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इल्मे-हदीस - आवश्यकता एवं महत्व (हदीस लेक्चर-2)

इल्मे-हदीस - आवश्यकता एवं महत्व (हदीस लेक्चर-2)

लेक्चर: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक मंगल, 7 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इल्मे-हदीस की आवश्यकता तथा इसके महत्व पर चर्चा दो शीर्षकों से की जा सकती है। एक शीर्षक जिसपर आज चर्चा करना मेरा उद्देश्य है, वह इल्मे-हदीस की आम ज़रूरत और इस्लामी ज्ञान एवं कला में विशेषकर तथा मानवीय चिंतन के क्षेत्र में आम तौर पर उसके महत्व का मामला है। दूसरा पहलू इस्लामी क़ानून और शरीअत के एक मूलस्रोत के रूप में हदीस और सुन्नत के महत्व एवं स्थान का है। इस्लाम का हर अनुयायी जानता है कि पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल मुसलमानों के लिए शरीअत (इस्लामी धर्म-विधान) और क़ानून बनाने का सर्वप्रथम तथा आरंभिक स्रोत है। सुन्नत पवित्र क़ुरआन के साथ शरीअत का स्रोत किस प्रकार है? किन मामलों में यह स्रोत है? इससे अहकाम (आदेश एवं निर्देश) कैसे निकाले जाते हैं? इसपर कुछ विस्तार से आगे चर्चा होगी।

जैसा कि पहले बताया गया है कि मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाता एवं संकलनकर्ता) में से अधिकांश के निकट ‘हदीस’ की शब्दावली आम है और ‘सुन्नत’ की शब्दावली ख़ास है। सुन्नत से तात्पर्य वह तरीक़ा या ढंग है जिसपर कोई इंसान जीवन व्यतीत करता है या जिसके अनुसार कोई काम करता है। अच्छे ढंग को भी सुन्नत कहा जाता है और बुरे ढंग को भी सुन्नत कहा जाता है। अरबी भाषा में सुन्नत का शब्द दोनों प्रकार के ढंग के लिए प्रयुक्त हुआ है।

ख़ुद हदीस में भी यह शब्द इसी आम अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। एक प्रसिद्ध हदीस है مَنْ سَنَّ فِی الْاِسْلَامِ سُنَّۃً حَسَنَۃً (मन सन-न फ़िल-इस्लामि सुन्नतन ह-स-नः) अर्थात् जिसने इस्लाम में कोई अच्छी सुन्नत पैदा की, यानी अच्छा ढंग अपनाया, कोई अच्छी रीति शुरू की या अच्छा तरीक़ा निकाला, उसको उसका अज्र (प्रतिदान) मिलेगा और जो लोग आगे उसे व्यवहार में लाएँगे उनका अज्र (प्रतिदान) भी उसको मिलता रहेगा, उनका अज्र कम नहीं होगा। यहाँ सुन्नत का शब्द अच्छे तरीक़े के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी हदीस का दूसरा वाक्य है—وَمَن سَنَّ فِی الْاِسْلَامِ سُنَّۃً سَیّئَۃً فَعَلَیْہِ وِزْرُھَا وَوِزْرُ مَنْ عَمِلَ بِھَا (व मन सन-न फ़िल-इस्लामि सुन्नतन सैय्यिअतन फ़अलैहि विज़-रुहा व विज़रु मन अमि-ल बिहा) और जिस व्यक्ति ने कोई बुरा तरीक़ा ईजाद किया, या बुरी रीति चलाई, तो उसको अपनी करनी का भी गुनाह मिलेगा और जो लोग उस बुरे ढंग या रीति को अपनाएँगे उनके गुनाह में भी यह व्यक्ति भागी रहेगा। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘सुन्नत’ का शब्द अरबी भाषा में ‘तरीक़े’ या ‘ढंग’ या ‘रीति’ के लिए प्रयुक्त होता है।

इस्लामी शरीअत की शब्दावली में सुन्नत का एक अर्थ तो वह है जो पहले बताया जा चुका है यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का वह रवैया जिसको अपनाने की शिक्षा अल्लाह के रसूल ने दी, जिसको क़ायम करने के लिए अल्लाह के रसूल दुनिया में भेजे गए और जो प्रतिष्ठित सहाबा ने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सीखकर अपनाया और नस्ल दर नस्ल इस्लाम के अनुयायियों तक स्थानांतरित होता चला आ रहा है। इस तरीक़े को अरबी भाषा में और इस्लामी शब्दावली में ‘सुन्नत’ कहा जाता है। जब हम यह कहते हैं कि क़ुरआन और सुन्नत दोनों शरीअत (इस्लामी धर्म-विधान) के मूलस्रोत हैं तो हमारा तात्पर्य इसी अर्थ में ‘सुन्नत’ होता है।

लेकिन सुन्नत का एक अर्थ और भी है जो थोड़ा-सा हटकर है। और इन दोनों को अलग-अलग समझ लेना चाहिए। आप जानते हैं कि मुहद्दिसीन की शब्दावली में सुन्नत से अभिप्राय क्या है, यह पहले बताया जा चुका है। मुहद्दिसीन से हटकर एक शब्दावली उलमा-ए-उसूल (इस्लामी सिद्धांतों के ज्ञाता) की है, एक शब्दावली इस्लामी फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) की है। उलमा-ए-उसूल की शब्दावली वह है जो अभी मैंने बताई, यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दिया हुआ वह तरीक़ा जिसे इस्लाम के अनुयायी व्यवहार में लाते हैं, जो शरीअत के आदेशों का मूलस्रोत है, जो हम तक तीन तरीक़ों से पहुँचा है, जिसको मैं अभी स्पष्ट करता हूँ।

तीसरा अर्थ फ़ुक़हा (इस्लामी धर्म-शास्त्रियों) के निकट वह है जो आपने बोलचाल में भी सुना होगा कि यह दो नमाज़ रकअत ‘सुन्नत’ है, यह तीन रकअत ‘फ़र्ज़’ है, वह तीन रकअत ‘वाजिब’ है। ‘वाजिब’ और ‘फ़र्ज़’ के मुक़ाबले में सुन्नत का जो पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त होता है, वह पहले अर्थ से भिन्न है। यहाँ सुन्नत से तात्पर्य यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शिक्षा का वह हिस्सा जो अनिवार्य और वाजिब (ज़रूरी) नहीं है, जो फ़र्ज़ (अनिवार्य) और वाजिब (ज़रूरी) नहीं है। उसको अपनाया जाए तो अज्र (इनाम) मिलेगा और न किया जाए तो उम्मीद है कि अल्लाह के यहाँ पूछ-गच्छ नहीं होगी, यह सुन्नत का तीसरा अर्थ है। इन तीनों अर्थों को ज़ेहन में अलग-अलग रखना चाहिए।

सुन्नत के प्रकार

सुन्नत तीन प्रकार की हैं। यानी सुन्नत हम तक तीन तरीक़ों से पहुँची है। एक तरीक़ा तो है अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मौखिक कथन का जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने सुनकर अक्षरशः याद किए और हम तक पहुँचाए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन “कर्मों का दारोमदार नीयतों पर है” एक उदाहरण है, सुन्नते-क़ौली (कथन रूपी सुन्नत) का, कि अल्लाह के रसूल के मुख से एक कथन निकला, सहाबा ने उसी प्रकार याद करके दूसरों तक पहुँचाया, दूसरों ने उसको याद करके आगे पहुँचा दिया और यों यह कथन हम तक पहुँच गया। यह ‘सुन्नते-क़ौली’ या ‘हदीसे-क़ौली’ है।

सुन्नते-फ़ेअली

सुन्नत का एक प्रकार है, ‘सुन्नते-फ़ेअली’, यानी ‘कर्म संबंधी सुन्नत’। उदाहरणार्थ सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उल्लेख किया कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह किया करते थे, या अमुक अवसर पर अल्लाह के रसूल ने यह किया। ‘सुन्नते-क़ौली’ वह है जो अल्लाह के रसूल के मुख से निकलनेवाले शब्दों पर सम्मिलित हो और सहाबा ने उसे अक्षरशः उद्धृत किया हो। ‘सुन्नते-फ़ेअली’ यह है कि एक सहाबी ने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का व्यवहार देखा और अपने मुख से अपने शब्दों में बादवालों के लिए बयान किया। यह सुन्नते-फ़ेअली है।

सुन्नते-तक़रीरी

सुन्नत का तीसरा प्रकार ‘सुन्नते-तक़रीरी’ है, जिसमें न अल्लाह के रसूल का कथन बयान हुआ है, न अल्लाह के रसूल का अपना कोई व्यवहार उदधृत हुआ है, लेकिन दूसरों का कोई व्यवहार या कर्म अल्लाह के रसूल के सामने हुआ और उन्होंने उससे मना नहीं किया और उसको नाजायज़ नहीं ठहराया, यह भी सुन्नत है। इस प्रकार की सुन्नत से हदीस के बहुत-से मामले साबित होते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का जब जन्म हुआ तो अरबों में बहुत-से रीति-रिवाज का प्रचलन था। बहुत-से मामलों पर अरब लोग छाए हुए थे। उन मामलों और तौर-तरीक़ों में जिस चीज़ को अल्लाह के रसूल ने शरीअत के ख़िलाफ़ देखा तो उसका निषेध कर दिया। जिस चीज़ को शरीअत के ख़िलाफ़ नहीं पाया, अलबत्ता उसमें कोई चीज़ सुधार के योग्य थी, उस हिस्से का नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सुधार कर दिया। और जिन मामलों में कोई भी आपत्तिजनक नहीं थी, अल्लाह के रसूल ने उसपर कोई आपत्ति नहीं जताई, वह उसी तरह चलती रही। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उसे करते रहे। अल्लाह के रसूल की जनकारी और सूचना से उसपर कार्य होता रहा। यह भी सुन्नते-तक़रीरी है।

आपने सुना होगा कि ‘मुज़ारबा’ और ‘मुशारका’ इस्लाम के व्यापारिक क़ानून की दो महत्वपूर्ण शब्दावली हैं। ये व्यापार से संबंधित इस्लाम के दो तरीक़े हैं। जब हम यह कहते हैं कि इस्लाम में व्यापार के ये तरीक़े हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि पवित्र क़ुरआन ने कहीं ‘मुज़ारबा’ का आदेश दिया है या सुन्नत में कहीं ‘मुशारका’ का हुक्म है। सच तो यह है कि न पवित्र क़ुरआन में ‘मुज़ारबा’ का आदेश है न सुन्नत में ‘मुशारका’ का हुक्म है। इसके इस्लामी तरीक़ा होने का अर्थ यह है कि जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पैग़म्बरी मिली और शरीअत के आदेश अवतरित होने आरंभ हुए तो सहाबा में यह दोनों तरीक़े प्रचलित थे। अरब में इस्लाम से पूर्व भी ‘मुज़ारबा’ और ‘मुशारका’ दोनों व्यवहार में थे। इन दोनों के अतिरिक्त भी व्यापार के बहुत-से तरीक़े प्रचलित थे। लेकिन उनमें से दो का उदाहरण लेते हैं। अल्लाह के रसूल ने उनमें थोड़ा बहुत संशोधन करके उनका सुधार किया। शेष तरीक़े इसी प्रकार चलते रहे। अब हम कह सकते हैं कि ‘मुज़ारबा’ और ‘मुशारका’ सुन्नते-त्क़रीरी से हमारे सामने आए हैं।

एक और उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। प्रतिष्ठित सहाबा का एक दल यात्रा पर गया। वहाँ एक व्यक्ति को वुज़ू की ज़रूरत पड़ी। उन्होंने देखा कि पानी नहीं है तो ‘तयम्मुम’ करके नमाज़ पढ़ ली। एक दूसरे व्यक्ति को भी वुज़ू की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने भी ‘तयम्मुम’ करके नमाज़ पढ़ ली। थोड़ी देर में पानी उपलब्ध हो गया। उनमें से एक व्यक्ति ने, जिन्होंने तयम्मुम किया था, वुज़ू किया और वुज़ू करके नमाज़ दोहरा ली। पहले साहब ने नमाज़ नहीं दोहराई। अगले दिन जब अल्लाह के रसूल की सेवा में हाज़िरी हुई तो दोनों व्यक्तियों ने अपना-अपना दृष्टिकोण बयान किया। एक साहब ने कहा, “मैंने तयम्मु करके नमाज़ पढ़ ली थी। चूँकि शरीअत ने तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ने की अनुमति दी है, इसलिए मेरी नमाज़ हो गई थी, अतः नमाज़ को दोहराने की ज़रुरत नहीं थी।” दूसरे व्यक्ति ने कहा कि “मैंने सोचा कि नमाज़ का समय मौजूद है और पानी मिल गया है और वुज़ू तयम्मुम से अधिक अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) है, इसलिए मैंने वुज़ू करके नमाज़ दोहरा ली।” अल्लाह के रसूल ने पहले व्यक्ति को जवाब दिया, “तुमने सुन्नत के अनुसार व्यवहार किया और नमाज़ नहीं दोहराई।” दूसरे व्यक्ति से कहा, “तुम्हें दोहरा अज्र (प्रतिदान) मिलेगा।” यानी अल्लाह के रसूल ने दोनों व्यक्तियों के दृष्टिकोण को पसन्द किया और जायज़ ठहराया, इसलिए अब यह सुन्नत हो गया। सुन्नत से यह बात साबित हो गई कि जिस व्यक्ति को पानी न मिल सके और वह वुज़ू की जगह तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ ले तो यह काफ़ी है। पानी मिल जाने के बाद दोहराना ज़रूरी नहीं। लेकिन अगर कोई दोहरा ले तो उसको दोहरा अज्र मिलेगा। इस प्रकार की और भी बहुत-सी घटनाएँ हमें मिल सकती हैं। हदीस में इसके अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं कि सुन्नते-तक़रीरी से कोई चीज़ कैसे साबित होती है। इन दो मिसालों से अन्दाज़ा हो जाएगा।

क़ुरआन में सुन्नत का प्रमाण

इस दौर में कुछ लोगों का कहना है जो कि बहुत बड़ी गुमराही है और इस्लाम की मौलिक अवधारणा के विरुद्ध है। वे यह समझते हैं और दूसरों को भी यह समझाने की कोशिश करते हैं कि जो चीज़ सुन्नत के रूप में मुसलमानों के पास इस समय मौजूद है, उसका कोई प्रमाण क़ुरआन में मौजूद नहीं है। यह न केवल एक बहुत बड़ी गुमराही है, बल्कि एक बहुत बड़ी फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) से वंचित होने की बात भी है। अगर केवल क़ुरआन या कोई लिखित पत्र मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त होता तो सर्वोच्च अल्लाह को पैग़म्बरों को भेजने की क्या आवश्यकता थी। आसमानी किताबें उतार दी जातीं और इसी पर बस किया जाता। लेकिन हम देखते हैं कि ऐसा नहीं हुआ। एक लाख चौबीस हज़ार (1,24000) पैग़म्बर भेजे गए, जिनमें से कुछ पर किताबें भी उतारी गईं। किताबों की संख्या कुछ सौ से अधिक नहीं है। एक उल्लेख में एक सौ चार (104) किताबों की संख्या बताई गई है। एक दूसरे उल्लेख से तीन सौ चौदह (314) किताबों का पता चलता है। लेकिन नबियों की संख्या एक लाख चौबीस हज़ार के लगभग है। यानी अस्ल चीज़ नबी और पैग़म्बर है। किताब का उतारा जाना या न उतारा जाना यह अल्लाह की मर्ज़ी पर निर्भर है। जब उचित समझा उसने कोई किताब अवतरित कर दी, और जब उचित नहीं समझा किताब अवतरित नहीं की। इसलिए नबी और पैग़म्बर को और उनके मार्गदर्शन को किताब से अलग नहीं किया जा सकता। इसके अलावा स्वयं अल्लाह की किताब यानी पवित्र क़ुरआन में दर्जनों जगहों पर वे निर्देश पाए जाते हैं जिनमें कुछ का उल्लेख आगे किया जा रहा है, जिनमें पैग़म्बर की सुन्नत और उसकी व्याख्या को पवित्र क़ुरआन के समझने और उसे व्यवहार में लाने के लिए अनिवार्य ठहराया गया है। ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “याद रखो, मुझे क़ुरआन भी दिया गया और इसके साथ ही और उससे मिलता-जुलता (बहुत-सा मार्गदर्शन) भी दिया गया है।” अतः ये दोनों प्रकार का मार्गदर्शन जिसका अधिक विवरण हम आगे चलकर देखेंगे, अल्लाह की ओर से रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को प्रदान किया गया।

एक रिवायत (उल्लेख) में आता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य का अवतरण लगभग चौबीस हज़ार बार हुआ। अगर चौबीस हज़ार बार वह्य अवतरित हुई और पवित्र क़ुरआन की एक-एक आयत एक बार भी अवतरित हो, यद्यपि कुछ लम्बी-लम्बी सूरतें एक ही बार की वह्य में अवतरित हुईं, सूरा-6 अनआम पूरी एक ही समय में अवतरित हुई। सूरा-12 यूसुफ़ पूरी एक समय में अवतरित हुई। मक्की सूरतें जो अधिकांश छोटी-छोटी हैं, वे एक बार में अवतरित हुईं तो इससे ज़्यादा से ज़्यादा पाँच सौ बार करके पूरा क़ुरआन अवतरित हो सकता था। ये चौबीस हज़ार बार वह्य अवतरित होने का क्या मतलब है?

