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इल्मे-हदीस - एक परिचय (हदीस लेक्चर-1)

इल्मे-हदीस - एक परिचय (हदीस लेक्चर-1)

लेक्चर: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

अभिभाषण दिनांक: सोमवार, 6 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 होगी, इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा करेंगे। इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा होगी, इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा होगी और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन करने का प्रयास किया जाएगा।]

इलमे-हदीस का परिचय

आज की चर्चा का विषय है— इल्मे-हदीसः एक परिचय। इल्मे-हदीस के परिचय की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि आम तौर से मुसलमान हदीस से तो परिचित होता है, उसको यह भी मालूम होता है कि हदीस क्या है? और इस्लाम में हदीस का महत्व क्या है? लेकिन बहुत-से लोगों को यह पता नहीं होता कि कलात्मक दृष्टि से इल्मे-हदीस का क्या अर्थ है? हदीस और उससे मिलती-जुलती इस्तिलाहात (पारिभाषिक शब्दों) का अर्थ क्या है? इन इस्तिलाहात का प्रयोग इल्मवालों के यहाँ किन-किन अर्थों में हुआ है? यह और इस प्रकार की बहुत-सी कला-संबंधी जानकारी ऐसी है जिसे बहुत-से लोग अनजान हैं। इस अनभिज्ञता के कारण बहुत-सी समस्याएँ और ख़राबियाँ पैदा होती हैं। क़ुरआन मजीद की व्याख्या एवं टीका का सवाल हो, फ़िक़्ही अहकाम (इस्लामी धर्मशास्त्र संबंधी आदेश) और शरीअत के मसाइल का मामला हो, या शरीअत के हुक्मों का क्रम से होने या परस्पर मेल का सवाल हो, इन सब चीज़ों को ठीक-ठीक समझने के लिए इल्मे-हदीस की फ़न्नी (कलात्मक) जानकारी ज़रूरत भर रखना अनिवार्य है।

हर मुसलमान जानता है कि क़ुरआन मजीद एक पूरी किताब है। पूरा क़ुरआन उस किताब के अन्दर लिखा हुआ है। उससे बाहर क़ुरआन का कोई वुजूद नहीं है और सारे का सारा क़ुरआन उस किताब के अन्दर समा गया है, लेकिन हदीस या सुन्नत के बारे में ऐसी कोई किताब नहीं पाई जाती, जिसके बारे में कहा जा सके कि हदीस या सुन्नत पूरी की पूरी उस किताब में मौजूद है।

हदीसों के इतिहास, तदवीन (संकलन) रिवायत (उल्लेख) और दिरायत (तार्किक कसौटी पर परखने) के बारे में बहुत-सी किताबें लिखी गई हैं। ख़ुद हदीसों के बहुत-से संग्रह आरंभिक शताब्दियों से चले आ रहे हैं। बाद की सदियों में संकलित होनेवाले भी बहुत-से संग्रह मिलते हैं, जिनमें बहुत-सी हदीसें विभिन्न विषयों पर विभिन्न उद्देश्यों के लिए इकट्ठा की गई हैं। इन सब किताबों से सुन्नत का पता चलता है। इसलिए जब तक इस्लामियात (इस्लाम संबंधी ज्ञान) के छात्रों को आम तौर से और क़ुरआन मजीद के छात्रों को विशेष रूप से भली प्रकार यह पता न हो कि हदीस और सुन्नत किसको कहते हैं। हदीस की जो किताबें हमारे सामने हैं उनसे लाभ उठाने का तरीक़ा क्या है। हदीस की किसी किताब में अगर कोई हदीस लिखी हुई है तो उसकी रौशनी में क़ुरआन को कैसे समझा जाए? जब तक इन सब मामलों की गहरी जानकारी न हो उस समय तक कुरआन को ठीक-ठीक समझना बहुत कठिन है। इन तमाम बातों को जानने और समझने के विस्तृत नियम एवं सिद्धांत निर्धारित हैं, जिनका पिछले तेरह सौ वर्षों से पालन होता चला आ रहा है और क़ुरआन तथा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को उन नियमों एवं सिद्धांतों की रौशनी में समझा जा रहा है।

यह समझना कि क़ुरआन और सुन्नत किसी अंतरिक्ष या शून्य स्थान में पाए जाते हैं और बिना किसी सम्पर्क के आज जिसका जो जी चाहे, क़ुरआन की आयतों का वही अर्थ निकाल ले, यह सोचना सही नहीं है। क़ुरआन मजीद एक क्रमबद्ध रूप से हम तक पहुँचा है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा (मुहम्मद सल॰ के साथियों) को इसका अर्थ समझाया। सहाबा (रज़िअल्लाह अन्हुम) ने वही अर्थ ताबिईन (सहाबा के बाद आनेवाले लोगों) को समझाए और इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी एक वर्ग के बाद दूसरा वर्ग और दूसरे के बाद तीसरा वर्ग इसको सीखता गया और इस प्रकार यह मार्गदर्शन हम तक पहुँचा है। इसलिए अतीत और वर्तमान में ख़ुदा न करे कि अगर कोई शून्य पैदा हो गया, या हमारी समझ में कोई ख़राबी आ गई कि जिसमें अतीत से हमारा सम्पर्क टूट जाए तो फिर क़ुरआन को समझने में बड़ी भ्रांतियाँ पैदा हो जाने की संभावनाएँ हैं। निकट अतीत में स्वयं हमारे देश में बहुत-सी पथभ्रष्ट करनेवाली चीज़ें पैदा हुईं कि कुछ लोगों ने सुन्नते-रसूल की इस क्रमिकता को, हदीसों से संबंधित पूरे इल्मो-फ़न (ज्ञान और कला) को और क़ुरआन की व्याख्या के उन सारे नियमों को अनदेखा करके केवल अपने अरबी भाषा-ज्ञान तथा मात्र अपनी बुद्धि की सहायता से क़ुरआन को समझने की कोशिश की। इसके परिणामस्वरूप बहुत-सी ख़राबियाँ और कमज़ोरियाँ पैदा हुईँ। इसलिए क़ुरआन मजीद को समझने के लिए इल्मे-हदीस की जानकारी अनिवार्य है। इल्मे-हदीस की ज़रूरत और महत्व पर विस्तृत चर्चा बाद में होगी, लेकिन इस आरंभिक वार्ता से यह अन्दाज़ा हो गया होगा कि इस्लामी ज्ञान में आम तौर पर और क़ुरआन को समझने में विशेषकर इल्मे-हदीस का महत्व कितना है।

हदीस का शब्दकोशीय अर्थ

शब्द ‘हदीस’, जिसको इस ख़ास फ़न (कला) के पारिभाषिक शब्द के रूप में इस्तेमाल किया गया है, अरबी भाषा में बहुत-से अर्थों के लिए प्रयुक्त होता है। अरबी भाषा में हदीस का अर्थ ‘बात’ या ‘वार्ता’ भी है। हदीस का अर्थ ‘नई बात’ भी है और हदीस का अर्थ कोई महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय घटना भी है। नई चीज़, नई बात, महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय घटना, कोई वार्ता या कोई वाणी, उसको अरबी भाषा में हदीस कहते हैं। आपने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का प्रसिद्ध कथन सुना होगा जिसमें आपने कहा है—خَیْرُالْحَدِیْثِ کِتٰبُ اللہِ  (ख़ैरुल हदीसि किताबुल्लाह) और एक जगह है— اَحْسَنُ الْحَدِیْثِ کِتٰبُ اللہِ (अहसनुल हदीसि किताबुल्लाह) यानी सबसे अच्छी बात, सबसे अच्छा कलाम (वाणी) अल्लाह का कलाम है। यानी हदीस और कलाम (वाणी) दोनों कभी-कभी पर्यायवाची के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं।

अज्ञानकाल में अरबों में आपस में जंगें होती रहती थीं और आपस में मतभेद भी होते रहते थे। जब एक क़बीले की दूसरे क़बीले से जंग होती थी, तो जीतनेवाला क़बीला अपनी जीत को एक ऐतिहासिक जश्न के रूप में याद रखता था। उसका विस्तृत विवरण क़बीले के ख़तीबों (वक्ताओं), कवियों और आम लोगों द्वारा गर्व के साथ सुरक्षित रखा जाता था। इन घटनाओं को ‘अय्यामुल-अरब’ के नाम से याद रखा जाता था, यानी अरब वासियों के विशेष या ऐतिहासिक या उल्लेखनीय दिन। इन प्रसिद्ध दिनों को ‘अहादीस’ भी कहा जाता था। ‘अहादीसुल-अरब’ अर्थात् वे ऐतिहासिक घटनाएँ जो किसी क़बीले के इतिहास में उल्लेखनीय हैं और क़बीला गर्व के रूप में उसका उल्लेख करता था।

‘अहादीस’ का शब्द ‘अहदूसा’ का बहुवचन है। लेकिन मुहद्दिसीन के यहाँ शुरू ही से आम प्रचलन यह रहा है कि ‘हदीस’ के बहुवचन के रूप में ‘अहादीस’ शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। अस्ल अरबी शब्दकोश की दृष्टि से ‘अहादीस’ बहुवचन है ‘अहदूसा’ का, यानी कोई ख़ास बात या कोई ऐसी प्रमुख चीज़ या नई (Novel) चीज़, जिसको लोग याद रखें, उसका बहुवचन ‘अहादीस’ है।

क़ुरआन मजीद में भी यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कहा गया है—فَجَعَلْنٰهُمْ اَحَادِیْثَ وَ مَزَّقْنٰهُمْ كُلَّ مُمَزَّقٍؕ (फ़-जअल-नाहुम अहादी-स व मज़्ज़क़नाहुम कुल-ल मुमज़्ज़िक़) “हमने उन्हें भूली-बिसरी कहानियाँ बना दिया।” (क़ुरआन, 34/19) मानो ‘अहादीस’ का अर्थ कोई ऐतिहासिक घटना तथा ऐतिहासिक वृत्तांत भी है। हदीस का अर्थ नई चीज़ भी है। हदीस का शब्द ‘क़दीम’ (प्राचीन) के विलोम के रूप में भी बोला जाता है। अल्लाह का अस्तित्व ‘क़दीम’ है। हमेशा से है, हमेशा रहेगा। इसलिए उसका कलाम भी हमेशा रहनेवाला है। क़ुरआन मजीद ‘कलामे-क़दीम’ (प्राचीन वाणी) है, और अगर वह ‘कलामे-क़दीम’ है तो मानो उसके प्रसंग में हदीसे-रसूल को ‘कलामे-हदीस’ यानी नया कलाम (नई वाणी) ठहराया गया। दोनों वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) हैं। दोनों अल्लाह की ओर से हैं। एक कलामे-क़दीम है जो प्राचीन काल से चला आ रहा है। एक नया कलाम है, जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आगमन के बाद, उनके जीवनकाल में उनके द्वारा इंसानों तक पहुँचा। इसलिए भी इल्मे-हदीस को हदीस कहा जाता है।

