, हर व्यक्ति को उसके कर्म का बदला दिया जाएगा। अल्लाह फ़रमाता है—

"जिसने ज़र्रा बराबर भलाई की होगी वह उसको देख लेगा, और जिसने ज़र्रा बराबर बुराई की होगी वह उसको देख लेगा।" (क़ुरआन, सूरा-99 ज़िलज़ाल, आयतें-7,8)

एक दूसरी जगह कहा गया है—

"जवाब में उनके रब ने कहा: मैं तुममें से किसी का कर्म अकारथ करनेवाला नहीं हूँ चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-195)

इनसान की बुनियादी ख़ाहिशों और जज़बात में सन्तुलन

इनसान के अन्दर तरह-तरह की ख़ाहिशें पाई जाती हैं। खाने-पीने की ख़ाहिश, यौन-इच्छा तथा सत्ता की इच्छा आदि। ये इनसान की ख़ाहिशें ही नहीं हैं बल्कि उसकी बुनियादी ज़रूरतें भी हैं। अगर वह खाना-पीना छोड़ दे तो भूख से मर जाएगा, जिंसी अमल (यौन क्रिया) न करे तो उसकी नस्ल ख़त्म हो जाएगी और इनसानों के गरोह का कोई असरदार मुखिया (शासक) न हो तो अराजकता फैलेगी। दूसरी ओर इन ख़ाहिशों पर अगर कोई पाबन्दी न लगाई जाए तो वे इतनी बढ़ सकती हैं कि इनसान की ज़िन्दगी इन्हीं में गुम होकर रह जाए। मिसाल के तौर पर खाना-पीना एक ख़ाहिश भी है और एक ज़रूरत भी, लेकिन तरह-तरह की चीज़ें खाने के साथ उसकी यह ख़ाहिश भी होती है कि वह अच्छी-से-अच्छी चीज़ खाए ताकि पेट और ज़बान को ज़्यादा-से-ज़्यादा लज़्ज़त हासिल हो। फिर उसकी यह ख़ाहिश भी होती है कि वह इस तरह की नेमतों से फ़ायदा उठाता रहे फिर वह अपने-आप से बाहर अपने ख़ानदान और बाल-बच्चों की फ़िक्र करने लगता है। यही हाल उसकी दूसरी ख़ाहिशों का भी है। इस तरह एक बुनियादी ख़ाहिश या ज़रूरत बेशुमार ख़ाहिशों की भीड़ में खो जाती है। इन तमाम बातों के बावजूद एक हक़ीक़त यह भी है कि इनसान के पास ऐसा कोई ज़रिआ नहीं है, जो उसे इन ख़ाहिशों को सन्तुलन में रखने पर मजबूर करे। इनसान पैदाइशी तौर पर आज़ाद है और वह अपनी आज़ादी से पूरा-पूरा फ़ायदा उठा सकता है। जबकि इनसान को सारी तबाही व बरबादी इन्हीं ख़ाहिशों में असन्तुलन होने की वजह से पैदा होती है। ऐसी हालत में सिर्फ़ एक ही हस्ती रह जाती है, जो इनसानी ख़ाहिशों को सन्तुलित कर सकती है और वह अल्लाह की हस्ती है। चुनाँचे अल्लाह फ़रमाता है—

"ऐ आदम की औलाद! हर इबादत के मौक़े पर अपनी ज़ीनत (शोभा) अपनाए रहो और खाओ-पिओ और हद से आगे न बढ़ो कि अल्लाह हद से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता है।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयात-31)

इस आयात से मालूम होता कि अल्लाह ने खाने-पीने से माना नहीं किया है, बल्कि खाने–पीने में हद से बढ़ जाने से मना किया है। इसके ज़ाहरी मानी भी मुराद हैं कि एक बार में इतना न खाओ कि तुम बीमार पड़ जाओ और इसके अन्दरूनी मानी भी मुराद हैं कि खाने-पीने की ख़ाहिश को पूरा करने में फ़ुज़ूलख़र्ची की हद को न पहुँच जाओ जो कि शैतान की आदत है। एक हदीस में आया है—

"ईमानवाला एक आँत में खाता है जबकि ईमान न रखनेवाला सात आँतों में खाता है फिर भी उसका पेट नहीं भरता।" (हदीस : बुख़ारी)

कुछ हदों और पाबन्दियों के साथ जिंसी ख़ाहिश (कामेच्छा) को पूरा करने की भी अल्लाह तआला ने आज़ादी दी है, किन्तु इसमें भी हद पार करने से रोका है और इसको पूरा करने के लिए हराम तरीक़े अपनाने पर सख़्त सज़ा से ख़बरदार भी किया है। अल्लाह फ़रमाता है—

"बेशक कामयाबी पाई है ईमानवालों ने जो: अपनी नमाज़ में विनम्रता अपनाते हैं, व्यर्थ बातों से दूर रहते हैं, ज़कात के तरीक़े पर अमल करते हैं, अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करते हैं, सिवाय अपनी बीवियों और उन औरतों के जो उनकी मिल्कियत में हों कि उनपर सुरक्षित न रखने में वे निन्दनीय नहीं हैं। अलबत्ता जो इसके अलावा कुछ और चाहें वही ज़्यादती करनेवाले हैं।" (क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, आयतें-1-7)

इन आयतों में ईमानवालों की कामयाबी की शर्तें बयान की गई हैं, लेकिन इनमें यह शर्त बयान नहीं की गई कि इनसान पूरे तौर पर जिंसी ख़ाहिश (कामेच्छा) पूरा करने से बचे तभी वह कामयाब होगा। बल्कि उसको इस मामले में मुनासिब आज़ादी दी गई है और कहा गया कि वह बीवी से ख़ाहिश पूरी कर सकता है।

क़ुरआन और हदीस में शादी पर उभारा गया है और इसकी प्रेरणा दी गई है। साथ ही बिना किसी उचित कारण या मजबूरी के शादी न करना नापसन्दीदा ठहराया गया है। चाहे वह पवित्रता ही की ज़िन्दगी क्यों न गुज़ारे। हदीस में है—

अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ जंगों में होते थे, और इस बीच हमारे लिए जिंसी ख़ाहिश पूरा करने की कोई सूरत नहीं होती थी। एक बार हमने पूछा: "क्या ऐसी सूरत में हम अपने-आपको बधिया न करा लें?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसा करने से रोक दिया और इजाज़त दे दी कि हम (मामूली चीज़) कपड़े के बदले में औरतों से शादी कर सकते हैं। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह आयत पढ़ी कि "ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह ने जिन पाक चीज़ों को हलाल ठहराया है, उनको हराम न ठहराओ, और हद से आगे न बढ़ो। बेशक अल्लाह हद से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता।" (हदीस : बुख़ारी)               इनसान की ख़ाहिशों के बाद उसके जज़बात हैं। बल्कि अगर कहा जाए कि इनसान बुनियादी तौर पर जज़बात से बना है तो शायद ग़लत न होगा। वह जो कुछ करता है आम तौर से किसी-न-किसी जज़बे के तहत ही करता है, जो उसके अवचेतन में कभी सोया हुआ होता है तो कभी बेदार, कभी सादा और ख़ूबसूरत होता है, और कभी जटिल और पेचीदा। यह जज़बा कभी इनसान को बेहद ख़ुशियाँ देता है और कभी मायूसी की गहराइयों में फेंक देता है। तात्पर्य यह है कि इनसान की ज़िन्दगी का कोई मतलब है तो वह जज़बात से है। जज़बात न हों तो इनसान, इनसान न रहेगा बल्कि पत्थर होगा। दूसरी ओर यदि वे जज़बात सन्तुलित न रहकर असन्तुलित हो जाएँ तो भी इनसान को बहुत से नुक़सान पहुँचते हैं। चुनाँचे अगर उसके अन्दर सिर्फ़ फूलों की सी नर्मी हो तो हर कोई उसको चुटकियों में रखकर मसल देगा, या अगर उसके अन्दर सिर्फ़ आग की गर्मी हो तो उससे ख़ुद वह अपने-आपको जला डालेगा। मालूम हुआ कि इनसान के अन्दर जज़बात भी ज़रूरी हैं और उसके अन्दर सन्तुलन भी ज़रूरी है। इस्लाम इसी सन्तुलन पर चलने की शिक्षा देता है। प्राचीन काल एवं आधुनिक काल के दार्शनिकों के अनुसार इनसान के अन्दर बुनियादी तौर पर ये जज़बात पाए जाते हैं— डर, उम्मीद, मुहब्बत, नफ़रत और ख़ुशी और ग़म यही जज़बात हैं, जो इनसान के किरदार और चरित्र का निर्माण करते हैं।

डर और उम्मीद का जज़बा

इनसान की ज़िन्दगी डर और ख़तरे से भरी नज़र आती है। उसके दिल पर रह-रहकर यह जज़बा इतना ग़ालिब होता है कि सुबह से शाम तक वह डर की काल्पनिक आशंकाओं में घिरा रहता है। सुबह वह बिस्तर से उठता है, भय से काँपता हुआ होता है और रात को वह बिस्तर की ओर लौटता है तो भी उसके अन्दर डर के बादल छाए रहते हैं। सवाल यह है कि वह किस चीज़ से डरता है? किसी को बीमारी लग जाने का डर है, किसी को ग़रीबी और भुखमरी का डर खाए जा रहा है, किसी का दिल अपनी नौकरी के छूट जाने के डर से बैठा जा रहा है, कोई अपनी ज़िम्मेदारियों से घबरा रहा है और कोई डरा हुआ तो है परन्तु वह नहीं जानता कि किस चीज़ से उसे डर है। वह ख़तरे को भाँप नहीं पाता, मगर डर की लहरें उसके दिल में रह-रहकर उठती हैं और उसकी हिम्मत टूटती जाती है। मतलब यह कि इनसानी वुजूद में ख़ौफ़ और डर का माद्दा इतना ज़्यादा अहमियत रखता है कि बहुत सी जिस्मानी, ज़ेहनी बीमारियाँ और ख़राबियाँ डर के कारण पैदा होती हैं। डर का शिकार आदमी हर वक़्त ज़ेहनी उलझनों से घिरा रहता है। नतीजे के तौर पर तरह-तरह की जिस्मानी परेशानियों जैसे अलसर, ऐंठन, खिंचाव व तनाव यहाँ तक कि कैंसर जैसे रोगों का शिकार हो जाता है। इसके अलावा इनसान घबराहट का शिकार होकर हर वक़्त दुख-दर्द महसूस करता रहता है और उसी की आग में जलता रहता है।

सवाल पैदा होता है कि डर और ख़ौफ़ के इस जज़बे को दूर करने का क्या उपाय हो सकता है? इस दुनिया में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो यह कह सके कि आओ, मैं तुम्हें ख़ौफ़ और डर से छुटकारा दिला दूँ। ख़ुद दुनिया की हर चीज़ एक ज़र्रे से लेकर आसमान तक दूसरे के रहम की मुहताज है। फिर भला वह इनसान को कैसे ख़ौफ़ और डर से छुटकारा दिला सकती है? फिर इनसान कहाँ जाए? कौन है जो उसे इस ज़ालिम जज़बे से नजात दे दे। उसके लिए दिल को इत्मीनान की ख़ुशख़बरी कौन सुनाए? यह दुनिया इनसान के लिए एक सलीब (सूली) की तरह है, जिसपर आख़िरकार उसको जान दे देनी है, हिम्मत और बहादुरी के साथ वह जान दे या बुज़दिली और कमहिम्मती के साथ। क़ुरआन कहता है कि एक ही हस्ती रहम और मेहरबानी करनेवाली है, जो इनसान को ख़ौफ़ के जज़बे से छुटकारा दिला सकती है और वह अल्लाह की हस्ती है। अल्लाह फ़रमाता है—

"निस्सन्देह वह शैतान है जो अपने दोस्तों से तुम्हें डरा रहा है। तो तुम इनमें से किसी से न डरना, मुझसे डरना, अगर तुम वास्तव में ईमानवाले हो।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-175)

एक दूसरी जगह है—

"तुम लोगों से डरते हो हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि तुम उससे डरो।" (क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, आयत-37)

ऊपर की दोनों आयतों पर विचार करने से पता चलता है कि सर्वोच्च अल्लाह ने इनसान को डरने से मना नहीं किया है, क्योंकि डर इनसानी ज़िन्दगी में एक फ़ितरी स्थान रखता है, जो इनसान को उद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक भूमिका निभाने पर उभारता है। चुनाँचे इनसान इसी जज़बे के तहत पेश आनेवाले तमाम हादसों और ख़तरों से बचाव करता है। अल्लाह तआला ने यहाँ जिस डर से मना किया है वह ऐसा डर है जिसकी कोई हक़ीक़त नहीं। इनसान अपनी कमज़ोरियों के कारण हर एक को अपना दुश्मन समझने लगता है। चुनाँचे वह उससे भयभीत रहता है। क़ुरआन कहता है कि दुनिया की कोई भी चीज़ इनसान को क़तई तौर पर नुक़सान नहीं पहुँचा सकती। नफ़ा-नुक़सान का हक़ीक़ी मालिक सिर्फ़ अल्लाह है। इसलिए हर किसी से डरने के बजाय सिर्फ़ उसी हस्ती से डरना चाहिए, जिसकी क़ुदरत में सारी कायनात है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"अगर अल्लाह तुम्हें किसी तरह का नुक़सान पहुँचाए तो उसके सिवा कोई नहीं जो तुम्हें उस हानि से बचा सके, और अगर वह तुम्हें कोई भलाई पहुँचाए तो उसे हर चीज़ की क़ुदरत हासिल है। वह अपने बन्दों पर पूरा अधिकार रखता है और हिकमतवाला तथा ख़बर रखनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयतें-17,18)