इमाम अबू-दाऊद ने अपनी किताब ‘सुनन’ में उल्लेख किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) क़ुरआन लेकर भी उतरते थे और सुन्नत लेकर भी अवतरित होते थे। کَانَ جِبْرِیْلَ عَلَیْہِ الصلوٰۃ والسَّلَام ینزل علی رسول اللہِ ﷺ بالسنۃکما ینزل علیہ بالقرآن “जिब्रील अमीन सुन्नत लेकर भी उसी प्रकार उतरते थे जिस प्रकार कि क़ुरआन लेकर उतरते थे।” और ویعلمہ ایاہ کما یعلمہ القرآن   “और जैसे अल्लाह के रसूल को क़ुरआन सिखाया करते थे, उसी प्रकार सुन्नत भी सिखाया करते थे।” इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चौबीस हज़ार बार जो वह्य अवतरित हुई उसमें पवित्र क़ुरआन के साथ-साथ सुन्नत का अवतरण भी शामिल है। और जिब्रील अमीन ने सुन्नत के मौलिक आदेश भी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सिखाए।

अतः इल्मे-हदीस जो सुन्नत का सबसे बड़ा मूलस्रोत है, उसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है और उसकी आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है कि यह इल्म सुन्नत को बयान करता है। सुन्नत का विस्तृत विवरण इल्मे-हदीस के द्वारा हम तक पहुँचा है। सुन्नत की रक्षा और सुन्नत को बाक़ी रखने की हर कोशिश मुसलमानों के लिए उसी प्रकार अनिवार्य है और बहुत बड़ी श्रेष्ठता की बात है, जिस प्रकार क़ुरआन की सुरक्षा और उसको बाक़ी रखने की कोशिश है। पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा का तो अल्लाह ने वादा किया है اِنَّا نَحْنُ نَزّلْنَاالذِّکْرَ وَاِنَّا لَہٗ لَحَافِظُوْنَ “हमने इस ज़िक्र (क़ुरआन) को अवतरित किया है और हम ही इसकी सुरक्षा करनेवाले हैं।” (क़ुरआन, 15/9) लेकिन यह वादा आंशिक रूप से सुन्नत पर भी लागू होता है। इसलिए कि यहाँ ‘ज़िक्र’ का शब्द प्रयुक्त हुआ है। ज़िक्र में पवित्र क़ुरआन शामिल है। लेकिन ज़िक्र, यानी याददिहानी उसी वक़्त याददिहानी हो सकती है जब उसका अर्थ सामने हो। अगर कोई याददिहानी हो लेकिन उसका अर्थ किसी की समझ में न आए, उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति आपको किसी पुरानी भाषा में याददिहानी का पत्र भेज दे, पुरानी सिरयानी या रोमन या लैटिन भाषा में आपको पत्र लिखे और आपको वह भाषा न आती हो तो याददिहानी का क्या अर्थ रह जाएगा। याददिहानी उसी वक़्त सार्थक होगी जब आपकी समझ में आए। इसलिए अगर क़ुरआन की व्याख्या और स्पष्टीकरण मौजूद नहीं है तो याददिहानी और उसके प्रभाव सीमित हो जाते हैं। इसलिए याददिहानी को सुरक्षित रखने के लिए जहाँ उसके मूल लेख्य (Text) की सुरक्षा ज़रूरी है वहाँ उसकी व्याख्या की सुरक्षा भी ज़रूरी है। और वह व्याख्या एवं टीका की सुरक्षा सुन्नत के द्वारा हम तक पहुँचती है।

यही कारण है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुस्लिम समाज को नसीहत की कि सुन्नत की सुरक्षा और उसे बाक़ी रखने के लिए भी उसी प्रकार कोशिश करें जैसे क़ुरआन की सुरक्षा और उसे बाक़ी रखने के लिए करते हैं। एक जगह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “वह व्यक्ति जो मेरी सुन्नत का दामन पकड़े हुए है, उस समय जब मेरी उम्मत (अनुयायी समूह) बिगाड़ का शिकार हो तो उसके लिए शहीद का अज्र है।” एक रिवायत में आता है कि “उसको सौ शहीदों का अज्र मिलेगा।” सौ शहीदों का प्रतिदान इसलिए मिलेगा कि एक शहीद जिस उद्देश्य के लिए जान क़ुरबान करता है वह क्या है? वह इस्लाम का स्थायित्व और उसकी सुरक्षा है। अगर सुन्नतें मिट रही हों, हदीस समाप्त हो रही हो, तो फिर मुस्लिम समाज का अस्तित्व धार्मिक आधार पर बाक़ी नहीं रह सकेगा। तो जिन उद्देश्यों के लिए शहीद अपनी जान क़ुरबान करता है, सुन्नत की रक्षा करनेवाला उन्हीं उद्देश्यों को दूसरे ढंग से प्राप्त करता है। इसलिए उसको एक शहीद या सौ शहीदों का अज्र मिलेगा। विभिन्न कारणों और नीयतों की दृष्टि से दोनों अपने प्रतिदान के अधिकारी होंगे।

इमाम शाफ़िई ने एक जगह लिखा है कि हदीस और सुन्नत के आलिमों की अपने-अपने क्षेत्र और दौर में वही हैसियत है जो सहाबा और ताबिईन की अपने दौर में थी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन (रहमतुल्लाह अलैहिम) को उनके दौर में मान-सम्मान का स्थान क्यों प्राप्त था? इसलिए कि वे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिए हुए मार्गदर्शन को लोगों तक पहुँचा रहे थे। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन उनके द्वारा लोगों तक पहुँच रहे थे। अल्लाह के रसूल की सुन्नत की जानकारी उनके द्वारा फैल रही थी। अतः आज एक ज्ञानवान व्यक्ति जो हदीस और सुन्नत का ज्ञान रखता हो और उसके द्वारा यह ज्ञान लोगों तक पहुँच रहा हो तो मानो वह वही भूमिका निभा रहा है जो प्रतिष्ठित सहाबा और ताबिईन अपने समय में निभाया करते थे। इसी लिए इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक जगह कहा है, “हदीस का ज्ञान रखनेवालों की हर दौर में वही हैसियत होगी जो सहाबा की अपने दौर में थी।” एक जगह उन्होंने कहा, “अगर मैं हदीस के किसी आलिम (ज्ञानी) को हदीस बयान करते हुए देखूँ, और ख़ुद इमाम शाफ़िई उनमें शामिल थे, तो मानो मैंने अल्लाह के रसूल के एक सहाबी को देखा जो इल्मे-हदीस बयान कर रहे थे।

यह हदीस और सुन्नत का दीनी (धार्मिक) और इस्लामी महत्व है। इसपर एक-दूसरे दृष्टिकोण से भी विचार करने की आवश्यकता है। और वह यह है कि अल्लाह की ओर से वह्य (प्रकाशना) जो क़ुरआन के रूप में हमारे पास है, उसमें मौलिक निर्देश और मूल सिद्धांत वर्णित हुए हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख हम अभी करेंगे, लेकिन उन निर्देशों का जो अल्लाह की किताब में वर्णित हुए है, जब तक व्यावहारिक रूप हमारे सामने न हो, उस समय तक उन निर्देशों को व्यवहार में लाना बड़ा कठिन काम है। अगर यह कहा जाए कि हदीस और सुन्नत के मार्गदर्शन के बिना उन निर्देशों का पालन संभव नहीं है, तो शायद अतिशयोक्ति न होगी।

हदीस की तुलना में अन्य धर्म-ग्रंथों की हैसियत

पिछली आसमानी किताबों को देखें। आज इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की सुन्नत कहीं नहीं है। उनपर उतारे जानेवाले सहीफ़े (ग्रंथ) भी कहीं नहीं हैं। उनके कथनों के बारे में हमें कुछ पता नहीं है। उनकी सुन्नत के बहुत मामूली और धुंधले लक्षण हैं जो इसलिए सुरक्षित रह गए हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शरीअत में वे शामिल हो गए, अरब में उनका रिवाज था और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह के आदेश से उनको शरीअत का हिस्सा बना दिया। इसलिए वे आज सुरक्षित हैं वरना वे इतने भी सुरक्षित न रहते।

मूसा (अलैहिस्सलाम) को माननेवाले आज करोड़ों की संख्या में हैं। उनका एक राज्य (इज़्राइल) भी मौजूद है, जिसके पास बड़े-बड़े संसाधन हैं। लेकिन मूसा (अलैहिस्सलाम) की सुन्नत मौजूद नहीं है। उनके कथन मौजूद हैं या नहीं, इसके बारे में यहूदी भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। उनके पास जो कुछ मूसा (अलैहिस्सलाम) के नाम से जुड़ा हुआ है, वह एक अत्यंत अप्रामाणिक, अस्पष्ट और ऐतिहासिक रूप से अप्रमाणित चीज़ है। विभिन्न ढंग से उसको संकलित किया गया है। लेकिन कोई यहूदी पूरे विश्वास से यह नहीं कह सकता कि ये मूसा (अलैहिस्सलाम) ही के कथन हैं।

यही हाल ईसा (अलैहिस्सलाम) का है कि आज चार इंजीलें (Gospels) उनके कथनों का सबसे बड़ा स्रोत मानी जाती हैं। चार इंजीलों का नाम आपने सुना होगा, जो ईसाइयों के निकट प्रामाणिक हैं या वे उनको प्रामाणिक समझते हैं, उनमें ईसा (अलैहिस्सलाम) के कथन जगह-जगह बयान किए गए हैं, उनकी जीवनी का वर्णन किया गया है। लेकिन अगर आप इतिहास के एक ऐसे छात्र की दृष्टि से देखें जो चीज़ों को योग्यता (Merit) पर जानना चाहता हो और मात्र किसी श्रद्धा के आधार पर चीज़ों को न मानता हो, तो आपको पता चलेगा कि ऐतिहासिक दृष्टि से इन कथनों की कोई हैसियत नहीं। पहली बात तो यह कि ये इतने अस्पष्ट हैं जिसकी कोई सीमा नहीं, और जैसा कि मैंने पहले कहा कि अगर कोई उनकी सूची बनाना चाहे तो उनकी संख्या शायद तीस, चालीस या पचास से अधिक नहीं बन सकती। फिर अगर उन वक्तव्यों को सही मान भी लिया जाए तो उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता (Authenticity)  क्या है। इस मामले में ईसाई इतिहासकार भी चुप हैं और संसार के दूसरे इतिहासकार भी चुप हैं। जिन लोगों ने उन इंजीलों के बयान किया उनमें से कोई भी ईसा (अलैहिस्सलाम) के समय में नहीं था। यह भी नहीं पता कि उनको किसने सबसे पहले बयान किया? किस भाषा में बयान किया? किस जगह बैठकर उसको संकलित किया? पहले-पहल इंजीलों की जो प्रति संकलित की गई थी वह कहाँ है? उनमें से कोई चीज़ आज मौजूद नहीं है। ईसा (अलैहिस्सलाम) के संसार से जाने के बाद कुछ लोगों ने ये चीज़ें लिखीं। साठ, सत्तर या पचहत्तर साल बाद लोगों ने ये चीज़ें संकलित कीं। इन आरंभिक लेख्यों में से कोई चीज़ भी लिखित रूप में आज नहीं पाई जाती। उनमें से एक प्रति का बाद में किस व्यक्ति ने अनुवाद किया था? वह अनुवादक कौन था? यह भी नहीं मालूम। वह उस भाषा को जानता था, जिसमें इंजील पहले-पहल लिखी गई या नहीं जानता था? यह भी नहीं मालूम। उसने सही अनुवाद किया? यह भी नहीं पता। पूरा अनुवाद किया? यह भी नहीं मालूम। अपनी ओर से कुछ मिला दिया? यह भी नहीं मालूम। कुछ चीज़ें हटा दीं? यह भी नहीं मालूम। उसने अनुवाद करके छोड़ दिया। वह अनुवाद दो-ढाई सौ वर्ष बाद कहीं से मिल गया और उस अप्रामाणिक अनुवाद के ये सारे अनुवाद हैं जो आज बाइबिल नए नियम की पहली चार किताबों के रूप में मौजूद हैं। ये चारों इंजीलों की ऐतिहासिक हैसियत है।

इसके मुक़ाबले में आप देखें कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत को, जिसका विस्तृत विवरण आगे आएगा, अगर आज मैं आपसे यह बयान करूँ कि यह हदीस जो मैंने अभी पढ़ी “कर्मों का दारोमदार नीयतों पर है....” मैं आपसे बयान कर सकता हूँ कि मुझसे यह हदीस किसने बयान की। उससे किसने बयान की और मैं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पूरा प्रमाण-क्रम आपको सुना सकता हूँ। पूरा प्रामाणिक क्रम मैं आपके सामने बयान कर सकता हूँ कि ‘सिहाहे-सित्तः’ (हदीस की छः प्रसिद्ध और प्रामाणिक पुस्तकों) में से किस रिवायत से इसे लिया गया है। मुसलमानों के अलावा दुनिया में किसी अन्य के पास ऐसी कोई चीज़ मौजूद नहीं। संसार के लिए यह बात अकल्पनीय है कि ऐसी कोई चीज़ भी हो सकती है? ईसा (अलैहिस्सलाम) तो बहुत पहले थे। आज से सौ दो सौ वर्ष पहले के किसी आदमी का बयान इस प्रमाण के साथ मौजूद नहीं कि प्रमाण में शामिल हर व्यक्ति एक ऐतिहासिक अस्तित्व रखता हो और आपको अधिकार हो कि हरेक के बारे में पूछें कि यह आदमी कौन था? और मेरी ज़िम्मेदारी हो कि मैं इतिहास से साबित करूँ कि यह अमुक व्यक्ति थे, अमुक जगह पैदा हुए थे, यह उनका नाम था और यह उनका कारनामा है। यह चीज़ दुनिया में किसी के पास नहीं है। यह केवल मुसलमानों के पास है।

अल्लाह की किताब और नबी के कथनों में मुख्य अन्तर

अब अल्लाह की वह्य की ओर आते हैं। अल्लाह की वह्य की एक विशेष शैली है। पवित्र क़ुरआन में भी यह शैली है, तौरात में भी यह शैली मिलती है, जो हिस्से तौरात के बाक़ी रह गए हैं और जिस हद तक इंजील में प्रामाणिकता पाई जाती है। इंजील में भी यह बात मौजूद है कि पैग़म्बर अपनी बातों को आम ढंग से बयान करते थे। अल्लाह की किताब के आम नियम होते थे। अल्लाह की किताब में व्यावहारिक विवरण और प्रतिदिन के आदेश नहीं होते। अगर ऐसा होने लगे तो अल्लाह की किताब के कम से कम सौ भाग होंगे। पवित्र क़ुरआन के सौ भाग होते, अगर क़ुरआन में यह सब लिखा जाता कि नमाज़ में हाथ यहाँ बाँधो, नमाज़ में क्या पढ़ो, कैसे पढ़ो आदि। केवल नमाज़ के आदेश अगर क़ुरआन में लिखे जाते तो वर्तमान क़ुरआन से शायद दस गुना अधिक उसके भाग बन जाते। फिर लोग उसको याद (कंठस्थ) कैसे रखते और समझते कैसे। इसलिए पवित्र क़ुरआन की शैली यह है कि उसमें आम निर्देश और आम नियम वर्णित हुए हैं। ऐसे ही आम नियम तौरात में हैं। यह आम नियम इंजील में हैं। यही अन्य किताबों में हैं।

अब अल्लाह की यह रीति (सुन्नत) रही है कि इन नियमों के देने के साथ-साथ नबियों (अलैहिमुस्सलाम) को संसार में भेजा कि उनकी सुन्नत को देखते जाओ और व्यवहार में लाना सीखते जाओ। अगर अल्लाह की किताब में लिखा हुआ है कि न्याय से काम लो तो जो उनका रवैया है वह न्याय है, उसके अनुसार काम शुरू कर दो। अगर उसमें लिखा हुआ है कि अल्लाह की इबादत करो तो जैसे ये इबादत करते हैं, वैसे इबादत शुरू कर दो। इस प्रकार से अल्लाह कि किताब का एक-एक शब्द और एक-एक वाक्य नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के वर्षों की सुन्नतों के परिणामस्वरूप सामने आता है। वह एक जीवित अस्तित्व है। लोग उसको देखते जाएँ और अल्लाह की किताब को व्यवहार में लाते जाएँ।