क़ुरआम मजीद में हदीस का शब्द शब्दकोशीय अर्थ में विभिन्न स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। स्वयं क़ुरआन के लिए भी प्रयुक्त हुआ है—فَالْیَاتُوْا بِحَدِیْثٍ مِنْ مِّثْلِہٖ (फ़ल-यातू बिहदीसिम-मिम-मिसलिहि) इस जैसी एक हदीस, या इस जैसा एक कलाम, या इस जैसी वार्ता बनाकर ले आओ। यहाँ हदीस का शब्द कलाम और वार्ता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी तरह से ख़ुद हदीस की किताबों में शब्द हदीस शब्दकोशीय अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है और अल्लाह के रसूल के कथनों के लिए भी इस्तेमाल हुआ है।

हदीसे-नबवी

फिर भी जब यह शब्द यानी इल्मे-हदीस एक फ़न्नी इस्तिलाह (कलात्मक शब्दावली) को रूप में प्रयुक्त होता है तो इससे मुराद वे तमाम चीज़ें होती हैं जिनका उद्देश्य अल्लाह के रसूल के व्यक्तित्व, कर्मों तथा उनके हालात का पता लगाना होता है। अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी एक मशहूर मुहद्दिस (हदीसें बयान करनेवाले) हुए हैं। उन्होंने हदीस की प्रसिद्ध किताब बुख़ारी की व्याख्या भी लिखी है और वे प्रसिद्ध फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) भी थे। उन्होंने इल्मे-हदीस की परिभाषा यह की है—“इल्मे-हदीस वह इल्म है जिसके द्वारा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन, कर्म और हालात मालूम किए जाएँ।”

इल्मे-हदीस के इतिहास में मुहद्दिसीन के बीच आरंभ से हदीस की शाब्दिक परिभाषा के बारे में मतभेद चला आ रहा है। और वह मतभेद यह है कि क्या केवल अल्लाह के रसूल के कथनों, कर्मों और हालात का नाम हदीस है या सहाबा या ताबिईन के कथनों, कर्मों और हालात का नाम भी हदीस है।

कुछ लोगों का विचार है कि सहाबा के कथनों, कर्मों तथा हालात तो हदीस में शामिल हैं, लेकिन ताबिईन के कथन, कर्म और हालात हदीस के अर्थ में सम्मिलित नहीं हैं। कुछ और लोगों का कहना है कि ताबिईन के कथन, कर्म और हालात भी हदीस के अन्तर्गत आते हैं। इस दृष्टि से इल्मे-हदीस की परिभाषा में थोड़ा सा अन्तर हो जाएगा। जो लोग केवल अल्लाह के रसूल के कथनों, कर्मों और हालात को हदीस कहते हैं, वे इसकी वह परिभाषा करेंगे जो अभी मैंने बताई है। जो लोग सहाबा और ताबिईन के कथनों, कर्मों तथा हालात को भी हदीस के अर्थ में शामिल ठहराएँगे वे उसकी परिभाषा में सहाबा और ताबिईन के शब्द भी शामिल करे देंगे।

इस मतभेद से यह न समझिएगा कि इससे इलमे-हदीस के संग्रह पर कोई अन्तर पड़ता है। इल्मे-हदीस का संग्रह वही है, चाहे आप यह परिभाषा अपनाएँ या वह परिभाषा अपनाएँ या कोई तीसरी परिभाषा अपनाएँ। इसलिए कि जो लोग सहाबा के कथनों को भी हदीस ठहराते हैं, वे उनको इसलिए हदीस क़रार देते हैं हैं कि सहाबा किराम के कथनों से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों और हालात का पता चलता है। सहाबा किराम (रज़िअल्लाह अन्हुम) के सामूहिक व्यवहार से पता चलता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का रवैया क्या था। मिसाल के तौर पर अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) का नियम यह था कि वे कोई काम सुन्नते-रसूल (अल्लाह के रसूल का तरीक़ा) से हटकर नहीं करते थे। हर काम सौ प्रतिशत उसी प्रकार करने की कोशिश किया करते थे, जिस प्रकार अल्लाह के रसूल ने किया हो। चाहे अल्लाह के रसूल ने वह काम बतौर सुन्नत के किया हो या आदत के तौर पर, या अपनी निजी पसन्द के रूप में किया हो, जिस चीज़ का दीन या शरीअत से कोई संबंध न भी हो, उसको भी अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) उसी प्रकार करने की कोशिश करते थे। अब अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) का अपना व्यवहार इस दृष्टि से तो उनका अपना व्यवहार है कि एक सहाबी का व्यवहार है, लेकिन इससे यह अन्दाज़ा ज़रूर हो सकता है कि अल्लाह के रसूल ने किसी ख़ास मामले में क्या रवैया अपनाया होगा। अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु)  के रवैये से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रवैये की सीधे तौर पर निशानदेही होती है, तो इस अर्थ की दृष्टि से सहाबा के कथन, कर्म और हालात भी हदीस का हिस्सा हो जाएँगे। यही स्थिति ताबिईन की है कि ताबिईन में हज़ारों इंसान और हज़ारों पवित्र लोग ऐसे थे कि जिन्होंने इल्मे-हदीस पर काम किया। लेकिन ऐसे भी थे जिनका इल्मे-हदीस अधिक ध्यान देने योग्य नहीं था। वे जीवन की अन्य गतिविधियों में अपना समय लगाते थे। लेकिन उनमें बहुत-से लोगों के रवैये और व्यवहार से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रवैये की निशानदेही होती थी। इसलिए इल्मे-हदीस की परिभाषा में ये दोनों चीजें कुछ लोगों ने शामिल की हैं।

हदीस की परिभाषा

यह तो इल्मे-हदीस की परिभाषा हुई, ख़ुद हदीस की परिभाषा क्या है? जिसका ज्ञान, इल्मे-हदीस कहलाता है। हदीस की अत्यंत संक्षिप्त तथा सारगर्भित परिभाषा यह है, जो एक बड़े मुहद्दिस ने की है, वे कहते हैं कि—“हर वह चीज़ जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व से संबंध रखती है, वह हदीस है और इल्मे-हदीस में शामिल है। अल्लाह के रसूल ने कौन-सी बात कैसे कही, कोई काम कैसे किया, आपका रवैया क्या था, आपका व्यक्तित्व, हर चीज़ का संबंध अल्लाह के रसूल से है, वह हदीस है।”

यह हदीस की अत्यंत संक्षिप्त परिभाषा है। इसमें वे चीज़ें भी शामिल हैं जिनका संबंध मुहम्मद साहब से प्रमाणित हो चुका है और वे उल्लेख भी शामिल हैं जिनका संबंध मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रमाणित नहीं हो सका, यानी वे कमज़ोर हैं और वे उल्लेख भी शामिल हैं जिनका संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ना, बुहते से विद्वानों की दृष्टि में ठीक नहीं है। बहरहाल, जो बात भी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दी गई, वह हदीस में शामिल हो गई। फिर हदीस की विभिन्न श्रेणियाँ हैं, जिनपर हम आगे चलकर बात करेंगे।

इल्मे-हदीस का विषय

हर इल्म (ज्ञान) का एक विषय होता है। अर्थव्यवस्था का एक विषय है। राजनीति का एक विषय है, तार्किकता और दर्शन का एक विशेष विषय है। हर किताब का भी एक विषय होता है। मुहद्दिसीन ने यह सवाल भी उठाया कि इल्मे-हदीस का विषय क्या है? इल्मे-हदीस का विषय मुहद्दिसीन ने “रसूल का व्यक्तित्व इस हैसियत में कि वे अल्लाह के पैग़म्बर हैं” यह इल्मे-हदीस का विषय है।

कुछ इस्लामी विद्वानों को इस मत को अपनाने में संकोच हुआ कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अस्तित्व को हदीस का विषय बनाएँ। उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति का अस्तित्व चिकित्सा का विषय हो सकता है, मेडिकल साइंस का विषय बन सकता है, इल्मे-हदीस का विषय कैसे होगा? लेकिन वे यह भूल गए कि इस परिभाषा के अंत में यह शर्त लगाई गई है कि مِنْ حَیْثِ اِنَّہٗ رَسُوْلؑ اللہِ (मिन हैसि इन्नहू रसूलुल्लाहि) अर्थात् “इस हैसियत से उनके पवित्र अस्तित्व का अध्ययन किया जाए कि वे अल्लाह के रसूल हैं।” अल्लाह के रसूल होने की हैसियत में उनके अस्तित्व का अध्ययन चिकित्सा पद्धति का अध्ययन नहीं, बल्कि इल्मे-हदीस का विषय है।

कुछ लोगों ने इल्मे-हदीस का विषय थोड़ा सा हटकर बताया है। इसका अर्थ भी लगभग वही है। वे कहते हैं कि “वे तमाम रिवायतें (उल्लेख, जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जुड़े हैं) हदीस कहलाती हैं, इस दृष्टि से कि उनका प्रामाणिक सिलसिला अल्लाह के रसूल तक सीधे रूप में पहुँचता है या बीच में कहीं पर कोई कड़ी टूटी हुई है। मानो दूसरे माध्यमों के द्वारा अल्लाह के रसूल तक पहुँचे या अप्रत्यक्ष रूप से अल्लाह के रसूल तक पहुँचे। दोनों स्थितियों में इल्मे-हदीस का विषय अल्लाह के रसूल का व्यक्तित्व बनता है।

इस्तिलाहात अर्थात् पारिभाषिक शब्द

आपने हदीस से संबंध साहित्य में कई शब्द सुने होंगे—हदीस, सुन्नत, असर, ख़बर। ये शब्द अलग-अलग अर्थ रखते हैं या इनका एक अर्थ है? इसके बारे में मुहद्दिसीन में सदैव मतभेद रहा है और इस विषय पर मुहद्दिसीन ने विस्तार से चर्चा की है। लेकिन आगे बढ़ने से पहले दो बातें याद रखिए।

