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रिसालत

रिसालत

लेखक : मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ, (एम. ए.)

प्रकाशक : मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

 

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

"कृपाशील, दयावान परमेश्वर के नाम से"

प्राक्कथन

एकेश्वरवाद और परलोकवाद के अतिरिक्त इस्लाम की एक मौलिक धारणा है रिसालत अथवा पैग़म्बरवाद या ईशदूतत्त्व। ईश्वर ने जगत् में मानव की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की पूर्ण व्यवस्था की है। वर्षा इसी लिए होती है और धरती में अनाज इसी लिए पैदा होता है कि मानव को खाद्य-पदार्थ प्राप्त हो सके। ठीक इसी तरह ईश्वर सदैव से इसकी व्यवस्था करता रहा है कि मानव की वे अपेक्षाएँ भी पूरी हों जो उसकी नैतिक और आध्यात्मिक अपेक्षाएँ हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर ने सदैव स्पष्ट रूप से मानव का मार्गदर्शन किया और उसे बताया कि जगत् में उसका स्थान क्या है? यहाँ (धरती पर) वास्तव में उसे किस कार्य के लिए भेजा गया है? उसके वर्तमान जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है? जीवन-यापन के लिए उसे किन-किन नियमों और सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए? इस सिलसिले में मानव के मार्गदर्शन के लिए नबियों या पैग़म्बरों (ईशदूतों) को दुनिया में भेजा जाता रहा है।

नबियों या रसूलों ने इसकी पूरी कोशिश की कि मनुष्य ईश-निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर सफलता प्राप्त करे और अपने आपको तबाही से बचा सके। वह यह जान सके कि ईश्वर के दिखाए हुए मार्ग की उपेक्षा का परिणाम लोक और परलोक में कितना भयावह होता है।

पैग़म्बरों और रसूलों की श्रृंखला की अन्तिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दी हुई सूचना के अनुसार संसार में लगभग एक लाख 25 हज़ार पैग़म्बर हुए हैं, जिनमें विशिष्ट पैग़म्बरों (रसूलों) की संख्या 315 है। (हदीस : मुसनद अहमद)

रिसालत या पैग़म्बरी की धारणा भौतिकवादी दृष्टिकोण से नितांत भिन्न है। भौतिकवादियों का विचार है कि संसार केवल प्राकृतिक एवं भौतिक नियमों के आधार पर चल रहा है। इसके पीछे किसी ईश्वर या चेतनसत्ता की शक्ति क्रियाशील नहीं है। इस जगत् में जो कुछ भी दिखाई देता है वह मात्र पदार्थ (Matter) ही का चमत्कार है। किन्तु सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। स्वयं जगत् की विस्मयकारी व्यवस्था और मानव-जीवन से इस धारणा का निषेध होता है। जगत् और मानव-जीवन में ऐसे स्पष्ट संकेत पाए जाते हैं जो बताते हैं कि जीवन और जगत् का संचालन किसी सर्वज्ञ एवं शक्तिमान सत्ता के बिना संभव नहीं। विस्तृत जगत् में जो बुद्धिमत्ता और दयादृष्टिता प्रलक्षित होती है और मनुष्य में जिस नैतिक चेतना का आभास हमें मिलता है उसका स्रोत निर्जीव पदार्थ कदापि नहीं हो सकता।

नैतिकता की भावना यह अपेक्षा करती है कि मनुष्य पर नैतिक रहस्य का उद्घाटन हो। उसे मालूम हो कि नैतिक भावनाओं का वास्तविक उद्गम या स्रोत 'क्या' नहीं, बल्कि 'कौन' है। और फिर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसका मार्गदर्शन किया जाए। उसे बताया जाए कि सत्य क्या है और असत्य किसे कहते हैं? न्याय और अन्याय क्या है? मैत्री-भाव क्या है और कटुता किसे कहते हैं? सुशीलता और दुष्टता का प्रवेश जीवन में कहाँ से होता है? जीवन का सरल और सहज मार्ग कौन-सा है? मनुष्य की इन्हीं स्वाभाविक अपेक्षाओं और प्रश्नों का समुचित उत्तर है रिसालत या पैग़म्बरवाद। दूसरे शब्दों में मनुष्य के लिए शुभ क्या है और अशुभ क्या? सफल जीवन किसे कहते हैं और वह कैसे प्राप्त होता है? ये और इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों के उत्तर ईश्वर ने जिस माध्यम के द्वारा दिए हैं,  वह 'रिसालत' है।

एकेश्वरवाद और परलोकवाद के विषय में पुस्तकें उपलब्ध हैं। इसकी ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि कोई ऐसी पुस्तक भी प्रकाशित की जाए जिसमें रिसालत के विषय में उसके समस्त पहलुओं को दृष्टि में रखते हुए सविस्तार विचार किया गया हो और रिसालत की सत्यता और इसकी उपयोगिता को युक्तियुक्त दर्शाया गया हो। प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में किया जानेवाला एक प्रयास है।

ईश्वर से प्रार्थना है कि उसके यहाँ हमारा यह प्रयास स्वीकृति प्राप्त कर सके और मानव जगत् के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध हो।

भवदीय

मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ

 

अध्याय-1

आज गायन खोजता हूँ

जगत् और मानव

दुनिया में मनुष्य बहुत कुछ देखता और सुनता है। कितनी ही सुन्दर चीज़ें उसकी निगाहों से गुज़रती हैं। कितने ही मीठे स्वर उसे सुनाई देते हैं। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। मानव की प्रकृति इससे अधिक की कामना करती है। वह चाहता है कि स्वर, शब्द बन जाएँ और शब्द, गायन। सुन्दरता उसे उस सौंदर्य का परिचय दे जो वास्तविक और पूर्ण हो, जिसमें वह अपनी निजता का अध्ययन कर सके और जिससे उसका जीवन सार्थक हो सके।

जिस व्यक्ति ने भी जगत् को देखा है, देखने की तरह देखा है। उसकी मौजूदगी को पूरी तरह महसूस किया है। वह उससे प्रभावित अवश्य हुआ है। उसका हृदय तरंगित हुआ है। उसे हर चीज़ नूतन और नई लगी है। उसके हृदय में और भाव भी जागे हैं। उसे कहीं का कुछ स्पर्श भी मिला है। किन्तु इन सबके बावजूद अस्पष्टता रह जाती है। संध्या की तरह, जिसमें चीज़ें दिखाई तो दे जाती हैं लेकिन उनकी रूपरेखा कुछ धुँधली-धुँधली-सी लगती है, प्रकाश में जैसे बादलों का आवरण-सा बन गया हो।

संभव है कि जीवन की सुंदरता, पर्वत-मालाओं, बर्फ़ीली चोटियों, वृक्षों और उनपर खिले फूलों और उनकी सुगंध आदि को देखकर किसी विवेकशील व्यक्ति को आशा का कोई उज्ज्वल प्रकाश दिख जाए। वह यह समझने लगे कि वह जीवन की गहराइयों में उतरता जा रहा है। वह सत्य के अत्यंत निकट आ गया है और बुद्धत्व को प्राप्त हो गया। किन्तु इसके साथ संदेह की भी एक श्रृंखला साथ होती है। वह सोच सकता है कि मैं कितना ही अपनी बुद्धि से काम लूँ, कितनी ही गहराइयों में उतर जाऊँ और बहुत कुछ देखने और समझने लगूँ, लेकिन कहीं ऐसा न हो कि यह सब कुछ मेरी अपनी मात्र कल्पनाएँ ही हों जिनका सत्य और वास्तविकता से कोई नाता न हो। इस तरह वह जिस सूत्र को पकड़ना चाहता है वह उससे छूट जाता है। एक संदेह और संशय उसका पीछा करने लगता है जिससे छुटकारा पाना कोई आसान बात नहीं। प्रकृति की भाषा इतनी अधिक मौन है कि वह साधारण व्यक्ति की पकड़ में नहीं आ पाती। हालाँकि वह जितनी मौन है, उतनी ही अधिक वास्तविक भी है।

प्रकृति के संकेत

जिन लोगों ने जगत् और जीवन का गहरा अध्ययन किया है वे यह मानने पर विवश हुए हैं कि यह जगत् अत्यन्त रहस्यमय है। इसकी रहस्यमयता से सहृदय व्यक्ति को इस बात की प्रेरणा मिलती है कि वह इस जगत् से सरसरी तौर पर न गुज़रे, बल्कि जगत् और उसकी प्राकृतिक व्यवस्था और उसमें पाए जानेवाले नियमों (Laws of Nature) पर सोच-विचार करे और यह समझने की कोशिश करे कि क्या ये जगत् और जीवन यूँ ही अस्तित्व में आ गए हैं, या ये अपना कोई गहरा अर्थ और आशय भी रखते हैं। यदि जगत् और जीवन का सच्चाई और यथार्थवादिता के साथ अध्ययन किया जाए तो हमारी निराशा, आशा में परिवर्तित हो जाएगी और हममें यह देखने की क्षमता पैदा हो जाएगी कि मानव के अपने अस्तित्व में एवं उसके चतुर्दिक, धरती से लेकर आकाश तक, संपूर्ण जगत् में ऐसी अगणित निशानियाँ बिखरी हुई हैं जो स्पष्टतः यह ख़बर दे रही हैं कि यह सब कुछ यूँ ही निरर्थक नहीं है।

पहली बात तो यह कि हमें यह आभास होगा कि यह जीवन और जगत् बिना ईश्वर के नहीं हो सकता और न जगत्-रूपी कारख़ाने को बनाने और चलानेवाले कई ईश्वर हो सकते हैं। यह बात दूसरी है कि कोई व्यक्ति अपनी आँखें बंद कर ले और बुद्धि और विवेक से काम लेना ही छोड़ दे। ईश्वर ने तो अपनी ओर से जगत् में ऐसी निशानियाँ फैला रखी हैं जो सत्य का पता देती हैं, और ये निशानियाँ पृथ्वी और आकाश ही में नहीं, स्वयं हमारे अस्तित्व में भी विद्यमान हैं। ईश्वर ने जिस प्रकार हमारी आजीविका के लिए कोई एक साधन नहीं रखा, बल्कि उसने बहुत-से साधन जुटाए हैं और उसने इस सिलसिले में इतनी चीज़ें, अन्न और फल आदि के रूप में, पैदा कर दी हैं जिनकी गणना करना भी आसान नहीं है। ठीक इसी तरह उसने हमारे मार्गदर्शन के लिए बहुत कुछ साधन एकत्र कर दिए हैं। ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जो कुछ स्वीकार करे वह बुद्धि एवं विवेक के साथ स्वीकार करे। इसी लिए हम देखते हैं कि क़ुरआन में बुद्धि से काम लेने और चिंतन-मनन या सोच-विचार पर बड़ा ज़ोर दिया गया है। क़ुरआन चाहता है कि मनुष्य मात्र कल्पनाओं ही का सहारा न ले, क्योंकि इसमें बहुत-से ख़तरों की आशंका रहती है। वह चाहता है कि मनुष्य दृष्टिगत जगत् और महसूस होनेवाली प्रत्यक्ष चीज़ों के द्वारा उन सच्चाइयों तक पहुँचे जो मूर्तमान वस्तुओं से परे हैं, जैसे ईश्वर का अस्तित्व, उसका एकत्व और उसके सद्गुण आदि।

हम देखते हैं कि जगत् की रचना और उसकी व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ है। उसमें प्रत्येक स्थान पर हमें अदृश्य सत्ता के ज्ञान एवं सामर्थ्य का परिचय मिलता है। इस धरती को लीजिए, यदि यह अपने वर्तमान आकार की अपेक्षा कम आकार की होती तो इसपर पाया जानेवाला वायुमण्डल छिन्न-भिन्न होकर रह जाता और वायुमण्डल की वर्तमान स्थिति शेष न रहती, वह इस धरती की रक्षा का कार्य न कर सकता और उल्कापिंड की वर्षा से यह धरती चकनाचूर हो जाती। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (Harward University) के प्रोफ़ेसर फ़्लेशर वास्टन (Flacher Waston) की खोज यह है कि प्रतिदिन धरती के वायुमण्डल में एक अरब उल्कापिण्ड प्रवेश करते हैं, जिनकी गति राइफ़ल की गोली से भी तीव्र होती है। किन्तु वायुमण्डल हमारी पृथ्वी की रक्षा करता है जिसके कारण उल्कापात के भयंकर परिणाम से यह धरती सुरक्षित है।

यदि धरती का आकार वर्तमान आकार की अपेक्षा दुगुना होता तो हवा का आवरण धरती के आकर्षण की अधिकता के कारण सिमटकर मात्र कुछ ही किलोमीटर रह जाता और हमारे शरीर के लिए हवा का दबाव असहनीय हो जाता। इससे पता चलता है कि धरती का वर्तमान आकार संयोगवश नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक उद्देश्य कार्यरत है।

धरती अपनी धुरी पर एक हज़ार मील प्रति घंटा की गति से घूमती है। यदि उसकी गति 100 मील प्रति घंटा होती तो रात और दिन आज के मुक़ाबले में दस गुना बड़े हो जाते। दिन की गर्मी और रात की ठण्डक के कारण धरती पर हरियाली का नामोनिशान न पाया जाता, न कोई पौधा उगता और न कोई किसान अन्न उगा पाता। फिर देखिए, सूर्य धरती से एक उचित दूरी पर चमकता है। उसके धरातल का तापमान 12000°F है। यदि यह तापमान वर्तमान तापमान की अपेक्षा दुगुना होता तो यह धरती के वासियों के लिए असहनीय हो जाता। और यदि सूर्य का यह वर्तमान तापमान आज की अपेक्षा आधा होता तो ठण्डक से हर चीज़ जमकर रह जाती। क्या ये सारी चीज़ें इस बात का पता नहीं देतीं कि इस जगत् के पीछे कोई समझी-बूझी योजना है जिसके अंतर्गत जगत् का कारख़ाना सुचारु रूप से चल रहा है?

जगत् में क्रियान्वित -सहयोग का नियम

इस जगत् में हम देखते हैं कि चारों ओर टकराव का नहीं, बल्कि परस्पर सहयोग का नियम पाया जाता है। धरती आकाश का साथ देती है और आकाश धरती का। इस सहयोग के कारण जगत् में एक प्रकार का समन्वय (Co-ordination) और सामंजस्य (Harmony) तथा सहकारिता (Co-operation) पाई जाती है। यह इस बात का खुला प्रमाण है कि यह जगत् मात्र आकस्मिक घटना नहीं है, वरन् इसके पीछे कोई परम बुद्धि (Supreme Mind) क्रियाशील है। पशुओं को अंग-प्रत्यंग ऐसे दिए गए हैं जिससे वे अपने उस वातावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखते हैं जिसमें वे रह रहे होते हैं। यही नियम हम वनस्पति जगत् में भी देखते हैं। मानव-मस्तिष्क को लीजिए, उसमें एक अरब कोशिकाएँ (Cells) पाई जाती हैं, प्रत्येक कोशिका में 60,000 केंद्र बिन्दु हो सकते हैं। हमारी जिह्वा में 30,000 स्वादतंत्र (Taste Tubes) पाए जाते हैं, जिनके द्वारा हम भोजन आदि का स्वाद ले पाते हैं। इसी प्रकार ऐसे तंत्रों की संख्या एक लाख है जो हमारे कान में पाए जाते हैं, जिनकी सहायता से हम किसी आवाज़ को सुनने में समर्थ होते हैं। हमारी आँख में 130 मिलियन (13 सौ लाख) ऐसे तंत्र पाए जाते हैं जिनकी हैसियत प्रकाश ग्राह्यी (Light Accepters) की है। ये तंत्र चीज़ों के देखने में सहायक होते हैं। शरीर में पाई जानेवाली अगणित कोशिकाओं के अतिरिक्त एक युवा व्यक्ति के शरीर की समस्त नाड़ियों (Veins) को यदि लम्बाई में ताना जाए तो यह लम्बाई 36 हज़ार किलोमीटर से कहीं अधिक होगी। जटिल व्यवस्था का ऐसा अटूट सिलसिला बुद्धि और इच्छा-शक्ति के बिना संभव नहीं हो सकता। यह उसी प्रकार संभव नहीं हो सकता जैसे टाइप राइटर पर किसी बंदर के उलटी-सीधी अंगुलियाँ चलाने से कोई साधारण कविता या कहानी वुजूद में नहीं आ सकती। फिर उच्च कोटि की कहानी या कविता के बारे में सोचना ही क्या!

सर जेम्स जींस (Sir James Jeans) और लार्ड एडिंगटन (Lord Eddington, 1882-1944 ई०) और प्रो० व्हाइट हेड का कहना है कि जगत् की व्यवस्थित एवं सुसंगतियुक्त संरचना की व्याख्या संभव नहीं, जब तक कि हम किसी ऐसी शक्ति को स्वीकार न करें जो प्रकृति से परे पाई जाती हो। सर जेम्स जींस की दृष्टि में जगत् एक महान मशीन की अपेक्षा एक महान विचार (Great Thought) की हैसियत रखता है। क्या किसी ऐसी संरचना की कल्पना किसी कुशल स्रष्टा के बिना की जा सकती है?

विचार भाव से परिपूर्ण होता है और अर्थवत्ता ही नहीं चेतना का समावेश भी उसमें पाया जाता है। जगत् और उसके कार्यकलाप के सूक्ष्म अध्ययन से हमें उसमें समझ, बुद्धिमत्ता और तत्त्वदर्शिता का पूर्णतः भान होता है। और ये समस्त गुण एक विराट विचार (Thought) का एहसास दिलाते हैं और साफ़ महसूस होता है कि इसके पीछे एक जीवन्त सत्ता की शक्ति काम कर रही है। इसलिए जगत् और उसके कार्य-कलाप को विचार के रूप में देखना कोई अतिरंजना की बात नहीं है। सर जेम्स जींस तो स्पष्टतः, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, जगत् को विचार (Thought) कहता है। दूसरे शब्दों में संभवतः वह यह कहना चाहता है कि यदि हम जगत् को विचार के रूप में देखें तो यह बात सत्य से अधिक निकट होगी। अर्थात् जगत् को वस्तु अथवा पदार्थ या ऊर्जा कहने के बजाय यदि विचार (Thought) कहा जाए तो यह अधिक सत्यानुकूल होगा।

जगत् में हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति का विधान पाया जाता है। हमें प्यास लगती है तो प्यास बुझाने के लिए जल-संग्रह मौजूद है। जीने के लिए यदि ऑक्सीजन (Oxygen) चाहिए तो वायुमण्डल में प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन है। यदि हमें शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है तो धरती में विभिन्न रूपों में भोज्य पदार्थों की व्यवस्था की गई है। विचार करें कि क्या यह संभव है कि हमारी आवश्यकताएँ तो पूरी हो रही हों और हमारे समस्त कार्य सुचारु रूप से चल रहे हों किन्तु इसके पीछे दया दर्शानेवाला दाता न हो और न ही हमारी ज़रूरतों को जाननेवाली कोई परम सत्ता हो। क्या ज्ञान किसी ज्ञाता के बिना और दया का प्रदर्शन किसी दयावान सत्ता के बिना संभव हो सकता है? पदार्थ में तो इसकी संभावना नहीं पाई जाती कि हम उसे चेतना, विवेक और दयाभाव का स्रोत कह सकें। अतः यह मानना पड़ेगा कि कोई ईश्वर अवश्य है जो ज्ञान, चेतना, दया, करुणा, दानशीलता आदि सभी गुणों से संपन्न है। उसके इन्हीं गुणों का किसी-न-किसी रूप में प्रदर्शन हो रहा है। ईश्वर जीवन्त सत्ता है। जीवन की एक विशेषता यह है कि दानशीलता उसका एक अविभाज्य अंग है। कोई वृक्ष जब तक हरा-भरा और जीवित रहता है उससे फल-फूल और शीतल छाया आदि की आशा की जा सकती है। किन्तु वृक्ष के सूख जाने के बाद न उससे फल-फूल प्राप्त किए जा सकते हैं और न ही उसकी शीतल छाया में कोई विश्राम करने की सोच सकता है। कोई सरिता जब तक प्रवाहित है हम उसमें नौका-विहार भी कर सकते हैं और उसके जल से किसान अपने खेतों की सिंचाई भी कर सकता है। किन्तु यदि सरिता जलविहीन हो जाए तो न उसमें नौकाएँ चल सकती हैं और न किसान उससे अपने खेतों को सिंचित कर सकता है। जल-प्रवाह ही सरिता का जीवन है। अग्नि जब तक प्रज्ज्वलित रहती है हम उससे ताप प्राप्त करते और उसकी आँच में भोजन आदि तैयार कर सकते हैं, शीतकाल में अग्नि से जल गर्म करके स्नान कर सकते हैं। किन्तु यदि अग्नि बुझकर राख हो जाए तो फिर इसी के साथ उसकी दानशीलता भी समाप्त होकर रह जाती है। सूर्य जब तक ज़िंदा है वह अपनी किरणें बिखेर रहा है, दुनिया उससे प्रकाश और गर्मी दोनों ही हासिल कर रही है। और यह उसी समय तक संभव है जब तक सूरज चमक रहा है। जब सूर्य अंगारे की तरह बुझ जाएगा तो फिर न वह रौशनी दे पाएगा और न उसकी गर्मी से हमारी खेतियाँ पक सकेंगी। इससे स्पष्ट रूप से हम समझ सकते हैं कि हर प्रकार की बहारों, बरकतों और दानशीलता का संबंध जिस विशेष गुण से है वह है 'जीवन'। कृपणता का संबंध जीवन से कदापि नहीं हो सकता, उसका संबंध तो मृत्यु से ही हो सकता है। जिस व्यक्ति में जितनी कृपणता पाई जाएगी, वह व्यक्ति उतना ही मृत-प्राय होगा। कारण यह है कि कृपणता का संबंध जीवन से नहीं, बल्कि मृत्यु से ही होता है। मरा हुआ व्यक्ति हमें क्या देगा? वह तो हमारे सलाम का उत्तर देने की सामर्थ्य भी नहीं रखता।

जगत् और जीवन में जो कुछ हमें सुखदायक और शोभायुक्त दिखाई दे रहा है वह निर्जीव पदार्थ का चमत्कार कदापि नहीं, बल्कि वह परमजीवन्त सत्ता, ईश्वर की दया और दानशीलता है। उसकी दानशीलता और करुणा युक्त योजनाओं में संवेदनशील व्यक्ति को उसकी आभामय सुन्दरता ही आभासित होती है।

मनुष्य का अस्तित्व ससीम (सीमित) है किन्तु उसके मन में एक असीम, उच्चतम और प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्ण अस्तित्व (Perfect Being) का प्रत्यय (Idea) विद्यमान है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि सीमित वस्तुओं से असीम सत्ता के प्रत्यय की उत्पत्ति कैसे संभव हुई? जबकि ससीम वस्तुओं से असीम शक्ति-संपन्न प्रत्यय का व्यक्त होना संभव नहीं। इससे स्पष्टतः साबित होता है कि कोई ईश, स्रष्टा अवश्य है जो अपने होने का इस प्रकार प्रमाण मानव-मन में संचित करता है। संसार की समस्त वस्तुएँ किसी स्रष्टा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं, क्योंकि संसार की वस्तुओं में यह सामर्थ्य नहीं पाया जाता कि उन्होंने स्वयं अपने आपको पैदा किया हो। उनका स्रष्टा अवश्य कोई और है। ठीक इसी प्रकार असीम की कल्पना एवं धारणा ससीम मन एवं मस्तिष्क का चमत्कार नहीं हो सकता। यह चमत्कार वास्तव में उसी सत्ता का हो सकता है जिसे हम सर्वशक्तिमान ईश्वर की संज्ञा देते हैं। यह ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में एक प्रत्ययात्मक (Autological) तर्क है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।

ऊपर जो कुछ कहा गया, उससे न केवल यह कि ईश्वर की सत्ता और उसके अस्तित्व का खुला प्रमाण सामने आता है, बल्कि उससे यह भी पता चलता है कि वह परम सत्ता दयामय और करुणा का सागर है, उसकी ओर से नित्य कृपादृष्टि होती रहती है। उससे हमारा संबंध आशा ही का हो सकता है। उससे निराश होना और किसी विषय में उससे अच्छी आशा न रखना घोर अपराध होगा। यदि हमारी कुछ आवश्यकताएँ हैं, तो वे आवश्यकताएँ इसी लिए हैं कि वे पूरी हों, किन्तु अकृतज्ञ मनुष्य अपने हृदय की संकुचितता के कारण ईश्वर से बड़ी आशा रखने में हिचकिचाता है और जब ईश्वर के किसी महानतम कार्य का उल्लेख उसके समक्ष किया जाता है तो उसे स्वीकार करने की अपेक्षा उसका इनकार करना ही उसे सहज और स्वाभाविक प्रतीत होता है। ईश्वर के महान अनुग्रहों और उसकी ओर से होनेवाली अमृत वर्षा का इनकार ईश्वर का अपमान है, इस बात को वह मनुष्य महसूस नहीं करता। धन-धाम और जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जिस व्यवस्थित ढंग से हो रही है उसपर ईश्वर का आभारी होना अनिवार्य है। संसार की भौतिक वस्तुओं के बहुमूल्य होने से इनकार नहीं किया जा सकता, किन्तु ईश्वर का सबसे बड़ा उपकार यह है कि उसने अपने पैग़म्बरों के माध्यम से मानवों को संबोधित किया और मानव यह जान सका कि जीवन का वह पक्ष कौन-सा है जिसके कारण संसार में उसे वरीयता प्राप्त है, और आत्मा का वह मधुर राग कौन-सा है जो जीवन को अर्थमय बनाता है। इस विषय पर हम आगे चलकर विस्तार से प्रकाश डालेंगे।

किन्तु यहाँ इतना जान लेना आवश्यक है कि जीवन में सुख-सुविधा और भौतिक वस्तुएँ ही सब कुछ नहीं हैं, बल्कि वर्तमान जीवन में भी सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु ईश-अनुराग और ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना है। जीवन में यदि हम उसकी आराधना न कर सके और उससे प्रार्थना करना और उसे हर क्षण स्मरण रखना हमारा स्वभाव न बन सका तो हमारा यह जीवन सब कुछ होने के बावजूद एक ऐसे मरुस्थल के समान होगा जिसमें न वास्तव में कोई हरियाली होती है और न जहाँ फूल खिलते और पक्षी गीत गाते हैं।

वर्तमान जीवन का यदि कोई आशामय भविष्य न हो तो संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह जीवन मात्र एक तमाशा बनकर रह जाएगा। जिसका अमरत्व से कोई सम्बन्ध न हो वह कोई मूल्यवान वस्तु नहीं हो सकती। मानव, जिसके यहाँ आज की तरह कल की कल्पना भी पाई जाती है, वह मात्र आज पर कैसे सन्तुष्ट हो सकता है?

इस जगत् और जीवन में जो संकेत पाए जाते हैं वे बताते हैं कि मनुष्य के लिए आज की तरह कल भी है, किन्तु सुखद कल के पाने के लिए हमें अपने आज को स्मृद्ध करना होगा। हमारे आज को सत्य की पहचान भी हो और हमारे जीवन के समस्त कार्यकलाप सत्य के अनुकूल हों इस सिलसिले में विस्तृत मार्गदर्शन की आवश्यकता है। हमारी यह आवश्यकता किस प्रकार पूर्ण हो सकती है और इसके लिए जगत्-स्रष्टा ने क्या व्यवस्था की है आगे चलकर सविस्तार इसपर भी विचार किया है।

अध्याय-2

बुद्धि एवं विवेक की अपनी सीमाएँ

मानव की बुद्धि और उसके विवेक की अपनी सीमाएँ हैं। इसमें संदेह नहीं कि बुद्धि और मस्तिष्क ईश्वर-प्रदत्त बहुमूल्य चीज़ है, किन्तु बुद्धि से काम लेने में उसकी क्षमता और सामर्थ्य को ध्यान में रखना ज़रूरी है। यदि आप बुद्धि से वह काम लेना चाहेंगे जो उसकी सामर्थ्य से बाहर है तो आप अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते, और यह बुद्धि के साथ अत्याचार भी होगा। विज्ञान (Science), जो मानव-बुद्धि का चमत्कार है, उसके बारे में काण्ट ने स्वीकार किया है कि विज्ञान हमें सच्चाई (Reality) तक नहीं पहुँचा सकता। आइंस्टाइन ने अपनी पुस्तक 'आउट ऑफ़ माई लैटर डेज़' (Out of My Later Days) में लिखा है:

"विज्ञान केवल यह बता सकता है कि 'क्या है', वह यह नहीं बता सकता कि 'क्या होना चाहिए'। इसलिए कि मूल्यों का निर्धारण उसकी परिधि से बाहर की चीज़ है।"

बिशप बर्कले (Bishop Berkley 1685-1753 ई०) ने कहा है कि मानव मस्तिष्क से बाहर किसी चीज़ का अस्तित्व साबित करना असंभव है। मूल वस्तु मस्तिष्क है, अपने मस्तिष्क के अतिरिक्त हम किसी दूसरी चीज़ से परिचित नहीं हैं। इस तरह बर्कले भी इस बात को स्वीकार करता है कि मानव-मस्तिष्क एवं बुद्धि की अपनी एक सीमा है। सच्चाई को पाने के लिए केवल उसी पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।

हम जानते हैं कि विज्ञान का विषय केवल वे तथ्य हैं जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ सकते हैं, जिन्हें नापा और तौला जा सकता है। विज्ञान उन तथ्यों से सीधा कोई संपर्क नहीं रखता जो हमारी इन इंद्रियों से परे हों, जिनकी हम अपनी प्रयोगशाला में परीक्षा नहीं कर सकते। यही कारण है कि विज्ञान की परिधि मूर्तमान संसार और इहलौकिक भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित मानी जाती है। यहाँ यह बात ध्यान में रखने की है कि यदि हम मूर्तमान और इहलौकिक भौतिक वस्तुओं ही को अंतिम सच्चाई समझ लें और अलौकिक तथ्यों का इनकार कर दें तो यह हमारी बहुत बड़ी ग़लती होगी। यह वास्तव में सीमोल्लंघन है। इसी विकृत मानसिकता ने अधर्म को जन्म दिया और इस प्रकार का विचार व्यक्त किया जाने लगा कि जगत् एक ऐसी मशीन के सदृश है जिसके पीछे किसी जीवन्त-सत्ता का हाथ नहीं है।

बुद्धि के रूप में एक बहुमूल्य वस्तु हमारे पास है, इसमें संदेह नहीं। हमारी इंद्रियाँ बुद्धि के द्वारा ही पूर्ण एवं सार्थक होती हैं। बुद्धि के बिना हमारी इंद्रियाँ सुचारु रूप से काम नहीं कर सकती हैं। मस्तिष्क ही है जो इंद्रियों को नियंत्रित रखता है और उनसे सुचारु रूप से काम लेता है। बुद्धि एवं मस्तिष्क का महत्व उस समय और स्पष्ट रूप से समझ में आता है जब हम किसी शराबी को देखते हैं जो नशे की हालत में अपनी बुद्धि खो देता है। बुद्धि के विकृत होने के कारण उसकी इंद्रियाँ सुचारु रूप से काम करने में असमर्थ होकर रह जाती हैं। बुद्धि के इस महत्त्व के बावजूद उसमें यह क्षमता कदापि नहीं पाई जाती कि वह हमें जीवन के अंतिम सत्य (Ultimate Reality) से अवगत करा सके। बर्गसा ने कहा है कि हमारे भौतिक चिंतन में यह क्षमता नहीं पाई जाती कि वह जीवन की वास्तविकता (Reality) को हमारे समक्ष ला सके या जीवन की विकास युक्त प्रगति का ठीक-ठीक और उसका पूरा आशय प्रस्तुत कर सके। [Creative Evolution, (Preface) p-10. ] ब्राइटमैन (Bright Man) ने तो यहाँ तक कहा है कि मानव-बुद्धि किसी विषय के संबंध में भी अंतिम प्रमाण, पूर्ण साक्ष्य और तार्किक विश्वास नहीं जुटा सकती। मानव-ज्ञान अकाट्य विश्वास तक पहुँचाने में असमर्थ है। [The Science & The Modern World, p-113.] डा० जेम्स आर्नल्ड ग्रोथर का बयान है प्रकृति-व्यवस्था अपनी गहरी मौलिक सादगी में इतनी अधिक आश्चर्यजनक है कि विज्ञान-लोक में अंतिम बात, अंतिम मानव के लिए छोड़ देनी चाहिए। [Great Design, p-52.] सर जेम्स जींस ने अपनी किताब 'दि मिस्टरियस यूनिवर्स' (The Mysterious Universe) में कहा है कि आधुनिक विज्ञान उन गूढ़ समस्याओं के संबंध में, जो सदैव के लिए हमारी समझ की पकड़ से परे रखे गए हैं, कुछ कहने में असमर्थ है।

इस संबंध में मैक्स प्लैंक (Max Planck) ने लिखा है कि भौतिकशास्त्र की सभी धारणाएँ उस जगत् से उद्धृत की जाती हैं जिसका ज्ञान हमें इंद्रियों के द्वारा होता है। किन्तु हमारी बुद्धि हमें बताती है कि प्रकृति के नियम उस समय से मौजूद हैं जब इस धरती के क्षेत्र में जीवन प्रकट भी नहीं हुआ था। और ये वे नियम हैं जो मानव-जाति के अंत के बाद भी शेष रहेंगे। इससे विदित होता है कि इस मूर्तमान जगत् के अतिरिक्त एक वास्तविक जगत् भी है, जो मानव के ज्ञान और धारणाओं एवं कल्पनाओं के अधीन नहीं है। [Universe in the Light of Moderm Physics] डीन इंज (Dean Inge) ने भी कहा है कि देशकाल का जगत् वास्तविक जगत् नहीं है, बल्कि यह वास्तविक जगत् का आंशिक प्रदर्शन और उसकी अपूर्ण उपस्थिति है। [God and the Astronomers, P-13.] जब यह जगत्, जैसा कि ये पाश्चात्य विद्वान स्वीकार करते हैं, किसी वास्तविक जगत् की आंशिक छाया मात्र है तो बुद्धि के लिए यह कार्य और दुस्साध्य होकर रह जाता है कि वह अपने बल पर सत्य को प्राप्त कर सके। मानव-बुद्धि किसी अलौकिक सहायता एवं योगदान की सदैव प्रतीक्षा में रहती है। इस तथ्य की उपेक्षा करना बहुत बड़ी ग़लती होगी। विज्ञान की असमर्थता इस संबंध में बिलकुल स्पष्ट है। सत्य का एक महत्त्वपूर्ण पहलू वह है जिसे हम उद्देश्य और आशय की संज्ञा दे सकते हैं। जीवन का लक्ष्य हो या समय का प्रयोजन, इसका वास्तविक ज्ञान परम सत्य के ज्ञान से कम महत्त्व नहीं रखता। ज्ञान इस क्षेत्र में भी हमारा मार्गदर्शन नहीं करता। अतएव, सर रिचर्ड लिविंग्स्टन (Sir Rechard Livingstone) कहता है, "हम मानव के लिए साधन जुटाते हैं, उन्हें प्रयोग करना भी सिखाते हैं, किन्तु उस उद्देश्य के विषय में कुछ नहीं बताते जिसके प्राप्त करने का ये साधन मात्र हैं।" [Education for a World: A drift] जोड (Joad) ने भी कहा है कि विज्ञान हमें यह तो सिखाता है कि साधनों पर किस प्रकार क़ुदरत हासिल की जा सकती है, किन्तु उद्देश्य के प्रति वह कुछ नहीं बता सकता। जोड ने यह भी कहा है कि विज्ञान एक दो धारी तलवार है जिसने मानव को वे शक्तियाँ प्रदान कर दीं जिन्हें इस्तेमाल करने का तरीक़ा वह नहीं जानता। इसका परिणाम यह हुआ कि रक्तपात और ग़ारतगरी की उसकी क्षमता में वृद्धि हो गई और इस प्रकार मानव-सभ्यता विनाश के नरक के किनारे तक आ पहुँची। 19वीं शताब्दी ने केवल विज्ञान की उन्नति देखी। उसने हमारे लिए छोड़ दिया कि हम यह देखें कि विज्ञान की इस उन्नति के साथ-साथ मानवता किस प्रकार अधोगति को प्राप्त होती गई। [God and Evil p-114]

मानसिक विश्लेषण (Psychic Analysis) के कुशल विचारक जुंग (1875 1961 ई०) ने अपनी आपबीती में लिखा है कि मेरे लिए इस बात का निर्धारण असंभव है कि कौन-कौन-सी वस्तुएँ अपना क्या-क्या मूल्य (Value) रखती हैं और कौन-सी नहीं। मैं अपने विषय में अपने जीवन के प्रति कोई आदेश नहीं लगाता। मुझे केवल इतना ज्ञात है कि मैं पैदा हुआ था और जीवित हूँ। और मुझे यह भी दिखाई देता है कि मैं स्वयं नहीं आया, बल्कि लाया गया हूँ। और यह कि मेरा अस्तित्व किसी दूसरी चीज़ पर निर्भर करता है, जिसे मैं जानता नहीं।

बुद्धि चीज़ों के तात्कालिक (Immediate) और निकटवर्ती (Proximate) उद्देश्य तो बताती है, किन्तु असली और वास्तविक उद्देश्य बताने में असमर्थ है। मनुष्य अपनी दुर्बलता के कारण पूरे जीवन पर एक साथ संतुलित निगाह डालने में असमर्थ रहता है, यही कारण है कि वह स्वयं अपने लिए जीवन की कोई ऐसी राह निर्धारित नहीं कर सकता जिसमें न केवल यह कि उसकी समस्त योग्यताओं और क्षमताओं का ध्यान रखा गया हो बल्कि उसकी समस्त प्राकृतिक इच्छाओं के साथ भी न्याय पाया जाता हो।

इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाहि अलैह) (1263-1348 ई०) ने भी अपनी सुप्रसिद्ध किताब 'अल-रद्द अलल् मंतिक़ईन' में बुद्धि की दुर्बलताओं और त्रुटियों का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया है। इब्ने-ख़लदून (1332-1406 ई०) ने 'तारीख़' की भूमिका में लिखा है कि एकेश्वरवाद, परलोक और रिसालत (Prophethood) के विषय को बुद्धि की तुला पर नहीं तौला जा सकता। मतलब यह है कि अलौकिक समस्याओं के संबंध में मानव-बुद्धि अत्यंत असहाय और असमर्थ दीख पड़ती है। आधुनिक सुप्रसिद्ध विचारक काण्ट (1724-1806 ई०) ने भी अपनी पुस्तक 'द क्रिटिक ऑफ़ प्योर रीज़न' (The Critique of Pure Reason) अर्थात् 'विशुद्ध बुद्धि की समालोचना' में सविस्तार इसकी चर्चा की है कि बुद्धि की क्षमता अत्यंत सीमित है और उसके साथ अनेक भ्रांतियाँ लगी हुई हैं। केवल बुद्धि के बल पर सत्य (Ultimate Truth) तक हमारी पहुँच नहीं हो सकती।

ऊपर जो कुछ कहा गया उसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्धि एवं विवेक का कोई मूल्य और उपयोग नहीं। बुद्धि और विवेक ईश्वर की प्रदान की हुई वे अमूल्य निधि हैं जिसके कारण मनुष्य को पशु आदि निम्न स्तर के प्राणियों की अपेक्षा विशिष्टता एवं उच्चता प्राप्त है, और यह उसके गौरव की बात है। बुद्धि प्रदान करके ईश्वर ने मनुष्य को किसी उच्च उद्देश्य के लिए चुना है। ईश्वर मनुष्य को असहाय दशा में नहीं छोड़ना चाहता। जिस प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को आँखें दी हैं, किन्तु यदि वह प्रकाश की व्यवस्था न करता तो आँख रखते हुए भी मनुष्य अंधा ही रहता, उसी प्रकार बुद्धि के साथ उसके सहयोग के लिए किसी प्रकाश की ज़रूरत पाई जाती है ताकि मनुष्य सत्य मार्ग पर चलने में समर्थ हो सके और जीवन में वह किसी संदेह और शंका आदि का शिकार न हो सके। इस संबंध में हम आगे चलकर विस्तारपूर्वक विचार व्यक्त करेंगे।

अध्याय-3

मानव का रहस्यमय जीवन

भौतिक जगत् से मानव का गहरा संबंध है, किन्तु किसी अलौकिक जगत् से उसका संबंध भी कुछ कम नहीं है। जीवन के रहस्य को न जानने के कारण कितने ही विचार संदेहों के घेरे में आ गए, और वे संदेह के अंधकार से अपने को न निकाल सके। मानव का व्यक्तित्व अपनी सादगी और सरलता के साथ कुछ ऐसी जटिलता भी रखता है जिसके कारण उसके रहस्य को जान पाना व्यक्ति के लिए कठिन हो जाता है।

मानव के अनुभव में आनेवाली चीज़ों में सबसे क़ीमती चीज़ चेतना (Consciousness) है। चेतना के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मानो चेतना ही जीवन है। आधुनिक खोजों से यह सिद्ध होता है कि जीवन को पदार्थ की उपज नहीं कह सकते। पदार्थ से हटकर जीवन का अपना अलग अस्तित्व है। किन्तु जीवन या चेतना का स्रोत क्या है? विज्ञान इसका उत्तर देने में असमर्थ दिखाई देता है। डॉ० बुक (Buck) के विचार में चेतना के तीन स्तर होते हैं—

(1) साधारण चेतना (Simple Consciousness): यह चेतना हमें पशुओं में देखने को मिलती है। यह निम्न कोटि की चेतना है। पशुओं की हैसियत मात्र एक जीवन्त मशीन (Living Machine) की है। विचार एवं अतींद्रिय विषयों के क्षेत्र में उनसे किसी अनुसंधान की आशा नहीं की जा सकती। उनमें किसी सांस्कृतिक या सभ्यता संबंधी विकास की संभावना नहीं पाई जाती। वे वास्तव में अपने लिए नहीं, वरन् पेड़-पौधों की तरह किसी न किसी पहलू से मानव के सेवक ही होते हैं।

(2) आत्म-चेतना (Self-Consciousness): जनसाधारण चेतना के इसी स्तर पर पैदा होते हैं। मनुष्य को अपना ज्ञान होता है। वह कल की कल्पना कर सकता और करता है। नाशवान जीवन में शाश्वत जीवन की वह इच्छा करता है। वह विचारशील है। उसके यहाँ भावनाओं की सूक्ष्मता, कोमलता और सुंदरता के दर्शन मिलते हैं। उसकी गहराइयों और ऊँचाइयों को अभी तक मापा नहीं जा सका। उसके यहाँ अनुभव एवं विचार की जो संभावनाएँ पाई जाती हैं, वे असीम प्रतीत होती हैं। मानव-मस्तिष्क (Human Brain) का अध्ययन बताता है कि पूर्ण रूप से उसकी शक्ति का इस्तेमाल आइंस्टाईन जैसा वैज्ञानिक भी अपने जीवन में न कर सका।

(3) विश्व-व्यापी चेतना (Cosmic Consciousness): चेतना का यह स्तर जनसाधारण के स्तर से अत्यंत उच्च होता है। यह उच्चतम चेतना आम विभूतियों में परिलक्षित नहीं होती है। चेतना के इस स्तर पर पूर्ण रूप से वे विभूतियाँ दिखाई देती हैं जिन्हें जगत् पैग़म्बर (Prophet), ईशदूत या नबी के नाम से जानता है।

मानव-आत्मा

भौतिकवादी यह समझते रहे हैं कि मानव के व्यक्तित्व और चेतना आदि का स्रोत उसका मस्तिष्क ही है। किन्तु नवीनतम खोजों ने इस विचार को रद्द कर दिया है। मानव-आत्मा और मस्तिष्क दो अलग-अलग चीज़ें हैं। न तो हम मानव चेतना को पाशविक चेतना का विकसित रूप कह सकते हैं और न मानव चेतना को मस्तिष्क का चमत्कार। मानवीय चेतना और पाशविक चेतना के मध्य दर्जों (Degrees) का अन्तर नहीं, बल्कि दोनों में प्रकार-भेद भी पाया जाता है। ओस्पेंसकी ने लिखा है कि मानव-आत्मा और मस्तिष्क दोनों एक नहीं हैं। मस्तिष्क वह दर्पण है जिसके माध्यम से मानव-आत्मा का बिम्ब हमारी उस दुनिया के समक्ष आ जाता है जो त्रि-आयामी (Tri-Dimensional) है। इसका अर्थ यह होता है कि हमारी भौतिक दुनिया में मानव-आत्मा मस्तिष्क के माध्यम से प्रतिबिम्बित होकर पूर्णतः सामने नहीं आ जाता, बल्कि उसका एक भाग सामने आता है। यदि दर्पण टूट जाए तो उसके अंदर का बिम्ब भी विघटित हो जाएगा। या यदि दर्पण में कोई ख़राबी आ जाए तो बिम्ब भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं देता। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि दर्पण टूट जाने से वह चीज़ भी नष्ट जो जाएगी जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण के अंदर दिखाई दे रहा था। [Tertium Organum, P-164.]