सुन्नत : वह्य (ईश-प्रकाशना) का व्यावहारिक आदर्श

पिछले नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की क़ौमों ने उनकी सुन्नतों (व्यवहार) को भुला दिया। सुरक्षित भी नहीं रखा और जितना कुछ बाक़ी रहा था उसको भी भुला दिया और याद नहीं रखा। अब स्थिति यह है कि उनके यहाँ केवल नारे और उद्घोषणाएँ हैं, व्यवहार नहीं है। मैं एक मिसाल आपको देता हूँ। ईसाइयों के बारे में आपने सुना होगा कि वे कहते हैं कि हमें दो नियमों की शिक्षा दी गई है और हम दो ही नियमों के ध्वजावाहक हैं। ‘न्याय’ और ‘मानवता से प्रेम’। ईसाइयों की किताबों में अधिकांश जगह आपने यही लिखा देखा होगा। लेकिन यह बात कि ‘मानवता से प्रेम’ से क्या तात्पर्य है? उसे व्यवहार में कैसे लाया जाएगा? न्याय की परिभाषा क्या है? उसकी व्यावहारिक अपेक्षाएँ क्या हैं? जब तक व्यावहारिक रूप देकर लोगों का मार्गदर्शन न किया जाए कि न्याय किसको कहते हैं, उस समय तक न्याय का शब्द निरर्थक है। मैं पूरे जीवन भाषण देता रहूँ कि न्याय होना चाहिए, न मेरे जीवन में न्याय हो, न आपके जीवन में न्याय हो, तो यो भाषण निरर्थक होगा। यह बात कहने में तो बहुत अच्छी लगती है कि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर चाँटा मार दे तो तुम बायाँ गाल भी सामने कर दो। कहने को तो बड़ी अच्छी बात है, लेकिन इसका व्यावहारिक रूप क्या होगा? क्या कुछ स्थितियों में अपवाद भी होगा या हर हालत में ऐसा करना चाहिए? क्या किसी हत्यारे के सामने, जब वह हथियार से वार करे, तो दूसरा कंधा भी सामने कर दें कि ‘इधर भी वार कर दो’ कि यही इंजील का हुक्म है। चोर एक कमरे में डाका डाले तो आप दूसरा कमरा खोल दें कि यहाँ भी डाका डाल दो। सवाल यह है कि इस नियम को कहाँ व्यवहार में लाएँगे और कहाँ नहीं लाएँगे? कैसे व्यवहार में लाएँगे? जब तक यह विवरण सामने न हो उस समय तक यह नारा मात्र एक निरर्थक बात है। ईसा (अलैहिस्सलाम) की सुन्नत उन लोगों ने सुरक्षित नहीं रखी, गुम कर दी। अतः उनके पास सिवाय इस अस्पष्ट नारे के और कुछ नहीं है।

मूसा (अलैहिस्सलाम) की सुन्नत यहूदियों ने मिटा दी। वे कहते हैं कि तुम अपने पड़ोसी के लिए वही करो जो अपने लिए करते हो, लेकिन क्या यहूदी अपने पड़ोसियों के लिए वह कुछ करते हैं जो अपने लिए करते हैं? आप देख लीजिए क्या हो रहा है? इज़्राईल में क्या कर रहे हैं, शेष जगहों पर क्या कर रहे हैं? इसलिए कि यह नारा तो लिखा हुआ है। तौरात में इस विषय पर एक-आध पंक्ति की शिक्षा है, लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए उसके पीछे की सुन्नत और कार्य-शैली नहीं है।

जो बात मैं कहना चाहता हूँ वह यह है कि सुन्नत में अल्लाह द्वारा अवतरित वह्य (ईश-प्रकाशना) का एक व्यावहारिक रूप प्रदान कर दिया गया है। एक जीता-जागता व्यावहारिक आदर्श हमारे सामने रख दिया गया है, जिसमें वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) के एक-एक आदेश, एक-एक शब्द और एक-एक अक्षर का पूरा चित्र बना दिया गया है कि इसे व्यवहार में कैसे लाया जाएगा। अब किसी शब्द के बारे में कोई उलझन नहीं है कि क़ुरआन में कोई शब्द किसलिए आया है और उसमें क्या कहा गया है?

अगर सुन्नत का यह कारनामा न होता तो पवित्र क़ुरआन के नियम एवं सिद्धांत केवल वैचारिक वक्तव्य और लुभावने उद्घोष होते। पवित्र क़ुरआन के उद्घोष भी (अल्लाह माफ़ करे) केवल घोषणाएँ बनकर रह जाते। जैसे तौरात और इंजील के उद्घोष केवल शाब्दिक वक्तव्य भर होकर रह गए हैं। जैसे धर्म ग्रंथों में अच्छी-अच्छी बातें लिखी हुई हैं। जिस क़ौम के भी धर्म ग्रंथ उठाकर देखें उसमें बड़े अच्छे नैतिक सिद्धांत वर्णित हुए हैं, लेकिन उन्हें व्यावहारिक रूप देने का मामला शून्य है। वह इसलिए शून्य है कि उसके पीछे कोई व्यावहारिक आदर्श नहीं है। व्यावहारिक आदर्श निःसन्देह मौजूद थे, अल्लाह ने भेजे थे, लेकिन उनके माननेवालों ने उन व्यावहारिक आदर्शों के विस्तृत विवरण सुरक्षित नहीं रखे। न्याय, प्रेम, समता, मानव का सम्मान ये सारे उद्घोष जो क़ुरआन में किए गए हैं, उनकी व्यावहारिक व्याख्या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत के रूप में हमारे सामने है।

अगर ऐसा न होता तो अल्लाह द्वारा अवतरित वह्य (प्रकाशना) इस प्रकार एक व्यावहारिक आदर्श के रूप में हमारे सामने न आ सकती। अभी मैंने बताया कि पवित्र क़ुरआन में सर्वोच्च अल्लाह ने अपनी किताब को सुरक्षित रखने का वादा किया है। और देखने में आता है कि क़ुरआन वह एक मात्र आसमानी किताब है जो आज तक अक्षरशः उसी प्रकार सुरक्षित है जिस प्रकार अल्लाह ने अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर उतारी और रसूल ने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तक पहुँचाई। उसमें एक अक्षर, एक ज़ेर-ज़बर का भी अन्तर नहीं है। यहाँ तक कि सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने जिस प्रकार लिखा, आज तक उसी प्रकार लिखा जा रहा है।

सच्चाई यह है कि अल्लाह की किताब क़ुरआन की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च अल्लाह ने दस चीज़ों की सुरक्षा की है। ये दस चीज़ें वे हैं जो क़ुरआन की सुरक्षा के लिए सुरक्षित की गई हैं।

1.सबसे पहले तो पवित्र क़ुरआन का अरबी टेक्स्ट है, जो हमारी इस समय की चर्चा से परे है। बहरहाल यह एक निश्चित बात है कि क़ुरआन का टेक्स्ट पूरी तरह सुरक्षित ह

2. फिर टेक्स्ट सुरक्षित हो और अर्थ सुरक्षित न हों तो टेक्स्ट की सुरक्षा से लाभ नहीं उठाया जा सकता। दो सौ वर्ष पुराना टेक्स्ट हो, हज़ार वर्ष पुराना हो या दो हज़ार वर्ष पुराना हो, वह हमारे लिए निरर्थक है। इसलिए कि उसका अर्थ और भावार्थ मिट गए। इसके विपरीत अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन के टेक्स्ट को भी सुरक्षित रखा और उसके अर्थों को भी सुरक्षित रखा जो सुन्नत के रूप में हमारे सामने है और हमारी इस वार्ता का विषय है।

3.सर्वोच्च अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन की भाषा को भी सुरक्षित रखा। क़ुरआन की भाषा भी सुरक्षित है। क़ुरआन के समय की सब भाषाएँ मिट गईं, जिन-जिन भाषाओं को क़ुरआन के अवतरण काल में बोला जाता था, आज उनमें से कोई भाषा संसार में सुरक्षित नहीं हैं। सब मिट चुकी हैं, केवल एक क़ुरआन की भाषा मौजूद है। यह एक ऐसा अद्भुत अपवाद है जिसका उदाहरण भाषाओं के इतिहास में नहीं मिलता। संसार की प्रत्येक भाषा तीन-चार सौ वर्ष के बाद बदल जाती है। आज मैं जो उर्दू (हिन्दी) प्रयुक्त कर रहा हूँ यह भाषा आज से चार सौ साल पहले नहीं बोली जाती थी। तीन सौ वर्ष के बाद नहीं बोली जाएगी। तीन सौ वर्ष के बाद आने वाले शायद इसे समझ भी न सकेंगे। लेकिन अरबी भाषा एक मात्र भाषा है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से कम से कम साढ़े तीन सौ वर्ष पहले से बोली जा रही थी। इसके उदाहरण मौजूद हैं। वार्ता लम्बी हो जाएगी इसलिए यहाँ वे उदाहरण नहीं दूँगा। लेकिन अल्लाह के रसूल के जन्म से साढ़े तीन सौ वर्ष पहले की अरबी भाषा के नमूने मौजूद हैं और आज हम तक पहुँचे हैं, और उनमें यही शैली और यही शब्द प्रयुक्त हुए हैं जो हदीसों और पवित्र क़ुरआन में हमें मिलते हैं।

4. फिर इसके साथ-साथ पवित्र क़ुरआन और सुन्नत पर जो सामूहिक व्यवहार मुसलमानों का रहा है, जिसे ‘तआमुल’ कहते हैं, यानी एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल के लोग उसी के अनुसार व्यवहार करते चले आ रहे हैं। यह भी पूरी तरह सुरक्षित है। हर दौर का ‘अमल’ (व्यवहार) और ‘तआमुल’ सुरक्षित है। जिसका अनुमान न केवल मुसलमानों के सामूहिक रवैये से बल्कि मुसलमानों के कुछ उपलब्ध प्रकाशित रिकार्ड से लगाया जा सकता है कि यह ‘तआमुल’ किस दौर में कैसा था।

एक उदाहरण मैं प्रस्तुत कर देता हूँ। पवित्र क़ुरआन में है—اَقِیْمُواالصَّلوٰۃَ  (अक़ीमुस्सला-त) “नमाज़ क़ायम करो।” दर्जनों नहीं, सैकड़ों जगह यह आया है कि नमाज़ क़ायम करो, लेकिन कहीं भी नमाज़ का विस्तृत विवरण नहीं दिया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नमाज़ के विवरण और तरीक़े को बताया और आप उस विस्तार में नहीं गए कि यह फ़र्ज़ है, और यह वाजिब है, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने केवल इतना कहने पर बस किया कि صَلّوا کَمَا رَاَئَیْتُمُوْنِیْ اُصَلِّیْ (सल्लू कमा रऐतुमूनी उसल्ली) “नमाज़ उस तरह पढ़ो जिस तरह मुझे नमाज़ पढ़ते हुए देखते हो।” सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उस तरह नमाज़ पढ़नी शुरू कर दी। सहाबा ने आगे ताबिईन को सिखाया, ताबिईन ने तबअ-ताबिईन को सिखाया और हर दौर में इस्लाम के फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाता) और मुफ़स्सिरीन (टीकाकार) नमाज़ के हुक्मों का विवरण बयान करते रहे। आज मुसलमान अरबों की संख्या में नमाज़ पढ़ रहे हैं। करोड़ों की संख्या में मुसलमान विधिवत रूप से नमाज़ पढ़ते हैं। अगर आपको यह जानने में रुचि हो कि किस दौर में मुसलमान किस प्रकार नमाज़ पढ़ते थे तो उस दौर की कोई किताब, फ़िक़्ह की, हदीस की या तफ़सीर की देख लें, मालूम हो जाएगा कि मुसलमान बारहवीं सदी हिजरी में ऐसा करते थे। सातवीं सदी हिजरी में ऐसा करते थे, नवीं सदी हिजरी में ऐसा करते थे, यद्यपि इसकी आवश्यकता नहीं है। आज जिस तरह नमाज़ पढ़ रहे हैं, यह तआमुल (क्रमिक व्यवहार) से साबित है। लेकिन फिर भी चेक करना चाहें तो यह सारा संग्रह मौजूद हैं, उसको चेक किया जा सकता है। यह तआमुल (क्रमिक व्यवहार) की सुरक्षा है जो क़ुरआन पर व्यवहार के लिए ज़रूरी है।

5. फिर जिस वातावरण और जिस सन्दर्भ में क़ुरआन अवतरित किया गया उस वातावरण और सन्दर्भ का पूरा विवरण मौजूद है और यह हदीस के रूप में हमारे सामने आया है। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी और हदीस के संग्रहों में वह पूरा वातावरण, और उसका चित्रण करके हमारे सामने रख दिया गया, जिसमें पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ। जब हदीस का एक विद्यार्थी हदीस की किताबों का अध्ययन करता है, जीवनी का छात्र जीवनी का विवरण पढ़ता है तो उसके सामने कल्पना में वह सारा दृश्य साकार होकर आ जाता है, जिस दृश्य में पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ, जिस पृष्ठभूमि में क़ुरआन के आदेशों एवं निर्देशों को व्यवहार में लाया जाना आरंभ हुआ और ऐसी चीज़ें जिनका प्रकट में पवित्र क़ुरआन और हदीस के समझने से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता, वे विवरण भी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने बयान कर दीं और उनको सुरक्षित कर दिया।

हदीस के प्रकारों पर आगे चलकर बात होगी, लेकिन अभी केवल एक बात कहे देता हूँ। हदीस की एक क़िस्म कहलाती है ‘हदीसे-मुसलसल’। इससे मुराद वह हदीस है जिसमें हर उल्लेखकर्ता ने कोई विशेष पॉइंट या किसी विशेष स्थिति को लगातार बयान किया हो, उसको हदीसे-मुसलसल कहते हैं। अतः एक हदीस कहलाती है ‘हदीसे-मुसलसल बित्तश्बीक’। ‘तश्बीक’ दोनों हाथों की उंगलियों को उस प्रकार एक-दूसरे के अन्दर पिरो लेने को कहते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक़रीर कर रहे थे और कह रहे थे कि “जब इंसान कोई गुनाह करता है तो उसके दिल से ईमान इस प्रकार निकल जाता है, और जब तौबा कर लेता है तो ईमान दिल में ऐसे दाख़िल हो जाता है।” इस तरह से मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दोनों हाथों की उंगलियों को एक-दूसरे के अन्दर पिरोकर बताया। जब सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उसको नक़्ल करके बताया तो उन्होंने भी ऐसा किया कि दोनों उंगलियों को पिरोकर अलग किया और कहा कि ईमान इस तरह निकल जाता है, फिर तौबा करता है तो दाख़िल हो जाता है। इस हदीस को हदीसे-मुसलसल बित्तश्बीक कहा जाता है। और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के समय से लेकर आज तक इस हदीस को बयान करनेवाले इस अमल की नक़्ल करके बताते हैं। इस अमल को करके दिखाने और बताने का कोई महत्व नहीं और अगर कोई न भी करे तो बात समझ में आ जाएगी। लेकिन इससे एक अतिरिक्त लाभ यह होता है कि मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक रूप से इंसान उस वातावरण में चला जाता है जिस वातावरण में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस बात को बयान कर रहे थे। मस्जिदे-नबवी में या जिस जगह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसको बयान कर रहे थे तो रूहानी (आध्यात्मिक) तौर पर ऐसा महसूस होता है कि मैं वहाँ मौजूद हूँ और अल्लाह के रसूल के इस अमल को सहाबा, ताबिईन, और तबअ-ताबिईन और हदीस के छात्रों और शिक्षकों के द्वारा मैं देखता चला आ रहा हूँ। यह है वातावरण की सुरक्षा का एक उदाहरण। इस प्रकार के उदाहरण और भी सामने आएँगे, यानी वह पूरी स्थिति (Setting) जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई हदीस बयान की या सुन्नत का कोई आदर्श लोगों के सामने रखा और क़ुरआन की व्याख्या की तो उस वातावरण के विवरण को भी अल्लाह ने सुरक्षित रखा और आगामी नस्लों के लिए बाक़ी रखा।

6. जो व्यक्तित्व अल्लाह की किताब लेकर आया वह अपनी जगह ख़ुद एक समुद्र है, एक विषय है, उसकी जीवनी को भी अल्लाह ने उसी प्रकार सुरक्षित रखा कि जिससे ज़्यादा किसी इंसान के व्यक्तित्व के विवरण को सुरक्षित रखने की कोई कल्पना नहीं की जा सकती।

7. इंसान के दिमाग़ में वे संभावनाएँ और विवरण नहीं आ सकते जो जीवनी की घटनाओं को सुरक्षित रखने के लिए किए गए। अधिक विस्तार में जाने का मौक़ा नहीं, लेकिन एक छोटी सी मिसाल देता हूँ।

अरबों के दिल में सर्वोच्च अल्लाह ने यह विचार डाला और शायद इसलिए डाला कि जीवनी की घटनाएँ सुरक्षित रखनी थीं कि अपने क़बीले और बिरादरियों की वंशावली को सुरक्षित रखें। ‘इल्मुल-अंसाब’ (वंशावली से संबंधित ज्ञान) उनके यहाँ विधिवत रूप से एक कला थी। इसपर दर्जनों किताबें आज भी मौजूद हैं। ‘इल्मुल-अंसाब’ के नाम से इन विषयों पर किताबें लिखी गईं कि अरब क़बीलों की वंशावली क्या थी? कौन किसका बेटा था, किसका पोता था, किसका दादा था, किसी शादी कहाँ हुई, किसके कितने बच्चे थे, किस क़बीले की आपस में क्या रिश्तेदारियाँ थीं। इन जानकारियों पर दर्जनों किताबें आज भी उपलब्ध हैं, जो लोगों ने समय-समय पर लिखीं।