पहली बात तो यह याद रखनी चाहिए जो केवल इल्मे-हदीस ही में नहीं, बल्कि तफ़सीर (टीका) में, उसूले-फ़िक़्ह (धर्मशास्त्रों के सिद्धांतों) में, इतिहास में और हर कला में समान है कि किसी चीज़ की वास्तविकता या कल्पना पहले जन्म लेती है और उसके बारे में पारिभाषिक शब्द सदैव बाद में पैदा होते हैं। हदीस, फ़िक़्ह और तफ़सीर आदि ज्ञान के बारे में पारिभाषिक शब्द अल्लाह के रसूल के दौर में पैदा नहीं हुए। सहाबा के दौर में अधिकतर पारिभाषिक शब्द पैदा नहीं हुए। ताबिईन और तबअ-ताबिईन (ताबिईन के बाद वाले लोगों) के दौर से ही पारिभाषिक शब्द सामने आने शुरू हुए। इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों में बहुत-से शब्द इन शाब्दिक अर्थों में इस्तेमाल नहीं हुए जो बाद में मुहद्दिसीन के यहाँ प्रचलित हो गए। इसलिए यह सच्चाई सामने रहनी चाहिए। यह इसलिए भी आवश्यक है कि अगर एक शब्द भी बाद में मुहद्दिसीन या मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) या फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के यहाँ पारिभाषिक शब्द बन गया और वह अल्लाह के रसूल की हदीस में भी आया है तो ज़रूरी नहीं कि वह उन पारिभाषिक अर्थों में आया हो। वह शब्द किसी शब्दकोशीय अर्थ में भी हो सकता है। जैसा कि क़ुरआन मजीद में आपने देखा कि “फ़ातू बिहदीसिम-मिस्लिहि” इसमें हदीस का शब्द हदीस से अलग यानी क़ुरआन के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। इसलिए कि अल्लाह के रसूल के लिए ‘हदीस’ शब्द का ख़ास होना बाद का पारिभाषिक शब्द है। क़ुरआन में इसे इस परिभाषा में प्रयुक्त नहीं किया गया है। यह बात तमाम पारिभाषिक शब्दों के बारे में याद रखें।

दूसरी चीज़ यह याद रखें कि अरबी में एक नियम है कि—“ला मुशाह-त फ़िल-इस्तिलाह” अर्थात् “पारिभाषिक शब्दावली के संदर्भ में कोई मतभेद नहीं होना चाहिए।” हर व्यक्ति को या समूह को अपनी अलग शब्दावली निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है। उदाहरणार्थ आप क्लास में यह तय करें कि हमारी शब्दावली यह है कि अगर सफ़ेद लाइट जला दी जाए तो सब लोग कक्षा में आ जाएँ और हरी लाइट जला दी जाए तो क्लास से बाहर निकल जाएँ, मानो हरी रौशनी का अर्थ यह है कि कक्षा समाप्त हो गई। किसी को यह शब्दावली अपनाने पर आपत्ति करने की अनुमति नहीं कि आपने यह शब्दावली क्यों रखी? या इसके विपरीत क्यों नहीं रखी? आपको यह अधिकार है कि आप अपनी सुविधानुसार जो शब्दावली चाहें वह अपना लें। आप शब्दावली के तौर पर कोई शब्द निर्धारित कर लें कि जो बाहर से टीचर आएगा उसको ‘मुअल्लिम’ कहेंगे, जो अन्दर का होगा उसको ‘मुदर्रिस’ कहेंगे। इसमें कोई मतभेद की बात नहीं है।

इसलिए अगर मुहद्दिसीन ने अपने-अपने पारिभाषिक शब्द अपनाए हैं, तो उसमें आपत्ति या सन्देह करने का अधिकार नहीं है। इसलिए कि हर शिक्षित या अशिक्षित को अपने पारिभाषिक शब्द गढ़ने का अधिकार है। यही कारण है कि मुफ़स्सिरीन (क़ुरआन के टीकाकारों) और मुहद्दिसीन (हदीसों के ज्ञाताओं) में कुछ पारिभाषिक शब्दों के बारे में तो मतैक्य है, लेकिन कुछ पारिभाषिक शब्दों के बारे में मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इसको एक अर्थ में इस्तेमाल किया है और कुछ दूसरे विद्वानों ने कोई अन्य अर्थ देकर इस्तेमाल किया है, जिसका विवरण आगे समय-समय पर आपके सामने आता रहेगा।

‘हदीस’ और ‘सुन्नत’ में अन्तर

सबसे पहले यह देखते हैं कि ‘हदीस’ और ‘सुन्नत’ में मुहद्दिसीन ने क्या अन्तर रखा है। हदीस और सुन्नत दो प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द हैं। क़ुरआन मजीद में सुन्नत का शब्द भी प्रयुक्त हुआ है और हदीस का शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। स्वयं हदीस की किताबों में हदीस का शब्द भी आया है और सुन्नत का शब्द भी आया है। हदीस और सुन्नत के बारे में इस्लामी विद्वानों के एक समूह का तो यह मत है कि इन दोनों का अर्थ एक ही है। जो हदीस है, वह सुन्नत है और जो सुन्नत है, वह हदीस है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। एक बड़ी संख्या का मत यह है।

कुछ अन्य विद्वानों का कहना है कि हदीस एक आम चीज़ है और सुन्नत ख़ास है और उसका एक हिस्सा है। हदीस तो हर वह चीज़ है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दी गई, जिसमें ज़ईफ़ (अप्रमाणित) हदीसें भी शामिल हैं और ‘मौज़ू’ (गढ़ी हुई) हदीसें भी शामिल हैं, ‘मुनकिर’ (ऐसी हदीस जिसमें कमज़ोर उल्लेखकर्ता ने विश्वसनीय उल्लेखकर्ता का विरोध किया हो) और ‘शाज़’ (ऐसी हदीस जिसमें एक विश्वसनीय उल्लेखकर्ता दूसरे विश्वसनीय उल्लेखकर्ता का विरोध कर रहा हो) हदीसें भी शामिल हैं, जिसका विवरण आगे आएगा, और सुन्नत से मुराद वह तरीक़ा है जो सहीह (प्रमाणित) हदीसों के आधार पर साबित होता है, जो अल्लाह के रसूल का तय किया हुआ तरीक़ा है, जो उन्होंने अपने अनुयायियों को सिखाया, जो क़ुरआन की मंशा और अर्थों की व्याख्या करता है और जो दुनिया में क़ुरआन पाक की लाई हुई व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देता है। उस तरीक़े का नाम सुन्नत है।

सुन्नत की परिभाषा

फिर अगर सुन्नत की परिभाषा यह हो कि वह तरीक़ा जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुसलमानों के लिए क़ायम किया, जिस तरीक़े को क़ायम करने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तशरीफ़ लाए, वह तरीक़ा क्या सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह के रसूल के तरीक़े और कथनों से साबित होता है, या सहाबा किराम के कथनों और कर्मों से भी साबित होता है? या ताबिईन के कथनों से भी साबित होता है? जो मतभेद हदीस की शाब्दिक परिभाषा के बारे में था, वही मतभेद सुन्नत के बारे में भी है।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह), जो मशहूर इमामुल-मुहद्दिसीन हैं, और इमामुल-फ़ुक़्हा भी हैं। उनका दृष्टिकोण यह है कि सुन्नत में अल्लाह के रसूल, सहाबा किराम और ताबिईन, इन तीनों का रवैया और इन तीनों का तरीक़ा शामिल है। आप मुवत्ता इमाम मालिक पढ़ें तो उसमें बार-बार, दर्जनों नहीं, सैकड़ों जगहों पर इमाम मालिक ने एक ख़ास कर्म को अपने शोध में ‘सुन्नत’ ठहराया है और दलील यह दी है कि अमुक सहाबी यह रवैया अपनाते थे। कभी दलील दी है कि अमुक ताबिई यह काम किया करते थे। एक जगह लिखा कि अमुक रवैया सुन्नत है इसलिए कि अब्दुल-मलिक-बिन-मर्वान को मैंने यह काम करते देखा। यह इमाम मालिक का मत है।

कुछ और विद्वान हैं जो केवल रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यवहार और कार्य-शैली को सुन्नत बताते हैं। उनके निकट सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) की कार्य-शैली को सहाबा की सुन्नत कहा जाएगा। ख़ुलफ़ाए-राशिदीन (इससे मुराद इस्लाम के चार बड़े ख़लीफ़ा हैं—अबू-बक्र, उमर-बिन-ख़त्ताब, उसमान-बिन-अफ़्फ़ान और अली-बिन-अबी-तालिब) की सुन्नत को ख़ुलफ़ाए-राशिदीन की सुन्नत कहा जाएगा, अल्लाह के रसूल की सुन्नत नहीं कहा जाएगा।

कुछ अन्य विद्वानों का कहना यह है कि ये दोनों पारिभाषिक शब्द अलग-अलग अर्थ रखते हैं। इल्मे-हदीस का मतलब अलग है और इल्मे-सुन्नत का बिल्कुल अलग अर्थ है। सुन्नत की परिभाषा जिन लोगों ने हदीस से अलग की है वे कहते हैं कि ‘तरीक़ा-ए-मुत्तबआ’ का नाम सुन्नत है, यानी वह तरीक़ा जिसका अनुपालन करने का आदेश दिया गया, वह सुन्नत है।

एक मुहद्दिस जब कोई हदीस बयान करता है और उसपर ‘रिवायत’ (हदीस बयान करने का सिलसिला) के बाद ‘दिरायत’ (तार्किकता) के दृष्टिकोण से चर्चा करता है, जिसपर हम आगे चलकर बात करेंगे, तो वह कहता है कि ‘हाज़ल हदीस मुख़ालिफ़ लिलक़ियासि वस-सुन्न-त वल-इजमाअ’ (इस हदीस को हम इसलिए व्यवहार में नहीं लाएँगे कि यह क़ियास, सुन्नत और इजमाअ के ख़िलाफ़ है)। एक ओर हदीस है और दूसरी ओर सुन्नत है, मानो सुन्नत और हदीस को वे परस्पर विरोधी अर्थों में ले रहे हैं। ये उदाहरण मैंने यह बताने के लिए दिए हैं कि मुहद्दिसीन का एक समूह हदीस और सुन्नत को अलग-अलग अर्थ में समझता है।

क़ुरआन मजीद में भी सुन्नत का शब्द सर्वोच्च अल्लाह की सुन्नत (रीति) और आदत के लिए प्रयुक्त हुआ है।—سُنَّـةَ اللہِ فِى الَّـذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلُ “ये अल्लाह की सुन्नत है जो पहले लोगों के ज़माने से चली आ रही है।” (क़ुरआन, 33/62) अल्लाह की जो विशेष व्यवस्था है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, जिसमें कोई घटत-बढ़त नहीं होती, जो अल्लाह का सिद्धांत है, वह हमेशा एक समान रहता है। अल्लाह के इस सिद्धांत और अल्लाह के इस तरीक़े के लिए भी क़ुरआन मजीद में सुन्नत का शब्द प्रयुक्त हुआ है।