नफ़रत और मुहब्बत का जज़बा

इनसान के अन्दर दूसरा अहम जज़बा जो उसके रवैये पर प्रभाव डालता है, वह मुहब्बत या नफ़रत का जज़बा है। ऐसा व्यक्ति जिसके दिल में नफ़रत का जज़बा हो, हमेशा अच्छे अख़लाक़ और सच्चे अमल की बरकतों से महरूम रहता है। इनसानी जिस्म के वैज्ञानिक-अध्ययनों से पता चलता है कि बहुत से अहम काम जो सन्तुलित जीवन के लिए ज़रूरी हैं, नफ़रत के जज़बे की वजह से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। जबकि मुहब्बत का जज़बा इस प्रणाली को अच्छे तरीक़े पर चलाने में मदद करता है। सवाल यह है कि इनसान के अन्दर नफ़रत और दुश्मनी की भावनाएँ पैदा ही क्यों होती हैं? इसका जवाब यह है कि इनसान अपने हितों की रक्षा करना चाहता है। चुनाँचे जिस व्यक्ति या जिस चीज़ से उसके हित प्रभावित होते हैं उसके ख़िलाफ़ दिल में नागवारी की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और यही चीज़ नफ़रत है। दूसरे शब्दों में उसे ग़ुस्सा और ग़ज़ब का नाम भी दे सकते हैं। इस्लाम के नज़दीक ग़ुस्सा अपने आप में कोई नापसन्दीदा नहीं है बल्कि नापसन्दीदा जो बात है वह यह है कि ये हद से आगे बढ़ जाए और यह भी नापसन्दीदा है कि जहाँ पर आदमी को थोड़ा बहुत ग़ुस्सा आना चाहिए वहाँ उसे ग़ुस्सा आए ही नहीं। आदमी के अन्दर ग़ैरत (स्वाभिमान) नाम की कोई चीज़ न हो तो वह बाइज़्ज़त ज़िन्दगी के बारे में सोच भी नहीं सकता और अल्लाह भी नहीं चाहता कि इनसान रुसवाई और अपमान की ज़िन्दगी गुज़ारे। दूसरी ओर एक इनसान यदि बात-बात पर ग़ुस्सा करता रहे तो वह इनसानियत के स्तर से गिर जाता है और वह सिर्फ़ एक दरिन्दा बनकर रह जाता है। चुनाँचे क़ुरआन में ऐसे व्यक्ति की तारीफ़ नहीं की गई है जिसे बिलकुल ग़ुस्सा न आता हो। बल्कि उस व्यक्ति की तारीफ़ की गई है जो ग़ुस्से के बावजूद अपने आप पर क़ाबू रखे। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"जो लोग हर हाल में अपने माल ख़र्च करते हैं, चाहे तंगहाल हों या ख़ुशहाल, जो ग़ुस्से को पी जाते हैं और दूसरों की ग़ल्तियों को माफ़ कर देते हैं, ऐसे नेक लोग अल्लाह को बहुत पसन्द हैं।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-134)

हदीस में बयान किया गया है—

"पहलवान वह नहीं है जो दूसरों को पछाड़ दे बल्कि पहलवान वह है जो ग़ुस्से में अपने को क़ाबू में रखे।" (हदीस : बुख़ारी)

एक दूसरी हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अपने दोस्त से सन्तुलन के साथ मुहब्बत करो, कहीं ऐसा न हो कि वह किसी दिन तुम्हारा दुश्मन हो जाए, और अपने दुश्मन के साथ सन्तुलत के साथ दुश्मनी करो, हो सकता है कि वह किसी दिन तुम्हारा दोस्त हो जाए।" (हदीस : तिरमिज़ी)

ख़ुद क़ुरआन में इस बात की नसीहत की गई है कि मुहब्बत और नफ़रत में हक़ एवं सन्तुलन का ध्यान रखा जाए और असन्तुलित होने से बचा जाए। अल्लाह फ़रमाता है—

"किसी गरोह की दुश्मनी तुम्हें इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम न्याय से फिर जाओ। न्याय करो, यह ख़ुदातरसी (ईशपरायणता) के अधिक अनुकूल है।" (क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, आयत-8)

दुख और ख़ुशी का जज़बा

डर, उम्मीद, मुहब्बत और नफ़रत के जज़बे के साथ-साथ ग़म और ख़ुशी का जज़बा भी इनसानी ज़िन्दगी में नुमाया भूमिका निभाता है। इनसान फ़ितरी तौर पर ख़ुशी चाहता है। जब किसी तरह से उसकी ख़ुशी छीनी जाती है तो वह दुखी हो जाता है। इस बारे में भी एकेश्वरवाद की अवधारणा एक ऐसा हथियार है, जिससे इस जज़बे की ज़्यादती और कमी पर क़ाबू पाया जा सकता है। अल्लाह कहता है कि हमने इनसान की ज़िन्दगी को दुनिया में आज़माइशों से भर दिया है। यहाँ मुश्किलों के ढेर भी हैं और ख़ुशियाँ भी, लेकिन ये सब कुछ दिनों की वक़्ती चीज़ है, इसलिए अगर कोई मुश्किलों में घिरा हो तो वह दुख और तकलीफ़ से ख़ुद को निढाल न कर ले। इसी प्रकार अगर किसी को ख़ुशी हासिल हो तो इस्लाम का हुक्म यह है कि वह उसमें भी हद से आगे न बढ़े। अल्लाह फ़रमाता है—

"कोई मुसीबत ऐसी नहीं है जो ज़मीन में या तुम्हारे अपने ऊपर पड़ती हो और हमने उसको पैदा करने से पहले एक किताब (यानी तक़दीर) में लिख न रखा हो, ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान काम है। (यह सब कुछ इसलिए है) ताकि जो कुछ भी नुक़सान तुम्हें पहुँचे, उसपर तुम निराश न हो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें प्रदान करे उस पर फूल न जाओ। अल्लाह ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता जो अपने आपको बड़ा समझते हैं और घमण्ड दिखाते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, आयतें-22-23)

चुनाँचे हदीसों में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मरनेवाले पर विलाप करने से सख़्ती के साथ मना किया है और शरीअत का यह एक तस्लीमशुदा उसूल है कि किसी के मरने पर तीन दिन से अधिक शोक न मनाया जाए। औरतों के लिए शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन की 'इद्दत' निर्धारित की गई है जो अपने अन्दर बड़े फ़ायदे और हिकमतें रखती है। एक हदीस में ख़ुशी और ग़म के बारे में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मोमिन (ईमानवाले) का मामला भी कितना अच्छा है कि हर चीज़ उसके लिए भलाई का सबब है। अगर उसे कोई ख़ुशी हासिल होती है तो वह शुक्र अदा करता है, तो यह भी उसके लिए भलाई है। और अगर उसपर कोई दुख आता है तो वह सब्र करता है, और यह भी उसके लिए भलाई है।" (हदीस : मुस्लिम)

इनसान के आम रवैयों में सन्तुलन

इस्लाम ने न केवल आम ख़ाहिशों और जज़बों में सन्तुलन बनाने और बनाए रखने पर ज़ोर दिया है बल्कि आम रवैयों जैसे बातचीत, आचरण, चाल-ढाल, पहनने-ओढ़ने यहाँ तक कि इबादतों में भी उसको बीच के रास्ते पर क़ायम रहने पर उभारा है। इनसान के मिज़ाज, रुझान और शख़्सियत का आइनादार उसका लिबास होता है। चुनाँचे हदीस में ज़ोर देकर यह बात कही गई है कि इसमें वह सन्तुलन को हाथ से न जाने दे। एक हदीस में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"जो मर्द दुनिया में रेशमी (हरीर) लिबास पहनेगा वह आख़िरत (परलोक) में उसे नहीं पहन सकेगा।" (हदीस : बुख़ारी)

एक दूसरी हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है—

"जो लिबास-पोशाक की वजह से घमंड और गर्व करेगा, क़ियामत के दिन अल्लाह उसकी ओर से नज़रें फेर लेगा।" (हदीस : बुख़ारी)

लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि फटीचरों की तरह रहा जाए। एक दूसरी हदीस में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसको स्पष्ट कर दिया है—

"अल्लाह अपनी नेमतों (अनुकम्पाओं) के प्रभाव को अपने बन्दों पर देखना चाहता है।" (हदीस : तिरमिज़ी)

एक अन्य हदीस में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अल्लाह ख़ूबसूरत है और ख़ूबसूरती को पसन्द करता है।" (हदीस : मुस्लिम)

इसी तरह इस्लामी शरीअत (धर्म-विधान) में बोल-चाल एवं आचरण में भी दरमियान का रास्ता अपनाने पर ज़ोर दिया गया है। इतराकर चलना, तेज़-तेज़ चलना और चिल्ला-चिल्लाकर बातें करना कोई अच्छी बात नहीं है। इसके मुक़ाबले में मरियल अन्दाज़ से चलना, चींटी की चाल चलना या इतने धीरे बोलना कि सामनेवाला आवाज़ ही न सुन सके, यह भी असन्तुलित रवैया है। इसलिए क़ुरआन में कहा गया है—

"अपनी चाल में सन्तुलन बनाए रखो और अपनी आवाज़ नीची (धीमी) रखो, निस्सन्देह सब आवाज़ों से ज़्यादा बुरी आवाज़ गधे की आवाज़ होती है।" (क़ुरआन, सूरा-31 लुक़मान, आयत-19)

इनसान पैसे ख़र्च करने में भी आमतौर पर असन्तुलित रवैयों का प्रदर्शन करता है। कभी वह इस मामले में फ़ुज़ूलख़र्ची से काम लेता है और कभी कंजूस बन जाता है। ये दोनों रवैये असन्तुलित रवैये हैं। इस्लाम कहता है कि इनसान इसमें सन्तुलन बनाए रखे। अल्लाह फ़रमाता है—

"न तो अपना हाथ गर्दन से बाँधे रखो और न उसे बिलकुल ही खुला छोड़ दो कि निन्दित और असहाय बनकर रह जाओ। तेरा रब जिसके लिए चाहता है, रोज़ी कुशादा करता है और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। वह अपने बन्दों के हाल से बाख़बर है और उन्हें देख रहा है।" (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें-29,30)

एक दूसरी जगह कहा गया है कि ईमानवाले की यह शान है कि वह अपनी आर्थिक ज़िन्दगी में पूर्ण रूप से नियन्त्रण रखता है। न वह फ़ुज़ूलख़र्ची करता है और न कंजूसी से काम लेता है। चुनाँचे अल्लाह फ़रमाता है—

"और वे लोग जब ख़र्च करते हैं तो न फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं, न कंजूसी से काम लेते हैं, बल्कि उनका मामला दोनों सीमाओं के बीच सन्तुलन पर क़ायम रहता है।" (क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-67)

आम तौर पर लोग दुनियावी मामलों में असन्तुलन का शिकार हो जाते हैं और ध्यान दिलाने पर उसमें सुधार के लिए भी तैयार हो जाते हैं, परन्तु यदि किसी से कह दिया जाए कि इबादतों में भी सन्तुलन बनाए रखना है तो वह इसको मात्र बकवास ठहराता है और कहता है कि "क्या अल्लाह तआला की इबादतों में भी असन्तुलन हो सकता है? अल्लाह तआला माबूद (पूज्य-प्रभु) है, उसकी तो जितनी भी इबादत की जाए, कम है।" बेशक यह बात सही है कि अल्लाह तआला माबूद (उपास्य) है और उसकी जितनी भी इबादत की जाए, कम है। लेकिन यह भी सच है कि अल्लाह तआला बन्दे की इबादतों से नहीं थकता, बल्कि इबादत करनेवाले ख़ुद थक जाते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि इसमें सन्तुलन बनाए रखा जाए। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है—

"सीधा रास्ता अपनाओ और सन्तुलन से काम लो और याद रखो कि कोई व्यक्ति मात्र अपने कर्मों के आधार पर जन्नत में नहीं जाएगा (बल्कि अल्लाह की मेहरबानी ही से जाएगा)। अल्लाह को सबसे ज़्यादा पसन्दीदा अमल वह है जिसमें निरन्तरता रहे अगरचे वह मात्रा में कम हो।" (हदीस : बुख़ारी)

क़ुरआन में यहूदियों और ईसाइयों के असन्तुलित रवैयों का उल्लेख हुआ है। उसमें यह बात भी बताई गई है कि उनको इबादतों में सन्तुलन की नीति से काम लेने को कहा गया, मगर उन्होंने उनमें अति की नीति अपनाई। चुनाँचे किसी ने ईशदूत को ख़ुदा बना लिया तो किसी ने दुनियावी लज़्ज़तों को पूरे तौर पर त्यागकर संन्यास का मार्ग अपनाया, जिसको व्यावहारिक रूप में वे निभा न सके। परिणाम स्पष्ट है कि वे ख़ुदा के दीन से दूर हो गए। क़ुरआन में उनकी इसी हालत की तरफ़ इशारा किया गया है—

"और रहबानियत (संन्यास) उन्होंने ख़ुद गढ़ ली, हमने उसे उन पर अनिवार्य न किया था सिवाय अल्लाह की प्रसन्नता के। उन्होंने रहबानियत की बिद्अत (मनगढ़ंत उपासना रीति) निकाली और फिर उसकी पाबन्दी करने का जो हक़ था, उसे अदा न कर सके।" (क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, आयत-27)

यही वजह है कि क़ुरआन में इनसान को बताया गया है कि वह न तो दुनिया ही का होकर रह जाए और न उसे बिलकुल त्याग दे। बल्कि इस सम्बन्ध में वह सन्तुलन बनाए रखे। अल्लाह का फ़रमान है—