अब कहनेवाला कह सकता है कि अरबों को इन विषयों से दिलचस्पी थी, इसलिए उनको इन चीज़ों पर जानकारी इकट्ठा करने का शौक़ था, इसलिए उन्होंने वंशावली पर किताबें लिख दीं। बहुत-से लोग अपने शौक़ के लिए किताबें लिख देते हैं, इसलिए उन लोगों ने भी लिख दीं। लेकिन मात्र यह कहना काफ़ी नहीं है। जब हम वंशावली की इन किताबों का आकलन करते हैं और उनका अध्ययन करते हैं तो एक अद्भुत बात सामने आती है, बहुत ही अनोखी, इतनी अनोखी कि उसे मात्र संयोग नहीं कहा जा सकता। वह बात यह कि जितनी जानकारियाँ सुरक्षित हुईं वे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व पर केन्द्रित है, हालाँकि जिस समय से सुरक्षित होनी शुरू हुईं उस समय तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पैदा भी नहीं हुए थे। चालीस वर्ष तक किसी के दिमाग़ में यह विचार न आया था कि ये नबी होंगे और पैग़म्बरी का सिलसिला इस प्रकार चलेगा और फिर एक उम्मत (अनुयायी समुदाय) क़ायम होगी और उस उम्मत में ज्ञान-विज्ञान के बहुत-से सिलसिलों में से एक सिलसिला यह चलेगा कि वंशावली के बारे में ये जानकारियाँ इकट्ठा की जाएँ। लेकिन अरबों ने अपने-अपने तौर पर जो जानकारियाँ इकट्ठा कीं और जो बाद में किताबी रूप में संकलित हुईँ और आज जिस प्रकार हम तक पहुँचीं, वे सब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पवित्र व्यक्तित्व पर केन्द्रित हैं। जिस प्रकार एक सर्चलाइट होती है। आप पाँच हज़ार वाट के एक बल्ब से रौशनी किसी एक बिन्दु पर डालें तो जिस प्रकार से वह बिन्दु चमकेगा और उसका एक-एक कोना रौशन हो जाएगा, उसी प्रकार से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शुभ व्यक्तित्व का एक-एक भाग सुरक्षित है। अल्लाह के रसूल से लेकर उनके पैंतीसवें-चालीसवें पूर्वज अदनान तक महत्वपूर्ण तथा मौलिक बातों से संबंधित हरेक चीज़ सुरक्षित है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दादियाँ कौन थीं, नानियाँ कौन थीं, फूफियाँ कौन थीं, ये सब जानकारियाँ ‘इल्मे-अंसाब’ में मिलेंगी। उदाहरणार्थ मैं आपसे पूछता हूँ कि आपकी दादी की दादी का क्या नाम था, तो शायद आपमें से दस प्रतिशत बता सकें और अगर मैं पूछूँ कि दादी की दादी की दादी का क्या नाम था तो शायद हममें से कोई भी न बता सके। कम से कम मैं तो नहीं बता सकता। इसी प्रकार मेरी या आपकी नानी का नाम क्या था, सब बता देंगे। नानी की नानी का नाम शायद दो चार बता सकें। नानी की नानी की नानी का क्या नाम था, शायद कोई भी नहीं बता सकता।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में यह बड़ी अद्भुत बात है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाप-दादा, उनकी दादियाँ, उनकी नानियाँ, उनके नाना और फूफियाँ और चचाओँ और आगे हरेक का विस्तृत विवरण पच्चीस-पच्चीस और तीस-तीस नस्लों तक सुरक्षित हैं। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सुरक्षित नहीं हैं, उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सुरक्षित नहीं हैं, अबू-जहल, अबू-लहब की सुरक्षित नहीं है, ख़ालिद-बिन-वलीद की सुरक्षित नहीं हैं। ये इस्लाम से पहले अरब के बड़े-बड़े लोग थे, इन्हीं की चर्चा थी। इनमें से किसी के बारे में इस प्रकार की जानकारियाँ सुरक्षित नहीं रहीं। जो सुरक्षित रह गई वे अल्लाह के रसलू (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में सुरक्षित रह गईं।

इसलिए मैं यह समझता हूँ और मेरा विचार है कि मैं सही हूँ कि अल्लाह ने अरबों के दिल में यह डाला कि वे वंशावली को सुरक्षित रखें और जिस वंश को अरबों ने अधिक मनोयोग से सुरक्षित किया वह यह था जिसका रिश्ता अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मिलता था।

अल्लाह के रसूल के (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जीवन की घटनाओं के सुरक्षित रखे जाने के ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं जिनके विवरण में अगर मैं जाऊँ तो वार्ता विषय से भटक जाएगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना आए। मस्जिदे-नबवी में एक स्तंभ से टेक लगाकर ख़ुत्बा (अभिभाषण) दिया करते थे। आज भी वह जगह सुरक्षित है। उसको ‘इस्तुवाना हन्नाना’ कहते हैं। उसके बाद जब सहाबा की संख्या बढ़ने लगी तो किसी ने प्रस्ताव रखा कि कोई ऊँची जगह हो जिसपर खड़े होकर वहाँ से ख़ुत्बा दिया करें। इस उद्देश्य के लिए एक सहाबी ने मिंबर डिज़ाइन किया कि जिसपर अल्लाह के रसूल बैठ सकें और अगर खड़े होना चाहें तो खड़े भी हो सकें। चुनाँचे वह मिंबर बनाकर ले आए। अब बज़ाहिर इतना काफ़ी है। यानी जानकारी और मार्गदर्शन के लिए इससे अधिक की आवश्यकता नहीं। लेकिन यह विवरण कि मिंबर किस लकड़ी का था, वह मिंबर किसने बनाया था, उसका साइज़ क्या था, उसका डिज़ाइन क्या था, वह लकड़ी किसने काटी थी, किस जंगल से काटकर लाई गई थी, कहाँ बैठकर मिंबर बनाया गया, उसपर लोगों ने जानकारियाँ इकट्ठा कीं और किताबें लिखीं और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी पर जो पुराना साहित्य है उसमें लगभग बीस किताबों का उल्लेख मिलता है जो मिंबर के डिज़ाइन और उसके बारे में तैयार हुईँ। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जूता कैसा इस्तेमाल करते थे, उसकी बनावट कैसी थी, वह चमड़े का था कि रबड़ का था, कौन बनाता था, किससे ख़रीदते थे, जूता टूट जाता था तो किससे मरम्मत कराते थे, इसपर किताबें मौजूद हैं और एक छोटी-सी पत्रिका उर्दू में भी उपलब्ध है। यह उस व्यक्तित्व के हालात की सुरक्षा है जो व्यक्तित्व क़ुरआन का वाहक है, जिसके द्वारा क़ुरआन हम तक पहुँचा।

8. वे उलूम (ज्ञान) जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबंधित हैं यानी ‘उलूमे-सीरत’ (जीवनी का ज्ञान), कथन और सुन्नत और व्यवहार तो इनसे संबंधित तो सुन्नत और हदीस हो गई, लेकिन अल्लाह के रसूल के वुजूद से संबंधित, उनके व्यक्तिगत और शारीरिक हालात से संबंधित विस्तृत विवरण को अगर बताया जाए तो उसके लिए मेरी और आपकी उम्रें काफ़ी नहीं हैं। लोग क्रमबद्ध रूप से जिस प्रकार शोध करते आ रहे हैं, उसके परिणामस्वरूप जो नए-नए मामले और समस्याएँ सामन आ रही हैं उसका केवल एक ही कारण मालूम होता है वह यह कि सर्वोच्च अल्लाह ने क़ुरआन की सुरक्षा के लिए सुन्नत की सुरक्षा की, सुन्नत की सुरक्षा के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुरक्षा की, अल्लाह के रसूल की जीवनी की सुरक्षा के लिए हर वह चीज़ जो परोक्ष अथवा अपरोक्ष रुप से उससे संबंधित थी, वह सुरक्षित रखी गई।

9. फिर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को सीधे संबोधित किया। अल्लाह के रसूल के साथियों यानी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हालात सुरक्षित रखे गए। मैंने पहले कहा है कि कम या ज़्यादा पन्द्रह हज़ार सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हालात सुरक्षित और मौजूद हैं। और जो सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) जितने क़रीब थे, उनके हालात उतने ही अधिक विस्तार से सुरक्षित हैं। इंसान अपने मित्रों के द्वारा पहचाना जाता है। यह हर क़ौम में एक तर्क और सिद्धांत है। मानव इतिहास के उत्तम व्यक्तित्व हर दृष्टि से वे हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ रहे, जिन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साथ दिया। इसलिए क़ुरआन और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को समझने के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि क़ुरआन पर सामूहिक रूप से व्यवहार कैसे हुआ? सुन्नत का सामूहिक गठन कैसे हुआ? हदीस के मार्गदर्शन की रौशनी में उम्मत (मुस्लिम समुदाय) ने कैसे जन्म लिया? यह चीज़ें समझ में नहीं आ सकतीं जब तक कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हालात सुरक्षित न हों। प्रतिष्ठित सहाबा का उल्लेख सुरक्षित है और कम-ज़्यादा पन्द्रह हज़ार प्रतिष्ठित सहाबा के हालात नाम-बनाम और नस्ल दर नस्ल उपलब्ध हैं।

10. उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हालात हम तक किस प्रकार पहुँचे? मैंने कहा कि छः लाख लोगों के बारे में जानकारी सुरक्षित हैं। छः लाख लोगों के बारे में ये घटनाएँ एकत्र की गई कि ये कौन लोग थे? किस दौर में पैदा हुए? उनके व्यक्तित्व किस कोटि के थे? उनका ज्ञान किस कोटि का था? इसपर ‘इल्मे-रिजाल’ के शीर्षक से जब चर्चा होगी तो विवरण सामने आएगा। इल्मे-रिजाल एक ऐसी कला है जिसकी कोई मिसाल दुनिया की किसी धार्मिक या अधार्मिक कला में नहीं मिलती। न धार्मिक ज्ञान के मामले में उसकी मिसाल है न अधार्मिक ज्ञान में इसकी कोई मिसाल है।

ये दस चीज़ें हैं जो सुन्नत की सुरक्षा की ख़ातिर और पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा के लिए सुरक्षित रखी गईं और अल्लाह की मर्ज़ी ने इसका तक़ाज़ा किया कि उन सब चीज़ों को सुरक्षित रखा जाए।

फिर उनके सुरक्षित करने पर बस नहीं हुआ, बल्कि सुन्नत ने और हदीसों ने एक ऐसी भूमिका निभाई। अगर आप अंग्रेज़ी में कहने की अनुमति दें, तो मैं कहूँगा कि उसने एक ऐसी Catalyst (उत्प्रेरक) की भूमिका निभाई कि जिसने एक ज्ञानपरक गतिविधि (Intellectual Activity) को एक आन्दोलन का रूप दे दिया। एक वैचारिक गतिविधि को जन्म दिया, एक ऐसी शिक्षा प्रक्रिया का आरंभ किया जो क्रमबद्धता के साथ आज भी जारी है। हदीस और सुन्नत के ये संग्रह इस्लामी ज्ञान-विज्ञान में न केवल लगातार स्थायित्व और सुरक्षा की ज़मानत हैं, बल्कि उसका लगातार विस्तार भी इल्मे-हदीस और इल्मे-सुन्नत के द्वारा हो रहा है।

क़ाज़ी अबू-बक्र अल-अरबी (रहमतुल्लाह अलैह) एक प्रसिद्ध मुहद्दिस हैं। मालिकी फ़क़ीह (मालिकी मसलक के धर्मशास्त्री) भी हैं और मालिकी फ़क़ीहों में उनका एक बहुत बड़ा स्थान है, मुहद्दिस भी हैं और क़ुरआन के मुफ़स्सिर (टीकाकार) भी। उन्होंने एक जगह लिखा है कि तमाम इस्लामी उलूम (ज्ञान) जिन की संख्या उस समय साढ़े सात सौ के लगभग आंकी जाती थी, ये सब इस्लामी उलूम सुन्नत की व्याख्या हैं और सबके सब परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हदीस और सुन्नत की व्याख्या पर आधारित हैं। और हदीस और सुन्नत पवित्र क़ुरआन की व्याख्या है। अतः पवित्र क़ुरआन, हदीस और अन्य तमाम ज्ञान और कलाओं में वह रिश्ता है जो वृक्ष में, उसके तने और शाखाओं में और फलों और फूलों में पाया जाता है। ये सारे ज्ञान और कलाएँ फल और फूल और पत्ते हैं, सुन्नत शाखाएँ और तना है, और पवित्र क़ुरआन वह जड़ है जिससे ये सारे ज्ञान और कलाएँ निकली हैं।

मुसलमानों का एक बहुत बड़ा फ़न (कला) है ‘इल्मे-कलाम’। जिसको कुछ लोग अंग्रेज़ी में Scholasticism भी कहते हैं और जिसको आप Theology भी कह सकते हैं। इल्मे-कलाम से तात्पर्य वह इल्म (ज्ञान) है जिसमें बौद्धिक तर्कों द्वारा इस्लाम की धार्मिक अवधारणाओं को साबित किया जाए और इस्लाम की इन अवधारणाओं पर अन्य धर्मों एवं विचारधाराओं की आपत्तियों का उत्तर दिया जाए। इसको इल्मे-कलाम कहते हैं। इसपर केवल कुछ किताबें ही नहीं, बल्कि पूरी लाइब्रेरियाँ मौजूद हैं। लेकिन इस इल्म का आरंभ जिन मसलों से हुआ वे सबसे पहले विस्तार के साथ इल्मे-हदीस में बयान हुए। जब मुहद्दिसीन ने हदीसों के उन पहलुओं पर विचार करना शुरू किया जिनमें अक़ीदे (धार्मिक अवधारणाएँ) बयान हुए थे और जब उन्होंने उन हदीसों की व्याख्या करनी चाही तो उन बहसों के परिणामस्वरूप इल्मे-कलाम पैदा हुआ।

एक छोटी-सी मिसाल प्रस्तुत करता हूँ। मुसलमान होने के लिए ईमान लाना शर्त है। ईमान इस्लाम की अनिवार्य शर्त है। लेकिन ईमान किसको कहते हैं? इससे तात्पर्य क्या है? इसकी परिभाषा क्या है? क्या मात्र दिल में यह ख़याल होना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के रसूल हैं, यह काफ़ी है? या ईमान के लिए इससे अधिक कुछ होना चाहिए? फिर इससे अधिक अगर हो तो क्या ईमान घट-बढ़ सकता है? एक मत उस समय यह सामने आया कि ईमान का घटना और बढ़ना संभव नहीं है। इसलिए कि जिन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है वह सीमित और निर्धारित हैं। उदाहरण के रूप में آمَنَ الرَّسُولُ بِمَا أُنْزِلَ إِلَيْهِ مِنْ رَبِّهِ وَالْمُؤْمِنُونَ كُلٌّ آمَنَ بِاللَّهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْ رُسُلِهِ  अर्थात् “रसूल उसपर,  जो कुछ उसके रब की ओर से उतरा, ईमान लाया और ईमान लानेवाले भी, प्रत्येक, अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर ईमान लाया।” (क़ुरआन,2/285) ये जो ईमान मुफ़स्सल (विस्तृत) या ईमान मुजमल (संक्षेप में) है, यह तो निर्धारित है। इसमें घटत-बढ़त का मतलब यह है कि मैं पाँच चीज़ों के बजाय छः चीज़ों को मानता हूँ। या पाँच के बजाय चार को मानता हूँ जो ईमान की सीमाबन्दी के विरुद्ध है। अतः ईमान घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। चुनाँचे कुछ लोगों का ख़याल था कि ईमान में घटत-बढ़त नहीं हो सकती। इसके विपरीत कुछ लोगों का विचार था कि ईमान कम या ज़्यादा हो सकता है। इसलिए कि क़ुरआन मजीद में कई जगह आया है कि जब कोई नई आयत उतरती है तो उनका ईमान बढ़ जाता है। तो अगर ईमान बढ़ जाता है तो घट भी सकता है। इसपर मुहद्दिसीन के यहाँ लम्बी-लम्बी बहसें हुईँ। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) इस राय को मानते थे कि ईमान घट-बढ़ सकता है। कुछ दूसरे ज्ञानवान और मुहद्दिसीन जैसे कि इमाम अबू-हनीफ़ा इस राय को मानते थे कि ईमान में घटत-बढ़त नहीं हो सकती।

इन दोनों रायों में कोई विरोधाभास न समझिएगा। जो लोग समझते हैं कि ईमान में घटत-बढ़त नहीं हो सकती, उनकी मुराद है ईमान की मात्रा में घटत-बढ़त है, यानी  Quantity  की दृष्टि से ईमान कम या अधिक नहीं हो सकता, जो ईमान की कम से कम अपेक्षा है कि अल्लाह को, उसके रसूल को, किताबों को, आख़िरत के दिन को, नुबूवत को और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शिक्षाओं को माना जाए। इसमें कोई कमी नहीं हो सकती। इसमें अगर कोई एक चीज़ भी आप गिरा देंगे तो आप मुसलमान नहीं रहेंगे। अगर कोई कहे कि “जी मैं बाक़ी चीज़ों को तो मानता हूँ, बस आख़िरत के दिन को नहीं मानता।” या उदाहरणार्थ “बाक़ी सभी पैग़म्बरों को मानता हूँ, एक मूसा (अलैहिस्सलाम) को नहीं मानता।” अगर कोई व्यक्ति इनमें किसी एक चीज़ को भी कम करेगा तो वह मुसलमान नहीं रहेगा। अगर कोई चीज़ अपनी ओर से बढ़ा दे कि “मैं सब पैग़म्बरों को मानता हूँ और इसके साथ-साथ अमुक महाशय को भी नबी मानता हूँ जा बाद में आए हैं” ऐसा कहनेवाला भी मुसलमान नहीं रहेगा। इसलिए जो लोग कहते हैं कि ईमान में घटत-बढ़त नहीं हो सकती वे बिल्कुल सही कहते हैं। मात्रा यानी Quantity की दृष्टि से ईमान में घटत या बढ़त नहीं हो सकती, अलबत्ता गुणवत्ता (Quality) की दृष्टि से ईमान कम या ज़्यदा हो सकता है।