मदीना नगर को कुछ लोग ‘दारुस्सुन्नः’ कहा करते थे, यानी सुन्नत का घर, जहाँ से सारी सुन्नतें निकलती हैं। निश्चय ही मदीना ‘दारुस्सुन्नः’ था। सहाबा जिनके पास सुन्नत का इल्म था, वे मदीना ही में रहते थे। मदीना ही से सुन्नत के स्रोत निकले हैं। मदीना ही से सहाबा दुनिया के कोने-कोने में फैले, इसलिए ‘दारुस्सुन्नः’ मदीना का नाम होना एक स्वाभाविक बात है।

‘हदीस’, ‘असर’ और ‘ख़बर’

हदीस और सुन्नत के साथ-साथ ‘हदीस और असर’ की शब्दावली भी इस्तेमाल होती है। اَثَر(ا+ث+ر) ‘असर’ के शाब्दिक अर्थ तो निशान और पदचिह्नों के हैं, या किसी भी चीज़ पर किसी चीज़ का निशान पड़ जाए उसको अरबी में असर कहते हैं (हिन्दी में इसी को प्रभाव कहते हैं) और ‘तासीर’ का अर्थ है किसी चीज़ पर निशान डाल देना। आपने किसी चीज़ पर अपने अंगूठे का निशान डाल दिया, इस क्रिया को अरबी भाषा में ‘तासीर’ कहते हैं। ‘असर’ का शब्द भी हदीस के आलिमों की नज़र में दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। मुहद्दिसीन का एक समूह हो जो केवल सहाबा और ताबिईन के कथनों के लिए ‘आसार’ और ‘असर’ का शब्द इस्तेमाल करता है और ‘आसारे-सहाबा’ और ‘आसारे-ताबिईन’ की शब्दावली इसी अर्थ में है। विद्वानों का एक और समूह है जो ‘असर’ और हदीस को एक ही अर्थ में समझता है। उसके निकट अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन, कर्म और सहाबा तथा ताबिईन इन सबके कथन और कर्म को हदीस भी कहते हैं और ‘असर’ भी कहते हैं।

इल्मे-हदीस की शब्दावली में एक पारिभाषिक शब्द है ‘मरफ़ूअ’। ‘मरफ़ूअ’ का शब्दकोशीय अर्थ है ‘वह चीज़ जिसको ऊपर उठाया गया हो’, अंग्रेज़ी में इसे Exalted कहते हैं। परिभाषा में इससे मुराद वह हदीस है जो अल्लाह के रसूल तक पहुँचती है, जिसमें रावी (उल्लेखकर्ता) अल्लाह के रसूल का शुभ नाम लेकर स्पष्ट रूप से इस हदीस को मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबद्ध करता है। इसको ‘मरफ़ूअ’ कहते हैं।

इसके मुक़ाबले में दूसरा पारिभाषिक शब्द है ‘मौक़ूफ़’, यानी ठहरा हुआ, जो रुक गया हो, अंग्रेज़ी में आप Halted कह सकते हैं। यह वह रिवायत (उल्लेख) या हदीस है जिसकी निस्बत (संबंध) सहाबा तक पहुँचता है, उनके बाद आगे निस्बत नहीं बढ़ती। उदाहरणार्थ उल्लेखकर्ता का कहना होता है, मुझसे अमुक व्यक्ति ने बयान किया, अमुक ने अमुक से बयान किया, उन्होंने अमुक सहाबी को यह कहते सुना और फिर आगे वह बात बयान की जाती है, लेकिन उस सहाबी को वह बात (या हदीस) कैसे मालूम हुई इसका उल्लेख नहीं होता है। इस तरह के उल्लेख या रिवायत को ‘मौक़ूफ’ कहते हैं जो सहाबा पर जाकर रुक जाए। जो लोग ‘हदीस’ और ‘असर’ में अन्तर करते हैं, वे यह कहते हैं कि रिवायत (उल्लेख) अगर ‘मरफ़ूअ’ हो, अल्लाह के रसूल तक पहुँचती हो तो उसको हदीस कहा जाएगा और अगर रिवायत सहाबा या ताबिईन पर ‘मौक़ूफ़’ हो जाए, यानी वहीं तक जाकर रुक जाए तो उसको ‘असर’ कहा जाएगा।

यही अन्तर है ‘ख़बर’ और ‘हदीस’ के दरमियान। ख़बर का शब्द भी हदीस की किताबों में बहुत प्रयोग हुआ है। शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से ख़बर का अर्थ है सूचना या रिपोर्ट। हर वह सूचना या रिपोर्ट जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के किसी कथन, कर्म या स्थिति के बारे में अगर किसी ने दी, वह परिभाषा में ख़बर भी कहलाती है और हदीस भी कहलाती है। ये दोनों पारिभाषिक शब्द Inter-changeable होते हैं। एक दूसरे के बदले भी प्रयुक्त होते हैं और अलग-अलग भी प्रयुक्त होते हैं। ये चार पारिभाषिक शब्द हैं जिनको समझ लेना चाहिए अर्थात् —हदीस, सुन्नत, असर और ख़बर।

पारिभाषिक शब्दों में कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। हर बड़े मुहद्दिस (हदीसों का पार्खी एवं संकलनकर्ता) का हक़ है कि जो पारिभाषिक शब्द चाहे रचे। लेकिन जब हम किसी पारिभाषिक शब्द को इस्तेमाल करना चाहते हैं तो हम पहले यह अवश्य देख लें कि हम इस शब्दावली को किस सन्दर्भ में और किस अर्थ में इस्तेमाल कर रहे हैं। उदाहरणार्थ एक पारिभाषिक शब्द इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) का है तो हम इमाम बुख़ारी के सन्दर्भ में इमाम बुख़ारी के पारिभाषिक शब्द को इस्तेमाल करेंगे और अपना कोई पारिभाषिक शब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे। यह बात ठीक न होगी कि मैं अपना कोई पारिभाषिक शब्द बनाऊँ या आप अपना कोई पारिभाषिक शब्द गढ़ लें और उसको इमाम बुख़ारी के सन्दर्भ में इस्तेमाल करें। वह इमाम बुख़ारी के दृष्टिकोण की सही व्याख्या नहीं होगी। इसलिए इन चारों पारिभाषिक शब्दों का अर्थ पहले से ही मस्तिष्क में स्पष्ट होना चाहिए।

इल्मे-हदीस : एक अद्वितीय कला

इल्मे-हदीस जिसके बारे में इल्म (ज्ञान) भी दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है और लोगों की रुचि भी दिन पर दिन घट रही है। इसमें निपुणता दिन पर दिन सीमित होती चली जा रही है। इस इल्म से रुचि स्वयं इस्लामियात (इस्लामी ज्ञान) के छात्रों की सीमित होती जा रही है। यह मानव इतिहास की एक अत्यंत अनोखी और अद्वितीय ज्ञानपरक उपल्बधि है। यह एक ऐसा बेमिसाल इल्म है जिसकी मिसाल मानव इतिहास में नहीं मिल सकती। इसपर थोड़ी सी वार्ता तो आगे चलकर होगी, लेकिन यहाँ अभी संक्षिप्त रूप से ज़ेहन में रखिए कि मानव इतिहास में कोई ऐसा ज्ञान पाया नहीं जाता जिसक उद्देश्य किसी एक व्यक्तित्व के कथनों और कर्मों को सुरक्षित रखना और हर प्रकार के सन्देह से परे रखकर इस प्रकार स्पष्ट कर देना हो कि पढ़नेवालों को ऐसा विश्वास हो जाए जैसा कि आज सूरज निकलने का विश्वास है। जितनी यह बात निश्चित है कि इस समय सूरज निकला हुआ है, उतना ही इस बात को निश्चित बना देना कि यह बात अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से निकली कि नहीं निकली। यह कोशिश मानव इतिहास में अपने आपमें अनोखी और निराली कोशिश है। संसार में बड़ी-बड़ी धार्मिक विभूतियाँ हुई हैं, आज भी ऐसी धार्मिक विभूतियाँ पाई जाती हैं और इतिहास में भी पाई जाती रही हैं जिनके अनुयायियों की संख्या अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के माननेवालों से अधिक है। मूसा (अलैहिस्सलाम) को माननेवालों में यहूदी भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं और मुसलमान भी। इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को माननेवालों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों सम्मिलित हैं, लेकिन इनमें से किसी भी पैग़म्बर के कथनों एवं कर्मों को सुरक्षित रखने का उनके माननेवालों ने एक लाखवाँ हिस्सा भी प्रबंध नहीं किया, जितना ध्यान मुसलमानों ने अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों और कर्मों के विवरण को सुरक्षित रखने के लिए रखा। इसपर आगे चलकर विस्तार से चर्चा होगी। न इससे पहले ऐसी किसी कला की कोई मिसाल मिलती है न आगे चलकर ऐसी कोई मिसाल मिल सकी है।

मानव की प्रतिभा, अर्थात् Genius दो तरीक़ों से ज़ाहिर होती है, यानी किसी ज्ञान और कला में इंसान की प्रतिभा का अगर आप आकलन करना चाहें तो दो प्रकार से उसे ज़ाहिर किया जाता है। एक तरीक़ा तो वह है जिसको आप रचनात्मक प्रतिभा कह सकते हैं, अर्थात् Creative Genius। रचनात्मक प्रतिभा से तात्पर्य यह है कि ऐसी प्रतिभा कि जिसमें इंसान अपनी बुद्धि का प्रयोग कर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे कारनामे कर दिखाए जो किसी अन्य इंसान की बुद्धि में न आए हों और मानव बुद्धि उनको देखकर चकित रह जाए। मुसलमानों में Creative Genius का सबसे उतकृष्ट उदाहरण ‘इल्मे-उसूले-फ़िक़्ह’ (इस्लामी धर्मशास्त्र का ज्ञान) है। उसूले-फ़िक़्ह से बढ़कर Creative Genius का उदाहरण नहीं मिलता। जीनियस या प्रतिभा का एक दूसरा प्रकार भी होता है, जिसको हम Accumulative Genius कह सकते हैं, अर्थात् जानकारियाँ इतनी अधिक और इतनी प्रचुर मात्रा में जुटा दी जाएँ कि मानव बुद्धि उनकी अधिकता पर चकित रह जाए। इल्मे-हदीस मुसलमानों की Accumulative Genius का अद्वितीय उदाहरण है। मानव इतिहास में कोई कला ऐसी नहीं है जिसमें जानकारियों के ढेर, मालूमात के पहाड़ और मालूमात के समुद्र इस प्रकार एकत्र किए गए हों, जिस प्रकार इल्मे-हदीस में एकत्र कर दिए गए हैं। आगे बढ़ने पर आपको इसका कुछ अनुमान हो सकेगा।