"जो माल अल्लाह ने तुझे दिया है, उससे आख़िरत (परलोक) का घर बनाने की चिन्ता कर और दुनिया में से भी अपना हिस्सा न भूल।" (क़ुरआन, सूरा-28 क़सस, आयत-77)

हदीस में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा है कि सबसे अच्छी दुआ वह है जिसमें आख़िरत की सफलता के साथ दुनिया की भलाई की तमन्ना की गई हो। चुनाँचे इसी सिलसिले में अल्लाह ने यह दुआ सिखाई है—

"ऐ हमारे रब! हमें दुनिया में भी भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई और आग की यातना से हमें बचा।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-201)

अध्याय-3

तौहीद का अक़ीदा (एकेश्वरवाद) और

समाजी ज़िन्दगी में अद्ल का क़ियाम

इनसान एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह समाज बनाकर ज़िन्दगी गुज़ारता है और गाँव से लेकर बड़े-बड़े शहरों, यहाँ तक कि मुल्क तक वुजूद में आ जाता है, जहाँ लोग मिल-जुलकर ज़िन्दगी की विभिन्न ज़रूरतों और तक़ाज़ों को पूरा करते हैं। इनसान को जिस प्रकार निजी और ज़ाती ज़िन्दगी में इनसाफ़ की ज़रूरत होती है, उसी तरह समाजी ज़िन्दगी में भी ज़रूरत है कि वह इनसाफ़ को क़ायम करे और बनाए रखे। दूसरी सूरत में समाजी ज़िन्दगी बाक़ी नहीं रह सकती और अगर बाक़ी रहे भी तो दर्द व बेचैनी के साथ कि जिसमें इनसानों का एक गरोह ख़ुशी और मस्ती में हो और दूसरा गरोह आहों और सिसकियों के साथ ज़िन्दगी गुज़ारे और ज़ाहिर है कि इस हालत को अच्छा नहीं कहा जा सकता और यह देर तक बाक़ी भी नहीं रह सकती।

आज के दौर में इनसानी समाज जिन नज़रियों और अक़ीदों पर क़ायम है, उनके मुताबिक़ समाजी ज़िन्दगी के बनने और बनाने में ख़ुदा और मज़हब का कोई रोल नहीं हो सकता। ख़ुदा को मानना या न मानना हर इनसान का निजी मामला है। उसका इनसान की समाजी ज़िन्दगी से कोई ताल्लुक़ नहीं है। चुनाँचे आज दुनिया का लगभग हर देश अपने को सेक्युलर या धर्म निरपेक्ष (राज्य को धर्म से अलग) बताता है। जिसका मतलब यह है कि समाजी मामलों में ख़ुदा को दख़ल देने का न कोई हक़ है और न इसका कोई फ़ायदा है। इनसान तन्हाई में ख़ुदा को याद कर सकता है और अपने मज़हब के अनुसार उसकी पूजा-पाठ कर सकता है, मगर सांस्कृतिक और समाजी ज़िन्दगी में ख़ुदा को शामिल करने की बिलकुल ज़रूरत नहीं है। ख़ुदा का ताल्लुक़ रूहानियत से है। मामलात, समाजी मूल्यों, तिजारत, सन्अत तथा सियासत से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं है। इस्लाम ने इस नज़रिए को ग़लत ठहराया है और बताया है कि समाज के बनाने और तरक्क़ी में ख़ुदा और मज़हब इन्तिहाई अहम किरदार अदा करते हैं। आगे की लाइनों में कुछ अहम पहलुओं को बयान किया जा रहा है, जो समाज में और समाजी ज़िन्दगी की तामीर और तरक़्क़ी के लिए इन्तिहाई ज़रूरी हैं।

तमाम इनसानों के बीच मुकम्मल बराबरी

वह समाज जिसके लोगों के बीच बराबरी न हो या भेद-भाव की कोई भी सूरत पाई जाए, कभी ख़ुशहाल और अम्न व सुकूनवाला नहीं हो सकता। इनसानों के बीच भेद-भाव, नाबराबरी माद्दी और ज़ाहिरी असबाब की कमी-बेशी से पैदा होती है। चुनाँचे अमीरी-ग़रीबी, हस्ब-नस्ब, काला-गोरा, पेशा और नौकरी, हाकिम और महकूम और ऊँच-नीच के भेद-भाव की जितनी क़िस्में पाई जाती हैं, वे सब इनसान के ज़ाहिर से ताल्लुक़ रखती हैं। और यह हक़ीक़त है कि इनसानों के बीच इन चीज़ों में फ़र्क़ या कमी-बेशी पाई जाती है और इसको ख़त्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह फ़ितरत की मंशा के ख़िलाफ़ होगा। फिर सवाल पैदा होता है कि इनसानों के बीच बराबरी कैसे क़ायम हो? इसका जवाब है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा (यानी ख़ुदा और मज़हब) के ज़रिए से। नीचे इसकी तफ़सील बयान की जा रही है।

1. अगर यह मान लिया जाए कि इनसान एक इत्तफ़ाक़ी घटना के नतीजे में पैदा हुआ है, जैसा कि पश्चिमी नज़रिया रखनेवाले लोग दावा करते हैं तो लाज़िमी तौर पर इनसानों के बीच फ़र्क़ और भेद-भाव को भी मानना पड़ेगा, क्योंकि इत्तफ़ाक़ी घटनाओं के नतीजे में लोगों में फ़र्क़ और ऊँच-नीच पाया जाता है। चुनाँचे जो अमीर होगा वह ग़रीबों से बरतर होगा, जो गोरा होगा वह कालों से अच्छा और अलग समझा जाएगा। इसी तरह जिसको इक़्तिदार और हुकूमत हासिल होगी वह ख़ुसूसी इख़्तियारों और हैसियतों का मालिक होगा। जबकि तौहीद का अक़ीदा रखने से भेद-भाव की ये सारी दीवारें ढह जाती हैं। क़ुरआन ने इस बात को बार-बार उजागर किया है कि सारी कायनात और सारे इनसानों का पैदा करनेवाला बस एक हस्ती 'अल्लाह' है। इसलिए सब इनसान आपस में बराबर हैसियत रखते हैं। अल्लाह फ़रमाता है—

"लोगो! डरो अपने रब (पालनहार) से जिसने तुमको पैदा किया एक जान से और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें दुनिया में फैला दिए।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-1)

2. ऐसा नहीं है कि सारे इनसानों का पैदा करनेवाला तो अल्लाह है, लेकिन उसने कुछ लोगों को ख़ास तवज्जोह देकर पैदा किया है और कुछ लोगों को इस से महरूम कर दिया है, जैसा कि हिन्दू धर्म की आस्था में यह बात पाई जाती है कि ब्रह्मा ने ब्राह्मण को मुँह से, क्षत्रिय को भुजाओं से, वैश्य को जांघ से और शुद्र को पाँव से पैदा किया है। इसलिए वे एक-दूसरे से अलग और भिन्न हैं। ऐसा नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला ने सबको एक जैसी तवज्जोह और एहतिमाम से पैदा किया है। ख़ुदा का फ़रमान है—

"अल्लाह ने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर नुत्फ़े (वीर्य) से, फिर तुम्हारे जोड़े बनाए (यानी मर्द-औरत) कोई औरत हामिला नहीं होती और न बच्चा जनती है, मगर यह सब कुछ अल्लाह के इल्म में होता है। कोई उम्र पानेवाला उम्र नहीं पाता और न किसी की उम्र में कुछ कमी होती है, मगर यह सब कुछ एक किताब में लिखा होता है। अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।" (क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, आयत-11)

3. ऐसा भी नहीं है कि अल्लाह ने कुछ लोगों को मोहतरम और इज़्ज़तदार होने का सर्टिफ़िकेट दे दिया और कुछ लोगों को तुच्छ एवं अपमानित होने पर मजबूर कर दिया या कुछ लोगों को अल्लाह ने अपना महबूब बन्दा बना लिया और कुछ लोगों को धुतकार दिया, जैसा कि दुनिया की कुछ क़ौमें मसलन यहूदी और ब्रह्मण समझते हैं कि वे ख़ुदा के चहेते हैं। हिन्दुओं में ब्रह्मण भी जन्म के आधार पर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ और ईश्वर का प्रिय एवं निकटवर्ती समझते हैं। जबकि सच तो यह है कि ख़ुदा ने सब इनसानों को समान रूप से मोहतरम और इज़्ज़तदार पैदा किया है। बुज़ुर्गी और बरतरी किसी एक तबक़े के लिए ख़ास नहीं है, बल्कि सारी इनसानियत के लिए आम है। अल्लाह फ़रमाता है—

"हमने आदम की औलाद (इनसान) को बुज़ुर्गी दी और उन्हें ख़ुश्की और तरी में सवारियाँ अता कीं और उनको पाकीज़ा चीज़ों से रोज़ी दी और अपनी बहुत-सी मख़लूक़ पर नुमायाँ बरतरी अता की।" (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-70)

4. ऐसा भी नहीं है कि अल्लाह ने इनसानों को अलग-अलग मक़सद के लिए पैदा किया कि मक़सद के ऊँचा और नीचा होने के लिहाज़ से लोगों में भेद-भाव एवं फ़र्क़ पाया जाए। जैसा कि हिन्दू मत में कहा गया है कि ब्रह्मण का मक़सद वेद पढ़ना, क्षत्रिय का मक़सद जनता की रक्षा करना, वैश्य का मक़सद खेती करना तथा शुद्र का मक़सद सबकी सेवा करना है। लेकिन इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने सारे इनसानों को एक ही मक़सद के लिए पैदा किया है और वह मक़सद है "अल्लाह की इबादत करना।" क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है—

"मैंने जिन्नों और इनसानों को इसके सिवा किसी काम के लिए पैदा नहीं किया है कि वे मेरी इबादत करें।" (क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, आयत-56)

5. इनसान की पैदाइश और पैदा करने का मक़सद एक जैसा होने के साथ एक बात यह भी क़ाबिले-ग़ौर है कि सारे इनसानों को पलटकर फिर उस पैदा करनेवाले (अल्लाह) के सामने जाना है, जहाँ उन्हें अपने कर्मों का बदला मिलेगा। जो नेक होगा उसे अच्छा बदला मिलेगा और जो बुरा होगा उसे बुरा बदला मिलेगा। इस बारे में कोई भेद-भाव नहीं है कि किसी ख़ास तबक़े, हस्ब-नस्ब, पेशे या ख़ित्ते से ताल्लुक़ रखनेवाले आदमी से पूछ-गछ होगी और जो उस गरोह से ताल्लुक़ न रखता होगा उससे पूछ-गछ न होगी, बल्कि अल्लाह तआला ने वाज़ेह कर दिया है कि हर इनसान को एक दिन उसके सामने खड़ा किया जाएगा, अल्लाह फ़रमाता है—

"लो अब तुम वैसे ही बिलकुल अकेले हमारे सामने हाज़िर हो गए जैसा कि हमने तुम्हें पहली बार अकेला पैदा किया था। जो कुछ हमने तुम्हें दिया था वह सब तुम पीछे छोड़ आए हो और अब हम तुम्हारे साथ तुम्हारे इन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देखते जिनके बारे में तुम समझते थे कि तुम्हारे काम बनाने में उनका भी हिस्सा है। तुम्हारे आपस के सब रास्ते टूट गए और वे तुमको खो गए जिनका तुम्हें दावा था।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-94)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"क़ियामत के दिन न तुम्हारी रिश्तेदारियाँ किसी काम आएँगी और न तुम्हारी औलाद।"

(क़ुरआन, सूरा-60 मुम्तहिना, आयत-3)

इस्लाम में इनसानी बराबरी की यही वे बुनियादें हैं जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक हदीस में इस प्रकार वाज़ेह किया है—

"ऐ लोगो! तुम्हारा रब एक है। तुम्हारा बाप (आदम) एक है। इसलिए किसी अरबी (अरबवासी) को अजमी (ग़ैर-अरब) पर कोई बड़ाई नहीं और न किसी अजमी को अरबी पर बड़ाई है, न गोरे को काले पर, न काले को गोरे पर कोई बड़ाई है। मगर बड़ाई की बुनियाद तक़वा (परहेज़गारी) है। तो अल्लाह के नज़दीक तुममें अधिक इज़्ज़तवाला वह है जो अधिक मुत्तक़ी और परहेज़गार है।" (हदीस : मुस्नद अहमद, 5/411)

इनसानों के बीच मुकम्मल बराबरी का यह ख़याल सिर्फ़ तौहीद का अक़ीदा ही पैदा करता है। अगर इनसानियत दुनिया में इनसाफ़ को जारी-व-सारी देखना चाहती है तो उसे तौहीद का अक़ीदा अपनाने के सिवा कोई और चारा नहीं है।