जो विद्वान यह कहते हैं कि ईमान में घटत-बढ़त हो सकती है, वह स्थिति की दृष्टि से कहते हैं कि ईमान की गुणवत्ता और तीव्रता की दृष्टि से कमी या अधिकता हो सकती है। ईमान की Intensity अर्थात् तीव्रता की बहुत सी श्रेणियाँ हो सकती हैं। ईमान की तीव्रता हमेशा बढ़ सकती है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अनहुम) को जो ईमान प्राप्त था वह हमें और आपको प्राप्त नहीं है। किसी और को भी ईमान का वह दर्जा हासिल नहीं हो सकता। लेकिन इस पूरे वार्ताक्रम में एक बहस और पैदा हुई जिसमें ईमान के प्रकारों पर कुछ दार्शनिक रूप से विचार शुरू हुआ। अधिक गहराई में जाकर ग़ौर हुआ। इससे ‘इल्मे-कलाम’ पैदा हुआ।

यह बात बड़ा बुनियादी महत्व रखती है कि जिन विद्वानों ने सबसे पहले कलामी और दार्शनिक प्रकार के ये सवालात उठाए वे वास्तव में मुहद्दिसीन थे। उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी, इमाम अहमद-बिन-हंबल और दूसरे मुहद्दिसीन ने इन सवालों से बहस की, कि अल्लाह का कलाम क़दीम (प्राचीन) है कि हादिस (नया) है, यह विशुद्ध बौद्धिक एवं दार्शनिक बात है। लेकिन इमाम अहमद-बिन-हंबल ने यह मसला उठाया जो एक मुहद्दिस हैं। इन उदाहरणों से मैं यह साबित करना चाहता हूँ कि इल्मे-हदीस ने और हदीसों के संग्रह ने एक नई प्रवृत्ति मुसलमानों के ज्ञान और कला में पैदा की। और इस्लामी अक़ीदों की व्याख्या, इस्लामी अक़ीदों पर आपत्तियों का तार्किक रूप से बचाव करने के प्रयास एक नए इल्म के गठन पर पूरे हुए, जिसको इल्मे-कलाम कहते हैं। जिसमें मुसलमानों ने बड़े असाधारण कारनामे कर दिखाए।

इस समय इल्मे-कलाम के इतिहास में जाना उद्देश्य नहीं। लेकिन मुतकल्लिमीने-इस्लाम (इस्लामी कलाम शास्त्रियों) ने मुसलमानों को इस गुमराही से बचाए रखा जिस गुमराही का बड़े-बड़े लोग शिकार हुए। हर धर्म में एक चुनौती यह रही है कि मामलों में अस्ल चीज़ मानव बुद्धि है या वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना)? धर्म अस्ल है या बुद्धि, दूसरे शब्दों में इंसान के लिए जीवन व्यवस्था के गठन में वह्ये-इलाही निर्णायक है या बुद्धि को निर्णय लेने का पूरा अधिकार प्राप्त है? कुछ लोगों ने कहा कि बुद्धि ही निर्णयायक भूमिका निभा सकती है। ऐसा कहने से धर्म का सिरा हाथ से छूट गया। जैसा कि पश्चिम में हुआ। कुछ लोगों ने कहा कि अस्ल निर्णायक धर्म है। इससे धर्म को तो कुछ जीवन मिल गया, लेकिन बौद्धिकता का दामन हाथ से छूट गया और अन्ततः धर्म भी समाप्त हो गया। जैसे अन्य पुराने धर्म समाप्त हो गए। मुतकल्लिमीन ने दोनों को एक साथ जोड़ा। मुतकल्लिमीन ने बुद्धि के रिश्ते को विशुद्ध भौतिक मामलों से संबद्ध रखा, दोनों की अपेक्षाएँ पूरी कीं और धार्मिक मामलों की तार्किक व्याख्याएँ करके इन दोनों में सामंजस्य पैदा किया कि मुसलमानों में एक ही समय में अक़्ली (बौद्धिक) सिलसिले भी जारी रहे और नक़्ली (धर्म ग्रंथों पर आधारित) सिलसिले भी जारी रहे और इन दोनों में कोई विरोधाभास पैदा नहीं हुआ। यह नया इल्म यानी इल्मे-कलाम, इल्मे-हदीस की देन है।

फ़िक़्ह (इस्लामी धर्मशास्त्र का एक विभाग) मुसलमानों के व्यावहारिक रवैये का गठन करता है और यह बताता है कि मुसलमानों का व्यावहारिक जीवन, व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से कैसा होना चाहिए। प्रतिदिन के मामलों को शरीअत के अनुसार कैसे ढाला जाए। एक आदर्श और सन्तुलित इस्लामी जीवन कैसा होता है? इसको फ़िक़्ह कहते हैं। फ़िक़्ह और हदीस को दो अलग-अलग चीज़ें मत समझिएगा। यह बड़े अल्पज्ञान की बात है। फ़िक़्ह से मुराद यह है कि क़ुरआन और सुन्नत के उन ‘नुसूस’ (स्पष्ट आदेशों) को जिनमें इंसान को व्यावहारिक शिक्षा दी गई है, उनको गहराई से समझा जाए और गहराई के साथ समझने के बाद उनमें जो निर्देश और मार्गदर्शन दिया गया है, उसको विभिन्न परिस्थितियों पर चस्पाँ किया जाए। इस कार्य का नाम फ़िक़्ह है और इसके परिणामस्वरूप जो निर्देश संकलित हुए उनसे एक नया फ़न (कला) वुजूद में आ गया। लेकिन इस फ़न की बुनियाद इल्मे-हदीस पर है। और इल्मे-हदीस से ही ये चीज़ें सामने आईँ।

हदीसों में नमाज़ के आदेश बताए गए हैं। हदीसों में ज़कात की विस्तृत जानकारी दी गई है। हदीसों में ख़रीदने-बेचने के आदेश, निकाह-तलाक़ के आदेश और विरासत और वसीयत के आदेश बताए गए हैं। ये सारे आदेश वे हैं जिनसे वे बुनियादें बनती हैं जिनके व्यावहारिक विवरण इस्लामी फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने संकलित किए हैं। अगर इल्मे-हदीस न होता तो इल्मे-फ़िक़्ह भी अस्तित्व में न आता।

जो शुरू के फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्री) हैं और जिनसे फ़िक़्ह अस्तित्व में आई है वे सबके सब वास्तव में मुहद्दिसीन थे। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) अस्ल में मुहद्दिस थे। इमाम अहमद-बिन-हंबल (रहमतुल्लाह अलैह) वास्तव में मुहद्दिस थे। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) अस्ल में मुहद्दिस थे। इमाम मुहम्मद-बिन-हसन शैबानी (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) वास्तव में मुहद्दिस थे। इमाम औज़ाई (रहमतुल्लाह अलैह) मुहद्दिस थे। इमाम अबू-जाफ़र तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) मुहद्दिस थे, इमाम सुफ़ियान सौरी (रहमतुल्लाह अलैह) और सुफ़ियान-बिन-उयैना (रहमतुल्लाह अलैह) मुहद्दिस थे। ये सब वे लोग हैं जिनसे फ़िक़्ही मसलक वुजूद में आए। इसलिए कि उन्होंने हदीसों पर इस दृष्टि से ग़ौर किया कि उससे कौन-से आदेश निकलते हैं? जिन मुहद्दिसीन ने इस दृष्टिकोण से हदीसों पर विचार किया कि उनसे कौन-से अक़ीदे (अवधारणाएँ) निकलते हैं। यानी हसन बसरी (रहमतुल्लाह अलैह)  और इस प्रकार के बुज़ुर्ग, उनके चिंतन-मनन से इल्मे-कलाम संकलित हुआ, और जिन बुज़ुर्गों ने इस दृष्टिकोण से विचार किया कि हदीसों से आदेश कौन-से निकलते हैं। उनके प्रयास के परिणामस्वरूप फ़िक़्ह संकलित हुआ।

‘उसूले-फ़िक़्ह’ अर्थात् वे मौलिक सिद्धांत और वे मौलिक मार्गदर्शन जिससे काम लेकर प्रतिदिन के फ़िक़्ही अहकाम (धर्मशास्त्रीय आदेश) मालूम किए जा सकते हैं। ये सारे का सारा इल्मे-हदीस की देन है। इल्मे-हदीस और सुन्नत में वे आदेश बयान हुए हैं जिनसे ‘उसूले-फ़िक़्ह’ का इल्म निकला है। इससे पहले मैंने बताया था कि मुसलमानों की प्रतिभा और Genius के दो बड़े नमूने हैं। एक ‘इल्मे-हदीस’ और दूसरा ‘इल्मे-उसूले-फ़िक़्ह’।

इल्मे-हदीस उस प्रतिभा का नमूना है जिसमें जानकारी और मामलों के विस्तार पर दारोमदार हो और उसूले-फ़िक़्ह उस प्रतिभा का नमूना है जिसमें रचनात्मक प्रतिभा और नए-नए विचारों को सामने लाने पर मामलों की बुनियाद हो। इल्मे-उसूले-फ़िक़्ह ने इल्मे-कलाम से कहीं अधिक बुद्धि और धर्म ग्रंथों के बीच सामंजस्य पैदा किया है। इस सामंजस्य, सन्तुलन और सारगर्भिता का उदाहरण संसार की किसी क़ौम के धर्म या ज्ञानपरक परिपाटी में नहीं मिलता। यह बात आप निःसंकोच नोट कर लें कि संसार की किसी क़ौम के पास न आज ऐसा ज्ञान है, न अतीत में था और न पुराने ज़माने में कोई ऐसा इल्म था जिसको उसूले-फ़िक़्ह के मुक़ाबले में रखा जा सके। जो एक ही समय में विशुद्ध धार्मिक भी हो, इस दृष्टि से कि उसकी बुनियाद क़ुरआन और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत पर हो। और एक ही वक़्त में उसकी बुनियाद विशुद्ध बौद्धिक और अनुभव पर आधारित मामलों पर भी हो जिसको बड़े से बड़ा बुद्धिवादी भी बौद्धिक आधार पर ग़लत न ठहरा सके। ये पक्की बुनियादें उसूले-फ़िक़्ह को इल्मे-हदीस से हासिल हुईँ। इसकी मिसालें मैं दूँगा तो बात बड़ी लम्बी हो जाएगी, इसलिए में केवल इसी पर बस करता हूँ।

संसार में इस्लाम से पहले भी इतिहास की परिकल्पना पाई जाती थी। इस्लाम से पहले इतिहास की बहुत-सी किताबें मौजूद थीं। ऐसी कई किताबें मिलती हैं जिनमें क़ौमों का इतिहास वर्णित हुआ है। यूनानियों में भी मौजूद धीं, भारतीयों में भी मौजूद थीं और रोमवासियों में भी मौजूद थीं। हीरोडोटस (Herodotus) इस्लाम से पहले का इतिहासकार है। उसकी दी हुई जानकारी आज भी उपलब्ध है। उसकी प्रामाणिकता (Authenticity) कितनी है, यह एक दूसरी बात है। लेकिन इस्लाम से पहले के इतिहास और रहन-सहन से संबंधित जानकारी का एक भंडार बहरहाल मौजूद है। हिन्दुओं में भी इस्लाम से पहले की किताबें पाई जाती है जिनमें कुछ ऐतिहासिक प्रकार की जानकारी भी है। लेकिन वह चीज़ जिसको इस्लाम से पहले इतिहास कहा जाता था, वह क्या थी? आज संसार का कोई इतिहासकार इस्लाम के इस उपकार को मानता है या नहीं मानता। मानता है तो निःसन्देह न्यायपरक बात करता है और नहीं मानता तो बड़ा कृतघ्न या कम से कम अनजान तो ज़रूर है। लेकिन इतिहास की सही अवधारणा और इतिहास की वह सही समझ जिस तरीक़े से मुसलमानों को और उनसे संसार को हासिल हुई उसका सबसे पहला मूल स्रोत इल्मे-हदीस है।

इस्लाम से पहले इतिहास की जो परिकल्पना थी, वह यह थी कि किसी क़ौम में जो क़िस्से-कहानियाँ प्रसिद्ध हैं, उनको संकलित कर लिया जाए, जो उल्टा-सीधा उपलब्ध है, उसको सच्चाई मान लिया जाए। यानी जब इतिहास लिखने बैठो तो जनता में प्रचलित क़िस्से इकट्ठा कर लो, वे सारे के सारे बयान कर दो, और नक़्ल करके जमा कर दो। कोई यह पूछनेवाला नहीं था कि हीरोडस साहब! आपने जो कुछ लिखा है, उसका मूलस्रोत क्या है? यह चीज़ आपने सही लिखी है कि ग़लत लिखी है? किससे पूछकर, किससे सुनकर या किन स्रोतों की सहायता से लिखी थी? आपसे किसने बयान किया? आप वहाँ मौक़े पर थे या नहीं? आप इसके चश्मदीद गवाह थे कि नहीं थे? उस समय न ये सवालात थे और न ऐसी कोई कल्पना इतिहास के बारे में मौजूद थी।

इल्मे-हदीस ने सबसे पहले लोगों को यह सोच दी कि जब किसी घटना का वर्णन करो तो पहले स्वयं उससे सन्तुष्ट हो जाओ और फिर दूसरों को यह विश्वास दिलाओ कि तुम उस घटना के चश्मदीद गवाह हो। अगर चश्मदीद गवाह नहीं हो तो जो चश्मदीद गवाह था, उसका हवाला दो कि मुझसे अमुक व्यक्ति ने बयान किया जो चश्मदीद गवाह था। फिर इस बात का विश्वास दिलाओ कि तुम जिस घटना का उल्लेख कर रहे हो उसका वर्णन करने में तुम्हारा कोई निजी स्वार्थ नहीं है। अगर उस घटना को वर्णित करने में तुम्हारा कोई निजी स्वार्थ है तो हम तुम्हारे बयान को स्वीकार करने में संकोच करेंगे। इसलिए कि निजी स्वार्थ के आधार पर आदमी बहुत-सी बातों को ग़लत रूप से उजागर कर सकता है और सही बातों को अपने निजी स्वार्थ के लिए दबा सकता है।

यह विचार सबसे पहले मुसलमानों ने दिए, सबसे पहले इस्लामी ज्ञान और कला में ये सिद्धांत पैदा हुए और मुसलमान इतिहासकारों ने इनको मुसलमानों के इतिहास पर चरितार्थ करके दिखाया। उन्होंने मुसलमानों का इतिहास इन सिद्धांतों पर संकलित किया और इतिहास लेखन के नियम एवं सिद्धांत निर्धारित किए। यह संसार को इल्मे-हदीस की ऐसी बड़ी देन है जिसके उपकार से संसार कभी भार-मुक्त नहीं हो सकता। पिछले तीन-चार सौ वर्षों के दौरान पश्चिम में बड़े-बड़े दार्शनिक पैदा हुए, जो इतिहास दर्शन के इतिहासकार माने जाते हैं, जिनकी किताबें दुनिया भर में पढ़ाई जाती और सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं, लेकिन आज उन इतिहासकारों को जो विश्वास प्राप्त हुआ है उसका आधार क्या है? इतिहास के ये सिद्धांत इन लोगों के यहाँ कहाँ से आए?