यह वह चीज़ है जिसको एक बड़े प्राच्यविद् (Orientalist) डॉ. स्प्रिंगर (Springer) ने भी स्वीकार किया है। यह एक जर्मन प्राच्यविद् था। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में भी लम्बे समय तक रहा। उसने इल्मे-हदीस पर काम किया था और जब उसने ‘फ़न्ने-रिजाल’ का अध्ययन किया (‘फ़न्ने-रिजाल’ यानी इल्मे-हदीस के उल्लेखकर्ताओं के बारे में जानकारी, इस विषय पर आगे चलकर बात होगी) तो वह यह देखकर चकित रह गया कि एक व्यक्तित्व के हालात और कथनों को निश्चित बनाने तथा सुरक्षित रखने के लिए छः लाख इंसानों के हालात इकट्ठा किए गए। छः लाख इंसानों के हालात इसलिए एकत्र किए गए कि वे छः लाख इंसान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में सम्मिलित थे। इसका उदाहरण ईसाइयत के इतिहास, यहूदियत के इतिहास में या किसी भी धर्म के इतिहास में नहीं मिलता। ईसाइयों से पूछा जाए कि आप अपने दो हज़ार वर्षीय इतिहास में उन व्यक्तियों के नाम बताइए जिन्होंने ईसा (अलैहिस्सलाम) के कथनों को सुरक्षित रखा हो या हम तक पहुँचाया हो, तो शायद पहले तो उनकी समझ में नहीं आएगा कि आप क्या पूछ रहे हैं, और अगर समझ में आ भी जाए तो पच्चीस या पचास आदमियों से अधिक के नाम आपको न दे सकें। मुसलमानों में छः लाख रावियों (उल्लेखकर्ताओं) के नाम इस समय सुरक्षित और पाए जाते हैं।

अभी मैं साथवाले कमरे में बैठा तो यहाँ जो किताबें रखी हुई हैं, वे इस बात के सुबूत के लिए काफ़ी हैं। रिजाल की इन किताबों में कई लाख इंसानों के हालात सुरक्षित हैं। प्रतिष्ठित सहाबा ने अल्लाह के रसूल को देखा। उनकी आँखों को यह सौभाग्य मिला, उनके कानों को यह सौभाग्य मिला कि वे मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बातें सुन सकें। इसलिए सबसे पहले सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) के हालात इकट्ठा करने पर ध्यान दिया गया। आज सहाबा के उल्लेख पर जो किताबें हैं, जिनकी संख्या एक-दो नहीं, बल्कि दर्जनों में है, उनमें अधिकांश 12 से 15 हज़ार सहाबा के हालात सुरक्षित हैं। इसका कोई उदाहरण आज तक इतिहास में नहीं मिल सकता, और उस समय भी नहीं मिल सकता था कि किसी बड़े से बड़े इंसान के साथियों और उसके दोस्तों के हालात इकट्ठा किए गए हों और 12-15 हज़ार लोगों की ज़िन्दगी के हालात इसलिए इकट्ठा किए गए हों कि यह अमुक व्यक्ति के दोस्त और साथी हैं और इनसे उनके बारे में कोई जानकारी या कोई मार्गदर्शन मिल सकता है। इस दृष्टिकोण से आप जितना ग़ौर करें, तो आपको अनुमान होगा कि यह मानव इतिहास का एक अनोखा इल्म है, जिसका कोई उदाहरण संसार के इतिहास में न धार्मिक ज्ञान में मिलता है न धर्म से इतर ज्ञान के इतिहास में मिलता है।

धार्मिक ज्ञान के इतिहास में ऐसे उदाहरण पाए जाते हैं कि किसी धार्मिक विभूति के कथनों को संकलित किया गया हो। आज भी इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के कुछ कथन बाइबल में पाए जाते हैं। ये चार इंजीलें (Gospel) जिनको ईसाई प्रामाणिक इंजीलें मानते हैं, ये ईसा (अलैहिस्सलाम) की जीवनी और उनके कथनों के संग्रह हैं। इससे अलग हटकर कि उनकी ऐतिहासिक हैसियत (Value) क्या है, इससे अलग हटकर कि उनकी कोई प्रामाणिकता (Authenticity) है या नहीं, यह बात बहरहाल सब मानते हैं कि वे ईसा (अलैहिस्सलाम) के कथनों के कुछ संकलन हैं, लेकिन उन संकलनों की सहायता से आप ईसा (अलैहिस्सलाम) के कथनों की कोई सूची बनाएँ तो दो-ढाई सौ से अधिक कथन नहीं मिलेंगे। सारे कथनों को मिलाकर उनकी संख्या दो-ढाई सौ से अधिक नहीं होगी। उसकी तुलना में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन जो सहाबा ने एकत्र किए हैं, उनकी संख्या हज़ारों में है। मुसनदे-इमाम अहमद कम या ज़्यादा पचास हज़ार हदीसों का संग्रह है, जिसमें से अगर हदीसों के दोहराव को निकाल दिया जाए तो तीस हज़ार से अधिक हदीसें और अल्लाह के रसूल के कथन उसमें उपलब्ध हैं। ‘कंज़ुल-उम्माल’ जो हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के प्रसिद्ध मुहद्दिस अल्लामा सैयद अली मुत्तक़ी हिन्दी की रचना है, उसमें उन्होंने अल्लाह के रसूल के 52 हज़ार कथन इकट्ठा किए हैं। अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती, जिन्होंने यह तय किया कि इस समय तक हदीसों के जितने भी संग्रह पाए जाते हैं, उन सबको एकत्र करके सारी हदीसें एक ही किताब में संकलित कर दी जाएँ। इसमें उन्होंने यह संख्या 70 हज़ार के लगभग पहुँचाई और वे इस काम को अधूरा छोड़कर संसार से विदा हो गए, पूरा नहीं कर पाए। उनकी किताब ‘जमउल-जवामेअ’ या ‘अल-जामेउल-कबीर’ के नाम से प्रसिद्ध है।

इस प्रकार से जो बड़े-बड़े संग्रह हैं, उनमें हदीसों की संख्या 60 हज़ार से 65 हज़ार, 70 हज़ार तक उपलब्ध है, उनमें से दोहराव को निकाल दिया जाए, फिर भी 50 हज़ार तक ये कथन बनते हैं। इतना बड़ा संग्रह दुनिया में किसी भी इंसान के कथनों का, किसी धार्मिक या अधार्मिक विभूति का नहीं पाया जाता। इसलिए अगर कोई व्यक्ति किसी धार्मिक या दीनी भावना से भी इल्मे-हदीस को हासिल न करना चाहे, जो बड़े दुख की बात होगी, लेकिन विशुद्ध ज्ञानपरक दृष्टि से भी यह विषय इसकी अपेक्षा करता है कि इसका अध्ययन किया जाए और देखा जाए कि यह अनोखापन कैसे और क्यों अस्तित्व में आया।

सेहते-हदीस पर सन्देहों की वास्तविकता

इल्मे-हदीस में जो भंडार सुन्नत और सहीह हदीसों का पाया जाता है, उसकी प्रामाणिकता अर्थात् Authenticity किस श्रेणी की है, इसपर एक अलग बैठक और वार्ता में बहस की जाएगी। लेकिन इस ग़लतफ़हमी को आज सदैव के लिए मन-मस्तिष्क से निकाल दीजिए कि इल्मे-हदीस के सुबूत में किसी भी दृष्टि से सन्देह की गुंजाइश बाक़ी रह जाती है। हमारे यहाँ भारतीय उपमहाद्वीप में भी और उपमहाद्वीप से बाहर भी ऐसे कई लोग मौजूद हैं जिन्होंने उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ी, फ़ारसी और अन्य भाषाओं में इल्मे-हदीस के बारे में सन्देहों पर आधारित किताबें लिखी हैं, जिनका उद्देश्य ही यह है कि इल्मे-हदीस के बारे में सन्देह पैदा किए जाएँ और मुसलमानों का उसपर ईमान कमज़ोर कर दिया जाए। अगर ये लोग दुर्भावना से ऐसा करते हैं तो सर्वोच्च अल्लाह उनको मार्गदर्शन दे। ग़लती से करते हैं तो अल्लाह उनकी ग़लती को ठीक कर दे। लेकिन यह बात तो अत्यंत निम्न कोटि की भ्रांति और अल्पज्ञान की है या अत्यंत ख़राब प्रकार की बेईमानी है कि इल्मे-हदीस के बारे में शक-सन्देह ज़ाहिर किया जाए।

किसी भी चीज़ को सुरक्षित रखने के जितने तरीक़े हो सकते हैं और मानव मस्तिष्क में आ सकते हैं, वे सारे के सारे सुन्नत को और अल्लाह के रसूल के कथनों को सुरक्षित रखने के लिए मुहद्दिसीन ने और इस्लामी विद्वानों ने अपनाए हैं और उन सब संभव तरीक़ों से सुरक्षित होकर इल्मे-हदीस संकलित और स्पष्ट होकर हम तक पहुँचा है। संसार के किसी इल्म (विद्या) पर इतने बड़े-बड़े मानव मस्तिष्कों ने और इतनी असाधारण स्मरण-शक्ति रखनेवाले इंसानों ने लगातार चिंतन-मनन नहीं किया, जितना इल्मे-हदीस में चिंतन-मनन हुआ है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से निकलनेवाले एक-एक शब्द और एक-एक अक्षर पर सैकड़ों पहलुओं से लाखों इंसानों ने ग़ौर किया है और ये ग़ौर चौदह सौ वर्ष से लगातार होता चला आ रहा है। अभी यह सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। इस समय भी संसार भर में यह काम जारी है। और नए-नए विद्वान लगातार नए-नए रास्ते और नए-नए विचार इल्मे-हदीस पर चिंतन करने के लिए ला रहे हैं, जिनका उल्लेख सबसे आख़िर में किया जाएगा।

सबसे पहले तो यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इल्मे-हदीस इस प्रकार का प्रामाणिक ज्ञान है जैसे कोई भी मानवीय ज्ञान प्रामाणिक हो सकता है। इस ज्ञान के द्वारा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत और हदीसों को जिस प्रकार सुरक्षित किया गया वह उसी प्रकार निश्चित और विश्वसनीय है जिस प्रकार क़ुरआन निश्चित और विश्वसनीय है। हदीस और सुन्नत क़ुरआन की तरह केवल एक अन्तर के साथ विश्वसनीय और निश्चित है कि क़ुरआन के शब्द अल्लाह की ओर से हैं और हदीसों के शब्द अल्लाह की ओर से नहीं हैं। क़ुरआन एक विशेष क्रम से अल्लाह के रसूल ने सुरक्षित कराया और हदीसों को अल्लाह के रसूल ने उस क्रम से सुरक्षित नहीं कराया। सहाबा ने अल्लाह के रसूल के दौर में क़ुरआन मजीद को कंठस्थ कर लिया और हदीसों को बहुत-से सहाबा ने उस प्रकार याद नहीं किया। इसलिए कि उसकी आवश्यकता नहीं थी। इस एक अन्तर के साथ हदीसें और सुन्नत उसी तरह प्रामाणिक और सुरक्षित हैं जिस प्रकार क़ुरआन मजीद प्रामाणिक और सुरक्षित है।