मानव-आत्मा और उसके गुणों को समझने में जो कठिनाई पेश आती है उसका मूल कारण यह है कि आत्मा की अपेक्षा मानव के स्थूल शरीर को अधिक महत्त्व दिया जाता है। स्थूल शरीर को स्वस्थ रखने और उसकी ज़रूरतों को पूरी करने में मनुष्य कुछ इस तरह व्यस्त रहता है कि उसे इसका अवसर ही नहीं मिलता कि वह सोच सके कि मनुष्य वास्तव में शरीर से हटकर कुछ और भी है। सांसारिक सुख-सुविधा के लिए आदमी सुन्दर से सुन्दर भवनों के निर्माण की चिंता करता है। जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए धन की आवश्यकता होती है, इसके लिए वह व्यापार, नौकरी आदि कार्य करता है। उसके पास इसके लिए समय ही नहीं होता कि वह अपने व्यक्तित्व और उससे संबंधित समस्याओं का गहराई के साथ अध्ययन करे। समय बीतने के साथ-साथ वह ऐसा जड़ताग्रस्त हो जाता है कि वह अपनी भूल तो क्या स्वीकार करता, वह आत्मा और आत्मिक जीवन ही को मानने से इनकार कर बैठता है और अपने इस दुस्साहस के पक्ष में प्रमाण जुटाने में लग जाता है ताकि वह अपने को यक़ीन दिला सके कि उसने जो नीति अपनाई है वही तर्कसंगत है। किसी ने लोगों को सावधान करते हुए कहा है—

You are a soul with a body rather than a body with a soul.

अर्थात् वास्तव में तुम एक आत्मा हो जिसे एक शरीर मिला है, न यह कि तुम एक शरीर हो जो एक आत्मा भी रखता है।

नैतिक चेतना

हम देखते हैं कि बुद्धि के साथ आदमी में नैतिक चेतना भी पाई जाती है, जिसके कारण वह भलाई और बुराई में अंतर करता है, और वह कुछ कामों को अच्छा और कुछ कामों को बुरा समझता है। यह स्वयं इस बात की सूचना है कि हम भौतिक शरीर ही नहीं इससे हटकर कुछ और भी हैं। हमारे अस्तित्व का स्तर भौतिक पदार्थ से उच्च है। हमारा मूल निर्जीव पदार्थ कदापि नहीं हो सकता। भले-बुरे का एहसास मानव को सदैव से रहा है। प्राचीन से प्राचीन सभ्यताओं का अध्ययन बताता है कि नैतिक चेतना से मानव कभी भी रिक्त नहीं रहा है। क़ुरआन में भी कहा गया है—

"साक्षी है आत्मा और जैसा कुछ उसे सँवारा। फिर उसमें इसकी समझ रखी कि क्या उसके लिए बुरा है और क्या उसके लिए भला।" (क़ुरआन, 91 : 7-8)

आध्यात्मिक चेतना

नैतिक चेतना से आगे मनुष्य में आध्यात्मिक चेतना भी पाई जाती है। ऐसा लगता है जैसे उसे अनदेखे आराध्य की खोज हो, जैसे उसे कोई ऐसी प्यास है जो बिलकुल अलग तरह की है। इस प्यास के बाद ही किसी के लिए सत्य के आभास की संभावना पैदा होती है। व्यक्ति को यदि एक अनदेखे आराध्य की तलाश होती है तो इसलिए कि वह अपनी आत्मिक प्यास बुझा सके और अपने आराध्य के क़दमों पर अपने को डाल सके, अपने को उसे समर्पित करके शांति और आनंद प्राप्त कर सके।

फिर हर व्यक्ति में अंतरात्मा (Conscience) नाम की भी एक चीज़ पाई जाती है जो उसे हर ऐसे अवसर पर टोकती है जब वह बुरे कार्य का इरादा करता है। अंतरात्मा की आवाज़ को मिटा देने पर मनुष्य आज तक समर्थ न हो सका। मानव के वश में नहीं कि वह इस आवाज़ को न सुने। यह आवाज़ उसने रखी है जिसने मनुष्य को पैदा किया है। क़ुरआन में है—

“सुनो, मैं क़सम खाता हूँ क़ियामत के दिन की, और सुनो! मैं क़सम खाता हूँ धिक्कारनेवाली आत्मा की।" (क़ुरआन, 751-2)

क़ुरआन की ये आयतें बताती हैं कि आत्मा का एक गुण यह भी है कि वह अनुचित कामों पर मनुष्य को टोकती है कि मनुष्य उचित-अनुचित में अंतर करे और बुरे कामों से दूर रहे, क्योंकि दुष्कर्मों से आत्मा की तेजस्वता को आघात पहुँचता है। मनुष्य के अन्तःकरण में पाया जानेवाला यह संकेत किसी बड़े तथ्य का सूचक है।

सौंदर्य-बोध

एक और कोमल एवं मृदु (Delicate) चीज़ जो मनुष्य में हम देखते हैं, वह है सौंदर्य-बोध। नैतिक चेतना की तरह यह सौंदर्य-बोध भी ध्यान देने योग्य चीज़ है। सौंदर्य-बोध स्वयं इस बात का प्रमाण है कि वह पदार्थ-प्रदत्त नहीं हो सकता। यह उस अभिरुचि का द्योतक है जो हमारे जीवन और हमारी सोच को एक नवीन दिशा दे सकता है, जिससे हम ऐसे निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं कि आनंद-विभोर होकर रहेंगे। क़ुरआन ने सौंदर्य-बोध को तर्क का एक आधार माना है। क़ुरआन में है—

"धरती पर जो कुछ है उसे तो हमने धरती की सौंदर्य का कारण बनाया है, ताकि हम लोगों की परीक्षा करें कि उनमें कर्म की दृष्टि से कौन उत्तम है।" (क़ुरआन, 18:7)

क़ुरआन का अभिप्राय यह है कि जिस धरती में मनुष्य को बसाया गया है। उसे उजाड़ और वीरान नहीं रखा गया; बल्कि उसे अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक बनाया गया है। कहीं हरे-भरे जंगल हैं तो कहीं लहलहाती खेतियाँ दिखाई देती हैं। वन में सुन्दर और महकते हुए फूल खिलते हैं तो कहीं कोयल की कूक सुनाई देती है। कहीं चौकड़ियाँ भरते हुए हिरन दिखाई देते हैं तो कहीं सरिताएँ प्रवाहित हैं। सारांश यह कि धरती को विभिन्न रूपों से सुसज्जित किया गया है। विभिन्न ऋतुओं के आगमन से इसमें और चार-चाँद लग जाते हैं। जब धरती को, जिसमें मानव को बसाया गया है, ईश्वर ने यह पसंद नहीं किया कि वह असुन्दर हो, फिर वह यह कैसे पसंद कर सकता है कि मानव को तो जीवन मिले किन्तु उसमें कोई सुन्दरता न हो। मानव-जीवन में सुन्दरता आती है अच्छे कर्म और सच्चरित्र से। इसी लिए कहा गया—

"ताकि हम लोगों की परीक्षा करें कि उनमें कर्म की दृष्टि से कौन उत्तम है।" (क़ुरआन, 18 : 7)

मनौवैज्ञानिक दृष्टिकोण

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब हम मानव का अध्ययन करते हैं तो हमें इस बात का पता चलता है कि उसकी मानसिकता को गिरावट, अनादर और अपमान प्रिय नहीं। वह चाहता है कि उसे आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त हो। मानव का अध्ययन करने से मालूम होता है कि उसकी प्राकृतिक अभिरुचियों, आत्मचेतना (Self-consciousness), आत्मसम्मान (Self-respect), अपने गौरव का आभास और संकल्प एवं ऐसे चारित्रिक गुण उसमें विद्यमान हैं जिनसे उसका व्यक्तित्व परिलक्षित होता है। इस व्यक्तित्व का बड़ा महत्त्व है। इसकी सुरक्षा और विकास मानव की एक बड़ी आवश्यकता है। पहली बात तो यह है कि किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व (Important Personality) का स्रोत कोई परम व्यक्तित्व (Supreme Personality) ही हो सकता है। उसे बेजान पदार्थ का चमत्कार नहीं कहा जा सकता। यह ऐसी बात है जो सामान्य बुद्धि की समझ में आसानी से आ सकती है। इस भौतिक जगत् में उसी परम व्यक्तित्व का आविर्भाव इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इस जगत् के पीछे अनिवार्यतः कोई महान सत्य क्रियाशील है। उसके विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने में हम भले ही असमर्थ हैं लेकिन यह विश्वास होता है कि कोई बड़ा उद्देश्य है जिसके अंतर्गत यह संसार चल रहा है और धरती पर लोग विचरण कर रहे हैं।

प्रत्यक्ष एवं परोक्ष

जीवन में जो कुछ प्रत्यक्ष (Seen) है, वह उसकी अपेक्षा बहुत ही थोड़ा है जो परोक्ष (Unseen) है, और जो परोक्ष है, वही अधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर प्रत्यक्ष है जिसे सभी देखते हैं, किन्तु आत्मा और उसके गुण अप्रत्यक्ष हैं। हालाँकि आदमी जितना दिखाई देता है उसका कई गुना निगाहों से छिपा हुआ होता है। उसकी मिसाल उस हिमशैल (Iceberg) की-सी है जो समुद्र में तैर रहा होता है, जिसका बहुत थोड़ा भाग दिखाई देता है, शेष पानी में डूबा हुआ होता है जो दिखाई नहीं देता।

इस धरती पर हम रहते हैं, किन्तु हमारे रहने का वास्तविक उद्देश्य क्या है? हमारी जीवन-यात्रा की मंज़िल क्या है? वर्तमान जीवन में हमें किन चारित्रिक कर्तव्यों का निर्वाह करना है? जगत् का स्रष्टा व नियंता कौन है और किस योजना के अंतर्गत इसका संचालन कर रहा है? ये और इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों के उत्तर किसी पर्वतशिला पर अंकित नहीं हैं कि आदमी जाकर उन्हें पढ़ ले। ये प्रश्न अत्यंत जीवन्त प्रश्न हैं, किन्तु इन प्रश्नों के उत्तर देना अत्यंत कठिन है। इन प्रश्नों के सही उत्तर जाने बिना मानव-जीवन का जो दर्शन भी प्रस्तुत किया जाएगा, वह ग़लत और त्रुटिपूर्ण होगा। मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से जो जीवन-दर्शन निर्धारित करेगा, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि हम देख चुके हैं कि मानव-बुद्धि अपूर्ण है, वह एक हद तक ही हमारा साथ दे सकती है। इस जगत् के परे क्या है? यदि कोई परम (Supreme Being) है तो उसकी इच्छा क्या है? उसकी सूचना हमें कैसे मिल सकती है? बुद्धि ज़्यादा-से-ज्यादा यह बता सकती है कि हमारे जीवन का लक्ष्य मृत्यु और विनाश नहीं हो सकता है। शाश्वत जीवन की ओर बढ़ना और परम का सामीप्य प्राप्त करना और उसके साथ एकात्मता एवं अनुरूपता पैदा करना ही हमारा कर्तव्य हो सकता है। अपने कर्तव्य-पालन से ही हम इसके पात्र हो सकते हैं कि हमें सफलता प्राप्त हो और असफलता एवं विनाश से बच सकें। ईश्वर की अवज्ञा हमें उससे दूर ही करेगी। इससे हमें उसका सामीप्य प्राप्त नहीं हो सकता। बुद्धि यह भी कहती है कि लोगों पर ज़ुल्म व अत्याचार करके ख़ुदा को राज़ी नहीं किया जा सकता। अत्याचार की नीति हमें उसके प्रकोप का ही भागी बनाएगी। यह बौद्धिक निर्णय है। किन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही होगा? इसके लिए जब तक इस संबंध में प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त न हो, हमारी दुविधा मिट नहीं सकती। कार्ल पोपर (Karl Popper) ने कहा है कि "अगर हम सही नतीजे पर पहुँच भी जाएँ तो भी हम यह कभी नहीं जान सकते कि यह धारणा सही भी है।" [The Logic of Scientific Descovery. ch. I-III.]

संशय और संदेह से छुटकारा पाने और यक़ीन और संशयरहित विश्वास से परिपूर्ण होने के लिए हमें बुद्धि के अतिरिक्त किसी और मार्गदर्शन की आवश्यकता है। संशयरहित मार्गदर्शन केवल ईश्वर की ओर से दिया गया मार्गदर्शन ही हो सकता है, जो उसके दूतों अर्थात् पैग़म्बरों के द्वारा मानव तक पहुँचता रहा है। इस माध्यम को रिसालत (Prophethood) कहा जाता है। जो लोग केवल अपनी बुद्धि पर भरोसा करते हैं और उसके अतिरिक्त मार्गदर्शन के किसी और विधान अर्थात् रिसालत का इनकार करते हैं, क़ुरआन उनसे प्रश्न करता है—

"क्या उन (इनकार करनेवालों) के पास परोक्ष का ज्ञान है जिसे वे लिख रहे हैं?" (क़ुरआन, 68 : 47)

एक दूसरी जगह कहा गया है—

"क्या उस (इनकार करनेवाले) के पास परोक्ष का ज्ञान है कि वह उसकी दृष्टि में है?" (क़ुरआन, 53:35)

"क्या उसने (इनकार करनेवाले ने) परोक्ष को झांककर देख लिया है, या उसने रहमान (दयावान प्रभु) से कोई वचन ले रखा है (कि निश्चिंत होकर स्वच्छंद जीवन व्यतीत कर रहा है)?" (क़ुरआन, 19 : 78)

इससे ज्ञात हुआ कि सामान्य लोग परोक्ष के ज्ञान से संपन्न नहीं होते, और परोक्ष के विषय में जब तक पूर्ण ज्ञान न हो हम जीवन की जो प्रणाली भी निर्धारित करेंगे वह संदिग्धता और भ्रामकता से मुक्त नहीं हो सकती। प्रश्न यह है कि क्या मात्र बुद्धि पर आधारित मार्गदर्शन के अतिरिक्त मार्गदर्शन का कोई अन्य विधान भी है या मनुष्य को जीवन रूपी सागर में टूटे पतवार के सहारे ही अपनी नौका खेनी होगी। यदि ऐसा है तो यह उस परम सत्ता की महिमा और उसके अनुग्रह के प्रतिकूल बात होगी जिसने हमारी छोटी-से-छोटी ज़रूरतों की भी उपेक्षा नहीं की, जिसने हमें जीवन दिया और हमें ऐसे संसार में बसाया जिसमें हमारे लिए हवा भी है और पानी भी। भूख मिटाने के लिए खाद्य पदार्थ भी हैं और कई अन्य प्रकार के अन्न और साग-सब्ज़ी भी। फिर अन्न और सब्ज़ी ही नहीं, नाना प्रकार के मीठे और स्वादिष्ट फल भी वह हमें देता है। हमारे सौंदर्य-बोध की तृप्ति के लिए हर चीज़ में उसने सुंदरता भी रखी है। उसने नैन-विलास के लिए सुन्दर-सुन्दर फूल खिलाए और घ्राणशक्ति देकर उसने विभिन्न प्रकार के सुगंध जुटाए। शिशु के लिए माता के स्तनों में निर्मल दूध उतारा और माता-पिता के दिलों में अपनी संतान के प्रति अगाध स्नेह और वात्सल्य पैदा किया। ईश्वर ने हमारी मनोवृत्तियों और हमारी अभिरुचियों का पूर्णतः ध्यान रखा। वह हमारी भावनाओं की उपेक्षा करता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं देता।

जब मनुष्य की ऐच्छिक और सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ऐसी पूर्ण व्यवस्था की गई है तो फिर यह कैसे संभव हो सकता है कि जगत् नियंता और हमारा प्रभु हमारी मौलिक आवश्यकता अर्थात् जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग को हमारे लिए सुलभ करने से रह गया हो। इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि मानव-जीवन मात्र खाने-पीने और सांसारिक भोग-विलास के लिए नहीं हो सकता। मानव के अंदर सांसारिक सुख-सामग्री से बढ़कर अमरता की चाह पाई जाती है। वह जीवन के अंतिम रहस्य से अनभिज्ञ नहीं रहना चाहता, वह तो यथार्थ का साक्षात्कार चाहता है। वह इससे तृप्त होता दिखाई नहीं देता कि वह आपस में मधुमय वार्तालाप करके रह जाए। वह तो चाहता है कि वह अपने प्रभु से वार्तालाप करने का श्रेय प्राप्त करे और जितना भी संभव हो वह उसका सामीप्य प्राप्त करे। ईश-मिलन तो मनुष्य की नियति है। क़ुरआन में कहा गया है—

"जो कोई अपने रब से मिलने की आशा रखता हो उसे चाहिए कि वह अच्छा कर्म करे और अपने रब की बन्दगी में किसी को साझी न बनाए।" (क़ुरआन, 18:110)

क़ुरआन में यह भी आया है—

"ईश्वर चढ़ाव के सोपानों का स्वामी है। फ़रिश्ते और रूह उसी की ओर चढ़ते हैं।" (क़ुरआन, 70 : 3-4)

इससे ज्ञात हुआ कि उड़ान तो वह है जो ईश्वर की ओर हो। चरित्र और कर्मशक्ति वह है जो हमें ईश्वर की ओर ले जाए। इस रहस्य को यदि हम न पा सके तो हम मानव होकर भी पशुओं के स्तर पर जी रहे होंगे। मनुष्य के लिए पशु-स्तर पर जीवन व्यतीत करना संभवत: सबसे बड़ा अपराध है। और यदि मनुष्य ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य को अपना आराध्य और ईष्ट बनाता है और उसी के प्रति अपने को अर्पित करता है, तो फिर उसका जीवन-स्तर पाशविक स्तर से भी गिरा हुआ है। क्योंकि पशुओं को ईशज्ञान प्राप्त नहीं, किन्तु वे ईश्वर के अधिकार में किसी अन्य को शरीक नहीं करते, किसी अन्य की, जो ईश्वर नहीं, उपासना और पूजा भी नहीं करते। उन्हें सत्य का ज्ञान नहीं है और यह उनकी विवशता है। अतः उनसे यह प्रश्न भी नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ब्रह्मज्ञान क्यों प्राप्त नहीं किया और ईश-प्रेम को अपने जीवन का मधुरिम अंग क्यों नहीं समझा। सच्ची बात यह है कि पशु-पक्षी इसके लिए पैदा ही नहीं किए गए और न उन्हें चेतना के उस स्तर पर रखा गया है जहाँ किसी दायित्व का प्रश्न उठता हो।

अध्याय-4

मार्गदर्शन का सामान्य अस्तित्वगत विधान

अस्तित्वगत मार्गदर्शन

मनुष्य को ईश्वर ने देखने और सुनने की शक्ति प्रदान की, जिनके द्वारा वह ज्ञान और जानकारी प्राप्त करता है। फिर वह प्राप्त ज्ञान से किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करता है। इतना ही नहीं, यदि गहराई से देखा जाए तो मानव के अंतर में सूझबूझ की ऐसी क्षमता रखी गई है जिससे पूरे जीवन में वह काम लेता रहता है। यद्यपि कभी-कभी वह सरकशी और उद्दण्डता के कारण ऐसा मार्ग अपना लेता है जिसका विरोध स्वयं उसकी अंतरात्मा करती होती है। अस्तित्वगत मार्गदर्शन मानव को जिन माध्यमों से प्राप्त होता है, उन्हें हम साधारणतया सहजवृत्ति (Instinct), अंत:बोध (Intuition) और अन्तरात्मा (Conscience) के नाम से जानते हैं।

सहजवृत्ति (Instinct)

अस्तित्वगत मार्गदर्शन को क़ुरआन ने 'वह्य' (ईश-प्रकाशना) और 'इलहाम' (अलौकिक प्रेरणा) का नाम दिया है। अस्तित्वगत मार्गदर्शन को वह्य और इलहाम से अभिव्यंजित करने का विशेष कारण है। वह्य (प्रकाशना) का अर्थ होता है गोपनीय एवं सूक्ष्म संकेत। यह संकेत पराशक्ति (Supreme Natural Means) द्वारा सम्पन्न होता है। इसी पहलू से इसे वह्य और इलहाम की संज्ञा दी गई। क़ुरआन ने तो वह्य शब्द का प्रयोग व्यापक रूप से किया है, क्योंकि अस्तित्वगत मार्गदर्शन में बड़ी व्यापकता पाई जाती है। क़ुरआन के बयान से तो ज्ञात होता है कि आकाश भी वह्य का पालन करता है। [क़ुरआन, 41: 12] धरती और फ़रिश्ते भी वह्य से जुड़े हुए हैं। मधुमक्खी भी मार्गदर्शन के इस विधान से लाभ उठाती है। [क़ुरआन, 16 : 68] मछली इसी मार्गदर्शन से पानी में तैरती है। इसके लिए उसको कहीं शिक्षा प्राप्त करनी नहीं होती। नवजात बालक को दूध पीना सिखाना नहीं पड़ता। ईश्वरीय वह्य ही इसके लिए उसका मार्गदर्शन करती है। हर प्राणधारी को उसकी हैसियत और आकार-प्रकार के लिहाज़ से इलहामी ज्ञान मिला है। पशुओं को उनकी आवश्यकता के अनुसार इलहामी मार्गदर्शन प्राप्त होता है। इसी मार्गदर्शन के द्वारा मछलियाँ तैरती, पक्षी हवा में उड़ते और बया अपना घोंसला बनाती है और मधुमक्खियाँ अपने छत्ते का निर्माण विशेष प्रकार से करती हैं। इसके लिए उन्हें कहीं से प्रशिक्षण प्राप्त करना नहीं पड़ता है। माँ की छाती से दूध पीने का मार्गदर्शन यदि बच्चे को प्राप्त न होता तो बच्चे को दूध पीना बताना असंभव होता।

मानव के मार्गदर्शन के लिए, ताकि वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में पथभ्रष्ट न हो, जो व्यवस्था की है वह रिसालत और नुबूवत की व्यवस्था है। नबियों या रसूलों के पास मार्गदर्शन हेतु जो वह्य आती है उसे 'वह्य जली' अर्थात् स्पष्ट प्रकाशना कहते हैं। इसमें स्पष्ट शब्दों में ईश्वर की ओर से उसकी वाणी का अवतरण होता है। इस अवतरण के पश्चात सत्य पहेली बनकर नहीं रहता। रसूलों के माध्यम से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ईश्वर मानव का मार्गदर्शन करता है। आगे चलकर इस विषय पर विस्तार से विचार व्यक्त किया गया है।

अंत:बोध (Intuition):

कभी-कभी किसी चीज़ के संबंध में सहसा कोई बात सूझ जाती है। ऐसा किसी आंतरिक प्रक्रिया के फलस्वरूप होता है। यह प्रक्रिया बिजली की कौंध की तरह होती है। इसको अंतःबोध कहते हैं। कैपलर (Kapler) को ग्रहपथ के अंडाकार होने का ज्ञान सहसा इसी प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ। इस ज्ञान से नक्षत्रों की चाल से संबंधित समस्त समस्याओं का समाधान हो गया। दुनिया में जो उपयोगी और लाभप्रद आविष्कार हुए हैं, उनके पीछे इस गुप्त मार्गदर्शन का बड़ा योगदान रहा है। बड़े-बड़े विजयता, योजनाकार, विचारकों और लेखकों के द्वारा जो महान कार्य संपन्न हुए हैं, उन सबमें इस गोपनीय मार्गदर्शन का हाथ रहा है।

अंतरात्मा (Conscience):

हर व्यक्ति में एक अंतरात्मा पाई जाती है जो उसे प्रत्येक ऐसे अवसर पर टोकती है जब वह बुरा काम करने का इरादा करता है। [दे० क़ुरआन, 75:2] अंतरात्मा की आवाज़ को कोई भी बंद न कर सका। साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी यह महसूस करता है कि दिल के परदे से कोई टोकनेवाला है जो उसे टोकता है और बुराई करने के बाद उसे धिक्कारता है कि तुमने यह ग़लत किया। यह तो होता है कि गुनाहों की गंदगियों और अज्ञान के कारण यह ग़ैबी आवाज़ मद्धिम पड़ जाती है और आदमी उसकी ओर ध्यान नहीं देता, किन्तु अंतरात्मा तो अपना काम प्रत्येक दशा में करती ही रहती है। सौभाग्यशाली हैं वे लोग जिनकी अंतरात्मा जीवन्त होती है और वे अपने कर्तव्य से कभी विचलित नहीं होते।

यही अंतरात्मा नैतिक चेतना का स्रोत भी है। मनुष्य में बुद्धि और विवेक के साथ नैतिक चेतना भी पाई जाती है जिसके कारण वह स्वभावतः भलाई और बुराई में अन्तर करता है। एक काम को अच्छा समझता है और एक काम को बुरा जानता है। मानव एक नैतिक अस्तित्व रखता है। उसको इलहामी तौर पर भलाई और बुराई का एहसास प्राप्त है। भलाई-बुराई के इस एहसास के चिह्न स्पष्टतः प्रत्येक सभ्यता और संस्कृति में पाए जाते हैं। किसी काल और स्थान पर मनुष्य इस एहसास से अपरिचित नहीं रहा है। परोक्ष रूप से मनुष्य का यह मार्गदर्शन उसकी एक मौलिक आवश्यकता है। अस्तित्वगत यह मार्गदर्शन उसके अस्तित्व में सम्मिलित है। इस सम्मिलन के बिना उसका अस्तित्व निरर्थक होकर रह जाता। इस प्रकार की वह्य और सूक्ष्म मार्गदर्शन क्योंकि परोक्ष रूप में होता है, इस कारण मनुष्य को हर कर्म और चरित्र पूर्णत: अपना कर्म और चरित्र ज्ञात होता है, हालाँकि उसके कर्म और चरित्र में महत्त्वपूर्ण हिस्सा वह्य अर्थात् सूक्ष्म मार्गदर्शन का होता है। मार्गदर्शन की सूक्ष्मता के कारण मनुष्य का अपना प्रत्येक कर्म और चरित्र पूर्णतः अपना मालूम होता है। किसी परोक्षीय मार्गदर्शन का साधारणत: उसे आभास नहीं होता। जीवन में इस वह्य और मार्गदर्शन का महत्त्व सुनने और देखने आदि की क्षमता से कम कदापि नहीं है।

क़ुरआन में विभिन्न स्थानों पर दिल में अच्छे और समझदारी के ख़याल आने को वह्य की संज्ञा दी गई है। उदाहरणतः एक स्थान पर आया है—

"...... याद करो जब मैंने हवारियों को (अर्थात् हज़रत ईसा के शिष्यों को) वह्य की (अर्थात् उनके दिलों में यह बात डाली) कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ।" (क़ुरआन, 5:11)

एक दूसरे स्थान पर आया है—

"हमने मूसा की माता की ओर वह्य की (अर्थात् मूसा की माता को इशारा किया) कि उसे दूध पिला; फिर जब तुझे उसके विषय में भय हो तो उसे दरिया में डाल दे, और न तुझे कोई भय हो, न तू शोकाकुल हो।" (क़ुरआन, 28 : 7)

सच्चे स्वप्न

दैवी मार्गदर्शन का एक माध्यम स्वप्न भी है। इसी लिए हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सच्चे स्वप्न को नुबूवत (ईशदूतत्व) का छियालिसवाँ हिस्सा कहा। [हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम] आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी कहा है कि आपपर नुबूवत का क्रम समाप्त हो चुका है, नुबूवत से मिलती-जुलती कोई चीज़ अगर पाई जाएगी तो वह अच्छे स्वप्न हैं। [हदीस : बुख़ारी] ऐसी सूचना जिसके प्राप्त करने का कोई बाह्य या भौतिक साधन नहीं हो सकता, ईश्वर के आज्ञाकारी बंदों को स्वप्न के माध्यम से उसकी सूचना मिल सकती है। मानव-इतिहास में सच्चे स्वप्नों से बड़ा फ़ायदा उठाया गया है। क़ुरआन में वर्णित हुआ है कि मिस्र के सम्राट ने एक अद्भुत स्वप्न देखा कि सात मोटी गायों को सात दुर्बल गाएँ खा रही हैं और सात बालें हरित हैं और दूसरी सात सूखी हैं। यह स्वप्न सच्चा निकला। मिस्र में सात वर्ष बड़े अच्छे निकले, खेतियाँ हरी-भरी रहीं, अनाज एवं अन्य खाद्य पदार्थों की बहुतायत रही, फिर उसके पश्चात् बहुत कठिन काल आया। ऐसा अकाल पड़ा कि जो कुछ खाद्य-पदार्थ उन्होंने बचाकर रखा था, वही उनके काम आ सका।

क़ुरआन में कुछ और सच्चे स्वप्नों का उल्लेख किया गया है, जो पूर्णत: सत्य सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ पैग़म्बर यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) ने बाल्यकाल में यह स्वप्न देखा था कि सूर्य और चंद्रमा की मौजूदगी में ग्यारह सितारे उन्हें सजदा कर रहे हैं। यह स्वप्न भी पूर्णतः सत्य सिद्ध होकर रहा। जब युवाकाल में यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) को मिस्र की राज्यसत्ता प्राप्त हुई और उनके माता-पिता और ग्यारह भाई उनके पास मिस्र में उपस्थित हुए, और माता-पिता (सूर्य-चंद्र) की मौजूदगी में उनके ग्यारह भाई उनके सम्मुख सजदे में गिर पड़े। इस अवसर पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) ने कहा भी था कि पिता जी! यह मेरे पूर्वकालिक स्वप्न का साकार रूप है। मेरे प्रभु ने मेरे उस स्वप्न को सच्चा कर दिखाया। [विस्तार के लिए देखिए क़ुरआन, 12:4-5, 100]

केकुले (Kekule) को बेन्ज़ीन (Benzine) [हाइड्रो कार्बन का तरल संमिश्रण] के अणु की बनावट मालूम करनी थी, किन्तु ज्ञात-संभावनाएँ परीक्षण की कसौटी पर पूर्ण नहीं उतर रही थीं। वह चिंतित था। कोई बात समझ में नहीं आ रही थी। उसने स्वप्न में देखा कि दो साँप हैं जिन्होंने परस्पर एक-दूसरे की पूँछ मुँह में लेकर एक वृत बना रखा है। उसे इस प्रकार संकेत मिला कि बेन्ज़ीन की बनावट सीधी ज़ंजीर की नहीं, बल्कि वृत्ताकार हार के रूप में हो सकती है। बस समस्या का समाधान हो गया और परीक्षण की कसौटी पर यह विचार सत्य सिद्ध हुआ।

कहते हैं कि सिलाई की मशीन में सुई की फ़िटिंग का तरीक़ा आविष्कारक को स्वप्न के द्वारा ही ज्ञात हुआ।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्गदर्शिता हर चीज़ की संरचना में सम्मिलित है। संरचना या सृष्टि स्वयं किसी इरादे या उद्देश्य की परिचायक हुआ करती है। संरचना में उस इरादे और उद्देश्य की झलक साफ़ दिखाई देती है जिसके अंतर्गत उस संरचना को अस्तित्व मिलता है। यह वह चीज़ है जो व्यापक रूप से जगत् में दिखाई देती है। यह प्राकृतिक और अस्तित्वगत भी है। प्राकृतिक मार्गदर्शन से मनुष्य को वंचित नहीं रखा गया है। उसे बुद्धि दी गई, यद्यपि उसकी बुद्धि की एक सीमा है। उसे सहज-वृतीय और अन्तः बोध की क्षमता प्राप्त है। फिर उसके पास अन्तरात्मा भी है। उसे नैतिक चेतना भी प्राप्त है।

इसके अतिरिक्त उसे छठी इंद्रीय भी प्राप्त है और तृतीय नेत्र (Third Eye) भी। कभी होनेवाली घटनाएँ साक्षात् उसे दिख जाती हैं। इसे 'कश्फ़' या अनावरण (Vision) कहते हैं। स्वप्न में भी कभी-कभी उसे ऐसे इशारे या सूचनाएँ मिल जाती हैं। इन सूचनाओं का कोई लौकिक साधन दिखाई नहीं देता, किन्तु इस प्रकार का जो कुछ ज्ञान भी उसे प्राप्त होता है और भलाई-बुराई का जो इलहाम भी उसे होता है, वह उसके विस्तृत जीवन और फैली हुई उसकी समस्याओं में उसके मार्गदर्शन के लिए कदापि पर्याप्त नहीं हो सकता। हम कह चुके हैं कि मनुष्य में देखने-सुनने और विचार करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की क्षमता भी पाई जाती है, किन्तु इसके साथ यदि उसे स्पष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन प्रामाणिक स्रोत से प्राप्त न हो तो वह स्पष्ट रूप से कोई जीवन-प्रणाली निर्धारित नहीं कर सकता। जीवन की जटिलताओं में यह जान लेना अति आवश्यक है कि ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करने का मार्ग कौन सा है जिसपर चलकर वह अपने स्रष्टा की प्रसन्नता प्राप्त कर सकता है और अकृतज्ञता का मार्ग कौन-सा है जिसपर चलकर वह कभी भी अपने सृष्टा की प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता।

मानव के पास ज्ञान प्राप्त करने के जितने भी साधन हैं वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमारे मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। फिर इसके अतिरिक्त मानव को सोचने-समझने और अपने लिए कोई मार्ग निश्चित करने और उस मार्ग पर चलने और न चलने की जो स्वतंत्रता उसे मिली है उसका वह ग़लत इस्तेमाल भी करता है। इसके पीछे कई चीज़ें काम कर रही होती हैं, जिनमें स्वार्थपरता, अहंकार, ईर्ष्या, पक्षपात, आलस्य और लापरवाही मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त वातावरण के प्रभाव से भी मनुष्य साधारणतया अपने को सुरक्षित नहीं रख पाता। माहौल अगर बिगड़ा हुआ हो तो आदमी के लिए उस माहौल के विरुद्ध कोई आचरण अपनाना आसान नहीं होता। मानव की एक आवश्यकता है कि उसे एक ओर तो जीवन का पूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त हो जो पूर्ण होने के साथ प्रामाणिक भी हो, जिसमें किसी भी रूप में तंगनज़री और पक्षपात न पाया जाता हो और जो ऐसे स्रोत से उपलब्ध हुआ हो जिससे बढ़कर कोई अन्य सत्य का स्रोत संभव ही न हो और जो तुच्छ इच्छाओं और स्वार्थपरता आदि दुर्गुणों से सर्वथा मुक्त हो।

दूसरी ओर मनुष्य की यह भी एक बड़ी ज़रूरत है कि उसके लिए ऐसी प्रबल प्रेरक चीज़ें मौजूद हों जिनके कारण वह सत्य को सहर्ष अंगीकार कर सके और उसको अपनाने में उसे थोड़ा भी संकोच न हो। और उसे साफ़ दिखाई दे कि जो सत्य उसके समक्ष अनावृत हुआ है यदि वह उसकी उपेक्षा करता है तो यह उपेक्षा उसके लिए स्वयं अपने साथ सबसे बड़ी शत्रुता होगी। क्योंकि सत्य की उपेक्षा वास्तव में अपने विनाश के सिवा कुछ और नहीं होती। सबसे बड़ा मार्गदर्शन यह है कि सत्य का ऐसा उद्घाटन हो कि अज्ञान और अनभिज्ञता का सारा अंधकार दूर हो जाए और मनुष्य यह समझ ले कि उसके जीवन की सार्थकता और सफलता इसी पर निर्भर करती है कि वह उस मार्गदर्शन के अनुसार अपने चरित्र का निर्माण करे, और अपने जीवन को उस योजना के अनुरूप बनाने का प्रयास करे जिस योजना के अंतर्गत जगत् को और स्वयं उसे अस्तित्व मिला है।

जीवन में ऐसा पूर्ण मार्गदर्शन पैग़म्बरों द्वारा ही मिल सकता है और मिला है। पैग़म्बरों के माध्यम से ईश्वर हमारे लिए जीवन का वह मार्गदर्शन उपलब्ध कराता है जो हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत है और जिसके बिना हमारी बुद्धि और विवेक और अन्तरात्मा और अन्य आत्मिक ऊर्जाएँ अधूरी की अधूरी रह जाती हैं, जबकि उस मार्गदर्शन के द्वारा, जो हमें पैग़म्बरों के माध्यम से प्राप्त होता है, हमारी समस्त शक्तियाँ और आंतरिक क्षमताएँ अर्थपूर्ण दिखाई देने लगती हैं। अगले प्रकरण में हम इस पूर्ण मार्गदर्शन (Perfect Guidance) पर विस्तृत रूप से प्रकाश डालेंगे। यह पूर्ण मार्ग-दर्शन जिस माध्यम से प्राप्त होता है उसको पारिभाषिक शब्दों में नुबूवत (Prophethood) रिसालत या ईशदूतत्व कहते हैं। पैग़म्बरों का एक विस्तृत इतिहास है जिसका मानव के अपने इतिहास में बड़ा महत्त्व है। पैग़म्बरों का यह इतिहास और पैग़म्बरों ने मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए जो प्रयास किए हैं और इसके लिए उन्हें जिन कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा है और इस सिलसिले में उन्होंने जिस महान चरित्र का परिचय दिया है तथा उससे मानवजाति को जो गरिमा और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है उससे आँखें मूँद लेना सबसे बड़ा अन्याय और धृष्टता होगी।

अध्याय-5

रिसालत और उसका महत्त्व

रिसालत या ईशदूतत्त्व का विषय मानवता के लिए एक महत्त्वपूर्ण विषय है, किन्तु मानव-समाज में साधारणतया इसे वह महत्त्व प्राप्त नहीं जो महत्त्व उसे मिलना चाहिए था। क़ुरआन ने ईशदूतत्त्व (Prophethood) को अल्लाह की रहमत अर्थात् ईश-दयालुता की संज्ञा दी है [क़ुरआन,6:158;7:52; 11:17,28; 16:89], और वास्तव में यह अल्लाह की सबसे बड़ी रहमत है। खाने-पीने और रहने-सहने की सुविधा तो जानवरों तक के लिए जुटाई गई है किन्तु स्पष्ट और प्रत्यक्ष (Direct) संबोधन जिस प्राणी से ईश्वर ने किया है, वह मानव है। मनुष्य को उसने यह स्वतंत्रता दी कि वह उसकी रहमत को स्वयं पहचाने और स्वेच्छापूर्वक उससे लाभान्वित हो।

ईश्वर वह्य (प्रकाशना) के द्वारा अपने पैग़म्बर को संबोधित करता और उसपर अपनी वाणी अवतरित करता है। इस प्रकार वह मानव के मार्गदर्शन के लिए ऐसी व्यवस्था करता है जिसपर हम उसकी जितनी भी स्तुति करें और अपना आभार व्यक्त करें वह कम होगा। वह्य का मानव-जीवन में इतना महत्त्व है कि एडिंगटन (Eddington) यह कहने पर विवश हुआ कि मौलिक प्रश्न उसकी सत्ता और उसके होने का नहीं, बल्कि इस बात के असंदिग्ध विश्वास का है कि ईश्वर वह्य के द्वारा मानव का मार्गदर्शन करता है। [Science and Unseen World. p-44.]

जीवन, जीवन-मूल्यों के बिना निरर्थक और तुच्छ होकर रह जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि जीवन-मूल्य (Values of Life) की पहचान कैसे होती है और कौन-सी चीज़ उसे विश्वसनीय बनाती है? वह ईश्वरीय प्रकाशना या वह्य ही है जिसके द्वारा हम जीवन के मूल्यों को जान सकते हैं और वह ईश्वरीय प्रकाशना ही है जो जीवन-मूल्यों को मूल्यवान बनाती है। यह ईश-प्रकाशना मनुष्यों में विशेष व्यक्तियों की ओर की जाती है। ऐसे ही व्यक्ति हैं जिन्हें पैग़म्बर या नबी कहा जाता है। आइंस्टाइन ने इसे स्वीकार किया है कि जिन जीवन-मूल्यों का ज्ञान इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों (नबियों) के माध्यम से हमें प्राप्त होता है, वे तजुर्बे की कसौटी पर पूरे उतरते हैं। जोड (Joad) ने भी प्रकाशना के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा है कि प्रकाशना अपना प्रमाण स्वयं आप होती है। [Philosophical Aspects of Modern Science.] जोड ने यह भी कहा है कि तथ्यों का ज्ञान बुद्धि को शनैः शनैः होता है, किन्तु आत्मा की विशेषता यह है कि वह उन्हें तुरंत आंतरिक बोध के रूप में पा लेती है। औस्पेंसकी (Ouspensky) ने प्रकाशना के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है—

"यदि प्रकाशना (वह्य) की अवधारणा न हो तो धर्म भी शेष नहीं रहता। धर्म में कोई न कोई तत्त्व तो ऐसा अवश्य रहता है जो सामान्य मानव-चिंतन के क्षेत्र से बाहर का होता है।" [New Model of Universe. p-34. ]

प्रकाशना के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह बुद्धि के विरुद्ध नहीं होता, बल्कि वह बुद्धिसंगत होता है, शर्त यह है कि बुद्धि विकृत न हो अर्थात् वह निर्पेक्ष और पूर्वाग्रह से पूर्णतः मुक्त हो और इसके साथ उसमें सत्यप्रियता का गुण भी विद्यमान हो। प्रकाशना से हमारी बुद्धि और सूझबूझ में तेजस्विता आ जाती है। प्रकाशना या वह्य मानवीय बुद्धि को पथभ्रष्ट नहीं करती, बल्कि वह उसकी सहायक होती है। प्रकाशना से यह ज्ञात होता है कि मानव के मार्गदर्शन के लिए बुद्धि पर्याप्त नहीं। कारण यह है कि मनुष्य को वह कुछ भी चाहिए जिस तक बुद्धि की सीधे पहुँच नहीं हो सकती। लॉक (Locke) ने लिखा है—

"जो व्यक्ति वह्य को स्थान देने के लिए बुद्धि और सूझबूझ को बहिष्कृत कर देता है, वह वह्य (प्रकाशना) और बुद्धि दोनों के दीप बुझा देने का अपराधी है।'' [Essay Book IVth. Quoted by Brightman.]

मात्र बुद्धि से जो चीज़ प्राप्त होती है, उसके साथ एक प्रकार की दूरी बनी रहती है, इसी लिए हेनरी बर्गसन (Henri Bergson) अंतर्ज्ञान (Intution) को महत्त्व देता है और ए. एस. एडिंगटन (A.S. Eddington) आन्तरिक विश्वास (Inner Conviction) की बातें करता दिखाई देता है।

वह्य और रिसालत (संदेशवाहकता) के माध्यम से ईश्वर ने मनुष्य के पूर्ण मार्गदर्शन की व्यवस्था की है, जिसके द्वारा केवल यही नहीं कि मनुष्य जीवन के मूल अभिप्राय एवं उद्देश्य से परिचित होता है बल्कि सांसारिक जीवन में फैले हुए मामलों और समस्याओं से भी इस मार्गदर्शन का संबंध है, चाहे वे समस्याएँ सामाजिक विषयों से सम्बन्धित हों या उनका संबंध आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हो। वह्य के द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन का अनुसरण करके ही मनुष्य संसार में न्याय की स्थापना कर सकता है और मनुष्य को अत्याचार और शोषणादि से मुक्ति दिला सकता है।

नबी का उच्च स्थान

नबी (Prophet) का स्थान अत्यंत उच्च होता है और वह चेतना की इतनी ऊँचाई पर होता है कि साधारणतया हम उसका अनुमान भी नहीं कर सकते। बुक (Buke) ने लिखा है कि जिस प्रकार आत्म-चेतना (Self-consciousness) रखनेवाला मनुष्य पशुओं से हर दृष्टि से उच्च होता है, क्योंकि पशु चेतना के इस स्तर पर पहुँचा हुआ नहीं होता, उसी प्रकार जो व्यक्ति स्थायी रूप में व्यापक चेतना (Cosmic Consciousness) से संपन्न हो जाए तो वह आत्म चेतना रखनेवाले मानवों की अपेक्षा असीमित रूप से उच्च हो जाता है। [Cosmic Consciousness, p-67.]