मुसलमानों में सबसे पहले इतिहासकार इब्ने-ख़लदून और अल्लामा सख़ावी हैं, जिन्होंने इतिहास लेखन के नियमों और इतिहास दर्शन को नए ढंग से संकलित किया। अल्लामा सख़ावी मूलतः इल्मे-हदीस के विशेषज्ञ थे। उनकी एक रचना है, जो इस्लामी इतिहास दर्शन की एक बड़ी प्रमुख किताब है—الاعلان بالتوبیخ لمن ذم أھل التّاریخ । इसमें उन्होंने मुसलमानों के इतिहास लेखन और Historiography के सिद्धांत बताए हैं, जो सारे के सारे इल्मे-हदीस से लिए गए हैं। अगर आप अंग्रेज़ी में पढ़ना चाहें तो एक छोटी-सी किताब में उन वार्ताओं का सारांश है Philosophical Interpretation of History है। लाहौर में एक बुज़ुर्ग थे, प्रोफ़ेसर अब्दुल हमीद सिद्दीक़ी मरहूम, यह किताब उन्होंने लिखी है। संक्षिप्त किताब है। इससे ज़रा अधिक विस्तृत विवरण देखना चाहें तो एक किताब इस्लामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट ने प्रकाशित की थी Quranic Concept of History। इसमें बताया गया है कि पवित्र क़ुरआन की शिक्षा के नतीजे में और हदीसों के स्पष्टीकरण के नतीजे में जो परिकल्पना पैदा हुई, वह क्या है? इससे अनुमान हो जाएगा कि इल्मे-हदीस के इल्मे-तारीख़ (इतिहास लेखन कला) पर कितने उपकार हैं।

उसूले-दावत (इस्लाम की ओर आह्वान के सिद्धांत) और उसलूबे-दावत (इस्लामी आह्वान का ढंग) एक महत्वपूर्ण विषय है। मुस्लिम विद्वानों ने इसपर बीसवीं शताब्दी में बहुत-सी किताबें लिखी हैं। अर्थात् ये बहसें कि दावत का सिद्धांत क्या है? जब दूसरों को इस्लाम की ओर बुलाया जाए तो कैसे उनका आह्वान किया जाए? दूसरों तक इस्लाम का सन्देश पहुँचाया जाए तो कैसे पहुँचाया जाए? बाद में यह पूरे मुस्लिम समाज की एक वैयक्तिक नीति और रवैया बन गया कि वे हर जगह इस्लाम को लेकर गए। उन्हें इस्लाम की ओर आह्वान के सिद्धांत और इस विषय में जो मार्गदर्शन मिला वह हदीसों से मिला।

‘तज़किया’ और ‘एहसान’ यानी इंसान को अन्दर से कैसे पवित्र किया जाए? इंसान के आचरण को अन्दर से कैसे सुधारा जाए? यह मुसलमानों में एक बहुत बड़ा फ़न (कला) है। इसपर बहुत-सी किताबें लिखी गईं। कुछ किताबें अच्छी हैं, कुछ अच्छी नहीं हैं। कुछ किताबों में ऐसी सामग्री भी है जो इस्लामी दृष्टिकोण से पुनरावलोकन चाहती है। लेकिन बहुत-सी किताबें ऐसी हैं जिनमें बड़ी सही बातें कही गई हैं और हदीसों और सुन्नत की व्याख्या इस प्रकार से की गई है कि उससे यह पता चलता है कि मानव स्वभाव कैसे बदलता और आन्तरिक सुधार कैसे होता है। चरित्र एवं आचरण कैसे बनता है? इसको ‘इल्मे-तज़किया’ और ‘इल्मे-एहसान’ कहते हैं। यह सारा का सारा ज्ञान हदीसों में पाया जाता है और इसका आधार उन हदीसों पर है जिनको ‘रिक़ाक़’ कहते हैं, यानी अन्दर से दिल को कैसे नर्म किया जाए। इन हदीसों से जो मार्गदर्शन मिलता है उसको ज्ञानपरक ढंग से कैसे संकलित किया जाए, इससे एक नया फ़न (कला) पैदा हुआ।

‘इल्मे-सियर’ अर्थात् इस्लाम का अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून, यह सारा का सारा इल्मे-हदीस की देन है। शुरू में इल्मे-हदीस के वे विद्वान और मुहद्दिसीन जिनको अन्तर्राष्ट्रीय संबंध और युद्ध एवं सन्धि के क़ानून से अधिक दिलचस्पी थी, वे हदीसों के उन हिस्सों को अधिक सुरक्षित रखते थे और उन हदीसों को अधिक पढ़ते-पढ़ाते थे जिनसे अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून मालूम होते थे। इस प्रकार अल्लाह के रसूल द्वारा लड़ी गई जंगों और उनमें शामिल योद्धाओं के गुणों पर अलग से किताबें लिखी जाने लगीं तो इल्मे-मग़ाज़ी (योद्धाओं के विषय में ज्ञान) अस्तित्व में आया। इल्मे-मग़ाज़ी अस्तित्व में आया तो इल्मे-ग़ज़वात (युद्ध संबंधी ज्ञान) में जो आदेश हैं वे अस्तित्व में आए तो क़ानूने-जंग (युद्ध नियम) अस्तित्व में आना शुरू हो गया और दूसरी सदी हिजरी आरंभ होने से पहले-पहले अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के विषय पर ‘सियर’ के नाम से एक नई कला अस्तित्व में आ गई जिसको ‘इल्मे-सियर’ कहते हैं, जिसका आधार मूलतः अल्लाह के रसूल की हदीसों पर है।

ये वे ज्ञान और कलाएँ हैं जो प्रत्यक्ष रूप से इल्मे-हदीस के प्रभाव से मुसलमानों के यहाँ अस्तित्व में आए। लेकिन इल्मे-हदीस का महत्व इनसे भी बढ़कर है।

ये ज्ञान और कलाएँ अस्तित्व में आए और आज भी इनका विस्तार होता जा रहा है। हर आनेवाला दिन इल्मे-हदीस में एक नया क्षेत्र हमारे सामने लेकर आता है। हर नया आनेवाला शिक्षक इल्मे-हदीस का नए ढंग से अध्ययन करता है और हर नया आनेवाला विद्यार्थी नए ढंग से अध्ययन करता है। इल्मे-हदीस के नए-नए पहलू दिन-प्रतिदिन हमारे सामने आते चले जा रहे हैं, लेकिन इल्मे-हदीस का जो स्थायी महत्व है, वह है शरीअत के मूलस्रोत के रूप में और क़ानून के मूलस्रोत के रूप में, जिसपर विस्तार से आगे चर्चा होगी।

क़ुरआन और सुन्नत का परस्पर संबंध

क़ानून और शरीअत का मूलस्रोत होने की हैसियत से क़ुरआन और सुन्नत दोनों में इतना गहरा आपसी संबंध है कि वे दोनों आपस में एक-दूसरे के पूरक हैं। क़ुरआन मजीद आधार है, सुन्नत उस आधारशिला पर निर्मित किया जानेवाला ढाँचा है। क़ुरआन अगर तना है तो सुन्नत उस तने से निकलनेवाली शाखाएँ हैं। क़ुरआन एक ऐसा प्रकाश केन्द्र है जिससे किरणें निकल रही हैं और वे किरणें सुन्नते-रसूल हैं। क़ुरआन मजीद में मौलिक सिद्धांत और नियम वर्णित हुए हैं। उन नियमों एवं सिद्धांतों को व्यवहार में कैसे लाया जाए यह हमें हदीसों से मालूम होता है। इस व्यवहार में लाने के नतीजे में और भी अहकाम (आदेश-निर्देश) निकले, इस्लामी फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) ने इनपर ग़ौर किया। इस चिंतन-मनन करने से और भी अहकाम निकलते चले गए। जब दो प्रकार के अहकाम को सामने रखा गया तो तीसरी प्रकार के अहकाम सामने आ गए। यह सिलसिला आज तक जारी है और हर चरण पर उनमें से हर हुक्म का सीधा संबंध हदीस और सुन्नत से है। कोई हुक्म (आदेश) और कोई फ़िक़्ही मसलक उस समय तक स्वीकार्य नहीं है जब तक उसको सीधे तौर पर हदीस का प्रमाण प्राप्त न हो। यानी हदीसों ने फ़िक़्ही इरतिक़ा (धर्मशास्त्रीय विकास) और फ़िक़्ही क़ानूनों के विस्तार की प्रक्रिया को इस प्रकार अपने हाथ में रखा हुआ है जिस प्रकार घोड़े की लगाम सवार के हाथ में होती है। आपको मालूम है कि मानव कल्पनाओं को फैलने से कोई नहीं रोक सकता। इंसनान का ज़ेहन हर समय काम करता रहता है। इंसान का ज़ेहन किसी क्षितिज की सीमाओं को भी नहीं मानता। आप रात को आँखें बन्द करके लेटें और सोचें तो लगेगा कि पूरी सृष्टि का क्षितिज आपके सामने खुला हुआ है। उस क्षितिज में न धरती है न आकाश है। उसकी न सीमाएँ हैं, न कोई आरंभ है न अन्त, न कुछ और है। यह एक अन्तहीन विशालता है जो आपके सामने है। यही विशालता मानव की बुद्धि में होती है। अगर उस असीम विशालता को किसी सीमा और नियम से बाँधा न जाए तो इंसान कभी पूरब की ओर जाएगा कभी पश्चिम की ओर जाएगा और उसके सामने कोई रास्ता निर्धारित न होगा। बार-बार एक ही यात्रा को तय करेगा। इसलिए उसकी लगाम को कसके रखना ज़रूरी है। उसको सीमाओं का पाबन्द करके रखना ज़रूरी है। यह सीमाओं की पाबन्दी और यह लगाम कसने का काम हदीस ने किया है।

क़ुरआन मजीद के आम सिद्धांत या निर्देश वे हैं कि अगर हदीस और सुन्नत का सन्दर्भ ख़त्म कर दिया जाए तो उनकी अच्छी व्याख्या भी हो सकती है और बुरी व्याख्या भी। क़ुरआन में ख़ुद एक जगह लिखा हुआ है—یُضِلُّ بِہٖ کَثِیْرًا وَّیَھْدِیْ بِہٖ کَثِیْرًا यानी “अल्लाह इस (क़ुरआन) के द्वारा बहुत-से लोगों को गुमराह करता है और बहुत-से लोगों को मार्गदर्शन दिखाता है।” (क़ुरआन, 2/26) जो लोग सुन्नत और हदीस से हटकर क़ुरआन से मार्गदर्शन लेना चाहते हैं, वे गुमराह हो जाते हैं। इसलिए कि क़ुरआन मजीद की शिक्षा संक्षेप में दी गई है। उदाहरणार्थ क़ुरआन में ‘अद्ल’ (न्याय) की शिक्षा दी गई है। लेकिन ‘अद्ल’ से क्या मुराद है? ‘अद्ल’ क्या चीज़ है? जब तक सुन्नत के रूप में इसे विस्तार से समझाया नहीं जाएगा, उस समय तक आपका जो जी चाहे ‘अद्ल’ का अर्थ करते रहें।

आज से लगभग सत्तर-अस्सी वर्ष पहले भारतीय उपमहाद्वीप में एक साहब पैदा हुए जिन्होंने कहा कि क़ुरआन मजीद को समझने और उसपर अमल करने के लिए हदीस और सुन्नत की ज़रूरत नहीं है, चूँकि हदीस और सुन्नत में बड़ा मतभेद है, इसलिए उसने मुसलमानों में फ़िरक़े (सम्प्रदाय) पैदा किए हैं। एक बुज़ुर्ग उन साहब से मिले और उनसे कहा कि यह तो बड़ी अच्छी बात है कि आप मुसलमानों में एकता पैदा करना चाहते हैं। अगर सुन्नत और हदीस की वजह से मतभेद पैदा हुआ है तो क़ुरआन के आधार पर एकता हो जाएगी, यह तो बड़ी अच्छी बात है, लेकिन आप ज़रा यह बताएँ कि पवित्र क़ुरआन में नमाज़ का हुक्म है, कहा गया है—اَقِیْمُوْاالصَّلوٰۃَ यानी “नमाज़ का आयोजन करो” तो आप नमाज़ कैसे पढ़ेंगे? अब तक तो एक सर्वसम्मत रूपरेखा यह प्रचलित थी कि हदीस में नमाज़ पढ़ने का जो तरीक़ा है, उस तरह पढ़ें, लेकिन यह रूपरेखा आपके लिए स्वीकार्य नहीं है और इसको आप समाप्त करना चाहते हैं तो फिर नमाज़ आपके तरीक़े से पढ़ी जाए या हर व्यक्ति अपने मनमाने तरीक़े से पढ़े? पहले तो उन्होंने कहा कि “नहीं, मैं बताऊँगा कि ‘अक़ीमुस्सलात (नमाज़ का आयोजन करो)’ का क्या मतलब है और नमाज़ कैसे पढ़ी जाए। इसपर उन बुज़ुर्ग ने उन महाशय से कहा कि अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह बताने का हक़ नहीं कि नमाज़ क्या है और कैसे पढ़ी जाए और उनके बताने से मतभेद होता है तो फिर ख़ुद आपको क्या हक़ पहुँचता है? और आपके बताने से मतभेद क्यों नहीं बढ़ेगा? थोड़े-से वाद-विवाद के बाद ही उन्होंने अपना पक्ष बदला और कहने लगे कि नहीं हर व्यक्ति अपनी पसन्द के अनुसार पढ़ेगा। इसपर उन बुज़ुर्ग ने कहा कि इस समय तो मुसलमानों में नमाज़ पढ़ने के तीन या चार तरीक़े होंगे, लेकिन उस समय तो एक अरब तरीक़े होंगे, क्योंकि हर व्यक्ति अपने तरीक़े से पढ़ेगा, तो जो चीज़ एकता का कारण बनी उसको एकता ही के लिए आप समाप्त करना चाहते हैं। इससे तो इतना मतभेद पैदा हो जाएगा कि जिसका इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता।

कहना यह है कि क़ुरआन के जा आम निर्देश और आदेश हैं उनका व्यावहारिक रूप, और निश्चित रूप और सर्वसम्मत रूप अगर दिया जा सकता है तो केवल हदीस और सुन्नत के द्वारा, किसी अन्य माध्यम से नहीं दिया जा सकता।

इस्लाम के दुश्मनों की और पथभ्रष्ट करनेवाले सम्प्रदायों की सदैव यह कोशिश रही है कि हदीस और सुन्नत का संबंध क़ुरआन से ख़त्म कर दिया जाए। अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में ‘ख़वारिज’ नामक एक सम्प्रदाय पैदा हुआ, जिनमें अधिकांश बहुत अल्पज्ञानी लोग थे, वे आम तौर पर ‘बद्दू’ (देहाती) प्रकार के लोग थे। वे क़ुरआन थोड़ा-बहुत जानते थे। हदीस के संग्रहों से अनजान थे। उन्होंने कुछ मामलों में अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के फ़ैसलों पर आपत्तियाँ कीं और उनके विरुद्ध जंग शुरू कर दी। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ख़वारिज से बात करने के लिए अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भेजा, जो प्रतिष्ठित सहाबा में ज्ञान की दृष्टि से बड़ा ऊँचा स्थान रखते थे और क़ुरआन की समझ के मामले में ‘तरजुमानुल-क़ुरआन’ की उपाधि उनको प्राप्त थी, उनको ख़वारिज से बात करने के लिए भेजा और यह कहकर भेजा कि ख़वारिज तुमसे क़ुरआन के संबंध में बात करेंगे तो तुम क़ुरआन के सन्दर्भ से बात मत करना। इसलिए कि पवित्र क़ुरआन के आदेश की तो अनेक व्याख्याएँ हो सकती हैं, लेकिन जो सही व्याख्या है वह केवल हदीस और सुन्नत ही से मिलेगी, इसलिए सुन्नत के सन्दर्भ से बात करना। यह एक बड़ा सहाबी दूसरे बड़े सहाबी को सुझाव दे रहा है। चुनाँचे अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जाकर ख़वारिज से सुन्नत ही के सन्दर्भ से बात की और बहुत-से ख़वारिज को उनकी गुमराहियों से रोका और निकाला। इसलिए इल्मे-हदीस का महत्व न केवल मुसलमानों के लिए न केवल ज्ञान और कला की ख़ातिर, बल्कि क़ुरआन को समझने-समझाने के लिए भी अनिवार्य है।

अब मैं संक्षिप्त रूप से एक चीज़ और बता देता हूँ। इससे पहले इल्मे-हदीस पर लिखा गया था। इल्मे-हदीस के आठ विषय मशहूर हैं, जिनका विवरण देते हुए मैंने कहा था कि वे किताबें जो इल्मे-हदीस के उन सारे विषयों को समेटे हुए हो, वे किताबें ‘जामेअ’ कहलाती हैं, जैसे इमाम तिरमिज़ी की किताब ‘जामेअ तिरमिज़ी’ कहलाती है। या जैसे सहीह बुख़ारी अल-जामेउस-सहीह’ कहलाती है।

लेकिन कुछ किताबें ऐसी हैं जिनमें फ़िक़्ही हदीसों को फ़िक़्ही मसलों के क्रम से बयान किया गया है। हदीस की वे किताबें जिनमें मसलों का क्रम फ़िक्ही हो। उदाहरणार्थ पहले वुज़ू के आदेश हों फिर नमाज़ के आदेश हों, फिर ज़कात के आदेश हों, फिर रोज़े के आदेश हों। और केवल फ़िक़्ही मामलों के बारे में हदीसों को लिया गया हो, वे किताबें ‘सुनन’ कहलाती हैं। जैसे सुनन अबू-दाऊद। सुनन अबू-दाऊद हदीस की किताबों में फ़िक़्ही अहकाम (धर्मशास्त्रीय आदेशों) का एक बहुत बड़ा मूलस्रोत है।