हक़ और ज़िम्मेदारियों का सन्तुलित निज़ाम

इस्लाम ने इनसानी समाज में इनसाफ़ क़ायम करने की जो दूसरी बुनियाद मुहैया की है वह विभिन्न इनसानों के बीच हुकूक़ और फ़राइज़ का सन्तुलित निज़ाम है। बेशक आदमी की बहुत ही अहमियत है और उसको फ़िक्र, अमल और मिलकियत और उसे इस्तेमाल की आज़ादियाँ भी हासिल हैं, मगर ऐसा नहीं है कि उसको पूरी छूट मिली हुई है कि वह किसी नियम की पाबन्दी न करे, बल्कि उसपर कुछ ज़िम्मेदारियाँ और फ़र्ज़ भी लागू होते हैं। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ख़बरदार! तुममें से हर व्यक्ति रखवाला है और हर एक से पूछ-गछ होगी। इमाम (हाकिम या सुलतान) लोगों का रखवाला है और उससे उनके बारे में पूछा जाएगा। मर्द अपने घरवालों का निगराँ है और उससे उसके बारे में सवाल किया जाएगा। औरत अपने बच्चों और पति के घर की निगराँ है और उससे उसके बारे में पूछ-गछ होगी। नौकर अपने मालिक के माल का निगराँ है और उसको उसके बारे में जवाब देना होगा। ख़बरदार! तुममें हर एक शख़्स रखवाला है और हर एक को (ख़ुदा के सामने) जवाबदेही करनी है।" (हदीस : बुख़ारी)                               इस हदीस में जिस पूछ-गछ किए जाने का तज़किरा हुआ है उसका ताल्लुक़ आख़िरत की पूछ-गछ से है, इसलिए हर आदमी दूसरों के हक़ अदा करने के बारे में अल्लाह के सामने जवाबदेह होगा। एक अन्य हदीस से इस बात की ताईद होती है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"तुम ज़रूर ही क़ियामत के दिन लोगों के हक़ अदा करके रहोगे। यहाँ तक कि किसी सींगवाली बकरी ने बिना सींगवाली बकरी को सींग मारी होगी तो उसको उसका बदला दिलाया जाएगा।" (हदीस : मुस्लिम)

इस्लामी शरीअत (धर्म-विधान) में विभिन्न लोगों के हक़ बताए गए हैं। उनमें माँ-बाप, मियाँ-बीवी, औलाद, क़रीबी रिश्तेदार, पड़ोसी और आम मुसलमानों और दूसरे इनसानों के हक़ ख़ास तौर से बयान करने के क़ाबिल हैं। माँ-बाप के साथ नेक सुलूक पर क़ुरआन और हदीस में वाज़ेह तौर से ज़ोर दिया गया है। इसके साथ यह भी बताया गया है कि जो इनके साथ अच्छा सुलूक करने से बचेगा वह अल्लाह तआला की नाराज़गी का सबब बनेगा, जिसकी सज़ा वह दुनिया में भी देता है और आख़िरत में भी।

हज़रत अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"कोई गुनाह ऐसा नहीं है, जिसके करनेवाले को दुनिया में भी सज़ा दी जाए और आख़िरत में भी सज़ा दी जाए। मगर सरकशी और क़रीबी रिश्तों को तोड़ना ऐसे गुनाह हैं जिनकी सज़ा दोनों जगह दी जाती है।" (हदीस : बुख़ारी)

यह बात वाज़ेह रहे कि रिश्तेदारों से अच्छे सुलूक के सबसे पहले हक़दार माँ-बाप हैं। अगर उनसे नाता तोड़ लिया जाए तो ऊपर बयान हुई हदीस के मुताबिक़ आदमी सज़ा से बच नहीं सकेगा।

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं—

"अल्लाह की ख़ुशनूदी बाप की ख़ुशी में है और अल्लाह की नाराज़ी बाप की नाराज़ी में है।"

कुछ उल्लेखों में माँ-बाप की नाफ़रमानी को 'अकबरुल-कबाइर' (बड़े गुनाहों में सबसे बड़ा गुनाह) में गिना गया है। ज़ाहिर है कि बड़ा गुनाह अल्लाह की नाराज़ी का ज़रिआ है।

क़ुरआन और हदीस में मियाँ-बीवी के बहुत से हक़ और फ़र्ज़ बयान हुए हैं। उनकी अदाइगी दोनों पर ज़रूरी है, अदा न करने की सूरत में अल्लाह के सामने इसके लिए जवाब देना होगा और अख़िरत में इसके बुरे अंजाम सामने आएँगे। एक रिवायत में ऐसे आदमी के बारे में कहा गया है कि जिसकी दो बीवियाँ हैं और वह उनके बीच इनसाफ़ न करे तो क़ियामत के दिन अल्लाह के सामने इस हालत में हाज़िर होगा कि उसका एक पहलू मफ़लूज होगा।

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करत हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"जिसकी दो बीवियाँ हों और वह उनमें से किसी एक की ओर झुक जाए (और दूसरी को नज़रअन्दाज़ कर दे) तो क़ियामत के दिन वह इस हालत में आएगा कि उसका एक पहलू झुका हुआ होगा।" (हदीस : सुनन अबू-दाऊद)                                                        औलाद के भी बहुत से हक़ बयान हुए हैं, उनमें सबसे बुनियादी हक़ यह है कि उनको ज़िन्दा रहने दिया जाए। ख़ास तौर पर अगर औलाद बेटियाँ हों तो उनको क़त्ल न किया जाए, जैसा कि जाहिलियत के ज़माने में अरब में लड़कियों को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ दिया जाता था। क़ुरआन में आया है कि क़ियामत के दिन ऐसी बच्चियों से पूछा जाएगा कि तुम्हें किस गुनाह के बदले क़त्ल किया गया था। अल्लाह फ़रमाता है—

"और जब ज़िन्दा गाड़ी हुई लड़की से पूछा जाएगा कि किस गुनाह की वजह से वह क़त्ल की गई।" (क़ुरआन, सूरा-81 तकवीर, आयतें-8-9)

इसमें औलाद के क़त्ल की संगीनी बयान की गई है। चुनाँचे बजाए क़ालित के क़त्ल किए जानेवाले से पूछा जाएगा कि उसका कोई क़ुसूर न था मगर उसे क्यों क़त्ल कर दिया गया।

अल्लाह के बन्दों (इनसानों) के हक़ मार लेने को 'ज़ुल्म' (अन्याय एवं अत्याचार) कहा गया है और 'ज़ुल्म' क़ियामत के दिन के अँधियारों का नाम है। कुछ हदीसों में 'मज़लूम' (जिस पर ज़ुल्म किया गया हो) की बददुआ से बचने की ख़ास तौर पर ताकीद की गई है। क्योंकि उसके और अल्लाह तआला के बीच दुआ क़बूल होने में कोई रुकावट नहीं होती।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यमन की ओर भेजते हुए फ़रमाया—

"मज़लूम की बददुआ से बचना क्योंकि उसके और अल्लाह के बीच कोई पर्दा नहीं होता।"

(हदीस : बुख़ारी)

ख़ुदा के बन्दों के हक़ के बारे में जवाबदेही के ताल्लुक़ से एक लम्बी हदीस है जिसमें कहा गया है—

"क़ियामत के दिन अल्लाह अपने बन्दों से सवाल करेगा कि मैं बीमार हुआ लेकिन तुमने मेरी बीमारी का हाल न पूछा, मैं भूखा था मगर तुमने खाना नहीं खिलाया, मैं प्यासा था मगर तुमने पानी नहीं पिलाया। इस पर बन्दा कहेगा कि ऐ सारे जहान के पालनहार! तू कैसे बीमार, भूखा और प्यासा हो सकता है? अल्लाह कहेगा कि मेरा फ़ुलाँ बन्दा बीमार था, फ़ुलाँ बन्दा भूखा था और फ़ुलाँ बन्दा प्यासा था, मगर तूने उनकी ख़बरगीरी नहीं की, अगर तूने उनकी ख़बरगीरी की होती तो वहाँ मुझे मौजूद पाता।" (हदीस : मुस्लिम)

अबू-शुरैह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"अल्लाह की क़सम वह मोमिन (ईमानवाला) नहीं हो सकता, अल्लाह की क़सम वह मोमिन नहीं हो सकता, अल्लाह की क़सम वह मोमिन नहीं हो सकता।" पूछा गया, "ऐ अल्लाह के रसूल, कौन?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से मामून (सुरक्षित) न हो।" (हदीस : बुख़ारी)

इस तरह की बहुत सी हदीसों से मालूम होता है कि दुनिया में बन्दों के हुक़ूक़ की अदाइगी का ताल्लुक़ सीधे-सीधे अल्लाह पर ईमान और आख़िरत पर ईमान से है और इसका तक़ाज़ा है कि आदमी अपने रिश्ते-नातेदारों के हक़ को दुनिया ही में अदा कर दे वरना उसको उन्हें वहाँ अदा करना पड़ेगा जहाँ देने के लिए कुछ न होगा यानी आख़िरत।

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"इस दुनिया में जिस किसी ने भी अपने भाई पर ज़ुल्म-ज़्यादती की हो तो वह उसकी भरपाई उस दिन से पहले कर दे जब उसके पास 'दिरहम' होगा न 'दीनार'। क़ियामत के दिन ऐसा होगा कि उसका अच्छा अमल उससे ले लिया जाएगा और मज़लूम (पीड़ित) को दे दिया जाएगा। और अगर उसके आमालनामे में नेकियाँ होंगी तो मज़लूम के गुनाह उसके सिर पर लाद दिए जाएँगे।" (हदीस : बुख़ारी)

एक दूसरी हदीस में आया है कि अल्लाह अपने बन्दों को मुख़ातब करके कहता है—

"ऐ बन्दो! मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म को हराम कर लिया है। अतः तुम भी एक-दूसरे पर ज़ुल्म न किया करो।" (हदीस : मुस्लिम)

इस पूरी तफ़सील से वाज़ेह होता है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा आपसी हक़ और फ़र्ज़ों की अदाइगी में किस तरह अहम किरदार अदा करता है। इससे समाज की तामीर किन उसूलों पर होती है।

आपस की ज़िम्मेदारी

इस्लाम इनसानी समाज का जिन बुनियादों पर गठन करता है, उनमें एक बुनियाद आपस की ज़िम्मेदारी है। जिसका मतलब यह है कि समाज का एक व्यक्ति दूसरे का ज़ामिन और संरक्षक हो और किसी भी लिहाज़ से कोई व्यक्ति बेकार न हो। आपसी ज़िम्मेदारियों की ये शिक्षाएँ सिर्फ़ माद्दी दायरों तक महदूद नहीं हैं, बल्कि ये अन्दुरूनी और रुहानी दायरों तक फैली हुई हैं। क़ुरआन और हदीस में जगह-जगह इस सच्चाई को उजागर किया गया है कि सारे ईमानवाले आपस में भाई-भाई हैं। वे एक दूसरे के संरक्षक और ग़मख़ार हैं। चुनाँचे एक मुस्लिम अपने दोस्त और भाई की हर मौक़े पर सहायता करता है। अगर वह किसी बुराई में पड़ा हो तो उससे उसको नजात दिलाने की कोशिश करता है। नीचे की पंक्तियों में आपसी ज़िम्मेदारी की फ़ितरी तरतीब के साथ, विभिन्न तशरीहें दी जा रही हैं।

इस्लाम में आपसी ज़िम्मेदारी की तालीमात आदमी की निजी आज़ादी और हक़ों के साथ शुरू होती हैं। समाज का हर आदमी ख़ुद जिम्मदार है और उसको अपने आमाल (कर्मों) का अल्लाह को जवाब देना है। क़ुरआन के नीचे लिखे उसूलों पर विचार करने से यह नुक़्ता वाज़ेह होता है। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"हर शख़्स अपने नफ़्स के बदले में गिरवी है।" (क़ुरआन, सूरा-74 मुद्दस्सिर, आयत-38)

एक दूसरी जगह अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"कोई व्यक्ति किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा और यह कि इनसान के काम आनेवाली चीज़ बस वही है जिसकी उसने कोशिश की (यानी जो कर्म उसने किया) और यह कि उसकी कोशिशों (आमाल) का फल उसके सामने लाया जाएगा और फिर उसे पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-53 नज्म, आयतें-38-41)

एक जगह और अल्लाह फ़रमाता है—

"और जो कोई बुराई कमाए तो उसकी यह कमाई उसी के ऊपर होगी (यानी उसका अंजाम उसे ख़ुद ही भुगतना होगा)।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-11)

इस तरह की और भी बहुत सी आयतें हैं। उनसे जहाँ निजी तौर से जवाबदेही का मतलब निकलता है, वहीं यह उसूल भी निकलता है कि हर आदमी ख़ुद अपना कफ़ील, संरक्षक और ज़िम्मेदार है। और उसे एक ज़िम्मेदार आदमी की हैसियत से ज़िन्दगी बसर करनी चाहिए। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—                                                                  "आदमी के लिए अपने हाथ की कमाई से बेहतर कोई रोज़ी नहीं।" (हदीस : बुख़ारी)                         निजी किफ़ालत के बाद परिवार की किफ़ालत का दायरा है। ख़ानदानी रिश्तेदारों में दर्जा-ब-दर्जा एक-दूसरे के हक़ और ज़िम्मेदारियाँ तरतीब पाती हैं। औलाद की परवरिश के हवाले से अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"जो बाप चाहते हों कि उनकी औलाद दूध पिलाने की पूरी अवधि तक दूध पिए तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ। इस सूरत में बच्चे के बाप को मारूफ़ तरीक़े से उन्हें खाना-कपड़ा देना होगा।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-233)

औलाद की किफ़ालत का मतलब सिर्फ़ उन्हें खाने-पीने की चीज़ें मुहैया करा देना नहीं है, बल्कि उनके साथ नर्मी और रहमत से पेश आना और उनकी दीनी (धार्मिक) और अख़लाक़ी तरबियत करना भी इसके मतलब में शामिल है। जैसा कि अल्लाह फ़रमाता है—

"ऐ ईमानवालो! अपने आपको और अपनी आल-औलाद को जहन्नम की आग से बचाओ।"

(क़ुरआन, सूरा-66 तहरीम, आयत-6)

ख़ानदान में सिर्फ़ बच्चों की किफ़ालत और परवरिश का मसला नहीं होता बल्कि बूढ़े माँ-बाप की देख-भाल और उनकी सेवा भी ज़रूरी है। इस बारे में क़ुरआन में आदेश है, अल्लाह फ़रमाता है—