हदीस की किताबों के बारे में भ्रांतियों की वास्तिविकता

कुछ लोग यह कहते हैं, आपने सुना भी होगा कि इस समय हदीसों के जितने भी संग्रह हैं, ये सब के सब बाद में लिखे गए। सहीह बुख़ारी तीसरी सदी हिजरी में लिखी गई, सहीह मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, ये सारे संग्रह तीसरी सदी हिजरी के संकलित किए हुए हैं। ये लोग इससे यह नतीजा निकालते हैं कि मुहद्दिसीन ने वे कहानियाँ जो आम तौर पर प्रचलित हुई हैं, एक जगह इकट्ठा कर दी हैँ, मुसलमानों ने अक़ीदत में (श्रद्धावश) उनको मान लिया और उसको अल्लाह के रसूल की हदीस के रूप में स्वीकार कर लिया। यह भ्रांति क्यों पैदा हुई? कैसे पैदा हुई, इसपर विस्तार से चर्चा करेंगे, लेकिन इनमें से कोई भी भ्रांति जिसके समर्थन में बहुत-सी बेसिर-पैर की बातें की गई हैं, उनमें से कोई एक बात भी सही नहीं है। यह एक ऐसा काल्पनिक प्रकार का विचार है जिसका न कोई ज्ञानपरक आधार है न तार्किक आधार। इस्लामी विद्वानों ने विशेष रूप से बीसवीं शताब्दी में हदीस के बहुत-से विद्वानों ने इस भ्रांति को सदैव के लिए दूर कर दिया है और इस भ्रांति का इस प्रकार खंडन कर दिया है कि उसके बाद उसमें किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं रही।

इल्मे-हदीस अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय में अस्तित्व में आ चुका था। अल्लाह के रसूल ने सहाबा को अपने कथनों को सुनने का और दूसरों तक पहुँचाने का निर्देश दिया। यह हदीस आपने पढ़ी होगी, जिसमें कहा गया है कि “अल्लाह उस व्यक्ति को हरे-भरे बाग़ की तरह रखे जिसने मेरी बात सुनी, उसको याद किया, उसको सुरक्षित रखा और उसको आगे तक पहुँचा दिया।” यह रिवायत (उल्लेख) विभिन्न शब्दों में सहाबा ने उद्धृत की है और लगभग सभी मुहद्दिसीन ने इसको विभिन्न शब्दों में वर्णित किया है।

अगर कोई व्यक्ति एक हदीस भी याद करके इस नीयत से दूसरों तक पहुँचा दे कि वह हरे-भरेपन की उस शुभसूचना का पात्र बन जाए तो अल्लाह ने चाहा तो वह उस सौभाग्य को प्राप्त करने में सफल हो जाएगा। विभन्न शब्दों में यह हदीस बयान हुई है। कभी ऐसा होता है कि आपने किसी के सामने हदीस बयान की, जिसके सामने बयान की, उसने आपकी तुलना में अधिक अच्छे ढंग से उसे सुरक्षित किया। यानी आपने बयान की और फिर किसी कारण आपको याद नहीं रहा, जिसको बताई थी, उसने याद रखा और आगे सैकड़ों हज़ारों तक पहुँचा दिया, जहाँ तक आप शायद नहीं पहुँचा सकते थे। तो इसकी संभावना है कि आपसे अधिक अच्छे ढंग से वह लोगों तक पहुँचा सके। हो सकता है कि कुछ ऐसे लोगों को पहुँचाया गया हो जो पहुँचानेवालों से अधिक सुरक्षित करनेवाले हों। कभी ऐसा होता है कि बौद्धिकता और समझदारी की यह बात, दीन (धर्म) में गहरी समझ और तर्कसंगत यह बात आपने किसी ऐसे को पहुँचाई जो आपसे अधिक समझ रखता हो और वह उससे वह अर्थ निकाल ले जो आपके दिमाग़ में भी नहीं आया। मैंने अपने जीवन में कई बार ऐसे उदाहरण देखे हैं कि इल्मे-हदीस का एक विशेष पहलू किसी जगह वर्णित हुआ और जिसके सामने बयान किया गया उसने उससे वह अर्थ निकाला जो वर्णन करनेवाले के मस्तिष्क में बिल्कुल नहीं था।

एक जगह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, (और यह हम सबके लिए है) “ऐ अल्लाह मेरे उत्तराधिकारियों पर दया करना।” सहाबा ने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! आपके ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) से मुराद कौन लोग हैं?” मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “वे लोग जो मेरे बाद आएँगे, मेरी हदीसें बयान करेंगे और लोगों को सिखाएँगे।” अर्थात् वे लोग जो मेरी हदीस का ज्ञान प्राप्त करें और उसको लोगों तक पहुँचाएँ, वे मेरे उत्तराधिकारी और ख़लीफ़ा हैं और उनके लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह से दया करने की दुआ की।

इस दुआ में भी हममें से हर व्यक्ति शामिल हो सकता है। यहाँ ‘अहादीस’ का शब्द बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है और अरबी भाषा में (संस्कृत की तरह) तीन वचन होते हैं। वाहिद (एकवचन), मुसन्ना (द्विवचन) और जमा (बहुवचन)। अरबी में भी कम से कम तीन की संख्या को जमा (बहुवचन) कहते हैं। तो अगर कम से कम दीन हदीसें कोई याद करके लोगों तक पहुँचा दे तो शायद वह इस शुभ-सूचना का पात्र बन जाए। अरबी भाषा में बहुवचन के दो प्रकार होते हैं, एक ‘जमा क़िल्लत’ (कम से कम संख्यावाला बहुवचन अर्थात्-3) और दूसरा ‘जमा कसरत’ (अधिक संख्यावाला बहुवचन)। ‘जमा कसरत’ के लिए कम से कम संख्या 9 है, और अधिक जितना भी हो। अगर यह ‘जमा कसरत’ हो तब भी कम से कम 9 हदीसों के लिए ‘अहादीस’ का शब्द इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर तीन या नौ हदीसें भी कोई व्यक्ति याद करके लोगों तक पहुँचा दे तो निश्चय ही अल्लाह के रसूल के उत्तराधिकारियों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकता है।

एक अन्य जगह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शुभसूचना दी और वह शुभसूचना भी उन सभी लोगों के लिए है जो क़ुरआन और सुन्नत दोनों का ज्ञान प्राप्त करें और उस ज्ञान को लोगों तक पहुँचा दें तो उस शुभसूचना के पात्र बन सकते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “यह इल्म जो मैं लेकर आया हूँ और जो क़ुरआन और सुन्नत के रूप में मौजूद है, उसको हर समूह के बाद वे लोग उठाएँगे जो सबसे अधिक न्यायप्रिय होंगे।”

उर्दू और हिन्दी भाषा में एक शब्द प्रयुक्त होता है ‘पीढ़ी’ यानी एक नस्ल। अरबी शब्द ‘ख़लफ़’ का अर्थ ‘पीढ़ी’ या नस्ल ही है। और हर पीढ़ी में जो सबसे अधिक न्यायप्रिय लोग होंगे, वे यह इल्म रखते होंगे, उनके तीन काम होंगे। इस इल्म में अतिशयोक्ति से काम लेनेवाले, अतिवादी और कट्टरपन अपनानेवाले इसका जो अर्थ करेंगे, ये उसका खंडन करते रहेंगे। यह सर्वविदित है कि कुछ लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि उनमें धार्मिक मामलों में अतिशयोक्ति से काम लेने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। इसलिए सर्वोच्च अल्लाह ने क़ुरआन में अतिशयोक्ति को सख़्ती से नापसन्द किया है। दीन (धर्म) के मामले में उस सीमा से आगे बढ़ जाना जो अल्लाह और रसूल ने तय कर दी है, यह अतिशयोक्ति है। न्याय प्रिय विद्वान अतिशयोक्ति करनेवालों के फेर-बदल का खंडन करते रहेंगे, और असत्यवादी लोग अपनी कल्पना से गढ़-गढ़कर जो चीज़ें दीन से जोड़ने का प्रयास करेंगे, उनका खंडन करते रहेंगे। यह भी हर दौर में हुआ है। हर दौर में ऐसे असत्यवादी लोग पैदा होते रहते हैं जिनका न इस्लाम पर विश्वास है और न इस्लाम के साथ संबंध रहा, लेकिन चूँकि मुसलमान अपने दीन (धर्म) से संबंधित बात पर मर-मिटने के लिए तैयार हो जाते हैं, इसलिए वे अपने असत्य विचारों को दीन के नाम पर लोगों तक पहुँचाते रहते हैं। न्याय प्रिय विद्वान असत्य प्रेमियों की स्वरचित बातों को भी दीन से दूर करते रहेंगे, और अज्ञानी लोगों के मनमाने अर्थों से भी। अज्ञानी लोग क़ुरआन और सुन्नत के स्पष्ट आदेशों के ऐसे अर्थ निकालते रहते हैं जो अर्थ क़ुरआन और सुन्नत के अनुसार नहीं होता, और ये लोग अपने मनमाने बहानों के द्वारा ये चीज़ें क़ुरआन और सुन्नत में शामिल कर देते हैं, जो क़ुरआन और सुन्नत का मंतव्य नहीं होता।

आप ग़ौर करें तो अनुमान होगा कि गुमराही किन-किन तरीक़ों से आती है। गुमराही के बड़े रास्ते यही तीन हैं—अतिशयोक्ति करनेवालों का फेर-बदल, असत्यवादियों के ग़लत अर्थ और अज्ञानियों के मनमाने अर्थ। अगर ज्ञानवान लोग मौजूद हों और इन तीनों चीज़ों का खंडन करते रहें और इन तीनों चीज़ों से इस्लाम के अनुयायियों को बचाते रहें तो इस्लाम का ज्ञान इसी तरह स्पष्ट रहेगा जिस प्रकार आज तक चला आ रहा है। क़ुरआन मजीद की सुरक्षा का तो अल्लाह ने वादा किया है, लेकिन क़ुरआन मजीद के अर्थों और व्याख्या की सुरक्षा हम सबकी ज़िम्मेदारी है और क़ुरआन मजीद के अर्थों और व्याख्या की सुरक्षा के बहुत-से तरीक़ों में सबसे महत्वपूर्ण तरीक़ा सुन्नत और हदीस की सुरक्षा है। अतः सुन्नत और क़ुरआन की सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र सुन्नत और हदीस की सुरक्षा है।