शुरू में जब हदीसें संकलित की जा रही थीं और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हदीसों का सबसे बड़ा भंडार और मूलस्रोत थे तो हर ताबिई की कोशिश थी कि अधिक से अधिक सहाबा के पास उपस्थित होकर उनकी हदीसें अपने पास नोट कर ले। इसलिए ताबिईन के पास हदीसों के जो संग्रह होते थे, वे सहाबा से सुने हुए होते थे। उदाहरणार्थ एक सहाबी ने अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से सुनी हुई हदीसें अपने पास नोट कर लीं। फिर उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से सुनी हुई हदीसें नोट कर लीं। इस प्रकार शुरू-शुरू में जो संग्रह संकलित हुए, वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अनहुम) की उल्लेख की हुई हदीसों के संग्रह थे। अतः जिन किताबों में हदीसें प्रतिष्ठित सहाबा द्वारा संकलित की गई हों उनको ‘मुसनद’ कहा जाता है। मुसनदों में सबसे बड़ी किताब मुसनदे-इमाम अहमद है, जिसमें बहुत बड़ी संख्या में हदीसें शामिल हैं। मुसनदे-इमाम अहमद के साथ कुछ और मुसनदें भी हैं। मुसनदे-इमाम अहमद तो है ही, मुसनदे-अबू-अवाना है, मुसनदे-अबू-दाऊद तयालिसी है। ये सब वे हैं, जिनमें सहाबा के क्रम से अलग-अलग हदीसें जमा की गई हैं। सहाबा के क्रम में क्या उसूल रखा जाए, इस विषय में भी मुहद्दिसीन के अपनी-अपनी दिलचस्पियाँ थीं। उदाहरणार्थ इमाम अहमद ने यह क्रम इस हिसाब से रखा है कि इस्लाम में उन सहाबी का दर्जा क्या है? अतः सबसे पहले अशरा-मुबश्शरा (वे दस सहाबा जिन्हें उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नती होने की ख़ुशख़बरी दे दी गई थी) की हदीसें दर्ज हैं। अशरा-मुबश्शरा में सबसे पहले अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीसें हैं। फिर अन्य अशरा-मुबश्शरा, उसके बाद क्रमशः वे सहाबा जो उनके विचार से इस्लाम में उच्च स्थान रखते थे। कुछ मुसनदों के लेखकों ने फ़ैसला किया कि रिश्तेदारी के हिसाब से क्रम रखेंगे कि जिस सहाबी की निकटता अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अधिक होगी, उसकी हदीसें पहले होंगी। इस दृष्टि से बनी-हाशिम की हदीसें पहले होंगी। यह क्रम उन्होंने अपनी-अपनी सुविधा के लिए रखा। अतः मुसनद उस किताब को कहते हैं जिसमें हदीसों को सहाबा के क्रम से बयान किया गया हो।

हदीस की एक किताब होती है ‘मुअजम’। आपने सुना होगा ‘मुअजमे-तबरानी कबीर, मुअजमे-तबरानी सग़ीर, मुअजमे-तबरानी औसत, और भी कई मुअजमें हैं। मुअजम से मुराद वे हदीसें हैं जिनमें संकलन करनेवाले मुहद्दिस ने अपने उस्ताद (गुरु) के क्रम से हदीसों को इकट्ठा किया हो। उदाहरणार्थ आप हदीस के विद्यार्थी हैं, आपने दस अलग-अलग शिक्षकों से हदीसें पढ़ीं और उनकी हदीसें आपके पास हैं। अब जब आप उनको किताबी रूप देंगे तो आप सब शिक्षकों की हदीसें अलग-अलग कर देंगे। अध्याय-1 में शिक्षक ‘क’ की हदीसें हैं, अध्याय-2 में शिक्षक ‘ख’ की हदीसें हैं और अध्याय-3 में शिक्षक ‘ग’ की हदीसें हैं। इस प्रकार के क्रम पर आधारित हदीसों के संग्रह को मुअजम कहते हैं। इसमें भी वर्णमाला का क्रम हो सकता है या कोई भी क्रम हो सकता है। मुअजम के नाम से हदीसों की जो किताबें हैं उनमें तबरानी की तीन मुअजमें अधिक प्रसिद्ध हैं। पहले इमाम तबरानी ने मुअजमे-कबीर लिखी। फिर इमाम साहब को ख़याल हुआ कि यह तो बहुत बड़ी है, इसलिए उसकी तल्ख़ीस (संक्षिप्त रूप) की और मुअजमे-सग़ीर लिखी, फिर ख़याल हुआ कि यह तो बहुत छोटी रह गई तो एक मुअजमे-औसत लिखी जो मध्यम प्रकार की है। यह तीनों मुअजमें प्रकाशित रूप में मौजूद हैं और उपलब्ध हैं।

कुछ किताबें ऐसी हैं कि जिनके लेखकों ने यह चाहा कि सिर्फ़ उन हदीसों को इकट्ठा करें जो तमाम मुहद्दिसीन के निकट सहीह हों और जिनमें उसके बयान करने की दृष्टि से कोई घटत-बढ़त न हुई हो। इसपर हम आगे चलकर बात करेंगे।

इस प्रकार की हदीसों को उन्होंने किताबी रूप में संकलित किया, उसका नाम ‘सहीह’ रखा गया। इमाम बुख़ारी की किताब का नाम ‘सहीह’ है, सहीह मुस्लिम ‘सहीह’ कहलाती है, सहीह इब्ने-हिब्बान ‘सहीह’ कहलाती है, सहीह इब्ने-ख़ुज़ैमा ‘सहीह’ कहलाती है। ये वे किताबें हैं जो ‘अस-सहीह’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इमाम बुख़ारी की किताब ‘अल-जामेअ’ भी है। उसमें आठ अध्याय हैं। ‘अस-सहीह’ भी है, क्योंकि उन्होंने सारी हदीसें ‘सहीह’ बयान की हैं और उसमें ऐसी हदीसों को बयान नहीं किया जो सहीह नहीं हैं।

‘सहीह’ से मुराद यह न समझिएगा कि इसका विलोम ‘ग़लत’ है और जो सहीह है वह सही है बाक़ी ग़लत हैं। नहीं, यहाँ ग़लत मुराद नहीं है। ‘सहीह’ एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका एक विशेष अर्थ है। इसपर आगे चलकर बात करेंगे। जो ‘सहीह’ नहीं है, वह अनिवार्यतः ग़लत नहीं है, ग़लत हो भी सकता है, ग़लत नहीं भी हो सकता है।

हदीसों की कुछ किताबें ऐसी हैं जिनको ‘मुस्तदरक’ कहा जाता है। ‘मुस्तदरक’ से मुराद वे हदीसें हैं जिनमें बाद में आनेवाले किसी मुहद्दिस (हदीस के ज्ञाता) ने किसी पूर्व मुहद्दिस की शर्तों को सामने रखकर हदीसों का आकलन किया हो और ऐसी हदीसें जो पिछले मुहद्दिस से रह गई हों, उनको एक जगह किताबी रूप में संकलित कर दिया हो। उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी की ‘अस-सहीह’ है, इमाम मुस्लिम की ‘अस-सहीह’ है। इन दोनों विद्वानों ने यह तय किया कि हम अपनी किताब में केवल वे हदीसें जमा करेंगे जिनकी पूरी सनद (प्रमाण) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक सीधे तौरपर पहुँचती हो, जिसके बीच कोई रिक्तता न हो, जितने रावी (उल्लेखकर्ता) हों वे सारे के सारे अपनी याददाश्त, न्याय और नैतिक मानदंड पर सौ प्रतिशत पूरे उतरते हों। हम उसमें से कोई ऐसी हदीस बयान नहीं करेंगे जो मशहूर हदीसों सुन्नते-मुतवातिरा (पीढ़ियों से चली आ रही रीति) से टकराती हों। इस प्रकार की कुछ और शर्तें उन्होंने अपने सामने रखीं। इमाम बुख़ारी की शर्तों में एक वृद्धि यह भी थी कि केवल उस उल्लेखकर्ता की हदीसें लेंगे जिसकी अपने शिक्षक से भेंट विविधत रूप से साबित हो। ‘सुबूते-लिक़ा’ यानी मुलाक़ात के सुबूत पर नज़र रखी। इमाम मुस्लिम ने लिखा कि सुबूते-लिक़ा ज़रूरी नहीं है, लिक़ा की संभावना ही काफ़ी है। यानी अगर एक मुहद्दिस से हदीस बयान कर रहे हैं, जो उस ज़माने में मौजूद थे और उनके समकालीन थे और उसी जगह थे और इसकी संभवना मौजूद है कि उनकी परस्पर मुलाक़ात हुई हो, लेकिन उनकी यह भेंट हमारी जानकारी में नहीं आई, तो मैं उनकी हदीस को मान लूँगा कि वह सही हदीस है। इसलिए कि वे स्वयं नैतिक आचरण एवं व्यवहार के इतने उच्च स्तर पर हैं कि उनके उल्लेख को स्वीकार न करना अनुचित है।

उदाहरणार्थ इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं इमाम ज़ोहरी से। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) इतने ऊँचे दर्जे के इंसान हैं कि मुझे यह पता लगाने की आवश्यकता नहीं कि इमाम मालिक की इमाम ज़ोहरी से मुलाक़ात हुई थी कि नहीं हुई थी। जब वे बयान करते हैं तो दोनों एक ज़माने में थे। इमाम ज़ोहरी मदीना कई बार आए, हज के लिए आए, मदीना में एक समय तक रहे, इसलिए उसकी सच्चाई का पता लगाए बिना कि उनकी मुलाक़ात सचमुच हुई भी थी कि नहीं हुई थी, मैं उनकी रिवायत (उल्लेख) स्वीकार करूँगा। इसलिए इमाम मुस्लिम ने कहा कि मुलाक़ात की संभावना काफ़ी है, उसका सुबूत ज़रूरी नहीं है। यह थोड़ा-सा अन्तर है, इमाम मुस्लिम और इमाम बुख़ारी की शर्तों और मापदंडों में। इन मापदंडों के आधार पर दोनों ने अपने-अपने संग्रह संकलित किए। इन दोनों विद्वानों के लगभग सौ या सवा सौ वर्ष बाद इमाम हाकिम आए। उन्होंने यह महसूस किया कि विभिन्न किताबों में बहुत-सी ऐसी हदीसें मौजूद हैं, जो इन दोनों मुहद्दिसीन की शर्तों पर पूरी उतरती हैं, लेकिन इन दोनों ने अपनी ‘सहीह’ में उनका उल्लेख नहीं किया, तो उन्होंने एक नया संग्रह उन हदीसों का संकलित किया जो मुस्तदरक कहलाता है। अतः मुस्तदरक से तात्पर्य वह संग्रह है जो किसी पूर्व मुहद्दिस की शर्तों पर पूरी उतरनेवाली हदीसों को बाद में आनेवाले मुहद्दिस ने संकलित किया हो। जिसकी शर्तें पूरी होंगी उसकी मुस्तदरक कहलाएगी। सहीहैन (बुख़ारी, मुस्लिम) की मुस्तदरक, अबू-दाऊद की मुस्तदरक, तिरमिज़ी की मुस्तदरक, इस प्रकार मुस्तदरक के नाम से काफ़ी किताबें मौजूद हैं।

एक किताब कहलाती है ‘मुस्तख़रज’। इसका शाब्दिक अर्थ तो है ‘निकाली हुई’, लेकिन ‘मुस्तख़रज’ से तात्पर्य वह संग्रह है, जिसमें बाद में आनेवाले किसी मुहद्दिस ने किसी पूर्व संग्रह की हदीसों को नई सनद (प्रमाण) से बयान किया हो। उदाहरणार्थ मुवत्ता इमाम मालिक है। इसमें इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) एक हदीस बयान करते हैं कि “मैंने इमाम नाफ़े से सुना, उन्होंने इब्ने-उमर से सुना और उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सुना और फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बयान किया.....” अब बाद में आनेवाला कोई मुहद्दिस यही रिवायत किसी और सनद (प्रमाण) से बयान करे, रिवायत यही हो लेकिन सनद और हो तो मानो यह सनद अधिक पक्की हो जाएगी। बात अधिक विश्वसनीय हो जाएगी कि एक से अधिक सनदों (प्रमाणों) और विभिन्न स्रोतों से एक ही बात आई है, तो बात ज़्यादा सही होगी। यानी पहली किसी हदीस को सुदृढ़ (Reinforce) करने के लिए ‘मुस्तख़रज’ के नाम से किताबें संकलित की गईं जो ‘मुस्तख़रज’ कहलाती हैं।

हदीस की किताबों के बड़े-बड़े और प्रसिद्ध प्रकार यही हैं। और भी कई प्रकार हैं जिनका कोई ज़्यादा महत्व नहीं है। उनमें से एक प्रकार को ‘जुज़’ कहते हैं। ‘जुज़’ का मतलब है, ‘हिस्सा’ (भाग), लेकिन परिभाषा में किसी एक सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीसों, या किसी एक उस्ताज़ (शिक्षक) की हदीसों, या किसी एक विषय पर पाई जानेवाली हदीसों के संग्रह को ‘जुज़’ कहा जाता है। इमाम बुख़ारी की कई किताबें ‘जुज़’ के नाम से मौजूद हैं। कुछ अन्य मुहद्दिसीन ने भी किताबें ‘जुज़’ के नाम से लिखी हैं, जैसे ‘जुज़-ए-हज्जतुल-विदा’, जिसमें हज्जतुल-विदा से संबंधित सारी हदीसें इकट्ठा कर दी गई हैं। इसी प्रकार किसी विषय पर सारी हदीसें एक ही जगह इकट्ठा की जाएँ तो यह संग्रह भी ‘जुज़’ कहलाता है।

एक संग्रह ‘अरबईन’ का है, चालीस हदीसों का संग्रह। बहुत-से मुहद्दिसीन ने ऐसे संग्रह संकलित किए हैं। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि जो मेरी चालीस बातें सुनकर आगे दोहराए उसके लिए बड़ी ख़ुशख़बरी है। इस ख़ुशख़बरी का पात्र बनने के लिए मुहद्दिसीन ने चालीस हदीसों के संग्रह संकलित किए। यह सिलसिला अब भी जारी है और आगे भी चलता रहेगा।

मुहद्दिसीन के प्रकार

इल्मे-हदीस के बाद अब आपको यह बताता हूँ कि मुहद्दिसीन किसे कहते हैं और ये कितने प्रकार के होते हैं। इल्मे-हदीस से जो लोग जुड़े हैं उनमें बड़ी संख्या तो हमारे और आपके जैसे विद्यार्थियों की होती है, जो विद्यार्थी हैं वह तो किसी गिनती में नहीं आते, लेकिन जिनका दर्जा विद्यार्थी से ज़रा आगे बढ़कर है, उनमें सबसे पहला दर्जा ‘मुसनिद’ का होता है। ‘मुसनिद’ का अर्थ है सनद (प्रमाण) बयान करनेवाला। ‘अस-न-द’ का अर्थ है “सनद बयान की” और ‘युसनिदु’ का अर्थ ‘सनद बयान करता है’। अतः मुसनिद यहाँ इस्मे-फ़ाइल (कर्ता) है। ‘मुसनिद’ का अर्थ है ‘सनद बयान करनेवाला’, यानी हदीस का वह गंभीर विद्यार्थी जो सनद के साथ हदीस का अध्ययन करे और सनद और रिजाल (बयान करनेवाले का विवरण) और टेक्स्ट इन सब चीज़ों का गहराई से अध्ययन करने के बाद आगे बयान करे, वह मुसनद कहलाता है। यह सबसे पहला दर्जा है।

उसके बाद दर्जा आता है मुहद्दिस का यानी वह व्यक्ति जिसने इल्मे-हदीस में इतनी निपुणता प्राप्त कर ली हो कि इल्मे-हदीस का अधिकांश भाग उसके ज्ञान एवं अध्ययन और कंठस्थ करने में महफ़ूज़ हो, वह मुहद्दिस कहलाता है।

इसके बाद ‘हाफ़िज़’ कहलाता है। क़ुरआन के हाफ़िज़ (कंठस्थ करनेवाले) को भी हम लोग ‘हाफ़िज़’ कहते हैं। लेकिन यहाँ हाफ़िज़ से मुराद इल्मे-हदीस की एक शब्दावली है जो हदीस के बड़े-बड़े इमामों के लिए प्रयुक्त होती थी। आपके अन्दाज़े के लिए यह कहना है कि एक ज़माने में हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी गुज़रे हैं, जिनसे बड़ा मुहद्दिस उनके बाद कोई पैदा नहीं हुआ, उनको आज तक हाफ़िज़ इब्ने-हजर कहा जाता है। शैख़ुल-इस्लाम अल्लामा इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाह अलैह) एक ज़माने तक हाफ़िज़ इब्ने-तैमिया कहलाते थे। अल्लामा इब्ने-क़य्यिम आज भी हाफ़िज़ इब्ने-क़य्यिम कहलाते हैं। इस दर्जे के लोग जैसे इब्ने-तैमिया, इब्ने-क़य्यिम और इब्ने-हजर थे, वे लोग हाफ़िज़ कहलाते हैं। वे लोग जो इल्मे-हदीस के संग्रहों को अपनी याददाश्त में सुरक्षित किए हुए हों और इल्मे-हदीस के ज्ञान और कला उनकी याददाश्त में सुरक्षित हों और इल्मे-हदीस का कोई पहलू उनके अध्ययन से बाहर न हो वे पारिभाषिक रूप से हाफ़िज़ कहलाते हैं।