"और माँ-बाप के साथ नेक सुलूक करो। अगर तुम्हारे पास उनमें से कोई एक या दोनों बूढ़े होकर रहें तो उन्हें 'उफ़' तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे एहतिराम के साथ बात करो और नर्मी और रहम के साथ उनके सामने झुककर रहो और दुआ किया करो कि: अल्लाह इनपर दया कर, जिस तरह इन्होंने रहमत और प्यार के साथ मुझे बचपन में पाला था।" (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें-23,24)

माँ-बाप और औलाद के बाद अन्य रिश्तेदारों की किफ़ालत और उनकी ख़बरगीरी का दायरा आता है। इस्लाम ने वाज़ेह तौर से इसकी शिक्षा दी है। क़ुरआन में एक जगह कहा गया है—

"अल्लाह अद्ल और एहसान और नातेदारों को (माल) से नवाज़ने का हुक्म देता है।" (क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, आयत-90)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं। यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ को जानता है।" (क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-75)

आपसी किफ़ालत के तक़ाज़ों की तकमील (पूरा करने) के लिए शरीअत में विरासत के अहकाम आए हैं। विरासत में दर्जा-ब-दर्जा तमाम लोगों के हिस्से, चाहे वह मर्द हों या औरतें, निर्धारित कर दिए गए हैं। अल्लाह फ़रमाता है—

"माँ-बाप और क़रीबी नातेदारों ने जो कुछ विरासत में छोड़ा है उसमें मर्दों का भी हिस्सा है और औरतों का भी।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-7)

इस्लामी समाज में आपसी किफ़ालत के तक़ाज़े सिर्फ़ परिवार से सम्बन्धित किफ़ालत करने के हुक्मों से पूरे नहीं होते, इसलिए ख़ास तौर से माली (आर्थिक) तौर से कमज़ोर वर्गों, विधवाओं और माली (आर्थिक) तौर से दबे-कुचले आम लोगों की किफ़ालत का जब तक समाजी नज़्म नहीं होगा इस्लामी समाज क़ायम नहीं हो सकता। चुनाँचे इस्लामी शरीअत में ज़कात की जो मदें बयान की गई हैं, उनमें सबसे पहले इन्हीं लोगों को शामिल किया गया है। अल्लाह फ़रमाता है—

"ये सदक़े (ज़कात) तो अस्ल में फ़क़ीरों (निर्धनों) और मिसकीनों (असहायों) के लिए हैं और उन लोगों के लिए जो सदक़ों के काम पर लगाए गए हों, और उनके लिए जिनके दिलों की तालीफ़ करना मतलूब हो। साथ ही ये गर्दनों के छुड़ाने और क़र्ज़दारों की मदद करने में और अल्लाह के मार्ग (जिहाद) में और मुसाफ़िर नवाज़ी में इस्तेमाल करने के लिए हैं। एक फ़रीज़ा है अल्लाह की तरफ़ से। और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और दाना-बीना है।" (क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, आयत-60)

क़ुरआन की बहुत सी आयतों में और हदीसों में अनाथों, बेसहारा ग़रीबों, विधवाओं और अन्य कमज़ोर तबक़ों के साथ अच्छा बरताव करने के लिए ख़ास तौर पर उभारा गया है और इसके फ़ज़ाइल बयान किए गए हैं। इस्लामी समाज में किफ़ालत के ये माद्दी पहलू हैं। इस्लाम इसके आगे इसके अन्दरूनी दायरे में किफ़ालत की तालीम देता है। अल्लाह फ़रमाता है—

ईमानवाले मर्द और ईमानवाली औरतें, ये सब एक-दूसरे के मित्र हैं। भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं। नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म की पैरवी करते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, आयत-71)                                            हदीस में बुराई के बारे में तीन दर्जे बयान किए गए हैं। उनमें आख़िरी दर्जा बुराई को दिल से नापसन्द करना है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है—                   "तुममें से जिसे कोई बुराई दिखाई दे तो चाहिए कि वह उसे अपने हाथों से दूर कर दे और अगर इसकी ताक़त न हो तो अपनी ज़बान से दूर करने का प्रयास करे और अगर इसकी भी ताक़त न रखता हो तो अपने दिल से उसको बुरा समझे और यह ईमान का सबसे कमज़ोर दर्जा है।" (हदीस : मुस्लिम)

एक दूसरी हदीस से बहुत जामे (व्यापक) तरीक़ों से दीन (धर्म) को नसीहत और ख़ैरख़ाही का नाम दिया गया है, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"दीन नसीहत और भला चाहने का नाम है।" सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने पूछा "किसके लिए?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "अल्लाह के लिए, रसूल के लिए, वक़्त के इमाम (अधिकारी, मुखिया) के लिए और आम मुसलमानों के लिए।" (हदीस : बुख़ारी)

एक और हदीस में ईमानवालों को एक जिस्म की तरह बताया गया है कि अगर जिस्म के किसी अंग में पीड़ा हो तो उसका पूरा जिस्म पीड़ा को महसूस करता है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"ईमानवालों की मिसाल उनके आपसी लगाव, रहमत और मुहब्बत में जिस्म की तरह है। जब एक अंग को तकलीफ़ पहुँचती है तो बदन का अंग-अंग बेताबी और बुख़ार को महसूस करता है और उस तकलीफ़ में शरीक हो जाता है।" (हदीस : मुस्लिम)

इस्लामी समाज के क़ियाम के साधन

इस्लाम ने समाज की जो बुनियादें मुहैया की हैं हुकूमत की शक्ति से उनको मज़बूत किया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ लोगों की पसन्द और अधिकार पर उन्हें निर्भर कर दिया गया हो, बल्कि क़ानून और हुकूमत के ज़रिए से उन शिक्षाओं पर अमल कराया जाएगा। क़ुरआन और हदीसों में क़ाज़ियों (न्यायाधीशों) और हुक्मरानों (शासकों) के लिए अद्ल व इनसाफ़ के बारे में जितने आदेश हैं सब इसी पसमंज़र में हैं कि इस्लामी समाज क़ायम रहे और सबको बराबरी के हक़ हासिल हों और कोई किसी पर ज़ुल्म और ज़्यादती न करे। अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो तो इनसाफ़ के साथ करो।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-58)

एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"कोई हाकिम (शासक, अधिकारी) जो मुसलमानों में किसी प्रजा के मामलों का मुखिया हो अगर इस हालत में मर जाए कि वह उनके साथ धोखा और ख़ियानत बेईमानी करनेवाला था तो अल्लाह ने उस पर जन्नत हराम कर दी है।" (हदीस : बुख़ारी)

ऐसी और भी बहुत सी रिवायतें (उल्लेख) हैं जिनसे इमाम, हाकिम और क़ाज़ी को बेइनसाफ़ी और ज़ुल्म से डराया गया है। यही कारण है कि दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहा करते थे—

"फ़ुरात नदी के किनारे एक बकरी का बच्चा भी अगर मर जाए तो मुझे लगता है कि अल्लाह मुझसे पूछ करेगा।" (हदीस : कंज़ुल-उम्माल)

इस्लामी हुकूमत जिन बुनियादों पर क़ायम होती है उनमें एक बुनियाद 'बैअत' है। 'बैअत' का अर्थ है 'आज्ञापालन का वचन देना' यह 'बैअत' वचन देनेवाले और सुल्तान (शासक, जन-प्रतिनिधि) के बीच होती है। इसकी मूल रूह यह है कि उनके बीच हर मामले का फ़ैसला अल्लाह तआला के दीन (इस्लाम) के अनुसार होगा और हुक्म सुनना तथा उसका पालन करना और नसीहत और ख़ैरख़ाही इसके बुनियादी लवाज़िम में से हैं। महकूम को हाकिम के प्रति हुक्म सुनना और उसका पालन करना है और हाकिम को महकूम के साथ नसीहत और ख़ैरख़ाही का मामला करना है, चुनाँचे हाकिम के हुक्मों को मानना और उनका पालन उसी समय तक किया जाएगा जब तक अल्लाह की नाफ़रमानी न हो रही हो, दूसरी सूरत में हुक्म सुनने और अमल करने का नियम निरस्त समझा जाएगा। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

"मुसलमान आदमी पर हाकिम (यानी शासक/अधिकारी) का हुक्म सुनना और मानना लाज़िम है चाहे उसका दिया हुआ हुक्म अपने आप में उसे पसन्द हो या न हो, सिवाय इसके कि उसे गुनाह करने का हुक्म दिया जाए। ऐसी सूरत में हुक्म सुनना और मानना लाज़िम नहीं।" (हदीस : मुस्लिम)

इसके मुक़ाबले में हाकिम (अधिकारी, मुखिया) पर प्रजा की भलाई और ख़ैरख़ाही करना लाज़िम है और अगर वह इससे बचता है तो अल्लाह के यहाँ उससे पूछ होगी। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है—

"तुममें से हर शख़्स निगराँ है और हर आदमी से उसकी देखरेख में रहनेवाली चीज़ के बारे में पूछा जाएगा। इमाम (शासक) लोगों पर निगराँ है, उससे उनके बारे में पूछा जाएगा।" (हदीस : बुख़ारी)

एक रिवायत (उल्लेख) में आया है—

"अल्लाह ने जिस किसी को मुसलमानों के मामलों में किसी मामले का ज़िम्मेदार बनाया और उसने अपनी ज़िम्मेदारी अदा करने में जान-बूझकर कोताही की तो वह जन्नत की ख़ुशबू भी न पा सकेगा। अगरचे उसकी ख़ुशबू सौ साल की मुसाफ़त की दूरी से मिलने लगती है।" (हदीस : मुसनद अहमद)

अद्ल-इनसाफ़ इस्लामी समाज की बुनियाद भी है और उसका ज़रिआ भी। इस्लाम ने दोनों पहलुओं की अहमियत को उजागर किया है। हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) को उनके एक गवर्नर ने एक बार ख़त लिखा कि हमारे शहर की मरम्मत कराने की ज़रूरत है तो उन्होंने उसका जवाब दिया, "अपने शहर की अद्ल के ज़रिए से हिफ़ाज़त करो और उसके रास्तों को ज़ुल्म (अत्याचार) से बचाओ।" एक बार उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) ने कअबुल-क़रज़ी से पूछा, "अद्ल (न्याय) क्या है?" उन्होंने उत्तर दिया, "यह एक अज़ीम चीज़ है। अद्ल यह है कि तुम छोटों के लिए बाप, बड़ों के लिए बेटा और हमजोलियों के लिए भाई बन जाओ और लोगों की उनकी ग़ल्तियों के अनुसार पकड़ करो।" (सियरु-आलामिन-नुबला 5/65 बहजतुल-मजालिस, इब्ने-अब्दुल-बर्र, 344,345)                                   एक हदीस में आया है कि क़ियामत के दिन सात प्रकार के लोग अल्लाह के अर्श (सिंहासन) की छाँव में होंगे जबकि उस दिन और कोई छाँव न होगी, उनमें से एक अद्ल पसन्द हाकिम भी है। (हदीस : बुख़ारी)

इस्लामी समाज में हुकूमत अद्ल व इनसाफ़ के तक़ाज़ों को अद्लिया (न्यायपालिका), क़ज़ा (विवादों को निबटानेवाला विभाग), पुलिस, एहतिसाब (पूछ-गच्छ) और क्रिमिनल कोर्ट की संस्थाओं के ज़रिए से पूरा करेगी। और उनके लिए अत्यन्त योग्य व्यक्तियों को जज, क़ाज़ी, पुलिस सुप्रिटेंडेंट और इंस्पेक्टर नियुक्त करेगी, जो बहुत ईमानदारी के साथ अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने और अल्लाह की ख़ुशनूदी को अपनी ज़िन्दगी का अस्ल मक़सद बताते हों। वाज़ेह है कि ऐसी स्थिति में ज़ुल्म व नाइनसाफ़ी का कोई इमकान बाक़ी नहीं रह जाता।

इस्लामी समाज में अद्ल व इनसाफ़ बनाए रखने के लिए न्यायपालिका को पूरी आज़ादी दी गई, क़ानून के सामने सबको बराबर ठहराया गया है। और अद्ल व इनसाफ़ मुफ़्त और जल्द मुहैया कराने की ज़मानत दी गई है। और ये ऐसे मामले हैं कि इनके मामले में कोताही की जाए तो अद्ल व इनसाफ़ के बहुत से तक़ाज़े पामाल होते हैं।

अध्याय-4

शिर्क और इलहाद के नुक़सान

इस कायनात की सबसे बड़ी हक़ीक़त अल्लाह तआला का वुजूद है। उसको मानने और उसके हुक्मों पर अमल करने से इनसान की ज़िन्दगी में नुमायाँ और ख़ुशगवार बदलाव दिखाई देते हैं। इनमें सबसे पहली ख़ुशगवारी ज़िन्दगी का सन्तुलित होना है, जिसमें जज़बों और ख़ाहिशों में सन्तुलन के साथ माली (आर्थिक), सामाजिक और इजतिमाई सन्तुलन शामिल है। इसके बरख़िलाफ़ अगर अल्लाह के वुजूद का इनकार कर दिया जाए या उसके साथ दूसरे को साझी बना लिया जाए, चाहे वह जिस क़िस्म का हो, तो इनसान की ज़िन्दगी में नागवारियाँ ज़ाहिर होने लगती हैं और वह वुजूदी ख़लफ़शार का शिकार होकर रह जाता है। यहाँ तक कि उसकी ज़िन्दगी असन्तुलन और बेचैनियों से भर जाती है। आइए नीचे की पंक्तियों में संक्षिप्त रूप से इसका आंकलन करते हैं कि शिर्क और इलहाद से इनसानी ज़िन्दगी पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं।