हदीस और सुन्नत एक अलग ज्ञान एवं कला है। उसका आरंभ जैसा कि मैंने बताया, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दौर में हुआ। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के उन कथनों से अनुमान हुआ कि इन कथनों को याद रखना और सुरक्षित रखना बहुत फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) की बात है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) ने इस श्रेष्ठता की प्राप्ति के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन ही में इस काम को शुरू कर दिया था। सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) में ऐसे बुज़ुर्गों की संख्या पचास के लगभग है, जिन्होंने हदीसों के लिखित भंडार संकलित किए और सहाबा के शिष्यों यानी ताबिईन में ऐसे बुज़ुर्गों की संख्या ढाई सौ के लगभग है, जिन्होंने हदीसों के संग्रह तैयार किए और ताबिईन के शिष्यों यानी तबअ-ताबिईन में तो ऐसे लोग हज़ारों की संख्या में हैं, जिनके संग्रह तैयार हुए और उनमें से सैकड़ों संग्रह आज हमारे पास मौजूद और उपलब्ध हैं। अतः यह समझना कि हदीस मौखिक वर्णन के द्वारा चली और मौखिक वर्णन के आधार पर तीन सौ वर्ष तक चलती रही और बाद में लोगों ने संकलित कर दिया, यह बात सही नहीं है। इस पर आगे चलकर विस्तार से बात होगी।

लेकिन एक बात याद रखें कि किसी चीज़ को सुरक्षित रखने के जो तरीक़े हो सकते हैं, वे सारे के सारे इल्मे-हदीस और सुन्नत को सुरक्षित रखने के लिए अपनाए गए। सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) में से पचास के लगभग ऐसे हैं जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन ही में उनके कथनों को लिखा। इन लिखनेवालों में अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) भी शामिल हैं। उनमें अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस, साद-बिन-उबादा और कई एक सहाबा (रज़िअल्लाह अन्हुम) शामिल हैं, जिनके बारे में आगे चर्चा की जाएगी। सहाबा (रज़िअल्लाह अन्हुम) अल्लाह के रसूल के कथनों को लिखा करते थे, कंठस्थ किया करते थे और उस मौखिक रूप से याददाश्त की समय-समय पर अपने लिखित संग्रह से तुलना करते रहते थे। इन निजी संग्रहों से तुलना करने के साथ-साथ हज़ारों लोग ऐसे मौजूद थे जो थोड़ी-सी भी भूल-चूक या कमज़ोरी अगर पैदा होती, तो उसको चिह्नित करने को हर समय तत्पर रहा करते थे। उदाहरण के लिए एक घटना का उल्लेख करता हूँ, जिससे अनुमान होगा कि लोग इस मामले में कितने संवेदनशील और सख़्त थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ कोई ऐसी चीज़ न जोड़ दी जाए जिसके बारे में पूरे विश्वास के साथ यह साबित न हो कि अल्लाह के रसूल की ज़बान से ऐसा ही निकला था।

अबू-हूरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) हदीस के उल्लेखकर्ताओं में सबसे प्रसिद्ध हैं और वे एक लम्बे समय तक हदीस बयान करते रहे। मुनकिरीने-हदीस (हदीस को न माननेवालों) का सबसे बड़ा निशाना अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) रहते थे, इसपर भी आगे बात करेंगे। वे मदीना में हदीस बयान करते थे। उस दौर में प्रसिद्ध ताबिई, जिनको कुछ लोगों ने छोटे सहाबा में शामिल किया है, मर्वान-बिन-हकम, मदीना के गवर्नर थे। यह उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) से पहले थे। अपनी गवर्नरी के ज़माने में वे कभी-कभी अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु)  द्वारा दिए जानेवाले हदीस के दर्स (पाठ) में जाकर बैठा करते थे। कुछ हदीसें उन्होंने सुनीं और याद कर लीं। उसके बाद गवर्नरी से हटकर कहीं और चले गए। एक लम्बे समय के बाद वे ख़लीफ़ा बने और कुछ समय बाद हज के लिए आना हुआ और मदीना में आए तो दोबारा अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के दर्स में जाकर बैठ गए। उन्हें लगा कि शायद अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) हदीस बयान करने में कोई भूल-चूक हो रही है और जो पहले बयान किया था आज उससे भिन्न बात कह रहे हैं। उन्होंने अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से इस बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया। केवल यह कहा कि “मैं हदीस सुनना चाहता हूँ, आप एक ख़ास मजलिस मेरे लिए भी रख लें।” अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया। इसपर ख़लीफ़ा ने एक कातिब (लिपिक) की ड्यूटी लगाई कि ख़ास महफ़िल में जब अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) हदीस बयान करें, तुम चुपके-चुपके नोट करते रहो और किसी को पता न चले। जब यह ख़ास सभा शुरू हुई तो अबू-हुरैरा हदीस बयान करते और कातिब लिखते गए। मर्वान-बिन-हकम बाद में उस लेख्य को अपने साथ ले गए।

एक वर्ष के बाद उनका पुनः मदीना में आना हुआ। इस अवसर पर वे अपने साथ उस लेख्य को भी लाए। अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कहा कि वे हदीसें आप दोबारा बयान कर दीजिए। उन्होंने वे हदीसें पुनः बयान कीं। कातिब एक-एक करके चेक करते रहे और पता चला कि अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने न तो एक अक्षर अधिक कहा था और न एक अक्षर कम कहा था। इसपर मर्वान ने कहा कि मुझे सन्देह हुआ था कि शायद आप हदीस सुनाने में कुछ भूल रहे हैं, तो मैं आपकी परीक्षा लेना चाहता था कि आपकी स्मरण-शक्ति में कोई अन्तर तो नहीं आया। इसलिए मैंने आपको दर्स का रिकार्ड चेक किया तो ठीक निकला। अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने यह सुनकर कहा कि अगर इनमें एक नुक़्ते (बिन्दु) का भी अन्तर निकलता तो मैं आज से हदीस बयान करना छोड़ देता। फिर ख़लीफ़ा को लेकर अपने मकान पर गए। वे सारे रजिस्टर उनको दिखाए और कहा कि “ये वे काग़ज़ात है जो मैंने अल्लाह के रसूल की मुबारक ज़बान से सुनकर लिखे थे। मैं इनको हर रोज़ चेक करता हूँ, रोज़ याद करता हूँ और जब भी कोई हदीस बयान करने निकलता हूँ तो पहले इस संग्रह से अपनी याददाश्त को ताज़ा करता हूँ।”

फिर अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने कहा कि “अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की महफ़िल में मेरी उपस्थिति का मामला यह था कि सारे सहाबा अपने व्यापार आदि के लिए जा चुके होते, किसी के परिवार थे, बिरादरियाँ थीं और ज़मीनें थीं। मेरा कुछ नहीं था। मैं मस्जिदे-नबवी में रहता था और असहाबे-सुफ़्फ़ा [असहाबे-सुफ़्फ़ा उन ग़रीब और परिवारहीन सहाबा को कहते हैं, जो दीन (इस्लाम) की शिक्षा लेने के लिए एक चबूतरे पर वास करते थे। अरबी में सुफ़्फ़ा चबूतरे को कहते हैं, और असहाबे-सुफ़्फ़ा का अर्थ हुआ ‘चबूतरे वाले लोग’] में से था, न मेरा कोई रोज़गार था, न नौकरी थी, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खाने के लिए कुछ भिजवा दिया तो खा लिया। जब कभी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मस्जिद में आते, मैं क़रीब जाकर बैठ जाता था। हर बात सुनता रहता था। एक दिन मैंने पूछा,‘ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), आप जब कुछ कहते हैं, तो कभी-कभी मुझे याद नहीं रहता। मुझे कोई ऐसा तरीक़ा बता दीजिए कि मुझे याद रहा करे।’ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो बातें बताईं। एक तो कहा कि ‘ज़रा अपनी चादर मुझे दो।’ मैंने अपनी चादर दे दी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई दुआ पढ़ी, चादर पर फूँक मारी और ऐसे गाँठ लगाई जैसे कोई चीज़ रखकर गाँठ लगाई जाती है। फिर कहा, ‘इस चादर को सीने से लगा लो।’ एक तो दुआ का यह ख़ास तरीक़ा बताया। दूसरा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, ‘अपने दाहिने हाथ से काम लो’, या ‘इल्म को लिखाई के द्वारा सुरक्षित कर लो।’ इस प्रकार के विभिन्न शब्द आए हैं।” अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि “उसके बाद मैं लिखने लगा और जो कुछ अल्लाह के रसूल कहते थे, मैं ज्यों का त्यों सब कुछ लिख लिया करता था। उसके बाद कोई चीज़ मैं नहीं भूला। जो कुछ मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सुना वह मेरी याददाश्त में भी सुरक्षित रहा और मैंने उसको लिखा भी। यह सारा संग्रह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन के अन्तिम साढ़े तीन वर्षों का है।”

यह मानो सहाबा के समय का एक उदाहरण है कि इल्मे-हदीस का आरंभ हो गया था। यह सिलसिला ताबिईन के ज़माने में और भी लम्बा हो गया। तबअ-ताबिईन के ज़माने में और भी आगे बढ़ा। फिर तदवीने-हदीस (हदीसों को लिखित रूप से संकलित करने) का दौर आ गया। (इल्मे-हदीस की ‘तदवीन’ पर अलग से चर्चा की जाएगी।) जब यह सारा संग्रह समाप्त हो गया तो हदीसों के विभिन्न विद्वानों (मुहद्दिसीन) ने इसको विभिन्न ढंग से संकलित किया, नित नए संग्रह हमारे सामने आए और यह सिलसिला आज भी जारी है। दिन प्रतिदिन हदीस का कोई न कोई संग्रह किसी न किसी रूप में सामने आता है।

इन सारे संग्रहों में जो विषय उल्लिखित हुए हैं, उनको हम दस प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं। कुछ मुहद्दिसीन ने इन दस विषयों को आठ में विभाजित किया है और ये ‘अबवाबे-समानियः’ (आठ अध्याय) कहलाते हैं। यों समझ लें कि इनकी संख्या घटाई-बढ़ाई जा सकती है, यह कोई निर्धारित वस्तु नहीं हैं। मुहद्दिसीन में अधिकांश ने इनको आठ विषय बताया है। बहरहाल हदीसों के प्रमुख विषय ये हैं—

1. अक़ायद (अक़ीदे, अवधारणाएँ)

2. अहकाम (आदेश एवं निर्देश)

3. आदाबो-अख़्लाक़ (शिष्टाचार)