चेतना के ऐसे उच्चतम स्तर पर मानवों में जो लोग होते हैं, उन्हें दुनिया पैग़म्बर और रसूल के नाम से जानती है। उन्हें जिस प्रकार की प्रकाशना प्राप्त होती है वह प्रकाशना या वह्य अत्यंत उच्चकोटि की होती है जिसका मुक़ाबला कोई दूसरी चीज़ नहीं कर सकती। यह उच्चकोटि की वह्य जब पैग़म्बर पर अवतरित होती है तो वह इससे पूर्णत: अवगत होता है कि वह वह्य ईश्वर की ओर से आ रही है। इस वह्य के द्वारा सत्य धारणाएँ, न्याययुक्त आदेश और विधि-विधान का ज्ञान पैग़म्बर और रसूल को प्रदान किया जाता है ताकि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोगों का मार्गदर्शन कर सके।

बर्डेव (Berdyaev) ने कहा है कि पैग़म्बरों की प्रकाशना विशिष्ट प्रकार की होती है। उसके बयान से अन्दाज़ा होता है कि वह इस संभावना (Possibility) को स्वीकार करता है कि सत्य का उद्घाटन इस तरह हो सकता है और जीवन के छिपे हुए रहस्यों को हम इस तरह जान सकते हैं जिस प्रकार किसी के भेजे हुए पत्र को पढ़कर हम उसकी दी हुई सूचनाओं से अवगत होते हैं। उसके अपने शब्द ये हैं—

"नुबूवत या पैग़म्बरी ईश्वरीय प्रकाशना (Revelation) पर आधारित होती है। नबी संसार और मानव की नियति और भविष्य के संबंध में ख़ुदा की आवाज़ सुनता है। वह अपने आपको संसार में अकेला पाता है। वह जिन लोगों को तबाही और विनाश से बचाने की कोशिश करता है वे उसे पत्थर मारते हैं, किन्तु वह इस सबके बाद भी उन्हें छोड़कर अलग नहीं होता। यह प्रकाशना उसकी अपनी अर्जित की हुई नहीं होती, यह ऐसी चीज़ भी नहीं होती जो क्रमिक विकास से प्राप्त की जा सके। यह एक आंतरिक चीज़ है। एक पैग़म्बर की वह्य (प्रकाशना) भारत और यूनान के सिद्ध-संतों के अलौकिक दर्शन (Vision) से नितांत भिन्न चीज़ होती है।" [The Divine and the Human, p-136.]

औस्पेंसकी के विचार में ऐसे मार्गदर्शक (पैग़म्बर) मानवता के अंतिम पद पर आसीन होते हैं। आध्यात्मिक मूल्यों का ज्ञान उनमें अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। वास्तव में ये लोग जीवन के एक नवीन स्तर पर प्रकट होते हैं। [Meaning and Purpose, by-Kenneth Walker, p-96.]

नुबूवत वास्तव में एक ऐसे गुण और प्रवीणता का नाम है जिसके द्वारा उन चीज़ों का ज्ञान हो सकता है जिनका ज्ञान इन्द्रियों एवं बुद्धि-विवेक से नहीं हो सकता। इमाम ग़ज़ाली (रहमतुल्लाहि अलैह) ने लिखा है—

"नुबूवत को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि यह माना जाए कि बुद्धि से एक दर्जा उच्चतर भी है और जिसमें आँख खुल जाती है तो वे विशेष चीज़ें मालूम होती हैं जिनसे बुद्धि बिलकुल वंचित होती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार श्रवण-शक्ति रंगों का ज्ञान प्राप्त करने में बिलकुल असमर्थ होती है।" [मन् क़ज़ुम मिनज्जलाल, पृ० 31]

मुजद्दिद अलिफ़ सानी और शेख़ अहमद सरहिन्दी (रहमतुल्लाहि अलैहिमा) ने भी कहा है कि जिस प्रकार बुद्धि की रीति ज्ञानेन्द्रियों की रीति से भिन्न और अलग है, जैसे जो चीज़ें ज्ञानेंद्रियों की पकड़ में नहीं आतीं, बुद्धि उन्हें पा लेती है, उसी प्रकार नुबूवत की रीति बुद्धि से भिन्न और उससे अलग है कि जो चीज़ें बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकतीं, नुबूवत के माध्यम से उनका ज्ञान हो जाता है। अब जो व्यक्ति बुद्धि के सिवा ज्ञान के किसी और तरीक़े को नहीं मानता, वह वास्तव में नुबूवत की पद्धति का इनकार करता है और स्पष्ट मार्गदर्शन का विरोधी है।

नबी का एक विशेष गुण

नबियों को नुबूवत या पैग़म्बरी उस समय मिलती है जबकि उनके हृदय और आत्मा का परिष्कार हो चुका होता है। नबियों को अपने प्रभु की ओर से सूझ-बूझ और आंतरिक प्रकाश जब प्राप्त हो जाता है तो फिर वे इस स्थिति में होते हैं कि उनपर स्पष्टत: वह्य (प्रकाशना) का अवतरण हो। वे सत्य-असत्य के अन्तर को भली-भांति जान लेते हैं। फिर जब उनपर वह्य आती है तो वह वह्य (प्रकाशना) उस चीज़ की पुष्टि करती है या दूसरे शब्दों में उसकी साक्षी होती है जो नबियों पर पूर्व अवस्था में ज़ाहिर हो चुकी होती है। क़ुरआन की विभिन्न आयतों से इसकी पुष्टि होती है—

"नूह ने कहा, ऐ मेरी क़ौम के लोगो, तुम्हारा क्या विचार है? यदि मैं अपने प्रभु के एक स्पष्ट प्रमाण पर हूँ और उसने मुझे अपने पास से रहमत भी प्रदान की है? फिर वह तुम्हें न सूझे तो क्या हम उसे हठात् तुमपर चिपका दें, जबकि वह तुम्हें अप्रिय है?" (क़ुरआन, 11 : 28)

क़ुरआन में है कि पैग़म्बर शुऐब (अलैहिस्सलाम) ने कहा—

“ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम्हारा क्या विचार है यदि मैं अपने रब की एक रौशन दलील (स्पष्ट प्रमाण) पर हूँ और उसने अपनी ओर से मुझे अच्छी आजीविका भी प्रदान की (तो झुठलाना मेरे लिए कितना हानिकारक होगा!)" (क़ुरआन, 11-88)

इसी प्रकार पैग़म्बर हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम) के विषय में क़ुरआन में आया है—

"उसने कहा, ऐ मेरी क़ौम के लोगो! क्या तुमने सोचा यदि मैं अपने रब के एक स्पष्ट प्रमाण पर हूँ और उसने मुझे अपनी ओर से अपनी रहमत (दयालुता) प्रदान की, तो यदि मैं उसकी अवज्ञा करूँ तो अल्लाह के मुक़ाबले में कौन मेरी सहायता करेगा?" (क़ुरआन, 11 : 63)

अल्लाह के अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जब ख़ुदा के संदेश को लोगों तक पहुँचाने के शुभ कार्य का आरंभ किया तो नादानों की ओर से बड़ा विरोध हुआ। विरोधी कहते कि यह व्यक्ति स्वयं बातें घड़ता है और कहता है कि ये बातें ईश्वर की ओर से मुझपर अवतरित हुई हैं। क़ुरआन में कहा गया कि यदि यह प्रकाशना ईश्वर की ओर से नहीं है तो तुम भी ऐसी सूक्तियों की रचना करके लाओ। किन्तु उन्हें यह सामर्थ्य प्राप्त नहीं कि वे ईश्वर का मुक़ाबला कर सकें और ईश्वर की ओर से अवतरित वाणी के समान कोई वाणी प्रस्तुत कर सकें। विरोधी सांसारिक जीवन और उसमें प्राप्त सुख-सुविधा के पुजारी हैं और उन्हें नहीं मालूम कि सत्य के विरोध का परिणाम नरकाग्नि के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। इसी सिलसिले में कहा गया है कि पथभ्रष्टता एवं अंधकार कभी भी सत्य-मार्ग और प्रकाश के तुल्य नहीं हो सकते, और न कभी वह व्यक्ति जिसका जीवन अंधेरे में भटकने के सिवा कुछ नहीं, उस व्यक्ति के पद को पहुँच सकता है जो सत्यप्रिय हो और जो अंधेरे में नहीं, वरन् पूर्णतः प्रकाश में जीवन व्यतीत कर रहा हो। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विषय में क़ुरआन में कहा गया है—

"फिर क्या वह व्यक्ति जो अपने रब के स्पष्ट प्रमाण पर है और स्वयं उसके अपने स्वरूप में भी एक साक्षी (गवाह) उसके अंगसंग रहता है (उसके बराबर वे लोग हो सकते हैं जो प्रकाश एवं मार्गदर्शन से वंचित होकर अंधेरों में भटक रहे हैं?) - और इससे पहले मूसा की किताब भी एक मार्गदर्शक और रहमत (दयालुता) के रूप में मौजूद रही है।" (क़ुरआन, 11 : 17)

इस आयत में "क्या वह व्यक्ति" से अभिप्रेत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं। नुबूवत से पहले आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को वह अन्तर्दृष्टि और प्रकाश प्राप्त हो चुका था जो ईश्वरीय प्रकाशना की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है। यह बात पहले भी बताई जा चुकी है कि नुबूवत से पहले नबी होनेवाले व्यक्ति की आत्मा और उसके हृदय का परिष्कार ईश्वर की ओर से किया जाता है। तत्पश्चात् ही वह वह्य के ग्रहण करने योग्य होता है, फिर वह्य के अवतरण के बाद वह्य के सत्य एवं ईश्वर की ओर से होने पर उसे संदेह नहीं होता। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नुबूवत से पहले भी रौशन दलील पर थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आत्मा विशुद्ध थी, हर प्रकार की बुराइयों से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पाक थे, मन और आत्मा की पवित्रता आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का विशेष गुण था। विचार और कर्म से संबंधित किसी भी घृणित बात से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कोई नाता नहीं था। झूठे ख़ुदाओं के आगे आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कभी नहीं झुके। मूर्तिपूजा से सदैव दूर रहे। मदिरापान और अश्लील कर्मों से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का दूर का भी संबंध न था। एक ईश्वर की ओर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का ध्यान लगा रहता था। वह्य के अवतरित होने के पश्चात् उस सत्य के स्वयं साक्षी बन गए जो सत्य पहले भी आपको प्रिय था। नुबूवत प्राप्त होने का अर्थ मानो यह होता है जैसे प्रकाश से प्रकाश का मिलन हो रहा हो; मधुरता माधुर्य का सम्मान कर रही हो और सुन्दरता सौंदर्य का स्वागत और पवित्रता का समर्थन कर रही हो। दूसरे शब्दों में पैग़म्बर को उसकी सच्चाई का स्वयं उसे ही साक्षी बना दिया जाता है और फिर प्रकाशना के माध्यम से उसे सत्य का विस्तृत ज्ञान और उसके अनुसार व्यवहार की सविस्तार शिक्षा दी जाती है।

क़ुरआन की जिन आयतों का उल्लेख ऊपर किया गया है उनमें 'स्पष्ट प्रमाण' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ये मूल अरबी शब्द 'बैयिनह' का हिन्दी अनुवाद है। क़ुरआन की उपरोक्त आयतों में 'स्पष्ट प्रमाण' के पश्चात् 'वह्य' के अवतरित होने का उल्लेख किया गया है। इससे विदित है कि पैग़म्बर या नबी नुबूवत प्राप्त करने से पूर्व भ्रष्ट नहीं होते, बल्कि एक प्रकार से सत्य का प्रकाश उनके साथ होता है और बुद्धि और विवेक और अपनी अभिरुचि और प्रकृति की दृष्टि से वे अत्यंत स्वस्थ और पवित्र दशा में होते हैं। इन आयतों में पैग़म्बरों पर जो वह्य या प्रकाशना अवतरित होती है, उसे रहमत (दयालुता) 'रिज़्क़े-हसन' (अच्छी आजीविका) और प्रकाश की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार की अभिव्यंजना के उदाहरण न केवल यह कि क़ुरआन के अनेक स्थानों पर मिलते हैं, बल्कि पहले की आसमानी किताबों, तौरात और इंजील में भी पाए जाते हैं।

अल्लामा हमीदुद्दीन फ़राही (रहमतुल्लाहि अलैह) ने लिखा है कि ख़ुदा अपने पैग़म्बर को सबसे पहले एकेश्वरवाद (तौहीद), नमाज़ (प्रार्थना), न्याय और ईश्वर की ओर रुजूअ करने और उन्मुख होने की शिक्षा देता है, जिससे उसके हृदय को परितोष प्राप्त होता है और उसकी प्रकृति को जो चीज़ अपेक्षित होती है, प्रकाशना द्वारा उसे प्राप्त हो जाती है। (क़ुरआन, 20 : 12-16) एकेश्वरवाद और नमाज़ के पश्चात् 'एहसान' अर्थात् भलाई का आदेश देता है। समस्त भलाइयों की जड़ नमाज़ और ज़कात है जिसकी ओर वह आमंत्रित करता है, और इन्हीं दोनों के आधार पर वह जन्नत की शुभ-सूचना देता है और परलोक की यातना का भय दिलाता है। क्योंकि इन दोनों की अवहेलना समस्त बुराइयों और बिगाड़ की जड़ है।

पैग़म्बरों की शिक्षाओं के अध्ययन से पता चलता है कि वे जिस सत्य की ओर हमें बुलाते हैं और जिन नियमों एवं मर्यादाओं के अनुपालन पर ज़ोर देते हैं उस सत्य और उन नियमों और मर्यादाओं के अनुपालन का अभिप्राय स्वयं मानव-आत्मा ही है। क्योंकि उस सत्य और उन नियमों और मर्यादाओं से विहीन आत्मा पतित तो हो सकती है, उच्चता और सौंदर्य को प्राप्त नहीं हो सकती। प्रिंसिपल क्रेडिट ने लिखा है—

"परम सत्य से संलग्न जीवन कोई अपरिचित जीवन नहीं होता। यदि वह हमसे कहीं बाहर होता है तो स्वयं हमारे भीतर भी वही होता है। उसके सामने झुक जाने से हम किसी बाह्य दमनकारी क़ानून या किसी बाह्य सत्य की अधीनता अंगीकार नहीं करते, बल्कि एक ऐसे क़ानून का अनुपालन करते हैं जो स्वयं हमारी प्रकृति का क़ानून होता है। यह एक ऐसे शासक की आज्ञाकारिता है जिसका राजसिंहासन हमारे हृदय की गहराई ही है।" [Introduction to the Philosophy of Religion. p-237.]

इसमें संदेह नहीं कि ईश्वर के और अपने मध्य अनुकूलता पैदा करना और उसके आदेशों की पैरवी करना अपने साथ कोई विद्रोह नहीं है, बल्कि यह स्वयं अपनी प्रकृति ही का आदर करना है। प्राकृतिक आदेशों का अनुपालन और अनुकरण करके ही समस्त जानवर जी रहे हैं। और उसी के अनुसरण के कारण सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है और उसकी सारी सुन्दरता इसी प्राकृतिक आदेश के अनुसरण ही का फल है। नबियों के द्वारा हमें चेतना के स्तर पर प्राकृतिक और नैसर्गिक आदेश का ज्ञान प्राप्त होता है। नबी हमें हमारी वास्तविक प्रकृति से अवगत कराते और हमें हमारी वास्तविक कामनाओं और अभिलाषाओं की ख़बर देते हैं। नबी वास्तव में प्रकृति की आवाज़ होता है। इसी लिए उसके लाए हुए 'दीन' (धर्म) को 'स्वाभाविक धर्म' और प्राकृतिक आदेशों को 'मारूफ़' (भलाई अर्थात् वे चीज़ें जिनसे हमारी आत्मा परिचित है) और उसकी दिखाई हुई राह को 'सिराते-मुस्तक़ीम' (सीधा और सहज मार्ग) कहते हैं। और जिन चीज़ों से वह रोकता है उन्हें मुनकर (ऐसी चीज़ें जो आत्मा के लिए अजनबी अर्थात् Unfamiliar हों) कहते हैं। क़ुरआन ने नबी को 'मुज़क्किर' अर्थात् याद दिलानेवाला कहा है। वे अपनी क़ौम में जो कार्य करते हैं उसके लिए 'तज़कीर' (अनुस्मरण) शब्द प्रयोग किया गया है। नबियों का कार्य मानव-प्रकृति के विरुद्ध कोई चीज़ पैदा करना कदापि नहीं होता, बल्कि वे उस चीज़ को स्पष्ट करते हैं जो उनके अन्तर में पहले से मौजूद होती है। इसी लिए उनका विरोध करनेवाले क़ियामत के दिन अपना अपराध स्वीकार करेंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि हमें तो सत्य की ख़बर ही न थी, हम तो मजबूर थे। बल्कि वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि वे अकृतज्ञ और इनकार करनेवाले थे, अर्थात् यह उनकी सरकशी थी कि उन्होंने सत्य का इनकार किया। [क़ुरआन 6/130] हमारी प्रकृति अर्थात् हमारी वास्तविक कामनाएँ और अभिलाषाएँ ही हैं जो नबियों के लाए हुए धर्म का आधार हैं।

नबी जब किसी क़ौम में आता है तो उसका आना उस क़ौम के लिए एक प्रकार से परीक्षण और फ़ैसले का दिन होता है। क़ुरआन और पिछली आसमानी किताबों (Scriptures) में इसका उल्लेख मिलता है। सत्य और असत्य के संघर्ष में सत्य ही विजय होता है। यदि सत्य के अनुयायियों की संख्या इतनी नहीं होती कि वे अपने विरोधियों का मुक़ाबला कर सकें, और विरोधियों का विरोध और उनकी शत्रुता हद से आगे बढ़ जाती है, तो दैवी प्रकोप के द्वारा विरोधियों को विनष्ट कर दिया जाता है। उन्हें विनष्ट करने से पहले उन्हें इसका पूरा अवसर दिया जाता है कि वे अपनी नीति बदलें और सत्य का साथ दें। उन्हें चेतावनी पर चेतावनी दी जाती है कि वे सत्य का विरोध त्यागकर उसके अनुयायी बन जाएँ। किन्तु जब वे इस अवसर से लाभ नहीं उठाते और उनकी नीति से यही व्यक्त होता है कि उन्हें अवसर नहीं बल्कि ईश्वरीय यातना ही अभीष्ट है, तो फिर ऐसे लोगों के जीवित रहने की वैधता समाप्त हो जाती है। और यदि सत्य के अनुयायी अत्यंत अल्पसंख्या में नहीं होते तो फिर वही विजयी होते हैं और धरती पर ईश्वरीय इच्छा (उसके दिए हुए विधि-विधान) की स्थापना करते हैं।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि नबी ऐसे उच्च स्थान पर होता है कि उसे अपनी नुबूवत के विषय में किसी प्रकार का संदेह नहीं होता। उसे वसवसे नहीं घेरते। नबी होने की हैसियत से वह जो कुछ सुनता और देखता है, उसके सत्य होने में उसे थोड़ा भी संदेह नहीं होता। जो तथ्य और जो चीज़ें भी ईश्वर की ओर से उसपर प्रकट की जाती हैं- चाहे वे ऐसी चीज़ें हों जिनको उसकी आँखें देखती हैं या इलहामी ज्ञान (अवतरित ज्ञान) हो जो सीधे उसके दिल में डाला जाता है या वह प्रकाशना (Revelation) हो जो शब्दों और वाणी के रूप में उसपर की जाती है, इन सभी रूपों में उसे इस बात का पूरा ज्ञान होता है कि जो कुछ उसे दिखाया जा रहा है या जो संदेश उसे दिया जा रहा है, वह उसके रब की ओर से है, शैतान और दुरात्माओं के प्रभाव से वह बिलकुल सुरक्षित है। नबी को अपने नबी होने का विश्वास ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली को अपने तैराक होने और पक्षी को अपनी उड़ान का विश्वास और एहसास होता है। इसलिए नबी को कभी भी यह वसवसा नहीं होता कि वह नबी नहीं है, बल्कि उसे नबी होने का भ्रम हो गया है। नबी पूर्ण प्रकाश में होता है और लोगों को प्रकाश ही का आमंत्रण देता है। फिर नबी को उसके उच्चतम पद को देखते हुए ईश्वर के उस राज्य का, जो आकाशों और धरती पर छाया हुआ है, निरीक्षण करा दिया जाता है। भौतिक आवरणों को बीच से हटाकर सच्चाइयाँ उसे दिखा दी जाती हैं। वे सच्चाइयाँ जिनपर परोक्ष रूप से ईमान लाने की ओर वह मानवों को आमंत्रित करता है। नबी का पद किसी दार्शनिक के पद से नितांत भिन्न होता है। नबियों ने जो कुछ कहा है वह प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष अवलोकन के आधार पर कहा है, जबकि दार्शनिक जो कुछ कहता है वह मात्र अपनी बुद्धि और अटकल के आधार पर कहता है। उसकी काल्पनिक उड़ानें कितनी ही उच्च क्यों न हों और वह अपने वक्तव्य में सूक्ष्मदर्शिता का परिचय देता हुआ क्यों न दीख पड़ता हो, वह किसी नबी के ज्ञान और उसके व्यक्तिगत अनुभव और अवलोकन का मुक़ाबला नहीं कर सकता। यही कारण है कि किसी दार्शनिक के दर्शनशास्त्र के अध्ययन से मन का संशय नहीं मिटता और न हमें वह शांति और अलौकिक आनंद प्राप्त होता है जो नबियों पर ईमान लाने और उनके अनुसरण से प्राप्त होता है। एक दार्शनिक कभी सत्य के प्रत्यक्षदर्शी होने का दावा नहीं कर सकता, वह केवल संभावित सत्य की ही बात कर सकता है। इससे आगे जाने की क्षमता केवल पैग़म्बरों ही को प्रदान की गई है। नबी की कोशिश यह होती है कि हम अपनी आत्मा की आवाज़ सुन सकें। वह वास्तव में हमपर कुछ थोपने का प्रयास नहीं करता और न वह हमारे दिल में कोई ऐसी बात डालने की कोशिश करता है जो हमारे लिए अजनबी हो और उसके और हमारे मध्य एकात्मता न पाई जाती हो। वह हमसे हमारी बेहोशी और ग़फ़लत को दूर करता है और हमारे सुनने और देखने की क्षमता को तीव्र करता है। नबी चाहता है कि हमारे और सत्य के मध्य जो आवरण है, वह यदि हट नहीं जाता तो कम-से-कम इतना बारीक ज़रूर हो जाए कि परोक्ष जगत् (Unseen world) की झलकियों को किसी न किसी हद तक हम महसूस करने लगें। सत्य के विरोधियों के वश में नहीं कि वे मनुष्य की प्रकृति को बिलकुल मिटा दें। वे केवल अपनी मिथ्यायुक्त बातों के द्वारा लोगों को उनकी वास्तविक प्रकृति से हटाने की कोशिश कर सकते हैं, और इसमें वे सफल होते भी दिखते हैं। किन्तु मानव-प्रकृति उसके बाद भी जीवन में प्रकट होने के लिए ज़ोर लगाती रहती है। उसे ऐसे अवसर पर बाह्य आश्रय की आवश्यकता होती है। ख़ुदा के नबियों की पूरी कोशिश होती है कि सारी रुकावटें दूर हो जाएँ और मनुष्य सत्य को पा ले। इसकी मिसाल बिलकुल ऐसी है जैसे कोई क़ीमती हीरा कीचड़ में पड़ा हो और कीचड़ में लिप्त होने के कारण ऐसा प्रतीत हो कि मानो वह अपनी सारी आभा खो चुका है। किन्तु जौहरी जानता है कि वह हीरा है, केवल गंदगी के कारण उसे अपने स्वरूप का पता नहीं। उसकी कोशिश यह होती है कि वह उसकी गंदगी को दूर कर दे ताकि हीरे की चमक-दमक बहाल हो सके।

नबी वास्तव में अपने व्यक्तित्व की दृष्टि से सर्वथा एक सुन्दर एवं आकर्षक संदेश (Message) देता है। यह संदेश सुंदर और आकर्षक क्यों न हो जबकि यह संदेश वस्तुतः ईश्वरीय होता है। इस संदेश में सोई हुई आत्माओं को जागृत करने की क्षमता होती है। इसी लिए नबी एक 'याददिहानी' बनकर संसार में आता है। वह उन्हें उस चीज़ की याद दिलाता है जिसे वे साधारणतया भूले हुए होते हैं। क़ुरआन में है—

"अल्लाह ने तुम्हारी ओर एक याददिहानी (स्मरण) उतार दी है। (अर्थात्) एक रसूल जो तुम्हें अल्लाह की स्पष्ट आयतें पढ़कर सुनाता है ताकि वह उन लोगों को, जो ईमान लाएँ और अच्छे कर्म किए, अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले आए।" (क़ुरआन, 65 : 10-11)

नबी की सर्वप्रथम शिक्षा यह होती है कि लोग एक ईश्वर और कर्मफल की धारणा को स्वीकार करें। उसका संदेश यह होता है कि लोग एक ईश्वर में विश्वास करें और उसके दिए हुए आदेशों के अनुसार जीवन-यापन करें। इसलिए कि ईश्वर ही हमारा स्रष्टा, पालनकर्ता और रक्षक है। वह नहीं चाहेगा कि हम विनष्ट होकर रह जाएँ, बल्कि वही हमारी परिपूर्णता का आयोजन करेगा और हमें उस उच्च स्थान पर पहुँचाएगा जहाँ प्रकाश है अंधकार नहीं, ख़ुशियाँ हैं ग़म नहीं, आनन्द है किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं, जहाँ जीवन है मृत्यु नहीं, जिसे प्राप्त करने के लिए हमारी आत्मा विकल है, और वह उन भावनाओं और उन भावों को प्राप्त करने में हमारा मार्गदर्शन करेगा जिन्हें प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य हर प्रकार की आशंकाओं से मुक्त हो जाता है।

एकेश्वरवाद और कर्मफल के मध्य गहरा संबंध पाया जाता है। एकेश्वरवादी होने का अर्थ मात्र प्रबोधन (Enlightenment) प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसके लिए व्यवहारतः ईश्वर का आज्ञाकारी होना भी अनिवार्य है। ख़ुदा का अवज्ञाकारी और अकृतज्ञ अपराधी होने के कारण यातना और ईश्वरीय दण्ड का ही भागी होता है। इतिहास के अध्ययन से यह पता चलता है कि कोई परम सत्ता है और वास्तव में जगत् उसी के शासनाधीन है। उसके प्रकोप या उसके अनुग्रह के चमत्कार सांसारिक जीवन में भी देखने को मिलते हैं। कोई क़ौम जब बुराई में हद से गुज़र जाती है और उसका अत्याचार चरम को पहुँच जाता है तो वह क़ौम पतित होकर रहती है या बिलकुल मिटा दी जाती है। ईश्वर उस क़ौम को प्रतिष्ठा प्रदान करता है जो बिगाड़ के लिए नहीं, बल्कि बनाव के लिए प्रयत्नशील होती है, धरती में जिसका काम विध्वंस का नहीं, बल्कि निर्माण का होता है। जब ईश्वर संसार में ज़ुल्म और अत्याचार करनेवाली क़ौमों को पकड़ता है और न्याय की स्थापना करनेवाली एवं मानव-हित के लिए कार्यरत क़ौमों पर उसकी अनुकम्पा होती है तो फिर परलोक में उस दिन, जो वास्तव में 'प्रतिदान-दिवस' होगा, वह ज़ालिमों और अत्याचारियों को दण्ड क्यों नहीं देगा? और उस दिन वह अपने आज्ञाकारी और वफ़ादार बंदों को अपने अनुग्रह से कैसे वंचित रख सकता है? परलोक में जो कुछ भी देखने को मिलेगा, उसे किसी भी पहलू से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। वर्तमान लोक को यदि आज (Today) की संज्ञा दी जाए तो परलोक को कल (Tomorrow) कहा जा सकता है। जिस व्यक्ति या क़ौम का 'आज' सुन्दर है, उस व्यक्ति या क़ौम का 'कल' भी शुभ और सुन्दर होगा। किसी के लिए आनेवाला वह दिन संताप-दिवस सिद्ध होगा और किसी के लिए आनन्दमय होगा।

इस सिलसिले में इस तथ्य को विस्मृत नहीं करना चाहिए कि नैतिक और क़ानूनी दोनों ही पहलुओं से साधारण क़ौमों के मुक़ाबले में उस क़ौम का मामला बिलकुल भिन्न होता है जिस क़ौम में प्रत्यक्षतः कोई नबी भेजा जाता है, जिसे प्रत्यक्ष रूप में नबी का संबोधन प्राप्त होता है, जिस क़ौम में नबी पैदा हुआ होता है और जिसे वह ईश्वर का संदेश उसी की भाषा में सुनाता है। नबी के व्यक्तित्व का प्रभाव और उसकी सत्यता की चमक लोगों के समक्ष स्पष्ट रूप से होती है। वह क़ौम के सामने अपने जीवन को आदर्श के रूप में प्रदर्शित करता है। उसकी ज़िंदगी कोई कल्पित कहानी नहीं होती, बल्कि वह जीवन्त यथार्थ रूप में लोगों के समक्ष होता है। ऐसी क़ौम पर ख़ुदा की ओर से हुज्जत पूर्ण हो जाती है। उसके लिए इसका कोई अवसर नहीं होता कि अपने ईमान न लाने या ईमान लाने में विलम्ब करने के सिलसिले में कोई कारण पेश कर सके। जब कोई क़ौम ईश्वर के भेजे हुए संदेश और संदेशवाहक को सन्मुखतः झुठला देती है, और इतना ही नहीं बल्कि नबी की जान की दुश्मन भी हो जाती है, तो वह अपनी इस धृष्टता के कारण इसी की पात्र होती है कि उसे विनष्ट कर दिया जाए। ऐसी क़ौम के सिलसिले में ढील देने या उसे अधिक-से-अधिक अवसर देने का प्रश्न ही नहीं उठता, जबकि वह नबी की जान की दुश्मन हो गई हो और वह नबी के पवित्र अस्तित्व को सहन करने तक को तैयार न हो, और नबी के अनुयायियों को हर संभव तरीक़े से सताने में व्यस्त हो। क़ुरआन में है—

"क्या वे (सत्य का विरोध करनेवाले) धरती में चले-फिरे नहीं कि देखते उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे शक्ति और धरती में अपने अवशेष चिह्न की दृष्टि से उनसे कहीं बढ़-चढ़कर थे। फिर उनके गुनाहों के कारण अल्लाह ने उन्हें पकड़ लिया। और अल्लाह से बचानेवाला उनका कोई न हुआ। यह (बुरा परिणाम) तो इसलिए सामने आया कि उनके पास उनके ईश्वरीय संदेशवाहक स्पष्ट प्रमाण लेकर आते रहे, किन्तु उन्होंने इनकार किया। अन्ततः अल्लाह ने उन्हें पकड़ लिया। निश्चय ही वह बड़ा शक्तिशाली, सज़ा देने में अत्यधिक कठोर है।" (क़ुरआन, 40:21-22)

यह तो सांसारिक जीवन में उनका परिणाम हुआ। परलोक में उनकी क्या दशा होगी? इस संबंध में क़ुरआन का बयान यह है—

"जिस दिन वे खुले रूप में (अल्लाह के) सामने उपस्थित होंगे, उनकी कोई चीज़ अल्लाह से छिपी न रहेगी। (कहा जाएगा) आज किसकी बादशाही है? अल्लाह की, जो अकेला, सबपर क़ाबू रखनेवाला है। आज प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कमाई का बदला दिया जाएगा। आज कोई ज़ुल्म न होगा। निश्चय ही अल्लाह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।" (क़ुरआन, 40:16-17)

जिन लोगों ने नबी को पहचाना और नबी के मार्गदर्शन को स्वीकार किया, वे बड़े सजग लोग थे। वे बेहोशी और ग़फ़लत में पड़े हुए न थे और न किसी प्रकार के पूर्वाग्रह में ग्रस्त थे। उन्होंने नबी के संदेश को अपने दिल की आवाज़ समझा, उन्हें उस संदेश में अपने दिल की धड़कनें साफ़ सुनाई दे रही थीं। नबी के लाए हुए प्रकाश में वे अपने वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्षतः देखने लगे। उन्होंने अपने अस्तित्व और प्राणों से बढ़कर नबी को प्रिय जाना। उन्हें उस निकटतम एवं मधुर संबंध का आभास हो चला था जो उनके और नबी के मध्य पाया जाता है। अल्लामा हमीदुद्दीन फ़राही (रहमतुल्लाहि अलैह) ने लिखा है—

"नबी क़ौम का संवेदनशील हृदय होता है। उसकी हैसियत कान, नाक और दिल की होती है।"

वह क़ौम कितनी विवेकशील होती है जिसे नबी के कानों से सुनना, उसकी आँखों से देखना और उसके हृदय के माध्यम से समझना और महसूस करना आ जाता है। किन्तु साधारणतया लोगों को उस गहरे रिश्ते का ज्ञान नहीं होता जो उनके और नबी के मध्य पाया जाता है। वे नहीं जानते कि नबी का और उसके आदेशों का इनकार करके वे स्वयं अपने साथ बेवफ़ाई कर रहे हैं और स्वयं अपने आपको आघात पहुँचा रहे हैं। ईश्वर का यह विशेष अनुग्रह है कि उसने मार्गदर्शन के तमाम माध्यमों, बुद्धि, विवेक, जगत् और स्वयं मानव की अन्तरात्मा आदि में पाए जानेवाले सूक्ष्म संकेतों और निशानियों के सहयोग के लिए स्पष्टतः मार्गदर्शन की व्यवस्था की। इसके लिए उसने हमारे पास अपने नबियों को भेजा और ऐसी किताबें उतारीं जिनमें स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि एकेश्वरवाद क्या है और उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं? कृतज्ञता प्रकाशन का मार्ग कौन-सा है और इनकार या अकृतज्ञता की नीति क्या होती है? फिर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कृतज्ञता का मार्ग अपनानेवालों का परिणाम कितना शुभ और आनंददायक होगा और अकृतज्ञता की नीति अपनानेवालों का परिणाम कितना भयानक होगा। नबियों की शिक्षाओं का जो प्रभाव मानवजाति पर पड़ा है, वह अत्यंत गहरा है। संसार में जहाँ कहीं भी ईश्वर और परलोक की धारणा पाई जाती है वहाँ भलाई-बुराई में अन्तर किया जाता है और दया और करुणा की बात की जाती है, ये सब वास्तव में नबियों ही की शिक्षाओं का प्रभाव है। यह प्रभाव संसार की विभिन्न जातियों में देखने को मिलता है। यह अलग बात है कि उन जातियों को यह न मालूम हो कि इन धारणाओं और भावनाओं का मूल उद्गम क्या है?

नबियों के आगमन की आवश्यकता

उपर्युक्त विवरण से ज्ञात हुआ कि नबी दुनिया में इसी लिए आते रहे हैं कि मानवों पर इस रहस्य का उद्घाटन हो सके कि मानव-जीवन का अभिप्राय क्या है? ईश्वर ने किस योजना के अंतर्गत मनुष्य को पैदा किया है? मनुष्य की जीवन-यात्रा की मंज़िल क्या है? क्या मृत्यु के बाद भी कोई जीवन है, या नहीं? ये ऐसी बातें हैं जिनका संबंध परोक्ष (Unseen) से है। परोक्ष के जानने का मनुष्य के पास कोई विश्वसनीय साधन नहीं पाया जाता जबकि जीवन का वह भाग जो परोक्ष से संबंध रखता है; वही सबसे अधिक मूल्यवान है। परोक्ष के विषय में हमें सत्य-ज्ञान प्राप्त हो यह हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता है। हमारी यह आवश्यकता कल की नहीं, आज की है, क्योंकि परोक्ष के ज्ञान के बिना हमारे आज के मूल्य का निर्धारण असंभव है। जीवन की इस मौलिक आवश्यकता की उपेक्षा करना और जीवन के प्रति उदासीनता दिखाना, यह न्याय की दृष्टि से सबसे बड़ा अपराध है। परोक्ष के विषय में सच्चा ज्ञान हमें ईश्वर के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। उसके दिए हुए ज्ञान से अनभिज्ञ होकर मनुष्य जो कुछ कहेगा वह मात्र एक कल्पना और अनुमान होगा, और अटकल और अनुमान कभी सत्य का बदल नहीं हो सकता। जीवन की वास्तविक रूप-रेखा निर्धारित करने के लिए आवश्यक है कि हमें जीवन के उस पहलू का पूर्ण ज्ञान हो जिसका संबंध परोक्ष से है। परोक्ष से संबंधित ज्ञान मानव की एक मौलिक आवश्यकता है, क्योंकि इसके बिना जीवन को परिभाषित नहीं किया जा सकता। यही वह विशेष आवश्यकता है जिसे पूरा करने के लिए नबियों का सिलसिला जारी हुआ। क़ुरआन में है—

"अल्लाह ऐसा नहीं है कि वह तुम्हें परोक्ष की सूचना दे दे। किन्तु अल्लाह इस काम के लिए जिसको चाहता है, चुन लेता है, और वे उसके रसूल (संदेशवाहक) होते हैं। अत: अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ।" (क़ुरआन, 3:179)

"वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह सम्राट है अत्यंत पवित्र, सर्वथा सुख-शांति, निश्चिंतता प्रदान करनेवाला, संरक्षक, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली, अपनी बड़ाई का एहसास रखनेवाला और उसे प्रकट करनेवाला, महान और उच्च है अल्लाह उस बहुदेववाद से जिसमें लोग पड़े हुए हैं।" (क़ुरआन, 59 : 23)

इस आयत में ईश्वर को सम्राट अर्थात् बादशाह की संज्ञा दी गई है। और हम सब जानते हैं कि बादशाह रिआया के प्रत्येक व्यक्ति से सीधे संपर्क नहीं रखता, बल्कि उसके विशेष दूत और प्रतिनिधि होते हैं जो सम्राट के आदेशों से जनता को अवगत कराते हैं। यही नीति सम्राट को शोभा भी देती है। सम्राट केवल सम्राट ही नहीं होता, बल्कि उसके लिए ज़रूरी है कि अपनी प्रजा के पास ऐसे आदेश भेजे जिनका पालन करके प्रजा सुखी हो और सम्राट भी प्रसन्न हो, और उसके आदेशों का उल्लंघन सम्राट की दृष्टि में भी और न्याय की दृष्टि में भी अपराध ठहरे। अब जबकि ईश्वर केवल जगत् का स्रष्टा ही नहीं है, बल्कि क़ुरआन के बयान के अनुसार वह सम्राट, स्वाभिमानी, प्रभुत्वशाली और सुख-शांति देनेवाला भी है, तो यही उसके लिए उचित और स्वाभाविक भी है कि वह एक सम्राट की तरह अपने प्रतिनिधि और विशेष राजदूत के द्वारा जनता के पास अपना आदेश भेजे और प्रजा की उन्नति के लिए जो भी योजना उसके समक्ष हो, उससे जनसामान्य को अवगत कराए। ऐसा सम्राट जिसको अपनी प्रजा की कोई चिंता न हो और न वह अपनी प्रजा के सुख-सुविधा और उसकी उन्नति के प्रति कोई योजना रखता हो, उसे कभी भी समर्थ और विवेकशील शासक नहीं कहा जा सकता। नबी और रसूल वास्तव में जगत् के वास्तविक सम्राट के दूत और संदेशवाहक होते हैं और लोगों तक वास्तविक सम्राट के आदेश पहुँचाते हैं और उन्हें इस बात की चेतावनी देते हैं कि यदि वे ईश्वरीय आदेश का पालन नहीं करते और उसकी प्रसन्नता की चाहत और उसके क्रोध की चिंता उन्हें नहीं होती, तो फिर इस नीति का बड़ा ही भयावह परिणाम उनके सामने आकर रहेगा। ईश्वर के आदेश हमें पैग़म्बरों और रसूलों के ही माध्यम से मिलते हैं और उन्हीं के द्वारा हमें परोक्ष का ज्ञान प्राप्त होता है, जो हमारे जीवन की मौलिक आवश्यकता है। यही वह मौलिक ईश्वरीय नियम है जिसका उल्लेख उपर्युक्त क़ुरआन की आयत (3 : 179) में किया गया है। वास्तव में पैग़म्बर उस चीज़ की याद दिलाने आते हैं जिससे मानव की प्रकृति परिचित है। ईश्वरीय आदेश वास्तव में हमारी आंतरिक गहराइयों ही के नियम हैं। उदाहरणार्थ, मानव स्वभावतः न्याय एवं इंसाफ़, पूजा एवं समर्पण के रसास्वादन से परिचित है। नबी तो उसे याद दिलाते हैं कि वह अपनी प्रकृति और मधुरतम अभिरुचि को कुचलने की कुचेष्टा न करे, क्योंकि फिर तो उसकी हैसियत एक अपराधी की होगी। वह अपने लिए उन्नति की संभावनाओं के द्वार बंद न करे। अभी तो वह मार्ग में है। जो कुछ उसे प्राप्त है, वह सामयिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए है। शाश्वत जीवन अपनी साज-सज्जा के साथ उसकी प्रतीक्षा में है। ईश्वर ने अपने प्रतिनिधियों (नबियों) के द्वारा हुज्जत पूरी कर दी है। लोग कल यह नहीं कह सकते कि हमें किसी ने सचेत नहीं किया, किसी ने हमें ग़फ़लत की निद्रा से जगाने का प्रयास नहीं किया, अन्यथा हम कभी भी वह मार्ग न अपनाते जो कृतज्ञता का मार्ग न था। हम अपराधी इसलिए बने कि ईश्वर ने हमारी ख़बर न ली। हमें भटकने के लिए उसने यूँ ही छोड़ दिया। नबियों के आने और लोगों तक ईश्वरीय संदेश पहुँचाने के पश्चात् इस प्रकार के तर्क प्रस्तुत करने का अवसर शेष नहीं रह जाता। क़ुरआन में है—

"ऐ जिन्नों और मनुष्यों के गरोह! क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल नहीं आए थे, जो तुम्हें मेरी आयतें (आदेश) सुनाते और इस दिन के पेश आने से तुम्हें डराते? वे कहेंगे, 'क्यों नहीं! (रसूल तो आए थे) हम स्वयं अपने विरुद्ध गवाह हैं।' उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में रखा। मगर अब वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने लगे कि वे इनकार करनेवाले थे।" (क़ुरआन, 6:130)

एक दूसरे स्थान पर कहा गया है—

"रसूल शुभ समाचार देनेवाले और सचेत करनेवाले बनाकर भेजे गए हैं, ताकि रसूलों के पश्चात् लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में (अपने निर्दोष होने का) कोई तर्क न रहे। अल्लाह अत्यंत प्रभुत्वशाली, तत्त्वदर्शी है।" (क़ुरआन, 4:165)