अक़ीदों और विचारों में अड़चन

अल्लाह का वुजूद इस कायनात की सबसे बड़ी हक़ीक़त है। इसके बारे में इनसान का नज़रिया ठीक न हो तो किसी चीज़ के बारे में उसका नज़रिया सही नहीं हो सकता। ज़ाहिर है कि इनसान पहले किसी चीज़ के बारे में अपना एक नज़रिया बनाता है। अगर उसका नज़रिया सही न हो या वे परस्पर विरोधी और टकराते हों तो इसका असर ख़ुद उसके ज़ेहन और विचारों पर ज़ाहिर होगा। कभी वह एक तथ्य की पुष्टि करेगा तो कभी उसका खण्डन करेगा। कभी वह एक चीज़ को मान लेगा और कभी उससे इनकार कर देगा। कभी वह एक सच्चाई की पुष्टि करेगा और कभी उसको झुठलाएगा और कभी उसका ग़लत नतीजा निकालेगा। मतलब यह कि वह एक वैचारिक बिगाड़ का शिकार होकर रह जाएगा। आज के दौर में शिर्क (बहुदेववाद) और इलहाद (नास्तिकता) के शिकार व्यक्तियों में इस हालत को वाज़ेह तौर पर देखा जा सकता है। अल्लाह के वुजूद का इनकार कर देने के बाद कायनात, इनसान और इस दुनिया के बारे में जो साइंसी वजहें बताई गई हैं वे सब बिखरे ख़यालों और अटकलों पर आधारित हैं। चुनाँचे कभी कहा जाता है कि यह कायनात अपने आप पैदा हो गई, कभी कहा जाता है कि यह कायनात अपना एक आग़ाज़ और अंजाम रखती है और कभी कहा जाता है कि यह आरम्भ से है और सदैव रहेगी, कोई कहता है कि इसका कोई ख़ुदा नहीं, कोई कहता है कि इस कायनात का हर ज़र्रा अपना ख़ुदा है। इसी प्रकार इनसान के बारे में उसके विचार हैं। यह बात अब तक तय नहीं हो सकी कि इनसान क्या है? उसकी हक़ीक़त क्या है? जितना वह इस बारे में सोचता है उतना ही उलझता रहता है, यहाँ तक कि सन्देहों के भँवर में जाकर इस तरह फँसा कि सोचने लगा कि इनसान, इनसान भी है या नहीं? या यह भी महज़ दूसरे जानवरों की तरह केवल दो टाँगों पर चलनेवाला एक तरक़्क़ी पाया हुआ एक जानवर है। एक ने कहा कि यह कोई आम जानवर तो नहीं मगर यह एक ऐसा कुल है जिसे हिस्सों में विभाजित नहीं किया जा सकता और यह कुल भी इतना जटिल है कि इसको समझ पाना आसान नहीं है। कुछ लोगों के नज़दीक इनसान ठोस सत्य नहीं बल्कि एक ऐसा बयानी नक़्श है, जो विभिन्न इल्मों के नुक़ूश से बनता है। अंगों के माहिर लोगों ने इनसान को सिर्फ़ कोशिकाओं और ग़िज़ाई तरल पदार्थों का समूह कहा है। सेहत के आलिमों के नज़दीक इनसान शिराओं, धमनियों और शऊर (विवेक) का मिश्रण (Mixture) है और उसका शरीर प्रोटो प्लाज़्म, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, गन्धक, लौह और अन्य रासायनिक तत्वों से मिलकर बना है। जिसका इतिहास अस्ल में दो रोटी की तलाश का इतिहास है और जिसकी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारियाँ ग़ैर-वाज़ेह, बेकार और जिसका रूहानी वुजूद हक़ीक़त में विचार है जो माहौल की पैदावार है। डार्विन के 'विकास के सिद्धान्त' के पक्षधरों के निकट इनसान बन्दर का चचेरा भाई है और कायनात में मौजूद चीज़ों की जो क़िस्में हैं जैसे जड़ पदार्थ, वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु और इनसान, इनमें से हरेक की सैकड़ों-हज़ारों क़िस्में हैं, मगर सब एक ही ज़रिए से हैं जो अपनी जातियों में निचले दर्जे से तरक़्क़ी करके ऊँचे दर्जे की हुई, फिर उससे उच्चतर हुई, फिर मानव-अस्तित्व के रूप में धरती के रचना-क्रम की अन्तिम एवं उच्चतम कड़ी बनी। जैन मत, इनसान और रूह को ख़ालिक़ (सृष्टा) भी मानता है और मख़लूक़ (सृष्टि) भी। अन्तर यह है कि 84 लाख जीवों में लिंग, जाति, शरीर और रूप बदल-बदलकर बार-बार आते हैं। बौद्ध मत इस बारे में खोजबीन को समय की बरबादी, लोगों के बीच झगड़े और दुश्मनी का कारण और दुखों से मुक्ति के विरुद्ध समझता है। हिन्दू धर्म के अनुसार इनसान ब्रह्मा का बेटा है जिसने अपने विभिन्न अंगों द्वारा विभिन्न मनुष्यों को पैदा किया। मिसाल के तौर पर मुँह से ब्राह्मण को, बाँह से क्षत्रिय को, जाँघ से वैश्य को और पाँव से शूद्र को पैदा किया है। मतलब यह कि जितने मुँह उतनी बातें हैं और इनसान इन विचारधाराओं और नज़रियों के बीच भटकता फिर रहा है। इस बात की ओर अल्लाह ने इन शब्दों में संकेत किया है—

"और जो कोई अल्लाह का साझी ठहराए तो मानो वह आसमान से गिर गया। अब या तो उसे पक्षी उचक ले जाएँगे या हवा उसको ऐसी जगह ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चिथड़े उड़ जाएँगे।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-31)

इस मिसाल में आसमान से मुराद इनसान की वह फ़ितरी हालत है जिसमें एक ख़ुदा के सिवा उसकी फ़ितरत किसी और ख़ुदा को नहीं जानती। अगर इनसान पैग़म्बरों (ईशदूतों) की दी हुई रहनुमाई क़बूल कर ले तो वह उसी फ़ितरी हालत पर इल्म और बसीरत के साथ क़ायम हो जाता है और आगे उसकी उड़ान और अधिक ऊँचाइयों की ओर होती है न कि पस्तियों की तरफ़। लेकिन शिर्क (बहुदेववाद) या इलहाद (नास्तिकता) को अपनाते ही वह अपनी फ़ितरत के आसमान से एकदम गिर पड़ता है और उसको दो सूरतों में से कोई सूरत ज़रूर पेश आती है। एक यह कि शैतान और गुमराह करनेवाले इनसान उसकी ओर झपटते हैं और हर कोई उसे उचक ले जाने की कोशिश करता है। दूसरे यह कि उसकी अपनी ख़ाहिशें और उसके अपने जज़बात और उसकी अपनी कल्पनाएँ उसे उड़ाए लिए फिरती हैं और आख़िरकार उसको किसी गहरी खाई में ले जाकर फेंक देती हैं।

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—                                                                 "जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया उनके कर्मों की मिसाल ऐसी है मानो मरुस्थल में सराब (मरीचिका) कि प्यासा उसको पानी समझे हुए था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो कुछ न पाया बल्कि वहाँ उसने अल्लाह को मौजूद पाया, जिसने उसका पूरा-पूरा हिसाब चुका दिया और अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती। या फिर उसकी मिसाल ऐसी है मानो एक गहरे समुद्र में अँधेरा कि ऊपर एक लहर छाई हुई है, उस पर एक और लहर और उसके ऊपर बादल, अंधेरे पर अंधेरा छाया है। आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी न देख पाए, जिसे अल्लाह नूर (प्रकाश) न दे उसके लिए फिर कोई नूर नहीं।" (क़ुरआन, सूरा-24 नूर, आयतें-39,40)

इन मिसालों में उन लोगों का हाल बयान हुआ है जो कुफ़्र (हक़ के इनकारी) या निफ़ाक़ (कपटाचार) के बावजूद अपने आपको सफलता का हक़दार समझते हैं। बताया गया कि उनके कर्मों की हक़ीक़त सराब (मरीचिका) से अधिक नहीं है। रेगिस्तान में चमकती हुई रेत को दूर से देखकर जिस प्रकार प्यासा यह समझता है कि पानी का एक तालाब लहरें मार रहा है और मुँह उठाए उसकी ओर दौड़ता चला जाता है। उसी तरह ये अपने कर्मों और विचारधाराओं के भरोसे पर मौत की ओर बढ़े चले आ रहे हैं मगर जिस तरह मरीचिका की ओर दौड़नेवाला जब उस जगह पहुँचता है जहाँ उसे तालाब दिखाई दे रहा था तो कुछ नहीं पाता। इसी तरह जब तुम मौत की हद में दाख़िल हो जाओगे तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यहाँ कोई चीज़ ऐसी नहीं है, जिसका तुम फ़ायदा उठा सको। दूसरी मिसाल में बताया गया है कि अल्लाह के वुजूद का इनकार करनेवाला और इलहाद में मुब्तला आदमी अपनी पूरी ज़िन्दगी घोर जिहालत में बसर कर रहा है चाहे वह दुनियावी ज़बान में बड़ा अल्लामा और इल्म व फ़न के उस्तादों का उस्ताद ही क्यों न कहा जाता हो। उसकी मिसाल उस आदमी जैसी है जो किसी

ऐसी जगह फँसा हुआ हो जहाँ पूरी तरह अँधेरा हो और रौशनी की एक किरण तक न पहुँचती हो। जब कायनात में कोई नूर अल्लाह के नूर के सिवा नहीं है और सारी हक़ीक़तें इसी नूर की बदौलत ज़ाहिर हो रही हों तो जो आदमी अल्लाह से नूर न पाएगा वह अगर घोर अंधकार में मुब्तला न होगा तो और क्या होगा। कहीं और तो रौशनी मौजूद ही नहीं है कि उससे एक किरण भी वह पा सके।

अख़लाक़ और किरदार में बिगाड़

अक़ीदों और विचारों में बिगाड़ हो तो उसके असरात सीधे तौर पर अख़लाक़ और किरदार पर पड़ते हैं। ख़ुदा, कायनात और इनसान के विषय में ग़लत नज़रिया आदमी को ग़लत रास्ते पर डाल देता है। आज के दौर में इसको आम लोगों के अख़लाक़ व किरदार में देखा जा सकता है। जब ख़ुदा के बारे में कहा गया कि उसका कोई वुजूद नहीं है तो इनसान के अन्दर ख़ुदसरी पैदा हुई और उसने अपने आपको बिलकुल आज़ाद ख़याल कर लिया। जब कायनात के बारे में कहा गया कि वह ख़ुद ही वुजूद में आई है तो इनसान ने उसको अपनी निजी मिलकियत समझ लिया और उसके अन्दर जाइज़ और नाजाइज़ होने का रुझान पैदा हुआ। इसी झूठी धारणा के अनुसार इनसानी वुजूद के बारे में जब यह बात कही गई कि यह भी माहौल की पैदावार है तो उसने अपनी ख़ाहिशों को पूरा करने को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बना लिया, और फिर उसके सामने अख़लाक़ व किरदार, ईसार व क़ुरबानी, हमदर्दी व रहमदिली का कोई महत्व नहीं रह गया। बल्कि इसके विपरीत यह नज़रिया बनाया गया कि ये सारी अख़लाक़ी क़द्रें ऐसी चौकीदार हैं, जो हर आदमी की घात में बैठी हुई रहती हैं और अवसर मिलते ही आदमी को कुचलकर अपने अधीन कर लेती हैं। इससे आदमी की शख़्सियत कुचल जाती है अतः इनसान की भलाई इसी में है कि वह अपनी ख़ाहिशों को बेलगाम छोड़ दे और किसी क़िस्म की अख़लाक़ी और सामाजिक पाबन्दियों को क़बूल न करे। ज़ाहिर है कि यह नज़रिया इन्तिहा पसन्दी पर आधारित है, क्योंकि इस दुनिया में सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं रहता बल्कि यहाँ क़ौमें, देश और पूरी दुनिया आबाद है। अगर हर व्यक्ति अपनी इच्छाओं को बेलगाम छोड़ दे तो लोगों के बीच टकराव लाज़िम है। इससे एक-दूसरे के हक़ मुतास्सिर होंगे। एक-दूसरे के जज़बात चपेट में आएँगे और जब ऐसा होगा तो इनसान की समाजी ज़िन्दगी बिगाड़ और बेचैनी का शिकार हो जाएगी। आज के दौर में इस बिगाड़ और बेचैनी को खुली आँखों से देखा जा सकता है। पूरा इनसानी समाज आज सिसक रहा है, दर्द और बेचैनी से पूरी इनसानियत कराह रही है, मगर कोई नहीं है जो सिर्फ़ तसल्ली ही के शब्द कह दे। इसका अनुमान सिर्फ़ इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में हर साल सवा लाख से अधिक लोग ख़ुदकुशी कर लेते हैं। ख़ुदकुशी के असबाब में सबसे बुनियादी सबब समाज की बेरहमी है। हैरत की बात है कि जो देश जितने अधिक विकसित हैं वहाँ ख़ुदकुशी करनेवालों का तनासुब भी अधिक है। मिसाल के तौर पर स्विट्ज़रलैण्ड को दुनिया की जन्नत कहा जाता है। दुनिया में ज़्यादा ख़ुदकुशी यहीं की जाती हैं। अल्लाह फ़रमाता है—

"और जो मेरे 'ज़िक्र' (नसीहत लेने) से मुँह मोड़ेगा उसके लिए दुनिया में तंग ज़िन्दगी होगी और क़ियामत के दिन हम उसे अंधा उठाएँगे।" (क़ुरआन, सूरा-20 ताहा, आयत-124)