4. रिक़ाक़, यानी दिल में नर्मी पैदा करने वाली हदीसें, जिनसे अल्लाह से संबंध मज़बूत होता और अल्लाह का डर पैदा हो। सहीह बुख़ारी और हदीस की लगभग हर किताब में आपको इससे संबंधित अध्याय मिलेंगे।

5. तफ़सीर (टीका), हदीस की लगभग हर किताब में आपको तफ़सीर के अध्याय मिलेंगे।

6. ‘तारीख़’ (इतिहास) और ‘सियर’ (जीवनी), यानी पैग़म्बरों और पिछली क़ौमों का ज़िक्र और घटनाएँ।

7. ‘शमाइल’ अर्थात् अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की अपनी आदतें और प्रवृत्तियाँ। इसको लोगों ने अलग किताबों के रूप में भी सुरक्षित कर लिया है। ‘शमाइले-तिरमिज़ी’ प्रसिद्ध है। हदीस की लगभग हर किताब में शमाइल पर अलग अध्याय होता है, जिसमें अल्लाह के रसूल के व्यक्तित्व के बारे में, उनके शारीरिक अस्तित्व और व्यक्तिगत गुणों के बारे में, उनकी आदतों, उनके वस्त्रों और उनके निज से संबंधित विभिन्न चीज़ों के बारे में ‘शमाइल’ के अध्याय में विवरण दर्ज हैं।

8. ‘फ़ितन’, यानी आगे जो फ़ितने (उपद्रव) उत्पन्न होनेवाले हैं। अल्लाह के रसूल ने अपनी उम्मत (अनुयायी समुदाय) को फ़ितनों से अवगत और सचेत किया था कि ये रास्ते फ़ितने के रास्ते हैं, इनसे बचा जाए। इन रास्तों पर चलने से जिन ख़राबियों के पैदा होने की आशंका थी, उनकी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने निशानदेही करदी।

9. ‘मनाक़िब’ और ‘मसालिब’, यानी सहाबा (रज़ि अल्लाह अन्हुम) के गुण और उनकी श्रेष्ठता। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जो विरोधी हैं, उनके ‘मसालिब’ यानी कमज़ोरियों की निशानदेही भी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने की है। इसी तरह से अल्लाह के रसूल ने कुछ क़बीलों के ‘मनाक़िब’ (गुण) बयान किए हैं। अंसार और क़ुरैश की विशेषताएँ बताईं। विभिन्न क़ौमों के दायित्वों की निशानदेही की। कुछ क़ौमों में कोई कमज़ोरी है तो इसकी निशानदेही की, ताकि लोग उनके गुणों से लाभ उठाएँ और ख़राबियों से बचें।

10.‘अशरातुस-साअः’ यानी क़ियामत (महाप्रलय) के लक्षण। ‘शर्त’ लक्षण को भी कहा जाता है। अगर इसको शर्त यानी Condition के अर्थ में लिया जाए तो यह भी ठीक है और अरबी भाषा में शर्त ‘अलामत’ (लक्षण) को भी कहते हैं।

जिन लोगों ने इसको ‘अबवाबे-समानियः’ यानी आठ अध्यायों में विभाजित किया है, वे ये अध्याय बताते हैं—

1. अक़ायद (अक़ीदे, अवधारणाएँ)

2. अहकाम (आदेश एवं निर्देश)

3. आदाबो-अख़्लाक़ (शिष्टाचार)

4. रिक़ाक़

5. तफ़सीर (टीका)

6. फ़ज़ाइल (ख़ूबियाँ, श्रेष्ठताएँ)

7. फ़ितन और अशरातुस-साअ

8. इल्म (ज्ञान)

ये आठ अध्याय मुहद्दिसीन ने बयान किए हैं। अध्याय आठ हों, दस हों या कुछ भी हों, लेकिन लगभग यही शीर्षक हैं जिनमें इल्मे-हदीस की किताबें विभाजित हैं।

हदीस की किताबें कितने प्रकार की हैं

इल्मे-हदीस की किताबों के भी अलग-अलग प्रकार हैं। आपने सुना होगा कि इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब ‘सहीह बुख़ारी’ कहलाती है। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब ‘सहीह मुस्लिम, अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैह)  की किताब ‘सुनन अबू-दाऊद’, इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की ‘मुसनदे-इमाम अहमद’ और इमाम तबरानी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब ‘मुअजम तबरानी’ कहलाती है। मुअजम, मुस्नद, जामेअ और सुनन आदि में अन्तर क्या है, इसको आगे बताया जाएगा। फिर भी हदीस की वह किताब जिसमें इन तमाम विषयों पर हदीसें बयान की गई हों, और उन सब विषयों को समेटा गया हो वह किताब ‘अल-जामेअ’ कहलाती है। ‘अल-जामेअ’ वह किताब है जिसमें उन आठ या दस विषयों के बारे में हदीसें बयान की गई हों। सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम और तिरमिज़ी जामेअ हैं। इन तीनों में आठ के आठ अध्याय आए हैं।

शेष किताबों का क्रम और है जिसपर आगे चर्चा होगी।

यह इलमे-हदीस का एक आरंभिक परिचय था। इसके बाद इल्मे-हदीस की आवश्यकता और महत्व पर बात होगी। इल्मे-हदीस की आवश्यकता और महत्व एक विद्यार्थी के लिए, फिर दीनियात और मज़हबियात (धार्मिक ज्ञान) के विद्यार्थी के लिए और फिर क़ुरआन और इस्लामी ज्ञान के विद्यार्थियों के लिए इल्मे-हदीस का क्या महत्व है। इल्मे-हदीस की महानता के बारे में कुछ संकेत इसके बाद के लेख का विषय होगा।

छात्रों के सवाल - जवाब

सवाल: लोगों की भ्रांति को किस प्रकार दूर किया जाए कि ‘आज हदीस की किताबें ज़ईफ़ (कमज़ोर, अप्रमाणित) हैं।’?

जवाब: आगे की वार्ता से इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ सामग्री मिल जाएगी और फिर आपके लिए दूसरों को यह बताना आसान हो जाएगा कि यह भ्रांति क्यों पैदा हुई और इसका आधार क्या है।

सवाल: जो लोग हदीस और सुन्नत में अन्तर करते हैं वह इसकी स्पष्ट परिभाषा क्या बताते हैं?

जवाब: जो लोग हदीस और सुन्नत में अन्तर करते हैं, वे यह कहते हैं कि हदीस से तात्पर्य तो वह रिवायत (उल्लेख) है जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के किसी कथन, कर्म या स्थिति के बारे में बताया गया हो। उदाहरणार्थ सहीह बुख़ारी की पहली हदीस है, اِنَّمَا الْاَعْمَالُ بِالنِّیَاتِ (इन्नमल-आमालु बिन्नियात) अर्थात् “कर्मों का दारोमदार नीयत पर है”। यह अल्लाह के रसूल का कथन है। लेकिन सुन्नत से तात्पर्य अनुपालन का वह तरीक़ा, जिसकी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को शिक्षा दी हो और लोगों को सिखाया हो। उदाहरण के लिए अल्लाह के रसूल ने यह सिखाया कि जब रमज़ान का महीना आता है तो कैसा रवैया अपनाया जाता है। जब मुसलमान पाँच वक़्त नमाज़ अदा करते हैं तो क्या करते हैं। यह जो समष्टीय रूप से नमाज़ अदा करने का आदेश है, यह सुन्नत है और इस आदेश की व्याख्या और इसे स्पष्ट करने के लिए अगर कोई अलग से रिवायत आई है तो वह हदीस है। यानी हदीस तो वह रिवायत या रिपोर्ट है और उसके परिणामस्वरूप जो रवैया सामने आया है, वह सुन्नत है। यह उन लोगों का मत है जो हदीस और सुन्नत को अलग-अलग बताते हैं।

मेरे निजी विचार में वह मत अधिक उचित है, मैं इसमें ग़लत भी हो सकता हूँ, मुझे अपने मत पर आग्रह नहीं है, लेकिन मेरे विचार में वह मत अधिक सही है जिसके अनुसार इल्मे-हदीस एक आम शब्द है। इसमें सुन्नत सहित वे सारी चीज़ें शामिल हैं जो अल्लाह के रसूल से संबद्ध हों। उनमें वह चीज़ भी शामिल है जो प्रामाणिक है। जिसके बारे में तमाम इस्लामी विद्वानों का मतैक्य है कि पैग़म्बर साहब (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इन्हें संबद्ध करना सही है, जिसके बारे में कोई मतभेद नहीं और जिससे मुस्लिम समाज का रवैया बनता है, वह सुन्नत है। जबकि हदीस में कुछ चीज़ें ऐसी भी शामिल समझी जाती हैं जो सुन्नत में शामिल नहीं हैं, जैसे कि ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीसें। मुहद्दिसीन ने कहा कि यह हदीस ज़ईफ़ है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इसका संबंध कमज़ोर है, याना पूरी तरह प्रमाणित नहीं है, हदीस तो यह भी है, क्योंकि उसे हदीस कहा गया है, यद्यपि प्रमाण में कमज़ोर होने के कारण वह सुन्नत में शामिल नहीं है। इसलिए हदीस आम है, सुन्नत ख़ास है। यह मेरा निजी मत है, हो सकता है कि यह ग़लत हो, लेकिन हदीस और सुन्नत के अन्तर के बारे में ये तीन दृष्टिकोण हैं। आपका जो चाहे उसे अपनाएँ। शब्दावली की बात है और शब्दावली में कोई मतभेद नहीं होना चाहिए।

सवाल: ‘ख़बर’ के बारे में दोबारा बता दें।

जवाब: ख़बर का शाब्दिक अर्थ है सूचना या रिपोर्ट। उर्दू (और हिन्दी) में भी ख़बर का यही अर्थ होता है। आपने सुना होगा कि न्यूज़ (News) के लिए ख़बर का शब्द बोला जाता है, लेकिन इल्मे-हदीस की शब्दावली में ख़बर का शब्द हदीस के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होता है, अर्थात् हर वह रिवायत जो अल्लाह के रसूल के किसी कथन या कर्म के बारे में बताती हो, वह परिभाषा में ‘ख़बर’ कहलाती है। इस हिसाब से ‘ख़बर’ और ‘हदीस’ पर्यायवाची शब्द हैं। ‘ख़बर’ अल्लाह के रसूल के कथन के बारे में हो तो जैसे “कर्मों का दारोमदार नीयतों पर है”, या रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के किसी कर्म के बारे में हो जैसे “नबीं (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नमाज़ में लम्बा रुकू किया।” यह कर्म का उल्लेख है। हदीस भी है, ख़बर भी है। हदीस और ख़बर लगभग एक दूसरे के पर्याय हैं और समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।

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