अध्याय-6

नबियों का इतिहास

सम्पूर्ण मानवता एक माता-पिता की संतान है। वे पहले मानव, जिनकी हम सब संतान हैं, आदम (अलैहिस्सलाम) थे। वही प्रथम पैग़म्बर भी हुए। ईश्वर ने उन्हें आदेश दिया कि वे अपनी संतान को ईश्वर का आज्ञाकारी बनाएँ, उस ईश्वर का जो एक है, जिसके सिवा कोई दूसरा पूज्य और प्रभु नहीं, और अपनी संतान से कहें कि तुम्हारा जीवन ईश्वर के आदेशानुपालन और उसकी प्रसन्नता के प्राप्त करने के प्रयास ही में व्यतीत होना चाहिए। उसी से सहायता के लिए प्रार्थना करो और संसार में उसके कृतज्ञ बनकर जीवन-यापन करो। यदि ऐसा करोगे और न्याय पर क़ायम रहोगे तो शाश्वतता तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी। फिर तुम्हें ऐसा जीवन प्राप्त होगा जो सर्वथा रमणीय और आनंदमय होगा, जिसमें किसी प्रकार का अभाव न होगा जो दुख और क्लेश का कारण बनता हो।

आदम की संतान धरती के विभिन्न भागों में फैली, विभिन्न जातियों का आविर्भाव हुआ, लोगों ने ईश्वरीय आदेशों को भुला दिया, विचारों में ख़राबियाँ पैदा हुईं, तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के रीति-रिवाज आविष्कृत किए गए और विभिन्न प्रकार के मत-मतांतर और धर्म गढ़ लिए गए। अज्ञान के कारण बहुदेववाद, मूर्तिपूजा और अन्य बुराइयाँ उनमें घर कर गईं। ईश्वर ने हर क़ौम और भू-भाग में पैग़म्बर भेजने शुरू किए ताकि लोगों को उनकी ग़लतियों पर सावधान किया जाए और उन्हें एक ईश्वर की बंदगी की ओर बुलाया जाए। उस ईश्वर की ओर जिसकी बंदगी और दासता की शिक्षा आदम (अलैहिस्सलाम) ने अपनी संतान को दी थी, और उन्हें जीवन व्यतीत करने का न्याययुक्त तरीक़ा बताया जाए। संसार के विभिन्न भागों में ख़ुदा के पैग़म्बर आए। उन सब पैग़म्बरों की शिक्षाएँ मौलिक रूप से एक ही थीं। अलबत्ता जिस जाति में जिस प्रकार का अज्ञान फैला हुआ था और बुराइयों में जिस बुराई का ज़्यादा ज़ोर था उसे दूर करने की विशेष रूप से कोशिश की गई।

पैग़म्बरों ने सत्य धर्म के प्रचार में बड़ी तकलीफ़ उठाई, उनकी क़ौमों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। फिर भी वे अपना काम निरंतर करते रहे। कुछ बड़ी क़ौमें उनकी अनुयायी हुईं, किन्तु पैग़म्बरों के प्रस्थान करने के पश्चात् लोगों ने उनकी शिक्षाओं को बदल डाला और उनकी लाई हुई किताबों में भी बहुत-से अनुचित परिवर्तन कर डाले। पैग़म्बरों की शिक्षाओं में बहुत-सी झूठी कहानियाँ गढ़-गढ़कर सम्मिलित कर दी गईं। ईश्वरीय शिक्षाओं और आदेशों को ऐसा बिगाड़ा और उनमें अपनी ओर से गढ़कर बहुत-से नियम और क़ानून ऐसे लागू कर दिए गए कि कुछ शताब्दियों के बाद यह जानने का हमारे पास कोई मापदण्ड शेष न रहा कि पैग़म्बरों की वास्तविक शिक्षा और उनका दिया हुआ धर्म-विधान क्या था। पैग़म्बरों के वृत्तांतों और उनकी जीवनियों में ऐसी बातों का मिश्रण कर दिया गया कि उनके वास्तविक जीवन-चरित्र को जानना कोई आसान काम न रहा। फिर भी उनकी शिक्षाओं में कुछ-न-कुछ सच्चाई शेष रह गई जो विभिन्न जातियों में दिखाई देती है, जिसका अध्ययन आज भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, ईश्वर की धारणा किसी-न-किसी रूप में सभी जातियों में पाई जाती है। इसी तरह परलोक की धारणा अर्थात् मरने के पश्चात् जीवन के किसी न किसी रूप में शेष रहने की धारणा भी पाई जाती है।

क़ौमों में बिगाड़ आने के पश्चात् उनके वैचारिक और व्यावहारिक सुधार के लिए ईश्वर की ओर से पैग़म्बर निरंतर आते रहे। मानव-इतिहास में अगणित क़ौमें गुज़री हैं। यदि प्रत्येक क़ौम में एक ही पैग़म्बर आया हो तब भी पैग़म्बरों की संख्या हज़ारों में होगी। इसकी पुष्टि अन्तिम ईश-दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की कुछ हदीसों (कथनों) से भी होती है, जिनमें नबियों की संख्या लगभग एक लाख चौबीस हज़ार बताई गई है। क़ुरआन में कुछ विशेष पैग़म्बरों के जीवन-चरित्र और उनके शुभ-कार्यों और प्रयासों का संक्षेप में उल्लेख भी किया गया है। जिन पैग़म्बरों का उल्लेख क़ुरआन में मिलता है, उनके शुभ नाम ये हैं— 1. आदम, 2. नूह, 3. इदरीस, 4. ज़ुलकिफ़्ल, 5. शुऐब, 6. सालेह, 7. इबराहीम, 8. इसहाक़, 9. इस्माईल, 10. अय्यूब, 11. इलियास, 12. अल-यस-अ, 13. दाऊद, 14. सुलैमान, 15. ज़करीया, 16. यह्या, 17 लूत, 18 याक़ूब, 19. यूसुफ़, 20. यूनुस, 21. मूसा, 22. हारून, 23. ईसा, और 24. मुहम्मद। इन सब पैग़म्बरों पर ईश्वर की दया और कृपा हो।

क़ुरआन में जिन विशेष जातियों का उल्लेख हुआ है वे ये हैं— क़ौमे नूह, आद, समूद, तुब्बा, मदयन के निवासी, असहाबुर्रस, अल-ऐ-क के निवासी, और क़ौमे-लूत। इनके अतिरिक्त बनी-इसराईल और क़ौमे-सबा आदि जातियों का उल्लेख भी क़ुरआन में मिलता है।

क़ुरआन में प्रथम संबोधित समुदाय अरब थे। फिर उनके पश्चात् जिनको क़ुरआन ने संबोधित किया वे यहूदी और ईसाई थे। यह इसलिए कि अरब देश में यहूदियों की बस्तियाँ पाई जाती थीं और एक बड़ी संख्या में ईसाई भी वहाँ आबाद थे। इसलिए क़ुरआन ने उन्ही पैग़म्बरों और उन्ही जातियों का उल्लेख किया है जिनसे अरब के लोग या यहूदी और ईसाई समुदाय के लोग परिचित थे। जिन पैग़म्बरों और जिन क़ौमों से उनका परिचय अधिक नहीं था उनका उल्लेख बेमौक़ा और अनुचित होता, इसलिए उनका उल्लेख नहीं किया गया। जिन क़ौमों और नबियों के वृत्तांत का उल्लेख क़ुरआन में हुआ है वे हमारे मार्गदर्शन और हमारी शिक्षा के लिए पर्याप्त हैं। क़ौमों में से जिन क़ौमों का उल्लेख क़ुरआन में किया गया है, ये वे क़ौमें हैं जिनसे अरब के लोग भली-भांति परिचित थे, बल्कि उन क़ौमों की जहाँ कहीं आबादियाँ थीं, उन जगहों से व्यापार के सिलसिले में उनका गुज़र भी होता रहता था।

हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) के मध्य जो लम्बा समय पाया जाता है, उसमें जो क़ौमें गुज़री हैं लोग उनके वृत्तांत से अनभिज्ञ थे, इसलिए क़ुरआन ने भी उनका उल्लेख नहीं किया। बल्कि पैग़म्बरों के वृत्तांत का उल्लेख वह हज़रत नूह से करता है।

जैसाकि पहले हम बयान कर चुके हैं कि क़ौमों ने साधारणतया अपने पैग़म्बरों का विरोध किया और उनकी पवित्र शिक्षाओं से लाभ उठाने से वंचित रहीं, और यदि किसी क़ौम और समुदाय ने उनका अनुसरण किया भी तो वह अपने पैग़म्बर की शिक्षाओं को प्रामाणिक रूप से सुरक्षित न रख सका। बाद की पीढ़ियों ने अपनी ओर से पैग़म्बर की शिक्षाओं में बहुत कुछ परिवर्तन कर दिया। पैग़म्बर की सच्ची शिक्षाएँ और सच्चा वृत्तांत कहानियों में गुम होकर रह गया और उन्होंने मनुष्य को ईश्वर या ईश्वर का बेटा या अवतार बनाकर उसी की पूजा या वन्दना करनी शुरू कर दी। लोग अपने पथभ्रष्ट धर्म-नेताओं के अन्धानुकरण में ग्रस्त हो गए। अपनी समझ और बुद्धि से काम लेना छोड़ दिया। इन धर्म-नेताओं ने वैचारिक और व्यावहारिक, हर दृष्टि से लोगों को पथभ्रष्ट किया। सभ्यता एवं संस्कृति और नैतिकता को विनष्ट करके रख दिया। उन्होंने पैग़म्बरों का इनकार किया तो यह कहकर कि “क्या मनुष्य हमारा मार्गदर्शन करेगा?" आश्चर्य यह होता है कि पैग़म्बरों का इनकार करनेवाले यही लोग अपने अंधे धर्मगुरुओं को सिर-आँखों पर बिठाते हैं और उनके मार्गदर्शन को सहर्ष स्वीकार करते हैं, और उनका आदर करने में कोई कोताही नहीं करते। शायद इसका कारण यह है कि गुमराही और पथभ्रष्टता ही उन्हें प्रिय है और वे उन्हीं मार्गदर्शकों को पसंद करते हैं जो उन्हें सत्य के तेज एवं प्रकाश से दूर रखें और उच्चतम चरित्र और विवेक एवं ज्ञान का प्रकाश उन तक पहुँचने न दें।

पैग़म्बरों की शिक्षाओं में अन्तर नहीं पाया जाता

पैग़म्बरों की मौलिक शिक्षाओं में किसी प्रकार का अंतर और विभेद नहीं पाया जाता। सारे पैग़म्बरों ने मनुष्य की एक ही हैसियत बताई है कि वह ईश्वर का दास या बंदा है। अतः उसे ईश्वर ही की बंदगी और दासता में अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसके जीवन व्यापार का सार ईश-भक्ति के अतिरिक्त और कुछ न हो। ईश्वर ही के पास अंत में लोगों को पहुँचना है और उसके समक्ष अपने कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना है। यह सांसारिक जीवन वास्तविक जीवन नहीं है। वास्तविक जीवन तो वह है जो आगे चलकर हमें अपने कर्मों के अनुसार परलोक में प्राप्त होगा। पारलौकिक जीवन या तो सर्वथा आनन्द और रसमय होगा या वह सर्वथा दुख और यातना-ग्रस्त होगा। यह आदमी के अपने चरित्र और कर्म पर निर्भर करता है। यदि वह दुनिया में ईश्वर की इच्छा और उसकी योजना की उपेक्षा करता है तो ईश्वर को क्या पड़ी है कि वह ऐसे सरकश व्यक्ति की परवाह करे। ऐसे अपराधी का पारलौकिक जीवन पीड़ामय होगा, और ऐसा होना भी चाहिए। अलबत्ता जिन लोगों ने अपना जीवन ईश्वरीय योजना के अंतर्गत रखकर व्यतीत किया, ईश्वर का विद्रोही बनकर नहीं बल्कि उसके आज्ञाकारी सेवक बनकर रहे और उन्होंने ईश्वर की प्रसन्नता और उसकी चाहत को जीवन का सार या जीवन-रूपी पुष्प की सुगंध जाना, ईश्वरीय प्रेम में गतिशील रहने को अपनी आबरू समझा, उनके लिए यही ईश्वरीय प्रेम वह प्रेरक चीज़ थी जिसकी शक्ति से वे जीवन में सत्यमार्ग पर चलने में सफल हो सके।

फिर सभी नबियों की शिक्षा यही रही है कि लोग ईश्वर के हक़ों और अधिकारों को पहचानें और साथ ही उसके बंदों के जो हक़ उनपर होते हैं, उन्हें भी पहचानें और किसी व्यक्ति पर किसी प्रकार का अन्याय और ज़ुल्म न होने दें। जहाँ तक संभव हो लोगों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत मधुर और न्याय, बल्कि त्याग और उत्सर्ग पर आधारित हो। वे अपनी अपेक्षा दूसरों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दें तथा ग़रीबों और असहाय लोगों के काम आएँ। क़ुरआन में है कि जब परलोक में सफल लोग जन्नतों में स्थान पाएँगे तो वे नरकवासियों से पूछेंगे कि तुम लोग नरक में कैसे पहुँच गए? वे कहेंगे—

"हम नमाज़ अदा करनेवालों में से न थे, और न हम मुहताज को खाना खिलाते थे। और व्यर्थ बात और कटहुज्जती में पड़े रहनेवालों के साथ हम भी उसी में लगे रहते थे। और हम प्रतिदान दिवस को झुठलाते थे, यहाँ तक कि यक़ीनी चीज़ (मृत्यु) ने हमें आ लिया।" (क़ुरआन, 74 : 43-47)

नबियों ने न्याय और इंसाफ़ पर ज़ोर दिया। हर बुराई, चाहे वह सामाजिक हो या व्यक्तिगत उससे दूर रहने और भले काम करने पर वे लोगों को उभारते रहे। उन्होंने कहा कि तुम्हारा प्रत्येक कर्म ईश्वर ही के लिए और उसका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए हो, लोगों को दिखाने और संसार में नाम कमाने की चाह इसकी प्रेरक कदापि न हो।

'मोजिज़ा' (Miracle)

'मोजिज़ा' कहते हैं ऐसे कार्य को जिसके करने में मनुष्य असमर्थ रहे। अर्थात् ऐसा कार्य जो प्राकृतिक नियमों से भिन्न दिखाई दे। क़ुरआन में इसके लिए जो शब्द प्रयुक्त हुआ है वह है— 'आयत' या आयात। 'आयत' का अर्थ होता है, निशानी, चिह्न, प्रमाण या आदेश। क़ुरआन में है—

“आकाशों और धरती में कितनी ही आयतें (निशानियाँ) हैं, जिनपर से वे इस प्रकार गुज़र जाते हैं कि उनकी ओर वे ध्यान ही नहीं देते।" (क़ुरआन, 12 : 105)

आयत चाहे वह जिस रूप में हो, बुद्धि और अंतर दोनों को जागृत करनेवाली चीज़ होती है। जगत् में फैली हुई अनगिनत निशानियाँ यह बताती हैं कि जगत् के माध्यम से ईश्वर के गुण, दयालुता, तत्त्वदर्शिता, महानता, उच्चता और न्याय एवं प्रतिदान आदि प्रदर्शित हो रहे हैं। ठीक इसी प्रकार ईश्वरीय वाणी के रूप में जो आयतें हम पढ़ते या सुनते हैं, वे भी ईश्वरीय गुणों को प्रमाणित करती हैं; बल्कि उनका प्रमाणीकरण सविस्तार और अत्यंत स्पष्ट रूप से होता है। क़ुरआन की आयतों के अवतरित होने के पश्चात् उन निशानियों (आयतों) को, जो जगत् में हर ओर पाई जाती हैं, भाषा मिल गई। मानो क़ुरआन के माध्यम से उनका मौन टूट गया। यदि ये बेज़बान थीं तो इन्हें ज़बान मिल गई।

अवतरित आयतों को क़ुरआन में 'रहमत' (दयालुता) और 'रिज़्क़े हसन' (उत्तम आजीविका) की संज्ञा दी गई है और उन्हें 'ज़िक्र' (अनुस्मारक एवं बोध) और नूर (प्रकाश) कहा गया है। और स्पष्टतः कहा गया है कि इनसे वही लोग लाभान्वित होते हैं जो बुद्धिमान और विचारशील होते हैं। सच्ची बात यह है कि क़ुरआन हमें इसके लिए आमंत्रित करता है कि हम ईमान लाएँ और अच्छे कर्म करें। उसका यह आमंत्रण बुद्धिपरक और विवेक एवं बोध का पक्ष लिए हुए होता है। वह मनुष्य की प्रकृति को जगाता है, उस प्रकृति को जिसे साधारणतया लोग विस्मृत कर चुके होते हैं। यह वह पहलू है जिसके कारण क़ुरआन को चेतावनी और याददिहानी कहा जाता है। क़ुरआन ने इसी लिए स्वयं अपने को 'ज़िक्र' और 'तब्सिरा' (याददिहानी और आँख खोलनेवाली) की संज्ञा दी है। क़ुरआन की आयतों से ज्ञान ही को नहीं बल्कि विचार को भी सुदृढ़ता प्राप्त होती है जिसके कारण समस्त शंकाएँ एवं संदेह मिट जाते हैं। क़ुरआन यदि स्वयं को 'हुदा' (मार्गदर्शन), तिबयान (स्पष्ट करने वाला), हक़ (सत्य), बुरहान (प्रमाण), बसाइर (रौशनियाँ), नूर (प्रकाश), शिफ़ा (आरोग्य) आदि नामों से अभिव्यंजित करता है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

इससे ज्ञात होता है कि पैग़म्बर की शिक्षाओं में जिस चीज़ का महत्त्व है वह यह नहीं है कि लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया जाए और उन्हें चमत्कारों और अप्राकृतिक कृतियों का प्रेमी बना दिया जाए, और लोगों को अजूबापसंद बना दिया जाए कि वे केवल चमत्कारों और मोजिज़ों और अद्भुत प्रसंगों ही में रस लेने लगें। इसके विपरीत क़ुरआन और पैग़म्बरों की शिक्षाओं के अध्ययन से पता चलता है कि धर्म में जिस चीज़ को वास्तव में महत्त्व प्राप्त है वह यह है कि मनुष्य सत्य को इस तरह पा ले कि सत्य ही उसके जीवन की सबसे मूल्यवान और आकर्षक चीज़ बन जाए। वह हर प्रकार के विभ्रम, जड़ता, मूर्खता और अंधविश्वासों से मुक्त हो जाए। वह पूर्ण प्रकाश में जीवन व्यतीत करने लगे। जीवन के वास्तविक मर्म और आशय को वह जान ले। उसके मन में मलिनता, संदेह और किसी दुविधा के लिए कोई स्थान न रहे। उसे नैतिक एवं चारित्रिक शक्ति प्राप्त हो और उसका जीवन दूसरों के लिए एक आदर्श जीवन बन जाए। यह वह उपलब्धि है जिसके सामने किसी चमत्कार का कोई मूल्य नहीं।

पैग़म्बर का काम यह नहीं होता कि वह लोगों को चमत्कार दिखाए और मोजिज़ा पेश करे, बल्कि ईश्वर पैग़म्बर की नुबूवत की पुष्टि के लिए जब चाहता है मोजिज़ा दिखा देता है। जैसे, फ़िरऔन के समक्ष ईश्वर ने हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की पुष्टि के लिए दो बड़े चमत्कार दिखाए। एक यह कि हज़रत मूसा ने ईश्वर के आदेश से जब अपनी लाठी धरती पर डाल दी तो वह जीता जागता अजगर बन गई। दूसरा यह कि हज़रत मूसा ने जब अल्लाह के आदेश से अपना हाथ गिरेबान में डालकर निकाला तो वह बिना ख़राबी के चमकता हुआ निकला। इन ईश्वरीय चमत्कारों को फ़िरऔन ने जादू समझा, यह उसकी भूल थी। जब फ़िरऔन के बुलाए हुए जादूगरों ने मूसा (अलैहिस्सलाम) के चमत्कार को देखा तो वे पुकार उठे कि यह जादू नहीं है। मूसा (अलैहिस्सलाम) के माध्यम से दिखाए गए दोनों चमत्कार यह संकेत कर रहे थे कि ख़ुदा का पैग़म्बर जब लोगों के सामने ईश्वरीय संदेशवाहक बनकर आता है तो उसके साथ ईश्वर का समर्थन और उसकी शक्ति होती है। यह संकेत जीते-जागते अजगर से मिलता है। चमकते हुए हाथ का चमत्कार इस बात को दर्शाता है कि पैग़म्बर ऐसा प्रकाश लेकर आता है जिससे मानव-जीवन को अपना वास्तविक मार्ग मिल जाता है। वह मार्ग जो अंधकारमय नहीं होता बल्कि जो सीधा, सरल एवं मानव-प्रकृति के अत्यंत अनुकूल होता है, जिसके द्वारा जीवन को वह शैली मिल जाती है जिससे बढ़कर किसी मोहक शैली (Attractive Patern) की कल्पना नहीं की जा सकती। हम ऊपर बता चुके हैं कि मोजिज़ा दिखाना पैग़म्बर का नहीं बल्कि ईश्वर का कार्य होता है और मोजिज़े का प्रदर्शन नुबूवत की पुष्टि के लिए होता है। मोजिज़े इसलिए नहीं दिखाए जाते कि मोजिज़े की माँग करनेवाले मोजिज़ा देखकर ईमान लाएँगे, बल्कि अल्लाह अपनी निशानियाँ हुज्जत पूरी करने के लिए दिखाता है ताकि कल सत्य के विरोधी यह न कह सकें कि यदि हमें मोजिज़े के रूप में कोई निशानी दिखाई गई होती तो हम अवश्य ईमान लाते। ईश्वर चाहता है कि कोई क़ौम विनष्ट की जाए तो किसी और कारण से नहीं, बल्कि सरकशी और ढिठाई के कारण ही विनष्ट की जाए। इससे बढ़कर ढिठाई क्या होगी कि क़ौम की माँग पूरी करते हुए उसे मोजिज़ा दिखा दिया जाए, फिर भी वह सत्य की दुश्मनी से बाज़ न आए। मोजिज़ा देखने के बाद क़ौम या तो ईमान लाती है या उसे ईश्वरीय यातना में ग्रस्त होना पड़ता है। क़ुरआन में है—

"उनका कहना है कि इस नबी पर कोई फ़रिश्ता (खुले रूप में) क्यों नहीं उतारा गया? हालाँकि यदि हम फ़रिश्ता उतारते तो फ़ैसला हो चुका होता। फिर उन्हें कोई अवसर ही न मिलता।" (क़ुरआन, 6:8)

नबी स्वयं मोजिज़ा नहीं दिखा सकता। उसका कर्तव्य केवल यह होता है कि वह लोगों तक ईश्वर का संदेश पहुँचा दे। क़ुरआन में है—

"लोगों ने (रसूलों का इनकार करते हुए) कहा, तुम तो हमारे ही जैसे एक मनुष्य हो। चाहते हो कि हमें उनसे रोक दो जिनकी पूजा हमारे बाप-दादा करते आए हैं। अच्छा तो हमारे सामने कोई स्पष्ट प्रमाण (मोजिज़ा) ले आओ। उनके रसूलों ने उनसे कहा, हम तो वास्तव में बस तुम्हारे जैसे ही मनुष्य हैं, लेकिन ईश्वर अपने बंदों में से जिसपर चाहता है अनुग्रह करता है। और यह हमारा काम नहीं कि हम तुम्हारे सामने कोई खुला प्रमाण (मोजिज़ा) ले आएँ। यह तो बस ईश्वर के आदेश के पश्चात् ही संभव है, और अल्लाह ही पर ईमानवालों को भरोसा करना चाहिए।" (क़ुरआन, 14:10-11)

क़ुरआन की इन आयतों से भी मालूम होता है कि मोजिज़ा दिखाना पैग़म्बर का काम नहीं, बल्कि अल्लाह जब चाहता है अपने पैग़म्बर की पैग़म्बरी की पुष्टि के लिए मोजिज़ा दिखाता है। पैग़म्बरों ने मोजिज़ा दिखाने से दिलचस्पी नहीं ली। उनका संदेश तो यह रहा है कि लोग एकेश्वरवाद को स्वीकार करें, अर्थात् एक ईश्वर की बंदगी और शरण में अपने को अर्पित कर दें और एक ऐसे दिन के आने पर ईमान ले आएँ जब ईश्वर लोगों के चरित्र एवं कर्म के अनुसार यह निर्णय करेगा कि पारलौकिक जीवन में कहाँ (जन्नत या दोज़ख़ में) किसको रखा जाए। मोजिज़ा देखने के बाद भी यदि कोई क़ौम पैग़म्बर पर ईमान नहीं लाती तो यह इसका खुला प्रमाण होता है कि वह क़ौम सरकशी में हद से आगे बढ़ गई है और वह अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित कर रही है। खुली निशानी और मोजिज़े के प्रकट होने के पश्चात् क़ौमों के लिए सोचने-समझने का अवसर समाप्त हो जाता है। बड़े और निर्णायक मोजिज़े के लिए एक निश्चित समय होता है। और इतिहास यह बताता है कि मोजिज़ा देखने से पहले जो लोग ईमान नहीं लाते, कम ही ऐसा होता है कि वे मोजिज़ा देखने के बाद भी ईमान लाए हों। जिस तरह क़ियामत जैसे दिन को ईश्वर ने परोक्ष में छिपा रखा है उसी प्रकार मोजिज़े को भी ईश्वर छिपाए रखता है, यहाँ तक कि नबी को भी उसके प्रकट होने के समय का ज्ञान नहीं होता। क़ुरआन में है—

"वे कहते हैं कि उसपर (उस नबी पर) उसके प्रभु की ओर से कोई आयत (मोजिज़ा) क्यों नहीं उतरी? तो कह दो कि परोक्ष का मामला तो अल्लाह ही के हाथ में है। अच्छा तो प्रतीक्षा करो, मैं भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करता हूँ।" (क़ुरआन, 10 : 20)

ऐसा मोजिज़ा जो जीवन्त और सदैव शेष रहनेवाला हो, ज्ञानात्मक ही हो सकता है। और वह मोजिज़ा क़ुरआन के रूप में आज भी मौजूद है। दुनिया किसी पहलू से भी क़ुरआन जैसी वाणी पेश करने में असमर्थ है और सदैव असमर्थ रहेगी। क़ुरआन अत्यंत प्रभावशाली वाणी है और उसमें आत्मा को जागृत करने और हृदय के तार को झंकृत करने और हमारी बेहोशी को तोड़ देने की जो शक्ति पाई जाती है वह अद्वितीय है। मार्गदर्शन की दृष्टि से भी कोई किताब उसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। बड़े-बड़े विचारक और साहित्यकार क़ुरआन की शाब्दिक और अर्थ-संबंधी विशेषताओं और सौन्दर्य के अध्ययन में व्यस्त रहे, किन्तु वे क़ुरआन की विशेषताओं और उसके साहित्यिक लालित्य की भाव-अभिव्यंजना में असमर्थ रहे। क़ुरआन जो निमंत्रण देता है उसमें वह लोगों की बुद्धि, विवेक और उनकी सूक्ष्मदर्शिता और सौन्दर्य-बोध से ही अपील करता है। मोजिज़े का विषय तो गौण है। क़ुरआन चाहता है कि लोगों की बेहोशी टूटे और वे समता और विवेक को ही अपना आदर्श बनाएँ और किसी चमत्कार और मोजिज़े की प्रतीक्षा में पड़कर अपनी मानसिकता को पतन की ओर न ले जाएँ।

अवतारवाद की बात

नबी, रसूल या पैग़म्बर (ईशदूत) की धारणा यहूदियों और ईसाइयों में भी पाई जाती है। बनी-इसराईल (इसराईल की संतान) में बहुत-से नबी (Prophets) हुए हैं। और भारतीय धर्मों में भी नुबूवत की धारणा अवतारवाद के रूप में मिलती है। अवतारवाद का अर्थ साधारणतया यह समझा जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर, जब-जब धर्म को ग्लानि पहुँचती है या दुष्टों और अत्याचारियों को नष्ट करना होता है, तो ईश्वर स्वयं किसी रूप में प्रकट होता है। फिर अत्याचारियों का सर्वनाश करता है। लेकिन विचार करने से ज्ञात होता है कि अवतारवाद का यह विकृत अर्थ है। इसका वास्तविक अर्थ कुछ और होता है। 'अवतार' शब्द स्वयं बताता है कि इसका अर्थ स्वयं ईश्वर का धरती पर उतरना नहीं होता, बल्कि इसका वास्तविक अर्थ है— ईश्वर के द्वारा उतारा या भेजा गया। 'अवतार' शब्द 'अव' उपसर्ग के साथ 'तृ' धातु से 'धत्र' प्रत्यय के योग से बना है। अवतार शब्द का अर्थ है उतारा जाना। पाणिनि ने इस शब्द की व्याख्या में लिखा है— 'अवतरणं अवतारः' अर्थात् नीचे उतारा गया। [अष्टाध्यायी, 3-3-120,] डॉ० वेद प्रकाश उपाध्याय ने भी अपनी किताब 'कल्कि अवतार' में अवतारवाद के उस अर्थ का विरोध किया है जिसका प्रचलन सामान्यतया हिन्दू समाज में पाया जाता है। उन्होंने लिखा है, "अवतारवाद से अभिप्रेत यही है कि ईश्वर अपने दूत या पैग़म्बर लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजता है। इन पैग़म्बरों की अंतिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही हैं।"

ईश्वर के जो गुण माने जाते हैं, उदाहरणार्थ- सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अद्वितीय, सर्वाधार, करतार, नियन्त्रक, अगोचर आदि, इन गुणों को देखते हुए यह स्वीकार करना कि ईश्वर मनुष्य एवं सिंह आदि रूप में अवतार लेता है हास्यास्पद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ईश्वर यदि शरीर विशेष से अवतार धारण कर ले तो इसका अर्थ यह होगा कि वह सर्वव्यापक नहीं रहा और अपरिमित होने के उपरांत परिमित होकर रह गया। फिर एक देशवर्ती होने के कारण उसे सर्वज्ञ भी नहीं कहा जा सकेगा, फिर उसे हम अजन्मा कैसे कह सकेंगे। एक विचित्र बात यह है कि रामचन्द्र और परशुराम दोनों एक ही काल के अवतार माने जाते हैं, बल्कि दोनों ने परस्पर द्वंद-युद्ध भी करना चाहा। इसका अर्थ यह होता है कि दोनों में से किसी को यह पता न था कि वह जिससे युद्ध करने जा रहा है वह भी परमात्मा है। अतः प्रचलित अवतारवाद को बुद्धिगम्य और धर्मसंगत नहीं कहा जा सकता। यह बात तो ईश्वर की महानता के प्रतिकूल है कि उसे पूर्ण अवतार ही नहीं अंशावतार भी स्वीकार किया जाए। ईश्वर की सत्ता को खण्डित करने को दुस्साहस ही कहा जा सकता है।

ऐसा महसूस होता है कि जिस तरह भारतवर्ष में फ़रिश्तों की धारणा में बिगाड़ आया और उसने देवी-देवता का रूप ले लिया, उसी तरह नबी, रसूल और ईशदूत की धारणा विकृत हुई तो उसने अवतारवाद का प्रचलित रूप धारण कर लिया कि ईश्वर स्वयं मानव आदि रूप में प्रकट होता है। इस धारणा को स्वीकार करने से ईश्वर के प्रति विचार में जो ख़राबियाँ पैदा होती हैं उनकी ओर ध्यान नहीं दिया गया।

औतार (अवतार) शब्द को पैग़म्बर के अर्थ में विद्वानों ने प्रयोग किया है। महमूद ग़ज़नवी के सिक्के पर इस्लाम का मौलिक कलिमा (सूक्त)— ला इला-ह इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह (अल्लाह के अतिरिक्त कोई प्रभु पूज्य नहीं, मुहम्मद अल्लाह के पैग़म्बर हैं) का संस्कृत अनुवाद इस प्रकार अंकित है, ‘‘अव्यक्त एकम्, मुहम्मद औतारम्"। इस अनुवाद में अल्लाह के लिए अव्यक्त शब्द प्रयुक्त हुआ है और रसूल या पैग़म्बर के लिए पारिभाषिक शब्द औतार का प्रयोग किया गया है। अल्लाह के लिए अव्यक्त शब्द का प्रयोग भी बड़ा सार्थक है। इसलिए कि अल्लाह का एक अर्थ यह भी होता है— "वह सत्ता जो अत्यंत रहस्यमय हो।" और विदित है कि जो सत्ता रहस्यमय होगी वह अव्यक्त ही कही जाएगी। किसी नबी के लिए जो शब्द भी हम प्रयोग करेंगे जैसे, संदेशवाहक, दूत आदि, इस प्रकार के शब्द हल्के प्रतीत होते हैं। लगता है इसी लिए विद्वानों ने नबी या रसूल को औतारी पुरुष की संज्ञा देकर नबी शब्द के वास्तविक भाव को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया।

वेदों में परलोक और जन्नत व दोज़ख़ आदि की धारणा बहुत स्पष्ट रूप में पाई जाती है, जो क़ुरआन की शिक्षाओं से साम्य रखती है। संस्कृत के विद्वान दुर्गाशंकर सत्यार्थी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वेदों में रिसालत या पैग़म्बरी की धारणा विद्यमान है। इस संबंध में उन्होंने वेद के कई अंश उद्धृत किए हैं जो इस प्रकार हैं—

अग्निं दूतं वृणीमहे होतारम् विश्ववेदसम्। (ऋ० 1/4/12/1)

अर्थात् "(हम) अग्नि को दूत चुनते हैं, विश्व की वेदना को हवन करनेवाले को।"

सत्यार्थी जी लिखते हैं कि वेदों के कई श्लोकों से रिसालत की पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ—

ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम्॥ (ऋ० 1/12/4)

त्वामिदस्या उषसो व्युष्टिषु दूतं। (ऋ० 10/122/7)

त्वं दूतः प्रथमोवरेण्यः। (ऋ० 10/1/22/5)

शश्वत्तम मीळते दूत्याय। (ऋ० 10/70/3)

इन श्लोकों को उद्धृत करने के पश्चात् सत्यार्थी जी लिखते हैं कि—

“इस प्रकार के ढेर सारे श्लोक हैं। वेदों में 'दूत' शब्द बहुत कामन (Common) है। बहुत-सी जगहों पर आया है।"

वेदों के इस प्रकार के श्लोकों में दूत शब्द से अभिप्रेत पैग़म्बर होते हों या न होते हों, लेकिन यह एक बड़ी सच्चाई है कि ख़ुदा के पैग़म्बर (ईशदूत) विभिन्न देशों और युगों में आए हैं और उन्होंने लोगों तक सत्य-संदेश पहुँचाया है। पैग़म्बरों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं और आप संपूर्ण संसार के लिए पैग़म्बर और रसूल बनाकर भेजे गए हैं। क़ुरआन ने इसकी घोषणा कर दी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अंतिम नबी हैं, अब इनके पश्चात् कोई नबी नहीं आएगा। (क़ुरआन, 33:40)

अध्याय-7

वह चरित नायक

(हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)

जगत् और जीवन

ईश्वर के अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के व्यक्तित्व और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कामों के सर्वेक्षण से पहले एक बार हम फिर जगत् और जीवन पर विहंगम दृष्टि डाल लें। विज्ञान यह बताने की कोशिश करता है कि यह जगत् कैसे चल रहा है और इसमें कौन-से प्राकृतिक नियम (Natural Laws) काम कर रहे हैं। विज्ञान बताता है कि हम धरती की चीज़ों को किस प्रकार उपयोगी बना सकते हैं और आदमी अपने स्वास्थ्य को किस प्रकार ठीक रख सकता है। रोगों का उपचार कैसे किया जा सकता है। वायु मण्डल को दूषित होने से कैसे बचाया जा सकता है। अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए कैसे अस्त्र-शस्त्र का अन्वेषण किया जा सकता है। सुदूर के लोगों तक शीघ्र से शीघ्र सूचनाएँ कैसे भेजी जा सकती हैं। दूरगामी स्थानों तक कैसे जल्द-से जल्द पहुँच सकते हैं? इन समस्याओं को हल करने के लिए उसने टेलीग्राफ़, फ़ैक्स, इंटरनेट का अन्वेषण किया। वायुयान बनाए, तरह-तरह के हथियार, यहाँ तक कि एटम बम और हाईड्रोजन बम तक उसने बना लिए।

इस सबके बावजूद इन प्रश्नों के उत्तर देने में वह असफल है कि इस जीवन और जगत् का वास्तविक उद्देश्य क्या है? हम इस धरती पर किस लिए पैदा होते हैं? इस जीवन-यात्रा की मंज़िल क्या है? क्या मानव की नियती मात्र मृत्यु है? जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है जिसके पा लेने के प्रयास को परम कर्तव्य कहा जा सके? मानव-जीवन और जगत् को मनुष्य किस दृष्टि से देखे? क्या भौतिक दृष्टिकोण के अतिरिक्त कोई दृष्टिकोण और भी संभव है? इन प्रश्नों के उत्तर देने में विज्ञान असफल दिखाई देता है। ये मौलिक प्रश्न विज्ञान की परिधि के बाहर समझे जाते हैं। इन मौलिक और महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर पाने की आशा जिससे की जा सकती है वह धर्म है। लेकिन हम देखते हैं कि धर्म आज इन मौलिक प्रश्नों को हल करने के बजाय दूसरी चीज़ों में उलझकर रह गया है। सूत्र को सुलझाने के बजाय उसे और अधिक उलझा दिया है। धर्म सिर्फ़ एक होना चाहिए था, वह विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विभक्त होकर रह गया है। हालांकि कई धर्मों का होना स्वयं अधर्म है। मौलिक प्रश्नों के कई उत्तर नहीं हो सकते। सही उत्तर तो एक ही होगा और वह मानव की प्रतिष्ठा के अनुकूल होगा, वह न्याय और सत्य पर आधारित होगा। वह उत्तर ऐसा होगा जो सबके लिए स्वीकार्य हो सके। मानव-प्रकृति मूलतः एक है, मानवता के प्रश्न समान हैं। फिर उनके उत्तर अनेक कैसे हो सकते हैं?

ईश्वर ने हमारे लिए जीवन की समस्त सामग्री जुटाई है। धरती में मानव रह सके इसके लिए कितनी व्यापक व्यवस्था की गई है: धरती ग़ल्ला उगाती है, वर्षा से खेतों की सिंचाई होती है। सूर्य से हमें रात के बाद दिन ही नहीं प्राप्त होता बल्कि उसकी गर्मी से हमारी फ़स्लें तैयार होती हैं। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति हमें धरती में थामे रखती है। धरती की गतिशीलता से रात-दिन बनते हैं। रातें हमारे विश्राम के लिए और दिन काम के लिए होता है। इस प्रकार हम जगत् में ऐसी व्यापक व्यवस्था पाते हैं जिसके कारण धरती पर जीना संभव होता है। प्रश्न यह है कि जिस ईश्वर ने हमें जीवित रहने के लिए इतना सुनियोजित और सुव्यवस्थित प्रबंध किया है, क्या वह हमें यह बताए बिना छोड़ देगा कि उसने हमें यह जीवन किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रदान किया है? हमें इस जीवन में किस भूमिका का निर्वाह करना है? हमारे जीवन की संभावनाएँ क्या हैं? जीवित रहने से अधिक महत्त्व जीवन-लक्ष्य का होता है। आख़िर ईश्वर इस संबंध में हमारे मार्गदर्शन की व्यवस्था क्यों नहीं करेगा?

ईश्वरीय मार्गदर्शन

धरती पर मनुष्य एक बहुत बड़ी और रहस्यमय घटना है। जब ऐसी घटना संभव हो सकी तो फिर यह असंभव कैसे हो सकता है कि ईश्वर हमारा मार्गदर्शन भी करता चला आ रहा है। मनुष्य के मार्गदर्शन ही के लिए आरंभकाल से ईश्वर अपने संदेशवाहक भेजता रहा है जिनको हम नबी, पैग़म्बर या रसूल के नाम से जानते हैं। दुनिया में अनगिनत पैग़म्बर आए और उन्होंने अपने-अपने समय में मनुष्यों का मार्गदर्शन किया। पैग़म्बरों के द्वारा यह मार्गदर्शन चेतना के स्तर पर किया गया। इसके लिए ईश्वर ने वाणी अवतरित की और अपनी किताबें उतारीं। ईश्वर ने अपना संदेश मानवों ही की भाषा में मानवों तक पहुँचाया।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पहले की दुनिया

पैग़म्बरों में सबसे अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का पदार्पण हुआ। आपका पदार्पण ऐसे युग में हुआ जब धर्म एक पहेली बनकर रह गया था और नाना प्रकार की विकृतियाँ थीं जो धर्म के नाम से प्रचलित थीं। धर्म का अपना वास्तविक स्वरूप नष्ट हो चुका था। परस्पर विरोधी बातों के अतिरिक्त धर्म मात्र एक खेल-तमाशे की चीज़ बनकर रह गया था। तरह-तरह की कुरीतियों ने जन्म ले लिया था। कुछ ने तो ईश्वर के अस्तित्व और आत्मा ही का इनकार कर दिया था। कुछ की दृष्टि में धार्मिक एवं आध्यात्मिक उच्चता का अधिकार केवल उच्च कुल में जन्मे लोगों को प्राप्त था। कुछ लोग एकेश्वर के स्थान पर त्रिवाद में पड़ गए थे और पूजा और उपासना एक ईश्वर के अतिरिक्त अगणित देवी-देवताओं की होने लगी थी। बहुदेववाद ने अपनी जड़ें मज़बूत बना ली थीं। ईश्वर के अधिकार और उसके हक़ क्या होते हैं और इस सिलसिले में हमारा नैतिक कर्तव्य क्या होता है इसे विस्मृत कर दिया गया था। मानव-मानव के मध्य भेदभाव की दीवारें खड़ी कर दी गई थीं। स्त्रियों के साथ न्याय और सद्व्यवहार हो इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी जाती थी। बल्कि स्त्रियों को आदर की दृष्टि से देखा ही नहीं जाता था। धर्म में पुरोहितवाद (Priesthood) ने जन्म ले लिया था और एक वर्ग-विशेष धर्म का ठेकेदार बन गया था और यह धारणा बना ली गई थी कि पुरोहित के माध्यम के बिना ईश्वर को पाना संभव नहीं।

मुक्ति की धारणा भी स्पष्ट न थी। मानवों में एक समुदाय यह समझने लगा था कि मुक्ति और नजात (Salvation) केवल उसी के लिए है। धर्म अपनी सहजता और पवित्रता खो चुका था। धर्म में धर्म का वास्तविक भाव अर्थात् धार्मिकता शेष नहीं रह गई थी। बस कुछ भली-बुरी रीतियाँ थीं जिनके पालन का नाम धर्म रख लिया गया था। धार्मिक पेशवा सबसे बढ़कर अधर्म के कार्य में रत थे। दान के अधिकारी वही समझे जाते थे।

पारलौकिक जीवन के विषय में नाना प्रकार की धारणाएँ प्रचलित थीं जिनके उदाहरण आज भी देखे जा सकते हैं। धर्म ने पूर्ण रूप से ऐच्छिकवाद, स्वार्थपरता और भौतिकता का रूप धारण कर रखा था। धर्म ज्ञान के बजाय अज्ञान, बोध के बजाय अंधविश्वास होकर रह गया था। न उसमें सहज तर्क और विवेक की गुंजाइश थी और न उसमें सच्ची आध्यात्मिकता ही शेष रह गई थी। धर्म-मार्ग को जटिल से जटिल बना दिया गया था। शुष्कता ने पूर्ण रूप से धर्म को नितांत नीरस बनाकर रख दिया था। मन के कोमल और मधुर भाव खो गए थे। ईश-समर्पण और भक्ति के शब्द केवल किताबों के पन्नों में पाए जाते थे। व्यवहार से उनका संबंध शेष न था। धर्मगुरु और महान संत भी धर्म की वास्तविकता से नितांत अनभिज्ञ थे। इससे इनकार नहीं कि कुछ लोग धर्म के पारिभाषिक शब्दों के ज्ञाता अवश्य थे, किन्तु उन्हें धर्म की वास्तविकता का कुछ भी पता न था। जैसे अंधे को प्रकाश शब्द का ज्ञान तो हो किन्तु प्रकाश का उसे कभी अनुभव न हुआ हो। फिर कोई भी धर्म प्रामाणिक स्थिति में नहीं पाया जाता था। धर्मों में अनुचित मिश्रण और प्रक्षिप्त अंशों की भरमार थी, जिसमें सत्य गुम होकर रह गया था। ऐसा था वह अंधकारमय वातावरण जिसमें ईश्वर ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा, और आपकी ज़िम्मेदारी यह ठहराई कि आप केवल किसी जाति विशेष का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शन करें। उन्हें बताएँ कि जीवन का असल उद्देश्य और लक्ष्य क्या है? ईश्वर का उनके लिए क्या संदेश है? वे अपने जीवन को सफल कैसे बना सकते हैं? ईश्वर की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है?