दुनिया में तंग ज़िन्दगी होने का मतलब यह नहीं है कि वह तंगदस्त हो जाएगा। बल्कि इसका मतलब यह है कि यहाँ उसे चैन नसीब न होगा। करोड़पति होगा तो बेचैन रहेगा। सात देशों का हाकिम (राजा) होगा तो भी बेकली, बेइत्मीनानी से नजात न पाएगा, उसकी दुनियावी कामयाबियाँ हज़ारों क़िस्म के दुखों और बेचैनियों में घिरी होंगी। क़ुरआन में एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"ख़ुश्की और तरी में बिगाड़ पैदा हो गया है लोगों के अपने हाथों की कमाई से ताकि (ईश्वर) मज़ा चखाए उनको उनके कुछ कर्मों का, शायद कि वे रुक जाएँ।" (क़ुरआन, सूरा-30 रूम, आयत-41)

ज़ुल्मों और जुर्मों की ज़्यादती

जब आदमी मज़हब और अख़लाक़ को अपनी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ एक साज़िश समझने लगे तो फिर कौन-सी ताक़त है जो उसको दूसरों पर ज़ुल्म एवं अत्याचार करने से रोक देगी। वर्तमान समय में ख़ुदा या ईश्वर के बारे में ख़ुदा बेज़ारीवाले नज़रियों को तस्लीमशुदा सच्चाइयों की हैसियत देनेवालों ने इनसानियत के ख़िलाफ़ साज़िश कहा है। नतीजे के तौर पर आज हर ओर अपराधों और अत्याचारों का सैलाब उमड़ पड़ा है। हर आदमी अपनी ख़ाहिश पूरी करने के लिए आज़ाद है और उसकी आज़ादी में दख़ल देने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। आदमी खाने की इच्छा रखता है तो वह खाएगा चाहे दूसरों से छीनकर खाना पड़े। वह जिंसी ताक़त रखता है तो वह उसे पूरा करेगा चाहे किसी की इज़्ज़त व आबरू मिट्टी में मिले। उसके अन्दर हुकूमत की ख़ाहिश है तो उसे पूरा करके रहेगा, चाहे किसी की जान भी जाती हो। क़ुदरत ने उसे ख़ुशियाँ दी हैं तो वह ख़ुश होगा, चाहे किसी को कितनी ही तकलीफ़ हो। क़ुदरत ने उसे शक्ति दी है तो वह अपने दुश्मनों से बदला लेगा, चाहे दुश्मनों ने हथियार डाल दिए हों। कहने का मतलब यह कि आज हर आदमी ख़ाहिश और जज़बात को पूरा करने को अपना पैदाइशी हक़ समझता है। यही कारण है कि अपराध और अत्याचार की घटनाएँ न केवल अधिक संख्या में घटित हो रही हैं, बल्कि दिन-प्रतिदिन इनमें इज़ाफ़ा हो रहा है। क़ानून और अपराध को रोकनेवाली संस्थाएँ बेबस हैं। किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही है कि इस बदतमीज़ी के तूफ़ान को कैसे रोका जाए। इनमें जिस रफ़्तार से इज़ाफ़ा हो रहा है, अपनी जगह वह ख़ुद कम चिंताजनक नहीं है, मगर नई नस्ल और नवउम्र बच्चों में अपराधों की बढ़ती दर गम्भीर चिन्ता का विषय है और अगर उसको विश्व की शान्ति और मानवता के भविष्य के लिए ख़तरे की घण्टी कहा जाए तो बेजा न होगा। अमेरिका में 14 वर्ष से 17 वर्ष की आयु के नौजवानों के ज़रिए से क़त्ल की घटनाओं में पिछले दशक से अब तक 65 प्रतिशत इज़ाफ़ा हुआ है और इसमें और इज़ाफ़े का इमकान है, क्योंकि वहाँ पर लगभग चार करोड़ नवउम्र बच्चे जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने जा रहे हैं। रूस में पिछले कुछ वर्षों के बीच नौजवानों द्वारा किए जानेवाले अपराधों में ग्यारह प्रतिशत वृद्धि हुई है। नौजवानों के हाथों क़त्ल की संख्या दोगुनी हो गई है।

हर पाँचवाँ नवउम्र आदमी मुजरिम बन चुका है और कम उम्र के अपराधियों की दो तिहाई संख्या का सम्बन्ध आपराधिक गरोहों से है। चीन में फ़ौजदारी के अपराधों में पिछले वर्षों में बीस प्रतिशत वृद्धि हुई है। भारत में पिछले कुछ वर्षों के बीच अपराधों में कुल मिलाकर चालीस प्रतिशत वृद्धि हुई है। यहाँ हर पन्द्रह मिनट पर क़त्ल की एक घटना घटती है। हर 54 मिनट पर किसी-न-किसी औरत के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया जाता है। हर 26 मिनट पर उसके साथ छेड़-छाड़ की जाती है। हर 52 मिनट पर बलात्कार की एक घटना घटती है। हर वर्ष यहाँ हज़ारों महिलाएँ दहेज के लिए मार दी जाती हैं। हज़ारों औरतों का हर साल अपहरण किया जाता है। हर साल यहाँ पर 80 हज़ार करोड़ रुपए रिश्वत और काले धन का कारोबार होता है। हर डेढ़ मिनट में चोरी, हर चार मिनट में सेंधमारी, हर 14 मिनट पर डकैती और रहज़नी की घटनाएँ घटती हैं। अपराधों से सम्बन्धित यह आँकड़े ढेर में से एक मुट्ठी भर लेने के बराबर हैं, वरना आज के दौर में इनकी जो अधिकता है उसका अनुमान इस बात से भी किया जा सकता है कि संचार माध्यम, पत्र-पत्रिकाओं और दैनिक समाचार पत्रों में अधिकांश सामग्री किसी-न-किसी प्रकार अपराध से सम्बन्धित होती है। साथ ही अदालतों में दीवानी से ज़्यादा फ़ौजदारी के मुक़दमे चलते हैं।

आख़िरत की तबाही

शिर्क और इलहाद से इनसान को जो सबसे बड़ा घाटा होता है वह आख़िरत (परलोक) की तबाही है। आदमी इस दुनिया में सुखी हो या दुखी, तंगी में दिन गुज़ार रहा हो या दौलत की रेल-पेल हो, ख़ाहिशें पूरी हो रही हों या वे अधूरी रह जाती हों। हर हालत में ये सारी चीज़ें एक छोटी सी मुद्दत के लिए होती हैं, मगर आख़िरत का मामला इसके बरख़िलाफ़ है। वह हमेशा रहने की जगह है। दूसरी बात यह है कि आदमी आख़िरत को मानता हो या न मानता हो, हर हाल में उसको एक दिन मरकर जाना है और अपने कर्मों का हिसाब अपने पालनहार ईश्वर को देना है। ज़ाहिर है कि जो शिर्क और इलहाद और दुनिया में वैचारिक एवं व्यावहारिक असन्तुलनों का शिकार रहा हो उसका अन्त अच्छा न होगा और वह जहन्नम की आग में डाला जाएगा, जिसमें वह हमेशा जलता रहेगा। इस अज़ाब से निकलने का कोई रास्ता न होगा, न इस बारे में किसी की सिफ़ारिश क़बूल की जाएगी। ज़ाहिर है कि यह कोई मामूली बात नहीं है कि इसकी अनदेखी कर दी जाए। अल्लाह फ़रमाता है—

"और जिन लोगों ने बुराइयाँ कमाईं उनकी बुराई जैसी है, वैसा ही वे बदला पाएँगे। ज़िल्लत उनपर छाई हुई होगी। कोई अल्लाह से उनको बचानेवाला न होगा।" (क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-27)

एक दूसरी जगह अल्लाह का कथन है—

"जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इनकार कर दिया है उन्हें निश्चय ही हम आग में झोंकेंगे और जब उनके जिस्म की खाल जल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे, ताकि अच्छी तरह अज़ाब का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी क़ुदरतवाला है और अपने फ़ैसलों को अमल में लाने की हिकमत अच्छी तरह जानता है। (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-56)

इस पूरी बहस का निचोड़ यह है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा वह सन्तुलित और बीच की राह है जिस पर चलकर इनसान दुनिया और आख़िरत की ख़ुशक़िस्मती और कामयाबी से हमकिनार होगा। यदि वह इसे छोड़ दे तो यह "ज़ुल्म" का दूसरा नाम होगा। जिसका अर्थ है किसी चीज़ को उसके सही स्थान से हटा देना। इसके बरख़िलाफ़ "अद्ल" का मतलब है किसी चीज़ को उसके सही मक़ाम पर रखना। क़ुरआन तौहीद (एकेश्वरवाद) को 'अद्ल' क़रार देता है, क्योंकि यह न केवल अल्लाह तआला का सही मक़ाम है बल्कि इससे इनसान के सही मक़ाम का निर्धारण भी होता है। अल्लाह फ़रमाता है—

"क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे में पड़े हैं वे सब जो आसमानों में हैं और जो ज़मीन में हैं, सूरज, चाँद, तारे, पहाड़, पेड़, जानवर और बहुत से इनसान और बहुत से ऐसे हैं जो अज़ाब के हक़दार हो चुके हैं? और जिसे ज़लील व रुसवा करे तो उसे फिर कोई इज़्ज़त देनेवाला नहीं। अल्लाह जो चाहता है करता है।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-18)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है—

"ऐ नबी! इनसे कहो, मेरे रब (पालनहार) ने तो रास्ती और इनसाफ़ का हुक्म दिया है और उसका हुक्म तो यह है कि हर इबादत में अपना रुख़ ठीक रखो और उसको पुकारो, अपने दीन (धर्म) को उसके लिए ख़ालिस रखकर।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-29)

मूल अरबी आयत में 'क़िस्त' शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है 'इनसाफ़'। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं, 'क़िस्त' से मुराद यहाँ "ला इला-ह इल्लल्लाह" है। यानी एक ख़ुदा को मानना और उसकी इताअत करना ही इनसाफ़ है, जिसका ख़ुदा ने अपने बन्दों को हुक्म दिया है। अल्लाह फ़रमाता है—                                        "इसका तकाज़ा यह है कि तुम तराज़ू में गड़बड़ी न करो, इनसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो और तराज़ू में डंडी न मारो।" (क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, आयत-9)

इस्लाम के एक बड़े आलिम अल्लामा इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाह अलैह) फ़रमाते हैं कि 'अद्ल' दरअसल शरीअत है और जो शरीअत है वह अद्ल (न्याय) पर आधारित है। इसी वजह से अल्लाह तआला ने अद्ल के साथ फ़ैसला करने का हुक्म दिया है और कहा है कि तुम शरीअत के मुताबिक़ फ़ैसला करो। यानी दीन (धर्म) और अद्ल व इनसाफ़ दोनों एक-दूसरे के मुतरादिफ़ (प्रयाय) हैं।

अध्याय-5

इनसानी ज़िन्दगी पर तौहीद के असरात

इस्लाम की बुनियादी तालीम तौहीद है। इसका मतलब यह है कि इस कायनात में ख़ुदा सिर्फ़ एक है। इस विशाल कायनात में बेशुमार चीज़ें हैं जो कई तरह से इनसान को मुतास्सिर करती हैं, जैसे सूरज इनसान को गर्मी पहुँचाता है, आग जलाती है, हवा उड़ाती है, साँप डसता है, बीमारियाँ इनसान को तकलीफ़ पहुँचाती हैं या मौत का सबब बनती हैं, मगर इनमें से किसी के अन्दर ख़ुदाई सिफ़ात (गुण) नहीं हैं। अगर इनसान इन चीज़ों को अपना ख़ुदा मानने लग जाए तो यह 'शिर्क' कहलाएगा और इसे ज़ेहनी ग़ुलामी की बदतरीन हालत कहा जाएगा। तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा इनसान पर पहला असर यह डालता है कि उसको ज़ेहनी ग़ुलामी से आज़ाद कराता है और उन जानदार एवं बेजान चीज़ों के सामने, जो ख़ुद ख़ुदा की पैदा की हुई हैं, बेबसी और आजिज़ी का इज़हार करने से रोकता है और केवल एक अस्ल ख़ुदा से डरने और उसी से उम्मीद रखने का जज़बा पैदा करता है। क़ुरआन में पैग़म्बर के मंसब के अनुसार उसकी जो ज़िम्मेदारियाँ बयान की गई हैं उनमें क़ौमों को बेजा अक़ीदों और वहमों की बन्दिशों और जकड़बन्दियों से आज़ादी दिलाना भी है। कहा गया है—

"वह (पैग़म्बर) उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बुराई से रोकता है। उनके लिए पाक-साफ़ चीज़ें हलाल (वैध) और नापाक चीज़ें हराम (अवैध) करता है और उन पर से वे बोझ उतारता है जो उन पर लदे हुए थे और वे बन्धन खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-157)

अल्लाह तआला की हस्ती इस कायनात की सबसे बड़ी हक़ीक़त है। जो इस हक़ीक़त को तसलीम न करे और उसको छोड़कर दूसरे को ख़ुदा समझने लग जाए तो मानो उसकी ज़िन्दगी एक और सच्चाई से दूर हो जाती है। फिर वह मनगढ़ंत और ग़ैर-हक़ीक़ी चीज़ों का पुजारी हो जाता है। तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा इनसान पर यह असर डालता है कि वह हक़ीक़त पसन्द बन जाता है और तज़ादों (विरोधाभासों) से बचाता है। इनसान अपने अन्दर बनावटी और ग़ैर-हक़ीक़ी चीज़ों पर आलोचनात्मक नज़र डालने की सलाहियत पैदा करता है। अल्लाह फ़रमाता है—

"भला वह कौन है जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और तुम्हारे लिए आसमान से पानी बरसाया फिर उसके ज़रिए से वे ख़ुशनुमा बाग़ उगाए जिनके पेड़ों का उगाना तुम्हारे वश में न था? क्या अल्लाह के साथ कोई दूसरा ख़ुदा भी है? बल्कि यही लोग सीधे रास्ते से हटकर चले जा रहे हैं।" (क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, आयत-60)