उसके बाद दर्जा आता है ‘अल-हुज्जा’ का। अल-हुज्जा से विभिन्न लोगों ने विभिन्न अर्थ लिए हैं। किसी ने कहा कि जिसको तीन लाख हदीसें याद हों वह ‘अल-हुज्जा’ कहलाता है। किसी ने कहा कि जिसको पाँच लाख हदीसें याद हों वह ‘अल-हुज्जा’ है। बहरहाल हदीसों की यह संख्या लाखों में है। इसके बाद दर्जा आता है ‘अल-हाकिम’ का, अल-हाकिम से तात्पर्य वह है जिसको सारी उपलब्ध हदीसें कंठस्थ हों। जो भी हदीस का संग्रह उस समय मौजूद है, वह सनदों (प्रमाणों) के साथ उसको ज़बानी याद हो तो वे अल-हाकिम कहलाता है। इन सब दर्जे के बाद जो सबसे ऊँचा दर्जा है, वह ‘अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस’ कहलाता है। मुसलमानों ने जिन बुज़ुर्गों को ‘अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस’ की उपाधि दी, उनमें हज़रत सुफ़ियान सौरी, जिनका उल्लेख हो चुका है, अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक, वह इस दर्जे के इंसान थे कि एक-एक समय में लाखों इंसान उनसे शिक्षा लेने के आया करते थे। एक बार उनसे हदीस सुनने के लिए लोग जब इकट्ठा हुए तो हदीस के दौरान उनको छींक आ गई। उनके हज़ारों शिष्यों ने जब एक साथ एक आवाज़ में ‘यरहमुकल्लाह’ (अल्लाह आपपर रहम करे) कहा तो इससे इतना शोर पैदा हुआ कि लोग यह समझे कि बग़दाद में शायद दंगा हो गया और पुलिस चौकस हो गई कि क्या घटना घट गई। बाद में पता चला कि अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) को छींक आई थी, तो उनके शिष्यों ने ‘यरहमुकल्लाह’ कहा था, यह उसका शोर है। अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक की महफ़िल में शिरकत करनेवाले एक व्यक्ति ने बयान किया कि अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) जब हदीस बयान कर रहे थे और लोग लिख रहे थे तो एक-एक दवात को आठ-आठ, दस-दस व्यक्ति प्रयोग करते थे। इसके बावजूद दवातों की कुल संख्या 63 हज़ार थी। एक बार ऐसे ही अवसर पर क़रीब के एक कुएँ का पानी सूख गया था, क्योंकि अपनी दवात में ताज़ा पाने डालनेवाले इतने अधिक थे कि लोगों के बार-बार पानी लेने से कुआँ सूख गया। दवात में कितना पानी पड़ता है? एक छोटे बरतन से पच्चीस दवातें तर हो सकती हैं और वहाँ दवात में पानी लेनेवालों के कारण कुएँ का पानी सूख गया था। यह अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) भी अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस कहलाते थे।

इमाम अहमद-बिन-हंबल (रहमतुल्लाह अलैह) भी अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस कहलाते हैं। इमाम बुख़ारी और मुस्लिम इन दोनों का लक़ब (उपाधि) भी अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस था। इससे अनुमान हो जाएगा कि किस स्तर के इंसान को अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस कहा गया। बाद में इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) शायद आख़िरी आदमी हैं जिनको इस सिलसिले में यह लक़ब (उपाधि) दिया गया। उनके बाद किसी और मुहद्दिस को संभवतः ऐसी उपाधि नहीं मिली है, सिवाय इब्ने-हजर अस्क़लानी  (रहमतुल्लाह अलैह) के जिनको इल्मे-हदीस के इतिहास में अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस का लक़ब दिया गया हो। हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी किस दर्जे के इंसान हैं, इसका केवल इस बात से अनुमान लगाइए कि इब्ने-ख़लदून ने लिखा है कि सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम इन दोनों में अधिक अच्छी किताब कौन-सी है। सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम की तुलना पर भी बात करेंगे, लेकिन इसने यह साबित किया कि मुसलमानों का स्पष्ट और भारी बहुमत सहीह बुख़ारी को पवित्र क़ुरआन के बाद सबसे सहीह किताब मानता है। लेकिन इब्ने-ख़लदून ने यह लिखा है कि अभी तक मुसलमानों ने सहीह बुख़ारी की व्याख्या का हक़ अदा नहीं किया। जिस उत्तम श्रेणी की यह किताब है, उस स्तर की कोई व्याख्या इस किताब की नहीं लिखी गई और यह मुसलमानों के ज़िम्मे अभी तक ऋण है। यह ऋण चुकाया नहीं गया है। जब हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रहमतुल्लाह अलैह) ने बुख़ारी की व्याख्या में ‘फ़त्हुल-बारी’ लिखी तो मुस्लिम समाज ने सर्वसम्मति से कहा कि हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने वह हक़ अदा कर दिया जो उम्मत (मुस्लिम समुदाय) के ज़िम्मे था।

एक हदीस है ‘ला हिज्र-त बअदल-फ़त्ह’ यानी ‘फ़त्ह (मक्का की विजय) के बाद हिजरत की ज़रूरत नहीं रही। जब फ़त्हुल-बारी लिखी गई तो लोगों ने कहा कि ‘ला हिज्र-त बअदल-फ़त्ह’ यानी अब शरहे-हदीस के लिए घर-बार छोड़ने की ज़रूरत नहीं, अब फ़त्हुल-बारी लिखी जा चुकी है।

यहाँ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ, अगर कोई सवाल है तो उसका जवाब देने की कोशिश करूँगा।

प्रश्न : बुरी सुन्नत या बुरी रीति निकालना ग़लत है। यह समझाइए कि क्या अच्छी सुन्नत जारी करना क्या सुन्नत से बढ़कर या बिदअत से अलग है?

उत्तर : पहले यह समझ लें कि बिदअत किसको कहते हैं? हम जिन मामलों में शरीअत के मार्गदर्शन में काम करते हैं, वे तीन मौलिक चीज़ें हैं। एक मैदान अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) का है। ये वे मूल सिद्धांत हैं जिनका मानना हम सबके लिए अनिवार्य है, यानी जिन चीज़ों का मानना ज़रूरी है, उनको ‘अक़ीदा’ कहते हैं। एक मैदान इबादतों का है, जिसमें सर्वोच्च अल्लाह की इबादत (उपासना) की जाती है। नमाज़, रोज़ा, हज, क़ुरआन की तिलावत (पाठ), नवाफ़िल (ऐच्छिक इबादत), सदक़ा (दान) आदि। एक मैदान व्यवहार का है, जिसे हर इंसान करता है, चाहे वह मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम। खाना-पीना, सवारी करना, कपड़े पहनना, व्यापार करना आदि। जहाँ तक ‘बिदअत’ की बात है तो उसका संबंध पहली दो चीज़ों से है। व्यवहार या आदतों में बिदअत नहीं होती। अगर इस्लाम के अक़ीदों में आज मैं कोई ऐसा अक़ीदा निकाल लूँ या कोई व्यक्ति निकाल ले जिसकी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शिक्षा नहीं दी, या अल्लाह के रसूल की शिक्षा के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत नहीं है, वह बिदअत है। अल्लाह की इबादत करने का का कोई ऐसा तरीक़ा अगर कोई ईजाद कर लिया जाए जिसकी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शिक्षा नहीं दी या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सिखाए हुए तरीक़े के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत न हो वह ‘बिदअत’ है।

उदाहरण के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई संस्था नहीं बनाई था। इस प्रकार के डेस्क नहीं लगाए थे, जिस प्रकार के आपने लगाए हैं। लेकिन इनमें से कोई चीज़ बिदअत नहीं है। इसलिए कि यह चीज़ दीन (धर्म) की शिक्षा के लिए आजकल के वातावरण और समय में लाभकारी या ज़रूरी है। जो चीज़ साधन-संसाधन प्रकार की हो और दीन की सेवा के लिए ज़रूरी या लाभकारी हो वह बिदअत नहीं है। जिसकी आवश्यकता न हो और जिसकी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शिक्षा न दी हो, लेकिन इबादत और अक़ीदों से संबंध हो, वह बिदअत है। जो चीज़ हराम नहीं है, वह आपके लिए बिल्कुल जायज़ है, आप जितनी मर्ज़ी हो उस मैदान में नई-नई चीज़ें ला सकते हैं। मकान बनाने के नए-नए तरीक़े ईजाद करें। व्यापार करने के नए-नए तरीक़े खोजें। कपड़ा अच्छे से अच्छा बनवाएँ, घर को अच्छे से अच्छे तरीक़े पर सजाएँ। अगर वह हराम (निषिद्ध) चीज़ नहीं है तो जायज़ है। घर में सोने के बरतन न रखें, बाक़ी अच्छे से अच्छे बरतन रखना जायज़ है। पुरुषों के लिए रेशमी कपड़े के अलावा अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनना जायज़ है। पुरुष सोने के ज़ेवर न पहने, रेशम का उपयोग न करे, किसी के धार्मिक प्रतीकों का अनुपालन न करे, इसके अलावा हर चीज़ जायज़ है। यानी व्यवहार में केवल हराम-हलाल की सीमाएँ हैं। जो हराम है उससे बचें, बाक़ी हलाल चीज़ें जितनी मर्ज़ी इस्तेमाल करें।

लेकिन अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) और इबादतों (पूजा पद्धिति) के मामले में केवल उस हद तक रहें, जिस हद तक अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और शरीअत (इस्लामी धर्म-विधान) ने अनुमति दी है। इससे आगे जाना वहाँ जायज़ है जहाँ जाना इस्लाम की शिक्षाओं को व्यवहार में लाने के लिए बहुत ज़रूरी हो जाए। जैसे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज करने की शिक्षा दी, हज फ़र्ज़ (अनिवार्य) भी है। लेकिन हज के लिए अगर आप जाना चाहें तो आज वीज़ा लेना अनिवार्य है, बिना वीज़ा के आप हज पर नहीं जा सकते। वीज़ा के लिए पासपोर्ट ज़रूरी है, पासपोर्ट के लिए तसवीर खिंचवाना ज़रूरी है। तो ये चीज़ें अस्थायी रूप से ज़रूरी हो जाएँगी। इसलिए कि इन चीज़ों के बिना हज की इबादत नहीं हो सकती। अगर इन सबके बिना हज के आदेश का पालन हो सके तो फिर न पासपोर्ट ज़रुरी होगा, न तसवीर खिंचवाना न वीज़ा लेना। ये चीज़ें बिदअत नहीं कहलाएँगी। हालाँकि ये चीज़ें इबादत से संबंध रखती हैं, लेकिन बिदअत नहीं हैं, इसलिए कि इबादत के लिए अनिवार्य हैं। अक़ीदों और इबादतों से संबंधित जो चीज़ न अनिवार्य हो, न नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसकी शिक्षा दी हो, वह बिदअत है। जैसे अगर मैं आपसे कहूँ कि कल आप साढ़े नौ बजे खड़े होकर छः रकअत नमाज़ पढ़ें जमाअत के साथ, प्रतिदिन पहली रकअत में अमुक सूरा पढ़ें, दूसरी रकअत में अमुक सूरा पढ़ें और सजदे में यह दुआ करें और ऐसा करना सबके लिए अनिवार्य है, तो यह बिदअत हो जाएगी, इसलिए कि मुझे ऐसा कोई हक़ नहीं है कि आपको किसी ख़ास नमाज़ की नसीहत करूँ, जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नहीं सिखाई। या मैं कहूँ कि चूँकि मैं 18 सितम्बर को पैदा हुआ था, इसलिए आप मेरे जन्म की ख़ुशी में 18 सितम्बर का रोज़ा रखा करें। यह बिदअत है, इसलिए कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसे किसी रोज़े की शिक्षा नहीं दी।

प्रश्न : समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो हदीस को नहीं मानते। आम तौर से लोग उनसे प्रभावित भी दिखाई देते हैं, एक सीधा-सादा आम आदमी इस प्रोपेगंडे से किस तरह बच सकता है?

उत्तर : इस तरह बच सकता है कि लोगों को हदीस की शिक्षा दी जाए, जैसे कि आप यह शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। लोगों तक इल्मे-हदीस का संग्रह और मार्गदर्शन पहुँचाया जाए।

प्रश्न : जिन लोगों का यह कहना है कि ‘हम सुन्नत को सही मानें तो हम (अल्लाह माफ़ करे) अल्लाह को झूठा कह रहे हैं। अल्लाह कहता है कि मैंने खोल-खोलकर बयान कर दिया है और लोग नमाज़ का तरीक़ा हदीस से साबित करते हैं।’

उत्तर : अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बात कही थी। बात बड़ी ज़बरदस्त है और बहुत-से मामलों पर फ़िट बैठती है। जब ख़वारिज ने उनके ख़िलाफ़ विद्रोह की घोषणा कर दी, तो यह कहा कि क़ुरआन में आया है ‘फ़ैसला करने का अधिकार केवल अल्लाह को है’। इसके जवाब में अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने कहा कि “यह बात तो बिल्कुल सही है, लेकिन इससे मुराद (बातिल) असत्य है।” यानी निर्णय केवल अल्लाह के आदेशानुसार किया जाए, असत्य अवधारणाओं एवं विचारधाराओं के अनुसार नहीं। यह बात सही है कि क़ुरआन में हर चीज़ खोल-खोलकर बता दी गई है, लेकिन इससे मुराद सिद्धांत हैं, न कि व्यावहारिक विवरण। इसलिए कि क़ुरआन कोई मात्र वैचारिक किताब नहीं है कि किसी शून्य में अवतरित हुई हो, बल्कि क़ुरआन एक मार्गदर्शन और जीवन ग़ुज़ारने के सिद्धांत बतानेवाली किताब है, जिसके साथ इसका पढ़ानेवाला भी भेजा गया था, ख़ुद क़ुरआन में यह लिखा हुआ है। क़ुरआन में है कि “तुमपर जो कुछ अवतरित किया गया उसे लोगों के सामने स्पषट रूप से बयान कर दो।” यहाँ स्पष्ट रूप से बयान करने का अर्थ अगर उन्हीं आदेशों को दोहरा देना भर है, जो क़ुरआन में अवतरित हुए तो यह एक व्यर्थ का कार्य है, जिसके लिए किसी पैग़म्बर को भेजने की आवश्यकता नहीं है। “स्पष्ट रूप से बयान करने” से क्या तात्पर्य था? अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) केवल आयतों को दोहरा देते तो कोई फ़ायदा नहीं था, क्योंकि सुननेवाला किसी से भी सुन सकता था। लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को आदेश दिया गया कि वे उसका अर्थ भी स्पष्ट करें, और इसी का नाम सुन्नत है। ख़ुद क़ुरआन में यह भी कहा गया है कि “वह (नबी) उस (क़ुरआन) की आयतें पढ़कर सुनाता है, लोगों का तज़किया करता है (यानी उनका आन्तिरक सुधार करता है) और उन्हें किताब (क़ुरआन) और हिकमत (तत्वदर्शिता) की तालीम (शिक्षा) देता है।” तो ये बाक़ी तीन चीज़ें हैं जो इनमें शामिल हैं। जो लोग क़ुरआन को बिना व्याख्या के काफ़ी समझते हैं, वे बताएँ कि फिर यह ‘तज़किया’ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे करते थे? कोई निर्देश देते थे? ज़बान से कुछ कहते थे या चुप रहते थे? क़ुरआन में इस ‘तज़किया’ की व्याख्या है या नहीं? और किताब की ‘तालीम’ (शिक्षा) क्या है? वह आयतों को पढ़ने से अलग चीज़ है, और इसका मतलब क़ुरआन की व्याख्या है, जो हदीस में आई है। रही ‘हिकमत’ (तत्वदर्शिता) तो यह व्याख्या से भी अलग चीज़ है। इस तरह हम कह सकते हैं कि क़ुरआन में ख़ुद बहुत-सी आयतें ऐसी हैं जिनसे सुन्नत का क़ुरआन की व्याख्या करना साबित होता है। जो लोग एक आयत लेकर बाक़ी का इनकार करते हैं, वे वास्तव में क़ुरआन के माननेवाले भी नहीं हैं। क़ुरआन की मनमानी व्याख्या करना बड़ा आसान है, लेकिन सुन्नत इस काम में रुकावट बन जाती है, इसलिए सुन्नत का इनकार करते हैं।

प्रश्न : फ़िक़्ही क्रम से क्या तात्पर्य है

उत्तर : फ़िक़्ह (इस्लामी धर्मशास्त्र) की किताबों में विषयों को क्रमबद्ध करने का एक विशेष ढंग होता है। सबसे पहले उसमें तहारत (पवित्र होने) के आदेश आते हैं। फिर नमाज़ के निर्देश होते हैं, फिर ज़कात और रोज़े (व्रत) के निर्देश होते हैं, फिर हज के निर्देश होते हैं। फिर निकाह-तलाक़ के निर्देश होते हैं। फिर विरासत, व्यवहार और क्रय-विक्रय, लेन-देन, यह क्रम फ़िक़्ह की सब किताबों में प्रचलित है और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के समय से प्रचलित है। हदीस की वे किताबें जो इस क्रम से हों जिनमें सबसे पहले तहारत, नमाज़, रोज़े के निर्देश हों, ‘सुनन’ कहलाती हैं, जिनमें यह क्रम न हो, वे सुनन नहीं कहला सकतीं। जैसे कि बुख़ारी में यह क्रम नहीं है। सहीह बुख़ारी में जो पहला अध्याय है वह है ‘अल्लाह के रसूल पर वही का आरंभ कैसे हुआ”। उसके बाद ‘ईमान’ का अध्याय है, फिर ‘इल्म’ का अध्याय है। सुनने-इब्ने-माजा में पहले ‘इल्म’ का अध्याय है, फिर बाक़ी उपर्युक्त अध्याय आए हैं। हर मुहद्दिस का क्रम अलग-अलग है।

 

हदीस लेक्चर 1: इल्मे-हदीस - एक परिचय

 

 

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