व्यक्तित्व एवं कृतित्व की एक झलक

पैग़म्बरी के दायित्व के निर्वाह में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को हर प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लोग आपके शत्रु हो गए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लानेवालों को भी सताया गया। यहाँ तक कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मक्का, जो आपका जन्म स्थान था, छोड़कर मदीना में शरण लेनी पड़ी, किन्तु आप अपने कर्तव्य के पालन में निरंतर लगे रहे। इसमें संदेह नहीं कि आपको ईश्वर की ओर से महानता प्राप्त थी। आपका हृदय अत्यंत विशाल था। आप निर्मल और कोमल स्वभाव के थे। करुणा से आपका हृदय भरा हुआ था। ईश्वर आपका सहायक था। आपने जो महान कार्य किया, वह किसी आश्चर्य से कम नहीं।

किसी की महानता और उच्चता का अनुमान दो चीज़ों से किया जा सकता है; उनमें से एक है दानशीलता। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कहते हैं कि यदि उहुद पर्वत मेरे लिए सोना हो जाए तो भी मैं कभी यह पसंद नहीं करूँगा कि तीन दिन गुज़र जाएँ और एक दीनार (के बराबर क़ीमत का सोना) भी मेरे पास रहे, सिवाय उस दीनार के जिसे ऋण चुकाने के लिए मैं छोड़ दूँ।

संसार से प्रस्थान करने के समय की बात है कि घर में सोने का एक टुकड़ा था, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा, "उसको सदक़ा (दान) कर दो।" होश आता तो पूछते, "सदक़ा (दान) किया कि नहीं? मैं नहीं चाहता कि ईश्वर से इस दशा में मिलूँ कि मेरे घर में दुनिया पड़ी हो।"

आपकी सादगी का हाल यह था कि आपके पास एक ही जोड़ा कपड़ा था, और जिन कपड़ों में आपकी मृत्यु हुई उनमें ऊपर तले पैवन्द लगे हुए थे। घर में एक साधारण-सी चारपाई, चमड़े का मशकीज़ा (छोटा मशक) और थोड़े-से जौ के सिवा और कुछ न था। हालांकि उस समय 10 लाख वर्गमील पर आपको शासनाधिकार प्राप्त था और यमन से सीरिया तक फैले इस्लामी राज्य के आप शासक थे।

पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी पत्नियों के लिए जो कमरे बनवाए थे, वे कच्चे थे और ऊँचे इतने कि खड़ा होकर आदमी छत को छू सकता था। आगे चलकर उमवी वंश के ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक ने जब चाहा कि आपकी मसजिद का विस्तार करे तो इसके लिए इन कमरों का गिराना ज़रूरी था तो मदीनावासी रो पड़े। वे चाहते थे कि इन्हें बाक़ी रखा जाए; ताकि लोग देख सकें कि 10 लाख वर्ग मील के अधिक्षेत्र का शासक कैसा सादा जीवन गुज़ार गया। आपने कहा भी था कि "मैं तो बाँटनेवाला हूँ, देता अल्लाह है।"

दूसरी चीज़ जिससे किसी की महानता का अनुमान किया जा सकता है, वह है क्षमाशीलता का गुण। इस गुण से भी ईश्वर ने आपको पूर्णत: संपन्न किया था। ताइफ़ के लोगों ने आपका निरादर किया, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर पत्थर फेंके, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रक्तरंजित हो गए और ख़ून से आपके जूते भर गए, किन्तु आपने ताइफ़ के निवासियों के लिए प्रार्थना की तो यह कि "ऐ अल्लाह! इन्हें क्षमा कर दे, ये नादान हैं।"

आपकी क्षमाशीलता का प्रदर्शन विशेष रूप से उस समय भी देखने को मिलता है जब मक्का पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को विजय प्राप्त होती है। आपने मक्कावालों को क्षमा कर दिया और कहा कि जाओ, तुम स्वतंत्र हो। हालांकि ये वे लोग थे जिन्होंने आपको और आपके साथियों को सताने में कोई कमी नहीं की थी। यही लोग थे जिन्होंने आपको क़त्ल कर देने की पूरी तैयारी कर ली थी और आपकी हत्या करने के लिए आपके घर का घिराव कर लिया था। आपने अपनी जान के शत्रुओं को न केवल यह कि क्षमा कर दिया, बल्कि उन्हें सम्मानित भी किया।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज के अवसर पर अरफ़ात के मैदान में जो भाषण दिया था, उसमें आपने कहा था—

"लोगो! मेरा ख़याल है, मैं और तुम फिर कभी इस सभा में एकत्रित न हो सकेंगे। लोगो! तुम्हारे ख़ून, तुम्हारे माल और तुम्हारी प्रतिष्ठाएँ एक-दूसरे के लिए ऐसी ही आदरणीय हैं जैसे तुम आज के दिन का और इस नगर का आदर करते हो। लोगो! तुम्हें शीघ्र ही अपने प्रभु के समक्ष उपस्थित होना है और वह तुमसे तुम्हारे कर्मों के बारे में प्रश्न करेगा। सावधान! मेरे बाद पथभ्रष्ट न हो जाना कि एक-दूसरे की गर्दनें काटने लगो।

सुन लो! अज्ञानकाल की हर बात मैं अपने पैरों तले डालता हूँ। अज्ञानकाल के ख़ून के झगड़ों को निरस्त करता हूँ। पहला ख़ून जो मेरे ख़ानदान का है, इब्ने-रबिआ बिन-हारिस का ख़ून है जो बनी-साद में दूध पीता था और उसे हुज़ैल ने क़त्ल कर दिया था, मैं माफ़ करता हूँ।

अज्ञानकाल का ब्याज समाप्त कर दिया गया। पहला ब्याज अपने कुटुम्ब का मैं मिटाता हूँ। वह अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब का ब्याज है, वह सब का सब छोड़ दिया गया।

लोगो! अपनी पत्नियों के विषय में ईश्वर का डर रखो। ईश्वर के संरक्षण में तुमने उन्हें अपनी पत्नी बनाया है और ईश्वर के शब्द द्वारा तुमने उनसे शारीरिक संबंध को अपने लिए वैध किया है। तुम्हारा अधिकार स्त्रियों पर इतना है कि वे तुम्हारे बिस्तर पर ग़ैर को न आने दें। किन्तु वे ऐसा करें तो उनको बस ऐसी हलकी मार मार सकते हो जो स्पष्ट न हो। औरतों का हक़ तुमपर यह है कि तुम उन्हें रीति के अनुसार खिलाओ और कपड़े पहनाओ। लोगो! मैं तुममें वह चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ, जिसे यदि तुम मज़बूती से पकड़े रहोगे तो कदापि पथभ्रष्ट न होगे। वह है- अल्लाह की किताब (अर्थात् क़ुरआन)।

ऐ लोगो! न तो मेरे पश्चात् कोई पैग़म्बर है और न तुम्हारे पश्चात् कोई उम्मत। सुन लो! अपने रब की बंदगी करो। पाँचों समय की नमाज़ अदा करते रहो और एक महीने (रमज़ान) के रोज़े रखो। अपने माल की ज़कात स्वेच्छापूर्वक दिया करो और अपने अधिकारियों का आज्ञापालन करो और अपने रब की जन्नत में प्रवेश करो।

लोगो! क़ियामत के दिन तुमसे मेरे विषय में पूछा जाएगा, तो तुम क्या कहोगे?

लोगों ने कहा, हम इसकी गवाही देते हैं कि आपने ईश्वर के आदेश हम तक पहुँचा दिए हैं। आपने पैग़म्बरी का हक़ अदा कर दिया और आपने हितैषिता का हक़ पूरा अदा कर दिया। (अर्थात् आपने हमें खरा-खोटा सब कुछ बता दिया।)

आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी शहादत की उँगली (तर्जनी उंगली) को उठाया। इसके बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आकाश की ओर उँगली को उठाते, फिर लोगों की ओर झुकाते और कहते थे, ऐ अल्लाह! गवाह रहना, ऐ अल्लाह! गवाह रहना, ऐ अल्लाह! गवाह रहना। ऐसा आपने तीन बार किया।

देखो, जो लोग उपस्थित हैं, वे उन लोगों तक जो उपस्थित नहीं हैं, संदेश पहुँचा दें। संभव है कि तुममें से कितने ही सुननेवालों से कतिपय वे लोग इस बात के अधिक संरक्षक सिद्ध हों जिन तक यह संदेश पहुँचाया जाए।"

अध्याय-8

मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नुबूवत के स्पष्ट प्रमाण

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईश्वर के नबी थे और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नबियों की श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर नुबूवत का सिलसिला समाप्त हो गया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने के अगणित प्रमाण हैं। आपके जीवन का हर क्षण और आपका अस्तित्व सर्वथा गवाही देता है कि यदि आपने नुबूवत की घोषणा की है तो इस घोषणा में आप अनिवार्यतः सच्चे हैं।

कोई कह सकता है कि संभव है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को नबी होने का भ्रम हो गया हो और वास्तव में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को नुबूवत प्रदान न की गई हो। तो इस सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि नुबूवत अपनी सच्चाई का स्वयं प्रमाण होती है। प्रमाण की आवश्यकता तो वहाँ पेश आती है जहाँ किसी प्रकार का संदेह होता हो, या किसी चीज़ के ग़लत होने की संभावना पाई जाती हो। जिन शक्तियों एवं क्षमताओं से हम काम लेते हैं उनपर विश्वास करने के लिए स्वयं वे क्षमताएँ ही पर्याप्त होती हैं। उन्हें मानने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे अपना प्रमाण स्वयं हैं। ठीक यही स्थिति नबी की होती है। जो चीज़ उसे पेश आती है और जिसका उसे अनुभव होता है उसपर विश्वास करने के लिए किसी बाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। वह्य (प्रकाशना) चाहे स्वप्न के रूप में हो या जागृत अवस्था में उसपर अवतरित हो, वह किसी संदेह के बिना पहचान लेता है। वह उस स्वप्न को भी जानता है जो मात्र ख़याल होता है, प्रकाशना नहीं होती। स्वप्न के माध्यम से किसी परोक्ष बात की सूचना का द्वार उसके लिए भी खुला हुआ है जो नबी नहीं है। और यह इसलिए कि जाननेवाले जान लें कि भौतिक संसाधनों के अतिरिक्त भी ज्ञान का कोई साधन संभव है। इसलिए नबियों की प्रकाशना (Revelation) पर विश्वास न करने का कोई उचित कारण नहीं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन

नबियों का जीवन चरित्र की दृष्टि से निष्कलंक होता है। उनके जीवन में झूठ, मक्कारी, छल-कपट और इस प्रकार की कोई दूसरी चीज़ नहीं पाई जाती। ईश्वर के अंतिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को 40 वर्ष की अवस्था में पैग़म्बरी मिली। 40 वर्ष का आपका यह जीवन खुली किताब की तरह लोगों के सामने रहा है। लोगों को आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर पूरा भरोसा था। वे जानते थे कि इस व्यक्ति ने किसी भी मामले में, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, छल-कपट से काम नहीं लिया और न कभी किसी को धोखा दिया, और न ही किसी षड्यंत्र में सम्मिलित हुआ। फिर यह कैसे हो सकता है कि ऐसा सच्चा व्यक्ति जिसने कभी कोई ग़लत बात ज़बान पर न आने दी हो, वह सहसा एक झूठ लेकर खड़ा हो जाए, और झूठ भी इतना बड़ा कि उससे बड़ा झूठ संभव नहीं कि वह ईश्वर के नबी होने का दावा कर दे, हालांकि वह ईश्वर का भेजा हुआ नबी न हो। वह ईश्वर से संबद्ध करके लोगों को ज्ञान, सभ्यता आदि की शिक्षा देने लगे और यह कहे कि ये शिक्षाएँ उसके मन की उपज नहीं, बल्कि ईश्वर की ओर से अवतरित हुई हैं। फिर एक और पहलू से देखें, पूरे 40 वर्ष के जीवन में आपने कहीं से कोई शिक्षा नहीं पाई और न कहीं से कोई ऐतिहासिक जानकारियाँ प्राप्त कीं। फिर यह कैसे संभव हुआ कि सहसा ज्ञान और तत्त्वदर्शिता के स्रोत फूट पड़े और एक ऐसा अशिक्षित व्यक्ति जीवन की जटिल-से-जटिल समस्याओं की गुत्थियाँ सुलझाने लगता है और लोगों को आचार, विचार और नागरिकता आदि की शिक्षा देने लगता है। और कहता है कि मैं यह सारा काम ईश्वर की ओर से और उसके प्रदान किए हुए प्रकाश में कर रहा हूँ। विरोधियों ने कहा: कोई है जो इस व्यक्ति को ये सारी बातें सिखाता है। लेकिन इस बात के झूठ होने में किसी को संदेह नहीं हो सकता, क्योंकि अरब में कोई ऐसी योग्यता का व्यक्ति था ही नहीं जिसके बारे में यह कहा जा सके कि जिस कलाम (वाणी) को मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईश्वरीय वाणी कहकर प्रस्तुत कर रहे हैं वह उसी की कृति है। एक दीर्घकाल बीत गया लेकिन इस योग्यता का व्यक्ति आज तक अरब क्या पूरी दुनिया में पैदा न हो सका, जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पेश किए हुए कलाम (क़ुरआन) के सदृश कोई कृति पेश कर सके।

नबी की निःस्वार्थता

फिर आप जानते हैं कि छल-कपट करनेवाले के समक्ष सदैव कोई सांसारिक लाभ होता है। उसी लाभ के लिए वह छलछंद करता और झूठा दावा करता है। लेकिन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन में कहीं भी इसका कोई संकेत नहीं मिलता। बल्कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने वारिसों के लिए भी कोई ऐसा उपाय करने का प्रयास नहीं किया जो उनके भौतिक हित के लिए लाभदायक हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हर पहलू से निःस्वार्थ होकर उस काम में लगे रहे जिस काम पर ईश्वर ने आपको नियुक्त किया था। आपने इसकी घोषणा भी कर दी थी कि "नबी का कोई वारिस नहीं होता। वह जो कुछ छोड़ता है, वह मुस्लिम ग़रीबों और मोहताजों में वितरित किया जाता है।" (हदीस : मुसनद अहमद)

क़ुरआन में भी इसका उल्लेख हुआ है कि हर पैग़म्बर ने अपनी क़ौम से स्पष्ट शब्दों में कहा था—

"मैं तुमसे कोई पारिश्रमिक नहीं माँगता, मेरा पारिश्रमिक तो केवल सम्पूर्ण संसार के प्रभु के ज़िम्मे है। बस ईश्वर का डर रखो और मेरी आज्ञा का पालन करो।" (क़ुरआन, 26:109)

नबियों की निःस्वार्थता इतनी अधिक स्पष्ट है कि कोई उनपर यह इलज़ाम नहीं लगा सकता कि वे किसी स्वार्थ और व्यक्तिगत उद्देश्य के लिए परिश्रम करते और दुख उठाते रहे हैं। नुबूवत के दावे से पहले हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को क़ौम आदर की दृष्टि से देखती थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने बाल-बच्चों में हँसी-ख़ुशी से दिन गुज़ार रहे थे। लेकिन नुबूवत की घोषणा के पश्चात् संपूर्ण अरब आपका शत्रु हो जाता है और आपके अपने ही लोग आपके ख़ून के प्यासे हो जाते हैं। एक व्यक्ति जो स्वार्थी और भौतिकवादी हो ऐसी ग़लती कभी नहीं कर सकता कि अकारण ही सबको अपना शत्रु बना ले और अपनी सुख-शांति को स्वयं ही नष्ट कर दे। झूठे और स्वार्थी व्यक्ति को सत्य-असत्य से कोई प्रयोजन नहीं होता, उसके समक्ष तो केवल अपना हित होता है। वह क़ौम की भावनाओं को आघात नहीं पहुँचा सकता, भले ही वे भावनाएँ ग़लत ही क्यों न हों। उसे तो केवल अपना काम निकालना होता है। वह इसके लिए हर प्रकार के जोड़-तोड़ कर सकता है। यह नहीं हो सकता कि उसके समक्ष तो केवल सांसारिक लाभ और सुख हो और नीति ऐसी अपनाए जिससे कठिनाइयाँ और परेशानियाँ ही बढ़ती जाएँ। सांसारिक लाभ तो अलग रहा, उसका अपना जीवन ही ख़तरे में पड़ जाए।

संसार की बड़ी-बड़ी विभूतियाँ साधारणतया उस वातावरण की देन होती हैं जिसमें वे जन्म लेती हैं। किसी व्यक्तित्व के बनाने या बिगाड़ने में वातावरण और परिस्थितियों का बड़ा हाथ होता है। किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति का सर्वेक्षण करके यह दिखाया जा सकता है कि उसके व्यक्तित्व के निर्माण में उसके वातावरण में अवस्थित किन-किन चीज़ों का कितना हिस्सा है। किन्तु हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के व्यक्तित्व का कमाल यह है कि वातावरण में हम उन तत्त्वों का स्रोत तलाश नहीं कर सकते जिन तत्त्वों से आपके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है और जो आपके व्यक्तित्व में परिलक्षित होती हैं। अरब ही नहीं, उन देशों और उनके समाज में से कहीं से भी वे तत्त्व खोजकर नहीं लाए जा सकते जिन देशों से अरबों के संबंध रहे हैं।

हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) का विस्तृत वृत्तांत प्रस्तुत करने के पश्चात् कहा गया है—

"ये परोक्ष की ख़बरें हैं जिनकी प्रकाशना हम तुम्हारी ओर कर रहे हैं। इससे पहले न तुम्हें इनकी ख़बर थी, न तुम्हारी क़ौम को।" (क़ुरआन, 11:49)

इसी प्रकार अन्य बहुत-से पैग़म्बरों और उनकी क़ौमों के वृत्तांत क़ुरआन में वर्णित हुए हैं। उन घटनाओं की वास्तविकता को भी पूर्णतः स्पष्ट किया गया है जिनका संबंध बनी-इसराईल के इतिहास से है और जिनके विषय में स्वयं बनी इसराईल के विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। [देखें क़ुरआन की सूरा 27 का प्रारम्भिक भाग] यदि क़ुरआन ईशवाणी नहीं है तो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को विभिन्न क़ौमों और उनके वृत्तांत का ज्ञान कहाँ से हुआ जो आपने क़ुरआन की सूरतों और आयतों में पेश किया है? ऐसी घटनाएँ जिनको घटित हुए सैकड़ों और हज़ारों वर्ष हो चुके हैं, उनका ज्ञान आपको कहाँ से हुआ, जबकि आप पढ़े-लिखे भी न थे? क़ुरआन में इसका जवाब दिया गया है। उदाहरणार्थ हज़रत ईसा मसीह की माता मरियम और उनके पुत्र के जन्मादि के वृत्तांत को प्रस्तुत करने के पश्चात् कहा गया है—

“यह परोक्ष की सूचनाओं में से है जिसकी प्रकाशना हम तुम्हारी ओर कर रहे हैं। तुम तो उनके पास नहीं थे जब वे (उपासनागृह के सेवक) अपनी क़लमों को फेंक रहे थे कि उनमें से कौन मरियम का संरक्षक बने। और न तुम उस समय उनके पास थे जब वे झगड़ रहे थे।" (क़ुरआन, 3:44)

क़ुरआन में पैग़म्बर हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के विस्तृत वृत्तांत को प्रस्तुत करने के पश्चात् कहा गया है—

"ये परोक्ष की ख़बरें हैं जिनकी हम तुम्हारी ओर प्रकाशना कर रहे हैं। तुम तो (ऐ मुहम्मद!) उनके पास नहीं थे, जब उन्होंने (यूसुफ़ के भाइयों ने) अपने मामले को पक्का करके षड्यंत्र किया था।" (क़ुरआन, 12 : 102)

यह कैसे संभव हुआ

क़ुरआन में आसमानी किताबों (क़ुरआन से पूर्व के ईश्वरीय ग्रंथ) की शिक्षाओं, नबियों के वृत्तांत, विभिन्न जातियों के धर्मों और उनके विचारों का वर्णन और प्राचीन क़ौमों का इतिहास तो मिलता ही है, इसके अतिरिक्त इसमें नैतिकता, संस्कृति, अर्थ और राजनीति आदि की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के संबंध में जिस व्यापक और गंभीर और गहरे ज्ञान का प्रदर्शन हुआ है, उसका स्रोत प्रकाशना के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता। क़ुरआन में प्राचीन क़ौमों के जो वृत्तांत वर्णित हुए हैं, प्राच्यविदों (Orientalists) ने उनकी खोज की है कि ये चीज़ें किन पुस्तकों या प्राचीन दस्तावेज़ों में मिलती हैं। उन्होंने जिन किताबों और स्रोतों की खोज की है उन तक तो अरबों की पहुँच ही न थी। उन्होंने इस सिलसिले में जिन किताबों और स्रोतों का उल्लेख किया है उनमें इबरानी (Hebrew), सुर्यानी और यूनानी पुस्तकें सम्मिलित हैं। अब सोचिए हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास अनुवादकों का दल कहाँ था जो उन किताबों के विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक तथ्यों से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अवगत कराता। मक्का नगर में ऐसा कोई पुस्तकालय भी न था जिससे इस सिलसिले में फ़ायदा उठाया जा सकता। इसमें संदेह नहीं कि आपने नुबूवत से पहले व्यापार के सिलसिले में अरब से बाहर का भी सफ़र किया था, किन्तु इसका कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आपने बाहर जाकर विभिन्न पुस्तकालयों की सैर करने के लिए समय निकाला हो और वहाँ से ऐतिहासिक और धार्मिक जानकारियाँ प्राप्त की हों और उनके आधार पर अपनी नुबूवत का कारोबार चलाया हो।

फिर हम देखते हैं कि नुबूवत से एक पल भी पहले आपसे कोई ऐसी बात सुनने को नहीं मिली जिससे यह समझा जा सके कि आप पहले से ही विगत नबियों और विभिन्न जातियों के वृत्तांत से परिचित थे। अपने व्यापारिक सफ़रों में यदि आपने किसी ईसाई संत या यहूदी धर्माचारी से ऐतिहासिक एवं धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया होता तो जिस समय आपने अपने नबी होने का दावा किया तो ईसाई और यहूदी दुनिया चुप नहीं रह सकती थी। वह तो यही कहती कि हज़रत मुहम्मद संपूर्ण ज्ञान हमारे यहाँ से बटोरकर ले गए हैं।

फिर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नुबूवत का यह भी खुला प्रमाण है कि आपने अशिक्षित होते हुए पिछली तमाम आसमानी किताबों का निचोड़ और सार संसार के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने न केवल यह कि मानव के मार्गदर्शन के लिए जो कुछ भी सामग्री उन किताबों में थी सबको एकत्र कर दिया, बल्कि उनकी व्याख्या भी की। उन किताबों में जो क्षेपक पाया जाता था और उनमें स्वार्थवश लोगों ने जो अनुचित परिवर्तन कर दिए थे उन सब चीज़ों को आपने स्पष्ट किया। क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति का कार्य हो सकता है जो एक मरुस्थल निवासी हो और संसार में पाए जानेवाले धर्मों और दर्शनों से उसका कोई नाता भी न रहा हो? क़ुरआन में है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विरोधी कहते हैं—

“'यह अपने रब की ओर से हमारे पास कोई निशानी क्यों नहीं लाता?' क्या उनके पास अगली आसमानी किताबों की शिक्षाओं का स्पष्ट प्रमाण नहीं आ गया?" (क़ुरआन, 20 : 133)

अर्थात् क्या यह किसी प्रमाण और निशानी से कम है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लोगों के समक्ष पिछली किताबों की शिक्षाओं को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर दिया! क्या यह काम किसी ऐसे व्यक्ति के लिए संभव था जो ईश्वरीय धर्मग्रंथों (Scriptures) से अनभिज्ञ हो और जिसने कभी भी अपना समय धर्म-गुरुओं के साथ न गुज़ारा हो, फिर वह अचानक संसार को धर्म की उच्च शिक्षा देने लगा हो और पिछली धार्मिक किताबों और पिछले पैग़म्बरों के संबंध में ऐसी सूचनाएँ देने लगा हो जो सत्य और हृदय-स्पर्शी प्रतीत होती हों? हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नबी होने के बाद जो महान कार्य करके दिखाया और जिस ज्ञान से दुनिया को परिचित कराया वह नुबूवत का पद-संबंधी कार्य भी है और अपने आप में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नुबूवत का खुला प्रमाण भी।

मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की परीक्षा

फिर हम देखते हैं कि मक्का के कुछ विरोधियों ने यहूदियों के कहने पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की परीक्षा लेने के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा कि बनी इसराईल के मिस्र जाने का कारण क्या था? अरब के लोग ऐसे इतिहास से बिलकुल अपरिचित थे। इसी लिए उनके यहाँ कोई उल्लेख नहीं पाया जाता था और स्वयं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुख से भी इससे पहले यह क़िस्सा नहीं सुना गया था। वे समझते थे कि इस प्रश्न का उत्तर देना आपके लिए संभव नहीं और आप अपनी विवशता प्रकट करेंगे और फिर वे कह सकेंगे कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईश्वर के पैग़म्बर नहीं हैं। किन्तु हुआ यह कि यह प्रश्न करके वे अपने उद्देश्य में असफल ही रहे। ईश्वर ने उनके प्रश्न के उत्तर में एक पूरी सूरा, सूरा-12 यूसुफ़, अवतरित कर दी और हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के क़िस्से के माध्यम से मक्कावालों पर यह स्पष्ट कर दिया कि वे हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ जो दुर्व्यवहार कर रहे हैं उसी प्रकार का दुर्व्यवहार हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के भाइयों ने भी हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के साथ किया था। हज़रत यूसुफ़ को ईश्वर ने उच्चता प्रदान की और अंततः उनके भाइयों को उनके समक्ष लज्जित होना पड़ा।

इसी प्रकार क़ुरआन की सूरा-18 अल-कह्फ़ मक्का के बहुदेववादियों के तीन प्रश्नों के उत्तर में अवतरित हुई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की परीक्षा लेने के लिए मक्का के बहुदेववादियों ने यहूदियों और ईसाइयों के परामर्श से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से तीन प्रश्न किए। इन तीनों ही प्रश्नों का संबंध यहूदियों के इतिहास से था। उनके प्रश्न ये थे—

कह्फ़ (गुफा) वाले कौन थे?

ज़ुलकरनैन कौन था? उसका वृत्तांत क्या है?

और ख़िज़्र का क़िस्सा क्या है?

ये प्रश्न करके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विरोधी या यहूदी यह समझते थे कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकते। इस प्रकार लोगों पर यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास ज्ञान का कोई अलौकिक स्रोत नहीं है। इसलिए नबी होने का आपका दावा निराधार है। किन्तु उनकी आशा के विपरीत ईश्वर ने एक लम्बी सूरा 18 अल-कह्फ़ उतार दी और क़ुरैश के पूछे गए तीनों प्रश्नों के उत्तर दे दिए गए। और इस तरह आपके सच्चे पैग़म्बर होने का एक ज्वलंत प्रमाण विरोधियों के प्रश्न ने जुटा दिया।

क़ुरआन में जो भविष्यवाणियाँ की गई हैं वे भी इस बात की प्रमाण हैं कि ऐसी भविष्यवाणियाँ वही व्यक्ति कर सकता है जिसके पास ज्ञान का कोई विश्वसनीय स्रोत हो, अर्थात् जिसे ईश्वर सत्य से अवगत करा रहा हो। केवल अटकल और अनुमान से भविष्य में घटित होनेवाली घटनाओं के विषय में यक़ीन के साथ कुछ कहकर कोई भी समझदार व्यक्ति अपने सिर ख़तरा मोल नहीं ले सकता, इसलिए कि अगर अटकल और अनुमान के विपरीत बात सामने आती है तो फिर यह दावा ग़लत ठहरेगा कि जो कुछ कहा गया है वह पैग़म्बर ने ईश्वर की ओर से कहा है, और ईश्वर की ओर से दी गई सूचना ग़लत कैसे हो सकती है। क़ुरआन ने जो भविष्यवाणियाँ की थीं, वे सब सत्य सिद्ध हुईं। उदाहरणार्थ- क़ुरआन ने कहा था रोम (रूम) जो ईरानियों के मुक़ाबले में परास्त हुआ है, वह कुछ ही वर्षों में प्रभुत्वशाली होकर रहेगा। यह भविष्यवाणी अक्षरशः पूरी हुई। हालाँकि जिन परिस्थितियों में यह भविष्यवाणी की गई थी, रोम के पुनः उभरने और विजयी होने के दूर-दूर तक कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। एडवर्ड गिब्बन (Edward Gibbon) जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार ने भी अपनी किताब The History of the Decline and Fall of the Roman Empire." में इसे स्वीकार किया है।

एक ख़ास पहलू

एक और पहलू से देखें। पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। कठिन से कठिन परिस्थितियों से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) गुज़रे। ऐसी परिस्थितियों में बड़े-से-बड़े व्यक्ति के यहाँ भी कुछ-न-कुछ कड़वाहट का प्रभाव अवश्य पाया जाता है, और यह स्वाभाविक बात है। ख़ुद अपनी इज़्ज़त और मर्यादाओं पर यदि आक्रमण हो रहा हो तो आदमी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। किन्तु हम देखते हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जो क़ुरआन ईश्वरीय वाणी के रूप में पेश कर रहे थे, वह ऐसी कड़वाहटों और प्रतिक्रियाओं से मुक्त है। उसमें कहीं भी झुंझलाहट या किसी प्रकार की मानसिक दुर्बलता खोजी नहीं जा सकती। यह स्वयं अपने आप में खुला प्रमाण है कि क़ुरआन मानव की रचना नहीं हो सकता, बल्कि वह सारे संसार के प्रभु ईश्वर की वाणी है और यह (क़ुरआन) स्पष्ट प्रमाण है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक सच्चे पैग़म्बर हैं, क्योंकि ईश्वरीय वाणी पैग़म्बर पर ही अवतरित होती है।

नबियों की चेतावनी

नबियों की सच्चाई की एक महत्त्वपूर्ण दलील यह रही है कि जब क़ौमों की सरकशी हद से बढ़ गई, यहाँ तक कि वे अपने नबियों से ईश्वरीय यातना की माँग करने लगीं तो नबियों ने उन्हें सूचित किया कि वे शीघ्र ही ईश्वरीय यातना में ग्रस्त होनेवाली हैं, बस थोड़ा और सुख भोग लें, वे ईश्वरीय प्रकोप से बच नहीं सकतीं। हम देखते हैं कि नबियों की सूचना के अनुसार वे क़ौमें तबाह कर दी गईं। हालांकि जब नबियों ने किसी क़ौम को उसकी तबाही की सूचना दी तो उस समय उस क़ौम में दैवी आपदा के कोई चिह्न दिखाई नहीं दे रहे थे। क़ुरआन में इसके कई उदाहरण दिए गए हैं।

यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि ईश्वर की अवज्ञा करने और सरकशी की नीति अपनाने पर आख़िर आज क्यों ख़ुदा का अज़ाब नहीं उतरता? इसका जवाब यह है कि पैग़म्बर की मौजूदगी में उसके और उसके संदेश के इनकार की संगीनी हद दर्जा बढ़ी हुई होती है। इसलिए कि सीधे उसका विरोध करने और उसके संदेश को रद्द करने, उसे सताने और उसके अस्तित्व को ही सहन न करने और उससे ईश्वरीय यातना की माँग करने के अपराध में और उस अपराध में मौलिक अंतर पाया जाता है जो उस समय किया जाए जब पैग़म्बर मौजूद न हो या सीधे क़ौम को संबोधित न कर रहा हो या प्रत्यक्षतः उसके व्यक्तित्व को निशाना न बनाया जा रहा हो। यही कारण है कि नबी के पश्चात् के लोगों को या उन क़ौमों को जिनसे प्रत्यक्षतः नबी ने संबोधन न किया हो, अधिक-से-अधिक मोहलत या सँभलने का अवसर मिलता है। और वे संसार में यातना और दण्ड से बच भी जाते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि उनकी कभी पकड़ ही न होगी। किसी व्यक्ति व जाति की सज़ा के लिए परलोक की यातना पर्याप्त है।

फिर यातना या अज़ाब के विभिन्न रूप होते हैं। किसी क़ौम को जीवित तो रहने दिया जाए किन्तु उसकी हैसियत एक पतित क़ौम की बना दी जाए, क्या यह किसी अज़ाब से कम है? कोई क़ौम सत्य के प्रकाश से वंचित रहकर जानवरों की तरह जी रही हो और वह जीवन के उच्चतम मूल्यों से अपरिचित ही रहे, क्या यह कोई साधारण दण्ड है? फिर ऐसा भी नहीं है कि क़ौमों पर अज़ाब आना बंद हो गया है। अब भी क़ौमों पर अज़ाब आते ही रहते हैं। ये अज़ाब छोटे भी होते हैं, बड़े भी। छोटे अज़ाब साधारणतया चेतावनी के लिए होते हैं और बड़े अज़ाब निर्णायक होते हैं। किन्तु इसकी ओर ध्यान दिलानेवाले लोग नहीं हैं जो यह बताएँ कि संसार में केवल प्राकृतिक नियम (Law of Nature) ही कार्यान्वित नहीं है, बल्कि यहाँ नैतिक क़ानून भी क्रियाशील है। यदि थोड़ा भी विचार किया जाए तो स्पष्टतः पाएँगे कि यहाँ दुख और आपदाओं के पीछे केवल प्राकृतिक नियम ही नहीं बल्कि नैतिक नियम भी कार्यान्वित दिखाई देते हैं। दैविक आपदाओं और यातनाओं का सर्वेक्षण करनेवाले उसके कारण की खोज सामान्यतः प्राकृतिक नियमों ही में करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि कोई ईश्वर भी है जो अत्याचारी व्यक्तियों और ज़ालिम क़ौमों को विभिन्न तरीक़ों से चेतावनी देता है। कभी एड्स आदि असाध्य रोगों के रूप में, कभी अशांति और भयानक युद्धों के रूप में यह चेतावनी दी जाती है। और कभी तो चेतावनी ही नहीं, बल्कि नगर-के-नगर विनष्ट कर दिए जाते हैं और उनके नामो-निशान तक मिट जाते हैं; यदि कुछ अवशेष रहते हैं तो केवल इसलिए कि लोग उनसे शिक्षा ग्रहण करें।

रोम-राज्य का नगर पोम्पीआई (Pompeii) लैंगिक दुराचार में ग्रस्त था। उसका परिणाम वही हुआ जो लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का हुआ था। ज्वालामुखी पर्वत से निकलनेवाले लावे और आग ने नगरवासियों को अपनी लपेट में ले लिया। यह तबाही दिन में अचानक उस समय आई जब नगर में पूरी तरह चहल-पहल थी। यह नगर गुनाह और व्यभिचार का केन्द्र बना हुआ था। लोग मस्ती में इतने डूबे हुए थे कि ज्वालामुखी का शोर सुनकर भी किसी ने वहाँ से पलायन न किया। एक परिवार के लोग भोजन कर रहे थे, वे उसी दशा में पत्थर बन गए। लावे से पथरा जानेवाले (Fossil) अधिकतर जोड़े संभोग-क्रिया में व्यस्त थे और अधिकतर जोड़े समलैंगिक थे। उन जोड़ों में अधिसंख्या युवा और युवतियों की पाई गई है। खुदाइयों में जो प्राप्त पथरा जानेवाले या अश्मिभूत चेहरे मिले हैं, उन चेहरों से घबराहट और बौखलाहट ज़ाहिर होती है। ऐसा लगता है कि वे लोग सहसा आपदा में ग्रस्त हुए हैं। इस तरह की तबाही को क़ुरआन ने अचानक आनेवाली आपदा कहा है। क़ुरआन में एक जगह आया है—

"उसके पश्चात् उसकी (अत्याचारी) क़ौम पर हमने आकाश से कोई सेना नहीं उतारी, और हम इस तरह उतारा भी नहीं करते। वह तो केवल एक प्रचण्ड चिंघाड़ थी, तो सहसा क्या देखते हैं कि वे बुझकर रह गए।" (क़ुरआन, 36: 28-29)

अध्याय-9

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की विशिष्टताएँ

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दूसरे नबियों की तरह ही ख़ुदा के भेजे हुए नबी थे, किन्तु कुछ विशिष्टताएँ आपको ईश्वर ने ऐसी प्रदान की थीं जो किसी और नबी को प्रदान नहीं कीं। उनमें से कुछ विशिष्टताओं का उल्लेख हम यहाँ करना चाहेंगे।

सम्पूर्ण संसार के लिए

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सम्पूर्ण संसार के लिए नबी बनाकर भेजे गए थे। आपकी पैग़म्बरी केवल अरब जाति तक सीमित नहीं है, बल्कि सारे संसार की क़ौमों के आप पैग़म्बर हैं। क़ुरआन में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है—

“बड़ी बरकतवाला है वह (ईश्वर), जिसने यह फ़ुरक़ान (सत्य-असत्य में अंतर स्पष्ट करनेवाला क़ुरआन) अपने बंदे पर अवतरित किया ताकि वह संपूर्ण संसार के लिए सावधान करनेवाला हो।" (क़ुरआन, 25:1)

और कहा—

“वह (क़ुरआन) तो सारे संसार के लिए बस एक याददिहानी है।" (क़ुरआन, 81:27)

दूसरी जगह कहा गया है—

"कह दो, ऐ लोगो! मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का रसूल हूँ जो आकाशों और धरती के राज्यों का स्वामी है।" (क़ुरआन, 7 : 158)

एक और स्थान पर कहा गया है—

"(ऐ नबी!) हमने तुम्हें मानवों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और (इसपर) अल्लाह का गवाह होना काफ़ी है।" (क़ुरआन, 4:79)

एक जगह और कहा गया है—

"(ऐ नबी!) हमने तो तुम्हें सारे ही मनुष्यों के लिए शुभ-सूचना देनेवाला और सावधान करनेवाला बनाकर भेजा, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।" (क़ुरआन, 34:28)

एक अन्य स्थान पर कहा गया—

“(ऐ मुहम्मद!) हमने तुम्हें सम्पूर्ण संसार के लिए रहमत बनाकर भेजा है।" (क़ुरआन, 21:107)

क़ुरआन के अतिरिक्त स्वयं हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी कहा है कि उन्हें समस्त मानवों के लिए नबी बनाकर भेजा गया है। आपका कथन है—

"मैं काले और गोरे सबकी ओर नबी बनाकर भेजा गया हूँ।" (हदीस : मुसनद अहमद)

आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"पहले एक नबी विशेष रूप से अपनी ही क़ौम की तरफ़ भेजा जाता था, किन्तु मैं समस्त मानव की तरफ़ भेजा गया हूँ।" (हदीस :बुख़ारी, मुस्लिम)

“मैं सम्पूर्ण सृष्ट-जन की ओर भेजा गया हूँ और मुझपर नबियों के आगमन का क्रम बंद कर दिया गया।" (हदीस : मुस्लिम)

जिस प्रकार सूरज की रौशनी सारी दुनिया के लिए काफ़ी होती है उसी तरह आपका मार्गदर्शन समस्त लोगों के लिए काफ़ी है। ईश्वर चाहता तो हर बस्ती के लिए अलग-अलग नबी भेज देता, लेकिन उसने चाहा कि जब सारा संसार एक हो गया है तो फिर सम्पूर्ण लोगों का नबी और मार्गदर्शक भी एक ही हो। यह चीज़ लोगों के मध्य एकता स्थापित करने के लिए भी सहायक सिद्ध होगी। क़ुरआन में भी कहा गया है—

"यदि हम चाहते तो हर बस्ती में एक डरानेवाला भेज देते। (किन्तु हमने इसकी आवश्यकता नहीं समझी)।" (क़ुरआन, 25:51)

मानवता के लिए एक पूर्ण आदर्श

क़ुरआन में आया है—

"निस्संदेह तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल (के चरित्र) में एक उत्तम आदर्श है, उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और अन्तिम दिन की आशा रखता हो।" (33:21)

इस आयत में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन मानव के लिए एक उत्तम आदर्श है। किन्तु यह आदर्श उन्हीं लोगों के लिए है जो अपने जीवन में सत्य मार्ग पर चलना चाहते हों और जो यह विश्वास रखते हों कि उन्हें एक दिन ईश्वर से मिलना है और वह सुखद घड़ी अवश्य आएगी जब ईश-मिलन की कामना पूरी होगी। फिर इसके साथ वे यह भी जानते हैं कि यह मिलन सुखकर उसी स्थिति में हो सकता है जबकि ईश्वर उनसे प्रसन्न हो और जीवन में उन्होंने हर सम्भव उन बातों से बचने की कोशिश की हो जो ईश्वर को पसन्द नहीं हैं और अपने जीवन में जिन्होंने ईश्वर के आदेशों का पालन किया हो तथा ईश्वर के निर्देशों और शिक्षाओं के अनुसार अपने व्यक्तित्व को बनाने और निखारने में प्रयत्नशील रहे हों।

उत्तम आदर्श उसी को कहेंगे जो सुन्दर और दोषरहित हो। जो परिपूर्ण हो और उसमें किसी प्रकार की अपूर्णता का आभास न होता हो। नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन इस दृष्टि से उत्तम ही नहीं पूर्ण आदर्श है। जीवन का कोई भी पहलू हो उसके विषय में आपकी शिक्षाओं और आपके चरित्र में पूर्ण रूप से मार्गदर्शन मिलता है। इसके लिए एक शर्त अवश्य है कि आदमी समझदार और विवेकशील हो और वह जानता हो कि किसी के जीवन चरित्र से कैसे मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है।

यह बात बड़ी नासमझी और विवेकहीनता की होगी कि कोई यह कहने लगे कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मानवों के लिए एक उत्तम आदर्श तो अवश्य हैं किन्तु यह आदर्श पूर्ण आदर्श नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक विशेष काल और विशेष स्थिति में पैदा हुए थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक विशेष भाषा में बोलते थे और वह भाषा समस्त मनुष्यों की भाषा नहीं है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने पिता को नहीं देखा। केवल अपनी माता, अपने दादा और चचा को ही देखा था। लड़कियों के पिता तो आप अवश्य थे किन्तु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कोई बेटा जीवित नहीं रहा। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पुरुष तो अवश्य थे किन्तु स्त्रियों के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक आदर्श कैसे हो सकते हैं? ये और इस तरह की बातें अत्यन्त बचकाना और सतही हैं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पूर्ण और उत्तम आदर्श होने का अर्थ यह है कि हम जीवन के प्रत्येक मामले में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से रहनुमाई हासिल कर सकते हैं, उसका सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से हो या सामाजिक जीवन से; उसका सम्बन्ध आर्थिक व्यवस्था से हो या राजनीति से; विषय धारणाओं एवं विचारों का हो या भावनाओं और मानसिकता का या उस विषय का सम्बन्ध आध्यात्म या नैतिकता से हो। हर विषय और प्रत्येक मामले में हम आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से रहनुमाई हासिल कर सकते हैं। किसी भी विषय में हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ेगा। यह सही है कि आपकी भाषा अरबी थी और जो किताब आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर अवतरित हुई उसकी भाषा भी अरबी थी। किन्तु अरबी भाषा कोई मृत भाषा नहीं है जिसे समझनेवाले दुनिया में न पाए जाते हों, जिसके कारण लोगों के लिए यह जानना असम्भव हो कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का सन्देश क्या था और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाएँ क्या थीं?