क़ुरआन में इस शैली में और भी बहुत सी आयतें आई हैं। उनमें इनसान को हक़ीक़त पसन्द बनने की दावत दी गई है। इनसान को ख़ुदा के बारे में सही और गहरा इल्म न हो तो वह न केवल ख़ुद को झूठे और बनावटी ख़ुदा के हवाले कर देता है और ग़ैर-हक़ीक़त पसन्दाना ज़िन्दगी गुज़ारता है, बल्कि ख़ुद अपने मन की ग़ुलामी की जकड़न का शिकार हो जाता है। उसके नफ़्स की ख़ाहिशें उसको जो हुक्म देती हैं, उसी के अनुसार वह अमल करने लगता है। क़ुरआन में ख़ाहिशों के पीछे भागनेवालों को कुत्ते से उपमा दी गई है जिस की ज़बान से हर समय राल (लार) टपकती रहती है। अल्लाह फ़रमाता है—

"अगर हम चाहते तो उसे इन आयतों के ज़रिए से ऊँचा दर्जा अता करते मगर वह तो धरती ही की तरफ़ झुककर रह गया और अपनी ख़ाहिश ही के पीछे पड़ा रहा। इसलिए उसकी हालत कुत्ते की सी हो गई कि तुम उसपर हमला करो तब भी ज़बान लटकाए रहे और उसे छोड़ दो तब भी ज़बान लटकाए रहे। यही मिसाल है उन लोगों की जो हमारी आयतों को झुठलाते हैं। तुम ये हिकायतें इनको सुनाते रहो, शायद कि ये कुछ सोच-विचार करें।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-176)

अल्लाह तआला बड़ी ख़ूबियोंवाला है। जब इनसान अल्लाह पर उसकी सिफ़तों के साथ ईमान ले आता है तो उसके अन्दर से अख़लाक़ और किरदार का स्रोत फूटता है और वह अपने को ख़ुदाई रंग में रंगना चाहता है। अल्लाह रमहमतवाला और मेहरबान है तो वह भी दूसरों पर रहम करनेवाला और उनके साथ मेहरबानी करनेवाला हो। अल्लाह दानशील है तो दानशीलता इनसान के अन्दर भी हो, अल्लाह अपने पैदा किए हुए जानदारों का हमदर्द है तो जानदारों से हमदर्दी का जज़बा इनसान के अन्दर भी हो। अल्लाह सच्चाई को पसन्द करता है तो सच्चाई इनसान का भी गुण बने। अल्लाह गुनहगारों को क्षमा करता है तो वह भी इनसानों की ग़लतियों को अनदेखा करनेवाला बने। कहने का मतलब यह कि अल्लाह पर ईमान और उससे ताल्लुक़ किरदार और अख़लाक़ के बनाने में अहम भूमिका निभाता है, परन्तु जब अल्लाह से ताल्लुक़ का अस्ल स्रोत ही सूख जाए तो किरदार कहाँ से पैदा होगा। यही कारण है कि कुफ़्र, शिर्क और इलहाद अख़लाक़ और किरदार के सुधार में सहायक नहीं होते, बल्कि इन्हें बिगाड़ने का साधन बनते हैं। ख़ुदापरस्त इनसान कभी बेईमानी और धोखाधड़ी नहीं कर सकता। वह कभी दूसरों के माल पर अवैध क़ब्ज़ा करनेवाला और उन पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं हो सकता। क्योंकि ख़ुदापरस्ती उसको इन बुरे कामों से रोकती है। इसके बरख़िलाफ़ जो सिर जानवरों और पत्थरों के आगे झुकता हो वह लालच, डर, चापलूसी या किसी और जज़बे के तहत किसी इनसान के आगे क्यों नहीं झुक सकता? मानव-इतिहास में ऐसे कितने उदाहरण मिलते हैं जब अल्लाह के डर के कारण कुछ मुजरिमों ने अपने अपराधों से तौबा कर ली, लेकिन मुशरिक, अधर्मी और ख़ुदाबेज़ार अपने मनगढ़ंत देवताओं के डर से ज़ुल्म-ज़्यादती से रुक गया हो, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता।

अल्लाह कायनात का पैदा करनेवाला और उसका प्रबन्धक है। उसके क़ब्ज़े और अधिकार में सारी कायनात है और उसी का हुक्म उसमें चल रहा है। मौत-ज़िन्दगी, नफ़ा-नुक़सान, इज्ज़त-ज़िल्लत और ख़ुशक़िस्मती-बदक़िस्मती सब कुछ अल्लाह के अधिकार में है। उसके सिवा किसी को अधिकार और शक्ति प्राप्त नहीं जो इन मामलों में ज़रा भी हस्तक्षेप और फेर-बदल कर सके। जब मोमिन (ईमानवाले) के अन्दर यह अक़ीदा गहराई तक उतर जाता है तो वह अल्लाह के सिवा न किसी से डरता है न किसी से उम्मीद रखता है। यहाँ तक कि मौत का भी सामना दिलेराना तरीक़े से करता है। उसके अन्दर कुशादादिली और बरदाश्त पैदा हो जाती है और छिछलेपन से वह बचता है। मोमिन (एक अल्लाह में विश्वास रखनेवाला) कायनात के फैलाव को देखता है और फिर अल्लाह की इन सिफ़तों की कल्पना करता है, जिनसे यह पता चलता है कि वह सब कुछ पैदा करने, और प्रचुर मात्रा में पैदा करने तथा उसकी देख-भाल और पालन-पोषण करने की पूरी क़ुदरत रखता है, तो उसके अन्दर उम्मीद की किरण पैदा होती है। इसके बरख़िलाफ़ मुशरिक (बहुदेववादी) माद्दी ताक़तों से भयभीत होता है। अंधविश्वासों का शिकार होता है। कायर और डरपोक होता है। सबसे बड़ी बात यह कि वह एहसासे-कमतरी में मुबतला होता है, क्योंकि शिर्क (बहुदेववाद) के पीछे कोई लॉजिक और दलील नहीं होती, जिसकी वजह से वह बेइत्मिनानी और एहसासे-कमतरी में ज़िन्दगी गुज़ारता है और इसके असरात उसकी ज़िन्दगी के दूसरे मामलों पर पड़ते हैं। क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है—

"हम इनकार करनेवालों के दिलों में डर बिठा देंगे क्योंकि उन्होंने अल्लाह के साथ कुछ हस्तियों को शरीक ठहराया है। हालाँकि अल्लाह ने उनके शरीक होने का कोई प्रमाण नहीं उतारा।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-151)

अल्लाह पर ईमान (विश्वास) रखनेवाला इनसान साधनों और तदबीरों को अपनाता ज़रूर है, क्योंकि यह अल्लाह का हुक्म है, मगर उसका अस्ल भरोसा अल्लाह तआला ही पर होता है। "और अल्लाह ही पर ईमानलानेवालों को भरोसा करना चाहिए।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-160)

तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा इनसान को मुतहर्रिक और अमल में सरगर्म बनाता है। इसकी तसदीक़ (पुष्टि) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की अमली ज़िन्दगियों से होती है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के पसन्दीदा और चुने हुए थे। मगर इसके बावजूद आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दिन-रात की इबादतें, इस्लाम के प्रचार-प्रसार और उसकी ओर लोगों को बुलाने से सम्बन्धित आपकी जान-तोड़ कोशिशें, इसी तरह सहाबा का अल्लाह के दीन (इस्लाम) को ग़ालिब करने के लिए जान-माल की क़ुरबानियाँ पेश करना, इस बात को साबित करता है कि अल्लाह पर ईमान ले आने के बाद वे अल्लाह पर पूरा भरोसा करके, हाथ-पाँव तोड़कर घर न बैठ गए थे, बल्कि उन्होंने बराबर जान-तोड़ कोशिशों में ज़िन्दगी गुज़ारी। अल्लाह फ़रमाता है—

"कितने ही नबी पहले गुज़र चुके हैं कि उनके साथ मिलकर बहुत से अल्लाह वालों ने जंग की है। अल्लाह के रास्ते में उनपर जो मुसीबतें आईं उससे उन्होंने हिम्मत न हारी, न कमज़ोरी दिखाई और न विवशता दिखाई। अल्लाह इसी तरह साबित-क़दम रहनेवालों से मुहब्बत करता है।" (क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-146)

संघर्ष के रास्ते में ऐसी मंज़िल भी आती है जहाँ इनसान का हौसला और साहस टूटने लगता है और उसकी ताक़त कमज़ोर पड़ जाती है। वह ख़ुद को बिलकुल बेबस पाता है और किसी सहारे को खोजता है। ऐसी सूरत में अगर अल्लाह पर ईमान न हो तो बन्दा मायूस होकर बैठ जाता है और संघर्ष करना छोड़ देता है। लेकिन एक अल्लाह पर सच्चा ईमान रखनेवाला इन हालात में भी हिम्मत नहीं हारता, बल्कि अल्लाह पर उसका यक़ीन और बढ़ जाता है। अल्लाह फ़रमाता है—

"यह तो वही चीज़ है जिसका हमसे अल्लाह और उसके रसूल ने वादा किया था। अल्लाह और उसके रसूल ने सच कहा था (इन ख़तरनाक हालात ने) उनके ईमान और फ़रमाँबरदारी को और ज़्यादा बढ़ा दिया।" (क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, आयत-22)                                            इनसान बुनियादी तौर पर एक मुहताज मख़लूक़ है। माद्दी लिहाज़ से भी उसकी कुछ विभिन्न ज़रूरतें हैं और रूहानी लिहाज़ से भी। इनसान अगर एक अल्लाह को छोड़कर सैकड़ों ख़ुदाओं से अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की माँग करने लगे तो यह इनसानियत के ख़िलाफ़ है बल्कि उसकी ख़ुद्दारी के भी ख़िलाफ़ है। दूसरी बात यह है कि बनावटी झूठे ख़ुदा किसी को कुछ देने की ताक़त नहीं रखते और किसी ऐसे के सामने हाथ पसारना, जो न दे सकता हो, इनसान के अपमान के सिवा कुछ नहीं है। तौहीद का अक़ीदा इनसान को इस अपमान से भी बचाता है और ऐसी हस्ती से माँगने की दावत देता है जो देनेवाली है। वह हस्ती सब कुछ जाननेवाली और क़ुदरतवाली है। जिसके हाथ में आसमान और ज़मीन की बादशाहत है। क़ुरआन में कहा गया है—

"उसे छोड़कर जिन दूसरों को तुम पुकारते हो वे एक तिनके के भी मालिक नहीं है। उन्हें पुकारो तो वे तुम्हारी दुआओं को सुन नहीं सकते और सुन लें तो उनका तुम्हें कोई जवाब नहीं दे सकते। और क़ियामत के दिन वे तुम्हारे साझी ठहराने का इनकार कर देंगे। हक़ीक़ते-हाल की ऐसी सही जानकारी तुम्हें एक ख़बर रखनेवाले के सिवा कोई नहीं दे सकता।" (क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, आयतें-13,14)

क़ुरआन में एक दूसरी जगह कहा गया है कि ये मनगढ़ंत झूठे ख़ुदा एक मक्खी भी पैदा करने की सलाहियत नहीं रखते, बल्कि मक्खी को भगाने की भी इनके अन्दर ताक़त नहीं है। भला ऐसे ख़ुदा के सामने हाथ फैलाना कहाँ की बुद्धिमानी है।

"लोगो, एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो! जिन ख़ुदाओं को तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते। बल्कि अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहनेवाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वे भी कमज़ोर। उन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही नहीं पहचानी जैसे कि उसके पहचानने का हक़ है। हक़ीक़त यह है कि क़ुदरत और इज़्ज़तवाला तो अल्लाह ही है।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयतें-73,74)                                                     अल्लाह को एक मानने से मानव-एकता के ख़याल को बल मिलता है। यानी इस पूरी कायनात का तन्हा मालिक अल्लाह है और वही सब इनसानों का पैदा करनेवाला है। आज के दौर में साइंसी तरक़्क़ियों की वजह से दुनिया एक गाँव बन चुका है, मगर दिलों और ज़ेहनी तंगी का हाल यह है कि हर क़ौम का ख़ुदा भी अलग है और आदम (मानव) भी अलग है। यही कारण है कि संसार में हज़ारों तरह की क़ौमियतें पाई जाती हैं, बल्कि उनके बीच रक्तपात होता है और एक समाजवाला दूसरे समाज के लोगों के साथ लूट-पाट और मार-काट करता है। तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा न केवल ख़ुदा के बारे में इनसानों को संगठित करता है, बल्कि सारे इनसानों को एक ही इनसान (आदम) की औलाद क़रार देता है। यानी सारे इनसान बराबर हैं और समानाधिकार रखते हैं। किसी को किसी पर फ़ज़ीलत और बरतरी हासिल नहीं है। रंग, नस्ल, ख़ित्ता और मुल्क की बुनियाद पर इनसानियत का बँटवारा तौहीद के अक़ीदे के बिलकुल उलट है। अल्लाह के नज़दीक बरतरी का मेयार 'तक़्वा' (ईश्परायणता) है। क़ुरआन में कहा गया है—

"लोगो! हमने तुमको एक मर्द तथा एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी जातियाँ और बिरादरियाँ बना दीं। ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो। हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे अधिक इज़्ज़तवाला वह है जो तुम्हारे अन्दर सबसे ज़्यादा परहेज़गार है। यक़ीनन ही अल्लाह सबकी ख़बर रखनेवाला और सब कुछ जाननेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-49 हुजुरात, आयत-13)

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