इसमें सन्देह नहीं कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आगमन एक विशेष काल में हुआ था। किन्तु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाएँ वैश्विक और सार्वकालिक हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के वचनों और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की लाई हुई किताब क़ुरआन में ऐसे नियमों और सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है जिनके आधार पर प्रत्येक युग और प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य नवीन से नवीन और जटिल से जटिल समस्याओं को हल कर सकता है। इस्लामी इतिहास बताता है कि इस सिलसिले में आश्चर्यजनक रूप से इस्लाम ने उनका साथ दिया है जो उसके मार्गदर्शन में अपनी समस्याओं को हल करना चाहते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मानो आज भी हमारे साथ हैं और हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। यद्यपि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवनकाल और आज के युग में बड़ा अन्तर पाया जाता है। विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उभर कर सामने आई हैं। सारी दुनिया आज एक गाँव के सदृश हो गई है और मनुष्य ब्रह्माण्ड में दूसरे ग्रहों पर अधिकार प्राप्त करने की ओर बढ़ रहा है। वास्तविकता यह है कि मौलिक समस्याएँ हमेशा एक जैसी रही हैं और भविष्य में भी एक जैसी ही रहेंगी। केवल उनका बाह्य रूप बदल जाता है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने पिता को नहीं देखा। किन्तु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जो व्यवहार अपने चचा और अन्य बड़े लोगों के साथ रहा है और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी दूध पिलानेवाली माँ का जिस प्रकार आदर किया है क्या इससे हमें इसका ज्ञान प्राप्त नहीं होता कि हमारा अपने माता-पिता और बड़ों के साथ क्या व्यवहार होना चाहिए। फिर इस सिलसिले में मौखिक रूप से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जो शिक्षाएँ दी हैं और क़ुरआन में इस सम्बन्ध में जो आदेश पाए जाते हैं क्या वे हमारे लिए पर्याप्त नहीं हैं? रही यह बात कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कोई पुत्र जीवित नहीं रहा इसलिए इस विषय में पुत्र के साथ हमारा व्यवहार क्या हो और उसकी शिक्षा-दीक्षा का हमें कितना ध्यान रखना चाहिए? इस सिलसिले में हम आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कुछ नहीं सीख सकते। वास्तव में यह नासमझी और अत्यन्त बचकाना बात है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अपने मुँह बोले बेटे हज़रत ज़ैद के साथ जो व्यवहार रहा है क्या उससे एक समझदार व्यक्ति यह नहीं सीख सकता कि बाप का अपने बेटे के साथ कैसा व्यवहार और सम्बन्ध होना चाहिए।

यह बात कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पुरुष होने के कारण स्त्रियों के लिए आदर्श नहीं हो सकते, अत्यन्त हास्यास्पद है। आप एक आदर्श पति के रूप में हमारे सामने आते हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जो व्यवहार अपनी धर्म-पत्नियों के साथ रहा है और जो शिक्षाएँ आपने उन्हें दी हैं और फिर उससे हटकर स्त्री जाति के लिए जो कुछ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा है वह सब कुछ प्रामाणिक रूप में आज दुनिया के सामने है। जिसके अध्ययन से जहाँ यह मालूम होता है कि एक आदर्श पति कैसा होता है वहीं पूर्णतः हमें इसका भी ज्ञान होता है कि आदर्श महिलाएँ और पत्नियाँ कैसी होती हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षा और प्रशिक्षण से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की धर्म-पत्नियों ने आदर्श का रूप धारण कर लिया है। जिसकी पुष्टि क़ुरआन से भी होती है। क़ुरआन ने कहा है कि— "ऐ नबी की स्त्रियो (अर्थात् पत्नियो)! तुम सामान्य औरतों की तरह नहीं हो। (अर्थात् तुम्हारी हैसियत आदर्श स्त्रियों की है।)" (33:32)

सच्चाई यह है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन उत्तम ही नहीं बल्कि पूर्ण आदर्श जीवन था। और हमें इसी दृष्टिकोण से आपका अध्ययन करना चाहिए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन एक ऐसे सागर के सदृश है जिसका किनारा दिखाई नहीं देता। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन के गुणों और विशेषताओं का वर्णन करने के पश्चात भी ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में अभी बहुत कुछ वर्णन करना शेष रह गया है।

यह बात भी सामने रहनी चाहिए कि धर्म की मौलिक शिक्षाओं का स्त्री और पुरुष से समान रूप से सम्बन्ध है उदाहरणार्थ ईमान, ईशपरायणता, सुशीलता और सदव्यवहार आदि से सम्बन्धित शिक्षाएँ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए एक जैसी हैं और जीवन में आस्था और चरित्र को मौलिक महत्त्व प्राप्त है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा भी है कि मुझे केवल इसलिए पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है कि मैं नैतिक सदगुणों को उनकी पराकाष्ठा तक पहुँचा दूँ। क़ुरआन से भी यह सिद्ध होता है कि वास्तव में स्त्री और पुरुष में देखने की चीज़ ईमान और अच्छे कर्म हैं। लिंग और सेक्स (Sex) तो बहुत ऊपर की चीज़ है। वास्तविक मूल्य तो मनुष्य की आत्मा को प्राप्त है। ईमान और नैतिक स्वभाव का आत्मा से सीधा सम्बन्ध पाया जाता है। मानव-जीवन में चारित्रिक गुणों को ही महत्त्व प्राप्त है। शर्त यह है कि उसकी कोई विश्वस्त भाव-भूमि भी हो। अतएव क़ुरआन में आया है:

“जिस किसी ने अच्छा कर्म किया, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, परन्तु हो वह मोमिन, तो ऐसे लोग जन्नत में प्रवेश करेंगे।" (40 : 40)

उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्त्रियों के मार्गदर्शन के लिए अलग से किसी स्त्री पैग़म्बर की आवश्यकता शेष नहीं रहती। जो पैग़म्बर पुरुषों के लिए मार्गदर्शक बनाकर भेजा गया है उसने स्त्रियों का भी मार्गदर्शन किया है।

क़ियामत तक के लिए

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को क़ियामत तक के लिए नबी बनाकर भेजा गया है। आपकी नुबूवत किसी विशेष युग के लिए नहीं, बल्कि रहती दुनिया के लिए है। आपसे केवल आपके समकालीन ही नहीं, बल्कि क़ियामत तक के लोग लाभान्वित होते रहेंगे। उन बदनसीबों की बात और है जो दिल की टेढ़ और पक्षपात, पूर्वाग्रह या किसी और नैतिक रोग के कारण आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मार्गदर्शन को स्वीकार न करें और सदैव के लिए ईश्वर की रहमत से वंचित होकर रह जाएँ। क़ुरआन में है—

"(ईश्वर ने उम्मियों में से रसूल भेजा) जो उन दूसरे लोगों को भी ज्ञान और तत्त्वदर्शिता की शिक्षा दे जो अभी (नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के) अनुयायियों से मिले नहीं हैं। (बल्कि वे भविष्य में पैदा होंगे और आपके अनुयायियों में शामिल होंगे।)" (क़ुरआन, 62:3)

इससे ज्ञात हुआ कि क़ियामत तक के सौभाग्यशाली लोग आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नुबूवत पर ईमान लाकर आपके मार्गदर्शन से लाभान्वित होते रहेंगे। अगर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का मार्गदर्शन क़ियामत तक के लिए पर्याप्त न होता तो फिर नुबूवत का सिलसिला आप पर समाप्त न किया जाता।

अंतिम नबी

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईश्वर के अंतिम नबी हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बाद अब कोई नबी आने वाला नहीं है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नुबूवत की श्रृंखला की अंतिम कड़ी हैं। क़ुरआन में है—

"मुहम्मद तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता नहीं हैं, बल्कि वे अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक हैं। अल्लाह को हर चीज़ का पूरा ज्ञान है।" (क़ुरआन, 33:40)

आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बाद निरंतर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होती गईं कि आपका संदेश संपूर्ण संसार में पहुँच रहा है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नुबूवत के बाद अलग-अलग क़ौमों में नबियों को भेजने की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस बात की भविष्यवाणी भी की है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाएँ और आपकी लाई हुई किताब (क़ुरआन) न केवल यह कि मौजूद रहेगी, बल्कि वह फेर-बदल (Distortion) से भी सुरक्षित रहेगी। ऐसे शासक और सुधारक निरंतर उठते रहेंगे जो जमाअत की व्यवस्था को सँभालेंगे और जो ख़राबियाँ पैदा होंगी उन्हें दूर करते रहेंगे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा है—

"मेरे कई नाम हैं। मैं मुहम्मद हूँ, और मैं अहमद हूँ, और मैं माही (मिटानेवाला) हूँ कि मेरे द्वारा ईश्वर कुफ़्र को मिटाएगा। और मैं हाशिर हूँ, वह हाशिर जिसके बाद ही लोग हश्र (प्रलय-क्षेत्र) में एकत्र किए जाएँगे। और मैं आक़िब (पीछे आनेवाला) हूँ कि जिसके पश्चात् कोई नबी नहीं।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)

आपने कहा है—

"मैं नबियों का समापक हूँ। मेरे बाद कोई नबी नहीं।" (हदीस : मुस्लिम)

"मैं ऐसे समय में भेजा गया हूँ कि मैं और क़ियामत का दिन इन उँगलियों की तरह हैं (अर्थात् बहुत ही क़रीब)।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)

मतलब यह है कि अब क़ियामत तक किसी और नबी के आने की आवश्यकता या संभावना शेष नहीं।

क़ुरआन में भी है—

"निकट आ गया लोगों का हिसाब और वे हैं कि ग़फ़लत में पड़े कतराते जा रहे हैं। (अर्थात् उन्हें हिसाब देने की कोई चिंता नहीं।)" (क़ुरआन, 21 : 1)

सुरक्षित जीवन-चरित्र

ईश्वर के अंतिम नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की विशिष्टता है कि आपके जीवन का प्रत्येक पहलू अत्यंत विस्तार के साथ सुरक्षित और ज्ञात है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जीवन नुबूवत से पहले कैसा था? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईश-प्रकाशना का अवतरण कब और कैसे हुआ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लोगों को सत्य की ओर कैसे आमंत्रित किया? विरोधियों और शत्रुओं का किस प्रकार आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मुक़ाबला करना पड़ा? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने अनुयायियों को किस प्रकार शिक्षा दी और उनको प्रशिक्षित किया? किन बातों का उन्हें आदेश दिया और किन बातों से उन्हें रोकते रहे? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) किस तरह इबादत और ईश-वन्दना करते थे? ईश्वर का स्मरण किस प्रकार निरंतर बना रहता था? ईश्वर से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कितना डरते थे और परलोक की आपको कितनी चिंता रहती थी? लोग सीधे मार्ग पर आ जाएँ और वे ईश्वर के यहाँ दण्डित होने से बच सकें, इसके लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कितना चिंतित रहते थे? ईश्वर का जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर विशेष अनुग्रह था, उसका आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कितना एहसास रखते थे? ईश्वर के आगे आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) किस प्रकार आभार प्रकट करते थे? दिन के अतिरिक्त आपकी रातें कैसी होती थीं? ऐसे वाक्य जो ईश-प्रशंसा और उसकी महानता को व्यक्त करने के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुख से निकले हैं, क्या वे ऐसे वाक्य हैं जो सदैव के लिए महावाक्य सिद्ध हो सकें? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का स्वभाव कैसा था? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यदि युद्ध करना पड़ा तो लड़ाइयों में किन नियमों को आपने अपने समक्ष रखा? आपने यदि संधि की तो किस प्रकार उसका निर्वाह किया? आपने यदि हुकूमत की तो आपकी शासन-प्रणाली कैसी रही है? मुक़द्दमों का फ़ैसला आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) किस प्रकार करते थे? लेन-देन और क्रय-विक्रय के मामलों में किन बातों का आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ध्यान रखते थे?

सारांश यह कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के विषय में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश और मार्गदर्शन विस्तृत रूप से सुरक्षित हैं। ईश्वर की ओर से जो वाणी (क़ुरआन) आपने प्रस्तुत की, वह अपने उन्हीं मूल शब्दों में मौजूद है जिन शब्दों में वह अवतरित हुई थी और उसी क्रम के साथ मौजूद है जिस क्रम के साथ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ईश्वरीय संकेत से प्रस्तुत की थी। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। मुस्लिम विद्वानों ने क़ुरआन और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथनों और आचरण पर जो शोधात्मक और व्याख्यात्मक कार्य किया है वह असाधारण है। इसकी मिसाल दुनिया की कोई क़ौम पेश न कर सकी।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं की प्रामाणिकता

एक विशिष्टता अंतिम नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह प्राप्त है कि न केवल आपका जीवन-चरित्र, आपके आदेश और शिक्षाएँ अत्यंत विस्तार के साथ मौजूद हैं, बल्कि आपका संदेश और आपकी शिक्षाएँ आदि हम तक प्रामाणिक माध्यम से पहुँची हैं। जिन व्यक्तियों ने आपकी जीवनचर्या और आपकी शिक्षाओं को एक-दूसरे तक पहुँचाने का जो महान कार्य किया है उनकी संख्या एक लाख से कम नहीं है। कुछ आदेश तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने स्वयं लिखाकर लोगों को दिए थे या लोगों के पास भेजे थे। आपके सहाबा (सहकारों) में कम से कम छ: व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने आपके कथनों को लिपिबद्ध करके आपको सुना भी दिया था, ताकि उनके प्रामाणिक होने में कोई संदेह न रहे। यह सारा ज्ञान-भंडार बाद की उन योग्य विभूतियों तक पहुँचा जिन्होंने हदीसों (आपके कथनों आदि) को एकत्र करके उनको ग्रंथ-रूप देने का महत्त्वपूर्ण और असाधारण कार्य संपन्न किया।

फिर एक विशेष बात यह है कि इस सिलसिले में आरंभकाल से ही जो प्रक्रिया अपनाई गई वह वैज्ञानिकी प्रक्रिया (Scientific Procedure) थी। वह यह कि कोई आदमी जिस व्यक्ति के माध्यम से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में कोई बात कहता तो उसे यह भी स्पष्ट करना पड़ता कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की वह बात किस व्यक्ति के माध्यम से उस तक पहुँची और उसके और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मध्य इसके उल्लेखकर्ता कौन-कौन हैं और उन उल्लेखकर्ताओं पर किस हद तक विश्वास किया जा सकता है? इस तरह उल्लेखों (रिवायतों) की श्रृंखलाओं को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक देखा जाता रहा है। इसका उद्देश्य यह था कि इस ओर से सन्तुष्टि प्राप्त हो सके कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से संबंधित, उल्लेखकर्ता जो बात बयान कर रहा है सत्य और ऑथैंटिक (Authentic) है या नहीं। यदि बीच में कहीं कोई एक कड़ी भी विलुप्त होती, तो फिर रिवायत संदिग्ध हो जाती। हदीस के उल्लेखकर्ताओं में से यदि कोई उल्लेखकर्ता किसी कारण से भरोसे के योग्य न होता तो फिर ऐसी हदीस को अस्वीकृत घोषित कर दिया जाता। हदीस के रावियों अर्थात् उल्लेखकर्ताओं के जीवन-चरित्र पर बहुत-से विस्तृत ग्रंथ लिखे गए, जिनमें दिखाया गया कि कोई रावी जिससे रिवायत कर रहा है, उससे कभी मिला भी है या नहीं? उसका चरित्र कैसा है? उसकी स्मरण-शक्ति का क्या हाल? इस प्रकार यह भी एक चमत्कार है कि एक नबी के वृत्तांत और उसके कथनों को प्रामाणिकता की दृष्टि से देखने के लिए हज़ारों व्यक्तियों के जीवन-चरित्र को लिपिबद्ध करके 'अस्माउर रिजाल' [अस्माउर रिजाल वह शास्त्र है जिसमें उन सभी व्यक्तियों का सविस्तार वर्णन किया गया है जिनके माध्यम से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथन (हदीस) आदि हम तक पहुँचे हैं। हदीस के उल्लेखकर्ताओं की कई श्रृंखलाएँ हैं, जिनका सिरा हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ज़रूर मिलता है। बीच में यदि कोई कड़ी छूट गई है तो फिर इस सिलसिले से पहुँची हुई हदीस संदिग्ध हो जाती है। इसी प्रकार उल्लेखकर्ताओं में से यदि कोई व्यक्ति किसी पहलू से विश्वास करने योग्य नहीं रहता तो इस दशा में भी हदीस संदिग्ध समझी जाएगी। पक्की और विश्वसनीय हदीस वही मानी जाती है जो उल्लेखकर्ताओं की ऐसी शृंखला (Chain) के द्वारा हम तक पहुँची हो जिसमें न तो श्रृंखला की कोई कड़ी छूटी हो और न इस सिलसिले के उल्लेखकर्ताओं में से किसी के चरित्र में कोई दोष पाया जाता हो। अस्माउर रिजाल में हदीस के उल्लेखकर्ताओं में से प्रत्येक व्यक्ति के बारे में विस्तृत जानकारी जुटाई गई है। इसमें जन्म और देहान्त तिथि, स्मरण शक्ति, सच्चाई और धार्मिकता आदि के विषय में सविस्तार वर्णन मिलता है।] के ग्रंथों में सदैव के लिए सुरक्षित कर दिया गया।

संसार के अन्य धर्म-गुरुओं के विषय में जब हम अध्ययन करते हैं तो मामला नितांत इसके विपरीत दिखाई देता है। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की न असली तौरात आज पाई जाती है और न अन्य नबियों की किताबें आज प्रामाणिक अर्थात् अपने मूल रूप में पाई जाती हैं। बाइबल में जो पुस्तकें शामिल हैं उनमें से किसी एक पुस्तक की भी सनद उन नबियों तक नहीं पहुँचती, जिन नबियों के नाम से वे किताबें प्रसिद्ध हैं। जो इंजीलें (Gospel) आज मिलती हैं उनमें हज़रत ईसा मसीह के जीवन-वृत्तांत और इंजील की आयतों (Word of God) को ऐसा गड्ड-मड्ड कर दिया गया है कि उनमें अंतर कर पाना आसान नहीं रहा। फिर इंजीलें लिखी नहीं गई थीं, बल्कि उनका प्रचार मौखिक रूप से हुआ था। लिपिबद्ध करने का कार्य उन ईसाइयों के द्वारा संपन्न हुआ जिनकी भाषा यूनानी थी। जबकि हज़रत मसीह और उनके अनुयायियों की भाषा सुर्यानी (Syriac) या आरामी थी। बाइबल के नए नियम (New Testaments) की किताबों की हज़ारों प्रतियाँ जो यूनानी भाषा में लिखी गई थीं उनमें से कोई भी चौथी ईसवी से पहले की नहीं पाई जाती। लगभग 70 इंजीलें लिखी गई थीं जिनमें से केवल चार को स्वीकृति प्रदान की गई, और स्वीकार करने और अस्वीकार करने का कोई उचित कारण नहीं बताया गया।

लगभग यही दशा अन्य धर्मगुरुओं के वृत्तांत और शिक्षाओं की भी है। यदि कोई व्यक्ति उनकी प्रामाणिकता की ओर से संतुष्ट होना चाहे तो असफलता के सिवा उसके हिस्से में और कुछ नहीं आ सकता।

अन्तिम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समुदाय की विशिष्टता

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को एक विशेषता यह भी प्राप्त है कि ऐसा कभी नहीं होगा कि कुछ अन्य क़ौमों की तरह आपका समुदाय विनष्ट हो जाए और उसका नामोनिशान बाक़ी न रहे। और यह भी न होगा कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का पूरे का पूरा समुदाय पथभ्रष्ट हो जाए अर्थात् कतिपय अन्य क़ौमों की तरह यह समुदाय ज़िंदा तो रहे किन्तु सन्मार्ग से हट जाए और सत्य के स्थान पर उसका नाता असत्य से हो जाए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"मेरे समुदाय में से एक गरोह सदैव क़ायम और प्रभावी रहेगा।" (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)

आपने यह भी कहा है कि—

"ईश्वर ने तुम्हें तीन चीज़ों से अमान (सुरक्षा) प्रदान की है। यह कि तुम्हारा नबी तुम पर बद्दुआ करे कि तुम सब विनष्ट हो जाओ, और यह कि मिथ्यावादी सत्यवादियों पर प्रभावी हों, और यह कि तुम सब के सब पथभ्रष्ट हो जाओ।" (हदीस : अबू-दाऊद)

इससे ज्ञात हुआ कि धर्म-विरोधी ज्ञान और तर्क की दृष्टि से कभी भी सत्य के अनुयायियों को परास्त नहीं कर सकते और यदि धर्म विरोधी सत्य के विरुद्ध युद्ध करें तो परिणामतः विजय सत्य की होगी, किन्तु शर्त यह है कि सत्य के अनुयायियों में ईमान की पूरी शक्ति हो और वे सत्य ही के लिए ईश-मार्ग में लड़ रहे हों, और उनमें एकता हो और ईश्वर ने जो साधन प्रदान किए हों उनका पूरा-पूरा इस्तेमाल कर रहे हों।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के इस कथन से यह भी मालूम हुआ कि आपका समस्त समुदाय कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होगा। कठिन से कठिन समय में भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समुदाय का कोई-न-कोई गरोह सत्य पर सुदृढ़ रहेगा।

एक भविष्यवाणी

आपको एक विशेषता यह प्रदान हुई है कि प्रायद्वीप अरब को आपकी बरकत से बहुदेववाद और मूर्तिपूजा से सदैव के लिए पाक कर दिया गया। पारस्परिक असहयोग, गुटबंदी आदि की ख़राबियाँ तो पैदा हो सकती हैं, किन्तु शैतान इससे सदैव के लिए निराश हो गया कि यहाँ फिर कभी बहुदेववाद और मूर्तिपूजा अपनी जड़ें जमा सकेगी।

स्पष्ट धर्म और स्पष्ट मार्ग

आपके द्वारा सत्य-धर्म को अंतिम और पूर्ण रूप देकर संसार के समक्ष पेश कर दिया गया। इस धर्म में कोई भी चीज़ ऐसी नहीं पाई जाती जिसके पीछे कोई गहरा रहस्य न पाया जाता हो। इसमें उन तमाम चीज़ों को, जो ईश्वर और उसके बंदों के बीच आड़ बनी हुई थीं, हटा दिया गया। इसमें न कोई पुरोहित रहा और न ऐसा कोई तथाकथित पावन वर्ग रहा कि जिसकी सहायता के बिना ईश्वर का सामीप्य प्राप्त न हो सकता हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का लाया हुआ धर्म-विधान उन ज्ञान-युक्त और साहसी व्यक्तियों के लिए है जो क़ुरआन और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के तरीक़े को मज़बूती से थामे रहें और जो बुद्धि, विवेक और समझ को तिलांजलि नहीं देते, बल्कि उनसे काम लेते हों और मामलों और महत्त्वपूर्ण विषयों में पारस्परिक चिंतन और परामर्श से काम लेते हों, संगठन के महत्त्व को समझते और उसकी सुरक्षा के प्रति सतर्क रहते हों।

सत्य का स्पष्ट मार्ग दर्शाने और सत्य-धर्म को स्पष्ट रूप देने और उसकी सुरक्षा के लिए आप पर जो ग्रन्थ ईश्वर की ओर से अवतरित हुआ वह क़ुरआन है, जो आज भी अक्षरशः सुरक्षित है और भविष्य में भी सुरक्षित रहेगा। इसकी ईश्वर ने अपने इस ग्रन्थ में सूचना भी दी है (क़ुरआन- सूरा 15, आयत-9)। क़ुरआन की अपनी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं जिनमें से कुछ विशेषताओं का उल्लेख अगले अध्याय में किया जा रहा है।

अध्याय-10

क़ुरआन की कुछ विशिष्टताएँ

क़ुरआन एक अनुपम ग्रंथ है, उसकी विशिष्टताएँ असीम हैं। उनकी गणना संभव नहीं। क़ुरआन ईशवाणी है, अतः इसे सर्वगुण संपन्न होना ही चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि क़ुरआन ईशवाणी होने के कारण सत्य भी है और सुन्दर भी। समस्त भलाइयाँ उसमें पाई जाती हैं। हम यहाँ क़ुरआन की कुछ स्पष्ट विशिष्टताओं की चर्चा करते हैं—

1. ईश्वरीय वाणी

यह ग्रंथ किसी मानव की रचना न होकर निस्संदेह ईशवाणी है। यह ग्रंथ स्पष्ट शब्दों में बार-बार यह दावा करता है कि यह ईश्वर की ओर से अवतरित हुआ है, यह किसी मनुष्य के मन-मस्तिष्क की उपज नहीं है। इसके लिए यह ग्रंथ बौद्धिक तर्क भी प्रस्तुत करता है और बार-बार चुनौती देता है कि यदि किसी को इसके ईशवाणी (Words of God) होने में संदेह हो तो वह इसके सदृश वाणी की रचना करके प्रस्तुत करे और ईश्वर से हटकर इसके लिए वह जिससे भी चाहे, मदद ले सकता है। इसकी यह चुनौती आज भी बाक़ी है किन्तु आज तक इस चुनौती का उत्तर देना विरोधियों के लिए संभव न हो सका।

2. सत्य आन्दोलन का पूर्ण वृत्तान्त

क़ुरआन एक वृहद ग्रंथ है। इसके विभिन्न अंश विभिन्न परिस्थितियों और समयों में अवतरित हुए हैं। यह ग्रंथ एक ही समय में संकलित रूप में दुनिया के सामने नहीं आया, फिर भी इसकी भाषा, इसके ओज और ज्ञान के उच्च स्तर में कहीं भी अन्तर नहीं आया है। यह ग्रंथ 23 वर्षों में अपनी पूर्णता को पहुँचा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को धर्म-प्रचार के सिलसिले में जिन परिस्थितियों एवं पड़ावों और जिन कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा है, क़ुरआन ने उन सब चीज़ों को अपने अन्दर समाहित कर लिया है। क़ुरआन के अध्ययन से हम सहज ही यह जान सकते हैं कि जिस इस्लामी आन्दोलन का पैग़म्बर के नेतृत्व में आरंभ हुआ, वह किन और कैसी परिस्थितियों से गुज़रकर अपनी सफलता को प्राप्त हुआ, एकेश्वरवाद को सत्ता प्राप्त हुई, ख़ुदा की बात सत्यसिद्ध हुई और असत्य को मुँह की खानी पड़ी। सत्य आया, असत्य मिट गया और असत्य तो मिटने ही के लिए होता है। इसका दृश्य संसार ने अपनी खुली आँखों से देख लिया।

क़ुरआन सत्य के क़ाफ़िले की यात्रा का पूर्ण वृत्तांत है। यह वह क़ाफ़िला था जो अपनी मंज़िल की ओर पैग़म्बर के नेतृत्व में चल पड़ा और जिसने अंततः अपनी मंज़िल को पा लिया। वृत्तांत ही नहीं, क़ुरआन आसमानी साहित्य का ग्रंथ-रत्न है, जो अपनी मिसाल आप है। इसके सदृश कोई साहित्य प्रस्तुत करना तो अलग रहा, मनुष्य को यह सामर्थ्य भी प्राप्त नहीं कि वह क़ुरआन के साहित्यिक लालित्य का पूर्णतः वर्णन भी कर सके और उसकी गहराइयों और ऊँचाइयों का सही अंदाज़ा लगा सके।

3. सुरक्षित ग्रंथ

यह ग्रंथ जिस रूप में अवतरित हुआ था आज भी उसी रूप में मौजूद है। इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ईश्वर ने ख़ुद ही ली है [क़ुरआन, 15:9], इसलिए इसके किसी अंश के विलुप्त होने की संभावना नहीं। यह ग्रंथ प्रामाणिक रूप में मौजूद है और उसकी प्रामाणिकता को चुनौती नहीं दी जा सकती। विलियम म्यूर इस्लाम का विरोधी होने के बावजूद यह स्वीकार करने पर विवश हुआ है कि यह जो क़ुरआन हमारे हाथों में है, अक्षरशः वही है जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पेश किया था।

4. सबसे अधिक पढ़ा जानेवाला ग्रन्थ

दुनिया में कोई दूसरी ऐसी किताब नहीं है जो इतनी अधिक पढ़ी जाती है, जितना कि क़ुरआन। बार-बार पढ़ने से इस किताब का मज़ा कम होने के बजाय बढ़ता चला जाता है। जितना अधिक हम इसके क़रीब होते हैं, उतनी ही अधिक आसक्ति बढ़ती चली जाती है। इसके तरन्नुम में ऐसा प्रभाव है जो हमारे मस्तिष्क ही को नहीं, आत्मा को भी सम्मोहित कर लेता है। इसके स्वर में वह संगीतमयता पाई जाती है जो हमारे सौंदर्य-बोध के लिए बहुमूल्य तृप्त सामग्री है। इसमें चित्र-चित्रण और सूक्ष्म एवं अदृश्य भावों और तथ्यों को चित्रित करने की वह शक्ति पाई जाती है जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक दरिया है जो बिना रुकावट के बह रहा है। एक आवाज़ है जिसकी संगीतमयता में सम्पूर्ण जगत् डूबता दिखाई देता है।

5. जीवन्त भाषा

इसकी भाषा एक जीवन्त और उन्नत भाषा है। यह अरब देशों की राष्ट्रीय भाषा है। क़ुरआन स्पष्टतः अरबी भाषा में अवतरित हुआ है। इसमें गहराइयाँ तो हैं किन्तु यह ग्रंथ पहेली कदापि नहीं। इसे एक ग्रामीण अरब भी पढ़ सकता है, उसे कोई उलझन न होगी। इसे एक चिंतक और दार्शनिक और मेधावी व्यक्ति भी पढ़ सकता है। उसे यह ग्रंथ उसके अपने स्तर से अत्यंत उच्च दिखाई देगा। यह विशिष्टता दुनिया की किसी अन्य पुस्तक को प्राप्त नहीं कि वह जनसामान्य और विशिष्ट शिक्षित वर्ग दोनों के लिए समान रूप से लाभकारी हो। यह विशिष्टता केवल क़ुरआन को प्राप्त है। यह सभी के लिए है और इससे सभी अपने बौद्धिक स्तर के अनुसार लाभ उठा सकते हैं।

यह ग्रंथ अपनी अछूती वर्णनशैली और शब्द विन्यास और वाक्य संयोजन में ऐसे रहस्य और मर्म को छिपाए हुए है जिन तक उन्हीं की निगाह जाती है जो सुयोग्य होते हैं, और जिनकी दृष्टि को उन तक जाने की अनुमति ऊपर से प्राप्त होती है। साधारण पाठक को उनकी बिलकुल ख़बर नहीं हो पाती। वे ग्रंथ का पाठ करते हुए आगे चले जाते हैं। उन्हें क़ुरआन अपनी बुद्धि और समझ के अनुकूल प्रतीत होता है। यही उनके लिए अच्छा भी है। इसलिए कि वे रहस्य और तत्त्वज्ञान (Wisdom) उनकी समझ से बहुत उच्च होते हैं। यदि क़ुरआन उन्हें स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत करता तो इससे वे लोग बड़ी आज़माइश में पड़ जाते जिनका बौद्धिक स्तर उच्च नहीं है और जो इतने संवेदनशील नहीं हैं कि सूक्ष्मतम तथ्यों को पकड़ सकें और उनका मूल्यांकन कर सकें।

क़ुरआन को अवतरित हुए एक लम्बा समय बीत चुका है; किन्तु यह आज भी साहित्य का सबसे उच्च आदर्श है। इसके सदृश होना तो अलग रहा, इसके निकट तक भी कोई किताब अपने साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से न पहुँच सकी। हालांकि इतने दीर्घकाल में भाषाएँ बदलकर कहीं से कहीं पहुँच जाती हैं। क़ुरआन के अतिरिक्त कोई भाषा या पुस्तक ऐसी नहीं जो साहित्यिक गुणों, मुहावरों, व्याकरण और शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से एक ही शान के साथ बाक़ी रह सकी हो। क़ुरआन में एक ही विषय बार-बार सामने लाया जाता है, किन्तु हर बार वर्णनशैली भिन्न होती है जिसके कारण पुनरावृत्ति की ख़राबी पैदा नहीं होती, बल्कि हर बार उक्त विषय एक नया विषय प्रतीत होता है और वह अपने अन्दर उक्त विषय का कोई न कोई नवीनतम पहलू लिए हुए सामने आता है। इस प्रकार उसकी ताज़गी निरंतर बनी रहती है और पाठक को उकताहट का तनिक भी एहसास नहीं होता।

6. विरोधाभास से मुक्त

यह ग्रंथ वैचारिक, ज्ञानात्मक और हर प्रकार के विरोधाभास से मुक्त है। इसमें बेमेल बातें नहीं पाई जातीं। इसमें ऐसी बातें भी नहीं पाई जातीं जो अप्रासंगिक हों। इसमें किसी प्रकार का झोल और ऐब नहीं पाया जाता। यह ग्रंथ शाब्दिक और अर्थ संबंधी किसी भी प्रकार के दोष से नितान्त मुक्त है। इसका साहित्यिक स्तर कहीं भी गिरा हुआ नहीं दीख पड़ता।

7. तथ्यानुकूल

क़ुरआन का जो अपना विषय है वह ऐसा है जो आदि से अंत तक संपूर्ण जगत् को अपनी परिधि में लिए हुए है। जिन चीज़ों का उल्लेख उसने तथ्य के रूप में किया है वे आज तक असत्य सिद्ध नहीं हो सकी हैं। वह जगत् और मानव के विषय में जो धारणा प्रस्तुत करता है, उसपर हर पहलू से प्रकाश डालता है। किसी पहलू से उसमें किसी कमी का एहसास नहीं होता। दर्शन हो या सामाजिक समस्याएँ, सभी के उत्तर इसमें मिलेंगे, जिनके द्वारा एक ऐसा संग्रहात्मक एवं व्यापक दर्शन उभरकर सामने आता है जिसमें कहीं कोई दोष या त्रुटि नहीं पाई जाती। इसी के साथ वह हमारे व्यावहारिक जीवन में भी हमारा मार्गदर्शन करता है और आज तक इस संबंध में वह अत्यंत बुद्धि-संगत, न्याययुक्त और लाभकारी सिद्ध हुआ है।

8. अनुपम शैली

क़ुरआन की भाषा और उसकी शैली, उस भाषा और शैली से नितांत भिन्न है जो भाषा और शैली नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की रही है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अपनी भाषा यद्यपि उच्च स्तर की और अत्यंत सरस एवं अर्थगर्भित है, किन्तु क़ुरआन की भाषा और उसकी साहित्यिक एवं ज्ञानात्मक उच्चता चीज़ ही और है जिस तक किसी मनुष्य की पहुँच नहीं हो सकती। स्वयं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब अपनी बातचीत और भाषण में क़ुरआन का कोई अंश उद्धृत करते हैं तो उस समय दोनों भाषाओं का अंतर साफ़ महसूस होता है। अगर क़ुरआन को हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अपनी वाणी मान ली जाए, जैसा कि कुछ नादान लोग समझते हैं, तो फिर इसका अर्थ यह होगा कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अपनी भाषा और शैली दो प्रकार की थी। अर्थात् जब आप किसी वाणी को ईश्वरीय वाणी कहकर पेश करते तो उसकी शैली और स्तर उससे भिन्न अपनाते जो सामान्य स्थिति में आपकी भाषा-शैली होती।

सोचने की बात यह है कि क्या यह कभी संभव हुआ है या हो सकता है कि एक ही व्यक्ति दो-चार दिन ही नहीं बल्कि पूरे 23 वर्ष तक निरंतर दो भिन्न शैलियों में और भाषा के दो स्तरों पर बातें करे। और फिर दोनों प्रकार की वाणियों में ज़मीन-आसमान का अंतर हो। यह कदापि संभव नहीं। कोई भी षड्यंत्र देर तक छिप नहीं सकता। झूठ की स्मरण शक्ति प्रबल नहीं होती। झूठ का झूठ होना बहुत जल्द ज़ाहिर हो जाता है। कारण यह कि असत्य स्वयं ही अपने असत्य होने की चुग़ली खाता है।

9. ज्ञान-भंडार

क़ुरआन में जो ज्ञान-भंडार और विस्तृत जानकारी पाई जाती है उसका संबंध, इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, जीव-विज्ञान, खगोलशास्त्र आदि सभी से है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के युग की बात छोड़िए, वर्तमान युग में भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं पाया जाता जिसके पास ज्ञान का इतना बड़ा ख़ज़ाना हो जो हमें क़ुरआन में दिखाई देता है। क़ुरआन अपने को 'मुहैमिन' कहता है। [क़ुरआन, 5:48] मुहैमिन का अर्थ होता है— रक्षक, साक्षी, समर्थक, अमानतदार। क़ुरआन के मुहैमिन होने का अर्थ यह होता है कि पूर्वत् आसमानी किताबों में जो शिक्षाएँ दी गई थीं, क़ुरआन ने उन सबको अपने भीतर सुरक्षित कर लिया है और पूर्वत् किताबों का जितना भी अंश आज मौजूद है, क़ुरआन उसकी पुष्टि करता है। क़ुरआन गवाह भी है। उन किताबों में जो क्षेपक पाया जाता है और उनमें जो कुछ घटाया बढ़ाया गया है, क़ुरआन सबको छाँटकर अलग कर देता है। क़ुरआन रक्षक भी है, इसलिए उन पूर्वत् किताबों में पाई जानेवाली सच्ची शिक्षाएँ अब विनष्ट नहीं हो सकतीं क्योंकि उन्हें क़ुरआन की रक्षा प्राप्त हो गई है।

10. सम्पूर्ण मानवता के लिए

क़ुरआन समस्त मानवों को संबोधित करता है। वह सारे ही मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अवतरित हुआ है। उसमें बताया गया है कि कौन-सी धारणाएँ हैं जो सत्य हैं और जिन्हें अंगीकर करना चाहिए। नैतिकता के वे सिद्धांत क्या हैं और वे कौन-से क़ानून और विधि-विधान हैं जो हर देश, हर क़ौम और प्रत्येक समय के लिए समान रूप से व्यावहारिक हैं और समस्त मनुष्यों के लिए कल्याणकारी भी हैं। क़ुरआन की प्रत्येक शिक्षा सार्वभौमिक (Universal) ही नहीं, वरन् सार्वकालिक भी है। क़ुरआन में है—

"वह (क़ुरआन) तो सम्पूर्ण संसार के लिए प्रबोधन है।" (क़ुरआन, 68 : 52; 81:87)

11. संग्राहक ग्रन्थ

क़ुरआन की एक विशिष्टता यह भी है कि उसके अंदर उन समस्त तथ्यों, ज्ञान और तत्त्वदर्शिता को एकत्र कर दिया गया है जिनका उल्लेख इससे पहले की आसमानी किताबों में हुआ था। किसी किताब से कोई ऐसी सत्य और भलाई की बात निकालकर नहीं दिखाई जा सकती जिसके उल्लेख से क़ुरआन वंचित हो। यह ऐसी संग्राहक किताब है कि मनुष्य के लिए अन्य किताबों की अनिवार्यता ही शेष नहीं रहती। फिर मनुष्य को इसका ग़म नहीं रहता कि पूर्वकालिक आसमानी किताबें हमारे हाथ में क्यों नहीं हैं। क़ुरआन की यही विशिष्टता है जिसके कारण उसे मुहैमिन (रक्षक) कहा गया है। क़ुरआन के रूप में पिछली सभी किताबें सुरक्षित हो गई हैं।

12. ईश्वरीय शिक्षाओं का नवीनतम संस्करण

क़ुरआन ईश्वर के आदेशों का नवीनतम संस्करण (Latest Edition) है। इसलिए इसमें ऐसी शिक्षाएँ नहीं पाई जातीं जो पिछली किताबों में तो पाई जाती थीं, किन्तु वे सामयिक एवं अल्पकालिक (Temporary) थीं; जो विशिष्ट परिस्थितियों के अंतर्गत लोगों को दी गई थीं। क़ुरआन में बहुत-सी ऐसी शिक्षाएँ उपलब्ध हैं जो पिछली आसमानी किताबों में उपलब्ध नहीं, जिसका मूल कारण यह है कि क़ुरआन को मानवता के लिए एक मार्गदर्शक ग्रंथ होना था। इस आवश्यकता के अंतर्गत यह आवश्यक था कि आदेशों और शिक्षाओं को पूर्ण रूप दे दिया जाए ताकि वे सम्पूर्ण संसार के लिए और प्रत्येक युग के लिए अनुकूल सिद्ध हो सकें। यही कारण है कि कुछ ऐसे आदेश भी क़ुरआन में मिलेंगे जो नवीन हैं, किन्तु उन्हें असहजातीय (Unfamiliar) नहीं कहा जा सकता। वे सत्यधर्म की आत्मा के विरुद्ध कदापि नहीं।

13. एक विशिष्ट गुण

क़ुरआन दुनिया की सारी क़ौमों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। क़ुरआन अकारण यह आह्वान नहीं करता कि लोग उसपर ईमान लाएँ और उसे अपनी जीवन-संहिता बनाएँ। क़ुरआन उन क़ौमों को भी आमंत्रित करता है जिनके पास कोई आसमानी किताब पाई जाती है कि वे क़ुरआन पर ईमान लाएँ और उसके आदेशों का पालन करें। कारण स्पष्ट है कि उनकी अपनी किताब की प्रामाणिकता भी क़ुरआन ही के द्वारा सिद्ध होती है और क़ुरआन ही के द्वारा उन्हें पूर्णता प्राप्त होती है। लोगों के अनुचित हस्तक्षेप से उनमें जो ख़राबियाँ पैदा हो गई हैं और जो झाड़-झंकाड़ उनमें पैदा हो गए हैं वे सब क़ुरआन ही के प्रकाश में दूर किए जा सकते हैं। क़ुरआन ही बता सकता है कि सत्य उनमें कितना अवशिष्ट है और असत्य का समावेश कहाँ और कितना हो गया है। क़ुरआन में है—

"ऐ किताब वालो (यहूदियो और ईसाइयो)! हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है। किताब की जो कुछ बातें तुम छिपाते हो उसमें से बहुत-सी बातें वह तुम्हारे सामने खोल रहा है और बहुत-सी बातों को छोड़ देता है। तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश और एक स्पष्ट किताब आ गई है जिसके द्वारा अल्लाह उस व्यक्ति को, जो उसकी प्रसन्नता का अनुगामी है, सलामती की राहें दिखा रहा है और अपनी अनुज्ञा से ऐसे लोगों को अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ला रहा है और उन्हें सीधे मार्ग पर चला रहा है।" (क़ुरआन, 5:15-16)

14. सत्य ग्रन्थ

क़ुरआन की एक विशेषता यह भी है कि यह सत्य है और सत्य ही रहेगा। क़ुरआन में आया है—

"जिन लोगों को ज्ञान प्राप्त हुआ है, वे स्वयं देखते हैं कि (ऐ नबी) जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है वही सत्य है, और वह उसका मार्ग दिखाता है जो प्रभुत्वशाली, प्रशंसा का अधिकारी है।" (क़ुरआन, 34:6)

इससे ज्ञात हुआ कि सत्य होने के कारण क़ुरआन में वे सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं जो सत्य की विशेषताएँ होती हैं। क़ुरआन ईश्वर की ओर से है और वह ईश्वरीय मार्ग दिखाता है, अतः वह सत्य है। इसी प्रकार उसमें सौंदर्य, तेज और प्रकाश आदि वे सारी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो 'सत्य' की पहचान हैं। क़ुरआन का असत्य से दूर का भी नाता नहीं है। वह किसी दशा में भी असत्य का समर्थन नहीं कर सकता। असत्य का समर्थन वास्तव में उदारता नहीं, बल्कि लोगों को पथभ्रष्ट करना है, जिससे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं हो सकता। क़ुरआन में है—

"जिन लोगों ने अनुस्मृति (क़ुरआन) का इनकार किया, जबकि वह उनके पास आया, हालाँकि वह एक प्रभुत्वशाली ग्रंथ है, (तो न पूछो कि उनका कितना बुरा परिणाम होगा)। असत्य उस तक न उसके आगे से आ सकता है और न उसके पीछे से। अवतरण है उसकी ओर से जो अत्यंत तत्त्वदर्शी, प्रशंसा के योग्य है।" (क़ुरआन, 41:41-42)

अध्याय-11

किताबवालों [यहूदी और ईसाई] की कुचेष्टाएँ और क़ुरआन की प्रतिक्रिया

बाइबल में नबियों के जिन वृत्तांतों और उनसे संबंधित जिन घटनाओं का उल्लेख किया गया है, उनमें बहुत-सी ऐसी बातें पाई जाती हैं जो खटकती हैं और सत्य मालूम नहीं होतीं। बाइबल में कुछ नबियों के ऐसे चरित्र पेश किए गए हैं जिनका नबियों की गरिमा और पवित्रता से कोई संबंध नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त कितनी ही इसराइली धारणाएँ और विचित्रताएँ हैं, क़ुरआन जिनका खण्डन करता है और बताता है कि सच्चाई क्या है? इस प्रकार क़ुरआन किताबवालों के धर्माधिकारियों के दुस्साहसों और उनकी कुचेष्टाओं पर से परदा हटाकर यह दिखाता है कि मनुष्य पतित होता, और गिरता है तो उसकी गिरावट की कोई सीमा नहीं होती, वह अपने महापुरुषों और पूर्वजों की इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकता। इसराईल के इतिहास ही में नहीं, बल्कि इस तरह के अपराध दूसरी जातियों के यहाँ भी पाए जाते हैं। ज़रूरत केवल शोध और सतर्कतापूर्वक अनुशीलन की है। यहाँ हम बाइबल से कुछ उदाहरण देंगे जिनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि इसराईली धर्मगुरुओं ने अपने महापुरुषों के साथ क्या-क्या अन्याय किए हैं और उनके चरित्रों को किस प्रकार गंदा किया है और क़ुरआन ने किस तरह उन महापुरुषों के दामन से उन गंदगियों को साफ़ किया है।

पहला उदाहरण

बाइबल में यह कहानी गढ़ी गई है कि ईश्वर ने धरती और आकाश को छ: दिनों में बनाकर सातवें दिन विश्राम किया, (उ० 2/2)। मसीही पादरियों को ग़लती का एहसास हुआ तो बाइबल के उर्दू अनुवाद में 'आराम किया' के स्थान पर 'फ़ारिग़ हुआ' लिख दिया। किन्तु किंग जेम्स की प्रामाणिक अंग्रेज़ी बाइबल में ये शब्द मौजूद हैं:

"And He Rested on the Seventh Day."

(और ईश्वर ने सातवें दिन विश्राम किया।)

सन् 1924 ई० में यहूदियों ने जो बाइबल का अनुवाद प्रकाशित किया है उसमें भी यही शब्द मिलते हैं। बाइबल के अरबी अनुवाद में भी यही कहा गया है कि "उसने सातवें दिन विश्राम किया।"

बाइबल के उपरोक्त कथन से यह मालूम होता है कि ईश्वर काम करके थकता भी है और उसे विश्राम की आवश्यकता भी होती है। हालांकि यह ईश्वरीय गुण के नितांत प्रतिकूल है। क़ुरआन ने बाइबल की इस ग़लती की ओर संकेत करते हुए कहा—

"हमने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके मध्य है छः दिनों में पैदा किया, और हमें कोई थकान न छू सकी।" (क़ुरआन, 50:38)

दूसरा उदाहरण

बाइबल में है—

"तब मूसा, हारून, नादाब, अबीहू और इसराईलियों के सत्तर धर्मवृद्ध ऊपर गए, और इसराईल के परमेश्वर का दर्शन किया। उसके चरणों के नीचे नील मणि का चबूतरा-सा कुछ था, जो आकाश के तुल्य स्वच्छ था। उसने इसराईलियों के प्रधानों पर हाथ न बढ़ाया, तब उन्होंने परमेश्वर का दर्शन किया और खाया-पिया।" (निर्गमन 24/9-11)

इसी किताब निर्गमन में आगे चलकर लिखा है—

"मूसा ने कहा, मुझे अपना तेज दिखा दे। प्रभु ने कहा, मैं तेरे सम्मुख होकर चलते हुए तुझे अपनी सारी भलाई दिखाऊँगा, और तेरे सम्मुख प्रभु-नाम का प्रचार करूंगा। जिसपर मैं अनुग्रह करना चाहूँ उसी पर अनुग्रह करूँगा और जिसपर दया करना चाहूँगा, दया करूँगा। फिर उसने आगे कहा, तू मेरे मुख का दर्शन नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य मेरे मुख का दर्शन करके जीवित नहीं रह सकता।" (निर्गमन 33/18-20)

ईश-दर्शन के विषय में बाइबल का विरोधाभास स्पष्ट है। एक तरफ़ तो यह कहा जा रहा है कि 'इसराईलियों के 70 धर्मवृद्धों ने खुली आँखों से ईश्वर के दर्शन किए' और दूसरी तरफ़ यह कहा जा रहा है कि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की याचना पर ईश्वर ने कहा कि "तुम मेरे मुख का दर्शन नहीं कर सकते, क्योंकि दर्शन करके मनुष्य जीवित नहीं रह सकता"। अर्थात् मनुष्य में वह शक्ति नहीं कि वह ईश्वर के तेज एवं सौंदर्य को सहन कर सके। क़ुरआन इस संबंध में निर्णायक बनकर सामने आता है और बताता है कि सांसारिक जीवन में ईश्वर को खुली आँखों से देखना संभव नहीं। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की याचना पर ईश्वर ने यही कहा था कि तुम मुझे देख नहीं सकते। क़ुरआन में है—

"जब मूसा हमारे निश्चित किए हुए समय पर पहुँचा और उसके रब ने उससे बातें कीं तो वह कहने लगा कि मेरे रब मुझे देखने की शक्ति प्रदान कर कि मैं तुझे देखूँ। ईश्वर ने कहा कि तू मुझे कदापि न देख सकेगा।" (क़ुरआन, 7:143)

मतलब यह है कि सांसारिक जीवन में मनुष्य को ऐसी शक्ति और सामर्थ्य प्रदान नहीं की गई है कि वह खुली आँखों से ईश्वर को देख सके। मनुष्य की परीक्षा इसी में है कि वह परोक्ष में रहते हुए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करे, क्योंकि उसके अस्तित्व के प्रमाण जगत् में बिखरे पड़े हैं, स्वयं मनुष्य का व्यक्तित्व भी ईश्वर के मौजूद होने का एक स्पष्ट प्रमाण है। खुल्लम-खुल्ला ईश्वर को देखने की माँग उसकी शान में किसी निरादर से कम नहीं है। क़ुरआन में है कि इस तरह के दुस्साहस पर लोग ईश्वरीय प्रकोप में ग्रस्त हुए हैं। क़ुरआन कहता है—

"और याद करो जब तुमने (इसराईलियों ने) कहा था कि 'ऐ मूसा! हम तुमपर ईमान नहीं लाएँगे जब तक अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला न देख लें। फिर एक कड़क ने तुम्हें आ दबोचा, तुम देखते रह गए।" (क़ुरआन, 2:55)

तीसरा उदाहरण

बाइबल में है—

"और प्रभु ने देखा कि मनुष्य की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है। और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है, सो निरंतर बुरा ही होता है। और प्रभु पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया और वह मन में अति खेदित हुआ। तब प्रभु ने कहा, 'मैं मनुष्य को, जिसकी मैंने सृष्टि की है, पृथ्वी के ऊपर से मिटा दूंगा; क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या रेंगनेवाले जंतु, क्या आकाश के पक्षी सबको मिटा दूँगा; क्योंकि मैं उनके बनाने से पछताता हूँ।" (उत्पत्ति 6/5-7)

क़ुरआन में ईश्वर की शान इससे बिलकुल भिन्न बयान हुई है। क़ुरआन में है कि 'जब ईश्वर ने आदम को पैदा करके ज़मीन पर उसे अधिकार प्रदान करने की योजना का उल्लेख फ़रिश्तों से किया तो फ़रिश्तों ने कहा कि आदम की संतान धरती में बिगाड़ पैदा करेगी और रक्तपात करेगी। इसके उत्तर में ईश्वर ने यह नहीं कहा कि 'तुम ग़लत कहते हो कि धरती में बिगाड़ पैदा होगा और आदम की संतान रक्तपात करेगी।' बल्कि जवाब में यह कहा कि 'आदम को पैदा करने में जो हिक्मत (उद्देश्य) और भलाई मेरे समक्ष है उसे तुम नहीं जानते।' (क़ुरआन, 2:30)

क़ुरआन में है कि ईश्वर को आदि से अंत तक हर चीज़ का ज्ञान है, वह किसी चीज़ से भी अनभिज्ञ नहीं। कोई भी वस्तु उसके ज्ञान-परिधि से बाहर नहीं। अपने किसी कार्य पर उसे पछतावा हो, इसका प्रश्न ही नहीं उठता। क़ुरआन में है कि ईश्वर जब किसी जाति का विनाश करता है तो उसे उसके परिणाम की ओर से कोई आशंका या भय नहीं होता। (क़ुरआन, 91 : 14-15)

चौथा उदाहरण

ईसाई धर्म में बहुत-सी ऐसी बातें प्रचलित हो गई हैं जो सत्य के नितांत विरुद्ध हैं।

क़ुरआन में ईसाइयों की कुछ मौलिक धारणाओं का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि ये सत्य के नितांत प्रतिकूल हैं। ईसाई संप्रदाय वास्तव में इसराईलियों से निकली हुई एक शाखा है। हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के प्रारंभिक अनुयायी उन्हें केवल नबी मानते थे और हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की लाई हुई शरीअत पर चलते थे। यहूदियों से उनका मतभेद केवल इस बात में था कि यहूदी हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) पर ईमान लाने से इनकार करते थे, जबकि ईसाई उनको ख़ुदा का पैग़म्बर मानते थे। जब सेंट पॉल मसीही संप्रदाय में दाख़िल हुआ तो उसने ईसाई धर्म का प्रचार रोमियों, यूनानियों और ग़ैर इसराईलियों में भी आरंभ कर दिया और इसके लिए उसने मसीही धर्म को विकृत करके रख दिया। उसने दिव्यदर्शन (Vision) और अलौकिक संकेत के आधार पर एक नया धर्म आविष्कृत किया। उसने यहूदी शरीअत को निरस्त कर दिया, मसीह के ईश्वरत्व और उनके ईश-पुत्र होने की धारणा खड़ी की और उसने इस धारणा की भी रचना की कि सूली में जान देकर मसीह आदम की संतान के जन्मजात प्रायश्चित बन गए। हज़रत मसीह के शुरू के अनुयायियों ने इन बातों का विरोध किया, किन्तु पॉल के अनुयायियों की बढ़ती हुई संख्या के आगे उन विरोध करनेवालों की न चल सकी और वे पराजित होकर रहे। फिर भी तीसरी शताब्दी के अंत तक बहुत-से ऐसे लोग मौजूद थे जो इस धारणा का इनकार करते रहे कि मसीह ईश्वरत्व के गुण से युक्त थे। लेकिन चौथी शताब्दी के आरंभ (325 ई०) में नीसिया (Necaea) की कौंसिल ने पॉल की गढ़ी हुई धारणाओं को ईसाइयत का स्वीकृत धर्म घोषित कर दिया। रोमी राज्य के सम्राट के ईसाई होने के बाद तो आगे चलकर यह राज्य का सरकारी धर्म हो गया।

पहली तीन इनजीलों (मत्ती, मरक़ुस, लूक़ा) में कोई ऐसी चीज़ नहीं पाई जाती जिससे यह समझा जा सके कि इन इनजीलों के लिखनेवाले हज़रत मसीह को मनुष्य के अतिरिक्त कुछ और समझते रहे हों। वे हज़रत मसीह को एक मनुष्य समझते थे जो विशेष रूप से ईश्वर का कृपापात्र था और जो ईश्वर से अटूट संबंध रखता था। मत्ती और मरक़ुस की इंजील में हज़रत मसीह के लिए ख़ुदावन्द (प्रभु) का शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। यह शब्द इन इनजीलों में ईश्वर के लिए अधिकता के साथ प्रयुक्त हुआ है। इन इनजीलों में यह भी नहीं मिलता कि हज़रत मसीह जान देकर इनसानों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बने हैं। क़ुरआन में है—

"ऐ किताबवालो! अपने धर्म में अतिशयोक्ति से काम न लो और अल्लाह से जोड़कर सत्य के अतिरिक्त कोई बात न कहो। मरियम का बेटा मसीह ईसा इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं कि अल्लाह का रसूल है और उसका एक 'कलिमा' है, जिसे उसने मरियम की ओर भेजा था। और उसकी ओर से एक रूह है। तो तुम अल्लाह पर और उसके रसूलों पर ईमान लाओ, और 'तीन' न कहो —बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए अच्छा है— अल्लाह तो केवल अकेला पूज्य है। यह उसकी महानता के प्रतिकूल है कि उसका कोई बेटा हो। आकाशों और धरती में जो कुछ है उसी का है। और अल्लाह कार्य-साधक की हैसियत से काफ़ी है। मसीह ने कदापि अपने लिए यह बुरा नहीं समझा कि वह अल्लाह का बंदा हो और न निकटवर्ती फ़रिश्तों ने ही (इसे बुरा समझा)।" (क़ुरआन 4:171-172)

हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) को क़ुरआन में कलिमा कहा गया है। कलिमा से अभिप्रेत आदेश या हुक्म है। मतलब यह है कि हज़रत मसीह के बिना पिता के जन्म लेने का रहस्य यह बताया गया है कि वह ईश्वर का आदेश था कि बिना पुरुष के वीर्य के हज़रत मरियम गर्भवती हुईं और हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) का जन्म हुआ; किन्तु ईसाइयों ने यूनानी दर्शन से पथभ्रष्ट होकर कलिमे को कलाम (Utterance) अथवा वाणी का समानार्थक समझ लिया और इस कलाम को ख़ुदा का व्यक्तिगत गुण घोषित किया, फिर यह कल्पना की कि ईश्वर के निजी गुण ने मरियम के अंतर में प्रविष्ट होकर शारीरिक रूप धारण कर लिया और इस तरह ईश्वर का निजित्व हज़रत मसीह के रूप में प्रकट हुआ। इस प्रकार ईसाइयों में हज़रत मसीह के ईश्वर के प्रभुत्व में सम्मिलित होने की धारणा ने जन्म लिया।

क़ुरआन में हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) को “उसकी ओर से एक रूह" कहा गया है। क़ुरआन में इस विषय को इस प्रकार बयान किया गया है—

"और मरियम के बेटे ईसा को हमने खुली-खुली निशानियाँ प्रदान कीं और पवित्र आत्मा (रूह) के द्वारा उसे शक्ति प्रदान की।" (क़ुरआन, 2: 87 एवं 253)

दोनों कथनों का अर्थ यह है कि ईश्वर ने ईसा (अलैहिस्सलाम) को वह पवित्रात्मा प्रदान की थी जो बुराई से अपरिचित थी। आपकी इसी विशेषता से आपके अनुयायियों को सूचित किया गया था। किन्तु उन्होंने अतिशयोक्ति से काम लिया और ईश्वर की ओर से एक आत्मा को तथ्यतः ईश्वरीय आत्मा घोषित कर दिया। और पवित्रात्मा (Holy Ghost) का अर्थ यह लिया कि वह ईश्वर की अपनी ही पवित्रात्मा थी जो मसीह के भीतर प्रविष्ट कर गई थी। इस प्रकार ईश्वर और मसीह और उसके साथ एक तीसरा ईश्वर पवित्रात्मा को बना लिया। यह ईसाइयों की दूसरी अतिशयोक्ति थी।

पाँचवाँ उदाहरण

क़ुरआन में आया है कि शैतान ने हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) और उनकी पत्नी हज़रत हव्वा को धोखा देकर उनसे ऐसा काम कराया जिससे ख़ुदा ने उन्हें रोका था। यह बाइबल (उत्पत्ति, अध्याय-3) के उस बयान का खण्डन है जिसमें कहा गया है कि शैतान ने आदम (अलैहिस्सलाम) को फ़रेब में डालने के लिए हव्वा को साधन बनाया। हज़रत हव्वा शैतान के फ़रेब में आ गईं और हज़रत आदम को भी उस काम पर आमादा किया, जिससे ईश्वर ने उन्हें रोका था। क़ुरआन स्पष्ट शब्दों में इसका खण्डन करता है और कहता है कि क़ुसूर यदि हुआ है तो आदम और हव्वा दोनों से हुआ है, ऐसा नहीं है कि दोषी केवल स्त्री ही है।

क़ुरआन में है—

"हमने कहा, ऐ आदम तुम और तुम्हारी पत्नी जन्नत में रहो और वहाँ जी भरकर बेरोक-टोक जहाँ से तुम दोनों का जी चाहे खाओ, किन्तु इस तरु से संलिप्त न होना, अन्यथा तुम अत्याचारी होगे। अन्ततः शैतान ने उन दोनों को वहाँ से फिसला दिया। फिर उन्हें वहाँ से, जहाँ वे थे, निकलवाकर छोड़ा।" (क़ुरआन, 2 : 35-36)

छठा उदाहरण

बाइबल में है कि जब हज़रत नूह के समय में तूफ़ान आया तो हज़रत नूह, उनकी पत्नी और उनके तीनों बेटों और उनके (बेटों की) पत्नियों के अतिरिक्त कोई भी जलमग्न होने से न बचा। इस प्रकार बाद की नस्लें केवल हज़रत नूह की संतान से हैं। (उ० 6/18; 7/7; 9/1; 9/19)

क़ुरआन इस बयान का खण्डन करता है। क़ुरआन बताता है कि नौका में केवल हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) और उनके बेटे और बहुएँ ही नहीं, बल्कि दूसरे आस्थावान लोग भी सवार थे। तत्पश्चात् की मानव-संतति को केवल हज़रत नूह की संतान घोषित करना सत्य नहीं है। क़ुरआन में है—

"ऐ उनकी संतान जिन्हें हमने नूह के साथ सवार किया था! निश्चय ही वह एक कृतज्ञ बंदा था।" (क़ुरआन, 17 : 3)

एक दूसरी जगह क़ुरआन में आया है—

"ये वे पैग़म्बर हैं जो अल्लाह के कृपापात्र हुए; आदम की संतान में से और उन लोगों के वंशज में से, जिनको हमने नूह के साथ सवार किया।" (क़ुरआन, 19:58)

यहूदियों की फैलाई हुई इस ग़लत सूचना से प्रभावित होकर बहुत-से इतिहासकार मनुष्य की वंशावली को हज़रत नूह के तीन बेटों तक पहुँचाते हैं।

हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) की नौका किस स्थान पर ठहरी? इस संबंध में भी क़ुरआन का बयान बाइबल से भिन्न है।

प्राचीन इतिहास और नवीन खोज से क़ुरआन के बयान की ही पुष्टि होती है। अभी वर्तमान समय में ही हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) की नौका का ढांचा खोज लिया गया है और वह 'जूदी' नामक पर्वत शिखर पर पाई गई है। क़ुरआन का बयान भी यही है कि नूह (अलैहिस्सलाम) की नौका जूदी पहाड़ पर रुकी। (क़ुरआन, 11:44)

सातवाँ उदाहरण

हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के जीवन-वृत्तांत से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि विरोधियों ने उन्हें आग में फेंककर जला डालने की योजना बनाई थी, किन्तु अल्लाह ने उनकी योजना को असफल कर दिया। इसी प्रकार हज़रत इबराहीम और सम्राट नमरूद के मध्य एक महत्त्वपूर्ण संवाद हुआ था जिसमें नमरूद को पराजित होना पड़ा था। इसके अतिरिक्त हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के जीवन की घटनाओं में से स्वदेश-त्याग (हिजरत) की घटना भी है, जो उन्होंने ईश-प्रसन्नता के लिए किया था। आश्चर्य है कि हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के जीवन की इन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का बाइबल में कहीं भी उल्लेख नहीं है।

क़ुरआन में इन घटनाओं का उल्लेख करके यहूदियों की भर्त्सना की गई है कि तुम अपने पूर्वजों का नाम तो बड़े गर्व के साथ लेते हो किन्तु उनके महान कार्यों और उनकी जीवन पद्धति को महत्त्व नहीं देते।

बाइबल में दिखाया गया है कि हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने जिस बेटे को क़ुर्बानी के लिए ख़ुदा की सेवा में पेश किया था, वे इसहाक़ थे (उ० 22/1-2)। दूसरी ओर बाइबल का यह भी बयान है कि यह क़ुर्बानी इकलौते बेटे की थी, जबकि इकलौते बेटे इस्माईल होते हैं, न कि इसहाक़। (उ० 16/1-4)

क़ुरआन ने इस विरोधाभास को दूर किया।

आठवाँ उदाहरण

बाइबल में है कि मिस्र से निकलते समय इसराईली कुटुंब की स्त्रियों और पुरुषों ने मिस्र के अपने पड़ोसियों से माँगे के ज़ेवर लिए। यह उनका एक बहाना था। वे अपने पड़ोसियों को लूटकर रातों-रात प्रस्थान कर गए और इस अनैतिक कार्य के संपन्न करने में हज़रत मूसा ने भी उनका साथ दिया। इसलिए कि इसकी शिक्षा उन्हें ईश्वर की ओर से हज़रत मूसा ने ही दी थी। (नि० 3/13-22, 11/2-3)

क़ुरआन बाइबल के इस बयान का समर्थन नहीं करता। क़ुरआन की दृष्टि में पैग़म्बर चरित्र व आचरण की दृष्टि से इतने उच्च स्थान पर होते हैं कि उनके संबंध में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वे कोई अनैतिक कार्य कर सकते हैं या वे कोई ऐसी नीति अपना सकते हैं जो उनकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हो। अतः बाइबल का यह बयान स्पष्टतः सत्य के विपरीत है। इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

बाइबल में है—

"फिर प्रभु ने उससे (मूसा से) यह भी कहा, अपना हाथ छाती पर रखकर ढाँप। सो उसने अपना हाथ छाती पर रखकर ढाँप लिया। फिर जब उसने निकाला तब क्या देखा कि उसका हाथ कोढ़ के कारण हिम के समान श्वेत हो गया है।" (नि० 4/6)

क़ुरआन ने इसका खण्डन किया है। बताया, यह तो एक चमत्कार था जो ख़ुदा ने मूसा को दिया था। क़ुरआन में है—

"(ऐ मूसा!) अपना हाथ अपने बाज़ू की ओर समेट ले। वह उज्ज्वल होकर निकलेगा बिना किसी ऐब के। यह दूसरी निशानी है।" (क़ुरआन, 20 : 22)

बाइबल में हज़रत हारून (अलैहिस्सलाम) के संबंध में कहा गया है कि उन्होंने बछड़ा बनाकर उसे इसराईल का पूज्य और देवता घोषित किया। (नि० 32/2-6)

क़ुरआन ने स्पष्ट शब्दों में इसका खण्डन किया है और बताया है कि हज़रत हारून (अलैहिस्सलाम) बहुदेववाद की गंदगी से पाक थे। बछड़ा वास्तव में सामरी नामक तान्त्रिक ने बनाया था और उसी ने बनी इसराईल से कहा था कि यह तुम्हारा इष्ट-पूज्य है। हज़रत हारून ने तो उस बछड़े की पूजा से लोगों को रोका था और कहा था कि—

"मेरी क़ौम के लोगो! तुम इसके कारण बस फ़ितने में पड़ गए हो। तुम्हारा प्रभु तो रहमान है। अतः तुम मेरा अनुसरण करो और मेरी बात मानो।" (विस्तार के लिए दे० क़ुरआन, 20 87-91)

नवाँ उदाहरण

बाइबल का बयान है कि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) अपने ससुर की बकरियाँ चराते हुए एक दिन पर्वत के निकट आ निकले थे। ईश्वर ने उस समय उनको सम्बोधित किया और पैग़म्बरी का पद प्रदान किया और आदेश दिया कि वे मिस्र जाएँ। फिर हज़रत मूसा ने ससुर की इजाज़त लेकर वहाँ से प्रस्थान किया। (नि० 3/1-4, 18)

क़ुरआन ने बाइबल के इस बयान का सुधार किया है। क़ुरआन का बयान है कि हज़रत मूसा और उनके ससुर के बीच जो समय निर्धारित हुआ था वे उस समय तक ससुर के यहाँ रहे। जब वह समय पूरा हो गया तो वे अपने बाल-बच्चों को लेकर मदयन से प्रस्थान कर गए। इसी यात्रा में रात के समय उन्हें एक रौशनी दिखाई दी। हज़रत मूसा ने समझा कि आग जल रही है। वे वहाँ यह सोचकर गए कि वहाँ उन्हें कोई-न-कोई अवश्य मिलेगा, जिससे रास्ता भी मालूम कर लेंगे और तापने के लिए आग भी ले लेंगे। किन्तु जब वे वहाँ पहुँचे तो ईश्वर ने उन्हें संबोधित किया और उन्हें पैग़म्बरी के पद पर आसीन किया। (क़ुरआन, 20 : 10-24)

दसवाँ उदाहरण

बाइबल में लिखा है कि हज़रत ज़करीया (अलैहिस्सलाम) अपने बेटे यह्या के जन्म लेने तक गूँगे रहे। लूक़ा के बयान के अनुसार यह वास्तव में किसी ग़लती का एक दण्ड था। किन्तु क़ुरआन कहता है कि जब हज़रत ज़करीया को हज़रत यह्या के पैदा होने की शुभ-सूचना दी गई तो ख़ुदा ने उन्हें आदेश दिया कि वे तीन दिन तक मौन रहें, ताकि एकचित्त होकर ईश्वर का गुणगान करें। उन्होंने लोगों को भी प्रातःकाल और संध्या समय ईश-गुणगान का आदेश दिया। (क़ुरआन, 19 : 7-11)

ग्यारहवाँ उदाहरण

बाइबल में हज़रत अय्यूब (अलैहिस्सलाम) को एक अधीर व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है, जिनके पास शिकायत ही शिकायत है और अपने ऊपर पड़नेवाली मुसीबत में वे सर्वथा फ़रियाद और आर्तनाद बनकर रह गए हैं। (अय्यूब 19/1-22)

क़ुरआन का बयान है कि हज़रत अय्यूब ऐसे कदापि न थे। वे तो इतने धैर्यवान थे कि जिस कष्ट में वे थे, स्पष्ट शब्दों में भी उसका उल्लेख नहीं करते थे कि ईश्वर उनका वह कष्ट दूर कर दे। क़ुरआन में है—

"और अय्यूब पर भी दया दर्शाई याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि मुझको बहुत तकलीफ़ पहुँची है, और तू सबसे बढ़कर दयावान है।" (क़ुरआन, 21:83)

कष्ट की बात कही भी तो अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में और तत्पश्चात् केवल यह कहकर रह गए कि 'तू सबसे बढ़कर दयावान है।' आगे न शिकायत की और न फ़रियाद। उनकी इस प्रार्थना से स्पष्ट होता है कि वे एक अत्यंत धैर्यवान, संतोषी और सज्जन व्यक्ति थे।

बारहवाँ उदाहरण

बाइबल में हज़रत दाऊद (अलैहिस्सलाम) पर यह मिथ्यारोपण किया गया है कि उन्होंने ऊरियाह हिट्टी (Uriah the Hittia) की पत्नी से व्यभिचार किया और उनपर यह भी मिथ्यारोपण किया गया है कि उन्होंने एक युद्ध में जान-बूझकर ऊरियाह की हत्या करवा दी और उसकी पत्नी से स्वयं विवाह कर लिया। यह भी घोषित किया गया है कि यह वही स्त्री है जो हज़रत सुलैमान की जननी थी। (दे० 2 शमूएल, अध्याय 11, 12)

क़ुरआन ने इन आरोपों को निराधार घोषित किया और बताया कि हज़रत दाऊद (अलैहिस्सलाम) ख़ुदा के नबी और एक पवित्र आचरणवाले व्यक्ति थे। इसी प्रकार बाइबल में हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) को भी एक व्यभिचारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। (3०19/31-38)

क़ुरआन का यह बहुत बड़ा उपकार है कि उसने नबियों के दामन को उस गंदगी से पाक किया जो गंदगी उनपर फेंकी गई थी। इसराईलियों ने अपने नबियों के चरित्र पर जो दाग़ लगाए थे, क़ुरआन ने उन सभी दाग़ों से उन्हें पाक घोषित किया। यहूदी रिब्बियों ने तो हज़रत सुलैमान (अलैहिस्सलाम) पर भी व्यभिचार का मिथ्यारोपण किया और कहा कि उन्होंने सबा की महारानी के साथ कुकर्म किया और इसी अवैध संबंध के बाद जो वंश चला उसी वंश में सम्राट बुख़्त नस्र पैदा हुआ, जिसने बैतुल-मक़दिस (एक सुप्रसिद्ध उपासना गृह) को नष्ट-भ्रष्ट किया। (Jewish Encyclopeadia, Vol-II, Page-443.)

वास्तव में बात यह है कि यहूदी विद्वानों में एक गिरोह ऐसा था जो हज़रत सुलैमान का विरोधी था। उस गरोह ने हज़रत सुलैमान पर तरह-तरह से मिथ्यारोपण किया, उदाहरणार्थ उसने बताया कि सुलैमान एक विलासी व्यक्ति था जिसे अपने शासन और बुद्धि एवं विवेक का अभिमान था। उसने तौरात के आदेशों का उल्लंघन किया। इसके अतिरिक्त इस गरोह ने उनपर मूर्तिपूजा और बहुदेववाद का भी मिथ्यारोपण किया। (Jewish Encyclopeadia, Vol-II, Page-439-443.)

यह इसी का प्रभाव है कि बाइबल में हज़रत सुलैमान को एक नबी के स्थान पर एक सम्राट के रूप में पेश किया गया है और एक ऐसा सम्राट जो ईश्वरीय आदेश का उल्लंघन करके बहुदेववादी स्त्रियों के भ्रमजाल में फँस गया था। ईश्वर से जिसका दिल फिर गया और ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे आराध्यों की ओर उन्मुख हो गया था। (1 राजा, 11/1-11)

क़ुरआन ने उनके सही चरित्र को पेश करते हुए कहा है कि हज़रत सुलैमान कुफ़्र से दूर रहनेवाले (2 : 102), एक सुचरित्र पैग़म्बर थे (4 : 163)। हमने (ख़ुदा ने) सुलैमान को और उनके पिता दाऊद को ज्ञान और प्रज्ञा प्रदान की थी (21 : 79)। हज़रत सुलैमान बड़े अच्छे ईशभक्त और ईश्वर की ओर अधिक उन्मुख रहनेवाले व्यक्ति थे (38: 30)।

तेरहवाँ उदाहरण

हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) का वृत्तांत बाइबल में भी वर्णित हुआ है और क़ुरआन में भी सविस्तार उनका वृत्तांत आया है। क़ुरआन ने जगह-जगह बाइबल की ग़लतियों का सुधार किया है और हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के वृत्तांत को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि वह मात्र एक कथा न होकर मानव-जीवन के लिए एक उज्ज्वल मार्गदर्शन सिद्ध होता है।

बाइबल में है कि जब हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) ने अपने एक अद्भुत स्वप्न का वर्णन अपने पिता से किया तो पिता ने क्रुद्ध होकर उन्हें डाँटा। क़ुरआन का बयान इससे बिलकुल भिन्न है। पिता ने बेटे का स्वप्न सुनकर कहा कि तुमने जो स्वप्न देखा है वह पूरा होकर रहेगा। यह एक शुभ-स्वप्न है। तुम इसे अपने भाइयों से बयान न करना। इससे उनमें ईर्ष्या जाग सकती है। तुम्हारा रब तुम्हें चुन लेगा। (क़ुरआन 12 4-6)

बाइबल और तलमूद में है कि यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के भाई अपने पशुओं को चराने के लिए शेकेम नगर की ओर गए थे। पिता ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) को उनकी खोज के लिए भेजा था। क़ुरआन में इसके विपरीत बताया गया है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के भाई स्वयं यूसुफ़ को अपने साथ ले गए थे। और इसके लिए उन्होंने अपने पिता को विश्वास में लिया था। वहाँ उन्होंने हज़रत यूसुफ़ को कुएँ में डाल दिया।

इसराइली उल्लेखों में आया है कि यूसुफ़ के भाइयों ने यूसुफ़ को बेच दिया था, क़ुरआन ने इसका खण्डन किया।

इसी प्रकार क़ुरआन के बहुत-से बयान बाइबल से अत्यंत भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि अल्लाह ने क़ुरआन में सूरा यूसुफ़ उतारकर बाइबल का सुधार किया है। किन्तु इस महान कार्य के महात्म्य का एहसास, पक्षपात के कारण, न यहूदियों को है और न ही ईसाइयों को।

चौदहवाँ उदाहरण

क़ुरआन में तालूत व जालूत का क़िस्सा बयान हुआ है और कहा गया है कि ये अल्लाह की आयतें हैं जिन्हें (ऐ नबी) हम हक़ के साथ तुम्हें पढ़कर सुना रहे हैं",(2 : 252)। यह ईश-वाणी है इसलिए इसपर विश्वास करना आवश्यक है। और इसमें लोगों के लिए मार्गदर्शन भी है। क़ुरआन में इस वृत्तांत को पढ़िए तो शुरू से आख़िर तक कहीं भी विरोधाभास दिखाई नहीं देता। न तो कोई अनावश्यक चीज़ बयान की गई है और न किसी ज़रूरी चीज़ को छोड़ा गया। तालूत के क़िस्से को यदि बाइबल की पुस्तक शमूएल (Samuel) में पढ़ा जाए तो क़ुरआन की विशेषता और महानता का अन्दाज़ा होगा। शमूएल में अनावश्यक चीज़ों की भरमार है, कई बातें ग़लत भी उल्लिखित हैं और बयान में विरोधाभास भी पाया जाता है।

तालूत को साऊल (Saul) के नाम से याद किया गया है। स्पष्ट है कि तालूत से सम्बंधित घटनाओं के घटित होने के दीर्घ समय के पश्चात् यह पुस्तक लिखी गई। लेखक को वास्तविक नाम भी याद न रहा। इस पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है कि साऊल (तालूत) को हज़रत दाऊद का परिचय जालूत के मारे जाने के पश्चात् प्राप्त हुआ था। पहले वे उन्हें नहीं जानते थे। दूसरे स्थान पर लिखा है कि साऊल पहले ही से हज़रत दाऊद को जानते थे। और समझते थे कि दाऊद (अलैहिस्सलाम) जालूत को क़त्ल कर डालेंगे।

इस पुस्तक में लिखा है कि साऊल अल्लाह का मसीह, अर्थात् अभिषिक्त (Anointed) और मुबारक बन्दा था। हज़रत शमूएल नबी ने उसे विशेष रूप से बरकत दी थी और उसे चूमा था। फिर देखें इसी मुबारक बन्दे साऊल पर यह आरोप लगाया जाता है कि जालूत के मारे जाने के पश्चात् हज़रत दाऊद की लोकप्रियता को वह सहन न कर सका और वह दाऊद (अलैहिस्सलाम) को मारने की साज़िश करता रहा, हालाँकि जालूत के मारे जाने के पश्चात् तालूत ने दाऊद के साथ अपनी बेटी की शादी भी कर दी थी। तालूत पर जो आरोपण किया गया है, उसपर विश्वास नहीं किया जा सकता। क्या हज़रत शमूएल ऐसे व्यक्ति को शासक के रूप में चुन सकते थे? क्या ईश्वर की ओर से इसकी अनुमति प्राप्त हो सकती थी।

पन्दरहवाँ उदाहरण

क़ुरआन का एक बड़ा एहसान यह है कि उसने इस रहस्य का उद्घाटन किया कि हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) को उनके शत्रु कोई हानि न पहुँचा सके। वे हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) को गिरफ़्तार करने में असफल रहे। न तो वे आप की हत्या कर सके और न उन्हें वे सूली पर चढ़ा सके और न उनके हाथों और पाँवों में मेख़ ठोंक सके। ईश्वर ने अपने पैग़म्बर को हर प्रकार के अपमान से सुरक्षित रखा। आपकी प्रतिष्ठा को किसी प्रकार का आघात नहीं पहुँचा।

जबकि बाइबल के अनुसार उन्हें अपमानित किया गया और तिरस्कृत अवस्था में सूली पर चढ़ाया गया तथा रात के अँधेरे में उनके शागिर्द उनका शव उठा कर ले गए।

इसी तरह बाइबल का बयान है कि जब हज़रत मसीह पर कठिन घड़ी आई तो उनके अनुयायी उन्हें छोड़कर भाग गए। उनमें से एक ने आपकी गिरफ़्तारी के दिन मुर्ग़ के बाँग देने से पहले-पहले तीन बार आपका इनकार किया। एक ने तो आपको पकड़वाने के सिलसिले में जासूसी भी की और इसके लिए रिशवत लेने में भी उसे कोई संकोच न हुआ। लेकिन यह सब कुछ हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) के अनुयायियों पर मिथ्यारोपण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह मिथ्यारोपण यहूदियों का दुस्साहस मालूम होता है। स्वयं सेन्ट पॉल ने जो यहूदी और ईसाइयों का शत्रु रहा है, मसीह (अलैहिस्सलाम) के अनुयायियों में ईसाइयत को विकृत करके रख दिया। इसी के कारण हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के हवारियों (अर्थात् शागिर्दों और अनुयायियों के विषय में) ये अनर्गल बातें फैलीं, यहाँ तक कि बाइबल में लिख दी गईं। लेकिन क़ुरआन का यह एक बड़ा एहसान है कि उसने बताया कि ईसा (अलैहिस्सलाम) के शागिर्द ऐसे न थे जैसा उन्हें बाइबल में दिखाया गया है। वे सच्चे और सच्चरित्र थे। उनका ईमान अत्यन्त सुदृढ़ था। क़ुरआन ने ईमान और धर्म की सेवा के प्रति उनके संकल्प को मुसलमानों के समक्ष आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है। (दे० क़ुरआन, 61 : 14)

क़ुरआन की तद्धिक सूचनाएँ

पैग़म्बरों के वृत्तांत के संबंध में बहुत-सी ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें क़ुरआन में उल्लिखित हुई हैं जिनका बाइबल में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यहाँ हम ऐसी कुछ चीज़ों का उल्लेख करना चाहेंगे—

1. क़ुरआन में आया है कि जब हज़रत मूसा की फ़िरऔन से पहली भेंट होती है तो दोनों के मध्य जो वार्तालाप हुआ है उसका संबंध एकेश्वरवाद और ईश्वर की प्रभुता एवं पालन-क्रिया से रहा है। मार्गदर्शन और सत्य की उपलब्धि की दृष्टि से इस वार्तालाप का बड़ा महत्त्व है। (क़ुरआन, 20 : 43-56)

2. इसी प्रकार क़ुरआन में है कि जब मूसा से मुक़ाबला करने के लिए फ़िरऔन ने जादूगरों को बुलाया, उस अवसर पर मुक़ाबला करने के लिए जो जादूगर आए थे, वे मूसा के चमत्कार को देखकर मूसा पर ईमान ले आए और उन्होंने इसकी कोई परवाह न की कि फ़िरऔन क्रुद्ध होकर उन्हें मृत्युदण्ड दे सकता है, बल्कि फ़िरऔन के मृत्युदण्ड की धमकी देने के पश्चात् भी वे अपने ईमान (विश्वास) पर अडिग रहे और उन्होंने जान जाने की कोई परवाह न की। हालांकि इससे पहले वे धन और सम्मान का लोभ लिए हुए फ़िरऔन के यहाँ पहुँचे थे। जादूगरों ने फ़िरऔन से कहा कि स्पष्ट निशानी देखने के पश्चात् ऐ फ़िरऔन! हम तुझे कदापि प्राथमिकता नहीं दे सकते। (क़ुरआन, 20:65-75)

इस महत्त्वपूर्ण और ईमानवर्धक घटना की ओर बाइबल में कोई संकेत नहीं किया गया। हालांकि सत्य की विजय की यह एक अमर घटना थी।

3. क़ुरआन में आया है कि फ़िरऔन को जब ईश्वर ने यातनाग्रस्त किया और वह पानी में डूबने लगा तो उस समय वह पुकार उठा कि मैं मूसा और हारून के रब के ऊपर ईमान ले आता हूँ, किन्तु अब बहुत विलम्ब हो चुका था और ईमान लाने और उसकी अपनी नीति के बदलने की अवधि समाप्त हो चुकी थी। अब इसके लिए कोई अवकाश शेष न था कि वह सरकशी और उद्दण्डता त्यागकर ईश्वर को समर्पित हो सकता और उसका समर्पण ईश्वर के यहाँ स्वीकृति प्राप्त कर सकता। इस शिक्षाप्रद और हृदय को हिला देनेवाली घटना के उल्लेख से बाइबल का दामन रिक्त है। क़ुरआन के बयान की पुष्टि तलमूद से होती है। तलमूद में आया है कि जलमग्न होते समय फ़िरऔन ने कहा था—

"ऐ प्रभु! मैं तुझपर ईमान लाता हूँ। तेरे अतिरिक्त कोई ईश नहीं है।"

4. क़ुरआन में हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की एक विशेष यात्रा का उल्लेख किया गया है, (18: 60-82)। उस यात्रा में हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) को कई चीज़ों का अनुभव हुआ और मानव-जीवन में पाए जानेवाले बहुत-से रहस्यों का उद्घाटन भी हुआ। किन्तु बाइबल के पृष्ठों में इस यात्रा को कोई स्थान नहीं दिया गया। तलमूद में इस घटना का उल्लेख मिलता है किन्तु उसमें इस यात्रा को हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) से नहीं, बल्कि किसी और व्यक्ति से संबद्ध किया गया है।

क़ुरआन में हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) और फ़िरऔन के वृत्तांत के सिलसिले में एक ऐसे आस्थावान व्यक्ति के साहस का वर्णन किया गया है जिसने फ़िरऔन के दरबार में सत्य की घोषणा की और निर्भय होकर फ़िरऔन से कहा कि तुम ऐसे व्यक्ति की हत्या करना चाहते हो जो कहता है कि मेरा प्रभु अल्लाह है, और वह निशानियों के साथ तुम्हारे पास आया है। उस व्यक्ति ने अपनी जातिवालों को भी संबोधित किया और उन्हें ईश्वर की पकड़ से डराया और उन्हें एक ईश्वर के आदेशानुपालन की शिक्षा दी। उस व्यक्ति ने यह भी कहा कि मैं जो कुछ तुम लोगों से कह रहा हूँ, उसे तुम याद करोगे। मैंने तो अपना मामला ईश्वर को सौंप दिया है, वह अपने बंदों पर निगाह रखता है, (दे० क़ुरआन, 40:26-45)। उस व्यक्ति का भाषण बड़ा ही प्रभावकारी और करुणा एवं दर्द से भरा हुआ है। किन्तु उस साहसी व्यक्ति का वृत्तांत न तो बाइबल में वर्णित हुआ और न ही अन्य ग्रंथों में।

5. क़ुरआन में क़ारून नामक व्यक्ति का वृत्तांत सविस्तार वर्णित हुआ है। क़ारून धन-संपत्ति की दृष्टि से अपने समय का कुबेर था। वह कई ख़ज़ानों का मालिक था, किन्तु हज़रत मूसा का विरोधी और ईश्वर से विमुख था। उसके दिल में ईश्वरीय आदेशों का कुछ भी आदर नहीं पाया जाता था। वह कहता था कि मुझे जो कुछ धन-संपत्ति प्राप्त है, वह मेरे अपने विवेक और प्रयास का फल है। अंततः ईश्वर ने उसे ज़मीन में धँसा दिया और उसका जीवन लोगों के लिए एक शिक्षाप्रद कहानी बनकर रह गया। (क़ुरआन, 28: 76-83)

बाइबल और तलमूद में इस महत्त्वपूर्ण घटना का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

6. क़ुरआन में हज़रत याक़ूब (अलैहिस्सलाम) की उस वसीयत का उल्लेख बड़े ही प्रभावयुक्त ढंग से किया गया है जो उन्होंने अपने बेटों को की थी। बेटों से उन्होंने पूछा था— "तुम मेरे बाद किसकी बंदगी करोगे?" उन्होंने उत्तर दिया कि हम उस ईश्वर की बंदगी करेंगे जो आपका और आपके पिता इबराहीम, इसमाईल और इसहाक़ का आराध्य है। हज़रत याक़ूब ने अपने बेटों को ताकीद की थी कि ईश आज्ञापालन के अतिरिक्त किसी और दशा में मृत्यु न आए। वे जीवन के अंतिम क्षण तक ईश्वर के आज्ञाकारी बने रहेंगे। यह वह वसीयत है जो हज़रत इबराहीम ने भी अपने बेटों को की थी। (क़ुरआन, 2:132-133)

इस महत्वपूर्ण वसीयत का उल्लेख बाइबल में नहीं पाया जाता। अलबत्ता तलमूद के बयान से इस वसीयत की पुष्टि होती है।

7. क़ुरआन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) के एक महत्त्वपूर्ण भाषण का उल्लेख किया गया है, जो उन्होंने कारागार में दो नव युवकों के समक्ष किया था। वे दोनों नव युवक भी कारागार में क़ैद थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) का यह अभिभाषण एकेश्वरवाद के विषय में एक अत्यंत उच्च कोटि का अभिभाषण है, जो अत्यंत अर्थगर्भित, तर्कयुक्त एवं हृदयस्पर्शी है। किन्तु बाइबल के पृष्ठों में इसे कहीं स्थान नहीं दिया गया।

8. क़ुरआन में है— अज़ीज़ की पत्नी ने, जिसने यूसुफ़ को रिझाने का असफल प्रयास किया था, मिस्र की स्त्रियों को अपने यहाँ आमंत्रित किया था ताकि वे परीक्षा करके देख सकें कि वह यदि यूसुफ़ को रिझाने में असफल रही तो इसका कारण यह नहीं है कि उसमें कोई कमी पाई जाती है, बल्कि इसका वास्तविक कारण यह है कि यूसुफ़ का व्यक्तित्व और चरित्र ही ऐसा है कि जिसे बुराई की ओर प्रवृत्त करना अत्यंत दुष्कर है।

इस घटना का भी उल्लेख बाइबल में कहीं नहीं मिलता।

इस प्रकार यदि बाइबल और क़ुरआन का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो स्पष्टतः यह तथ्य सामने आएगा कि क़ुरआन एक प्रामाणिक ईश्वरीय ग्रंथ है जिसने धर्म-लोक पर जो उपकार किया है, अविस्मरणीय है। इस अध्ययन से यह भी ज्ञात होगा कि नबियों और बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ किस-किस तरह अन्याय किया गया है और उनके चरित्र को स्वार्थी और वासनाओं में ग्रस्त लोगों ने दाग़दार और अपवित्र किया है और उन्हें अपने स्तर पर ले आने का दुष्प्रयास किया है। इसके उदाहरण हमें भारत की गाथाओं में भी स्पष्टतः मिलते हैं।

अध्याय-12

धर्मग्रंथों की भविष्यवाणियाँ हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन के संबंध में

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन के संबंध में प्राचीन धर्मग्रंथों में भविष्यवाणी की गई थी और बताया गया था कि अंतिम समय में एक ऐसा व्यक्ति धरती पर क़दम रखेगा जो महानता के चरमशिखर पर होगा। धर्मग्रंथों में उस आनेवाले व्यक्ति के गुणों और विशेषताओं का ही वर्णन नहीं किया गया, बल्कि यह भी बताया गया है कि वह कहाँ और कब पैदा होगा और किस नाम और उपाधि से आभूषित होगा। विस्तार में न जाकर हम कुछ भविष्यवाणियों का उल्लेख करना चाहेंगे, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का पदार्पण ईश्वरीय योजना के अंतर्गत हुआ है और आपके आगमन और आपके महान कार्य का मानव के इतिहास में इतना महत्त्व है कि आपके आगमन की पूर्वत् सूचनाएँ दी गईं, ताकि संसार आपको पहचान सके और आपके उस मार्गदर्शन से वंचित न रहे जिस मार्गदर्शन के द्वारा मनुष्य का जीवन नैतिकता एवं आध्यात्मिकता के उस उच्चतम स्तर को स्पर्श कर सकता है जिससे बढ़कर किसी ऊँचाई की कल्पना नहीं की जा सकती।

हिन्दू धर्म-ग्रन्थों की भविष्यवाणी

हिन्दुस्तान के धार्मिक ग्रंथों में वेदों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म में वेदों को धर्म का मूलाधार स्वीकार किया गया है। वेदों में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सिलसिले में कई भविष्यवाणियाँ की गई हैं और उनमें एक महान व्यक्तित्व नराशंस का उल्लेख बार-बार किया गया है। वेदों में नराशंस के विषय में जो कुछ कहा गया है और जिन गुणों से उन्हें विभूषित किया गया है, मानव-इतिहास में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के अतिरिक्त कोई उन गुणों और विशेषताओं पर पूरा उतरता दिखाई नहीं देता।

डॉ० वेदप्रकाश उपाध्याय जी [संस्कृत भाषा के एक बड़े ज्ञाता हैं। इन्होंने कई शोध कार्य किए हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वेद और हिन्दु धर्म-शास्त्र पर इनके शोध कार्य को बड़ी लोकप्रियता मिली है। 'हिन्दु-विधि', नराशंस और अन्तिम ऋषि आपकी ही सुप्रसिद्ध रचना है।] ने इस विषय पर सराहनीय शोध-कार्य किया है। उन्होंने वेदों, पुराणों एवं हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की जीवनी एवं शिक्षाओं का गहन अध्ययन करने के पश्चात् सिद्ध किया है कि हिन्दू धर्म-ग्रन्थों की 'नराशंस' एवं 'कल्कि' अवतार से संबंधित भविष्यवाणियाँ हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के रूप में चरितार्थ हो चुकी हैं। अर्थात् 'नराशंस' व 'कल्कि' अवतार हज़रत मुहम्मद ही हैं। डॉ० वेद प्रकाश जी की पुस्तकों 'नराशंस और अंतिम ऋषि' और 'कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब' के आधार पर हम यहाँ कुछ चीज़ें प्रस्तुत कर रहे हैं।

वेद [दे० : नराशंस और अंतिम ऋषि, पृ० 7-12] में नराशंस के विषय में उल्लेख है कि—

1. "लोगो, सुनो! नराशंस की प्रशंसा की जाएगी।" (अथर्व०20/127/1)

2. वह ऊँटों की सवारी करेगा। (अथर्व० 20/127/2)

3. वह बारह पत्नियोंवाला होगा। (अथर्व० 20/127/2)

4. वह सौ निष्कों से युक्त होगा। (अथर्व० 20/127/3)

5. उसे दस मालाएँ प्रदान की जाएँगी। (अथर्व० 20/127/3)

6. 300 अर्वन से युक्त होगा। (अथर्व० 20/127 / 3)

7. दस हज़ार गो से युक्त होगा। (अथर्व० 20/127/3)

8. वह अपने महत्त्व से घर-घर को प्रकाशित करेगा। (ऋ० 2/3/2)

9. पापों का निवारक होगा। (ऋ० 1/106/4)

विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि नराशंस से अभिप्रेत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही हैं। मुहम्मद का अर्थ होता है- "जिसकी सराहना या प्रशंसा की गई हो।" नराशंस का भी यही अर्थ होता है। दोनों शब्द समानार्थक हैं। नराशंस शब्द से यह बात भी स्पष्ट होती है कि प्रशंसित व्यक्ति मनुष्यों में से होगा। यह भी ज्ञात होता है कि नराशंस अतीत की किसी विभूति का नाम नहीं है, बल्कि भविष्य में प्रकट होनेवाला एक व्यक्ति है।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विषय में क़ुरआन में भी आया है—

"क्या हमने तुम्हारी ख्याति एवं कीर्ति को उच्चता प्रदान नहीं की।" (क़ुरआन, 94:4)

हम देखते हैं कि संसार में किसी व्यक्ति को वह सम्मान और ख्याति नहीं मिली जो ईश्वर ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को प्रदान की।

नराशंस के विषय में बताया गया है कि वह बारह पत्नियोंवाला होगा, तो यह बात भी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ही चरितार्थ होती है। जहाँ तक नराशंस की सवारी का उल्लेख है कि उसकी सवारी ऊँटों की होगी तो इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि आनेवाला महान व्यक्ति अरब देश का होगा। अरब ही में ऊँट की मुख्य सवारी रही है और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ऊँट ही पर सवार होते थे, और ऊँट ही पर आप सवार होकर मक्का से मदीना पहुँचे थे। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को संस्कृत में 'महामद' कहा गया। यह वास्तव में 'मुहम्मद' का ही संस्कृत रूप है। भाषा की प्रकृति के अनुसार नामों में कुछ-न-कुछ बदलाव हो ही जाता है। महामद नाम का कोई ऋषि हुआ भी नहीं है। इससे भी इसकी पुष्टि होती है कि यह नाम हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही के लिए प्रयुक्त हुआ है।

मंत्र में जिन 10 मालाओं का उल्लेख किया गया है, उनसे अभिप्रेत आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के वे 10 सहचर हैं जिनकी क़ुर्बानियाँ अद्भुत हैं और जिन्हें सांसारिक जीवन ही में जन्नती होने की शुभ-सूचना दी गई। 300 अर्वन अर्थात् घोड़े से संकेत आपके उन सूरमाओं की ओर है जिन्होंने बद्र के युद्ध में अपने शौर्य का परिचय दिया। दस हज़ार गायों से अभिप्राय उन दस हज़ार व्यक्तियों की ओर है जो अत्यंत पवित्रात्मा थे और जो मक्का-विजय के समय आपके साथ थे। गाय की उपमा का अर्थ यह होता है कि उनमें धैर्य, एकता आदि के गुण पर्याप्त मात्रा में पाए जाते थे। संस्कृत ग्रंथों में गो का रूपक प्रयुक्त हुआ है। वेदमंत्र में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिए 'रम्य' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ होता है 'प्रशंसा करनेवाला'। यह आपके विशेष नाम अहमद का पर्यायवाची है। आपको सत्य के प्रचार करने का आदेश दिया गया और आपने पूर्णत: इसका पालन करके दिखाया। वेद मंत्र के अनुसार आप सर्वोत्तम मनुष्य थे और जगनेता भी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जो संदेश लेकर आए थे वह किसी विशेष जाति, देश और वर्ग के लिए नहीं, बल्कि संसार के सारे ही मनुष्यों के लिए है। सामवेद के मंत्र में तो स्पष्टत: आपके नाम अहमद की ओर संकेत किया गया है। यद्यपि लोगों ने इसके समझने में ग़लती की है। इसमें संदेह नहीं कि आपको जो धर्मविधान देकर भेजा गया, वह धर्मविधान अक्षुण्य विशेषताओं से परिपूर्ण है।

नराशंस के लिए ऋग्वेद में 'प्रिय' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सबके लिए प्रिय रहे हैं और आज भी हैं।

वेदों के अतिरिक्त भविष्यपुराण और कल्किपुराण में भी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के संबंध में भविष्यवाणियाँ पाई जाती हैं। कल्किपुराण और भागवतपुराण में जिस अंतिम अवतार के गुण बयान हुए हैं वे सब हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर चरितार्थ होते हैं। भागवतपुराण में है कि वह बुरे लोगों को पराजित करेगा, न कि अच्छे लोगों को। वह तलवार का धनी होगा, उसमें सभी अच्छे गुण होंगे और वह जगत् का रक्षक होगा। (भागवतपुराण 12/2/ 19) कल्किपुराण में है कि अंतिम अवतार का जन्म शुक्ल पक्ष की 12वीं तिथि के बैशाख मास में होगा। उसमें कहा गया है कि अंतिम अवतार संभल में विष्णुयेशा के यहाँ पैदा होगा, माता का नाम सोमति होगा। (कल्कि 2/4/5) संभल का अर्थ होता है शांति या शांति-स्थल। वास्तव में यह मक्का नगर की उपाधि है। क़ुरआन में भी मक्का को शांतिमय भू-भाग कहा गया है। अंतिम अवतार के विषय में यह भी कहा गया है कि युद्ध में देवताओं के द्वारा सहायता पहुँचाई जाएगी। क़ुरआन से सिद्ध होता है कि युद्ध में फ़रिश्तों के द्वारा सहायता पहुँचाई गई है। [दे० 'कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब'; लेखक: डॉ० वेद प्रकाश उपाध्याय]

कल्कि अवतार के जन्म की जो तिथि बताई गई है वह हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की जन्म तिथि के अनुकूल पड़ती है।

बाइबल की भविष्यवाणियाँ

वर्तमान बाइबल में यूँ तो बहुत कुछ फेर-बदल हो चुका है, फिर भी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के शुभ आगमन की भविष्यवाणियाँ आज भी उसमें पाई जाती हैं।

1. बाइबल में है कि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने अपनी जाति के लोगों को संबोधित करते हुए कहा—

"तेरा प्रभु परमेश्वर तेरे मध्य से, अर्थात् तेरे भाइयों में से मेरे समान एक नबी को उत्पन्न करेगा। तू उसी की बात सुनना। यह तेरी उस विनती के अनुसार होगा, जो तूने होरेब पहाड़ के पास सभा के दिन अपने प्रभु परमेश्वर से की थी, कि मुझे न तो अपने प्रभु परमेश्वर का शब्द फिर सुनना, और न वह बड़ी आग फिर देखनी पड़े, कहीं ऐसा न हो कि मैं मर जाऊँ। तब प्रभु ने मुझसे कहा, वे जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। मैं उनके लिए उनके भाइयों के बीच में से तेरे समान एक नबी को उत्पन्न करूँगा और अपना वचन उसके मुँह में डालूँगा। और जिस-जिस बात की मैं उसे आज्ञा दूंगा वही वह उनको सुनाएगा। जो मनुष्य मेरे वह वचन जो वह मेरे नाम से कहेगा ग्रहण न करेगा तो मैं उसका हिसाब उससे लूँगा।" (व्यवस्था विवरण 18/15-19)

यह बाइबल की स्पष्ट भविष्यवाणी है जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सिवा किसी और पर चरितार्थ नहीं होती। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) अपनी जातिवालों को ईश्वर का यह आदेश सुना रहे हैं कि मैं तेरे लिए तेरे भाइयों में से एक नबी उत्पन्न करूँगा। स्पष्ट है कि भाइयों से अभिप्रेत एक दूसरी ऐसी जाति हो सकती है जिससे उसका भाई का नाता भी हो। अनिवार्यतः बनी-इसराईल के भाइयों से अभिप्रेत बनी-इसमाईल ही हो सकते हैं जिसमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पैदा हुए हैं। यदि आनेवाला नबी बनी-इसराईल में से होता तो भविष्यवाणी के शब्द ये होते, "मैं तुम्हारे लिए स्वयं तुम्हीं में से एक नबी उत्पन्न करूँगा।"

दूसरी बात इस भविष्यवाणी में यह कही गई है कि आनेवाला वह नबी हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) के समान होगा। समान होने का अर्थ यह है कि उस नबी को हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की तरह स्थाई रूप से धर्म-विधान (शरीअत) दिया जाएगा। यह विशेषता हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सिवा किसी को प्राप्त नहीं। क्योंकि आपसे पहले बनी-इसराईल में जो भी नबी आए, वे सब हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की लाई हुई शरीअत के अनुयायी थे।

2. इनजील यूहन्ना में आया है—

"यूहन्ना (यह्या अलैहिस्सलाम) की गवाही यह है कि जब यहूदियों ने यरूशलेम से याजकों और लेवियों को यूहन्ना से यह पूछने के लिए भेजा, 'तू कौन है?' तब यूहन्ना ने यह मान लिया और इनकार नहीं किया, परन्तु मान लिया और कहा, 'मैं मसीह नहीं हूँ।' तब उन्होंने यूहन्ना से पूछा, 'तो फिर तू कौन है? क्या तू एलियाह (इलियास) है?' यूहन्ना ने कहा, 'मैं नहीं हूँ।' उन्होंने पूछा तो क्या तू 'वह नबी है?' यूहन्ना ने उत्तर दिया, 'नहीं।' तब उन्होंने यूहन्ना से पूछा, 'फिर तू है कौन ताकि हम अपने भेजनेवालों को उत्तर दें? तुझे अपने विषय में क्या कहना है?' यूहन्ना ने कहा, 'मैं जैसा यशायाह नबी ने कहा है, निर्जन प्रदेश में पुकारनेवाले की आवाज़ हूँ। तुम प्रभु का मार्ग सीधा करो।' कुछ फ़रीसी भी भेजे गए थे। उन्होंने यूहन्ना से यह प्रश्न किया, 'यदि तू न मसीह है और न एलियाह और न 'वह नबी' है तो फिर तू बपतिस्मा क्यों देता है?' यूहन्ना ने उनको उत्तर दिया, 'मैं तो जल से बपतिस्मा देता हूँ। परन्तु तुम्हारे बीच में एक व्यक्ति खड़ा है जिसे तुम नहीं जानते। अर्थात् वह जो मेरे बाद आनेवाला है, जिसकी जूती का बंध तक मैं खोलने योग्य नहीं।' (यूहन्ना 1 : 19-28)

इनजील के इस बयान से ज्ञात होता है कि हज़रत ईसा मसीह के आगमन के समय बनी-इसराईल (इसराईल के वंशज) तीन व्यक्तियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक मसीह (अलैहिस्सलाम), दूसरे एलियाह और तीसरे 'वह नबी'। इनजील के शब्द इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि बनी-इसराईल हज़रत ईसा मसीह और हज़रत एलियाह (इलियास अलैहिस्सलाम) के अतिरिक्त एक और नबी की प्रतीक्षा में थे और उस नबी के आगमन की धारणा इसराईलियों में इतनी ख्याति प्राप्त कर चुकी थी कि उसकी ओर संकेत करने के लिए मात्र 'वह नबी' कह देना पर्याप्त था। इसके लिए यह कहने की भी आवश्यकता नहीं समझी गई कि 'वह नबी' के स्थान पर 'वह नबी जिसकी सूचना तौरात में दी गई है' कहा जाए। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जिस नबी की ओर वे संकेत कर रहे थे उसका आना निश्चित रूप से प्रमाणित था। इसी लिए हज़रत यह्या (अलैहिस्सलाम) से जब आनेवाले नबी के बारे में प्रश्न किया गया तो उन्होंने यह नहीं कहा कि अब कोई नबी आनेवाला नहीं है। तुम किस नबी के संबंध में पूछताछ कर रहे हो।

इनजील में स्वयं हज़रत ईसा मसीह ने भी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन की सूचना दी है—

"(मसीह ने कहा,) मैं तुम्हारे साथ और बातें न करूँगा, क्योंकि इस संसार का शासक आ रहा है। उसका मुझपर कोई अधिकार नहीं है।" (यूह० 14/30)

एक और स्थान पर आया है—

"मुझे तुमसे और भी बहुत-सी बातें कहनी हैं। परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह, अर्थात् सत्य की आत्मा, आएगा, तब तुम्हें सम्पूर्ण सत्य का मार्ग बताएगा। वह अपनी ओर से नहीं कहेगा, परन्तु जो कुछ वह सुनेगा वही कहेगा और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा। वह मेरी महिमा करेगा, क्योंकि जो मेरी बातें हैं वह उन्हें बताएगा।" (यू० 16/12-14)

बाइबल में बहुत कुछ फेर-बदल हुआ है फिर भी उसमें ईश्वर के अंतिम पैग़म्बर के आने की शुभ-सूचना और भविष्यवाणी स्पष्टतः पाई जाती है। उपर्युक्त उद्धरण में स्पष्टत: हज़रत मसीह अपने बाद आनेवाले व्यक्तित्व की सूचना दे रहे हैं, जिसके संबंध में वे कह रहे हैं कि वह दुनिया का सरदार अर्थात् जगत्-नायक होगा। सच्चाई का मार्ग दिखाएगा और स्वयं उनकी (अर्थात् ईसा अलैहिस्सलाम) की गवाही भी देगा। यूहन्ना के उद्धरण में 'सत्य की आत्मा' शब्द प्रयुक्त करके सच्चाई को छिपाने की कोशिश की गई है। किन्तु विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि जिसके आगमन की सूचना दी गई वह विशेष व्यक्ति और मनुष्य है, मात्र आत्मा नहीं जिसकी शिक्षा व्यापक रूप से प्रचारित होगी।

यूहन्ना में एक स्थान पर आनेवाले के लिए 'मददगार' शब्द प्रयुक्त किया गया है। (यू० 14/16) यूहन्ना की असल इनजील में यूनानी भाषा का जो शब्द प्रयोग किया गया था वह Paracletos (फारकलीत) था। इस शब्द का अर्थ होता है— जिसकी प्रशंसा की गई हो। यह शब्द मुहम्मद का समानार्थक है। ईसाइयों को आग्रह है कि यह शब्द Paracletos है। किन्तु इसके अर्थ के संबंध में ईसाइयों को परेशानी हुई है। यूनानी भाषा में Paraclet का अर्थ होता है— मदद के लिए पुकारना, किसी स्थान के लिए बुलाना आदि। स्पैनी भाषा में इसका अर्थ होता है— 'सांत्वना देना, शांति देना, साहस बढ़ाना।' बाइबल में यह शब्द जहाँ भी प्रयुक्त हुआ है उन स्थानों पर इनमें से कोई अर्थ ठीक नहीं बैठता। इसी लिए अनुवादकों में इस शब्द के अनुवाद में बड़ा मतभेद पाया जाता है। यूहन्ना की लिखी हुई प्रारंभिक यूनानी इनजील अब कहीं नहीं मिलती, जिससे यह फ़ैसला किया जा सके कि इन दोनों शब्दों में से कौन-सा शब्द यूहन्ना में प्रयुक्त हुआ था।

हज़रत ईसा मसीह (अलैहिस्सलाम) की अपनी भाषा यूनानी नहीं, बल्कि सुर्यानी थी। यूनानी भाषा में जो शब्द भी लिखा गया होगा वह मूल शब्द नहीं, बल्कि अनुवाद ही था। हज़रत मसीह ने जो शब्द अपनी शुभ-सूचना में प्रयुक्त किया होगा वह सूर्यानी भाषा का होगा। सौभाग्य की बात है कि वह मूल सुर्यानी शब्द हमें पुस्तक 'सीरत इब्ने-हिशाम' में मिल जाता है। और इस पुस्तक से यह भी ज्ञात होता है कि इसका समानार्थक यूनानी शब्द क्या होता है। इब्ने-हिशाम ने इनजील यूहन्ना अध्याय-15, आयत 23-27 और अध्याय 16 की आयतों का अनुवाद उद्धृत किया है। उसमें यूनानी शब्द की जगह पर सुर्यानी शब्द 'मुनहमन्ना' प्रयुक्त किया गया है, फिर यह भी स्पष्ट किया गया है कि 'मुनहमन्ना' का अर्थ सुर्यानी में मुहम्मद और यूनानी में 'बरकलीतस' होता है।

इतिहास बताता है कि फ़िलस्तीन के सामान्य ईसाई जनता की भाषा 9वीं शताब्दी ईसवी तक सुर्यानी थी। यह अधिक्षेत्र 7वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से इस्लामी अधिकाराधीन था। 'सीरत' के रचयिता इब्ने इसहाक़ की मृत्यु सन् 768 ई० में हुई है और इब्ने-हिशाम की मृत्यु सन् 828 ई० में। इस प्रकार इन दोनों के समय में फ़िलस्तीन के ईसाई सुर्यानी भाषा बोलते रहे हैं। उस समय यूनानी भाषा बोलनेवाले ईसाई भी लाखों की संख्या में इस्लामी अधिकाराधीन क्षेत्रों में रहा करते थे। इसलिए इनके लिए यह कुछ मुश्किल कार्य न था कि वे यह मालूम कर सकें कि सुर्यानी के किसी भी शब्द का यूनानी अनुवाद क्या हो सकता है। इब्ने-इसहाक़ ने सुर्यानी शब्द 'मुनहमन्ना' लिखा है और इब्ने इसहाक़ और इब्ने-हिशाम दोनों ही ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अरबी में इसका अर्थ मुहम्मद और यूनानी में बरकलीतस है। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) ने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन की शुभ-सूचना दी थी, क़ुरआन में भी आया है—

"और याद करो जबकि मरियम के बेटे ईसा ने कहा, ऐ इसराईल की संतान! मैं तुम्हारी ओर भेजा हुआ अल्लाह का रसूल हूँ। मैं तौरात की (उस भविष्यवाणी की) पुष्टि करता हूँ जो मुझसे पहले से विद्यमान है और एक रसूल की शुभ-सूचना देता हूँ जो मेरे बाद आएगा, उसका नाम अहमद होगा।" (क़ुरआन, 61:6)

अध्याय-13

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति ग़ैर-मुस्लिमों के उद्गार

अपनी पैग़म्बरी की अल्पावधि अर्थात् मात्र 23 वर्ष में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रयास से एक ऐसे समुदाय का आविर्भाव हुआ, जो ऐसा संगठित था, जिसका उदाहरण नहीं मिलता। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसे सत्य धर्म की स्थापना की जो आत्मा को विकसित करता और उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है। आपने एक ऐसे समाज का निर्माण किया जिसमें लोगों को समानता प्राप्त थी और सबको समान रूप से आगे बढ़ने का अधिकार भी प्राप्त था। आपने सत्य की स्थापना न्याय-शिला पर की और लोगों के सम्मुख ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिससे उच्च किसी आदर्श की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आपने लोगों को हर प्रकार के अनुचित बंधनों से मुक्त किया। चाहे वह ऊँच-नीच की भावना की हथकड़ी हो, या पुरोहितवाद आदि का संकुचित विधान। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के यहाँ सारी शक्ति और अधिकार एक ईश्वर के प्रति समर्पित रहा है। आप ने जीवन के आध्यात्मिक और अस्थाई भौतिक पहलुओं के मध्य एकात्मता पैदा की। आपने इसकी अधिघोषणा की कि सारे मनुष्य समान हैं। आपने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को हर प्रकार के शोषण और कुरीतियों से मुक्त किया, और एक ऐसे ईशभय-युक्त प्रबल लोकतंत्र की स्थापना की जिसमें वास्तविक मूल्य नैतिकता को प्राप्त था। नैतिक चेतना के समक्ष वंश, रंग और धन को कोई महत्त्व नहीं दिया गया। ऐसे समाज में एक मुस्लिम (अर्थात् ईश्वर का आज्ञाकारी) ऐसे नातेदार से अधिक प्रिय समझा गया जो नातेदार तो हैं किन्तु ईश्वर से विमुख हैं। हरेक को इसका अवसर दिया गया कि वह नैतिकता एवं आध्यात्म के उच्च से उच्च शिखर को प्राप्त कर सकता है।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ऐसे महानतम कार्य की उपेक्षा कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं कर सकता जो न्यायप्रिय और आपके व्यक्तित्व और आपके कारनामों से कुछ भी परिचित हो। यहाँ हम कुछ ऐसे विचारकों और मनीषियों के उद्गार प्रस्तुत करते हैं जो उन्होंने ईश्वर के अंतिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के संबंध में व्यक्त किए हैं—

1. थामस कार्लायल (Thomas Carlyle) ने अपनी पुस्तक (Heroes and Hero Worship) में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति लिखा है कि आप ऐसी शांत और महान आत्माओं में थे कि आपने जगत् को प्रकाशमान ही नहीं किया, बल्कि एक प्रकाशमान जगत् का निर्माण भी किया।

2. डॉ० लीवॉन ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति लिखा है—

"हज़रत मुहम्मद अत्यंत गंभीर, अल्पभाषी और दृढ़ संकल्प थे। जितने आप सचेष्ट थे, उतने ही आप धैर्यवान और सहनशील भी।" (इस्लामी संस्कृति)

3. डा० मीकाइल एच. हार्ट (Micheal H. Hart.) ने अपनी पुस्तक (The Hundred) में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति लिखा है—

"He was the only man in the history, who was supremely successful on both the religious and secular levels."

अर्थात् 'आप इतिहास के एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिसने अंतिम सीमा तक सफलता प्राप्त की, धार्मिक स्तर पर भी और सांसारिक स्तर पर भी।' (Dr. Micheal H. Hart. The 100, New York 1978.)

4. आर. डब्ल्यू. स्टूअर्ट कहते हैं—

"मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जलवा हर जगह देख सकते हैं। दिन में पाँच बार दिल्ली, हिजाज़, ईरान, काबुल, मिस्र और शाम में दुनिया के प्रत्येक भाग में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते जब देखें तो यह स्वीकार करें कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का धर्म सत्य है, जीवन्त है और जीवन्त रहेगा।" (Islam and It's Founder)

5. ईसाई डॉक्टर स्पिरिंगर कहते है—

"वह जिसके विचार में सदैव ईश्वर की धारणा रहती थी और जिसे उगते हुए सूर्य, बरसते हुए जल और उगती हरियाली में ईश्वर ही का हाथ दिखाई देता था और बादल की गर्जना, जल की आवाज़, ईश्वर की स्तुति में गाए जानेवाले पक्षियों के गान में ईश्वर ही की वाणी सुनाई देती थी और सुनसान जंगलों और पुरातन नगरों के खण्डरों में ईश्वरीय प्रकोप के चिह्न दिखाई देते थे (ऐसे थे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)।" (Life of Mohammad.)

6. सर बर्नार्ड शा (Sir Bernard Shaw) ने कहा—

"If any religion had the chance of ruling over England, ney Europe within the next hundred years it could be Islam."

अर्थात् "यदि किसी धर्म के लिए यह संभावना है कि वह अगले सौ वर्षों में इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप पर विजय प्राप्त कर सकता है, तो वह धर्म इस्लाम ही हो सकता है।"

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति उद्गार व्यक्त करते हुए बर्नार्ड ने कहा है—

"If a man like a Holy Prophet was to assume the Dictatorship of the Modern World, he would succeed in solving it's problems in a way that would bring it much needed peace and happiness."

"मेरा विश्वास है कि यदि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जैसे व्यक्ति को वर्तमान जगत् पर पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त होता तो वह जगत् की समस्त समस्याओं को हल करने में सफलता प्राप्त करता और इसके फलस्वरूप पूर्णत: वांछित शांति और सुख-समृद्धि प्राप्त होती।"

7. श्री देवदास गाँधी, जो दिवंगत महात्मा गांधी के पुत्र थे, अपने एक निबन्ध में लिखते हैं—

"एक महान् शक्तिशाली सूर्य के समान ईश्वर-दूत हज़रत मुहम्मद ने अरब की मरुभूमि को उस समय रौशन किया जब मानव-संसार घोर अंधकार में लीन था, और जब आप इस दुनिया से विदा हुए तो आप अपना सब काम पूर्ण रूप से पूरा कर चुके थे, वह पवित्रतम काम जिससे दुनिया को स्थाई लाभ पहुँचनेवाला था। दुनिया में सच्चे पथ-प्रदर्शक बहुत थोड़े हुए हैं और उनके युगों में एक-दूसरे से बहुत अन्तर रहा है, और वे लोग कि जिन्होंने मुहम्मद साहब के जीवन चरित्र का अध्ययन उसी श्रद्धा के साथ किया है जिसके वे अधिकारी हैं, इस बात के मानने पर बाध्य हैं कि आप महान् धर्म-उपदेशकों में से एक थे। आपकी महानता और गुरुता में उस समय और भी वृद्धि हो जाती है, जबकि आपका चित्र खींचते वक़्त हम उस नितांत आध्यात्मिक और नैतिक ह्रास की पृष्ठभूमि पर भी दृष्टि रखें जो आपके जन्म के समय अरब में विद्यमान थी।

मुहम्मद साहब एक सभ्य और उन्नतशील वातावरण की पैदावार न थे। आपके समय में एक आदमी भी ऐसा न था जिससे आप ब्रह्मवाद की शिक्षा ग्रहण करते, उस काल में ईश्वरीय धर्म के लिए तो अरब में जगह ही न थी, वह देश अपने अंधकारमय काल से गुज़र रहा था। जब ख़राबी और पतन अपनी सीमा को पहुँच गया तो उस समय आप ईश्वरीय अनुकम्पा बनकर उदित हुए। ऐसी दशा में यदि उन्हें 'रहमतुललिल् आलमीन' (संसार के लिए दयानिधि) की पदवी दी जाती है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

आपकी आदर्श जीवनी हमें बताती है कि आपने अपने उपदेश और प्रचार का जीवन भर यही नियम रखा कि जो कुछ अपने अनुयायियों को सिखाना चाहते थे, पहले वह सब स्वयं करके दिखा दिया और कभी ऐसे कार्य की शिक्षा न दी जिसका उदाहरण आपने उपस्थित न कर दिया हो।

आपके पवित्र जीवन में उस समय भी किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं आया जबकि आप पैग़म्बर के पद पर शोभायमान हो गए। आपने सम्पूर्ण जीवन उसी सरलता और सादगी से व्यतीत किया। सांसारिक सुख और जीवन के भोग-विलास उस समय भी आपको अपनी ओर आकर्षित न कर सके जब एक से अधिक साम्राज्यों का धन आपके चरणों में अर्पित हो रहा था। आपका भोजन बहुत ही सादा और थोड़ा होता था और उसे भी केवल इसलिए खाते थे कि जीवित रह सकें। चटाइयाँ और टाट आपके बिस्तर थे और इसी तरह पहनने के कपड़े भी बहुत साधारण होते थे। आपने कभी किसी को कटुवचन नहीं कहा, यहाँ तक कि लड़ाई के अवसर पर भी दुश्मनों के साथ आपका स्वर कोमल होता था। सत्य यह है कि आपको अपनी इच्छाओं और मनोभावों पर पूरा-पूरा संयम प्राप्त था। गीता में कर्मयोगी के जो गुण बताए गए हैं, वे सबके सब आपमें पूर्णतया मौजूद थे। आप अपने अप्रिय कर्तव्यों को भी सच्चे ईमान और सच्ची वीरता के साथ पूर्ण किया करते थे और इच्छाएँ या घमंड कभी आपके पगों में कम्पन उत्पन्न नहीं कर सकता था। कर्मयोगी उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने उत्तम विचारों को भी कार्य रूप में परिणत कर दे, और मुहम्मद साहब एक ऐसे ही व्यक्ति थे। एक नश्वर मनुष्य होते हुए भी आप अलौकिक गुण रखते थे। सुख-दुख, हर्ष, क्षोभ, जिनके प्रभावों के अन्तर्गत हम साधारण मनुष्यों के जीवन व्यतीत होते हैं और जो वास्तव में हमारे जीवन में क्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं, उनसे यह पवित्र और महान् आत्मा कभी प्रभावित न होती थी।

जो लोग समाज की वर्तमान व्यवस्था और प्रणाली को परिवर्तित करने में लगे हुए हैं और चाहते हैं कि इससे अच्छे समाज को जन्म दें, उनके दिलों पर जिस बात का गहरा प्रभाव पड़ेगा वह पैग़म्बर साहब का वह उच्च आदर्श है जिसे उन्होंने मेहनत-मज़दूरी के सम्बन्ध में क़ायम किया। इस ईशदूत ने ऐसे बहुत-से अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किए हैं, जिन्हें लोगों ने भुला दिया है। उनमें से एक यह है कि आप अपने कपड़ों की स्वयं मरम्मत करते थे। यही नहीं बल्कि अपने जूते भी ख़ुद ही टाँकते थे। आप घर के काम-काज में प्राय: अपने सेवकों की सहायता करते थे। मस्जिद के निर्माण में आपने मज़दूरों के साथ बराबर काम किया है। मज़दूरों के साथ काम करते वक़्त आप उनमें इस प्रकार घुल-मिल जाते थे कि कोई उन्हें पहचान न सकता था।

बच्चों से आपको विशेष लगाव था और उनके साथ आप बहुत प्रसन्न रहते थे। वे सौभाग्यशाली बच्चे जो आपके जीवनकाल में थे और जिन्हें आपका प्रेम प्राप्त रहा, अपने घरों में इतने प्रसन्न नहीं रहते थे जितना आपके साथ। बच्चों के साहचर्य में उठना-बैठना आपके लिए कोई इत्तिफ़ाक़ी बात न थी, बल्कि यह आपका नियम और कार्यक्रम था कि बच्चों को ढूँढकर उनके साथ हो जाते और अपने उत्तम विचार उनके मस्तिष्कों में अर्पित कर देते। क्या शिक्षा और उपदेश का इससे अधिक स्वाभाविक और सरल ढंग कोई और हो सकता है?"

कुछ ग़ैर मुस्लिमों के विचार : क़ुरआन के विषय में

रोडवेल

"यूरोप को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह क़ुरआन का आभारी है। क्योंकि क़ुरआन ही था जिसके कारण यूरोप में ज्ञान-विज्ञान का सूर्य उदय हुआ।"

जर्मन कवि गोयटे (Goethe)

"पहली दृष्टि में क़ुरआन अपने पढ़नेवाले को आश्चर्यचकित कर देता है, किन्तु शीघ्र ही वह अपने आकर्षण की असाधारण क्षमता से उसे अपनी ओर मोहित कर लेता है और अंतत: पाठक उसके सौंदर्य में डूबकर रह जाता है। एक दीर्घ समय से ग़ैर मुस्लिम विद्वान क़ुरआन और उसके लानेवाले को संदिग्ध और विवादास्पद बनाने में लगे हुए थे, किन्तु जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान का भाव हमने अपनाया और अज्ञान तथा पक्षपात के आवरण हटे क़ुरआन की महानता ने हमें आश्चर्य में डाल दिया। वह समय दूर नहीं जब यह किताब सम्पूर्ण संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करके ज्ञान-विज्ञान और तत्वदर्शिता पर अत्यन्त गहरे और व्यापक प्रभाव डालेगी और इसे मार्गदर्शन के विश्वकोश की हैसियत से स्वीकार कर लिया जाएगा।"

जॉर्ज सेल

“क़ुरआन अरबी भाषा में संसार का उत्तम और सबसे प्रामाणिक ग्रंथ है। किसी मनुष्य की लेखनी ऐसा चमत्कारपूर्ण ग्रंथ नहीं लिख सकती और यह मुर्दों को जीवित करने से बढ़कर चमत्कार है।"

डॉ० गिबन (Dr. Gibbon)

"क़ुरआन एकेश्वरवाद का सबसे बड़ा साक्षी है। एक एकेश्वरवादी दार्शनिक यदि कोई धर्म स्वीकार कर सकता है तो वह इस्लाम ही है। सारांश यह कि सम्पूर्ण विश्व में क़ुरआन अप्रतिम है।"

प्रो० कार्लयर

"मेरी दृष्टि में क़ुरआन में विशुद्धता और सच्चाई का गुण हर पहलू से पाया जाता है और सत्य तो यह है कि अगर कोई ख़ूबी पैदा हो सकती है, तो इसी से पैदा हो सकती है।"

मेकस्वेयल किंग

"क़ुरआन इलहामों (प्रकाशनाओं) का संग्रह है। इसमें इस्लाम के सिद्धांत, क़ानून, नैतिक शिक्षा और दैनिक व्यवहार के विषय में आदेश मौजूद हैं। इस्लाम को ईसाइयत पर उच्चता प्राप्त है। उसकी धार्मिक शिक्षा और क़ानून अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं।"

ए० जी० आरबेरी

"साहित्यिक गुणों और लालित्य के अतिरिक्त क़ुरआन के चमत्कारयुक्त प्रभाव का एक कारण उसकी संग्राहकता का गुण है। संसार में जितने आसमानी ग्रंथ इस समय किसी-न-किसी रूप में पाए जाते हैं, उनमें क़ुरआन के सिवा अन्य सब संग्राहकता के गुण से वंचित हैं।

तौरात संसार की जातियों के इतिहास और क़ानून और आदेशों का संग्रह है। ज़बूर प्रार्थनाओं का संग्रह है। बाइबल की पुस्तक अय्यूब में केवल आस्था और समर्पण की शिक्षा पाई जाती है। सुलैमान के नीतिवचन (Proverb) केवल उपदेशों पर आधारित हैं। इनजील (Gospel) हज़रत मसीह के वृत्तांत और नैतिक शिक्षाओं का संग्रह है। किन्तु क़ुरआन सबका संग्राहक है। वह तौरात भी है, इनजील भी और तद्धिक जातियों का इतिहास भी है। नैतिक उपदेश और उसमें प्रार्थनाएँ भी हैं। परिपूर्ण धर्म की धारणाएँ भी और उपासनाओं के तरीक़े भी उसमें मौजूद हैं और मामलों से संबंधित आदेश और क़ानून भी। सारांश यह कि एक मुस्लिम के जीवन के हर कालखण्ड और हर विभाग के लिए उसमें पूर्ण आदेश और स्पष्ट शिक्षाएँ पाई जाती हैं।"

आचार्य रजनीश (ओशो)

"जो व्यवस्था (संरचनाशैली) क़ुरआन की है, उस ढंग की व्यवस्था न बाइबल में है, न उपनिषद् में है, न गीता में है। क़ुरआन एक अर्थ में सर्वांगीण है। वह सिर्फ़ धर्म ही नहीं है, वह समाजशास्त्र भी है। वह सिर्फ़ समाजशास्त्र नहीं है, राजनीति भी है। जीवन की क्षुद्रता से लेकर ब्रह्म की विराटता तक सबको क़ुरआन ने समा लिया।" (ध्यान और प्रेम पृ० 76)

पाठकों से

अंत में हम अपने पाठकों से एक अनुरोध करना चाहेंगे। आपने इस पुस्तक का अध्ययन किया। यह अध्ययन वास्तव में एक ऐसा अध्ययन है जैसे किसी स्वास्थ्य संबंधी पुस्तक का अध्ययन न होकर स्वयं आपके अपने स्वास्थ्य का अध्ययन होता है। आप उस अध्ययन से इस योग्य हो जाते हैं कि आप यह ज्ञात कर सकें कि आपका अपना स्वास्थ्य कैसा है और स्वस्थ रहने के लिए किन नियमों का पालन आवश्यक होता है। स्वास्थ्य के बिगाड़ के मूलतः क्या कारण होते हैं? मनुष्य का यह कर्तव्य होता है कि अपने को स्वस्थ और निरोग रखे। उसे शरीर इसलिए नहीं मिला है कि वह उसकी उपेक्षा करे और अपने स्वास्थ्य के प्रति ग़ाफ़िल होकर रहे।

रिसालत अथवा पैग़म्बरी की सत्यता और पैग़म्बरों के मार्गदर्शन और उनके प्रयासों आदि के अध्ययन से यह विदित होता है कि मानव केवल शरीर ही नहीं रखता बल्कि उसका एक नैतिक और आत्मिक व्यक्तित्व भी है। सफलता के लिए केवल शारीरिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए ज़रूरी हुआ करता है कि मनुष्य अपनी आत्मा के प्रति भी सजग हो और इस संबंध में अपने कर्तव्यों के पालन की उपेक्षा न करे। हमारे व्यक्तित्व का निर्माण इसके बिना संभव नहीं। इस सिलसिले में पैग़म्बर के अतिरिक्त कोई और हमारा मार्गदर्शन नहीं कर सकता। इसी लिए ईश्वर ने दुनिया में पैग़म्बरों का क्रम जारी किया और यह सिलसिला शताब्दियों तक जारी रहा। यह सिलसिला ईश्वर के अंतिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन पर समाप्त होता है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उन सभी पैग़म्बरों का प्रतिनिधित्व किया, इस अर्थ में कि आपने संसार को उसी सत्य की ओर बुलाया जिसकी ओर समस्त पैग़म्बर बुलाते आए हैं।

प्रिय पाठकगण! यह निर्णय करना आपका काम है कि आप अपने जीवन को सफल देखना चाहते हैं या असफल। सफलता प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि ईश्वर ने इसके लिए जो मार्ग प्रशस्त किया है उस मार्ग को आप अपनाएँ। इस प्रकार इस लोक और परलोक दोनों में अपने प्रभु की प्रसन्नता और सफलता प्राप्त करें। हमारी शुभ कामनाएँ आपके साथ हैं।

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